दादू ग्रंथावली
संपादक
डॉ. बलदेव वंशी
प्रकाशन संस्थान
नयी दिल्ली-110002
प्रकाशक
प्रकाशन संस्थान
4715/21, दयानन्द मार्ग, दरियागंज
नयी दिल्ली-110 002
मूल्य : 500.00 रुपये
प्रथम संस्करण : सन् 2005
ISBN 81-7714-199-6
आवरण : जगमोहन सिंह रावत
शब्द-संयोजन : कम्प्यूटेक सिस्टम, दिल्ली-110032
मुद्रक : बी. के. ऑफसेट, दिल्ली-110032
वर्तमान दादूपीठाचार्य
श्री गोपालदास जी महाराज को सादर समर्पित
दो शब्द
।। श्री दादू दयालवे नम:।।
दिनांक 11 मई, 2005
डॉ‑ श्री बलदेवजी वंशी,
महानिदेशक, अखिल भारतीय श्री दादू सेवक समाज,
नयी दिल्ली।
सादर सत्यराम!
हमें यह जानकर हार्दिक प्रसन्नता हुई कि श्री दादू ग्रंथावली का प्रकाशन किया जा रहा है। इस पुनीत कार्य के लिए आप सभी सज्जन जो इस कार्य से परोक्ष एवं अपरोक्ष रूप से जुड़े हुए हैं, अभिनन्दनीय हैं।
आज का युग भौतिकता का युग है। इस भौतिक युग में काम, क्रोध, मद, लोभ आदि आसुरी तमोगुणों का सर्वत्रा प्राबल्य परिलक्षित हो रहा है एवं दैवी गुणों दया, करुणा, अहिंसा, प्रेम, सत्य आदि का तीव्र गति से क्षरण हो रहा है। परिणामस्वरूप भौतिक सुखों की मृगमरीचिका के पीछे दौड़ने के कारण मानव अपनी मानसिक शान्ति खोता जा रहा है। आज विश्व का वातावरण इतना प्रदूषित हो गया है कि जिससे सर्वत्रा अशान्ति, भय, विद्वेष एवं पारस्परिक संघर्ष का ऐसा जाल फैलता जा रहा है कि इससे निस्तार का कोई मार्ग दिखाई नहीं देता।
विज्ञान की विनाशकारी एवं संहारक उपलब्धियों ने विश्व को विनाश के उस अन्तिम छोर तक पहुँचा दिया है जहाँ मानवता अश्रुपात करती हुई दिखाई दे रही है। आज मानव दानव हो गया है। मानवता विलुप्त होती जा रही है। आज पाशविक शक्तियों का ताण्डव नृत्य सर्वत्रा दिखाई दे रहा है। ऐसे अशान्त एवं भयंकर वातावरण में भयाक्रान्त मानवता के परित्रााण का एक ही उपाय है-त्यागी-तपस्वी सन्त-महात्माओं की वाणी का निरन्तर स्वाध्याय एवं अनुशीलन। सन्तों एवं शास्त्राों ने मानव मन की आत्मिक शान्ति के लिए दो ही स्थानों का प्रतिपादन किया है-आर्ष ग्रन्थों, रामायण एवं श्रीमद्भगवद्गीता तथा सन्तों की अनुभव वाणी। हमारे आर्ष ग्रन्थ यथा श्रीमद्भगवद् गीता की गूढ़ रहस्यात्मकता सर्वसाधारण मनुष्य के लिए बोधगम्य नहीं है। ऐसी स्थिति में रामायण, भगवद्गीता आदि ग्रन्थों के गूढ़ रहस्यों के अपने अनुभवों को सीधी-सरल एवं सुबोध भाषा में प्रकट करने वाले सन्तों की अमृतमयी वाणी ही इस भयावह विपत्तिा से निस्तार पाने का एकमात्रा उपाय है। सन्तों की वाणी का अवलम्बन प्राप्त कर जीवनयापन वाले मानव, मानसिक शान्ति प्राप्त कर सकते हैं। सन्त कबीर, रविदास, नामदेव, नानक, सूर, तुलसी, मीरा आदि महान् भक्त सन्तों की वाणी से करोड़ों लोगों ने शान्ति प्राप्त की है और अनेक लोग उस दिशा में अग्रसर हो रहे हैं। इसी शृंखला में निरंजन निराकार ब्रह्म के परमोपासक ब्रह्मर्षि श्री दादू दयाल जी महाराज की अनुभव वाणी ने यह स्पष्ट कर दिया है कि-
भौतिक सुखों की प्राप्ति से ही मानव मन को आत्मिक शान्ति नहीं मिलेगी जब तक हम आध्यात्मिकता का आश्रय ग्रहण नहीं करेंगे। सबसे बड़ा धर्म मानवता एवं परोपकार है। मानवता से बड़ा कोई धर्म नहीं। सभी सन्त एवं सद्ग्रन्थ एक स्वर से उद्धोषणा करते हैं कि-
1. अष्टादस पुराणेषु व्यास्य वचनम् द्वय।
परोपकाराय पुण्याय, पापाय परपीडनम्॥ -वेद व्यास
2. हरि भज साफिल जीवना परोपकार समाय।
दादू मरणा तहाँ भला जहँ पशु पंखी खाय।। -दादू दयाल
3. निर्बल को ना सताइये, जाकी मोटी आह।
मरे बैल की चाम से, लौह भस्म हो जाए॥ -कबीर
मानव-मानव एवं प्राणीमात्रा के आत्मकल्याण, सद्भावना एवं भवसागर से जीवन नैया को पार लगाने वाली कतिपय साखियों के माध्यम से सन्तप्रवर दादू दयाल दिग्भ्रमित मानव का मार्गदर्शन करते हैं-
1. तन मन निर्मल आतमा, सब काहू की होय।
दादू विषय विकार की बात न बूझे कोय॥
2. आतम भाई जीव सब, एक पेट परिवार।
दादू मूल बिचारिये, दूजा कौन गँवार॥
3. राम नाम निज औषधी, काटहि कोटि विकार।
विषम व्याधि से ऊबरे, काया कंचर सार॥
अंत में हम श्री दादू ग्रंथावली पुस्तक प्रकाशन के सद्कार्य के लिए अपनी हार्दिक शुभकामनाएँ एवं आशीर्वाद प्रेषित करते हुए हमारे परमोपास्य इष्टदेव श्री दादू दयाल महाराज एवं मेरे गुरुदेव एवं पूर्वाचार्य श्री श्री 1008 श्री हरिरामजी महाराज का पुण्य स्मरण करते हुए आपके इस सद्कार्य सफलता के लिए इन महान् सन्तों से आत्मनिवेदन करता हूँ। आशा है यह ग्रन्थ न केवल विद्वानों एवं मनीषियों के लिए अपितु दादू समाज, दादू सेवक वर्ग तथा मानव मात्रा के आत्मकल्याण की दृष्टि से अनुपम ग्रन्थ सिध्द होगा।
पुनश्च एक बार आप सभी बन्धुओं आप परिजनों के सुख-शान्ति, सुस्वास्थ्य, यश, वैभव एवं शान्ति की मंगलकामना करते हुए मैं अपनी वाणी को विराम देता हूँ। हरि ¬ तत् सत्! हरि ¬ तत् सत्!! हरि ¬ तत सत्!!!
-वर्तमान पीठाधीश्वर श्री श्री 1008 महंत गोपालदास जी महाराज
भूमिका
भारतीय अध्यात्म, इन्द्रियों के माध्यम से प्राप्त ज्ञान-अनुभव नहीं है। यह सीधा, इन्द्रियातीत अनुभव है, जिसे स्वानुभूति कह सकते हैं। इसमें ज्ञान प्राप्त करने की सारी प्रक्रिया निष्काम-अनप्रयुक्त रह जाती है। परम तत्तव की तथा परमज्ञान की इस प्रक्रिया में वस्तुपरकता का अतिक्रमण होता है। भारतीय अध्यात्म अनुभव पराऐन्द्रिक धरातल पर घटित होता है, जबकि पश्चिमोन्मुख आधुनिक सोच, प्रकृति-विज्ञान या मानव-ज्ञानार्जित अनुभव प्रणालियों के धरातल से प्राय: आगे नहीं बढ़ता। भारतीय सन्तों ने अपनी 'अनुभव वाणी' को ऐन्द्रिक अनुभवों के आधार पर अर्जित नहीं किया अपितु पराऐन्द्रिकता के धरातल पर स्वानुभूति के रूप में उपलब्ध कियाहै।
कुछ आधुनिक चिन्तकों-विद्वानों का मानना है कि चरम सत्य की प्राप्ति, जो कि बुध्दि की पहुँच से बाहर है, यह अतीत की उस समय की अवधारणा है, जब बौध्दिक विकास की वर्तमान जैसी, विकसित वैज्ञानिक तर्कनायुक्त सोच उपलब्ध नहीं थी। किन्तु वे इस तथ्य को भूल जाते हैं कि वैज्ञानिक सोच की, भौतिक, वैचारिक सोच की बुलन्दियों, भारतीय चिन्तन-दर्शन पहले ही, पिछले गये युगों में पार कर आया था। और परा-लोक की, चिन्तन के सर्वोच्च शिखरों की मानवीय क्षमताओं की ध्वजाएँ वैदिक युग में ही फहरा दी गयी थीं। जहाँ ओम् और गायत्राी के जाप की सिध्दियाँ ब्रह्माण्डीय ज्ञान, खगोलीय गणनाओं और देशकाल की संवेदनीय चरम उपलब्धियों के चिद्द स्थापित हैं, वहाँ तक का सारा विज्ञान वर्तमान के लिए आधार-प्रस्थान-उड़ान का मंच बना है। साथ ही भव-भाव- भावना- सम्भावना का महासूत्रा आज भी दिशासूचक की भाँति मार्ग दिखा रहा है। समूचा जल तत्तव, जिस अनुपात में धरती में विद्यमान है, उसी अनुपात में मनुष्य की देह में भी है, जिसकी केन्द्रीय धुरी मनुष्य का हृदय-स्थल है। इसी स्थल पर धमक होने पर भव-से भाव जगते हैं। रस-सिध्दान्त भी और अनुभव जगत् भी इसी से सम्बध्द है। अत: सन्तों की वाणी इसी अनुभव का सुफल है। इसी से भारतीय एवं पाश्चात्य काव्य में मूल अन्तर भी है-भारतीय काव्य हृदयोदभूत है-भावानुप्रेरित है और पाश्चात्य काव्य बौध्दिकता-वैचारिकता प्रसूत है।
सन्त का पूरा जीवन ही एक लम्बी प्रार्थना होती है। वह स्वयं के देखे को, आत्मसाक्षात्कार एवं अनुभव को ही प्रमाण मानता है। यह अनुभूति ही परम-आत्मा है। 'पुहुप बास ते पातरा' (कबीर) है परमात्मा का रूप। इस सूक्ष्म, ब्रह्माण्ड में जल-तत्तव की भाँति पूरित, ब्रह्मचेतना को स्वयं देखता भी है और सबको दिखाता भी है। उसका मार्ग अति कठिन है। दुर्गम ही नहीं, अगम है। सन्त बड़ी दुर्ध्दर्ष चेतना के दु:साहसी, विपरीत धारा के तैराक होते हैं। युगों की अन्धकार-काराओं को अन्तर के प्रकाश से आलोकित करने वाले प्रकाश-स्तम्भ हैं। मरजीवड़े हैं। मृत्यु के मुख से अमरता की मणि को जबरन निकालकर अपनी शिरोमण्0श्निा बना लेते हैं। अत: वे क्रान्ति नहीं, क्रान्ति को अति-क्रान्त करके संक्रान्ति लाते हैं। जीवन-जगत् के बाहरी (भौतिक) स्तरों पर घटित होने वाले परिवर्तन क्रान्ति कहलाते हैं, तो देह-मन-आत्मा (चेतना) के स्तरों पर होने वाले महापरिवर्तन संक्रान्ति कहलाते हैं। सार्वभौम कल्याणी, लाखों वर्षों की अथक चेतना-यात्राा में उपलब्ध संवेदनीय ज्ञान (वैदिक चेतना) के बोध-मंच पर खड़े होकर पुन: जागृति-समता-ममता लाने के प्रयास रहे हैं मध्ययुगीन सन्तों के, जो मात्रा भौतिकता, तमिòा की अन्धी नींद में सोये हुए मानव को झकझोरकर पुन: जगाना चाहते हैं। मानव-अस्तित्व के तीनों स्तरों पर संक्रान्ति का आह्नान कर रहे हैं। क्योंकि मनुष्य को ही, इस जगत् में तीन जीवन स्तर-तीन अस्तित्व उपलब्ध हैं। इसी आशय से ओंकार भी भीतर-बाहर तीनों को झंकृत करता है। दादू का कथन है-
जाग
रे सब रैन
बिहाणी, जाए
जनम अंजलि का
पाणि।
घड़ि-घड़ि
घड़ियाल बजावे, जे
दिन जादू सो
बहुरि न आवै॥
दादू मानव-जागरण के लिए सीधे ही उद्बोधन कर रहे हैं। मनुष्य सभ्यता के इतिहास की रात बीत चुकी है। जीवन-जन्म ऐसे रीत रहा है जैसे ऍंजुरी में से सहेजा हुआ जल रिस-रिसकर रीत जाता है। किन्तु ऐ भले मानुष तू किस पुरातन भ्रम में आज भी मन्दिर में घण्टे-घड़ियाल बजा-बजाकर सोए हुए भगवान को जगा रहा है और स्वयं तमिòा की, भौतिकता-जड़ता की नींद में डूबा-सोया हुआ है। जबकि परम-आत्मा तुम्हारी अपनी ही देह में स्थित है, जिसे तुम अपने से बाहर मानकर तरह-तरह से पूजते फिर रहे हो। और उस अन्तर्यामी परमात्मा की आरती एवं पूजादि भी अपनी देह के भीतर ही करनी चाहिए। हमारा सतगुरु भी हमारे भीतर ही है उसकी पूजा-अर्चना भी भीतर ही सम्भव है। इस तथ्य को, सत्य को कोई-कोई विरला व्यक्ति ही समझता है, जो जागृत है-
पूजण हारे पास है, देही माहै देवं।
दादू ताकूं छाड़ि करि, बाहरि मांडी सेवं॥
दादू माहैं कीजै आरती, माहैं पूजा होइ
माहै सतगुर सेविए, बूझै बिरला कोई॥
यह तथ्य भी हम भारतीयों ने आज भुला दिया है कि चार युगों की अवधारणा भी कालान्तराल में ही नहीं बोध-स्तरों पर समझकर मनुष्य-जाति अपना और विश्व-परिवेश का उध्दार कर सकती है-
कलि
श्यानों भवति
संजिहानस्तु
द्वापर:।
उतिष्ठंस्त्रोता
भवति कृतं
संपद्यते
चरन॥
चरैवेति।
चरैवेति।
-(ऐतरेय ब्राह्मण)
अर्थात् कलयुग का अर्थ है सोए होना। जग जाना द्वापर है। उठकर खड़े हो जाना त्रोता है। और चल देना कृतयुग-सतयुग है। अत: व्यक्ति, देश जाति को जागृत होकर चलते रहना चाहिए। मनुष्य का सृष्टि के साथ सम्बन्ध और सरोकार इससे अधिक सटीक अर्थों में और कैसे सम्भव हो सकता है-
हरि
भज साफल जीवणा, पर
उपकार समाए।
दादू
मरणा तहां भला, जहां
पशु पक्षी खए॥
जीने की सार्थकता-सफलता हरि के भजन और परोपकार-भाव में समाहित हो जाने में है। पर मात्रा इतना ही नहीं; इससे भी आगे जीवण तभी सफल-सार्थक माना जा सकता है जबकि मनुष्य की मृतक-देह भी-शव भी, काम का सिध्द हो। उस मृतक-देह को भी पशु-पक्षी खाकर अपनी भूख शान्त कर सकें। भूख की अग्नि भी बड़ा सत्य है। इसे भी अनदेखा नहीं किया जा सकता। बल्कि सन्तों और अध्यात्म-पुरुषों ने जठराग्नि अर्थात् पेट की आग को इसलिए महत्तवपूर्ण माना क्योंकि भूख का यथार्थ, किसी भी काल में, किसी भी देश या जाति का आधारभूत यथार्थ होता है। अपवादों को, महानता के-सिध्दि के आयामों को छोड़कर यथार्थ, सामान्य जीवन का यही सत्य है। तो उसी यथार्थ को दादू यहाँ हमारे सामने रखते हुए कहते हैं कि पशु-पक्षियों तक के काम यदि हमारा शव आता है-तो वही मरना भला है। सार्थक है।
मृत्यु यदि बड़ा यथार्थ है तो जीवन, अस्तित्व उससे भी बड़ा यथार्थ है। सन्त दादू दयाल ने इस अस्तित्व की रक्षा, सँभाल और धरती पर विचरते सभी जीवों के सतत प्रवह को कायम रखने के चिन्तन को तथा मानव के भाई-भाई होने के सद् विचार को आगे बढ़ाया है। उनका प्रसिध्द कथन है-
आपा
मेटे हरि भजै
तन मन तजै
विकार।
निर्वैरी
सब जीव सूं, दादू
यहु मत सार॥
सब जीवों से निर्वैरता अर्थात् मैत्राीभाव रखना भी उनके सिध्दान्तों की नींव है। आपा अर्थात् अहंकारभाव और तन तथा मन के विकारों को दूर करना ही पर्याप्त नहीं है, जीव-मात्रा के प्रति शत्राुभाव का त्याग करके मैत्राी और स्नेह भाव धारण करने की सीख दादू दयाल ने दी है। यही कारण है कि धर्म-पूजा पध्दति की स्थूलर्-मूत्ता परिपाटियों को उन्होंने त्याग दिया और निराकार, सार्वभौम, अणु-अणु में व्याप्त, निर्गुण ब्रह्म, अल्लाह, ईश्वर की सर्वव्यापकता का सन्देश दिया। इससे प्र्रभावित होकर उनके अनुयायियों की संख्या तेजी से बढ़ी। उनमें हिन्दू और मुसलमान-दोनों सम्प्रदायों के लोग थे। सभी प्रान्तों, वर्गों के लोगों को शान्ति, प्रेम और भाईचारे में अपार भरोसे और आनन्द की अनुभूति हुई। यह तथ्य सर्वविदित है कि उनके शिष्यों में स्वामी रज्जब (पठान, मुसलमान), स्वामी बखना (मुसलमान), स्वामी निजामशाह (मुसलमान) ही नहीं हुए अपितु स्वामी गरीबदास (दायमा, ब्राह्मण), स्वामी सुन्दरदास (बड़े, क्षत्रिाय), स्वामी सुन्दरदास (छोटे, खंडेलवाल, वैश्य), स्वामी जगन्नाथ (कायस्थ), स्वामी प्रागजन (चर्मकार, पीपावंशी), स्वामी जयमल जोगी (कूरम, क्षत्रिाय) आदि बावन शिष्यों की लम्बी सूची यही सिध्द करती है कि सन्त दादू ने सभी प्रकार की संकीर्णताओं (जातिगत, साम्प्रदायिक) को मानव-समाज में से मिटाने का सफल अभियान चला रखा था जो अपनी यथार्थवादी प्रकृति के कारण सचमुच क्रान्तिकारी था।
यह महज कहने की बात नहीं, प्रत्युत सन्त दादू जी के जीवन का महान सत्य और सन्देश है, जिसे उन्होंने अपने कर्म से-व्यवहार और आचरण से, सिध्द कर दिखाया। विचार को कर्म में परिणत करने की दूरी, समाज की सबसे बड़ी विडम्बना रही है। और आज तो और भी उदग्र रूप से सामने आ रही है। विडम्बनाओं की सभी रूपाकृतियाँ इसी से विकसित होकर विकराल रूप धारण कर रही हैं। किन्तु सन्त दादू दयाल ने सदियों पूर्व भूख और यथार्थ के विकट-विकराल रूप को देखकर-'सर्वे भवंतु सुखिना' के सिध्दान्त-चिन्तन को, अपने कर्म का अमली जामा पहनाकर, व्यवहार में प्रस्तुत कर दिया।
भारतीय चिन्तन में ब्रह्माण्ड और पिण्ड को तात्तिवक उपस्थिति की दृष्टि से, समान बताया गया है-यथा ब्रह्माण्डे तथा पिण्डे एवं यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे। दादू की साखी में समूचे ब्रह्माण्ड को ब्रह्मजल से पूरित कहा गया है-
सरवर
भरया दह दिसि, पंछी
प्यासा जाइ।
दादू
गुरु परसाद
बिन, क्यों
जल पीवै आइ॥
जल से भरे तालाब से ब्रह्माण्ड की उपमा दी है दादू ने, क्योंकि तालाब हमारा परिचित बिम्ब है। किन्तु वह तो चारों ओर से मिट्टी से घिरा रहता है और तल में भी मिट्टी का आधार होता है। अत: दादू को 'दहदिसि' शब्द का उपयोग करना पड़ा कि यह तालाब-समूचा ब्रह्माण्ड दसों दिशाओं से जलापूरित है। इसमें चन्द्र, सूर्य, नक्षत्रामण्डल तक समाए हुए हैं। अर्थात् यहाँ कुछ भी ब्रह्मरहित नहीं है। विभिन्न धातु पदार्थ भी ब्रह्मांश हैं। किन्तु मनुष्य जीव यहाँ, ब्रह्मापूरित जल में रहता हुआ भी प्यासा ही चला जाता है। गुरु की कृपा होने पर ही वह इस जल का, आनन्द का पान करके तृप्ति प्राप्त कर सकता है। अर्थ हुआ कि मनुष्य के बाहर और भीतर दोनों ओर ब्रह्म का अस्तित्व है, फिर भी वह प्यासा ही जाता है। दादू समूचे प्राणी जगत् को चर्म-चक्षुओं की दृष्टि से नहीं, आत्मदृष्टि से देखने का आग्रह करते हैं-
चर्मदृष्टि
देखे बहुत, आतम
दृष्टि एकि।
ब्रह्मदृष्टि
परिचय भया, तब
दादू बैठा
देखि॥
इसलिए दादू पूर्ण ब्रह्म को, ब्रह्माण्ड को ध्यान में लाने की, विचारने की बात करते हैं। जब समूचे ब्रह्माण्ड को चैतन्य एक इकाई माना जाएगा, तब सभी प्रकार के-हिंसा, हत्या, अन्याय, संवेदनहीनता के क्रम थम जाएँगे। धरती और धरती का जीवन आज इसीलिए रक्तरंजित है, क्योंकि ओछी, स्वार्थी, जड़वादी दृष्टि के व्यक्तियों, समाजों, देशों के कारण धरती पर जनजीवन, प्रकृतिजीवन उत्पीड़ित, दुखित, शोषित है। भूखा है। बेहाल है। विस्थापित है। कहना न होगा कि पाश्चात्य दृष्टि भोगवादी, जड़वादी है। इस कारण आज विश्व में एकतरफष बर्बर, व्यापक हिंसा बरपाने वाले युध्द हैं, विश्व के पिछड़े देशों को लूटने वाली शोषक, खुली बाजशर व्यवस्था-बाज़ारवाद है। असन्तुलन है। इन सब महामारियों, लाचारियों, दुश्वारियों को मिटाने का उपाय दादू यों समझाते हैं-
पूरण
ब्रह्म
बिचारिए, तब
सकल आत्मा एक।
काया
के गुण देखिए, तौ
नाना बरण
अनेक॥
किन्तु आज हो रहा है नितान्त उलट। काया के रूप, रंग, जाति, वर्ण, वंश, देश, प्रदेश आदि के विभिन्न भेद के आधार पर महा-मारण, महा-विनाश के आदिम, पाश्विक नर-संहार बे-खौफ, बेरोक-टोक बरपाये जाते हैं और राष्ट्रसंघ निष्क्रिय, निष्प्राण-सा टुकुर-टुकुर देखता रहता है। विश्व की अग्रणी शक्तियाँ, घातक से अतिघातक अस्त्रा-शस्त्रों का प्रदर्शन, विश्व-मण्डियों में करके, उन्हें बेचकर अपने देशों की समृध्दि को बढ़ाती रहती हैं। राष्ट्रसंघ की दृष्टि भी, समूचे मानव-परिवार को, उसके परिवेश को एक इकाई न मानकर खण्डों में लेती, सोचती है। फिर खण्डों को और भी खण्डित करती है। कभी पर्यावरण-दिवस, कभी बाल-दिवस, कभी नारी, कभी वृध्द-दिवस। सब खंड-खंड! जबकि दादू का कथन है-
खंडि
खंडि करि
ब्रह्म कौं, पखि
पखि लीया
बाँटि।
दादू
पूरण ब्रह्म
तजि, बँधे
भरम की गाँठि॥
अनेक प्रकार के भ्रमों, भ्रमों की अनेक परतीय मूर्खताओं, दुष्टताओं, दुर्नीतियों से धरती एवं ब्रह्माण्ड का सुख, शान्ति सब विनष्ट हो रहे हैं। तामसिकता तथा स्वार्थों का तिमिर बढ़ रहा है। इसे दूर करने के लिए बिजली के प्रयोग, उपयोग एवं लट्टू तो बढ़ रहे हैं किन्तु स्नेहपूर्ण-तेल और बाती वाले दिये त्याग दिये गये हैं, जबकि दिये से दिया और दियों की लम्बी शृंखला प्रदीप्त की जा सकती है, पर लूट्ट से लट्टू नहीं जलाया जा सकता। इसी प्रकार आत्मज्ञान विकसित करके आत्मवान व्यक्तियों-मनुष्यों की संख्या बढ़ाकर, चेतनाविहीनता के अन्धकार को मिटाया जा सकता है। तिमिर मिटाया जा सकता है। दादू का कहना है कि बिल्लौरी काँच का-स्फटिक का, पत्थर का सूर्य बनाकर अन्धकार दूर करने के प्रयासों से कोई लाभ नहीं होगा, उससे केवल प्रदर्शनी शोभा बढ़ाई जा सकती है। धरती पर से अन्धकार को मिटाने के लिए सच्चे, वास्तविक सूर्य की दरकार होती है-
सूरिज
फटिक पषाण का, ता
सूं तिमर न
जाइ।
साचा
सूरिज परगटै, दादू
तिमर नसाइ॥
सच्चा सूरज तभी उदय होगा, जब सत्व गुण के विकास में, आत्म जागृत, निर्भीक, सच्चे पूरे सन्त लोग, शूरवीर सामने आयेंगे; सती नारियाँ, बीरबानियाँ सामने आयेंगी। सन्त दादू की दो साखियाँ उध्दृत करना समीचीन होगा-
सूरा पूरा संत जन, साईं को सेवै।
दादू साहिब कारणै, सिर अपना देवै॥
सूरा जूझै खेत में, साईं सन्मुख आइ।
सूरे कौं साईं मिलै, तब दादू काल न खाइ॥
सच्चे सूरज को उदय करने के लिए, अपने-अपने युग-तिमिर के विनाश के लिए सतयुग में ऋषियों-देवों को जूझना पड़ा, तो त्रोता में राम को, द्वापर में कृष्ण को, बुध्द और महावीर को। इसी भाँति कलयुग में, मध्ययुग में कबीर, रैदास, नानक, मीरा, दादू, मलूक, पीपा आदि सन्तों को लड़ना पड़ा है। पूर्व के क्षितिज ने सूर्य को उदय किया और समूची धरा पर उसके आलोक को फैलाकर आदिम समयों के तिमिर को हटाया था। किन्तु आज वही पूर्व-क्षितिज तिमिर-बाध्दित हो रहा है। यह सबसे दुखद संदर्भ है। समूचा पूर्व और भारत (भा+रत) आज तम में रत है। सुप्त है। इसे पुन: जगाकर बाज़ारवादी नयी विश्व-व्यवस्था को आध्यात्मिक विश्व-व्यवस्था में लाना होगा। अत: मात्रा क्रान्ति नहीं, वेद ज्ञान सम्बन्धित सन्तों की वाणी का प्रकाश-सूर्य लेकर संक्रान्ति को सम्भव बनाना होगा।
दादू वाणी अपने स्नेह, सहृदयता, दया, सरलता, सहजता, मिठास आदि गुणों के कारण सन्त-साहित्य में अपनी विशिष्ट पहचान रखती है। इसमें सन्त कबीर की आक्रामकता, अक्खड़ता, व्यंग्य-वक्रता और चुनौती की धार नहीं, प्रत्युत उदार आत्मीयता, सुधार की अमित आशावादिता उसके मूल में है। दादू वाणी में आग नहीं ऊर्जा है। ताप-उत्तााप नहीं, स्नेहिलता-स्निग्धता है। हमदर्द सुझावधर्मी, कन्धे पर अपनेपन से हाथ रखकर बोलती हुई हितैषी वरिष्ठता साधुता है-
तन
मन निर्मल
आत्मा, सब
काहू की होय।
दादू
विषय विकार की, बात
न बूझे कोय॥
भाषागत सम्प्रेषण, भागवत सादगी, सत्यवादी सरलता की ऐसी मिसाल कि निरक्षर भी संस्कारशीलता के प्रवाह में डुबकी लगाने-नहाने को उतावला हो कूद पड़े।
वर्तमान युग के व्यक्ति का जीवन पहले से भी अधिक कठिन होता गया है। दु:ख, कष्ट, क्लेश भी पहले की अपेक्षा अधिक एवं सालने वाले। सभी चाहते सुख हैं किन्तु दुर्दान्त दु:खों में घिरते जाते हैं। ऐसा क्यों? क्योंकि पहले की अपेक्षा अधिक लोग अधिकाधिक स्वार्थी, निर्दयी, भावनाहीन, संवेदनाशून्य, नास्तिक होते जा रहे हैं। दादू का कथन है कि कोई दु:खी ही दूसरे दु:खी व्यक्ति का दर्द समझ और दूर कर सकता है। अपने स्वार्थ और सुख की नींद में, विषयों में डूबा हुआ व्यक्ति नहीं समझ सकता-
दरदहि
बूझै दरदवंद, जाके
दिल होवै।
क्या
जाणै दादू दरद
की, जो
नींद भरि
सोवै॥
जिसके पास दिल ही नहीं है ऐसा हृदयहीन व्यक्ति दूसरे व्यक्ति का दर्द कैसे जानसकता है? कहना न होगा कि आज का व्यक्ति अपने स्वार्थ में दूसरों को दु:ख देकर सुखीहोना चाहता है। भौतिकवादी सोच के कारण वह ईश्वर की भक्ति भी छोड़ बैठा है-
दादू
भावहीन जे
पिरथवी, दया
बिहूणा देस।
भगती
नहीं भगवंत की, तहं
कैसा परवेस॥
जिस धरती पर, जिस देश में भावनाहीन लोग रहते हों, जहाँ दयाभाव न हो, परमात्मा की भक्ति भी कोई न करता हो वहाँ भूलकर भी नहीं जाना चाहिए। आत्महीन परमात्महीन होते गये लोगों ने निर्बाध क्रूरता, हिंसा, हत्या के वर्तावोंवश धरती के जीवन को एक वृहद् हत्या-स्थल में नहीं बदल दिया है क्या? भारत में ही हिन्दू-मुसलमान का वैर कितना रक्त बहा चुका है। कबीर की भाँति दादू भी स्वयं को न हिन्दू मानते हैं और न मुसलमान और न हिन्दुओं के षड्दर्शनों को स्वीकार करते हैं-
दादू न हम हिन्दू होहिंगे, ना हम मूसलमान।
षट दरसन में हम नहीं, हम राते रहिमान॥
दोनों भाई हाथ पग, दोनों भाई कान।
दोनों भाई नैन हैं, हिन्दू मुसलमान॥
उक्त दूसरी साखी में दादू ने हिन्दू-मुसलमान-दोनों को भारत देश के दो हाथ-पैर, दो कान और दो ऑंखें ही नहीं बताया, भाई भी कहा है। एक ही माता के पेट से उत्पन्न, एक ही परिवार के सदस्य हैं सब जीव जगत्, सारा प्राणी जगत् ही एक परम पिता की सन्तान हैं। ज़रा सोचकर देखने पर दूसरा कोई नहीं मिलेगा। दूरी कहीं है ही नहीं-
आतम
भाई जीव सब, एक
पेट परिवार।
दादू
मूल विचारिये, तो
दूजा को न
गँवार॥
समूचा जगत् ही ब्रह्म-पिता द्वारा उत्पन्न है। पशु-पक्षी, पेड़-पौधे आदि। इस प्रकार धरती पर विद्यमान समूचे जगत् के प्रति मानवीय संवेदनाएँ जगाने का महत् प्रयत्न दादू जी का लक्ष्य रहा है। इन विचारों को ग्रहण करने से हिंसा, हत्या, आतंक सब छूट सकते हैं। सभी बाहरी पूजा-पध्दतियाँ, नमाज, रोजा, माला, तिलक, मन्दिर, मस्जिद के विभेदों को भुलाकर एक ही निर्गुण तत्तव का राम-नाम का उच्चारण, उसे चाहे राम कहो या रहीम, कृष्ण कहो या करीम-यही सत्य है-
एकै अक्षर पीव का, सोई सत करि जाणि।
राम नाम सतगुरु कह्या, दादू सो परमाणि॥
दादू सिरजनहार के, केते नाम अनंत।
चित आवै सो लीजिये, यौं साधू सुमिरैं संत॥
अर्थात् परमात्मा के अनन्त नाम हैं, जो चाहे जिसे जपे। हाँ, इतना ध्यान रहे कि हमारा मन ही माला है, गुरु उपदेश ही तिलक है।
इक्कीसवीं शताब्दी में विश्व में जो अमानवीय, हत्यारी, आतंकी प्रवृत्तिायाँ खुलकर, बेखौफ नंगी नाच रही हैं, उनके रहते सर्वत्रा व्याप्त भय मानव जाति में एक अपूर्व रोग बनकर छाया हुआ है। सब भीतर ही भीतर त्रास्त हैं। यह वस्तुत: कलिकाल या दुश्काल है। तृतीय विश्व-युध्द की आशंकित आहटें विश्व के भिन्न-भिन्न देशों-प्रदेशों में घटित होने वाली दुर्घटनाओं, शीत-ऊष्ण टकराहटों में देखने को मिलती हैं। महाविनाश की परिकल्पनाएँ ही सबको रोके हुए हैं। ऐसे हिंसा-आप्लावित कलि-काल का उपचार भी दादू वाणी में उपलब्धा है-
काला
मुँह करि काल
का, साईं
सदना सुकाल।
मेघ
तुम्हारे घरि
घणा, बरसुह
दीन दयाल॥
अर्थात् काल (कलिकाल, दुष्काल) का मुँह काला करो-मानव समाज के इस शत्राु को अपमानित और तिरस्कृत करो तथा सुकाल (शान्ति-समृध्दिपूर्ण काल) के लिए सब मिलकर प्रभु से प्रार्थना करो, जिससे सुख, शान्ति, समता, मानवीयता की सघन वर्षा हो, क्योंकि ऐसे मेघ केवल परमात्मा, दीनदयाल प्रभु की कृपा से ही बरसतेहैं।
समूचे ब्रह्माण्ड की चिन्ताओं को सहेजे हुए, 'सर्वे भवन्तु सुखिन:' की लोक-कल्याणी चेतना का विकास करने वाले मानवीय संवेदना का मूल-मन्त्रा प्रसारित करने वाले सन्त हैं दादू दयाल जी। आज के जलते-झुलसते, भीतर-बाहर ध्वस्त होते संसार को बचाने की ही उपचारी विधियाँ दादू जी की वाणी में आद्यन्त विद्यमान हैं। समूची दादू वाणी ही यों वेद वाणी की भाँति सुधा-वर्षिणी है। 'सरवर भरया दह दिसि' की चेतना एवं विश्व-कल्याण की भावना से भरकर कही गई दादू जी की यह साखी वर्तमान संकटग्रस्त मानवता का मार्ग प्रशस्त करे। सुख-शान्ति के बादल गरजें, बरसें, धरती को सराबोर करें-
वसुधा
सब फूले फलै, पिथरी
अनंत अपार।
गगन
गरजि जल थल
भरै, दादू
जै जैकार॥
अत: दादू ग्रंथावली में संकलित समूची वाणी, दादू जी की अनुभूति की सहज-स्वभाव अभिव्यक्ति है। हृदय की आनन्दावस्था, प्रकृति की आन्तरिक नि:सर्ग प्रवृत्तिा का ही अभिन्न अंश होने के कारण सदैव आधादिनी है। अपने प्रभाव में शान्त, निर्मल एवं आनन्दफलदायिनी है। इन अर्थों में तथा भारतीय ऋषियों द्वारा अर्जित सहòों वर्षों के ज्ञान-वेद की भाँति वेदवाणी है। दादूपन्थी आचार्यों का मत तथा हमारा अनुभव है कि जो वेद में है, वह दादू वाणी में है।
'दादू ग्रंथावली' में हमने 'श्री दादू अनुभव वाणी' का मुख्य आधार ग्रहण किया है, जिसका सम्पादन आचार्य प्रवर महाराज पन्थ के उन्नीसवें आचार्य श्री हरिराम जी ने किया था (प्रकाशक : श्री दादू जी सेवा समिति, श्री दादू मन्दिर, बड़ा गाँव, जिला झुंझुनू, राजस्थान, संस्करण, सं‑ 2053) आचार्यश्री 17 जुलाई, 2001 को ब्रह्मलीन हो गये। उन्हीं की प्रेरणा-प्रोत्साहन-स्नेहाशीश हमें इतना विपुल रूप में प्राप्त हुआ कि भीलवाड़ा में नये दादू मन्दिर भवन के लोकार्पण के अवसर पर हम उनकी इतनी आन्तरिकता का प्रसाद पा सके कि वहाँ के बिड़ला परिवारों के यहाँ जाते समय हमें सदैव साथ रखा। सम्मान दिलाया। वहाँ से नारायणा वापसी पर अपने वाहन में साथ लाये। ढाई-तीन घण्टे की यात्राा में अपने जीवन के कुछ अछूते संस्मरण सुनाये जिन्हें बाद में मेरे द्वारा सम्पादित पुस्तक, स्मरणांजलि में संकलित किया गया है। इस 'स्मरणांजलि' के प्रकाशन में तथा हमें आचार्यश्री से मिलवाने का सारा श्रेय अखिल भारतीय श्री दादू सेवक समाज के अध्यक्ष श्री अशोक बुवानीवाला को जाता है।
पाठकों-अध्येताओं
की सहायतार्थ
कठिन साखियों
की बोधगम्यता
के लिए कठिन
पारिभाषिक
शब्दों के
अर्थ एवं
पर्याय
परिशिष्ट में
दिये गये हैं।
प्रयत्न रहा
है कि जो अर्थ
दादू
सम्प्रदाय
में मान्य हों, उन्हें
ही लिया जाय।
इस कारण
'श्री
दादू वाणी' वैद्य
राम प्रकाश
स्वामी जी
द्वारा
सम्पादित का
भी सहयोग लिया
गया है।
स्वामी
रामप्रकाश जी
वैद्य का इस
लेखक को
वरदहस्त
प्राप्त रहा है।
उनके सम्पर्क
में आने के
सौभाग्य पर
गर्व है।
नारायणा के
आयोजनों में
तथा भीलवाड़ा
में नये दादू
द्वारा के
आयोजन के समय
आचार्य
हरिराम जी तथा
वैद्य जी के
साथ
मन्त्राासीन
होने के
क्षणों को
अपने किन्हीं
अलक्षित
सुकृत्यों का
फल मानता हूँ।
श्री दादू वाणी 'अनभेवाणी' भी कहलाती है, जिन अर्थों में दोहा छन्द 'साखी' कहलाती है। आत्म और जगत् के सम्मिलित अनुभव इसमें समाहित हैं तो इस अनुभव की साक्षी भरने से दोहा साखी हो जाता है। अत: स्वत: स्फूर्त वाणी में व्यापक भारतीय विविध भाषा-प्रदेशों के जीवन साक्ष्य, वहाँ की भाषाओं-मारवाड़ी, राजस्थानी, मेवाती, गुजराती, सिन्धी, मराठी, पंजाबी, सरायकी, संस्कृत, अरबी-फारसी आदि के रूप में समाहित हैं, इससे हिन्दी की समग्र-व्यापक शक्ति का परिचय मिलता है। हाँ इतना अवश्य ध्यान देना होगा कि सन्तों ने और दादू ने भी अपने अनुभवों से कुछ पारम्परिक शब्दों में नये अर्थ भरे हैं। जैसे 'मोटे' शब्द का अर्थ बड़े, भारी, परमात्मा आदि प्रसंगानुसार लिये गये हैं। इसी प्रकार 'दुहेला' एवं 'दुहेली' शब्दों के प्रयोग भी प्रसंगानुसार लिये हैं।
अत: दादू ग्रंथावली श्रध्दालु भक्तों, सेवकों, जिज्ञासुओं को सौंपते हुए हमें अत्यन्त हर्ष का अनुभव हो रहा है। हम श्री हरीशचन्द्र शर्मा, प्रकाशक-'प्रकाशन संस्थान' का आभार व्यक्त करते हैं, जिन्होंने दादू ग्रंथावली का प्रकाशन बड़े मनोयोग एवं सुरुचिपूर्ण ढंग से किया है। पाठकों की प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी।
सम्पर्क : ए-3/283, -डॉ‑ बलदेव वंशी
पश्चिम विहार, नयी दिल्ली-110063 (महानिदेशक : अखिल भारतीय श्री दादू
दूर‑ : 011-25268501 सेवक समाज एवं संयोजक :
मोबा‑ 9810749703 दादू शिखर सम्मान समिति)
जीवन-चरित्रा
भारत अनन्त काल से अध्यात्म का, ऋषियों, मुनियों, महात्माओं और सन्तों का देश रहा है। भारत की इस पुण्य-भूमि पर समय-समय पर महान और अवतारी पुरुष प्रकट होते रहते हैं। सन्त शिरोमणि श्री दादूदयाल नामदेव, कबीर, रैदास, नानक जैसे ही महान सन्त थे। कहते हैं कि अहमदाबाद नगर में लोदीराम नाम के नागर ब्राह्मण थे। वह सब प्रकार से सुखी और साधन सम्पन्न होते हुए भी पुत्रा के अभाव से बहुत दु:खी थे। एक दिन एक वृध्द सन्त ने उन्हें दर्शन दिये और उनका दु:ख जानकर कहा कि कल साबरमती नदी में तुम्हें जल पर तैरता हुआ एक बालक मिलेगा। तुम उसे अपना पोष्य पुत्रा मानकर पालन करना। वह एक ब्रह्म-ज्ञानी लोक-कल्याणकारी सिध्द महापुरुष होगा। सन्त के कथन के अनुसार विक्रम संवत् 1601 की फाल्गुन शुक्ल अष्टमी गुरुवार को दादू जी महाराज कमलदल के ऊपर तैरते हुए प्रकट हुए। इस प्रकार उन्होंने यही संकेत दिया कि इस नश्वर भौतिक संसार में कमलदल की तरह निर्लेप रहना चािहए। श्री दादू जी महाराज स्वयं भी आजीवन संसार से निर्लिप्त रहे। ग्यारह वर्ष की आयु में काँकरिया तालाब में खेलते समय अचानक एक वृध्द साधु ने उन्हें दर्शन दिये और अगम अगाध ब्रह्म के दर्शन कराए। बालक दादू के मस्तक पर हाथ रखकर आशीर्वाद दिया और कहा कि तुम संसार को निर्गुण, निराकार ब्रह्म की उपासना का उपदेश देकर दु:खों से मुक्ति दिलाओ। यही दादू जी की गुरुदीक्षा थी। उनके जीवन का प्रवाह भगवद भक्ति की दिशा की ओर मुड़ गया। दादू जी की एक साखी में इसका उल्लेख इस प्रकार है-
दादू
गैब माँहि
गुरुदेव
मिल्या, पाया
हम परसाद।
मस्तक
मेरे कर धरया, दष्या
अगम-अगाध॥
उन्नीसवें वर्ष में श्री दादू जी महाराज ने अहमदाबाद छोड़ दिया और राजस्थान की ओर चल पड़े। मार्ग में आबू पर्वत होते हुए उन्होंने माणकदास तथा ज्ञानदास को अपना ध्येय बताया और उन्हें अध्यात्म की प्रेरणा दी।
करड़ाला निवास-दादू स्वयं धर्म-प्रचार करते हुए आबू पर्वत पधारे। वहाँ से करड़ाला होते हुए पुष्कर पहुँचे। पुष्कर से बारह किलोमीटर दूर करड़ाला पहाड़ (कल्याणपुर पर्वत) को अपना साधना-स्थल बनाया। यहीं एक ककेड़े के वृक्ष के नीचे तथा एक विशाल शिलाखण्ड के निकट ध्यानस्थ रहा करते। इस पर्वतमाला की एक चोटी पर साधना-भ्रष्ट एक प्रेत रहता था। वह लोगों को डराता और दु:ख दिया करता था। इस प्रेत को प्रेतयोनि से दादू जी ने मुक्त किया। करड़ाला धाम की पहाड़ी की तलहटी में दादूद्वारा, छतरी तथा आश्रम बना हुआ है। पंच तीर्थों में करड़ाला प्रथम धाम के रूप में जाना जाता है। यहीं पीथा नामक डाकू के कुकृत्य छुड़वाकर उसे निकट की पहाड़ी पर 'महारास लीला' के दर्शन कराये और सद्मार्ग पर लगाया। पीथा ने भी प्रतिज्ञा की-
गंग
यमुन उलटी बहे, पश्चिम
को ऊगे भान।
पीथा
चोरी ना करे, 'गुरु
दादू' की
आन॥
सांभर में साधना-दादू जी की महिमा दूर-दूर तक फैलती गयी। यहाँ से सन्त दादूदयाल जी अजमेर, भीलवाड़ा, चित्ताौड़ होते हुए सांभर पहुँचे जोकि नमक की झील होने के कारण बहुत प्रसिध्द है। इस झील के मध्य एक टेकड़ी पर कुटिया बनाकर रहने लगे। प्राय: 6 वर्ष तक यहाँ साधना व प्रवचनों द्वारा प्रसिध्दि प्राप्त की। नगर के निकट होने के कारण उनके दर्शनों और धर्म उपदेश सुनने के लिए हिन्दू-मुसलमान आदि विभिन्न सम्प्रदायों के लोग आने लगे थे। यहीं उन्होंने 'समत्वयोग' की अनुभूति की। शुध्द चैतन्य-परब्रह्म परमात्मा उनका उपास्य था। निरंजन राम तथा 'सत्य' उनके उपदेशों का केन्द्र होता। निर्गुण आधार की प्रधानता के कारण उनकी सर्वप्रियता बढ़ती गयी-
अलह राम छूटा भ्रम मोरा।
हिन्दू तुर्क भेद कुछ नाहीं, देखूँ दर्शन तोरा॥टेक॥
सोई प्राण पिंड पुनि सोई, सोई लोही मासा।
सोई नैन नासिका सोई, सहजैं कीन्ह तमासा॥
श्रवणों शब्द बाजता सुनिये, जिह्ना मीठा लागे।
सोई भूख सबन को व्यापे, एक युक्ति सोई जागे॥
सोई संधि बँध पुनि सोई, सोई सुख सोई पीरा।
सोई हस्त पाँव पुनि सोई, सोई एक शरीरा॥
यहु सब खेल खालिक हरि तेरा, तैं हि एक कर लीना।
दादू जुगति जान कर ऐसी, तब यहु प्राण पतीना॥
सांभर नगर में दोनों ही पक्षों कुछ अग्रणी लोगों को दादू जी की बढ़ती हुई ख्याति और प्रतिष्ठा से विद्वेष जागा। उन्होंने हर सम्भव तरीके से उन्हें दबाने के प्रयास किये एवं समाप्त करने का निश्चय किया। किन्तु सन्त दादू निर्भय, निर्विकार रहकर अपने मार्ग पर चलते रहे। अपने पीव के गुणगान करते रहे-
एकै
अक्षर पीव का, सोई
सत करि जाणि।
राम
नाम सतगुरु
कह्या, दादू
सो परमाणि॥
उनके उपास्य निर्गुण राम थे। 'राम' शब्द का प्रयोग दादू ने 'प्रणव' की तरह किया है। निर्गुण उपासना में सुमिरण निर्गुण के वाचक नाम के रटने से होता है। फिर चाहे 'ओंकार' हो या 'राम' या 'कृष्ण' या 'रहीम'-कोई-सा नाम हो। इसलिए सन्त दादू ने कहा है-
दादू
सिरजनहार के, केते
नाम अनंत।
चित
आवै सो लीजिये, यौं
साधु सुमिरैं
संत॥
शिष्य परम्परा-दादू जी के निर्गुण ब्रह्म के विचारों से प्रभावित होकर हर वर्ण और वर्ग के लोग, हिन्दू और मुसलमान उनके शिष्य बने। सर्वप्रथम शिष्य बड़े सुन्दरदासजी हुए जिनका पूर्व का नाम भौमा सिंह था। वह बीकानेर राज्य के राजवंशी थे। वह एक योध्दा थे और तत्कालीन राजा की ओर से काबुल की ओर युध्द करने गये तो पीछे उनकी पत्नी उनकी वीरगति की मिथ्या खबर सुनकर सती हो गयी। भौमा सिंह ने लौटकर जब पत्नी के शरीर-त्यागने की बात जानी तो विक्षुब्ध होकर गृहस्थ का परित्याग कर दिया। दादू महाराज की शरण में आ गये। दीक्षा ली और घाटड़े (अलवर) के पहाड़ी प्रदेश में ध्यान में लीन हो गये। इनकी परम्परा में आगे चलकर 'वीरवेशी' नागा समुदाय अस्तित्व में आया। ईश्वर की आराधना के साथ परोपकार, देश-रक्षा और राज्य-रक्षा में विभिन्न लड़ाइयों में नागा समुदाय सदैव बड़ा काम आया। इसके बाद वषना जी, टीला जी, जग्गा जी आदि पचास के लगभग शिष्य तो सांभर में ही बन चुके थे। 1619 से 1631 के मध्य दादू जी सांभर में रहकर आमेर चले गये। इनके सर्वप्रसिध्द शिष्यों में रज्जब जी, छोटे सुन्दरदास जी, जयत जी आदि हुए हैं, जिनकी साधना, तपस्या, सत्य और वाणी से दादू-सम्प्रदाय का नाम दूर-दूर तक फैल गया।
आमेर निवास-आमेर उस समय राजस्थान की राजधानी थी। आमेर की पहाड़ी पर दादू जी ने एक मन्दिर बनवाया, जो आज भी दादू पन्थियों का मुख्य तीर्थ स्थान माना जाता है। उस समय वहाँ के राजा भगवन्तदास जी थे। आमेर में ही रज्जबजी, मोहन जी मेवाड़ा, मोहन जी दफतरी आदि प्रसिध्द शिष्य बने। यहीं दादू जी की वाणी को पद्यमय रूप में मोहन जी दफतरी ने लिपिबध्द करना आरम्भ किया था।
गावहु मंगलाचार, आज वधावणा ये,
स्वप्नों देख्यो साँच, पीव घर आवणा ये॥टेक॥
भाव कलश जल प्रेम का, सब सखियन के शीश।
गावत चली वधावणा, जै जै जै जगदीश॥
पदम कोटि रवि झिलमिले, अंग अंग तेज अनंत।
विकस वदन विरहिनि मिली, घर आये हरि कंत॥
सुंदरि सुरति शृंगार कर, सन्मुख परसे पीव।
मो मंदिर मोहन आविया, वारूं तन मन जीव॥
कमल निरंतर नरहरी, प्रकट भये भगवंत।
जहाँ विरहिनि गुण वीनवे, खेले फाग वसंत॥
वर आयो विरहिनि मिली, अरस परस सब अंग।
दादू सुंदरि सुख भया, जुग जुग यहु रस रंग॥
(अर्थात् हे सखियो! आज वृध्दि के मंगलगीत गाओ क्योंकि जिन प्रभु को हम स्वप्न में देखती थीं वह सचमुच में हृदय-मन्दिर में पधार गये हैं, उन्हें प्रत्यक्ष रूप से देख लिया है।)
ऐसे अनेक सरस पदों को यहाँ लिपिबध्द ही नहीं किया जाता रहा बल्कि रसविभोर होकर इनका गायन भी होता था। आनन्द भी लूटा जाता था। इस प्रकार अद्वैत निर्गुण निराकार ब्रह्म राम में मन लगाने की सीख दादू देते हैं। मन को राम में ऐसे घुला-मिला देना चाहिए जैसे पानी में नमक घुलकर, रस रूप में परिणत हो जाता है-
जब
मन लागे राम
सौं, तब
अनत काहे को
जाय।
दादू
पाणी लौंण
ज्यों, ऐसे
रहै समाय॥
अकबर से भेंट-सम्राट अकबर की राजधानी सीकरी में थी। वहीं दादू जी की भेंट सम्राट अकबर से हुई बताते हैं। दादू जी के शिष्य माधवदास जी के माध्यम से राजा भगवन्तदास से कहकर अकबर ने दादू जी को निमन्त्राण भेजा। जब दादू जी अकबर के दरबार में पहुँचे तो अकबर अपने दरबारियों के साथ बैठा था। पर अपने बैठने का प्रबन्ध न देखकर दादू जी ने क्षणभर विचार किया ही था कि अकबर ने कहा कि हम तुरन्त एक साथ कुछ बातों का उत्तार चाहते हैं। पहला प्रश्न था-
''खुदा की जात क्या है?''
''उसका अंग क्या है?''
''उसका वजूद कैसा है?''
''उसका रंग कैसा है?''
तब दादू जी ने उत्तार दिया-
इश्क
खुदा की जात
है, इश्क
खुदा का रंग।
इश्क
खुदा-इ-वजूद
है, इश्क
खुदा का अंग॥
यह उत्तार सुनकर अकबर ने तुरन्त खड़े होकर क्षमा याचना की, उन्हें उचित स्थान दिया। अकबर इतना प्रभावित हुआ कि उसने चालीस दिनों तक दादू जी के साथ सत्संग किया। इस क्रम में अकबर द्वारा यह प्रश्न करने पर कि तीन गुणों और पाँच भूतों की किस क्रम से रचना हुई? अर्थात् कौन पहले और कौन बाद में बना? दादू जी ने उत्तार दिया-
एक
शब्द सब कुछ
किया, ऐसा
समरथ सोय।
आगे
पीछे वो करे, जे
बल-हीणा होय॥
दादू जी की अमृतमयी वाणी के प्रभाव में अकबर ने 'गोहत्या बन्दी' का फरमान जारी किया और उनकी प्रशस्ति में उन्हें अल्लाह और खुदा का नूर जशहिर किया-
दादू
नूर अल्लाह है, दादू
नूर खुदाय।
दादू
मेरा पीव है, कहै
अकबर शाह॥
संवत् 1640 में अकबर बादशाह का सत्संग समाप्त कर महाराज दादूदयाल जी सीकरी से चलकर दौसा कस्बे में पहुँचे। दौसा से कुछ दूरी पर एक सुन्दर सरोवर के तट पर एक पीपल के वृक्ष के नीचे दादू जी विश्राम कर रहे थे। वह वृक्ष सूखा था। महाराज की दृष्टि उस पर पड़ते ही वह हरा हो गया। इस घटना को सुनकर परमानन्दजी, जो कि छोटे सुन्दरदास जी के पिता थे, पुत्रा को साथ लेकर दादू जी से मिलने आये। दादू जी ने सुन्दरदास के सिर पर हाथ रखा। सुन्दरदास दादू जी के शिष्य हो गये। इन्होंने बाद में सुन्दर विलास, ज्ञान समुद्र आदि ग्रन्थों की रचना की और बहुत ख्याति अर्जित की।
मोरड़ा ग्राम में वट-वृक्ष-आमेर से दादू जी टहटड़ा ग्राम व सांभर में सत्संग करते व भ्रमण करते हुए करड़ाला पधारे और वहाँ कुछ दिन प्रवास करके निकट के मोरड़ा नामक ग्राम में विणजारा जाति के आग्रह पर पधारे। यहाँ वह बड़ के पेड़ के नीचे रुके थे। निकट ही एक तालाब है। यह पेड़ 'दयाल जी का वट' और तालाब 'दयाल-सागर' नाम से प्रसिध्द है।
नारायणा धाम में त्रिापोलिया-यहाँ से चलकर दादू महाराज नरेना (नारायणा) पहुँचे। वहाँ के राजा ने दादू जी के सम्मान स्वरूप विश्राम के लिए त्रिापोलिया स्थान चुना। अभी सात दिन ही हुए थे कि आठवें दिन वहाँ एक सर्प प्रकट हुआ। सर्प ने अपने फन से दादू जी को वहाँ से उठने का संकेत किया। दादू जी ने इसे ब्रह्म आदेश मानकर उसके साथ प्रस्थान किया। सर्प के पीछे-पीछे चल पड़े। इस सर्प ने एक खेजड़े के वृक्ष के नीचे जाकर बैठने का संकेत दिया। दादू जी वहीं बैठ गये। वह खेजड़ा, नारायणा में आज भी विद्यमान है।
दादू जी की ख्याति सब दिशाओं में तीव्रता से फैलती देखकर प्रभावित होकर राजा जगमल ने दादू जी की सहमति से उनके लिए नारायणा में एक मन्दिर बनवाया। यह मन्दिर दादू पन्थियों का प्रमुख तीर्थ स्थान बन गया। यहीं पर एक भव्य भवन बना जो दादूद्वारा के नाम से प्रसिध्द है। दादू जी के एक शिष्य जैतजी के समय में गुरु गोविन्द सिंह जी इस आश्रम में उनसे मिलने आये थे। इस आश्रम के निकट प्रांगण में, दादू जी के शिष्यों की ग्यारह समाधियाँ बनी हुई हैं, जो 'छतरियाँ' के नाम से विख्यात हैं। नारायणा धाम में बहुत बड़े मेले जुटते हैं : श्री दादू जी के प्रकट दिवस पर और श्री जयत-जयन्ती पर, जिनमें गुजरात, राजस्थान, हरियाणा, पंजाब से हजारों भक्त एकत्रा होते हैं। आश्रम के अहाते में ही संग्रहालय है। यहाँ दादू जी का पलंग, खड़ाऊँ आदि सुरक्षित रखी गयी हैं, तो उनके शिष्यों की वाणियों के ग्रन्थ-पाण्डुलिपियाँ, वीणा आदि वाद्ययन्त्रा भी सुरक्षित हैं।
दादू
राम अगाध है, अविगत
लखै न कोइ।
निर्गुण
सगुण का कहै, नाम
विलम्ब न होइ॥
दादू
राम अगाध है, बेहद
लख्या न जाय।
आदि
अंत नहिं
जाणिये, नाम
निरंतर गाय॥
दादू
राम सँभालि ले, जब
लग सुखी शरीर।
फिर
पीछैं
पछिताहिगा, जब
तन मन धरै न
धीर॥
दुख
दरिया संसार
है, सुख
का सागर राम।
सुख
सागर चलि
जाइये, दादू
तेज बेकाम॥
दादू जी का स्पष्ट कथन है कि जो भी दृश्यमान भौतिक पदार्थ है वह अवश्य ही दु:ख का कारण है, उसके आकर्षण में उस पदार्थ में ही जो अटक गया है वह दु:ख का भागी बनेगा। और जो उस पदार्थभोग के प्रवाह में पड़ गया, उसी के साथ बहने लग गया, उसे दु:खों से मुक्ति नहीं मिल सकती। उस पदार्थभोग के साथ यदि राम का नाम मन में रख लिया जाये तो दु:खों का निवारण हो जाता है। क्योंकि राम तो सुख का अगाध सागर है। अत: दादू जी कहते हैं कि सुख के सागर राम की शरण में चले जाइये तो राम का कभी अन्त नहीं-इसलिए सुख का अन्त नहीं होगा। भौतिकता का अन्त है। राम के नाम से मिलने वाले सुख अनन्त हैं।
दादू का प्रसिध्द कथन है कि यह सारा ब्रह्माण्ड परम ब्रह्म चेतना से भरा हुआहै-
सरवर
भरया दह दिसि, पंखी
प्यासा जाइ।
दादू
गुरु परसाद
बिन क्यूँ जल
पीवै आइ॥
यह सारा ब्रह्माण्ड ब्रह्मचेतना से परिपूर्ण है। पूर्व, पश्चिम, उत्तार, दक्षिण-इन चार दिशाओं के मध्य चार अन्य दिशाएँ मिलाकर आठ दिशाएँ हुईं तथा धरती और आकाश-ये दो दिशाएँ और मिलाकर दस दिशाएँ हैं। यहाँ सर्वत्रा ब्रह्मचेतना जल की तरह भरी है। और हम जीवात्माएँ पक्षी की भाँति हैं जो इस ब्रह्म सरोवर में रहते हुए भी प्यासे ही यहाँ से चले जाते हैं। जीव की इस जगत् में रहते हुए दु:खी, निराश रहने की यही विडम्बना है। सद्गुरु की कृपा हो जाने से, ज्ञान प्राप्त कर लेने पर हम ब्रह्माण्ड रूपी जल का पान करके आनन्दित हो सकते हैं, अन्यथा दु:खी, निराश और प्यासा ही इस संसार से जाना होता है।
सन्त दादूदयाल ने तन, मन और आत्मा की निर्मलता देने वाली वाणी से अपने समय के दु:खों-तनावों को और मनुष्य-मनुष्य में फैले विद्वेष, ऊँच-नीच और सम्प्रदायगत भेदभाव को मिटाने के प्रयास आजीवन किये, तभी लोगों ने प्यार और लाड़ भरे शब्दों में उन्हें 'दादू' कहा और कभी 'दयाल'। उनकी वाणी के अमृत में युग की कालिमा को नष्ट करने का अक्षय प्रकाश भरा हुआ है और ममता भरे हृदय में सात समुद्रों जैसा अगाध प्यार। दीन, हीन, निर्बल, दु:खी पर अपना प्यार न्यौछावर करने के कारण वह 'दादू' कहलाये और अपराधियों, विरोधियों पर भी दया करने के कारण 'दयाल'। सन्त कबीर के महाप्रस्थान के कुल छब्बीस वर्ष बाद अवतरित हुए दादू के लिए कबीर अत्यन्त प्रिय रहे हैं-
साँचा
शब्द कबीर का, मीठा
लागे मोय।
दादू
सुनताँ परम
सुख, केता
आनन्द होय॥
कबीर की भाँति ही दादू ने अपनी वाणी में निर्गुण भक्ति को अपनाया तथा जाति व सामाजिक रूढ़ियों का खण्डन किया। साम्प्रदायिक वैमनस्य को दूर करके हिन्दू-मुसलमान के मध्य एकात्मकता एवं सौमनस्य बढ़ाने के अनथक प्रयास किये। दादू प्रेम और करुणा की गंगा बहाने वाले, परमात्मा के नूर को धरती पर उतार लाने वाले अनोखे सन्त थे। श्री दादूदयाल जी 58 वर्ष 2 मास और 15 दिन की अवस्था पूरी करके शुभ मिति ज्येष्ठ कृष्ण अष्टमी, शनिवार, संवत् 1660 वि‑ को परब्रह्म में लीन हुए। ऐहिक लीला की समाप्ति से पूर्व के उनके आदेश के अनुसार उनके शरीर को सभी शिष्यों ने एक सुन्दर पालकी में विराजमान किया। संकीर्तन करते हुए नरेना से पूर्व की दिशा में दस मील पर स्थित भैराणा पहाड़ के पास ले गये। वहीं 'खोल' में पालकी रखकर 'अन्त्येष्टि संस्कार' के सम्बन्ध में विचार करने लगे। उसी समय उनके शिष्य टीला जी को पहाड़ के मध्य महाराज के दर्शन हुए। टीला जी ने वहाँ उपस्थित सभी सन्तों को महाराज के दर्शन कराये। 'सत्यराम'-शब्द द्वारा अभिवादन करके महाराज दादूदयालजी अनर््तध्यान हो गये। पालकी में देह को ढूँढ़ा तो वहाँ केवल पुष्प मिले। सन्त दादू जी के शिष्य रज्जब जी ने सत्य कहा है-
गुरु
दादू अरु कबीर
की, काया
भई कपूर।
रज्जब
अज्जब देखिया, सगुणहि
निर्गुण नूर॥
और दादू जी के ये शब्द सार्थक हो उठे-
साध
कँवल हरि
बासना, संत
भँवर संग आय।
दादू
परिमल ले चले, मिले
राम कूँ जाय॥
दादू जी के सिध्दान्तों का सार-कथन, जो व्यवहार में लाना अपेक्षित है तथा जिसके अनुसार प्रत्येक व्यक्ति अपना जीवन सुख एवं आनन्द से परिपूर्ण कर सकता है-
तन मन
निर्मल आत्मा,
सब काहू
की होय।
दादू
विषय विकार की,
बात न
बूझै कोय॥
भौतिक वैश्वीकरण से उत्पन्न वर्तमान मानवी संकट के समय भी आध्यात्मिक वैश्वीकरण की अमित सम्भावनाएँ जगाती मध्ययुगीन भारतीय सन्त दादू की वाणी अपने स्नेह, सहृदयता, दया, सरलता, सहजता, मधुरता आदि गुणों के कारण्ा सन्त साहित्य में अपनी विशिष्ट पहचान रखती है। इसमें सन्त कबीर की आक्रामकता, अक्खड़ता, व्यंग्य-वक्रता और चुनौती की धार नहीं, प्रत्युत उदार आत्मीयता, सुधार की अमित आशावादिता उसके मूल में है। दादू की वाणी में आग नहीं, ऊर्जा है। ताप-उत्तााप नहीं, स्नेहिलता- स्निग्धता है। सुझावधर्मी, कन्धे पर अपनेपन से हाथ रखकर बोलती हुई हितैषी वरिष्ठता, साधुता है।
तन
मन निर्मल
आत्मा सब काहू
की होय।
दादू
विषय विकार की
बात न बूझे
कोय॥
भाषागत बोधगम्यता, भावगत सादगी, सत्यवादी सरलता की ऐसी मिसाल कि निरक्षर भी अपनी सहज संस्कारशीलता के प्रवाह में इसमें डुबकी लगाने को उतावला हो कूद पड़े।
कबीर और नानक के बाद सर्वाधिक व्यापक जनाधार वाले तथा ख्यातनामा सन्त हैं दादूदयाल। इनके बावन प्रमुख शिष्यों और अप्रधान शिष्यों, सन्तों की तथा सम्प्रदायाचार्यों की सूची देखने से ही यह तथ्य प्रमाणित हो जाता है।
सन्त कवि दादूदयाल जी की दृष्टि, सोच, चिन्ता और चिन्तन समग्रतावादी है। सन्तों की विशिष्ट परम्परा में वह जाज्वल्यमान नक्षत्रा की भाँति चमक रहे हैं। उनकी वाणी में बड़ी विविधता और जीवन्तता है। बड़ा स्नेह और प्रकाश है। विषयगत विविधता बड़ी मुग्धकारी है।
अनुक्रम
साखी भाग
अथ श्री स्वामी दादू दयाल जी की ग्रंथावली
साखी भाग
दादू नमो नमो निरंजनं, नमस्कार गुरु देवत:।
वन्दनं सर्व साधावा, प्रणामं पारंगत:।।1।।
परब्रह्म परापरं, सो मम देव निरंजनं।
निराकारं निर्मलं, तस्य दादू वन्दनं।।2।।
गुरु प्राप्ति और फल
दादू गैब माँहि गुरुदेव मिल्या, पाया हम परसाद।
मस्तक मेरे कर धारया, दख्या अगम अगाधा।।3।।
दादू सद्गुरु सहज में, कीया बहु उपकार।
निर्धान अनवँत कर लिया, गुरु मिलिया दातार।।4।।
दादू सद्गुरु सूं सहजैं मिल्या, लीया कंठ लगाइ।
दया भई दयालु की, तब दीपक दिया जगाइ।।5।।
दादू देखु दयालु की, गुरु दिखाई बाट।
ताला कूंची लाइ करि, खोले सबै कपाट।।6।।
सद्गुरु सामर्थ्य
दादू सद्गुरु अंजन बाहिकर, नैन पटल सब खोले।
बहरे कानों सुनने लागे, गूंगे मुख सों बोले।।7।।
सद्गुरु दाता जीव का, श्रवण शीश कर नैन।
तन मन सौंज सँवारि सब, मुख रसना अरु बैन।।8।।
राम नाम उपदेश करि, अगम गवन यहु सैन।
दादू सद्गुरु सब दिया, आप मिलाये अैन।।9।।
सद्गुरु कीया फेरिकर, मन का औरै रूप।
दादू पंचों पलट कर, कैसे भये अनूप।।10।।
साचा सद्गुरु जे मिले, सब साज सँवारै।
दादू नाव चढाय कर, ले पार उतारै।।11।।
सद्गुरु पशु मानुष करै, मानुष तैं सिध्द सोइ।
दादू सिध्द तैं देवता, देव निरंजन होइ।।12।।
दादू काढे काल मुख, अंधो लोचन देय।
दादू ऐसा गुरु मिल्या, जीव ब्रह्म कर लेय।।13।।
दादू काढे काल मुख, श्रवणहु शब्द सुनाय।
दादू ऐसा गुरु मिल्या, मृतक लिये जिवाय।।14।।
दादू काढे काल मुख, गूंगे लिये बुलाय।
दादू ऐसा गुरु मिल्या, सुख में रहे समाय।।15।।
दादू काढे काल मुख, महर दया कर आय।
दादू ऐसा गुरु मिल्या, महिमा कही न जाय।।16।।
सद्गुरु काढे केश गहि, डूबत इहि संसार।
दादू नाव चढायकरि, कीये पैली पार।।17।।
भव सागर में डूबतां, सद्गुरु काढे आय।
दादू खेवट गुरु मिल्या, लीये नाव चढाय।।18।।
दादू उस गुरुदेव की, मैं बलिहारी जाउं।
जहाँ आसन अमर अलेख था, ले राखे उस ठांउं।।19।।
ज्ञानोत्पत्तिा
आतम माँहीं ऊपजै, दादू पंगुल ज्ञान।
कृत्रिाम जाय उलंघि कर, जहाँ निरंजन थान।।20।।
आत्म बोधा बंझ का बेटा, गुरुमुख उपजै आय।
दादू पंगुल पंच बिन, जहाँ राम तहँ जाय।।21।।
गुरु शब्द
साचा सहजैं ले मिले, शब्द गुरु का ज्ञान।
दादू हमकूं ले चल्या, जहाँ प्रीतम का स्थान।।22।।
दादू शब्द विचार करि, लागि रहै मन लाय।
ज्ञान गहैं गुरुदेव का, दादू सहज समाय।।23।।
दया बिनती
दादू सद्गुरु शब्द सुनाय कर, भावै जीव जगाय।
भावै अन्तर आप कहि, अपने अंग लगाय।।24।।
दादू बाहर सारा देखिए, भीतर कीया चूर।
सद्गुरु शब्दों मारिया, जाण न पावे दूर।।25।।
दादू सद्गुरु मारे शब्द सों, निरखि निरखि निज ठौर।
राम अकेला रह गया, चित्ता न आवे और।।26।।
दादू हम को सुख भया, साधा शब्द गुरु ज्ञान।
सुधिा बुधिा सोधाी समझिकरि, पाया पद निर्वान।।27।।
सद्गुरु शब्द बाण
दादू शब्द बाण गुरु साधु के, दूर दिशंतर जाय।
जिहिं लागे सो ऊबरे, सूते लिये जगाय।।28।।
सद्गुरु शब्द मुख सों कह्या, क्या नेड़े क्या दूर।
दादू सिख श्रवणों सुन्या, सुमिरन लागा सूर।।29।।
करनी बिना कथनी
शब्द दूधा, घृत राम रस, मथ कर काढे कोइ।
दादू गुरु गोविन्द बिन, घट-घट समझ न होइ।।30।।
शब्द दूधा घृत राम रस, कोइ साधु बिलोवणहार।
दादू अमृत काढ ले, गुरुमुख गहै विचार।।31।।
घीव दूधा में रम रह्या, व्यापक सब ही ठौर।
दादू बकता बहुत है, मथि काढे ते और।।32।।
कामधोनु घट जीव है, दिन-दिन दुर्बल होय।
गोरू ज्ञान न उपजै, मथि नहिं खाया सोय।।33।।
योगाभ्यास
साचा समरथ गुरु मिल्या, तिन तत दिया बताय।
दादू मोटा महाबली, घट घृत मथिकर खाय।।34।।
मथि करि दीपक कीजिए, सब घट भया प्रकास।
दादू दीया हाथ करि, गया निरंजन पास।।35।।
दीयै दीया कीजिए, गुरुमुख मारग जाय।
दादू अपने पीव का, दरशन देखै आय।।36।।
दादू दीया है भला, दिया करो सब कोइ।
घर में धारया न पाइये, जे कर दिया न होइ।।37।।
दादू दीये का गुण ते लहैं, दीया मोटी बात।
दीया जग में चाँदणा, दीया चाले साथ।।38।।
निर्मल गुरु का ज्ञान गहि, निर्मल भक्ति विचार।
निर्मल पाया प्रेम रस, छूटे सकल विकार।।39।।
निर्मल तन मन आत्मा, निर्मल मनसा सार।
निर्मल प्राणी पंच करि, दादू लंघे पार।।40।।
परापरी पासै रहै, कोई न जाणै ताहि।
सद्गुरु दिया दिखाय करि, दादू रह्या ल्यौ लाय।।41।।
शिष्य जिज्ञासा
जिन हम सिरजे सो कहाँ, सद्गुरु देहु दिखाय।
दादू दिल अरवाह का, तहँ मालिक ल्यौ लाय।।42।।
मुझ ही में मेरा धाणी, पड़दा खोल दिखाय।
आतम सौं परमातमा, परगट आणि मिलाय।।43।।
भरि-भरि प्याला प्रेम रस, अपने हाथ पिलाय।
सद्गुरु के सदिकै किया, दादू बलि-बलि जाय।।44।।
सरवर भरिया दह दिशा, पंखी प्यासा जाय।
दादू गुरु परसाद बिन, क्यों जल पीवे आय।।45।।
मान-सरोवर मांहि जल, प्यासा पीवे आय।
दादू दोष न दीजिए, घर-घर कहण न जाय।।46।।
गुरु तथा शिष्य
दादू गुरु गरवा मिल्या, ताथैं सब गम होय।
लोहा पारस परसतां, सहज समाना सोय।।47।।
दीन गरीबी गहि रह्या, गरवा गुरु गंभीर।
सूक्षम शीतल सुरति मति, सहज दया गुरु धाीर।।48।।
सो धाी दाता पलक में, तिरै तिरावण जोग।
दादू ऐसा परम गुरु, पाया किहिं संजोग।।49।।
दादू सद्गुरु ऐसा कीजिए, राम रस माता।
पार उतारे पलक में, दर्शन का दाता।।50।।
देवे किरका दरद का, टूटा जोड़े तार।
दादू सांधो सुरति को, सो गुरु पीर हमार।।51।।
दादू घायल होय रहे, सद्गुरु के मारे।
दादू अंग लगाय करि, भव सागर तारे।।52।।
दादू साचा गुरु मिल्या, साचा दिया दिखाइ।
साचे को साचा मिल्या, साचा रह्या समाइ।।53।।
साचा सद्गुरु सोधिाले, साँचे लीजे साधा।
साचा साहिब सोधिा कर, दादू भक्ति अगाधा।।54।।
सन्मुख सद्गुरु साधु सौं, सांई सौं राता।
दादू प्याला प्रेम का, महा रस माता।।55।।
सांई सौं साचा रहै, सद्गुरु सौं शूरा।
साधाू सौं सन्मुख रहै, सो दादू पूरा।।56।।
सद्गुरु मिलै तो पाइये, भक्ति मुक्ति भण्डार।
दादू सहजैं देखिए, साहिब का दीदार।।47।।
दादू सांई सद्गुरु सेविये, भक्ति मुक्ति फल होय।
अमर अभय पद पाइये, काल न लागे कोय।।58।।
गुरु बिना ज्ञान नहीं
इक लख चन्दा आण घर, सूरज कोटि मिलाय।
दादू गुरु गोविंद बिन, तो भी तिमर न जाय।।59।।
अनेक चंद उदय करे, असंख्य सूर प्रकास।
एक निरंजन नाम बिन, दादू नहीं उजास।।60।।
दादू कदि यहु आपा जायगा, कदि यहु बिसरे और।
कदि यहु सूक्षम होयगा, कदि यहु पावे ठौर।।61।।
विषम दुहेला जीव को, सद्गुरु तैं आसान।
जब दरवे तब पाइये, नेड़ा ही अस्थान।।62।।
गुरु ज्ञान
दादू नैन न देखे नैन को, अन्तर भी कुछ नाँहि।
सद्गुरु दर्पण कर दिया, अरस परस मिल माँहि।।63।।
घट-घट राम रतन है, दादू लखे न कोइ।
सद्गुरु शब्दों पाइये, सहजैं ही गम होइ।।64।।
जब ही कर दीपक दिया, तब सब सूझन लाग।
यूं दादू गुरु ज्ञान तैं, राम कहत जन जाग।।65।।
आत्मार्थी भेष
दादू मन माला तहाँ फेरिये, जहाँ दिवस न परसे रात।
तहाँ गुरु बानाँ दिया, सहजै जपिये तात।।66।।
दादू मन माला तहाँ फेरिये, जहाँ प्रीतम बैठे पास।
आगम गुरु तैं गम भया, पाया नूर निवास।।67।।
दादू मन माला तहँ फेरिये, जहाँ आपै एक अनन्त।
सहजै सो सद्गुरु मिल्या, जुग-जुग फाग बसन्त।।68।।
दादू सद्गुरु माला मन दिया, पवन सुरति सूँ पोइ।
बिन हाथों निश दिन जपै, परम जाप यूँ होइ।।69।।
दादू मन फकीर मांही हुआ, भीतर लीया भेख।
शब्द गहै गुरुदेव का, माँगे भीख अलेख।।70।।
दादू मन फकीर सद्गुरु किया, कहि समझाया ज्ञान।
fuýल आसन बैस कर, अकल पुरुष का धयान।।71।।
दादू मन फकीर जग तैं रह्या, सद्गुरु लीया लाय।
अहनिशि लागा एक सौं, सहज शून्य रस खाय।।72।।
दादू मन फकीर ऐसे भया, सद्गुरु के परसाद।
जहाँ का था लागा तहाँ, छूटे वाद विवाद।।73।।
ना घर रह्या न वन गया, ना कुछ किया कलेश।
दादू मनहीं मन मिल्या, सद्गुरु के उपदेश।।74।।
भ्रम विधवंस
दादू यहु मसीत यहु देहुरा, सद्गुरु दिया दिखाय।
भीतरि सेवा बन्दगी, बाहर काहे जाय।।75।।
कस्तूरिया मृग
दादू मंझे चेला मंझे गुरु, मंझे ही उपदेश।
बाहरि ढूढैं बावरे, जटा बधााये केश ।।76।।
मन का दमन
मन का मस्तक मूंडिये, काम-क्रोधा के केश।
दादू विषै विकार सब, सद्गुरु के उपदेश।।77।।
दादू पड़दा भरम का, रह्या सकल घट छाय।
गुरु गोविन्द कृपा करैं, तो सहजैं ही मिट जाय।।78।।
सूक्ष्म मार्ग
जिहिं मत साधु उध्दरैं, सो मत लीया शोधा।
मन लै मारग मूल गहि, यह सद्गुरु का परमोधा।।79।।
दादू सोई मारग मन गह्या, जिहिं मारग मिलिये जाय।
वेद कुरानों ना कह्या, सो गुरु दिया दिखाय।।80।।
विचार
मन भुवंग यहु विष भरया, निर्विष क्यौं ही न होइ।
दादू मिल्या गुरु गारुड़ी, निर्विष कीया सोइ।।81।।
एता कीजे आप तैं, तन मन उनमनि लाय।
पंच समाधाी राखिये, दूजा सहज सुभाय।।82।।
दादू जीव जंजालौं पड़ गया, उलझा नौ मण सूत।
कोई इक सुलझे सावधाान, गुरु बाइक अवधाूत।।83।।
मन निरोधा
चंचल चहुँ दिशि जात है, गुरु बाइक सों बंधिा।
दादू संगति साधु की, पार-ब्रह्म सों संधिा।।84।।
गुरु अंकुश माने नहीं, उदमद माता अंधा।
दादू मन चेतै नहीं, काल न देखै फंधा।।85।।
दादू मारया बिन माने नहीं, यह मन हरि की आन।
ज्ञान खड़ग गुरुदेव का, ता संग सदा सुजान।।86।।
जहाँ तैं मन उठि चले, फेरि तहाँ ही राखि।
तहँ दादू लै लीन करि, साधु कहें गुरु साखि।।87।।
दादू मन ही सूं मल ऊपजै, मन ही सूं मल धाोय।
सीख चले गुरु साधु की, तो तू निर्मल होय।।88।।
दादू कच्छब अपने कर लिये, मन इन्द्रिय निजठौर।
नाम निरंजन लागि रहु, प्राणी परहरि और।।89।।
मन के मतै सब कोइ खेले, गुरुमुख विरला कोइ।
दादू मन की माने नहीं, सद्गुरु का शिष्य सोइ।।90।।
सब जीवों को मन ठगै, मन को विरला कोइ।
दादू गुरु के ज्ञान सौं, सांई सन्मुख होइ।।91।।
दादू एक सूं लै लीन होना, सबै सयानप येह।
सद्गुरु साधु कहत हैं, परम तत्तव जप लेह।।92।।
सद्गुरु शब्द विवेक बिन, संयम रहा न जाय।
दादू ज्ञान विचार बिन, विषय हलाहल खाय।।93।।
घर-घर घट कोल्हू चले, अमीं महा रस जाय।
दादू गुरु के ज्ञान बिन, विषय हलाहल खाय।।94।।
शिष्य प्रबोधा
सद्गुरु शब्द उलंघ करि, जिन कोई शिष्य जाय।
दादू पग-पग काल है, जहाँ जाइ तहँ खाय।।94।।
सद्गुरु बरजे शिष्य करे, क्यों कर बंचे काल।
दह दिशि देखत बहि गया, पाणी फोड़ी पाल।।96।।
दादू सद्गुरु कहै सु शिष्य करे, सब सिध्द कारजहोय।
अमर अभय पद पाइये, काल न लागे कोय।।97।।
दादू जे साहिब को भावै नहीं, सो हम तैं जिन होइ।
सद्गुरु लाजे आपणा, साधु न माने कोइ।।98।।
दादू 'हूं' की ठाहर 'है' कहो, 'तन' की ठाहर 'तूं'।
'री' की ठाहर 'जी' कहो, ज्ञान गुरु का यूँ।।99।।
गुरु ज्ञान
दादू पंच स्वादी पंच दिशि, पंचे पंचों बाट।
तब लग कह्या न कीजिये, गह गुरु दिखाया घाट।।100।।
दादू पंचों एक मत, पंचों पूरया साथ।
पंचों मिल सन्मुख भये, तब पंचों गुरु की बाट।।101।।
सद्गुरु विमुख ज्ञान
दादू ताता लोहा तिणे सूँ, क्यों कर पकडया जाय।
गहन गति सूझे नहीं, गुरु नहीं बूझे आय।।102।।
गुरु विमुख कसौटी
दादू अवगुण गुण कर माने गुरु के, सोई शिष्य सुजान।
सद्गुरु अवगुण क्यों करे, समझे सोई सयान।।103।।
सोने सेती वैर क्या, मारे घण के घाइ।
दादू काट कलंक सब, राखे कंठ लगाइ।।104।।
पाणी माँही राखिये, कनक कलंक न जाइ।
दादू गुरु के ज्ञान सौं, ताइ अग्नि में बाहि।।105।।
दादू माँही मीठा हेत कर, ऊपर कड़वा राखि।
सद्गुरु शिष्य को सीख दे, सब साधाूं की साखि।।106।।
गुरु शिष्य प्रबोधा
दादू कहेµशिष्य भरोसे आपणै, ह्नै बोली हुसियार।
कहेगा सो बहेगा, हम पहली करैं पुकार।।107।।
दादू सद्गुरु कहैं सु कीजिये, जे तूं शिष्य सुजान।
जहाँ लाया तहाँ लाग रहु, बूझे कहाँ अजान।।108।।
गुरु पहले मन सौं कहैं, पीछे नैन की सैन।
दादू शिष्य समझैं नहीं, कहि समझावै बैन।।109।।
कहे लखे सो मानवी, सैन लखे सो साधा।
मन की लखे सु देवता, दादू अगम अगाधा।।110।।
कठोरता
दादू कहि-कहि मेरी जीभ रही, सुन-सुन तेरे कान।
सद्गुरु बपुरा क्या करे, जो चेला मूढ अजान।।111।।
गुरु शिष्य प्रबोधा
एक शब्द सब कुछ कह्या, सद्गुरु शिष्य समझाय।
जहँ लाया तहँ लागे नहीं, फिर-फिर बूझे आय।।112।।
ज्ञान लिया सब सीख सुनि, मन का मैल न जाय।
गुरु बिचारा क्या करे, शिष्य विषय हलाहल खाय।।113।।
सद्गुरु की समझे नहीं, अपने उपजे नाँहि।
तो दादू क्या कीजिए, बुरी व्यथा मन माँहि।।114।।
असद् गुरु
गुरु अपंग पग पंख बिन, शिष्य शाखा का भार।
दादू खेवट नाव बिन, क्यों उतरेंगे पार।।115।।
दादू संशा जीव का, शिष्य शाखा का साल।
दोनों को भारी पड़ी, होगा कौन हवाल।।116।।
अंधो अंधाा मिल चले, दादू बन्धा कतार।
कूप पड़े हम देखते, अंधो अंधाा लार।।117।।
पर प्रबोधा
सोधाी नहीं शरीर की, औरों को उपदेश।
दादू अचरज देखिया, ये जाँयेंगे किस देश।।118।।
सोधाी नहीं शरीर की, कहैं अगम की बात।
जान कहावें बापुड़े, आयुधा लीये हाथ।।119।।
सत्यासत्य गुरु परीक्षा लक्षण
दादू माया मांहैं काढि कर, फिर माया में दीन्ह।
दोऊ जन समझै नहीं, एको काज न कीन्ह।।120।।
दादू कहै सो गुरु किस काम का, गहि भरमावे आन।
तत्तव बतावे निर्मला, सो गुरु साधु सुजान।।121।।
तूं मेरा हूँ तेरा, गुरु शिष्य कीया मंत।
दोनों भूले जात हैं, दादू विसरा कंत।।122।।
दुहि-दुहि पीवे ग्वाल गुरु, शिष्य है छेली गाय।
यह अवसर यों ही गया, दादू कहि समझाय।।123।।
शिष गोरू गुरु ग्वाल है, रक्षा कर कर लेय।
दादू राखे जतन करि, आनि धाणी को देय।।124।।
झूठे अंधो गुरु घणे, भरम दिढावें आय।
दादू साचा गुरु मिले, जीव ब्रह्म हो जाय।।125।।
झूठे अंधो गुरु घणे, बंधो विषय विकार।
दादू साचा गुरु मिले, सन्मुख सिरजनहार।।126।।
झूठे अंधो गुरु घणे, भरम दिढावें काम।
बंधो माया मोह सों, दादू मुख सों राम।।127।।
झूठे अंधो गुरु घणे, भटकैं घर-घर बार।
कारज को सीझे नहीं, दादू माथे मार।।128।।
बेखर्च व्यसनी
दादू भक्त कहावें आपको, भक्ति न जाने भेव।
सपने हीं समझे नहीं, कहाँ बसे गुरुदेव।।129।।
भ्रम विधवंस
भरम करम जग बंधिाया, पंडित दिया भुलाय।
दादू सद्गुरु ना मिले, मारग देइ दिखाय।।130।।
दादू पंथ बतावें पाप का, भरम कर्म विश्वास।
निकट निरंजन जे रहै, क्यों न बतावें तास।।131।।
विचार
दादू आपा उरझे उरझिया, दीसे सब संसार।
आपा सुरझे सुरझिया, यहु ज्ञान विचार।।132।।
गुरु मुख कसौटी
साधु का ऍंग निर्मला, तामें मल न समाय।
परम गुरु परगट कहैं, तातैं दादू ताय।।133।।
चेतावनी
राम नाम गुरु शब्द सों, रे मन पेलि भरंम।
निहकरमी सूं मन मिल्या, दादू काटि करंम।।134।।
सूक्ष्म मार्ग
दादू बिन पायन का पंथ है, क्यों कर पहुँचे प्रान।
विकट घाट औघट खरे, माँहि शिखर असमान।।135।।
मन ताजी चेतन चढे, ल्यौ की करे लगाम।
शब्द गुरु का ताजणा, कोई पहुँचे साधु सुजान।।136।।
पारख लक्षण
साधाों सुमिरण सो कह्या, जिहिँ सुमिरण आपा भूल।
दादू गहि गम्भीर गुरु, चेतन आनँद मूल।।137।।
स्वार्थी परमार्थी
दादू आप सवारथ सब सगे, प्राण सनेही नाँहि।
प्राण सनेही राम है, कै साधु कलि माँहि।।138।।
सुख का साथी जगत् सब, दुख का नाहीं कोइ।
दुख का साथी सांइया, दादू सद्गुरु होइ।।139।।
सगे हमारे साधु हैं, शिर पर सिरजनहार।
दादू सद्गुरु सो सगा, दूजा धांधा विकार।।140।।
दया निर्वैरता
दादू के दूजा नहीं, एकै आतम राम।
सद्गुरु शिर पर साधु सब, प्रेम भक्ति विश्राम।।141।।
उपजनि
दादू शुधा बुधा आत्मा, सद्गुरु परसे आय।
दादू भृंगी कीट ज्यौं, देखत ही हो जाय।।142।।
दादू भृंगी ज्यौं, सद्गुरु सेती होय।
आप सरीखे कर लिये, दूजा नाँही कोय।।143।।
दादू कच्छप राखे दृष्टि में कुंजों के मन माँहिं।
सद्गुरु राखे आपणा, दूजा कोई नाँहिं।।144।।
बच्चों के माता पिता, दूजा नाँहीं कोइ।
दादू निपजे भाव सूं, सद्गुरु के घट होइ।।145।।
बेपरवाही
एकै शब्द अनन्त शिष्य, जब सद्गुरु बोलै।
दादू जड़े कपाट सब, दे कूँची खोलै।।146।।
बिन ही किये होय सब, सन्मुख सिरजनहार।
दादू कर कर को मरे, शिष्य शाखा शिर भार।।147।।
सूरज सन्मुख आरसी, पावक किया प्रकास।
दादू सांई साधु बिच, सहजैं निपजै दास।।148।।
मन इन्द्रिय निग्रह
दादू पंचों ये परमोधा ले, इनहीं को उपदेश।
यहु मन अपणा हाथ कर, तो चेला सब देश।।149।।
अमर भये गुरु ज्ञान सौं, केते इहिं कलि माँहि।
दादू गुरु के ज्ञान बिन, केते मरि-मरि जाँहि।।150।।
औषधिा खाइ न पछ रहे, विषम व्याधिा क्यों जाय।
दादू रोगी बावरा, दोष वैद्य को लाय।।151।।
वैद्य व्यथा कहे देखि कर, रोगी रहे रिसाय।
मन माँही लीये रहै, दादू व्याधिा न जाय।।152।।
दादू वैद्य बिचारा क्या करे, रोगी रहे न साँच।
खाटा मीठा चरपरा, माँगे मेरा वाच।।153।।
गुरु उपदेश
दुर्लभ दरशन साधु का, दुर्लभ गुरु उपदेश।
दुर्लभ करिबा कठिन है, दुर्लभ परस अलेख।।154।।
दादू अविचल मंत्रा, अमर मंत्रा अखै मंत्रा,
अभय मंत्रा, राम मंत्रा, निजसार।
संजीवन मंत्रा, सबीरज मंत्रा, सुंदर मंत्रा, शिरोमणिमंत्रा,
निर्मल मंत्रा, निराकार।
अलख मंत्रा, अकल मंत्रा, अगाधा मंत्रा, अपार मंत्रा,
अनंत मंत्रा, राया।
नूर मंत्रा, तेज मंत्रा, ज्योति मंत्रा, प्रकाश मंत्रा, परम
मंत्रा, पाया।
उपदेश दीक्षा (दादू गुरु राया)।।155।।
दादू सब ही गुरु किये, पशु पंखी बन राय।
तीन लोक गुण पंच सौं, सब ही माँहि खुदाय।।156।।
जो पहली सद्गुरु कह्या, सो नैनहुँ देख्या आइ।
अरस परस मिलि एक रस, दादू रहे समाइ।।157।।
।।इति गुरुदेव का अंग सम्पूर्ण।।
अथ सुमिरण का अंग।।2।।
दादू नमो नमो निरंजनं, नमस्कार गुरु देवत:।
वन्दनं सर्व साधावा, प्रणामं पारंगत:।।1।।
एकै अक्षर पीव का, सोई सत्य करि जाणि।
राम नाम सद्गुरु कह्या, दादू सो परवाणि।।2।।
पहली श्रवण द्वितीय रसन, तृतीय हिरदै गाय।
चतुर्थी चिंतन भया, तब रोम-रोम ल्यौ लाय।।3।।
मन प्रबोधा
दादू नीका नाम है, तीन लोक तत सार।
रात दिवस रटबौ करी, रे मन इहै विचार।।4।।
दादू नीका नाम है, हरि हिरदै न विसार।
मूर्ति मन माँहीं बसे, श्वासैं श्वास सँभार।।5।।
श्वासैं श्वास सँभालतां, इक दिन मिलि है आय।
सुमिरण पैंडा सहज का, सद्गुरु दिया बताय।।6।।
दादू नीका नाम है, सो तू हिरदै राखि।
पाखंड प्रपंच दूर कर, सुनि साधु जन की साखि।।7।।
दादू नीका नाम है, आप कहै समझाय।
और आरंभ सब छाड़ि दे, राम नाम ल्यौ लाय।।8।।
राम भजन का सोच क्या, करतां होइ सो होय।
दादू राम सँभालिये, फिर बूझिये न कोय।।9।।
नाम चेतावनी
राम तुम्हारे नाम बिन, जे मुख निकसे और।
तो इस अपराधाी जीव को, तीन लोक कित ठौर।।10।।
छिन-छिन राम सँभालतां, जे जिव जाय तो जाय।
आतम के आधाार को, नाहीं आन उपाय।।11।।
सुमिरण माहात्म्य
एक महूरत मन रहै, नाम निरंजन पास।
दादू तब ही देखतां, सकल करम का नास।।12।।
सहजैं ही सब होइगा, गुण इन्द्री का नास।
दादू राम सँभालतां, कटै कर्म के पास।।13।।
नाम चिंतावणी
एक राम के नाम बिन, जीवन की जलनी न जाय।
दादू केते पचि मुये, करि करि बहुत उपाय।।14।।
दादू एक राम की टेक गहि, दूजा सहज सुभाय।
राम नाम छाडै नहीं, दूजा आवै जाय।।15।।
नाम अगाधाता
दादू राम अगाधा है, परिमित नाँही पार।
अवर्ण वर्ण न जाणिये, दादू नाम अधाार।।16।।
दादू राम अगाधा है, अविगति लखै न कोइ।
निर्गुण सगुण का कहै, नाम विलम्ब न होइ।।17।।
दादू राम अगाधा है, बेहद लख्या न जाय।
आदि अंत नहिं जाणिये, नाम निरंतर गाय।।18।।
दादू राम अगाधा है, अकल अगोचर एक।
दादू नाम विलंबिये, साधाू कहैं अनेक।।19।।
दादू एकै अल्लह राम है, समर्थ सांई सोय।
मैदे के पकवान सब, खातां होय सु होय।।20।।
सगुण निर्गुण ह्नै रहे, जैसा है तैसा लीन।
हरि सुमिरण ल्यौ लाइये, का जाणौं का कीन।।21।।
नाम चित्ता आवे सो लेय
दादू सिरजनहार के, केते नाम अनंत।
चित आवै सो लीजिये, यूँ साधाू सुमरैं संत।।22।।
दादू जिन प्राण पिंड हम कूं दिया, अंतर सेवैं ताहि।
जे आवै औसाण शिर, सोई नाम संबाहि।।23।।
चिंतावणी
दादू ऐसा कौण अभागिया, कछू दिढावे और।
नाम बिना पग धारन कौं, कहो कहाँ है ठौर।।24।।
सुमिरण नाम महिमा माहात्म्य
दादू निमष न न्यारा कीजिए, अंतर तैं उर नाम।
कोटि पतित पावन भये, केवल कहतां राम।।25।।
मन प्रबोधा
दादू जे तैं अब जाण्या नहीं, राम नाम निज सार।
फिर पीछे पछिताहिगा, रे मन मूढ गँवार।।26।।
दादू राम सँभालि ले, जब लग सुखी शरीर।
फिर पीछैं पछिताहिगा, जब तन मन धारै न धाीर।।27।।
दुख दरिया संसार है, सुख का सागर राम।
सुख सागर चलि जाइये, दादू तज बेकाम।।28।।
दादू दरिया यह संसार है तामें राम नाम जिननाव।
दादू ढील न कीजिए, यहु औसर यहु डाव।।29।।
सुमिरण नाम नि:संशय
मेरे संशा को नहीं, जीवण-मरण का राम।
सपनैं ही जिन बीसरै, मुख हिरदै हरिनाम।।30।।
सुमिरण नाम विरह
दादू दुखिया तब लगै, जब लग नाम न लेह।
तब ही पावन परम सुख, मेरी जीवनि येह।।31।।
सुमिरण नाम परीक्षा लक्षण
कछू न कहावै आपकौं, सांई कूं सेवै।
दादू दूजा छाडि सब, नाम निज लेवै।।32।।
सुमिरण नाम नि:संशय
जे चित चहुँटे राम सौं, सुमिरण मन लागै।
दादू आतम जीव का, संशा सब भागै।।33।।
सुमिरण नाम चिंतावणी
दादू पिव का नाम ले, तौ हि मिटे शिर साल।
घड़ी महूरत चालणां, कैसी आवै कालि।।34।।
सुमिरण बिना श्वास न ले
दादू औसर जीव तैं, कह्या न केवल राम।
अंतकाल हम कहैंगे, जम वैरी सौं काम।।35।।
दादू ऐसे महँगे मोल का, एक श्वास जे जाय।
चौदह लोक समान सो, काहे रेत मिलाय।।36।।
अमोलक श्वास
सोइ श्वास सुजाण नर, सांई सेती लाइ।
करि साटा सिरजनहार सूं, महँगे मोल बिकाइ।।37।।
व्यर्थ जीवन
जतन करे नहिं जीव का, तन मन पवना फेरि।
दादू महँगे मोल का, द्वै दोवटी इक सेर।।38।।
सफल जीवन
दादू रावत राजा राम का, कदे न विसारी नाँव।
आतम राम सँभालिये, तो सु बस काया गाँव।।39।।
निरंतर सुमिरण
दादू अहनिश सदा शरीर में हरि, चिन्तत दिन जाय।
प्रेम मगन लै लीन मन, अन्तर गति ल्यौ लाय।।40।।
निमष एक न्यारा नहीं, तन मन मंझि समाय।
एक अंग लागा रहै, ताकूं काल न खाय।।41।।
दादू पिंजर पिंड शरीर का, सुवटा सहज समाय।
रमता सेती रमि रहै, विमल-विमल जश गाय।।42।।
अविनाशी सूं एक ह्नै, निमष न इत उत जाय।
बहुत बिलाई क्या करे, जे हरि-हरि शब्द सुनाय।।43।।
दादू जहाँ रहूँ तहँ राम सूं, भावै कंदलि जाय।
भावै गिरि परबत रहूँ, भावै गेह बसाय।।44।।
भावै जाइ जलहरि रहूँ, भावै शीश नवाय।
जहाँ तहाँ हरि नाम सूं हिरदै हेत लगाय।।45।।
मन प्रबोधा
दादू राम कहे सब रहत है, नख शिख सकल शरीर।
राम कहे बिन जात है, समझी मनवा वीर।।46।।
दादू राम कहे सब रहत है, लाहा मूल सहेत।
राम कहे बिन जात है, मूरख मनवा चेत।।47।।
दादू राम कहे सब रहत है, आदि अन्त लौं सोय।
राम कहे बिन जात है, यहु मन बहुरि न होय।।48।।
दादू राम कहे सब रहत है, जीव ब्रह्म की लार।
राम कहे बिन जात है, रे मन हो हुशियार।।49।।
परोपकार
हरि भज साफल जीवणा, पर उपकार समाय।
दादू मरणा तहाँ भला, जहाँ पशु पक्षी खाय।।50।।
सुमिरण
दादू राम शब्द मुख ले रहै, पीछै लागा जाय।
मनसा वाचा करमना, तिहिं, तत सहजि समाय।।51।।
दादू रचि मचि लागे नाम सौं, राते माते होय।
देखेंगे दीदार कूं, सुख पावैंगे सोय।।52।।
चेतावणी
दादू सांई सेवै सब भले, बुरा न कहिये कोइ।
सारौं माँही सो बुरा, जिस घट नाम न होइ।।53।।
दादू जियरा राम बिन, दुखिया इहि संसार।
उपजै विनशै खपि मरे, सुख दुख बारंबार।।54।।
राम नाम रूचि ऊपजे, लेवे हित चित लाय।
दादू सोई जीयरा, काहे जमपुरि जाय।।55।।
दादू नीकी बरियाँ आय करि, राम जप लीन्हा।
आतम साधान सोधिा करि, कारज भल कीन्हा।।56।।
दादू अगम वस्तु पानैं पड़ी, राखी मांझि छिपाय।
छिन-छिन सोई संभालिये, मति वै बीसर जाय।।57।।
सुमिरण नाम माहात्म्य
दादू उज्ज्वल निर्मला, हरि रँग राता होय।
काहे दादू पचि मरे, पानी सेती धाोय।।58।।
शरीर सरोवर राम जल, माँहैं संयम सार।
दादू सहजैं सब गये, मन के मैल विकार।।59।।
दादू राम नाम जलं कृत्तवा, स्नानं सदा जित:।
तन मन आतम निर्मलं, पचं भू पापं गत:।।60।।
दादू उत्ताम इन्द्री निग्रहं, मुच्यते माया मन:।
परम पुरुष पुरातनं, चिन्तते सदा तन:।।61।।
दादू सब जग विष भरा, निर्विष विरला कोय।
सोई निर्विष होयगा, जाके नाम निरंजन होय।।62।।
दादू निर्विष नाम सौं, तन मन सहजैं होय।
राम निरोगा करेगा, दूजा नाहीं कोय।।63।।
ब्रह्मभक्ति जब ऊपजे, तब माया भक्ति विलाय।
दादू निर्मल मल गया, ज्यूँ रवि तिमिर नशाय।।64।।
मन हरि भाँवरि
दादू विषय विकार सूं, जब लग मन राता।
तब लग चित्ता न आवई, त्रिाभुवनपति दाता।।65।।
दादू का जाणौं कब होयगा, हरि सुमिरण इकतार।
का जाणौं कब छाड़ि है, यह मन विषय विकार।।66।।
है सो सुमिरण होता नहीं, नहीं सु कीजे काम।
दादू यहु तन यौं गया, क्यूँ करि पाइये राम।।67।।
सुमिरण नाम महिमा माहात्म्य
दादू राम नाम निज मोहनी, जिन मोहे करतार।
सुर नर शंकर मुनि जना, ब्रह्मा सृष्टि विचार।।67।।
दादू राम नाम निज औषधाी, काटे कोटि विकार।
विषम व्याधिा तैं ऊबरे, काया कंचन सार।।69।।
दादू निर्विकार निज नाम ले, जीवन इहै उपाइ।
दादू कृत्रिाम काल है, ताके निकट न जाइ।।70।।
सुमिरण
मन पवना गहि सुरति सौं, दादू पावे स्वाद।
सुमिरण माँहीं सुख घणा, छाडि देहु बकवाद।।71।।
नाम सपीड़ा लीजिए, प्रेम भक्ति गुण गाय।
दादू सुमिरण प्रीति सौं, हेत सहित ल्यौ लाय।।72।।
प्राण कमल मुख राम कहि, मन पवना मुख राम।
दादू सुरति मुख राम कहि, ब्रह्म शून्य निज ठाम।।73।।
दादू कहतां सुनता राम कहि लेतां देतां राम।
खातां पीतां राम कहि, आत्म कमल विश्राम।।74।।
ज्यों जल पैसे दूधा में, ज्यों पाणी में लौंण।
ऐसे आतम राम सौं, मन हठ साधो कौंण।।75।।
दादू राम नाम में पैसि करि, राम नाम ल्यो लाय।
यह इकंत त्राय लोक में, अनत काहे को जाय।।76।।
मधय
ना घर भला न वन भला, जहाँ नहीं निज नाम।
दादू उनमनी मन रहै, भला तो सोई ठाम।।77।।
नाम महिमा माहात्म्य
दादू निर्गुणं नामं मई, हृदय भाव प्रवर्ततं।
भरमं करमं किल्विषं, माया मोहं कंपितम्ड्ड78।।
कालं जालं सोचितं, भयानक जम किंकरं।
हरषं मुदितं सद्गुरं, दादू अविगत दर्शनं।।79।।
दादू सब सुख स्वर्ग पयाल के, तोल तराजू बाहि।
हरि सुख एक पलक का, ता सम कह्या न जाइ।।80।।
सुमिरण नाम पारख लक्षण
दादू राम नाम सब को कहे, कहिबे बहुत विवेक।
एक अनेकौं फिर मिलै, एक समाना एक।।81।।
दादू अपणी अपणी हद्द में, सबको लेवे नांउ।
जे लागे बेहद्द सौं, तिनकी मैं बलि जांउ।।82।।
सुमिरण नाम अगाधाता
कौण पटंतर दीजिए, दूजा नाहीं कोय।
राम सरीखा राम है, सुमिरयां ही सुख होय।।83।।
अपनी जाणे आप गति, और न जाणे कोइ।
सुमिर-सुमिर रस पीजिए, दादू आनँद होइ।।84।।
करणी बिना कथणी
दादू सब ही वेद पुराण पढि, नेटि नाम निधर्ाार।
सब कुछ इनहीं माँहि है, क्या करिये विस्तार।।85।।
नाम अगाधाता
पढ-पढ थाके पंडिता, किनहुँ न पाया पार।
कथ-कथ थाके मुनि जना, दादू नाम अधाार।।86।।
निगम हि अगम विचारिये, तउ पार न पावे।
तातैं सेवक क्या करे, सुमिरण ल्यौ लावे।।87।।
कथनी बिना करणी
दादू अलिफ एक अल्लाह का, जे पढ जाणै कोइ।
कुरान कतेबां इलम सब, पढकर पूरा होइ।।88।।
दादू यहु मन पिंजरा, माँही मन सूवा।
एक नाम अल्लाह का, पढ हाफिज हूवा।।89।।
सुमिरण नाम पारख लक्षण
नाम लिया तब जाणिये, जे तन मन रहै समाइ।
आदि अंत मधय एक रस, कबहूँ भूलि न जाइ।।90।।
विरह पतिव्रत
दादू एकै दशा अनन्य की, दूजी दशा न जाइ।
आपा भूलै आन सब, एकै रहै समाइ।।91।।
सुमिरण विनती
दादू पीवे एक रस, बिसरि जाय सब और।
अविगत यहु गति कीजिए, मन राखो इहि ठौर।।92।।
आतम चेतन कीजिए, प्रेम रस पीवे।
दादू भूले देह गुण, ऐसै जन जीवे।।93।।
सुमिरण नाम अगाधाता
कहि कहि केते थाके दादू, सुनि सुनि कहु क्या लेय।
लूंण मिले गलि पाणियाँ, ता सम चित यौं देय।।94।।
दादू हरि रस पीवतां, रती विलम्ब न लाय।
बारंबार सँभालिये, मति वै बीसरि जाय।।95।।
सुमिरण नाम विरह
दादू जागत सपना ह्नै गया, चिन्तामणि जब जाय।
तब ही साचा होत है, आदि अन्त उर लाय।।96।।
नाम न आवे तब दुखी, आवे सुख सन्तोष।
दादू सेवक राम का, दूजा हरख न शोक।।97।।
मिलै तो सब सुख पाइए, बिछुरे बहु दुख होय।
दादू सुख दुख राम का, दूजा नाहीं कोय।।98।।
दादू हरि का नाम जल, मैं मीन ता माँहि।
संग सदा आनन्द करे, विछुरत ही मर जाँहि।।99।।
दादू राम विसार करि, जीवें किहिं आधाार।
ज्यौं चातक जल बूँद कूँ, करे पुकार पुकार।।100।।
हम जीवें इहि आसिरे, सुमिरण के आधाार।
दादू छिटके हाथ तैं, तो हमको वार न पार।।101।।
पति-व्रत निष्काम सुमिरण
दादू नाम निमित राम हि भजे, भक्ति निमित भज सोय।
सेवा निमित सांई भजे, सदा सजीवन होय।।102।।
नाम सम्पूर्ण
दादू राम रसायन नित चवै, हरि है हीरा साथ।
सो धान मेरे सांइयां, अलख खजीना हाथ।।103।।
हिरदै राम रहे जा जन के, ताको ऊरा कौन कहै।
अठ सिधिा नौ निधिा ताके आगे, सन्मुख सदा रहै।।104।।
वंदित तीनों लोक बापुरा, कैसे दरश लहै।
नाम निसान सकल जग उपरि, दादू देखत है।।105।।
दादू सब जग नीधाना, धानवंता नहिं कोय।
सो धानवंता जानिये, जाके राम पदारथ होय।।106।।
संगहि लागा सब फिरे, राम नाम के साथ।
चिन्तामणि हिरदै बसे, तो सकल पदारथ हाथ।।107।।
दादू आनँद आतमा, अविनाशी के साथ।
प्राणनाथ हिरदै बसे, तो सकल पदारथ हाथ।।108।।
पुरुष प्रकाशित
दादू भावे तहाँ छिपाइये, साच न छाना होय।
शेष रसातल गगन धा्रू, परकट कहिये सोय।।109।।
दादू कहाँ था नारद मुनिजना, कहाँ भक्त प्रहलाद।
परकट तीनों लोक में, सकल पुकारैं साधा।।110।।
दादू कहाँ शिव बैठा धयान धारि, कहाँ कबीरा नाम।
सौ क्यूँ छाना होयगा, जे रु कहेगा राम।।111।।
दादू कहाँ लीन शुकदेव था, कहाँ पीपा रैदास।
दादू साचा क्यों छिपे, सकल लोक परकास।।112।।
दादू कहाँ था गोरख थरथरी, अनंत सिधाों का मंत।
परकट गोपीचन्द है, दत्ता कहैं सब संत।।113।।
अगम अगोचर राखिए, कर कर कोटि जतन।
दादू छाना क्यों रहै, जिस घट राम रतन।।114।।
दादू स्वर्ग पयाल में, साचा लेवे नाम।
सकल लोक शिर देखिए, परकट सब ही ठाम।।115।।
सुमिरण लांबि रस
सुमिरण का संशय रह्या, पछितावा मन माँहि।
दादू मीठा राम रस, सगला पीया नाँहि।।116।।
दादू जैसा नाम था, तैसा लीया नाँहि।
हौंस रही यहु जीव में, पछितावा मन माँहि।।117।।
सुमिरण नाम चिंतावणी
दादू शिर करवत बहै, बिसरे आतम राम।
माँहि कलेजा काटिये, जीव नहीं विश्राम।।118।।
दादू शिर करवत बहै, राम हृदै थें जाय।
माँहि कलेजा काटिये, काल दशों दिशि खाय।।119।।
दादू शिर करवत बहै, अंग परस नहिं होय।
माँहि कलेजा काटिये, यहु व्यथा न जाणे कोय।।120।।
दादू शिर करवत बहै, नैनहुँ निरखे नाँहि।
माँहि कलेजा काटिये, साल रह्या मन माँहि।।121।।
जेता पाप सब जग करे, तेता नाम बिसारे होइ।
दादू राम सँभालिये, तो येता डारे धाोइ।।122।।
दादू जब ही राम बिसारिये, तब ही मोटी मार।
खंड-खंड कर नाखिये, बीज पड़े तिहिं बार।।123।।
दादू जब ही राम बिसारिये, तब ही झ्रपै काल।
शिर ऊपर करवत बहै, आइ पड़े जम जाल।।124।।
दादूजबही राम बिसारिये, तब ही कँध विनाश।
पग-पग परले पिंड पड़े, प्राणी जाइ निराश ।।125।।
दादू जब ही राम बिसारिए, तब ही हाना होय।
प्राण पिंड सर्वस गया, सुखी न देख्या कोय।।126।।
नाम सम्पूर्ण
साहिबजी के नाम मां, विरहा पीड़ पुकार।
ताला-बेली रोवणा, दादू है दीदार।।127।।
सुमिरण विधिा
साहिबजी के नाम मां, भाव भक्ति विश्वास।
लै समाधिा लागा रहे, दादू सांई पास।।128।।
साहिबजी के नाम मां, मति बुधिा ज्ञान विचार।
प्रेम प्रीति सनेह सुख, दादू ज्योति अपार।।129।।
साहिबजी के नाम मां, सब कुछ भरे भंडार।
नूर तेज अनन्त है, दादू सिरजनहार।।130।।
जिसमें सब कुछ सो लिया, निरंजन का नांउ।
दादू हिरदै राखिये, मैं बलिहारी जांउ।।131।।
।।इति सुमिरण का अंग सम्पूर्ण।।
अथ विरह का अंग।।3।।
दादू नमो नमो निरंजनं, नमस्कार गुरु देवत:।
वन्दनं सर्व साधावा, प्रणामं पारंगत:।।1।।
रतिवंती आरति करे, राम सनेही आव।
दादू औसर अब मिलै, यहु विरहनि का भाव।।2।।
पीव पुकारे विरहनी, निश दिन रहै उदास।
राम राम दादू कहै, ताला-वेली प्यास।।3।।
मन चित चातक ज्यौं रटै, पिव पिव लागी प्यास।
दादू दरशन कारणै, पुरवहु मेरी आस।।4।।
दादू विरहनि दुख कासनि कहे, कासनि देइ संदेश।
पंथ निहारत पीव का, विरहनि पलटे केश।।5।।
विरहनि दुख कासनि कहै, जानत है जगदीश।
दादू निशदिन विरही है, विरहा करवत शीश।।6।।
शब्द तुम्हारा ऊजला, चिरिया क्यों कारी।
तुंहीं तुंहीं निश दिन करूँ, विरहा की जारी।।7।।
विरहनी-विलाप
विरहनि रोवे रात-दिन, झूरै मन ही माँहि।
दादू औसर चल गया, प्रीतम पाये नाँहि।।8।।
दादू विरहनि कुरलै कूंज ज्यों, निशदिन तलफत जाय।
राम सनेही कारणै, रोवत रैनि बिहाय।।9।।
पासे बैठा सब सुने, हमको जवाब न देय।
दादू तेरे शिर चढे, जीव हमारा लेय।।10।।
सबको सुखिया देखिए, दुखिया नाँहीं कोय।
दुखिया दादू दास हे, ऐन परस नहिं होय।।11।।
साहिब मुख बोले नहीं, सेवक फिरे उदास।
यहु वेदन जिय में रहे, दुखिया दादू दास।।12।।
पिव बिन पल-पल जुग भया, कठिन दिवस क्यों जाय।
दादू दुखिया राम बिन, काल रूप सब खाय।।13।।
दादू इस संसार में, मुझ सा दुखी न कोइ।
पीव मिलन के कारणैं, मैं जल भरिया रोइ।।14।।
ना वह मिले न मैं सुखी, कहो क्यों जीवन होय।
जिन मुझ को घायल किया, मेरी दारू सोय।।15।।
दरशन कारण विरहनी, वैरागनि होवे।
दादू विरह वियोगिनी, हरि मारग जोवे।।16।।
विरह उपदेश
अति गति आतुर मिलन को, जैसे जल बिन मीन।
सो देखे दीदार को, दादू आतम लीन।।17।।
छिन विछोह
राम विछोही विरहनी, फिर मिलण न पावे।
दादू तलफै मीन ज्यों, तुझ दया न आवे।।18।।
दादू जब लग सुरति समिटे नहीं, मन निश्चल नहीं होहि।
तब लग पिव परसे नहीं, बड़ी विपति यहु मोहि।।19।।
ज्यों अमली के चित अमल है, शूरे के संग्राम।
निर्धान के चित धान बसे, यौं दादू के राम।।20।।
ज्यों चातक के चित जल बसे, ज्यों पानी बिन मीन।
जैसे चन्द चकोर है, ऐसे दादू हरि सौं कीन।।21।।
ज्यों कु×जर के मन वन बसे, अनल पक्षि आकास।
यों दादू का मन राम सौं, ज्यों वैरागी वनखंड वास।।22।।
भँवरां लुबधाी वास का, मोह्या नाद कुरंग।
यों दादू का मन राम सौं, ज्यों दीपक ज्योति पतंग।।23।।
श्रवणा राते नाद सौं, नैन राते रूप।
जिह्ना राती स्वाद सौं, त्यों दादू एक अनूप।।24।।
विरह उपदेश
देह पियारी जीव को, निशि दिन सेवा माँहि।
दादू जीवन मरण लों, कबहुँ छाड़ी नाँहि।।25।।
देह पियारी जीव को, जीव पियारा देह।
दादू हरि रस पाइये, जे ऐसा होय सनेह।।26।।
दादू हरदम माँहि दिवान, सेज हमारी पीव है।
देखूँ सो सुबहान, यह इश्क हमारा जीव है।।27।।
दादू हरदम माँहि दिवान, कहूँ दरूने दरद सौं।
परद दरूने जाइ, जब देखूँ दीदार कौं।।28।।
विरह विनती
दादू दरूने दरदवंद, यहु दिल दरद न जाय।
हम दुखिया दीदार के, महरवान दिखलाय।।29।।
मूये पीड़ा पुकारता, वैद्य न मिलिया आय।
दादू थोड़ी बात थी, जे टुक दरश दिखाय।।30।।
दादू मैं भिखारी मंगता, दर्शन देहु दयाल।
तुम दाता दुख भंजता, मेरी करहु सँभाल।।31।।
छिन विछोह
क्या जीये में जीवणा, बिन दरशन बेहाल।
दादू सोई जीवणा, परगट परसन लाल।।32।।
इहि जग जीवन सो भला, जब लग हिरदै राम।
राम बिना जो जीवना, सो दादू बेकाम।।33।।
विरह विनती
दादू कहु दीदार की, सांई सेती बात।
कब हरि दरशन देहुगे, यह अवसर चल जात।।34।।
व्यथा तुम्हारे दरश की, मोहि व्यापै दिन-रात।
दुखी न कीजे दीन को, दरशन दीजे तात।।35।।
दादू इस हियड़े यह साल, पिव बिन क्योंहि न जायसी।
जब देखूँ मेरा लाल, तब रोम-रोम सुख आइसी।।36।।
तूं है तैसा प्रकाश करि, अपना आप दिखाय।
दादू को दीदार दे, बलि जाउं विलम्ब न लाय।।37।।
दादू पिवजी देखें मुझको, हूँ भी देखूँ पीव।
हूँ देखूँ देखत मिले, तो सुख पावे जीव।।38।।
विरह कसौटी
दादू कहै-तन मन तुम पर वारणै, कर दीजे कै बार।
जे ऐसी विधिा पाइये, तो लीजे सिरजनहार।।39।।
विरह पतिव्रत
दीन दुनी सदके करूँ, टुक देखण दे दीदार।
तन मन भी छिन-छिन करौं, भिस्त दोजख भी वार।।40।।
विरह कसौटी
दादू हम दुखिया दीदार के, तू दिल तैं दूर न होइ।
भावै हमको जाल दे, होना है सो होइ।।41।।
विरह पतिव्रता
दादू कहै-जे कुछ दिया हमको, सो सब तुम ही लेहु।
तुम बिन मन माने नहीं, दरश आपणा देहु।।42।।
दूजा कुछ माँगैं नहीं, हमको दे दीदार।
तूं है तब लग एक टग, दादू के दिलदार।।43।।
विरह विनती
दादू कहैµतूं है तैसी भक्ति दे, तूं है तैसा प्रेम।
तूं है तैसी सुरति दे, तूं है तैसा क्षेम।।44।।
विरह कसौटी
दादू कहैµसदके करूँ शरीर को, बेर-बेर बहु भंत।
भाव-भक्ति हित प्रेम ल्यौ, खरा पियारा कंत।।45।।
दादू दरशन की रली, हमको बहुत अपार।
क्या जाणूँ कब ही मिले, मेरा प्राण अधाार।।46।।
दादू कारण कंत के, खरा दुखी बेहाल।
मीरा मेरा मिहर करि, दे दर्शन दर हाल।।47।।
ताल-बेली प्यास बिन, क्यों रस पीया जाय।
विरहा दरशन दरद सौं, हमको देहु खुदाय।।48।।
ताला-बेली पीड़ सौं, विरहा प्रेम पियास।
दर्शन सेती दीजिए, विलसे दादू दास।।49।।
दादू कहैµहमको अपना आप दे, इश्क मुहब्बत दर्द।
सेज सुहाग सुख प्रेम रस, मिल खेलें लापर्द।।50।।
विरह उपदेश
प्रेम भक्ति माता रहे, तालाबेली अंग।
सदा सपीड़ा मन रहे, राम रमे उन संग।।51।।
विरह विनती
प्रेम मगन रस पाइये, भक्ति हेत रुचि भाव।
विरह विश्वास निज नाम सौं, देव दयाकर आव।।52।।
गई दशा सब बाहुड़े, जे तुम प्रगटहु आय।
दादू ऊजड़ सब बसे, दर्शन देहु दिखाय।।53।।
हम कसिये क्या होइगा, विड़द तुम्हारा जाय।
पीछैं ही पछिताहुगे, तातैं प्रकटहु आय।।54।।
छिन विछोह
मींयां मैंडा आव घर, वांढी वत्ताां लोइ।
डुखंडे मुंहिडे गये, मराँ विछोहै रोइ।।55।।
विरह पतिव्रत
है सो निधिा नहिं पाइये, नहिं सु है भरपूर।
दादू मन माने नहीं, तातैं मरिये झूर।।56।।
विरही विरह लक्षण परीक्षा
जिस घट इश्क अल्लाह का, तिस घट लोही न माँस।
दादू जियरे जक नहीं, सिसके श्वासों श्वास।।57।।
रती रब ना बीसरै, मरै सँभाल सँभाल।
दादू सुहदायी रहे, आशिक अल्लह नाल।।58।।
दादू आशिक रब्बदा, शिर भी डेवे लाहि।
अल्लह कारण आपको, साड़े अन्दर भाहि।।59।।
विरह-कसौटी
भोरे-भोरे तन करै, वंडे कर कुरबाण।
मिट्ठा कोड़ा ना लगे, दादू तोहूँ साण।।60।।
विरही विरह-लक्षण
जब लग शीश न सौंपिये, तब लग इश्क न होय।
आशिक मरणे ना डरे, पिया पियाला सोय।।61।।
विरह पतिव्रत
तैं डीनोंई सभु, जे डीये दीदार के।
उंजे लहदी अभु, पसाई दो पाण के।।62।।
बिचौं सभो डूर कर, अन्दर बिया न पाय।
दादू रत्ताा हिकदा, मन मुहब्बत लाय।।63।।
विरह उपदेश
इश्क मुहब्बत मस्त मन, तालिब दर दीदार।
दोस्त दिल हरदम हरजू, यादगार हुशियार।।64।।
विरह लक्षण
दादू आशिक एक अल्लाह के, फारिग दुनियाँ दीन।
तारिक इस औजूद तैं, दादू पाक यकीन।।65।।
आशिकां रह कब्ज करदां, दिल वजां रफतन्द।
अल्लह आले नूर दीदम, दिल हि दादू बन्द।।66।।
शब्द
दादू इश्क अवाज सौं, ऐसे कहै न कोय।
दर्द मुहब्बत पाइये, साहिब हासिल होय।।67।।
विरही विरह-लक्षण
कहाँ आशिक अल्लाह के, मारे अपने हाथ।
कहाँ आलम औजूद सौं, कहैं जबाँ की बात।।68।।
दादू इश्क अल्लाह का, जे कबहूँ प्रगटे आय।
तोतन-मनदिन अरवाह का, सब पड़दा जलजाय।।69।।
विरह-जिज्ञासु-उपदेश
अरवाहे सिजदा कुनंद, वजूद रा चि:कार।
दादू नूर दादनी, आशिकां दीदार।।70।।
विरह ज्ञानाग्नि
विरह अग्नि तन जालिये, ज्ञान अग्नि दौं लाय।
दादू नख-शिख पर जले, तब राम बुझावे आय।।71।।
विरह अग्नि में जालिबा, दरशन के तांई।
दादू आतुर रोइबा, दूजा कुछ नाँहीं।।72।।
विरह पतिव्रत
साहिब सौं कुछ बल नहीं, जिन हठ साधो कोय।
दादू पीड़ पुकारिये, रोतां होय सो होय।।73।।
ज्ञान धयान सब छाड़िदे, जप-तप साधान जोग।
दादू विरहा ले रहै, छाड़ि सकल रस भोग।।74।।
जहँ विरहा तहँ और क्या, सुधिा-बुधिा नाठे ज्ञान।
लोक वेद मारग तजे, दादू एकै धयान।।75।।
विरही-विरह लक्षण
विरही जन जीवे नहीं, जे कोटि कहैं समझाय।
दादू गहिला ह्नै रहै, कै तलफि-तलफि मरि जाय।।76।।
दादू तलफै पीड़ सौं, विरही जन तेरा।
सिसकै सांई कारणै, मिल साहिब मेरा।।77।।
पड़ा पुकारै पीड़ सौं, दादू विरही जन।
राम सनेही चित बसै, और न भावै मन।।78।।
जिस घट विरहा राम का, उसे नींद न आवे।
दादू तलफै विरहनी, उसे पीड़ जगावे।।79।।
सारा शूरा नींद भर, सब कोई सोवे।
दादू घाइल दर्दवंद, जागे अरु रोवे।।80।।
पीड़ पुराणी ना पड़े, जे अन्तर बैधया होय।
दादू जीवन-मरण लों, पड़या पुकारे सोय।।81।।
दादू विरही पीड़ा सौं, पड़या पुकारे मिंत्ता।
राम बिना जीवे नहीं, पीव मिलन की चिंत्ता।।82।।
जो कबहूँ विरहनि मरे, तो सुरति विरहनि होइ।
दादू पिव पिव जीवतां, मुवाँ भी टेरे सोइ।।83।।
दादू अपनी पीड़ पुकारिये, पीड़ पराई नाँहि।
पीड़ पुकारे सो भला, जाके करक कलेजे माँहि।।84।।
विरह-विलाप
ज्यों जीवत मृत्ताक कारणे, गत कर नाखे आप।
यों दादू कारण राम के, विरही करै विलाप।।85।।
दादू तलफि-तलफि विरहणि मरे, करि-करि बहुत विलाप।
विरह अग्नि में जल गई, पीव न पूछे बात।।86।।
दादू कहाँ जाऊँ कौन पै पुकारूँ, पीव न पूछे बात।
पिव बिन चैन न आवई, क्यों भरूँ दिन-रात।।87।।
दादू विरह वियोग न सह सकूँ, मों पै सह्या न जाय।
कोई कहो मेरे पीव को, दरश दिखावे आय।।88।।
दादू विरह वियोग न सह सकूँ, निशि दिन साले मोहि।
कोई कहो मेरे पीव कौं, कब मुख देखूँ तोहि।।89।।
दादू विरह वियोग न सहि सकूँ, तन-मन धारे न धाीर।
कोई कहो मेरे पीव को, मेटे मेरी पीर।।90।।
दादू कहै-साधु दुखी संसार में, तुम बिन रह्या न जाय।
औरों के आनन्द है, सुख सौं रैनि बिहाय।।91।।
दादू लाइक हम नहीं, हरि के दरशन जोग।
बिन देखे मर जाँहिगे, पिव के विरह वियोग।।92।।
विरह पतिव्रत
दादू सुख सांई सौं, और सबै ही दु:ख।
देखूँ दर्शन पीव का, तिस ही लागे सुख।।93।।
चन्दन शीतल चन्द्रमा, जल शीतल सब कोइ।
दादू विरही राम का, इन सौं कदे न होइ।।94।।
विरही-विरह-लक्षण
दादू घाइल दर्दवंद, अन्तर करे पुकार।
साँई सुने सब लोक में, दादू यहु अधिाकार।।95।।
दादू जागे जगत् गुरु, जब सगला सोवे।
विरही जागे पीड़ा सौं, जे घाइल होवे।।96।।
विरह-ज्ञानाग्नि
विरह अग्नि का दाग दे, जीवत मृतक गौर।
दादू पहली घर किया, आदि हमारी ठौर।।97।।
विरह पतिव्रत
दादू देखे का अचरज नहीं, अण देखे का होय।
देखे ऊपरि दिल नहीं, अण देखे को रोय।।98।।
विरह उपजनि
पहली आगम विरह का, पीछे प्रीति प्रकाश।
प्रेम मगन लै लीन मन, तहाँ मिलन की आश।।99।।
विरह वियोगी मन भला, साँई का वैराग।
सहज संतोषी पाइये, दादू मोटे भाग।।100।।
दादू तृषा बिना तन प्रीति न उपजे, शीतल निकट जल धारिया।
जनम लगैं जीव पुणग न पीवे, निर्मल दह दिश भरिया।।101।।
दादू क्षुधाा बिना तन प्रीति न उपजे, बहु विधिा भोजन नेरा।
जनम लगैं जिव रती न चाखे, पाक पूरि बहुतेरा।।102।।
दादू तपति बिना तन प्रीति न उपजे, संग हि शीतल छाया।
जनम लगैं जिव जाणे नाँहीं, तरुवर त्रिाभुवन राया।।103।।
दादू चोट बिना तन प्रीति न उपजे, औषधिा अंग रहंत।
जनम लगैं जीव पलक न परसे, बूँटी अमर अनंत।।104।।
दादू चोट न लागी विरह की, पीड़ा न उपजी आय।
जागि न रोवे धााह दे, सोवत गई बिहाय।।105।।
दादू पीड़ न ऊपजी, ना हम करी पुकार।
तातैं साहिब न मिल्या, दादू बीती बार।।106।।
अन्दर पीड़ न ऊभरै, बाहर करे पुकार।
दादू सो क्यों कर लहे, साहिब, का दीदार।।107।।
मन ही माँहीं झूरणा, रावे मन ही माँहि।
मन ही माँहीं धााह दे, दादू बाहर नाँहि।।108।।
बिन ही नैन हुँ रोवणा, बिन मुख पीड़ पुकार।
बिन ही हाथों पीटणा, दादू बारंबार।।109।।
प्रीति न उपजे विरह बिन, प्रेम भक्ति क्यों होय।
सब झूठे दादू भाव बिन, कोटि करे जे कोय।।110।।
दादू बातों विरह न ऊपजे, बातों प्रीति न होय।
बातों प्रेम न पाइये, जिनि रु पतीजे कोय।।111।।
विरह उपदेश
दादू तो पिव पाइये, कुश्मल है सो जाय।
निर्मल मन कर आरसी, मूरति माँहि लखाय।।112।।
दादू तो पिव पाइये, करिये मंझें विलाप।
सुणि है कबहु चित्ता धारि, परगट होवे आप।।113।।
दादू तो पिव पाइये, कर सांई की सेव।
काया माँहि लखाइसी, घट ही भीतरि देव।।114।।
दादू तो पिव पाइये, भावै प्रीति लगाय।
हेजैं हरि बुलाइये, मोहन मंदिर आय।।115।।
विरह-उपजनि
दादू जाके जैसी पीड़ा है, सो तैसी करे पुकार।
को सूक्ष्म को सहज में, को मृत्ताक तिहिं बार।।116।।
विरह-लक्षण
दरद हि बूझे दरदवंद, जाके दिल होवे।
क्या जाणे दादू दरद की, नींद भर सोवे।।117।।
दादू अक्षर प्रेम का, कोई पढ़ेगा एक।
दादू पुस्तक प्रेम बिन, केते पढ़ैं अनेक।।118।।
दादू पाती प्रेम की, विरला बाँचे कोइ।
वेद पुराण पुस्तक पढ़ै, प्रेम बिना क्या होइ।।119।।
विरह-लक्षण
दादू कर बिन, शर बिन, कमान बिन, मारै खैंचि कसीस।
लागी चोट शरीर में, नख शिख सालै सीस।।120।।
दादू भलका मारे भेद सौं, सालै मंझि पराण।
मारण हारा जाणि है, कै जिहिं लागे बाण।।121।।
दादू सो शर हमको मारिले, जिहिं शर मिलिये जाय।
निश दिन मारग देखिए, कबहूँ लागे आय।।122।।
जिहिं लागी सो जागि है, बेधया करै पुकार।
दादू पिंजर पीड़ है, सालै बारंबार।।123।।
विरही सिसकै पीड़ सौं, ज्यों घायल रण माँहि।
प्रीतम मारे बाण भरि, दादू जीवैं नाँहि।।124।।
दादू विरह जगावे दरद को, दरद जगावे जीव।
जीव जगावे सुरति को, पंच पुकारे पीव।।125।।
दादू मारे प्रेम सौं, बेधे साधु सुजाण।
मारण हारे को मिले, दादू विरही बाण।।126।।
सहजैं मनसा मन सधौ, सहजैं पवना सोय।
सहजैं पंचों थिर भये, जे चोट विरह की होय।।127।।
मारण हारा रहि गया, जिहिं लागी सो नाँहि।
कबहूँ सो दिन होइगा, यह मेरे मन माँहि।।128।।
प्रीतम मारे प्रेम सौं, तिनको क्या मारे।
दादू जारे विरह के, तिनको क्या जारे।।129।।
छिन-विछोह
दादू पड़दा पलक का, येता अंतर होइ।
दादू विरही राम बिन, क्यों करि जीवे सोइ।।130।।
विरह-लक्षण
काया मांहैं क्यों रह्या, बिन देखे दीदार।
दादू विरही बावरा, मरे नहीं तिहिं बार।।131।।
बिन देखे जीवै नहीं, विरह का सहिनाण।
दादू जीवै जब लगैं तब लग विरह न जाण।।132।।
विरह-विनती
रोम-रोम रस प्यास है, दादू करहि पुकार।
राम घटा दल उमंगि कर बरसहु सिरजनहार।।133।।
विरही-विरह-लक्षण
प्रीति जु मेरे पीव की, पैठी पिंजर माँहि।
ेरोम-रोम पिव-पिव करे, दादू दूसर नाँहि।।134।।
सब घट श्रवणा सुरति सौं, सब घट रसना बैंन।
सब घट नैना ह्नै रहै, दादू विरहा ऐन।।135।।
विरह-विलाप
रात दिवस का रोवणाँ, पहर पलक का नाँहि।
रोवत-रोवत मिल गया, दादू साहिब माँहि।।136।।
दादू नैन हमारे बावरे, रोवे नहिं दिन-रात।
सांई संग न जाग ही, पिव क्यों पूछे बात।।137।।
नैनहु नीर न आइया, क्या जाणैं ये रोइ।
तैसे ही कर रोइये, साहिब नैनहु जोइ।।138।।
दादू नैन हमारे ढीठ हैं, नाले नीर न जाँहि।
सूके सरां सहेत वै, करंक भये गलि माँहि।।139।।
विरही-विरह-लक्षण
दादू विरह प्रेम की लहरि में, यहु मन पंगुल होइ।
राम नाम में गलि गया, बुझै विरला कोइ।।140।।
विरह-ज्ञानाग्नि
विरह अग्नि में जल गये, मन के मैल विकार।
दादू विरही पीव का, देखेगा दीदीर।।141।।
विरह अग्नि में जल गये, मन के विषय विकार।
तातैं पंगुल ह्नै रह्या, दादू दर दीदार।।142।।
जब विरहा आया दरद सौं, तब मीठा लागा राम।
काया लागी काल ह्नै, कड़वे लागे काम।।143।।
विरह-बाण
जब राम अकेला रहि गया, तन-मन गया बिलाइ।
दादू विरही तब सुखी, जब दरश परस मिल जाइ।।144।।
विरही-विरह-लक्षण
जे हम छाडैं राम कूँ, तो राम न छाडै।
दादू अमली अमल तैं, मन क्यों करि काढ़ै।।145।।
विरहा पारस जब मिले, विरहनि विरहा होय।
दादू परसै विरहनी, पिव पिव टेरे सोय।।146।।
आशिक माशूक ह्नै गया इश्क कहावे सोय।
दादू उस माशूक का, अल्लह आशिक होय।।147।।
राम विरहनी ह्नै रह्या, विरहनि ह्नै गई राम।
दादू विरहा बापुरा, ऐसे कर गया काम।।148।।
विरह बिचारा ले गया, दादू हमको आइ।
जहँ अमग अगोचर राम था, तहँ विरह बिना को जाइ।।149।।
विरह बपुरा आइ करि, सोवत जगावे जीव।
दादू अंग लगाइ करि, ले पहुँचावे पीव।।150।।
विरहा मेरा मीत है, विरहा वैरी नाँहि।
विरहा को वैरी कहै, सो दादू किस माँहि।।151।।
दादू इश्क अलह की जाति है, इश्क अलह का अंग।
इश्क अल्लाह वजूद है, इश्क अलह का रंग।।152।।
साधु-महिमा-माहात्म्य
दादू प्रीतम के पग परसिये, मुझे देखन का चाव।
तहँ ले शीश नवाइये, जहाँ धारे थे पाव।।153।।
विरह-पतिव्रत
बाट विरह की सोधिा करि, पंथ प्रेम का लेहु।
लै के मारग जाइये, दूसर पाव न देहु।।154।।
विरहा वेगा भक्ति सहज में, आगे-पीछे जाय।
थोड़े माँहीं बहुत है, दादू रहु ल्यौ लाय।।155।।
विरह-बाण
विरहा वेगा ले मिले, ताला-बेली पीर।
दादू मन घाइल भया, सालै सकल शरीर।।156।।
विरह-विनती
आज्ञा अपरंपार की, बसि अम्बर भरतार।
हरे पटम्बर पहरि करि, धारती करे सिंगार।।157।।
वसुधाा सब फूले-फले, पृथ्वी अनन्त अपार।
गगन गर्ज जल थल भरै, दादू जै जै कार।।158।।
काला मुँह कर काल का, सांई सदा सुकाल।
मेघ तुम्हारे घर घणां, बरसहु दीनदयाल।।159।।
।।इति विरह का अंग सम्पूर्ण।।
अथ परिचय का अंग।।4।।
दादू नमो नमो निरंजनं, नमस्कार गुरु देवत:।
वन्दनं सर्व साधावा, प्रणामं पारंगत:।।1।।
दादू निरंतर पिव पाइया, तहाँ पंखी उनमनि जाय।
सप्तौ मंडल भेदिया, अष्टैं रह्या समाय।।2।।
दादू निरन्तर पिव पाइया, जहाँ निगम न पहुँचे वेद।
तेज स्वरूपी पिव बसे, कोई विरला जाने भेद।।3।।
दादू निरन्तर पिव पाइया, तीन लोक भरपूर।
सबो सेजों सांई बसे, लोक बतावें दूर।।4।।
दादू निरन्तर पिव पाइया, जहँ आनन्द बारह मास।
हंस सौ परम हंस खेले, तहँ सेवक स्वामी पास।।5।।
दादू रँग भरि खेलौं पीव सौं, तहँ बाजे बेणु रसाल।
अकल पाट पर बैठा स्वामी, प्रेम पिलावे लाल।।6।।
दादू रँग भरि खेलौं पीव सौं, सेती दीन दयाल।
निश वासर नहिं तहँ बसे, मानसरोवर पाल।।7।।
दादू रँग भरि खेलौं पीव सौं, तहँ कबहुँ न होय वियोग।
आदि पुरुष अंतरि मिल्या, कुछ पूरबले संयोग।।8।।
दादू रँग भरि खेलौं पीव सौं, तहँ बारह मास बसंत।
सेवक सदा अनंद है, जुग-जुग देखूँ कंत।।9।।
दादू काया अंतरि पाइया, त्रिाकुटी केरे तीर।
सहजैं आप लखाइया, व्याप्या सकल सरीर।।10।।
दादू काया अंतरि पाइया, निरन्तर निरधाार।
सहजैं आप लखाइया, ऐसा समर्थ सार।।11।।
दादू काया अंतरि पाइया, अनहद वेणु बजाय।
सहजैं आप लखाइया, शून्य मंडल में जाय।।12।।
दादू काया अंतरि पाइया, सब देवन का देव।
सहजै आप लखाइया, ऐसा अलख अभेव।।13।।
दादू भँवर कमल रस बेधिाया, सुख सरवर रस पीव।
तहँ हंसा मोती चुणैं, पिव देखे सुख जीव।।14।।
दादू भँवर कमल रस बेधिाया, गहे चरण कर हेत।
पिवजी परसत ही भया, रोम-रोम सब श्वेत।।15।।
दादू भँवर कमल रस बेधिाया, अनत न भरमे जाय।
तहाँ वास विलम्बिया, मगन भया रस खाय।।16।।
दादू भँवर कमल रस बेधिाया, गही जु पिव की ओट।
तहाँ दिल भँवरा रहै, कौन करे शिर चोट।।17।।
परिचय जिज्ञासु-उपदेश
दादू खोजि तहाँ पिव पाइये, शब्द ऊपने पास।
तहाँ एक एकान्त है, तहाँ ज्योति प्रकास।।18।।
दादू खोजि तहाँ पिव पाइये, जहाँ चंद न ऊगे सूर।
निरन्तर निधर्ाार है, तेज रह्या भरपूर।।19।।
दादू खोजि तहाँ पिव पाइये, जहँ बिन जिह्ना गुण गाय।
तहँ आदि पुरुष अलेख है, सहजै रह्या समाय।।20।।
दादू खोजि तहाँ पिव पाइये, जहाँ अजरा अमर उमंग।
जरा मरण भय भाजसी, राख अपणे संग।।21।।
दादू गाफिल छो वतैं, मंझे रब्ब निहार।
मंझेई पिव पाण जो, मंझेई सु विचार।।22।।
दादू गाफिल छो वतैं, आहे मंझि अल्लाह।
पिरी पाण जो पाण सैं, लहै सभोई साव।।23।।
दादू गाफिल छो वतैं, आहे मंझि मुकाम।
दरगह में दीवान तत, पसे न बैठो पाण।।24।।
दादू गाफिल छो वतैं, अन्दर पीरी पसु।
तखत रबाणी बीच में, पेरे तिन्ही वसु।।25।।
हरि चिन्तामणि चिन्ततां, चिन्ता चित की जाइ।
चिन्तामणि चित में मिल्या, तहँ दादू रह्या लुभाइ।।26।।
अपनै नैनहुं आप को, जब आतम देखे।
तहाँ दादू परमातमा, ताही को पेखे।।27।।
दादू बिन रसना जहाँ बोलिए, तहँ अंतरयामी आप।
बिन श्रवणहुं सांई सुणे, जे कुछ कीजे जाप।।28।।
परिचय जिज्ञासु उपदेश
ज्ञान लहर जहाँ तैं उठे, वाणी का परकास।
अनुभव जहाँ तैं ऊपजे, शब्दौं किया निवास।।29।।
सो घर सदा विचार का, तहाँ निरंजन वास।
तहँ तूं दादू खोज ले, ब्रह्म जीव के पास।।30।।
जहँ तन-मन का मूल है, उपजै ओंकार।
अनहद सेझा शब्द का, आतम करे विचार।।31।।
भाव भक्ति लै ऊपजै, सो ठाहर निज सार।
तहँ दादू निधिा पाइये, निरन्तर निरधाार।।32।।
एक ठौर सूझै सदा, निकट निरन्तर ठाम।
तहाँ निरंजन पूरि ले अजरावर तिहिं नाम।।33।।
साधाू जन क्रीड़ा करैं, सदा सुखी तिहिं गाँउं।
चलु दादू उस ठौर की, मैं बलिहारी जाँउं।।34।।
दादू पसु पिरंनि के, पेही मंझि कलूब।
बैठो आहे बीच में, पाण जो महबूब।।35।।
नैनहु वाला निरखि कर, दादू घालै हाथ।
तब ही पावै राम-धान, निकट निरंजन नाथ।।36।।
नैनहु बिन सूझे नहीं, भूला कत हूँ जाय।
दादू धान पावे नहीं, आया मूल गंमाय।।37।।
परिचय लै लक्षण सहज
जहाँ आत्म तहँ राम है, सकल रह्या भरपूर।
अन्तरगति ल्यो लाय रहु, दादू सेवक सूर।।38।।
परिचय जिज्ञासु उपदेश
पहली लोचन दीजिए, पीछे ब्रह्म दिखाइ।
दादू सूझे सार सब, सुख में रहे समाइ।।39।।
ऑंधाी के आनंद हुआ, नैनहुँ सूझन लाग।
दर्शन देखे पीव का, दादू मोटे भाग।।40।।
उभय असमाव
दादू मिहीं महल बारीक है, गाँउं न ठाउं न नाउं।
तासूं मन लागा रहे, मैं बलिहारी जाउं।।41।।
दादू खेल्या चाहे प्रेम रस, आलम अंग लगाय।
दूजे कूं ठाहर नहीं, पुहुप न गंधा समाय।।42।।
नाहीं ह्नै करि नाम ले, कुछ न कहाई रे।
साहिबजी की सेज पर, दादू जाई रे।।43।।
जहाँ राम तहँ मैं नहीं, मैं तहँ नाहीं राम।
दादू महल बारीक है, द्वै को नाहीं ठाम।।44।।
मैं नाहीं तहँ मैं गया, एकै दूसर नाँहि।
नाहीं को ठाहर घणी, दादू निज घर माँहि।।48।।
मैं नाहीं तहँ मैं गया, आगे एक अलाव।
दादू ऐसी बन्दगी, दूजा नाहीं आव।।46।।
दादू आपा जब लगै, तब लग दूजा होइ॥
जब यहु आपा मिट गया, तब दूजा नाहीं कोइ।।47।।
दादू मैं नाहीं तब एक है, मैं आई तब दोइ।
मैं तैं पड़दा मिट गया, तब ज्यों था त्यों ही होइ।।48।।
दादू है कूं भै घणा, नाहीं को कुछ नाँहि।
दादू नाहीं होइ रहो, अपणे साहिब माँहि।।49।।
परिचय
दादू तीन शून्य आकार की, चौथी निर्गुण नाम।
सहज शून्य में रम रह्या, जहाँ तहाँ सब ठाम।।50।।
पाँच तत्तव के पाँच हैं, आठ तत्तव के आठ।
आठ तत्तव का एक है, तहाँ निरंजन हाट।।51।।
जहाँ मन माया ब्रह्म था, गुण इन्द्री आकार।
तहँ मन विरचै सबन तैं, रचि रहु सिरजनहार।।52।।
काया शून्य पंच का बासा, आतम शून्य प्राण प्रकासा।
परम शून्य ब्रह्म सौं मेला, आगे दादू आप अकेला।।53।।
दादू जहाँ तैं सब ऊपजे, चन्द सूर आकाश।
पानी पवन पावक किये, धारती का परकाश।।54।।
काल कर्म जिव ऊपजे, माया मन घट श्वास।
तहाँ रहिता रमिता राम है, सहज शून्य सब पास।।55।।
सहज शून्य सब ठौर है, सब घट सबही माँहि।
तहाँ निरंजन रमि रह्या, कोइ गुण व्यापै नाँहि।।56।।
दादू तिस सरवर के तीर, सो हंसा मोती चुणे।
पीवे नीझर नीर, सो है हंसा सो सुणे।।57।।
दादू तिस सरवर के तीर, जप तप संयम कीजिए।
तहँ सन्मुख सिरजनहार, प्रेम पिलावे पीजिए।।58।।
दादू तिस सरवर के तीर, संगी सबै सुहावणे।
तहाँ बिन कर बाजे बेन, जिह्ना हीणे गावणे।।59।।
दादू तिस सरवर के तीर, चरण कमल चित लाइया।
तहँ आदि निरंजन पीव, भाग हमारे आइया।।60।।
दादू सहज सरोवर आतमा, हंसा करैं कलोल।
सुख सागर सूभर भरया, मुक्ता हल मन मोल।।61।।
दादू हरि सरवर पूरण सबै, जित तित पाणी पीव।
जहाँ तहाँ जल अंचतां, गई तृषा सुख जीव।।62।।
सुख सागर सूभर, भरया, उज्ज्वल निर्मल नीर।
प्यास बिना पीवे नहीं, दादू सागर तीर।।63।।
शून्य सरोवर हंस मन, मोती आप अनंत।
दादू चुगि-चुगि चंच भरि, यों जन जीवें संत।।64।।
शून्य सरोवर मीन मन, नीर निरंजन देव।
दादू यह रस विलसिये, ऐसा अलख अभेद।।65।।
शून्य सरोवर मन भँवर, तहाँ कमल करतार।
दादू परिमल पीजिए, सन्मुख सिरजनहार।।66।।
शून्य सरोवर सहज का, तहँ मरजीवा मन।
जादू चुणि-चुणि लेयगा, भीतर राम रतन।।67।।
दादू मंझि सरोवर विमल जल, हंसा केलि कराँहि।
मुक्ता हल मुकता चुगैं, तिहिं हंसा डर नाँहि।।68।।
अखंड सरोवर अथग जल, हंसा सरवर नाँहि।
निर्भय पाया आप घर, अब उडि अनत न जाँहि।।69।।
दादू दरिया प्रेम का, तामें झूलैं दोइ।
इक आतम पर आत्मा, एकमेक रस होइ।।70।।
दादू हिण दरियाव, माणिक मंझेई।
टुबी डेई पाण में, डिठो हंझेई।।71।।
पर आतम सूं आतमा, ज्यूँ हंस सरोवर माँहि।
हिलमिल खेलैं पीव सूं, दादू दूसर नाँहि।।72।।
दादू सरवर सहज का, तामें प्रेम तरंग।
तहँ मन झूले आत्मा, अपणे, सांई संग।।73।।
दादू देखूँ निज पीव को, दूसर देखूँ नाँहि।
सबै दिसा सौं सोधा कर, पाया घट ही माँहि।।74।।
दादू देखूँ निज पीव को, और न देखूँ कोइ।
पूरा देखूँ पीव को, बाहर भीतर सोइ।।75।।
दादू देखूँ निज पीव को, देखत ही दुख जाय।
हूँ तो देखूँ पीव को, सब में रह्या समाय।।76।।
दादू देखौं निज पीव को, सोई देखन जोग।
परगट देखूँ पीव को, कहाँ बतावें लोग।।77।।
परिचय जिज्ञासु उपदेश
दादू देखूँ दयाल को, सकल रह्या भरपूर।
रोम-रोम में रमि रह्या, तूं जनि जाने दूर।।78।।
दादू देखूँ दयाल को, बाहर भीतर सोइ।
सब दिशि देखूँ पीव को, दूसर नाँहीं कोइ।।71।।
दादू देखूँ दयाल को, सन्मुख सांई सार।
जीधार देखूँ नैन भरि, तीधार सिरजनहार।।80।।
दादू देखूँ दयाल को, रोक रह्या सब ठौर।
घट-घट मेरा सांईयां, तूं जिनि जाणै और।।81।।
उभय असमाव
तन-मन नाहीं मैं नहीं, नहिं माया नहिं जीव।
दादू एकै देखिए, दह दिशि मेरा पीव।।82।।
पति पहिचान
दादू पाणी मांहैं पैसिकर, देखे दृष्टि उघार।
जलाबिम्ब सब भर रह्या, ऐसा ब्रह्म विचार।।83।।
परिचय पतिव्रत
सदा लीन आनन्द में, सहज रूप सब ठौर।
दादू देखे एक को, दूजा, नाँही और।।84।।
दादू जहँ-तहँ साथी संग हैं, मेरे सदा आनन्द।
नैन बैंन हिरदै रहैं, पूरण परमानन्द।।85।।
जागत जगपति देखिए, पूरण परमानन्द।
सोवत भी सांई मिले, दादू अति आनन्द।।86।।
दादू दह दिशि दीपक तेज के, बिन बाती बिनतेल।
चहुँ दिशि सूरज देखिए, दादू अद्भुत खेल।।87।।
सूरज कोटि प्रकाश है, रोम-रोम की लार।
दादू ज्योति जगदीश की, अन्त न आवे पार।।88।।
ज्यों रवि एक आकाश है, ऐसे सकल भरपूर।
दादू तेज अनन्त है, अल्लह आली नूर।।89।।
सूरज नहीं तहँ सूरज देखे, चंद नहीं तहँ चंदा।
तारे नहीं तहंँ झिलमिल देख्या, दादू अति आनंदा।।90।।
बादल नहीं तहँ वर्षत देख्या, शब्द नहीं गरजंदा।
बीज नहीं तहँ चमकत देख्या, दादू परमानंदा।।91।।
आत्मबल्लीतरु
दादू ज्योति चमके झिलमिले, तेज पुंज परकाश।
अमृत झरे रस पीजिए, अमरबेलि आकाश।।92।।
परिचय
दादू अविनाशी अंग तेज का, ऐसा तत्तव अनूप।
सो हम देख्या नैन भरि, सुन्दर सहज स्वरूप।।93।।
परम तेज प्रकट भया, तहँ मन रह्या समाय।
दादू खेले पीव सौं, नहिं आवे नहिं जाय।।94।।
निराधाार निज देखिए, नैनउँ लागा बंद।
तहाँ मन खेले पीव सौं, दादू सदा अनंद।।95।।
आत्मबल्लीतरु
ऐसा एक अनूप फल, बीज बाकुला नाँहि।
मीठा निर्मल एक रस, दादू नैनउँ माँहि।।96।।
परिचय
हीरे-हीरे तेज के, सो निरखे त्रिाय लोइ।
कोइ इक देखे संत जन, और न देखे कोइ ।।97।।
नैन हमारे नूर मा, तहाँ रहे ल्यौ लाय।
दादू उस दीदार कूँ, निशदिन निर्खत जाय।।98।।
नैनउँ आगे देखिए, आतम अंतर सोइ।
तेज पुंज सब भरि रह्या, झिलमिल झिलमिल होइ।।99।।
अनहद बाजे बाजिये, अमरा पुरी निवास।
ज्योति स्वरूप जगमगे, कोई निर्खे निज दास।।100।।
परम तेज तहँ मन रहै, परम नूर निज देखै।
परम ज्योति तहँ आतम खेलै, दादू जीवन लेखै।।101।।
दादू जरै सु ज्योति स्वरूप है, जरै सु तेज अनंत।
जरै सु झिलमिल नूर है, जरै सु पुंज रहंत।।102।।
परिचय पति पहिचान
दादू अलख अल्लाह का, कहु कैसा है नूर।
दादू बेहद हद नहीं, सकल रह्या भरपूर।।103।।
वार पार नहिं नूर का, दादू तेज अनंत।
कीमत नहिं करतार की, ऐसा है भगवंत।।104।।
निर्संधा नूर अपार है, तेज पुंज सब माँहि।
दादू ज्योति अनंत है, आगो पीछो नाँहि।।105।।
खंड-खंड निज ना भया, इकलस एकै नूर।
ज्यों था त्यों ही तेज है, ज्योति रही भरपूर।।106।।
परम तेज प्रकाश है, परम नूर निवास।
परम ज्योति आनन्द में, हंसा दादू दास।।107।।
नूर सरीखा नूर है, तेज सरीखा तेज।
ज्योति सरीखी ज्योति हे, दादू खेले सेज।।108।।
तेज पुंज की सुन्दरी, तेज पुंज का कंत।
तेज पुंज की सेज परि, दादू बन्या वसंत।।109।।
पुहुप प्रेम वर्षे सदा, हरिजन खेलैं फाग।
ऐसे कौतुक देखिए, दादू मोटे भाग।।110।।
परिचय रस
अमृत धाारा देखिए, पार ब्रह्म वर्षन्त।
तेज पुंज झिलमिल झरै, को साधाू जन पीवन्त।।111।।
रस ही में रस बरषि है, धाारा कोटि अनंत।
तहँ मन निश्चल राखिये, दादू सदा वसंत।।112।।
घन बादल बिन बरषि है, नीझर निर्मल धाार।
दादू भीजे आतमा, को साधाू पीवण हार।।113।।
ऐसा अचरज देखिया, बिन बादल बरषे मेह।
तहँ चित चातक ह्नै रह्या, दादू अधिाक सनेह।।114।।
महा रस मीठा पीजिए, अविगत अलख अनंत।
दादू निर्मल देखिए, सहजै सदा झरंत।।115।।
कत्तर्ाा-कामधोनु
कामधोनु दुहि पीजिए, अकल अनूपम एक।
दादू पीवे प्रेम सौं, निर्मल धाार अनेक।।116।।
कामधोनु दुहि पीजिए, ताको लखे न कोइ।
दादू पीवै प्यास सौं, महारस मीठा सोइ।।117।।
कामधोनु दुहि पीजिए, अलख रूप आनन्द।
दादू पीवै हेत सौं, सुषमन लागा बन्द।।118।।
कामधोनु दुहि पीजिए, अगम अगोचर जाय।
दादू पीवै प्रीति सौं, तेज पुंज की गाय।।119।।
कामधोनु करतार है, अमृत सरवै सोइ।
दादू बछरा दूधा कूँ, पीवै तो सुख होइ।।120।।
ऐसी एकै गाइ है, दूझै बारह मास।
सो सदा हमारे संग है, दादू आतम पास।।121।।
परिचय आत्मबल्लीतरु
तरुवर शाखा मूल बिन, धारती पर नाँहीं।
अविचल अमर अनन्त फल, सो दादू खाहीं।।122।।
तरुवर शाखा मूल बिन, धार अम्बर न्यारा।
अविनाशी आनन्द फल, दादू का प्यारा।।123।।
तरुवर शाखा मूल बिन, रज वीरज रहिता।
अजर अमर अतीत फल, सो दादू गहिता।।124।।
तरुवर शाखा मूल बिन, उत्पति परले नाँहि।
रहिता रमता राम फल, दादू नैनहुँ माँहि।।125।।
प्राण तरुवर सुरति जड़, ब्रह्म भूमि ता माँहि।
रस पीवे फूले-फले, दादू सूखे नाँहि।।126।।
जिज्ञासु उपदेश प्रश्नोत्तारी
ब्रह्म शून्य तहँ क्या रहे, आतम के अस्थान।
काया अस्थल क्या बसे, सद्गुरु कहैं सुजान।।127।।
काया के अस्थल रहैं, मन राजा पंच प्रधाान।
पच्चीस प्रकृति तीन गुण, आपा गर्व गुमान।।128।।
आतम के अस्थान हैं, ज्ञान धयान विस्वास।
सहज शील संतोष सत, भाव भक्ति निधिा पास।।129।।
ब्रह्म शून्य तहँ ब्रह्म है, निरंजन निराकार।
नूर तेज तहँ ज्योति है, दादू देखणहार।।130।।
प्रश्न
मौजूद खबर माबूद खबर, अरवाह खबर वजूद।
मकाम चे चीज हस्त, दादनी सजूद।।131।।
उत्तारµवजूद मकाम हस्त
नफ्स गालिब किब्र काबिज, गुस्स: मनी एस्त।
दुई दरोगा हिर्स हुज्जत, नाम नेकी नेस्त।।132।।
अरवाह मकाम हस्त
इश्क इबादत बंदगी, यगानगी इखलास।
महर मुहब्बत खैर खूबी, नाम नेकी खास।।133।।
माबूद मकाम हस्त
यके नूर खूब खूबां, दीननी हैरान।
अजब चीज खुरदनी, पियालए मस्तान।।134।।
हैवान आलम गुमराह गाफिल, अव्वल शरीयत पंद।
हलाल हराम नेकी बदी, दर्से दानिशमंद।।135।।
कुल फारिक तर्क दुनियां, हर रोज हरदम याद।
अल्लह आली इश्क आशिक, दरूने फरियाद।।136।।
आब आतश अर्श कुर्सी, सूरते सुबहान।
शरर सिफत करद बूद, मारफत मकाम।।137।।
हक हासिल नूर दीदम, करारे मकसूद।
दीदार दरिया अरवाहे, आमद मौजूदे मौजूद।।138।।
चहार मंजिल बयान गुफतम, दस्त करद: बूद।
पीरां मुरीदा खबर करद:, जा राहे माबूद।।139।।
पहली प्राण पशू नर कीजे, साच-झूठ संसार।
नीति-अनीति, भला-बुरा, शुभ-अशुभ निधर्ाार।।140।।
सब तजि देखि विचारि करि, मेरा नाँहि कोइ।
अनदिन राता राम सौं, भाव भक्ति रत होइ।।141।।
अंबर धारती सूर शशि, सांई सब लै लावै अंग।
यश कीरति करुणा करे, तन-मन लागा रंग।।142।।
परम तेज तहाँ मैं गया, नैनहुँ देख्या आय।
सुख संतोष पाया घणा, ज्योतिहिं ज्योति समाय।।143।।
अर्थ चार अस्थान का, गुरु शिष्य कह्या समझाय।
मारग सिरजनहार का, भाग बड़े सो जाय।।144।।
आशिकां मस्ताने आलम, खुरदनी दीदार।
चंद रह चे कार दादू, यार मां दिलदार।।145।।
बह्म साक्षात्कार धाारणा
दादू दया दयालु की, सो क्यूँ छानी होइ।
प्रेम पुलक मुलकत रहै, सदा सुहागनि सोइ।।146।।
दादू विगसि-विगसि दर्शन करै, पुलकि-पुलकि रस पान।
मगन गलित माता रहै, अरस परम मिल प्रान।।147।।
दादू देखि-देखि सुमिरण करै, देखि-देखि लै लीन।
देखि-देखि तन-मन विलै, देखि-देखि चित दीन।।148।।
दादू निर्खि-निर्खि निज नाम ले, निर्खि-निर्खि रस पीव।
निर्खि-निर्खि पिव को मिलै, निर्खि-सुख जीव।।149।।
सुमिरण आत्म
तन सौं सुमिरण सब करैं, आतम सुमिरण एक।
आतम आगे एक रस, दादू बड़ा विवेक।।150।।
दादू माटी के मुकाम का, सब को जाणें जाप।
एक आध अरवाह का, विरला आपैं आप।।151।।
जब लग अस्थल देह का, तब लग सब व्यापैं।
निर्भय अस्थल आतमा, आगें रस आपै।।152।।
नाहीं सुरति शरीर की, बिसरे सब संसार।
आत्म न जाणे आपकूं, तब एक रह्या निधर्ाार।।153।।
तन सौं सुमिरण कीजिए, जब लग तन नीका।
आतम सुमिरण ऊपजे, तब लागे फीका।।154।।
आगें आपैं आप हैं, तहाँ क्या जीव का।
दादू दूजा कहन को, नाँहि लघु टीका।।155।।
चर्म दृष्टि देखैं बहुत, आतम दृष्टी एक।
ब्रह्म दृष्टि परचै भया, तब दादू बैठा देख।।156।।
ये ही नैना देह के, ये ही आतम होइ।
ये ही नैना ब्रह्म के, दादू पलटे दोइ।।157।।
घट परचै सब घट लखै, प्राण परचै प्रान।
ब्रह्म परचै पाइये, दादू है हैरान।।158।।
सूक्ष्म सौंज अर्चा बन्दगी
दादू जल पाषाण ज्यों, सेवे सब संसार।
दादू पाणी लौंण ज्यों, कोई विरला पूजणहार।।159।।
अलख नाम अंतर कहै, सब घट हरि-हरि होइ।
दादू पाणी लौंण ज्यों, नाम कहीजे सोइ।।160।।
छाड़ै सुरति शरीर को, तेज पुंज में आय।
दादू ऐसे मिल रहै, ज्यों जल जलहि समाय।।161।।
सुरति रूप शरीर का, पिव के परसे होइ।
दादू तन-मन एक रस, सुमिरण कहिए सोइ।।162।।
राम कहत रामहि रह्या, आप विसर्जन होइ।
मन पवना पंचों विलै, दादू सुमिरण सोइ।।163।।
जहँ आतम राम सँभालिए, तहँ दूजा नाहीं और।
देही आगे अगम है, दादू सूक्षम ठौर।।164।।
परमात्मा सौं आतमा, ज्यों पाणी में लौंण।
दादू तन-मन एक रस, तब दूजा कहिए कौंण।।165।।
तन-मन विलै यों कीजिए, ज्यों पाणी में लौंण।
जीव ब्रह्म एकै भया, तब दूजा कहिए कौंण।।166।।
तन-मन विलै यों कीजिए, ज्यों घृत लागे घाम।
आत्म कमल तहाँ बंदगी, तहँ दादू परगट राम।।167।।
सुमिरण नख-शिख
कोमल कमल तहँ पैसि करि, जहाँ न देखि कोइ।
मन थिर सुमिरण कीजिए, तब दादू दर्शन होइ।।168।।
नख-शिख सब सुमिरण करे, ऐसा कहिए जाप।
अंतर विगसे आत्मा, तब दादू प्रगटे आप।।169।।
अंतरगति हरि हरि करे, तब मुख की हाजति नाँहि।
सहजैं धाुनि लागी रहै, दादू मन ही माँहि।।170।।
दादू सहजैं सुमिरण होत है, रोम-रोम रमि राम।
चित चहूंटया चित सौं, यौं लीजे हरि नाम।।171।।
दादू सुमिरण सहज का, दीन्हा आप अनन्त।
अरस परस उस एक सौं, खेलैं सदा वसन्त।।172।।
दादू शब्द अनाहद हम सुन्या, नख-शिख सकल शरीर।
सब घट हरि हरि होत है, सहजैं ही मन थीर।।173।।
हुण दिल लगा हिकसाँ, मे कूं ये हा ताति।
दादू कंमि खुदाइ दे, बैठा डीहै राति।।174।।
दादू माला सब आकार की, कोई साधु सुमिरै राम।
करणी गर तैं क्या किया, ऐसा तेरा नाम।।175।।
सब घट मुख रसना करे, रटे राम का नाम।
दादू पीवे राम रस, अगम अगोचर ठाम।।176।।
दादू मन चित स्थिर कीजिए, तो नख-शिख सुमिरण होइ।
श्रवण नेत्रा मुख नासिका, पंचों पूरे सोइ।।177।।
साधु महिमा
आतम आसन राम का, तहाँ बसे भगवान।
दादू दोनों परस्पर, हरि आतम का स्थान।।178।।
राम जपे रुचि साधु को, साधु जपे रुचि राम।
दादू दोनों एक टग, यहु आरंभ यहु काम।।179।।
जहाँ राम तहँ संत जन, जहाँ साधु तहँ राम।
दादू दोनों एकठे, अरस परस विश्राम।।180।।
दादू हरि साधु यों पाइये, अविगति की आराधा।
साधु संगति हरि मिलैं, हरि संगति तैं साधा।।181।।
दादू राम नाम सौं मिल रहै, मन के छाड़ि विकार।
तो दिल ही माँही देखिए, दोनों का दीदार।।182।।
साधु समाना राम में, राम रह्या भरपूर।
दादू दोनों एक रस, क्यूँ करि कीजे दूर।।183।।
दादू सेवक सांई का भया, तब सेवक का सब कोइ।
सेवक सांई को मिल्या, तब सांई सरीखा होइ।।184।।
सतसंग-महिमा
मिश्री माँहीं मेलिकरि, मोल बिकाना बंस।
यौं दादू महँगा भया, पार ब्रह्म मिल हंस।।185।।
मीठे मांहैं राखिये, सो काहे न मीठा होइ।
दादू मीठा हाथ ले, रस पीवै सब कोइ।।186।।
संगति-कुसंगति
मीठे सौं मीठा भया, खारे सौं खारा।
दादू ऐसा जीव है, यहु रंग हमारा।।187।।
साधु महिमा
मीठे-मीठे कर लिये, मीठा माँंहैं बाहि।
दादू मीठा ह्नै रह्या, मीठे माँहि समाय।।188।।
राम बिना किस काम का, नहिं कौड़ी का जीव।
सांई सरीखा ह्नै गया, दादू परसैं पीव।।189।।
परीक्षा अपरीक्षा
हीरा कौड़ी ना लहै, मूरख हाथ गँवार।
पाया पारिख जौहरी, दादू मोल अपार।।190।।
अंधो हीरा परखिया, कीया कौड़ी मोल।
दादू साधाू जौहरी, हीरे मोल न तोल।।191।।
साधु महिमा
मीरां कीया महर सौं, परदे तैं लापर्द।
राखि लिया दीदार में, दादू भूला दर्द।।192।।
दादू नैन बिन देखबा, अंग बिन पेखबा।
रसन बिन बोलबा, ब्रह्म सेती।।193।।
श्रवन बिन सुनबा, चरण बिन चालिबा।
चित्ता बिन चित्ताबा, सहज एती।।194।।
पतिव्रत
दादू देख्या एक मन, सो मन सब ही माँहि।
तिहिं मन सौं मन मानिया, दूजा भावे नाँहि।।195।।
पुरुष प्रकाशी
दादू जिहिँ घट दीपक राम का, तिहिँ घट तिमर न होइ।
उस उजियारे ज्योति के, सब जग देखे सोइ।।196।।
पतिव्रत
दादू दलि अरवाह का, सो अपना ईमान।
सोई साबित राखिए, जहँ देखै रहिमान।।197।।
अल्लह आप ईमान है, दादू के दिल माँहि।
सोई साबित राखिए, दूजा कोई नाँहि।।198।।
अधयात्म
प्राण पवन ज्यों पतला, काया करे कमाय।
दादू सब संसार में, क्यूं ही गह्या न जाय।।199।।
नूर तेज ज्यों ज्योति है, प्राण पिंड यों होइ।
दृष्टि मुष्टि आवें नहीं, साहिब के वश सोइ।।200।।
काया सूक्ष्म करि मिले, ऐसा कोई एक।
दादू आतम ले मिलैं, ऐसे बहुत अनेक।।201।।
सुन्दरी सुहाग
आडा आतम तन धारै, आप रहे ता माँहि।
आपन खेले आप सौं, जीवन सेती नाँहि।।202।।
अधयात्म
दादू अनुभव तैं आनन्द भया, पाया निर्भय नाम।
निश्चल निर्मल निर्वाण पद, अगम अगोचर ठाम।।203।।
दादू अनुभव वाणी अगम को, ले गई संग लगाय।
अगह गहै अकह कहै, अभेद भेद लहाय।।204।।
जो कुछ वेद कुरान तैं, अगम अगोचर बात।
सो अनुभव साचा कहै, यहु दादू अकह कहात।।205।।
दादू-जब घट अनुभव ऊपजे, तब किया करम का नाश।
भय भ्रम भागे सबै, पूरण ब्रह्म प्रकाश।।206।।
दादू-अनुभव काटे रोग को, अनहद उपजे आय।
सेझे का जल निर्मला, पीवे रुचि ल्यौलाय।।207।।
दादू वाणी ब्रह्म की, अनुभव घट प्रकास।
राम अकेला रहि गया, शब्द निरंजन पास।।208।।
जो कबहूँ समझे आतमा, तो दृढ गहि राखे मूल।
दादू सेझा राम रस, अमृत काया कूल।।209।।
परिचय जिज्ञासु उपदेश
दादू मुझ ही मांहै मैं रहूँ, मैं मेरा घर बार।
मुझ ही मांहै मैं बसूँ, आप कहै करतार।।210।।
दादू मैं ही मेरा अर्श में, मैं ही मेरा थान।
मैं ही मेरी ठौर में, आप कहै रहिमान।।211।।
दादू मैं ही मेरे आसरे, मैं मेरे आधाार।
मेरे तकिये मैं रहूँ, कहते सिरजनहार।।212।।
दादूµमैं ही मेरी जाति में, मैं ही मेरा अंग।
मैं ही मेरा जीव में, आप कहै परसंग।।213।।
दादूµसबै दिशा सो सारिखा, सबै दिशा मुख बैन।
सबै दिशा श्रवण हुँ सुणैं, सबै दिशा कर नैन।।214।।
सबै दिशा पग शीश हैं, सबै दिशा मन चैन।
सबै दिशा सन्मुख रहै, सबै दिशा ऍंग ऐन।।215।।
बिन श्रवण हुँ सब कुछ सुणे, बिन नैनों सब देखै।
बिन रसना मुख सब कुछ बोले, यह दाजू अचरज पेखै।।216।।
सब अंग सब ही ठौर सब, सर्वंगी सब सार।
कहै गहै देखे सुने, दादू सब दीदार।।217।।
कहै सब ठौर, गहै सब ठौर, रहे सब ठौर, ज्योति प्रवानै।
नैन सब ठौर, बैन सब ठौर, ऐन सब ठौर, सोई भलजानै।
शीश सब ठौर, श्रवण सब ठौर, चरण सब ठौर, कोई यहु मानै।
अंग सब ठौर, संग सब ठौर, सबै सब ठौर दादू धयानै।।218।।
तेज ही कहणा, तेज ही गहणा, तेज ही रहणा सारे।
तेज ही बैना, तेज ही नैना, तेज ही ऐन हमारे।
तेज ही मेला, तेज ही खेला, तेज अकेला, तेज ही तेज सँवारे।
तेज ही लेवे, तेज ही देवे, तेज ही खेवे, तेज ही दादू तारे।।219।।
नूर हि का धार, नूर हि का घर, नूर हि का वर मेरा।
नूर ही मेला, नूर ही खेला, नूर अकेला, नूर हि मंझ बसेरा।
नूर हि का ऍंग, नूर हि का सँग, नूर हि का रँग मेरा।
नूर हि राता, नूर हि माता, नूर हि खाता दादू तेरा।।220।।
सूक्ष्म सौंज अर्चना बन्दगी
दादू नूरी दिल अरवाह का, तहाँ बसे माबूदं।
तहाँ बन्दे की बन्दगी, जहाँ रहे मौजूदं।।221।।
दादू नूरी दिल अरवाह का, तहँ खालिक भरपूरं।
आली नूर अल्लाह का, खिदमतगार हजूरं।।222।।
दादू नूरी दिल अरवाह का, तहँ देख्या करतारं।
तहँ सेवक सेवा करे, अनन्त कला रवि सारं।।223।।
दादू नूरी दिल अरवाह का, तहाँ निरंजन बासं।
तहँ जन तेरा एक पग, तेज पुंज परकासं।।224।।
दादू तेज कमल दिल नूर का, तहाँ राम रहमानं।
तहँ कर सेवा बन्दगी, जे तू चतुर सयानं।।225।।
तहाँ हजूरी बन्दगी, नूरी दिल में होय।
तहँ दादू सिजदा करे, जहाँ न देखे कोय।।226।।
दादू देही माँहे दोय दिल, इक खाकी इक नूर।
खाकी दिल सूझे नहीं, नूरी मंझि हजूर।।227।।
नमाज-सिजदा
दादू हौज हजूरी दिल ही भीतर, गुसल हमारा सारं।
उजू साजि अल्लह के आगे, तहाँ नमाज गुजारं।।228।।
काया मसीत करि पंच जमाती, मन ही मुल्ला इमामं।
आप अलेख इलाही आगे, तहाँ सिजदा करे सलामं।।229।।
दादू सब तन तसबीह कहै करीमं, ऐसा करले जापं।
रोजा एक दूर कर दूजा, कलमाँ आपै आपं।।230।।
दादू अठें पहर अल्लह के आगे, इकटग रहिबा धयानं।
आपै आप अर्श के ऊपर, जहाँ रहै रहिमानं।।231।।
अठे पहर इबादती, जीवन मरण निर्वाहि।
साहिब दर सेवे खड़ा, दादू छाड़ि न जाय।।232।।
साधु महिमा
अट्ठे पहर अर्श में, ऊभोई आहे।
दादू पसे तिन्न के, अल्लह गाल्हाये।।233।।
अट्ठे पहर अर्श में, बैठा पिरी पसंनि।
दादू पसे तिन्न के, जे दीदार लंहनि।।234।।
अट्ठे पहर अर्श में, जिन्हीं रूह रहंनि।
दादू पसे तिन्न के, गुझ्यूँ गाल्ही कंनि।।235।।
अट्ठे पहर अर्श में, लुड़ींदा आहीन।
दादू पसे तिन्न के, असां खबरि डीन्ह।।236।।
अट्ठे पहर अर्श में, वजी जे गाहीन।
दादू पसे तिन्न के, केतेई आहीन।।237।।
रस (प्रेम-प्याला)
प्रेम पियाला नूर का, आशिक भर दीया।
दादू दर दीदार में, मतवाला कीया।।238।।
इश्क सलूंना आशिकां, दरगाह तैं दीया।
दर्द मुहब्बत प्रेम रस, प्याला भरि पीया।।239।।
दादू दिल दीदार दे, मतवाला कीया।
जहाँ अर्श इलाही आप था, अपना कर लीया।।240।।
दादू प्याला नूर दा, आशिक अर्श पिवन्नि।
अठे पहर अल्लाहदा, मुँह दिठ्ठे जीवन्नि।।241।।
आशिक अमली साधु सब, अलख दरीबै जाय।
साहिब दर दीदार में, सब मिल बैठे आय।।242।।
राते माते प्रेम-रस, भर-भर देइ खुदाय।
मस्तान मालिक कर लिये, दादू रहे ल्यौं लाय।।243।।
दादू भक्ति निरंतर राम की, अविचल अविनाशी।
सदा सजीवन आत्मा, सहजैं परकाशी।।244।।
लांबी (भक्ति अगाधा)
दादू जैसा राम अपार है, तैसी भक्ति अगाधा।
इन दोनों की मित नहीं, सकल पुकारैं साधा।।245।।
दादू जैसा अविगत राम है, तैसी भक्ति अलेख।
इन दोनों की मित नहीं, सहस मुखां कहैं शेष।।246।।
दादू जैसा निर्गुण राम है, तैसी भक्ति निरंजन जाणि।
इन दोनों की मित नहीं, संत कहैं परमाणि।।247।।
जैसा पूरा राम है, तैसी पूरण भक्ति समान।
इन दोनों की मित नहीं, दादू नाहीं आन।।248।।
सेवा अखंडित
दादू जब लग राम है, तब लग सेवग होइ।
अखंडित सेवा एक रस, दादू सेवग सोइ।।249।।
दादू जैसा राम है, तैसी सेवा जाणि।
पावेगा तब करेगा, दादू सो परमाणि।।250।।
सांइ सरीखा सुमिरण कीजे, सांई सरीखा गावे।
सांई सरीखा सेवा कीजे, तब सेवक सुख पावे।।251।।
परिचय करुणा विनती
दादू सेवक सेवा कर डरै, हम तैं कछू न होय।
तूं है तैसी बन्दगी, कर नहिं जाने कोय।।252।।
दादू जे साहिब माने नहीं, तऊ न छाड़ौं सेव।
इहिं अवलम्बन, जीजिये, साहिब अलख अभेव।।253।।
सूक्ष्म सौंज अर्चा बन्दगी
आदि अन्त आगे रहे, एक अनुपम देव।
निराकार निज निर्मला, कोई न जाणै भेव।।254।।
अविनाशी अपरं परा, वार पार नहिं छेव।
सो तूं दादू देखि ले, उर अंतर कर सेव।।255।।
दादू भीतर पैसि कर, घट के जड़ै कपाट।
सांई की सेवा करै, दादू अविगत घाट।।256।।
घट परिचय सेवा करै, प्रत्यक्ष देखै देव।
अविनाशी दर्शन करै, दादू पूरी सेव।।257।।
भ्रम विधवंस
पूजण हारे पास हैं, देही माँहै देव।
दादू ता को छाड कर, बाहर माँडी सेव।।258।।
परिचय
दादू रमता राम सूँ, खेले अंतर माँहि।
उलट समाना आप में, सो सुख कत हूँ नाँहि।।259।।
दादू जे जन बेधो प्रीति सौं, सो जन सदा सजीव।
उलट समाना आपमें, अंतर नाहीं पीव।।260।।
परकट खेलैं पीव सौं, अमग अगोचर ठाम।
एक पलक का देखणा, जीवण-मरण का नाम।।261।।
सूक्ष्म सौंज अर्चा बन्दगी
आत्म माँही राम है, पूजा ताकी होइ।
सेवा वन्दन आरती, साधु करै सब कोइ।।262।।
परिचै सेवा आरती, परिचै भोग लगाय।
दादू उस प्रसाद की, महिमा कही न जाय।।263।।
माँहि निरंजन देव है, माँहै सेवा होइ।
माँहै उतारै आरती, दादू सेवक सोइ।।264।।
दादू माँहै कीजे आरती, माँहै पूजा होइ।
माँहै सद्गुरु सेविये, बूझै विरला कोइ।।265।।
संत उतारैं आरती, तन-मन मंगल चार।
दादू बलि-बलि वारणै, तुम पर सिरजनहार।।266।।
दादू अविचल आरती, युग-युग देव अनंत।
सदा अखंडित एक रस, सकल उतारैं संत।।267।।
सौंज
सत्य राम, आत्मा वैष्णौं, सुबुध्दि भूमि, संतोष स्थान,
मूल मन्त्रा, मन माला, गुरु तिलक, सत्य संयम,
शील शुच्या, धयान धाोती, काया कलश, प्रेम जल,
मनसा मंदिर, निरंजन देव, आत्मा पाती, पुहप प्रीति,
चेतना चंदन, नवधाा नाम, भाव पूजा, मति पात्रा,
सहज समर्पण, शब्द घंटा, आनन्द आरती, दया प्रसाद,
अनन्य एक दशा, तीर्थ सत्संग, दान उपदेश, व्रत स्मरण,
षट् गुणज्ञान, अजपा जाप, अनुभव आचार,
मर्यादा राम, फल दर्शन, अभि अन्तर, सदा निरन्तर,
सत्य सौंज दादू वर्तते, आत्मा उपदेश, अन्तर गत पूजा।।268।।
पिव सौं खेलौं प्रेम रस, तो जियरे जक होइ।
दादू पावे सेज सुख, पड़दा नाहीं कोइ।।269।।
सूक्ष्म सौंज अर्चा बन्दगी
सेवग बिसरे आपकूं, सेवा बिसर न जाय।
दादू पूछे राम कूं, सो तत कहि समझाय।।270।।
ज्यों रसिया रस पीवतां, आपा भूले और।
यूँ दादू रहि गया एक रस, पीवत-पीवत ठौर।।271।।
जहँ सेवक तहँ साहिब बैठा, सेवक सेवा माँहि।
दादू सांई सब करै, कोई जाने नाँहि।।272।।
दादू सेवक सांई वश किया, सौंप्या सब परिवार।
तब साहिब सेवा करे, सेवग, के दरबार।।273।।
तेज पुंज को विलसणा, मिल खेलें इक ठाम।
भर-भर पीवै राम रस, सेवा इसका नाम।।274।।
अरस परस मिल खेलिये, तब आनन्द होय।
तन-मन मंगल चहुँ दिश भये, दादू देखै सोय।।275।।
सुन्दरी सुहाग
मस्तक मेरे पाँव धार, मंदिर, माँहीं आव।
सँइयां सोवे सेज पर, दादू चंपै पाँव।।276।।
ये चारों पद पिलंग के, सांई की सुख सेज।
दादू इन पर बैस कर, सांई सेती हेज।।277।।
प्रेम लहर की पालकी, आतम बैसे आय।
दादू खेले पीव सौं, यहु सुख कह्या न जाय।।278।।
पूजा भक्ति सूक्ष्म सौंज
देव निरंजन पूजिये, पाती पंच पढाइ।
तन मन चन्दन चर्चिये, सेवा सुरति लगाइ।।279।।
भ्रम विधवंस
भक्ति भक्ति सबको कहै, भक्ति न जाने कोय।
दादू भक्ति भगवंत की, देह निरंतर होय।।280।।
देही माहीं देव है, सब गुण तैं न्यारा।
सकल निरंतर भर रह्या, दादू का प्यारा।।281।।
सूक्ष्म सौंज स्वरूप
जीव पियारे राम को, पाती पंच चढाय।
तन मन मनसा सौंपि सब, दादू विलम्ब न लाय।।282।।
धयान-अधयात्म
शब्द सुरति ले सान चित्ता, तन-मन मनसा माँहि।
मति बुध्दि पंचों आतमा, दादू अनत न जाँहि।।283।।
दादू तन मन पवना पंच गहि, ले राखै निज ठौर।
जहाँ अकेला आप है, दूजा नाहीं और।।284।।
दादू यह मन सुरति समेट कर, पंच अपूठे आणि।
निकट निरंजन लाग रहुँ, संग सनेही जाणि।।285।।
मन चित मनसा आत्मा, सहज सुरति ता माँहि।
दादू पंचों पूरले, जहाँ धारती अम्बर नाँहि।।286।।
दादू भीगे प्रेम रस, मन पंचों का साथ।
मगन भये रस में रहे, तब सन्मुख त्रिाभुवननाथ।।287।।
अध्यात्म
दादू शब्दें शब्द समाइ ले, परआतम सौं प्राण।
यहु मन मन सौं बंधिा ले, चित्तौं चित्ता सुजाण।।288।।
दादू सहजैं सहज समाइले, ज्ञानैं बंधया ज्ञान।
सूत्रौं सूत्रा समाइले, ज्ञानैं बंधया धयान।।289।।
दादू दृष्टैं दृष्टि समाइले, सुरतैं सुरति समाय।
समझैं समझ समाइले, लै सौं लै ले लाय।।290।।
दादू भावैं भाव समाइ ले, भक्तैं भक्ति समान।
प्रेमैं प्रेम समाइ ले, प्रीतैं प्रीति रस पान।।291।।
दादू सुरतैं सुरति समाइ रहु, अरु बैनहुँ सौं बैन।
मन ही सौं मन लाइ रहु, अरु नैनऊँ सौं नैन।।292।।
जहाँ राम तहाँ मन गया, मन तहाँ नैना जाय।
जहाँ नैना तहाँ आतमा, दादू सहज समाय।।293।।
जीवन्मुक्ति (विषय बासना निवृत्तिा)
प्राणन खेले प्राण सौं, मनन खेले मंन।
शब्दन खेले शब्द सौं, दादू राम रतंन।।294।।
चित्तान खेले चित्ता सौं, बैनन खेलै बैन।
नैनन खेले नैन सौं, दादू परगट ऐन।।295।।
पाकन खेले पाक सौं, सारन खेले सार।
खूबन खेले खूब सौं, दादू अंग अपार।।296।।
नूरन खेले नूर सौं, तेजन खेले तेज।
ज्योतिन खेले ज्योति सौं, दादू एकै सेज।।297।।
दादू पंच पदारथ मन रतन, पवना माणिक होय।
आतम हीरा सुरति सौं, मनसा मोती पोय।।298।।
अजब अनूपम हार है, सांई सरीखा सोय।
दादू आतम राम गलि, जहाँ न देखे कोय।।299।।
दादू पंचों संगी संगले, आये आकासा।
आसन अमर अलेख का, निर्गुण नित वासा।।300।।
प्राण पवन मन मगन ह्नै, संगी सदा निवासा।
परचा परम दयालु सौं, सहजै सुख दासा।।301।।
दादू प्राण पवन मन मणि बसे, त्रिाकुटी केरे संधिा।
पंचों इन्द्री पीव सौं, ले चरणों में बंधिा।।302।।
प्राण हमारा पीव सौं, यूं लागा सहिये।
पुहप बास, घृत दूधा में, अब कासौं कहिये।।303।।
पाहण लोह बिच वासदेव, ऐसे मिल रहिये।
दादू दीन दयालु सौं, संगहि सुख लहिये।।304।।
दादू ऐसा बड़ा अगाधा है, सूक्षम जैसा अंग।
पुहप बास तैं पत्ताला, सो सदा हमारे संग।।305।।
दादू जब दिल मिली दयालु सौं, तब अंतर कुछ नाँहि।
ज्यों पाला पाणी को मिल्या, त्यों हरि जन हरि माँहि।।306।।
दादू जब दिल मिली दयालु सौं, तब सब पड़दा दूर।
ऐसे मिल एकै भया, बहु दीपक पावक पूर।।307।।
दादूजब दिल मिली दयालु सौं, तब अंतर नाहीं रेख।
नाना विधिा बहु भूषणां, कनक कसौटी एक।।308।।
दादू जब दिल मिली दयालु सौं, तब पलक न पड़दाकोय।
डाल मूल फल बीज में, सब मिल एकै होय।।309।।
फल पाका बेली तजी, टिकाया मुख माँहि।
सांई अपना कर लिया, सो फिर ऊगे नाँहि।।310।।
दादू काया कटोरा दूधा मन, प्रेम प्रीति सौं पाय।
हरि साहिब इहिं विधिा अंचवै, वेगा बार न लाइ।।311।।
टगाटगी जीवन मरण, ब्रह्म बराबर होय।
परगट खेले पीव सौं, दादू विरला कोय।।312।।
दादू निबरा ना रहै, ब्रह्म सरीखा होय।
लै समाधिा रस पीजिए, दादू जब लग दोय।।313।।
बेखुद खबर होशियार बाशद, खुद खबर पामाल।
बे कीमत मस्तान : गलतान, नूर प्याले ख्याल।।314।।
दादू माता प्रेम का, रस में रह्या समाय।
अंत न आवे जब लगैं, तब लग पीवत जाय।।315।।
पीया तेजा सुख भया, बाकी बहु वैराग।
ऐसे जन थाके नहीं, दादू उनमनि लाग।।316।।
निकट निरंजन लाग रहु, जब लग अलख अभेव।
दादू पीवै राम रस, निष्कामी निज सेव।।317।।
राम रटन छाड़े नहीं, हरि लै लागा जाइ।
बीचैं ही अटके नहीं, कला कोटि दिखलाइ।।318।।
दादू हरि रस पीवतां, कबहूँ अरुचि न होय।
पीवत प्यासा नित नवा, पीवण हारा सोय।।319।।
दादू जैसे श्रवणा दोइ हैं, ऐसे हूँ हि अपार।
रामकथा रस पीजिए, दादू बारंबार।।320।।
जैसे नैना दोय हैं, ऐसे हूँ हि अनंत।
दादू चंद चकोर ज्यूँ, रस पीवैं भगवंत।।321।।
ज्यूँ रसना मुख एक है, ऐसे हूँ कि अनेक।
तो रस पीवै शेष ज्यूँ, यों मुंख मीठा एक।।322।।
ज्यों घट आत्म एक है, ऐसे हूँ कि असंख।
भर-भर राखें राम रस, दादू एकै अंक।।323।।
ज्यूँ-ज्यूँ पीवे राम रस, त्यूँ-त्यूँ बढ़े पियास।
ऐसा कोई एक है, विरला दादू दास।।324।।
राता माता राम का, मतिवाला मैमंत।
दादू पीवत क्यों रहे, जे जुग जाँहि अनंत।।325।।
दादू निर्मल ज्योति जल, वर्षा बारह मास।
तिहिं रस राता प्राणिया, माता प्रेम पियास।।326।।
रोम-रोम रस पीजिए, एती रसना होय।
दादू प्यासा प्रेम का, यों बिन तृप्ति न होय।।327।।
तन गृह छाड़ै पति, जब रस माता होय।
जब लग दादू सावधाान, कदे न छाड़ै कोय।।328।।
ऑंगण एक कलाल के, मतवाला रस माँहि।
दादू देख्या नैन भर, ताके दुविधाा नाँहि।।329।।
पीवत चेतन जब लगैं, तब लग लेवै आय।
जब माता दादू प्रेम रस, तब काहे कूँ जाय।।330।।
दादू अंतर आतमा, पीवे हरि जल नीर।
सौंज सकल ले उध्दरे, निर्मल होय शरीर।।331।।
दादू मीठा राम रस, एक घूँट कर जाउँ।
पुणग न पीछे को रहै, सब हिरदै माँहि समाउँ।।332।।
चिड़ी चंच भर ले गई, नीर निघट नहिं जाय।
ऐसा बासण ना किया, सब दरिया माँहि समाय।।333।।
दादू अमली राम का, रस बिन रह्या न जाय।
पलक एक पावे नहीं, तो तबहि तलफ मर जाय।।334।।
दादू राता राम का, पीवे प्रेम अघाय।
मतवाला दीदार का, माँगे मुक्ति बलाय।।335।।
उज्वल भँवरा हरि कमल, रस रुचि बारह मास।
पीवे निर्मल वासना, सो दादू निज दास।।336।।
नैनहुँ सौं रस पीजिए, दादू सुरति सहेत।
तन-मन मंगल होत है, हरि सौं लागा हेत।।337।।
पीवे पिलावे राम रस, माता है हुसियार।
दादू रस पीवे घणां, औरों को उपकार।।338।।
नाना विधिा पिया राम रस, केती भाँति अनेक।
दादू बहुत विवेक सूँ, आतम अविगत एक।।339।।
परिचय का पय प्रेम रस, जे कोई पीवे।
मतिवाला माता रहै, यों दादू जीवे।।340।।
परिचय का पय प्रेम रस, पीवे हित चित लाय।
मनसा वाचा कर्मना, दादू काल न खाय।।341।।
परिचय पीवे राम रस, युग-युग सुस्थिर होइ।
दादू अविचल आतमा, काल न लागे कोइ।।342।।
परिचय पीवे राम रस, सो अविनाशी अंग।
काल मीच लागे नहीं, दादू सांई संग।।343।।
परिचय पीवे राम रस, सुख में रहे समाय।
मनसा वाचा कर्मना, दादू काल न खाय।।344।।
परिचय पीवे राम रस, राता सिरजनहार।
दादू कुछ व्यापे नहीं, ते छूटे संसार।।345।।
अमृत भोजन राम रस, काहे न विलसे खाय।
काल बिचारा क्या करे, रम रम राम समाय।।346।।
दादू जीव अजा बिघ काल है, छेली जाया सोइ।
जब कुछ वश नहिं काल का, तब मीनी का मुख होइ।।347।।
मन लवरू के पंख है, उनमनि चढै अकास।
पग रह पूरे साच के, रोप रह्या हरि पास।।348।।
तन मन वृक्ष बबूल का, काँटे लागे शूल।
दादू माखण ह्नै गया, काहू का अस्थूल।।349।।
दादू संषा शब्द है, सुनहां संशा मारि।
मन मींडक सूं मारिये, शंका शर्प निवारि।।350।।
दादू गाँझी ज्ञान है, भंजन है सब लोक।
राम दूधा सब भर रह्या, ऐसा अमृत पोष।।351।।
दादू झूठा जीव है, गढिया गोविन्द बैन।
मनसा मूँगी पंखि सूँ, सूरज सरीखे नैन।।352।।
सांई दीया दत्ता घणां, तिसका वार न पार।
दादू पाया राम धान, भाव भक्ति दीदार।।353।।
।।इति परिचय का अंग सम्पूर्ण।।
अथ जरणा का अंग।।5।।
दादू नमो नमो निरंजनं, नमस्कार गुरु देवत:।
वन्दनं सर्व साधावा, प्रणामं पारंगत:।।1।।
को साधाू राखे राम धान, गुरु बाइक वचन विचार।
गहिला दादू क्यूँ रहै, मरकत हाथ गँवार।।2।।
दादू मन ही मांहै समझ कर, मन ही माँहि समाय।
मन ही मांहै राखिए, बाहर कहि न जणाय।।3।।
दादू समझ समाइ रहु, बाहर कहि न जणाय
दादू अद्भुत देखिया, तहँ ना को आवे जाय।।4।।
कहि-कहि क्या दिखलाइए, सांई सब जाने।
दादू परगट का कहै, कुछ समझ सयाने।।5।।
दादू मन ही मांहै ऊपजै, मन ही माँहि समाय।
मन ही मांहै राखिए, बाहर कहि न जणाय।।6।।
लै विचार लागा रहै, दादू जरता जाय।
कबहूँ पेट न आफरे, भावे तेता खाय।।7।।
जनि खोवे दादू रामधान, हृदय राखि जनि जाय।
रतन जतन कर राखिए, चिंतामणि चित लाय।।8।।
सोई सेवक सब जरे, जेती उपजे आय।
कहि न जनावे ओर को, दादू माँहि समाय।।9।।
सोई सेवक सब जरे, जेता रस पीया।
दादू गूझ गंभीर का, परकाश न कीया।।10।।
सोई सेवक सब जरे, जे अलख लखावा।
दादू राखे राम धान, जेता कुछ पावा।।11।।
सोई सेवक सब जरे, प्रेम रस खेला।
दादू सो सुख कस कहै, जहँ आप अकेला।।12।।
सोई सेवक सब जरे, जेता घट परकास।
दादू सेवक सब लखे, कहि न जनावे दास।।13।।
अजर जरे रस ना झरे, घट माँहि समावे।
दादू सेवक सो भला, जे कहि न जनावे।।14।।
अजर जरे रस ना झरे, घट अपना भर लेय।
दादू सेवग सो भला, जारे जाण न देय।।15।।
अजर जरे रस ना झरे, जेता सब पीवे।
दादू सेवक सो भला, राखे रस जीवे।।16।।
अजर जरे रस ना झरे, पीवत थाके नाँहि।
दादू सेवक सो भला, भर राखे घट माँहि।।17।।
साधु महिमा
जरणा जोगी जुग-जुग जीवे, झरणा मर-मर जाय।
दादू जोगी गुरुमुखी, सहजैं रहै समाय।।18।।
जरणा जोगी जग रहै, झरणा परले होय।
दादू जोगी गुरुमुखी, सहज समाना सोय।।19।।
जरणा जोगी थिर रहै, झरणा घट फूटे।
दादू जोगी गुरुमुखी, काल तैं छूटे।।20।।
जरणा जोगी जगपती, अविनाशी अवधाूत।
दादू जोगी गुरुमुखी, निरंजन का पूत।।21।।
जरे सु नाथ निरंजन बाबा, जरे सु अलख अभेव।
जरे सु जोगी सब की जीवनि, जरे सु जग में देव।।22।।
जरे सु आप उपावन हारा, जरे सु जगपति सांई।
जरे सु अलख अनूप है, जरे सु मरणा नांही।।23।।
जरे सु अविचल राम है, जरे सु अमर अलेख।
जरे सु अविगत आप है, जरे सु जग में एक।।24।।
जरे सु अविगत आप है, जरे सु अपरंपार।
जरे सु अगम अगाधा है, जरे सु सिरजनहार।।25।।
जरे सु निज निराकार है, जरे सु निज निधर्ाार।
जरे सु निज निर्गुण मई, जरे सु निज तत सार।।26।।
जरे सु पूरण ब्रह्म है, जरे सु पूरणहार।
जरे सु पूरण परम गुरु, जरे सु प्राण हमार।।27।।
दादू जरे सु ज्योति स्वरूप है, जरे सु तेज अनन्त।
जरे सु झिलमिल नूर है, जरे सु पुंज रहन्त।।28।।
दादू जरे सु परम प्रकाश है, जरे सु परम उजास।
जरे सु परम उदीत है, जरे सु परम विलास।।29।।
दादू जरे सु परम पगार है, जरे सु परम विकास।
जरे सु परम प्रभास है, जरे सु परम निवास।।30।।
परमेश्वर की दयालुता
दादू एक बोल भूले हरि, सु कोई न जाणे प्राण।
औगुण मन आणे नहीं, और सब जाणे हरि जाण।।31।।
दादू तुम जीवों के औगुण तजे, सु कारण कौन अगाधा।
मेरी जरणा देखकर, मति को सीखे साधा।।32।।
धाारणा
पवना पाणी सब पिया, धारती अरु आकास।
चंद सूर पावक मिले, पंचौ एकै ग्रास।।33।।
चौदह तीनों लोक सब, ठूँगे श्वासे श्वास।
दादू साधाू सब जरे, सद्गुरु के विश्वास।।34।।
।।इति जरणा का अंग सम्पूर्ण।।
अथ हैरान का अंग।।6।।
दादू नमो नमो निरंजनं, नमस्कार, गुरु देवत:।
वन्दनं सर्व साधावा, प्रणामं पारंगत:।।1।।
रतन एक बहु पारिखू, सब मिल करैं विचार।
गूँगे गहिले बावरे, दादू वार न पार।।2।।
केते पारिख जौहरी, पंडित ज्ञाता धयान।
जाण्या जाइ न जाणिये, का कहि कथिये ज्ञान।।3।।
केते पारिख पच मुये, कीमत कही न जाय।
दादू सब हैरान हैं, गूँगे का गुड़ खाय।।4।।
सब ही ज्ञानी पंडिता, सुर नर रहे उरझाय।
दादू गति गोविन्द की, क्यों ही लखी न जाय।।5।।
जैसा है तैसा नाम तुम्हारा, ज्यूँ है त्यूँ कह सांई।
तूँ आपै जाणे आपकूँ, तहँ मेरी गम नाहीं।।6।।
केते पारिख अंत न पावैं, अगम अगोचर मांहीं।
दादू कीमत कोई न जाणै, क्षीर नीर की नांई।।7।।
जीव ब्रह्म सेवा करै, ब्रह्म बराबर होइ।
दादू जाने ब्रह्म को, ब्रह्म सरीखा सोइ।।8।।
वार पार को ना लहै, कीमत लेखा नाँहि।
दादू एकै नूर है, तेज पुंज सब माँहि।।9।।
पीव पिछाण
हस्त पाँव नहिं शीश मुख, श्रवण नेत्रा कहुँ कैसा।
दादू सब देखे सुणे, कहै गहै ऐसा।।10।।
पाया पाया सब कहैं, केतक देहुँ दिखाय।
कीमत किनहुँ ना कही, दादू रहु ल्यौलाय।।11।।
अपना भंजन भर लिया, उहाँ उता ही जाण।
अपणी-अपणी सब कहैं, दादू बिड़द बखाण।।12।।
पार न देवे आपणा, गोप गूझ मन माँहि।
दादू कोई ना लहै, केते आवें जाँहि।।13।।
गूँगे का गुड़ का कहूँ, मन जानत है खाय।
त्यों राम रसायण पीवतां, सो सुख कह्या न जाय।।14।।
दादू एक जीभ केता कहूँ, पूरण ब्रह्म अगाधा।
वेद कतेबां मित नहीं, थकित भये सब साधा।।15।।
दादू मेरा एक मुख, कीर्ति अनन्त अपार।
गुण केते परिमित नहीं, रहे विचार विचार।।16।।
सकल शिरोमणि नाम है, तूं है तैसा नाँहि।
दादू कोई ना लहै, केते आवें जाँहि।।17।।
दादू केते कह गये, अंत न आवे ओर।
हम हूँ कहते जात हैं, केते कहसी ओर।।18।।
दादू मैं का जाणों का कहूँ, उस बलिये की बात।
क्या जानूँ क्यूँ ही रहे, मो पै लख्या न जात।।19।।
दादू केते चल गये, थाके बहुत सुजान।
बातों नाम न नीकले, दादू सब हैरान।।20।।
ना कहिं दिट्ठा ना सुण्या, ना कोई आखणहार।
ना कोई उत्थों थी फिरया, ना उर वार न पार।।21।।
नहीं मृतक नहिं जीवता, नहिं आवे नहिं जाय।
नहिं सूता नहिं जागता, नहिं भूखा नहिं खाय।।22।।
न तहाँ चुप ना बोलणा, मैं तैं नाहीं कोइ।
दादू आपा पर नहीं, न तहाँ एक न दोइ।।23।।
एक कहूँ तो दोय है, दोय कहूँ तो एक।
यों दादू हैरान है, ज्यों है त्यों ही देख।।24।।
देख दिवाने ह्नै गये, दादू खरे सयान।
वार पार को ना लहै, दादू है हैरान।।25।।
पतिव्रत निष्काम
दादू करणहार जे कुछ किया, सोई हूँ कर जाण।
जे तूं चतुर सयाना जानराय, तो या ही परमाण।।26।।
दादू जिन मोहन बाजी रची, सो तुम पूछो जाइ।
अनेक एक तैं क्यों किये, साहिब कह समझाइ।।27।।
।।इति हैरान का अंग सम्पूर्ण।।
अथ लै का अंग।।7।।
दादू नमो नमो निरंजनं, नमस्कार गुरु देवत:।
वन्दनं सर्व साधावा, प्रणामं पारंगत:।।1।।
दादू लै लागी तब जानिए, जे कबहूँ छूट न जाय।
जीवन यों लागी रहे, मूवाँ मंझि समाय।।2।।
दादू जे नर प्राणी लै गता, सोई गत ह्नै जाय।
जे नर प्राणी लै रता, सो सहजैं रहै समाय।।3।।
सब तज गुण आकार के, निश्चल मन ल्यौ लाय।
आतम चेतन प्रेम रस, दादू रहै समाय।।4।।
तन-मन पवना पंच गह, निरंजन ल्यौ लाय।
जहँ आत्म तहँ परमात्मा, दादू सहज समाय।।5।।
अर्थ अनूपं आप है, और अनरथ भाई।
दादू ऐसी जाण कर, तासौं ल्यौ लाई।।6।।
ज्ञान भक्ति मन मूल गह, सहज प्रेम ल्यौ लाय।
दादू सब आरंभ तज, जनि काहू सँग जाय।।7।।
अगम संसार
पहली था सो अब भया, अब सो आगे होइ।
दादू तीनों ठौर की, बूझे विरला कोइ।।8।।
अधयात्म
योग समाधिा सुख सुरति सौं, सहजैं-सहजैं आव।
मुक्ता द्वारा महल का, इहै भक्ति का भाव।।9।।
सहज शून्य मन राखिए, इन दोनों के माँहि।
लै समाधिा रस पीजिए, तहाँ काल भय नाँहि।।10।।
सूक्ष्म मार्ग
किहिं मारग ह्नै आइया, किहिं मारग ह्नै जाइ।
दादू कोई ना लहै, केते करैं उपाय।।11।।
शून्य हि मारग आइया, शून्य ही मारग जाय।
चेतन पैंडा सुरति का, दादू रहु ल्यौ लाय।।12।।
दादू पारब्रह्म पैंडा दिया, सहज सुरति लै सार।
मन का मारग माँहि घर संगी सिरजनहार।।13।।
लय
राम कहै जिस ज्ञान सौं, अमृत रस पीवे।
दादू दूजा छाड़ि सब, लै लागी जीवे।।14।।
राम रसायन पीवतां जीव ब्रह्म ह्नै जाय।
दादू आतम राम सौं, सदा रहै ल्यौ लाय।।15।।
सुरति समाइ सन्मुख रहे, जुग-जुग जन पूरा।
दादू प्यासा प्रेम का, रस पीवे सूरा।।16।।
अध्यात्म
दादू जहाँ जगद् गुरु रहत है, तहाँ जे सुरति समाय।
तो इन ही नैनहुँ उलट कर, कौतिक देखे आय।।17।।
अख्यूं पसण के पिरी, भिरे उलथ्थौ मंझ।
जित्तो बैठो मां पिरी, नीहारो दो हंझ।।18।।
दादू उलट अपूठा आप में, अंतर शोधा सुजाण।
सो ढिग तेरे बावरे, तज बाहर की बाण।।19।।
सुरति अपूठी फेरि कर, आतम मांहै आण।
लाग रहे गुरुदेव सौं, दादू सोइ सयाण।।20।।
जहाँ आत्म तहँ राम है, सकल रह्या भरपूर।
अन्तरगत ल्यौ लाइ रहु, दादू सेवक शूर।।21।।
सूक्ष्म सौंज अर्चा बन्दगी
दादू अंतरगत ल्यौ लाय रहु, सदा सुरति सौं गाय।
यहु मन नाचे मगन ह्नै, भावै ताल बजाय।।22।।
दादू गावे सुरति सौं, वाणी बाजे ताल।
यहु मन नाचे प्रेम सौं, आगे दीन दयाल।।23।।
विरक्तता
दादू सब बातन की एक है, दुनिया तैं दिल दूर।
सांइ सेती संग कर, सहज सुरति लै पूर।।24।।
अधयात्म
दादू एक सुरति सौं सब रहैं, पंचौं उनमनि लाग।
यहु अनुभव उपदेश यहु, यहु परम योग वैराग।।25।।
दादू सहजैं सुरति समाइ ले, पारब्रह्म के अंग।
अरस परस मिल एक ह्नै, सन्मुख रहिबा संग।।26।।
लय
सुरति सदा सन्मुख रहै, जहाँ तहाँ लै लीन।
सहज रूप सुमिरण करे, निष्कर्मी दादू दीन।।27।।
सुरति सदा साबित रहै, तिनके मोटे भाग।
दादू पीवे राम रस, रहै निरंजन लाग।।28।।
सूक्ष्म सौंज
दादू सेवा सुरति सौं, प्रेम प्रीति सौं लाय।
जहँ अविनाशी देव है, तहँ सुरति बिना को जाय।।29।।
विनती
दादू ज्यों वै बरत गगन तैं टूटे, कहाँ धारणि कहँ ठाम।
लागी सुरति अंग तै छूटे, सो कत जीवे राम।।30।।
अधयात्म
सहज योग सुख में रहै, दादू निर्गुण जाण।
गंगा उलटी फेरी कर, जमुना मांहीं आण।।31।।
लय
परमातम सौं आतमा, ज्यों जल उदक समान।
तन-मन पाणी लौंण ज्यों, पावे पद निर्वान।।32।।
मन ही सौं मन सेविए, ज्यों जल जल हि समाय।
आतम चेतन प्रेम रस, दादू रहु ल्यौ लाय।।33।।
यों मन तजे शरीर को, ज्यों जागत सो जाय।
दादू बिसरे देखतां, सहज सदा ल्यौ लाय।।34।।
जिहिं आसण पहली प्राण था, तिहिं आसण ल्यौ लाय।
जे कुछ था सोई भया, कछु न व्यापै आय।।35।।
तन-मन अपणा हाथ कर, ताही सौं ल्यौ लाय।
दादू निर्गुण राम सौं, ज्यों जल जलहि समाय।।36।।
उपजनि
एक मना लागा रहे, अंत मिलेगा सोय।
दादू जाके मन बसे, ताको दर्शन होय।।37।।
दादू निबहै त्यों चले, धाीरैं धाीरज माँहि।
परसेगा पिव एक दिन, दादू थाके नाँहि।।38।।
लय
जब मन मृतक ह्नै रहे, इन्द्री बल भागा।
काया के सब गुण तजे, निरंजन लागा।।39।।
आदि अंत मधिा एक रस, टूटे नहिं धाागा।
दादू एकै रह गया, तब जाणी जागा।।40।।
जब लग सेवक तन धारे, तब लग दूसर आय।
एक मेक ह्नै मिल रहे, तो रस पीवण तैं जाय।।41।।
ये दोनों ऐसी कहैं, कीजे कौण उपाय।
ना मैं एक न दूसरा, दादू रहु ल्यौ लाय।।42।।
।।इति लै का अंग सम्पूर्ण।।
अथ निहकर्मी पतिव्रता का अंग।।8।।
दादू नमो नमो निरंजनं, नमस्कार गुरु देवत:।
वन्दनं सर्व साधावा, प्रणामं पारंगत:।।1।।
एक तुम्हारे आसरे, दादू इहि विश्वास।
राम भरोसा तोर है, नहिं करणी की आस।।2।।
रहणी राजस ऊपजे, करणी आपा होय।
सब तैं दादू निर्मला, सुमिरण लागा सोय।।3।।
मन अपना लै लीन कर, करणी सब जंजाल।
दादू सहजैं निर्मला, आपा मेट सँभाल।।4।।
दादू सिध्दि हमारे सांइयां, करामात करतार।
ऋध्दि हमारे राम हैं, आगम अलख अपार।।5।।
गोविन्द गोसांई तुम्हें अम्हंचा गुरु, तुम्हें अम्हंचा ज्ञान।
तुम्हें अम्हंचा देव, तुम्हें अम्हंचा धयान।।6।।
तुम्हें अम्हंची पूजा, तुम्हें अम्हंची पाती।
तुम्हें अम्हंचा तीर्थ, तुम्हें अम्हंची जाती।।7।।
तुम्हें अम्हंचा नाद, तुम्हें अम्हंचा भेद।
तुम्हें अम्हंचा पुराण, तुम्हें अम्हंचा वेद।।8।।
तुम्हें अम्हंची युक्ति, तुम्हीं अम्हंचा योग।
तुम्हीं अम्हंचा वैराग, तुम्हीं अम्हंचा भोग।।9।।
तुम्हीं अम्हंची जीवनि, तुम्हीं अम्हंचा जप।
तुम्हीं अम्हंचा साधान, तुम्हीं अम्हंचा तप।।10।।
तुम्हीं अम्हंचा शील, तुम्हीं अम्हंचा संतोष।
तुम्हीं अम्हंची युक्ति, तुम्हीं अम्हंचा मोक्ष।।11।।
तुम्हीं अम्हंचा शिव, तुम्हीं अम्हंची शक्ति।
तुम्हीं अम्हंचा आगम, तुम्हीं अम्हंची उक्ति।।12।।
तूं सत्य तूं अविगत तूं अपरंपार, तूं निराकार तुम्ह चानाम।
दादू चा विश्राम, देहु देहु अवलम्बन राम।।13।।
दादू राम कहूँ ते जोडबा, राम कहूँ ते साखि।
राम कहूँ ते गाइबा, राम कहूँ ते राखि।।14।।
दादू कुल हमारे केशवा, सगा तो सिरजनहार।
जाति हमारी जगद्गुरु, परमेश्वर परिवार।।15।।
दादू एक सगा संसार में, जिन हम सिरजे सोइ।
मनसा वाचा कर्मना, और न दूजा कोइ।।16।।
सुमिरण नाम निस्संशय
सांई सन्मुख जीवतां, मरतां सन्मुख होय।
दादू जीवण-मरण का, सोच करैं जनि कोय।।17।।
पतिव्रत
साहिब मिल्या तो सब मिले, भेंटैं भेंटा होइ।
साहिब रह्या तो सब रहे, नहीं तो नांहीं कोइ।।18।।
सब सुख मेरे सांइयां, मंगल अति आनन्द।
दादू सज्जन सब मिले, जब भेंटे परमानन्द।।19।।
दादू रीझे राम पर, अनत न रीझे मन।
मीठा भावे एकरस, दादू सोई जन।।20।।
दादू मेरे हृदय हरि बसे, दूजा नांहीं और।
कहो कहाँ धाौं राखिए, नहीं आन का ठौर।।21।।
दादू नारायण नैना बसे, मन ही मोहन राय।
हिरदा मांहीं हरि बसे, आतम एक समाय।।22।।
दादू तन-मन मेरा पीव सौं, एक सेज सुख सोय।
गहिला लोक न जाणही, पच-पच आपा खोय।।23।।
दादू एक हमारे उर बसे, दूजा मेल्या दूर।
दूजा देखत जाइगा, एक रह्या भरपूर।।24।।
निश्चल का निश्चल रहे, चंचल का चल जाय।
दादू चंचल छाड़ि सब, निश्चल सौं ल्यौ लाय।।25।।
साहिब रहतां सब रह्या, साहिब जातां जाय।
दादू साहिब राखिए, दूजा सहज सुभाय।।26।।
मन चित मनसा, पलक में, सांई दूर न होइ।
निहकामी निरखे सदा, दादू जीवन सोइ।।27।।
कथनी बिना करणी
जहाँ नाम तहँ नीति चाहिए, सदा राम का राज।
निर्विकार तन मन भया, दादू सीझे काज।।28।।
सुन्दरी विलाप
जिसकी खूबी खूब सब, सोई खूब सँभार।
दादू सुन्दरि खूब सौं, नख-शिख साज-सँवार।।29।।
दादू पंच अभूषण पीव कर, सोलह सब ही ठाम।
सुन्दरि यहु शृंगार कर, लै ले पीव का नाम।।30।।
यहु व्रत सुन्दरि ले रहै, तो सदा सुहागिनी होइ।
दादू भावै पीव को, ता सम और न कोइ।।31।।
मन हरि भाँवरि
साहिब जी का भावता, कोइ करे कलि माँहि।
मनसा वाचा कर्मना, दादू घट-घट नाँहि।।32।।
पतिव्रता निष्काम
आज्ञा मांहीं बैसै ऊठे, आज्ञा आवे-जाय।
आज्ञा मांहीं लेवे-देवे, आज्ञा पहरे खाइ।।33।।
आज्ञा मांहीं बाहर-भीतर, आज्ञा रहै समाय।
आज्ञा मांहीं तन-मन राखे, दादू रहे ल्यौ लाय।।34।।
पतिव्रता गृह आपणे, करे खसम की सेव।
ज्यों राखे त्यों ही रहे, आज्ञाकारी टेव।।35।।
सुन्दरी विलाप
दादू नीच ऊँच कुल सुन्दरी, सेवा सारी होय।
सोइ सुहागिनि कीजिए, रूप न पीजे धाोय।।36।।
दादू जब तन मन सौंप्या राम को, ता सनि का व्यभिचार।
सहज शील संतोष सत, प्रेम भक्ति लै सार।।37।।
पर पुरुषा सब पर हरै, सुन्दरि देखे जाग।
अपणा पीव पिछान कर, दादू रहिए लाग।।38।।
आन पुरुष हूँ बहिनड़ी, परम पुरुष भरतार।
हूँ अबला समझूँ नहीं, तूं जाने करतार।।39।।
पतिव्रत
जिसका तिसको दीजिए, सांई सन्मुख आय।
दादू नख-शिख सौंप सब, जनि यहु बंटया जाय।।40।।
सारा दिल सांई सौं राखे, दादू सोइ सयान।
जे दिल बँटे आपणा, सो सब मूढ अयान।।41।।
विरक्तता
दादू सारों सौं दिल तोर कर, सांई सौं जोरे।
सांई सेती जोड़ कर, काहे को तोरे।।42।।
अन्य लग्न व्यभिचार
साहिब देवे राखणा, सेवक दिल चोरे।
दादू सब धान साह का, भूला मन थोरे।।43।।
पतिव्रत
दादू मनसा वाचा कर्मना, अन्तर आवे एक।
ताको प्रत्यक्ष रामजी, बातें और अनेक।।44।।
दादू मनसा वाचा कर्मना, हिरदै हरि का भाव।
अलख पुरुष आगे खड़ा, ता के त्रिाभुवन राव।।45।।
दादू मनसा वाचा कर्मना, हरि जी सौं हित होय।
साहिब सन्मुख संग है, आदि निरंजन सोय।।46।।
दादू मनसा वाचा कर्मना, आतुर कारण राम।
समरथ सांई सब करे, परगट पूरे काम।।47।।
नारी पुरुषा देखिकर, पुरुषा नारी होय।
दादू सेवक राम का, शीलवंत है सोय।।48।।
अन्य लग्न व्यभिचार
पर पुरुषा रत बांझणी, जाणे जे फल होय।
जन्म विगोवे आपणा, दादू निष्फल सोय।।49।।
दादू तज भरतार को, पर पुरुषा रत होय।
ऐसी सेवा सब करैं, राम न जाणे सोय।।50।।
पतिव्रत
नारी सेवक तब लगैं, जब लग सांई पास।
दादू परसे आन को, ताकी कैसी आस।।51।।
अन्य लग्न व्यभिचार
दादू नारी पुरुष को, जाणैं जे वश होइ।
पिव की सेवा ना करे, कामणगारी सोइ।।52।।
करुणा
कीया मन का भावता, मेटी आज्ञाकार।
क्या ले मुख दिखलाइए, दादू उस भरतार।।53।।
अन्य लग्न व्यभिचार
करामात कलंक है, जाके हिरदै एक।
अति आनंद व्यभिचारिणी, जाके खसम अनेक।।54।।
दादू पतिव्रता के एक है, व्यभिचारिणी के दोय।
पतिव्रता व्यभिचारिणी, मेला क्यों कर होय।।55।।
पतिव्रता के एक है, दूजा नाहीं आन।
व्यभिचारिणी के दोय हैं, पर घर एक समान।।56।।
सुन्दरी सुहाग
दादू पुरुष हमारा एक है, हम नारी बहु अंग।
जे जे जैसे ताहि सौं, खेलैं तिस ही रंग।।57।।
पतिव्रत
दादू रहता राखिए, बहता देइ बहाय।
बहते संग न जाइए, रहते सौं ल्यौ लाय।।58।।
जनि बाझे काहू कर्म सौं, दूजे आरम्भ जाय।
दादू एकै मूल गह, दूजा देय बहाय।।59।।
बावें देखि न दाहिणे, तन-मन सन्मुख राखि।
दादू निर्मल तत्तव गह, सत्य शब्द यहु साखि।।60।।
दादू दूजा नैन न देखिए, श्रवण हुँ सुणैं न जाय।
जिह्ना आन न बोलिए, अंग न और सुहाय।।61।।
चरण हु अनत न जाइए, सब उलटा माँहि समाय।
उलट अपूठा आप में, दादू रहु ल्यौ लाय।।62।।
दादू दूजे अन्तर होत है, जिन आणे मन माँहि।
तहँ ले मन को राखिए, तहँ कुछ दूजा नाँहि।।63।।
भ्रम विधवंसन
भर्म तिमर भाजे नहीं, रे जिव आन उपाय।
दादू दीपक साज ले, सहजैं ही मिट जाय।।64।।
दादू सो वेदन नहिं बावरे, आन किये जे जाय।
सब दुख भंजन सांइयां, ता ही सौं ल्यौ लाय।।65।।
दादू औषधि मूली कुछ नहीं, ये सब झूठी बात।
जो औषधिा ही जीविए, तो काहे को मर जात।।66।।
पतिव्रत
मूल गहै सो निश्चल बैठा, सुख में रहे समाय।
डाल पान भरमत फिरे, वेदों दिया बहाय।।64।।
सौ धाक्का सुनहां को देवे, घर बाहर काढ़े।
दादू सेवग राम का, दरबार न छाड़े।।68।।
साहिब का दर छाडिकर, सेवक कहीं न जाय।
दादू बैठा मूल गह, डालों फिरे बलाय।।69।।
दादू जब लग मूल न सींचिए, तब लग हरा न होय।
सेवा निष्फल सब गई, फिर पछताना सोय।।70।।
दादू सींचे मूल के, सब सींच्या विस्तार।
दादू सींचे मूल बिन, बाद गई बेगार।।71।।
सब आया उस एक में, डाल पान फल फूल।
दादू पीछे क्या रह्या, जब निज पकड़ा मूल।।72।।
खेत न निपजे बीज बिन, जल सींचे क्या होइ।
सब निर्फल दादू राम बिन, जानत हैं सब कोइ।।73।।
दादू जब मुख मांहीं मेलिए, तब सबही तृप्ता होइ।
मुख बिन मेले अन्य दिश, तृप्ति न माने कोइ।।74।।
जब देव निरंजन पूजिए, तब सब आया उस माँहि।
डाल पान फल फूल सब, दादू न्यारा नाँहि।।75।।
दादू टीका राम को, दूसर दीजे नाँहि।
ज्ञान धयान तप भेष पख, सब आये उस माँहि।।76।।
साधु राखै राम को, संसारी माया।
संसारी पल्लव गहैं, मूल साधु पाया।।77।।
अन्य लग्न व्यभिचार
दादू जे कुछ कीजिए, अविगत बिन आराधा
कहबा सुनबा देखबा, करबा सब अपराधा।।78।।
सब चतुराई देखिए, जे कुछ कीजे आन।
दादू आपा सौंपि सब, पिव को लेहु पिछान।।79।।
पतिव्रत
दादू दूजा कुछ नहीं, एक सत्य कर जान।
दादू दूजा क्या करे, जिन एक लिया पहचान।।80।।
कोई बाँछे मुक्ति फल, कोई अमरापुरि बास।
कोई बाँछे परमगति, दादू राम मिलण की आस।।81।।
तुम हरि हिरदै हेत सौं, प्रकटहु परमानन्द।
दादू देखे नैन भर, तब केता हो आनन्द।।82।।
प्रेम पियाला राम रस, हमको भावे येह।
रिधिा सिधिा माँगैं मुक्ति फल, चाहे तिनको देह।।83।।
कोटि वर्ष क्या जीवणा, अमर भये क्या होय।
प्रेम भक्ति रस राम बिन, का दादू जीवन सोय।।84।।
कछू न कीजे कामना, सह गुण निर्गुण होइ।
पलट जीव तैं ब्रह्म गति, सब मिल मानें मोहि।।85।।
घट अजरावर ह्नै रहे, बन्धान नाहीं कोइ।
मुक्ता चौरासी मिटे, दादू संशय सोइ।।86।।
लांबीरस
निकट निरंजन लाग रहो, जबलग अलख अभेव।
दादू पीवे राम रस, निहकर्मी निज सेव।।87।।
सालोक्य संगति रहै, सामीप्य सन्मुख सोय।
सारूप्य सारीखा भया, सायोज्य एकै होय।।88।।
राम रसिक बाँछे नहीं, परम पदारथ च्यार।
अठसिधिा नवनिधिा का करे, राता सिरजनहार।।89।।
अन्य लग्न व्यभिचार
स्वारथ सेवा कीजिए, तातैं भला न होय।
दादू ऊषर बाहिकर, कोठा भरे न कोय।।90।।
सुत वित माँगे बावरे, साहिब-सी निधिा मेलि।
दादू वे निर्फल गये, जैसे नागर वेलि।।91।।
फल कारण सेवा करे, जाचे त्रिाभुवन राव।
दादू सो सेवग नहीं, खेले अपणा दाँव।।92।।
सह कामी सेवा करैं, माँगैं मुग्धा गँवार।
दादू ऐसे बहुत हैं, फल के भूंचनहार।।93।।
सुमिरण नाम माहात्म्य
तन-मन लै लागा रहे, राता सिरजनहार।
दादू कुछ माँगे नहीं, ते विरला संसार।।94।।
दादू कहै-सांई को सँभालतां, कोटि विघ्न टल जाँहि।
राई मान बसंदरा, केते काठ जलाँहि।।95।।
करतूति कर्म
कर्मै कर्म काटे नहीं, कर्मै कर्म न जाय।
कर्मै कर्म छूटे नहीं, कर्मै कर्म बँधााय।।96।।
।।इति निहकर्मी पतिव्रता का अंग सम्पूर्ण।।
अथ चेतावनी का अंग।।9।।
दादू नमो नमो निरंजनं, नमस्कार गुरु देवत:।
वन्दनं सर्व साधावा, प्रणामं पारंगत:।।1।।
दादू जे साहिब को भावे नहीं, सो हम तैं जनि होय।
सद्गुरु लाजे आपणा, साधा न मानैं कोय।।2।।
दादू जे साहिब को भावे नहीं, सो सब परहर प्राण।
मनसा वाचा कर्मना, जे तूं चतुर सुजाण।।3।।
दादू जे साहिब को भावे नहीं, सो जीव न कीजी रे।
परहर विषय विकार सब, अमृत रस पीजी रे।।4।।
दादू जे साहिब को भावे नहीं, सो बाट न बूझी रे।
सांई सौं सन्मुख रही, इस मन सौं झूझी रे।।5।।
दादू अचेत न होइए, चेतन सौं चित लाय।
मनवा सूता नींद भर, सांई संग जगाय।।6।।
दादू अचेत न होइए, चेतन सौं कर चित्ता।
ये अनहद जहाँ तैं ऊपजे, खोजो तहँ ही नित्ता।।7।।
दादू जन! कुछ चेतकर, सौदा लीजे सार।
निखर कमाइ न छूटणा, अपणे जीव विचार।।8।।
दादू कर सांई की चाकरी, ये हरि नाम न छोड़।
जाणा है उस देश को, प्रीति पिया सौं जोड़।।9।।
आपा पर सब दूर कर, राम नाम रस लाग।
दादू अवसर जात है, जाग सके तो जाग।।10।।
बार-बार यहु तन नहीं, नर नारायण देह।
दादू बहुर न पाइए, जन्म अमोलक येह।।11।।
एका एकी राम सौं, कै साधु का संग।
दादू अनत न जाइये, और काल का अंग।।12।।
दादू तन-मन के गुण छाडि सब, जब होइ नियारा।
तब अपने नैनहुँ देखिए, परगट पिव प्यारा।।13।।
दादू झाँती पाये पसु पिरी, अन्दर सो आहे।
होणी पाणे बिच्च में, महर न लाहे।।14।।
दादू झाँती पाये पसु पिरी, हांणें लाइम बेर।
साथ सभोई ईह लियो, पसंदो केर।।15।।
।।इति चेतावनी का अंग सम्पूर्ण।।
अथ मन का अंग।।10।।
दादू नमो नमो निरंजनं, नमस्कार गुरु देवत:।
वन्दनं सर्व साधावा, प्रणामं पारंगत:।।1।।
दादू यहु मन बरजी बावरे, घट में राखी घेरि।
मन हस्ती माता बहै, अंकुश दे दे फेरि।।2।।
हस्ती छूटा मन फिरे, क्यों ही बँधया न जाय।
बहुत महावत पच गये, दादू कछु न वशाय।।3।।
जहाँ तैं मन उठ चले, फेरि तहाँ ही राखि।
तहँ दादू लै लीन कर, साधा कहैं गुरु साखि।।4।।
थोरे-थोरे हट किये, रहेगा ल्यौ लाय।
जब लागा उनमनि सौं, तब मन कहीं न जाय।।5।।
आडा दे दे राम को, दादू राखे मन।
साखी दे सुस्थिर करे, सोई साधाू जन।।6।।
सोइ शूर जे मन गहै, निमष न चलणे देइ।
जब ही दादू पग भरे, तब ही पाकड़ लेइ।।7।।
जेती लहर समुद्र की, ते ते मन हि मनोरथ मार।
वैसे सब संतोष कर, गह आतम एक विचार।।8।।
दादू जे मुख माँहीं बोलता, श्रवणहुँ सुणता आय।
नैनहुँ माँहीं देखता, सो अन्तर उरझाय।।9।।
दादू चुम्बक देखि कर, लोहा लागे आय।
यों मन गुण इन्द्रिय एकसौं, दादू लीजे लाय।।10।।
मन का आसण जे जिव जाणे, तो ठौर ठौर सब सूझे।
पंचों आणि एक घर राखे, तब अगम निगम सब बूझे।।11।।
बैठे सदा एक रस पीवे, निर्वैरी कत झूझे।
आत्मराम मिले जब दादू, तब अंग न लागे दूजे।।12।।
जब लग यहु मन थिर नहीं, तब लग परस न होइ।
दादू मनवा थिर भया, सहज मिलेगा सोइ।।13।।
दादू बिन अवलम्बन क्यों रहै, मन चंचल चल जाय।
सुस्थिर मनवा तो रहै, सुमिरण सेती लाय।।14।।
मन सुस्थिर कर लीजे नाम, दादू कहै तहाँ ही राम।।15।।
हरि सुमिरण सौं हेत कर, तब मन निश्चल होय।
दादू बेधया प्रेम रस, बीख न चाले सोय।।16।।
जब अंतर उरझा एक सौं, तब थाके सकल उपाय।
दादू निश्चल थिर भया, तब चल कहीं न जाय।।17।।
दादू कौआ बोहित बैस कर, मंझ समुद्राँ जाय।
उड़-उड़ थाका देख तब, निश्चल बैठा आय।।18।।
यहु मन कागद की गुड़ी, उड़ी चढ़ी आकास।
दादू भीगे प्रेम जल, तब आइ रहे हम पास।।19।।
दादू खीला गार का, निश्चल थिर न रहाय।
दादू पग नहिं साच के, भरमै दह दिशि जाय।।20।।
तब सुख आनन्द आत्मा, जे मन थिर मेरा होय।
दादू निश्चल राम सौं, जे कर जाने कोय।।21।।
मन निर्मल थिर होत है, राम नाम आनन्द।
दादू दर्शन पाइये, पूरण परमानन्द।।22।।
विषय-विरक्ति
दादू यों फूटे तैं सारा भया, संधो संधिा मिलाय।
बाहुड़ विषय न भूँचिये, तो कबहूँ फूट न जाय।।23।।
दादू यहु मन भूला सो गली, नरक जाण के घाट।
अब मन अविगत नाथ सौं, गुरु दिखाई बाट।।24।।
दादू मन शुधा साबित आपणा, निश्चल होवे हाथ।
तो इहाँ ही आनन्द है, सदा निरंजन साथ।।25।।
जब मन लागे राम सौं, तब अनत काहे को जाय।
दादू पाणी लौंण ज्यों, ऐसे रहै समाय।।26।।
करुणा
सो कुछ हम तैं ना भया, जापर रीझे राम।
दादू इस संसार में, हम आये बे काम।।27।।
क्या मुँह ले हँसि बोलिए, दादू दीजे रोय।
जन्म अमोलक आपणा, चले अकारथ खोय।।28।।
जा कारण जग जीजिए, सो पद हिरदै नाँहि।
दादू हरि की भक्ति बिन, धिाक् कलि माँहि।।29।।
कीया मन का भावता, मेटी आज्ञाकार।
क्या ले मुख दिखलाइए, दादू उस भरतार।।30।।
इन्द्री स्वारथ सब किया, मन माँगे सो दीन्ह।
जा कारण जग सिरजिया, सो दादू कछू न कीन्ह।।31।।
कीया था इस काम को, सेवा कारण साज।
दादू भूला बंदगी, सरया न एकौ काज।।32।।
मन प्रमोधा
बाद हि जन्म गँवाइया, कीया बहुत विकार।
यहु मन सुस्थिर ना भया, जहँ दादू निज सार।।33।।
विषय-अतृप्ति
दादू जनि विष पीवे बावरे, दिन-दिन बाढे रोग।
देखत ही मर जाइगा, तज विषया रस भोग।।34।।
मन हरि भावन
दादू सब कुछ विलसतां, खातां पीतां होय।
दादू मन का भावता, कह समझावे कोय।।35।।
दादू मन का भावता, मेरी कहै बलाय।
साच राम का भावता, दादू कहै सुण आय।।36।।
ये सब मन का भावता, जे कुछ कीजे आन।
मन गह राखे एक सौं, दादू साधु सुजान।।37।।
जे कुछ भावे राम को, सो तत कह समझाय।
दादू मन का भावता, सबको कहैं बणाय।।38।।
चानक-उपदेश
पैंडे पग चालै नहीं, होइ रह्या गलियार।
राम रथ निबहै नहीं, खैबे को हुशियार।।39।।
पर प्रमोधा
दादू का परमोधो आन को, आपण बहिया जात।
औरों को अमृत कहै, आपण ही विष खात।।40।।
दादू पंचों का मुख मूल है, मुख का मनवा होय।
यहु मन राखे जतन कर, साधु कहावे सोय।।41।।
दादू जब लग मन के दोय गुण, तब लग निपना नाँहि।
द्वै गुण मन के मिट गये, तब निपना मिल माँहि।।42।।
काचा पाका जब लगैं, तब लग अन्तर होय।
काचा पाका दूर कर, दादू एकै होय।।43।।
मधय निर्पक्ष
सहज रूप मन का भया, जब द्वै-द्वै मिटी तरंग।
ताता शीला सम भया, तब दादू एकै अंग।।44।।
मन
दादू बहु रूपी मन तब लगैं, जब लग माया रंग।
जब मन लागा राम सौं, तब दादू एकै अंग।।45।।
हीरा मन पर राखिए, तब दूजा चढ़े न रंग।
दादू यों मन थिर भया, अविनाशी के संग।।46।।
सुख-दुख सब झांई पड़े, तब लग काचा मन्न।
दादू कुछ व्यापै नहीं, तब मन भया रतन्न।।47।।
पाका मन डोले नहीं, निश्चल रहे समाय।
काचा मन दह दिशि फिरै, चंचल चहुँ दिशि जाय।।48।।
विरक्तता
सींप सुधाा रस ले रहै, पिवे न खारा नीर।
मांही मोती नीपजे, दादू बंद शरीर।।49।।
मन
दादू मन पंगुल भया, सब गुण गये बिलाय।
है काया नवजौवनी, मन बूढा ह्नै जाय।।50।।
दादू कच्छप अपने कर लिये, मन इन्द्री निज ठौर।
नाम निरंजन लाग रहु, प्राणी परहर और।।51।।
जाचक
मन इन्द्री अंधाा किया, घट में लहर उठाय।
सांई सद्गुरु छाड कर, देख दिवाना जाय।।52।।
दादू कहैµराम बिना मन रंक है, जाचे तीन्यों लोक।
जब मन लागा राम सौं, तब भागे दारिद दोष।।53।।
इन्द्री के आधाीन मन, जीव-जन्तु सब जाचे।
तिणे-तिणे के आगे दादू, तिहुँ लोक फिर नाचे।।54।।
इन्द्री अपणे वश करे, सो काहे याचन जाय।
दादू सुस्थिर आतमा, आसन बैसे आय।।55।।
मन मनसा दोनों मिले, तब जिव कीया भांड।
पंचों का फेरया फिरे, माया नचावे रांड।।56।।
नकटी आगे नकटा नाचे, नकटी ताल बजावे।
नकटी आगे नकटा गावे, नकटी नटका भावे।।57।।
अन्य लग्न व्यभिचार
पांचों इन्द्री भूत हैं, मनवा क्षेतर पाल।
मनसा देवी पूजिए, दादू तीनों काल।।58।।
जीवत लूटैं जगत् सब, मृत्ताक लूटैं देव।
दादू कहाँ पुकारिये, कर कर मूये सेव।।59।।
मन
अग्नि धाूम ज्यों नीकले, देखत सबै विलाय।
त्यों मन बिछुड़ा राम सौं, दह दिशि बीखर जाय।।60।।
घर छाड़े जब का भया, मन बहुर न आया।
दादू अग्नि के धाूम ज्यों, खुर खोज न पाया।।61।।
सब काहू के होत है, तन-मन पसरे जाय।
ऐसा कोई एक है, उलटा माँहि समाय।।62।।
क्यों कर उलटा आणिये, पसर गया मन फेरि।
दादू डोरी सहज की, यों आणे घर घेरि।।63।।
दादू साधु शब्द सौं मिल रहै, मन राखे विलमाय।
साधु शब्द बिन क्यों रहे, तब ही बीखर जाय।।64।।
एक निरंजन नाम सौं, कै साधु संगति माँहि।
दादू मन विलमाइये, दूजा कोई नाँहि।।65।।
तन में मन आवे नहीं, निश दिन बाहर जाय।
दादू मेरा जिव दुखी, रहे नहीं ल्यौ लाय।।66।।
तन में मन आवे नहीं, चंचल चहुँ दिशि जाय।
दादू मेरा जिव दुखी, रहै न राम समाय।।67।।
कोटि यत्न कर कर मुये, यहु मन दह दिश जाय।
राम नाम रोक्या रहे, नाहीं आन उपाय।।68।।
यहु मन बहु बकवाद सौं, बाइ भूत ह्नै जाय।
दादू बहुत न बोलिये, सहजैं रहै समाय।।69।।
सुमिरण नाम चेतावणी
भूला भोंदू फेर मन, मूरख मुग्धा गँवार।
सुमिर सनेही आपणा, आत्मा का आधाार।।70।।
मन माणिक मूरख राखि रे, जण-जण हाथ न देऊ।
दादू पारिख जौहरी, राम साधु दोइ लेऊ।।71।।
मन
मन मिरगा मारे सदा, ता का मीठा मांस।
दादू खाबे को हिल्या, तातैं आन उदास।।72।।
मन प्रबोधा
कह्या हमारा मान मन, पापी परिहर काम।
विषयों का सँग छाड दे, दादू कह रे राम।।73।।
केता कह समझाइए, माने नाहीं निलज्ज।
मूरख मन समझे नहीं, कीये काज अकज्ज।।74।।
साच
मन ही मंजन कीजिए, दादू दरपण देह।
माँही मूरति देखिए, इहिं अवसर कर लेह।।75।।
अन्य लग्न व्यभिचार
तब ही कारा होत है, हरि बिन चितवत आन।
क्या कहिए समझे नहीं, दादू सिखवत ज्ञान।।76।।
साच
दादू पाणी धाोवें बावरे, मन का मैल न जाय।
मन निर्मल तब होइगा, जब हरि के गुण गाय।।77।।
दादू धयान धारे का होत है, जे मन नहिं निर्मल होय।
तो बग सब हीं उध्दरै, जे इहि विधिा सीझे कोय।।78।।
दादू धयान धारे का होत है, जे मन का मैल न जाय।
बग मीनी का धयान धार, पशू बिचारे खाय।।71।।
दादू काले तैं धाोला भया, दिल दरिया में धाोय।
मालिक सेती मिल रह्या, सहजैं निर्मल होय।।80।।
दादू जिसका दर्पण ऊजला, सो दर्शन देखे माँहि।
जिनको मैली आरसी, सो मुख देखे नाँहि।।81।।
दादू निर्मल शुध्द मन, हरि रँग राता होय।
दादू कंचन कर लिया, काच कहे नहिं कोय।।82।।
यहु मन अपणा स्थिर नहीं, कर नहिं जाणे कोय।
दादू निर्मल देव की, सेवा क्यों कर होय।।83।।
दादू यहु मन तीनों लोक में, अरस परस सब होय।
देही की रक्षा करै, हम जिन भीटे कोय।।84।।
दादू देह यतन कर राखिए, मन राख्या नहिं जाय।
उत्ताम-मधयम वासना, भला-बुरा सब खाय।।85।।
दादू हाडों मुख भरया, चाम रह्या लिपटाय।
माँहीं जिह्ना मांस की, ताही सेती खाय।।86।।
नौओं द्वारे नरक के, निश दिन बहै बलाय।
शुचि कहाँ लों कीजिए, राम सुमिर गुण गाय।।87।।
प्राणी तन-मन मिल रह्या, इन्द्री सकल विकार।
दादू ब्रह्मा शूद्र घर, कहाँ रहै आचार।।88।।
दादू जीवे पलक में, मरतां कल्प बिहाय।
दादू यहु मन मसखरा, जिन कोई पतियाय।।89।।
दादू मूवा मन हम जीवित देख्या, जैसे मरघट भूत।
मूवां पीछे उठ-उठ लागे, ऐसा मेरा पूत।।90।।
निश्चल करतां जुग गये, चंचल तब ही होइ।
दादू पसरे पलक में, यहु मन मारे मोहि।।91।।
दादू यहु मन मींडका, जल सों जीवे सोइ।
दादू यहु मन रिंद है, जनि रु पतीजे कोइ।।92।।
माँहीं सूक्ष्म ह्नै रहे, बाहिर पसारे अंग।
पवन लाग पौढा भया, काला नाग भुवंग।।93।।
आशय-विश्राम
स्वप्ना तब लग देखिए, जब लग चंचल होय।
जब निश्चल लागा नाम सौं, तब स्वप्ना नहिं कोय।।94।।
जागत जहँ-जहँ मन रहै, सोवत तहँ-तहँ जाय।
दादू जे-जे मन बसे, सोइ-सोइ देखे आय।।95।।
दादू जे-जे चित बसे, सोइ-सोइ आवे चीत।
बाहर-भीतर देखिए, जाही सेती प्रीत।।96।।
श्रावण हरिया देखिए, मन चित धयान लगाय।
दादू केते युग गये, तो भी हरया न जाय।।97।।
जिसकी सुरति जहाँ रहे, तिसका तहँ विश्राम।
भावै माया मोह में, भावै आतम राम।।98।।
जहँ मन राखे जीवतां, मरतां तिस घर जाय।
दादू बासा प्राण का, जहँ पहली रह्या समाय।।99।।
जहाँ सुरति तहँ जीव है, जहँ नाँहीं तहँ नाँहिं।
गुण निर्गुण जहँ राखिए, दादू घर वन माँहिं।।100।।
जहाँ सुरति तहँ जीव है, आदि अन्त अस्थान।
माया ब्रह्म जहँ राखिए, दादू तहँ विश्राम।।101।।
जहाँ सुरति तहँ जीव है, जिवण-मरण जिस ठौर।
विष अमृत जहँ राखिए, दादू नाहीं और।।102।।
जहाँ सुरति तहँ जीव है, तहँ जाणे तहँ जाय।
गम-अगम जहँ राखिए, दादू तहाँ समाय।।103।।
मन मनसा का भाव है, अन्त फलेगा सोइ।
जब दादू बाणक बण्या, तब आशय आसण होइ।।104।।
जप तप करणी कर गये, स्वर्ग पहूँचे जाय।
दादू मन की वासना, नरक पड़े फिर आय।।105।।
पाका काचा ह्नै गया, जीत्या हारै दाँव।
अन्त काल गाफिल भया, दादू फिसले पाँव।।106।।
यहु मन पंगुल पंच दिन, सब काहू का होय।
दादू उतर अकाश तैं, धारती आया सोय।।107।।
ऐसा कोई एक मन, मरे सो जीवे नाँहि।
दादू ऐसे बहुत हैं, फिर आवें कलि माँहि।।108।।
देखा देखी सब चले, पार न पहुँच्या जाय।
दादू आसण पहल के, फिर-फिर बैठे आय।।109।।
जग जन विपरीत
र्वत्तान एकै भाँति सब, दादू संत असंत।
भिन्न भाव अन्तर घणा, मनसा तहँ गच्छन्त।।110।।
मन शक्ति
दादू यहु मन मारै मोमिनाँ, यहु मन मारै मीर।
यहु मन मारै साधाकाँ, यहु मन मारै पीर।।111।।
दादू मन मारे मुनिवर, मुये, सुर नर किये संहार।
ब्रह्मा विष्णु महेश सब, राखै सिरजनहार।।112।।
मन बाहे मुनिवर बड़े, ब्रह्मा विष्णु महेश।
सिधा साधाक योगी यती, दादू देश-विदेश।।113।।
मन मुखी मान
पूजा मान बड़ाइयां, आदर माँगे मन्न।
राग गहै सब परिहरे, सोई साधु जन्न।।114।।
जहँ-जहँ आदर पाइए, तहाँ-तहाँ जिव जाय।
बिन आदर दीजे राम रस, छाड हलाहल खाय।।115।।
करणी बिना कथणी
करणी किरका को नहीं, कथणी अनन्त अपार।
दादू यों क्यों पाइए, रे मन मूढ गँवार।।116।।
जाया माया मोहनी
दादू मन मृत्ताक भया, इन्द्री अपणे हाथ।
तो भी कदे न कीजिए, कनक कामिनी साथ।।117।।
मन
अब मन निर्भय घर नहीं, भय में बैठा आय।
निर्भय संग तैं बीछुड़या, तब कायर ह्नै जाय।।118।।
जब मन मृतक ह्नै रहे, इन्द्री बल भागा।
काया के सब गुण तजे, निरंजन लागा।
आदि अन्त मधय एक रस, टूटे नहिं धाागा।
दादू एकै रह गया, तब जाणी जागा।।119।।
दादू मन के शीश मुख, हस्त पाँव है जीव।
श्रवण नेत्रा रसना रटे, दादू पाया पीव।।120।।
जहँ के नवाये सब नवें, सोइ शिर कर जाण।
जहँ के बुलाये बोलिए, सोई मुख परमाण।।121।।
जहँ के सुणाये सब सुणें, सोई श्रवण सयाण।
जहँ के दिखाये देखिए, सोई नैन सुजाण।।122।।
दादू मन ही माया ऊपजे, मन ही माया जाय।
मन ही राता राम सौं, मन ही रह्या समाय।।123।।
दादू मन ही मरणा ऊपजे, मन ही मरणा खाय।
मन अविनाशी ह्नै रह्या, साहिब सौं ल्यौ लाय।।124।।
मन ही सन्मुख नूर है, मन ही सन्मुख तेज।
मन ही सन्मुख ज्योति है, मन ही सन्मुख सेज।।125।।
मन ही सौं मन थिर भया, मन ही सौं मन लाय।
मन ही सौं मन मिल रह्या, दादू अनत न जाय।।126।।
।।इति मन का अंग सम्पूर्ण।।
अथ सूक्ष्म जन्म का अंग।।11।।
दादू नमो नमो निरंजनं, नमस्कार गुरु देवत:।
वन्दनं सर्व साधावा, प्रणामं पारंगत:।।1।।
दादू चौरासी लख जीव की, प्रकृतियें घट माँहि।
अनेक जन्म दिन के करे, कोई जाणे नाँहि।।2।।
दादू जेते गुण व्यापें जीव को, ते ते ही अवतार।
आवागमन यहु दूर कर, समर्थ सिरजनहार।।3।।
सब गुण सब ही जीव के, दादू व्यापैं आइ।
घट माँहीं जामे मरे, कोइ न जाणे ताहि।।4।।
जीव जन्म जाणे नहीं, पलक-पलक में होय।
चौरासी लख भोगवे, दादू लखे न कोय।।5।।
अनेक रूप दिन के रे, यहु मन आवे-जाय।
आवागमन मन का मिटे, तब दादू रहै समाय।।6।।
निश वासर यहु मन चले, सूक्ष्म जीव संहार।
दादू मन थिर कीजिए, आत्मा लेहु उबार।।7।।
कबहूँ पावक कबहूँ पाणी, धार अम्बर गुण वाय।
कबहँ कुंजर कबहूँ कीड़ी, नर पशुवा ह्नै जाय।।8।।
शूकर श्वान सियाल सिंघ, सर्प रहैं घट माँहि।
कुंजर कीड़ी जीव सब, पांडे जाणैं नाँहि।।9।।
।।इति सूक्ष्म जन्म का अंग सम्पूर्ण।।
अथ माया का अंग।।12।।
दादू नमो नमो निरंजनं, नमस्कार गुरु देवत:।
वन्दनं सर्व साधावा, प्रणामं पारंगत:।।1।।
साहिब है पर हम नहीं, सब जग आवे जाय।
दादू स्वप्ना देखिए, जागत गया बिलाय।।2।।
दादू माया का सुख पंच दिन, गर्व्यो कहा गँवार।
स्वप्ने पायो राजधान, जात न लागे बार।।3।।
दादू स्वप्ने सूता प्राणियाँ, कीये भोग विलास।
जागत झूठा ह्नै गया, ताकी कैसी आस।।4।।
यों माया का सुख मन करै, शय्या सुन्दरि पास।
अन्त काल आया गया, दादू होउ उदास।।5।।
जे नाँहीं सो देखिए, सूता स्वप्ने माँहि।
दादू झूठा ह्नै गया, जागे तो कुछ नाँहि।।6।।
यह सब माया मृग जल, झूठा झिलमिल होइ।
दादू चिलका देखकर, सत कर जाना सोइ ।।7।।
झूठा झिलमिल मृग जल, पाणी कर लीया।
दादू जग प्यासा मरे, पशु प्राणी पीया।।8।।
पति पहिचान
छलावा छल जायगा, स्वप्ना बाजी सोइ।
दादू देख न भूलिए, यह निज रूप न होइ।।9।।
माया
स्वप्ने सब कुछ देखिए, जागे तो कुछ नाँहिं।
ऐसा यहु संसार है, समझ देख मन माँहिं।।10।।
दादू ज्यों कुछ स्वप्ने देखिए, तैसा यहु संसार।
ऐसा आपा जाणिए, फूल्यो कहा गँवार।।11।।
दादू जतन-जतन कर राखिए, दृढ़ गह आतम मूल।
दूजा दृष्टि न देखिए, सब ही सेमल फूल।।12।।
दादू नैनहुँ भर नहिं देखिए, सब माया का रूप।
तहँ ले नैना राखिए, जहँ है तत्तव अनूप।।13।।
हस्ती, हय, वर, धान, देखकर, फूल्यौ अंग न माइ।
भेरि दमामा एक दिन, सब ही छाड़े जाइ।।14।।
दादू माया बिहड़े देखतां, काया संग न जाय।
कृत्रिाम बिहड़े बावरे, अजरावर ल्यौ लाय।।15।।
दादू माया का बल देखकर, आया अति अहंकार।
अंधा भया सूझे नहीं, का करि है सिरजनहार।।16।।
विरक्तता
मन मनसा माया रती, पंच तत्तव परकास।
चौदह तीनों लोक सब, दादू होइ उदास।।17।।
माया देखे मन खुशी, हिरदै होइ विगास।
दादू यह गति जीव की, अंत न पूगे आस।।18।।
मन की मूठि न मांडिये, माया के नीशाण।
पीछे ही पछताहुगे, दादू खोटे बाण।।19।।
शिश्न-स्वाद
कुछ खातां कुछ खेलतां, कुछ सोवत दिन जाय।
कुछ विषया रस विलसतां, दादू गये विलाय।।20।।
संगति-कुसंगति
माखण मन पाहन भया, माया रस पीया।
पाहण मन माखन भया, राम रस लीया।।21।।
दादू माया सौं मन बीगड़या, ज्यों कांजी कर दुध्द।
है कोई संसार में, मन कर देवे शुध्द।।22।।
गन्दी सौं गंदा भया, यों गंदा सब कोइ।
दादू लागे खूब सौं, तो खूब सरीखा होइ।।23।।
दादू माया सौं मन रत भया, विषय रस माता।
दादू साचा छाड़कर, झूठे रंग राता।।24।।
माया के संग जे गये, ते बहुर न आये।
दादू माया डाकिणी, इन केते खाये।।25।।
दादू माया मोट विकार की, कोइ न सकई डार।
बह-बह मूये बापुरे, गये बहुत पच हार।।26।।
दादू रूप राग गुण अणसरे, जहँ माया तहँ जाय।
विद्या अक्षर पंडिता, तहाँ रहे घर छाय।।27।।
साधु न कोई पग भरे, कबहूँ राज दुवार।
दादू उलटा आप में, बैठा ब्रह्म विचार।।28।।
आशय-विश्राम
दादू अपणे-अपणे घर गये, आपा अंग विचार।
सह कामी माया मिले, निष्कामी ब्रह्म संभार।।29।।
माया
दादू माया मगन जु हो रहे, हम से जीव अपार।
माया माँहीं ले रही, डूबे काली धाार।।30।।
शिश्न-स्वाद
दादू विषय के कारणें रूप राते रहैं, नैन नापाक यों कीन्ह भाई।
बदी की बात सुणत सारे दिन, श्रवण नापाक यों कीन्ह जाई।।31।।
स्वाद के कारणे लुब्धिा लागी रहे, जिह्ना नापाक यों कीन्ह खाई।
भोग के कारण भूख लागी रहे, अंग नापाक यों कीन्ह लाई।।32।।
माया
दादू नगरी चैन तब, जब इक राजी होय।
दो राजी दुख द्वन्द्व में, सुखी न बैसे कोय।।33।।
इक राजी आनन्द है, नगरी निश्चल बास।
राजा परजा सुखि बसैं, दादू ज्योति प्रकास।।34।।
शिश्न-स्वाद
जैसे कुंजर काम वश, आप बँधााणा आय।
ऐसे दादू हम भये, क्यों कर निकस्या जाय।।34।।
जैसे मर्कट जीभ रस, आप बँधााणा अंधा।
ऐसे दादू हम भये, क्यों कर छूटे फंधा।।36।।
ज्यों सूवा सुख कारणे, बंधया मूरख माँहि।
ऐसे दादू हम भये, क्यों ही निकसें नाँहि।।37।।
जैसे अंधा अज्ञान गृह, बंधया मूरख स्वाद।
ऐसे दादू हम भये, जन्म गमाया बाद।।38।।
जाया माया मोहनी
दादू बूड रह्या रे बापुरे, माया गृह के कूप।
मोह्या कनक रु कामिनी, नाना विधिा के रूप।।39।।
शिश्न-स्वाद
दादू स्वाद लाग संसार सब, देखत परलय जाय।
इन्द्री स्वारथ साच तजि, सबै बँधााणे आय।।40।।
विष सुख माँही रम रहे, माया हित चित लाय।
सोइ संत जन ऊबरे, स्वाद छाड गुण गाय।।41।।
आसक्तता मोह
दादू झूठी काया झूठा घर, झूठा यहु परिवार।
झूठी माया देखकर, फूल्यो कहा गँवार।।42।।
विरक्तता
दादू झूठा संसार, झूठा परिवार, झूठा घर-बार,
झूठा नर-नारि तहाँ मन माने।
झूठा कुल जात, झूठा पितु-मात, झूठा बन्धाु-भ्रात,
झूठा तन गात, सत्य कर जाने।।
झूठा सब अंधा, झूठा सब फंधा, झूठा सब अंधा,
झूठा जाचन्धा, कहा मग छाने।
दादू भाग झूठ सब त्याग, जाग रे जाग देख दिवाने।।43।।
आसक्तता
दादू झूठे तन के कारणे, कीये बहुत विकार।
गृह दारा धान संपदा, पूत कुटुम्ब परिवार।।44।।
ता कारण हति आतमा, झूठ कपट अहंकार।
सो माटी मिल जायगा, विसरया सिरजनहार।।45।।
विरक्तता
दादू जन्म गया सब देखतां, झूठे के संग लाग।
साचे प्रीतम को मिले, भाग सके तो भाग।।46।।
दादू गतं गृहं, गतं धानं, गतं दारा सुत यौवनं।
गतं माता, गतं पिता, गतं बन्धाु सज्जनं।।
गतं आपा, गतं परा, गतं संसार गतं रंजनं।
भजसि भजसि रे मन, परब्रह्म निरंजनं।।47।।
आसक्तता=मोह
जीवों मांहीं जिव रहै, ऐसा माया मोह।
सांई सूधाा सब गया, दादू नहिं अंदोह।।48।।
विरक्तता
माया मगहर खेत खर, सद््गति कदे न होय।
जे बंचे ते देवता, राम सरीखे सोय।।49।।
कालर खेत न नीपजे, जे बाहे सौ बार।
दादू हाना बीज का, क्यों पच मरे गँवार।।50।।
दादू इस संसार सौं, निमष न कीजे नेह।
जामन मरण आवटणा, छिन-छिन दाझे देह।।51।।
आसक्तता=मोह
दादू मोह संसार का, विहरे तन-मन प्राण।
दादू छूटे ज्ञान कर, को साधाू-संत सुजाण।।52।।
मन हस्ती माया हस्तिनी, सघन वन संसार।
ता में निर्भय ह्नै रह्या, दादू मुग्धा गँवार।।53।।
काम
दादू काम कठिन घट चोर है, घर फोड़े दिन-रात।
सोवत साह न जागही, तत्तव वस्तु ले जात।।54।।
काम कठिन घट चोर है, मूसे भरे भंडार।
सोवत ही ले जायगा, चेतन पहरे चार।।55।।
ज्यों घुण लागै काठ को, लोहे लागै काट।
काम किया घट जाजरा, दादू बारह बाट।।56।।
करतूति=कर्म
राहु गिले ज्यों चन्द को, गहण गिले ज्यों सूर।
कर्म गिले यों जीव को, नख-शिख लागे पूर।।57।।
दादू चन्द गिले जब राहु को, गहण गिले जब सूर।
जीव गिले जब कर्म को, राम रह्या भरपूर।।58।।
कर्म कुहाड़ा अंग वन, काटत बारंबार।
अपने हाथों आपको, काटत है संसार।।59।।
स्वकीय शत्राु मित्राता
आपै मारे आप को, यह जीव बिचारा।
साहिब राखणहार है, सो हितू हमारा।।60।।
आपै मारे आपको, आप आपको खाय।
आपै अपणा काल है, दादू कहे समझाय।।61।।
करतूति=कर्म
मरबे की सब ऊपजे, जीबे की कुछ नाँहिं।
जीबे की जाणे नहीं, मरबे की मन माँहिं।।62।।
बंधया बहुत विकार सौं, सर्व पाप का मूल।
ढाहै सब आकार कूँ, दादू यहु अस्थूल।।63।।
काम
दादू यहु तो दोजख देखिए, काम क्रोधा अहंकार।
रात दिवस जरबो करे, आपा अग्नि विकार।।64।।
विषय हलाहल खाइ कर, सब जग मर-मर जाय।
दादू मोहरा नाम ले हृदय राखि ल्यौ लाय।।65।।
जेती विषया विलसिये, तेती हत्या होय।
प्रत्यक्ष मांणष मारिये, सकल शिरोमणि सोय।।66।।
विषया का रस मद भया, नर-नारी का माँस।
माया माते मद पिया, किया जन्म का नाश।।67।।
दादू भावै शाकत भक्त ह्नै, विषय हलाहल खाय।
तहँ जन तेरा रामजी, स्वप्ने कदे न जाय।।68।।
खाडा बूजी भक्ति है, लोहरवाड़ा माँहिं।
परगट पेडाइत बसै, तहाँ संत काहे को जाँहि।।69।।
माया
साँपणि एक सब जीव को, आगे-पीछे खाय।
दादू कहि उपकार कर, कोई जन ऊबर जाय।।70।।
दादू खाये साँपणी, क्यों कर जीवें लोग।
राम मन्त्रा जन गारुड़ी, जीवें इहिं संजोग।।71।।
दादू माया कारण जग मरे, पिव के कारण कोय।
देखो ज्यों जग पर जले, निमष न न्यारा होय।।72।।
जाया माया मोहनी
काल कनक अरु कामिनी, परिहर इनका संग।
दादू सब जग जल मुवा, ज्यों दीपक ज्योति पतंग।।73।।
दादू जहाँ कनक अरु कामिनी, तहँ जीव पतंगे जाँहि।
अग्नि अनंत सूझे नहीं, जल-जल मूये माँहिं।।74।।
चित्ता कपटी
घट माँहीं माया घणी, बाहर त्यागी होय।
फाटी कंथा पहर कर, चिद्द करे सब कोय।।75।।
काया राखे बंद दे, मन दह दिशि खेलै।
दादू कनक अरु कामिनी, माया नहिं मेलै।।
दादू मनसौं मीठी, मुख सौं खारी।
माया त्यागी कहै बजारी।।76।।
माया
दादू माया मंदिर मीच का, ता में पैठा धााइ।
अंधा भया सूझे नहीं, साधु कहें समझाइ।।77।।
विरक्तता
दादू केते जल मुये, इस योगी की आग।
दादू दूरै बंचिये, योगी के संग लाग।।78।।
माया
ज्यों जल मैंणी माछली, तैसा यहु संसार।
माया माते जीव सब, दादू मरत न बार।।79।।
दादू माया फोड़े नैन दो, राम न सूझे काल।
साधु पुकारे मेर चढ, देख अग्नि की झाल।।80।।
जाया माया मोहनी
बिना भुवंगम हम डसे, बिन जल डूबे जाय।
बिन ही पावक ज्यों जले, दादू कुछ न बसाय।।81।।
विषय अतृप्ति
दादू अमृत रूपी आप है, और सबै विष झाल।
राखणहारा राम है, दादू दूजा काल।।82।।
जग भुलावनि
बाजी चिहर रचाय कर, रह्या अपरछन होय।
माया पट पड़दा दिया, तातैं लखे न कोय।।83।।
दादू बाहे देखतां, ढिग ही ढोरी लाय।
पिव-पिव करते सब गये, आपा दे न दिखाय।।84।।
मैं चाहूँ सो ना मिले, साहिब का दीदार।
दादू बाजी बहुत है, नाना रंग अपार।।85।।
हम चाहैं सो ना मिले, अरु बहुतेरा आहि।
दादू मन माने नहीं, केता आवे-जाहि।।86।।
बाजी मोहे जीव सब, हमको भुरकी बाहि।
दादू कैसी कर गया, आपण रह्या छिपाइ।।87।।
दादू सांई सत्य है, दूजा भरम विकार।
नाम निरंजन निर्मला, दूजा घोर अंधाार।।88।।
दादू सो धान लीजिए, जे तुम सेती होइ।
माया बाँधो कई मुये, पूरा पड़या न कोइ।।89।।
दादू कहैµजे हम छाड़े हाथ तैं, सो तुम लिया पसार।
जे हम लेवें प्रीति सौं, सो तुम दीया डार।।90।।
आसक्ति मोह
दादू हीरा पगसौं ठेलि कर, कंकर को कर लीन्ह।
परब्रह्म को छाड कर, जीवन सौं हित कीन्ह।।91।।
दादू सब को बणिजे खार खल, हीरा कोइ न लेय।
हीरा लेगा जौहरी, जो माँगे सो देय।।92।।
माया
दड़ी दोट ज्यों मारिये, तिहूँ लोक में फेरि।
धाुर पहुँचे संतोष है, दादू चढबा मेरि।।93।।
अनल पंखि आकाश को, माया मेर उलंघ।
दादू उलटे पंथ चढ, जाइ विलंबे अंग।।94।।
दादू माया आगें जीव सब, ठाढे रहे कर जोड़।
जिन सिरजे जल बूँद, सौं, तासौं बैठे तोड़।।95।।
दादू सुर नर मुनिवर वश किये, ब्रह्मा विष्णु महेश।
सकल लोक के शिर खड़ी, साधाू के पग हेठ।।96।।
दादू माया चेरि संत की, दासी उस दरबार।
ठकुराणी सब जगत् की, तीनों लोक मंझार।।97।।
दादू माया दासी संत की, शाकत की शिरताज।
शाकत सेती भांडनी, संतों सेती लाज।।98।।
चार पदार्थ मुक्ति बापुरी, अठ सिधिा नौ निधिा चेरी।
माया दासी ताके आगे, जहँ भक्ति निरंजन तेरी।
दादू कहैµज्यों आवे त्यों जाइ बिचारी।
विलसी वितड़ी माथे मारी।।99।।
दादू माया सब गहले किये, चौरासी लख जीव।
ताका चेरी क्या करे, जे रंग राते पीव।।100।।
विरक्तता
दादू माया वैरिणि जीव की, जनि को लावे प्रीति।
माया देखे नरक कर, यहु संतन की रीति।।101।।
माया
माया मति चकचाल कर, चंचल कीये जीव।
माया माते पद पिया, दादू बिसरया पीव।।102।।
अन्य लग्न व्यभिचार
जणे-जणे की राम की, घर-घर की नारी।
पतिव्रता नहिं पीव की, सो माथे मारी।।103।।
जण-जण के उठ पीछे लागे, घर-घर भरमत डोले।
ताथैं दादू खाइ तमाचे, मांदल दुहु मुख बोले।।104।।
विषय विरक्तता
जे नर कामिनि परिहरै, ते छूटे गर्भ वास।
दादू ऊँधो मुख नहीं, रहै निरंजन पास।।105।।
रोक न राखे, झूठ न भाखे, दादू खरचे खाय।
नदी पूर प्रवाह ज्यों, माया आवे-जाय।।106।।
सदिका सिरजनहार का, केता आवे-जाय।
दादू धान संचय नहीं, बैठ खुलावे खाय।।107।।
माया
योगिणि ह्नै योगी गहे, सोफणि ह्नै कर शेख।
भक्तणि ह्नै भक्ता गहे, कर-कर नाना भेख।।108।।
बुध्दि विवेक बल हारणी, त्राय तन ताप उपावनी।
अंग अग्नि प्रजालिनी, जीव घर-बार नचावनी।।109।।
नाना विधिा के रूप धार, सब बाँधो भामिनी।
जब बिटंब परलै किया, हरिनाम भुलावनी।।110।।
बाजीगर की पूतली, ज्यों मर्कट मोह्या।
दादू माया राम की, सब जगत् बिगोया।।111।।
शिश्न-स्वाद
मोरा मेरी देखकर, नाचे पंख पसार।
यों दादू घर-ऑंगणे, हम नाचे कै बार।।112।।
माया
जेहि घट ब्रह्म न प्रकटे, तहँ माया मंगल गाय।
दादू जागे ज्योति जब, तब माया भरम बिलाय।।113।।
पति पहिचान
दादू ज्योति चमके तिरवरे, दीपक देखे लोइ।
चंद सूर का चांदणा, पगार छलावा होइ।।114।।
माया
दादू दीपक देह का, माया परकट होइ।
चौरासी लख पंखिया, तहाँ परें सब कोइ।।115।।
पुरुष प्रकाशी
यहु घट दीपक साधा का, ब्रह्म ज्योति परकास।
दादू पंखी संतजन, तहाँ परैं निज दास।।116।।
विषय विरक्तता (पुरुष-नारी सम्बन्धा)
जाणैं-बूझैं जीव सब, त्रिाया पुरुष का अंग।
आपा पर भूला नहीं, दादू कैसा संग।।117।।
माया के घट साजि द्वै, त्रिाया पुरुष घर नाँव।
दोनों सुन्दर खेलैं दादू, राखि लेहु बलि जाँव।।118।।
बहिन बीर सब देखिए, नारी अरु भरतार।
परमेश्वर के पेट के, दादू सब परिवार।।119।।
पर घर परिहर आपणी, सब एके उणहार।
पशु प्राणी समझे नहीं, दादू मुग्धा गँवार।।120।।
पुरुष पलट बेटा भया, नारी माता होइ।
दादू को समझे नहीं, बड़ा अचंभा मोहि।।121।।
माता नारी पुरुष की, पुरुष नारि का पूत।
दादू ज्ञान विचार कर, छाड गये अवधाूत।।122।।
विषय अतृप्ति
ब्रह्मा विष्णु महेश लौं, सुर नर उरझाया।
विष का अमृत नाम धार, सब किनहूँ खाया।।123।।
अधयात्म
दादू माया का जल पीवतां, व्याधाी होइ विकार।
सेझे का जल पीवतां, प्राण सुखी सुधा सार।।124।।
विषय अतृप्ति
जिव गहिला जिव बावला, जीव दिवाना होय।
दादू अमृत छाडकर, विष पीवे सब कोय।।125।।
माया
माया मैली गुण मई, धार-धार उज्वल नाम।
दादू मोहे सबन को, सुर नर सब ही ठाम।।126।।
विषय अतृप्ति
विष का अमृत नाम धार, सब कोई खावे।
दादू खारा ना कहै, यहु अचरज आवे।।127।।
दादू जे विष जारे खाइ कर, जनि मुख में मेलै।
आदि अंत परले गये, जे विष सौं खेलै।।128।।
जिन विष खाया ते मुये, क्या मेरा क्या तेरा।
आगि पराई आपणी, सब करे निबेरा।।129।।
दादू कहैµजिन विष पीवे बावरे, दिन-दिन बाढे रोग।
देखत ही मर जायगा, तज विषया रस भोग।।130।।
अपणा-पराया खाइ विष, देखत ही मर जाय।
दादू को जीवे नहीं, इहिं भोरे जनि खाय।।131।।
माया
ब्रह्म सरीखा होइ कर, माया सौं खेलै।
दादू दिन-दिन देखतां, अपने गुण मेलै।।132।।
माया मारे लात सौं, हरि को घाले हाथ।
संग तजे सब झूठ का, गहे साच का साथ।।133।।
दादू घर के मारे वन के मारे, मारे स्वर्ग पयाल।
सूक्ष्म मोटा गूँथ कर, मांडया माया जाल।।134।।
विषय अतृप्ति
ऊभा सारं बैठ विचारं, संभारं जागत सूता।
तीन लोक तत जाल विडारण, तहाँ जाइगा पूता।।135।।
मुये सरीखे ह्नै रहै, जीवण की क्या आस।
दादू राम विसार कर, बाँछे भोग विलास।।136।।
कृत्रिाम कर्ता
माया रूपी राम को, सब कोई धयावे।
अलख आदि अनादि है, सो दादू गावे।।137।।
दादू ब्रह्मा का वेद, विष्णु की मूरति, पूजे सब संसारा।
महादेव की सेवा लागे, कहाँ है सिरजनहारा।।138।।
माया का ठाकुर किया, माया की महिमाय।
ऐसे देव अनन्त कर, सब जग पूजण जाय।।139।।
दादू माया बैठी राम ह्नै, कहै मैं ही मोहन राय।
ब्रह्मा विष्णु महेश लौं, जोनी आवे-जाय।।140।।
माया बैठी राम ह्नै, ताको लखे न कोइ।
सब जग मानै सत्य कर, बड़ा अचम्भा मोहि।।141।।
अंजन किया निरंजना, गुण निर्गुण जाने।
धारया दिखावे अधार कर, कैसे मन माने।।142।।
निरंजन की बात कह, आवे अंजन माँहिं।
दादू मन माने नहीं, सर्ग रसातल जाँहिं।।143।।
कामधोनु के पटंतरे, करे काठ की गाय।
दादू दूधा दूझे नहीं, मूरख देहु बहाय।।144।।
चिन्तामणि कंकर किया, माँगे कछु न देय।
दादू कंकर डारदे, चिन्तामणि कर लेय।।145।।
पारस किया पाषाण का, कंचन कदे न होय।
दादू आतम राम बिन, भूल पड़या सब कोय।।146।।
सूरज फटिक पषाण का, तांसौं तिमर न जाय।
साचा सूरज परगटे, दादू तिमर नसाय।।147।।
मूर्ति घड़ी पाषाण की, कीया सिरजनहार।
दादू साच सूझे नहीं, यों डूबा संसार।।148।।
पुरुष विदेश कामिणि किया, उस ही के उणिहार।
कारज को सीझे नहीं, दादू माथे मार।।149।।
कागद का माणष किया, छत्रापती शिर मौर।
राज-पाट साधो नहीं, दादू परिहर और।।150।।
सकल भुवन भाने घड़े, चतुर चलावणहार।
दादू सो सूझे नहीं, जिसका वार न पार।।151।।
कर्ता साक्षी भूत
दादू पहली आप उपाइ कर, न्यारा पद निर्वाण।
ब्रह्मा विष्णु महेश मिल, बाँधया सकल बँधााण।।152।।
कृत्रिाम कर्ता
नाम नीति-अनीति सब, पहली बाँधो बंद।
पशू न जाणे पारधाी, दादू रोपे फंद।।153।।
दादू बाँधो वेद विधिा, भरम कर्म उरझाय।
मर्यादा माँही रहैं, सुमिरण किया न जाय।।154।।
माया (नारी दोष निरूपण)
दादू माया मीठी बोलणी, नइ-नइ लागे पाय।
दादू पैसे पेट मैं, काढ कलेजा खाय।।155।।
नारी नागिणि जे डसे, ते नर मुये निदान।
दादू को जीवे नहीं, पूछो सबै सयान।।156।।
नारी नागिणि एक-सी, बाघणि बड़ी बलाय।
दादू जे नर रत भये, तिनका सर्वस खाय।।157।।
नारी नैन न देखिए, मुख सौं नाम न लेय।
कानों कामिणि जनि सुणे, यहु मन जाण न देय।।158।।
सुन्दरि खाये साँपिणी, केते इहिं कलि माँहि।
आदि-अंत इन सब डसे, दादू चेते नाँहिं।।159।।
दादू पैसे पेट में, नारी नागिणि होय।
दादू प्राणी सब डसे, काढ सके ना कोय।।160।।
माया साँपिणि सब डसे, कनक कामिनी होइ।
ब्रह्मा विष्णु महेश लों, दादू बचे न कोइ।।161।।
माया मारे जीव सब, खंड-खंड कर खाय।
दादू घट का नाश कर, रोवे जग पतियाय।।162।।
बाबा-बाबा कह गिले, भाई कह-कह खाय।
पूत-पूत कह पी गई, पुरुषा जिन पतियाय।।163।।
ब्रह्मा विष्णु महेश की, नारी माता होय।
दादू खाये जीव सब, जिन रु पतीजे कोय।।164।।
माया बहु रूपी नटणी नाचे, सुर नर मुनि को मोहै।
ब्रह्मा विष्णु महेश्वर बाहे, दादू बपुरा को है।।164।।
माया फाँसी हाथ ले, बैठी गोप छिपाइ।
जे कोइ धाीजे प्राणियाँ, ताही के गल बाहि।।166।।
पुरुषा फाँसी हाथ कर, कामनि के गल बाहि।
कामनि कटारी कर गहै, मार पुरुष को खाइ।।167।।
नारी वैरण पुरुष की, पुरुषा वैरी नारि।
अंत काल दोनों मुये, दादू देखि विचारि।।168।।
नारि पुरुष को ले मुई, पुरुषा नारी साथ।
दादू दोनों पच मुये, कछू न आया हाथ।।169।।
भँवरा लुब्धाी वास का, कमल बँधााना आय।
दिन दश माँही देखतां, दोनों गये विलाय।।170।।
नारी पीवे पुरुष को, पुरुष नारी को खाइ।
दादू गुरु के ज्ञान बिन, दोनों गये विलाइ।।171।।
।।इति माया का अंग सम्पूर्ण।।
अथ साँच का अंग।।13।।
दादू नमो नमो निरंजनं, नमस्कार गुरु देवत:।
वन्दनं सर्व साधावा, प्रणामं पारंगत:।।1।।
अदया-हिंसा
दादू दया जिन्हों के दिल नहीं, बहुर कहावे साधा।
जे मुख उनका देखिए, तो लागे बहु अपराधा।।2।।
दादू महर मुहब्बत मन नहीं, दिल के वज्र कठोर।
काले काफिर ते कहिए, मोमिन मालिक और।।3।।
दादू कोई काहू जीव की, करे आतमा घात।
साच कहूँ संशय नहीं, सो प्राणी दोजख जात।।4।।
दादू नाहर सिंह सियाल सब, केते मूसलमान।
मांस खाई मोमिन भये, बड़े मियाँ का ज्ञान।।5।।
दादू मांस अहारी जे नरा, ते नर सिंह सियाल।
बक मांजर सुनहाँ सही, येता प्रत्यक्ष काल।।6।।
दादू मुई मार माणष घणे, ते प्रत्यक्ष जम काल।
महर दया नहिं सिंह दिल, कूकर काग सियाल।।7।।
मांस अहारी मद पिवे, विषय विकारी सोय।
दादू आतम राम बिन, दया कहाँ थीं होय।।8।।
दादू लंगर लोग लोभ सौं लागैं बोलैं सदा उन्हीं की भीर।
जोर-जुल्म बीच बटपारे, आदि-अंत उनही सौं सीर।।9।।
तन-मन मार रहै सांई सौं, तिनको देखि करैं ताजीर।
यह बड़ि बूझ कहाँ तैं पाई, ऐसी कजा अवलिया पीर।।10।।
बे महर गुमराह गाफिल, गोश्तµखुरदनी।
बे दिल बदकार, आलम, हयात मुरदनी।।11।।
साँच
छल कर बल कर धााइ कर, मारे जिहिं तिहिं फेरि।
दादू ताहि न धाीजिए, परणी सगी पतेरि।।12।।
अदया-हिंसा
दादू दुनियाँ सौं दिल बाँधाकर, बैठे दीन गमाय।
नेकी नाम विसार कर, करद कमाया खाय।।13।।
दादू गल काटे कलमा भरै, अया बिचारा दीन।
पाँचों वक्त नमाज गुजारै, साबित नहीं यकीन।।14।।
दुनियाँ के पीछे पड़या, दौड़या-दौड़या जाय।
दादू जिन पैदा किया, ता साहिब को छिटकाय।।15।।
कुफर जे के मन में, मीयाँ मुसलमान।
दादू पेया झंग में, बिसारे रहमान।।16।।
आपस को मारे नहीं पर को मारन जाइ।
दादू आपा मारे बिना, कैसे मिले खुदाइ।।17।।
भीतर दुन्दर भर रहे, तिनको मारे नाँहिं।
साहिब की अरवाह है, ताको मारण जाँहि।।18।।
दादू मूये को क्या मारिये, मीयाँ मूई मार।
आपस को मारे नहीं, औरों को हुसियार।।19।।
साँच
जिसका था तिसका हुआ, तो काहे का दोष।
दादू बंदा बंदगी, मीयाँ ना कर रोष।।20।।
सेवक सिरजनहार का, साहिब का बंदा।
दादू सेवा बंदगी, दूजा क्या धांधाा।।21।।
सो काफिर जे बोले काफ, दिल अपणा नहिं रखे साफ।
सांई को पहिचाने नाँहीं, कूड़ कपट सब उनहीं माँहीं।।22।।
सांई का फरमान न मानैं, कहाँ पीव ऐसे कर जानैं।
मन अपणे में समझत नाँहीं, निरखत चले आपणी छाँहीं।।23।।
जोर करे मसकीन सतावे, दिल उसके में दर्द न आवे।
सांई सेती नाँहीं नेह, गर्व करे अति अपणी देह।।24।।
इन बातन क्यों पावे पीव, पर धान ऊपर राखे जीव।
जोर-जुल्म कर कुटुम्ब सौं खाइ, सो काफिर दोजख में जाइ।।25।।
अदया-हिंसा
दादू जाको मारणा जाइए, सोई फिर मारे।
जाको तारण जाइए, सोई फिर तारे।।26।।
दादू नफस नाम सौं मारिये, गोशमाल दे पंद।
दूई है सो दूर कर, तब घर में आनंद।।27।।
साँच (मुसलमान के लक्षण)
मुसलमान जो राखे मान, सांई का माने फरमान।
सारों को सुखदाई होइ, मुसलमान कर जानूँ सोइ।।28।।
दादू मुसलमान महर गह रहै, सबको सुख किस ही न दहै।
मुवा न खाय जिवत नहिं मारे, करे बंदगी राह सँवारे।।29।।
सो मोमिन मन में कर जाण, सत्य सबूरी वैसे आण।
चाले साँच सँवारे बाट, तिनकूं खुले भिश्त के पाट।।30।।
सो मोमिन मोम दिल होय, सांई को पहचाने सोय।
जोर न करे हराम न खाय, सो मोमिन भिश्त में जाय।।31।।
जैसा करना वैसा भरना
जे हम नहीं गुजारते, तुमकूँ क्या भाई।
सीर नहीं कुछ बंदगी, कहु क्यों फुरमाई।।32।।
अपने अमलों छूटिये, काहू के नाँहीं।
सोई पीड़ पुकारसी, जा दूखे माँहीं।।33।।
कोई खाय अघाइ कर, भूखे क्यों भरिये।
खूटी पूगी आन की, आपन क्यों मरिये।।34।।
फूटी नाव समुद्र में, सब डूबण लागे।
अपणा-अपणा जीव ले, सब कोई भागे।।35।।
दादू शिर-शिर लागी आपणे, कहु कौण बुझावे।
अपणा-अपणा साँच दे, सांई को भावे।।36।।
सुमिरण नाम चेतावनी
साँचा नाम अल्लाह का, सोइ सत्य कर जाण।
निश्चल करले बंदगी, दादू सो परमाण।।37।।
आवट कूटा होत है, अवसर बीता जाय।
दादू करले बंदगी, राखणहार खुदाय।।38।।
इस कलि केते ह्नै गये, हिन्दू मुसलमान।
दादू साँची बन्दगी, झूठा सब अभिमान।।39।।
कथनी बिना करणी
पोथी अपणा पिंड कर, हरि यश माँही लेख।
पंडित अपणा प्राण कर, दादू कथहु अलेख।।40।।
दादू काया कतेब बोलिए, लिख राखूँ रहमान।
मनवा मुल्ला बोलिए, श्रोता है सुबहान।।41।।
दादू काया महल में नमाज गुजारूँ, तहँ और न आवण पावे।
मन मणके कर तसबी फेरूँ, तब साहिब के मन भावे।।42।।
दादू दिल दरिया में गुसल हमारा, ऊजू कर चित लाऊँ।
साहिब आगे करूँ बन्दगी, बेर-बेर बलि जाऊँ।।43।।
दादू पंचों संग सँभालूँ सांई, तन-मन तो सुख पाऊँ।
प्रेम पियाला पिवजी देवे, कलमा ये लै लाऊँ।।44।।
शोभा कारण सब करैं, रोजा बाँग नमाज।
मुवा न एकौ आह सौं, जे तुझ साहिब सेती काज।।45।।
दादू हर रोज हजूरी होइ रहु, काहै करे कलाप।
मुल्ला तहाँ पुकारिए, जहँ अर्श इलाही आप।।46।।
हर दम हाजिर होणा बाबा, जब लग जीवे बंदा।
दायम दिल सांई सौं साबित, पंच वक्त क्या धांधाा।।47।।
हिन्दू-मुसलमानों का भ्रम
दादू हिन्दू मारग कहैं हमारा, तुरक कहैं रह मेरी।
कहाँ पंथ है कहो अलह का, तुम तो ऐसी हेरी।।48।।
दादू दुई दरोग लोग को भावे, सांई साँच पियारा।
कौण पंथ हम चलैं कहो धाू, साधाो करो विचारा।।49।।
खंड-खंड कर ब्रह्म को, पख-पख लीया बाँट।
दादू पूरण ब्रह्म तज, बँधो भरम की गाँठ।।50।।
मन विकार औषधिा
जीवत दीसे रोगिया, कहैं मूवाँ पीछे जाय।
दादू दुँह के पाढ में, ऐसी दारू लाय।।51।।
सो दारू किस काम की, जाथैं दर्द न जाय।
दादू काटे रोग को, सो दारू ले लाय।।52।।
चानक उपदेश
एक सेर का ठाँवड़ा, क्यों ही भरया न जाय।
भूख न भागी जीव की, दादू केता खाय।।53।।
पशुवां की नांई भर-भर खाय, व्याधिा घणेरी बधाती जाय।
पशुवा की नांई करे अहार, दादू बाढ़े रोग अपार।
संयम सदा न व्यापे ब्याधाी, रहै निरोगी लगे समाधाी।
राम रसायन भर-भर पीवे, दादू जोगी जुग-जुग जीवे।।54।।
दादू चारे चित दिया, चिन्तामणि को भूल।
जन्म अमोलक जात है, बैठे माँझी फूल।।55।।
भरी अधाौड़ी भावठी, बैठा पेट फुलाय।
दादू शूकर श्वान ज्यों, ज्यों आवे त्यों खाय।।56।।
शिश्न-स्वाद
दादू खाटा-मीठा खाइ कर, स्वाद चित्ता दीया।
इनमें जीव विलंबिया, हरि नाम न लीया।।57।।
भक्ति न जाणे राम की, इन्द्री के आधाीन।
दादू बंधया स्वाद सौं, तातैं नाम न लीन।।58।।
साँच
दादू अपणा नीका राखिये, मैं मेरा दिया बहाइ।
तुझ अपणे सेती काज है, मैं मेरा भावै तीधार जाइ।।59।।
जे हम जाण्या एक कर, तो काहे लोक रिसाय।
मेरा था सो मैं लिया, लोगों का क्या जाय।।60।।
करणी बिना कथणी
दादू द्वै-द्वै पद किये, साखी भी द्वै-चार।
हमको अनुभव ऊपजी, हम ज्ञानी संसार।।61।।
दादू सुण-सुण पर्चे ज्ञान के, साखी शब्दी होय।
तब ही आपा ऊपजे, हम-सा और न कोय।।62।।
दादू सो उपजी किस काम की, जे जण-जण करे कलेष।
साखी सुण समझे साधु की, ज्यौं रसना रस शेष।।63।।
दादू पद जोड़े साखी कहै, विषय न छाड़े जीव।
पाणी घाल बिलोइये, क्यों कर निकसे घीव।।64।।
दादू पद जोड़े का पाइये, साखि कहे का होइ।
सत्य शिरोमणि सांइयां, तत्तव न चीन्हा सोइ।।65।।
कहबे-सुणबे मन खुशी, करबा औरै खेल।
बातों तिमर न भाजई, दीवा बाती तेल।।66।।
दादू करबे वाले हम नहीं, कहबे को हम शूर।
कहबा हम तैं निकट है, करबा हम तैं दूर।।67।।
दादू कहे-कहे का होत है, कहे न सीझे काम।
कहे-कहे का पाइये, जब लग हृदय न आवें राम।।68।।
चौंप (चाह) बिन चौंप चर्चा
दादू श्रोता घर नहीं, वक्ता बसे सु बादि।
वक्ता श्रोता एक रस, कथा कहावे आदि।।69।।
वक्ता श्रोता घर नहीं, कहै सुणे को राम।
दादू यहु मन थिर नहीं, बाद बके बेकाम।।70।।
विचार दृढ़ ज्ञान
देखा देखी सब चले, पार न पहुँच्या जाय।
दादू आसण पहल के, फिरि-फिरि बैठे आय।
अंतर सुरझे समझ कर, फिर न अरूझे जाय।
बाहर सुरझे देखतां, बहुर अरूझे आय।।71।।
झूठे गुरु
आत्मा लावे आप सौं, साहिब सेती नाँहिं।
दादू को निपजे नहीं, दोन्यों निष्फल जाँहिं।।72।।
तूं मुझ को मोटा कहै, हौं तुझे बडाई मान।
सांई को समझे नहीं, दादू झूठा ज्ञान।।73।।
कस्तूरिया मृग
सदा समीप रहै सँग सन्मुख, दादू लखे न गूझ।
स्वप्ने ही समझे नहीं, क्यों कर लहै अबूझ।।74।।
बेखर्च व्यसनी
दादू सेवग नाम बोलाइये, सेवा स्वप्ने नाँहिं।
नाम धाराये क्या भया, जे एक नहीं मन माँहिं।।75।।
नाम धारावें दास का, दासातन तैं दूर।
दादू कारज क्यों सरे, हरि सौं नहीं हजूर।।76।।
भक्त न होवे भक्ति बिन, दासातन बिन दास।
बिन सेवा सेवग नहीं, दादू झूठी आस।।77।।
राम भक्ति भावे नहीं, अपणी भक्ति का भाव।
राम भक्ति मुख सौं कहै, खेले अपना दाँव।।78।।
भक्ति निराली रह गई, हम भूले पड़े वन माँहिं।
भक्ति निरंजन राम की, दादू पावे नाँहिं।।79।।
सो दशा कत हूँ रही, जिहिं दिशि पहुँचे साधा।
मैं तैं मूरख गह रहे, लोभ बड़ाई वाद।।80।।
दादू राम विसार कर, कीये बहु अपराधा।
लाजों मारे संत सब, नाम हमारा साधा।।81।।
करणी बिना कथणी
मनसा के पक्वान्न सौं, क्यों पेट भरावे।
ज्यों कहिए त्यों कीजिए, तब ही बन आवे।।82।।
दादू मिश्री-मिश्री कीजिए, मुख मीठा नाँहीं।
मीठा तब ही होइगा, छिटकावे माँहीं।।83।।
दादू बातों ही पहुँचे नहीं, घर दूर पयाना।
मारग पंथी उठ चले, दादू सोइ सयाना।।84।।
दादू बातों सब कुछ कीजिए, अन्त कछू नहिं देखे।
मनसा वाचा कर्मना, तब लागे लेखे।।85।।
समझ सुजानत=सब जीवों में ज्ञान
दादू कासौं कह समझाइये, सबको चतुर सुजान।
कीड़ी कुंजर आदि दे, नाहिं न कोइ अजान।।86।।
करणी बिना कथणी
दादू सूना घट सोधाी नहीं, पंडित ब्रह्मा पूत।
आगम निगम सब कथैं, घर में नाचे भूत।।87।।
पढ़े न पावे परमगति, पढे न लंघे पार।
पढे न पहुँचे प्राणियाँ, दादू पीड़ पुकार।।88।।
दादू निवरे नाम बिन, झूठा कथैं गियान।
बैठे शिर खाली करैं, पंडित वेद पुरान।।89।।
दादे केते पुस्तक पढ़ मुये, पंडित वेद पुरान।
केते ब्रह्मा कथ गये, नाँहिं न राम समान।।90।।
दादू सब हम देख्या सोधाकर, वेद कुरानों माँहिं।
जहाँ निरंजन पाइए, सो देश दूर इत नाँहिं ।।91।।
काजी कजा न जान ही, कागज हाथ कतेब।
पढतां-पढतां दिन गये, भीतर नाँहीं भेद।।92।।
मसि-कागद के आसरे, क्यों छूटे संसार।
राम बिन छूटे नहीं, दादू भरम विकार।।93।।
कागज काले कर मुये, केते वेद पुरान।
एकै अक्षर पीव का, दादू पढे सुजान।।94।।
कहतां-कहतां दिन गये, सुनतां-सुनतां जाय।
दादू ऐसा को नहीं, कह सुन राम समाय।।95।।
मधय निष्पक्ष
मौन गहैं ते बावरे, बोलैं खरे अयान।
सहजैं राते राम सौं, दादू सोइ सयान।।96।।
करुणा
कहतां-सुणतां दिन गये, ह्नै कछू न आवा।
दादू हरि की भक्ति बिन, प्राणी पछतावा।।97।।
दुर्जन
दादू कथणी और कुछ, करणी करै कुछ और।
तिन तैं मेरा जिव डरे, जिनके ठीक न ठौर।।98।।
अंतरगत औरै कछू, मुख रसना कुछ और।
दादू करणी और कुछ, तिनको नाँहीं ठौर।।99।।
मन प्रबोधा
राम मिलन की कहत हैं, करते कुछ औरे।
ऐसे पिव क्यों पाइये, समझी मन बौरे।।100।।
बेखर्च व्यसनी
दादू बगनी भंगा खाय कर, मतवाले माँझी।
पैका नाहीं गाँठड़ी, पातशाही खाँजी।।101।।
दादू टोटा दालिदी, लाखों का व्यापार।
पैका नाहीं गाँठड़ी, सिरै साहूकार।।102।।
मधय निष्पक्षµसब मतों का निशाना एक
दादू ये सब किसके पंथ में, धारती अरु आस्मान।
पाणी पवन दिन-रात का, चन्द सूर रहमान।।103।।
ब्रह्मा विष्णु महेश का, कौण पंथ गुरुदेव।
सांई सिरजनहार तूं, कहिए अलख अभेव।।104।।
मुहम्मद किसके दीन में, जिब्राईल किस राह।
इनके मुरशिद पीर की, कहिए एक अल्लाह।।105।।
दादू ये सब किसके ह्नै रहे, यहु मेरे मन माँहिं।
अलख इलाही जगद् गुरु, दूजा कोई नाँहिं।।106।।
पतिव्रत व्यभिचार
दादू औरैं ही औला तके, थीयां सदै बियंनि।
सो तूं मीया ना घुरे, जो मीयां मीयंनि।।107।।
सद्गुरु परीक्षा
आई रोजी ज्यों गई, साहिब का दीदार।
गहला लोगों कारणै, देखे नहीं गँवार।।108।।
पतिव्रत निष्काम
दादू सोई सेवक राम का, जिसे न दूजी चिंत।
दूजा को भावे नहीं, एक पियारा मिंत।।109।।
जाति-पाँति भ्रम विधवंसन
अपणी-अपणी जाति सौं, सबको बैसैं पाँति।
दादू सेवग राम का, ताके नहीं भराँति।।110।।
चोर अन्याई मसकरा, सब मिल बैसैं पाँति।
दादू सेवग राम का, तिनसौं करैं भराँति।।111।।
दादू सूप बजायाँ क्यों टले, घर में बड़ी बलाइ।
काल झाल इस जीव का, बातन ही क्यों जाइ।।112।।
साँप गया सहनाण को, सब मिल मारैं लोक।
दादू ऐसा देखिए, कुल का डगरा फोक।।113।।
दादू दोन्यों भरम हैं, हिन्दू तुरक गँवार।
जे दुहुवाँ तैं रहित है, सो गह तत्तव विचार।।114।।
अपणा-अपणा कर लिया, भंजन माँही बाहि।
दादू एकै कूप जल, मन का भरम उठाइ।।115।।
दादू पाणी के बहु नाम धार, नाना विधिा की जात।
बोलणहारा कौण है, कहो धाौं कहा समात।।116।।
जब पूरण ब्रह्म विचारिए, तब सकल आतमा एक।
काया के गुण देखिए, तो नाना वरण अनेक।।117।।
अमिट पाप-प्रचंड
भाव भक्ति उपजे नहीं, साहिब का परसंग।
विषय विकार छूटे नहीं, सो कैसा सतसंग।।118।।
बासण विषय विकार के, तिनको आदर-मान।
संगी सिरजनहार के, तिनसौं गर्व-गुमान।।119।।
अज्ञ स्वभाव अपलट
अंधो को दीपक दिया, तो भी तिमर न जाय।
सोधाी नहीं शरीर की, तासन का समझाय।।120।।
सगुणा-निगुणा कृतघ्नी
दादू कहिए कुछ उपकार को, मानैं अवगुण दोष।
अंधो कूप बताइया, सत्य न मानैं लोक।।121।।
कृत्रिाम कर्ता
जिन कंकर-पत्थर सेविया, सो अपना मूल गँवाय।
अलख देव अन्तर बसे, क्या दूजी जगह जाय।।122।।
पत्थर पीवे धाोइ कर, पत्थर पूजे प्राण।
अन्तकाल पत्थर भये, बहु बूडे इहिं ज्ञान।।123।।
कंकर बंधया गाँठड़ी, हीरे के विश्वास।
अंत काल हरि जौहरी, दादू सूत कपास।।124।।
आगम संस्कार
पहली पूजे ढूँढसी, अब भी ढूँढस बाणि।
आगे ढूँढस होयगा, दादू सत्य कर जाणि।।125।।
अमिट पाप प्रचंड
दादू पैंडे पाप के, कदे न दीजे पाँव।
जिहिं पैंडे मेरा पिव मिले, तिहिं पैंडे का चाव।।126।।
दादू सुकृत मारग चालतां, बुरा न कबहूँ होइ।
अमृत खातां प्राणियाँ, मुवा न सुनिए कोइ।।127।।
भ्रम विधवंसन
कुछ नाँहीं का नाम क्या, जे धारिये सो झूठ।
सुर नर मुनि जन बंधिाया, लोका आवट कूट।।128।।
कुछ नाँहीं का नाम धार, भरम्या सब संसार।
साँच-झूठ समझे नहीं, ना कुछ किया विचार।।129।।
दादू केई दौड़े द्वारिका, केई काशी जाँहिं।
केई मथुरा को चले, साहिब घट की माँहिं।।130।।
ऊपरि आलम सब करैं, साधाू जन घट माँहिं।
दादू एता अन्तरा, तातैं बणती नाँहिं।।131।।
दादू सब थे एक के, सो एक न जाना।
जने-जने का ह्नै गया, यहु जगत् दिवाना।।132।।
साँच
झूठा साँचा कर लिया, विष अमृत जाना।
दुख को सुख सब को कहै, ऐसा जगत् दिवाना।।133।।
सूधाा मारग साँच का, साँचा हो सो जाय।
झूठा कोई ना चले, दादू दिया दिखाय।।134।।
साहिब सौं साँचा नहीं, यहु मन झूठा होय।
दादू झूठे बहुत हैं, साँचा बिरला कोय।।135।।
दादू साँचा अंग न ठेलिए, साहिब मानें नाँहिं।
साँचा सिर पर राखिए, मिल रहिए ता माँहिं।।136।।
दादू जे कोई ठेले साँच को, तो साँचा रहै समाय।
कौड़ी बर क्यों दीजिए, रत्न अमोलक जाय।।137।।
दादू साँचे साहिब को मिले, साँचे मारग जाय।
साँचे सौं साँचा भया, तब साँचे लिये बुलाय।।138।।
दादू साँचा साहिब सेविए, साँची सेवा होय।
साँचा दर्शन पाइए, साँचा सेवग सोय।।139।।
दादू साँचे का साहिब धाणी, समर्थ सिरजनहार।
पाखंड की यहु पृथ्वी, प्रपंच का संसार।।140।।
झूठा परगट साँचा छाने, तिनकी दादू राम न माने।।141।।
दादू पाखंड पीव न पाइए, जे अंतर साँच न होय।
ऊपरि तैं क्यों ही रहो, भीतर के मल धाोय।।142।।
साँच अमर जुग-जुग रहै, दादू विरला कोय।
झूठ बहुत संसार में, उत्पति परलै होय।।143।।
दादू झूठा बदलिए, साँच न बदल्या जाय।
साँचा शिर पर राखिए, साधा कहै समझाय।।144।।
साँच न सूझे जब लगैं, तब लग लोचन अंधा।
दादू मुक्ता छाड कर, गल में घाल्या फंधा।।145।।
साँच न सूझे जब लगैं, तब लग लोचन नाँहिं।
दादू निरबँधा छाड़कर, बंधया द्वै पख माँहिं।।146।।
एक साँच सौं गहगही, जीवण-मरण निबाहि।
दादू दुखिया राम बिन, भावै तीधार जाहि।।147।।
चेतावनी
दादू छाने-छाने कीजिए, चौड़े परकट होय।
दादू पैस पयाल में, बुरा करे जनि कोय।।148।।
दादू अन कीया लागे नहीं, कीया लागे आय।
साहिब के दर न्याव है, जे कुछ राम रजाय।।149।।
आत्मार्थी भेष
सोइ जन साधाू सिध्द सो, सोइ सतवादी शूर।
सोइ मुनिवर दादू बड़े, सन्मुख रहणि हजूर।।150।।
दादू सोइ जन साँचे सो सती, साधाक सोइ सुजान।
सोइ ज्ञानी सोइ पंडिता, जे राते भगवान।।151।।
सोइ जोगी सोइ जंगमा, सोइ सूफी सोइ शेख।
सोइ संन्यासी, सेवड़े, दादू एक अलेख।।152।।
दादू सोइ काजी सोइ मुल्ला, सोइ मोमिन मुसलमान।
सोइ सयाने सब भले, जे राते रहमान।।153।।
राम नाम को बणि जन बैठे, तातैं मांडया हाट।
सांई सौं सौदा करैं, दादू खोल कपाट।।154।।
सज्जन दुर्जन
बिच के शिर खाली करैं, पूरे सुख संतोष।
दादू सुधा-बुधा आतमा, ताहि न दीजे दोष।।155।।
सुधा-बुधा सौं सुख पाइये, कै साधु विवेकी होय।
दादू ये बिच के बुरे, दाधो रीगे सोय।।156।।
दादू जिन कोई हरिनाम में, हमको हाना बाहि।
तातैं तुम तैं डरत हूँ, क्यों ही टले बलाइ।।157।।
परमार्थी
जे हम छाड़ैं राम को, तो कौन गहेगा।
दादू हम नहिं उच्चरैं, तो कौण कहेगा।।158।।
साधाक को उपदेश
एक राम छाडे नहीं, छाडे सकल विकार।
दूजा सहजैं होइ सब, दादू का मत सार।।159।।
जे तूं चाहै राम को, तो एक मना आराधा।
दादू दूजा कर, मन इन्द्री कर साधा।।160।।
विरक्तता
कबीर बिचारा कह गया, बहुत भाँति समझाय।
दादू दुनिया बावरी, ताके संग न जाय।।161।।
सूक्ष्म मार्ग
पावहिंगे उस ठौर को, लंघैगे यह घाट।
दादू क्या कह बोलिए, अजहूँ बिच ही बाट।।162।।
साँच
साँचा राता साँच सौं, झूठा राता झूठ।
दादू न्याव नबेरिये, सब साधाों को पूछ।।163।।
दादू जे पहुँचे ते कह गये, तिन की एकै बात।
सबै सयाने एक मत, उनकी एकै जात।।164।।
जे पहुँचे ते पूछिए, तिनकी एकै बात।
सब साधाों का एक मत, ये बिच के बारह बाट।।165।।
सबै सयाने कह गये, पहुँचे का घर एक।
दादू मारग माँहिले, तिनकी बात अनेक।।166।।
सूरज साक्षी भूत है, साँच करे परकाश।
चोर डरे चोरी करे, रैन तिमर का नाश।।167।।
चोर न भावे चाँदणा, जनि उजियारा होय।
सूते का सब धान हरूँ, मुझे न देखे कोय।।168।।
संस्कार आगम
घट-घट दादू कह समझावे, जैसा करे सो तैसा पावे।
को काहू का सीरी नाँहीं, साहिब देखे सब घट माँहीं।।169।।
।।इति साँच का अंग सम्पूर्ण।।
अथ भेष का अंग।।14।।
दादू नमो नमो निरंजनं, नमस्कार गुरु देवत:।
वन्दनं सर्व साधावा, प्रणामं पारंगत:।।1।।
पतिव्रत निष्काम
दादू बूडे ज्ञान सब, चतुराई जल जाय।
अंजन मंजन फूँक दे, रहै ल्यौ लाय।।2।।
राम बिना सब फीके लागैं, करणी कथा गियान।
सकल अविरथा कोटि कर, दादू योग धिायान।।3।।
इन्द्रियार्थी भेष
ज्ञानी पंडित बहुत हैं, दाता शूर अनेक।
दादू भेष अनंत हैं, लाग रह्या सो एक।।4।।
कोरा कलश अवांह का, ऊपरि चित्रा अनेक।
क्या कीजे दादू वस्तु बिन, ऐसे नाना भेष।।5।।
बाहर दादू भेष बिन, भीतर वस्तु अगाधा।
सो ले हिरदै राखिए, दादू सन्मुख साधा।।6।।
दादू भांडा भर धार वस्तु सौं, ज्यों महँगे मोल बिकाय।
खाली भांडा वस्तु बिन, कौडी बदले जाय।।7।।
दादू कनक कलश विष सौं भरया, सो किस आवे काम।
सो धानि कूटा चाम का, जामें अमृत राम।।8।।
दादू देखे वस्तु को, वासण देखे नाँहिं।
दादू भीतर भर धारा, सो मेरे मन माँहिं।।9।।
दादू जे तूं समझे तो कहूँ, साँचा एक अलेख।
डाल पान तज मूल गह, क्या दिखलावे भेख।।10।।
दादू सब दिखलावैं आपको, नाना भेष बणाय।
जहँ आपा मेटण हरिभजन, तिहिं दिशि कोइ न जाय।।11।।
सो दशा कत हूँ रही, जिहिं दिशि पहुँचे साधा।
मैं तै मूरख गह रहे, लोभ बडाई वाद।।12।।
दादू भेष बहुत संसार में, हरि जन विरला कोय।
हरि जन राता राम सौं, दादू एकै होय।।13।।
हीरे रीझे जौहरी, खल रीझे संसार।
स्वांग साधु बहु अंतरा, दादू सत्य विचार।।14।।
स्वांगि साधु बहु अंतरा, जेता धारणि-आकाश।
साधु राता राम सौं, स्वांगि जगत् का आश।।15।।
दादू स्वांगी सब संसार है, साधु विरला कोय।
जैसे चंदन बावना, वन-वन कहीं न होय।।16।।
दादू स्वांगी सब संसार है, साधु कोई एक।
हीरा दूर दिशंतरा, कंकर और अनेक।।17।।
स्वांगी सब संसार है, साधाू शोधिा सुजाण।
परस परदेशों भया, दादू बहुत पषाण।।18।।
स्वांगी सब संसार है, साधु समुद्रां पार।
अनल पंखि कहँ पाइए, पंखी कोटि हजार।।19।।
दादू चंदन वन नहीं, शूरन के दल नाँहिं।
सकल खानि हीरा नहीं, त्यों साधु जग माँहिं।।20।।
जे सांई का ह्नै रहै, सांई तिसका होय।
दादू दूजी बात सब, भेष न पावे कोय।।21।।
स्वांग सगाई कुछ नहीं, राम सगाई साँच।
दादू नाता नाम का, दूजे अंग न राच।।22।।
दादू एकै आतमा, साहिब है सब माँहिं।
साहिब के नाते मिले, भेष पंथ के नाँहिं।।23।।
दादू माला तिलक सौं कुछ नहीं, काहू सेती काम।
अंतर मेरे एक है, अह निशि उसका नाम।।24।।
अमिट पाप प्रचंड
दादू भक्त भेष धार मिथ्या बोले, निन्दा पर अपवाद।
साँचे को झूठा कहै, लागे बहु अपराधा।।25।।
दादू कबहूँ कोई जनि मिले, भक्त भेष सौं जाय।
जीव जन्म का नाश ह्नै, कहै अमृत विष खाय।।26।।
चित्ता कपटी
दादू पहुँचे पूत बटाऊ होइ कर, नट ज्यों काछा भेख।
खबर न पाई खोज की, हम को मिल्या अलेख।।27।।
दादू माया कारण मूँड मुँडाया, यहु तो योग न होइ।
पारब्रह्म सौं परिचय नाहीं, कपट न सीझे कोइ।।28।।
अन्य लग्न व्यभिचार
पीव न पीवे बावरी, रचि-रचि करे शृंगार।
दादू फिर-फिर जगत् सौं, करेगी व्यभिचार।।29।।
प्रेम प्रीति सनेह बिन, सब झूठे शृंगार।
दादू आतम रत नहीं, क्यों माने भरतार।।30।।
दादू जग दिखलावे बावरी, षोडश करे शृंगार।
तहँ न सँवारे आपको, जहँ भीतर भरतार।।31।।
इन्द्रियार्थी भेष
सुधा बुधा जीव धिाजाइ कर, माला संकल बाहि।
दादू माया ज्ञान सौं, स्वामी बैठा खाइ।।32।।
जोगी जंगम सेवडे, बौध्द संन्यासी शेख।
षट् दर्शन दादू राम बिन, सबै कपट के भेख।।33।।
दादू शेख मुशायख औलिया, पैगम्बर सब पीर।
दर्शन सौं परसन नहीं, अजहूँ बेली तीर।।34।।
नाना भेष बनाइ कर, आपा देख दिखाय।
दादू दूजा दूर कर, साहिब सौं ल्यौ लाय।।35।।
दादू देखा देखी लोक सब, केते आवैं जाँहिं।
राम सनेही ना मिलैं, जे निज देखै माँहिं।।36।।
दादू सब देखै अस्थूल को, यहु ऐसा आकार।
सूक्ष्म सहज न सुझई, निराकार निधर्ाार।।37।।
परीक्षक-अपरीक्षक
दादू बाहर का सब देखिए, भीतर लख्या न जाइ।
बाहर दिखावा लोक का, भीतर राम दिखाइ।।38।।
दादू यह परिख सराफी ऊपली, भीतर की यहु नाँहिं।
अंतर की जाणे नहीं, तातैं खोटा खाँहिं।।39।।
दादू झूठा राता झूठ सौं, साँचा राता साँच।
एता अंधा न जानई, कहँ कंचन कहँ काँच।।40।।
इन्द्रियार्थी मेष
दादू सचु बिन सांई न मिले, भावै भेष बनाइ।
भावै करवत ऊधर्व मुख, भावै तीरथ जाइ।।41।।
दादू साँचा हरि का नाम है, सो ले हिरदै राखि।
पाखंड प्रपंच दूर कर, सब साधाों की साखि।।42।।
आपा निर्द्वेष
हिरदै की हरि लेयगा, अंतर-जामी राय।
साँच पियारा रामा को, कोटिक कर दिखलाय।।43।।
दादू मुख की ना गहै, हिरदै की हरि लेय।
अंतर सूधाा एक सौं, तो बोल्याँ दोष न देय।।44।।
इन्द्रियार्थी मेष
सब चतुराई देखिए, जे कुछ कीजे आन।
मन गह राखे एक सौं, दादू साधु सुजान।।45।।
आत्मार्थी मेष
शब्द सुई सुरति धाागा, काया कंथा लाय।
दादू योगी जुग-जुग पहरे, कबहूँ फाट न जाय।।46।।
ज्ञान गुरु की गूदड़ी, शब्द गुरु का भेख।
अतीत हमारी आतमा, दादू पंथ अलेख।।47।।
इश्क अजब अबदाल है, दर्दवंद दरवेश।
दादू सिक्का सब्र है, अकल पीर उपदेश।।48।।
।।इति भेष का अंग सम्पूर्ण।।
साधु का अंग।15।
दादू नमो नमो निरंजनं, नमस्कार गुरु देवत:।
वन्दनं सर्व साधावा, प्रणामं पारंगत:।1।
साधु महिमा
दादू निराकार मन सुरति सौं, प्रेम प्रीति सौं सेव।
जे पूजे आकार को, तो साधु प्रत्यक्ष देव।2।
दादू भोजन दीजे देह को, लीया मन विश्राम।
साधु के मुख मेलिए, पाया आतम राम।3।
ज्यों यहु काया जीव की, त्यों सांई कै साधा।
दादू सब संतोषिये, माँहीं आप अगाधा।4।
सत्संग माहात्म्य
साधु जन संसार में, भव जल बोहिथ अंग।
दादू केते उध्दरे, जेते बैठे संग।5।
साधु जन संसार में, शीतल चन्दन बास।
दादू केते उध्दरे, जे आये उन पास।6।
साधु जन संसार में, हीरे जैसा होइ।
दादू केते उध्दरे, संगति आये सोइ।7।
साधु जन संसार में, पारस परगट गाइ।
दादू केते उध्दरे, जेते परसे आइ।8।
रूख वृक्ष वनराइ सब, चन्दन पासे होय।
दादू बास लगाइ कर, किये सुगन्धो सोय।9।
जहाँ अरंड अरु आक थे, तहँ चन्दन ऊग्या माँहिं।
दादू चन्दन कर लिया, आक कहै को नाँहिं।10।
साधु नदी जल राम रस, तहाँ पखाले अंग।
दादू निर्मल मल गया, साधु जन के संग।11।
परमार्थी
साधु वर्षै राम रस, अमृत वाणी आइ।
दादू दर्शन देखतां, त्रिाविधा ताप तन जाइ।12।
साधु संग महिमा
संसार बिचारा जात है, बहिया, लहरि तरंग।
भेरे बैठा ऊबरे, सत साधु के संग।13।
दादू नेड़ा परम पद, साधु संगति माँहिं।
दादू सहजैं पाइए, कबहूँ निष्फल नाँहिं।14।
दादू नेड़ा परम पद, कर साधु का संग।
दादू सहजै पाइए, तन-मन लागे रंग।15।
दादू नेड़ा परम पद, साधु संगति होइ।
दादू सहजै पाइए, साबित सन्मुख सोइ।16।
दादू नेड़ा परम पद, साधु जन के साथ।
दादू सहजैं पाइए, परम पदारथ हाथ।17।
साधु मिले तब ऊपजे, हिरदै हरि का भाव।
दादू संगति साधु की, जब हरि करे पसाव।18।
साधु मिले तब उपजे, हिरदै हरि का हेत।
दादू संगति साधु की, कृपा करे तब देत।19।
साधु मिले तब ऊपजे, प्रेम भक्ति रुचि होय।
दादू संगति साधु की, दया कर देवे सोय।20।
साधु मिले तब ऊपजे, हिरदै हरि की प्यास।
दादू संगति साधु की, अविगत पुरवे आस।21।
साधु मिले तब हरि मिले, सब सुख आनँद मूर।
दादू संगति साधु की, राम रह्या भरपूर।22।
चौप चर्चा
परम कथा उस एक की, दूजा नाँहीं आन।
दादू तन-मन लाइ कर, सदा सुरति रस पान।23।
साधु स्पर्श विनती
प्रेमकथा हरि की कहै, करे भक्ति ल्यौ लाय।
पिवे-पिलावे राम रस, सो जन मिलवो आय।24।
दादू पिवे-पिलावे राम रस, प्रेम भक्ति गुण गाय।
नित्य प्रति कथा हरि की करैं, हेत सहित ल्यौ लाय।25।
आन कथा संसार की, हम हि सुनावे आइ।
तिस का मुख दादू कहै, दई न दिखाइ ताहिं।26।
दादू मुख दिखलाइ साधु का, जे तुमहि मिलवे आइ।
तुम माँहीं अंतर करे, दई न दिखाई ताहिं।27।
जब दरवो तब दीजियो, तुम पै मागूं येहु।
दिन प्रति दर्शन साधु का, प्रेम भक्ति दृढ़ देहु।28।
साधु सपीड़ा मन करे, सद्गुरु शब्द सुणाय।
मीरां मेरा महर कर, अंतर विरह उपाय।29।
सज्जन
ज्यों-ज्यों होवे त्यों कहै, घट बधा कहैं न जाय।
दादू सो शुधा आतमा, साधु परसे आय।30।
सत्संग महिमा
साहिब सौं सन्मुख रहै, सतसंगति में आय।
दादू साधु सब कहैं, सो निर्फल क्यों जाय।31।
ब्रह्म गाइ त्राय लोक में, साधु अस्थन पान।
मुख मारग अमृत झरे, कत ढूँढै दादू आन।32।
दादू पाया प्रेम रस, साधु संगति माँहिं।
फिर-फिर देखे लोक सब, यहु रस कतहूँ नाँहिं।33।
दादू जिस रस को मुनिवर मरै, सुर नर करैं कलाप।
सो रस सहजैं पाइए, साधु संगति आप ।34।
संगति बिन सीझे नहीं, कोटि करे जे कोय।
दादू सद्गुरु साधु बिन, कबहूँ शुध्द न होय।35।
दादू नेड़ा दूर तैं, अविगत का आराधा।
मनसा वाचा कर्मना, दादू संगति साधा।36।
सर्ग न शीतल होइ मन, चंद न चंदन पास।
शीतल संगति साधु की, कीजे, दादू दास।37।
दादू शीतल जल नहीं, हेम न शीतल होय।
दादू शीतल संत जन, राम सनेही सोय।38।
साधु बेपरवाही
दादू चंदन कद कह्या, अपणा प्रेम प्रकास।
दह दिशि परगट ह्नै रह्या, शीतल गंधा सुबास।39।
दादू पारस कद कह्या, मुझ थी कंचन होइ।
पारस परगट ह्नै रह्या, साँच कहैं सब कोइ।40।
नर बिडंव रूप (हठीजन)
तन नहिं भूला मन नहिं भूला, पंच न भूला प्राण।
साधु शब्द क्यों भूलिए, रे मन मूढ़ अजाण।41।
साधु महिमा
रत्नपदार्थ माणिक मोती, हीरौं का दरिया।
चिन्तामणि चित्ता रामधान, घट अमृत भरिया।42।
समरथ शूरा साधु सो, मन मस्तक धारिया।
दादू दर्शन देखतां, सब कारज सरिया।43।
धारती अम्बर रात-दिन, रवि-शशि नावें शीश।
दादू बलि-बलि वारणे, जे सुमिरें जगदीश।44।
चंद-सूर सिजदा करैं, नाम अलह का लेय।
दादू जमी-असमान सब, उन पाऊँ शिर देय।45।
जे जन राते राम सौं, तिनकी मैं बलि जाउँ।
दादू उन पर वारणे, जे लाग रहे हरि नाउँ।46।
साधु परीक्षा लक्षण
जे जन हरि के रँग रँगे, सो रँग कदे न जाय।
सदा सुरंगे संत जन, रँग में रहे समाय।47।
दादू राता राम का, अविनाशी रँग माँहिं।
सब जग धाोबी धाोय मरे, तो भी खूटे नाँहिं।48।
साहिब किया सो क्यों मिटे, सुन्दर शोभा रंग।
दादू धाोवे बावरे, दिन-दिन होय सुरंग।49।
साधु परमार्थी
परमारथ को सब किया, आप सवारथ नाँहिं।
परमेश्वर परमारथी, कै साधु कलि माँहिं।50।
पर उपकारी संत सब, आये इहिं कलि माँहिं।
पिवे-पिलावे राम रस, आप सवारथ नाँहिं।51।
पर उपकारी संत जन, साहिब जी तेरे।
जाती देखी आतमा, राम कहि टेरे।52।
चंद-सूर पावक पवन, पाणी का मत सार।
धारती-अम्बर रात-दिन, तरुवर फलैं अपार।53।
छाजन भोजन परमारथी, आतम देव अधाार।
साधु सेवग राम के, दादू पर उपकार।54।
साधु साक्षी भूत
जिसका तिसको दीजिए, सुकृत पर उपकार।
दादू सेवग सो भला, शिर नहिं लेवे भार।55।
परमारथ को राखिए, कीजे पर उपकार।
दादू सेवग सो भला, निरंजन निराकार।56।
सेवा सुकृत सब गया, मैं मेरा मन माँहिं।
दादू आपा जब लगैं, साहिब माने नाँहिं।57।
साधु परीक्षा लक्षण
साधु शिरोमणि शोधा ले, नदी पूर पर आय।
सजीवनि साम्हा चढे, दूजा बहिया जाय।58।
सज्जन-दुर्जन
जिनके मस्तक मणि बसे, सो सकल शिरोमणि अंग।
जिनके मस्तक मणि नहीं, ते विष भरे भवंग।59।
साधु-महिमा
दादू इस संसार में, ये द्वै रत्न अमोल।
इक सांई अरु संत जन, इनका मोल न तोल।60।
दादू इस संसार में, ये द्वै रहे लुकाय।
राम सनेही संतजन, औ बहुतेरा आय।61।
साधु परीक्षा लक्षण
जिनके हिरदै हरि बसे, सदा निरंतर नाँउं।
दादू साँचे साधु की, मैं बलिहारी जाँउं।62।
साँचा साधु दयालु घट, साहिब का प्यारा।
राता माता राम रस, सो प्राण हमारा।63।
सज्जन विपरीत संसार से
दादू फिरता चाक कुम्हार का, यो दीसे संसार।
साधु जन निश्चल भये, जिनके राम अधाार।64।
सत्संग महिमा
जलती-बलती आतमा, साधु सरोवर जाय।
दादू पीवे राम रस, सुख में रहै समाय।65।
कृत्रिाम कर्ता
काँजी माँहीं भेल कर, पीवे सब संसार।
कर्ता केवल निर्मला, को साधु पीवणहार।66।
संगति-कुसंगति
दादू असाधु मिले अंतर पड़े, भाव भक्ति रस जाय।
साधु मिले सुख ऊपजे, आनँद अंग न माय।67।
दादू साधु संगति पाइए, राम अमी फल होय।
संसारी संगति पाइए, विष फल देवे सोय।68।
दादू सभा संत की, सुमति उपजे आय।
शाकत के सभा बैसतां, ज्ञान काया तैं जाय।69।
जग जन विपरीत
दादू सब जग दीसे एकला, सेवक स्वामी दोय।
जगत् दुहागी राम बिन, साधु सुहागी सोय।70।
दादू साधु जन सुखिया भये, दुनिया को बहु द्वन्द्व।
दुनी दुखी हम देखतां, साधुन सदा अनन्द।71।
दादू देखत हम सुखी, सांई के सँग लाग।
यों सो सुखिया होयगा, जाके पूरे भाग।72।
रस
दादू मीठा पीवे राम रस, सो भी मीठा होइ।
सहजैं कड़वा मिट गया, दादू निर्विष सोइ।73।
साधु परीक्षा लक्षण
दादू अंतर एक अनंत सौं, सदा निरंतर प्रीति।
जिहिं प्राणी प्रीतम बसे, सो बैठा त्रिाभुवन जीति।74।
साधु महिमा
दादू मैं दासी तिहिं दास की, जिहिं संग खेले पीव।
बहुत भाँति कर वारणे, तापर दीजे जीव।75।
भ्रम विधवंसण
दादू लीला राजा राम की, खेलें सब ही सन्त।
आपा पर एकै भया, छूटी सबै भरन्त।76।
जग जन विपरीत
दादू आनँद सदा अडोल सौं, राम सनेही साधा।
प्रेमी प्रीतम को मिले, यहु सुख अगम अगाधा।77।
पुरुष प्रकाशी
घर वन माँहीं राखिए, दीपक ज्योति जगाय।
दादू प्राण पतंग सब, जहँ दीपक तहँ जाय।78।
घर वन माँहीं राखिए, दीपक जलता होय।
दादू प्राण पतंग सब, जाइ मिलैं सब कोय।79।
घर वन माँहीं राखिए, दीपक प्रगट प्रकास।
दादू प्राण पतंग सब, आइ मिलैं उस पास।80।
घर वन माँहैं राखिए, दीपक ज्योति सहेत।
दादू प्राण पतंग सब, आइ मिलैं उस हेत।81।
जिहिं घट परगट राम है, सो घट तज्या न जाय।
नैनहुँ माँहैं राखिए, दादू आप नशाय।82।
साधु अबिहड़
कबहुँ न बिहड़े सो भला, साधु दृढ़ मति होय।
दादू हीरा एक रस, बाँधिा गाँठड़ी सोय।83।
गरथ न बाँधो गाँठड़ी, नहिं नारी सौं नेह।
मन इन्द्री सुस्थिर करे, छाड सकल गुण देह।84।
निराकार सौं मिल रहै, अखंड भक्ति कर लेह।
दादू क्यों कर पाइए, उन चरणों की खेह।85।
साधु सदा संजम रहै, मैला कदे न होय।
दादू पंक परसे नहीं, कर्म न लागे कोय।86।
साधु सदा संजम रहै, मैला कदे न होय।
शून्य सरोवर हंसला, दादू विरला कोय।87।
साहिब का उनहार सब, सेवग माँहीं होय।
दादू सेवक साधु सो, दूजा नाँहीं कोय।88।
जब लग नैन न देखिए, साधु कहैं ते अंग।
तब लग क्यों कर मानिए, साहिब का परसंग।89।
दादू सोइ जन साधु सिध्द सो, सोइ सकल शिरमौर।
जिहिं के हिरदे हरि बसे, दूजा नाँहीं और।90।
दादू औगुण छाडे गुण गहै, सोई शिरोमणि साधा।
गुण-औगुण तै रहित है, सो जिन ब्रह्म अगाधा।91।
जग जन विपरीत
दादू सैन्धाव फटक पषाण का, ऊपरि एकै रंग।
पाणी माँहैं देखिए, न्यारा-न्यारा अंग।92।
दादू सैन्धाव के आपा नहीं, नीर-क्षीर परसंग।
आप फटक पषाण के, मिले न जल के संग।93।
दादू सब जग फटक पषाण है, साधु सैन्धाव होय।
सैन्धाव एकै ह्नै रह्या, पाणी पत्थर दोय।94।
साधु परमार्थी
को साधु जन उस देश का, आया इहिं संसार।
दादू उसको पूछिए, प्रीतम के समाचार।95।
समाचार सत्य पीव के, को साधु कहेगा आय।
दादू शीतल आतमा, सुख में रहै समाय।96।
साधु शब्द सुख बरषि हैं, शीतल होइ शरीर।
दादू अंतर आतमा, पीवे हरि जल नीर।97।
दादू दत्ता दरबार का, को साधु बाँटे आय।
तहाँ राम रस पाइए, जहँ साधु तहँ जाय।98।
चौप चर्चा
दादू श्रोता स्नेही राम का, सो मुझ मिलवहु आणि।
तिस आगे हरि गुण कथूँ, सुणत न करई काणि।99।
साधु परमार्थी
दादू सब ही मृतक समान हैं, जीया तब ही जाणि।
दादू छाँटा अमी का, को साधु बाहै आणि।100।
सब ही मृतक ह्नै रहे, जीवैं कौण उपाय।
दादू अमृत राम रस, को साधु खींचे आय।101।
सब ही मृतक देखिए, क्यों कर जीवें सोय।
दादू साधु प्रेम रस, आणि पिलावे कोय।102।
सब ही मृत्ताक देखिए, किहिं विधिा जीवें जीव।
साधु सुधाा रस आणि कर, दादू वर्षे पीव।103।
हरि जल वर्षे बाहिरा, सूखे काया खेत।
दादू हरिया होइगा, सींचणहार सुचेत।104।
कुसंगति
गंगा जमुना सरस्वती, मिलैं जब सागर माँहिं।
खारा पाणी ह्नै गया, दादू मीठा नाँहिं।105।
दादू राम न छाडिये, गहला तज संसार।
साधु संगति शोधा ले, कुसंगति संग निवार।106।
दादू कुसंगति सब परहरी, मात-पिता कुल कोइ।
सजन सनेही बान्धावा, भावै आपा होइ।107।
अज्ञान मूर्ख हितकारी, सज्जनो समो रिपु:।
ज्ञात्वा त्यजन्ति ते, निरामयी मनोजित:।108।
कुसंगति केते गये, तिनका नाम ना ठाँव।
दादू ते क्यों उध्दरैं, साधु नहीं जिस गाँव।109।
भाव भक्ति का भंग कर, बटपारे बारहि बाट।
दादू द्वारा मुक्ति का, खोलैं जडै कपाट।110।
सत्संग महिमा
साधु संगति अंतर पड़े, तो भागेगा किस ठौर।
प्रेम भक्ति भावे नहीं, यहु मन का मत और।111।
दादू राम मिलण के कारणे , जे तूं खरा उदास।
साधु संगति शोधा ले, राम उन्हीं के पास।112।
पुरुष प्रकाशी (संत महिमा)
ब्रह्मा शंकर शेष मुनि, नारद धा्रू शुकदेव।
सकल साधु दादू सही, जे लागे हरि सेव।113।
साधु कमल हरि बासना, संत भ्रमर संग आय।
दादू परिमल ले चले, मिले राम को जाय।114।
साधु सज्जन
दादू सहजैं मेला होइगा, हम तुम हरि के दास।
अंतरगति तो मिल रहे, पुन: प्रगट परकास।115।
साधु महिमा
दादू मम शिर मोटे भाग, साधु का दर्शन किया।
कहा करे जम काल, राम रसायन भर पिया।116।
साधु सामर्थ्य
दादू एता अविगत आप तैं, साधु का अधिाकार।
चौरासी लख जीव का, तन-मन फेरि सँवार।117।
विष का अमृत कर लिया, पावक का पाणी।
बाँका सूधाा कर लिया, सो साधु बिनाणी।118।
दादू ऊरा पूरा कर लिया, खारा मीठा होय।
फूटा सारा कर लिया, साधु विवेकी सोय।119।
बंधया मुक्ता कर लिया, उरझ्या सुरझ समान।
वैरी मिंता कर लिया, दादू उत्ताम ज्ञान।120।
झूठा साँचा कर लिया, काचा कंचन सार।
मैला निर्मल कर लिया, दादू ज्ञान विचार।121।
अमिट पाप
काया कर्म लगाय कर, तीरथ धाोवे आय।
तीरथ माँहैं कीजिए, सो कैसे कर जाय।122।
दादू जहँ तिरिये तहँ डूबिए, मन में मैला होय।
जहँ छूटे तहँ बँधिाये, कपट न सीझे कोय।123।
सत्संग महिमा
दादू जब लग जीविये, सुमिरण संगति साधा।
दादू साधु राम बिन, दूजा सब अपराधा।124।
।इति साधु का अंग सम्पूर्ण।
अथ मधय का अंग।16।
दादू नमो नमो निरंजनं, नमस्कार गुरु देवत:।
वन्दनं सर्व साधावा, प्रणामं पारंगत:।1।
दादू द्वै पख रहिता सहज सो, सुख-दुख एक समान।
मरे न जीवे सहज सो, पूरा पद निर्वान।2।
सुख-दुख मन माने नहीं, राम रंग राता।
दादू दोन्यों छाड सब, प्रेम रस माता।3।
मति मोटी उस साधु की, द्वै पख रहित समान।
दादू आपा मेट कर, सेवा करे सुजान।4।
कछु न कहावे आपको, काहू संग न जाय।
दादू निर्पख ह्नै रहे, साहिब सौं ल्यौ लाय।5।
सुख-दुख मन मानै नहीं, आपा पर सम भाय।
सो मन-मन कर सेविए, सब पूरण ल्यौ लाय।6।
ना हम छाडैं ना गहैं, ऐसा ज्ञान विचार।
मधय भाव सेवैं सदा, दादू मुक्ति दुवार।7।
दादू आपा मेटे मृत्तिाका, आपा धारे अकास।
दादू जहँ-जहँ द्वै नहीं, मधय निरंतर बास।8।
धयेयµपरम स्थान निरूपण
दादू इस आकार तैं, दूजा सूक्षम लोक।
तातैं आगैं और है, तहँवाँ हर्ष न शोक।9।
दादू हद्द छाड बेहद्द में, निर्भय निर्पख होय।
लाग रहै उस एक सौं, जहाँ न दूजा कोय।10।
निराधाार घर कीजिए, जहँ नाहीं धारणि-आकास।
दादू निश्चल मन रहै, निर्गुण के विश्वास।11।
अधार चाल कबीर की, आसंघी नहिं जाय।
दादू डाके मृग ज्यों, उलट पड़े भुइ आय।12।
दादू रहणि कबीर की, कठिन विषम यहु चाल।
अधार एक सौं मिल रह्या, जहाँ न झंपे काल।13।
निराधाार निज भक्ति कर, निराधाार निजसार।
निराधाार निज नाम ले, निराधाार निराकार।14।
निराधाार निज राम रस, को साधु पीवणहार।
निराधाार निर्मल रहै, दादू ज्ञान विचार।15।
जब निराधाार मन रहि गया, आतम के आनन्द।
दादू पीवे राम रस, भेंटैं परमानन्द।16।
माया
दुहुँ बिच राम अकेला आपै, आवण-जाण न देई।
जहँ के तहँ सब राखे दादू, पार पहुँचे सेई।17।
मधय निष्पक्ष
चलु दादू तहँ जाइये, तहँ मरे न जीवे कोइ।
आवागमन भय को नहीं, सदा एक रस होइ।18।
चलु दादू तहँ जाइये, जहँ चंद-सूर नहिं जाय।
रात-दिवस की गम नहीं, सहजैं रह्या समाय।19।
चलु दादू तहँ जाइये, माया मोह तैं दूर।
सुख-दुख को व्यापै नहीं, अविनाशी घर पूर।20।
चलु दादू तहँ जाइये, जहँ जम जौरा को नाँहिं।
काल मीच लागे नहीं, मिल रहिए ता माँहिं।21।
एक देश हम देखिया, तहाँ ऋतु नहिं पलटे कोय।
हम दादू उस देश के, जहाँ सदा एक रस होय।22।
एक देश हम देखिया, जहँ बस्ती ऊजड़ नाँहिं।
हम दादू उस देश के, सहज रूप ता माँहिं।23।
एक देश हम देखिया, नहिं नेड़े नहिं दूर।
हम दादू उस देश के, रहे निरंतर पूर।24।
एक देश हम देखिया, जहँ निश दिन नाँहीं घाम।
हम दादू उस देश के, जहँ निकट निरंजन राम।25।
बारह मासी नीपजे, तहाँ किया परवेश।
दादू सूखा ना पड़े, हम आये उस देश।26।
जहँ वेद-कुरान का गम नहीं, तहँ किया परवेश।
तहँ कछु अचरज देखिया, यहु कछु और देश।27।
घर वन
काहे दादू घर रहे, काहे वन खंड जाय।
घर-वन रहिता राम है, ताही सौं ल्यौ लाय।28।
दादू जिन प्राणी कर जाणिया, घर-वन एक समान।
घर माँहैं वन ज्यों रहै, सोई साधु सुजान।29।
सब जग माँहैं एकला, देह निरंतर बास।
दादू कारण राम के, घर-वन माँहिं उदास।30।
घर-वन माँहैं सुख नहीं, सुख है सांई पास।
दादू तासौं मन मिल्या, इन तैं भया उदास।31।
वैरागी वन में बसे, घरबारी घर माँहिं।
राम निराला रह गया, दादू इनमें नाँहिं।32।
सुमिरण नाम निस्संशय
दादू जीवण-मरण का, मुझ पछतावा नाँहिं।
मुझ पछतावा पीव का, रह्या न नैनऊँ माँहिं।33।
स्वर्ग-नरक संशय नहीं, जीवण-मरण भय नाँहिं।
राम विमुख जे दिन गये, सो सालै मन माँहिं।34।
स्वर्ग-नरक सुख-दुख तजे, जीवन-मरण नशाय।
दादू लोभी राम का, को आवे को जाय।35।
मधय निस्पक्ष
दादू हिन्दू तुरक न होइबा, साहिब सेती काम।
षट् दर्शन के संग न जाइबा, निर्पख कहिबा राम।36।
षट् दर्शन दोन्यों नहीं, निरालंब निज बाट।
दादू एकै आसरे, लंघै औघट घाट।37।
दादू ना हम हिन्दू होहिंगे, ना हम मूसलमान।
षट् दर्शन में हम नहीं, हम राते रहमान।38।
दादू अल्लह राम का, द्वै पख तैं न्यारा।
रहिता गुण आकार का, सो गुरु हमारा।39।
उभय असमाव
दादू मेरा तेरा बावरे, मैं तैं की तज बाण।
जिन यहु सब कुछ सिरजिया, करता ही का जाण।40।
दादू करणी हिन्दू-तुरक की, अपणी-अपणी ठौर।
दुहुँ बिच मारग साधु का, यहु संतों की रह और।41।
दादू हिन्दू-तुरक का, द्वै पख पंथ निवार।
संगति साँचे साधु की, सांई का संभार।42।
दादू हिन्दू लागे देहुरे, मूसलमान मसीति।
हम लागे एक अलेख सौं, सदा निरंतर प्रीति।43।
ना तहाँ हिन्दू देहुरा, न तहाँ तुरक मसीति।
दादू आपै आप है, नहीं तहाँ रह रीति।44।
दोनों हाथी ह्नै रहे, मिल रस पिया न जाय।
दादू आपा मेट कर, दोनों रहैं समाय।45।
भयभीत भयानक ह्नै रहै, देख्या निर्पख अंग।
दादू एके ले रह्या, दूजा चढै न रंग।46।
जाणे-बूझे साँच है, सब को देखण धााय।
चाल नहीं संसार की, दादू गह्या न जाय।47।
दादू पख काहू के ना मिले, निर्पख निर्मल नाँव।
सांई सौं सन्मुख सदा, मुक्ता सब ही ठाँव।48।
दादू जब तैं हम निर्पख भये, सब रिसाने लोक।
सद्गुरु के परसाद से, मेरे हर्ष न शोक।49।
निर्पख ह्नै कर पख गहै, नरक पड़ेगा सोइ।
हम निर्पख लागे नाम सौं कर्ता करे सो होइ।50।
हरि भरोसे
दादू पख काहू के ना मिलें, निष्कामी निर्पख साधा।
एक भरोसे राम के, खेलें खेल अगाधा।51।
मधय
दादू पखा पखी संसार सब, निर्पण विरला कोइ।
सोई निर्पख होइगा, जाके नाम निरंजन होइ।52।
अपणे-अपणे पंथ की, सब को कहै बढाय।
तातैं दादू एक सौं, अंतर गति ल्यौ लाय।53।
दादू द्वै पख दूर कर, निर्पख निर्मल नाँउ।
आपा मेटे हरि भेजे, ताकी मैं बलि जाँउ।54।
सजीवन
दादू तज संसार सब, रहै निराला होइ।
अविनाशी के आसरे, काल न लागे कोइ।55।
मत्सरर् ईष्या
कलियुग कूकर कलमुहाँ उठ-उठ लागे धााय।
दादू क्यों कर छूटिये, कलियुग बड़ी बलाय।56।
निन्दा
काला मुँह संसार का, नीले कीये पाँव।
दादू तीन तलाक दे, भावे तीधार जाँव।57।
दादू भाव हीन जे पृथिवी, दया बिहूणा देश।
भक्ति नहीं भगवंत की, तहँ कैसा परवेश।58।
जे बोलूँ तो चुप कहैं, चुप तो कहैं पुकार।
दादू क्यों कर छूटिये, ऐसा है संसार।59।
मधय
न जाणूँ हाँजी चुप गहि, मेट अग्नि की झाल।
सदा सजीवन सुमिरिए, दादू बंचे काल।60।
पंथापंथी
पंथ चलैं ते प्राणिया, तेता कुल व्यवहार।
निर्पख साधु सो सही, जिन के एक आधाार।61।
दादू पंथों पड़ गये, बपुरे बारह-बाट।
इनके संग न जाइए, उलटा अविगत घाट।62।
आशय विश्राम
दादू जागे को आया कहैं, सूते को कहैं जाइ।
आवन जाना झूठ है, जहँ का तहाँ समाइ।63।
।इति मधय का अंग सम्पूर्ण।
दादू नमो नमो निरंजनं, नमस्कार गुरु देवत:।
वन्दनं सर्व साधावा, प्रणामं पारगत:।1।
दादू साधु गुण गहै, अवगुण तजे विकार।
मानसरोवर हंस ज्यों, छाड नीर गहि सार।2।
हंस गियानी सो भला, अंतर राखे एक।
विष में अमृत काढले, दादू बड़ा विवेक।3।
पहली न्यारा मन करै, पीछे सहज शरीर।
दादू हंस विचार सौं, न्यारा कीया नीर।4।
आपै आप प्रकाशिया, निर्मल ज्ञान अनन्त।
क्षीर-नीर न्यारा किया, दादू भज भगवन्त।5।
क्षीर-नीर का सन्त जन, न्याव नबेरैं आय।
दादू साधु हंस बिन, भेल सभेले जाय।6।
दादू मन हंसा मोती चुणे, कंकर दीया डार।
सद्गुरु कह समझाइया, पाया भेद विचार।7।
दादू हंस मोती चुणे, मानसरोवर जाय।
बगुला छीलर बापुरा, चुण-चुण मछली खाय।8।
दादू हंस मोती चुगैं, मानसरोवर न्हाय।
फिर-फिर बैसे बापुड़ा, काग करंकां आय।9।
दादू हंसा परखिए, उत्ताम करणी चाल।
बगुला बैसे धयान धार, प्रत्यक्ष कहिए काल।10।
उज्वल करणी हंस है, मैली करणी काग।
मधयम करणी छाड सब, दादू उत्ताम भाग।11।
दादू निर्मल करणी साधु की, मैली सब संसार।
मैली मधयम ह्नै गये, निर्मल सिरजनहार।12।
दादू करणी ऊपरि जाति है, दूजा सोच निवार।
मैली मधयम ह्नै गये, उज्ज्वल ऊँच विचार।13।
उज्वल करणी राम है, दादू दूजा धांधा।
का कहिए, समझैं नहीं, चारों लोचन अंधा।14।
दादू गऊ बच्छ का ज्ञान गह, दूधा रहै ल्यौ लाय।
सींग-पूँछ पग परिहरे, अस्तन लागे धााय।15।
दादू काम गाय के दूधा सौं, हाड चाम सौं नाँहिं।
इहिं विधिा अमृत पीजिए, साधु के मुख माँहिं।16।
सुमिरण नाम
दादू काम धाणी के नाम सौं, लोगन सौं कुछ नाँहिं।
लोगन सौं मन ऊपली, मनकी मन ही माँहिं।17।
जाके हिरदै जैसी होइगी, सो तैसी ले जाय।
दादू तूं निर्दोष रहो, नाम निरंतर गाय।18।
दादू साधु सबै कर देखणा, असाधु न दीसे कोइ।
जिहिं के हिरदै हरि नहीं, जिहिं तन टोटा होइ।19।
साधु संगति पाइये, तब द्वन्द्वर दूर नशाय।
दादू बोहिथ बसै कर, डूँडे निकट न जाय।20।
जब परम पदारथ पाइये, तब कंकर दीया डार।
दादू साचा सो मिले, तब कूड़ा काच निवार।21।
जब जीवन मूरी पाइये, तब मरबा कौन बिसाहि।
दादू अमृत छाड कर, कौन हलाहल खाहि।22।
जब मानसरोवर पाइये, तब छीलर को छिटकाइ।
दादू हंसा हरि मिले, तब कागा गये बिलाय।23।
उभय असमाव
जहँ दिनकर तहँ निश नहीं, निश तहँ दिनकर नाँहिं।
दादू एकै द्वै नहिं, साधुन के मत माँहिं।24।
दादू एकै घोड़े चढ चलै, दूजा कोतिल होइ।
दुहुं घोड़ों चढ बैसतां, पार न पहुँचा कोइ।25।
।इति सार ग्राही का अंग सम्पूर्ण।
अथ विचार का अंग।18।
दादू नमो नमो निरंजनं, नमस्कार, गुरु देवत:।
वन्दनं सर्व साधावा, प्रणामं पारंगत:।1।
प्रज्ञान परिचय
दादू जल में गगन गगन में जल है, पुनि वै गगन निरालं।
ब्रह्म जीव इहिं विधिा रहै, ऐसा भेद विचारं।2।
ज्यों दर्पण में मुख देखिए, पानी में प्रतिबिम्ब।
ऐसे आतम राम है, दादू सब ही संग।3।
साँच
जब दर्पण माँहीं देखिए, तब अपना सूझे आप।
दर्पण बिन सूझे नहीं, दादू पुन्य रु पाप।4।
ज्ञान परिचय
जीये तेल तिलन्न में, जीये गंधा फूलन्न।
जीये माखन क्षीर में, ईये रब्ब रूहन्न।5।
ईये रब्ब रूहन्न में, जीये रूह रगन्न।
जीये जेरो सर में, ठंढो चन्द्र बसन्न।6।
दादू जिन यहु दिल मंदिर किया, दिल मंदिर में सोइ।
दिल माँहैं दिलदार है, और न दूजा कोइ।7।
मीत तुम्हारा तुम कने, तुम ही लेहु पिछाणि।
दादू दूर न देखिए, प्रतिबिम्ब ज्यों जाणि।8।
विरक्तता
दादू नाल कमल जल ऊपजे, क्यों जुदा जल माँहिं।
चंद हि हित चित प्रीतड़ी, यों जल सेती नाँहिं।9।
दादू एक विचार सौं, सब तैं न्यारा होइ।
माँहैं है पर मन नहीं, सहज निरंजन सोइ।10।
दादू गुण निर्गुण मन मिल रह्या, क्यों बेगर ह्नै जाय।
जहँ मन नाहीं सो नहीं, तहँ मन चेतन सो आहि।11।
विचार
दादू सब ही व्याधिा की, औषषि एक विचार।
समझे तैं सुख पाइये, कोइ कुछ कहो गँवार।12।
दादू इक निर्गुण इक गुण मई, सब घट ये द्वै ज्ञान।
काया का माया मिले, आतम ब्रह्म समान।13।
दादू कोटि अचारिन एक बिचारी, तऊ न सरबरि होइ।
आचारी सब जग भरया, बिचारी विरला कोइ।14।
दादू घट में सुख आनन्द है, तब सब ठाहर होइ।
घट में सुख आनन्द बिन, सुखी न देख्या कोइ।15।
विरक्तता
काया लोक अनन्त सब, घट में भारी भीर।
जहाँ जाय तहँ संग सब, दरिया पैली तीर।16।
काया माया ह्नै रही, योध्दा बहु बलवन्त।
दादू दुस्तर क्यों तिरे, काया लोक अनन्त।17।
मोटी माया तजि गये, सूक्षम लीये जाय।
दादू को छूटे नहीं, माया बड़ी बलाय।18।
दादू सूक्षम मांहिले, तिनका कीजे त्याग।
सब तज राता राम सौं, दादू यहु वैराग।19।
गुणातीत सो दर्शनी, आपा धारे उठाय।
दादू निर्गुण राम गह, डोरी लागा जाय।20।
पिंड मुक्ति सबको करे, प्राण मुक्ति नहिं होइ।
प्राण मुक्ति सद्गुरु करे, दादू विरला कोइ।21।
शिष्य जिज्ञासा
दादू क्षुधाा तृषा क्यों भूलिए, शीत तप्त क्यों जाइ।
क्यों सब छूटे देह गुण, सद्गुरु कह समझाइ।22।
उत्तार
माँहीं तैं मन काढ कर, ले राखे निज ठौर।
दादू भूले देह गुण, बिसर जाइ सब और।23।
नाम भुलावे देह गुण, जीव दशा सब जाय।
दादू छाडे नाम को, तो फिर लागे आय।24।
दादू दिन-दिन राता राम सौं, दिन-दिन अधिाक सनेह।
दिन-दिन पीवे राम रस, दिन-दिन दर्पण देह।25।
दादू दिन-दिन भूले देह गुण, दिन-दिन इन्द्री नाश।
दिन-दिन मन मनसा मरै, दिन-दिन होइ प्रकाश।26।
संजीविनी
देह रहै संसार में, जीव राम के पास।
दादू कुछ व्यापै नहीं, काल झाल दुख त्राास।27।
काया की संगति तजे, बैठा हरि पद माँहिं।
दादू निर्भय ह्नै रहै, कोइ गुण व्यापै नाँहिं।28।
काया माँहैं भय घणा, सब गुण व्यापै आय।
दादू निर्भय घर किया, रहै नूर में जाय।29।
खड़्ग धाार विष ना मरे, कोइ गुण व्यापे नाँहिं।
राम रहै त्यों जन रहै, काल झाल जल माँहिं।30।
विचार
सहज विचार सुख में रहै, दादू बड़ा विवेक।
मन इन्द्री पसरे नहीं, अंतर राखे एक।31।
मन इन्द्री पसरे नहीं, अहनिश एकै धयान।
पर उपकारी प्राणिया, दादू उत्ताम ज्ञान।32।
दादू मैं नाँहीं तब नाम क्या, कहा कहावे आप।
साधाो कहो विचार कर, मेटौ तन की ताप।33।
जब समझ्या तब सुरझिया, उलट समाना सोइ।
कछू कहावै जब लगे, तब लग समझ न होइ।34।
जब समझ्या तब सुरझिया, गुरुमुख ज्ञान अलेख।
ऊधर्व कमल में आरसी, फिर कर आपा देख।35।
प्रेम भक्ति दिन-दिन बधो, सोई ज्ञान विचार।
दादू आतम सोधिा कर, मथ कर काढ़या सार।36।
दादू जिहिं बरियाँ यहु सब भया, सो कुछ करो विचार।
काजी-पंडित बावरे, क्या लिख बाँधो भार।37।
जब यहु मन हीं मन मिल्या, तब कुछ पाया भेद।
दादू लेकर लाइये, क्या पढ़ मरिये वेद।38।
पाणी पावक-पावक पाणी, जाणे नहीं अजाण।
आदि-अन्त विचार कर, दादू जाण सुजाण।39।
सुख माँहै दु:ख बहुत है, दु:ख माँहै सुख होय।
दादू देख विचार कर, आदि-अन्त फल दोय।40।
मीठा-खारा खारा-मीठा, जाणे नहीं गँवार।
आदि-अन्त गुण देखकर, दादू किया विचार।41।
कोमल कठिन कठिन है कोमल, मूरख मर्म न बूझे।
आदि-अन्त विचार कर, दादू सब कुछ सूझे।42।
पहली प्राणि विचार कर, पीछे पग दीजे।
आदि-अन्त गुण देखकर, दादू कुछ कीजे।43।
पहली प्राणि विचार कर, पीछे चलिए साथ।
आदि-अन्त गुण देखकर, दादू घाली हाथ।44।
पहली प्राणि विचार कर, पीछे कुछ कहिए।
आदि-अन्त गुण देखकर, दादू निज गहिए।45।
पहली प्राणि विचार कर, पीछे आवे-जाय।
आदि-अन्त गुण देखकर, दादू रहै समाय।46।
दादू सोच करे सो शूरमा, कर सोचे सो कूर।
कर सोच्याँ मुख श्याम है, सोच कियाँ मुख नूर।47।
जो मति पीछे ऊपजे, सो मति पहली होइ।
कबहुँ न होवे जिव दुखी, दादू सुखिया सोइ।48।
आदि-अन्त गाहन किया, माया ब्रह्म विचार।
जहँ का तहँ ले दे धारया, दादू देत न बार।49।
।इति विचार का अंग सम्पूर्ण।
दादू नमो नमो निरंजनं, नमस्कार गुरु देवत:।
वन्दनं सर्व साधावा, प्रणामं पारंगत:।1।
दादू सहजैं-सहजैं होइगा, जे कुछ रचिया राम।
काहे को कलपे मरे, दुखी होत बे काम।2।
सांई किया सो ह्नै रह्या, जे कुछ करे सो होइ।
कर्ता करे सो होत है, काहे कलपे कोइ।3।
दादू कहैµजे तैं किया सो ह्नै रह्या, जे तूं करे सोहोइ।
करण-करावण एक तूं, दूजा नाँहीं कोइ।4।
सोइ हमारा सांइयां, जे सबका पूरणहार।
दादू जीवन-मरण का, जाके हाथ विचार।5।
दादू स्वर्ग भुवन पाताल मधिा, आदि-अन्त सब सृष्ट।
सिरज सबन को देत है, सोइ हमारा इष्ट।6।
करणहार कर्ता पुरुष, हमको कैसी चिन्त।
सब काहू की करत है, सो दादू का मिन्त।7।
दादू मनसा वाचा कर्मणा, साहिब का विश्वास।
सेवग सिरजनहार का, करे कौन की आस।8।
श्रम ना आवे जीव को, अणकीया सब होय।
दादू मारग महर का, विरला बूझे कोय।9।
दादू उद्यम अवगुण को नहीं, जे कर जाणे कोइ।
उद्यम में आनन्द है, जे सांई सेती होइ।10।
दादू पूरणहारा पूरसी, जो चित रहसी ठाम।
अंतर तैं हरि उमंग सी, सकल निरंतर राम।11।
पूरक पूरा पास है, नाहीं दूर गँवारा।
सब जानत है बावरे, देबे को हुसियार।12।
दादू चिन्ता राम को, समर्थ सब जाणे।
दादू राम सँभाल ले, चिन्ता जनि आणे।13।
दादू चिन्ता कीयां कुछ नहीं, चिन्ता जीव को खाय।
होणा था सो ह्नै रह्या, जाणा है सो जाय।14।
पोष-प्रतिपाल-रक्षक
दादू जिन पहुँचाया प्राण को, उदर ऊधर्व मुख क्षीर।
जठर अग्नि में राखिया, कोमल काया शरीर।15।
सो समर्थ संगी संग रहै, विकट घाट घट भीर।
सो सांई सौं गहगही, जनि भूले मन बीर।16।
गोविन्द के गुण चित्ता कर, नैन बैन पग शीश।
जिन मुख दीया कान कर, प्राणनाथ जगदीश।17।
तन मन सौंज सँवार सब, राखैं विसवा बीस।
सो साहिब सुमिरे नहीं, दादू भान हदीस।18।
दादू सो साहिब जनि बीसरे, जिन घट दीया जीव।
गर्भ वास में राखिया, पाले-पोषे पीव।19।
दादू राजिक रिजक लिये खड़ा, देवे हाथों हाथ।
पूरक पूरा पास है, सदा हमारे साथ।20।
हिरदै राम सँभाल ले, मन राखे विश्वास।
दादू समर्थ सांइयां, सबकी पूरे आस।21।
दादू सांई सबन को, सेवग ह्नै सुख देय।
अयां मूढ़ मति जीव की, तो भी नाम न लेय।22।
दादू सिरजनहारा सबन का, ऐसा है समरत्थ।
सोई सेवक ह्नै रह्या, जहँ सकल पसारे हत्थ।23।
धान्य-धान्य साहिब तू बड़ा, कौण अनुपम रीत।
सकल लोक शिर सांइयां, ह्नै कर रह्या अतीत।24।
दादू हूँ बलिहारी सुरति की, सब की करै सँभाल।
कीड़ी कुंजर पलक में, करता है प्रतिपाल।25।
छाजन भोजन
दादू छाजन भोजन सहज में, संइयां देइ सो लेय।
तातैं अधिाका और कुछ, सो तूं कांइ करेय।26।
दादू टूका सहज का, संतोषी जन खाय।
मृतक भोजन गुरुमुखी, काहे कलपे जाय।27।
दादू भाड़ा देह का, तेता सहज विचार।
जेता हरि बिच अंतरा, तेता सबै निवार।28।
दादू जल दल राम का, हम लेवैं परसाद।
संसार का समझैं नहीं, अविगत भाव अगाधा।29।
परमेश्वर के भाव का, एक कणूंका खाय।
दादू जेता पाप था, भरम करम सब जाय।30।
दादू कौण पकावे कौण पीसे।
तहाँ तहाँ सीधाा ही दीसे।31।
दादू जे कुछ खुशी खुदाइ की, होवेगा सोई।
पच-पच कोइ जनि मरे, सुन लीज्यो लोई।32।
दादू छूट खुदाइ कहीं को नाहीं, फिर हो पृथ्वी सारी।
दूजी दहणि दूर कर बोरे, साधु शब्द विचारी।33।
दादू बिना राम कहीं को नाँहीं, फिरहो देश विदेशा।
दूजी दहणि दूर कर बोरे, सुन यहु साधु संदेशा।34।
दादू सिदक सबूरी साँच गहि, सबित राख यकीन।
साहिब सौं दिल लाइ रहो, मुरदा ह्नै मिस्कीन।35।
दादू अण बाँछित टूका खात है, मर्महि लागा मन्न।
नाम निरंजन लेत है, यों निर्मल साधु जन्न।36।
अणबाँछा आगे पड़े, खिरा विचार रु खाइ।
दादू फिर न तोड़ता, तरुवर ताक न जाइ।37।
अणबाँछा आगे पड़े, पीछे लेइ उठाय।
दादू के शिर दोष यहु, जे कुछ राम रजाय।38।
अणबाँछी अजगैब की, रोजी गगन गिरास।
दादू सत कर लीजिए, सो सांई के पास।39।
कर्ता कसौटी
मीठे का सब मीठा लागे, भावै विष भर देइ।
दादू कड़वा ना कहै, अमृत कर कर लेइ।40।
विपत्तिा भली हरि नाम सौं, काया कसौटी दु:ख।
राम बिन किस काम का, दादू संपत्तिा सु:ख।41।
विश्वास-संतोष
दादू एक विश्वास बिन, जियरा डाँवाँडोल।
निकट निधाी दुख पाइये, चिन्तामणि अमोल।42।
दादू बिन विश्वासी जीयरा, चंचल नाँहीं ठौर।
निश्चय निश्चल ना रहै, कछू और की और।43।
दादू होणा था सो ह्नै रह्या, स्वर्ग न बाँछी धााय।
नरक कने थी ना डरी, हुआ सो होसी आय।44।
दादू होणा था सो ह्नै रह्या, जनि बाँछे सुख-दु:ख।
सुख माँगे दु:ख आइसी, पै पिव न विसारी मुख।45।
दादू होणा था सो ह्नै रह्या, जे कुछ किया पीव।
पल बधो न छिन घटे, ऐसा जाणी जीव।46।
दादू होणा था सो ह्नै रह्या, और न होवे आय।
लेणा था सो ले रह्या, और न लीया जाय।47।
ज्यों रचिया त्यों होइगा, काहे को शिर लेह।
साहिब ऊपरि राखिए, देख तमासा येह।48।
पतिव्रत निष्काम
ज्यों जाणौं त्यों राखियो, तुम शिर डाली राय।
दूजा को देखूँ नहीं, दादू अनत न जाय।49।
ज्यों तुम भावे त्यों खुशी, हम राजी उस बात।
दादू के दिल सिदक सौं, भावै दिन को रात।50।
दादू करणहार जे कुछ किया, सो बुरा न कहणा जाय।
सोई सेवग संत जन, रहिबा राम रमाय।51।
विश्वास-संतोष
दादू कर्ता हम नहीं, कर्ता औरै कोइ।
कर्ता है सो करेगा, तूं जनि कर्ता होइ।52।
हरि भरोसे
काशी तज मगहर गया, कबीर भरोसे राम।
सदेही सांई मिल्या, दादू पूरे काम।53।
विश्वास-संतोष
दादू रोजी राम हे, राजिक रिजक हमार।
दादू उस परसाद सौं, पोष्या सब परिवार।54।
पंच सन्तोषे एक सौं, मन मति वाला माँहिं।
दादू भागी भूख सब, दूजा भावे नाँहिं।55।
दादू साहिब मेरे कपड़े, साहिब मेरा खाण।
साहिब शिर का ताज है, साहिब पिंड पराण।56।
विनती
सांई सत सन्तोष दे, भाव भक्ति विश्वास।
सिदक सबूरी साँच दे, माँगे दादू दास।57।
।इति विश्वास का अंग सम्पूर्ण।
दादू नमो नमो निरंजनं, नमस्कार गुरु देवत:।
वंदनं सर्व साधावा, प्रणामं पारंगत:।1।
सारों के शिर देखिए, उस पर कोई नाँहिं।
दादू ज्ञान विचार कर, सो राख्या मन माँहिं।2।
सब लालों शिर लाल है, सब खूबों शिर खूब।
सब पाकों शिर पाक है, दादू का महबूब।3।
एक तत्तव ता ऊपरि, तीन लोक ब्रह्मंडा।
धारती गगन पवन अरु पाणी, सप्त द्वीप नौ खंडा।4।
चन्द सूर चौरासीलख, दिन अरु रैणी, रचले सप्त समंदा।
सवा लाख मेरु गिरि पर्वत अठारह भार तीर्थव्रत, ता ऊपर मंडा।
चौदह लोक रहैं सब रचना, दादू दास तास घर बन्दा।5।
दादू जिन यहु एती कर धारी, थम्भ बिन राखी।
सो हमको क्यों बीसरे, संत जन साखी।6।
दादू जिन मुझको पैदा किया, मेरा साहिब सोइ।
मैं बन्दा उस राम का, जिन सिरज्या सब कोइ।7।
दादू एक सगा संसार में, जिन हम सिरजे सोइ।
मनसा वाचा कर्मना, और न दूजा कोइ।8।
जे था कंत कबीर का, सोइ बर वरहूँ।
मनसा वाचा कर्मना, मैं और न करहूँ।9।
दादू सबका साहिब एक है, जाका परगट नाँउ।
दादू सांई शोधा ले, ताकी मैं बलि जाँउ।10।
साँचा सांई शोधा कर, साँचा राखी भाव।
दादू साँचा नाम ले, साँचे मारग आव।11।
जामे मरे सो जीव है, रमता राम न होइ।
जामण मरण तैं रहित है, मेरा साहिब सोइ।12।
उठे न बैसे एक रस, जागे सोवे नाँहिं।
मरे न जीवे जगद् गुरु, सब उपज खपे उस माँहिं।13।
ना वह जामे ना मरे, ना आवे गर्भवास।
दादू ऊँधो मुख नहीं, नरक कुंड दश मास।14।
कृत्रिाम नहीं सो ब्रह्म है, घटे बधो नहिं जाय।
पूरण निश्चल एक रस, जगत् न नाचे आय।15।
उपजे विनशे गुण धारे, यहु माया का रूप।
दादू देखत थिर नहीं, क्षण छाँही क्षण धाूप।16।
जे नाँहीं सो ऊपजे, है सो उपजे नाँहिं।
अलख आदि अनादि है, उपजे माया माँहिं।17।
प्रश्न कर्ता
जे यहु करता जीव था, संकट क्यों आया ?।
कर्मों के वश क्यों भया, क्यों आप बँधााया ?।18।
क्यों सब योनी जगत् में, घर-बार नचाया।
क्यों यह कर्ता जीव ह्नै, पर हाथ बिकाया।19।
उत्तार-जीव लक्षण
दादू कृत्रिाम काल वश, बंधया गुण माँहीं।
उपजे विनशे देखतां, यहु कर्ता नाँहीं।20।
जाती नूर अल्लाह का, सिफाती अरवाह।
सिफाती सिजदा करे, जाती बे परवाह।21।
परम तेज परापरं, परम ज्योति परमेश्वरं।
स्वयं ब्रह्म सदई सदा, दादू अविचल सुस्थिरं।22।
अविनाशी साहिब सत्य है, जे उपजे विनशे नाँहिं।
जेता कहिए काल मुख, सो साहिब किस माँहिं।23।
सांई मेरा सत्य है, निरंजन निराकार।
दादू विनशे देखतां, झूठा सब आकार।24।
राम रटणि छाडे नहीं, हरि लै लागा जाय।
बीचे ही अटके नहीं, काला कोटि दिखलाय।25।
उरैं ही अटके नहीं, जहाँ राम तहँ जाय।
दादू पावे परम सुख, विलसे वस्तु अघाय।26।
दादू उरैं ही उरझे घणे, मूये गल दे पास।
ऐन अंग जहँ आप था, तहाँ गये निज दास।27।
जग भुलावनि
सेवा का सुख प्रेम रस, सेज सुहाग न देइ।
दादू बाहै दास को, कह दूजा सब लेइ।28।
पति-पहिचान
लोहा माटी मिल रह्या, दिन-दिन काई खाय।
दादू पारस राम बिन, कतहूँ गया बिलाय।29।
लोहा पारस परस कर, पलटे अपणा अंग।
दादू कंचन ह्नै रहै, अपणे, सांई संग।30।
दादू जिहिं परसे पलटे प्राणियाँ सोई निज कर लेह।
लोहा कंचन ह्नै गया, पारस का गुण येह।31।
परिचय जिज्ञासा उपदेश
दह दिशि फिरे सो मन है, आवे-जाय सो पवन।
राखणहारा प्राण है, देखणहारा ब्रह्म।32।
।इति पीव पहचान का अंग सम्पूर्ण।
दादू नमो नमो निरंजनं, नमस्कार गुरु देवत:।
वन्दनं सर्व साधावा, प्रणामं पारंगत:।1।
दादू कर्ता करे तो निमष में, कीड़ी कुंजर होइ।
कुंजर तैं कीड़ी करे, मेट सके नहिं कोइ।2।
दादू कर्ता करे तो निमष में, राई मेरु समान।
मेरु को राई करे, तो को मेटे फरमान।3।
दादू कर्ता करे तो निमष में, जल माहे थल थाप।
थल माँहै जलहर करे, ऐसा समर्थ आप।4।
दादू कर्ता करे तो निमष में, ठाली भरे भँडार।
भरिया गहि ठाली करे, ऐसा सिरजनहार।5।
दादू धारती को अम्बर करे, अम्बर धारती होइ।
निश ऍंधिायारी दिन करे, दिन को रजनी सोइ।6।
मृतक काढ मसाण तैं, कहु कौण चलावे।
अविगत गति नहिं जाणिये, जग आण दिखावे।7।
दादू गुप्त गुण परगट करे, परगट गुप्त समाय।
पलक माँहि भाने घड़े, ताकी लखी न जाय।8।
पोष-प्रतिपाल-रक्षक
दादू सोइ सही साबित हुआ, जा मस्तक कर देय।
गरीब निवाजे दिखतां, हरि अपणा कर लेय।9।
सूक्ष्म मार्ग
दादू सब ही मारग सांइयाँ, आगे एक मुकाम।
सोई सन्मुख कर लिया, जाही सेती काम।10।
पोष-प्रतिपाल-रक्षक
मीराँ मुझ सौं महर कर, शिर पर दीया हाथ
दादू कलियुग क्या करे, सांई मेरा साथ।11।
ईश्वर समर्थता
दादू समर्थ सब विधिा सांइयाँ, ताकी मैं बलि जाउँ।
अंतर एक जु सो बसे, आराँ चित्ता न लाउँ।12।
दादू मारग महर का, सुखी सहज सौं जाय।
भव सागर तै काढ कर, अपणे लिये बुलाय।13।
दादू जे हम चिन्तवै, सो कछू न होवे आय।
सोई कर्ता सत्य है, कुछ औरै करि जाय।14।
एकों लेइ बुलाइ कर, एकों देइ पठाय।
दादू अद्भुत साहिबी, क्यों ही लखी न जाय।15।
ज्यों राखे त्यों रहैंगे, अपणे बल नाँहीं।
सबै तुम्हारे हाथ है, भाज कत जाँहीं।16।
दादू डोरी हरि के हाथ है, गल मांहै मेरे।
बाजीगर का बांदरा, भावै तहाँ फेरे।17।
ज्यों राखे त्यों रहैंगे, मेरा क्या सारा।
हुक्मी सेवग राम का, बन्दा बेचारा।18।
साहिब राखे तो रहे, काया माँहै जीव।
हुक्मी बन्दा उठ चले, जब हि बुलावे पीव।19।
पति पहिचान
खंड-खंड परकाश है, जहाँ तहाँ भरपूर।
दादू कर्ता कर रह्या, अनहद बाजैं तूर।20।
ईश्वर समर्थाई
दादू दादू कहत हैं, आपै सब घट माँहिं।
अपनी रुचि आपै कहैं, दादू तैं कुछ नाँहिं।21।
हम तैं हुआ न होइगा, ना हम करणे जोग।
ज्यों हरि भावे त्यों करे, दादू कहैं सब लोग।22।
पतिव्रत निष्काम
दादू दूजा क्यों कहै, शिर पर साहिब एक।
सो हम को क्यों बीसरे, जे युग जाहिं अनेक।23।
समर्थ साक्षी भूत
आप अकेला सब करे, औरों के शिर देय।
दादू शोभा दास को, अपणा नाम न लेय।24।
आप अकेला सब करे, घट में लहर उठाय।
दादू शिर दे जीव के, यों न्यारा ह्नै जाय।25।
ईश्वर समर्थाई
ज्यों यहु समझे त्यों कहो, यहु जीव अज्ञानी।
जेती बाबा तैं कही, इन एक न मानी।26।
दादू परचा माँगे लोग सब, कहें हमको कुछ दिखलाइ।
समर्थ मेरा सांइयाँ, ज्यों समझे त्यों समझाइ।27।
दादू तन-मन लाइ कर, सेवा दृढ़ कर लेइ।
ऐसा समरथ राम है, जे माँगे सो देइ।28।
समर्थ साक्षी भूत
दादू समर्थ सो मेरी समझाइ ने, कर अण करता होइ।
घट-घट व्यापक पूर सब, रहै निरन्तर सोइ।29।
रहै नियारा सब करे, काहू लिप्त न होइ।
आदि-अन्त भाने घड़े, ऐसा समर्थ सोइ।30।
कर्ता साक्षी भूत
श्रम नाहीं सब कुछ करे, यों कल धारी बणाय।
कोतिकहारा ह्नै रह्या, सब कुछ होता जाय।31।
लिपे-छिपे नहिं सब करे, गुण नहिं व्यापे कोय।
दादू निश्चल एक रस, सहजें सब कुछ होय।32।
बिन गुण व्यापे सब किया, समर्थ आपै आप।
निराकार न्यारा रहै, दादू पुन्य न पाप।33।
ईश्वर समर्थाई
समता के घर सहज में, दादू दुविधया नाँहिं।
सांई समर्थ सब किया, समझ देख मन माँहिं।34।
पैदा कीया घाट घड़, आपै आप उपाइ।
हिकमत हुनर कारीगरी, दादू लखी न जाइ।35।
यंत्रा बजाया साज कर, कारीगर करतार।
पंचों का रस नाद है, दादू बोलणहार।36।
पंच ऊपना शब्द तैं, शब्द पंच सौं होइ।
सांई मेरे सब किया, बूझे बिरला कोइ।37।
है तो रती नहीं तो नाँहीं, सब कुछ उतपति होइ।
हुक्मैं हाजिर सब किया, बूझे बिरला कोइ।38।
नहीं तहाँ तैं सब किया, आपै आप उपाय।
निज तत न्यारा ना किया, दूजा आवे-जाय।39।
नहीं तहाँ ते सब किया, फिर नाँहीं ह्नै जाइ।
दादू नाँहीं होइ रहु, साहिब सौं ल्यो लाइ।40।
दादू खालिक खेले खेल कर, बूझे बिरला कोइ।
लेकर सुखिया ना भया, देकर सुखिया होइ।41।
देवे की सब भूख है, लेवे की कुछ नाँहिं।
सांई मेरे सब किया, समझ देख मन माँहिं।42।
दादू जे साहिब सिरजे नहीं, तो आपे क्यों कर होइ।
जे आपे ही ऊपजे, तो मर कर जीवे कोइ।43।
करतूति-कर्म
कर्म फिरावे जीव को, कर्मों को करतार।
करतार को कोई नहीं, दादू फेरनहार।44।
।इति समर्थता का अंग सम्पूर्ण।
अथ शब्द का अंग।22।
दादू नमो नमो निरंजनं, नमस्कार गुरु देवत:।
वन्दनं सर्व साधावा, प्रणामं पारंगत:।1।
दादू शब्दैं बंधया सब रहै, शब्दैं ही सब जाय।
शब्दैं ही सब ऊपजे, शब्दैं सबै समाय।2।
दादू शब्दैं ही सचु पाइये, शब्दैं ही संतोष।
शब्दैं ही सुस्थिर भया, शब्दैं भागा शोक।3।
दादू शब्दैं ही सूक्ष्म भया, शब्दैं सहज समान।
शब्दैं ही निर्गुण मिले, शब्दैं निर्मल ज्ञान।4।
दादू शब्दैं ही मुक्ता भया, शब्दैं समझे प्राण।
शब्दैं ही सूझे सबै, शब्दैं सुरझे जाण।5।
सृष्टि-क्रम
दादू ओंकार तैं ऊपजे, अरस-परस संयोग।
अंकुर बीज द्वै पाप-पुण्य, इहिं विधिा योग रु भोग।6।
ओंकार तैं ऊपजे, विनशे बहुत विकार।
भाव भक्ति लै थिर रहै, दादू आत्मा सार।7।
पहली कीया आप तैं, उत्पत्तिा ओंकार।
ओंकार तैं ऊपजे, पंच तत्तव आकार।8।
पंच तत्तव तें घट भया, बहु विधिा सब विस्तार।
दादू घट तें ऊपजे, मैं तैं वरण विचार।9।
एक शब्द सब कुछ किया, ऐसा समर्थ सोइ।
आगे-पीछे तो करे, जे बल हीणा होइ।10।
निरंजन निराकार है, ओंकार आकार।
दादू सब रँग रूप सब, सब विधिा सब विस्तार।11।
आदि शब्द ओंकार है, बोले सब घट माँहिं।
दादू माया विस्तरी, परम तत्तव यहु नाँहिं।12।
ईश्वर समर्थाई
दादू एक शब्द सौं ऊनवे, वर्षण लागे आय।
एक शब्द सौं बीखरे, आप आप को जाय।13।
दादू साधु शब्द सौं मिल रहै, मन राखे बिलमाइ।
साधु शब्द बिन क्यों रहै, तब ही बीखर जाइ।14।
दादू शब्द जरे सो मिल रहै, एक रस पूरा।
कायर भाजे जीव ले, पग मांडे शूरा।15।
शब्द विचारे करणी करे, राम नाम निज हिरदै धारे।
काया माँहीं शोधो सार, दादू कहै लहै सो पार।16।
दादू काहे कोटी खर्चिये, जे पैके सीझे काम।
शब्दों कारज सिधा भया, तो श्रम ना दीजे राम।17।
दादू राम हृदय रस भेलि कर, को साधु शब्द सुणाय।
जाणो कर दीपक दिया, भरम तिमर सब जाय।18।
दादू वाणी प्रेम की, कमल विगासे होइ।
साधु शब्द माता कहै, नित शब्दों मोह्या मोहि।99।
दादू हरि भुरकी वाणी साधु की, सो परियो मेरे शीश।
छूटे माया मोह तैं, प्रेम भजन जगदीश।20।
दादू भुरकी राम है, शब्द कहै गुरु ज्ञान।
तिन शब्दों मन मोहिया, उन मन लागा धयान।21।
शब्दों माँहीं राम धान, जे कोई लेइ विचार।
दादू इस संसार में, कबहुँ न आवे हार।22।
दादू राम रसायन भर धारया, साधान शब्द मंझार।
कोई पारिख पीवे प्रीति सौं, समझे शब्द विचार।23।
शब्द सरोवर सूभर भरया, हरि जल निर्मल नीर।
दादू पीवे प्रीति सौं, तिन के अखिल शरीर।24।
शब्दों माँहैं राम-रस, साधाौं भर दीया।
आदि-अन्त सब सन्त मिल, यों दादू पीया।25।
गुरुमुख कसौटी
कारज को सीझै नहीं, मीठा बोले वीर।
दादू साँचे शब्द बिन, कटे न तन की पीर।26।
शब्द
दादू गुण तज निर्गुण बोलिये, तेता बोल अबोल।
गण गह आपा बोलिये, तेता, कहिये बोल।27।
साँचा शब्द कबीर का, मीठा लागे मोहि।
दादू सुणतां परम सुख, कता आनँद होइ।28।
।इति शब्द का अंग सम्पूर्ण।
दादू नमो नमो निरंजनं, नमस्कार गुरु देवत:।
वन्दनं सर्व साधावा, प्रणामं, पारंगत:।1।
धारती मत आकाश का, चंद-सूर का लेइ।
दादू पाणी पवन का, राम नाम कह देइ।2।
दादू धारती ह्नै रहै, तज कूड़ कपट हंकार।
सांई कारण शिर सहै, ता को प्रत्यक्ष सिरजनहार।3।
जीवित माटी मिल रहै, सांई सन्मुख होइ।
दादू पहली मर रहै, पीछे तो सब कोइ।4।
दीनता-गरीबी
आपा गर्व कुमान तज, मद मत्सर हंकार।
गहै गरीबी बन्दगी, सेवा सिरजनहार।5।
मद मत्सर आपा नहीं, कैसा गर्व गुमान।
स्वप्ने ही समझे नहीं, दादू क्या अभिमान।6।
झूठा गर्व गुमान तज, तज आपा अभिमान।
दादू दीन गरीब ह्नै, पाया पद निर्वान।7।
जीवित-मृतक
दादू भाव भक्ति दीनता अंग, प्रेम प्रीति तिहिं संग।8।
तब साहिब को सिजदा किया, जब शिर धारया उतार।
यों दादू जीवित मरे, हिर्स हवा को मार।9।
राव-रंक सब मरेंगे, जोवे नाँहीं कोइ।
सोई कहिए जीवता, जे मरजीवा होइ।10।
दादू मेरा वैरी मैं मुवा, मुझे न मारे कोइ।
मैं ही मुझको मारता, मैं मरजीवा होइ।11।
वैरी मारे मर गये, चित्ता तैं बिसरे नाँहिं।
दादू अजहूँ साल है, समझ देख मन माँहिं।12।
उभय असमाव
दादू तो तूं पावे पीव को, जे जीवत मृतक होइ।
आप गमाये पिव मिले, जानत हैं सब कोइ ।13।
दादू तो तूं पावे पीव को, आपा कछू न जाण।
आपा जिस मैं ऊपजे, सोई सहज पिछाण।14।
दादू तो तूं पावे पीव को, मैं मेरा सब खोय।
मैं मेरा सहजैं गया, तब निर्मल दर्शन होय।15।
मैं ही मेरे पोट शिर, मरिये ताके भार।
दादू गुरु परसाद सौं, शिर तैं धारी उतार।16।
मेरे आगे मैं खड़ा, ता तैं रह्या लुकाय।
दादू परगट पीव है, जे यहु आपा जाय।17।
सूक्ष्म-मार्ग
दादू जीवित मृतक होइ कर, मारग माँहैं आव।
पहलै शीश उतार कर, पीछे धारिये पाँव।18।
दादू मारग साधु का, खरा दुहेला जाण।
जीवित मृतक ह्नै चले, राम नाम नीशाण।19।
दादू मारग कठिन है, जीवित चले न कोइ।
सोई चल है बापुरा, जे जीवित मृतक होइ।20।
मृतक होवे सो चले, निरंजन की बाट।
दादू पावे पीव को, लंघे औघट घाट।21।
जीवित मृतक
दादू मृतक तब ही जाणिये, जब गुण इन्द्रिय नाँहिं।
जब मन आपा मिट गया, तब ब्रह्म समाना माँहिं।22।
दादू जीवित ही मर जाइये, मर माँहीं मिल जाय।
सांई का सँग छाड़ कर, कौण सहे दुख आय।23।
उभय असमाव
दादू आपा कहा दिखाइए, जे कुछ आपा होइ।
यहु तो जाता देखिए, रहता चीन्हो सोइ।24।
दादू आप छिपाइए, जहाँ न देखे कोइ।
पिव को देख दिखाइए, त्यों-त्यों आनँद होइ।25।
आपा निर्दोष
दादू अंतर गति आपा नहीं, मुखसौं मैं तैं होय।
दादू दोष न दीजिए, यों मिल खेलैं दोय।26।
जे जन आपा मेटकर, रहे राम ल्यौ लाय।
दादू सब ही देखतां, साहिब सौं मिल जाय।27।
दीनता-गरीबी
गरीब गरीबी गहि रह्या, मसकीनी मसकीन।
दादू आपा मेट कर, होइ रहे लै लीन।28।
उभय असमाव
मैं हूँ मेरी जब लगे, तब लग बिलसे खाय।
मैं नाँहीं मेरी मिटे, तब दादू निकट न जाय।29।
दादू मना मनी सब ले रहे, मनी न मेटी जाय।
मना मनी जब मिट गई, तब ही मिले खुदाय।30।
दादू मैं मैं जालदे, मेरे लागो आग।
मैं मैं मेरा दूर कर, साहिब के सँग लाग।31।
मनमुखी (यथेष्ट) मान
दादू खोई आपणी, लज्जा कुल की कार।
मान बड़ाई पति गई, तब सन्मुख सिरजनहार।32।
उभय असमाव
दादू मैं नाहिं तब एक है, मैं आइ तब दोय।
मैं तैं पड़दा मिट गया, तब ज्यूँ था त्यूँ हि होय।33।
परिचय करुणा विनती
नूर सरीखा कर लिया, बन्दों का बन्दा।
दादू दूजा को नहीं, मुझ सरीखा गन्दा।34।
जीवित मृतक
दादू सीख्यों प्रेम न पाइये, सीख्यों प्रीति न होय।
सीख्यों दर्द न ऊपजे, तब लग आप न खोय।35।
कहबा-सुनबा गत भया, आपा पर का नाश।
दादू मैं तै मिट गया, पूरण ब्रह्म प्रकाश।36।
दादू सांई कारण मांस का, लोही पाणी होइ।
सूखे आटा अस्थिका, दादू पावे सोइ।37।
तन-मन मैदा पीसकर, छाँण-छाँण ल्यौ लाय।
यों बिन दादू जीव का, कबहूँ साल न जाय।38।
पीसे ऊपर पीसिए, छाँणे ऊपरि छाँण।
तो आतम कण ऊबरे, दादू ऐसी जाण।39।
पहली तन-मन मारिए, इनका मर्दै मान।
दादू काढ़े जंत्रा में, पीछे सहज समान।40।
काटे ऊपर काटिए, दाधो को दौं लाय।
दादू नीर न सींचिए, तो तरुवर बधाता जाय।41।
दादू सबको संकट एक दिन, काल गहैगा आय।
जीवित मृतक ह्नै रहे, ताके निकट न जाय।42।
दादू जीवित मृतक ह्नै रहै, सबको विरक्त होय।
काढो-काढो सब कहैं, नाम न लेवे कोय।43।
जरणा
सारा गहला ह्नै रहै, अन्तरयामी जाण।
तो छूटे संसार तैं, रस पीवे सारंग प्राण।44।
गूँगा गहला बावरा, सांई कारण होय।
दादू दिवाना ह्नै रहै, ताको लखे न कोय।45।
जीवित मृतक
जीवित मृतक साधु की, बाणी का परकास।
दादू मोहे रामजी, लीन भये सब दास।46।
उभय असमाव
दादू जे तूं मोटा मीर है, सब जीवों में जीव।
आपा देख न भूलिए, खरा दुहेला पीव।47।
आपा मेट समाइ रहु, दूजा धांधाा बाद।
दादू काहे पच मरे, सहजैं सुमिरण साधा।48।
दादू आपा मेटे एकरस, मन सुस्थिर लै लीन।
अरस परस आनन्द करे, सदा सुखी सो दीन।49।
सुमिरण नाम निस्संशय
हमौं हमारा कर लिया, जीवित करणी सार।
पीछे संशय को नहीं, दादू अमग अपार।50।
मधय निर्पक्ष
माँटी माँहीं ठौर कर, माटी-माटी माँहिं।
दादू सम कर राखिए, द्वै पख दुविधाा नाँहिं।51।
।इति जीवित मृतक का अंग सम्पूर्ण।
अथ शूरातन का अंग।24।
दादू नमो नमो निरंजनं, नमस्कार गुरु देवत:।
वन्दनं सर्व साधावा, प्रणामं पारंगत:।1।
शूर, सती, साधु निर्णय
साँचा शिर सौं खेल है, यह साधु जन का काम।
दादू मरणा आसँघे, सोइ कहेगा राम।2।
राम कहैं ते मर कहैं, जीवित कह्या न जाय।
दादू ऐसे राम कह, सती शूर सम भाय।3।
जब दादू मरबा गहै, तब लोगों की क्या लाज।
सती राम साँचा कहै, सब तज पति सों काज।4।
दादू हम कायर कड़बा कर रहे, शूर निराला होय।
निकस खड़ा मैदान में, ता सम और न कोय।5।
शूर, सती, साधु निर्णय
मडा न जीवे तो संगजले, जीवे तो घर आण।
जीवण-मरणा राम सौं, सोइ सती कर जाण।6।
जन्म लगैं व्यभिचारणी, नख-शिख भरी कलंक।
पलक एक सन्मुख जली, दादू धाोये अंक।7।
स्वाँग सती का पहर कर, करे कुटुम्ब का सोच।
बाहर शूरा देखिए, दादू भीतर पोच।8।
दादू सती तो सिरजनहार सौं, जले विरह की झाल।
ना वह मरे न जल बुझे, ऐसे संग दयाल।9।
जे मुझ होते लाख शिर, तो लाखों देती वारि।
सह मुझ दिया एक शिर, सोई सौंपे नारि।10।
सती जल कोयला भई मुये मड़े की लार।
यों जे जलती राम सौं, साँचे सँग भरतार।11।
मुये मड़े से हेत क्या, जे जिय की जाणे नाँ¯ह।
हेत हरी से कीजिए, जे अन्तरयामी माँहिं।12।
शूरवीर-कायरत
शूरा चढ संग्राम को, पाछा पग क्यों देय।
साहिब लाजे भाजतां, धिाग जीवन दादू तेय।13।
सेवक शूर राम का, सोइ कहेगा राम।
दादू शूर सन्मुख रहे, नहिं कायर का काम।14।
कायर काम न आवही, यहु शूरे का खेत।
तन मन सौंपे राम को, दादू शीश सहेत।15।
जब लग लालच जीव का, तब लग निर्भय हुआ न जाय।
काया माया मन तजे, तब चौड़े रहै बजाय।16।
दादू चौड़े में आनन्द है, नाम धारया रणजीत।
साहिब अपना कर लिया, अन्तर गत की प्रीति।17।
दादू जे तुझ काम करीम सौं, तो चौहट चढकर नाच।
झूठा है तो जाइगा, निश्चै रहसी साँच।18।
जीवित-मृतक
राम कहेगा एक को, जे जीवित मृतक होय।
दादू ढूँढे पाइये, कोटी मधये कोय।19।
शूर सती साधु निर्णय
शूरा पूरा संत जन, सांई को सेवे।
दादू साहिब कारणे, शिर अपणा देवे।20।
शूरा जूझे खेत में, सांई सन्मुख आय।
शूरे को सांई मिले, तब दादू काल न खाय।21।
मरबे ऊपरि एक पग, करता करे सो होइ।
दादू साहिब कारणे, तालाबेली मोहि।22।
हरि भरोसे
दादू अंग न खैंचिए, कह समझाऊँ तोहि।
मोहि भरोसा राम का, बंका बाल न होइ।23।
बहुत गया थोड़ा रह्या, अब जिव सोच निवार।
दादू मरणा मांड रहु, साहिब के दरबार।24।
शूरवीर-कायरता
जीऊँ का संशय पड़या, को काको तारे।
दादू सोई शूरवाँ, जे आप उबारे।24।
जे निकसे संसार तैं, सांई की दिशि धााय।
जे कबहुँ दादू बाहुड़े, तो पीछे मारया जाय।26।
दादू कोई पीछे हेला जिन करे, आगे हेला आव।
आगे एक अनूप है, नहिं पीछे का भाव।27।
पीछे को पग ना भरे, आगे को पग देय।
दादू यहु मत शूर का, आगम ठौर को लेय।28।
आगा चल पीछा फिरे, ताका मुँह मदीठ।
दादू देखे दोइ दल, भागे देकर पीठ।29।
दादू मरणा माँड कर, रहै नहीं ल्यौ लाय।
कायर भाजे जीव ले, आ रण छाड़े जाय।30।
शूरा होइ सु मेर उलंघे, सब गुण बंधया छूटे।
दादू निर्भय ह्नै रहे, कायर तिणा न टूटे।31।
शूर सती साधु निर्णय
सर्प केशरि काल कुंजर, बहु जोधा मारग माँहिं।
कोटि में कोई एक ऐसा, मरण आसँघ जाँहिं।32।
दादू जब जागे तब मारिये, वैरी जिय के साल।
मनसा डायण काम रिपु, क्रोधा महाबलि काल।33।
पंच चोर चितवत रहैं, माया मोह विष झाल।
चेतन पहरे आपने, कर गह खड़ग सँभाल।34।
काया कबज कमाण कर, सार शब्द कर तीर।
दादू यहु सर साँधा कर, मारै मोटे मीर।35।
काया कठिन कमाण है, खाँचे विरला कोइ।
मारे पंचों मिरगला, दादू शूरा सोइ।36।
जे हरि कोप करे इन ऊपर, तो काम कटक दल जाँहिं कहाँ।
लालच लोभ क्रोधा कत भोजे प्रगट हरे हरि जहाँ तहाँ।37।
शूरातन
दादू तन-मन काम करीम के, आवे तो नीका।
जिसका तिस को सौंपिए, सोच क्या जीव का।38।
जे शिर सौंप्या राम को, सो शिर भया सनाथ।
दादू दे ऊरण भया, जिसका तिसके हाथ।39।
जिसका है तिसको चढे, दादू ऊरण होइ।
पहली देवे सो भला, पीछे तो सब कोइ।40।
सांई तेरे नाम पर, शिर जीव करूँ कुरबाण।
तन-मन तुम पर वारणे, दादू पिंड पराण।41।
अपणे सांई कारणे, क्या-क्या नहिं कीजे।
दादू सब आरम्भ तज, अपणा शिर दीजे।42।
शिर के साटे लीजिए, साहिबजी का नाउँ।
खेले शीश उतार कर, दादू मैं बलि जाउँ।43।
खेले शीश उतार कर, अधार एक सौं आय।
दादू पावे प्रेम रस, सुख में रहै समाय।44।
मरण भय निवारण
दादू मरणे थीं तू मत डरे, सब जग मरता जोइ।
मिल कर मरणा राम सौं, तो कलि अजरावर होइ।45।
दादू मरणे थीं तूं मत डरे, मरणा अन्त निदान।
रे मन मरणा सिरजिया, कहले केवल राम।46।
दादू मरणे थीं तूं मत डरे, मरणा पहुँच्या आय।
रे मन मेरा राम कह, बेगा बार न लाय।47।
दादू मरणे थीं तूं मत डरे, मरणा आज कि काल्ह।
मरणा-मरणा क्या करे, बेगा राम सँभाल।48।
दादू मरणा खूब है, निपट बुरा व्यभिचार।
दादू पति का छाड कर, आन भजे भरतार।49।
दादू तन तैं कहा डराइए, जे विनश जाइ पल बार।
कायर हुआ न छूटिए, रे मन हो हुसियार।50।
दादू मरणा खूब है, मर माँहीं मिल जाय।
साहिब का सँग छाड कर, कौण सहे दुख आय।51।
शूरातन
दादू माँहै मन सौं जूझ कर, ऐसा शूरा वीर।
इन्द्री अरि दल भान सब, यों कलि हुआ कबीर।52।
सांई कारण शीश दे, तन-मन सकल शरीर।
दादू प्राणी पंच दे, यों हरि मिल्या कबीर।53।
सबै कसौटी शिर सहै, सेवग सांई काज।
दादू जीवन क्यों तजे, भाजे हरि को लाज।54।
सांई कारण सब तजे, जन का ऐसा भाव।
दादू राम न छाड़िए, भावे तन-मन जाव।55।
पतिव्रत निष्काम
दादू सेवग सो भला, सेवे तन-मन लाय।
दादू साहिब छाड़ कर, काहू संग न जाय।56।
पतिव्रता पति पीव को, सेवे दिन अरु रात।
दादू पति को छाड़कर, काहू संग न जात।57।
शूरातन
दादू मरबो एक जु बार, अमर झुकेड़े मारिये।
तो तिरिये संसार, आतम कारज सारिये।58।
दादू जे तूं प्यासा प्रेम का, तो जीवण की क्या आस।
शिर के साटे पाइये, तो भर-भर पीवे दास।59।
कायर
मन मनसा जीते नहीं, पंच न जीते प्राण
दादू रिपु जीते नहीं, कहैं हम शूर सुजाण।60।
मन मनसा मारे नहीं, काया मारण जाँहिं।
दादू बाँबी मारिये, सर्प मरे क्यों माँहिं।61।
शूरातन
दादू पाखर पहर कर, सब को झूझण जाय।
अंग उघाड़े शूरवाँ, चोट मुँहैं मुँह खाय।62।
जब झूझे तब जाणिये, काछ खड़े क्या होय।
चोट मुँहैं मुह खाइगा, दादू शूर सोइ।63।
शूरातन सहजैं सदा, साँच शेल हथियार।
साहिब के बल झूझताँ, केते किये सुमार।64।
दादू जब लग जिय लागे नहीं, प्रेम प्रीति के शेल।
तब लग पिव क्यों पाइये, नहिं बाजीगर का खेल।65।
दादू जे तूं प्यासा प्रेम का, तो किसको सैंतैं जीव।
शिर के साटे लीजिए, जे तुझ प्यारा पीव।66।
दादू महा जोधा मोटा बली, सो सदा हमारी भीर।
सब जग रूठा क्या करे, जहाँ-तहाँ रणधाीर।67।
दादू रहते पहते राम जन, तिन भी माँडया झूझ।
साँचा मुँह मोड़े नहीं, अर्थ इता ही बूझ।68।
हरि भरोसे
दादू काँधो सबल के, निर्वाहेगा और।
आसण अपणे ले चल्या, दादू निश्चल ठौर।69।
शूरातन
दादू क्या बल कहा पतंग का, जलत न लागे बार।
बल तो हरि बलवन्त का, जीवें जिहिं आधाार।70।
राखण हारा राम है, शिर ऊपर मेरे।
दादू केते पच गये, वैरी बहुतेरे।71।
शूरातन विनती
दादू बलि तुम्हारे बापजी, गिणत न राणा राव।
मीर मलिक प्रधाान पति, तुम बिन सब ही बाव।72।
दादू राखी राम पर, अपणी आप संवाह।
दूजा को देखूँ नहीं, ज्यों जाणैं त्यों निर्वाह।73।
तुम बिन मेरे को नहीं, हमको राखणहार।
जे तूँ राखे सांइयाँ, तो कोई न सकै मार।74।
सब जग छाडे हाथ तैं, तो तुम जनि छाडहु राम।
नहिं कुछ कारज जगत् सौं, तुमही सेती काम।75।
शूरातन
दादू जाते जिव तैं तो डरूँ, जे जिव मेरा होय।
जिन यहु जीव उपाइया, सार करेगा सोय।76।
दादू जिनको सांई पाधारा, तिन बंका नहिं कोइ।
सब जग रूठा क्या करे, राखणहारा सोइ।77।
दादू साँचा साहिब शिर ऊपरै, तती न लागे बाव।
चरण कमल की छाया रहै, कीया बहुत पसाव।78।
विनती
दादू कहैµजे तूँ राखे सांइयाँ, तो मार सके नकोइ।
बाल न बंका कर सके, जे जग वैरी होइ।79।
राखणहारा राखे, तिसे कौण मारे।
उसे कौण डुबोवे, जिसे सांई तारे।
कह दादू सो कबहूँ न हारे, जे जन सांई सँभारे।80।
निर्भय बैठा राम जपि, कबहूँ काल न खाय।
जब दादू कुंजर चढ़े, तब सुनहां झख जाय।81।
कायर कूकर कोटि मिल, भौंकें अरु भागैं।
दादू गरवा गुरुमुखी, हस्ती नहिं लागे।82।
।इति शूरातन का अंग सम्पूर्ण।
अथ काल का अंग।25।
दादू नमो नमो निरंजनं, नमस्कार गुरु देवत:।
वन्दनं सर्व साधावा, प्रणामं पारंगत:।1।
काल न सूझे कंधा पर, मन चितवे बहु आश।
दादू जीव जाणे नहीं, कठिन काल की पास।2।
काल हमारे कंधा चढ, सदा बजावै तूर।
काल हरण करता पुरुष, क्यौं न सँभालै शूर।3।
जहँ-जहँ दादू पग धारे, तहाँ काल का फंधा।
शिर ऊपर साँधो खड़ा, अजहुँ न चेते अंधा।4।
दादू काल गिरासन का कहे, काल रहित कह सोय।
काल रहित सुमिरण सदा, बिना गिरासन होय।5।
दादू मरिये राम बिन, जीजे राम सँभाल।
अमृत पीवे आतमा, यों साधु बंचे काल।6।
दादू यहु घट काचा जल भरया, विनशत नाहीं बार।
यहु घट फूटा जल गया, समझत नहीं गँवार।7।
फूटी काया जाजरी, नव ठाहर कांणी।
ता में दादू क्यों रहै, जीव सरीखा पाणी।8।
बाव भरी इस खाल का, झूठा गर्व गुमान।
दादू विनशे देखतां, तिसका क्या अभिमान।9।
दादू हम तो मूये माँहि हैं, जीवण का रु भरंम।
झूठे का क्या गर्वबा, पाया मुझे मरंम।10।
यहु वन हरिया देखकर, फूल्यो फिरे गँवार।
दादू यहु मन मिरगला, काल अहेड़ी लार।11।
सब ही दीसै काल मुख, आपै गह कर दीन्ह।
विनशे घट आकार का, दादू जे कुछ कीन्ह।12।
काल कीट तन काठ को, जरा जन्म को खाय।
दादू दिन-दिन जीव की, आयू घटती जाय।13।
काल गिरासे जीव कूं, पल-पल श्वासें श्वास।
पग-पग माँहीं दिन घड़ी दादू लखे न तास।14।
पग पलक की सुधिा नहीं, श्वास शब्द क्या होय।
कर मुख माँहीं मेल्हतां, दादू लखे न कोय।15।
दादू काया कारवी, देखत ही चल जाय।
जब लग श्वास शरीर में, राम नाम ल्यौ लाय।16।
दादू काया कारवी, मोहि भरोसा नाँहिं।
आसरण कुंजर शिर, छत्रा, विनश जाहि क्षण माँहिं।17।
दादू काया कारवी, पड़त न लागे बार।
बोलणहारा महल में, सो भी चालणहार।18।
दादू काया कारवी, कदे न चाले संग।
कोटि वर्ष जे जीवणा, तऊ होइला भंग।19।
कहतां सुणतां देखतां, लेतां देतां प्राण।
दादू सो कतहूँ गया, माटी धारी मसाण।20।
सींगी नाद न बाज ही, कित गये सो जोगी।
दादू रहते मढी में, करते रस भोगी।21।
दादू जियरा जायगा, यहु तन माटी होय।
जे उपज्या सो विनश है, अमर नहीं कलि कोय।22।
दादू देही देखतां, सब किस ही की जाय।
जब लग श्वास शरीर में, गोविंद के गुण गाय।23।
दादू देही पाहुणी, हंस बटाऊ माँहिं।
का जाणूं कब चालसी, मोहि भरोसा नाँहिं।24।
दादू सब को पाहुणा, दिवस चार संसार।
अवसर-अवसर सब चल, हम भी इहै विचार।25।
भय मय पंथ विषमता
सबको बैठे पंथ शिर, रहे बटाऊ होय।
जे आये ते जाहिंगे, इस मारग सब कोय।26।
वेग बटाऊ पंथ शिर, अब विलंब न कीजे।
दादू बैठा क्या करे, राम जप लीजे।27।
संझ्या चले उतावला, बटाऊ वन खंड माँहिं।
बरियाँ नाँहीं ढील की, दाद बेगि घर जाँहिं।28।
दादू करह पलाण कर, को चेतन चढ जाय।
मिल साहिब दिल देखतां, साँझ पड़े जनि आय।29।
पंथ दुहेला दूर घर, संग न साथी कोय।
उस मारग हम जाहिंगे, दादू क्यों सुख सोय।30।
लंघण के लकु घाणा, कपर चाटू डीन्ह।
अल्लह पांधाी पंधा में, बिहंदा आहीन।31।
काल चेतावनी
दादू हँसतां-रोतां पाहुणा, काहू छाड न जाय।
काल खड़ा शिर ऊपरै, आवणहारा आय।32।
दादू जोरा वैरी काल है, सो जीव न जाणै।
सब जग सूता नींदड़ी, इस ताणै बाणै।33।
दादू करणी काल की, सब जग परलै होय।
राम विमुख सब मर गये, चेत न देखे कोय।34।
साहिब को सुमिरे नहीं, बहुत उठावे भार।
दादू करणी काल की, सब परलै संसार।35।
सूता काल जगाइ कर, सब पैसें मुख माँहिं।
दादू अचरज देखिया, कोई चेते नाँहिं।36।
सब जीव विसाहैं काल को, कर-कर कोटि उपाय।
साहिब को समझै नहीं, यों परलै ह्नै जाय।37।
दादू कारण काल के, सकल सँवारै आप।
मीच बिसाहै मरण को, दादू शोक संताप।38।
दादू अमृत छाड़ कर, विषय हलाहल खाय।
जीव बिसाहै काल को, मूढा मर-मर जाय।39।
निर्मल नाम विसार कर, दादू जीव जंजाल।
नहीं नहां तै कर लिया, मनसा माँहीं काल।40।
सब जग छेली काल कसाई, कर्द लिये कंठ काटे।
पंच तत्तव की पंच पँखुरी, खंड-खंड कर बाँटे।41।
काल झाल में जग जले, भाज न निकसे कोय।
दादू शरणैं साँच के, अभय अमर पद होय।42।
सब जग सूता नींद भर, जागे नाहीं कोय।
आगे-पीछे देखिए, प्रत्यक्ष परलै होय।43।
ये सज्जन दुर्जन भये, अन्त काल की बार।
दादू इन में को नहीं, विपद बटावणहार।44।
संगी सज्जण आपणा, साथी सिरजनहार।
दादू दूजा को नहीं, इहिं कलि इहिं संसार।45।
काल चेतावनी
ए दिन बीते चल गये, वे दिन आये धााय।
राम नाम बिन जीव को, काल गरासे जाय।46।
जे उपज्या सो विनश है जे दीसे सो जाय।
दादू निर्गुण राम जप, निश्चल चित्ता लगाय।47।
जे उपज्या सो विनश है, कोइ थिर न रहाय।
दादू बारी आपणी, जे दीसे सो जाय।48।
दादू सब जग मर-मर जात है, अमर उपावणहार।
रहता रमता राम है, बहता सब संसार।49।
सजीवनी
दादू कोई थिर नहीं, यहु सब आवे-जाय।
अमर पुरुष आपै रहै, कै साधु ल्यौ लाय।50।
काल चेतावनी
यहु जग जाता देखकर, दादू करी पुकार।
घड़ी महूरत चालणा, राखे सिरजनहार।51।
दादू विषय सुख माँहीं खेलतां, काल पहुँच्या आय।
उपजे बिनसे देखतां, यहु जग यों ही जाय।52।
राम नाम बिन जीव जे, केते मुये अकाल।
मीच बिना जे मरत हैं, ता मैं दादू साल।53।
कठोरता
सर्प सिंह हस्ती घणा, राक्षस भूत-परेत।
तिस वन में दादू पड़या, चेते नहीं अचेत।54।
पूत पिता मैं बीछुटया, भूल पड़या किस ठौर।
मरे नहीं उर फाट कर, दादू बड़ा कठोर।55।
काल चेतावनी
जे दिन जाइ सो बहुर न आवे, आयु घटे तन छीजे।
अन्त काल दिन आइ पहुँचा, दादू ढील न कीजे।56।
दादू अवसर चल गया, बरियाँ गई बिहाइ।
कर छिटके कहँ पाइये, जन्म अमोलक जाइ।57।
दादू गाफिल ह्नै रह्या, गहिला हुआ गँवार।
सो दिन चित्ता न आवही, सोवे पाँव पसार।58।
दादू काल हमारे कर गहै, दिन-दिन खैंचत जाय।
अजहुँ जीव जागे नहीं, सोवत गई बिहाय।59।
सूता आवे सूता जाइ, सूता खेले सूता खाइ।
सूता लेवे सूता देवे, दादू सूता जाइ।60।
दादू देखत ही भये, श्याम वर्ण मैं श्वेत।
तन-मन यौवन सब गया, अजहुँ न हरिसों हेत।61।
दादू झूठे के घर देख कर, झूठे पूछे जाय।
झूठे झूठा बोलते, रहे मसाणों आय।62।
दादू प्राण पयाना कर गया, माटी धारी मसाण।
जालणहारे देखकर, चेतै नहीं अजाण।63।
केई जाले केई जालिये, केई जालण जाँहिं।
केई जालण की करैं, दादू जीवण नाँहिं।64।
केई गाडे केइ गाडिये, केई गाडण जाँहिं।
केई गाडण की करैं, दादू जीवण नाँहिं।65।
दादू कहैµऊठरे प्राणी जाग जीव, अपणा सजण सँभाल।
गाफिल नींद न कीजिए, आइ पहुँचा काल।66।
समरथ का शरणा तजे, गहै आन की ओट।
दादू बलवंत काल की, क्यों कर बंचे चोट।67।
सजीवन
अविनाशी के आसरे, अजरावर की ओट।
दादू शरणे साँच के, कदे न लागे चोट।68।
काल चेतावनी
मूसा भागा मरण तैं, जहाँ जाय तहँ गोर।
दादू स्वर्ग पयाल सब, कठिन काल का शोर।69।
सब मुख माँहीं काल के, मांडया माया जाल।
दादू गोर मसाण में, झंखें स्वर्ग पयाल।70।
दादू मड़ा मसाण का, केता करे डफान।
मृतक मुरदा गोर का, बहुत करे अभिमान।71।
राजा राणा राव मैं, मैं खानों शिर खान।
माया मोह पसारे एता, सब धारती असमान।72।
पंच तत्तव का पूतला, यहु पिंड सँवारा।
मंदिर माटी मांस का, विनशत नहिं वारा।73।
हाड चाम का पींजरा, बिच बोलणहारा।
दादू ता में पैस कर, बहु किया पसारा।74।
बहुत पसारा कर गया, कुछ हाथ न आया।
दादू हरि की भक्ति बिन, प्राणी पछताया।75।
माणस जल का बुद्बुदा, पाणी का पोटा।
दादू काया कोट में, मेवासी मोटा।76।
बाहर गढ निर्भय करे, जीवे के तांई।
दादू माँहीं काल है, सो जाणे नाँहीं।77।
चित्ता कपटी
दादू साँचे मत साहिब मिले, कपट मिलेगा काल।
साँच परम पद पाइये, कपट काया में साल।78।
काल चेतावनी
मन ही माँहीं मीच है, सारों के सिर साल।
जे कुछ व्यापे राम बिन, दादू सोई काल।79।
दादू जेती लहर विकार की, काल कवल में सोय।
प्रेम लहर सो पीव की, भिन्न-भिन्न यों होय।80।
दादू काल रूप माँहीं बसे, कोइ न जाणे ताहि।
यह कूड़ी करणी काल है, सब काहू को खाइ।81।
दादू विष अमृत घट में बसे, दोन्यों एकै ठाँव।
माया विषय विकार सब, अमृत हरि का नाँव।82।
दादू कहाँ मुहम्मद मीर था, सब नबियों शिरताज।
सो भी मर माटी हुआ, अमर अलह का राज।83।
केते मर माटी भये, बहुत बड़े बलवंत।
दादू केते ह्नै गये, दाना देव अनंत।84।
दादू धारती करते एक डग, दरिया, करते फाल।
हाकों पर्वत फाड़ते, सो भी खाये काल।85।
दादू सब जग कंपे काल तैं, ब्रह्मा विष्णु महेश।
सुर नर मुनिजन लोक सब, स्वर्ग रसातल शेष।86।
चंद-सूर धार पवन जल, ब्रह्मंड खंड परवेश।
सो काल डरे करतार तैं, जै-जै तुम आदेश।87।
पवना पाणी धारती अंबर, विनशे रवि शशि तारा।
पंच तत्तव सब माया विनशे, मानुष कहा विचारा।88।
दादू विनशे तेज के, माटी के किस माँहिं।
अमर उपावणहार है, दूजा कोई नाँहिं।89।
स्वकीय शत्राु-मित्राता
मन हीं माँहीं ह्नै मरे, जीवे मन हीं माँहिं।
साहिब साक्षी भूत है, दादू दूषण नाँहिं।90।
मत्सरर्=ईष्या
दीसे माणस प्रत्यक्ष काल, ज्यों कर त्यों कर दादू टाल।91।
।इति काल का अंग सम्पूर्ण।
अथ सजीवन का अंग ।26।
दादू नमो नमो निरंजनं, नमस्कार गुरु देवत:।
वन्दनं सर्व साधावा, प्रणामं, पारंगत:।1।
दादू जे तूं योगी गुरुमुखी, तो लेना तत्तव विचार।
गहि आयुधा गुरु ज्ञान का, काल पुरुष को मार।2।
नाद बिन्दु सौं घट भरे, सो योगी जीवे।
दादू काहै को मरे, राम रस पीवे।3।
साधु जन की वासना, शब्द रहै संसार।
दादू आत्म ले मिले, अमर उपावणहार।4।
राम सरीखे ह्नै रहै, यहु नाँहीं उणहार।
दादू साधु अमर है, विनशे सब संसार।5।
जे कोई सेवे राम को, तो राम सरीखा होय।
दादू नाम कबीर ज्यों, साखी बोले सोय।6।
अर्थ न आया सो गया, आया सो क्यों जाय।
दादू तन-मन जीवतां, आपा ठौर लगाय।7।
जे जन बेधो प्रीति सौं, ते जन सदा सजीव।
उलट समाने आप मैं, अन्तर नाँहीं पीव।8।
दया विनती
दादू कहैµसब रँग तेरे तैं रँगे, तूं ही सब रँगमाँहिं।
सब रँग तेरे तैं किये, दूजा कोई नाँहिं।9।
सजीवन
छूटे द्वन्द्व तो लागे बंद, लागे बंद तो अमर कंद।
अमर कंद दादू आनंद।10।
(प्रश्न)µकहाँ जम जौरा भंजिये, कहाँ काल को दंड।
कहाँ मीच को मारिये, कहाँ जरा सत खंड।11।
(उत्तार)µअमरठौरअविनाशी आसण, तहाँ निरंजन लाग रहे।
दादू योगी युग-युग जीवे, काल व्याल सब सहज गये।12।
रोम-रोम लै लाइ धवनि, ऐसे सदा अखंड।
दादू अविनाशी मिले, तो जम को दीजे दंड।13।
दादू जरा काल जामण मरण, जहाँ-जहाँ जिव जाय।
भक्ति परायण लीन मन, ताको काल न खाय।14।
मरणा भागा मरण तैं, दु:खैं नाठा दु:ख।
दादू भय सौं भय गया, सु:खैं छूटा सु:ख।15।
मुक्ति-अमोक्ष
जीवित मिले सो जीविते, मूये मिल मर जाय।
दादू दोन्यों देखकर, जहँ जाणे तहँ लाय।16।
सजीवन
दादू साधान सब किया, जब उनमन लागा मन्न।
दादू सुस्थिर आतमा, यों युग-युग जीवै जन्न।17।
रहते सेती लाग रहु, तो अजरावर होय।
दादू देख विचार कर, जुदा न जीवे कोय।18।
जेती करणी काल की, तेती परिहर प्राण।
दादू आत्म राम सौं, जे तूं खरा सुजाण।19।
विष अमृत घट में बसे, बिरला जाणे कोइ।
जिन विष खाया ते मुये, अमर अमी सौं होइ।20।
दादू सब ही मर रहे, जीवै नाँहीं कोय।
सोई कहिए, जीविता, जे कलि अजरावर होय।21।
दादू तज संसार सब, रहै निराला होय।
अविनाशी के आसरे, काल न लागे कोय।22।
जागहु लागहु राम सौं, रैणि बिहाणी जाय।
सुमिर सनेही आपणा, दादू काल न खाय।23।
दादू जागहु लागहु राम सौं, छाड़हु विषय विकार।
जीवहु पीवहु राम रस, आतम साधान सार।24।
स्मरण नाम निस्संशय
मरे तो पावे पीव को, जीवत बंचे काल।
दादू निर्भय नाम ले, दोनों हाथ दयाल।25।
दादू मरणे को चल्या, सजीवन के साथ।
दादू लाहा मूल सौं, दोन्यों आये हाथ।26।
करुणा
दादू जाता देखिए, लाहा मूल गमाय।
साहिब की गति अगम है, सो कुछ लखी न जाय।27।
सजीवन
साहिब मिले तो जीविए, नहीं तो जीवैं नाँहिं।
भावै अनंत उपाय कर, दादू मूवों माँहिं।28।
संजीवनी साधो नहीं, तातै मर-मर जाय।
दादू पीवे राम रस, सुख में रहे समाय।29।
दिन-दिन लहुड़े होंहि सब, कहै मोटा होता जाय।
दादू दिन-दिन ते बढै, जे रहै राम ल्यौ लाय।30।
मुक्ति, अमोक्ष, जीवन्मुक्ति
दादू जीवित छूटे देह गुण, जीवित मुक्ता होय।
जीवित काटे कर्म सब, मुक्ति कहावे सोय।31।
जीवित ही दुस्तर तिरे, जीवित लंघे पार।
जीवित पाया जगद्गुरु, दादू ज्ञान विचार।32।
जीवित जगपति को मिले, जीवित आतम राम।
जीवित दर्शन देखिए, दादू मन विश्राम।33।
जीवित पाया प्रेम रस, जीवित पिया अघाय।
जीवित पाया स्वाद सुख, दादू रहे समाय।34।
जीवित भागे भरम सब, छूटे कर्म अनेक।
जीवित मुक्त सद्गति भये, दादू दर्शन एक।35।
जीवित मेला ना भया, जीवित परस न होय।
जीवित जगपति ना मिले, दादू बूडे सोय।36।
जीवित दुस्तर ना तिरे, जीवित न लंघे पार।
जीवित निर्भर ना भये, दादू ते संसार।37।
जीवित परगट ना भया, जीवित परिचय नाँहिं।
जीवित न पाया पीव को, बूडे भव जल माँहिं।38।
जीवित पद पाया नहीं, जीवित मिले न जाय।
जीवित जे छूटे नहीं, दादू गये बिलाय।39।
दादू छूटे जीवतां, मूवाँ छूटे नाँहिं।
मूवां पीछे छूटिये, तो सब आये उस माँहिं।40।
मूवां पीछे मुक्ति बतावैं, मूवां पीछे मेला।
मूवां पीछे अमर अभय पद, दादू भूले गहला।41।
मूवां पीछे बैकुंठ बासा, मूवां स्वर्ग पठावै।
मूवां पीछे मुक्ति बतावै, दादू जग बोरावै।42।
मूवां पीछे पद पहुँचावै, मूवां पीछे तारै।
मूवां पीछे सद्गति होवे, दादू जीवित मारै।43।
मूवां पीछे भक्ति बतावै, मूवां पीछे सेवा।
मूवां पीछे संयम राखै, दादू दोजख देवा।44।
सजीवन
दादू धारती क्या साधान किया, अंबर कौण अभ्यास।
रवि शशि किस आरंभ से, अमर भये निज दास।45।
साहिब मारे ते मुये, कोई जीवे नाँहिं।
साहिब राखे ते रहे, दादू निज घर माँहिं।46।
जे जन राखे रामजी, अपणे अंग लगाय।
दादू कुछ व्यापे नहीं, जे कोटि काल झख जाय।47।
।इति सजीवन का अंग सम्पूर्ण।
अथ पारिख का अंग।27।
दादू नमो नमो निरंजनं, नमस्कार गुरु देवत:।
वन्दनं सर्व साधावा, प्रणामं पारंगत:।1।
साधुत्व परीक्षा
दादू मन चित आतम देखिए, लागा है किस ठौर।
जहँ लागा तैसा जाणिए, का देखे दादू और।2।
दादू साधु परखिए, अंतर आतम देख।
मन माँहीं माया रहै, कै आपै आप अलेख।3।
दादू मन की देखकर, पीछे धारिये नाउँ।
अंतर गति की जे लखे, तिनकी मैं बलि जाउँ।4।
दादू जे नाँहीं सो सब कहै, है सो कहै न कोय।
खोटा खरा परखिए, तब ज्यों था त्यों ही होय।5।
घट की भान अनीति सब, मन की मेट उपाधिा।
दादू परिहर पंच की, राम कहैं ते साधा।6।
अर्थ आया तब जाणिए, जब अनर्थ छूटे।
दादू भांडा भरम का, गिरि चौड़े फूटै।7।
दादू दूजा कहबे को रह्या, अंतर डारया धाोय।
ऊपर की ये सब कहैं, माँहिं न देखे कोय।8।
दादे जैसे माँहीं जीव रहै, तैसी आवे बास।
मुख बोले तब जाणिए, अंतर का परकास।9।
दादू ऊपर देखकर, सब को राखे नाउँ।
अंतर गति की जे लखैं, तिनकी मैं बलि जाउँ।10।
जग जन विपरीत
तन-मन आतम एक है, दूजा सब उणहार।
दादू मूल पाया नहीं, दुविधया भरम विकार।11।
काया के सब गुण बँधो, चौरासी लख जीव।
दादू सेवक सो नहीं, जे रँग राते पीव।12।
काया के वश जीव सब, ह्नै गये अनंत अपार।
दादू काया वश करे, निरंजन निराकार।13।
पूरण ब्रह्म विचारिए, तब सकल आतमा एक।
काया के गुण देखिए, तो नाना वरण अनेक।14।
नर विडंरूप
मति बुध्दि विवेक विचार बिन, माणस पशू समान।
समझाया समझे नहीं, दादू परम गियान।15।
जब जीव प्राणी भूत हैं, साधु मिले तब देव।
ब्रह्म मिले तब ब्रह्म हैं, दादू अलख अभेव।16।
करतूति=कर्म
दादू बंधया जीव है, छूटा ब्रह्म समान।
दादू दोनों देखिए, दूजा नाहीं आन।17।
कर्मों के बस जीव है, कर्म रहित सो ब्रह्म।
जहँ आतम तहँ परमात्मा, दादू भागा भर्म।18।
पारिख-अपारिख
काचा उछले ऊफणे, काया हांडी माँहिं।
दादू पाका मिल रहै, जीव ब्रह्म द्वै नाँहिं।19।
दादू बाँधो सुर नवाये बाजै, एह्ना शोधा रु लीज्यो।
राम सनेही साधु हाथे, बेगा मोकल दीज्यो।20।
प्राण जौहरी पारिखू, मन खोटा ले आवे।
खोटा मन के माथे मारे, दादू दूर उड़ावे।21।
श्रवणा हैं नैना नहीं, ता थैं खोटा खाँहिं।
ज्ञान विचार न उपजे, साँच-झूठ समझाँहिं।22।
साँच
दादू साँचा लीजिए, झूठा दीजे डार।
साँचा सन्मुख राखिए, झूठा नेह निवार।23।
साँचे को साँचा कहै, झूठे को झूठा।
दादू दुविधाा को नहीं, ज्यों था त्यों दीठा।24।
पारिख-अपारिख
दादू हीरे का कंकर कहै, मूरख लोग अजाण।
दादू हीरा हाथ ले, परखे साधु सुजाण।25।
सगुरा-निगुरा
सगुरा-निगुरा परखिए, साधु कहैं सब कोय।
सगुरा साँचा निगुरा, झूठा, साहिब के दर होय।26।
सगुरा सत्य संयम रहै, सन्मुख सिरजनहार।
निगुरा लोभी लालची, भूँचे विषय विकार।27।
कर्ता कसौटी
खोटा-खरा परखिए, दादू कस-कस लेइ।
साँचा है सो राखिए, झूठा रहण न देइ।28।
पारिख-अपारिख
खोटा-खरा कर देवे पारिख, तो कैसे बण आवे।
खरे-खोटे का न्याय नबेरे, साहिब के मन भावे।29।
दादू जिन्हैं ज्यों कहीं तिन्हैं त्यों मानी,
ज्ञान विचार न कीन्हा।
खोटा खरा जिव परख न जाणे,
झूठ साँच कर लीन्हा।30।
कर्ता कसौटी
जे निधिा कहीं न पाइए, सो निधिा घर-घर आहि।
दादू महँगे मोल बिन, कोई न लेवे ताहि।31।
खरी कसौटी कीजिए, बाणी बधाती जाय।
दादू साँचा परखिए, महँगे मोल बिकाय।32।
राम कसे सेवग खरा, कदे न मोड़े अंग।
दादू जब लग राम है, तब लग सेवग संग।33।
दादू कस-कस लीजिए, यहु ताते परिमान।
खोटा गाँठ न बाँधिाए, साहिब के दीवान।34।
दादू खरी कसौटी पीव की, कोई बिरला पहुँचणहार।
जे पहुँचे ते ऊबरे, ताइ किये तत सार।35।
दुर्बल देही निर्मल वाणी। दादू पंथी ऐसा जाणी।36।
दादू साहिब कसे सेवग खरा, सेवग को सुख होइ।
साहिब करे सो सब भला, बुरा न कहिए कोइ।37।
दादू ठग आंमेर में, साधाौं सौं कहियो।
हम शरणाई राम की, तुम नीके रहियो।38।
।इति पारिख का अंग सम्पूर्ण।
अथ उपजन का अंग।28।
दादू नमो नमो निरंजनं, नमस्कार गुरु देवत:।
वन्दनं सर्व साधावा, प्रणामं पारंगत:।1।
विचार
दादू माया का गुण बल करे, आपा उपजे आइ।
राजस तामस सात्विकी, मन चंचल ह्नै जाय।2।
आपा नाहीं बल मिटे, त्रिाविधा तिमिर नहिं होय।
दादू यहु गुण ब्रह्म का, शून्य समाना सोय।3।
उपजन
दादु अनुभव उपजी गुण मयी, गुण ही पै ले जाय।
गण हीं सौं गह बंधिाया, छूटे कौण उपाय।4।
द्वै पख उपजी परिहरे, निर्पख अनुभव सार।
एक राम दूजा नहीं, दादू लेहु विचार।5।
दादू काया व्यावर गुणमयी, मन मुख उपजे ज्ञान।
चौरासी लख जीव को, इस माया का धयान।6।
आत्म उपज अकाश की, सुण धारती की बाट।
दादू मारग गैब का, कोई लखे न घाट।7।
आत्म बोधाी अनुभवी, साधु निर्पख होय।
दादू राता राम सौं, रस पीवेगा सोय।8।
प्रेम भक्ति जब ऊपजे, निश्चल सहज समाधिा।
दादू पीवे राम रस, सद्गुरु के परसाद।9।
प्रेम भक्ति जब ऊपजे, पंगुल ज्ञान विचार।
दादू हरि रस पाइए, छूटे सकल विकार।10।
दादू बंझ बियाई आतमा, उपज्या आनँद भाव।
सहज शील संतोष सत, प्रेम मगन मन राव।11।
निन्दा
जब हम ऊजड़ चालते, तब कहते मारग माँहिं।
दादू पहुँचे पंथ चल, कहैं यहु मारग नाँहिं।12।
उपजन
पहले हम सब कुछ किया, भरम-करम संसार।
दादू अनुभव ऊपजी, राते सिरजनहार।13।
सोइ अनुभव सोइ ऊपजी, सोइ शब्द तत सार।
सुनतां ही साहिब मिले, मन के जाँहि विकार।14।
परिचय जिज्ञासा उपदेश
पारब्रह्म कह्या प्राण सौं, प्राण कह्या घट सोइ।
दादू घट सब सौं कह्या, विष अमृत गुण दोइ।15।
दादू मालिक कह्या अरवाह सौं, अरवाह कह्या औजूद।
औजूद आलम सौं कह्या, हुकम खबर मौजूद।16।
उपजण
दादू जैसा ब्रह्म है, तैसी अनुभव उपजी होय।
जैसा है तैसा कहै, दादू बिरला कोय।17।
।इति उपजन का अंग सम्पूर्ण।
दादू नमो नमो निरंजनं, नमस्कार गुरु देवत:।
वन्दनं सर्व साधावा, प्रणामं पारंगत:।1।
आपा मेटे हरि भजे, तन-मन तजे विकार।
निर्वैरी सब जीव सौं, दादू यहु मत सार।2।
निर्वैरी निज आतमा, साधान का मत सार।
दादू दूजा राम बिन, वैरी मंझ विकार।3।
निर्वैरी सब जीव सौं, संत जन सोई।
दादू एकै आतमा, वैरी नहिं कोई।4।
सब हम देख्या शोधा कर, दूजा नाँहीं आन।
सब घट एकै आतमां, क्या हिन्दू मुसलमान।5।
दादू नारि पुरुष का नाम धार, इहिं संशय भरम भुलान।
सब घट एकै आतमा, क्या हिन्दू मुसलमान।6।
दादू दोनों भाई हाथ पग, दोनों भाई कान।
दोनों भाई नैन हैं, हिन्दू मुसलमान।7।
दादू संशय आरसी, देखत दूजा होय।
भरम गया दुविधाा मिटी, तब दूसर नाँहीं कोय।8।
किस सौं वैरी ह्नै रह्या, दूजा कोई नाँहिं।
जिसके अंग तैं ऊपजे, सोई है सब माँहिं।9।
सब घट एकै आतमा, जाणे सो नीका।
आपा पर में चीद्द ले, दर्शण है पिव का।10।
काहे को दुख दीजिए, घट-घट आतम राम।
दादू सब संतोषिये, यह साधु का काम।11।
काहे को दुख दीजिए, सांई है सब माँहिं।
दादू एकै आतमा, दूजा कोई नाँहिं।12।
साहिब जी की आतमा, दीजे सुख संतोष।
दादू दूजा को नहीं, चौदह तीनों लोक।13।
दादू जब प्राण पिछाणे आपको, आतम सब भाई।
सिरजनहारा सबन का, तासौं ल्यौ लाई।14।
आत्मराम विचार कर, घट-घट देव दयाल।
दादू सब संतोषिये, सब जीवों प्रतिपाल।15।
दादू पूरण ब्रह्म विचार ले, दुती भाव कर दूर।
सब घट साहिब देखिए, राम रह्या भरपूर।16।
दादू मन्दिर काच का कर्मट सुनहां जाय।
दादू एक अनेक ह्नै, आप आपको खाय।17।
आतम भाई जीव सब, एक पेट परिवार।
दादू मूल विचारिए, तो दूजा कौण गँवार।18।
अदया हिंसा-वनस्पतियों में जीव भाव
दादू सूखा सहजैं कीजिए, नीला भाने नाँहिं।
काहे को दुख दीजिए, साहिब है सब माँहिं।19।
दया निर्वैरता
घट-घट के उणहार सब, प्राण परस ह्नै जाय।
दादू एक अनेक ह्नै, बरते नाना भाय।20।
आये एकंकार सब, सांई दिये पठाय।
दादू न्यारे नाम धार, भिन्न-भिन्न ह्नै जाय।21।
आये एकंकार सब, सांई दिये पठाइ।
आदि-अंत सब एक है, दादू सहज समाइ।22।
आतम देव आराधिाये, विरोधिाये नहिं कोय।
आराधो सुख पाइये, विरोधो दु:ख होय।23।
ज्यों आपै देखे आप को, यों जे दूसर होय।
तो दादू दूसर नहीं, दु:ख न पावे कोय।24।
दादू सम कर देखिए, कुंजर कीट समान।
दादू दुविधाा दूर कर, तज आपा अभिमान।25।
अदया-हिंसा
दादू अर्श खुदाय का, अजरावर का थान।
दादू सो क्यों ढाहिये, साहिब का नीशान।26।
दादू आप चिणावे देहुरा, तिसका करहि जतन्न।
प्रत्यक्ष परमेश्वर किया, सो भाने जीव रतन्न।27।
मसीति सँवारी माणसौं, तिसको करैं सलाम।
ऐन आप पैदा किया, सो ढाहैं मुसलमान।28।
दादू जंगल माँहीं जीव जे, जग तैं रहै उदास।
भयभीत भयानक रात-दिन निश्चल नाँहीं बास।29।
वाचा बँधाी जीव सब, भोजन पाणी घास।
आतम ज्ञान न ऊपजे, दादू करहि विनास।30।
काला मुँह कर करद का, दिल तैं दूरि निवार।
सब सूरत सुबहान की, मुल्ला मुग्धा न मार।31।
गला गुसे का काटिये, मियाँ मनी को मार।
पंचों बिस्मिल कीजिए, ये सब जीव उबार।32।
वैर विरोधो आतमा, दया नहीं दिन माँहिं।
दादू मूरति राम की, ताको मारण जाँहिं।33।
दया निर्वैरता
कुल आलम यके दीदम, अरवाहे इखलास।
बद अमल बदकार दुई, पाक यारां पास।34।
काल झाल तैं काढ कर, आतम अंग लगाय।
जीव दया यहु पालिये, दादू अमृत खाय।35।
दादू बुरा न बाँछे जीव का, सदा सजीवन सोय।
परलै विषय विकार सब, भाव भक्ति रत होय।36।
मत्सरर्=ईष्या
ना को वैरी ना को मीत, दादू राम मिलण की चीत।37।
।इति दया निर्वैरता का अंग सम्पूर्ण।
दादू नमो नमो निरंजनं, नमस्कार गुरु देवत:
वन्दनं सर्व साधावा, प्रणामं पारंगत:।1।
सुन्दरी विलाप
आरतिवन्ती सुन्दरी, पल-पल चाहे पीव।
दादू कारण कंत के, तालाबेली जीव।2।
काहे न आवहु कंत घर, क्यों तुम रहे रिसाय।
दादू सुन्दरि सेज पर, जन्म अमोलक जाय।3।
आतम अंतर आव तूं, या है तेरी ठौर।
दादू सुन्दरि पीव तूं, दूजा नाँहीं और।4।
दादू पीव न देख्या नैन भर, कंठ न लागी धााइ।
सूती नहिं गल बाँह दे, बिच ही गई बिलाइ।5।
सुरति पुकारे सुन्दरी, अगम अगोचर जाय।
दादू विरहनि आतमा, उठ-उठ आतुर धााय।6।
सांई कारण सेज सँवारी, सब तैं सुन्दर ठौर।
दादू नारी नाह बिन, आण बिठाये और।7।
कोई अवगुण मन बस्या, चित तैं धारी उतार।
दादू पति बिन सुन्दरी, हांडै घर-घर बार।8।
अन्य लग्न व्यभिचार
प्रेम प्रीति सनेह बिन, सब झूठे शृंगार।
दादू आतम रत नहीं, क्यों माने भरतार।9।
सुन्दरी विलाप
दादू हूँ सुख सूती नींद भर, जागे मेरा पीव।
क्यों कर मेला होइगा, जागे नाँहीं जीव।10।
सखी न खेले सुन्दरी, अपणे पीव सौं जाग।
स्वाद न पाया प्रेम का, रही नहीं उर लाग।11।
पंच दिहाड़े पीव सौं, मिल काहे न खेलै।
दादू गहली सुन्दरी, क्यों रहै अकेलै।12।
सखी सुहागिनी सब कहैं, हूंर दुहागिनी आहि।
पिव का महल न पाइये, कहाँ पुकारूँ जाइ।13।
सखी सुहागिनी सब कहैं, कंत न बूझे बात।
मनसा वाचा कर्मणा, मर्ूच्छि-मर्ूच्छि जिव जात।14।
सखी सुहागिनि सब कहैं, पिवसौं परस न होय।
निश बासर दुख पाइये, यहु व्यथा न जाणे कोय।15।
सखी सुहागिनी सब कहैं, प्रगट न खेले पीव।
सेज सुहाग न पाइये, दुखिया मेरा जीव।16।
अन्य लग्न व्यभिचार
पुरुष पुरातन छाड़कर, चली आन के साथ।
सो भी सँग तैं बीछुटया, खड़ी मरोड़े हाथ।17।
सुन्दरी-विलाप
सुन्दरि कबहूँ कंत का, मुख सौं नाम न लेय।
अपणे पिव के कारणैं, दादू तन-मन देय।18।
नैन बैन कर वारणै, तन-मन पिंड पराण।
दादू सुन्दरि बलि गई, तुम पर कंत सुजाण।19।
तन भी तेरा मन भी तेरा, तेरा पिंड पराण।
सब कुछ तेरा तूं है मेरा, यहु दादू का ज्ञान।20।
सुन्दरि मोहै पीव को, बहुत भाँति भरतार।
त्यों दादू रिझवे राम को, अनन्त कला करतार।21।
नदियाँ नीर उलंघ कर, दरिया पैली पार।
दादू सुन्दरि सो भली, जाय मिले भरतार।22।
सुन्दरी सुहाग
प्रेम लहर गह ले गई, अपणे प्रीतम पास।
आत्म सुन्दरि पीव को, बिलसे दादू दास।23।
सुन्दरि को सांई मिल्या, पाया सेज सुहाग।
पिव सौं खेले प्रेम रस, दादू मोटे भाग।24।
दादू सुन्दरि देह में, सांई को सेवे।
राती अपणे पीव सौं, प्रेम रस लेवे।25।
दादू निर्मल सुन्दरी, निर्मल मेरा नाह।
दोन्यों निर्मल मिल रहे, निर्मल प्रेम प्रवाह।26।
सांई सुन्दरि सेज पर, सदा एक रस होय।
दादू खेले पीव सौं, ता सम और न कोय।27।
।इति सुन्दरी का अंग सम्पूर्ण।
दादू नमो नमो निरंजनं, नमस्कार गुरु देवत:।
वन्दनं सर्व साधावा, प्रणामं पारंगत:।1।
दादू घट कस्तूरी मृग के , भरमत फिरे उदास।
अंतरगति जाणे नहीं, तातैं सूँघे घास।2।
दादू सब घट में गोविन्द है, संग रहै हरि पास।
कस्तूरी मृग में बसे, सूँघत डोले घास।3।
दादू जीव न जाणे राम को, राम जीव के पास।
गुरु के शब्दों बाहिरा, ता तैं फिरे उदास।4।
दादू जा कारण जग ढूँढिया, सो तो घट ही माँहिं।
मैं तै पड़दा भरम का, ताथें जानत नाँहिं।5।
दादू दूर कहै ते दूर है, राम रह्या भरपूर।
नैनहुँ बिन सूझे नहीं, तातैं रवि कत दूर।6।
दादू ओडो हूँवो पाण सै, न लधााऊँ मंझ।
न जातांऊ पाण में, तांई क्या ऊपंधा।7।
दादू केई दौड़े द्वारिका, केई काशी जाँहिं।
केई मथुरा को चले, साहिब घट ही माँहिं।8।
दादू सब घट माँहीं रम रह्या, विरला बूझे कोइ।
सोई बूझे राम को, जे राम सनेही होइ।9।
दादू जड़ मति जिव जाणे नहीं, परम स्वाद सुख जाय।
चेतन समझे स्वाद सुख, पीवे प्रेम अघाय।10।
जागत जे आनन्द करे, सो पावे सुख स्वाद।
सूते सुख ना पाइये, प्रेम गमाया बाद।11।
दादू जिसका साहिब जागणा, सेवग सदा सचेत।
सावधाान सन्मुख रहै, गिर-गिर पड़े अचेत।12।
दादू सांई सावधाान, हम ही भये अचेत।
प्राणी राख न जाण हीं, ता तै निर्फल खेत।13।
सगुणा-नगुणा कृतघ्नी
दादू गोविन्द के गुण बहुत है, कोई न जाणे जीव।
अपणी बूझे आप गति, जे कुछ कीया पीव।14।
।इति कस्तूरिया मृग का अंग सम्पूर्ण।
अथ निन्दा का अंग।32।
दादू नमो नमो निरंजनं, नमस्कार गुरु देवत:।
वन्दनं सर्व साधावा, प्रणामं पारंगत:।1।
मत्सरर्=ईष्या
साधु निर्मल मल नहीं, राम रमै सम भाय।
दादू अवगुण काढ कर, जीव रसातल जाय।2।
दादू जब ही साधु सताइये, तब ही ऊँधा पलट।
आकाश धाँसे धारती खिसे, तीनों लोक गरक।3।
निन्दा
दादू जिहिं घर निन्दा साधु की, सो घर गये समूल।
तिन की नींव न पाइये, नाम न ठाँव न धाूल।4।
दादू निन्दा नाम न लीजिए, स्वप्ने ही जिन होइ।
न हम कहैं न तुम सुणो, हम जिन भाखे कोइ।5।
दादू निन्दा किये नरक है, कीट पड़े मुख माँहिं।
राम विमुख जामै मरै, भग मुख आवे जाँहिं।6।
दादू निन्दक बपुरा जनि मरे, पर उपकारी सोय।
हम को करता ऊजला, आपण मैला होय।7।
दादू जिहिं विधिा आतम उध्दरे, परसे प्रीतम प्राण।
साधु शब्द को निन्दणा, समझैं चतुर सुजाण।8।
मत्सरर्=ईष्या
अनदेख्या अनरथ कहैं, कलि पृथ्वी का पाप।
धारती-अम्बर जब लगै, तब लग करै कलाप।9।
अणदेख्या अनरथ कहैं, अपराधाी संसार।
जद तद लेखा लेइगा, समर्थ सिरजनहार।10।
दादू डरिये लोक तै, कैसी धारहि उठाइ।
अनदेखी अजगैब की, ऐसी कहै बणाइ।11।
अमिट पाप प्रचंड
दादू अमृत को विष विष को अमृत, फेरि धारै सब नाम।
निर्मल मैला मैला निर्मल, जाहिंगे किस ठाम।12।
मत्सरर्=ईष्या
दादू साँचे को झूठा कहै, झूठे को साँचा।
राम दुहाई काढिये, कंठ तैं वाँचा।13।
झूठ न कहिए साँच को, साँच न कहिए झूठ।
दादू साहिब माने नहीं, लागे पाप अखूट।14।
दादू झूठ दिखावै साँच को, भयानक भयभीत।
साँचा राता साँच सौं, झूठ न आनै चीत।15।
साँचे को झूठा कहै, झूठा साँच समान।
दादू अचरज देखिया, यहु लोगों का ज्ञान।16।
निन्दा
ज्यों-ज्यों निन्दै लोग विचारा, त्यों-त्यों छीजे रोग हमारा।17।
।इति निन्दा का अंग सम्पूर्ण।
अथ निगुणा का अंग।33।
दादू नमो नामो निरंजनं, नमस्कार गुरु देवत:।
वन्दनं सर्व साधावा, प्रणामं पारंगत:।1।
सगुणा निगुणा कृतघ्नी
दादू चन्दन बावना, बसे बटाऊ आय।
सुखदाई शीतल किये, तीन्यों ताप नशाय।2।
काल कुहाड़ा हाथ ले, काटण लागा ढाय।
ऐसा यहु संसार है, डाल मूल ले लाय।3।
अज्ञ स्वभाव अपलट
सद्गुरु चन्दन बावना, लागे रहै भुवंग।
दादू विष छाड़े नहीं, कहा करे सत्संग।4।
दादू कीड़ा नर्क का, राख्या चन्दन माँहिं।
उलट अपूठा नर्क में, चन्दन भावे नाँहिं।5।
सद्गुरु साधु सुजाण है, शिष का गुण नहिं जाय।
दादू अमृत छाड़कर, विषय हलाहल खाय।6।
कोटि वर्ष लैं राखिए, बंसा चन्दन पास।
दादू गुण लीये रहै, कदै न लागे बास।7।
कोटि वर्ष लौं राखिए, पत्थर पाणी माँहिं।
दादू आडा अंग है, भीतर भेदै नाँहिं।8।
कोटि वर्ष लौं राखिए, लोहा पारस संग।
दादू रोम का अंतरा, पलटे नाँहीं अंग।9।
कोटि वर्ष लौं राखिए, जीव ब्रह्म सँग दोय।
दादू माँहीं वासना, कदे न मेला होय।10।
सगुणा, निगुणा कृतघ्नी
मूसा जलता देखकर, दादू हंस दयाल।
मानसरोवर ले चल्या, पंखाँ काटे काल।11।
सब जीव भुवंगम कूप में, साधु काढे आइ।
दादू विषहरि विष भरे, फिर ताही को खाइ।12।
दादू दूधा पिलाइए, विषहरि विष कर लेय।
गुण का अवगुण कर लिया, ता ही को दु:ख देय।13।
अज्ञ स्वभाव अपलट
बिन ही पावक जल मुवा, जवासा जल माँहिं।
दादू सूखे सींचताँ, तो जल को दूषण नाँहिं।14।
सगुणा, निगुणा कृतघ्नी
सुफल वृक्ष परमारथी, सुख देवे फल फूल।
दादू ऊपर बैस कर, निगुणा काटे मूल।15।
दादू सगुणा गुण करे, निगुणा माने नाँहिं।
निगुणा मर निष्फल गया, सगुणा साहिब माँहिं।16।
निगुणा गुण माने नहीं, कोटि करे जे कोय।
दादू सब कुछ सौंपिए, सो फिर वैरी होय।17।
दादू सगुणा लीजिए, निगुणा दीजे डार।
सगुणा सन्मुख राखिए, निगुणा नेह निवार।18।
सगुणा गुण केते करै, निगुणा न माने एक।
दादू साधु सब कहै, निगुणा नरक अनेक।19।
सगुणा गुण केते करै, निगुणा नाखे ढाहि।
दादू साधु सब कहै, निगुणा निर्फल जाइ।20।
सगुण गुण केते करै, निगुणा न माने कोय।
दादू साधु सब कहै, भला कहाँ तैं होय।21।
सगुणा गुण केते करै, निगुणा न माने नीच।
दादू साधु सब कहै, निगुणा के शिर मीच।22।
साहिबजी सब गुण करै, सद्गुरु के घट होय।
दादू काढैं काल मुख, निगुणा न माने कोय।23।
साहिबजी सब गुण करै, सद्गुरु माँहीं आय।
दादू राखैं जीव दे, निगुणा मेटे जाय।24।
साहिबजी सब गुण करै, सद्गुरु का दे संग।
दादू परलै राखिले, निगुणा न पलटे अंग।25।
साहिबजी सब गुण करै, सद्गुरु आडा देय।
दादू तारे देखतां, निगुणा गुण नहिं लेय।26।
सद्गुरु दीया रामधान, रहै सुबुध्दि बताय।
मनसा वाचा कर्मणा, बिलसे वितड़े खाय।27।
कीया कृत मेटे नहीं, गुण हीं माँहिं समाय।
दादू बधौ अनन्त धान, कबहूँ कदे न जाय।28।
।इति निगुणा का अंग सम्पूर्ण।
अथ विनती का अंग।34।
दादू नमो नमो निरंजनं, नमस्कार गुरु देवत:।
वन्दनं सर्व साधावा, प्रणामं पारंगत:।1।
दादू बहुत बुरा किया, तुम्हैं न करना रोष।
साहिब समाई का धाणी, बन्दे को सब दोष।2।
दादू बुरा-बुरा सब हम किया, सो मुख कह्या न जाय।
निर्मल मेरा साइयाँ, ता कों दोष न लाय।3।
सांई सेवा चोर में, अपराधाी बन्दा।
दादू दूजा को नहीं, मुझ सरीखा गन्दा।4।
तिल-तिल का अपराधाी तेरा, रती-रती का चोर।
पल-पल का मैं गुनही तेरा, बखशो अवगुण मोर।5।
महा अपराधाी एक मैं, सारे इहिं संसार।
अवगुण मेरे अति घणे, अंत न आवे पार।6।
बे मरयादा मित नहीं, ऐसे किये अपार।
मैं अपराधाी बापजी, मेरे तुमहि एक आधाार।7।
दोष अनेक कलंक सब, बहुत बुरा मुझ माँहिं।
मैं किये अपराधा सब, तुम तैं छाना नाँहिं।8।
गुनहगार अपराधाी तेरा, भाज कहाँ हम जाँहिं।
दादू देख्या शोधा सब, तुम बिन कहिं न समाँहिं।9।
आदि-अंत लौं आय कर, सुकृत कछू न कीन्ह।
माया मोह मद मत्सरा, स्वाद सबै चित दीन्ह।10।
विनती
काम-क्रोधा संशय सदा, कबहूँ नाम न लीन।
पाखंड प्रपंच पाप में, दादू ऐसे खीन।11।
दादू बहु बन्धान सौं बंधिाया, एक बिचारा जीव।
अपणे बल छूटे नहीं, छोड़णहारा पीव।12।
दादू बन्दीवान है, तूं बन्दि छोड़ दीवान।
अब जिन राखो बन्दि में, मीराँ महरवान।13।
दादू अन्तर कालिमा, हिरदै बहुत विकार।
परकट पूरा दूर कर, दादू करे पुकार।14।
सब कुछ व्यापे रामजी, कुछ छूटा नाँहीं।
तुम तैं कहा छिपाइए, सब देखे माँहीं।15।
सबल साल मन में रहे, राम बिसर क्यों जाय।
यहु दुख दादू क्यों सहै, सांई करो सहाय।16।
राखणहारा राख तूं, यहु मन मेरा राखि।
तुम बिन दूजा को नहीं, साधु बोलै साखि।17।
माया विषय विकार तैं, मेरा मन भागे।
सोई कीजे सांइयाँ, तूं मीठा लागे।18।
सांई दीजे सो रती, तूं मीठा लागे।
दूजा खारा होई सब, सूता जीव जागे।19।
ज्यों आपै देखे आपको, सो नैना दे मुझ।
मीरा मेरा महर कर, दादू देखे तुझ।20।
करुणा
दादू पछतावा रह्या, सके न ठाहर लाय।
अर्थ न आया राम के, यहु तन योंहि जाय।21।
विनती
दादू कहैµदिन-दिन नवतम भक्ति दे, दिन-दिन नवतम नाउँ।
दिन-दिन नवतम नेह दे, मैं बलिहारी जाउँ।22।
सांई संशय दूर कर, कर शंका का नाश।
भान भरम दुविधया दुख दारुण, समता सहज प्रकाश।23।
दया विनती
नाँहीं परगट ह्नै रह्या, है सो रह्या लुकाय।
संइयाँ पड़दा दूर कर, तूं ह्नै परगट आय।24।
दादू माया परगट ह्नै रही, यों जे होता राम।
अरस परस मिल खेलते, सब जिव सब ही ठाम।25।
दया करे तब अंग लगावे, भक्ति अखंडित देवे।
दादू दर्शण आप अकेला, दूजा हरि सब लेवे।26।
दादू साधु सिखावै आतमा, सेवा दृढ़ कर लेहु।
पारब्रह्म सौं बीनती, दया कर दर्शन देहु।27।
साहिब साधु दयालु है, हम ही अपराधाी।
दादू जीव अभागिया, अविद्या साधाी।28।
सब जीव तोरै राम सौं, पै राम न तोरे।
दादू काचे ताग ज्यों, टूटै त्यों जोरे।29।
सजीवनी
फूटा फेरि सँवार कर, ले पहुँचावे ओर।
ऐसा कोई ना मिले, दादू गई बहोर।30।
ऐसा कोई ना मिले, तन फेरि सँवारे।
बूढ़े तैं बाला करे, खै काल निवारे।31।
परिचय करुणा विनती
गलै विलै कर बीनती, एकमेव अरदास।
अरस-परस करुणा करे, तब दरवे दादू दास।32।
सांई तेरे डर डरूँ, सदा रहूँ भय भीत।
अजा सिंह ज्यों भय घणा, दादू लीया जीत।33।
पोष प्रतिपाल रक्षक
दादू पलक माँहिं प्रगटे सही, जे जन करे पुकार।
दीन दुखी तब देखकर, अति आतुर तिहिं बार।34।
आगे-पीछे संग रहै, आप उठाये भार।
साधु दुखी तब हरि दुखी, ऐसा सिरजनहार।35।
सेवग की रक्षा करे, सेवग की प्रतिपाल।
सेवग की बाहर चढे, दादू दीन दयाल।36।
विनती सागर तरण
दादू काया नाव समुद्र में, औघट बूडे आय।
इहिं अवसर एक अगाधा बिन, दादू कौण सहाय।37।
यहु तन भेरा भव जला, क्यों कर लंघे तीर।
खेवट बिन कैसे तिरै, दादू गहर गम्भीर।38।
पिंड परोहन सिंधाु जल, भव सागर संसार।
राम बिना सूझे नहीं, दादू खेवणहार।39।
यहु घट बोहित धाार में, दरिया वार न पार।
भयभीत भयानक देखकर, दादू करी पुकार।40।
कलियुग घोर ऍंधाार है, तिस का वार न पार।
दादू तुम बिन क्यों तिरै, समर्थ सिरजनहार।41।
काया के वश जीव है, कस-कस बन्धया माँहिं।
दादू आतम राम बिन, क्यों ही छूटे नाँहिं।42।
दादू प्राणी बन्धया पंच सौं, क्यों ही छूटे नाँहिं।
नीधाणि आपा मारिये, यहु जिव काया माँहिं।43।
दादू कहैµतुम बिन धाणी न धाोरी जीव का, यों ही आवे-जाय।
जे तूं सांई सत्य है, तो वेगा प्रगटहु आय।44।
नीधाणि आपा मारिये, धाणी न धाोरी कोय।
दादू सो क्यों मारिये, साहिब शिर पर होय।45।
दया विनती
राम विमुख युग-युग दुखी, लख चौरासी जीव।
जामे मरे जग आवटे, राखणहारा पीव।46।
पोष प्रतिपाल रक्षक
समरथ सिरजनहार है, जे कुछ करे सो होय।
दादू सेवक राख ले, काल न लागे कोय।47।
विनती
सांई साँचा नाम दे, काल झाल मिट जाय।
दादू निर्भय ह्नै रहै, कबहूँ काल न खाय।48।
कोई नहीं करतार बिन, प्राण उधाारणहार।
जियरा दुखिया राम बिन, दादू इहि संसार।49।
जिनकी रक्षा तूं करे, ते उबरे करतार।
जे तैं छाडे हाथ तैं, ते डूबे संसार।50।
राखणहारा एक तूं, मारणहार अनेक।
दादू के दूजा नहीं, तूं आपै ही देख।51।
दादू जग ज्वाला जम रूप है, साहिब राखणहार।
तुम बिच अंतर जनि पड़े, तातैं करूँ पुकार।52।
जहँ-तहँ विषय-विकार तै, तुम ही राखणहार।
तन-मन तुमको सौंपिया, साचा सिरजनहार।53।
दया विनती
दादू कहैµगरक रसातल जात है, तुम बिन सब संसार।
कर गह कर्ता काढ ले, दे अवलम्बन आधाार।54।
दादू दौं लागी जग परजले, घट-घट सब संसार।
हम तैं कछु न होत है, तुम बरसि बुझावणहार।55।
दादू आतम जीव अनाथ सब, करतार उबारे।
राम निहोरा कीजिए, जनि काहू मारे।56।
अर्श जमीं औजूद में, तहाँ तपे अफताब।
सब जग जलता देखकर, दादू पुकारे साधा।57।
सकल भुवन सब आतमा, निर्विष कर हरि लेय।
पड़दा है सो दूर कर, कलमश रहण न देय।58।
तन-मन निर्मल आतमा, सब काहू की होइ।
दादू विषय-विकार की, बात न बूझे कोइ।59।
विनती
समरथ धाोरी कंधा धार, रथ ले ओर निवाहिं।
मारग माँहिं न मेलिये, पीछे बिड़द लजाहिं।60।
दादू गगन गिरे तब को धारे, धारती धार छंडे।
जे तुम छाडहु राम! रथ, कंधाा को मंडे।61।
अंतरयामी एक तूं, आतम के आधाार।
जे तुम छाडहु हाथ तैं, तो कौण संबाहनहार।62।
तेरा सेवक तुम लगे, तुम हीं माथे भार।
दादू डूबत रामजी, वेगि उतारो पार।63।
सत छूटा शूरातन गया, बल पौरुष भागा जाय।
कोई धाीरज ना धारे, काल पहुँचा आय।64।
संगी थाके संग के, मेरा कुछ न वशाय।
भाव भक्ति धान लूटिये, दादू दुखी खुदाय।65।
परिचय करुणा विनती
दादू जियरे जक नहीं, विश्राम न पावे।
आतम पाणी लौंण ज्यों, ऐसे होइ न आवे।66।
दया विनती
दादू तेरी खूबी खूब है, सब नीका लागे।
सुन्दर शोभा काढले, सब कोई भागे।67।
विनती
तुम हो तैसी कीजिए, तो छूटैंगे जीव।
हम हैं ऐसी जनि करो, मैं सदके जाऊँ पीव।68।
अनाथों का आसरा, निरधाारों आधाार।
निर्धान के धान राम हैं, दादू सिरजनहार।69।
साहिब दर दादू खड़ा निश दिन करे पुकार।
मीराँ मेरा महर कर, साहिब दे दीदार।70।
दादू प्यासा प्रेम का, साहिब राम पिलाय।
परगट प्याला देहु भर, मृतक लेहु जिलाय।71।
अल्लह आले नूर का, भर-भर प्याला देहु।
हमको प्रेम पिलाइ कर, मतवाला कर लेहु।72।
तुम को हम से बहुत हैं, हमको तुम से नाँहिं।
दादू को जनि परिहरे, तूं रहु नैनहुँ माँहिं।73।
तुम तैं तब ही होइ सब, दरश-परश दर हाल।
हम तैं कबहुँ न होइगा, जे बीतहिं युग काल।74।
तुम ही तैं तुम को मिले, एक पलक में आय।
हम तैं कबहुँ न होइगा, कोटि कल्प जे जाय।75।
क्षण विछोह
साहिब सौं मिल खेलते, होता प्रेम सनेह।
दादू प्रेम सनेह बिन, खरी दुहेली देह।76।
साहिब सौं मिल खेलते, होता प्रेम सनेह।
परगट दर्शन देखते, दादू सुखिया देह।77।
करुणा
तुम को भावे और कुछ, हम कुछ कीया और।
महर करो तो छूटिये, नहीं तो नाँहीं ठौर।78।
मुझ भावे सो मैं किया, तुझ भावे सो नाँहिं।
दादू गुनहगार है, मैं देख्या मन माँहिं।79।
खुसी तुम्हारी त्यों करो, हम तो मानी हार।
भावै बन्दा बख्शिये, भावै गह कर मार।80।
दादू जे साहिब लेखा लिया, तो शीश काट शूली दिया।
महर मया कर फिल किया, तो जीये-जीये कर जिया।81।
।इति विनती का अंग सम्पूर्ण।
दादू नमो नमो निरंजनं, नमस्कार गुरु देवत:।
वन्दनं सर्व साधावा, प्रणामं पारंगत:।1।
भ्रम विधवंसन
सब देखणहारा जगत् का, अंतर पूरे साखि।
दादू साबित सो सही, दूजा और न राखि।2।
माँही तै मुझ को कहै, अंतरयामी आप।
दादू दूजा धांधा है, साँचा मेरा जाप।3।
कर्ता साक्षी भूत
करता है सो करेगा, दादू साक्षी भूत।
कौतिकहारा ह्नै रह्या, अणकरता अवधूत।4।
दादू राजस कर उत्पति करे, सात्तिवक कर प्रतिपाल।
तामस कर परलै करे, निर्गुण कौतिक हार।5।
दादू ब्रह्म जीव हरि आतमा, खेलै गोपी कान्ह।
सकल निरंतर भर रह्या, साक्षी भूत सुजाण।6।
स्वकीय मित्रा-शत्राुता
दादू जामन मरणा सान कर, यहु पिंड उपाया।
सांई दीया जीव को, ले जग में आया।7।
विष अमृत सब पावक पाणी, सद्गुरु समझाया।
मनसा वाचा कर्मणा, सोई फल पाया।8।
दादू जाणे बूझे जीव सब, गुण-अवगुण कीजे।
जाण-बूझ पावक पड़े, दई दोष न दीजे।9।
बुरा-भला शिर जीव के, होवे इस ही माँहिं।
दादू कर्ता कर रह्या, सो शिर दीजे नाँहिं।10।
साधु साक्षी भूत
कर्ता ह्नै कर कुछ करे, उस माँहि बँधाावे।
दादू उसको पूछिये, उत्तार नहिं आवे।11।
दादू केई उतारैं आरती, केइ सेवा कर जाँहिं।
केई आइ पूजा करैं, केइ खुलावें खाँहिं।12।
केइ सेवक ह्नै रहे, केई साधु संगति माँहिं।
केइ आइ दर्शण करैं, हम तैं होता नाँहिं।13।
ना हम करैं-करावैं आरती, ना हम पियें-पिलावें नीर।
करे-करावे सांइयाँ, दादू सकल शरीर।14।
करे-करावे सांइयाँ, जिन दीया औजूद।
दादू बन्दा बीच मैं, शोभा को मौजूद।15।
देवे-लेवे सब करे, जिन सिरजे सब लोइ।
दादू बन्दा महल में, शोभा करैं सब कोइ।16।
कर्ता साक्षी-भूत
दादू जुवा खेले जानराइ, ता को लखे न कोय।
सब जग बैठा जीत कर, काहू लिप्त न होय।17।
।इति साक्षी भूत का अंग सम्पूर्ण।
अथ बेली का अंग।36।
दादू नमो नमो निरंजनं, नमस्कार गुरु देवत:।
वन्दनं सर्व साधावा, प्रणामं पारंगत।1।
दादू अमृत रूपी नाम ले, आतम तत्तव हिं पोषे।
सहजैं सहज समाधिा में, धारणी जल शोषे।2।
परसें तीनों लोक में, लिपत नहीं धाोखे।
सो फल लागे सहज मैं, सुन्दर सब लोके।3।
दादू बेली आतमा, सहज फूल फल होय।
सहज-सहज सद्गुरु कहै, बूझे विरला कोय।4।
जे साहिब सींचे नहीं, तो बेली कुम्हलाइ।
दादू सींचे सांइयाँ, तो बेली बधाती जाइ।5।
हरि तरुवर तत आतमा, बेली कर विस्तार।
दादू लागे अमर फल, कोइ साधु सींचणहार।6।
दादू सूखा रूखड़ा, काहे न हरिया होय।
आपै सींचे अमी रस, सू फल फलिया सोय।7।
कदे न सूखे रूखड़ा, जे अमृत सींच्या आप।
दादू हरिया सो फले, कछू न व्यापे ताप।8।
जे घट रोपे रामजी, सींचे अमी अघाय।
दादू लागे अमर फल, कबहूँ सूख न जाय।9।
दादू अमर बेलि है आतमा, खार समुद्राँ माँहिं।
सूखे खारे नीर सौं, अमर फल लागे नाँहिं।10।
दादू बहु गुणवन्ती बेलि है, ऊगी कालर माँहिं।
सींचे खारे नीर सौं, तातैं निपजे नाँहिं।11।
बहु गुणवन्ती बेली है, मीठी धारती बाहि।
मीठा पानी सींचिए, दादू अमर फल खाइ।12।
अमृत बेली बाहिए, अमृत का फल होइ।
अमृत का फल खाय कर, मुवा न सुणिया कोइ।13।
दादू विष की बेली बाहिए, विष ही का फल होय।
विष ही का फल खाय कर, अमर नहीं कलि कोय।14।
सद्गुरु संगति नीपजे, साहिब सींचनहार।
प्राण वृक्ष पीवे सदा, दादू फले अपार।15।
दया धार्म का रूखड़ा, सत सौं बधाता जाय।
संतोष सौं फूले-फले, दादू अमर फल खाय।16।
।इति बेली का अंग सम्पूर्ण।
अथ अबिहड़ का अंग।37।
दानू नमो नमो निरंजनं, नमस्कार गुरु देवत:।
वन्दनं सर्व साधावा, प्रणामं पारंगत:।1।
दादू संगी सोई कीजिए, जे कलि अजरावर होय।
ना बहु मरे न बीछूटै, ना दु:ख व्यापे कोय।2।
दादू संगी सोई कीजिए, जो सुस्थिर इहिं संसार।
ना वह खिरे न हम खपैं, ऐसा लेहु विचार।3।
संगी सोई कीजिए, सुख-दु:ख का साथी।
दादू जीवण-मरण का, सो सदा संगाती।4।
दादू संगी सोई कीजिए, जे कबहुँ पलट न जाय।
आदि-अन्त बिहड़े नहीं, तासन यहु मन लाय।5।
दादू अबिहड़ आप है, अमर उपावणहार।
अविनाशी आपै रहै, बिनसे सब संसार।6।
दादू अबिहड़ आप है, साँचा सिरजनहार।
आदि-अन्त बिहड़े नहीं, बिनशे सब आकार।7।
दादू अबिहड़ आप है, अविचल रह्या समाय।
निश्चल रमता राम है, जो दीसे सो जाय।8।
दादू अबिहड़ आप है, कबहूँ बिहड़े नाँहिं।
घटे बधो नहिं एक रस, सब उपज खपे उस माँहिं।9।
अबिहड़ अंग बिहड़े नहीं, अपलट पलट न जाइ।
दादू अघट एक रस, सब में रह्या समाइ।10।
जेते गुण व्यापैं जीव को, ते ते तैं तजे रे मन।
साहिब अपणे कारणैं, भलो निबाह्यो पण।11।
।इति अबिहड़ का अंग सम्पूर्ण।
।इति अंग भाग सम्पूर्ण।