ग्रथावली |
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दादू ग्रंथावली
शब्द भाग
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श्री परमात्मने नम:
अथ श्री स्वामी दादू दयाल जी की अनुभव वाणी
शब्द भाग
शब्द भाग
श्री परमात्मने नम:
अथ श्री स्वामी दादू दयाल जी की अनुभव वाणी
शब्द भाग
अथ राग गौड़ी
।1।
(गायन समय दिन 3 से 6)
शब्द 1-सुमिरण शूरातन नाम निश्चय। त्रिाताल
राम-नाम नहिं छाडूँ भाई, प्राण तजूँ निकट जिव जाई।टेक।
रती-रती कर डारे मोहि, सांई संग न छाडूँ तोहि।1।
भावै ले शिर करवत दे, जीवण मूरि न छाड़ूँ ते।2।
पावक में ले डारे मोहि, जरे शरीर न छाड़ूँ तोहि।3।
अब दादू ऐसी बन आई, मिलूँ गोपाल निशान बजाई।4।
2-अन्य उपदेश। त्रिाताल
राम-नाम जनि छाड़े कोई, राम कहत जन निर्मल होई।टेक।
राम कहत सुख-सम्पति सार, राम-नाम तिर लंघै पार।1।
राम कहत सुधिा-बुधिा मति पाई, राम-नाम जनि छाडहु भाई।2।
राम कहत जन निर्मल होई, राम नाम कह कलमश धाोई।3।
राम कहत को को नहिं तारे, यहु तत दादू प्राण हमारे।4।
3-सुमिरण उपदेश। राज मृगांक ताल
मेरे मन भैया राम कहो रे,
राम-नाम मोहिं सहज सुणावे, उनहीं चरण मन लीन रहो रे।टेक।
राम-नाम ले संत सुहावे, कोई कहै सब शीश सहो रे।
वाही सौं मन जोरे राखो, नीके राशि लिये निबहो रे।1।
कहत-सुणत तेरो कछू न जावे, पाप निछेदन सोइ लहो रे।
दादू रे जन हरि गुण गावो, कालहि ज्वालहि फेरि दहो रे।2।
4-विरह। एकताल
कौण विधिा पाइये रे, मीत हमारा सोय।टेक।
पास पीव परदेश है रे, जब लग प्रकटे नाँहिं।
बिन देखे दुख पाइये, यहु सालै मन माँहिं।1।
जब लग नेन न देखिए, परगट मिले न आय।
एक सेज संगहि रहै, यहु दुख सह्या न जाय।2।
तब लग नेड़े दूर है रे, जब लग मिले न मोहि।
नैन निकट नहिं देखिए, संग रहे क्या होइ।3।
कहा करूँ कैसे मिले रे, तलफे मेरा जीव।
दादू आतुर विरहणी, कारण अपणे पीव।4।
5-विरह विलाप। षडताल
जियरा क्यों रहै रे, तुम्हारे दर्शन बिन बे हाल।टेक।
परदा अंतर कर रहै, हम जीवैं किहिं आधाार।
सदा संगाती प्रीतमा, अब के लेहु उबार।1।
गोप्य गुसाँई ह्नै रहे, अब काहे न परगट होय।
राम सनेही संगिया, दूजा नाँहीं कोय।2।
अंतरयामी छिप रहे, हम क्यों जीवैं दूर।
तुम बिन व्याकुल केशवा, नैन रहे जल पूर।3।
आप अपरछन ह्नै रहे, हम क्यों रैणि बिहाइ।
दादू दर्शन कारणे, तलफ-तलफ जिव जाइ।4।
6-विरह हैरान। त्रिाताल
अजहूँ न निकसै प्राण कठोर,
दर्शन बिना बहुत दिन बीते, सुन्दर प्रीतम मोर।टेक।
चार पहर चारों युग बीते, रैनि गमाई भोर।
अवधिा गई अजहूँ नहिं आये, कतहूँ रहे चित चोर।1।
कबहूँ नैन निरख नहिं देखे, मारग चितवत तोर।
दादू ऐसे आतुर विरहणि, जैसे चंद चकोर।2।
7-सुन्दरी शृंगार। त्रिाताल
शोधान पीवजी साज सँवारी,
अब बेगि मिलो तन जाइ बनवारी।टेक।
साज-शृंगार किया मन माँहीं,
अजहूँ पीव पतीजे नाँहीं।1।
पीव मिलण को अह निश जागी,
अजहूँ मेरी पलक न लागी।2।
जतन-जतन कर पंथ निहारूँ,
पिव भावे त्यों आप सँवारूँ।3।
अब सुख दीजे जाउँ बलिहारी,
कहै दादू सुण विपति हमारी।4।
8-विरह चिन्ता। गजताल
सो दिन कबहूँ आवेगा,
दादूड़ा पीव पावेगा।टेक।
क्यों ही अपणे अंग लगावेगा,
तब सब दु:ख मेरा जावेगा।1।
पीव अपणे बैन सुणावेगा,
तब आनँद अंग न मावेगा।2।
पीव मेरी प्यास मिटावेगा,
तब आपहि प्रेम पिलावेगा।3।
दे अपणा दर्श दिखावेगा,
तब दादू मंगल गावेगा।4।
9-विरह प्रीति। पंचमताल
तैं मन मोह्यो मोर रे, रह न सकूँ हौं रामजी।टेक।
तोरे नाम चित लाइया रे, अवरन भया उदास।
सांई ये समझाइया, हौं संग न छाडूँ पास रे।1।
जाणूँ तिलहि न विछूटौं रे, जनि पछतावा होइ।
गुण तेरे रसना जपूँ, सुणसी सांई सोइ रे।2।
भोरैं जन्म गमाइया रे, चीन्हा नहिं सो सार।
अजहूँ यह अचेत है, अवर नहीं आधाार रे।3।
पीव की प्रीति तो पाइये रे, जो शिर होवे भाग।
यो तो अनत न जाइसी, रहसी चरणहुँ लाग रे।4।
अनतैं मन निवारिया रे, मोहिं एकै सेती काज।
अनत गये दुख ऊपजे, मोहिं एकहिं सेती राज रे।5।
सांई सौं सहजैं रमूँ रे, और नहीं आन देव।
तहाँ मन विलम्बिया, जहाँ अलख अभेव रे।6।
चरण कमल चित लाइया रे, भौरैं ही ले भाव।
दादू जन अचेत है, सहजैं ही तूं आव रे।7।
10-विरह विलाप। पंचमताल
विरहणि को शृंगार न भावे,
है कोई ऐसा राम मिलावे।टेक।
बिसरे अंजन मंजन चीरा,
विरह व्यथा यहु व्यापे पीरा।1।
नव सत थाके सकल शृंगारा,
है कोई पीड़ मिटावणहारा।2।
देह गेह नहिं सुधिा शरीरा,
निश दिन चितवत चातक नीरा।3।
दादू ताहि न भावे आन,
राम बिना भई मृतक समान।4।
11-करुणा विनती। पंजाबी त्रिाताल
अब तो मोहि लागी वाइ,
उन निश्चल चित लियो चुराइ।टेक।
आन न रुचे और नहिं भावे,
अगम अगोचर तहँ मन जाय।
रूप ने रेख वरण कहूँ कैसा,
तिन चरणों चित रह्या समाय।1।
तिन चरणों चित सहज समाना,
सो रस भीना तहँ मन धााइ।
अब तो ऐसी बन आई,
विष तजे अरु अमृत खाइ।2।
कहा करूँ मेरा वश नाँहीं,
और न मेरे अंग सुहाइ।
पल इक दादू देखण पावे,
तो जन्म-जन्म की तृषा बुझाइ।3।
12-करुणा विनती। पंजाबी त्रिाताल
तूं जनि छाडे केशवा, मेरे और निवाहणहार हो।टेक।
अवगुण मेरे देखकर, तू ना कर मैला मन।
दीनानाथ दयाल है, अपराधाी सेवक जन हो।1।
हम अपराधाी जनम के, नख-शिख भरे विकार।
मेट हमारे अवगुणा, तूं गरवा सिरजनहार हो।2।
मैं जन बहुत बिगारिया, अब तुम ही लेहु सँवार।
समर्थ मेरा सांइयाँ, तूं आपै आप उधाार हो।3।
तू न विसारी केशवा, मैं जन भूला तोहि।
दादू को और निवाह ले, अब जनि छाडे मोहि को।4।
13-केवल विनती। गजताल
राम सँभालिये रे, विषम दुहेली बार।टेक।
मंझ समुद्राँ नावरी रे, बूडे खेवट बाज।
काढणहारा को नहीं, एक राम बिन आज।1।
पार न पहुँचे राम बिन, भेरा भव जल माँहिं।
तारणहारा एक तूं, दूजा कोई नाँहिं।2।
पार परोहन तो चले, तुम खेवहु सिरजनहार।
भवसागर में डूब है, तुम बिन प्राण अधाार।3।
औघट दरिया क्यों तिरै, बोहिथ बैसणहार।
दादू खेवट राम बिन, कौण उतारे पार।4।
14-रंगताल
पार नहिं पाइयेरे, राम बिना को निर्वाहणहार।टेक।
तुम बिन तारण को नहीं, दूभर यहु संसार।
पैरत थाके केशवा, सूझे वार न पार।1।
विखम भयानक भव जला, तुम बिन भारी होइ।
तू हरि तारण केशवा, दूजा नाँहीं कोइ।2।
तुम बिन खेवट को नहीं, अतिर तिरयो नाहिं जाय।
औघट भेरा डूबि है, नाँहीं आन उपाय।3।
यहु घट औघट विखम है, डूबत माँहिं शरीर।
दादू कायर राम बिन, मन नहिं बाँधो धाीर।4।
15-रंगताल
क्यों हम जीवैं दास गुसांई,
जे तुम छाडहु समर्थ सांई।टेक।
जे तुम जन को मन हिं विसारा,
तो दूसर कौण सँभालनहारा।1।
जे तुम परिहर रहो नियारे,
तो सेवक जाइ कवन के द्वारे।2।
जे जन सेवक बहुत बिगारे,
तो साहिब गरवा दोष निवारे।3।
समर्थ सांई साहिब मेरा,
दादू दास दीन है तेरा।4।
16-करुणा। वीर विक्रम ताल
क्यों कर मिलै मोकौं राम गुसांई,
यहु विषिया मेरे वश नाँहीं।टेक।
यहु मन मेरा दह दिशि धाावे,
नियरे राम न देखण पावे।1।
जिह्ना स्वाद सदै रस लागे,
इन्द्री भोग विषय को जागे।2।
श्रवण हुँ साच कदे नहिं भावे,
नैन रूप तहँ देख लुभावे।3।
काम-क्रोधा कदे नहिं छीजे,
लालच लाग विषय रस पीजे।4।
दादू देख मिलै क्यों सांई,
विषय विकार बसै मन माँहीं।5।
17-परिचय विनती। वीर विक्रम ताल
जो रे भाई राम दया नहिं करते,
नवका नाम खेवट हरि आपै, यों बिन क्यों निस्तरते।टेक।
करणी कठिन होत नहिं मोपैं, क्यों कर ये दिन भरते।
लालच लग परत पावक में, आपहि आपैं जरते।1।
स्वाद हि संग विषय नहिं छूटे, मन निश्चल नहीं धारते।
खाय हलाहल सुख के तांई, आपै हीं पच मरते।2।
मैं कामी कपटी क्रोधा काया में, कूप परत नहिं डरते।
करवत काम शीश धार अपणे, आपहि आप विहरते।3।
हरि अपणाअंग आप नहीं छाडे, अपणी आप विचरते।
पिता क्यों पूत को मारे, दादू यों जन तिरते।4।
18-विरह विलाप विनती। द्वितीय ताल
तो लग जनि मारें तूं मोहि,
जो लग मैं देखूँ नहिं तोहि।टेक।
अब के विछुरे मिलन कैसे होइ,
इहि विधिा बहुरि न चीन्हे कोइ।1।
दीन दयाल दया कर जोइ,
सब सुख आनन्द तुम तैं होइ।2।
जन्म-जन्म के बन्धान खोइ,
देखन दादू अहनिश रोइ।3।
19-स्पर्श विनती। द्वितीय ताल
संग न छाडूँ मेरा पावन पीव,
मैं बलि तेरे जीवन जीव।टेक।
संग तुम्हारे सब सुख होइ,
चरण कमल मुख देखूँ तोहि।1।
अनेक जतन कर पाया सोइ,
देखूँ नैनहुँ तो सुख होइ।2।
शरण तुम्हारी अंतर वास,
चरण कमल तहँ देहु निवास।3।
अब दादू मन अनत न जाइ,
अंतर वेधिा रह्यो ल्यो लाइ।4।
20-परिचय विनती (गुजराती भाषा) त्रिाताल
नहिं मेल्हूँ राम, नहिं मेल्हूँ,
मैं शोधिा लीधाो नहिं मेल्हूँ,
चित तूं सूं बाँधूँ नहिं मेल्हूँ।टेक।
हूँ तारे काजे तालाबेली,
हवे केम मने जाशे मेली।1।
साहसि तूं ने मनसों गाढौ,
चरण समानो केवी पेरे काढौ।2।
राखिश हृदे, तूं मारो स्वामी,
मैं दुहिले पाम्यों अंतरजामी।3।
हवे न मेल्हूँ, तूं स्वामी म्हारो,
दादू सन्मुख सेवक तारो।4।
21-परिचय करुणा विनती। दादरा
राम, सुनहु न विपति हमारी हो, तेरी मूरति की बलिहारी हो।टेक।
मैं जु चरण चित चाहना, तुम सेवक साधाारना।1।
तेरे दिनप्रति चरण दिखावणा, कर दया अंतर आवणा।2।
जन दादू विपति सुनावना, तुम गोविन्द तपत बुझावना।3।
22-परिचय-विनती प्रश्न। द्रुतताल
कौण भाँति भल मानैं गुसांई,
तुम भावे सो मैं जानत नाँहीं।टेक।
कै भल मानैं नाचे-गाये,
कै भल मानैं लोक रिझाये।1।
कै भल मानैं तीरथ न्हाये,
कै भल मानैं मूँड मुँडाये।2।
कै भल मानै सब घर त्यागी,
कै भल मानैं भये वैरागी।3।
कै भल मानै जटा बँधााये,
कै भल मानै भस्म लगाये।4।
कै भल मानै वन-वन डोलें,
कै भल मानै मुख हि न बोलें।5।
कै भल मानै जप-तप कीयें,
कै भल मानै करवत लीयें।6।
कै भल मानै ब्रह्म गियानी,
कै भल मानै अधिाक धिायानी।7।
जे तुम भावे सो तुम पै आहि,
दादू न जाणे कह समझाइ।8।
साखी से उत्तार-
दादू जे तूं समझे तो कहूँ, साँचा एक अलेख।
डाल पान तज मूल गहि, क्या दिखलावे भेख।1।
दादू सचु बिन सांई ना मिले, भावै भेष बणाइ।
भावै करवत उरधा मुख, भावैं तीरथ जाइ।2।
23-परिचय विनती। द्रुतताल
अहो ! गुण तोर, अवगुण मोर, गुसांई।
तुम कृत कीन्हा, सो मैं जानत नाँहीं।टेक।
तुम उपकार किये हरि केते, सो हम विसर गये।
आप उपाइ अग्नि मुख राखे, तहाँ प्रतिपाल भये हो गुसांई।1।
नख-शिख साज किये हो सजीवन, उदर आधाार दिये।
अन्न पान जहाँ जाइ भस्म हो, तहँ तैं राखि लिये हो गुसांई।2।
दिन-दिन जान जतन कर पोखे, सदा समीप रहे।
अगम अपार किये गुन केते, कबहूँ नाँ¯ह कहे हो गुसांई।3।
कबहूँ नाँहीं न तुम तन चितवत, माया मोह परे।
दादू तुम तज जाइ गुसांई, विषया माँहिं जरे हो गुसांई।4।
24-उपदेश चेतावनी। एकताल
कैसे जीवियरे, सांई संग न पास,
चंचल मन निश्चल नहीं, निशि दिन फिरे उदास।टेक।
नेह नहीं रे राम का, प्रीति नहीं परकाश।
साहिब का सुमिरण नहीं, करे मिलन की आश।1।
जिस देखे तूं फूलियारे, पाणी पिंड बँधााणा मांस।
सो भी जल-बल, जाइगा, झूठा भोग विलास।2।
तो जीवी जे जीवणा, सुमरे श्वासै श्वास।
दादू परकट पिव मिले, तो अंतर होइ उजास।3।
25-हितोपदेश। चट्ताल
जियरा मेरे सुमिर सार, काम क्रोधा मद तज विकार।टेक।
तूं जनि भूले मन गँवार, शिर भार न लीजे मान हार।1।
सुन समझायो बार-बार, अजहूँ न चेतै, हो हुसियार।2।
कर तैसे भव तिरिये पार, दादू अबतैं यही विचार।3।
(क) 26-भय चेतावनी। त्रिाताल
जियरा चेत रे जनि जारै,
हेजैं हरि सौं प्रीति न कीन्ही। जनम अमोलक हारै।टेक।
बेर-बेर समझायो जियरा, अचेत न होइ गँवार रे।
यहु तन है कागद की गुड़िया, कछु एक चेत विचार रे।1।
तिल-तिल तुझ को हानि होत है, जे पल राम विसारे।
भय भारी दादू के जिय में, कहु कैसे कर डारे।2।
(ख) 26-पंजाबी त्रिाताल
जियरा काहे रे मूढ डोले,
वन वासी लाला पुकारे, तुंहीं तुंहीं कर बोले।टेक।
साथ सवारी ले न गयोरे, चालण लागो बोले।
तब जाइ जियरा जाणेगो रे, बाँधो ही कोई खोले।1।
तिल-तिल माँहीं चेत चलीरे, पंथ हमारा तोले।
गहला दादू कछु न जाने, राखि ले मेरे मोलै।2।
27-अपर बल वैराग्य। त्रिाताल
ता सुख को कहो क्या कीजे, जातैं पल-पल यहु तन छीजे।टेक।
आसण कुंजर शिर छत्रा धारीजे, तातैं फिर-फिर दु:ख सहीजे।1।
सेज सँवार सुन्दरि संग रमीजे, खाइ हलाहल भरम मरीजे।2।
बहु विधिा भोजन मान रुचि लीजे, स्वाद संकट भरम पाश परीजे।3।
ये तज दादू प्राण पतीजे, सब सुख रसना राम रमीजे।4।
28-उपदेश। एकताल
मन निर्मल तन निर्मल भाई, आन उपाइ विकार न जाई।टेक।
जो मन कोयला तो तन कारा, कोटि करे नहिं जाइ विकारा।1।
जो मन विषहरि तो तन भुवंगा, करे उपाइ विषय पुनि संगा।2।
मन मैला तन उज्वल नाँहीं, बहु पचहारे विकार न जाँहीं।3।
मन निर्मल तन निर्मल होई, दादू साँच विचारे कोई।4।
29-उपदेश चेतावनी। त्रिाताल
मैं-मैं करत सबै जग जावे, अजहूँ अंधा न चेतेरे।
यह दुनिया सब देख दिवानी, भूल गये हैं केते रे।टेक।
मैं मेरे में भूल रहे रे, साजन सोई विसारा।
आया हीरा हाथ अमोलक, जन्म जुवा ज्यों हारा।1।
लालच लोभै लाग रहे रे, जानत मेरी मेरा।
आपहि आप विचारत नाँहीं, तूं काको को तेरा।2।
आवत है सब जाता दीसे, इन मैं तेरा नाँहीं।
इन सौं लाग जन्म जनि खोवे, शोधा देख सचु माँहीं।3।
निश्चल सौ मन माने मेरा, सांई सौं वन आई।
दादू एक तुम्हारा साजन, जिन यहु भुरकी लाई।4।
30-उपदेश चेतावनी। त्रिाताल
का जिवणा का मरणा रे भाई, जो तूं राम न रमसि अघाई।टेक।
का सुख सम्पत्तिा छत्रापति राजा, वनखंड जाइ बसे किहिं काजा।1।
का विद्या गुण पाठ पुराणा, का मूरख जो तैं राम न जानां।2।
का आसन कर अह निशि जागे, का फिर सोवत राम न लागे।3।
का मुक्ता का बँधो होई, दादू राम न जानां सोई।4।
31-मन प्रबोधा। पंजाबी त्रिाताल
मन रे, राम बिना तन छीजे,
जब यहु जाय मिले माटी में, तब कहु कैसे कीजे।टेक।
पारस परस कंचन कर लीजे, सहज सुरति सुखदाई।
माया बेलि विषय फल लागे, तापर भूल न भाई।1।
जब लग प्राण पिंड है नीका, तब लग ताहि जनि भूले।
यह संसार सेमल के सुख ज्यों, तापर तूं जनि फूले।2।
अवसर येह जान जगजीवन, समझ देख सचु पावे।
अंग अनेक आन मत भूले, दादू जनि डहकावे।3।
32-मृगोक्ति उपदेश झपताल
मोह्यो मृग देख वन अंधाा, सूझत नहीं काल के फंधाा।टेक।
फूल्यो फिरत सकल वन माँहीं, शिर साँधो शर सूझत नाँहीं।1।
उदमद मातो वन के ठाट, छाड चल्यौ सब बारह बाट।2।
फंधयो न जाणे वन के चाइ, दादू स्वाद बँधााणो आइ।3।
33-मन प्रति उपदेश। निसारुक ताल
काहे रे मन राम विसारे, मानुष जन्मजाय जिय हारे।टेक।
माता-पिता को बंधु न भाई, सब ही स्वप्ना कहा सगाई।1।
तन धान योवन झूठा जाणी, राम हृदय धार सारंग प्राणी।2।
चंचल चित वित झूठी माया, काहे न चेते सो दिन आया।3।
दादू तन-मन झूठा कहिये, राम चरण गह काहे न रहिये।4।
34-मनुष्य देह माहात्म्य। झपताल
ऐसा जन्म अमोलक भाई, जामें आइ मिलैं राम राई।टेक।
जामें प्राण प्रेम रस पीवे, सदा सुहाग सेज सुख जीवे।1।
आत्मा आइ राम सौं राती, अखिल अमर धान पावे थाती।2।
परकट दरशन परसन पावे, परम पुरुष मिल माँहिं समावे।3।
ऐसा जन्म नहीं नर आवे, सो क्यों दादू रत्न गमावे।4।
35-परिचय सत्संग। दीपचन्दी ताल
सत्संगति मगन पाइये, गुरु प्रसादैं राम गाइये।टेक।
आकाश धारणि धारीजे, धारणी आकाश कीजे,
शून्य माँहिं निरख लीजे।1।
निरख मुक्ताहल माँहीं साइर आयो,
अपणे पीया हौं धयावत खोजत पायो।2।
सोच साइर आगेचर लहिये,
देव देहुरे माँहीं कवन कहिये।3।
हरि को हितारथ ऐसो लखे न कोई,
दादू जे पीव पावै अमर होई।4।
36-उपदेश चेतावणी। एकताल
कौण जनम कहँ जाता है,
अरे भाई राम छाड कहँ राता है।टेक।
मैं मैं मेरी इन सौं लाग, स्वाद पतंग न सूझे आग।1।
विषयों सौं रत गर्व गुमान, कुंजर काम बँधो अभिमान।2।
लोभ मोह मद माया फंधा, ज्यों जल मीन न चेते अंधा।3।
दादू यहु तन यों ही जाइ, राम विमुख मर गये विलाइ।4।
37-एकताल
मन मूरख तैं क्या कीया, कुछ पीव कारण वैराग न लीया।
रे तैं जप तप साधाी क्या दीया।टेक।
रे तैं करवत काशी कद सह्या, रे तू गंगा माँहीं ना बह्या।
रे तैं विरहणि ज्यों दुख ना सह्या।1।
रे तूं पाले पर्वत ना गल्या, रे तैं आपही आपा ना दह्या।
रे तैं पीव पुकारीं कद कह्या।2।
होइ प्यासे हरि जल ना पिया, रे तूं वज्र न फाटो रे हिया।
धिाक् जीवन दादू ये जिया।3।
38-यतिताल
क्या कीजे मानुष जन्म को, राम न जपहिं गँवारा।
माया के मद मातो बहै, भूल रह्या संसारा।टेक।
हिरदै राम न आवई, आवे विषय विकारा रे।
हरि मारग सूझे नहीं, कूप परत नहिं बारा रे।1।
आप अग्नि जु आप में, तातैं अहनिशि जरे शरीरा रे।
भाव भक्ति भावे नहीं, पीवे न हरि जल नीरा रे।2।
मैं मेरी सब सूझई, सूझे माया जालो रे।
राम नाम सूझे नहीं, अंधा न सूझे कालो रे।3।
ऐसे ही जन्म गमाइया, जित आया तित जाय रे।
राम रसायण ना पिया, जन दादू हेत लगाय रे।4।
39-परिचय वैराग्य। दादरा
इनमें क्या लीये क्या दीजे, जन्म अमोलक छीजे।टेक।
सोवत स्वप्ना होई, जागे तैं नहिं कोई।
मृगतृष्णा जल जैसा, चेत देख जग ऐसा।1।
बाजी भरम दिखावा, बाजीगर डहकावा।
दादू संगी तेरा, कोई नहीं किस केरा।2।
40-चेतावनी उपदेश। सिंह लील ताल
खालिक जागे जियरा सोवे, क्यों कर मेला होवे।टेक।
सेज एक नहिं मेला, तातैं प्रेम न खेला।1।
साँई संग न पावा, सोवत जन्म गमावा।2।
गाफिल नींद न कीजे, आयु घटे तन छीजे।3।
दादू जीव अयाना, झूठे भरम भुलाना।4।
41-पहरा (पंजाबी भाषा) राग जंगली गौड़ी। कहरवा ताल
पहले पहरे रैणि दे, बणिजारिया, तूं आया इहिं संसार वे।
मायादा रस पीवण लग्या, बिसरा सिरजनहार वे।
सिरजनहारा बिसारा, किया पसारा, माता-पिता कुल नार वे।
झूठी माया, आप बँधााया, चेते नहीं गँवारा वे।
गँवारा न चेते, अवगुण केते, बंधया सब परिवार वे।
दादू दास कहै बणिजारा, तूं आया इहिं संसार वे।1।
दूजे पहरे रैणि दे, बणिजारिया, तूं रत्ताा तरुणी नाल वे।
माया-मोह फिर मतवाला, राम न सक्या सँभाल वे।
राम न सँभाले, रत्ताा नाले, अंधा न सूझे काल वे।
हरि नहिं धयाया, जन्म गमाया, दह दिशि फूटा ताल वे।
दह दिशि फूटा, नीर निखूटा, लेखा डेवण साल वे।
दादू दास कहै बणिजारा, तूं रत्ताा तरुणी नाल वे।2।
तीजे पहरे रैणि दे, बणिजारिया, तैं बहुत उठाया भार वे।
जो मन भाया, सो कर आया, ना कुछ किया विचार वे।
विचार न किया, नाम न लीया, क्यों कर लंघे पार वे।
पार न पावे, फिर पछतावे, डूबण लग्गा धाार वे।
डूबन लग्गा, भेरा भग्गा, हाथ न आया सार वे।
दादू दास कहै बणिजारा, तैं बहुत उठाया भार वे।3।
चौथे पहरे रैणि दे, बणिजारिया, तूं पक्का हूवा पीर वे।
जौवन गया जरा वियापी, नाँहीं सुधिा शरीर वे।
सुधिा ना पाई, रैणि गमाई, नैनों आया नीर वे।
भव जल भेरा डूबण लग्गा, कोई न बँधो धाीर वे।
कोइ धाीर न बँधो, जम के फंदे, क्यों कर लंघे तीर वे।
दादू दास कहै बणिजारा, तू पक्का हूवा पीर वे।4।
42-काल चेतावनी ? राग गौड़ी। पंजाबी त्रिाताल
काहे रे नर करहु डफाँण, अन्त काल घर गोर मसाँण।टेक।
पहले बलवँत गये विलाइ, ब्रह्मा आदि महेश्वर जाइ।1।
आगैं होते मोटे मीर गये, छाड पैगम्बर पीर।2।
काची देह कहा गर्वाना, जे उपज्या सो सबै विलाना।3।
दादू अमर उपावनहार, आपहि आप रहै करतार।4।
43-उपदेश। पंजाबी त्रिाताल
इत घर चोर न मूसे कोई, अंतर है जे जाणे सोई।टेक।
जागहु रे जन तत्तव न जाई, जागत है सो रह्या समाई।1।
जतन-जतन कर राखहु सार, तस्कर उपजै कौन विचार।2।
इब कर दादू जाणैं जे, तो साहिब शरणांगति ले।3।
44-उपदेश चेतावनी। पंचमताल
मेरी-मेरी करत जग क्षीणा, देखत ही चल जावे।
काम क्रोधा तृष्णा तन जाले, तातैं पार न पावे।टेक।
मूरख ममता जनम गमावे, भूल रहे इहिं बाजी।
बाजीगर को जाणत नाँहीं, जनम गमावे बादी।1।
प्रपंच पंच करै बहुतेरा, काल कुटुम्ब के ताँईं।
विष के स्वाद सबै ये लागे, तातैं चीन्हत नाँहीं।2।
येता जिय में जाणत नाँहीं, आइ कहाँ जल जावे।
आगे-पीछे समझे नाँहीं, मूरख यों डहकावे।3।
ये सब भरम भान भल पावे, शोधा लेहु सो सांई।
सोई एक तुम्हारा साजन, दादू दूसर नाँहीं।4।
45-गर्व हानिकर। पंचम ताल
गर्व न कीजिए रे, गर्वै होइ विनास।
गर्वै गोविन्द ना मिलै, गर्वै नरक निवास।टेक।
गर्वै रसातल जाइये, गर्वै घोर अंधाार।
गर्वै भव-जल डूबिये, गर्वै वार न पार।1।
गर्वै पार न पाइये, गर्वै जमपुर जाइ।
गर्वै को छूटे नहीं, गर्वै बँधो आइ।2।
गर्वै भाव न ऊपजे, गर्वै भक्ति न होइ।
गर्वै पिव क्यों पाइये, गर्व करे जनि कोइ।3।
गर्वै बहुत विनाश है, गर्वै बहुत विकार।
दादू गर्व न कीजिए, सन्मुख सिरजनहार।4।
46-हितोपदेश। नट ताल
हुसियार रहो, मन मारेगा, सांई सद्गुरु तारेगा।टेक।
माया का सुख भावेरे, मूरख मन बौरावे रे।1।
झूठ साँच कर जाना रे, इन्द्रिय स्वाद भुलाना रे।2।
दु:ख को सुख कर माने रे, काल झाल नहिं जाने रे।3।
दादू कह समझावे रे, यहु अवसर बहुर न पावे रे।4।
47-विश्वास। नट ताल
साहिबजी सत मेरा रे, लोग झखैं बहुतेरा रे।टेक।
जीव जन्म जब पाया रे, मस्तक लेख लिखाया रे।1।
घटे बधो कुछ नाँहीं रे, कर्म लिख्या उस माँहीं रे।2।
विधााता विधिा कीन्हा रे, सिरज सबन को दीन्हा रे।3।
समर्थ सिरजनहारा रे, सो तेरे निकट गँवारा रे।4।
सकल लोक फिर आवे रे, तो दादू दीया पावे रे।5।
48-राज विद्याधार ताल
पूरा रह्या परमेश्वर मेरा, अण मांग्या देवे बहुतेरा।टेक।
सिरजनहार सहज में देइ, तो काहे धााइ माँग जन लेइ।1।
विश्वम्भर सब जग को पूरे, उदर काज नर काहे झूरे।2।
पूरक पूरा है गोपाल, सबकी चिन्त करे दरहाल।3।
समर्थ सोई है जगन्नाथ, दादू देख रहे सँग साथ।4।
49-नाम विश्वास। राज मृगांक ताल
राम धान खात न खूटे रे,
अपरम्पार पार नहिं आवे, आथिन टूटे रे।टेक।
तस्कर लेइ न पावक जाले, प्रेम न छूटे रे।
चहुँ दिशि पसरा बिन रखवाले, चोर न लूटे रे।1।
हरि हीरा है राम रसायण, सरस न सूखे रे।2।
दादू और आथि बहुतेरी, उस नर कूटे रे।3।
50-तत्तव-उपदेश। राजमृगांक ताल
तूं है तूं है तूं है तेरा, मैं नहिं मैं नहिं मैं नहिं मेरा।टेक।
तू है तेरा जगत् उपाया, मैं मैं मेरा धांधो लाया।1।
तूं है तेरा खेल पसारा, मैं मैं मेरा कहै गँवारा।2।
तूं है तेरा सब संसारा, मैं मैं मेरा तिन शिर भारा।3।
तूं है तेरा काला न खाइ, मैं मैं मेरा मर मर जाइ।4।
तूं है तेरा रह्या समाइ, मैं मैं मेरा गया विलाइ।5।
तूं है तेरा तुमहीं माँहिं, मैं मैं मेरा मैं कुछ नाँहिं।6।
तूं है तेरा तूं ही होइ, मैं मैं मेरा मिल्या न कोइ।7।
तूं है तेरा लंघै पार, दादू पाया ज्ञान विचार।8।
51-संजीवनी। पंचम ताल
राम विमुख जग मर-मर जाइ, जीवै संत रहै ल्यो लाइ।टेक।
लीन भये जे आतम रामा, सदा सजीवन कीये नामा।1।
अमृत राम रसायण पीया, तातैं अमर कबीरा, कीया।2।
राम-राम कह राम समाना, जन रैदास मिले भगवाना।3।
आदि-अन्त केते कलि जागे, अमर भये अविनासी लागे।4।
राम रसायन दादू माते, अविचल भये राम रँग राते।5।
52-पंचम ताल
निकट निरंजन लाग रहे, तब हम जीवित मुक्त भये।टेक।
मर कर मुक्ति जहाँ जग जाइ, तहाँ न मेरा मन पतिआइ।1।
आगे जन्म लहैं अवतारा, तहाँ न माने मना हमारा।2।
तन छूटे गगति जो पद होइ, मृतक जीव मिलै सब कोइ।3।
जीवित जन्म सफल कर जाना, दादू राम मिले मन माना।4।
53-हैरान प्रश्न। वर्ण भिन्न ताल
कादिर कुदरत लखी न जाइ, कहाँ तैं उपजै कहाँ समाइ।टेक।
कहाँ तैं कीन्ह पवन अरु पाणी, धारणि गगन गति जाइ न जाणी।1।
कहाँ तैं काया प्राण प्रकासा, कहाँ पंच मिल एक निवासा।2।
कहाँ तैं एक अनेक दिखावा, कहाँ तैं सकल एक ह्नै आवा।3।
दादू कुदरत बहु हैराना, कहाँ तैं राख रहे रहमाना।4।
साखी उत्तार की
रहै नियारा सब करे, काहू लिप्त न होइ।
आदि-अन्त भाने घड़े, ऐसा समर्थ सोइ।21-30।
श्रम नाँहीं सब कुछ करे, यों कल धारी बणाय।
कौतिकहारा ह्नै रह्या, सब कुछ होता जाय।21-23।
दादू शब्दैं बंधया सब रहै, शब्दैं ही सब जाय।
शब्दैं ही सब ऊपजे, शब्दैं सबै समाय।22-2।
54-स्वरूप गति हैरान। वर्ण भिन्न ताल
ऐसा राम हमारे आवे, वार पार कोइ अंत न पावे।टेक।
हलका भारी कह्या न जाइ, मोल माप नहिं रह्या समाइ।1।
कीमत लेखा नहिं परिमाण, सब पचहारे साधु सुजाण।2।
आगो-पीछो परिमिति नाँहीं, केते पारिख आवहिं-जाँहीं।3।
आदि-अन्त मधिा कहै न कोइ, दादू देखे अचरज होइ।4।
55-प्रश्न। गज ताल
कौण शब्द कौण परखणहार, कौण सुरति कहु कौण विचार।टेक।
कौण सुजाता कौण गियान, कौण उन्मनी कौण धिायान।1।
कौण सहज कहु कौण समाधा, कौण भक्ति कहु कौण अराधा।2।
कौण जाप कहु कौण अभ्यास, कौण प्रेम कहु कौण पियास।3।
सेवा कौण कहो गुरु देव, दादू पूछे अलख अभेव।4।
कौण शब्द ?
दादू शब्द अनाहद हम सुन्या, नख-शिख सकल शरीर।
सब घट हरि-हरि होत है, सहजैं ही मन थीर।4-173।
कौण परखणहार?
प्राण जौहरी पारिखू, मन खोटा ले आवे।
खोटा मन के माथे मारे, दादू दूर उड़ावे।27-21।
कौण सुरति ?
दादू सहजैं सुरति समाइ ले, पार ब्रह्म के अंग।
अरस-परस मिल एक ह्नै, सन्मुख रहिबा संग।7-26।
कौण विचार?
सहज विचार मुख में रहे, दादू बड़ा विवेक।
मन इन्द्री पसरे नहीं, अन्तर राखे एक।18-31।
कौण सुज्ञाता ?
दादू सोई पंडित ज्ञाता, राम मिलण की बूझे।शब्द 193।
गौण गियान?
हंस गियानी सो भला, अंतर राखे एक।
विष में अमृत काढले, दादू बड़ा विवेक।17-3।
कौण उनमनी?
मन लवरू के पंख हैं, उनमनि चढे अकाश।
पग रह पूरे साँच के, रोप रह्या हरि पास।4-348।
कौण धिायान?
जहँ विरहा तहँ और क्या ? सुधिा-बुधिा नाठे ज्ञान।
लोक वेद मारग तजे, दादू एकै धयान।3-75।
कौण सहज?
सहज रूप मन का भया, जब द्वै-द्वै मिटी तरंग।
ताता शीला सम भया, तब दादू एकै अंग।10-44।
कौण समाधिा?
सहज शून्य मन राखिए, इन दोनों के माँहिं।
लै समाधिा रस पीजिए, तहाँ काल भय नाँहिं।7-10।
कौण भक्ति?
योग समाधिा सुख सुरति सौं, सहजैं-सहजैं आव।
मुक्ता द्वारा महल का, इहै भक्ति का भाव।7-9।
कौण अराधा?
आतम देव अराधिाये, विरोधिाये नहिं कोय।
आराधो सुख पाइये, विरोधो दु:ख होय।29-23।
कौण जाप?
सद्गुरु माला मन दिया, पवन सुरति सूं पोइ।
बिन हाथों निश दिन जपै, परम जाप यूँ होइ।1-69।
कौण अभ्यास ?
दादू धारती ह्नै रहै, तज कूड़ कपट हंकार।
सांई कारण शिर सहै, ता को प्रत्यक्ष सिरजनहार।23-3।
कौण प्रेम?
प्रेम लहर की पालकी, आतम बैसे आय।
दादू खेले पीव सौं, यहु सुख कह्या न जाय।4-278।
कौण पियास ?
कोई बाँछे मुक्ति फल, कोइ अमरा पुरि बास।
कोई बाँछे परम गति, दादू राम मिलण की प्यास।8-81।
सेवा कौण ?
तेज पुंज को विलसणा, मिल खेलें इक ठाम।
भर-भर पीवे राम रस, सेवा इसका नाम।4-274।
आपा गर्व गुमान तज, मद मत्सर अहंकार।
गहै गरीबी बन्दगी, सेवा सिरजनहार।23-5।
सार मत कौण है?
आपा मेटे हरि भजे, तन-मन तजे विकार।
निर्वैरी सब जीव सौं, दादू यहु मत सार।29-2।
56-प्रश्न। पंचम ताल
मैं नहिं जानूँ सिरजनहार, ज्यों है त्यों हि कहो तरतार।टेक।
मस्तक कहाँ-कहाँ कर जाइ, अविगत नाथ कहो समझाइ।1।
कहँ मुख नैना श्रवणा सांई, जानराइ सब कहो गुसांई।2।
पेट पीठ कहाँ है काया, पड़दा खोल हो गुरुराया।3।
ज्यों है त्यों कह अंतरयामी, दादू पूछे सद्गुरु स्वामी।4।
उत्तार की साखी
दादू सबै दिशा सो सारिखा, सबै दिशा मुख बैन।
सबै दिशा श्रवण हुँ सुने, सबै दिशा कर नैन।4-214।
सबै दिशा पग शीश है, सबै दिशा मन चैन।
सबै दिशा सन्मुख रहै, सबै दिशा अंग ऐन।4-215।
57-प्रश्न। पंजाबी त्रिाताल
अलख देव गुरु देवु बताइ, कहाँ रहो त्रिाभुवन पति राइ।टेक।
धारती-गगन बसहु कैलास, तिहुँ लोक में कहाँ निवास।1।
जल-थल पावक पवना पूर, चंद-सूर निकट कै दूर।2।
मंदिर कौण-कौण घर-बार, आसन कौण कहो करतार।3।
अलख देव गति लखी न जाइ, दादू पूछे कह समझाइ।4।
उत्तार की साखी
दादू मुझ ही माँहीं मैं रहूँ, मैं मेरा घर-बार।
मुझ ही माँहीं मैं बसूँ, आप कहै करतार।4-210।
दादू मैं ही मेरा अर्श में, मैं ही मेरा थान।
मैं ही मेरी ठौर में, आप कहै रहमान।4-211।
दादू मैं ही मेरे आसरे, मैं मेरे आधाार।
तेरे तकिये मैं रहूँ, कहैं सिरजनहार।4-212।
दादू मैं ही मेरी जाति मैं, मैं ही मेरा अंग।
मैं ही मेरा जीव में, आप कहै परसंग।4-213।
58-रस। त्रिाकाल
राम रस मीठा रे, पीवे साधु सुजाण।
सदा रस पीवे प्रेम सौं, सो अविनाशी प्राण।टेक।
इहिं रस मुनि लागे सबै, ब्रह्मा विष्णु महेश।
सुर नर साधु-संत जन, सो रस पीवे शेष।1।
सिधा साधाक योगी यती, सती सबै शुकदेव।
पीवत अंत न आवही, ऐसा अलख अभेव।2।
इहिं रस राते नामदेव, पीपा अरु रैदास।
पिवत कबीरा ना थक्या, अजहूँ प्रेम पियास।3।
यहु रस मीठा जिन पिया, सो रस ही माँहिं समाइ।
मीठे मीठा मिल रह्या, दादू अनत न जाय।4।
59-त्रिाताल
मन मतवाला मधु पीवे, पीवे बारंबारो रे।
हरि रस मातो राम के, सदा रहै इकतारो रे।टेक।
भाव भक्ति भाटी भई, काया कसणी सारो रे।
पोता मेरे प्रेम का, सदा अखंडित धाारो रे।1।
ब्रह्म अग्नि यौवन जरे, चेतन चितहि उजासो रे।
सुमति कलाली सारवे, कोइ पीवे विरला दासो रे।2।
प्रीति पियाले पीव ही, छिन-छिन बारंबारो रे।
आपा धान सब सौंपिया, तब रस पाया सारो रे।3।
आपा पर नहिं जाणिये, भूलो माया जालो रे।
दादू हरि रस जे पिवे, ताको कदे न लागे कालो रे।4।
60-पंचम ताल
रस के रसिया लीन भये, सकल शिरोमणि तहाँ गये।टेक।
राम रसायन अमृत माते, अविचल भये नरक नहिं जाते।1।
राम रसायण भर-भर पीवे, सदा सजीवन युग-युग जीवे।2।
राम रसायण त्रिाभुवन सार, राम रसिक सब उतरे पार।3।
दादू अमली बहुर न आये, सुख सागर ता माँहिं समाये।4।
61-भेष। पंचम ताल
भेष न रीझे मेरा निज भरतार, ता तैं कीजे प्रीति विचार।टेक।
दुराचारिणी रचि भेष बनावे, शील साच नहिं पिव को भावे।1।
कंत न भावे करे शृंगार, डिंभपणैं रीझे संसार।2।
जो पै पतिव्रता ह्नै नारी, सो धान भावे पियहिं पियारी।3।
पिव पहचाने आन नहिं कोई, दादू सोई सुहागिनी होई।4।
62-विरह। घटताल
हम सब नारी एक भरतार, सब कोई तन करैं शृंगार।टेक।
घर-घर अपणे सेज सँवारैं, कंत पियारे पंथ निहारैं।1।
आरत अपणे पिव को धाावैं, मिलै नाह कब अंग लगावैं।2।
अति आतुर ये खोजत डोलैं, बान परी वियोगिनि बोलैं।3।
सब हम नारी दादू दीन, दे सुहाग काहू सँग लीन।4।
63-आत्मार्थी भेष। घटताल
सोई सुहागिणि साँच शृंगार, तन-मन लाइ भजे भरतार।टेक।
भाव भक्ति प्रेम ल्यौ लावे, नारी सोइ सार सुख पावे।1।
सहज संतोष शील सब आया, तब नारी नाह अमोलक पाया।2।
तन-मन यौवन सौंप सब दीन्हा, तब कंत रिझाइ आप बस कीन्हा।3।
दादू बहुरि वियोग न होई, पिव सौं प्रीति सुहागिणि सोई।4।
64-समता। वर्ण भिन्न ताल
तब हम एक भये रे भाई, मोहन मिल साँची मति आई।टेक।
पारस परस भये सुखदाई, तब दुतिया दुर्मति दूर गमाई।1।
मलयागिरि मरम मिल पाया, तब बंस वरण कुल भरम गमाया।2।
हरि जल नीर निकट जब आया, तब बूँद-बूँद मिल सहज समाया।3।
नाना भेद भरम सब भागा, तब दादू एक रँगै रँग लाया।4।
65-वर्ण भिन्न ताल
अलह राम छूटा भ्रम मोरा,
हिन्दू-तुरक भेद कुछ नाँहीं, देखूँ दर्शन तोरा।टेक।
सोई प्राण पिंड पुनि सोई, सोई लोही माँसा।
सोई नैन नासिका सोई, सहजैं कीन्ह तमासा।1।
श्रवणों शब्द बाजता सुनिए, जिह्ना मीठा लागे।
सोई भूख सबन को व्यापे, एक युक्ति सोई जागे।2।
सोई संधिा बंधा पुनि सोई, सोई सुख सोई पीरा।
सोई हस्त पाँव पुनि सोई, सोई एक शरीरा।3।
यहु सब खेल खालिक हरि तेरा, तैं हि एक कर लीना।
दादू जुगति जान कर ऐसी, तब यहु प्राण पतीना।4।
66-नटताल
भाइ रे ऐसा पंथ हमारा,
द्वै पख रहित पंथ गह पूरा, अवरण एक अधाारा।टेक।
वाद-विवाद काहू सौं नाँहीं, माँहिं जगत् तैं न्यारा।
सम दृष्टी स्वभाव सहज में, आपहि आप विचारा।1।
मैं तैं मेरी यहु मति नाँहीं, निर्वैरी निराकारा।
पूरण सबै देख आपा पर, निरालम्ब निराधाारा।2।
काहू के संग मोह न ममता, संगी सिरजनहारा।
मनहीं मन सौं समझ सयाना, आनंद एक अपारा।3।
काम कल्पना कदे न कीजे, पूरण ब्रह्म पियारा।
इहिं पथ पहुँच पार गह दादू, सो तत सहज संभारा।4।
67-परिचय हैरान। नटताल
ऐसो खेल बण्यो मेरी माई, कैसे कहूँ कछु जाण्यो न जाई।टेक।
सुर-नर मुनि जन अचरज आई, राम चरण को भेद न पाई।1।
मन्दिर माँहीं सुरति समाई, कोऊ है सो देहु दिखाई।2।
मनहिं विचार करहु ल्यौ लाई, दिवा समान कहँ ज्योति छिपाई।3।
देह निरंतर शून्य ल्यौ लाई, तहँ कौण रमे कौण सूता रे भाई।4।
दादू न जाणे ये चतुराई, सोई गुरु मेरा जिन सुधिा पाई।5।
68-निज घर परिचय। पंचम ताल
भाई रे घर ही में घर पाया,
सहज समाइ रह्यो ता माँहीं, सद्गुरु खोज बताया।टेक।
ता घर काज सबै फिर आया, आपै आप लखाया।
खोल कपाट महल के दीन्हें, थिर सुस्थान दिखाया।1।
भय औ भेद, भरम सब भागा, साँच सोइ मन लागा।
पिंड परे जहाँ जिव जावे, ता में सहज समाया।2।
निश्चल सदा चले नहिं कबहूँ, देख्या सबमें सोई।
ता ही सौं मेरा मन लागा, और न दूजा कोई।3।
आदि अनन्त सोइ घर पाया, अब मन अनत न जाई।
दादू एक रँगै रँग लागा, ता में रह्या समाई।4।
69-मानस तीर्थ। पंचम ताल
इत है नीर नहाँवण जोग, अनतहि भ्रम भूला रे लोग।टेक।
तिहिं तट न्हाये निर्मल होइ, वस्तु अगोचर लखे रे सोइ।1।
सुघट घाट अरु तिरबो तीर, बैठै तहाँ जगत् गुरु पीर।2।
दादू न जाणे तिन का भेव, आप लखावे अंतर देव।3।
70-पंजाबी त्रिाताल
ऐसा ज्ञान कथो नर ज्ञानी, इहिं घर होइ सहज सुख जानी।टेक।
गंग-जमुन तहँ नीर नहाइ, सुषमन नारी रंग लगाइ।1।
आप तेज तन रह्यो समाइ, मैं बलि ताकी देखूँ अघाइ।2।
बास निरंतर सो समझाइ, बिन नैनहुँ देख तहँ जाइ।3।
दादू रे यह अगम अपार, सो धान मेरे अधार अधाार।4।
71-परिचय सत्संग। पंजाबी त्रिाताल
अब तो ऐसी बण आई, राम चरण बिन रह्यो न जाई।टेक।
सांईं को मिलबे के कारण, त्रिाकुटी संगम नीर नहाई।
चरण कमल की तहँ ल्यौ लागे, जतन-जतन कर प्रीति बनाई।1।
जे रस भीना छावर जावे, सुन्दरि सहजैं संग समाई।
अनहद बाजे बाजण लागे, जिह्ना हीणैं कीरति गाई।2।
कहा कहूँ कुछ वरणि न जाई, अविगत अंतर ज्योति जगाई।
दादू उनका मरम न जाणे, आप सुरंगे बैन बजाई।3।
72-राजमृगांक ताल
नीके राम कहत है बपुरा,
घर माँहीं घर निर्मल राखे, पंचों धाोवे काया कपरा।टेक।
सहज समर्पण सुमिरण सेवा, तिरवेणी तट संयम सपरा।
सुन्दरि सन्मुख जागण लागी, तहँ मोहन मेरा मन पकरा।1।
बिन रसना मोहन गुण गावे, नाना वाणी अनुभव अपरा।
दादू अनहद ऐसे कहिए, भक्ति तत्तव यहु मारग सकरा।2।
73-मनसा गायत्राी। राजमृगांक ताल
अवधू कामधोनु गह राखी,
वश कीन्ही तब अमृत सरवैं, आगे चार न नाखी।टेक।
पोषंतां पहली उठ गरजे, पीछे हाथ न आवे।
भूखी भले दूधा नित दूणाँ, यों या धोनु दुहावे।1।
ज्यों-ज्यों क्षीण पड़े त्यों दूझे, मुकता मेल्याँ मारे।
घाटा रोक घेर घर आणैं, बाँधाी कारज सारे।2।
सहजैं बाँधाी कदे न छूटे, कर्म बंधान छूट जाई।
काटे कर्म सहज सौं बाँधो, सहजैं रहै समाई।3।
छिन-छिन माँहिं मनोरथ पूरे, दिन-दिन होई अनंदा।
दादू सोई देखतां पावे, कलिअजरावर कंदा।4।
74-परिचय। कहरवा
जब घट परगट राम मिले,
आतम मंगल चार चहूँ दिशि, जनम सफल कर जीत चले।टेक।
भक्ति मुक्ति अभय कर राखे, सकल शिरोमणि आप किये।
निर्गुण राम निरंजन आपै, अजरावर उर लाइ लिये।1।
अपणे अंग-संग कर राखे, निर्भय नाम निशान बजावा।
अविगत नाथ अमर अविनाशी, परम पुरुष निज सो पावा।2।
सोई बड़ भागी सदा सुहागी, परगट प्रीतम संग भये।
दादू भाग बड़े वर-वर कर, सो अजरावर जीत गये।3।
75-परा भक्ति प्रार्थना। कहरवा
रमैया यहु दुख साले मोहि,
सेज सुहाग न प्रीति प्रेम रस, दरशन नाँहीं तोहि।टेक।
अंग प्रसंग एक रस नाँहीं, सदा समीप न पावे।
ज्यों रस में रस बहुर न निकसे, ऐसे होइ न आवे।1।
आतम लीन नहीं निशि वासर, भक्ति अखंडित सेवा।
सन्मुख सदा परस्पर नाँहीं, तातैं दु:ख मोहि देवा।2।
मगन गलित महारस माता, तूं है तब लग पीजे।
दादू जब लग अंत न आवे, तब लग देखा दीजे।3।
76-लांबी (अधाीरता, अस्थिरता) दादरा
गुरुमुख पाइये रे ऐसा ज्ञान विचार,
समझ-समझ समझ्या नहीं, लागा रंग अपार।टेक।
जाँण-जाँण जाँण्या नहीं, ऐसी उपजे आय।
बूझ-बूझ बुझ्या नहीं, ढोरी लागा जाय।1।
ले ले ले लीया नहीं, हौंस रही मन माँहिं।
राख राख राख्या नहीं, मैं रस पीया नाँहिं।2।
पाय-पाय पाया नहीं, तेजैं तेज समाय।
कर-कर कुछ कीया नहीं, आतम अंग लगाय।3।
खेल-खेल खेल्या नहीं, सन्मुख सिरजनहार।
देख-देख देख्या नहीं, दादू सेवक सार।4।
77-गुरु अधाीन ज्ञान। दादरा।
बाबा गुरुमुख ज्ञाना रे, गुरुमुख धयाना रे।टेक।
गुरुमुख दाता, गुरुमुख राता, गुरुमुख गवना रे।
गुरुमुख भवना, गुरुमुख छवना, गुरुमुख रवना रे।1।
गुरुमुख पूरा, गुरुमुख शूरा, गुरुमुख वाणी रे।
गुरुमुख देणा, गुरुमुख लेणा, गुरुमुख जाणी रे।2।
गुरुमुख गहिबा, गुरुमुख रहिबा, गुरुमुख न्यारा रे।
गुरुमुख सारा, गुरुमुख तारा, गुरुमुख पारा रे।3।
गुरुमुख राया, गुरुमुख पाया, गुरुमुख मेला रे।
गुरुमुख तेजं, गुरुमुख सेजं, दादू खेला रे।4।
78-निज स्थान निर्णय। दीपचन्दी
मैं मेरे में हेरा, मधय माँहिं पिव नेरा।टेक।
जहँ अगम अनूप अवासा, तहँ महापुरुष का वासा।
तहँ जाणेगा जन कोई, हरि माँहिं समाना सोई।1।
अखंड ज्योति जहँ जागे, तहँ राम नाम ल्यौ लागे।
तहँ राम रहै भर पूरा, हरि संग रहै नहिं दूरा।2।
तिरवेणी तट तीरा, तहँ अमर अमोलक हीरा।
उस हीरे सौं मन लागा, तब भरम गया भय भागा।3।
दादू देख हरि पावा, हरि सहजैं संग लखावा।
पूरण परम निधााना, निज निरखत हौं भगवाना।4।
79-दीपचन्दी
मेरा मन लागा सकल करा, हम निश दिन हिरदै सो धारा।टेक।
हम हिरदै माँहीं हेरा, पवि परगट पाया नेरा।
सो नेर ही निज लीजे, तब सहजैं अमृत पीजे।1।
जब मन ही सौं मन लागा, तब ज्योति स्वरूपी जागा।
जब ज्योति स्वरूपी पाया, तब अंतर माँहिं समाया।2।
जब चित्ता हि चित्ता समाना, हम हरि बिन और न जाना।
जाना जीवण सोई, अब हरि बिन और न कोई।3।
जब आतम एकै बासा, परमातम माँहिं प्रकाशा।
परकाशा पीव पियारा, सो दादू मींत हमारा।4।
।इति राग गौड़ी सम्पूर्ण।
अथ राग माली गौड़ी
।2।
(गायन समय संधया 6 से 9 रात्रिा)
80-नाम महिमा। झपताल
गोविन्द! नाम तेरा, जीवण मेरा, तारण भव पारा।
आगे इहिं नाम लागे, संतन आधाारा।टेक।
कर विचार तत्तव सार, पूरण धान पाया।
अखिल नाम अगम ठाम, भाग हमारे आया।1।
भक्ति मूल मुक्ति मूल, भव जल निस्तरणा।
भरम कर्म भंजना भय, कलि विष सब हरणा।2।
सकल सिध्दि नव निधिा, पूरण सब कामा।
राम रूप तत्तव अनूप, दादू निज नामा।3।
81-करुणा। झपताल
गोविन्द! कैसे तरिये,
नाव नाँहीं खेव नाँहीं, राम विमुख मरिये।टेक।
ज्ञान नाँहीं धयान नाँहीं, लै समाधि नाँही।
विरहा वैराग्य नाँहीं, पंचौं गुण माँहीं।1।
प्रेम नाँहीं प्रीति नाँहीं, नाम नाँहीं तेरा।
भाव नाँहीं भक्ति नाँहीं, कायर जीव मेरा।2।
घाट नाँहीं बाट नाँहीं, कैसे पग धारिये।
वार नाँहीं पार नाँहीं, दादू बहु डरिये।3।
82-विरह। शंख ताल
पिव आव हमारे रे,
मिल प्राण पियारे रे, बलि जाउँ तुम्हारे रे।टेक।
सुन सखी सयानी रे, मैं सेव न जाणी रे, हूँ भई दिवानी रे।1।
सुन सखी-सहेली रे, क्यों रहूँ अकेली रे, हूँ खरी दुहेली रे।2।
हूँ करूँ पुकारा रे, सुन सिरजनहारा रे, दादू दास तुम्हारा रे।3।
83-शंख ताल
वाल्हा सेज हमारी रे,
तूं आव हूँ वारी रे, हूँ दासी तुम्हारी रे।टेक।
तेरा पंथ निहारूँ रे, सुन्दर सेज सँवारूँ रे, जियरा तुम पर वारूँ रे ।1।
तेरा ऍंगड़ा पेखूँ रे, तेरा मुखड़ा देखूँ रे, तब जीवन लेखूँ रे।2।
मिल सुखड़ा दीजे रे, यहु लाहड़ा लीजे रे, तुम देखे जीजे रे।3।
तेरे प्रेम की माती रे, तेरे रँगड़े राती रे, दादू वारणे जाती रे।4।
84-शूल ताल
दरबार तुम्हारे दरदवंद, पीव-पीव पुकारे।
दीदार दरूनै दीजिए, सुन खसम हमारे।टेक।
तनहां के तन पीर है, सुन तुंही निवारे।
करम करीमा कीजिए, मिल पीव पियारे।1।
शूल सुलाको सो सहूँ, तेग तन मारे।
मिल सांई सुख दीजिए, तूं हीं तूं सँभारे।2।
मैं शुहदा तन सोखता, विरहा दुख जारे।
जिय तरसे दीदार को, दादू न विसारे।3।
85-शंख ताल
संइयाँ तूं है साहिब मेरा, मैं हूँ बन्दा तेरा।टेक।
बन्दा वरदा चेरा तेरा, हुक्मी मैं बेचारा।
मीरां महरवान गुसांई, तूं सिरताज हमारा।1।
गुलाम तुम्हारा मुल्ला जादा, लौंडा घर का जाया।
राजिक रिजक जीव तैं दीया, हुक्म तुम्हारे आया।2।
शादील बै हाजिर बन्दा, हुक्म तुम्हारे माँहीं।
जब हि बुलाया तब ही आया, मैं मेवासी नाँहीं।3।
खसम हमारा सिरजनहारा, साहिब समर्थ सांई।
मीराँ मेरा मेहर मया कर, दादू तुम ही तांई।4।
86-करुणा। शंख ताल
मुझ थे कुछ न भया रे,
यहु यों हि गया रे, पछतावा रह्या रे।टेक।
मैं शीश न दीया रे, भर प्रेम न पीया रे, मैं क्या कीया रे।1।
हौं रंग न राता रे, रस प्रेम न माता रे, नहिं गलित गाता रे।2।
मैं पीव न पाया रे, कीया मन का भाया रे, कुछ होइ न आया रे।3।
हूँ रहूँ उदासा रे, मुझे तेरी आशा रे, कहै दादू दासा रे।4।
87-वैराग्य उपदेश। निसारुक ताल
मेरा मेरा छाड गँवारा, शिर पर तेरे सिरजनहारा।
अपणे जीव विचारत नाँहीं, क्या ले गइला वंश तुम्हारा।टेक।
तब मेरा कृत करता नाँहीं, आवत है हंकारा।
कालचक्र सौं खरी परी रे, विसर गया घर बारा।1।
जाइ तहाँ का संयम कीजे, विकट पंथ गिरिधाारा।
दादू रे तन अपणा नाँहीं, तो कैसे भया संसारा।2।
88-निसारुक ताल
दादू दास पुकारे रे, शिर काल तुम्हारे रे, शर साँधो मारे रे।टेक।
यम काल निवारी रे, मन मनसा मारी रे, यहु जन्म न हारी रे।1।
सुख नींद न सोइ रे, अपणा दुख रोइ रे, मन मूल न खोई रे।2।
शिर भार न लीजे रे, जिसका तिसको दीजे रे, अब ढील न कीजे रे।3।
यहु अवसर तेरा रे, पंथी जाग सवेरा रे, सब बाट बसेरा रे।4।
सब तरुवर छाया रे, धान यौवन माया रे, यहु काची काया रे।5।
इस भरम न भूली रे, बाजी देख न फूली रे, सुख सागर झूली रे।6।
रस अमृत पीजे रे, विष का नाम न लीजे रे, कह्या सो कीजे रे।7।
सब आतम जाणी रे, अपणा पीव पिछाणी रे, यहु दादू वाणी रे।8।
89-भक्ति उपदेश। त्रिाकाल
पूजूँ पहली गणपति राय, पड़हूँ पावों चरणों धााय।
आगैं ह्नै कर तीर लगावे, सहजैं अपणे वैन सुनावे।टेक।
कहूँ कथा कुछ कही न जाई, इक तिल में ले सबै समाइ।1।
गुण हु गहीर धाीर तन देही, ऐसा समर्थ सबै सुहाइ।2।
जिस दिशि देखूँ ओही है रे, आप रह्या गिरि तरुवर छाइ।3।
दादू रे आगे क्या होवे, प्रीति पिया कर जोड़ लगाइ।4।
90-परिचय। पंचम ताल
नीको धान हरि कर मैं जान्यौं, मेरे अखई ओही।
आगे-पीछे सोई है रे, और न दूजा कोई।टेक।
कबहूँ न छाड़ूँ संग पिया को, हरि के दर्शन मोही।
भाग हमारे जो हौं पाऊँ, शरणे आयो तोही।1।
आनँद भयो सखी जिय मेरे, चरण कमल को जोई।
दादू हरि को बावरो, बहुरि वियोग न होई।2।
91-हितोपदेश। पंचम ताल
बाबा मर्दे मर्दां गोइ, ये दिल पाक करदम धाोइ।टेक।
तर्क दुनियाँ दूर कर दिल, फर्ज फारिग होइ।
पैवस्त परवरदिगार सौं आकिलां सिर सोइ।1।
मनी मुरद: हिर्स फानी, नफ्स रा पामाल।
बदी रा बरतरफ करद:, नाम नेकी ख्याल।2।
जिंदगानी मुरद: बाशद, कुंजे कादिर कार।
तालिबां रा हक हासिल, पासबाने यार।3।
मर्दे मर्दां सालिकां सर, आशिकां सुलतान।
हजूरी होशियार दादू, इहै गो मैदान।4।
92-ईश्वर चरित। त्रिाताल
ये सब चरित तुम्हारे मोहना, मोहे सब ब्रह्मंड खंडा।
मोहे पवन पाणी परमेश्वर, सब मुनि मोहे रवि चंदा।टेक।
साइर सप्त मोहे धारणी धारा, अष्ट कुली पर्वत मेरु मोहे।
तीन लोक मोहे जग जीवन, सकल भुवन तेरी सेव सोहे।1।
शिव विरंचि नारद मुनि मोहे, मोहे सुर सब सकल देवा।
मोहे इन्द्र फणींद्र पुनि मोहे, मुनि मोहे तेरी करत सेवा।2।
अगम अगोचर अपार अपरं परा, को यहु तेरे चरित न जाणे।
ये शोभा तुमको सोहे सुन्दर, बलि-बलि जाऊँ दादू न जाणे।3।
93-गुरु ज्ञान। त्रिाताल
ऐसा रे गुरु ज्ञान लखाया, आवे जाइ सो दृष्टि न आया।टेक।
मन थिर करूँगा नाद भरूँगा, राम रमूँगा, रस माता।1।
अधार रहूँगा, करम दहूँगा, एक भजूँगा, भगवन्ता।2।
अलख लखूँगा, अकथ कथूँगा, एक मथूँगा, गोविन्दा।3।
अगह गहूँगा, अकह कहूँगा, अलह लहूँगा, खोजन्ता।4।
अचर चरूँगा, अजर जरूँगा, अतिर तिरूँगा, आनन्दा।5।
यहु तन तारूँ, विषय निवारूँ, आप उबारूँ, साधान्ता।6।
आऊँ न जाऊँ, उनमनि लाऊँ, सहज समाऊँ, गुणवन्ता।7।
नूर पिछाणूँ, तेजहि जाणूँ, दादे ज्योतिहि, देखन्ता।8।
94-तत्तव उपदेश। पंचम ताल
बंदे हाजिरां हजूर वे, अल्लह आली नूर वे।
आशिकां रा सिदक साबित, तालिबा भरपूर वे।टेक।
वजूद मैं मौजूद है, पाक परवरदिगार वे।
देख ले दीदार को, गेब गोता मार वे।1।
मौजूद मालिक तख्त खालिक, आशिकां रा ऐन वे।
गुदर कर दिल मग्ज भीतर, अजब है यहु सैंन वे।2।
अर्श ऊपर आप बैठा, दोस्त दाना यार वे।
खोज कर दिल कब्ज करले, दरूने दीदार वे।3।
हुशियार हाजिर चुस्त करदा, मीराँ महरवान वे।
देख ले दर हाल दादू, आप है दीवान वे।4।
95-वस्तु निर्देश। चौताल
निर्मल तत निर्मल तत, निर्मल तत ऐसा।
निर्गुण निज निधिा निरंजन, जैसा है तैसा।टेक।
उत्पत्तिा आकार नाँहीं, जीव नाँहीं काया।
काल नाँहीं कर्म नाँहीं, रहिता राम राया।1।
शीत नाँहीं घाम नाँहीं, धूप नाँहीं छाया।
वायु नाँहीं वर्ण नाँहीं, मोह नाँहीं माया।2।
धारणि आकाश अगम, चन्द सूर नाँहीं।
रजनी निशि दिवस नाँहीं, पवना नहिं जाँहीं।3।
कृत्रिाम घट कला नाँहीं, सकल रहित सोई।
दादू निज अगम-निगम, दूजा नहिं कोई।4।
।इति राग माली गौड़ सम्पूर्ण।
अथ राग कल्याण
।3।
(गायन समय संधया 6 से 9 रात्रिा)
96-उपदेश चेतावनी। त्रिाताल
मन मेरे कुछ भी चेत गँवार,
पीछे फिर पछतायेगा रे, आवे न दूजी बार।टेक।
काहे रे मन भूल्यो फिरत है, काया सोच-विचार।
जिन पंथों चलणा है तुझको, सोई पंथ सँवार।1।
आगे बाट विषम जो मन रे, जैसी खांडे की धाार।
दादू दास सांई सौं सूत कर, कूड़े काम निवार।2।
97-परिचय। त्रिाताल
जग सौं कहा हमारा, जब देख्या नूर तुम्हारा।टेक।
परम तेज घर मेरा, सुख सागर माँहिं बसेरा।1।
झिलमिल अति आनन्दा, तहँ पाया परमानन्दा।2।
ज्योति अपार अनन्ता, खेलैं फाग वसन्ता।3।
आदि-अन्त सुस्थाना, जन दादू सो पहचाना।4।
।इति राग कल्याण सम्पूर्ण।
अथ राग कान्हड़ा
।4।
(गायन समय रात्रिा 12 से 3)
98-विरह विनती। वर्ण भिन्नताल
दे दर्शन देखन तेरा, तो जिय जक पावे मेरा।टेक।
पीव तूं मेरी वेद न जाणे, हौं कहा दुराऊँ छाने,
मेरा तुम देखे मन माने।1।
पीव करक कलेजे माँहीं, सो क्यों ही निकसे नाँहीं,
पीव पकर हमारी बाँही।2।
पीव रोम-रोम दु:ख सालै, इन पीरों पिंजर जालै,
जीव जाता क्यों ही बालै।3।
पीय सेज अकेली मेरी, मुझ आरति मिलणे तेरी,
धान दादू वारी फेरी।4।
99-वर्ण भिन्न ताल
आव सलौने देखन देरे, बलि-बलि जाऊँ बलिहारी तेरी।टेक।
आव पिया तूं सेज हमारी, निश दिन देखूँ बाट तुम्हारी।1।
सब गुण तेरे अवगुण मेरे, पीव हमारी आह न ले रे।2।
सब गुणवन्ता साहिब मेरा, लाड गहेला दादू केरा।3।
100-पंचम ताल
आव पियारे मींत हमारे, निशि दिन देखूँ पाँव तुम्हारे।टेक।
सेज हमारी पीव सँवारी, दासी तुम्हारी सो धान वारी।1।
जे तुझ पाऊँ अंग लगाऊँ, क्यों समझाऊँ वारणे जाऊँ।2।
पंथ निहारूँ बाट सँवारूँ, दादू तारूँ तन-मन वारूँ।3।
101-पंजाबी भाषा। पंचम ताल
आव वे सजण आव, शिर पर धार पाँव।
जाँनी मैंडा जिन्द असाडे, तूं रावैंदा राववे, सजण आव।टेक।
इत्थां उत्थां जित्थां कित्थां, हूँ जीवाँ तो नाल वे।
मीयाँ मैंडा आव असाडे, तू लालों शिर लाल वे, सजण आव।1।
तल भी डेवाँ मन भी डेवाँ, डेवाँ पिंड पराण वे।
सच्चा सांईं मिल इत्थांई, जिन्द करां कुरबाण वे, सजण आव।2।
तू पाकों शिर पाक वे सजण, तूं खूबों शिर खूब।
दादू भावे सजण आवे, तूं मिट्ठा महबूब वे, सजण आव।3।
102-विनती। राज विद्याधार ताल
दयाल अपने चरनन मेरा चित्ता लगावहु, नीकैं ही करी।टेक।
नख-शिख सुरति शरीर, तूं नाम रहो भरी।1।
मैं अजाण मति हींण, जम की फाँसीं तैं रहत हूँ डरी।2।
सबै दोष दादू के दूर कर, तुम ही रहो हरी।3।
103-तर्क चेतावनी। राज विद्याधार ताल
मन मति हींण धरे,
मूरख मन कछु समझत नाँहीं, ऐसे जाइ जरे ।टेक।
नाम विसार अवर चित राखे, कूड़े काज करे।
सेवा हरि की मन हूँ न आणे, मूरख बहुरि मरे।1।
नाम संगम कर लीजे प्राणी, जम तैं कहा डरे।
दादू रे जे राम सँभारे, सागर तीर तिरे।2।
104-सन्त सहाय रक्षा। राजमृगांक ताल
पीव तैं अपणे काज सँवारे,
कोई दुष्ट दीन को मारण, सोई गह तैं मारे।टेक।
मेरु समान ताप तन व्यापै, सहजैं ही सो टारे।
संतन की सुखदाई माधाव, विन पावक फँद जारे।1।
तुम तैं होइ सबै विधिा समर्थ, आगम सबै विचारे।
संत उबार दुष्ट दुख दीन्हा, अंधा कूप में डारे।2।
ऐसा है शिर खसम हमारे, तुम जीते खल हारे।
दादू सौं ऐसे निर्बहिये, प्रेम प्रीति पिव प्यारे।3।
105-माया। मल्लिका मोद ताल
काहू तेरा मरम न जाना रे, सब भये दीवाना रे।टेक।
माया के रस राते माते, जगत् भुलाना रे।
को काहू का कह्या न माने, भये अयाना रे।1।
माया मोहे मुदित मगन, खान खाना रे।
विषिया रस अरस परस, साच ठाना रे।2।
आदि अंत जीव जन्तु, किया पयाना रे।
दादू सब भरम भूले, देख दाना रे।3।
106-अनन्य-शरण। मल्लिका मोद ताल
तूं ही तूं गुरु देव हमारा, सब कुछ मेरे नाम तुम्हारा।टेक।
तुम हीं पूजा तुम हीं सेवा, तुम हीं पाती तुम हीं देवा।1।
योग यज्ञ तूं साधान जापं, तुम हीं मेरे आपै आपं।2।
तप तीरथ तूं व्रत स्नाना, तुम हीं ज्ञाना तुम हीं धयाना।3।
वेद भेद तूं पाठ पुराणा, दादू के तुम पिंड पराणा।4।
107-गजताल
तूं ही तूं आधाार हमारे, सेवक सुत हम राम तुम्हारे।टेक।
माइ-बाप तूं साहिब मेरा, भक्ति हीण मैं सेवक तेरा।1।
मात-पिता तूं बान्धाव भाई, तुम हीं मेरे सजन सहाई।2।
तुम हीं तातं तुम ही मातं, तुम हीं जातं तुम हीं न्यातं।3।
कुल कुटुम्ब तूं सब परिवारा, दादू का तूं तारणहारा।4।
108-परिचय विनती। भंगताल
नर नैन भर देखण दीजे, अमी महारस भर-भर पीजे।टेक।
अमृतधाारा वार न पारा, निर्मल सारा तेज तुम्हारा।1।
अजर जरन्ता अमी झरन्ता, तार अनन्ता बहु गुणवन्ता।2।
झिलमिल सांईं ज्योति गुसांईं, दादू माँहीं नूर रहांईं।3।
109-परिचय। भंगताल
ऐन एक सो मीठा लागे, ज्योति स्वरूपी ठाड़ा आगे।टेक।
झिलमिल करणा, अजरा जरणा, नीझर झरणा, तहँ मन धारणा।1।
निज निरधाारं, निर्मल सारं, तेज अपारं, प्राण अधाारं।2।
अगहा गहणा, अकहा कहणा, अलहा लहणा, तहँ मिल रहणा।3।
निरसँधा नूरं, सकल भरपूरं, सदा हजूरं, दादू सूरं।4।
110-निस्पृहता। प्रतिताल
तो काहे की परवाह हमारे, राते माते नाम तुम्हारे।टेक।
झिलमिल झिलमिल तेज तुम्हारा, परकट खेले प्राण हमारा।1।
नूर तुम्हारा नैनों माँहीं, तन-मन लागा छूटे नाँहीं।2।
सुख का सागर वार न पारा, अमी महारस पीवनहारा।3।
प्रेम मगन मतवाला माता, रंग तुम्हारे दादू राता।4।
।इति राग कान्हडा सम्पूर्ण।
अथ राग अडाणा
।5।
(गायन समय रात्रिा 12 से 3)
111-समर्थ गुरु महिमा। त्रिाताल
भाई रे ऐसा सद्गुरु कहिए, भक्ति मुक्ति फल लहिए।टेक।
अविचल अमर अविनाशी, अठ सिधिा नव निधिा दासी।1।
ऐसा सद्गुरु राया, चार पदारथ पाया।2।
अमी महा रस माता, अमर अभय पदा दाता।3।
सद्गुरु त्रिाभुवन तारे, दादू पार उतारे।4।
112-गुरुमुख कसौटी। ललित ताल
भाई रे भान घड़े गुरु मेरा, मैं सेवक उस केरा।टेक।
कंचन करले काया, घड़-घड़ घाट निपाया।1।
मुख दर्पण माँहिं दिखावे, पिव परकट आण मिलावे।2।
सद्गुरु साचा धाोवे, तो बहुर न मैला होवे।3।
तन-मन फेरि सँवारे, दादू कर गह तारे।4।
113-गुरु मुख उपदेश। ललित ताल
भाइ रे तेन्हौं रूड़ौ थाये, जे गुरुमुख मारग जाये।टेक।
कुसंगति परिहरिये, सत्संगति अणसरिये।1।
काम क्रोधा नहिं आणैं, वाणी ब्रह्म बखाणैं।2।
विषिया तैं मन वारे, ते आपणपो तारे।3।
विष मूकी अमृत लीधाो, दादू रूड़ौ कीधाो।4।
114-विनती। पंचम ताल
बाबा मन अपराधाी मेरा, कह्या न माने तेरा।टेक।
माया-मोह मद माता, कनक कामिनी राता।1।
काम-क्रोधा अहंकारा, भावे विषय विकारा।2।
काल मीच नहिं सूझे, आतम राम न बूझे।3।
समर्थ सिरजनहारा, दादू करै पुकारा।4।
115-चेतावनी। पंचम ताल
भाई रे यों विनशै संसारा, काम-क्रोधा अहंकारा।टेक।
लोभ मोह मैं मेरा, मद मत्सर बहुतेरा।1।
आपा पर अभिमाना, केता गर्व गुमाना।2।
तीन तिमिर नहिं जाहीं, पंचों के गुण माँहीं।3।
आतम राम न जाना, दादू जगत् दिवाना।4।
116-ज्ञान। रूपक ताल
भाई रे तब क्या कथसि गियाना, जब दूसर नाँहीं आना।टेक।
जब तत्तवहिं तत्तव समाना, जहाँ का तहाँ ले साना।1।
जहाँ का तहाँ मिलावा, ज्यों था त्यों होइ आवा।2।
संधो संधिा मिलाई, जहाँ तहाँ थिति पाई।3।
सब अंग सब ही ठाँई, दादू दूसर नाँहीं।4।
।इति राग अडाणा सम्पूर्ण।
अथ राग केदार
।6।
(गायन समय सायं 6 से 9 रात्रिा)
117-विनती। (गुजराती भाषा) दीपचन्दी ताल
म्यारा नाथ जी, तारो नाम लेवाड़ रे, राम रतन हृदय मों राखे।
म्हारा वाहला जी, विषया थी वारे।टेक।
वाहला वाणी ने मन मांहे म्हारे, चिंतवन तारो चित राखे।
श्रवण नेत्रा आ इन्द्री ना गुण, म्हारा मांहेला मल ते नाखे।1।
वाहला जीवाड़े तो राम रमाड़े, मनें जीव्यानो फल ये आपे।
तारा नाम बिना हूँ ज्यां-ज्यां बंधयो, जन दादू ना बंधान कापे।2।
118-विरह विनती। उत्सव ताल
अरे मेरे सदा संगाती रे राम, कारण तेरे।टेक।
कंथा पहरूँ भस्म लगाऊँ, वैरागिनि ह्नै ढूँढँ रे राम।1।
गिरिवर बासा रहूँ उदासा, चढ शिर मेरु पुकारूँ रे राम।2।
यहु तन जालूँ यहु मन गालूँ, करवत शीश चढाऊँ रे राम।3।
शीश उतारूँ तुम पर वारूँ, दादू बलि-बलि जाऊँ रे राम।4।
119-गजताल
अरे मेरा अमर उपावणहार रे, खालिक आशिक तेरा।टेक।
तुम सौं राता, तुम सौं माता, तुम सौं लागा रँग रे खालिक।1।
तुम सौं खेला, तुम सौं मेला, तुम सौं प्रेम स्नेह रे खालिक।2।
तुम सौं लेणा, तुम सौं देणा, तुम हीं सौं रत होइ रे खालिक।3।
खालिक मेरा, आशिक तेरा, दादू अनत न जाइ रे खालिक।4।
120-स्तुति। गजताल
अरे मेरे समर्थ साहिब रे, अल्लह, नूर तुम्हारा।टेक।
सब दिशि देवे, सब दिशि लेवे,
सब दिशि वार न पार रे अल्लह।1।
सब दिशि कर्ता, सब दिशि हरता,
सब दिशि तारणहार रे अल्लह ।2।
सब दिशि वक्ता, सब दिशि श्रोता,
सब दिशि देखणहार रे अल्लह।3।
तू है तैसा कहिए ऐसा,
दादू आनन्द होइ रे अल्लह।4।
121-विरह विलाप। मल्लिकामोद ताल
हाल असां जो लालड़े, तो के सब मालूमड़े।टेक।
मंझे खामा मंझ बराला, मंझे लागी भाहिड़े।
मंझे मेड़ी मुच थईला, कैं दरि करिया धााहड़े।1
विरह कसाई मुं गरेला, मंझे बढै माइहड़े।
सीखों करें कवाब जीला, इये दादू जे ह्याहड़े।2।
122-विनती। मल्लिकामोद ताल
पिवजी सेती नेह नवेला, अति मीठा मोहि भाव रे।
निश दिन देखूँ बाट तुम्हारी, कब मेरे घर आवे रे।टेक।
आइ बणी है साहिब सेती, तिस बिन तिल क्यों जावे रे।
दासी को दर्शन हरि दीजे, अब क्यों आप छिपावे रे।1।
तिल-तिल देखूँ साहिब मेरा, त्यों-त्यों आनंद अंग न मावे रे।
दादू ऊपर दया करी, कब नैनहुँ नैन मिलावे रे।2।
123-(गुजराती भाषा) राजमृगांक ताल
पीव घर आवे रे, वेदन म्हारी जाणी रे।
विरह संताप कौण पर कीजे, कहूँ छूँ दु:ख नी कहाणी रे।टेक।
अंतरजामी नाथ म्हारो, तुज बिण हूँ सीदाणी रे।
मंदिर म्हारे केम न आवे, रजनी जाइ बिहाणी रे।1।
तारी बाट हूँ जोइ थाकी, नेण निखूटया पाणी रे।
दादू तुज बिण दीन दुखी रे, तूँ साथी रह्यो छे ताणी रे।2।
124-विरह विनती। राजमृगांक ताल
कब मिलसी पिव गृह छाती, हूँ औराँ संग मिलाती।टेक।
तिसज लागी तिसही केरी, जन्म-जन्म नो साथी।
मीत हमारा आव पियारा, ताहरा रंग नी राती।1।
पीव बिना मने नींद न आवे, गुण ताहरा लै गाती।
दादू ऊपर दया मया कर, ताहरे वारणे जाती।2।
125-विरह। राज विद्याधार ताल
म्हारा रे वाहला ने काजे, हृदय जोवा ने हूँ धयान धारूँ।
आकुल थाये प्राण म्हारा, कोने कही पर करूँ।टेक।
संभार्यो आवे रे वाहला, वेहला एहों जोई ठरूँ।
साथीजी साथे थइ ने, पेली तीर पार तरूँ।1।
पिव पाखे दिन दुहेला जाये, घड़ी बरसां सौं केम भरूँ।
दादू रे जन हरिगुण गातां, पूरण स्वामी ते वरूँ।2।
126-विरहविलाप। झपताल
मरिये मीत विछोहे, जियरा जाइ अंदोहे।टेक।
ज्यों जल विछुरे मीना, तलफ-तलफ जिव दीन्हा,
यों हरि हम सौं कीन्हा।1।
चातक मरे पियासा, निश दिन रहै उदासा,
जीवे किहि विश्वासा।2।
जल बिन कमल कुम्हलावे, प्यासा नीर न पावे,
क्यों कर तृषा बुझावै।3।
मिल जिन विछुरो कोई, विछुरे बहु दुख होई,
क्यों कर जीवें जन सोई।4।
मरणा मीत सुहेला, बिछुरन खरा दुहेला, दादू पिव सौं मेला।5।
127-त्रिाताल
पीव हौं, कहा करूँ रे,
पाइ परूँ के प्राण हरूँ रे, अब हौं मरणे नाँहिं डरूँ रे।टेक।
गालि मरूँ कै जाल मरूँ रे, कैं हौं करवत शीस धारूँ रे।1।
खाइ मरूँ कै घाइ मरूँ रे, कैं हौं कत हूँ जाइ मरूँ रे।2।
तलफ मरूँ कै झूर मरूँ रे, कै हौं विरही रोइ मरूँ रे।3।
टेर कह्या मैं मरण गह्या रे, दादू दुखिया दीन भया रे।4।
128-(गुजराती भाषा) त्रिाताल
वाहला हूँ जाणूँ रे रँग रमिये, म्हारो नाथ निमिष नहिं मेलूँ रे।
अन्तरजामी नाह न आवे, ते दिन आव्यो छेलो रे।टेक।
वाहला सेज हमारी एकलड़ी रे, तहँ तुजने केम ना पामू रे।
अ दत्ता अमारो पूरबलो रे, तेतो आव्यो सामो रे।1।
बाहला म्हारा हृदया भीतर केम न आवे,
मने चरण विलम्ब न दीजे रे।
दादू तो अपराधाी थारो, नाथ उधाारी लीजे रे।2।
129-पंचमताल
तूं छे मारो राम गुसांई, पालवे तारे बाँधाी रे।
तुझ बिना हूँ आंतरे रवल्यो, कीधाी कमाई लीधाी रे।टेक।
जीऊँ जेटला हरि बिना रे, देहड़ी दुख दाधाी रे।
एणे अवतारे कांई न जाण्यूँ, माथे टक्कर खाधाी रे।1।
छूट को म्हारो क्यारे थाशे, शक्यो न राम अराधाी रे।
दादू ऊपर दया मया कर, हूँ तारो अपराधाी रे।2।
130-विनती। पंचमताल
तूं ही तूं तन माहरे गुसांई, तूं बिना तूं केने कहूँ रे।
तूं त्यां तूं ही थई रह्यो रे, शरण तम्हारे जाय रहूँ रे।टेक।
तन-मन माँहे जोइये त्यां तूं, तुज दीठां हूँ सुख लहूँ रे।
तूं त्यां जेटली दूर रहूँ रे, तेम-तेम त्यां हूँ दु:ख सहूँ रे।1।
तुम बिन म्हारो कोई नहीं रे, हूँ तो ताहरा वण बहूँ रे।
दादू रे जण हरि गुण गातां, मैं मेल्हूँ म्हारो मैं हूँ रे।2।
131-केवल विनती। त्रिाताल
हमारे तुम ही हो रखपाल,
तुम बिन और नहीं को मेरे, भव दुख मेटणहार।टेक।
वैरी पंच निमष नहिं न्यारे, रोक रहे जम काल।
हा जगदीश दास दुख पावे, स्वामी करहूँ सँभाल।1।
तुम बिन राम दहैं ये द्वन्द्वर, दशों दिश सब साल।
देखत दीन दुखी क्यों कीजे, तुम हो दीन दयाल।2।
निर्भय नाम हेत हरि दीजे, दर्शन परसन लाल।
दादू दीन लीन कर लीजे, मेटहु सब जंजाल।3।
132-विनती त्रिाताल
ये मन माधाव बरज बरज,
अति गति विषयों सौं रत, उठत जु गरज-गरज।टेक।
विषय विलास अधिाक अति आतुर, विलसत शंक न मानैं।
खाइ हलाहल मगन माया में, विष अमृत कर जानैं।1।
पंचन के सँग बहत चहूँ दिश, उलट न कबहूँ आवे।
जहँ-जहँ काल यह जाइ तहँ-तहँ, मृग जल ज्यों मन धाावे।2।
साधु कहैं गुरु ज्ञान न माने, भाव भजन न तुम्हारा।
दादू के तुम सजन सहाई, कछु न बसाइ हमारा।3।
133-मनोपदेश। पंचम ताल
हाँ हमारे जियरा राम गुण गाइ, एही वचन विचारि मान।टेक।
केती कहूँ मन कारणैं, तूं छाडी रे अभिमान।
कह समझाऊँ बेर-बेर, तुझ अजहूँ न आवे ज्ञान।1।
ऐसा संग कहाँ पाइए, गुण गावत आवे तान।
चरणों सौं चित राखिए, निश दिन हरि का धयान।2।
वे भी लेखा देहिंगे, आप कहावैं खान।
जन दादू रे गुण गाइए, पूरण है निर्वाह।3।
134-काल चेतावनी। पंचम ताल
बटाऊ! चलणा आज कि काल्ह,
समझि न देखे कहा सुख सोवे, रे मन राम सँभाल।टेक।
जैसे तरुवर वृक्ष बसेरा, पक्षी बैठे आय।
ऐसे यहु सब हाट पसारा, आप आपको जाय।1।
कोई नहिं तेरा सजन संगाती, जनि खावे मन मूल।
यहु संसार देख जनि भूले, सब ही सेमल फूल।2।
तन नहिं तेरा, धान नहिं तेरा, कहा रह्यो इहिं लाग।
दादू हरि बिन क्यों सुख सोवे, काहे न देखे जाग।3।
135-तर्क चेतावनी। प्रति ताल
जात कत कद को मातो रे,
तन धान योवन देख गर्वानो, माया रातो रे।टेक।
अपणो हि रूप नैन भर देखे, कामिणि को संग भावे रे।
बारंबार विषय रत माने, मरबो चित्ता न आवे रे।1।
मैं बड आगें और न आवे, करत केत अभिमाना रे।
मेरी-मेरी करि-करि फूल्यो, माया मोह भुलाना रे।2।
मैं-मैं करत जन्म सब खोयो, काल सिरहाणे आयो रे।
दादू देख मूढ नर प्राणी, हरि बिन जन्म गँवायो रे।3।
136-हितोपदेश। त्रिाताल
जागत को कदे न मूसे कोई,
जागत जान जतन कर राखे, चोर न लागू होई।टेक।
सोवत साह वस्तु नहिं पावे, चोर मूसे घर घेरा।
आस-पास पहरे को नाँहीं, वस्तैं कीन्ह नबेरा।1।
पीछे कहु क्या जागे होई, वस्तु हाथ तैं जाई।
बीती रैन बहुर नहिं आवे, तब क्या करि है भाई।2।
पहले ही पहरे जे जागे, वस्तु कछु नहिं छीजे।
दादू जुगति जान कर ऐसी, करना है सो कीजे।3।
137-उपदेश। त्रिाताल
सजनी रजनी घटती जाइ,
पल-पल छीजे अवधिा दिन आवे, अपनो लाल मनाइ।टेक।
अति गति नींद कहा सुख सोवे, यहु अवसर चल जाय।
यहु तन बिछुरे बहुर कहँ पावे, पीछे ही पछताय।1।
प्राण पति जागे सुन्दरि क्यों सोवे, उठ आतुर गह पाइ।
कोमल वचन करुणा कर आगे, नख-शिख रहु लपटाइ।2।
सखी सुहाग सेज सुख पावे, प्रीतम प्रेम बढाइ।
दादू भाग बड़े पिव पावे, सकल शिरोमणि राइ।3।
138-प्रश्नोत्तार। दादरा
कोई जाणे रे मरम माधाइये केरो,
कैसे रहै करे का सजनी, प्राण मेरो।टेक।
कौन विनोद करत री सजनी, कवनन संग बसेरो?
संत साधु गमि आये उनके, करत जु प्रेम घणेरो।1।
कहाँ निवास वास कहँ, सजनी गवन तेरो?
घट-घट माँहीं रहै निरंतर, ये दादू नेरो।2।
139-विरह विनती। त्रिाताल
मन वैरागी राम को, संग रहे सुख होइ हो।टेक।
हरि कारण मन जोगिया, क्यों हि मिले मुझ सोइ।
निरखण का मोहि चाव है, क्योंहीं आप दिखावे मोहि हो।1।
हिरदै में हरि आव तूं, मुख देखूँ मन धाोइ।
तन-मन में तूंहीं बसे, दया न आवे तोहि हो।2।
निरखण का मोहि चाव है, ए दुख मेरा खोइ।
दादू तुम्हारा दास है, नैन देखण को रोइ हो।3।
140-अधाीर उराहन। त्रिाताल
धारणी धार बाह्या धूतो रे, अंग परस नहिं आपे रे।
कह्यो हमारो कांई न माने, मन भावे ते थापे रे।टेक।
वाही-वाही ने सर्वस लीधाो, अबला कोइ न जाणे रे।
अलगो रहे येणी परि तेड़े, आपनड़े घर आणे रे।1।
रमी-रमी ने राम रजावी, केन्हों अंत न दीधाो रे।
गोप्य गुह्य ते कोइ न जाणे, एबो अचरज कीधाो रे।2।
माता बालक रुदन करंतां, वाही-वाही ने राखे रे।
जेवो छे तेवो आपणपो, दादू ते नहिं दाखे रे।3।
141-समर्थाई। राजमृगांक ताल
सिरजनहार तैं सब होइ,
उत्पति परले करे आपे, दूसर नाँहीं कोइ।टेक।
आप होइ कुलाल करता, बूँद तैं सब लोइ।
आप कर अगोचर बैठा, दुनी मन को मोहि।1।
आप तैं उपाइ बाजी, निरख देखे सोइ।
बाजीगर को यहु भेद आवे, सहज सौंज समोइ।2।
जे कुछ कीया सु करे, आपे, येह उपजे मोहि।
दादू रे हरि नाम सेती, मैल कुश्मल धाोइ।3।
142-परिचय राजमृगांक ताल
देहुरे मंझे देव पायो, वस्तु अगोचर लखायो।टेक।
अति अनूप ज्योति पति, सोई अंतर आयो।
पिंड ब्रह्मांड सम, तुल्य दिखायो।1।
सदा प्रकाश निवास, निरंतर, सब घट माँहिं समायो।
नैन निरख नेरो, हिरदै हेत लगायो।2।
पूरब भाग सुहाग सेज सुख, सो हरि लेन पठायो।
देव को दादू पार न पावे, अहो पै उनहीं चितायो।3।
।इति राग केदार सम्पूर्ण।
अथ राग मारू
(मारवा)।7।
(गायन समय सायंकाल 6 से 9 रात्रिा)
143-उपदेश । झपताल
मना भज राम नाम लीजे,
साधु संगति सुमिर-सुमिर, रसना रस पीजे।टेक।
साधु जन सुमिरन कर, केते जप जागे।
आगम निगम अमर किये, काल कोई न लागे।1।
नीच-ऊँच चिन्तन कर, शरणागति लीये।
भक्ति मुक्ति अपनी गति, ऐसे जन कीये।2।
केते तिर तीर लागे, बंधान भव छूटे।
कलि मल विष जुग-जुग के, राम नाम खूटे।3।
भरम-करम सब निवार, जीवन जप सोई।
दादू दुख दूर करण, दूजा नहिं कोइ।4।
144-झपताल
मना जप राम नाम कहिए,
राम नाम मन विश्राम, संगी सो गहिए।टेक।
जाग-जाग सोवे कहा, काल कंधा तेरे।
बारंबार कर पुकार, आवत दिन नेरे।1।
सोवत-सोवत जन्म बीते, अजहूँ न जीव जागे।
राम संभार नींद निवार, जन्म जरा लागे।2।
आश पास भरम बंधयो, नारी गृह मेरा।
अंत काल छाड चल्यो, कोई नहिं तेरा।3।
तज काम क्रोधा मोह माया, राम-राम करणा।
जब लग जीव प्राण पिंड, दादू गह शरणा।4।
145-विरह। अड्डुताल
क्यों विसरे मेरा पीव पियारा, जीव का जीवन प्राण हमारा।टेक।
क्यों कर जीवे मीन जल बिछुरे, तुम बिन प्राण सनेही।
चिन्तामणि जब कर तैं छूटे, तब दुख पावे देही।1।
माता बालक दूध न देवे, सो कैसे कर पीवे।
निर्धन का धन अनत भुलाना, सो कैसे कर जीवे।
वरषहु राम सदा सुख अमृत, नीझर निर्मल धारा।
प्रेम पियाला भर-भर दीजे, दादू दास तुम्हारा।3।
146-अत्यन्त विरह (गुजराती भाषा) अड्डुताल
कोई कहो रे म्हारा नाथ ने, नारी नेण निहारे वाट रे।टेक।
दीन दुखिया सुन्दरी, करुणा वचन कहे रे।
तुम बिन नाह विरहणि व्याकुल, केम कर नाथ रहे रे।1।
भूधार बिन भावे नहिं कोई, हरि बिन और न जाणे रे।
देह गृह हूँ तेने आपँ जे कोई गोविन्द आणे रे।2।
जगपति ने जोवा ने काजे, आतुर थई रही रे।
दादू ने देखाड़ो स्वामी, व्याकुल होइ गई रे।3।
147-विरह विलाप। पंजाबी त्रिाताल
कबहूँ ऐसा विरह उपावे रे, पिव बिन देखे जिव जावे रे।टेक।
विपति हमारी सुनहु सहेली, पवि बिन चैन न आवे रे।
ज्यों जल भीन मीन तन तलफे, पिव बिन वज्र बिहावे रे।1।
ऐसी प्रीति प्रेम की लागे, ज्यों पंखी पीव सुनावे रे।
त्यों मन मेरा रहै निश वासर, कोई पीव को आण मिलावे रे।2।
तो मन मेरा धाीरज धारही, कोई आगम आण जनावे रे।
तो सुख जीव दादू का पावे, पल पिवजी आप दिखावे रे।3।
148-गुजराती भाषा। पंजाबी त्रिाताल
अमे विरहणिया राम तुम्हारड़िया,
तुम बिन नाथ अनाथ, कांइ बिसारड़िया।टेक।
अपने अंग अनल पर जाले, नाथ निकट नहिं आवे रे।
दर्शन कारण विरहनि व्याकुल, और न कोई भावे रे।1।
आप अपरछन अमने देखे, आपणपो, न दिखाड़े रे।
प्राणी पिंजर लेइ रह्यो रे, आड़ा अंतर पाड़े रे।2।
देव-देव कर दर्शन माँगें, अन्तरजामी आपे रे।
दादू विरहणि वन-वन ढूँढे, यह दुख कांइ न कापे रे।3।
149-विरह प्रश्न। राज विद्याधार ताल
पंथीड़ा बूझे विरहणी, कहिनैं पीव की बात।
कब घर आवे कब मिलूँ, जोऊ दिन अरु रात, पंथीड़ा।टेक।
कहाँ मेरा प्रीतम कहाँ बसे, कहाँ रहे कर बास।
कहँ ढूँढूँ कहँ पाइये, कहाँ रहै किस पास, पंथीड़ा।1।
कवण देश कहँ जाइए, कीजे कौण उपाय।
कौण अंग कैसे रहै, कहाँ करै समझाइ, पंथीड़ा।2।
परम सनेही प्राण का, सो कत देहु दिखाइ।
जीवनि मेरे जीवकी, सो मुझ आन मिलाइ, पंथीड़ा।3।
नैन न आवे नींदड़ी, निश दिन तलफत जाइ।
दादू आतुर विरहणी, क्यों कर रैणि विहाइ, पंथीड़ा।4।
150-समुच्चय उत्तार। राज विद्याधार ताल
पंथीड़ा पंथ पिछाणी रे पीव का, गहि विरह की बाट।
जीवत मृतक ह्नै चले, लंघे औघट घाट, पंथीड़ा।टेक।
सद्गुरु शिर पर राखिए, निर्मल ज्ञान विचार।
प्रेम भक्ति करा प्रीति सौं, सन्मुख सिरजनहार, पंथीड़ा।1।
पर आतम सौं आतमा, ज्यों जल जलहिं समाइ।
मन ही सौं मन लाइए, लै के मारग जाइ, पंथीड़ा।2।
तालाबेली ऊपजे, आतुर पीड़ा पुकार।
सुमिर सनेही आपणा, निश दिन बारंबार, पंथीड़ा।3।
देख-देख पग राखिए, मारग खांडे धाार।
मनसा वाचा कर्मना, दादू लंघे पार, पंथीड़ा।4।
151-अनुक्रम से उत्तार। राजमृगांक ताल
साधा कहैं उपदेश, विरहणी
तन भूले तब पाइए, निकट भया उपदेश, विरहणी।टेक।
तुम हीं माँहीं ते बसैं, तहाँ रहे कर बास।
तहँ ढँढे पिव पाइए, जीवन जिव के पास, विरहणी।1।
परम देश तहँ जाइए, आतम लीन उपाय।
एक अंग ऐसे रहै, ज्यों जल जलहि समाइ, विरहणी।2।
सदा संगाती आपणा, कबहूँ दूर न जाइ।
प्राण सनेही पाइए, तन-मन लेहु लगाइ, विरहणी।3।
जागैं जगपति देखिए, परकट मिलि है आइ।
दादू सम्मुख ह्नै रहै, आनन्द अंग न माइ, विरहणी।4।
152-विरह विनती। मकरन्द ताल
गोविन्दागाइबा दे रे आडड़ी आन निवार,गोविन्दा गाईबा दे।
अन दिन अंतर आनंद कीजे, भक्ति प्रेम रस सार रे।टेक।
अनुभव आतम अभय एक रस, निर्भय कांइ न कीजे रे।
अमी महारस अमृत आपे, अम्हे रसिक रस पीजे रे।1।
अविचल अमर अखै अविनाशी, ते रस कांइ न दीजे रे।
आतम राम अधाार अम्हारो, जनम सफल कर लीजे रे।2।
देव दयाल कृपाल दामोदर, प्रेम बिना क्यों रहिए रे।
दादू रँग भर राम रमाड़ो, भक्त बछल तूं कहिए रे।3।
153-(गुजराती) मकरन्द ताल
गोविन्दा जोइबा देरे,
जे बरजैं ते वारि रे, गोविन्दा जोइबा दे रे।
आदि पुरुष तूं अछय अम्हारो, कंत तुम्हारी नारी रे।टेक।
अंगैं संगैं रँगैं रमिये, देवा दूर न कीजे रे।
रस माँहीं रस इम थइ रहिए, ये सुख अमने दीजे रे।1।
सेजड़िये सुख रँग भर रमिये, प्रेम भक्ति रस लीजे रे।2।
समर्थ स्वामी अंतरयामी, बार-बार कांइ बाहे रे।
आदैं अंतैं तेज तुम्हारो, दादू देखे गाये रे।3।
154-शूल ताल
तुम्ह सरसी रंग रमाड़,
आप अपरछन थई करी, मने मा भरमाड़।टेक।
मन भोलवे कांइ थई बेगलो, आपणपो देखाड़।
केम जीवूँ हूँ एकली, विरहणिया नार।1।
मने बाहिश मा अलगो थई, आत्मा उध्दार।
दादू सूँ रमिये सदा, येणे परैं तार।2।
155-काल चेतावनी। तुरंग लील ताल
जाग रे किस नींदड़ी सूता,
रैण बिहाई सब गई, दिन आइ पहूँता।टेक।
सो क्यों सोवे नींदड़ी, जिस मरणा होवे रे।
जौरा वैरी जागणा, जीव तूँ क्यों सोवे रे।1।
जाके शिर पर जम खड़ा शर सांधो मारे रे।
सो क्यों सोवे नीदड़ी, कहि क्यों न पुकारे रे।2।
दिन प्रति निश काल झंपैं, जीव न जागे रे।
दादू सूता नींदड़ी, उस अंग न लागे रे।3।
156-तुरंग लील ताल
जागरे सब रैण बिहाँणी, जाइ जन्म अंजली को पाणी।टेक।
घड़ी-घड़ी घड़ियाल बजावे, जे दिन जाइ सो बहुरि न आवे।1।
सूरज-चंद कहैं समझाइ, दिन-दिन आयु घटंती जाइ।2।
सरवर पाणी तरुवर छाया, निश दिन काल गरासे काया।3।
हंस बटाऊ प्राण पयाना, दादू आतम राम न जाना।4।
157-चौताल
आदि काल अंत काल, मधय काल भाई।
जन्म काल जरा काल, काल संग सदाई।टेक।
जागत काल सोवत काल, काल झंपै आई।
काल चलत काल फिरत, कबहूँ ले जाई।1।
आवत काल जात काल, काल कठिन खाई।
लेत काल देत काल, काल ग्रसे धााई।2।
कहत काल सुनत काल, करत काल सगाई।
काम काल क्रोधा काल, काल जाल छाई।3।
काल आगे काल पीछे, काल संग समाई।
काल रहित राम गहित, दादू ल्यौ लाई।4।
158-हितोपदेश। त्रिाताल
तो को केता कह्या मन मेरे,
क्षण इक माँहीं जाइ अने रे, प्राण उधाारी लेरे।टेक।
आगे है मन खरी बिमासणि, लेखा माँगे दे रे।
काहे सोवे नींद भरी रे, कृत विचारै तेरे।1।
ते पर कीजे मन विचारे, राखे चरणहु नेरे।
रती एक जीवन मोहि न सूझे, दादू चेत सवेरे।2।
159-त्रिाताल
मन वाहला रे कछू विचारी खेल, पड़शे रे गढ़ भेल।टेक।
बहु भांतैं दुख देइगा वाहला, ज्यों तिल माँ लीजे तेल।
करणी ताहरी सोधासी, होसी रे शिर हेल।1।
अब हीं तैं कर लीजिए, रे बाहला, सांईं सेती मेल।
दादू संग न छाड़ी पीव का, पाइ है गुण की बेल।2।
160-उदीक्षण ताल
मन बावरे हो अनत जनि जाय,
तो तूं जीवे अमी रस पीवे, अमर फल काहे न खाय।टेक।
रहु चरण शरण सुख पावे, देखहु नैन अघाय।
भाग तेरे पीव नेरे, थीर थान बताइ।1।
संग तेरे रहै घेरे, सहजैं अंग समाइ।
शरीर माँहीं शोधा सांईं, अनहद धयान लगाइ।2।
पीव पास आवे सुख पावे, तन की तपत बुझाइ।
दादू रे जहँ नाद उपजे, पीव पास दिखाइ।3।
161-भ्रम विधवंसन। उदीक्षण ताल
निरंजन अंजन कीन्हा रे, सब आतम लीन्हा रे।टेक।
अंजन माया अंजन काया, अंजन छाया रे।
अंजन राते अंजन माते, अंजन पाया रे।1।
अंजन मेरा अंजन तेरा, अंजन मेला रे।
अंजन लीया अंजन दीया, अंजन खेला रे।2।
अंजन देवा अंजन सेवा, अंजन पूजा रे।
अंजन ज्ञाना अंजन धयाना, अंजन दूजा रे।3।
अंजन वक्ता अंजन श्रोता, अंजन भावे रे।
अंजन राम निरंजन कीन्हा, दादू गावे रे।4।
162-निज वचन महिमा। चौताल
ऐन बैन चैन होवे, सुनतां सुख लागे रे।
तीनों गुण त्रिाविधि तिमर, भरम करम भागे रे।टेक।
होइ प्रकाश अति उजास, परम तत्तव सूझे।
परम सार निर्विकार, विरला कोई बूझे।1।
परम थान सुख निधाान, परम शून्य खेले।
सहज भाइ सुख समाइ, जीव ब्रह्म मेले।2।
अगम निगम होइ सुगम, दुस्तर तिरि आवै।
आदि पुरुष दर्श परस, दादू सो पावै।3।
163-साधु सांई हेरे। त्रिाताल
कोई राम का राता रे, कोई प्रेम का माता रे।टेक।
कोई मन को मारे रे, कोई तन को तारे रे,
कोई आप उबारे रे।1।
कोई जोग जुगंता रे, कोई मोक्ष मुकंता रे,
कोई है भगवंता रे।2।
कोई सद्गति सारा रे, कोई तारणहारा रे,
कोई पीव का प्यारा रे।3।
कोई पार को पाया रे, कोई मिल कर आया रे,
कोई मन का भाया रे।4।
कोई है बड़ भागी रे, कोई सेज सुहागी रे,
कोई है अनुरागी रे।5।
कोई सब सुख दाता रे, कोई रूप विधााता रे,
कोई अमृत खाता रे।6।
कोई नूर पिछाणैं रे, कोई तेज को जाणैं रे,
कोई ज्योति बखाणैं रे।7।
कोई साहिब जैसा रे, कोई सांई तैसा रे,
कोई दादू ऐसा रे।8।
164-साधु लक्षण। दीपचन्दी
सद् गति साधावा रे, सन्मुख सिरजनहार।
भव जल आप तिरैं ते तारैं, प्राण उधाारणहार।टेक।
पूरण ब्रह्म राग रँग राते, निर्मल नाम अधाार।
सुख संतोष सदा सत संयम, मति गति वार न पार।1।
जुग-जुग राते जुग-जुग माते, जुग-जुग संगति सार।
जुग-जुग मेला जुग-जुग जीवन, जुग-जुग ज्ञान विचार।2।
सकल शिरोमणि सब सुख दाता, दुर्लभ इहिं संसार।
दादू हंस रहै सुख सागर, आये पर उपकार।3।
165-परिचय उत्साह मंगल। दीपचन्दी
अम्ह घर पाहुणा ये, आव्या आतम राम।टेक।
चहुँ दिशि मँगलाचार, आनंद अति घणाये।
वरत्या जै जैकार विरद वधाावणा ये।1।
कनक कलश रस माँहिं, सखी भर ल्यावज्यो ये।
आनन्द अंग न माइ, अम्हारे आवज्यो ये।2।
भावै भक्ति अपार, सेवा कीजिए ये।
सन्मुख सिरजनहार, सदा सुख लीजिए ये।3।
धान्य अम्हारा भाग, आव्या अम्ह भणी ये।
दादू सेज सुहाग, तूं त्रिाभुवन धाणी ये।4।
166-फरोदस्त ताल
गावहु मँगलाचार, आज वधाावणा ये।
स्वप्नों देख्यो साँच, पीव घर आवणा ये।टेक।
भाव कलश जल प्रेमका, सब सखियन के शीश।
गावत चल बधाावणा, जै जै जै जगदीश।1।
पदम कोटि रवि झिलमिले, अंग-अंग तेज अनंत।
विकस वदन विरहणि मिली, घर आये हरि कंत।2।
सुन्दरि सुरति शृंगार कर, सन्मुख परसे पीव।
मो मन्दिर मोहन आविया, वारूँ तन-मन जीव।3।
कमल निरंतर नरहरी, प्रकट भये भगवंत।
जहँ विरहणि गुण बीनवे, खेले फाग वसंत ।4।
वर आयो विरहणि मिली, अरस-परस सब अंग।
दादू सुन्दरि सुख भया, जुग-जुग यहु रस रंग।5।
।इति राग मारू (मारवा) सम्पूर्ण।
अथ राग रामकली
।8।
(गायन समय प्रभात 3 से 6)
167-सद्गुरु शब्द महिमा। दादरा
शब्द समाना जो रहै, गुरु वाइक बीधाा।
उनहीं लागा एक सौं, सोई जन सीधाा।टेक।
ऐसी लागी मर्म की, तन-मन सब भूला।
जीवत मृतक ह्नै रहै, गह आतम मूला।1।
चेतन चितहिं न बीसरे, महा रस मीठा।
शब्द निरंजन गह रह्या, उन साहिब दीठा।2।
एक शब्द जन उध्दरे, सुन सहजैं जागे।
अंतर राते एक सौं, शर सन्मुख लागे।3।
शब्द समाना सन्मुख रहै, पर आतम आगे।
दादू सीझे देखतां, अविनाशी लागे।4।
168-नाम महिमा। त्रिाताल
अहो नर नीका है हरि नाम,
दूजा नहीं नाम बिन नीका, कहले केवल राम।टेक।
निर्मल सदा एक अविनाशी, अजर अकल रस ऐसा।
दृढ़ गह राख मूल मन माँहीं, निरखि देख निज कैसा।1।
यहु रस मीठा महा अमीरस, अमर अनूपं पीवे।
राता रहै प्रेम सौं माता, ऐसे जुग-जुग जीवे।2।
दूजा नहीं आसैर को ऐसा, गुरु अंजन कर सूझे।
दादू मोटे भाग हमारे, दास विवेकी बूझे।3।
169-अत्यन्त विरह। त्रिाताल
कब आवेगा कब आवेगा,
पिव परकट आप दिखावेगा, मिठड़ा मुझको भावेगा।टेक।
कण्ठड़े लाग रहूँ रे, नैनों में बाहि धारूँ रे,
पीव तुझ बिन झूर मरूँ रे।1।
पावों मस्तक मेरा रे, तन-मन पिवजी तेरा रे,
हौं राखूँ नैनहुँ नेरा रे।2।
हियड़े हेत लगाऊँ रे, अब के जे पिव पाऊँ रे,
तो बेर-बेर बलि जाऊँ रे।3।
सेजड़िये पिव आवे रे, तब आनंद अंग न मावे रे,
दादू दर्श दिखावे रे।4।
170-मल्लिकामोद ताल
पिरी तूं पांण समाइडे, मूं तनि लागी भाहिड़े।टेक।
पांधाी वींदो निकरीला, असां साण गल्हाइड़े।
सांईं सिकां सडकेला, गुझी गालि सुनाइड़े।1।
पसां पाक दीदार केला, सिक असां जी लाहिड़े।
दादू मंझि कलूब मैला, तोड़े बीयां न काइड़े।2।
171-मल्लिकामोद ताल
को मेड़ी दो सजणा, सुहारी सुरति केला, लगे डीहु घणां।टेक।
पीरीयां संदी गाल्हड़ीला, पांधाीड़ा पूछां।
कड़ी इंदो मूं गरेला, डीदों बाँह असां।1।
आहे सिक दीदार जीला, पिरी पूरा पसां।
इयं दादू जे ज्यंद येला, सजणा सांण रहां।2।
172-विनती। पंजाबी त्रिाताल
हरि हाँ दिखाओ नैना,
सुन्दर मूरति मोहना, बोल सुनाओ बैना।टेक।
प्रकट पुरातन खंडना, महीमान सुख मंडना।1।
अविनाशी अपरंपरा, दीन दयाल गगन धारा।2।
पारब्रह्म परिपूरणा, दर्श देहु दु:ख दूरणा।3।
कर कृपा करुणामई, तब दादू देखे तुम दई।4।
173-निस्पृहता। पंजाबी त्रिाताल
राम सुख सेवक जाणे रे, दूजा दु:ख कर माने रे।टेक।
और अग्नि की झाला, फंद रोपे हैं जम जाला।
सम काल कठिन शर पेखे, ये सिंह रूप सब देखे।1।
विष सागर लहर तरंगा, यहु ऐसा कूप भुवंगा।
भयभीत भयानक भारी रिपु करवत मीच विचारी।2।
यहु ऐसा रूप छलावा, ठग फाँसी हारा आवा।
सब ऐसा देख विचारे, ये प्राण घात बटपारे।3।
ऐसा जन सेवक सोई, मन और न भावे कोई।
हरि प्रेम मगन रँग राता, दादू राम रमै रस माता।4।
174-साधु महिमा। जय मंगल ताल
आप निरंजन यों कहै, कीरति करतार।
मैं जन सेवक द्वै नहीं, एकै अंग सार।टेक।
मम कारण सब परहरै, आपा अभिमान।
सदा अखंडित उर धारे, बोले भगवान।1।
अंतर पट जीवे नहीं, तब ही मर जाइ।
विछुरे तलफे मीन ज्यों, जीवे जल आइ।2।
क्षीर-नीर ज्यों मिल रहै, जल जलहि समान।
आतम पाणी लौंण ज्यों, दूजा नाँहीं आन।3।
मैं जन सेवक द्वै नहीं, मेरा विश्राम।
मेरा जन मुझ सारिखा, दादू कहै (रे) राम।4।
175-परिचय विनती। जय मंगल ताल
शरण तुम्हारी केशवा, मैं अनंत सुख पाया।
भाग बड़े तूं भेटिया, हौं चरणों आया।टेक।
मेरी तपत मिटी तुम देखतां, शीतल भयो भारी।
भव बंधान मुक्ता भया, जब मिल्या मुरारी।1।
भरम भेद सब भूलिया, चेतन चित लाया।
पारस सौं परिचय भया, उन सहज लखाया।2।
मेरा चंचल चित निश्चल भया, अब अनत न जाई।
मगन भया शर बेधिाया, रस पीया अघाई।3।
सन्मुख ह्नै तैं सुख दिया, यहु दया तुम्हारी।
दादू दर्शन पावई, पीव प्राण अधाारी।4।
176-तिलवाड़ा ताल
गोविन्द राखो अपणी ओट,
काम-क्रोधा भये बट पारे, ताकि मारैं उर चोट।टेक।
वैरी पंच सबल सँग मेरे, मारग रोक रहे।
काल अहेड़ी बधिाक ह्नै लागे, ज्यों जिव बाज गहे।1।
ज्ञान-धयान हिरदै हरि लीना, संग ही घेर रहे।
समझ न परई बाप रमैया, तुम बिन शूल सहे।2।
शरण तुम्हारी राखो गोविन्द, इन सौं संग न दीजे।
इनके संग बहुत दु:ख पाया, दादू को गह लीजे।3।
177-भयमान विनती। रंगताल
राम कृपा कर होहु दयाला, दर्शन देहु करहु प्रतिपाला।टेक।
बालक दूधा न देई माता, तो वह क्यों कर जिवे विधााता।1।
गुण-अवगुण हरि कुछ न विचारे, अंतर हेत प्रीति कर पाले।2।
अपनों जान करे प्रतिपाला, नैन निकट उर धारे गोपाला।3।
दादू कहे नहीं वश मेरा, तूं माता मैं बालक तेरा।4।
178-विनती। त्रिाताल
भक्ति माँगूँ बाप भक्ति माँगूँ, मूने ताहरा नाम नों प्रेम लागो।
शिवपुर ब्रह्मपुर सर्व सौं कीजिए, अमर थावा नहीं लोक माँगूँ।टेक।
आप अवलम्बन ताहरा अंगनों, भक्ति सजीवनी रंग राचूँ।
देहनैं गेहनौं बास बैकुण्ठ तणों, इन्द्र आसण नहिं मुक्ति जाचूँ।1।
भक्ति वाहली खरी, आप अविचल हरी, निर्मलो नाम रस पान भावे।
सिध्दि नैं ऋध्दि नैं राज रूड़ौ नहीं, देव पद म्हारे काज न आवे।2।
आत्मा अंतर सदा निरंतर, ताहरी बापजी भक्ति दीजे।
कहै दादू हिवै कोड़ी दत्ता आपै, तुम्ह बिना ते अम्हें नहिं लीजे।3।
179-राज विद्याधार ताल
एह्नो एक तूं रामजी नाम रूड़ो,
ताहरा नाम बिना बीजो सब ही कूड़ो।टेक।
तुम्ह बिना अवर कोई कलिमां नहीं, सुमरतां संत नै स्वाद आपै।
कर्म कीधाा कोटि छोडवै बाँधाौ, नाम लेतां खिणत ही ये काँपै।1।
संत नै साँकड़ो दुष्ट पीड़ा करै, वाहरैं वाहलौ वेग आवे।
पापना पुंज परहाँ करी लीधाो, भाजिया भय भ्रम योनि न आवे।2।
साधानैं दुहेलो तहाँ तूं आकुलो, म्हारो म्हारो करी नैं धााए।
दुष्ट नैं मारिबा संत नैं तारिबा, प्रकट थावा तहाँ आप जाए।3।
नाम लेतां खिण नाथ तैं एकलै, कोटिनां कर्मनां छेद कीधाा।
कहै दादू हिवैं तुम्ह बिना को नहीं, साखि बोलैं जे शरण लीधाा।4।
180-परिचय विनती। राज विद्याधार ताल
हरि नाम देहु निरंजन तेरा, हरि हर्ष जपे जिय मेरा।टेक।
भाव भक्ति हेत हरि दीजे, प्रेम उमँग मन आवे।
कोमल वचन दीनता दीजे, राम रसायन भावे।1।
विरह वैराग्य प्रीति मोहि दीजे, हृदय साँच सत भाखूँ।
चित चरणों चिंतामणि दीजे, अन्तर दृढ़ कर राखूँ।2।
सहज संतोष शील सब दीजें, मन निश्चल तुम लागे।
चेतन चिन्तन सदा निवासी, संग तुम्हारे जागे।3।
ज्ञान धयान मोहन मोहि दीजे, सुरति सदा सँग तेरे।
दीन दयाल दादू को दीजे, परम ज्योति घट मेरे।4।
181-आशीर्वाद मंगल। झपताल
जय जय जय जगदीश तूं, तूं समर्थ सांई।
सकल भुवन भाने घड़े, दूजा को नाँहीं।टेक।
काल मीच करुणा करैं, यम किंकर माया।
महा जोधा बलवंत बली, भय कँपै राया।1।
जरा मरण तुम तैं डरे, मन को भय भारी।
काम दलन करुणामई, तू देव मुरारी।2।
सब कंपैं करतार तैं, भव बंधान पासा।
अरि रिपु भंजन भय गता, सब विघ्न विनाशा।3।
शिर ऊपर सांई खड़ा, सोई हम माँहीं।
दादू सेवक रामका, निर्भय न डराहीं।4।
182-हितोपदेश। त्रिाताल
हरि के चरण पकर मन मेरा, यहु अविनाशी घर तेरा।टेक।
जब चरण कमल रज पावे, तब काल व्याल बौरावे।
तब त्रिाविधिा ताप तन नाशे, तब सुख की राशि बिलासे।1।
जब चरण कमल चित लागे, तब माथे मीच न जागे।
तब जन्म जरा सब क्षीना, तब पद पावन उर लीना।2।
जब चरण कमल रस पीवे, तब माया न व्यापे जीवे।
तब भरम कर्म भय भाजे, तब तीनों लोक विराजे।3।
जब चरण कमल रुचि तेरी, तब चार पदारथ चेरी।
तब दादू ओर न बाँछे, जब मन लागे साँचे।4।
183-संत उपदेश। राजमृगांक ताल
संतों और कहो क्या कहिए,
हम तुम सीख इहै सद्गुरु की निकट राम के रहिए।टेक।
हम तुम माँहिं बसे सो स्वामी, साचे सौं सचु लहिए।
दर्शन परसन जुग-जुग कीजे, काहे को दु:ख सहिए।1।
हम-तुम संग निकट रहैं नेरे, हरि केवल कर गहिए।
चरण-कमल छाडि कर ऐसे, अनत काहे को बहिए।2।
हम तुम तारन तेज घन सुन्दर, नीके सौं निरबहिए।
दादू देख और दु:ख सब ही, ता में तन क्यों दहिए।3।
184-मन प्रति उपदेश। राजमृगांक ताल
मन रे बहुर न ऐसे होई,
पीछे फिर पछतायेगा रे, नींद भरे जिन सोई।टेक।
आगम सारै संचु करीले, तो सुख होवे तो ही।
प्रीति करी पीव पाइए, चरणों राखो मोही।1।
संसार सागर विषय अति भारी, जिन राखे मन मोही।
दादू रे जन राम नाम सौं, कुश्मल देही धाोई।2।
185-काल चेतावनी
साथी सावधाान ह्नै रहिए,
पलक माँहिं परमेश्वर जाने, कहा होइ कहा कहिए।टेक।
बाबा बाट घाट कुछ समझ न आवे, दूर गमन हम जाना।
परदेशी पंथ चले अकेला, औघट घाट पयाना।1।
बाबा संग न साथी कोइ नहिं तेरा, यहु सब हाट पसारा।
तरुवर पंखी सबै सिधााये, तेरा कौण गँवारा।2।
बाबा सबै बटाऊ पंथ शिरानैं, सुस्थिर नाँहीं कोई।
अंत काल को आगे-पीछे, विछुरत बार न होई।3।
बाबा काची काया कौण भरोसा, रैन गई क्या सोवे।
दादू संबल सुकृत लीजे, सावधाान किन होवे।4।
186-तर्क चेतावनी। शूल ताल
मेरा-मेरा काहे को कीजे, रे जे कुछ संग न आवे।
अनत करी नै धान धारीला, रे तेऊ तो रीता जावै।टेक।
माया बंधान अंधा न चेते रे, मेर माँहिं लपटाया।
ते जाणूं हूँ यह विलासौं, अनत विरोधो खाया।1।
आप स्वारथ यह विलूधाा रे, आगम मरम न जाणे।
जमकर माथे बाण धारीला, ते तो मन ना आणे।2।
मन विचारि सारी ते लीजे, तिल माँहीं तन पड़िबा।
दादू रे तहँ तन ताड़ीजै, जेणे मारग चढिबा।3।
187-हितोपदेश विनती। शूल ताल
सन्मुख भइला रे, तब दु:ख गइला रे, ते मेरे प्राण अधाारी।
निराकार निरंजन देवा रे, लेवा तेह विचारी।टेक।
अपरम्पार परम निज सोई, अलख तोरा विस्तारं।
अंकुर बीजे सहज समाना रे, ऐसा समर्थ सारं।1।
जे तैं कीन्हा किन्हि इक चीन्हा रे, भइला ते परिमाणं।
अविगत तोरी विगति न जाणूं, मैं मूरख अयानं।2।
सहजैं तोरा एक मन मोरा, साधान सौं रँग आई।
दादू तोरी गति नहिं जाने, निर्वाहो कर लाई।3।
188-मन प्रति शूरातन। त्रिाताल
हरि मारग मस्तक दीजिए, तब निकट परम पद लीजिए।टेक।
इस मारग माँहीं मरणा, तिल पीछे पाव न धारणा।
अब आगे होइ सो होई, पीछे सोच न करणा कोई।1।
ज्यों शूरा रण झूझे, तब आपा पर नहिं बूझे।
शिर साहिब काज सँवारे, घण घावाँ आपा डारे।2।
सती सत्य गह साँचा बोले, मन निश्चल कदे न डोले।
वाके सोच-पोच जिय न आवे, जग देखत आप जलावे।3।
इस शिर सौं साटा कीजे, तब अविनाशी पद लीजे।
ताका तब शिर साबत होवे, जब दादू आपा खोवे।4।
189-कलियुगी। त्रिाताल
झूठा कलियुग कह्या न जाइ, अमृत को विष कहें बणाय।टेक।
धान को निर्धान निर्धान को धान, नीति अनीति पुकारे।
निर्मल मैला मैला निर्मल, साधु चोर कर मारे।1।
कंचन काच काच को कंचन, हीरा कंकर भाखे।
माणिक मणियाँ-मणियाँ माणिक, साँच झूठ कर नाखे।2।
पारस पत्थर पत्थर पारस, कामधोनु पशु गावे।
चंदन काठ काठ को चंदन, ऐसी बहुत बनावे।3।
रस को अणरस अणरस को रस, मीठा खारा होई।
दादू कलियुग ऐसा बरते, साँचा विरला कोई।4।
190-भगवन्त भरोसा। ललित ताल
दादू मोहि भरोसा मोटा,
तारण तिरण सोई संग मेरे, कहा करे कलि खोटा।टेक।
दौं लागी दरिया तैं न्यारी, दरिया मंझ न जाई।
मच्छ-कच्छ रहैं जल जेते, तिन को काल न खाई।1।
जब सूवे पिंजर घर पाया, बाज रह्या बन माँहीं।
जिनका समर्थ राखणहारा, तिनको को डर नाँहीं।2।
साँचे झूठ न पूजे कब हूँ, सत्य न लागे काई।
दादू साँचा सहज समाना, फिर वै झूठ बिलाई।3।
191-साँच-झूठ निर्णय। प्रतिताल
सांई को साँच पियारा,
साँचे-साँच सुहावे देखो, साँचा सिरजनहारा।टेक।
ज्यों घण घावाँ सार घड़ीजे, झूठ सबै झड़ जाई।
घण के घाऊँ सार रहेगा, झूठ न माँहिं समाई।1।
कनक कसौटी अग्नि मुख दीजे, पंक सबै जल जाई।
यों तो कसणी साँच सहेगा, झूठ सहै नहिं भाई।2।
ज्यों घृत को ले ताता कीजे, ताइ-ताइ तत कीन्हा।
तत्तवै तत्तव रहेगा भाई, झूठ सबै जल खीना।3।
यों तो कसणी साँच सहेगा, साँचा कस-कस लेवे।
दादू दर्शन साँचा पावे, झूठे दर्श न देवे।4।
192-करणी बिना कथनी। प्रतिताल
बातैं बाद जाहिगी भइये, तुम जिन जाने बात न पइये।टेक।
जब लग अपना आप न जाने, तब लग कथनी काची।
आपा जान सांई को जाने, तब कथणी सब साँची।1।
करणी बिन कंत नहिं पावे, कहे सुणे का होई।
जैसी कहै करे जे तैसी, पावेगा जन सोई।2।
बातन हीं जे निर्मल होवे, तो काहे को कस लीजे।
सोना अग्नि दहे दश वारा, तब यहु प्राण पतीजे।3।
यों हम जाना मन पतियाना, करणी कठिन अपारा।
दादू तन का आपा जारे, तो तिरत न लागे बारा।4।
193-उपदेश। पंजाबी त्रिाताल
पंडित, राम मिले सो कीजे,
पढ-पढ वेद-पुराण बखाने, सोइ तत्तव कह दीजे।टेक।
आत्मा रोगी विषम बियाधाी, सोई कर औषधिा सारा।
परसत प्राणी होइ परम सुख, छूटे सब संसार।1।
ये गुण इन्द्री अग्नि अपारा, ता सन जले शरीरा।
तन-मन शीतल होइ सदा सुख, सो जल न्हाओ नीर।2।
सोई मारग हमहिं बताओ, जेहि पंथ पहुँचे पारा।
भूल न परे उलट नहिं आवे, सो कुछ करहू विचारा।3।
गुरु उपदेश देहु कर दीपक, तिमर मिटे सब सूझे।
दादू सोई पंडित ज्ञाता, राम मिलण की बूझे।4।
194-उपदेश। प्रतिताल
हरि राम बिना सब भरम गये, कोई जन तेरा साँच गहै।टेक।
पीवे नीर तृषा तन भाजे, ज्ञान गुरु बिन कोइ न लहै।
परकट पूरा समझ न आवे, तातैं सो जल दूर रहै।1।
हर्ष शोक दोउ सम कर राखे, एक-एक के सँग न बहै।
अनतहि जाइ तहाँ दुख पावे, आपहि आपा आप दहै।2।
आपा पर भरम सब छाडे, तीन लोक पर ताहि धारै।
सो जन सही साँच को परसे, अमर मिले नहिं कबहुँ मरै।3।
पारब्रह्म सौं प्रीत निरंतर, राम रसायण भर पीवे।
सदा अनंद सुखी साँचे सौं, कहै दादू सो जन जीवे।4।
195-भ्रम विधवंसन। प्रतिताल
जग अंधाा नैन न सूझे, जिन सिरजे ताहि न बूझै।टेक।
पाहण की पूजा करै, कर आत्मा घाता।
निर्मल नैन न आवई, दोजख दिशि जाता।1।
पूजैं देव दिहाडिया, महा-माई मानैं।
परकट देव निरंजना, ताकी सेव न जानैं।2।
भैरूँ भूत सब भरम के, पशु-प्राणी धयावैं।
सिरजनहारा सबनका, ताको नहिं पावैं।3।
आप स्वारथ मेदनी, का का नहिं कर ही।
दादू साँचे राम बिन, मर-मर दु:ख भर ही।4।
196-अन्य उपासक विस्मयवादी भ्रम रंगताल
साँचा राम न जाणे रे, सब झूठ बखाणे रे।टेक।
झूठे देवा झूठी सेवा, झूठा करे पसारा।
झूठी पूजा झूठी पाती, झूठा पूजणहारा।1।
झूठा पाक करे रे प्राणी, झूठा भोग लगावे।
झूठा आड़ा पड़दा देवे, झूठा थाल बजावे।2।
झूठे वक्ता झूठे श्रोता, झूठी कथा सुनावे।
झूठा कलियुग सबको माने, झूठा भरम दृढावे।3।
स्थावर-जंगम जल-थल महियल, घट-घट तेज समाना।
दादू आतम राम हमारा, आदि पुरुष पहचाना।4।
117-निज मार्ग निर्णय। चौताल
मैं पंथी एक अपार का, मन और न भावे।
सोइ पंथ पावे पीव का, जिसे आप लखावे।टेक।
को पंथ हिन्दू-तुरक के, को काहूँ राता।
को पंथ सोफी सेवड़े, को संन्यासी माता।1।
को पंथ जोगी जंगमा, को शक्ति पंथ धयावे।
को पंथ कमड़े कापड़ी, को बहुत मनावे।2।
को पंथ काहू के चलै, मैं और न जानूँ।
दादू जिन जग सिरजिया, ताही का मानूँ।3।
198-साधु मिलाप मंगल। चौताल
आज हमारे रामजी, साधु घर आये।
मँगलाचार चहुँ दिशि भये, आनन्द बधााये।टेक।
चौक पुराऊँ मोतियाँ, घिस चन्दन लाऊँ।
पंच पदारथ पोइ के, यह माल चढाऊँ।1।
तन-मन-धान करूँ वारने, प्रदक्षिणा दीजे।
शीश हमारा जीव ले, नौछावर कीजे।2।
भाव भक्ति कर प्रीति सौं, प्रेम रस पीजे।
सेवा वन्दन आरती, यहु लाहा लीजे।3।
भाग हमारा हे सखी, सुख सागर पाया।
दादू को दर्शन भया, मिले त्रिाभुवन राया।4।
199-सन्त समागम प्रार्थना। दादरा
निरंजन नाम का रस माते, कोई पूरे प्राणी राते।टेक।
सदा सनेही राम के, सोई जन साँचे।
तुम बिन और न जान हीं, रंग तेरे ही राचे।1।
आन न भावे एक तूं, सत्य साधु सोई।
प्रेम पियासे पीव के, ऐसा जन कोई।2।
तुम हीं जीवन उर रहे, आनन्द अनुरागी।
प्रेम मगन पिव प्रीतड़ी, लै तुम सौं लागी।3।
जे जन तेरे रँग रँगे, दूजा रँग नाँहीं।
जन्म सफल कर लीजिए, दादू उन माँहीं।4।
200-अत्यन्त निर्मल उपदेश। दादरा
चल रे मन जहाँ अमृत बना, निर्मल नीके सन्त जना।टेक।
निर्गुण नाम फल अगम अपार, सन्तन जीवन प्राण अधाार।1।
शीतल छाया सुखी शरीर, चरण सरोवर निर्मल नीर।2।
सुफल सदा फल बारह मास, नाना वाणी धवनि प्रकाश।3।
तहाँ बास बसे अमर अनेक, तहँ चल दादू इहैं विवेक।4।
201-चौताल
चलो मन म्हारा, जहाँ मित्रा हमारा,
तहँ जामण मरण नहिं जाणिये, नहिं जाणिये।टेक।
मोह न माया मेरा न तेरा, आवागमन नहीं जम फेरा।1।
पिंड न पड़े प्राण नहिं छूटे, काल न लागे आयु न खूटे।2।
अमरलोक तहँ अखिल शरीरा, व्याधिा विकार न व्यापे पीरा।3।
राम राज कोइ भिड़े न भाजे, सुस्थिर रहणा बैठा छाजे।4।
अलख निरंजन और न कोई, मित्रा हमारा दादू सोई।5।
202-बेली। त्रिाताल
बेली आनन्द प्रेम समाइ,
सहजैं मगन राम रस सींचे, दिन-दिन बधाती जाइ।टेक।
सद्गुरु सहजैं बाही बेली, सहज गगन घर छाया।
सहजैं-सहजैं कोंपल मेल्हे, जाणे अवधू राया।1।
आतम बेलि सहजैं फूले, सदा फूल फल होई।
काया बाड़ी सहजैं निपजे, जाणे बिरला कोई।2।
मन हठ बेली सूखण लागी, सहजैं युग-युग जीवे।
दादू बेलि अमर फल लागे, सहज सदा रस पीवे।3।
203-शब्द बाण। त्रिाताल
सन्तो राम बाण मोहि लागे,
मारत मिरग मरम तब पायो, सब संगी मिल जागे।टेक।
चित चेतन चिन्तामणि चीन्हा, उलट अपूठा आया।
मन्दिर पैसि बहुर नहिं निकसे, परम तत्तव घर पाया।1।
आवे न जाइ जाइ नहिं आवे, तिहिं रस मनवा माता।
पान करत परमानन्द पाया, थकित भया चल जाता।2।
भयो अपंग पंक नहिं लागे, निर्मल संग सहाई।
पूरण ब्रह्म अखिल अविनाशी, तिहिं तज अनत न जाई।3।
सो शर लाग प्रेम परकाशा, प्रकटी प्रीतम वाणी।
दादू दीनदयाल हि जाणे, सुख में सुरति समाणी।4।
204-निजस्थान निर्णय। झपताल
मधय नैन निरखूं सदा, सो सहज स्वरूप।
देखत ही मन मोहिया, है सो तत्तव अनूप।टेक।
त्रिावेणी तट पाइया, मूरति अविनाशी।
युग-युग मेरा भावता, सोई सुख राशी।1।
तारुणी तट देख हूँ, तहाँ सुस्थाना।
सेवक स्वामी संग रहै, बैठे भगवाना।2।
निर्भय थान सुहात सो, तहँ सेवक स्वामी।
अनेक यतन कर पाइया, मैं अन्तरयामी।3।
तेज तार परमिति नहीं, ऐसा उजियारा।
दादू पार न पाइये, सो स्वरूप सँभारा।4।
205-झपताल
निकट निरंजन देख हौं, छिन दूर न जाई।
बाहर-भीतर एकसा, सब रह्या समाई।टेक।
सद्गुरु भेद लखाइया, तब पूरा पाया।
नैनन हीं निरखूँ सदा, घर सहजैं आया।1।
पूरे सौं परिचय भया, पूरी मति जागी।
जीव जाण जीवण मिल्या, ऐसे बड़ भागी।2।
रोम-रोम में रम रह्या, सो जीवन मेरा।
जीव-पीव न्यारा नहीं, सब संग बसेरा।3।
सुन्दर सो सहजैं रहै, घट अन्तरयामी।
दादू सोई देख हों, सारों संग स्वामी।4।
206-परिचय उपदेश। त्रिाताल
सहज सहेलड़ी हे, तूं निर्मल नैन निहारि।
रूप-अरूप निर्गुण-अवगुण में, त्रिाभुवन दाता देव मुरारि।टेक।
बारंबार निरख जग जीवन, इहि घर हरि अविनाशी।
सुन्दरि जाइ सेज सुख विलसे, पूरण परम निवासी।1।
सहजैं संग परस जग जीवन, आसण अमर अकेला।
सुन्दरि जाइ सेज सुख सोवे, जीव ब्रह्म का मेला।2।
मिल आनन्द प्रीति कर पावन, अगम निगम जहँ राजा।
जाइ तहाँ परस पावन को, सुन्दरि सारे काजा।3।
मंगलाचार चहूँ दिशि रोपे, जब सुन्दरि पिव पावे।
परम ज्योति पूरे सौं मिलकर, दादू रंग लगावे।4।
207-वस्तु निर्देश। त्रिाताल
तहँ आपै आप निरंजना, तहँ निश वासर नहिं संयमा।टेक।
तहँ धारती अम्बर नाँहीं, तहँ धूप न दीसे छाँहीं।
तबँ पवन न चाले पाणी, तहँ आपै एक बिलाणी।1।
तहँ चन्द न ऊगै सूरा, मुख काल न बाजै तूरा।
तहँ सुख दु:ख का गम नाँहीं, ओ तो अगम अगोचर माँहीं।2।
तहँ काल काया नहिं लागे, तहँ को सोवे को जागे।
तहँ पाप-पुन्य नहिं कोई, तहँ अलख निरंजन सोई।3।
तहँ सहज रहै सो स्वामी, सब घट अन्तरजामी।
सकल निरन्तर बासा, रट दादू संगम पासा।4।
208-त्रिाताल
अवधू बोल निरंजन बाणी, तहँ एकै अनहद जाणी।टेक।
तहँ वसुधाा का बल नाँहीं, तहँ गगन घाम नहिं छाहीं।
तहँ चंद सूर नहिं जाई, तहँ काल काया नहिं भाई।1।
तहँ रैणि दिवस नहिं छाया, तहँ वायु वरण नहिं माया।
तहँ उदय-अस्त नहिं होई, तहँ मरे न जीवे कोई।2।
तहँ नाँहीं पाठ पुराना, तहँ अगम निगम नहिं जाना।
तहँ विद्या वाद न ज्ञाना, नहिं तहँ योग रु धयाना।3।
तहँ निराकार निज ऐसा, तहँ जाण्या जाइ न जैसा।
तहँ सब गुण रहिता गहिये, तहँ दादू अनहद कहिये।4।
209-प्रसिध्द साधु। प्रतिताल
बाबा को ऐसा जन जोगी,
अंजन छाडे रहे निरंजन, सहज सदा रस भोगी।टेक।
छाया माया रहै विवर्जित, पिंड ब्रह्मंड नियारे।
चंद-सूर तैं अगम अगोचर, सो गह तत्तव विचारे।1।
पाप-पुन्य लिपे नहिं कबहूँ, रो पंख रहिता सोई।
धारणि-आकाश ताहि तैं ऊपरि, तहाँ जाइ रत होई।2।
जीवन-मरण न बाँछे कबहूँ, आवागमन न फेरा।
पाणी पवन परस नहिं लागे, तिहिं संग करे बसेरा।3।
गुण आकार जहाँ गम नाँहीं, आपैं आप अकेला।
दादू जाइ तहाँ जन योगी, परम पुरुष सौं मेला।4।
210-परिचय परा भक्ति। राज विद्याधार ताल
योगी जान-जान जन जीवे,
बिन हीं मनसा मन हि विचारे, बिन रसना रस पीवे।टेक।
बिन हीं लोचन निरख नैन बिन, श्रवण रहित सुन सोई।
ऐसे आतम रहै एक रस, तो दूसर नाम न होई।1।
बिन हीं मारग चले चरण बिन, निश्चल बैठा जाई।
बिन हीं काया मिले परस्पर, ज्यों जल जलहि समाई।2।
बिना हीं ठाहर आसण पूरे, बिन कर बैन बजावे।
बिन हीं पाँऊँ नाचे निशि दिन, बिन जिह्ना गुण गावे।3।
सब गुण रहिता सकल बियापी, बिन इन्द्री रस भोगी।
दादू ऐसा गुरु हमारा, आप निरंजन योगी।4।
211-रूपक ताल
इहै परम गुरु योगं, अमी महा रस भोगं।टेक।
मन पवना थिर साधां, अविगत नाथ अराधां,
तहँ शब्द अनाहद नादं।1।
पंच सखी परमोधां, अगम ज्ञान गुरु बोधां,
तहँ नाथ निरंजन शोधां।2।
सद्गुरु माँहिं बतावा, निराधाार घर छावा,
तहँ ज्योति स्वरूपी पावा।3।
सहजैं सदा प्रकाशं, पूरण ब्रह्म विलासं,
तहँ सेवक दादू दासं।4।
212-अनभई। त्रिाताल
मूनै येह अचम्भो थाये,
कीड़ीये हस्ती विडारयो, तैन्हैं बैठी खाये।टेक।
जाण हुतौ ते बैठो हारे, अजाण तेन्हैं ता वाहे।
पांगुलोउ जाबा लाग्यो, तेन्हैं कर को साहै।1।
नान्हो हुतो ते मोटो थायो, गगन मंडल नहिं माये।
मोटे रो विस्तार भणीजे, ते तो केन्हे जाये ।2।
ते जाणैं जे निरखी जोवे, खोजी नैं बलि माँहें।
दादू तेन्हौं मर्म न जाणैं, जे जिह्ना विहूंणौं गाये।3।
।इति राग रामकली सम्पूर्ण।
अथ राग आसावरी
।9।
(गायन समय प्रात: 6 से 9)
216-उत्ताम स्मरण ब्रह्म ताल
तूं हीं मेरे रसना, तूं ही मेरे बैना,
तूं हीं मेरे श्रावना, तूं हीं मेरे नैना।टेक।
तूं हीं मेरे आतम कमल मंझारी,
तूं हीं मेरी मनसा तुम पर वारी।1।
तूं हीं मेरे मन हीं, तूं हीं मेरे श्वासा,
तूं हीं मेरे सुरतैं, प्राण निवासा।2।
तूं हीं मेरे नख-शिख सकल शरीरा,
तूं हीं मेरे जियरे ज्यों जल नीरा।3।
तुम बिन मेरे और कोई नाँहीं,
तूं हीं मेरी जीवन दादू माँहीं।4।
214-अहनन्य शरण। झूमरा
तुम्हारे नाम लाग हरि जीवण मेरा, मेरे साधान सकल नाम निज तेरा।टेक।
दान-पुन्य तप तीरथ मेरे, केवल नाम तुम्हारा।
ये सब मेरे सेवा-पूजा, ऐसा बरत हमारा।1।
ये सब मेरे वेद पुराणा, शुचि संयम है सोई।
ज्ञान धयान ये ही सब मेरे, और न दूजा कोई।2।
काम क्रोधा काया वश करणाँ, ये सब मेरे नामा।
मुकता गुप्ता परकट कहिए, मेरे केवल रामा।3।
तारण तिरण नाम निज तेरा, तुम हीं एक अधाारा।
दादू अंग एक रस लागा, नाम गहै भव पारा।4।
215-चतुष्ताल
हरि केवल एक अधाारा, सोई तारण तिरण हमारा।टेक।
ना मैं पंडित पढ़ गुण जाणूँ, ना कुछ ज्ञान विचारा।
ना मैं आगम ज्योतिष जाणूँ, ना मुझ रूप शृंगारा।1।
ना तप मेरे इन्द्री निग्रह, ना कुछ तीरथ फिरणा।
देवल पूजा मेरे नाँहीं, धयान कछू नहिं धारणा।2।
जोग जुगति कछू नहिं मेरे, ना मैं साधान जानूँ।
औषधिा मूली मेरे नाँहीं, ना मैं देश बखानूँ।3।
मैं तो और कुछ नहिं जाणूँ, कहो और क्या कीजे।
दादू एक गलित गोविन्द सौं, इहि विधिा प्राण पतीजे।4।
216-परिचय। चतुष्ताल
पीव घर आवनो ए, अहो मोहि भावनो ते।टेक।
मोहन नीको री हरी, देखूँगी ऍंखियाँ भरी।
राखूँ हौं उर धारी प्रीति खरी, मोहन मेरो री माई।
रहूँगी चरणों धााई, आनन्द बधााई, हरि के गुण गाई।1।
दादू रे चरण गहिए, जाई ते तिहाँ तो रहिए।
तन-मन सुख लहीए, बिनती गहीए।2।
217-त्रिाताल
हाँ माई ! मेरो राम वैरागी, तज जिन जाइ।टेक।
राम विनोद करत उर अंतरि, मिल हौं वैरागनि धााइ।1।
जोगिन ह्नै कर फिरूँगी विदेशा, राम नाम ल्यौ लाइ।2।
दादू को स्वामी है रे उदासी, रहि हौं नैन दोइ लाइ।3।
218-उपदेश चेतावनी। राजमृगांक ताल
रे मन गोविन्द गाइ रे गाइ, जन्म अविरथा जाइ रे जाइ।टेक।
ऐसा जन्म न बारंबारा, तातैं जपले राम पियारा।1।
यहु तन ऐसा बहुतर न पावे, तातैं गोविन्द काहे न गावे।2।
बहुर न पावे मानुष देही, तातैं करले राम सनेही।3।
अब के दादू किया निहाला, गाइ निरंजन दीन दयाला।4।
219-काल चेतावनी। राजमृगांक ताल
मन रे सोवत रैणि विहानी, तैं अजहूँ जात न जानी।टेक।
बीती रैणि बहुर नहिं आवे, जीव जाग जिन सोवे।
चारों दिशा चोर घर लागे, जाग देख क्या होवे।1।
भोर भये पछतावण लागा, माँहिं महल कुछ नाँहीं।
जब जाइ काल काया कर लागे, तब सोधो घर माँहीं।2।
जाग जनत कर राखो सोई, तब तन तत्ता न जाई।
चेतन पहरे चेतन नाँहीं, कहि दादू समझाई।3।
220-राज विद्याधार ताल
देखत ही दिन आइ गये, पलट केश सब श्वेत भये।टेक।
आई जरा मीच अरु मरणा, आया काल अबै क्या करणा।1।
श्रवणों सुरति गई नैन न सूझे, सुधिा-बुधिा नाठी कह्या न बूझे।2।
मुखतैं शब्द विकल भइ बाणी, जन्म गया सब रैणि बिहाणी।3।
प्राण पुरुष पछतावण लागा, दादू अवसर काहे न जागा।4।
221-उपदेश। राजा विद्याधार ताल
हरि बिन हाँ हो कहुँ सचु नाँहीं, देखत जाइ विषय फल खाहीं।टेक।
रस रसना के मीन मन भीरा, जल तैं जाइ यों दहै शरीरा।1।
गज के ज्ञान मगन मद माता, अंकुश डोरि गहै फँद गाता।2।
मरकट मूठी माँहिं मन लागा, दु:ख की राशि भ्रमै भ्रम भागा।3।
दादू देखु हरी सुख दाता, ताको छाड कहाँ मन राता।4।
222-उदीक्षण ताल
सांई बिना संतोष न पावे, भावै घर तज वन-वन धाावे।टेक।
भावै पढ गुण वेद उचारे, आगम निगम सबै विचारे।1।
भावै नव खंड सब फिर आवे, अजहूँ आगे काहे न जावे।2।
भावै सब तज रहै अकेला, भाई बंधु न काहू मेला।3।
दादू देखे सांई सोई, साँच बिना संतोष न होई।4।
223-मनोपदेश चेतावनी। उदीक्षण ताल
मन माया रातो भूले,
मेरी मेरी कर कर बोरे, कहा मुगधा नर फूले।टेक।
माया कारण मूल गमावे, समझ देख मन मेरा।
अंत काल जब आइ पहूँचा, कोई नहीं तब तेरा।1।
मेरी मेरी कर नर जाणे, मन मेरी कर रहिया।
तब यहु मेरी काम न आवे, प्राण पुरुष जब गहिया।2।
राव रंक सब राजा राणा, सबहिन को बौरावे।
छत्रापति भूपति तिनके संँग, चलती बेर न आवे।3।
चेत विचार जान जिय अपने, माया संग न जाई।
दादू हरि भज समझ सयाना, रहो राम ल्यौ लाई।4।
224-काल चेतावणी। ललित ताल
रहसी एक उपावणहारा, और चलसी सब संसारा।टेक।
चलसी गगन-धारणि सब चलसी, चलसी पवन अरु पाणी।
चलसी चंद-सूर पुनि चलसी, चलसी सबै उपानी।1।
चलसी दिवस रैण भी चलसी, चलसी जुग जम वारा।
चलसी काल व्याल पुनि चलसी, चलसी सबै पसारा।2।
चलसी स्वर्ग-नरक भी चलसी, चलसी भूचणहारा।
चलसी सुख-दु:ख भी चलसी, चलसी कर्म विचारा।3।
चलसी चंचल निश्चल रहसी, चलसी जे कुछ कीन्हा।
दादू देख रहै अविनाशी, और सबै घट क्षीना।4।
225-त्रिाताल
इहि कलि हम मरणे को आये, मरण मीत उन संग पठाये।टेक।
जब तैं यहु हम मरण विचारा, तब तैं आगम पंथ सँवारा।1।
मरण देख हम गर्व न कीन्हा, मरण पठाये सो हम लीन्हा।2।
मरणा मीठा लागे मोहि, इहि मरणे मीठा सुख होइ।3।
मरणे पहली मरे जे कोई, दादू सो अजरावर होई।4।
226-त्रिाताल
रे मन मरणे कहा डराई, आगे-पीछे मरणा रे भाई।टेक।
जे कुछ आवे थिर न रहाई, देखत सबै चल्या जग जाई।1।
पीर पैगम्बर किया पयाना, शेख मुशायक सबै समाना।2।
ब्रह्मा विष्णु महेश महाबलि, मोटे मुनि जन गये सबै चलि।3।
निश्चल सदा सोइ मन लाई, दादू हर्ष राम गुण गाई।4।
227-वस्तु निर्देश निर्णय। मल्लिकामोद ताल
ऐसा तत्तव अनूपम भाई, मरे न जीवे काल न खाई।टेक।
पावक जरे न मारयो मरई काटयो कटे न टारयो टरई।1।
अक्षर खिरे न लागे काई, शीत घाम जल डूब न जाई।2।
माटी मिले न गगन बिलाई, अघट एक रस रह्या समाई।3।
ऐसा तत्तव अनूपम कहिए, सो गह दादू काहे न रहिए।4।
228-मनोपदेश। मल्लिकामोद ताल
मन रे सेव निरंजन राई, ताको सेवो रे चित लाई।टेक।
आदि अंतै सोई उपावे, परलै ले छिपाई।
बिन थंभा जिन गगन रहाया, सो रह्या सबन में समाई।1।
पाताल माँहीं जे आराधौ, वासुकि रे गुण गाई।
सहस मुख जिह्ना ह्नै ताके, सोभी पार न पाई।2।
सुर-नर जाको पार न पावे, कोटि मुनी जन धयाई।
दादू रे तन ताको है रे, जाको सकल लोक आराही।3।
229-जीव-उपदेश। भंगताल
निरंजन योगी जान ले चेला, सकल वियापी रहै अकेला।टेक।
खपर न झोली डंड अधाारी, मढी न माया लेहु विचारी।1।
सींगी मुद्रा विभूति न कंथा, जटा जाप आसण नहिं पंथा।2।
तीरथ व्रत न वन खंड बासा, माँग न खाइ नहीं जग आशा।3।
अमर गुरु अविनासी योगी, दादू चेला महारस भोगी।4।
230-उपदेश। भंगताल
जोगिया वैरागी बाबा, रहै अकेला उनमनि लागा।टेक।
आतम योगी धाीरज कंथा, निश्चल आसण आगम पंथा।1।
सहजैं मुद्रा अलख अधाारी, अनहद सींगी रहणि हमारी।2।
काया वन खंड पाँचों चेला, ज्ञान गुफा में रहै अकेला।3।
दादू दरशण कारण जागे, निरंजन नगरी भिक्षा माँगे।4।
231-समता ज्ञान। ललित ताल
बाबा कहु दूजा क्यों कहिए, तातैं इहि संशय दु:ख सहिए।टेक।
यहु मति ऐसी पशुवां जैसी, काहे चेतत नाँहीं।
अपणा अंग आप नहिं जाणे, देखे दर्पण माँहीं।1।
इहि मति मीच मरण के तांई, कूप सिंह तहँ आया।
डूब मुवा मन मरम न जान्या, देख आपणी छाया।2।
मद के माते समझत नाँहीं, मैंगल की मति आई।
आपै आप आप दु:ख दीन्हा, देख आपणी झाँई।3।
मन समझे तो दूजा नाँहीं, बिन समझे दु:ख पावे।
दादू ज्ञान गुरु का नाँहीं, समझे कहाँ तें आवे।4।
232-ललित ताल
बाबा नाँहीं दूजा कोई,
एक अनेक नाम तुम्हारे, मोपै और न होई।टेक।
अलख इलाही एक तूं, तूं ही राम-रहीम।
तूं ही मलिक मोहना, केशव नाम करीम।1।
सांई सिरजनहार तूं, तूं पावन तूं पाक।
तूं कायम करतार तूं, तूं हरि हाजिर आप।2।
रमता राजिक एक तूं, तूं सारंग सुबहान।
कादिर करता एक तूं, तूं साहिब सुलतान।3।
अविगत अल्लह एक तूं, गनी गुसांई एक।
अजब अनूपम आप है, दादू नाम अनेक।4।
223-समर्थाई। रंग ताल
जीवत मारे मुये जिलाये, बोलत गूँगे गूँग बुलाये।टेक।
जागत निश भर सोई सुलाये, सोवत रैनी सोई जगाये।1।
सूझत नैनहुँ लोइ न लीये, अंधा विचारे ता मुख दीये।2।
चलते भारी ते बिठलाये, अपंग विचारे सोई चलाये।3।
ऐसा अद्भुत हम कुछ पाया, दादू सद्गुरु कह समझाया।4।
234-प्रश्न। रंगताल
क्यों कर यह जग रच्यो गुसांई,
तेरे कौण विनोद बन्यो मन माँहीं।टेक।
कै तुम आपा परकट करणा, कै यहु रचले जीव उधारणा।1।
कै यहु तुम को सेवक जानैं, कै यहु रचले मन के मानैं।2।
कै यहु तुम को सेवक भावे, कै यहु रचले खेल दिखावे।3।
कै यहु तम को खेल पियारा, कै यहु भावे कीन्ह पसारा।4।
यहु सब दादू अकथ कहाणी, कह समझावो सारंग प्राणी।5।
उत्तार की साखी
दादू परमारथ को सब किया, आप स्वारथ नाँहिं।
परमेश्वर परमारथी, कै साधु कलि माँहिं।
खालिक खेले खेल कर, बूझे विरला कोय।
लेकर सुखिया ना भया, देकर सुखिया होय।
235-समर्थाई। झपताल
हरे-हरे सकल भुवन भरे, युग-युग सब करे।
युग-युग सब धारे, अकल-सकल जरे, हरे-हरे।टेक।
सकल भुवन छाजे, सकल भुवन राजे, सकल कहै।
धारती-अम्बर गहै, चंद-सूर सुधिा लहै, पवन प्रकट बहै।1।
घट-घट आप देवे, घट-घट आप लेवे, मंडित माया।
जहाँ-तहाँ आप राया, जहाँ-तहाँ आप छाया, अगम-अगम पाया।2।
रस माँहीं रस राता, रस माँहीं रस माता, अमृत पीया।
नूर माँहीं नूर लीया, तेज माँहीं तेज कीया, दादू दरश दीया।3।
236-परिचय उपदेश। चौताल
पीव-पीव आदि-अन्त पीव,
परस-परस अंग-संग, पीव तहाँ जीव।टेक।
मन पवन भवन गवन, प्राण कमल माँहिं।
निधिा निवास विधिा विलास, रात-दिवस नाँहिं।1।
श्वास बास आस पास, आत्म अंग लगाइ।
ऐन बैन निरख नैन, गाइ-गाइ रिझाइ।2।
आदि तेज अन्त तेज, सहजैं सहज आइ।
आदि नूर अन्त नूर, दादू बलि-बलि जाइ।3।
237-चौताल
नूर-नूर अव्वल आखिर नूर,
दायम कायम, कायम दायम, हाजिर है भरपूर।टेक।
आसमान नूर, जमीं नूर, पाक परवरदिगार।
आब नूर, बाद नूर, खूब खूबां यार।1।
जाहिर बातिन हाजिर नाजिर, दाना तूं दीवान।
अजब अजाइब नूर दीदम, दादू है हैरान।2।
238-रस। त्रिाताल
मैं अमली मतवाला माता, प्रेम मगन मेरा मन राता।टेक।
अमी महारस भर-भर पीवे, मन मतवाला योगी जीवे।1।
रहै निरन्तर गगन मंझारी, प्रेम पिलाया सहज खुमारी।2।
आसण अवधू अमृत धाारा, युग-युग जीवे पीवणहारा।3।
दादू अमली इहि रस माते, राम रसायण पीवत छाके।4।
239-निज उपदेश। त्रिाताल
सुख-दु:ख संशय दूर किया, तब हम केवल राम लिया।टेक।
सुख-दु:ख दोऊ भरम विकारा, इन सौं बंधया है जग सारा।1।
मेरी मेरा सुख के तांई, जाय जन्म नर चेते नाँहीं।2।
सुख के तांई झूठा बोले, बाँधो बन्धान कबहुँ न खोले।3।
दादू सुख-दु:ख संग न जाई, प्रेम प्रीति पिव सौं ल्यौ।4।
240-हैरान। वर्णभिन्न ताल
कासौं कहूँ हो अगम हरि बाता, गगन धारणि दिवस नहिं राता।टेक।
संग न साथी गुरु नहिं चेला, आस न पास यों रहै अकेला।1।
वेद न भेद न करत विचारा, अवरण वरण सबन तैं न्यारा।2।
प्राण न पिंड रूप नहिं रेखा, सोइ तत सार नैन बिन देखा।3।
योग न भोग मोहि नहिं माया, दादू देख काल नहिं काया।4।
241-गुरु ज्ञान। वर्णभिन्न ताल
मेरा गुरु ऐसा ज्ञान बतावे,
काल न लागे संशय भागे, ज्यों है त्यों समझावे।टेक।
अमर गुरु के आसण रहिए, परम ज्योति तहँ लहिए।
परम तेज सो दृढ़ कर गहिए, गहिए लहिए रहिए।1।
मन पवना गह आतम खेला, सहज शून्य घर मेला।
अगम अगोचर आप अकेला, अकेला मेला खेला।2।
धारती-अम्बर चंद न सूरा, सकल निरतर पूरा।
शब्द अनाहद बाजहि तूरा, तूरा पूरा सूरा।3।
अविचल अमर अभय पद दाता, तहाँ निरंजन राता।
ज्ञान गुरु ले दादू माता, माता राता दाता।4।
242-राज विद्याधार ताल
मेरा गुरु आप अकेला खेले,
आपै देवे आपै लेवे, आपै द्वै कर मेले।टेक।
आपै आप उपावे माया, पंच तत्तव कर काया।
जीव जन्म ले जग में आया, आया काया माया।1।
धारती-अम्बर महल उपाया, सब जग धांधौ लाया।
आपै अलख निरंजन राया, राया लाया उपाया।2।
चंद-सूर दो दीपक कीन्हा, रात-दिवस कर लीन्हा।
राजिक रिजक सबन को दीन्हाँ, दीन्हाँ लीन्हाँ कीन्हाँ।3।
परम गुरु सो प्राण हमारा, सब सुख देवे सारा।
दादू खेले अनत अपारा, अपारा सारा हमारा।4।
243-हैरान। राज विद्याधार ताल
थकित भयो मन कह्यो न जाई, सहज समाधिा रह्यो लाई।टेक।
जे कुछ कहिए सोच-विचारा, ज्ञान अगोचर अगम अपारा।1।
साइर बूँद कैसे कर तोले, आप अबोल कहा कह बोले।2।
अनल पंखि परे पर दूर, ऐसे राम रह्य भरपूर।3।
अब मन मेरा ऐसे रे भाई, दादू कहबा कहण न जाई।4।
244-मल्लिका मोद ताल
अविगत की गति कोइ न लहै, सब अपणा उनमान कहै।टेक।
केते ब्रह्मा वेद विचारैं, केते पंडित पाठ पढैं।
केते अनुभव आतम खोजैं, केते सुर-नर नाम रटैं।1।
केते ईश्वर आसण बैठे, केते योगी धयान धारैं।
केते मुनिवर मन को मारैं, केते ज्ञानी ज्ञान करैं।2।
केते पीर केते पैगम्बर, केते पढैं कुराना।
केते काजी केते मुल्ला, केते शेख सयाना।3।
केते पारिख अंत न पावैं, वार पार कुछ नाँहीं।
दादू कीमत कोई न जाणे, केते आवैं जाँहीं।4।
245-मल्लिका मोद ताल
ए हौं बूझ रही पिव जैसा है, तैसा कोई न कहै रे।
अगम अगाधा अपार अगोचर, सुधिा-बुधिा कोई न लहै रे।टेक।
वार पार कोइ अंत न पावे, आदि-अंत मधिा नाँहीं रे।
खरे सयाने भये दिवाने, कैसा कहाँ रहै रे।1।
ब्रह्मा विष्णु महेश्वर बूझे, केता कोई बतावे रे।
शेख मुशायक पीर पैगम्बर, है कोई अगह गहै रे।2।
अम्बर-धारती सूर-शशि बूझे, वायु वरण सब सोधो रे।
दादू चकित है हैराना, को है कर्म दहै रे।3।
।इति राग आसावरी सम्पूर्ण।
अथ राग सिन्दूरा
।10।
(गायन समय रात्रिा 12 से 3)
246-परिचय उपदेश। झपताल
हंस सरोवर तहाँ रमैं, सूभर हरि जल नीर।
प्राणी आप पखालिए, निर्मल सदा हो शरीर।टेक।
मुक्ताहल मन मानिया, चुगे हंस सुजान।
मधय निरन्तर झूलिए, मधुर विमल रस पान।1।
भ्रमर कमल रस वासना, रातो राम पीवंत।
अरस परस आनन्द करे, तहाँ मन सदा होइ जीवंत।2।
मीन मगन माँहीं रहै, मुदित सरोवर माँहिं।
सुख सागर क्रीड़ा करै, पूरण परमिति नाँहिं।3।
निर्भय तहँ भय को नहीं, विलसे बारंबार।
दादू दर्शन कीजिए, सन्मुख सिरजनहार।4।
247-झपताल
सुख सागर में झूलबो, कुश्मल झड़े हो अपार।
निर्मल प्राणी होइबो, मिलबो सिरजनहार।टेक।
तिहि संयम पावन सदा, पंक न लागे प्रान।
कमल विकासे तिहिं तणों, उपजे ब्रह्म गियान।1।
अगम-निगम तहँ गम करे, तत्तवैं तत्तव मिलान।
आसन गुरु के आइबो, मुक्तैं महल समान।2।
प्राणी परि पूजा करे, पूरे प्रेम विलास।
सहजैं सुन्दर सेविए, लागी लै कैलास।3।
रैण दिवस दीसे नहीं, सहजैं पुंज प्रकास।
दादू दर्शन देखिए, इहि रस रातो हो दास।4।
248-शूलताल
अविनाशी संग आत्मा, रमे हो रैण दिन राम।
एक निरन्तर ते भजें, हरि-हरि प्राणी नाम।टेक।
सदा अखंडित उर बसे, सो मन जाणी ले।
सकल निरन्तर पूरि सब, आतम रातो ते।1।
निराधाार निज बैसणों, तिहिं तत आसन पूर।
गुरु-शिष आनंद ऊपजे, सन्मुख सदा हजूर।2।
निश्चल ते चाले नहीं, प्राणी ते परिमाण।
साथी साथैं ते रहैं, जाणैं जाण सुजाण।3।
ते निर्गुण आगुण धारी, माँहीं कौतुकहार।
देह अछत अलगो रहे, दादू सेव अपार।4।
249-शूलताल
पारब्रह्म भज प्राणिया, अविगत एक अपार।
अविनाशी गुरु सेविए, सहजैं प्राण अधाार।टेक।
ते पुर प्राणी तेहनो, अविचल सदा रहंत।
आदि पुरुष ते आपणों, पूरण परम अनंत।1।
अविगत आसन कीजिए, आपैं आप निधाान।
निरालम्ब भज तेहनों, आनन्द आतम राम।2।
निर्गुण निश्चल थिर रहै, निराकार निज सोइ।
ते सत्य प्राणी सेविए, लै समाधिा रत होइ।3।
अमर आप रमता रमे, घट-घट सिरजनहार।
गुणातीत भज प्राणिया, दादू यही विचार।4।
250-शूरातन। झपताल
क्यों भाजे सेवक तेरा, ऐसा शिर साहिब मेरा।टेक।
जाके धारती गगन आकाशा, जाके चन्द सूर कैलाशा।
जाके तेज पवन जल साजा, जाके पंच तत्तव के बाजा।1।
जाके अठारह भार वनमाला, गिरि पर्वत दीन दयाला।
जाके सायर अनन्त तरंगा, जाके चौरासी लख संगा।2।
जाके ऐसे लोक अनन्ता, रच राखे विधिा बहु भन्ता।
जाके ऐसा खेल पसारा, सब देखे कौतुकहारा।3।
जाके काल मीच डर नाँहीं, सो बरत रह्या सब माँहीं।
मन भावे खेले खेला, ऐसा है आप अकेला।4।
जाके ब्रह्मा ईश्वर बंदा, सब मुनि जन लागे अंगा।
जाके साधु सिध्द सब माँहीं, परिपूरण परिमित नाँहीं।5।
सोइ भाने घड़े सँवारे, युग केते कबहुँ न हारे।
ऐसा हरि साहिब पूरा, सब जीवन आतम मूरा।6।
सो सबहिन की सुधा जाणैं, जो जैसा है तैसी बाणैं।
सर्वंगी राम सयाना, हरि कर सो होइ निदाना।7।
जे हरि जन सेवक भाजे, तो ऐसा साहिब लाजे।
अब मरण माँड हरि आगे, तो दादू बाण न लागे।8।
251-झपताल
हरि भजतां किमि भाजिए, भाजे भल नाँहीं।
भाजे भल क्यों पाइए, पछतावे माँहीं।टेक।
सूरो सो सहजैं भिड़े, सार उर झेले।
रण रोके भाजे नहीं, ते बाण न मेले।1।
सती सत साँचा गहै, मरणे न डराई।
प्राण तजे जग देखतां, पियड़ो उर लाई।2।
प्राण पतंगा यों तजे, वो अंग न मोड़े।
यौवन जारे ज्योति सौं, नैना भल जोड़े।3।
सेवक सो स्वामी भजे, तन-मन तज आसा।
दादू दर्शन ते लहै, सुख संगम पासा।4।
252-चेतावनी। रुद्रताल
सुण तूं मना रे मूरख मूढ विचार,
आवे लहरि बिहावणी, दमै देह अपार।टेक।
करिबो है तिमि कीजिए रे, सुमिर सो आधाार।1।
चरण बिहूँणो चालबो रे, संभारी ले सार।2।
दादू तेहज लीजिए रे, साँचो सिरजनहार।3।
253-रुद्रताल
रे मन साथी म्हारा, तूनैं समझायो कै बारो रे।
राती रंग कसूंभ के, तैं विसारो आधाारो रे।टेक।
स्वप्ना सुख के कारणे, फिर पीछे दु:ख होई रे।
दीपक दृष्टि पतंग ज्यों, यों भरम जले जिन कोई रे।1।
जिह्ना स्वारथ आपणे, ज्यों मीन मरे तज नीरो रे।
माँहीं जाल न जाणियो, तातैं उपनो दु:ख शरीरो रे।2।
स्वादैं हीं संकट परयो, देखत ही नर अंधाो रे।
मूरख मूठी छाड़ दे, होइ रह्यो निर्बन्धाो रे।3।
मान सिखावण म्हारी, तू हरि भज मूल न हारी रे।
सुख सागर सोइ सेविए, जन दादू राज सँभारी रे।4।
।इति राग सिन्दूरा सम्पूर्ण।
अथ राग देवगांधार
।11।
(गायन समय प्रात: 6 से 9)
254-विनती अनन्यशरण। त्रिाताल
शरण तुम्हारी आइ परे,
जहाँ-तहाँ हम सब फिर आये, राखि-राखि हम दुखित खरे।टेक।
कस-कस काया तप व्रत कर कर, भ्रमत-भ्रमत हम भूल परे।
कहुँ शीतल कहुँ तप्त दहे तन, कहुँ हम करवत शीश धारे।1।
कहुँ वन तीरथ फिर-फिर थाके, कहँ गिरि पर्वत जाइ चढ़े।
कहुँ शिखर चढ परे धारणि पर, कहुँ हति आपा प्राण हरे।2।
अंधा भये हम निकट न सूझे, तातैं तुम तजि जाइ जरे।
हा-हा हरि अब दीन लीन कर, दादू बहु अपराधा भरे।3।
255-पतिव्रत उपदेश। त्रिाताल
बौरी तूं बार-बार बौरानी,
सखीसुहाग न पावे ऐसे, कैसे भरम भुलानी।टेक।
चरणों चेरी चित नहिं राख्यो, पतिव्रत नाहिं न जान्यों।
सुन्दरि सेज संग नहिं जानैं, पीव सौं मन नहिं मान्यों।1।
तन-मन सबै शरीर न सौंप्यो, शीश नाइ नहिं ठाढी।
इक रस प्रीति रही नहिं कबहुँ, प्रेम उमंग न बाढी।2।
प्रीतम अपणों परम सनेही, नैन निरख न अघानी।
निशि वासर आनि उर अंतर, परम पूज्य नहिं जानी।3।
पतिव्रत आगे जिन-जिन पाल्यो, सुन्दरि तिन सब छाजे।
दादू पिव बिन और न जानैं, ताहि सुहाग विराजै।4।
256-उपदेश चेतावनी। रंगताल
मन मूरखा! तैं योंही जन्म गमायो,
सांई केरी सेवा न कीन्हीं, इहि कलि काहे का आयो।टेक।
जिन बातन तेरा छूटक नाँहीं, सोइ मन तेरे भायो।
कामी ह्नै विषया संग लागो, रोम-रोम लपटायो।1।
कुछ इक चेत विचारी देखो, कहा पाप जिय लायो।
दादू दास भजन कर लीजे, स्वप्ने जग डहकायो।2।
।इति राग देवगांधार सम्पूर्ण।
अथ राग कालिंगड़ा
।12।
(गायन समय प्रभात 3 से 6)
257-विनती। रंग ताल
वाल्हा हूँ ताहरी तूं म्हारो नाथ,
तुम सौं पहली प्रीतड़ी, पूरबलो साथ।टेक।
वाल्हा मैं तूं म्हारो ओलेखियो रे, राखिस तूं नैं हृदा मंझारि।
हूँ पामू पीव आपणों रे, त्रिाभुवन दाता देव मुरारि।1।
वाल्हा मन म्हारो मन माँहीं राखिस, आतम एक निरंजन देव।
चित माँहीं चित सदा निरंतर, येणीं पेरें तुम्हारी सेव।2।
वाल्हा भाव भक्ति हरि भजन तुम्हारो, प्रेमै पूरि कमल विगास।
अभि अंतर आनन्द अविनाशी, दादू नी एवैं पूरबी आस।3।
258-उपदेश चेतावनी। वर्ण भिन्न ताल
बार हि बार कहूँ रे गहिला, राम नाम कांइ विसारयो रे।
जन्म अमोलक पामियो, एह्नो रतन कांई हारयो रे।टेक।
विषया वाह्यो नैं तहाँ धाायो, कीधाो नहिं म्हारो वारयो रे।
माया धान जोई नैं भूल्यो, सर्वस येणे हारयो रे।1।
गर्भवास देह दमतो प्राणी, आश्रम तेह सँभारयो रे।
दादू रे जन राम भणीजे, नहिं तो यथा विधिा हारयो रे।2।
।इति राग कालिंगड़ा सम्पूर्ण।
अथ राग परजिया
(परज)।13।
(गायन समय रात्रिा 3 से 6)
259-परिचय। खेमटा ताल
नूर रह्या भरपूर, अमी रस पीजिए,
रस माँहीं रस होइ, लाहा लीजिए।टेक।
परकट तेज अनंत, पार नहिं पाइए।
झिलमिल झिलमिल होइ, तहाँ मन लाइए।1।
सहजैं सदा प्रकाश, ज्योति जल पूरिया।
तहाँ रहैं निज दास, सेवक सूरिया।2।
सुख सागर वार न पार, हमारा बास है।
हंस रहैं ता माँहीं, दादू दास है।3।
।इति राग परजिया (परज) सम्पूर्ण।
अथ राग भाँणमली
: आधुनिक (भवानी)।14।
(गायन समय मधय रात्रिा, राम मंजरी मतानुसार)
260-विनती। कव्वाली ताल
म्हारा वाल्ला रे ! तारे शरण रहेश,
बिनतड़ी वाल्हा ने कहतां, अनंत सुख लहेश।टेक।
स्वामी तणों हूँ संग न मेल्हूँ, बीनतड़ी कहेश।
हूँ अबला तूं बलवंत राजा, ताहरा बना वहीश।1।
संग रहूँ तां सब सुख पामूँ, अंतरतैं दहीश।
दादू ऊपर दया करीनैं, पावो आणीं वेश।2।
261-जलद त्रिाताल
चरण देखाड़ तो परमाण,
स्वामी म्हारै नैणों निरखूँ, माँगूँ येज मान।टेक।
जोवूँ तुझनें आशा मुझनें, लागूँ येज धयान।
वाल्हो म्हारो मलो रे सहिये, आवे केवल ज्ञान।1।
जेणी पेरें हूँ देखूँ तुझनें, मुझनें आलो जाण।
पीव तणी हूँ पर नहिं जाणूँ, दादू रे अजाण।2।
262-जलद त्रिाताल
ते हरि मिलूँ म्हारो नाथ,
जोवा ने म्हारो तन तपै, केवी पेरें पामूँ साथ।टेक।
ते कारण हूँ आकुल व्याकुल, ऊभी करूँ विलाप।
स्वामी म्हारो नैणैं निरखूँ, ते तणों मनें ताप।1।
एक बार घर आवे वाल्हा, नव मेल्हूँ कर हाथ।
ये विनती साँभल स्वामी, दादू ताहरो दास।2।
263-रंग ताल
ते केम पामिए रे, दुर्लभ जे आधाार।
ते बिन तारण को नहीं, केम उतरिए पास।टेक।
केवी पेरें कीजै आपणो रे, तत्तव ते छे सार।
मन मनोरथ पूरे म्हारा तन नो पात निवार।1।
संभारयो आवे रे वाल्हा, वेला ये अवार।
विरहणी विलाप करे, तेम दादू मन विचार।2।
।इति राग भाँणमली (भवानी) सम्पूर्ण।
अथ राग सारंग
।15।
(गायन समय मधय दिन)
264-गुरु ज्ञान। सूरफाख्ता ताल
हो ऐसा ज्ञान धयान, गुरु बिना क्यों पावे।
वार पार पार वार, दुस्तर तिर आवे हो।टेक।
भवन गवन गवन भवन, मन हीं मन लावे।
रवन छवन छवन रवन, सद्गुरु समझावे हो।1।
क्षीर नीर नीर क्षीर, प्रेम भक्ति भावे।
प्राण कमल विकस विकस, गोविन्द गुण गावे हो।2।
ज्योति युगति बाट घाट, लै समाधिा धयावे।
परम नूर परम तेज, दादू दिखलावे हो।3।
265-केवल विनती। पंजाब त्रिाताल
तो निबहै जन सेवक तेरा, ऐसे दया कर साहिब मेरा।टेक।
ज्यों हम तोरैं त्यों तूं जोरे, हम तोरैं पै तूं नहिं तोरे।1।
हम विसरैं पै तूं न विसारे, हम बिगरैं पै तूं न बिगारे।2।
हम भूलैं तूं आण मिलावे, हम बिछुरैं तूं अंग लगावे।3।
तुम भावे सो हम पै नाँहीं, दादू दर्शन देहु गुसांई।4।
266-काल चेतावनी। पंजाबी त्रिाताल
माया संसार की सब झूठी,
मात-पिता सब ऊभे भाई, तिनहिं देखतां लूटी।टेक।
जब लग जीव काया में थारे, क्षण बैठी क्षण ऊठी।
हंस जु था सो खेल गया रे, तब तैं संगति छूटी।1।
ए दिन पूगे आयु घटानी, तब निचिन्त होइ सूती।
दादू दास कहै ऐसी काया, जैसे गगरिया फूटी।2।
267-माया मध्य मुक्ति। त्रिाताल
ऐसे गृह मैं क्यों न रहै, मनसा वाचा राम कहै।टेक।
संपति विपति नहीं मैं मेरा, हर्ष शोक दोउ नाँहीं।
राग-द्वेष रहित सुख-दु:ख तैं, बैठा हरि पद माँहीं।1।
तन-धान माया-मोह न बाँधौ, बैरी मीत न कोई।
आपा पर सम रहै निरंतर, निज जन सेवग सोई।2।
सरवर कमल रहै जल जैसे, दधिा मथ घृत कर लीन्हा।
जैसे वन में रहै बटाऊ, काहू हेत न कीन्हा।3।
भाव भक्ति रहै रस माता, प्रेम मगन गुण गावे।
जीवित मुक्त होइ जन दादू, अमर अभय पद पावे।4।
268-परिचय उपदेश। त्रिाताल
चल रे मन तहाँ जाइए, चरण बिन चलबो।
श्रवण बिन सुनबो, बिन कर बैन बजाइए।टेक।
तन नाँहीं जहँ, मन नाँहीं तहँ, प्राण नहीं तहँ आइए।
शब्द नहीं जहाँ, जीव नहीं तहँ, बिन रसना मुख गाइए।1।
पवन पावक नहीं, धारणि अम्बर नहीं, उभय नहीं तहँ लाइए।
चंद नहीं जहँ, सूर नहीं तहँ, परम ज्योति सुख पाइए।2।
तेज पुंज सो सुख का सागर, झिलमिल नूर नहाइए।
तहाँ चल दादू अगम अगोचर, तामें सहज समाइए।3।
।इति राग सारंग सम्पूर्ण।
अथ राग टोडी
(तोडी)।16।
(गायन समय दिन 6 से 12)
269-सुमिरण उपदेश। राज मृगांक ताल
सो तत्तव सहजैं सुषुमन कहणा,
साँच पकड़ मन युग-युग रहणा।टेक।
प्रेम प्रीति कर नीका राखे,
बारंबार सहज नर भाखे।1।
मुख हिरदय सो सहज सँभारे,
तिहिं तत्तव रहणा कदे न विसारे।2।
अंतर सोई नीका जाणे,
निमष न बिसरे ब्रह्म बखाणे।3।
सोइ सुजाण सुधाा रस पीवे,
दादू देख जुगे जुग जीवे।4।
270-नाम महिमा। राज मृगांक ताल
नाम रे नाम रे,
सकल शिरोमणि नाम रे, मैं बलिहारी जाउँ रे।टेक।
दुस्तर तारे पार उतारे, नरक निवारे नाम रे।1।
तारणहारा भव जल पारा, निर्मल सारा नाम रे।2।
नूर दिखावे तेज मिलावे, ज्योति जगावे नाम रे।3।
सब सुख दाता अमृत राता, दादू माता नाम रे।4।
271-केवल विनती। राजविद्याधार ताल
राय रे राय रे,
सकल भुवन पति राय रे, अमृत देहु अघाइ रे राय।टेक।
परकट राता परकट माता, परकट नूर दिखाइ रे राय।1।
सुस्थिर ज्ञाना सुस्थिर धयाना, सुस्थिर तेज मिलाइ रे राय।2।
अविचल मेला अविचल खेला, अविचल ज्योति जगाइ रे राय।3।
निश्चल बैना निश्चल नैना, दादू बलि-बलि जाइ रे राय।4।
272-रसिक अवस्था। सवारी ताल
हरि रस माते मगन भये,
सुमिर-सुमिर भये मतवाले, जामण मरण सब भूल गये।टेक।
निर्मल भक्ति प्रेम रस पीवै, आन न दूजा भाव धारै।
सहजैं सदा राम रंग राते, मुक्ति वैकुण्ठ कहा करै।1।
गाइ-गाइ रस लीन भये हैं, कछू न माँगै संत जना।
और अनेक देहु दत आगै, आन न भावे राम बिना।2।
इक टक धयान रहै ल्यौ लागे, छाक परे हरि रस पीवै।
दादू मग्न रहै रस माते, ऐसे हरि के जन जीवै।3।
273-केवल विनती। सवारी ताल
ते मैं कीधोला राम जे तैं वारया ते,
मारग मेल्ही, अमारग अणसरिये अकरम करम हरे।टेक।
साधू को संग छाडी ने, असंगति अणसरियाँ।
सुकृत मूकी अवद्यिा साधाी, विषिया विस्तरियाँ।1।
आन कह्युँ आन सांभल्युँ, नेणे आन दीठो।
अमृत कड़वो विष इम लागो, खातां अति मीठो।2।
राम हृदाथी बिसारी ने, माया मन दीधाो।
पाँचो प्राण गुरुमुख वरज्या, ते दादू कीधाो।3।
274-केवल विनती। त्रिाताल
कहो क्यों जन जीवे सांइयाँ, दे चरण कमल आधाार हो।
डूबत है भव-सागराँ, कारी करो करतार हो।टेक।
मीन मरे बिन पाणियाँ, तुम बिन यही विचार हो।
जल बिन कैसे जीव ही, अब तो किती इक बार हो।1।
ज्यों परे पतंगा ज्योति में, देख-देख निज सार हो।
प्यासा बूँद न पाव ही, तब वन-वन करे पुकार हो।2।
निश दिन पीर पुकार ही, तन की ताप निवार हो।
दादू विपति सुनाव ही, कर लोचन सन्मुख चार हो।3।
275-केवल विनती। त्रिाताल
तूं साँचा साहिब मेरा,
कर्म करीम कृपालु निहारो, मैं जन बंदा तेरा।टेक।
तुम दीवान सबहिन की जानो, दीनानाथ दयाला।
दिखाइ दीदार मौज बंदे को, कायम करो निहाला।1।
मालिक सबै मुलिक के सांई, समर्थ सिरजनहारा।
खैर खुदाइ खलक में खेलत, दे दीदार तुम्हारा।2।
मैं शिकस्त: दरगह तेरी, हरि हजूर तूं कहिए।
दादू द्वारे दीन पुकारे, काहे न दर्शन लहिए।3।
276-उपदेश चेतावनी। मकरन्द ताल
कुछ चेत रे कहि क्या आया,
इनमें बैठा फूल कर, तैं देखी है माया।टेक।
तूं जिन जाने तन-धान मेरा, मूरख देख भुलाया।
आज काल चल जावे देही, ऐसी सुन्दर काया।1।
राम नाम निज लीजिए, मैं कहि समझाया।
दादू हरि की सेवा कीजे, सुन्दर साज मिलाया।2।
277-मकरन्द ताल
नेटि रे माटी में मिलना, मोड़-मोड़ देह काहे को चलना।टेक।
काहे को अपणा मन डुलावे, यहु तन अपणा नीका धारणा।
कोटि वर्ष तूं काहे न जीवे, विचार देख आगै है मरणा।1।
काहे न अपणी बाट सँवारे, संयम रहणा सुमिरण करणा।
गहला दादू गर्व न कीजे, यहु संसार पंच दिन भरणा।2।
278-ब्रह्म योग ताल
जाय रे तन जाय रे,
जन्म सुफल कर लेहु राम रमि, सुमिर-सुमिर गुण गाय रे।टेक।
नर नारायण सकल शिरोमणि, जन्म अमोलक आहि रे।
सो तन जाय जगत् नहिं जाणे, सकहि तो ठाहर लाइ रे।1।
जुरा काल दिन जाइ गरासे, तासौं कछु न बसाय रे।
छिन-छिन छीजत जाय मुग्धा नर, अंत काल दिन आय रे।2।
प्रेम भक्ति साधु की संगति, नाम निरन्तर गाय रे।
जे शिर भाग तो सौंज सफल कर, दादू विलम्ब न लाय रे।3।
279-त्रिाताल
काहे रे बक मूल गमावे, राम के राम भले सचु पावे।टेक।
वाद-विवाद न कीजे लोई, वाद-विवाद न हरि रस होई।1।
मैं तैं मेरी माने नाँहीं, मैं तैं मेट मिले हरि माँहीं।2।
हार-जीत सौं हरि रस जाई, समझ देख मेरे मन भाई।3।
मूल न छाड़ी दादू बौरे, जिन भूले तूं बकबे औरे।4।
280-त्रिाताल
हुसियार हाकिम न्याय है, सांई के दीवान।
कुल का हिसाब होगा, समझ मूसलमान।टेक।
नीयत नेकी सालिकां, रास्ता ईमान।
इखलास अंदर आपणे, रखणाँ सुबहान।1।
हुक्म हाजिर होइ बाबा, मुसल्लम महरबान।
अक्ल सेती आपणा, शोधा लेहु सुजाण।2।
हक सौं हजूरि हूंणा, देखणा कर ज्ञान।
दोस्त दाना दीन का, मानणा फुरमान।3।
गुस्सा हैवानी दूर कर, छाड दे अभिमान।
दुई दरोगाँ नाँहिं खुशियाँ, दादू लेहु पिछान।4।
281-साधु प्रति उपदेश। ललित ताल
निर्पख रहणा राम-राम कहणा, काम-क्रोधा में देह न दहणा।टेक।
जेणें मारण संसार जायला, तेणे प्राणी आप बहायला।1।
जे-जे करणी जगत् करीला, सो करणी संत दूर धारीला।2।
जेणें पंथैं लोक राता, तेणें पंथैं साधु न जाता।3।
राम-राम दादू ऐसे कहिए, राम रमत रामहि मिल रहिए।4।
282-भेष बिडंवन। ललित ताल
हम पाया हम पाया रे भाई, भेष बनाय ऐसी मन आई।टेक।
भीतर का यहु भेद न जाणे, कहै सुहागिणि क्यों मन माने।1।
अंतर पीव सौं परिचय नाँहीं, भई सुहागिणि लोकन माँहीं।2।
सांई स्वप्ने कबहुँ न आवे, कहबा ऐसे महल बुलावे।3।
इन बातन मोहि अचरज आवे, पटम किये कैसे पिव पावे।4।
दादू सुहागिणि ऐसे कोई, आपा मेट राम रत होई।5।
283-आत्मा समता। उत्सव ताल
ऐसे बाबा राम रमीजे, आतम सौं अंतर नहिं कीजे।टेक।
जैसे आतम आपा लेखे, जीव-जन्तु ऐसे कर पेखे।1।
एक राम ऐसे कर जाणे, आपा पर अंतर नहिं आणे।2।
सब घट आतम एक विचारे, राम सनेही प्राण हमारे।3।
दादू साँची राम सगाई, ऐसा भाव हमारे भाई।4।
284-नाम समता। उत्सव ताल
माधाइयो-माधाइयो मीठो री माइ, माहवो-माहवो, भेटियो आइ।टेक।
कान्हइयो-कान्हइयो करताँ जाइ, केशवो-केशवो केशवो धााइ।1।
भूधारो भूधारो भूधारो भाइ, रमैयो रमैयो रह्यो समाइ।2।
नरहरि नरहरि राइ, गोविन्दो गोविन्दो दादू गाइ।3।
285-समता। वसंत ताल
एकहीं एकैं भया अनंद, एकहीं एकैं भागे द्वन्द्व।टेक।
एकहीं एकैं एक समान, एकहीं एकैं पद निर्वान।1।
एकहीं एकैं त्रिाभुवन सार, एकहीं एकैं अगम अपार।2।
एकहीं एकैं नर्भय होइ, एकहीं एकैं काल न कोइ।3।
एकहीं एकैं घट परकाश, एकहीं एकैं निरंजन वास।4।
एकहीं एकैं आपहि आप, एकहीं एकैं माइ न बाप।5।
एकहीं एकैं सहज स्वरूप, एकहीं एकैं भये अनूप।6।
एकहीं एकैं अनत न जाइ, एकहीं एकैं रह्या समाइ।7।
एकहीं एकैं भये लै लीन, एकहीं एकैं दादू दीन।8।
286-विनती। वसंत ताल
आदि है आदि अनादि मेरा, संसार सागर भक्ति भेरा।
आदि है अंत है अंत है आदि है, बिड़द तेरा।टेक।
काल है झाल है झाल है काल है, राखिले राखिले प्राण घेरा।
जीव का जन्म का, जन्म का जीव का, आपही आपले भान झेरा।1।
भ्रम का कर्म का कर्म का भ्रम का, आइबा-जाइबा मेट फेरा।
तारले पारले पारले तारले, जीवसौं शिव है निकट नेरा।2।
आत्मा राम है, राम है आत्मा, ज्योति है युक्ति सौं करो मेला।
तेज है सेज है, सेज है तेज है, एक रस दादू खेल खेला।3।
287-परिचय। कोकिल ताल
सुन्दर राम राया, परम ज्ञान परम धयान, परम प्राण आया।टेक।
अकल सकल अति अनूप, छाया नहिं माया।
निराकार निराधाार, वार पार न पाया।1।
गंभीर धाीर निधिा शरीर, निर्गुण निरकारा।
अखिल अमर परम पुरुष, निर्मल निज सारा।2।
परम नूर परम तेज, परम ज्योति प्रकाशा।
परम पुंज परापरं, दादू निज दासा।3।
288-परिचय पराभक्ति। कोकिल ताल
अखिल भाव अखिल भक्ति, अखिल नाम देवा।
अखिल प्रेम अखिल प्रीति, अखिल सुरति सेवा।टेक।
अखिल अंग अखिल संग, अखिल रंग रामा।
अखिलारत अखिलामत अखिला निज नामा।1।
अखिल ज्ञान अखिल धयान, अखिल आनन्द कीजे।
अखिला लै अखिला मैं, अखिला रस पीजे।2।
अखिल मगन अखिल मुदित, अखिल गलित सांई।
अखिल दरश अखिल परस, दादू तुम माँहीं।3।
।इति राग टोडी (तोडी) सम्पूर्ण।
अथ राग हुसेनी बंगाल
।17।
(गायन समय पहर दिन चढे चन्द्रोदय ग्रन्थ के मतानुसार)
289-अनन्यता। त्रिाताल
है दाना है दाना, दिलदार मेरे कान्हा।
तूं हीं मेरे जान जिगर, यार मेरे खाना।टेक।
तूं ही मेरे मादर पिदर, आलम बेगाना।
साहिब शिरताज मेरे, तूं ही सुलताना।1।
दोस्त दिल तूं ही मेरे, किसका खिल खाना।
नूर चश्म जिंद मेरे, तूं ही रहमाना।2।
एकै असनाब मेरे, तूं ही हम जाना।
जानिबा अजीब मेरे, खूब खजाना।3।
नेक नजर महर मीराँ, बंदा मैं तेरा।
दादू दरबार तेरे, खूब साहिब मेरा।4।
290-विनय। त्रिाताल
तूं घर आव सुलक्षण पीव,
हिक तिल मुख दिखलावहु तेरा, क्या तरसावे जीव।टेक।
निश दिन तेरा पंथ निहारूँ, तूं घर मेरे आव।
हिरदय भीतर हेत सौं रे वाल्हा, तेरा मुख दिखलाव।1।
वारी फेरी बलि गई रे, शोभित सोई कपोल।
दादू ऊपरि दया करीने, सुणाइ सुहावे बोल।2।
।इति राग हुसेनी बंगाल सम्पूर्ण।
अथ राग नट नारायण
।18।
(गायन समय रात्रिा 9 से 12)
291-हितोपदेश। गजताल
ताको काहे न प्राण सँभाले,
कोटि अपराधा कल्प के लागे, माँहिं महूरत टाले।टेक।
अनेक जन्म के बन्धान बाढ़े, बिन पावक फँद जालै।
ऐसो है मन नाम हरी को, कबहूँ दु:ख न सालै।1।
चिन्तामणी युक्ति सों राखे, ज्यों जननी सुत पालै।
दादू देख दया करे ऐसी, जन को जाल न रालै।2।
292-विरह। जयमंगल ताल
गोविन्द कबहूँ मिले पिव मेरा,
चरण-कमल क्यों ही कर देखूँ, राखूँ नैनहुँ नेरा।टेक।
निरखण का मोहि चाव घणेरा, कब मुख देखूँ तेरा।
प्राण मिलण को भयी उदासी, मिल तूं मीत सवेरा।1।
व्याकुल तातैं भई तन देही, शिर पर यम का हेरा।
दादू रे जन राम मिलण को, तप ही तन बहुतेरा।2।
293-राजमृगांक ताल
कब देखूँ नैनहुँ रेख रती, प्राण मिलण को भई मती।
हरि सों खेलूँ हरी गती, कब मिल हैं मोहि प्राण पती।टेक।
बल कीती क्यों देखूँगी रे, मुझ माँहीं अति बात अनेरी।
सुन साहिब इक विनती मेरी, जन्म-जन्म हूँ दासी तेरी।1।
कहुँ दादू सो सुणसी सांई, हौं अबला बल मुझ में नाँहीं।
करम करी घर मेरे आई, तो शोभा पिव तेरे तांई।2।
294-राजमृगांक ताल
नीके मोहन सौं प्रीति लाई,
तन-मन प्राण देत बजाई, रंग-रस के बणाई।टेक।
येही जीयरे वेही पीवरे, छोरयो न जाई माई।
बाण भेद के देत लगाई, देखत ही मुरझाई।1।
निर्मल नेह पिया सौं लागो, रती न राखी काई।
दादू रे तिल में तन जावे, संग न छाडूँ माई।2।
295-परमेश्वर महिमा। राज विद्यााधार ताल
तुम बिन ऐसे कौण करे,
गरीब निवाज गुसांई मेरो, माथे मुकुट धारे।टेक।
नीच ऊँच ले करे गुसांई, टारयो हूँ न टरे।
हस्त कमल की छाया राखे, काहूँ थै न डरे।1।
जाकी छोत जगत् को लागे, तापर तूं हीं ढरे।
अमर आप ले करे गुसांई, मारयो हूँ न मरे।2।
नामदेव कबीर जुलहा, जन रैदास तिरे।
दादू बेगि बार नहिं लागे, हरि सौं सबै सिरे।3।
296-मंगलाचरण। राज विद्याधार ताल
नमो-नमो हरि नमो-नमो
ताहि गुसांई नमो-नमो, अकल निरंजन नमो-नमो।
सकल वियापी जिहिं जग कीन्हा, नारायण निज नमो-नमो।टेक।
जिन सिरजे जल शीश चरण कर, अविगत जीव दियो।
श्रवण सँवारि नैन रसना मुख, ऐसो चित्रा कियो।1।
आप उपाइ किये जग जीवन, सुर नर शंकर साजे।
पीर पैगम्बर सिध्द अरु साधाक अपणे नाम निवाजे।2।
धारती-अम्बर चंद-सूर जिन, पाणी पवन किये।
भानण घड़न पलक में केते, सकल सँवार लिये।3।
आप अखंडित खंडित नाँहीं, सब सम पूर रहे।
दादू दीन ताहि नइ वंदित, अगम अगाधा कहे।4।
297-हैरान। उत्सव ताल
हम थैं दूर रही गति तेरी,
तुम हो तैसे तुम हीं जानो, कहा बपरी मति मेरी।टेक।
मन तैं अगम दृष्टि अगोचर, मनसा की गम नाँहीं।
सुरति समाइ बुध्दि बल थाके, वचन न पहुँचे ताँहीं।1।
योग न धयान ज्ञान गम नाँहीं, समझ-समझ सब हारे।
उनमनी रहत प्राण घट साधो, पार न गहत तुम्हारे।2।
खोजि परे गति जाइ न जाणी, अगह गहन कैसे आवे।
दादू अविगत देहु दया कर, भाग बड़े सो पावे।3।
।इति राग नट नारायण सम्पूर्ण।
अथ राग सोरठ
।19।
(गायन समय रात्रिा 9 से 12)
298-स्मरण। उत्सव ताल
कोली साल न छाडे रे, सब घावर काढे रे।टेक।
प्रेम प्राण लगाई धाागे, तत्तव तेल निज दीया।
एक मना इस आरम्भ लागा, ज्ञान राछ भर लीया।1।
नाम नली भर बुणकर लागा, अंतर गति रँग राता।
ताँणे-बाँणे जीव जुलाहा, परम तत्तव सौं माता।2।
सकल शिरोमणि बुणे विचारा, सान्हा सूत न तोड़े।
सदा सचेत रहै ल्यौ लागा, ज्यों टूटे त्यों जोडे।3।
ऐसे तन बुन गहर गजीना, सांई के मन भावे।
दादू कोली करता के सँग, बहुरि न इहि युग आवे।4।
299-विरही। ललित ताल
विरहणी बपु न सँभारे,
निश दिन तलफै राम के कारण, अंतर एक विचारे।टेक।
आतुर भई मिलण के कारण, कहि-कहि राम पुकारे।
श्वास-उश्वास निमिष न विसरे, जित तित पंथ निहारे।1।
फिर उदास चहूँ दिशि चितवत, नैन नीर भर आवे।
राम वियोग विरह की जारी, और न कोई भावे।2।
व्याकुल भई शरीर न समझे, विखम बाण हरि मारे।
दादू दर्शन बिन क्यों जीवे, राम सनेही हमारे।3।
300-उपदेश चेतावनी। धाीमा ताल
मन रे राम रटत क्यों रहिए,
यह तत्तव बार-बार क्यों न कहिए।टेक।
जब लग जिह्ना वाणी, तो लों जप ले सारंग प्राणी।
जब पवना चल जावे, तब प्राणी पछतावे।1।
जब लग श्रवण सुनीजे, तो लों साधु शब्द सुन लीजे।
श्रवणों सुरति जब जाई, ए तब का सुनि है भाई।2।
जब लग नैन हुँ पेखे, तो लों चरण-कमल क्यों न देखे।
जब नैनहुँ कछू न सूझे, ये तब मूरख क्या बूझे।3।
जब लग तन-मन नीका, तो लों जपले जीवण जीका।
जब दादू जीव आवे, तब हरि के मन भावे।4।
301-धाीमा ताल
मन रे तेरा कौन गँवारा, जप जीवण प्राण अधाारा।टेक।
रे मात-पिता कुल जाती, धान यौवन सजन सँगाती।
रे गृह दारा सुत भाई, हरि बिन सब झूठा ह्नै जाई।1।
रे तूं अंत अकेला जावे, काहू के संग न आवे।
रे तूं ना कर मेरी मेरा, हर राम बिना को तेरा।2।
रे तूं चेत न देखे अंधाा, यहु माया मोह सब धांधाा।
रे काल मीच शिर जागे, हरि सुमिरण काहे न लागे।3।
यहु अवसर बहुरि न आवे, फिर मानुष जन्म न पावे।
अब दादू ढील न कीजे, हरि राम भजन कर लीजे।4।
302-प्रति ताल
मन रे देखत जन्म गयो, ताथै काज न कोई भयो रे।टेक।
मन इन्द्री ज्ञान विचारा, तातैं जन्म जुआ ज्यों हारा।
मन झूठ साँच कर जाने, हरि साधु कहै नहिं माने।1।
मन रे बादि गहे चतुराई, तातैं सनमुख बात बणाई।
मन आप आप को थापे, करता हो बैठा आपै।2।
मन स्वादी बहुत बणावे, मैं जान्या विषय बतावे।
मन माँगे सोई दीजे, हम हिं राम दुखी क्यों कीजे।3।
मन सब ही छाड विकारा, प्राणी होहु गुणन थें न्यारा।
निर्गुण निज गहि रहिए, दादू साधु कहैं ते कहिए।4।
303-प्रति ताल
मन रे अंतकाल दिन आया, तातैं यहु सब भया पराया।टेक।
श्रवणों सुने न नैनहुँ सूझे, रसना कह्या न जाई।
शीश चरण कर कंपन लागे, सो दिन पहुँचा आई।1।
काले धाोले वरण पलटिया, तन-मन का बल भागा।
यौवन गया जरा चल आई, तब पछतावण लागा।2।
आयु घटे घट छीजे काया, यहु तन भया पुराणा।
पाँचों थाके कह्या न मानैं, ताका मर्म न जाणा।3।
हंस बटाऊ प्राण पयाना, समझ देख मन माँहीं।
दिन-दिन काल गरासे जियरा, दादू चेते नाँहीं।4।
304-राज विद्याधार ताल
मन रे तूं देखे सो नाँहीं, है सो अगम अगोचर माँहीं।टेक।
निश ऍंधिायारी कछू न सूझे, संशय सर्प दिखावा।
ऐसे अंधा जगत् नहिं जाने, जेवड़ी खावा।1।
मृग जल देख तहाँ मन धाावे, दिन-दिन झूठी आशा।
जहँ-जहँ जाइ तहाँ जल नाँहीं, निश्चय मरे पियासा।2।
भ्रम विलास बहुत विधिा कीन्हा, ज्यों स्वप्ने सुख पावे।
जागत झूठ तहाँ कुछ नाँहीं, फिर पीछे पछतावे।3।
जब लग सूता तब लग देखे, जागत भरम बिलाना।
दादू अंत इहाँ कुछ नाँहीं, है सो सोधा सयाना।4।
305-उपदेश। त्रिाताल
भाई रे बाजीगर नट खेला, ऐसे आपै रहै अकेला।टेक।
यहु बाजी खेल पसारा, सब मोहे कौतिकहारा।
यहु बाजी खेल दिखावा, बाजीगर किनहुँ न पावा।1।
इहि बाजी जगत् भुलाना, बाजीगर किनहुँ न जाना।
कुछ नाँहीं सो पेखा, है सो किनहुँ न देखा।2।
कुछ ऐसा चेटक कीन्हा, तन-मन सब हर लीन्हा।
बाजीगर भुरकी बाही, काहू पै लखी न जाई।3।
बाजीगर परकाशा, यहु बाजी झूठ तमाशा।
दादू पावा सोई, जो इहि बाजी लिप्त न होई।4।
306-ज्ञानोपदेश। त्रिाताल
भाई रे ऐसा एक विचारा, यूँ हरि गुरु कहै हमारा।टेक।
जागत सूते सोवत सूते, जब लग राम न जाना।
जागत जागे सोवत जागे, जब राम नाम मन माना।1।
देखत अंधो-अंधो भी अंधो, जब लग सत्य न सूझे।
देखत देखे अंधो भी देखे, जब राम सनेही बूझे।2।
बोलत गूँगे गूँग भी गूँगे, जब लग सत्य न चीन्हा।
बोलत बोले गूँग भी बोले, जब राम नाम कह दीन्हा।3।
जीवत मुये-मुये भी मूये, जब लग नहीं प्रकासा।
जीवत जीये मुये भी जीये, दादू राम निवासा।4।
307-नाम महिमा। एक ताल
रामजी नाम बिना दु:ख भारी, तेरे साधुन कहीविचारी।टेक।
केई योग धयान गहि रहिया, केई कुल के मारग बहिया।
केई सकल देव को धयावे, केई रिधिा सिधिा चाहैं पावे।1।
केई वेद पुराणों माते, केई माया के संग राते।
केई देश-दिशन्तर डोले, केई ज्ञानी ह्नै बहु बोले।2।
केई काया कसे अपारा, केई मरें खड़ग की धाारा।
केई अनन्त जीवन की आशा, केई करें गुफा में बासा।3।
आदि-अन्त जे जागे, सो तो राम-नाम ल्यौ लागे।
अब दादू इहै विचारा, हरि लागा प्राण हमारा।4।
308-भ्रम विधवंसन। एक ताल
साधाो हरि सौं हेत हमारा, जिन यहु कीन्ह पसारा।टेक।
जा कारण व्रत कीजे, तिल-तिल यहु तन छीजे।
सहजैं ही सो जाना, हरि जानत ही मन माना।1।
जा कारण तप जइए, धूप-शीत शिर सहिए।
सहजैं ही सो आवा, हरि आवत ही सचु पावा।2।
जा कारण बहु फिरिए, कर तीरथ भ्रम-भ्रम मरिए।
सहजैं ही सो चीन्हा, हरि चीन्ह सबै सुख लीन्हा।3।
प्रेम भक्ति जिन जानी, सो काहे भरमे प्रानी।
हरि सहजैं ही भल मानैं, तातैं दादू और न जानैं।4।
309-परिचय विनती। वर्ण भिन्न ताल
रामजी जिनि भरमावें हमको, तातैं करूँ वीनती तुमको।टेक।
चरण तुम्हारे सब ही देखूँ, तप तीरथ व्रत दाना।
गंग-यमुन पास पाइन के, तहाँ देहु सुस्नाना।1।
संग तुम्हारे सब ही लागे, योग यज्ञ जे कीजे।
साधान सकल यही सब मेरे, संग आपणो दीजे।2।
पूजा पाती देवी देवल, सब देखूँ तुम माँहीं।
मोको ओट आपणी दीजे, चरण कमल की छाँहीं।3।
ये अरदास दास की सुणिए, दूर करो भ्रम मेरा।
दादू तुम बिन और न जाणे, राखो चरणों नेरा।4।
310-उपास्य परिचय। वर्ण भिन्न ताल
सोइ देव पूजूँ,
जो टाँची नहिं घड़िया, गर्भवास नहीं अवतरिया।टेक।
बिन जल संयम सदा सोइ देवा, भाव भक्ति करूँ हरि सेवा।1।
पाती प्राण हरि देव चढ़ाऊँ, सहज समाधिा प्रेम ल्यौ लाऊँ।2।
इहि विधिा सेवा सदा तहँ होई, अलख निरंजन लखे न कोई।3।
यह पूजा मेरे मन माने, जिहि विधिा होइ सु दादू न जाने।4।
311-परिचय हैरान खेमटा ताल
राम राइ मोको अचरज आवे, तेरा पार न कोई पावे।टेक।
ब्रह्मादिक सनकादिक नारद, नेति-नेति जे गावे।
शरण तुम्हारी रहै निश वासर, तिन को तूं न लखावे।1।
शंकर शेष सबै सुर मुनि जन, तिनको तूं न जनावे।
तीन लोक रटे रसना भर, तिनको तूं न दिखावे।2।
दीन लीन राम रँग राते, तिनको तूं सँग लावे।
अपणे अंग की युक्ति न जाणे, सो मन तेरे भावे।3।
सेवा संयम करै जप पूजा, शब्द न तिन्हैं सुनावे।
मैं अछोप हीन मति मेरी, दादू को दिखलावे।4।
।इति राग सोरठ सम्पूर्ण।
अथ राग गुंड
(गौंड)।20।
(गायन समय वर्षा ऋतु में सब समय, संगीत-प्रकाश के मतानुसार)
312-भक्ति निष्काम। सुरफाख्ता ताल
दर्शन दे राम दर्शन दे, हौं तो तेरी मुक्ति न माँगूँ।टेक।
सिध्दि न माँगूँ ऋध्दि न माँगूँ, तुम्ह ही माँगूँ गोविन्दा।1।
योग न माँगूँ वन नहिं माँगूँ, तुम्ह हीं माँगूँ रामजी।2।
घर नहिं माँगूँ वन न माँगूँ, तुम्ह ही माँगूँ देवजी।3।
दादू तुम बिन और न माँगूँ, दर्शन माँगूँ देहुजी।4।
313-विरह विनती। सुरफाख्ता ताल
तूं आपै ही विचार, तुझ बिन क्यों रहूँ।
मेरे और न दूजा कोई, दु:ख किसको कहूँ।टेक।
मीत हमारा सोइ, आदे जे पीया।
मुझे मिलावे कोइ, वे जीवन जीया।1।
तेरे नैन दिखाइ, जीऊँ जिस आसरे।
सो धान जीवे क्यों, नहीं जिस पास रे।2।
पिंजर माँहीं प्राण, तुम बिन जाइ सी।
जन दादू माँगे मान, कब घर आइ सी।3।
314-सुरफाख्ता ताल
हूँ जोइ रही रे बाट, तूं घर आवने।
तारा दर्शन थी सुख होइ, ते तूं ल्यावने।टेक।
चरण जोवा न खांत, ते तूं देखाड़ने।
तुझ बिना जीव देइ, दुहेली कामिनी।1।
नैण निहारूँ बाट, ऊभी चावनी।
तूं अंतर थी उरो आव, देही जवानी।2।
तूं दया कर घर आव, दासी गावनी।
जन दादू राम सँभाल, बैन सुहानी।3।
315-झपताल
पीव देखे बिन क्यों रहुँ, जिय तलफे मेरा।
सब सुख आनंद पाइए, मुख देखूँ तेरा।टेक।
पिव बिन कैसा जीवणा, मोहि चैन न आवे।
निर्धान ज्यों धान पाइए, जब दर्श दिखावे।1।
तुम बिन क्यों धाीरज धारूँ, जो लौं तोहि न पाऊँ।
सन्मुख ह्नै सुख दीजिए, बलिहारी जाऊँ।2।
विरह वियोग न सह सकूँ, कायर घट काचा।
पावन परस न पाइए, सुन साहिब साँचा।3।
सुनिए मेरी वीनती, अब दर्शन दीजे।
दादू देखन पाव ही, तैसे कुछ कीजे।4।
316-प्रीति अखंडिता दादरा
इहि विधिा वेधयो मोर मना, ज्यों लै भृंगी कीट तना।टेक।
चातक रटतै रैन बिहाइ, पिंड परे पै बाण न जाइ।1।
मरे मीन बिसरे नहिं पाणी, प्राण तजे उन और न जाणी।2।
जले शरीर न मोड़े अंगा, ज्योति न छाड़े पड़े पतंगा।3।
दादू अब तैं ऐसे होइ, पिंड पड़े नहिं छाड़ँई तोहि।4।
317-विरह। त्रिाताल
आओ राम दया कर मेरे, बार-बार बलिहारी तेरे।टेक।
विरहनि आतुर पंथ निहारे, राम-राम कह पीव पुकार।1।
पंथी बूझे मारग जोवे, नैन नीर जल भर-भर रोवे।2।
निश दिन तलफै रहै उदास, आतम राम तुम्हारे पास।3।
वपु बिसरे तन की सुधिा नाँहीं, दादू विरहनि मृतक माँहीं।4।
318-केवल विनती। रूपक ताल
निरंजन क्यों रहै मौन गहे वैराग्य, केते युग गये।टेक।
जागे जगपति राइ, हँस, बोले नहीं।
परकट घूँघट माँहीं, पट खोले नहीं।1।
सदके करूँ संसार, सब जग वारणे।
छाडूँ सब परिवार, तेरे कारणे।2।
वारूं पिंड पराण, पाऊँं शिर धारूँ।
ज्यों-ज्यों भावे राम, सो सेवा करूँ।3।
दीनानाथ दयाल! विलम्ब न कीजिए।
दादू बलि-बलि जाय, सेज सुख दीजिए।4।
319-निरंजन स्वरूप। त्रिाताल
निरंजन यूँ रहै, काहूँ लिप्त न होइ,
जल-थल स्थावर जंगमा, गुण नहिं लागे कोइ।टेक।
धार अम्बर लागे नहीं, नहिं लागे शशिहर सूर।
पाणी पवन लागे नहीं, जहाँ-तहाँ भरपूर।1।
निश वासर लागे नहीं, नहिं लागे शीतल घाम।
क्षुधाा त्रिाषा लागे नहीं, घट-घट आतम राम।2।
माया-मोह लगे नहीं, नहिं लागे काया जीव।
काल कर्म लागे नहीं, परकट मेरा पीव।3।
इकलस एकै नूर है, इकलस एकै तेज।
इकलस एकै ज्योति है, दादू खेले सेज।4।
320-विनय। त्रिाताल
जगजीवन प्राण अधाार, वाचा पालना।
हौं कहाँ पुकारूँ जाइ, मेरे लालना।टेक।
मेरे वेदन अंग अपार, सो दु:ख टालना।
सागर यह निस्तार, गहरा अति घणा।1।
अंतर है सो टाल कीजे आपणा।
मेरे तुम बिन और न कोई, इहै विचारणा।2।
तातैं करूँ पुकार, यहु तन चलणा।
दादू को दर्शन देहु, जाय दु:ख सालणा।3।
321-मन सुधाारार्थ विनती। मल्लिका मोद ताल
मेरे तुम ही राखणहार, दूजा को नहीं।
यह चंचल चहुँ दिशि जाय, काल तहीं-तहीं।टेक।
मैं केते किये उपाय, निश्चल ना रहै।
जहँ बरजूँ तहँ जाय, मद मातो बहै।1।
जहँ जाणे तहँ जाय, तुम तैं ना डरे।
तासों कहा बसाइ, भावे त्यों करे।2।
सकल पुकारे साधु, मैं केता कह्या।
गुरु अंकुश माने नाँहिं, निर्भय ह्नै रह्या।3।
तुम बिन और न कोइ, इस मन को गहै।
तूं राखे राखणहार, दादू तो रहै।4।
322-संसार तरणार्थ विनती। दीपचन्द ताल
निरंजन कायर कंपे प्राणिया, देख यहु दरिया।
वार पार सूझे नहीं, मन मेरा डरिया।टेक।
अति अथाह यह भव जला, आसंघ नहिं आवे।
देख-देख डरपै घणा, प्राणी दु:ख पावे।1।
विष जल भरिया सागरा, सब थके सयाना।
तुम बिन कहु कैसे तिरूँ, मैं मूढ अयाना।2।
आगे ही डरपे घणा, मेरी का कहिए।
कर गह काढो केशवा, पार तो लहिए।3।
एक भरोसा तोर है, जे तुम होहु दयाल।
दादू कहु कैसे तिरे, तूं तार गोपाल।4।
323-समर्थ-उपदेश। दादरा ताल
समर्थ मेरा सांइयाँ, सकल अघ जारे।
सुख दाता मेरे प्राण का, संकोच निवारे।टेक।
त्रिाविधिा ताप तन की हरे, चौथे जन राखे।
आप समागम सेवका, साधु यूँ भाखे।1।
आप करे प्रतिपालना, दारुण दु:ख टारे।
इच्छा जन की पूरवे, सब कारज सारे।2।
कर्म कोटि भय भंजना, सुख मंडन सोई।
मन मनोरथ पूरणा, ऐसा और न कोई।3।
ऐसा और न देखि हौं, सब पूरण कामा।
दादू साधु संगी किये, उन आतम रामा।4।
324-मन स्थिरार्थ विनय। त्रिाताल
तुम बिन राम कौन कलि माँहीं, विषया तैं कोइ बारे रे।
मुनिवर मोटा मनवे बाह्या, येन्हा कौन मनोरथ मारे रे।टेक।
छिन एक मनवो मर्कट म्हारो, घर-घर वार नचावे रे।
छिन एक मनवो चंचल म्हारो, छिन एक घर में आवे रे।1।
छिन एक मनवो मीन हमारो, सचराचर में धाावे रे।
छिन एक मनवो उदमद मातो, स्वादैं लागो खारे रे।2।
छिन एक मनवो ज्योति पतंगा, भ्रम-भ्रम स्वादैं दाझे रे।
छिन एक मनवो लोभैं लागो, आपा पर में बाझे रे।3।
छिन एक मनवो कुंजर म्हारो, वन-वन माँहिं भ्रमाड़े रे।
छिन एक मनवो कामी म्हारो, विषया रंग रमाड़े रे।4।
छिन एक मनवो मिरग हमारो, नादैं मोह्यो जाये रे।
छिन एक मनवो माया रातो, छिन एक हमने बाहे रे।5।
छिन एक मनवो भँवर हमारो, बासे कमल बँधााणों रे।
छिन एक मनवो चहुँ दिशि जाये, मनवा ने कोइ ऑंणे रे।6।
तुम बिन राखे कौन विधााता, मुनिवर साखी आणें रे।
दादू मृतक छिन में जीवे, मनवा ना चरित न जाणें रे।7।
325-बेखर्च व्यसनी। ब्रह्म ताल
करणी पोच, सोच सुख करई,
लोह की नाव कैसे भव जल तिर ही।टेक।
दक्षिण जात, पच्छिम कैसे आवे,
नैन बिन भूल बाट कित पावे।1।
विष वन बेलि, अमृत फल चाहै,
खाइ हलाहल, अमर उमाहै।2।
अग्नि गृह पैसि कर सुख क्यों सोवे,
जलन लागी घणी, शीत क्यों होवे।3।
पाप पाखंड कीये, पुन्य क्यों पाइए,
कूप खन पड़िबा, गगन क्यों जाइए।4।
कहै दादू मोहि अचरज भारी,
हृदय कपट क्यों मिले मुरारी।5।
326-परिचय प्राप्ति। खेमटा ताल
मेरा मन के मन सौं मन लागा,
शब्द के शब्द सौं नाद बागा।टेक।
श्रवण के श्रवण सुन सुख पाया, नैन के नैन सौं निरख राया।1।
प्राण के प्राण सौं खेल प्राणी, मुख के मुख सौं बोल वाणी।2।
जीव के जीव सौं रंग राता, चित्ता के चित्ता सौं प्रेम माता।3।
शीश के शीश सौं शीश मेरा, देखरे दादू वा भाग तेरा।4।
327-मन को उपदेश। त्रिाताल
मेरु शिखर चढ बोल मन मोरा,
राम जल वर्षे शब्द सुन तोरा।टेक।
आरत आतुर पीव पुकारे, सोवत-जागत पंथ निहारे।1।
निश वासर कह अमृत वाणी, राम नाम ल्यौ लाइ ले प्राणी।2।
टेर मन भाई जब लग जीवे, प्रीति कर गाढी प्रेम रस पीवे।3।
दादू अवसर जे जन जावे, राम घटा जल वरषण लागे।4।
328-वैराग्य उपदेश। त्रिाताल
नारी नेह न कीजिए, जे तुझ राम पियारा।
माया मोह न बँधिाए, तजिए संसारा।टेक।
विषया रँग राचे नहीं, नहिं करे पसारा।
देह गेह परिवार में, सब तैं रहै नियारा।1।
आपा पर उरझे नहीं, नाँहीं मैं मेरा।
मनसा वाचा कर्मना, सांई सब तेरा।2।
मन इन्द्रिय सुस्थिर करे, कतहुँ नहिं डोले।
जग विकार सब परिहरै, मिथ्या नहिं बोले।3।
रहै निरंतर राम सौं, अंतर गति राता।
गावे गुण गोविन्द का, दादू रस माता।4।
329-आज्ञाकारी। झपताल
तूं राखे त्यों हीं रहै, तेई जन तेरा,
तुम बिन और न जान हीं, सो सेवक नेरा।टेक।
अम्बर आपै ही धारया, अजहूँ उपकारी।
धारती धाारी आप तें, सबही सुखकारी।1।
पवन पास सब के चले, जैसे तुम कीन्हा।
पानी परकट देखि हूँ, सब सौं रहै भीना।2।
चंद चिराकी चहुँ दिशा, सब शीतल जाने।
सूरज भी सेवा करे, जैसे भल माने।3।
ये निज सेवक तेरड़े, सब आज्ञाकारी।
मोको ऐसे कीजिए, दादू बलिहारी।4।
330-निन्दक। झपताल
निन्दक बाबा बीर हमारा, बिन हीं कौड़ी बहै विचारा।टेक।
कर्म कोटि के कुश्मल काटे, काज सँवारे बिन ही साटे।1।
आपण डूबे और को तारे, ऐसा प्रीतम पार उतारे।2।
युग-युग जीवो निन्दक मोरा, राम देव तुम करो निहोरा।3।
निन्दक बपुरा पर उपकारी, दादू निन्दा करे हमारी।4।
331-विरह विनती। शूलताल
देहुजी देहुजी, प्रेम पियाला देहुजी, देकर बहुर न लेहुजी।टेक।
ज्यों-ज्यों नूर न देखूँ तेरा, त्यों-त्यों जियरा तलफे मेरा।1।
अमी महा रस नाम न आवे, त्यों-त्यों प्राण बहुत दु:ख पावे।2।
प्रेम भक्ति-रस पावे नाँहीं, त्यों-त्यों साले मन ही माँहीं।3।
सेज सुहाग सदा सुख दीजे, दादू दुखिया विलम्ब न कीजे।4।
332-परिचय विनती। त्रिाताल
वर्षहु राम अमृत धाारा, झिलमिल-झिलमिल सींचनहारा।टेक।
प्राण बेलि निज नीर न पावे, जलहर बिना कमल कुम्हलावे।1।
सूखे बेलि सकल वनराय, राम-देव जल वर्षहु आय।2।
आतम बेलि मरे पियास, नीर न पावे दादू दास।3।
।इति राग गुंड (गौंड) सम्पूर्ण।
अथ राग बिलावल
।21।
(गायन समय प्रात: 6 से 9)
333-परिचय विनती। त्रिाताल
दया तुम्हारी दर्शन पइए,
जानत हो तुम अंतरयामी, जानराय तुम सौं कहा कहिए।टेक।
तुम सौं कहा चतुराई कीजे, कौण कर्म कर तुम्ह पाये।
को नहिं मिले प्राणि बल अपने, दया तुम्हारी तुम आये।1।
कहा हमारो आन तुम आगे, कौन कला कर वश कीये।
जीते कौन बुध्दि बल पौरुष, रुचि अपनी तैं शरण लीये।2।
तुम हीं आदि-अंत पुनि तुम हीं, तुम कर्ता त्राय लोक मंझार।
कुछ नाँहीं तैं कहा होत है, दादू बलि पावे दीदार।3।
334-विनती। उदीक्षण ताल
मालिक महरबान करीम,
गुनहगार हररोज हरदम, पनह राख रहीम।टेक।
अव्वल आखिर बंदा गुनहीं, अमल बद विसियार।
गरक दुनिया सत्ताार साहिब, दरदवंद पुकार।1।
फरामोश नेकी बदी, करदा बुराई बद फैल।
बखशिन्द: तूं अजीब आखिर, हुक्म हाजिर सैल।2।
नाम नेक रहीम राजिक, पाक परवरदिगार।
गुनह फिल कर देहु दादू, तलब दर दीदार।3।
335-उदीक्षण ताल
कौण आदमी कमींण विचारा, किसको पूजे गरीब पियारा।टेक।
मैं जन एक अनेक पसारा, भवजल भरिया अधिाक अपारा।1।
एक होइ तो कह समझाऊँ अनेक अरूझे क्यों सुरझाऊँ।2।
मैं हौं निबल सबल ये सारे, क्यों कर पूजूँ बहुत पसारे।3।
पीव पुकारूँ समझत नाँहीं दादू देखू दशों दिशि जाँहीं।4।
336-उपदेश चेतावनी। भंग ताल
जागहु जियरा काहे सोवे, सेव करीमा तो सुख होवे।टेक।
जाथैं जीवण सो तैं विसारा, पच्छिम जाना पथ न सँवारा।
मैं मेरी कर बहुत भुलाना, अजहुँ न चेतै दूर पयाना।1।
सांई केरी सेवा नाँहीं, फिर-फिर डूबे दरिया माँहीं।
ओर न आवा, पार न पावा, झूठा जीवन बहुत भुलावा।2।
मूल न राख्या लाह न लीया, कौडी बदले हीरा दीया।
फिर पछताना संबल नाँहीं, हार चल्या क्यों पावे सांई।3।
अब सुख कारण फिर दु:ख पावे, अजहुँ न चेतै क्यों डहकावे।
दादू कहै सीख सुन मेरी, कहु करीम सँभाल सवेरी।4।
337-भंगताल
बार-बार तन नहीं बावरे, काहे को बाद गमावे रे।
विनशत बार कछू नहिं लागे, बहुर कहाँ कोइ पावे रे।टेक।
तेरे भाग बड़े भाव धार कीन्हा, क्यों कर चित्रा बनावे रे।
सो तूं लेय विषय में डारे, कंचन छार मिलावे रे।1।
तू मत जाने बहुर पाइए, अब के जिन डहकावे रे।
तीन लोक की पूँजी तेरे, बनिज वेगि सो आवे रे।2।
जब लग घट में श्वास बास कर, तब लग काहे न धाावे रे।
दादू तन धार नाम न लीन्हा, सो प्राणी पछतावे रे।3।
338-ललित ताल
राम विसारयो रे जगन्नाथ,
हीरा हारयो देखत ही रे, कौडी कीन्हीं हाथ।टेक।
काचहु ता कंचन कर जाने, भूल्यो रे भ्रम पास।
साँचे सौं पल परिचय नाँहीं, कर काचे की आस।1।
विष ताको अमृत कर जाणे, सो संग न आवे साथ।
सेमल के फूलन पर फूल्यो, चूक्यो अब का घात।2।
हरि भज रे मन सहल पिछाण, ये सुनी साँची बात।
दादू रे अब तैं कर लीजे, आयु घटे दिन जात।3।
339-मन। ललित ताल
मन चंचल मेरो कह्यो न माने, दशों दिशा दौरावे रे।
आवत-जात बार नहिं लागे, बहुत भाँति बौरावे रे।टेक।
बेर-बेर बरजत या मन को, किंचित सीख न माने रे।
ऐसे निकस जात या तन थैं, जैसे जीव न जाणे रे।1।
कोटिक यत्न करत या मन को, निश्चल निमष न होई रे।
चंचल चपल चहूँ दिश भरमे, कहा करे जन कोई रे।2।
सदा सोच रहत घट भीतर, मन थिर कैसे कीजे रे।
सहजैं सहज साधु की संगति, दादू हरि भज लीजे रे।3।
340-माया उत्सव ताल
इन कामिनि घर घाले रे,
प्रीति लगाइ प्राण सब सोखे, बिन पावक जिय जाले रे।टेक।
अंग लगाइ सार सब लेवे, इन तैं कोई न बाचेरे।
यह संसार जीत सब लीया, मिलन न देई साँचे रे।1।
हेत लगाइ सबै धान लेवे, बाकी कछू न राखे रे।
माखन माँहिं शोधा सब लेवे, छाछ छिया कर नाखे रे।2।
जे जन जान युक्ति सौं त्यागे, तिनको निज पद परसे रे।
काल न खाइ मरे नहिं कबहुँ, दादू तिनको दरशे रे।3।
341-विश्वास। उत्सव ताल
जिन सत छाडे बावरे, पूरक है पूरा।
सिरजे की सब चिन्त है, देवे को सूरा।टेक।
गर्भवास जिन राखिया, पावक तैं न्यारा।
युक्ति यत्न कर सींचिया, दे प्राण अधाारा।1।
कूँज कहाँ धार संचरे, तहाँ को रखवारा।
हिम हरते जिन राखिया, सो खसम हमारा।2।
जल-थल जीव जिते रहैं, सो सब को पूरे।
संपट शिला में देत है, काहै नर झूरे।3।
जिन यह भार उठाइया, निर्वाहे सोई।
दादू छिन न बिसारिये, तातैं जीवन होई।4।
342-गज ताल
सोई राम सँभाल जियरा, प्राण पिंड जिन दीन्हा रे।
अम्बर आप उपावनहारा, माँहिं चित्रा जिन कीन्हा रे।टेक।
चंद-सूर जिन किये चिराका, चरणों बिना चलावे रे।
इक शीतल इक ताता डोले, अनंत कला दिखलावे रे।1।
धारती-धारणी वरण बहु वाणी, रचले सप्त समुद्रा रे।
जल-थल जीव सँभालनहारा, पूर रह्या सब संगा रे।2।
प्रकट पवन पाणी जिन कीन्हा, वर्षावे बहु धाारा रे।
अठारह भार वृक्ष बहुविधिा के, सबका सींचनहारा रे।3।
पंच तत्तव जिन किये पसारा, सब कर देखण लागा रे।
निश्चल राम जपो मेरे जियरा, दादू ताथैं जागा रे।4।
343-परिचय। गज ताल
जब मैं रहते ही रह जानी,
काल काया के निकट न आवे, पावत है सुख प्राणी।टेक।
शोक संताप नैन नहिं देख्रू, राग-द्वेष नहिं आवे।
जागत है जासौं रुचि मेरी, स्वप्ने सोइ दिखावे।1।
भरम कर्म मोह नहिं ममता, वाद-विवाद न जानूँ।
मोहन सौं मेरी बन आई, रसना सोइ बखानूँ।2।
निश वासर मोहन तन मेरे, चरण कमल मन माने।
सोइ निधिा निरख देख सचु पाऊँ, दादू और न जाने।3।
344-राजमृगांक ताल
जब मैं साँचे की सुधिा पाई,
तब थैं अंग और नहिं आवे, देखत हूँ सुखदाई।टेक।
ता दिन तैं मन ताप न व्यापे, सुख-दु:ख संग न जाऊँ।
पावन पीव परश पद लीन्हा आनंद भर गुन गाऊँ।1।
सब सौं संग नहीं पुनि मेरे, अरस-परस कुछ नाँहीं।
एक अनंत सोइ संग मेरे, निरखत हूँ निज माँहीं।2।
तन-मन माँहि शोधा सो लीन्हा, निरखत हूँ निज सारा।
सोई संग सबै सुखदाई, दादू भाग्य हमारा।3।
345-साँच निदान। राजमृगांक ताल
हरि बिन निश्चल कहीं न देखूँ, तीन लोक फिरि शोधाा रे।
जे दीसे सो विनश जाएगा, ऐसा गुरु परमोधाा रे।टेक।
धारती गगन पवन अरु पाणी, चन्द सूर थिर नाँहीं रे।
रैनि दविस रहत नहिं दीसे, एक रहै कलि माँहीं रे।1।
पीर पैगम्बर शेख मुशायस, शिव विरंचि सब देवा रे।
कलि आया सो कोइ न रहसी, रहसी अलख अभेवा रे।2।
सवा लाख मेरु गिरि पर्वत, समंद्र न रहसी थीरा रे।
नदी निवान कछू नहिं दीसे, रहसी अकल शरीरा रे।3।
अविनाशी वह एक रहेगा, जिन यहु सब कुछ कीन्हा रे।
दादू जाता सब जग देखूँ, एक रहत सो चीन्हा रे।4।
346-पतिव्रता। राज विद्याधार ताल
मूल सींच बधो ज्यों बेला, सो तत तरुवर रहे अकेला।टेक।
देवी देखत फिर ज्यों भूले, खाय हलाहल विष को फूले।
सुख को चाहै पड़े गल फाँसी, देखत हीरा हाथ तैं जासी।1।
कोई पूजा रच धयान लगावें, देवल देखें खबर न पावें।
तोरैं पाती युक्ति न जानी, इहिं भ्रम भूल रहे अभिमानी।2।
तीर्थ-व्रत न पूजैं आसा, वन खंड जाँहिं रहैं उदासा।
यूँ तप कर कर देह जलावैं, भरमत डोलैं जन्म गमावैं।3।
सद्गुरु मिले न संशय जाई, ये बन्धान सब देहु छुड़ाई।
तब दादू परम गति पावे, जो निज पूरति माँहिं लखावे।4।
347-साधु-परीक्षा। दादरा
सोई साधु शिरोमणी, गोविंद गुण गावे।
राम भजे विषया तजे, आपा न जनावे।टेक।
मिथ्या मुख बोले नहीं, पर निन्दा नाँहीं।
अवगुण छाड़े गुण गहै, मन हरि पद माँहीं।1।
निर्वैरी सब आतमा, पर आतम जाने।
सुख दाई समता गहै, आपा नहिं आने।2।
आपा पर अंतर नहीं, निर्मल निज सारा।
सत्वादी साँचा कहै, लै लीन विचारा।3।
निर्भय भज न्यारा रहै, काहू लिप्त न होई।
दादू सब संसार में, ऐसा जन कोई।4।
348-परिचय परीक्षा। यति ताल
राम मिल्या यूँ जानिए, जाको काल न व्यापै।
जरा मरण ताको नहीं, अरु मेटे आपै।टेक।
सुख-दु:ख कबहु न ऊपजे, अरु सब जग सूझे।
कर्म को बाँधो नहीं, सब आगम बूझे।1।
जागत ह्नै सो जन रहे, अरु युग-युग जागे।
अंतरयामी सौं रहे, कुछ काई न लागे।2।
काम दहै सहजैं रहै, अरु शून्य विचारे।
दादू सो सब की लहै, अरु कबहुँ न हारे।3।
349-समता ज्ञान। त्रिाताल
इन बातन मेरा मन माने,
द्वितिया दोइ नहीं उर अंतर, एक-एक कर पिव को जाने।टेक।
पूर्ण ब्रह्म देखे सबहिन में, भ्रम न जीव काहू थैं आने।
होइ दयालु दीनता सब सौं, अरि पांचन को करे कसाने।1।
आपा पर सम सब तत चीन्हें, हरी भजे केवल यश गाने।
दादू सोइ सहज घर आने, संकट सबै जीव के भाने।2।
350-परिचय। एक ताल
यह मन मेरा पीव सौं, औरन सौं नाँहीं।
पिव बिन पल हि न जीव सौं, यह उपजे माँहीं।टेक।
देख-देख सुख जीव सौं, तहाँ धूप न छाँहीं।
अजरावर मन बंधिाया, ताथैं अनत न जाँहीं।1।
तेज पुंज फलन पाइया, तहाँ रस खाँहीं।
अमर बेलि अमृत झरे, पीव-पीव अघाँही।
दादू पिव परिचय भया, हिय रे हित लाँईं।3।
351-त्रिाताल
आज प्रभात मिले हरि लाल,
दिल की व्यथा पीड़ सब भागी, मिटयो जीव को साल।टेक।
देखत नैन संतोष भयो है, इहै तुम्हारो ख्याल।
दादू जन सौं हिल-मिल रहिबो, तुम हो दीन दयाल।1।
352-निज स्थान निर्णय उपदेश। एक ताल
अर्श इलाही रब्बदा, ईथांई रहमान वे।
मक्का बीच मुसाफरीला, मदीना मुलतान वे।टेक।
नबी नाल पैगम्बरे, पीरों हंदा थान वे।
जन तहुँ ले हिकसा ला, इथां वहिश्त मुकाम वे।1।
इथां आब जमजमा, इथां ही सुबहान वे।
तख्त रबानी कंगुरेला, इथां ही सुलतान वे।2।
सब इथां अंदर आव वे, इथां ही ईमान वे।
दादू आप वंजाइ बेला, इथां ही आसान वे।3।
353-क्रीड़ा तालश्चंडनि
आसण रसदा रामदा, हरि इथां अविगत आप वे।
काया काशी वंजणां, हरि इथैं पूजा आप वे।टेक।
महादेव मुनि देवते, सिध्दोंदा विश्राम वे।
स्वर्ग सुखासण हुलणें, हरि इथौं आतम राम वे।1।
अमी सरोवर आतमा, इथां ही आधाार वे।
अमर थान अविगत रहै, हरि इथैं सिरजनहार वे।2।
सब कुछ इथैं आव वे, इथां परमानन्द वे।
दादू आपा दूर कर, हरि इतां ही आनन्द वे।3।
।इति राग बिलावल सम्पूर्ण।
अथ राग सूहा
।22।
(गायन समय दिन 9 से 12)
354-विनती। एकताल
तुम बिच अंतर जिन परे माधाव, भावै तन-धान लेहु।
भावै स्वर्ग-नरक रसातल, भावै करवत देहु।टेक।
भावै विपति देहु दुख संकट, भावै सम्पत्तिा सुख शरीर।
भावै घर-वन राव-रंक कर, भावै सागर तीर माधावे।1।
भावै बन्धा मुक्त कर माधाव, भावै त्रिाभुवन सार।
भावै सकल दोष धार माधाव, भावै सकल निवार माधावे।2।
भावै धारणि गगन धार माधाव, भावै शीतल सूर।
दादू निकट सदा सँग माधाव, तू जिन होवे दूर माधावे।3।
355-परिचय। पंजाबी त्रिाताल
अब हम राम सनेही पाया, आगम अनहद सौं चित लाया।टेक।
तन-मन आतम ताको दीन्हा, तब हरि हम अपना कर लीन्हा।1।
वाणी विमल पंच पराना, पहली शीश मिले भगवाना।2।
जीवित जन्म सफल कर लीन्हाँ, पहली चेते तिन भल कीन्हाँ।3।
अवसर आपा ठौर लगावा, दादू जीवित ले पहुँचावा।4।
356-पिंड ब्रह्मांड शोधान। पंजाबी त्रिाताल
साँचा सद्गुरु राम मिलावे, सब कुछ काया माँहिं दिखावे।टेक।
काया माँहीं सिरजनहार, काया माँहीं है ओंकार।
काया माँहीं है आकाश, काया माँहीं धारती पास।1।
काया माँहीं पवन प्रकाश, काया माँहीं नीर निवास।
काया माँहीं शशिहर सूर, काया माँहीं बाजै तूर।2।
काया माँहीं तीनों देव, काया माँहीं अलख अभेव।
काया माँहीं चारों वेद, काया माँहीं अलख अभेव।
काया माँहीं चारों वेद, काया माँहीं पाया भेद।3।
काया माँहीं चारों खाणी, काया माँहीं चारों वाणी।
काया माँहीं उपजे आइ, काया माँहीं मर-मर जाइ।4।
काया माँहीं जामे मरे, काया माँहीं चौरासी फिरे।
काया माँहीं ले अवतार, काया माँहीं बारम्बार।5।
काया माँहीं रात-दिन, उदय-अस्त इकतार।
दादू पाया परम गुरु, कीया एकंकार।6।
357-त्रिाताल
काया माँहीं खेल पसारा, काया माँहीं प्राण अधाारा।
काया माँहीं अठारह भारा, काया माँहीं उपावनहारा।1।
काया माँहीं सब वन राइ, काया माँहीं रहे घर छाइ।
काया माँहीं कंदलि वासा, काया माँहीं है कैलाशा।2।
काया माँहीं तरुवर छाया, काया माँहीं पंखी माया।
काया माँहीं आदि अनन्त, काया माँहीं है भगवन्त।3।
काया माँहीं त्रिाभुवनराइ, काया माँहीं रहे समाइ।
काया माँहीं चौदह भुवन, काया माँहीं आवागमन।4।
काया माँहीं सब ब्रह्मंड, काया माँहीं है नव खंड।
काया माँहीं स्वर्ग पयाल, काया माँहीं आप दयाल।5।
काया माँहीं लोक सब, दादू दिये दिखाइ।
मनसा वाचा कर्मना, गुरु बिन लख्या न जाइ।6।
358-रंग ताल
काया माँहीं सागर सात, काया माँहीं अविगत नाथ।
काया माँहीं नदियाँ नीर, काया माँहीं गहर गम्भीर।1।
काया माँहीं सरवर पाणी, काया माँहीं बसे विनाणी।
काया माँहीं नीर निवान, काया माँहीं हंस सुजान।2।
काया माँहीं गंग तरंग, काया माँहीं जमुना संग।
काया माँहीं सरस्वती, काया माँहीं द्वारावती।3।
काया माँहीं काशी स्थान, काया माँहीं करे स्नान।
काया माँहीं पूजा पाती, काया माँहीं तीरथ जाती।4।
काया माँहीं मुनिवर मेला, काया माँहीं आप अकेला।
काया माँहीं जपिये जाप, काया माँहीं आपै आप।5।
काया नगर निधाान है, माँहीं कौतिक होइ।
दादू सद्गुरु संग ले, भूल पड़े जिन कोइ।6।
359-रंग ताल
काया माँहीं विखमी बाट, काया माँहीं औघट घाट।
काया माँहीं पट्टण गाँव, काया माँहीं उत्ताम ठाँव।1।
काया माँहीं मण्डप छाजे, काया माँहीं आप विराजे।
काया माँहीं महल अवास, काया माँहीं निश्चल वास।2।
काया माँहीं राजद्वार, काया माँहीं बोलणहार।
काया माँहीं भरे भण्डार, काया माँहीं वस्तु अपार।3।
काया माँहीं नौ निधि होइ, काया माँहीं अठ सिधि सोइ।
काया माँहीं हीरा साल, काया माँहीं निपजे लाल।4।
काया माँहीं माणिक भरे, काया माँहीं ले ले धरे।
काया माँहीं रतन अमोल, काया माँहीं मोल न तोल।5।
काया मांहि कर्तार है, सो निधि जाणे नांहि।
दादू गुरु मुख पाइये, सब कुछ काया मांहिं।6।
360-वर्ण भिन्न ताल
काया माँहीं सब कुछ जान, काया माँहीं लेहु पिछान।
काया माँहीं बहु विस्तार, काया माँहीं अनन्त अपार।1।
काया माँहीं अगम अगाधा, काया माँहीं निपजे साधा।
काया माँहीं कह्या न जाइ, काया माँहीं रहे ल्यौ लाइ।2।
काया माँहीं साधन सार, काया माँहीं करे विचार।
काया माँहीं अमृत वाणी, काया माँहीं सारú पाणी।3।
काया माँहीं खेले प्राण, काया माँहीं पद निर्वाण।
काया माँहीं मूल गह रहै, काया माँहीं सब कुछ लहै।4।
काया माँहीं निज निरधाार, काया माँहीं अपरम्पार।
काया माँहीं सेवा करे, काया माँहीं नीझर झरे।5।
काया माँहीं वास कर, रहै निरन्तर छाइ।
दादू पाया आदि घर, सद्गुरु दीया दिखाइ।6।
361-वर्ण भिन्न ताल
काया माँहीं अनुभव सार, काया माँहीं करे विचार।
काया माँहीं उपजे ज्ञान, काया माँहीं लागे धयान।1।
काया माँहीं अमर स्थान, काया माँहीं आतम राम।
काया माँहीं कला अनेक, काया माँहीं कर्ता एक।2।
काया माँहीं लगे रú, काया माँहीं साई संग।
काया माँहीं सरवर तीर, काया माँहीं कोकिल कीर।3।
काया माँहीं कच्छप नैन, काया माँहीं कुंजी बैन।
काया माँहीं कमल प्रकाश, काया माँहीं मधाुकर वास।4।
काया माँहीं नाद कुरú, काया माँहीं ज्योति पतंग।
काया माँहीं चातक मोर, काया माँहीं चन्द चकोर।5।
काया माँहीं प्रीति कर, काया माँहीं सनेह।
काया माँहीं प्रेमरस, दादू गुरुमुख येह।6।
362-राज विद्याधार ताल
काया माँहीं तारणहार, काया माँहीं उतरे पार।
काया माँहीं, दुस्तर तारे, काया माँहीं आप उबारे।1।
काया माँहीं दुस्तर तरे, काया माँहीं होइ उध्दरे।
काया माँहीं उपजे आइ, काया माँहीं रहै समाइ।2।
काया माँहीं खुले कपाट, काया माँहीं निरंजन हाट।
काया माँहीं है दीदार, काया माँहीं देखणहार।3।
काया माँहीं राम रँग राते, काया माँहीं प्रेम रस माते।
काया माँहीं अविचल भये, काया माँहीं निश्चल रहे।4।
काया माँहीं जीवे जीव, काया माँहीं पाया पीव।
काया माँहीं सदा अनन्द, काया माँहीं परमानन्द।5।
काया माँहीं कुशल है, सो हम देख्या आइ।
दादू गुरु मुख पाइए, साधाु कहैं समझाइ।6।
363-राज विद्याधार ताल
काया माँहीं देख्या नूर, काया माँहीं रह्या भरपूर।
काया माँहीं पाया तेज, काया माँहीं सुन्दर सेज।1।
काया माँहीं पुंज प्रकाश, काया माँहीं सदा उजास।
काया माँहीं झिलमिल सारा, काया माँहीं सब तैं न्यारा।2।
काया माँहीं ज्योति अनन्त, काया माँहीं सदा वसन्त।
काया माँहीं खेले फाग, काया माँहीं सब वन बाग।3।
काया माँहीं खेलें रास, काया माँहीं विविधा विलास।
काया माँहीं बाजैं बाजे, काया माँहीं नाद धवनि साजे।4।
काया माँहीं सेज सुहाग, काया माँहीं मोटे भाग।
काया माँहीं मँगलाचार, काया माँहीं जै जै कार।5।
काया अगम अगाधा है, मांही तूर बजाइ।
दादू परगट पीव मिल्या, गुरुमुख रहे समाइ।6।
।इति राग सूहा (काया बेली ग्रन्थ) सम्पूर्ण।
अथ राग बसन्त
।23।
(गायन समय प्रभात 3 से 6 तथा बसन्त ऋतु)
364-भजन भेद। मल्लिका मोद ताल
निर्मल नाम न लीयो जाइ, जाके भाग बड़े सोई फल खाइ।टेक।
मन माया मोह मद माते, कर्म कठिन ता माँहिं परे।
विषय विकार मान मन माँहीं, सकल मनोरथ स्वाद खरे।1।
काम-क्रोधा ये काल कल्पना, मैं मैं मेरी अति अहंकार।
तृष्णा तृप्ति न माने कबहूँ, सदा कुसंगी पंच विकार।2।
अनेक जोधा रहै रखवाले, दुर्लभ दूर फल अगम अपार।
जाके भाग बड़े सोई फल पावे, दादू दाता सिरजनहार।3।
365-विरह। धाीमा ताल
तूं घर आवने म्हारे रे, हूँ जाउँ वारणे ताहरे रे।टेक।
रैन दिवस मूने निरखताँ जाये,
वेलो थई घर आवे रे वाहला आकुल थाये।1।
तिल तिल हूँ तो तारी वाटड़ी जोऊँ,
एने रे ऑंसूड़े वाहला मुखड़ो धाोऊँ।2।
ताहरी दया करि घर आवे रे वाहला,
दादू तो ताहरो छे रे मा कर टाला।3।
366-करुणा विनती। तेवरा ताल
मोहन दुख दीरघ तूं निवार, मोहि सतावे बारंबार।टेक।
काम कठिन घट रहै माँहिं, ताथैं ज्ञान धयान दोउ उदय नाँहिं।
गति मति मोहन विकल मोर, ताथैं, चित्ता न आवे नाम तोर।1।
पांचों द्वन्द्वर देह पूरि, ताथैं सहज शील सत रहैं दूरि।
शुध्द बुध्दि मेरी गई भाज, ताथैं तुम विसरे (हो) महाराज।2।
क्रोधा न कबहूँ तजे संग, ताथैं भाव भजन का होइ भंग।
समझि न काई मन मंझारि, ताथैं चरण विमुख भये श्री मुरारि।3।
अन्तरयामी कर सहाइ, तेरो दीन दुखित भयो जन्म जाइ।
त्रााहि-त्रााहि प्रभु तूं दयाल, कहै दादू हरि कर सँभाल।4।
367-मन स्थिरार्थ विनती। एक ताल
मेरे मोहन मूरति राख मोहि, निश वासर गुण रमूँ तोहि।टेक।
मन मीन होइ ज्यों स्वाद खाइ, लालच लागो जल थैं जाइ।
मन हस्ती मातो अपार, काम अंधा गज लहे न सार।1।
मन पतंग पावक परे, अग्नि न देखे ज्यों जरे।
मन मृगा ज्यों सुने नाद, प्राण तजे यूँ जाइ बाद।2।
मन मधाुकर जैसे लुब्धा वास, कमल बँधाावे होइ नास।
मनसा वाचा शरण तोर, दादू का राखो गोविन्द मोर।3।
368-उपदेश। एक ताल
बहुरि न कीजे कपट काम, हृदय जपिये राम नाम।टेक।
हरि पाखें नहिं कहूँ ठाम, पीव बिन खड़भड़ गाँव-गाँव।
तुम राखो जियरा अपनी माँम, अनत जिन जाय रहो विश्राम।1।
कपट काम नहिं कीजे हांम, रहु चरण कमल कहु राम नाम।
जब अंतरजामी रहै जांम, तब अक्षय पद जन दादू प्राम।2।
369-परिचय प्राप्ति। कड्ड़ुक ताल
तहँ खेलूँ पीव सूँ नितही फाग, देख सखीरी मेरे भाग।टेक।
तहँ दिन-दिन अति आनन्द होइ, प्रेम पिलावे आप सोइ।
संगियन सेती रमूँ रास, तहँ पूजा-अरचा, चरण पास।1।
तहँ वचन अमोलक सब ही सार, तहँ बरते लीला अति अपार।
उमंग देइ तब मेरे भाग, तिहिं तरुवर फल अमर लाग।2।
अलख देव कोई जाणे भेव, तहँ अलख देव की कीजे सेव।
दादू बलि-बलि बारंबार, तहँ आप निरंजन निराधाार।3।
370-परिचय सुख वर्णन। षड्ताल
मोहन माली सहज समाना, कोई जाणे साधाु सुजाना।टेक।
काया बाड़ी माँहीं माली, तहाँ रास बनाया।
सेवक सौं स्वामी खेलन को, आप दया कर आया।1।
बाहर-भीतर सर्व निरंतर, सब में रह्या समाई।
परकट गुप्त गुप्त पुनि परकट, अविगत लख्या न जाई।2।
ता माली की अकथ कहाणी, कहत कही नहिं आवे।
अगम अगोचर करत अनंदा, दादू यह यश गावे।3।
371-परिचय। षड्ताल
मन मोहन मेरे मनहिं माँहिं, कीजे सेवा अति तहाँ।टेक।
तहँ पायो देव निरंजना, परकट भयो हरि इहिं तना।
नैनन हीं देखूँ अघाइ, प्रकटयो है हरि मेरे भाइ।1।
मोहि कर नैनन की सैन देइ, प्राण मूँस हरि मोर लेइ।
तब उपजे मोकों इहैं बाणि, निज निरखत हूँ सारंग प्राणि।2।
अंकुर आदैं प्रकटयो सोइ, बैन बाण ताथैं लागे मोहि।
शरणे दादू रह्यो जाइ, हरि चरण दिखावे आप आइ।3।
372-थकित निश्चल। मदन ताल
मतिवाले पंचूं प्रेम पूर, निमष न इत-उत जाँहिं दूर।टेक।
हरि रस माते दया दीन, राम रमत ह्नै रहे लीन।
उलट अपूठे भये थीर, अमृत धाारा पीवहिं नीर।1।
सहज समाधिा तज विकार, अविनाशी रस पीवहिं सार।
थकित भये मिल महल माँहिं, मनसा वाचा आन नाँहिं।2।
मन मतवाला राम रंग, मिल आसन बैठे एक संग।
सुस्थिर दादू एक अंग, प्राणनाथ तहँ परमानन्द।3।
।इति राग बसन्त सम्पूर्ण।
अथ राग भैरूँ
।24।
(गायन समय प्रात:काल)
373-सद्गुरु तथा नाम महिमा। त्रिाताल
सद्गुरु चरणा मस्तक धारणा,
राम नाम कहि दुस्तर तिरणा।टेक।
अठ सिधिा नव निधिा सहजैं पावे,
अमर अभय पद सुख में आवे।1।
भक्ति मुक्ति बैकुंठां जाइ,
अमर लोक फल लेवे आइ।2।
परम पदारथ मंगल चार,
साहिब के सब भरे भंडार।3।
नूर तेज है ज्योति अपार,
दादू राता सिरजनहार।4।
374-उत्ताम ज्ञान-स्मरण। चौताल
तन ही राम मन ही राम, राम हृदय रमि राखी ले।
मनसा राम सकल परिपूरण, सहज सदा रस चाखी ले।टेक।
नैना राम बैना राम, रसना राम सँभारी ले।
श्रवणा राम सन्मुख राम, रमता राम विचारी ले।1।
श्वासैं राम सुरतैं राम, शब्दैं राम समाई ले।
अन्तर राम निरन्तर राम, आत्माराम धयाई ले।2।
सर्वै राम संगै राम, राम नाम ल्यौ लाई ले।
बाहर राम भीतर राम, दादू गोविन्द गाई ले।3।
375-उत्ताम स्मरण। मदन ताल
ऐसी सुरति राम ल्यौ लाइ, हरी हृदय जिन बिसरि जाइ।टेक।
छिन-छिन मात सँभाले पूत, बिन्दु राखे योगी अवधाूत।
त्रिाया कुरूप रूप को रढ़े, नटणी निरख बाँस बरत चढ़े।1।
कच्छप दृष्टि धारे धिायान, चातक नीर प्रेम की बान।
कूंजी कुरलि सँभाले सोइ, भृंगी धयान कीट को होइ।2।
श्रवणों शब्द ज्यों सुने कुरंग, ज्योति पतंग न मोड़े अंग।
जल बिन मीन तलफि ज्यों मरे, दादू सेवक ऐसे करे।3।
376-स्मरण फल। एक ताल
निर्गुण राम रहै ल्यौ लाइ, सहजैं सहज मिले हरि जाइ।टेक।
भव जल व्याधिा लिपे नहिं कबहूँ, कर्म न कोई लागे आइ।
तीनों ताप जरे नहिं जियरा, सो पद परसे सहज सुभाइ।1।
जन्म जुरा योनि नहिं आवे, माया मोह न लागे ताहि।
पाँचों पीड़ा प्राण नहिं व्यापे, सकल शोधिा सब इहै उपाइ।2।
संकट-संशय नरक न नैनहुँ, ताको कबहू काल न खाइ।
कंप न काई भय भ्रम भागे, सब विधिा ऐसी एक लगाइ।3।
सहज समाधिा गहो जे दृढ़ कर, जासौं लागे सोई आइ।
भृंगी होइ कीट की नाँई, हरि जन दादू एक दिखाइ।4।
377-आशीर्वाद। षड् ताल
धान्य धान्य तूं धान्य धाणी, तुम सौं मेरी आइ बणी।टेक।
धान्य धान्य तूं तारे जगदीश, सुर नर मुनि जन सेवै ईश।
धान्य धान्य तूं केवल राम, शेष सहस्र सुख ले हरि नाम।1।
धान्य धान्य तूं सिरजनहार, तेरा कोइ न पावे पार।
धान्य धान्य तूं निरंजन देव, दादू तेरा लखे न भेव।2।
378-भयभीत भयानक। दादरा
का जाणों मोहि का ले करसी,
तन हिं ताप मोहि छिन न बिसरसी।टेक।
आगम मोपे जान्यूँ न जाइ, इहै विमासण जियरे माँहिं।1।
मैं नहिं जाणो क्या शिर होइ, ताथैं जियरा डरपै रोइ।2।
काहू थैं ले कछू करै, ताथैं माइया जीव डरे।3।
दादू न जाने कैसे कहै, तुम शरणागति आइ रहै।4।
379-क्रीड़ा तालश्चण्डनि
का जानूँ राम को गति मेरी, मैं विषयी मनसा नहिं फेरी।टेक।
जे मन माँगे सोई दीन्हा, जाता देख फेरि नहिं लीन्हा।1।
देवा द्वन्द्वर अधिाक पसारे, पाँचों पकर नहिं मारे।2।
इन बातन घट भरे विकारा, तृष्णा तेज मोह नहिं हारा।3।
इनहिं लाग मैं सेव न जानी, कह दादू सुन कर्म कहानी।4।
380-क्रीड़ा तालश्चण्डनि
डरिए रे डरिए, तातैं राम नाम चित्ता धारिए।टेक।
जिन ये पंच पसारे रे, मारे रे ते मारे रे।1।
जिन ये पंच समेटे रे, भेटे रे ते भेटे रे।2।
कच्छप ज्यों कर लीये रे, जीये रे ते जीये रे।3।
भृंगी कीट समाना रे, धयाना रे यहु धयाना रे।4।
अजा सिंह ज्यों रहिए रे, दादू दर्शन लहिए।5।
381-हरि प्राप्ति दुर्लभ। त्रिाताल
तहाँ मुझ कमीन की कौन चलावे,
जाको अजहूँ मुनि जन महल न पावे।टेक।
शिव विरंचि नारद यश गावे, कौन भाँति कर निकट बुलावे।1।
देवा सकल तेतीसों कोरि, रहे दरबार ठाढ़े कर जोरि।2।
सिधा साधाक रहे ल्यौ लाइ, अजहूँ मोटे महल न पाइ।3।
सब तैं नीच मैं नाम न जाना, कहै दादू क्यों मिले सयाना।4।
382-करुणा विनती। त्रिाताल
तुम बिन कहो क्यों जीवण मेरा, अजहूँ न देखा दर्शण तेरा।टेक।
होहु दयाल दीन का दाता, तुम पति पूरण सब विधिा साँचा।1।
जो तुम करो सोइ तुम्ह छाजे, अपणे जन को काहे न निवाजे।2।
अकरन करन ऐसे अब कीजे, अपणो जान कर दर्शण दीजे।3।
दादू कहै सुनहुँ हरि सांई, दर्शण दीजे मिलो गुसांई।4।
383-उपदेश चेतावनी। पंजाबी त्रिाताल
कागारे करंक पर बोले, खाइ मांस अरु लग ही डोले।टेक।
जा तन को रच अधिाक सँवारा, सो तन ले माटी में डारा।1।
जा तन देख अधिाक नर फूले, सो तन छाडि चल्यारे भूले।2।
जा तन देख मन में गर्वाना, मिल गया माटी तज अभिमाना।3।
दादू तन की कहा बड़ाई, निमष माँहिं माटी मिल जाई।4।
384-उपदेश। त्रिाताल
जप गोविन्द बिसर जिन जाइ, जन्म सफल करिए लै लाइ।टेक।
हरि सुमिरण सौं हेत लगाइ, भजन प्रेम यश गोविन्द गाइ।
मानुष देह मुक्ति का द्वारा, राम सुमरि जग सिरजनहारा।1।
जब लग विषम व्याधिा नहिं आई, जब लग काल काया नहिं खाई।
जब लग शब्द पलट नहिं जाई, तब लग सेवा कर राम राई।2।
अवसर राम कहसि नहिं लोई, जन्म गया तब कहे न कोई।
जब लग जीवे तब लग सोई, पीछैं फिर पछतावा होई।3।
सांई सेवा सेवक लागे, सोई पावे जे कोइ जागे।
गुरुमुख भरम तिमर सब भागे, बहुर न उलटे मारग लागे।4।
ऐसा अवसर बहुर न तेरा, देख विचार समझ जिय मेरा।
दादू हारि जीत जग आया, बहुत भाँति कहि-कहि समझाया।5।
385-प्रतिताल
राम नाम तत काहे न बोले, रे मन मूढ अनत जिन डोले।टेक।
भूला भरमत जन्म गमावे, यहु रस रसना काहे न गावे।1।
क्या झक और परत जंजाले, वाणी विमल हरि काहे न सँभाले।2।
राम विसार जन्म जिन खोवे, जपले जीवन साफल होवे।3।
सार सुधाा सदा रस पीजे, दादू तन धार लाहा लीजे।4।
386-तत्तवोपदेश। प्रतिपाल
आप आपण में खोजे रे भाई, वस्तु अगोचर गुरु लखाई।टेक।
ज्यों मही बिलोये माखण आवे, त्यों मन मथियाँ तैं तत पावे।1।
काष्ठ हुताशन रह्या समाई, त्यों मन माँहीं निरंजन राई।2।
ज्यों अवनी में नीर समाना, त्यों मन माँहीं साँच सयाना।3।
ज्यों दर्पण के नहिं लागे काई, त्यों मूरति माँहीं निरख लखाइ।4।
सहजैं मन मथिया तैं तत पाया, दादू उन तो आप लखाया।5।
387-उपदेश धाीमा ताल
मन मैला मन ही सौं धाोइ, उनमनि लागे निर्मल होइ।टेक।
मन ही उपजे विषय विकार, मन ही निर्मल त्रिाभुवन सार।1।
मन ही दुविधाा नाना भेद, मन ही समझै द्वै पख छेद।2।
मन ही चंचल चहुँ दिशि जाइ, मन ही निश्चल रह्या समाइ।3।
मन ही उपजे अग्नि शरीर, मन ही शीतल निर्मल नीर।4।
मन उपदेश मन ही समझाइ, दादू यहु मन उनमनि लाइ।5।
388-मन प्रति शूरातन। धाीमा ताल
रहु रे रहु मन मारूँगा, रती रती कर डारूँगा।टेक।
खंड खंड कर नाखूँगा, जहाँ राम तहँ राखूँगा।1।
कह्या न माने मेरा, शिर भानूँगा तेरा।2।
घर में कदे न आवे, बाहर को उठ धाावे।3।
आत्मा राम न जाने, मेरा कह्या न माने।4।
दादू गुरुमुख पूरा, मन सौं झूझे शूरा।5।
389-नाम शूरातन। मकरन्द ताल
निर्भय नाम निरंजन लीजे, इन लोगन का भय नहिं कीजे।टेक।
सेवक शूर शंक नहिं माने, राणा राव रंक कर जाने।1।
नाम निशंक मगन मतवाला, राम रसायण पिवे पियाला।2।
सहजैं सदा राम रंग राता, पूरण ब्रह्म प्रेम रस माता।3।
हरि बलवंत सकल शिर गाजे, दादू सेवक कैसे भाजे।4।
390-समर्थाई। प्रतिताल
ऐसे अलख अनंत अपारा, तीन लोक जाको विस्तारा।टेक।
निर्मल सदा सहज घर रहै, ताको पार न कोई लहै।
निर्गुण निकट सब रह्यो समाइ, निश्चल सदा न आवे जाइ।1।
अविनाशी है अपरंपार, आदि अनंत रहै निरधाार।
पावन सदा निरंतर आप, कला अतीत लिपत नहिं पाप।2।
समर्थ सोई सकल भरपूर, बाहर-भीतर नेड़ा न दूर।
अकल आप कलै नहिं कोई, सब घट रह्यो निरंजन होई।3।
अवरण आपैं अजर अलेख, अगम अगाधा रूप नहिं रेख।
अविगत की गति लगी न जाइ, दादू दीन ताहि चित लाइ।4।
391-समर्थ लीला। तिलवाड़ा
ऐसो राजा सेऊँ ताहि, और अनेक सब लागे जाहि।टेक।
तीन लोक ग्रह धारे रचाइ, चंद-सूर दोउ दीपक लाइ।
पवन बुहारे गृह अंगणा, छपन कोटि जल जाके घराँ।1।
राते सेवा शंकर देव, ब्रह्मा कुलाल न जाने भेव।
कीरति करणा च्यारों वेद, नेति-नेति न जाणैं भेद।2।
सकल देव पति सेवा करैं, मुनि अनेक एक चित धारैं।
चित्रा विचित्रा लिखें दरबार, धार्म राइ ठाढ़े गुण सार।3।
रिधिा सिधिा दासी आगे रहैं, चार पदारथ जी जी कहैं।
सकल सिध्द रहैं ल्यौ लाइ, सब परिपूरण ऐसो राइ।4।
खलक खजीना भरे भंडार, ता घर बरतैं सब संसार।
पूरि दिवान सहज सब दे, सदा निरंजन ऐसो है।5।
नारद गाये गुण गोविन्द, करे सारदा सब ही छंद।
नटवर नाचे कला अनेक, आपन देखे चरित अलेख।6।
सकल साधाु बाजैं नीशान, जै जैकार न मेटै आन।
मालिनि पुहप अठारह भार, आपण दाता सिरजनहार।7।
ऐसो राजा सोई आहि, चौदह भुवन में रह्यो समाइ।
दादू ताकी सेवा करे, जिन यहु रचले अधार धारे।8।
392-जीवित मृतक। एक ताल
जब यहु मैं मैं मेरी जाइ, तब देखत बेग मिलैं राम राइ।टेक।
मैं मैं मेरी तब लग दूर, मैं मैं मेटि मिले भरपूर।1।
मैं मैं मेरी तब लग नाँहिं, मैं मैं मेटि मिले मन माँहि।2।
मैं मैं मेरी न पावे कोइ, मैं मैं मेटि मिले जन सोइ।3।
दादू मैं मैं मेरी मेटि, तब तूं जान राम सौं भेटि।4।
393-ज्ञान प्रलय। मदन ताल
नाँहीं रे हम नाँहीं रे, सत्य राम सब माँहीं रे।टेक।
नाँहीं धारणि अकाशा रे, नाँहीं पवन प्रकाशा रे।
नाँहीं रवि शशि तारा रे, नाँहिं पावक प्रजारा रे।1।
नाँहीं पंच पसारा रे, नाँहीं सब संसारा रे।
नहिं काया जीव हमारा रे, नहिं बाजी कौतिक हारा रे।2।
नाँहीं तरुवर छाया रे, नहिं पंखी नहिं माया रे।
नाँहीं गिरिवर वासा रे, नाँहिं समुद्र निवासा रे।3।
नाँहीं जल थल खंडा रे, नाँहीं सब ब्रह्मंडा रे।
नाँहीं आदि अनंता रे, दादू राम रहंता रे।4।
394-मधय मार्ग निष्पक्ष। षड् ताल।
अलह कहो भावै राम कहो, डाल तजो सब मूल गहो।टेक।
अलह राम कहि कर्म दहो, झूठे मारग कहा बहो।1।
साधाु संगति तो निबहो, आइ परे सो शीश सहो।2।
काया कमल दिल लाइ रहो, अलख अलह दीदार लहो।3।
सद्गुरु की सुन सीख अहो, दादू पहुँचे पार पहो।4।
395-दादरा
हिन्दू-तुरक न जानूँ दोई,
सांई सबन का सोई है रे, और न दूजा देखूँ कोई।टेक।
कीट-पतंग सबै योनिन में, जल-थल संग समाना सोइ।
पीर पैगम्बर देवा दानव, मीर मलिक मुनि जन को मोहि।1।
कर्ता है रे सोई चीन्हौं, जिन वै क्रोधा करे रे कोइ।
जैसे आरसी मंजन कीजे, राम-रहीम देही तन धाोइ।2।
सांई केरी सेवा कीजे, पायो धान काहे को खोइ।
दादू रे जन हरि जप लीजे, जन्म-जन्म जे सुरजन होइ।3।
396-मदन ताल
को स्वामी को शेख कहै, इस दुनियाँ का मर्म न कोई लहै।टेक।
कोई राम कोई अलह सुनावे,
पुनि अलह राम का भेद न पावे।1।
कोइ हिन्दू कोइ तुरक कर माने,
पुनि हिन्दू-तुरक की खबर न जाने।2।
यहु सब करणी दोनों वेद, समझ परी तब पाया भेद।3।
दादू देखे आतम एक, कहबा-सुनबा अनंत अनेक।4।
397-निन्दा। त्रिाताल
निन्दत है सब लोक विचारा, हमको भावे राम पियारा।टेक।
निरसंशय निर्दोष लगावे, तातैं मोकौं अचरज आवे।1।
दुविधाा द्वै पख रहिता जे, तासन कहत गये रे ये।2।
निर्वैरी निष्कामी साधा, ता शिर देत बहुत अपराधा।3।
लोहा कंचन एक समान, तासन कहत करत अभिमान।4।
निन्दा स्तुति एकै तोले, तासन कहैं अपवाद ही बोले।5।
दादू निन्दा ताको, भावे, जाके हिरदै राम न आवे।6।
398-अनन्य शरण। उदीक्षण ताल
म्हारूँ सूँ जेहूँ आपू, ताहरूँ छै तूनै थापू।टेक।
सर्व जीवा नों तूं दातार, तैं सिरज्या ने तू प्रतिपाल।1।
तन धान ताहरो तैं दीधाो, हूँ ताहरो ने तैं कीधाो।2।
सहुवें ताहरो साँचौ ये, मैं मैं म्हारो झूठो ते।3।
दादू ने मन और न आवे, तूं कर्ता ने तूं हि जु भावे।4।
399-निष्काम साधाु। उदीक्षण ताल
ऐसा अवधाू राम पियारा, प्राण पिंड तैं रहै नियारा।टेक।
जब लग काया तब लग माया, रहै निरन्तर अवधाू राया।1।
अठ सिधिा भाई नौ निधिा आई, निकट न जाई राम दुहाई।2।
अमर अभय पद वैकुण्ठ वास, छाया माया रहै उदास।3।
सांई सेवक सब दिखलावे, दादू दूजा दृष्टि न आवे।4।
400-शूरातन कसौटी। भंगताल
तूं साहिब मैं सेवक तेरा, भावै शिर दे शूली मेरा।टेक।
भावै करवत शिर पर सार, भावै लेकर गरदन मार।1।
भावै चहुँ दिसि अग्नि लगाइ, भावै काल दशो दिशि खाइ।2।
भावै गिर वर गगन गिराइ, भावे दरिया माँहि बहाइ ।3।
भावै कनक कसौटी देहु, दादू सेवक कस-कस लेहु।4।
401-साधाु। भंगताल
काम, क्रोधा नहिं आवे मेरे, तातैं, गोविन्द पाया नेरे।टेक।
भरम कर्म जाल सब दीन्हा, रमता राम सबन में चीन्हा।1।
दुविधाा दुर्मति दूर गमाई, राम रमत साँची मन आई।2।
नीच-ऊँच मधयम को नाँहीं, देखूँ राम सबन के माँहीं।3।
दादू साँच सबन में सोई, पेड़ पकर जन निर्भय होई।4।
402-हितोपदेश। खेमटा ताल
हाजिरां हजूर सांई, है हरि नेड़ा दूर नाँहीं।टेक।
मनी मेट महल में पावे, काहे खोजन दूर जावे।1।
हिर्स न होई गुसा सब खाइ, ताथैं संइयां दूर न जाइ।2।
दुई दूर दरोग न होइ, मालिक मन में देखे सोई।3।
अरि ये पंच शोधा सब मारे, तब दादू देखे निकट विचारे।4।
403-खेमटा ताल
राम रमत देखे नहिं कोई, जो देखे सो पावन होई।टेक।
बाहर-भीतर नेड़ा न दूर, स्वामी सकल रह्या भरपूर।1।
जहाँ देखूँ तहँ दूसर नाँहिं, सब घट राम समाना माँहिं।2।
जहाँ जाउँ तहँ सोई साथ, पर रह्या हरि त्रिाभुवन नाथ।3।
दादू हरि देखें सुख होइ, निश दिन निरखन दीजे मोहि।4।
404-अधयात्म। एकताल
मन पवन ले उनमनि रहै, अगम निगम मूल सो लहै।टेक।
पंच वायु जे सहल समावे, शशिहर के घर आंणे सूर।
शीतल सदा मिले सुखदाई, अनहद शब्द बजावे तूर।1।
बंकनालि सदा रस पीवे, तब यहु मनवा कहीं न जाइ।
विकसे कमल प्रेम जब उपजे, ब्रह्म जीव की करे सहाइ।2।
बैस गुफा मैं ज्योति विचारे, तब तेहिं सूझे त्रिाभुवन राइ।
अंतर आप मिले अविनाशी, पद आनन्द काल नहिं खाइ।3।
जामन मरण जाइ भव भाजे, अवरण के घर वरण समाइ।
दादू जाय मिले जगजीवन, तब यहु आवागमन विलाइ।4।
405-एकताल
जीवन मूरी मेरे आतम राम, भाग बडे पायो निज ठाम।टेक।
शब्द अनाहत उपजे जहाँ, सुषुम्न रंग लगावे तहाँ।
तहं रँग लागे निर्मल होई, ये तत उपजे जानैं सोई।1।
सरवर तहाँ हंसा रहै, कर स्नान सबै सुख लहै।
सुखदाई को नैनहुँ जोइ, त्यों-त्यों मन अति आनंद होइ।2।
सो हंसा शरणागति जाइ, सुन्दरि तहाँ पखाले पाइ।
पीवे अमृत नीझर नीर, बैठे तहाँ जगत् गुरु पीर।3।
तहाँ भाव प्रेम की पूजा होइ, जा पर किरपा जाने सोइ।
कृपा हरि देह उमंग, तहँ जन पायो निर्भय संग।4।
तब हंसा मन आनन्द होइ, वस्तु अगोचर लखे रे सोइ।
जा को हरी लखावे आप, ताहि न लिपै पुन्य न पाप।5।
तहँ अनहद बाजे अद्भुत खेल, दीपक जले बाति बिन तेल।
अखंड जयोति तहँ भयो प्रकास, फास बसन्त ज्यों बारह मास।6।
त्राय स्थान निरन्तर निधर्ाार, तहँ प्रभु बैठे समर्थ सार।
नैनहुँ निरखूँ तो सुख होइ, ताहि पुरुष जो लखे न कोइ।7।
ऐसा है हरि दीन दयाल, सेवक की जानैं प्रतिपाल।
चलु हंसा तहँ चरण समान, तहँ दादू पहुँचे परिवान।8।
405 आत्म-परमत्मा रास। एकताल
घट-घट गोपी घट-घट कान्ह, घट-घट राम अमर सुस्थान।टेक।
गंगा-यमुना अन्तर वेद, सरस्वती नीर बहे परसेद।1।
कुंज केलि तहँ परम विलास, सब संगी मिल खेलैं रास।2।
तहँ बिन बैना बाजैं तूर, विकसे कमल चन्द अरु सूर।3।
पूरण ब्रह्म परम परकास, तहँ निज देखे दादू दास।4।
।इति राग भैरूँ सम्पूर्ण।
अथ राग ललित
।25।
(गायन समय प्रात: 3 से 6)
407-पराभक्ति। त्रिाताल
राम तूँ मोरा हौं तोरा, पाइन परत निहोरा।टेक।
एकैं संगै वासा, तुम ठाकुर हम दासा।1।
तन-मन तुम को देवा, तेज पुंज हम लेवा।2।
रस माँहीं रस होइबा, ज्योति स्वरूपी जोइबा।3।
ब्रह्म जीव का मेला, दादू नूर अकेला।4।
408-अनन्यशरण। त्रिाताल
मेरे गृह आव हो गुरु मेरा, मैं बालक सेवक तेरा।टेक।
माता-पिता तूं अम्हंचा स्वामी, देव हमारे अंतरजामी।1।
अम्हंचा सज्जन अम्हंचा बंधाू, प्राण हमारे अम्हंचा जिन्दू।2।
अम्हंचा प्रीतम अम्हंचा मेला, अम्हंचा जीवन आप अकेला।3।
अम्हंचा साथी संग सनेही, राम बिना दु:ख दादू देही।3।
409-हितापेदेश। गजताल
वाहला म्हारा! प्रेम भक्ति रस पीजिए,
रमिए रमता राम, म्हारा वाहला रे।
हिरदा कमल में राखिए, उत्ताम एहज ठाम, म्हारा वाहला रे।टेक।
वाहला म्हारा ! सद्गुरु शरणे अणसरे,
साधाु समागम थाइ, म्हारा वाहला रे।
वाणी ब्रह्म बखाणिए, आनन्द में दिन जाइ, म्हारा वाहला रे।1।
वाहला म्हारा! आतम अनुभव ऊपजे,
उपजे ब्रह्म गियान, म्हारा वाहला रे।
सुख सागर में झूलिए, साँचो यह स्नान, म्हारा वाहला रे।2।
वाहला म्हारा! भव बन्धान सब छूटिए,
कर्म न लागे कोइ, म्हारा वाहला रे।
जीवन मुक्ति फल पामिए, अमर अभय पद होइ, म्हारा वाहला रे।3।
वाहला म्हारा! अठ सिध्दि नौ निधिा आंगणे,
परम पदारथ चार, म्हारा वाहला रे।
दादू जन देखे नहीं, रातो सिरजनहार, म्हारा वाहला रे।4।
410-अखंड प्रीति। गज ताल
म्हारो मन माई! राम नाम रँग रातो,
पिव-पिव करे पीव को जाने, मगन रहै रस मातो।टेक।
सदा शील सन्तोष सुहावत, चरण कमल मन बाँधाो।
हिरदा माँहिं जतन कर राखूँ, मानो रंक धान लाधाो।1।
प्रेम भक्ति प्रीति हरि जानूँ, हरि सेवा सुखदाई।
ज्ञान धयान मोहन को मेरे, कंप न लागे कोई।2।
संग सदा हेत हरि लागो, अंग और नहिं आवे।
दादू दीन दयालु दमोदर, सार सुधाा रस भावे।3।
411-साहिब सिफत। राजमृगांक ताल
महरवान महरवान,
आब बाद खाक आतिश आदम नीशान।टेक।
शीश पाँव हाथ कीये, नैन कीये कान।
मुख कीया जीव दिया, राजिक रहमान।1।
मादर-पिदर परद:पोश, सांई सुबहान।
संग रहै दस्त गहै, साहिब सुलतान।2।
या करीम या रहीम, दाना तूं दीवान।
पाक नूर है हजूर, दादू है हैरान।3।
।इति राग ललित सम्पूर्ण।
अथ राग जैतश्री
।26।
(गायन समय दिन 3 से 6)
412-अमिट नाम विनती। पंजाबी त्रिाताल
तेरे नाम की बलि जाऊँ, जहाँ रहूँ जिस ठाऊँ।टेक।
तेरे बैनों की बलिहारी, तेरे नैनहुँ ऊपरि वारी।
तेरी मूरति की बलि कीती, बार-बार हौं दीती।1।
शोभित नूर तुम्हारा, सुन्दर ज्योति उजारा।
मीठा प्राण पियारा, तू है पीव हमारा।2।
तेज तुम्हारा कहिए, निर्मल काहे न लहिए।
दादू बलि-बलि तेरे, आव पिया तूं मेरे।3।
413-विरह विनती। पंजाबी त्रिाताल
मेरे जीव की जाणैं जाणराइ, तुम थैं सेवक कहा दुराइ।टेक।
जल बिन जैसे जाइ जिय तलफत, तुम बिन तैसे हम हि बिहाय।
तन-मन व्याकुल होइ विरहणी, दरश पियासी प्राण जाइ।1।
जैसे चित्ता चकोर चन्द मन, ऐसे मोहन हम हि आहि।
विरह अग्नि दहत दादू को, दर्शन परसन तना सिराइ।2।
।इति राग जैत श्री सम्पूर्ण।
अथ राग धानाश्री
।27।
(गायन समय दिन 3 से 6)
414-अमिट अविनाशी रंग। धाीमा ताल
रँग लागो रे राम को, सो रँग कदे न जाई रे।
हरि रँग मेरो मन रँग्यो, और न रँग सुहाई रे।टेक।
अविनाशी रँग ऊपनो, रच मच लागो चौलो रे।
सो रँग सदा सुहावणो, ऐसो रँग अमोलो रे।1।
हरि रँग कदे न ऊतरे, दिन-दिन होइ सुरúों रे।
नित नवो निर्वाण है, कदे न ह्नैला भंगो।2।
साँचो रँग सहजैं मिल्यो, सुन्दर रú अपारो रे।
भाग बिना क्यों पाइए, सब रँग माँहीं सारो रे।3।
अवरण को का वरणिए, सो रँग सहज स्वरूपो रे।
बलिहारी उस रú की, जन दादू देख अनूपो रे।4।
415-धाीमा ताल
लाग रह्यो मन राम सौं, अब अनतैं नहिं जाये रे।
अचला सौं थिर ह्नै रह्यो, सके न चित्ता डुलाये रे।टेक।
ज्यों फनींद्र चंदन रहै, परिमल रहै लुभाये रे।
त्यों मन मेरा राम सौं, अब की बेर अघाये रे।1।
भँवर न छाडे वास को, कमल हि रह्यो बँधााये रे।
त्यों मन मेरा राम सौं, वेधा रह्यो चित लाये रे।2।
जल बिन मीन न जीव ही, विछुरत ही मर जाये रे।
त्यों मन मेरा राम सौं, ऐसी प्रीति बनाये रे।3।
ज्यों चातक जल को रटे, पिव-पिव करत बिहाये रे।
त्यों मन मेरा राम सौं, जन दादू हेत लगाये रे।4।
416-विनती। वीर विक्रम ताल
मन मोहन हो! कठिन विरह की पीर, सुन्दर दर्श दिखाइए।टेक।
सुनहु न दीनदयाल, तव मुख बैन सुनाइए।1।
करुणामय कृपाल, सकल शिरोमणि आइए।2।
मम जीवन प्राण अधाार, अविनाशी उर लाइए।3।
अब हरि दर्शन देहु, दादू प्रेम बढ़ाइए।4।
417-वीर विक्रम ताल
कतहूँ रहे हो विदेश, हरि नहिं आये हो।
जन्म सिरानों जाइ, पीव नहिं पाये हो।टेक।
विपति हमारी जाइ, हरि सौं को कहै हो।
तुम बिन नाथ अनाथ, विरहणि क्यों रहै हो।1।
पीव के विरह वियोग, तन की सुधिा नहीं हो।
तलफि-तलफि जीव जाइ, मृतक ह्नै रही हो।2।
दुखित भई हम नारि, कब हरि आवे हो।
तुम बिन प्राण अधाार, जीव दु:ख पावे हो।1।
प्रगटहु दीनदयाल, विलम्ब न कीजिए हो।
दादू दुखी बेहाल, दर्शन दीजिए हो।4।
418-रंग ताल
सुरजन मेरा वे ! कीहै पार लहाँउँ।
जे सुरजन घर आवै वे, हिक कहाण कहाँउँ।टेक।
तो बाझें मेकौं चैन न आवे, ये दु:ख कींह कहाँउँ।
तो बाझें मेकौं नींद न आवै, ऍंखियाँ नीर भराउँ।1।
ते तू मेकौं सुरजन डेवै, सो हौं शीश सहाँउँ।
ये जन दादू सुरजन आवै, दरगह सेव कराँउँ।2।
419-रंग ताल
मोहन माधाव कब मिलें, सकल शिरोमणि राइ।
तन मन व्याकुल होत है, दर्श दिखाओ आइ।टेक।
नैन रहे पथ जोवताँ, रोवत रैनि बिहाइ।
बाल सनेही कब मिलें, मो पैं रह्या न जाइ।1।
छिन-छिन अंग अनल दहै, हरिजी कब मिल हैं आइ।
अन्तर्यामी जानकर, मेरे तन की तप्त बुझाइ।2।
तुम दाता सुख देत हो, हाँ हो सुन दीन दयाल।
चाहैं नैन उतावले, हाँ हो कब देखूँ लाल।3।
चरण कमल कब देखिहौं, हाँ हो सन्मुख सिरजनहार।
सांई संग सदा रहौ, हाँ हो तब भाग हमार।4।
जीवनि मेरी जब मिले, हाँ हो तब ही सुख होइ।
तन-मन में तूं ही बसे, हाँ हो कब देखूँ सोइ।5।
तन-मन की तूं ही लखे, हाँ हो सुन चतुर सुजान।
तुम देखे बिन क्यों रहौ, हाँ हो मोहि लागे बान।6।
बिन देखे दु:ख पाइए, हाँ हो अब विलम्ब न लाइ।
दादू दर्शन कारणे, हाँ हो सुख दीजे आइ।7।
420-वैराग्य। वर्णभिन्न ताल
ये खूहि पये सब भोग विलासन, तैसहु बाकौ छत्रा सिंहासन।टेक।
जन तिहुँरा बहिश्त नहिं भावे, लाल पिल क्या कीजे।
भाहि लगे इह सेज सुखासन, मेकौं देखण दीजे।1।
वैकुण्ठ मुक्ति स्वर्ग क्या कीजे, सकल भुवन नहिं भावे।
भट्ठ पयें सब मंडप छाजे, जे घर कन्त न आवे।2।
लोक अनन्त अभय क्या कीजे, मैं विरही जन तेरा।
दादू दर्शन देखण दीजे, ये सुण साहिब मेरा।3।
421-ईमान साहिब (राग काफी) राजमृगांक ताल
अल्लह आशिकाँ ईमान,
बहिश्त दोजख दीन दुनियाँ, चे कारे रहमान।टेक।
मीर मीरी पीर पीरी, फरिश्त: फरमान।
आब आतिश अर्श कुर्सी, दीदनी दीवान।1।
हरदो आलम खलक खाना, मोमिना इसलाम।
हजा हाजी कजा काजी, खान तू सुलतान।2।
इल्म आलम मुल्क मालुम, हाजते हैरान।
अजब यारां खबरदारां, सूरते सुबहान।3।
अव्वल आखिर एक तू ही, जिन्द है कुरबान।
आशिकां दीदार दादू, नूर का नीशान।4।
422-विरह विनती (राग काफी) वर्णभिन्न ताल
अल्लह तेरा जिकर फिकर करते हैं,
आशिकां मुश्ताक तेरे, तर्स-तर्स मरते हैं।टेक।
खलक खेश दिगर नेस्त, बैठे दिन भरते हैं।
दायम दरबार तेरे, गैर महल डरते हैं।1।
तन शहीद मन शहीद, रात-दिवस लड़ते हैं।
ज्ञान तेरा धयान तेरा, इश्क आग जलते हैं।2।
जान तेरा जिन्द तेरा, पाँवों शिर धारते हैं।
दादू दीवान तेरा, जर खरीद घर के हैं।3।
423-गज ताल
मुख बोल स्वामी तूं अन्तर्यामी, तेरा शब्द सुहावे रामजी।टेक।
धोनु चरावन बेनु बजावन, दर्श दिखावन कामिनी।1।
विरह उपावन तप्त बुझावन, अंग लगावन भामिनी।2।
संग खिलावन रास बनावन, गोपी भावन भूधारा।3।
दादू तारन दुरित निवारण, संत सुधाारण रामजी।4।
424-केवल विनती। गज ताल
हाथ दे हो रामा,
तुम सब पूरण कामा, हौं तो उरझ रह्यो संसार।टेक।
अंधा कूप गृह में परयो, मेरी करहु सँभाल।
तुम बिन दूजा को नहीं, मेरे दीनानाथ दयाल।1।
मारग को सूझे नहीं, दह दिशि माया जाल।
काल पाश कसि बाँधिायो, मेरे कोइ न छुडावणहार।2।
राम बिना छूटे नहीं, कीजे बहुत उपाय।
कोटि किये सुलझे नहीं, अधिाक अलूझत जाय।3।
दीन दु:खी तुम देखताँ, भय दु:ख भँजन राम।
दादू कहै कर हाथ दे हो, तुम सब पूरण काम।4।
425-करुणा विनती। त्रिाताल
जिन छाडे राम जिन छाडे, हमहिं बिसार जिन छाडे।
जीव जात न लागे, बार जिन छाडे।टेक।
माता क्यों बालक तजे, सुत अपराधाी होय।
कबहुँ न छाडे जीव तैं, जिन दु:ख पावे सोय।1।
ठाकुर दीनदयाल है, सेवक सदा अचेत।
गुण-अवगुण हरि ना गिणे, अंतर तासौं हेत।2।
अपराधाी सुत सेवका, तुम हो दीन दयाल।
हम तैं अवगुण होत है, तुम पूरण प्रतिपाल।3।
जब मोहन प्राणी चले, तब देही किहिं काम।
तुम जानत दादू का कहै, अब जिन छाडे राम।4।
426-चौताल
विखम बार हरि अधार, करुणा बहु नामी।
भक्ति भाव वेग आइ, भीड़ भंजन स्वामी।टेक।
अंत अधाार संत सुधाार, सुन्दर सुखदाई।
काम-क्रोधा काल ग्रसत, प्रकटो हरि आई।1।
पूरण प्रतिपाल कहिए, सुमिरे तैं आवे।
भरम कर्म मोह लागे, काहे न छुड़ावे।2।
दीन दयालु होह कृपालु, अंतरयामी कहिए।
एक जीव अनेक लागे, कैसे दु:ख सहिए।3।
पावन पीव चरण शरण, युग-युग तैं तारे।
अनाथ नाथ दादू के, हरि जी हमारे।4।
427-विनती। त्रिाताल
साजनियाँ नेह न तोरी रे,
जे हम तौरें महा अपराधाी, तो तूं जोरी रे।टेक।
प्रेम बिना रस फीका लागे, मीठा मधाुर न होई।
सकल शिरोमणि सब तैं नीका, कड़वा लागे सोई।1।
जब लग प्रीति प्रेम रस नाँहीं, तृषा बिना जल ऐसा।
सब तैं सुन्दर एक अमीरस, होइ हलाहल जैसा।2।
सुन्दरि सांई खरा पियारा, नेह नवा नित होवे।
दादू मेरा तब मन माने, सेज सदा सुख सोवे।3।
428-कर्ता कीर्ति। त्रिाताल
काइमां! कीर्ति करूँली रे, तूं मोटो दातार।
सब तैं सिरजीड़ा तू मोटो कर्तार।टेक।
चौदह भुवन भाने घड़े, घड़त न लागे बार।
थापे उथपे, तूं धाणी, धान्य-धान्य सिरजनहार।1।
धारती-अम्बर तैं धारया, पाणी पवन अपार।
चंद-सूर दीपक रच्या, रैन-दिवस विस्तार।2।
ब्रह्मा शंकर तैं किया, विष्णु दिया अवतार।
सुर नर साधाु सिरजिया, करले जीव विचार।3।
आप निरंजन ह्नै रह्या, काइमां कौतिकहार।
दादू निर्गुण गुण कहै, जाऊँली बलिहार।4।
429-उपदेश चेतावनी। प्रति ताल
जियरा राम भजन कर लीजे,
साहिब लेखा माँगेगा रे, उत्तार कैसे दीजे।टेक।
आगे जाइ पछतावण लागो, पल-पल यहु तन छीजे।
ताथैं जिय समझाइ कहूँ रे, सुकृत अब थैं कीजे।1।
राम जपत जम काल न लागे, संग रहैं जन जीजे।
दादू दास भजन कर लीजे, हरिजी की रास रमीजे।2।
430-काल चेतावनी। प्रति ताल
काल काया गढ़ भेलसी, छीजे दशों दुवारो रे।
देखतड़ां ते लूटिए, होसी हाहाकारो रे।टेक।
नाइक नगर न मेल्हसी, एकलड़ो ते जाई रे।
संग न साथी कोई न आसी, तहाँ को जाणे कि थाई रे।1।
सत जत साधाो म्हारा भाईड़ा, कांई सुकुत लीजे सारो रे।
मारग विखम चालबो, कांई लीजे प्राण अधाारो रे।2।
जिमि नीर निवांणां ठाहरे, तिमि साजी बाँधाो पालो रे।
समर्थ सोई सेविए, तो काया न लागे कालो रे।3।
दादू मन घर आंणिए तो निश्वल थर थाये रे।
प्राणी ने पूरो मिले, तो काया न मेल्ही जाये रे।4।
431-भयभीत भयानक। दीपचन्दी
डरिए रे डरिए, परमेश्वर तैं डरिए रे,
लेखा लेवे भर-भर देवे, ताथैं बुरा न करिए रे।टेक।
साँचा लीजे साँचा दीजे, साँचा सौदा कीजे रे।
साँचा राखी झूठा नाँखी, विष ना पीजे रे।1।
निर्मल गहिए निर्मल रहिए, निर्मल कहिए रे।
निर्मल लीजे निर्मल दीजे, अनत न बहिए रे।2।
साह पठाया, बनिजन आया, जिन डहकावे रे।
झूठ न भावे फेरि पठावे, किया पावे रे।3।
पंथ दुहेला जाइ अकेला, भार न लीजे रे।
दादू मेला होइ सुहेला, सो कुछ कीजे रे ।4।
432-दीपचन्दी
डरिए रे डरिए, देख-देख पग धारिए,
तारे तरिए मारे मरिए, ताथै गर्व न करिए रे, डरिए।टेक।
देवे-लेवे समर्थ दाता, सब कुछ छाजे रे।
तारे मारे गर्व निवारे, बैठा गाजे रे।1।
राखैं रहिए बाहें बहिए, अनत न लहिए रे।
भानैं घड़ै सँवारै आपै, ऐसा कहिए रे।2।
निकट बुलावे दूर पठावे, सब बन आवे रे।
पाके काचे काचे पाके, ज्यों मन भावे रे।3।
पाक पाणी पाणी पावक, कर दिखलावे रे।
लोहा कंचन कंचन लोहा, कहि समझावे रे।4।
शशिहर सूर सूरतैं शशिहर, परगट खेले रे।
धारती अम्बर अम्बर धारती, दादू मेले रे।5।
433-हितोपदेश। चौताल
मनसा मन शब्द सुरति, पाँचों थिर कीजे।
एक अंग सदा संग, सहजैं रस पीजे।टेक।
सकल रहित मूल गहित, आपा नहिं जानैं।
अंतर गति निर्मल रति, एकै मन मानैं।1।
हृदय शुध्द विमल बुध्दि, पूरण परकासे।
रसना निज नाम निरख, अंतर गति बासे।2।
आत्म मति पूरण गति, प्रेम भक्ति राता।
मगन गलित अरस परस, दादू रस माता।3।
434-विनती। त्रिाताल
गोविन्द (जी) के चरणों ही ल्यौ लाऊँ,
जैसे चातक वन में बोले, पीव-पीव कर धयाऊँ।टेक।
सुरजन मेरी सुनहु बीनती, मैं बलि तेरे जाऊँ।
विपति हमारी तोहि सुनाऊँ, दे दर्शन क्यों ही पाऊँ।1।
जाते दु:ख-सुख उपजत तन को, तुम शरणागति आऊँ।
दादू को दया कर दीजे, नाम तुम्हारो गाऊँ।2।
435-त्रिाताल
ए! प्रेम भक्ति बिन रह्यो न जाई, परकट दर्शन देहु अघाई।टेक।
तालाबेली तलफै माँहीं, तुम बिन राम जियरे जक नाँहीं।1।
निश वासर मन रहै उदासा, मैं जन व्याकुल श्वासों श्वासा।2।
एकमेक रस होइ न आवे, ताथे प्राण बहुत दुख पावे।3।
अंग-संग मिल यहु सुख दीजे, दादू राम रसायण पीजे।4।
436-परिचय उपदेश। पंजाबी त्रिाताल
तिस घर जाना वे, जहाँ वे अकल स्वरूप।
सोइ अब धयाइए रे, सब देवन का भूप।टेक।
अकल स्वरूप पीव का, बान बरण न पाइए।
अखंड मंडल माँहिं रहै, सोई प्रीतम गाइए।
गावहु मन विचारा वे, मन विचारा सोई सारा प्रकट पीव ते पाइए।
सांई सेती संग साँचा, जीवित तिस घर जाइए।1।
अकल स्वरूप पीव का, कैसे करि आलेखिए।
शून्य मंडल माँहिं साँचा, नैन भर सो देखिए।
देखो लोचन सार वे, देखो लोचन सार सोई प्रकट होई,
यह अचम्भा पेखिए।
दयावन्त दयालु ऐसो, बरण अति विशेखिए।2।
अकल स्वरूप पीव का, प्राण जीव का, सोई जन जे पाव ही।
दयावन्त दयालु ऐसो, सहजे आप लखाव ही।
लखे सु लखणहार वे, लखे सोई संग होई, अगम बैन सुनाव ही।
सब दु:ख भागा रंग लागा, काहे न मंगल गाव ही।3।
अकल स्वरूपी पीव का, कर कैसे करि आंणिए।
निरन्तर निधर्ाार आपै, अन्तर सोई, जाणिए।
जाणहुँ मन विचारा वे, मन विचारा सोई सारा,
सुमिर सोइ बखानिए।
श्री रंग सेती रंग लागा, दादू तो सुख मानिए।4।
437-दीपचन्दी
राम तहाँ प्रकट रहे भरपूर, आत्मा कमल जहाँ।
परम पुरुष तहाँ, झिलमिल झिलमिल नूर।टेक।
चन्द-सूर मधय भाई, तहाँ बसे राम राइ, गंग-यमुन के तीर।
त्रिावेणी संगम जहाँ, निर्मल विमल तहाँ, निरख-निरख निज नीर।1।
आत्मा उलट जहाँ, तेज पुंज रहै तहाँ सहज समाइ।
अगम-निगम अति, जहाँ बसे प्राण प्रति, परसि परसि निज आइ।2।
कोमल कुसुम दल, निराकार ज्योति जल, वार न पार।
शून्य सरोवर जहाँ, दादू हंसा रहै तहाँ, विलसि विलसि निज सार।3।
438-फरोदस्त ताल
गोविन्द पाया मन भाया, अमर कीये संग लीये।
अक्षय अभय दान दीये, छाया नहिं माया।टेक।
अगम गगन अगम तूर, अगम चंद अगम सूर।
काल झाल रहे दूर, जीव नहीं काया।1।
आदि-अंत नहीं कोइ, रात-दिवस नहीं होइ।
उदय-अस्त नहीं होइ, मन ही मन लाया।2।
अमर गुरु अमर ज्ञान, अमर पुरुष अमर धयान।
अमर ब्रह्म अमर थान, सहज शून्य आया।3।
अमर नूर अमर बास, अमर तेज सुख निवास।
अमर ज्योति दादू दास, सकल भुवन राया।4।
439-फरोदस्त ताल
राम की राती भई माती, लोक वेद विधिा निषेधा।
भागे सब भ्रम भेद, अमृत रस पीवे।टेक।
(लागे) भागे सब काल झाल, छूटे सब जग जंजाल।
बिसरे सब हाल चाल, हरि की सुधिा पाई।1।
प्राण पवन तहाँ जाइ, अगम निगम मिले आइ।
प्रेम मगन रहे समाइ, बिलसे वपु नाँहीं।2।
परम नूर परम तेज, परम पुंज परम सेज।
परम ज्योति परम हेज, सुन्दरि सुख पावे।3।
परम पुरुष परम रास, परम लाल सुख विलास।
परम मंगल दादू दास, पीव सौं मिल खेले।4।
440-आरती। त्रिाताल
इहि विधिा आरती राम की कीजे, आत्मा अंतर वारणा लीजे।टेक।
तन-मन चंदन प्रेम की माला, अनहद घंटा दीन दयाला।1।
ज्ञान का दीपक पवन की बाती, देव निरंजन पाँचों पाती।2।
आनंद मंगल भाव की सेवा, मनसा मंदिर आतम देवा।3।
भक्ति निरंतर मैं बलिहारी, दादू न जाणे सेव तुम्हारी।4।
441-उदीक्षण ताल
आरती जग जीवन तेरी, तेरे चरण कमल पर वारी फेरी।टेक।
चित चाँवर हेत हरि ढारे, दीपक ज्ञान हरि ज्योति विचारे।1।
घंटा शब्द अनाहद बाजे, आनंद आरती गगन गाजे।2।
धाूप धयान हरि सेती कीजे, पुहुप प्रीति हरि भाँवरि लीजे।3।
सेवा सार आतमा पूजा, देव निरंजन और न दूजा।4।
भाव भक्ति सौं आरती कीजे, इहि विधिा दादू युग-युग जीजे।5।
442-उदीक्षण ताल
अविचल आरती देव तुम्हारी, जुग-जुग जीवन राम हमारी।टेक।
मरण मीच जम काल न लागे, आवागमन सकल भ्रम भागे।1।
जोनी जीव जन्म नहिं आवे, निर्भय नाम अमर पद पावे।2।
कलि विष कुश्मल बन्धान कापे, पार पहूँचे थिर कर थापे।3।
अनेक उधाारे तैं जन तारे, दादू आरती नरक निवारे।4।
443-भंगताल
निराकार तेरी आरती, बलि जाउँ अनन्त भुवन के राइ।टेक।
सुर नर सब सेवा करै, ब्रह्मा विष्णु महेश।
देव तुम्हारा भेव न जाने, पार न पावे शेष।1।
चंद-सूर आरती करै, नमो निरंजन देव।
धारणि पवन आकाश अराधौ, सबै तुम्हारी सेव।2।
सकल भुवन सेवा करै, मुनिवर सिध्द समाधिा।
दीन लीन ह्नै रहे संत जन, अविगत के आराधिा।3।
जै-जै जीवनि राम हमारी, भक्ति करै ल्यौ लाइ।
निराकार की आरती कीजे, दादू बलि-बलि जाइ।4।
444-दीपचन्दी
तेरी आरती ए, जुग-जुग जै जैकार।टेक।
जुग-जुग आतम राम, जुग-जुग सेवा कीजिए।1।
जुग-जुग लंघे पार, जुग-जुग जगपति को मिले।2।
जुग--जुग तारणहार, जुग-जुग दर्शन देखिए।3।
जुग-जुग मंगलाचार, जुग-जुग दादू गाइए।4।
।श्री प्राण उध्दारणहार।
।इति राग धानाश्री सम्पूर्ण।
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