ग्रथावली |
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दादू ग्रंथावली शब्दार्थ शब्दार्थ गुरु-परम्परा वेदों से प्रारम्भ हुई। गुरु-परम्परा को मानना वैदिक परम्परा
का स्वीकार भी है और आस्तिकता का स्वीकार भी। क्योंकि अधयात्म रहस्य का विषय
है। गूढ़ है। इसलिए गुरु की भूमिका निर्गुणपंथी संतों में अनिवार्य हो जाती है।
परमार्थ का और अधयात्म का ज्ञान देने वाले गुरु की महिमा-वर्णन करने का उपक्रम
संत दादूदयालजी ने मंगलाचरण के रूप में किया है :- 1. संत शिरोमणि दादू दयालजी महाराज ने पहले अपने इष्टदेव को बारंबार प्रणाम
किया है। यह इष्टदेव मायारहित परब्रह्म है इसलिए निरंजन है। गुरु की कृपा से
परब्रह्म प्राप्ति होती है अत: गुरुदेव को भी नमस्कार। सत्संगति के कारण रूप
संतों को भी प्रणाम। चौथे चरण में परब्रह्म, गुरु तथा साधु-संतों को सदा प्रणाम
किया है जो सुख-दु:ख के क्लेश स्वरूप इस संसार से पार चले गये हैं। 2. अपने इष्ट की पहचान कराई है : जो निराकार, निर्मल और मायादि से परे
परब्रह्म हैं, वह ही निरंजन देव मेरे इष्टदेव हैं। उन इष्टदेव को प्रणाम। 3. गैव = राह में जाते, अचानक, अदृश्य लोक। परसाद
= कल्याण का आशीष। कर = करुणामय हाथ। दख्या
= दिखाया, दीक्षा दी। अगम = इंद्रियों की पहुँच से
परे, पर ब्रह्म। अगाधा = गहन। 4. निर्धान = दरिद्र, विषयों के कारण सदा अभाव।
धानवंत = अधयात्म ज्ञान के कारण संतोष रूपी धान। दातार =
दाता। 5. सहजैं = क्रमश: साधाना के सोपान पार करते। दीपक
= ज्ञान का दीपक 6. बाट = अधयात्म-मार्ग। ताला = कर्ममय
बंधान, विषय-वासना के पाश। कूँच = ज्ञान की चाभी, अनासक्ति
वृत्तिा। कपाट = भ्रम, अज्ञानरूपी किवाड़। 7. अंजन = ज्ञानरूपी सुर्मा, ज्ञान का उपदेश। नैन
पटल = अंतरात्मा के नयन। बहरे = अंतरात्मा की पुकार
सुनने में अक्षम। गूँगे = हरिस्मण में अक्षम। 8. दाता = आत्मस्वरूप की पहचान देने वाला दानी।
सौंज = साज-सँभाल 9. अगम गवन = ब्रह्म तक जाने का मार्ग। सैन =
संकेत। आप = सत्य-स्वरूप ब्रह्म को। अैन =
साक्षात्। 10. फेरिकर = विषयवासना से भगवान की ओर घुमा कर।
औरे = और ही, भिन्न। पंचौ = पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ।
अनूप = अपूर्व। 11. साज = मन, इन्द्रियादि को प्रभोन्मुख करके, साज-सँवार
कर। नाव = सत्संग एवं ज्ञानरूपी नौका। पार =
संसाररूपी सागर से पार। 12. पशु = जो सांसारिक बन्धानों, पाँच इंद्रियों के पाश
में बँधाा हो, पामर प्राणी। मानुष = मानवीयता के गुणों से
सम्पन्न। सिध्द = आत्मिक सिध्दि प्राप्त व्यक्ति।
देवता = दिव्य गति प्राप्त। 13. काल = वासनामय मृत्यु रूप। 14. मृतक = काम, क्रोधा, लोभ, मोह, अहंकार आदि वृत्तिायों
के वशीभूत। चैतन्य = संज्ञा सहित, सचेत। 15. गूँगे = निज-स्वार्थों में आबध्द, अन्याय देखकर मूक
रहने वाले। 16. महर दया = दया-कृपा। 17. केश = सिर के बाल, स्वार्थमय कर्म। पैल =
भवसागर। 18. भव सागर = शिव के आठ रूपों-उग्र, रुद्र, ईशान, सर्ब
आदि में से एक-पृथ्वी पर व्याप्त दो-तिहाई जल। देह में भी यही अनुपात होता है
जल का। इसका केन्द्र हृदय में स्थित है। हृदय में प्रकम्प उठने को भाव कहते
हैं। भव से उत्पन्न भाव-क्षेत्रा में स्थित प्राणीमात्रा एवं सगे-संबंधिायों के
प्रति दायित्व-मुक्त होना-भव-सागर से पार उतरना है। 'पैली' भी खेतों में ठहरे
हुए जल को कहते हैं। अत: पैली-पार भी भव-सागर पार करना है। जन्म-मृत्यु का
क्रम। 19. अमर अलेख = जन्म-मृत्यु निरपेक्ष, ब्राह्मी स्थिति।
20. आतम = भक्ति सम्पन्न बुध्दि। पंगुल ज्ञान =
सत्, रज, तम-त्रिागुणातीत ज्ञान। कृत्रिाम = मायामय,
बनावटी, मनुष्यकृत। उलंघि = लाँघ कर, पार करके।
निरंजन थान = निरंजन ब्रह्म का स्थान। 21. आत्मबोधा = आत्मस्वरूप का ज्ञान। बंझ =
निर्विकल्प बुध्दि। गुरुमुख = गुरु में निष्ठा रखने
वाला शिष्य। पंगुल = निश्चल-बुध्दि। पंच बिन =पाँच
विषयों की आशा से रहित। 22. सहजैं = अनायास ही। प्रीतम =
प्रियतम, परमात्मा। 23. शब्द विचार करि = गुरु के उपदेश को सुनना।
ज्ञान गहै = समाधिा-अवस्था में गुरु-ज्ञान में लय होना। सहज =
सहज ब्रह््म स्वरूप। 24. भावै = गुरु यदि चाहें तो। अंतर =
अंत:करण में। आप कहि = स्वयं प्रेरणा जगा कर। अपने
अंग लगाय = अपने स्वरूप में लगाकर। 25. सारा देखिए = भक्त बाहरी जीवन-व्यवहार में पूरा दिखता
है। भीतर कीया चूर = मन के भीतर वासनादि का विनाश।
शब्दों = चैतन्य शब्दों द्वारा। जाण न पावे दूर =
परमात्म-अनुभूति से दूर। 26. निरखि-निरखि = लक्ष्य करके। निज ठौर =
स्वयं लक्षित करके चित्ता न। आवै और = राम के
अतिरिक्त अन्य कोई मन में नहीं आता। 27. साधा शब्द = परमार्थ बोधा जगाने वाले शब्द।
सुधिा = स्मरण, याद। सोधिा = संशोधिात, सुधाारकर,
शोधान करके। पद निर्वान = मुक्ति दशा, निर्विकल्प स्थिति। 28. दिशंतर = दशों दिशाओं में। ऊबरे =
भवसागर में डूबने से बच गये, उबर गये, बच गये। 29. सूर = काम, क्रोधाादि शत्राुओं को जीतने वाला शूरवीर।
30. राम रस = आत्म आनंद, ब्रह्मानंद। 31. बिलोवणहार = मन्थन करने वाला। अमृत =
तत्तवरूपी विचार। 32. घीव दूधा में रमि रह्या = जैसे दूधा की हर बूँद में घी
रमा रहता है, वैसे ही सद्गुरु-शब्द-दूधा के प्रत्येक अणु में परमार्थ रूपी घी
रमा रहता है। बकता = केवल चर्चा करने वाले। मथि काढे
= अन्तर्मुख वृत्तिा वाले ध्यान, धाारणा द्वारा उनमें से परमार्थ
तत्तव निकाल लेने वाले। 33. कामधोनु = दूधा, घृतादि पंच गव्य के द्वारा कामनाएँ
पूरी करने वाली गाय। गोरू = साधाारण गाय, पशु (गुरुज्ञान रहित
साधाारण जीव)। 34. समरथ = अधयात्म-क्षेत्रा में-श्रुति-स्मृति का ज्ञाता।
तत = आत्मतत्तव। मोटा = महान, बड़ा।
महाबल = आंतरिक, आधयात्मिक शक्तियों से सम्पन्न। 35. सब घट = ज्ञानेन्द्रियाँ और मन। दीवा =
ज्ञान-दीपक। 36. दीयैS ¾ गुरु के ज्ञान रूपी दीपक से।
दीवा = शिष्य का ज्ञान-दीपक। गुरुमुख मारग =
गुरु के वचनों से दिखाये गये मार्ग। 37. दीया = ज्ञान दीपक। घर में धार्या =
अंत:करण में स्थित आत्मा। 38. दीया चाले साथ = ज्ञान का प्रकाश आत्म-स्वरूप होने से
साथ चल कर ब्रह््म में लय होता है। 39. निर्मल गुरु = भ्रम, प्रमाद, आदि मल से रहित।
निर्मल भक्ति = निष्कामभक्ति। 40. पंचकर = पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ। 41. परापर = परात्पर परमात्मा। पासै =
अंत: करण में, एक ही स्थान पर, समीप। कोई = अज्ञानी।
ल्यौ लाय = स्थिर, धयानवृत्तिा। 42. सिरजे = उत्पन्न किया। अरवाह =
जीवात्मा। 43. धाण = मालिक, परमात्मा। 44. सदिकै = न्यौछावर। 45. सरवर = ब्रह्मचेतनरूपी सरोवर। पंख =
प्यासा, अज्ञानी व्यक्ति। 46. मान-सरोवर = अंत:करणरूपी सरोवर। 47. गरवा = गम्भीर ज्ञानवान। गम = गति
होना, ज्ञात होना। 48. सुरति = आत्मनिष्ठ वृत्तिा। 49. सो = ब्रह््मनिष्ठ गुरु। धी दाता =
आत्मबुध्दि देने वाला। संजोग = पूर्व पुण्यकर्म फलस्वरूप। 50. दर्शन = परमात्मा का साक्षात्कार। 51. किरका = कण। तार = विचारों का
तारतम्य। सांधो = साधाना, जोडना। वृत्तिायों को भंग करने के
कारणों से वृत्तिा को बचाकर धयान में जोड़े रखना। पीर =
सिध्द-पुरुष। 52. मारे = शब्दरूपी बाण से संवेदित। अंग लगाय करि
= अपनी आत्मिक वृत्तिा से जोड़कर। 53. साचा गुरु = ब्रह््मनिष्ठ गुरु। साचा, साचे =
सत्य ब्रह्म। अज्ञानादि दोषों से रहित सत्य स्वरूप आत्मा। 54. सोधिाले = खोज कर ले। साधा = साधाना
द्वारा उपलब्धा करना। अगाधा = अखंड, गहन। 55. राता = रंगा हुआ, धयान में डूबा, अनुरक्त।
माता = मस्त। 56. सांई सौं साचा = गर्भावस्था में ईश्वर से किये वादे पर
दृढ़। सद््गुरु सौं शूरा = सदगुरु से प्राप्त ज्ञान पर शूरवीर
की भाँति अडिग। साधु सौं सन्मुख = संतों के सत्संग के अनुकूल।
पूरा = पूर्ण ब्रह्म जैसा। 57. दीदार = स्वरूप दर्शन, साक्षात्कार। 58. सेविये = सेवा करना। 59. आण घर = घर में ला कर। तिमिर =
अज्ञानांधाकार। 61. आपा = विविधा प्रकार का अहंकार। और =
परब्रह्म के अतिरिक्त इह संसार। सूक्ष्म होयगा = स्थूल जीवभाव
त्यागकर सूक्ष्म आत्मभाव होना। 62. दुहेला = दुर्लभ। दखे = द्रवित होना,
पसीजना। नेड़ा = निकट। 63. अंतर = दूरी। अरस-परस = परस्पर अभेद
हो जाना, एकमेक। 65. राम कहत जन जाग = सद्गरु द्वारा हाथ में ज्ञान दीपक
दिया जाने पर सर्वत्रा राम दिखाई देने लगता है और सजग होकर साधाक आत्मचिन्तन
में लगता है। 66. मन माला = मनरूपी माला। बाना =
जाप-धयान करने की दीक्षा। जहाँ दिवस न परसे रात = दिवस =
सूर्य, रात = चंद्र अर्थात् इंगला-पिंगला (सूर्य और चंद्र
स्वर) रहित सुषमना नाड़ी के चलते समय अजपा जाप धाारण करे और सहज ही चलावै। 67. आगम = वेदादि आगम ग्रंथ। गुरु तैं गम भया
= गुरु की कृपा से वेदादि ज्ञान में प्रवेश हुआ। नूर =
शुध्द चैतन्य प्रकाश। 69. माला मन दिया = सद्गुरु ने अजपाजाप रूपी माला मन को
दी, जिसे श्वास-प्रश्वास के तार में वृत्तिा द्वारा पिरो कर यह जाप बिना हाथों
के निशि-दिन चलता है। यही परम जाप है। सर्वोपरि स्मरण है। 70. भीतर लीया भेख = अंत:करण में फकीरी-भेष धाारण किया।
माँगे भीख अलेख = अलेख, जो मन आदि का विषय न हो-निर्गुण
ब्रह्म की भीख। 71. निश्चल आसन = एकाग्र चित्ता। अकल पुरुष
= शुध्द चैतन्य, पूर्ण ब्रह्म, अकाल पुरुष। 72. सहज शून्य रस = अनहद अमृत रस, निर्द्वन्द्व अवस्था।
73. जहाँ का था = जिस परमात्मा का अंश था। 74. कलेश = कष्ट, दु:ख (घर में या वन में संन्यासी को होने
वाले) मन ही मन = व्यक्ति मन (आत्मा) समष्टि मन (परमात्मा)
मेें अभेद रूप से जुड़ गया। 75. यहु मसीत यहु देहुरा = शरीर के भीतर अन्त:करण ही
मस्जिद और मंदिर है। यही सेवा-भक्ति का उपासना-गृह है। 76. मंझे चेला = अधयात्म चेतना सजग व्यक्ति का श्रध्दालु
चित्ता ही शिष्य है। मंझे गुरु = ज्ञानयुक्त मन ही गुरु है।
मंझे उपदेश = आत्म-स्वरूप ब्रह्म का विचार ही उपदेश है।
बावरे = भ्रमित चित्ता वाले। 77. मन का मस्तक = संकल्प-विकल्प रूपी बुध्दि। काम,
क्रोधा, विषय आदि केश हैं। गुरु के उपदेश रूपी उस्तरे से इन्हें मूँड, मुंडन
करें। बाहरी केश मूँडने से कोई लाभ नहीं। 78. पड़दा भरम का = सारे शरीर पर विषय भोग आदि का पर्दा पड़ा
है। गुरु की कृपा से ही यह भ्रमावरण अनायास हट जाता है। 79. मन लै मारग = मन को परमात्म अनुभूति में विलय करना
यही-साधाू मार्ग है। इसी से उध्दार है। परमोघ = उपदेश। 80. वेद-कुरानों ना कह्या = वेद-कुरान ने जिसे
नेति-नेति-यह नहीं, यह नहीं कहा है। 81. भुवंग = विषयोन्मुख मन सर्प है। गुरु गारुड़ =
गुरु गरुड़रूपी पक्षी की भाँति है जो सर्प का शत्राु है, सर्प का विष
उतारने वाला। 82. उन्मनि = समाधिा की दशा में। पंच =
पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ। दूजा = शारीरिक व्यवहार। 83. जंजालौं = काम-क्रोधिाादि। गुरुबाइक अवधाूत
= गुरु के उपदेश में स्वयं को अडिग रखने वाला। 84. चंचल = मन की चपल वृत्तिा। बाइक =
गुरु वाक्य, गुरु उपदेश। संधिा = संयुक्त करना। 85. उदमद माता = विविध वासनाओं के मद में चूर।
फंधा = फंदा, पाश। 86. मारया बिन = इंद्रिय निग्रह किये बिना। खड़ग
= ज्ञान रूपी तलवार। 87. जहाँ तैं = प्रभु चिंतन, धयानावस्था से। लै
लीन = ब्रह्म-चिंतन में निर्विकल्प धयान में। 88. मल = विषयवासना रूपी गंदगी, पापकर्म। सीख चले
= गुरु के उपदेशानुसार चलकर। 89. कच्छब = कछुए की भाँति मन-इंद्रियों को भीतर की
ओर-परमात्मा की ओर कर लेना। 90. मतै = मति से, विचार से। 92. सयानप = सयानापन, समझदारी। 93. हलाहल = महा विष 94. घर-घर घट कोल्हू चले = प्रत्येक शरीर रूपी घर में
कामवासनादि कोल्हू चल रहा है। अमीं महा रस = श्वास और प्राण
तत्तव के माधयम से प्राप्त होने वाला ब्रह्मानंद रूपी अमृत व्यर्थ जा रहा है।
96. बरजे = निषेधा करे। बंचे = टले, बचे।
पानी फोड़ी पाल = जैसे बंधान- हीन जल के निर्बाधा प्रवाह से
पाल टूट जाता है और बह जाता है उसी प्रकार सद्गुरु द्वारा दी गयी मर्यादा व
उपदेश का उल्लंघन करने से इंद्रियों के आवेगी प्रवाह में मन बिखर जाता है। 99. ठाहर = के स्थान पर। हूं-'मैं हूँ' के स्थान पर
'है'-वह-'प्रभु है' कहो। 'तन'-शरीर के अहंकार के स्थान पर ईश्वर की सत्ताा को
प्रधाानता देते हुए-'तूं' (परमेश्वर) कहो। और 'री' (अविद्या) के स्थान पर
'जी'-चेतना ब्रह्म का स्वरूप है, ऐसा कहो। अत: स्थूल, सूक्ष्म और कारण अविद्या
को त्याग कर इन तीनों स्तरों पर चेतना की प्रधाानता स्वीकार करो। 100. पंच स्वादी पंच दिशि = पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ
अपनी-अपनी राह में पाँच दिशाओं में लगी हैं।पंचे पंचों बाट =
इन पाँचों के पाँच वासनामय मार्ग हैं। तब लग कह्या = जब तक ये
विषयवासना के भोग-मार्ग पर चल रही है। गह = ग्रहण करो।
घाट = ब्रह्म सरोवर का ब्रह्म-घाट। 101. पंचों एकमत = पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ आत्माभिमुख
प्रवृत्तिा बन गयीं तो एकमत हो गयीं। पंचूं पूरया साथ =
पाँचों का सम्मिलित प्रवाह। 102. तिणे = तिनके, गहन गति-पकड़ने का तरीका, बूझे-पूछें,
काम वासना आदि दो सौ से तप हुआ मन रूपी लोहा सामान्य कर्म रूपी तृण से नहीं
पकड़ा जा सकता। गुरु के निर्देश से अभ्यास करने पर ही इन दोषों का निवारण है।
103. सयान = सयाना, समझदार। 104. धााई = प्रहार, चोट। 105. ताइ अग्नि में बाहि = उसे अग्नि में रख के तपावे। 106. साखि= सीख, शिक्षा। 107. ह्नै बोली हुसियार = सावधाान होकर बोलना।
कहेगा सो बहेगा = अन्यथा यदि गलत कहा गया तो उसको सहना पड़ेगा। 108. जहाँ लाया तहाँ लाग रहु = गुरु ने जिस कार्य में
लगाया उसे निष्ठापूर्वक करते रहो। 109. सैन = संकेत, निर्देश। 110. कहे लखे = गुरु के कहे उपदेश को समझने वाला। 111. बपुरा = अवतारी, विवेकी, सुजान बेचारा। 112. जहँ लाया = अंतर्मुखी वृत्तिा। 113. विषय हलाहल = विषयों रूपी जहर। 114. बुरी व्यथा = वासनाओं से उत्पन्न पीड़ा। 115. गुरु अपंग पग पंख बिन = गुरु सत्य और निष्ठा-रूपी
पैरों के बिना पंगु है। शिष्य शाखा का भार = शिष्य और शिष्य
परम्परा उस गुरु के लिए बोझ समान है। 116. संशा जीव का = जिस गुरु का संसार रूपी संशय नष्ट नहीं
हुआ। शिष्य शाखा का साल = शिष्य परम्परा-रूपी कलेश। 117. अंधो अंधाा मिल चले = विषय, संशय आदि में अंधो गुरु
के शिष्य भी विषय वासना में अंधो। बन्धा कतार = पंक्ति बनाकर।
118. सोधाी नहीं शरीर क = स्थूल शरीर (देह) की भी क्रिया
आदि का ज्ञान नहीं, सूक्ष्म शरीर (मन) कारण शरीर (आत्मा) का ज्ञान नहीं। 119. जान कहावें बापुड़े = अज्ञत होते हुए भी ाानी कहाने की
इच्छा। आयुधा = शस्त्रा 120. माया माँहिं काढि कर = सद्गुरु और असद्गुरु के लक्षण
बताते हुए। जो गुरु घर = संसार की माया से शिष्य को निकालकर
सम्प्रदाय और मठ आदि के प्रपंच में लगा देता है। एको = संसार
और परमार्थ में से एक कार्य भी नहीं। 121. गहि भरमावे आन = अपने प्रभाव में लेकर भगवान से भिन्न
संसार में ले जाता है। तत्तव = माया रहित ब्रह्म तत्तव। 123. दुहि-दुहि पीवे ग्वाल गुरु शिष्य है छेली गाय =
ग्वालारूपी स्वार्थी गुरु शिष्यरूपी गाय को अपने स्वार्थ सिध्दि-रूपी दूधा के
दोहन के स्वार्थ में लगाये रहता है। 124. आनि धाण = पुन: ब्रह्म को ही समर्पित कर देना। 125. भरम दिढावें = अन्धो, झूठे गुरु संसार आदि प्रपंचों
को दृढ़ कर देते हैं। 126. सन्मुख सिरजनहार = अंत:चक्षुओं के सामने। 128. सीझे नहीं = सिध्द नहीं होते। 129. भेव = भेद, मर्म। 131. पंथ बतावे पाप का = सकाम कर्म और जन्म-मृत्यु ही पाप
है। 132. आपा = अहंकार, दम्भ, सांसारिक प्रपंच आदि। 133. अंग = अन्त:करण। तातैं दादू ताय =
साधानों द्वारा तपा कर अन्त:करण को शुध्द कर ले। 134. पेलि = दूर भगाना। दादू काटि करंम =
संचित कर्मों के बन्धानों को काटना। निहकरम = निष्क्रिय
ब्रह्म। 135. बिन पायन का पंथ = ज्ञान का मार्ग, विवेक और वैराग्य
के पैरों से यहाँ चला जाता है, हाड़-मांस के पैरों से नहीं। विकट घाट
औघट खरे = मार्ग में काम, क्रोधा आदि कठिन घाटियाँ हैं और अभिमान तथा
मिथ्या अध्यास-रूपी ऊँचे आकाश को छूते हुए शिखर हैं। 136. मन ताजी चेतन चढे = शुध्द चेतन मन-रूपी घोडे पर
सावधाान रह कर। ल्यौ = ब्रह्माकार रूपी वृत्तिा को लगाम बनाकर
तथा गुरु के शब्दों का चाबुक बना कर चलने पर कोई बुध्दिमान संत ही
ब्रह्म-प्राप्ति के स्थान पर पहुँच सकता है। 137. आपा भूल = सब प्रकार के अहं का त्याग। गहि
गंभीर गुरु = गंभीर ज्ञान वाले गुरु के उपदेश से। 140. सगे हमारे साधा हैं = संत जन ही सच्चे सम्बन्धाी हैं।
142. शुधा = शुध्द, निर्मल। बुधा =
विवेकवान। भृंगी कीट = जैसे भृंगी कीट की धवनि से, शब्द की
गुंजार को धयान से सुनता हुआ भिन्न कीट भी भृंगि कीट बन जाता है, ऐसे ही साधाक
सद्गुरु के शब्द सुनता हुआ, वैसा ही-गुरु जैसा बन जाता है। 143. सेत = द्वारा; माधयम से। 144. कच्छप राखे दृष्टि में = कछुवी अपने अंडों की रक्षा
दृष्टि द्वारा करती है। कुंजों के मन माँहिं = कुंज पक्षी
अपने अंडों की रक्षा मन में उनका धयान रख कर करते हैं। सद्गुरु राखे
आपणा = वैसे ही सद््गुरु शिष्यों की रक्षा अपनेपन से ज्ञानोपदेश
द्वारा करता है। 145. निपजे भाव सूं = भावना से उत्पन्न स्नेह से। 146. जड़े कपाट = संशय, भ्रमादि के तालों से बंद हुए
किवाड़ों को। दे कूँची खोले = आत्म-ज्ञान की चाभी से खोल देता
है। 147. शिष्य शाखा = शिष्य-परम्परा। 148. सूरज सन्मुख आरस = जैसे सूर्य के सामने आतसी शीशा
करने से सूर्य की किरणों से अग्नि प्रकट होती है, वैसे ही सच्चा गुरु मिलने से
शिष्य के अन्त:करण में ब्रह्म-प्रकाश प्रकट हो जाता है। 149. परमोधा ले = पाँच ज्ञानेन्द्रियों को सुशिक्षित कर
ले, इंद्रिय = निग्रह कर ले। 151. औषधिा खाइ न पछ रहे = गुरु-ज्ञान रूपी औषधिा-उपदेश तो
लिए = पर उन पर आचरण नहीं किया तब सांसारिक दु:खों-रूपी रोग कैसे मिटे? 152. वैद्य व्यथा कहे = रोगी (शिष्य) का विषयासक्ति रोग
देखकर वैद्य (गुरु) उपचार बताता है। रोगी रहे रिसाय = किंतु
रोगी उपचार (इंद्रिय-निग्रह) का सुझाव सुनकर क्रोधा करता है। वह रोगी-साधाक
विषय-वासना आदि के रोग को मन में बनाये रखता है, त्यागता नहीं। 153. साँच = सत्य पर दृढ़, पक्का। खाटा मीठा चरपरा
= विविधा प्रकार का विषय-भोग। वाच = जीभ। 154. दुर्लभ दर्शन साधु का= सच्चे साधु का दर्शन-लाभ
होना कठिन है, तो सच्चा गुरु और उसका उपदेश प्राप्त होना उससे भी कठिन। यदि
गुरु-उपदेश मिल भी जाये तो उस पर आचरण करना कठिन है। और यदि यह भी सम्भव हो
जाये तो लेख-बध्द न होने वाले-अलेख रहने वाले परब्रह्म से मिल कर सदैव परस
(एकात्म) बना रहना अत्यन्त कठिन है। 155. अविचल मंत्रा = इस मंत्रा के जाप से साधाक अविचल
ब्रह्म स्वरूप को प्राप्त हो जाता है। अमर मंत्रा -अमर-अमर जपने वाला साधाक अमर ब्रह्म को
प्राप्त होता है। अखै मंत्रा -अक्षय, जो क्षय नहीं होता। अभय मंत्रा -निर्भय ब्रह्म को प्राप्त करवा देता है। राम मंत्रा -संसार के प्रत्येक अणु में रमा हुआ होने से
ब्रह्म राम है। इस मंत्रा से साधाक स्वयं राममय हो जाता है। निज सार -निज स्वरूप और जगत् का सार तत्तव होने के कारण
ब्रह्म निज सार है। इस मंत्रा के जाप से निज स्वरूप-आत्मरूप को प्राप्त करके
विश्व का सार रूप हो जाता है। सजीवन मंत्रा -ब्रह्म सदैव जीवित रहने से सजीवन है। सबीरज मंत्रा -ब्रह्म सवीर्य है। इसे जपने से साधाक अति
बलशाली, अति वीर्यवान हो जाता है। सुंदर मंत्रा -इस मंत्रा के प्रभाव से अक्षय सुंदर ब्रह्म
को प्राप्त होता है। शिरोमणि मंत्रा -सर्वोपरि होने से ब्रह्म शिरोमणि है। इस
मंत्रा के जाप से साधाक शिरोमणि हो जाता है। निर्मल मंत्रा -अविद्या आदि मल से रहित होने से ब्रह्म
निर्मल है। जो साधाक इस मंत्रा का जाप करता है वह निर्मल हो जाता है और निर्मल
ब्रह्म को प्राप्त करता है। इसी प्रकार शेष मंत्रा भी जानें। इनके अर्थ इस प्रकार हैं :- निराकार -आकार रहित। अलख - जो इंद्रिय गोचर न हो। अकल - सभी प्रकार की कलाओं से रहित। अगाधा -जिसकी थाह न पायी जा सके। अपार - ब्रह्म का पार नहीं पाया जा सकता। अनंत - उत्पत्तिा, विनाश आदि से रहित। राया -राजा, सब से ऊपर और रक्षक, पालक ब्रह्म स्वरूप। तेज -तेजरूप ब्रह्म। ज्योति - सम्पूर्ण ब्रह्मांड को-नक्षत्रा आदि को ज्योति
देने वाला ब्रह्म स्वरूप। प्रकाश - ज्ञान रूप होने से अविद्या के अंधकार को मिटाने
वाला। परम - सर्वोत्कृष्ट, परम ब्रह्म। पाया - सर्व व्यापक, सर्व-शक्तिमान होने से ब्रह्म आत्मरूप
में पाया हुआ है। गुरु के उपदेश द्वारा साधाक जिस भाव से ब्रह्म को जपता है,
उसे सहज प्राप्त हो जाता है। 156. पशु, पंखी- पशु, पक्षी, वनस्पतियाँ, पर्वत आदि सबको
गुरु मान कर इन से विविधा उपदेश प्राप्त किये हैं। यह संसार त्रिागुणात्मक है
और पंचभूतों से निर्मित है। इन सबके भीतर वह परमब्रह्म स्वयं स्थित है। 157. सद्गुरु- सद्गुरु ने परब्रह्म का जो स्वरूप पहली
बार-आरम्भ के समय, बताया था, वह स्वरूप समाधिा में आकर अपने ज्ञान-चक्षुओं से
अब देखा है और अब परस्पर मिलकर एकरस होकर उसी में समा रहे हैं। । श्री गुरुदेव का अंग सम्पूर्ण। सुमिरण का अंग
।2। 2. पीव का = पालन करने वाला परमात्मा। 3. साधक की अवस्थाएँ = साधाक की अवस्थाओं का वर्णन है। नाम
को सुनना, रसन = जीव द्वारा नाम का उच्चारण। हिरदै से गायन
करना चौथी तुर्यावस्था है। 4. नीका = सर्वोत्ताम साधान। रटबौ =
स्मरण करना, रटना। 6. सभालतां = साक्षी भाव से देखना। पैंडा
= साधाना का मार्ग। 7. पाखंड प्रपंच = छल-कपट। 8. आप कहै समझाय = समय-समय पर अवतार लेकर भगवान ने जो
स्वयं उपदेश दिये हैं। आरंभ = जीवन-मरण रूप चक्र में निषिध्द
कर्म, सकाम शुभ कर्म आदि का आरम्भ। 10. ठौर = सहारा। 12. सकल करम का नास = संचित कर्म, प्रारब्धा कर्म, नित्य
कर्म, नैमित्तिाक कर्म-सबका निवारण। 13. गण = सत, रज, तम। पास = पाश, बंधान।
14. जलन = मात्सर्य, द्वेषाग्नि। 15. टेक = संकल्प, प्रतिज्ञा। दूजा =
लोकसेवा, योगक्षेम आदि। 16. अगाधा = असीम। परिमित नाँहीं पार =
प्रमाण तथा ज्ञान का विषय नहीं। अवर्ण = अकारादि, अक्षर तथा
लाल, पीत आदि रंगों से रहित है। नाम अधाार = ब्रह्म की
प्राप्ति का आधाार स्वयं ब्रह्म का नाम है। 17. अविगति = इन्द्रियों का अविषय। विलम्ब न होइ
= निष्काम भाव से नाम स्मरण करने से ईश्वर कृपा में विलम्ब नहीं होता।
19. अकल = निरवयव आकृतिरहित। अगोचर =
इन्द्रियों से परे। विलंबिये = आशय लीजिये। 20. मैदे के पकवान = अल्लाह, राम, समर्थ सांई-ये तीनों
अद्वैत ब्रह्म के नाम हैं, जैसे एक मैदे के अनेक व्यंजन बनते हैं। 21. लीन = समझो, लो। का जाणौं का कीन =
हरि के स्मरण में अपना मन लगाओ-सगुण-निर्गुण के विवाद में जाना व्यर्थ है। वेद
शास्त्रा आदि भी इसके आगे कुछ नहीं जानते। 23. औसाण = जैसा अवसर या मौका हो उसी के अनुसार नाम स्मरण
करें। 24. दिढावे = दृढ़ निश्चय करना। और =
अन्य, भिन्य। 25. निमष = क्षण भर। 29. डाव = दाँव, मौका। 30. संशा = सन्देह। 31. मेरी जीवनि येह = सम्पूर्ण जीवन ही ब्रह्म चिन्तनमय
है। 34. साल = घाव, मन की पीड़ा। कालि =
सवेरा, अगली घड़ी। 37. साटा = सट्टे की तरह दाँव लगाना। 38. पवना = श्वास, प्राण को आत्माभिमुख द्वै दोवती इक सेर
= दो धाोती तथा एक सेर अन्न। 39. सुबस काया गाँव = शरीर रूपी गाँव राग-द्वेष आदि से
रहित होकर आनन्द से रह सकेगा। 41. न्यारा = अलग। 42. पिंजर = पक्षी का पिंजरा। पिंड =
देह। सुवटा = मन रूपी तोता। रमता सेत =
व्यापक चेतना से जागृति होकर ब्रह्म में एकमेक होना। 43. इत उत = ऐंद्रिक विषयों में। बहुत बिलाई
= अनेक बिल्लियाँ। 44. भावै कंदलि जाय = चाहे कंदरा या गुफा में बैठूँ।
गेह = बसाय 45. जलहरि = समुद्र या नदी तट पर। 47. लाहा मूल सहेत = मूल धान सहित लाभ। 48. बहुरि न होय = यह दुर्लभ मानव शरीर पुन: नहीं मिलने
का। 49. लार = साथ। ब्रह्म-चिन्तन से जीव भी ब्रह्म के साथ
ब्रह्म तत्तव को प्राप्त होता है। 50. साफल = जीवन में सफलता। 51. पीछै लागा जाय = नाम स्मरण के पीछे। तिहिं तत
= ब्रह्म तत्तव। 52. रचि-मचि = नाम में समा जाना। राते माते
= अनुरक्त और मतवाले। दीदार = ब्रह्म साक्षात्कार।
53. सांई सेवै = भगवद्भजन में संलग्न रहे। 55. जियरा = जीव। 56. नीकी बरियां = श्रेष्ठ समय। 57. अगम वस्तु = अमूल्य वस्तु। पानैं पड़ =
उपलब्धा हुई। राखि मंझि छिपाय = आंतरिक दिव्य
शक्तियों में छिपा कर रखो। 58. उज्ज्वल निर्मला = मन ईश्वर के शुध्द नाम रूपी जल से
तथा हरि स्मरण रूपी रंग में अनुरक्त होने से ज्ञान प्रकाश को प्राप्त होता है।
पानी सेती धाोय = काम-क्रोधा वासना रूपी जल से धाोना व्यर्थ
होता है। 59. शरीर सरोवर = शरीर ही तीर्थ आदि सरोवर है। राम
जल = राम नाम रूपी जल। मांहैं संयम सार = सार तत्तव
रूपी ब्रह्म में मन का संयम करना ही स्नान है। 60. सदा जित: = इन्द्रियों को जीतकर। पंच भू पापं
गत: = पाँच विषयों की आसक्ति से होने वाले पाप नष्ट हो जायेंगे। 61. इंद्री निग्रहं = इन्द्रियों को वश में करना।
मुच्यते = छूट जाता है। परम पुरुष पुरातनं = पुरातन
ब्रह्म। चिन्तते सदा तन: = नित्य प्रति चिन्तन करना। 62. विष = वासना रूपी जहर। 63. निरोग = जीवन-मृत्यु रूपी रोग से मुक्त। 64. माया भक्ति विलाय = सांसारिक आकर्षण नष्ट होते हैं।
मल गया = सम्पूर्ण विकार नष्ट होना। ज्यूं रवि तिमिर
नशाय = जैसे सूर्य उदय होने से रात का ऍंधेरा नष्ट हो जाता है। 65. राता = अनुरक्त। 66. इकतार = लगातार, प्रतिश्वास। 67. है = जो ब्रह्म सम्पूर्ण सृष्टि में विद्यमान है।
नहीं = माया, जिसकी वास्तविक सत्ताा नहीं है। 68. निज मोहन = राम-नाम स्मरण रूपी मोहनी शक्ति सभी
प्राणियों की निजी एवं विशिष्ट है। 69. औषधा = जन्म मृत्यु रूपी रोग से मुक्त करने का उपाय।
70. निर्विकार = माया अविद्या से रहित। कृत्रिाम
= काल माया द्वारा रचा हुआ कालरूप। 71. मन पवना गहि सुरति सौं दादू पावे स्वाद = मन, प्राण और
वृत्तिा का निरोधा करने से आनन्द की प्राप्ति होती है। 72. सपीड़ा = विरह वेदना सहित। 73. प्राण, मन तथा वृत्तिा से चिन्तन की दृढ़ता करना। वृत्तिा में तदाकारता
होने से वृत्तिा निरव लेप अवस्था में स्थित हो सकेगी। यही अवस्था ब्रह्म
प्राप्ति का निज अर्थात् वास्तविक स्थान है। 74. आत्म कमल विश्राम = जीवात्मा का हृदयरूपी कमल खिलता
है। अर्थात् आत्मसाक्षात्कार होता है। 75. पैसे = मिल जाये। मन हठ साधो कौंण =
जब सहज स्मरण से मन आत्मराम में लय हो सकता है, तब हठ कौन करता है। 76. यह इकंत त्राय लोक में = वृत्तिायों को अन्तरमुख कर
लेना ही तीनों लोकों में सबसे बड़ा एकान्त स्थान है। अनत =
अन्य किसी स्थान पर। 77. उनमन = चित्ता वृत्तिा की लय दशा। 78-79. निर्गुण नाम में जब हृदय प्रवत्ताृ होता है, तब भ्रम कर्म और कलिविष
(पाप) माया-मोह की जड़ कट जाती है। काल-जाल, शोक भयानक यमदूत कंपायमान होते हैं,
और हर्ष, मोद सद्गुरु श्री परमात्मा के दर्शन प्राप्त होते हैं। 80. पयाल-पाताल। बाहि-रख कर। 81. कहिबे = कहने में, जपने में। विवेक =
सावधाानी। 82. इस साखी में सपक्ष धार्म उपासना की ओर इशारा किया है। हद
= पक्ष, सीमा। बेहद्द = धार्म, पंथ, सम्प्रदाय के
पक्षपात बिना। 83. पटंतर = उपमा, समानता, बराबरी। सरीखा
= सदृश समान। 85. नेटि = अन्तत:, आखिर। निधर्ाार =
निश्चय किया। 86. नाम = स्वस्वरूप। 87. अगमनिगम = वेद-पुराण। तातैं = तो।
88. अलिफ = अल्लाह का वाचक अक्षर, अलिफ से तात्पर्य सच्चे,
सुमिरन से है। कतेबा = वेदादि ग्रंथ। इलम =
विद्या। 89. अल्लाह = जिसको लिया नहीं जा सके, पकड़ा नहीं जा सके।
हाफिज = कुरानपाठी 91. दशा = अवस्था, भूमिका, मंजिल। आपा भूलै आन सब=सब
तरह के अहंकार तथा संसार की मिथ्या आसक्ति को छोड़े। 92. अविगत यहु गति कीजिए = जो देखने में नहीं आता उसकी
प्राप्ति का यही उपाय कीजिए। 93. आतम चेतन कीजिए = आतम = अपना अन्त:करण, उसको चेतन के
सन्मुख कीजिए। 94. पाणियाँ = पाणी में। 95. मति वै = उसको, उस अधिाष्ठान चेतन को। बीसरि
= भूल। 101. आसिरे = भरोसे व विश्वास पर। दादू छिटेक हाथ
तैं = यदि बह स्मरण चिन्तन वृत्तिा हाथ तै दूर होती है। 102. सजीवन = अमर, मुक्त। 103. चवै = टपकै, नामरूप चिंतन से स्थिरवृत्तिा होने पर
आनन्द-प्रवाह की प्राप्ति हो। 104. ऊरा = अपूर्ण, कमी वाला। अठसिधिा =
अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, ऐश्वर्य, वशित्व, प्राप्ति, प्राकाम्य। नौ
निधिा = कुन्द, पद्म, महापद्म, शंख, मकर, कच्छप, मुकुन्द, नील, वर्च।
106. पदारथ = बहुमूल्य वस्तु, भावभक्ति रूप। 107. संगहि लागा सब फिरे = सब यानी संसार के सम्पूर्ण
पदार्थ-ऋध्दि-सिध्दि, स्वर्गादि राम के नाम के साथ ह = आत्मचिंतन के साथ ही
जुड़े हुए चलते हैं अर्थात् आत्मचिंतन से सब प्राप्त हो जाते हैं। 108. आतमा = अंत:करण। 109. शेष रसातल गगन धाू्र = परमेश्वर के सच्चे भक्त। शेष
और धाु्रव पाताल तथा स्वर्ग में हैं पर वे भक्तरूप में सबके सम्मुख प्रगट हैं।
111. जे रू कहेगा राम = जो स्वस्वरूप के चिंतन में ही लगा
रहेगा वह क्यों छिपेगा? 113. मंत = पूजनीय। परकट = प्रकट,
प्रत्यक्ष। 114. अगोचर = अलख, इन्द्रियातीत। 115. पयाल = पाताल लोक। ठाम = स्थान,
जगह। 116. संशय = सन्देह। 117. हौंस = तीव्र इच्छा, एक चाहना। 118-121. इन चार साखियों में बिना ईश्वर चिंतन के व्यर्थ है यह प्रतिपादित
किया है। ईश्वर चिंतन के बिना सभी प्राणी काल के ग्रास होते हैं। अत: आत्मचिंतन
को न भूलें यदि जीवन सफल करना है। 122. सब पाप = सब कुकर्म नामआत्मस्वरूप को भूलने से होते
हैं। 123. बीज = बिजली। 124. झ्रपै काल = काल पकड़ लेता है। 125. कँधा विनाश = शिर कटना। 126. हाना = घाटा, नुकसान, हानि। 127. साहिबजी के नाम मां = व्यापक चेतन के चिन्तन के लिए,
विरहा=वियोग, पीड़ = लगन सहित, पुकार
= सुमरण, ताला-बेल = तड़फन, चाह, विलापइन साधानों की
आवश्यकता है तभी, दीदार = आत्म साक्षात्कार हो सकता है। 129. साहिबजी के नाम मां = परम तत्तव की प्राप्ति के लिए।
मति=मनन-वृत्तिा। बुधिा=निश्चय वृत्तिा।
प्रेम=परमश्रध्दा। प्रीति=सात्विक वृत्तिा।
सनेह=रागात्मक राजसीवृत्तिा। सुख = निरतिशय
स्थिति ये सब साधान पूरे हों तब अपार, ज्योति = अनंत प्रकाशमय
व्यापक ब्रह्म का स्वरूप परिचय हो सकता है। 130. सब कुछ = धार्म अर्थ काम मोक्ष, ऋध्दि-सिध्दि, स्वर्ग
मुक्ति आदि सम्पूर्ण पदार्थ। नू तेज अनन्त है = उस समष्टि
अधिाष्ठान रूप अविद्या माया वहित चेतन का विशुध्द प्रकाश अनंत है-अपार है। 131. जिसमें सब कुछ सो लिया = जिस आत्मस्वरूप की प्राप्ति
में संसार के अशेष पदार्थ प्राप्त हो जाते हैं। उसको प्राप्त किया।
हिरदै राखिये = अनवरत अभ्यास द्वारा अन्त:करण में वृत्तिा को स्थिर
करो। ऐसा स्मरण हो तभी। मैं बलिहारी जाऊँ = बारण, न्यौछावर हो
जाऊँ। ।सुमिरण का अंग सम्पूर्ण।
अथ विरह का अंग । 3
। 2. रतिवंत = प्रेमप्रधाान वृत्तिा वाली बुध्दि रतिवंती
बुध्दि है सो याचना करती है कि हे राम, मेरे स्नेही मुझ को प्राप्त हो। आपकी
प्राप्ति का अवसर मुझे अब मिलै अब मिलै। विरहनि = साधाक
सन्तपुरुष। 3. पकारे = रैनदिन चिंतन करे। विरहनि =
साधाक की आत्माभिमुख बुध्दि। ताला-वेल = विरह सहित तड़फन।
प्यास = दर्शन की अत्यन्त चाह। 4. चित = शुध्द बुध्दि। पुरवहु = पूरी
करो। 5. कासनि = किससे। 7. शब्द = वाचक। ऊजला = अनन्त प्रकाशमय।
चिरिया = साधाक शरीर। विरहा की जार = वियोग
की अग्नि से जलाई हुई। 8. झूरै = विलाप करै। 9. कुरलै = करुण क्रन्दन करे। 10. पासे = समीप, शरीर में ही। जवाब =
उत्तार। तेरे शिर चढे = मेरी हत्या तुम्हारे सिर होगी। 11. ऐन = प्रत्यक्ष, साक्षात्। परस =
परिचय। 12. वेदन = पीड़ा, चुभन। 15. वह = प्रिय आत्मा। दारू = औषधा,
इलाज। 17. अति गति = अत्यन्त, प्रबल। दीदार =
दर्शन, स्वरूप। 18. विछोग = वियोगिनी। फिर = फिर भी। 19. सुरति = वृति। समिटे = स्थिर,
एकाग्र। निश्चल = अचंचल। परसे = स्पर्श करे।
20. अमल = व्यसनी। संग्राम = युध्द। 23. लुब्धा = लोभी। वास का = सुगन्धिा
का। नाद = शब्द। कुरंग = मृग। 24. श्रवणा = कान। राते = मस्त।
अनूप = परमात्मा। 25. पियार = प्यारी। 27. भावार्थ = हर श्वास में मैं आतुर हूँ, मेरा पीव
परमात्मा मेरी सेज (शरीर के अंदर) है; उसको देखूँ तो आनंद हो। इस प्रकार के
प्रेम ही से मेरा जीवन है। दिवान = परमेश्वर।
सेज-शय्या= बुध्दरूपी पलंग। सुबहान = सबसे बड़ा। 28. भावार्थ = हरदम मैं दीवाना हो रहा हूँ, दर्द से मैं
अपने अंदर पुकार रहा हूँ। जब परमात्मा का दर्शन पाऊँ तब मेरे अंदर का दु:ख जाय।
दरूनै = अन्दर, भीतर। दीदार = स्वरूप। 29. भावार्थ-दर्द बंद का भीतरी दर्द दिल से नहीं जाता।
क्यों? वह दुखिया दीदार का है। जब दयालु परमात्मा अपना दर्शन दे तो वह दु:ख
जाय। दरदवंद = दुखिया, विरही। महरवान =
दयालु। 30. मूये = मरे। टुक = जरा सा, झलकती।
31. भिखार = भीख माँगने वाला। मंगता =
माँग रहा हूँ। 32. बेहाल = बेचैन। परगट परसन लाल = लाल
परमात्मा तिस का दर्शन पर्शन रूप साक्षात्कार। 35. व्यथा = पीड़ा। व्यापै = मालूम हौ।
36. हियडे = अन्त:करण में। साल = घाव।
क्योंहि = कैसे भी नहीं। 37. अपना आप दिखाय = अपना जो माया अविद्या रहित स्वरूप है
वह दिखाइए। 38. हूँ देखूँ देखत मिले = मैं अपने स्वरूप को देखूँ और
उसी में अपनी वृत्तिा को देखते-देखते लीन कर दूँ। 39. वारणै = समर्पित करना। कर दीजै कै बार
=यदि तुम तन-मन को तुमपर समर्पित करने से मिलते हो तो इन्हें चाहे
जितने बार समर्पित करावें, मैं तैयार हूँ। 40. दीन =धार्म। दुन = संसारी, दुनिया।
सदके = निछावर। टुक = थोड़ा। छिन-छिन
= खण्ड-खण्ड; भिस्त = बहिश्त, स्वर्ग। दोजख
= नर्क। भावार्थ -दुनियावी धार्म का पक्ष आप पर न्यौछावर करता हूँ।
थोड़ा सा अपना सच्चा दर्शन दिखाइए। इसके लिए स्वर्ग, नर्क, तन, मन, सब आप पर वार
देने को तैयार हूँ। 43. एक टग = एकरस, स्थिरवृत्तिा। दिलदार
= इष्ट, मित्रा। 44. तैसी भक्ति = अखण्ड भक्ति। तैसा प्रेम
= अखण्ड प्रेम। तैसी सुरति = अचंचल वृत्तिा।
तैसा क्षेम = नित्य सुख। 45. सदके = निछावर, अर्पण। भंत = नाना
रूप से। भाव = श्रध्दा। हित = स्नेह।
प्रेम = पूर्ण विश्वास। खरा = सच्चा,
अत्यन्त। पियारा = प्यारा। कंत = पीव। 46. रल = इच्छा, चाह। 47. मीरा = महान्, सर्वोपरि। मिहर =
कृपा, करुणा। दर हाल = अभी, इसी समय। 48. ताला-बेल = तड़पन सहित विलाप। प्यास =
चाह। क्यों रस पीया जाय = बिना तीव्र चाह के नामस्मरणरूपी रस
कैसे पीया जाए? 49. सेत = साथ। विलसे = विलास करे, अनुभव
करे। 50. इश्क = अनुराग। मुहब्बत = प्यार,
प्रेम। लापर्द = बिना परदे। भावार्थ -हे परमात्मन्, हमें आप अपनी भक्ति, अपने प्रेम का
विरहरूपी दर्द दो, वियोग की चाह पैदा करो, जिससे हृदय में तुम्हारी कृपा का,
तुम्हारे दर्शन का मुख-आनन्द प्राप्त करें और परस्पर मिलकर खेलें। 51. सपीड़ा = विरह वेदनामय। रमे = खेले।
52. मगन = मस्त। हेत = स्नेह।
रुचि = चाह। भाव = भावना। 53. गई दशा सब बाहुड़े = बिना आत्मचिंतन में गया हुआ समय भी
वापिस मिल जाय। गई दशा = ब्रह्मभाव, जो जीवभाव से पूर्ण था।
बाहुड़े = पीछा आवे। दादू ऊजड़ सब बसे =
दादूजी महाराज कहते हैं-आसुरी सम्पत्तिा भोग-वासना से उजड़ा हुआ अन्त:करण दैवी
सम्पद् व आत्मपरिचय की प्रबल चाह पैदा होने से फिर बस जाता है, आबाद हो जाता
है। 54. हम कसिये = हमको कसने से, अर्थात् दु:ख देने से, कसौटी
में दिये, परीक्षा लिये। विड़द = यश, तुम्हारी महिमा। 55. मींयां = मालिक। मैंडा = मेरे।
वांढ = दुहागिन। वत्ताां = जहाँ-तहाँ।
लोइ = भ्रम रहा है। डुखण्डे = दोनों ऑंखें।
मुहिंडे = बन्द हो गये। विछोहै = वियोग में। भावार्थ -हे मेरे मालिक मेरे घर आओ। अर्थात् मेरे मन में
वास करो। मैं दुहागिन लोक में फिरती हूँ, मेरे दु:ख बढ़ गये हैं और तेरे वियोग
से मैं मरती हूँ। 56. निधिा = खजाना, परम धान। झूर =
कलप-कलपकर, रो-रोकर। है सो निधिा नहिं पाइये = अस्ति भाति
प्रिय रूप निधिा है-खजाना है वह प्राप्त नहीं है। नहिं सु है भरपूर = जो
वस्तुत: निधिा नहीं है, वह संसार की धान-सम्पत्तिा नाम रूप प्रपंच सब जगह भरपूर
प्रतीत हो रहा है। 57. घट = अन्त:करण में। लोह = लोभरूपी
रक्त। माँस = ममतारूपी मांस। जक = शान्ति,
चैन। 58. रब = परमेश्वर। सुहदाय = साधाक,
विरहीजन। नाल = संग, साथ। 59. रब (परमेश्वर) का प्रेमी अपने सम्पूर्ण अपनपौ को परमेश्वर को अर्पण करै।
और परमेश्वर के वास्ते आपे (अहंकार) को अग्नि (विरह) में साड़ै (जलावै)। 60. भोरे-भोरे = कण-कण। बंडे = बाँट दे।
मिठ्ठा = मीठा। कोड़ा = कड़वा साण
= साथ। भावार्थ = तन को कण-कण काट कर कुर्बान चढ़ावै और बाँट दे।
इतना करने पर मीठा परमेश्वर कड़वा न लगे, तब परमेश्वर (प्राप्त) हो। 62. तैं = तुमने। डीनोंई = सब कुछ दे
दिया। जे = अपने। डीये = दे दिये तो।दीदार
= दर्शन। उंजे = प्यासे को। अभु =
पानी। लहद = प्राप्त हो गया। पसाई दो =
दर्शन करा दो। पाण के = स्वस्वरूप के। 63. बीच से सब पर्दा दूर कीजिए, अंदर द्वैत भाव न रहे। दादू एक ही में प्रेम
पूर्वक मन लगाय कर रत है। 64. यह साखी अकबरशाह के प्रश्न के उत्तार में कही थी। तात्पर्य यह है कि
ईश्वर के प्रेम में मन मस्त रहे और उसके दर्शन की इच्छा बनाये रखे। अपना दोस्त
जो परमात्मा उसके सन्मुख दिल हरदम रखे और उसकी याद में होशियार रहे। 65. एक अल्लाह = एक व्यापक आत्मा के, आशिक
= प्रेमी हैं वे दुनियावी धार्म पन्थ जाति आश्रम के बन्धानों से।फारिग
= मुक्त होते हैं। वे इस शरीर के अधयास से भी अपने को अलहढ़ा या अलग कर
लेते हैं। उन्हीं साधाकों का प्रेमियों का। पाक = पवित्रा है,
सच्चा है। यकीन = निश्चय। 67. भावार्थ-दादूजी कहते हैं नाम चिंतन वैसे अनेक करते हैं
पर इश्क अत्यन्त प्रेम की लग्न से कोई नहीं कहता आत्मपरिचय या परमेश्वर की
प्राप्ति के लिए पहले। मुहब्बत = तीव्र चाह का दर्द, वियोग
प्राप्त करे तभी साहिब। हासिल होय = प्राप्त हो। 68. अल्लाह = परम परमेश्वर के। आशिक =
उपासक प्रेमी। कहाँ = जो अपनी साधाना से अपने अहंकार तथा
शरीराधयास को मार देते हैं, नष्ट कर देते हैं। आलम = संसारी
पुरुष। औजूद = स्थूल शरीर के भरण-पोषण में लगे हुए केवल
महात्मापने की बात करते हैं उनकी उन सच्चे साधाकों से बराबरी कहाँ? 69. अरवाह = जीवात्मा। सब पड़दा जल जाय =
स्थूल सूक्ष्म संघात का तथा ममता वासना का सब पड़दा आवरण। जल जाय
= विरहाग्नि में भस्म हो जाय। 70. अरवाहे = जीवात्मा अपने व्यापक रूप परमात्मा को सिजदा।
कुनंद = नमस्कार करता है। वजूद रा चि:कार =
शरीर का धयान या अभ्यास छोड़ दिया है। नूर = जो शुध्द स्वरूप
उसका। दादन = धयान उसी से प्राप्त हो रहा है जिससे प्रेमी
अपने प्रेम का। दीदार = दर्शन प्राप्त कर रहे हैं। 71. पर जले = प्रदीप्त हो, खूब जले। 72. जालिबा = जलाना। तांई = लिये।
आतुर = व्याकुल। 73. हठ = आग्रह। 74. छाड़ि सकल रस भोग = भोगों की वासना के रस का परित्याग
कर। 75. सुधिा-बुधिा = होशहवास। नाठे = दौड़
जाय, भाग जाय। ज्ञान = असत्य में सत्य का ज्ञान। लोक
वेद मारग तजे = लौकिक मर्यादा तथा वेदादि प्रतिपादित सकाम कर्म का
मार्ग वह साधाक छोड़ देता है। 76. विरही जन जीवे नहीं = आत्मजिज्ञासु साधाक, जीव
नहीं-संसार के भोग पदार्थों की वासना में प्रेम नहीं करता। गहिला
= दीवाना। 80. सारा शूरा = परिपूर्ण। 81. अन्तर बैधया = बिध्द अन्त:करण। 82. चिंत्ता = चिन्ता। 83. दृष्टान्त = दादूजी आमेर में, विरही देखे दोइ। तन छूटे हू सुरति सों, पीव पीव नभ होइ ।1। 84. करक = चुभन, रड़क। कलेजे माँहिं =
अन्त:करण में। 85. ज्यों जीवत मृत्ताक कारणे, गत कर नाखे आप = आत्मपरिचय
प्राप्ति की भावना वाला साधाक अपने लक्ष्य के लिए अपने सब प्रकार के अहंकार को
दूर कर अपने को जीते हुए मृतकवत् निरभिमानी बना लेता है। 87. क्यों भरूँ दिन-रात = बिना उसके साक्षात्कार हुए
विरह-वेदना में दिन-रात कैसे भरे-पूरे किये जायँ। 91. औरों के आनन्द है, सुख सौं रैनि बिहाय = जो आत्मविमुख
संसार के भोग विलास में लगे हुए हैं वे अज्ञान निद्रा में आनन्द से मनुष्य जीवन
रूपी रैन व्यतीत कर रहे हैं। 96. जग सगला = बाह्यवृत्तिा वाला सब संसार। 97. विरह की तपन में विविधा वासना तथा शरीर के अधयास दाग। दाह-संस्कार कर
दिया। जीते हुए ही शरीर को मृत मनुष्य की कबर की तरह शांत बना लिया। जो हमारी
वास्तविक जगह है उसी चेतन अधिाष्ठान में जीवन समाप्ति से पहिले ही निवास कर
लिया स्वस्वरूप में मिल गया। 98. देखे का = देखे हुए का, नाम रूपमय संसार का।
अण देखे = बिना देखे का, सत्य स्वरूप स्वात्मा तथा समष्टि आत्मा का।
99. प्रीति प्रकाश = सात्विक वृत्तिा की उत्पत्तिा।
लै लीन मन = मन की निश्छल धयानावस्था। 100. सहज संतोषी पाइये = शीतोष्णादि सब द्वन्द्व गुणों पर
विजय प्राप्त किये हुए सहज दशा में पहुँचे हुए ऐसे सन्तोषी आत्मनिष्ठ महात्मा
की प्राप्ति हो तो भाग सोटे समझने चाहिए। 101. पुणग = फुहार, लघुबन्द। 102. क्षुधाा = भूख चाह। पाक पूरि =
विविधा पकवान। नेरा = नजदीक। 103. तरुवर = वृक्ष। त्रिाभुवन राया =
तीनों लोकों के स्वामी। 105. धााह दे = जोर की आवाज से। 106. बार = समय, मनुष्यजन्म। 107. ऊभरै = अंकुरित हो, उत्पन्न हो। 109. बिन ही नैन हुँ रोवणा = विवेक विचाररूपी नेत्राों से
रोना। बिन मुख = अन्तर्वृत्तिा द्वारा। पीड़ पुकार
= स्मरण करना निग्रह तथा धयानरूपी हाथों से मन को। पीटणा
= स्थिर करना यही साधान। बारंबार = अनवरत करना। 112. कुश्मल = कलुषता, मैलापन। आरस =
स्वच्छ दर्पण, हृदयरूपी दर्पण। 113. मंझें = सच्ची भावना से, श्रध्दा से, भीतर, अन्त:करण
में। 115. भावै = सच्ची भावना से, श्रध्दा से। हेजैं
= हेत, प्यार अति अनुराग। 116. को सूक्ष्म को सहज में, को मृत्ताक तिहिं बार = साधाक
को साधाना के अनुसार कई दशाएँ होती हैं कोई साधाक वृत्तिा को मन तक ले गया है,
कोई सहज दशा अधिाष्ठान तक पहुँचता है, कोई विरह की उत्पत्तिा से जीवनमुक्त की
दशा में आ जाता है। साधाना जैसी होती है उसी के अनुरूप उसकी स्थिति बनती है।
117. बूझे = कहै, जानें। 118. दादू अक्षर प्रेम का = परम अनुराग, अति श्रध्दा से
नामचिंतन कोई ही करता है। 119. पात = पाना। 120. खैंचि = खेंचकर, तानकर। सालै =
चुभै, खटके। 121. भलका = भाला। मंझि = भीतर।
पराण = प्राण। 122. सो शर हमको मारि ले = वह वचन वाण हमें मारिये,
लगाइये। 123. जागि है = सचेत होगा, संसार की अविद्या-निद्रा से
जागना। बेध्या = घायल, प्रेम में तत्पर। पिंजर
= शरीर में। 124. सिसकै = चेतनहीन श्वास ले। प्रीतम =
परमेश्वर। दादू जीवैं नाँहि = विषय वासना रूपी जीवन अब नहीं है। 125. भावार्थ-विरह से वियोग वेदना उत्पन्न हो,
वियोग वेदना से जीव = अन्त:करण जागे विवेक विचारमय हो। अन्त:करण में
स्वस्वरूप प्राप्ति के विचार के उदय होने से सुरहितवृत्तिा है तब पाँचों।
ज्ञानेन्द्रियाँ पीव की-अपने स्वरूपप्राप्ति की पुकार में जगती हैं। 126. मारण हारे को मिले, दादू विरही बाण = विरही और विरह।
दोनों मारने वाले-विरह की पीड़ पैदा करने वाले परमेश्वर में ही मिल जाते हैं।
128. मारणहारा = मारने वाला। 129. तिनको क्या मारे = साधाक होकर शरीर के ही अधयास में
क्यों लगा रहे? 132. सहिनाण = चिद्द, लक्षण। 133. रस प्यास = आत्मानन्द रूपी रस की प्यास। 134. पैठ = प्रवेश कर गई। 138. तैसे ही कर रोइए = ऐसा रोना रोइए, ऐसी साधाना कीजिए
कि जिससे साहिब, परमेश्वर को साक्षात् देख लें। 139. नेत्रा हमारे निर्लज्ज हैं, कि उनसे ऑंसुओं के नाले नहीं बहते, जैसे
मीन, मेंढकादि तालाब के सूख जाने पर उसी के भीतर गल कर सूख मरते हैं तैसे हम
नहीं हुए। सारांश इसका यह है कि हम भक्तिहीन हैं। 140. पंगुल = पोंगला, अचंचल। 142. तातैं पंगु ह्नै रह्या, दादू दर दीदार = मन के
विषय-विकार विरहाग्नि में जल जाने से। दर दीदार = आत्मस्वरूप
के। दर = दरवाजे सान्निध्य में। पंगुल =
गुणातीत होकर ठहरा गया। 143. दरद = प्रेम विरह की वेदना से। कड़वे
= अरुचिकर। काम = वासना। 144. जब दरश परस मिल जाइ = अभेदवृत्तिा से स्वरूपसामान्य
से एक हो जाय। 145. अमल = व्यसनी। 146. परसै = स्पर्श करे, छुए। 147. वही इश्क साधान सच्चा है जिससे माशूक उपास्य है वह आशिक उपासक हो जाय।
दादूजी कहते हैं उस साधाक माशूक का स्वयं अल्लाह-चिदात्मा है वह आशिक-अनुरागी
बन जाता है। 149. जहँ अगम अगोचर राम था, तहँ विरह बिना को जाइ = जो
स्वरूप अगम = बुध्दि से परे या अगोचर =
इंद्रियातीत था वहाँ विरह बिना = प्रेमाभक्ति बिना कौन ले जाय अर्थात् अन्य
सकाम कर्मसाधान से उसकी प्राप्ति सम्भव नहीं। 150. अंग लगाइ करि = स्वस्वरूप में स्थिर कर। 151. मीत = मित्रा, सच्चा हितैषी। 153. चाव = कोड़, उमंग। 154. बाट = मार्ग, रास्ता। पंथ = रास्ता।
मारग = राजमार्ग। 156. विरहा वेगा ले मिले, ताला-बेली पीर = यदि अत्यन्त
तीव्र चाह के साथ विरह उत्पन्न हो तो वह शीघ्र ही आत्मसाक्षात् करा देता है।
157. दृष्ठांत-सोरठा-आंधाी गाँव हि माँहिं, रहे जो दादू दास जी।
वर्षा वर्षी नाँहिें करि विनती वर्षाइयो॥ अर्थात्् आंधाी गाँव में जब दादूजी ने चौमासा किया था और वहाँ वर्षा नहीं
हुई थी, तब उन्होंने यह प्रार्थना करके वर्षा वर्षाई थी। 158. वसुधाा = धारती, वसु-रामरूपी धान की धाारक बुध्दि।
फूले = भक्ति तथा अनन्य प्रेम से प्रफुल्लित हो।फले
= सतज्ञानरूपी फल को प्राप्त कर रही है। पृथ्व =
सहनशील बुध्दि उस अनन्त व्यापक अपार असीम आत्मा में स्थिर हो रही है।
गगन = अन्त:करण या हृदयगुहा उसमें ज्ञान की गर्जना हो रही है जिससे।
थल = शरीर के सम्पूर्ण कोष्ठक, नौ सो नाड़ी बहत्तार कोठे हरि
दर्शन रूपी जल से। भरै = परिपूर्ण हो रहे हैं। दादू
जै जैकार = दादूजी महाराज कह रहे हैं ऐसे अपरंपार की अनुकंपा से स्मरण
की सार्थकतारूप जय जयकार = परमानन्द की अनुभूति हो रही है।
परमानन्द मंगल की प्राप्ति हो रही है। 159. भावार्थ = वासना तथा अधयासरूपी काल का मुँह काला
करिए। हे सांई, आपकी कृपा से नामचिंतनरूप सदा सुकाल प्राप्त हो। हे मेघ! हे
ज्ञानधान! आपके तो बरसने के लिए-कृपा करने के लिए बहुत घर हैं। हे दीनदयालो!
बरसहु अर्थात् इस अन्त:करण पर दया की दृष्टि करिए। (विरह का अंग सम्पूर्ण)
अथ परिचय का अ ं ग
। 4 । 2. निर । तर = परिपूर्ण । हृदय मे । , अन्तररहित ।
प । ख = प्राण । उनमनि = ऊँची दशा, लयावस्था ।
सप्तौ म । डल = सात लोक, सात धाातु, सप्तमायिक प्रकाश । देह,
इन्द्रिय, मन, प्राण, बुध्दि, अज्ञान, जीव । अष्टै । = आठवाँ,
स्वस्वरूप, निर्विकल्प अवस्था । 3. जहाँ निगम न पहुँचे वेद = गुण क्रिया जाति स । ब । धा
वाली वस्तु को ही वर्णात्मक वेद विषय करता है । परब्रह्म मे । गुणादि है । नही
। । , निगम स्मृति धार्मशास्त्रा तथा वेद उन्ही । वस्तुओ । का निरूपण करते है ।
जिनमे । गुण, क्रिया तथा जाति स । ब । धा होता है । शुध्द चैतन्य गुण, क्रिया
तथा जाति से रहित है । अत: स्मृतिशास्त्रा तथा कर्मोपदेशक वेद उसके विषय मे ।
कुछ नही । कह सकते । वहाँ उनकी पहुँच नही । अर्थात् वह उनका वर्ण्य-विषय नही ।
है । 4. सब सेजो । सा । ई बसे = सब प्राणियो । के सेजो ।
अन्त:करणीरूपी चार पायो । वाली सेज मे । परमेश्वर निवास कर रहा है अर्थात् सब
घटो । मे । ईश्वर व्यापक है । 5. ह । स = व्यापक विशुध्द चेतन । परम ह । स =
साधाक का व्यष्टि चेतन । तहँ = पराभक्ति की अवस्था,
लयदशा । 6. रँग भरि = अतिशय प्रेम कर । तहँ =
साधाक के अन्त:करण मे । । रसाल = अनहद शब्दधवनि ।
अकलपाट = कल = धार्मरागद्वेषादि से रहित हृदय । लाल
= स्वस्वरूप । 7. निश वासर नहि । तहँ बसे = ज्ञान-अज्ञान वृत्तिा वही है
रात-दिन वे जिस अन्त:करण मे । नही । है । अर्थात् शुध्द अ । त:करण है उसी मे ।
उसका वास-निवास दिखाई पड़ता है । 8. रँग भरि खेलौ । पीव सौ । = प्रेममय भाव से भरपूर हो
साक्षात् परचै प्राप्त करूँ । तहँ कबहुँ न होय वियोग = उस
साक्षात् परचै दशा मे । फिर कभी वियोग की बाधाा नही । हो सकती । 9. बारह मास बस । त = परम आन । द की अवस्था है वही वस ।
तवत्सदा प्रफुल्लित रखती है । जुग-जुग = अखण्ड, सर्वदा ।
क । त = अपना साधय, अपना उपास्य, अपना स्वरूप । 10. काया = देह । अ । तरि = शुध्द
अन्त:करण मे । । त्रिाकुटी केरे तीर = जिस अवस्था मे । मन,
प्राणवृत्तिा एक स्थान मे । स्थित हो । वही त्रिाकुटीतीर है । । 11. निरधाार = स्वय । किसी के आधाार मे । नही । ,
सर्वाधाार । 12. अनहद वेणु = सहज शब्द, धयानावस्था । शून्य म ।
डल = वासनारहित अ । त:करण, निर्विकल्प समाधिादशा । 13. सहजै = निर्विकल्प अवस्था । अलख =
स्वय । प्रकाश । अभेव = इयत्ताा या विवरण रहित । 14. भवर = मन । कवल = हृदय । रस
= आत्मा । जैसे कमल को भेदन करके उसके रस को पान करता हुआ भ । वरा आन । द को प्राप्त
होता है, तैसे ही, दयालजी कहते है । , हमारा मन हृदय कमल को भेदन करके
आत्मस्वरूप रस को पान करके आन । द पाता है । दूसरा दृष्टा । त
= जैसे मानसरोवर का जलपान करके मोती चुग करके और सरोवर के दर्शन से ह । स आन ।
दित होता है, तैसे ही हम पीव के दर्शन करके, राम भजन रूपी मोती चुग के,
स्वरूपानन्द का अनुभव करके आन । दित होते है । । 15. गहे चरण कर हेतु = अति प्रेम कर चेतन आत्मा को ही
आधाार बना लिया । परसत = तदाकारवृत्तिा होते ही ।
रोम-रोम सब श्वेत = अन्त:करण चतुष्टय शुध्द हो गया । 16. अनत न भरमे जाय = लोक-परलोक के सकाम कर्म न करे ।
तहाँ वास विलम्बिया = शुध्द अ । त:करण मे । वास निवास कर,
वही । विलम्बिया = समाधिास्थ हो गया । 17. गह = पकड़ी, धाारण की । ओट = आश्रय,
शरण । कौन करे शिर चोट = उस स्वस्वरूप स्थित वृत्तिा की दशा
मे । वासनामय बाणो । की चोट कौन कर सकता है अर्थात् कोई नही । कर सकता । 18. खोजि = तलाश कर, अनन्य श्रध्दा से । तहाँ
= विशुध्द हृदय मे । ही । शब्द ऊपने पास = जहाँ से
शब्द की उत्पत्तिा होती है । अर्थात् नाभिकमल से । एकान्त =
ब्रह्मगुहा । ज्योति = ज्ञानमय चेतन । 19. जहाँ च । द न ऊगे सूर = जहाँ सूर्य चन्द्र दीपकादि
प्रकाश की गति नही । । 20. जहँ बिन जिह्ना गुण गाय = जहाँ आत्मनिष्ठवृत्तिा की
दशा मे । जीभ के बिना केवल सुरतिवृत्तिा से ही गुण गाया जाय-आत्मचि । तन किया
जाय । अलेख = अचि । न्तय । सहजै = स्वाभाविक
अवस्था, माया अविद्या से रहित । 21. उम । ग = तीव्र उत्साह । जहाँ अजरा अमर उम । ग
= आत्मा को जानने से ही मृत्यु भय का निवारण होता है अत: उसी भावना को
अति उत्साह से अपनाओ । तभी उस चेतन अधिाष्ठान के साथ रह सकोगे । 22. हे मानव! तू अपनी वास्तविकता से क्यूँ गफिल है म । झे =
भीतर, रब्ब = परमेश्वर या अपना अधिाष्ठान निहार
¾ देख । पाण जो = जो आप, पिव =
शुध्द चैतन्य, । म । झेई = भीतर ही है । इसलिए भीतर
ही उसकी तलाश कर । 23. हे मानव, वतै । = उस आत्मा से । छो =
क्यो । । गाफिल = विमुख । अल्लाह = ईश्वर ।
म । झि = भीतर ही है; उस परमेश्वर को जो अपने आप मे । ही
मौजूद है सब सुखो । े का सार व भीतर ढूँढने ही से प्राप्त हो सकता है । 24. दरगह = हृदय । दीवान तत = स्वय ।
प्रकाश, सबका आधाार । पाण = स्वय । , आप । पसे =
देखे । 25. तखत रबाण = परमेश्वर का सि । हासन । पेरे =
समीप, पास । वसु = रहे, बैठो । तिन्ह =
उसी के, तिनके । 26. हरि = कल्मष, पाप हरने वाला । चिन्तामणि =
नामचि । तन । चिन्तता । = स्मरण करता । चि ।
तामणि = चि । तन की पूर्ति करने वाला । 27. नैनहुँ = ज्ञानरूपी नेत्राो । से । पेखे =
देखे । 28. बिना रसना जहाँ बोलिए = बिना जीभ के सुरतिवृत्तिा रसना
से अन्त:करण मे । बोलिये = धयान करे । । 29. जहाँ तै । = जिस जगह से, हृदय प्रदेश से । वाण
= परावाणी । अनुभव = साक्षात् परिचय । शब्दौ
। किया निवास = अनाहत शब्द मे । वृत्तिा को लय करना । 30. सो घर = निवासस्थान, अ । त:करणरूपी घर । तहँ
तूँ = उसी अन्त:करण मे । ही तू । 31. जहँ = जहाँ, हतप्रदेश, अन्त:करण मे । । सेझा
= झरना । 32. भाव = श्रध्दा । भक्ति = भजन ।
लै = कार्यकारण की एकता । सो ठाहर = वह जगह,
शुध्द हृदय प्रदेश । निधिा = खजाना, अभीष्ट सम्पद् । 33. जो सदा विशुध्द अन्त:करण मे । प्रकाशमान है निकट = अति
समीप, निर । तर = अपने ही मे । उसकी, ठाम =
ठहरने की जगह है । वही । , निर । जन पूरि ले = मल विक्षेप
अधयास से रहित वृत्तिा द्वारा शुध्द स्वरूप को भर ले । इस स्थिति का ही अजरावर
नाम है, इस स्थिति मे । आने पर ही जरा मृत्युभय मिटता है । 34. क्रीड़ा = अह । धाी उपासना, आनन्द प्राप्ति के लिए
साधाना । तिहि गाँउँ = उस ग्राम, शुध्द अन्त:करण । उस
ठौर = शुध्द आत्मा । 35. पसु = देख । पि । रनि = परमेश्वर ।
पेही म । झि = पीव बीच । कलूब = हृदय ।
बैठो आहे = बैठा है, स्थित है । पाण = आप ।
महबूब = प्रियतम, परमेश्वर 36. नैनहु वाला = ज्ञान सद्विचाररूपी नेत्रावाला । 37. कत हूँ = किसी ओर, जप तप तीर्थ व्रतादि काम्य कर्मो ।
की ओर । 38. अन्तरगति = वृत्तिा का अन्त: प्रवेश । ल्यौ
= धयान, लयवृत्तिा । 39. पहली लोचन दीजिए = साधाकसद्गुरु से प्रार्थना करता है
कि पहले विवेक विचार के नेत्रा प्रदान कीजिए । 40. ऑंधाी के आन । द हुआ = विषयासक्त बुध्दि जब
विचार-विवेक से शुध्द हुई तब आनन्द, हर्ष हुआ । 41. मिही । महल बारीक है = महल अपना आत्मारूपी महल,
सूक्ष्म, अति सूक्ष्म है । । 42. जो स । सार मे । लिप्त हो कर तू आत्म रस चखना चाहे, तो यह स । भव नही ।
, क्यो । कि तेरे अन्त:करण मे । दो के लिए गु । जाइश नही । है, उसमे । दो नही ।
समा सकते, जैसे पुष्प मे । दूसरी ग । धा नही । समाती । 43. अह । कार मनादि का अस्तित्व त्याग कर योगाभ्यास करो और अपने मानापमान पर
कुछ न कहो, केवल परमात्मा मे । ही मग्न रहो । 44. तहँ मै । नही । = उस जगह मलिन वासना का अह । कार नही ।
। महल बारीक है = स्वरूप का स्थान सूक्ष्मातिसूक्ष्म है ।
द्वै = द्वैतभाव, भेदवृत्तिा । ठाम = जगह ।
45. मै । नाही । तहँ मै । गया = अह । कार की निवृत्तिा
होते ही भेदवृत्तिा भी चली जाती है । नाही । को ठाहर घण =
वासना अह । कार से रहित साधाक को ठाहर घण = अपने अन्त:करण मे
। स्थित होने को बहुत जगह है । 46. एक अलाव = एक ईश्वर, परावचन । 47. जब यहु आपा मिट गया = जब यह अनित्य मे । नित्य प्रतीत
होने वाला मिथ्याभिमान नष्ट हो गया । 49. दादू है कू । भै । घणा = वासना और अह । काररूपी है
मौजूद हो तब तक वासना की पूर्ति न होने तथा अभिमान के कारण रागद्वेषजन्य बहुत
से भय त्राास दु:ख प्राप्त होते ही रहते है । । 51. पाँच तत्तव प । च तन्मात्राा उनके आकाश, वायु, अग्नि, अप, पृथ्वी ये
पाँच भूत है । । इससे स्थूल शरीर बनता है, सूक्ष्म प । चभूत, अविद्या, वासना
तथा कर्म ये आठ तत्तव है । , इन आठ तत्तवो । का सूक्ष्म शरीर है । इन स्थूल तथा
सूक्ष्म शरीर का स । योग तजन्य यह देह है । यही उस निर । जन निर्विकार चेतन
आत्मा की हाट = प्राप्ति स्थान है । 52. जहँ = अज्ञान की दशा मे । मन भूतो । के गुण, इन्द्रियो
। के व्यापार तथा आकार वाली वस्तुओ । को ही ब्रह्म = चेतन
समझता रहता है । तहँ = अज्ञानदशा की बदलनी हो तो मन को
सबन तै । = उन सब अविद्या के आवरण से सत्य प्रतीत होने वाले
त्रिागुणात्मक तथा प । चभूतात्मक पदार्थो । से मन को विरचै दूर करे तथा
सिरजनहार = अशेष जड़जगत् का आधाार रूप चेतन जो सबके अभिव्यक्त का कारण
है उसी मे । मन को रचि रहु = प्रेम से लगा दे । 53. स्थूल शरीर के अधयास का विचार से परित्याग, यह काया की शून्यावस्था है,
मन की स । कल्प, स । शय, विपर्यय दशा का परित्याग कर मन को विशुध्द करना, यह
आत्मा मन की शून्यावस्था है जिसमे । प्राण का प्रकाश प्रारम्भ होता है । मल
विक्षेप अधयास का निवारण हो वृत्तिा का चेतन अधिाष्ठान मे । स्थिर होना, यह परम
शून्यदशा है । इसी मे । स्वस्वरूप का परिचय होता है । भेदनिवृत्तिा यह परावस्था
है इस अवस्था मे । केवल विशुध्द चेतन ही शेष है । 54. जहाँ = अकेले परमात्मा की तरफ है, अर्थात् उसी
परमात्मा से सब सृष्टि उत्पन्न होती है । 55. जैसे काल और कर्म करके जीव उपजे है । , तैसे ही माया मन प्राण शरीरादि ।
इन सर्व मे । परमात्मा सहजभाव से व्यापक रमता है । 56. सहज शून्य सब ठौर है = सहज शून्य का अभिप्राय है
निर्विल्प चेतन, वह सब ठौर है = अशेष देश काल मे । व्याप्त है । प्रकृति स ।
योगविहीन या माया अविद्या रहित चेतन की सहज दशा है यही निर । जन ब्रह्म है
जिसमे । किसी प्रकार के गुण की व्याप्ति नही । है । 57. उस सहज सून्यरूपी सरोवर के किनारे, ह । सरूपी महात्मा मोती चुनते है । ,
अर्थात् आत्मान । द का अनुभव करते है । , और अनहद सेझे का अमृत रूपी दृष्टि
जलपान करते है । और अनहद शब्द 'सो है ह । सा' मे । मग्न हो जाते है । । 58. जप = विचार । तप = इन्द्रियोपरति ।
स । यम = मनोनिग्रह । 59. स । गी सबै सुहावणे = सब स । गी, मन इन्द्रियो । ।
सुहावणै = विषयविहीन वासनाविहीन होकर सुहावने बन गये है । ।
बिन कर बाजै बेन = अन्तरवृत्तिा मे । अखण्ड धवनि होना ।
जिह्वा हीणे गावणे = जिह््वा के बिना सुरतिवृत्तिाद्वारा
प्रणवधयान । 60. चरण कमल चित लाइया = तेजपु । जमय आत्मस्वरूप मे । मन
को लगाया । 61. सहज सरोवर = निर्विल्प वृत्तिा की दशा । ह ।
सा = साधाक सन्त । करै । कलोल = आत्म-चि । तन करे ।
। मुक्ता हल = नामपरिचयरूप मोती । मन मोल =
मन के मोल मे । , मन के विषय विकार वासनादि धार्म मोल मे । दिये । 62. जित-तित पाणी पीव = जित तित = जिस किसी साधान, भक्ति,
योग, वैराग्य, ज्ञान आदि द्वारा आत्मपरिचय रूप विशुध्द नीर का पान करो ।
जहाँ- तहाँ = जिस किसी साधान की दशा मे । । जल अ ।
चता । = आत्मरस पान करता । 63. उज्ज्वल = माया अविद्या रहित । प्यास बिना
= जानने की तीव्र इच्छा बिना । 64. भावार्थ-शून्य सरोवर = निर्विकल्प
शुध्द चेतन वही सरोवर है, ह । स मन = साधाक का शुध्द मनरूपी ह
। स है, शुध्द चेतन के वाच्य जो शब्द है । वे ही मोती है । , चुगि-चुगि
= निरन्तर अभ्यास द्वारा । च । चभरि = बुध्दि की
स्थिर वृत्तिा मे । स्वरूप को निश्चय कर । यो । = इस तरह ।
स । तजन = परम जिज्ञासु साधाक, जीवे । = जरा
मृत्युभय से मुक्त होवे । । 65. विलसिए = भोगिए । 66. परिमल = सुगन्धा, चैतन्यरूपी मकरन्द । 68. म । झि = अन्त:करण मे । । केलि =
कीड़ा, आसपास । मुक्ता हल = नामचि । तन रूप मोती ।
मुकता = बहुत, अपार । डर नाँहि । = विषयवासना
मृत्यु, इनका भय नही । है । 69. अखण्ड = एकरस, अखण्डित । अथग = अथाह
। ना । हि = स्नान करना, ओतप्रोत होना । अब उडि अनत न
जा । हि = अब पुन: वासनाजन्य कर्मकर जन्म-मृत्यु के बन्धान मे । नही ।
पड़ेगा । 70. झूलै । = स्नान करे, अरसपरस होवे । 71. इस विशुध्द हृदय रूपी दरिया मे । ही वह चेतन आत्मरूपी माणिक रतन है ।
डुबकी लगाइये अपने आप मे । ताकि यहाँ उस अमूल्य रत्न को साक्षात् देख सके । 72. दादू दूसर नाँहि । = पर आतम और आत्मा वया इस तरह चेतन
दो है । आनन्दोपभोग के लिए ही ऐसी भेदवृत्तिा हो वस्तुत: इनमे । अभेद ही है । ।
73. यहाँ आत्मा शब्द सुरतिवृत्तिा का बोधाक है । 74. सोधाकर = तलाश कर, मिथ्या मे । से सत्य को समझ कर ।
75. पीव = पति, स्वामी, साक्षी आत्मारूप पति ।
पूरा = अखण्ड, माया अविद्या के आवरण से रहित । बाहर भीतर
= व्यापक, परिपूर्ण । 77. परगट = प्रत्यक्ष, साक्षात्, निरावरण । कहाँ
बतावे लोग = सकाम कर्म की प्रवृत्तिा वाले जप, तप, तीर्थ, यज्ञ, दान,
पुण्य आदि मे । उसको बताते है । । पर वस्तुत: वह उनमे । नही । है । 78. सकल = सर्वत्रा, व्यापक, विविधा कलामय मानव शरीर मे ।
। जाने = मत । 79. बाहर = ब्रह्माण्ड मे । । भीतर =
हृदय गुहा मे । । 80. सन्मुख सा । ई सार = स्वकीय आत्मा के सम्मुख वृत्तिा
को रखना यही मानव जीवन का सार है । जीधार देखूँ नैन भरि =
ज्ञान विज्ञानमय विचार नेत्राो । से जिस ओर देखूँ, ज्ञान, भक्ति, योग, वैराग्य
आदि किसी भी साधान मे । लगँ । 82. दादू एकै देखिए = विवेक विचार दृष्टि से विविधा
मिथ्यात्व का त्याग कर एक ही सत्य चेतन को देखिए । 83. ऐसा ब्रह्म विचार = पानी मे । दृष्टि खोलने से
सर्वत्रा पानी ही प्रतीत होता है इसी तरह आत्मा मे । वृत्तिा को लयकर
विषय-वासनाहीन वृत्तिा को आत्माकारवृत्तिा कर देना ऐसा ब्रह्म विचार सार्थक है
। 84. लीन आनन्द मे । = आनन्दरूपी प्रतिबि । ब मे । विलीन
रहे । सब जगह माया अविद्या रहित शुध्द रूप को देखे । । 86. सोवत भी सा । ई मिले = सुषुप्ति मे । भी वृत्तिा
स्वस्वरूप म । े लीन रहे । 87. दादू अद्भुत खेल = आत्मसाक्षात्कार का ऐसा आश्चर्यमय
खेल है । 88. लार = स । ग, साथ, पीछे । 89. अल्लह = अलह, मन, बुध्दि, वाणी से गृहीत न होने वाला ।
आली नूर = विशुध्द व्यापक चेतन । 91. बादल नही । = विकार रूपी बादल नही । , तहँ
= वहाँ ही आत्मदर्शनरूपी वर्षा बरसती है । शब्द नही ।
= वाणी की बाह्य वृत्तिा की निवृत्तिा होने पर मौनावस्थामय धयान मे ।
अनाहत धवनिरूप गर्जना सुनाई पड़ती है । बीज नही । = वासनारूपी
चा । चल्य चपला नही । , वही । ब्रह्मज्योति का प्रकाश होता है । इस स्थिति मे ।
पहुँचने ही से परमानन्द की प्राप्ति होती है । 92. भावार्थ = स्वस्वरूप की ज्योति प्रकाश प्रतिबि । बित
हो प्रकाशित हो तभी सहज अनन्त प्रकाश की ज्योति का पु । ज प्राप्त होता है,
नाचचि । तनरूप अमृत झरता है । उसका पान करिये । इसी तरह ब्रह्मरूपी वृक्ष पर
स्थितप्रज्ञ साधाक की वृत्तिा अमर बेल की तरह छा जाती है, वरण करती है । 93. अविनाशी अ । ग तेज का = शुध्द व्यापक चेतन का अ । ग
अविनाशी है माया अविद्या विकार से रहित है । वही अनूप तत्तव है । नैन
भरि = ज्ञानविचार विचार से स्थिर कर । सुन्दर =
कमनीय । सहज = निर्द्वन्द्व । 94. परम तेज = विकाररहित चेतन ज्योति । 95. निज = अपना, साक्षी चेतन । नैनउँ लागा ब । द
= अन्तर्मुखवृत्तिा द्वारा ध्यानावस्था । 96. भावार्थ = उपमाहीन सजातीय भेदवृत्तिा जो अपना चेतन
अधिाष्ठान है वही अनुपम फल है । उसमे । न तो बसनारूपी बीज है, न उसमे । वातादि
दोषजन्य, सत्व रजआदि गुणजन्म, स्थूल भौतिक आवरणमय बल्कल छाल है; वह फल अविद्या
दोषरहित परम मधुर है वही फल हमारे हृदय मे । ज्ञान विज्ञान नेत्राो । द्वारा
स्थित है । 97. हीरे-हीरे तेज के = हीरो । के ढेर से भी अधिाक स्वच्छ
प्रकाशमय । निरखे = देखे । त्रिाय लोइ =
तीनो । लोको । मे । । स । त जन = आत्मजिज्ञासु साधाक । 98. नूर मा = शुध्द स्वरूप मे । । नैन =
विवेक-विचारमय नेत्रा । 100. अमरा पुरी निवास = निख्रवकल्प समाधिा मे । स्थिति ।
निज दास = निर्वासी, निष्काम साधाक । 101. लेखै = सफल । 102. जरै = जरण करै, शुध्द माया । श को लीन कर लेने वाला ।
झिलमिल नूर = प्रकाशित शुध्द स्वरूपी । जरै
= जरणायुक्त साधाक व चेतन । पु । ज = समूह रह । त
= सब जगह व्यापक । 103. बेहद = असीम । 104. वार पार = आदि अन्त, कार्यकारण भाव से वह वार पार
रहित है । कीमत नहि । = तदाधारजन्य जगत् की वस्तुओ । का ही
मूल्य नही । है तब उस कर्ता का मूल्य तो किया ही क्या जा सकता है? 105. निर्संधा = स । ब । धा रहित । 106. निज = असक्त चेतन । इकलस = एक रस ।
107. भावार्थ = विशुध्द चेतन का ही सर्वत्रा प्रकाश है उसी
शुध्द स्वरूप अपने मे । निवास करते हुए साधाक सन्त स्वस्वरूप ज्योति का
आनन्दोपभोग कर रहा है । नूर, तेज, जोति, यह अस । ग समष्टि चेतन के अर्थ मे ।
प्रयोग किये गये है । । 108. दादू खेले सेज = अन्त:करण की त्रिापुटी रूपी सेज पर
सन्तजन साधाक खेलते है । । 109. इस साखी मे । तेजपु । ज साधय, साधाक, साधान तीनो । के विशेषण अर्थ मे ।
प्रयुक्त हुआ है । सुन्दर = साधाक की वृत्तिा । क । त
= साधय, स्वामी । सेज = अन्त: करण । तीनो । के
विशुध्द स । योग होने पर ही अखण्ड बसन्त का समय बनता है । 110. कौतुक = आश्चर्य । 112. रस ही रस बरषि है = आत्मानन्द प्राप्त होने पर ही
परमानन्द की वर्षा होती है । 113. घन बादल बिन बरषि है = वासना के बादलो । के बिना
शुध्द हृदय मे । मन, प्राण, सुरति की एकता से ज्ञानामृत की वर्षा बरस रही है ।
साधाू = आत्म-अभ्यासी । 115. अविगत = मन, इन्द्रिय, वाणी से परे । अलख
= स्वय । प्रकाश । अन । त = देशकालशून्य । 116. कामधोनु = कामना की पूर्ति करने वाला परमेश्वर ।
अकल = कलमधार्म से रहित । एक = सजातीय
विजातीय भेदहीन । धाार अनेक = कई धााराएँ, ज्ञान, भक्ति, योग
वैराग्य आदि विविधा साधानरूप धााराएँ । 117. प्यास = तीव्र जिज्ञासा, भावना । 118. सुषमन लागा बन्द = सुषुम्ना नाड़ी द्वारा प्राण स्थिर
कर समाधिा मे । मन को बन्द करना । 119. अगम-अगोचर जाय = अगम = षट्प्रमाण के विषयरहित ।
अगोचर = इन्द्रियातीत जो तत्तव है उसमे । वृत्तिा लगा ।
तेज पु । ज की गाय = शुध्द चेतनरूपी कामधोनु । 120. बछरा = तीव्र जिज्ञासु साधाक । 121. आतम = अन्त:करण । 122. भावार्थ = आत्मरूपी वृक्ष शाखा और जड़ रहित है,
(साधाारण वृक्षो । की तरह वह) धारती पर नही । है । उसका फल अविचल अमर अनन्त है,
सो दयालजी कहते है । खाइए, अर्थात् हमको खाना चाहिए । 123. धर अम्बर = आकाशादि भूतगण । अविनाश =
नित्यस्थायी । 124. रज वीरज = स्थूल भौतिक उपादान । अजर
= जरारहित । अमर = काल रहित । गहिता = ग्रहण
करता । 125. उत्पति = अभिव्यक्ति । परले = लय,
विनाश । रहिता = मायादि उपाधिा रहित । रमता
= समष्टि व्यापक । 126. प्राण = अन्त:करण रूपी वृक्ष की सुरतिवृत्तिा जड़ है,
शुध्द चेतन उसका आश्रय है; उसी मे । वृत्तिा का विलय होने से आनन्द और
अमरतारूपी फल-फूल लगते है । । इस दशा मे । पहुँचे हुए साधाक फिर सूखे ना । हि ।
= जन्ममृत्यु नही । पाते । 127. ब्राह्मी अवस्था वाले जीवन्मुत्ता, आत्मनिष्ठवृत्तिा वाले साधाक तथा
देहाभिमानी पुरुष के क्या-क्या लक्षण है? सुजान = विज्ञ
सद्गुरु बताइए । 128. देहाभिमानी के लक्षण कहे गये है । । 129. इसमे । आत्मनिष्ठ साधाक के लक्षण कहे गये है । । सहज
= निर्द्वन्द्व, दो-दो द्वन्द्वज गुणो । का त्याग । शील =
अष्टविधा मैथुन रहित । स । तोष = यथालाभतुष्टि । भाव
= श्रध्दा । भक्ति = नवधाा, राग रहित दृढ़ विश्वास ।
130. इसमे । ब्राह्मीभाव प्राप्त पुरुष का लक्षण बताया है । शून्य
= अवस्था । दादू देखणहार = इस अवस्था वाला केवल
द्रष्टा मात्रा है । क्रिया-कर्म का अनुबन्धा द्रष्टा मे । रहता । 131. इसमे । मुसलमानो । की चार अवस्थाओ । के विषय मे । प्रश्न किया है ।
मौजूद खबर = वर्तमान की अवस्था । माबूद खबर
= ब्रह्मवादी के लक्षण । अरवाह खबर = आत्मवादी के लक्षण ।
वजूद = देहाधयासी के लक्षण ज्ञात है । । मकाम =
म । जिल या अवस्था । चे चीज = क्या चीज है ।
सजूद दादन = मै । सेवाभाव से आपके समक्ष इनको जानने को उपस्थित हुआ है
हूँ, आप बखसीस करे । = इसके लक्षण समझाये । । 132. नफ्स = शैतानमन मै । । गालिब = नाना
तरह की वासना के विचार । किब्र = चुगली या दूसरे की निन्दा,
ये उसके कब्जे मे । रहते है । , आप बखसीस करे । । गुस्सा =
क्रोधा । मनी एस्त = अह । कार उपस्थित है । दुई
= द्वैतभाव । दरोग = झूठ या द्वेष । हिर्स
= चाह । हुज्जत = शैतानी तथा झगड़ने की प्रवृत्तिा
चालू रहती है । नाम = खुदा की याद । नेक =
भलाई ये उसकी नष्ट हो गईहै । । 133. इश्क = प्रेममय सात्विकवृत्तिा । इबादत
= आत्मचर्चा; ब । दग = भक्तिभाव । यगानम =
एकता । इखलास = सबके साथ प्रेम व्यवहार ।
महर = दया, मेहरबानी । मुहब्बत = रागमय स्नेह ।
खैर = बाँटकर खाना । खूब = शोभा, ख्याति, यश
। नाम = आत्मचि । तन । नेक = उपकारमयवृत्तिा
निवास करती है । अर्थात् आत्मनिष्ठ पुरुष इन गुणो । से युक्त होता है । 134. यके नूर = एक ही शुध्द स्वरूप जो । खूब खूबा
। = शोभनीय से भी शोभनीय है जिसके । हैरान =
आश्चर्यकारक । दीदन = दर्शन कर रहे है । । अजब
= वचनातीत श्रेष्ठ । चीज = वस्तु । खुरदन =
भज रहे है । , पा रहे है । । वे इस तरह पियालए =
आत्मानन्दरूपी प्रेम के प्याले पी । मस्तान = मस्त है । ,
मग्न । उन्हे । किसी सुख-दु:ख की भावना नही । सताती है । 135. स । सार ईश्वर की राह से दूर है अचेत है, पहले शरीयत की अवस्था मे ।
लाने के लिए चार उपदेश अच्छी तरह समझने चाहिए । हलाल, हराम, भलाई, बुराई के भेद
को ठीक-ठीक जान ले । वे ही बुध्दिमान है । । 136. कुल फारिक तर्क दुनिया । = दुनियावी सब भोग वासनाये ।
त्याग कर दे । । हर रोज हरदम याद = सर्वदा सबकाल
श्वास-प्रश्वास मे । आत्मचि । तन करे । । अल्लहआली इश्क आशिक
= शुध्द श्रेष्ठ ब्रह्म के रागे रहित प्रेम का आशिक बने । दरूने फरियाद
= विशुध्द अन्त:करण से वासना रहित वृत्तिा द्वारा पुकार करे, धयान
करे; वही सच्चा आत्मनिष्ठ है । 137. पानी, आग, आकाश, धारती ये चारो । ईश्वर की ही सूरते । है । । । जो
साधाक अपने साधय की स्तुति, प्रार्थना करता है वही साधाक मारफत म । जलि मे । है
। 138. भावार्थ = जिस साधाक ने अपने शुध्द स्वरूप का दर्शन
कर मानव जीवन का फर्ज अदा किया । जिसने गर्भावस्था की प्रतिज्ञा पूरी कर दी ।
जिस साधाक के शुध्द अन्त:करण मे । समष्टि चेतन का उदय हुआ है । अर्थात्
व्यष्टि-समष्टि का सजातीय भेद समाप्त हो गया है । वही साधाक हकीकत म । जिल को
पहुँचा हुआ ब्राह्मी अवस्था वाला समझना चाहिए । 139. चहारम । जिल = चारो । अवस्था । बयान गुफतम
= वर्णन की । दस्त करद: बूद = साधाक मानव इस पर धयान
दे । । पीरा । = गुरु । मुरीदा = शिष्य ।
खबर करद: = बतावै । जा = यह । राहे
= रास्ता । माबूद = ब्रह्म का है । 141. अनदिन = तमाम दिन, सर्वदा । 142. यश कीरति करुणा करै = उसका सुयश, उसी का गुणगान व
उसकी प्रार्थना करे । । 143. परम तेज = समष्टि चेतन । नैनहुँ =
ज्ञान विचार के नेत्राो । से । 144. अस्थान = म । जिल, दशा, अवस्था । 145. प्रेमी साधाक स । सार मे । रहते हुए भी उसी मे । मस्त रहते है । । उनकी
साधाना उनका आहार अपने स्वरूप का परिचय ही है । चार, दश ऐसे चौदह लोक की
सम्पत्तिा से उन्हे । क्या काम । जिसको अपना दिलदार मिल गया है । 146. पुलक = पुलकित, खुश । 147. विगसि विगसि = प्रफुल्लित हो । 148. देखि-देखि = विचार के नेत्रा से विचार-विचार । 150. आतम सुमिरण = वृत्तिामय चिन्तन । एक रस
= अभेदरूप परिचय । विवेक = ज्ञान । 151. माटी के मुकाम का = देह की रक्षा का । अरवाह
= प्रतीक, धयान । आपै । आप = अह । ग्रह धयान । 152. अस्थल = अधयास । सब व्यापै । =
वासना विकारजन्य प्रवृत्तिायाँ । आगे रस आपै = आत्मनिष्ठा के
आगे एक स्वस्वरूप का आनन्दरस ही शेष रहताहै । 153. सुरति = ध्यान, ख्याल । बिसरे = भूल
जाय, त्याग दे । 154. नीका = भला, अच्छा । फीका = नीरस,
सारहीन । 156. चर्मदृष्टि = नानाभाव से स । सार को देखना ।
आतम दृष्टि = सात्विक ज्ञान, जड़-चेतन सबमे । आत्मभाव रखे ।
परचै = साक्षात् । दादू पलटे दोइ = देहदृष्टि तथा
आत्मदृष्टि दोनो । मे । पलटाव हो जाता है । ब्रह्मदृष्टि ही अपरिवर्तनीय है ।
158. जिस साधाक को घट परचै = धाारणा द्वारा प । चभूत परिचय
सम्यक् हो जाता है वह अपने शरीर के सुख-दु:खादियो । की तरह अन्य शरीरो । के
सुख-दु:ख जानने लगता है । जिस साधाक के प्राणसिध्दि हो जाती है वह अपनी भूख-
प्यास आदि की तरह अन्य शरीरो । के भूख-प्यास भी जानने लगता है । जिस साधाक को
ब्रह्मपरिचय = आत्मसाक्षात्कार हो जाता है वह औरो । को भी
आत्मपरिचय कराने मे । समर्थ हो जाता है । ये तीनो । स्थितियाँ आश्चर्यकारक है ।
। 159. जल पाषाण ज्यो । = भेदवृत्तिा के साथ । पाणी
लौ । ण ज्यो । = एक रूप, तादात्म्य भाव से । 160. अलख नाम अ । तर कहै = बिना जीभ के सुरति वृत्तिा
द्वारा वृत्तिा मे । ही आत्मचि । तन करे । सिवली ज्यूँ रस पीजिए, जानि सके नाँहि । कोई । प्रगट करे मन सूर ज्यूँ, सब जग बैरी होई । 1 । 161. छाड़ै सुरति शरीर को = वृत्तिा देहाध्यास का तथा वासना
का परित्याग करे । 162. पिव के पस्से होइ = पीव साधय या स्वस्वरूप का
साक्षात्कार हो जाने पर सुरति वृत्तिा का शरीर भी स्वस्वरूपमय बन जाता है
अर्थात् वृत्तिा तदाकार हो जाती है । जब इन्द्रियाँ और मन एक दशा मे । स्थिर हो
जाते है । वही । सच्चा सुस्मरण समझिए । दादू दास कबीरजी, पीपोजी पुनि सोइ । जहाज तरी प । डो । जयो, च । दवो प्रत्यक्ष जोइ । 1 । 163. आप विसर्जन होइ = देहाधयास, वासना तथा अह । कार का
निवारण हो जाय । मन पवना प । चो । बिलै = मन, प्राण,
इन्द्रियाँ, स्वासोछ्वास, शब्दादिविषय का विसर्जन कर दे । 164. जहँ = शुध्द अन्त:करण मे । । अगम =
मन वाणी इ । द्रियातीत । 165. कौ । ण = कौन । 166. विलै = लीन 167. तन-मन = इन्द्रियाँ अन्त:करण । आत्म कमल
= शुध्द अन्त:करण । ब । दग = सेवा, साधाना । 168. कोमल कमल = शुध्द हृदय कमल । पैसि करि
= वृत्तिा द्वारा मन का प्रवेश कर । 169. नख-शिख सब सुमरिण करे = अन्तनिष्ठ वृत्तिा द्वारा
चिन्तन का अभ्यास पूर्ण हो जाय तब सम्पूर्ण शरीर स्मरण करने की अवस्था मे । आ
जाता है । अर्थात् वृत्तिा द्वारा अनवरत आत्मचिन्तन होता रहता है यही नख-शिख
चिन्तन है । foगसे = प्रसन्न हो । 170. अ । तरगति = अन्तर्मुखवृत्तिा । हाजति
= चाह । 171. सहजै । = निर्विकल्वृत्तिा से । चित
= व्यष्ठि अन्त:करण । चित = समष्टि अन्त:करण । 172. आप अनन्त = उस व्यापक चेतन से । सदा वसन्त
= परमानन्द । 173. शब्द अनाहद हम सुन्या = वृत्तिा और प्राण की स्थिरता
द्वारा अनहद शब्द को हमने सुना । 174. भावार्थ = अब एक व्यापक चेतन मे । मन लग गया । हमारी
यही चाह थी । खुदा के काम के लिए ही यानी उस व्यापक चेतन की प्राप्ति के लिए ही
दिन-रात धयान मे । लगे हुए है । । 175. माला सब आकार क = व्यापक समष्टि चेतन की माला धयान जप
कोई तीव्र जिज्ञासा ही करता है । करणी गर = कर्ता पुरुष । 176. सब घट सुख रसना करे = सम्पूर्ण शरीर को रसना कर ले-मन
इन्द्रियाँ सब अन्तर्मुख कर वृत्तिा को स्थिर कर ले । अगम =
मन वाणी 'से परे । अगोचर = इन्द्रियातीत । ठाम
= स्थान, जगह । 177. स्थिर = निर्विकल्प । प । चो । पूरे सोइ
= इन्द्रियो । को विषय विरत करे स्वस्वरूप की ओर लगाओ । 178. आतम आसान राम का = अन्त:करण विशुध्द कर राम =
स्वस्वरूप का । उसको आसन बनावै । तभी हरि आतम का स्थान परमेश्वर समष्टि चेतन उस
अन्त:करण मे । प्राप्त होते है । । 179. यहु आर । भ यहु काम = साधाक स्वस्वरूप या चेतन द्वारा
वृत्तिा स्थिर करे यही उसका काम है । समष्टि चेतन व्यष्ठि के भ्रम अधयास वासना
की समाप्ति करे यह उसका काम है । 180. अरस-परस विश्राम = एक ही एक मे । स्थिति । 181. अविगति की आराधा = उस मन, वणी, इन्द्रियातीत की
आराधाना से ही साधुजन अपने आपको अनुभूति करते है । । 182. दीदार = एकत्वाभावरूप । 183. साधु समाना राम मे । = साधाक का व्यष्ठि समष्ठि मे ।
समा गया । 185. ह । स = सन्त साधाक । 186. दादू मीठा हाथ ले = हृदय मे । अति स्नेह सहित
ईश्वरचिन्तन कर । 187. मीठा = विषयवासना रहित । खारे =
विषय वासना । 188. मीठै-मीठै कर लिये = निरुपाधिाक साधय ने साधाक के मन
इन्द्रिय प्राण को उनकी च । चलता विषय चाह गति रूप कड़वापन दूर कर मीठे बना लिया
। मीठा मा । है । बाहि = ये सब शुध्द बने हुए, इन्हे ।
अन्तर्मुख करो । इस तरह शुध्द वृत्तिा से स्थिरता प्राप्त कर उस अखण्ड मीठे मे
। मिल जाओ । 189. परसै । = स्पर्श करे, तादात्म्य हो । 190. हीरा = मनुष्य शरीर रूपी तरन । पारिख
= परीक्षक, विचारशील । 191. अ । धो = विषय-विकार से ज्ञान नेत्रा रहित । 192. मीरा । = समष्टि व्यापक शुध्द चेतन । महर
= करुणा, दया । परदे = अज्ञान, अधयास के आवरण से ।
लापर्द = अज्ञानअविचार के परदे से रहित । दीदार = स्वस्वरूप ।
दर्द = वेदना, जन्म मृत्युजन्य पीड़ा । 195. एक मन = समष्टि व्यापक मन । 196. तिमर = अज्ञानजन्य अन्धाकार । सब जग देखे सोइ
= वही सब स । सार को आत्मरूप मे । देखने मे । सफल होता है । 197. अरवाह = साधाक । ईमान = विश्वास की जगह ।
साबित = अखण्ड, एकाग्र । रहिमान = अपना रूप । 198. अल्लह आप ईमान है । = वह सर्वव्यापक चेतनाशक्ति जो
भगवान् है वह हमारे ईमान = दृढ़ विश्वास मे । है । 199. प्राण पवन ज्यो । पतला = प्राण की क्रिया को
प्राणायाम की साधाना द्वारा अत्यन्त सूक्ष्म बनाना अर्थात् कु । भक की स्थिरता
की साधाना कर समाधिा मे । निरत होना । क्यो । ही गह्या न जाय = जब प्राण समाधिा
मे । स्थिर हो जाय तो फिर स । सार को किसी वासना से गृहित न हो सकेगा । 200. नूर तेज = परम ज्योति । दृष्टि =
काल की दृष्टि मे । । मुष्टि = माया के बन्धान मे । । 201. भावार्थ = उपयुक्त साधाना द्वारा सर्वात्मना
ब्रह्मीभाव को प्राप्त होने वाले कोई विरले है । । भेदवृत्तिा से सूक्षम शरीर
को साथ लेकर मिलने वाले बहुत है । । 203. अनुभव = स्वसाक्षात्कार । निश्चल =
चल स्वभाव रहित । निर्मल = अविद्यादि मल रहित ।निर्वाण
= काल कर्मादि प्रहार रहित । अगम = षट्प्रभासे
अज्ञात । अगोचर = इन्द्रियातीत । ठाम = उस
निर्भय नाम के ये स्थान है । । 204. अनुभव वाण = ब्रह्म वाणी, परिचयसाक्षात् ।
अगह गहै = जो अगह है उसको उसी रूप मे । गहै = समझे । अकह कहै
= जो अनिर्वचनीय है उसका उसी रूप मे । चिन्तन करे । अभेद-भेद
= अभेद के निश्चयरूप भेद को पाना । 205. अकह कहात = अनुभव मे । स्वस्वरूप का निश्चय प्राप्त
कर लेना यही अकह = अकथनीय बात कही जाती है । 206. भय = सप्त प्रकार के भय । भ्रम =
पाँच तरह की भ्रान्ति । 207. अनुभव = साक्षात् परिचय । 208. वाणी ब्रह्म क = परा वाणी । राम अकेला रहि
गया = अभेद निश्चय ज्ञान होने पर साधाक और साधान दोनो । समाप्त हो गये
। जो स्वस्वरूपी साधय राम था वही रह गया । 209. आतमा = जिज्ञासुजन । राखे मूल =
मानव शरीररूपी मूल व नामचि । तन रूपी मूल की रक्षा करे । काया कूल
= अन्त:करण रूपी सरोवर के तट पर । 210. वर्िवत्तावाद का निरूपण है । साखी के तीन चरण परावचन है । चौथा दादूजी
का । मे । ही मेरा थान = मेरा आश्रय मे । ही हूँ । 211. आसरे = आकाश, शून्य । 212. मेरे तकिये = मेरे अधिाष्ठान । 213. मेरी जाति = जाति तथा जातित्व । अ । ग
= अ । गा । गी । परस । ग = प्रकरण, स । वाद । 214. सारिखा = एकसा, समान । 215. चैन = शान्ति । ऐन = प्रत्यक्ष
स्वरूप है । 217. सर्वंग = सबका आधाारभूत । 218. ज्योति प्रवानै = चेतन का प्रकाश ही प्रामाणिक है ।
ऐन = स्वय । , साक्षात् । सोई भल जानै = वही समझदार है,
जानकार है जो उस व्यापक शक्ति को इस रूप मे । जानता है । कोई यहु मानै
= कोई सच्चा साधाक ही यह समष्टिस्वरूप का परिचय प्राप्त करता है ।
दादू धयानै = दादूजी कहते है । स्वस्वरूप का समष्टि के साथ इस
तरह स । ब । धा मान इसी भावना मे । निर्भर होता है वही सच्चा धयान है । 220. गहणा = ग्रहण करना । सारे =
श्रेष्ठ, सारभूत । ऐन हमारे = बाह्याभ्यन्तर । सँवारे
= शृ । गार करे, सजावे । खेवे = खेवट, निर्वाहक ।
219. वर = पति, स्वामी, साधय उपास्य । म । झ
= उसी मे । । बसेरा = निवास । नूर हि खाता
दादू तेरा = सच्चा साधाक इस तरह समष्टि मे । आपके स्वरूप को समझ शुध्द
चेतन की ही उपासना मे । लगता है वही उसकी खुराक है । 221. नूर = शुध्द । अरवाह = साधाक ।
माबूद । = शुध्द चेतन, परमेश्वर । 222. तह । = उस शुध्द साधाक के हृदय मे । । खालिक
= विशुध्द समष्टि चेतन । खिदतमगार = विरही साधाक,
सेवग । हजूर । = हाजिर, सतत अभ्यासरत । 224. एक पग = एक रस, स्थिरवृत्तिा । 225. तेज = सत्वप्रधाान । कमल = कोमल,
करुणापूर्ण । दिल = अन्त:करण । रहमान । =
दयालु परमेश्वर । समान । = समझदार । 226. तहाँ = शुध्द हृदय मे । । हजूर =
खवासी । सिजदा = प्रणाम, विनय । 227. खाक = अज्ञान, विषय-विकार से मलिन । नूर
= विशुध्द दिल । मझि =भीतर । 228. हौज = आनन्दरस का स्थान । गुसल =
स्नान । उजू = प । च अवयव, पाँचो । ज्ञानेन्द्रियो । को
विषयविस्त करना वही उजू है । नमाज = निवेदन, प्रार्थना । 229. प । च जमात = पाँच ज्ञनेन्द्रियाँ, ये ही
जमात = नमाज पढ़ने वालो । का समूह है । सिजदा =
नमस्कार । तहँ = शुध्द अन्त:करण मे । । 230. तसबीह = माला । रोजा = व्रत ।
एक = एकत्वभाव । आपै आप = अपने स्वरूप मे ।
अपनी स्थिति । 231. अठे । = आठो । , सब समय । इकटग = सब
एक तरफ देखते रहना । अर्श = हृदय प्रदेश । 232. इबादत = पूजा । निर्वाहि = निभाना,
पूर्ति करना । 233. भावार्थ = शुध्द हृदय मे । आठो । पहर अन्तर्मुख
वृत्तिा से स्थिर रहना । वे ही साधाक अपने स्वरूप को देखते है । तथा वे ही उस
स्वस्वरूप से गाहाये = बाचतीत करते है । । 234. अर्श = शुध्द दिल मे । । पिरी प । सनि
= अपने प्रिय आत्मा को देखता है । पसे = दर्शन ।
ल । हनि = ले रहे है । । 235. जिन्ही । = जिनकी । रूह = आत्मा ।
र । हनि = रह रहा है । पसे तिन्न के = उनके
दर्शन करने चाहिए । गुइँयू गाल्ही क । नि = जो गुप्त अदृश्य
आत्मा की बात करते है । अर्थात् अदृश्य आत्मा को प्राप्त करते है । । 236. भावार्थ = जो साधाक आठो । पहर अपने अन्त:करण मे ।
अपने स्वरूप को देखने की चाह मे । लगे है । । असा । खबरिडीन्ह
= जिन्हो । ने हमे । उस आत्मस्वरूप की खबर यानी उपदेश दिया है । दादू
पसेतिन्नके = दादूजी कहते है । उन्ही । के दर्शन करने चाहिए । 237. भावार्थ = सब समय अपने शुध्द दिल मे । वजी जे
गाहीन = वृत्तिा को लगाकर अपना अवगाहन कर रहे है । , उन्ही । के दर्शन
करने चाहिए । केतेई आहीन = और दिखावटी साधाक तो न मालूम कितने
है । । 238. प्रेम = आसक्ति रहित स्नेह । दर =
सत्स । ग या दर = हृदय मे । । दीदार = दर्शन दे । 239. भावार्थ = दरगाह, सत्स । ग, आत्मशास्त्रा, योगभक्ति
आदि साधानो । द्वरा सलू । ना = रस । इश्क =
अनासक्त प्रेम, आशिका । = साधाक जिज्ञासु को दिया है ।
दर्द = तड़फन सहित । मुहब्बत = स्वस्वरूप की
तीव्र चाह वही है प्रेम रस उसका प्याला = हृदयरूपी प्याला
भरकर । पीया = पान किया । 240. जहाँ = मस्त अवस्था । 241. भावार्थ = आसिक जिज्ञासु साधाक अरस शुध्द दिल मे ।
शुध्द स्वरूप का प्याला पी रहे है । । वे सब समय अल्लाहदा =
अपने स्वरूप का मुँह देख जीते है । अर्थात् सर्वदा अन्तर्मुख वृत्तिा द्वारा
आत्मनिष्ठ रहते है । । 242. अमल = साधाना के व्यसन वाले । अलख =
विशुध्द व्यापक चेतन । दरीबै = दरबार, कचहरी मे । । 243. राते = अनुरक्त । माते = मस्त,
दीवाने । ल्यौ । लाय = वृत्तिा को लय कर समाधिाअवस्था मे । ।
244. अविचल अविनाश = यहाँ भक्त के विशेषण है । ।
परकाश = प्रगटी, उत्पन्न हुई । 245. मित = पार 246. अविगत = लेखे रहित । सहस = हजार ।
मुखा । = मुँह से । 247. निर्गुण = माया अविद्या अ । श रहित । परमाणि
= प्रमाण । स । त = नारद, दत्ताात्रोय, जड़ भरतादि ।
251. सुख = निरतिशय सुख । 253. अवलम्बन = आधार, आश्रय । 254. आदि अ । त = जन्म, मृत्यु, वृत्तिा के उदयकाल मे । ,
वृत्तिा के लयकाल मे । । एक = भेद रहित । निज
= साक्षी, चेतन । भेव = भेद, खबर । 255. अपर । परा = जिससे भिन्न दूसरा नही । । वार
पार = आदि-अ । त । छेव = किनारा । 256. भीतर पैसि कर = वृत्तिा अन्तर्मुख कर । घट के
जड़ै = इन्द्रियो । की प्रवृत्तिा रोके । अविगत घाट =
परमात्मा या स्वस्वरूप की प्राप्ति का यही रास्ता है । 257. घट = शुध्द अन्त:करण । 258. पूजणहारे = पूजनीय, उपात्य । माँड =
आरम्भ की । 259. उलट समाना आप मे । = मन प्राण इन्द्रियो । को विलय कर
स्वस्वरूप मे । स्थित हुआ । 260. बेधो = घायल हुए, विरहयुक्त हुए । 261. अगम-अगोचर ठाम = जहाँ पहुँच नही । , इन्द्रियो । का
विषय नही । ऐसे ठाम = शुध्द अन्त:करण मे । । जीवण-मरण
का नाम = इस स्थिति मे । पहुँच जाने पर जन्म-मृत्यु नाम शेष ही रहता
है । 263. परिचै = साक्षात् स्वस्वरूप । 265. बूझै = जाने, समझे । विरला = कोइ एक
। 268. सत्यराम = निर्गुण ब्रह्म है वही सत्य है । जिसका
अन्त:करण स्वस्वरूप की ओर लगा है वही साधाक वैष्णव है ।सुबुध्दि
भूमिस्थितप्रज्ञ = बुध्दि है वह शुध्दभूमि है । स । तोष स्थान
= वासनारहित वृत्तिा की दशा वही स्थान-घर है । मूलमन्त्रा
= समष्टि का आधाात्चेतन जो मूल सबका आधाार है उसका चि । तन ही मन्त्रा
है । मनमाला = शुध्द मन का अन्त:वाह वही माला है ।
गुरु तिलक = सतगुरु का सत्य उपदेश वही तिलक है । सत्य स । यम
= साधाक सत्य का अजय कभी न त्यागै वही स । यम है ।शील शुच्या
= अखण्ड ब्रह्मचर्य की रक्षा यही पवित्राता है । धयान धाोत =
वृत्तिा की एकाग्रतारूपी धाोती धाारण करना ।काया कलश
= मानव शरीर है यही पूजा के जल का कलश है । प्रेमजल = इस कलश
मे । आसक्ति रहित शुध्द प्रेमरूपी जल भरना । मनसा म । दिर =
वृत्तिा मे । स । त्वोद्रेक स्थिर करना यही मन्दिर बनाना है । निर । जन
देव = इस मन्दिर मे । माया अविद्या उपाधिा रहित शुध्द चेतन की
प्रतिष्ठा करना । आत्मा पात = इन्द्रियो । को अन्तर्मुख करना
यही तुलसी दल चढ़ाना है ।पहुप प्रीति = अनन्य प्रेम यही पुष्प
चढ़ाना है । चेतना च । दन = चित्ता की सचेष्ठता यही च । दन है
। नवधाा नाम = नौ प्रकार की भक्ति यही नाम है । भाव
पूजा = अगाधा श्रध्दा द्वारा पूजा करना । मति = स ।
कल्प रहित बुध्दि है वही पूजा के पात्रा है । । सहज समर्पण =
वृत्तिायो । को निर्द्वन्द्व करना यही समर्पण है । शब्द घण्टा
= प्रणवधवनि रूप घण्टा है । आनन्द आरत = आन । द की अनुभूति ही
आरती है । दया प्रसाद = स्वस्वरूप का परिचय प्राप्त होने की
दया यही प्रसाद है । अनन्य एक दशा = लयवृत्तिा की स्थिरता
अर्थात् समाधि दशा यही एक दशा है ।तीर्थ सत्स । ग = इस साधाक
के सन्तसमागम ही तीर्थ है । । दान उपदेश = आत्मोपदेश ही यहाँ
दान है । व्रत स्मरण = आत्मचिन्तन यही इस साधाक के लिए व्रत
है । षट्् गुणज्ञान = अधययनाधयापन दान देना-लेना यज्ञ
करना-कराना इन षट्गुणो । की जगह सत्य ज्ञान ही षट््गुण स्थानीय है ।
अजपा जाप = अच । चलवृत्तिा मे । स्वरूपस्थिति यही अजपाजाप है । ।
अनुभव आचार = स्वरूपनिश्चय साक्षात् परिचयरूप अनुभव यही साधाक
के आचार है । । मर्यादा राम = सार्वभौम आत्मा की उपादेयता से
भिन्न किसी कर्म का व्यापार न करना यही मर्यादा है । फलदर्शन
= इस पूजा का परिणाम है अपना साक्षात्कार । अभि अन्तर सदा निरन्तर
= अन्त:करण मे । सर्वदा सब काल । सत्य सौ । ज दादू वर्तते
= दादू जी महाराज कहते है । -जो सच्चे साधाक है । उनके यही सच्ची सौ ।
ज सामग्री पूजा की है जिसको सन्तजन उपजाते है । । अन्तरगत पूजा
= अन्त:करण मे । पूजा करने की विधिा का आत्मा उपदेश; साधाक के लिए यही
वास्तविक उपदेश है । 269. जक = आनन्द । सेज = हृदय मे । ।
पड़दा = अन्तराय, आवरण । 270. सेवग बिसरे आपकू । = साधाक अपने कर्तृत्व
भोक्तृत्वपने को भूल जाय । तत = तत्तव । 271. रसिया = अमली, व्यसनी । एक रस =
एकाग्रचित्ता समाधिास्थ । 272. जह । सेवक तह । साहिब बैठा = सेवक साधक अपनी साधना मे
। निरन्तर लग जाता है तब उस सेवक के अ । त:करण मे । साधक साध्यस्वरूप आ बैठता
है, प्रगट हो जाता है । 273. सौ । प्या सब परिवार = पाँचो । ज्ञानेन्द्रियाँ चारो
। अन्त:करण और प्राणरूपी परिवार उसी के समर्पण कर दिया । 274. विलसणा = भोगना, सहवास मे । आना । इक ठाम
= शुध्द हृदयकमल मे । । 275. म । गल चहुँ दिश = चौदह त्रिापुरी, दश इन्द्रियाँ,
चतुवि । धा अन्त:करण । 276. मस्तक मेरे पाँव धार = मेरे विविधा प्रकार के अह ।
काररूपी मस्तक पर पाँव रख उन्हे । दूर कर । 277. ये चारो । पद पिल । ग के = अह । कार की निवृत्तिा,
अन्त:करण की शुध्दि, वृत्तिा का तादात्म्य और स्वरूप ये उस पल । ग के चार पाये
है । । हेज = अति अनुराग । 278. आतम = साधाक । 279. प । च पढाइ = प । चेन्द्रियो । को अन्तर्मुख कर ।
तन मन चन्दन = शुध्द शरीर शुध्द मनरूपी चन्दन । 280. देह निर । तर होय = शरीर ही मे । सब काल की जा कसती
है । 281. सब गुण = सत्व रज तम से । निर । तर
= व्यापक । 282. पियारे राम = परम प्रिय आत्मा को । विलम्ब
= देर । तन मन मनसा सौ । पि सब = रज तमादि गुणमय
शरीर, कामादि विकार युक्त मन, अस्थिर मनसा बुध्दि इन सबके दोष दूर कर उस आत्मा
को समर्पित कर । 283. सान = मिला, एक कर । मति बुध्दि प । चो ।
आतमा = मननवृत्तिा निश्चयवृत्तिा तथा पाँचो । ज्ञानेन्द्रियाँ । 284. पवन = प्राण । प । च = प ।
चज्ञानेन्द्रियाँ । अकेला = अस । ग । दूजा =
द्वैत, भेदवृत्तिा । 285. समेट कर = अ । तर्मुखकर । अपूठे =
पीछे-भीतर । आणि = लावो । स । ग = सच्चा
साथी । 286. मनचित मनसा आत्मा = मन, चित, प्राण मे । जो चिदाभास
है वही आत्मा है । अपना रूप है, उसी मे । सहज सुरति = स्थिर वृत्तिा करिये ।
पूरले = भरले, व्याप्त करले । धारती अम्बर =
प । चभूतात्मक विकार । 287. भीगे = तर हो, सराबोर हो । 288. समाइ ले = विलय कर ले । बाँधिा ले =
लगा लै । 289. सहजै । सहज समाइले = सहज समष्टि चेतन मे । अपना वासना
विकार के अनुबन्धा से रहित हुआ सहज चेतन सम्मिलित कर ले ।ज्ञानै बन्धया
ज्ञान = बन्धया विकल्प रहित बुध्दिजन्य स्वस्वरूप ज्ञान को समष्टि
ज्ञान मे । सम्मिलित कर ले । सूत्रौ । सूत्रा समाइले = समष्टि
व्यष्टि के स्वभाव मे । स्वभाव को मिला ले । 293. मन तहाँ नैना जाय = शुध्द अन्त:करण है वही । विवेक
विचार के नेत्रा जाते है । । आतमा = वृत्तिा । 294. इस साखी मे । समाधिा अवस्था का दिग्दर्शन है-जब वृत्तिा अन्तर्मुख हो
प्राण के साथ स्थिर हो जाती है तब मन प्राण वाणी के व्यापार रुक जाते है । । उस
स्थिति मे । एक राम रतन-स्वस्वरूप ही शेष रहता है । 295. दादू परगट ऐन = जब स्वरूप का प्रत्यक्ष परिचय हो जाता
है तब स्थूल सूक्ष्म प्रप । च के अन्य सब व्यापार रुक जाते है । । 296. दादू अ । ग अपार = दादूजी कहते है । इस दृश्य अ । ग
से आगे जो अपना अपार अ । ग व्यापक चेतन है उसको जान लिया, प्राप्त कर लिया तब
और सब वासनाये । नि:शेष हो जाती है । । 298-299. भावार्थ = अन्तर्मुख पाँचो । ज्ञानेन्द्रिय
पदार्थ रूप है । , शुध्द अन्त:करण रत्न रूप है । , स्माधिास्थ प्राण माणिक सम
है । , स्थिर बुध्दिवृत्तिा हीरा है । उस वृत्तिा मे । स्वस्वरूप की वासना मोती
है । यह हार अद्भुत और निरूपम है । यह सोई-अपने उपास्य के लायक है । दादूजी
महाराज कहते है । -अपने अधिाष्ठान चेतन रूपी राम के गले मे । यह हार पहनाइये ।
जहाँ = जिसको इन्द्रिय दृष्टि वाला विकारी देख न सके । 300-301. भावार्थ = पाँचो । ज्ञानेन्द्रियो । को अन्तर्मुख
कर अन्त:करण मे । लाइये । जहाँ अमर अलेख = निर्गुण शुध्द चेतन
का आसन तथा नित्यवासा है । यही अर्थात् जहाँ अपने आराधय के अधिाष्ठान का निवास
है वही । अन्त:करण मे । प्राण पवन का अवरोधा कर समाधिास्थ दशा मे । मग्न हो इस
तरह परम कारुणिक उस समष्टि अधिाष्ठान का = परचा साक्षात्
अनुभव कर साधाक सहज सुख को प्राप्त करे । 302. भावार्थ = मन, प्राण, बुध्दि वृत्तिा की त्रिापुटी की
सन्धिा मे । एकाग्रता मे । ही उस आत्मा रूपी मणि = विशिष्ट
रत्न का निवास है । वही पाँचो । इन्द्रियो । को अन्तर्वृत्तिा कर मन प्राण,
बुध्दि की स्थिरता कर उसी के चरणो । मे । बाँधा दे = लगा दे ।
303. यूँ लागा सहिये = ऐसे लग जाना चाहिए । 304. पाहण = चकमक पत्थर । वासदेव = अग्नि
। 305. अगाधा = अथाह । अ । ग = जीवात्मा का
स्वरूप । 306. पाला = बर्फ । 307. पड़दा = आड़, आवरण, द्वैत भ्रमजन्म पड़दा । 308. रेख = लकीर । कनक = सोना । 310. भावार्थ = जैसे पके हुए फल का आहार कर लेने पर उसका
बीज फिर उत्पन्न नही । होता, ऐसे ही साधाक पुरुष को आत्मपरिचय हो जाना यही फल
है, शरीर अधयास का परित्याग हो जाना यही बेल को छोड़ना है, व्यष्टि को समष्टि मे
। कर देना यही मुख मे । छिटकना है- ऐसा साधाक फिर जन्म-मृत्यु को प्राप्त नही ।
होता । 311. भावार्थ = मानव शरीर है यही कटोरा है, शुध्द अन्त:करण
रूपी दूधा इस कटोरे मे । भर अनन्य श्रध्दा से उस प्रभु को यह दूधा पिलाने मे ।
दूर न करे । । 312. टगाटग = समाधिास्थ । जीवन मरण =
जन्मपर्यन्त । ब्रह्म बराबर होय = साधाक तब निर्गुण स्वरूप की
प्राप्ति कर सकता है । 313. निबरा = निकम्मा । 314. अह । कारहीन होशियार रहता है, आपा नीचे गिराता है । अपने ख्याल के
प्याले का प्रकाश अमूल्य गलतान मस्तान: आनन्द देता है । दृष्टान्त = या साखी सुनि औलिया, चलि आयो आमेरि । कथा करत गुरुदेव के, मुह चालत लियो फेरि । 315. अ । त न आवे जब लगै । = द्वैत भावना जब तक अन्त =
समाप्त न हो जाय । 316. बाकी बहु वैराग = नाम स्मरण व स्वस्वरूप चिन्तन का
विशेष राग बाकी रह रहा है । थाके नही । = थके नही । , सुस्त न
हो । 318. राम रटन छाड़े नही । = स्वस्वरूप का चिन्तन धयान स्मरण
छोड़े नही । । अटके नही । = रुके नही । । 319. हरिरस = आत्मचिन्तनरूपी धयानरस । अरुचि
= अनिच्छा । पीवत प्यासा नित नवा = पीते हुए जिसे
नित्य नयी प्यास रहे । तात्पर्य = ब्रम्ह के चिन्तन (धयान) मे
। नित्य उन्नति करने वाला । 320. अपार = अगणित । 324. घर = अन्त:करण । 325. मैम । त = मस्त हाथी की तरह । 326. निर्मल ज्योति जल, वर्षा बारह मास = माया
अविद्यादिदोष रहित निर्मल शुध्द चेतन रूपी जल, जिसकी वर्षा बारह मास अनवरत होती
है । राता = अनुरक्त, हुआ । माता = मस्त ।
328. लाज पति = बड़ाई, इज्जश्त । 329. ऑंगण एक कलाल के = ब्रह्म के समीप । 330. रस पीते हुए जब तक चेतन (सचेत) रहे, तब तक रस लेता रहे । जब रस मे ।
लीन हो जाय, तब उसे आगे जाने की हाजत नही । रही । 331. सौ । ज सकल ले उध्दरे, निर्मल होय शरीर = बाह्य
आभ्यन्तर इन्द्रियसमूह अन्त:करण उनको अन्तर्मुख व समाधिास्थ कर, उनको वासना
रहित बना उनका उध्दार कर लेता है तथा शरीर स्थूलसूक्ष्म निर्मल होता है । 332. पुणग = फ । ु । हार, लघु बूँद । 333. दरिया = समुद्र । निघट = कम, थोड़ा ।
दृष्टान्त = गुरु दादू को दरस करि, अकबर कियो सम्वाद । साख सुनाइ कबीर की, ब्रह्म सुअगम अगाधा । 334. अमल = व्यसनी । रस बिन = परिचयरूपी
रस बिना । तलफ = तड़फ । 335. अघाय = तृप्त होकर । 336. उज्ज्वल भँवरा = शुध्द हृदय । हरि कमल रस
= स्वस्वरूपी के । वल रस । निर्मल वासना = निष्काम
भावना से । 337. नैनहुँ सौ । रस पीजिए = विवेक विचार-रूपी नेत्राो ।
से आत्मरस का पान करिए । सुरति सहेत = प्रेम श्रध्दामय
वृत्तिा द्वारा । इसी से तन-मन का म । गल उध्दारहै । 339. नानाविधिा पिया राम रस = योग, ज्ञान, भक्ति, वैराग्य
आदि विविध साधानो । से आत्मरस का पान किया । बहुत विवेक सूँ आतम अविगत
एक = अनेक साधानो । द्वारा उस अविगत एक आत्मा का निश्चय किया । 340. पय = अमृत । 345. व्यापे = असर न करे, प्राप्त न हो । 347. अविद्यायुक्त जीव बकरीसम है, मृत्यु व्याघ्ररूप है । यह
व्याघ्ररूप काल छेल = जीव के पूर्णजन्म के विविधा कर्मो । से ही बना
है, अर्थात् अविद्याबध्द जीव से ही काल उत्पन्न हुआ है । जब जीव मल विक्षेप
आवरण के ब । धानो । से मुक्त हो जाय, शुध्दस्वरूप मे । आ जाय तब उस काल का कोई
बस नही । चलता । 348. लवरू = ऊँट । 350. स । षा सुनहा । शब्द है स । शचरूपी श्वान को यह मार देता है, यहाँ
विरोधाी रूपक है । आत्मपरिचयपरक शब्द है, वे स । शयरूप मिथ्याज्ञान का निवारण
करते है । । इसी तरह दूसरा विरोधााभास कह रहे है । -श । का रूपी सर्प को शुध्द
स्थिर मनरूपी मी । डक से मार देना चाहिए । 351. शुध्द आत्मज्ञान है वह भेड़ है; चतुर्दश लोक है । वे वर्तन है । ; राम
भक्ति आत्मचिन्तन रूपी दूधा उस भेड़ से दुह कर सब लोक का = अशेष शरीर ग्राम का
अमृतवत पोषण किया । 353. सा । ई दिया दत्ता घणा । = आत्मनिश्चय प्राप्त हुआ तब
शील, सन्तोष, सत्य, दया, स्नेह आदि अनेक तरह दत्ता धान घणा =
मुकता प्राप्त हुआ । दादूजी महाराज कहते है । , परिचय द्वारा अखूट आत्मधान की
प्राप्ति हुई उसी से भाव भक्ति तथा दर्शन का फल मिल रहा है । । इति परिचय का अ । ग सम्पूर्ण । अथ जरणा का
अंग । 5 । 2. हजारो । मे । कोई एक साधु गुरु वाक्य विचार कर राम नाम रूपी धान स । चय
करता है, यह धान गहिलो । के हाथ नही । रहता, जैसे गँवार के हाथ मे । मरकत मणि
नही । रहती । दृष्टान्त : को साधु राखे राम धान- नृप को चाकर खा गयो, टाँग सुसाकी एक । त्राास दई मुनस्यो नही । , साधा लियो सुठ देख । 1 । गहिला दादू क्यूँ रहै- साधा वस्त दई जाट को, हुकामे । करि प्यारि । जरी नही । वकणै लग्यो, और न लई उतारि । 1 । 4. समझ समाइ रहु = समझ मे । ही विचार मे । समझे हुए उपदेश
को रखे, धाारण करे । 5. सयाने = चतुर, सावधाान । 6. मन ही मा । है ऊपजे = अपने आत्मस्वरूप की अनुभूति शुध्द
मन मे । उत्पन्न होती है । 7. लै = धयानवृत्तिा से । जरता जाय =
साधान की प्राप्त सफलता को आत्मसात् करता जाय । उसके अह । कार को उत्पन्न न
होने दे । कबहूँ पेट न आफरे = उस साधाक के जो जरणा करता है
कभी अह । कार रूपी आफरे से पेट नही । आफरता । 8. जनि खोवे = मत नष्ट करे । हृदय राखि =
अन्त:करण मे । ही स्थिर कर । जतन = उपाय । 9. सोई सेवक सब जरे = सेवक वही है जो देखी-सुनी को पचा
लेवे अर्थात् गुप्त बात किसी को न सुनावै यथा:- कही सो दूर्योधान कही, करन ने कही नाँहि । । धाु । ई धाु । ऑं न स । चरै, रहिपि । चर के माँहि । । 10. रस = नामस्मरण, स्वरूपचिन्तन । गूझ ग । भीर का
= गुह्य अन्त:करणनिष्ठवृत्तिा का । परकाश = व्यक्त,
प्रगट । 11. अलख लखावा = अदृश्य अगोचर आत्मस्वरूप का अनुभव किया ।
12. सो सुख कस कहै = स्वानुभूति का सुख कहे किससे जब कि एक
भिन्न दूसरे की सत्ताा नही । है । 13. जेता घट परकास = अन्त:करण मे । जितना सतोगुण उत्पन्न
हो सब जरा जाय । 14. अजर जरे रस ना झरे = जो साधाारण जरणा के योग्य नही ।
उसको जरै, अर्थात् पचावै, धाारण करै और गुप्त रखे, और धाारण भी ऐसे करे कि किसी
प्रकार से रस निकल न जाय । 15. अजर = शुक्रधाातु व आत्मपरिचय । जरे
= जारणा करे, पचावे । जारे = आत्मसात् कर ले । 16. राखे रस = आत्मसाक्षात्कार व नामस्मरणरूप रस की रक्षा
करे उसके साधानक्रम को शिथिल व भ । ग न होने दे, इसी तरह शुक्र-धाातु की साधाना
द्वारा ऊधर्वरेत्स रूप मे । रक्षा करे उसे पुन: अधाोरेत्स की सूरत मे । न बदलने
दे । 18. जरणा जोग = जरणा करने वाला योगी । झरणा
= बहा देने वाला कुयोगी । 19. जग रहै = जग मे । रहे । 20. थिर = स्थिर, टिकाऊ । काल तै । छूटे
= जन्म मृत्यु काम क्रोधाादिकाल से छुटकारा पावै । 21. जरणा जोगी जगपति = षट् प्रकार की जरणा वाला साधाक
जगपति = ईश्वर के समान है । 22. जरे सु नाथ निर । जन बाबा = जो उक्त षड्विधा जरणा
सम्पन्न साधाक है वह नाथ-सबका स्वामी है, वह निर । जनसम है । वह बाबा
= व्यापक अधिाष्ठान के समान है । 23. उपावनहारा = रचने वाला । अनूप =
अद्भुत, असदृश, निरूपन । 24. अविचल = माया अविद्यास । ग के चा । चल्य से रहित ।
अविगत = विगत विवरण रहित, अवर्णनीय । 28. पु । ज रह । त = सर्वदा रहने वाला प्रकाशसमूह,
ज्योतियो । की ज्योति । 29. परम उजास = अति निर्मल, अति स्वच्छ ज्योति ।
उदीत = उजाला । 30. पगार, विकास, प्रभास ये तीनो । दिव्य ज्योति के लिए प्रयुक्त है । । 33. पवन का गुण विषयो । मे । अनासक्ति, जल का गुण शीतलता, सो हमने पान कर
लिया है । धारती का गुण क्षमा, आकाश का गुण अस । गता, च । द्र का गुण सौम्यता,
सूर्य का गुण भगवत भक्ति मे । सूरवीरता, अग्नि का गुण तेजस्वी पनादि, इन गुणो ।
को हमने ग्रासवत् धाारण किया है । 34. चौदह भुवनो । और तीनो । लोको । के सम्पूर्ण गुण हमने 'ठू । गे श्वासे
श्वास' पूर्ण रूप से धाारण किये है । । इस प्रकार दयालजी कहते है । कि साधुजन गुण, अवगुण, शीतोष्ण, सुख-दु:ख सब जरे
(सहारे) और पाँचो । इन्द्रियो । के गुणो । का एक ग्रास करे । । इति जरणा का अ । ग सम्पूर्ण । अथ हैरान का अंग । 6 । 2. रतन एक बहु पारिखू = रत्नरूपी परमात्मा है, उसके
परिक्षा रूपी अनेक मतवादी है । , सो उन अन्धाो । की तरह है । जो हाथी को
पहचानने गये थे और हाथी के एक-एक अ । ग को ही हाथी मान कर नाना रूप का हाथी
बखानते थे । 3. जाण्या जाइ न जाणिये = जानने मे । साधाक द्वारा
सामर्थ्यवान है उनसे भी सम्यकतया जाना नही । जाता । का कहि कथिये ज्ञान
= योग भक्ति, वैराग्य, ज्ञान आदि मे । से किसके द्वारा आत्मोपलब्धिा
होती है यह निश्चय नही । कहा जाता अर्थात् ये सभी साधान उसकी प्राप्ति के है ।
। 4. पच मुये = कह-कह थके । कीमत = मूल्य ।
हैरान = स्तम्भित, चकितगति । गूँगे का गुड़ खाय
= गूँगा गुड़ खाकर स्वाद नही । बतला सकता, केवल मिठास की उत्तामता के
इशारे करता है । 5. सब ही ज्ञानी प । डिता = केवल शास्त्राीय विषयो । के
ज्ञाता प । डित तथा अविद्यालेशा । स व आवरणदोषयुक्त ज्ञानी ये सब । 6. तह । मेरी गम नाही । = जहाँ इन्द्रिय अन्त:करणादि की
पहुँच नही । है वहाँ अह । कारादि वृत्तिा से युक्त मेरी भी पहुँच नही । है ।
7. केते पारिख = अपूर्ण पारषी । मा । ही ।
= अन्त:करण मे । ही है । 8. जीव ब्रह्म सेवा करे = जीव आवरण, मल, विक्षेप से
आवृत्ता है, उसको अपने इन दोषो । की निवृत्तिा के लिए प्रयास करना चाहिए, यह
प्रयास ही ब्रह्म की सच्ची सेवा है जो साधाक को कर्तव्य है । 9. एकै नूर है = व्यापक समष्टि चेतन शुध्द है, एक है । 11. केतक देहुँ दिखाय = कितने कहते है । कि मै । दिखा सकता
हूँ । कीमत = ब्रह्म का यथार्थ स्वरूप वा आदि-अन्त । 12. अपार समुद्र मे । जाकर कोई घड़ा भर जल लावे, तो कवेल घड़ा ही भर जल ला
सकता है, न सम्पूर्ण समुद्र का जल । तैसे ही मनुष्य अपनी शक्ति ही भर अपार
परमेश्वर को जान सकता है, न उसके सम्पूर्ण महान स्वरूप को । 13. पार = अन्त । गूझ = गूह्य । 15. वेद कतेबा । मित नही । = वेद कुरान आदि से जिनका पार
नही । पाया गया । थकित = थक गये । 16. परिमित = सीमा, वार-पार । 19. बलिये = जिसकी बलिहारी जाय उस परमेश्वर की । 20. बातो । नाम न नीकले = बातो । मे । परमेश्वर की महिमा
कोई नही । कह सकता, अर्थात् परमेश्वर अकथ है । 21. ना कही । परमेश्वर को देखा है ना उसका आदि-अन्त सुना है और ना कोई उसका
कहनेवाला है । ना कोई मरकर ऊपर से लौट आया है जो वहाँ का अथवा मेरे पीछे जो
होता है उसका वृत्ताान्त कहे । ना परमेश्वर का उरला किनारा है ना परला किनारा
है । 23. न तहाँ चुप ना बोलणा = जहाँ आन्तरिक प्रवृत्तिायो । का
अभाव न होते हुए भी मौन धाारण नही । है । न वहाँ साधानाविहीन साक्षात् अनुभव
रहित या बहि: साधानो । का प्रधाान प्रवृत्तिा रूप उपदेश का कथन होता है । अथवा
मौन व प्रवचन इन्द्रियव्यापार है ब्रह्म निरिन्द्रिय है अत: वहाँ यह व्यापार
साधय नही । है । आपा पर नही । = अह । कार तथा तदुत्पन्न मै ।
तै वृत्तिा नही । है । 24. एक कहूँ यानी यदि उसका मै । निरूपण करता हूँ तो मै । तथा वह दो प्रतीत
होते है । । चेतन सामान्य की स्थिति से समष्टि व्यष्टि का कथन किया जाय तो दो
के कथन मे । एकत्व का निरूपण होता है । ऐसे कथन मे । अदोषता नही । आती । अत: वह
जैसा है उसी रूप मे । अपने को विलय कर देना । 25. दादू खरे सयान = जो अपने को खरे = पूरे, सयान
= सावधाान समझे हुए है । वे भी दीवाने हो रहे है । । 26. हूँ कर = स्वीकार कर, मान । जानराय =
जानने जैसा है तो । परमाण = पर्याप्त है । दृष्टान्त = वादी पूछी कौण हो, गुरु दादू को आइ । या साखी उत्तार दियो, समझि गयो सुख पाइ । 1 । 27. दृष्टान्त = एक वादी स । सार की, उत्पत्तिा पूछी आइ ।
जात उत्तार वाको दियो, या साखी समझाइ । 1 । । इति हैरान का अ । ग सम्पूर्ण । । अथ लै का अंग । 7 । 2. लै = अखण्डाकार वृत्तिा एक रस रहे । मूवाँ म ।
झि समाय = शरीर की परिसमाप्ति पर व्यष्टि का समष्टि मे । विलय हो जाय
। 3. लै गता = लयहीन । गत ह्नै जाय =
निष्फल हो जाय । लै रता = लयलीन । 4. आकार = देह इन्द्रियादिक । आतम =
अन्त:करण । चेतन = व्यष्टिगत चेतन । 5. तन = शरीर । मन = अन्त:करण चतुष्टय ।
पवना = प्राण । प । च = पाँचो ।
ज्ञानेन्द्रियाँ । गह = स्थिर कर । जहँ आत्म तहँ
परमात्मा = जहाँ शुध्द अन्त:करण मे । चिदाभास है वही परमात्मा चेतन का
स्वरूप है । 6. अर्थ = परमपुरुषार्थ । अनूप । = उपमा
रहित । और अनरथ भाई = और स । सार के पदार्थों की प्राप्ति के
लिए जो प्रयास किया जा रहा है, वह बन्धान का कारण होने से सब अनर्थ है । 7. ज्ञान और भक्ति से सर्व इन्द्रियो । के मूल मन को स्थिर करे फिर सहज
(आतुरता रहित) प्रेम से लय लगावे, दुनिया की सब वासनाओ । को त्याग दे, किसी
वासना के स । ग मन मे । की न जाने दे । 8. पहली था सो अब भया = जिन वासनाओ । के वशीभूत हो पिछले
जन्म मे । जैसे काम किये उनके फलानुसार तो अब जन्म हुआ तथा फल भोग रहा है ।अब
सो आगे होइ = अब जिस तरह के कर्म मे । लगेगा उसके फलानुसार आगे फल
भोगेगा । तीनो । ठौर = भूत, वर्तमान, भविष्य । बूझे =
जाने । 9. भावार्थ = योग की क्रियाओ । से समाधिा दशा तक
धाीरे-धाीरे साधान सिध्दि से पहुँचा जाता है । ज्ञान से भी बाह्याभ्यान्तर
साधानो । के सफल होने मे । अन्त:करण-शुध्दि, बुध्दि स्थैर्य तथा स्वरूप निश्चय
मे । समय लगता है । इहै भक्ति का = यही निष्काम प्रेम ।
प्रेमाभक्ति का रास्ता है वह मुक्ता = खुला हुआ ।
द्वारा = दरवाजा है जिससे सहज ही आत्मा के महल मे । पहुँचा जा सकता है
। 10. शून्य = निर्विकल्प । सहज =
निर्द्वन्द्व । इन दोनो । अवस्थाओ । मे । मन को लगावे । लै समाधिा रस
पीजिए = लयवृत्तिा द्वारा समाधिास्थ हो आत्म-रस का पान करिए । 11. इस साखी मे । प्रश्न है । गर्भ मे । चेतन की स्थिति क्यो । , और कैसे
होती है इसमे । शास्त्राीय विभिन्न मत है । विविधा उपाय से भी इस भेद को वे समझ
नही । पाये है । । 12. इस साखी मे । ऊपर के प्रश्न का उत्तार है । स । सार के मानव
अज्ञानावस्था मे । आते ही इसी अवस्था मे । जाते है । । कोई सावधाान साधाक ही
सुरतिवृत्तिा द्वारा चेतन के ठीक मार्ग मे । प्रवृत्ता होता है । यही मार्ग ठीक
है । इसमे । धयानावस्थित हो जिससे रास्ता तय हो । 13. भावार्थ :-यह आत्मप्राप्ति का मार्ग उसी का दिखाया हुआ
है सहज निर्विकल्प अवस्था मे । वृत्तिाका स्थिर रहना यही सार है । यही
मन का मार्ग है = मन को स्थिर करने का रास्ता है । उसकी प्राप्ति का
घर अपने ही भीतर है, उपर्युक्त रूप से स्थिर वृत्तिा द्वारा चिन्तन करने ही से
वह सिरजनहार साथी बनता है । 14. राम कहै जिस ज्ञान सौ । = जिस ज्ञान विचार से
आत्मप्राप्ति की चाह पैदा हो वही ज्ञान उत्ताम है । 15. रसायन = नवीन जीवन बनाने वाली औषधा । आतम राम
= अपने अधिाष्ठान मे । । त्यो । = अखण्डाकारवृत्तिा
। 16. समाइ = विलीन कर, स्थिर कर । सन्मुख =
सामने, उसी मे । । जुग-जुग = जन्म-जन्म, सतयुगदि ।
सूरा = इन्द्रिय मन निग्रह करने मे । सौर्य पौरुष दिखाने वाला
। 17. नैनहुँ = ज्ञान विचार के नेत्रा । उलट =
आत्माभिमुखकर । कौतिक = व्यष्टि समष्टि स । योग को ।
18. भावार्थ = नेत्रा उस अपने स्वरूप को देखने के लिए
आत्माभिमुख हो उसी की ओर लग गये । जहाँ भीतर अपना अधिाष्ठान चेतन है वही । इन
दो ज्ञान विचार के नेत्राो । से उसका साक्षात्कार हो रहा है । 19. अपूठा = पीछा, उलटा । शोधा = तलाशकर,
चिन्तनकर । ढिग = समीप, पास । बावरे = बेजान
। बाण = आदत । 20. आण = लावो, लगाओ । गुरुदेव सौ । =
गुरुदेव के उपदेश से । सयाण = विचारशील । 21. जहाँ आत्म = जहाँ शुध्द अन्त:करण है । 22. सुरति = अखण्डवृत्तिा । गाय = चिन्तन
कर, धयान कर । भावै = भावनारूपी, श्रध्दारूपी । 23. सुरति सौ । = अखण्डवृत्तिा से । गावे =
चिन्तन करे । वाण = परावाणी । 24. सहज सुरति लै पूर = निर्द्वन्द्व धाारणावृत्तिा मे ।
उसी को परिपूर्ण कर ले भर ले । दृष्टान्त = साधा रख्यो नृप बाग मे । , वतका । चुग गई घर ।
खर चढि के हेलो दियो, इनसो । मिल है ख्वार । 1 । 25. एक सुरति = ब्रह्माकारवृत्तिा । यहु अनुभव =
यही अनुभूति है, परिचय है । 26. अ । ग = व्यापकतारूपी शरीर । सन्मुख रहिबा =
तन्निष्ठवृत्तिाविचार । 27. जहाँ-तहाँ लै लीन = जहाँ स्वस्वरूप प्रतिबिम्बित है
वही । लयवृत्तिा से लीन होना । 28. साबित = अख । डित, निर्द्वन्द्व, निर्विकल्प ।
मोटे भाग = महान् प्रारब्धा । 30. बरत = नट की आकाशीय रस्सी । अ । ग तै =
चेतन अधिाष्ठान से । छूटे = च्युत हो जाय, दूर हो
जाय । 31. ग । गा = उठती स्वास । जमुना = बैठती
स्वास । 32. आत्मा है सोई परमात्मा, जैसे जल और उदक दोनो । शब्द एक ही अर्थ के वाचक
है । । तन, मन ब्रम्ह मे । ऐसे मिल जाता है जैसे जल मे । लवण । इसी प्रकार से
जीव निर्वाण पद को प्राप्त होता है । 33. मन ही सौ । मन सेविये = कल्मष मन को विचार द्वारा
शुध्द कर । 34. बिसरे = भूले, त्याग कर दे । 35. प्राण = जीव, आदि मे । इसका स्थान ब्रह्म था, उसी मे ।
लय लगावै, जैसा ब्रह्म रूप था वैसा ही हो जाएगा, माया किसी तरह से उस पर असर न
करेगी । 37. एक मना = अनन्यमन, एकवृत्तिा से । 38. निबहै = निर्वाह हो, हो सके जितना । परसेगा =
प्राप्त होगा । थाके = थके नही । , उपराम न हो । 39. मृतक = वासनारहित, निर्वासी षट्ऊर्मीरहित ।
काया के सब गुण = इन्द्रियो । की विषय-वासना । 40. मन के स । कल्पादि, अह । कार देहाधयास आदि सबका परित्याग कर दिया ।
टूटे नाहि । धाागा = वृत्तिाका तादात्म्य भ । ग न हो,
चिन्तनरूप तागा टूटे नही । । जाण = पहिचानी । जागा =
अपना असली स्थान । 41. जब लग सेवक तन धारे = सेवक-साधाक जब तक सेव्य-सेवक भाव
से रहे तब तक तन धाारण करता है । एक मेक ह्नै मिल रहे =
निर्गुण उपासना मे । एकमेक हो जाता है, अत: शरीरानुबन्धा की आवश्यकता नही ।
रहती । 42. ये दोनो । ऐसी कहै । = सगुणनिर्गुण उपासक का उपर्युक्त
कथन है । उत्तार देते है । -ना मै । एक न दूसरा ¾
मेरे लिए एकत्व और अन्यत्व की धाारणा की आवश्यकता नही । । दादू रहु
ल्यौलाय = मे । रे मे । धयान लगाइए । । इति लै का अ । ग सम्पूर्ण । अथ निहकर्मी पतिव्रता का अंग । 8
। 2. आसरे = आधाार । इहि विश्वास = इसी
भरोसे । तोर = तेरा । करण = अपने काम । 3. रहण = ब्रह्मचर्यादि । राजस = रजोगुण,
अह । कार । करण = दान, पुण्य तीर्थ, व्रतादि । आपा =
अभिमान । 4. लै लीन = वासनारहित, स्थिर । ज । लाल =
उलझन । आपामेट = अधयास दूर कर । 5. सिध्दि = आठ प्रकार की । करामात =
परचै दिखाना । ऋध्दि = वैभव-भण्डार । आगम =
पौरुष, गुप्त धान । 6. अम्ह । चा = हमारे । 7. पात = तुलसीदल, पत्रापुष्प । जात =
यात्राी तीर्थ जाने वाला । 8. नाद = अन्तधर्वनि । भेद = रहस्य ।
वेद = ज्ञान । 9. युक्ति = साधान प्रक्रिया । योग =
विरोधा । भोग = उपास्य वस्तु । 10. जीवनि = जीवनशक्ति । 11. शील = अष्टविधाब्रह्मचर्यरक्षा । सन्तोष =
तुष्टि । मोक्ष = मृत्यु, जीवननिवृत्तिा । 12. शिव = कल्याण, श्रेम । शक्ति =
प्रत्युत्पन्नमति, बुध्दिबल । आगम = स्मृति वेदादि, आत्मोपदेश
। उक्ति = सत्य कथन । 14. जोडबा = मन को स्वस्वरूप मे । लगाना । राखि =
मनुष्यजन्म की टेक रखना । 15. केशवा = कलेशनाशक । सगा = साथी ।
सिरजनहार = सबको व्यक्त करने वाला । 16. सिरजे = पैदा किये, व्यक्त किये । 17. सन्मुख = आत्माभिमुख । 18. भेटै । भे । टा होइ = आत्मस्वरूप परिचय प्राप्ति से ही
उससे मिलना होता है । 19. अति म । गल = अति शुभ । भे । टे =
प्राप्त हो । 20. रीझे = आसक्त हो, मोहित हो । अनत =
दूसरी जगह । मीठा भावे = अति मधाुर भावना से । सोई जन
= वही सच्चा मनुष्य है । 21. दृष्टान्त : बीवी बिसरे राविया, महमद कही जनाइ । राषि रिदै दोस्त हमे । , दूजा नाहि । समाइ । 1 । 23. एक सेज = ज्ञाता, ज्ञान, ज्ञेयकी त्रिापुटी वृत्तिा मे
। । गहिला = इन्द्रियभोगो । मे । पागल । आपा =
मनुष्यजन्म । दृष्टान्त : - चोखो एक चमार, प । डरपुर वीठल हरी । दोनो । जीमत लार, मूढ न जानत तास गति । 1 । 24. एक = स्वजातीय विजातीय भेद रहित । 25. निश्चल = ब्रह्म का उपासक । निश्चल =
स्थिर । च । चल ¾ मायिक पदार्थों के उपासक । 26. साहिब राखिए = अभेद चेतन की उपासना है वही रखे, उसमे ।
लगे । 27. मन, बुध्दि, वृत्तिा पलभर की आत्मचिन्तन से हटे नही । । निष्कामभाव से
ही चिन्तन मे । लगा रहे । 28. नीति = धार्माचरण, इन्द्रियनिग्रह । सदा राम
का राज = हृदय मे । अन्त:करण मे । सर्वदा आत्मा का ही धयानरूपी राज
रहना चाहिए । सीझे काज = तभी अपना कार्य सिध्द होगा । 29. खूब = चमत्कार, अच्छाई । सँभार =
धयान मे । ला । सुन्दरि = सन्त-बुध्दि । नखशिख =
तनमन शुध्द कर । साज सँवार = हृदय की शुध्दि वृत्तिा
के चा । चल्य का निवारण यह साज सज । 30. प । च अभूषण = पाँचो । इन्द्रियो । की विषयनिवृत्तिा ।
सोलह = षोडश कलामय मन की शुध्दि । सब ही ठाम =
सब समय । 31. व्रत = प्रण । सुन्दरि = साधाक की
शुध्द बुध्दि । सुहागिनि = स्वरूप परिचय रूप सुहागयुक्त ।
भावै = अच्छा लगे । 32. कोई करे = कोई विरले साधाक ही । घट-घट =
हर मनुष्य । 33-34. इन दो साखियो । मे । साधाक के आत्मसमर्पण का वर्णन है । परिचय
प्राप्ति के इच्छुक साधाक को अपना सब व्यवहार ईश्वरानुबन्धा पर ही छोड़ देना
चाहिए । यही इन दो साखियो । का भाव है । 35. पतिव्रता = पतिपरायणा । गृह = घर ।
आज्ञाकारी टेव = आज्ञा मे । रहने का प्रण । 36. सेवा सार = सेवा मे । निपुण । सुहागिन =
पतिवाली । दृष्टान्त : सदना अरु रैदास को, कुल कारण नहि । कोइ । प्रभु आये सब छोड़िके, विप्र वैष्णव रोइ । 1 । 37. ता सनि = उसके साथ । 40. सन्मुख = सामने, आराधाना मे । । नख-शिख =
शरीर मन वाणी । जनि यहु ब । टया जाय = यह मानव जीवन
अनात्म पदार्थ धान, मकान, जमीन, जगह शरीर, खान-पान आदि मे । ही बँट कर समाप्त न
हो जाय । 41. सारा दिल = पूरा मन, विषयभोग मे । बँटा हुआ न हो ।
बँटे = विभक्त करै, खण्ड-खण्ड करे । अयान =
बेसमझी । 42. सारो । सौ । दिल तोर कर = स । सार के विविधा भोग वासना
कुटुम्ब का मोह, शरीर का अधयास, अनित्य पदार्थों को सत्य समझना इन सबसे मन को
हटाइए । जोरे = लगावे । 43. राखणा = रखने के लिए, धारोहररूप मे । । चोरे =
चुरावे । सब धान साह का = मानवशरीररूपी, साह
= साहूकार का मानवजीवन रूपी सब धान । भूला मत थोरे =
हे मन! थोड़े से मे । विषय बासना मे । ही गँवा दिया । दृष्टान्त - गोद लियो सुत सेठ, सर्वस सौ । प्यौ तासकौ ।
करी मूढ़मति नेठ, थैली ले न्यारी धारी । 1 । 44. प्रत्यक्ष = साक्षात् । 45. भाव = परम श्रध्दा । राव = राजा ।
47. आतुर कारण राम = स्वस्वरूपप्राप्ति के लिए सब मे ।
व्यापक रमने वाले राम के लिए ही सर्वदा आतुर रहे । परगट =
सामने आकर । 48. नारी-पुरुषा देखिकर, पुरुषा नारी होय = स्त्राी का
अपने पति से भिन्न और किसी पुरुष मे । पुरुषभाव न रहे, ऐसे ही पुरुष का अपनी
स्त्राी से भिन्न अन्य स्त्राी मे । स्त्राी भाव न रहे । एक पतिव्रत एक
पत्नीव्रत इसी का नाम शील है इसी तरह साधाक एक आत्मा या व्यापक चेतन से भिन्न
अन्य किसी वस्तु मे । अपनी वृत्तिा को न जाने दे । 49. रत = आसक्त, लगी हुई । बा । झण =
बाँझ स्त्राी । विगोवे = डुबोवे । निष्फल =
बेकाम । 50. ऐसी सेवा सब करै । = मन को विभिन्न वासना मे । लगाये
हुए मन्दिर जाना, कथा सुनना आदि सेवा सभी करते है । पर वैसी सेवा फलहीन है ।
51. तब लगै । = तभी तक । परसे आने को =
ईश्वरविमुख अन्य भोग पदार्थो । तथा वासनाओ । मे । लगे । 52. वश होइ = अधाीन हो । कामणगारी सोइ =
छलिया, धाोखा देने वाली । दृष्टान्त : हुरम जू गई फकीर पै, मो को ज । तर देहु । होत पातशाह मोर बस, साखी लिख दई लेहु । 1 । टामण टूमण हे सखी, भूल करो मत कोइ । पीव कहे व्यूँ कीजिए, आपै ही बस होइ । 2 । 53. भावता = चाहा, अच्छा लगा । आज्ञाकार =
उपदेश, निर्देश । 55. पतिव्रता = पतिव्रतावत् साधाक । मेला =
एकता । 56. एक = एक ही आत्मपरिचय लक्ष्य है । आन =
अन्य, दूसरा । पर घर = पराया व घर का । 57. पुरुष हमारा एक है = हमारा धयेय या लक्ष्य सब साधाको ।
का एक ही है । हम नारी बहु अ । ग = विविधा साधाक योग, भक्ति
ज्ञान, वैराग्य आदि वाले ये सब भिन्न-भिन्न नारी रूप है । । 58. रहता = अविनाशी । बहता = बदलने वाला,
निवासी । 59. जनि = मत । बाझे = धान्धो ।
काहू कर्म = काम्य कर्म । आरम्भ = शुरूआत, 60. बावे । देखि न दाहिणे = भोग तथा सम्पत्तिा की ओर
प्रवृत मत हो । शरीर और अन्त:करण सन्मुख = आत्माभिमुख ही रख ।
साखि = उपदेश । तत्तव = असलियत । गह
= पकड़, धाारण कर । 61-62. इन दो साखियो । मे । चकोर, मृग, पपीहा, मछली, हिरण, कछुए की विशेष
वृत्तिा का उदाहरण दे साधाक की तद्वत साधाना करने का निर्देश है । उपर्युक्त
पक्षी और पशुओ । की विशेष वृत्तिा का अनुसरण कर साधाक अपनी उपासना मे । अनन्यता
लाये । 63. दूजे = दूसरे । अन्तर = फर्क, भेद ।
आणे = लावे । दृष्टान्त : सन्त जुड़े परब्रह्मसूँ, नृप आयो दीदार । पूछी बुप्रभु क्यूँ एकले, अब लहि है । घर पार । 1 । 64. भर्म = भ्रम-तिमर = अन्धाकार । भाजे =
दूर न जाय । दीपक ¾ ज्ञान का दीपक । साज ले
= सँजो ले, प्रदीप्त कर । 65. वेदन = पीड़ा । 67. मूल = सबका कारण । गहै = धाारण करे ।
निश्चल = स्थिर वृत्तिा । डाल पान भरमत फिरे =
सकाम कर्मरूपी विविधा डालपात मे । भ्रान्त हो रहा है । वेदो ।
दिया बहाय = यज्ञादि कर्मविशेष का निर्देश कर वेदो । ने मानव के मन को
बहा दिया, अचल विचल कर दिया । 68. सुनहा । नाम कुत्तो का है, कुत्तो को जितना चाहे मारो, बाहर निकालो तो
भी वह मालिक का घर नही । छोड़ता है । तैसे दयालजी कहते है । कि परमेश्वर के भजन
मे । चाहे जितनी विधाा पड़े तो भी साधाक को भक्ति नही । छोड़नी चाहिए । 69. दर = दरवाजा । 70. निष्फल = परिणाम रहित । 71. विस्तार = डाल, पात आदि सब । बाद =
व्यर्थ । बेगार = श्रम । 74. तृप्ता = तृप्त, तुष्ट । अन्य दिश =
दूसरी जगह । 75. डाल, पान, फल-फूल सब = जप, तप, दान, तीर्थ, व्रत आदि
सब । 76. टीका = तिलक, ज्ञान, ध्यानादि सब राम नाम के जप के
अन्तर्गत है । 77. पल्लव = पान, पत्तो । 78. आराधा = उपासना । अपराधा = कसूर,
गलती । 79. चतुराई देखिए = जालसाजी समझिए । कीजे आन =
दूसरा करना-विषय वासना मे । उलझना । पिछान = पहचान ।
आपा = अह । कार, सर्वस्व । 81. बाँछे = चाहे । अमरापुरि = स्वर्गादि
। परमगति = बैकु । ठलोक । 82. हेत सौ । = अति प्रेम से । प्रकटहु =
पैदा करो । केता = कितना, अपार । 83. प्रेम पियाला = अनन्य अनासक्त प्रेमरूपी प्याला । 84. का = क्या । 85. कामना के निवृत्ता हुए पीछे सर्गुण (जीव) निर्गुणब्रह्मरूप हो जाता है ।
86. घट (जीव) अजर-अमर होकर रहता है उसको बन्धान कोई नही । रहता, मुक्त हो
जाता है और चौरासी योनियो । का जो स । शय है सो मिट जाता है । 87. जब तक अलख अभेव (परमात्मा) प्राप्त न हो । 88. इस साखी मे । चतुख्रवधा भक्ति का निरूपण है । अपने अह । के अस्तित्व
सहित उपासना है उससे सालोक मुक्ति मिलती है । महत्तव की उपासना से सामीप्य,
अधयाकृत अभेदवृत्तिा से उपासना से सारूप्य मुक्ति तथा विराट् की उपासना से
सायुज्य मुक्ति प्राप्त होती है । 89. रसिक = प्रेमी । 90. तातै । = उससे । भला = अच्छा ।
ऊषर = खारी । बाहिकार = जोतकर । 91. सुत वित = पुत्रा धान । निधिा =
सम्पत्तिा, खजाना । 95. स । भालता । = याद रखते हुए, धयान करते हुए ।
बस । दरा = अग्नि । 96. कर्मै कर्म काटे नही । = सकाम कर्म से कर्म बन्धान नही
। छूटता । कर्मै कर्म बँधााय = वासनामय कर्म से बन्धान ही
बढ़ता है । । इति निहकर्मी पतिव्रता का अ । ग सम्पूर्ण । अथ चेतावनी का अंग । 9 । 2. लाजे = अपमानित हो । दृष्टान्त : इक व । दे किये तीन सो । , गृन्थ रामगुण गाथ ।
परा शब्द ऐसे भयो, इनसे मोहि न पात । 3. परहर = छोड़, त्याग । 4. कीजी रे = करना । पीजी रे = पीना ।
5. बाट = रास्ता । बूझी रे = पूछना ।
झूझी रे = झूझना, स । घर्ष करना, वैराग्य अभ्यास से मनोनिग्रह
करना । 6. अचेत = असावधाान । नी । द भर =
अज्ञानजन्य घोर निद्रा मे । । जगाय = जागृत कर, सचेष्ट कर ।
7. अनहद = सहज शब्द । 8. चेतकर = सावधाान हो । सार = सार्थक,
फलदायी । निखर कमाइ न छूटणा = निषिध्द कमाई-सकाम उपासना से
बन्धानमुक्त नही । हो सकेगा । 9. चाकर = निष्काम सेवा । हरि नाम =
आत्मचि । तन । 10. आपा पर = रागद्वेष । अवसर =
मानव-जीवन । जाग = साधान मे । लग । 11. बहुर = पुन: फिर । अमोलक = अमूल्य ।
12. एकाएक = केवल निर्गुण । अनत =
अन्यत्रा, दूसरी जगह । और काल का अ । ग = सकाम उपासना
जन्म-मरण का निमित्ता है । 13. तन-मन के गुण = विषय-वासना काम, क्रोधाादि ।
नियारा = निस्स । ग, निष्काम । 14. झा । त = देहरूपी झरोखा मिला है उसी मे । अपनी आत्मा
को देख । होण = अब । पाणे बिच्च मे । = अपने
बीच मे । , भहर न लाहे = उसकी कृपा न छोड़े । 15. मनुष्य की देह मिली है अत: परमश्ेवर के दर्शन कर देर मत लगा । सब साथी
चले गये है । तू पीछे रहा क्या देख रहा है? । इति चेतावनी का अ । ग सम्पूर्ण । अथ मन का अंग । 10 । 2. बरज = रोक । घेरि = सीमित कर ।
माता = उन्मत्ता । राख = राखिए । 3. बहुत महावत = दायरे मे । बँधो हुए अनेक साधाक । 5. थोरे-थोरे हट किये = धाीरे-धाीरे अभ्यास से रोकिए ।
उनमनि = चेतन की सहज अवस्था, ब्रह्मभाव । 6. आडा दे दे राम को = वृत्तिा को आत्मचि । तन की ओर
पुन:-पुन: लगाकर । साखी दे = गुरु-उपदेश । सुस्थिर =
बिलकुल अचल । 7. निमष = पल । पग भरे = विषयवासना की ओर
चले । दृष्टान्त : इक कन्या । यह नेम कियो, मोहि परणैव्है सूर ।
सि । ह हतै गजअरि हतै, तिय तज भाज्यो दूर । 8. मनोरथ = वासनाजन्य स । कल्प । वैसे =
स्थिर हो । 9. जब मन बोलने को, सुनने को, देखने को या अन्य इन्द्रियो । के विषयो । की
ओर प्रवृत्ता हो, तो मन को अपने अन्दर आत्मा ही मे । उरझाओ । 10. मन गुण = मन के स । कल्प वासना अधयास ।
इन्द्रिय = ज्ञानेन्द्रियो । के विषय । 11. मन का आसण = मन का स । कल्प व वासना । ठौर-ठौर
¾ जड़-चेतन मे । , समष्टि व्यष्टि मे । । सूझे = दीखे
। आणि = पलट, फेर । एक घर = एक ही निज चेतन
मे । । दृष्टान्त : जसवन्त नूप प्रश्न कियो, आसण आछो कौण । दास नारायण जी कह्यो, गुरु दादू कह्यो सो जाण । 12. एक रस = आत्मानुभूति रस । निर्वैर =
राग-द्वेष रहित । कत झूझे = कहाँ जाय । अ । ग =
साथ । 13. परस = साक्षात् । 14. अवलम्बन = आधाार । लाय = लगा । 16. बेधया = बोधिात किया, वासना स । कल्प से रहित किया ।
बीख = एक सी तेज चाल, वासनामय दौड़ मे । । 17. उरझा = स । लग्न हुआ, लग गया । थाके =
थकित हुए । 18. बोहित = जहाज । उड़-उड़ थाका देख तब =
कौआ जब जहाज से उड़ उड़ कर समुद्र मे । थक जाता है तब निराश हो उसी जहाज पर स्थिर
बैठ जाता- है । ऐसे ही च । चल मन को स । सार की अनित्य वासना से मोड़-मोड़ निश्चल
करना चाहिए । 20. खीला गार का = मट्टी का कीला स्थायी (दृढ़) नही । होता
। जो सच्चे परमात्मा के चरणो । की शरण नही । लेता भरमता ही रहता है । 23. फूटे तै । सारा भया = विविधा वासनाओ । की आसक्ति से
भग्न मन आत्माभिमुख होने पर साबित हो गया । स । धो- स
। धिा मिलाय = व्यष्टि को समष्टि मे । , कार्यरूप स्थूल मन को कारणरूप
चेतन मे । मिलाइये । बाहुड़ विषय न भूँचिये = मन को वापिस
विषयवासना मे । न आने दे । 24. सो गल = विषयवासना की आसक्तिरूप गली । अविगत
नाथ = परिपूर्ण ब्रह्म । बाट = राह, मार्ग । 25. साबित = एकरस, आत्मनिष्ठ । निश्चल होवे हाथ =
विषयरहित हो आत्मनिष्ठ रहे । 26. अनत = बाह्य साधान, सकाम कर्म । 27. सो कुछ = मानवजीन की सफलता । 29. जीजिये = जीवत रहे, मृत्युभय से मुक्त हो ।
धिाक् = निन्धा, फालतू । 30. भरतार = भरण-पोषण करने वाला । 31. सिरजिया = पैदा किया । 32. साज = शृ । गार । ब । दग = सेवा ।
सरया = सिध्द हुआ । 33. बाद हि = फालतू, निरर्थक । जहँ दादू निज सार =
जहाँ अपना सारभूत चेतन स्थित है । 34. विष पीवे = विषय वासना का जहर । बाढे =
अधिाक हो । 35. विलसता । = भोगते हुए । सब कुछ =
लीन-अलीन, उचित-अनुचित, विहित निषिध्द । भावता = चाहता । 36. मन का भावता, मेरी कहै बलाय = मन जैसी इच्छा करे उस
तरह मै । मन को छूट नही । दे सकता । 37. जे कुछ कीजे आन = आत्मचि । तन को त्याग और जो कुछ किया
जाता है वह सब मन की इच्छा के अनुकूल है । 38. सो तत कह समझाय = वही तत्तव वास्तविक सत्य समझाइए ।
39. भावार्थ = पै । डे = सही रास्ते आत्मचिन्तन मे । लगता
नही । , विषय-विकारो । मे । दौड़ रहा है । आत्मनिष्ठ हो नामचिन्तनरूप रथ मे ।
जुड़ता नही । , विषय भोगरूपी दा । णारातब खाने मे । होशियार है । 40. परमोधो = उपदेश दे । आन = और ।
बहिया जात = फिसल रहा है । 41. प । चो । का मुख मूल है = पाँचो । ज्ञानेन्द्रियो । का
मूल मुख है । 42. दोय गुण = मोह तथा आसक्ति । निपना =
शुध्द, बीजानुकूल । 43. काचा-पाका = मोह आसक्ति । अ । तर =
भेदभाव, द्वैतवृत्तिा । 44. सहज = स्वाभाविक । द्वै-द्वै =
राग-द्वेष, काम, क्रोधा, लोभ-मोह आदि । ताता शीला = रज
सत्तवगुणादि से युक्त । सम भया = गुण रहित हुआ । 47. सब झा । ई पड़े = प्रतिबिम्बित हो, प्रतीत हो । 48. पाका मन = समाधिा द्वारा स्थिरता प्राप्त ।
काचा मन = च । चल मन । चहुँ दिशि = अन्त:करण चतुष्टय
मे । । 49. सी । प सुधाा रस ले रहै = जैसे खारे समुद्र मे । रहकर
भी सीप स्वाति बूँद को ग्रहण कर अपने अन्दर समाहित कर लेती है । दादू ब
। द शरीर = दादूजी कहते है । हे साधाक, सीपी की तरह मन को आत्मा के
अधिाष्ठान मे । विलय करने का अभ्यास कर । 50. प । गुल भया = राग और वासना के पैर रहित ।
नवजौवन = युवा । 52. अन्धाा किया = ज्ञानविचार के नेत्रा ढक भोग के व्यामोह
मे । अन्धाा बनाया । देख दिवाना जाय = पागल हुआ दान, व्रत,
तीर्थादि मे । भाग रहा है । 53. र । क = दरिद्री, क । गाल । जाचे =
याचना करे, माँगता फिरे । दारिद दोष = वासना की अपूर्तिजन्य
दरिद्रता के दोष । 54. जीव-जन्तु सब जाचे = खर, कुत्तो, भैरूँ, महामाया,
पीपल, तुलसी आदि सबसे माँगनी करता है । तिणे-तिणे के = छोटे
से छोटे, नीच जन । 55. सुस्थिर आतमा = स्थितप्रज्ञ । आसन =
हृदय मे । , स्व-स्वरूप मे । । 56. मन मनसा = स । कल्प और वासना । 57. नकट = मलिन वासना से प्रेरित । नकटा =
वासनामय मन नाच रहा है । 59. यह तीनो । (इ । द्रिय, मन और मनसा) जीते जी (इस लोक मे । ) सब जगत् की
और मरे पीछे (परलोक मे । ) देवतो । को लूटते (ठगते) है । । दादूजी कहते है । कि
किसको पुकार कर कहे । , सब जी जन उन तीनो । की सेवा कर-करके मरते जाते है । ।
60. बिछुड़ा = दूर हुआ । बीखर जाय =
विविधा वासना मे । फैल जाय । 61. घर छाड़े = चेतनप्रतिब्रिम्बित हृदयरूपी घर । 62. तन-मन पसरे जाय = तन क्रिया द्वारा, मन वृत्तिा द्वारा
पसरे = फैले । 63. डोरी सहज क = समाधिा द्वारा, स्थित प्रज्ञरूपी डोरी से
। आणे = लावे । 64. साधु शब्द = हरि गुरु सन्त वचन । विलामय =
भुलाय । बीखर जाय = अनात्याकार हो जाय । 66. तन मे । = हृदय प्रदेश मे । । बाहर =
विषयाभिमुख । 67. चहुँ दिशि = अन्त:करण चतुष्टय । 69. बहु बकवाद = अति कथन, नानाविधा वासना । 70. फेर मन = मन को पलट, अन्तर्मुख कर । 71. जण-जण हाथ न देऊ = नाना प्रकार की विषयवासना मे । मत
उलझने दो । 72. मन रूपी मृग को सदा मारे (जीते, रोके) तिस के रोकने मे । आनन्द होता है
। जब इस मिठाई के खाने मे । पुरुष हिल जाय, तब अन्य भोगो । से वह उदास हो जाता
है । 73. परिहर = छोड़ दूर कर । काम = बाह्य
विषय स । कल्प । 74. निलज्ज = बेशर्म । अकज्ज = अनीति के
काम । 75. मन ही म । जन कीजिए, दादू दरपण देह = मन को ही
विषयवासना से रहित कर शुध्द करिये जिससे शुध्द अन्त:करण दर्पणावत् हो जाय ।
इहि । अवसर = इसी मनुष्य जन्म मे । । 76. कारा = सदोष, मैला । सिखवत = सिखाते
हुए भी । 77. पाणी धाोवे । = तीर्थादि के जल से धाोवे । 78. धयान धारे = चि । तवन किये । बग =
बगुला । उध्दरै = उध्दार को प्राप्त हो । सीझे कोय =
कार्यसिध्द हो । 80. काले तै । = मैले से । धोला =
विशुध्द, निर्मल । दिल दरिया मे । धाोय = दिल को आत्मचि । तन
रूपी दरिया मे । धाो । 81. दर्पण ऊजला = मन शुध्द हो । मैली आरस =
मन रूपी आरसी विषयवासना से मैली है । 82. रँग राता = प्रेम मे । मस्त । क । चन =
शुध्द स्वर्णवत् निर्मल । 84. लोह देह का एक-दूसरे से स्पर्श करने से स । कोच करते है । पर मन जगत् मे
। सर्वत्रा स्पर्श करता है, उसका विचार कोई नही । करता । 85. यतन = उपाय, छुआछूत आदि । 86. हाडो । मुख भरया = मुँह दाँतो । से भरा है । जीभ मा ।
स की है उसी से सब कुछ खाया जाता है । 87. नौओ । द्वारे = कान, ऑंख, नाक, मुँहमल-मूत्र्रोन्द्रिय
। बहै बलाय = मैला झरता रहता है । शुचि =
पवित्रा । 88. भावार्थ-मनुष्य का मन विषय से च । चल हो कहाँ का कहाँ
जाता रहता है । इन्द्रियो । की प्रवृत्तिा विकारो । मे । है ही मानसिक दशा मे ।
जब मन शूद्र, चाण्डाल आदि के स्त्राी सहवासादि मे । चला जाता है तब केवल स्थूल
शरीर के आचार से छुआछूत से क्या सिध्दि है? 89. दादू जीवे पलक मे । = विषय की अनुकूलता मिलते ही मन पल
भर मे । उसकी ओर खि । च जाता है । मरता । कल्प बिहाय = मन को
वश मे । करने मे । कल्प के कल्प बीत जाते है । । पतियाय =
भरोसा करे । । 90. मूवा = मरा । मरघट = श्मशान । 91. यहु मन मारे मोहि = साधाना मे । या साधाना के परिपाक
के पश्चात् भी यदि मन को विषय से दूर रखने की सावधाानी न रक्खे तो मन साधाक को
मार लेता है, पुन: वियषासक्त कर देता है । 92. रि । द है = जि । द है, राक्षस है । जनि रु
पतीजे कोइ = यह निग्रह मे । आ गया है इस तरह का भरोसा न करे अपितु
मनोनिग्रह के पश्चात् भी मन की स्थिति के बारे मे । सजग रहे । 93. मा । ही सूक्ष्म ह्नै रहे = मन की वासना बाहर से
निवृत्ता हो जाने पर भी अन्त:करण मे । अति सूक्ष्म रूप मे । छिपी रहती है ।
पवन लाग पौढा भया = जैसे शिथिल सर्प मृतवत् घायल किया हुआ
सर्प । पवन = परवाई हवा लगते ही पौढा = युवा
की तरह सबल हो जाता है, इसी तरह निगृहीत मन भी विषय अनुकूलता से तुरन्त
विषयासक्त होने की ओर दौड़ पड़ता है । 94. स्वप्ना तब लग देखिए = स्वप्न जैसे मिथ्या है उसी तरह
विषयभोग भी मिथ्या है क्यो । कि उनसे कभी तृप्ति नही । होती । यदि विषयभोग
वस्तुत: सच्चे हो । तो उनकी प्राप्ति के पश्चात् उपरति हो जानी चाहिए पर होती
नही । अत: जब तक मन विषय भोग मे । लगा हुआ है तब तक उन मिथ्या भोगो । मे । लगा
रहता है । 95 से 103 तक मन की वासनारूप दशा का वर्णन है । मन मे । जैसी वासनाये । घर
किये रहती है । वैसे ही स्वप्न आते है । वैसी ही क्रिया तथा कर्म बनते है । ।
96. जाही सेती प्रीत = मन वासनाभिमुख है तो भोगविषयो । मे
। प्रीति करेगा, मन अन्तर्मुख है तो आत्मचिन्तन मे । लगेगा । 98. सुरति = वृत्तिा । 99. जहँ पहली रह्या समाय = जीवनकाल मे । मन की वासना जैसे
काम मे । प्रबल थी, मरने पर प्राण का निवास प्राय: वैसे ही काम की प्रवृत्तिा
वाले शरीर मे । होताहै । 101. आदि अन्त अस्थान = आदि से अन्त तक मन की वृत्तिा जिस
ओर प्रबल रहती है, वही मनोवृत्तिा का आधाार स्थान है । 103. जहँ जाणे तहँ जाय = जिसमे । आसक्ति है, अनुराग है,
मनोवृत्तिा उसी ओर जाती है । 104. जब दादू बाणक बण्या = जब कार्यसिध्दि का स । योग
बैठने को होता है, तब आशय आसण होइ = तब मन का आसन =
बैठना उचित स्थान पर आत्माभिमुख होता है । 106. गाफिल = असावधाान । दादू फिसले पाँव =
अपने लक्ष्य से च्युत हो गया । 107. प । गुल = पा । गला विरक्त । अकाश =
ब्रह्मभूमि, आत्मनिष्ठा से । धारती आया = नीचे आया, विषय भूमि
मे । । 108. फिर आवे । कलि माँहि । = वापिस काम्य कर्मों की कलन
मे । आ रूपता है । 110.र् वत्तान = देहरूपी भा । ड । एकै भाँति =
एकसा, प । चभूतात्मक । भिन्नभाव = भेद-भाव । 111. मोमिनाँ = त्यागी, फकीर । मीर =
समृध्दिशाली । साधाको । = अच्छे-अच्छे साधाक । पीर =
पहुँचे हुए । 112. मुनिवर = बड़े-बड़े मुनि, विश्वामित्राादि ।
सुर नर = इन्द्रादि । 113. सिधा = गोरखनाथ । योग =
मच्छेन्द्रनाथ । यत = सोमकार्तिक । बाहे =
चलाये, डिगाये । 114. पूजा = सेवा । मान = प्रतिष्ठा ।
बड़ाइयाँ = प्रश । सा । आदर = सत्कार ।
परिहरे = त्यागे, छोड़े । 115. हलाहल = काम-क्रोधाादि विषयरूपी जहर । 116. करण = व्यावहारिक काम । किरका = कण,
र । च, लेश । कथण = कहनी । 118. निर्भय घर नही । = भयरहित आत्माभिमुख स्थिति मे । नही
। है । भय मे । = विषय भोग मे । । बीछुडया =
अलग हुआ । कायर = डरपोक । 119. सब गुण तजे = विषयवासना, अह । कार, देहाधयास ।
टूटे नहि । धाागा = वृत्तिाका प्रवाहरूप धाागा आत्मा की ओर से
कभी टूटे नही । । 120. इन्द्रिय सहित मन एकरस = आत्मचि । तन मे । लगता है
तभी अपने लक्ष्य क = पीव की प्राप्ति होती है । 123-26. मन की दो दशाओ । की स्थिति दिखाई है । मलिन मन है उसी मे ।
विषयवासना पनपती है, उसी मे । भ्रान्ति को आश्रय मिलता है, उसी मे । जन्म
मृत्यु भय ब । धान के कारण बनते रहते है । , मन की पवित्राता से ही मन की
मलिनता निवृत्ता होती है, अधयास रहित मन की दशा ही माया रहित स्थिति है । मन की
स्थिरता से ही जन्म-मृत्युकारक कर्ममय बन्धानो । से मुक्ति मिलती है । मन की
साधाना ही मन को स्थिर बनाती है, इस तरह मन को शुध्द आत्मनिष्ठ स्थिर कर लिया
जाय तो मन का जो चा । चल्य है वह मन ही मे । विलीन हो जाता है । यही आत्मस्थिति
की दशा है, इस अवस्था मे । पहुँच जाने पर ही मन की दौड़ भाग समाप्त होती है ।
। इति मन का अ । ग सम्पूर्ण । अथ सूक्ष्म जन्म का अंग । 11 । 2. घट माँहि । = घट मे । । अनेक जन्म दिन के करे =
विविधा प्रकार की वासना मे । मन का आना यही विविधा जन्म है । 3. गुण = प्रवृत्तिा । व्यापै । =
उत्पन्न हो । आवागमन = वृत्तिा का व्यवहार । 4. सब गुण = सब तरह के स्वभाव । घट मा । ही । जामे
मरे = अन्त:करण मे । ही वासना की उत्पत्तिा-जन्म, निवृत्तिा-मृत्यु
होती रहती है । कोई न जाणे = वासना मे । उलझा हुआ मनुष्य ।
5. भोगवे = भोगे । 6. रूप = आकृति, जन्म । 7. निशवासर = रातदिन, अनवरत । सूक्ष्म जीव =
स । कल्पमय मन की भावना है वही जीवरूप है उसका बार-बार बदलते जाना यह
उसका स । सार है । 8. भावार्थ-मन मे । कभी पावक = क्रोधा की वृत्तिा ।
कभी पाण = काम की वृत्तिा । कभी धारत = जड़ता
की वृत्तिा । कभी अ । बर = शून्यतावत् विचारहीनता की स्थिति ।
कभी वाय = वायु की तरह बोलने का बव । डर । कभी कु ।
जर = काममय वृत्तिा, कभी कीडी की तरह छिद्रान्वेषण की भावना ऐसे वासना
के बदलाव से विविधा, पशुतुल्य आचरण करने की वृत्तिायाँ उत्पन्न होती रहती है ।
, इसी से मनुष्य पशुवत् हो जाता है । । इति सूक्ष्म जन्म का अ । ग सम्पूर्ण । अथ माया का अंग । 12 । 2. साहिब है पर हम नही । = अस्ति भाति निजरूप ब्रह्म है,
प्रकृति व उसका कार्य अनित्य है । 3. प । च दिन = थोड़े से जीवन मे । । गर्व्यो
= अभिमान किया । 5. अन्तकाल आया-गया = देह के विनाश के साथ ही सब धान
आया-गया हो जाता है । 6. जे ना । ही । सो देखिए = जिसकी स्थिति नही । जो वस्तुत:
नही । है, उसको सच समझ रहे है । । 7. मृग जल = मृगमरीचिका बालू मे । पानी की तरह की चमक ।
चिलका = प्रतिबिम्ब । 8. जग प्यासा मरे, पशु प्राणीपीया = पशुरूपी प्राणी
मरुजलरूपी विषय भोग पीते है । , तो भी प्यासे ही रहते है । । 9. छलावा = भूत की कल्पना । स्वप्ना =
स्वप्न । बाज = बाजीगरी । इनके भुलावे मे । ना आना । 1 1. ऐसा आप जाणिये = आप-जिन वस्तुओ । मे
। अभिमान किया है उन्हे । स्वप्नवत् किया है उन्हे । स्वप्नवत् मिथ्या जानिए ।
12. दृढ़ गह = मजबूती से ग्रहण कर । आतम मूल
= अपने प्राप्त करने का कारण । सेमल फूल = सेमल के
फूल मे । केवल कपास होती है कोई खाने के योग्य वस्तु नही । होती । 13. नैनहुँ भर नहि । देखिए = रागमय प्रवृत्तिा से स्त्राी
व सम्पत्तिा को न देखे । 14. हय, वर = घोड़े । फूल्यौ अ । ग न माइ
= फूल कर अ । ग मे । नही । समाता । भेरि दमामा = शहनाई, नगारे
बजाना । 15. बिहड़े = बदले, परिवर्तन हो । अजरावर
= जन्म-मृत्यु रहित है । 17. चौदह भुवन और तीनो । लोक सब पाँच भूतो । के कार्य है । , माया मे । रती
मन की मनसा को इनसे उदास करो । 18. विगास = अति प्रसन्नता । अ । त न पूगे आस
= इस दशा से अ । तिम इच्छा-= सुख शा । ति उसकी आशा पूरी नही । होती ।
19. माया के निशान पर मनरूपी बाण को कमान पर (मूठि न मा । डिये) स । धाान न
करिये, अर्थात् मन को माया मे । न लगाइए । 21. माखण = दया करुणा प्रेम से कोमल मन । पाहण
= कठोर, दुराग्रही । 22. बीगड्या = खराब हुआ । 23. खूब सौ । = सबसे श्रेष्ठ, सबका कारणरूप ईश्वर । 24. रत = आसक्त । 25. ते बहुर न आये = वे पलटकर सत्स । ग मे । ना आ सके ।
केते = अनन्त, बेशुमार । 26. मोट = भारी बोझ । बह-बह = उस बोझ को
उठा-उठा । सकई = सकै । 27. विद्वान प । डित जन भी माया के रूपादि के अनुसार (पीछे) जाते है । । 28. पग भरे = कदम उठावे । , माया की ओर देखता तक नही । ।
29. अपणे-अपणे घर गये = जैसी प्रवृत्तिा थी उसी के अनुसार
माया चाहने वाले उसी के लिए जन्म खोकर चले गये, आत्म-परिचय के जिज्ञासु साधाना
कर जन्म सफल कर चले । 30. माया मा । ही । ले रह = माया ने अपनी चाह मे । ही उनको
लगाये रखा । डूबे काली धाार = सर्वथा जन्म को व्यर्थ खोकर
जाना पड़ा यही काली धाार है । 31-32. रूप राते = सुन्दर रूप पर रीझे
रहे । बदी क = दूसरे की अपकीर्ति । लुब्धिा
= लोभ । भूख = वासना या चाह । 33. चैन = सुख । इक राज = एक ही का राज्य
। बैसे = बैठे । 34. निश्चल बास = शान्ति का स्थान । राजा
= मन, अन्त:करण । परजा = इन्द्रियाँ तथा तीन गुण । 35. कु । जर = हाथी । बँधााणा = बन्धान
मे । आया । निकस्या = निकला । 36. मर्कट = ब । दर । फ । धा = फ । दा,
फाँसी । 37. सूवा = तोता । ब । धया = पि । जरे मे
। आया । क्यो । ह = कैसे ही । निकसे = निकले
। 38. अ । धा = विवेक विचार के नेत्रा रहित । अज्ञान
गृह = अज्ञान के मोह मे । । बाद = व्यर्थ, फालतू ।
39. बूड रह्या = डूबा हुआ, अतिलिप्त । 40. जिस स । सार को देखते ही प्रलय हो रहा है उसके स्वाद मे । इ । द्रियो ।
के भोगार्थ लग कर और परमात्मा को भूलकर मनुष्य माया मे । बँधाते है । । 41. विष सुख = विषय जन्म झूठे सुख मे । । रम-रहे
= भूल रहे । ऊबरे = तिरै, बचे । स्वाद छाड =
विषय भोग की चाह को त्याग कर । 42. फूल्यो कहा = क्यो । गर्व कर रहा है । 43. मनमाने = मन उन्ही । मे । लगा है । धा । धा
= दुनिया का व्यवहार । फ । धा = जातिकुल कुटुम्ब के
नाना स । ब । धा । अ । धा = ज्ञान, विचारनेत्राहीन ।
जाचन्धा = जन्म से ही अ । धा । मग = रास्ता ।
छाने = छाँट रहा है । दिवाने = झूठे को सच
समझने वाले पागल । 44. विकार = विकृति मे । । गृह = घर ।
दारा = स्त्राी । 45. ता कारण = उनके लिए । हति आतमा =
अपना विनाश किया । विसरया = भूला । 46. झूठे के = असत्य माया के । भाग सके =
दूर हो सके । 47. गत । = नाशवान । दारा = स्त्राी ।
सुत = पुत्रा । आपा = अह । कार ।
परा = परभेद वृत्तिा । कत र । जन । = कहाँ आसक्त हो
रहा है । भजसि = चि । तन कर । 48. जीवो । मा । ही । जिव रहै = जिन मनुष्यो । का मन सुत,
स्त्राी, बन्धाुवान्धावादि मे । ही रहता है । सा । ई सूधाा सब गया
= उनका परमेश्वर प्राप्ति के मौके सहित सब कुछ चला गया । अ ।
दोह = श । का । 49. माया मगहर खेत खर = माया है वह मगहर की भूमि की तरह है
उसी मे । उलझ मरने वाले खर बनते है । । सद्गति = उत्तामगति,
स्वस्वरूप प्राप्ति । ब । चे = बच जाय । सरीखे
= समान । 51. निमष = पलभर । जामन मरण आवरणा = जन्म
मृत्यु की आग मे । झुलसना । दाझे = दग्धा हो, सन्तप्त ही ।
52. विहरे = वेद दे, चीर देता है । 53. सघन वन = बीहड़ ज । गल । मुग्धा =
मोहान्धा मनुष्य । गँवार = मूढ, मूर्ख । 54. घट = अन्त:करण मे । । घर फोड़े =
वृत्तिा को भ । ग करता है । सोवत साह = मनुष्य स । सार की
मोहनिद्रा मे । सो रहा है । ले जात = मानव जीवन रूप है उसको खत्म कर देता है,
अथवा काम रूपी चोर, तत्तव वस्तु = मनुष्य का शील तथा
ब्रह्मचर्य है उसका विनाश कर देता है । 55. मूसे भरे भ । डार = भरे हुए भ । डार को चुराता है ।
चेतन पहरे चार = चारो । पहर होशियार रहो । 56. दादू बारह बाट = कामजन्य भोग की वासना से मनोवृत्तिा
विविधा कामनाओ । द्वारा अनेक प्रकार की हो जाती है । यही बारह बाट है । 57. गिले = पासे, निगल जाय । कर्म गिले =
सकाम कर्म इसी तरह मनुष्य को निगल जाता है । 58. जीव गिले जब कर्म को = तत्तवज्ञान करके जीव कर्मों को
प्राप्त कर जाता है । जब तत्तवज्ञान जीव को होता है तब राम ही राम भरपूर उसको
दिखाई देता है । 59. कर्म कुहाड़ा = वासनामय कर्म कुहाड़े के समान है ।
अ । ग बन = मनुष्य जन्मरूपी शरीर वन है । 60. आपै मरे आप को = यह मन आप ही अनेक वासनाओ । मे । पड़
अपना नाश करता है । 62. सब ऊपजे = नाना भोग की वासना पैदा होती है । 63. भावार्थ-काम की प्रवृत्तिा के साथ और अनेक विकार
अनुबन्धाी रहते है । , इससे काम सब पाप की जड़ है । यह इस स्थूल शरीर के आकार का
विनाशकारी है । 64. यहु ताे = यही तो । दोजख = नरक ।
आपा = अभिमान । 65. विषय हलाहल = काम, क्रोधा, लोभादि प्रवृत्तिाजन्य विषय
भोग ही हलाहल जहर है । मोहरा = जश्हरमुहरारूपी राम नाम । 66. विषय भोग(वीर्य का पतन करना) एक नर ही हत्या के बराबर कहा है । मनुष्य
जीवो । मे । शिरोमणि है । 67. विषया का रस मद भया = विषयभोग की प्रवृत्तिा उसका
परिणाम वही मद है । नर नारी का मा । स = नर नारी का स । योग
है यह मा । ससदृश है । जो विषयरत होते है । वे इस मद मा । स का सेवन कर जन्म को
नष्ट करते है । । 68. भावै शाकत (शाक्त) हो, भावै भक्त (वैष्णव) हो, पर जो हलाहल (निषिध्द)
विषय भोग मे । फँसा है तिस के समीप जाना दयाल जी वर्जित करते है । । 69. लोहखाड़ा एक ग्राम है, उसमे । ठग बसते थे । उन्हो । ने चाहा था कि स । तो
। को निम । त्राण के बहाने बुलाय कर स । तो । के लटे-पटे छीन ले । । यह मनसूबा
ठगे । का दयालजी ने जान कर यह साखी कही थी । 70. साँपणि = स्त्राी रूपी साँपणी, माया रूपी साँपणी ।
कहि उपकार कर = किसी सद्गुरु कथन के उपकार से । 71. राम म । त्रा जन गारुड़ = साँप-विष उतारने वाले के सदृश
सद्गुरु गारुड़ी राम म । त्रा आत्मचिनरूपी स्मरण उपदेश से उस विष का निवारण कर
देते है । । ऐसा स । योग बने तो कोई जीवित हो । 72. पिव के = परमेश्वर के, स्वस्वरूप की प्राप्ति के लिए ।
पर जले = प्रज्वलित हो रहा है । 73. परिहार = दूरकरि । 74. अग्नि अनन्त = काम, क्रोधा, लोभ, राग, द्वेष आदि की
तरह-तरह की आग जलती रहती है । 75. घट मा । ही । = मन के अ । दर । घण =
बहुत । फाटी क । था = फकीरी बाना, चोला । चिद्द
= साँग, चैन । 76. काया राखे ब । द दे = शरीर का तो नेति, धाोती आसनादि
द्वारा, प । चधाूणी, प । चधाारा आदि से निग्रह करता है । माया नहि ।
मेलै = ऐसे बाहरी दिखावे वाले की माया निवृत्ता नही । होती ।
बजार = शहरी लोक । 77. म । दिर = घर । मीच का = मौत का ।
पैठा = प्रवेश किया । 78. इस योगी की आग = परमेश्वर की माया । दूरै ब ।
चिए = दूर से ही रहिए । योगी के स । ग लाग =
ईश्वरचिन्तन मे । या आत्मपरिचय मे । लग कर । 79. ज्यो । जल मै । णी माछल = जैसे जल मे । रहने वाले मछली
उसी मे । रहना चाहती है । 80. नैन दो = आभ्यन्तर । मेर चढ = माया
की मर्यादा को लाँघकर । झाल = झल या ज्वाला । 81. बिना भुव । गम हम डसे = बिना साँप के जायामाया से या
काम रूपी सर्प से हम डसे गये । बिन जल = विषय रूप जल मे । ।
बिन ही पावक = शोकाग्नि, चि । ताग्नि । बसाय
= बस नही । । 83. बाजी चिहर रचाय कर = स । सार रूप अदभुत बाजीगरी फैलाकर
। अपरछन = अदृश्य, ओझल । पट = अज्ञानरूपी
पर्दा । 84. ईश्वर ने जीवो । के साथ (ढिग) (ढोरी) चाह लगाकर, उनको जगत् मे । बाहे
(भरमाय) रक्खा है । 85. बाजी बहुत है = माया रचित भुलावा अपार है । 86. अरु बहुतेरा आहि = नामरूप प्रप । च बहुत ही बेशुमार है
। केता आवे जाहि = कितने स । कल्प मायिक प्रवृत्तिा से आते है
। और कितने जाते रहते है । । 87. बाज = बाजीगरी, माया । भुरकी बाहि =
भुरकी डाल वश मे । कर । 88. दूजा = नामरूप वस्तु । अ । धाार =
अन्धाकार, अविद्याजन्य अज्ञान । 89. सो धान = आत्मपरिचय रूप धान । माया बाँधो
= माया मे । लिप्त हुए । पूरा पडया = सफल हुआ । 90. माया को स । त जन त्यागते है । , तिस को साधाारण जन हाथ फैला कर लेते है
। , परमतत्तव को स । त जन प्रीति से लेते है । , उसको साधाारण जन डाल देते है ।
। 91. हीरा = हरिनाम व स्वस्वरूप । क । कर
= अनात्मपदार्थ रूपी पत्थर के टुकड़े । जीवन सौ । = स । ब ।
धिायो । से । 92. बणिजे = व्यापार करे, लाभ प्राप्ति का कार्य ।
खार खल = विषय, भोग । हीरा = निर्गुणनाम ।
जौहर = सन्तजिज्ञासु, रतन परीक्षक । 93. जैसे पुरुष दड़ी (गे । द) को दोट (चोट) लगाकर इधार-उधार भरमता है तैसे
माया इस प्रप । च (जीवादि) को त्रिालोकी मे । भरमाती है धाुर (अपने स्वरूप) मे
। ही जीव स्थित हो करके स । तोष पाता है, सो उसका मेरू पर चढ़ना (गुणातीत होना)
है । 94. जैसे अनल पक्षी आकाश से उतर कर, इधार-उधार फिरता है, पीछे उलट कर आकाश
मे । अपने स्थान ही मे । स्थित हो कर सुख पाता है, उसे दादूजी कहते है । कि
माया मेर (प्रप । च) को उल । घ कर, उलटे प । थ (अ । तर्मुख वृत्तिा द्वारा)
अपने स्वरूप मे । स्थित होवे । 96. सुर = इन्द्रादि तथा दिक्पाल । नर =
मनुष्य । मुनिवर = अगस्त्यादि । हेठ = नीचे
। 97. चेर = दासी, वशवर्ती । दास = सतोगुण
द्वारा स । तो । की सेवा करने वाली । ठकुराण = मालकिन, रजतम:
प्रवृत्तिा द्वारा प्रेरक । 98. शाकत = फल विशेष की प्राप्ति वाले साधाक । 99. चार पदार्थ = धार्म, अर्थ, काम, मोक्ष ।
मुक्ति = निरन्तर सुखानुबन्धा । विलस = भोगी,
सदुपयोग मे । ली । वितड़ = वितीर्ण की, दानादि द्वारा बा । टी
। माथे मार = आसक्ति नही । की । 100. गहले = पागल, उन्मक्त । 101. जनि को = कोई नही । । नरक कर =
दुखरूप नरक की दाता । 102. मति = बुध्दि । चकचाल = च । चल,
भ्रान्त । मद पिया = विषय-भोगरूपी वारुणी का पान किया । 103. सो माथे मार = स । त साधको । ने उस माया का-जिसकी
स्थिति पिछले तीन चरणो । मे । दिखाई है । माथे मार = सर्वथा
परित्याग किया । 104. भावार्थ = स्त्राीवशवर्ती मनुष्य मृद । ग की तरह दोनो
। ओट पप्पड़ खाकर बोलते है । अर्थात् कथन तथा स । सर्ग से विविधा दुखो । के
तमाचे खाते रहते है । । उसी की प्रेरणापूर्ति के लिए मनुष्य जणे-जणे की गुलामी
करता है और दर-दर भ्रान्त हुआ डोलता रहता है । 105. परिहरै = त्याग दे, स । बधान करे । । गर्भवास
= जन्मजन्य दु:ख । 106. रोक न राखे = स । ग्रह कर धारे नही । । 107. सदिका सिरजनहार का = परमेश्वर का दिया हुआ जो धान
प्राप्त हुआ है, वह । केता आवे जाय = कितना अदलबदल होता ही
रहता है । 108-111. इन चार साखियो । मे । माया द्वारा प्राणियो । को विविधा रूप से
ठगने का उल्लेख है । गहे = पकड़े-कब्जे मे । करे ।
त्राय = तीन, आधयात्मिक, आधिाभौतिक, आधिादैविक कलेश । उपावन = उत्पन्न
करने वाली । अ । ग अग्नि = भोग-वासना की चिन्तामय अग्नि ।
भामिन = स्त्राीरूपधार । बिट । ब = विटप, स
। साररूपी वृक्ष । परलै किया = डिगा दिया । बिगोया
= डुबो दिया । 112. घर आ । गणे = घर के चौक मे । गृहिणी द्वारा नचाने पर
। 113. माया म । गल गाय = मामा अपना साम्राज्य बनाती है ।
114. इस साखी मे । अ । तर्मुख धयान से जो आत्म प्रकाश दिखता है वो बतलाया
है, अर्थात् ब्रह्म ज्योति कभी झिलमिल तिरवरे की भाँति, कभी दीपक की शिरवावत,
कभी सूर्य च । द्र के प्रकाशवत, कभी छलावे के चमकारे की तरह प्रतीत होती है ।
115. दीपक देह का = देशधयासी का दीपक रजोगुण तमोगुण मय
प्रवृत्तिा जन्य है । प । खिया = जुगनुवत् जीव प्राणी । 117. त्रिाया पुरुष का अ । ग = शरीर का निर्माण एक ही
भौतिक स । घात होते है । , सह सभी जानते है । फिर भी, आपा पर भूला नही
। = भोगवासना मे । फँसा, लि । ग भेद से स्त्राी को भोगसामग्री के रूप
मे । ही देखता है । 118. माया के घट साजि द्वै = अविद्या रचित स्थूल शरीर उसको
अ । ग भेद से दो रूप मे । (स्त्राी पुरुष) सजाया गया है । 119. भावाथर्र्-सच्चे साधाक स्त्राी-पुरुष के लि । ग भेद
का परित्याग कर एक ही चेतन अधिाष्ठान मे । उत्पन्न हुए सब शरीरो । को एक परिवार
के रूप मे । देखता है । उसमे । लि । गभेद की वृत्तिा बहन, भाई रहती है । न कि
स्त्राी-पति की । 120. पर घर परिहर आपण = यह पराई = दूसरे
पुरुष की और यह अपनी स्त्राी है, इस भाव को त्यागो । मुग्धा =
मोहित । 122. अवधाूत = कर्दमादि ऋषि । 123. विष का अमृत नाम धार = भोजजन्य वासना विषवत् है उसको
अमृतवत् मान । सबने-अज्ञानाधाीन जनो । ने खाया । 124. व्याधा = विविधा रोग । विकार =
मानसिक बिगाड़ । 125. जिव = विषयप्रवृत्ता प्राणी । 126. मैल = मलिन । गुण मई =
त्रिागुणात्मक । 127. खावे = भोगे । 128. जे विष जारे खाइ कर = जो व्यक्ति वज्रोली आदि क्रिया
से शुक्र, आर्तव का पान करते है । वह विष का पान कर जराना है पर इसको सन्त
साधान व आत्मयोगी अच्छा नही । समझते, इसलिए महात्मा कहते है । , जनि
मुख मे । मैले = विष को खाकर पचाने की क्रिया आते हुए भी विष को खाया
ही क्यो । जाए? 129. निबेरा = समाप्ति, नाश । 132. ब्रह्म सरीखा = ब्रह्मसदृश । गुण मेलै
= रजतममय वृत्तिा द्वारा । 134. स्वर्ग दयाल = स्वर्गपाताल । सूक्ष्म
= अन्त:वासना । 135. ऊभा सार । = वृत्तिा के उत्थान मे । पुन: वृत्तिा को
आत्मसार मे । लगाना । बैठ विचार । = वृत्तिा को स्थिर कर
आत्मविचार मे । सतत लगाना । स । भार । जागत सूता = जागते-सोते
भी आत्मनिश्चय से डिगना नही । । इसी साधाना से सब जाल को हटाकर तीन लोक के
तत्तवरूप समष्टिचेतन तक पहुँचेगा । 136. सरीखे = समान, सदृश । बाँछे = चाहे
। 138. ब्रह्मा का वेद = सकाम कर्म यज्ञादि । दूसरे-तीसरे
चरण मे । एका । गी सेवावृत्तिा का निरूपण है । 140. जोनी आवे जाय = उत्पत्तिा, विलय से युक्त है, सभी
प्राणी तथा देवता । 142. अ । जन किया = साकार बनाया । गुण-निर्गुण
जाने = जो गुणातीत = व्यापकआत्म चेतन ईश्वर रूप है, उसको नाना अवतारो
। का रूप दे सगुण किया गया । धारया दिखावे अधार कर = जो अधार
है = आधाार-रहित है, उसी को मूर्ति बनाकर धारकर दिखाते है । । 143. निर । जन = नाम रूप से रहित । अ । जन
= नाम रूप मय । 144. पट । तरे = बराबरी । 145. चिन्तामणि क । कर किया = सकामकर्मरूपी क । कर को
निष्काम साधाना रूपी चिन्तामणि के समान किया । 146. पाषाण = पत्थर को । क । चन = सुवर्ण
। 147. सूरज फटिक पाषाण का = स्फटिक पत्थर का सूर्य बनावे तो
क्या? उससे अन्धाकार का निवारण हो । 149. विदेश = परदेश मे । है । कामिणि =
स्त्राी । उणिहार = उस पुरुष के समान आकार का चित्रा । 150. छत्रापति शिरमौर = कागज के चित्रा का चक्रवर्ती राजा
बनाया गया । 152. भावार्थ = आप परब्रह्म परमेश्वर ने पहली उपाय कर =
प्रकृति निर्माण कर, अपने को उससे जुदा = स्वत । त्रा रख लिया । पश्चात्
त्रिागुण प्रधाान = तीन देवो । की प्रकृति से उत्पत्तिा कर, जगत् = स । सार के
प्रवाद का ब । धााण = ढाँचा स्थिर कर दिया । 153. नाम नीति = आत्मचिन्तन है वही नीति है ।
अनीति सब = और सब व्यापार अनीति है । बाँधो बन्द =
वर्णाश्रम के नियमादि सब बन्धान है । , ये सब स्वार्थभावना से कल्पित है । ।
पशू = सत्य ज्ञान शून्य पशुवत् मनुष्य, इस भेद को जानता नही ।
। पारधा = शिकारी, शास्त्राीय प्रवृत्तिा प्रधाान प । डितो ।
ने ये विधिा निषेधारूपी नियमो । के फन्दे रोपे है । । 154. भावार्थ = यज्ञादि कर्म विधिा = वेद
के नाम से चला, सकाम कर्म की प्रवृत्तिा के भ्रमित कर्मो । मे । उलझा या
मर्यादा मा । ही । रहै । = वर्ण तथा जाति की सीमित मर्यादा को
धार्म का रूप दे, उसी मे । उलझे रहते है । । वास्तविक तथ्य का चिन्तन नही ।
किया जाता । 155. माया मीठी बोलण = माया मीठे बोले =
छली आदमी की तरह अपनी ओर आकर्षित करती है । कलेजा = शील
सन्तोष रूपी हृदय । 156. डसे = खाये गये । मुये = मरे ।
निदान = निश्चय । सयान = जानकार । 157. रत = आसक्त । सर्वस = सद्गुण
सद्विचार । 159. आदि = ब्रह्मा से लेकर । अन्त =
वीरूधाादि, वृक्षवनस्पति आदि तक । 160. पैसे = प्रवेश करे, वासना के रूप मे । । 162. रोवे जग पतियाय = वासना के परिणाम से विविधा दु:ख पा
रोते है । फिर भी उसी वासना का पल्ला पकड़ते है । । 164. नारी माता होय = प्रकृतिरूप से, स्त्राीरूप से । 166. गोप = गुप्त हो, अदृश्य हो । छिपाइ
= छाने, छिपकर । धाीजे = विश्वास करे । 167. कामनि = स्त्राी । गल बाहि = गले मे
। डालते है । । कटार = कटाक्षरूपी कटार । कर गहै
= हाथ मे । ले, साधान बना । 170. भँवरा = भोगी पुरुष । वास = भोग का
। कमल बाँधााना आय = नारी की कमल सदृश मुखाकृति मे । आ बँधाा
। । इति माया का अ । ग सम्पूर्ण । अथ साँच का अंग । 13 । 3. महर = दया करुणा । मुहब्बत = स्नेह,
प्रेम । वज्र = वज्रवत्् । काले = मैले,
कलुषित । मोमिन = मेहरवान । 4. दोजख = नरक, दु:खावस्था । 5. नाहर सि । ह सियाला सब = इन पशुओ । की समान प्रकृति
वाले । बड़े मियाँ का ज्ञान = मुहम्मदसाहब की कुरान से, अपने
मा । स खाने का समर्थन करते है । । 6. येता प्रत्यक्ष काल = मा । साहारी मनुष्य । बक
= बगुले, मा । जर = बिल्ली , सुनहाँ
= कुत्तो, सह = सियाल आदि पशु-पक्षी वृत्तिा वाले है
। , वे काल के समान है । । 7. मुई = मृतवत्, शुशे, कतूबर आदि पशु-पक्षी । मार
= हि । सक, जीवहि । सक । माणष = मनुष्य । 9. भावार्थ = ल । गर लोग = मा । स खाने के आदी मनुष्य ।
भीर = पक्ष मे । । मा । साहारी की वृत्तिा सदा जोर-जुल्म करने
वाले बटपारे = अच्छे रास्ते से चुकाने वाले दुराचारी मनुष्यो
। का समर्थन करती है । वे आदि-अन्त सदा उन्ही । के सीर = सा ।
झीदार रहते है । । 10. ताजीर = उपहास, मसखरी । बड़ि बूझ =
बड़ी-बड़ी ज्ञान की बाते । । कजा = शिक्षा । 11. भावार्थ ¾ बे मेहर = निर्दयी ।
गुमराह = परमेश्वर के मार्ग से विमुख । गाफिल
= अचेत; अनजान । गोश्त-खुरदन = मा । स खाना । बेदिल
= खोटे दिल वाला । बदकार = बुरेकाम करने वाला । आलम
= दुनिया मे । फँसा हुआ । हयात मुरदन = जीते ही मरे
हुए जैसा । 13. दीन गमाय = सच्चा धार्म खोकर । नेकी नाम
= भलाई और आत्म-चि । तन । विसार कर = भूलकर ।
करद = छुरी, घातक शस्त्रा । 14. गल काटे = हि । सा करे । अया = ऐसा ।
साबित = सच्चा, सही । यकीन = विश्वास । 15. दुनिया । के पीछे पड्या = कुर्बानी आदि झूठे दुनियावी
काम के ही पीछे पड़ा हुआ है । 16. कुफर जे के मन मे । = काम क्रोधा, हि । सा आदि मन मे ।
भरे है । । दादू पेया झ । ग मे । = बहुत दुनियावी झगड़ो । मे ।
पैदा हुआ है । 17. आपस को = अपने अह । कार को । 18. दुन्दर = द्वन्द्व, काम-क्रोधा, लोभ-मोह, राग-द्वेषादि
। साहिब क = परमेश्वर की । अरवाह = आत्मा,
जीव । 19. मीया । मुई मार = उन निरीह, गरीब पशु-पक्षियो । को
क्यो । ? मारना । 20. बन्दा बन्दग = सच्ची सेवा मे । लगने वाला ही सच्चा
बन्दा है । रोष = क्रोधा, गुस्सा । 21. दूजा क्या धा । धाा = उस व्यापक परमेश्वर की सेवा
त्याग, मन्दिर, पूजा, बा । ग, कलमा, निमाज आदि अन्य धान्धाा क्यो । ? किया जाय
। 22. काफिर = पापी, झूठा । काफ = झूठ ।
23. फरमान = आज्ञा, आदेश । 24. मसकीन = गरीब । 25. सो काफिर = वह पापी है । दोजख मे । =
दुखा:वस्था मे । , नरक मे । । 27. भावार्थ-शैतान मन को नामचिन्तन से रोकिए ।
गोशमाल = इन्द्रियो । की सँभाल कर सद्वृत्तिा, सद््भावना का बन्धा लगा
। दूई = द्वैतभाव को दूर कर । तब घर मे । =
अपने अन्त:करण मे । ही परम आनन्द प्राप्त होगा । 28. मान = ईमान, सच्चाई । 29. दहै = जलन पैदा करे, कष्ट दे । मुवा
= मृतक । राह = मनुष्य जीवन का रास्ता । सँवार
े = सज्जित करे, सफल करे । 30. सो मोमिन = वही मोमिन दयालु समझ । सत्य सबूरी
वैसे आण = सत्य, सन्तोष को लेकर उसी का आधाार रखे, उसी पर दृढ़ रहे ।
भिश्त के = स्वर्ग के । पाट = किवाड़ । 32. गुजारते = करते । कहु क्यो । फुरमाई
= क्या खुदा ने या कुरान ने ब । दग = सेवा । सीर मे ।
= साझे मे । करने की कही है । 33. अमलो । = कार्यों,र् कत्ताव्यो । । 34. अघाइ = अति तृप्त होकर । खूट = खतम
हुई । पूग = पहु । ची, समाप्त हुई । आन = और
की । 37. निश्चल = स्थिर मन से । 38. आवट कूटा = विविधा सन्ताप, वासना कलेश । 40. भावार्थ-अपने शरीर की पौथी करो, तिस मे । हरि का यश
लिखो, उसका पढ़ने वाला अपना प्राण बनाओ, इस प्रकार की उपासना करके अलेख परमात्मा
का कथन व धयान करो । 41. कतेब = कुरान । सुबहान = पवित्रा
परमेश्वर । 43. गुसल = स्नान । ऊजू = हाथ पैर मुँह
पा । च अ । ग धाोना । 44. प । चो । स । ग = पाँचो । इन्द्रियो । के साथ । 45. मुवा न एकौ आह सौ । = विरह की एक ही आह मे । मर नही ।
सका । 46. भावार्थ-हे मुल्ला! नित्य परमात्मा की सेवा मे । लगा
रह, दु:ख क्यो । उठावै । बाँग वहाँ दीजिए जहाँ परमात्मा का प्रत्यक्ष दर्शन हो,
बाँग से तात्पर्य अनाहद शब्द से है सो धयान मे । उस समय सुनाई देता है जब
वृत्तिा परमात्मा मे । पूर्णरूप से लग जाती है । 47. दायम दिल = शुध्द हृदय । साबित = अख
। डित । धा । धाा = काम । 49. दुई दरोग = द्वैत भाव, भेद बुध्दि । कहो धाू
= किस ओर । 50. पख पख लीया बा । ट = व्यापक परब्रह्म को हिन्दू,
मुसलमान, ईसाई, पारसी, वैष्णव, शैव, शाक्त, बौध्दो । , जैन आदि विविधा
धार्र्मों के अनुयायियो । ने अपनी-अपनी तरह से बाँट लिया है । 51. जीते जी विषय वासनाओ । से दग्धा रहे । अथवा क्लेश दायक साधानो । से
दु:खी रहे । और कहे । कि मरे पीछे मुक्त हो जाये । गे, दयालजी का आशय है कि ऐसे
साधान ठीक नही । , उपाय वह करो जिनसे स । सार रूपी पहाड़ की दाह शान्त हो, जैसा
कि अगली (52वी । ) साखी मे । कहा है । 52. दारू = ओषधा, इलाज । 53. ठाँवड़ा = बर्तन । भूख न भाग = लालसा
नही । मिटती । खाय = उपभोग करे । 55. चारे = पशुओ । के खाने-पीने के पदार्थो । मे । ।
माँझ = बीच । 56. चमार की भट्ठी पर भरी (अधाौड़ी) कच्ची खाल जैसे फूली हुई लटका करती है,
वैसे स्वान शूकर की तरह अनियमित भोजन खाकर जो पेट फुलाते है । सो अनुभवरूपी
औषधा नही । पा सकते । 57. स्वाद चित्ता दीया = स्वाद मे । ही भोग मे । ही चित्ता
लगाये रहे । विल । बिया = उलझा । 59. अपणा = व्यापक परमेश्वर, अपना साधय । नीका
= ठीक तरह । मै । मेरा = अह । कार और भेदभाव । 60. जाण्या = समझा । रिसाय = गुस्से हो ।
। 61-62. इन दो साखियो । मे । वाचक ज्ञानियो । की स्थिति बतलायी । वाचक ज्ञानी
साखी शब्द बनाते है । , लोगो । को सुनाते है । , आत्मानुभूति का ढोल पीटते है ।
, अपने को प्राप्त ज्ञान का परचौने रूपेण करते है । , इस तरह ये अपने अह । कार
मे । अधिाकाधिाक बँधाते जाते है । । 63. उपज = उपजन, अनुभूति । जण जण = हर
मनुष्य को । ज्यौ । रसना रस शेष = जैसे शेष सहò जिह्ना से
नामचिन्तन का आनन्द लेता है, वैसे ही विवेकी साधाक सच्चे महात्मा के उपदेश सुन,
उसके रास्ते चल, आनन्द का रस लेता है । 65. तत्तव न चीन्हा सोइ = केवल कथनी की, वस्तुत: उस
तात्तिवक परमेश्वर को करणी द्वारा, चीन्हा = जाना नही । । 69. श्रोता = सुनने वाला । घर नही । =
अन्त:करण मे । स्थिर नही । । बादि = व्यर्थ, फालतू ।
वकता श्रोता = कथन करणी । एक रस = समान हो ।
आदि = असल । 71. दादू आसण पहल के = पहले की जो वासनामय वृत्तिा है, मन
फिर-फिर वही । आता है । अन्तर सुरझे समझ कर = गुरु उपदेश को समझकर, धाारण कर,
अन्तर सुरझs भीतर = अन्त:करण की विषमता को
सुलझावे । बाहर सुरझे = केवल बाहरी दिखावे मे । जो सुलझे हुए
से दीखते है । , वे पुन: देखते-देखते उलझे हुए दिखाई पड़ने लगते है । । 72. आत्मा = अन्त:करण । आप = आपा, अभिमान
। निपजे नही । = फलीभूत नही । हो । 73. मोटा = बड़ा, महान् । झूठा ज्ञान =
बनावटी, दिखाऊ ढो । ग । 74. भावार्थ = वह परमात्मा अपना स्वरूप सदा साथ व हृदय
प्रदेश के सम्मुख रखता है । गूझ = उस अदृश्य को अज्ञान तथा
भ्रान्ति से देख नही । पाता । बिना भ्रान्ति तथा अज्ञान का निवारण किये उस
। अबूझ = आत्मा को कैसे प्राप्त किया जाय । 75. सेवग नाम बोलाइए = केवल दिखावटी भक्ति से भक्त कहलाने
से कोई लाभ नही । है । 76. दासातन = सच्चे सेवक भाव से । हजूर =
सन्मुख । 78. अपणी भक्ति का भाव = अपनी प्रसिध्दि अपने महात्मापन की
चाह है । दाँव = मौका । 79. निराल = एक ओर, दूर । वन माँहि । =
विषय व्यामोह के वन मे । । 80. सो दशा = लोभ बड़ाई । वाद = वासना, अह
। कार । 82. मनसा = लालसा, इच्छा । बन आवे =
सफलता हो । 84. पयाना = चलना । पन्थ = साधाक, पथिक ।
85. मनसा वाचा कर्मना तब लागे लेखे = मन वचन कर्म से एक
अपनी साधाना मे । लगे । तभी लेखे लागे = ठीक फल प्राप्त करे ।
86. नाँहि । न = नही । है । अजान = बेसमझ
। 87. भावार्थ-सूना घट = अन्त:करण
आत्मनिष्ठवृत्तिा बिना सूना है = खाली है । सोधाी नही । = समझ
नही । , ज्ञान नही । । प । डित ब्रह्मा पूत = अपने को
वशिष्ठादि का व । शज व प । डित माने हुए है । । आगम निगम =
आर्ष वेद, स्मृति । नाचे भूत = अन्त:करण मे । वासनारूपी भूत
नाच रहे है । । 88. पढे = केवल पढ़ने से । दादू पीड़ पुकार
= अतिनिष्ठा से विरह की पीड़ से उसकी पुकार । 89. निवरे = खाली, अकर्मण्य । 91. सोधाकर = छानबीन कर, तलाश कर । 92. कजा = मृत्यु । कतेब = कुरान ।
भेद = रहस्य, जानकारी । 93. मसि कागद = स्याही और पन्ने, कागज । 94. कागज काले कर मुये = केवल कल्पना वाले प । डित कागज
काले कर विविधा शास्त्रा रच कर चले गये । एकै अक्षर पीव का =
एक व्यापक परमात्मा का पाठ पढ़े । वही सुजान = चतुर है । 95. कह सुन राम समाय = कहकर या सुनकर जो स्वय । राम मे । =
राम की प्राप्ति के साधान मे । लग गया । 96. भावाथर्र्-बिना दृढ़ निश्चय के केवल वाणी के व्यापार को
रोकने के लिए मौन धाारण करे । वे । बावरे = पागल है । , जो
केवल ब्रह्मज्ञान की खाली बाते । कहते रहते है । , उपदेश देते है । वे बोलने
वाले भी अनजान है । । 97. ह्नै कछू न आवा = कुछ बन नही । पाया । 98. जिनके ठीक न ठौर = जिनका दृढ़ निश्चय से कोई साधान नही
। है । 99. अन्तरगत = मन की भावना । मुख रसना =
कहने की बात । 100. समझी मन बौरे = पागल मन केवल कहने से राम नही ।
मिलता, यह समझ । 101. भावार्थ = जैसे नशेबाज, नशे की वस्तु का उपयोग कर,
अपने साथियो । मे । बैठ अपनी झूठी महानता मानता है । जैसे बिना एक पैसा पास हुए
भी, अपने को नगर सेठ वे बादशाह समझना पागलपन है, वैसे ही बिना साधाना के केवल
कथन से करणी का फल पाने की धाारणा करना पागलपन है । 102. टोटा = नुकसान । दालिद = दरिद्रपन ।
पैका = पैसा । सिरै = सर्वोपरि प्रधाान ।
107. घुरे = भजे । मीयाँ मीय । नि = मियो
। का मियाँ । इस साखी का तात्पर्य यह है कि तू अन्य देवताओ । को क्यूँ भजता है,
मियो । के मियाँ परमात्मा को क्यो । नही । भजता । 108. यह नरतन जो परमेश्वर ने दिया था सो वृथा, व्यर्थ ही गया । इस पागल,
गँवार मनुष्य ने स्त्राी, पुत्राादि लोगो । के कारण परमेश्वर को नही । देखा ।
109. चि । त = विचार, चिन्तन । मि । त =
मित्रा, सच्चा दोस्त । 110. पा । ति = प । क्ति । भरा । ति =
भेद, अलगाव । 112. सूप बजायाँ = अयुक्त तुच्छ साधानो । से घर की बड़ी
बलाये । दूर नही । होती । । जैसे कोरी बातो । से दु:ख निवृत्ता नही । होता ।
113. भावार्थ = जातीय पक्ष कैसा व्यर्थ है जैसे साँप की
लकीर को पीटना । साँप की लकीर को पीटने से साँप नही । मरता है, वैसे जातीय पक्ष
के कारण मन का भेद बुध्दिमान साँप नही । मरता । 114. दोन्यो । भरम है = जातीय पक्ष से बनाया हिन्दू और
मुसलमान का मजहब या धार्म दोनो । भ्रम है । । वास्तविक सत्य धार्म दोनो । से
न्यारा है उसको समझकर ग्रहण करो । 115. भ । जन = वर्तन मे । । बाहि = भर ।
118. परस । ग = सम्बन्धा, स । योग । सतस । ग
= सन्तजनो । का स । ग । 119. बासण = बरतन । आदर मान = सत्कार,
प्रतिष्ठा । गर्व गुमान = उनसे गर्व-अभिमान करना । 120. भावाथर्र् = वासना की आसक्ति से ज्ञान विचारहीन
नेत्रारहित अन्धो को दीपक-आत्मोपदेशरूपी दीपक दे, तो भी उसका अज्ञानान्धाकार
नही । हटेगा । जिसको स्वशरीर का ही ज्ञान नही । , उसको आत्मज्ञान कैसे समझ मे ।
आवे । 125. ढू । ढ़स = आत्मा को छोड़ अन्य भैरवादि देव पूजे ।
बाणि = आदत । 126. पै । डे = मार्ग, रास्ते । चाव =
चाह, उम । ग । 128. भावार्थ = आत्मा नाम-रूप-गुण से रहित है, उसमे ।
नाम-रूप-गुण कहना या आरोपित करना मिथ्या है । आवट कूट = अरहर
की तरह जीवन-मरण के चक्कर मे । देवादि तथा सब प्राणी जगत् घूम रहा है, आत्मा को
जाने बिना । 131. ऊपरि आलम सब करै । = बाहर दिखावे की पूजा स । सार के
अधिाका । श प्राणी करते है । । 132. दादू सब थे एक के = स । सार के सभी प्राणी उसी एक
चेतना शक्ति से चेतन है उसी को नही । समझा । 133. झूठा साँचा कर लिया = अनित्य विषयभोग के पदार्थ
दुनियाँ के नकली सम्बन्धा उनको सत्य मान कर स । सार के प्राणी दिवाने हो रहे है
। । 134. सूधाा = सीधाा, ठीक । 135. साँचा नही । = आत्माभिमुख नही । । झूठा
= झूठे पदार्थों मे । लगा स्वय । झूठा हो रहा है । 136‑ साँचा अ । ग न ठेलिये = जो सत्य है उसे अपनी समझ से
परे न करे । । 140. धाण = मालिक, स्वामी । पाख । ड की यहु पृथ्व
= यह जगत् पाख । ड की मान्यता देने वाला है, वह वास्तविकता तक न पहुँच
जो कुछ देखता है उसी की मान्यता करता है । 141. झूठा परगट = झूठा-मिथ्या स । सार व स । सार के पदार्थ
तथा स । ब । धा उसको परगट सच्चे समझता है । साँचा छाने = जो
परमेश्वर-सष्टिचेतन सब मे । व्याप्त रहा है, उसको छिपा हुआ समझता है । 142. पाख । ड = छल, बनावट । ऊपरि तै । क्यो । ही
रहो = ऊपरी दिखाने मे । कैसा ही क्यो । ? न हो । 143. उत्पति परलै होय = जन्म-मृत्यु की उलझन लगी रहती है ।
145. लोचन = ज्ञान-विचार-मय नेत्रा । अन्धा
= आवृत्ता । मुक्ता = आत्म-चिन्तन रूपी रत्न ।
फन्धा = फन्दा । 146. निरबँधा = नाम रूपादि बन्धान रहित व्यापक ब्रह्म ।
द्वै पख = सगुण-निर्गुण रूप । 147. गहगह = गहरी प्रीति । निबाहि =
निर्वाह करे, निभावे । 148. पयाल = पाताल मे । , अति एका । त मे । । 150. सन्मुख रहणि हजूर = जिनकी निश्चलवृत्तिा सदा
आत्माभिमुख लगी रहे । 155. बिच के = अनिश्चयी, स । सार और ईश्वर दोनो । की ओर
झपटने वाले । पूरे = आत्मनिश्चयी । सुधा-बुधा
= निर्दोष, भोले । 156. दाधो रीगे सोय = जिनके हृदय मात्सर्य की आग से जल रहे
है । । जो दूसरो । मे । विविधा अवगुणो । का आरोप कर कल्पते हो । या अपनी मिथ्या
सिध्दियो । को बचाने का यत्न करते हो । । 157. हाना बाहि = बाधाा उपस्थित करे, विघ्न डाले ।
क्यो । ह = कैसे ही । बलाइ = आफत । 159. एक मना आराधा = एकाग्रचित्ता से साधाना करना । 162. ल । घैगे यह घाट = यह वासनामय स । सार का विकट घाट कब
पार कर सके । गे । 163. सब साधाो । को पूछ = सब श्रेष्ठ साधाक जिसने सही
मार्ग पा लिया है, उनसे पूछ कर । 165. सयानै = जानकार, समझदार । बिच के =
स । दिग्ध अवस्था वाले । 167. साक्षी भूत है = साक्षी रूप है । 168. चोर न भावे चाँदणा = चोर को प्रकाश अच्छा नही । लगता,
इसी तरह विषयरत पुरुष को आधयात्मिक प्रवृत्तिा अच्छी नही । लगती है । 169. घट-घट = प्राणी-प्राणी । सीर =
साझीदार, भागीदार । साहिब = व्यापक-ईश्वर । सब घट मा
। ही । = सब प्राणियो । मे । अवलोकन करे-यही सत्य है । । इति साँच का अ । ग सम्पूर्ण । अथ भेष का अंग । 14 । 2. बूडे = डूब जाय । ज्ञान = लौकिक ज्ञान
की प्रवृत्तिा । अ । जन म । जन = साज-शृ । गार । 3. फीके = असार । अविरथा = व्यर्थ,
नि:सार । धिायान = धयान । 4. ज्ञानी प । डित = शास्त्रा स । स्कारी विद्वान् ।
लाग रह्या = लय धयान मे । स । लग्न । 5. अवा । ह = कुम्हार का बर्तन पकाने का आवाँ । भावार्थ -कुम्हार की भट्ठी का कोरा घड़ा, चाहे अनेक
चित्रादार भी हो पर उसमे । कोई वस्तु न हो, तो वह खाली देखने ही का होता है ।
तैसे भक्तिहीन भेषधाारी केवल देखने ही के होते है । । 6. भीतर = अन्त:करण मे । । वस्तु =
आत्मोपलब्धिा का अनुभव । अगाधा = अथाह । सन्मुख साधा
= उपर्युक्त श्रेष्ठ महात्माओ । के सन्मुख अनुकूल रहना । 7. भा । डा भर धर वस्तु सौ । = हृदयरूपी बर्तन को नाम
चिन्तन रूप वस्तु से भरे रखे । भेषरूपी भा । डे को साधु के यथार्थ लक्षण वाले
गुणो । से भर रखे । महँगे = अधिाक । 9. वस्तु = गुण, वास्तविकता । वासण =
केवल बाहरी रूप । 10. डाल पान तज = सकाम सपक्ष साधाना को त्याग ।
मूल गह = सब धार्र्मों तथा सब साधानो । का मूल ग्रहण कर । 13. भेष = नाना भेस है । 14. हीरे = सच्चे सन्त साधाक । रीझे =
लालायित, अति प्रसन्न । खल = सारहीन, ढा । ेगी भेष वाले ।
स्वा । ग = बनावटी भेष वाले । 17. हीरा दूर दिश । तरा = सत्य की शोधा मे । लगे साधु
पुरुष कही । किसी एकान्त देश मे । प्राप्त होते है । । 18. शोधिा = तलाश कर । परदेशो । = दूर
देश मे । । पषाण = पत्थर, बनावटी भेषधाारी । 19. कहँ पाइए = कही । ही मिल सकता है । 21. जे साँई का ह्नै रहै = जो अह । कार, वासना तथा
देहाधयास त्याग सर्वात्मना सा । ई का हो जाय । 22. स्वा । ग सगाई = बनावटी भेष का नाता । राच
= आसक्त हो । 25. भक्त भेष = साधु का पहनावा पहन । पर अपवाद
= और की बुराई । 26. भक्त भेष सौ । जाय = बनावटी भगत से कोई भी जाकर नाता न
जोड़े । 27. बटाऊ = राहगीर, पथिक । काछा = पहना,
बनाया । 28. कपट न सीझे कोइ = कपट से कोई कार्य नही । सिध्द होता
है । 29. पीव न पावे बावर = इस तरह बनावटी ढो । ग से अपने
स्वामी को नही । प्राप्त किया जा सकता । 31. तहँ न सँवारे आपको = उस निर्द्वन्द्व आत्मा की
प्राप्ति की ओर अपने को क्यो । नही । तत्पर करता । 32. सुधा-बुधा = सीधो साधो, भोले ।
धिाजाइ = विश्वास मे । ला । माला स । कल बाहि =
माला रूपी सा । कल उनके गले मे । डाल । 34. दर्शन सौ । = केवल रूप बनाने से । परसन
= प्रसन्न । बेली तीर = स । सार के चक्कर मे । । 35. आपा देख दिखाय = अपने बनावटी भेष को स्वय । देख राजी
होता है तथा औरो । को दिखा उन्हे । धाोखा देने का प्रयास करता है । 36. जे निज देखै माँहि । = जो अपने मे । अपने को प्राप्त
करते है । । 37. अस्थूल = शरीर को । सूक्षम सहज =
सूक्ष्म वास्तविक आत्मा । 39. परिख = परीक्षा, जानकारी । सराफ =
जाँच । ऊपल = ऊपरी, बाहरी । खोटा खाँहि । =
धाोखा खाते, ठगे जाते । 41. भावै = चाहे । करवत ऊधर्व मुख = काशी
करवट लेना । 43. लेयगा = स्वीकार करेगा । 44. जो कोई मुख से कहता है उस पर ईश्वर धयान नही । देता, किन्तु जो उसके
हृदय मे । हो, उस पर धयान देता है । 45. सब चतुराई देखिए, जे कुछ कीजे आन = उस एक ईश्वर की
आराधाना को छोड़ जो विविधा दिखावटी, तप, भजन, पूजा, त्याग, भेष आदि किये जाते है
। , वे रूप दिखाने की चतुराई मात्रा है । । 48. भावार्थ = ईश्वर का अनन्य अनुराग है, वही करामात है,
विरहयुक्त साधाक ही दरवेश साधु है । सन्तोष है वही सिक्का बाना है, जो कलन रहित
वासना मोह से निकले हुए महात्मा है । वे ही पीर = गुरु
स्थानीय है । , उन्ही । का कथन है वह सच्चा उपदेश है । । इति भेष का अ । ग सम्पूर्ण । अथ साध ु का अंग । 15 । 2. निराकार = रूप रहित । सेव = आराधाना
कर । 4. स । तोषिये = सन्तुष्ट करिये । मा । ही ।
= उनमे । । आप = स्वय । परमेश्वर । 5. भव जल = स । सार सागर । बोहिथ = जहाज
। 8. परसे = सहवास मे । आये । 9. वनराइ = उपवन, ज । गल । बास = गन्धा ।
11. पखाले = धाोवे । 12. त्रिाविधा = आधयात्मिक, आधिा-भौतिक, आधिा-दैविक ।
ताप = सन्ताप । 13. बहिया = बहता हुआ । लहरि तर । ग =
विषयवासना व तृष्णा की तर । गो । मे । । भेरे = नौका ।
ऊबरे = बचे । 14. नेड़ा = समीप, अपने ही भीतर । 16. साबित सन्मुख सोइ = निश्चल अख । ड वृत्तिा से आत्मा के
आराधान मे । लगने से । 18. पसाव = अतिकृपा । 21. प्यास = तीव्रचाह । अविगत = बेहिसाब
। पुरवे = पूरी करे । 22. आनँद मूर = आनन्द का, प्रसन्नता का मूल । 23. सुरति रस पान = सुरति वृत्तिा की स्वस्वरूप मे ।
स्थिरताजन्य आनन्द रस पान करे । 24. सो जन मिलवो आय = ऐसे महात्मा पुरुष आकर मिले । 26. आन कथा = स । सार के सुखभोग की प्रवृत्तिा वाला उपदेश
। दई = विधााता । 27. जे तुमहि मिलवे आइ = जो महात्मा अपने सहवास से
आप-परमेश्वर की प्राप्ति करा सके । । 28. दरवो = करुणा करे, दया करे । दिन प्रति
= नित्य-नित्य । 29. सपीड़ा = पीड़ासहित, विरहयुक्त । मीरा ।
= सबसे महान् । 30. घट बधा = कम ज्यादा । शुधा = निर्मल
। परसे = मिलै । 32. ब्रह्म गाइ = व्यापक चेतन है वही गाय है ।
अस्थन = स्तन । आन = और स्थान पर । 34. कलाप = तड़फै । । 35. सीझे = सार्थक । शुध्द = सीधाा,
वास्तविक । 36. नेड़ा = समीप । अविगत = अवर्णनीय ।
आराधा = आराधाना, उपासना । 37. सर्ग न = न तो स्वर्ग मे । । चन्द न
= न चन्द्रमा के पास । 38. हेम = हिम, बर्फ । 42-43. इन दो साखियो । मे । सच्चे साधु का वर्णन है । दरिया
= समुद्र । समरथ = शक्तिशाली । मन मस्तक
धारिया = मन के चा । चल्यरूप मस्तक को काबू मे । कर लिया ।
सरिया = सिध्द हो गया । 45. सिजदा = नमस्कार, नमन । जम = धारती ।
48. खूटे = खतम, उड़े । 50. सवारथ = स्वार्थ, अपने मतलब को । 52. जाती देखी आतमा = स । सार के विषय वासना मे । बहती हुई
। टेरे = बुलावे । 55. शिर नहि । लेवे भार = अपने मे । कुछ करने का अह । कार
न आने दे । 56. परमारथ को राखिए = परमारथ करने की प्रवृत्तिा न छोड़िए
। 57. मै । मेरा मन माँहि । = जब मै । अपने अह । कार की
बुध्दि मौजूद है तो उस दशा मे । सब सुकृत किया हुआ निष्फल जाता है । 58. नदी पूर पूर आय = स । सार के विषय-प्रवाह रूप नदी पर
आकर तलाश करिए । स । जीवनि साम्हा चढे = जो आत्मसेवी साधाक है
। वे ही उस प्रवाह मे । स्थिर रहते है । । 59. मणि बसे = आत्म प्राप्ति रूप मणि जिनको प्राप्त है । ।
65. जलत = स । ताप से तपी हुई । बलत =
क्रोधा से दग्धा । 67. असाधु = दुष्ट, असज्जन । अ । तर पड़े
= भेद, विपरीत भाव । 68. अम = अमृत । विष फल = स । सार के
भोगो । की मलिन वासना । 69. शाकत = स्त्राीवशवर्ती । बैसता । =
बैठता । । काया तै । = अन्त:करण से । 70. दुहाग = पतिरहित, स्वामीहीन । सुहाग =
पति सहित, सस्वामी । 71. हम देखता । = हमारे देखते हुए । 73. सो भ = साधुसमागमी जन । 74. अन्तर = हृदय मे । । निरन्तर =
सर्वदा, सब काल । clे = निवास करै । 76. लीला = रचना । आपा पर एकै भया = मै ।
तै । का भेद निवृत हो एक ही आत्म स । ब । धा की भावना व्याप गई । भर ।
त = श । काएँ । 77. अडोल = अचल, स्थिर । 78. घर वन मा । ही । राखिए = उपर्युक्त ब्रह्मज्योतिमय
दीपक जलाने के पश्चात् साधाक चाहे घर मे । रहे चाहे वन मे । रहे । 81. सहेत = सहित या अतिहेत से । हेत =
परमप्रेम । 82. दादू आप नशाय = अह । कार उसको सर्वथा दूर कर ।
नैनहुँ मा । है । राखिए = ज्ञान-विचार के नेत्राो । मे । । 83. बिहड़े = पलटे बदले । दृढ़ मति =
स्थितप्रज्ञ । हीरा एक रस = वृत्तिालय से एक रस, आत्मचि ।
तनरूपी हीरा । बाँधिा = स्थिर कर । 84. गरथ = स । ग्रह कर । 86. स । जम = स । यम मे । , शीलव्रत से । प । क
= पाप प । क । कर्म = निषिध्द कर्म । 87. शून्य सरोवर ह । सला = अन्त:करण रूपी सरोवर मे ।
समाधिास्थ हो अपनी वृत्तिा को स्थिर रखने वाले साधाक ह । स कोई विरले ही है । ।
88. उनहार = समान आकृति, तत्सम । 89. साधु कहै । ते अ । ग = जिन लक्षणो । को पहुँचे हुए
साधुजन बतलाते है । वे लक्षण साधाक मे । जब तक न घटित हो । । 92. ऊपरि एकै अ । ग = ऊपरी रूप सैन्धाव तथा स्फटिक का एकसा
है । इसी तरह ऊपरी ढ । ग नकली साधाक व असली साधाक का एक सा हो सकता है । 94. जग = वर्णाश्रम अभिमानी, ईसाई, मुसलमान, हिन्दू
धार्माभिमानी । 95. उस देश का = ब्रह्म या समाधिादेश का । प्रीतम
= प्रिय, आत्मस्वरूप । 97. नीर = निर्मल नामरूप । 98. दत्ता = परम धान । दरबार का = भगवत
समारोह का । 99. मिलवहु = मिलाइये । आणि = लाय ।
काणि = उपेक्षा, लापरवाही । 100. छा । टा अमी का = तत्तवोपदेश । बाहै आणि
= लाकर डाले । 103. मृत्ताक = वासना मे । लिप्त, मृतवत् । सुधाा
रस = नामचिन्तनरूपी अमृत । आणि कर = लाय कर । 104. हरि जल वर्षे = आत्मचिन्तन के आनन्द रस की वर्षा होने
पर । बाहिरा = तेज हवा से, वासनारूपी बव । डर से ।
सूखे काया खेत = सूखा हुआ यह नर जन्मरूपी खेत । 110. बटपारे = बाट मारने वाले, धाड़ेती, ठग । बारहि
बाट = सही मार्ग छुडाये । गे । 111. मत और = दूसरा विचार है, उसकी चाह स । सारी पदार्थो ।
की है । 112. खरा = सच्चा । 113. सकल साधु = ये सब सच्चे साधु-साधाक है । । 117. एता = इतना । अविगत = बेलेखे । 120. मि । ता = मित्रा । उत्ताम =
श्रेष्ठ, अतिपवित्रा । 121. काचा = अस्थिर, बार-बार बदलने वाला । क । चन
सार = एक रस निर्मल स्थिर । 122. काया = शरीर के । कर्म = निकृष्ट
कर्मजन्य पाप । 123. मन मे । मैला होय = जब तक मन शुध्द नही । है उसमे ।
वासना तृष्णा का मैल है, तब तक तीर्थस्नान का कोई फल नही । है । 124. सुमिरण = नामचिन्तन । स । गति साधा
= आधयात्मिक जनो । का स । ग । दूजा सब = और सब भौतिक व काम्य
कर्म । अपराधा = पाप, कसूर । । इति साधु का अ । ग सम्पूर्ण । अथ मधय का अंग । 16 । 3. दोन्याे । = वासना तथा अह । कार । प्रेम रस
= अनन्यभावमय श्रध्दा । 4. मति-मोट = स्थिरवृत्तिा, मति श्रेष्ठ । पख
= पक्ष, द्वैतभाव रहित । 5. कछु न कहावे = किसी प्रकार के आपे अह । कार का अनुबन्धा
न रहे । काहू स । ग = किसी विषय प्रवृत्तिा मे । प्रवृत्ता न
हो । 6. सो मन = वही शुध्द मन है । सब पूरण =
सब प्राप्ति की । 7. ना हम छाडै । ना गहै । = विविधा सपक्ष धार्म है महात्मा
उनको न तो ग्रहण करते न छोड़ते तटस्थ वृत्तिा से रहते है । । अथवा-सन्त साधाक
स्वरूप-चिन्तन व अद्वैतभावना त्यागते नही । , मायिक पदार्थ व सकाम कर्ममय
उपासना को ग्रहण नही । करते । 8. आपा मेटे मृत्तिाका = स्थूल देह से सम्बन्धा रखने वाले
मन से सम्बन्धा रखने वाले अह । कार का निवारण करे । । आपा धारे अकास
= आकाशवत् शून्य ब्रह्म का व्यापक रूप उसके धयान का आपा धाारण करे ।
द्वै = द्वैत, पक्षपात । 9. इस आकार = इस स्थूल शरीर से । सूक्षम लोक
= लि । ग शरीर । और है = कारण शरीर । तहँवा
। = उस जगह । 10. हद्द छाद्द बेहय मे । = जाति, वर्ण, आश्रम, सपक्ष
धार्म, पन्थ आदि का दायरा त्याग दिया वही निष्पक्ष दशा है । निर्भय
निर्पख होय = निष्पक्ष दशा मे । पहुँचने से ही कालादि भय का निवारण
होता है । 11. निराधाार = पक्षरहित । घर =
वृत्तिाका निवास । विश्वास = अनन्य श्रध्दा मे । । 12. अधार = गुणो । से रहित । चाल =
साधाना । आस । धा = अपनाई, स्वीकारी । डाके मृग ज्यो
। = मृग की तरह उनकी चाल का पूरी साधाना बिना अनुकरण करते है । वे
उछाल मारते है । । 13. रहणि = साधाना । अधार = त्रिागुण
रहित ब्रह्म । झ । पे = पकड़े । 14. निराधाार = निर्वासी, आश्रय रहित । निज भक्ति
= पराभक्ति । 15. निराधाार = निश्चल वृत्तिा । निज =
स्वस्वरूप । निराधाार निर्मल = वासना अह । कार रहित शुध्द
अन्त:करण । 18. तहँ = निर्विकल्प समाधिा अवस्था मे । । 19. गम नही । = पहुँच नही । । सहजै । =
सहज दशा, त्रिागुणातीत अवस्था । 20. व्यापै = आवै, प्रतीत । घर पूर =
अन्त:करण अविनाशी चेतन से परिपूर्णहो । 21. जम जौरा = मृत्यु का बल । 22. एक देश = ब्रह्मदेश । 23. बस्त = वासना विकार का फैलाव । ऊजड़ =
तमोजन्य जड़ता । 24. नहि । नेड़े नाहि । दूर = अज्ञान अवस्था मे । समीप नही
। , परिपक्व ज्ञानावस्था मे । दूर नही । । 25. निश दिन ना । ही घाम = कालकर्मजन्य दिन रात नही । ,
वासनाजन्य घाम = तपत नही । । 26. नीपजे = उत्पन्न हो, फलदायी हो । तहाँ
= निर्विकल्प समाधिा दशा । सूखा ना पड़े = अनात्म
पदार्थों की चाहरूपकाल जहाँ नही । पड़ता । 27. तहाँ = आत्मनिष्ठवृत्तिाकाल मे । । 29. वन ज्यो । = उदासीन अवस्था मे । । 30. जग = स । सार की भोगवासना । एकला =
जुदा । देह = शुध्द अन्त:करण मे । । 34. सालै = गडै, खटकै । 37. दोन्यो । = हिन्दू-मुसलमान, शैव-वैष्णव । निज
बाट = सहज पथ । औघट घाट = राजस तामस वृत्तिासमूहजन्य
ऊबड़-खाबड़ अवस्था । 39. द्वै पख तै । न्यारा = ब्रह्म और सन्त ये दोनो ।
पखापखी से रहित रहते है । । रहिता गुण आकार का = नामरूप गुण
से रहित । 40. बाण = आदत, अभ्यास । सिरजिया = पैदा
किया, व्यक्त किया । 41. यहु सन्तो । की रह और = यह सन्त साधाको । का मधयम
मार्ग स्वत । त्रा है । 44. तहाँ = उस व्यापक शुध्द स्वरूप मे । । रह रीति
= किसी मतवाद की वहाँ पध्दति या चलन नही । है । 45. दोनो । हाथी ह्नै रहे = पखधार्मी हिन्दू-मुसलमान,
शैव-वैष्णव आदि हाथी की तरह भेदवादी होकर लड़ते है । । आपा =
पखधार्म का अह । कार । 46. भावार्थ = दादूजी कहते है । मेरे निष्पक्ष विचार व
व्यवहार को देख दोनो । हिन्दू-मुसलमान भयभीत व उत्तोजित हो रहे है । । 47. जाणे-बूझे = जानते देखते समझते है । । चाल नही
। = साच को ग्रहण करने की पध्दति नही । । 54. द्वै पख = भेदभाव वाले धार्म । 55. दादू तज स । सार सब = स । सार के विविधा मतवाद वाले
धार्म त्याग दे । अथवा स । सार के विविधा अनात्म पदार्थों की चाह का सबका
परित्याग कर दे । 56. कलियुग कूकर कलमुँहा । = मायिक पदार्थों की वासना की
प्रधाानतारूपी कलियुग श्वानवत् है । उठ उठ लागे धााय = वे
वासनाएँ विफल होते हुए भी पुन:-पुन: उत्पन्न हो प्राणी को प्रवृत्ता करती है ।
; लगती है । । 57. स । सार का = स । सारी मनुष्यो । का, विचार वृत्तिाहीन
मनुष्यो । का । 58. भावहीन = वास्तविक विचाररहित । बिहूणा
= विहीन, रहित । 60. काल से बचने के लिए सदा परमात्मा के सुमिरण मे । लगा रहे स । सार के
झगड़ो । की आग से बचने के निमित्ता चुप रहे या कहे कि मै । नही । जानता या हाँ
मे । हाँ मिला दे । 61. प । थ चलै । ते प्राणिया = जो विभिन्न पन्थो । मे ।
आसक्त है । वे सामान्य प्राणी है । बन्धान वाले जीव है । । तेता कुल
व्यवहार = जितने पन्थ उतने ही विभिन्न व्यवहार होते है । । । इति मधय का अ । ग सम्पूर्ण । अथ सारग्राही का अंग । 17 । 3. विष मे । अमृत काढले = स । सार के मायिक पदार्थ विषमय
है । उनकी प्रवृत्तिा छोड़ स । सार की समष्टि मे । समत्वभावरूपी सार अमृत ग्रहण
करे । । 5. आपै आप = अपनी ही साधाना से, अन्त:करण की निर्मलता से ।
प्रकाशिया = व्यक्त हुआ । 6. साधु ह । स बिन = आत्मसिध्दिसाधाना वाले ह । स रूपी
साधु के सहवास बिना । भेल सभेले जाय = स । सार के चालू प्रवाह
मे । सकाम कर्म सपक्ष भक्ति मे । हिलता-मिलता चला जाता है । 7. मन ह । सा = निर्मल शुध्द ह । स मन । मोती चुणे
= नामपरिचय रूप मोती चुगता है । क । कर = स । सार के
नाशवान पदार्थरूपी क । कर । 8. मानसरोवर = सत्स । ग । बगुला = कपटी,
धयानी । छीलर = तलैयारूपी कुस । ग । मछल =
विषय भोग । 9. काग = कामीजन । कर । का । = तुच्छ
भोग, निस्सार सूखी खाल । 10. परखिए = पहिचानिए । उत्ताम करण =
सच्ची साधाना से । 11. उज्ज्वल करण = आधयात्मिक प्रवृत्तिा । मैली करण =
विषयप्रवृत्तिा । मधयम = नीची । उत्ताम =
श्रेष्ठ । भाग = भाग्य । 12. मैली मधयम ह्नै गये = मैली करणी वाले मधयम हो गये ।
निर्मल करणी वाले सिरजनहार को प्राप्त हुए । 13. जाति = कुल जाति । 14. चारो । लोचन अन्धा = अत्यन्त मूर्ख । श्रुति, स्मृति
और दो चर्मचक्षु, यह चार लोचन कहलाते है । । 15. गऊ बच्छ का ज्ञान गह = गऊ बच्छ के उदाहरण से
सार-पदार्थ ग्रहण करने की ही ओर लगना । 16. इहिँ विधिा = आत्मचिन्तन रूप साधाना से । 17. लोगन सौ । मन ऊपल = सा । सारिक पुरुषो । से ऊपरी
व्यवहार तक ही सीमित रहे । मन की मन ही माँहि । = अपनी
अन्तरभावना जो आत्मा की ओर लगी है उसको वैसे ही बनाये रहना । 20. तब द्वन्द्वर दूर नशाय = कामादि द्वन्द्व, वासना अह ।
करादि सब दूर हो जाते है । । बोहिथ = जहाज पर । डूँडे
= डो । गी । 21. परम पदारथ = आत्मपरिचय । कूड़ा काच =
झूठा काँच = स । सार । 22. जीवन मूर = जीवन जड़ी । बिसाहि = चाहे
। 23. छीलर = छोटी तलाई । 24. दिनकर = ज्ञान भानु । निश = अज्ञान
अन्धाकार । एकै द्वै नहि । = एक ही व्यापक सत्य वस्तु है ।
द्वै नहि । = दूसरा असत्य स । सार नही । है । । इति सारग्राही का अ । ग सम्पूर्ण । अथ विचार का अंग । 18 । 3. प्रतिबिम्ब = चिदाभास, प्रतिछाया । ऐसे आतम राम
है = ऐसे ही सब जीवो । के अन्त:करण मे । प्रभु व्यापत है । 4. दर्पण बिन सूझे नही । = यदि अन्त:करण न हो तो स । सार
भी प्रतीत नही । होता, जैसे दर्पणरूपी उपाधिा बिना प्रतिबिम्ब भाव नही । होता ।
5. जीये = जैसे । क्षीर = दूधा ।
ईये = ऐसे । रुहन्न = सब प्राणियो । मे । । 6. जेरो = प्रकाश । सूर = सूर्य ।
ठ । ढो = ठ । डक, शीतलता । बसन्न = बसती है
। 8. मीत = प्रभु । कने = साथ ।
पिछाणि = पहचानना । 12. व्याधिा = विषय विकार जनित रोग । गँवार
= अज्ञानी । 13. सब शरीरो । मे । दो निर्गुण और सगुण ज्ञान है । । सगुण माया रूप काया है
और निर्गुण आत्मा ब्रह्म समान है । 14. तऊ न = तब भी । 16. कायालोक अस । ख्य है जिनमे । काम, क्रोधा, पाप, पुण्यादि भरे है । । जिस
योनि मे । जीव जाता है तहाँ वो उसके स । ग जाते है । । 17. काया = शरीर । योध्दा = कामक्रोधाादि
प्रबल शक्तिशाली । दुस्तर = अल । घनीय । 18. मोटी माया = घर-सम्पत्तिा आदि । 20. गुणातीत = जिसने विविधा गुणो । के सब धार्म त्याग दिये
। सो दर्शन = वह दर्शन के योग्य महात्मा है । डोरी
लागा जाय = वृत्तिा के आत्मानुबन्धाी अभ्यास रूप डोरी से लक्ष्य स्थान
तक चला जाता है । 21. स्थूल शरीर की मुक्ति भोजन छाजन द्वारा सब कोई कर लेता है परन्तु उससे
लि । ग शरीर की मुक्ति नही । होती । यह मुक्ति यथार्थ ज्ञान से कोई बिरला ही
सद्गुरु देता है । 22. क्षुधाा = भूख । तृषा = प्यास ।
शीत तप्त = देह गुण । 23. स । सार के मायिक पदार्थों मे । से मन को अलग कर अपने मन को स्वरूप मे ।
स्थिर करे । 25. दर्पण देह = दर्पण के समान अन्त:करण स्वच्छ होता जाय ।
27. काल झाल = काल की ज्वाला । 28. काया की स । गति = काया का अधयास । 30. आत्मनिष्ठ साधाक को ना तो तलवार की धाार और ना ही विष मार सकता है और ना
ही उसमे । गुण व्याप्त सकता है । 31. पसरे नही । = भोग विषयो । की ओर प्रवृत्ता न हो । 32. अहनिश = सर्वकाल । 33. मै । ना । ही । = अह । कार नही । । 34. जब अह । भाव मेरा, तेरा मन से मिट गया, तब जीव सर्व मे । अपने आप को और
अपने मे । सर्वस्व देखता है । 35. गुरुमुख ज्ञान अलेख = अलेख अगोचर आत्मा का ज्ञान गुरु
उपदेश से समझा । ऊधर्व कमल मे । = विशुध्द हृदय प्रदेश मे । ।
आरस = चिदाभास । फिर कर = पलट कर ।
आपा देख = स्वय । को देख । 37. जिहि । बरियाँ = जिस समय । यहु सब भया
= माया अविद्या का विस्तार हुआ । 38. ले कर लाइये = मन को अन्तर्मुखकर कर वृत्तिा सहित
आत्मनिष्ठ करिये । 40. विषम सुख मे । दु:ख बहुत है । , तपादिक मे । जो दु:ख होता है उसका
परिणाम सुख है । 43. प्राणि = मन मे । भली प्रकार । पग दीजे
= प्रवृत्ता हुइउ । 44. घाली हाथ = कर्म मे । प्रवृत्ता हो । 46. पीछे आवे-जाय = विचार द्वारा सम्यक् समझ लेने पर ही
किसी काम मे । लगा जाय या नही । यह निश्चय करना । । इति विचार का अ । ग सम्पूर्ण । अथ विश्वास का अंग । 19 । 4. करण करावण = करने वाला, कराने वाला । 6. सब सृष्ट = सब जड़-चेतनमय दृश्य-अदृश्य । सिरज
= रच, व्यक्त । 7. करत है = पूर्ति करता है, सँभाल करता है ।
मिन्त = प्यारा मित्रा है । 8. साहिब का विश्वास = उसी अपने आधाार ही का भरोसा रखे ।
12. पूरक पूरा = सब तरह से पूरा करने वाला । हुसियार =
सावधाान है । 15. ऊधर्व मुख क्षीर = माता के पेट मे । । 16. कठिन स्थान मे । जहाँ शरीर को पीड़ा होती है वहाँ । वह परमेश्वर ही साथ
रहता है । उस प्रभु से प्रीति और उसका नाम स्मरण करता रह । 17. भावाथर्र् = जिसने ऑंख, बाणी, कान, सिर, हाथ-पैर दिये
है । इन सबसे उसी को याद कर उसी की सेवा कर । 18. भान = तोड़, भ । ग कर । हदीस =
मर्यादा । 19. जनि बीसरे = मत भूले । 20. राजिक = रोजी देने वाला । रिजक =
काम, दाम । 21. हिरदै = हृदय, शुध्द मन । 22. परमात्मा सब जीवो । को सेवक की भाँति सभी सुख देता है परन्तु जीव ऐसा
मूर्ख है कि प्रभु का नाम भी नही । लेता । 24. अनूपम = उपमा रहित । रीत = पध्दति ।
अतीत = अतिलघु । 26. छाजन = छाने को, ढकने को । का । इ करेय
= क्या करेगा । 27. टूका = टुकड़ा । मृतक भोजन = याचना से
प्राप्त । गुरुमुख = गुरु की आज्ञा मानने वाला । 28. जितने पदार्थ शरीर के निर्वाह के लिए जरूरी है । उनको ग्रहण करे, जो कुछ
परमात्मा के बीच अ । तरा डाले, सो सब त्याग दे । 29. जल, भोजन सभी वस्तुएँ परमेश्वर की उत्पन्न की हुई है । यही समझ कर इनका
उपयोग करे । 31. सीधाा = बनकर तैयार भोजन । 32. लोई = सब लोग । 33. दहणि = सन्ताप, चिन्ता । बोरे = भोले
। 35. मुरदा ह्नै मिस्कीन = दृढ़ता से अह । कार रहित हो । 36. मर्महि = असली जगह । 37. खिरा = बिखरा । 39. अणबाँछ = बिनाचाही । अजगैब = अनायास
। गगन गिरास = आकाशवृत्तिा से प्राप्त । सत कर
= सोच-समझ कर । 40. मीठे का = ईश्वर पर विश्वास करने वाले का । 42. निकट निधिा = सब सम्पत्तिा अपने पास होते हुए भी । 44. जो होना था वो हो रहा है स्वर्ग की चाह नही । करनी और नरक से डरना नही ।
चाहिए जो नियत हो गया वो होकर रहेगा । 48. शिर लेह = अपने जिम्मे क्यो । ले । 49. ज्यो । जाणौ । = जैसा मुझे समझो । डाल =
भरोसे रखी । अनत = और जगह । 50. तुम भावे = तुम्हे । अच्छा लगे । 53. सदेह = देह सहित, साक्षात् । 54. पोष्या = पालन-पोषण । 55. प । च इन्द्रियाँ और मतवाला मन एक राम भजन से शान्त किये । 57. हे प्रभु हमे । सत्य, सन्तोष, भाव, भक्ति और विश्वास दे । । सिदक, सब्र
दे । यही यह दादू दास आपसे माँगता है । अथ पीव पहचान का अंग । 20 । 3. लालो । = रत्नो । मे । श्रेष्ठ रत्न । शिर खूब
= सब श्रेष्ठताओ । मे । श्रेष्ठ । शिर पाक =
पवित्रााओ । मे । परम पवित्रा । महबूब = प्यारा मित्रा । 4. एक तत्तव ता ऊपरि = एक ब्रह्म जिसके आसरे इतनी सृष्टि
है । 5. तास घर बन्दा = उसी स्वामी के हम सेवक है । । 6. कर धार = बनाई, व्यक्त की । थम्भ बिन
= बिना किसी अन्य स्थूल आश्रयके । 9. बर वरहूँ = उसी स्वामी को मै । स्वीकार करूँगा । 10. शोधा ले = तलाश कर ले, खोज कर ले । 12. जीव = साभास अन्त:करण । साहिब =
ब्रह्म । 13. उठे न बैसे = उत्थान जड़ता रहित । जागे सोवे
नाँहि । = जागृत सुषुप्ति से अनावृत । उपज खपे =
उत्पन्न विलय । 15. कृत्रिाम = बनाया हुआ । 17. स । सार जो वास्तव मे । है नही । सो उपजता सा प्रतीत होता है ब्रह्म
वस्तु है सो उपजता नही । , जो कुछ दृश्य जगत् दिखाई दे रहा है, वह सब माया
जन्यहै । 21. जात = पूज्य । सिफात = पूज्क ।
असाह = अविद्या आवृत जीव । सिजदा = पूजा ।
22. सदई = सत्य रूप । 23. अविनाश = कालातीत । जेता कहिए काल मुख
= जो विनाशी है । वे कत्तर्ाा नही । कहे जा सकते । 24. निर । जन = मायारहित । सब आकार =
नामरूपवाली सब वस्तुएँ । 25. राम रटणि = नाम चिन्तन । लै = लय
वृत्तिा मे । लगा हुआ । कला कोटि दिखलाय = माया के पदार्थ
चाहे जितना आकर्षण करे । उनकी आसक्ति मे । प्रवृत्ता न हो । 26. उरै । ह = सा । सारिक भोगो । मे । ही । विलसे
= भोगे । अघाय = परिपूर्ण हो । 28. सेज सुहाग न देह = हृदय मे । अपनी स्थिति रूप सौभाग्य
प्रदान न कर । बाहै = बहकावे । कह दूजा सब लेइ
= नाना प्रकार के मायिक पदार्थों की चाह जगाकर । 29. लोहा = मानव जीवन । माटी मिल रह्या =
सा । सारिक विषय-वस्तुओ । मे । फँस कर नष्ट हो रहा है । 31. परसे = मिले । पलटे = बदले ।
निज कर लेह = अपना लक्ष्य कर ले । 32. दह दिशि = दसो । दिशाओ । मे । । राखणहारा
= जीवित रखने वाला । देखणहारा = देखने वाला । । इति पीव पहचान का अ । ग सम्पूर्ण । अथ समर्थता का अंग । 21 । 2. निमष = पल मे । । 3. को मेटे फरमान = उसकी आज्ञा को कौन मेट सकता है । 4. थल थाप = भूमि की स्थापना कर दे । जलहर
= समुद्र । 5. ठाल = रीते, खाली । 6. निश ऍंधिायार = काली रात को । 7. काढ = निकाल । अविगत गति = उस बिना
विवरण वाले की गति को । 8. गुप्त = छिपे हुए । 9. सोइ सही साबित हुआ = वही सकल परिपूर्ण कामना वाला हो
जाता है । निवाजे = कृपा करे, पाले, प्रसन्न होवे । 10. सब ही मारग = साधाना के योगादि सभी रास्ते । 12. औराँ चित्ता न लाउँ = और जो स । सार के अनित्य पदार्थ
है । उनको चित्ता मे । स्थान नही । देता । 13. मारग महर का = उसकी दया का मार्ग मिलते ही ।
अपणे लिये बुलाय = अपनी ओर लगे हुए को अपना लिया । 14. चिन्तवै = विचारे, चाहे । औरै करि जाय
= जो कुछ और ही कर जाता है वही सच्चा कर्ता है । 15. भावार्थ = एक को अपनी ओर प्रवृत्ता कर अपने मे । मिला
लेता है, एक को अपने पक्ष से हटा स । सार के मायिक पदार्थों की ओर लगा देता है
। 18. हुक्म = आज्ञा मे । चलने वाला । बन्दा
= सेवक । सारा = बस । 20. ख । ड-ख । ड = नौ ख । डो । मे । । परकाश है
= उसकी ही ज्योति है । तूर = शब्द । 23. दूजा क्यो । कहै = आत्मचिन्तन को त्याग कर किसी दूसरी
ओर क्यो । लगा जाय । बीसरे = भूले । 25. घट मे । लहर उठाय = मानव के हृदय मे । प्रेरणा पैदा
करके । 27. परचा = चमत्कार । 29. सेर = रास्ता । समझाइने = समझाइए ।
अण करता = निख्रलप्त । 32. लिपे = लिप्त न हो । सब करे = जिसके
आश्रय ही सबकी अभिव्यक्तिहै । 33. व्यापे = सब मे । समाया रहे । 36. प । चो । का रस नाद है = भूतोत्पत्तिा मे । प । च भूतो
। मे । प्रथम आकाश है । 37. प । च ऊपना = प । चभूत व्यक्त हुए । शब्द तै ।
= आकाश से । शब्द प । च सौ । होइ = प । चीकृत प । च
तत्तवो । से ही आकाश उत्पन्न होता है । 38. है तो रत = अस्तित्व है तो उसी का है । हुक्मै
। = स । कल्प मात्रा से, आशा से ही । 39. निज तत न्यारा ना किया = दृश्यमान सब पदार्थों से आप
न्यारा है उसको किसी ने किया नही । है । 40. नही । = जो किया हुआ नही । । तहाँ ते सब किया
= वही । से उसी के आश्रय सब कुछ होता है । 41. खालिक = स । सार का मालिक । 42. लेवे की कुछ नाँहि । = लेने जैसी किसी वस्तु का
अस्तित्व ही नही । है । । इति समर्थता का अ । ग सम्पूर्ण । अथ शब्द का अंग । 22 । 2. सब ऊपजे = सब भौतिक सामग्री की उत्पत्तिा-अभिव्यक्ति
आकाश मे । है, विलय भी सबका आकाश मे । है । 4. शब्दै । ही सुस्थिर भया = नामचिन्तन साधाना द्वारा
वृत्तिा स्थिर कर वृत्तिा का विलय कर सूक्ष्म मे । मिलता है । सहज
= निर्द्वन्द्व । 5. मुक्ता भया = स । सार के बन्धान से रहित ।
शब्दै । ही सूझे सबै = गुरु उपदेश शब्द द्वारा ही सत्य मिथ्या सब
सूझने लगता है । 8. ओ । कार = त्रिागुणात्मक प्रकृति रूप, त्रिावर्णात्मक
प्रणव शब्द । आप तै । = अपने आधाार से । प । च तत्तव
आकार = प । चभूत । 15. शब्द जरे = शब्द मे । वृत्तिा को तदू्रप कर ले ।
कायर = विषयी । मा । डे = रोषे ।
शूरा = दृढ़ साधाक । 16. शब्द विचारे = गुरु उपदेश के शब्द का श्रवण मनन करे ।
करणी करे = तदनुरूप साधाना मे । लगे । काया मा । ह =
शुध्द अन्त:करण मे । । शोधो सार = मूल तत्तव प्राप्त
करे । 17. जे पैके सीझे काम = बिना पाई खर्चे कार्य सिध्द हो ।
19. कमल विगासे होइ = हृदय कमल आत्मानुभूति होने पर
प्रफुल्लित होती है । 20. भुरक = सिध्दिकारक चुटकी । 21. शब्द कहै गुरुज्ञान = गुरु के उपदेशमय शब्द है । वे ही
सत्यज्ञान के बताने वाले है । । 22. शब्दो । मा । ही । = गुरु उपदेश के वाक्यो । मे । ।
23. पारिख = परीक्षक, साधाक जिज्ञासु । । इति शब्द का अ । ग सम्पूर्ण । अथ जीवित मृतक का अंग । 23 । 3. सा । ई कारण शिर सहै = सर्व मे । एक परमात्मा को अवलोकन
करता हुआ शब्दापिशब्द सुखदु:खादि को सहन करे । 4. माटी मिल रहै = मिट्टी की तरह सब तरह के आपे निकाल दे ।
पहली मर रहै = साधान काल मे । ही अह । कार रहित हो वासना रहित
हो । 5. जाति, वर्ण, विद्या, रूप, बल, धान इन सबके अह । कार को छोड़ गरीब
= निरभिमानता ग्रहण कर आत्मप्राप्ति की साधाना मे । लगे । 10. मरजीवा = अह । कार त्याग आत्मस्वरूप का परिचय प्राप्त
करे । 11. मेरा वैरी मै । मुवा = सबसे प्रबल शत्राु अपना अह ।
कार है । मै । ही मुझको मारता = अह । कार है वही जन्म-मृत्यु
का कारण है, अह । कार से राग-द्वेष, राग-द्वेष से पाप-पुण्य, पाप-पुण्य फलभोग
के लिए जन्म-मृत्यु । 12. वैर = काम क्रोधा मन इ । द्रियादिक । इनको मार भी ले,
पर जितने काल इनके मार लेने का अभिमान फुरता है तब तक मन मे । दु:ख अवश्य रहता
है । 13. आप = अह । कार । 14. आपा = ममभाव । इसकी उत्पत्तिा स्फुरित ब्रह्म से है,
सो आदि सत्ताा ब्रह्म को सहज रूप चिद्द ले । 15. मै । मेरा सब खोय = अह । कार और ममत्व का अधयास दूर कर
। 16. मै । ही मेरे पोट शिर = अपना अह । कार ही नाना प्रकार
के दु:खो । की पोट सिर पर लेने का कारण है । गुरु परसाद =
सद्गुरु के उपदेश से । 17. मेरे आगे मै । खड़ा = अपने अन्त:करण मे । छिदाभास के
आड़ा अपना अह । कार आया हुआ है । 18. जीवित मृतक = अभिमान रहित हो । मारग मा । है ।
= आत्मपरिचय प्राप्ति के रास्ते पर आव । 19. खरा दुहेला जाण = सही और कठिन है । नीशाण
= लक्ष्यपर । 20. बापुरा = शरीर वाला । 21. ल । घे औघट घाट = रज तममय वृत्तिाजन्य ऊबड़-खाबड़ घाट को
पार करजाय । 30. मना मनी सब ले रहे = वासना तथा अह । कार सब लिये हुए
है । मन = अह । कार । 31. मै । मै । = वासना और अह । कार । 32. दादू खोई आपण = अपना मन खत्म कर दिया । लज्जा
कुल की कार = जाति वर्णकुलाभिमान त्यागा । 33. मै । आइ = अह । कार आया । तब दोय =
तब भेदवृत्तिा द्वैत भावना होती है । 34. बन्दो । का बन्दा = परमात्मा के साधाको । का सेवक ।
35. सीख्यो । = केवल सीख से, कहने से । जब लग आप न
खोय = जब तक सब तरह का अभिमान नष्ट न हो जाय । 36. गत भया = सफल हुआ । आपा पर = अह ।
कार तथा भेदवृत्तिा । 38. तन-मन को अपने बस किये बिना और राम मे । लय लगाये बिना, जीव के दु:खो ।
का नाश नही । होता । 39. तन-मन को बार-बार निग्रह करने से आत्मतत्तव का प्रकाश होता है । 40. मर्दै = मर्दन करे । काढे जन्त्रा मे ।
= त्याग और निरभिमानता की कसौटी मे । से निकालता रहे । 41. भावार्थ = वासना का मूल काट देने पर भी उसको काटते ही
रहना दग्धा किये हुए अह । कार को पुनरपिदग्धा करते रहना वासना और अह । कार रूपी
पानी अन्त:करण मे । न आने दे । गे तभी आत्मपरिचय-प्राप्तिरूप तरवर देगा । 42. सबको स । कट एक दिन = अनात्म पदार्थ जितने है । सबको
एक दिन नष्ट होना होगा । 43. जीवत मृतक ऐसा होय कि माता-पितादि सब जन उससे विरक्त हो जाय और सब कहने
लगे निकलो-निकलो और निकालने के बाद आपको याद भी कोई न करे । 44. सारा गहला ह्नै रहै = अपने आत्मचिन्तन मे । पूरा
सावधाान और स । सार के पदार्थों से उदासीन होकर रहे । 47. मोटा मीर = बड़ा महात्मा । दुहेला =
कठिन । 48. दूजा धा । धाा बाद = मायिक पदार्थों की प्राप्ति का
प्रयास फालतू है । 49. सो दीन = वह निरभिमानी साधाक सेवक । 50. हमौ । = स्वय । ही । 51. मा । ट = पति, स्वामी । द्वै पख दुविधाा नाँहि
। = तब भेद भावना जन्य दुविधाा नही । रहेगी । । इति जीवित मृतक का अ । ग सम्पूर्ण । अथ शूरातन का अंग । 24 । 2. साँचा = दृढ़ निश्चयी साधाक । शिर सौ । खेल है
= अह । काररूपी मस्तिष्क को काटने का उद्योग करेगा । आसँधो
= स्वीकार करे । 3. सती शूर सम भाय = सती की तरह सर्वस्व होकर, सूर की तरह
प्राण देने को उद्यत होकर आत्मचिन्तन की साधाना मे । लगे । 5. कड़बा कर रहे = अभी तैयारी ही कर रहे है । ।
निराला = स । सार के बन्धानो । से निकला । 6. मडा = मरा हुआ । 7. जन्म लगै । = सारा जीवन । नख-शिख
= पूरी तरह । धाोये अ । क = कल । क के अ । क धाो
दिये । 8. स्वाँग = बनावटी रूप । पोच = डरपोक ।
9. विरह की झाल = विरह की तेज ऑंच मे । । 10. सोई सौ । पे नारि = पतिव्रता स्त्राी की भाँति साधाक
को भी आत्मसमर्पण करना चाहिए । 11. मुये मड़े की लार = मरे हुए शरीर के साथ । 12. मुये मड़े से हेत क्या = मरे हुए से प्रेम स्नेह क्या
करना अर्थात् स । सार की सब वस्तुएँ नष्ट होने वाली है । तब उन सबसे प्रेम,
लगाव क्यो । करना । 13. सच्चा साधाक एक बार प्रभु की साधाना मे । लग जाने के पश्चात् वापसी स ।
सार के माया जाल मे । पैर नही । दे सकता । 16. लालच जीव का = अह । कार सहित अन्त:करण का लोभ है ।
काया-माया = शरीर का अधयास मन की वासना । 17. चौड़े मे । = खुले मे । , भेद रहित निर्मल वृत्तिा मे ।
। 18. चौहट चढकर नाच = अन्त:करण को समष्टि चेतन से मिला
वृत्तिा मे । स्वस्वरूप को चढ़ाकर, नाच = अति स्नेह से धयान कर
। 21. जूझे = लड़े, स । घर्ष करे । खेत मे ।
= साधाना के मैदान मे । । 22. एक पग = दृढ़ निश्चय । तालाबेल =
तड़फन-अति विलाप । 23. अ । ग न खै । चिये = साधान पथ से विचलित न होइए । 24. बहुत गया = अति काल चला गया है । मरणा मा । ड
रहु = मरने के लिए तैयार रहो । 25. जीऊँ का स । शय = विषयी पुरुषो । का स । शय ।
को काको = कौन किसको । 26. दिशि धााय = आत्मचिन्तन की ओर प्रबल वेग से साधान मे ।
लगे । बाहुडे = बदले, फिरे । 27. साधाक सूर आगे आने की पुकार सुनकर आगे ही चलता जाय, पीछे न फिरे,
अर्थात् ज्यो । -ज्यो । अन्तर्मुख वृत्तिा बढ़ती जाय त्यो । -त्यो । वृत्तिा को
भीतर ही बढ़ाता जाय, बाह्य विषयो । की ओर न उलटने दे । 28. अगम ठौर = आगम्य स्थान । 29. पीछा फिरे = पुन: विषय वासना मे । उलझे । मदीठ
= देखने के अयोग्य । 30. आ रण छाड़े जाय = साधान क्षेत्रा का मैदान छोड़ जाता है
। 31. सु मेर उल । घे = वासनाजन्य भोगो । का सुमेरू लाँघ जाय
। गुण बन्धया = गुणो । के बन्धानो । से । तिणा न टूटे
= सामान्य भोग पदार्थ का त्याग भी न हो । 32. सर्प = काम रूपी साँप । केशरि =
क्रोधा रूपी सि । ह । कु । जर = हाथी । बहु जोधा
= यह जोधाा-शूरो । के द्वन्द्व पड़े है । । 33. जब जागे = वासना का जब भी उदय हो । मनसा
= वासना । डायण = डाकणी । 35. काया की कमान से राम नाम का तीर (परमेश्वर) को लक्ष्य करे । 36. प । चो मिरगला = प । च विषयवृत्तिा । 38. तन-मन = इन्द्रियाँ, अन्त:करण । करीम
= परमात्मा । 39. ऊरण = ऋण रहित । 40. चढे = समर्पित । 42. आरम्भ तज = कल्पना त्याग । 43. साटे = बदले । 44. अधार = गुणातीत । 45. मिलकर मरणा राम सौ । = आत्मराम को ज्ञात कर स्वय । को
उसी मे । रमा । देना । कलि = स । सार । 46. मरणे थी । = मरने से । मरणा सिरजिया
= मरना जो निश्चित किया हुआहै । 49. मरणा खूब है = वस्तुत: मरना यानी वासना से रहित होना
उत्ताम है । निपट = निश्चय ही । व्यभिचार =
आत्मा को छोड़कर आन भावना मे । लगना । 50. कायर हुआ न छूटिये = कायर बनकर स । सार की मायिक
वस्तुओ । के साथ लग कर अपने लक्ष्य से दूर न होइए । 52. माँहै = भीतर । जूझ = स । घर्ष ।
भान = तोड़ना । 54. कसौट = परीक्षा । 58. अमर झुकेड़े मारिये = मरना ऐसे ही चाहिए जिसमे । अमर
होना अनिवार्य हो, अर्थात् शरीर की मृत्यु तो होनी ही है फिर क्यो । न आत्मानुस
। धाान मे । लग, मृत्यु भय से निरत हुआ जाय । 59. साटे = बदले मे । । 60. रिपु = शत्राु । 61. काया मारण जाँहि । = प । चाग्नि, प । चाधाारा,
ऊधर्वबाहु आदि शारीरिक तप द्वारा केवल काया मारने से क्या लाभ? 62. पाखर = कवच । 63. काछ खड़े = पास खड़े होना । 64. साँच शेल = सत्यरूपी । शेल = भाला ।
केते किये सुमार = कितने ही कामादि शत्राु मार गिराये । 65. जिय = अन्त:करण मे । । 66. सै । तै । = सतावे, दु:खी करे । 67. महा जोधा = सर्वव्यापी परमात्मा । 68. रहते पहते = राते माते । 69. काँधो = सहारे । निर्वाहेगा =
निभायेगा । ओर = अन्त तक । 71. वैरी बहुतेरे = काम, क्रोधाादि अनेक शत्राु । 72. बलि = आधाार, आश्रय । मीर = महान् ।
बाव = थोथे है । । 73. स । वाह = सँभाल करे । गे । 76. जाते जिव तै । = जाते हुए प्राणो । से, शरीर से ।
उपाइया = उत्पन्न किया, पैदा किया । सार करेगा
= सहायता करेगा । 77. पाधारा = सीधाा, सहायक है । ब । का =
टेढ़ा । 78. तती न लागे बाव = गर्म हवा नही । लगती । पसाव
= अनुग्रह, अपनापन । 81. निर्भय = काल कर्म भयरहित । कु । जर
= हस्ती पर । सुनहा । = कुत्तो । झख =
चिल्ला-चिल्लाकर । 83. भावार्थ = सच्चे साधाक की निन्दा कर-कर अनेक स । सारी
पुरुष खानवत भौ । क-भौ । क कर बक-बक कर चले जाते है । , गरवा
= गम्भीर, गुरुमुख = गुरु के उपदेश, मर्यादा मे । चलने वाला
साधाक हस्ती की तरह मस्त-मस्त रह उन स । सारी पुरुषो । की ओर देखता तक नही । ।
। इति शूरातन का अ । ग सम्पूर्ण । अथ काल का अंग । 25 । 2. कन्धा पर = गर्दन पर । चितवे = स ।
कल्प करता रहता है । 3. बजावै तूर = तुर्रही बजाता रहता, अर्थात् हमे । सचेत
करता रहता है । 4. पग धारे = मायिक पदार्थों की चाह करे । तहाँ
= उन सब मायिक पदार्थों पर । फन्धा = फन्दा । 5. काल के ग्रास सभी जन है । उनकी क्या कहै । , जो कोई काल से बचा हो तो
उसकी कहनी चाहिए । सो काल से बचा वही है जो सदा कालरहित परमात्मा के सुमिरन मे
। रत है । 7. घट काचा = यह शरीर कच्चे मटके की भाँति है । जल
भरया = जीवनरूपी जल भरा है । 8. फूटी काया = शरीर कई जगह से फूटा हुआ है । नव
ठाहर = इसके नौ द्वार है । । 9. बाव भर = श्वास उच्छ्वास वाली । खाल =
त्वचामय शरीर । 10. हम तो = आत्माभिमानी शरीर । मूये माँहि । है ।
= मरे हुए की श्रेणी मे । है । गर्वबा = अभिमान करना
। मर । म = मर्म, भेद । 11. मिरगला = मृग की तरह इन मायिक पदार्थों के पीछे दौड़
रहा है । काल अहेड़ = काल रूप शिकारी इसके पीछे लगा हुआ है ।
12. आपै गह कर दीन्ह = अपने द्वारा पाप-पुण्यमय कर्मों का
बन्धान पैदा कर काल के हाथ मे । दे दिया गया है । 13. कीट = दीवल की तरह । तन काठ =
देहरूपी काठ की । 14. गिरासे = अपने मे । मिला ले । लखे न तास
= उस काल को कोई लखता नही । , देखता नही । । 15. पग पलक = पैर उठाते, पलक खोलते क्या हो जाय यह पता नही
। । 16. कारव = कच्चे घड़े की तरह । 17. आसण कु । जर = बैठने को हाथी । शिर छत्रा
= सिर पर छत्रा है । 19. चाले स । ग = चेतन के साथ नही । चल सकती । तऊ
= तोभी । भ । ग = खत्म । 20. जो जीवात्मा बोलता-सुनता, देखता लेता-देता था वह न मालूम कब किधार निकल
गया? 21. सी । ग = श्वास, सी । ग का वाद्य जो नाथ रखते है । ।
नाद = शब्द । 25. पाहुणा = दामाद । 26. पन्थ शिर = जाने की राह पर । रहे बटाऊ होय
= राहगीर की तरह रह रहे है । । 28. स । इया = आयु का उत्तार काल । बरियाँ
= समय, अवसर । 29. भावार्थ = ऊँठ रूपी मानव देह मे । वैराग्य रूपी
पिलाणकर कोई सावधाान जिज्ञासु साधाक चढ़ जाय तो वह दिन-दिन मे । ही आयु रहते ही
परमात्मा से मिल लेता है । वह वृध्दावस्था-रूपी साँझ नही । पढ़ने देता । 30. पन्थ दुहेला = मार्ग कठिन । 31. भावार्थ = ल । घण = स । सार समुद्र का, लकु
घाणा = पाट चौड़ा है । कपर चाटू डीन्ह = नौका चाकू
रहित है । अल्लह पा । धाी पन्ध मे । = परमात्मा के पथिक पथ मे
। । बिह । दा आहीन = उड़ रहे है । । 33. जोरा वैर = प्रबल शत्राु । ताणै बाणै
= अपनी लेनदेन मे । गाफिल है । । 35. बहुत उठावे भार = नानाविधा अकर्मकर उनका पाप बोझ उठाता
है । करणी काल क = वासनामय कर्म । 37. विसाहै । = प्राप्त करे । कोटि उपाय
= अनेक वासनाजन्य कर्मों द्वारा । 38. कारण काल के = काल के मुख मे । जाने के लिए ।
सकल सँवारै आप = अपने आपको अभिमान मे । उलझा कर काल के लिए सज्जित
करते है । । 39. विषय हलाहल खाय = निषिध्द कर्म करते हुए । 41. छेल = बकरीवत है । कर्द लिये = कर्म
फल का छुरा लिये । 44. ये सज्जन = कुटुम्बी । 46. ए दिन = मानव जीवन के नये दिन । वे दिन
= पलने के दिन । 48. थिर न रहाय = विनाशी पदार्थ कोई स्थिर नही । रह सकता ।
54. भावार्थ = स । शय, क्रूरता, काम, मन, इन्द्रियाँ,
प्रकृति आदि तिस वन मे । = शरीर रूपी कानन मे । लूटने को पड़े
हुए है । । फिर भी अचेत चेतता नही । है । 55. पूत पिता तै । बीछुटया = ब्रह्मरूपी पिता से अविद्या
ग्रसित जीव बिछुड़ गया, अलहदा पड़ गया, स । सार के चौरासी के चक्कर मे । भूल गया
। 57. कर छिटके = हाथ निकला हुआ । 58. सो दिन = अन्त का दिन । चित्ता न आवह =
याद नही । आ रहा है । 60. सूता = अज्ञान दशा मे । । 61. श्याम वर्ण तै । श्वेत = काले बालो । से बदल बाल सफेद
हो गये । 62. झूठे के घर = स । सार के मोह मे । व्यस्त । 63. पयाना = कूच, गमन । माट = भौतिक देह
। 67. आन क = मायिक पदार्थों की, देवादिको । के । 69. गोर = कब्र । 70. झ । खे । = खाय । 71. डफान = शैतानी । 73. पि । ड सँवारा = रक्त मा । स-हाड़ के देह की कितनी
सजावट करता है । 75. पसारा कर गया = नाना तरह के कार्य व्यापार फैलाये ।
76. बुदबुदा = जलबुदबुद की तरह क्षणिक जीवन वाला है ।
मेवासी मोटा = नश्वर शरीर मे । ममता कर अपने मे । महानता का
ममत्व करनेवाला । 77. बाहर गढ निर्भय करे = बाहरी शत्राुओ । से बचने के लिए
बड़े-बड़े किले बनाता है । 80. काल कवल मे । सोय = हृदय कमल मे । जितनी विषय विकार की
लहर उठती है, वह सब काल के मुँह मे । जाने की तैयारी है । 81. कूड़ी करण्ा = विनाशी पदार्थों की प्राप्तिवाली करणी ।
87. ब्रह्म । ड ख । ड परवेश = काल का ब्रह्मा । ड के सभी
नौ ख । डो । मे । प्रवेश है । तुम आदेश = आपको नमस्कार है ।
89. तेज के = च । द्र सूर्य तारे देव । माटी के
= मनुष्यादि । । इति काल का अ । ग सम्पूर्ण । । अथ सजीवन का अंग । 26 । 3. नाद बिन्दु सौ । घट भरे = अनहद शब्द व वीर्य निरोधा से
शरीर परिपूर्ण करे । 4. शब्द रहै स । सार = महात्माओ । के उपदेश वाक्य स । सार
मे । रहते है । । 5. यहु नाही । उणहार = यही अह । ता ममता रहित मोक्ष का
स्वरूप है । 6. नाम कबीर ज्यो । = जैसे नामदेव व कबीरजी हुए । 7. जो जन राम भजन मे । नही । लगे, सो इस स । सार मे । आकर वृथा ही गये । जो
राम भजन मे । लग गये सो वृथा नही । जाते । सो दयाजी कहते है । कि तन-मन अह ।
भाव को जीते जी परमेश्वर मे । लगाना उचित है । 8. बेधो = घायल हुए । 9. सब रँग तेरे = जो कुछ प्रतीत हो रहा है वह सब उस
चित्शक्ति का र । ग है । 10. द्वन्द्व = कामक्रोधाादि । बन्द =
धयान, समाधिा । अमर कन्द = स्वस्वरूपप्राप्ति । 11. जम जौरा = बली काल । सत ख । ड =
टुकड़े-टुकड़े की जा सके । 13. लयवृत्तिा की परिपाक दशा जिसमे । रोम-रोम धाुनि हो तब साधाक अख
। ड = अमर हो सकता है । अविनाश = चेतन से एकता
प्राप्त हो जाय तब जम का कोई चारा नही । पहुँचता, जमकाल की व्यर्थता ही उसके
लिए द । ड है । 16. जीवत है परमात्मा, उससे अतिरिक्त सब मरा कहलाता है । 17. साधान = जप तप तीर्थादि । 18. रहते सेत = सदा रहने वाले प्रभु के साथ । 19. करण = आचरण । 20. अमर अमी सौ । होइ = नामचिन्तन आत्मचिन्तन
रूपी, अम = अमृत उसी से अमर होता है । 23. जागहु = सावधाान होओ । राम सौ । =
नामचिन्तन से । रैणि = आयु रूपी रात्रिा । बिहाण =
खतम । 24. जीवहु = मृत्यु से बचो, सार्थक जीओ । आतम
साधान सार = आत्मसाक्षात्कार करना यही जीवन का साधान सार है । 25. ब । चे काल = काल से बच जाय । 26. लाहा मूल = लाभ सहित मूल । 28. अनन्त उपाय = जप, तप, तीर्थादि नाना कर्मज उपाय । 29. स । जीवनी साधो नही । = नामचिन्तन स्वस्वरूप परिचय
रूपी स । जीवनी की साधाना नही । करता । 30. लहुडे हो । हि सब = जन्म लिया हुआ प्राणी दिन-दिन आयु
क्षीण होने से छोटा होता जाता है । 32. दूस्तर तिरे = गुण विकारमय दुस्तर स । सार से पार हो
जाय । 35. भरम सब = असत्य मे । सत्य की प्रतीतिरूप भ्रान्तियाँ ।
36. मेला = स । योग । परस = ऐक्यभाव ।
बूडे = डूबे । 37. दादू ते स । सार = वे फिर से स । सार मे । ही उलझे ।
गे । 39. पद पाया = निर्भय पद । 40. छूटे जीवता । = कर्मों का बन्धान जीवन मे । ही साधान
द्वारा काटा जा सकता है । यदि मरना ही कर्मबन्धान की निवृत्तिा का कारण हो तो
सारा स । सार मरता है वह मरने के बाद कर्मबन्धान से मुक्त क्यो । न हो जाए ।
परन्तु ऐसा सम्भव नही । इसलिए जीवित अवस्था मे । ही इन सभी बन्धानो । से मुक्त
होने का प्रयत्न करना चाहिए । 42. दादू जग बोरावै = जो धार्मवेत्ताा, दान, श्राध्द, गया
श्राध्द आदि करने से मृत व्यक्ति की मुक्ति का उपदेश देते है । वे स । सार के
सभी प्राणियो । को बहकातेहै । । 44. दोजख = नरक । । इति सजीवन का अ । ग सम्पूर्ण । । अथ पारिख का अंग । 27 । 2. जहँ लागा = विषय वासना, या नामचिन्तन मे । । 3. अ । तर आतम = अन्त:करण की प्रवृत्तिा 4. पीछे धारिये नाउँ = साधु असाधु नाम पीछे रखना । 6. मेट उपाधिा = च । चलता, वासना । परिहर प । च क
= पाँच ज्ञानेन्द्रियो । की विषय-प्रवृत्तिा दूर कर । राम कहै
। = इस तरह आत्मचिन्तन करे । 7. अर्थ आया = सही काम आया, सार्थक हुआ । 8. कहबे को = कथनमात्रा को । ऊपर क =
दिखावे मात्रा की । 9. परकास = आशय । 11. तन मन आतम एक है = सभी मानवशरीरो । मे । प । चभूत मन
तथा चेतना एक से है । । दुविधया = स । शय । 13. काया के वश करे = मन इन्द्रिय प्राण पर अपना अधिाकार
करे । 14. पूरण ब्रह्म विचारिए = लक्ष्य अर्थ का विचार करे,
व्यापक समष्टि शक्ति का विचार करे तो । 15. माणस = मनुष्य । गियान = ज्ञान । 16. सब जीव प्राणी भूत है = स । सार के माया मोह मे । उलझे
मानव भूत-प्रेत समान है । । 18. जहँ आतम तहँ परमात्मा = अभेद निश्चय । 19. काचा उछले ऊफणे = रागादि कषाय युक्त अन्त:करण काया है
उसमे । वासना की उछाल अह । कार की ऊफाण होती रहती है । 21. जौहर = सन्त महात्मा । 22. श्रवणा = श्रुतज्ञान है । नैना नही ।
= विवेक विचार के नेत्रा नही । है । । 25. हीरे को = निर्द्वन्द्व जिज्ञासु साधाक को । 27. सगुरा = गुरु उपदेश के अनुसार चलने वाला । भू
। चे = भोगे । 28. dl-कस लेइ = भली-भा । ति परीक्षा कर
निश्चय करे । 32. बाणी बधती जाय = महिमा की वृध्दि होती जाय । 33. परमात्मा अपने अभ्यासी की कड़ी परीक्षा लेता है । वही सेवक परीक्षा मे ।
सफल होता है जो कभी विविधा लालच सामने आने पर भी नही । डिगे । 34. यहु तति परिमान = कड़ी कसौटी । 35. ताइ किये तत सार = ज्ञानाग्नि मे । खूब तपा-तपाकर,
सार = तत्तव बनादिया । । इति पारिख का अ । ग सम्पूर्ण । अथ उपजन का अंग । 28 । 6. काया = नाम रूपमयप्रप । च । व्यावर =
व्याने वाली, प्रसान पानेवाली । 8. आत्म बोधा = आत्म-परिचय-साधाना सिध्द साधाक । 10. प । गुल ज्ञान = गुण माया मे । रहित शुध्द ज्ञान । 11. ब । झ बियाई = बाँझ पुत्रा की तरह आत्मज्ञान को पैदा
किया । मन राव = अह । कार वासना रहित मन निर्विकल्प रूप
वृत्तिा वाणी को पाकर आत्मानन्द के प्रेम मे । मग्न हो रहा है । 12. ऊजड़ चालते = स । सारी पदार्थों की प्राप्ति के लिए
प्रयास करना । पहुँचे पन्थ चल = निवृत्तिा द्वारा प्रेम भक्ति
के पन्थ चले तब दुनियावी लोग कहते है । , यह पगला गए है । । 14. अनुभव, ऊपज और शब्द यही सार्थक है जिससे सार वस्तु की प्राप्ति हो सके ।
15. परब्रह्म ने हिरण्यगर्भ को उपदेश दिया, हिरण्यगर्भ ने जीवो । को उपदेश
दिया, इस प्रकार से विष अमृत का उपदेश स । सार मे । चला आया है । 16. मालिक = समष्टि कूटस्थ चेतन । अरवाह
= अन्त:करण । आलम = स । सार । हुकम खबर मौजूद
= यह उस मालिक का आदेश है इसमे । तत्पर रहो । । इति उपजन अ । ग सम्पूर्ण । । अथ दया निर्वैरता का अंग । 29 ।
2. अह । कार का त्याग, तन-मन के सभी विकारो । को दूर करना, सब जीवो । से
प्रेम करना, यही सारमय मार्ग है । 3. वैरी म । झ विकार = मनुष्य के शत्राु तो उसमे । जो
कामादि विकार है । वे ही है । और कोई शत्राु नही । । 4. एकै आतमा = सब मे । एक ही आत्म तत्तव है अत: शत्राुता
किससे हो । 5. दूजा ना । ही । आन = सृष्टि मे । एक ही चेतन है, दूसरा
है ही नही । । अत: जीवो । से प्रेम व मित्राता और द्वेषता अज्ञान से है । 6. इहि । स । शय भरम भुलान = इस श । का, भेदमय विकल्प
ज्ञान से लोग भूल रहे है । । 8. श । का सम्पन्न बुध्दि से हमे । जो भ्रमपूर्ण ज्ञान होता है तभी द्वैत की
प्राप्त होती है । 9. अ । ग तै । = जिसके अवयव से । 10. आपा पर = अपने और दूसरो । मे । । चीद्द ले
= देख ले । 14. प्राण पिछाणे = आत्म परिचय करे । 16. पूरण ब्रह्म = सम्पूर्ण चेतन । दुती भाव
= द्वैत वृत्तिा । 17. काँच के मन्दिर मे । बन्दर अथवा कुत्ताा अपनी सूरत काँच मे । देखकर, और
जानवरो । के होने का भ्रम करता है वैसे ही मनुष्य अपने आत्मरूप का प्रतिबिम्ब
अलग-अलग अन्त:करणो । मे । देखकर एक-दूसरे से विरोधा करते है । और यह नही ।
जानते कि प्रतिबिम्ब रूपी दूसरे जीव अपने ही प्रतिबिम्ब है । । 18. एक पेट = एक ही प्रकृति से । 20. एक अनेक ह्नै = एक ही आत्मा शारीरिक उपाधिा से अनन्त
सूरतो । मे । नजर आने लगती है । 21. न्यारे नाम धार = वर्ण, धार्म, जात, पन्थ की कल्पना से
भिन्न-भिन्न स । ज्ञाएँ भिन्न-भिन्न हो जाते है । । 23. आतमदेव = सब देवो । मे । चैतन्य आत्मा है वही एक देव
है । 24. जैसे हम अपने को देखते है । , वैसे ही सभी को देखना चाहिए । इस प्रकार
से कोई दु:ख, कलेश नही । होगा । 25. दुविधाा = भेद बुध्दि । 26. अर्श खुदाय का = अजरावर खुदा का स्थान जीवो । का शरीर
है । 27. देहुरा = देव स्थान । जतन्न = उपाय ।
भाने = तोड़ना । 28. माणसौ । = मनुष्यो । ने । ऐन = स्वय
। । 31. करद का = छुरे का । सुबहान क =
परमात्मा की । मुग्धा = मोहग्रस्त । 32. मनी को = अह । कार को । 34. कुल = सम्पूर्ण, आलम = स । सार
। यके = एक, दीदम = देखता हूँ,अरवाहे
= जीव, इखलास = मित्रा है । , बद अमल
= खोटे काम । बदकार = खोटे काम, दुई
= द्वैतभाव से होते है । । पाक (पवित्रा-परमेश्वर,
यारा । = हम मित्राो । । पास = समीप है । ।
35. मन को विषयरूपी काल झाल से निकाल कर आत्मा मे । लगाय कर जीवो । पर दया
रखे । , सोई अमृत का खाना है । 36. परलै = नाशवान । । इति दया निर्वैरता का अ । ग सम्पूर्ण । अथ सुन्दरी का अंग । 30 । 2. आरतिवन्त = जन्म-मृत्यु के दु:ख से आरत ।
सुन्दर = सन्तवृत्तिा । 3. कन्त = स्वस्वरूप । घर = हृदयरूपी गेह
मे । । सुन्दरि सेज पर = स्नेहवती वृत्तिा वाली सेज पर । 4. आतम अन्तर = शुध्द हृदय प्रदेश मे । । 5. क । ठ न लाग = अरस परस न हुई । बिच ही गई बिलाइ
= आयु बीच मे । ही समाप्त हो गई । 6. सुरति (वृत्तिा) रूपी सुन्दरी अगम-अगोचर पति के पास जाने की पुकार करती
है । 7. आण बिठाए और = और पुरुष कहिए स । सार के विषय भोगो । से
स्नेह जोड़ लिया । 8. अवगुण देख पति मे । सुन्दरी से कृपा वापिस ले ली, तब वह विषय वासना, अह ।
कारादि विषयो । मे । भटकती फिरी । 9. क्यो । माने भरतार = ऐसी व्यभिचारिणी को भर्तार क्यो ।
स्वीकार करे । 10. हूँ सुख सूती नी । द भर = मै । या मेरी वृत्तिा विषय
भोग मे । लग, अज्ञान की घोर निद्रा मे । प्रसुप्त है । । जागे ना । ही
। जीव = यह अन्त:करण जागता नही । , विशुध्द हो आत्मा की ओर प्रवृत्ता
होता नही । । 11. सखी न खेले सुन्दर = सन्त साधाक की वृत्तिा अपने
आत्म-स्वरूप की ओर तीव्रता से लगती नही । । 12. दिहाड़े = दिन । गहल = विषयभोग मे ।
पागल । 13. सख = अन्य जन । सुहागिन = आत्मोपसना
मे । लगी । हू । र = मै । । दुहागिन =
अनात्म पदार्थों मे । उलझी हुई अपने आत्मारूपी पति से त्यागी हुई हूँ ।
महल = स्वरूप । 14. कन्त = स्वामी । मर्ूच्छि = मूर्छित
हो । 15. परस न = मिलाप नही । । 16. प्रगट = निरावरण होकर । सेज सुहाग =
हृदय प्रदेश मे । दर्शन । 17. पुरुष पुरातन = विशुध्द चेतनरूप ब्रह्म । आन
के = देवी-देवताओ । के । बीछुटया = अलग हो गये । 18. कन्त = ब्रह्म । मुख सौ । नाम न लेय
= केवल नामोच्चारण रूपी उपासना भक्ति मे । ही ना लगे रहे । 19. सुन्दरि बलि गई = अपने शरीर के स्थूल सूक्ष्म स । घात
सहित अपने आराधय को समर्पित करो । 21. मोहै = मोहित करे । बहुत भाँति =
बहुत प्रकार के । 22. स । सार रूपी नदी के जल रूपी विषयो । की कामनाओ । को त्याग कर, बाह्य
विषयो । से परे जो परमात्म दृष्टि है, तिसमे । वृत्तिा को जोड़े । 23. बिलसे = उपभोग करे । 24. मोटे भाग = महापुण्यमय दशा । 25. रात = अनुरागमयी । 26. निर्मल = विषय वासना अह । कार शून्य । निर्मल
प्रेम = निष्काम स्नेह । 27. एक रस = अभेद स्थिति । ता सम = उसके
बराबर । । इति सुन्दरी का अ । ग सम्पूर्ण । अथ कस्तूरिया मृग का अंग । 31 । 2. घट कस्तूरी मृग के = जिस प्रकार मृग के शरीर मे । ही
कस्तूरी वास करती है उसी प्रकार मनुष्य की देह मे । ही आत्मा वास करती है ।
तातै । सूँघे घास = मृग कस्तूरी को घास मे । सूँघ कर तलाशता
रहता है इसी प्रकार मनुष्य भी बाहर विविधा देवी-देवादि रूप मे । अपने परमात्मा
को तलाशता रहता है । 4. बाहिरा = बधिार । 5. जा कारण = जिसकी चाह से । जग ढूँढिया
= स । सार मे । तलाश कर रहे है । । मै । तै पड़दा भरम का = अह
। कार के कारण । 6. अन्धाा यह नही । बता सकता कि सूर्य कितनी दूर है उसी प्रकार अज्ञानी यह
नही । जानते कि व्यापक परमात्मा कहाँ है । । 9. राम सनेह = आत्मराम को समझने की तीव्र इच्छा रखनेवाला ।
10. जड़ मति = स्थूल पदार्थों मे । ही बुध्दि का उपयोग करने
वाला । 11. जागत = सचेत । जे = वे । 12. जिसका साहिब (मालिक) होशियार होता है, सो सेवक भी सचेत रहता है, गिरता
पड़ता सदैव अचेत ही है । 13. हमारा सा । ई, प्रभु तो सावधाान है पर । तु हम स्वय । ही अचेत है । क्यो
। कि आत्मतत्तव का रक्षण नही । जानता, इसी से, इसलिए खेत रूपी जीव निष्फल दु:खी
होता है । 14. गोविन्द के गुण बहुत है । = उस परमात्मा ने हमारे हित
मे । बहुत उपकार किये है । । जे कुछ कीया पीव = परमेश्वर जो
कुछ उपकार करता है उसे वह स्वय । ही जानता है । । इति कस्तूरिया मृग का अ । ग सम्पूर्ण । । अथ निन्दा का अंग । 32 । 2. जो जन साधु मे । अवगुण बताता है सो रसातल को जाता है । 3. ऊ । धापलट = उल्टा परिणाम बुरा उत्पन्न होता है । 4. समूल = जड़ सहित । 5. निन्दा = झूठे अवगुण दोष का आरोप । 6. निन्दा किये नरक है = किसी मनुष्य की निन्दा करने पर
दूसरे मनुष्य मे । दोष लगाने पर नरक का वासी होना पड़ता है । 7. पर उपकारी सोय=निन्दा करने वाला दूसरे पर झूठे आरोप कर
सच्चे मनुष्य का यश फैलाता है अत: वह सच्चे मनुष्य पर उपकार ही करता है । 8. साधु शब्द की निन्दा का फल पाप चतुर समझदार मनुष्य समझे जाते है । । 9. अनदेख्या=बिना स्वय । देखे । अनरथ =
झूठ । तब लग करै कलाप = निन्दक पुरुष तब तक दु:ख का स । ताप
सहते है । । 11. धारहि उठाइ=कैसी झूठी बात चला देते है । । 12. जाहि । गे किस ठाम=वे किस जगह शान्ति पाये । गे । 14. साहिब माने नही । =वह ईश्वरीय शक्ति, सत्य को झूठ और
झूठ, को सत्य बताना, इस तरह की हरकत को कभी स्वीकार नही । करता । ऐसा करने वालो
। को । अखूट=जिसका अन्त नही । । ऐसा पाप =
अपराधा लगता है । । इति निन्दा का अ । ग सम्पूर्ण । अथ निगुणा का अंग । 33 । 2-3. चन्दन के वृक्ष के नीचे कोई पथिक आ बैठे, वृक्ष की शीतलता से सुख पाया
। यह गुण चन्दन मे । देखकर वह पुरुष फिर आया और पेड़ की सेवा करने के बदले उसको
काट गिराया । दयालजी कहते है । कि ऐसा कृतघ्नी यह स । सार है । 4. भुव । ग=स । सारी जन सर्परूपी । 6. शिष का गुण=कृतघ्नी शिष्य का कृतघ्नता का हेय गुण नही ।
जाता । 7. ब । सा चन्दन पास=अकृतज्ञ रूप मानव बाँस की तरह चाहे
जितने मलयागिरि रूप महात्मा के सत्स । ग मे । रहे, बाँस की तरह मलिन वासना वाला
मानव अपनी मलिनता त्यागता नही । । 8. आडा अ । ग है= पत्थर मे । जाडयता रूपी आड है उसी प्रकार
अज्ञानजन्य तम की जड़ता से वह अकृतज्ञ मानव गृहीत है । 10. मा । ही । वासना=भीतर मलिन वासना रहने पर ।
मेला होय=आत्म-परिचय का मेला समागम नही । होता । 11. भावार्थ-स । सारी जन मूँसे की तरह स । सार के तापो ।
से जलता देख सन्त महात्मा हँस रूप अपने सदुपदेश से उस मूँसे रूप मानव को
मानसरोवर=शुध्द हृदय सरोवर की ओर चले, पर वह अकृतज्ञ मानव
उन्ही । के प । ख काटने लगा-उनके उपदेश रूप वचन प । खो । को ख । डित करने लगा ।
12. कूप मे । = वासनाजन्य दु:खो । के कूते मे । । 13. दूधा = आत्मोपदेश रूपी पय । ता ही को दुख देय
= उसी अकृतज्ञ मानव के क्लेश का कारण होता है । 14. पावक = अग्नि के बिना । सूखे सी । चताँ =
वर्षा का जल पाते हुए, उपदेशरूपी जल पाते हुए अकृतज्ञ पुरुष जवासे की
तरह । 15. सुफल वृक्ष = सन्त जन सुफल वाले वृक्ष रूप है । । 16. सगुणा = हरि गुरु की मान्यता वाला, श्रध्दालु ।
निगुणा = वासनामय, स । सारी । 19. सगुणा गुण केते करै = सगुण-कृतज्ञ पुरुष अपने पर किये
गये उपकार को बहुत बढ़ावा देता है । 22. निगुणा न माने नीच = अकृतज्ञ पुरुष अपने पर किये गये
हित को नही । मानता । 23. काढै । काल मुख = जीवन मृत्यु के इस चक्कर से निकालना
चाहते है । । 25. दादू परलै राखिले = जीवन विनाश से रक्षा करना चाहते है
। । 26. सद्गुरु आडा देय = महात्मा जन की आड से परमात्मा । 27. बिलसे = उपभोग करे । वितड़े = बाँटे ।
। । इति निगुणा का अ । ग सम्पूर्ण । अथ विनती का अंग । 34 । 2. रोष = क्रोधा । समाई का धाण =
अतिगम्भीर । 4. सेवा चोर मे । = उस परमात्मा की सेवा का मै । चोर हू ।
ँ । 5. तिल-तिल = राई-राई, क्षण-क्षण, पद-पद । 7. बे मरयादा = सीमा रहित । 8. कल । क = पाप । 9. शोधा सब = सब तलाश करके । 10. स्वाद सबै = सब विषयो । से । 11. खीन = क्षीण । 12. बहु बन्धान = विषय वासना, अह । कारादि । 13. दीवान = न्यायकारी । मीराँ महरवान =
मेरा रक्षणहार । 14. अन्तर = अन्त:करण । कालिमा = मलिनता
। 15. सब कुछ व्यापे = कामादि दोष व अह । कार । कुछ
छूटा नाही । = लोभ, मोह, वासना, क्रोधा कोई विकार छूटा नही । । 16. साल = चुभन । बिसर = भूलना । 17. यहु मन मेरा राखि = मेरे मन को शुध्द रखिए । 19. रत = श्रध्दा । सूता = अज्ञानी, सोया
हुआ । जागे = सचेत हो । 20. आपै देखे आपकाे = अन्त:करण सिर्फ आत्मस्वरूप को देखे ।
सो नैना = ऐसे ज्ञानी नेत्रा । 21. ठाहर लाय = मन को उचित प्रवृत्तिा मे । न लगा पाए,
मनुष्य जन्म का सार्थक उपभोग न कर सके । 22. नवतम = नवीन । 23. भान = तोड़ । दुविधया = भ्रमजनित
द्वैत वृत्तिा को । समता = आत्मदृष्टि । 24. स । सार जो वास्तव मे । है नही । सो प्रकट हो रहा है । जो परमात्मा है
सो छुप रहा है । हे सा । ई! अविद्यारूपी परदा दूर कर और तू आप प्रकट होकर दर्शन
दे । 26. दूजा हरि सब लेवे = सब तरह के भेदभाव की वृत्तिा का
निवारण कर देता है । 30. फूटा फेरि सँवार कर = विषय प्रवृत्तिायो । मे ।
छिन्न-भिन्न हुए मन को विषय वासना से हटा आत्माभिमुख कर एक आत्मचिन्तन दशा मे ।
लगा दे । ले पहुँचावे ओर = अन्त तक वृत्तिा को सुस्थिर कर
आत्मसाक्षात् तक की अवस्था को प्राप्त करा दे । बहोर = बहुत ।
31. सँवारे = अन्त:करण के दोष हटा आत्मचिन्तन मे । सँवारे
। बूढ़े तै । बाला करे = अज्ञानरूपी वृध्दावस्था से बाहर निकाल
कर ज्ञान रूपी बाल्याकाल मे । पहुँचा दे । 32. गलै विलै = परमात्मा मे । लयलीन । होकर एकमेक
= सब प्रप । च से मन को मोड़कर एकाग्रचित से । अरस परस
= प्रत्यक्ष परमात्मा के सन्मुख करुणा पूर्वक विनती करे, तब दादूजी
कहते है । दास ब्रह्म रस मे । मग्न हो । 33. अजा सि । ह ज्यो । भय घणा = बकरी को जैसे सि । ह से भय
लगता है । 34. सह = निश्चय । 36. बाहर चढे = मदद करे, सहायक । 37. औघट = ऊबड़-खाबड़ घाट । 38. भेरा = बाँस की नाव । 39. पि । ड = मानव शरीर । परोहन =
सामान्य छोटी नौका । 40. घट = शरीर । बोहित = बहता है ।
धाार मे । = वासना की धाारा मे । । 42. काया के वश = देह मे । बँधाा हुआ । आतम राम
बिन = आत्म-ज्ञान बिना । 43. नीधाणि = बिना स्वामी के । 46. आवटे = नानाविधा क्लेश । 48. काल झाल = काल की अग्नि । 51. मारणहार = काम, क्रोधा, लोभ-मोह, विषय वासना, अनेक
प्रवृत्तिायो । से काम कर्म बन्धान ये सब जन्म-मृत्यु के निमित्ता बनते रहते है
। । 54. गरक = खराब, ग्रसित । रसातल = नरक ।
अवलम्बन = आश्रय । 55. दौ । लाग = दावाग्नि भभक उठी । परजले
= जल रही है । 56. निहोरा = अनुकम्पा, मेहरबानी । 57. अर्श = आकाश । जमी । = धारती ।
औजूद = हमारा शरीर । अफताब = सूर्य, वासना
रूप सूरज । 58. निर्विष = शुध्द । पड़दा =
अज्ञानीरूपी परदा । 59. आतमा = बुध्दि । 60. धाोर = बोझवाहक । निवाहि । = निभाओ ।
। । बिड़द = कीर्ति, यश । 61. धार = धौर्य । छ । डे = त्याग दे ।
म । डे = माँडे । 64. बल = शारीरिक बल । पौरुष = मानसिक
शक्ति । 65. स । ग = साथी, अन्त:करण । वशाय = बस
मे । । 66. जक = चैन, शान्ति । 68. सदके = बारणै । 71. प्यासा = अनुरागी । प्याला = बुध्दि
। 73. जनि परिहरे = मत त्यागे, दूर करे । 74. दर हाल = तुरन्त, तत्काल । 76. खरी दुहेली देह = सचमुच ही यह शरीर बिना परमात्मा के
प्रेम स्नेह के परम दु:खदायी है । 80. भावै = चाहे । बख्शिये = माफ करे ।
81. लेखा = हिसाब । फिल किया = क्षमादान
दिया । । इति विनती का अ । ग सम्पूर्ण । अथ साक्षी भूत का अंग । 35 । 2. अन्तर पूरे साखि = मनुष्य के अन्त:करण मे । परमेश्वर
साक्षी देता है । वो ही सही प्रमाण है । 3. मो । ही तै = अन्त:करण से । दूजा धान्धा है
= स । सार के वासनामय तथा सकाम कर्म । सब धान्धा है
= व्यर्थ है । 4. साक्षी भूत = अन्तर्यामी । कौतिकहारा
= विराट्, एकान्तद्रष्टा । अण करता = कूटस्थ चेतन ।
अवधाूत = सूत्राात्मा । 6. इस साखी मे । भक्तिपक्ष, ज्ञानपक्ष व वेदान्त पक्ष से गोपी कान्ह, ब्रह्म
जीव से उस चित् शक्ति का निरूपण है जो सम्पूर्ण जड़-चेतन मे । व्याप्त है । 7. सान कर = मिलाकर । 8. भावार्थ-सद्गुरु ने समझाया कि जीवन को किस ओर लगाना
चाहिए । स । सार मे । विष, अमृत, शुभ, अशुभ, हित, अहित क्या है । जिसने अपने
मन, वचन, कर्म को जिस ओर लगाया वही फल प्राप्त किया । 10. होवे इस ही माँहि । = अन्त:करण ही मे । सब भला व बुरा
पैदा होता है । 11. कर्मों के बस जीव है सो जीव कर्म के बन्धान मे । तभी आता है जब कत्तर्ाा
होने का अभिमान रख के कर्म करता है । ज्ञानी ऐसा अभिमान नही । रखता, इसलिए कर्म
से बँधाता नही । । 15. औजूद = यह मानव शरीर । बन्दा = जीव ।
16. सिरजे = पैदा किये । सब लोइ = चौदक
लोक रचे । 17. परमात्मा परमेश्वर बाजी खेल रहा है जिसको अज्ञानान्धाकार से युक्त
मनुष्य लख नही । पाते । वह कूटस्थ चेतन सब कुछ जीतकर बैठा है किसी भी बन्धान मे
। स्वय । बँधाा नही । हुआ है । । इति साक्षी भूत का अ । ग सम्पूर्ण । अथ बेली का अंग । 36 । 2. जैसे धारती धाीरे-धाीरे जल सोखती है, तैसे सहजै । सहज समाधिा मे । अपने
जीव को अमृतरूपी अनाहद से पोषण करे । 3. असत्य मे । सत्य की कल्पना, सत्य मे । असत्य की कल्पना का धाोखे मे । कभी
न आये । 4. जिज्ञासु की बुध्दि रूपी बेली के सहज समाधिास्थ हो । गे पर भजन रूप फल और
ज्ञान रूपी फल लगते है । । सद्गुरु शनै:-शनै: इस वेलि को अपने अनुभवी उपदेश
द्वारा उपर्युक्त फल फूल वाली बनाने का प्रयास करते रहते है । । सद्गुरु के इस
उपदेश को कोई विरला ही समझता है । 5. सी । चे नही । = दया अनुग्रह के पानी से सी । चे नही ।
। 6. हरि रूपी वृक्ष पर बुध्दिरूपी बेली को फैलावे, तो उस बेल मे । अमर फल
(मोक्ष) लगे, यदि साधू बेली को सी । चता रहे । 7. सू फल = ज्ञान रूपी फल से फलीभूत हो । 8. हरिया = भक्ति रूप हरियाली वाला । ताप
= जन्म-मृत्यु रूपी सन्ताप । 9. अम = नामरूपी अमृत । अघाय = तृप्त कर
। 10. अमर बेलि = शुध्द बुध्दि । खार समुद्राँ
= स । सार सागर मे । । खारे नीर सौ । = विषय वासना
के पानी से । 12. मीठी धारती बाहि = सत्स । ग रूपी अच्छी भूमि मे । लगाई
हुई । मीठा पान = चिन्तन रूपी जल । 13. मुवा न सुणिया कोइ = आत्मचिन्तन मे । लगा साधाक
भोगवासना मे । पुन: लिप्त हो कोई मरा हुआ नही । सुना । 14. विष की बेल = कुस । ग मे । प्रवृत्तिा वासनामय बुध्दि
बेलि । विष फल = चौरासी लाख योनि । 15. नीपजे = फलवती हो । 16. सत सौ । = सत रूपी जल से । फूले =
भक्तिमय वृत्तिा बने । फले = बैराग फल फलित हो । खाय
= प्राप्त करे, भोगे । । इति बेली का अ । ग सम्पूर्ण । अथ अबिहड़ का अंग । 37 । 2. स । ग = साथी । अजरावर = जरा मृत्यु
रहित । बीछूटै = दूर हो, न्यारा हो । 3. सुस्थिर = बिलकुल स्थिर, सर्वदा सर्वकाल रहने वाला ।
खिरे = ख । डित हो । खपै । = विलीन हो, नष्ट
हो । 5. बिहड़े नही । = पलटे नही । । तासन =
उसी से । 6. अबिहड = अपरर्िवत्तिात, न बदलने वाला । 7. आदि-अन्त बिहड़े नही । = आरम्भ से अन्त तक चेतन शक्ति
कभी बदलती नही । , कालपरिणाम का उस पर कोई प्रभाव नही । होता । 8. जो दीसे सो जाय = नाम, रूप, आकार वाली सब वस्तुएँ काल
प्रभाव से समाप्त हो जाती है । । 10. अबिहड़ अ । ग = कूटस्थ चेतन । अघट =
कमी-बेशी से रहित । 11. गुण व्यापै । = रजोगुण, तमोगुण, विषय वासना, अह ।
कारादि । अपणे = स्वस्वरूप प्राप्ति के लिए ।
निबाह्यो = निभाया । पण = प्रतिज्ञा, प्रण । । इति अबिहड़ का अ । ग सम्पूर्ण । । इति अ । ग भाग सम्पूर्ण । अथ श्री स्वामी दादू दयाल जी की ग्र । थावली
शब्द भाग अथ राग गौड़ी । 1 । 1. निकट जिव जाई = रामजी के पास मेरा जीवन जाएगा ।
जीवण मूरि = जीवन मूल । बजाई = धवनि पैदा करना । 2. निर्मल = निष्पाप । जनि छाडहु = नही ।
छौड़े । कुश्मल = मलिन, पाप । तत = तत्तव ।
3. नीेके = ठीक प्रकार । राशि = स । ग ।
निबहो = निभ सकना । निछेदन = नाश करने वाला
। दहो = जलावो । 4. नैन निकट = ज्ञान के नेत्राो । के साथ । तलफे
= तड़पे । 5. अब के = नर तन मे । । गोप्य = गुप्त ।
अपरछन = अदृश्य । रैणि = आयुरूपी रात्रिा ।
6. निकसै = निकले । चितवत = एक टक देखते
। 7. शोधान = वह स्त्राी । पतीजे = भरोसा
करे । । अह निश = दिन-रात । 9. मोह्यो = मोह लेना । अवरन = दूसरो ।
से । तिलहि = पलभर भी । भोरै । = भोलेपन मे
। । अनत = दूसरी जगह । राज = शोभा, महत्तव ।
10. चीरा = वस्त्रा । नवसत = सोलह श ।
ृगार । गेह = घर । 11. वाइ = विरह की भाप । भीना = भीगा ।
विष तजे = भोग वासना छोड़े । 12. नख शिख = सिर से पैर तक, मन, कर्म, वचन । गरवा
= बड़ा, महान । 13. दुहेल = कठिन समय । म । झ = बीच ।
बूडे = डूबे । बाज = बिना । भेरा
= नौका, नाव । परोहन = जहाज । 14. दूभर = अत्यधिाक मुश्किल । पैरत =
तैरते हुए । खेवट = पार उतारने वाला । 15. जन को = सन्त आत्मा को । परिहर =
छोड़कर । नियारे = न्यारे । गरवा = गम्भीर ।
16. मोकौ । = मुझे । यहु विषिया = यह
विषय भोग की चाह । दह दिशि = स । सार के नाना पदार्थों की ओर
। नियरे = पास । छीजे = शान्त । 17. नवका = नौका । करणी कठिन = हठयोग आदि
की करणी । हलाहल = विष, जहर । कूप = कुऑं ।
18. तो लग = तब तक । चीन्हे = जाने । ।
20. मेल्हूँ = छोड़ूँ, त्यागूँ । शोधिा लीधाो ।
= तलाश लिया । तालाबेल = विकल । हवे
= अब । जाशे = जाएगा । चरण समानो =
दीर्घ काल को । केवी पेरे = किस विधिा । काढौ
= बिताऊँ । राखिश = रखूँगा । दुहिले पाम्यो
। = कठिनाई से पाया । 21. चाहना = चाहता हूँ । 22. तुम पै आहि = तुमको ही आता, तुम्हारे पास ही है । 23. कृत = उपकारी काम । उपाइ = उत्पन्न
कर । 24. जीवी जे = जीवन सफल हो । उजास =
उजियाला । 25. सार = तत्तव । 26. जानि जारै = मत जलावे । हेजै । = अति
प्रेम से । 28. मन कोयला = मैला मन । भुव । गा =
सर्प, साँप । 29. भुरक = मोहनी । 30. रमसि = खेलेगा । अघाई = तृप्त हो ।
31. सेमल = सेमल के पुष्प की तरह । डहकावे
= भ्रमै । 32. उदमद = विषयासक्त । फन्धयो = फन्दा ।
चाइ = चाह । 33. सारंग प्राण = सब र । गो । का र । ग, सब प्राणो । का
प्राण । 34. थात = सम्पत्तिा, खजाना । 35. आकाश धारणि धारीजै = निर्विकल्प अवस्था प्राप्त करिये
। साइर = सा । ई, प्रभु । हितारथ = हेत,
उपकार । 37. साधा = साधाना । पाले = बर्फ ।
वज्र = कठोर । धिाक् = धिाक्कार । 40. खालिक = खलक-स । सार का मालिक । अयाना
= अज्ञानी । (राग ज । गली गौड़ी) 41. रत्ताा = आसक्त । नाल वे = साथ ।
निखूटा = चला गया । डेवण = देने मे । ।
भेरा भग्गा = धौर्य रूपी नौका टूट गई । वियाप =
छा गई । 42. डफाँण = पाख । ड, शैतानी । गोर =
कब्र । उपावनहार = पैदा करने वाला । 43. अन्तर है जे जाणे सोई = जो हमारे अन्तर मे । चेतन है
उसको हम जान जाएँ तो । तत्तव = सार । जतन-जतन कर
= वृत्तिा को आत्माभिमुख रख । इब = मनुष्य देह मे ।
। 44. क्षीणा = नष्ट । इहि । बाज = स । सार
की बाजीगरी मे । । बाद = व्यर्थ । येता =
इतना भी । 45. अन्धाार = अज्ञान का अन्धाकार । 46. बौरावे = पागल हो गया है । 47. झखै । = बकवाद करे । । 48. अण मा । ग्या = बिना चाहा । झूरे =
रोना । दरहाल = उसी समय । 49. आर्थिन = अर्थ की राशि । 50. मै । मै । मेरातिन शिर भारा = जो अपने अन्धाकार मे ।
उलझते है । उन्ही । पर 51. लीन भये = उसी मे । लवलीन हुए । 53. कादिर = परमपिता । रहगाना = दयालु
ईश्वर । 54. परिमाण = माप तोल । परिमिति =
परिधिा, अन्त । 55. कौण परखणहार = प्राणपारखू जौहरी । कौण
सुज्ञाता = आत्मज्ञाता । कौण गियान = ह । सवृत्तिा
ज्ञान । 58. सिधा = महेन्द्र, गोरख, भर्तृ आदि । योग =
दत्ताात्रोय आदि । यत = भीष्म हनुमान आदि ।
सत = हरिश्चन्द्र आदि । 60. अमल = व्यसनी । 61. भेष = बनावटी । डि । भपणै । =
पाखण्डी, नकली रूप से । रीझे = राजी हो । धान
= स्त्राी । 62. सेज = अन्त:करण रूपी शैया । नाह =
पति, स्वामी । बान = आदत । 64. साँची मति = सत्यबुध्दि । दुतिया दुर्मति
= द्वैधा भाव की भावना । 65. पतीना = विश्वास किया । 66. द्वै पख = हिन्दू-मुसलमानपन । अवरण =
अरूप । काम कल्पना = विषय की चाह । 67. मन्दिर = हृदयमन्दिर । है = जो नित्य
सत्य है । सो = वह । निरन्तर = अलग । 68. घर ही मे । = अपने ही भीतर । महल =
हृदय । थिर सुस्थान = अधिाष्ठान ब्रह्म । आदि अनन्त
= आरम्भ से अन्त तक । 69. इत है = इस ओर, आत्म उपासना मे । । तिहि । तट
= त्रिाकुटि तीर । 70. कथो = कहो । र । ग = प्रेम ।
बास = निवास । अघाइ = तृप्त हो । ) 71. त्रिाकुट = मन, प्राण, सुरति । स । गम
= स । युक्त, एकलक्ष्य निहित । जतन जतन कर = स । सार
के पदार्थों से वृत्तिा को हटाकर । छावर जावे = तृप्त हो जाय
। 72. नीके = सावधाानी पूर्वक । बपुरा =
अभिमान रहित साधाक । 73. कामधोनु = मनसा । सरवै । = झरावे ।
पोष । ता । = वासना को विषयसुख देना । दूणाँ
= द्विगुण । मुकता मेल्यो । मारे = वासना को चाह के विषय भोग
देने पर विनाश करती है । अजरावर कन्दा = नित्य आनन्द । 74. वर वर = समान 75. साले = चुभे । बहुर = फिर ।
निकसे = अलग हो । 76. ढोर = लगनमय वृत्तिा । हौ । स = चाह
। 77. गवना = चलना । भवना = हृदय रूपी
स्थान । रवना = रहना । तारा = तारने वाला ।
पारा = पार पहुँचना । मेला = आत्मस । योग ।
78. हेरा = खोजा । 79. सकल करा = सृष्टि कर्ता से । नेरा =
पास । । इति राग गौड़ी सम्पूर्ण । 80. अगम ठाम = ब्रह्म देश । कलि विष =
पाप । 81. खेव ना । ही । = नाविक नही । । घाट ना । ही ।
बाट ना । ही । = ज्ञान का रास्ता नही । । 82. सखी सयान = सावधाान साधाक । खरी दुहेल =
बहुत दु:खी । 83. लाहड़ा = फायदा, लाभ । 84. खसम = प्रियतम, स्वामी । शूल सुलाको
= विरह वेदना । शुहदा = वियोगी । 85. हुक्म = आज्ञा मानने वाला । 87. गइला = गया । मेरा कृत = मेरा काम,र्
कत्ताव्य । 88. सा । धो = चढ़ाये । मूल = नर तन ।
बाट बसेरा = राहगीर । 89. वैन = व्यथा, दु:ख । 90. अखई = अक्षय । 91. बाबा मर्दों मे । मर्द उसको कहा । , जिसने दुई को त्याग करके अपने मन को
पवित्रा कर लिया है । दुनिया मे । अपनेर् कत्ताव्यो । के निश्चिन्त होकर, केवल
परमात्मा मे । मिल रहे, ऐसा बुध्दिमानो । का काम है । अपने अह । कार,र् ईष्या,
कामनाओ । को पैरो । से मसल डाल । बदी को बुराई को त्याग कर नेकी की राह पकड़ ।
जीवन को समाप्त हुआ मान कर परमात्मा का हृदय रूपी गुफा मे । स्मरण कर । ऐसा
करने वाले साधाको । को साधाना का फल मिल जाता है । 92. साइर = समुद्र । सोहे = सुहावने लगे
। 93. अकथ = कहने मे । न आना । साधा । ता =
साधाना मे । लग । सहज समाऊँ = काम को करने मे । लगे रहना ।
94. सिदक साबित = पूरा निश्चय । तालिबा =
अति विरही । गैब = अदृश्य, अचानक, सहसा । खालिक
= स । सार का स्वामी । ऐन वे = अरस परस है ।
सै । न = इशारा । दाना = होशियार । 95. कृत्रिाम = बनावटी, नकली । । इति राग माली गौड़ सम्पूर्ण । अथ राग कल्याण । 3 । 96. चेत = सावधाान हो । सँवार = सज्जित
कर । बाट = राह । विषम = कठिन । सूत
= मेल । 97. बसेरा = निवास । सुस्थाना = जगह ।
। इति राग कल्याण सम्पूर्ण । अथ राग कान्हड़ा । 4 । 98. जक = चैन, शान्ति । दुराऊँ = गुप्त
रखूँ, छिपा कर । पीरो । = वेदनाओ । , तकलीफो । । पि ।
जर = शरीर । 99. सलौने = सुन्दर । आह = दुराशीस,
श्राप । 100. धान = स्त्राी, सम्पत्तिा । बाट =
साधानपथ । 101. सजण = साजन, प्रिय । मै । डा = मेरा
। असाडे = हमारे । नाल = साथ । डेवा
। = देना । इत्था । ई = इधार । 103. मति = नही । । ही । ण धारे = गन्दे
विचार करे । कूड़े = झूठ । 104. गह = पकड़ । 105. अयाना = बेसमझ । मुदित = खुश ।
पयाना = चलना । 107. हीण = गरीब । न्यात । = बिरादरी ।
108. सारा = साररूप । 109. ऐन = साक्षात् । ठाड़ा = खड़ा । 110. परवाह = गरज । । इति राग कान्हड़ा सम्पूर्ण । अथ राग अडाणा । 5 । 111. अविचल = स्थितप्रज्ञ । त्रिाभुवन =
तीनो । लोको । मे । । 112. भान = तोड़कर । निपाया = बनाया । 113. रुड़ौ थामे = भला होता है । अणसरिये
= निरूपण करिये । मूक = त्यागना, छोड़ना । लीधाो
= लिया । कीधाो = किया । 114. मीच = मृत्यु । 115. तीन तिमिर = तीनो । रूप का अन्धाकार । 116. कथसि = कहते हो । साना = मिलाया ।
थिति = स्थिति । । इति राग अडाणा सम्पूर्ण । अथ राग केदार । 6 । 117. लेवाड़ = लेना । वाण = प्रभु नाम ।
चि । तवन = धयान । मा । हेला = मेरे अन्दर ।
मल = मैल । जीव्यानाे = जीवन का ।
कापे = काटे । 118. कन्था = गूदड़ी । गालूँ = गला दूँ ।
120. देखणहार = देखने वाला । 121. असा । = हमारा । लालड़े = हे ईश्वर ।
म । झे = मेरे अन्दर । बराला = जली हुई है ।
भाहिडे = जलन । मुच थईला = त्याग कर ।
कै = किस । धााहड़े = पुकार । 122. नवेला = पुराना । 123. वेदन = विरह सन्ताप । सीदाण = मुरझा
रही है । निखूटया = घट गया । ताणी रे = खि ।
च रहा है । 124. गृह छात = अपने हृदय रूपी घर मे । । तिसज
= प्यास । तिसह =आत्मस्वरूपकी । 125. वाहला = प्यारे । जोवा ने = देखने
को । आकुल = व्याकुल । थाये = हो रहा है ।ठरूँ
= शान्ति पाऊँ । थइ ने = होकर । पाखे
= बिना । दुहेला = मुश्किल । वरूँ
= स्वामी बनाऊँ । 126. अ । दोहे = व्यर्थ । 127. घाइ = आघात कर । गह्या = ग्रहण किया
। 128. निमिष = एक पल । नाह = प्रिय ।
छेलो = आखिरी । एकलड़ = अकेली । अ
दत्ता = यह फल । उधाार = उध्दार । 129. पालवे = पल्ले । आ । तरे = दूर ।
खल्यो = भटका । जेटला = जितना ।
दाधा = जलना, जलती । थाशे = होगा । 130. थई रह्यो = हो रहा । 131. रखपाल = रक्षक । 132. बसाइ = वश, जोर । 133. कारणै । = लिए । आवे तान = आनन्द
आये । 134. मूल = नर तन । 135. कत = कहाँ । मै । बड़ = अपना अभिमान
। 136. मूसे = लूटे । 138. गमि आये = नजर आये । 139. निरखण = साक्षात् देखने का । 140. बाह्या = बहकाया । धाूतो रे = ठगा
है । परस = स्पर्श । येणी परि = अपनी तरफ ।
तेड़े = बुलाना । 141. परले = प्रलय, विनाश । 142. चितायो = सावधाान करना । । इति राग केदार सम्पूर्ण । 143. खूटे = खत्म हो गये । 144. कन्धा = सिर पर । 145. नीझर = प्रेमरूपी झरणे । से । 148. तुम्हारड़िया = तुम्हारी । अपरछन =
छुपे हुए । आड़ा = परदा । पाड़े = डाले ।
कापे = काटे । 149. बूझे = पूछे । कवण = कौन ।
कत = कहाँ । 152. आड़ड़ी आन निवार = परदे को आकर उठा दे । अनदिन
= रोज, प्रतिदिन । 153. जे बरजै । ते वारि रे = जो विघ्न-बाधााएँ हो । उनको
तुम टालो । 154. भरमाड़ = भरमाना । बेगलो = जल्दी,
शीघ्र । 155. पहूँता = पहुँचा । जौरा वैर =
जबर्दस्ती । 156. गरा से = खाए । 157. जरा = वृध्दपना, बुढ़ापा । 158. अने रे = फालतू । बिमासणि = कसौटी ।
159. पड़शे = पड़ेगा । सोधास = तलाश करे ।
गे । 160. जनि = मत । 162. तिमर = ऍंधोरा । 163. जुग । ता = युक्तिवाला । 164. सुख सागर = आत्मानन्द समुद्र मे । । 165. आत्या = आया । वरत्या = हुए ।
विरद = रिध्दि, अच्छा । वधाावणा = बधााई ।
माइ = समाये । भण = तरफ । धाण =
मालिक । 166. बीनवे = प्रश । सा करना । । इति राग मारू (मारवा) सम्पूर्ण । 167. गुरु वाइक = गुरु वचनो । से । 169. क । ठड़े = गले । हियड़े = हृदय मे ।
। 170. पिर = प्यारे । पा । ण = आप ।
पसाइडे = दिखाई दो । भाहिड़े = आग लगना । पा
। धाी-प । थी । वी । दो = बन्दा । निकरीला =
निकल रहा है । असा । साण = हमारे साथ । गल्हाइड़े
= बात करो । सिका । = इच्छा, चाह । गुझ =
गुप्त गलि = बात । पसा । = देखै । । सिक
= इच्छा । लाहिड़े = पूर्ण कर दो । काइड़े
= कोई दूसरी चाह नही । है । 171. मेड़ = मिलाये । सुहार = सुन्दर,
शोभनीय । डीहु = दिन । स । द = साथ ।
पा । धाीड़ा = पन्थ । कड़ = कब । डीदो
। = दो गे । सा । ण = साथ । 172. ख । डना = ख । डन करने वाला । महीमान
= स । सार का सबसे बड़ा । 173. बटपारे = लुटेरे । 174. अ । तर पट = परदा पड़ जाना । 175. भेटिया = मिला । अघाई = तृप्त हो ।
176. चोट = सहारे । अहेड़ = शिकारी । 177. प्रतिपाला = रक्षा । 178. सौ । = क्या । थावा = होना ।
रुड़ौ = अच्छा । कोड़ = रोड़ो । । ।
आपै = दे । अवलम्बन = मदद । 179. कूड़ो = झूठा । रुड़ो = अच्छा ।
बीजो = दूसरा । 181. भाने = नष्ट करे । । घड़े = उत्पन्न,
पैदा करे । । अरि = बाह्य शत्राु । रिपु =
काम, क्रोधा आदि अन्तर के शत्राु । 182. मीच = मृत्यु, काल । 183. नीके = श्रेष्ठ 184. बहुर = फिर । 185. पन्थ शिरानै । = रास्ते चल रहे है । । 186. तेऊ = तो भी । रीता = खाली ।
विलूधाा = लगा, चिपटा । तिल = पल ।
ताड़ीजै = चलाइए । 187. भइला = हुए । गइला = गये ।
चीन्हा = जाणा । कर लाई = हाथ पकड़ । 188. घण घावो । = बहुत सारे घावो । से । साटा
= बदला । 189. भाखे = कहे । 190. दौ । = आग । काई = मैल ।
बिलाई = विलीन हुआ । 191. कसण = कसौटी । 192. काच = झूठी, मिथ्या । 194. तृषा = तृष्णा । सो जल = आत्म रस ।
195. पाहण = पत्थर । मेदन = भूमि पर ।
196. स्थावर = जड़ । ज । गम = चेतनप्राणी
। महियल = आकाश । 197. सिरजिया = बनाया । कमड़े कापड़ = कमरी
आदि कपड़ो । के भेषधाारी । 198. चौक पुराऊँ = हृदय को सजाऊँ । लाहा
= लाभ । 199. आन = अन्य वस्तुएँ । प्रीतड़ = परम
आदि । 202. बेल = शुध्द प्रेम । बाही बेल = बेल
लगाई । 203. मिरग = मृग । पैसि = प्रवेश करना । प । क
= मैले । 204. थान = जगह । परमिति = अन्तवाली ।
206. म । गलाचार = आनन्दोत्सव । 207. बिलाण = कर्ता-हर्ता 208. वरण = रूप । 209. अ । जन = अनित्य । विवर्जित = दूर ।
लिपे = बन्धो । बाँछे = चाहे । 210. ठाहर = जगह । 211. थिर = निश्चल । परमोधा । = समझाना ।
212. मूनै येह अचम्भो = मुझे यह अचम्भा । थाये
= हो रहा है कि, कीड़ीये = ची । टी रूपी मन्सा ने ।
हस्त = हाथी रूपी मन को मार गिराया और उसको बैठकर खाती है ।
जाण = जानकार जो मन था सो हार बैठा । अजाण =
अन्जान जो मनोकामनाएँ थी । उन्हो । ने मन को ठग लिया । । इति राग रामकली सम्पूर्ण । अथ राग आसावरी । 9 । 213. म । झार = मधय मे । । 214. भव पारा = स । सार से पार उतरना । 215. आगम = आगे का । 218. अविरथा = फालतू, निष्फल । 219. रैणि = रात । विहान = गई । 220. नाठ = भाग गई । 223. बोरे = बेसमझ । 224. उपावणहारा = रचने वाला । उपान =
पैदा हुउ । भूचणहारा = भोगनेवाला । 225. मरे जे कोई = गुण विकार से रहित हो जाय । 226. मोटे = महान । 227. बिलाई = विलीन हो । 228. वासुकि = शेषनाग । आराह = आराधाना
करना । 229. चेला = मन । 230. उनमनि लागा = निराश्रय धयान मे । । 231. मै । गल = हाथी की । 232. मोपै = मेरे । 233. लोइ न लीये = देख न सके । 235. म । डित माया = माया का फैला हुआ । 236. भवन गवन = अपनी ठीक जगह जाना । 237. आब = पानी । बाद = वायु ।
बातिन = गुप्त । 238. खुमार = नशा । छाके = तृप्त हो गये
। 240. नैन बिन = प्रज्ञा नेत्रा बिना । 241. तूरा पूरा सूरा = शूरवीर । 242. द्वै कर = द्वैतकर । 243. थकित = हैरान । साइर बूँद = समुद्र,
जलबिन्दु । 244. उनमान = अनुमान । रटै । = जपे । ।
245. खरे सयाने = सच्चे, होशियार । । इति राग आसावरी सम्पूर्ण । अथ राग सिन्दूरा । 10 । 246. ह । स = निर्मल सन्त । 247. कुश्मल = कामादि मैल । 248. ते = उसमे । । 249. तेहनो । = तेरा । निज = साक्षी ।
250. भाजे = दौड़ना । भन्ता = भाँति । 251. किमि = क्यो । । भिड़े = सामना करे ।
पियड़ो = पति, स्वामी । 252. बिहावण = डरावणी । बिहूँणो = बिना ।
तेहज = वही । 253. र । ग कसू । भ के = स । सार के नाशवान पदार्थों के र
। ग मे । भूला है । निर्बन्धाो । = बन्धान रहित ।
सिखावण = शिक्षा । । इति राग सिन्दूरा सम्पूर्ण । अथ राग देवगान्धार । 11 । 254. जाइ जरे = नाना प्रकार की आराधानाओ । मे । लग जीवन
समाप्त कर लेना । 255. बौर = पागल होना । 256. छूटक = छुटकारा । डहकायो = भरमायो ।
। इति राग देवगा । धाार सम्पूर्ण । अथ राग कालि ंगड़ा । 12 । 257. ओलेखियो = जाना-पहचाना हुआ । पायू =
पाऊँ । येणी । पेरे । = इस रीति से । एवै ।
= ऐसे । पूरब = पूर्ण कर । 258. पामियाे = पायो । एह्नो = ऐसा ।
कीधाो = कियो । वारयोरे = मना किया ।
हारयो रे = खोयो । भणीजे = कही जे । । इति राग कालि । गड़ा सम्पूर्ण । अथ राग परजिया (परज) । 13 । 259. लाहा = लाभ । सूरिया = शूरवीर । । इति राग परजिया (परज) सम्पूर्ण । अथ राग भाँणमली : आधुनिक (भवानी) । 14 । 260. रहेश = रहूँगी । लहेश = लूँगी ।
तणो । = का । मेल्हूँ = छोड़ूँ ।
वहीश = आज्ञा मे । बह जाऊँगी । दहीश = जल जाऊँगी ।
261. देखाड़ = दिखा । येज = यही ।
मलो रे सहिए = मिला चाहिए । जेणी पेरे । = जैसे ।
आलो जाण = अपना प्रिय । 262. के व = किय । ते तणो । = तिसका ।
साँभल = सुन । 263. स । भारयो = सँभाल (चिन्तन) से । वेला ये
अवार = किसी भी समय । तेम = वैसे । । इति राग भाँणमली : आधुनिक (भवानी) सम्पूर्ण । अथ राग सारंग । 15 । 264. भवन गवन गवन भवन = वृत्तिा का परमात्मा मे । मन
द्वारा गमनागमन । रवन हवन = रमन, लय लीन । क्षीर नीर
= ब्रह्म का स । शोधान रूप खोज । 265. निबहै = निभेगा । 266. ऊभे = खड़े । । इति राग सारंग सम्पूर्ण । अथ राग टोडी (तोडी) । 16 । 269. सुषुमन = कु । । भक करके । नीका =
ठीक प्रकार । भाखे = स्मरण करे । निमष = पल
। 271. राय = राजा । अघाइ = तृप्तकर । 272. इक टक = स्थिर वृत्तिा से । छाक परे
= तृप्त हो गये । 273. कीधोला = किया । वारया = मना किया ।
मेल्ह = छोड़, त्याग । अणसरिये = प्रवृत्ता
हो । मूक = छोड़ । आन = और । सा । भल्यु । =
सँभाला । आन दीठो = सत्य आत्मा को असत्य । अमृत
= आत्मचि । तन । कड़वो = खारो । 274. कारी करो = सहायता करो । 275. दीवान = सर्वज्ञ । मौज = आनन्द,
खुशी । कायम = स्थिर । खैर खुदाइ = परमात्मा
की कृपा । मै । शिकस्त: = हारा हुआ । 277. नेटि रे = अन्त मे । । 278. आहि = मिला, प्राप्त हुआ । शिर भाग
= श्रेष्ठ भाग । 281. दहणा = जलाना । बहायला = बहा देना ।
लोक राता = स । सार मे । लगा हुआ । 284. माधाइयो = मुक्त, सन्त कहते है । । माहवो
= भीतर ही । 285. द्वन्द्व = गुण विकार । निर्वान =
मुक्ति । 286. बिड़द = महत्तवर् कीत्तिा । भान झेरा
= दूरकर उलझन । । इति राग टोडी (तोडी) सम्पूर्ण । अथ राग हुसेनी ब ंगाल । 17 । 289. खाना = कबीला । मादर पिदर =
माता-पिता । आलम = स । सार । बेगाना = पराया
। शिरताज = शिरोमणि । सुलताना = महाराजा ।
नूर चश्म जि । द मेरे = आपकी ज्योति ही मेरे नेत्राो । का
लक्ष्य है । एकै असनाब = एक तू ही साथी है । जानिबा
= प्रिय । महर = दया । 290. सुलक्षण पीव = अच्छे लक्षण वाला प्रिय । हिक
तिल = एक पल । हेत सौ । = अति स्नेह से । । इति राग हुसेनी ब । गाल सम्पूर्ण । अथ राग नट नारायण । 18 । 291. कलप = युगयुगान्तर । महूरत = घड़ी मे
। । बाढ़े = काटे । जाल न रालै = ज । जाल दूर कर देता है । 292. सवेरा = जल्दी । 293. अनेर = बुरी, खराब । करम कर = कृपा
कर । 294. देत बजाई = नाम चिन्तन से धवनित करे । 295. हस्त कमल = करुणाकर । छोत = छूत ।
ढरे = कृपाकर । सिरे = पूर्ति हो । 296. अकल = निर्गुण । जल = शुक्र बिन्दु
से । चित्रा = शरीर । 297. बपरी मति = देहाभिमानी बुध्दि । दृष्टि
= इन्द्रिय । सुरति = वृत्तिा । उनमन =
लयवृत्तिा । अगह = गृहीत न हो सकने वाला ।
गहन = पकड़ मे । । । इति राग नट नारायण सम्पूर्ण । अथ राग सोरठ । 19 । 298. कोल = जीव । साल = हृदय देश ।
घावर = आवरण । एक मना = एकाग्रचित । 299. बपु = शरीर । जित तित = सब
शास्त्राो । मे । । 301. दारा = स्त्राी । 302. बादि = व्यर्थ । 303. पयाना = कूच कर गया, चला गया । 304. जेबड़ = रस्सी । सूता = अज्ञान नी ।
द मे । । 305. चेटक = मोहनीमाया । 307. कुल के मारग = व । श परम्परा । 308. चीन्हा = पहिचाना । 309. पाइन = चरणो । के । 310. टा । च = बनाया गया । 311. लखावे = मालूम हो । अपने अ । ग क =
अपने पन की । दीन = निरभिमानी । अछोप = अछूत
। । इति राग सोरठ सम्पूर्ण । अथ राग गु ंड (गौंड) । 20 । 313. आपै = आरम्भ से ही, स्वय । ही । 314. खा । त = लगन । दुहेल = दुखी ।
उरो आव = नजदीक आ, हृदय मे । । 315. परस = एकता । 316. बाण = आदत, स्वभाव । 317. प । थी बूझे = रास्ते चलने वालो । को पूछे । 318. सदके करूँ = समर्पण करूँ । 319. यूँ रहै = इस तरह परमात्मा मे । रह सकते है । ।
इकलस = एकरूप । 320. वाचापालना = अपनी भक्तवत्सलता का पालन करो । 321. यह = मन इन्द्रियो । । बसाइ = बस ।
322. कायर = भयभीत । क । पे = डरै ।
यहु दरिया = स । सार सागर । 323. अघ = पाप । दारुण = कठिन । 324. बारे = टालै । बाह्या = चलाया ।
येन्हा = मन के । उदमद = उन्मत्ता ।
दाझे = जलै । बाझे = भागे । बाहे =
बहकावे । 325. पोच = हलकी, बुरी । 326. नाद बागा = शब्द बजा । 327. मेरु शिखर चढ = माया की प्रवृत्तिायो । को वश मे । कर
ज्ञान के शिखर पर आरूढ़ हो । गाढ = स्थिर । 328. राचे नही । = आसक्त नही । हो । 329. भीना = राजी, प्रसन्न । तेरड़े =
तुम्हारे । 330. साटे = बदले के । 332. वनराय = वनस्पति । । इति राग गु । ड (गौ । ड) सम्पूर्ण । अथ राग बिलावल । 21 । 333. प्राणि बल = अपनी शक्ति । कला कर =
उपाय कर । 334. गुनही । = अपराधाी । अमल बद विसियार
= बुरी आदतो । के वश मे । हूँ । सत्ताार = निस्तारक ।दरदव
। द = दु:खी । फरामोश नेकी बद = भलाई बुराई को भूलता
हूँ । सैल = स्वत: सहज । फिल कर देहु =
माफष् कर दो । 335. कमी । ण = नीच । 336. पच्छिम जाना = अधाोगति मे । गया । 337. डहकावे = बहकै । 340. घर घाले = घर नष्ट किये । 341. हिम हरते = हिमालय मे । , बर्फ मे । । 345. परमोधाा = उपदेश दिया । 346. तोरै । पात = तुलसी के पत्तो तोड़ते फिरते है । । 347. आपा पर अन्तर नही । = भेदभाव के विचार नही । । 348. शून्य विचारे = सहज अवस्था प्राप्त करे । 349. द्वितिया दोइ = मै । तू का भेद । कसाने
= उखाड़ फे । के । 352. अर्श = मन । रब्बदा = ईश्वर का ।
ईथा । ई = यही । । सुबहान = खुदा ।
क । गुरेला = शुध्द अन्त:करणयुक्त । व । जाइ =
पवित्रा । 353. सिध्दो । दा = सिध्द दत्ताात्रोयादि । । इति राग बिलावल सम्पूर्ण । अथ राग सूहा । 22 । 355. पहली शीश = पहले आत्मसमर्पण करने से । 356-363. परमेश्वर सब जगह विद्यमान है, परन्तु वह गुरु की कृपा के बिना
प्राप्त नही । होता । स । सार मे । जो भी वस्तु है वह सभी सद्गुरु काया मे । ही
दिखा देते है । । जैसे आ । ेकार से सम्पूर्ण शब्द सृष्टि होती है हमारे प्राण
भी उसी से गतिमान है । । जैसे महाकाश मे । स । सार के सब पदार्थ आश्रय पाते है
। , जैसे तीनो । देवो । -ब्रह्मा, विष्णु, महेश की प्रमुखता है वैसे ही काया मे
। -सतोगुण, रजोगुण, तमोगुण की प्रमुखता है । लोक मे । जैसे माया अविद्या रहित
समष्टि चेतन व्यास है वैसे ही गुणातीत चेतन इस काया मे । अलख अभेव रूप मे ।
विद्यमान है । जैसे लोक मे । चारो । वेद प्रसिध्द है । काया मे । भी
नामचिन्तनरूप, जरणारूप, सहनशीलतारूप और अनुभव-रूप प्रसिध्द है । । । जैसे
अविद्या-उपाधिा से लोक मे । नानात्व है उसी तरह काया-उपाधिा से भेदज्ञान होता
है औपाधिाक भेदज्ञान की निवृत्तिा इस शरीर द्वारा साधान कर सत्य ज्ञान की
प्राप्ति से होती है अत: इस काया ही से ज्ञान का रहस्य प्राप्त होता है । जैसे लोक मे । जरायुज, अ । डज, उदि्भन, स्वेदज चतुर्विधा प्राणी सृष्टि है
उसी प्रकार इस काया मे । आत्मा, मन, प्रकृति, शरीर तथा नाड़ी, नेत्रा, रोमकूप,
अस्थियाँ ऐसे चतुर्विधा सृष्टि है । जिस प्रकार ब्रह्मवाणी परा, देववाणी पश्यन्ती, पशु-पक्षियो । की वाणी मधयमा,
मनुष्यो । की वाणी बैखरी है, वैसे ही काया लोक मे । नाभि, हृदय, क । ठ, मुख की
क्रमश: परा, पश्यन्ती, मधयमा और बैखरी वाणी है । । जिस प्रकार लोक मे । उत्पत्तिा और मृत्यु का प्रवाह बराबर चलता रहता है,
वैसे ही काया मे । भी अन्त:करण मे । अनन्त वृत्तिायो । की तर । ग रूप मे ।
उत्पत्तिा तथा विलय का क्रम चलता रहता है । शरीर मे । मन के मनोरथ उत्पन्न और नष्ट होते है । विविधा भावनाओ । मे । मन
का गमनागमन ही चौरासी मे । फिरना है । जैसे धार्म स्थान के लिए ब्रह्मा । ड मे
। ईश्वर बार । बार नृसि । हादि अवतार लेते है । , वैसे ही शरीर मे । मर्यादा
स्थापना के लिए विवेकादि दिव्य गुण बार । बार प्रकट होते रहते है । । लोक मे । जैसे सूर्य के उदय तथा अस्त से रात-दिन का एक तार लगा रहता है,
वैसे ही इस काया लोक मे । भी ज्ञान और अज्ञान दशा से दिन-रात का अनुबन्धा चलता
रहता है । जब हमने परम गुरुब्रह्म को उसी की कृपा से प्राप्त किया, तब शरीर मे
। ही अद्वैत निष्ठा द्वारा स । पूर्ण द्वैत का अद्वैत रूप मे । ही दर्शन किया ।
357. त्रिाताल जैसे ब्रह्मा । ड मे । विविधा लीलाओ । के फैलाव है । , वैसे ही काया मे । भी
मन, बुध्दि, चित्ता अह । कार, इन्द्रियादि के विविधा व्यवहार ही विविधा लीलाओ ।
के फैलाव है । -नि:श । क निर्भय मनोवृत्तिा ही राजा है, अन्य वृत्तिायाँ प्रजा
है । , सन्तोष धान, आशा दरिद्रता है, दैवी गुण उत्ताम जन है । , आसुर गुण अधाम
जन है । इत्यादि सभी विस्तार शरीर मे । है । । जैसे ब्रह्मा । ड का आधाार ईश्वर
चेतन है वैसे ही काया मे । प्राणो । का आधाार जीव चेतन है । जैसे ब्रह्मा । ड
मे । अठारह भार वनस्पति है । , वैसे ही शरीर रोमावली ही अठारह भार वनस्पति है ।
। बीस प । सेरी का माप एक भार कहलाता है । प्रत्येक वनस्पति का एक-एक पत्ताा
लेकर तौलने से अठारह भार बोझ होता है, इसीलिए वनस्पतियो । को अठारह भार कहते है
। । जैसे ब्रह्मा । ड का उत्पन्न करने वाला ईश्वर ब्रह्मा । ड मे । है, वैसे ही
स्वप्नादि रूप जीव सृष्टि का उत्पन्न करने वाला जीव चेतन शरीर मे । स्थित है ।
जैसे लोक मे । विविधा वन है उसी प्रकार काया मे । सिर-केश, मन-प्राण
इन्द्रियाँ आदि वनो । का एक ही वन चेतन आत्मा है । लोक मे । े जैसे प्राणी घर
बना कर निवास करते है । । ऐसे ही काया लोक मे । हृदयरूपी घर मे । साधाक
आत्मचिन्तन करते है । । जैसे लोक मे । साधाक विविधा गुफाओ । मे । तथा हिमालय के कैलाशादि स्थानो ।
मे । निवास कर आत्मचिन्तन करते है । वैसे ही काया लोक मे । हृदयरूपी गुफा तथा
इन्द्रियाधाार मस्तिष्करूपी कैलाश मे । वृत्तिा को विलय कर साधाक साधाना करते
है । । शरीर मे । ब्रह्म-वृक्ष है तथा सुख ही उसकी छाया है, माया-मोहित जीव ही
ब्रह्म-वृक्ष पर रहने वाला पक्षी है । लोक मे । सभी वस्तु का आदि और अन्त है । सारा लोक ईश्वर से व्याप्त है । इसी
तरह कायालोक भी त्रिागुणात्मक प्रकृति उसका आदि है । त्रिागुणात्मक विविधा
प्रवृत्तिायाँ है । उनका रूप भी अनन्त है । उन सबसे परे या आगे अधिाष्ठान चेतन
है वही कूटस्थ-अपना आत्मा-भगवत्स्वरूप है । शरीर मे । आत्म रूप से भगवान स्थित
है । । जैसे तीनो । लोक (स्वर्ग, मृत्यु, पाताल) मे । प्रभु समाया हुआ है शरीर मे ।
स्थित प्राणी अपनी भावनानुसार वृत्तिा द्वारा माया वा ब्रह्म मे । समाये रहते
है । । जैसे ब्रह्मा । ड मे । चौदह लोक माने गये है । उसी प्रकार शरीर मे । चौदह
लोक मौजूद है । । ब्रह्मा । ड के चौदह भुवन और योगानुसार शरीर के भुवनो । के
नाम निम्न प्रकार है । - लोक निवासी कार्य स्थान 1. भू: मनुष्य, पशु नाभि 2. भुव: भूत, पक्षी उर (हृदय) 3. स्व: देवता उदर 4. महर ऋषि छाती 5. जन सकामी भक्त क । ठ 6. तप सूर, सती, स । न्यासी नासिका 7. सत्य ज्ञानी, स । न्यासी दशम द्वार 8. अतल महादेव कुक्षि 9. वितल बाणासुर कमर 10. सुतल मय नामा ज । घा 11. तलातल बलि घुटने 12. महातल वासुकित नाग पि । डली 13. रसातल शेष टखने 14. पाताल कदु्र के पुत्रा पगतली मन का एक स्थान से आना और दूसरे पर जाना शरीर मे । आवागमन है । ब्रह्माण्ड
मे । चौदह भुवन, इक्कीस स्वर्ग तथा नवख । ड के विभाजन द्वारा किया गया है । (1)
आसुरी स्वर्ग, (2) भूत, (3) यम, (4) किन्नर, (5) ब्रह्म राक्षस, (6) राक्षस,
(7) काल, (8) चित्रागुप्त, (9) योगिनी, (10) गन्धार्व, (11) अर्यमा, (12) महा
स्वर्ग, (13) तप, (14) जन, (15) सत्य, (16) दवि, (17) सुरलोक, (18) देवस्वर्ग,
(19) पयाली, (20) विश्वकर्मा, (21) ख । ड स्वर्ग । अग्निपुराण मे । नाम भेद से निम्न प्रकार बताये है । -(1) आनन्द, (2)
प्रमोद, (3) सौख्य, (4) निर्मल, (5) त्रिाविष्टप, (6) नाकपृष्ठ, (7)
निर्वृत्तिा, (8) पौष्टिक, (9) सौभाग्य, (10) अप्सरस, (11) निरह । कार, (12)
शान्तिक, (13) अमल, (14) पुण्याय, (15) म । गल, (16) श्वेत, (17) मन्मथ, (18)
उपसोहन, (19) शान्ति, (20) निर्वेद, (21) अभेद । शरीर मे । मेरु द । ड की 21 गाँठे । है । वे ही 21 स्वर्ग है । । इसी प्रकार
सम्पूर्ण ब्रह्मा । ड भेद काया मे । स्थित है । ब्राह्म-लोक के नवख । डो । की
तरह काया लोक मे । भी नवख । ड है । । उनके नाम इस प्रकार है । - चक्रनाम प । खुड़ी अक्षर देवता स्थान आधाार 4 4 गणेश गुदा स्वाधिाष्ठान 8 8 ब्रह्मा लि । ग मणिपूर 10 10 वायु नाभि निर । जन 8 8 मन उदर उद्यद 12 12 सूर्य हृदय विशुध्द 16 16 चन्द्रमा क । ठ बत्ताीसा 32 32 विष्णु तालु आज्ञा 2 2 महादेव मस्तक ब्रह्मर । धा्र 1000 1000 दशो । दिशा दशम द्वार काया मे । ही दशम द्वार स्वर्ग, उदर मृत्युलोक, पदतल पाताल है । । अन्य भी
14 भुवन, 21 स्वर्गादि सभी ब्रह्मा । ड के स्थानादि काया मे । ही दिखा दिये है
। किन्तु हम मन-कर्म-वचन से कहते है । -गुरु-उपदेश के बिना यह बाहरी ब्रह्मा ।
ड शरीर मे । नही । देखा जा सकता । 358. भौतिक लोक मे । जैसे 7 द्वीपो । के 7 सागर है । वैसे ही काया लोक मे ।
भी सप्त सागर है । जैसे (1) जम्बूद्वीप मे । क्षार समुद्र, (2) प्लक्ष मे ।
ईक्षुरस समुद्र, (3) कुश मे । क्षीर सागर, (4) शाल्मलि मे । सुरा सागर, (5)
क्रौ । च मे । दधिा सागर, (6) शाक मे । घृत सागर, (7) पुष्कर मे । सुधाा सागर
है, वैसे ही शरीर मे । - (1) श्रवण, (2) हस्त, (3) उदर, (4) नासिका, (5) मुख,
(6) नेत्रा, (7) पद इन सात द्वीपो । मे । उक्त सात समुद्र है । -रस, रक्त, मा ।
स, मेद, मज्जा, अस्थि, शुक्र-ये सात सागर है । । जैसे लोक मे । एक अवर्णनीय
अलक्षित शक्ति सर्वत्रा काम करती है पर प्रतीत नही । होती, इसी प्रकार काया लोक
मे । भी इस स्थूल प्रप । च से भिन्न एक अविगत-विवरण रहित एक शक्ति कार्य करती
है । जैसे ब्रह्मा । ड मे । विशुध्द जल युक्त विविधा नदियाँ प्रवाहित है । । वैसे
ही शरीर मे । प्रेम जल से परिपूर्ण हृदय-सरोवर है । ब्रह्मा । ड मे । जैसे
विशेष ज्ञानयुक्त व्यक्ति बसता है, वैसे ही काया मे । विशेष ज्ञानयुक्त बुध्दि
बसती है । ब्राह्म लोक मे । जैसे ग । गा-जमुना तर । गित है । । इसी तरह काया
नगरी मे । भी पि । गला नाड़ी मे । स्वर का प्रवहण ग । गा, इड़ा नाड़ी मे । प्राण
का स । वहन जमुना की तर । गित दिशा है । सुषुम्ना नाड़ी रूप सरस्वती काया मे ।
है । जैसे ब्रह्मा । ड मे । द्वारिका पुरी है, वैसे ही काया मे । सहòार चक्र
द्वारिका है । जैसे इस लोक मे । काशी है वैसे की शरीर मे । आत्मा काशी ही है ।
काया मे । आत्मचिन्तन रूप स्नान स । त जन करते है । । जैसे बाह्य पूजा होती है,
वैसे ही काया मे । मानव पूजा होती है । बाहर पूजा के समय तुलसी पत्रा चढ़ाते है
। , वैसे ही मानस पूजा मे । प्रेम रूप तुलसी पत्रा चढ़ाया जाता है, जैसे जनता
तीर्थों मे । जाती है, वैसे ही काया मे । वृत्तिा तीर्थों मे । जाती है । जैसे
भारत मे । केदार, ग । गासागर, गया, प्रयाग और काशी प । च तीर्थ प्रधाान है ।
वैसे ही काया मे । शिर-केदार, क । ठ-गया, नाभि-प्रयाग, उपस्थ-ग । गा सागर, और
चेतन ही काशी है । जैसे बाह्य मुनिवरो । का सम्मेलन होता है, वैसे ही मननशील मन
इन्द्रियो । का एकाग्रता रूप सम्मेलन शरीर मे । होता है । जैसे ब्रह्मा । ड मे
। ब्रह्म सब मे । रहकर भी सबसे अलग ही रहता है वैसे ही शरीर मे । भी जीव चेतन
सबसे अलग अकेला ही रहता है । काया मे । अजपा जाप निर । तर जपा ही जाता है ।
जैसे ब्रह्मा । ड मे । ब्रह्म है वैसे ही काया मे । भी आत्म रूप से स्वय । आप
ही स्थित है । जैसे ब्रह्मा । ड मे । नाना निधिायाँ है । , वैसे ही काया नगर मे
। दया, धार्म, क्षमा, सन्तोष, शील, प्रेम, ज्ञानादि निधिायो । का कोष है । जैसे
ब्रह्मा । ड मे । नाना खेल होते है । वैसे ही काया मे । भी नाना वृत्तिा
व्यापार और वृत्तिा स्थैर्य रूप खेल होते ही रहते है । वा भगवत् प्राप्ति रूप
अदभुत खेल होता है । साधाक सद्गुरु के सत्स । ग द्वारा आन्तर साधाना से उस
प्रभु को ही प्राप्त करे, भ्रमवश उसे भूल कर ब्राह्म तीर्थादि भ्रमण मे । ही
कोई न पड़े । 359. जैसे ब्रह्मा । ड मे । बदरी, केदारनाथ, अमरनाथ, ग । गासागर आदि तीर्थ
स्थानो । का बड़ा कठिन मार्ग है, वैसे ही काया मे । ब्रह्म-प्राप्ति का मार्ग
अति कठिन है । जैसे बदरीनाथादि के मार्ग मे । दुर्गम घाटियाँ होती ह । ै, वैसे
ही शरीर मे । ज्ञान के मार्ग मे । काम, क्रोधाादिक दुर्गम घाटियाँ है । ।
ब्रह्मा । ड मे । जैसे पाटलीपुत्रा आदि विशाल नगर है । और उनमे । अनेक वस्तुएँ
प्राप्त होती है । , वैसे ही काया मे । प्रभु-प्रेम, विचारादि नगर है । , उनमे
। प्रभु द्वारा सब कुछ प्राप्त होता है, वा जैसे ब्रह्मा । ड मे । कोई ग्राम
पट्टण हो जाता है, वैसे ही काया मे । भी कोई विचार नष्ट हो जाता है । ब्रह्मा ।
ड मे । जैसे वैकुण्ठादि उत्ताम स्थान है । , वहाँ विष्णु आदि के दर्शन होते है
। , वैसे काया मे । अष्टदल-कमलादि उत्ताम स्थान है । , उनमे । भगवान् के दर्शन
होते है । । जैसे ब्रह्मा । ड मे । लोग म । डप बनाकर उसमे । बैठते है । वैसे ही
काया मे । मन वासनाओ । का म । डप बनाकर उसमे । स्थित रहता है वा काया मे । मन
साधाना रूप म । डप बनाता है, उसमे । स्वय । भगवान् विराजते है । । जैसे ब्रह्मा
। ड मे । महल होते है । , वैसे ही काया मे । अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय
आनन्दमय मे । प । च कोश ही महल है । । ब्रह्मा । ड मे । जैसे लोग काशी मे ।
कल्याणार्थ स्थिर निवास करते है । , वैसे ही काया मे । ब्रह्म मे । वृत्तिा
स्थिरता रूप निश्चल निवास होता है । जैसे लोक मे । राज द्वार होता है, उस द्वार
से राजा के पास जाते है । वैसे ही काया मे । दशम द्वार राज द्वार है, उसके
द्वारा ही बह्य रूप राजा को प्राप्त होते है । । जैसे ब्रह्मा । ड मे । वक्ता
होते है । वैसे ही काया मे । बोलने वाला वाक् इन्द्रिय है वा उसका प्रेरक आत्मा
है । जैसे लोक मे । नाना पदार्थों के भ । डार भरे रहते है । , वैसे ही काया मे
। भी सब कला-गुण-ज्ञानादि के भ । डार भरे है । किन्तु उनके अज्ञान रूप ताले लगे
है । जो कलाज्ञ, गुणज्ञ और ज्ञानी लोगो । द्वारा खोले जाते है । , तब सब काया
मे । ही मिलते है । । जैसे ब्रह्मा । ड मे । अपार वस्तुएँ है । वैसे ही काया मे
। भी सप्तधाातु, दैवीगुण, आसुर-गुण आदि अनन्त वस्तुएँ है । वा जिसका पार नही ।
आता ऐसी परब्रह्म वस्तु जैसे ब्रह्मा । ड मे । है, वैसे ही काया मे । भी है ।
जैसे ब्रह्मा । ड मे । 1‑पर् ि2ं. महाप,र्ं ि3. श । ख, 4. मकर, 5. कच्छप, 6.
मुकुन्द, 7. कुन्द, 8‑ नील, 9. बर्च्च:, ये नौ निधिा है । । वैसे ही काया मे ।
1. श्रवण, 2. कीर्तन, 3. स्मरण, 4. पाद-सेवन, 5 अर्चना, 6. व । दना, 7. दास्य,
8. सख्य 9. आत्म-निवेदन, ये नवधाा भक्ति ही नवनिधिा है । । जैसे ब्रह्मा । ड मे
। 1. अणिमा, 2. महिमा, 3. लघिमा, 4. गरिमा, 5. प्राप्ति, 6. प्रकाम्य 7. ईशत्व,
8. वशित्व, ये अष्ट सिध्दि है । , वैसे ही काया मे । मन, बुध्दि, चित्ता और प ।
च ज्ञानेन्द्रिय ये अष्ट सिध्दि है । । जैसे लोक मे । अन्य 1. सर्वज्ञता, 2.
दूर श्रवण, 3. पर काय प्रवेश, 4. वाक् सिध्दि, 5. कल्प वृक्षत्व, 6. सृजन
शक्ति, 7. स । हार शक्ति, 8. ईशता, 9. अमरत्व, 10. सर्त्वांग, मे । दश सिध्दिया
। है । , वैसे ही काया मे । 1. इड़ा, 360. जैसे बाह्य लोक मे । सर्वोपरि परमेश्वर है वही सब दृश्यादृश्य का आधाार
है । इसी प्रकार इस काया मे । भी इन्द्रियाँ मन, वासना, बुध्दि आदि से रचा हुआ
नानात्व है वह सब उस आत्मा के आधाार से है । सब विविधाताओ । मे । उसी को जानना
चाहिए । सत्यासत्य मे । , नित्यानित्य मे । , आधाार आधोय मे । , सत्य नित्य
आधाार को इस काया मे । ही पहचानो । जैसे लोक मे । लोक का विस्तार असीम है और
अनन्त है वैसे ही कायालोक मे । भी काया का जो मूलाधाार आत्मा है वह असीम और
अपार है । जैसे जगत् मे । उस अगम अगाधा की खोज करने वाले जगत् मे । ही निपजते है । ,
इसी तरह कायालोक मे । भी उस अगम अगाधा की खोज करने वाले सन्तजन उत्पन्न होते है
। । बाह्य स । सार के रचयिता जो स । सार मे । रहते है । फिर भी उनका यथातथ्य
वर्णन नही । किया जाता है; उसको प्राप्त करने की इच्छा वाले उसी मे । लयलीन
होने का प्रयास करते है । । ऐसे ही कायालोक का आधाार चेतन काया मे । ही निवास
करता है पर उसके स्वरूप का यथार्थ कथन नही । किया जाता । साधाक सन्त काया मे ।
ही हृदय प्रदेश मे । वृत्तिा को स्थिर कर उसमे । तल्लीन होने का प्रयास करते है
। । ब्रह्मचिन्तन रूप सार-साधान भी काया मे । ही होता है । विचारक सन्त काया मे
। ही बुध्दि द्वारा ब्रह्म विचार करते है । । अह । कार रहित प्रिय, ब्रह्म
विचार सम्पन्न, अमरत्तव प्रदान करने वाली, अमृत वाणी भी शरीर मे । है, तभी
सन्तो । के मुख द्वारा बोली जाती है । काया मे । सारंग और प्राणधाारी जीव दोनो
। ही स्थित है काया मे । स । त प्राणी परमेश्वर के साक्षात्कार जन्म आन । द का
अनुभव रूप खेल खेलते है । । काल-कर्म के बाणाघात से रहित निर्वाण पद स्वरूप
आत्मा काया मे । स्थित है । सबका मूल ब्रह्म वा शब्द सृष्टि का मूल आ । ेकार
उसको स । त काया मे । ही ग्रहण करके उसी मे । स्थिर रहते है । । साधाक काया मे
। ही ब्रह्म-चिन्तन रूप चिन्तामणि से सब कुछ प्राप्त करते है । । काया मे । ही
विचार द्वारा निज स्वरूप का निर्णय करो, वह अपरम्पार स्वरूप कूटस्थ काया मे ।
ही है । सन्तजन काया मे । ही परब्रह्म की सेवा-पूजा करते है । । काया मे ।
निरन्तर तालु मूल से अमृत झरता रहता है वा उक्त प्रकार सेवा-पूजा करने वालो ।
को प्रभु-प्रेमामृत वा आनन्दामृत निरन्तर प्राप्त रहता है । काया मे । स्थित
प्रभु के स्वरूप मे । वृत्तिा द्वारा निवास करते हुए, और निरन्तर ब्रह्माकार
वृत्तिा रखते हुए स्थिर रहना चाहिए । यह मार्ग हमको सद्गुरु ने दिखाया है और
हमने निरन्तर ब्रह्माकार वृत्तिा रखते हुए ब्रह्म रूप अपना आदि स्थान प्राप्त
किया है । 361. काया मे । ही विश्व के सार परब्रह्म का अनुभव होता है । काया मे । ही
बुध्दि द्वारा ब्रह्म विचार करते रहना चाहिए । काया मे । ही आत्मज्ञान की
उत्पत्तिा होती है । काया मे । ही ब्रह्म का धयान लगता है । काया मे ।
निर्विकल्प समाधिा ही अमर स्थान है । निर्विकल्प समाधिा मे । स्थित को काल नही
। मार सकता । काया के आत्मराम को पहचान, वृत्तिा से भोगवासना का निवारण कर
हृदयप्रदेश मे । वृत्तिा की स्थिरता से जीवन-मृत्यु से रहित ऐसे आत्मस्थान को
प्राप्त करते रहते है । । जैसे लोक मे । गीत, वाद्य, नृत्य आदि कामशास्त्रा की
64 कला तथा अन्य अनेक कलाएँ है । , वैसे ही शरीर मे । भी इन्द्रिय, प्राण, मन,
बुध्दि आदि अनेक कला है । । जैसे ब्रह्मा । ड मे । प्रेरककत्तर्ाा एक ईश्वर ही
है । , वैसे ही काया मे । भी वह एक ही प्रेरककत्तर्ाा है । परमेश्वर की भक्ति
रूप-र । ग-काया मे । ही लगता है । ईश्वर व्यापक होने से काया मे । जीव के साथ
ही है । लोक मे । जैसे सुन्दर सरोवर तथा शुक्र, मैना आदि सुन्दर पक्षी मन का हरण
करते है । , ऐसे ही कायालोक मे । भी सबसे सुन्दर सुखदायी हृदय-सरोवर है । काया
मे । ही मनरूपी शुक्र और वृत्तिारूपी मैना मौजूद है । बाह्य लोक मे । साधाक जैसे कच्छपवृत्तिा से अन्तर्मुख धयान व कु । ज वाणी से
सुरति साधाना द्वारा ब्रह्मप्राप्ति की जाती है, ऐसे ही कायालोक मे ।
अन्तर्मुखवृत्तिा से सुरति को ब्रह्म मे । आत्मस्वरूप मे । स्थिर कर आत्मपरिचय
प्राप्त किया जाता है । साधान-सूर्य की किरणो । से काया मे । हृदय-कमल खिलता है
। उक्त कमल की ब्रह्म रूप सुगन्धा का अनुभव मन-भ्रमर काया मे । रहता है । जैसे
लोक मे । नाद पर मृग मोहित होता है, वैसे ही काया मे । शब्द से श्रवण इन्द्रिय
रूप मृग मोहित होता है । जैसे लोक मे । ज्योति पर पत । ग मोहित होता है, वैसे
ही काया मे । नेत्रा रूप पत । ग रूप ज्योति पर मोहित होता है । जैसे स्वाति
बिन्दु के लिए चातक पुकारता है, वैसे ही काया मे । इच्छित वस्तु के लिए मन रूप
चातक पुकारता है । जैसे बादल से जलवृष्टि के लिए मोर पुकारते है । वैसे ही काया
मे । प्राण रूप मोर जल के लिए पुकारते है । । जैसे चन्द्रमा पर चकोर दृष्टि
स्थिर रखता है, वैसे ही काया मे । सन्त चित्ता रूप चकोर, ब्रह्म रूप चन्द्रमा
पर चिन्तन रूप दृष्टि सदा रखता है । काया मे । ही इन्द्रियो । द्वारा प्रभु से
प्रीति करो । शरीर मे । ही मन द्वारा प्रभु से स्नेह करो । शरीर मे । ही
प्रभु-प्रेम रस प्राप्त होता है । ये उक्त सभी बाते । गुरुमुख द्वारा जानकर
साधान करने से काया मे । प्रत्यक्ष भासती है । 362. स । सार सिन्धाु से तारने वाला परमात्मा आत्मरूप से काया मे । है ।
साधाक काया मे । रहते ही भक्ति-ज्ञानादि द्वारा स । सार के पार गये है । । काया
मे । रहते ही साधाक वैराग्यादि साधान द्वारा अपने को दुस्तर भोगाशा से तारता है
। कायामे । रहते ही साधान द्वारा जीवात्मा स्वय । ही अपना पतन से उध्दार करता
है । काया मे । रहते हुए ईश्वर कृपा से साधाक काम-क्रोधाादि से तिरते है । ।
पूर्वकाल को साधाक मनुष्य शरीर मे । ही हरि मे । अनुरक्त होकर मुक्त हुए है । ।
विषयो । से लौटकर मन साधान मे । आता है, तब शरीर मे । ही ज्ञानादि
उत्पन्नहोतेहै । । ज्ञानादि की उत्पत्तिा के अनन्तर शरीरस्थ चेतन मे । ही वृत्तिा समाई रहती है
। पूर्वकालीन साधाको । के अज्ञान कपाट काया मे । रहते ही खुले है । । काया मे ।
ही ब्रह्म का साक्षात्कार होता है । ब्रह्म साक्षात्कार करने वाला जीवात्मा भी
काया मे । ही है । भक्तजन राम-भक्ति-र । ग मे । अनुरक्त भी काया मे । रहते ही
होते है । । काया मे । रहते हुए ही स । त प्रभु-प्रेम मे । मस्त होते है । ।
शरीर रहते हुए ही साधाक के मन, बुध्दि आदि स्थिर हुए है । । काया मे । ही जीव
जीवित कहलाता है । सन्तो । ने काया मे । ही प्रभु को प्राप्त किया है । पदार्थ
प्राप्ति जन्य आनन्द सदा काया मे । ही मिलता है । ब्रह्म प्राप्तिजन्य परमानन्द
भी काया मे । ही मिलता है । काया मे । जो ब्रह्मानन्द प्राप्त होता है, वह हमने
समाधिा अवस्था मे । आकर प्रत्यक्ष अनुभव किया है । वह ब्रह्मानन्द गुरुमुख से
उपदेश श्रावण करके मनन, निदिधयासान द्वारा प्राप्त किया जाता है, ऐसा ही सन्तजन
समझा-समझा कर कहते रहते है । । 363. सन्तो । ने ब्रह्म स्वरूप का साक्षात्कार काया मे । ही किया है ।
ब्रह्म व्यापक होने से काया के नख से शिखा पर्यन्त रोम-रोम मे । परिपूर्ण है ।
ऋषियो । ने ब्रह्म-तेज भी काया मे । रहते ही पाया था । शरीर मे । ही सबसे अधिाक
सुन्दर हृदय शय्या है । साधान द्वारा काया मे । ही प्रकाश राशि भासती है । शरीर
मे । सदा ज्ञान रूप प्रकाश रहता है । शरीर मे । धयानावस्था के समय विश्व के सार
ब्रह्म ज्योति की झिलमिलाहट देखने मे । आती है, अत: शरीर मे । ही है ।
ब्रह्मात्मा काया मे । रहकर भी सबसे अलग ही है । जिसका अन्त नही । आवे, ऐसी
आत्मज्योति काया मे । ही है । शरीर मे । ब्रह्म साक्षात्कार होने पर सदा वसन्त
के समान आनन्दोत्सव ही रहता है । सन्तजन काया मे । ही अपने प्रियतम प्रभु से
परम प्रेम रूप फाग का खेल खेलते है । । जैसे ब्रह्मा । ड मे । नन्दनवनादि है ।
वैसे ही शरीर मे । स । कल्पवन-मन, विचार-वन बुध्दि इत्यादि सब वन और ज्ञान-बाग
शरीर मे । है । साक्षी चेतन रूप कृष्ण और वृत्तिा रूप गोपिकाएँ शरीर मे । रास
खेलते है । । शब्दानन्द, रूपानन्द, गन्धाानन्द रसनान्द आदि विविधा भाँति के सुख
काया मे । है । । अख । ड नाम चिन्तन रूप बाजे सन्तो । के रोम-रोम मे । बजते है
। । काया मे । ही अनाहत धवनि सजाई जाती है अर्थात् क्रम से स्थूल धवनियो । से
सूक्ष्म धवनियो । मे । मन लगाया जाता है । शरीर मे । ही हृदय शय्या पर प्रभु
साक्षात्कार रूप सुहाग सुख होता है । काया मे । साधान करने से मानव बड़ भागी
बनता है । ब्रह्म प्राप्ति होने पर काया मे । अति आनन्द रूप म । गल का ही
व्यवहार होता है । काया मे । ही आसुर गुणो । को विजय करने पर जय-जयकार वाली
धवनि होने लगती है । जैसे ब्रह्मा । ड अगम अगाधा है, वैसे ही काया भी अगम अगाधा
है । हमने काया मे । ही अनाहत धवनि रूप नगाड़ा बजाकर मन को स्थिर किया, तब काया
मे । ही प्रत्यक्ष रूप से प्रभु की प्राप्ति हुई है । इस प्रकार गुरुमुख द्वारा
श्रवण करीपध्दति से साधान करके शरीर मे । ही हम प्रभु से मिले और उसी मे ।
वृत्तिा द्वारा समा रहे है । । । इति राग सूहा (काया-बेली ग्रन्थ) सम्पूर्ण । अथ राग बसन्त । 23 । 364. जोधा = धौर्य, त्याग, विनय आदि । 365. मूने = मुझे । बेलो = पास । एने रे
= विरह वियोग के । 366. द्वन्द्वर = द्वन्द्व । 367. मातो = मस्त, दिवाना । मधाुकर =
भ्रमर । लुब्धा = लोभी । 368. पाखे । = सहारे बिना । खड़ भड़ =
अनवस्था । गाँव-गाँव = मन, बुध्दि, इन्द्रिय मे । ।
जाम = आठो । पहर । प्राम = प्राप्त कर । 369. स । गियन = इन्द्रिय, प्राण, अन्त:करण । तिहि
। तरवर = साधाक हृदय मे । । 370. माल = कायावाड़ी का रखवाला । रास =
खेल । 371. मू । स = चुराकर । बाणि = आदत । 372. मतिवाले = शुध्द बुध्दि वाले । थकित भये
= निश्चल हुए । । इति राग बसन्त सम्पूर्ण । अथ राग भैरूँ । 24 । 373. राता = लगा । 374. सँभार = धाारण कर । 375. बिन्दु = वीर्य । त्रिाया =
पतिव्रता स्त्राी । बरत = रस्सा । बान = आदत
। कुरलि = शब्द, पुकार । 376. व्याधिा = रोग । तीनो । ताप =
आधयात्मिक, आधिाभौतिक, आधिादैविक दु:ख । कम्प न काइर्र् = तल
विक्षेप । 377. आइ बण = आपसे ही लक्ष्यसिध्दि हो सकती है । 378. इहै विभासण = यही डर । क्या शिर होइ
= अन्त क्या होगा? 379. कर्म कहान = अपने किये हुए कर्माें की कथा । 380. प । च पसारे = पाँचो । इन्द्रियो । को विषयो । की ओर
अधिाक बढ़ने दिया । कच्छप ज्यो । = मन इन्द्रियो । का निग्रह,
समेटना । भृ । गी कीट = भ्रमण कीट की तरह एकाग्रवृत्तिा से
चिन्तन । 381. कमीन = नीच । मोटे महल = परमात्मा
का निवास स्थान । 382. छाने = अच्छा लगे । निवाजे =
प्रसन्न हो । 383. कागा रे कर । क पर बोले = काग की तरह यह मन कर ।
क-हव्यिो । के ढाँचे की तरह विषयवासनाओ । मे । लगा रहता है । 384. विषम व्याधिा = जन्म-मरण । 385. झक = व्यर्थ बोलना । 386. आपण मे । = अपने ही अन्त:करण मे । । मह =
दही । मन मथियाँ = मन को शुध्द किया ।
हुताशन = आग । अवन = भूमि मे । । 387. उनमनि लागे = वृत्तिा सहज अवस्था मे । लगे ।
द्वै पख छेद = एकत्व भाव । 388. रती रत = ख । ड-ख । ड । ख । ड-ख । ड
= चूर-चूर । शूरा = दृढ़ साधाक । 389. श । क = काण । निश । क = निर्भय ।
390. कलै नहि । = लिप्त न हो । 391. सेऊँ = सेवा करूँ । कीरति करणा = यश
गाना । मेटै आन = मर्यादा नही । खोई । 392. मै । मै । = अह । कार । मेटि =
निवारण कर । भेटि = मिलाप । 393. हम नाँही । रे = यह शरीर जो दिख रहा है वह सत्य नही ।
है । प्रजारा = प्रकाश । बाज = स । सार रूपी
तमाशा । कौतिक हारा = बाजीगर । 394. मूल गहो = व्यापक तत्तव पकड़ो । निबहो
= नि योग । 395. धान = शरीर रूपी सम्पत्तिा । 396. शेख = फकीर । खबर = सच्चा भेद । 397. निन्दत = निन्दा करे । निरस । शय =
बिनास । शय । द्वS पख = धार्म जाति का
पक्षपात । तासन = उसको । तोले = मापै । 398. म्हारूँ = मेरा । सू । = क्या है ।
जेहू । = जिसको । आपू = देबू । ।
ताहरूँ = तेरा ही । थापू । = अर्पण करूँ ।
तै । दीधाो = तुमने ही पैदा किया । सहुवे । = सभी ।
399. अवधाू = निर्व्यसनी सन्त साधाक । निरन्तर
= अलग, दूर । 400. सार = खी । च । dl-कस
= परीक्षा कर कर । 401. दुर्मति = कुमति । पेड़ पकर = मूल
ग्रहण कर । 402. हाजिरा । = परमात्मा की हाजिरी मे । रहने वालो । के ।
मनी मेटि = मन की च । चलता मिटा । महल =
अन्त:करण मे । । हिर्स = चाह । दरोगे = झूठ,
द्वेष । 404. अगम निगम = वेद स्मृति निरुपति । प । च वायु
= पाँच विषय प्रवृत्तिा । आ । णे = लावे ।
सूर = पि । गला । ब । कनालि = तालु मूल से ।
विकसे = खिलै, प्रसन्न हो । बैस गुफा = हृदय गुहा मे
। बृत्तिा स्थिर कर । 405. मूर = जड़ी । 406. गोप = सद्बुध्दि । कान्ह =
साक्षीआत्मा । अन्तर वेद = हृदय मे । जान । परसेद
= प्रेम प्रवाह । । इति राग भैरू । सम्पूर्ण । अथ राग ललित । 25 । 407. निहोरा = विनय, प्रार्थना । 408. अम्ह । चा = हमारा । 409. एहज ठाम = यही जगह । सद्गुरु शरणे अणसरे
= सद्गुरु की कृपा बिना काम रुका हुआ है । 410. पिव पिव करे = नाम चिन्तन मे । रत रहे । हेत
= अति प्रेम । 411. आब = पानी । बाद = हवा ।
खाक = जमीन । आतिश = आग । आदम =
खुदा के । मादर पिदर = माता-पिता । परद: पोश
= अविद्या के परदे से ढका हुआ । दस्त गहै = हाथ पकड़ै । । इति राग ललित सम्पूर्ण । अथ राग जैतश्री । 26 । 412. बलि कीत = वारण लिया । 413. जाण राइ = घट-घट की जानने वालो । का स्वामी ।
दुराइ = छिपावे । दरश पियास = दर्शनो । की प्यासी ।
सिराइ = शीतल करो । । इति राग जैतश्री सम्पूर्ण । अथ राग धानाश्री । 27 । 414. अपनो = गहरो, उघड़ने वाला । चौलो =
अन्त:करण मे । । अमोलो = बेश-कीमती । सुर
úो । = गहरो । 415. अचला सौ । = निश्चल व्यापक आत्मा । डुलाये
= डोले, फनी । द्र = सर्प । परिमल
= सुगन्धा । 417. सिरानो । = बीतता, खतम होता । 418. कीहै = कैसे । पार लहाउँ = पार पाऊँ
। हिक कहाण = एक कथा । बाझे । = बिना ।
डेवै = देवे । सो हौ । = वह मै । ।
शीश सहा । उ । = सब सहन करूँ । 419. अनल दहै = विरह अग्नि जला रही है । 420. खूहि = कूवे मे । । पये = पड़े ।
जन तिहुँरा = जिन्नत । बहिशत = स्वर्ग ।
भाहि लगे = आग लगो । भ्ाट्ठ पये । = भाड़ मे
। पड़े । 421. आशिकाँ = आशिक । ईमान = भरोसा है ।
चे कारे = क्या करिये । मीर मीर = बड़ो । के
बेड़े । फरिश्त: = सिध्दो । के सिध्द । आब, आतिश,
अर्श, कुर्सी = पानी, आग, आकाश, जमीन । दीदनीदीवान =
तेरे ही दर्शन होते है । । हर दो आलम खलक खाना = सम्पूर्ण स ।
सार । 422. दायम दरबार तेरे = तेरे दरबार के भक्त जन ।
जर खरीद = मोल लिये हुए । 423. धोनु = आशा रूपी गाय । बेनु =
परावाणी वैखरी । गोप = अन्तर्निष्ठ बुध्दि । भावन
= प्यारे । दुरित = पाप कर्म । 424. कोटि किये = सकाम कर्म करोड़ो । करने पर भी । 425. जिन छाडे = मत त्यागिये । 426. विखम बार = कठिन समय । भीड़ भ । जन =
दु:खनाशन । अन्त अधाार = आखिर का आश्रय । 427. साजनियाँ = प्रिय स्वामी । नीका =
अच्छा । तृषा = प्यास । 428. काइमा । = सर्वदा मौजूद रहने वाले परमात्मा ।
कीर्ति करूँल = तेरा गुणगान करूँगा । सिरजिया =
बनाया । 429. अब थै । = अभी । 430. गढ़ = किला । भेलस = तोड़ेगा ।
देखतड़ा । = देखते-देखते । नाइक = जीव-रक्षक
। नगर = शरीर । किम थाई = क्या हो ।
निवा । णा । = नीची जगह । बाँधाो पालो = शमदमादि की
पाल बाँधा कर मन को रोको । 431. बनिजन = जीवन का सौदा । जिन डहकावे
= डावाँ डोल मत हो । 432. ता थै = उससे । निकट बुलावे = अपनी
ओर लगावे । काचे पाके = पक्के साधाको । को काचे कर दिये ।
शशिहर = चन्द्र से । 433. एक अ । ग = अद्वितीय ब्रह्म । 434. ल्यौ = धयान । जाते दुख = सब क्लेश
मिटै । 435. अघाई = भरपूर । जक = शान्ति ।
एक मेक = एकत्व भाव । 436. बान = भेष । बरण = र । ग, जाति ।
आलेखिए = देखिए । शून्य म । डल = निख्रवकल्प
हृदय प्रदेश मे । । सु लखणहार = निष्काम दृढ़वती साधाक । 437. चन्द सूर मधय = इड़ा पि । गला सुषुम्न्ना मे । या
श्वास-प्रश्वास के स्थैर्य मे । । ग । ग जुमना के तीर = इड़ा
पि । गला के किनारे । त्रिावेण = मन, प्राण, सुरति ।
स । गम = एकता । विलसि विलसि = उपभोग कर कर । 439. काल झाल = कामादि वासना का सन्ताप सब भागे ।
वपु नाही । = शरीर का अधयास नही । रहा । परम रास =
एकत्वलीला । 440. पाँचो । पात = पाँचो । इन्द्रियो । की स्थिरता ।
यही पत्ता = तुलसीदल है । 441. चित चा । बर = शुध्द अन्त:करण ही वह च । बर है ।
हेत = अति अनुराग । पुहुप प्रीति = प्रेम के
पुष्प । 442. मीच = मृत्यु । पार पहुँचे = वासना
के समुद्र से पार निकल गये । थिर कर थापे = मन वृत्तिा को
स्थिर कर आत्मचिन्तन मे । लगाये । 443. अनन्त भुवन = चौदह लोक के । राइ =
स्वामी । 444. ल । घे पार = स । सार समुद्र से पार । । इति राग धानाश्री सम्पूर्ण ।
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