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कहानी |
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उसने कहा था
कहानियाँ जन्म 7
जुलाई 1883, पुरानी बस्ती, जयपुर, राजस्थान
विशेष
गुलेरी जी हिंदी के
अतिविशिष्ट कथाकार हैं। इनकी कहानी ‘उसने कहा था’ की गणना हिंदी की
महानतम कहानियों में की जाती है। वह बहुमुखी रुचियों और प्रतिभा के
व्यक्ति थे। उनका कार्यक्षेत्र खगोल विज्ञान, ज्योतिष, धर्म, भाषा
विज्ञान, इतिहास, शोध, आलोचना आदि अनेक दिशाओं में फैला हुआ था। जयपुर
वेधशाला के यंत्रों पर लगे जीर्णोद्धार तथा शोध-कार्य विषयक शिलालेखों
पर ‘चंद्रधर गुलेरी’ नाम भी खुदा हुआ है। वह कुछ समय तक काशी हिंदू
विश्वविद्यालय के प्राच्य विभाग में प्राचार्य भी रहे। बड़े-बड़े शहरों के इक्के-गाड़ीवालों की जबान के कोड़ों से जिनकी
पीठ छिल गई है, और कान पक गए हैं, उनसे हमारी प्रार्थना है कि अमृतसर के
बंबूकार्टवालों की बोली का मरहम लगावें। जब बड़े-बड़े शहरों की चौड़ी सड़कों पर
घोड़े की पीठ चाबुक से धुनते हुए, इक्केवाले कभी घोड़े की नानी से अपना
निकट-संबंध स्थिर करते हैं, कभी राह चलते पैदलों की आँखों के न होने पर तरस
खाते हैं, कभी उनके पैरों की अँगुलियों के पोरों को चींथ कर अपने-ही को सताया
हुआ बताते हैं, और संसार-भर की ग्लानि, निराशा और क्षोभ के अवतार बने, नाक की
सीध चले जाते हैं, तब अमृतसर में उनकी बिरादरीवाले तंग चक्करदार गलियों में,
हर-एक लड्ढीवाले के लिए ठहर कर सब्र का समुद्र उमड़ा कर बचो खालसा जी। हटो भाई
जी। ठहरना भाई। आने दो लाला जी। हटो बाछा, कहते हुए सफेद फेंटों, खच्चरों और
बत्तकों, गन्नें और खोमचे और भारेवालों के जंगल में से राह खेते हैं। क्या मजाल
है कि जी और साहब बिना सुने किसी को हटना पड़े। यह बात नहीं कि उनकी जीभ चलती
नहीं; पर मीठी छुरी की तरह महीन मार करती हुई। यदि कोई बुढ़िया बार-बार चितौनी
देने पर भी लीक से नहीं हटती, तो उनकी बचनावली के ये नमूने हैं - हट जा जीणे
जोगिए; हट जा करमाँवालिए; हट जा पुत्तां प्यारिए; बच जा लंबी वालिए। समष्टि में
इनके अर्थ हैं, कि तू जीने योग्य है, तू भाग्योंवाली है, पुत्रों को प्यारी है,
लंबी उमर तेरे सामने है, तू क्यों मेरे पहिए के नीचे आना चाहती है? बच जा।
ऐसे बंबूकार्टवालों के बीच में हो कर एक लड़का और एक लड़की चौक की एक दुकान पर आ
मिले। उसके बालों और इसके ढीले सुथने से जान पड़ता था कि दोनों सिख हैं। वह अपने
मामा के केश धोने के लिए दही लेने आया था, और यह रसोई के लिए बड़ियाँ। दुकानदार
एक परदेसी से गुथ रहा था, जो सेर-भर गीले पापड़ों की गड्डी को गिने बिना हटता न
था। इतने में दुकानदार निबटा, और इनका सौदा देने लगा। सौदा ले कर दोनों साथ-साथ
चले। कुछ दूर जा कर लड़के ने मुसकरा कर पूछा, - 'तेरी कुड़माई हो गई?' इस पर लड़की
कुछ आँखें चढ़ा कर धत् कह कर दौड़ गई, और लड़का मुँह देखता रह गया। दूसरे-तीसरे दिन सब्जीवाले के यहाँ, दूधवाले के यहाँ अकस्मात दोनों मिल
जाते। महीना-भर यही हाल रहा। दो-तीन बार लड़के ने फिर पूछा, तेरी कुड़माई हो गई?
और उत्तर में वही 'धत्' मिला। एक दिन जब फिर लड़के ने वैसे ही हँसी में चिढ़ाने
के लिए पूछा तो लड़की, लड़के की संभावना के विरुद्ध बोली - 'हाँ हो गई।' 2 'राम-राम, यह भी कोई लड़ाई है। दिन-रात खंदकों में बैठे हड्डियाँ अकड़ गईं।
लुधियाना से दस गुना जाड़ा और मेंह और बरफ ऊपर से। पिंडलियों तक कीचड़ में धँसे
हुए हैं। जमीन कहीं दिखती नहीं; - घंटे-दो-घंटे में कान के परदे फाड़नेवाले
धमाके के साथ सारी खंदक हिल जाती है और सौ-सौ गज धरती उछल पड़ती है। इस गैबी
गोले से बचे तो कोई लड़े। नगरकोट का जलजला सुना था, यहाँ दिन में पचीस जलजले
होते हैं। जो कहीं खंदक से बाहर साफा या कुहनी निकल गई, तो चटाक से गोली लगती
है। न मालूम बेईमान मिट्टी में लेटे हुए हैं या घास की पत्तियों में छिपे रहते
हैं।' 'लहनासिंह, और तीन दिन हैं। चार तो खंदक में बिता ही दिए। परसों रिलीफ आ
जाएगी और फिर सात दिन की छुट्टी। अपने हाथों झटका करेंगे और पेट-भर खा कर सो
रहेंगे। उसी फिरंगी मेम के बाग में - मखमल का-सा हरा घास है। फल और दूध की
वर्षा कर देती है। लाख कहते हैं, दाम नहीं लेती। कहती है, तुम राजा हो, मेरे
मुल्क को बचाने आए हो।' 'चार दिन तक एक पलक नींद नहीं मिली। बिना फेरे घोड़ा बिगड़ता है और बिना लड़े
सिपाही। मुझे तो संगीन चढ़ा कर मार्च का हुक्म मिल जाय। फिर सात जरमनों को अकेला
मार कर न लौटूँ, तो मुझे दरबार साहब की देहली पर मत्था टेकना नसीब न हो। पाजी
कहीं के, कलों के घोड़े - संगीन देखते ही मुँह फाड़ देते हैं, और पैर पकड़ने लगते
हैं। यों अँधेरे में तीस-तीस मन का गोला फेंकते हैं। उस दिन धावा किया था - चार
मील तक एक जर्मन नहीं छोडा था। पीछे जनरल ने हट जाने का कमान दिया, नहीं तो - ' 'नहीं तो सीधे बर्लिन पहुँच जाते! क्यों?' सूबेदार हजारासिंह ने मुसकरा कर
कहा -'लड़ाई के मामले जमादार या नायक के चलाए नहीं चलते। बड़े अफसर दूर की सोचते
हैं। तीन सौ मील का सामना है। एक तरफ बढ़ गए तो क्या होगा?' 'सूबेदार जी, सच है,' लहनसिंह बोला - 'पर करें क्या? हड्डियों-हड्डियों में
तो जाड़ा धँस गया है। सूर्य निकलता नहीं, और खाईं में दोनों तरफ से चंबे की
बावलियों के से सोते झर रहे हैं। एक धावा हो जाय, तो गरमी आ जाय।' 'उदमी, उठ, सिगड़ी में कोले डाल। वजीरा, तुम चार जने बालटियाँ ले कर खाईं का
पानी बाहर फेंको। महासिंह, शाम हो गई है, खाईं के दरवाजे का पहरा बदल ले।' - यह
कहते हुए सूबेदार सारी खंदक में चक्कर लगाने लगे। वजीरासिंह पलटन का विदूषक था। बाल्टी में गँदला पानी भर कर खाईं के बाहर
फेंकता हुआ बोला - 'मैं पाधा बन गया हूँ। करो जर्मनी के बादशाह का तर्पण !' इस
पर सब खिलखिला पड़े और उदासी के बादल फट गए। लहनासिंह ने दूसरी बाल्टी भर कर उसके हाथ में दे कर कहा - 'अपनी बाड़ी के
खरबूजों में पानी दो। ऐसा खाद का पानी पंजाब-भर में नहीं मिलेगा।' 'हाँ, देश क्या है, स्वर्ग है। मैं तो लड़ाई के बाद सरकार से दस घुमा जमीन
यहाँ माँग लूँगा और फलों के बूटे लगाऊँगा।' 'लाड़ी होराँ को भी यहाँ बुला लोगे? या वही दूध पिलानेवाली फरंगी मेम - ' 'जैसे मैं जानता ही न होऊँ ! रात-भर तुम अपने कंबल उसे उढ़ाते हो और आप सिगड़ी
के सहारे गुजर करते हो। उसके पहरे पर आप पहरा दे आते हो। अपने सूखे लकड़ी के
तख्तों पर उसे सुलाते हो, आप कीचड़ में पड़े रहते हो। कहीं तुम न माँदे पड़ जाना।
जाड़ा क्या है, मौत है, और निमोनिया से मरनेवालों को मुरब्बे नहीं मिला करते।' 'मेरा डर मत करो। मैं तो बुलेल की खड्ड के किनारे मरूँगा। भाई कीरतसिंह की
गोदी पर मेरा सिर होगा और मेरे हाथ के लगाए हुए आँगन के आम के पेड़ की छाया
होगी।' वजीरासिंह ने त्योरी चढ़ा कर कहा - 'क्या मरने-मारने की बात लगाई है? मरें
जर्मनी और तुरक! हाँ भाइयों, कैसे - दिल्ली शहर तें पिशोर नुं जांदिए, कौन जानता था कि दाढ़ियोंवाले, घरबारी सिख ऐसा लुच्चों का गीत गाएँगे, पर
सारी खंदक इस गीत से गूँज उठी और सिपाही फिर ताजे हो गए, मानों चार दिन से सोते
और मौज ही करते रहे हों। 3 दोपहर रात गई है। अँधेरा है। सन्नाटा छाया हुआ है। बोधासिंह खाली बिसकुटों
के तीन टिनों पर अपने दोनों कंबल बिछा कर और लहनासिंह के दो कंबल और एक बरानकोट
ओढ़ कर सो रहा है। लहनासिंह पहरे पर खड़ा हुआ है। एक आँख खाईं के मुँह पर है और
एक बोधासिंह के दुबले शरीर पर। बोधासिंह कराहा। 'क्यों बोधा भाई, क्या है?' 'पानी पिला दो।' लहनासिंह ने कटोरा उसके मुँह से लगा कर पूछा - 'कहो कैसे हो?' पानी पी कर
बोधा बोला - 'कँपनी छुट रही है। रोम-रोम में तार दौड़ रहे हैं। दाँत बज रहे
हैं।' आधा घंटा बीता। इतने में खाईं के मुँह से आवाज आई - 'सूबेदार हजारासिंह।' 'देखो, इसी दम धावा करना होगा। मील भर की दूरी पर पूरब के कोने में एक जर्मन
खाईं है। उसमें पचास से ज्यादा जर्मन नहीं हैं। इन पेड़ों के नीचे-नीचे दो खेत
काट कर रास्ता है। तीन-चार घुमाव हैं। जहाँ मोड़ है वहाँ पंद्रह जवान खड़े कर आया
हूँ। तुम यहाँ दस आदमी छोड़ कर सब को साथ ले उनसे जा मिलो। खंदक छीन कर वहीं, जब
तक दूसरा हुक्म न मिले, डटे रहो। हम यहाँ रहेगा।' 'जो हुक्म।' चुपचाप सब तैयार हो गए। बोधा भी कंबल उतार कर चलने लगा। तब लहनासिंह ने उसे
रोका। लहनासिंह आगे हुआ तो बोधा के बाप सूबेदार ने उँगली से बोधा की ओर इशारा
किया। लहनासिंह समझ कर चुप हो गया। पीछे दस आदमी कौन रहें, इस पर बड़ी हुज्जत
हुई। कोई रहना न चाहता था। समझा-बुझा कर सूबेदार ने मार्च किया। लपटन साहब लहना
की सिगड़ी के पास मुँह फेर कर खड़े हो गए और जेब से सिगरेट निकाल कर सुलगाने लगे।
दस मिनट बाद उन्होंने लहना की ओर हाथ बढा कर कहा - 'लो तुम भी पियो।' आँख मारते-मारते लहनासिंह सब समझ गया। मुँह का भाव छिपा कर बोला - 'लाओ
साहब।' हाथ आगे करते ही उसने सिगड़ी के उजाले में साहब का मुँह देखा। बाल देखे।
तब उसका माथा ठनका। लपटन साहब के पट्टियों वाले बाल एक दिन में ही कहाँ उड़ गए
और उनकी जगह कैदियों से कटे बाल कहाँ से आ गए?' शायद साहब शराब पिए हुए हैं और
उन्हें बाल कटवाने का मौका मिल गया है? लहनासिंह ने जाँचना चाहा। लपटन साहब
पाँच वर्ष से उसकी रेजिमेंट में थे। 'क्यों साहब, हमलोग हिंदुस्तान कब जाएँगे?' 'लड़ाई खत्म होने पर। क्यों, क्या यह देश पसंद नहीं ?' 'नहीं साहब, शिकार के वे मजे यहाँ कहाँ? याद है, पारसाल नकली लड़ाई के पीछे
हम आप जगाधरी जिले में शिकार करने गए थे - 'हाँ, हाँ - ' 'वहीं जब आप खोते पर सवार थे और और आपका खानसामा अब्दुल्ला रास्ते के एक
मंदिर में जल चढ़ाने को रह गया था? बेशक पाजी कहीं का - सामने से वह नील गाय
निकली कि ऐसी बड़ी मैंने कभी न देखी थीं। और आपकी एक गोली कंधे में लगी और
पुट्ठे में निकली। ऐसे अफसर के साथ शिकार खेलने में मजा है। क्यों साहब, शिमले
से तैयार होकर उस नील गाय का सिर आ गया था न? आपने कहा था कि रेजमेंट की मैस
में लगाएँगे।' 'हाँ पर मैंने वह विलायत भेज दिया - ' 'ऐसे बड़े-बड़े सींग! दो-दो फुट के तो होंगे?' 'हाँ, लहनासिंह, दो फुट चार इंच के थे। तुमने सिगरेट नहीं पिया?' 'पीता हूँ साहब, दियासलाई ले आता हूँ' - कह कर लहनासिंह खंदक में घुसा। अब
उसे संदेह नहीं रहा था। उसने झटपट निश्चय कर लिया कि क्या करना चाहिए। अँधेरे में किसी सोनेवाले से वह टकराया। 'कौन? वजीरासिंह?' 'हाँ, क्यों लहना? क्या कयामत आ गई? जरा तो आँख लगने दी होती?' 4 'होश में आओ। कयामत आई है और लपटन साहब की वर्दी पहन कर आई है।' 'क्या?' 'लपटन साहब या तो मारे गए है या कैद हो गए हैं। उनकी वर्दी पहन कर यह कोई
जर्मन आया है। सूबेदार ने इसका मुँह नहीं देखा। मैंने देखा और बातें की है।
सौहरा साफ उर्दू बोलता है, पर किताबी उर्दू। और मुझे पीने को सिगरेट दिया है?' 'तो अब!' 'अब मारे गए। धोखा है। सूबेदार होराँ, कीचड़ में चक्कर काटते फिरेंगे और यहाँ
खाईं पर धावा होगा। उठो, एक काम करो। पल्टन के पैरों के निशान देखते-देखते दौड़
जाओ। अभी बहुत दूर न गए होंगे। सूबेदार से कहो एकदम लौट आएँ। खंदक की बात झूठ है। चले जाओ, खंदक के पीछे से
निकल जाओ। पत्ता तक न खड़के। देर मत करो।' 'हुकुम तो यह है कि यहीं - ' 'ऐसी तैसी हुकुम की! मेरा हुकुम - जमादार लहनासिंह जो इस वक्त यहाँ सब से
बड़ा अफसर है, उसका हुकुम है। मैं लपटन साहब की खबर लेता हूँ।' 'पर यहाँ तो तुम आठ है।' 'आठ नहीं, दस लाख। एक-एक अकालिया सिख सवा लाख के बराबर होता है। चले जाओ।' लौट कर खाईं के मुहाने पर लहनासिंह दीवार से चिपक गया। उसने देखा कि लपटन
साहब ने जेब से बेल के बराबर तीन गोले निकाले। तीनों को जगह-जगह खंदक की
दीवारों में घुसेड़ दिया और तीनों में एक तार सा बाँध दिया। तार के आगे सूत की
एक गुत्थी थी, जिसे सिगड़ी के पास रखा। बाहर की तरफ जा कर एक दियासलाई जला कर
गुत्थी पर रखने - इतने में बिजली की तरह दोनों हाथों से उल्टी बंदूक को उठा कर लहनासिंह ने
साहब की कुहनी पर तान कर दे मारा। धमाके के साथ साहब के हाथ से दियासलाई गिर
पड़ी। लहनासिंह ने एक कुंदा साहब की गर्दन पर मारा और साहब 'ऑख! मीन गौट्ट' कहते
हुए चित्त हो गए। लहनासिंह ने तीनों गोले बीन कर खंदक के बाहर फेंके और साहब को
घसीट कर सिगड़ी के पास लिटाया। जेबों की तलाशी ली। तीन-चार लिफाफे और एक डायरी
निकाल कर उन्हें अपनी जेब के हवाले किया। साहब की मूर्छा हटी। लहनासिंह हँस कर बोला - 'क्यों लपटन साहब? मिजाज कैसा
है? आज मैंने बहुत बातें सीखीं। यह सीखा कि सिख सिगरेट पीते हैं। यह सीखा कि
जगाधरी के जिले में नीलगाएँ होती हैं और उनके दो फुट चार इंच के सींग होते हैं।
यह सीखा कि मुसलमान खानसामा मूर्तियों पर जल चढ़ाते हैं और लपटन साहब खोते पर
चढ़ते हैं। पर यह तो कहो, ऐसी साफ उर्दू कहाँ से सीख आए? हमारे लपटन साहब तो बिन
डेम के पाँच लफ्ज भी नहीं बोला करते थे।' लहना ने पतलून के जेबों की तलाशी नहीं ली थी। साहब ने मानो जाड़े से बचने के
लिए, दोनों हाथ जेबों में डाले। लहनासिंह कहता गया - 'चालाक तो बड़े हो पर माँझे का लहना इतने बरस लपटन साहब
के साथ रहा है। उसे चकमा देने के लिए चार आँखें चाहिए। तीन महीने हुए एक तुरकी
मौलवी मेरे गाँव आया था। औरतों को बच्चे होने के ताबीज बाँटता था और बच्चों को
दवाई देता था। चौधरी के बड़ के नीचे मंजा बिछा कर हुक्का पीता रहता था और कहता
था कि जर्मनीवाले बड़े पंडित हैं। वेद पढ़-पढ़ कर उसमें से विमान चलाने की
विद्या जान गए हैं। गौ को नहीं मारते। हिंदुस्तान में आ जाएँगे तो गोहत्या बंद
कर देंगे। मंडी के बनियों को बहकाता कि डाकखाने से रूपया निकाल लो। सरकार का
राज्य जानेवाला है। डाक-बाबू पोल्हूराम भी डर गया था। मैंने मुल्लाजी की दाढ़ी
मूड़ दी थी। और गाँव से बाहर निकाल कर कहा था कि जो मेरे गाँव में अब पैर रक्खा
तो - ' साहब की जेब में से पिस्तौल चला और लहना की जाँघ में गोली लगी। इधर लहना की
हैनरी मार्टिन के दो फायरों ने साहब की कपाल-क्रिया कर दी। धड़ाका सुन कर सब दौड़
आए। बोधा चिल्लया - 'क्या है?' लहनासिंह ने उसे यह कह कर सुला दिया कि एक हड़का हुआ कुत्ता आया था, मार
दिया और, औरों से सब हाल कह दिया। सब बंदूकें ले कर तैयार हो गए। लहना ने साफा
फाड़ कर घाव के दोनों तरफ पट्टियाँ कस कर बाँधी। घाव मांस में ही था। पट्टियों
के कसने से लहू निकलना बंद हो गया। इतने में सत्तर जर्मन चिल्ला कर खाईं में घुस पड़े। सिक्खों की बंदूकों की
बाढ़ ने पहले धावे को रोका। दूसरे को रोका। पर यहाँ थे आठ (लहनासिंह तक-तक कर
मार रहा था - वह खड़ा था, और, और लेटे हुए थे) और वे सत्तर। अपने मुर्दा भाइयों
के शरीर पर चढ़ कर जर्मन आगे घुसे आते थे। थोडे से मिनिटों में वे - अचानक आवाज
आई, 'वाह गुरुजी की फतह? वाह गुरुजी का खालसा!! और धड़ाधड़ बंदूकों के फायर
जर्मनों की पीठ पर पड़ने लगे। ऐन मौके पर जर्मन दो चक्की के पाटों के बीच में आ
गए। पीछे से सूबेदार हजारासिंह के जवान आग बरसाते थे और सामने लहनासिंह के
साथियों के संगीन चल रहे थे। पास आने पर पीछेवालों ने भी संगीन पिरोना शुरू कर
दिया। एक किलकारी और - अकाल सिक्खाँ दी फौज आई! वाह गुरुजी दी फतह! वाह गुरुजी दा
खालसा ! सत श्री अकालपुरुख!!! और लड़ाई खतम हो गई। तिरेसठ जर्मन या तो खेत रहे
थे या कराह रहे थे। सिक्खों में पंद्रह के प्राण गए। सूबेदार के दाहिने कंधे
में से गोली आरपार निकल गई। लहनासिंह की पसली में एक गोली लगी। उसने घाव को
खंदक की गीली मट्टी से पूर लिया और बाकी का साफा कस कर कमरबंद की तरह लपेट
लिया। किसी को खबर न हुई कि लहना को दूसरा घाव - भारी घाव लगा है। लड़ाई के समय चाँद निकल आया था, ऐसा चाँद, जिसके प्रकाश से संस्कृत-कवियों का
दिया हुआ क्षयी नाम सार्थक होता है। और हवा ऐसी चल रही थी जैसी वाणभट्ट की भाषा
में 'दंतवीणोपदेशाचार्य' कहलाती। वजीरासिंह कह रहा था कि कैसे मन-मन भर फ्रांस
की भूमि मेरे बूटों से चिपक रही थी, जब मैं दौडा-दौडा सूबेदार के पीछे गया था।
सूबेदार लहनासिंह से सारा हाल सुन और कागजात पा कर वे उसकी तुरत-बुद्धि को सराह
रहे थे और कह रहे थे कि तू न होता तो आज सब मारे जाते। इस लड़ाई की आवाज तीन मील दाहिनी ओर की खाईंवालों ने सुन ली थी। उन्होंने
पीछे टेलीफोन कर दिया था। वहाँ से झटपट दो डाक्टर और दो बीमार ढोने की गाड़ियाँ
चलीं, जो कोई डेढ़ घंटे के अंदर-अंदर आ पहुँची। फील्ड अस्पताल नजदीक था। सुबह
होते-होते वहाँ पहुँच जाएँगे, इसलिए मामूली पट्टी बाँध कर एक गाड़ी में घायल
लिटाए गए और दूसरी में लाशें रक्खी गईं। सूबेदार ने लहनासिंह की जाँघ में पट्टी
बँधवानी चाही। पर उसने यह कह कर टाल दिया कि थोड़ा घाव है सबेरे देखा जाएगा।
बोधासिंह ज्वर में बर्रा रहा था। वह गाड़ी में लिटाया गया। लहना को छोड़ कर
सूबेदार जाते नहीं थे। यह देख लहना ने कहा - 'तुम्हें बोधा की कसम है, और
सूबेदारनीजी की सौगंध है जो इस गाड़ी में न चले जाओ।' 'और तुम?' 'मेरे लिए वहाँ पहुँच कर गाड़ी भेज देना, और जर्मन मुरदों के लिए भी तो
गाड़ियाँ आती होंगी। मेरा हाल बुरा नहीं है। देखते नहीं, मैं खड़ा हूँ? वजीरासिंह
मेरे पास है ही।' 'अच्छा, पर - ' 'बोधा गाड़ी पर लेट गया? भला। आप भी चढ़ जाओ। सुनिए तो, सूबेदारनी होराँ को
चिठ्ठी लिखो, तो मेरा मत्था टेकना लिख देना। और जब घर जाओ तो कह देना कि मुझसे
जो उसने कहा था वह मैंने कर दिया।' गाड़ियाँ चल पड़ी थीं। सूबेदार ने चढ़ते-चढ़ते लहना का हाथ पकड़ कर कहा - 'तैने
मेरे और बोधा के प्राण बचाए हैं। लिखना कैसा? साथ ही घर चलेंगे। अपनी सूबेदारनी
को तू ही कह देना। उसने क्या कहा था?' 'अब आप गाड़ी पर चढ़ जाओ। मैंने जो कहा, वह लिख देना, और कह भी देना।' गाड़ी के जाते लहना लेट गया। 'वजीरा पानी पिला दे, और मेरा कमरबंद खोल दे। तर
हो रहा है।' 5 मृत्यु के कुछ समय पहले स्मृति बहुत साफ हो जाती है। जन्म-भर की घटनाएँ
एक-एक करके सामने आती हैं। सारे दृश्यों के रंग साफ होते हैं। समय की धुंध
बिल्कुल उन पर से हट जाती है। ** ** ** लहनासिंह बारह वर्ष का है। अमृतसर में मामा के यहाँ आया हुआ है। दहीवाले के
यहाँ, सब्जीवाले के यहाँ, हर कहीं, उसे एक आठ वर्ष की लड़की मिल जाती है। जब वह
पूछता है, तेरी कुड़माई हो गई? तब धत् कह कर वह भाग जाती है। एक दिन उसने वैसे
ही पूछा, तो उसने कहा - 'हाँ, कल हो गई, देखते नहीं यह रेशम के फूलोंवाला सालू?
सुनते ही लहनासिंह को दुःख हुआ। क्रोध हुआ। क्यों हुआ? 'वजीरासिंह, पानी पिला दे।' पचीस वर्ष बीत गए। अब लहनासिंह नं 77 रैफल्स में जमादार हो गया है। उस आठ
वर्ष की कन्या का ध्यान ही न रहा। न-मालूम वह कभी मिली थी, या नहीं। सात दिन की
छुट्टी ले कर जमीन के मुकदमें की पैरवी करने वह अपने घर गया। वहाँ रेजिमेंट के
अफसर की चिठ्ठी मिली कि फौज लाम पर जाती है, फौरन चले आओ। साथ ही सूबेदार
हजारासिंह की चिठ्ठी मिली कि मैं और बोधासिंह भी लाम पर जाते हैं। लौटते हुए
हमारे घर होते जाना। साथ ही चलेंगे। सूबेदार का गाँव रास्ते में पड़ता था और
सूबेदार उसे बहुत चाहता था। लहनासिंह सूबेदार के यहाँ पहुँचा। जब चलने लगे, तब सूबेदार बेढे में से निकल कर आया। बोला - 'लहना, सूबेदारनी
तुमको जानती हैं, बुलाती हैं। जा मिल आ।' लहनासिंह भीतर पहुँचा। सूबेदारनी मुझे
जानती हैं? कब से? रेजिमेंट के क्वार्टरों में तो कभी सूबेदार के घर के लोग रहे
नहीं। दरवाजे पर जा कर मत्था टेकना कहा। असीस सुनी। लहनासिंह चुप। 'मुझे पहचाना?' ** ** ** स्वप्न चल रहा है। सूबेदारनी कह रही है - 'मैंने तेरे को आते ही पहचान लिया।
एक काम कहती हूँ। मेरे तो भाग फूट गए। सरकार ने बहादुरी का खिताब दिया है,
लायलपुर में जमीन दी है, आज नमक-हलाली का मौका आया है। पर सरकार ने हम तीमियों
की एक घँघरिया पल्टन क्यों न बना दी, जो मैं भी सूबेदारजी के साथ चली जाती? एक
बेटा है। फौज में भर्ती हुए उसे एक ही बरस हुआ। उसके पीछे चार और हुए, पर एक भी
नहीं जिया। सूबेदारनी रोने लगी। अब दोनों जाते हैं। मेरे भाग! तुम्हें याद है,
एक दिन ताँगेवाले का घोड़ा दहीवाले की दुकान के पास बिगड़ गया था। तुमने उस दिन
मेरे प्राण बचाए थे, आप घोड़े की लातों में चले गए थे, और मुझे उठा कर दुकान के
तख्ते पर खड़ा कर दिया था। ऐसे ही इन दोनों को बचाना। यह मेरी भिक्षा है।
तुम्हारे आगे आँचल पसारती हूँ। रोती-रोती सूबेदारनी ओबरी में चली गई। लहना भी आँसू पोंछता हुआ बाहर आया। 'वजीरासिंह, पानी पिला' -'उसने कहा था।' लहना का सिर अपनी गोद में रक्खे वजीरासिंह बैठा है। जब माँगता है, तब पानी
पिला देता है। आध घंटे तक लहना चुप रहा, फिर बोला - 'कौन ! कीरतसिंह?' ** ** ** कुछ दिन पीछे लोगों ने अखबारों में पढा - फ्रांस और बेलजियम - 68 वीं सूची - मैदान में घावों से मरा - नं 77 सिख
राइफल्स जमादार लहनासिंह
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