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कहानी


बच्चों की दुनिया में कविता
 

प्रीति सागर

प्रीति सागर

 

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जन्म

:

6 सितंबर 1976, उत्तर प्रदेश

भाषा

:

हिंदी, अंग्रेजी, उर्दू

विधाएँ

:

आलोचना, निबंध

संपर्क

:

रीडर, साहित्य विभाग, महात्मा गांधी अन्तरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा - 442001 ( महाराष्ट्र)

मोबाइल

:  08055290238
 

सुभद्रा कुमारी चौहान हिंदी साहित्य की प्रसिद्ध कवयित्रियों में से हैं। अपनी कविताओं में बाल भावनाओं की अभिव्यक्ति की दृष्टि से सुभद्रा जी का नाम और भी अधिक उल्लेखनीय है। यद्यपि सुभद्रा जी ने वात्सल्य का विस्तृत वर्णन नहीं किया है, तथापि उनकी कुछ कविताएँ वात्सल्य की दृष्टि से इतनी मार्मिक हैं कि सहज ही पाठक को आकर्षित कर लेती हैं। इनमें मेरा नया बचपन’, ‘बालिका का परिचय’, ‘उसका रोना’, ‘कदंब का पेड़’, ‘कोयल’, ‘पानी और धूप’, ‘खिलौनेवाला’, ‘पतंग’, ‘बाँसुरीवाला’, ‘मुन्ना का प्यार’, ‘कुट्टी’, ‘अजय की पाठशाला’, ‘सभा का खेल आदि उल्लेखनीय हैं। सुभद्रा जी की कविताओं में घरेलू जीवन का प्यार, लाड़-दुलार आदि सभी कुछ समाया हुआ है। उनकी कविताओं में बचपन की कोमल अमिट झाकियाँ दृष्टिगत होती हैं। बाल क्रीड़ाओं से भरा-पूरा आँगन उनके गार्हस्थ जीवन की सबसे अमूल्य निधि है। पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी ने सुभद्रा जी के संपूर्ण जीवन पर टिप्पणी करते हुए लिखा है, उनका सारा सुख, सारा आनंद गृह जीवन से बद्ध है।[1]

महादेवी के शब्दों में उस छोटे-से अधबने घर की छोटी-सी सीमा में उन्होंने क्या नहीं संग्रहीत किया। छोटे-बड़े, रंग-बिरंगे फूलों के पौधों की क्यारियाँ, ऋतु के अनुसार तरकारियाँ, गाय, बच्छे आदि बड़ी गृहस्थी की सब सज्जा वहाँ विराट दृश्य के छोटे चित्र के समान उपस्थित थी। अपने इस आकार में छोटे साम्राज्य को उन्होंने अपनी ममता के जादू से इतना विशाल बना रखा था कि उसके द्वार पर न कोई अनाहूत रहा और न निराश लौटा।[2]

            उपर्युक्त पंक्तियों से स्पष्ट है कि घर के प्रति सुभद्रा जी का अत्यधिक मोह था। घर से संबद्ध प्रत्येक वस्तु पर उन्होंने अपना ममत्व लुटाया था, किंतु उनके हरे-भरे घर-आँगन की धुरी बच्चे ही थे। बच्चों से प्रिय संसार में कुछ भी नहीं है। व्यक्ति संतान में अपनी छवि निहारता है। इसलिए आत्मा वै जायते पुत्रः कहा गया है। यद्यपि बच्चे सभी के स्नेह पात्र होते हैं, तथापि वात्सल्य की मात्रा स्त्रियों में अधिक देखी जाती है। सुभद्रा जी एक कवयित्री भी थीं और माँ भी। इसलिए उनकी कविताओं में बाल मनोभावों का यथार्थ चित्रण हुआ है।

            सुभद्रा जी ने मेरा नया बचपन’, ‘उसका रोना और बालिका का परिचय कविताओं में अपनी पुत्री को ही वात्सल्य का आलंबन बना कर प्रस्तुत किया है। अपनी नन्ही पुत्री को अपनी अमूल्य निधि बताते हुए कवयित्री लिखती है :

 

                        यह मेरी गोदी की शोभा सुख सुहाग की है लाली

                        शाही शान भिखारिन की है  - मनोकामना मतवाली[3]

            अपनी पुत्री की निश्छल मुखमुद्रा और प्रसन्नता को अभिव्यक्त करते हुए कवयित्री आगे लिखती है :

                        पुलक रहे थे अंग, दृगों में कौतूहल-सा झलक रहा

                        मुख पर था आह्लाद लालिमा, विजय गर्व था झलक रहा[4]

            उपर्युक्त पंक्तियों में सुभद्रा जी के मातृहृदय की अभिव्यक्ति हुई है। माता सुभद्रा अपनी पुत्री की बाल क्रीड़ाओं को देख कर न केवल प्रफुल्लित होती हैं वरन उसमें सभी ईशदूतों की भी झलक देखती हैं-

                        कृष्णचंद्र की क्रीड़ाओं को अपनी आँगन में देखो

                        कौशल्या के मातृ-मोद को अपने ही मन में लेखो

                        प्रभु ईसा की क्षमाशीलता नबी मुहम्मद का विश्वास

                        जीव दया जिनवर गौतम की आओ देखो इनके पास [5]

 

            पुत्री का भोलापन और बाल क्रीड़ाएँ माता सुभद्रा का मन मोह लेती हैं। वह पुत्री को अपना जीवन सर्वस्व बताते हुए लिखती हैं :

 

                        मेरा मंदिर  मेरी मस्जिद, काबा काशी यह मेरी

                        पूजा-पाठ, ध्यान-जप-तप है, घट-घट-वासी यह मेरी [6]

 

            सुभद्रा जी अपनी पुत्री के हँसने, रोने, खेलने, सोने आदि सभी क्रियाओं को देख कर आनंदित होती हैं। पुत्री की प्रत्येक क्रिया उनके मातृ-हृदय को स्पर्श करती है। पुत्री के रोने में भी वह वात्सल्य की अनुभूति करती हैं :

 

                        ये नन्हें-से ओंठ और यह लंबी-सी सिसकी देखो

                        यह छोटा-सा गला और यह गहरी सी सिसकी देखो [7]

 

            छोटा बच्चा पूरी तरह से माँ पर ही निर्भर रहता है और माँ ही उसकी सभी आवश्यकताएँ समझती है। कवयित्री इस बात को स्वीकार करते हुए लिखती है :

                        मेरे ऊपर वह निर्भर है खाने, पीने, सोने  में

                        जीवन की प्रत्येक क्रिया में हँसने में, ज्यों रोने में [8]

 

            माँ का हृदय बहुत भावुक होता है। बच्चे की थोड़ी-सी भी असुविधा उसे व्याकुल बना देती है। पुत्री के रोने पर माँ सुभद्रा की व्याकुलता दर्शनीय है :

 

                        मैं सुनती हूँ कोई मेरा मुझको नहीं बुलाता है

                        जिसकी करुणा पूर्ण चीख से मेरा केवल नाता है [9]

 

            अपनी पुत्री के साथ अपने मातृ-संबंधों का उल्लेख करते हुए कवयित्री स्वयं को गर्वित अनुभव करती है :

                        मैं हूँ उसकी प्रकृति संगिनी, उसकी जन्म प्रदाता हूँ

                        वह मेरी प्यारी बिटिया है, मैं ही उसकी माता हूँ

                        तुमको सुन कर चिड़ आती है मुझको होता है अभिमान

                        जैसे भक्तों की पुकार सुन गर्वित होते हैं भगवान [10]

 

            सुभद्रा जी ने अपनी कविताओं में बाल मनोभावों का वर्णन बहुत बारीकी से किया है। कदंब का पेड़ कविता में कवयित्री ने एक बालक की स्नेह कामना का बहुत सुंदर वर्णन किया है। प्रस्तुत कविता में एक चंचल बालक माँ के प्यार-दुलार की कामना करते हुए कहता है :

 

                        यह कदंब का पेड़ अगर माँ, होता यमुना तीरे

                        मैं भी उस पर बैठ कन्हैया बनता धीरे-धीरे

                        ले देती यदि मुझे बाँसुरी तुम दो पैसेवाली

                        किसी तरह नीचे हो जाती, यह कदंब की डाली

  *   *  *   *   *   *   *   *  *   *   *

     

                        तुम अंचल पसार कर अम्मा, वहीं पेड़ के नीचे

                        ईश्वर से कुछ विनती करतीं बैठी आँखें मीचे

                        तुम्हें ध्यान में लगी देख मैं धीरे-धीरे आता

                        और तुम्हारे फैले आँचल के नीचे छिप जाता[11]

 

            अपनी अन्य कविताओं में भी कवयित्री ने बाल स्वभाव का मनोवैज्ञानिक चित्रण किया है। बच्चे प्रायः खेलते-खेलते झगड़ने लगते हैं और कुछ ही देर बाद पुनः अपना झगड़ा भूल कर खेलने लगते हैं। कुट्टी शीर्षक कविता में बालक विजय सिंह अपनी माँ को बताता है कि आज मोहन से उसकी कुट्टी हो गई है, किंतु थोड़ी ही देर में मोहन के आने पर विजय खुश हो जाता है और उसके साथ स्कूल जाने को तैयार हो जाता है :

 

                        बोले कुट्टी तो है मोहन फिर तुम कैसे आए हो

                        फूल देख उसके बस्ते में पूछा यह क्या लाए हो

                        चलो दोस्ती कर लें फिर से दे दो हम को भी कुछ फूल।

                        हमे खिला दो खाना अम्माँ अब हम जाएँगे स्कूल[12]

 

            बच्चे जिज्ञासावश बहुत-सी वस्तुओं के विषय में पूछते हैं। पानी, धूप, सूरज और बिजली के बारे में एक बालक की जिज्ञासा कितनी भोली और सरल है :

 

                        अभी-अभी थी धूप बरसने लगा कहाँ से ये पानी

  *   *  *   *   *   *   *   *  *   *   *

                        सूरज ने क्यों बंद कर लिया अपने घर का दरवाजा

                        उसकी माँ ने भी क्या उसको बुला लिया कह कर आ जा

                        जोर-जोर से गरज रहे हैं बादल हैं किस के काका

                        किसको डाँट रहे हैं किसने कहना नहीं सुना माँ का[13]

 

            बालक की कल्पना देखिए। आसमान में चमकती बिजली को देख कर वह सोचता है कि बिजली के बच्चे अभी ठीक से तलवार चलाना नहीं सीख पाए हैं, इसलिए आज आसमान में सीख रहे हैं। भोला-भाला बच्चा माँ से आग्रह करता है :

 

                        एक बार भी माँ यदि मुझको बिजली के घर जाने दो

                        उसके बच्चों को तलवार चलाना सिखला आने दो

                        खुश हो कर तब बिजली देगी मुझे चमकती-सी तलवार

                        तब माँ कोई कर न सकेगा अपने ऊपर अत्याचार

                        पुलिसमैन अपने काका को फिर न पकड़ने आएँगे

                        देखेंगे तलवार दूर से ही वे सब डर जाएँगे।[14]

 

            परंतु माँ का कोमल हृदय बालक की बातों को सुन कर काँप उठता है। वह बालक को बहलाते हुए कहती है :

                        काका जेल न जाएँगे अब तुझे मँगा दूँगी तलवार

                        पर बिजली के घर जाने का अब मत करना कभी विचार[15]

 

            सुभद्रा जी की कविताओं में कई स्थानों पर बालक जिज्ञासावश स्वयं ही प्रश्न पूछता है और स्वयं ही उत्तर देता है। वसंत ऋतु में धमाल मचाती कोयल देख कर बच्चा पूछता है :

कोयल इतना भेद बता दो यह अपनी मीठी बोली

जिसे सुना कर तुमने सारे आमों में मिश्री घोली

यह मिठास तुमने अपनी अम्माँ से ही पाई होगी

अम्माँ ने ही मीठी-मीठी बोली सिखलाई होगी[16]

            बच्चा कोयल से पूछता है कि वह क्या संदेशा लाई है और अपने गीतों के माध्यम से किसे बुला रही है :

 

                        कोयल, कोयल, सच बतलाओ क्या संदेशा लाई हो

                        बहुत दिनों के बाद आज फिर इस डाली पर आई हो

                        क्या गाती हो किसे बुलाती हो कह दो कोयल रानी

                        प्यासी धरती देख माँगती हो क्या मेघों से पानी

                        अथवा कड़ी धूप में हमको दुखी देख घबराती हो

                        ‘शीतल छाया भेजो यह बादल से कहने जाती हो[17]

 

            शाम होने पर बच्चा कोयल की समझाते हुए और पुनः कल मिलने का वायदा करते हुए विदा लेता है :

                        कोयल अब तुम घर को जाओ अम्माँ घबराती होंगी

                        बार-बार वह तुम्हें देखने द्वारे तक आती होंगी

                        शाम हुई हम भी जाते हैं तुम भी तड़के आ जाना

                        हम खेलेंगे यहाँ डाल पर बैठी-बैठी तुम गाना[18]

 

            बच्चों का यह स्वभाव होता है कि वे बड़ों से जैसी बाते सुनते हैं वैसा ही करने का प्रयत्न करते हैं। बाँसुरीवाले को देखते ही बालक को कृष्ण की स्मृति आ जाती है। वह अपनी माँ से आग्रह करता है कि यदि वह उसे बाँसुरी दिला दे तो वह भी कृष्ण बन कर गाएँ चराएगा। बालक को अपनी माँ में यशोदा की झलक मिलती है तो अन्य बालकों को वह गोपी-ग्वाल बना देता है :

 

                        अम्माँ मुझे बाँसुरी ले दो मैं भी इसे बजाऊँगा

                        ग्वाले का कुछ काम नहीं है मैं ही गाय चराऊँगा

                        गोरा हूँ तो हर्ज नहीं माँ मोर मुकुट वंशीवाला

                        बन जाऊँगा हाथ लकुटिया ले कर वह कंबल काला

                        जिसे धूप में बिछा बैठ कर कभी-कभी लिखती हो तुम

                        गैया दुहती हुई यशोदा मैया-सी दिखती हो तुम

                        चुन्नी, चंपा, कल्लू, बुटरा बन जाएँगे गोपी ग्वाल

                        माँ, तुम मही बनाना माखन मुझे खिलाना मिश्री डाल[19]

 

            एक अन्य कविता में बालक खिलौनेवाले को देख कर तलवार या तीर खरीदता चाहता है ताकि वह रामचन्द्र के समान जंगल में जा कर राक्षसों को मार भगाए। वह अपनी माँ से कहता है कि यदि वह उसे  देगी तो वह हँसते-हँसते वन में भी चला जाएगा। लेकिन तभी बालक सोचता है कि माँ के बिना वह वन में कैसे रहेगा ? माँ तो बच्चे के लिए अनमोल है और वह व्याकुल हो कर कह उठता है :

 

                        पर माँ, बिना तुम्हारे वन में मैं कैसे रह पाऊँगा

                        दिन भर घूमूँगा जंगल में लौट कहाँ पर आऊँगा

                        किससे लूँगा पैसे, रूठूँगा तो कौन मना लेगा

                        कौन प्यार से बिठा गोद में मनचाही चीजें देगा

                        कौन कहानी सुना रात को अपने पास सुलाएगा

                        गरम-गरम फिर कौन सवेरे ताजा दूध पिलाएगा

                        माँ के बिना राम इतने दिन कैसे रह पाए वन में

                        अपनी माँ की याद न उनको क्या आती होगी वन में[20]

 

            बच्चों के कोमल मन पर अपने परिवेश का व्यापक प्रभाव पड़ता है। वे अपने आदर्श चुन लेते हैं और उनका रूप धारण कर खेल खेलते हैं। सभा का खेल कविता में कुछ ऐसे ही बालकों का वर्णन है जो नेहरू, गाँधी और सरोजिनी बन कर खेल रहे हैं :

 

                                    सभा-सभा का खेल आज हम खेलेंगे जीजी आओ

                                    मैं गाँधी जी, छोटे नेहरू, तुम सरोजिनी बन जाओ

                                    मेरा तो सब काम लँगोटी गमछे से चल जाएगा

                                    छोटे भी खद्दर का कुरता पेटी से ले आएगा

                                    लेकिन जीजी तुम्हें चाहिए एक बहुत बढ़िया सारी

                                    वह तुम माँ से ही ले लेना आज सभा होगी भारी

                                    मोहन लल्ली पुलिस बनेंगे हम भाषण करनेवाले

                                    वे लाठियाँ चलानेवाले, हम घायल मरने वाले[21]

            बालकों के हँसने-बोलने, क्रीड़ा करने के साथ-साथ कवयित्री ने उनके हठ एवं स्पर्धा भाव का भी सुंदर चित्रण किया है। दूसरे बच्चों के पास कोई खिलौना देख कर प्रायः बच्चे वैसा ही खिलौना पाने के लिए मचल उठते हैं। पतंग कविता में एक बच्चा रंग-बिरंगी पतंगों की चर्चा करते हुए अपनी माँ से पतंग दिलाने का आग्रह करता है। उसे भय है कि यदि वह रामा और मुन्नू की तरह पतंग न ले सका तो वे उसे चिढ़ाएँगे। बच्चा माँ को उलाहना भी देता है कि वह भला पतंग और मंझे की बात क्या जाने :

                        जो तुम अम्माँ देर करोगी पतंग न हम ले पाएँगे

                        सब लड़के खरीद लेंगे माँ हम यों ही रह जाएँगे

                        तुम तो नहीं समझती हो माँ पतंग और मंझे की बात

                        घर में बैठी-बैठी जाने क्या करती रहतीं दिन-रात[22]

            सच ही है, बच्चों की कल्पनामयी रंग-बिरंगी दुनिया में संसार के जटिल यथार्थ से जूझते बड़ों का दखल कहाँ ? अंतत: बच्चा अपना अंतिम अस्त्र प्रयोग करते हुए कहता है कि यदि माँ उसको पैसा नहीं देगी तो वह रोएगा और चिल्लाएगा :

                        अब हम रह न सकेंगे अम्माँ हम भी पतंग उड़ाएँगे

                        पैसा हमें न दोगी तो हम रोएँगे चिल्लाएँगे।[23]

            बच्चों में छोटे भाई-बहनों के प्रति भी ईर्ष्या भाव पाया जाता है। उन्हें प्रायः यह शिकायत रहती है कि माता-पिता छोटे भाई-बहिनों को ज्यादा प्यार करते हैं। मुन्ना का प्यार कविता में एक बच्चा अपनी माँ से ऐसी ही प्यारी शिकायत करता है :

                        ‘माँ मुन्ना को तुम हम सबसे क्यों ज्यादा करती हो प्यार ?

                        हमें भेज देतीं पढ़ने को उसका करतीं सदा दुलार

                        उसे लिए रहती गोद में पैरों हमें चलाती हो

                        हमें अकेला छोड़ उसे तुम अपने साथ सुलाती हो

                        उसके रोने पर तुम अपने काम छोड़ कर आती हो

                        किंतु हमारे रोने पर तुम कितनी डाँट लगाती हो

                        माँ, क्या मुन्ना ही बेटा है हम क्या नहीं तुम्हारे हैं?

                        सच कह दो माँ, उसी तरह क्या तुम्हें नहीं हम प्यारे हैं?[24]

            बालक के पहली बार स्कूल जाने का भी सुभद्रा जी ने स्वाभाविक चित्रण किया है। अजय की पाठशाला कविता में पहले दिन पाठशाला जाते समय अजय का उत्साह देखते ही बनता है। स्कूल से लौटने पर सब उसका स्वागत करते हैं किंतु अजय पर तो पढ़ने की धुन सवार है। वह माँ को भी नसीहत देता है :

                        माँ ने कहा दूध तो पी लो, बोल उठे माँ रुक जाओ

                        वहीं रहो पढ़ने बैठा हूँ मेरे पास नहीं आओ

                        है शाला का काम बहुत-सा माँ उसको कर लेने दो

                        ग म भ लिख-लिख कर अम्माँ पट्टी को भर लेने दो

                        तुम लिखती हो हम आते हैं तब तुम होती हो नाराज

                        मैं भी तो लिखने बैठा हूँ कैसे बोल रही हो आज ?

                        क्या तुम भूल गई माँ पढ़ते समय दूर रहना चाहिए

                        लिखते समय किसी से कोई बात नहीं कहना चाहिए[25]

            किंतु बालकों के स्वभाव में यह बात भी पाई जाती है कि बहुत दिनों तक वे एक ही काम में नही लगे रहते। अजय को भी तीसरे दिन खेलना-कूदना और पेड़ पर चढ़ना याद आ जाता है और वह माँ से कहता है :

                        बोले माँ पढ़ लिया बहुत-सा आज न शाला जाऊँगा

                        फूल यहाँ भी बहुत लगे हैं माला एक बनाऊँगा

                        यहाँ मजे में पेड़ों पर चढ़ बिही तोड़ कर खाता हूँ

                        माँ शाला में बैठा-बैठा मैं दिन भर थक जाता हूँ

                        बैठूँगा मैं आज पेड़ पर पहने फूलों की माला

                        माँ, मत शाला भेज इकट्ठा मैंने सब कुछ पढ़ डाला[26]

            बच्चे की पढ़ाई-लिखाई के प्रति सचेत माँ अपने नटखट बालक से पूछ रही है :

                        कितना नटखट मेरा बेटा क्या लिखता है लेटा-लेटा

                        अभी नहीं अक्षर पहचाना ग, , भ का भेद न जाना

                        फिर पट्टी पर शीश झुकाए क्या लिखता है ध्यान लगाए[27]

            और नटखट बालक का जबाव देखिए :

                        मैं लिखता हूँ बिटिया रानी, मुझे पिला दो ठंडा पानी[28]

            सुभद्रा जी ने अपनी पुत्री की शरारतों का भी सुन्दर चित्रण किया है। पुत्री के मिट्टी खाने और तुतला कर बोलने का वर्णन करते हुए कवयित्री लिखती है :

                        माँ ओ कह कर बुला रही थी, मिट्टी खा कर आई थी

                        कुछ मुँह में कुछ लिए हाथ में मुझे खिलाने आई थी

                        मैंने पूछा यह क्या लाई ?’ बोल उठी वह माँ-काओ

                        हुआ प्रफुल्लित हृदय खुशी से, मैंने कहा तुम्हीं खाओ[29]

            सुभद्रा जी को बचपन के प्रति अत्यधिक मोह है। कवयित्री को अपनी पुत्री में अपना शैशव ही दृष्टिगत होता है :

                        मैं बचपन को बुला रही थी, बोल उठी बिटिया मेरी[30]

            कवयित्री ने अपने शैशव की स्मृतियों को भी सूक्ष्मता से व्यक्त किया है :

                        किए दूध के कुल्ले मैंने चूस अगूँठा सुधा पिया

                        किलकारी कल्लोल मचा कर सूना घर आबाद किया

                        रोना और मचल जाना भी क्या आनंद दिखाते थे

                        बड़े-बड़े मोती-से आँसू जयमाला पहनाते थे

                        मैं रोई माँ काम छोड़ कर आई मुझको उठा लिया

                        झाड़ पोंछ कर चूम-चूम गीले बालों को सुखा दिया[31]

            उपर्युक्त पंक्तियों में माँ के अतीत के स्नेहिल व्यवहार का अंकन कितना मधुर है। इसी कारण कवयित्री बार-बार बचपन को याद करती है। अपनी पुत्री के साथ क्रीड़ाएँ करते हुए कवयित्री स्वयं बच्ची बन जाती है ओर पुत्री के बहाने एक बार पुनः अपना खोया बचपन पा लेती है :

                        मैं भी उसके साथ खेलती, खाती हूँ, तुतलाती हूँ

                        मिल कर उसके साथ स्वयं मैं भी बच्ची बन जाती हूँ

                        जिसे खोजती थी बरसों से अब जा कर उसको पाया

                        भाग गया था मुझे छोड़ कर, वह बचपन फिर से आया [32]

            इस प्रकार सुभद्रा जी ने अपनी कविताओं में बच्चों के प्रति विविध प्रकार से अपने हृदयगत मनोभावों को व्यक्त किया है। बालकों की सरलता, निश्चलता, निरीहता, भोलापन और बाल-क्रीड़ाओं का उन्होंने यथार्थ अंकन किया है। कवयित्री ने अपनी कविताओं में अपने शैशव का भी स्मरण किया है। सारांशतः वात्सल्य वर्णन करनेवाली आधुनिक हिंदी महिला साहित्यकारों में सुभद्रा कुमारी चौहान का नाम सबसे ऊपर है।

 

 

संदर्भ :

 

01.          विश्वभारती, संपादक, राम सिंह तोमर, अप्रैल-जून 1975 ((‘तृप्त और दृप्त प्रेम की कवयित्री सुभद्रा कुमारी चौहान, क्रांति कुमार जैन)

02.          ‘पथ के साथी’, महादेवी वर्मा, पृष्ठ 40, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, 1992

03.          ‘सुभद्रा समग्र’, ‘बालिका का परिचय’, पृष्ठ 51, हंस प्रकाशन, इलाहाबाद, प्रथम संस्करण, जनवरी, 2000

04.          ‘सुभद्रा समग्र’, ‘मेरा नया बचपन’, पृष्ठ 49, हंस प्रकाशन, इलाहाबाद, प्रथम संस्करण, जनवरी, 2000

05.          ‘सुभद्रा समग्र’, ‘बालिका का परिचय, पृष्ठ 52, हंस प्रकाशन, इलाहाबाद, प्रथम संस्करण,  जनवरी, 2000

06.          वही, पृष्ठ 51

07.          ‘सुभद्रा समग्र’, ‘उसका रोना’, पृष्ठ 53, हंस प्रकाशन, इलाहाबाद, प्रथम संस्करण, जनवरी, 2000

08.          वही, पृष्ठ 54

09.          वही, पृष्ठ 54

10.          वही, पृष्ठ 54-55

11.          ‘सुभद्रा समग्र’, ‘कदंब का पेड़’, पृष्ठ 185-186, हंस प्रकाशन, इलाहाबाद, प्रथम संस्करण, जनवरी, 2000

12.          ‘सुभद्रा समग्र ’, ‘कुट्टी’, पृष्ठ 194, हंस प्रकाशन, इलाहाबाद, प्रथम संस्करण, जनवरी, 2000

13.          ‘सुभद्रा समग्र’, ‘पानी और धूप’, पृष्ठ 180, हंस प्रकाशन, इलाहाबाद, प्रथम संस्करण, जनवरी, 2000

14.          वही, पृष्ठ 180

15.          वही, पृष्ठ 181

16.          ‘सुभद्रा समग्र’, ‘कोयल’, पृष्ठ 184, हंस प्रकाशन, इलाहाबाद, प्रथम संस्करण, जनवरी, 2000

17.          ‘सुभद्रा समग्र’, ‘कोयल’, पृष्ठ 177, हंस प्रकाशन, इलाहाबाद, प्रथम संस्करण, जनवरी, 2000

18.          वही, पृष्ठ 184

19.          ‘सुभद्रा समग्र’, ‘बाँसुरीवाला’, पृष्ठ 188, हंस प्रकाशन, इलाहाबाद, प्रथम संस्करण, जनवरी, 2000

20.          ‘सुभद्रा समग्र’, ‘खिलौनेवाला’, पृष्ठ 183, हंस प्रकाशन, इलाहाबाद, प्रथम संस्करण, जनवरी, 2000

21.          ‘सुभद्रा समग्र’, ‘सभा का खेल’, पृष्ठ 195, हंस प्रकाशन, इलाहाबाद, प्रथम संस्करण, जनवरी, 2000

22.          ‘सुभद्रा समग्र’, ‘पतंग’, पृष्ठ 187, हंस प्रकाशन, इलाहाबाद, प्रथम संस्करण, जनवरी, 2000

23.          वही, पृष्ठ 187

24.          ‘सुभद्रा समग्र’, ‘मुन्ना का प्यार’, पृष्ठ 190, हंस प्रकाशन, इलाहाबाद, प्रथम संस्करण, जनवरी, 2000

25.          ‘सुभद्रा समग्र’, ‘अजय की पाठशाला’, पृष्ठ 192, हंस प्रकाशन, इलाहाबाद, प्रथम संस्करण, जनवरी, 2000

26.          वही, पृष्ठ 193

27.          ‘सुभद्रा समग्र’, ‘नटखट विजय’, पृष्ठ 196, हंस प्रकाशन, इलाहाबाद, प्रथम संस्करण, जनवरी, 2000

28.          वही, पृष्ठ 196

29.          ‘सुभद्रा समग्र’, ‘मेरा नया बचपन’, पृष्ठ 50, हंस प्रकाशन, इलाहाबाद, प्रथम संस्करण, जनवरी, 2000

30.        वही, पृष्ठ 49

31.        वही, पृष्ठ 46-47

32.        वही, पृष्ठ 50

 


 
 

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