केदारनाथ अग्रवाल : जीवन जीता हारी मौत
'' कुछ नामसझ लोग नकारने पर तुले हैं। कोई कुछ कहे-करे मुझे ढकेलकर गिरा नहीं सकता। कविता मुझे सिर पर चढ़ाये चढ़ाये-उठाये उठाये लोकचेतना में ले गई है। मैं खूब खिलखिला रहा हूँ। नकारने वालों को ठेंगा दिखा रहा हूँ। ''
-केदारनाथ अग्रवाल
केदारनाथ अग्रवाल को बाँदा के लोग प्रेम और आदर के साथ 'बाबूजी' कहते थे। 'बाबूजी' कहते हुए यदि कहीं भी बाँदा में कोई चर्चा हो रही हो तो समझिये की केदारनाथ अग्रवाल की ही चर्चा हो रही है। सामने भी और पीठ पीछे भी कोई उन्हें उनके नाम से नहीं याद करता था-नाम लेता भी था तो या तो 'केदार बाबू' कहता था या फिर 'बाबू' केदारनाथ अग्रवाल। बाँदा के लोगों का दिया हुआ प्यार का नाम 'बाबू' उनके नाम के आगे या नाम के पीछे इस तरह उनके नाम का हिस्सा बन गया है जैसे कि कर्ण के साथ सूर्य का दिया हुआ कवच उसके षरीर का हिस्सा बन गया था।
केदार बाबू से मेरा पहला सम्पर्क किस तिथि और महीने में हुआ यह तो याद नहीं पर इतना ज़रूर याद है कि सन् 1977 था, महीना षायद-सितम्बर या अक्टूबर रहा होगा। मैं बाँदा के जवाहर लाल नेहरू पोस्ट ग्रैजुएट कालेज में एक अध्यापक के अवकाष कर जाने के कारण रिक्त हुए पद के लिए अभ्यर्थी था। साक्षात्कार के लिए बाँदा जाते समय श्री दूधनाथ सिंह ने कहा था कि 'तुम बाँदा जा रहे हो तो केदार बाबू से ज़रूर मिलना।' बाँदा पहुँचा तो पता चला कि वे षाम को नियमित बाँदा रेलवे स्टेषन के सामने नीलम मेडिकल स्टोर पर बैठते हैं। मैं वहाँ गया। वह मेडिकल स्टोर के अन्दर एक स्टूल पर बैठे हुए थे-सफेद कुर्ता पायजामा पहने हुए। गर्दन तनी हुई, निगाह सौ गज दूर वाले अंदाज़ में थी। मेडिकल स्टोर जमीन से दो-ढाई फुट की कुर्सी पर था। स्टोर के सामने बाँदा कालेज के कुछ प्राध्यापक, एक दो वकील, पत्रकार आदि खड़े थे। कुछ लोग सामने खड़ी स्कूटर की सीट पर आसन जमाए हुए थे। देष और दुनिया की राजनीति आदि पर चर्चा चल रही थी। मौका देखकर दूधनाथजी के हवाले से अपना परिचय दिया और आने का सबब बताया। मुझे याद नहीं है कि इस पर उन्होंने क्या कहा या क्या प्रतिक्रिया दी। यही मेरी पहली और अति संक्षिप्त मुलाकात थी ।
दूसरे दिन साक्षात्कार हुआ। विषेशज्ञ के रूप में सागर विष्वविद्यालय से डॉ0 कांतिकुमार जैन आये थे। ( यह बात साक्षात्कार होने के बाद पता चली )। सभी अभ्यर्थियों का साक्षात्कार खत्म होने के बाद मुझे फिर से अंदर बुलाया गया और कहा गया कि एक निष्चित तिथि तक डी. फिल. की डिग्री ज़मा करनी होगी। तब तक मेरी डी. फिल. उपाधि के लिए मौखिक परीक्षा हो चुकी थी पर प्रमाणपत्र निर्गत नहीं हुआ था। मैंने आष्वस्त किया और खुद भी आष्वस्त हुआ कि संभवत: सषर्त ही सही मेरा चयन हो गया है।
9 दिसम्बर, 1977 को मैंने कार्यभार ग्रहण किया। इसके बाद केदारजी से मिलने का सिलसिला चल निकला। षाम को कभी उनके आवास पर कभी नीलम मेडिकल स्टोर पर लगभग रोज़ ही उनका सान्निध्य पाता रहा। उस समय बाँदा में कई नये कवि उभर रहे थे। अक्सर षाम को कहीं न कहीं कोई कवि गोश्ठी होती। बाबू जी भी कभी कभी विषेश आग्रह पर षिरकत करते। यह सिलसिला 19 जून 80 तक चला। केदारजी की कविताओं को सुनने और पढ़ने का अवसर इसी दौरान मिला। इसके पूर्व उनकी कविताओं से मेरा परिचय न के बराबर था ।
केदारजी की कविताओं पर मेरा पहला लेख प्रतिक्रियात्मक था। 1979 में प्रकाषित केदारजी के संग्रह 'पंख और पतवार' पर राजेष जोषीजी की एक समीक्षा 'पूर्वग्रह' में प्रकाषित हुई। समीक्षा पढ़ी और कुछेक बिन्दुओं पर मैं उनसे सहमत नहीं हो सका। उन्हीं बिन्दुओं पर अपनी असहमति जाहिर करते हुए एक तरह से मैंने एक प्रति-समीक्षा लिखी और 'पूर्वग्रह' को भेज दी। उम्मीद के विपरीत वह पूर्वग्रह के अंक-37 में ''जहाँ दूसरे झरे हैं' षीर्शक से प्रकाषित हुई। इसके बाद गाहे-बगाहे मैंने और भी लेख लिखे समीक्षाएँ लिखीं और प्रकाषित हुईं।
लगभग ढाई वर्शों तक मैं बाँदा में रहा और केदारजी से मिलता रहा। एक दो साक्षात्कार भी लिए और प्रकाषित हुए। पर मुझे कतई यह अहसास नहीं हुआ कि मैं हिन्दी के बीसवीं सदी के निरालाजी के बाद सबसे बड़े कवि से मिल रहा हूँ। कभी भी अपने व्यवहार से, बातचीत से, हमें अपने अन्दर कमतरी का भान तक उन्होंने नहीं होने दिया, बल्कि उसके बरक्स 'हम भी कुछ है' का आत्मविष्वास ही जगाया। जब मैं यह बात अपने लिए कह रहा हूँ तो इसका मतलब केवल मुझसे ही नहीं है। यह अहसास उस हर व्यक्ति की थाती है जो भी उनसे मिला है। पढ़ा-लिखा हो या बे-पढ़ा-लिखा हो सबको वह समान स्नेह और आदर देते थे। किसी को भी वह अपने 'छोटेपन' का अहसास नहीं होने देते थे। उम्र का, बुजुर्गियत का , विद्वत्ता का, कविताई का और आभिजात्य का कोई अहं उनमें लेष मात्र भी नहीं था। क्योंकि उन्होंने अपना बड़प्पन उतार कर धर दिया था-'वहाँ,। उस मुरदा अजायब घर में,/जहाँ/मरणोपरांत धर दी जाती है। बड़े-बड़ों के बड़प्पन की उतारनें।'' (के.ना.अग्रवाल 'प्रतिनिधि कविताएँ' पृ0 110 संपा. अशोक त्रिपाठी, राजकमल प्रकाषन संस्करण 2010)
केदारजी का सरल सहज और तरल व्यक्तित्व षीषे की भाँति पारदर्षी था। अंदर-बाहर सब एक जैसा। कोई बनावटीपन नहीं-दिखावा नहीं। पटरे की जाँधिया और बुष्षर्ट में हैं तो उसी वेष-भूशा में बिना कसी कुंठा के घंटों बतियाते थे। बतियाने वाला कोई भी हो-नामी गिरामी वकील, डिग्री कालेज का प्रोफेसर, बाँदा के नौज़वान, बाहर से आया हुआ कोई छोटा बड़ा साहित्यकार, औरतें-बच्चे, रिक्षेवाला, घर के नौकर, मुंषीजी, मज़दूर, किसान, मुवक्किल आदि-आदि। उनका व्यक्तित्व एक दर्पण की तरह भी था जिसमें सामने वाला अपनी प्रतिबिम्बित छवि भी देख सकता था।
कोई भी हो किसी भी तबके का हो, किसी भी उम्र का हो, जो भी उनसे एक बार मिला उनका होकर रह गया। वह हर मिलने-जुलने वाले से उसके स्तर पर उतर कर बात करते थे। उसको अपनापन देते थे और उससे अपनापन पाते भी थे। किसी तरह की ग्रंथि उनके मन में नहीं थी। एक बेबाक खुलापन था। व्यवहार की सहजता, चेहरे की उत्फुल्लता, आंखों से झरता पानीदार तरल स्नेह, बातचीत का दोस्ताना अंदाज मन और प्राण को बाँध लेता था।
खान-पान, रहन-सहन, पहनावा ओढ़ावा बोली-बानी आदि के बारे में उनकी कोई रूढ़ षैली नहीं थी। घर में अमूमन चेकदार लुंगी बनियाइन या हाफ बुष्षर्ट या पटरेदार जाँघिया के साथ ही उन्हें देखता था। उनके चेहरे की मासूमियत इतनी खुबसूरत लगती थी कि जैसे वह ताज़ा धुला-धुला गुलाब का फूल हो या निहायत खूबसूरत बच्चा। केदारजी को बला की खूबसूरती कुदरत ने दी भी थी इसका उन्हें गुमान भी था। अपने इलाहाबाद विष्वविद्यालय के दिनों को याद करते समय कुछ प्रसंग विषेश में वह अक्सर कहते भी थे - 'खूबसूरत तो मैं था ही'। बनिया तो वह किसी भी कोने से नहीं लगते थे - सिवाय किफ़ायत सारी के और एक आदत के कि प्रतिदिन अपने मुंषी श्री फैयाजुद्दीन द्वारा लाए हुए सौदा-सुलुफों के दामों को पूरे ब्योरे के साथ तुरंत अपनी डायरी में नोट करते थे - ठेठ बही षैली में। क़िफायतसारी षायद उनकी आर्थिक मजबूरी थी। अपनी आर्थिक तंगी की चर्चा अपने मित्र रामविलासजी से उन्होंने कई बार की भी है। 'मित्र संवाद- ( सं. रामविलास षर्मा, अशोक त्रिपाठी साहित्य भंडार, इलाहाबाद संस्क. 2010) के पत्र इसके साक्षी हैं।
आर्थिक तंगी के बावजूद, मित्रों ने जब भी उनसे अपेक्षा की है उन्होंने कभी निराष नहीं किया। निरालाजी के लिए रामविलासजी के पत्र, और अपने लिए नागार्जुन और षमषेरजी आदि के पत्र इसके गवाह हैं।
लापरवाही केदारजी में बिल्कुल नहीं थी। जीवन में संयम तथा समय की पाबंदी और पकड़ के प्रति वे हमेषा संजीदा रहे हैं। वह जो किताब या पत्रिका जहाँ से निकालते थे, उसे पढ़ने के बाद फिर वहीं रखते थे। उन्हें पता रहता था - कौन सी पुस्तक या पत्रिका कहाँ किस आलमारी के किस खाने में मिलेगी।
प्रात:काल जल्दी उठना उनकी प्रिय आदत थी। नौकर द्वारा साफ किये गये घर की सफाई पर उन्हें यकीन नहीं था। प्रात:काल उठकर पूरे घर की धूल झाड़ना एक तरह से उनका व्यसन बन गया था। इसे ही वे अपना प्रात:कालीन व्यायाम भी मानते थे। घर की एक-एक वस्तु पर उनके अभी-अभी छुए हाथ का स्पर्ष महसूस होता था। हो भी क्यों न - केदारजी रोज उन्हें सबेरे उठकर प्यार से उसी तरह सहलाते दुलारते भी तो थे, जैसे कोई माँ रोज सबेरे अपने बच्चों को नहला-धुलाकर, तेल-फुलेल लगाकर, पाटी सँवारकर उन्हें दिन भर के लिए तैयार कर देती है और फिर अपने दैनिक कामों में निष्ंचित होकर लग जाती है।
उनके बैठक खाने नुमा अध्ययन कक्ष की किताबें सचमुच जीवन्त बच्चे का अहसास जगाती थीं, षो केस में रखी षो-पीस-सी किसी गुड़िया का नहीं। प्रत्येक किताब या पत्रिका उनके द्वारा पूरी पढ़ी गयी होती थी। उनकी किताबें दूसरों पर अपने अध्ययनषील होने का रोब जमाने का साधन नहीं थीं। वह पुस्तकें-पत्रिकाएँ केवल पढ़ते भर नहीं थे - बाकायदे पेंसिल से हाषिए पर अपनी टिप्पणी भी लिखते थे। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता था कि लेखक नया है या पुराना, नामी गिरामी है या गुमनाम ।
केदारजी का ऑंगन काफी बड़ा था। ऑंगन के उत्तरी हिस्से में जहाँ नल था उन्होंने गुलाब, करोटन आदि अनेक पौधे लगा रखे थे। इन्हें वह रोज पानी खुद देते थे - इन पौधों की एक-एक पत्तियाँ पानी के हजारे से खुद धोते थे। केदारजी को गुलाब के फूल बेहद प्रिय थे। गुलाब उनकी कविताओं में कई बार आया भी है -
'जल रहा है / जवान होकर गुलाब,/ खोलकर होंठ / जैसे आग / गा रही है फाग। '' (के. ना. अग्र.: प्रतिनिधि कविताएँ-वही, पृ0 109)
केदारजी का घर खपरैलों वाला है और दीवालें मिट्टी की लेकिन जब तक केदारजी ज़िन्दा रहे उनका पूरा घर तुरंत की हुई सफाई का अहसास देता था - पूर्णत: धूल -रहित रहता था। धूल-धक्कड़ और गंदगी केदारजी को बिल्कुल पसंद नहीं थी - गंदगी चाहे घर की हो, चाहे षरीर की, चाहे विचारों की, चाहे चरित्र की। न तो उनके चेहरे पर कभी दाढ़ी देखी, न कपड़ों में धूमिलपन, न कभी विचारों में उलझाव या गँदलापन और न कभी चरित्र का दोगलापन। हर चीज़ का सीन काफ़ दुरूस्त। राँची से प्रकाषित 'प्रभात खबर' के दीपावली 2010 के विषेशांक में वीरेन डंगवाल ने केदारजी से एक मुलाकात का जिक्र करते हुए लिखा है - 'दीवार से लगी धुँधले षीषों वाली कुछ आलमारियाँ थी जिनमें कानून की मोटी जिल्दें सजी थीं। धूल षायद वहाँ पर भी थीं। फर्ष पर फर्नीचर पर, कम रोषनी देती टयूब लाइट पर ।' ( पृ0 109) वीरेन जी का यह पर्यवेक्षण कतई सच नहीं है।
केदारजी का आडम्बर-रहित व्यवहार ऐसा था कि किसी भी समय जाइए, वह अपनी सहज मुस्कान से स्वागत करते थे।
सन् 1982 के आस पास केदारजी ने वकालत लगभग छोड़ दी थी। कचहरी नहीं जाते थे,, पर षाम को नीलम मेडिकल स्टोर पर जाकर बैठना बदस्तूर जारी रहा। जाकर बैठते थे चाय पीते थे, खुद देखकर या पूछ- सुनकर पूरे बाँदा का हाल-चाल जानना कुछ उसी तरह उनका धर्म बन चुका था जैसे घर का कोई बड़ा बुजुर्ग षाम को घर के सभी छोटे-बड़ों की खोज खबर लेता है। इन्हीं जानकारियों में से वह कविता का कच्चा माल भी सहेजकर ऍंधेरा होने पर घर आते थे और फिर कविता प्रिया के साथ रात-रात भर ऑंखें चार करते थे - कवि-प्रिया की इस पर क्या प्रतिक्रिया होती थी वह वही जानें। जवानी के दिनों में 'वह कहती तो कुछ नहीं थीं पर पलंग पर आ विराजती थी' ('मित्र संवाद' में संकलित रामविलासजी को लिखे एक पत्र के हवाले से )
केदारजी ने अधिसंख्य कविताएँ रात के ऍंधेरे में लिखी हैं, पर वे ऍंधेरे की कविताएँ नहीं हैं - वे दिन के अग्निम प्रकाष की कविताएँ हैं। प्रारंभ में बाँदा के वरिश्ठ वकील चाचा मुकुंद लाल अग्रवाल के डर के कारण छिपकर कविता लिखने के लिए रात का इंतज़ार जरूरी था, बाद में दिन में वकालत की व्यस्तता के कारण ।
पुराणों में कर्णवती के नाम से जाने जानी वाली केन नदी केदारजी के घर से दूर है। लेकिन जब तक कूवत रही केदारजी षाम का या छुट्टियों का समय केन को देते रहे। केन उनके लिए महज एक जल-भरी नदी नहीं है। वह उनके अस्तित्व में रच-बस कर उनके लिए चेतना की नदी बन गयी। केन को उन्होंने इतनी बार, इतने विभिन्न कोणों से देखा, उसके क्षण-क्षण नित नूतन परिवर्तित सौंदर्य का अनुभव किया कि वह उनके जीवन-दर्षन का एक अभिन्न हिस्सा बन गयी। इसीलिए उन्हें 'केन का कवि' भी कहा जाता है। एक नदी को - वह भी छोटी लगभग स्थानीय नदी को, जिसका अस्तित्व यमुना में विलीन हो जाता है, - को विशय बनाकर हर बार एक नयी भंगिमा देते हुए, केदारजी ने जितनी कविताएँ लिखी हैं षायद ही किसी स्थानीय नदी पर इतनी कविताएँ किसी दूसरे कवि ने लिखी हों। यमुना भी उनके घर से बहुत दूर नहीं है, पर सिवाय एक दो संदर्भों के (रेत मैं हूँ जमुन जल तुम आदि) यमुना उनकी कविता में लगभग नहीं है। यही हाल गंगा और दूसरी बड़ी नदियों का भी है। क्योंकि केन एक उपेक्षित सी नदी है और केदारजी मेहनतकषों, वंचितों, दलितों और उपेक्षितों को वाणी देने वाले कवि हैं।
उन्होंने अपने यहाँ काम करने वालों को भी कभी डाँटा-डपटा नहीं। कोई काम उनके मनमुताबिक नहीं हुआ - तो भी नहीं। स्नेह से प्यार से ही कहा। रनिया नाम की अपने यहाँ काम करने वाली एक औरत पर तो उन्होंने कविता ही लिख मारी - उसे अपनी देस - बहन कहा - 'रनिया मेरी देस बहन है,/ अति ग़रीब है - अति ग़रीब है ! / मैं रनिया का देष-बन्धु हूँ,/ अति अमीर हूँ अति अमीर हूँ ! ('गुलमेंहदी' पृ0 48, साहित्य भंडार, इलाहाबाद, संस्क. 2009) इसी तरह के अन्य कई दलित चरित्रों पर उन्होंने कविता लिखी है।
केदारजी की एक और विषेशता है उनका अगाध पत्नी प्रेम। आज के युग में 'प्रेम षब्द' में परकीया प्रेम की ही बू आती है। । एक जमाने में तो 'धर्मयुग' ने एक बहस ही चलाई थी कि रचना के लिए प्रेयसी अनिवार्य है। प्रगतिषीलता - जनवादिता का भी एक गुण धर्म, सा बन गया है - पत्नी के अलावा प्रेयसी या प्रेयसियाँ पालना। ऐसे में पत्नी के प्रति नि:स्वार्थ, उद्दाम कर्तव्य बोध की ऊश्मा से आवेषित प्रेम, आध्यात्मिक की षब्दावली का प्रयोग करें तो अलौकिक ही लगता है। पत्नी ही उनकी प्रेयसी भी थीं, सहकर्मिणी भी और सहधर्मिणी भी। कविता में दुनिया-जहान पर बातें करने वाली माध्यम भी थीं - 'हे मेरी तुम ' शृंखला की कविताएँ इसी को साबित करती हैं। इस शृंखला की कविताएँ प्रेम की ही कविताएँ नहीं हैं - प्रेम तो बहुत कम है - दुनियादारी की बातें ज्यादा हैं।
एक लम्बे अर्से से कवि-प्रिया पार्वती देवी जी अस्वस्थ रहती थीं - उनके दोनों हाथों और सिर में लगातार कम्पन होता रहता था। वह अपने हाथों से अपना काम तक करने में असमर्थ थीं। जब तक केदारजी स्वस्थ रहे षरीर में ताकत रही पत्नी के काम में हाथ बँटाते रहे - बर्तन साफ करने तक में। वह रोटी नहीं बेल पाती थीं तो कई-कई दिनों तक केदारजी दाल-चावल पर ही गुज़ारा करते थे - बेटा-बहू तबके मद्रास और अबके चेन्नई में रहते हैं। केदारजी ही उन्हें नित्य कर्म से निवृत्त कराने से लेकर, भोजन स्नान तक कराते थे और इस कदर सँवार कर रखते थे कि जब भी देखिये सद्य:स्नाता सी लगती थीं। दिप-दिप करता, सहज मुस्कान बिखेरता उनका ममतालु चेहरा केदारजी की ही प्रेम की कर्मठ पवित्रता का यषोगान करता प्रतीत होता था। हो भी क्यों न - पत्नी का 'काँपता हाथ' देखकर केदारजी का 'दिल काँपता' था। वह युवती नहीं प्रेम ब्याह कर लाए थे - 'गया ब्याह में युवती लाने/प्रेम ब्याहकर संग में लाया ।'
उनकी पत्नी और उनके हृदय एक थे। एक दूसरे की धड़कन दोनों बिना बताये महसूस कर लेते थे। वे हमेषा समस्वरित रहते थे। इस बात से मुझे हमेषा आष्चर्य होता था कि जो बात उनके सामने बैठे दो-चार लोग नहीं सुन पाते थे, वह कैसे उसे सुन लेते थे।
उनके बैठक खाने में हम लोग बैठे हैं और बातें चल रही है। केदारजी अपने ऍंगूठे के नाखून से षेश उँगलियों के नाखून के अगले भाग को कुरेद रहे हैं। यह उनकी आदत थी कि जब वह कुछ सोचने की मुद्रा में होते थे तो अनजाने ही ऐसा करने लगते थे। अचानक वह उठते और 'अभी आया' - कहकर बैठक खाने के बरामदे के बाद ऑंगन के पष्चिम के अपने षयन कक्ष में चले जाते। अपनी पत्नी को पकड़कर बाथरूम की तरफ ले जाते और फिर उन्हें षयन कक्ष में बिठाकर वापस आ जाते या फिर कभी उनकी कोई और ज़रूरत पूरा करके वापस आते ।
हम सबको आष्चर्य होता कि बाबूजी को कैसे पता चल जाता था कि उनकी पत्नी को उनकी ज़रूरत है। उनकी पत्नी भी उन्हें 'बाबूजी' ही कहती थीं। ऐसा था कवि और कवि प्रिया के हृदय का समस्वरण ।
केदारजी का पूरा जीवन लगभग सीधी पगडंडी-सा था। इस पगडंडी में कहीं-कहीं दूब की कोमल हरियाली थी कहीं-कहीं कुछ छोटे-मोटे गङ्ढे और कहीं निचाट मैदान। वह न तो राजमार्ग था, न ही पेंचदार धुमाववाली गली और न ऊबड़ खाबड़ नदी नालों वाला बीहड़ रास्ता। दो-चार घटनाओं को छोड़कर उनके जीवन में बहुत अप्रत्याषित उतार-चढ़ाव नहीं था। पूरे जीवन में महाकाल से दो-चार बार उनकी मुठभेड़ ज़रूर हुई पर जीत केदारजी की ही हुई। छोटी बेटी किरण का दो बार विधवा होना ज़रूर उनके जीवन की एक बड़ी त्रासदी थी।
केदारजी को प्रकृति बहुत भाती थी। वह वह प्रकृति के ओज उल्लास, आह्लाद, मस्ती और बेफिक्री के कवि हैं। उनकी प्रकृति संघर्शषील जिंदगी की सहकर्मिणी, सह धर्मिंणी, श्रमरत श्रमिक का पसीना पोंछने वाली, ऊश्मा देने वाली, धरती को जावक लगाने वाली, प्रिया को प्यार के लिए उकसाने वाली, कपोलों को आरक्त करने वाली, सुख-दुख में साथ-साथ चलने, हँसने, बोलने-बतियाने वाली, छेड़छाड़ करने वाली अल्हड़ मुखरा प्रकृति है।
वह दूसरों के लिए जितने उन्मुक्त और उदार थे, सहृदय और सहज थे अपने लिए उतने ही संकोची। अपने बारे में ज्यादा बात करना, प्रंषसा सुनना उन्हें नहीं भाता था। जब भी ऐसा प्रसंग आता वह बात को तुरंत दूसरा मोड़ दे देते थे। अपने सम्मान वाले समारोहों में भी वह बड़ी मान मनौवल के बाद ही षरीक होते थे क्योंकि वह मान-सम्मान की राजनीति और खतरों को समझते थे। - 'मुझे न मारो/मान पान से / माल्यार्पण से / यषोगान से / मिट्टी के घर से निकाल कर। धरती से ऊपर उछालकर ।'' (प्रतिनिधि कविताएँ-वही, पृ0 135)
उनका यह संकोच, एक ऐसे समर्पित कर्मयोगी का संकोच था, जो निश्काम कर्मयोग को जीवन में उतार चुका था - तभी तो वह कहते हैं - 'सबसे आगे / हम हैं /पाँव दुखाने में ;/ सबसे पीछे /हम हैं / पाँव पुजाने में। / सबसे ऊपर / हम हैं / ब्योम झुकाने में ;/ सबसे नीचे / हम हैं। नींव उठाने में। '' (वही, पृ0 100) उनकी यही साधारणता उनकी सबसे बड़ी असाधारणता थी। यहाँ तक कि अपनी कविता सुनाने में भी वह संकोच करते थे और 'माँझी न बजाओ वंषी मेरा मन डोलता है'' जैसी कविता की फरमाइष करने पर उनका षरमाना देखते ही बनता था - गाल लाल हो जाते थे जैसा कि किसी नयी नवेली दुल्हन का अवगुंठन उठाने पर होता है।
अपने प्रचार के प्रति बाद में, केदारजी कितने अनासक्त हो गये थे उसका एक छोटा-सा उदाहरण परिमल प्रकाषन के स्वत्वाधिकारी स्वर्गीय षिवकुमार सहाय द्वारा बताया गया यह संदर्भ है :- 3 अक्टूबर 1954 को लिखी गयी उनकी प्रसिध्द कविता 'मज़दूर का जन्म' (एक हथौडे वाला घर में और हुआ') (वही, पृ0 65) श्री कृश्ण दास जी के संपादन में प्रकाषित पत्रिका 'नयापथ' में छपी थी। 'नयापथ' जिस प्रेस में छपता था सहायजी उसमें काम करते थे। यह कविता उन्होंने पढ़ी और पहली ही बार में वह उन्हें कण्ठस्थ हो गयी। कालांतर में जब सहायजी ने 1959 में परिमल प्रकाषन षुरू किया तभी संकल्प लिया कि इस कविता के कवि का संकलन छापना ही है। सन् 1963 में उन्होंने एक पत्र द्वारा अपनी यह इच्छा व्यक्त की। केदारजी ने एक पोस्टकार्ड द्वारा उत्तर दिया कि 'मेरी कविता-पुस्तक छाप कर क्या करोगे। 'कविता पुस्तकें' बिकती हैं नहीं - नये - नये प्रकाषक बने हो, ऐसी पुस्तकें छापो जिससे कुछ पूँजी बने, फिर सोचना ।' यह सलाह केदारजी ने अपने अनुभव से दी थी। इस समय तक उनकी तीन पुस्तकें 'युग की गंगा', 'नींद के बादल' तथा 'लोक और आलोक' छप चुकी थीं और उन्हें कविता -पुस्तकों की बिक्री की दुर्दषा का ज्ञान हो चुका था। केदारजी का पत्र पढ़कर सहायजी को बड़ा विचित्र लगा कि कहाँ तो लोग छपास की भूख से पीड़ित हैं और केदारजी हैं कि खुद मना कर रहे हैं। उन्हें लगा कि यह कवि किसी दूसरी माटी का बना है। यह सोचकर सहायजी ने तय कर लिया कि जैसे भी हो इस कवि को छापना ही है।
संयोग से सन् 1964 में उन्हें व्यावसायिक काम से बाँदा जाना पड़ा। केदारजी से मिले। यह उनकी पहली मुलाकात थी। सहायजी ने उनसे कविता सुनाने का आग्रह किया, बड़ी मुष्किल से केदारजी ने आग्रह स्वीकार किया और कविताएँ सुनाईं। कविताएँ सुनने के दौरान सहायजी को लगा कि इन कविताओं को समझने के लिए किसी खास विद्वत्ता की ज़रूरत नहीं है। ये कविताएँ तो सामान्य लोगों के लिए उन्हीं की बोली-बानी में लिखी कविताएँ हैं - सहज और सुन्दर। रात के नौ बजे काव्य-पाठ बन्द करते हुए केदारजी ने - 'अब खाना खा लिया जाय' कहकर अन्दर भोजन की व्यवस्था करने चले गये। तीन डायरियाँ जिनसे कविताएँ सुनाई गयी थीं - बगल की मेज पर रख दी गयी थीं। सहायजी उठे और चुपके से डायरियाँ अपने ब्रीफकेस में रखलीं।
खाना खाकर चलने लगे तो बताया कि ''बाबूजी मैं आपकी तीनों डायरियाँ ले जा रहा हूँ । अब ये आपको छपने के बाद ही मिलेंगी ।' केदारजी ने चौंककर मेज की ओर देखा डायरियाँ गायब थीं। केदारजी ने फिर अपने पत्र वाली बात दुहराई पर सहायजी कहाँ मानने वाले थे। इन्हीं डायरियों और पूर्व प्रकाषित तीनों संकलनों से चुनी हुई कविताओं का संकलन 'फूल नहीं रंग बोलते है' सन् 1965 में केवल प्रकाषित ही नहीं किया, वरन् बड़े धूम-धाम से 10 अक्टूबर 1965, को उसका प्रकाषनोत्सव भी मनाया। केदारजी इससे बहुत आह्लादित हुए। उन्होंने तुरंत रामविलासजी को कविता में एक पत्र लिखा -
'बाँदा
13.10.65
रात 11 बजे
प्रिय डाक्टर
पाई चिट्ठी। हुआ प्रसन्न / तुमने तोड़ा मौन / मैंने खाई खीर / स्वाद बन गया / वक्ष तन गया / गया इलाहाबाद / पुस्तक देखी / ऑंखें चमकीं / बहुत समय पर मेरी कविता बाहर आयी / छपने पर वह और हो गयी / सब को भायी / समारोह भी रहा सुहाना / सबने मुझको, मैंने सबको जाना / मन गाता था गाना / मैं पहने था माला / चलता था चौताला / लेख पढ़े लोगों ने डटकर / सबने काव्य सराहा / पंत महादेवी के भाशण्ा भाव भरे थे / दास हुलास भरे थे / अमरित ने अमरित बरसाया - / अब फिर बाँदा-/ वही कचहरी- वही वकालत -/ वही कटाकट ।
षेश कुषल है / मैं केदार तुम्हारा
(मित्र संवाद -भाग-2 पृ0 57, सं. रामविलास षर्मा, अशोक त्रिपाठी, साहित्य भंडार, इलाहाबाद, संस्क. 2010)
इसके बाद तो केदारजी का समस्त साहित्य परिमल प्रकाषन से ही प्रकाषित हुआ। इस संकलन की व्यापक चर्चा हुई। षमषेरजी ने इस संकलन की एक लम्बी समीक्षा लिखी जो नामवरजी ने आलोचना में छापी। इस समीक्षा के जरिये षमषेर जी ने केदारजी पर 'रूपवादी' होने जैसे आरोपों का तर्कसम्मत ढंग से ज़ोरदार खंडन किया और उनकी कविताओं को पढ़ने और समझने की एक नयी दृश्टि दी। वह समीक्षा आज भी मील का पत्थर मानी जाती है।
केदारजी की जब प्रसिध्दि बढ़ी तो दिल्ली के नामी गिरामी प्रकाषकों ने उनसे उनके कविता संकलन छापने के प्रस्ताव भेजे। केदारजी ने सबको मना कर दिया, हालाँकि इससे घाटा केदारजी को हुआ। दिल्ली से प्रकाषित होने पर पैसा और प्रसिध्दि दोनों मिलती , पर केदारजी अवसरवादी नहीं थे। उनका कहना था जब कोई दूसरा उन्हें छापने को तैयार नहीं था तब षिवकुमार सहाय ने जोखिम उठाकर उन्हें छापा, इसलिए नैतिकता यही कहती है कि जब षिवकुमार सहाय मुझे छापने से मना कर दें तभी मैं दूसरों को अपनी पुस्तकें दूँ ।
केदारजी ने साहित्य और जीविका को कभी गड्डमड्ड नहीं होने दिया। साहित्य उनके लिए मिषन था - वकालत उनकी जीविका थी। उन जैसे साधारण जीवन जीने वाले के लिए वकालत पर्याप्त थी ।
अब षिवकुमार जी इस दुनिया में नहीं हैं। लेकिन उनकी विरासत - केदार साहित्य - अभी भी इलाहाबाद में ही है। उनके छोटे भाई जैसे मित्र श्री सतीषचन्द्र अग्रवाल ने अपने प्रकाषन संस्थान - 'सहित्य भंडार' से केदारजी का समस्त साहित्य नये कलेवर के साथ पुन: प्रकाषित किया।
केदारजी को अपनी धरती और अपने लोगों से बेहद लगाव था। बाँदा की काली मिट्टी से लेकर टुनटुनिया पहाड़ तक, केन नदी से गर्रानाला तक, चन्द्रगहना बाग से गुम्मा ईंट तक चित्रकूट के बौड़म यात्रियों से मुल्लो अहिरिन तक, अभियुक्त नं. 110 से लेकर कानपुर के मज़दूरों तक, गुलाब से लेकर नीम के फूल तक, फसलों, पेड़ों हवाओं और मौसमों से लेकर किसानों, मल्लाहों, मुदर्रिसों, क्लर्कों तक - अपने परिवेष की प्रत्येक वस्तु से लेकर जनजीवन तक केदारजी का ऐसा गहरा जुड़ाव था कि बाँदा और केदार एक दूसरे की पहचान और एक दूसरे के पर्याय बन गये। केदारजी ने बाँदा को अपनी रग-रग में पैबस्त कर लिया था। पर उनका बाँदा प्रेम किसी संकीर्णता की उपज नहीं है। कभी-कभी वह अपने बेटे अशोककुमार अग्रवाल के पास मद्रास भी जाते थे। उन्होंने मद्रास पर बहुत सी कविताएँ लिखी हैं। राश्ट्रीय अंतर्राश्ट्रीय घटना चक्रों पर कविताएँ लिखी हैं। 1965 में जब वेलिन्तीना तेरेष्कोवा चाँद पर गयी तो केदारजी ने मनुश्य की इस विजय यात्रा को इन षब्दों में बाँधा - 'इकला चाँद असंख्यों तारे / नील गगन के / खुले किंवारे / कोई हमको कहीं पुकारे / हम आएँगें बाँह पसारे।'
केदारजी पेषे से वकील थे, पर उन्होंने कभी अपने पेषे को अपने मिषन में बाधक नहीं माना जैसा कि अमूमन लोग कहते हैं। इसके बरक्स वे वकालत के षुक्रगुज़ार हैं कि वकालत ने ही उन्हें विष्लेशण करने और आदमी को और उसके अंतर्विरोधों को समझने का गुर सिखाया, वरना औरों की तरह वह भी नकली आदमी को चित्रित करते रहते और अपने अहं में कैद होते। वकालत और माक्र्सवाद इन्हीं दोनों ने उनके चिंतन और उनकी जीवन धारा को पैना बनाया और वह खुद भी सच्चे अर्थों में मनुश्य बन सके और मनुश्यता की खोज करते रहे। वकालत में आने का श्रेय उनके चाचा मुकुंदलाल अग्रवाल को है और माक्र्सवाद से परिचय कराने का श्रेय वे अपने अभिन्न सखा डॉ. रामविलास षर्मा को देते हैं। 1938 में जब वह वकालत के लिए बाँदा आये और माक्र्स का ऐतिहासिक द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद पढ़ा तो ईष्वर के प्रति उनका विष्वास खत्म हो गया और उन्होंने अपनी जनेऊ तोड़कर फेंक दी। हालाँकि वे कभी भी किसी राजनीतिक पार्टी के रजिस्टर्ड मेम्बर नहीं रहे - कम्युनिस्ट पार्टी के भी नहीं। लेकिन माक्र्सवाद के प्रति जो समर्पित, प्राणवंत कर्ममुखी, ऊर्ध्वचेता आस्था उनमें प्रारम्भ से थी वह अंत तक कायम रही - उसमें कोई दरार नहीं आई - सोवियत संघ के टूटने के बावजूद।
सन 30-31 से लेकर 1995 का समय उनकी कविताओं में कैद है। पर कविताएँ समय-सीमा में कैद नहीं हैं। वे कालजयी हैं।
केदारजी अपने पास आए हर एक 'पत्र का जवाब देते थे और जवाब देने वाले पत्र पर जवाब देने की तारीख ज़रूर लिखते थे अपने हस्ताक्षर के साथ।
अपने मित्रों पर, कवियों पर - बाल्मीकि से लेकर गोरख पाण्डेय तक - जितनी कविताएँ केदारजी ने लिखी हैं षायद ही किसी ने लिखी होंगी। सबसे अधिक कविताएँ निराला पर हैं। रामविलासजी लिखते हैं - 'बहुतों ने' निराला पर लिखा है। दूसरे कवियों ने निराला को दूर से देखा है, केदार ने उनसे तादात्म्य स्थापित किया है। निराला मरकर भी केदार की कविता में अमर हैं। (प्रगतिषील काव्यधारा और केदारनाथ अग्रवाल, पृ. 52 साहित्य भंडार इलाहाबाद, संस्करण 2011) 'वह तोड़ती पत्थर' की परम्परा केदार और नागार्जुन की रचनाओं में विकसित हुई है। (वही पृ. 47) इसके बावजूद 'वर्तमान साहित्य' का जब वृहद् कविता विषेशांक निकलता है और निराला पर दूसरे कवियों की रचनाएँ छपती हैं तो केदारजी की निराला पर लिखी कविताएँ अनदेखी रह जाती हैं। कारण साहित्यिक गुटबाजी भी हो सकती है और अनभिज्ञता भी। मुझे दूसरे कारण पर ज्यादा यकीन है।
अपने मित्र कवियों - षमषेर, नागार्जुन और त्रिलोचन - में सबसे कम चर्चा केदारजी की हुई है। इसके कुछ गैर साहित्यिक कारण हैं - साहित्यिक नहीं। उनका साहित्य इन तीनों में से किसी से भी कमतर हो, ऐसा नहीं है।
केदारजी का साहित्य इलाहाबाद के एक छोटे प्रकाषक (व्यावसायिकता की दृश्टि से) से छपा था। केदार-साहित्य या तो सरकारी खरीद के बूते पर प्रचारित-प्रसारित हुआ या फिर सहायजी द्वारा भेंट स्वरूप दी गयी कृतियों के माध्यम से। परिमल प्रकाषन के पास कोई प्रचार-प्रसार-तंत्र नहीं था। उनकी पुस्तकें उनके अतिरिक्त और कहीं उपलब्ध नहीं थीं। थोड़ी बहुत बिक्री कुछ पुस्तक मेलों में हो जाती थी। व्यापक पाठक समुदाय तक पुस्तकें पहुँचे ऐसा कोई तंत्र परिमल प्रकाषन के पास नहीं था। इसका खामियाज़ा हिन्दी-संसार और कवि दोनों को भुगतना पड़ा - प्रकारान्तर से प्रकाषक को भी।
केदारजी आजीवन बाँदा में रहे। कभी-कभार नाते रिष्तेदारों के यहाँ किसी व्यक्तिगत यात्रा पर या किसी दबाव में कुछ साहित्यिक गोश्ठियों या समारोहों में गये तो गये, अन्यथा मुवक्किलों के प्रति ईमानदार भूमिका निभाते हुए वकालत में लगे रहे - बाँदा से बाहर बहुत कम गये। इसके बरक्स नागार्जुनजी लगातार यात्रा पर रहते थे - 'यात्री' उनका तखल्लुस ही हो गया था। हाट-बाज़ारों में अपनी पुस्तकों की बिक्री से लेकर सरकारी खरीद तक की दौड़ धूप उनकी ज़रूरत थी। उनके ये प्रयास ख़बर बनते थे, चर्चा होती थी। रोज़ी रोटी और ज्ञान की तलाष में देष-विदेष की खाक छानी। देष के विभिन्न हिस्सों में अपने मित्रों-साहित्य-प्रेमियों के यहाँ जाते रहते थे और लम्बे समय तक प्रवास भी करते थे - सभा-गोश्ठियाँ होती थीं-समाचार प्रचारित-प्रसारित होते थे। नागार्जुनजी कवि सम्मेलनों में भी षिरकत करते थे - राजनीतिक मजमों में भी हिस्सा लेते थे - आन्दोलनों की अगुआई करते थे। उनकी जीवन-षैली भी उनके चर्चा में बने रहने में मदद करती थी। नागार्जुन कब कहाँ होंगे - इसका पता षायद उन्हें भी नहीं रहता रहा होगा। नागार्जुन के पत्रों में अलग-अलग स्थानों के जितने पते होंगे - षायद ही किसी कवि के उतने पते होंगे - तभी तो केदारजी ने 'मित्र संवाद' में संकलित अपने एक पत्र में लिखा था - 'नागार्जुन हिन्दुस्तान का नक्षा हो गये हैं। हर प्रदेष के अंक में हिल रहे हैं। 'कुछ पत्र-पत्रिकाओं का संपादन-प्रकाषन भी किया। ये सब मिलकर नागार्जुन को लगातार सुर्खियों में बनाये रखते थे। उनके सुर्खियों में बने रहने से उनके साहित्य को भी चर्चा में बने रहने में मदद मिली है। नागार्जुन अपने साहित्य के कारण कम अपनी साहित्येतर गतिविधियों के कारण चर्चा में अधिक रहे।
षमषेरजी भी नागार्जुनजी इतना तो नहीं पर हाँ केदारजी की तुलना में परिस्थितिवष' घुमक्कड़' कहे जा सकते हैं। पार्टी में सक्रियता, 'नया पथ' और ' जनयुग' के सम्पादन में सहयोग आदि उन्हें लगातार चर्चा में बने रहने में मददगार रहे हैं॥ षमषेरजी के जीवन का संघर्श और कुछ दूसरी गतिविधियों को भी इसमें षामिल किया जा सकता है।
त्रिलोचनजी भी इसी परिपाटी के पथिक थे। इन तीनों की तुलना में केदारजी बाँदा में ही सिमटे रहे। केदारजी की जो भी चर्चा हुई और हो रही है, वह सिर्फ और सिर्फ साहित्यिक कारणाें से हैं। जबकि षेश तीनों मित्रों की चर्चा गैर साहित्यिक कारणों से ज्यादा है। यह सच्चाई मैं केदारजी के तीनों कवि-मित्रों के प्रति, उनकी रचनात्मकता के प्रति पूरे सम्मान के भाव से, कह रहा हूँ ।
केदारजी इतने अचर्चित रहे हैं कि साहित्यिक अकादमियों और संस्थानों को उनकी कभी याद ही नहीं आती थी, कि वह भी कुछ मान्यता लायक लिख रहे है। भला हो 1986 में बाँदा में सम्पन्न दो दिवसीय 'सम्मान : केदारनाथ अग्रवाल' समरोह का, जिसकी चर्चा से, दबाव में आकर साहित्य अकादमी को लगा कि उन्हें बिसारने का जो अपराध उसने अभी तक किया है उसे सुधारना अनिवार्य है और फिर आनन फानन में उसी साल 'अपूर्वा' पर उन्हें 'साहित्य अकादमी' पुरस्कार मिला। म.प्र. साहित्य परिशद का 'तुलसी' और 'मैथिलीषरण गुप्त' सम्मान भी इसी के बाद मिला। हिन्दी साहित्य सम्मेलन की मानद उपाधि - 'साहित्य वाचस्पति' तथा बुंदेलखण्ड विष्वविद्यालय की मानद उपाधि ' डी.लिट्.' भी इसी के बाद मिली। केदारजी सचमुच में साहित्य की एकान्त साधना में लीन रहे।
् 2010-2011 केदारजी सहित हिन्दी के कई कवियों-लेखकों का जन्मषती वर्श है। हिन्दी का एक साहित्यिक गिरोह अपने को स्मृति-भंष का षिकार सिध्द करने पर अमादा है। गीता में कहा गया है 'स्मृति भंषात् बुध्दिनाषो, बुध्दिनाषो विनष्यति'। कुछ लोग उन्हें याद दिलाने की कोषिष भी कर रहे हैं, पर उन्हें कुछ याद नहीं आ रहा है। (अखिलेष : संपादकीय 'तद्भव' अंक 22 पृ. III, IV )। कभी जिसकी कविता पर वे फिदा थे आज उसे कवि मानने से ही गुरेज है। राजेष जोषी का लेख 'प्रभात खबर (राँची) का दीपावली विषेशांक - 2010 तथा लीलाधर मंडलोई का लेख 'अक्सर' ( चौदह-पन्द्रह : अक्टूबर 2010 - मार्च 2011, पृ. 80) कृश्णदत्ता पालीवाल भी 'जनसत्ता' में प्रकाषित अपने लेख में इसकी चर्चा करते हैं। लेकिन किसी एक या उस एक के गिरोह के गुर्गों के विस्मरण से केदारजी विस्मृत होने वाले कवि नहीं हैं। क्योंकि केदार जनकवि है। वह घोशणा करते हैं कि-'हम लेखक हैं,/कथाकार हैं,/ हम जीवन के भाश्यकार है ।,/ हम कवि हैं जनवादी ।' (के. ना. अग्रवाल, प्रतिनिधि कविताएँ - पृ. 88) जनवादी कवि यानी जनता का कवि अमर रहता है क्योंकि -'सब देषों में सब राश्ट्रों में/षासक ही षासक मरते हैं। /षोशक ही षोशक मरते हैं।/ किसी देष या किसी राश्ट्र की कभी नहीं जनता मरती है ।'
केदारजी वैसे तो यात्रा से बचने की भरपूर कोषिष करते थे और समारोहों में जाने से कतराते थे, पर यदि किसी दबाववष हामी भर देते थे तो हर कीमत पर उसे निभाते थे। एक प्रसंग काफी होगा। प्रगतिषील लेखक संघ की पन्ना इकाई के डॉ. मकबूल अहमद को बाबूजी ने वायदा कर दिया कि वह उनके 10-11 जनवरी 1987 के आयोजन में आएँगे। बाँदा से पन्ना के लिए कोई सीधी बस या रेल सेवा नहीं है। डा.ॅ मकबूल अहमद ने इन्हें ले जाने के लिए समारोह के एक दिन पूर्व 9 जनवरी को एक मेटाडोर की व्यवस्था की क्योंकि इलाहाबाद से मुझे और सहायजी को तथा बाँदा से चन्द्रपाल कष्यप सहित एक दो और लोगों को जाना था। मैं और सहायजी 8 जनवरी की रात को ही बाँदा आ गये थे क्योंकि 9 को 11.00 बजे सबेरे ही बाँदा से रवाना होना था। डा. मकबूल जब पन्ना से निकले तभी मेटाडोर खराब हो गयी। ठीक होने के बाद बाँदा पहुँचते-पहुँचते वह फिर मचल गयी। सभी लोग तैयार होकर बाबूजी के घर पर इंतजार कर रहे थे। अपराह्न लगभग 3 बजे डॉ. मकबूल अहमद हाँफते हुए बाबूजी के घर पर आए और पूरी दास्तान बयान की। फिर मेटाडोर ठीक कराने मैकेनिक के पास चले गये। रात लगभग 11.00 बजे वह मेटाडोर ठीक कराकर आए। सब लोग मेटाडोर से चले। कुछ दूर जाकर वह फिर नखरे करने लगी। किसी तरह मंथर गति से चलती हुई वह रात के ढाई बजे नरैनी जाकर फिर अड़ गयी। हम लोग पूरी रात नरैनी में उसी मेटाडोर में बैठे रहे। रात का समय, जनवरी का महीना, तेज हवा चल रही थी, ठंड भी लग रही थी, पर बाबूजी हम सबके हँसी मजाक के बीच पूरी जिन्दादिली से अड़े रहे और अपने संकल्प पर कायम रहे। नरैनी बाँदा की वही तहसील है जिसके थोड़ा आगे करतल नामक कस्बा है। यहीं बाबूजी एक बार एक मुकदमें के सिलसिले में गये थे तो विरोधी पार्टी ने लाठियों से उन पर हमला कर दिया था। उन्हें गंभीर चोट आयी थी। लगभग 5.30 बजे सबेरे हम सब नरैनी से रवाना हो सके।
पन्ना में भी एक दूसरा वाकया हुआ जो उनकी सहज उदारता का अपना ही उदाहरण है। आयोजन के दौरान एक महिला कवयित्री ने बाबूजी को अपना एक संग्रह भेंट किया। आवास स्थल पर मैं उसे उलट-पलट कर देख रहा था कि अचानक मैं चौंक उठा - उसमें केदारजी की एक अति प्रसिध्द कविता - 'आज नदी बिल्कुल उदास थी' - कवयित्री ने अपने नाम से छाप रखी थी। मैंने सबको बताया। सहायजी बिफर गये - कहने लगे मैं इसे कानूनी नोटिस भेजूँगा - बाबूजी की कविता उसने अपने नाम से कैसे छापी। बाबूजी ने बीच में ही टाेंका - 'षिवकुमार तुम बेकार की बातें करते हो। कोई नोटिस-फोटिस नहीं भेजनी है। अरे भाई ! उसे मेरी कविता इतनी अच्छी लगी कि उसने उसे अपने नाम से छाप ली। बस जो हो गया सो हो गया-कुछ करना धरना नहीं। 'ऐसे को उदार जग माँही' ।
बाँदा की भौगोलिक स्थिति ऐसी है कि वह किसी ऐसे बड़े षहर के रास्ते में नहीं पड़ता जहाँ यातायात के साधन-रेल या बस-सहज उपलब्ध हों और लोगों का आना जाना लगा रहता हो। बाँदा जाने का मतलब है सिर्फ बाँदा जाना। इसी कारण इनके मित्रगण, षुभचिंतक चाहते हुए भी अक्सर बाँदा नहीं पहुँच पाते थे'। केदारजी इसकी षिकायत भी करते थे।
कवि प्रिया पार्वती देवी के निधन (28 जनवरी, 1986) के बाद चेतना के स्तर पर तो वह हमेषा उनके साथ रहती थीं पर भौतिक रूप से अकेलापन महसूस करते थे। समय काटना भी मुष्किल था।
मैंने 19 अप्रैल 1991 को दिल्ली में दूरदर्षन की नौकरी ज्वाइन की थी। उनके जन्मदिन के अवसर पर पहली अप्रैल या उसके आस पास तो हर वर्श बाँदा जाता ही था। बाद में मेरी पत्नी सावित्री त्रिपाठी और मैंने तय किया कि अक्टूबर के महीने में 2-3 दिन के लिए बाँदा जा कर बाबूजी के पास रहना चाहिए, ताकि कुछ दिनों के लिए तो उनका अकेलापन दूर हो सके। पहुँचने की सूचना पत्र द्वारा पहले से ही भेज देता था। बाबूजी के भतीजों के मुनीम पंडित रामसजीवन पांडे पहुँचने पर बताते थे कि मेरी चिट्ठी आने के बाद एक-एक दिन बाबूजी गिनते थे कि मैं कब बाँदा पहुँचूँगा। नौकरों को सहेजते थे कि 'महाकौषल' के समय गेट खुला रखें - सो न जायँ। क्योंकि 'महाकौषल' सबेरे के ढाई-तीन बजे बाँदा पहुँचती थी। उस समय यही इकलौती रेलसेवा दिल्ली से सीधे बाँदा के लिए थी। मैं जब सबेरे पहुँचता तो बाबूजी भोरही में जगे हुए मिलते थे - पता नहीं रात में सोते भी थे या नहीं। हमारे रहने की व्यवस्था उस कमरे में करते थे जिसमें उनकी पत्नी रहती थी। 1986 में इसी कमरे में रामविलासजी भी रूके थे। सारी व्यवस्था पहले से ही चाक चौबन्द रहती थी। उस समय रामस्वरूप उनके यहाँ काम करते थे। उनसे भी वही रिपोर्ट मिलती जो पंडितजी से मिलती थी। पूरा समय बाबूजी के साथ ही बिताने की कोषिष करता था। सिर्फ दोपहर या रात को भोजन के लिए बाहर जाता था। बाबूजी का खाना उनके एक भतीजे के यहाँ से आता था। हमारे घर परिवार के बारे में उसी तरह पूछ-ताछ करते थे जैसे कोई सरपरस्त करता है। मेरे बेटे के बारे में भी पूछते थे, जो उस समय मर्चेन्ट नेवी में षायद सेकेण्ड आफिसर थे - इस समय तो कैप्टन हैं। बाबूजी ने यूँ ही पूछा कितनी तनख्वाह मिलती है। मैंने बताया एक लाख से ऊपर। बाबूजी को चिंता हुई कि इतना अधिक पैसा कहीं उसे बिगाड़ न दे, जैसा कि अमूमन होता है। मैंने उन्हें आष्वस्त किया कि अभी तक तो ऐसा नहीं है और आगे भी ऐसा नहीं होगा, तब जाकर कहीं उनकी चिंता दूर हुई।
बाबूजी के पास फ्रिज नहीं था। गरमी में घड़े का पानी पीते थे। खाना भतीजे के घर से आता था। चाय-नाष्ते की व्यवस्था घर पर ही कर रखी थी - रामस्वरूप सुबह षाम की चाय और नाष्ता बनाते थे। नाष्ते में पोहा, दो ब्रेड, भरवा मिर्च का अचार और चाय लेते थे। मेरी पत्नी ने कहा कि बाबूजी के लिए एक छोटा सा फ्रिज़ खरीद देते हैं ताकि उन्हें दूध, फल आदि रखने में सुविधा हो जाये। हमने बडे संकोच के साथ बाबूजी के सामने यह प्रस्ताव रखा। उन्होंने तुरंत मना कर दिया। हमने बहुत कोषिष की पर वे राजी नहीं हुए। उन्होंने अपनी ज़रूरतें इतनी कम कर रखी थीं कि उन्हें इस तरह की सुविधाओं की आवष्यकता ही महसूस नहीं होती थी। मुझे रहीम का दोहा याद आया -
चाह गई, चिन्ता मिटी, मनवा बेपरवाह ।
जाको कछू न चाहिए, वे षाहन के षाह ॥
वह खुद भी अपने को 'भुक्खड़ षांहषाह' कहते थे - 'हे मेरी तुम !/ 'गठरी चोरों' की दुनिया में / मैंने गठरी नहीं चुराई:/ इसीलिए कंगाल हूँ:/ भुक्खड़ षाहंषाह हूँ :। (प्रतिनिधि कविताएँ : पृ0 137)
बाँदा से दिल्ली वापसी की भी वही गाड़ी थी - महाकौषल। वापसी में उसका समय था रात के ग्यारह-साढ़े ग्यारह बजे। हम चाहते थे कि घर से जल्दी निकल लूँ , ताकि बाबूजी की नींद खराब न हो, पर वह थे कि जल्दी निकलने नहीं देते थे। उनके घर से उनके अहाते का फाटक कोई सौ-सवा सौ गज दूर होगा। जब तक हम दोनों फाटक पार नहीं कर जाते थे, बरामदे में खड़े पनीली ऑंखों से हमे निहारते रहते थे। ऐसा केवल हमारे ही साथ नहीं था - यह उन सभी के साथ था जो उनसे मिलने आते थे। मतलब कि यह उनके सहज स्वभाव का अनिवार्य हिस्सा था। ऐसा अकुंठ स्नेहिल व्यक्तित्व था केदारजी का। सादगी, सिध्दांतप्रियता, ईमानदारी, सहजता, निस्पृहता और अपनों के प्रति सच्चे दिली सरोकार की साक्षात मिसाल थे केदारजी।
-2-
बाँदा में मैं लगभग ढाई साल रहा - केदारजी से लगभग रोज़ सम्पर्क होता रहा - लेकिन इस दौरान उनके अप्रकाषित साहित्य के उत्खनन, संकलन और प्रकाषन का कोई विचार मेरे मन में नहीं आया। 1980 में केदारजी एक समारोह में भाग लेने इलाहाबाद आए - तब तक मै बाँदा छोड़ चुका था और इलाहाबाद में रह रहा था। हिन्दुस्तानी एकेडमी में कार्यक्रम था - कार्यक्रम सम्पन्न होने के बाद मैं केदारजी के साथ उनके प्रकाषक षिवकुमार सहाय के कर्नलगंज वाले आवास पर गया। केदारजी के जरिये सहायजी से परिचय हुआ। धीरे-धीरे यह परिचय निकटता में बदलता गया। 11, 12, 13 सितम्बर 1981 को म. प्र. प्रगति. ले. संघ ने -'महत्व केदारनाथ अग्रवाल' षीर्शक से एक आयोजन किया था। मैं भी आमंत्रित था। उसी यात्रा के दौरान उनके अब तक के अप्रकाषित साहित्य को प्रकाषित करने की योजना बनी। (तफसील के लिए 'कहें केदार खरी-खरी' - सं. अशोक त्रिपाठी, साहित्य भंडार, इलाहाबाद संस्क. 2009 की 'कैफियत' षीर्शक भूमिका देखें। )
इलाहाबाद में आयोजित सन् 1965 में 'फूल नहीं रंग बोलते हैं' के प्रकाषनोत्सव के 26 वर्श बाद केदारजी पर केन्द्रित तब तक का यह सबसे महत्वपूर्ण आयोजन था। इसमें नागार्जुन, षमषेर, त्रिलोचन, डाँ विष्वनाथ त्रिपाठी, केदारनाथ सिंह, अशोक वाजपेयी, षील समेत प्र. प्र. के सभी रचनाकार-आलोचक तथा म.प्र. के बाहर के अन्य लेखक गणों ने केदारजी की कविता पर तीन दिन तक लम्बी बहस की। इसका पूरा ब्यौरा 'जिऊँगा जिंदगी अभी और अभी और' के नाम से पुस्तकाकार प्रकाषित भी हुआ है ।
इसी आयोजन के दौरान संभवत: राजेष जोषी के घर पर धनंजय वर्मा, भगवत रावत, कमला प्रसाद, राजेष जोषी और अशोक वाजपेयी आदि ने केदारजी से एक लम्बी बातचीत रिकॉर्ड की थी। इसी कार्यक्रम में संभवत: पहली बार, केदारजी आत्मविष्वास से लवरेज़, खुलकर अपनी रचना -प्रक्रिया, अपने परिवेष और अपनी कविताओं की चर्चा की। खूब कविताएँ भी सुनाईं। इसी कार्यक्रम में 'कहें केदार खरी-खरी' (सं. अशोक त्रिपाठी, पहला संस्करण -1983) का बीजारोपण हुआ था। यहीं पर डॉ. विष्वनाथ त्रिपाठी ने कहा था कि केदार की कविताओं में व्यंग्य नहीं मिलता। जबकि अपने 'प्रगतिवाद' नामक लेख में नामवरजी ने लिखा था कि 'व्यंग्य दो ही कवियों ने लिखे हैं, नागार्जुन और केदार ने।' 'त्रिपाठीजी की टिप्पणी ही 'कहें केदार खरी-खरी' की बायस बनी।
मै दिसम्बर 1981 में बाँदा आया। अपने मित्र अष्विनीकुमार उपाध्याय के यहाँ डेरा डाला। क्योंकि यह प्रकाषक द्वारा या कवि द्वारा प्रायोजित यात्रा नहीं थी। सौ प्रतिषत निजी खर्चे पर निजी यात्रा थी। प्रात:काल 8.00 बजे से लेकर रात के 8.00 बजे तक अनवरत इधर-उधर बिखरी सामग्री संकलित करता - केवल दोपहर को भोजन के लिए अपने मित्र के यहाँ जाता, उस समय वे बाँदा कालेज में भौतिकी के प्रवक्ता थे। बाद में भारतीय वन सेवा में उनका चयन हो गया। यह काम पूरे एक महीने चलता रहा। जो भी सामग्री मिली उसे इलाहाबाद ले गया और फिर योजनानुसार उसका संपादन-प्रकाषन होता रहा।
1965 में 'फूल नहीं रंग बोलते हैं' के प्रकाषन से उनके मूल्यांकन में जो एक नयी ऊर्जा पैदा हुई थी कालांतर में लगभग सुप्तावस्था में चली गयी थी, हालांकि उनके संकलन कुछ कुछ अंतराल से लगातार प्रकाषित हो रहे थे। 'कहें केदार खरी खरी' के प्रकाषन से उनके पुनर्मूल्यांकन का एक नया दौर षुरू हुआ। इसमें म.प्र. प्रगतिषील लेखक संघ की अग्रणी भूमिका थी। 1986 में जब बाँदा में केदारजी का 75वां जन्म दिन व्यापक रूप से मनाया गया - 'सम्मान : केदारनाथ अग्रवाल' षीर्शक से, तो उसमें बोलते हुए रामविलासजी ने जब यह स्थापना दी कि 'केदार की कविताओं में राजनीति की निर्णायक भूमिका है' - तो कहीं-न-कहीं उनके जेहन में 'कहें केदार खरी-खरी' जरूर रही होगी। उन्होंने इसे रेखांकित भी किया है - 'कहें केदार खरी खरी' में राजनीतिक बातें बहुत साफ-साफ कही गयी हैं, इसलिए यहाँ आज़ादी से पहले और बाद की कविताओं के आपसी सम्बंध को समझने में बहुत आसानी होगी।' (प्रगतिषील काव्यधारा और केदारनाथ अग्रवाल' पृ. 31, साहित्य भंडार, इलाहाबाद सं. 2011) इसी तरह कविताओं की अंतर्वस्तु को केन्द्र में रखकर उनकी अब तक अप्रकाषित प्रेम-कविताओं का संकलन 'जमुन जल तुम' (सं. अशोक त्रिपाठी) 1984 में प्रकाषित हुआ इसमें केदारजी की प्रेम के पर्याय 'यौन क्रिया' से विकसित होता हुआ उनका प्रेम वासना का अतिक्रमण करता हुआ -रात-दिन, प्रलय-पुनर्जीवन को नकारता हुआ मौत को चुनौती देता है। इन दोनों कथ्य केन्द्रित संकलनों के बाद, रचना काल क्रम में षेश अप्रकाषित कविताओं के संकलन -'जो षिलाएँ' तोड़ते हैं,' (1986) 'बसन्त में प्रसन्न हुई पृथ्वी' (1996) तथा 'कुहकी कोयल खडे पेड़ की देह (1997) प्रकाषित हुए।
-3-
प्रगतिषील कविता के बालपन, किषोरावस्था, तरूणाई और प्रौढ़ता के साक्षी और प्रतीक श्री केदारनाथ अग्रवाल का जन्म 1 अप्रैल, 1911 को बाँदा जिले की बबेरू तहसील के कमासिन नामक ग्राम में हुआ था। उस समय कमासिन स्वयं तहसील था। सन् 1925-26 में कमासिन तहसील न रह कर गाँव और बबेरू जो पहले गाँव था, तहसील बन गया। वैसे तो हाईस्कूल के प्रमाण-पत्र में उनकी जन्मतिथि 6 जुलाई 1910 अंकित है, लेकिन कुंडली के अनुसार यह तिथि गलत है। विद्यालय में गलत तिथि लिखाने के दो कारण थे - एक तो यह कि पहली अप्रैल मूर्खों का दिन माना जाता है, दूसरा यह कि केदारजी को जब स्कूल में भरती किया जाने लगा तो ये निर्धारित उम्र से कम के थे।
केदारजी की माँ का नाम घसिट्टो देवी था, क्याेंकि एक अंधविष्वास मूलक प्रथा के अनुसार उनकी माँ को, पैदा होते ही जमीन पर घसीटा गया था, इसलिए उनका नाम घसिट्टो पड़ गया। केदारजी भी इस प्रकार की अंधविष्वासी परम्पराओं के षिकार हुए। षैषवावस्था में केदारजी को बुरी तरह चेचक निकली। पूरा षरीर फफोलों से भर गया तो उनके बाबा श्री महादेव प्रसाद दिन भर उन्हें रूई कें फाहों में लेकर घुमाया करते थे। टोटके के तौर पर उन्हें गाँव की एक पंडाइन दाई को दान दे दिया गया और फिर उन्हें उन्हीं से खरीदा गया। केदारजी दीर्घजीवी हों, इसके लिए उनके कान का एक हिस्सा भी बचपन में काट दिया गया था। उन्हें जीवित रखने के लिए इस तरह के अनेक टोटकों और मान-मनौतियों का सहारा लिया गया था। षैषवावस्था की इन घटनाओं के अलावा एक दो छोटी मोटी घटनाओं को छोड़कर उनके जीवन में कोई बहुत बड़ी उतार-चढ़ाव भरी घटनाएँ नहीं हैं। इतने महत्वपूर्ण व्यक्ति का इतना घटनाहीन जीवन देखकर आष्चर्य होता है।
बचपन से ही केदारजी को साहित्यिक और उत्सवधर्मी सम्पन्न वातावरण मिला। उनके बाबा श्री महादेवप्रसाद षहजादपुर (इलाहाबाद) निवासी थे, लेकिन अपने ससुर लाला प्रभूदास के इकलौते दामाद होने के कारण, उनके कारोबार की देख-रेख के लिए कमासिन में घरजमाई बन कर रह गये। इनके आ जाने से लाला प्रभूदास का व्यापार उन्नति करने लगा। इन्हीं लाला महादेव के पुत्र श्री हनुमानप्रसाद थे, जो केदारजी के पिता बने।
केदारजी के पिता श्री हनुमानप्रसाद षुरू से ही रसिक प्रवृत्ति के कला-प्रेमी व्यक्ति थे। उनके बचपन में एक बार मथुरा से एक रास मण्डली कमासिन आयी। उसकी रासलीला देखकर बालक हनुमानप्रसाद मण्डली के साथ जाने को मचल गये। इस स्थिति से उबरने के लिए इनके पिता लाला महादेव प्रसाद (पोद्दार) ने स्व0 पं0 रमाषंकर षुक्ल 'रसाल' के पिता पं0 कुन्जबिहारी षुक्ल की मदद से घर के सामने रामलीला का षुभारंभ कराया, जिसमें वे खुलकर भाग लेने लगे और अपनी जिद छोड़ सके। रामलीला के ही कारण ही वह साहित्य और संगीत के संपर्क में भी आए। सितार और हारमोनियम वह स्वयं बजाने लगे। गाँव के षिक्षकों की संगति में प्राचीन काव्य-संस्कार से पूरी तरह जुड़ गये। आगे चलकर उन्होंने बहुत-सी कविताएँ लिखीं। इनमें जो नश्ट होने से बच गयीं, उनका एक चुना हुआ संकलन पिता द्वारा दिये गए 'मधुरिमा' नाम से ही केदारजी ने 1985 में परिमल प्रकाषन से छपाया है, जिस पर हनुमानप्रसाद जी का कविनाम 'प्रेमयोगी मान' छपा है। मानजी ब्रजभाशा में कविता लिखते थे - कुछ काव्य-क्षेत्र में ब्रजभाशा के प्रचलन और कुछ 'रसालजी' की मैत्री के प्रभाव के कारण। आगे चलकर श्री मैथिलीषरण गुप्त और हरिऔधजी के साहित्य का अच्छा अध्ययन करने के बाद, इन्हें खड़ी बोली के संस्कार मिले। एक कब्रस्तान को साफ कर इन्होंने एक पुस्तकालय भी खोला था। बाहर से 'स्वतंत्र दैनिक', वेंकटेष्वर समाचार' 'प्रताप' तथा 'भारत' आदि अखबार आते थे। 'सरस्वती' तथा 'माधुरी' जैसी पत्रिकाएँ भी आती थीं। केषव, बिहारी, देव, पद्माकर, मतिराम, घनानंद, मैथिलीषरण गुप्त, हरिऔध, जयदेव आदि की रचनाओं के साथ भूतनाथ, चन्द्रकांता और चंद्रकांता संतति आदि जासूसी-तिलस्मी और ऐय्यारी उपन्यास भी पुस्तकालय में रखे रहते थे।
केदारजी के बचपन में इनके घर पर घी-दूध बहुत होता था। सौ-डेढ़-सौ जानवर रहते थे। कपड़े और किराना की दूकान थी। लेन-देन का व्यापार भी था। घर के लोगों की उदार प्रवृत्ति के कारण, उधारी वसूलने के लिए कभी किसी पर मुकदमा नहीं चलाया गया और न ही जोर जबर्दस्ती की गयी ।
घर के लोग हिन्दू रीति, धार्मिक परम्पराओं, रूढ़ियों और टोने-टोटकों का भरपूर पालन करते थे, लेकिन सांप्रदायिक विद्वेश नाममात्र को न था। होली, दीवाली, दषहरा, ईद, मुहर्रम पूरे गाँव में एक साथ मनाये जाते थे। हिन्दू और मुसलमान दोनों कौमें एक दूसरे के त्योहारों-जलसों में षरीक होती थीं। मुहर्रम पर ताजिए निकलने पर केदारजी के घर में लोगों को षरबत पिलाया जाता था। गाँव के आस पास के मन्दिरों और मज़ारों पर आए दिन मेले लगा करते थे। मेलों का उल्लास और उसकी बहुरंगी छटा कवि केदार के बालमन को बेहद आकर्शित करती थी। गाँव के स्कूल में भय और आतंक के बल पर पढ़ाई होती थी। पाठ याद न करने पर हरी-हरी लपलपाती सटैया (डंडी) से धुनाई होती थी, तमाचे जड़े जाते थे, मुरगा बनाया जाता, मेज के पाये के नीचे हाथ दबाने की धमकी दी जाती, जूते और लात के रूप में प्रसाद मिलता और आषीर्वाद के रूप में मिलती माँ-बहन की खालिस गालियाँ। केदारजी भी इन अनुभवों से अछूते न रहे।
जब केदारजी कक्षा तीन में थे, तो एक बार दषहरे के अवसर पर 'नगर-दर्षन' कार्यक्रम पर उन्होंने दो सवैये याद करके बड़े षौक से सुनाये। दूसरे ही दिन सबेरे स्कूल में जब, हिसाब न लगा सकने पर पं0 गिरिजादत्त ने, सवैया सुनाने को लेकर व्यंग्य कसते हुए, उनकी धुनाई की तो कविता सुनाने का षौक रफूचक्कर हो गया, जिसका असर लगभग अन्त तक रहा। वैसे भी केदारजी की याददाष्त बहुत अच्छी नहीं थी। षायद यही कारण है कि कविता पढ़ने में बहुत अच्छे कभी नहीं रहे : हमेषा औसत दर्जे के विद्यार्थी रहे : क्योंकि हमारे देष में षिक्षा का सम्बन्ध बुध्दि से नहीं याददाष्त (तोता रटंत-वृत्ति) से है।
षिक्षा-दीक्षा के ऐसे ही ग्रामीण माहौल में अधिकांष बच्चों की भाँति केदारजी भी कक्षा तीन तक पढ़े। काठ की पाटी को कालिख से रंगते, घुट्टे से घोटकर चमकाते, बोरके (दावात) की गीली खड़िया से, सेंठे की कलम से लिखते, ऊबने पर धूल में गोल दायरा बनाकर, उसमें मक्खी मारकर रखते, धूप सरक जाने का इंतजार करते, और छुट्टी होने पर 'आठ पाँच तेरा, भई छुट्टी की बेरा' चिल्लाते, पाटी, बोरका, बस्ता लटकाए, षकल को कालिख से कलूटी बनाये घर भाग जाते थे।
स्वभाव और रूचियों के विकास का क्रम बचपन में ही आरंभ होता है। दषहरे पर घर के सामने ही रामलीला होने से केदारजी की रूचि रामलीला और उसके पात्रों में उत्पन्न हुई। बहुत-से पात्र और दर्षक अपनी विषेशताओं के कारण उन्हें अंत तक याद थे। रावण का पार्ट करने वाले हनुमान सोनार, आदमी का सिर थाली में लेकर राेंगटे खड़े कर देने वाले 'घैयल' का स्वाँग दिखाने में पारंगत जादूगर पं0 सीताराम, परषुराम बनने वाले और सुपाड़ी काटते-काटते औचक में ही 'हाई जम्प' लगाने वाले छरहरी काठी के मिडिल स्कूल मास्टर 'पंडितजी', लक्ष्मण-षक्ति के दिन राम का विलाप देखकर ऑंसू बहाते दर्षक पं0 कुंजबिहारी षुक्ल ('रसाल' जी के पिता) इत्यादि। हलवाई षिवप्रसाद ने गाँव में नौटंकी की षुरुआत की थी। वह भी केदारजी की स्मृति के संगी थे। अनुश्ठान के अवसरों पर भागवत का सस्वर पाठ करने वाले 'पंडितजी' का स्वर आजीवन केदारजी के कानों में गूँजता रहा है। पारिवारिक कुलीनता के कारण केदारजी के घर के लोग, खासकर औरतें, कहीं आती जाती न थीं, इसलिए भागवत-कथा में भी आरती-चढ़ावा वगैरह औरों के हाथों भिजवा दिया जाता था। धार्मिक निश्ठा और पारिवारिक कुलीनता के द्वन्द्व में पराजय धार्मिक निश्ठा के ही हाथ आती थी!
गाँव में इस सांस्कृतिक माहौल के साथ-साथ प्राकृतिक वातावरण भी था। ढाक का जंगल पास ही था। केदारजी अक्सर जंगल में निकल जाते और हिरनों का चौकड़ी भरना देखते या रात में सियारों की 'हुऑं-हुऑं' सुनते। बाल-सुलभ खेलों - गुल्ली-डंडा, गोली, कबड्डी आदि- में रुचि स्वाभाविक थी। स्कूल के अखाडे में कसरत और कुष्ती में भी वे ज़रूर षामिल होते लेकिन घी-दूध के सेवन के प्रति उदासीन होने से इस क्षेत्र में फिसड्डी ही साबित होते। जंगल या खेल के लिए घर की चोरी से निकल जाने पर वैसे तो डाट-मार का मलाल नहीं होता था लेकिन नाते-रिष्तेदारों के सामने मार खाने पर सम्मान को ठेस लगती थी। तीन पास करके गाँव छोड़ते-छोड़ते केदारजी के चाचा श्री मुकुंदलाल इलाहाबाद से क्रिकेट, पतंग और साइकिल भी गाँव ले आये थे।
केदारजी के मन पर भेदभाव के संस्कार बचपन से ही न थे। घर में या समाज में भेदभाव के जितने भी रूप प्रकट होते, सबके विरूद्व केदार का बालमन अपने ढंग से विद्रोह करता। घर में कपड़े की दूकान थी लेकिन पहनने को सदैव मोटा कपड़ा ही मिलता। महीन और अच्छे कपड़े की साध बाबा से गिड़गिड़ाने पर भी कमासिन में पूरी न हो पायी। दूकान और लेन देन के व्यापारों से आमदनी भी भरपूर होती थी लेकिन उसमें बच्चों का कोई हिस्सा नहीं था। ननका हलवाई के यहाँ से बरफ़ी खाने के लिए केदारजी कभी-कभी गल्ले से दो-चार आने चुराकर अपना प्रतिरोध भाव व्यक्त कर देते थे। छोट-बड़े में भेदभाव इस हद तक था कि बड़ों के बाल महाबीर नाई के यहाँ अंग्रेजी कट में कटते थे और छोटों के बाल महादेउना नाई के यहाँ देसीकट में!
गाँव के अधिकांष लोग बहुत गरीब थे। उच्च या मध्यम वर्ग के लोग बहुत कम थे। केदारजी गरीब बच्चों के साथ खेलते, उनके घर आते-जाते और इस तरह एक-एक घर की गरीबी से बहुत अंतरंग रूप में परिचित होते रहे। इस परिचय का उनके बालमन पर ऐसा अमिट प्रभाव पड़ा कि बाद को जब उनका कवि प्रकट हुआ तब यह दु:ख-दर्द और संघर्श, हाड़तोड़ मेहनत, अमीरी की ओढ़ी हुई ठसक की तुलना में गरीबी की सहजता, निर्मलता आदि उनकी काविता में हजार-हजार कंठों से फूट पड़ी। 'पैतुक सम्पत्ति' उसी की बानगी पेष करती है - जब बाप मरा तो यह पाया/भूखे किसान के बेटे ने :/घर का मलबा, टूटी खटिया,/कुछ हाथ भूमि-वह भी परती/चमरौधे जूते का तल्ला,/छोटी, टूटी बुढ़िया औगी,/दरकी गोरसी, बहता हुक्का,/लोहे की पत्ती का चिमटा/कंचन सुमेरु का प्रतियोगी/द्वारे का पर्वत घूरे का,/बनिया के रुपयों का कर्जा/जो नहीं चुकाने पर चुकता/दीमक, गोजर, मच्छर, माटा-/ऐसे हजार सब सहवासी/बस यही नहीं, जो भूख मिली/सौ गुनी बाप से अधिक मिली/अब पेट खलाए फिरता है/चौड़ा मुंह बाए फिरता है/वह क्या जाने आज़ादी क्या ?/आज़ाद देष की बातें क्या ??
भेदभाव के विरुध्द केदारजी बचपन से ही प्रेमभाव के दास थे। कुर्क अमीन मुंषी रामसहाय उन्हें बहुत प्यार करते थे। उनके घर ग्रामोफोन था। वे केदारजी को गोद में उठा ले जाते, कवाब खिलाते और ग्रामोफोन सुनाते। घर की नौकरानी बतसिया कहारिन के प्रेम के कारण उन्हें अपने घर के पकवानों से अधिक बतसिया कहारिन के घर की बासी रोटी और मट्ठा रुचिकर लगता था।
सन् 1911 से '21 तक इसी वातावरण में संस्कारित, गाँव की पाठषाला की मार से त्रस्त केदारजी अंग्रेजी पढ़ने की लालसा से 1921 में रायबरेली गये। वहाँ अपने बाबा गयाप्रसाद के साथ रहकर कक्षा चार में उन्होंने बड़े मनोयोग से पढ़ना और पाठ घोटना षुरू किया। गाँव आने-जाने का सिलसिला कुछ कम होने लगा। कमासिन जाना या तो बड़े दिन की छुट्टियों में या गरमियों में ही हो पाता। रास्ता बीहड़ था, रुकते-रुकाते, इलाहाबाद होते हुए जाना पड़ता था। इलाहाबाद में ऊँचामंडी मुहल्ले में एक संबंधी के यहाँ वे रुकते थे जहाँ 'रसाल' जी के भतीजे चंद्रमौलि षुक्ल से भेंट और उन्हीं से बालपत्रिका 'षिषु' लेकर पढ़ने का मौका मिलता। 'षिषु' की कविताएँ उन्हें प्रिय लगतीं। काव्यरुचि गाँव में ही विकसित हुई थी, गद्य के प्रति विषेश रूचि केदारजी में कभी नहीं रही।
सब सुविधाएँ होने पर भी जिस मार के भय से केदारजी गाँव छोड़कर रायबरेली पढ़ने गये, उसी से फिर सामना हुआ। अंग्रेजी के खलील मास्टर सौ-सौ जुमले एक साथ ट्रांसलेषन के लिए देते और काम पूरा न करने पर, बेंत से वह धुनाई करते कि देखकर रूह काँप जाती। इसी डर से केदारजी उनका काम, घर के दरवाजे पर पड़े, एक पत्थर पर बैठकर ज़रूर पूरा करते। भूगोल मास्टर रोज तो नहीं मारते थे, लेकिन जब लड़के कई बार लगातार काम करके न ले जाते, तो उनका भी 'प्यार से बच्चों का हृदय जीत कर पढ़ाने' का आदर्ष हवा हो जाता और उसकी जगह पर खलील मास्टर का 'बिनु भय होइ न प्रीति' का सिध्दान्त आकर जम जाता। उनके बेंत का एक-एक निषान हाथ, पाँव, पीठ पर गिना जा सकता था। संस्कृत के पहलवान छाप 'मुचंडम' (यह नाम छात्रों का दिया हुआ था) पंडितजी का विष्वास पढ़ाई पर कम, बुध्दि तेज करने, स्मरण षक्ति बढ़ाने के नुस्खों पर अधिक था। बच्चों को भी वे नुस्खे बताया करते थे और रूप रटाया करते थे। न रटने पर षुध्द भारतीय मुक्के का पराक्रम दिखाया करते थे।
केदारजी को इन कक्षाओं में आनंद न आता, उन्हें 'नेचर स्टडी' और मैनुअल ट्रेनिंग' की कक्षाएँ बेहद प्रिय थीं। नेचर स्टडी की कक्षा में क्यारियाँ बनाते, आलू बोते, सब्जी लगाते, सिंचाई-गुड़ाई करते। उन्हें नरम-नरम मिट्टी बहुत अच्छी लगती। कॉपी पर पत्तियाँ चिपकाना इस कोर्स का हिस्सा था जिसने वनस्पतियों से केदारजी का घनिश्ठ परिचय कराया। मैनुअल ट्रेनिंग में कागज की नाव बनाते, रंग-बिरंगे कागजों से तरह-तरह के खिलौने बनाते। इन सब में उन्हें बहुत मजा आता।
उस समय केदारजी के निर्माण और विकास में रायबरेली की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है। जब केदारजी वहाँ पहुँचे थे, तब रायबरेली पर उर्दू जबान और मुसलमानी तहजीब का बहुत प्रभाव था। ताजिए निकलते मर्सिया पढ़े जाते, लोग रोते-पीटते सड़कों पर निकलते। केदारजी उन्हें देखते सुनते और उनकी ऑंखें गीली हो जातीं।
गरीबी और भूख का तांडव केदारजी ने यहीं देखा और समझा। किसी गिरधारी लाला की कोठी में उनके पिता लाला षिवप्रसाद की बरखी थी। षहर के भूखों को बुलाया गया - लगा साक्षात भूख ही झुंड बनाकर आ गयी है। लोग खाते तो थे ही, पूड़ियाँ, कचौड़ियाँ, मिठाइयाँ अपने-अपने कपड़ों में चुराकर भी ले जा रहे थे। भूख का भयंकर रूप एक बार वे अपने गाँव कमासिन में भी देख चुके थे - जब गाँव के भूखे लोग, इनकी बाबा के गोदाम से पुराने महुवे को पाकर कृत-कृत्य हो गये थे और बाबा की जै-जै कार करने लगे थे, लेकिन संवेदना के स्तर पर भूख भवानी का जलजला वे यहीं (रायबरेली में) महसूस कर सके।
बाढ़ को देखकर उल्लास का अनुभव भी यहीं पर केदारजी को हुआ था, जब सई नदी में बाढ़ आई थी और किले तक पानी आ गया था। यहीं उन्होंने अन्य तमाम चीजें भी पहली बार देखीं मसलन-पतंगबाजी, बटेर-बाजी, तारा देवी का सर्कस आदि। रंडियों का परिचय भी केदारजी को सबसे पहले यहीं मिला - एक बार उनके एक रिष्तेदार इन्हें लिवाकर एक घर में घुसे। वहाँ एक सारंगी वाला, एक तबला वाला तथा एक औरत थी। यह देखकर केदारजी भाग खडे हुए और सीधे उनकी पत्नी के पास पहुँचकर सारा ऑंखो देखा हाल कह सुनाया। इसके बाद उन पर जो भी बीती हो, केदारजी ने सुधि नहीं ली।
यहाँ एक दिलचस्प बाकया हुआ-सूरजपुर मुहल्ले के हनुमान मंदिर में केदारजी और इनके साथी परीक्षा पास करके प्रसाद चढ़ाने जाते तो वहाँ का पुजारी बरफी सब निकाल लेता और केवल बताषा छोड़ देता। एक बार इन लोगों ने सलाह करके दोनों के निचले हिस्से में बरफी रखी और ऊपर बताषा रखा। बेचारा पुजारी इनकी चाल नहीं समझ सका, ऊपर के बताषे ही पा सका। मंदिर से निकलते ही, अपनी इस चाल की सफलता पर सब लोग ठहाका मार कर हँसे और खूब बरफी खाई।
यहीं पर केदारजी को अपना काम खुद करने की ज़रूरत और आदत पड़ी। अपना कपड़ा वे खुद, अपने बाबा की ससुराल की कोठी के कुएँ पर अपने हाथ से पानी खींचकर, उन्हीं के साबुन से, बिना उनसे पूछे, उसे अपना ही समझकर, साफ करते। धोबी के यहाँ, जहाँ तक उन्हें याद है, कपड़े कभी नहीं धुलाए। किसी की मदद के बगैर अपना काम अपने हाथ से करने की यह आदत अन्त तक बनी रही और उनकी यही आदत उनकी मौत का कारण बनी।
यहीं पर केदारजी ने पहले पहल औरतों की चिटिठयाँ लिखने का काम किया और उनके तमाम अनबूझ पक्षों को जानने समझने का अवसर मिला। वे यह जान सके कि सिर्फ अौरत ही मर्द के लिए नहीं होती, मर्द भी औरत के लिए होता है। और तभी से अपने गाँव की हृश्ट-पुश्ट सुनदी और ननकी जैसी पनिहारिनों को अपने-अपने सिर पर पानी से भरे दो-दो तीन-तीन पीतल के हंडे रखे, काँख में गगरा दबाए, एक हाथ में घड़ा लटकाए, एक साथ लेकर, बलखाते चलता देखकर, केदारजी मतिराम, देव, पद्माकर, बिहारी के छंदों से प्राप्त नारी सौंदर्य की भावना को साक्षात अनुभव कर सके।
इसी बीच केदारजी के पिता घर से रुश्ट होकर पत्नी के साथ कटनी (म.प्र.) चले गये। केदारजी की छठी से आगे की षिक्षा वहीं षुरू हुई। यहीं रामेष्वर षुक्ल 'अंचल' के पिता पं0 मातादीन षुक्ल से परिचय हुआ जो उनके पिता के मित्र थे और बाद में 'माधुरी' के संपादकीय विभाग में चले गये थे। उन सबकी बातचीत सुनकर केदारजी को भी कविता-कहानी लिखने का चाव हुआ। उन्होंने 'चूहे का ब्याह' तथा चिड़िया आदि पर कविता-कहानी लिखी, लेकिन 'षिषु' से अप्रकाषित वापस चली आयीं, फिर भी केदारजी निराष होने की बजाय प्रसन्न ही हुए। कटनी में ही रहते हुए उनका ब्याह भी हो गया। षादी के समय वे सातवीें कक्षा के छात्र थे।
कटनी में एक साल रहने के बाद ये अपने पिताजी के साथ जबलपुर चले गये। इनके पिता व्यवसाय के रूप में वैद्यकी करते और रुचि के अनुसार काव्य-चचर्ां और काव्य-रचना में समय देते। जबलपुर में उस समय अच्छा साहित्यिक वातावरण्ा था। मिलौनीगंज मुहल्ले के एक बाग में पं0 गंगाविश्णु पाण्डेय, व्यौहार राजेन्द्र सिंह, पं0 कामताप्रसाद गुरू, पं0 प्रेमनारायण त्रिपाठी, मंगलप्रसाद विष्वकर्मा, गुलाबप्रसन्न षाखाल, तथा केदारजी के पिताजी आदि इकट्ठा होते और साहित्य चर्चा होती, समस्यापूर्तियाँ होतीं। केदारजी भी जाते थे। सबसे पहले उन्होंने सुभद्राकुमारी चौहान को जबलपुर में देखा था। इस गोश्ठी में सबको कविता पाठ करते देखकर केदारजी को भी कविता सुनाने का षौक लगा और उन्होंने अपने पिता की एक रचना (समस्यापूर्ति 'तेग षिवराज की') पं0 कामताप्रसाद गुरू की गोद में बैठकर सुनाई, हालाँकि सुनाने में सारी दुर्गति हो गयी थी।
यहीं पर केदारजी ने निराला-विरोध का स्वर सुना। निरालाजी द्वारा संपादित 'मतवाला' पढ़ा और देखा। उस समय कविता में ब्रजभाशा का ही बोलबाला था। खड़ी बोली की रचनाएँ भी हो रही थीं, लेकिन बुजुर्गों के विरोध और उनके दबदबे के कारण उभर नहीं पा रही थीं। ऐसे में निरालाजी का छंदों के बंधन से कविता को मुक्त कराना भला पुराने लोगों को क्यों कर रुचिकर लगता, इसलिये निराला के मुक्त छन्दों को लेकर तरह-तरह के व्यंग्य कसे जाते। केदारजी को ये व्यंग्य, उस समय मजेदार लगते। लेकिन, एक बात उन्हें आष्चर्यचकित करती कि पुराने लोग भी निराला की कविताएँ पढ़ते ज़रूर थे। यहीं पर गुलाबप्रसन्न षाखाल, जो आगे चलकर सेठ गोविन्ददास के सेक्रेटरी हो गए थे, केदारजी को निराला द्वारा संपादित -''रवीन्द्र कविता कानन'' पढ़कर सुनाया करते थे। बाद में केदारजी जब षिक्षा प्राप्त करने हेतु कानपुर में रह रहे थे, तो यह उनसे मिलने कानपुर भी गये थे।
सन् 1927 में आठवीं कक्षा पास करने के बाद, केदारजी अपने पिताजी के साथ इलाहाबाद आए और लाए ब्रजभाशा और निराला-विरोध का संस्कार। केदारजी इलाहाबाद में ईविंग क्रिष्चियन कालेज में नवीं में दाखिल हुए, ननिहाल नैनी में थी, वहीं रहने लगे। पिता अपने मित्र 'रसालजी' के पड़ोस में ऊँचामंडी में रहते थे। रसालजी द्वारा स्थापित 'रसिक-मंडल' में कवित्ता-सवैया और समस्यापूर्ति वाले ब्रजभाशा के कवि आते थे। इन्हीं दिनों रत्नाकरजी ने ''उध्दव षतक'' लिखा था। 'रसाल' जी उसकी भूमिका लिख रहे थे। हरिऔधजी, ठाकुर गोपालषरण सिंह, पं0 नाथूराम षर्मा 'षंकर' आदि से उनकी यहीं भेंट होती थी। केदारजी इन गोश्ठियों के असर से ब्रजभाशा की ओर झुके । नवीं कक्षा में हीं पं0 माखनलाल चतुर्वेदी की मालिन वाली कविता के वज़न पर तोते पर लिखी केदारजी की एक कविता 'सेवा' में छपी। 'सरस्वती' के माध्यम से यहाँ खड़ी बोली काव्य से भी केदारजी का परिचय स्थापित हुआ। यहाँ न सिर्फ उनका साहित्यिक समाज विस्तृत हुआ, बल्कि विभिन्न धाराओं के साहित्य से व्यक्तिगत परिचय भी बढ़ा।
कक्षा 9 तक केदारजी हरदम हँसते रहते थे लेकिन आगे चलकर 10वीं में गौना होने और कविता के प्रति गंभीर होने के बाद उनके स्वभाव में भी गंभीरता आ गयी। दसवीं कक्षा में केदारजी मामा का घर छोड़कर ईविंग क्रिष्चियन कालेज के हॉस्टल में आ गये। पं0 केषवप्रसाद पाठक से उनकी यहीं मुलाकात हुई। वह उस समय इण्टर के द्वितीय वर्श में थे। इस समय केदारजी विद्यार्थी और पति की दुहरी जिम्मेदारी सँभाल रहे थे। केदारजी को पत्नी का अगाध प्रेम मिला। वे जब इण्टर में थे तभी उन्हें एक कन्या-रत्न की प्राप्ति हुई।
इण्टर तक आते-आते केदारजी कवित्ता सवैये लिखने लगे थे और 'सेवा' तथा कालेज मैगज़ीन में छपने भी लगे थे। 'उमर खय्याम' की रुबाइ्रयों का फिटजेराल्ड ने 'गोल्डेन ट्रेजडी' नाम से अनुवाद किया था। उसके कुछ छन्दों का हिन्दी अनुवाद केदारजी ने भी किया, जो कालेज मैगज़ीन में छपा और प्रषंसित भी हुआ। काव्य के प्रति उत्साहित काने में इनके हिन्दी प्राध्यापक और 'प्रसाद की नाटयकला' (सन् 1931 ई0) जैसी चर्चित कृति के लेखक पं0 रामकृश्ण 'षिलीमुख' का विषेश योगदान है, तो राजनीतिक चेतना जागृत करने में भूगोल के मास्टर पं0 रामनारायण का जो 'भूगोल' नाम का अखबार निकालते थे और गाँधीजी से प्रभावित होकर, गाँव-गाँव काँग्रेस का झंडा उठाये घूमते थे। यह बड़े सख्त अध्यापक थे। इनके सामने पतलून पहनने की हिम्मत नहीं पड़ती थी। केदारजी इनके साथ गाँव-गाँव घूमा करते थे। इण्टर तक आते-आते केदारजी खड़ी बोली और ब्रजभाशा के संधि-स्थल पर खड़े थे। हरिऔध के 'प्रिय प्रवास' के छन्दों के प्रवाह में ब्रजभाशा का मोह अभी बहने को ही था कि पंतजी का 'पल्लव' (सचित्र) इण्डियन प्रेस से निकला। केदारजी ने कालेज पुस्तकालय से उसे लेकर पढ़ा तो रहा-सहा मोह भी बह गया। उन्हें 'पल्लव' की कविताओं में ब्रजभाशा की मिठास मिली। वे खड़ी बोली के हो गये और खड़ी बोली उनकी हो गयी। इण्टर में ही सबसे पहले केदारजी ने हिन्दू हॉस्टल (इलाहाबाद विष्वविद्यालय) की एक गोश्ठी में पंतजी को देखा। हरिऔध जी अध्यक्षता कर रहे थे। पंतजी को देखकर केदारजी ने उन्हें 'सुन्दर युवती' कहा, तो रसालजी ने कहा 'अबे, ये पंत हैं, युवती नहीं। '' इण्टर में ही केदारजी ने अपने कालेज के 'टूकर' हाल में निरालाजी के दर्षन किये, लेकिन उस समय निरालाजी इन्हें आकर्शित नहीं कर सके। इस समय केदारजी 'बालेंदु' नाम से गीत लिखते थे, जो 'माधुरी' में और कभी-कभी 'सरस्वती' में छपते थे। 1930 में 'माधुरी' में उनकी तस्वीर के साथ कविता छपी। बाद में दो गीत कवर पर भी छपे थे। ''धीरे उठाओ मेरी पालकी'' गीत सबसे पहले 'माधुरी' में ही छपा था। बी0 ए0 में आने तक नये कवियों में वे स्वीकार किये जाने लगे थे। इलाहाबाद विष्वविद्यालय में ही नरेन्द्र षर्मा और षमषेर से उनका परिचय हुआ, ये सब एक ही क्लास में थे। बाँदा वासी कवि कथाकार ठा0 वीरेष्वर सिंह एम0 ए0 के छात्र थे। सभी लोग हिंदू हॉस्टल में रहते थे। केदारजी कमरा नं0 114 में रहते थे। नाटककार भुवनेष्वर से भी उनकी मुलाकात यहीं हुई थी। इलाहाबाद उन दिनों साहित्यिक गतिविधियों का केन्द्र था। विभिन्न प्रकार की गोश्ठियों में विभिन्न प्रकार के लेखकों से संपर्क का मौका नये से नये रचनाकार को मिलता था। रामकुमार वर्मा के घर एक गोश्ठी में केदारजी ने मालवीयजी की उपस्थिति में 'गुल्लाला' वाली कविता सुनायी थी।
गोश्ठी में कविता सुनाना और प्रषंसित हो जाना तो केदारजी के लिए संभव था लेकिन कवि-सम्मेलनों में वे साँसत अनुभव करते थे। बनारस में युनिवर्सिटी में आयोजित एक कवि-सम्मेलन में वे नरेन्द्र-षमषेर-बच्चन के साथ गये थे - वहाँ प्रसादजी भी थे। केदारजी तो किसी तरह एक कविता सुनाकर झटपट बैठ गये, लेकिन बच्चन जी खूब जमे। केदारजी को यह देखकर बड़ा अचंभा हुआ। बाराबंकी में अंचलजी द्वारा आमंत्रित कवि-सम्मेलन में नाटकीय घटनाएँ हो जाने से केदारजी कविता सुनाने से बच गये तो उन्हें बड़ी रहत मिली। चालीस रूपये मिल गये, यह अतिरिक्त संतोश था ।
केदारजी पंतजी से प्रभावित थे पर उनके घर आते-जाते न थे, अलबत्ता नरेन्द्र षर्मा के साथ पंतजी ही एक बार उनके क़मरे में आये थे। बी0 ए0 के दोनों वर्शों में केदारजी 'हिन्दी साहित्य परिशद' के सचिव थे। उन्होंने अपनी गोश्ठियों में विष्वम्भर नाथ षर्मा 'कौषिक' और मुंषी प्रेमचंद जैसे लेखकों को आमंत्रित किया। कौषिकजी की उपस्थिति में केदारजी ने 'बज्र की छाती' नामक कहानी और प्रेमचन्द की उपस्थिति में वीरेष्वर सिंह ने 'उँगली का घाव' कहानी सुनाई थी। नरेन्द्र-षमषेर से उनकी मित्रता इन वर्शो में गाढ़ी होती गयी। केदारजी बताते हैं कि षमषेर नरेन्द्र को इतना चाहते थे कि उनकी पेंटिग्स में पुरुश चेहरा सदैव नरेन्द्र का ही रहता था। षमषेर ने अंग्रेज़ी कवियों से केदार का परिचय कराया। केदारजी को कीट्स का आकर्शण था, षेली से उनकी पसंद मेल न खाती थी। डॉ0 रामविलास षर्मा से मैत्री होने पर यह पसंद और दृढ़ हुई। उनकी रुचियों के इस विकास में धीरे-धीेरे पंतजी का जादू भी कम होता गया , निराला से उनका प्रेम बढ़ता गया।
षमषेर की एक आदत केदारजी को इतनी प्रिय थी कि उसे उन्होंने अपना लिया। षमषेर न दूसरे की निंदा-स्तुति में पड़ते थे, न खुद दूसरों की निंदा-स्तुति की परवाह करते थे। वे अपने में मुग्ध अपना काम करते जाते थे।
केदारजी की साहित्यिक व्यस्तता इतनी बढ़ी की वे 1934 में बी0 ए0 फाइनल में अंग्रेजी-प्रोज़ के पेपर में फेल हो गये। 1935 में हिन्दी अंग्रेजी, दर्षनषास्त्र तथा अर्थषास्त्र लेकर उन्होंने बी0 ए0 पास किया और इलाहाबाद छोड़कर डी. ए. वी. कालेज, कानपुर चले गये। 1938 में 'लॉ' की डिग्री लेकर बाँदा लौटे और वहीं के हो रहे।
कानपुर का जीवन केदारजी के लिए बहुत महत्वपूर्ण था। मज़दूर जीवन की परिस्थितियों से और मज़दूर वर्ग की विचारधारा-माक्र्सवाद-से उनका परिचय और आत्मीयता कानपुर में ही हुई। तम्बाकू के व्यापारी कवि बालकृश्ण बलदुआ के इर्द-गिर्द प्रगतिषील विचारों और साहित्यिक संस्कारों का माहौल था। उनके संपर्क में केदार ने बहुत-सा विदेषी साहित्य भी पढ़ा। ग्रीक कवयित्री सैफो की रचनाओं से उन्हें प्रेरणा मिली कि लम्बी नहीं, छोटी कविताएँ ही लिखी जायें। संगीत समारोहों में नियमित आवागमन से षास्त्रीय संगीत की रुचि और समझ में अभिवृद्वि हुई। पं0 छैलबिहारी दीक्षित 'कंटक', डॉ0 मुषीराम षर्मा 'सोम' आदि से भी परिचय हुआ। छायावाद पर केदारजी ने यहाँ रहते हुए एक लेख लिखा जिससे उन्हें एक मेडल मिला और बालकृश्ण षर्मा 'नवीन' बहुत प्रभावित हुए। वह लेख 'माधुरी' में प्रकाषित भी हुआ।
कानपुर में ही 'वीणा' के प्रथम पृश्ठ पर उनकी कविता 'मैं क्यों प्रेम छिपाऊँ' प्रकाषित हुई।
निराला एक कवि सम्मेलन में कानपुर पधारे जहाँ केदारजी का पहली बार उनसे व्यक्तिगत संपर्क हुआ। निरालाजी केदारजी के ही कमरे में रुके थे। दोनों साथ-साथ कवि सम्मेलन में गये थे। केदारजी निरालाजी के पास लखनऊ आने-जाने लगे। निरालाजी के व्यवहार की जो छाप केदारजी पर सबसे अधिक पड़ी, वह है आतिथ्य-सत्कार। पहली बार जब केदारजी अपने दो मित्रों के साथ साइकिलों पर कानपुर से लखनऊ मिलने गये, तब महाकवि की आत्मीयता ने सबके मंत्रमुग्ध कर दिया। इन लोगों को होटल में खाना खिलाने का आदेष देकर वे पानी और झाड़ू लेकर अपने आवास की सफाई में जुट गये। लौटकर जब केदारजी ने निरालाजी को इस हाल में देखा तो सुखद आष्चर्य से भरकर उनके और मुरीद बन गये। इस समय निरालाजी नारियल वाली गली में रहते थे। निरालाजी के ही यहाँ उनका परिचय डॉ0 रामविलास षर्मा से हुआ। वे उस समय कीट्स पर थीसिस लिख रहे थे। दोनों की प्रगाढ़ मैत्री आजीवन जीवंत रही।
सन् '38 में केदारजी वकालत पास करके बाँदा आये। अपने संयुक्त परिवार के मुखिया और बाँदा के ख्यातनामा वकील मुकुंदलालजी के साथ वकालत षुरू की। उस समय उनके पास यदि पाँच सौ रूपये होते तो वे आवष्यक राषि जमा करके तभी 'एडवोकेट' बन गये होते पर मात्र पचीस रूपये जमा करके 'प्लीडर' ही बन सके। स्वाभिमान के कारण चाचा से रूपये माँगे नहीं और चाचा ने अपने आप दिये नहीं । चाचा का अनुषासन परिवार में कठोर था और कविता से उन्हें विकट चिढ़ थी। फलस्वरूप, केदारजी एक ओर रात में छिपकर कविता लिखने लगे और दूसरी ओर केन नदी के किनारे नियमित सैर करने लगे। स्वभाव भी धीेरे-धीेरे अंतर्मुखी हो गया। केन उन्हें आत्मीयता, राहत और उन्मुक्ताता देती। वह उनकी सखी बनती गयी, उनकी संवेदनाएँ केन से जुड़कर कविता में ढलने लगीं । प्रकृति के साहचर्य से केदारजी में एक नया उत्कर्श आया। चाचा की भूमिका केदारजी के लिए नकारात्मक ढंग से लाभप्रद हुई लेकिन उनके दबदबे को केदारजी का विद्रोही मन कभी स्वीकार न करता था। इसीलिए 1950 के आसपास जब बाबू मुकंदलालजी बैरिस्टर के रूप में इलाहाबाद चले गये तो उन्हें कुछ स्वतंत्रता मिली। बीच-बीच में कभी कभार वह किसी खास मुकदमें में बहस के लिए बांदा आते भी रहे। मुक्ति की यह अनुभूति 22 नवम्बर 1959 को एक कविता के रूप में प्रकट हुई - ''छाँह की छतुरी फटी / आलोक बरसा / अब मिला जिसके लिए / मैं नित्य तरसा ।''
अदालत में कवि को जीवन के कटु सत्य से और आदमी के स्वभाव के उज्ज्वल-मलिन पक्षों के एक-एक रगरेषे से साक्षात्कार करने का अवसर मिला। इन अनुभवों ने केदारजी की रचना को बहुत गहराई से प्रभावित किया।
सन् 1938 में नरेन्द्र षर्मा के साथ पंतजी ने 'रूपाभ' निकाला तो उसमें केदारजी की 'स्टैच्यू' कविता छपी जो जबलपुर के विक्टोरिया पार्क की विक्टोरिया की मूर्ति पर आधारित है। 'बसन्ती हवा' भी सबसे पहले 'रूपाभ' में ही छपी थी। सन् 38 के आसपास ही नरोत्तम नागर ने जब 'उच्छृंखल' निकाला तो उसमें भी केदारजी ने खूब लिखा। 'हंस', 'नया साहित्य', 'नया पथ', तथा 'जनयुग' आदि अनेक पत्र-पत्रिकाओं में उनके लेखों और कविताओं का प्रकाषन हुआ। केदारजी की कविता 'कामधेनु सी कांग्रेस अब सुरसा जैसे मुँह बाए हैं'- कांग्रेस के बदलते हुए जनविरोधी दमनात्मक चरित्र पर चोट करती हुई, इलाहाबाद में श्री कृश्णदास के घर पर रामविलासजी तथा अन्य मित्रों के तात्कालिक दबाव पर 'हंस' के विषेशांक के लिए लिखी गयी थी।
कविता में तो केदारजी खूब चमक रहे थे, लेकिन वकालत में जम नहीं पा रहे थे और पारिवारिक दबाव बढ़ रहा था। वकालत में सफल न हो सकने के कारण, केदारजी बहुत परेषान थे जिसका जिक्र उन्होंने अपने मित्र रामविलासजी से भी किया। ऐसे उदासी के क्षणों से उबरने के लिए उन्होंने बाबू वृन्दावनलाल वर्मा के यहाँ जाने की सलाह दी, लेकिन केदारजी पलायनवादी नहीं बने और खुद संघर्श करके स्थितियों पर विजय हासिल की। वकालत और साहित्य दोनों में ख्याति अर्जित की। वकालत में सफलता और प्रतिश्ठा का उदाहरण यही है कि 1963 में वे सरकारी वकील बना दिये गये और 4 जुलाई 1970 तक इस पद पर कार्यरत रहे। केदारजी सरकारी वकील तो बन गए पर उसके प्रचलित आभिजात्य को ओढ़ने में उनका जन-प्रेम विद्रोह कर गया। उनकी दिनचर्या वही रही जो पहले थी। क्लबों, सोसाइटियों में जाने तथा अधिकारियों और जजो की जी हुज़ूरी एवम् दरबारगीरी के बरक्स, नीलम मेडिकल स्टोर में जाकर बैठना, चाय पीना, गप्प लड़ाना बदस्तूर जारी रहा। सरकारी वकील होने का मतलब होता है कोठी और कार का इज़ाफा। पर केदारजी जैसे फटेहाल पहले थे वैसे ही तब भी रहे। लेकिन जनता में, जजाें और सरकारी अधिकारियों में उनकी ईमानदारी के कारण उनके रुतबे और उनके सम्मान में इजाफा हुआ।
सरकारी वकील के रूप में पहले 20 रू प्रति मुकदमें की दरसे तथा बाद में 40 रू प्रति मुकदमें की दर से मेहनताना मिलता था।
वकालत प्रारम्भ करने के तीन-चार साल बाद केदारजी बीमार हुए। प्राकृतिक चिकित्सा के लिए लखनऊ गये। निरालाजी तब मकबूल गंज मुहल्लें में वहीं रहते थे। रामविलासजी भी वहीं थे। कीट्स पर थीसिस लिख रहे थे डॉ0 सिध्दान्त के अधीन। केदारजी उनसे खूब बहस करते और माक्र्सवाद के वैज्ञाानिक जीवन दर्षन को अधिकाधिक आत्मसात करते। अमृतलाल नागर, गिरिजाकुमार माथुर, नरोत्तम नागर, बलभद्र प्रसाद दीक्षित 'पढ़ीस' आदि से भी मैत्री और घनिश्ठता इसी यात्रा के दौरान ही हुई। यहीं उन्होंने रामविलासजी के हाथ की हथपोई रोटी खायी जिसकी मिठास कवि के हष्दय पर अंकित हो गयी, और कविता में व्यक्त होकर अमर बन गयी -
'स्वादी संसारियों को मेरी कविताएँ, दोस्त ! / वैसी ही रूचेंगी जैसे / रोटी हथपोई मुझे / परवर के सूखे साग / कडुवे मिरचे के साथ / खूब रूचीं / तुमने जो बनाई थीं ।'
स्वास्थ्य लाभ कर लखनऊ से कर्बी (बाँदा) आये और 'चन्द्रगहना ( एक बाग) से लौटती बेर, कविता की सामग्री बटोरी। इसके बाद केदारजी बाँदा में ही रहे। कभी कभार मित्रों के यहाँ जाते रहे बस। रामविलासजी के यहाँ आगरा कई बार गये। मालकिन (रामविलासजी की स्वर्गीय पत्नी) के हाथ के बनाए गरम-गरम पराठों और सीझी हुई खीर की सोंधी गंध, अक्सर उनकी बात-चीत में, आती रहती थी।
केदारजी कविता लिखने के साथ-साथ साहित्यिक समारोहों का आयोजन भी करते रहते थे। उन्होंने श्री वीरेष्वर सिंह के साथ मिलकर 'साहित्य परिशद' की स्थापना की जिसके माध्यम से वे राहुलजी और उनके तत्कालीन सेक्रेटरी नागार्जुनजी से जुड़े। बाँदा प्रषासन की ओर से बतौर संयोजक अनेक कवि सम्मेलन किए, गोश्ठियाँ की। निरालाजी भी 2-3 बार आये। निरालाजी को केदारजी ने कभी अपनी कविताएँ नहीं सुनाई। निरालाजी ने केवल उनकी कविताएँ पढ़ी। उनकी कविताएँ पढ़कर निरालाजी ने कहा ''दो तीन घंटे रोज कविता को दो, तो अच्छी कविताएँ लिख सकते हो, प्रतिभा है ज़रूरत है प्रतिभा को माँजने की।''
सन् 1973 में एक बड़े जमावड़े के साथ केदारजी ने अखिल भारतीय प्रगतिषील लेखक सम्मेलन बाँदा में सम्पन्न कराया। महादेवीजी भी उसमें आयी थी। अब तक कवि केदार जनवादी कवि के रूप में विष्व विश्रुत हो चुके थे। उनकी कविताओं का रूसी, जर्मन, चेक तथा अंग्रेजी में अनुवाद हो चुका था। सन् 1973 र्इं0 में उनके काव्य-संकलन 'फूल नहीं रंग बोलते हैं' की उसके प्रगतिकामी जनवादी रुझान, संघर्श के प्रति सचेत दृश्टि और भविश्य की बेहतरी के प्रति कड़ियल आस्था के उद्धोश, भारत की धरती की सोंधी गंध तथा भारत की ही नहीं समूचे विष्व की करोड़ों-करोड़ जनता की जुझारू चेतना की वाणी का गौरवपूर्ण सम्मान करते हुए 'सोवियत लैण्ड नेहरू पुरस्कार' से सम्मानित किया गया। पुरस्कार की सार्थकता प्रमाणित की गयी। सन् 1974 में केदारजी रूस की यात्रा पर गये और वहांँ उन्हें पूरा रूस गुलाबों का देष लगा। और उन्होंने वहाँ चारों ओर खुषहाली, रंगीनी और हरियाली के कहकहे सुने। लौटकर एक संस्मरणात्मक पुस्तिका लिखी 'बस्ती खिले गुलाबों की'।
25.4.1977 को केदारजी के पिता का उनके गाँव कमासिन में निधन हो गया।
सन् 1981 में उत्तर प्रदेष हिन्दी संस्थान' ने उनकी सेवाओं के पुरस्कार-स्वरूप पन्द्रह हजार रूपये की अभिनन्दन-प्रतीक-राषि प्रदान करके, अपने को गौरवान्वित किया।
सितम्बर 1985 के अंतिम सप्ताह में उनकी पत्नी कुरसी से गिर गयी थीं। बाएँ कूल्हे की हड्डी टूट गयी। कुछ दिन बाँदा में इलाज चला पर कोई फायदा न होता देखकर उन्होंने अपने बेटे और बेटियों को सूचना दी। सब लोग आनन फानन में पहुँच गये। उनके बेटे अशोककुमार अग्रवाल माँ को मद्रास ले गये और 9 नवम्बर को विजय नर्सिंग होम में भर्ती कराया ! 10.12.1985 को रामविलासजी को पत्र लिखा - 'संकट गहरा रहा है/वह बच नहीं सकती/' 22.12.1985 को रामविलासजी ने उन्हें ढाँढ़स बँधाने के लिए झाँसी के पठानों (रानी के अंगरक्षक) के संघर्श का वर्णन भेजा। 7.1.1986 को केदारजी ने लिखा - 'कभी कभी धैर्य टूटने लगता है। फिर जल्दी जल्दी अपनी चेतना पाने का प्रयास करता हूँ और स्वयं जीते हुए अपनी प्रिया प्रियंवद को जिलाए रखता हूँ। उनकी देह तो न रहेगी पर चेतना में वह हमेषा जिएँगी। यही लड़ाई लड़ रहा हूँ। मैं इस लड़ाई में मौत की हार ही देखता हूं ।'
26.12.85 को मेरे पास भेजे एक अंतर्देषीय में उन्होंने लिखा 'ऑंखे नहीं खोलती। बोल नहीं पाती'। मौन पड़ी हैं प्रिया प्रियंवद,/ बिना बोल का मुँह खोले/ प्यार पुलक की ऑंखे मींचे, / दुख में डूबी सासें लेती,/ पास खड़ा मैं, / कविताओं का घेरा डाले, / महाकाल को रोक रहा हूँ / यहा न आए। उनका जीवन जय पाये ।''
पर 'कविताओं' का घेरा' उनके पार्थिव षरीर को बचा नहीं पाया और 28 जनवरी, 1986 को सांयकाल 6 बजकर 15 मिनट पर 'प्रिया-प्रियम्बद' पार्वती देवी का निधन हो गया। 4.3.86 के पत्र में लिखते हैं - 'प्रिया प्रियंबद पार्वती तो प्रेम योगिनी थीं। उनकी मूर्ति बराबर सामने आती है। वह मरी नहीं। उनका चेतन रूप मेरे दिल में हैं। काव्य बन गयी हैं ।' 1988 में प्रकाषित उनका संकलन 'आत्मगंध', जिसे उन्होंने 'दीर्धायु की कविताएँ' कहा है, इसी चेतना का दस्तावेज़ है।
हम लोगों का इरादा था कि केदारजी का 75वाँ जन्मदिन अप्रैल 1986 में धूम-धाम से मनायेंगे। पर कवि-प्रिया के निधन से यह इरादा आगे के लिए मुल्तवी कर दिया गया। जब बाबूजी की मन: स्थिति थोड़ी सामान्य हुई तो उनकी सहमति से 20-21 सितम्बर 1986 की तिथि तय की गयी। बाँदा में भव्य समारोह हुआ। देष भर से लेखक विचाधारा की सीमा तोड़कर अपने खर्चे पर बाँदा पधारे। आवास और भोजन की व्यवस्था परिमल प्रकाषन ने की थी। रामविलासजी जो कहीं नहीं जाते, बाँदा आये। 'केदारनाथ अग्रवाल की राजनीतिक कविताएँ' षीर्शंक से अपना लेख पढ़ा। केदारजी की कविता 'ज़िंदगी' (देष की छाती दरकते देखता हूँ। ) अपने स्वर में पढ़ी। उनका लेख बाद में 'पहल पुस्तिका-8 (प्रस्तुति: अशोक त्रिपाठी) के रूप में 'केदार की कविताओं में राजनीति की निर्णायक भूमिका है' षीर्शक से प्रकाषित हुआ। रामविलासजी 8 दिन तक केदारजी के साथ रहे। यह भी एक रिकॉर्ड है। इसी अवसर विषेश पर 'प्रगतिषील काव्यधारा और केदारनाथ अग्रवाल ' (डॉ0 रामविलास षर्मा) के साथ 4 और पुस्तकें प्रकाषित की गयीं थी। यह एक ऐतिहासिक आयोजन था ं। इसकी रिकार्डिग 30-30 मिनट की 07 कड़ियों में लखनऊ दूरदर्षन से प्रसारित हुई थी। इसी समय केदारजी के घर पर रामविलासजी ने केदारजी के कुछ चुनिंदा पत्रों का पाठ किया था और केदारजी के पत्रों में लिखी कविताएँ उन्होंने मुझे लिखवाईं थीं। इसी समारोह के दबाव में 'साहित्य अकादमी' ने उन्हें 'अपूर्वा' पर 'साहित्य अकादमी' पुरस्कार से सम्मानित करके अपनी साख बचाई। इस आयोजन के बाद केदारजी अपनी पत्नी के निधन के दुख से थोड़ा उबर सके थे और इसके बाद बाँदा के बाहर के कुछ आयोजनों में भाग लेने गये थे।
19.11.1986 को इलाहाबाद विष्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में 'छायावादोत्तर हिन्दी काव्य परिदृष्य' पर निराला व्याख्यान माला के अंतर्गत व्याख्यान दिया। दिल्ली भी गये। 10-11 जनवरी, 1987 को पन्ना गये। मई 1987 में लखनऊ गये 'प्रयोजन' पत्रिका का विमोचन करने। जून 1987 में बेटे के पास मद्रास गये। अक्टूबर '87 में दिल्ली, गाज़ियाबाद गये। बच्चन जी के जन्मदिन पर आयोजित एक समारोह में नवम्बर 1987 में फिर दिल्ली गये। मार्च 1988 में इलाहाबाद गये। फरवरी 89 में फिर मद्रास गये। वहाँ से मार्च में ऊटी गये ।
26 अक्टूबर 1991 को केदारजी का अस्सीवाँ जन्म दिन इलाहाबाद के हिन्दुस्तानी एकेडेमी में परिमल प्रकाषन ने मनाया। इस अवसर पर 'मित्र संवाद' (केदारजी और रामविलासजी के पत्रों का संकलन-सम्पादक : रामविलास षर्मा, अशोक त्रिपाठी) का लोकापर्ण हुआ। केदारजी के साथ रामविलासजी, डाँ चन्द्रावली सिंह, डॉ0 नामवर सिंह सहित कई साहित्यकार उपस्थित रहे।
25-26 नवम्बर '91 की रात में केदारजी के घर में चोरी हो गयी। इसमें 10 हजार रूपया, जेब घड़ी तथा सोवियत लैण्ड मेडेल चोर ले गये। 13 फरवरी 1992 को भोपाल में ''मैथिलीषरण गुप्त' सम्मान लेने गये, फिर वहीं से मद्रास चले गये। फिर 19 मार्च '93 को बाँदा लौटे। 22.12.1996 को झाँसी गये डी. लिट् की मानद उपाधि लेने। इसके बाद फिर बाँदा मे ही रहे।
केदारजी को कई पुरस्कार और सम्मान मिले हैं, कवि ने इन्हें विनम्रता के साथ स्वीकार भी किया है लेकिन, उनके लिए इन पुरस्कारों का कोई महत्व नहीं है, उन्हें मिलने से इन पुरस्कारों का महत्व ज़रूर बढ़ गया है। केदारजी के लिए तो सबसे बड़ा पुरस्कार जनता के दिल में उनके लिए जगह है, जनता का उनके प्रति स्नेह और प्यार है - वह स्नेह और प्यार जो नानक, कबीर, मीरा, सूर और तुलसी को, टैगोर और नज़रूल इस्लाम को मिला हुआ है, जिनके गीत हर हृदय में गूँजते हैं, संकट के क्षणों में जो ओठों से फूट पड़ते हैं, और मुक्ति की एक प्रकाष किरण बिखेर कर मन को ढाँढ़स बँधा जाते हैं ।
पत्नी की मृत्यु के आधात से केदारजी उबर ही रहे थे कि उनपर एक बज्रपात हुआ - 30 मई, 2000 को उनके अभिन्न मित्र डॉ0 रामविलास षर्मा का निधन हो गया। यह खबर उनके लिए किसी हृदयाघात से कम नहीं थी। षरीरिक रूप से षिथिल तो वह थे ही मानसिक रूप से अन्दर से वह टूट गये। अब अपने मन की बात किससे कहेंगे ओर संकट के क्षणों में कौन उन्हें ढाढ़स बँधाएगा।
केदारजी की यह आदत थी कि वह अपना काम किसी से कराना पंसद नहीं करते थे। खुद करना चाहते थे। इसी आदत से मज़बूर एक दिन रात को दीवाल पर, थोड़ी ऊँचाई पर, लगी अपनी दीवाल घड़ी में चाभी भरने स्टूल पर खडे हुए कि अचानक बिजली चली गयी। संतुलन डगमगाया स्टूल से नीचे गिर गये और फिर वही हुआ जिससे वह हमेषा बचने की कोषिष करते रहे। रात भर अकेले यातना झेलते रहे। सबेरा हुआ तो पता चला कि वह गिर गये हैं। कूल्हे की हड्डी टूट गयी है। बेटे को सूचना भेजी गयी, वह षूटिंग में व्यस्त थे। स्थिति की गंभीरता को भाँप नहीं सके - आ नहीं पाये। भतीजों ने डॉक्टर को दिखाया। इलाज़ चलता रहा पर कोई लाभ नहीं हुआ। अन्त में 22 जून, 2000 को वह महाप्रयाण पर चले गये। केदारजी तो चले गये पर उनका रचना संसार आज भी हमारे लिए प्रेरणा का संघर्श का प्रेम का, मनुश्यता का अन्याय के प्रति प्रतिरोध का अजस्र स्रोत है और आगे आने वाली सदियों तक बना रहेगा - वह अपनी रचनाओं में हमेषा जीवित रहेंगे - मौत को मारते हुए।
-4-
हिन्दी की प्रगतिषील कविता और बाबू केदारनाथ अग्रवाल एक दूसरे के पर्याय हैं। केदारजी की कविता का सौंदर्यषास्त्र ही प्रगतिषील कविता का सौंदर्ययषास्त्र है। केदारजी की कविता की विकास यात्रा ही, हिन्दी की प्रगतिषील कविता की विकास यात्रा है।
प्रगतिषीलता जहाँ अन्याय षोशण और अत्याचार का विरोध करना है, षोशितों की पक्षधरता करना है, षोशकों के विरुद्व संघर्श करना है, कर्म करना है, वहीं मनुश्य की ''जय यात्रा'' के प्रति दृढ़ता के साथ आस्थावान होना भी है। क्योंकि यह आस्था ही संघर्श को बल देती है। अगर 'जय' का भरोसा न हो, तो संघर्श करने का और कर्म करने का जज्.बा ही पैदा न हो। विजयी होने की आष्वस्ति ही संघर्श की बीज षक्ति है। केदारजी बाकायदे इसकी घोशणा करते हैं और यह घोशणा रामविलासजी की राय में व्यक्तित्व की 'उदात्ताता' के कारण कविता बन जाती है -
'मैं हूँ अनास्था पर लिखा / आस्था का षिलालेख / नितांत मौन, / किन्तु सार्थक और सजीव / कर्म के कृतित्व की सूर्याभिमुखी अभिव्यक्ति : / मृत्यु पर जीवन के जय की घोशणा /' 'मनुश्य की जय यात्रा' को सफल और सार्थक बनाने के लिए जितने भी उपादान अनिवार्य हैं, वे सबके-सब केदारजी की कविता में पूरी षिद्दत के साथ मौजूद हैं। हमारी कल्पना या सोच के दायरे में जो कुछ श्रेश्ठ, सकारात्मक, सर्जनात्मक, मूल्यवान और वरेण्य हो सकता है, वह सबका-सब केदारजी की कविता का सहज हिस्सा है, मसलन - आस्था, कर्मठता, जिजीविशा उल्लास, उजास, प्रेम, संघर्श, प्रकृति (जड़ और चेतन दोनों) और मनुश्यता आदि। लेकिन नकारात्मक तत्व मसलन - अनास्था, निराषा, कुंठा, संत्रास ऍंधेरा, हताषा और मनोरोग आदि को ढूँढ़ना पडेग़ा।
केदारजी ज़िंदगी की सच्चाई की लड़ाई के कवि हैं। ज़िंदगी की सच्चाई की लड़ाई में, विरोधी षक्तियों की मक्कार बर्बरता से संघर्श करते करते कभी कभी अवसाद (निराषा और हताषा नहीं ) के विरल क्षण भी आते हैं। ये क्षण कभी कभी नये विकल्प भी देते हैं। इन्हीं क्षणों में संघर्शरत मनुश्य, संघर्श की अगली रणनीति पर पुनर्विचार भी करता है। और फिर एक नये जोष से, नई रणनीति के साथ मैदान में उतर पड़ता है। 'राम की षक्ति-पूजा' में 108वाँ कमल जब महाषक्ति गायब कर देती हैं, तो एक क्षण के लिए राम अवसादग्रस्त हो जाते हैं, पर दूसरे ही क्षण उसका विकल्प - 'राजीव नयन' - खोज लेते हैं। अवसाद के महज ऐसे ही कुछ पल केदारजी को भी कभी कभी घेरते हैं, लेकिन वे तुरंत ही उसे झटककर, अपने से दूर फेंक देते हैं। 'और का, और मेरा दिन', 'बुन्देलखण्ड के आदमी', 'बाप बेटा बेचता है,' 'वी.पी. का रूपया देना है' जैसी चार-छ: कविताएँ अपवाद स्वरूप ज़रूर मिलती हैं, पर यह उनकी काव्य चेतना का मुख्य स्वर नहीं है। इनमें भी अवसाद के साथ साथ एक खीझ भी है और गुस्सा भी।
मद्रास के विजय अस्पताल में कवि प्रिया पार्वती देवी जब महाकाल से संघर्श कर रही थीं - उस समय की मन:स्थिति में लिखी कविताएँ -पूर्वार्ध्द में क्षणिक अवसाद की गिरफ्त में आती हैं, पर उत्तारार्ध्द में अपने जीवन दर्षन - माक्र्सवाद - के बूते पर उस गिरफ्त को तोड़कर मृत्यु पर जीवन के जय की घोशणा करती हैं - 'मौन पड़ी हैं प्रिया प्रियम्बद,/ बिना बोल का मुँह खोले:/प्यार पुलक की ऑंखें मींचे / दुख में डूबी साँसें लेतीं/ पास खड़ा मैं / महाकाल को / रोक रहा हूँ। कविताओं का घेरा डाले, / यहांँ न आये उनको लेने :/जीवन की जय / प्रेम योगिनी पायें/' ( यह कविता केदारजी ने मुझे एक अंतर्देषीय पर लिखकर भेजी थी , दिनांक 26.12.1985 को, थोड़े पाठ भेद के साथ )
कविता के प्रति ऐसी अगाध आस्था, ऐसा भरोसा उसी कवि को हो सकता है जो कविता में महान मानवीय मूल्यों का पक्षधर कवि हो, जो इस बात का कायल हो कि - 'चम्मचों से नहीं / आकंठ डूबकर पिया जाता है / दुख को दुख की नदी में / और तब जिया जाता है / आदमी की तरह आदमी के साथ / आदमी के लिए।'
कविता उनके लिए महज षगल या बैठे ठाले का अंषकालिक काम नहीं है। कविता उनके लिए जीवन साधना है, उनके लिए एक हथियार है मानसिकता बदलने का, एक संबल है तिलझन भरे जीवन के कटु यथार्थ पर विजय पाने का, मौत पर विजय पाने का - 'दुख ने मुझको / जब जब तोड़ा / मैंने / अपने टूटेपन को / कविता की ममता से जोड़ा, / जहाँ गिरा मैं,/ कविताओं ने मुझे उठाया, / हम दोनों ने / वहाँ प्रात का सूर्य उगाया ।'
केदारजी के पाठकों / आलोचकों में कोई उन्हें ग्रामीण चेतना का कवि मानता है, कोई नगरीय का, कोई संघर्श का, कोई श्रम का, कोई सौंदर्य का, कोई प्रकृति का', कोई राजनीतिक चेतना का, कोई व्यंग्य का तो कोई रूप और रस का आदि-आदि। पर दरअसल केदारजी इनमें से केवल किसी एक धरातल के कवि नहीं हैं। वह जीवन की संपूर्णता के कवि हैं। वह खंड-खंड जीवन के नहीं, एक मुकम्मल जीवन के, सामाजिक सरोकारों से लैस, मुकम्मल जीवन्त कवि हैं। उनकी कविता में मज़दूर, किसान, ज़मींदार, पूँजीपति, व्यापारी, दलित, नेता, अफ़सर, क्लर्क, मुदर्रिस, वकील, जज, अभियुक्त, अपराधी, पुलिस, बच्चे, पत्नी, स्त्री, पुरूश, सूदखोर, प्रेमी, प्रेमिका, चित्रकूट के बौड़म यात्री, गिलहरी, बया, कठफोड़वा, गौरया, भोगिला बैल, मोती-कुत्ता, बागी घोड़ा, बोगन बेलिया, गेंदा, नीम के फूल, हरसिंगार, करोटन, बेला, टेसू, केन, टुनटुनिया पहाड़, गर्रा नाला, गुम्मा ईंट, लालटेन कमासिन, चन्द्रगहना, चित्रकूट, मद्रास, महाबलिपुरम, ऊटी, समुद्र तथा मार, काबर, कछार, पड़ुआ मिट्टियाँ, कवि-मित्र, साहित्यकार, कलाकार, गाँव, षहर, कस्बा, ग्रीश्म, बसंत, षरद, वर्शा, लू, चाँदनी, पेड़, बादल, बिजली, गेहूँ, धान, चना, अलसी, सरसों, हवा, पानी, आदि आदि जितने भी उपादान हैं, सभी मौजूद हैं - बाकायदे अपनी निजी पहचान के साथ, अपने नाम के साथ, अपने अपने जातीय संदर्भों के साथ। केदारजी गंगा पर नहीं स्थानीय नदी केन पर कविताएँ लिखते हैं। नन्दी पर नहीं भोगिला बैल पर कविताएँ लिखते हैं ।े
केदारजी जीवन के गहरे यथार्थ के कवि हैं, कोरी कल्पना के नहीं। यथार्थ का कवि देखे हुए पर अधिक भरोसा करता है। इसीसे उनकी कविताओं में 'देखना' क्रिया बार बार आती है। इसीलिए उनकी कविताओं में अनूठे और अछूते बिम्बों की भरमार है - चाक्षुशता उनकी कविताओं का एक प्रमुख गुण है। केदारजी सुने हुए नहीं देखे हुए के कवि हैं -
1. देष की छाती दरकते देखता हूँ। 2. चिता जली तो मैंने देखा। 3. आज मैंने रक्त रूप प्रभात देखा। 4. मैंने उसको जब जब देखा। 5. मैंने बागी घोड़ा देखा। 6. दिन में ही जगर-मगर दीप जले देखे हैं ।
चूँकि वह 'देखना' क्रिया के कवि हैं, इसलिए वह 'मैं', 'मैंने, मुझे' 'मुझको' 'मेरे' आदि सर्वनाम के भी कवि हैं क्योंकि 'देखने' का कोई कर्ता भी तो चाहिए। यह 'कोई' कवि स्वयं है। अपने पर उन्हें ज़बर्दस्त भरोसा है - गर्वोक्ति की सीमा तक, उदात्त धोशणाओं के रूप में। कहीं-कहीं दोनों एक साथ हैं - कहीं स्वतंत्र रूप से भी -
मैं समय को साधता हूँ। 2. मैंने ऑंख लड़ाई गगन विराजे राजे रवि से। 3. खड़ा पहाड़ चढ़ा मैं अपने बल पर। 4. मैं समय की धार में धँस कर खड़ा हूँ। 5. दुख ने मुझको जब जब तोड़ा / मैंने अपने टूटे पन को कविता की ममता से जोड़ा। 6. आज नदी बिल्कुल उदास थी मैंने उसको नहीं जगाया। 7. गठरी चोरों की दुनिया में/ गठरी मैंने नहीं चुराई। 8. मेरे देष तुम्हारी छाती की मिट्टी मैं हो जाउँगा। 9. धीरे उठाओ मेरी पालकी। eSं हूँ सुहागिन गोपाल की। 10. माँझी न बजाओ वंषी मेरा मन डोलता है। 11. eSं हूँ अनास्था पर लिखा / आस्था का षिलालेख। 12. मैं घूमूँगा केन किनारे आदि-आदि ।
केदारजी का यह 'मैं' अहंमन्यता वाला व्यक्तिवादी 'मैं' नहीं है, आत्मबल वाला समाजवादी जनतांत्रिक 'मैं' हैं। क्योंकि उनकी व्यक्तिगत चेतना, लोक चेतना में प्रविश्ट होती है और फिर उसे नये मानवीय मूल्यों के संस्कार देकर समाजवादी जनतंत्र की छवियों को प्रस्तुत करती है। इसीलिए उनका 'मैं' सबके 'हम' में परिवर्तित हो जाता है। उनकी कविताएँ जितनी उनकी हैं, उतनी ही दूसरों की भी है ।
केदारजी की कविता का संसार बहुत व्यापक है। पूरी कायनात उसमें सिमट आई है। केदारजी की पूरी काव्य सम्पदा में कई विशय प्रमुखता से चित्रित हुए हैं, यही कारण है कि इन्हीं में से उन्हें किसी एक विशय का कवि मान लिया जाता है - 'स्यादवाद' की तर्ज पर। दरअसल उनकी कविता की चिंतन धारा के केन्द्रीय बिन्दु है - खेती -किसानी, जिसके मूल में है किसान। खेती - किसानी का मूलाधार है बादल। जिस कवि की चिंता के मूल में किसान होगा, वह बादलों पर कविता लिखेगा ही लिखेगा। निराला, केदार और नागार्जुन इसके प्रमाण हैं। केदारजी ने बादलों पर और बादलों से संदर्भित दर्जनों कविताएँ लिखी हैं। ये कविताएँ प्रकृति चित्रण के महज़ उपादान के रूप में नहीं हैं, ये जीवन के पारावार के रूप में हैं। किसानी के लिए जितना अनिवार्य उपादान है बादल, उतना ही अनिवार्य उपादान है - बैल। इसीलिए केदार जी 'भोगिला बैल' और 'देवी के बैल कोई खोल ले गया' जैसी कविताएँ लिखते है,ं 'बैलों को हुरियाये जा' की बात करते हैं, लोहे की पैनी कुसी, भुईं के अन्दर गड़ाने की बात करते हैं, धरती का स्वामित्व किसानों को सौंपने की घोशणा करते हैं आदि आदि ।
केदारजी पैदा तो वणिक वर्ग में हुए थे, लेकिन गाँव के थे, इसलिए खेती किसानी भी भरपूर होती थी। उसके संस्कार इनकी चेतना में स्थायी भाव की तरह गहरे पैठ चुके थे। कविता के अलावा अपने चिंतन परक गद्य में जब वह अपनी काव्य साधना पर बात करते हैं तो किसानी के उपादानों, उपकरणों का ही हवाला देते हैं 1. 'कविताई न मैंने पायी न चुरायी। इसे मैंने जीवन-जोत कर किसान की तरह बोया और काटा है '' (लोक और आलोक की भूमिका)। 2. 'यह तो कहो कि भौतिकवाद के हल की मुठिया पकड़ ली है मैंने और जीवन की परती धरती को रात दिन जोते जा रहा हूँ , बीज बोये जा रहा हूँ और हर वक्त ताके जा रहा हँ, इससे साहित्यिक अकाल से बचा हूँ, वरना मैं भी बंगाल के 35 लााख भूखे मृत व्यक्तियों में एक होता ।' (रामषरण षर्मा 'मुंषी' को केदारजी का पत्र - 26.8.1947)। 3. 'वह (रामविलासजी का पत्र) क्या आया जैसे किसान के खेत में बादल आया।' (4 मई, 1964 का केदारजी का पत्र) 4. 'प्रेमचन्द को पाना कोई खेल है कि आज के कथाकार उनके सिर का बाल छू लें। सबके सब पेषा करते हैं - जीवन नहीं पकड़ते, हल की मुठिया की तरह ।' (8 अप्रैल, 1974 का केदारजी का पत्र)
खेती बारी से जुड़े कार्यकलापों पर कई गीत और कविताएँ लिखी हैं जैसे कटुई, निरौनी, ओसौनी आदि। केदारजी ने 'किसान स्तवन' भी लिखा है ।
केदारजी जब लहलहाती फसलों को देखते हैं तो उनका हृदय - उन्हीं के षब्दों का इस्तेमाल करें तो 'औला मौला' हो जाता है -
1. 'अबकी धान बहुत उपजा है / पेड़ इकहरे दुगन गये हैं /' 2. 'आसमान की ओढ़नी ओढ़े / धानी पहने / फसल घंघरिया /राधा बनकर धरती नाची / नाचा हंँसमुख कृशक सँवरिया/खेतों के नर्तन उत्सव में / भूला तन मन गेह डगरिया ।'
'चन्द्रगहना से लौटती बेर' ,'बसंती हवा' उनकी इसी किसानी चेतना की सहज और उन्मुक्त अभिव्यक्तियाँ हैं। केदारजी की 'बसंती हवा' की बराबरी तो प्रकृति की बसंती हवा भी नहीं कर सकती। केदार जी की बसंती हवा, प्रकृति की बसंती हवा के समकक्ष उनकी पुनर्सृश्टि है। यह केदारजी की अपनी बसंती हवा है। उसकी अल्हड़ता, उसका खिलंदड़ापन, उसकी मस्ती, उसका बेफिक्रापन, उसकी गति, उसकी उठान, उसकी खिलखिलाहट, पूरी कायनात में उसकी व्याप्ति सौंदर्य की एक दूसरी ही अनूठी दुनिया में हमें ले जाती है। दुनिया के समूचे साहित्य में षायद की उस जोड़ की कोई दूसरी कविता मिले।
'चन्द्रगहना से लौटती बेर,' 'फूलों की बौछार से', 'ऑंखों देखा', रंग दौड़ते हैं रंगीन फूलों के', बसंत आया', 'बसंत में', तथा धूप पर लिखी उनकी कविताएँ - सौंदर्य की अनूठी मिसालें हैं' - गहन इन्द्रिय बोध और भाव बोध की महानतम कविताएँ हैं।
केदारजी जिंदगी की सादगीपूर्ण, कठोर और करुण सच्चाइयों के कवि हैं। 'कानपुर', 'घर का अनुभव', 'ऑंख दुखों से ऑंज रही है', जिंदगी', 'बाप बेटा बेचता है' आदि इसकी गवाह' हैं। रामविलासजी ऐसी कविताओं के बारे में 14.4.66 के पत्र में लिखते हैं -'कानपुर, बुन्देलखण्ड के आदमी जैसी कविताओं में घन की चोट है : यथार्थ का रंग सादगी में भी वीरतापूर्ण। तुम्हारी कविताओं की भाशा षैली, व्यंजना का ढंग सब ऐसे हैं जो एक लोक कवि को ही - और संसार के थोड़े से बहुत बड़े-बडे क़वियों को ही सुलभ होते हैं।'
केन नदी बाँदा की जीवन रेखा है। परन्तु केदारजी के लिए वह केवल जल प्रदायनी नदी भर नहीं है - उनकी कविताओं में वह चेतना की नदी भी है। वह अपने क्षेत्र के लोगों की जड़ता से, चेतना-हीनता से इस कदर मायूस हैं कि उसे पत्थर की संज्ञा दे देते हैं - 'पानी, पत्थर चाट रहा है गुमसुम /सहमा राही/ ताक रहा है गुमसुम/' चेतना की यह नदी भी उनमें कोई हलचल नहीं पैदा कर पा रही है। यह बात केदारजी को बार बार कचोटती है।
केन के माध्यम से केदारजी ने अपने जीवन के अनुभव और चिंतन का निचोड़ पस्तुत किया है। केन के साथ उनके कई रिष्ते हैं। एक रिष्ता प्रेयसी का भी है - 'आज नदी बिल्कुल उदास थी / सोयी थी अपने पानी में: / उसके दर्पण पर / बादल का वस्त्र पड़ा था। मैंने उसको नहीं जगाया,/ दबे पाँव घर वापस आया ।' केदार जी सूक्ष्म और कोमल संवेदनाओं के अदभुत कवि हैं। निराला की 'जुही की कली' का नायक पवन जहाँ उध्दत है और नायिका के गोरे गोल कपोल को मसल देता है, वहीं प्रेयसी केन का नायक स्वयं कवि, उसे सोता देखकर 'दबे पाँव' घर वापस आ जाता है कि कहीं उसकी नींद उचट न जाये। यही नहीं गरमी में केन को तड़पता देखकर, केदारजी खुद भी बेहाल हो जाते हैं। नदी एक वीणा भी है - 'नदी है कि नितम्बिनी वीणा/ तट पर धरी / कभी बजती कभी मौन/' नदी 'एक नौजवान ढीठ लड़की है / जिसकी जाँघ खुली / और हंसों से भरी है / जिसनें बला की सुदरता पायी है। 'केन किनारे पल्थी मारे' :, 'मेरे मन की नदी', 'मैं घूमूँगा केन किनारे' तथा 'बैठा हूँ इस केन किनारे' आदि कविताएँ' केन से उनके अन्य रिष्तों को व्याख्यायित करती हैं। इसीलिए उन्हें केन का कवि भी कहा जाता है।
केदारजी सौंदर्य के कवि हैं। सौंदर्य प्रकृति का हो, स्त्री का हो, पुरुश का हो, बच्चे का हो, चरित्र का हो, नदी, पहाड़ का हो , पषु पक्षी का हो, खेत- खलिहान का हो, हवा धूप का हो, श्रम का हो, किसान मजदूर का हो, पेड़ पौधों का हो, उन्हें बाँधता है। सौंदर्य की किताबी परिभाशा की बात मैं नहीं करता। हर उस षै में, काम में, सोैंंदर्य है, जो हमें सकून देता है, उल्लास देता है, उछाह देता है, उत्साह देता है, कर्मषील बनाता है, सृजन के लिए उकसाता है, प्रसन्नता देता है, फिर वह चाहे जो कुछ भी हो। इसीलिए उन्हें अन्याय के विरुध्द डटकर लड़ने वाले '110 का अभियुक्त' में सौंदर्य नजर आता है। यह वही कविता है जिसे अज्ञेय के आमंत्रण्ा पर केदारजी ने 'दूसरासप्तक' के लिए भेजी था पर अज्ञेयजी इसकी जगह दूसरी कविता चाहते थे। केदारजी ने कहा छापना है तो इसे ही छापो अन्यथा रहने दो। और 'दूसरासप्तक' केदारजी की कविता से वंचित रह गया। यह सौंदर्य की दो भिन्न दृश्टियों का टकराव था। उन्हें 'छोटे हाथ' पसंद हैं, जो सवेरा होते ही 'लाल कमल से खिल उठते हैं / करनी करने को उत्सुक हो, /धूप हवा में हिल उठते हैं। उन्हें 'सामाजिक वर्जनाओं को ठेंगा दिखाने वाली 'मुक्त युवती' में, 'एक हथौड़े वाला' में, खेत जोतते हुए किसान में, प्रतिरोध करती जनता में, गगन चुम्बी इमारत तामीर करने वाली 'गुम्मा ईंट' में, बाधाओं को रौंदने वाले 'गर्रानाला' में, किसानी के आधार स्तम्भ 'भोगिला बैल' में, श्रम-पुरूश भगौता बढ़ई में तथा अयोध्या की लालटेन में सौदर्य नज़र आता है।
सौंदर्य में स्त्री सौंदर्य सबसे व्यापक, सबसे मादक, सबसे मारक, सबसे षक्तिषाली और सबसे अधिक चुम्बकीय होता है। यहाँ भी केदारजी को पलंग तोड़ने वाली, सजी धजी, बनी ठनी, मेकअप से लदी फंदी गजगामिनियाँ नहीं पसंद हैं। उन्हें तो 'कौन अलबेले की नार झमाझम पानी भरै' सुन्दर लगती है - श्रमषील नारियाँ सुन्दर लगती हैं। बचपन की यादों में दो पनिहारिन युवतियाँ, अन्त तक उनके मानस में बसी रहीं। बातचीत में कहते थे - 'ननकी और सुनदी मांसल स्वस्थ और सुन्दर - सिर पर जब तीन-तीन घडे रखकर ठुमकती हुई चलती थीं तो उन्हें देखकर नारी के मांसल सौंदर्य का बोध जगता था। नारी सौंदर्य की प्रतीत मुझे वहीं से मिली ।'
दिनकर की 'उर्वषी' को लेकर जब वे रामविलासजी से भिड़े हुए थे तो 16.4.1962 के पत्र में वह लिखते हैं - 'मज़ा तब आता कि प्रेमिका प्रेमी के साथ कुछ श्रम करती और फिर दोनों एक दूसरे से लिपटकर, एक दूसरे पर न्यौछावर हो जाते, उस काम की कृतज्ञता में ।' (मित्र संवाद -280)
केदार जी की कविताओं में प्रेम और प्रेमाचार संस्पर्षित मांसल सौंदर्य वाली कविताओं की अच्छी खासी तादाद हैं। संख्या बल को अगर आधार मानें तो, सभी विशयों में यह विशय केदारजी को सबसे अधिक प्रिय है। केदारजी यथार्थ के कवि हैं। नारी देह की सुन्दरता भी एक प्रीतिकर यथार्थ है। उसका निशेध करना यथार्थ का निशेध करना है। ऐसी कविताओं में प्रेम और सौंदर्य एक दूसरे में घुल मिल गये हैं। केदारजी का प्रेम परकीया या नायिका भेदी प्रेमिका-वादी प्रेम नहीं है। वह षुध्द स्वकीया पत्नी वादी घरू प्रेम है। उनकी ऐसी कविताएँ भी, जो उन्मुक्त मांसल सौंदर्य की खुली अभिव्यक्ति हैं, और आभास देती हैं कि ये परकीया सौंदर्य की कविताएँ होंगी, पर असल में कवि पत्नी ही उसके भी केन्द्र में हैं। केदारजी की स्वीकारोक्ति इसी ओर संकेत करती है - ''मेरी बीबी साहिबा अभी प्रयाग ही हैं। न जाने कब आएँगी। कमी महसूस हो रही है, सच पूछो तो उन्हीं को प्यार करने को मन हो रहा है। न कविता छूटेगी, न वह छूटेंगी। पर इस स्पश्ट कथन को बुरा न मानकर यह समझ लेना कि मुझे भी बसंत आ गया है। षायद इन्हीं तरह के क्षणों में मैंने उन पर पिछली कविताएँ लिख दी थीं।' ( केदारजी का 8.2.1957 का पत्र रामविलासजी को ) 'मूलत: मैं पत्नी प्रेमी रहा हूँ और मेरी प्रेम की कविताएँ उन्हीं के प्रेम और सौंदर्य की कविताएँ हैं। कहीं कहीं, कभी कभी कुछ कविताएँ, ऐसी झलक दे जाती हैं, जैसे कि मैं उनके अलावा भी दूसरी नारियों से घनिश्ठ रूप से सम्बध्द रहा हूँ। बात ऐसी नहीं है, जो मैं ऐसा लिख गया हूँ, वह केवल पारंपरिक काव्य संस्कार का परिणाम है, जो घर की चहारदीवारी से बाहर पहुँच गया - हैं ('मुझे भी कुछ कहना है'- जमुन जल तुम)
कुछ बानगियाँ 'अवसि देखिये देखन जोगू' - 1. 'हे मेरी तुम/ जब तुम अपने केष खोलकर / तरल ताल में लहराओगी , / और नहाकर चंदा सी बाहर आओगी / दो कुमुदों को ढँके हाथ से / चकित देखती हुई चतुर्दिक/ तब मैं तुमको / युग्म भुजाओं में भर लूँगा। और चाँदनी में चूमूँगा तुम्हें रात भर / ताल किनारे । 2. तुम मुझे कुछ न दो / न अपनी उँगलियों के स्पर्ष की बर्तुल लहरियाँ / न अपनी ऑंखों की चुम्बकीय बिजलियाँ / न अपने कंधों पर की झुकी हुई मदांध सुगंधित रातें / न अपने गालों के गुलाबी प्रभात / न अपने नितम्बों का चरणों तक बहता हुआ महोल्लास।' ं
'प्रेम तीरथ', 'स्टैच्यू', 'फूल सी कोमल उँगलियाँ', 'दिन अब भी गरम और गुदगुदा होता है', 'पिकासो की पुत्रियां' तथा 'मैं गया हूँ डूब' आदि अनेक कविताओं में अकुंठ दैहिक सौंदर्य की (कहीं कही वासना-पगी) मानवीय अभिव्यक्ति मिलती है। एक तरह से केदारजी की प्रारंभिक कविताओं में नारी तत्व प्रधान रहा है। इतना प्रधान कि रामविलासजी को 1943 में ही कहना पड़ा कि -
1. 'तुम कविता में 'नारी' पर लिखना 'कुछ कम कर दो ' (रामविलासजी का 10.2.1943 का पत्र)। 2. 'नारी को obsession बनाने से बचो। तुम उस पर काफी लिख चुके हो ' (रामविलासजी का मई 1943 का पत्र)
लेकिन रामविलासजी की इस सीख से केदारजी ने कोई खास सीख नहीं ली और आगे भी लिखते रहे। लेकिन इसमें कहीं लम्पटता का भाव नहीं है। हाँ रसिकता का भाव ज़रूर है। एक जिम्मेदार स्वाभाविक प्रेमाचार की अभिव्यक्ति है। इस प्रेमाचार में कहीं कहीं सुरतवाद की छौंक भी दिखाई देती है। कालिदास के संदर्भ से उन्होंने इसे स्वीकारा भी है। 28.9.1956 के पत्र में रामविलासजी लिखते हैं 'कालिदास में सुरतवाद बहुत है। वरना वह भी आदमी था काम का। 30.9.1956 के पत्र में केदारजी लिखते है - 'मुझमें भी वहीं मोह है इसलिए मैं सुरतवाद की मिठास में पग जाता था। भई जान, चीज ही ऐसी है वह। '
'धूप' केदारजी का बहुत प्रिय विशय है, क्योंकि वह ऍंधेरे के नहीं, उजास के, प्रकाष के, आस्था के, संघर्श के, कर्म के कवि हैं। धूप हमें ऊर्जा देती है, ऊश्मा देती है। यह प्रात: कालीन धूप ही है, जो हमसे कहती है - जागो उठो ओर कर्म करो। केदारजी की कविता में धूप के अनेक राग-प्रवण और सात्विक दीप्त से दीपित संघन बिम्ब हैं, लेकिन सब एक दूसरे से भिन्न अपनी स्वतंत्र अर्थवत्ता और सत्ता के साथ - दुहराव की छाया तक से दूर, गहन ऐंद्रिकता लिए, हमारी चेतना में घटित होते हुए -
1. धूप नहीं, यह / बैठा है खरगोष पलंग पर / उजला,/ रोयेंदार मुलायम -/ इसको छूकर / ज्ञान हो गया है जीने का / फिर से मुझको। 2. भूल सकता मैं नहीं / ये कुच खुले दिन,/ ओठ से चूमे गये / उजले धुले दिन:/ जो तुम्हारे साथ बीते/ रस भरे दिन,/ बावरे दिन,/ दीप की लौ से गरम दिन। 3. धूप धरा पर उतरी / जैसे षिव के जटाजूट से गंगा उतरी। 4. धूप चमकती है चाँदी की साड़ी पहने / मैके में आयी बेटी की तरह मगन है। 5. रची उशा ने ऋचा दिवा की 6. धूप हँसी दूधिया दीप्ति से 7. धीरे से पाँव धरा धरती पर किरनों ने / मिट्टी पर दौड़ गया लाल रंग तलुवों का / छोटा सा गाँव हुआ केसर की क्यारी सा / कच्चे घर डूब गये कंचन के पानी में। 8. खिला है अग्निम प्रकाष ।
धूप की पहली किरण का संस्पर्ष सृश्टि को कैसे उल्लास से भर देता है , कैसे उस पर 'राग' का 'आह्लाद' छा जाता है - 'प्रभात' कविता इसी को दर्षाती हैं।
केदारजी विराग के नहीं राग के कवि हैं। निरालाजी में 'राग' और 'विराग' का अनवरत द्वन्द्व मिलता है। केदारजी में विराग अपवाद रूप में ही मिलेगा। यहाँ तक कि 'ष्मषान 'वैराग्य' भी नहीं। 'ष्मषान वैराग्य' के मूल में होती है चिता। लेकिन चिता पर लिखी - वह भी अपनी पत्नी की चिता पर लिखी - उनकी कविता महाराग की कविता है - वैराग्य की नहीं। चिता जलने का दृष्य अमूमन वीभत्सता ही पैदा करता है - 'वीभत्स रस' के उदाहरण में जलती चिता का वर्णन भी हमे पढ़ाया गया है। लेकिन कवि प्रिया पार्वती देवी की चिता का विम्बन हमें एक अद्भुत सौंदर्य-लोक में ले जाता है, जहाँ चिता की लपलपाती प्रज्ज्वलित षिखाएँ - कंचनवर्णी पंखुरियों का कुबलय कुमुद खिलाती हैं और चिता की भस्म 'राग पराग' हो जाती है - 'चिता जली / तो मैने देखा / दहन दाह में /कंचनवर्णी पंखुरियो का / कुबलय कुमुद खिला / रज को / राग पराग मिला ।'
प्रज्ज्वलित चिता का ऐसा उदात्ता , राग युक्त भव्य सौंदर्य विम्बन षायद विष्व साहित्य में अकेला होगा। प्रेम के औदात्य की पराकाश्ठा और ऐतिहासिक द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी जीवन दर्षन के प्रति गहन भरोसा ही ऐसी चेतना दे सकता है। यहाँ चिता की प्रज्ज्वलित षिखाएँ , यज्ञ की प्रज्ज्वलित षिखाओं से होड़ लेती हुई उसे परास्त कर देती हैं। जीवन के प्रति उनका यह प्रगाढ़ महाराग ही है, जिसके बूते पर केदारजी ताल ठोंक कर कहते हैं -
1. मैंने ऑंख लड़ाई / गगन विराजे राजे रवि से। 2. मैं नयन में / सूर्य की / आलोक आभा ऑंजता हँ। 3. इस जीने को / सौ - सौ मन से जीना है /------ इस जीने को मौत मारकर जीना है।
केदारजी की काव्य यात्रा 30-31 से षुरू होती है। प्रारभ के 6-7 वर्शो तक की उनकी कविताएँ भाववादी रूझान की कविताएँ है जो जीवन के यथार्थ के बरक्स किसी सुचिन्तित जीवन दृश्टि से रहित, पुराने ढर्रे की कविताओं के पढ़ने-सुनने से बनने वाले भावबोध की कविताएँ हैं ।
कानपुर में वकालत पढ़ने के दौरान, लखनऊ में, जब वह निरालाजी से मिले (निराला जी से मिलने कानपुर से साइकिल से लखनऊ गये थे।) रामविलासजी से मुलाकात हुई जो धीरे धीरे मित्रता में बदलती गयीय तब उनका भाववादी रुझान जीवन की कटु सच्चाइयों के विष्लेशण की तरफ मुड़ने लगा। ऑंखों देखी दुनिया की असंगतियाँ और अन्तर्विरोध मन में सवाल पैदा करने लगे। उनकी कविता में भी, दुनिया को देखने -समझने के नज़रिये में हुए बदलाव का असर दिखने लगा। श्रम का मूल्य, श्रम का सौंदर्य उनकी कविता का मूल्य और सौंदर्य बनने लगा। पंत की 'चाँदनी रात में नौका विहार' के बरक्स सन 1937 में लिखी 'दोपहरी में नौका विहार' उनकी बदली हुई दृश्टि का परिणाम है ।
ये दोनो कविताएँ दो जीवन-दृश्टियों ओर दो जीवन-षैलियों का प्रतिनिधित्व करती हैं। एक आरामतलबी और परोपजीविता का प्रतीक है, तो दूसरी कर्मठता का, श्रमषीलता का, श्रम के सौंदर्य का और स्वावलम्बिता का। पंतजी मल्लाहाें के श्रम पर आनंद भोगते हैं, केदारजी खुद डाँड़ चलाते हैं, हाथों में छाले पड़ते हैं, फिर भी पंत की आनन्दानुभूति से, इनकी आनन्दानुभूति रंच मात्र भी कम नहीं है क्योंकि ये छालों को चूमकर उन्हे 'मीठे दाख' बनाने का गुर जानते हैं, और हमें भी 'श्रम ही सौंदर्य है' का अभिनव मंत्र देते हैं। कविता हरम और ड्राइंगरूम से निकलकर खेतों-खलिहानों, मैंदानाें और कंटकाकीर्ण पथरीले रास्तों पर उल्लास के साथ दौड़ने लगती है ।
रामविलासजी मानते हैं कि केदारजी की कविताओं में राजनीति की निर्णायक भूमिका है। उनकी कविता की विकास यात्रा की अगर हम पड़ताल करें तो इस कथन की सत्यता षत प्रतिषत प्रमाणित होती है ।
1937 से षुरू हुई, देखी हुई सच्चाइयों की काव्य-यात्रा 1994-95 तक लगातार अपने समये से और समय की राजनीति से मुठभेड़ करने वाली यात्रा रही है। 'कहें केदार खरी खरी' की कविताएँ इसकी साक्षी हैं। देष की जन-विरोधी राजनीति और सरकार दोनों को वह आडे हाथों लेते हैं। राजनीतिक कविताओं में केदारजी का स्वर तंज का ही रहा है - 'आग लगे इस रामराज में', 'नेता', 'न मारौ नजरिया', 'यदि आयेगा डालर', 'क्या लाये', 'चुनाव मोरचे की अन्त्याक्षरी', 'हम तौ उनका वोट न देबैं', 'वास्तव में', तथा 'लड़ गये' आदि अनेक कविताएँ इसकी गवाह हैं। इन कविताओं का व्यंग्य एक जिम्मेदाराना व्यंग्य है। 'केदार के व्यंग्य में कठोर सोदेद्ष्यता तथा संयम है, जो समूचे व्यंग्य को जनता की विजय का अडिग विष्वास, मार्मिक मानवीयता तथा षक्ति प्रदान करता है। (डा. नामवर सिंह)
देष में जब जन उभार रहता है, जन-आन्दोलन होता है, केदारजी की कविता में जोष, उत्साह, पौरुश और संघर्श की अजस्र धारा बहती है। (एक हथौडे वाला घर में और हुआ') इसी का परिणाम है। यह कविता (मज़दूर का जन्म) श्रम और संघर्श के सौंदर्य की अनूठी कविता है।
केदारजी की कविताओं में उनका समय धड़कता है। उनकी कविताएँ अपने समय का दस्तावेज़ हैं। उनकी कविताओं को समझने के लिए सन 1937-38 से लेकर 1994-95 का समय और इस पूरे कालखण्ड को समझने के लिए उनकी कविताएँ एक दूसरे की पूरक हैं। अपने समय की विभिन्न घटनाओं, नीतियों और स्थितियों पर उनकी बेबाक टिप्पणियाँ, सच्चाई का आईना है -
1 'पंचवर्शी योजना की रीढ़ /ऋण की श्रृंखला है/पेट भारतवर्श का है और चाकू डालरी है ।' 2. 'देष के भीतर दहन और दाह है / अंतर्राश्ट्रीय स्तर पर वाह-वाह है।
आज की ढपोरषंखी जन विरोधी राजनीति पर एक और टिप्पणी - 'न आग है / न पानी / देष की राजनीति / बिना आग पानी के / खिचड़ी पकाती है / जनता हवा खाती है। '
'आयोग', 'यदि आएगा डालर','देष में लगी आग को', 'उनको महल मकानी', 'आदमी की चाँदमारी' तथा 'ढेर लगा दिये हैं हमने', आदि इसी कोटि की कविताएँ है।
केदारजी की कविताएँ अन्याय, दमन अनाचार, षोशण, भाग्यवादिता, रूढ़ियों, अंधविष्वासों' अकर्मण्यता, काहिली, चेतनाहीनता आदि के विरूध्द संघर्श का बिगुल बजाने, वाली कविताएँ है। 'बागी घोड़ा', 'गर्रा नाला', 'घन गरजे', 'एका का बल', षपथ','हथौडे क़ा गीत', 'जब तब', 'दोशी हाथ', 'ऑंख खुली', 'कर उठा', 'कमकर', 'मोरचे पर', 'षक्ति मेरी बाहु में है', आदि कविताएँ इस संघर्श चेतना की आग से लैस कविताएँ हैं ं।
केदारजी जन कवि हैं। धरती के कवि हैं। स्थानीयता के कवि हैं - वायवीयता के नहीं। स्थानीयता कविता को प्रामाणिकता प्रदान करती है। उनकी कविता में बुन्देलखण्ड चप्पे-चप्पे पर उपस्थित है - अपनी ठेठ प्रकृति, अपने खुरदुरे परिवेष, अपनी जीवन्त धड़कन, अपनी अपनापे भरी बोली बानी तथा अपने अन्तर्विरोधी चरित्र के साथ। लेकिन उसकी व्यापकता उसका प्रभाव स्थानीयता की सीमा को लाँध कर राश्ट्रीय तथा अन्तर्राश्ट्रीय हो गया है। केदारजी निरे, कोरे अनुभव को षब्द-बध्द करने वाले कवि नहीं हैं।' वह कढे होने के साथ-साथ पढे हुए कवि भी हैं। 'मित्र-संवाद' में ऐसी तमाम पुस्तकों की सूची और संदर्भ मिलेंगे जिनसे यह पता चलता है कि केदारजी ने जितना जिंदगी की कठोर सच्चाइयों से सीखा है, उतना ही इन पुस्तकों के गहन अध्ययन से, इन सच्चाइयों के पीछे छिपे कारणों की तलाष करने, उनका विष्लेशण करने और कविता में उसको ढालने का गुर भी सीखा है। जनवादी लेखक संघ ,द्वारा दिल्ली में 28.6.2000 को आयोजित केदारजी की षोक-सभा में इसी सूची को देखकर नामवरजी ने कहा था कि उनका 'पुनर्जन्म' हुआ।
केदारजी जनता के अटूट विष्वास के कवि हैं। और जनता पर अटूट विष्वास करने वाले कवि हैं। मनुश्य के विकास और दुनिया के इतिहास को जानने और समझने वाले कवि हैं, इसीलिए वह इस सत्य को जानते हैं कि पतन और मौत राश्ट्राध्यक्षों, षासकों और षोशकों की होती है। जनता तो हमेषा जीवित रहती है - वह अजर अमर है। बदलते तो षासनाध्यक्ष हैं - जनता तो वही रहती है। केदारजी जनता की अमरता का उद्धोश करते हैं - 'किसी देष या किसी राश्ट्र की / कभी नहीं जनता मरती है।' क्योंकि - 'जनता सत्यों की भार्या है / जागृत जीवन की जननी है / महामही की महा षक्ति है। '(जनता) 'वह जन मारे नहीं मरेगा' कविता भी इसी दृढ़ विष्वास की घोशणा करती है।
केदारजी महान मानवीय मूल्यों और मनुश्यता के खोज के कवि हैं। आज जब एक सच्चे मनुश्य के सामने यह सवाल मुँह बाए खड़ा हो कि - 'कैसे जिएँ कठिन है चक्कर / निर्बल हम बलीन हैं मक्कर / तिलझन ताबडतोड़ कटाकट / हड्डी की लोहे से टक्कर।' तो जाहिर है कि ऐसे तिलझन भरे हालात में मनुश्य का मनुश्य बने रहना बहुत मुष्किल है। ऐसे मुष्किल हालात से संघर्श करते हुए जो अपनी आदमीयत बचा पाने में समर्थ हुआ होगा, केदारजी उसी की खोज करते हैं - 'मैं उसे खोजता हूँ / जो आदमी है / और अब भी आदमी है / तबाह होकर भी आदमी है / चरित्र पर खड़ा/ देवदारू की तरह बड़ा ।'
तमाम तरह के दबावों, प्रलोभनों और झंझावातों के बीच अपनी मनुश्यता बचाए रखने के लिए आदमी को खफ्ती तक होना पडेग़ा - ढुलमुल आदमी, हानि-लाभ का गणित लगाने वाला आदमी - 'तबाह होकर भी आदमी होने' के इम्तहान में पास नहीं हो सकता। इसीलिए वह कहते है-
'खफ्त हैं मुझे/ आदमी होने का / बेखफ्त आदमी / साँड़ है / सियार है / पेट भर लेता है / नेता है।' नेताओं पर इससे बड़ी चोट और क्या हो सकती है।
केदारजी पेषे से वकील थे - जीविकोपार्जन का यही साधन था। जीवन की नंगी सच्चाइयाँ, समाज का असली चेहरा, न्याय पर अन्याय का बोल बाला, आदमी का दोगलापन, सच पर झूठ की विजय आदि विसंगतियाँ और बिद्रूपतायें उन्हें कचहरी ने दिखाईं। जिंदगी का यथार्थ और यथार्थ की ज़िंदगी - क्या हैं - यह उन्होंने कचहरी से ही सीखा। अगर वह वकील न होकर कुछ और होते, तो पता नहीं, उनकी कविताओं का यथार्थ, इतना प्रामाणिक और असरदार होता कि नहीं, कहना मुष्किल है - षायद नहीं होता।
वकालत और कविता, इन दोनों का कोई स्वाभाविक रिष्ता तो बनता नहीं, पर जो सच है, उसे तो मानना ही पड़ेगा, भले ही एक चमत्कार की तरह। 'तुम वकालत करते हुए, कविता लिख लेते हो, यह मेरे लिए चमत्कार का विशय रहा है। ' (रामविलास षर्मा का 28.7.1959 का पत्र)
हिन्दी कविता को यह चमत्कार विरासत में मिला हुआ है। संत कवियों का साहित्य और उनका पेषा इस चमत्कार को पहले ही संभव कर चुका है। केदारजी उसी विरासत की अगली कड़ी हैं।
न्याय व्यवस्था और न्यायिक प्रक्रिया की विसंगतियों, उसके अन्तर्विरोधों और अमानवीय चेहरे पर उनकी टिप्पणियाँ हैं तो संक्षिप्त, पर वे बहुत गहरे असंतोश और असहमति से पैदा हुई हैं। एक बानगी -'सच ने जीभ नहीं पायी है / वह बोले तो कैस / **** / न्यायी बैठे जीभ पकड़ते/****/ सच जीते तो कैसे / न्याय मिले तो कैसे / असली का नकली हो जाता / नकली का असली हो जाता / न्याय नहीं हंसा कर पाता / नीर क्षीर बिलगे तो कैसे / सच की साख जमे तो कैसे / ****/ झूठ मरे तो कैसे /' इसीलिए - 'सच/अब नहीं जाता / अदालत में / खाल खिंचवाने/ मूँड़ मुँड़वाने / हाड़ तोड़वाने / खून चुसवाने / सच,/ अब झाँक नहीं पाता / अदालत में / न्याय नहीं पाता / अदालत में ।' 'सच झूठ' (कहं केदार खरी खरी -169) तथा 'चिड़िया' (वही - 156) ऐसी ही तल्ख मिजाज की कविताएँ हैं।
'देह से मुक्ति' की अवधारणा से अलग, स्त्री विमर्ष की यदि कोई दूसरी अवधारणा है, तो वह स्त्री विमर्ष केदारजी की कविता में प्रांरभिक दिनों से ही मिलता है, जैसा कि प्रेमचन्द में भी मिलता है। केदारजी कविता में प्रेमचन्द की विरासत को आगे बढ़ाने वाले रचनाकार हैं। 27 मार्च, 1933 को लिखी कविता 'पति की टेक' (जो षिलाएँ तोड़ते हैं, पृ0 42), परिवार में स्त्री की दयनीय हैसियत का मार्मिक चित्रण है। 'मुल्लो अहिरिन' (वही -69) 'गाँव की औरतें' (वही - 77) 'देहात का जीवन' (वही - 91) 'जहरी' (वही-पृ0 135) 'सीता मैया' (वही-150) रनिया (गुलमेंहदी - 48) ब्याही अनब्याही (कुहकी कोयल खड़े पेड़ की देह - 188) आदि स्त्री विमर्ष की अवधारणा के अनेक पहलुओं को स्पर्ष करती हैं।
'दलित विमर्ष' की षर्तों में से यदि - दलित का लेखन ही दलित-विमर्ष की कोटि में आयेगा - को दरकिनार कर दें, तो केदारजी की कविताओं में दलित विमर्ष स्पश्ट रूप से देखा जा सकता है। 'लकड़हारा' (बसंत में प्रसन्न हुई पृथ्वी -19) 'मल्लाह' (वही-23 ) तकवैया (वही-26) चन्दनवा चैती गाता है' (वही-32) 'देवी के बैल कोई खोल ले गया' (वही-66) 'मोची' (वही-144) 'चन्दू' (गुलमेंहदी-46) 'चैतू' (वही-47) 'मजदूर' (वही -44) 'कुली' (जो षिलाएँ-153) आदि इसकी गवाह हैं।
चार पंक्तियों की एक छोटी सी कविता है 'रोटी'। रोटी की क्रांतिकारी ताकत षक्तिषाली से षक्तिषाली एटम बमों को भी मात देती है -
'जब रोटी पर संकट आया / तब भूखे ने द्रोह मचाया / राजपलटकर रोटी लाया / रोटी ने इतिहास बनाया ।' सर्वहारा की ताकत सभी ताकतों से बड़ी है।
जिन लोगों ने केदारजी की 'हे मेरी तुम' श्रृंखला की कविताओं को नहीं पढ़ा है, उनके मन में यह भ्रम है कि इस श्रृंखला की सभी कविताएँ प्रेम की कविताएँ हैं। सच यह नहीं है। कुछ कविताओं को छोड़कर अधिसंख्य कविताएँ दुनिया जहान की बातें करती हैं, मसलन - चिड़ीमार द्वारा चिड़ियों के मारे जाने की पीड़ा, क्रूर काल से न डरना, प्रकृति, राजतंत्र की विसंगतियाँ, लोकतंत्र की विद्रूपताएँ, गरमी, जबर जंग झूठ, भीतर की लौ साधने का हौसला, तथा क्रांति का माहौल बनाये दहका खड़ा सेमल का पुरनिया पेड़, तथा गठरी चोरों की दुनिया में गठरी न चुराने और भुक्खड़ षांहषाह होने की गर्वोक्ति आदि आदि ।
केदारजी सहज और सरल जीवन जीने वाले प्राणी थे, बिल्कुल अपनी कविताओं की तरह। वह प्रषंसा, मान-सम्मान के खतरों को समझते थे। इसके दो खतरे होते हैं। एक तो यह कि अगर उसके अन्दर मान-सम्मान को पचाने की कूवत नहीं है, तो उसका दिमाग खराब हो सकता है। दूसरा यह कि मान-सम्मान के जरिए, वह सिर्फ पुजापे की वस्तु भी रह जाता है-जनता उसे मन्दिर में पत्थर की मूर्ति में तब्दील कर देती है या फिर ताबीज़ की तरह पहनकर उसे भूल जाती है। असल ज़िन्दगी में वह बेमानी हो जाता है। इसीलिए वह ताकीद करते हैं -
मुझे न मारो/मान पान से/माल्यार्पण से यषोगान से/मिट्टी के घर से/निकालकर/धरती से ऊपर उछालकर। 2. सबसे आगे/हम हैं/पाँव दुखाने में / सबसे पीछे / हम हैं / पाँव पुजाने में। 3. उतारकर धर दिया है मैंने अपना बड़प्पन / वहाँ उस मुर्दा अजायब घर में। जहाँ मरणोपरान्त धर दी जाती हैं/बड़े-बड़ों की उतारनें।
केदारजी यथार्थ के कवि हैं, सच्चाई के कवि हैं, वस्तुनिश्ठता के कवि हैं। पर उनकी वस्तुनिश्ठता कोरे रूप में कविता में नहीं आती। वस्तुनिश्ठता पहले उनकी आत्मनिश्ठता को निर्मित करती है और फिर दोनों की 'यौगिक संहति' उनकी कविता का निर्माण करती है - 'अकथ्य को हमने कहा नहीं/असत्य को हमने सहा नहीं/कथ्य को हमने सँवारा/तब कहा/सत्य को हमने दुलारा/तब कहा ।'
केदारनाथ अग्रवाल छोटी कविताओं के, बडे अर्थोवाले बड़े कवि हैं। छोटी-छोटी चीजों पर छोटी कविताएँ लिखने की प्रेरणा उन्हें ग्रीक कवयित्री सैफो से मिली थी। इन कविताओं का जबर्दस्त प्रभाव उनकी चेतना पर पड़ा। दोहा और सोरठा हमारे यहाँ पहले ही 'गागर में सागर' को चरितार्थ कर चुके हैं। व्यंजना का विस्तार और अर्थ की अपार गहराई केदारजी की छोटी कविताओं में भरी पड़ी है। पूरी मानव जाति के विकास की महागाथा में प्रकृति और मनुश्य के रिष्ते महज़ चन्द षब्दों में बयाँ करने की उनकी ताकत स्पृहणीय है - 'पेड़ नहीं। पृथ्वी के वंषज हैं/फूल लिये/ फल लिये मानव के अग्रज हैं ।' ऐसी अनेक कविताएँ उनकी पूरी काव्य-सम्पदा में भरी पड़ी हैं। एक और बानगी बालक ने/कंकड़ से/ताल को कँपा दिया / ताल को नहीं/अनन्त काल को कँपा दिया ।'
कविता का एक धर्म है - अषाष्वत को षाष्वत बनाना। मर्त्य को अमर्त्य बनाना। वे तमाम ऐसी चीजें जो काल के क्रूर थपेड़ों से नश्ट होने के लिए ही जन्मी हैं - केदारजी की कविता में आकर अमरत्व प्राप्त कर गई हैं - गर्रा नाला, गुम्मा ईंट, भोगिला बैल, भगौता बढ़ई, रनिया, जहरी, गिलहरी, बया आदि-आदि इसकी मिसाल हैं। पर्यावरण में जिस तरह की तब्दीलियाँ हो रही हैं - केन नदी भी, टुनटुनिया पहाड़ भी अस्तित्वहीन हो सकते हैं-पर केदारजी की कविता में ये हमेषा अस्तित्ववान रहेंगे।
केदारजी बाल्यावस्था को छोड़कर लगातार षहरों में ही रहे, मसलन रायबरेली, कटनी, जबलपुर, इलाहाबाद, कानपुर और फिर बाँदा। लेकिन गाँव से सम्पर्क लगातार बना रहा-कचहरी की इसमें असरदार भूमिका रही। इसीलिए गाँव उनकी चेतना से उनके संस्कारों से कभी ओझल नहीं हो पाया। गाँव, गाँव का परिवेष, गाँव के चरित्र, गाँव का अन्तर्विरोध उनकी कविताओं की मूल धुरी रहे हैं। 'लोक का आलोक' उनकी कविताओं को 'संगमरमर के भीतर जल रहे दिए' की भाँति आलोकित किए हुए है। कुछ कविताएँ तो लोक कविता के बहुत ही निकट हैं। लोक कविता और लोक गीतों की एक खास विषेशता है -टेक। टेक मौखिक परम्परा में स्मरणीयता और मुख्य बात पर बल देने में कारगर होती है। केदारजी की कई कविताओं में इस टेक षैली के दर्षन होते हैं। ऐसी कविताओं की भाशा, इनकी षैली, इनकी कहन, इनके मुहावरे लोकथाती से ही निर्मित हुए हैं। 'आल्हा' बुन्देलखंड और अवध का बहुत प्रचलित पसंदीदा, प्रभावकारी और स्वीकार्य लोक काव्य-रूप हैं। 1946 में बम्बई में हुए नाविक विद्रोह पर केदारजी ने 'बम्बई का रक्तस्नान' षीर्शक से आल्हा लिखा। उसी समय सफदर, रामविलासजी तथा कुछ और लोग भी आल्हा लिख रहे थे। (केदारजी का 15.3.46 का पत्र) 'कामायनी' आल्हा छंद में ही रची गई है।
मूल रूप से केदारजी सहज भाशा और लय के कवि हैं अधिसंख्य कविताएँ भाश के स्तर पर सीधी-सादी, सरल और लोक की बोली-बानी की कविताएँ हैं। लेकिन सरलता का मतलब एकरेखीयता नहीं है। उनमें अनेक अर्थ-छवियाँ हैं और व्यंजना का विस्तार है। सामान्य अर्थों मे कुछ और विषेश अर्थों में कुछ। विषेश अर्थों में वह गूढ़ और संष्लेश्य निहितार्थों के कवि है। अपनी कविता की यात्रा के उत्तर पक्ष में जब वे कचहरी से अपना नाता तोड़ चुकते हैं, लोक से सीधा सप्पर्क न के बराबर रह जाता है, पुस्तकों से सम्पर्क बढ़ जाता है- भाशा में आभिजात्य का पुट आने लगता है -'जग सोया/जागी गंधाली/प्राण-सार प्रज्ञा प्रतिपाली।'
उनकी बहुत कम ऐसी कविताएँ हैं, जिनमें लयात्मकता न हो। देखने में अतुकान्त लगनेवालीं कविताएँ, कहीं कहीं तो गेयता की सीमा को छूती हुई, लयात्मक तुकान्तता में पर्यवसित होती हैं। ऐसी ही कुछ अतुकान्त कविताएँ पंडित जसराज ने संगीतबध्द की हैं - लयात्मकता के बूते पर ही। प्रारम्भिक काव्य-संस्कार इसके मूल में हो सकते हैं। कविता के संस्कार इन्हें तुक और लय से मालामाल कवित्त-सवैयों और अन्य छन्दों से ही मिले हैं। आरम्भिक दौर में केदारजी ने स्वयं कवित्त, सवैये और तुकप्रधान कविताएँ लिखी हैं। लेकिन ये सब तभी तक कारगर रहीं, जब तक कविता भावोद्गार और भवोच्छ्वास तक सीमित रही। जब यथार्थ की ऊबड़-खाबड़ ज़मीन पर कविता की यात्रा आरम्भ हुई तो तुक और छन्दोविधान के व्याकरण की जकड़बन्दी, इन्हें अपने को अभिव्यक्त करने में बाधक लगने लगी और केदारजी ने रामविलासजी के तमाम समझाने के बावजूद छंद और तुक की जकड़बन्दी से मुक्ति ले ली। (मुक्तछन्द के प्रति केदारजी की आसक्ति को देखकर रामविलास जी ने एक पत्र में उन्हें 'फ्रीवर्स मेरी जान' कहकर सम्बोधित किया ।) लेकिन लय, अन्त: स्रोतस्विनी की तरह उनकी कविता में सहजता से प्रवाहित होती रही। लय उनकी कविताओं में उसी तरह अन्तर्भुक्त है, जैसे ज़िन्दगी में साँस ।
केदारजी का मानना है कि किसी भी वस्तु को महज सुन्दर कहने से वह सुन्दर नहीं हो जाती - वह वस्तु सुन्दर क्यों है, यह बताना भी अनिवार्य है-'धूप सुन्दर धूप में जगरूप सुन्दर' कहने भर से ही धूप थोड़े ही सुन्दर हो जाएगी-धूप सुन्दर क्यों है-यह बताना पड़ेगा। यदि हम धूप का ही उदाहरण लें, तो हम पाते हैं कि केदारजी बाकायदा यह बताते हैं कि धूप सुन्दर क्यों है-वह धूप की सुन्दरता का एक बिम्ब, एक चित्र खड़ा करते हैं।
प्रगतिषील कवि महान मानवीय मूल्यों के कवि होते हैं। मनुश्य की स्वतंत्रता के पक्षधर कवि होते हैं। साम्राज्यवाद और युध्द के विरोधी तथा षान्ति के पक्षधर कवि होते हैं॥ केदारनाथ अग्रवाल की कविता में ये सभी तत्व पूरी ताकत और ईमानदारी से मौजूद हैं।
केदारजी की ख्याति एक कवि के रूप में ही है । वह भी अपने को मुख्य रूप से कवि ही मानते हैं। हालाँकि परिमाण की दष्श्टि से उनका गद्य उनकी कविता से कम नहीं है । उनके गद्य में भी उसी तरह का वैविध्य-विस्तार है जिस तरह कि उनकी कविता में । 'मित्र संवाद' में कई ऐसे प्रसंग हैं जिसमें जब रामविलासजी उनके पत्रों के गद्य की तारीफ करते हैं। तो वह उससे प्रसन्न नहीं होते, जबकि जैसे कविता उनकी रचना है वैसे ही गद्य भी उन्हीं का रचा हुआ होता है - ''मेरी पत्नी अब अच्छी हैं । चलती फिरती हैं, घर का कामकाज भी थोड़ा करने लगी हैं। । महीने भर में आषा है ठीक हो जायेंगी । तुम्हारी चिट्ठी सुनकर वह बहुत प्रसन्न हुईं, मुझसे 'सिहार के' रख देने को कहा । देखो तुम्हारा गद्य-काव्य स्त्रियों को भी अच्छा लगता है । '' (रामविलास षर्मा 12.9.1957)
इस तरह रामविलासजी बार-बार केदारजी के पत्रों के गद्य की तारीफ करते हैं। उन्हें इनके पत्रों का गद्य इतना पसंद था कि वह उन पत्रों को दूसरों को पढ़वाते थे और कभी-कभी तो सामूहिक पाठ भी करते थे - अपने परिजनों - मित्रों के बीच। पत्रों की तारीफ सुनते-सुनते केदारजी रीझने के बजाय खीझ से जाते हैं और लिखते हैं - '' मेरे पत्र तुम्हे अच्छे लगते हैं । यही तो वजह है कि तुम्हें मेरी कविताएँ नहीं रुचतीं । मैं जानता तो पत्र ही नहीं लिखता और तब देखता कि कविताएँ कैसे अच्छी नहीं लगतीं । भूल तो हो गयी न ! इसका पछतावा रहेगा'' (केदारनाथ अग्रवाल 12.3.66)
केदारजी के पत्रों के गद्य पर अलग से कुछ कहने के बजाय रामविलासजी को उध्दष्त करना मैं बेहतर समझता हूँ - 'केदार को हास्य विनोद से सहज प्रेम है । प्रेम ही नहीं हंसना, प्रसन्न रहना, उनकी सहज वष्ति है । 'वह हास्य विनोद की सामग्री वहाँ ढूँढ़ लेते हैं, जहाँ कवियों की निगाह कम जाती है । यहाँ उनके पत्रों का गद्य उनकी कविता से भिन्न है । कविता में एक छोर पर तीखा मारक व्यंग्य है ( इसकी अनोखी मिसालें 'कहें केदार खरी खरी' में है। ) दूसरे छोर पर 'फूल नहीं रंग बोलते हैं' की दुनिया है। हँसने हँसाने के लिए कविता में उन्हें कम समय मिलता है । पर यह उनके व्यक्तित्व का महत्वपूर्ण पक्ष है। इस दष्श्टि से पत्रों का ग़द्य उनकी कविता का पूरक है । x x x x x बहुत जगह तो वह कविता बन जाता है, छायावादी षब्दावली में रचा हुआ गद्य काव्य नहीं, यथार्थवादी कविता, ऐसा गद्य जो अपनी गद्य की जमीन नहीं छोड़ता, फिर भी कविता बन जाता है और कहीं तो कविता से आगे बढ़ जाता है। केदार जो कुछ भी कविता में कहना चाहते हैं, उसे गद्य में भी कहते हैं। और इतने सहज भाव से कहते हैं कि उस अभिव्यक्ति की पूर्णता को कविता नहीं छू पाती हमेषा ऐसा नहीं होता, पर कभी कभी ऐसा भी होता है ।
केदार के गद्य में बहुत सी भाव दषाएँ हैं - 'भाव भेद रस भेद अपारा' की उक्ति को चरितार्थ करती हुई । पता लगाना दिलचस्प होगा कि उनकी कविता में इतनी भाव दषाएँ हैं या नहीं । कहीं वह रीझते हैं, कहीं खीझते हैं, कहीं उत्तेजित होते, कहीं स्थिति प्रज्ञ, कहीं दुखी, कहीं प्रसन्न, कहीं किसी व्यक्ति या वष्त्ति से तादात्म्य, आपा खोऐ हुए बेसंभाल, कहीं एक दम तटस्थ, विवेकषील, तर्क का सूत कातते हुए मन ही मन हंसते हुए । उनकी अनेक मुद्राए हैं, अनेक भंगिमाएं हैं, मेरे लिए उनकी सबसे प्रिय मुद्रा वह है जब वह मन ही मन हंसते हैं 'सजल नयन गदगद गिरा गहवर मन पुलक षरीर' - कभी-कभी यह भी स्थिति होती है । x x x x x A
उनके पत्र आत्मवक्तव्य का श्रेश्ठ साधन हैं । यह आत्माभिव्यक्ति परिवेष से कटी हुई नहीं है, दष्ढ़तापूर्वक उससे जुड़ी हुई है । कवि के व्यक्तित्व निर्माण की प्रक्रिया का अध्ययन करना हो तो इन पत्रों से ज्यादा अच्छी सामग्री दूसरी जगह न मिलेगी । x x x x x । केदार ने जो अच्छी कविताएँ लिखी हैं, उनके आसपास नागार्जुन निराला या किसी अन्य महाकवि की पंक्तियां पहुंच जायेंगी, पर केदार ने जो बढ़िया गद्य लिखा है, उस तक किस कवि का बढ़िया से बढ़िया गद्य पहुंचता है, विचार करें । ऐसा नहीं है कि हिन्दी में अच्छे गद्य लेखक नहीं है । हैं, और एक से बढ़कर एक हैं। सवाल गद्य के मिजाज का है । केदार अपने पत्रों में जिस तरह का गद्य लिखते हैं उस तरह का गद्य हिन्दी में किसी और ने नहीं लिखा है । दरअसल केदार अपने हुनर से बेखबर हैं । जो सहज है उसे ऐसा होना भी चाहिए । जहाँ-तहाँ केदार का गद्य 'राम की षक्ति पूजा' के उदात्त स्तर को स्पर्ष कर पाता है ।' (मित्र संवाद : भूमिका )
केदारजी के पत्रों में कब कहाँ कोई दुर्लभ सटीक और सीधा लक्ष्य बेध करने वाला कोई वाक्य या कोई गद्य कविता अपने रोचक अंदाज में मिल जाएगी कहना मुष्किल है । कुछ उध्दरण पर्याप्त होंगे-
1. क्रांति भी अतीत के अन्दर से अपनी जडें निकालती है और अंकुरित होकर जो भी है उसी से षाखें फैलाती है । Contradiction के साथ ही क्रांति का सौन्दर्य फूटता है - मन मोहता है । (केदार - 12.4.1976)
2. नयी कविता की समस्या दूसरे को स्पर्ष न कर सकने की समस्या है । (केदार - 24.2.59)
3. अच्छी कविता तभी बनती है, जब कवि उसमें डूब जाता है और आए हुए आशाढ़ी बादल की तरह बरस पड़ता है । (केदार - 13.3.59)
4. कोई कविता हो वह वरण से पाई जाती है हरण से नहीं । यहाँ तो कविता वाले सोच विचार से काम नहीं लेते । झट से पालने में पड़े बच्चे की तरह जो भी हाथ में आया माँ का स्तन समझ चिचोरने लगते हैं । (केदार - 29.10.70)
5. कविता कोई फैषन की नयी आयी साड़ी नहीं है कि जो चाहे देखकर ऑंख मुलमुलाने लगे । (केदार - 14.12.73)
6. नये साल की बधाई लो । इस वक्त सबेरे का सूरज बादलों का लिहाफ ओढ़े अपने आसमानी घर में षायद चाय पी रहा है । वहाँ कोई पकौड़ी बनाने वाला या मुँगौड़ा बनाने वाला नहीं है, इससे वह केवल चाय पी रहा होगा । अगर बादल जरा भी फटा तो वह फौरन धरती की ओर मुँगौड़े वाली की दुकान तक आ जायेगा । (केदार - 1.1.1958)
7. घर में औरतें चूल्हा गरमाए खुद गरम हो रही हैं (केदार - 1.1.1958)
8. यहाँ गरमी रानी दिन में धूप की जलेबी बनाने लगी हैं । (केदार 7.5.58)
9. गरमी तो तेजधार की तरह लगती है और खून न बहाकर पसीने पसीने कर देती है । पानी भी बरसता है तो जैसे मुरदों पर चाँदी के गुलाबपाष से गुलाबजल छिड़का जा रहा है । हद हो गयी मेघराज तुम्हारी दया दक्षिणा । वह भी सरकारी हो गये हैं । (केदार : 29.7.1966)
10. यहाँ गरमी ऊँट पर चढ़ गयी है । (केदार - 14.5.69)
इस तरह के सैंकड़ों उध्दरण केदारजी के पत्रों में भरे पडे है । विशय वस्तु के साथ-साथ भाशा की अनेक अर्थगर्भित, भावभरित, बहुरंगी छवियाँ केदारजी के पत्रों में बिना किसी भाशाई पाखंड के सहज स्वाभाविक रूप में उपलब्ध होती हैं ।
इन पत्रों में भाशा की ऐसी रवानगी मिलेगी, ऐसी ऐसी अनूठी उपमाएँ-उत्प्रेक्षाएँ, रूपक, मुहावरे, षब्दों की अजब-गजब गठन मिलेगी, बिना किसी बनाव शृंगार के कि क्या कहने हैं। क्योंकि यह कीमियागीरी का कमाल नहीं है । यह दिमागी पच्चीकारी की भाशा नहीं है - यह दिल की अतल गहराइयों से निकली सहजोन्मेश की भाशा है - अपने ठेठ देषी बनक और ठसक के साथ ।
यदि यह सही है कि गद्य कवियों की कसौटी है, तो केदारजी इस कसौटी पर षत-पतिषत खरे उतरते हैं ।
सूचना क्रांति के इस दौर में, संचार-माध्यमों की बाढ़ में पत्र-साहित्य, साहित्य की विलुप्त प्रजाति में तब्दील होने की कगार पर है । इस संदर्भ में नामवरजी का यह कथन और भी मायने खेज है - ''मित्र संवाद'' अन्तत: जीवन का गद्य है । ग़ालिब ने अगर अपने पत्रों के जरिये उर्दू ग़द्य की नींव डाली और उसे परवान चढ़ाया तो रामविलास षर्मा और केदारनाथ अग्रवाल के पत्रों ने हिन्दी में 'गद्य की विलुप्त कला' को बचा लिया ।''(आलोचना, जुलाई, सितम्बर 2000, पृ013)
उनके विपुल गद्य-साहित्य का एक रूप तो पत्रों का है जिसकी चर्चा की जा चुकी है । दूसरा प्रमुख रूप उनकी भूमिकाएँ और कुछ चिंतनपरक लेख हैं। उनकी भूमिकाएँ महज औपचारिक भूमिकाएँ नहीं हैं । ये भूमिकाएँ पर्याप्त विस्तार लिए हुए हैं-'आधुनिक कवि-16' (साहित्य-सम्मेलन, इलाहाबाद सं0 1978) की भूमिका 43 पष्श्ठों की है । इनके अलावा 'समय समय पर' (1970) विचार बोध (1980) तथा विवेक विवेचन (1981) में दर्जन से ज्यादा ऐसे लेख हैं - जिनमें कविता क्या है - कविता और समाज का सम्बंध क्या है - वस्तु परकता और आत्मपरकता क्या है और कविता में इनका पारस्परिक रिष्ता क्या है, लेनिन का 'संज्ञान' का सिध्दांत क्या है, कैसे संज्ञान' की कलात्मक अभिव्यक्ति कविता में रूपांतरित होती है आदि अनेक सवालों का वस्तुपरक वैज्ञानिक विष्लेशण और मूल्यांकन किया गया है । कविता में कलात्मकता और सौंदर्य की क्या भूमिका है - संप्रेशणीयता और टिकाऊपन में कला कैसे मदद करती है वस्तुपरकता की आत्मपरकता आदि ऐसी अनेक अवधारणाएँ उनके ऐसे चिंतनपरक गद्य में भरी पड़ी हैं । प्रगतिषील कविता का सौंदर्यषास्त्र क्या है - यह जानना हो तो उनके ऐसे गद्य का अवगाहन अनिवार्य है । इनसे जुड़े सवालों पर केदारजी ने जितने विस्तार, गहराई और व्यापकता में जाकर चर्चा की है, उतना उनके समानधर्मा समकालीन किसी भी कवि ने नहीं की है । वह इन सवालों पर निरन्तर सोचते रहते थे, यही कारण है कि अपनी कविताओं में भी वह कविता पर बहुत बातें करते हैं। ''कविता में कविता की बात'' विशय पर एक छोटा-मोटा संकलन ही तैयार हो सकता है - जो उनके गद्य में कविता की अवधारणा का पूरक है ।
उनके ऐसे चिंतन प्रधान गद्य में उनका वकील पूरी षिद्दत के साथ मौजूद रहता है । वह अपनी अवधारणा को, पूरे तथ्यों के आलोक में नजीर देते हुए विष्लेशण की कसौटी पर कसते हुए स्थापित करते हैं । ऐसे गद्य में भावुकता का लगभग अभाव सा रहता है, उलझाव की छाया तक नहीं रहती तर्क-दर तर्क का एक ऐसा संगुंफन रहता है कि जो निश्कर्श वह निकालते हैं, उसके अलावा और कोई दूसरा निश्कर्श हो ही नहीं सकता । वकालत इसमें उनकी मदद करती है - जैसे वे जज के सामने कोई मुकदमा लड़ते हैं, उसकी नजीरों के साथ पैरवी करते हैं वैसी ही, उसी षैली में तथ्यों की शृंखला दर शृंखला पेष करते हुए कविता के विकास की पूरी परंपरा का विषलेशण्ा करते हुए आज की कविता को व्याख्यायित और परिभाशित करते हैं।
केदारजी के गद्य का तीसरा रूप है - पुस्तक समीक्षाएँ । पुस्तक समीक्षाओं में - आजकल की समीक्षाओं के बरक्स - उनकी कोषिष यही रही है कि वह एक एक कविता को उसके पूरे सामाजिक परिवेष के साथ 'विष्लेशण करें और उसकी सामाजिक अर्थवत्ता उद्धाटित करें । वह किसी एक पंक्ति या एक-दो कविता को आधार बनाकर - उस पर कोई टिप्पणी या फतवा नहीं देते । इन समीक्षाओं में उनकी विष्लेशण परकता और तर्कणा षक्ति देखते ही बनती है । अपनी समीक्षाओं में वह कविता को उसकी सम्पूर्णता में समझना चाहते हैं ।
उनके गद्य का चौथा स्वरूप है जब वह किसी लेख या किसी की अवधारणा से अहमत होते हैं और फिर उसकी चीर-फाड़ करते हैं। ऐसे समय उनका गद्य काफी आक्रामक हो उठता है - व्यंग्य की तीखी धार के साथ । 'त्रिषंकु' में प्रकाषित अज्ञेय के कुछ लेखों - 'संस्कष्ति और परिस्थिति', 'रूढ़ि और मौलिकता' तथा 'कला का स्वभाव और उ6ेष्य' - में व्यक्त उनके अभिमतों की एक तरह से वह पूरी लानत-मलामत करते हैं। हिन्दी वालों पर फिराक साहब की टिप्पणियों पर जब वह अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं तो जगनिक के 'आल्हखण्ड' की यह पंक्ति बरबस याद आती है कि ''कड़ुवा पानी है महोबे का हमसे बात सही ना जाय ।' कितना आक्रोष था केदारजी को फिराक साहब पर कि अपने प्रतिक्रियात्मक लेख का षीर्शक ही वह रखते हैं 'चाबुक' । भाशा बहुत आक्रामक और कहीं-कहीं असंयत भी हो गयी है । फिराक साहब को ऐसी खरी-खोटी सुनाते हैं कि, यह केदारजी की भाशा हो सकती है विष्वास नहीं होता - जैसा उनका षांत व्यक्तित्व था । ठीक यही बात 'उल्टी खोपड़ी की उपज' लेख में है। किसी सुरसती सरन ने भी हिन्दी पर ऊल जलूल टिपप्णी की थी । यह लेख उसी का माकूल जवाब देने के लिए लिखा गया था ।
केदारजी जब ऐसा करते हैं तो बाकायदे तर्कों और तथ्यों के साथ करते हैं। तर्कों की एक लड़ी बनाते हैं, इतिहास का हवाला देते हैं, वैज्ञानिक चिंतकों के उध्दारण देते हैं, समाज वैज्ञानिक चिंतन की कसौटी पर उसे कसते हैं । बात का बतंगड़ नहीं बनाते।
जैसे कोई न्यायाधीष जब अपना निर्णय सुनाता है तो पक्ष-विपक्ष दोनों की दलीलों को सुनने के बाद उसे सत्य की तुला पर तौलता है । उसी तरह केदारजी भी अपना निर्णयात्मक मत प्रकट करने के पहले, इसी पध्दति का सहारा लेते हैं । वह एक तरफा फैसला नहीं सुनाते हैं।
उनके गद्य का पांचवा रूप है व्यक्तिपरक लेख - मित्रों पर या दूसरे कवियों पर । इसमें उनकी भाशा कभी-कभी संस्मरणात्मक होती है, व्यक्तित्व की पड़ताल करती हुई, पर अगर उसके व्यक्तित्व या रचना या चरित्र में कहीं खोट है या उनसे कोई षिकायत है तो संकेत में ही सही उसकी चर्चा किये बिना नहीं रहते - यह उनकी सहज आदत है । न्यायालय में सत्य की लड़ाई लड़ते, साहित्य में भी वह लड़ाई बराबर लड़ते रहे हैं। सच से बड़ा उनके लिए कोई नहीं है, उनका बहुत खास मित्र भी ।
उनके गद्य का छठा रूप है साहित्य के विभिन्न सवालों से टकराव । इसके लिए उन्होंने प्रष्नोतर षैली अपनायी है । 'आधुनिकता: नयी कविता समस्या और समाधान' इसी षैली का गद्य है ।
उनके गद्य के सातवें रूप में हम उनके साक्षात्कारों को ले सकते हैं । 'कवि मित्रों से दूर' (संपादन अजय तिवारी) जिऊँगा जिंदगी अभी और अभी और (सं0 भगवत रावत, राजेन्द्र षर्मा, मनोहर देवालिया) जैसी पुस्तकों से लेकर 'विवके निवेचन' में संकलित -साक्षात्कारों तथा कुछ अन्यत्र पत्र पत्रिकाओं में प्रकाषित और अप्रकाषित साक्षात्कारों में उनकी बेबाक षैली के निदर्षन होते हैं, बिना किसी दुराव छिपाव के ।
उनके गद्य के आठवें रूप में उनके वे भाशण हैं जो उन्होंने विभिन्न सम्मेलनों और समारोहों में दिये हैं।
उन्होंने एक दर्जन के आसपास कहानियाँ भी लिखी हैं । पहली कहानी जो उपलब्ध है वह 6.2.1930 को लिखी हुई 'बसंत' है । उनकी कुछ कहानियाँ विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में प्रकाषित भी हुई हैं जैसे 'स्वराज्य आ गया' तथा 'छातियों का ऑपरेषन' आदि ।
'जनता का मोर्चा' नाम से एक नाटक लिखा था । संभवत: जुलाई 1947 में, 'इप्टा' (इलाहाबाद) के लिए । यह नाटक हिन्दू मुस्लिम दंगों की पष्श्ठ भूमि पर है । इसमें यह दिखाया गया है कि दंगे होते नहीं हैं - दोनों वर्गों के निहित स्वार्थी तत्व आपसी साँठ-गाँठ करके दंगे कराते हैं लेकिन यदि जनता जागरूक रहे तो ऐसे नियोजित दंगे रोके जा सकते हैं।
कुछ साहित्यिक प्रवष्त्तियों से जुडे लेख हैं। कुछ रेखाचित्रनुमां छोटे-छोट लेख भी हैं जैसे 'पंत' 'निराला' 'महादेवी' आदि ।
इनका यात्रा संस्मरण ''बस्ती खिले गुलाबों की'' - 1973 में इनकी रूस यात्रा से संबधित है । इसकी भाशा कहीं कहीं कवियोचित विम्बधर्मी है । खासकर के वायुयान जब बादलों के ऊपर उड़ता है उस समय बादलों की जो चित्र विचित्र आकष्तियां इन्हें दिखाई पड़ती हैं उसका बहुत ही रोचक वर्णन मिलता है । कहीं-कहीं तथ्यप्रधान सपाट वर्णन भी हैं । एक बाल पेंटिग प्रर्दषनी के कुछ चित्रों की व्याख्या से लगता है कि केदारजी को चित्रों की भाशा का भी अच्छा ज्ञान था । होना भी चाहिए क्योंकि उन्होंने लगभग एक दर्जन रेखाचित्र बनाए भी हैं ।
उन्होंने एक उपन्यास पूरा लिखा एक अधूरा । संपूर्ण उपन्यास इस समय 'पतिया' नाम से उपलब्ध है । जिसका प्रकाषन 1985 में हुआ । 'पतिया' नाम केदारजी की सहमति से मेरा दिया हुआ है । इसका मूल षीर्शक ''दहकते अंगारे'' था जो मित्र संवाद के हवाले से कहें तो सन् 45 और 50 के बीच छपा रहा होगा । यह उपन्यास उनके अपने गांव की एक कहारिन पर अधारित है जिसमें इसके संघर्श को और तत्कालीन सामन्तवादी सोच वाली सामाजिक व्यवस्था की अनेक विसंगतियों और उसके अंतर्विरोधों को तथा सामंती व्यवस्था में नारी की क्या हैसियत थी उसका प्रामाणिक चित्रण हुआ है। दूसरा उपन्यास केदारजी ने 'तीन रास्ते' 1956 में लिखना षुरू किया था और नागार्जुन जब बाँदा आए थे तो उन्होंने इस उपन्यास के कुछ अंष उन्हें सुनाये भी थे । ''मैंने अपना उपन्यास भी सुनाया । उन्होंने कहा जरूर लिखो वरना डंडा मारेंगे । कुछ ही अंष लिख सका था । अतएव अब उसे षुरू कर चुका हूं । लिखने पर भेजूंगा तुम्हें पढ़ने के लिए । विशय हैं : तीन रास्ते । 1ला है एम0 एल0 ए0 रामनाथ का । 2सरा है बिन्दा का जो ईमानदार आदमी है लेकिन देहात की परिस्थितियों ने उसे मजबूर कर दिया कि बदमाष हो जाये । वह हो गया भ्रश्ट-पथिक । 3सरा है मनमोहन कुमार का । वह एक पत्रकार है । इन्हीं के चरित्रों के सम्पर्क में कथा का विकास होता है और यथार्थ खुलता है ।'' (मित्र संवाद भाग 1, पृ0 140)
सन 1986 में 'साक्षात्कार' के विषेशांक में इसका एक अंष ''बैल बाजी मार ले गये '' षीर्शक से प्रकाषित भी हो चुका है । यह नाम केदारजी की सहमति से मैंने दिया था क्योंकि उस समय तक 'मित्र संवाद-' का प्रकाषन नहीं हो पाया था और न ही केदारजी ने यह बताया कि इसका मूल षीर्शक ''तीन रास्ते'' हैं । इसके अलावा पांडुलिपि पर भी इसका कोई षीर्शक नहीं दिया हुआ था ।
केदारजी के गद्य पर अलग से कुछ कहने की बजाय, केदारजी अपने गद्य के बारे में खुद क्या कहते हैं, जानना महत्वपूर्ण है। उनके गद्य के बारे में उनकी राय से मैं पूर्ण सहमति व्यक्त करता हूँ -
''मेरे गद्य में देहात की लढ़ी और लाठी की चाल और मार मिलेगी । वकील हूँ इसलिए मेरा गद्य विष्लेशणात्मक और तथ्यपरक अधिक है । तर्क से तना मेरा गद्य जो बात कहता है, दम-खम से उभारकर, बिना षील-संकोच के बल देकर कहता है । मेरे ग़द्य की भाशा भी कभी कभी बहसनुमा - कभी-कभी कठोर और कटु कटारनुमा होती है । मेरा गद्य मेरे अनुभूत सत्य का पक्ष प्रेशित करता है और स्थापित करता है । जैसे मैं संषय और संदेह से सौ कोसों दूर रहता हॅँ, वैसे मेरा गद्य भी उनसे उतनी ही दूर रहता है । जैसे मैं आदमी को उसके परिवेष के संदर्भ में समझता हूँ, वैसे मेरा गद्य उसे उसके परिवेष के संदर्भ में समझता है । मैं होकर भी मैं औरों से घनिश्ठ हूँ । मेरा गद्य भी मेरा होकर औरों के गद्य से घनिश्ठ है । कवि भी हूँ इसलिए कभी कभी मेरा गद्य भी काव्यात्मक हो जाता है । x x x x x बात का बतंगड़ बनाना मेरे गद्य की आदत नहीं है । अपराधी को दंड दिलाना मेरा पेषा है। यह पेषा मेरे गद्य का भी है । निर्भीकता से कर्तव्य करता हूँ और मुँह देखकर बात नहीं करता । यही हाल मेरे गद्य का है। x x x x x लेखों के गद्य से नितान्त भिन्न मेरे उन पत्रों का गद्य है जो मैंने अपने मित्रों और अभिन्नों को लिखे हैं। वे अधिक आत्मीय और अनौपचारिक हैं । उनमें अधिक खुलापन है । x x x x x पत्र में कही बात प्रतीति की बात होती है । लेख में कही बात तर्क और विवेक की बात होती है ।'' (केदारनाथ अग्रवाल, भूमिका : समय समय पर, पष्0 8-9, साहित्य भंडार, इलाहाबाद सं0 2010)
महात्मा गांधी अंतरराश्ट्रीय हिन्दी विष्वविद्यालय, वर्धा की इस 'संचयिता' में कोषिष की गई है कि केदारजी के लेखन के सभी महत्वपूर्ण पक्षों की बानगी पाठकों को मिले । इसीलिए कविता के अलावा उनके गद्य के कुछ रूपों को भी इसमें सम्मिलित किया गया है । कविताओं का क्रम रचनाकाल के क्रम में है । कुछ कविताएँ जिनका रचनाकाल केदारजी ने नहीं दिया था उनका रचनाकाल उन संकलनों के प्रकाषन वर्श को आधार बनाकर दिया गया है, जिसमें ऐसी कविताएँ प्रकाषित हुई थीं । जाहिर है कि वह सभी रचनाएँ उसी वर्श की न होकर उसके पूर्व की होंगी । लेकिन उनकी सही रचना तिथि जानने का कोई आधार न होने के कारण इस आधार को अपनाया गया है । कुछ ऐसी रचनाएँ जिनकी संभावित रचना तिथि का कोई आधार नहीं मिला उन्हे ''तिथिहीन'' करके प्रकाषित किया गया है । उम्मीद है कि यह संचयिता पाठकों को केदारजी का सम्यक परिचय देने में कुछ हद तक कामयाब होगी ।
मैं विषेश रुप से श्री विभूतिनारायण राय, कुलपति, महात्मा गांधी अंतरराश्ट्रीय हिन्दी विष्वविद्यालय, वर्धा का आभारी हूँ कि उन्होंने मुझे यह काम सौंपा और मुझमें भरोसा जताया। इसके साथ ही मैं सुश्री वन्दना मिश्रा और डॉ0 वीरपाल यादव का भी आभारी हूँ कि उन्होंने समय समय पर मेरी जिज्ञासाओं का षमन किया । इस संचयिता को सूरुचिपूर्ण ढंग से प्रकाषित करने के लिए साहित्य भंडार इलाहाबाद के मालिक श्री सतीषचन्द्र अग्रवाल, कलाकार डॉ राधेष्याम अग्रवाल और प्रिय विभोर अग्रवाल को भी धन्यवाद देता हूँ । मै श्री राजेष विग का भी आभारी हूँ कि उन्होंने इसकी पांडुलिपि तैयार करने में मेरी भरपूर मदद की ।
· अशोक त्रिपाठी
1 अप्रैल 2011
483, कानूनगो अपार्टमेंट्स
71, इन्द्रप्रस्थ एक्सटेंषन
दिल्ली - 1100092
उसके अंगों के छूने की
अब विद्युत दौड़ेगी उनमें
उसके ओंठों के चुम्बन की
अब मदिरा उतरेगी इनमें
उसने मेरी सेज सजायी
सेज सजाकर संग सुलाया
संग सुलाकर अंग मिलाया
ओंठों को रसपान कराया
18.3.1937
कल जैसी दोपहरी बीती वैसी कभी न बीती!
यों तो जाने कैसी कैसी दोपहरी है बीतीं,
कमरों में प्यारे मित्रों में हँसते गाते बीतीं;
कल जैसी दोपहरी बीती वैसी कभी न बीती!
गंगा के मटमैले जल में छपछप डाँड़ चलाते,
सरसैया से परमठ होते, उल्टी गति में जाते,
तन का सारे जोर जमाते_धारा को कतराते,
आस-पास के जल-भ्रमरों से अपनी नाव बचाते,
धीरे-धीरे मजे-मजे से रुकते औ' सुसताते,
चुल्लू दो चुल्लू पानी पी मुँह को तरल बनाते,
आर-पार सब ओर ताकते आँखों को बहलाते,
पल-पल सूरज की गरमी में गोरे गात तपाते,
हाथों को मल-कल कर, रह रह दुख-संताप मिटाते,
फिर भी मौज मनाते, गाते, गुन-गुन गीत सुनाते,
खेते रहने की धुन में ही बढ़े चले थे जाते!
मैँ था और मित्र थे मेरे, दोनों थे सैलानी;
काले घुँघराले केशों की वे थे खुली जवानी!
मैं थी लाल कपोलों वाली महिमामयी जवानी।
दो थे हम पर, दोनों की थी एक समान कहानी!
एक बजे से ले कर हमने साढ़े पाँच बजाये,
एक नहीं_छै छै छालों से दोनों हाथ दुखाये!
किन्तु नहीं हम इन छालों से किसी तरह घबराये,
चूम चूम तो हमने इनको मीठे दास बनाये!
प्रागराज में
आज जहाँ तुम
पिता गेह में
मुझको बिसरा
हर्ष मनातीं।
वहीं-वहीं मैंने गंगा को
सागर मति को पाने जाती
आँखों देखा
प्रेम-मोहिनी रूप सजे थी
श्वेत उरोज उमंग भरे थी।
दूर दिशा से ही आती थी
पागल दिल की व्याकुल कम्पन
गहनों की रुनझुन
कानों में।
स्वादी संसारियों को
मेरी कविताएँ, दोस्त!
वैसी ही रुचेंगी जैसे
रोटी हथपोई मुझे
परवर के सूखे साग
कडुवे मिरचे के साथ
खूब रुचीं
तुमने जो बनाईं थीं!
14.2.1940
आज मैंने रूप-रक्त प्रभात देखा।
अरूण-अंग-अबीर की रज
वायु-वंशी के सहसों छिद्र से झर,
संवरण बन,
सृष्टि पर छाई प्रचुरतर,
राग का, आहलाद का सम्पात देखा।
वेश साजन का सजाए,
एक टोली में खड़े लाखों चने सब,
मत्त होकर,
घंटियाँ टुन-टुन बजाते,
श्याम तन को पूर्ण विद्रुम गात देखा।
गेहुओं की बालियों को,
शीश से अंचल हटाकर, गुहे चोटी,
यौवनातुर
लाज का परिधान तजकर
नेह से सुस्मित मधुर प्रतिपात देखा।
घेनुओं को घेनु-शिशु को,
पूँछ नीचे और ऊपर फेर प्रतिपल
आँख मूँदे,
रंग से बचते-बचाते
मार्ग जाते, कूदते द्रुत-गात देखा।
आज मैंने रूप-रक्त प्रभात देखा।
10.6.1941
आदि शक्ति मैं;
अजर अमर मैं; परम ब्रह्म मैं;
करण और कारण मैं भव का;
मैं प्रकार, आकार, रूप मैं,
राग, रंग परिमल, पराग मैं;
तेज, ताप मैं;
स्वर, लय, गति मैं;
पूर्ण, मुक्त मैं;
महावेग मैं;
चिर-नूतन मैं; चिर अव्यय मैं।
किन्तु......किन्तु......,
मैं नहीं आज सब!
अधिवासी मैं मिट्टी के क्षत-विक्षत घर का!!
लोना खाई
दीमक खाई
दुर्बल निर्बल दीवारों का, मैं अधिवासी!
मेरी पत्नी तम की तिरिया;
मैं हूँ, मेरा चिन्ह न कोई;
प्रतिभा का प्रतिबिम्ब न कोई;
मकड़ी मेरा बन्धन बुनती!
मुसटी मेरी आयु कुतरती!!
मैं अधिवासी मिट्टी के क्षत-विक्षत घर का!!
22.2.1942
बाप बेटा बेचता है
भूख से बेहाल होकर,
धर्म, धीरज, प्राण खोकर,
हो रही अनरीति बर्बर राष्ट्र सारा देखता है।
बाप बेटा बेचता है,
माँ अचेतन हो रही है,
मूर्छना में रो रही है,
दाम के निर्मम चरण पर प्रेम माथा टेकता है।
बाप बेटा बेचता है,
शर्म से आँखें न उठतीं,
रोष से छाती धधकती,
और अपनी दासता का शूल उर को छेदता है
बाप बेटा बेचता है।
1943
आजाद खून के दौरे से
धमनी धारा हो बहती है;
हरदम पहाड़ से लड़ती है;
चट्टान तोड़ती बढ़ती है;
निर्भय दहाड़ती रहती है!
आजाद खून की ताकत से
हड्डी लोहा हो जाती है,
चोटों पर चोटें खाती है_
आफत से कूटी जाती है,
पर नहीं टूटने आती है!
आजाद खून की गरमी से
टेढ़ा रोआँ गरमाता है
गरमी पाकर तन जाता है,
फिर नहीं झुकाया जाता है_
ऐसा बलीन हो जाता है!
आजाद खून की साँसों से
मुरदा बस्ती जी उठती है,
चौड़ी छाती से हँसती है,
फिर नहीं ढहाये ढहती है,
फिर नहीं मिटाये मिटती है!
आजाद खून के गौरव से
जीवन से दुख मिट जाता है,
प्राणों से भय हट जाता है,
निर्भीक हृदय हो जाता है,
मस्तक ऊँचा हो जाता है।
1943
अत्याचारों के होने से
लोहू के बहने चुसने से
बोटी-बोटी नुच जाने से
किसी देश या किसी राष्ट्र की
कभी नहीं जनता मरती है
मुरदा होकर भी जीती है
बंदी रहकर भी जीती है
साँसों-साँसों पर उड़ती है
किसी देश या किसी राष्ट्र की
कभी नहीं जनता मरती है।
सब देशों या सब राष्ट्रों में
शासक ही शासक मरते हैं
शोषक ही शोषक मरते हैं
किसी देश या किसी राष्ट्र की
कभी नहीं जनता मरती है।
जनता सत्यों की भार्या है
जागृत जीवन की जननी है
महामही की महाशक्ति है
किसी देश या किसी राष्ट्र की
कभी नहीं जनता मरती है।
6.3.1945
डंका बजा गाँव के भीतर,
सब चमार हो गए इकट्ठा।
एक उठा बोला दहाड़कर :
''हम पचास हैं,
मगर हाथ सौ फौलादी हैं।
सौ हाथों के एका का बल बहुत बड़ा है।
हम पहाड़ को भी उखाड़ कर रख सकते हैं।
जमींदार यह अन्यायी है।
कामकाज सब करवाता है,
पर पैसे देता है छै ही।
वह कहता है 'बस इतना लो,
काम करो, या गाँव छोड़ दो'।
पंचों! यह बेहद बेजा है!
हाथ उठाओ,
सब जन गरजो :
गाँव छोड़ कर नहीं जायेंगे,
यहीं रहे हैं,यहीं रहेंगे,
और मजूरी पूरी लेंगे,
बिला मजूरी पूरी पाये
हवा हाथ से नहीं झलेंगे।''
हाथ उठाये,
फन फैलाये,
सब जन गरजे।
फैले फन की फुफकारों से
जमींदार की लक्ष्मी रोयी!!
5.8.1946
हम उजाला जगमगाना चाहते हैं,
अब अँधेरे को हटाना चाहते हैं।
हम मरे दिल को जिलाना चाहते हैं,
हम गिरे सिर को उठाना चाहते हैं।
बेसुरा स्वर हम मिलाना चाहते हैं,
ताल-तुक पर गान गाना चाहते हैं।
हम सबों को सम बनाना चाहते हैं,
अब बराबर पर बिठाना चाहते हैं।
हम उन्हें धरती दिलाना चाहते हैं,
जो वहाँ सोना उगाना चाहते हैं।
28.9.1946
हमका न मारौ नजरिया
ऊँची अटरिया माँ बैठी रहौ तुम,
राजा की ओढ़े चुनरिया।
वेवेल के संगे माँ घूमौ झमाझम,
हमको बिसारे गुजरिया॥
संगी-संहाती तबलचिन का लै कै,
द्याखौ बिदेसी बजरिया।
गावौ, बजावौ, मजे माँ बितावौ,
ऐसी न अइहै उमरिया॥
राजा के हिरदय से हिरदय मिलावौ,
करती रहौ रँगरेलियाँ।
हमका पियारा है भारत हमारा,
तुमका पियारा फिरँगिया॥
हमका न मारौ नजरिया!
28.12.1946
लंदन गये_लौट आये।
बोलौ! अजादी लाये?
नकली मिली या कि असली मिली है?
कितनी दलाली में कितनी मिली है?
आधी तिहाई कि पूरी मिली है?
कच्ची कली है कि फूली-खिली है?
कैसे खड़े शरमाये?
बोलौ! अजादी लाये?
राजा ने दी है कि वादा किया है?
पैथिक ने दी है कि वादा किया है?
आशा दिया है दिलासा दिया है!
ठेंगा दिखा कर रवाना किया है!
दोनों नयन भर लाये!
अच्छी अजादी लाये?
28.12.1946
घन गरजे जन गरजे
बन्दी सागर को लख कातर
एक रोष से
घन गरजे जन गरजे
क्षत-विक्षत लख हिमगिरि अन्तर
एक शोध से
घन गरजे जन गरजे
देख नाश का ताण्डव बर्बर
एक बोध से।
घन गरजे जन गरजे
1946
यह धरती है उस किसान की
जो बैलों के कंधों पर
बरसात घाम में,
जुआ भाग्य का रख देता है,
खून चाटती हुई वायु में,
पैनी कुसी खेत के भीतर,
दूर कलेजे तक ले जाकर,
जोत डालता है मिट्टी को,
पाँस डाल कर ,
और बीज फिर बो देता है
नये वर्ष में नयी फसल के।
ढेर अन्न का लग जाता है।
यह धरती है उस किसान की।
नहीं कृष्ण की,
नहीं राम की,
नहीं भीम, सहदेव, नकुल की,
नहीं पार्थ की,
नहीं राव की, नहीं रंक की,
नहीं तेग, तलवार, धर्म की
नहीं किसी की, नहीं किसी की;
धरती है केवल किसान की।
सूर्योदय, सूर्यास्त असंख्यों
सोना ही सोना बरसा कर
मोल नहीं ले पाए इसको;
भीषण बादल
आसमान में गरज-गरज कर
धरती को न कभी हर पाये,
प्रलय सिन्धु में डूब-डूब कर
उभर-उभर आयी है ऊपर।
भूचालों-भूकम्पों से यह मिट न सकी है।
यह धरती है उस किसान की,
जो मिट्टी का पूर्ण पारखी,
जो मिट्टी के संग साथ ही,
तप कर,
गल कर,
जी कर,
मर कर,
खपा रहा है जीवन अपना,
देख रहा है मिट्टी में सोने का सपना;
मिट्टी की महिमा गाता
मिट्टी के ही अन्तस्तल में,
अपने तन की खाद मिला कर,
मिट्टी को जीवित रखता है;
खुद जीता है।
यह धरती है उस किसान की!
1946
काटो काटो काटो करबी
साइत और कुसाइत क्या है
जीवन से बढ़ साइत क्या है
काटो काटो काटो करबी
मारो मारो मारो हँसिया
हिंसा और अहिंसा क्या है
जीवन से बढ़ हिंसा क्या है
मारो मारो मारो हँसिया
पाटो पाटो पाटो धरती
धीरज और अधीरज क्या है
कारज से बढ़ धीरज क्या है
पाटो पाटो पाटो धरती
काटो काटो काटो करबी
1946
रनिया मेरी देस बहन है
अति गरीब है_अति गरीब है!
मैं रनिया का देस बन्धु हूँ,
अति अमीर हूँ_अति अमीर हूँ!!
रनिया के कर में हँसिया है,
घास काटने में कुशला है।
मेरे हाथों में रुपिया है
मैं सुख-सौदागर छलिया हूँ!!
रनिया अब तक जन्मान्तर से
ज्यों की त्यों पूरी भूखी है।
मैं जन्मान्तर से वैसा ही
ज्यों का यों पूरा खाता हूँ!!
रनिया बिलकुल वही-वही है
चिरकुट ही चिरकुट पहने है।
मैं भी बिल्कुल वही-वही हूँ
रेशम ही रेशम पहने हूँ॥
रनिया मेरी दुखी बहन है
वह निदाघ में मुरझ रही है।
मैं रनिया का सुखी बन्धु हूँ
चिर बसन्त में विहँस रहा हूँ॥
मैं और रनिया एक देश की
एक भूमि की, एक कुञ्ज् की,
एक रंग की, एक रूप की,
रोती हँसती दो कलियाँ हैं॥
रनिया कहती है, जग बदले
जल्दी बदले_जल्दी बदले।
मैं कहता हूँ कभी न बदले
कभी न बदले_कभी न बदले॥
किन्तु आज मेरे विरोध में
पूरा हिन्दुस्तान खड़ा है।
अब रनिया के दिन आये हैं
जग उसके माफिक बदला है।
1946
लॉकेट लूँगी
मेरा गला बड़ा सूना है
आज न मानूँगी_झगडूँगी
लॉकेट लूँगी।
मैं तुमको पहचान गई हूँ
वादे करके तोड़ चुके हो
तुम पूरे झूठे निकले हो
जब देखो तब टरकाते हो।
आज तुम्हें तो देना होगा
मेरी जिद को रखना होगा
यही उचित है झट दे डालो
वरना बड़ा बखेड़ा होगा।
लाकेट लूँगी
सदा तुम्हारी बनी रहूँगी
सुख में दुख में साथ रहूँगी
मुझसे तुमसे प्रेम रहेगा।
1946
ये कामचोर
आरामतलब
मोटे तोंदियल भारी भरकम
हट्टे-कट्टे सब डाँगर ऊँघा करते हैं;
हम चौबीस घण्टे हँफते हैं।
है भूख बड़ी लम्बी-चौड़ी_
दस बीस जनों का सब खाना
ये एक अकेले खाते हैं;
दिन भर ही पागुर करते हैं
हम भूखे ही रह जाते हें।
सिरदर्द हमें दुख देता है,
ज्वर बात हमें दुख देता है;
आँखों में पीर समाई है;
हट्टे-कट्टे डाँगर डकारते रहते हैं;
क्षय रोग हमें भख जाता है।
पेड़ों की लम्बी छाया में
ठंडी बयार के झोकों में
दुख-दुनिया से आँखें मीचे,
सपनों से रीझे रहते हैं
हम तो काँटों से रुँधते हैं।
बस जीभ घुमाने भर को है,
दो कान डुलाने भर को हैं;
दो सींग दिखाने भर को हैं,
बस पूँछ दबाने भर को है!
हम सीना खोले फिरते हैं!!
ये नीच प्रकृति,
ये भ्रष्ट-बुध्दि,
आजाद बिचरने के दुश्मन
हट्टे-कट्टे डाँगर उठकर
आगे बढ़ने से डरते हैं।
हम आजादी को मरते हैं॥
1946
वैभव की विशाल छत्रछाया में,
स्वर्ण-सिंहासन पर;
रक्खी देख मन्दिरों में पत्थरों की मूर्तियाँ,
क्षुब्ध हो गर्भवती
ईश्वर से माँगती है वरदान।
केवल पाषाण हों
कोख की मेरी भी सन्तान।
1946
छोटी-सी देवमूर्ति
आले में रक्खी थी।
बेचारी औचक ही,
चूहे के धक्के से,
दॉसा के पत्थर पर
नीचे गिर टूट गई!
ताज्जुब है मुझको तो!
करुणा के सागर के
अन्तर की एक बूँद,
भूमि पर न छलकी!!
1946
चित्रकूट के बौड़म यात्री,
सेतुआ, गुड़ गठरी में बाँधे;
गठरी को लाठी पर साधे,
लाठी को काँधे पर टाँगे;
दिनभर अधरम करने वाले,
परनारी को ठगने वाले;
परसम्पत्ति को हरने वाले,
भीषण हत्या करने वाले,
धर्म लूटने के अधिकारी
टोली की टोली में निकले,
जैसे गुड़ के लोभी चींटे,
लम्बी एक कतार बनाके
अपने-अपने बिल से निकले!
बंडी, काली तेलही पहने;
धोती ओछी गन्दी पहने;
गन्दे जीवन के अधिकारी,
स्वर्ग पहुँचने की इच्छा से
लम्बे-लम्बे कदमें धरते,
जल्दी-जल्दी साँसें भरते,
नंगे पैरों पैदल चलते!!
मैं बैठे सोचा करता हूँ_
ऐसे कैसे बौड़म यात्री!
गन्दे जीवन से पाएँगे,
नंगे पैरों पैदल चलके,
अपने मन का कल्पित स्वर्ग!!
1946
दीन दुखी यह कुनबा,
जाड़े की थरथर में कँपता
अपनी चौपारी में बैठा,
ताप रहा है कौड़ा!!
लकड़ी कण्डे सुलग रहे हैं,
आग लगी है;
थोड़ी-थोड़ी लपक उठी है;
धुआँ बढ़ा है;
बाहर नहीं निकल पाता है
सबको घेरे रह जाता है!!
1946
हट्टे-कट्टे हाड़ों वाले,
चौड़ी, चकली काठी वाले
थोड़ी खेती-बाड़ी रक्खे
केवल खाते-पीते जीते!
कत्था चूना लौंग सुपारी
तम्बाकू खा पीक उगलते,
चलते-फिरते, बैठे-ठाढ़े
गन्दे यश से धरती रँगते!
गुड़गुड़ गुड़गुड़ हुक्का पकड़े,
खूब धड़ाके धुआँ उड़ाते,
फूहड़ बातों की चर्चा के
फौवारे फैलाते जाते!
दीपक की छोटी बाती की
मन्दी उजियारी के नीचे
घण्टों आल्हा सुनते-सुनते
सो जाते हैं मुरदा जैसे!!
1946
जब बाप मरा तब यह पाया,
भूखे किसान के बेटे ने :
घर का मलवा, टूटी खटिया,
कुछ हाथ भूमि_वह भी परती।
चमरौधे जूते का तल्ला
छोटी, टूटी बुढ़िया औगी,
दरकी गोरसी बहसा हुक्का,
लोहे की पत्ती का चिमटा।
कंचन सुमेरु का प्रतियोगी
द्वारे का पर्वत घूरे का,
बनिया के रुपयों का कर्जा
जो नहीं चुकाने पर चुकता।
दीमक, गोजर, मच्छर, माटा_
ऐसे हजार सब सहवासी।
बस यही नहीं, जो भूख मिली
सौगुनी बाप से अधिक मिली।
अब पेट खलाये फिरता है।
चौड़ा मुँह बाये फिरता है।
वह क्या जाने आजादी क्या?
आजाद देश की बातें क्या??
1946
मैं घूमूँगा केन किनारे
यों ही जैसे आज घूमता
लहर-लहर के साथ झूमता
संध्या के प्रिय अधर चूमता
दुनिया के दुख-द्वन्द्व बिसारे
मैं घूमूँगा केन किनारे
यों ही जैसे आज घूमता
छाया-छल का साथ छूटता
झूठा वैभव स्वप्न टूटता
ये घोंघे अनमोल बटोरे
मैं घूमूँगा केन किनारे।
1946
बैठा हूँ इस केन किनारे!
दोनों हाथों में रेती है,
नीचे, अगल-बगल रेती है
होड़ राज्य-श्री से लेती है
मोद मुझे रेती देती है
रेती पर ही पाँव पसारे
बैठा हूँ इस केन किनारे
धीरे-धीरे जल बहता है
सुख की मृदु थपकी लहता है
बड़ी मधुर कविता कहता है
नभ जिस पर बिम्बित रहता है
मैं भी उस पर तन-मन वारे
बैठा हूँ इस केन किनारे
प्रकृति-प्रिया की माँग चमकती
चटुल मछलियाँ उछल चमकतीं
बगुलों की प्रिय पाँत चमकती
चाँदी जैसी रेत दमकती
मैं भी उज्ज्वल भाग्य निखारे
बैठा हूँ इस केन किनारे!
1946
देख आया चन्द्रगहना।
देखता हूँ दृश्य अब मैं
मेड़ पर इस खेत की बैठा अकेला।
एक बीते के बराबर
यह हरा ठिंगना चना,
बाँधे मुरैठा शीश पर
छोटे गुलाबी फूल का,
सज कर खड़ा है
पास ही मिल कर उगी है
बीच में अलसी हठीली
देह की पतली, कमर की है लचीली,
नील फूले फूल को सिर पर चढ़ा कर
कह रही है, 'जो छुए यह
दूँ हृदय का दान उसको।'
और सरसों की न पूछो_
हो गयी सबसे सयानी,
हाथ पीले कर लिये हैं,
ब्याह-मंडप में पधारी;
फाग गाता मास फागुन
आ गया है आज जैसे।
देखता हूँ मैं : स्वयंवर हो रहा है,
प्रकृति का अनुराग-अंचल हिल रहा है
इस बिजन में
दूर व्यापारिक नगर से
प्रेम की प्रिय भूमि उपजाऊ अधिक है।
और पैरों के तले है एक पोखर,
उठ रहीं इसमें लहरियाँ,
नील तल में जो उगी है घास भूरी
ले रही वह भी लहरियाँ।
एक चाँदी का बड़ा-सा गोल खम्भा
आँख को है चकमकाता।
हैं कई पत्थर किनारे
पी रहे चुपचाप पानी,
प्यास जाने कब बुझेगी!
चुप खड़ा बगुला डुबाये टाँग जल में,
देखते ही मीन चंचल
ध्यान निद्रा त्यागता है,
चट दबा कर चोंच में
नीचे गले के डालता है!
एक काले माथ वाली चतुर चिड़िया
श्वेत पंखों के झपाटे मार फौरन
टूट पड़ती है भरे जल के हृदय पर,
एक उजली चटुल मछली
चोंच पीली में दबा कर
दूर उड़ती है गगन में!
औ' यहीं से_
भूमि ऊँची है जहाँ से_
रेल की पटरी गयी है।
ट्रेन का टाइम नहीं है।
मैं यहाँ स्वच्छन्द हूँ,
जाना नहीं है।
चित्रकूट की अनगढ़ चौड़ी
कम ऊँची ऊँची पहाड़ियाँ
दूर दिशाओं तक फैली हैं।
बाँझ भूमि पर
इधर-उधर रींवा के पेड़
काँटेदार कुरूप खड़े हैं।
सुन पड़ता है।
मीठा-मीठा रस टपकाता
सुग्गे का स्वर
टें टें टें टें;
सुन पड़ता है
वनस्थली का हृदय चीरता,
उठता-गिरता,
सारस का स्वर
टिरटों टिरटों;
मन होता है_
उड़ जाऊँ मैं
पर फैलाये सारस के संग
जहाँ जुगुल जोड़ी
रहती है
हरे खेत में,
सच्ची प्रेम कहानी सुन लूँ
चुप्पे-चुप्पे।
1946
जिस दिन, जिस क्षण, जिस साइत में
मेरा पाणिग्रहण हुआ।
एक अलौकिक पूर्ण सुन्दरी का
उर में आगमन हुआ।
दुपटे-चुँदरी का गठबन्धन,
मेरा जीवन-वरण हुआ।
प्रथम-प्रेम का वह मेरा दिन,
अमर मधुर संस्मरण हुआ॥
1946
मैंने प्रेम अचानक पाया
गया ब्याह में युवती लाने,
प्रेम ब्याह कर संग में लाया॥
घर में आया, घूँघट खोला,
आँखों का भ्रम दूर हटाया।
प्रेम-पुलक से प्रेरित होकर
प्रेम-रूप को अंग लगाया।
1946
हवा हूँ, हवा, मैं बसन्ती हवा हूँ!
वही हाँ, वही जो युगों से गगन को
बिना कष्ट-श्रम के सम्हाले हुए हूँ;
हवा हूँ, हवा मैं बसन्ती हवा हूँ।
वही हाँ, वही जो धरा का बसन्ती
सुसंगीत मीठा गुँजाती फिरी हूँ;
हवा हूँ, हवा मैं वसन्ती हवा हूँ।
वही हाँ, वही जो सभी प्राणियों को
मिला प्रेम-आसव जिलाये हुए हूँ,
हवा हूँ, हवा, मैं बसन्ती हवा हूँ।
कसम रूप की है, कसम प्रेम की है,
कसम इस हृदय की, सुनो बात मेरी_
अनोखी हवा हूँ बड़ी बावली हूँ!
बड़ी मस्तमौला नहीं कुछ फिकर है,
बड़ी ही निडर हूँ, जिधर चाहती हूँ
उधर घूमती हूँ, मुसाफिर अजब हूँ!
न घर-बार मेरा, न उद्देश्य मेरा,
न इच्छा किसी को, न आशा किसी की,
न प्रेमी, न दुश्मन,
जिधर चाहती हूँ उधर घूमती हूँ!
हवा हूँ, हवा, मैं बसन्ती हवा हूँ।
जहाँ से चली मैं, जहाँ को गयी मैं,
शहर, गाँव, बस्ती,
नदी, रेत, निर्जन, हरे खेत, पोखर,
झुलाती चली मैं, झुमाती चली मैं,
हवा हूँ, हवा, मैं बसन्ती हवा हूँ।
चढ़ी पेड़ महुआ, थपाथप मचाया,
गिरी धम्म से फिर, चढ़ी आम ऊपर
उसे भी झकोरा, किया कान में 'कू',
उतर कर भगी मैं हरे खेत पहुँची_
वहाँ गेहुँओं में लहर खूब मारी,
पहर दो पहर क्या, अनेकों पहर तक
इसी में रही मैं।
खडी देख अलसी लिये शीश कलसी,
मुझे खूब सूझी!
हिलाया-झुलाया, गिरी पर न कलसी!
इसी हार को पा
हिलायी न सरसों, झुलायी न सरसों
मजा आ गया तब,
न सुध-बुध रही कुछ,
बसन्ती नवेली भरे गात में भी!
हवा हूँ, हवा, मैं बसन्ती हवा हूँ!
मुझे देखते ही अरहरी लजायी,
मनाया-बनाया, न मानी, न मानी,
उसे भी न छोड़ा_
पथिक आ रहा था, उसी पर ढकेला,
लगी जा हृदय से, कमर से चिपक कर,
हंसी जोर से मैं, हँसी सब दिशाएँ
हँसे लहलहाते हरे खेत सारे,
हँसी चमचमाती अरी धूप प्यारी,
बसन्ती हवा में हँसी सृष्टि सारी!
हवा हँ, हवा, मैं बसन्ती हवा हूँ॥
1946
चोटों पर चोटें जो धन की
खाकर कभी नहीं तड़की है,
उस हड्डी पर_उस पसली पर
श्रमजीवी की उस छाती पर,
कानपुर का शहर सजीला,
कई मील के लम्बे-चौड़े
मिलों कारखानों को घेरे
घण्टाघर ले बसा हुआ है।
कंकड़ पत्थर, कोलतार की
काली-काली चौड़ी सड़कें_
दूकानों का बोझा लादे
गहरी निद्रा में लेटी हैं।
कई टनों के पर्वत जैसे
सड़क कूटने वाले इंजन,
मनों बोझ के टायर पहने
चलने वाले लाखों मोटर,
लोहे की पटरी की सड़कें,
भारी-भरकम रेलगाड़ियाँ,
उस हड्डी पर_उस पसली पर
चलने-फिरने में तन्मय हैं।
घाट, धर्मशाले, अदालतें,
विद्यालय वेश्यालय सारे,
होटल दफ्तर बूचड़खाने,
मन्दिर, मस्जिद, हाट सिनेमा,
श्रमजीवी की उस हड्डी से
टिके हुए हैं_जिस हड्डी को
सभ्य आदमी के समाज ने
टेढ़ी करके मोड़ दिया है॥
कानपुर की सारी सत्ता_
श्रमजीवी की ही सत्ता है।
कानपुर की सारी माया
श्रमजीवी की ही माया है॥
1946
अर्राती चौगुनी धार को
सहज चीर कर बढ़ने वाले,
गंगातट के ये मछुआहे
नैया पार लगाने वाले,
आदमखोर मगर को घेरे
बल विक्रम से मार रहे हैं;
क्रूर कुल्हाड़ी की चोटों से
मांस काट कर रींध रहे हैं।
और गरम ही गरम चबा के
भूख पेट की मिटा रहे हैं।
काश इन्हें आजादी की भी
ऐसी उत्कट भूख सताती॥
पूरे त्रासित होकर जिससे
ये जी-जान लगाकर जुटते,
ज्वाला एक जलाकर क्षण में
आदमखोर गुलामी भखते।
1946
मैंने उसको
जब-जब देखा,
लोहा देखा,
लोहा जैसा_
तपते देखा,
गलते देखा,
ढलते देखा,
मैंने उसको
गोली जैसा
चलते देखा!
1946
टूटें न तार तने जीवन-सितार के
ऐसा बजाओ इन्हें प्रतिभा की ताल से,
किरनों से, ककुम से, सेंदुर-गुलाल से,
लज्जित हो युग का अँधेरा निहार के।
टूटें न तार तने जीवन-सितार के
ऐसा बजाओ इन्हें ममता की ज्वाल से
फूलों की उँगली के कोमल प्रवाल से,
पूरे हों सपने अधूरे सिंगार के।
टूटें न तार तने जीवन-सितार के
ऐसा बजाओ इन्हें सौरभ के श्वास से,
आशा की भाषा से, यौवन के हास से,
छाया बसन्त रहे उपवन में प्यार के।
1946
आसमान की ओढ़नी ओढ़े,
धानी पहने
फसल घँघरिया,
राधा बन कर धरती नाची,
नाचा हँसमुख
कृषक सँवरिया।
माती थाप हवा की पड़ती,
पेड़ों की बज
रही ढुलकिया,
जी भर फाग पखेरू गाते,
ढरकी रस की
राग-गगरिया!
मैंने ऐसा दृश्य निहारा,
मेरी रही न
मुझे खबरिया,
खेतों के नर्तन-उत्सव में,
भूला तन-मन
गेह-डगरिया।
1946
मिल मालिक का बड़ा पेट है
बड़े पेट में बड़ी भूख है
बड़ी भूख में बड़ा जोर है
बड़े जोर में जुलुम घोर है
मिल मालिक का बड़ा पेट है
अत्याचारी नीति धारता
शोषण का कटु दाँव मारता
गला-काट पंजा पसारता
मिल मालिक का बड़ा पेट है
मजदूरों को नहीं छोड़ता
उन्हें चूस कर तोष तोलता
एकाकी ही स्वर्ग भोगता।
15.6.1947
अबकी धान बहुत उपजा है
पेड़ इकहरे दुगुन गये हैं
धरती पर लद गयी फसल है
रत्ती भर अब जगह नहीं है
खेत काटने की इच्छा से
खेतिहर प्रिय जन साथ समेटे
काछा मारे_देह उघारे
आ धमका है आज सबेरे
सबके हाथों में हँसिया है
सबकी बाँहों में ताकत है
जल्दी जल्दी साँसें लेते
सब जन मन से काट रहे हैं
एक लगन से, एक ध्येय से
जीवन का श्रम सफल हुआ है
जिन्दा दिल हो कर उठने को
खाने को भरपूर मिला है
24.7.1947
कमकर,
रो कर_हाथ जोड़ कर,
पाँव पूज कर,
दया-भीख से
नहीं कमाते अपनी रोटी।
वह दिन भर
मेहनत करते हैं;
पत्थर लोहे से लड़ते हैं,
लड़ते लड़ते घिस जाते हैं,
घिसते घिसते मिट जाते हैं,
तब पाते हैं
अपनी रोटी, अपना चिथड़ा,
अपना दरबा!
उनके शोषक पूँजीपति हैं,
जो उनकी मेहनत की पूँजी,
अपने बैंकों में धरते हैं;
जो उनके पौरुष-प्रतिभा को
जल्दी जल्दी चर जाते हैं,
मोटे हो कर इतराते हैं,
और उन्हें मुरदा करते हैं!
पर
अब युग ने पलटा खाया
उनमें बल लड़ने का आया
वह
शोषण से युध्द ठानते
थैलीशाहों को पछाड़ते
माँगों को स्वीकार कराते
चेत गये हैं कमकर सारे
साम्यवाद की अर्थ नीति से
राजनीति को जीत रहे है!!
8.10.1947
आज हँसे हम।
जमी बर्फ ओठों से पिघली,
फाँसी का फंदा भी छूटा,
गला खुला अब!
ढाई सौ वर्षों के बाद,
हाथ-पाँव की कड़ियाँ तड़कीं,
छाती से सब कीलें उखड़ीं,
सूखा लोहू नस-नस दौड़ा,
हृदय जिया अब!
ढाई सौ वर्षों के बाद,
भाई ने भाई को भेंटा,
माँओं ने पुत्रों को चूमा,
उर-उरोज से पति-पत्नी का,
मिलन हुआ अब।
ढाई सौ वर्षों के बाद,
किन्तु, झोपड़ी वहीं खड़ी है,
नयी ईंट तक नहीं लगी है,
बड़ी गरीबी भरी पड़ी है,
वही धुआँ है,
वही क्षुधा है,
वही कर्ज है,
वही सूद है,
वही जमींदारों का छल है,
मानव से मानव शोषित है!
अत: आज हम हँसते हँसते,
नयी शपथ यह प्रथम करेंगे,
शोषक का साम्राज्य हरेंगे,
जनवादी सरकार करेंगे,
निधड़क हम निर्माण करेंगे;
रात और दिन काम करेंगे,
पाँच साल में पूरा भारत,
स्वर्ग करेंगे_स्वर्ग करेंगे!
आज हँसे हम, सदा हँसेंगे!!
10.10.1947
रात लम्बी है_
अँधेरा चल रहा है।
भूमि-नभ का
दीप तारा बुझ रहा है;
आदमी भी
हाथ बाँधे सो रहा है।
स्वप्न आँखों में
तड़पता खो रहा है!
भोर होवे भोर होवे
हो रहा है!!
26.12.1947
चिड़ीमार ने मारी
गोली।
हवा चीरती हत्या
झपटी।
मुक्त जीव ने खाया
गोता।
भेद गयी जीवन की
छाती।
बूँद-बूँद से टपका
लोहू।
गिरा पट्ट से मुरदा
पक्षी।
27.12.1947
आर-पार चौड़े खेतों में
चारों ओर दिशाएँ घेरे
लाखों की अगणित संख्या में
ऊँचा गेहूँ डटा खड़ा है।
ताकत में मुट्ठी बाँधे है,
नोकीले भाले ताने है;
हिम्मत वाली लाल फौज सा
मर मिटने को झूम रहा है।
फागुन की मस्ती के झोंके
दौड़े आते हैं उड़ उड़ के,
अंगों में, बाहों में कसके
उसकी मति को मंद बनाने,
और धूप की गरम गोद में
वैभव की चितवन के नीचे
मीठी मीठी नींद सुलाके
उसका दृढ़ अस्तित्व मिटाने।
लेकिन गेहूँ नहीं हारता
नहीं प्रेम से विचलित होता;
हँसिया से आहत होता है
तन की, मन की बलि देता है :
सतत घोर संकट सहता है
अन्तिम बलिदानों से अपने
सबल किसानों को करता है।
1947
न कच्ची है
न सेवर है
न कोई खोखलापन है
समूची ठोस है ठस है,
बड़ी पक्की, बड़ी मजबूत हस्ती है
न यह होती
न टिकने की जगह होती
न बुनियादी सहारा आसरा होता
न बालू और पानी पर
खड़ा कोई किला होता।
इसी का दम है, बूता है
कि छोटे से बड़ा निर्माण करती है
न आँधी से
न पानी से
न तूफानों से डरती है
बला से, मौत से, आफत से लड़ती है।
1947
काली मिट्टी, काले बादल का बेटा है।
टक्कर पर टक्कर देता, धक्के देता है॥
रोड़ों से वह बेहारे, लोहा लेता है।
नंगे, भूखे काले लोगों का नेता है।
आगे, आगे, आगे, आगे सर्राता है।
खोए, सोए, मैदानों को थर्राता है॥
आओ, आओ, आओ-आओ अर्राता है॥
जीतो, जीतो, जीतो, जीतो नर्राता है॥
1947
घास पर लेटा हुआ था_
सब कहीं काले सिलेटी मलिन धब्बे
व्योम में फैले हुए थे,
दीनता की ही बड़ी गठरी सरीखी दिख रहा था,
सिर धरे जिसको समेटे वसुमती,
_निज पुरातन आयु का सब कुछ सम्हाले_
राह पर लकड़ी टिकाए, कमर तोड़े
चुप खड़ी थी (अन्त में यह दृश्य देखा)।
आदि में पर खूब देखा।
श्वेत प्रस्तर खण्ड में भी
नग्न नारी देह सुन्दर
मांस की मृदुता भरे थी,
चाँदनी मय स्वस्थ यौवन खुल रहा था,
हंस ग्रीवा के सुकोमल वृत्त पर
मुख था कलामय;
सूक्ष्म भाव प्रवाह वाहक :
तार वीणा के सदृश सब
केश जूड़े के खिंचे थे,
राह भूले नेत्र-नेही खुल गये थे
बन्द होंगे फिर न जैसे, रस भरे दोनों अधर
होकर कड़े अति सट गये थे,
और कन्धों से तनिक नीचे उतरकर,
वासना के हाथ से अब तक अछूते औ अदोलित,
दो मृदुल दलदार वृत्ताकार कुच थे,
ठीक जिनके बीच में सँकरे सुथल पर
पंचशर ने पुष्प वाणों को घेरा था।
क्षीण कटि थी,
पीन जाँघें,
चल नहीं सकते चरण थे।
दूर अतिशय दूर_
धूमिल क्षितिज-रेखा पार जाकर
आज तक आया न प्रेमी मूर्तिकार।
नग्न नारी प्राण प्यारी चुप खड़ी थी।
1947
यहाँ हमारी जन्मभूमि पर यदि आयेगा डालर,
तो वह सौदा-सुलुफ बेच कर,
मातृभूमि का सारा सोना ले जायेगा;
अमरीका में अपनी सड़कें,
उस सोने की बनवायेगा;
और चलेगा उस पर सज कर तामझाम से,
वह शराब के प्याले पीता।
उसके मंत्री और मित्रगण,
राजकाज के सब अधिकारी,
उसके पीछे साथ चलेंगे।
वह अपने साम्राज्यवाद के घोर नशे में,
भारतीय पूँजीपतियों से साँठ-गाँठ कर,
क्रय दिल्ली की राजनीति कर लेगा;
नेहरू और पटेल आदि की मति हर लेगा।
फिर मारेगा जालिम कोड़े;
खून हमारा बह निकलेगा;
पीठ हमारी छिल जायेगी;
बंद करेगा हमें जेल में;
रोजगार भी अपने हित का खूब करेगा;
और हमारे तन की चमड़ी,
अपने 'ड्रम' के मुँह पर मढ़ कर,
उसे बजा कर,
तानाशाही की प्रभुता का शोर करेगा।
हम उसके बर्बर शासन से मिट जायेंगे;
हम उसके दुर्दम शोषण से मर जायेंगे;
लेकिन हॉलीवुड के भीतर
वह नाचेगा औ' गायेगा,
मिस अमरीका के प्रिय ओठों पर,
सौ-सौ चुम्बन बरसायेगा!!
9.8.1948
लन्दन में बिक आया नेता, हाथ कटा कर आया।
एटली-बेविन-अंग्रेजों में, खोया और बिलाया॥
भारत-माँ का पूत-सिपाही, पर घर में भरमाया।
अंग्रेजी-साम्राज्यवाद का, उसने डिनर उड़ाया॥
अर्थनीति में राजनीति में, गहरा गोता खाया।
जनवादी भारत का उसने, सब कुछ वहाँ गँवाया॥
गोरी चमड़ी की बातों ने, उस पर रंग जमाया।
रीझ-रीझ कर, उसके आगे, उसने शीश नवाया॥
कूट हलाहल पीकर उसने, अपनी प्यास बुझाया।
और धुएँ में तैर-तैर कर, काफी नाम कमाया॥
वह तो अब बिल्कुल लगता है, टेम्स नदी का जाया।
पौंड देश का भक्त-भिखारी, डालर का दुलराया॥
कहता है केदार सुनो जी! हमको नहीं सुहाया।
मुरदों ने जिन्दा नेता को, अपना कौर बनाया॥
कान काटने गया, न लेकिन, कान काट कर आया।
उल्टे अपनी नाक कटा कर, देखो रोता आया॥
1.11.1948
जिन्दगी को
वह गढ़ेंगे जो शिलाएँ तोड़ते हैं,
जो भगीरथ नीर की निर्भय शिराएँ मोड़ते हैं।
यज्ञ को इस शक्ति-श्रम के
श्रेष्ठतम मैं मानता हूँ!!
जिंदगी को
वह गढ़ेंगे जो खदानें खोदते हैं
लौह के सोये असुर को कर्म-रथ में जोतते हैं।
यज्ञ को इस शक्ति-श्रम के
श्रेष्ठतम मैं मानता हूँ!!
जिंदगी को
वह गढ़ेंगे जो प्रभंजन हाँकते हैं,
शूरवीरों के चरण से रक्त-रेखा आँकते हैं।
यज्ञ को इस शक्ति-श्रम के
श्रेष्ठतम मैं मानता हूँ!!
जिंदगी को
वह गढ़ेंगे जो प्रलय को रोकते हैं,
रक्त से रंजित धरा कर शांति का पथ खोजते हैं।
यज्ञ को इस शक्ति-श्रम के
श्रेष्ठतम मैं मानता हूँ!!
मैं नया इंसान हूँ इस यज्ञ में सहयोग दूँगा।
खूबसूरत जिंदगी की नौजवानी भोग लूँगा॥
9.11.1948
राख की मुरदा तहों के बहुत नीचे,
नींद की काली गुफाओं, के अँधेरे में तिरोहित,
मृत्यु के भुज-बन्धनों में चेतनाहत
जो अँगारे खो गये थे,
पूर्वी जन-क्रांति के भूकम्प ने उनको उभारा;
जिन्दगी की लाल लपटों ने उन्हें चूमा_सँवारा,
और वह दहके सबल शस्त्रास्त्र लेकर;
रक्त के शोषक विदेशी शासकों पर,
और देशी भेड़ियों पर!
4.12.48
मैं लड़ाई लड़ रहा हूँ मोरचे पर।
जिन्दगी की फौज मेरी शक्तिशाली
मैं जिसे लेकर यहाँ पर आ डटा हूँ_
घुडसवारों पर जिसे अभिमान है,
पैदलों पर सिन्धु जिसके साथ है,
टैंक लाखों ही यहाँ मौजूद हैं,
तोपची जिसके कुशल करतार हैं,
आज आगे बढ़ रही है_
वेग से, बल से, उमड़ कर चढ़ रही है,
आततायी बैरियों की फौज ढहती जा रही है,
_आग से जैसे पिघल कर मोमबत्ती गल रही है,
लौह की दीवार के गढ़ कायरों के
चूर करती जा रही है।
मैं लड़ाई लड़ रहा हूँ मोरचे पर!
आप ही अपने हृदय के द्वन्द्व को मैं मारता हूँ;
वह अभी तक सूरमा था,
दक्ष भी था,
क्रूर भी था,
मैं उसे अब जीतता हूँ;
वह पराजित हो रहा है_हो रहा है;
सिर कटाये, प्राण-जीवनहीन मुरदा हो रहा है;
लाश उसकी गिध्द-कौए नोचते हैं;
मैं अचेतन और उपचेतन सभी पर
वार करता जा रहा हूँ;
व्यक्तिवादी सभ्यता को ध्वंस बिलकुल कर रहा हूँ।
मैं लड़ाई लड़ रहा हूँ मोरचे पर!
देवियों के रूप में आराधकों को
जो बँधे हैं प्रेम के स्वर तार से ही_
लौह की कटु श्रृख्डला से बाँध कर मैं खींचता हूँ,
और जन-संघर्ष में ला कर उन्हें,
फौजी बना कर छोड़ता हूँ।
स्वप्न के जो देव हैं
औ' स्वप्न की जो देवियाँ हैं,
हाथ में हल और हँसिया को थमा कर,
मैं उन्हें मजबूर करता हूँ
कि जोतो और काटो
पेट की पहली समस्या को मिटाओ।
मैं लड़ाई लड़ रहा हूँ मोरचे पर।
लेखनी की शक्तिशाली गर्जना से
मैं कलेजा शोषकों का फाडता हूँ;
सूदखोरों को,
मिलों के मालिकों को,
अर्थ के पैशाचिकों को,
भूमि को हड़पे हुए धरणीधरों को,
मैं प्रलय के साम्यवादी आक्रमण से मारता हूँ,
और उनके अपहरण की
दिग्विजयिनी सभ्यता को,
सर्वहारा की नवोदित सभ्यता से जीतता हूँ
मैं लड़ाई लड़ रहा हूँ मोरचे पर।
रक्त की धारा बहा कर
किरकिराती रेत को भी उर्वरा मैं कर रहा हूँ;
शब्द के कर्मण्य कर से जोत धरती,
मानवी स्वाधीनता के बीच बोता जा रहा हूँ,
और श्रमजीवी हितों के अंकुरों को
मैं उगाता जा रहा हूँ,
जो पराजित हो नहीं सकते किसी से
जो मिटाये जा नहीं सकते किसी से,
जो मरेंगे किन्तु फिर जी कर लड़ेंगे,
मैं उन्हें ऊपर उठाता जा रहा हूँ।
1948
गुम्बज के ऊपर बैठी है, कौंसिल घर की मैना।
सुन्दर सुख की मधुर धूप है, सेंक रही है डैना॥
तापस वेश नहीं है उसका, वह है अब महरानी।
त्याग-तपस्या का फल पाकर, जी में बहुत अघानी॥
कहता है केदार सुनो जी! मैना है निर्द्वन्द्व।
सत्य अहिंसा आदर्शों के, गाती है प्रिय छंद॥
16.1.1949
देश की छाती दरकते देखता हूँ!
थान खद्दर के लपेटे स्वार्थियों को,
पेट-पूजा की कमाई में जुटा मैं देखता हूँ!
सत्य के जारज सुतों को,
लंदनी गौरांग प्रभु की,
लीक चलते देखता हूँ!
डालरी साम्राज्यवादी मौत-घर में,
आँख मूँदे डांस करते देखता हूँ!!
देश की छाती दरकते देखता हूँ!
मैं अहिंसा के निहत्थे हाथियों को,
पीठ पर बम बोझ लादे देखता हूँ।
देवकुल के किन्नरों को,
मंत्रियों का साज साजे,
देश की जन-शक्तियों का,
खून पीते देखता हूँ,
क्रांति गाते देखता हूँ!!
देश की छाती दरकते देखता हूँ!
राजनीतिक धर्मराजों को जुएँ में,
द्रौपदी को हारते मैं देखता हूँ!
ज्ञान के सब सूरजों को,
अर्थ के पैशाचिकों से,
रोशनी को माँगते मैं देखता हूँ!
योजनाओं के शिखंडी सूरमों को,
तेग अपनी तोडते मैं देखता हँ!!
देश की छाती दरकते देखता हूँ!
खाद्यमंत्री को हमेशा शूल बोते देखता हूँ;
भुखमरी को जन्म देते,
वन-महोत्सव को मनाते देखता हूँ!
लौह-नर के वृध्द वपु से,
दण्ड के दानव निकलते देखता हूँ!
व्यक्ति की स्वाधीनता पर गाज गिरते देखता हूँ!
देश के अभिमन्युओं को कैद होते देखता हूँ!!
देश की छाती दरकते देखता हूँ!
मुक्त लहरों की प्रगति पर,
जन-सुरक्षा के बहाने,
रोक लगते देखता हूँ!
चीन की दीवार उठते देखता हूँ!
क्रांतिकारी लेखनी को
जेल जाते देखता हूँ!
लपलपाती आग के भी,
ओंठ सिलते देखता हूँ!!
देश की छाती दरकते देखता हूँ!
राष्ट्र-जल में कागजी, छवि-यान बहता देखता हूँ,
तीर पर मल्लाह बैठे और हँसते देखता हूँ।
योजनाओं के फरिश्तों को गगन से भूमि आते,
और गोबर चोंथ पर सानंद बैठे,
मौन-मन बंशी बजाते, गीत गाते,
मृग मरीची कामिनी से प्यार करते देखता हूँ!
शून्य शब्दों के हवाई फैर करते देखता हूँ!!
देश की छाती दरकते देखता हूँ!
बूचड़ों के न्याय-घर में,
लोकशाही के करोड़ों राम-सीता,
मूक पशुओं की तरह बलिदान होते देखता हूँ!
वीर तेलंगानवों पर मृत्यु के चाबुक चटकते देखता हूँ!
क्रांति की कल्लोलिनी पर घात होते देखता हूँ!
वीर माता के हृदय के शक्ति-पय को
शून्य में रोते विलपते देखता हूँ!!
देश की छाती दरकते देखता हूँ!
नामधारी त्यागियों को,
मैं धुएँ के वस्त्र पहने,
मृत्यु का घंटा बजाते देखता हूँ!
स्वर्ण-मुद्रा की चढ़ौती भेंट लेते,
राजगुरुओं को, मुनाफाखोर को आशीष देते,
सौ तरह से कमकरों को दुष्ट कह कर,
शाप देते, प्राण लेते देखता हूँ!!
देश की छाती दरकते देखता हूँ!
कौंसिलों में कठपुतलियों को भटकते,
राजनीतिक चाल चलते,
रेत के कानून के रस्से बनाते देखता हूँ!
वायुयानों की उड़ानों की तरह तकरीर करते,
झूठ का लम्बा बड़ा इतिहास गढ़ते,
गोखुरों में सिंधु भरते,
देश-द्रोही रावणों को राम भजते देखता हूँ!!
देश की छाती दरकते देखता हूँ!
नाश के वैतालिकों को
संविधानी शासनालय की सभा में
दंड की डौड़ी बजाते देखता हूँ!
कंस की प्रतिमूर्तियों को,
मुन्ड मालाएँ बनाते देखता हूँ।
काल भैरव के सहोदर भाइयों को,
रक्त की धारा बहाते देखता हूँ!!
देश की छाती दरकते देखता हूँ!
व्यास मुनि को धूप में रिक्शा चलाते,
भीम, अर्जुन को गधे का बोझ ढोते देखता हूँ!
सत्य के हरिचंद को अन्याय-घर में,
झूठ की देते गवाही देखता हूँ!
द्रौपदी को और शैव्या को, शची को
रूप की दूकान खोले,
लाज को दो-दो टके में बेचते मैं देखता हूँ!!
देश की छाती दरकते देखता हूँ!
मैं बहुत उत्तप्त होकर
भीम के बल और अर्जुन की प्रतिज्ञा से ललक कर,
क्रांतिकारी शक्ति का तूफान बन कर,
शूरवीरों की शहादत का हथौड़ा हाथ लेकर,
चोट करता दौड़ता हूँ कड़कड़ा कर,
शृंखलाएँ तोड़ता हूँ
जिन्दगी को मुक्त करता हूँ नरक से!!
15.8.1950
(1)
आग लगे इस राम-राज में
ढोलक मढ़ती है अमीर की
चमड़ी बजती है गरीब की
खून बहा है राम-राज में
आग लगे इस राम-राज में
(2)
आग लगे इस राम-राज में
रोटी रूठी, कौर छिना है;
थाली सूनी, अन्न बिना है,
पेट धँसा है राम-राज में
आग लगे इस राम-राज में :
8.9.1951
हम तौ उनका वोट न दैबै,
जो हमका बधियाइन हैं।
रोटी कपरा लत्ता खातिर,
जो हमका तरसाइन हैं!!
अरजी का फरजी कै दीन्हिन,
गरजी जान भगाइन हैं।
आजादी के टोपीधारी,
हमका भीख मँगाइन हैं॥
हम तौ उनका वोट न दैबै,
जो हमका बधियाइन हैं।
गल्ला गाड़िन गोदामन माँ,
चोरबजार चलाइन हैं॥
गेहूँ, चाउर अउर चना का,
पउवन माँ बिकवाइन हैं।
रत्ती-रत्ती तेल किरोसिन,
अमरित अस बँटवाइन हैं॥
हम तौ उनका वोट न दैबै,
जो हमका बधियाइन हैं।
जो भारत को अमरीका का,
पाही देस बनाइन हैं॥
अमरीका कै बनियागीरी,
हमरे ठाँव बुलाइन हैं।
डालर के हाथन माँ सौंपिन,
हमका बेंच बहाइन हैं॥
हम तौ उनका वोट न देबै,
जो हमका बधियाइन हैं।
फौज पुलिस माँ रुपिया मेलिन,
खूनी बजट बनाइन हैं॥
सिच्छा के कोपीन लगाइन,
लौका हाथ थमाइन हैं।
विद्या का लावारिस कीन्हिन,
मूरख मंत्र रटाइन हैं।
हम तौ उनका वोट न दैबै,
जो हमका बधियाइन हैं।
हमरी खलरी खैंचि खसोटिन,
रोऔं बहुत सताइन हैं॥
नोन मिरिच ऊपर से बूँकिन,
कद्दू अस कटवाइन हैं।
थानेदार कलट्टर, ह्वैके,
बाँदर नाच नचाइन हैं।
हम तौ उनका वोट न दैबै,
जो हमका बधियाइन हैं।
नानी के आगे नाना की,
जो पगरी उतराइन हैं॥
भौजी के आगे भैया की,
जो पसरी पिसवाइन हैं।
हमरे तन का लोहू लैकै,
जो गगरी भरवाइन हैं॥
हम तौ उनका वोट न दैबै,
जो हमका बधियाइन हैं।
पाँच बरिस के भीतर हमका,
नर-कंकाल बनाइन हैं॥
भाषत है ''केदार'' सुनौ जी,
जालिम भीख न पाइन हैं।
जालिम के बकसन माँ कोऊ,
एकौ वोट न डाइन हैं॥
10.9.1951
यश अपयश विधि हाथ है,
नहिं नेतन को जोर।
यहै देख बाढ़े बड़े
सेठ महाजन चोर॥
रचना ऐसी रचि रहे,
राम राज के वीर।
सुख धरती व्यापै नहीं,
दिन दिन बाढ़ै पीर॥
राम न ऐसा करि सके,
जैसा नेतन कीन्हि।
लोगन का बनवास दै,
सुख सम्पत्ति हरि लीन्हि॥
मरना है तो आज मर,
कल है दूर अपार।
गोली आँसू गैस की;
कायम है सरकार॥
जहँ लग नेता राज है,
तहँ लग बंटाधार।
पूँजीपति की गोद में,
खेल रही सरकार॥
रसरी बालू की बटौ,
बाँधौ धीरज बैल।
नेता ऐसा कहत हैं,
चलिये तपकी गैल॥
लाज उन्है आवै जिन्है
लोकतंत्र का ध्यान।
कामनवेल्थी आन में,
टूटी मान-कमान॥
8.11.1451
जब रोटी पर संकट आया,
तब भूख ने द्रोह मचाया।
राज पलट कर रोटी लाया,
रोटी ने इतिहास बनाया॥
12.11.1951
जमींदारी की नहीं, न राजा की है धरती,
अब है आज हमारी धरती।
जमींदारी ने लूट मचाई हर ली धरती।
राजा ने भी लूट मचाई हर ली धरती॥
हमें किया बेधरतीवाला धर लीं धरती।
डाकू और लुटेरों के घर पहुँची धरती॥
जमींदारी की नहीं, न राजा की है धरती,
अब है आज हमारी धरती।
जमींदार ने खूब दुहा है अब तक धरती।
राजा ने भी खूब दुहा है अब तक धरती॥
कर उगाह कर डाला वृध्दा जर्जर धरती।
हत्यारों के हाथ गाय-सी तड़पी धरती॥
जमींदार की नहीं न राजा की है धरती,
अब है आज हमारी धरती।
पूर्व पुरातन परम्परा से माता धरती।
पिता पिता के पूर्व पिता की माता धरती॥
हम धरती के पुत्र हमारी माता धरती।
आदिकाल से यह किसान की माता धरती॥
जमींदार की नहीं, न राजा की है धरती,
अब है आज हमारी धरती।
हम जोतें कोमल बन जाए माता धरती।
हम बोयें अंकुर उपजाए माता धरती॥
हम सींचें श्रम-जल लहराए माता धरती।
अन्न अन्न ही हमें लुटाए माता धरती॥
जमींदार की नहीं, न राजा की है धरती,
अब है आज हमारी धरती॥
29.1.1952
न मारे मरा है न मारे मरेगा
नए जागरण में शुभाशा भरी है।
कई बार सूखी कई बार उजड़ी
मगर दूब फिर भी हरी की हरी है॥
नदी का किनारा बहुत है पुराना,
मगर जिंदगी की रवानी नई है।
जमाना बहुत हो चुका है पुराना
मगर आदमी की कहानी नई है॥
सबेरा अँधेरे से लड़ने लगा है
हमारे घरों में उजाला भरेगा।
1.11.1952
जब अदालत पर चढ़ी
युवती चली बाहर निकलकर,
दुष्ट भ्रष्टाचारी पति के मित्र दौड़े
अपहरण के हेतु बल के बोंग लेकर।
किंतु युवती का युवक-प्रेमी गठीला नौजवान,
आठ साथी साथ लेकर,
लाठियाँ बरसा चला बौछार जैसी,
हो गया संग्राम खासा।
धूर्त पति को चोट आई
और उसके मित्र भू पर गिरे घायल।
खून खच्चर से गई मर लोकनिंदा।
ब्याह टूटा,
ब्याह का व्यभिचार टूटा,
दुष्ट भ्रष्टाचार का सिर हाथ टूटा।
प्रेमिका ने प्रेम का वर वक्ष जीता।
आततायी पति गया आहत हृदय घर!
26.11.1952
झूठ नहीं सच होगा साथी!
गढ़ने को जो चाहे गढ़ ले
मढ़ने को जो चाहे मढ़ ले
शासन के सौ रूप बदल ले
राम बना रावण सा चल ले
झूठ नहीं सच होगा साथी!
करने को जो चाहे कर ले
चलनी पर चढ़ सागर तर ले
चिउँटी पर चढ़ चाँद पकड़ ले
लड़ ले ऐटम बम से लड़ ले
झूठ नहीं सच होगा साथी!
27.11.1952
जब सेमल का पेड़ अकेला
बाट जोह् कर थक जाता है
तब बेचारे का हर पत्ता
आहत होकर झर जाता है
आह! नहीं तुम आ पाती हो
सेमल को अपना पाती हो!
9.2.1953
दरोगा की दुलहिन को आया बुखार
कि जैसे पयोनिधि में आया हो ज्वार
दरोगिन का काँपा कुन्दन शरीर
कि जैसे कपोतिन हो कँपती अधीर
दरोगा जी दौड़े दरोगिन के पास
दरोगिन को देखा तड़पते उदास
बड़ी जोर से वे मचाते पुकार
जनाने से दौड़े कि जैसे बयार
सिपाही को भेजा कि जा अस्पताल
लिवा लाओ डाक्टर को बीते न काल
दरोगिन की हालत थी बिल्कुल खराब
दया के भिखारी थे जालिम जनाब
चले आए डाक्टर, था पैसे का जोर_
कि खींचा हो जैसे दरोगा ने डोर
दवा दी गई और उतरा बुखार
कि जैसे उतरता है सागर का ज्वार
कमाए थे पैसे कई सौ हजार
भरा था तिजोरी में धन बेशुमार
दरोगा ने दौलत से मारा बुखार
दरोगिन को तज के सिधारा बुखार
8.7.1953
ऑंखों से हँसती है जैसे किरातनी
फूले हैं फूल
और गाती है कामिनी।
यमुना को चूमती है
पूनम की चाँदनी!!
उत्सव में डूबी है
यौवन की यामिनी!
आँखों से हँसती है
जैसे किरातिनी!!
12.7.1953
एक जोते
और बोए, ताक कर फसलें उगाए,
दूसरा अधरात में काटे उन्हें अपनी बनाए,
मैं इसे विधि का नहीं, अभिशाप जग का जानता हूँ।
एक रोटी
के लिए तड़पे सदा अधपेट खाए,
दूसरा घी-दूध-शक्कर का मजा भरपेट पाए,
मैं इसे विधि का नहीं, अभिशाप जग का जानता हूँ।
एक बल्कल
वस्त्र पहने लाज अपनी को गँवाए,
दूसरा बहु वस्त्र पहने छिद्र अपने सौ छिपाए,
मैं इसे विधि का नहीं, अभिशाप जग का जानता हूँ।
एक विद्या
के लिए व्याकुल रहे, पुस्तक न पाए
दूसरी विद्या पढ़े, छल-छंद से सोना कमाए,
मैं इस विधि का नहीं, अभिशाप जग का जानता हूँ।
मैं नया इंसान हूँ अभिशाप को खंडित करूँगा।
शाप के प्रतिपालकों को न्याय से दंडित करूँगा॥
8.11.1953
भानु हो रहा उदय,
कृशानु बो रहा।
भूमि का किसान आज
भानु हो रहा!!
ज्योति से जुती हुई_
उदार है धरा।
एक-एक बीज का
भविष्य है हरा!!
भोर हा रहा नया,
निहोर हो रहा।
मोरपंख खोल के
विभोर हो रहा!!
17.11.1953
बारह बरस व्यथा में बीते
तेरहवें में पाँव धरे है।
पीर हृदय में, नीर नयन में,
साँसों में संताप भरे है॥
दम्भक ताड़ित और प्रताड़ित
शैशव का अभिशाप लिए है।
फूलों के नादान अधर से
शूलों के अपमान पिए है॥
माता और पिता से वंचित
घर घर बरतन माँज रही है।
सात बरस से साँझ-सकारे
आँख दुखों से आँज रही है॥
11.12.1953
नौ पेटों के पलने वाले टूटे घर में
जब सनेह से सजी स्वामिनी किसी एक दिन
गेहूँ का आटा परात_भर गूँथ_गूँथकर
गोल लोइयों की गुदार रोटियाँ बेलती,
जब वे बेली-अलबेली सुकुमार रोटियाँ
एक-एक कर तप्त तवे के ऊपर चढ़कर
धीरज धारे अंग उघारे तप में तपतीं,
फिर अंगारों के सिंहासन पर विराजकर
पास हमारे आ जाती हैं चूल्हा तजकर:
जब बटलोई के पेटे में दाल खौलती
खौल-खौल कर बुद-बुद-बुद-बुद आग्रह करती
और स्वाद के बोल_बोलकर स्वाद खोलती :
जब अदहन में चाउर पड़ता और उबलता
राम करोनी चिन्नावर की महक उमड़ती
और हमारी नाकों के नथुने में आती
कई दिनों के भूखे दिल को छू जाती है
गोभी कटने लगती है आलू के संग जब
दोनों का सम्बन्ध परस्पर हो जाता है :
और सिसकते हैं जब दोनों गरम आँच में,
हमें क्षुधातुर देख-देखकर कई दिनों से,
तब हम नौ की भूख समस्या मिट जाती है
और हमें यह टूटा घर भी प्रिय लगता है
तब हमको मालुम होता है हम भी कुछ हैं
हमको भी निर्मित करना है टूटे घर को!
12.1.1954
यह उधार खाते का जीवन
बढ़े ब्याज का बोझा लादे
राम-राज्य की नई सड़क पर
पाँव उठाए डगमग चलता।
कागज के कर्जे का कौरव
पाँच हाथ की लाठी ताने
बीच सड़क में राह रोककर
इंसानों को दंडित करता!
सच कहता हूँ यह हालत है
खूनी लाठी के लबेद से
बिना खून की हिंसा होती
कर्जे से जन भारत मरता!
24.1.1954
आँख से उठाओं और बाँह से
सँवार दो
अंतरंग मेरा रूप रंग से
उबार लो
बार-बार चूमो और बार-बार
प्यार दो
2.2.1954
पंचवर्षी योजना की रीढ़ ॠण की श्रृख्डला है,
पेट भारतवर्ष का है और चाकू डालरी है।
संधियाँ व्यापार की अपमान की कटु ग्रंथियाँ हैं,
हाथ युग के सारथी हैं, भाग्य-रेखा चाकरी है॥
26.4.1954
एक हथौड़ेवाला घर में और हुआ!
हाथी-सा बलवान,
जहाजी हाथों वाला और हुआ!
सूरज-सा इंसान,
तरेरी आँखों वाला और हुआ!!
एक हथौड़े वाला घर में और हुआ
माता रही विचार:
अँधेरा हरने वाला और हुआ!
दादा रहे निहार :
सबेरा करनेवाला और हुआ!!
एक हथौड़ेवाला घर में और हुआ!
जनता रही पुकार :
सलामत लाने वाला और हुआ!
सुन ले री सरकार!
कयामत ढानेवाला और हुआ!!
एक हथौड़ेवाला घर में और हुआ!
3.10.1954
वी0 पी0 का रुपया देना है।
खड़ा डाकिया देख सामने परेशान हूँ,
टका नहीं है!
चारों जेबों में खंडहर का सूनापन है,
पडे हुए हैं पूरे पिचके,
मोटर के पहिए के नीचे जैसे दब के!!
कहा डाकिए से कल आना;
लेकिन कहने में ऐसा ज्यादा शरमाया,
सिमिट गया अपने में जैसे कोई केचुआ!!
साढ़े तेइस के अभाव में,
दिल गुलाब-सा मुरझ गया है,
हाथ-पाँव से लुंज हुआ हूँ;
सुस्त पड़ा हूँ,
जैसे कोई रक्त पी गया मेरे तन का!!
मैं मनुष्य हूँ,
लेकिन रुपयों के अभाव में
महामूर्ख हूँ;
मेरी विद्या काम न आई!
मेरा जीवन निष्फल लगता!!
अपने घर में
मैं ही अपना दुश्मन बनता!
घर के बाहर,
बीच सड़क में,
हाट और मेलों-ठेलों में
गुदड़ी का चील्हर लगता हूँ!!
मैं स्वराज्य के न्यायालय का
पंडित शुक हूँ,
नई-पुरानी बहुत नजीरें मुझे याद हैं,
लेकिन आज टके से टूटा
मैं शिव का टूटा पिनाक हूँ॥
मेरा बस्ता उलट गया है।
हवा धूल भर गई बहुत-सी
मिस्लें लेटी हैं मूर्छा में!
बेचारा मुंशी परास्त है।
अर्थ-युध्द में मैं हारा हूँ_
बुरी तरह से!!
मैं वकील हूँ!
रात सरीखी काली अचकन
मैं पहने हूँ!
अन्धकार मुझसे लिपटा है!!
केवल पैरों में पाजामा
लंकलाट के_दिन-सा पहने,
टहल रहा हूँ आधा उजला,
आधा काला!!
सच पूछो तो,
धनाभाव में,
फटे जूते में गड़ी कील हूं!!
जाने कब दुनिया बदलेगी?
जाने कब मुझको अभाव धन का न रहेगा?
जाने कब मेरी विद्या मुझको फल देगी?
जाने कब मैं जग जीतूँगा?
जाने कब मेरे शरीर में बल आएगा?
जाने कब मेरा, जीवन मुझको भाएगा?
यही सोच है_यही फिकर है!!
यह समाज यदि यही रहेगा,
तब निश्चय है_
साढ़े तेइस नहीं मिलेंगे;
और नहीं वी0 पी0 छूटेगी;
रोज डाकिया लौट जाएगा;
और एक दिन मैं स्वयं ही
अपनी वी0 पी0 कर जाऊँगा।
लेकिन अपनी बात छोडकर,
जब देशों की प्रगति देखता
और सोचता,
जन-समाज में नेह जोड़ता
उन्नति करते हुए_
दौड़ते हुए राज पर लोग देखता,
धनाभाव में भी_
कलियों को खिलते पाता,
तब हुलास से,
जलतरंग-सा बज उठता हूँ;
रुपयों को ठेंगा दिखला कर हँस पड़ता हूँ,
और यही कहने लगता हूँ,
मैं भी इनके साथ जिऊँगा,
मैं भी इनके साथ बढूँगा,
मैं भी दुनिया को बदलूँगा,
कील नहीं, मैं फूल बनूँगा,
इस धरती की जन-संस्कृति का,
एक नया मेमार बनूँगा।
8.10.1954
धीरे से पाँव धरा धरती पर किरनों ने,
मिट्टी पर दौड़ गया लाल रंग तलुवों का।
छोटा-सा गाँव हुआ केसर की क्यारी-सा,
कच्चे घर डूब गये कंचन के पानी में।
डालों की डोली में लज्जा के फूल खिले,
ऊषा ने मस्ती से फूलों को चूम लिया।
गोरी ने गीतों से सरसों की गोद भरी,
भौरों ने गोरी के गालों को चूम लिया।
28.8.1955
जैसी तुम मेरी हो , वैसे रात मेरी है
तुम्हीं तो आती हो
बाल खोल जूड़े के :
कंधों पर रात को
मेरे पास लाती हो
जैसी तुम मेरी हो
वैसे रात मेरी है।
11.9.1955
पेड़ नहीं,
पृथ्वी के वंशज हैं,
फूल लिये,
फल लिये,
मानव के अग्रज हैं।
18.4.1956
ब्याही
फिर भी अनब्याही है
पति ने नहीं छुआ :
काम न आयी मान - मनौती,
कोई एक दुआ :
आँखें भर-भर
झर-झर मेघ चुआ
देही नेह विदेह हुआ!
7.5.1956
हवा पहनकर तुम चलती हो
इसीलिए यह हवा देह से जब लगती है
मुझे तुम्हारा ही आलिंगन मिल जाता है
और मुझे यह सूनापन भी
बड़ा रुचिर मालूम होता है।
अत: चलो तुम
हवा पहनकर रोज चलो तुम
तरुगन इसमें
लहरें आकर तट को चूमें
मैं भी झूमूँ
तुमको चूमूँ!
19.7.1956
किरन 1 गोद में लिए खड़ी है, वत्स शिशिर को
किरन गोद में लिए खड़ी है वत्स शिशिर को,
जो उसके ही तरुण अंग का अरुण अंग है,
जो उसके सुरधाम सिधारे_
पति महेश की प्रुमदित छवि है,
जो उसके सस्मित शैशव की,
प्रेम_प्रणय की मदिर महक है,
जो अब उसके पंकिल जीवन का पंकज है!
ऐसा लगा कि जैसे अपनी धूमिल धरती,
पूनम के शशि को लेकर है चमचम चमकी,
और उसे मैं देख रहा हूँ आँखें खोले
ऐसे जैसे देख रहा हूँ जगदम्बा को_
अंक लिये अविकल अविनाशी वर ब्रह्मा को!
भूल गया मैं कटु जीवन के चुभते काँटे
भूल गया मैं दूभर दिन के दुखते काँटे,
भूल गया मैं नील नदी सम बहते आँसू
भूल गया मैं चिनगारी सम दहते आँसू।
गोधूली की यह बेला है,
पशु पक्षी सब लौट रहे हैं, अब अपने घर,
पूछ रहा हूँ मैं अब मन से :
लौट सकेंगे क्या महेश भी इसी तरह घर?
भेंट सकेंगे क्या महेश भी प्रिया किरन को?
चूम सकेंगे क्या महेश भी वत्स शिशिर को?
किन्तु नहीं मिलता है उत्तर मुझको मन से,
अस्तु आज मैं बहुत विकल हूँ,
सम्मुख आती हुई रात से भय-कम्पित हूँ,
अस्तु आज मैं किरन-शिशिर को
घबराहट में - पास पहुँचकर - चूम रहा हूँ,
और अँधेरा हर लेने को,
अपनी आत्मा के प्रदीप को जला रहा हूँ।
24.10.1956
घिसे, चले, मर चुके तलों को
मैं निकालता।
जीने वाले जानदार मैं तले डालता॥
सीकर, पालिश से चमकाकर,
मैं उबारता।
जूतों से बाबू लोगों की
धज सँवारता॥
मैं पथ की पटरी पर बैठा
कला बेचता,
जूतों के चलने में सबका
भला देखता॥
मैं तो उस ऊँची आत्मा को
नहीं जानता।
मानव जिसकी ऊँचाई के
गुन बखानता॥
22.2.1957
कंटक जो आए हैं पाँव के तले।
मैने वे बार-बार बिल्कुल कुचले॥
कोई भी एक नहीं घात से बचा।
संकट सब सबल लचे, मैं नहीं लचा॥
सामने पहाड़ मिले रोकते खड़े।
हो गए_निहार उन्हें_रोंगटे खड़े॥
मैंने भी मल्लयुध्द मेरु से लड़े॥
जीता मैं, हार गए वे बड़े-बड़े॥
मेघ ने निदाघ ने, मुझे नहीं तजा।
कान के समीप मृत्यु ढोल भी बजा॥
किन्तु मैं निदाघ, मेघ, मृत्यु से कढ़ा।
नाचता हुआ प्रसून-पंथ में बढ़ा॥
26.2.1957
उसके वे नयन जो किशोर हैं,
रूप के विभोर जो चकोर हैं,
ऐसा कुछ
आज मुझे भा गये_
कि बावरा बना गये।
आह! मुझे
प्यार की पुकार से
निहार गये,
और मुझे
म्लान हुए हार-सा
उतार गये।
28.2.1957
आज
अभी आँखों से
पर्वतीय निर्जन के
धुन्ध-भरे घेरे में,
कैद खड़े पेड़ों के
मौन पड़े डेरे में,
पातहीन डालों के
आखिरी किनारों पर
पीत पगे फूलों के
आरसी कपोलों पर
दिन में ही
जगर-मगर
दीप जले देखे हैं।
1.4.1957
तिय हैं तो आकुलित-केश, पटु-नटी-वेश,
कामातुर, मदविह्वल अधीर हैं,
सदियों से पुरुषों की जाँघों पर बैठी करती विहार हैं;
इन्हें नहीं संकोच-शील है,
यह मनोज के मन-लोक के नर-नारी हैं,
आदिकाल से इसी मोद के अधिकारी हैं,
चाहे हम-तुम कहें इन्हें : यह व्यभिचारी हैं।
13.4.1957
वे उरोज दो
सटे गठे बैठे कपोत से
आकुल हैं
झीने अंचल से उड़ जाने को
मेरे हाथों पर आने को
और मुझे
सुख के पंखों से सहलाने को।
5.6.1957
ताल को कँपा दिया
कंकड़ से बालक ने,
ताल को कँपा दिया,
ताल को नहीं
अनन्त काल को कँपा दिया।
5.10.1957
मैं तुम्हारी छाँह में छिप-सा गया हूँ
इसलिए तुम छाँह अपनी खींच लो
और मुझको दौड़ने दो धूप में
मैं पसीने में समय को जीत लूँगा।
20.10.1957
फूल सी कोमल उँगलियाँ
जब समुद्री वासना में
रूप, रस, यौवन, तुम्हारा घोली हैं
और मेरी नींद के परदे हटाकर
मोम-से दिल के दिये को चूमती हैं
तब तुम्हारी लौ हृदय में जागती है
तब तुम्हें मैं भेंटता हूँ
तब तुम्हारी फूल-सी कोमल उँगलियाँ चूमता हूँ।
22.10.1957
झाड़ी के एक खिले फूल ने
नीली पँखुरियों के
एक खिले फूल ने
आज मुझे काट लिया
ओंठ से,
और मैं अचेत रहा
धूप में।
24.10.1957
जब कलम ने चोट मारी
तब खुली वह खोट सारी
तब लगे तुम वार करने
झूठ से संहार करने
सोचते हो मात दोगे
जुल्म के आघात दोगे
सत्य का सिर काट लोगे
रक्त जीवन चाट लोगे
भूल जाओ यह न होगा
जो हुआ है वह न होगा
लेखनी से वार होगा
वार से ही प्यार होगा
कल नगर गर्जन करेगा
क्रोध विष वर्षन करेगा
सत्य से परदा फटेगा
झूठ का तब सिर कटेगा
27.11.1957
मार हथौड़ा
कर कर चोट
लाल हुए काले लोहे को
जैसा चाहे वैसा मोड़।
मार हथौड़ा,
कर कर चोट
थोड़े नहीं_अनेकों गढ़ ले
फौलादी नरसिंह करोड़।
मार हथौड़ा
कर कर चोट
लोहू और पसीने से ही
बन्धन की दीवारें तोड़।
मार हथौड़ा
कर कर चोट
दुनिया की जाती ताकत हो,
जल्दी छवि से नाता जोड़!
1957
इसी जन्म में,
इस जीवन में,
हमको तुमको मान मिलेगा।
गीतों की खेती करने को,
पूरा हिन्दुस्तान मिलेगा॥
क्लेश जहाँ है,
फूल खिलेगा,
हमको तुमको त्रान मिलेगा।
फूलों की खेती करने को,
पूरा हिन्दुस्तान मिलेगा।
दीप बुझे हैं,
जिन आँखों के;
इन आँखों को ज्ञान मिलेगा।
विद्या की खेती करने को,
पूरा हिन्दुस्तान मिलेगा॥
मैं कहता हूँ,
फिर कहता हूँ;
हमको तुमको प्रान मिलेगा।
मोरों-सा नर्तन करने को,
पूरा हिन्दुस्तान मिलेगा।
1957
जिन्दगी थक कर यहाँ पर चूर है,
हड्डियों का शेर हारा भूख से मजबूर है;
हाथ-पाँवों में जहाजी लंगरों का भार है;
साँस का दरियाव जमकर बर्फ है;
गर्म छाती की धधकती आग
मोमी शीत-सी निष्प्राण है;
रक्त में लिपटा कफन है मृत्यु का।
देह की चमड़ी अँधेरी रात है,
जो छिपाये है बसन्ती फूल-फल की प्रेरणाएँ।
प्रेम का आकाश रूखे बाल में उलझा पड़ा है।
सभ्यता के और संस्कृति के दिवाकर की प्रतीक्षा
मौन है_निस्पन्द है ज्यों प्रेत की छाया बड़ी-सी!
जागरण का क्रान्तिदर्शी साहसी मनु-रूप मानव,
अर्थ के पैशाचिकों से पद-दलित है।_
भूमि पर लुण्ठित पड़ा है!!
क्या हुआ यदि आज अपने देश भाई,
हाथ में झंडा उठाये घूमते हैं!
वास्तव में तो अभी झंडा ऊपर नहीं उठा है,
वह अभी नीचे पड़ा है;
भूमि से लुण्ठित उठे, तब वह उठेगा,
और फिर कोई झुकाने से रहेगा!!
1957
हाथ जो
चट्टान को
तोड़े नहीं,
वह टूट जाये;
लौह को
मोड़े नहीं,
सौ तार को
जोड़े नहीं
वह टूट जाय!
1957
जो जीवन को धूल चाटकर बड़ा हुआ है,
तूफानों से लड़ा और फिर खड़ा हुआ है,
जिसने सोने को खोदा, लोहा मोड़ा है,
जो रवि के रथ का घोड़ा है,
वह जन मारे नहीं मरेगा,
नहीं मरेगा!!
जो जीवन की आग जलाकर आग बना है,
फौलादी पंजे फैलाये नाग बना है,
जिसने शोषण को तोत्रडा, शासन मोड़ा है,
जो युग के रथ का घोड़ा है,
वह जन मारे नहीं मरेगा,
नहीं मरेगा!!
1957
छोटे हाथ
सबेरा होते
लाल कमल से खिल उठते हैं।
करनी करने का उत्सुक हो,
धूप हवा में हिल उठते हैं॥
छोटे हाथ
नहीं रुकते हैं,
और नहीं धीरज धरते हैं।
जड़ को चेतन,
पानी को पय,
मिट्टी को सोना करते हैं॥
छोटे हाथ
किसानी करते_
बीज नये बोया करते हैं।
आने वाले वैभव के दिन,
उँगली से टोया करते हैं॥
फूलों के गुच्छे के गुच्छे,
डालों पर पाला करते हैं।
छोटे-से-छोटे पत्ते का,
मकड़ी का जाला हरते हैं॥
छोटे हाथ
परिश्रम करते,
ईटों पर ईटें धरते हैं॥
मधुमक्खी से तन्मय होकर,
मधुकोषों से घर रचते हैं॥
हर घर में आशा रहती है,
आशा के बच्चे पलते हैं।
मुद-मंगल के, नव जीवन के,
जागृति के बाजे बजते हैं॥
छोटे हाथ,
दही मथते हैं,
मथते-मथते कब थकते हैं।
थकते भी हैं तो मथते हैं,
हरदम जीवन को मथते हैं॥
जीवन के उत्तम तत्वों को,
मोती-सा मक्खन गहते हैं।
मक्खन मिश्री साथ मिलाकर,
बच्चों के मुख में रखते हैं॥
छोटे हाथ,
निडर रहते हैं,
जोखिम में घूमा करते हैं।
नागों को नाथा करते हैं_
काँटों को चूमा करते हैं॥
बारूदी बन्दूकें ताने,
पशुओं को मारा करते हैं।
तूफानी सागर से सबको,
साहस से तारा करते हैं॥
छोटे हाथ,
गुनी-ग्यानी हैं,
मौलिक ग्रन्थों को रचते हैं।
जीवन के साथी ग्रन्थों का
हिन्दी में उल्था करते हैं॥
भाषा को झंकृत करते हैं,
जीवन को चित्रित करते हैं।
मानव की सुन्दरतम कृतियां
मानव को अर्पित करते हैं॥
1957
पूँजीपति अपने बेटे को,
बेहद काला दिल देता है,
गद्दी पर बैठे रहने को,
भारी-भरकम तन देता है,
सिरहाने रखकर सोने को,
दिन में पैसा ठग लेने को,
रोकड़-खाते सब देता है;
गरदन काट कलम देता है,
काली मसि से काली करनी_
करने का अवसर देता है,
जब तक जीता है, रहता है,
शोषण की शिक्षा देता है,
पूँजीपति अपने बेटे को,
धन देता, दौलत देता है।
रति को भी शरमाने वाली,
रूपवती औरत देता है।
जाने कितना कितना अवगुन
पूँजीपति सुत को देता है।
वह अपने को और जगत को
बेटे को धोखा देता है॥
श्रमजीवी अपने बेटे को
पर उपकारी दिल देता है,
मेहनत करने को जीने को,
हाथों में हल, लोहे का घन,
पावों में हाथी की चालें;
अविजित छाती, ऊँचे कन्धे,
हर आफत से लड़ जाने को,
गति देता है, बल देता है।
जब तक जीता है_रहता है,
उत्पादन की मति देती है;
आशा की खेती करने को
खेतों की धरती देता है;
घर का भार उठाने वाली
श्रमजीवी घरनी देता है।
मरने को वह मर जाता है,
लेकिन जीवन दे जाता है।
श्रमजीवी अपने बेटे को
गोठिल हँसिया दे जाता है।
श्रमजीवी अपने बेटे को,
टूटी कुटिया,
टूटी खटिया,
लोहे का तसला देता है,
बहुतायत चिथड़े देता है,
1957
जल्दी-जल्दी हाँक किसनवा!
बैलों को हुरियाये जा।
युग की पैनी लौह कुसी को
'भुंईं' में खूब गड़ाये जा॥
पुरखों की हड्डी के हल को,
आगे आज बढ़ाये जा।
वैभव को सूने खेतों की
छाती चीर दिखाये जा॥
बीजों के धारण करने की,
पूरी साध जगाये जा।
आगामी सन्तति के हित में,
कुड़ की राह बनाये जा॥
अपना प्यारा खून पसीना,
सौ-सौ बार चुआये जा।
आजादी की हर तड़पन को,
बारम्बार जिलाये जा॥
अपनी कुरिया की चिनगी से
सब में आग लगाये जा।
जर्जर दुनिया के ढाँचे को,
'भभ' 'भभ' आज जलाये जा॥
शोषण की प्रत्येक प्रथा का,
अंधियर गहन मिटाये जा।
नये जनम का नया उजाला,
धरती पर बरसाये जा॥
गाँव-नगर बे-घर वालों के,
लाखों-लाख बसाये जा।
मेहनत वालों के रहने को,
ऊँचे गेह उठाये जा॥
हल-हँसिया का और हथौड़ा_
का परचम लहराये जा।
अब अपनी सरकार बनाकर,
जीवन में मुसकाये जा॥
1957
अभियुक्त 110 का,
बलवान, स्वस्थ,
प्यारी धरती का शक्ति-पुत्र,
चट्टानी छातीवाला,
है खड़ा खम्भ-सा आँधी में
डिप्टी साहब के आगे।
नौकरशाही के गुरगे,
अफसरशाही के मुरगे,
भू-कर उगाहने वाले,
दल्लाल दुष्ट पैसे के,
आना-गंडा के जमींदार;
लाला साहब पटवारी जी।
धरती माता के कुलांगार_
कटु दु:शासन के धूर्तराज;
थाने का चौकीदार नीच,
जो वफादार है, द्वारपाल
इस चरमर करते शासन का;
बनिया जो मालिक है धन का,
जो नफाखोर बन चूस रहा
जन जन का सारा रक्त-राग;
पंडित (धार्मिक कोढ़ी गँवार);
मादक चीजों के विक्रेता
जो नाशराज का है कलार;
आये थे सब के सब गवाह।
झूठी गंगा-तुलसी लेकर,
अन्तर से बोले एक-एक :
''यह चोर, नकबजन आदी है;
इसकी ऐसी ही शोहरत है,
यह चोर टिकाता है घर में।''
अभियुक्त क्रोध से पागल हो;
कर चला जिरह उन लोगों से;
जैसे गयंद चीरे कदली का वन-का-वन,
जैसे जनता सामन्तीगढ़ को करे ध्वस्त;
जैसे समुद्र की बड़ी लहर
मारे छापा,
छोटे जहाज को करे त्रस्त!
दे सका न उत्तर जमींदार,
वह व्यर्थ रहा करता टर-टर!
पटवारी जी भी गये बिगड़,
जैसे बिगड़े कोई मोटर।
चौकीदारी खा गयी हार,
जो सदा जीतती आयी थी।
बनिया रह गया छटंकी भर,
मन, सेर, पसेरी सब भूली।
पंडित खर के अवतार हुए!
विक्रेता मादक चीजों का
बक गया नशे में अर्र-बर्र!
कर चुका जिरह तब यों बोला :
''मैं चोर नहीं या सेंधमार।
मैं नहीं डकैतों का साथी!
धिक है, इन कोढ़ी कुत्तों को!
ये झूठ गवाही देते हैं!
ये नहीं चाहते : मैं पनपूँ,
इनको मेटूँ,
जनता का जमघट मैं बाँधूँ,
इनको तोडूँ,
नौकरशाही_
असफरशाही का सिर फोडूँ;
दु:शासन को कमजोर करूँ;
इनकी रोटी,
इनकी रोजी,
इनसे हर कर सबको दे दूँ;
इससे ये मेरे बैरी हैं।''
इस पर भी डिप्टी साहब ने,
अफसरशाही के नायक ने_
नौकरशाही की स्याही से,
लिख दिये चटक काले अक्षर :
''यह भूमि-पुत्र है अपराधी।
यह चोर नकबजन है आदी।
यह चोर टिकाता है घर में
इससे समाज को खतरा है।''
1957
वह समाज के त्रस्त क्षेत्र का मस्त महाजन,
गौरव के गोबर गनेश-सा मारे आसन,
नारिकेल-से सिर पर बाँधे धर्म-मुरैठा,
ग्राम-बधूटी की गोरी गोदी पर बैठा,
नागमुखी पैतृक सम्पत्ति की थैली खोले,
जीभ निकाले, बात बनाता करुणा घोले,
ब्याज-स्तुति से बाँट रहा है रुपया-पैसा,
सदियों पहले से होता आया है ऐसा!!
सूँड लपेटे हैं कर्जे की ग्रामीणों को,
मुक्ति अभी तक नहीं मिली है इन दीनों को,
इन दीनों के ॠण का रोकड़-कांड बड़ा है,
अब भी किन्तु अछूता शोषण-कांड पड़ा है।
1957
रवि-मोर सुनहरा निकला,
पर खोल सबेरा नाचा,
भू-भार कनक-गिरि पिघला,
भूगोल मही का बदला।
नवजात उजेला दौड़ा,
कन-कन बन गया रुपहला।
मधुगीत पवन ने गाया,
संगीत हुई यह धरती,
हर फूल जगा मुसकाया!
1957
तेज धार का कर्मठ पानी,
चट्टानों के ऊपर चढ़ कर,
मार रहा है
घूँसे कस कर
तोड़ रहा है तट चट्टानी!
1957
हाथ में तलवार लेकर डर रहे हो,
लेखनी-बिजली लिये तुम मर रहे हो!
आग हो, ज्वालामुखी हो, सो रहे हो,
ओस के हिम आँसुओं को बो रहे हो!!
सूर्य हो, लेकिन छिपे हो बादलों में;
क्रान्ति हो, लेकिन पले हो पायलों में!
सिन्धु हो, लेकिन नहीं तूफान लाते;
चाँद की मुसकान में हो प्रान पाते!!
तीर हो, तुम तोड़ सकते हो शिलाएँ,
मूक मन गाओ नहीं अपनी व्यथाएँ!
मेघ-गर्जन है तुम्हारी भावना में,
किन्तु मूर्छित हो अँधेरी कामना में!!
गान हो, लेकिन नहीं तुम गूँजते हो,
रात के काले हृदय में डूबते हो!
नाग हो, लेकिन पिटारी में पड़े हो,
काढ़ कर फन तुम नहीं अरि से लड़े हो!!
पंख हो, नभ में नहीं तुम फैलते हो,
आंधियों में तुम नहीं उड़ तैरते हो!
चोट खाते हो, नहीं ललकारते हो,
इंकलाबी घन नहीं तुम मारते हो!!
मौन बैठे यंत्रणा सब सह रहे हो,
मौत की मुरदा कहानी कह रहे हो!
ऐ दधीचो! शक्ति का डंका बजाओ,
शांति का उल्लासमय सूरज उगाओ!!
लाल सोने का सबेरा चमचमाओ!
लेखनी के लोक में आलोक लाओ!!
1957
वह थका, हारा, बहुत ऊबा मनुज है!
भूमि उसको प्रिय नहीं है।
वर्ग के संघर्ष से वह काँपता है,
दूर उसके क्षेत्र से ही भागता है।
वह पुरानी सभ्यता के राज-पथ पर
पेट के बल मंद गति से रेंगता है,
श्वान के संग भूख अपनी मेटता है,
शासकों के कटु दमन की यंत्रणा से,
शोषकों के अपहरण की यातना से,
रक्त के कुल्ले उगल कर मर रहा है,
लाश अपनी ढो रहा है।
वह कला के, काव्य के डैने लगा कर,
सान्त्वना की प्राप्ति के हित,
कल्पना के नील नभ में
प्राण अपने खो रहा है।
वह नहीं जग जीत सकता,
वह नहीं इतिहास को_
जीवन-रुधिर से सींच सकता।
मौन मन वह सह रहा है_
जो यहाँ पर हो रहा है,
लौह का घन
मोम के दीपक सदृश ही गल रहा है।
1957
हारा हूँ सौ बार गुनाहों से लड़-लड़ कर
हार हूँ सौ बार
गुनाहों से लड़-लड़ कर,
लेकिन बारम्बार लड़ा हूँ
मैं उठ-उठ कर,
इससे मेरा हर गुनाह भी मुझसे हारा
मैंने अपने जीवन को इस तरह उबारा
डूबा हूँ हर रोज
किनारे तक आ-आ कर
लेकिन मैं हर रोज
उगा हूँ जैसे दिनकर,
इससे मेरी असफलता भी मुझसे हारी
मैंने अपनी सुन्दरता इस तरह सँवारी
1957
शक्ति मेरी बाहु में है,
शक्ति मेरी लेखनी में,
बाहु से, निज लेखनी से
तोड़ दूँगा मैं शिलाएँ!
जागरण है प्राण मेरा,
क्रांति मेरी जीवनी है,
जागरण से क्रांति से मैं
घनघना दूँगा दिशाएँ!
भाव हैं तूफान भारी,
शब्द मेरे आँधियाँ हैं,
आँधिया तूफान द्वारा
मैं उड़ा दूँगा घटाएँ!
रो रही है आज मिट्टी,
फूल की प्रिय पाँत रोती,
चन्द्रमा है ओस रोता,
मैं हँसा दूँगा दिशाएँ!
1957
यह बाँदा है!
सूदखोर आढ़त वालों की इस नगरी में,
जहाँ मार, काबर, कछार, पड़ुआ की फसलें,
कृषकों के पौरुष से उपजा कन-कन सोना,
लढ़ियों में लद-लद कर आकर,
बीच हाट में बिक कर कोठों-गोदामों में,
गहरी खोहों में खो जाता है जा-जा कर
और यहाँ पर
रामपदारथ, रामनिहोरे,
बेनी पण्डित, बासुदेव, बलदेव, विधाता,
चन्दन, चतुरी और चतुर्भुज,
गाँवों से आ-आ कर गहने गिरवी रखते,
बढ़े ब्याज के मुँह में बर-बस बेबस घुसते,
फिर भी घर का खर्च नहीं पूरा कर सकते,
मोटा खाते, फटा पहनते,
लस्टम-पस्टम जैसे-तैसे मरते-खपते,
न्याय यहाँ पर अन्यायों पर विजय न पाता,
सत्य सरल होकर कोरा असत्य रह जाता,
न्यायालय की डयोढ़ी पर दबकर मर जाता,
यहाँ हमारे भावी राष्ट्र-विधाता,
युग के बच्चे,
विद्यालय में वाणी विद्या-बुध्दि न पाते,
विज्ञानी बनने से वंचित रह जाते,
केवल मिट्टी में मिल जाते।
यह बाँदा है,
और यहाँ पर मैं रहता हूँ,
जीवन-यापन कठिनाई से ही करता हूँ।
कभी काव्य की कई पंक्तियाँ,
कभी आठ-दस-बीस पंक्तियाँ,
और कभी कविताएँ लिख कर,
प्यासे मन की प्यास बुझा लेता हूँ रस से,
शायद ही आता है कोई मित्र यहाँ पर,
शायद ही आती हैं मेरे पास चिट्ठियाँ।
मेरे कवि-मित्रों ने मुझ पर कृपा न की है,
इसीलिए रहता उदास हूँ खोया-खोया,
अपने दुख-दर्दों में डूबा,
जन-साधारण की हालत से ऊबा-ऊबा,
बाण-बिंधे पक्षी-सा घायल,
जल से निकली हुई मीन-सा, विकल तड़पती,
इसीलिए आतुर रहता हूँ,
कभी-कभी तो कोई आये,
छठे-छमाहे चार-पाँच दिन तो रह जाये,
मेरे साथ बिताये,
काव्य, कला, साहित्य-क्षेत्र की छटा दिखाये,
और मुझे रस से भर जाये, मधुर बनाये
फिर जाए, जीता मुझको कर जाए।
आखिर मैं भी तो मनुष्य हँ,
और मुझे भी कवि-मित्रों का साथ चाहिए,
लालायित रहता हूँ मैं सबसे मिलने को,
श्याम सलिल के श्वेत कमल-सा खिल उठने को।
सच मानो जब यहाँ निराला जी आये थे,
कई साल हो गये, यहाँ कम रह पाये थे,
उन्हें देख कर मुग्ध हुआ था, धन्य हुआ था,
कविताओं का पाठ उन्हीं के मुख से सुन कर,
गन्धर्वों को भूल गया था,
तानसेन को भूल गया था,
सूरदास, तुलसी, कबीर को भूल गया था,
ऐसी वाणी थी हिन्दी के महाकृता की।
तब यह बाँदा काव्य-कला की पुरी बना था,
और साल पर साल यहाँ मधुमास रहा था,
बम्बेश्वर के पत्थर भी बन गये हृदय थे,
चूनरिया बन गयी हवा थी, गौने वाली,
यह धरती हो गयी वधू थी फूलों, वाली,
और गगन का राजा सूरज दूल्हा बन कर
चूम रहा था प्रिय दुलहन को।
फिर दिन बीते, मधु-घट रीते,
फिर पहले-सा वह नीरस हो गया नगर था,
फिर पहले-सा मैं चिन्तित था,
फिर मेरा मन भी कुण्ठित था,
फिर लालायित था मिलने को कवि-मित्रों से
फिर मैं उनकी बाट जोहता रहा निरन्तर,
जैसे खेतिहर बाट जोहता है बादल की,
जैसे भारत बाट जोहता है सूरज की,
किन्तु न कोई आया,
आने के वादे मित्रों के टूटे,
कई वर्ष फिर बीते,
रंग हुए सब फीके,
और न कोई रही हृदय में आशा।
तभी बन्धुवर शर्मा आये,
महादेव साहा भी आये,
और निराला-पर्व मनाया हम लोगों ने,
मुंशीजी के पुस्तक-घर में,
एक बार फिर मिला सुअवसर मधु पीने का,
कविता का झरना बन कर झर-झर जीने का,
लगातार घण्टों, पहरों तक,
एक साथ साँसें लेने का,
एक साथ दिल की धड़कन से ध्वनि करने का,
ऐसा लगा कि जैसे हम सब,
एक प्राण हैं, एक देह हैं, एक गीत हैं, एक गूँज हैं
इस विराट फैली धरती के,
और हमीं तो वाल्मीकि हैं, कालिदास हैं,
तुलसी हैं, हिन्दी कविता के हरिश्चन्द्र हैं,
और निराला हमीं लोग हैं,
बन्धु! आज भी वह दिन मुझको नहीं भूलता;
उसकी स्मृति अब भी बेले-सी महक रही है,
उस दिन का आनन्द आज भी
कालिदास का छन्द बना मन मोह रहा है,
मुक्त मोर बन श्याम बदरिया भरे हृदय में,
दुपहरिया में, शाम-सबेरे नाच रहा है,
रैन-
अँधेरे में चन्दनियाँ बाँह पसारे
हमको, सबको भेंट रहा है।
सम्भवत: उस दिन मेरा नव जन्म हुआ था,
सम्भवत: उस दिन मुझको कविता ने चूमा,
सम्भवत: उस दिन मैंने हिमगिरि को देखा,
गंगा के कूलों की मिट्टी मैंने पायीं,
उस मिट्टी से उगती फसलें मैंने पायीं,
और उसी के कारण अब बाँदा में जीवित रहता हूँ,
और उसी के कारण अब तक कविता की रचना करता हूँ,
और तुम्हारे लिए पसारे बाँह खड़ा हूँ,
आओ साथी गले लगा लूँ,
तुम्हें, तुम्हारी मिथिला की प्यारी धरती को,
तुममें व्यापे विद्यापति को,
और वहाँ की जनवाणी के छन्द चूम लूँ,
और वहाँ के गढ़-पोखर का पानी छू कर नैन जुड़ा लूँ,
और वहाँ के दुखमोचन, मोहन माँझी को मित्र बना लूँ,
और वहाँ के हर चावल को हाथों में ले हृदय लगा लूँ,
और वहाँ की आबहवा से वह सुख पा लूँ
जो गीतों में गाया जा कर कभी न चुकता,
जो नृत्यों में नाचा जा कर कभी न चुकता,
जो आँखों में
आँजा जा कर कभी न चुकता,
जो ज्वाला में डाला जा कर कभी न जलता,
जो रोटी में खाया जा कर कभी न कमता,
जो गोली से मारा जा कर कभी न मरता,
जो दिन दूना रात चौगुना व्यापक बनता,
और वहाँ नदियों में बहता,
नावों को ले आगे बढ़ता,
और वहाँ फूलों में खिलता,
बागों को सौरभ से भरता।
अहोभाग्य है जो तुम आये मुझसे मिलने,
इस बाँदा में चार रोज के लिए ठहरने,
अहोभाग्य है। मेरा, मेरे घर वालों का,
जिनको तुम स्वागत से हँसते देख रहे हो।
अहोभाग्य है इस जीवन के इन कूलों का,
जिनको तुम अपनी कविता से सींच रहे हो।
अहोभाग्य है हम दोनों का,
जिनको आजीवन जीना है काव्य-क्षेत्र में।
अहोभाग्य है हम दोनों की इन आँखों का,
जिनमें अनबुझ ज्योति जगी है अपने युग की।
अहोभाग्य है दो जनकवियों के हृदयों का
जिनकी धड़कन गरज रही है घन-गर्जन-सी।
अहोभाग्य है कठिनाई में पड़े हुए प्रत्येक व्यक्ति का,
जिनका साहस-शौर्य न घटता।
अहोभाग्य है स्वयं उगे इन सब पेड़ों का,
जिनके द्रुम-दल झरते फिर-फिर नये निकलते।
अहोभाग्य है हर छोटी चञ्चल चिड़ियों का,
जिनका नीड़ बिगड़ते-बनते देर न लगती।
अहोभाग्य है बम्बेश्वर की चौड़ी-चकली चट्टानों का,
जिनको तुमने प्यार किया है, सहलाया है।
अहोभाग्य है केन नदी के इस पानी का,
जिसकी धारा बनी तुम्हारे स्वर की धारा।
अहोभाग्य है बाँदा की इस कठिन भूमि का,
जिसको तुमने चरण छुला कर जिला दिया है।
1957
हम लेखक हैं,
कथाकार हैं,
हम जीवन के भाष्यकार हैं,
हम कवि हैं जनवादी।
चंद, सूर,
तुलसी, कबीर के,
संतों के, हरिचन्द्र वीर के
हम वंशज बड़भागी।
प्रिय भारत की
परम्परा के,
जीवन की संस्कृति-सत्ता के,
हम कर्मठ युगवादी।
हम स्रष्टा हैं,
श्रम-शासन के
मुद मंगल के उत्पादन के,
हम दृष्टा हितवादी।
भूत,भविष्यत्,
वर्तमान के,
समता के शाश्वत विधान के
हम हैं मानववादी।
हम कवि हैं जनवादी।
1957
धीरे उठाओ मेरी पालकी
मैं हूँ सुहागिन गोपाल की
बेला है फूलों के माल की
फूलों के माल की_
धीरे उठाओ मेरी पालकी।
धीरे उठाओ मेरी पालकी
मैं हूँ बँसुरिया गोपाल की
बेला है गीतों के ताल की
गीतों के ताल की_
धीरे उठाओ मेरी पालकी।
धीरे उठाओ मेरी पालकी
मैं हूँ सुरतिया गोपाल की
बेला है मनसिज के ज्वाल की
मनसिज के ज्वाल की_
धीरे उठाओ मेरी पालकी।
1957
नाव मेरी पुरइन के पात की,
कोमल है गात की,
व्याकुल है जैसे कि चातकी,
स्वाती के स्वाद की!
लाखों है लहरें आघात की,
पीड़ा है पातकी,
छायी
अँधेरी है रात की_
भारी विषाद की।
नाव खेयो पुरइन के पात की,
किरनों से प्रात की,
साहस की उँगली से बात की,
मीड़ों से नाद की।
1957
माँसी! न बजाओ बंशी मेरा मन डोलता
मेरा मन डोलता है जैसे जल डोलता
जल का जहाज जैसे पल-पल डोलता
माँसी! न बजाओ बंशी मेरा प्रन टूटता
मेरा प्रन टूटता है जैसे तृन टूटता
तृन का निवास जैसे बन-बन टूटता
माँझी! न बजाओ बंशी मेरा तन झूमता
मेरा तन झूमता है तेरा तन झूमता
मेरा तन तेरा तन एक बन झूमता।
1957
धूप धरा पर उतरी
जैसे शिव के जटाजूट पर
नभ से गंगा उतरी।
धरती भी कोलाहल करती
तम से ऊपर उभरी!!
धूप धरा पर बिखरी!!
बरसी रवि की गगरी,
जैसे ब्रज की बीच गली में
बरसी गोरस गगरी।
फूल-कटोरों-सी मुसकाती
रूप-भरी है नगरी!!
धूप धरा पर निखरी!!
1957
तू जल-गहरी भरी नदी है
और पखेरू मैं नभ का हूँ
तूने ज्योंही मुझे पुकारा
मैं आया हूँ,
ओ मेरी प्रिय नदी साँवरी
मैं आया हूँ बड़ी दूर से अरी बावरी!
जी भर अपने श्यामल जल में
पंख डुबा लेने दे मुझको
और नाक की नथ का मोती
सुधि में ले जाने दे मुझको
लाल चोंच में सुख से दाबे।
9.1.1958
हम न रहेंगे_
तब भी तो यह खेत रहेंगे;
इन खेतों पर घन घहराते
शेष रहेंगे;
जीवन देते,
प्यास बुझाते,
माटी को मद-मस्त बनाते,
श्याम बदरिया के
लहराते केश रहेंगे!
हम न रहेंगे_
तब भी तो रति-रंग रहेंगे;
लाल कमल के साथ
पुलकते भृङ्ग रहेंगे;
मधु के दानी,
मोद मनाते,
भूतल को रससिक्त बनाते,
लाल चुनरिया में
लहराते अंग रहेंगे।
10.3.1958
मुझे गर्व है उस केरल पर
पहली बार जहाँ खग्रासी तमचर हारे,
भीति-भार के अंधकार के ढहे कगारे,
सूर्यमुखी आलोक-गरुण ने पंख पसारे,
दहक उठे दाड़िम-विद्रुम-दृष्टा अंगारे,
उस केरल पर_
वहाँ मुक्ति का केतन फहरा,
धूसर धरती पर सोने का सागर लहरा।
उस केतन-सा लहक रहा है जन-मन-जीवन।
उस सागर-सा लहर रहा है जन-मन-जीवन॥
मुझे गर्व है और हर्ष है उस केरल पर,
आशा के अरविंद खिले हैं जिस केरल पर!!
19.3.1958
आज नदी बिल्कुल उदास थी,
सोयी थी अपने पानी में,
उसके दर्पण पर
बादल का वस्त्र पड़ा था।
मैंने उसको नहीं जगाया,
दबे पाँव घर वापस आया।
23.3.1958
संगमरमर का सबेरा!
और
उसकी मूर्तियाँ हम_
मूक, कातर!
आह! हमको
शस्यश्यामा छुए,
चूमे और भेंटे!!
23.3.1958
लिपट गयी जो धूल पाँव से
वह गोरी है इसी गाँव की
जिसे उठाया नहीं किसी ने
इस कुठाँव से।
23.3.1958
बच्चे की आँखों का काजल
मन पर मेरे फैल गया है
यह कोमल, नादान अँधेरा
मुझको प्रिय है।
24.3.1958
कंकरीला मैदान
ज्ञान की तरह जठर-जड़ लम्बा-चौड़ा,
गत वैभव की विकल याद में_
बड़ी दूर तक चला गया है गुमसुम खोया!
जहाँ-तहाँ कुछ-कुछ दूरी पर,
उसके ऊपर,
पतले से पतले डण्ठल के नाजुक बिरवे
थर-थर हिलते हुए हवा में खड़े हुए हैं
बेहद पीड़ित!
हर बिरवे पर मुंदरी जैसा एक फूल है
अनुपम मनहर हर ऐसी सुन्दर मुँदरी को
मीनों ने चंचल आँखों से,
नीले सागर के रेशम के रश्मि-तार से,
हर पत्ती पर बड़े चाव से बड़ी जतन से,
अपने-अपने प्रेमी जन को देने की
खातिर काढ़ा था
सदियों पहले।
किन्तु नहीं वे प्रेमी आये,
और मछलियाँ_
सूख गयी हैं, कंकड़ हैं अब!
आह! जहाँ मीनों का घर था
वहाँ बड़ा वीरान हो गया।
31.3.1958
धूप नहीं, यह
बैठा है खरगोश पलंग पर
उजला,
रोएँदार, मुलायम_
इसको छू कर
ज्ञान हो गया है जीने का
फिर से मुझको।
5.6.1958
यह जो
नाग दिये के नीचे
चुप बैठा है,
इसने मुझको
काट लिया है
इस काटे का मंत्र
तुम्हारे चुम्बन में है,
तुम चुम्बन से
मुझे जिला दो।
7.6.1958
सुआपंखी घाम पहने पेड़ वन के,
मोर नाचे तले जिनके;
गीत गाते विहग जिनके;
और झूले में झुलाते हमें-तुमको,
फूल देते,
और फल की भेंट देते,
वे अनूठे पेड़ सूखें नहीं वन के;
अमर हों जैसे अमर कवि सूर-तुलसी!
16.6.1958
हे मेरी तुम
जब तुम अपने केश खोलकर
तरल ताल में लहराओगी,
और नहाकर
चंदा सी बाहर आओगी
दो कुमुदों को ढँके हाथ से
चकित देखती हुई चतुदिक,
तब मैं तुमको
युग्म भुजाओं में भर लूँगा
और चाँदनी में चुमूँगा तुम्हें रात भर
ताल किनारे।
कई जनम तक याद रहेगा
यह दुर्लभ सुख
हम दोनों को।
17.6.1958
भूल सकता मैं नहीं
ये कुच-खुले दिन,
ओठ से चूमे गये,
उजले, घुले दिन,
जो तुम्हारे साथ बीते
रस-भरे दिन,
बावरे दिन,
दीप की लौ-से
गरम दिन।
25.6.1958
क्या नहीं कुछ हो गया
जब याद आयी
और परदे फड़फड़ाये :
फ्रेम से तस्वीर निकली,
और शीशा मुस्कराया
वाह! फिर तो फूल बरसे
और मैं तुमसे मिला!
क्या नहीं कुछ हो गया
जब तुम मिलीं!
13.7.1958
वह सितार के तार-तार को बजा रहा था।
बजा रहा था तार-तार को,
मंथन कर सागर से ध्वनियाँ, धूमधाम से उठा रहा था
लहरों को छल-छल उछालकर झुला रहा था
पैंजनियाँ पहने-जलपरियाँ नचा रहा था
संसृति को पुष्पक विमान पर उड़ा रहा था
लोक-लोक दिक्देश-काल को भुला रहा था
समर-क्षेत्र में वाण वीर-सा चला रहा था
विजय-वारुणी अधोरात्रि में पिला रहा था
मारुत-सा पर्वत की सत्ता हिला रहा था
उद्गम से उमड़ी नदियों को बुला रहा था
मन-मतंग को कजली-वन में घुमा रहा था
पर्वत के कंधों पर बादल झुमा रहा था
वह सितार के तार-तार को बजा रहा था
गोरी को गोदी में सुख से लिटा रहा था
मुख निहार कर मुख पर चुम्बन लुटा रहा था
खिले कमल को अपने उर से लगा रहा था
बार-बार दीपों की माला जला रहा था
दीपों की माला से सोना गला रहा था
गालों पर लज्जा की लाली लगा रहा था
निंदियायी आँखों में यौवन जगा रहा था
डालों पर पल्लव-प्रसून को खिला रहा था
मधु-लोभी भौरों का गुंजन गुँजा रहा था
बीती बातों की सुगंध को सुँघा रहा था
तन को तन से मन को मन से मिला रहा था
वह सितार के तार-तार को बजा रहा था
रथ को पथ पर वायु-वेग से चला रहा था
नक्षत्रों से अपना परिचय बढ़ा रहा था
धूल धुएँ-सा पीछे-पीछे उड़ा रहा था
गजमुक्ता से स्वर के छींटे उड़ा रहा था
देवों का पीयूष प्राण को पिला रहा था
मनुज-तत्व को सूक्ष्म बना कर जिला रहा था
जत्रड-चेतन का भेद मिटाकर मिला रहा था
लय में लय कर प्रलय-काल को मिटा रहा था
देही को सौरभ-सा देही बना रहा था
सौरभ-से रागों को मन में बसा रहा था
वह सितार के तार तार को बजा रहा था
4.11.1958
छुट्टी का घण्टा बजते ही कक्षाओं से
निकल-निकल आते हैं जीते-जगते बच्चे,
हँसते-गाते चल देते हैं पथ पर ऐसे
जैसे भास्वर भाव वही हों कविताओं के
बन्द किताबों से बाहर छन्दों से निकले
देश-काल में व्याप रही है जिनकी गरिमा
मैं निहारता हूँ उनको, फिर-फिर अपने को
और भूल जाता हूँ अपनी क्षीण आयु को!
28.11.58
वह चिड़िया जो_
चोंच मार कर
दूध-भरे जुण्डी के दाने
रुचि से, रस से खा लेती है
वह छोटी संतोषी चिड़िया
नीले पंखों वाली मैं हूँ
मुझे अन्न से बहुत प्यार है।
वह चिड़िया जो_
कण्ठ खोल कर
बूढ़े वन-बाबा की खातिर
रस उँडेल कर गा लेती है
वह छोटी मुँह बोली चिड़िया
नीले पंखों वाली मैं हूँ
मुझे विजन से बहुत प्यार है।
वह चिड़िया जो_
चोंच मार कर
चढ़ी नदी का दिल टटोल कर
जल का मोती ले जाती है
वह छोटी गरबीली चिड़िया
नीले पंखों वाली मैं हूँ
मुझे नदी से बहुत प्यार है।
28.11.1958
रेत मैं हूँ_जमुन-जल तुम!
मुझे तुमने
हृदय तल से ढँक लिया है
और अपना कर लिया है
अब मुझे क्या रात_क्या दिन
क्या प्रलय_क्या पुनर्जीवन!
रेत मैं हूँ_जमुन-जल तुम!
मुझे तुमने
सरस रस से कर दिया है
छाप दुख-दव हर लिया है
अब मुझे क्या शोक_क्या दुख
मिल रहा है सुख_महासुख!
28.11.1958
''धूप चुराए गेंदा फूला है'' गरीब के दरवाजे पर;
शाम साँवरी सोने का कण्ठा पहने है बड़े चाव से;
संपादक की आँख देखती है सोने के इस कण्ठे को,
जिसे देखकर धरती का यौवन जीवन में छा जाता है
17.12.1958
ढेर लगा दिये हैं हमने
पुलों के_
पहियों के
अपनी सदी के उस पार जाने के लिए
लेकिन पुल टूटे
पहिये टूटे हैं।
26.1.1961
योगलीन शिव की मुद्रा में वादक बैठा,
भोग-भवानी की सारंगी लिए गोद में
कला-कुशल हाथों से तन्मय बजा रहा है
आदि भूत को राग-बोध की परिसंज्ञा दे
जो न कभी अब तक उपजे थे भाव भूमि में
वह अणु-अणु से अब उपजे हैं अंकुर जैसे
गजदंती-वैदूर्यमुखी_कलहंस शरीरी
लाखों की संख्या में सोने के प्रकाश में
मैं भी रहा न पिंड पठारी, सिंधु हो गया
सारंगी के स्वरारोह में लहरें लेता
महाकाश की ओर उमड़ता महावेग से
शशिशेखर के अभिनंदन में गूँज उठा हूँ
महाकाल भी द्रवीभूत हो गया स्वरों से,
भूल गया अपनी जघन्य दुर्दम लीलाएँ
कर के छोड़, कुठार, शरद के तरल ताल का
नवजीवन के गंध-राग का कमल हो गया
बजती रहे सुमुखि-सारंगी इसी भाव से
गलती रहे जटिल जड़ता भी इसी भाव से
चेतनता फूले सरसों-सी इसी चाव से
शंभु-भवानी मिलें कंठ से इसी भाव से
30.12.1958
धूप चमकती है चाँदी की साड़ी पहने
मैके में आयी बेटी की तरह मगन है
फूली सरसों की छाती से लिपट गयी है
जैसे दो हमजोली सखियाँ गले मिलीं हैं
भैया की बाहों से छूटी भौजाई-सी
लहँगे को लहराती लचती हवा चली है
सारंगी बजती है खेतों की गोदी में
दल के दल पक्षी उड़ते हैं मीठे स्वर के
अनावरण यह प्राकृत छवि की अमर भारती
रंग-बिरंगी पंखुरियों की खोल चेतना
सौरभ से मँह-मँह महकाती है दिगन्त को
मानव मन को भर देती है दिव्य दीप्ति से
शिव के नन्दी-सा नदिया में पानी पीता
निर्मल नभ अवनी के ऊपर बिसुध खत्रडा है
काल काग की तरह ठूँठ पर गुमसुम बैठा
खोयी आँखों देख रहा है दिवास्वप्न को।
17.1.1959
मेरे देश , तुम्हारी छाती की मिट्टी मैं हो जाऊँगा
मर जाऊँगा तब भी तुमसे दूर नहीं मैं हो पाऊँगा
मेरे देश, तुम्हारी छाती की मिट्टी मैं हो जाऊँगा
मिट्टी की नाभी से निकला मैं ब्रह्मा होकर आऊँगा
गेहूँ की मुट्ठी बाँधे मैं खेतों-खेतों छा जाऊँगा
और तुम्हारी अनुकम्पा से पककर सोना हो जाऊँगा
मेरे देश, तुम्हारी शोभा मैं सोना से चमकाऊँगा
19.4.1959
तुम जो अपने हाथों में विधि से ज्यादा ताकत रखते हो
मेहनत से रहते हो, खेतों में जाकर खेती करते हो
मेड़ों को ऊँचा करते हो, मेघों का पानी भरते हो
फसलों की उम्दा नसलें हर साल नयी पैदा करते हो
लाठी लेकर रखवाली सबकी करते हो
कजरारी गौओं के थन से पय दुहते हो
फिर भी मूँड़े पर गोबर लेकर मलते हो
तुम जो धन्नासेठों के तलवे गलते हो,
तुम जो छाती पर पत्थर रक्खे जीने का दम भरते हो
अन्यायों से जोर जुलुम से मुट्ठी ताने लड़ मरते हो
तुम जो ठगते नहीं ठगे सब दिन जाते हो
तुम जो सरकारी पेटी में टैक्सों में पैसा भरते हो
अफसर के वेतन को अपने लोहू देकर मोटा करते हो
थाने की डयोढ़ी पर जाकर बकरे जैसा कट आते हो
मेहनत की मस्ती में ज्ञानी-विज्ञानी को शरमाते हो
तुम जो मेहनत की गेहूँ जौ की रोटी खाते हो
तुम जो मेहनत की भद्दर गहरी निंदिया में सो जाते हो
तुम अच्छे हो तुम से भारत का भीतर-बाहर अच्छा है
तुम सच्चे, तुम से भारत का सुन्दर सपना सच्चा है
तुम गाते हो, तुमसे भारत का कोना-कोना गाता है
तुमसे मुझको मेरे भारत को जीवन का बल मिलता है
तुम पर मुझको गर्व बहुत है, भारत को अभिमान बहुत है
यद्यपि शासन तुमको क्षण भर कोई मान नहीं देता है
तुम जो रूसी-चीनी-हिंदी मैत्री के दृढ़ संरक्षक हो
तुम जो तिब्बत-चीन-एकता के विश्वासी अनुमोदक हो
तुम जो युध्दों के अवरोधक शांति समर्थक युगधर्मी हो
मैं तो तुमको मान-मुहब्बत सब देता हूँ
मैं तुम पर कविता लिखता हूँ
कवियों में तुम को लेकर आगे बढ़ता हूँ
असली भारत पुत्र तुम्हीं हो
असली भारत पुत्र तुम्हीं हो,
मैं कहता हूँ।
22.4.1959
मार देखो
मौन टूटेगा न घन से
वह पला है धैर्य बन के
इस हृदय में
और तन में
साँस में
मेरे नयन में।
मार देखो
गीत टूटेगा न घन से
वह बना है प्राणपन से
दाह-दव में शुध्द मन से
नेह के
नाते वचन से।
20.8.1959
गाया हुआ गीत
शरीर में आए हुए यौवन की तरह
मदांध हो गया
और नदी में नहा रहे हाथी की तरह
सूँड़ से जल की फुहार फेंकने लगा।
गाया हुआ गीत
घोंसलों से निकल आए कपोतों की तरह
हवा में उड़ने लगा
और विराट गहन कानन को छाप कर
मोहिनी माया से गुटर गूँ करने लगा।
गाया हुआ गीत
गुलमोहर के प्रलम्ब पेड़ों की तरह
छतनार हो गया,
और फूल-फूलकर, फगुआरों की तरह,
उदार अवनी से फूलों की होली खेलने लगा।
गाया हुआ गीत
विरही राम की तरह सीता के लिए
अधीर हो गया
और विशाल कमल-नयनों से बड़े-बड़े
आँसू की तरह,
आवागमन के मार्ग पर, टपाटप टपकने लगा।
गाया हुआ गीत
सूक्ष्म-से-सूक्ष्म और तरल-से-तरलतर
आकाश हो गया
और आकाश में फैलकर फूलने वाली
चेतना का प्रकाश हो गया।
10.10.1959
नीम के फूल
दूध की फुटकियों-से झरे
मुलायम-मुलायम,
कठोर भूमि पर बिखरे;
जैसे कोई
प्यार से शरीर स्पर्श करे;
दुखों से तनी हुई
नसों की थकान हरे।
20.10.1959
वसन्त आया :
पलास के बूढ़े वृक्षों ने
टेसू की लाल मौर सिर पर धर ली!
विकराल वनखण्डी
लजवन्ती दुलहिन बन गयी,
फूलों के आभूषण पहन आकर्षक बन गयी।
अनंग के
धनु-गुण के भौरे गुनगुनाने लगे,
आम के अंग
बौरों की सुगन्ध से महक उठे,
मंगल गान के सब गायक पखेरू चहक उठे।
20.10.1959
हो, न हो तुम्हें,
हमें है हमारी सत्ता का बोध :
कि हम हैं संगमरमर के भीतर जल रहे दिये,
पर्त-पर्त में प्रकाश भर रहे दिये;
कि हम हैं मूर्तियों की अन्तरात्मा के दिये,
दिक्काल को भी जीवित कर रहे दिये;
कि हम हैं सूर्य और चन्द्रमा की आयु के साथी दिये,
अन्धकार के विस्तार को पी रहे दिये।
30.10.1959
तुम मुझे कुछ न दो
न अपनी उँगलियों के स्पर्श की वर्तुल लहरियाँ
न अपनी आँखों की चुम्बकीय बिजलियाँ
न अपने कंधों पर की झुकी हुई मदान्ध सुगन्धित रातें
न अपने उरोजों के उठे हुए कसे आश्वस्त कूल
न अपने गालों के गुलाबी प्रभात
न अपने ओठों के ललित लालिम चुम्बन
न अपने नितम्बों का चरणों तक बहता हुआ महोल्लास
न अपने फूल झरते बोल
न अपना हिमानी मौन
लेकिन, तुम मुझे दो
मेरा धैर्य-मेरा हीरा
जिसे तुमने अखंडित लिया
और खंडित किया :
जिसे तुमने आभूषणों में जड़ाया
और यौवन का उत्सव मनाया,
अन्यथा असम्भव है मेरा जीना
बिना धैर्य_बिना हीरा!
14.11.1959
समुद्र वह है
जिसका धैर्य छूट गया है
दिक्काल में रहे-रहे!
समुद्र वह है
जिसका मौन टूट गया है,
चोट पर चोट सहे-सहे!
14.11.1959
सबसे आगे
हम हैं
पाँव दुखाने में;
सबसे पीछे
हम हैं
पाँव पुजाने में।
सबसे ऊपर
हम हैं
व्योम झुकाने में;
सबसे नीचे
हम हैं
नींव उठाने में।
15.11.1959
शब्दों की कतार के पीछे,
ओट में खड़ा
मैं बोलता हूँ तुमसे!
सरसों की पाँत के पीछे,
ओट में खड़ा
मैं बोलता हूँ तुमसे!
15.11.1959
तुम्हारे उरोजों का सोना
कठोर ही नहीं
दूध की धार से भरा
कोमल भी है।
कठोरता कोमलता का कवच है
तुम जानती हो न?
15.11.1959
केन किनारे
पल्थी मारे
पत्थर बैठा गुमसुम!
सूरज पत्थर
सेंक रहा है गुमसुम!
साँप हवा में
झूम रहा है गुमसुम!
पानी पत्थर
चाट रहा है गुमसुम!
सहमा राही
ताक रहा है गुमसुम!
17.11.1959
नदी एक नौजवान ढीठ लड़की है
जो पहाड़ से मैदान में आयी है
जिसकी जाँघ खुली
और हंसों से भरी है
जिसने बला की सुन्दरता पायी है!
पेत्रड हैं कि इसके पास ही रहते हैं
झुकते, झूमते, चूमते ही रहते हैं
जैसे बड़े मस्त नौजवान लड़के हैं!
नदी म्यान से खिंची एक तलवार है
जो मैदान में लगातार चलती है
जिसकी धार तेज
और बिजली से भरी है
जिसने बला की चंचलता पायी है!
कूल हैं कि इसको पास ही रखते हैं
जी-जान से इसे प्यार ही करते हैं
जैसे बड़े कुशल समर-शूर सैनिक हैं!
17.11.1959
दोष तुम्हारा नहीं_हमारा है
जो हमने तुम्हें इंद्रासन दिया :
देश का शासन दिया :
तुम्हारे यश के प्रार्थी हुए हम :
तुम्हारी कृपा के शरणार्थी हुए हम :
और असमर्थ हैं हम
कि उतार दें तुम्हें
इंद्रासन से_देश के शासन से,
अब जब तुम व्यर्थ हो चुके हो_
अपना यश खो चुके हो!
19.11.1959
इकला चाँद
असंख्यों तारे
नील गगन के
खुले किवाड़े;
कोई हमको
कहीं पुकारे
हम आएँगे
बाँह पसारे।
20.11.1959
अकथ्य को हमने कहा नहीं,
असत्य को हमने सहा नहीं।
कथ्य को हमने सँवारा
तब कहा,
सत्य को हमने दुलारा
तब सहा।
22.11.1959
दल बँधा मधुकोष गंधी फूल
मन्दिर मौन का है
रूप, जिसकी अंजली से,
काल की साँकल हटा कर खुल गया है।
रश्मियों का राग-रंजित
रथ यहीं पर रुक गया है।
गन्ध पीने के लिए
नभ भी यहाँ पर झुक गया है।
30.11.1959
दिन अब भी गरम और गुदगुदा होता है
दिन अब भी गरम और गुदगुदा होता है,
तुम्हारे वक्षस्थल की तरह;
सानुराग मेरे दृढ़ वक्षस्थल से सटकर,
मुझे गरमाता और रोमांचित करता है।
हवा अब भी सुखद और कुनमुनी होती है,
तुम्हारे नि:श्वास की तरह,
मेरे खुले चेहरे को स्नेह से स्पर्श कर,
मुझे मंद-मंथर स्वभाव से सहलाती है!
लेकिन ये सूर्योदय और सूर्यास्त अब तो
तुम्हारे कुंडलों की तरह
प्रदीप्त होने पर भी, दृष्टि से छूने पर
मेरे तन में शीत का संचार करते हैं।
और अब तो जाड़े की ये साँवली रातें
तुम्हारे कुंतलों की तरह
अधीर, उच्छ्ंखल, मेरे शरीर से लगकर,
मुझे हिमपात-सी बरबस शीतल करती हैं!
31.11.1959
अमृता शेरगिल के चित्र को देखकर
अंधी रात का तुम्हारा तन :
दाहिने हाथ की उठी हथेली :
नग्न कच्चे कुचों_
कटि के मध्य देश_
लौह की जाँघों से
आन्तरिक अरुणोदय की झलक मारता है
ओ चित्र में अंकित युवती!
तुम सुन्दर हो!
मौन खड़ी भी तुम विद्रोही शक्ति हो!
9.10.1960
नदी है
कि नितम्बिनी वीणा
तट पर धरी
कभी बजती_कभी मौन
12.10.1960
खिला है अग्निम प्रकाश
संध्याकाश में;
कलम वन की तरह नयनाभिराम,
प्रवाल-पँखुरियों के सम्पुट खोले,
क्षण पर क्षण
बिम्बित-प्रतिबिम्बित होता,
दिगम्बरी दिशाओं के दर्पण में।
19.10.1960
रंग नहीं
रथ दोड़ते हैं रंगीन फूलों के
सांध्य गगन में।
देखो_बस_देखो।
रंग नहीं
ध्वज फहरते हैं रंगीन स्वप्नों के
सांध्य गगन में।
झूमो_बस_झूमो!
रंग नहीं
नट नाचते हैं रंगीन छंदों के
सांध्य गगन में!
नाचो_बस_नाचो!
20.10.1960
मैं हूँ अनास्था पर लिखा
आस्था का शिलालेख
नितान्त मौन,
किन्तु सार्थक और सजीव
कर्म के कृतित्व की सूर्याभिमुखी अभिव्यक्ति;
मृत्यु पर जीवन के जय की घोषणा।
6.1.1961
दिन है कि
हंस हलाहल पर
मंद-मधुर तिर रहा है
दिन है कि चरने गयी गाय का
सफेद बछड़ा
माँ की प्रतीक्षा में बैठा है।
9.1.1961
दिन अच्छा है
नटी नदी के दृढ़ नितम्ब की तरह खुला है
पानी जिसको परस रहा है मधुर चाव से
उस नितम्ब को खुले दिवस को जी भर देखो
दिन अच्छा है
बीच खेत में बड़े साँड की तरह खड़ा है
गाएँ जिसको निरख रही हैं मुग्ध भाव से
उस मनचीते वृषभ दिवस को जी भर देखो
9.1.1961
रची उषा ने ॠचा दिवा की
निशा सिरानी;
सुख के आमुख खिले कमल-मुख,
पुलके प्रानी;
रूप अनूप धूप के धन के
खिले मुकुल से,
महिमा हुई मही की गोचर,
रज की रोचक;
भूचर के स्वर, खेचर के पर
भास्वर हुलसे:
जल में जगी ज्योति की रम्भा-
तम की मोचक।
12.1.1961
कैसे जियें कठिन है चक्कर
निर्बल हम, बलीन हैं मक्कर
तिलझन ताबड़तोड़ कटाकट
हड्डी की लोहे से टक्कर।
18.1.1961
न टूटो तम
बस झुको यों
कि चूम लो मिट्टी
और फिर उठो।
2.3.1961
घन पर घन आ घिरे गगन में
क्षण पर क्षण आ तिरे नयन में
श्याम नील हो गया धरातल
रंग रोर भर उमड़ पड़ा जल।
अब झूमें गजराज बिजन में
छिपे सूर्य के कदली वन में
अब उतरी आँखों में कजरी
रस बरसी बाहों में बदरी।
छूटी कटि की कनक मेखला
टूटी पद की लौह शृंखला
अब आयी चंचला शरण में
पाने को आवास चरण में॥
15.7.1961
रवि के खरतर शर से मारी,
क्षीण हुई तन-मन से हारी,
केन हमारी तड़प रही है
गरम रेत पर, जैसे बिजली
बीच अधर में घन से छूटी
तड़प रही है।
16.7.1961
अब भी है कोई चिड़िया जो सिसक रही है
नील गगन के पंखों में
नील सिंधु के पानी में;
मैं उस चिड़िया की सिसकन से सिहर रहा हूँ
वह चिड़िया मानव का आकुल अमर हृदय है।
16.7.1961
हल चलते हैं फिर खेतों में
फटती है फिर काली मिट्टी
बोते हैं फिर बिया किसान
कल के जीवन के वरदान;
फिर उपजेगा उन्नत-मस्तक सिंहअयाली नाज
फिर गरजेगी कष्ट-बिदारक धरती की आवाज।
23.7.1961
दायें_बायें
सुबह-शाम : इन
कामरूप दो सुंदरियों के बीच
जवान दिन हैरान
युगों से
भरी दुपहरी में तपता है।
1.8.1961
हम जियें न जियें दोस्त
तुम जियो एक नौजवान की तरह,
खेत में झूम रहे धान की तरह,
मौत को मार रहे बान की तरह।
हम जियें न जियें दोस्त
तुम जियो अजेय इंसान की तरह
मरण के इस रण में अमरण
आकर्ण तनी
कमान की तरह
9.8.1961
चोली फटी सरस सरसों की
नीचे गिरा फागुनी लहँगा,
ऊपर उड़ी चुनरिया नीली,
देखो हुई पहाड़ी बिवसन
आतप-तप्ता
30.12.1961
वह कवि था, कवियों में रवि था;
मन से पंकज, तन से पवि था,
वह अपने युग का युगपति था,
गति के पार गयी वह गति था,
वह मानव का मानी स्वर था,
कालजयी वह धार प्रखर था,
वह जन के जीवन का दल था,
वह आलोकित नेह नवल था,
वह न रहा युग मौन हो गया
वह न रहा छवि गान सो गया
अब किरणों की माल म्लान हैं
खण्डित फूलों की कमान है।
यह भी क्या कटु विधान है
पा न सका कवि मान पान है।
दुर्मुख अन्धों का शासन है
कनबहरों का सिंहासन है।
19.10.1961
करण का रण रणव का रण
मरण का रण लड़े क्षण-क्षण
हटे हठ से नहीं ठिठके
कहीं ठहरे नहीं बिक के
गले मिलते रहे गल के
शरण सम्बल रहे बल के
रची रचना रुचिर वचना
नलिन नयना विशद वसना
गये तुम कर गये सूना
भुवन भव है विरस ऊना
'समासीना' वह प्रवीणा
वरदवीणा हुई दीना
बचे घन के बँधे परिकर॥
तरल तम के रुँधे पुष्कर
वयन विदलित भारती है
नयन विगलित भारती है॥
फिर उदय हो सदय दिनकर
किरण चुम्बन करे जी भर
जलज जागें, विमुख मुख पर
बहे 'परिमल' गहें सुख स्वर।
10.11.1961
सुभटकाय मेघों का संघट
कर-निकाय रवि का निगरण कर
जल बल की जय के कोलाहल से दिगंत भर
नीलकाय नभ के मण्डल से
भूमण्डल पर उतरा;
तरल काय रवि की तनया के तनुल तोय में
बिम्बकाय हो पुलकलाय कंजन-सा विचरा
3.8.1962
कठोर हैं तुम्हारे कुचों के
मौन मंजीर
ओ पिकासो की पुत्रियो!
सुडौल हैं तुम्हारे नितम्ब के
दो कूल,
ओ पिकासो की पुत्रियो!
निर्भीक हैं
चरणों तक गयी
कदली-खंभों-सी प्रवाहित
कुमारीत्व की दोनों नदियाँ,
ओ पिकासो की पुत्रियो!
22.8.1962
धूप पिये पानी लेटा है सीना खोले
नौजवान बेटा है युग के श्रमजीवी का।
30.10.1962
चली गयी है कोई श्यामा,
आँख बचा कर, नदी नहा कर
काँप रहा है अब तक व्याकुल
विकल नील जल।
30.10.1962
जल रहा है
जवान होकर गुलाब,
खोल कर होंठ
जैसे आग
गा रही है फाग।
4.11.1962
हरी घास का बल्लम
गड़ा भूमि पर
सजग खड़ा है
छह अंगुल से नहीं बड़ा है
मन होता है
मैं उखाड़ कर इसे मार दूँ
कुण्ठा को गढ़ में पछाड़ दूँ
जहाँ गड़े हैं भूले मुरदे
वहाँ गाड़ दूँ।
19.11.1962
वह समाज में
न्याय न पाकर,
अन्यायों की चोट दबाकर
भरी देह का
नेह सुखाकर
खाकर ठोकर_
रोम दुखाकर,
अपने सपने
घूल बनाकर
कर से कर पर की मजदूरी,
पग से
हर पल-पल की दूरी,
जीवन जीती है
अनचाहा,
दुख-दारिद पीती अनथाहा।
5.4.1963
मैं पहाड़ हूँ
और तुम
मेरी गोद में बह रही नदी हो
26.4.1964
उतार कर
धर दिया है मैंने
अपना बड़प्पन,
वहाँ,
उस मुरदा अजायबघर में,
जहाँ
मरणोपरांत धर दी जाती हैं
बड़े-बड़ों के बड़प्पनों की उतारनें।
हल्का हो गया हूँ मैं,
सहज-साधारण हो गया हूँ मैं,
आदमियों के साथ
जीने के लिए
तैयार हो गया हूँ मैं।
न चाहिये मुझे
ऐरावत की सवारी।
न चाहिये मुझे
इंद्रासन,
न चाहिये मुझे
पारिजात।
बस,
अब,
बहुत काफी है मुझे,
मेरे लिए लोकतंत्र की जमीन
जो हो रही है
दिनों दिन
मानववाद से हसीन,
यही तो है मेरे काव्य की,
परम प्रेरक-प्राण से प्यारी
जन्मभूमि,
यही तो है
मेरी मनोभूमि।
मई, 1964
चम्मचों से नहीं
आकंठ डूब कर पिया जाता है
दुख को दुख की नदी में
और तब जिया जाता है
आदमी की तरह आदमी के साथ
आदमी के लिए
17.7.1965
' फूल नहीं रंग बोलते हैं ' के प्रकाशनोत्सव पर
प्रिय डाक्टर1
पाई चिट्ठी
हुआ, प्रसन्न
तुमने तोड़ा मौन
मैंने खाई खीर
स्वाद बन गया
वक्ष तन गया
गया इलाहाबाद
पुस्तक देखी
आँखें चमकीं
बहुत समय पर मेरी कविता बाहर आई
छपने पर वह और हो गयी
सबको भायी
समारोह भी रहा सुहाना
सबने सुना मुझको, मैंने सबको जाना
मन गाता था गाना
मैं पहने था माला
चलता था चौताला
लेख पढ़े लोगों ने डटकर
सबने काव्य सराहा
पंत, महादेवी के भाषण भाव भरे थे
दास2 हुलास भरे थे
अमरित3 ने अमरित बरसाया_
अब फिर बाँदा_
वही कचहरी
वही वकालत
वही कटाकट!
13.10.1965
तुम एक
सदेह सौंदर्य का समारोह हो
मेरे मंच पर बज रहे हैं अब
तुम्हारे अंग-प्रत्यंग
जैसे वाद्य-यंत्र
14.10.1965
मैं उसे खोजता हूँ
जो आदमी है
और
अब भी आदमी है
तबाह होकर भी आदमी है
चरित्र पर खड़ा
देवदार की तरह बड़ा।
31.10.1966
आग लेने गया है
पेड़ का हाथ आदमी के लिए
टूटी डाल नहीं टूटी
29.12.1967
मर गया हूँ मैं,
पड़ोस की बूढ़ी औरत के मरने पर
जनाजा उठने के बाद
एक बच्चा हँसा
और फिर रोया
मरा हुआ मैं......जी उठा
और फिर उसे गोद में उठा लिया
लगा, कि कोई नहीं मरा
सूरज अब भी चल रहा था
रिक्शे पर दुनिया दौड़ रही थी
वह सड़क जो कभी नहीं उठी थी
उठ बैठी
और उसने मुझे लपेट लिया
मुझे प्रतीत हुआ कि मैं
खिले हुए गुलाब के बाग में हँस रहा हूँ
मेरी बाहों में जिंदगी दौड़ती हुई हरहराने लगी
मैंने बुढ़िया के दरवाजे झूमते बादल का हाथी बाँध दिया
और उसका घंटा बजने लगा
शून्य के उड़ते हुए गोले फट गये
और वियतनाम की लड़ती हुई जनता
मौत को मारने लगी।
मेरी गोद का बच्चा सूरज के रथ पर बैठकर
दुनिया की सैर करने लगा
और वाशिंगटन पहुँचकर उसने जान्सन के सिर पर
एक टीप मारी
गैलपपोल में जनता ने तालियाँ बजादीं
और कासीगन ने
माओ की ओर मुँह बिरा दिया
तभी मैंने पढ़ा
कि लोहिया बीमार हैं
इंदिरा गांधी तीमारदार हैं
कविता ने कहा 'अब बस करो'
थोड़ा कहा बहुत समझना
1967
डॉ 0 रामविलास शर्मा के बाँदा आने पर
न देखा था
मैंने
देवदार
तुम
आये
और दिख गया मुझे
दृढ़ स्तम्भ पेड़
मेरी आँखों में खड़ा
अटूट आस्था से
हो गया
बड़ा
दिन
हो गया
इन्द्रियों के अन्दर
सिन्धु पा गया
सूर्य को
पानी के अस्तित्व में
मैं और कविता
जी भर बटोरते रहे
धूप का घन
एक साथ
एक साथ जीने के लिए
खुल कर बंद हो गयी
चिरौंटे की लाल चोंच
और तुम
आये और गये हो गये
19.3.1968
न बुझी
आग की गाँठ है
सूरज :
हरेक को दे रहा रोशनी_
हरेक के लिए जल रहा_
ढल रहा_
रोज सुबह निकल रहा_
देश और काल को बदल रहा।
2.4.1968
सच ने
जीभ नहीं पायी है
वह बोले तो कैसे
असली बात कहे तो कैसे
सच की बात
गवाही कहते
जीभ उलटते और पलटते
सच कहने में असफल रहते
सच साबित हो कैसे
दिन में दिन हो कैसे
न्यायी बैठे
जीभ पकड़ते
जब वादी-प्रतिवादी लड़ते
सच के पाँव उखड़ते
झूठे के जब झंडे गड़ते
सच जीते तो कैसे
न्याय मिले तो कैसे
असली का नकली हो जाता
नकली का असली हो जाता
न्याय नहीं हंसा कर पाता
नीर-क्षीर विलगे तो कैसे
सच की साख जमे तो कैसे
कागज का पेटा भर जाता
पेटे में पड़ सच मर जाता
झूठे को डिगरी मिल जाती
जीते की बाछें खिल जातीं
झूठ मरे तो कैसे
कष्ट हरे तो कैसे
20.4.1968
खफ्त है मुझे
आदमी होने का
बेखफ्त आदमी
साँड़ है
सियार है
पेट भर लेता है
नेता है
19.7.1968
हे मेरी तुम!
मैंने देखा :
शहंशाह सूर्य ने झुक कर
मेरे आँगन की क्यारी के
खिले-खुले दिल के
गरबीले लाल गुलाब
बड़े प्यार से चूमे।
हे मेरी तुम!
मैंने देखा :
धूप हँसी दूधिया दीप्ति से,
खूशबू ने
खुश दिल से
खुशखबरी फैलायी,
बजी रूप-रस की शहनाई।
है मेरी तुम!
मैंने देखा :
राग-पराग-भरी पंखुरियाँ
मेरे भीतर
मेरे बाहर
रस से छलकीं :
मेरे उन्मादी यौवन की
सोयी_खोई सुधियाँ महकीं
16.10.1968
दूर कटा कवि
मैं जनता का,
कच-कच करता
कचर रहा हूँ अपनी माटी;
मिट-मिट कर
मैं सीख रहा हूँ
प्रतिपल जीने की परिपाटी
कानूनी करतब से मारा
जितना जीता उतना हारा
न्याय-नेह सब समय खा गया
भीतर बाहर धुआँ छा गया
धन भी पैदा नहीं कर सका
पेट-खलीसा नहीं भर सका
लूट खसोट जहाँ होती है
मेरी ताव वहाँ खोटी है
मिली कचहरी इज्जत थोपी
पहना चोंगा उतरी टोपी
लिये हृदय में कविता थाती
मैं ताने हूँ अपनी छाती
1969
अब नहीं जाता
अदालत में,
खाल खिंचवाने
मूँड़ मुँड़वाने
हाड़ तोड़वाने
खून चुसवाने।
सच,
अब झाँक नहीं पाता
अदालत में
न्याय नहीं पाता
अदालत में!
जून 1970
कोई नहीं सुनता
झरी पत्तियों की झिरझिरी
न पत्तियों के पिता पेड़
न पेड़ों के मूलाधार पहाड़
न आग का दौड़ता प्रकाश
न समय का उड़ता शाश्वत विहंग
न सिंधु का अतल जल-ज्वार
सब हैं_
सब एक दूसरे से अधिक
कनबहरे
अपने आप में बंद, ठहरे!
मार्च, 1971
जी के काम
किये जीने में,
सम्प्रति
साँग लिये सीने में;
रुचि की
रचना
रची मरम से,
बाँध
नहीं बाँधे
कुकरम के
जून, 1971
रेत में
खो गयी नदी,
सागर पछाड़ खाता है इंतजार में,
अदृश्य में
उड़ गयी रोशनी
'हुआ-हुआ' करता है अंधकार का सियार,
अंगुलियाँ सहलाती हैं समय का सितार
संगीत नहीं बजता_
बिना तार और प्यार के,
हवा का रुक गया है जुलूस
प्यार के मजार के पास,
झुक गयी है नकाब ओढ़े दर्द की डाल
न आग है, न आग का नाच
सपाट है बर्फ की सड़क
बिना पदचाप के,
अनंत को चली गयी, मौन हुई।
अप्रैल, 1972
मारा गया
लूमर लठैत
पुलिस की गोली से
किया था उसने कतल
उसे मिली मौत
किया था कतल पुलिस ने
उसे मिला इनाम
प्रवचन अहिंसा का
हो गया नाकाम।
22.6.1972
हे मेरी तुम!
चिड़ीमार ने चिड़िया मारी;
नन्ही-मुन्नी तड़प गई
प्यारी बेचारी।
हे मेरी तुम!
सहम गई पौधों की सेना;
पाहन-पाथर हुए उदास;
हवा हाय कर
ठिठकी ठहरी;
पीली पड़ी धूप की देही।
हे मेरी तुम!
अब भी वह चिड़िया जिन्दा है
मेरे भीतर,
नीत्रड बनाये मेरे दिल में,
सुबुक-सुबुक कर
चूँ-चूँ करती
चित्रडीमार से डरी-डरी-सी।
28.2.73
हे मेरी तुम!
काल कलूटा बड़ा क्रूर है_
उससे ज्यादा।
लेकिन अपना प्रेम प्रबल है।
हम जीतेंगे काल क्रूर को :
उसका चाकू हम तोड़ेंगे :
और जियेंगे :
सुख-दुख दोनों
साथ पियेंगे :
काल क्रूर से नहीं डरेंगे_
नहीं डरेंगे_
नहीं डरेंगे।
28.3.1973
देखे दाँव
पैंतरे झेले :
खायी मार
मोर के मुँह की,
आँख न फूटी
मत्त मयंदी
पदाघात से
कमर न टूटी:
नरम जीभ से
हमने
दिग्गज-पर्वत
ठेले।
मई, 1973
हे मेरी तुम!
चढ़ी जवानी_
बरसा पानी;
झूमी-झूली डाल_
काल के खड़े पेड़ पर
डाले झूला।
हे मेरी तुम!
ऊपर बाग_हर्ष का फूला;
नीचे
यम का पड़ा बसूला।
29.7.1973
हे मेरी तुम!
सब चलता है
लोकतन्त्र में,
चाकू-जूता-मुक्का-मूसल
और बहाना।
हे मेरी तुम!
भूल-भटक कर भ्रम फैलाये,
गलत दिशा में
दौड़ रहा है बुरा जमाना।
हे मेरी तुम!
खेल-खेल में खेल न जीते,
जीवन के दिन रीते बीते,
हारे बाजी लगातार हम,
अपनी गोट नहीं पक पाई,
मात मुहम्बत ने भी खाई।
हे मेरी तुम!
आओ बैठो इसी रेत पर,
हमने-तुमने जिस पर चलकर
उमर गँवाई।
30.7.1973
न आग है,
न पानी
देश की राजनीति
बिना आग-पानी के
खिचड़ी पकाती है
जनता हवा खाती है।
जुलाई, 1973
जमीन से उठकर
ऊपर,
अंतरिक्ष में
चली गयीं कीमतें,
आकाश गंगा में
डुबकी लगाने,
पुण्य कमाने।
नजर से बाहर,
नायाब हो गयी वस्तुएँ
पाताल में धँसकर।
शाह हो गये चोर।
शहर में चालू है
चोर बाजारी,
फरेब-मक्कारी।
चोर के घर
नाचता है मोर,
मुग्ध है लक्ष्मी आत्म-विभोर।
असमर्थ है राजतंत्र
मँहगाई घटाने में।
जुलाई, 1973
दूध दूध की यह बोली है
दूध-दूध के
स्वर व्यंजन है,
दूध-दूध की इस बोली में
नहा गया मैं
दूध-दूध हो गया दूध में,
फूल-फूल की यह बोली है
पंखुरियों की
रंग बिरंगे रूप रंग की
अमराई है
इस बोली की अमराई में
समा गया मैं
बिला गया मैं
फूल-फूल हो गया फूल में।
अगस्त, 1973
हम_
बड़े नहीं_
फिंर भी बड़े हैं
इसलिए कि
लोग जहाँ गिर पड़े हैं
हम वहाँ तने खड़े हैं,
द्वन्द्व की
लड़ाई भी
साहस से लड़े हैं;
न दुख से डरे,
न सुख से मरे हैं;
काल की मार में
जहाँ दूसरे झरे हैं,
हम वहाँ अब भी
हरे-के-हरे हैं।
नवम्बर, 1974
खिले हैं
खुले दिल के
कमल के फूल,
आकाश का
विश्वाधार
पंखुरियों पर उठायें,
हवा का
हिलता है दुकूल,
न कोई टंटा है_
न कोई शूल,
नदी में
चमकती है
धूप की धार-धरी
तलवार।
मई, 1975
दिन , नदी और आदमी
दिन ने नदी को_
नदी ने दिन को_
प्यार किया।
दोनों ने
एक दूसरे को जिया,
एक दूसरे को जी भर कर पिया।
आदमी ने
दिन को काटा
नदी के पानी को बाँटा।
नवम्बर, 1975
संत कवीश्वर तिरुवल्लुवार के प्रति
हे कवि पुंगव।
आज तुम्हारे स्मारक का उद्धाटन होगा,
वायुयान से उड़कर आये
'भारत-भाग्य-विधाता' द्वारा
वह नत_मस्तक होंगे उन्नत गिरि के आगे_
'वाणी बोधमयं नित्यम' के आगे
'सिध्द यशस्वी काव्य-व्रती' के आगे।
काल-जयी
शब्दार्थ निरूपित - पूर्णकाय-
आसनस्थ-महीधर-
महारथी के पाद-पद्म पर,
पूरे भारत की श्रध्दा का
माल्यार्पण वह आज करेंगे,
प्रांत-प्रांत की जन-जन वाणी से अभिनंदन समुद करेंगे।
आज बड़े गौरव का दिन है 'तमिलनाडु' का,
'तमिलनाडु' के माध्यम से
पूरे भारत का,
भारत के माध्यम से पूरे जन-जीवन का
जिसको तुमने
बड़े चाव से_बड़े प्यार से_
वर विवेक से साधा
मनोयोग से तिरुक्कुरल1 की पंक्ति पंक्ति में बाँधा
यह माल्यार्पण - यह अभिंनदन याद रहेगा,
समय-पटल पर लिखा रहेगा,
क्योंकि देश की राजनीति के राज-पुरुष ने
-काव्य - पुरुष के प्रति कृतज्ञ हो_
साहित्यिक सांस्कृतिक चेतना की वरीयता स्वीकारी है,
'तिरुक्कुरल' की भाव-भूमि पर
मानव को खोजा-पाया है,
राजनीति के कंधों पर कवि को आसीन किया है।
मुझे ज्ञात है : कवि श्री तुमको
सत्तर लाखी 'कोट्टम'1 की दरकार नहीं है
क्योंकि तुम्हारे छंद-छंद के एक-एक 'कोट्टम' की कीमत
ऐसे नये बने 'कोट्टम' की लागत से भी
लाखों लाख गुना ज्यादा है।
'यह कोट्टम' तो नश्वरता की पार्थिव कृति है
और तुम्हारी कृति के 'कोट्टम'
अमर अपार्थिव दिग्विजयी हैं।
मैंने पार्थिव 'कोट्टम' देखा
इसे देखकर मैंने तुमको सचमुच देखा,
तुम्हें देखकर
अमर तुम्हारी कविता के 'कोट्टम' भी देखे।
मैंने पाया
राशि राशि मणियों में भूषित काव्य-मूर्तियाँ
'कुरल-कुरल'2 में मुस्काती हैं
हृदय-हृदय के संवेदन स्वर
-मानव-जीवन के प्रति अर्पित-
पर विवेक की संतोषी साँसें भरते हैं,
धर्म अर्थ के और काम के वरदानी चित्रण करते हैं।
युग बीता
पर एक बूँद से भी तो अब तक हुआ न रीता
महावेग से पूर्ण प्रवाहित 'तिरुक्कुरल' का सागर।
नये बने 'कोट्टम' के भीतर
अब यह सागर पहँच गया है,
मैंने देखे :
जग-जीवन में अब लहराते दो-दो सागर,
'तमिलनाडु' को सिंचित करते दो-दो सागर,
खारे सागर को शरमाते दो-दो सागर,
मैं उत्तर भारत का वासी
दक्षिण भारत में आया तो धन्य हो गया,
'तिरुक्कुरल' के रस-सागर की लहर हो गया।
संत कवीश्वर।
मैं तुमको अर्पित करता हूँ
हिन्दी की यह अपनी कविता।
अप्रैल,1976
मैंने
उसे देखा है
अपनी इन आँखों से,
धूल के बवंडर में उड़ते-खोजते अपनी दुनिया,
दूर-बहुत दूर हमारी दुनिया से_
दूरातिदूर शून्य की दुनिया में विला1 जाते।
मैंने
उसे देखा है
अपनी इन आँखों से,
काल के तलातल में डूबते-उतराते_
खोजते अपना अहं,
दूर-बहुत दूर समष्टि के अहं से_
दूरातिदूर पाताल के अहं में समा जाते।
मई, 1976
कुहकी कोयल खड़े पेड़ की देह
पंचम स्वर में चढ़कर बोला सन्नाटे में नेह
अधजागी पलकें अकुलायीं
खुले नैन के द्वार
मंत्र-मारती-हृदय-देश में-
पहुँची पिकी पुकार
कुहकी कोयल खड़े पेड़ की देह ॥पंचम....॥
छू मंतर हो गया
सिसकता सरपीला संदेह
एक साथ मधु पर्व मनाते
गेही और अगेह
कुहकी कोयल खड़े पेड़ की देह ॥पंचम...॥
ताप तीर-तलवार चलाता
बीत गया है जेठ
कोकिलकंठी बना चलाता
जीत गया है जेठ
कुहकी कोयल खड़े पेड़ की देह ॥पंचम...॥
आज अयाचित मिला मनुज को
मनचाहा संगीत
प्रकृति पुरुष को, जिला रही है
पिला रही है प्रीत
कुहकी कोयल खड़े पेड़ की देह ॥ पंचम....॥
5.6.1976
दिन है किसी और का
सोने का हिरन :
मेरा है
भैंस की खाल का
मेरा दिन।
यही कहता है,
वृध्द रामदहिन,
यही कहती है
उसकी घरैतिन
जब से
चल बसा
उसका लाडला
जुलाई, 1976
हे मेरी तुम!
पिता - मेरु को
काट रही है
पिता-मेरु की
बेटी सरिता;
यह क्रम कभी न टूटा,
प्यार पिता का
कभी न छूटा।
18.8.1976
छाया मेघों की,
मयूर का नाच,
सिर के ऊपर उड़ते कौए,
पाँव तले की घास,
रेत काटती
नदी नवेली,
बातूनी
बातास बहकती,
कठघोड़े पर चढ़े समय की
बिना चले की चाल,
ऐसा जीवन
जीता है मैदान।
ऐसा ही
जीवन जीते हैं
आज देश के लोग।
सितम्बर, 1976
फिर से
मुक्त हुआ
जन-मानस;
फिर से
लाल अनार
हृदय में फूला;
फिर से
समय-सिंधु लहराया_
उमँडा;
अब जब
ढील मिली जनता को
दुर्दम अंकुश के हटने से।
फिर से
हिमवानी
ओठों पर
बिजली दौड़ी;
फिर से
वाणी और विचार
प्र्रवाहित हुए
पवन-से
और नदी से।
फिर से
उमँड़ी
मोद निनादित
तरुण तरंगें।
दिग्वधुओं ने
अपने घूँघट खोले;
फिर से
धूप धरा पर
उतरी
और
भरत-नाटयम् नाची;
फिर से
पाया प्रकृति-पुरुष ने
लोकतंत्र का
जीवन-दर्शन।
3.2.1977
सिर से पैर तक
फूल-फूल हो गयी उसकी देह,
नाचते-नाचते हवा का
वसंती नाच।
हर्ष का ढिंढोरा
पीटते-पीटते, हरहराते रहे
काल के कगार पर खड़े पेड़
तरंगित,
उफनाती-गाती रही
धूप में धुपायी नदी
काव्यातुर भाव से।
जून, 1977
तुम,
बस तुम,
जीती हो अपना लावण्य
अपने मांसल-द्वीप में
अभिषेकित किये हैं जिसे
दिन और रात के
दो महासिंधु
एक, उल्लास और प्रकाश से :
दूसरा, स्वप्न
और स्वप्न के
प्रेमालाप से।
तुम बस तुम हो
जैसे उन्हीं का अपना
प्यार का प्रवाल द्वीप।
जून, 1977
देश में लगी आग को
लफ्फाजी नेता
शब्दों से बुझाते हैं;
वाग्धारा से
ऊसर को उर्वर
और देश को
आत्म-निर्भर बनाते हैं;
लोकतंत्र का शासन
भाषण-तंत्र से
चलाते हैं।
9.12.1977
सूरज जनमा,
सुबह हुई।
सूरज डूबा,
शाम हुई।
रात,
अँधेरे की
संगत में,
बुरी तरह
बदनाम हुई।
14.1.1978
चलनी चालते हैं छोटे-बड़े आयोग।
छेद-छेद से झराझर झरता है
तथाकथित यशस्वियों का भ्रष्टाचार
आतताइयों का अत्याचार।
काँच-काँच के करकते टुकड़ों का
लग गया है भारी-भरकम अम्बार।
देखता है मेरा देश
दाँत तले उँगली दबाये_
आश्चर्य-चकित आँखें उधारे;
दर्द दर्द से कराहता-खाँसता :
बर्फ की टोपी सिर पर लगाये
पाँव में पहले सागर का जूता :
पेट पीठ में
सरकार के पोस्टर चिपकाये।
20.2.1978
अंडे पर अंडा
और अंडे पर अंडा
देती है
जैसे मुर्गी
रोज-ब-रोज
सरकार भी देती है इसी तरह
आयोग पर आयोग
और आयोग पर आयोग
रोज-ब-रोज
26.2.1978
पाटल
कपोल के अरुणोदय के,
मुखर-मौन की
पंखुरियों को खोले,
तन्वी-तन की
तरुणाई के
मधु-पराग से पूरित,
गंध-गंध हो महकें,
मदन-मोद से
नर्तन में पद
7.6.1978
लड़ गये
बड़े-बूढ़े जवान गिरगिटान,
दूसरी क्रांति के प्रवर्तक कापालिक महान,
कुर्सी के लिए
कुर्सियों के दण्डकारण्य में।
खुल गई राजघाट में
पुश्त-दरपुश्त की पंडा-बही;
चाव से पढ़ने लगे लोग
पिता-पुत्र के
गलत-सही साबिक और हाल के
कागजी इन्दरजाल।
ढमाढम बजते हैं गाल के बड़े बोल
और ढोंग के ढोल।
सत्य सोता है
अराल केशी अवनी की बाहों में;
असत्य नाचता है
मयूर-नाच इन्द्रधनुष के साथ,
मुग्ध देखती है
भ्रम में भूली दुनिया।
कीचड़ में सनी राजपथ में पिटी पड़ी हैं
राज-रथ से
नाजुक, नौजवान, दिशा-दृष्टि-हीन
सुर्खियाँ।
अलभ्य हो गई
आदमी को आदमी की पहचान।
मासूम जिंदगी
छोटी हो गई सिकुड़ते-सिकुड़ते_
छिंगुली की तरह,
मौत के माहौल में_
पेट-पीठ मार व्यापार के मखौल में
खचाखच भरे हैं
बरजोर बेईमानियों के तहखाने;
खाली पड़े हैं यथास्थान
खपरैल छाये-बरसों पुराने
ईमान के हाथों उठाये मकान।
नायाब बजाते हैं
नरक का सितार नेकनाम नारद।
देवता और देवराज
जागती जमीन की तपस्या से
चौंकते-थर्राते हैं
आज भी-अब भी।,
प्रान और पानी का पोलो खेलते हैं
कुशल-क्षेम से,
दाँव-पेंच के पचड़े में पड़े
राजघाट की राजनीति के 'नुमाइन्दे';
डूबते आदमी को डूबते नहीं देखते,
हर्ष के हौसले में मस्त
फर्ज की दुनिया से आँख चुराये।
टूटती,
टकराती,
पछात्रड खाती झनझनाती हैं
उठी लहरें;
समर जीतने का स्वप्न देखते-देखते
बात-की-बात में
हार-हार जाती हैं।
धैर्य के तट पर टिके
आराम फरमाते हैं धुरंधरी जहाज;
न पिंड छोड़ते हैं_
न मुँह मोड़ते हैं;
खड़े-खड़े वहीं कोयला खाते_
तेल पीते,
मालामाल हुए मौज मारते हैं,
ऐश्वर्य की चिमनी से
भीतरी धुआँ बाहर उछालते हैं।
आकाश पीता है
सामने खड़े कारखाने का
चिमनी-छाप सिगार।
धूप का धोखा
शहर के सिर पर,
छाता ताने तना है।
आत्मलीन हैं दोनों,
बलीन बादल और बिजली
समाधिस्थ शिव की
उपासना में विसर्जित,
चारों ओर चालू है
यंत्र और तंत्र का नियंत्रण।
चेतन चित्त
और चरित्र के चतुरानन,
भूँजी भाँग खाते
और पहाड़ फोड़ कर आया
पानी पीते हैं,
मक्कर की दुनिया में
टक्कर खाये-बिना जीते हैं।
जब भी_जहाँ भी, कोई परदा
जरा-सा ऊपर उठा,
आदमियों के बजाय_
शैतानों का समूह वहाँ संसार को
लूटते-खसोटते दिखा।
समाज को जकड़े पड़े हैं
जबरजंग_
भभूतिया भूसुरों के चिमटे;
त्राहिमाम्-त्राहिमाम् करता है आदमी
मुक्ति पाने के लिए।
खड़े हैं
बड़ी-बड़ी परिकल्पनाओं के
बड़े-बड़े ऊँचे मूँगिया पहाड़;
पहाड़ों से
बहती चली आती हैं
झमाझम पतित-पावन नदियाँ
अलौकिक उन्माद का
प्रवचन करतीं।
कीर्तन करते हैं
हम और हमारे वंशज,
देवी-देवताओं को
समर्पित किये तन और मन।
न आदमी बचता है_
न मसान बुझता है।
खनाखन बजाते हैं मन के मजीरे,
समय की साख को झनझनाते।
न देह को गरीबी छोड़ती है;
न ज्ञान की
आँख को
अमीरी खोलती है।
हड़ताल में लगे लोग
सूखे हाड़ बजाते हैं
फिलहाल
खून के धारदार आँसू बहाते हैं।
बाजार में
सिर कटाये बिकते हैं
नमक-मिर्च और नींबू लगे खीरे।
पाँव के ठप्पे
मत-पत्र पर लगाये
गाँव के गरियार गोरू
बरियार बैताल को पीठ पर चत्रढाये
निर्द्वन्द्व पगुराते हैं;
दूसरों के सताये,
दूसरों के लिये मरे जाते हैं।
शहर की शोभा
शरीफजादे लूटते हैं,
देखते-देखते मानवीय मर्यादाओं को
पाँवों के तले खूँदते हैं।
जब भी_जहाँ भी
कोई आग जली_
जमीन से जरा ऊपर लपक उठी,
हमने और हमारे हमदर्दों ने_
लपक कर,
आग और लपक को
पांव से कुचला
और दिवंगत बनाया।
यही है
इस देश का हाल,
लोकतंत्र में जिसे, मैंने,
सब जगह पिटते_
तड़पते-कराहते_
खून-खून होते देखा।
13.8.1978
पानी
पड़ा भँवर में नाचे;
नाव किनारे थर-थर काँपे;
चिड़िया पार गई;
नदिया हार गई।
पाथर पड़े
अगिन1 दहकाये,
संज्ञा-शून्य
समाधि लगाये;
दुपहर मार गई,
ऐंठ उतार गई।
26.8.1978
न घास है_
न घास की सुवास;
खूँटे से बँधा घोड़ा
अस्तबल में हिनहिनाता है;
नथुने फुलाये_
दाँत निपोर_
ठोकर2 जमीन को ठकठकाता है;
काल की काया को
चोट-पर-चोट पहँचाता है;
मुक्त होने और
दिग्विजय पर जाने के लिए
अकुलाता है;
खूँटे को उखाड़ फेंकने के लिए
शक्ति और साहस के झटके
बारम्बार लगाता है।
1.9.1978
हे मेरी तुम!
हम मिलते हैं
बिना मिले ही
मिलने के एहसास में
जैसे दुख के भीतर
सुख की दबी याद में।
हे मेरी तुम!
हम जीते हैं
बिना जिये ही
जीने के एहसास में
जैसे फल के भीतर
फल के पके स्वाद में।
28.6.1979
आयें दिन
जैसे भी आयें,
लायें दुख जैसे भी लायें।
वे सब मेरे पाहुन होंगे,
मैं उनका सत्कार करूँगा,
नवाचार से
उनका-अपना
लोकमुखी उध्दार करूँगा।
6.7.1979
हे मेरी तुम!
हम दोनों अब भोग रहे हैं
दीन देह को;
प्यार-प्यार से बाँधे;
ढले-ढले
दिल से ढकेलते
दिन का ठेला;
और रात को
काट रहे हैं
भीतर की लौ साधे।
20.7.1979
हे मेरी तुम!
माली कैंची लिये
कतरता है गुलाब की डालें,
डाले नहीं_
कतरता है जैसे मेरी ही बाहें;
मैं भरता हूँ आहें।
लेकिन, कटते-कटते, चुप-चुप
कहते मुझसे पेड़ :
वह निश्चय ही कल फूलेंगे_
अच्छे-अच्छे देंगे
लाल गुलाब;
तन महकेगा_
मन महकेगा_
महकेगा घरबार_
हम चूमेंगे पंखुरियों को_
पहनेंगे गलहार।
12.9.1979
दहका खड़ा है सेमल का पुरनिया पेड़
हे मेरी तुम!
दहका खड़ा है
सेमल का पुरनिया पेड़
टपाटप टपकाता जमीन पर
लाल-लाल फूली आग,
कचहरी के सामने
क्रांति का माहौल बनाये;
राजनीति से
ताल-मेल बैठाये।
18.3.1980
पछाड़ते-पछाड़ते
सफेद हो गई जिंदगी
जैसे कफन।
मौंत का मसान
अब मुझे बुलाता है
नदी किनारे।
फूला खड़ा है
इस उम्र में, अब भी,
राह रोके
प्यार का पुष्पित पौधा।
न जाऊँगा अब
मसान जगाने,
जिऊँगा जिंदगी अभी और अभी और
जानदार पौधे के तले
रंग-रूप को लगाये गले।
10.5.1980
मुझे न मारो
मान-पान से,
माल्यार्पण से
यशोगान से,
मिट्टी के घर से
निकाल कर
धरती से ऊपर उछाल कर।
मुझे न तोड़ो
कमल-नाल से,
तुहिन-माल से,
अश्रु-माल से,
लड़ लूँगा मैं
कुपित काल से,
अह-रह जलती
नरक-ज्वाल से।
मेरे साथी।
बंधु_घराती!
मेरी कविता
मुझे बताती :
खत्रडी रहे लौ_
बुझे न बाती_
दण्ड-दमन से फटे न छाती
5.7.1980
हे मेरी तुम!
जी रहा हूँ
जिन्दगी अपनी
और तुम्हारी;
एक साथ,
हाथ में लिये हाथ।
एक 'मैं' में
द्वैत से अद्वैत होकर,
वाक्य पूरा कर रहा हूँ,
क्रिया-कर्ता-कर्म से
भव भर रहा हूँ।
9.8.1980
हे मेरी तुम!
'गठरी-चोरों' की दुनिया में
मैंने गठरी नहीं चुरायी;
इसीलिए कंगाल हूँ;
भुक्खड़ शाहंशाह हूँ;
और तुम्हारा यार हूँ;
तुमसे पाता प्यार हूँ।
1.9.1980
मैं समय की धार में धँस कर खड़ा हूँ
मैं_
समय की
धार में
धँस कर खड़ा हूँ।
मैं
छपाछप
छापते
छल से
लड़ा हूँ
क्योंकि मैं
सत् से सधा हूँ_
जी रहा हूँ;
टूटने वाला नहीं
कच्चा घड़ा हूँ।
3.9.1980
हे मेरी तुम!
फूलों की बौछार से_
रंग-बिरंगे प्यार से_
हार गया करतार कलाकर,
अपने ही दरबार में;
अपना मुकुट उतार के
मुक्त हुआ भव -भार से।
23.9.1980
जीने का दुख
न जीने के सुख से बेहतर है
इसलिए कि
दुख में तपा आदमी
आदमी-आदमी के लिए तड़पता है
सुख से सजा आदमी
आदमी-आदमी के लिए
आदमी नहीं रहता है।
20.10.1980
झरने
झरने को
गुलाब है झुका हुआ,
केवल
अनुमोदन पाने को
रुका हुआ।
4.6.1981
इनको घमंड है
पहाड़ खोद कर
चुहिया निकाल लाने का :
रामायनी भूमि पर
भटकटैया उगाने का :
करछुल भर लिख कर ही
कालिदास होने का_
करछुल भर खाने पर
फौरन बिक जाने का
इसीलिए अक्षम हैं
अच्छा लिख पाने में,
कविता को कंठ से लगाने में।
18.8.1981
खड़ा पहाड़ चढ़ा मैं
अपने बल पर।
ऊपर पहुँचा
मैं नीचे से चल कर।
पकड़ी ऊँचाई तो आँख उठाई,
कठिनाई अब
नहीं रही कठिनाई।
देखा :
छल-छल पानी
नीचे जाता,
ऊँचाई पर टिका नहीं रह पाता।
जड़ता
झरती है
ऐसे ही नीचे,
चेतन का पौरुष
जब उठता ऊँचे।
10.11.1981
मैंने आँख लड़ाई गगन विराजे राजे रवि से
मैंने आँख लड़ाई
गगन विराजे राजे रवि से, शौर्य में;
धरती की ममता के बल पर।
मैंने ऐसी क्षमता पाई।
मैंने आँख लत्रडाई
शेषनाग से, अंधकार के द्रोह में;
जीवन की प्रभुता के बल पर
मैंने ऐसी दृढ़ता पाई।
मैंने आँख लड़ाई
महाकाल से, मृत्युंजय के मोद में;
अजर अमर कविता के बल पर
मैंने ऐसी विभुता पाई।
12.11.1981
फटा अँधेरा फूहड़ फैला,
फटी
काल की झिल्ली।
धूमधाम से
निकला सूरज,
चेतन_
प्रतिभावान_
विजेता।
15.11.1981
आग पर चढ़ी 'बटुई',
खुदुर-खुद
खुदबुद करती है
भाफ है
कि ठेलती-ठालती
कटोरी को
बारम्बार उठाती बैठाती है
बटुई के मुँह पर
जलती-जागती
लकड़ियों की धधक में
चूल्हे पर चढ़ा चावल चुरता है
धुँआई बिटिया
अँसुआई बैठी
कोठे में, देखती है
पेट के पालने का
हो रहा आतुर उपचार :
सुनती हुई
भूखोध्दार का मंत्रोच्चार!
26.11.1981
अल्हड़ गिलहरी
नीम के पेड़ पर
चढ़ी बैठी
आज
अपना जन्म-दिन
मनाती है
सखी-सहेलियों के साथ
अल्हड़ गिलहरी
जैसे कोई
राजकुमारी
राजमहल के अंतरंग में
मनाये अपना जन्म-दिन
राज परिवार के साथ
7.2.1982
ढूँढ़ते लोग कचहरी में ढूँढ़ते हैं मुझे
ढूँढ़ते लोग
कचहरी में ढूँढ़ते हैं मुझे!
जिरह-बहस करते में वहीं ढूँढ़ते हैं मुझे!
हार-जीत के हुए फैसलों में ढूँढ़ते हैं मुझे!
ढूँढ़ते-ढूँढ़ते, मुझे नहीं,
अपने हितों को ढूँढ़ते हैं लोग;
हितों के यज्ञ में हविष्य हो रहे मुझको नहीं_
मेरे बेलौस आदमी को नहीं_
दाम के अपने गुलाम को ढूँढ़ते हैं,
न पा कर उसे, छोड़ कर चल देते हैं मुझे;
और मैं,
हविष्य हो कर भी उन्हीं के लिए जीता हूँ_
उन्हें आदमी बनाने के लिए_
सत्य-संज्ञान की रचनाएँ सुनाने के लिए_
उनकी चेतना में मानवीय बोध की गरिमा जगाने के लिए_
उनको विवेकी बनाने के लिए।
ढूँढ़ते लोग नहीं ढूँढ़ पाते मुझे,
मैंने ही उन्हें ढूँढ़ा और पाया_
और उन्हीं के लिए
अपने को हविष्य बनाया।
21.4.1982
धूप में खड़ा
हँसता है फूला गुलमोहर,
फूल हैं
कि पेड़ पर बैठी पंख खोले
झुंड-की-झुंड तितलियां हैं
रसराज की रंगीन अभिव्यक्तियाँ हैं।
भंग हो गई
महाराज सूर्य की
न हँसने की अज्ञापित निषेधाज्ञा।
झकाझोर
झूमता झूलता है
मैदान का बेटा गुलमोहर,
हर्ष की हिलोर में
हवा का हिंडोला।
डाल से-डाल पर
चहकती फुदकती हैं
चुनमुन चिड़ियाएँ।
चिक-चिक करतीं
बहुत बतियाती हैं
गिलहरियाँ,
स्वर्ग से जैसे उतर आईं
पेड़ पर अप्सरियाँ।
मुग्ध है
मई के महीने का
धूल धूसरित मैदान
लौट आई देख कर
गुलमोहर में जीवंत जवानी।
6.5.1982
मेरे मन की नदी
सदी के वृहत् सूर्य से चमक रही है
मेरे पौरुष का यह पानी दृढ़ पहाड़ से टकराता है
टूट-टूट जाता है फिर भी बूँद-बूँद से घहराता है
नृत्य-नाद की नटी तरंगों के छन्दों की
जय का ज्वार भरे गाती है कलहंसों से।
7.9.1982
बियाबान में नहीं
शहर में रहता हूँ,
जहाँ आदमी को
आदमी खाये जाता है
शान-शौकत का भूगोल बनाने में
पूँजी का पुंजीभूत आतंक जमाने में,
तभी तो अकेला हूँ,
मैं ही गुरू
और मैं ही चेला हूँ।
3.4.1983
देश के भीतर दहन और दाह है,
अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर
वाह-वाह है!
7.5.1984
बूढ़ा पेड़,
बयार बसंती,
मिले मगन मन-
पतझर के उपरांत :
कुहकी कोयल,
देख देख दोनों का प्यार
नैसर्गिक सम्भ्रान्त :
पुलक उठा संसार।
21.5.1984
जग सोया
जागी गंधाली
प्राणसार प्रज्ञा पतिपाली,
मूलाकर्षित
तत्वज्ञान की_
प्रस्फुट प्रमुद विधान ध्यान की,
मुक्त मानसी तरु अम्लान की,
आत्म-बोध-विद् वाली
द्रव्य-द्रवण की मंदित धारा,
प्रवहमान हो परम उदारा,
गंधवान करती भवसारा,
मौन मोहिनी चिद्वाली।
22.5.1984
सूर्य नहीं डूबता साहब!
घूमती दुनिया
स्वयं सूर्य से मुँह मोड़ लेती है :
उजाला उतारकर
अँधेरा लपेट लेती है :
तभी तो आदमी
यथास्थिति में पड़े-पड़े
अंधे हुए हैं :
सुबह से पहले
अंधेर नगरी में
खोये हुए हैं
सूर्य नहीं
आदमी डूबता है साहब।
27.7.1984
आये हो तो
उमड़-घुमड़ कर,
नीचे आकर,
और निकट से
इन धनहा खेतों के ऊपर,
अनुकम्पा का झला मार कर,
जी उँडेल कर,
झम-झम-झम-झम बरसो;
गिरे दौंगरा गद-गद-गद-गद
लिये हौसला,
झड़ी न टूटे,
भरे खेत, उफनायें, लहरें,
हरसें, हहरें;
रोपे धान बढ़ें,
बल पायें,
पौरुष पायें;
हरी-भरी खेती हो जाये,
सुख सरसाये।
1.8.1984
टिके टेक पर, स्वाँग सँवारे
आग-पीछा बिना बिचारे
जीते हैं जो अपना चिंतन
मारे मौलिक बौध्दिक आसन,
वे
नितांत एकाकी प्राणी
अपनी वाणी के वरदानी
व्यक्तिवाद के प्रस्तोता हैं
स्रष्टा हैं_
अपने श्रोता हैं,
इनसे
कभी न जनहित होगा
होगा तो बस अनहित होगा,
इनका
अपना घाट-किनारा
प्यारा है, दुनिया से न्यारा,
इनको मिली न शिव की काशी,
मिली इन्हें भ्रम-भूमि प्रवासी
ये हैं परम अलौकिक भोगी
इनसे हारे लौकिक योगी।
17.5.85
शब्दों का अतिक्रमण करो
कहे के बाद जो अनकहा है उसे वरो
यह कुछ और नहीं_
आयातित कमजोरी है_
कल्पना कोरी है
इसके चक्कर में जो पड़ा
महान होने के बजाय_
जमीन में जिन्दा गड़ा।
28.5.1985
तन टूटा,
मन टूटा,
लेकिन आन न टूटी,
चाल-चलन की
पहले वाली बान न छूटी,
बूढ़े कंधों पर
साधे हूँ सिर का बोझा,
नहीं चाहिए
मदद तुम्हारी औघड़ ओझा।
28.5.1985
मेरी कविताएँ गायेगी जनता सस्वर
नहीं सहारा रहा
धरम का और करम का;
एक सहारा है
बस मुझको नेक कलम का,
जरा-मरण से हार न सकते
मेरे अक्षर
मेरी कविताएँ गायेगी
जनता सस्वर।
25.5.1985
जी कहता है
इस दुनिया को सत्य समझकर
जी भर इसे जियो,
इसके नखरे_
इसकी रूठन_
इसकी तेजी_
इसकी गर्मी_
इसकी धधकन_
इसकी तड़पन_
इसकी विमुखन?
असहनीय हों चाहे जितनी,
इसको परम उदार समझकर
जी भर इसे जियो,
इससे कभी न मुँह मोड़ो;
जोड़ो तो, बस, गहरा नाता इससे जोड़ो;
छोड़ो
परम अलौकिक छोड़ो,
लेकिन इसको कभी न छोड़ो,
जी कहता है
इसे प्यार दो प्रिया समझकर
प्यार प्यार से इसे जियो,
जी भर इसे जियो।
10.6.1985
दुख ने मुझको
जब-जब तोड़ा,
मैंने
अपने टूटेपन को
कविता की ममता से जोड़ा,
जहाँ गिरा मैं,
कविताओं ने मुझे उठाया,
हम दोनों ने
वहाँ प्रात का सूर्य उगाया।
16.6.1985
मौन पड़ी हैं प्रिया प्रियम्बद,
बिना बोल का मुँह खोले :
प्यार पुलक की आँखें मीचे,
दुख में डूबी साँसें लेती।
पास खड़ा मैं
महाकाल को
रोक रहा हूँ :
कविताओं का घेरा डाले
यहाँ न आये
उनको लेने :
जीवन की जय
प्रेम योगिनी पायें
25.12.1985
जितने दिन जीना है
अपने इस जीने को,
खम्भ फाड़कर जीना है
देह ढले
या उठे उसाँसें,
इस जीने को
सौ-सौ मन से जीना है
खून गिरे
या चुए पसीना
इस जीने को
मौत मारकर जीना है
5.5.1986
मैं
समय को साधता हूँ
जिंदगी से बाँधता हूँ
मैं नयन में
सूर्य की आलोक आभा
आँजता हूँ
ब्याल जैसे काल को मैं
चेतना से
नाथता हूँ
काल की
मउहर बजाते,
लोक-लय में नाचता हूँ
द्वन्द्व में निर्द्वन्द्व रहकर
मैं निरन्तर जागता हूँ।
7.5.1989
आई माँ की याद
और आँखें भर आयीं
उन्हें गये हो गये बहुत दिन, बरसों बीते!
होतीं तो वह जर्जर होतीं :
मुँह में दाँत न होते,
हाथ-पाँव सिर हिलते;
बिना सहारा बैठ न सकतीं,
सिकुड़ी सिमटी रहतीं
बुद-बुद करतीं
बोल न सकतीं;
अपनी बूढ़ी देह टोहतीं;
रो-रो पड़तीं;
इनके आँसू मुझे पोंछने पड़ते;
पाँव दबाता-दर्द मिटाता-
मैं समझाता, धैर्य बँधाता;
सिर पर मेरे हाथ फेरतीं;
मुझ बूढ़े को बूढ़ी अम्मा
गले लगातीं-
चूम-चूम कर मुझे प्यार से
बलि-बलि जातीं
आज याद में उन्हें जिलाये
उनकी पद-रज शीश चढ़ाये,
रोते-रोते
मैं हँसता हूँ
अपनी आयु भुलाये
19.5.1986
जाओ
लेकिन आत्मगंध
दे जाओ,
जाते जाते फिर मुस्काओ,
कुंद-हास का
सुख दे जाओ
जाओ
लेकिन दृष्टि-दीप्ति
दे जाओ
जाते-जाते द्वैत मिटाओ,
प्रेम-लीन
अद्वैत बनाओ
जाओ
लेकिन व्याप्ति-बोध
दे जाओ,
जाते जाते मृत्यु विजेता
चुम्बन देकर
लेकर जाओ
25.5.1986
चिता जली
तो मैंने देखा
दहन दाह में
कंचन वर्णी पंखुरियों का
कुबलय
प्रमुद खिला
रज को
राग पराग मिला
6.10.1986
चेतना मेरी जिलाये है तुम्हें,
पास-तुम-बैठी हुई हो
मैं मगनमन देखता हूँ
केश में सेंदुर अभय है_
माँग में अरुणाभ टीका दमदमाता_
नाचता है
बड़ी आँखों में उजाला
आंतरिक आह्लाद से उत्फुल्ल_
राग-रंजित मंद मुसकाते अधर
जग जीतते हैं_
वक्ष में
धीरज धरा का गूँजता है_
अंक में आलोक
चिंता-मुक्त बैठा
प्रिय पवन से खेलता है_
क्षीण कटि है
आयु की अवशेष जैसी_
चल चुके पद देह को साधे हुए हैं
जय-विजय की
जिंदगी तुम जी रही हो
मौत तुमको देखती है भवें ताने,
क्षुब्ध मन से
हर न सकती अब तुम्हें
हारकर कुंठित कुपित है
मैं उसे ललकारता हूँ
रुक न पायी,
गयी, ओझल हो गयी
रह गयी
गाती तरंगित-
दिग्विजयिनी चेतना की काम्य कविता
तुम्हें मेरी प्रिय बनाये
प्यार से मुझको रिझाये
मैं तुम्हारे साथ जीवन जी रहा हूँ
शक्ति से
सामर्थ्य से
आनंद से
26.10.1986
नीलगिरी पर्वत प्रदेश के
मोद मंच की
प्रकृति-पुरस्कृत प्रमदा ऊटी
मैंने देखा
मेरे मन में उसी उसी का वास हो गया
उसी-उसी का मेरा इंद्रिय-बोध हो गया
अब पाया मैंने अनपाया रूप विलास
पत्थर हँसते मिले कमल का हास
14.3.1989
सहज
सजीली
पंखुरियों की
लिली खिली
मौन बजी
दुन्दुभी देह की,
गूँज उठी
ध्वनियाँ सनेह की
प्राकृत
सत्ता के प्रहर्ष से
तृप्ति मिली
23.9.1989
उनको
महल मकानी
हमको छप्पर छानी
उनको
दाम-दुकानी
हमको कौड़ी कानी
सच है
यही कहानी
सबकी जानी-मानी
11.1.1980 से 11.6.1990
अब
पहरुये
आदमी की
चाँदमारी
करते हैं,
सत्ता का कुण्ड
आदमियों के रक्त से भरते हैं।
2.9.1990
फूलों ने
होली
फूलों से खेली
लाल
गुलाबी
पीत-परागी
रंगों की रँगरेली पेली
काम्य कपोली
कुंज किलोली
अंगों की अठखेली ठेली
मत्त मतंगी
मोद मृदंगी
प्राकृत कंठ कुलेली रेली
4.3.1991
कैद होकर भी
नहीं मैं कैद हूँ
मुक्त हूँ मैं
चेतना की
पारदर्शी
सत्यदर्शी
चाँदनी में!
जी रहा हूँ
बज रहा हूँ
काव्य-कंठी
रागिनी में
प्राणपन से!
मर्त्य होकर भी
नही मैं मर्त्य हूँ।
8.2.1993
मैंने बागी घोड़ा देखा
उछल कूद करता दहलाता
जोरदार हड़कम्प मचाता
गुस्से की बिजली चमकाता
लपलप करती देह घुमाता
पट पट अगली टाँग पटकता
खट-खट पिछली टाँग पटकता
कड़ी सड़क की
कड़ी देह को
कुपित कुचलता
मुरछल जैसी पूँछ घुमाता
बड़ी-बड़ी क्रोधी आँखों से
आग उगलता
ऊपर नीचे के जबड़ों के
लम्बे पैने दाँत निपोरे
व्यंग्य भाव से, ऐसे हँसता
अट्टहास करता हो जैसे!
पशु होकर भी नहीं चाहता पशुवत् जीना,
मानववादी मुक्ति चाहता मानव से अब,
चकित चमत्कृत सब को करता!
मैंने बागी घोड़ा देखा
आज सबेरे चौराहे पर!
3.4.1993
आँख खुली , कर उठा
आँख खुली,
कर उठा
करेजा कड़का।
धूल झाड़ कर
सोता मानव
फड़का।
रात ढली
दिन हुआ
उजेला दौड़ा।
ताबड़तोड़
चला, बज उठा
हथौड़ा।
(तिथिहीन)
मैं गया हूँ डूब
इतना डूब
तेरे बाहुओं में,
लोचनों में,
कुन्तलों में,
गिरि गया है डूब
जितना
सिंधु में सम्पूर्ण
सदियों पूर्व
और अब भी
मग्न है बेऊब
(तिथिहीन)
हे मेरी तुम!
कल कमीज में बटन नहीं थे;
कुरता देखा तो आगे से फटा हुआ था;
धोती में कुछ दागे पड़े थे;
बक्स और अलमारी देखी,
नहीं एक भी मिला तौलिया,
मैंने एक रुमाल निकाला
वह था मैला;
सोपकेस में सोप नहीं था;
एक बूँद भी तेल नहीं था;
कंघा परसों टूट चुका था;
मेजपोश पर धूल जमी थी;
पुस्तक पर प्याला बैठा था;
कापी पर औंधा गिलास था;
पैसे की डिबिया में पैसा एक नहीं था;
आलू और अनाज खत्म था;
लालटेन अन्धी जलती थी;
हाय राम! मेरी आफत थी;
अब बोलो तुम अब आओगी,
घर सँवारने?
(तिथिहीन)
पक्षी जो
एक अभी-अभी उड़ा
और एक बोलती लकीर सा
अभी-अभी
नील व्योम-वक्ष में समा गया
गीत वहाँ
गाने के लिए गया
गायेगा
और लौट आयेगा
पक्षी जो
एक अभी-अभी उड़ा
(तिथिहीन)
यह उदास दिन
पेंसन पाये चपरासी-सा
और जुए में हारे जन-सा
आपे में खोये गदहे-सा
मौन खड़ा है।
रवि रोता है
माँ से बिछुड़े हुए पुत्र-सा।
धूप पड़ी है
परित्यक्त पत्नी-सी कातर।
पाँव कटाये
हवा लढ़ी पर लेटे लेटे,
धीरे-धीरे
अस्पताल की ओर चली है,
सुबुक रही है।
एक टाँग पर खड़े
देह का भार उठाये,
ऊँचे-ऊँचे पेड़ पुरातन
वनस्थली में तप करते हैं
जटा बढ़ाये।
(तिथिहीन)
दिन हिरन-सा चौकड़ी भरता चला,
धूप की चादर सिमटकर खो गयी,
खेत, घर, वन, गाँव का
दर्पण किसी ने तोड़ डाला,
शाम की सोना चिरैया
नीड़ में जा सो गयी,
पेड़-पौधे बुत गये जैसे दिये,
केन ने भी जाँघ अपनी ढाँक ली,
रात है यह रात - अंधी रात,
और कोई कुछ नहीं है बात