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कविता संग्रह

अलंकार-दर्पण

धरीक्षण मिश्र

अनुक्रम 35 मुद्रा अलंकार पीछे     आगे

लक्षण (दोहा) :-
जहाँ नाम का अर्थमें औरी अर्थ लखाय।
मुद्रा अलंकार तब उहवाँ अनायास मिल जाय॥
या
जहाँ नाम का अर्थ में औरो अर्थ लखात।
मुद्रा नामक तब उहाँ अलंकार बनि जात॥
 
उदाहरण :-
मुद्रा ना हमरा पास रहे मुद्रा न बनावे आवेला।
लेकिन हमरा तुकबन्‍दी में कवि मण्‍डल मुद्रा पावेला॥
जेकर शुभ जन्‍म होत मातर माया देवी तजली साथे।
तब ऊ तरकारी दालि कहाँ कीनी जाके खाली हाथे॥
शुद्धोदन घर बासी बाटे ऊ छूँछे कबे घोंटाई ना।
तब ऊ सिद्धार्थ बनी कइसे जब तक ऊ तजी तराई ना॥
घर में ना मन लागी ओकर तब घर में ऊ सुख का पाई।
ओकरा आनंद मिली जब ऊ बाहर चेला मूड़े जाई।
जीवन पवित्रता से बीती उपदेश देत जिनगी जायी।
ऊ बिना मार के लोक जीत-बनि यशोधरा पर फैलायी॥
कथनी पर करनी यदि न चले तब ऊ कथनी बकवादे हऽ
कहना अस करना गहना हऽ गहना के मोल जियाद हऽ ॥
छुँछिये बा बुलाक के शोभा कंकन के सामान न बा।
बउखा के रहि जाता किसान बाजू में अपना जान बन बा॥
चोटी के नेता जब पहुँची बिजुली बदली धुपछाहीं में।
आ के करधनी हमन के दी यदि जोश न होई बाहीं में॥
चन्‍द्रदीठि में चन्‍द्रहार के होत तनिक अनुमान न बा।
आ बेसर पर की बातन पर अब जात जियादे ध्‍यान न बा॥
यदि अगुवा का पछुवा होई तब आपन माँग टिकाई ऊ ।
कमती एक बात के जेकरा बा शुभ कारज में न पुछाई ऊ॥
खेतन का जल में कमी न हो तब अचला पंकिल दीयर होई।
सभ भुट्टा नदली जाय किंतु जे छद ली ऊ पीयर होई॥
अँगुरी में सोहनी धरी न बँगुरी आ धानन माँझ बियान नहीं।
झुलनी सम झूम करी न लटक बाली का सँग में धान कहीं॥
मुन री अँखिया हँसु लीडर पर चुन री जनि जे बन बिछुआयी।
ऊ सही माँग सुनि के तरकी आ करन फूल ओकर जायी॥
मन मुहसिन दूर रखी काहें जे कबें महावर पा जायी।
पा जेब सलूकन के केहू बनि कड़ा बाँक काहें आयी॥
* * * *
'' कुशीनगर में छवि सज नव री ''
कुशीनगर में छविसज नव री
बौध तीर्थ के पुर वा पावन।
विद्यालय के भवन सुहावन।
देवरिया से कवि सब आइल।
पूरा उन्‍चासे कम बावन।
यदि कवियन के कमी परे तऽ
हम के एगो गनि लीं अवरी।
कुशीनगर में छबिस जनवरी॥
केहु कवि कल कल नाद सुनायी।
केहु कवि दाद बहुत पा जायी।
केहु कवि अपरस अरस कहायी।
केहु पा मन के सइनि बुझायी।
केहु कवि बात एक अपनायी।
कवित अजीर्ण विधा के गायी।
केहु निज मुँह जरदाह बनायी।
केहु पिक मुँह ले राग कढ़ायी।
टी बीचे में छलकत आयी।
हम तब फइलेऽरिया हटि जाइबि।
ना हम करीं मंच पर कवरी।
कुशीनगर में छबिस जनवरी॥
केहु कवि अल्‍प दृष्टि अपनायी।
दूर दृष्टि से ना लखि पायी।
केहु अतिसार गृहणिये होई।
केहु मिलजुल पित के दुख रोई।
केहु के अन्‍तरदाह सतायी।
आधा सीमा काम न आयी।
लीटर पी टर हो के गायी।
उहे अनिद्रा सब पर लायी।
केहु का जल से घंट सिंचायी।
यदि सुन फिलिया तनिक बुझायी।
आ बोली मुँह से ना बहिरायी।
श्रोता तब नसकी सुन बहरी।
जर से पहिला जर मिट जायी।
ज्‍वार कविन का मन में आयी।
ट्रेन धरे खातिर सब धवरी।
कुशीनगर में छवि सज नव री॥
केहु कवि हथिया महा भयावन।
केहु कवि मघा मेघ झरि लावन।
श्रोता रूप पपीहा खातिर।
कुछ कवि स्‍वाती बूँद सुहावन।
यदि बढि़या संयोग तुलाई।
मोती के दरसन हो जायी।
भोजपुरी खातिर मन तरसी।
चनशेखर के द्रोपदी परसी।
केहु पुख सहित वाण कवि आयी।
ओकरा अस नी के भ्रम छायी।
कि अदरे में कमी बुझायी।
खीसिन मिरगी सिरा कँपायी।
बरस परी आ गरज सुनायी।
केहु भर नीके चख जल लायी।
पूर्वां पर जे ना चित राखी।
ए कृति का ऊपर का भाखी।
केहु उतरा के अर्थलगायी।
सगरो हिन भिन्‍ करी कमायी।
हम बसन्‍त के बनब बनवरी।
कुशीनगर में छबिस जनवरी॥
केहु अनुराधा मंगलकारी।
आ के पूरा मँच सँवारी।
संचालक कवि शाखा आपन।
करिहें यदि निशंक संस्‍थापन।
नीमन श्रोता लोग परायी।
सभा न उहाँ पुनर्वस पायी।
केतनो केहू करी चिरौरी।
कुशीनगर में छबिस जनवरी॥
श्रवण मूल आशय अपनायी।
उहे राति में घर से आयी।
सम्‍मेलन यदि उतरी सही।
रस से अभिजित ना केहु रही।
बुद्धि धनिष्‍ठा पाले परी।
त शतभीखा से पेट न भरी।
रहनि ज्‍येष्‍ठा ना यदि आयी।
त डरे वतीरा ना रहि पायी।
अवरी सबका देखी देखा।
हम न लिखबि कविता असलेखा।
बनबि मंच पर तीस फरवरी।
कुशीनगर में छबिस जनवरी॥
 
कवित्त :- बयासी में बीस दिन सूरज ना उगलें तऽ
बीसे दिन चौदह बरीस ले बुझा गइल।
दुनियाँ अयोध्‍या पर रवि रूपी राम बिना
घोर अन्‍धकार रूपी भारी दुख छा गइल।
कुबरी सिंगार साजि सामने भरत जी का
माँगे के इनाम निज में धध गइल।
अंगद के बान्हि के सुग्रीव के कँपावत आ
बाली के कान धैले मानो उहाँ आ गइल॥
जे बा सित अम्‍बर बा दाम काजू लायी उहे
कोने से जून जन अवरीका कटात बा।
दुक्‍खे दी सम्‍बर ओ कटूबर के फिर औरी
ओहू के जे के नव अम्‍बर हीन गात बा।
मा रच विधाता दशा वित्तो मयी बाटे त
करिया बा बस्‍त्र दृश्‍य अपरे लखात बा।
जाड़ा जनता का जठराग्नि के जगाइ देत
जेसे अगस्‍त के जठराग्नि होत मात बा॥
 
 


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