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कहानी |
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ब्रह्मराक्षस का शिष्य गजानन माधव मुक्तिबोध
कहानी जन्म 13 नवंबर 1917, श्योपुर, ग्वालियर (मध्य प्रदेश) निधन 11 सितंबर 1964, दिल्ली
उस महाभव्य भवन की आठवीं मंजिल के जीने से सातवीं मंजिल के जीने की सूनी-सूनी सीढ़ियों पर नीचे उतरते हुए, उस विद्यार्थी का चेहरा भीतर से किसी प्रकाश से
लाल हो रहा था।
वह चमत्कार उसे प्रभावित नहीं कर रहा था, जो उसने हाल-हाल में देखा। तीन कमरे पार करता हुआ वह विशाल वज्रबाहु हाथ उसकी आँखों के सामने फिर से खिंच जाता। उस
हाथ की पवित्रता ही उसके खयाल में जाती किंतु वह चमत्कार, चमत्कार के रूप में उसे प्रभावित नहीं करता था। उस चमत्कार के पीछे ऐसा कुछ है, जिसमें वह घुल
रहा है, लगातार घुलता जा रहा है। वह ‘कुछ’ क्या एक महापंडित की जिंदगी का सत्य नहीं है? नहीं, वही है! वही है!
पाँचवीं मंजिल से चौथी मंजिल पर उतरते हुए, ब्रह्मचारी विद्यार्थी, उस प्राचीन भव्य भवन की सूनी-सूनी सीढ़ियों पर यह श्लोक गाने लगता है।
मेघैर्मेदुरमंबरं वनुभव: श्यामास्तमालद्रुमै:
नक्तं भीरुरयं त्वमेव तदिमं राधे गृहं प्रापय।
इत्थं नंदनिदेशतश्चलितयो: प्रत्यध्वकुंजद्रुम्
राधामाधवयोर्जयंति यमुनाकूले रह: केलय:
इस भवन से ठीक बारह वर्ष के बाद यह विद्यार्थी बाहर निकला है। उसके गुरु ने जाते समय, राधा-माधव की यमुना-कुल-क्रीड़ा में घर भूली हुई राधा को बुला रहे नंद
के भाव प्रकट किए हैं। गुरु ने एक साथ श्रृंगार और वात्सल्य का बोध विद्यार्थी को करवाया। विद्याध्ययन के बाद, अब उसे पिता के चरण छूना है। पिताजी!
पिताजी! माँ! माँ! यह ध्वनि उसके हृदय से फूट निकली।
किंतु ज्यों-ज्यों वह छंद सूने भवन में गूँजता, घूमता गया त्यों-त्यों विद्यार्थी के हृदय में अपने गुरु की तसवीर और भी तीव्रता से चमकने लगी।
भाग्यवान है वह जिसे ऐसा गुरु मिले!
जब वह चिड़ियों के घोंसलों और बर्रों के छत्तों-भरे सूने ऊँचे सिंहद्वार के बाहर निकला तो एकाएक राह से गुजरते हुए लोग ‘भूत’ ‘भूत’ कह कर भाग खड़े हुए। आज
तक उस भवन में कोई नहीं गया था। लोगों की धारणा थी कि वहाँ एक ब्रह्मराक्षस रहता है।
बारह साल और कुछ दिन पहले -
सड़क पर दोपहर के दो बजे, एक देहाती लड़का भूखा-प्यासा अपने सूखे होठों पर जीभ फेरता हुआ, उसी बगलवाले ऊँचे सेमल के वृक्ष के नीचे बैठा हुआ था। हवा के
झोंकों से, फूलों के फलों का रेशमी कपास हवा में तैरता हुआ, दूर-दूर तक और इधर-उधर बिखर रहा था। उसके माथे पर फिक्रें गुँथ-बिंध रही थीं। उसने पास में पड़ी
हुई एक मोटी ईंट सिरहाने रखी और पेड़-तले लेट गया।
धीरे-धीरे उसकी विचार-मग्नता को तोड़ते हुए कान के पास उसे कुछ फुसफुसाहट सुनाई दी। उसने ध्यान से सुनने की कोशिश की। वे कौन थे?
उनमें से एक कह रहा था, ‘अरे, वह भट्ट। नितांत मूर्ख है और दंभी भी। मैंने जब उससे ईशावास्योपनिषद् की कुछ पंक्तियों का अर्थ पूछा, तो वह बौखला उठा। इस
काशी में कैसे-कैसे दंभी इकट्ठे हुए हैं?’
वार्तालाप सुन कर वह लेटा हुआ लड़का खट से उठ बैठा। उसका चेहरा धूल और पसीने से ग्लान और मलिन हो गया था, भूख और प्यास से निर्जीव।
वह एकदम बात करनेवालों के पास खड़ा हुआ। हाथ जोड़े, माथा जमीन पर टेका। चेहरे पर आश्चर्य और प्रार्थना के दयनीय भाव! कहने लगा, ‘हे विद्वानों! मैं मूर्ख
हूँ। अपढ़ देहाती हूँ किंतु ज्ञान-प्राप्ति की महत्त्वाकांक्षा रखता हूँ। हे महाभागो! आप विद्यार्थी प्रतीत होते हैं। मुझे विद्वान गुरु के घर की राह
बताओ।’
पेड़ तले बैठे हुए दो बटुक विद्यार्थी उस देहाती को देख कर हँसने लगे; पूछा, ‘कहाँ से आया है?’
‘दक्षिण के देहात से! ...पढ़ने-लिखने से मैंने बैर किया तो विद्वान पिताजी ने घर से निकाल दिया। तब मैंने पक्का निश्चय कर लिया कि काशी जा कर विद्याध्ययन
करूँगा। जंगल-जंगल घूमता, राह पूछता, मैं आज ही काशी पहुँचा हूँ। कृपा करके गुरु का दर्शन कराइए।’
अब दोनों विद्यार्थी जोर-जोर से हँसने लगे। उनमें से एक, जो विदूषक था, कहने लगा, ‘देख बे, सामने सिंहद्वार है। उसमें घुस जा, तुझे गुरु मिल जाएगा।’ कह कर
वह ठठा कर हँस पड़ा।
आशा न थी कि गुरु बिलकुल सामने ही हैं। देहाती लड़के ने अपना डेरा-डंडा सँभाला और बिना प्रणाम किए तेजी से कदम बढ़ाता हुआ भवन में दाखिल हो गया।
दूसरे बटुक ने पहले से पूछा, ‘तुमने अच्छा किया उसे वहाँ भेज कर?’ उसके हृदय में खेद था और पाप की भावना।
दूसरा बटुक चुप था। उसने अपने किए पर खिन्न हो कर सिर्फ इतना ही कहा, ‘आखिर ब्रह्मराक्षस का रहस्य भी तो मालूम हो।’
सिंहद्वार की लाल-लाल बर्रें गूँ-गूँ करती उसे चारों ओर से काटने के लिए दौड़ी; लेकिन ज्यों ही उसने उसे पार कर लिया तो सूरज की धूप में चमकनेवाली भूरी घास
से भरे, विशाल, सूने आँगन के आस-पास, चारों ओर उसे बरामदे दिखाई दिए - विशाल, भव्य और सूने बरामदे जिनकी छतों में फानूस लटक रहे थे। लगता था कि जैसे
अभी-अभी उन्हें कोई साफ करके गया हो। लेकिन वहाँ कोई नहीं था। आँगन से दीखनेवाली तीसरी मंजिल की छज्जेवाली मुँडेर पर एक बिल्ली सावधानी से चलती हुई
दिखाई दे रही थी। उसे एक जीना भी दिखाई दिया, लंबा-चौड़ा, साफ-सुथरा। उसकी सीढ़ियाँ ताजे गोबर से पुती हुई थीं। उसकी महक नाक में घुस रही थी। सीढ़ियों पर उसके
चलने की आवाज गूँजती; पर कहीं, कुछ नहीं! वह आगे-आगे चढ़ता-बढ़ता गया। दूसरी मंजिल के छज्जे मिले जो बीच के आँगन के चारों ओर फैले हुए थे। उनमें सफेद चादर
लगी गद्दियाँ दूर-दूर तक बिछी हुई थीं। एक ओर मृदंग, तबला, सितार आदि अनेक वाद्य यंत्र करीने से रखे हुए थे। रंग-बिरंगे फानूस लटक रहे थे और कहीं
अगरबत्तियाँ जल रही थीं।
इतनी प्रबंध-व्यवस्था के बाद भी उसे कहीं मनुष्य के दर्शन नहीं हुए। और न कोई पैरों की आवाजें सुनाई दीं, सिवा अपनी पगध्वनि के। उसने सोचा, शायद ऊपर कोई
होगा।
उसने तीसरी मंजिल पर जा कर देखा। फिर वही सफेद-सफेद गद्दियाँ, फिर वही फानूस, फिर वही अगरबत्तियाँ। वही खाली-खालीपन, वही सूनापन, वही विशालता, वही भव्यता
और वही मनुष्य-हीनता।
अब उस देहाती के दिल से आह निकली। यह क्या? यह कहाँ फँस गया; लेकिन इतनी व्यवस्था है तो कहीं कोई जरूर होगा। इस खयाल से उसका डर कम हुआ और बरामदे में से
गुजरता हुआ अगले जीने पर चढ़ने लगा।
इन बरामदों में कोई सजावट नहीं थी। सिर्फ दरियाँ बिछी हुई थीं। कुछ तैल-चित्र टँगे थे। खिड़कियाँ खुली हुई थीं, जिनमें से सूरज की पीली किरणें आ रही थीं।
दूर ही से खिड़की के बाहर जो नजर जाती तो बाहर का हरा-भरा ऊँचा-नीचा, ताल-तलैयों, पेड़ों-पहाड़ोंवाला नजारा देख कर पता चलता कि यह मंजिल कितनी ऊँची है और
कितनी निर्जन।
अब वह देहाती लड़का भयभीत हो गया। यह विशालता और निर्जनता उसे आतंकित करने लगी। वह डरने लगा। वह इतना ऊपर आ गया था कि नीचे देखने ही से आँखों में चक्कर आ
जाता है। उसने ऊपर देखा तो सिर्फ एक ही मंजिल शेष थी। उसने अगले जीने से ऊपर की मंजिल चढ़ना तय किया।
डंडा कंधे पर रखे और गठरी खोंसे वह लड़का धीरे-धीरे अगली मंजिल का जीना चढ़ने लगा। उसके पैरों की आवाज उसी से जाने क्या फुसलाती और उसकी रीढ़ की हड्डी में
से सर्द संवेदनाएँ गुजरने लगती।
जीना खत्म हुआ तो फिर एक भव्य बरामदा मिला, लिपा-पुता और अगरू-गंध से महकता हुआ। सभी ओर मृगासन, व्याघ्रासन बिछे हुए। एक ओर योजनों विस्तार-दृश्य
देखती, खिड़की के पास देव-पूजा में संलग्न-मन मुंदी आँखोंवाले ऋषि-मनिषि कश्मीर की कीमती शाल ओढ़े ध्यानस्थ बैठे।
लड़के को हर्ष हुआ। उसने दरवाजे पर मत्था टेका। आनंद के आँसू आँखों में खिल उठे। उसे स्वर्ग मिल गया।
‘ध्यान-मुद्रा’ भंग नहीं हुई तो मन-ही-मन माने हुए गुरु को प्रणाम कर लड़का जीने की सर्वोच्च सीढ़ी पर लेट गया। तुरंत ही उसे नींद आ गई। वह गहरे सपनों में
खो गया। थकित शरीर और संतुष्ट मन ने उसकी इच्छाओं को मूर्त-रूप दिया। ...वह विद्वान बन कर देहात में अपने पिता के पास वापस पहुँच गया है। उनके चरणों को
पकड़े, उन्हें अपने आँसुओं से तर कर रहा है और आर्द्र-हृदय हो कर कह रहा है, ‘पिताजी! मैं विद्वान बन कर आ गया, मुझे और सिखाइए। मुझे राह बताइए। पिताजी!
पिताजी!’ और माँ के आँचल अपनी आँखे पोछती हुई, पुत्र के ज्ञान-गौरव से भर कर, उसे अपने हाथ से खींचती हुई गोद में भर रही हैं। साश्रुमुख पिता का
वात्सल्य-भरा हाथ उसके शीश पर आर्शीवाद का छत्र बन कर फैला हुआ है...
वह देहाती लड़का चल पड़ा और देखा कि उस ‘तेजस्वी ब्राह्मण’ का देदीप्यमान चेहरा, जो अभी-अभी मृदु और कोमल हो कर उस पर किरनें बिखरे रहा था, कठोर और अजनबी
होता जा रहा है।
ब्राह्मण ने कठोर हो कर कहा, ‘तुमने यहाँ आने का कैसे साहस किया? यहाँ कैसे आए?’
लड़के ने मत्था टेका, ‘भगवन! मैं मूढ़ हूँ, निरक्षर हूँ, ज्ञानार्जन करने के लिए आया हूँ। ‘
ब्राह्मण कुछ हँसा। उसकी आवाज धीमी हो गई किंतु दृढ़ता वही रही। सूखापन और कठोरता वही।
‘तूने निश्चय कर लिया है?’
‘जी!’
‘नहीं, तुझे निश्चय की आदत नहीं है; एक बार और सोच ले!... जा फिलहाल नहा-धो उस कमरे में, वहाँ जा कर भोजन कर लेट, सोच-विचार! कल मुझे मिलना।’
दूसरे दिन प्रत्यूष काल में लड़का गुरु से पूर्व जाग्रत हुआ। नहाया-धोया। गुरु की पूजा की थाली सजाई और आज्ञाकारी शिष्य की भाँति आदेश की प्रतीक्षा करने
लगा। उसके शरीर में अब एक नई चेतना आ गई थी। नेत्र प्रकाशमान थे।
विशालबाहु पृथु-वक्ष तेजस्वी ललाटवाले अपने गुरु की चर्या देख कर लड़का भावुक-रूप से मुग्ध हो गया था। वह छोटे-से छोटा होना चाहता था कि जिससे लालची चींटी
की भाँति जमीन पर पड़ा, मिट्टी में मिला, ज्ञान की शक्कर का एक-एक कण साफ देख सके और तुरंत पकड़ सके!
गुरु ने संशयपूर्ण दृष्टि से देख, उसे डपट कर पूछा, ‘सोच-विचार लिया?’
‘जी!’ की डरी हुई आवाज!
कुछ सोच कर गुरु ने कहा, ‘नहीं, तुझे निश्चय करने की आदत नहीं है। एक बार पढ़ाई शुरू करने पर तुम बारह वर्ष तक फिर यहाँ से निकल नहीं सकते। सोच-विचार लो।
अच्छा, मेरे साथ एक बजे भोजन करना, अलग नहीं!’
और गुरु व्याघ्रासन पर बैठ कर पूजा-अर्चना में लीन हो गए। इस प्रकार दो दिन और बीत गए। लड़के ने अपना एक कार्यक्रम बना लिया था, जिसके अनुसार वह काम करता
रहा। उसे प्रतीत हुआ कि गुरु उससे संतुष्ट हैं।
एक दिन गुरु ने पूछा, ‘तुमने तय कर लिया है कि बारह वर्ष तक तुम इस भवन के बाहर पग नहीं रखोगे?’
नतमस्तक हो कर लड़के ने कहा, ‘जी!’
गुरु को थोड़ी हँसी आई, शायद उसकी मूर्खता पर या अपनी मूर्खता पर, कहा नहीं जा सकता। उन्हें लगा कि क्या इस निरे निरक्षर के आँखे नहीं हैं? क्या यहाँ का
वातावरण सचमुच अच्छा मालूम होता है? उन्होंने अपने शिष्य के मुख का ध्यान से अवलोकन किया। एक सीधा, भोला-भाला निरक्षर बालमुख! चेहरे पर निष्कपट निश्छल
ज्योति!
अपने चेहरे पर गुरु की गड़ी हुई दृष्टि से किंचित विचलित हो कर शिष्य ने अपनी निरक्षर बुद्धिवाला मस्तक और नीचा कर लिया।
गुरु का हृदय पिघला! उन्होंने दिल दहलाने वाली आवाज से, जो काफी धीमी थी, कहा, ‘देख! बारह वर्ष के भीतर तू वेद, संगीत, शास्त्र, पुराण, आयुर्वेद,
साहित्य, गणित आदि-आदि समस्त शास्त्र और कलाओं में पारंगत हो जाएगा। केवल भवन त्याग कर तुझे बाहर जाने की अनुज्ञा नहीं मिलेगी। ला, वह आसन। वहाँ बैठ।’
और इस प्रकार गुरु ने पूजा-पाठ के स्थान के समीप एक कुशासन पर अपने शिष्य को बैठा, परंपरा के अनुसार पहले शब्द रूपावली से उसका विद्याध्ययन प्रारंभ
कराया।
गुरु ने मृदुता से कहा, ‘बोलो बेटे -
रामः, रामौ, रामाः - प्रथमा
रामम्, रामौ, रामान् - द्वितीया’
और इस बाल-विद्यार्थी की अस्फुट हृदय की वाणी उस भयानक नि:संग, शून्य, निर्जन, वीरान भवन में गूँज-गूँज उठती। सारा भवन गाने लगता -
‘रामः रामौ रामा: - प्रथमा!’
धीरे-धीरे उसका अध्ययन ‘सिद्धांतकौमुदी’ तक आया और फिर अनेक विद्याओं को आत्मसात कर, वर्ष एक के बाद एक बीतने लगे। नियमित आहार-विहार और संयम के
फलस्वरूप विद्यार्थी की देह पुष्ट हो गई। और आँखों में नवीन तारुण्य की चमक प्रस्फुटित हो उठी। लड़का, जो देहाती था, अब गुरु से संस्कृत में वार्तालाप
भी करने लगा।
केवल एक ही बात वह आज तक नहीं जान सका। उसने कभी जानने का प्रयत्न नहीं किया। वह यह कि इस भव्य-भवन में गुरु के समीप इस छोटी-सी दुनिया में यदि और कोई
व्यक्ति नहीं है तो सारा मामला चलता कैसे है? निश्चित समय पर दोनों गुरु-शिष्य भोजन करते। सुव्यवस्थित रूप से उन्हें सादा किंतु सुचारु भोजन मिलता। इस
आठवीं मंजिल से उतर सातवीं मंजिल तक उनमें से कोई कभी नहीं गया। दोनों भोजन के समय अनेक विवादग्रस्त प्रश्नों पर चर्चा करते। यहाँ इस आठवीं मंजिल पर एक नई
दुनिया बस गई।
जब गुरु उसे कोई छंद सिखलाते और जब विद्यार्थी मंदाक्रांता या शार्दूलविक्रीड़ित गाने लगता तो एकाएक उस भवन में हलके-हलके मृदंग और वीणा बज उठती और वह
वीरान, निर्जन शून्य भवन वह छंद गा उठता।
एक दिन गुरु ने शिष्य से कहा, ‘बेटा! आज से तेरा अध्ययन समाप्त हो गया है। आज ही तुझे घर जाना है। आज बारहवें वर्ष की अंतिम तिथि है। स्नान-संध्यादि से
निवृत्त हो कर आओ और अपना अंतिम पाठ लो।’
पाठ के समय गुरु और शिष्य दोनों उदास थे। दोनों गंभीर। उनका हृदय भर रहा था। पाठ के अंनतर यथाविधि भोजन के लिए बैठे।
दूसरे कक्ष में वे भोजन के लिए बैठे थे। गुरु और शिष्य दोनों अपनी अंतिम बातचीत के लिए स्वयं को तैयार करते हुए कौर मुँह में डालने ही वाले थे कि गुरु ने
शिष्य से कहा, ‘बेटे, खिचड़ी में घी नहीं डाला है?’
शिष्य उठने ही वाला था कि गुरु ने कहा, ‘नहीं, नहीं उठो मत!’ और उन्होंने अपना हाथ इतना बढ़ा दिया कि वह कक्ष पार जाता हुआ, अन्य कक्ष में प्रवेश कर क्षण
के भीतर, घी की चमचमाती लुटिया ले कर शिष्य की खिचड़ी में घी उँड़ेलने लगा। शिष्य काँप कर स्तंभित रह गया। वह गुरु के कोमल वृद्ध मुख को कठोरता से देखने
लगा कि यह कौन है? मानव है या दानव? उसने आज तक गुरु के व्यवहार में कोई अप्राकृतिक चमत्कार नहीं देखा था। वह भयभीत, स्तंभित रह गया। गुरु ने दु:खपूर्ण
कोमलता से कहा, ‘शिष्य! स्पष्ट कर दूँ कि मैं ब्रह्मराक्षस हूँ किंतु फिर भी तुम्हारा गुरु हूँ। मुझे तुम्हारा स्नेह चाहिए। अपने मानव जीवन में मैंने
विश्व की समस्त विद्या को मथ डाला किंतु दुर्भाग्य से कोई योग्य शिष्य न मिल पाया कि जिसे मैं समस्त ज्ञान दे पाता। इसीलिए मेरी आत्मा इस संसार में
अटकी रह गई और मैं ब्रह्मराक्षस के रूप में यहाँ विराजमान रहा।
‘तुम आए, मैंने तुम्हें बार-बार कहा लौट जाओ। कदाचित तुममें ज्ञान के लिए आवश्यक श्रम और संयम न हो किंतु मैंने तुम्हारी जीवन-गाथा सुनी। विद्या से बैर
रखने के कारण, पिता द्वारा अनेक ताड़नाओं के बावजूद तुम गँवार रहे और बाद में माता-पिता द्वारा निकाल दिए जाने पर तुम्हारे व्यथित अहंकार ने तुम्हें
ज्ञान-लोक का पथ खोज निकालने की ओर प्रवृत्त किया। मैं प्रवृत्तिवादी हूँ, साधु नहीं। सैकड़ों मील जंगल की बाधाएँ पार कर तुम काशी आए। तुम्हारे चेहरे पर
जिज्ञासा का आलोक था। मैंने अज्ञान से तुम्हारी मुक्ति की। तुमने मेरा ज्ञान प्राप्त कर मेरी आत्मा को मुक्ति दिला दी। ज्ञान का पाया हुआ उत्तरदायित्व
मैंने पूरा किया। अब मेरा यह उत्तरदायित्व तुम पर आ गया है। जब तक मेरा दिया तुम किसी और को न दोगे तब तक तुम्हारी मुक्ति नहीं।
‘शिष्य, आओ मुझे विदा दो।’
‘अपने पिताजी और माँ जी को प्रणाम कहना।’
शिष्य ने साश्रुमुख ज्यों ही चरणों पर मस्तक रखा आर्शीवाद का अंतिम कर-स्पर्श पाया और ज्यों ही सिर ऊपर उठाया तो वहाँ से वह ब्रह्मराक्षस तिरोधान हो
गया।
वह भयानक वीरान, निर्जन बरामदा सूना था। शिष्य ने ब्रह्मराक्षस गुरु का व्याघ्रासन लिया और उनका सिखाया पाठ मन-ही-मन गुनगुनाते हुए आगे बढ़ गया।
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