हिंदी का रचना संसार |
मुखपृष्ठ | उपन्यास | कहानी | कविता | नाटक | आलोचना | विविध | भक्ति काल | हिंदुस्तानी की परंपरा | विभाजन की कहानियाँ | समग्र-संचयन | अनुवाद | ई-पुस्तकें | आडियो/विडियो | छवि संग्रह | हमारे रचनाकार | संग्रहालय | खोज | संपर्क |
कहानी |
|
|||||||||||||||||||||||||||||
उस रात की गंध
कहानी 25 दिसंबर 1956, मेरठ, उत्तर प्रदेश ई-मेल dhirendraasthana@yahoo.com लड़की मेरी आँखों में किसी अश्लील इच्छा की तरह नाच रही थी। 'पेट्रोल भरवा लें।' कह कर कमल ने अपनी लाल मारुति जुहू बीच जानेवाली सड़क
के किनारे बने पेट्रोल पंप पर रोक दी थी और दरवाजा खोल कर बाहर उतर गया था। शहर में अभी-अभी दाखिल हुए किसी अजनबी के कौतूहल की तरह मेरी नजरें सड़क पर
थिर थीं कि उन नजरों में एक टैक्सी उभर आई। टैक्सी का पिछला दरवाजा खुला और वह
लड़की बाहर निकली। उसने बिल चुकाया और पर्स बंद किया। टैक्सी आगे बढ़ गई। लड़की
पीछे रह गई। यह लड़की है? विस्मय मेरी आँख से कोहरे-सा टपकने लगा। मैं कार से बाहर आ गया। कोहरा आसमान से भी झर रहा था। हमेशा की तरह निःशब्द और गतिहीन। कार की छत
बताती थी कि कोहरा गिरने लगा है। मैंने घड़ी देखी। रात के साढ़े दस बजने जा रहे
थे। रात के साढ़े दस बजे मैं कोहरे में चुपचाप भीगती लड़की को देखने लगा। घुटनों
से बहुत बहुत ऊपर रह गया सफेद स्कर्ट और गले से बहुत-बहुत नीचे चला आया सफेद
टॉप पहने वह लड़की उस गीले अँधेरे में चारों तरफ दूधिया रोशनी की तरह चमक रही
थी। अपनी सुडौल, चिकनी और आकर्षक टाँगों को वह जिस लयात्मक अंदाज में एक दूसरे
से छुआ रही थी उसे देख कोई भी फिसल पड़ने को आतुर हो सकता था। जैसे कि मैं। लेकिन ठीक उसी क्षण, जब मैं लड़की की तरफ एक अजाने सम्मोहन-सा
खिंचने को था, कमल गाड़ी में आ बैठा। न सिर्फ आ बैठा बल्कि उसने गाड़ी भी
स्टार्ट कर दी। मैं चुपचाप कमल के बगल में आ बैठा और तंद्रिल आवाज में बोला, 'लड़की देखी?'
'लिफ्ट चाहती है।' कमल ने लापरवाही से कहा और गाड़ी बैक करने लगा। 'पर यह अभी-अभी टैक्सी से उतरी है।' मैंने प्रतिवाद किया। 'लिफ्ट के ही लिए।' कमल ने किसी अनुभवी गाइड की तरह किसी ऐतिहासिक इमारत के
महत्वपूर्ण लगते तथ्य के मामूलीपन को उद्घाटित करनेवाले अंदाज में बताया और
गाड़ी सड़क पर ले आया। 'अरे, तो उसे लिफ्ट दो न, यार!' मैंने चिरौरी सी की। जुहू बीच जानेवाली सड़क पर कमल ने अपनी लाल मारुति सर्र से आगे बढ़ा दी और
लड़की के बगल से निकल गया। मेरी आँखों के हिस्से में लड़की के उड़ते हुए बाल
आए। मैंने पीछे मुड़ कर देखा-लड़की जल्दी में नहीं थी और किसी-किसी कार को देख
लिफ्ट के लिए अपना हाथ लहरा देती थी। 'अपन लिफ्ट दे देते तो...' मेरे शब्द अफसोस की तरह उभर रहे थे। 'माई डियर! रात के साढ़े दस बजे इस सुनसान सड़क पर, टैक्सी से उतर कर यह जो
हसीन परी लिफ्ट माँगने खड़ी है न, यह अपुन को खलास भी करने को सकता। क्या?' कमल
मवालियों की तरह मुस्कराया। अपने पसंदीदा पॉइंट पर पहुँच कर कमल ने गाड़ी रोकी। दुकानें इस तरह उजाड़ थीं, जैसे लुट गई हों। तट निर्जन था। समुद्र वापस जा
रहा था। 'दो गिलास मिलेंगे?' कमल ने एक दुकानदार से पूछा। 'नहीं साब, अब्बी सख्ती है इधर, पन ठंडा चलेगा। दूर...समंदर में जा के पीने
का।' दुकानदार ने रटा-रटाया-सा जवाब दिया। उस जवाब में लेकिन एक टूटता-सा दुख
और साबुत-सी चिढ़ भी शामिल थी। 'क्या हुआ?' कमल चकित रह गया। 'पहले तो बहुत रौनक होती थी इधर। बेवड़े कहाँ
चले गए?' 'पुलिस रेड मारता अब्बी। धंधा खराब कर दिया साला लोक।' दुकानदार ने सूचना दी
और दुकान के पट बंद करने लगा। बाकी दुकानें भी बुझ रही थीं। 'कमाल है?' कमल बुदबुदाया, 'अभी छह महीने पहले तक शहर के इंटेलेक्चुअल यहीं
बैठे रहते थे। वो, उस जगह। वहाँ एक दुकान थी। चलो।' कमल मुड़ गया, 'पाम
ग्रोववाले तट पर चलते हैं।' हम फिर गाड़ी में बैठ गए। तय हुआ था कि आज देर रात तक मस्ती मारेंगे, अगले
दिन इतवार था - दोनों का अवकाश। फिर, हम करीब महीने भर बाद मिल रहे
थे-अपनी-अपनी व्यस्तताओं से छूट कर। चाहते थे कि अपनी-अपनी बदहवासी और बेचैनी
को समुद्र में डुबो दिया जाए आज की रात। समुद्र किनारे शराब पीने का कार्यक्रम
इसीलिए बना था। गाड़ी के रुकते ही दो-चार लड़के मँडराने लगे। कमल ने एक को बुलाया, 'गिलास
मिलेगा?' 'और?' लड़का व्यवसाय पर था। 'दो सोडे, चार अंडे की भुज्जी, एक विल्स का पैकेट।' कमल ने आदेश प्रसारित कर
दिया। थोड़ी ही दूरी पर पुलिस चौकी थी, भय की तरह लेकिन मारुति की भव्यता उस भय के
ऊपर थी। सारा सामान आ गया था। हमने अपना डीएसपी का हाफ खोल लिया था। दूर तक कई कारें एक-दूसरे से सम्मानजनक दूरी बनाए खड़ी थीं - मयखानों की
शक्ल में। किसी-किसी कार की पिछली सीट पर कोई नवयौवना अलमस्त-सी पड़ी
थी-प्रतीक्षा में। सड़क पर भी कितना निजी है जीवन। मैं सोच रहा था और देख रहा था। देख रहा था
और शहर के प्यार में डूब रहा था। आइ लव बांबे। मैं बुदबुदाया। किसी दुआ को
दोहराने की तरह और सिगरेट सुलगाने लगा। हवा में ठंडक बढ़ गई थी। कमल को एक फिलीस्तीनी कहानी याद आ गई थी, जिसका अधेड़ नायक अपने युवा साथी
से कहता है - 'तुम अभी कमसिन हो, याकूब, लेकिन तुम बूढ़े लोगों से सुनोगे कि सब
औरतें एक जैसी होती हैं, कि आखिरकार उनमें कोई फर्क नहीं होता। इस बात को मत
सुनना क्योंकि यह झूठ है। हरेक औरत का अपना स्वाद और अपनी खुशबू होती है।' 'पर यह सच नहीं है, यार।' कमल कह रहा था, 'इस मारुति की पिछली सीट पर कई
औरतें लेटी हैं, लेकिन जब वे रुपयों को पर्स में ठूँसती हुई, हँस कर निकलती
हैं, तो एक ही जैसी गंध छोड़ जाती हैं। बीवी की गंध हो सकता है, कुछ अलग होती
हो। क्या खयाल है तुम्हारा?' मुझे अनुभव नहीं था। चुप रहा। बीवी के नाम से मेरी स्मृति में अचानक अपनी
पत्नी कौंध गई, जो एक छोटे शहर में अपने मायके में छूट गई थी - इस इंतजार में
कि एक दिन मुझे यहाँ रहने के लिए कायदे का घर मिल जाएगा और तब वह भी यहाँ चली
आएगी। अपना यह दुख याद आते ही शहर के प्रति मेरा प्यार क्रमशः बुझने लगा। हमारा डीएसपी का हाफ खत्म हो गया तो हमें समुद्र की याद आई। गाड़ी बंद कर
हमने पैसे चुकाए तो सर्विस करनेवाला छोकरा बायीं आँख दबा कर बोला, 'माल मँगता
है?' 'नहीं!' कमल ने इनकार कर दिया और हम समुद्र की तरफ बढ़ने लगे, जो पीछे हट
रहा था। लड़का अभी तक चिपका हुआ था। 'छोकरी जोरदार है सेठ। दोनों का खाली सौ रुपए।' 'नई बोला तो?' कमल ने छोकरे को डपट दिया। तट निर्जन हो चला था। परिवार अपने
अपने ठिकानों पर लौट गए थे। दूर...कोई अकेला बैठा दुख सा जाग रहा था। 'जुहू भी उजड़ गया स्साला।' कमल ने हवा में गाली उछाली और हल्का होने के लिए
दीवार की तरफ चला गया - निपट अंधकार में। तभी वह औरत सामने आ गई। बददुआ की तरह। 'लेटना माँगता है?' वह पूछ रही थी। एक क्वार्टर शराब मेरे जिस्म में जा चुकी थी। फिर भी मुझे झुरझुरी-सी चढ़
गई। वह औरत मेरी माँ की उम्र की थी। पूरी नहीं तो करीब-करीब। रात के ग्यारह बजे, समुद्र की गवाही में, उस औरत के सामने मैंने शर्म की तरह
छुपने की कोशिश की लेकिन तुरंत ही धर लिया गया। मेरी शर्म को औरत अपनी उपेक्षा समझ आहत हो गई थी। झटके से मेरा हाथ पकड़
अपने वक्ष पर रखते हुए वह फुसफुसाई, 'एकदम कड़क है। खाली दस रुपिया देना। क्या?
अपुन को खाना खाने का।' 'वो...उधर मेरा दोस्त है।' मैं हकलाने लगा। 'वांदा नईं। दोनों ईच चलेगा।' 'शटअप।' सहसा मैं चीखा और अपना हाथ छुड़ा कर तेजी से भागा - कार की तरफ। कार
की बॉडी से लग कर मैं हाँफने लगा - रौशनी में। पीछे, समुद्री अँधेरे में वह औरत
अकेली छूट गई थी-हतप्रभ। शायद आहत भी। औरत की गंध मेरे पीछे-पीछे आई थी। मैंने
अपनी हथेली को नाक के पास ला कर सूँघा - उस औरत की गंध हथेली में बस गई थी। 'क्या हुआ?' कमल आ गया था। 'कुछ नहीं।' मैंने थका-थका सा जवाब दिया, 'मुझे घर ले चलो। आई...आई हेट दिस
सिटी। कितनी गरीबी है यहाँ।' 'चलो, कहीं शराब पीते हैं।' कमल मुस्कुराने लगा था। ००० तीन फुट ऊँचे, संगमरमर के फर्श पर, बहुत कम कपड़ों में, चीखते आर्केस्ट्रा
के बीच वह लड़की हँस-हँस कर नाच रही थी। बीच-बीच में कोई दस-बीस या पचास का नोट
दिखाता था और लड़की उस ऊँचे, गोल फर्श से नीचे उतर लहराती हुई नोट पकड़ने के
लिए लपक जाती थी। कोई नोट उसके वक्ष में ठूँस देता था, कोई होंठों में दबा कर
होंठों से ही लेने का आग्रह करता था और नोट बड़ा हो तो लड़की एक या दो सेकंड के
लिए गोद में भी बैठ जाती थी। उत्तेजना वहाँ शर्म पर भारी थी और वीभत्स
मुस्कुराहटों के उस बनैले परिदृश्य में सहानुभूति या संवेदना का एक भी कतरा शेष
नहीं बचा था। पैसे के दावानल में लड़की सूखे बाँस-सी जल रही थी। उस जले बाँस की गंध से कमरे का मौसम लगातार बोझिल और कसैला होता जा रहा था।
मैं उठ खड़ा हुआ। 'नीचे बैठेंगे।' मैंने अल्टीमेटम-सा दिया। 'क्यों?' 'मुझे लगता है, लड़की मेरी धमनियों में विलाप की तरह उतर रही है।' 'शरीफ बोले तो? चुगद!' कमल ने कहकहा उछाला और हम सीढ़ियाँ उतरने लगे। नीचेवाले हॉल का एक अँधेरा कोना हमने तेजी से थाम लिया, जहाँ से अभी-अभी कोई
उठा था - दिन भर की थकान, चिढ़, नफरत और क्रोध को मेज पर छोड़ कर - घर जाने के
लिए। मुझे घर याद आ गया। घर यानी मालाड के एक सस्ते गेस्ट हाउस का दस बाई दस का
वह उदास कमरा जहाँ मैं अपनी आक्रामक और तीखी रातों से दो-चार होता था। मुझे
लगा, मेरी चिट्ठी आई होगी वहाँ, जिसमें पत्नी ने फिर पूछा होगा कि 'घर कब तक
मिल रहा है यहाँ?' मैं फिर बार में लौट आया। हमारी मेज पर जो लड़की शराब सर्व कर रही थी, वह
खासी आकर्षक थी। इस अँधेरे कोने में भी उसकी साँवली दमक कौंध-कौंध जाती थी। डीएसपी के दो लार्ज हमारी मेज पर रख कर, उनमें सोडा डाल वह मुस्कुराई, 'खाने
को?' 'बॉइल्ड एग', कमल ने उसके उभारों की तरफ इशारा किया। 'धत्त।' वह शरमा गई और काउंटर की तरफ चली गई। 'धाँसू है न?' कमल ने अपनी मुट्ठी मेरी पीठ पर मार दी। 'हाँ। चेहरे में कशिश है।' मैं एक बड़ा सिप लेने के बाद सिगरेट सुलगा रहा
था। 'सिर्फ चेहरे में?' कमल खिलखिला दिया। मुझे ताज्जुब हुआ। हर समय खिलखिलाना इसका स्वभाव है या इसके भीतरी दुख बहुत
नुकीले हो चुके हैं? मैंने फिर एक बड़ा सिप लिया और बगलवाली मेज को देखने लगा
जहाँ एक खूबसूरत-सा लड़का गिलास हाथ में थामे अपने भीतर उतर गया था। किसी और
मेज पर शराब सर्व करती एक लड़की बीच-बीच में उसे थपथपा देती थी और वह चौंक कर
अपने भीतर से निकल आता था। लड़की की थपथपाहट में जो अवसादग्रस्त आत्मीयता थी
उसे महसूस कर लगता था कि लड़का ग्राहक नहीं है। इस लड़के के जीवन में कोई
पक्का-सा, गाढ़ा-सा दुख है। मैंने सोचा। 'इस बार में कई फिल्मों की शूटिंग हो चुकी है।' कमल के भीतर सोया गाइड जागने
लगा, 'फाइट सीन ऊपर होते हैं, सैड सीन नीचे।' 'हम दुखी दृश्य के हिस्से हैं?' मैंने पूछा और कमल फिर खिलखिलाने लगा। शराब खत्म होते ही लड़की फिर आ गई। 'रिपीट।' कमल ने कहा, 'बॉइल्ड एग का क्या हुआ?' 'धत्त।' लड़की फिर इठलाई और चली गई। उसके बाद मैं ध्वस्त हो गया। मैंने कश लिया और लड़की का इंतजार करने लगा।
लड़की फिर आई। वह दो लार्ज पेग लाई थी। बॉइल्ड एग उसके पीछे-पीछे एक पुरुष
वेटर दे गया। अंडों पर नमक छिड़कते समय वह मुस्करा रही थी। सहसा मुझसे उसकी आँख मिली। 'अंडे खाओगी?' मैंने पूछा। मैंने ऐसा क्यों पूछा होगा? मैंने सोचा। मैं भीतर से किसी किस्म के अश्लील
उत्साह से भरा हुआ नहीं था। तो फिर? तभी लड़की ने अपनी गर्दन 'हाँ' में हिलाई, मेरे भीतर एक गुमनाम, अजाना
सा-सुख तिर आया। 'ले लो।' मैंने कहा। उसने एक नजर काउंटर की तरफ देखा फिर चुपके से दो पीस उठा कर मुँह में डाल
लिए। अंडे चबा कर वह बोली, 'यहाँ का चिली चिकन बहुत टेस्टी है, मँगवाऊ?' 'मँगवा लो।' जवाब कमल ने दिया, 'बहुत अच्छी हिंदी बोलती हो। यूपी की हो?'
लड़की ने जवाब नहीं दिया। तेजी से लौट गई। मुझे लगा, कमल ने शायद उसके किसी
रहस्य पर उँगली रख दी है। चिली चिकन के पीछे-पीछे वह फिर आई। इस बार अपनी साड़ी की किसी तह में छिपा
कर वह एक काँच का गिलास भी लाई थी। 'थोड़ी सी दो न?' उसने मेरी आँखों में देखते हुए बड़े अधिकार और मान भरे
स्वर में कहा। उसके शब्दों की आँच में मेरा मन तपने लगा। मुझे लगा, मैं इस
लड़की के तमाम रहस्यों को पा लूँगा। मैंने काउंटर की तरफ देखा कि कोई देख तो
नहीं रहा। दरअसल उस वक्त मैं लड़की को तमाम तरह की आपदाओं से बचाने की इच्छा से
भर उठा था। अपनी सारी शराब उसके गिलास में डाल कर मैं बोला, 'मेरे लिए एक और
लाना।' एक साँस में पूरी शराब गटक कर और चिकन का एक टुकड़ा चबा कर वह मेरे लिए शराब
लेने चली गई। उसका खाली गिलास मेज पर रह गया। मैं चोरों की तरह, गिलास पर छूटे
रह गए उसके होंठ अपने रूमाल से उठाने लगा। 'भावुक हो रहे हो।' कमल ने टोका। मैंने चौंक कर देखा, वह गंभीर था। हमारे दो लार्ज खत्म करने तक, हमारे खाते में वह भी दो लार्ज खत्म कर चुकी
थी। मैंने 'रिपीट' कहा तो वह बोली, 'मैं अब नहीं लूँगी। आप तो चले जाएँगे। मुझे
अभी नौकरी करनी है।' मेरा नशा उतर गया। धीमे शब्दों में उच्चारी गयी उसकी चीख बार के उस नीम
अँधेरे में कराह की तरह काँप रही थी। 'तुम्हारा पति नहीं है?' मैंने नकारात्मक सवाल से शुरुआत की, शायद इसलिए कि
वह कुँआरी लड़की का जिस्म नहीं था, न उसकी महक ही कुँवारी थी। 'मर गया।' वह संक्षिप्त हो गई - कटु भी। मानो पति का मर जाना किसी
विश्वासघात सा हो। 'इस धंधे में क्यों आ गई?' मेरे मुँह से निकल पड़ा। हालाँकि यह पूछते ही मैं
समझ गया कि मुझसे एक नंगी और अपमानजनक शुरुआत हो चुकी है। 'क्या करती मैं?' वह क्रोधित होने के बजाय रुआँसी हो गई, 'शुरू में बर्तन
माँजे थे मैंने, कपड़े भी धोए थे अपने मकान मालिक के यहाँ। देखो, मेरे हाथ
देखो।' उसने अपनी दोनों हथेलियाँ मेरी हथेलियों पर रगड़ दीं। उसकी हथेलियाँ
खुरदुरी थीं - कटी-फटी। 'इन हथेलियों का गम नहीं था मुझे जब आदमी ही नहीं रहा तो...' वह अपने अतीत
के अँधेरे में खड़ी खुल रही थी, 'बर्तन माँज कर जीवन काट लेती मैं लेकिन वहाँ
भी तो...' उसने अपने होंठ काट लिए। उसे याद आ गया था कि वह 'नौकरी' पर है और
रोने के लिए नहीं, हँसने के लिए रखी गई है। 'और पीने का?...' वह पेशेवर हो गई। कठोर भी। 'मैं तुम्हारे हाथ चूम सकता हूँ?' मैंने पूछा। 'हुँह।' लड़की ने इतनी तीखी उपेक्षा के साथ कहा कि मेरी भावुकता चटक गई। लगा
कि एक लार्ज और पीना चाहिए। अपमान का दंश और शराब की इच्छा लिए, लेकिन मैं उठ खड़ा हुआ और कमल का हाथ
थाम बाहर चला आया। पीछे, अँधेरे कोनेवाली मेज पर, चिली चिकन की खाली प्लेट के
नीचे सौ-सौ के तीन नोट देर तक फड़फड़ाते रहे - उस लड़की की तरह। बाहर आ कर गाड़ी के भीतर घुसने पर मैंने पाया - उस लड़की की गंध भी मेरे साथ
चली आई है। मैंने अपनी हथेलियाँ देखीं - लड़की मेरी हथेलियों पर पसरी हुई थी।
००० पता नहीं कहाँ-कहाँ के चक्कर काटते हुए जब हम रुके तो मारुति खार स्टेशन के
बाहर खड़ी थी। रात का सवा बज रहा था। कह नहीं सकता कि रात भर बाहर रहने का कार्यक्रम तय करने के बावजूद हम स्टेशन
पर क्यों आ गए थे। शायद मैं थक गया था। या शायद घबरा गया था। या फिर शायद अपने
कमरे के एकांत में पहुँच कर चुपचाप रोना चाहता था। जो भी हो, हम स्टेशन के बाहर
थे - एक-दूसरे से विदा होने का दर्द थामे। उसी समय कमल के ठीक बगल में, खिड़की के बाहर, एक आकृति उभर आई। वह एक
दीन-हीन बुढ़िया थी। बदतमीज होंठों से निकली भद्दी गाली की तरह वह हमारे सामने
उपस्थित हो गई थी और गंदे इशारे करने लगी थी। मुझे उबकाई आने लगी। 'क्या चाहिए?' कमल ने हँस कर पूछा। 'चार रुपए।' 'एकदम चार। क्यों भला?' 'दारू पीने का है, दो मेरे वास्ते, दो उसके वास्ते,' बुढ़िया ने एक अँधेरे
कोने की तरफ इशारा किया। 'वौ कौन?' कमल पूछ रहा था। 'छक्का है। मैं उसकेइच साथ रहती।' बुढ़िया ने इशारे से भी बताया कि उसका
साथी हिजड़ा है। 'बच्चा नहीं तेरे को?' कमल ने पूछा। 'है न!' बुढ़िया की आँखें चमकने लगीं, 'लड़की है। उसकी शादी हो गई माहीम की
झोपड़पट्टी में। लड़का चला गया अपनी घरवाली को ले कर। धारावी में धंधा है
उसका।' 'तेरे को सड़क पर छोड़ गए?' मेरी ऊब के भीतर एक कौतूहल ने जन्म लिया, 'पति
क्या हुआ तेरा?' 'बुड्ढा परसोईं मरेला है। पी के कट गया फास्ट से, उधर दादर में। अब्बी मैं
उसकेइच साथ रहती।' बुढ़िया ने फिर अपने साथी की तरफ इशारा किया और पिंड
छुड़ाती-सी बोली, 'अब्बी चार रुपिया दे न!' 'तेरा घर नहीं है?' कमल ने पर्स निकाल कर चार रुपए बाहर निकाले। 'अख्खा मुंबई तो अपना झोपड़पट्टी है।' बुढ़िया ने ऐसे अभिमान में भर कर कहा
कि उसके जीवट पर मैं चौंक उठा। कमल के हाथ से रुपए छीन बुढ़िया अपने साथी की
तरफ फिसल गई, जो एक झोंपड़ी के पास खड़ा था - प्रतीक्षातुर। मैं पेशाब करने उतरा। झोंपड़ी किनारे अँधेरे में मैं हल्का होने लगा। झोंपड़ी के भीतर बुढ़िया और उसका साथी कच्ची शराब खरीद कर पी रहे थे।
बुढ़िया अपने साथी से कह रही थी, 'खाली पीली रौब नईं मारने का। अपुन भी तेरे को
पिला सकता, क्या? ओ कारवाले सेठ ने दिया। रात-रात भर कार में घूमता साला लोक,
रहने को घर नईं साला लोक के पास और अपुन से पूछता, तेरे को सड़क पे छोड़ गए
क्या?' बुढ़िया मेरा मजाक उड़ा रही थी। दारू गटक कर दोनों एक-दूसरे के गले में बाँहें डाले, झूमते हुए झोंपड़ी के
बाहर आ रहे थे। 'थू!' बुढ़िया ने सड़क पर ढेर-सा बलगम थूक दिया और कड़वाहट से बोली, 'चार
रुपिया दे के साला सोचता कि अपुन को खरीद लिया।' मैं अभी तक अँधेरे में था, हतप्रभ। मारुति को अभी तक खड़े देख बुढ़िया ठिठकी
फिर अपने साथी से बोली, 'वो देख गाड़ी अब्बी भी खड़ेला है। मैं तेरे को बोली न,
घर नईं साला लोक के पास।' 'सच्ची बोली रे तू।' बुढ़िया के साथी ने सहमति जताई और दोनों हँसते हुए
दूसरी तरफ निकल गए। कलेजा चाक हो चुका था। खून से लथ-पथ मैं मारुति की तरफ बढ़ा। बाहर खड़े-खड़े
ही मैंने अपना निर्जीव हाथ कमल के हाथ में दिया और फिर तेजी से दौड़ पड़ा
प्लेटफार्म की तरफ। 'क्या हुआ? सुनो!' कमल चिल्लाया मगर तब तक मैं ट्रेन के पायदान पर लटक गया
था। सीट पर बैठ कर अपनी उनींदी और आहत आँखें मैंने छत पर चिपका दीं। और यह देख
कर डर गया कि ट्रेन की छत से बुढ़िया की गंध लटकी हुई थी। मैंने घबरा कर अपनी हथेलियाँ देखीं - अब वहाँ बुढ़िया नाच रही थी।
|
मुखपृष्ठ | उपन्यास | कहानी | कविता | नाटक | आलोचना | विविध | भक्ति काल | हिंदुस्तानी की परंपरा | विभाजन की कहानियाँ | अनुवाद | ई-पुस्तकें | छवि संग्रह | हमारे रचनाकार | हिंदी अभिलेख | खोज | संपर्क |
Copyright 2009 Mahatma Gandhi Antarrashtriya Hindi Vishwavidyalaya, Wardha. All Rights Reserved. |