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संस्मरण


ग़ालिब छुटी शराब
रवींद्र कालिया


रवींद्र कालिया

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उपन्यास
17 रानडे रोड
कहानी
तीस साल बाद
नौ साल छोटी पत्नी
संस्मरण
ग़ालिब छुटी शराब

जन्म

:

11 नवंबर 1938, जालंधर (पंजाब)

भाषा : हिंदी
विधाएँ : कहानी, उपन्यास, संस्मरण, व्यंग्य
प्रमुख कृतियाँ : कहानी संग्रह : नौ साल छोटी पत्नी, काला रजिस्टर, गरीबी हटाओ, बाँके लाल, गली कूचे, चकैया नीम, सत्ताइस साल की उमर तक, जरा सी रोशनी, रवींद्र कालिया की कहानियाँ
उपन्यास : खुदा सही सलामत है, ए बी सी डी, 17 रानडे रोड
संस्मरण : स्मृतियों की जन्मपत्री, कामरेड मोनालिज़ा, सृजन के सहयात्री, ग़ालिब छुटी शराब, रवींद्र कालिया के संस्मरण
व्यंग्य : राग मिलावट मालकौंस, नींद क्यों रात भर नहीं आती

संपादन

: वागर्थ, नया ज्ञानोदय, गंगा जमुना, वर्ष (प्रख्यात कथाकार अमरकांत पर एकाग्र), मोहन राकेश संचयन, अमरकांत संचयन सहित अनेक पुस्तकों का संपादन

सम्मान

: उ.प्र. हिंदी संस्थान का प्रेमचंद स्मृति सम्मान, म.प्र. साहित्य अकादेमी द्वारा पदुमलाल बक्शी सम्मान, उ.प्र. हिंदी संस्था न द्वारा साहित्यनभूषण सम्मान, उ.प्र. हिंदी संस्थान द्वारा लोहिया सम्मान, पंजाब सरकार द्वारा शिरोमणि साहित्य सम्मान

संपर्क

:

भारतीय ज्ञानपीठ, 18, इंस्टीट्यूशनल एरिया, लोदी रोड, पोस्ट बॉक्स नं. 3113, नई दिल्ली - 110003

फोन

:

09540502222

ई-मेल

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editor.hindi@gmail.com

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' ग़ालिब ' छुटी शराब , पर अब भी कभी-कभी

पीता हूँ रोज़े-अब्रो-शबे-माहताब में

13 अप्रैल 1997। बैसाखी का पर्व। पिछले चालीस बरसों से बैसाखी मनाता आ रहा था। वैसे तो हर शब बैसाखी की शब होती थी, मगर तेरह अप्रैल को कुछ ज्यादा ही हो जाती थी। दोपहर को बियर अथवा जिन और शाम को मित्रों के बीच का दौर। मस्‍ती में कभी-कभार भाँगड़ा भी हो जाता और अंत में किसी पंजाबी ढाबे में भोजन, ड्राइवरों के बीच। जेब ने इजाजत दी तो किसी पाँच सितारा होटल में सरसों का साग और मकई की रोटी। इस रोज दोस्‍तों के यहाँ भी दावतें कम न हुई होंगी और ममता ने भी व्‍यंजन पुस्‍तिका पढ़ कर छोले भटूरे कम न बनाए होंगे।

मगर आज की शाम, 1997 की बैसाखी की शाम कुछ अलग थी। सूरज ढलते ही सागरो-मीना मेरे सामने हाजिर थे। आज दोस्‍तों का हुजूम भी नहीं था ‌‌‌- सब निमंत्रण टाल गया और खुद भी किसी को आमंत्रित नहीं किया। पिछले साल इलाहाबाद से दस-पंद्रह किलोमीटर दूर इलाहाबाद-रीवाँ मार्ग पर बाबा ढाबे में महफिल सजी थी और रात दो बजे घर लौटे थे। आज माहौल में अजीब तरह की दहशत और मनहूसियत थी। जाम बनाने की बजाए मैं मुँह में थर्मामीटर लगाता हूँ। धड़कते दिल से तापमान देखता हूँ - वही 99.3। यह भी भला कोई बुखार हुआ। एक शर्मनाक बुखार। न कम होता है, न बढ़ता है। बदन में अजीब तरह की टूटन है। यह शरीर का स्‍थायी भाव हो गया है - चौबीसों घंटे यही आलम रहता है। भूख कब की मर चुकी है, मगर पीने को जी मचलता है। पीने से तनहाई दूर होती है, मनहूसियत से पिंड छूटता है, रगों में जैसे नया खून दौड़ने लगता है। शरीर की टूटन गायब हो जाती है और नस-नस में स्‍फूर्ति आ जाती है। एक लंबे अरसे से मैंने जिंदगी का हर दिन शाम के इंतजार में गुजारा है, भोजन के इंतजार में नहीं। अपनी सुविधा के लिए मैंने एक मुहावरा भी गढ़ लिया था - शराबी दो तरह के होते हैं : एक खाते-पीते और दूसरे पीते-पीते। मैं खाता-पीता नहीं, पीता-पीता शख्‍स था। मगर जिंदगी की हकीकत को जुमलों की गोद में नहीं सुलाया जा सकता। वास्‍तविकता जुमलों से कहीं अधिक वजनदार होती है। मेरे जुमले भारी होते जा रहे थे और वजन हल्‍का। छह फिट का शरीर छप्‍पन किलो में सिमट कर रह गया था। इसकी जानकारी भी आज सुबह ही मिली थी। दिन में डॉक्टर ने पूछा था - पहले कितना वजन था? मैं दिमाग पर जोर डाल कर सोचता हूँ, कुछ याद नहीं आता। यकायक मुझे एहसास होता है, मैंने दसियों वर्ष से अपना वजन नहीं लिया, कभी जरूरत ही महसूस न हुई थी। डॉक्टर की जिज्ञासा से यह बात मेरी समझ में आ रही थी कि छह फुटे बदन के लिए छप्‍पन किलो काफी शर्मनाक वजन है। जब कभी कोई दोस्‍त मेरे दुबले होते जा रहे बदन की ओर इशारा करता तो मैं टके-सा जवाब जड़ देता - बुढ़ापा आ रहा है।

मैं एक लंबे अरसे से बीमार नहीं पड़ा था। यह कहना भी गलत न होगा कि मैं बीमार पड़ना भूल चुका था। याद नहीं पड़ रहा था कि कभी सर दर्द की दवा भी ली हो। मेरे तमाम रोगों का निदान दारू थी, दवा नहीं। कभी खाट नही पकड़ी थी, वक्‍त जरूरत दोस्तों की तीमारदारी अवश्‍य की थी। मगर इधर जाने कैसे दिन आ गए थे, जो मुझे देखता मेरे स्‍वास्‍थ्‍य पर टिप्‍पणी अवश्‍य कर देता। दोस्त-अहबाब यह भी बता रहे थे कि मेरे हाथ काँपने लगे हैं। होम्‍योपैथी की किताब पढ़ कर मैं जैलसीमियम खाने लगा। अपने डॉक्टर मित्रों के हस्‍तक्षेप से मैं आजिज आ रहा था। डॉ. नरेंद्र खोपरजी और अभिलाषा चतुर्वेदी जब भी मिलते क्‍लीनिक पर आने को कहते। मैं हँस कर उनकी बात टाल जाता। वे लोग मेरा अल्‍ट्रासाउंड करना चाहते थे और इस बात से बहुत चिंतित हो जाते थे कि मैं भोजन में रुचि नहीं लेता। मैं महीनों डॉक्टर मित्रों के मश्‍वरों को नजरअंदाज करता रहा। उन लोगों ने नया-नया 'डॉप्लर' अल्‍ट्रासाउंड खरीदा था - मेरी भ्रष्‍ट बुद्धि में यह विचार आता कि ये लोग अपने पचीस-तीस लाख के 'डॉप्लर' का रोब गालिब करना चाहते हैं। शहर के तमाम डॉक्टर मेरे हमप्‍याला और हमनिवाला थे। मगर कितने बुरे दिन आ गए थे कि जो भी डॉक्टर मिलता, अपनी क्लीनिक में आमंत्रित करता। जो पैथालोजिस्‍ट था, वह लैब में बुला रहा था और जो नर्सिंगहोम का मालिक था, वह चैकअप के लिए बुला रहा था। डॉक्टरों से मेरा तकरार एक अर्से तक चलता रहा। लुका-छिपी के इस खेल में मैंने महारत हासिल कर ली थी। डॉक्टर मित्र आते तो मैं उन्‍हें अपनी माँ के मुआइने में लगा देता। माँ का रक्‍तचाप लिया जाता, तो वह निहाल हो जातीं कि बेटा उनका कितना ख्‍याल कर रहा है। बगैर मेरी माँ की खैरियत जाने कोई डॉक्टर मित्र मेरे कमरे की सीढ़ियाँ नहीं चढ़ सकता था। क्‍या मजाल कि मेरा कोई भी मित्र उनका हालचाल लिए बगैर सीढ़ियाँ चढ़ जाए; वह जिलाधिकारी हो या पुलिस अधीक्षक अथवा आयुक्‍त। माँ दिन भर हिंदी में गीता और रामायण पढ़तीं मगर हिंदी बोल न पातीं, मगर वह टूटी-फूटी पंजाबी मिश्रित हिंदी में ही संवाद स्‍थापित कर लेतीं। धीरे-धीरे मेरे हमप्‍याला हमनिवाला दोस्‍तों का दायरा इतना वसीह हो गया था कि उसमें वकील भी थे और जज भी। प्राशासनिक अधिकारी थे तो उद्यमी भी, प्रोफेसर थे तो छात्र भी। ये सब दिन ढले के बाद के दोस्‍त थे। कहा जा सकता है कि पीने-पिलानेवाले दोस्‍तों का एक अच्‍छा-खासा कुनबा बन गया था। शाम को किसी न किसी मित्र का ड्राइवर वाहन ले कर हाजिर रहता अथवा हमारे ही घर के बाहर वाहनों का ताँता लग जाता। सब दोस्‍तों से घरेलू रिश्‍ते कायम हो चुके थे। सुभाष कुमार इलाहाबाद के आयुक्‍त थे तो इस कुनबे को गिरोह के नाम से पुकारा करते थे। आज भी फोन करेंगे तो पूछेंगे गिरोह का क्‍या हालचाल है।

आज बैसाखी का दिन था और बैसाखी की महफिल उसूलन हमारे यहाँ ही जमनी चाहिए थी। मगर सुबह-सुबह ममता और मन्‍नू घेरघार कर मुझे डॉ. निगम के यहाँ ले जाने में सफल हो गए थे। दिन भर टेस्‍ट होते रहे थे। खून की जाँच हुई, अल्‍ट्रासाउंड हुआ, एक्‍सरे हुआ, गर्ज यह कि जितने भी टेस्‍ट संभव हो सकते थे, सब करा लिए गए। रिपोर्ट वही थी, जिसका खतरा था - यानी लिवर (यकृत) बढ़ गया था। दिमागी तौर पर मैं इस खबर के लिए तैयार था, कोई खास सदमा नहीं लगा।

'आप कब से पी रहे हैं?' डॉक्टर ने तमाम कागजात देखने के बाद पूछा।

'यही कोई चालीस वर्ष से।' मैंने डॉक्टर को बताया, 'पिछले बीस वर्ष से तो लगभग नियमित रूप से।'

'रोज कितने पेग लेते हैं?'

मैंने कभी इस पर गौर नहीं किया था। इतना जरूर याद है कि एक बोतल शुरू में चार-पाँच दिन में खाली होती थी, बाद में दो-तीन दिन में और इधर दो-एक दिन में। कम पीने में यकीन नहीं था। कोशिश यही थी कि भविष्‍य में और भी अच्‍छी ब्रांड नसीब हो। शराब के मामले में मैं किसी का मोहताज नहीं रहना चाहता था, न कभी रहा। इसके लिए मैं कितना भी श्रम कर सकता था। भविष्‍य में रोटी नहीं, अच्‍छी शराब की चिंता थी।

'आप जीना चाहते हैं तो अपनी आदतें बदलनी होंगी।' डॉक्टर ने दो टूक शब्‍दों में आगाह किया, 'जिंदगी या मौत में से आप को एक का चुनाव करना होगा।'

डॉक्टर की बात सुन कर मुझे हँसी आ गई। मूर्ख से मूर्ख आदमी भी जिंदगी या मौत में से जिंदगी का चुनाव करेगा।

'आप हँस रहे हैं, जबकि मौत आप के सर पर मँडरा रही है।' डॉक्टर को मेरी मुस्कुराहट बहुत नागवार गुजरी।

'सॉरी डॉक्टर! मैं अपनी बेबसी पर हँस रहा था। मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि यह दिन भी देखना पड़ेगा।'

'आप यकायक पीना नहीं छोड़ पाएँगे। इतने बरसों बाद कोई भी नहीं छोड़ सकता। शाम को एकाध, हद से हद दो पेग ले सकते हैं। डॉक्टर साहब ने बताया कि मैं 'विद्ड्राअल सिंप्टम्स' (मदिरापान न करने से उत्‍पन्‍न होनेवाले लक्षण) झेल न पाऊँगा।'

इस वक्‍त मेरे सामने नई बोतल रखी थी और कानों में डॉक्टर निगम के शब्‍द कौंध रहे थे। मुझे जलियाँवाला बाग की खूनी बैसाखी की याद आ रही थी। लग रहा था कि रास्‍ते बंद हैं सब, कूचा-ए-कातिल के सिवा। चालीस वर्ष पहले मैंने अपना वतन छोड़ दिया था और एक यही बैसाखी का दिन होता था कि वतन की याद ताजा कर जाता था।

बचपन में ननिहाल में देखी बैसाखी की 'छिंज' याद आ जाती। चारों तरफ उत्‍सव का माहौल, भाँगड़ा और नगाड़े। मस्‍ती के इस आलम में कभी-कभार खूनी फसाद हो जाते, रंजिश में खून तक हो जाते। हम सब लोग हवेली की छत से सारा दृश्‍य देखते। नीचे उतरने की मनाही थी। अक्‍सर मामा लोग आँखें तरेरते हुए छत पर आते और माँ और मौसी तथा मामियों को भी मुँडेर से हट जाने के लिए कहते। बैसाखी पर जैसे पूरे पंजाब का खून खौल उठता था। जालंधर, हिसार, दिल्‍ली, मुंबई और इलाहाबाद में मैंने बचपन की ऐसी ही अनेक यादों को सहेज कर रखा हुआ था। आज थर्मामीटर मुझे चिढ़ा रहा था। गिलास, बोतल और बर्फ की बकट मेरे सामने जैसे मुर्दा पड़ी थीं।

मैने सिगरेट सुलगाया और एक झटके से बोतल की सील तोड़ दी।

'आखिर कितना पिओगे रवींद्र कालिया?' सहसा मेरे भीतर से आवाज उठी।

'बस यही एक या दो पेग।' मैंने मन ही मन डॉक्टर की बात दोहराई।

'तुम अपने को धोखा दे रहे हो।' मैं अपने आप से बातचीत करने लगा, 'शराब के मामले में तुम निहायत लालची इनसान हो। दूसरे से तीसरे पेग तक पहुँचने में तुम्‍हें देर न लगेगी। धीरे-धीरे वही सिलसिला फिर शुरू हो जाएगा।'

मैंने गिलास में बर्फ के दो टुकड़े डाल दिए, जबकि बर्फ मदिरा ढालने के बाद डाला करता था। बर्फ के टुकड़े देर तक गिलास में पिघलते रहे। बोतल छूने की हिम्‍मत नहीं जुटा पा रहा था। भीतर एक वैराग्य भाव उठ रहा था, वैराग्य, निःसारता और दहशत का मिला-जुला भाव। कुछ वैसा आभास भी हो रहा था जो भरपेट खाने के बाद भोजन को देख कर होता है। एक तृप्ति का भी एहसास हुआ। क्षण भर के लिए लगा कि अब तक जम कर पी चुका हूँ, पंजाबी में जिसे छक कर पीना कहते हैं। आज तक कभी तिशना-लब न रहा था। आखिर यह प्‍यास कब बुझेगी? जी भर चुका है, फकत एक लालच शेष है।

मेरे लिए यह निर्णय की घड़ी थी। नीचे मेरी बूढ़ी माँ थीं - पचासी वर्षीया। जब से पिता का देहांत हुआ था, वह मेरे पास थीं। बड़े भाई कैनेडा में थे और बहन इंगलैंड में। पिता जीवित थे तो वह उनके साथ दो बार कैनेडा हो आई थीं। एक बार तो दोनों ने माइग्रेशन ही कर लिया था, मन नहीं लगा तो लौट आए। दो-एक वर्ष पहले भाभी भाई तीसरी बार कैनेडा ले जाना चाहते थे, मगर वय को देखते हुए वीजा न मिला।

मेरे नाना की ज्‍योतिष में गहरी दिलचस्‍पी थी। माँ के जन्‍म लेते ही उनकी कुंडली देख कर उन्‍होंने भविष्‍यवाणी कर दी थी कि बिटिया लंबी उम्र पाएगी और किसी तीर्थ स्‍थान पर ब्रह्मलीन होगी। हालात जब मुझे प्रयाग ले आए और माँ साथ में रहने लगीं तो अक्‍सर नाना की बात याद कर मन को धुकधुकी होती। पिछले ग्‍यारह बरसों से माँ मेरे साथ थीं। बहुत स्‍वाभिमानी थीं और नाजुकमिजाज। आत्‍मनिर्भर। जरा-सी बात से रूठ जातीं, बच्‍चों की तरह। मुझसे ज्‍यादा उनका संवाद ममता से था। मगर सास-बहू का रिश्‍ता ही ऐसा है कि सब कुछ सामान्‍य होते हुए भी असामान्‍य हो जाता है। मैं दोनों के बीच संतुलन बनाए रखता। माँ को कोई बात खल जाती तो तुरंत सामान बाँधने लगतीं यह तय करके कि अब शेष जीवन हरिद्वार में बिताएँगी। चलने-फिरने से मजबूर हो गईं तो मेहरी से कहतीं - मेरे लिए कोई कमरा तलाश दो, अलग रहूँगी, यहाँ कोई मेरी नहीं सुनता। अचानक मुझे लगा कि अगर मैं न रहा तो इस उम्र में माँ की बहुत फजीहत हो जाएगी। वह जब तक जीं अपने अंदाज से जीं; अंतिम दिन भी स्‍नान किया और दान पुण्य करती रहीं, यहाँ तक कि डॉक्टर का अंतिम बिल भी वह चुका गईं, यह भी बता गईं कि उनकी अंतिम संस्कार के लिए पैसा कहाँ रखा है। मुझे स्वस्थ होने की दुआएँ दे गईं और खुद चल बसीं।

गिलास में बर्फ के टुकड़े पिघल कर पानी हो गए थे। मुझे अचानक माँ पर बहुत प्‍यार उमड़ा। मैं गिलास और बोतल का जैसे तिरस्‍कार करते हुए सीढ़ियाँ उतर गया। माँ लेटी थीं। वह एम.एस. सुब्‍बलक्ष्‍मी के स्‍वर में विष्‍णुसहस्रनाम का पाठ सुनते-सुनते सो जातीं। कमरे में बहुत धीमे स्‍वर में विष्‍णुसहस्रनाम का पाठ गूँज रहा था और माँ आँखें बंद किए बिस्‍तर पर लेटी थीं। मैंने उनकी गोद में बच्‍चों की तरह सिर रख दिया। वह मेरे माथे पर हाथ फेरने लगीं, फिर डरते-डरते बोलीं - 'किसी भी चीज की अति बुरी होती है।' मैं माँ की बात समझ रहा था कि किस चीज की अति बुरी होती है। न उन्‍होंने बताया न मैंने पूछा। मद्यपान तो दूर, मैंने माँ के सामने कभी सिगरेट तक नहीं पी थी। किसी ने सच ही कहा है कि माँ से पेट नहीं छिपाया जा सकता। मैं माँ की बात का मर्म समझ रहा था, मगर समझ कर भी शांत था। आज तक मैंने किसी को भी अपने जीवन में हस्‍तक्षेप करने की छूट नहीं दी थी, मगर माँ आज यह छूट ले रही थीं, और मैं शांत था। आज मेरा दिमाग सही काम कर रहा था, वरना मैं अब तक भड़क गया होता। मुझे लग रहा था, माँ ठीक ही तो कह रही हैं। कितने वर्षों से मैं अपने को छलता आ रहा हूँ। माँ की गोद में लेटे-लेटे मैं अपने से सवाल-जवाब करने लगा - और कितनी पिओगे रवींद्र कालिया? यह रोज की मयगुसारी एक तमाशा बन कर रह गई है, इसका कोई अंत नहीं है। अब तक तुम इसे पी रहे थे, अब यह तुम्‍हें पी रही है।

माँ एकदम खामोश थीं। वह अत्‍यंत स्‍नेह से मेरे माथे को, मेरे गर्म माथे को सहला रही थीं। मुझे लग रहा था जैसे जिंदगी मौत को सहला रही है। लग रहा था यह माँ की गोद नहीं है, मैं जिंदगी की गोद में लेटा हूँ। कितना अच्‍छा है, इस समय माँ बोल नहीं रहीं। उन्‍हें जो कुछ कहना है, उनका हाथ कह रहा है। उनके स्‍पर्श में अपूर्व वात्‍सल्‍य तो था ही, शिकवा भी था, शिकायत भी, क्षमा भी, विवशता और करुणा भी। एक मूक प्रार्थना। यही सब भाषा में अनूदित हो जाता तो मुझे अपार कष्‍ट होता। अश्‍लील हो जाता। शायद मेरे लिए असहनीय भी। माँ की गोद में लेटे-लेटे मैं केसेट की तरह रिवाइंड होता चला गया, जैसे नवजात शिशु में तब्‍दील हो गया। माँ जैसे मुझे जीवन में पहली बार महसूस कर रही थीं और मैं भी बंद मुटि्‌ठयाँ कसे बंद आँखों से जैसे अभी-अभी कोख से बाहर आ कर जीवन की पहली साँस ले रहा था। मैं बहुत देर तक माँ के आगोश में पड़ा रहा। लगा जैसे संकट की घड़ी टल गई है। अब मैं पूरी तरह सुरक्षित हूँ। माँ शायद नींद की गोली खा चुकी थीं। उनके मीठे-मीठे खर्राटे सुनाई देने लगे। मैं उठा, पंखा तेज किया और किसी तरह हाँफते हुए सीढ़ियाँ चढ़ गया।

ममता मेरे अल्‍ट्रासाउंड, खून की जाँच की रिपोर्टों और डॉक्टर के पर्चों में उलझी हुई थी। मैंने उससे कहा कि वह यह गिलास, यह बोतल नमकीन और बर्फ उठवा ले। आलमारी में आठ-दस बोतलें और पड़ी थीं। इच्‍छा हुई अभी उठूँ और बाल्‍कनी में खड़ा हो कर एक-एक कर सब बोतलें फोड़ दूँ। एक-दो का ज़िक्र क्‍या सारी की सारी फोड़ दूँ, ऐ ग़मे दिल क्या करूँ? मेरे जेहन में एक खामोश तूफान उठ रहा था, लग रहा था जैसे शख्‍सीयत में यकायक कोई बदलाव आ रहा है। मैं बिस्‍तर पर लेट गया। शरीर एकदम निढाल हो रहा था। वह निर्णय का क्षण था, यह कहना भी गलत न होगा कि वह निर्णय की बैसाखी थी।

किसी शायर ने सही फरमाया था कि छुटती नहीं यह काफिर मुँह की लगी हुई। मैं रात भर करवटें बदलता रहा। पीने की ललक तो नहीं थी, शरीर में अल्‍कोहल की कमी जरूर खल रही थी। बार-बार डॉक्टर की सलाह दस्‍तक दे रही थी कि यकायक न छोड़ूँ कतरा-कतरा कम करूँ। मैं अपनी सीमाओं को पहचानता था। शराब के मामले में मैं महालालची रहा हूँ। एक से दो, दो से ढाई और ढाई से तीन पर उतरते मुझे देर न लगेगी। मैं अपने कुतर्कों की ताकत से अवगत था। तर्कों-कुतर्कों के बीच कब नींद लग गई, पता ही नहीं चला। शायद यह 'ट्रायका' का कमाल था। सुबह नींद खुली तो अपने को एकदम तरोताजा पाया। लगा, जैसे अब एकदम स्‍वस्‍थ हूँ। तुरंत थर्मामीटर जीभ के नीचे दाब लिया। बुखार देखा - वही निन्‍यानबे दशमलव तीन। पानी में चार चम्‍मच ग्‍लूकोज घोल कर पी गया। जब तक ग्‍लूकोज का असर रहता है, यकृत को आराम मिलता है।

बाद के दिन ज्‍यादा तकलीफदेह थे। अपना ही शरीर दुश्‍मनों की तरह पेश आने लगा। कभी लगता कि छाती एकदम जकड़ गई है, साँस लेने पर फेफड़े का रेशा-रेशा दर्द करता, महसूस होता साँस नहीं ले रहा, कोई जर्जर बाँसुरी बजा रहा हूँ। निमोनिया का रोगी जितना कष्‍ट पाता होगा, उतना मैं पा रहा था। कष्‍ट से मुक्‍ति पाने के लिए मैं दर्शन का सहारा लेता - रवींद्र कालिया, यह सब माया है, सुख याद रहता है न दुःख। लोग उमस भरी काल कोठरी में जीवन काट आते हैं और भूल जाते है। अस्‍पतालों में लोग मर्मांतक पीड़ा पाते हैं, अगर स्‍वस्‍थ हो जाते हैं तो सब भूल जाते हैं। चालीस वर्ष नशा किया, कल तक का सरूर याद नहीं। क्‍या फायदा ऐसे क्षण भंगुर सुख का। मुझे अश्‍क जी का तकियाकलाम याद आता है - दुनिया फानी है। दुनिया फानी है तो मयनोशी भी फानी है।

एक दिन बहुत तकलीफ में था कि डॉ. अभिलाषा चतुर्वेदी और डॉ. नरेंद्र खोपरजी आए। मैंने अपनी दर्द भरी कहानी बयान की। अभिलाषा जी ने कहा, 'यह सब सामान्‍य है। ये विद्ड्राअल सिंप्टम्स हैं, आपको कुछ न होगा, जी कड़ा करके एक बार झेल जाइए। मैं आपको एक कतरा भी पीने की सलाह न दूँगी। मेरी मानिए, अपने इरादे पर कायम रहिए।' डॉ. खोपरजी घर से अपना कोटा ले कर चले थे, और महक रहे थे, मेरे नथुनों में मदिरा की चिरपरिचित गंध समा रही थी। मुझे गंध बहुत पराई लगी, जैसे सड़े हुए गुड़ की गंध हो। मुझे उस महक से वितृष्‍णा होने लगी। डॉक्टर लोग विदा हुए तो मैंने ग़ालिब उग्र मँगवाया और पढ़ने लगा। पढ़ने में श्रम पड़ने लगा तो बेगम अख्‍तर की आवाज में ग़ालिब सुनने लगा। ग़ालिब का दीवान, पांडेय बेचन शर्मा उग्र की टीका और बेगम अख्तर की आवाज। शाम जैसे उत्‍सवधर्मी हो गई। मैं अपने फेफड़े को भूल गया, दर्द को भूल गया। लेकिन यह वक्‍ती राहत थी, शरीर ने विद्रोह करना जारी रखा। एक रोज में मेरी दुनिया बदल गई थी। एक दिन पहले तक मैं दफ्‍तर जा रहा था। डॉक्टर को दिखाने और परीक्षणों के बाद मैं जैसे अचानक बीमार पड़ गया। डॉक्‍टरों ने जी भर कर हिदायतें दी थीं। हिदायतों के अलावा उनके पास कोई प्रभावी उपचार नहीं था - ले दे कर वही ग्‍लूकोज। दिन-भर में दो-ढाई सौ ग्राम ग्‍लूकोज मुझे पिला दिया जाता। कुछ रोज पहले तक जिस रोग को मैं मामूली हरारत का दर्जा दे रहा था, उसे ले कर सब चिंतित रहने लगे। मालूम नहीं यह शारीरिक प्रक्रिया थी अथवा मनोवैज्ञानिक कि मैं सचमुच अशक्त, बीमार, निरीह और कमजोर होता चला गया। करवट तक बदलने में थकान आ जाती। डॉक्टरों ने हिदायत दी थी कि बाथरूम तक भी जाऊँ तो उठने से पहले एक गिलास ग्‍लूकोज पी लूँ, लौट कर पुनः ग्‍लूकोज का सेवन करूँ। डॉक्टरों ने यह भी खोज निकाला था कि मेरा रक्‍तचाप बढ़ा हुआ है। मैं सोचा करता था कि मेरा रक्‍तचाप मंद है, शायद बीसियों वर्ष पहले कभी नपवाया था। दवा के नाम पर केवल ग्‍लूकोज, ट्रायका (ट्रांक्‍यूलाइजर) और लिव 52 (आयुर्वेदिक)।

एक दिन बाल शैंपू करते समय लगा कि साँस उखड़ रही है। बालों पर शैंपू का गाढ़ा झाग बनते ही साँस उखड़ने लगी। बाथरूम में मैं अकेला था, हाथ-पाँव फूल गए। हाथों में बाल धोने की कुव्‍वत न रही। किसी तरह खुली हवा में बाल्‍कनी तक पहुँचा और वहाँ रखी कुर्सी पर निढाल हो गया। देर तक बैठा रहा। किसी को आवाज देने की न इच्‍छा थी न ताकत। साँस लेने पर महसूस हो रहा था, फेफड़ों में जैसे जख्म हो गए हैं।

शरीर के साथ अनहोनी घटनाओं का यह सिलसिला जारी रहा। डॉक्‍टरों का मत था कि यह सब मनोवैज्ञानिक है। एक दिन मैं दाँत साफ कर रहा था कि क्‍या देखता हूँ कि मुँह का स्वाद कसैला-सा हो रहा है। पानी से कुल्‍ला किया तो देखा मुँह से जैसे खून जा रहा हो। अचानक मसूढ़ों से रक्त बहने लगा। मुझे यह शिकायत कभी नहीं रही थी। मैंने सोचा मुँह का कैंसर हो गया है। घबराहट में जल्‍दी-जल्‍दी कुल्‍ला करता रहा, दो-चार कुल्‍लों के बाद सब सामान्‍य हो गया। अब आप ही बताएँ, यह भी क्‍या मनोविज्ञान का खेल था? अगर यह खेल था तो एक और दिलचस्‍प खेल शुरू हो गया। सोते-सोते अचानक अपने-आप टाँग ऊपर उठती और एक झटके के साथ नीचे गिरती। तुरंत नींद खुल जाती। दोनों टाँगों ने जैसे तय कर लिया था कि मुझे सोने नहीं देंगी। रात भर टाँगों की उठा-पटक चलती रहती और मेरा उन पर नियंत्रण नहीं रह गया था। डॉक्टरों से अपनी तकलीफ बतलाता तो वे 'मनोविज्ञान' कह कर टाल जाते अथवा इन्‍हें फकत 'विद्ड्राअल सिंप्टम्स' कह कर रफा-दफा कर देते। एक दिन पत्रकार मित्र प्रताप सोमवंशी ने फोन पर पूछा कि क्‍या मैं जाड़े में च्‍यवनप्राश का सेवन करता हूँ? 'हाँ तो' मैंने बताया कि जाड़े में सुबह दो-एक चम्‍मच दूध के साथ च्‍यवनप्राश जरूर ले लेता था कि भूख न लगे न सही, इसी बहाने कुछ पौष्‍टिक आहार हो जाता था। देखते-देखते मुझे भोजन से इतनी अरुचि हो गई थी कि एक कौर तक तोड़ने की इच्‍छा न होती। किसी तरह पानी से दो-एक चपाती निगल लेता था। अन्‍न से जैसे एलर्जी हो गई थी। बाद में माँ ने दलिया खाने का सुझाव दिया। मेरे लिए दूध में दलिया पकाया जाता और सुबह नाश्‍ते के तौर पर मैं वही खाता। आज भी खाता हूँ।

प्रताप ने बताया कि नेपाल से एक बुजुर्ग वैद्य जी आए हुए थे, उन्‍होंने बताया कि ज्यादातर लोगों को इस उम्र में यकृत बढ़ने से पक्षाघात हो जाया करता है, च्‍यवनप्राश का सेवन करनेवाले इस प्रकोप से बच जाते हैं। मैंने राहत की साँस ली वरना जिस कदर मेरी टाँगों को झटके लग रहे थे उससे यही आशंका होती थी कि अब अंतिम झटका लगने ही वाला है।

जब से माँ मेरे साथ थीं, होम्‍योपैथी का अध्‍ययन करने लगा था। अच्‍छी-खासी लायब्रेरी हो गई थी। माँ का वृद्ध शरीर था, कभी-भी कोई तकलीफ उभर आती। कभी कंधे में दर्द, कभी पेट में अफारा। घुटनों के दर्द से तो वह अक्‍सर परेशान रहतीं। कभी कब्‍ज और कभी दस्‍त। रात बिरात डॉक्टरों से संपर्क करने में कठिनाई होती। मैंने खुद इलाज करने की ठान ली और बाजार से होम्‍योपैथी की ढेरों पुस्‍तकें खरीद लाया। मेडिकल की पारिभाषिक शब्‍दावली समझने के लिए कई कोश खरीद लाया था। होम्‍योपैथी के अध्‍ययन में मेरा मन भी रमने लगा। केस हिस्‍ट्रीज का अध्‍ययन करते हुए उपन्‍यास पढ़ने जैसा आनंद मिलता। कुछ ही दिनों में मैं माँ का आपातकालीन इलाज स्‍वयं ही करने लगा। शहर के विख्‍यात होम्‍योपैथ डॉक्टरों से दोस्‍ती हो गई। उनका भी परामर्श ले लेता। कुछ ही दिनों में माँ का मेरी दवाओं में विश्‍वास जमने लगा। होम्‍योपैथी पढ़ने का अप्रत्‍यक्ष लाभ मुझे भी मिला। बीमार पड़ने से पूर्व ही मैं स्‍नायविक दुर्बलता पर एक कोर्स कर चुका था। शायद यही कारण था कि टाँग के झटकों से मुझे ज्‍यादा घबराहट नहीं हो रही थी। मैं खामोशी से अपना समानांतर इलाज करता रहा। बीच-बीच में डॉक्टर शांगलू से परामर्श ले लेता। यकृत के इलाज के लिए दो औषधियाँ मैंने ढूँढ़ निकाली थीं। आयुर्वेदिक पुनर्नवा के बारे में मुझे डॉक्टर हरदेव बाहरी ने बताया था और होम्‍योपैथिक कैलिडोनियम के बारे में मुझे पहले से जानकारी थी। इन दवाओं से आश्‍चर्यजनक रूप से लाभ होने लगा। अब मैं अपनी तकलीफ के प्रत्‍येक लक्षण को होम्‍योपैथी के ग्रंथों में खोजता। होम्‍योपैथी में लक्षणों से ही रोग को टटोला जाता है। कई बार किसी औषधि के बारे में पढ़ते हुए लगता जैसे उपन्‍यास पढ़ रहा हूँ। होम्‍योपैथी में झूठ बोलना भी एक लक्षण है, शक करना भी। पढ़ते-पढ़ते अचानक मन में चरित्र उभरने लगते। मैंने तय कर रखा था कि स्‍वस्‍थ होने पर शुद्ध होम्‍योपैथिक कहानी लिखूँगा - शीर्षक अभी से सोच रखा है। जितना पुराना साथ शराब का था उससे कम साथ अपनी पीढ़ी के कथाकारों का नहीं था। अपने साथियों की मैं रग-रग पहचानने का दंभ भर सकता हूँ। शायद यही कारण है कि मैंने दूधनाथ सिंह, ज्ञानरंजन और काशी के लिए उपयुक्‍त होम्‍योपैथिक औषधियाँ खोज रखी हैं। कई बार तो किसी महिला मित्र से बात करते-करते अचानक यह विचार कौंधता है कि इसे पल्‍सटिला-200 की जरूरत है।

अपनी बीमारी के दौरान डॉक्टरों का मनोविज्ञान समझने में खूब मदद मिली। शहर के अधिसंख्‍य डॉक्टर मुझसे फीस नहीं लेते थे। घर आ कर देख भी जाते थे। उनके क्‍लीनिक में जाता तो 'आउट आफ टर्न' तुरंत बुलवा लेते। पत्रकार लेखक होने के फायदे थे, जिनका मैंने भरपूर लाभ उठाया। कुछ डॉक्टर ऐसे भी थे, जो फीस नहीं लेते थे मगर हजारों रुपए के टेस्‍ट लिख देते थे। डॉक्टर विशेष से ही अल्‍ट्रासाउंड कराने पर जोर देते। मुझे लगता है, वह फीस ले लेते तो सस्‍ता पड़ता। कमीशन ही उनकी फीस थी।

इसी क्रम में और भी कई दिलचस्‍प अनुभव हुए। एक दिन डॉक्टर निगम के यहाँ वजन लिया तो साठ किलो था, रास्‍ते में रक्‍तचाप नपवाने के लिए दूसरे डॉक्टर के यहाँ रुका तो उसकी मशीन ने 58 किलो वजन बताया। सच्चाई जानने के लिए कालोनी के एक नर्सिंग होम में वजन लिया तो 56 किलो रह गया। तीन डॉक्टरों की मशीनें अलग-अलग वजन बता रही थीं। यही हाल रक्‍तचाप का था। हर डॉक्टर अलग रक्‍तचाप बताता। करोड़ों रुपयों की लागत से बने नर्सिंग होम्‍स में भी वजन और रक्‍तचाप के मानक उपकरण नहीं थे। इनके अभाव में कितना सही उपचार हो सकता है, इसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। आखिर मैंने तंग आ कर रक्‍तचाप और वजन लेने के सर्वोत्तम उपलब्ध उपकरण खरीद लिए। एक ही मशीन पर भरोसा करना ज्यादा मुनासिब लगा। एक मशीन गलत हो सकती है मगर धोखा नहीं दे सकती। वजन बढ़ रहा है या कम हो रहा है, मशीन इतनी प्रामाणिक जानकारी तो दे ही सकती है।

खाट पर लेटे-लेटे मैं कुछ ही दिनों में अपने दफ्तर का भी संचालन करने लगा। हिम्‍मत होती तो जी भर कर समाचार-पत्र, पत्रिकाएँ, साहित्‍य पढ़ता, टेलीविजन देखता और सोता। सुबह-शाम मिजाजपुर्सी करने वालों का ताँता लगा रहता। दिल्‍ली से ममता का एक प्रकाशक आया तो मुझे बातचीत करते देख बहुत हैरान हुआ। उसने बताया कि दिल्‍ली में तो सुना था कि आप अचेत पड़े हैं और कुछ ही दिनों के मेहमान हैं। शहर में भी ऐसी कुछ अफवाहें थीं। मुझे मालूम है कि जिसको आप जितना चाहते हैं, उसके बारे में उतनी ही आशंकाएँ उठती हैं। कई बार आदमी अपने को अनुशासन में बाँधने के लिए स्‍थितियों की भयावह परिणति की कल्‍पना कर लेता है। मगर मैं अभी मरना नहीं चाहता था - स्‍वस्‍थ हो कर मरना चाहता था। मुझे लगता था कि इस बीच चल बसा तो लोग यही सोचेंगे कि एक लेखक नहीं, एक शराबी चल बसा। अभी हाल में इंदौर में श्रीलाल शुक्‍ल ने भी ऐसी ही आशंका प्रकट की थी। वह बहुत सादगी से बोले, 'देखो रवींद्र, मैं चौहत्‍तर वर्ष का हो गया हूँ। अब अगर मर भी गया तो लोग यह नहीं कहेंगे कि एक शराबी मर गया - मरने के लिए यह एक प्रतिष्‍ठाजनक उम्र है, क्‍यों?'

चिड़चिड़ेपन से मुझे हमेशा सख्‍त नफरत है। जिन लोगों के चेहरे में चिड़चिड़ापन देखता हूँ, उनसे हमेशा दूर ही भागता हूँ। बीमारी के दौरान मैं यह भी महसूस कर रहा था कि मैं भी किचकिची होता जा रहा हूँ। छोटी-सी बात पर किचाइन करने लगता। मेरे पास एक सुविधाजनक जवाब था। अपनी तमाम खामियों को मैं 'विद्ड्राअल सिंप्टम्स' के खाते में डाल कर निश्‍चिंत हो जाता। एक दिन वाराणसी से काशीनाथ सिंह मुझे देखने आया। बहुत अच्‍छा लगा कि शहर के बाहर भी कोई खैरख्‍वाह है।

'अब जीवन में कभी दारू मत छूना।' काशी ने भोलेपन से हिदायत दी। काशी हम चारों में सबसे अधिक सरल व्‍यक्‍ति हैं, मगर मैं उसकी इस बात पर अचानक ऐंठ गया।

'देखो काशी, मैंने पीना छोड़ा है, इसका निर्णय खुद लिया है। किसी के कहने से न पीना छोड़ा है, न शुरू करूँगा।'

काशी स्‍तब्‍ध। उसे लगा होगा, मेरा दिमाग भी चल निकला है। सद्‌भावना में कही गई बात भी मेरे हलक के नीचे नहीं उतर रही थी। जाने दिमाग में क्‍या फितूर सवार हो गया कि मैं देर तक काशी से इसी बात पर जिरह करता रहा। काशी लौट गया। मुझे बहुत ग्‍लानि हुई। आपका कोई भी हितैषी आप को यही राय देता यह दूसरी बात है कि बहुत से मित्र मुझे बहलाने के लिए यह भी कह देते थे कि जिगर बहुत जल्‍दी ठीक होता है, आश्‍चर्यजनक रूप से 'रिकूप' करता है, महीने-दो महीने में पीने लायक हो जाओगे।

मगर मैं तय कर चुका था कि, अब और नहीं पिऊँगा। इस जिंदगी में छक कर पी ली है। अपने हिस्‍से की तो पी ही, अपने पिता के हिस्‍से की भी पी डाली। यही नहीं, बच्‍चों के भविष्‍य की चिंता में उनके हिस्‍से की भी पी गया। दरअसल मेरे ऊपर कुछ ज्‍यादा ही जिम्मेदारियाँ थीं।

मैंने अत्‍यंत ईमानदारी से इन जिम्‍मेदारियों का निर्वाह किया था। भूले-भटके कहीं से फोकट की आमदनी हो जाती, मेरा मतलब है रायल्‍टी आ जाती या पारिश्रमिक तो मैं केवल दारू खरीदने की सोचता। यहाँ दारू शब्‍द का इस्‍तेमाल इसलिए कर रहा हूँ कि यह एक बहुआयामी शब्‍द है, इसके अंतर्गत सब कुछ आ जाता है जैसे व्हिस्‍की, रम, जिन, वाइन, बियर आदि। इस पक्ष की तरफ मैंने कभी ध्‍यान नहीं दिया कि मेरे पास जूते हैं या नहीं, बच्‍चों के कपड़े छोटे हो रहे हैं या उन्‍हें किसी खिलौने की जरूरत हो सकती है। यह विभाग ममता के जिम्‍मे था। वह अपने विभाग का सही संचालन कर रही थी। मैं पहली फुर्सत में दारू का स्टाक खरीद कर कुछ दिनों के लिए निश्‍चिंत हो जाता। घर में दारू का अभाव मैं बर्दाश्‍त नहीं कर सकता था। मुझे न सोना आकर्षित करता था, न चाँदी। फिल्‍म में मेरा मन न लगता था, नाटक तो मुझे और भी बेहूदा लगता था। संगीत में मन जरूर रम जाता था। देखा जाए तो मद्यपान ही मेरे जीवन की एक मात्र सच्‍चाई थी। मद्यपान एक सामाजिक कर्म है, समाज से कट कर मद्यपान नहीं किया जा सकता। जो लोग ऐसा करते हैं वह आत्‍मरति करते हैं। वे पद्य की रचना तो कर सकते हैं, गद्य की नहीं। मद्यपान से मुझे अनेक शिक्षाएँ मिली थीं। सबसे बड़ी शिक्षा तो यही कि सादा जीवन उच्‍च विचार। यानी सादी पोशाक और सादःलौह जीवन। बहुत से लोगों को भ्रम हो जाता था कि मैं सादःलौह नहीं सादःपुरकार (देखने में भोले हो पर हो बड़े चंचल) हूँ। कुर्ता पायजामा मेरा प्रिय परिधान रहा है। गांधी जयंती पर जब खादी भवन में खादी पर तीस-पैंतीस प्रतिशत छूट मिलती तो ममता साल भर के कुर्ते पायजामे सिलवा देती। उसे कपड़े खरीदने का जुनून रहता है। अपने लिए साड़ियाँ खरीदती तो मेरे लिए भी बड़े चाव से शर्ट वगैरह खरीद लाती। मेरी डिब्‍बा खोल कर शर्ट देखने की इच्‍छा न होती। वह चाव से दिखाती, मैं अफसुर्दगी से देखता और पहला मौका मिलते ही आलमारी में ठूँस देता। आज भी दर्जनों कमीजें और अफगान सूट मेरी आलमारी की शोभा बढ़ा रहे हैं। मुझे खुशी होती जब बच्‍चे मेरा कोई कपड़ा इस्‍तेमाल कर लेते। अन्‍नू काम करने लगा तो वह भी माँ के नक्‍शेकदम पर मेरे लिए कपड़े खरीदने लगा। वे कपड़े उसके ही काम आए होंगे या आएँगे या मेरी वार्डरोब में पड़े रहेंगे।

विद्ड्राअल सिंप्टम्स के वापस लौटने से तबीयत में सुधार आने लगा। सबसे अच्‍छा यह लगा कि मुझे दारू की गंध से ही वितृष्‍णा होने लगी। शराबी से बात करने पर उलझन होने लगी। शराब किसी धूर्त प्रेमिका की तरह मन से पूरी तरह उतर गई। शराब देख कर लार टपकना बंद हो गया। मैं आजाद पंछी की तरह अपने को मुक्‍त महसूस करने लगा। शारीरिक और मानसिक नहीं, आर्थिक स्थिति में भी सुधार दिखाई देने लगा। एक जमाना था, शराब के चक्‍कर में जीवन बीमा तक के चेक 'बाऊंस' हो जाते थे। कोई बीस साल पहले मैंने खेल ही खेल में गंगा तट पर आवास विकास परिषद से किस्‍तों पर एक भवन लिया था। उन दिनों मुझे गंगा स्‍नान का चस्‍का लग गया था। मैं और ममता सुबह-सुबह रानी मंडी से रसूलाबाद घाट पर स्‍नान करने आया करते थे। रानी मंडी से रसूलाबाद घाट नौ दस किलोमीटर दूर था, सुबह-सुबह मुँह अँधेरे स्‍कूटर पर आना बहुत अच्‍छा लगता। घाट के पास ही मेंहदौरी कालोनी थी। उन दिनों फूलपुर में इफ्‍को के एशिया के सबसे बड़े खाद कारखाने का निर्माण चल रहा था। विदेशों से आए विशेषज्ञ मेंहदौरी कालोनी में ही ठहराए गए थे। दो-एक वर्ष में ये विशेषज्ञ लौट गए तो सरकार ने इन भवनों का आवंटन प्रारंभ कर दिया। शहर की चहल-पहल और हलचल से दूर एकांत स्‍थान पर जा बसने का जोखिम बहुत कम लोगों ने उठाया। मैंने एक हसीन सपना देखा कि गंगा तट पर बैठ कर अनवरत लेखन करूँगा। मन ही मन मैंने संपूर्ण जीवन साहित्‍य के नाम दर्ज कर दिया और नागार्जुन की पंक्‍तियाँ जेहन में कौंधने लगीः

चंदू , मैंने सपना देखा , फैल गया है सुजश तुम्‍हारा ,

चंदू, मैंने सपना देखा , तुम्‍हें जानता भारत सारा।

मैंने मंत्री के नाम एक पत्र प्रेषित किया कि हमारे ऋषि मुनि सदियों से पावन नदियों के तट पर बैठ कर साधना-आराधना करते रहे हैं, मैं भी इसी परंपरा में गंगा तट पर साहित्‍य सेवा करना चाहता हूँ, मेरा यह संकल्‍प तभी पूरा होगा यदि मेंहदौरी कालोनी का एक भवन किस्‍तों पर मेरे नाम आवंटित कर दिया जाय। उन दिनों समाज में लेखकों के प्रति आज जैसा उदासीनता का भाव न था। मेरे आश्‍चर्य की सीमा न रही जब शीघ्र ही भवन के आवंटन का पत्र मुझे प्राप्‍त हो गया। केवल पाँच हजार रुपए का भुगतान करने पर भवन का कब्‍जा भी मिल गया। शुरू में मैंने साल-छह महीने तक निष्‍ठापूर्वक किस्‍तों का भुगतान किया, उसके बाद नियमित रूप से किस्‍तें भरने का उत्‍साह भंग हो गया। ज्ञान दूर कुछ क्रिया भिन्‍न थी। बकाया राशि और सूद बढ़ने लगा। लिखना-पढ़ना तो दरकिनार, सप्‍ताहांत पर मदिरापान करने के लिए एक रंग भवन आकार लेने लगा। मौज-मस्ती का एक नया अड्डा मिल गया। हम लोग शनिवार को आते और सोमवार सुबह गंगा स्‍नान करते हुए रानी मंडी लौट जाते। ब्‍याज और दंड ब्‍याज की राशि पचास हजार के आस-पास हो गई। यह भवन हाथ से निकल जाता अगर मेरे हमप्‍याला वकील दोस्‍त उमेशनारायण शर्मा, जो बाद में वर्षों तक इलाहाबाद उच्‍च न्‍यायालय में भारत सरकार के वरिष्‍ठ स्‍थायी अधिवक्‍ता रहे, मुझे कानूनी मदद न पहुँचाते। मयपरस्‍ती ने जिंदगी में बहुत गुल खिलाए। अपने इस इकलौते शौक के कारण बहुत तकलीफें झेलीं, बहुत सी यंत्रणाओं से गुजरना पड़ा, बकाएदारी के चक्‍कर में कुर्की के आदेशों को निरस्‍त करवाना पड़ा। मगर जिंदगी की गाड़ी सरकती रही, एक पैसेंजर गाड़ी की तरह रफ्‍तः रफ्‍तः, हर स्‍टेशन पर रुकते हुए। कई बार तो एहसास होता कि मैं बगैर टिकट के इस गाड़ी में यात्रा कर रहा हूँ।

बीमारी के दौरान मुझे आत्म-अन्‍वेषण के लिए काफी समय मिला। यादों की राख टटोलने के अलावा कोई दूसरा काम भी न था। अपनी खामियों और कमीनगियों पर ध्‍यान गया। मुझे लगा, मैं काफी स्‍वार्थी किस्‍म का इनसान हूँ। ममता ने मुझे घर की जिम्‍मेदारियों से मुक्त कर रखा था। यह मेरी चिंता का विषय नहीं था कि घर में राशन है या नहीं, बच्‍चों की फीस वक्‍त पर जा रही है या नहीं, मुझे अगर कोई चिंता रहती थी तो केवल अपने दारू के स्‍टाक की, प्रेस कर्मियों के वेतन की, कर्ज के किस्‍तों के भुगतान की, बिजली टेलीफोन और स्‍याही के बिल की। मेरे अपने निजी अखराजात इतने ज्यादा बढ़ गए थे कि मैं घर-गृहस्‍थी के बारे में सोच भी न सकता था।

चालीस-पचास रुपए रोज तो मेरे सिगरेट का खर्च था, दारू का खर्च इससे कहीं ज्यादा। जाहिर है, हर वक्‍त तंगदस्‍ती में रहता। मद्यपान के अलावा मैं हर चीज में कटौती कर सकता था। मेरी सारी ऊर्जा इन्‍हीं चीजों की व्‍यवस्‍था करने में शेष हो जाती। सुबह से शाम तक मैं बैल की तरह प्रेस के कोल्‍हू में जुता रहता, फिर भी पूरा न पड़ता तो बेईमानी पर उतर आता। यह सोच कर आज भी ग्‍लानि में आकंठ डूब जाता हूँ कि माँ अपनी दवा के लिए पैसा देतीं तो मैं निःसंकोच ले लेता। वक्‍त जरूरत उनके हिसाब-किताब में गड़बड़ी भी कर लेता। कहना गलत न होगा, बड़ी तेजी से मेरा नैतिक पतन हो रहा था। अपनी बूढ़ी माँ के झुर्रियों भरे चेहरे के बीच अपनी बीमारी की रेखाएँ देखता तो करवट बदल लेता। जब से बीमार पड़ा था, रात को उनके पास सोता था। सुबह उठता तो वह कहतीं, कितने कमजोर हो गए हो, रात भर में एक भी बार करवट नहीं बदलते। जिस करवट सोते हो, रात भर उसी करवट पड़े रहते हो। मुझे नहीं मालूम अब स्‍वस्‍थ होने के बाद रात में करवट बदलता हूँ या नहीं। अब माँ भी नहीं हैं, यह बताने के लिए। वैसे मुझे लगता है कि करवटें बदलने की भी एक उम्र होती है। एक उम्र ऐसी भी आती है कि किसी करवट आराम नहीं मिलता। बीमारी के दौरान मेरी माँ की पूरी चेतना मुझ पर केंद्रित थी, वह अपनी तकलीफों को भूल गई थीं। आज भी यह बार-बार एहसास होता है कि यह उनका आशीर्वाद था कि मैं मौत के मुँह से लौट आया। देखते-देखते मेरी दुनिया बदल गई। मेरा सूरज बदल गया, चाँद और सितारे बदल गए। दिनचर्या बदल गई। मैं एक ऐसा पंछी था जो सूरज ढलते ही चहकने लगता था, धीरे-धीरे वह चहचहाहट बंद हो गई। मेरी फितरत बदल गई, दोस्‍त बदल गए, प्रेमिकाएँ बदल गईं। मेरे डिनर के दोस्‍त लंच या नाश्‍ते के दोस्‍त बन गए। हरामुद्‌दहर किस्‍म के दोस्‍तों से मेरी ज्‍यादा पटती थी, अब राजा बेटे किस्‍म के दोस्‍तों के संग ज्यादा समय बीतने लगा। शरीफ, ईमानदार और वफादार किस्‍म के दोस्‍तों के बीच जाने क्‍यों मेरा दम घुटता है। हमप्‍याला दोस्‍तों के बीच जो बेतकल्‍लुफी और घनिष्‍ठता विकसित हो जाती है, वह हमनिवाला दोस्‍तों के बीच संभव ही नहीं। एक औपचारिकता, एक बेगानापन, एक फासला बना रहता है। सच तो यह है आज भी मेरा मन शराबियों के बीच ज्यादा लगता है।

छह महीने में मैं इस लायक हो गया कि शहर से बाहर भी निकलने लगा। सबसे पहले लखनऊ जाना हुआ। कथाक्रम 1997 में। देशभर से साथी रचनाकार आए हुए थे, सबसे मुलाकात हो गई। मैं एक बदला हुआ रवींद्र कालिया था। सागरो-मय तो मेरे हाथ में था, मगर मयगुसार की हैसियत से नहीं। साकी की हैसियत से। गोष्‍ठियों के बाद मैंने साथी कथाकारों की पेशेवर तरीके से खिदमत की। किसी का गिलास खाली न रहने दिया। सबके प्‍याले पर मेरी निगरानी थी। यह मेरे लिए एक नया अनुभव था। गेस्‍ट हाउस का कमरा लेखकों से ठसाठस भरा था। हर कोई मेरा मोहताज था। वह श्रीलाल शुक्‍ल हों या राजेंद्र यादव, दूधनाथ सिंह हों या कामतानाथ। विभूतिनारायण राय, सृंजय, संजय खाती, वीरेंद्र यादव, अखिलेश आदि नई पीढ़ी के तमाम कथाकार वहाँ मौजूद थे।

2-

नशे में कोई तो ऐसी विशेषता अथवा शक्‍ति होगी कि लोग इसके मोहपाश में गिरफ्‍तार हो कर इसके लिए अपना सब कुछ न्‍योछावर करते देखे गए हैं - घर-परिवार, सुख-चैन, वर्तमान और भविष्‍य। यहाँ तक कि अपने स्वास्‍थ्‍य और प्राणों की भी बाजी लगा देते हैं। दोनों जहान हार जाते हैं इसका दीवाना हो कर। जोगी बन जाते हैं। कोई क्‍यों हो जाता है यकायक नशे का दीवाना। नशे का गुलाम। कठपुतली बन कर रह जाते हैं नशे की। हर शराबी कभी न कभी इन प्रश्‍नों से दो चार होता है। क्‍यों हो जाता है, वह पराधीन, विवश और सम्‍मोहित? बगर्जे सरूर या बगर्जे गम? कला कला की तर्ज पर नशा नशे के लिए या इसके पीछे कोई आंतरिक, मनोवैज्ञानिक और भौतिक विवशता है? यह जानना जरूरी है कि आदमी यथार्थ से कन्‍नी काटने के लिए पीता है या यथार्थ से मुठभेड़ करने के लिए। पलायन के लिए या आत्‍मविश्‍वास जगाने के लिए। वास्‍तव में अलग-अलग लोग अलग-अलग कारणों से पीते हैं, जबकि समान कारणों से मदिरापान के गुलाम हो जाते हैं। ऐसा फँसते हैं इसकी चंगुल में कि फिर जीते जी निकल नहीं पाते इस अंधे कुएँ से। कुछ लोग इसलिए पीते हैं कि उनके पास पीने के अलावा कोई दूसरा काम ही नहीं होता। यह पीने का एक सामंती तर्क है। कुछ लोग ऊब से मुक्‍ति पाने के लिए पीते हैं। बहुत से लोग सोहबत में पीने लगते हैं। कोई बंधन से मुक्‍त होने के लिए पीता है तो कोई बंधन के आकर्षण में। बहुत से लोग शुद्धतावादी जीवन शैली की प्रतिक्रिया में नशे के आगोश में चले जाते हैं। गरीबी भी मदिरापान के लिए उकसाती है और संपन्‍नता भी। सुख प्रेरित करता है तो दुख भी पुकारता है। आदमी उल्‍लास में पीता है, विलास में पीता है, शोक में पीता है, संताप में पीता है, परिताप में पीता है। मदिरापान 'स्‍टेटस सिंबल' भी है और तोहमत भी। व्‍यवसाय के लिए अभिशाप भी और वरदान भी। कभी-कभी मदिरापान के दौरान बड़े-बड़े कांट्रेक्‍ट हो जाते हैं, वारे-न्‍यारे हो जाते हैं, मगर इसी मदिरा से लोगों को कुर्क होते देखा है, दिवालिया होते देखा है, बर्बाद होते देखा है। आसमान छूते देखा है तो धूल चाटते भी देखा है। जो सही मायने में रिंद हो जाता है, उसे फिर इस दुनियावी पेचोखम की चिंता नहीं रहती। सच तो यह है कि पीनेवाले को पीने का बहाना चाहिए और जिसे पीने का चस्‍का लग जाता है, उसे पीने का बहाना मिल ही जाता है।

दरअसल शराब के बहाने मैं अपना ही अन्‍वेषण विश्‍लेषण कर रहा हूँ। अपने बारे में सोचता हूँ तो लगता है कि मेरी जिंदगी में पीने का मंच बहुत पहले तैयार हो गया था यानी स्‍टेज वाज सेट। पुआल को आग भर दिखाने की कसर थी। घर का वातावरण अत्‍यंत शुद्धतावादी था। समय-समय पर सनातन धर्म, आर्य समाज और जैन धर्म का प्रभाव रहा। घर में किसी ने शराब तो क्‍या सिगरेट तक न फूँकी थी। भाई की वैचारिक यात्रा वामपंथ से शुरू हुई थी और कैनेडा जा कर उस की परिणति अध्‍यात्‍म में हुई। वह आज तक मांस, मछली, मदिरा से छत्‍तीस का रिश्‍ता कायम किए हुए हैं, तापमान चाहे शून्‍य से कितना भी नीचे चला जाए। मेरे नाना और मामा लोग कर्मकांडी ब्राह्मण थे, ननिहाल में प्‍याज तक से परहेज किया जाता था। मुझे क्‍या हो गया कि मसें भीगते ही मैं सिगरेट फूँकने लगा और बियर से दोस्‍ती कर ली। यह शुद्धतावादी वातावरण के प्रति शुद्ध विद्रोह था या वक्‍त या उम्र का तकाजा। माहौल में कोई न कोई जहर अवश्‍य घुल गया था कि सपने देखनेवाली आँखें अंधी हो गई थीं। योग्‍यता पर सिफारिश हावी हो चुकी थी। लाईसेंस परमिट की बंदर-बाँट ने समाज में असमानता और विषमता की दीवारें खड़ी कर दी थीं। कल के स्‍वाधीनता सेनानी त्‍याग और बलिदान की कीमत वसूलने में व्‍यस्‍त हो गए थे। आजादी के दीवाने सत्‍ता के दीवाने हो रहे थे। आजादी ने जो सपने बुने थे, वे आँखों के सामने चकनाचूर हो रहे थे। वह भ्रष्‍टाचार का प्रसव काल था। समाज में इतनी विषमता, इतना बेगानापन, इतनी अजनबियत और स्‍वार्थता-लोलुपता पहले तो न थी। सत्‍ता, पूँजी, स्‍वार्थपरता और लोलुपता की मैराथन रेस शुरू हो चुकी थी। पुराने मूल्‍य तेजी से ध्‍वस्‍त हो रहे थे और नई मूल्‍यधर्मिता आकार नहीं ले पा रही थी।

पचपन-छप्‍पन के आस-पास कुछ ऐसे ही माहौल में मेरा परिचय मोहन राकेश से हुआ। उन दिनों उपेंद्रनाथ अश्‍क के छोटे भाई नरेंद्र शर्मा कम्‍युनिस्‍ट पार्टी की जालंधर शाखा के सचिव थे। मेरे बड़े भाई पार्टी के कार्ड होल्‍डर हो गए तो नरेंद्र शर्मा का हमारे यहाँ आना-जाना शुरू हो गया। मेरे पिता भाई की राजनीतिक सक्रियता से परेशान रहते थे। वह कम्‍युनिस्‍ट आंदोलन के दमन का दौर था। नरेंद्र शर्मा के जाने के बाद अक्‍सर घर में कलह होती। नरेंद्र शर्मा पर प्रशासन की कड़ी नजर थी और खुफिया तंत्र ने भाई को भी चिह्नित कर लिया था। खुफिया विभाग में तैनात पिता के एक पूर्व छात्र ने इसकी सूचना दी तो वह आग बबूला हो गए। मेरी नरेंद्र शर्मा में इसलिए दिलचस्‍पी थी कि वह अश्क जी के भाई थे। अश्क जी के कथा साहित्‍य में जालंधर की गलियाँ गूँजती थीं, उनके कथा साहित्‍य की दुनिया मुझे अत्‍यंत आत्‍मीय और परिचित लगती थी। एक दिन नरेंद्र ने बताया कि अश्क जी कश्‍मीर से लौटते हुए कुछ रोज जालंधर में मोहन राकेश के यहाँ रुकेंगे। मोहन राकेश से मेरा एक गायबाना-सा परिचय था। उन्‍हीं दिनों उनकी 'मवाली' शीर्षक कहानी पढ़ी थी। जालंधर में भारत सरकार का एक सूचना केंद्र था, जिसके वाचनालय में देश भर की पत्रिकाएँ उपलब्‍ध रहती थीं। शमशेरसिंह नरूला उन दिनों वहाँ सूचना अधिकारी थे। जालंधर में सूचना केंद्र ही एकमात्र ऐसा स्‍थान था जहाँ हिंदी की कुछ साहित्‍यिक पत्रिकाएँ पढ़ने को मिल जाया करती थीं। सिविल लाइंस में जब कॉफी हाउस में मित्र लोग न मिलते तो मैं सूचना केंद्र में जा बैठता। 'कल्‍पना' और 'कहानी' जैसी पत्रिकाएँ सबसे पहले मैंने वहीं पढ़ी थीं। 'कल्‍पना' के ही किसी अंक में मैंने इलाहाबाद से प्रकाशित होनेवाली कथा पत्रिका 'कहानी' के वृहत विशेषांक की समीक्षा पढ़ी और मैं उस अंक को प्राप्‍त करने में जुट गया। किसी तरह मैंने छुट्टियों के बाद कलकत्‍ता से लौटनेवाले अपने एक सहपाठी अमृतलाल 'अमृत' के माध्‍यम से वह अंक प्राप्‍त कर लिया। 'मवाली' मैंने उसी अंक में पढ़ी थी और उसी पत्रिका से जानकारी मिली थी कि मोहन राकेश जालंधर में रहते हैं। यह जान कर मैं काफी चमत्‍कृत हुआ था कि जालंधर में भी ऐसा कोई रचनाकार रहता है, जिसकी कहानी इलाहाबाद की पत्रिका में प्रकाशित होती है।

जिस दिन अश्‍क जी जालंधर पहुँचे, मैं भी उनकी आगवानी के लिए स्‍टेशन पर मौजूद था। स्‍टेशन पर नरेंद्र भी दिख गए, जो एक खूबसूरत से नाटे आदमी के साथ स्‍टाल पर चाय पी रहे थे। नरेंद्र ने मोहन राकेश से मेरा परिचय करवाया।

'आपकी कहानी मवाली मुझे बहुत अच्‍छी लगी।' मैंने छूटते ही कहा। राकेश जी ने अपने मोटे चश्‍मे के भीतर से बहुत गहरी निगाह से मेरी तरफ देखा और बोले 'मवाली तुम्‍हें कहाँ से पढ़ने को मिल गई?'

मैंने बताया।

'क्‍या करते हो?' उन्‍होंने पूछा।

'पढ़ता है।' नरेंद्र ने बताया।

'कौन-सी क्‍लास में पढ़ते हो?'

'इंटर में।'

'किस कॉलिज में?'

'डी.ए.वी. कॉलिज में।'

'डी.ए.वी. में?' राकेश ने उत्‍सुकता से पूछा, 'मुझे कभी देखा है वहाँ?'

नया-नया सत्र शुरू हुआ था। मैंने अनभिज्ञता जाहिर की। अगले रोज मैं अश्‍क जी से मिलने के राकेश के यहाँ मॉडल टाउन गया। अश्‍क जी का इंटरव्‍यू लेने का चाव था, मगर कोई प्रश्‍न सूझ ही न रहा था। अश्‍क जी ने समस्‍या हल कर दी। प्रश्‍न भी लिखा दिए और उत्‍तर भी, बल्‍कि खुद ही लिख दिए। बाद में वह इंटरव्‍यू 'साप्‍ताहिक हिंदुस्‍तान' में छप भी गया। स्‍टेशन पर हुआ राकेश जी से वह परिचय धीरे-धीरे प्रगाढ़ होता चला गया। उन्‍हें जालंधर जैसे शहर में नई उम्र का पाठक मिल गया था। मैं उनके यहाँ आने-जाने लगा। उनके पास हिंदी की तमाम पत्रिकाएँ आती थीं, उनका पुस्‍तकालय भी बहुत समृद्ध था। मैं उन दिनों खूब कहानियाँ पढ़ता। उस दौर की कहानियाँ मैंने राकेश जी के यहाँ ही पढ़ीं। राकेश अपने समकालीन कथाकारों के बारे में कुछ बताते तो मैं बहुत दिलचस्पी से सुनता। मैंने इंटर की परीक्षा पास की तो एक दिन राकेश जी ताँगे में बैठ कर हमारे घर चले आए। मैं उस समय गली में पतंग उड़ा रहा था। मुझे देख कर वह मुस्‍कराए। उन्होंने सुझाव दिया, बी.ए. में मुझे 'आनर्स' के साथ हिंदी लेनी चाहिए। मैंने बताया कि हमारे घर में हिंदी का कोई माहौल नहीं है। भाई ने राजनीतिशास्‍त्र में एम.ए. किया था और छोटी बहन भी यही सोच रही है। राकेश जी ने कहा कि वही पढ़ना चाहिए जिसमें रुचि हो।

बहरहाल, घर के विरोध के बावजूद मैंने हिंदी में दाखिला ले लिया। आनर्स में मेरे अलावा कोई छात्र नहीं था। दो-एक ने मेरी देखा-देखी 'आनर्स' ले ली, मगर राकेश ने उन्‍हें डाँट-डपट कर भगा दिया। वास्‍तव में आनर्स पढ़ाने में राकेश जी को सुविधा थी। आनर्स के चार लेक्‍चर सात के बराबर माने जाते थे। देखते-देखते आनर्स में मैं उनका इकलौता छात्र रह गया।

राकेश उन दिनों परेशान थे। पत्‍नी से। कॉलिज से। शहर से। अध्‍यक्ष से। बाद में उनके निकट आने पर मैंने पाया कि वे एक बेचैन रूह के परिंदे हैं। हमारी क्‍लासें बियर शाप में लगने लगीं। एक-आध गिलास से शुरू करके कुछ ही दिनों में मैं पूरी की पूरी बोतल पीने लगा। बाद में तो ऐसा भी हुआ कि वे क्‍लास में मेरी प्रतीक्षा करते रहते और मैं बियर शाप में। शाम को कॉफी हाउस में भेंट होती तो मैं उनसे कहता, 'आप आज क्‍लास में नहीं आए?'

पूरे सत्र में वे आनर्स की क्‍लास दो-चार दिन ही ले पाए होंगे। उन्‍हें मेरी पढ़ाई की चिंता होती तो रिक्‍शे में, 'बियर शाप' में, किसी रेस्‍तराँ में, तुलसीदास या प्रेमचंद पर एक संक्षिप्त-सा भाषण दे देते। कृष्‍ण काव्‍य के सौंदर्य बोध पर वे रिसर्च कर रहे थे, मगर सूर पर उन्‍होंने कभी लेक्‍चर नहीं दिया। तिमाही-छमाही परीक्षा यों ही बीत गई। वे क्‍या तो पेपर सैट करते और क्‍या मैं उत्‍तर लिखता। कागजों पर ही परीक्षाएँ हो गईं। राकेश के आश्‍चर्य का ठिकाना न रहा, जब मैंने प्रथम श्रेणी में आनर्स किया।

उन दिनों राकेश जो भी लिखना चाहते या लिखते, मुझे, उसके बारे में बताते, मगर मैं चीजों को उतनी गहराई से न समझता था, समझने की कोशिश जरूर करता था। यहाँ तक कि 'आषाढ़ का एक दिन' सबसे पहले उन्‍होंने मुझे और नरेंद्र शर्मा को ही सुनाया था। बल्कि प्रसारण के समय हरिकृष्‍ण प्रेमी ने, जो उन दिनों आकाशवाणी जालंधर में हिंदी प्रोड्‌यूसर थे, नाटक पढ़ना शुरू किया तो राकेश ने कहा, 'अच्‍छा तो प्रेमी जी आप नाटक पढ़ कर ही प्रसारित करेंगे।' प्रेमी जी ने अत्‍यंत सरलता से कहा, 'भाई मैं तो यह देख रहा था, तुम कितना अच्‍छा टाइप कर लेते हो।' बाद में वह नाटक जालंधर केंद्र द्वारा प्रसारित हुआ और मोहन राकेश ने स्‍वयं उसमें कालिदास का अभिनय किया था।

इसी बीच मैं उर्दू कहानियों का हिंदी अनुवाद करने लगा। 'माया', 'कहानी' आदि पत्रिकाओं में मेरे अनुवाद छपने लगे और पारिश्रमिक भी मिलने लगा। उन्‍हीं दिनों उर्दू अफसानानिगारों में सत्‍यपाल आनंद की कहानियों की बहुत धूम थी। वह उन दिनों लुधियाना में 'लाहौर बुक शाप' में काम करते थे, कुमार विकल भी वहीं छोटी-मोटी नौकरी करता था। उन दिनों पंजाब के उर्दू हिंदी के तमाम दैनिक समाचार-पत्र जालंधर से ही प्रकाशित होते थे। पंजाब में आकाशवाणी का केंद्र भी जालंधर में ही था। विभाजन के बाद लाहौर के स्‍थान पर जालंधर पूर्वी पंजाब की सांस्‍कृतिक राजधानी के रूप में विकसित हो रहा था। अखबारों के कारण उर्दू, हिंदी, पंजाबी के तमाम नामी गिरामी रचनाकार जालंधर आते रहते थे। इन समाचार-पत्रों से संबद्ध पत्रकारों और आकाशवाणी के माध्‍यम से मेरा परिचय उस दौर के तमाम लेखकों से हो गया। सत्‍यपाल आनंद चाहते थे कि मैं उनकी कहानियों का हिंदी में अनुवाद करुँ। इसी क्रम में उन्‍होंने भी मेरी प्रारंभिक कहानियों का उर्दू में अनुवाद किया और वे 'शमा' और 'बीसवीं सदी' आदि उर्दू की लोकप्रिय पत्रिकाओं में छपीं। इस प्रकार हिंदी से पूर्व मेरी कहानियाँ उर्दू में छपने लगीं। मैं भी सत्‍यपाल आनंद की कहानियों को हिंदी की कुछ पत्रिकाओं में छपवाने में सफल हो गया। उस समय के उर्दू के तमाम अफसानानिगारों और शायरों से आनंद के माध्‍यम मेरी भी मित्रता हो गई। उर्दू में शायरी और शराब का अटूट रिश्‍ता रहा है। दो-चार अफसानानिगार और शायर इकट्ठा हो जाते तो मयनोशी का दौर शुरू हो जाता। तब तक मैं बियर के आगे नहीं बढ़ा था। इन लेखकों में सिर्फ सत्‍यपाल आनंद ही मोहन राकेश के नाम और महत्‍व से परिचित था। उसने मोहन राकेश से मिलने की ख्‍वाहिश जाहिर की। पहली मुलाकात बियर शाप में ही हुई। (मोहन राकेश ने अपनी डायरी में भी सत्‍यपाल आनंद की इस मुलाकात का जिक्र किया है)

सत्‍यपाल आनंद की शादी तय हुई तो उसने मोहन राकेश और मुझे शादी पर आमंत्रित किया। मोहन राकेश और मैं साथ-साथ बस में शादी में शिरकत करने लुधियाना गए। वहाँ बहुत से अदीबों से मुलाकात हुई। कुछ नाम तो मुझे आज तक याद हैं - नरेश कुमार 'शाद', हीरानंद 'सोज', शाकिर पुरुषार्थी, प्रेम बारबरटनी, कृष्‍ण अदीब, कुमार विकल आदि। राकेश उन दिनों चूँकि एक डिग्री कॉलिज में प्राध्‍यापक थे, उनका मिजाज अलग था। वह उर्दू के अदीबों के इस शायराना, फकीराना और शराबपरस्‍त माहौल से नितांत अपरिचित थे। उन लोगों के बीच वह बहुत अटपटा महसूस कर रहे थे। मैं राकेश का छात्र था, इसलिए मुझे भी बहुत उलझन हो रही थी। राकेश कमरे के बीचों-बीच मुख्‍य अतिथि के लिए रखी एक बूढ़ी कुर्सी पर बैठे थे, उनकी बगल में मैं एक छोटे से लँगड़े स्‍टूल पर बैठ अपने को संतुलित कर रहा था। शायर लोग खटिया और खिड़कियों पर बैठे थे। तभी कमरे में कुमार विकल नमूदार हुआ। उसके दोनों हाथों में नारंगी रंग की दो बोतलें थीं। वह बोतलों को बारी-बारी से चूम रहा था। बोतलें देखते ही शायरों के चेहरे निहाल हो गए। कुमार बगल के कमरे से एक मोढ़ा उठा लाया और उस पर बैठ कर अपनी भारी आवाज में नरेश कुमार 'शाद' की किसी गजल की पैरोडी तरन्‍नुम में सुनाने लगा। पैरोडी बहुत अश्‍लील थी। मोहन राकेश तभी वाकआउट कर गए। उनके साथ-साथ मैं भी खड़ा हो गया। कुमार और दूसरे शायरों पर इसका कोई असर न हुआ।

दालान में हमें सत्‍यपाल आनंद मिला। वह आटा गूँथनेवाली थाली में अलग-अलग आकार-प्रकार के काँच और विभिन्‍न धातुओं के गिलास सजा कर कमरे की तरफ बढ़ रहा था। राकेश जी ने अत्‍यंत विनम्रतापूर्वक आनंद से विदा ली। आनंद उनके पधारने मात्र से उपकृत हो गया था और समझ रहा था राकेश की उपस्‍थिति में हुड़दंग संभव नहीं। राकेश शायद कोई फिल्‍म देखने का बहाना कर गए थे। अगर मैं गलत नहीं हूँ तो उन दिनों 'मदर इंडिया' चल रही थी। मेरा ख्‍याल था मोहन राकेश तौबा-तौबा करते हुए अगली बस से जालंधर लौट गए होंगे। हम लोग उन्‍हें नीचे तक छोड़ आए थे। राकेश जी ने मुझे साथ चलने के लिए नहीं कहा और कूद कर रिक्‍शा में बैठ गए। माहौल मेरे लिए भी अजनबी था, मगर मैं उससे बहिर्गमन नहीं कर पाया।

आनंद के कमरे में लौटते ही पीने-पिलाने का दौर शुरू हो गया। अलग-अलग आकार-प्रकार के गिलास एक साथ टकराए - चीयर्स ! मेरे लाख मना करने के बावजूद चाय के एक प्‍याले में मेरा जाम भी तैयार कर दिया गया। मैंने तब तक बियर तो पी थी मगर शराब कभी न चखी थी। शराब तो दूर कमरे में फैले सिगरेट-बीड़ी के धुएँ से मेरा दम घुट रहा था। लग रहा था किसी गैस चैंबर में बैठा हूँ। सामने एक पीढ़े पर उबले अंडे, टमाटर और प्‍याज का सलाद रखा था। मुझे लग रहा था मैं शायरों के नहीं उठाईगीरों के गिरोह के बीच आ फँसा हूँ। इच्‍छा तो यही हो रही थी कि किसी तरह पिंड छुड़ा कर यहाँ से भाग निकलूँ या खिड़की से कूद जाऊँ मगर आनंद और कुमार की मुरव्‍वत में बैठा रहा। दोनों ने वादा कर रखा था कि वह मेरी उर्दू से अनूदित कहानियों की किताब 'लाहौर बुक डिपो' से छपवा देंगे। बाद में उन्‍होंने शौकत थानवी की कहानियों के अनुवाद की पुस्‍तक न सिर्फ छपवा दी, मुझे ढाई सौ रुपए भी दिलवा दिए। मैंने पीने में आनाकानी की तो तमाम शायर मेरा ही नहीं हिंदी का भी मजाक उड़ाने लगे। तमाम शायरों ने अपनी अश्‍लील से अश्‍लील गजलों का पाठ शुरू कर दिया। कुछ शेर तो मुझे आज तक याद हैं, मगर आज भी लिखने नहीं, सुनाने लायक ही हैं। मैंने जब देखा कि तमाम लोगों के गिलास खाली हो रहे हैं तो मैंने आँख बचा कर अपना कप चुपके से स्‍टूल के नीचे खाट की तरफ उँड़ेल दिया। जाम फिर तैयार हुए। इस बार मेरा लिहाज कर कम मात्रा में शराब परोसी गई। मैंने वह जाम भी धरती माता की नजर कर दिया। तौबा-तौबा के बीच वह शाम किसी तरह अंजाम पर पहुँची। अंजाम और भी गैर-शायराना था। कोई कै कर रहा था, कोई बेसुध पड़ा था, कोई पागलों की तरह प्रलाप कर रहा था। आनंद और कुमार शायरों के उपचार में व्‍यस्‍त थे। किसी को आम का अचार चटाया जा रहा था, किसी के मुँह पर ठंडे पानी के छींटे मारे जा रहे थे, किसी के जूते उतारे जा रहे थे।

मौका मिलते ही मैं वहाँ से खिसक लिया। वहाँ से सीधा बस अड्‌डे पर पहुँचा। और बस में सवार हो गया। मालूम नहीं बारात कितने बजे उठी और कैसे उठी। वह अपने ढंग की यादगार बारात रही, होगी लुधियाना के इतिहास में। बस चलने से जरा पहले एक सवारी बस में दाखिल हुई। मैंने देखा, वह सवारी कोई और नहीं, मोहन राकेश ही थे। मुझे देख कर उन्‍होंने एक ठहाका बुलंद किया और महफिल के बारे में जानकारी हासिल करने में दिलचस्‍पी दिखाई। मैंने नमक मिर्च लगा कर वहाँ के माहौल का कामिक नक्‍शा पेश किया। राकेश सुनते-सुनते लोट-पोट हो गए। वे शायद शायरों और फकीरों के डेरे पर पहली बार गए थे।

जब तक मैं एम.ए. (हिंदी) में प्रवेश लेता राकेश जी ने नौकरी छोड़ कर, पत्‍नी छोड़ कर, जालंधर छोड़ कर दिल्‍ली जा बसने का मन बना लिया था और एक शाम उन्‍होंने अम्‍मा को गाड़ी में बैठाया और खुद सामान के साथ ट्रक में बैठ कर दिल्‍ली के लिए रवाना हो गए। उन दिनों तमाम ट्रांसपोर्ट कंपनियाँ हमारे घर के पास पटेल चौक में हुआ करती थीं, जब तक ट्रक रवाना नहीं हुआ, मैं राकेश जी के साथ रहा। उनके जालंधर छोड़ने से मैं काफी अकेला और निरुपाय अनुभव कर रहा था। उनकी नगर में उपस्‍थिति मेरे लिए एक वातायन के समान थी।

राकेश चले गए, मगर मेरा बियर शाप जाना जारी रहा। हरिकृष्‍ण प्रेमी से अक्‍सर बियर शाप में मुलाकात हो जाती थी। उन्‍होंने अपने से आधी उम्र की रेडियो कलाकार से शादी कर ली थी। हिंदी प्रोड्‌यूसर बटुक जी मुझे छात्र जीवन से ही आकाशवाणी बुलाते थे, उन दिनों पंद्रह या पच्‍चीस रुपए मिलते थे एक कार्यक्रम के। बियर की बोतल मात्र ढाई रुपए में आती थी। उन दिनों बियर की छोटी बोतल भी उपलब्‍ध थी, मात्र, सवा रुपए में। जेब में पैसे होते तो मैं किसी साथी के साथ दिन में एकाध बोतल पी आता।

एम.ए. (हिंदी) क्‍लास में हम दो-तीन लड़के थे और दो दर्जन लड़कियाँ। चढ़ती उम्र थी और ऊपर से पंजाबी लड़कियों का सौंदर्य और आकर्षण। जीना हराम हो गया। ऐसे माहौल में प्‍यार तो होना ही था। मैं एक साथ कई लड़कियों के इकतरफा प्रेम में गिरफ्‍तार हो गया। बियर की खपत बढ़ गई। मेरी कुसंगति का असर क्‍लास के दूसरे छात्रों पर भी पड़ा। केवल एक लड़का हम लोगों की कुसंगति का शिकार होने से बच गया। उसका नाम कृष्‍णलाल शर्मा था और वह राष्‍ट्रीय स्‍वयंसेवक संघ का पूर्णकालिक स्‍वयंसेवक था। (हो सकता है ये स्‍वर्गीय कृष्‍णलाल शर्मा ही रहे हों जो सांसद और भाजपा के राष्‍ट्रीय उपाध्‍यक्ष थे)। कृष्‍णलाल शर्मा हम लोगों से ही नहीं, लड़कियों के प्रति भी निःसंग रहता। बहरहाल, लड़कियाँ बर्दाश्‍त न होतीं तो हम बियर शाप की तरफ भागते, जेब में पैसे न होते तो 'हिंदी भवन' का सहारा लिया जाता। 'हिंदी भवन' से पैसा तो नहीं, पुस्‍तकें अवश्‍य उधार मिल जाती थीं। उन दिनों यशपाल साहित्‍य अत्‍यंत किफायती दाम पर मिलता था, दो रुपए में एक कथा संकलन मिल जाता था। दो-दो, तीन-तीन रुपए की पुस्‍तकें खरीद कर ही मैंने 'हिंदी भवन' की विश्‍वसनीयता अर्जित की थी। एम.ए. तक पहुँचते-पहुँचते मैं महँगी से महँगी पुस्‍तक उधार लेने की स्‍थिति में पहुँच गया था। वक्‍त जरूरत मैं 'हिंदी भवन' से उधार किताब खरीदता और बगल में 'संस्कृति भवन' में आधे दाम पर बेच देता। 'संस्‍कृति भवन' के पंडित जी की एक बहुत बुरी आदत थी। खरीदने से पहले वह पुस्‍तक पर दस्तखत करवा लेते थे। कुछ ही महीनों में मेरी हस्‍ताक्षरयुक्‍त पुस्‍तकें कक्षा की अधिसंख्‍य छात्राओं की 'प्राउड पजेशन' बन गईं।

लड़कियाँ मुझे किसी-न-किसी बहाने मेरे हस्‍ताक्षरों की झलक दिखा देतीं और खिलखिला कर हँस देतीं। उन दिनों प्रत्येक कक्षा का एक प्रतिनिधि चुना जाता था और तमाम कक्षाओं के प्रतिनिधि कॉलिज के अध्‍यक्ष का चुनाव करते थे। डी.ए.वी. कॉलिज, जालंधर पंजाब का सबसे बड़ा महाविद्यालय था। दूसरे विषयों के छात्र अध्‍यक्ष चुने जाते थे, हिंदी के छात्र में चुनाव लड़ने का नैतिक साहस ही नहीं हुआ था। एक दिन बियर शाप में कक्षा के अन्‍य दो छात्रों ने कक्षा के प्रतिनिधि के रूप में मेरा नाम प्रस्‍तावित कर दिया। मैं भी तैयार हो गया, मगर कक्षा के चौथे लड़के ने मेरे विरुद्ध पर्चा भर दिया। चुनाव हुआ। मेरे खिलाफ खड़े छात्र को केवल दो मत मिले। इसका सीधा-सादा एक ही अर्थ निकला कि कक्षा की तमाम छात्राओं ने सामूहिक रूप से मेरे पक्ष में मतदान किया था। इससे मेरी गलतफहमियाँ और बढ़ गईं। मैं प्रेम की महामारी का शिकार हो गया। 'हिंदी भवन' का कर्ज और बियर की खपत बढ़ती चली गई। मुझे बर्बाद करने में एक उपलब्‍धि ने और योगदान दिया। मैं कॉलिज का अध्‍यक्ष चुन लिया गया। कोई छात्रा बात कर लेती तो मेरा दिन सार्थक हो जाता। यूथ फेस्‍टिवल में कॉलिज का नेतृत्‍व करने का इच्‍छुक छात्र समुदाय मेरे आगे-पीछे नजर आता। जगजीत सिंह से मेरी मित्रता उन्‍हीं दिनों हुई थी। छात्र यूनियन का बजट मेरे अधिकार में आ गया। मैं किसी भी छात्र-छात्रा को चंडीगढ़, दिल्‍ली, पटियाला, अथवा अमृतसर भेज सकता था। छात्र-नेताओें में जो उद्‌दंडता आ जाती है, मैं भी उसका शिकार हो गया। एक दिन मिसेज कक्‍कड़ की कक्षा में पहुँचने में मुझे देर हो गई, उन्‍होंने कक्षा से बाहर जाने का आदेश दे दिया। मेरे साथ मेरे साथी भी कक्षा से बाहर आ गए और हम लोगों ने बाहर से कक्षा का दरवाजा लॉक कर दिया और साइकिलों पर सवार हो कर बियर शाप रवाना हो गए। बाद में बहुत हंगामा हुआ। डॉ. इंद्रनाथ मदान विभागाध्‍यक्ष थे, उनसे शिकायत हुई, मगर डॉ. मदान ने मामला रफा-दफा करने में ही खैरियत समझी।

वास्तव में डॉ. मदान भी प्रत्‍यक्ष तो नहीं, परोक्ष रूप से मेरे हमप्‍याला अध्‍यापक थे। उनके गिलास से गिलास टकरा कर पीने का अवसर तो बहुत बाद में मिला, वह अंत तक मुझे अपना छात्र ही मानते रहे और उनकी झिझक तब टूटी जब वह अपनी दत्‍तक पुत्री के साथ इलाहाबाद आए और मुझे उनकी मेजबानी करने का अवसर मिला। जालंधर में डॉक्टर मदान मॉडल टाउन में ही रहते थे, राकेश के घर के पास ही। दोनों एक-दूसरे को सनकी समझते थे। डॉक्टर मदान आजीवन अविवाहित रहे; कहा जा सकता है वह उतने ही सनकी थे, जितना कोई भी चिरकुमार हो सकता है। उनकी एक सनक का तो मैंने भरपूर लाभ उठाया। डॉक्टर मदान किसी छात्र के सामने मद्यपान नहीं करते थे, ड्राइंगरूम से लगा उनका बाथरूम ही उनकी मधुशाला थी। बाथरूम में ही उनका बार सजता था, उसका कोई दूसरा उपयोग नहीं होता था। उनके बाथरूम में एक टूटी-सी खूबसूरत मेज थी, जिस पर करीने से जिन, लाइम कार्डियल, बर्फ की बकट, स्‍वच्‍छ शीतल पानी की बोतल और सिर्फ एक गिलास पड़ा रहता था। इन तमाम चीजों को वह एक तौलिए से ढाँप देते थे। बात करते-करते वह अचानक उठते और बाथरूम में घुस जाते। वहीं उन्‍होंने एक आराम कुर्सी भी डाल रखी थी। बाद में वह चंडीगढ़ चले गए तो उनके बाथरूम की खिड़की से शिवालिक की पहाड़ियों का मनोरम दृश्‍य दिखाई देता और रात के समय सोलन अथवा शिमला की टिमटिमाती रोशनियाँ दिखाई देतीं। नई पुस्‍तकें भी वह इसी बाथरूम में रखते थे। एक छोटा-सा खूबसूरत रैक बाथरूम की दीवार पर जड़ा था। वह कब्ज के मरीज की तरह देर तक के लिए बाथरूम में घुस जाते और इत्‍मीनान से अपना पेग खत्‍म करते। उसके बाद वह मुँह में पान का बीड़ा दबा कर बाहर निकलते। एक बार मैं उनके मना करते-करते बाथरूम में घुस गया; गोया बाथरूम के रंगमहल में पहुँच गया। किसी छात्र को उस बाथरूम को इस्‍तेमाल करने की इजाजत नहीं थी। मैंने तुरंत अपना पेग बनाया और एक ही घूँट में समाप्‍त कर गिलास धो कर उसी प्रकार तौलिए के नीचे रख दिया। शुरू-शुरू में उन्‍हें मेरी हरकत बहुत नागवार गुजरी, वह मेरे उठते ही दूसरे बाथरूम की तरफ इशारा करते, मगर मैं उनके संकेत को नजरअंदाज कर जाता। बाद में उन्‍होंने इस स्‍थिति से समझौता कर लिया। धीरे-धीरे इतनी समझदारी पैदा हो गई कि दोनों को कोई असुविधा न होती। जिस पुस्‍तक का वह बाथरूम में अध्‍ययन करते मैं भी वही किताब पढ़ता, उनका बुकमार्क जहाँ तक पहुँचा होता, मैं उस पृष्‍ठ को छू कर ही उठता। आराम कुर्सी का मैंने भरपूर उपयोग किया। बाथरूम से लौट कर मैं उसी पुस्‍तक पर चर्चा शुरू कर देता। इससे बातचीत में आसानी रहती।

महीनों निर्बाध गति से मेरा कारोबार चलता रहा। एक दिन मैंने अपने पैर पर खुद ही कुल्‍हाड़ी मार ली। यानी मुझसे एक गलती हो गई। कुमार विकल शराब की तलाश में मारा-मारा फिर रहा था। मूर्खतावश मैंने उसे अपने गोपनीय 'बार' के बारे में बता दिया। वह मेरे साथ मदान साहब के यहाँ चला आया। उसने अपनी भर्राई आवाज में अपनी दो-एक नई कविताएँ सुनाईं और मेरी वाहवाही पर बाथरूम में घुस गया। उस दिन से कुमार विकल की डॉक्टर मदान के यहाँ आमदोरफ्त बढ़ गई। वह मेरे बगैर भी जाने लगा। बाथरूम में घुस जाता तो निकलने का नाम न लेता। डॉक्टर मदान बहुत कायदे से पीनेवाले व्‍यक्‍ति थे और कुमार विकल युगों-युगों से प्‍यासे कवि की तरह हचक कर पीने लगा। आखिर तंग आ कर एक दिन मदान साहब ने हाथ जोड़ दिए, 'पीना हो तो अपनी बोतल साथ ले कर आया करो।'

डॉक्टर मदान के चंडीगढ़ जाने से मेरा बहुत नुकसान हुआ था। नतीजा यह निकला कि मेरे ऊपर 'हिंदी भवन' का कर्ज बढ़ने लगा और एक दिन पता चला कि मैं चार-पाँच सौ रुपए का देनदार हो चुका हूँ। मुझसे ज्‍यादा 'हिंदी भवन' के संचालक श्री धर्मचंद्र नारंग को मेरी नौकरी की चिंता सताने लगी। पंजाब भर के हिंदी अध्‍यापक 'हिंदी भवन' आते-जाते रहते थे। वह हर किसी से मेरी नौकरी की सिफारिश करते। सच तो यह है कि जो दौड़-धूप मुझे करनी चाहिए थी, वह नारंग जी करने लगे। उन्‍हें शायद आभास हो गया था कि मेरी नौकरी न लगी तो उनका पैसा डूब जाएगा। गवर्नमेंट कॉलिज कपूरथला के विभागाध्‍यक्ष रोशनलाल सिंहल 'हिंदी भवन' के लिए छात्रोपयोगी पुस्‍तकें लिखा करते थे। उन्‍हीं दिनों उनका एक निबंध संग्रह छप कर आया था। उनका एक सहयोगी 'डेपुटेशन' पर छह महीने के लिए नेपाल जा रहा था और उनके कॉलिज में हिंदी अध्‍यापक का एक अस्‍थायी पद रिक्‍त हो गया था। धर्मचंद्र जी को इसकी भनक लगी तो उन्‍होंने तुरंत मेरा नाम सुझा दिया। सिंहल साहब को देखते ही नारंग जी को मेरी याद आ जाती। आखिर वह मुझे नौकरी दिलाने में सफल हो ही गए। औपचारिकताएँ पूरी हुईं और मुझे छह महीने के लिए लेक्‍चररशिप मिल गई। यह कर्ज का ही चमत्कार था कि अपने 'बैच' में मुझे ही सबसे पहले नौकरी मिली।

कपूरथला जालंधर से महज ग्‍यारह मील दूर था। वह एक छोटी-सी खूबसूरत रियासत थी। वहाँ का माहौल जालंधर के वातावरण से एकदम भिन्‍न था। कॉलिज का विशाल परिसर था। उसका निर्माण वहाँ के राजपरिवार ने करवाया था और बाद में सरकार ने उसका अधिग्रहण कर लिया था। कॉलिज का रख-रखाव उन दिनों भी सरकारी नहीं सामंती था। बड़े-बड़े लान थे और ऊँची छतोंवाले कमरे। इतने साफ-सुथरे कॉलिज पंजाब में कम ही होंगे। मालूम नहीं अब उस कॉलिज की क्‍या दशा है। कई मायनों में कपूरथला जालंधर से अधिक प्रगतिशील था। जालंधर में स्‍नातकोत्‍तर स्तर पर सह शिक्षा का प्रावधान था, जबकि कपूरथला में स्‍नातक स्‍तर पर ही छात्र-छात्राएँ एक साथ पढ़ते थे। उस छोटे से कस्‍बे में एक अधुनातन क्‍लब था। कभी यह क्‍लब अंग्रेजों का प्रिय क्‍लब रहा होगा। क्‍लब के पूरे माहौल पर अंग्रेज अपनी छाप छोड़ गए थे। क्‍लब का अनुशासन बहुत से पश्‍चिमी रस्‍मोरिवाज से चालित होता था। बैरे बहुत अदब से पेश आते थे और हमेशा चुस्‍त-दुरुस्‍त नजर आते। क्‍लब में मद्यपान का तो इंतजाम था ही, साथ में बिलियर्ड खेलने की भी सुविधा थी। वहाँ मेरी मित्रता जैन दंपती से हो गई। मियाँ-बीवी दोनों उसी कॉलिज में पढ़ाते थे और नियमित रूप से क्‍लब जाते थे। मुझ जैसे मध्‍यवर्गीय फक्‍कड़ के लिए यह सब एक नई संस्‍कृति थी। मैं कभी अपनी पोशाक वगैरह पर ध्‍यान नहीं देता था। जूते रोज पालिश किए जाते हैं, इसका भी एहसास नहीं था। कॉलिज में पंजाबी तक का लेक्‍चरर टाई सूट में लैस रहता था। मुझे भी अपनी वेशभूषा पर ध्‍यान देने के लिए कहा गया। मुझे टाई वगैरह में देख कर मेरे जालंधर के दोस्‍त मेरा मजाक उड़ाते। मैं उन्‍हें कैसे समझाता कि यह मेरी व्‍यावसायिक मजबूरी है। कॉलिज से लौट कर मैं सबसे पहले अपने पुराने हुलिए में आ जाता। जूते-मोजे उतार कर चप्‍पल पहन लेता। अंग्रेजी विभाग के अमरीक सिंह से भी मेरी मित्रता हो गई थी। मित्रों के अनुरोध पर मैं कभी-कभार कपूरथला में ही रुक जाता। शाम को बड़ी शाइस्‍तगी से क्‍लब में बढ़िया किस्‍म कि व्हिस्की पी जाती। यहाँ किसी को गिलास खाली करने की जल्‍दी न होती, जबकि मैं हड़बड़ी में पीने का आदी था। जालंधर में हम लोग हड़बड़ी में इसलिए पीते थे ताकि कोई परिचित मदिरापान करते न देख ले।

मेरा अब तक चोरी-छिपे पीने का ही अनुभव था, यानी दो-चार घूँट में ही गिलास खाली करने का, मगर यहाँ का दस्‍तूर एकदम अलहिदा था। यहाँ लोग कतरा-कतरा पीते थे। किसी को किसी का डर नहीं था, जैसे कह रहे हों कि हंगामा है क्‍यों बरपा, थोड़ी सी जो पी ली है। डाका तो नहीं डाला, चोरी तो नहीं की है। लोग एक पेग पीने में इतना समय लगा देते कि मुझे बहुत कोफ्त होती। धीरे-धीरे मैं संस्‍कारित होने लगा। कहने का मतलब यह कि मैं भी काले साहबों की तरह धीरे-धीरे घूँट भरना सीख गया, बिलियर्ड भी खेलने लगा और यहाँ तो 'रीडर्स डॉयजेस्ट' के ताजे अंक पर विचार-विमर्श भी करना पड़ता। मुझे यह जिंदगी बहुत मस्‍नूई लग रही थी। इन लोगों के लिए रीडर्स डॉयजेस्ट, टाइम्स, लाइफ, न्‍यूजवीक आदि पत्रिकाएँ ही 'सरस्‍वती' थीं, 'विशालभारत' था, 'निकर्ष' था। ये लोग सामंतों और अंग्रेजों के विलासपूर्ण जीवन के किस्‍से चटखारे ले कर सुनाया करते थे। राजकुमारों, राजकुमारियों, अंग्रेज अफसरों और उनकी प्रेमिकाओं की अदृश्‍य छाया मेजों के आस-पास मँडराती रहती। कॉलिज में जब कोई छात्रा बताती कि उसके बड़े भाई या पिता मुझसे क्‍लब में मिले थे तो मैं इस वाक्‍य का निहितार्थ समझने की कोशिश करता। जैन दंपती से भी कई लोगों ने मेरे बारे में जानकारी हासिल की थी। मुझे मालूम था कि मैं इस दुनिया का बाशिंदा नहीं हूँ, मैं अपनी फकीर मंडली में ज्‍यादा मुक्‍त और आजाद महसूस करता था। क्‍लब में दारू के अलावा मेरा किसी भी क्रिया अथवा बातचीत में मन न लगता। क्‍लब में देर हो जाती तो कभी-कभी जैन दंपती के यहाँ रुक जाता। उनकी जीवन शैली पश्‍चिम पद्धति से प्रभावित थी। घर लौटते ही जैन साहब नाइट सूट पहन लेते और श्रीमती जैन नाइटी और हाउस कोट। मैं उन्‍हीं कपड़ों में सो जाता। उनके यहाँ सुबह-सुबह चाय भी रेस्‍तराँ की तरह परोसी जाती। नाश्‍ते में वे लोग बटर टोस्‍ट खाते और मुसंबी का रस पीते, जबकि मैं नाश्‍ते में भरवाँ पराँठा खानेवाला इनसान था। टोस्ट वगैरह से मेरा पेट ही न भरता। छुरी काँटे से मुझे उलझन होती, हँसी भी आती। जालंधर लौट कर मैं चैन की साँस लेता।

कॉलिज में मेरा मन लगता था। मेरी कक्षा में सब छात्राएँ उपस्‍थित रहतीं। मैं खूब चटखारेदार लेक्‍चर देता। मैं बहुत जल्‍द सीख गया कि लड़कियाँ किन बातों से खुश होती हैं। मैं कॉलिज के माहौल में पूरी तरह रच बस गया था कि एक दिन खबर लगी कि 'डेपुटेशन' पर नेपाल गया हिंदी प्राध्यापक वापिस लौट आया है। छह महीने का समय जैसे चुटकियों में बीत गया था। कॉलिज में छोटा-सा विदाई समारोह हुआ और मेरी छुट्‌टी हो गई। कुछ लड़कियाँ दुपट्‌टे से आँसू पोंछ रही थीं, हो सकता है मेरे प्‍यार में पड़ गई हों। बाद में कुछ लड़कियों ने जाने कैसे जालंधर में मेरी बहन से दोस्‍ती कर ली और घर आने-जाने लगीं, मगर मैं घर में बैठता ही कब था।

मैं अपनी दुनिया में लौट आया था। मेरे दोस्‍तों को मेरी नौकरी छूटने का बहुत सदमा लगा, क्‍योंकि यारों के बीच मैं ही एक मात्र कमाऊ दोस्‍त था। सब को मालूम था, मेरा जलवा भी मेरी नौकरी की तरह अस्‍थायी है। मैं अपनी बेरोजगार चौकड़ी के बीच सही सलामत लौट आया था। मेरी शख्‍सीयत का कोई खास क्षरण नहीं हुआ था। कपूरथला से विदाई ले कर मैं घर नहीं गया, सीधा सुदर्शन फ़ाकिर के कमरे की सीढ़ियाँ चढ़ गया और संतरे का एक पेग पी कर नौकरी के 'हैंग ओवर' से मुक्‍त हो गया।

फ़ाकिर का कमरा एक मुसाफिरखाने की तरह था। सुदर्शन फ़ाकिर इश्‍क में नाकाम हो कर सदा के लिए फीरोजपुर छोड़ कर जालंधर चला आया था और उसने एम.ए. (राजनीति शास्‍त्र) में दाखिला ले लिया था। बाद में, बहुत बाद में अपने अंतिम समय में बेगम अख्तर ने फ़ाकिर की ही सबसे अधिक गजलें गाईं। उसकी एक गजल 'हम तो समझे थे बरसात में बरसेगी शराब, आई बरसात तो बरसात ने दिल तोड़ दिया' गजल प्रेमियों में बहुत लोकप्रिय हुई। बेगम जब पाकिस्‍तान गईं तो फ़ैज अहमद 'फ़ैज' ने फ़ाकिर की लिखी हुई ठुमरी 'देखा देखी बलम होई जाय' उनसे दसियों बार सुनी थी। मगर मैं तो उस फ़ाकिर की बात कर रहा हूँ, जो इश्‍क में नाकाम हो कर जालंधर चला आया था और शायरी और शराब में आकंठ डूब गया था। जालंधर आ कर वह फकीरों की तरह रहने लगा। उसने दाढ़ी बढ़ा ली थी और शायरों का लिबास पहन लिया था। उसका कमरा भी देखने लायक था। एक बड़ा हालनुमा कमरा था, उसमें फर्नीचर के नाम पर सिर्फ दरी बिछी हुई थी। बीच-बीच में कई जगह दरी सिगरेट से जली हुई थी। अलग-अलग आकार की शराब की खाली बोतलें पूरे कमरे में बिखरी पड़ी थीं, पूरा कमरा जैसे ऐशट्रे में तब्‍दील हो गया था। फ़ाकिर का कोई शागिर्द हफ्‍ते में एकाध बार झाड़ू लगा देता था। कमरे के ठीक नीचे एक ढाबा था। कोई भी घंटी बजा कर कुछ भी मँगवा सकता था। देखते-देखते फ़ाकिर का यह दौलतखाना पंजाब के उर्दू, हिंदी और पंजाबी लेखकों का मरकज बन गया। अगर कोई कॉफी हाउस में न मिलता तो यहाँ अवश्‍य मिल जाता। दिन भर चाय के दौर चलते और मूँगफली का नाश्‍ता। अव्‍वल तो फ़ाकिर को एकांत नहीं मिलता था, मिलता तो 'दीवाने ग़ालिब' में रखे अपनी प्रेमिका के विवाह के निमंत्रण-पत्र को टकटकी लगा कर घूरता रहता। इस एक पत्र ने उसकी जिंदगी का रुख पलट दिया था।

फ़ाकिर का यह चैंबर पंजाब की साहित्‍यिक और सांस्‍कृतिक गतिविधियों का स्‍नायु केंद्र था। विभाजन के बाद जालंधर ही पंजाब की सांस्‍कृतिक राजधानी के रूप में विकसित हुआ था। आकाशवाणी और दूरदर्शन के केंद्रों के अलावा पंजाब में हिंदी के समाचार-पत्र केवल जालंधर से प्रकाशित होते थे। पंजाब विश्‍वविद्यालय का हिंदी विभाग भी जालंधर में ही था। शास्‍त्रीय संगीत का वार्षिक कार्यक्रम हरिवल्‍लभ भी जालंधर में आज तक आयोजित होता है। आकाशवाणी के कार्यक्रमों के सिलसिले में हिंदी, पंजाबी अथवा उर्दू का कोई रचनाकार जालंधर आता तो वह फ़ाकिर के कमरे में चरणमृत प्राप्‍त करने जरूर चला आता। चौबारे के नीचे ही होटल था। चाय, भोजन की अहर्निश व्‍यवस्‍था रहती। फ़ाकिर का कमरा रेलवे रोड पर था, रात भर कोई न कोई ढाबा अवश्‍य खुला रहता। फ़ाकिर के होटल का बिल ही काफी हो जाता होगा, मगर उसके चेहरे पर मेहमान को देख कर कभी शिकन नहीं आई। मैंने कभी किसी होटल या ढाबेवाले को उसके यहाँ पैसे के लिए हुज्‍जत करते नहीं देखा था।

राकेश जी चले गए थे, मगर कॉफी हाउस आबाद था। हिंदी, उर्दू और पंजाबी के कवियों-कथाकारों का अच्‍छा-खासा जमावड़ा लगा रहता। राष्ट्रीय स्‍तर पर केवल राकेश जी की पहचान बन पाई थी, बाकी लोग अभी रियाज कर रहे थे यानी संघर्ष कर रहे थे। उन दिनों साथी लेखकों, कलाकारों में कुमार विकल, सुदर्शन फ़ाकिर, कृष्‍ण अदीब, सत्‍यपाल आनंद, नरेश कुमार 'शाद', प्रेम बारबरटनी, रवींद्र रवि, जसवंत सिंह विरदी, मीशा, सुरेश सेठ, जगजीत सिंह (सुप्रसिद्ध गजल गायक), हमदम आदि लोग उल्‍लेखनीय हैं। फ़ाकिर के चौबारे के अलावा हम लोगों का एक और ठिकाना था। वह था कलाकार हमदम का गरीबखाना। हमदम का हृदय फ़ाकिर की ही तरह विशाल था, मगर उसके साधन सीमित थे। चाय वगैरह का प्‍याऊ उसके यहाँ भी चलता था। हमदम का कमरा भी फ़ाकिर के कमरे का प्रतिरूप था। वह सिविल लाइंस में एक कमरा ले कर रहता था। वह एक शापिंग कांप्लेक्स की पहली मंजिल पर रहता था, कंपनी बाग और कॉफी हाऊस के नजदीक। कॉफी हाउस में कोई न मिलता तो लोग हमदम के कमरे में चले आते। हमदम सूफी आदमी था, यानी दारू नहीं पीता था, सिगरेट नहीं छूता था, मगर गिलास और बर्फ उपलब्‍ध करा देता था। वह पेंटर था। साइन बोर्ड लिख कर गुजारा चलाता था। लेखकों, कवियों के संपर्क में आया तो पुस्तकों के डस्‍ट कवर भी बनाने लगा। वह ज्यादा पढ़ा-लिखा नहीं था, मगर पिकासो की कला पर विचार व्‍यक्‍त कर सकता था। वह इस दुनिया में निपट अकेला था। माँ-बाप नहीं थे, एक बहन थी, बहन की शादी के बाद से उससे भी उसका कोई संपर्क न था। दोस्‍त अहबाब ही उसकी दुनिया थे। वह आधुनिक चित्रकला पर अधिक से अधिक जानकारी हासिल करता रहता था। हुसेन का नाम सबसे पहले मैंने उसी से सुना था। बाद में दिल्‍ली के कई नामी कलाकारों के बीच वह उठने-बैठने लगा था। इंदरजीत के बाद वह 'शमा' का कलाकार भी नियुक्‍त हो गया था। जालंधर में उसका कमरा साहित्य, संस्‍कृति और कला का दूसरा उपकेंद्र था। दिन भर जिन गिलासों से नीचे होटल से चाय आती थी, वह शाम तक जाम में तब्‍दील हो जाते। हमदम हमेशा कर्ज में डूबा रहता था। सच तो यह है, वह कर्ज में जीने का आदी हो चुका था। वह किसी का पैसा दबाना भी नहीं चाहता था, मगर कोई ढाबेवाला बदतमीजी़ से तकाजा करता तो वह उसे पीट भी देता।

उन दिनों जालंधर में ऐसा वातावरण था कि हम लोग साहित्‍य में ही जीते थे। साहित्‍य पढ़ते, सुनते और ओढ़ते। हमारे लिए मनोरंजन और जीवन का यही एक साधन और उद्‌देश्‍य था। शेर सुनते, कहानी पर बातचीत करते, मार्क्‍सवाद और अस्तित्ववाद की गुत्‍थियाँ सुलझाते। कहानियाँ लिखते और नामी पत्रिकाओं में प्रकाशनार्थ भेजते। रचनाएँ सधन्‍यवाद लौट आतीं, हम संपादकों की बुद्धि पर तरस खाते और अपनी रचनाएँ दैनिक-पत्रों में छपवा कर आह भर लेते, ज्यादा से ज्यादा आकाशवाणी पर प्रसारित कर आते।

3-

सन साठ के आस-पास हम लोगों को शराब का एक सस्‍ता ओर टिकाऊ विकल्‍प मिल गया - यानी नींद की गोलियाँ। इसके दो लाभ थे, एक तो यह नशा बहुत किफायती था। चवन्‍नी की गोली खा कर अच्‍छा-खासा नशा हो जाता था और दूसरे साँस से शराब की बदबू नहीं आती थी। आप सीना तान कर समाज का मुकाबला कर सकते थे। नशे के रूप में नींद की गोलियों के उपयोग की जानकारी युवा शायर सुदर्शन फ़ाकिर के संपर्क में आने पर मिली थी। उसके पिता फीरोजपुर में सिविल सर्जन थे और फ़ाकिर को दवाओं वगैरह की बहुत जानकारी रहती थी। जिंदगी जब नाकाबिले बर्दाश्‍त लगती, वह चने की तरह दो एक गोलियाँ फाँक लेता और देखते ही देखते शांत हो जाता। यह एक सस्‍ता नशा था, देखते-देखते तमाम कवि-कथाकार इसकी चपेट में आते चले गए। कपिल को यह नशा बहुत भा गया। उसे शराब की गंध से नफरत थी और यह एक गंधहीन नशा था। विमल और कपिल की खूब छनती थी, मगर विमल ने अपने को बचाए रखा। मैं भी कैसे बाल-बाल बचा, इसकी रोमांचक कहानी है।

कपिल मल्‍होत्रा हम लोगों में सबसे होशियार और पढ़ाकू था। बी.ए. तक पहुँचते-पहुँचते उसने बहुत-सा साहित्‍य पढ़ लिया था। हेमिंग्‍वे, फाकनर, माम, दोस्तोयेव्स्की, चेखव, गोर्की, तोलस्तोय आदि के मोटे-मोटे उपन्‍यास वह कॉलिज की पढ़ाई के समानांतर पढ़ता रहता। वह 'रामाकृष्‍णा' से ढूँढ़-ढूँढ़ कर पुस्‍तकें खरीदता। 'शेखर एक जीवनी' सबसे पहले उसी ने पढ़ा था। कुँवर नारायण की तमाम कविताएँ उसे कंठस्‍थ थीं। वह इलाहाबाद जा कर कमलेश्‍वर वगैरह से मिल आया था। उन दिनों कमलेश्‍वर ने अपना प्रकाशन शुरू किया था। कपिल ने इलाहाबाद से लौट कर वहाँ के साहित्‍यिक माहौल की जानकारी दी। उसकी एक कहानी 'वीपिंग हैमिंग्‍वे' भीष्‍म साहनी के संपादन में 'नई कहानियाँ' में प्रकाशित हुई थी। वह कहानी कभी साठोत्‍तरी कहानी के ऐतिहासिक दस्‍तावेज के रूप में याद की जाएगी। हिंदी के समकालीन लेखन के प्रति वह अत्‍यंत सजग और जागरूक था। नई कविता से भी उसी ने सबसे पहले हम लोगों का साक्षात्‍कार करवाया था। 'नई कविता' के कुछ अंक भी उसने उपलब्‍ध कर लिए थे। मुझे नींद की गोलियाँ खाने की लत पड़ जाती, अगर एक भयावह नीम बेहोशी के खतरनाक अनुभव से न गुजरता। वह एक ऐसा खौफनाक और तबाहकार तजरुबा था कि मैंने हमेशा के लिए नींद की गोलियों से तौबा कर ली।

हमारे सहपाठी ईश्‍वरदयाल गुप्‍त की लुधियाना में नौकरी लगी तो उसने हम सब को लुधियाना आमंत्रित किया। पृथ्‍वीराज कालिया उन दिनों खूब कविताएँ लिखा करता था। उसके पिता रेलवे में उच्‍चाधिकारी थे। उसने हम लोगों को बगैर टिकट लुधियाना ले चलने की जिम्‍मेदारी उठा ली। गाड़ी अभी फिल्‍लौर तक भी नहीं पहुँची थी कि हम लोग बगैर टिकट पकड़े गए। पृथ्‍वीराज ने अत्‍यंत विश्‍वासपूर्वक अपने पिता का हवाला दिया। पृथ्‍वीराज के पिता का नाम सुन कर टिकटचेकर चौंका, मगर वह टस से मस न हुआ। विभाग में पृथ्‍वी के पिता की छवि एक ईमानदार अफसर की थी, टिकटचेकर ने बताया कि अगर उसने हमें छोड़ दिया और पृथ्‍वी के पिता को इसकी भनक लग गई तो वह उसे सस्‍पैंड करा देंगे। हम चार-पाँच लड़के थे, टिकट तो खरीदा जा सकता था, मगर जुर्माना भरने लायक पैसे न थे। आखिर पृथ्‍वीराज ने लुधियाना स्‍टेशन मास्‍टर से रुपए उधार ले कर हम लोगों को मुक्‍त कराया।

ईश्‍वरदयाल के यहाँ पहुँच कर हम सब लोगों ने 'डॉरीडन' नाम की एक-एक गोली खा ली। ईश्‍वरदयाल हम लोगों के भोजन का प्रबंध करने में जुट गया। गोली तेज थी, खाना लगने से पहले ही हम लोग सो गए। दिन भर सोते रहे, रात भर सोते रहे, अगले रोज जब शाम को छह-सात बजे नींद खुली तो देखा, सब दोस्‍त आँखें मल रहे हैं। जाने कहाँ से एक कुत्‍ता घुस आया था, वह तमाम खाना चट करके मुग्‍ध भाव से हम लोगों को ताक रहा था।

वह आखिरी मौका था, जब मैंने साथियों के साथ नींद की गोली खाई। कपिल को गोली जँच गई, वह नित्‍य एक चौथाई गोली खाने लगा। बाद में उसने कद्रे कम ताकत की 'सोनरिल' नामक गोली खोज निकाली। शुरू में उसने एक गोली खानी शुरू की। एक से दो, दो से तीन, तीन से चार गोली तक उसकी क्षमता बढ़ गई। उत्‍तरोत्‍तर बढ़ती ही चली गई। जितनी गोली खाने से एक औसत स्‍वस्‍थ आदमी हमेशा के लिए सो सकता था, कपिल अर्द्धचेतनावस्‍था में कुँवर नारायण की पंक्‍तियाँ गुनगुनाता रहता :

क्‍या वही हूँ मैं

अँधेरे में किसी संकेत को पहचानता-सा

चेतना के पूर्व संबंधित किसी उद्‌देश्‍य को

भावी किसी संभावना से बाँधता-सा

हम लोगों ने हरचंद कोशिश की थी कि किसी तरह कपिल इस अभिशाप से मुक्‍त हो जाए, मगर एकदम असफल रहे। उसने मौत की तरफ जो कदम बढ़ाए तो पीछे मुड़ कर नहीं देखा।

कपिल मूलतः एक भावप्रवण अंतर्मुखी व्‍यक्‍ति था। अपने बारे में बहुत कम बात करता था, बल्‍कि करता ही नहीं था। बहुत बाद में पता चला कि उसकी कुंठा और परेशानी बेसबब नहीं थी। कपिल की आर्थिक पृष्‍ठभूमि हम लोगों से कहीं बेहतर थी। पिता कानूनी किताबों का कारोबार करते थे और चाचा का जालंधर में एक विशाल कारखाना था। उसकी माँ हमेशा गुड़िया की तरह सजी रहतीं, हमारी माताओं की तरह घर में भी पेटीकोट ब्‍लाउज में नजर न आतीं। वह ऐसे लकदक रहतीं जैसे अभी-अभी किसी समारोह में भाग लेने जा रही हों। दोनों बहनें भी हमेशा तैयार मिलतीं, जैसे स्‍कूल जा रही हों। एक खास तरह का अभिजात्‍य घर के वातावरण पर तारी रहता। मगर इस अभिजात्‍य के पीछे एक बहुत बड़ी पारिवारिक विडंबना छिपी हुई थी। हम लोगों को बहुत बाद में भनक लगी कि उसके पिता ने लखनऊ में एक और औरत को रखा हुआ था और वह औरत कोई और नहीं कपिल के घर की नौकरानी की बिटिया थी। उम्र में वह कपिल की हमउम्र होगी। यह एक ऐसा बिंदु था, जिस पर न कपिल बात कर सकता था, न मैं। यह दूसरी बात है कि कपिल और मैं वर्षों से सहपाठी थे। स्‍कूल के बाद भी हम लोगों का समय साथ-साथ बीतता था। गुल्ली-डंडा से ले कर हाकी और क्रिकेट साथ-साथ खेलते थे। वह कक्षा में हमेशा प्रथम आता था और मैं अंतिम। वह मेरे बारे में सब कुछ जानता था, मैं उसके बारे में बहुत सीमित जानकारी रखता था। एक बार उसने मुझसे पूछा कि क्‍या मैंने कभी 'काऊ डंग केक' खाया है तो मैंने डींग हाँकते हुए न सिर्फ 'हाँ' में सिर हिलाया बल्‍कि उसके स्‍वाद की भी लार टपकानेवाली तफसील पेश कर दी। उसने जब मुझे ताली पीटते हुए बताया कि अंग्रेजी में उपले को 'काऊ डंग केक' कहते हैं तो मेरी बहुत फजीहत हुई। इस बीच उसका एक संक्षिप्‍त सा प्रेम प्रसंग भी चला। सरमिष्टा था उस लड़की का नाम। वह दिलोजान से उस पर फिदा हो गया। कपिल की जो स्‍थिति थी, उसमें लड़की को अपना कोई भविष्‍य नजर नहीं आ रहा था। कपिल पूरी तन्‍मयता और तीव्रता से उसे चाहने लगा था। प्रेम से उसे राहत न मिली। प्रेम ने उसकी यंत्रणा और बढ़ा दी, जबकि प्रेम ही उसे यातना, संत्रास और विडंबना के अंधे कुएँ से निकाल सकता था। प्रेम में बेरुखी और बेन्‍याजी उससे बर्दाश्‍त न होती। वह गोलियाँ खा कर अर्द्धचेतना में तलत महमूद की गजलें सुनता रहता। इस बीच उसने तलत महमूद को लंबे-लंबे पत्र भेजना शुरू कर दिया, जिन्‍हें पढ़ कर तलत महमूद इतना बेजार हो गए कि उन्‍होंने उससे मुआफी माँगते हुए लिखा कि वह भविष्‍य में उन्‍हें खत न लिखे। उसके पत्र अत्यंत तीखे, पैने और झकझोर देनेवाले रहे होंगे कि तलत महमूद ने उसके तमाम पत्र चिंदी-चिंदी करके एक लिफाफे में डाल कर उसे लौटा दिए थे। कपिल ने अत्यंत पीड़ा के साथ यह बात मुझे बताई थी। मैं दिल्‍ली से मुंबई पहुँच गया तो अक्‍सर उसके पत्र मिलते थे। उसका सिर्फ एक पत्र बचा रह गया, जो मेरी पुस्तक 'स्‍मृतियों की जन्‍मपत्री' में संकलित है। पुस्‍तक के परिशिष्‍ट में मैंने मोहन राकेश, देवीशंकर अवस्‍थी, राजकमल चौधरी, ओमप्रकाश दीपक, सुदर्शन चोपड़ा और कपिल आदि मरहूम दोस्‍तों के खतूत भी शामिल किए थे। 21-5-65 को उसने चंडीगढ़ से लिखा था :

कालिया भाई ,

एक और पत्र डाल रहा हूँ - उम्‍मीद है पहला मिल गया होगा। वैसे कमलेश्‍वर साहब को भी लिख चुका हूँ लेकिन खत में कुछ पुख्‍तगी नहीं ला पाया। वैसे भी छोटा-सा था। अभी कुछ दिनों से दिमाग को अच्‍छी ' अनरेस्ट ' मिल रही है और यह सोच कर और कुछ हद तक जान कर कि शायद मैं अपना ' थीसिस ' न लिख सकूँ। कोई ' रेलेवेंट ' किताब तो बरतरफ , कोई अच्‍छा ख्याल भी नहीं आ रहा। वैसे 6 महीने रह गए हैं। शायद तुम कुछ कहो।

कालिया मेरी मानो , मुंबई में कुछ समय सुविधा-असुविधा से बिता कर लौट आओ। तुम बहुत दूर हो। तुम्‍हारे पिछले पत्र को पढ़ कर सच मानों मुझे खुशी नहीं हुई। दोस्त , लिखना कि नई पोस्‍ट कैसी है ? तुमने बहुत जोश व तेजी दिखाई अब कहीं इकट्‌ठे रहें। मेरा मन उदास रहता है। तुम्‍हें लिखने को क्‍या नहीं है ? वैसे याद आया , मेरी शादी एक अफवाह है - अलबत्‍ता तुम करो तो शायद कहीं सार्थकता हो। पत्र लिखा करो।

- कपिल मल्‍होत्रा

कपिल के इस अवसाद को महज उसकी निजी समस्‍याओं से जोड़ कर देखना शायद मुनासिब न होगा। अगर ऐसा होता तो इस कुंभीपाक में वह अकेला होता। दूसरे लोग भी इस महामारी के शिकार हो रहे थे। वक्‍त के समुद्र ने जैसे सारी झाग तट पर एक जगह एकत्रित कर दी थी। फ़ाकिर, हमदम, कपिल और बाद में एक और नाम जुड़ गया - धनराज। वह सत्‍यपाल आनंद और कुमार विकल के हवाले से जालंधर आया था। जालंधर उन दिनों पंजाब के बुद्धिजीवियों का काबा हुआ करता था। गिंजबर्ग कलकत्‍ता में आया था, मगर उसकी छाया जालंधर पर भी पड़ रही थी। जालंधर में युवा पीढ़ी ने मारिजुआना का सस्‍ता विकल्‍प तलाश लिया था - सोनरिल, डॉरीडन। स्‍वाधीनता संघर्ष के दौरान पश्‍चिमी विचारधारा का सर्वथा निषेध था, सिर्फ देश को आजाद कराने की धुन थी। देश आजाद हो गया तो समाज में जैसे शून्‍यता भर गई। इस शून्‍यता को पश्‍चिम की चिंतन पद्धति भरने लगी।

धनराज जब पहली बार प्रकट हुआ, उसकी बगल में कामू का 'प्‍लेग' था। वह लंबा फौजी ओवरकोट पहने हुए था। मिलते ही उसने अस्‍तित्‍व आदि जिंदगी के बुनियादी सवालों पर चर्चा शुरू कर दी। उसे विश्‍वास था कि जालंधर में ही उसकी जिज्ञासाओं और चिंताओं का समाधान होगा। अपनी बात स्‍पष्‍ट करने के लिए वह बीच-बीच में किर्केगार्ड, सार्त्र, कामू, बैकेट, सल्‍वदार डाली, पिकासो के उद्धरण पेश करता। गलत-सलत 'अंग्रेजी' में वह अपनी बात समझाने की चेष्‍टा करता। शाम को धनराज ने सभी को चौंका दिया जब उसने कॉफी हाउस में पूरी चौकड़ी का बिल अदा कर दिया। यही नहीं साथ में मदिरापान की दावत भी दे डाली। वह स्‍टेशन रोड पर किसी सस्‍ते से होटल में ठहरा हुआ था। बातचीत के दौरान पता चला कि वह फौज में हवलदार वगैरह के पद पर कार्यरत था, मगर फौज का जीवन उसे रास नहीं आ रहा था, काफी जद्दोजहद के बाद उसे फौज से निजात मिली थी। यह भी पता चला कि दुनिया में उसका कोई नहीं है। उसकी बीवी थी वह उसे छोड़ चुकी थी। चाचा लोगों ने उसकी जमीन-जायदाद पर कब्जा कर रखा था और अब उसकी जान के प्‍यासे थे। जर, जोरू और जमीन का उसे लालच भी नहीं था। वह जिंदगी के बुनियादी सवालों से ज्यादा जूझ रहा था, जीवन क्‍या है, उसका लक्ष्‍य क्‍या है जैसे, सनातन प्रश्‍नों से वह घिरा रहता, जिन प्रश्‍नों को ले कर कभी गौतम बुद्ध परेशान रहे होंगे। उसकी विडंबना बुद्ध से भी जटिल थी। वह निर्वाण की तलाश में भी नहीं था। वह ज्यादा पढ़ा-लिखा नहीं था, मगर दिन भर किसी न किसी शब्द से माथा-पच्‍ची करता रहता, शब्‍दकोश देखता, दोस्‍तों से पूछता और जब तक कायल न हो जाता, उसी के बारे में सोचता रहता। कई बार उस पर तरस भी आता कि एक सीधा-सादा इनसान किस भूल-भलैया में भटक गया है। वह कभी फ़ाकिर के यहाँ पड़ा रहता और कभी हमदम के यहाँ। उसके पास होल्‍डाल, एक सूटकेस और कुछ किताबें थीं। इनके अलावा उसके पास कुछ भी नहीं था। न अतीत था, न भविष्‍य। अपने बारे में वह बहुत कम, न के बराबर बात करता था, अगर करता भी था तो लगता था, झूठ बोल रहा है। बीच-बीच में वह कुछ दिनों के लिए गायब हो जाता, जहाज के पंछी की तरह फिर लौट आता। दिन भर वह 'चार मीनार' के सिगरेट फूँकता। दो-एक कश में ही उस की सिगरेट गीली हो जाती। उसके पास कितने पैसे थे कहाँ रखता था या उसकी आय का क्‍या स्रोत था, किसी को मालूम नहीं था। वह न तो फिजूलखर्ची करता। न किसी के आगे हाथ फैलाता। शाम को दारू के नशे में वह अक्‍सर घोषणा कर देता कि इस जिंदगी का कोई मतलब नहीं है और वह फौरन से पेश्‍तर इस बेहूदा चीज से निजात पाना चाहता है। उसने यह बात इतनी बार दोहराई थी कि कोई उसकी बात गंभीरता से नहीं लेता था। ये वाक्‍य उसका तकियाकलाम बन चुके थे। वह एक ऐसा मुसाफिर था, जहाँ रात होती, वहीं ठहर जाता। कई बार वह हमारे यहाँ भी ठहर गया, कपिल के यहाँ भी या सुरेश सेठ के यहाँ। कहीं ठौर न मिलता तो हमदम या फ़ाकिर का चौबारा तो था ही।

एक बार वह मेरे पास दिल्‍ली चला आया। उसने बताया कि इस देश में आत्‍महत्‍या करने के लिए दिल्‍ली से बेहतर कोई दूसरी जगह नहीं है। जितनी अजनबियत और परायापन, बेगानापन इस शहर में है, वह अन्‍यत्र दुर्लभ है। ऐसी अनजान जगह पर प्राण त्‍यागने का कुछ अर्थ ही और है। मैं उससे मजाक में यही कहता रहा कि उसे आत्‍महत्‍या करनी ही है तो कोई दूसरी जगह तलाश ले। ऐसी बातें वह मकान मालिक और उसकी पत्‍नी से भी करता था। मकान मालिक की पत्‍नी से उसने दोस्‍ती कर ली थी। उसके लिए बाजार से सामान वगैरह भी ला देता। वह बेचारी एक सीधी-सादी गृहिणी थी, उसकी बातों से विचलित हो जाती और उसे समझाती कि भगवान ने जीवन दिया है तो उसका आदर करना चाहिए। उसका पति दफ्तर और बच्‍चे स्‍कूल चले जाते तो वह धूप में कुर्सी निकाल कर बैठ जाता। वह कपड़े धोती तो धनराज कपड़े फैला देता। दिल्‍ली से लौटते हुए अपना कुछ सामान उसे भेंट कर गया - एक टार्च, ट्रांजिस्‍टर और कुछ कपड़े-लत्‍ते। वह अक्‍सर चिंता प्रकट करती कि कहीं धनराज प्राणों की बाजी न लगा दे। कुछ ही दिनों बाद मैंने वह घर छोड़ दिया था। एक दिन अचानक वह महिला पागल हो गई थी। पागलपन में वह धनराज का नाम भी ले रही थी। उन्‍हीं दिनों मैंने एक कहानी लिखी थी, 'बड़े शहर का आदमी'। पेश है उसका एक छोटा सा अंश :

' तुम अन्यथा न लो , प्रोग्राम तय करके भी कहीं आत्‍महत्‍या की जा सकती है , और फिर ये लोग। ' पी . के . ने जैसे गाली दी , ' सारे शहर में चींटियों की तरह फैले हुए हैं। मैंने कर्जन रोड के पास एक बस के नीचे आने की कोशिश की थी , लोगों ने मुझे पकड़ लिया और पीटा। खून से भरा रूमाल मेरी चारपाई के नीचे पड़ा है। मैंने सोचा था , तुम दफ्‍तर जाओगे तो धोऊँगा या जला दूँगा। '

' तुम्‍हें पुलिस स्‍टेशन नहीं ले गए ? '

' ले जा रहे थे , लेकिन लोग जल्‍दी में थे। ' पी . के . ने खुश होते हुए कहा , ' कितनी अच्‍छी बात है लोग जल्‍दी में रहते हैं। '

वह जड़-सा पी . के . की तरफ देखता रहा। उसने बात शुरू की तो लगा वह फिजूल-सी बात कर रहा है , मगर जल्‍दी में वह यही कह पाया , ' देखो अगर तुम्‍हें आत्‍महत्‍या करनी ही है तो मेरे कमरे में न करना , मुझे सुविधा रहेगी अगर तुम इस शहर में न करोगे और जेब में मेरा नाम पता भी न रखोगे। '

मैं इतना लापरवाह नहीं। ' पी . के . ने कहा। '

अगर यह कहानी धनराज को केंद्र में रख कर लिखी गई थी तो धनराज सचमुच उतना लापरवाह नहीं था, जितना मैं समझता था। मैं जब दिल्‍ली से मुंबई जाने की तैयारी कर रहा था कि जालंधर से सुरेश सेठ का पत्र मिला कि 'धनराज इस दुनिया से चुपचाप कूच कर गया। शाम को दोस्‍तों के साथ शराब पीने के बाद वह हस्‍बेमामूल दोस्‍तों से हमेशा के लिए विदा ले कर कंपनी बाग की एक बेंच पर जा बैठा और नींद की कुछ गोलियाँ फाँक लीं। जाड़े के दिन थे, बेंच पर बैठे-बैठे उसका शरीर अकड़ गया। कयामत के रोज वह दिन में हर दोस्‍त के घर पर भी गया था, तुम्‍हारे यहाँ भी। सुरेश सेठ ने यह नई सूचना दी थी कि कपिल भी धनराज के रास्‍ते पर चल निकला है। सुबह-सुबह उसकी जुबान पर एक-दो गोली न रख दी जाएँ तो वह हिलडुल भी नहीं सकता, उसके मुँह से फेन निकलने लगता है।

इस तरह नींद की गोलियों ने हमारे पहले दोस्‍त की बलि ले ली थी। यह एक बुरी शुरुआत थी। काल कपिल के मुँह पर काला चोगा पहना रहा था। बहुत दिन नहीं बीते थे कि कपिल के निधन का भी समाचार मिल गया। दोस्‍तों में शोक मनाने के लिए विमल, हमदम, सुरेश और मैं रह गए थे। काल को अब अगले शिकार की तलाश थी। उसने शायद तभी शिनाख्‍त कर ली थी। अब तक हम लोगों में हमदम ही ऐसा शख्‍स था जो नशे से आजाद रहता था। वक्‍त का ऐसा झोंका आया कि हम सब लोग अलग-अलग हो गए। कपिल और विमल रिसर्च के सिलसिले में चंडीगढ़ चले गए और मुझे डी.ए.वी. कॉलिज हिसार में नौकरी मिल गई थी। हमदम का मन भी जालंधर से उचट गया। उसने मुझे पत्र लिखा कि वह जालंधर में नहीं रह सकता, उसने तय किया है कि अब दिल्‍ली में ही रहेगा, मैं दिल्‍ली में उसके आवास आदि की व्‍यवस्‍था कर दूँ। जब तक मैं उसे पत्र लिखता कि एकाएक कुछ नहीं किया जा सकता, वह अपना बोरिया-बिस्‍तर उठा कर हिसार चला आया। मैं एकदम स्‍तब्‍ध रह गया। दिल्‍ली में उसका कोई परिचित भी न था, पैसे भी किराए लायक नहीं थे।

मुझे अभी पहला वेतन भी न मिला था। हमदम को यों लौटाया भी न जा सकता था। मेरी भी कोई ऐसी स्‍थिति न थी कि उसे दिल्‍ली में नौकरी दिलवा दूँ या उसके आवास की व्‍यवस्‍था कर दूँ। मैं उसका दिल भी नहीं तोड़ना चाहता था। हिसार से वह जल्‍द ही ऊबने लगा। तब तक हरियाणा का गठन नहीं हुआ था और हिसार एक अत्यंत पिछड़ा हुआ इलाका था।

शहर में रामलीला के अलावा कोई सांस्‍कृतिक गतिविधि न होती थी। बासी अखबार मिलते थे पढ़ने के लिए, जबकि दिल्‍ली से हिसार पहुँचने में सिर्फ चार घंटे लगते थे। दम तो मेरा भी घुट रहा था, मगर मेरे पास नौकरी थी। मुझे चंडीगढ़ बुला रहा था, मैं इस इंतजार में था कि विश्वविद्यालय से रिसर्च फेलोशिप मिल जाए तो मैं भी कपिल और विमल से जा मिलूँ। मदान साहब ने आश्‍वासन दे रखा था।

हमदम ने दिल्‍ली जाने के चाव में अपना सामान भी न खोला था। कुछ ही दिनों में वह हिसार की रेतीली जिंदगी से इतना बेजार हो गया कि उसे जालंधर की याद सताने लगी। जालंधर लौटना अब उसके लिए मुमकिन नहीं था, वह जान-पहचान के तमाम लोगों से अंतिम विदा ले आया था। मेरे कॉलिज से लौटते ही वह बच्‍चों की तरह एक ही सवाल बार-बार पूछता, 'दिल्‍ली कब चलोगे?'

'दिल्‍ली मैं अभी चल सकता हूँ, मगर दिल्‍ली जा कर खाओगे क्‍या, रहोगे कहाँ?' मेरी बात सुनते ही उसका चेहरा उतर जाता। दरअसल वह वर्षों से दिल्‍ली जा बसने का राग अलाप रहा था, मगर मुझे ऐसी आशा नहीं थी कि वह एक दिन अचानक सारा सामान उठा कर यों दिल्‍ली जाने के लिए हिसार चला आएगा। बिना पर्याप्‍त धन और तैयारी के एक बार दिल्‍ली जाने का खामियाजा मैं भुगत चुका था।

एम.ए. की परीक्षा से फारिग हो कर मैंने और पृथ्‍वीराज ने आगरा जा कर ताजमहल देखने की योजना बनाई थी। हम लोग आकाशवाणी के स्‍टूडियो में बैठ कर इस पर चर्चा कर रहे थे कि छुटि्‌टयों में कहीं घूमने जाना चाहिए। विश्‍वप्रकाश दीक्षित 'बटुक' उन दिनों आकाशवाणी में हिंदी प्रोड्‌यूसर थे। वह हम लोगों को बीच-बीच में बुक करते रहते थे, कभी वार्ता, कभी कहानी, कभी परिचर्चा में शामिल कर लेते। मुझ पर वह इतने मेहरबान रहते थे कि एक बार सानुरोध मुझसे एक नाटक भी लिखवाया था। उन्‍हीं दिनों आकाशवाणी के राष्‍ट्रीय कार्यक्रम में वसंत पर एक कार्यक्रम प्रसारित हुआ था और उस कार्यक्रम के लिए पंजाब के वसंत पर उन्‍होंने मुझ से लिखवाया था। उसका अच्‍छा-खासा पारिश्रमिक मिला था।

बटुक जी ने हमारी बात सुनी तो पर्यटन के लिए खूब प्रोत्‍साहित किया। उन्‍होंने आगाह किया कि जालंधर में पड़े रहोगे तो कूपमंडूक बन जाओगे। जालंधर में ऐसे लोगों की पहले ही बहुतायात है। शहर से बाहर निकलो, घूमो फिरो, दुनिया देखो, तभी तो लेखक बन पाओगे वरना प्रोफेसर सेठी के लौंडे की तरह माई हीराँ दरवाजे को ले कर कहानियाँ और बर्लटन पार्क को ले कर कविताएँ लिखते रहोगे। लेखक के लिए 'एक्‍सपोजर' बहुत जरूरी है। मोहन राकेश यों ही नहीं भ्रमण करते रहते। तुम लोग दूर नहीं जा सकते तो कम से कम दिल्‍ली तो देख आओ। ताजमहल न देखा हो तो आगरा घूम आओ। आगरा जाओ तो मेरा भी एक काम करते आना। वहाँ एक रिश्‍तेदार के यहाँ मेरे दो संदूक पड़े हैं, तुम नौजवान लोग हो, वापसी में लेते आना।

अब पर्यटन और ताजमहल देखना हमारी दूसरी प्राथमिकता पर आ गया, पहली प्राथमिकता यह हो गई कि किसी तरह आगरा से बटुक जी के संदूक ला कर उनका विश्‍वास अर्जित किया जाए। उसी दिन हम लोगों को आकाशवाणी से पचीस-पचीस रुपए के चैक मिले थे। हम लोगों ने तय किया कि इस राशि का बटुक जी को पटाने में निवेश कर दिया जाए और अगले रोज घरवालों से किसी तरह इजाजत ले कर हम आगरा के लिए रवाना हो गए। हमारा एक साथी अमृतलाल दिल्‍ली के स्‍कूल में अध्‍यापक हो गया था। उसका पता हमारे पास था। हम लोगों ने तय किया कि दो-एक दिन उसके पास रहेंगे, फिर आगरा निकल जाएँगे।

सुबह दिल्‍ली स्टेशन पर उतरे तो पता चला अमृतलाल स्‍टेशन से करीब बीस-पचीस किलोमीटर दूर रहता है और वहाँ सीधे कोई बस नहीं जाती। बहुत दौड़-भाग और माथापच्‍ची करने पर भी बसों का हिसाब-किताब समझ में न आया। आखिर ऑटो की मदद लेनी पड़ी। ऑटोवाले ने हमें जी भर कर दिल्‍ली दिखाई और इतने पैसे झटक लिए कि हमारी सारी अर्थव्‍यवस्‍था चरमरा गई। अमृतलाल मिला मगर वह स्‍कूल जाने की तैयारी में था। हमें यह भी खबर न थी कि इस बीच उसकी शादी हो चुकी है। उसकी बीवी के पाँव भारी थे और वह हम लोगों को देख कर हतप्रभ रह गई। उसकी सूरत देख कर लग रहा था कि उससे चाय के लिए कहना भी उस पर जुल्‍म ढाना है। पसीने से उसके माथे की बिंदिया पुँछ गई थी और एक अपशकुन की तरह लग रही थी। अमृतलाल ने हम लोगों को पानी पिलाया और खुद ही चाय बनाने में जुट गया। पत्‍नी के लिए भी उसी ने चाय बनाई और पीते हुए उसने दिल्‍ली की मसरूफ जिंदगी को जी भर कर गालियाँ दी। हमें भी समझते देर न लगी कि हम गलत जगह आ गए हैं। हमें उसकी और उसे हमारी सीमाओं का एहसास हो गया। हम लोगों ने रविवार को फुरसत से मिलने का वादा कर अमृत लाल 'अमृत' से विदा ली। उसने जल्‍दी-जल्‍दी से बालों पर कंघी की और हमें स्‍टेशन की तरफ जानेवाली बस की कतार में खड़ा करके खुद भी दूसरी बस के इंतजार में लाइन में लग गया।

स्‍टेशन पहुँच कर हम लोग आगरा जानेवाली गाड़ी की खोज खबर में लग गए। हम लोगों ने आगरा पहुँच कर इत्‍मीनान से ताजमहल देखा। ताज के लान में देर तक हम लोग लेटे रहे। सैलानियों की उम्‍दा भीड़ थी। लग रहा था, कई ताजमहल ताजमहल देखने आए हुए हैं। देश-विदेश के सौंदर्य की नुमाइश लगी हुई थी। हम कभी चलते-फिरते ताजमहल देखते और कभी प्रेम के उस अमर स्‍मारक को। आगरा में रुकने का कोई ठौर नहीं था। कोई अमृतलाल भी न था वहाँ। बटुक जी ने आगरा का पेठा और नमकीन खरीदने के लिए कुछ पैसे दिए थे और दुकान विशेष से ही ये चीजें खरीदने की हिदायत दी थी। हम लोगों ने उनकी हिदायत का पालन किया, उनके रिश्‍तेदार के यहाँ से दो भारी भरकम संदूक उठाए और पहली उपलब्‍ध गाड़ी से दिल्ली के लिए रवाना हो गए। पूरा दिन अफरा-तफरी में निकल गया था, गाड़ी चलते ही जम कर भूख लगी। जेब में किराए लायक पैसे बचे थे। आखिर हम लोगों ने धीरे-धीरे पेठा और नमकीन खाना शुरू किया। दिल्‍ली पहुँचते-पहुँचते दोनों डिब्‍बे देने लायक नहीं रह गए। तीन चौथाई पेठा उदरस्‍थ हो चुका था। पेट में चूहे कूद रहे हों और पास में आगरा का पेठा हो तो भूखे रहना बेवकूफी ही कहा जा सकता था।

वापिस दिल्‍ली पहुँचे तो हमारे पास सिर्फ खाली डिब्‍बे बचे थे। डिब्‍बे सुबूत पेश करने के लिए रख लिए ताकि बटुक जी को विश्‍वास दिलाया जा सके कि हम लोगों ने आगरा से पेठा खरीदा जरूर था, मगर पापी पेट की मजबूरी के कारण उन तक नहीं पहुँच सका। टिकट खरीदने की खिड़की पर गए तो पता चला छह-सात रुपए कम हैं। हम लोग किसी तरह बगैर टिकट लौट जाते मगर बटुक जी के भारी संदूकों के साथ बेटिकट यात्रा में जोखिम दिखाई दे रहा था। प्‍यास से हलक सूख रहा था, पृथ्‍वी ने आठ आने में दो कोकाकोला खरीद लिए। उसके पिता रेलवे में थे, बगैर टिकट यात्रा करने में उसे कोई एतराज न था। उसके चेहरे पर कोई शिकन नहीं था, मेरी हालत पतली हो रही थी।

दो-एक महीने पहले उर्दू मासिक 'शमा' में मेरी एक कहानी छपी थी। उर्दू में अनुवाद किया था उर्दू के जाने माने कथाकार सत्‍यपाल आनंद ने। मेरी वह कहानी हिंदी की तमाम पत्रिकाओं से लौट चुकी थी, सत्यपाल आनंद ने इतना अच्‍छा अनुवाद किया था कि वह उर्दू में छप गई। अपनी उस कहानी का कर्ज चुकाने के लिए मुझे आनंद की अनेक उर्दू कहानियों का हिंदी में अनुवाद करना पड़ा। संयोग से वह इधर-उधर छप भी गईं। मैंने उसकी इतनी कहानियों का अनुवाद कर डाला कि लाहौर बुक शाप से, जहाँ आनंद संपादक के रूप में काम करता था, उसका एक कथा संकलन भी छप गया - पेंटर बावरी। शमा से मूल लेखक के रूप में मेरे पास पचास रुपए का मनीआर्डर आया था, जिसकी रसीद मैंने महीनों सँभाल कर रखी थी। मेरे पास एक कहानी थी, मैंने सोचा अगर 'शमा' में स्वीकृत हो गई तो कुछ पैसा मिल सकता है।

बहुत सोच-विचार के बाद हम लोग स्‍टेशन से पैदल ही आसिफ अली रोड की तरफ चल दिए। अजमेरी गेट से आसिफ अली रोड दूर नहीं था। उन दिनों आसिफ अली रोड के सामने की पट्‌टी पर ढाबों की लंबी कतार थी। हम लोगों ने कागज कलम खरीदा और ढाबे पर बैठ कर कहानी का उर्दू अनुवाद करने में जुट गए। पृथ्‍वी धीरे-धीरे कहानी पढ़ रहा था और मैं उर्दू में अनुवाद करता जा रहा था। दो-ढाई घंटे की मशक्‍कत के बाद कहानी पूरी हुई। उस समय तीन बज चुके थे। भूख फिर सताने लगी थी। मन ही मन मैंने तय कर लिया था कि पृथ्‍वी को बगैर टिकट जाना हो तो जाए, मैं टिकट ले कर ही गाड़ी में बैठूँगा।

हमारे ठीक सामने 'शमा' का कार्यालय था। किसी तरह साहस जुटा कर हम कार्यालय में घुसे। यूनुस देहलवी 'शमा' के संपादक थे। उनके पास अपने नाम की चिट भिजवाई। माहौल देख कर लग रहा था कि उनसे मुलाकात संभव न होगी। उनके केबिन के बाहर सोफे पर बहुत से मिलनेवाले इंतजार में बैठे थे। मगर आश्‍चर्य, सबसे पहले हमारा ही बुलावा आ गया। दरबान ने अदब से अंदर जाने के लिए दरवाजा खोल दिया। हम लोगों ने दुआ-सलाम की और सामने रखी कुर्सियों पर बैठ गए। मैंने अपना तारुफ दिया कि 'शमा' में कहानी छप चुकी है, वैसे हिंदी में लिखता हूँ। उन्‍होंने बताया कि वह हिंदी में भी 'शमा' निकालने पर गौर कर रहे हैं। मैंने 'शमा' की तारीफ की। उन दिनों उर्दू के तमाम चोटी के अफसानानिगार उस फिल्‍मी पत्रिका में छपते थे। अब्‍बास, कृष्‍णचंदर, मंटो, बेदी आदि तमाम लोगों का सहयोग 'शमा' को प्राप्‍त था। सत्‍यपाल आनंद से वह बखूबी परिचित थे। मैंने उन्हें बताया कि हम लोगों को एम.ए. का इम्‍तिहान देने के बाद पहली मर्तबा दिल्‍ली आने का मौका मिला है, सोचा कि आप का न्‍याज भी हासिल कर लें। उनके यह पूछने पर कि कोई नई तखलीक लाए हैं, मैंने झट से कहानी उनके हवाले कर दी। यह भी बता दिया कि चूँकि अनुवाद खुद ही किया, रस्‍मुलखत की गलतियाँ हो सकती हैं। वह इतने समझदार संपादक और इनसान थे कि खुद ही कहने लगे, आप लोग दिल्‍ली आए हैं, कुछ पैसों की जरूरत होगी और एकाउंटेंट को बुलवा कर बाइज्जत बतौर पेशगी मुआवजे के सौ रुपए दिलवा दिए। हमने शुक्रिया अदा किया और लगभग कूदते हुए नीचे आ गए। तुरंत चाँदनी चौक के लिए थ्री व्हीलर किया। बहुत तेज भूख लगी थी, डट कर खाना खाया, बटुक जी के लिए पेठा खरीद कर आगरेवाले डिब्‍बे में भर दिया और वहीं पुरानी दिल्‍ली से गाड़ी पकड़ कर जालंधर लौट आए। दिल्‍ली से जालंधर तक का दो टिकट का किराया बीस रुपए से भी कम था। बटुक जी के संदूक नई दिल्‍ली स्‍टेशन के 'क्‍लाक रूम' में पड़े थे, वहीं पड़े रह गए। पृथ्‍वी को विश्वास था कि वह रेलवे के ही किसी कर्मचारी को भेज कर सामान मँगवा लेगा।

जालंधर पहुँच कर हम लोगों ने बटुक जी को चाँदनी चौकवाला पेठा दिया, जिसे चख कर उन्‍होंने मुँह बिचकाया और बोले कि अब आगरे के पेठे में भी मिलावट होने लगी है। उन्‍हें यह भी बता दिया कि उनका सामान दिल्‍ली तक पहुँच गया है और अमानती कक्ष में सुरक्षित रखा है। गाड़ी के समय अमानती कक्ष बंद था इसलिए ला नहीं पाए, अब पृथ्‍वी जल्‍द ही दिल्‍ली से उठा लाएगा। बाद में बटुक जी के वे दो संदूक बवाले जान बन गए। वह जब भी मिलते अपने सामान का रोना ले बैठते। हम लोगों ने आकाशवाणी की तरफ रुख करना ही छोड़ दिया। कार्यक्रम मिलता तो मजबूरी में चले जाते और बटुक जी से जलील हो कर लौटते। उन्‍हें विश्‍वास हो चुका था कि उनका सामान हम लोगों से खो चुका है। हम लोग अभी और कोताही करते कि इस बीच उत्‍तर रेलवे से एक रजिस्‍टर्ड पत्र चला आया कि अगर अमुक तारीख तक क्लोक रूम से सामान न उठाया गया तो वह नीलाम कर दिया जाएगा। अब दिल्‍ली जा कर सामान लाने के अतिरिक्‍त और कोई चारा न था। हम लोगों ने चंदा किया, जो पता चला डेमरेज में चला गया और पृथ्‍वी बिना टिकट दिल्‍ली के लिए रवाना हो गया और एक दिन दिल्ली से बटुक जी के दोनों संदूक ले कर अपने पिता के नाम की दुहाई देता हुआ बिना टिकट विजयी मुद्रा में जालंधर लौट आया। जेब में दो प्‍लेटफार्म टिकट लिए मैं उसकी आगवानी करने के लिए जालंधर स्‍टेशन पर मौजूद था। हम लोगों ने मिल कर वे दोनों भारी-भरकम संदूक ताँगे पर लादे और बटुक जी की अमानत उन्‍हें सौंप कर राहत की साँस ली। यह थी मेरी दिल्‍ली की प्रथम यात्रा।

अब हमदम दूसरी दुर्गम यात्रा के लिए दबाव बना रहा था। सवाल यात्रा का नहीं, उसे दिल्‍ली में स्‍थानांतरित और स्‍थापित करने का था। मुझे एक बार फिर यूनुस साहब की याद आई। वह रहमदिल इनसान थे। सोचा, हमदम को उनसे मिलवा दूँ, हो सकता है कोई सूरत निकल आए। शनिवार को मैंने हमदम को साथ लिया और हम लोग दिल्‍ली की बस में बैठ गए। यूनुस साहब ने हमदम के कुछ रेखांकन पसंद किए, लगातार काम देने का वादा किया। मैंने हमदम की दास्‍तान सुनाई तो उन्‍होंने तुरंत डेढ़ सौ रुपए दिलवा दिए। उन दिनों दरियागंज से उर्दू की एक और पत्रिका निकलती थी - 'बीसवीं सदी।' उसके संपादक खुश्‍तर गिरामी साहब से भी थोड़ा-बहुत परिचय था। मैंने उनसे भी हमदम को मिला दिया। उन्‍हें उन दिनों आर्टिस्‍ट की सख्‍त जरूरत थी। उन्‍होंने न केवल उसे काम पर रख लिया, वहीं दरियागंज में दफ्‍तर के ऊपर की बरसाती भी रहने के लिए दे दी। बड़े चमत्‍कारिक ढंग से दिल्‍ली में हमदम की व्‍यवस्‍था हो गई। मुझे भी दिल्‍ली में ठहरने के लिए ठौर मिल गया। मैं जब दिल्‍ली आता हमदम के यहाँ ही ठहरता। उसने बहुत जल्‍द अपने को दिल्‍ली के रंग-ढंग में ढाल लिया। 'बीसवीं सदी' के अलावा वह 'शमा' के लिए भी रेखांकन बनाने का काम करने लगा। शाम को फुटबाल का मैच देखता और उसके बाद कॉफी हाउस में जा बैठता। मेरे तमाम लेखक मित्र उसके भी मित्र बन गए थे। उसकी जान-पहचान का दायरा बढ़ने लगा।

4-

भारत-चीन युद्ध चल रहा था जब मुझे डी.ए.वी. कॉलिज, हिसार में लेक्‍चररशिप मिली थी। कुछ युद्ध के कारण और कुछ बाढ़ के कारण यातायात प्रभावित था। तब तक हरियाणा का गठन नहीं हुआ था और हिसार पंजाब का एक बहुत पिछड़ा हुआ क्षेत्र माना जाता था। धूल उड़ाती टूटी-फूटी सड़कें, बंजर धरती और हड्‌डी-पसली तोड़नेवाली बस सेवाएँ सबसे पहले आतंकित करतीं। कहने को हिसार में दो डिग्री कॉलिज थे, मगर शहर देख कर लगता था यहाँ कोई हाईस्‍कूल भी न होगा। मैं कुछ दिनों तक शहर के एकमात्र होटल का एकमात्र मेहमान था। बाद में कॉलिज के पड़ोस में ही आसानी से कमरा मिल गया। रात को जंगली जानवरों के रोने की आवाजें आतीं। रात के टिकते ही सियारों का सामूहिक रोदन शुरू हो जाता और भोर तक चलता। उन सियारों के साथ-साथ अगर वहाँ के लोग भी विलाप करते तो मुझे आश्‍चर्य न होता। रुदालियों की परंपरा कुछ ऐसे ही माहौल में शुरू हुई होगी। विलाप करने के लिए वह आदर्श स्‍थान था। मुझे ऐसा शायद इसलिए लग रहा था कि मैं पंजाब के एक अत्यंत समृद्ध और गुलजार इलाके से आया था। मुझे लगता अंडमान निकोबार में भी इतना ही सन्‍नाटा रहता होगा, जो उसे काला पानी के नाम से पुकारा जाता था। हरियाणा का विकास तो तब हुआ जब उसे पंजाब से काट कर एक अलग राज्‍य का दर्जा मिला। इस प्रदेश को नया जीवन मिल गया। विकास की गति इतनी तेज हो गई कि कुछ ही वर्षों में वह पंजाब के कंधे से कंधा मिला कर चलने लगा।

कथाकार मोहन चोपड़ा डी.ए.वी. कॉलिज में ही अंग्रेजी के अध्‍यापक थे और हिंदी में कहानियाँ लिखते थे। बाद में मालूम हुआ, मोहन राकेश से उनके अत्यंत आत्‍मीय संबंध थे। कालांतर में ये संबंध इतने तिक्‍त हो गए कि दोनों में संवाद का सूत्र भी टूट गया। पहली पत्‍नी से तलाक के बाद राकेश जी ने मोहन चोपड़ा की छोटी बहन पुष्‍पा से शादी कर ली थी। पुष्‍पा एक अल्‍हड़ किस्‍म की शोख पंजाबी लड़की थी। वह देखने में अत्यंत सुंदर थी मगर उसका लिखने-पढ़ने से कोई ताल्‍लुक नहीं था। उम्र में भी वह राकेश जी से बहुत छोटी और उसी अनुपात में कमअक्‍ल थी। उन्‍हें साथ-साथ देख कर कोई भी कह सकता था कि वे दोनों एक दूसरे के लिए बने ही न थे। शुरू-शुरू में तो राकेश जी को उसकी नादानियाँ भा गईं, मगर बाद में वे बदजन रहने लगे। बहुत जल्‍द मियाँ-बीवी का एक दूसरे से मोह भंग हो गया।

हिसार में पढ़ने-लिखने का माहौल नहीं था। हिंदी की कोई भी जरूरी पत्रिका वहाँ दिखाई न देती थी। साहित्‍यिक अथवा लघु पत्रिकाओं की बात तो दूर वहाँ व्‍यावसायिक पत्रिकाओं की खपत भी बहुत कम थी। वह ऐसा शहर था जहाँ न कोई पढ़ने-लिखने का शौकीन था, न पीने पिलाने का। यहाँ मेरी दोस्‍ती अंग्रेजी के प्रवक्‍ता पाल और शारीरिक प्रशिक्षक धर्मवीर से हो गई। सादा जीवन उच्‍च विचार उन दोनों के जीवन का आदर्श था। पाल हॉस्‍टल का सुपरिंटेंडेंट भी था और हॉस्‍टल परिसर में ही उसका डी-लक्‍स कमरा था। वह काफी सुरुचि संपन्‍न व्‍यक्‍ति था। उसकी भी न पढ़ने में रुचि थी, न पढ़ाने में। वह अच्‍छे रहन-सहन तथा भोजन का शौकीन था। धर्मवीर अपने गाँव से देशी घी का कनस्‍तर उठा लाता और छात्रों के भोजन के बाद हम लोगों का अलग से खाना बनता। गर्म-गर्म खाना आता तो घी की छौंक से कमरा महक उठता। हिसार में शराब की नहीं, लस्‍सी की नदियाँ बहती थीं। चाय भी दोनों में से कोई नहीं पीता था। शाम को हम लोग जी भर कर टेबल टेनिस खेलते। पाल से मेरी इतनी छनने लगी कि मैं अपने कमरे में कभी-कभार ही जाता। खेलने-कूदने से रात को नींद भी अच्‍छी आती। यहाँ किसी को न शराब की जरूरत पड़ती थी, न नींद की गोली की। दिन का वक्‍त कॉलिज में और शाम का कॉमन रूम में बीत जाता। मैं एक थकेहारे मजदूर की तरह ऐसे सोता कि सुबह-सुबह ही नींद खुलती।

इस कॉलिज की यह एक बात बहुत अच्‍छी बात थी कि यहाँ भी सहशिक्षा का प्रावधान था। लड़के उजड्‌ड किस्‍म के थे, जबकि लड़कियाँ सुसंस्‍कृत और शालीन थीं। पाल हमेशा कोट पतलून और टाई में लैस रहता और लड़कियों से घिरा रहता। लड़कियाँ जाड़े में उसके लिए स्‍वेटर बुनतीं; घर से पराँठे बना कर लातीं, गर्ज यह कि उसका बाजार गर्म था। मुझे पाल के साथ देख लड़कियाँ उससे बिना बात किए लौट जातीं। कुछ लड़कियाँ उसे पत्र भी लिखती थीं, वह मुझे दे देता कि पढ़ कर सुनाओ। खाना खाते हुए हम लोग पत्रों का विश्‍लेषण करते। मगर पाल छिछोरे किस्‍म का आदमी नहीं था, एक सीमा तक ही खेल खेलता। वह एक कुशल नट की तरह लड़कियों को लक्ष्‍मण रेखा के उस तरफ ही रखता। एक बार एक लड़की ने उसे लिखा कि वह उसके बगैर जिंदा नहीं रह सकती, पाल का व्‍यवहार उसके प्रति ऐसा ही रहा तो वह आत्‍महत्‍या कर लेगी। पाल ने उसे अपने कमरे में बुलाया और कहा जिस दिन आत्‍महत्‍या का इरादा हो, बता देना, वह जहर ला देगा। लड़की रोती हुई कमरे से बाहर चली गई। पाल हर सत्र में कई लड़कियों के दिल तोड़ा करता था। वह पहले लड़कियों को आकर्षित करता था फिर उनका दिल तोड़ देता था। कुछ ही दिनों बाद मैं उसे 'सैडिस्ट' कहने लगा। जाने क्‍यों यही उसका सबसे प्रिय शगल था। मैं उस कॉलिज में ज्यादा दिन नहीं रहा, मगर उस वक्फे में किसी लड़की ने मुझमें कोई दिलचस्‍पी जाहिर न की। मैंने पाल से कई बार जानना चाहा कि मुझमें ऐसी कौन-सी खामी है कि लड़कियाँ दूर से दुआ सलाम कर के चली जाती हैं। पाल ने मुझे गुरुमंत्र दिया कि लड़कियों के सामने स्‍मार्ट दिखो, लेकिन बातचीत में उन्‍हें लगना चाहिए कि आप भोंदू हैं, ज्यादा मीन-मेख नहीं निकालते, इधर की बात उधर नहीं करते। लड़की का चुंबन ले लेंगे तो इस बात को सात तालों में बंद रखेंगे। लड़कियाँ व्‍यंजना और लक्षणा में बात करती हैं और जवाब अभिधा में सुनना चाहती हैं। लड़कियों की जी खोल कर प्रशंसा करनी चाहिए, वे तारीफ सुनने को तरस जाती हैं। घर में भी माँ-बाप उपेक्षा करते हैं और बेटों की गैरमुनासिब प्रशंसा किया करते हैं। पाल ने मुझे आगाह किया कि लड़कियाँ कभी तुम्‍हें तरजीह न देंगी क्‍योंकि तुम अपनी जुमलेबाजी से लड़कियों को घायल कर देते हो। पाल के ये तमाम फार्मूले मेरी फितरत से मेल न खाते थे। मुझे लगा यह क्षेत्र मेरे लिए निषिद्ध है और मैं कोशिश भी करुँगा तो मुँह के बल गिरूँगा। इस झमेले से दूर रहने में ही मुझे अपनी भलाई नजर आई। मैं प्रत्‍येक शनिवार को क्‍लास से सीधा बस अड्‌डे की तरफ रवाना हो जाता और दिल्‍ली जानेवाली पहली उपलब्‍ध बस में बैठ जाता। दरियागंज में 'बीसवीं सदी' के कार्यालय के ऊपर हमदम का गरीबखाना और स्‍टूडियो था। दो-एक शामें कॉफी हाउस में बिता कर सोमवार की सुबह को पहली बस से मैं हिसार लौट आता। बस अड्‌डे से भागमभाग क्‍लास रूम तक पहुँचता। दिल्‍ली के कॉफी हाउस में खूब गहमा-गहमी रहती।

एक दिन कॉफी हाउस से पता चला कि मोहन राकेश 'सारिका' के संपादक हो कर मुंबई जा चुके हैं। हिसार लौट कर मैंने अपनी बहु-अस्‍वीकृत कहानियों का पुलिंदा निकाला। खूब मन लगा कर एक कहानी को नए कागजों पर उतारा और वह राकेश जी के पास भेज दी। राकेश जी ने कहानी मिलते ही जवाब दिया। उन्‍होंने न केवल कहानी स्‍वीकृत कर ली बल्‍कि यह सूचना भी दी कि वह शीघ्र ही 'सारिका' का नवलेखन अंक प्रकाशित करने जा रहे हैं और यह कहानी उस विशेषांक में प्रकाशित करेंगे। आगामी शनिवार को मैं एक सर्टिफिकेट की तरह राकेश जी का पत्र ले कर दिल्‍ली पहुँचा। हमदम ने मेरे जनसंपर्क अधिकारी की तरह प्रत्‍येक जान-पहचान के लेखक को गर्व से यह सूचना दी। अगले ही महीने 'सारिका' का नवलेखन अंक प्रकाशित हुआ और उसमें वह कहानी 'सिर्फ एक दिन' प्रमुखता के साथ प्रकाशित हुई थी। अपना परिचय भी मैंने नए अंदाज में लिखा था - रवींद्र कालिया, कद छह फुट, अविवाहित और चेनस्‍मोकर। कहानी से ज्यादा मेरा परिचय चर्चा में रहा। उसने एक तरह से वैवाहिक विज्ञापन का काम किया। दिल्‍ली विश्‍वविद्यालय की एक कश्‍मीरी लड़की ने पत्र लिखा कि मैं इतनी सिगरेट क्‍यों पीता हूँ। उसने मिलने की इच्‍छा भी प्रकट की थी और अपनी पसंद भी बता दी थी कि उसे लंबे लोग हमेशा आकर्षित करते हैं। उसके छोटे-से पत्र में हिज्‍जे की कई गलतियाँ थीं। यह कहानी मैंने अपनी बेरोजगारी के दिनों में लिखी थी। अनेक संघर्षशील नवयुवकों के पत्र भी प्राप्‍त हुए और उस कहानी की याद दिलाते हुए लगभग चालीस वर्ष बाद एक पत्र अभी हाल में 'हंस' में 'ग़ालिब छुटी शराब' का एक अंश पढ़ कर मध्‍य प्रदेश से एक पाठक ने लिखा है।

हिसार मेरी कहानी के प्रति उदासीन बना रहा। वहाँ चिरई के पूत को भी खबर न लगी कि हिसार में हिंदी का एक कहानीकार जन्‍म ले चुका है। जालंधर में होता तो अब तक दोस्‍तों ने कंधों पर उठा लिया होता, बियर की बोतलें खुल जातीं, कॉफी हाउस में हंगामा हो जाता और एक यह शहर था, जहाँ उसी प्रकार सियार रो रहे थे। मेरी आत्‍मा बेचैन रहने लगी। अगले सप्‍ताह दिल्‍ली के बजाय मैं चंडीगढ़ की बस में बैठ गया। कपिल, विमल, परेश, कुमार के साथ बाइस सेक्टर में जम कर मटरगश्‍ती की, विश्‍वविद्यालय परिसर की हरी घास पर लेट कर भविष्‍य के लेखन पर विचार-विमर्श किया। डॉक्टर मदान से गुजारिश की कि वह अपने शिष्‍य को किसी तरह हिसार के रेगिस्‍तान से मुक्‍ति दिला कर चंडीगढ़ बुला लें। मदान साहब ने रिसर्च के कई विषय सुझाए। बहरहाल सिर्फ एक कहानी छपने से दोस्‍तों के बीच मेरी धाक जम गई। मैं मजबूरी और बेमन से हिसार लौट आया। वही कॉलिज की उबाऊ दिनचर्या, टेबल टेनिस और देशी घी के भरवाँ पराँठे। मुझे लगा, यह शहर मेरे लिए नहीं।

जालंधर से बेकारी के दिनों में मैंने अनेक जगह आवेदन कर रखा था, जबकि सही मायने में मैं एक भी दिन बेकार नहीं रहा था। एम.ए. की परीक्षा समाप्‍त होते ही मैं दैनिक 'हिंदी मिलाप' के संपादकीय विभाग से संबद्ध हो गया था - कुल जमा एक सौ बीस रुपए पर। पहली तनख्‍वाह में मुझे एक-एक रुपए के एक सौ बीस नोट मिले थे। मेरा काम भी आसान था। उन दिनों फिक्र तौंसवी का उर्दू 'मिलाप' में 'प्‍याज के छिलके' नाम से एक कॉलम रोज प्रकाशित होता था। 'हिंदी मिलाप' के लिए मुझे उसका अनुवाद करना होता था, जो मैं एकाध घंटे में निपटा देता। उसके बाद अपने को बेकार यानी बेरोजगार पाता। दफ्तर में दिल्‍ली के तमाम अखबार आते थे। मैं बहुत विस्‍तार से उनका अध्‍ययन करता। मिलाप के लायक कोई समाचार लगता तो उसे टीप देता। मेरा बाकी समय अपने लिए उपयुक्त 'रिक्‍त स्‍थान' ढूँढ़ने में लगता। दफ्तर में बैठे-बैठे ही मैं आवेदनपत्र लिखता और डाक के हवाले कर देता। उन दिनों फार्म-वार्म भरने और आवेदनपत्र के साथ फीस भेजने का प्रचलन नहीं के बराबर था। एम.ए. का परीक्षाफल आने से पहले ही मुझे इंटरव्‍यू के लिए पत्र मिलने लगे थे। मार्ग व्‍यय मिलने की व्‍यवस्‍था रहती तो मैं इंटरव्‍यू दे भी आता। इंटरव्यू पत्रों का यह क्रम हिसार में नौकरी मिलने के बाद भी जारी रहा। मेरे पिता जालंधर से उन पत्रों को हिसार के पते पर अनुप्रेषित कर देते थे।

हिसार में मुझे इंटरव्यू के लिए दो पत्र मिले। दोनों दिल्‍ली से थे और जालंधर से मार्ग व्‍यय का प्रावधान था। एक पत्र आकाशवाणी से था और दूसरा केंद्रीय हिंदी निदेशालय से। आकाशवाणी में समाचार वाचक के पद के लिए इंटरव्यू था। इंटरव्यू देने वालों में मैं उम्र में सबसे छोटा था। कई लोग तो अनियमित रूप से पहले ही इस पद पर तैनात थे, अब विनियमन के लिए इंटरव्यू दे रहे थे।

वहीं सत सोनी से मेरी मुलाकात हो गई। सत सोनी दिल्‍ली जाने से पूर्व जालंधर में हिंदी मिलाप में वरिष्‍ठ उपसंपादक थे और फीचर के पन्‍ने देखते थे। मेरा उनसे बहुत पुराना परिचय था। यह कहना भी गलत न होगा कि मुझे बचपन से लेखन के लिए उन्‍होंने ही प्रेरित और प्रोत्‍साहित किया था। 'हिंदी मिलाप' में बच्‍चों के पृष्ठ 'शिशु संसार' का संपादन वही करते थे और स्‍कूल के दिनों से ही मेरी रचनाएँ उस पृष्‍ठ पर छपा करती थीं। छात्र जीवन में कच्‍चा-पक्‍का जो कुछ लिखता, वह सुधार कर छाप देते। मेरा नाम तब से अखबार में छपने लगा था जब मुझे शुद्ध रूप से अपना नाम लिखने की तमीज भी न थी। पहली रचना मैंने रविन्‍दर कालिया के नाम से प्रेषित की थी और रचना के साथ मेरा नाम छपा रवींद्र कालिया। तब से मैं रवींद्र कालिया हूँ। सत सोनी शुरू से ही बहुत प्रखर और महत्‍वाकांक्षी थे। जालंधर में ज्यादा गुंजाइश नजर न आई तो वह नौकरी छोड़ कर उपयुक्‍त नौकरी की तलाश में दिल्‍ली चले आए। माँ थी और वह थे। माँ बेटा एक कमरा ले कर दिल्‍ली में रहने लगे। मुझे यह सूचना तो थी कि वह दिल्‍ली में हैं, उनसे यों अकस्‍मात मुलाकात हो जाएगी, यह न सोचा था। समाचार वाचक की नौकरी में मुझे कोई दिलचस्‍पी न थी, सिर्फ मार्ग व्‍यय के लालच में चला आया था। पढ़ने के लिए जो समाचार मिले वे बहुत क्‍लिष्‍ट हिंदी में थे। मुझे अपने पंजाबी उच्‍चारण की सीमाएँ मालूम थीं। इसके बावजूद मैंने इंटरव्यू दिया। स्‍टूडियो के बीचों-बीच एक काँच की दीवार थी और दीवार के दूसरी ओर विशेषज्ञों का पैनल बैठा था। उनमें भगवतीचरण वर्मा भी थे। मैंने उनकी तस्‍वीर कहीं देख रखी थी और उन्‍हें देखते ही मैं पहचान गया। मेरा इंटरव्यू बहुत खराब हुआ, इतना खराब कि मैंने खुद ही अपने को 'रिजेक्ट' कर दिया। अनेक ऐसे देशों के नाम थे, जिनका उच्चारण करना मेरे बूते के बाहर था।

इंटरव्यू के बाद मैं सत सोनी के साथ उनके घर चला गया। एक मुद्दत के बाद मुलाकात हुई थी। उन्‍होंने हालचाल पूछा, खाना खिलाया और बताया कि शीघ्र ही नवभारत टाइम्‍स में उनकी नियुक्‍ति होने जा रही है। बाद में वह एक लंबे अर्से तक 'सांध्‍य टाइम्स' का संपादन करते रहे। उनके तमाम संगी साथी रिटायर हो गए मगर वह अपने पद पर कायम रहे। वह अखबार बेचने के बहुत से लटके-झटके जानते थे। एक बार जालंधर में पहली अप्रैल को सत सोनी ने 'हिंदी मिलाप' में एक अनूठी पुरस्‍कार योजना घोषित की। उन्‍होंने प्रथम पृष्‍ठ पर एक तस्‍वीर प्रकाशित की और लिखा कि यह व्‍यक्‍ति शाम को पाँच से आठ के बीच अमुक-अमुक बाजारों से गुजरेगा। जो पाठक इन्‍हें पहचान लें वह मिलाप के अंतिम पृष्‍ठ पर प्रकाशित कूपन भर कर चुपचाप इन्‍हें सौंप दें, इनसे बात करने की कोशिश न करें। पहचाननेवाले पाठक को एक हजार का नकद पुरस्‍कार सप्‍ताह भर के भीतर भेज दिया जाएगा। पहली अप्रैल को सारा शहर बगल में मिलाप की प्रतियाँ लिए उस शख्‍स को खोज रहा था। सत सोनी भी भीड़ में नजर आए, उन्‍होंने पाठकों को 'अप्रैल फूल' बनाने का भरपूर आनंद उठाया। कहने की जरूरत नहीं, उस रोज शहर में 'मिलाप' की प्रतियाँ अन्‍य तमाम समाचार पत्रों से कहीं अधिक बिकी थीं। 'सांध्‍य समाचार' में उन्‍होंने ऐसे-ऐसे शीर्षक प्रकाशित किए कि कंजूस से कंजूस आदमी भी अखबार खरीदने को मजबूर हो जाता था। जैसे 'सुमन अपने जीजा के साथ भाग गई' या 'रंजीत ने अपनी माँ के प्रेमी की हत्‍या की।' राजधानी के तमाम समाचार पत्रों ने नेहरू जी के निधन का समाचार प्रकाशित किया और सोनी ने नेहरू जी की अंत्येष्‍टि का कार्यक्रम प्रकाशित किया। उनका मत था कि नेहरू जी के निधन का समाचार तो अखबार छपने से पूर्व ही सब लोग जान चुके थे।

बाद में मैं जब तक दिल्‍ली में रहा, सत सोनी मेरे स्‍थानीय अभिभावक की तरह रहे। जब कभी पैसे की जरूरत पड़ती, मैं उनसे निःसंकोच माँग लेता। दिल्‍ली में पहला मकान (कमरा) भी, उन्‍होंने मॉडल टाउन में अपने पड़ोस में दिलवाया था। उनका दृष्‍टिकोण हमेशा अग्रगामी रहता था, रूढ़ियों और ढकोसलों से वह हमेशा दूर रहे। मेरे जाननेवालों में सबसे पहले सत सोनी ने ही प्रेम विवाह किया था। उनकी पत्‍नी उर्मिला भी उन्‍हीं की तरह धाकड़ महिला थीं और कनाट प्‍लेस में स्‍टेट्‌समैन चौराहे के निकट एक बहुराष्‍ट्रीय कंपनी के दफ्‍तर में काम करती थीं। सुबह दोनों मियाँ-बीवी नौ नंबर की बस से दफ्तर के लिए साथ-साथ निकलते और शाम को साथ-साथ लौटते। साहित्‍य में उनका सीधा दखल नहीं था, मगर वह नए से नए साहित्‍य की जानकारी रखते। शादी से पहले मैं और ममता छुट्‌टी के रोज अक्‍सर उनके यहाँ चले जाया करते थे।

सत सोनी के मिलाप छोड़ने पर जो स्‍थान रिक्‍त हुआ, उस पर कृष्‍ण भाटिया की नियुक्‍ति हुई। भाटिया उन दिनों एम.ए. (हिंदी) कर रहे थे और कॉलिज के बाद दफ्तर करते थे। इसे संयोग ही कहा जाएगा कि कुछ वर्षों बाद उनकी नियुक्‍ति भी नवभारत टाइम्‍स में हो गई और वह भी दिल्‍ली चले आए। सत सोनी के बाद जालंधर में मैं भाटिया जी के निकट संपर्क में रहा। उन्‍होंने भी मिलाप में मेरी बहुत सी बाल रचनाएँ प्रकाशित की थीं। वैसे भाटिया सोनी के विलोम थे। सोनी जितने ही तेज थे, भाटिया उसी अनुपात में मंथर। उन्‍हें मैंने कभी जल्‍दबाजी में नहीं देखा। वह सब काम इत्‍मीनान से खरामा-खरामा करने के अभ्‍यस्‍त थे। विभाजन के बाद वह पश्‍चिमी पंजाब से शरणार्थी के रूप में आए थे, अपनी माँ और बहन इंदिरा के साथ। छात्र जीवन में मैं अक्‍सर उनके यहाँ जाया करता था और मेरे लिए उनका घर अपने घर की तरह था। अम्‍मा भाटिया के मित्रों की बहुत खातिरदारी करतीं। भाटिया साहब का खयाल आते ही दो-तीन बातें मुझे हमेशा याद आतीं है।

एक बात जालंधर की है। एक दिन शाम को मैं भाटिया साहब के घर गया तो माता जी ने बताया कि कृष्‍ण एक घंटे पहले कटोरी ले कर दही लेने निकला था, अभी तक नहीं लौटा। मैंने भी आधा घंटा तक उन की प्रतीक्षा की और लौट गया। अगले रोज सुबह उनके यहाँ गया तो घर में अड़ोस-पड़ोस और भाटिया के मित्रों की भीड़ लगी थी और अफरा-तफरी मची थी। मालूम हुआ कि भाटिया साहब अभी तक दही ले कर नहीं लौटे। सब लोग परेशान थे। कार्यालय में भी खबर कर दी गई थी। उनके तमाम अड्‌डों और ठिकानों से भी कोई सूचना न मिल पा रही थी। दोपहर तक तमाम लोग निराश हो गए और घर में जैसे मातम बिछ गया। दोस्‍तों ने शहर का कोना-कोना छान मारा, मगर कृष्‍ण भाटिया का कहीं कोई सुराग न मिला। ऐसे नाजुक मौकों पर कुछ लोग अपनी सृजनात्‍मकता का कुछ ज्यादा ही परिचय देते हैं। किसी ने कहा, आज दिन में नहर में एक लाश मिली है, किसी ने रेल की पटरी पर किसी के कट मरने की सूचना दी। जितने मुँह उतनी बातें।

शाम को सूरज ढलने के बाद भाटिया साहब हाथ में दही की कटोरी लिए खरामा-खरामा अपने घर की तरफ बढ़ते दिखाई दिए। वह हमेशा की तरह हाथी की चाल से इत्‍मीनान से चल रहे थे, जैसे अभी-अभी बाजार से दही ले कर लौटे हों। अपने घर के सामने भीड़ देख कर उन्‍होंने किसी से पूछा कि क्या बात है, घर में सब खैरियत तो है? भाटिया साहब के आने की खबर सुन कर माँ और बहन रोते हुए बाहर लपकीं। मालूम हुआ भाटिया साहब अपने एक मित्र के साथ इस आश्‍वासन में हमीरा चले गए थे कि घंटे भर में लौट आएँगे। उस मित्र का ट्रांसपोर्ट का कारोबार था और वह ट्रक में गन्‍ना लदवा कर हमीरा जा रहा था, जहाँ एक चीनी मिल थी शायद एरिस्‍ट्रोक्रेट नाम के लोकप्रिय ब्रांड की व्हिस्‍की बनानेवाली जगजीत इंडस्‍ट्रीज की। हमीरा जालंधर से पंद्रह-बीस किलोमीटर के फासले पर था। भाटिया साहब मुरव्‍वत में अपने मित्र के ट्रक में सवार हो गए और गन्‍ना चूसते हुए हमीरा पहुँच गए। जब तक ट्रक हमीरा पहुँचता गन्‍ने के लदे हुए बीसियों ट्रक उनके ट्रक के आगे पीछे लग गए। चींटी की गति से ट्रकों की लंबी कतार सरकने लगी। आधी रात को जंगल में वापिस लौटने का कोई दूसरा साधन भी न मिला। दूसरे दिन दोपहर बाद उनके ट्रक से गन्‍ना उतरा। उसके बाद जाम से बाहर निकल आने में घंटों लग गए। इस घटना का सबसे दिलचस्‍प पहलू यह था कि भाटिया साहब कटोरी में दही लाना नहीं भूले थे।

जब तक मैं कपूरथला और हिसार में वनवास काट कर दिल्‍ली पहुँचा, भाटिया साहब दिल्‍ली में स्‍थापित हो चुके थे। सत सोनी और भाटिया दोनों मॉडल टाउन में रहते थे और सोनी साहब ने मेरी व्‍यवस्‍था भी मॉडल टाउन में करवा दी थी। सोनी की नजर हमेशा आगे रहती और भाटिया पीछे मुड़ कर देखने के आदी थे। सोनी एकदम सींक सिलाई थे और भाटिया ऊन के गोले की तरह। जो बात सोनी एक वाक्‍य में कह जाते भाटिया उसकी तफसील में जाते। दोनों बी-ब्‍लाक में रहते थे। सोनी की शादी हो चुकी थी, भाटिया साहब तब तक शादी के बारे में सोचते भी न थे। भाटिया का घर नया और बड़ा था। इतना खूबसूरत, विशाल और आधुनिक किस्‍म का घर उन्‍हें एक शर्त पर मिला था। मकान मालिक की एक मौलिक और अनूठी शर्त थी, जो भाटिया साहब ने तुरंत स्‍वीकार कर ली थी। वह शर्त कुछ ऐसी थी कि सामान्‍यतः कोई गृहस्‍थ उस हिस्‍से को किराए पर नहीं लेता था। सुबह जब तक मकान मालिक स्‍नान न कर ले किरायेदार बाथरूम का इस्‍तेमाल नहीं कर सकता था। मकान मालिक को अकेले नहाने की आदत नहीं थी, वह सपत्‍नीक स्‍नान करता था। नहाते हुए वे लोग बच्‍चों की तरह शोर मचाते थे। भाटिया साहब को इस पर कोई आपत्‍ति न थी, वह इस बारे में सोचते भी न थे। सुबह-सुबह कभी मैं उनके यहाँ चला जाता तो मेरा ध्‍यान बाथरूम में ही लगा रहता, भाटिया साहब से बात करने में भी मन न लगता। सच तो यह है कि मेरी कल्‍पनाएँ भी पति-पत्‍नी के साथ बाथरूम में घुस जातीं। बाथरूम के पिछवाड़े एक छोटा सा वातायन था। मेरी इच्‍छा होती कि सीढ़ी लगा कर बायस्‍कोप की तरह भीतर का जायजा लूँ। भाटिया के स्‍थान पर मैं किरायेदार होता तो मेरा जीवन ही नष्‍ट हो जाता। अपनी कमीनगी और बदतमीजी़ पर मुझे बहुत शर्म आती, मगर मैं अपनी फितरत से मजबूर था। भाटिया साहब इस विषय पर बात करना भी पसंद न करते, जबकि मुझे दफ्तर में भी बाथरूम के दिवास्‍वप्‍न आते रहते। मुझे बाथरूम का स्‍वप्‍नदोष भी होने लगा, इसे मेरी बदनसीबी ही कहा जा सकता है। भाटिया साहब इस स्थिति के प्रति पूरी तरह बेन्‍याज थे, सज्‍जन आदमी की यही पहचान होती है। शायद यही वजह थी कि भाटिया साहब को कोई लत न थी। वह न सिगरेट पीते थे न शराब। तंबाकू, गाँजा और सुरती तो दूर की बात है, जबकि सोनी साहब का किसी प्रकार के निषेध में विश्‍वास नहीं था। वह कभी-कभार स्‍कॉच वगैरह का एकाध पेग भी नोश फरमा लेते और पेश भी कर देते थे। भाटिया साहब ने काफी देर से शादी की। उनकी बहन इंदिरा भी माँ की तरह छोटी आयु में विधवा हो गई थी, उसका पति दफ्तर जाने के लिए घर से सही सलामत निकला और एक सड़क दुर्घटना में उसकी मौत हो गई। परिवार के लिए यह बड़ा हादसा था।

मैं मुंबई चला गया और मुंबई से इलाहाबाद, भाटिया साहब से कई वर्षों संपर्क नहीं हुआ। सत सोनी से दिन में टाइम्‍स हाउस में कई बार भेंट हो जाती। 'दिनमान' के बाद नंदन 'नवभारत टाइम्स' के फीचर संपादक हो गए तो मेरा अक्‍सर दफ्तर जाना होता, मगर भाटिया साहब से भेंट न हो पाती। वह वर्षों रात की ड्‌यूटी ही करते रहे। एक बार मैं इलाहाबाद से तय करके चला कि इस बार दिल्‍ली में भाटिया साहब से जरूर मिलूँगा। शाम को फोन किया तो वह दफ्तर में मिल गए। तय हुआ कि रात एक बजे उनकी ड्‌यूटी खत्‍म होगी, मैं दफ्तर चला आऊँ और रात को साथ-साथ घर चलेंगे। तब तक उन्‍होंने भी दिल्‍ली में घर बनवा लिया था। शादी हो चुकी थी, बच्‍चे स्‍कूल जाने लायक हो गए थे, माँ उनके साथ ही रहती थीं। मेरी माँ जी से भी मिलने की बहुत इच्‍छा थी।

रात के बारह के बाद मैं भाटिया साहब के पास बहादुरशाह जफर मार्ग पहुँचा। उस समय वह काम समेट रहे थे। वह हमेशा की तरह बहुत तपाक और गर्मजोशी से मिले। कनपटी के बाल सफेद हो गए थे, मगर चेहरे पर वही बाल सुलभ सरलता और पारदर्शिता थी। हम लोग दफ्तर की गाड़ी में उनके घर के लिए रवाना हुए। मैं दसियों वर्ष के लंबे अंतराल के बाद भाटिया साहब से मिला था। उनके बारे में बहुत कुछ जानने की जिज्ञासा और अपने बारे में बताने की उत्‍सुकता थी। मैंने सोचा, खूब गुजरेगी जब मिल बैठेंगे दीवाने दो। मुझे खबर लगी थी कि भाटिया साहब पत्रकारिता के साथ समाज सेवा के कार्यों में भी रुचि ले रहे हैं और उन्‍होंने दृष्‍टिहीनों के आवास और पुनर्वास की दिशा में बहुत काम किया है। मगर गाड़ी में बैठते ही भाटिया साहब ने न पत्रकारिता पर बात शुरू की, न समाज सेवा पर। गाड़ी में बैठते ही मुझसे पूछा, 'कभी वैष्‍णव देवी गए हो?'

'न, कभी जाने का मौका नहीं मिला।' मैंने बताया।

'तुम फिर जिंदगी के एक बहुत बड़े अनुभव से वंचित रह गए हो। ऐसी गफलत तुमसे कैसे हो गई? तुम भी क्‍या कर सकते हो, दरअसल माँ का बुलौआ आता है, तभी आदमी उनके दरबार में हाजिर होता है। वरना लाखों लोग चाह कर भी उनका दर्शन नहीं कर सकते।'

'लगता है कुछ ऐसा ही हादसा मेरे साथ हुआ है।' मैंने कहा।

'मुझे यही खतरा था कि तुम कहीं जिंदगी में झख मारते न रह जाओ।'

'मेरी तो जिंदगी ही झख मारते बीत गई भाटिया साहब। आपकी शरण में आ गया हूँ, अब आप ही कुंभीपाक से बाहर निकालें।'

'कुछ न कुछ किया जाएगा तुम्‍हारे लिए। एक न एक दिन माँ तुम्‍हें अपने दरबार में अवश्‍य बुलाएँगी और दर्शन देंगी।'

मैंने शाम को मित्रों के साथ प्रेस क्‍लब में तबीयत से दारू पी थी, भरपेट भोजन किया था। मैंने भाटिया साहब से कहा कि 'मेरे जैसे पापियों को यही सजा मिलनी चाहिए थी। माँ सब की रग-रग पहचानती हैं।'

'भई यह तो है। मांस-मछली तो नहीं खाने लगे?'

'भाटिया साहब मेरा बहुत पतन हो चुका है। दारू की लत लग चुकी है। सिगरेट की लत दूर नहीं हुई थी कि यह दूसरी लत लग गई। आप तो जानते ही हैं, लिखने- पढ़ने का व्‍यसन तो बचपन से लग गया था। कालिया की नैया अब कैसे पार लगेगी?'

'धैर्य रखो। माँ ने बहुत से भटके हुए लोगों को राह दिखाई है, तुम भी जी छोटा न करो।'

दरअसल भाटिया साहब अभी हाल में सपरिवार वैष्‍णव देवी का दर्शन करके लौटे थे। उन्‍होंने अत्यंत विस्‍तार से इस अविस्‍मरणीय यात्रा का वर्णन करना शुरू किया। तफसीलवार छोटी से छोटी घटना बताई। पहले तो दफ्तर से छुट्‌टी लेने में बहुत परेशानी हुई, रात की ड्‌यूटी कोई करना ही नहीं चाहता था। अब पत्रकारिता में वह पहले-सी मिशन की भावना भी नहीं रही। समाज में एक अंधी दौड़ शुरू हो चुकी है। हर आदमी दौड़ रहा है और उसे कुछ पता नहीं कि वह कहाँ पहुँचना चाहता है, उसके जीवन का लक्ष्‍य क्‍या है? माँ ने जाने उसे इस धरती पर क्‍यों भेजा है? खैर, यह गहरी बात है, अभी तुम्‍हारी समझ में नहीं आएगी। मैंने समाज से सोना नहीं माँगा था, चाँदी नहीं माँगी थी, फकत छुट्‌टी माँगी थी, उसे मिलने में भी सौ-सौ बाधाएँ आन खड़ी हुई इसे माँ का प्रताप ही कहा जाएगा कि आखिर पंद्रह दिन की छुट्‌टी स्‍वीकृत हो गई। मुझे छुट्‌टी मिल गई तो पत्‍नी को छ्‌ट्‌टी मिलने में अड़चनें आने लगीं। मगर जब काम होना होता है तो सब अड़चनें अपने आप दूर होने लगती हैं। यही हुआ। किस्‍मत अच्‍छी थी कि पूरे परिवार को ट्रेन में आरक्षण मिल गया। किसी सिफारिश की जरूरत ही न पड़ी। वरना पत्रकार आए दिन आरक्षण के लिए रेलवे बोर्ड में टिप्‍पस भिड़ाते रहते हैं। मेरे सब काम होते चले गए।

हम लोग भाटिया साहब के घर पहुँच गए मगर उनकी ट्रेन अभी दिल्‍ली से ही न खुली थीं। घर में सब लोग तब तक सो चुके थे, मगर उनकी पत्‍नी जग रही थीं। उन्‍होंने खाना परोसा और बिस्‍तर लगा कर चली गईं। भाटिया साहब ने भोजन करना शुरू किया और ट्रेन में कुछ गति आई। अब ट्रेन सरपट पठानकोट की तरफ दौड़ रही थी। हम लोग अगल-बगल के बिस्‍तरों पर लेटे। सोचा, सुबह माँ जी और बच्‍चों से भेंट करूँगा। मेरी आँखों पर नशे और नींद का खुमार छाया हुआ था। बिस्‍तर पर लेटते ही आँख लग गई। मेरी आँखों के सामने कटरा था। कटरा में आगे-आगे बच्‍चे दौड़ रहे थे और पीछे-पीछे भाटिया साहब। न बच्‍चों को थकान महसूस हो रही थी और न इस उम्र में माँ को। मालूम नहीं मैं नींद में ऐसा सोच रहा था या भाटिया साहब के सुनाने का असर था कि मुझे लगा मैं भी उनके साथ-साथ चल रहा हूँ।

'लगता है तुम थक गए हो।' अचानक भाटिया साहब की आवाज कानों में पड़ी। वह मुझे रजाई ओढ़ा रहे थे और कह रहे थे, 'अब सो जाओ। सुबह उठ कर बताऊँगा कैसे हुए माँ के दिव्‍य दर्शन। मुझे तो शाम को दफ्तर जाना है, दिन में विस्‍तार से बात होगी।'

मैं सचमुच सो गया। बहुत अच्‍छी नींद आई, जैसे बच्‍चों को लोरी सुनने के बाद आती है। भाटिया साहब सुबह-सुबह बाजार से गर्म-गर्म जलेबी ले आए और देर तक नाश्‍ते के लिए मेरा इंतजार करते रहे। दस बजे तक मुझे होटल पहुँचना था, कुछ मित्रों को बुला रखा था। नाश्‍ते के तुरंत बाद मुझे चल देना पड़ा।

शायद कृष्‍ण भाटिया से मेरी यह मेरी अंतिम मुलाकात थी। एक बार विश्व पुस्तक मेले के अवसर पर दिल्‍ली गया तो महेश दर्पण ने खबर दी कि भाटिया साहब नहीं रहे। यह सुन कर मैं बहुत देर तक गुम-सुम बैठा रहा।

5-

हिसार में मुझे इंटरव्यू का दूसरा पत्र केंद्रीय हिंदी निदेशालय से मिला। इस पद के लिए मैंने आवेदन तब किया था जब जालंधर में छटपटा रहा था। मैंने पोस्‍ट कार्ड पर आवेदन-पत्र भेजा था। यह आठ-दस पंक्‍तियों में लिखा गया अत्यंत गैरपारंपरिक पत्र था। मुझे बहुत आश्‍चर्य हुआ जब पिता के पत्र के साथ जालंधर से इंटरव्यू के लिए निमंत्रण प्राप्त हुआ। पिता जी ने अपने पत्र में नसीहत दी थी कि मैं अकादमिक जगत में ही रहूँ और दिल्‍ली हरगिज न जाऊँ। उन्‍होंने एक पत्र कॉलिज के प्रिंसिपल प्रो. डी.एन. शर्मा के नाम भी लिखा था कि वह मुझे हिसार में रहने के लिए ही प्रेरित करें और अगर मैं इस्‍तीफा भी दूँ तो स्‍वीकार न करें। प्रिंसिपल को लिखे गए पत्र की प्रतिलिपि उन्‍होंने मेरे पास भी भिजवाई थी। प्रो. शर्मा हिसार में प्रिंसिपल का पद ग्रहण करने से पूर्व डी.ए.वी. कॉलिज जालंधर में अंग्रेजी के विभागाध्‍यक्ष थे। वह मेरे गुरू भी थे, बी.ए. तक मैं उनका छात्र रहा था। वह दार्शनिक किस्‍म के सादालौह इनसान थे। कुर्ते पायजामे में कॉलिज आनेवाले वह एकमात्र अध्‍यापक थे। मेरे पिता जीवन भर डी.ए.वी. संस्‍थान से ही संबद्ध रहे। एक तरह से पठन-पाठन ही हमारा खानदानी पेशा था। पिता जालंधर में, भाई कैनेडा में और बहन इंगलैंड में पढ़ाती थी। जाने क्‍यों मेरे पिता को अंदेशा हो गया था कि मैं लेक्‍चररशिप छोड़ कर दिल्‍ली रवाना हो जाऊँगा। हिसार में मुझे कोई परेशानी न थी, भोजन और आवास की उत्‍तम व्‍यवस्‍था हो गई थी। कक्षा में दो एक अत्यंत सुंदर लड़कियाँ भी थीं और मैंने पाल के निर्देशन में दाना डालना भी शुरू कर दिया था। मगर हिसार का खुश्‍क और गैरसाहित्‍यिक अनुशासित जीवन मुझे रास न आ रहा था। दिल्‍ली में नौकरी पाने की न आशा थी न अपेक्षा। मैं इंटरव्यू पत्र पा कर ही प्रसन्‍न था कि मुफ्त में एक दिल्‍ली यात्रा का मौका मिलेगा। हिसार में मुझे लगातार एहसास हो रहा था कि मैं अपनी जड़ों से कटता जा रहा हूँ। जालंधर के दोस्‍त और वहाँ का फक्‍कड़ जीवन याद आता। हिसार में कहानी की बात केवल दीवारों से की जा सकती थी। कॉलिज में कुछ-कुछ गुरुकुल काँगड़ी जैसा वातावरण था, एकदम प्रदूषणरहित, हवन के धुएँ से सुवासित और गायत्रीमंत्र से सिंचित। सिगरेट तक पीने में संकोच और अपराध बोध होता। धूम्रपान करनेवाला मैं इकलौता स्‍टाफ मेंबर था। लोग जंगल पानी के लिए खेतों में जाते और मैं धूम्रपान करने।

इंटरव्यू देने गया तो पता चला, एक अनार है और दर्जन भर बीमार। इंटरव्यू देने वालों की लंबी कतार थी। ज्यादातर बेरोजगार युवक इंटरव्यू देने आए थे, शायद मैं एकमात्र बारोजगार यानी नौकरीशुदा था। सब लोग नए-नए कपड़े पहन कर और बाल सँवार कर आए थे। साफ पता चल रहा था, किसी विशेष अवसर के लिए तैयार हो कर घर से निकले हैं। सब के हाथों में प्रमाणपत्रों का पुलिंदा था। मेरा इंटरव्यू बहुत दिलचस्‍प रहा। मुझसे पूछा गया कि मैंने लापरवाह तरीके से पोस्‍टकार्ड पर आवेदन क्‍यों किया था? मैंने जवाब दिया कि मैंने बेरोजगारी के दिनों में आवेदन किया था और उन दिनों मैं पोस्‍टकार्ड का खर्च ही वहन कर सकता था। एक सज्जन साहित्‍यिक रुचि के थे, उन्‍होंने 'सारिका' में मेरी कहानी पढ़ रखी थी, उन्‍होंने कहा कि वह बेरोजगारी पर मेरी कहानी 'सिर्फ एक दिन' पढ़ चुके हैं। इस बात से मैं बहुत प्रभावित हुआ और अपने बारे में मेरी राय कुछ बदली। एक कहानीकार की ऐंठ से मैंने जवाब दिया कि मैं बेरोजगार नहीं हूँ। इस सवाल का कि नौकरी क्‍यों छोड़ना चाहते हैं, मेरे पास जवाब था कि मैं नौकरी नहीं, शहर छोड़ना चाहता हूँ। जितनी लापरवाही से मैंने आवेदन किया था, उस से भी ज्यादा बेफिक्री से इंटरव्यू दिया। इंटरव्यू दरियागंज में हुआ था, इंटरव्यू के बाद मैं पैदल ही 'बीसवीं सदी' के कार्यालय की तरफ चल दिया, हमदम के पास। दिल्‍ली में सिर्फ साप्‍ताहिक छुट्‌टी बिताने के इरादे से आया था। दफ्तर में मैंने अपना हिसार का पता छोड़ दिया था।

कोई दो महीने के बाद मुझे केंद्रीय हिंदी निदेशालय से एक रजिस्‍टर्ड पत्र प्राप्‍त हुआ, खोल कर देखा, नियुक्‍तिपत्र था। उसी डाक से 'सारिका' से कहानी का पारिश्रमिक प्राप्‍त हुआ था - सौ रुपए का चेक। नियुक्तिपत्र से कहीं ज्यादा मुझे पारिश्रमिक मिलने की खुशी हुई। मुझे लगा, अब हिसार मेरे लायक नहीं रहा। मेरे रहने के लिए सही जगह दिल्‍ली है। मैं दोनों पत्र ले कर प्रिंसिपल के कमरे में घुस गया। नियुक्‍तिपत्र दिखाने का साहस न हुआ, मैं प्रिंसिपल को चैक दिखा कर लौट आया। उन दिनों सौ रुपए का काफी महत्‍व था। एक तोला सोना खरीदा जा सकता था। प्रिंसिपल साहब भी प्रभावित हुए कि एक प्रतिभाशाली नवयुवक उनके स्‍टाफ पर है, जिसे कहानी लिखने का सौ रुपया मिल सकता है। मुझे लगा, नियुक्‍तिपत्र दिखाया तो वह बिगड़ जाएँगे और मेरे पिता को सूचित कर देंगे। शनिवार को मैं दिल्‍ली गया और दफ्तर में जगदीश चतुर्वेदी और कृष्‍णमोहन श्रीवास्तव (अब दिवंगत) से भेंट की। मेरे साथ-साथ दो और लोगों की नियुक्‍ति हुई थी। वे थे शेरजंग गर्ग और रमेश गौड़। दोनों पदभार ग्रहण कर चुके थे और ऐसा लग रहा था जैसे युगों-युगों से इस कार्यालय में काम कर रहे हों। हिसार लौट कर भी मैं इस्तीफा देने का साहस न बटोर सका। आखिर मैंने तय किया कि बगैर इस्‍तीफा दिए ही हिसार से निकल जाना बेहतर होगा। पहली तारीख को मैंने वेतन लिया और बगैर किसी को बताए अटैची केस उठा कर दिल्‍ली जानेवाली पहली बस में सवार हो गया। तब तक जालंधर से आ कर तीन लोग दिल्‍ली में बस चुके थे - सत सोनी, कृष्‍ण भाटिया और हमदम यानी मेरे पास दिल्‍ली में रहने के लिए तीन ठौर थे। मुझे खबर लगी थी कि मोहन राकेश भी 'सारिका' से इस्‍तीफा दे कर जल्‍द ही दिल्‍ली लौट रहे हैं।

दिल्‍ली में पैर जमाने में मुझे बहुत ज्यादा संघर्ष नहीं करना पड़ा। मुझे लगा, जैसे मैं बिरादरी से बाहर कर दिया गया था औेर अब मेरा वनवास कट चुका है। मैं जैसे अपने घर लौट आया। दफ्तर में डॉ. सुरेश अवस्‍थी, कृष्‍णमोहन श्रीवास्तव, डॉ. रणवीर रांग्रा, ख्‍वाजा बदीउज़्‍ज़मा, जगदीश चतुर्वेदी, शेरजंग गर्ग, रमेश गौड़, एम.एल. ओबेराय, के. खोसा आदि थे और बाहर मोहन राकेश, सत सोनी, कृष्‍ण भाटिया और गंगाप्रसाद विमल, हमदम। बहुत तेजी से दोस्‍तों की संख्‍या में इजाफा हो रहा था। कॉफी हाउस में नित नए रचनाकारों से भेंट होती।

उन दिनों केंद्रीय हिंदी निदेशालय द्वारा 'भाषा' त्रैमासिक का प्रकाशन होता था, शायद आज भी होता है। कुछ दिनों बाद मुझे भी 'भाषा' के संपादकीय विभाग से संबद्ध कर दिया गया। मिसेज तारा तिक्‍कू भाषा की संपादक थीं और जगदीश चतुर्वेदी उन के सहायक। एम.एल. ओबेराय कलाकार थे और 'भाषा' की साज सज्‍जा देखते थे। बाद में उनके साथ के. खोसा की भी नियुक्‍ति हो गई। ओबेराय साहब को स्‍टूडियो के लिए अलग कमरा मिला हुआ था। एक कमरे में जगदीश और मैं साथ-साथ बैठते थे। मिसेज तिक्‍कू के पास अलग कमरा था। दरियागंज में गोलचा के सामने दफ्तर था, वहाँ से उठ कर दफ्तर कुछ दिनों के लिए आसफ अली रोड चला गया और उस के बाद प्रगति मैदान में। हम लोग धीरे-धीरे कनाट-प्‍लेस की तरफ सरक रहे थे।

मिसेज तारा तिक्‍कू अद्‌भुत महिला थीं। अद्‌भुत इसलिए कि यह जगदीश चतुर्वेदी का तकिया कलाम था। हम पीठ पीछे उसे 'अद्‌भुतजी' कहते थे। उसके निकट महिला, कविता, ताजमहल, कुतुबमीनार, अकविता सब कुछ अद्‌भुत था। 'तार सप्‍तक' के बाद 'प्रारंभ' अद्‌भुत था। मिसेज तारा तिक्‍कू में अफसरी बू नहीं थी, वह एक खुशबूदार महिला थीं और उन दिनों 'इंटीमेसी' नाम का आयातित परफ्यूम इस्‍तेमाल करती थीं। उनका परफ्यूम दिल्‍ली में न मिलता था तो मुंबई से मँगवाती थीं। वह बहुत नफासतपसंद महिला थीं। एक बार मैंने आलस में दो-तीन दिन शेव नहीं बनवाई, यों ही लापरवाही से दफ्तर चला जाता, किसी काम से उनके कमरे में जाना हुआ तो उन्‍होंने बात करने से मना कर दिया। ड्राइवर को बुला कर कहा इन्‍हें किसी नाई के यहाँ ले जाइए। एक बार मिसेज तिक्‍कू कुछ दिन कार्यालय नहीं आईं, मालूम हुआ बीमार चल रही हैं। मैं, जगदीश और ओबेराय मिजाजपुर्सी के लिए उनके बँगले पर गए। वह पीठ पर तकिया लगा कर लेटी हुई थीं। बीमारी की हालत में भी उन्‍होंने सब का जायजा लिया। मैंने हफ्तों से जूते पालिश नहीं किए थे। सच तो यह है कि मैंने जीवन में कभी जूते पालिश ही नहीं किए और न करवाए। जब पहनने लायक नहीं रहे तो फेंक दिए। अचानक उनकी निगाह मेरे जूतों पर चली गई। उन्‍होंने तुरंत वहाँ से जूते पालिश करवाने रवाना कर दिया और मोची का ठिकाना भी बता दिया। जूते पालिश करवा कर आओ तब इत्‍मीनान से बैठ कर मिजाजपुर्सी करना। मुझे लगा था, वह फकीरों को तमीज सिखा रही हैं। यह तो मुझे भी मालूम था कि जूते पालिश करवाए जाते हैं, मगर मैंने कभी उसकी जरूरत महसूस न की थी। सच तो यह है कि मैं मिसेज तिक्‍कू के संपर्क में न आया होता तो अपने मित्रों काशी, दूधनाथ और ज्ञानरंजन की तरह दाढ़ी बढ़ा लेता। वैसे इसका श्रेय ममता को भी जाता है। उसने कभी न मूँछें रखने दीं न दाढ़ी। इस लिहाज से वह मिसेज तिक्‍कू से भी ज्‍यादा सख्‍त थी। मैं भी खुशी-खुशी उसकी बात पर राजी हो गया कि पत्‍नी की ऐसी आसान ख्‍वाहिशें जरूर पूरी की जा सकती हैं।

वर्ष भर में 'भाषा' के दो-तीन अंक ही निकल पाते थे। वास्‍तव में सरकारी प्रेसों के पास नोट छापने का ही इतना अधिक काम था कि शिक्षा मंत्रालय का काम उनकी अंतिम प्राथमिकता पर रहता। 'भाषा' राजकीय प्रेस नासिक से मुद्रित होती थी और मुद्रण के दौरान 'भाषा' से संबद्ध हर आदमी अंक छपवाने नासिक जाना चाहता था। ज्यादातर लोग तृतीय श्रेणी में नासिक जाते थे और सरकार से प्रथम श्रेणी का मार्ग व्‍यय वसूल करते थे। 'भाषा' के मुद्रण कि सिलसिले में एक बार मैंने भी नासिक यात्रा की थी, उसका जिक्र आगे कहीं करूँगा। फिलहाल 'भाषा' के अभी वे अंक प्रकाशित होने थे, जो तब से प्रेस में धूल चाट रहे थे जब हमारा पद विज्ञापित भी न हुआ था। ऐसी वस्‍तुस्‍थिति समझ में नहीं आता था कि हम करें तो क्‍या करें? कभी-कभार डाक से कोई नई रचना प्राप्‍त होती तो हम लोग भूखे शेर की तरह उस पर टूटते, जैसे किसी दुकान में बहुत दिनों के बाद कोई ग्राहक आया हो। हम लोग रचना के भाग्‍य का फैसला करने में जुट जाते। उस रचना की फाइल चल निकलती और अंततः अस्‍वीकृत के साथ डिस्‍पैच क्‍लर्क के पास पहुँच जाती। 'भाषा' में अयाचित रचनाएँ प्रायः नहीं छपती थीं। उसमें तमाम भारतीय भाषाओं को स्‍थान दिया जाता था। कई रचनाएँ तो हिंदी के साथ-साथ मूल भाषा में भी प्रकाशित होती थीं। प्रतिष्‍ठित रचनाकारों की ही इतनी रचनाएँ प्राप्‍त हो जातीं कि बहुत-सी अच्‍छी रचनाओं को भी स्‍थान न मिल पाता। उन दिनों दिल्‍ली में संघर्षशील लेखकों की लंबी जमात थी, उस जमात के लेखक अपने को 'फ्री लांसर' कहते थे। ये लोग ऐसी पत्रिकाओं के कार्यालयों का चक्‍कर काटते रहते, जिनसे पारिश्रमिक मिलने की गुंजाइश रहती। जगदीश चतुर्वेदी की कोशिश रहती कि 'फ्री लांसर' लेखकों की मदद होती रहे। सरकार ने जैसे जरूरतमंद लेखकों की आमदनी का एक स्रोत खोल दिया था। मगर यह एक ऐसा स्रोत था कि अक्‍सर सूखा पड़ा रहता।

दफ्तर में हम लोगों का समय न कटता। हम लोग काम करना चाहते थे, मगर काम नहीं था। उन्‍हीं दिनों सरकार ने यह जानने के लिए सरकारी दफ्तरों का सर्वेक्षण करवाया कि मंत्रालय में स्‍टाफ ज्यादा है या उसकी कमी है। निदेशालय के अफसरों को जैसे काम मिल गया। प्रत्‍येक इकाई से स्‍टाफ का लेखा-जोखा माँगा गया। केंद्रीय हिंदी निदेशालय से रिपोर्ट भेजी गई कि स्‍टाफ की कमी से राष्‍ट्रभाषा की प्रगति का कार्य बाधित हो रहा है। 'भाषा' के लिए भी नए पद सृजित किए गए, जबकि वर्तमान स्‍टाफ ही दफ्तर में उबाइयाँ ले कर राष्‍ट्रभाषा के उन्‍नयन में अपना अमूल्‍य योगदान दे रहा था। प्रगति मैदान में दफ्‍तर गया तो मुझे और जगदीश को अलग कमरा मिल गया हम लोग अंदर से सिटकनी लगा कर ग्‍यारह बजे तक सो जाते। नींद न आती तो साहित्य सेवा करते। दफ्तर में स्‍टेशनरी भी इफरात में उपलब्‍ध थी। जगदीश चतुर्वेदी इतनी रफ्तार से कविताएँ लिखता था कि प्रायः नोट शीट कम पड़ जातीं। वह एक बैठक में दर्जनों कविताएँ लिख मारता। अकविता का दौर था, वह जो कुछ भी लिखता उसे कविता की संज्ञा दे देता। वह अकविता का आशुकवि था। उसकी रचनाएँ नर नहीं मादा पर केंद्रित रहतीं। समाज में व्‍याप्त शोषण, अन्‍याय, असमानता, भ्रष्‍टाचार उसकी रचना का विषय नहीं थे, वह नारी के 'उन कठिन दिनों' के बारे में ज्यादा चिंतित रहता। औरत उसके लिए सिर्फ मादा थी। उसने हिंदी कविता को नितांत एक नया मुहावरा दिया।

जगदीश बहुत कल्‍पनाशील था, उसके साथ समय बिताना बहुत आसान था। जेठ की न खत्‍म होनेवाली दोपहरी में मैं अत्यंत मासूमियत से उससे पूछता कि क्‍या कभी उसने चलती रेल गाड़ी में प्रेम किया है तो वह सिगरेट सुलगा कर एक लंबा कश खींचता और शुरू हो जाता - रात की गाड़ी से मैं इंदौर से ग्‍वालियर जा रहा था, फर्स्‍ट क्‍लास के कूपे में हम दोनों का आरक्षण था। उसे 'जिन' और 'लाइम कार्डियल' का चस्‍का था। ज्‍यों ही ट्रेन खुली मैंने उसे बाहों में भींच लिया वह ट्रेन से ग्‍वालियर के लिए चलता और रास्‍ता भूल जाता। ट्रेन अचानक मुंबई की तरफ दौड़ने लगती। निदेशालय में कुछ इसी शैली में होता रहता था राष्‍ट्रभाषा के उन्‍नयन का कार्य। किसी केबिन में कामुक अधिकारियों का कच्‍चा चिट्‌ठा खोला जाता। गोयल के पास एक दिलचस्‍प किस्‍सा था कि कैसे एक चपरासी दफ्तर के बाद डिप्‍टी डॉयरेक्‍टर के कमरे से एक महिला कर्मचारी की शलवार ले कर फरार हो गया था और कैसे शलवार की फाइल खुल गई वगैरह-वगैरह। इस पर भी समय न कटता तो हम लोग बाहर धूप में जा बैठते। लंच का समय हो जाता तो मिल कर लंच करते। सहकर्मियों के टिफिन से मेरा भी काम चल जाता। मुझे एम.एल. ओबेराय के यहाँ के पराँठे बहुत पसंद थे और जगदीश के टिफिन की सूखी तरकारी, खोसा मेरे लिए घर से हरी मिर्च लाता। लंच से लौट कर बोरियत का दौर शुरू होता। जगदीश कविताएँ लिख-लिख कर थक जाता तो कहानी लिखने लगता। वह खूब सेक्‍सी कहानियाँ लिखता। भाषा पर उसका जबरदस्‍त अधिकार था। वह कमर से नीचे की कहानियाँ लिखता। उसकी कहानियों से पापी पेट नदारद रहता। वह किसी लंबी-चौड़ी सामाजिक समस्‍या से न जूझता था, उसे छह फुट जमीन भी दरकार न थी, वह मात्र डेढ़ इंच को ले कर परेशान रहता। उसी डेढ़ इंच के लिए उसके पात्र मर्मांतक पीड़ा में से गुजरते, लगता कि वे एक दिन मानसिक संतुलन खो बैठेंगे। कहानी लेखन के लिए जगदीश को ज्यादा समय न मिलता, क्‍योंकि दोपहर बाद लेखकों का आना-जाना शुरू हो जाता। कुछ लोग तो रोज आते थे। वहीं कुर्सी पर बैठे-बैठे वह किसी न किसी प्रकाशक को भी पटा लेता। बाद में 'प्रारंभ' निकालने की योजना बनी तो उसका पूरा समय उसी में जाने लगा। नए-नए कवियों को लगा कि इस पीढ़ी को भी अपना सच्‍चिदानंद हीरानंद मिल गया है। 'प्रारंभ' प्रकाशित हुआ तो 'धर्मयुग' में पूरे पृष्‍ठ की समीक्षा छपी। दफ्तर में दिन भर कवियों का ताँता लगा रहता। जगदीश चतुर्वेदी ने बताया कि पंडित सूर्यनारायण व्‍यास ने बचपन में उसके लिए भविष्‍यवाणी कर दी थी कि जातक की ख्‍याति दिगंत तक पहुँचेगी। अभी हाल में मुझे यू. के. से हिंदी समिति का एक परिपत्र मिला है, जो शीघ्र ही इक्‍कीसवीं सदी के स्‍वागत में आप्रवासी भारतीय साहित्‍य का अनूठा संकलन प्रकाशित करने जा रही है। परिपत्र पढ़ कर मुझे लगा कि पंडित सूर्यनारायण व्‍यास ने पचास साल पहले जान लिया था कि इस संकलन की भूमिका सुविख्‍यात साहित्‍यकार जगदीश चतुर्वेदी लिखेंगे।

दिल्ली में टी-हाउस हमारा दूसरा घर था। जैसे दफ्तर के बाद घर लौटते हैं, हम टी-हाउस लौटते। पहुँचते ही चरणमसीह ठंडा-ठंडा पानी पिलाता। हम लोगों ने बस का पास घर से दफ्तर तक नहीं, दफ्तर से रीगल तक बनवाया हुआ था, बीच में आठ घंटे के लिए दफ्तर उतर जाते। घर से हम यही सोच कर निकलते थे जैसे टी-हाउस जा रहे हैं। रात को अंतिम बस से हम लोग अपने-अपने घर लौट जाते। लौटते में उर्दू कथाकार बलराज मेनरा का किंग्जवे कैंप तक साथ रहता। बाद में जब मैं दिल्‍ली से मुंबई पहुँचा तो भारती जी ने मुझ से टी-हाउस पर एक रेखाचित्र लिखने के लिए कहा। 'धर्मयुग' के सन 65 के स्‍वाधीनता विशेषांक में वह प्रकाशित हुआ था। यहाँ उसे उद्धृत करना अप्रासंगिक न होगा।

मेरा एक कलाकार मित्र हमदम टी-हाउस पर एक पेंटिंग करना चाहता था। उसका विचार था कि टी-हाउस के चरित्र का सबसे प्रमुख तत्‍व टी-हाउस का शोर है और शोर को रेखाओं में बाँधना मुश्‍किल काम है , खास कर उस शोर को , जिसकी ध्‍वनियाँ अलग-अलग न की जा सकें , जो मछली बाजार या सट्‌टा बाजार के शोर से आश्‍चर्यजनक रूप से साम्‍य रखते हुए भी उस शोर से भिन्‍न हो। टी-हाउस के एक पुराने पापी ने सुझाया कि टी-हाउस का सही चरित्र पेश करना हो तो टी-हाउस की छत पर गिद्धों , चीलों , छिपकलियों , कौओं आदि को लटकते हुए दिखाया जा सकता है। एक और अनुभवी व्‍यक्‍ति ने सुझाया कि टी-हाउस के शोर को कहानी-बम के विस्‍फोट के रूप में पकड़ा जा सकता है। मुद्राराक्षस ने कहा कि कौन कहता है टी-हाउस में शोर होता है , टी-हाउस में तो मौत का-सा सन्‍नाटा रहता है.....जगदीश चतुर्वेदी ने उसी समय ' हाइकू ' लिख दिया , टी-हाउस एक कब्रगाह है...... , बलराज मेनरा ने , जो पिछले बारह वर्षों से आँधी , पानी , तूफान और बुखार में भी टी-हाउस जाना नहीं भूलता , पेरिस के कुछ कॉफी हाउसों का हवाला देते हए सवाल किया , यह शोर बड़ा मानीखेज है। सार्त्र इसी शोर की पैदावार है और किसी ने कामू को कॉफी हाउस में बोलते नहीं सुना तो कुछ नहीं सुना है। पेरिस में कॉफी हाउस न होते तो.....

बलराज मेनरा की बात गलत नहीं है। यद्यपि दिल्‍ली का यह टी-हाउस बेजोड़ है , इसकी तुलना पेरिस के कैफे डि ला सिविलाइजेशन , कैफे डि ला पेक्‍स और न्‍यूयार्क के ' कैफे ला मेट्रो ' से अवश्‍य की जा सकती है। यहाँ आपको सार्त्र और कामू भी मिल सकते हैं , गिंसबर्ग और पीटर आर्लवस्‍की भी। टी-हाउस का सार्त्र टी-हाउस में नहीं घुसेगा अगर उसे मालूम हो जायगा कि टी-हाउस का कामू टी-हाउस में बैठा है। टी-हाउस का हेमिंग्‍वे फिशिंग नहीं करता , बुलफाइट में भी उसकी रुचि नहीं है , वह केवल उन पाठकों-आलोचकों-संपादकों का डट कर मुकाबला करता है , जो उसकी रचनाओं का सही मूल्‍यांकन नहीं करते। मगर टी-हाउस का हेमिंग्‍वे इतना क्रूर नहीं है , आपको उसकी रचना पसंद आ गई तो फिर आपको कॉफी (मय सैंडविचेज) की चिंता नहीं , डिनर की भी चिंता नहीं , बियर अथवा जिन की भी चिंता नहीं। आपकी ये चिंताएँ हेमिंग्‍वे की चिंताएँ हैं। इस बात को टी-हाउस का हर व्‍यक्‍ति जानता है। शायद यही कारण है कि बहुत से लोग निःसंकोच खाली जेबों से टी-हाउस चले आते हैं। खाली जेबें , पागल कुत्‍ते और बासी कविताएँ ले कर।

शाम को पाँच साढ़े पाँच बजे जब सरकारी दफ्तरों में छुट्‌टी होती है , तो ढेरों सरकारी कर्मचारी दिन भर का लेखन पोर्टफोलियो में रखे , टी-हाउस की ओर भागते नजर आते हैं। बहुत से सरकारी अफसर , जिनकी कई कारणों से साहित्‍य में रुचि है , शाम को दफ्तर से लौटते हुए बहुत से लेखकों , नीम-लेखकों और प्रशंसकों को अपने साथ टैक्‍सी में भर लाते हैं। टी-हाउस की रौनक और गहमागहमी की एक वजह यह भी है कि हर व्‍यक्‍ति अपने साथ पूरी टीम रखता है। जो व्‍यक्‍ति अपनी टीम नहीं बना पाता , वह श्रीकांत वर्मा की तरह टी-हाउस के बुक-स्‍टाल पर पत्रिकाएँ पलट कर या सिगरेट खरीद कर ही लौट जाता है या ओमप्रकाश दीपक (अब दिवंगत) की तरह टी-हाउस के एक कोने में अपने परिवार के साथ कॉफी पीता नजर आता है। टी-हाउस में बैठे हुए भी टी-हाउस से अछूता या वह निर्मल वर्मा की तरह दोपहर में टी-हाउस आएगा या जैनेंद्र कुमार की तरह बहुत जल्‍दी उसे टी-हाउस से वितृष्‍णा हो जाएगी।

छह बजते-बजते सभी टीमें मैदान में उतरी नजर आती हैं। कप्‍तानों के चेहरों पर जलाल आता जाएगा और वे बढ़-बढ़ कर कॉफी का आर्डर देते जाएँगे। जब तक कप्‍तान बिल अदा नहीं कर देंगे , टीमें निष्‍ठापूर्वक कप्‍तान के प्रवचन सुनती रहेंगी , वाह-वाह करेंगी , कप्‍तान की पुरानी रचनाओं का हवाला देंगी और हर बात की हाँ में हाँ मिलाएँगी। कप्‍तान नया कहानीकार है तो नई कहानी , युगबोध , युगचेतना , भावबोध और युगसंत्रास का सशक्‍त माध्‍यम है। कप्‍तान कवि है तो कविता , कप्‍तान कथाकार है तो कहानी , अभिव्‍यक्‍ति का युगानुकूल एकमात्र ' जैनुइन ' माध्‍यम है। कप्‍तान संपादक है तो उसकी पत्रिका हिंदी की एकमात्र साहित्‍यिक पत्रिका है और उसका हर बच्‍चा राजा-बेटा है , उसके रेडियो की आवाज बहुत सुरीली है , उसके घर के पर्दे उसकी सुरुचि का परिचय देते हैं। शायद यही कारण है कि बहुत-से फ्री लांसर परिश्रम करने के बावजूद कप्‍तान-पद प्राप्‍त करने में असमर्थ रहते हैं और टी-हाउस में जलजीरा (अब काँजी भी) पीने की लत डाल चुके हैं। वे अपनी टीम भी नहीं जुटा पाते , क्‍योंकि जलजीरा और काँजी का आकर्षण टीम-भर लोगों को नहीं खींच पाता। आपातकालीन स्‍थिति में या मंदी के दिनों में इक्‍के-दुक्‍के विश्वविद्यालय के छात्रों की बात अलग है।

टी-हाउस में वह क्षण अविस्‍मरणीय होता है , जब बैरा बिल ले कर यमराज की तरह सहसा उपस्‍थित हो जाता है। जो लोग क्षण के इस तनाव को झेल नहीं पाते , वे उठ कर टायलट की तरफ चले जाते हैं या दूसरी टेबुल पर। कुछ लोग बैरे को देखते ही जेबें टटोलना शुरू कर देते हैं और तब तक टटोलते रहते हैं , जब तक कि बिल अदा नहीं हो जाता। कुछ घबराहट में सिगरेट सुलगा लेते हैं या माचिस से खेलने लगते हैं और कुछ बैठे रहते हैं चुपचाप , ' बैरे की ओर से मुँह फेरे ' । यह तो हुआ बिल अदा करने से पहले का तनाव। अब उस वक्‍त का जायजा लीजिए , जब आर्डर प्‍लेस होनेवाला हो :

टी-हाउस की मेजों पर चारों गिर्द शोर

केवल खाली गिलासों की बेतरतीब लकीर

मेरे आस-पास बैठे दोनों दोस्त

कॉफी का आर्डर देते हुए

भयभीत से कॉफी बोर्ड का विज्ञापन

देख रहे हैं।

उन्‍हें डर है

कि कहीं मैं भी कॉफी पीने की हामी न भर दूँ

उनकी जेबों में हैं चंद सिक्‍के ,

वैसे वे रोज टी-हाउस में बैठते हैं।

सार्त्र , कामू , विस्‍की के पेग ,

पिकासो की पेंटिंग

कहानियों का एब्‍स्‍ट्रैक्शन

राजकमल प्रकाशन से मिले अनुवाद

सभी पर ये बात करते हैं

( बैरा दो बार बारह गिलास पानी रख जाता है)

- नरेंद्र धीर (प्रारंभ)

यह सच है कि कुछ लोग टी-हाउस में केवल पानी पीने के लिए ही आते हैं। पानी टी-हाउस के बाहर भी मिलता है मगर दो नए पैसे में , और फिर वहाँ बैठने का भी कोई इंतजाम नहीं है। कुछ लोग टी-हाउस में रचनाएँ सुनाने के लिए ही आते हैं , रचनाएँ पत्र-पत्रिकाओं में भी प्रकाशित होती हैं , परंतु पत्रिकाओं में इन लोगों का विश्‍वास नहीं रहा। इनके मुताबिक इनकी रचनाएँ ' अत्‍याधुनिक ' होती हैं और संपादकों के पल्‍ले नहीं पड़तीं। एक वक्‍त आता है , ये संपादकों की चिंता छोड़ देते हैं और अपना छोटा-मोटा प्रकाशनगृह खोल लेते हैं या किसी जेबी पत्रिका के प्रकाशन की व्‍यवस्‍था कर लेते हैं। कुछ लोग टी-हाउस में केवल ठहाके लगाने आते हैं। ठहाका टी-हाउस में बहुत जल्‍दी लगता है जैसे पेट्रोल को आग या कहानी को ' वाद ' । ठहाका किसी बात पर लग सकता है। कोई व्‍यक्‍ति चुप बैठा है। ठहाका। कोई व्‍यक्‍ति बोल रहा है। ठहाका। किसी व्‍यक्‍ति ने बिल अदा किया है। ठहाका। कोई टी-हाउस में घुसा। ठहाका। कई बार ठहाकों की साहित्‍यिक प्रतियोगिता भी हो जाती है। यदि टी-हाउस में मोहन राकेश (अब दिवंगत) के ठहाके गूँज रहे होंगे , पुराने कहानीकार या अन्‍य कहनीकार उतने ही जोर से ठहाका लगाएँगे कि कहीं मोहन राकेश के ठहाकों का यह अर्थ न लगा लिया जाए कि नई कहानी चढ़ती कला में है। ऐसी प्रतियोगिता ज्यादा देर नहीं चल पाती , क्‍योंकि टी-हाउस का प्रबंधक कुछ अमनपसंद आदमी है। वह कुछ देर तो कोने में खड़ा ठहाके थमने की प्रतीक्षा करता रहेगा , फिर निराश हो कर ठीक उसी मेज के पीछे खड़ा हो जाएगा और शांतिपूर्ण वातावरण के लिए अपील करेगा। कई बार उसकी अपील का आश्‍चर्यजनक रूप से असर होता है और कई बार इसी को ले कर एक नए ठहाके या झगड़े की शुरुआत हो जाती है। इस झगड़े की संभावना ज्यादा रहती है , अगर मेज के आस-पास डॉक्‍टर रामकिशोर द्विवेदी या सुरेंद्र मल्‍होत्रा बैठे हों। डॉक्‍टर रामकिशोर द्विवेदी टी-हाउस का फेमिली डॉक्‍टर है। कमलेश्‍वर से ले कर बालस्‍वरूप राही तक सभी उसके मरीज हैं और डॉक्‍टर का ख्‍याल है कि ठहाके अच्‍छे स्‍वास्‍थ्‍य के लिए बहुत जरूरी होते हैं , वह प्रेस्‍क्रिप्‍शन के साथ दर्जन दो दर्जन ठहाके भी लिख देता है। डॉक्टर तो खैर कई बार अपने खास ' मूड ' में होता है , मगर सुरेंद्र को प्रबंधक की बात पर तब गुस्‍सा आता है जब वह समोसे , पकौड़े और मसाला दोसा खाने के बावजूद ठहाके लगाने के अपने अधिकार को छिनते हुए पाता है और उसे पता होता है कि टेबुल-भर का बिल उसे ही चुकाना है। कुछ लोगों पर इस झगड़े का यह असर होता है कि वे टी-हाउस में दुबारा न आने का प्रण करके टी-हाउस का परित्‍याग कर देते हैं। यह दूसरी बात है कि कुछ ही देर के बाद वे दुबारा टी-हाउस में घुसते नजर आते हैं। ऐसा प्रण यहाँ के हर व्‍यक्‍ति ने किया है , किसी ने उपन्‍यास लिखने के लिए तो किसी ने वक्‍त के सदुपयोग के लिए , किसी ने यों ही देखा-देखी। ऐसे बहुत से लोग मिलेंगे , जिनका पाँच बजे दरियागंज में या करौल बाग में या मॉडल टाउन में टी-हाउस आने का कोई इरादा नहीं था , मगर छह बजे वे टी-हाउस में कॉफी पीते ( ? ) नजर आएँगे।

टी-हाउस में लड़कियाँ नहीं आती , पत्‍नियाँ आती हैं , कभी-कभी ही। कोई लड़की आती भी है कभी-कभार , तो अपने माँ-बाप के साथ , सहमी-सकुचाई। शायद यही वजह है कि कनाट-प्‍लेस के प्रत्येक रेस्‍तराँ के सामने वेणियाँ और गजरे बेचनेवालों की भीड़ टी-हाउस के बाहर नहीं मिलेगी। टी-हाउस के बाहर रेलिंग के साथ-साथ ठंडा जल या ईवनिंग न्‍यूज या पेन बेचनेवाले ही मिलेंगे या फिर जूते पालिश करनेवाले , जो अक्‍सर मंदी की शिकायत करते हैं। टी-हाउस के मुख्‍य प्रवेश द्वार के बिल्‍कुल साथ एक पानवाला बैठता है , जो चरणमसी की तरह एक तरह से पूछ-ताछ विभाग का काम करता है और ' उधार मुहब्‍बत की कैंची है ' में जिसका दृढ़ विश्‍वास होता जा रहा है। वह किसी भी समय बता सकता है कि नागार्जुन टी-हाउस कब आनेवाले हैं , राकेश टी-हाउस में बैठे हैं या जा चुके हैं , रमेश गौड़ (दिवंगत) को कहीं से पारिश्रमिक आया या नहीं , सर्वेश्‍वरदयाल सक्‍सेना (दिवंगत) कब से कनाट-प्‍लेस नहीं आए , जगदीश चतुर्वेदी की नई योजनाएँ क्‍या हैं , जवाहर चौधरी (दिवंगत) , अजित कुमार और डॉ . देवी शंकर अवस्‍थी (दिवंगत) टी-हाउस कम क्‍यों आते हैं , प्रयाग शुक्ल ' रानी ' से अलग क्‍यों हो गए या ' दस कहानियाँ ' का नया अंक कब आनेवाला है ? यह सच है कि उन लोगों के बारे में उसकी जानकारी हमेशा अपर्याप्‍त होती है , जिन लोगों को उसका उधार चुकाना होता है। उदाहरण के लिए , वह कहेगा कि श्री ' ' कई दिनों से कनाट-प्लेस की तरफ नहीं आ रहे हैं , जबकि श्री ' ' दूसरे दरवाजे से रोज टी-हाउस आते हैं और दूसरे दरवाजे से ही रोज वापस भी जाते हैं। दरअसल टी-हाउस के तीनों दरवाजे अलग-अलग अर्थ रखते हैं। तीसरा दरवाजा एक साथ किचन , टायलट और ' वेजेटेरियन ' में ले जाता है। जब कोई व्‍यक्ति बहुत देर तक तीसरे दरवाजे से वापस न आए , तो इसका सीधा-सादा एक ही अर्थ होता है कि वह ' वेजेटेरियन ' में बैठा ' स्‍टफ्ड पराँठा ' खा रहा है। दूसरों के सिगरेट और दूसरों की कॉफी पी कर पराँठा खाने या सुस्‍ताने के लिए ' वेजेटेरियन ' से बेहतर और कोई जगह नहीं हो सकती।

टी-हाउस में कभी-कभी दंगा भी हो जाता है। यह दंगा शराब के नशे में भी हो सकता है और मंटो की किसी कहानी को ले कर भी। दंगे यहाँ आतिशबाजी की तरह फूटते हैं और कुछ क्षण बाद आतिशबाजी की तरह ही ठंडे भी हो जाते हैं। ज्यादा नुकसान नहीं होता। किसी मेज का कोई शीशा टूट जाता है या किसी दीवार पर कोई गिलास। किसी के मुँह पर तमाचा पड़ता है और कोई तमतमा कर रह जाता है या दाँत पीस कर। इसके बावजूद टी-हाउस एक सुरक्षित जगह है। महानगर का अकेलापन इस हद नहीं है कि कोई अकेला पड़ा कराहता रहे। कुछ लोग ऐसे भी हैं जो किसी के भी साथ किसी भी वक्‍त सहायतार्थ अस्‍पताल या थाने जा सकते हैं। एक प्रतिष्‍ठित लेखक (मोहन राकेश) पर किसी अराजक तत्‍व ने हमला कर दिया था तो टी-हाउस एकदम खाली हो गया था। सभी भाषाओं के लेखकों के झुंड के झुंड प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्‍त्री के बँगले पर पहुँच गए थे और लेखकों का शिष्‍टमंडल उनसे मिला था। एक कहानी के एक क्रुद्ध पात्र ने जनपथ के पास एक लेखक (खाकसार) की पिटाई कर दी और लेखक घायल हो गया था , टी-हाउस के दोस्‍तों की भीड़ रात देर तक इर्विन अस्‍पताल में बैठी रही थी और सुरेंद्र प्रकाश ने कई लीटर पेट्रोल खर्च कर हमलावर कवि को ढूँढ़ निकाला था। मगर यह जरूरी नहीं कि क्रुद्ध कवि ही टी-हाउस आते हैं , कभी-कभी टी-हाउस में प्रशंसक भी आते हैं और अपने प्रिय लेखक तथा उसके प्रिय मित्र को हैंबर्गर या मसाला दोसा खिला कर या कॉफी पिला कर लौट जाते हैं। यह दूसरी बात है कि टी-हाउस में मिलनेवाला प्रशंसक , प्रशंसक नहीं रहता और दुबारा टी-हाउस भी नहीं आता।

टी-हाउस के बारे में बहुत किंवदंतियाँ प्रचलित हैं। जैसे , ' फाँसी पानेवाले एक व्‍यक्‍ति ने टी-हाउस में कॉफी पीने की अंतिम इच्‍छा प्रकट की थी और उसे टी-हाउस लाया गया था। ' , ' नई कहानी का जन्‍म टी-हाउस में हुआ था। ' , ' हमदम अब तक टी-हाउस में कॉफी के पाँच-हजार प्‍याले पी चुका है। ' , ' अमुक का टी-हाउस में प्रेम हुआ था और अमुक ने अपनी पत्‍नी को तलाक देने का अंतिम निर्णय टी-हाउस में किया था। ' ये किंवदंतियाँ ' नए मुसलमानों ' को आकर्षित करने के लिए फैलाई जाती हैं।

इस सबके बावजूद राजधानी में टी-हाउस की वजह से जितनी जागरूकता और चेतना है , वह शायद ही अन्‍यत्र मिले। क्रिकेट मैच हो रहे हों , तो टी-हाउस का हुजूम टी-हाउस के पीछे रेडियो सेट से सटा हुआ आँखों-देखा विवरण सुनता नजर आएगा। इसी दुनिया को हुसेन , रामकुमार और सतीश गुजराल की कला प्रदर्शनियों में भी देखा जा सकता है और लेडी हार्डिंग कालेज के सामने के मैदान में हाकी या फुटबॉल का मैच देखते हुए भी , साहित्‍य अकादमी में भी और ' नेशनल स्‍कूल ऑफ ड्रामा ' के किसी रंगमंच के आस-पास भी। दिल्‍ली में फिल्‍म फेस्‍टिवल हो रहा था , तो टी-हाउस के लोगों ने आकस्‍मिक और अर्जित छुट्‌टियाँ ले ली थीं। वियतनाम और अल्‍जीरिया , क्‍यूबा और कांगो टी-हाउस में चर्चाओं का विषय रहते हैं। राजधानी में सबसे अधिक साहित्‍यिक पत्रिकाएँ टी-हाउस के स्‍टाल पर ही बिकती हैं। इसी माहौल की वजह से टी-हाउस के बैरे तक साहित्य में गहरी दिलचस्‍पी लेने लगे हैं। चरणमसी तो कविताएँ करने लगा है। ' उदास रहता है चरणमसी ' उसकी नई कविता है। टी-हाउस में कोई भी रचना ' अननोटिस्ड ' नहीं जाती , वह चाहे किसी चक्रलिखित पत्रिका में क्‍यों न प्रकाशित हुई हो।

टी-हाउस बाहर से आनेवाले रचनाकारों को आकर्षित करता है। यशपाल दिल्‍ली आएँ तो टी-हाउस अवश्‍य आएँगे। अश्क , भगवती बाबू , अज्ञेय , डॉ . भारती , राजेंद्रसिंह बेदी , कृष्‍ण चंदर , डॉ . मदान , रमेश बक्षी , दुष्‍यंत कुमार , गिरिजाकुमार माथुर , राजकमल चौधरी , भारतभूषण अग्रवाल , शानी , ( सब दिवंगत) कुंतल मेघ , लक्ष्‍मीकांत वर्मा , ओंकारनाथ श्रीवास्तव , कीर्ति चौधरी , कुँवर नारयण , भीष्‍म साहनी , नामवर सिंह , दूधनाथ , ज्ञानरंजन , शरद देवड़ा , विष्‍णु प्रभाकर , राजीव सक्‍सेना , विमल , परेश , ममता , नेमिचंद्र जैन , अनामिका , नरेश सक्‍सेना , गोपाल उपाध्‍याय , हरिवंश कश्यप , लल्‍ला , शेरजंग गर्ग आदि बहुत से लेखक घंटों टी-हाउस में बैठे हैं। संसद के अधिवेशन के दिनों में लोहिया को भी टी-हाउस में देखा जा सकता है।

यह थी दिल्‍ली के साठोत्‍तरी साहित्‍यिक परिदृश्‍य की एक झलक। अब न कनाट-प्‍लेस में टी-हाउस रहा है और न वह साहित्‍यिक माहौल। अनेक रचनाकार भी इस जहान में नहीं रहे।

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केंद्रीय हिंदी निदेशालय में अनेक साहित्‍यिक थे - सुरेश अवस्‍थी, कुलभूषण, श्‍याममोहन श्रीवास्तव (दिवंगत), जगदीश चतुर्वेदी, शेरजंग गर्ग, रमेश गौड़, ख्‍वाजा बदीउज़्‍ज़मा (दिवंगत) आदि आदि। कुछ ही दिनों में मैंने महसूस किया, आदि आदि लोग छपने-छपानेवाले साहित्‍यकारों से बहुत जलते थे। दिल्‍ली में पूरा दिन दफ्तर और टी-हाउस में बीतता। उन दिनों टी-हाउस जानदार था।

टी-हाउस का उन्‍मुक्‍त वातावरण कई बार दफ्तरी जीवन में उलझनें पैदा कर देता था। दफ्तर के अफसर लेखक यह मान कर चलते थे कि साहित्‍य में भी हम उनके मातहत हैं। उन दिनों 'ज्ञानोदय' के किसी अंक में हिंदी रंगमंच के संबंध में 'अश्क' का एक लेख छपा था, जिसमें एक अधिकारी के लेख की कड़ी आलोचना की गई थी। जगदीश चतुर्वेदी, श्‍याममोहन श्रीवास्तव, शेरजंग गर्ग तथा मैंने उस लेख की प्रशंसा करते हुए अश्‍क जी को एक संयुक्‍त बधाई पत्र भेजा। अश्‍क जी ने हम लोगों के पत्र का खूब प्रचार किया और हर मिलनेवाले से उन्‍होंने हमारे संयुक्‍त पत्र का इतना जिक्र किया कि एक दिन शाम को साढ़े चार बजे के करीब अधिकारी के कमरे में हमारा संयुक्‍त पत्र उपस्‍थित हो गया। नरेश मेहता 'इति नमस्‍कारंते' करके अधिकारी के कमरे से निकले ही थे कि उनका चपरासी यमदूत की तरह मेरे सिर पर खड़ा हो गया। साहब का बुलौआ आया था। अधिकारी महोदय प्रायः कुरसी पर बैठने का इशारा किया करते थे। उस दिन वे खुद तो रिवाल्‍विंग चेयर पर और अधिक पसर गए और मुझे खड़े रखा।

'अश्‍क जैसे बेहूदा आदमी के पास आप हमारी 'कांफिडेंशल रिपोर्ट' लिखते हैं। मुझे तो दफ्तर में ही लिखनी हैं।

बात समझने में मुझे देर न लगी। जब से कहानियाँ छपने लगी थीं, नौकरी को हम कोई बहुमूल्‍य वस्‍तु नहीं समझते थे। एक औसत अफसर की तरह अधिकारी को इसका आभास तक नहीं था। मैंने कहा, 'दफ्तर के बारे में तो किसी ने अश्‍क जी को कोई बात नहीं लिखी।'

'मैं क्‍या दफ्तर में नहीं हूँ?'

'दफ्तर में आप लेखक की हैसियत से तो नहीं हैं।'

'मुझे लेखक की हैसियत से ही घर पर फोन मिला है।' अधिकारी ने कहा, 'आप रोज टी-हाउस क्‍यों जाते हैं?'

'दफ्तर के बाद ही जाता हूँ।' मैंने कहा।

'मगर मुझे पसंद नहीं। आप वहाँ भी मेरे बारे में रिमार्क पास करते होंगे।'

मुझे लगा निहायत बेवकूफ अफसर से पाला पड़ गया है।

'आप मुझे टी-हाउस जाने से नहीं रोक सकते।' मैंने कहा और उनकी बुद्धि पर हैरान होने लगा। उनके तमाम मित्र मेरे भी अग्रज मित्र थे। राकेश, नामवर, नेमिचंद्र जैन, कमलेश्वर, यादव। वे मेरे प्रति ऐसा रवैया कैसे अपना सकते हैं। मुझे अपनी कांफिडेंशल रिपोर्ट की जरा भी चिंता न थी। नया खून था, कोई भी जोखिम उठाने को तैयार था। अधिकारी महोदय दफ्तरी स्‍तर पर एक मातहत को जितना भी परेशान कर सकते थे, उन्‍होंने किया। मैं तो उनकी चंगुल से निकल गया, मगर बेचारा श्‍याममोहन ठीक उनके यूनिट में होने के कारण ज्यादा तकलीफ पा गया। मुझे आज लगता है, श्‍याममोहन की अकाल मृत्‍यु के लिए कहीं-न-कहीं ऐसे दफ्तरी राक्षसों का नपा-तुला योगदान जरूर है। अफसरों की ऐसी ही कुंठाएँ मुझे लेखकीय स्‍तर पर हमेशा प्रेरित करतीं।

एक-दो बार मुझे अधिकारी महोदय के साथ केंद्रीय सचिवालय में जाने का अवसर मिला और मैंने पाया कि सचिव (श्री आर.पी. नायक) के सामने अधिकारी महोदय कितने दयनीय, कितने चापलूस, कितने निरीह हो जाते थे। मगर यह वही अधिकारी थे, जो मेरे 'धर्मयुग' में पहुँचने पर मुंबई आए तो अपने सब कुकर्मों का प्रायश्‍चित-सा करते हुए मेरी किसी कहानी का नाम याद न आने पर मेरी नई बुश्‍शर्ट की ही तारीफ करने लगे। उन्‍हें शायद आभास नहीं था कि 'धर्मयुग' के उपसंपादक की हैसियत भारती जी ने प्रूफरीडर से भी कमजोर कर रखी थी। उनको इसका एहसास होता तो शायद मुझे पहचानने की भी कोशिश न करते। उस रोज उन्‍हें सत्‍यदेव दुबे आदि कुछ रंगकर्मियों से मिलने जाना था तो मुझे भारती जी से छुट्‌टी दिलवा कर अपने साथ ले गए। बाद में उन्‍होंने बहुत अच्‍छा भोजन भी कराया।

मैंने उसी दफ्तर में रहते हुए अफसरों की कुंठित मनोवृत्‍तियों पर 'दफ्तर', 'इतवार नहीं', 'थके हुए', आदि कहानियाँ लिखीं और आश्‍चर्य की बात तो यह है कि वे कहानियाँ न केवल निदेशालय में बल्‍कि सचिवालय में भी चाव से पढ़ी गईं।

उन दिनों 'नई कहानी' आंदोलन अपने शबाब पर था। राकेश, कमलेश्‍वर और यादव हिंदी कहानी के महानायक थे। मेरा हमदम, मेरा दोस्‍त का जमाना था। यह तो बाद में स्‍पष्‍ट हुआ, कुछ राकेश की डायरियों से कुछ और वक्‍त की करवटों से कि कोई किसी का हमदम था, न दोस्‍त। न नई कहानी के स्‍वानामधन्‍य महानायक। बहरहाल उन दिनों उस त्रयी की ही तूती बोलती थी। दिल्‍ली की तेज रफ्तार जिंदगी, टी-हाउस का चस्‍का, कहानी में जुनून की हद तक दिलचस्‍पी, कभी-कभार किसी संपन्‍न लेखक अथवा किसी साहित्‍यानुरागी रईस की दिल्‍ली आमद पर मयनोशी का उत्‍तेजक दौर; बहुत जल्‍द मैं इस नए माहौल में घुल-मिल गया। लिखने का ऐसा जुनून था कि कितना भी थका-हारा कमरे में लौटता, लिखे बगैर नींद न आती। कई कहानियाँ तो मैंने दफ्तर और टी-हाउस से थके-हारे लौट कर लिखीं। 'बड़े शहर का आदमी', 'त्रास', 'अकहानी' आदि ऐसी ही लिखी कहानियाँ हैं। मदिरापान तीज त्‍योहार पर ही होता था, इस लत के बगैर भी जिंदगी मजे में कट रही थी। उन दिनों राजकमल चौधरी ने भी अपने स्‍तर पर धूम मचा रखी थी। वह लगातार गद्य और पद्य की रूढ़ियाँ तोड़ रहा था। लेसिबियनिज्म पर शायद उसने हिंदी में प्रथम उपन्‍यास लिखा था। वह बहुत बेबाक भाषा में लिखता था। दिल्‍ली आता तो हमारे साथ दफ्तर और टी-हाउस में काफी समय बिताता। उसकी छवि एक आवारा, शराबी-कबाबी और गैरजिम्‍मेदार शख्स की बन गई थी, जबकि वह बातचीत में अत्यंत शालीन और सौम्‍य लगता था। हिंदी में गिंजबर्ग आदि के प्रभाव में वह भूखी पीढ़ी के रचनाकार के रूप में विख्‍यात था, जबकि मैं उसे प्‍यासी पीढ़ी का रचनाकार कहा करता था। वह सुबह से ही दारू के जुगाड़ में लग जाता और शाम तक कोई न कोई आसामी पटा लेता। इसी सिलसिले में उसकी दोस्‍ती उर्दू के अदीबों और शायरों से हो गई थी। उर्दू के शायरों को आसानी से कद्रदाँ मिल जाते थे। एक दिन शाम को सलाम मछलीशहरी का एक ऐसा कद्रदाँ मिला कि वह टैक्‍सी भर रचनाकारों को पिलाने अपने होटल में ले गया। मुझे भी उस टैक्‍सी में राजकमल की सिफारिश से स्‍थान मिल गया। मगर रास्‍ते में मैंने रवींद्रनाथ टैगोर पर कोई ऐसी टिप्‍पणी कर दी, जो कि राजकमल को बहुत नागवार गुजरी और वह तिलमिला गया। उसने बहस में न पड़ कर सरदार पटेल मार्ग की एक सुनसान सड़क पर टैक्‍सी रुकवाई और मुझे जंगल में उतार दिया। उस समय मुझे इससे बड़ी सजा नहीं दी सकती थी। टी-हाउस तक पैदल लौटते हुए मेरी टाँगे अकड़ गईं। मुझे जान कर बहुत हैरत हुई कि वह रवींद्रनाथ टैगोर का अनन्‍य भक्‍त था, जबकि लोग उसे परंपरा से कटा हुआ मूल्‍यविहीन लेखक मानते थे। लोग क्‍या, मैं खुद भी ऐसा ही सोचता था।

दिल्‍ली में शराब के ही चक्‍कर में एक बार मैं कुमार विकल से भी पिटा था। कुमार पर संस्‍मरण लिखते समय मैंने इस प्रसंग का जिक्र किया है। जिन दिनों कुमार का विवाह हुआ, मेरी कहानी 'नौ साल छोटी पत्‍नी' प्रकाशित हुई थी। किसी दिलजले ने कुमार के मन में यह भ्रम पैदा कर दिया कि यह कहानी मैंने उसके दांपत्‍य जीवन पर लिखी है, जबकि सच तो यह है, मुझे आज तक मालूम नहीं हुआ कि कुमार की पत्‍नी उससे कितने साल छोटी थी। कुमार ने आव देखा न ताव, यह सुनते ही हिसाब चुकाने दिल्‍ली चला आया। दिल्‍ली में मुझे खोज निकालना बहुत आसान काम था, क्‍योंकि सब मित्रों को मालूम था कि दफ्तर से छूटते ही हम लोग - जगदीश चतुर्वेदी, रमेश गौड़, शेरजंग गर्ग - सीधे टी-हाउस जाते थे। हम लोग 'टी-हाउस' में इत्‍मीनान से कॉफी पी रहे थे कि अचानक कुमार विकल प्रकट हुआ। हम सब लोगों ने उसे विवाह की शुभकामनाएँ दीं। कुछ देर बाद वह मुझे अलग ले गया और बोला 'मेरी शादी हुई है, तुम्‍हारी कहानी छपी है, चलो आज जश्‍न हो जाए, मैंने बहुत अच्‍छा प्रबंध किया है।' उसके साथ नरेंद्र धीर थे। मैं तुरंत राजी हो गया। अभी हम लोग 'टी-हाउस' के बाहर मैदान में पहुँचे ही थे कि अचानक उसने मेरे मुँह पर एक जानदार झापड़ रसीद किया। मैंने जीवन में पहली बार पहला और आखिरी झापड़ खाया था, उसका आनंद ही न्‍यारा था, यानी मेरी आँखों के सामने अँधेरा छा गया। एक ही झापड़ में कई काम हो गए। चश्‍मा टूट कर नीचे गिर गया, होंठ कई जगह से कट गया, नाक से खून बहने लगा।

'यह कहानी लिखने का मुआवजा है।' कुमार ने कहा। मैं कुमार की आशंकाओं से बेखबर था। मेरे कपड़े खून से लथपथ हो गए थे। कुमार अपना काम करके चलता बना। मैं किसी तरह 'टी-हाउस' पहुँचा। बाहर उर्दू के अफसानानिगार सुरेंद्र प्रकाश मिल गए। सुरेंद्र प्रकाश को अभी दो-चार वर्ष पहले साहित्‍य अकादमी का पुरस्‍कार मिला है। उसने मेरी हालत देखी तो मुझे बलराज मेनरा के हवाले कर कुमार की तलाश में निकल गया। वह कुमार से इतना खफा था कि अगर कुमार मिल जाता तो गजब हो जाता। यह अच्‍छा ही हुआ कि उसे कुमार नहीं मिला। वह सब संभावित जगहों पर उसकी तलाश कर आया था। दोस्‍तों ने अस्‍पताल में मेरी प्राथमिक चिकित्‍सा कराई। वहीं अस्‍पताल में 'टाइम्‍स ऑफ इंडिया' के 'क्राइम रिपोर्टर' से भेंट हो गई। उसने बहुत आग्रह किया कि मैं पुलिस में प्राथमिकी दर्ज कराऊँ और वह एक चटपटा समाचार जारी करे : 'पात्र द्वारा लेखक की पिटाई, लेखक अस्‍पताल में' मैंने मना कर दिया, क्‍योंकि मैं जानता था, कुमार ने भावावेष में ही यह कार्यवाही की होगी। अगले रोज दोस्‍तों ने बताया, इस घटना के बाद वह रातभर फूट-फूट कर रोता रहा था।

वास्‍तव में वह आवारगी, मयनोशी, उद्‌देश्‍यहीनता, उदासी और नैराश्‍य का दौर था। इसी सब के बीच एक कहानीकार के तौर पर पहचान बन रही थी। राकेश मुंबई से दिल्‍ली आ गए थे, उस बीच दिल्‍ली में मैंने कभी राकेश को मदिरापान करते नहीं देखा। शायद उन्‍होंने मयनोशी से तौबा कर ली थी, उस बीच मैंने उन्‍हें बियर तक पीते नहीं देखा। कई बार यह भी लगता था कि उन्‍होंने मुझसे एक दूरी बना ली है। शाम को कई बार उनके यहाँ जाना हुआ, उन्‍हें चाय की चुस्‍कियाँ लेते ही पाया। वह उन दिनों डब्‍ल्‍यू.ई.ए. करोलबाग में रहने लगे थे। ऊपर के फ्लैट में, जिसे दिल्‍ली की भाषा में बरसाती कहा जाता है, कमलेश्‍वर रहते थे। राकेश जी की जीवन शैली में मैं गुणात्‍मक परिवर्तन देख रहा था। दूसरी पत्‍नी से मुक्‍ति पा कर वह अनिता औलक के साथ रहने लगे थे। उन दिनों वह जम कर लिख रहे थे, शायद अपने उपन्‍यास 'अँधेरे बंद कमरे' पर काम कर रहे थे। वह नियमित रूप से लेखन करते और उनसे समय ले कर ही मिला जा सकता था। उनका कॉफी हाउस जाना भी कम हो गया था। वह दिल्‍ली के मेरी पहचान के अकेले रचनाकार थे जो कभी बस में यात्रा नहीं करते थे, मैंने उन्‍हें हमेशा टैक्‍सी या स्‍कूटर से ही उतरते देखा। उनके घर पर फोन लग गया था। आपके जाने का समय होता तो वह टैक्‍सी स्‍टैंड फोन करके टैक्‍सी मँगवा देते, बगैर इस बात पर ध्‍यान दिए कि आपकी जेब टैक्‍सी की इजाजत दे रही है या नहीं। दो एक बार तो मुझे अजमल खाँ रोड पर ही टैक्‍सी छोड़ कर बस की कतार में लग जाना पड़ा। मालूम नहीं वह ऐसा क्‍यों करते थे। सहज रूप से करते थे या दंड देने के लिए। वैसे दंड देना उनके स्‍वभाव में नहीं था। एक बार तो ऐसा अवसर आया कि उनकी उपस्‍थिति में मुझे अकेले ही पीनी पड़ी। उम्‍मीद थी कि वह साथ देंगे, मगर उन्‍होंने मना कर दिया। अब सोचता हूँ तो याद नहीं पड़ता कि मैंने दिल्‍ली में कभी उनके साथ मदिरापान किया था। वह अध्‍याय जालंधर में ही समाप्‍त हो गया था।

मोहन राकेश की अँगुली पकड़ कर मैंने साहित्‍य में पदार्पण किया था। उन्‍हीं मोहन राकेश से समय के अंतराल के साथ इतनी दूरियाँ आ जाएँगी, इसकी मैंने कल्‍पना भी न की थी। राकेश पर लंबा संस्‍मरण लिखते समय भी मैंने संबंधों की काफी पड़ताल की थी, आत्‍मविश्‍लेषण भी किया था, उनसे आमने-सामने बातचीत भी की थी। अब मुझे लगता है कुछ बातें ऐसी होती हैं, जिन पर किसी भी संवेदनशील आदमी के लिए बात करना संभव ही नहीं होता। आज सोचता हूँ तो लगता है यह उनका बड़प्‍पन था। उस समय मुझे उन बातों की गंभीरता का एहसास भी न था। मुझे लगता है, उनके स्‍थान पर अगर मैं होता तो शायद ज्यादा आहत महसूस करता। मेरा इरादा उन्हें तकलीफ पहुँचाने का नहीं था, शायद यही वजह थी कि कोई अपराधबोध नहीं था। आज भी नहीं है। अफसोस यही है कि वह हमारे बीच नहीं हैं वरना उनके आमने-सामने गुबार निकाल सकता था। यहाँ मैं उन चंद घटनाओं का खुलासा करना चाहता हूँ, जिनके बारे में वह मेरा स्‍पष्‍टीकरण भी नहीं माँग सकते थे। सिर्फ देखी-अनदेखी कर सकते थे।

उन्‍हीं दिनों मेरी एक कहानी प्रकाशित हुई थी - 'पचास सौ पचपन'। वह कहानी दिल्‍ली के संघर्षशील संस्कृतिकर्मियों को केंद्र में रख कर लिखी गई थी और उसमें उनके संघर्षमय जीवन का चित्रण था, जो ऊपर से देखने पर 'कामिक' लगता था, मगर भीतर कहीं करुणा उपजाता था। कहानी में एक आर्टिस्‍ट था, एक फ्री लांसर और एक प्रोफेसर। फ्री लांसर, नेशनल स्‍कूल आफ ड्रामा में प्रवेश पाने के लिए प्रयत्‍नशील है। प्रोफेसर फ्री लांसर की तैयारी करवाने में जुट जाता है। विश्‍व के नाट्‌यांदोलनों के बारे में जानकारी देता है और उसे 'आषाढ़ का एक दिन' का एक लंबा संवाद याद करवाता है। चुन लिए जाने पर फ्री लांसर को दो सौ रुपए प्रतिमाह की छात्रवृत्‍ति मिल सकती थी। आर्टिस्‍ट और प्रोफेसर चाहते थे कि उसका चयन हो जाए ताकि कम से कम अपने हिस्‍से का मकान भाड़ा तो दे सके। उसका चयन हो गया तो वह शराब पी कर चला आया। कहानी में वह कालिदास के संवाद की कुछ ऐसी पैरोडी कर देता है :

जिस दिन फ्री लांसर को ड्रामा के स्‍कूल में दाखिला मिला , वह शराब के नशे में धुत लौटा। आते ही उसने प्रोफेसर की नई बेडशीट पर कै कर दी और देवदास के अंदाज में कालिदास का संवाद दुहराने लगा - ' लगता है , तुमने अपनी आँखों से इन कोरे पृष्‍ठों पर बहुत कुछ लिखा है। ये पृष्‍ठ अब कोरे कहाँ हैं मल्‍लिका ? इन पर एक महाकाव्‍य की रचना हो चुकी है। अनंत सर्गों के एक महाकाव्‍य की...। कैसा संवाद है प्रोफेसर , है कि नहीं एकदम फर्स्‍ट क्‍लास। प्रोफेसर , क्‍या अब समय नहीं आ गया है कि हम तीनों अपनी-अपनी प्रेमिकाओं को ले कर बुद्धजयंती पार्क चलें और टैक्‍सी में चलें। '

संवाद यहीं खत्‍म नहीं होता , उसे कहानी में और आगे बढ़ाया गया था : ' घबरा क्‍यों रहे हो दोस्त , तुम्‍हारी शीट खराब हो गई ? तुम नहीं जानते , इस पर महाकाव्‍य की रचना हो चुकी है... अनंत सर्गों के महाकाव्‍य की... बोलो कब चलोगे बुद्ध जयंती पार्क ? '

यह कहानी मैंने उन दिनों लिखी थी जब राकेश जी से मेरे मधुरतम संबंध थे। यकीनन मेरी बुद्धि भ्रष्‍ट हो गई होगी, जो मैंने 'आषाढ़ का एक दिन' से संवाद उद्धृत कर दिया था। दरअसल मेरे पास नाटक की दूसरी पुस्‍तकें उस समय उपलब्‍ध नहीं थीं, 'आषाढ़ का एक दिन' सहज उपलब्‍ध था, मैंने उसी से संवाद उठा लिया। इसके पीछे कोई सुनिश्‍चित सोच, दुर्भावना अथवा विद्वेष नहीं था, महज मासूमियत और नादानी थी। कहानी में स्‍थितियाँ ऐसी थीं कि यह संवाद व्‍यंजनार्थ देने लगा। परोक्ष रूप से भावनात्‍मक भाषा पर भी कटाक्ष के रूप में उभरने लगा। उस वक्‍त मैंने इस पक्ष पर ध्‍यान नहीं दिया और कहानी छप गई। 'आषाढ़ का एक दिन' अपने भाषा संस्‍कारों के लिए बहुत प्रंशसित हुआ था, मैं खुद मुरीद था उसकी भाषा का, मगर मेरी कहानी में यह भाषा बहुत हास्‍यास्‍पद बन कर उभर आई। पात्र ही कुछ इस रूप में विकसित हो गया था। बहुत बार ऐसा होता है कि पात्र आपके हाथ से निकल जाता है और खुद अपनी मंजिलें तय करने लगता है। मुझे नहीं मालूम, राकेश जी की इस पर क्‍या प्रतिक्रिया हुई होगी। उन्‍होंने कभी इसका जिक्र भी न किया। उनकी इसी शाइस्‍तगी का मैं कायल था।

ऐसी ही एक अन्‍य पेचीदा परिस्‍थति में भी मैं अनायास उलझ गया था। बगैर पृष्‍ठभूमि जाने इसे समझना मुश्‍किल होगा। उन दिनों हमारा कार्यालय दरियागंज में 'गोलचा' के सामनेवाली इमारत की पहली मंजिल पर था। आजकल उसके नीचे होम्‍योपैथिक दवाओं और पत्र-पत्रिकाओं की दुकानें हैं। मॉडल टाउन से दफ्तर जाने के लिए मैं सुबह नौ नंबर की बस पकड़ता था। दफ्तर जानेवाले हर व्‍यक्‍ति की बस तय होती थी। बस की कतार में रोज जाने पहचाने चेहरे दिखाई देते थे। चेहरे से हर कोई एक-दूसरे को पहचानता था। बस आजादपुर से बन कर आती थी, मॉडल टाउन की सवारियों को आराम से बैठने की जगह मिल जाती थी। अक्‍सर सीट भी निश्‍चित रहती थी। मैं खिड़की के पासवाली सीट पर बैठना पसंद करता था, बाहर देखते हुए यात्रा आसानी से कट जाती थी। एक दुनिया बस के भीतर होती थी और एक बाहर। जिस दिन खिड़कीवाली सीट न मिलती थी, बस के भीतर की दुनिया से परिचय हो जाता था। नौजवान आदमी सबसे पहले महिला यात्रियों का जायजा लेता है। कोई खूबसूरत चेहरा दिख गया तो यात्रा सफल हो जाती थी। किंग्‍जवे कैंप से एक लड़की रोज बस पकड़ती थी। कहाँ जाती थी, नहीं मालूम। मैं दरियागंज उतरता तो उसे मेरी सीट मिल जाती। वह एक खुशनुमा चेहरा था। उसके बालों पर अक्‍सर स्‍कार्फ बँधा रहता, जिससे उसका चेहरा और खिल जाता। वह एक ऐसा चेहरा था, जो आपको याद रह जाए। ऐसी लड़कियों के बारे में यही सोचा जा सकता था कि वह आपके पहलू में बैठ जाए तो कितना अच्‍छा हो। मुझे प्रायः ऐसा मनहूस सहयात्री नसीब होता था जो दरियागंज से भी आगे जाता था। वह लड़की सट कर हमारी सीट के पास खड़ी हो जाती। वह क्‍या करती है, कहाँ जाती है, मुझे मालूम नहीं था, मगर इतना मालूम हो चुका था, उसके पास कई स्‍कार्फ हैं। जिस दिन वह दिखाई न पड़ती तो बस यात्रा नीरस हो जाती। दो-एक बार ऐसा भी हुआ कि वह कतार में लगी है मगर उसे बस में जगह न मिली। मुझे बहुत अफसोस होता और मैं सोचता कि यह बेवकूफ लड़की वक्त पर घर से क्‍यों नहीं निकलती। एक दिन बस ने ऐसा झटका लिया कि वह लड़की गिरते-गिरते बची। मैं खड़ा हो गया और अपनी सीट उसे पेश कर दी। मुझे दफ्तर में दिन भर बैठे-बैठे सरकारी कुर्सी ही तोड़नी थी। दफ्तर में बहुत से लोगों ने मेज के साथ जंजीर से अपनी कुर्सी बाँध रखी थी। दिन भर लेखकों रचनाकारों का आना-जाना लगा रहता था। हाल में जो कुर्सी खाली होती, हम लोग चपरासी से मँगवा लेते। जब से कुर्सी बाँधने का चलन हुआ हमारे लेखकों को बहुत असुविधा होने लगी। जब कोई लेखक बंधु आता, जगदीश चुतुर्वेदी और मैं रचनाएँ हटा कर मेज पर बैठ जाते और मेहमान को कुर्सी पर यानी सिर आँखों पर बैठाते। दो से ज्यादा आगंतुक हो जाते तो हमलोग कुर्सी के पीछे अपना कोट टाँग कर कैंटीन में जा बैठते। तब तक कोट हम लोगों की उपस्‍थिति दर्ज करवाता रहता।

स्‍कार्फवाली महिला ने कृतज्ञता से मेरी तरफ देखा और मेरी सीट पर बैठ गई। उसका चेहरा एकदम तनावमुक्‍त हो गया। मैंने सोचा यह छोटी-सी खुशी तो मैं इस महिला को रोज प्रदान कर सकता हूँ। मेरी समस्‍या का भी निदान हो जायगा, दिन भर दफ्तर में बैठे-बैठे टाँगें अकड़ जाती थीं। स्‍कार्फवाली महिला के उदास और क्‍लांत चेहरे को देख कर मैं अक्‍सर अपनी सीट से उठ जाता।

एक दिन सुबह-सुबह स्‍कार्फवाली वह महिला मेरे घर पर चली आई। जाड़े के दिन थे। सुबह-सुबह चाय का भी कोई इंतजाम न था। छुट्‌टी के रोज तो मैं बी ब्‍लॉक में ही सत सोनी अथवा कृष्‍ण भाटिया के यहाँ चाय पी आता, दफ्तरवाले दिन यह संभव नहीं था। प्रायः पहला कप मैं दफ्तर जा कर ही पीता। मकान मालिक कुछ इस अंदाज से आकाशवाणी के समाचार सुनता कि लगता कोई मुनादी हो रही है। अभी समाचारों का प्रसारण शुरू नहीं हुआ था कि मेरे कमरे पर किसी ने दस्‍तक दी। मैं रजाई में दुबका हुआ था, दस्तक को अनसुनी कर गया। अक्‍सर मकान मालिक अखबार में अपराध की कोई घटना पढ़ कर इतना उत्‍तेजित हो जाता था कि मुझे जगा देता। जाने क्‍यों उसे लगता कि अगली आपराधिक घटना उसी के साथ होनेवाली है। मैं उसका इकलौता किराएदार था, मगर किराएदारों के बारे में उसकी राय बहुत खराब थी। वह अक्‍सर शंका प्रकट करता कि अगर कोई किराएदार अचानक एक दिन का आकस्‍मिक अवकाश ले कर मकान मालिक की पत्‍नी के साथ गुलछर्रे उड़ाता रहे तो मकान मालिक को इसकी कानों-कान खबर न होगी। उसका दृढ़ विश्‍वास था कि किसी का कोई भरोसा नहीं रहा है। मैं उसे बीच-बीच में आश्‍वस्‍त करता रहता कि मैं एक निहायत शरीफ इनसान हूँ और उसके दफ्तर जाने से पहले ही दफ्तर चला जाता हूँ और रात को अंतिम बस से लौटता हूँ।

'आकस्‍मिक अवकाश तो कोई भी ले सकता है' वह कहता, 'जमाना बहुत खराब है।'

'यह तो है।' पीछा छुड़ाने के लिए मैं उसकी हाँ में हाँ मिलाता।

दरवाजे पर थोड़ी देर बाद फिर दस्‍तक हुई। मैं अनिच्‍छापूर्वक रजाई से निकला और दरवाजा खोला।

सामने स्‍कार्फवाली युवती खड़ी थी। सहसा मुझे विश्‍वास न हुआ, लगा कोई सपना देख रहा हूँ। आँखे मलते हुए मैंने दुबारा उसकी तरफ देखा। वही थी। पश्‍मीने के सफेद शॉल में लिपटी हुई, सिर पर स्‍याह रंग का स्‍कार्फ था।

'मैं अंदर आ सकती हूँ?' उसने अत्यंत शालीनता से पूछा। 'आइए-आइए।' मैंने कहा और कमरे की एकमात्र कुर्सी से कपड़े लत्‍ते, पत्र-पत्रिकाएँ उठा कर उसके लिए जगह बनाई, 'तशरीफ रखें।'

वह महिला बैठ गई। मैं भी खाट पर बैठ गया।

'मुझे रवींद्र कालिया से मिलना है।'

'कहिए।'

'आप ही रवींद्र जी हैं।'

'जी।' मैंने पूछा, 'मैं आपकी क्‍या खिदमत कर सकता हूँ?'

मुझे लगा, सुबह-सुबह अपने यहाँ इस महिला को देख कर जितना आश्‍चर्य मुझे हो रहा था, उससे ज्यादा ही उस महिला को हो रहा था। शकल सूरत से वह मुझे पहचान रही थी मगर नाम से नहीं।

'मैं मोहन राकेश की पत्‍नी हूँ।' उसने कहा।

मैं जैसे आसमान से गिरा। मैंने कल्‍पना भी न की थी कि वह महिला शादीशुदा होगी। माँग में न सिंदूर देखा था न पैर में बिछिया। मुझे हिसार में ही खबर लग गई थी कि मोहन राकेश का अपनी पत्‍नी से तालमेल नहीं बैठा था और संबंध-विच्‍छेद की नौबत आ चुकी थी। दोनों अलग-अलग रह रहे थे। तब तक राकेश जी के जीवन में तीसरी लड़की आ चुकी थी और वह जल्‍द से जल्‍द तलाक ले कर इस रिश्ते से मुक्‍त हो जाना चाहते थे। राकेश उन दिनों मानसिक यंत्रणा के निकृष्‍टतम दौर से गुजर रहे थे। उनसे कभी-कभार टी-हाउस में मुलाकात हो जाती थी और उनकी परेशानियों को देखते हुए माँ जी से भी मिलने न जा पाता था। वह अपनी सुरक्षा को ले कर भी चिंतित रहते थे। कुछ ही दिन पहले करोल बाग में कुछ अराजक तत्‍वों द्वारा उन पर आक्रमण भी हुआ था, जिसके संबंध में ओमप्रकाश जी के नेतृत्‍व में लेखकों का एक प्रतिनिधि मंडल तत्‍कालीन प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्‍त्री से भी मिला था। मैं भी उस शिष्‍टमंडल में शामिल हुआ था। कॉफी हाउस में उस समय जितने लेखक बैठे थे, ओंप्रकाश जी (राजकमल प्रकाशन) सबको टैक्‍सी में भर कर प्रधानमंत्री आवास पर ले गए थे। शास्‍त्री जी ने अपने बँगले के मैदान में टहलते हुए लेखकों की बात सुनी थी और आवश्‍यक निर्देश दिए थे। वह बार-बार एक ही सवाल पूछ रहे थे कि एक लेखक पर कोई हमला क्‍यों करेगा? राकेश जी को शक था कि उनके साले लोग यह काम करवा सकते हैं। मोहन चोपड़ा से यह तवक्‍को नहीं की जा सकती थी, वह राकेश के परम मित्र रहे थे। संयोग से दयानंद कॉलिज हिसार में वह मेरे सहकर्मी रहे थे। वह अंग्रेजी विभाग के शायद अध्‍यक्ष थे और मैं हिंदी विभाग में था। यह जानते हुए भी कि मैं मोहन राकेश का छात्र रहा हूँ और हिंदी कहानी में मेरी गहरी दिलचस्‍पी है, मोहन चोपड़ा ने कभी दोस्‍ती को हाथ नहीं बढ़ाया था। सिलसिला दुआ सलाम से आगे नहीं बढ़ा। मोहन चोपड़ा की विशेषता यह थी कि उनकी कहानियाँ सिर्फ 'कहानी' में छपती थीं और उनकी पुस्‍तकों का प्रकाशन भी एक ही प्रकाशन विशेष से होता था। मैंने कभी उनकी पुस्‍तक की समीक्षा भी न पढ़ी थी। जितनी बार मैंने उनसे राकेश की बात करनी चाही, उन्‍होंने दिलचस्‍पी न दिखाई।

'राकेश मेरे गुरू हैं, दिल्‍ली में तो वही मेरे लोकल गार्जियन हैं। मैंने एक ही साँस में उस महिला से कहा,' 'इससे पूर्व मैं हिसार में था। डी.ए.वी. कॉलिज में मोहन चोपड़ा भी मेरे कोलीग थे।'

वह सहसा खड़ी हो गई, 'चलती हूँ।'

'नहीं, आप चाय पी कर जाइए।' मैंने केतली उठाई और बगैर उसके उत्‍तर की प्रतीक्षा या अपेक्षा किए कमरे से बाहर निकल गया। ऐसे मौकों के लिए मैंने अल्‍युमिनियम की एक केतली खरीद रखी थी ताकि घर आए पाहुन को कम से कम बाजार से ला कर चाय पिलाई जा सके। उस महिला को अचानक कमरे में देख कर जो रोमांच हुआ था, वह दहशत में बदल गया। राकेश जी ने मुझे अपनी पत्‍नी के असामान्‍य व्‍यवहार के बारे में बहुत-सी बातें बता रखी थीं। यहाँ उन बातों का उल्‍लेख करना मुनासिब न होगा, मगर इतना बताना गैरजरूरी न होगा कि बाहर आकाश में आ कर मुझे लगा जैसे मैं किसी आतंकवादी को चकमा दे कर भागने में सफल हो गया हूँ। मुझे विश्‍वास था, कि जब तक मैं कमरे में वापिस लौटूँगा, मेरा मकान मालिक सूँघते हुए कमरे में पहुँच चुका होगा। बाहर अखबारवाला बड़ी फुर्ती से घरों में अखबार वितरित कर रहा था। यह भी एक अच्‍छा शगुन था। अखबार आते ही मेरा मकान मालिक बाहर बरामदे में कुर्सी डाल कर अखबार पढ़ा करता था। उस समय चायवाला खुद ही चाय पी रहा था और ढाबे के आस-पास कुछ अवकाशप्राप्‍त बुजु़र्ग सुबह की सैर से लौट कर अखबार का एक-एक पन्‍ना ले कर अखबार पढ़ रहे थे। जब तक चाय तैयार होती मैं कामना करता रहा कि मेरे कमरे में लौटने से पहले ही वह महिला जा चुकी हो। मेरे दिमाग में लगातार उस महिला की छवि बदल रही थी। जैसे आजकल कंप्यूटर से एनीमेशन होता है, आदमी अचानक भालू बन जाता है या शेर से फिर आदमी, आदमी से डॉयनासोर। राकेश की बातों से जितने बिंब बन सकते थे मेरे दिमाग में वे तमाम कौंध गए।

मैं चाय ले कर पहुँचा तो मकान मालिक सचमुच बरामदे में अखबार पढ़ रहा था, कमरे में वह युवती कुर्सी का हत्‍था पकड़े अस्त-व्‍यस्‍त-सी खड़ी थी। मुझे देखते ही उसने कहा, 'चाय नहीं पिऊँगी। मैं जाऊँगी।' मैंने भी अनुरोध करना उचित न समझा। उसे गेट तक छोड़ आया। आ कर दुबारा रजाई में दुबक गया। आधे घंटे की नींद बाकी रह गई थी। मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि वह मेरे कमरे में क्‍यों आई थी, अगर उसे मेरा नाम मालूम नहीं था तो उसने मेरे घर का पता कैसे लगाया। लेटे-लेटे मैंने इतना जरूर तय कर लिया कि अब उस बस से दफ्तर नहीं जाया करूँगा। सत सोनी दंपती पहले स्‍टाप पर जा कर एक्‍सप्रेस बस पकड़ा करते थे, मैंने भी भविष्‍य में उसी बस से दफ्तर जाने का निश्‍चय कर लिया।

शाम को राकेश जी से भेंट हुई तो मैंने शुरू से आखिर तक सारा किस्‍सा बयान किया। राकेश ने थोड़ा सिर झुका कर चश्‍मे के भीतर से मर्मभेदी निगाहों से मेरी तरफ देखते हुए सारी बात तफसील से सुनी। यह उनका खास अंदाज था।

'अव्‍वल तो वह अब दुबारा नहीं आएगी।' राकेश जी ने कहा, 'अगर आए तो गेट से बाहर ही मना कर देना। पिछले दिनों वह ओमप्रकाश (राजकमल प्रकाशन) से भी मिलने गई थी, उसे उनके चरित्र पर कीचड़ उछालने का मौका मिल गया था।'

मैंने सहमति से सिर हिलाया।

'मेरे बारे में कुछ कह रही थी?'

'उसने किसी के बारे में कुछ भी नहीं कहा। कोई शिकायत की न शिकवा। मुझे देखते ही बोली, मैं अब जाऊँगी।' मैंने बताया।

बात आई-गई हो गई। उसके बाद वह मुझे दो-एक बार अलग-अलग जगहों पर दिखाई दी। छुट्‌टी के एक दिन वह चाँदनी चौक में दिखाई दी थी। मैं दोस्‍तों के साथ एक ढाबे पर छोले भटूरे का नाश्‍ता कर रहा था कि वह बगल की मेज पर आ कर बैठ गई। हम दोनों की निगाहें मिलीं, मगर दोनों में किसी के भी चेहरे पर पहचान का भाव न आया। उसने पहले पानी पिया, उसके बाद कोक और चली गई। वह पहले से दुबली लग रही थी और उदास। आँखें ऐसी वीरान जैसे अभी-अभी सारा जहान हार के चाँदनी चौक चली आई हो। राकेश तब तक सामान्‍य हो चुके थे और अनीता के साथ रहने लगे थे। एक बार वह कनाट प्‍लेस में दिखाई दी। जाड़े के दिन थे, वह 'वोल्‍गा' से निकली थी। उसने कोई गर्म कपड़ा नहीं पहन रखा था, सिर से स्‍कार्फ भी गायब था। माँग के दोनों ओर के बाल पक गए थे। छाती पर दोनों बाहें कसे वह काँपती हुई पास से निकल गई।

मुझे बहुत खराब लगा। समझ में नहीं आ रहा था कि वह गर्म कपड़े पहन कर घर से क्‍यों नहीं निकली। मुझे लगा, वह 'मैसोकिस्ट' है, अपने को पीड़ा दे रही है या राकेश से संबंध विच्‍छेद के बाद प्रायश्‍चित कर रही है। कुछ दिनों से दिल्‍ली में शीत लहर चल रही थी, हर कोई गर्म कपड़ों से लदा-फदा घर से निकलता था। रात को मैं कमरे में पहुँचा तो उसकी ठिठुरन मेरे भीतर कँपकँपी पैदा करती रही। सोने से पहले मैंने एक कहानी लिख डाली - 'कोजी कार्नर'। वह एक तलाकशुदा पत्‍नी के अकेलेपन की कहानी थी, देवर के माध्‍यम से कही गई :

मैंने उसकी तरफ देखा , उसने कोई गर्म कपड़ा नहीं पहना था। वायॅल की सफेद साड़ी उसने अपनी देह पर उतनी ही लापरवाही से लपेट रखी थी , जिस लापरवाही से बाल बाँधे थे और उनका जूड़ा बनाया था। वह माँग नहीं निकालती थी , माँग की जगह के दो-तीन बाल पक गए थे। दो साल पहले , जनवरी में वह गहरे पीले रंग का इटैलियन स्‍कार्फ पहना करती थी , जिससे आजकल भाई साहब जूते साफ किया करते हैं... वह देवर से भाई साहब की गर्लफ्रेंड के बारे में पूछताछ करते हुए अचानक जिज्ञासा प्रकट करती है , ' तुम्‍हारे भाई साहब कभी मेरी बात करते हैं ? '

' नहीं। ' मैंने (देवर ने) कहा। '

वह अस्‍त-व्‍यस्‍त हो गई , मुझे लगा , वह रोने लगेगी। बोली , ' पिछली बार तो तुमने कहा था , वह मेरा नाम सुन कर उदास हो जाते हैं। '

' मैंने झूठ कहा था। ' मैंने कहा , ' मुझे अफसोस है , मैंने झूठ कहा था। मैंने आप को खुश करने के लिए ऐसा कहा होगा। मैं दूसरों को खुश करने के लिए अक्‍सर झूठ बोला करता हूँ। मैं शर्मिंदा हूँ। '

उसने बहुत जल्‍द अपने को समेट लिया। किसी भी तनाव में उसके ऊपर के होंठ पर पसीना उभरने लगता है। वह स्‍याही चूस की तरह अपने मैले रूमाल से होंठ थपथपाने लगी। '

कहानी में धीरे-धीरे उसका अकेलापन उभरता है - 'तुम्‍हें पता है, मैं रात को चिटखनी लगा कर नहीं सोती। मैं दिल के बीट्‌स गिनती रहती हूँ। मुझे लगता है एक सौ पचासवीं धड़कन पर मेरा हार्ट फेल हो जाएगा। मैं डरते हुए एक सौ पचासवीं धड़कन का इंतजार करती हूँ और मुझे अपनी माँ की बहुत याद आती है। मुझे लगता है , अगर मेरी मौत हो गई तो किसी को पता भी न चलेगा और मेरा शव कमरे में ही सड़ जाएगा। मेरे कमरे में बहुत चींटियाँ हैं। '

कहानी लिख कर अगले रोज मैंने एक जाहिल की तरह वह कहानी राकेश जी को सौंप दी। वह 'नई कहानियाँ' का कोई अंक संपादित करने जा रहे थे और उस अंक में मेरी कहानी भी प्रकाशित करना चाहते थे। जाहिर है कहानी की स्‍थितियाँ उनके जीवन से बहुत साम्‍य रखती थीं, मुझे आशंका थी, राकेश कहीं नाराज न हो जाएँ। मगर ऐसा कुछ नहीं हुआ। एक दिन उन्‍होंने मुस्‍कराते हुए बताया कि उन्‍होंने कहानी पढ़ ली है और वह अपने अंक में उसे स्‍थान देंगे। इसी बीच मैं मुंबई चला गया और जहाँ तक मुझे याद पड़ रहा है वह कहानी उस अंक में नहीं छप पाई थी। मेरे पास कहानी की प्रतिलिपि थी, मैंने 'ज्ञानोदय' में भिजवा दी। अगले ही अंक में वह कहानी प्रकाशित हो गई। दिल्‍ली गया तो राकेश जी से कहानी की मूल प्रति भी मिल गई। उन्‍होंने प्रेस कॉपी तैयार कर रखी थी और कहानी का शीर्षक 'कोजी कार्नर' के स्‍थान पर 'अँधेरे के इक तरफ' कर दिया था। सचमुच वह अँधेरे के एक तरफ की कहानी थी, वह शायद यह कहना चाहते हों कि अँधेरे के दूसरी तरफ भी अँधेरा है।

7-

मॉडल टाउन सद्‌गृहस्‍थों की बस्‍ती थी। मेरे जैसी अकेली जान के लिए कई असुविधाएँ थीं। भोजन की कोई व्‍यवस्‍था न थी। उर्दू और पंजाबी के मित्र रचनाकारों की सलाह से मैंने हमदम के साथ तय किया कि करोल बाग में कमरा ढ़ूँढ़ा जाए। उर्दू के अफसानानिगार सुरेंद्र प्रकाश ने चुटकियों में डब्ल्यू.ई.ए. में ग्राउंड फ्‍लोर पर एक कमरा दिलवा दिया। पहली तारीख को हमदम और मैं नए कमरे में चले गए। अनेक लेखक करोल बाग में रहते थे। मोहन राकेश और कमलेश्‍वर के अलावा रमेश बक्षी, गंगाप्रसाद विमल, भीष्‍म साहनी, सुरेंद्र प्रकाश, निर्मल वर्मा आदि अनेक कथाकार आस-पास ही रहते थे। करोल बाग में भोजन आदि की उत्‍तम व्‍यवस्‍था थी।

उस बरस करोल बाग की लड़कियों पर बहुत बौर आया था। कुछ ही दिनों में मैं हमदम से कहने लगा 'सुन हीरामन कहौं बुझाई, दिन-दिन मदन सतावै आई।' गली मुहल्‍ले की लड़कियाँ उद्दीपन का काम करती थीं। दिन भर दरवाजे के सामने रस्‍सा टापतीं, किक्रेट खेलतीं और हुड़दंग मचातीं। वे अपने यौवन से बेखबर थीं। मेरी इच्‍छा होती, बाहर निकल कर उन्‍हें समझाऊँ कि बेबी यह रस्‍सा टापने की उम्र नहीं है, दुपट्‌टा ओढ़ने की उम्र है। अक्‍सर लड़कियाँ गेंद उठाने हमारे कमरे में चली आतीं। यह एहसास होने में ज्यादा समय नहीं लगा कि लड़कियाँ उतनी मासूम नहीं हैं, जितना हम समझते थे। वे अपने यौवन के प्रति उतनी बेखबर भी न थीं, बाकायदा बाखबर थीं। गेंद उठाने के बहाने अपने यौवन की एकाध झलक भी दिखा जातीं। कई बार तो लगता कि ये लड़कियाँ अपना ही नहीं हमारा भी कौमार्य भंग कर डालेंगी। उन दिनों करोल बाग में दिलबाज आशिकों की बहुत जम कर पिटाई होती थी। आए दिन किसी न किसी लेन में कोई न कोई आशिक लहूलुहान अवस्‍था में कराहते हुए सड़क पर पड़ा मिलता। हम लोग पहले दर्जे के बुजदिल और मूक आशिक थे। लड़कियों की गेंद लौटाते-लौटाते पसीने छूट जाते। कुछ दिनों में स्‍थिति यह आ गई कि हम लोगों का जीना मुहाल हो गया। पिटने के इमकानात इतने बढ़ गए कि हम लोग कमरे पर ताला ठोंक ज्यादा से ज्यादा समय घर से बाहर बिताने लगे। करोल बाग में ही पंजाबी कवि हरनाम की एक पर्स की दुकान थी, वहाँ भी लड़कियों का जमघट लगा रहता। हमने आजिज आ कर सुरेंद्र प्रकाश को बताया कि लड़कियाँ हमारे संयम की परीक्षा लेने पर आमादा हो चुकी हैं और कहीं ऐसा न हो कि तुम्‍हारे ये निरपराध मित्र बेमौत मारे जाएँ।

शाम को सुरेंद्र प्रकाश अपनी पत्‍नी के साथ छड़ी घुमाते हुए सामनेवाले घर में गया। उसने लड़कियों के माता-पिता के कान में ऐसा ऐसा मंत्र फूँका कि महीने भर के भीतर गली में थोड़ी देर के लिए सजावट हुई, शामियाने लगे, शहनाइयाँ बजीं और इसके बाद दीगरे तमाम लड़कियाँ एक-एक कर अपने घर विदा हो गईं। देखते-देखते गली सुनसान हो गई, दोपहर को भाँय-भाँय करती। इससे तो कहीं बेहतर था लड़कियाँ परेशान करती रहतीं। उनके बगैर हमारी हालत एक जोगी जैसी हो गई - तजा राज भा जोगी और किंगरी कर गहेउ वियोगी। तीज त्‍योहार पर वे लड़कियाँ मैके आतीं तो हमारी तरफ पलट कर भी न देखतीं। उनकी यह बेन्‍याजी और बेरुखी भी नाकाबिले बर्दाश्‍त होती। मैंने ऐसे ही वंचित और बेसहारा युवकों पर एक कहानी लिखी। दो-एक संवाद ही कहानी का लब्बोलुबाब जाहिर कर देंगे। यह उन दो नौजवानों की कहानी थी, जो छोटी-छोटी सुविधाओं से वंचित थे, जिन्‍होंने मुद्‌दत से फल नहीं खाया था, जिनकी जिंदगी बस की लंबी कतार हो कर रह गई थी, जो छुट्‌टी के दिन कनाट प्‍लेस की चकाचौंध में तफरीह की तलाश में निकल आए थे :

' पहला कुछ देर चुप चलता रहा। अचानक उसकी बाँह एक औरत की बाँह से छू गई। वह फुसफुसाया - ' औरत की बाँह ठंडी होती है। '

' ठंडी होती है , बर्फ की तरह ठंडी ? ' दूसरे ने पूछा।

' नहीं , बर्फ ज्यादा ठंडी होती है , बाँह उतनी ठंडी नहीं होती। '

कुछ इस प्रकार के संवादों से कहानी आगे बढ़ती है। मुझे कहानी का शीर्षक 'अकहानी' उपयुक्‍त लगा। वह एंटी थियेटर का दौर था। 'वेटिंग फॉर गोदो' जैसे नाटकों की धूम मची थी। दूसरों से अलग हट कर कुछ नया कर दिखाने की धुन थी।

राकेश जी ने कहानी पढ़ी तो तलब कर लिया। उन्‍हें कहानी पर कोई आपत्‍ति नहीं थी, मगर शीर्षक से घोर असहमति थी। उन्‍होंने दफ्तर में मुझे फोन किया, जो मुझ तक नहीं पहुँचा। शाम को 'टी-हाउस' में मिले तो रात के आठ बजे अत्यंत जरूरी काम से घर पर मिलने के लिए कहा।

मैं साढ़े सात बजे ही राकेश जी के यहाँ पहुँच गया। उस शाम पहली बार मैंने अनीता जी को देखा था। मैंने महसूस किया अनीता जी के नैकट्‌य में राकेश जी बहुत प्रसन्‍न हैं। एक खास तरह का अकड़फूँ विश्‍वास और दर्प भी मैंने पहली बार महसूस किया। अनीता जी ने मुझे बहुत ही खूबसूरत प्‍याले में कॉफी दी और जब तक मैं प्‍याले को होंठ तक ले जाता, राकेश जी ने लापरवाही से कहा, 'मैं कुछ बातें स्‍पष्‍ट कर लेना चाहता हूँ।'

मैंने प्‍याला तिपाई पर रख दिया और बदहवास-सा राकेश जी की ओर देखने लगा। अपने तईं मैंने कोई गलती नहीं की थी और राकेश जी को हमेशा प्रत्‍यक्ष और परोक्ष रूप से आदर ही दिया था। वास्‍तव में मैं राकेश जी से इतना जुड़ गया था कि राकेश जी को ले कर प्रायः लोगों से भिड़ जाया करता था। उन दिनों एक नवोदित लेखक मनहर चौहान की एक लेखमाला प्रकाशित हो रही थी, जिसका प्रथम लेख था : 'मैं और मोहन राकेश' उसका 'मैं और कमलेश्वर' शीर्षक लेख भी आनेवाला था। लेख पढ़ कर 'टी-हाउस' में मैंने मनहर से कहा कि वह अपनी लेख माला का शीर्षक दे : 'मैं और मेरा बाप।' उसकी और राकेश की उम्र और उपलब्‍धियों में इतना अंतर था कि उस लेख के शीर्षक का कोई औचित्‍य मेरी समझ में नहीं आ रहा था। राकेश जी को ले कर मैं प्रायः किसी न किसी से उलझ जाया करता था। यहाँ तक कि उनकी झूठी प्रशंसा करने का दुर्गुण भी मेरे अंदर उत्‍पन्‍न हो गया था। ऐसी स्‍थिति में राकेश जी की बात मुझे बहुत नागवार गुजरी।

मैं अपने को इस स्‍थिति में नहीं पा रहा था कि राकेश जी मुझसे इस तरह का सवाल करें। मुझे लग रहा था, इस तरह के सवाल वे कमलेश्वर से कर सकते थे अथवा राजेंद्र यादव से।

'तुम अपने को बहुत ज्यादा स्‍मार्ट समझ रहे हो।' राकेश जी ने अपने चश्‍मे के मोटे शीशे के भीतर से बड़े रहस्‍यात्‍मक ढंग से झाँकते हुए कहा।

मैं केवल हतप्रभ हो सकता था। मैं घबराहट में कॉफी पीने लगा। ऐसे में मैं सिगरेट की तलब महसूस करता, जो राकेश जी ने पहले ही थमा दी थी।

'मैंने ऐसा कुछ भी नहीं किया, जो आपकी प्रतिष्‍ठा के अनुकूल न हो।' मैंने कहा।

राकेश जी ने अनीता की तरफ देखा, जैसे कह रहे हों, देखो कितनी सादगी से भोला बन रहा है।

'मुझे तुमसे यह आशा न थी कि थोड़ी-सी लोकप्रियता मिलते ही हमारे खिलाफ एक षड्‌यंत्र में शामिल हो जाओगे।' उन्‍होंने कहा।

राकेश जी की बेरुखी भी मुझसे बर्दाश्‍त नहीं हो रही थी। मेरी आँखें भर आईं। थोड़ी ही देर में मैं ऐसी स्‍थिति में आ गया कि जरा-सा भी हिलता-डुलता तो आँसू गिरने लगते। पूरी दिल्‍ली में यही एक ऐसा घर था, जहाँ मैं कभी भी बेरोकटोक आ-जा सकता था और माँ जी बिना खाना खिलाए नहीं भेजती थीं। अनीता के बारे में सुन जरूर रखा था मगर देखा उसी दिन पहली बार था। देखा क्‍या था, उसकी उपस्‍थिति में लगातार डाँट खा रहा था। मुझे हल्‍का-सा यह आभास भी हुआ कि राकेश जी मुझे डाँट कर कहीं अनीता को भी प्रभावित कर रहें हैं।

'तुमने अपनी नई कहानी का नाम 'अकहानी' क्‍यों रखा?' मैंने जेब से रूमाल निकाला और स्‍पंज की तरह आँखों पर रख लिया। मैं कल्‍पना नहीं कर सकता था कि कहानी के शीर्षक को ले कर राकेश जी इतने उत्‍तेजित हो जाएँगे। शीर्षक मैंने किसी षड्‌यंत्र के तहत नहीं रखा था। औसतन हिंदी कहानी का गद्य बहुत फीका और संवेदना अत्यंत भावुकतापूर्ण लगती थी। यह उसी के प्रतिक्रिया स्‍वरूप था।

मैं इतना जरूर मानता था कि यह शीर्षक कई लोगों को चुनौतीपूर्ण लगेगा, मगर मुझे यह नहीं मालूम था कि इससे राकेश जी ही भड़क उठेंगे। उन दिनों अधिसंख्‍य लेखकों की रचनाओं में आर्यसमाजी मानसिकता का पुट कुछ ज्यादा ही रहता था, जबकि उनके कर्म में यह नदारद था। शायद यही वजह थी कि हिंदी कहानी में भाषा, संवेदना और कथ्‍य के स्‍तर पर कहीं कोई परिवर्तन लक्षित होता, तो ये लोग आक्रामक हो उठते। निर्मल वर्मा ने उन दिनों युवा वर्ग की मानसिकता पर जो कुछ भी लिखा, नामवर सिंह के अलावा पूरा माहौल उनके विरुद्ध था। बंद समाज में युवक-युवतियों के लिए जो प्रतिबंध है, कहानी में भी लोग आँसूवादी यथास्‍थिति बनाए रखना चाहते थे। निर्मल वर्मा अपने प्रेमी-प्रेमिकाओं को सड़क पर ले आए थे। रेस्‍तराँ में ले आए थे। बंद दरवाजों के बाहर यह खुली हवा का झोंका कहानी के लिए नया था।

हथौड़े की तरह राकेश जी के शब्‍द मेरे दिमाग में चल रहे थे, 'तुमने कहानी का नाम 'अकहानी' क्‍यों रखा?'

'मुझे अच्‍छा लगा इसलिए रखा।' मैंने कहा।

मगर राकेश को और भी शिकायतें थीं। आज मैं तटस्‍थ हो कर सोचता हूँ तो लगता है कुछ शिकायतें जायज भी थीं।

जैसे उन्‍हीं दिनों 'नई कहानियाँ' में मेरा आत्‍मकथ्य 'नई कहानी : संभावनाओं की खोज' शीर्षक से छपा था। राकेश और कमलेश्‍वर दोनों उससे असंतुष्‍ट थे। आज मुझे लगता है, मैंने बहुत-सी बातें फैशन में आ कर लिखी थीं।

राकेश जी इस बात से भी खफा थे कि मैंने 'मार्कंडेय' द्वारा संपादित 'माया' के विशेषांक में कहानी क्‍यों दी? दरअसल इसके पीछे कोई राजनीति नहीं थी। मार्कंडेय ने कहानी के लिए पत्र लिखा और मैंने कहानी भिजवा दी। भीतर ही भीतर खुशी भी हो रही थी कि मार्कंडेय जैसे स्‍थापित और वरिष्ठ कहानीकार ने कहानी के लिए आग्रहपूर्वक लिखा था। मार्कंडेय, राकेश और कमलेश्‍वर के संबंध कैसे थे, मुझे इसका एहसास भी न था। मैं तो यह मान कर चल रहा था कि ये तमाम लोग नई कहानी आंदोलन के सशक्‍त रचनाकार हैं।

'मार्कंडेय जी ने कहानी माँगी थी और मैंने भेज दी। आपने संकेत भी किया होता तो न भेजता।' मैंने कहा।

मेरे उत्‍तर से वह संतुष्‍ट नहीं हुए। बहरहाल, उस रोज राकेश जी से मेरी भेंट मेरे लिए अत्यंत कष्‍टदाई साबित हुई। मैं भारी कदमों और भरी आँखें से घर लौट आया। मन में यह सोच कर गया था कि रात वहीं पड़ा रहूँगा और सुबह वहीं से दफ्तर चला जाऊँगा। मुझे याद है उस रोज मैं करोल बाग से पैदल मॉडल टाउन पहुँचा था। जेब में एक पैसा न था। दूसरे दिन सुबह सत सोनी से पचीस रुपए उधार ले कर दफ्तर गया।

दफ्तर में मन नहीं लगा। कुछ देर गुम-सुम बैठा रहा। फाइल छूने तक की इच्‍छा न थी। दो-एक बार राकेश जी को फोन मिलाया मगर नहीं मिला। फाइलों से मुझे वैसे भी नफरत थी। मैं दफ्तर से छुट्‌टी ले कर निकल गया और मन ही मन अंग्रेजी में एक वाक्‍य बनाता रहा, जो राकेश जी से मिलते ही उन पर बम की तरह फेंकने का निश्‍चय कर चुका था। दिन भर कनाट प्‍लेस के कारीडोरों में निरुद्देश्‍य घूमता रहा। शाम को टी-हाउस गया तो संयोग से राकेश जी दिख गए।

उस समय वे अकेले नहीं थे। उनकी मेज पर कमलेश्वर, यादव, नेमिचंद जैन, सुरेश अवस्‍थी आदि अनेक लोग बैठे थे। मैं राकेश जी के पीछे चुपचाप खड़ा हो गया और निहायत भर्राई आवाज में बोला - 'राकेश जी, यू हैव हर्ट मी फार नो फॉल्‍ट ऑफ माइन।' मैंने किसी तरह वाक्‍य पूरा कर लिया और दूसरी ओर मुँह कर लिया ताकि दूसरे लोग मेरी मनःस्‍थिति का अनुमान न लगा सकें। सब लोग परिचित थे और मैं सब के बीच नाटक नहीं करना चाहता था।

राकेश जी ने पलट कर मेरी तरफ देखा और तुरंत खड़े हो गए। मुस्‍कराते हुए उन्‍होंने अत्यंत स्‍नेह से अपना हाथ मेरी पीठ पर टिका दिया। मैं इस पुचकार के लिए तैयार नहीं था। मैं राकेश जी के स्‍वभाव से परिचित था। उनके व्यक्‍तित्‍व में जहाँ बेपनाह गर्मजोशी थी, दूसरी ओर एक जानलेवा ठंडापन था। उन्‍होंने जिस गर्मजोशी से मेरे कंधे पर हाथ रखा, मेरा गुस्‍सा पारे की तरह तल पर जा लगा।

राकेश जी मित्रों को वहीं छोड़ कर मेरे साथ-साथ चलने लगे। थोड़ी दूर पर राजस्‍थान एंपोरियम था। एंपोरियम बंद हो चुका था। सामने छोटा-सा लॉन था। हम लोग वहीं बैठ गए।

मैं कुछ कहता, इससे पहले ही उनकी आँखें नम हो गईं। अचानक उन्‍होंने जेब से रूमाल निकाला और पोंछने लगे। मेरे लिए यह सब बहुत अप्रत्‍याशित था। वे खुद रो रहे थे और मुझे चुप करा रहे थे।

'मैं दरअसल तुम लोगों के प्रति जैलेस हो गया था।' राकेश जी ने छूटते ही कहा। 'मैंने तुम्‍हारे साथ गलत सुलूक किया।'

मैं एकदम उत्‍फुल्‍ल हो गया। फूल की तरह हल्‍का। मैं नहीं चाहता था, राकेश इस विषय पर और बात करें।

'तुमने खाना खाया राकेश जी ने मेरा उतरा चेहरा देख कर पूछा।'

'नहीं' मैंने कहा, 'कल से कुछ नहीं खाया। इस वक्‍त भी भूख नहीं है।'

'कहाँ खाते हो?'

'करोल बाग में। हम सब लोग वहीं खाते हैं। उड़द की फ्राई दाल और तंदूरी रोटी।'

'सब कौन?'

'प्रयाग, विमल, हमदम और मैं। सबका खाता भी एक है? जिसके पास जितना पैसा होता है, दे देता है। हमदम कभी-कभी महीनों कुछ नहीं दे पाता और कभी सबका भुगतान कर देता है।'

'रोज यही खाते हो?'

'रोज।'

राकेश जी ने स्‍कूटर रुकवाया। हम लोग करोल बाग की तरफ चल दिए। जेब में ज्यादा पैसे न थे। मैंने एक जगह स्‍कूटर रोका और एक पौवा ले कर जेब में रख लिया। दिल्‍ली में कभी किसी ने मेरे भोजन की चिंता नहीं की थी। सत सोनी और कृष्‍ण भाटिया के ही परिवार ऐसे थे जहाँ घर जैसा स्‍नेह और फुल्‍का मिलता था। मगर मेरी मित्र मंडली में तेजी से परिवर्तन आए थे। मॉडल टाउन छोड़ने के बाद तो इन लोगों से बहुत कम संपर्क रह गया था। हम चारों ने कभी कम ही साथ-साथ भोजन किया होगा, जिसको जब भूख लगती या फुर्सत होती, खा आता। देर हो जाती तो नीचे कपूर कैफे से आमलेट और चाय मँगवा कर पेट भर लेते। यहाँ भी संयुक्‍त खाता था और टैक्‍सी के मीटर की तरह कर्ज बढ़ता। अक्‍सर इतना बकाया हो जाता कि हम सब अपनी पूरी आमदनी भी कपूर साहब को सौंप दें तो पूरा न पड़े। एक दो बार कपूर बदतमीजी से पैसों की तकाजा किया तो हमदम ने उसे पीट भी दिया था। हम लोग कुछ न कुछ भुगतान करते रहते ताकि भुखमरी की नौबत न आए।

एक बार मैं किसी गोष्‍ठी के सिलसिले में चंडीगढ़ गया हुआ था कि पीछे से मेरे माता-पिता और छोटी बहन मुझसे मिलने दिल्‍ली चले आए। बहुत दिनों से उन्‍हें मेरा पत्र न मिला था और वे चिंतित हो गए थे। हम लोगों के जीने का ढंग देख कर उन्‍हें बहुत निराशा हुई। माँ और बहन ने मिल कर पूरे कमरे की सफाई की, बिस्‍तर की चादर बदली, मैले कपड़े धो कर प्रेस करवाए और जब उन्‍हें यह पता चला कि चायवाले का बिल सात सौ रुपए से ऊपर है तो बहुत नाराज हुए। उन्‍होंने उसका भी भुगतान कर दिया और मेरे लौटने से पहले ही वापिस चले गए। मैं लौटा तो कमरा पहचान में न आ रहा था। हर चीज करीने से रखी हुई थी। कुछ दिनों बाद पिता का एक पत्र मिला। उन्‍होंने बहुत पीड़ा से वह पत्र लिखा था और मेरे भविष्‍य को ले कर वह बहुत सशंकित हो गए थे। उन्‍हें विश्‍वास हो गया था कि मैं किसी बुरी लत या कुसंगति का शिकार हो चुका हूँ। उन्‍होंने यह सूचना भी दी थी कि हिसार में मेरा स्‍थान अभी तक रिक्‍त है और मैं हामी भरूँ तो वह मैनेजमेंट से बात करके मेरी बहाली के लिए कोशिश कर सकते हैं। पूरा पत्र लानत, मलामत और नसीहतों से लबरेज था। मैं तो अच्‍छे-अच्‍छे पत्रों का उत्‍तर नहीं देता था, इस पत्र का क्‍या उत्‍तर देता। मुझे मालूम था, मैं अपनी बात उन्‍हें समझा ही न सकता था। मैं उस फटेहाल जिंदगी से ही संतुष्‍ट था। साहित्‍य मेरी पहली और अंतिम प्राथमिकता थी। सोने-चाँदी या हीरे-मोती की कोई ख्‍वाहिश न थी। वह एक जुनून का दौर था, जिसे कोई दीवाना ही समझ सकता था। मेरे माता-पिता तो इस फकीराना जीवन और दर्शन की परिकल्‍पना भी न कर सकते थे। राकेश कर सकते थे। वह भी गर्दिश में थे, मगर उनकी गर्दिश का स्‍तर सम्‍मानजनक था।

'पहले खाना खा लो।' राकेश जी ने कहा, 'जहाँ रोज खाते हो वहाँ चलते हैं।'

मैं राकेश जी को उस ढाबे में नहीं ले जाना चाहता था। वहाँ हर समय भीड़-भाड़ रहती थी और वहाँ पीने का सवाल ही न उठता था। मैंने रोहतक रोड पर स्‍कूटर रुकवाया, 'ग्‍लोरी' रेस्‍तराँ के पास। वहाँ से सड़क पार करते ही हमारा घर था। घर के सामने वहीं एक साफ-सुथरा रेस्‍तराँ था। भूले-भटके कहीं से पारिश्रमिक आ जाता तो हम लोग 'ग्‍लोरी' में जश्‍न मनाते।

मैंने दो गिलास मँगवाए। राकेश जी ने अपना गिलास उलटा रख दिया, 'नहीं, मैं नहीं लूँगा।' मैं जानता था, कि उनका 'नहीं' अंतिम होता है। दुबारा अनुरोध करने का प्रश्‍न ही न उठता था।

राकेश मेरे बारे में जानकारी हासिल करते रहे। कितना वेतन है, मकान का कितना भाड़ा है, क्‍या पढ़-लिख रहे हो, दोपहर का भोजन कहाँ करते हो, दिल्‍ली में कैसा लग रहा है। उन्‍होंने मीनू मेरे सामने फैला दिया, 'तुम अपने लिए खाना मँगवाओ, मैं घर जा कर अनीता के साथ भोजन करूँगा।'

खा-पी कर हम लोग बाहर आए। वही स्‍कूटर खड़ा था। राकेश प्रायः स्‍कूटर अथवा टैक्‍सी घर पहुँच कर ही छोड़ा करते थे। मुझे घर पर उतार कर वह उसी स्‍कूटर से लौट गए। मैं सम्‍मोहित-सा देर तक वहीं खड़ा रहा। मन एक दम स्‍थिर हो गया था।

कुछ दिन बाद राकेश जी के साथ यात्रा का भी अवसर मिला। डॉ. मदान ने चंडीगढ़ विश्‍वविद्यालय में एक कथा गोष्‍ठी का आयोजन किया था। उन्‍होंने मुझे भी आमंत्रित किया था। गोष्‍ठी के लिए नए लेखकों के नाम पते भी मँगवाए थे। मैंने केवल एक नाम की सिफारिश की। ममता अग्रवाल के नाम की। जगदीश चतुर्वेदी द्वारा संपादित 'प्रारंभ' में ममता की कविताओं ने ध्यान आकार्षित किया था। उसके पिता आकाशवाणी के दिल्‍ली केंद्र में सहायक केंद्र निदेशक थे। विद्याभूषण अग्रवाल, भारतभूषण अग्रवाल के बड़े भाई। वे कई बार दफ्तर से लौटते हुए टी-हाउस में भी आ जाते। जगदीश से उनका पुराना रिश्‍ता था। समकालीन साहित्‍य में उनकी गहरी दिलचस्‍पी थी। जगदीश ने परिचय करवाया तो उन्‍होंने मेरी दो-एक कहानियों का हवाला देते हुए बताया कि वह मेरे नाम से बखूबी परिचित हैं। उन दिनों मेरी कहानी 'नौ साल छोटी पत्‍नी' की धूम थी। वह साहित्‍यनुरागी थे और साहित्‍य चर्चा में गहरी दिलचस्‍पी रखते थे। वह टी-हाउस में बैठकी नहीं करते थे, लेखक बंधुओं से मिल-मिला कर चले जाते थे। अक्‍सर घर आने का निमंत्रण देते। एक दिन शाम को जगदीश ने शक्‍ति नगर चलने का प्रस्‍ताव रखा। 'प्रारंभ' का प्रकाशक भी वहीं रहता था। जगदीश को उससे कोई काम था। पहले हम लोग विद्याभूषण जी के यहाँ गए। वह पहली मंजिल पर रहते थे। जगदीश ने घंटी बजाई तो ममता ने दरवाजा खोला। वह एकदम दुबली-पतली और छरहरी थी। आँखों पर घुमावदार अजीब डिजायन का चश्‍मा पहनती थी। उस दिन उसने बाल शैंपू किए थे और चेहरे पर उसके बाल नुमाया थे। उस दिन 27 जून 1964 की तारीख थी। यह तारीख भी उनकी मौत के बाद ममता के पिता की डायरी से मिली।

ममता खाली समय में उनकी डायरियाँ पढ़ा करती है। डायरी में वह केवल दिन भर का ब्‍योरा लिखते थे। किससे भेंट हुई, कौन आया, कौन-सी पिक्‍चर देखी, किसका पत्र मिला कुछ उल्‍लेखनीय पढ़ते तो उसे भी नोट कर लेते। अपने विचार वह कम ही प्रकट करते थे। अपनी प्रतिक्रिया वह फुटकर कागजों पर लिखते थे, जो बुकमार्क की तरह उनकी पुस्‍तकों में आज भी मिल जाती हैं। अस्‍तित्‍ववाद पर चर्चा करते तो राम के निर्वासन और अकेलेपन के संदर्भ में। ममता उन दिनों कविताएँ अधिक लिखती थी। वह काफी बेबाक हो कर लिखती थी और उसकी भाषा में एक ताजगी थी। एक बार वह अपने पिता के साथ टी-हाउस आई तो मैंने उसकी किसी कविता की तारीफ की। उसे विश्‍वास नहीं हो रहा था कि कोई उसकी कविता की तारीफ भी कर सकता था। उसने बताया कि उसे पंजाब विश्‍वविद्यालय द्वारा आयोजित कथा गोष्‍ठी का निमंत्रण मिला है और संभावित कथाकारों में उसका भी नाम है तो मैं मुस्‍कराया। अब मैं क्‍या बताता कि उसका नाम मैंने ही प्रस्‍तावित किया था।

चंडीगढ़ ममता के लिए निहायत अपरिचित जगह थी। मेरे अलावा उसे कोई पहचानता भी न था। मैंने डॉक्टर मदान से उसका परिचय करवाया। गोष्‍ठी में वह मेरे साथ ही बैठी रही। भोजन के समय भी हम लोग साथ थे। राकेश और कमलेश्‍वर बहुत शरारत से हमारी तरफ देख रहे थे। ममता को उसी शाम लौटना था। हर बात में वह अपने पिता का हवाला देती थी। पापा ने कहा, पापा बोले, पापा की राय में, पापा के पुस्‍तकालय में, पापा के दफ्तर में, गर्ज यह कि जो कहें पापा, जो सुनें पापा। बातचीत से आभास हुआ कि वह सोच रही है कि मैं शादीशुदा व्‍यक्‍ति हूँ, मैंने तुरंत इसका प्रतिवाद किया। उसने बताया कि 'नौ साल छोटी पत्‍नी' पढ़ कर उसने ऐसा सोचा था। मुझे लगा, अन्‍य तमाम लड़कियों की तरह इसका भी यही अनुभव रहा है कि हमको तो जो भी दोस्‍त मिले, शादीशुदा मिले। ममता ने बताया कि शाम को उसका दिल्‍ली लौटना जरूरी है, क्‍योंकि उसके पिता उसकी प्रतीक्षा करेंगे। मेरी इच्‍छा हो रही थी कि उससे पूछूँ कि क्‍या उसकी माँ नहीं है। यह सोच कर मैं अपनी जिज्ञासा शांत न कर पाया कि अगर माँ हुई तो यह बुरा मान जाएगी। बाद में पता चला कि उसकी माँ ही नहीं एक बहन भी है, जिसकी बरसों पहले शादी हो गई थी और वह उन दिनों कलकत्‍ते में रहती थी। यह सोच कर कि एक लड़की के साथ यात्रा आराम से कट जाएगी, मैंने कहा, मैं भी दफ्तर से छुट्‌टी ले कर नहीं आया, मेरा लौटना भी बहुत जरूरी है। राकेश, कमलेश्‍वर को मेरे लौटने के इरादे की भनक लगी तो सुझाव दिया कि मैं अगले रोज उन लोगों के साथ ही लौटूँ, रास्‍ते में करनाल में किसी मित्र ने खाने-पीने की उत्‍तम व्‍यवस्‍था कर रखी है। मैं उन लोगों को बिना बताए चुपचाप ममता के साथ वहाँ से खिसक लिया और हम लोग पहली उपलब्‍ध बस में सवार हो गए।

बस में एक अत्यंत सभ्‍य और संकोचशील व्‍यक्‍ति की तरह बहुत सिकुड़ कर ममता के साथ बैठा कि कहीं बदन न छू जाए। बस जब दिल्‍ली पहुँची तो आधी रात हो चुकी थी। वही रात बाद में मेरे लिए कत्‍ल की रात साबित हुई यानी कि तय हो गया कि हम लोग शादी कर लेंगे। घर की शांति कायम रखने के लिए जरूरी है कि मैं उस रात की तफसील में न जाऊँ। जाने क्‍यों मोहन राकेश मेरे शादी के इस निर्णय से सहमत न थे, हो सकता है इसलिए कि शादी ने उन्‍हें बहुत कटु अनुभव दिए थे। यह भी हो सकता है कि मेरे लिए कोई दूसरी लड़की उनके जेहन में रही हो। उन दिनों दफ्तर के एक उच्‍च अधिकारी की भी मुझ पर नजर थी, वह अपनी गोद ली गई मोटी थुलथुल लड़की से मेरा रिश्‍ता जोड़ना चाहते थे। वह निःसंतान थे और उन्‍हें एक घर जमाई की तलाश थी। उन्‍होंने मेरे पास पदोन्‍नति का प्रस्‍ताव भी भेजा, मगर मुझे मालूम था मैं उनकी अपेक्षाओं पर खरा न उतरूँगा। मूर्खतावश मैंने राकेश जी की असहमति के बारे में ममता को बता दिया था, नतीजा यह निकला कि ममता ने कभी सीधे मुँह उनसे बात न की। इसकी मुझे बहुत तकलीफ होती थी। दरअसल इस प्रकार की मूर्खताएँ मैं हमेशा ही करता रहा हूँ। मेरी बहन की जिस लड़के के साथ इंगलैंड में शादी हुई, उसका पत्र पढ़ कर मैंने अपनी बहन को लिख दिया था कि वह लड़का तुम्‍हारे योग्‍य नहीं है, क्‍योंकि उसका हैंडराइटिंग मुझे पसंद नहीं आया था। बहन की विदाई हुई तो मैंने उससे अनुरोध किया कि यह बात अपने मियाँ को न बताए। उसने यही बात सबसे पहले बताई और हम लोगों के बीच कभी पत्राचार न हो पाया।

चंडीगढ़ यात्रा से पूर्व सन 64 में राकेश जी के साथ इलाहाबाद की यात्रा की थी। राकेश-कमलेश्‍वर के पास इलाहाबाद से परिमल कहानी सम्‍मेलन का निमंत्रण आया तो उन्‍होंने तार दिया कि हमारा प्रतिनिधित्‍व एकदम नए लेखक रवींद्र कालिया करेंगे। मगर बाद में हम सब लोग अपर इंडिया में बैठ कर एक साथ इलाहाबाद पहुँचे थे। पूरी रात हँसते-गाते गाड़ी में बीती थी। राकेश, कमलेश्वर, गंगा प्रसाद विमल, परेश और मैं पिकनिक के से माहौल में इलाहाबाद पहुँचे। कृष्‍णा सोबती भी उसी गाड़ी में चल रही थीं, मगर वे फर्स्‍ट क्‍लास में यात्रा कर रही थीं। हम लोग तब तक साहित्‍यिक राजनीति से वाकिफ न थे, मगर परिमल सम्‍मेलन में केवल राजनीति थी। कुछ चीजें समझ में आने लगीं। पहली तो यह कि कहानी के केंद्रीय विधा के रूप में स्‍थापित हो जाने से 'परिमल' के खेमे में बहुत खलबली थी। कहानी समय के मुहावरे, वास्‍तविकता के प्रामाणिक अंकन तथा सामाजिक परिवर्तन के संक्रमण की अभिव्‍यक्‍ति का सशक्‍त माध्‍यम बन गई थी। 'परिमल' काव्‍य की ऐंद्रजालिक और व्‍यक्‍तिवादी रोमानी बौद्धिकता को कहानी पर आरोपित करके कुछ कवि कहानीकारों - कुँवर नारायण, रघुवीर सहाय, सर्वेश्‍वर तथा कुछ कहानीकार कवियों - निर्मल वर्मा आदि को नए कहानीकार के रूप में प्रतिष्‍ठित कराने के प्रयत्‍न में था। आज मुझे लगता है कि यह अकारण नहीं कि 'परिमल' एक भी सफल कथाकार उत्‍पन्‍न नहीं कर पाया। श्रीलाल शुक्‍ल अपवाद हैं, जबकि वे भी अपने को परिमिलियन नहीं मानते। यह दूसरी बात है कि एक ऐसा भी समय था कि वह परिमल के प्रभाव में आ कर जीवन से कटे जासूसी उपन्‍यास लिखने लगे थे। 'परिमल' की पूरी मानसिकता व्‍यक्‍तिवादी थी, जो कहानी की समाजोन्‍मुख धारा में एक नगण्य-सा द्वीप बन कर रह गई थी। विजयदेव नारायण साही ने बगैर किसी तर्क के मोहन राकेश की कहानियों को संवेदना के धरातल पर नीरज के गीतों के समकक्ष ला पटका तो यह समझने में देर न लगी कि साही जी हिंदी कथा साहित्‍य की परंपरा से नितांत अपरिचित हैं और दो-एक फुटकर कहानियाँ पढ़ कर अपनी धारणाओं को आरोपित कर रहे हैं।

इलाहाबाद में तमाम नए-पुराने और हम उम्र कथाकारों से भेंट हुई। हम लोगों के आतिथ्‍य की जिम्‍मेदारी दूधनाथ सिंह को सौंपी गई थी। राकेश वगैरह अश्‍क जी के मेहमान थे। दूधनाथ सिंह से पहली मुलाकात इलाहाबाद स्‍टेशन पर हुई थी। वह प्रथम दृष्‍टि से ही एक संघर्षशील रचनाकार लगा। एकदम कृशकाय और हडि्‌डयों का ढाँचा मात्र, जैसे सारे जहाँ का संघर्ष उसी के हिस्‍से आया हो। वह थोड़ी-थोड़ी देर बाद खाँसता और खाँसते-खाँसते बेहाल हो जाता। उसके बीमार चेहरे पर केवल उसके दाँत स्‍वस्‍थ लगते थे, उजले-उजले चमकदार दाँत, आँखें बुझी थीं, दाँत जगमगा रहे थे। वरना इलाहाबाद के तमाम लेखकों के दाँत पान और खैनी के रंग में रँग चुके थे। विमल, परेश और मैं दूधनाथ सिंह के यहाँ ठहरे थे, शायद करेलाबाद कालोनी में। पहली मंजिल पर उसका बेतरतीब कमरा था। जैसे किसी पढ़े-लिखे योगी फकीर का साधना स्‍थल हो। कमरे में जगह-जगह कागज पत्र बिखरे हुए थे।

उन दिनों अमरकांत और शेखर जोशी भी करेलाबाग कालोनी में रहते थे। सुबह चाय पिलाने दूधनाथ सिंह हम लोगों को अमरकांत जी के यहाँ ले गया। अमरकांत जी बाबा आदम के जमाने की एक प्राचीन कुर्सी पर बैठे थे। वह अत्यंत आत्‍मीयता से मिले। उनके यहाँ चाय बनने में बहुत देर लगी। हम लोगों ने उनके यहाँ काफी समय बिताया। दीन-दुनिया से दूर छल-कपट रहित एक निहायत निश्‍चल और सरल व्‍यक्‍तित्‍व था अमरकांत का। हिंदी कहानी में जितना बड़ा उनका योगदान था, उसके प्रति वह एकदम निरपेक्ष थे। जैसे उन्‍हें मालूम ही न हो कि वह हिंदी के एक दिग्‍गज रचनाकार हैं। हाड़ मांस का ऐसा निरभिमानी कथाकार फिर दुबारा कोई नहीं मिला। अमरकांत जी के घर के ठीक विपरीत अश्‍क जी के यहाँ का माहौल था। गर्म-गर्म पकौड़े और उससे भी गर्म-गर्म बहस। कहानी को ले कर ऐसी उत्‍तेजना जैसे जीवन-मरण का सवाल हो। उनके घर पर उत्‍सव का माहौल था, जैसे अभी-अभी हिंदी कहानी की बारात उठनेवाली हो। नए कथाकार जिस तरह अग्रज पीढ़ी को धकेल कर आगे आ गए थे, उससे अश्‍क जी आहत थे, आहत ही नहीं ईष्‍यालु भी थे। राकेश-कमलेश्‍वर से उनकी नोंक-झोंक चलती रही। एक तरफ वह परिमल के कथा विरोधी रवैए के खिलाफ थे दूसरी ओर नई कहानी का नयापन उनके गले के नीचे नहीं उतर रहा था। उनकी नजर में उनकी अपनी कहानियाँ ही नहीं यशपाल, जैनेंद्र और अज्ञेय की कहानियाँ भी नई कहानी की संवेदना से कहीं आगे की कहानियाँ हैं। हम लोगों यानी विमल, परेश और मेरे साथ अश्‍क जी की अकहानी को ले कर लंबी बहस हुई। यह भी लग रहा था कि वह नए कथाकारों को चुनौती देने के लिए हमारी पीढ़ी को अपने सीमा सुरक्षा बल की तरह पेश करना चाहते थे। हम लोग नए बटुकों की तरह पूरा परिदृश्‍य समझने की कोशिश कर रहे थे। अश्‍क जी के यहाँ कथाकारों का अहर्निश लंगर चल रहा था।

सम्‍मेलन में गिरिराज किशोर से भेंट हो गई। उन दिनों गिरिराज किशोर साथी लेखकों के साथ जम कर पत्राचार करता था। जाने वह दिन में कितने पोस्‍टकार्ड लिखता था। इलाहाबाद में उसका अंदाससज और रुतबा एक लेखक का कम अधिकारी का ज्यादा था। वह हमेशा ऐसे तैयार मिलता जैसे अभी-अभी दफ्तर कि लिए तैयार हो कर निकल रहा हो। उसका पूरा व्‍यक्‍तित्‍व किसी बड़ी कंपनी के जनसंपर्क अधिकारी जैसा था। दोपहर को उसने सुझाव रखा कि यदि हम लोग 'माया' में एक-एक कहानी देने को तैयार हों तो वह बतौर पारिश्रमिक सौ-सौ रुपए अग्रिम दिलवा सकता है। सस्‍ते का जमाना था, तीन-चार रुपए में बियर की बोतल आ जाती थी। गिरिराज हम लोगों को माया प्रेस ले गया। आलोक मित्र से हम लोगों की भेंट करवाई और सचमुच सौ-सौ रुपए कहानी के अग्रिम पारिश्रमिक के रूप दिलवा दिए। उन दिनों 'माया' में यशपाल, अश्क, जैनेंद्र और अज्ञेय की रचनाएँ भी प्रकाशित होती थीं, पारिश्रमिक मिलते ही हम लोग परिमल के कथा सम्‍मेलन को भूल गए। माया प्रेस से सीधे 'गजधर' पहुँचे।

उन दिनों 'गजधर' के मुक्‍तांगन में बियर शॉप थी। मखमली घास, कर्णप्रिय संगीत और खूबसूरत 'हैज' से घिरे उस मुक्‍तांगन में बियर पीने का अपना ही आनंद था। मैंने इससे पूर्व ऐसा खूबसूरत बियर पार्लर न देखा था। गिरिराज किशोर हम लोगों को बार में छोड़ कर सम्‍मेलन में भाग लेने चला गया, वह किसी सत्र में अनुपस्‍थित न रहना चाहता था। वह प्रत्‍येक सत्र को ले कर इतना गंभीर था जैसे उसकी पूरी पूँजी दाँव पर लगी हो। कुछ देर बाद राकेश-कमलेश्‍वर वगैरह भी 'गजधर' में ही चले आए। हम लोगों को बार में देख कर वे लोग चौंके। हम लोगों ने बताया कि यह सब गिरिराज किशोर के प्रयत्‍नों से ही संभव हो पाया है कि हम लोग दोपहर से बियर का सेवन कर रहे हैं। मैंने राकेश जी को बताया कि 'गजधर' की बियर शॉप ने अपने जालंधर की बियर बार को पछाड़ दिया है। वहाँ इतना काव्यमय, संगीतमय और मखमली तो माहौल न था। हम लोगों ने गजधर में काफी पैसे फूँक दिए, जबकि अभी एक दिन इलाहाबाद में और रहना था। अगले रोज दूधनाथ सिंह हम लोगों को चौक के और भी सस्‍ते बार में ले गया। हम लोगों में परेश की रुचियाँ कुछ भिन्‍न थीं। उसकी दिलचस्‍पी बियर से ज्यादा हुस्‍न में थी। हम लोग चौक के एक सस्‍ते बियर बार की सीढ़ियाँ चढ़ गए और परेश मीरगंज की। सौ रुपए यों अनायास मुफ्त में अग्रिम राशि पा कर वह किसी बिगड़े रईसजादे की तरह व्‍यवहार करने लगा था। हम लोग दिल्‍ली के लिए रवाना हुए तो जेबें खाली थीं। अपनी समूची पूँजी हमने 'गजधर' में होम कर दी थी।

8-

कथा लेखन के साथ कथा गोष्‍ठियों का ऐसा क्रम शुरू हुआ जो आज तक जारी है। यह कहना भी गलत न होगा, मैंने जीवन में जो कुछ भी पाया है कथा लेखन के कारण। जितना भी भारत देखा कहानी ने दिखा दिया। जिंदगी में शादी से ले कर नौकरियाँ और छोकरियाँ तक गर्ज यह कि जो कुछ भी मिला, कहानी के माध्‍यम से ही। कहानी ओढ़ना-बिछौना होती गई, जरियामाश बन गई। कहानी ने नौकरियाँ दिलवाईं तो छुड़वाईं भी। कहानी ने ही प्रेस के कारोबार में झोंक दिया। कहानी के कारण घाट-घाट का पानी पीने का ही नहीं, घाट-घाट का दारू पीने का भी अवसर मिला। अपने बारे में मैं निःसंकोच कह सकता हूँ कि मैंने घाट-घाट का दारू पिया है। आजकल झटपट का जमाना है। झटपट वैभव, वित्‍त और सफलता का जमाना। साहित्‍य में भी लोगों ने झटपट नाम कमाया, चर्चा में आए, मगर झटपट ही परिदृश्‍य से ओझल हो गए। संगीत की तरह साहित्‍य में भी लंबे रियाज की जरूरत है। जो घर जारे आपना चले हमारे साथ। सफर के शुरू में एक लंबा कारवाँ साथ होता है, अमरनाथ की इस दुर्गम यात्रा में बहुत से सहयात्री बीच राह में दम तोड़ देते हैं या चुपचाप बहिर्गमन कर जाते हैं। पग-पग पर झंझा, आँधी और तूफान और मंजिल एक मरिचिका। मगर किसी भी यात्रा की तरह यह यात्रा है बहुत दिलचस्‍प रही। जिंदगी के अनेक रंग देखने को मिले - रंग और बदरंग दोनों। चालीस वर्ष लंबी यात्रा के बाद भी एहसास होता है कि अभी तो मीलों मुझको चलना है। एक अंतहीन यात्रा है यह। एक ऐसी यात्रा कि पाथेय का भी भरोसा नहीं रहता।

मेरे पास तो एक नौकरी थी। अनेक सहयात्री ऐसे भी थे, जिनकी हर सुबह एक नए संघर्ष की सुबह होती थी। वे जेब में बस का पास ठूँस कर निकल जाते थे, एक अनजाने सफर पर। कोई लंबी-चौड़ी महत्वाकांक्षाएँ भी नहीं थीं उनकी। जिंदा थे कि रचनाकर्म से जुड़े थे, इसी के लिए पूरा संघर्ष था। उन दिनों दिल्‍ली में लेखकों की कई जमातें थी। एक जमात साधन संपन्‍न लेखकों की थी और एक जमात फकीर लेखकों की। एक दुनिया अफसर लेखकों की और एक दुनिया मातहत लेखकों की। एक वर्ग समर्पित लेखकों का और एक वर्ग शौकिया लेखकों का। हर कोई इस दौड़ में शामिल था, साथी लेखकों का कंधा छीलते हुए आगे निकल जाने की होड़ थी। प्रत्‍येक रचनाकार रोज एक नए अनुभव से गुजरता था।

एक जमात पुरानी दिल्‍ली के कथाकारों की थी। जैनेंद्र कुमार इस जमात के सरगना थे। जैनेंद्र का जमाना था, अनेक छोटे-मोटे जैनेंद्र कॉफी हाउस में नजर आते थे। पुरानी दिल्‍ली के ठेठ नए रचनाकारों में योगेश गुप्त, भूषण बनमाली, शक्‍तिपाल केवल, अतुल भारद्वाज, और कुछ-कुछ हरिवंश कश्‍यप और सौमित्र मोहन प्रमुख थे। इन में से अधिसंख्‍य कथाकार मसिजीवी थे। कोई चावड़ी बाजार या नई सड़क में प्रूफ पढ़ कर काम चला रहा था तो कोई जैनेंद्र जी की डिक्‍टेशन ले कर अपने को धन्‍य समझ रहा था। वे जैनेंद्र का अनुकरण करने की कोशिश करते, मगर दारू के दो पेग पी कर ही मंटो का अवतार बन जाते। ऊपर से देखने पर जैनेंद्र और मंटो में कोई समानता नजर नहीं आती, मगर दोनों में एक महीन सी समानता थी। सैक्‍स के अँधेरे बंद कमरों में दोनों ताकझाँक करते थे। जैनेंद्र अभिजात में लपेट कर सैक्‍स परोसते थे और मंटो के यहाँ पूरी मांसलता के साथ सैक्‍स मौजूद था - कच्‍चा, फड़फड़ाता हुआ, धड़कता हुआ, जिंदगी के ताजा कटे स्‍लाइस की तरह जीवंत। लेखकों की पुरानी दिल्‍ली की यह जमात जैनेंद्र और मंटो की काकटेल थी। वे साठोत्‍तरी पीढ़ी के बुजुर्ग रचनाकार थे। वे नए कथाकारों के हमउम्र थे, मगर नई कहानी की बस उनसे छूट गई थी। वे साठोत्‍तरी पीढ़ी की बस में भी सवार न हो पाए। कल के लौंडों के साथ सफर करने में उनकी तौहीन थी। इसी क्रम में वह डगर से बिछुड़ गए थे, उनकी अपनी डगर थी। साहित्‍य के नभ में उनका अपना झुंड था। सच तो यह है उनका अपना आकाश था। अपनी परवाज थी। समय भी उनकी रचनाशीलता के साथ न्‍याय नहीं कर पा रहा था। नतीजा यह निकला कि दिल्‍ली में ऐसे लेखकों की एक अलग श्रेणी बन गई जिनकी कहानियाँ स्‍थापित पत्र-पत्रिकाओं में तो स्‍थान प्राप्‍त न कर सकीं, उनके विषबुझे तिक्‍त पत्र खूब प्रकाशित होते थे।

कुछ लेखकों ने तो मुझे ऐसा निशाना बनाया कि मेरी कहानी जिस भी पत्रिका में प्रकाशित होती उसके अगले ही अंक में मेरी कहानी के खिलाफ मोर्चा खुल जाता। मेरी कहानी के साथ-साथ संपादक की भी शामत आ जाती। उसकी भर्त्‍सना करते हुए कहा जाता कि ऐसी घटिया और बेतुकी कहानियाँ छाप कर वे पाठकों का अमूल्‍य समय ही नहीं पत्रिका के पन्‍ने भी नष्‍ट कर रहे हैं। मुझे घुट्‌टी में ही यह महामंत्र पिलाया गया था कि प्रशंसा से बड़े-बड़े लेखकों की लुटिया डूब जाती है, तीखी आलोचना और विवाद से ही लेखक चर्चित होता है। राकेश का तो तकिया कलाम था कि आल सेड एंड डन, मरे हुए घोड़े को कोई नहीं पीटता। बाद में मैंने अपने अनुभव से भी जाना कि प्रशंसा नए लेखकों को प्रायः चर्चा से बाहर कर देती है। यह बात लेखक को समझ में तो आ जाती है मगर तब, जब बहुत देर हो चुकी होती है। मेरे लिए यह सुखद अनुभव था कि मेरी कहानियों के खिलाफ जितने पत्र प्रकाशित होते, कहानियों की जितनी तीखी प्रतिक्रिया होती, उसी अनुपात में मेरी कहानियाँ चर्चा के केंद्र में आ जातीं और उनकी माँग बढ़ जाती। यह दूसरी बात है कि मैंने अथवा मेरी पीढ़ी के अन्‍य कथाकारों ने कभी भी माँग और पूर्ति के हिसाब से लेखन नहीं किया। व्‍यवसायिक पत्रिकाओं के रंगीन चिकने पन्‍नों पर भी साठोत्‍तरी पीढ़ी के रचनाकारों की रचनाएँ सब से कम छपी हैं। अधिसंख्‍य कथाकारों ने अव्‍यावसायिक लघु पत्रिकाओं से ही अपनी पहचान बनाई।

दिल्‍ली के खाँटी नए रचनाकारों में सौमित्र मोहन और अतुल भारद्वाज तालीमयाफ्ता थे और विश्‍वविद्यालय में पढ़ते थे। कभी-कभी ये लोग जगदीश चतुर्वेदी से मिलने दफ्तर आया करते थे। जगदीश पर उन दिनों अकविता का भूत सवार था। वह हमेशा आंदोलित रहता। उन दिनों राजस्‍थान से प्रकाशित होनेवाली पत्रिका 'लहर' पर जगदीश और उसके गिरोह का कब्जा था। पर्दे के पीछे से प्रभाकर माचवे वगैरह भी देशी -विदेशी एजेंसियों की मदद से 'लहर' के लिए वित्‍त की व्‍यवस्‍था करते रहते। मेरा और जगदीश का दिन भर का साथ रहता, मुझे बहुत-सी जानकारी अनायास ही मिल जाती। एक दिन दिल्‍ली के लेखकों से सूचना मिली कि आगामी सात दिसंबर को योगेश गुप्‍त का जन्‍म दिन है। पता चला कि इस बार वह बहुत धूमधाम से अपना जन्‍मदिन मनाने की तैयारी कर रहा है। उसके मित्र इस बात से बहुत उत्‍तेजित थे। अभी से मदिरा और डिनर की व्‍यवस्‍था की जा रही थी। शाम को कनाट प्‍लेस में घूमते हुए मुझे ख्‍याल आया कि योगेश गुप्‍त के लिए एक अच्‍छा सा बधाई कार्ड खरीदा जाए। खोजते-खोजते मुझे एक उपयुक्‍त कार्ड पसंद आ गया। मैंने कार्ड खरीदा और योगेश गुप्‍त के पते पर पोस्‍ट कर दिया। वह उन दिनों भी यमुनापार के किसी उपनगर में रहता था। कार्ड भेज कर मैं भूल गया। योगेश गुप्‍त कभी मेरे पक्ष में नहीं रहा था, मेरे विरुद्ध यदा-कदा उसके भी पत्र प्रकाशित होते रहते थे, मगर उसका संघर्षशील जीवन मुझे हमेशा चमत्‍कृत करता। वह कभी बहुत ऊँची कला में होता और कभी गहरे अवसाद में। वह तन, मन और धन से साहित्‍य को समर्पित था, जबकि तन मन और धन से वह खस्‍ताहाल ही दिखाई देता था।

शाम को जब चरणमसीह टी-हाउस के दरवाजे बंद करने लगता तो हम लोग टहलते हुए पैदल ही घर की तरफ चल देते। रास्‍ते में थकान महसूस होती तो अगले स्‍टॉप से बस पकड़ लेते। लौटते में कभी-कभी रमेश बक्षी भी साथ हो लेता। उसने उन दिनों एक मोर पाला हुआ था उसे अपने पेट की कम, मोर की ज्यादा चिंता रहती। वह बहुत खुश होता अगर हम भी उसके साथ मोर का हाल-चाल पूछने चल देते। घर में दारू होती तो वह आखिरी बूँद तक इस खुशी में लुटा देता। वह मोर के प्रेम में पड़ चुका था। बिना प्रेम के वह जिंदा ही न रह सकता था। उसका दिल अक्‍सर किराए पर उठा रहता, जिन दिनों दिल किराए के लिए खाली रहता, वह अपने मोर पर दिलोजान से फिदा रहता। वह मूल रूप से एक प्रेमी जीव था। मात्र प्रेम करने से उसका जी न भरता, वह अपने प्रेम का प्रदर्शन करने में भी आनंद उठाता। कई बार वह झूठमूठ का प्रेम प्रपंच भी करता। छुट्‌टी के एक दिन मैं उसके कमरे में डटा हुआ था, वह बार-बार अपनी घड़ी देख रहा था।

'क्‍यों कोई आनेवाली है क्‍या? ' मैंने पूछा।

'हाँ यार, एक बजे पाँच नंबर की बस के स्‍टॉप पर मिलने को कहा था।'

एक बजने में दस मिनट बाकी थे, हम लोग टहलते हुए अजमल खाँ रोड की तरफ चल दिए। चलते-चलते मुझे अचानक आभास हुआ कि वह सिर्फ अपने प्रेम की धौंस जमाना चाहता है, कोई लड़की-वड़की आनेवाली नहीं। ठीक एक बजे हम लोग बस स्‍टॉप पर थे। बसें लगातार आ-जा रही थीं। उनमें से लड़कियाँ भी उतर रही थी, हर बार वह उचक कर देखता और मेरे साथ रेलिंग पर बैठ जाता।

कोई आधा घंटा तक प्रतीक्षा करने के बाद उसने कहा कि लगता है लड़की किसी जरूरी काम में फँस गई है।

'धीरज रखो, उसने वादा किया है तो जरूर आएगी।' मैंने कहा, 'हो सकता है उस की बस छूट गई हो।'

उसने पंद्रह-बीस मिनट और इंतजार किया और बोला कि उसे भूख लग रही है, कहीं जा कर खाना खाते हैं।

'यार तुम बहुत गैरजिम्‍मेदार आशिक हो। दिल्‍ली में एकाध घंटे की देर तो मामूली-सी बात है। रुको थोड़ी देर और इंतजार करते हैं।' मैंने कहा।

रमेश ने सिगरेट सुलगा ली और कहा कि लड़की को सिगरेट से बेहद एलर्जी है इस वक्‍त सिगरेट पी कर उसे यही दंड दिया जा सकता है। वह लंबे-लंबे कश खींचने लगा। इंतजार में एक घंटा बीत गया, लड़की को नहीं आना था, नहीं आई। मुझे मालूम था, उन दिनों उसके जीवन में कोई लड़की नहीं थी। इसकी एक छोटी-सी पहचान थी। जिन दिनों उसके जीवन में लड़की नहीं होती थी, वह मोर से बहुत प्‍यार करता था। घर से चलते समय उसने मोर से वादा किया था कि वह जल्‍द ही उसके लिए मोतीचूर का लड्‌डू ले कर लौटेगा। वह अब सचमुच लौटना चाहता था, मगर मैंने भी तय कर रखा था कि इतनी आसानी से उसे बस स्‍टॉप से हटने न दूँगा। मैं नितांत फुर्सत में था। तीन बजे तक उसका धैर्य जवाब दे गया, 'मैं अब एक पल न रुकूँगा। भूख के मारे मेरी जान निकल रही है और मेरा मोर भी भूखा होगा।' रमेश ने कहा और पिंड छुड़ा कर यों भागा जैसे कोई गैया खूँटा उखाड़ कर भागती है। वास्‍तव में रमेश बक्षी नादानी की हद तक सरल व्‍यक्‍ति था। उसकी प्रेमिका उससे रूठ जाती तो वह रोने लगता। वह 'माई डियर' किस्‍म का दोस्‍त था। यके बाद दीगरे उसकी कई प्रेमिकाओं ने शादी कर ली थी और वह हाथ मलता रह गया था। एक बार उसने अपनी एक प्रेमिका को मुझसे पत्र लिखवाया कि वह उसे दिलोजान से चाहता है और उससे शादी करना चाहता है। जब तक मेरा पत्र पहुँचता उसकी प्रेमिका की शादी की खबर आ गई। रमेश बक्षी अपने मोर को बाहों में भर कर देर तक बच्‍चों की तरह सिसकियाँ भरता रहा।

जाड़े के दिन थे। हम लोग मूँगफली जेबों में भरे पैदल ही घर लौट रहे थे। मूँगफली खत्‍म हो गई तो बस पकड़ ली। अजमल खाँ रोड पर उतर कर पैदल ही ढाबे तक पहुँचे, जिसे हम 'साँझा चूल्‍हा' के नाम से पुकारा करते थे। हम लोगों ने कई महीनों तक उस ढाबे में भोजन किया था मगर कभी हिसाब की नौबत न आई थी। विमल, हमदम और मुझे कभी मालूम न हुआ कि ढाबे का पैसा हमारे ऊपर निकलता है या हमारा ढाबे के ऊपर। हमदम को लगता कि कर्ज बढ़ गया है तो वह किसी 'एड एजेंसी' में दो-तीन महीने काम करके एकमुश्‍त हजार पाँच सौ रुपए चुका देता। विमल और मैं बारोजगार थे, पहली तारीख को अपनी जेब के मुताबिक भुगतान कर देते। भोजन के समय हमदम हमारे साथ होता वरना ढाबे पर मिल जाता। उस दिन वह ढाबे पर नजर नहीं आया। संत नगर पहुँचे तो कमरे पर मिल गया। कमरे का माहौल गुलजार था। तख्‍त पर योगेश गुप्त, भूषण बनमाली और शक्‍तिपाल केवल आलथी-पालथी मार कर बैठे थे और बेचारा हमदम गिलास, सोडा, बर्फ की व्यवस्‍था में मशगूल था। बीचों-बीच नाथू स्‍वीट्‌स के खुले हुए डिब्‍बे में ढेर-सा तला हुआ काजू रखा था। हमेशा गुरबत की गवाही देनेवाले कमरे में पीटर स्कॉट की बोतलें और गोल्‍ड फ्लेक के पैकट बिखरे हुए था। धुएँ और दारू की गंध से कमरा सुवासित था।

मुझे देखते ही योगेश गुप्‍त बाहें फैलाए मेरी तरफ बढ़ा। मुझे याद आने में एक क्षण की भी देर न लगी कि आज जरूर सात दिसंबर है। मैंने भी जवाबी गर्मजोशी से योगेश को बाहों में भर लिया - मैनी हैप्‍पी रिटर्न्स ऑफ द डे। भूषण बनमाली ने मेरे हाथ में गिलास थमा दिया और सबके गिलास एक दूसरे से टकराए - चीयर्स।

योगेश ने मेरा एक हाथ लिया और दूसरा हाथ मेरे कंधों पर गमछे की तरह फैला दिया - 'दोस्त, मैंने तुझे गलत समझा था। तुम सही मायने में यारों के यार हो। इतनी बड़ी दिल्‍ली में सिर्फ तुम्‍हें मेरा जन्‍म दिन याद रहा। आज सुबह की डाक से तुम्‍हारा बधाई कार्ड मिला तो मुझे बेहद अच्‍छा लगा। अचानक महसूस हुआ कि क्‍लर्कों का यह बेरहम शहर संवेदनशून्‍य हो चुका है। संवेदना का स्‍पर्श सिर्फ बाहर से आनेवाले लोगों में ही शेष है। आज मेरे जेहन में बहुत-सी बातें स्‍पष्‍ट हो गई हैं। आज समझ में आया कि तुमने इतनी जल्दी दिल्‍ली में अपने लिए कैसे जगह बना ली। आज की शाम तुम्‍हारे नाम।'

भोजन के बाद शराब पीने का मुझे अभ्‍यास नहीं था। भूषण बनमाली ने सबके लिए नया पेग ढाल दिया और अपना गिलास सिर के ऊपर ले जाते हुए कहा 'चियर्स।' भूषण बनमाली इन तमाम लोगों में सबसे अधिक वाचाल और तेज-तर्रार था। वह जवाहर चौधरी की तरह खास दिल्ली के अंदाज में बातें करता था - उसे सुन कर कोई भी कह सकता था कि वह ग़ालिब और ज़ौक के शहर का बाशिंदा है। अपनी इन्‍हीं विशेषताओं की बदौलत वह विख्‍यात शायर और फिल्‍म निर्देशक गुलजार के इतना नजदीक चला गया कि दिल्‍ली से मुंबई जा बसा और गुलजार के साथ कई फिल्‍मों पर काम किया, बाद में फिल्‍मी लेखक-निर्देशक के रूप में भी अपनी अलग पहचान बनाई। मैंने भूषण से पूछा कि आजकल वह क्‍या लिख रहा है तो उसने बताया कि वह आजकल हनुमान चालीसा लिख रहा है। चावड़ी बाजार और नई सड़क के प्रकाशक उन दिनों इसी प्रकार की पुस्‍तकें प्रकाशित किया करते थे। भूषण बनमाली राम की कमाई खा रहा था, कभी हनुमान चालीसा का प्रूफ संशोधन करके और कभी रामचरित मानस का। शक्‍तिपाल केवल बहुरूपिया था, कभी लेखक बन जाता, कभी संपादक, कभी प्रकाशक और कभी प्रूफ रीडर। बोतल खत्‍म हो गई तो योगेश गुप्‍त ने जादूगर की तरह पीटर स्‍कॉट की दूसरी बोतल हाजिर कर दी। शाक्‍तिपाल केवल तख्‍त पर नाचने लगा जिओ मेरे राजा। तुम इसी तरह पिलाते रहो हजारों साल।

योगेश गुप्‍त ने अपनी अब तक प्रकाशित तमाम पुस्‍तकों का एक सेट मुझे भेंट किया। मुझे तब तक मालूम ही नहीं था कि योगेश की तब तक इतनी पुस्‍तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। वजन में वह किलो से कम न होंगी। वह सचमुच गुदड़ी का लाल था। बाद में मैं दिल्‍ली से मुंबई चला गया तो अपने अमूल्‍य संग्रह की तमाम पुस्‍तकें गंगाप्रसाद विमल की सुरक्षा अभिरक्षा में रखा गया। विमल की रचनात्‍मकता पर इन पुस्‍तकों का गहरा प्रभाव पड़ा, जो आज भी उसकी रचनाओं में चिह्नित किया जा सकता है।

नीचे टैक्‍सीवाला बार-बार हार्न बजा रहा था। योगेश ने आठ घंटे के लिए टैक्‍सी भाड़े पर ले रखी थी। हम लोग देर रात तक दिल्‍ली की खुली वीरान सड़कों पर टैक्‍सी दौड़ाते रहे और बाद में पंढारा रोड पर जा कर भोजन किया। योगेश गुप्‍त ने उस वर्ष जन्‍म दिन पर जैसे तय कर लिया था कि वह सब कुछ लुटा कर ही होश में आएगा। अगले रोज उसके होश ठिकाने लग गए होंगे। वह दिन था और आज का दिन योगेश गुप्‍त की छवि मेरे मन मंदिर में बसी हुई है। उस दिन के बाद किसी भी पत्रिका में मेरे खिलाफ उसका पत्र नहीं छपा। छद्म नाम से जो पत्र इधर पत्रिकाओं में प्रकाशित भी होते हैं, जानकार लोगों का अनुमान है कि उसके पीछे योगेश गुप्‍त का नहीं, दूसरे रकीबों का हाथ है।

उन दिनों योगेश गुप्‍त दरियागंज का गोर्की था। कुछ दौर ही ऐसा था कि हर शहर का अपना गोर्की होता था। दिल्‍ली चूँकि महानगर था, इसलिए दिल्‍ली के कई गोर्की थे। भूषण बनमाली बिल्‍ली मारान का गोर्की था तो शक्‍तिपाल केवल लाजपत नगर का। दिल्‍ली में उन दिनों कुछ जदीद किस्‍म के कथाकार भी सिर उठा रहे थे। इस लिहाज से उर्दू अफसानानिगार बलराज मेनरा किंग्जवे कैंप का आल्‍बेयर कामू था। उर्दू कथाकारों की एक जमात ऐसी भी थी जो शाम को गजरा लिए जी.बी. रोड के चक्‍कर लगाती थी और उसके सिपहसालार शाम को शराब में धुत्‍त हो कर गिर पड़ते थे, अपने को सआदत हसन मंटो के अवतार से कम न समझते थे। उन दिनों दिल्‍ली का इतना राजनीतिकरण न हुआ था, वहाँ की फिजा शायराना थी। राजकमल चौधरी दिल्‍ली आता तो उसकी उर्दू के शायरों और अफसानानिगारों से ज्यादा छनती, हिंदी के लेखकों की नजर में वह शरतचंद्र का चरित्रहीन था। वह बहुत भावुक किस्‍म का आदमी था, मगर अपने चरित्र की खुद ही धज्जियाँ उड़ाता रहता था। उर्दू के शायर लोग शाम को उसकी तलाश में कनाट प्‍लेस में दर-बदर भटका करते थे। पीने के लिए वह एक बेहतर साथी था। मुद्राराक्षस का उससे कलकत्‍ता का साथ था। उस वक्‍त लग रहा था कि मुद्रा भी राजकमल के पथ का दावेदार है, मगर मुद्रा ने अपने को बहुत सँभाला। उसने धीरे से अपना काँटा बदल लिया।

नई कहानी आंदोलन की और कोई उपलब्‍धि हो न हो, इतना जरूर है उसने कहानी को साहित्‍य की केंद्रीय विधा के रूप में स्‍थापित कर दिखाया था। साहित्‍य में कहानी की तूती बोलती थी। जैनेंद्र कुमार तक परेशान हो उठे थे कि आखिर क्‍या हो गया है जो कहानी की इतनी अधिक चर्चा हो रही है। राकेश, कमलेश्वर और यादव नई कहानी के राजकुमार थे, जिन्‍होंने कहानी के शहंशाओं को धूल चटा कर सिंहासन पर कब्जा कर लिया था। लग रहा था कि वे किसी बिजनेस इंस्टीट्‌यूट से मार्केटिंग का डिप्‍लोमा हासिल करके कथा क्षेत्र में उतरे हैं। समय-समय पर तीनों किसी न किसी महत्‍वपूर्ण कहानी पत्रिका के संपादक रहे, इसके अलावा अन्‍य अनेक पत्रिकाओं का भी वे 'रिमोट कंट्रोल' से संपादन करते रहे। दरियागंज उन दिनों भी साहित्‍य की राजधानी था। 'नई कहानियाँ' का कार्यालय राजकमल प्रकाशन में था और अक्षर प्रकाशन की भी नींव पड़ चुकी थी। 'हंस' का जन्‍म पुनर्जन्‍म नहीं हुआ था, मगर पेट में आ चुका था। योगेश गुप्‍त की टीम राजेंद्र यादव के दरबार में प्रायः दिखाई देती थी। यह कहना ज्यादा गलत न होगा कि योगेश गुप्‍त उन दिनों राजेंद्र यादव का मैत्रेयी पुष्‍पा था और कुछ लोग उसे छोटा जैनेंद्र भी कहते थे। जैनेंद्र जी से मुझे पहली बार योगेश गुप्‍त ने ही मिलवाया था। जैनेंद्र जी अत्यंत स्‍नेह से मिले, अंदाज वही फिलासफराना था, पोशाक गांधीवादी। वह बहुत बारीक कातते थे, कई बार तो सूत दिखाई भी न पड़ता था। मेरा मतलब है उनकी बात पल्‍ले ही न पड़ती थी। उनकी बात योगेश ही समझ सकता था, खग जाने खग ही की भाषा। जैनेंद्र और अज्ञेय में कोई न कोई समानता थी। एक तो यही कि दोनों स्‍नॉब थे। जैनेंद्र जी को अगर गांधीवादी स्‍नॉब कहा जा सकता है तो अज्ञेय को अस्‍तित्‍ववादी स्‍नॉब। उन दिनों मेरा कार्यालय भी दरियागंज में था। नई कहानियाँ का कार्यालय भी, अक्षर प्रकाशन, राजकमल, राधाकृष्ण, भारतीय ज्ञानपीठ, कमलेश्वर, यादव, जैनेंद्र सब दरियागंज में ही थे। मैं दफ्तर की कुर्सी के पीछे अपना कोट टाँग कर ज्यादातर समय इन्‍हीं केंद्रों पर बिताया करता था। शाम को यहीं से हिंदी कहानी के सूरमे फटफटिया पर सवार हो कर कनाट प्‍लेस के लिए निकलते थे।

उन दिनों भी दरियागंज की सड़कों और गलियों में किसी न किसी लेखक से अचानक भेंट हो जाया करती थी। एक दिन दफ्तर से नीचे उतरा तो देखा नीचे पट्‌टी पर राजकमल चौधरी पत्रिकाएँ पलट रहा था।

'किसी का इंतजार कर रहे हो क्‍या?'

'हाँ, तीन बजे लंच है मोती महल में।'

'मोती महल तो तीन बजे बंद हो जाता है।'

'हमारी किस्‍मत में यही बदा है। वक्‍त पर कभी कोई चीज नहीं मिली। आज बियर, जिन और चिकेन का लंच है। यही समझ लो, लंच के बाद लंच है।'

सन साठ के आस-पास दरियागंज के मोतीमहल रेस्‍तराँ का बहुत नाम था। कहा जाता था, कि कभी-कभी पंडित जवाहरलाल नेहरू अपने मेहमानों के लिए वहाँ से चिकेन मँगवाया करते थे। उन दिनों मोतीमहल की वही साख थी जो आजकल जामा मस्‍जिद के करीम होटल की है। रात को गजल, कव्‍वाली और रंगारंग कार्यक्रमों के बीच मोतीमहल के मुक्‍तांगन में डिनर होता था और लोग गाड़ी में बैठे-बैठे जगह मिलने का इंतजार किया करते थे। आम जनता के लिए मोतीमहल की ही पटरी पर मोतीमहल के नाम से मिलते-जुलते कई ढाबे खुल गए थे, जहाँ किफायती और टिकाऊ भोजन की व्‍यवस्‍था रहती थी। जो लोग मोतीमहल में जाने की हैसियत न रखते, इन्‍हीं ढाबों की शोभा बढ़ाते थे। हम लोग दूसरी कोटि के लोगों में से थे। मोतीमहल तो दूर, हमें ये ढाबे भी महँगे लगते थे। बाहर से कोई लेखक आ जाता तो हम लोग इन्‍हीं ढाबों पर उसकी मेहमाननवाजी करते थे।

राजकमल ने जेब से 'जिन' का अद्धा निकाला और उसकी सील तोड़ कर दोबारा जेब में रख लिया। 'जिन' देख कर मेरी लार टपकने लगी। मुझे लगा, उसकी लाटरी खुल गई है। राजकमल प्रकाशन से उसका उपन्‍यास 'मछली मरी हुई' छप कर आनेवाला था या आ चुका था, मैंने कहा, 'कब तक मरी हुई मछलियों की तिजारत करते रहोगे?'

मेरी बात सुन कर उसने जोरदार ठहाका लगाया, 'आजकल सड़े हुए गलीज माल का ही बाजार गर्म है। कुछ दिनों में इस्‍तेमाल किए हुए सेनेटरी टावल बिका करेंगे।'

'जगदीश को मत बता देना, वह इसी पर एक दर्जन कविताएँ लिख देगा।'

'चलो आज तुम्‍हारी भी ऐश करा देते हैं।' राजकमल ने पूछा, 'सुरेंद्र प्रकाश को जानते हो?'

सुरेंद्र को मैं राजकमल से तो ज्यादा ही जानता था। तब से जानता था जब कहानीकार के तौर पर उसकी मसें भीगनी शुरू हुई थीं। वह सत्‍यपाल आनंद का मित्र था और सत्‍यपाल आनंद की सिफारिश से मैंने उसकी कुछ प्रारंभिक कहानियों का हिंदी अनुवाद किया था। उसकी कहानियों में उन दिनों बहुत लफ्फाजी रहती थी - समुद्र, चाँद, रेत वगैरह-वगैरह। बाद में दिल्‍ली आया तो टी-हाउस में उससे रोज मुलाकात होने लगी। बलराज मेनरा और सुरेंद्र प्रकाश में लिखने की होड़ लगी रहती थी। उर्दू अफसाने की दौड़ में ये दोनों धावक मुँह में रूमाल खोंस कर बेतहाशा भाग रहे थे। कभी मेनरा आगे निकल जाता और कभी सुरेंद्र प्रकाश। दौड़ते-दौड़ते सुरेंद्र प्रकाश तो साहित्‍य अकादमी का पुरस्‍कार प्राप्‍त करने में सफल हो गया, मेनरा का क्‍या हुआ, किसी दिन अकील साहब या फारूकी साहब से दरियाफ्त करूँगा।

'सुरेंद्र प्रकाश को मैं आज से नहीं, बहुत अर्से से जानता हूँ' मैंने राजकमल को बताया।

'खाक जानते हो।' राजकमल ने पूछा, 'उसने तुम्‍हें कभी मोतीमहल में आमंत्रित किया कि नहीं?'

'मैं समझा नहीं।'

'समझोगे भी नहीं।' राजकमल ने कहा। उसी की जु़बानी पता चला, कि सुरेंद्र प्रकाश मोतीमहल के मालिकों का रिश्‍ते में दामाद लगता है और आजकल मोती महल के स्‍टोर का इंचार्ज है। उसने एक नई कहानी लिखी है और उसे सुनाने के लिए राजकमल को लंच पर आमंत्रित किया है। दोपहर को रेस्‍तराँ की सफाई के बाद स्‍वच्‍छ वातानुकूलित माहौल में जिन और बियर की जुगलबंदी के बीच सर्वोत्‍तम भोजन की व्यवस्‍था रहेगी। 'अब तुम्‍हीं बताओ ऐसे मुबारक माहौल के बीच कौन बेवकूफ कहानी सुनेगा? वैसे कितनी अच्‍छी बात है सुरेंद्र प्रकाश छोटी-छोटी कहानियाँ ही लिखता है।'

मुझे यह सोच कर बहुत तकलीफ हो रही थी कि सुरेंद्र प्रकाश से इतने नजदीकी ताल्‍लुकात होने के बावजूद मैं उसके बारे में उतना भी नहीं जानता था जितना यह परदेसी बाबू जानता है। छुट्‌टी के रोज कई बार सुरेंद्र प्रकाश पूरा-पूरा दिन हमारे यहाँ बिताता था, मगर उसने आज तक भनक न लगने दी थी कि वह किसका दामाद है और क्‍या करता है।

'तुम चाहो तो मेरे साथ दावत में शरीक हो सकते हो।' राजकमल ने कहा।

'मैं बिन बुलाए मेहमान की तरह कहीं नहीं जाता।' मैंने कहा और दफ्तर की सीढ़ियाँ चढ़ गया।

दफ्तर में कोई कामधाम नहीं था। मैं और जगदीश कभी श्‍याममोहन श्रीवास्‍तव के कमरे में समय बिताते तो कभी शेरजंग गर्ग और रमेश गौड़ के साथ गप्प लड़ाते। कुलभूषण भी दफ्तर में थे, शायद सहायक निदेशक के पद पर। उन्‍हें नई कहानी को कोसना होता तो वह हम लोगों को बुलवा लेते। उन्‍हें अफसोस था कि उन्‍होंने साहित्‍य में गुटबाजी नहीं की वरना वह राकेश, कमलेश्‍वर और यादव से कहीं आगे निकल जाते। उन्‍हें विश्‍वास था कि इतिहास एक दिन दूध का दूध और पानी का पानी कर देगा। ये लोग बहुत बड़े कथाकार बनते हैं पहले 'ललक' और 'तंत्र' की टक्‍कर की एक भी कहानी लिख कर दिखा दें। यही वह नाजुक क्षण होता था, जब कुलभूषण चपरासी को चाय नाश्‍ता लाने का संकेत करते। जगदीश 'तंत्र' की तारीफ के पुल बाँधता और मैं 'ललक' की। 'ललक' और 'तंत्र' को ले कर मैं और जगदीश आपस में भिड़ जाते। कुलभूषण हम लोगों को शांत करते हुए कहते, 'दरअसल, आप दोनों ठीक फरमा रहे हैं। आप लोग अपनी बात छोड़ दें अभी तक ख्‍वाजा अहमद अब्‍बास भी तय नहीं कर पाए कि दोनों कहानियों में से कौन बेहतर है।'

'एक सेर है तो दूसरी सवा सेर।' मैं कहता।

कुलभूषण अपने ड्राअर में हम लोगों के लिए विल्‍स का पैकेट रखा करते थे। वह गदगद भाव से हम लोगों को सिगरेट पेश करते। कहानी की तारीफ सुन कर वह बच्‍चों की तरह निहाल हो जाते। बाद में ऐसा वक्‍त आया, उन्‍होंने कहानी पर बातचीत करना एकदम बंद कर दिया। पता चला जीवन में उनसे एक भारी भूल हो गई थी। उन्‍होंने बहुत मेहनत और चाव से बनाया अपना मकान किराए पर उठा दिया था और किराएदार भी ऐसा मिला था, जो न केवल बेदर्दी से मकान का इस्‍तेमाल कर रहा था, अनुबंध के मुताबिक मकान खाली भी नहीं कर रहा था। कुलभूषण मुकदमेबाजी में ऐसा उलझ गए कि दिन भर इसी चिंता में बेहाल रहते। दिन भर वकीलों और कोर्ट कचेहरी के चक्‍कर काटते। उन्‍हें भूख लगती न प्‍यास। उनके पास अच्‍छी-खासी नौकरी थी, भरापूरा परिवार था, पंडित सुदर्शन जैसे विख्‍यात कथाकार का पुत्र होने का गौरव प्राप्‍त था। मेरे मित्र कपिल अग्‍निहोत्री के बड़े भाई दिल्‍ली की न्‍यायिक सेवा में उच्‍चाधिकारी थे। मैं कुलभूषण जी को उनसे मिलाने ले गया। उन दिनों वह दरियागंज में ही डॉ. सुरेश अवस्‍थी के ऊपरवाले फ्लैट में रहते थे। कुलभूषण उन्‍हें अपना केस बताते हुए फफक कर रोने लगे। उन्‍हें देख कर किसी भी संवेदनशील आदमी को किराएदार पर गुस्‍सा आ जाता कि वह एक मासूम, नेकदिल और सीधे-सादे इनसान पर जुल्‍म ढा रहा है। मालूम नहीं कि बाद में उनका मकान खाली हुआ कि नहीं। जब से मकान का बवाल शुरू हुआ, उनका लिखना-पढ़ना चौपट हो गया। उन्‍होंने चाय पिलाना नहीं, पीना भी छोड़ दिया।

सुरेंद्र प्रकाश ने उलाहने का अवसर न दिया और अगले सप्‍ताह मुझे भी कहानी और लंच का निमंत्रण मिल गया। निर्धारित समय पर जब मोतीमहल लंच के लिए बंद हो गया, मैं रेस्‍तराँ की बगल के छोटे द्वार से भीतर घुसा। सबसे पहले सुरेंद्र प्रकाश पर ही नजर पड़ी। उसके सामने एक बड़े से टोकरे में छिले हुए चूजों का ढेर लगा था और वह बैलेंस पर एक-एक चूजे का वजन नोट कर रहा था। जो चूजे मानक के अनुरूप न निकलते, उन्‍हें एक दूसरे टोकरे में फेंक देता। उसने मेरे लिए भी एक स्‍टूल मँगवा लिया और मैं भी तमाशबीन की तरह उसके साथ बैठ गया। चूजों के व्‍यापारी से उसकी बातचीत सुन कर मुझे लगा कि उसे चूजों के बारे में काफी प्रमाणिक जानकारी है। उसे मुर्गे तौलते हुए देख कर मुझे पल भर के लिए यह नहीं लगा कि वह मोतीमहल के मालिकों का दामाद है। अगर वह दामाद था तो जाहिर है वे बहुत बड़े जाहिल होंगे जो अपने दामाद से दो कौड़ी का काम ले रहे थे। काम निपटाने में उसे आधा घंटा का समय और लगा होगा। उसने वाशबेसिन पर हाथ धोए और एक बैरे से कहा कि फौरन से पेश्‍तर खाना लगाए। हम रेस्तराँ में पहुँचे तो खाना लग रहा था। सुरेंद्र प्रकाश ने मेरे लिए भी एक प्‍लेट मँगवाई। उसने पानी का गिलास पिया, सिगरेट सुलगाई और पाँच सात मिनट में छोटी-सी कहानी सुना डाली। मैंने कहानी का अनुवाद करने और उसे हिंदी में छपवाने का आश्‍वासन दिया।

धीरे-धीरे मोतीमहल में लेखकों का आना-जाना बढ़ने लगा। एक दिन मैंने कमलेश्‍वर को मुँह पोंछते हुए रेस्तराँ से निकलते देखा। मुझे लगा, सुरेंद्र प्रकाश अब मोतीमहल का ज्यादा दिन का मेहमान नहीं है। वह इस काम के लिए पैदा भी न हुआ था। कुछ ही दिनों बाद खबर लगी कि वह मोतीमहल से अलग हो गया है। वह टी-हाउस में नियमित रूप से दिखाई देने लगा। बलराज मेनरा से उसकी अदावते फित्री थी। अक्‍सर दोनों में फिक्रःबाजी चलती।

मैं मुंबई चला गया तो वहाँ कुछ दिन सुरेंद्र प्रकाश हमारा मेहमान रहा। शीतलादेवी टेंपल रोड पर ममता और मैं अपना नीड़ बना रहे थे। वह सुबह तैयार हो कर निकल जाता। दिन भर प्रोड्‌यूसरों से मिलता। वह फिल्‍म उद्योग में एक कथाकार के रूप में कम कैरेक्‍टर एक्‍टर के रूप में प्रवेश पाने को अधिक आतुर था। सुबह तैयार होने में काफी समय लगाता, लंबे-लंबे संवादों की रिहर्सल करता। गाँव में पनाले को ले कर पड़ोसियों में कैसे वाक्‌युद्ध होता है, इसका उसने एक लंबा रूपक बाँधा था। सुनते-सुनते पेट में बल पड़ जाते। कुछ वर्षों बाद उसे फिल्‍मों में प्रवेश मिला मगर एक कहानीकार के रूप में। उसने संजीव कुमार और जया भादुड़ी के लिए प्रसिद्ध फिल्म 'अनामिका' का पटकथा लेखन किया था। उसके आगे के संघर्ष के बारे में मुझे कोई विशेष जानकारी नहीं है। एक बार इलाहाबाद में उससे जरूर भेंट हुई थी, जब वह 'शबखून' द्वारा आयोजित किसी विचार गोष्‍ठी में हिस्‍सा लेने आया था।

उन दिनों वयोवृद्ध कथाकार देवेंद्र सत्‍यार्थी भी संतनगर में हमारे यहाँ आया करते थे। उनके व्‍यक्‍तित्‍व पर रवींद्रनाथ ठाकुर के व्‍यक्‍तित्‍व की गहरी छाप थी। वैसी ही लंबी दाढ़ी और फिलासफराना अंदाज। उन्‍हें देख कर लगता था, वह एक गरीब रवींद्रनाथ ठाकुर हैं। उन्‍हें उत्‍तर भारत का आवारा मसीहा भी कहा जा सकता था। वह बहुत सहज इनसान थे। गले में झोला लटकाए किसी समय भी कमरे में नमूदार हो जाते। उनकी एक ही कमजोरी थी। कमजोरी क्‍या, उसे मर्ज ही कहा जाएगा। वह मौके-बेमौके कभी भी बिना किसी भूमिका के झोले से कागजों का पुलिंदा निकाल कर अपनी रचना सुना सकते थे। शुरू-शुरू में तो हम लोगों ने अत्यंत आदरपूर्वक उन की रचनाएँ सुनीं, मगर कुछ ही दिनों बाद यह कसरत अझेल हो गई। उन्‍हें देखते ही हम लोग जूते पहनने लगते, जैसे किसी जरूरी काम से बस निकल ही रहे हों। ऐसा भी समय आया कि वह अपनी इस आदत का खुद ही मजाक उड़ाने लगे। उन्‍होंने अपने बहुत से अनुभव सुनाए कि कहानी सुनाने के चक्‍कर में उन्‍हें कहाँ-कहाँ जलील होना पड़ा। बाद में 'धर्मयुग' में मैं उनके इन चटपटे संस्‍मरणों को प्रकाशित भी करना चाहता था, मगर सत्‍यार्थी जी से संपर्क न हो सका। वह अपने इस मर्ज के बारे में कोई नया लतीफा सुनते तो उसे सुनाने भी चले आते। सत्‍यार्थी ने खुद ही सुनाया था कि एक बार जब उन्‍हें कहानी सुनने के लिए कोई उपयुक्‍त पात्र न मिला तो उन्‍होंने तय किया कि सीधा जनता के बीच जा कर कहानी का पाठ करना चाहिए। इस प्रयोग के लिए उन्‍होंने सबसे पहले गुरूद्वारा रोड को चुना। एक मध्‍यवर्गीय घर के सामने जा कर वह रुके। घर के कपाट खुले थे, जैसे भीतर आने का निमंत्रण दे रहे हों। सामने आँगन था और आँगन में मध्‍यम आयु की एक महिला चूल्‍हे पर रोटियाँ सेंक रही थी। सत्‍यार्थी ने हाथ जोड़ कर विनम्रतापूर्वक उसे नमस्‍कार किया और बताया कि वह एक कहानीकार हैं और एक छोटी-सी कहानी सुनाने की इजाजत चाहते हैं। महिला कुछ समझती, इससे पूर्व ही सत्‍यार्थी जी सामने पड़े पटरे पर बैठ गए और अपने झोले से कहानी का मसविदा निकालने लगे। अचानक उस महिला के तेवर बदल गए, सीधी-सादी उस गृहिणी ने अचानक चंडी का रूप धारण कर लिया। उसने शायद यह सोचा कि कोई पाखंडी साधु बाबा उसे ठगने के लिए घर में घुस आया है। जब तक सत्‍यार्थी अपनी किताब में से अपना चित्र दिखा कर कुछ विश्‍वसनीयता अर्जित करते, उस महिला ने चूल्‍हे की जलती हुई लकड़ी भाँजते हुए सत्‍यार्थी जी को दौड़ा लिया। वह किसी तरह अपनी जान बचा कर गुरुद्वारा रोड से भागे।

उन दिनों टी-हाउस में सत्‍यार्थी के बारे में एक लतीफा बहुत लोकप्रिय हो रहा था। सत्‍यार्थी खुद भी इसे बहुत चाव से सुनते थे। एक बार देवेंद्र सत्‍यार्थी अपना झोला टी-हाउस में भूल आए। आधी रात को उन्‍हें अपने झोले का ध्‍यान आया, जिसमें उनके उपन्‍यास की पांडुलिपि थी। वह उसी समय करोल बाग से कनाट प्‍लेस के लिए चल दिए। धड़कते दिल से उन्‍होंने टी-हाउस का दरवाजा पीटना शुरू किया। उन दिनों टी-हाउस का बैरा चरणमसीह रात को टी-हाउस में ही सोता था। दस्तक सुन कर उसने बत्‍ती जलाई और काँच में से देखा, सत्‍यार्थी सामने खड़े हाँफ रहे थे। उन दिनों लेखकों को कॉफी पिलाते-पिलाते चरणमसीह भी कविताएँ लिखने लगा था। वह सत्‍यार्थी जी से भी परिचित था। उसने दरवाजा खोला और उनकी खैरियत पूछी। सत्‍यार्थी ने झोले की बात बताई तो चरणमसीह ने हामी भरी कि झोला तो मिला है, उसमें कुछ कागजात भी हैं, मगर यह कैसे पता चले कि वह आप का झोला है।

'यह तो बहुत आसान है।' सत्‍यार्थी जी ने कहा, 'तुम झोला ले आओ, मैं तुम्‍हें बता देता हूँ, उसमें क्‍या-क्‍या दस्‍तावेज हैं।'

चरणमसीह झोला लाया तो सत्यार्थी जी ने उसे एक मोटा मसविदा निकालने को कहा और उसका पहला पृष्‍ठ मुँह जुबानी सुना दिया। चरणमसीह ने आश्‍वस्‍त हो कर उनका झोला लौटा दिया। सत्‍यार्थी जी बिगड़ गए, 'ऐसे कैसे ले लूँ। अब तो तुम्‍हें पूरा उपन्‍यास सुनना पड़ेगा....'

अभी अंतर्दृष्‍टि (संपादक : विनोद दास) के नए अंक में मुद्राराक्षस ने दिल्‍ली के उन खुराफाती दिनों की याद करते हुए सत्‍यार्थी जी के एक और बहु प्रचारित लतीफे का जिक्र किया है : सत्‍यार्थी जी को कनाट-प्‍लेस आना था। करोल बाग में उन्‍होंने एक ताँगेवाले से पैसे पूछे। उसने एक रुपया बताया। यह ज्यादा था। सत्‍यार्थी जी ने आठ आने कहे, पर वह राजी नहीं हुआ। तब सत्‍यार्थी जी बोले-ठीक है एक रुपया दूँगा, पर शर्त यह है कि तुम्‍हें मेरी कहानी सुननी पड़ेगी। ताँगेवाला कहानी सुनता हुआ ताँगा चलाता रहा। थोड़ी दूर जा कर ताँगा रुक गया। सत्‍यार्थी जी ने पूछा - भाई ताँगा क्‍यों रोक दिया। ताँगेवाला बोला - ताँगा आगे नहीं जाएगा। आगे जाना चाहते हैं तो कहानी सुनाना बंद कीजिए। सत्‍यार्थी जी नाराज हो गए - तुम से तय हुआ था कि कहानी सुनोगे तभी एक रुपया दूँगा। ताँगेवाला बोला - क्‍या करूँ साहब, मैं तो सुनने को तैयार हूँ, पर यह घोड़ा नहीं मानता।

सत्‍यार्थी जी से मेरी प्रथम भेंट कपिल अग्‍निहोत्री ने करवाई थी। वह उन दिनों सूचना प्रसारण मंत्रालय में काम करता था और दफ्तर में उन की कई रचनाएँ सुनने का गौरव प्राप्‍त कर चुका था। एक दिन कपिल और मैं टी-हाउस के बाहर रेलिंग पर बैठे हुए थे कि अचानक सत्‍यार्थी जी दिखाई दिए। वह लपक कर उनके पास गया और उनसे मेरा परिचय करवाया सत्‍यार्थी जी गर्मजोशी से मेरा हाथ थामते हुए बोले, 'आप से मिल कर बहुत खुशी हुई।' फिर वह कपिल की तरफ घूम गए, 'और आपका परिचय?'

अब कपिल को काटो तो खून नहीं। उसने खुद ही अपना परिचय दिया और उन्‍हें याद दिलाया कि दफ्तर में उनकी कई कहानियाँ सुन चुका है। सत्यार्थी जी ने अपनी डायरी में मेरा पता नोट किया और अगले रविवार को घर आने का वादा कर चले गए।

कपिल के साथ इस तरह की घटनाएँ होती रहती थीं। वह हर समय किसी न किसी काम में व्‍यस्त रहता था। कभी प्रेम में व्‍यस्‍त हो जाता तो कभी किसी नाटक की रिहर्सल में। उसके बारे में चौंकानेवाली सूचनाएँ मिलती रहती थीं। एक बार पता चला कि मुद्राराक्षस किसी नाटक का निर्देशन कर रहे हैं और उन्‍होंने बतौर नायक कपिल का चुनाव किया है। उसकी शामें रिहर्सल में बीतने लगीं। नाटक में कुछ रोमांटिक दृश्‍य थे। वह दिन भर अपने संवाद रटता और आईने के सामने खड़ा हो कर घंटों रिहर्सल करता। रोमांटिक दृश्‍यों में उसका अभिनय इतना स्‍वाभाविक और सजीव होता कि एक दिन मुद्राराक्षस ही उखड़ गए। नाटक की नायिका उनकी कमजोरी थी। मुद्रा को याद होगा कि नहीं कह नहीं सकता, मगर मुझे आज भी याद है वह कौन थी। एक दिन रिहर्सल के दौरान मुद्रा ने उछल कर कपिल का गिरेबान पकड़ लिया और उसे उसी समय नाटक से बाहर कर दिया। कपिल की हरकतें ही कुछ ऐसी थीं कि वह बहुत जल्‍द विवादों के घेरे में आ जाता। कुछ दिनों तक वह दूरदर्शन का समाचार संपादक भी रहा और वहाँ भी खुद खबर बन गया, जब उसने पश्‍चिमी उत्‍तर प्रदेश के एक अति संवेदनशील नगर के सांप्रदायिक दंगे की रिपोर्ट पेश करते हुए समाचार में सुअरों का 'विजुअल' दिखा दिया था। उसे उस पद से भी हाथ धोना पड़ा था। मगर नौकरी करते-करते एक दिन वह मुंबई में सेंसर बोर्ड तक पहुँच गया और एक अर्से तक उसके दस्‍तखतों से सेंसर प्रमाणपत्र जारी होते रहे। उससे मेरी अंतिम भेंट महाकुंभ के दौरान प्रयाग में हुई थी। मुझे खुशी हुई कि उसका पुराना तेवर और अंदाज बरकरार था। दिल्‍ली में हम लोग लगभग दो वर्ष तक साथ-साथ रहे, मगर वह अचानक लापता हो गया।

वह उम्र ही ऐसी थी कि जो भी दोस्‍त प्‍यार में मुब्‍तिला होता, सबसे पहले अपने दोस्‍तों से कट जाता। उन दिनों उसका भी प्रेम चल रहा था और वह उसी में ओवर टाइम करने लगा। ममता से मेरा सान्‍निध्‍य बढ़ा तो मैंने भी यकायक टी-हाउस से कन्‍नी काट ली। एक दिन मोहन राकेश ने शरारत से मेरी आँखों में झाँकते हुए कहा कि यह कहाँ की दोस्‍ती है कि तुम लाबोहीम में कापूचिनो सिप करते हुए दिखाई पड़ते हो। दरअसल लाबोहीम के अँधेरे कोने ममता को कुछ ज्यादा ही रास आ रहे थे। ममता उन दिनों दिल्‍ली विश्‍वविद्यालय से संबद्ध एक कॉलिज में अंग्रेजी की लेक्‍चरर थी। उसे प्रभावित करने के इरादे से मैं चार छह-रोज में ही अपना वेतन फूँक देता। उसे टैक्‍सी में शक्‍ति नगर छोड़ता और खुद बस में धक्‍के खाते हुए घर लौटता। कृष्‍ण सोबती भी कभी-कभी 'लाबोहीम' में दिखाई देतीं, वह एक कोने में चुपचाप कॉफी सिप करतीं। उनके हाथों में अंग्रेजी की कोई न कोई मोटी पुस्‍तक जरूर दिखाई देती। ममता उन दिनों ममता अग्रवाल थी और उसे उन दिनों अपना पर्स खोलने का अभ्‍यास ही नहीं था। मुझे लगता कि वह केवल शोभा के लिए पर्स हाथ में ले कर चलती थी। शादी के बाद ही उसे पर्स खोलने का शऊर आया, मेरा मतलब है उसकी पैसा खर्च करने की झिझक खुली।

केंद्रीय हिंदी निदेशालय दरियागंज से प्रगति मैदान में चला गया तो दफ्तर में फोन की सुविधा कम हो गई। शुरू-शुरू में केवल अधिकारियों के फोन शिफ्ट हो पाए। दफ्तर में ममता का फोन आता तो उपनिदेशक महोदय लड़की की आवाज सुन कर बेरहमी से फोन काट देते। उन्‍होंने एक लड़की गोद ली थी और अब वह लड़की जवान हो गई थी। वह उसकी शादी के लिए योग्य वर ढ़ूँढ़ रहे थे। मुझे भी शादी और प्रमोशन के प्रलोभन मिल रहे थे। उन्‍होंने मुझे फोन पर बुलाना ही छोड़ दिया, चाहे वह मोहन राकेश का ही फोन क्‍यों न हो। मिसेज तिक्‍कू दिल्‍ली में अकेली रहतीं थीं। मिस्‍टर तिक्‍कू कौन थे, कहाँ थे, कोई नहीं जानता था, मगर इतना स्‍पष्‍ट था कि उनके दांपत्‍य में कोई सलवट जरूर आ चुकी थी। वह अपने में मस्‍त रहतीं, उनकी साख भी बहुत अच्‍छी थी। दफ्तर में हर कोई बहुत आदरपूर्वक उनका नाम लेता। मैंने मिसेज तिक्‍कू को बताया कि मैं शादी-ब्‍याह के झंझट में पड़ना नहीं चाहता। उन्‍हें प्रसन्‍न करने के लिए मैंने यहाँ तक कहा कि कैसे दो इनसान जिंदगी भर साथ-साथ रहने की कल्‍पना कर सकते हैं। मुझे तो यह संभव ही नहीं लगता। वही लोग शादी करते होंगे जो अपनी स्वतंत्रता के दुश्‍मन हो जाते हैं। मिसेज तिक्‍कू मेरे विचारों से बहुत प्रसन्‍न हुईं और उन्‍होंने किसी तरह उपनिदेशक महोदय से मेरा पिंड छुड़वाया, जो मेरी शादी में ही नहीं, मेरी पदोन्‍नित में भी गहरी दिलचस्‍पी ले रहे थे। उन दिनों भारतीय ज्ञानपीठ का कार्यालय भी दरियागंज में था। जवाहर चौधरी उसके व्‍यवस्थापक थे। ममता को कोई संदेश देना होता तो वह भारतीय ज्ञानपीठ में फोन कर देती और जवाहर चौधरी मुझे उसका संदेश पहुँचा देते। उन दिनों 'भाषा' का मुद्रण नासिक के राजकीय मुद्रणालय में होता था। अफसर तो अफसर होता है, आहत हो जाए तो साँप से भी ज्यादा खतरनाक होता है। मुझे न्‍यूनतम दंड यही दिया जा सकता था कि 'भाषा' के अगले अंक का मुद्रण करवाने नासिक रवाना कर दिया जाय। इस क्षेत्र में मेरा कोई अनुभव नहीं था। जाहिर है किसी भी अनुभवहीन व्‍यक्‍ति से भूलें होंगी और भूलें नहीं होंगी तो स्‍पष्‍टीकरण कैसे माँगा जा सकता है। कुछ लोग हर सरकारी काम को आमदनी का जरिया बना लेते हैं। एक अधिकारी ने मेरे साथ जाने के लिए तरकीब निकाल ही ली। इससे मुझे बहुत राहत मिली।

9-

वह मेरे जीवन की पहली लंबी ट्रेन यात्रा थी। इस यात्रा से मुझे बहुत अनुभव प्राप्‍त हुए। स्‍टेशन पर सबसे पहला अनुभव तो यही हुआ कि मैं प्रथम श्रेणी का टिकट ले कर प्रथम श्रेणी के डिब्‍बे में बैठ गया और मेरे साथ यात्रा कर रहे अधिकारी ने तृतीय श्रेणी में अपना आरक्षण करवाया था। उन दिनों ट्रेन में तृतीय श्रेणी भी हुआ करती थी। उस अधिकारी ने मेरे डिब्‍बे में आ कर प्रथम श्रेणी में यात्रा करने पर मेरी बहुत लानत मलामत की कि मैं धन का अपव्‍यय कर रहा हूँ। बाद में नासिक जा कर मैंने पाया कि उस अधिकारी ने बचे हुए पैसों का अत्यंत सदोपयोग किया, रंडीबाजी और मद्यपान में। वह होटल या लॉज की बजाए धर्मशाला में ठहरा था और शाम को गोदावरी के तट पर बैठ कर अपनी हरामजदगियों का गुणगान करता। वह तीन चौथाई गंजा हो चुका था, बात करते-करते उत्‍तेजित हो जाता तो अपनी चाँद पर हाथ फेरने लगता।

दिल्‍ली से नासिक की वह रेल यात्रा कई मायनों में अविस्‍मरणीय बन गई। दिन भर तो मैं खिड़की से बाहर देखते हुए प्रकृति और जीवन का आनंद लेता रहा, रात को अचानक एक संकट खड़ा हो गया। कंडक्‍टर ने बताया कि मेरा आरक्षण नहीं है, मुझे अपनी सीट छोड़नी पड़ेगी। मुझे इससे पहले इल्‍म नहीं था कि प्रथम श्रेणी में भी आरक्षण की आवश्‍यकता होती है। मैंने बहुत से तर्क पेश किए मगर मेरी एक न चली। आखिर मुझे अपना बोरिया-बिस्‍तर उठा कर तृतीय श्रेणी के सामान्‍य डिब्‍बे में रात काटनी पड़ी। डिब्‍बे में बहुत संघर्ष के बाद घुस पाया था और दरवाजे की बगल में किसी तरह उल्‍टे-सीधे सामान के बीच पैर धरने की जगह मिल पाई थी। कंडक्‍टर ने बताया था कि सुबह आठ बजे मैं दुबारा प्रथम श्रेणी के डिब्‍बे में बैठ सकता हूँ। सुबह प्रथम श्रेणी के डिब्‍बे में जो मेरी आँख लगी तो नासिक पहुँच कर ही नींद खुली। सुबह सहयात्रियों ने बताया कि अगर मैंने कंडक्‍टर को रात ही घूस दे दी होती तो यों बेआबरू हो कर तृतीय श्रेणी के डिब्‍बे में न जाना पड़ता। सच तो यह है तब तक मुझे घूस देने की तमीज ही नहीं आती थी।

जैसे सोलहवें साल में यौवन दस्‍तक दिया करता है और बच्‍चे यकायक यौवन की जटिलताओं से खेलने लगते हैं, भारत का माहौल कुछ ऐसा था कि जीवन में प्रवेश करते ही नौकरशाही की महिमा समझ में आने लगती है। बंधन छेड़खानी के लिए प्रेरित करने लगते हैं, पथ पर इतने काँटे बिछे नजर आते हैं जैसे कह रहे हों कि चल कर दिखाओ तो जानें। आदमी को समय पर घूस का महात्‍म्‍य समझ में आ जाए तो पथ निष्कंटक हो जाता है, उस पर फूल बिखर जाते हैं। देखा गया है, जो लोग सही वक्‍त पर इस पाठ में निरक्षर रह जाते हैं, वह फिर अविवाहित लोगों की तरह सनकी हो जाते हैं या हमारे प्रतिष्‍ठित व्‍यंग्‍य लेखक रवींद्रनाथ त्‍यागी की तरह पारिश्रमिक के लिए भी स्‍मरणपत्र भेजते समय इस बात का उल्‍लेख करना नहीं भूलते कि उन्होंने जीवन भर ईमानदारी से नौकरी की और अपने कार्यकाल में घूस का तिनका भी नहीं छुआ या मेरी तरह प्रथम श्रेणी का टिकट ले कर तृतीय श्रेणी में यात्रा करते रहें। मेरे दूध के दाँत तो समय पर निकल आए थे, मगर घूस के लेन-देन में मेरा अन्‍नप्राशन जरा विलंब से हुआ। ईश्‍वर की मुझ पर कृपा रही कि समय रहते मुझे अक्‍ल आ गई वरना इंस्पेक्टर लोग मेरा जीना हराम कर देते। वे अपने इस पवित्र काम में लग भी गए थे कि मुझे वक्‍त पर सही मार्गदर्शन मिल गया। एक जमाना था मैं गाड़ी में आरक्षण न मिलने पर विचलित हो जाया करता था, बाद में पता चला कि ट्रेन में आरक्षण प्राप्‍त करना तो एक मामूली-सा काम है। मेरे मित्र दीपक दत्‍ता तो बगैर एक भी शब्‍द नष्‍ट किए टी.टी. से आँखों ही आँखों में आरक्षण हासिल कर लेते थे। जब जब उनके साथ इलाहाबाद से दिल्‍ली जाने का अवसर मिला, वह टी. टी. को चेहरा दिखा कर प्रथम श्रेणी के वातानुकूलित कूपे में खिलाते-पिलाते कानपुर तक ले गए। कानपुर से दिल्‍ली के लिए आरक्षित इस कूपे की यात्रा फकत एक-दो पेग और कबाब के एवज में उपलब्‍ध हो जाती। चलती हुई गाड़ी के ठंडे एकांत में शराब पीने का आनंद ही दूसरा है। बचपन में सुना एक मुहावरा याद आ जाता था कि हींग लगे न फिटकरी रंग चोखा आए।

इलाहाबाद में मैंने प्रेस का कारोबार शुरू किया तो रोज कोई न कोई इंस्पेक्टर यमदूत की तरह सिर पर खड़ा हो जाता। मेरी समझ में आया कि नारंग जी क्‍यों दिन भर खातों और रजिस्‍टरों में सिर खपाते रहते थे। वह हर नियम का अक्षरशः पालन करते थे, इंस्पेक्टर लोग चाह कर भी उनको न घेर पाते। बाजार में यह खबर फैलते ही कि नारंग जी प्रेस से मुक्‍त हो गए हैं, टिड्‌डी दल की तरह इंस्पेक्टरों ने मुझ पर हमला बोल दिया। मैं दफ्तरी काम में एकदम अनाड़ी था और रजिस्‍टर वगैरह भरने में मेरी जान सूखती थी। जब पहली बार लेबर इंस्पेक्टर निरीक्षण के लिए आया तो उसने बहुत-सी अनियमितताएँ पाईं, जैसे छुट्‌टी का रजिस्‍टर अपूर्ण था, साप्‍ताहिक छुट्‌टी और अन्‍य छटि्‌टयों का विवरण प्रदर्शित नहीं था, हाजिरी रजिस्‍टर में कुछ खामियाँ थीं। मेरी निगाह में यह एक मामूली चूक थी, मगर वह चालान काटने पर आमादा हो गया। जब तक वह चालान की किताब में कार्बन लगा कर अपना काम शुरू करता, मैंने देखा, उसके रजिस्‍टर पर उर्दू शेर लिखा हुआ था। मैंने तुरंत पूछा कि यह शेर किसका है?

'इसी खाकसार का है।' अचानक वह इंस्पेक्टर से शायर में तब्दील हो गया। उसने अपना पानदान निकाला और एक पान मुझे भी पेश किया। उसने जब शेर पढ़ते हुए ज़िंदगी को जिंदगी कहना शुरू किया तो मैंने किसी तरह अपनी हँसी रोकते हुए शेर की भरपूर तारीफ की। यह जान कर कि मेरी भी शेरो-शायरी में दिलचस्‍पी है, वह यके बाद दीगरे शेर पर शेर सुनाने लगा। मैंने तुरंत उसे अपनी एक पुस्‍तक भेंट की। पता चला नौकरी से पहले वह कॉलिज के दिनों में फर्रूखाबाद का नामी शायर था और इस पापी पेट के लिए उसे शायरी का दामन छोड़ना पड़ा। अब भी सरेराह चलते-चलते बारहा उसे शेर सूझ जाया करते हैं और वह उस समय जो कागज सामने पड़ता है उस पर शेर दर्ज कर लेता है। रजिस्‍टर पर दर्ज शेर उसने आज ही खोया मंडी पर एक तवायफ को आईसक्रीम खाते देख कर लिखा था। वह 'गाफ़िल' उपनाम से यों ही मन की भड़ास निकालता रहता है। गाफ़िल साहब सचमुच बहुत रहमदिल इनसान थे। जब तक वह इलाहाबाद में रहे, उन्‍होंने मेरा चालान न होने दिया और मैं रजिस्‍टरों में उलझने की बजाए अपना सारा घ्‍यान प्रूफ संशोधन के काम पर देता रहा। प्रूफ संशोधन की मेहनत-मजदूरी से मेरा दारू का खर्च निकलता था, प्रेस की आमदनी तो किस्‍तों में अदा हो जाती थी।

गाफ़िल साहब का बलिया तबादला हो गया तो मुझे बहुत तकलीफों का सामना करना पड़ा। उनके स्‍थान पर जो इंस्पेक्टर तैनात हुआ था वह बहुत घाघ किस्‍म का आदमी था। चेहरे पर माता के दाग थे। अपने को तीसमार खाँ से कम नहीं समझता था। शेरो-शायरी में भी उसकी दिलचस्‍पी न थी। पहली मुलाकात में ही उसने चालान काट कर थमा दिया। यह एक नया सिरदर्द था। मुझे लगा यह कारोबार चलाना मेरे बस का काम नहीं है। मेरी सात पुश्‍तों में किसी ने बिजनेस नहीं किया था। चालान का अर्थ था स्‍पष्‍टीकरण और पेशियों का लंबा सिलसिला, जिससे मुझे घोर वितृष्‍णा थी। मैंने अपने फाउंड्री के मालिक को फोन पर अपनी परेशानी बताई। संयोग ही था कि मैंने एक निहायत उपयुक्‍त आदमी को फोन किया था। वह शहर के तमाम इंसपेक्‍टरों से परिचित था। मैंने इंस्पेक्टर का हुलिया बताया तो बोला, जायसवाल होगा, बहुत हरामी और लालची है। वह आज ही उसे बुलवा कर बात कर लेगा। अगले ही रोज दोपहर को इंस्पेक्टर मेरे पास आया और सौ रूपया ले कर चालान का कागज फाड़ कर रद्‌दी की टोकरी में फेंक गया। उसके बाद वह हर महीने आता रहा, निरीक्षण के लिए नहीं, उगाही के लिए। वह मँहगाई से बहुत त्रस्‍त रहता था। मुझे लगता, वह चाहता है कि घूस की दर मुद्रास्‍फीति और थोक सूचकांक से जुड़ जानी चहिए, मगर बनिया लोग इस तरफ ध्‍यान ही नहीं दे रहे थे। वह हर महीने घूस के अलावा कोई न कोई चीज और उठा ले जाता। और कुछ न दिखाई देता तो कलम ही उठा कर जेब में खोंस लेता। एक इंस्पेक्टर ऐसा भी आया कि जिसकी अपने काम में रुचि थी न आपके काम में। वह दिन-भर चप्‍पल चटखाते हुए अपने साले के लिए नौकरी तलाश करता। वह घूस की राशि तो चुपचाप जेब में रख लेता और देर तक अपने साले की पैरवी करता रहता। उसने मुझ पर बहुत दबाव बनाया कि मैं उसके साले को प्रेस के मैनेजर के रूप में रख लूँ, वह सब रजिस्‍टर वगैरह दुरुस्‍त कर देगा। वह मन लगा कर काम करेगा और वक्‍त जरूरत चपरासी का काम भी कर देगा। मेरे ऊपर इतना कर्ज था कि मैं मैनेजर रखने की एय्‍याशी के बारे में सोच भी न सकता था। मैं सुबह से शाम तक प्रूफ पढ़ता, कई बार तो सुबह नींद खुलते ही प्रूफ पढ़ने में व्‍यस्‍त हो जाता ताकि मशीन का चक्‍का घूमता रहे। यही मेरी बचत थी और इसी से मेरा दाना-पानी निकलता था यानी सिगरेट और दारू का बंदोबस्‍त होता था।

घूस की महिमा का जिक्र निकला है तो एक मुँहतोड़ अनुभव का जिक्र करना जरूरी हो गया है। प्रेस का काम मैंने इतना बढ़ा लिया था कि एक मशीन से पूरा न पड़ता था। मैं एक स्‍वचालित मशीन लगाना चाहता था, जबकि अभी नारंग जी का ही बहुत-सा कर्ज बाकी था। एक दिन सुबह के अखबार में मुझे कुछ रोशनी नजर आई। पंजाब नेशनल बैंक का विज्ञापन प्रकाशित हुआ था कि लघु उद्योगों को प्रोत्‍साहित करने के लिए बैंक ने आसान किस्‍तों पर एक कल्‍याणकारी योजना का शुभारंभ किया है, इच्‍छुक व्‍यक्‍ति बैंक की निकटतम शाखा से संपर्क करें। मैं एक निहायत मूर्ख नागरिक की तरह बैंक खुलते ही कुर्ते पायजामे में सिगरेट फूँकते हुए खरामा-खरामा चौक स्‍थित पंजाब नेशनल बैंक की शाखा के प्रबंधक के कमरे में पहुँच गया। बैंक मैनेजर मोटे से लेजर में सिर गड़ाए हुए था। हाल में एक टेबुल के पास मैनेजर की बगल में मैं उनके खाली होने की प्रतीक्षा कर रहा था कि एक मोटा-सा चूहा मेरे पायजामे में घुस गया। मैं सार्वजनिक रूप से पायजामा तो ढीला न कर सकता था, मैंने अचानक कूदना शुरू किया। चूहा पायजामे के रहस्‍यमय लोक में पहुँच कर उत्‍पात मचाने लगा। मैं कूदता रहा और चूहा कभी मेरी दाहिनी टाँग पर रेंगने लगता और कभी बाईं टाँग पर। मुझे कूदते देख बैंक में हलचल मच गई। लोगों ने सोचा कि कोई ग्राहक अचानक पागल हो गया है और बेतहाशा कूद रहा है। इसी प्रक्रिया में मेरा चश्‍मा नीचे गिर गया। मैनेजर भी अपनी मूड़ी उठा कर हक्‍का-बक्‍का-सा मेरी तरफ देखने लगा। उसका चश्‍मा उसकी नाक की नोक पर सरक आया था। अचानक चूहे को सद्‌बुद्धि आई और वह मेरे दाहिने पैर पर कूद कर भीड़ में रास्‍ता बनाते हुए निकल गया। लोगों को जैसे सर्कस का आनंद आ गया। लोग उत्‍तेजना में ताली पीटने लगे। मैनेजर ने बैंक के प्रबंध तंत्र को पेस्‍ट कंट्रोल के लिए अपेक्षित धनराशि मंजूर न करने पर पंजाबी में गाली दी और आदरपूर्वक मुझे अपने कमरे में ले गया। बैंक के कर्मचारियों ने मेरे लिए चाय का गर्म-गर्म प्‍याला भिजवा दिया। मैंने मैनेजर को अपने आने का प्रयोजन बताया। मेरी बात सुन कर बैंक मैनेजर ऐसे व्‍यंग्‍य से मुस्‍कुराया जैसे कह रहा हो कि इस दुनिया में अभी भी ऐसे मूर्ख लोग विद्यमान हैं जो सरकारी विज्ञापनों पर विश्‍वास करते हैं। उसने अपना और मेरा काफी समय नष्‍ट करके मुझे सुझाव दिया कि मैं शहर की मुख्‍य शाखा से संपर्क करूँ। जिन दिनों मैं बैंक के चक्‍कर लगा रहा था, मैंने एक लंबी कहानी लिखी थी 'चाल'। उस कहानी का एक अंश यहाँ उद्धृत करना चाहूँगा :

प्रकाश बैंक पहुँचा तो , बिजली नहीं थी। तमाम कर्मचारी अपनी-अपनी कुर्सी छोड़ कर बाहर हवा में टहल रहे थे।

' आपसे मिलने के पूर्व मैं कार्यालय से कुछ जानकारी ले लेना चाहता था , मगर दुर्भाग्‍य से आज बिजली नहीं है। ' प्रकाश ने मैनेजर के सामने बैठते हुए कहा , ' मैंने इंजीनियरिंग की परीक्षा अच्‍छे अंक प्राप्‍त करके पास की है और ' आर यू प्‍लानिंग टु सेट अप ए स्‍मॉल स्‍केल इंडस्‍ट्री ' पढ़ कर आप से मिलने आया हूँ। '

' यह अच्‍छा ही हुआ कि बिजली नहीं है , वरना आप से भेंट ही न हो पाती। आप मिश्रा से मिलते और मिश्रा आपको जानकारी की बजाय गाली दे देता। वह हर आनेवाले से यही कहता है कि यह सब स्‍टंट है , आप घर बैठ कर आराम कीजिए , कुछ होना हवाना नहीं है। '

प्रकाश अपनी योजना के बारे में विस्‍तार से बात करना चाहता था , मगर उसने पाया कि बैंक का मैनेजर सहसा आध्‍यात्‍मिक विषयों में दिलचस्‍पी लेने लगा है। वह धूप में कहकहे लगा रहे बैंक के कर्मचारियों की ओर टकटकी लगा कर देख रहा था जैसे दीवारों से बात कर रहा हो , ' आप नौजवान आदमी हैं , मेरी बात समझ सकते हैं। यहाँ तो दिन भर अनपढ़ व्‍यापारी आते हैं , जिन्‍हें न स्‍वामी दयानंद में दिलचस्‍पी है , न अपनी सांस्‍कृतिक विरासत में। वेद का अर्थ है ज्ञान। ज्ञान से हमारा रिश्‍ता कितना सतही होता जा रहा है , इसका अनुमान आप स्‍वयं लगा सकते हैं। प्रकृति की बड़ी-बड़ी शक्‍तियों में आर्य लोग दैवी अभिव्‍यक्‍ति देखते थे। जब छोटा बड़े के सामने जाता था , तब अपना नाम ले कर प्रणाम करता था। आज क्‍या हो रहा है , आप अपनी आँखों से देख रहे हैं। बिजली चली गई और इनसे काम नहीं होता। कोई इनसे काम करने को कहेगा , ये नारे लगाने लगेंगे। मैं इसी से चुप रहता हूँ। किसी से कुछ नहीं कहता। आप चले आए , बहुत अच्‍छा हुआ , बहुत अच्‍छा हुआ , नहीं तो मैं गुस्‍से में भुनभुनाता रहता और ये सब मुझे देख-देख कर मजा लेते। मैं पहले ही ' एक्‍सटेंशन ' पर हूँ। नहीं चाहता कि इस बुढ़ापे में ' प्राविडेंड फंड ' और ' ग्रेच्युटी ' पर कोई आँच आए। आपकी तरह मैं भी मजा ले रहा हूँ। मैंने बिजली कंपनी को भी फोन नहीं किया। वहाँ कोई फोन ही नहीं उठाएगा। इन सब बातों पर मैं ज्यादा सोचना ही नहीं चाहता। पहले ही उच्‍च रक्‍तचाप का मरीज हूँ। दिल दगा दे गया तो , यहीं ढेर हो जाऊँगा देवों का तर्पण तो दूर की बात है यहाँ कोई पितरों का तर्पण भी नहीं करेगा। आप यह सोच कर उदास मत होइए। आप एक प्रतिभासंपन्‍न नवयुवक हैं , तकनीकी आदमी है। बैंक से ऋण ले कर अपना धंधा जमाना चाहते हैं। जरूर जमाइए। पुरुषार्थ में बड़ी शक्‍ति है। हमारा दुर्भाग्‍य यही है , हम पुरुषार्थहीन होते जा रहे हैं। आप हमारे बैंक का विज्ञापन पढ़ कर आए हैं , मेरा फर्ज है , मैं आपकी पूरी मदद करूँ। ऋण के लिए एक फार्म है , जो आपको भरना पड़ेगा। इधर कई दिनों से वह फार्म स्‍टॉक में नहीं है। मैंने मुख्‍य कार्यालय को कई स्‍मरण पत्र दिए हैं कि इस फार्म की बहुत माँग है , दो सौ फार्म तुरंत भेजे जाएँ। फार्म मेरे पास जरूर आए , मगर वे नया एकाउंट खोलने के फार्म थे। आज की डाक से यह परिपत्र आया है। आप स्‍वयं पढ़ कर देख लीजिए। मैं अपने ग्राहकों से कुछ नहीं छिपाता। मैं खुले पत्‍तों से ताश खेलने का आदी हूँ। इस परिपत्र में लिखा है कि बैंकों के राष्‍ट्रीयकरण के बाद पढ़े-लिखे तकनीकी लोगों को बैंक से अधिक से अधिक आर्थिक सहायता मिलनी चहिए। आपका समय नष्‍ट न हो , इससे मेरी राय यही है कि आप कहीं से उस फार्म की प्रतिलिपि प्राप्‍त कर लें , उसकी छह प्रतिलिपियाँ टंकित करा लें , मुझसे जहाँ तक बन पड़ेगा , मैं आपके लिए पूरी कोशिश करूँगा। वैसे निजी तौर पर आपको बता दूँ , मेरे कोशिश करने से कुछ होगा नहीं। मैं कब से कोशिश कर रहा हूँ कि इस ब्रांच के एकाउंटेंट का तबादला हो जाए , मगर वह आज भी मेरे सर पर सवार है। सारे फसाद की जड़ भी वही है। गर्मी भी उसे ही सबसे ज्‍यादा सताती है। पुराना आदमी है , अफसरों से ले कर चपरासियों तक को पटाए रखता है , यही वजह है कि उस पर कोई अनुशासनात्‍मक कार्यवाही नहीं की जा सकती। दो ही वर्षों में मैंने उसकी ' कांफीडेंशियल फाइल ' इतनी मोटी कर दी है कि एक हाथ से उठती ही नहीं। मगर आज कागजों का वह अर्थ नहीं रह गया , जो अंग्रेजों के जमाने में था। कागज का एक छोटा सा पुर्जा जिंदगी का रुख ही बदल देता था। आप ऋण की ही बात ले लीजिए। यह सब ' पेपर एनकरेजमेंट ' यानी कागजी प्रोत्‍साहन है। यही वजह है कि हिंदुस्‍तान में कागज का अकाल पड़ गया है। राधे बाबू ने गेहूँ या तेल से उतनी कमाई नहीं की , जितनी आज कागज से कर रहे हैं। '

इसी बीच बिजली आ गई। कमरे में उजाला हो गया और धीरे-धीरे पंखे गति पकड़ने लगे। प्रकाश के दम-में-दम आया। अपनी योजनाओं के प्रारूप की जो फाइल प्रकाश अपने साथ इतने उत्‍साह से लाया था , मैनेजर ने पलट कर भी न देखी थी। चपरासी ने बहीखातों का एक अंबार मैनेजर के सामने पटक दिया। एक ड्राफ्‍ट उड़ कर प्रकाश के पाँव पर गिरा। प्रकाश ने वहीं पड़ा रहने दिया। मैनेजर ने चिह्नित पृष्‍ठों पर मशीन की तरह कलम चलानी शुरू कर दी। '

मैं उस मैनेजर के संपर्क में लगातार रहा। ऋण मिलने की कोई संभावना नजर नहीं आ रही थी। मैंने यह सोच कर संतोष कर लिया न सही ऋण कहानी ही सही। उसका एकालाप सुनने के लिए मैं कई बार उसके यहाँ चला जाता।

एक दिन मैं घूमते-घूमते पंजाब नेशनल बैंक की मुख्‍य शाखा पर जा पहुँचा। चौक शाखा से यहाँ का वातावरण एकदम भिन्‍न था। मैनेजर ने मुझे संबंधित अधिकारी से मिलने को कहा। अगर मैं गलत नहीं हूँ तो उस अधिकारी का नाम मित्‍तल था, बाद में मित्‍तल ने बताया कि उसकी पत्‍नी कैंसर से पीड़ित थी और उसे घूस का घुन लग चुका था। उसने ऋण दिलवाने का वादा किया और मेरे लिए चाय मँगवाई। ड्राअर से फार्म निकाला और खुद ही मेरे कागज देख कर मेरा फार्म भरने लगा। उसने कुछ जरूरी कागजात की फोटो प्रतिलिपि करवाई और मेरा आवेदनपत्र भी स्‍वीकार कर लिया। उसने बताया कि अगले सप्‍ताह क्षेत्रीय कार्यालय से एक अधिकारी निरीक्षण के लिए आनेवाला है और उसकी रिपोर्ट मिलते ही ऋण की राशि स्‍वीकृत हो जायगी।

अगले सप्‍ताह मित्तल साहब का संदेश मिला कि क्षेत्रीय कार्यालय से संबंधित अधिकारी आ गए हैं और मैं बैंक से तुरंत संपर्क करूँ। मित्‍तल साहब से मिला तो उन्‍होंने बताया कि वह शीघ्र ही दो-एक दिन में अपने अधिकारी के साथ निरीक्षण के लिए आएँगे। मैं घर में जलपान का प्रबंध रखूँ। मुझे बड़ा अफसोस हुआ जब अधिकारी ने जलपान में कोई दिलचस्‍पी न दिखाई, उसकी दिलचस्‍पी अपने काम में ज्यादा थी। उसने प्रेस की बैलेंस शीट का अध्‍ययन किया, मेरी पृष्‍ठभूमि के बारे में बातचीत की। वह दक्षिण भारतीय था और मैंने दक्षिण की भाषाओं और साहित्य पर अपनी पूरी जानकारी उड़ेल कर रख दी। उसे जान कर बहुत आश्‍चर्य हुआ कि कोई पढ़ा-लिखा आदमी भी इस धंधे में है। अब तक उसकी मुलाकात ठेठ व्‍यवसाईयों से हुई थी। मुझे लगा, वे लोग मेरी बातचीत से संतुष्‍ट हो चले हैं। मित्‍तल साहब ने आँख के इशारे से ऐसा संकेत भी दिया। शाम को दफ्तर के बाद मित्‍तल साहब प्रेस में चले आए। उन्‍होंने बताया कि उनके अधिकारी ऋण स्‍वीकृत करने का मन बना चुके हैं और मैं शाम को उनके होटल में उनसे मिल लूँ। वह शरीफ अधिकारी हैं ज्यादा मोलभाव न करेंगे, मैं कम से कम एक हजार रुपया अवश्‍य भेंट कर दूँ। अपने हिस्‍से के बारे में वह बाद में बात कर लेंगे। एक हजार रुपया मेरे लिए बड़ी रकम थी यानी इतने पैसों से पत्‍नी के लिए दर्जनों साड़ियाँ खरीदी जा सकती थीं या दो महीने तक दारू पी जा सकती थी। मैंने असमर्थता प्रकट की तो मित्‍तल साहब नाराज हो गए - एक लाख का ऋण चाहते हो और एक हजार रुपया खर्च नहीं कर सकते। इतनी बचत तो ब्‍याज में हो जाएगी। बाजार से पैसा उठाएँगे तो बीस रुपए सैकड़ा से कम न मिलेगा। आप की समझ में आए तो पैसा पहुँचा दें। मित्‍तल साहब ने उठते हुए कहा, जहाँ तक उनके पैसे का ताल्‍लुक है, वह ऋण स्‍वीकृत होने के बाद ले लेंगे।

मित्‍तल साहब चले गए तो मैं सोच में पड़ गया। इसी ऋण की खातिर मैं अब तक बहुत चप्‍पल चटखा चुका था। कहीं से ठोस आश्‍वासन न मिला था। मैंने बिजली का बिल जमा करने के लिए ग्‍यारह सौ रुपए सँभाल कर रखे हुए थे। आखिर मैंने तय किया कि उसी पैसे से यह काम सरंजाम दे दिया जाए, बिजली के बिल का जुगाड़ बाद में कर लिया जाएगा। रेड्‌डी साहब जान्‍सटनगंज के राज होटल में ठहरे हुए थे। मैंने मन मसोस कर एक हजार रुपए एक लिफाफे में रखे और उनके पास पहुँच गया। रेड्‌डी साहब ने मेरे लिए चाय मँगवाई और मुंबई के जीवन पर बातचीत करने लगे। दो वर्ष के लिए वह भी वहाँ रहे थे। उन्‍होंने आश्‍वासन दिया कि वह सप्‍ताह भर में मेरा ऋण स्‍वीकृत करा देंगे। मैंने बहुत मासूमियत से अपनी जेब से लिफाफा निकाला और उन्‍हें भेंट करते हुए कहा, 'मेरी ओर से यह भेंट स्‍वीकार करें।'

रेड्‌डी साहब ने लिफाफा खोला और उसमें रुपए देख कर भड़क गए 'आप यह सब क्‍या कर रहे हैं? मैं तो आपको पढ़ा-लिखा समझदार शख्‍स समझ रहा था। आप अपना ही नहीं, मेरा भी अपमान कर रहे हैं।'

मेरा चेहरा एकदम फक पड़ गया और मुझे अपने कर्म पर बहुत शर्म आई, मगर मैं लाचार था, मित्‍तल साहब ने ऐसा ही निर्देश दिया था। मुझे असमंजस में देख कर रेड्‌डी साहब ने पूछा, 'आपको किसी ने पैसा देने को कहा था?'

'मैं बेहद शर्मिंदा हूँ।' मैंने कहा, 'मजबूरी में मैंने यह गुस्‍ताखी की थी।'

'किसने आप को यह रास्‍ता सुझाया?'

'अब मैं आपको क्‍या बताऊँ, आपके दफ्तर से यह संकेत मिला था।'

'किसने दिया ऐसा भद्‌दा संकेत?'

'शिकायत करना ठीक न होगा, आप खुद दरियाफ्त कर लें।' आत्‍मग्‍लानि में मैं देर तक गर्दन झुकाए उनके सामने बैठा रहा।

'आपसे मुझे इस व्‍यवहार की कतई आशा न थी।'

'आप मेरा ऋण मत स्‍वीकार करें।' मैंने उठते हुए कहा, 'मुझे क्षमा करेंगे।'

मेरा यह घूस देने का पहला अवसर था और इसमें मैं न सिर्फ असफल रहा था, घोर अपमानित भी हुआ था। इससे पहले दी गई रकमों को बख्‍शीश ही कहा जा सकता था। मेरी रेड्‌डी साहब से आँख मिलाने की हिम्‍मत न पड़ रही थी। मैं कमरे से निकला और चुपचाप सीढ़ियाँ उतर गया।

कई दिनों तक मैं पश्चात्ताप में सुलगता रहा। उस समय मित्‍तल मुझे दिखाई पड़ जाता तो उसे गिरेबान से पकड़ लेता। मैंने मित्‍तल और बैंक की उस शाखा को भूल जाने में ही अपनी खैरियत समझी। मैंने उस शाखा की तरफ जानेवाली सड़कों पर भी चलना बंद कर दिया। एक दिन अनायास दोपहर को बैंक मैनेजर मित्‍तल साहब के साथ प्रेस में आए। इन लोगों ने सूचना दी कि मेरा ऋण स्‍वीकृत हो गया है और मैं बैंक आ कर तमाम औपचारिकताएँ पूरी कर लूँ। मैंने गौर किया, उस दिन मेरी जो हालत रेड्‌डी साहब के सामने हो रही थी, उससे भी बदतर हालत में मित्‍तल साहब थे। वह मुझसे आँख नहीं मिला पा रहे थे। अगले रोज मैं दफ्तर गया तो मित्‍तल साहब ने बगैर किसी हीलागरी के तमाम औपचारिकताएँ पूरी करवा दीं। कुछ ही दिनों में उनका तबादला भी हो गया। मित्‍तल साहब के तबादले के बाद देश से भ्रष्‍टाचार समाप्‍त हो गया हो, ऐसा नहीं होता और न ऐसा हुआ। मुझे लगता है अगर रेड्‌डी साहब ऐसे ही ईमानदारी का परिचय देते रहे होंगे तो अब तक उनका अपना तबादला भी हो चुका होगा। उनकी हरकतों से ऐसा लगता था, सीधे उनका निलंबन ही हुआ होगा। हमारे यहाँ व्‍यवस्‍था ऐसी हो गई है कि ईमानदार होने का भ्रम अवश्‍य प्रदर्शित कर सकती है और अगर ईमानदारी से किसी अधिकारी की उज्‍ज्‍वल छवि बनने लगती है तो उसे मुनासिब दंड दे दिया जाता है। सरकारी कामकाज में बाधा उत्‍पन्‍न करना भी अपराध है। मालूम नहीं, रेड्‌डी साहब अपना अभियान कहाँ तक पहुँचा पाए या बीच नौकरी में ही उनकी साँस उखड़ गई।

घूस का प्रसंग जिस यात्रा में आया था, वह सन चौंसठ के आस-पास की यात्रा थी। मैं यह सोच कर नासिक यात्रा पर जाने को तैयार हो गया था कि इस बहाने मुंबई देखने का मौका मिल जाएगा। संयोग से उन दिनों राकेश जी मुंबई में थे। मुंबई एक तरह से उन का दूसरा घर था, वह कभी भी मुंबई के लिए चल देते थे। जाने उन्‍हें मुंबई का क्‍या आकर्षण था। मुंबई में ऐसे कई परिवार थे, जहाँ राकेश जी घर से भी अधिक अपनापन महसूस करते थे। वैद परिवार ऐसा ही एक परिवार था। वैद लोगों के पास चर्चगेट पर बहुत खूबसूरत फ्लैट था। समुद्र का पड़ोस था।

शनिवार तक अपना काम निपटा कर मैं मुंबई रवाना हो गया और मुंबई पहुँच कर स्‍टेशन पर ही दिल्‍ली का आरक्षण करा लिया ताकि बाद में कहीं पैसे न कम पड़ जाएँ। राकेश जी मुंबई में राजबेदी के यहाँ रुकते थे। चर्चगेट पहुँचने में जरा दिक्‍कत न हुई। इस्‍मत आपा (इस्‍मत चुगताई) भी उसी बिल्‍डिंग में रहती थीं उनसे भी भेंट हो गई। शाम को राकेश जी जुहू ले गए और भेलपूरी का आनंद लिया, नारियल का पानी पिया। राकेश जी के साथ ही कृष्‍णचंदर के यहाँ जाना हुआ। वह उन दिनों खार में रहते थे। सलमा आपा भी मिलीं। भारती जी और अली सरदार जाफरी वामन जी पेटिट रोड पर एक ही बिल्‍डिंग में रहते थे। शाम इन लोगों के साथ बिताई। मेरे लिए वे अविस्‍मरणीय क्षण थे।

मुंबई में मेरी अच्‍छी-खासी तफरीह हो गई, मगर जब मैं वापिसी के लिए ट्रेन में सवार हुआ तो पाया कि जेब में टिकट तो फर्स्‍ट क्‍लास का था, मगर जेबें खाली थीं। सब जेबें टटोल कर देख लीं, पास में पाँच रुपए भी न थे। देवलाली के कोच में मेरा आरक्षण था। जेब खाली हो तो भूख भी कुछ ज्यादा लगती है। मैंने प्‍लेटफार्म पर उतर कर एक बटाटा बड़ा खरीदा और जी भर कर पानी पी लिया। देवलाली स्‍टेशन पर सेना के कुछ अधिकारी कैबिन में नमूदार हुए। उनके साथ अर्दली वगैरह भी थे। उनका सामान करीने से रखा गया। होल्‍डाल खोले गए। जब ट्रेन देवलाली से विदा हुई तो शाम का झुटपुटा छा चुका था। सूर्य अस्‍त होते ही तीनों अधिकारी कुछ बेचैन दिखने लगे। उनके हावभाव से लग रहा था, उन्‍हें पीने की हुड़क उठ रही है, मगर मेरी उपस्‍थिति में कार सेवा शुरू करने में संकोच कर रहे थे। आखिर एक नौजवान ने मुझे सिगरेट पेश करते हुए पूछा कि अगर वह ड्रिंक करेंगे तो मुझे कोई एतराज तो न होगा। मैंने सिगरेट सुलगाई और धुआँ छोड़ते हुए कहा कि अगर वे लोग मुझे भी शामिल कर लेंगे तो मुझे कोई एतराज न होगा। मेरी स्‍वीकृति मिलते ही डिब्‍बे का माहौल उत्‍सवधर्मी और दोस्‍ताना हो गया। देखते-देखते ट्रंक के ऊपर बार सज गया। बर्फ की बकेट निकल आई, पारदर्शी गिलासों में शराब ढाली जाने लगी। देखते ही देखते उनका अर्दली गर्म-गर्म उबले हुए अंडे छीलने लगा। उसने करीने से सलाद की प्‍लेट सजा दी। मयनोशी का यह जो दौर शुरू हुआ तो दिल्‍ली पहुँच कर ही खत्‍म हुआ। दिल्‍ली तक का सफर चुटकियों में कट गया, विमान की तरह। मेरी जेब में इतने भी पैसे नहीं थे कि चार लोगों के लिए चाय का आदेश दे सकूँ, मगर ईश्‍वर जब देता है तो छप्‍पर फाड़ कर ही नहीं देता, चलती ट्रेन में भी दे देता है। एक तरफ मेरी मुफलिसी थी और दूसरी तरफ ये नौजवान थे, जिनके पास किसी चीज की कमी ही न थी। सुबह के नाश्‍ते से ले कर रात के डिनर तक की उत्‍तम व्‍यवस्‍था होती चली गई। मैं भी निःसंकोच इन लोगों का साथ दे रहा था, मगर भीतर ही भीतर संकोच भी हो रहा था कि इतने लजीज भोजन और मँहगी शराब में मेरी कोई हिस्‍सेदारी नहीं थी। मेरे पास कुछ लतीफे थे और शेर। वाजिब अवसर पर मैं उन्‍हें ही खर्च करता रहा। इश्‍क मजाजी के शेर सुन कर तो वे ताली पीटने लगते। मेरी स्‍थिति एक विदूषक की हो गई थी। यात्रा के दौरान इन लोगों से मेरी इतनी घनिष्‍टता हो गई कि मेरे बगैर दोपहर को जिन का सेशन भी शुरू न होता। वक्‍त पर नाश्‍ता, लंच और डिनर चार प्‍लेटों में आता। मैं यही सोच कर परेशान था कि जाने अब तक डाइनिंग कार का कितना बिल हो गया होगा। मैं डर रहा था कि बैरा कहीं मुझे बिल पेश न कर दे। ज्‍यों-ज्‍यों दिल्‍ली पास आ रही थी, मेरी जान साँसत में आ रही थी। मैंने धीरे-धीरे अपना सामान समेटना शुरू कर दिया था। सामान था ही क्‍या, ले दे कर एक टुटही अटैची थी। एक चादर थी, जो नासिक की लॉज में ही चोरी चली गई थी।

दिल्‍ली नजदीक आ रही थी और मेरे दिल की धड़कनें तेज हो रही थीं। तभी बैरे ने आ कर सामान समेटना शुरू किया। मुझे लग रहा था अभी वारंट की तरह बिल मेरे सामने पेश कर दिया जाएगा, जो सैकड़ों रुपयों का होगा। गाड़ी ने नई दिल्‍ली के प्‍लेटफार्म में प्रवेश किया तो मैं अपना अटैची थामे दरवाजे पर खड़ा था। ज्‍यों ही गाड़ी की गति कमजोर पड़ी, मैंने रेंगती ट्रेन से अटैची थामे हुए कुछ इस तरह छलाँग लगाई जैसे अपना नहीं चोरी का सामान ले कर कूद रहा हूँ। बड़े-बड़े गिरहकट मेरी मुस्‍तैदी देख कर चकित रह जाते। प्‍लेटफार्म पर सँभलते ही मैं ट्रेन की उलटी दिशा में चलने लगा। स्‍लोपवाले पुल पर बिल्‍ली की-सी तेजी से चढ़ गया। प्‍लेटफार्म से बाहर निकलते ही एक टैक्‍सी में बैठ गया और बोला 'करोल बाग।'

करोल बाग में पंजाबी कवि हरनाम की औरतों के पर्स की दुकान थी। मैंने रास्‍ते में तय कर लिया था कि हरनाम से पैसा ले कर टैक्‍सी का बिल अदा करूँगा। हरनाम नहीं मिलता तो पास ही वह ढाबा था, जहाँ हम लोग भोजन किया करते थे। करोल बाग में और भी कई ठिकाने थे। मेरी समस्‍या का निदान हरनाम ने ही कर दिया। उसकी दुकान पर ग्राहक कम, शायर ज्यादा दिखाई देते थे। उस समय भी कई दोस्‍त मिल गए, हमदम, सुरेंद्र प्रकाश वगैरह।

आज मुझे उन सहयोगियों के नाम भी याद नहीं, उनकी शक्‍ल भी भूल चुका हूँ, जिनके साथ मैंने मुंबई से दिल्‍ली तक की यादगार यात्रा की थी। दुनिया जहान से बेखबर शराब पीते हुए यात्रा करने का यह मेरा पहला अनुभव था। उसके बाद, बहुत बाद ऐसी स्‍थिति भी आई कि यात्रा में कभी शराब की कमी नहीं आई, पानी की कमी आ सकती थी। दिल्‍ली के उन संघर्षमय दिनों में होली, दीवाली या किसी खास मौके पर ही मयगुसारी का अवसर मिलता था। उन दिनों भी, सन 63-64 में नए वर्ष की पूर्व संध्‍या पर दारू पीने का बहुत रिवाज था। पूरा कनाट प्‍लेस दिल्‍लीवासियों की मधुशाला बन जाता।

उन दिनों नववर्ष की पूर्व संध्‍या पर भोर तक अच्‍छा-खासा उपद्रव रहता था। शराब की नदियाँ बहा करती थीं। हम लोग भी अपनी हैसियत के मुताबिक चंदा करके इस महानदी में हाथ-मुँह धो लिया करते थे। सन चौंसठ की बात है एक जगह, कनॉट प्‍लेस के बीचों-बीच पार्क में भारी हुजूम दिखाई दिया। किसी मुँडेर के ऊपर खड़े हो कर कुछ युवक गा रहे थे, भीड़ तालियाँ पीट रही थी। प्रसव पर आधारित कोई अश्‍लील लोकगीत था। अश्‍लील ही नहीं, घोर सांप्रदायिक। अचानक भीड़ में से दो युवकों ने लोकगीत के प्रति विरोध प्रकट किया। विरोध प्रकट करनेवाले चूँकि अल्‍पसंख्‍यक थे, भीड़ उन पर टूट पड़ी। लात घूँसे चलने लगे। हवा में टोपियाँ उछलने लगीं। सहसा कमलेश्‍वर न जाने कहाँ से प्रकट हो गए और हाथों को चप्‍पू की तरह चलाते हुए भीड़ में घुस गए और पिटनेवाले युवकों के बचाव में लग गए। हम लोग कमलेश्‍वर को 'बक अप' करने लगे। देखते-देखते सौ-पचास लोगों को कमलेश्‍वर ने अकेले दम पर नियंत्रण में कर लिया। यही नहीं, उन लोगों के मंच पर कब्जा करके एक संक्षिप्त-सा सांप्रदायिकता विरोधी भाषण भी दे डाला। उस वर्ष नए वर्ष का उदय कुछ इस प्रकार से हुआ था। हम लोग कमलेश्‍वर के इस शौर्य प्रदर्शन के मूक साक्षी हैं। उस दिन हमारे मन में कमलेश्‍वर की एक नई छवि उभर आई। एक परिवर्तित छवि, पल-पल परिवर्तित प्रकृति वेश की तरह। पता चला, केवल पुस्‍तकों के पन्‍नों पर या साहित्‍य के स्‍तर पर ही कमलेश्‍वर गैर-सांप्रदायिक नहीं हैं, अवसर आने पर रणक्षेत्र में भी कूद सकते हैं।

दिल्‍ली में राकेश मुझसे असंतुष्‍ट रहने लगे थे। वह मेरी संगत से क्षुब्‍ध रहते थे। राजकमल चौधरी, मुद्राराक्षस, श्रीकांत वर्मा, बलराज मेनरा, जगदीश चतुर्वेदी आदि लेखकों को वह फैशनपरस्‍त और आत्‍मकेंद्रित व्‍यक्‍तिवादी लेखक मानते थे। मेरा बहुत-सा समय ऐसे ही रचनाकारों के साथ बीतता था। एक दूसरा संकट भी था। नामवर सिंह, देवीशंकर अवस्‍थी आदि आलोचक साठोत्‍तरी पीढ़ी की रचनाओं को नई कहानी की मूल संवेदना से सर्वथा भिन्‍न पा रहे थे और इन्‍हीं रचनाकारों में भविष्‍य की कहानी की नई संभावना तलाश रहे थे। राकेश की नजर में मैं गुमराह हो रहा था। ममता और मेरी दोस्‍ती से भी वह बुजुर्गों की तरह नाखुश थे। ममता के चाचा भारत भूषण अग्रवाल इस रिश्‍ते को ले कर सशंकित रहते थे। इसे संयोग ही कहा जाएगा कि अशोक वाजपेई और मैंने एक ही खानदान में सेंध लगाई थी। नेमिचंद्र जैन और भारतभूषण अग्रवाल साढ़ू भाई थे। भारत जी शायराना और नेमि जी शाही तबीयत के मालिक थे। दोनों की रुचियाँ एक-सी थीं, मगर पारिवारिक पृष्‍ठभूमि एकदम भिन्‍न थी अशोक ने नेमि जी के यहाँ मुझसे कहीं अधिक विश्‍वसनीयता अर्जित कर ली थी। उर्दू में अफसानानिगारों की अपेक्षा शायरों को अधिक दिलफेंक समझा जाता था, हिंदी में स्‍थिति भिन्‍न थी। यहाँ कथाकारों को ज्यादा गैरजिम्‍मेदार समझा जाता था। अनेक कथाकारों का दांपत्‍य चौपट हो चुका था। हिंदी के कम ही कथाकारों ने एक शादी से संतोष किया होगा। मेरा कहानीकार होना ऋणात्‍मक सिद्ध हो रहा था।

एक दिन मुझे टी-हाउस में देख कर मोहन राकेश मुझे अलग ले गए।

'मुंबई जाओगे?' उन्‍होंने अपने मोटे चश्‍मे के भीतर से खास परिचित निगाहों से देखते हुए पूछा।

'मुंबई?' कोई गोष्‍ठी है क्‍या?'

'नहीं, 'धर्मयुग' में।'

'धर्मयुग' एक बड़ा नाम था, सहसा विश्‍वास न हुआ। मैं दिल्‍ली में रमा हुआ था, दूर-दूर तक मेरे मन में दिल्‍ली छोड़ने का कोई विचार न था। राकेश जी ने अगले रोज घर पर मिलने को कहा। अगले रोज मैं राकेश जी के यहाँ गया, उन्होंने मुझसे सादे कागज पर 'धर्मयुग' के लिए एक अर्जी लिखवाई और कुछ ही दिनों में नौकरी ही नहीं, दस इंक्रीमेंट्‌स भी दिलवा दिए। 'धर्मयुग' में जाने का उत्‍साह तो था, मगर मैं दिल्‍ली नहीं छोड़ना चाहता था। मुझे स्‍वीकृति भेजने में विलंब हुआ तो भारती जी ने सोचा मैं सरकारी नौकरी का मोह कर रहा हूँ। इस बीच धर्मवीर भारती का एक अत्यंत आत्‍मीय पत्र प्राप्‍त हुआ और पत्र पढ़ते ही मैंने तय कर लिया कि अगले ही रोज नौकरी से इस्‍तीफा दे दूँगा। भारती जी ने लिखा था :

प्रिय रवींद्र

सरकारी नौकरी के लिए एक विशेष प्रकार का मोह हमारे बड़ों में अब भी बना हुआ है। लेकिन उन्‍हें मेरी ओर से समझा देना कि यहाँ भविष्‍य की संभावना कहीं अधिक है और यह भी कि मेरे पास रह कर तुम परिवार से दूर नहीं रहोगे। 20 तारीख के पहले ही 16-17 तारीख तक ज्‍वाइन कर सको तो अच्‍छा ही रहेगा।

सस्‍नेह ,

तुम्‍हारा ,

धर्मवीर भारती

मेरे पास मुंबई जाने का किराया भी नहीं था। उन दिनों ममता से मेरी देखा-देखी चल रही थी। दिल्‍ली में ममता मुझसे दुगुना वेतन पाती थी, मगर महाकंजूस थी। मगर जल्‍द ही वह मेरे रंग में रँगने लगी। ममता से लगभग दुगुने वेतन पर 'धर्मयुग' में मेरी नियुक्‍ति हुई थी, उससे कम वेतन पाने की कुंठा समाप्‍त हो गई। एक अच्‍छी प्रेमिका की तरह ममता ने न केवल मेरी गाड़ी का आरक्षण करवाया बल्‍कि मुंबई के जेब खर्च की भी व्‍यवस्‍था कर दी। तब से आज तक मेरी वित्‍त व्‍यवस्‍था उसी के जिम्‍मे है। वह मेरी वित्‍त मंत्री है।

मुंबई में दादर स्‍टेशन पर मेरे मित्र पंजाबी कवि स्‍वर्ण को मुझे लेने आना था, मगर वह समय पर नहीं पहुँचा। मैंने सुन रखा था कि दादर स्‍टेशन में कुली यात्रियों को बहुत परेशान करते हैं। वे अनाप-शनाप पैसा माँग रहे थे। मुझे मालूम ही नहीं था कि मुझे कहाँ जाना है। जब देर तक स्‍वर्ण का नामोंनिशान दिखाई न दिया तो मैंने कालबादेवी के लिए टैक्‍सी की। टैक्‍सीवाले ने भी खूब मजा चखाया। कालबादेवी में एक गेस्‍ट हाउस में हरीश तिवारी रहता था, वह 'माधुरी' में काम करता था। किसी तरह उसकी लॉज तक पहुँचा तो मालूम हुआ वह दो दिन से लॉज में ही नहीं आया। लॉज का मालिक अच्‍छा आदमी था, उसने मेरी मजबूरी समझ कर रात काटने के लिए गोदाम में खटिया डलवा दी।

मुंबई में जितने आकस्‍मिक रुप से नौकरी मिली थी, उससे भी अधिक आकस्मिक रूप से शिवाजी पार्क सी फेस में फ्लैट मिल गया। स्‍वर्ण का ही एक दोस्‍त था एस.एस. ओबेराय। वह एक भुतहा फ्लैट में अकेला रहता था और उसे किसी साथी की तलाश थी, किसी पंजाबी साथी की, जबकि उसकी टाइपिस्‍ट और सेक्रेटरी और प्रेमिका सुनंदा महाराष्‍ट्रीयन थी।

ओबेराय, जिसे सुनंदा ओबी कहती थी, विचित्र इनसान था। वह न बस में दफ्तर जाता था न ट्रेन में। हमेशा टैक्‍सी में चलता था, उसके लिए चाहे उसे पानवाले से उधार क्‍यों न लेना पड़े। ओबी के निधन पर मैंने उस पर एक लंबा संस्‍मरण लिखा था। वह सुबह नौ बजे सूट-बूट से लैस हो कर एक बिजेनस टाइकून की तरह लेमिंग्‍टन रोड पर अपने दफ्तर के लिए निकलता था। उसकी जेब में जितना पैसा होता शाम को लौटते हुए सब खर्च कर डालता। थोक में सामान खरीद लाता, शाम को वह दो-एक पेग उत्‍तम हिव्‍स्‍की के भी पीता। उसके बाद किचन में घुस जाता और नौकर के साथ मिल कर मांसाहारी व्‍यंजन तैयार करता। वह मेरे ऊपर जितना खर्च करता, उससे मुझे लगता कि पूरी तनख्‍वाह भी उसे सौंप दूँ तो कम होगी।

जब भी उसके पास कुछ पैसे जमा होते, वह पार्टी थ्रो कर देता। उसकी पार्टियाँ भी यादगार होतीं, उसमें मुंबई के बड़े-बड़े उद्योगपति, बिल्डर, मॉडल, एयर होस्‍टेस और फिल्‍मी हस्‍तियाँ शामिल होतीं। उसके ये संपर्क कब विकसित हो जाते थे, मुझे पता ही नहीं चलता था। कल तक उसने सुनील दत्‍त का जिक्र भी नहीं किया होता और शाम को अचानक पता चलता कि सुनील दत्‍त और नर्गिस आनेवाले हैं। बाद में जब मैं एक बार इलाहाबाद से मुंबई गया तो पाया शरद जोशी का उनके यहाँ दिन-रात उठना-बैठना था। दोनों दो ध्रुव थे। इस प्रकार के झटके ओबी के साथ रहने पर अक्‍सर मिला करते थे।

वह अपने बारे में कुछ भी नहीं बोलता था। लगता था उसका कोई अतीत ही नहीं है। वह इतना ही बड़ा पैदा हुआ है। मैं लंबे अर्से तक उसका पेइंग गेस्‍ट रहा, अंत तक पता नहीं चला उसके कितने भाई थे और कितनी बहनें। उसका घर कहाँ था? उसके पिता क्‍या करते थे, उसकी माँ कहाँ हैं? इतना जरूर लगता था, वह किसी खाते-पीते परिवार से ताल्‍लुक रखता है। उसके घर में जैसे धोबी आता था वैसे ही जूते पालिश करनेवाला। उसके पास कई दर्जन जूते थे, जो रोज पालिश होते।

ओबी पियक्‍कड़ नहीं था, मगर पीता लगभग रोज था। बड़ी नफासत से। मैंने अब तक शायरों और रचनाकारों के साथ पी थी, इन लोगों में पीने की मारामारी मची रहती, मगर ओबी के लिए पीना बहुत सहज था। दो-एक पेग पी कर वह खाने पर पिल पड़ता और तुरंत सो जाता, चाहे उसका कोई अजीज मेहमान क्‍यों न बैठा हो। सुनंदा को भी मैं ही अक्‍सर उसके घर छोड़ने जाता। एक बार सुनंदा ने बताया कि उसके विलंब से लौटने पर उसके माता-पिता आपत्‍ति करते हैं तो ओबी ने कहा मत जाया करो। वह अत्यंत अव्‍यवहारिक मगर गजब आसान हल पेश करता था। कशमकश की लंबी प्रक्रिया के बाद आखिर सुनंदा को यही निर्णय लेना पड़ा और वह ओबी के साथ ही रहने लगी। उनकी शादी तो मेरी शादी के भी बाद हुई।

शाम को काम से लौटने पर दोनों नहाते। उसके बाद सुनंदा बावर्ची के साथ रसोई में घुस जाती और ओबी लुंगी पहन कर सोफे पर आलथी-पालथी मार कर बैठ जाता। सुनंदा नैपकिन से देर तक काँच के गिलास चमकाती। गिलास जब एकदम पारदर्शी हो जाते तो ओबी की बार सजती। दो-एक पेग मैं भी पीता। इससे ज्यादा पीने की क्षमता ही नहीं थी।

अगर कभी ओबी के पास मदिरा का स्‍टॉक न होता वह बहुत बेचैन हो जाता। लुंगी पहने ही नीचे उतर जाता और अपने किसी मित्र को फोन पर बुला लेता। कुछ ही देर में कोई न कोई यार बोतल लपेटे चला आता। उसके बाद महीनों उस दोस्‍त का पता न चलता कि कहाँ गया। वह कोई बिल्‍डर होता या फिल्‍म का पिटा हुआ प्रोड्‌यूसर, फौज का कोई अफसर या रेस का दीवाना। ऐसे ही दोस्‍तों में डैंगसन थे, शिवेंद्र था, जाड़िया था, बहुत से लोग थे। टेकचंद्र के पास रेस के कई घोड़े थे, वह केवल घोड़ों की बात करता था। शिवेंद्र कभी आयकर अधिकारी था, नौकरी में पैसा कमा कर वह फिल्‍म बनाने मुंबई चला आया। उसने जीवन में एक ही फिल्‍म बनाई थी, 'यह जिंदगी कितनी हसीन है' जो बुरी तरह पिट गई। उसके बाद वह रेसकोर्स की ओर उन्‍मुख हो गया और रेसकोर्स ही उसका जरिया माश था। घोड़ों की वंशावली और इतिहास की उसे अद्‌भुत जानकारी थी। वह कभी मोटी रकम जीत जाता तो चर्चगेट में अपने घर पर भव्‍य पार्टी देता। मैं पहली बार आई.एस. जौहर, सुनील दत्त, शर्मिला टैगोर, आशा पारेख, विद्या सिन्‍हा वगैरह से उसके यहाँ मिला था। कड़की के दिनों में शिवेंद्र ही ओबी की सप्‍लाई लाइन अबाधित रखता। खुद व्‍यस्‍त होता तो नौकर के हाथ भिजवा देता।

मेरे दफ्तर का माहौल इसके ठीक विपरीत था। 'धर्मयुग' बैनेट कोलमैन कंपनी का साप्‍ताहिक था। बोरी बंदर स्‍टेशन के सामने मुंबई में बैनेट कोलमैन का कार्यालय था। स्‍टेशन और टाइम्‍स ऑफ इंडिया बिल्‍डिंग के बीच सिर्फ एक सड़क थी। मुंबई में यह इमारत बोरी बंदर की बुढ़िया के नाम से विख्‍यात थी। अंग्रेज चले गए थे, मगर बोरी बंदर की बुढ़िया को मेम बना गए थे। दफ्तर की संस्‍कृति पर अंग्रेजियत तारी थी। सूट-टाई से लैस हो कर दफ्तर जाना वहाँ का अघोषित नियम था। नए रंगरूट भी टाई पहन कर दफ्तर जाते थे। पुरुष टाई पतलून में और महिलाएँ स्‍कर्ट वगैरह में नजर आती थीं। मारवाड़ीकरण की प्रक्रिया शुरू हो चुकी थी मगर मंद गति से ही। एक उदाहरण देना पर्याप्‍त होगा, 'धर्मयुग' में ऐसी कोई भी रचना प्रकाशित नहीं हो सकती थी जिसमें किसी सेठ के शोषण का चित्रण हो। संपादकीय विभाग को इस प्रकार की कई हिदायतें मिलती रहती थीं। मालूम नहीं ये नियम संपादक ने स्‍वयं बनाए थे अथवा उन्‍हें कहीं से निर्देश मिलते थे। अंग्रेजी के प्रकाशन इस कुंठा से मुक्‍त थे। 'धर्मयुग' 'इलेस्‍ट्रेटेड वीकली' से कहीं अधिक बिकता था। मगर 'इलेस्‍ट्रेटेड वीकली' के स्‍टाफ का वेतन 'धर्मयुग' के संपादकीय विभाग के कर्मचारियों से कहीं अधिक था। बाद में जब मोहन राकेश सारिका के संपादक हुए तो उन्‍होंने इस भेदभावपूर्ण नीति के विरोध में प्रतिष्‍ठान से इस्‍तीफा दे दिया था। उन्होंने नौकरी के दौरान खरीदी कार बेच दी और फकत एयर कंडीशनर उठा कर दिल्‍ली लौट आए थे।

'धर्मयुग' का माहौल अत्यंत सात्‍विक था। संपादकीय विभाग ऊपर से नीचे तक शाकाहारी था। 'धर्मयुग' का चपरासी तक बीड़ी नहीं पीता था। सिगरेट-शराब तो दूर, कोई पान तक नहीं खाता था। कई बार तो एहसास होता यह दफ्तर नहीं कोई जैन धर्मशाला है, जहाँ कायदे-कानून का बड़ी कड़ाई से पालन होता था। दफ्तर में मुफ्‍त की चाय मिलती थी, जिसे लोग बड़े चाव से पीते थे। साथियों के व्‍यवहार से लगता था जैसे सबके सब गुरुकुल से आए हैं और बाल ब्रह्मचारी हैं। मैं घाट-घाट का पानी पी कर मुंबई पहुँचा था, दिल्‍ली में एकदम स्‍वच्‍छंद, फक्‍कड़ और लगभग अराजक जीवन बिता कर। मैं बगैर किसी कुंठा के दफ्‍तर में सिगरेट फूँकता। धीरे-धीरे मैंने साथियों को दीक्षित करना शुरू किया और कुछ ही महीनों में दो-एक साथियों का दारू से 'अन्‍न प्राशन' करने में सफल हो गया। 'धर्मयुग' की अपेक्षा 'वीकली', 'फेमिना', 'माधुरी' यहाँ तक कि 'सारिका' का स्‍टाफ उन्‍मुक्‍त था। 'धर्मयुग' की शोक सभा से उठ कर मैं प्रायः उनके बीच जा बैठता। 'माधुरी' में उन दिनों जैनेंद्र जैन (बॉबी फेम), हरीश तिवारी, विनोद तिवारी थे तो सारिका में अवधनारायण मुद्‌गल। इन लोगों के साथ कभी-कभार 'चियर्स' हो जाती। इन्‍हीं मित्रों से पता चला कि 'धर्मयुग' के मेरे सहकर्मी स्‍नेहकुमार चौधरी भी गम गलत कर लिया करते हैं। चौधरी की सीट ठीक मेरे आगे थी। वह बहुत निरीह और नर्वस किस्‍म का व्‍यक्‍ति था। बच्‍चों की तरह बहुत जल्‍द खुश हो जाता और उससे भी जल्‍द नाराज। उसने मारवाड़ी होते हुए एक बहुत क्रांतिकारी कदम उठाया था यानी प्रेम विवाह किया था, एक बंगाली युवती से। कोर्टशिप के दौरान ही वह बाँग्ला सीख गया था और घर पर केवल बाँग्ला में ही बातचीत करता था। उस युवती के लिए उसने अपना सब कुछ न्‍यौछावर कर दिया था - तन, मन, यहाँ तक कि भाषा भी, बंगालिन से उसे एक ही शिकायत थी कि वह उसे घर में मद्यपान करने की इजाजत न देती थी। घर में वह बंगालिन के शिकंजे में रहता था और दफ्तर में संपादक के। भीतर ही भीतर वह कसमसाता रहता था। एक दिन मुझे पता चला कि वह बोतल खरीद कर पीने का ठौर तलाश रहा है तो मैंने चुटकियों में उसकी समस्‍या हल कर दी।

मैं मुंबई में पेइंग गेस्‍ट की हैसियत से रहता था और मेरे मेजबान को बिना दारू पिए नींद नहीं आती थी। मैंने सोचा कि उसकी भी एक दिन की समस्‍या हल हो जाएगी, यह दूसरी बात है उस दिन वह बहुत देर से लौटा था, वह भी किसी पार्टी से टुन्‍न हो कर। मेरी चौधरी से छनने लगी। वह बेरोकटोक हमारे यहाँ आने लगा। वह जब परेशान होता, बोतल ले कर हमारे यहाँ चला आता। दफ्तर में 'धर्मयुग' का माहौल ऐसा था कि यह आभास ही नहीं होता था कि यहाँ से देश का सर्वाधिक लोकप्रिय साप्‍ताहिक-पत्र संपादित हो रहा है, लगता था जैसे रोज आठ घंटे कोई शोक सभा होती हो। यहाँ दो मिनट का मौन नहीं आठ घंटे का मौन रखने की रस्‍म थी। बगल में ही 'इलस्‍ट्रेटेड वीकली' और पीछे 'सारिका' और 'माधुरी' का स्‍टॉफ था, जहाँ हमेशा चहल-पहल रहती। लोग हँसी-मजाक करते। लंच के समय बाहर चाय भी पी आते, मगर 'धर्मयुग' का संपादकीय विभाग अपनी-अपनी मेज पर टिफिन खोल कर चुपचाप लंच की औपचारिकता निभा लेता और जेब में रखे रूमाल से हाथ पोंछ कर दुबारा काम में जुट जाता। संपादकों को कंपनी की तरफ से लंच मिलता था। भारती जी अपने कैबिन से निकलते तो 'धर्मयुग' के सन्‍नाटे में उनकी पदचाप सुनाई पड़ती। सन्‍नाटे से ही भनक लग जाती कि भारती जी लंच से लौट आए हैं। उनका चपरासी रामजी दरवाजा खोलने के लिए तैनात रहता। शायद यही सब कारण थे कि 'धर्मयुग' के संपादकीय विभाग को अन्‍य पत्रिकाओं के पत्रकार 'कैंसर वार्ड' के नाम से पुकारते थे।

उन दिनों मैं भारती जी का लाड़ला पत्रकार था। भारती जी ने साहित्य, संस्‍कृति और कला के पृष्‍ठ मुझे सौंप रखे थे, जो अंत तक मेरे पास रहे। मैं दफ्तर में ही नहीं, भारती जी के सामने भी सिगरेट फूँक लेता था। उन दिनों यह 'धर्मयुग' का दस्‍तूर था कि जिस पर भारती जी की कृपा दृष्‍टि रहती थी, सब सहकर्मी उससे सट कर चलते थे, जिससे भारती जी खफा, उससे पूरा स्‍टॉफ भयभीत। मैंने जब लंच के बाद बाहर फोर्ट में किसी ईरानी रेस्तराँ में चाय पीने का सुझाव रखा तो सबने खुशी-खुशी स्‍वीकार कर लिया। अब वीकली, माधुरी, सारिका के स्‍टॉफ की तरह हम भी आधा घंटे के लिए अपने दड़बे से निकलने लगे। नंदन जी मेरा खास खयाल रखते, शायद दिल्‍ली से मोहन राकेश ने उन्‍हें मेरा खयाल रखने की हिदायत दी थी। बहरहाल मेरे आने से माहौल में कुछ परिवर्तन आया। उसका एक आभास उस पत्र से मिल सकता है, जो शरद जोशी ने भोपाल से नंदन जी को लिखा था। उस पत्र को यहाँ उद्धृत करना अप्रासंगिक न होगा। यद्यपि यह पत्र नंदन जी के पास आया था, मैंने उनसे ले लिया। वह शायद इस पत्र को अपने पास रखने का जोखिम भी नहीं उठाना चाहते थे। मैंने अपनी पुस्‍तक कामरेड मोनालिजा में भी इसे उद्धृत किया था। उस वर्ष 'धर्मयुग' के होली विशेषांक में नंदन जी, प्रेम कपूर और मेरी संयुक्‍त तस्‍वीर छपी, जिसमें हम लोग मुस्‍करा रहे थे। 'धर्मयुग' के लेखकों ने विश्‍वास न किया। शरद जोशी का पत्र परोक्ष रूप से 'धर्मयुग' के माहौल पर एक टिप्‍पणी करता है :

प्रिय नंदन ,

जो तस्‍वीर छपी है , उसमें रवींद्र कालिया मुस्‍करा रहा है। यह निहायत अफसोस की बात है। वह सीरियस रायटर है , उसे ऐसा नहीं करना चहिए। अगर मुंबई आ कर वह मुस्‍कराने लगा तो इसके लिए जिम्‍मेदार तुम लोग होगे। कुछ हद तक ममता अग्रवाल भी। यों मुझे भोपाल में गंगाप्रसाद विमल बता रहा था कि कालिया में ये तत्‍व दिल्‍ली में भी पाए जाते थे। खेद की बात है। उसे सीरियस रायटर बना रहने दो। तुम्हारा , शरद जोशी

वर्षों 'धर्मयुग' से संबद्ध रहने के बावजूद शायद पहली बार नंदन जी की तस्‍वीर छपी थी और वह भी मेरे इसरार पर। उन्‍होंने हमेशा अपने को नेपथ्‍य में ही रखा था। 'धर्मयुग' के लिए उन्‍होंने बहुत कुछ लिखा मगर अपना नाम शायद ही कभी दिया हो। ऐसे में तस्‍वीर का छपना एक चमत्‍कारिक घटना थी। हुआ यह था कि भारती पुष्‍पा जी से शादी रचाने लखनऊ गए हुए थे - जबकि वे लोग अर्से से साथ-साथ रह रहे थे। जाते हुए वह अपना फ्लैट मुझे और ममता को सौंप गए। उनका लंबा दौरा था। हनीमून के लिए वे लोग खजुराहो भी गए थे। इस बीच वह नंदन जी को होली विशेषांक की डमी सौंप गए थे।

'धर्मयुग' के एक साथ छह अंक प्रेस में रहते थे। ऐन मौके पर होली विशेषांक के दो पृष्‍ठ विज्ञापन-विभाग ने छोड़ दिए। भारती जी का इतना दबदबा था कि वह अक्‍सर अनुपात से अधिक विज्ञापन छापने से मना कर देते थे, यही कारण था कि विज्ञापन विभाग-प्रायः आवश्‍यकता से अधिक पृष्‍ठ घेरने का शेडयूल बनाता था। यकायक दो पृष्‍ठ खाली हो जाने से एक नया संकट शुरू हो गया - भारती जी की अनुपस्थिति में इन पृष्‍ठों पर क्‍या प्रकाशित किया जाय, इसका निर्णय कौन ले। नंदन जी को अधिकार था मगर यह हो ही नहीं सकता था कि नंदन जी के चुनाव पर भारती जी प्रतिकूल टिप्‍पणी न करें, जबकि यह भी संयोग था कि भारती जी जब-जब छुट्‌टी पर गए 'धर्मयुग' का सर्क्‍युलेशन बढ़ गया। प्रकाशित सामग्री पर भारती जी का इतना अंकुश रहता था कि संपादक के नाम भेजे गए पत्रों का चुनाव वह खुद करते थे। नंदन जी की उलझन देख कर मैंने उन्‍हें सुझाव दिया कि इन पृष्‍ठों पर एक फोटो फीचर प्रकाशित किया जाए। बसों में सफर करते हुए मैंने हिंदी के लेखकों के नाम कई दुकानों पर देखे थे - जैसे केशव केश कर्तनालय, भैरव तेल भंडार, श्रीलाल ज्‍वैलर्स, यादव दुग्‍धालय, डॉ. माचवे का क्लीनिक आदि। नंदन जी को सुझाव जँच गया और नंदन जी, प्रेम कपूर, मैं एक फोटोग्राफर ले कर टैक्‍सी में मुंबई की परिक्रमा करने निकल गए। होली के अनुरूप अच्‍छा-खासा फोटो फीचर तैयार हो गया। फोटोग्राफर ने हम तीनों का भी चित्र खींच लिया। खाली पृष्‍ठों पर यह फोटो-फीचर छप गया और खूब पसंद किया गया। रात को भारती जी का फोन आया, वह बहुत प्रसन्‍न थे, लखनऊ में उनकी जिन-जिन लेखकों से भेंट हुई, सबने इसी फीचर की चर्चा की। दो पृष्‍ठों के एक कोने में कला विभाग ने हम तीनों का चित्र भी पेस्‍ट कर दिया, मैंने शीर्षक दिया - कन्‍हैया, कालिया और कपूर यानी तीन किलंगे (तिलंगे की तर्ज पर)। मैंने जब फोन पर नंदन जी को भारती जी के फोन की सूचना दी तो उन्‍होंने राहत की साँस ली। फीचर से तो नंदन जी समझौता कर चुके थे, मगर तीनों के चित्र से आशंकित थे। शायद भारती जी ने उन्‍हें सदैव नेपथ्‍य में रहने का अभ्यास करा दिया था।

इसी बीच एक दुर्घटना हो गई। अचानक चौधरी के पिता के निधन की खबर आई। वह छुट्‌टी ले कर अजमेर रवाना हो गया। लौटा तो उसके पास सिगरेट का एक बट था, जिसे उसने सहेज कर चाँदी की छोटी-सी डिबिया में रखा हुआ था। यह उस सिगरेट का अवशेष था, जिसका कश लेते-लेते उसके पिता ने अंतिम साँस ली थी। अजमेर से वह लौटा तो एक बदला हुआ इनसान था। उसकी जीवन शैली में अचानक परिवर्तन आने लगा। अचानक वह आयातित सिगरेट और शराब पीने लगा। उसे देख कर कोई भी कह सकता था कि इस शख्‍स के रईस पिता की अभी हाल में मौत हुई है। पिता के निधन के बाद उसमें एक नया आत्‍मविश्‍वास पैदा हो गया। इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि एक दिन उसने घर पर बंगालिन की उपस्‍थिति में बोतल खोल ली और वीरतापूर्वक पत्‍नी का मुकाबला करता रहा। वह घर में और दफ्तर में अपने दायिमी दब्‍बूपन से मुक्‍ति पाने के लिए संघर्ष करने लगा।

दफ्तर में डॉ. धर्मवीर भारती एक कुशल प्रशासक की तरह 'डिवाइड एंड रूल' में विश्‍वास रखते थे। उपसंपादकों को एक साथ कहीं देख लेते तो उनकी भृकुटी तन जाती। बहुत जल्‍द इसके परिणाम दिखाई देने लगते। किसी को अचानक डबल इंक्रीमेंट मिल जाता। किसी एक से सपारिश्रमिक अधिक लिखवाने लगते। किसी एक का वजन अचानक बढ़ने लगता। कोई एक अचानक देवदास की तरह उदास दिखने लगता। चुगली से बाज रहनेवाला आदमी अचानक चुगली में गहरी दिलचस्‍पी लेने लगता। संपादक के कृपापात्र को सब संशय से देखने लगते। वह भरे दफ्तर में अकेला हो जाता।

एक दिन अचानक संपादक ने स्‍नेहकुमार चौधरी को आरोप-पत्र जारी कर दिया। उस पर गंभीर आरोप लगे थे कि वह 'धर्मयुग' की सामग्री और चित्र, ट्रांसपरेंसियाँ 'साप्‍ताहिक हिंदुस्‍तान' को प्रेषित करता है। चौधरी बहुत सीधा और कायर किस्‍म का शख्‍स था। पत्र पा कर उसे मर्मांतक पीड़ा पहुँची। अचानक उसे अपने दिवंगत पिता की शिद्दत से याद आने लगी। दफ्तर से घर लौटते हुए वह इतना भावुक हो गया कि दादर आते-आते रोने लगा। पता नहीं चल पा रहा था कि वह अपने पिता की याद में रो रहा है अथवा संपादक के दुर्व्‍यवहार से। इस बीच मेरी शादी हो चुकी थी और हम लोगों ने शीतलादेवी रोड पर आवास की व्‍यवस्‍था कर ली थी। माटुंगा पर हम दोनों गाड़ी से उतर गए। उसे मैं अपने साथ घर ले गया। ममता ने किस्‍सा सुना तो वह भी बहुत क्षुब्‍ध हुई। उसने कहा कि तुम दोनों भारती जी के यहाँ जाओ और पूछो कि वह किस आधार पर इतना ओछा आरोप लगा रहे हैं। वास्‍तव में किसी फोटोग्राफर ने दोनों पत्रिकाओं में चित्र छपवा कर अपने बचाव के लिए कहानी गढ़ ली थी। चौधरी की सूरत देख कर ममता इतनी उद्विग्‍न हो गई कि ऐसे दमघोंटू माहौल में काम करने पर लानत-मलामत भेजने लगी। उसने चिंता प्रकट की कि इनके भी बीवी-बच्‍चे हैं। वे लोग सुबह से इनकी राह देख रहे होंगे। इनकी सूरत देख कर उन पर क्‍या गुजरेगी। ऐसे नारकीय माहौल में काम करने से अच्‍छा है कोई दूसरा काम ढूँढ़ लें।

ममता की बात से वह कुछ उत्‍साहित हुआ। उसने वॉश बेसिन पर जा कर मुँह धोया और अचानक सीढ़ियाँ उतर गया। कुछ देर बाद वह लौटा तो उसके हाथ में व्हिस्‍की की पूरी बोतल थी। चेहरे पर आत्‍मविश्‍वास लौट आया था और आँखों में चिर-परिचित बालसुलभ वीरता का भाव था। उसने काजू आदि नमकीन का पैकेट मेज पर रखते हुए कहा, 'आज इसका फैसला हो ही जाना चहिए। तुम मेरा साथ दो तो मैं अभी भारती के यहाँ जा कर उनसे दो टूक बात कर सकता हूँ।' उत्‍तेजना में उसने विस्‍की की सील तोड़ कर दो पेग तैयार किए और 'चीयर्स' कह कर गटागट पी गया। हम लोगों ने इत्‍मीनान से जी भर कर व्‍हिस्‍की का सेवन किया। पीने के मामले में हम दोनों नए मुसलमान थे। पीते-पीते हम दोनों स्‍वाभिमान से लबालब भर गए। अन्‍याय, शोषण और लांछन के प्रति विद्रोह की भावना तारी होने लगी, जब तक हम पूरी तरह स्‍वाधीन होते बारह बज गए थे।

उन दिनों पीने का ज्यादा अनुभव तो था नहीं, अचानक मैं अपने को एक बदला हुआ इनसान महसूस करने लगा। दुनियावी रंजोगम बौने नजर आने लगे। बदसलूकी, अन्‍याय और शोषण के खिलाफ धमनियों में उमड़ रहा रक्‍त विद्रोह करने लगा।

'उठो!' मैंने चौधरी को ललकारा, 'आज फैसला हो ही जाना चहिए। अभी चलो वामनजी पैटिट रोड, भारती के यहाँ।'

मगर मेरे मित्र पर व्हिस्‍की का विपरीत असर हुआ था। उसका सारा आक्रोश शांत हो गया था, बोला, 'अब घर जाऊँगा। शराब पी कर मैं उनके यहाँ नहीं जा सकता।'

'अंदर जा कर कै कर आओ।' मैंने कहा, 'तुम्‍हारे जैसे नामर्दों ने ही उसे शेर बनाया है। आज फैसला हो कर रहेगा।'

मेरे तेवर देख कर वह सहम गया, बोला 'एक शर्त पर चल सकता हूँ। जो कुछ कहना होगा तुम्‍हीं कहोगे। मैं सिर्फ मूड़ी हिलाऊँगा।'

'गुड लक', ममता ने कहा।

नीचे जा कर हम लोगों ने टैक्‍सी की और दस-पंद्रह मिनट बाद हम लोग भारती जी के यहाँ लिफ्ट में चौथे माले की ओर उठ रहे थे, पाँचवें माले पर जीने से पहुँचना था। भारती जी के फ्लैट के सामने पहुँच कर मैंने कॉलबेल दबाई। पीछे मुड़ कर देखा चौधरी वहाँ नहीं था, वह चौथे माले पर ही खड़ा था। मैंने उसे आवाज दी, न भारती जी का दरवाजा खुला, न चौधरी दिखाई दिया। दो स्‍टेप्‍स उतर कर मैंने देखा, वह जीने की ओट में छिप कर खड़ा था और मुझे लौटने का इशारा कर रहा था। उसकी इस हरकत की मुझ पर विपरीत प्रतिक्रिया हुई। मैंने पलट कर कॉलबेल पर जो अँगूठा रखा तो दबाता ही चला गया। आधी रात के सन्‍नाटे में घंटी की कर्कश आवाज ने जैसे कुहराम मचा दिया था, तभी दरवाजे में लगी 'मैजिक आई' में से किसी ने देखा।

'कौन है?' अंदर से आवाज आई।

'नमस्‍कार', मैंने कहा, 'मैं कालिया।'

अब तक मुझे इस परिवार में बहुत स्‍नेह मिला था। पुष्‍पा जी ने तुरंत दरवाजा खोल दिया, मुझे देख कर आश्‍चर्य से उनकी आँखे फैल गईं, 'तुम? इस समय? खैरियत तो है?' 'हूँ, मैंने कहा। मैं मुँह नहीं खोलना चहता था। मैंने गर्दन घुमा कर पीछे देखते हुए कहा, 'बहुत जरूरी काम था।'

'मगर भारती जी तो सो रहे हैं।'

'उन्‍हें जगा देंगी तो बड़ी कृपा होगी।' मैंने छत की तरफ देखते हुए कहा और पुष्‍पा जी की आँख बचा कर दो-चार इलायचियाँ मुँह में और रख लीं।

मेरी आँखे सुर्ख हो रही थीं, उन में शराब का खून उतर आया था। स्‍नेहकुमार चौधरी मेरे पीछे दुबका खड़ा था। पुष्‍पा जी बेडरूम की तरफ चल दी थीं और हम दोनों ड्राइंगरूम में गुजराती सोफे पर पसर गए थे। थोड़ी देर बाद भारती जी खादी की जेबवाली बनियान (बंडी) पहने आँखें मलते हुए ड्राइंगरूम में दाखिल हुए। उन्‍हें देख कर हम दोनों आदतन खड़े हो गए।

'बैठो।' उन्‍होंने कहा। चौधरी को देख कर वह सारा किस्‍सा समझ गए होंगे, जो उस समय काँपती टाँगों के बीच हाथ फँसाए चुपचाप हनुमान चालीसा का पाठ कर रहा था।

'कैसे आए?'

'दफ्तर में बहुत घुटन है। मासूम लोगों का भी दम घुट रहा है। आज यह चौधरी इतना दुखी था कि ट्रेन में रोते हुए घर जा रहा था।'

'यह निहायत बेवकूफ है। मैं इससे बहुत प्‍यार करता हूँ। इसकी फाइल तुम्‍हें दिखाऊँगा कि कितनी गंभीर गलतियाँ करता है। मैंने हमेशा इसे बचाया है। पिछले साल तो डबल इंक्रीमेंट भी दिलवाया था। बोलो, मैं गलत कह रहा हूँ क्‍या?' भारती जी ने चौधरी को लज्जित करते हुए पूछा।

चौधरी सहमति में उत्‍साहपूर्वक सिर हिलाने लगा।

'दूसरी पत्रिकाओं का स्‍टॉफ 'धर्मयुग' को कैंसर वार्ड कहता है।' मैंने कहा।

भारती जी का चेहरा उतर गया, 'कौन कहता है?'

'सब कहते है,' मैंने कहा, 'आप सोच रहे होंगे यह नौकरी करके हम बहुत प्रसन्‍न होंगे, ऐशो आराम से जिंदगी बसर कर रहे होंगे तो यह आपका भ्रम है, दफ्तर में घुटन है और घर में सीलन। दफ्तर में आतंक का माहौल है और घर में चूहों, मच्‍छरों और खटमलों का उत्‍पात। जो शख्‍स ट्रेन में रोते हुए घर पहुँचेगा, उसके बच्‍चे क्‍या सोचेंगे? उसके परिवार का माहौल कैसा होगा? लानत है ऐसी अभिशप्‍त जिंदगी पर।'

मैं नशे में था, निर्द्वंद्व था, सातवें आसमान पर था। शराब के नशे और जुनून में मैंने जैसे जेल की पूरी आचार संहिता तहस-नहस कर दी, तमाम बेड़ियाँ उतार फेंक दीं।

चौधरी बदस्‍तूर टकटकी लगाए छत पर लटके फानूस को देख रहा था। अब वह टाँग नहीं हिला रहा था, अब उसकी टाँगें काँप रही थीं।

'तुम लोगों ने खाना खाया?' सहसा भारती जी ने पूछा।

'न।' मैंने नशे की झोंक में कहा, 'हम लोग इस्‍तीफा देना चाहते हैं।'

भारती जी ने पुष्‍पा जी को आवाज दी और कहा कि बच्‍चे भूखे हैं, इनके लिए प्‍यार से रोटी सेंक दो। नौकर सो चुका था।

मैंने सिगरेट सुलगा ली, भारती जी ने मेज के नीचे पड़ी ऐश ट्रे उठा कर मेज के ऊपर रख दी। उनकी उपस्‍थिति में मैं पहले भी सिगरेट पी लिया करता था।

भारती जी ने भड़कने के बजाए मेरी तरफ अत्‍यंत स्‍नेह से देखते हुए आत्‍मीयता से कहा, 'मैं जानता हूँ 'धर्मयुग' के लिए तुम सरकारी नौकरी को लात मार कर आए हो, मैं लगातार तुम्‍हारी पदोन्‍नति के बारे में सोच रहा हूँ। तुम एक काम करो।'

'क्‍या?'

'मेरी एक मदद करो।'

'बताइए।'

'मैनेजमेंट नंदन के कार्य से संतुष्‍ट नहीं है। मैंने सुना है, मातहतों से भी उसका व्‍यवहार ठीक नहीं है। अगर तुम एक प्रतिवेदन तैयार करोगे कि वह अयोग्‍य है, मातहतों के साथ दुर्व्‍यवहार करता है और सबको षड्यंत्र के लिए उकसाता है तो समस्‍त संपादकीय विभाग तुम्‍हारा साथ देगा।'

नंदन जी में दूसरी खामियाँ होंगी, मगर इनमें से एक भी दुर्गुण नहीं था। मैं सन्‍नाटे में आ गया, चौधरी तो जैसे तय करके आया था, जुबान नहीं खोलेगा।

मैंने फौरन प्रतिवाद किया, 'नंदन जी तो दफ्तर में मेरी मदद ही करते हैं, पहले दिन से। अभी हाल में मेरी पतलून कूल्‍हे पर फट गई थी, उन्‍होंने नई सिलवा दी।'

मेरी बात सुन कर भारती जी पहले तो हँस दिए, फिर कृत्रिम क्षोभ से बोले, 'तुम पतलून सिलवा लो या मेरी मान लो।'

इस बीच पुष्‍पा जी ने बड़ी फुर्ती से दाल-रोटी तैयार कर ली, ऐसे अवसर पर रेफ्रिजरेटर बहुत काम आता है। उनके यहाँ चटाई बिछा कर भारतीय पद्धति से ही खाना खिलाया जाता था। भारती जी भी हमारे संग चटाई पर बैठ गए। उन्‍होंने बड़े प्‍यार से खाना खिलाया।

'भारती जी, इस काम के लिए भी आपने हमेशा की तरह गलत आदमी चुना है। मैं इस काम के लिए निहायत अयोग्‍य हूँ, मैंने कहा।'

मेरी बात का उन पर कोई असर न पड़ा, उन्‍होंने कहा कि वह मेरी बात ही दोहरा रहे हैं। 'अब तुम तय कर लो तुम्‍हें चूहों, मच्‍छरों और खटमलों के बीच रहना है अथवा 'धर्मयुग' के सहायक संपादक बन कर सुविधाओं के बीच लिखते हुए एक अच्‍छा कथाकार बनना है।'

एक लिहाज से भारती जी ने गलत आदमी नहीं चुना था। एक बार तो लंच के दौरान तमाम उपसंपादकों ने सामूहिक इस्‍तीफा लिख कर मेरे पास जमा कर दिया था। मैं अच्‍छा-खासा विस्‍फोट कर सकता था, लेकिन मेरी जिम्‍मेदारी बहुत बढ़ जाती। पेट में भोजन जाते ही दारू का नशा कुछ कम हुआ, मगर अभी वीरता का भाव कायम था। यही वजह थी कि मैं अपना इस्‍तीफा देने की बात तय नहीं कर पा रहा था।

रात के दो बजे थे, जब हमने भारती जी से विदा ली। बातचीत का कोई नतीजा नहीं निकला था, मगर अंदर का गुब्‍बार शांत हो गया था। जैसे आँधी-तूफान के बाद बारिश हो जाए और मौसम अचानक सुहाना हो जाय। सच तो यह था कि इस घटना के बाद हम दोनों भीतर ही भीतर बुरी तरह सहम गए थे। यह सोच कर भी दहशत हो रही थी कि सुबह किस मुँह से दफ्तर जाएँगे। मैंने एक टैक्‍सी रोकी और यह गुनगुनाते हुए बैठ गया :

काबा किस मुँह से जाओगे ग़ालिब

शर्म तुमको मगर नहीं आती

चौधरी मुझे शीतलादेवी टेंपल रोड पर उतार कर उसी टैक्‍सी से सीधा अंधेरी निकल गया। ममता जग रही थी, वह हमारी भूमिका से बहुत असंतुष्‍ट हुई। मैं भी बिना बात किए सो गया। दूसरे दिन सुबह सो कर उठा तो नशा काफूर था, दफ्तर जाने की हिम्‍मत न हो रही थी, फिर भी हस्‍बेमामूल नौ तिरपन की गाड़ी से दफ्तर पहुँचा। लग रहा था, किसी भेड़िए के मुँह में जा रहा हूँ, रातभर में उसने अपने नाखून तेज कर लिए होंगे। मगर मुझे ज्यादा देर तक इस आतंकपूर्ण स्‍थिति में नहीं रहना पड़ा। उस रोज भारती ही दफ्तर न आए थे। उससे अगले रोज भी छुट्‌टी पर थे। हमने किसी सहयोगी को भी अपने उस दुःसाहस की भनक न लगने दी।

हम लोगों ने दफ्तर से छुट्‌टी तो नहीं ली, मगर कुछ इस अंदाज से दफ्तर जाते रहे कि एक दिन अचानक कोई भूखा शेर माँद से निकलेगा और देखते-ही-देखते दबोच लेगा। दोस्‍त लोग चुपचाप यह तमाशा देखते रहेंगे, तमाशाबीनों की तरह। मगर शेर जिस दिन जंगल में नमूदार हुआ, निहायत खामोश और संयत था। लग रहा था शिकार में उसकी कोई दिलचस्‍पी नहीं है। जैसे शेर और बकरियाँ एक घाट पर साथ-साथ पानी पी रहे हों। दफ्तर में जैसे सतयुग लौट आया था। माहौल में ही नहीं लोगों के स्‍वास्‍थ्‍य में भी सुधार आने लगा। जो रूटीन सामग्री रवींद्र कालिया के नाम आती थी, वह श्री रवींद्र कालिया के नाम से आने लगी। इसे हम दोनों के अलावा कोई नहीं समझ सकता था कि यह श्री 'श्री' नहीं, एक खलनायक है, जिसने रिश्‍तों के बीच अपरिचित का विंध्याचल खड़ा कर दिया था। चौधरी की स्‍थिति मुझसे भी नाजुक थी। उसे सहायक संपादक और मुख्‍य उपसंपादक के स्‍तर पर ही काम और निर्देश मिल रहे थे। हम लोगों को इलहाम हो रहा था कि यह बेन्‍याजी और अफसानानिगारी जल्‍द ही एक दिन जल्‍द रंग लाएगी। बहुत चाहते हुए भी हम अपने सहयोगियों को कयामत की उस रात का किस्‍सा नहीं सुना पा रहे थे। अव्‍वल तो इस पर कोई विश्‍वास ही न करता और अगर विश्‍वास कर लेता तो हमारा सामाजिक बहिष्‍कार होते देर न लगती। यह उस दफ्तर का दस्‍तूर था, वहाँ की संस्‍कृति का हिस्‍सा था। मुझे ताज्‍जुब तो इस बात का हो रहा था कि चौधरी मुझसे कहीं अधिक निश्‍चिंत था, जबकि मैं उसे अपने से कहीं अधिक भीरु और कमजोर समझता था। उसे विरासत में इतनी संपत्‍ति मिल गई थी कि वह नौकरी का मुखापेक्षी न रहा था। उन दिनों वह बड़ी बेरहमी से पैसा खर्च कर रहा था। इससे पहले वह घर में मद्यपान नहीं करता था मगर अचानक उसमें इतना परिवर्तन आया कि अक्‍सर घर लौटते हुए बंगालिन के लिए मछली और अपने लिए बोतल ले जाता। एक दिन दफ्तर के बाद वह मुझे एक पाँच सितारा होटल में ले गया और जाम टकराते हुए सुझाव रखा कि क्‍यों न हम लोग इस जेल से मुक्‍त हो कर अपना कोई कारोबार शुरू करें और आजादी से जिएँ।

'सुझाव तो अच्‍छा है, मगर कारोबार के लिए पैसा कहाँ है?' मैंने पूछा।

'पैसे की चिंता न करो, मेरे पास है, मुझे जरूरत है तुम्‍हारे जैसे कर्मठ और विश्‍वसनीय पार्टनर की।'

चौधरी का सुझाव मुझे जँच गया, लगा जैसे तमाम जंजीरें टूट कर कदमों में गिर पड़ी हैं। इस बीच एक और पेग चला आया था। हम लोगों ने एक बार फिर गिलास टकराए और 'चियर्स' कहा। मदिरापान के दौरान तय हो गया कि हम दोनों मुंबई में एक प्रेस खोलें और उस प्रेस का नाम होगा - स्‍वाधीनता। शराब की मेज पर ही हमने गुलामी को नेस्‍तानाबूद कर दिया और आजादी का बासंती चोला धारण कर लिया। खाना-वाना खा कर हम स्‍वाधीनता सेनानियों की तरह अपने-अपने घर पहुँचे।

मेरी रजामंदी मिलते ही चौधरी ने दफ्तर से छुट्‌टी ले ली और रैपिड एक्‍शन फोर्स की तरह अपने अभियान में संलग्न हो गया। देखते-ही-देखते उसने अंधेरी (पूर्व) में अपने घर के पास ही सड़क के दूसरे छोर साकी नाका रोड पर कैमल इंक की विशाल फैक्‍टरी के सामने निर्माणाधीन एक औद्योगिक परिसर में प्रेस के लिए एक बड़ा-सा 'शेड' बुक करवा दिया। चौदह हजार रुपए का भुगतान भी कर दिया। महीने भर में परिसर का हस्‍तांतरण भी 'स्‍वाधीनता' प्रेस के नाम हो गया। उसने हम लोगों को भी अपने चालनुमा फ्लैट की बगल में जगह दिलवा दी और हम लोग शीतलादेवी टेंपल रोड से अंधेरी (पूर्व) चले आए। स्‍वाधीनता प्रेस में मेरी बराबर की हिस्‍सेदारी थी जबकि ज्यादातर पूँजी चौधरी की ही लगी थी। पहले मैं चौधरी का हमप्‍याला बना। फिर हमनिवाला और अंत में पार्टनर। इस बीच उसने न केवल इस पार्टनरशिप को कानूनी जामा पहना दिया, बल्‍कि हम लोग इस्‍तीफा देते, इससे पूर्व ही वह राजस्‍थान से छपाई की बूढ़ी, मगर आयातित मशीनों और प्रेस का दीगर सामान भी खरीद लाया। चौधरी का पूँजी निवेश था, मेरी सक्रिय भागीदारी और व्‍यवस्‍था की जिम्मेदारी। उसने मेरे माध्‍यम से अपना इस्‍तीफा भी भिजवा दिया जो तत्‍काल स्वीकार कर लिया गया। अब मेरा मन इस्‍तीफा देने के लिए मचल रहा था।

एक सुहानी सुबह मैं भी भारती जी के केबिन में जा कर अपना इस्‍तीफा पेश कर आया। भारती जी चौधरी की बलि से संतुष्‍ट हो गए थे, उन्‍हें शायद मेरे इस्‍तीफे की जरूरत या उम्‍मीद न थी, किसी को भी न थी। किसी को भी कयामत की उस रात की जानकारी न थी। भारती जी ने भी किसी से इसकी चर्चा न की थी, सिवाय टी.पी. झुनझुनवाला के, जो मुंबई के इनकम टैक्‍स कमिश्‍नर थे और जिनकी पत्‍नी शीला झुनझुनवाला समय काटने के लिए 'धर्मयुग' के महिला पृष्‍ठ देखा करती थीं। शीला जी की सीट मेरी बगल में ही थी और वे लंच में मलाई के मीठे टोस्‍ट खिलाया करती थीं। उन्‍होंने एक दिन धीरे से बताया था कि पिछले दिनों आधी रात को दो शराबी भारती जी के घर में घुस गए थे और वह सोच भी नहीं सकतीं कि उन शराबियों में से एक रवींद्र कालिया भी हो सकता है। उन्‍होंने यह भी बताया था कि भारती जी मुझसे नहीं चौधरी से बहुत खफा थे। शायद यही कारण था कि मेरा इस्‍तीफा पा कर भारती जी हक्‍के-बक्‍के रह गए। उन्‍होंने इस्‍तीफा पेपरवेट से दबा दिया और पूछा कि मैंने यह भी सोचा है कि इसके बाद क्‍या करूँगा।

'फारिग हो कर यह भी सोच लूँगा।' मैंने कहा।

भारती जी ने मेरे इस्‍तीफे पर तत्‍काल कोई निर्णय नहीं लिया। मैं छुट्‌टी की अर्जी दे कर नए अभियान में जुट गया। उतनी ही व्‍यस्‍त एक नई आजाद दिनचर्या शुरू हो गई। ठीक सुबह दस बजे टाई-वाई से लैस हो कर हाथ में ब्रीफकेस लिए मैं काम की तलाश में निकल जाता। अंधेरी पूर्व में ही छपाई का इतना काम मिल गया कि बाहर निकलने की नौबत न आई। मैंने पाया बड़े-बड़े औद्योगिक संस्‍थानों की स्‍टेशनरी दो कौड़ी की थी। लेटर हेड, विजिटिंग कार्ड एकदम पारंपरिक, देहाती और कल्‍पनाशून्‍य थे। मेरे पास टाइम्‍स ऑफ इंडिया का तजुर्बा था, वहाँ के कला विभाग के कलाकारों से मित्रता थी। मैंने इन संस्‍थानों की स्‍टेशनरी का आर्ट वर्क तैयार करवाया जो उनकी प्रचलित स्‍टेशनरी से कहीं अधिक कलात्‍मक और आकर्षक था। ज्यादा दौड़-भाग करने की जरूरत नहीं पड़ी, क्‍योंकि हमारे पास काम ज्यादा था कार्यक्षमता कहीं कम। हम लोग 'चोक' बनानेवाली जिस कंपनी का गारंटी कार्ड मुद्रित करते थे, अक्‍सर पिछड़ जाते। उनकी चोक उत्‍पादन की क्षमता हमारे गारंटी कार्ड मुद्रित करने से कहीं अधिक थी। तब तक बिजली का कनेक्‍शन भी मंजूर नहीं हुआ था। हाथ पैर से मशीनों का संचालन किया जाता। आठ बाई बारह इंच की एक नन्‍हीं सी लाइपजिक नाम की जर्मन ट्रेडिल मशीन भी थी, जिस पर मैं वक्‍त जरूरत विजिटिंग कार्ड वगैरह छाप लेता था।

प्रेस चलने लगा। 'शेड' का दाम भी आश्‍चर्यजनक रूप से बढ़ने लगा। बहुत जल्‍द असमान पूँजी निवेश के अंतर्विरोध उभरने लगे। ज्‍यादा समय नहीं बीता था कि जर, जोरू और जमीन का जहर संबंधों में घुलने लगा। 'धर्मयुग' से मैं जरूर स्‍वाधीन हो गया था, मगर यह एहसास होते भी देर न लगी कि पूँजी की भी एक पराधीनता होती है। वह नित नए-नए रूपों में अपना जलवा दिखाने लगी। मेरी उम्र और मेरी फितरत इसके प्रति भी विद्रोह करने लगी। तफसील या कटुता में न जा कर एक छवि का तीन दशक पहले के 'इस्‍टाइल' में जिक्र करना चाहूँगा, जो आज भी (तीन दशक बाद) जेहन में कौंध जाती है, जिस पर मैं आज भी फिदा हूँ। इस सादगी पर मैं क्‍या आप भी कुर्बान हो जाते अगर सुबह-सुबह पूरे दिनों की हामला एक सद्यस्‍नात स्त्री अचानक आपकी पत्‍नी की उपस्‍थिति में नमूदार हो जाए और शैंपू किए अपनी स्‍याह, लंबी और घनी केश राशि को अपने कपोलों से बार-बार हटाती रहे ताकि अश्रुधारा निर्बाध गति से प्रवाहित हो सके और वह राष्‍ट्रभाषा में इतना भी व्‍यक्‍त न कर पाए कि उसका पति परमेश्वर 'प्‍लग प्‍वाइंट' में अँगुलियाँ ठूँस कर आत्‍महत्‍या की धमकी दे रहा है क्‍योंकि उसे वहम हो गया है कि वह उसे कम और कालिया जी को ज्‍यादा चाहती है। 'प्‍लग प्‍वाइंट' में अंगुलियाँ उसका पति ठूँस रहा था मगर धक्‍का मुझे लगा। बाद की जिंदगी में ऐसे धक्‍के बारहा लगे और मैं 'शॉक प्रूफ' होता चला गया। धक्‍के खाते-खाते आदमी उनका भी अभ्‍यस्‍त हो जाता है, जाने मेरे कुंडली में ऐसा कौन-सा योग है कंपास की सुइयों की तरह शक की सुइयाँ अनायास ही मेरी दिशा में स्‍थिर हो जाती हैं।

जब से मैंने शराब से तौबा की है, मेरी कई समस्‍याओं का सहज ही समाधान हो गया है। अपनी प्रत्‍येक खामी, कमजोरी और असफलता को मयगुसारी के खाते में डाल कर मुक्‍त हो जाता हूँ। वास्‍तव में दो-चार पेग के बाद मेरे भीतर का 'क्‍लाउन' काफी सक्रिय हो जाता था। मेरे बेलौस मसखरेपन से दोस्‍तों की ऊबी हुई बीवियों का बहुत मनोरंजन होता था। यह दूसरी बात है कि इसकी मेरे दोस्‍तों को ही नहीं, मुझे भी भारी कीमत चुकानी पड़ी है। अब तो खैर मेरे हमप्‍याला दोस्‍तों ने अघोषित रूप से मेरा सामाजिक बहिष्‍कार कर रखा है। भूले-भटके अगर कोई मित्र मुझे महफिल में आमंत्रित करने की भूल कर बैठता है तो जल्‍द ही उसे अपनी गलती का एहसास हो जाता है, जब उसकी पत्‍नी भरी महफिल में उसे जलील करने लगती है कि कालिया जी शराब छोड़ सकते हैं तो आप क्‍यों नहीं छोड़ सकते। यही कारण है कि मैं ऐसी पार्टियों से अक्‍सर कन्‍नी काट जाता हूँ और संस्‍मरणात्‍मक लेखन से अपना और आपका समय नष्‍ट करने को अपनी सेहत के लिए ज्यादा मुफीद समझता हूँ। वरना शराब ने मुझे क्‍या-क्‍या नजारे नहीं दिखाए।

पूस की एक ठिठुरती रात तो भुलाए नहीं भूलती, जब लखनऊ में अचानक मेरे एक परम मित्र और मेजबान ने मुझे आधी रात फौरन से पेश्‍तर अपना घर छोड़ देने का निर्मम सुझाव दे डाला था। कुछ देर पहले हम लोग अच्‍छे दोस्‍तों की तरह मस्‍ती में दारू पी रहे थे। मेरे मित्र ने नया-नया स्‍टीरियो खरीदा था और हम लोग बेगम अख्‍तर को सुन रहे थे : 'अरे मयगुसारो सबेरे-सबेरे, खराबात के गिर्द घेरे पै घेरे' कि अचानक टेलीफोन की घंटी टनटनाई। फोन सुनते ही मेरे मित्र का नशा हिरन हो गया, वह बहुत असमंजस में कभी मेरी तरफ देखता और कभी अपनी बीवी की तरफ। उसके विभाग के प्रमुख सचिव का फोन था कि उसे अभी आधे घंटे के भीतर लखनऊ से दिल्‍ली रवाना होना है। उसने अपनी बीवी से सूटकेस तैयार करने के लिए कहा और कपड़े बदलने लगा। सूट-टाई से लैस हो कर उसने अचानक अत्यंत औपचारिक रूप से एक प्रश्‍न दाग दिया, 'मैं तो दिल्‍ली जा रहा हूँ इसी वक्त, तुम कहाँ जाओगे?'

'मैं कहाँ जाऊगा, यहीं रहूँगा।'

'मेरी गैरहाजिरी में यह संभव न होगा।'

'क्‍या बकवास कर रहे हो?'

'बहस के लिए मेरे पास समय नहीं है, किसी भी सूरत में मैं तुम्‍हें अकेला नहीं छोड़ सकता। इस वक्‍त तुम नशे में हो और मेरी बीवी खूबसूरत है, जवान है, मैं यह 'रिस्क' नहीं उठा सकता।'

वह मेरा बचपन का दोस्‍त था, हम लोग साथ-साथ बड़े हुए थे, क्रिकेट, हॉकी, बालीवाल और कबड्‌डी खेलते हुए। वह आई.ए.एस. में निकल गया और मैं मसिजीवी हो कर रह गया। हम लोग मिलते तो प्रायः नास्‍टेलजिक हो जाते, घंटों बचपन का उत्‍खनन करते, तितलियों के पीछे भागते, बर्र की टाँग पर धागा बाँध कर पतंग की तरह उड़ाते।

अभी तक मैं यही सोच रहा था कि वह मजाक कर रहा है, जब ड्राइवर ने आ कर खबर दी कि गाड़ी लग गई है तो मेरा माथा ठनका। मेरा मित्र घड़ी देखते हुए बोला, 'अब बहस का समय नहीं है। मुझे जो कहना था, कह चुका। उम्‍मीद है तुम मेरी मजबूरी को समझोगे और बुरा नहीं मानोगे।'

'साले तुम मेरा नहीं अपनी बीवी का अपमान कर रहे हो।' मैंने कहा और उसे विदा करने के इरादे से दालान तक चला आया। मेरे निकलते ही उसने बड़ी फुर्ती से कमरे पर ताला ठोंक दिया और चाभी अपनी बीवी की तरफ उछाल दी। उसकी पत्‍नी ने चाभी कैच करने की कोशिश नहीं की और वह छन्‍न से फर्श पर जा गिरी। वह हो-हो कर हँसने लगा।

मैं खून का घूँट पी कर चुपचाप सीढ़ियाँ उतर गया। मेरा सारा सामान भी अंदर बंद हो गया था। बाहर सड़क पर सन्‍नाटा था, कोहरा छाया हुआ था, कुत्‍ते रो रहे थे। उसकी गाड़ी दनदनाती हुई कोहरे मे विलुप्‍त हो गई।

लखनऊ के भूगोल का भी मुझे ज्यादा ज्ञान नहीं था। मेरे जेहन में मजाज़ की पंक्‍तियाँ कौंध रही थी -

ग़ैर की बस्‍ती है , कब तक दर-ब-दर मारा फिरूँ ,

ऐ ग़मे दिल क्‍या करूँ ऐ वहशते दिल क्‍या करूँ ?

अंधाधुंध शराबनोशी में मजाज भी लखनऊ की इन्‍हीं सड़कों पर बेतहाशा भटका था। वह भी पूस की ही एक रात थी, जब मजाज ने बुरी तरह शराब पी थी, दोस्‍त लोग उसे शराबखाने में खुली छत पर लावारिस छोड़ कर अपने-अपने घर लौट गए थे और मजाज़ रात भर खुली छत पर पड़ा रहा और सुबह तक उसका शरीर अकड़ गया था।

दिन में ही फोन पर कवि नरेश सक्‍सेना ने बताया था कि उसका तबादला लखनऊ हो गया है और नजदीक ही वजीर हसन रोड पर उसने घर लिया है। मुझे उसने सुबह नाश्‍ते पर आमंत्रित किया था। मैं आधी रात को ही नाश्‍ते की तलाश में निकल पड़ा, वजीर हसन रोड ज्यादा दूर नहीं था।

भटकते-भटकते मैंने उसका घर खोज ही निकाला। मैंने दरवाजा खटखटाया तो उसने ठिठुरते हुए दरवाजा खोला, 'अरे तुम इस समय, इतनी ठंड में?'

'मेरे नाश्‍ते का वक्‍त हो गया है।' मैंने कहा। भीतर पहुँच कर मुझे समझते देर न लगी कि जौनपुर से अभी उसका पूरा सामान नहीं आया था। वे लोग किसी तरह गद्‌दे और चादरें जोड़ कर बिस्‍तर में दुबके हुए थे। उन्‍हें देख कर लग रहा था कि बहुत ठंड है, मेरे भीतर शराब की गर्मी थी। मैं भी नरेश के साथ उसी बरायनाम रजाई में जा घुसा।

10-

'स्‍वाधीनता' मेरे लिए 'स्‍टिलबार्न बेबी' साबित हुई और मैं दुबारा सड़क पर आ गया। इस बीच श्रीमती शीला झुनझुनवाला ने भी 'धर्मयुग' छोड़ कर दिल्‍ली से एक महिलोपयोगी पत्रिका 'अंगजा' निकालने की योजना बनाई। उन्‍होंने दिल्‍ली चलने का प्रस्‍ताव रखा। एक नई विज्ञापन एजेंसी में कॉपी राइटर का काम मिलने की संभावना भी उजागर हुई, मगर मुझे लग रहा था मुंबई से मेरे तंबू-कनात उखड़ चुके हैं, दिल्ली भी तब तक इतनी निर्दयी, निर्मम और भ्रष्‍ट नहीं हुई थी। लेखकों में विदेश यात्रा और मदिरापान की इतनी ललक और लोलुपता नहीं थी, उन दिनों दिल्‍ली साहित्‍य की मंडी की तरह नहीं साहित्‍य की राजधानी की तरह विकसित हो रही थी। नामवर जी उन दिनों आलोचना के संपादक थे, उन्‍होंने पत्र लिख कर दिल्‍ली लौट आने का प्रस्‍ताव रखा :

प्रिय रवींद्र ,

' धर्मयुग ' छोड़ने की खबर से दुख तो हुआ , लेकिन आश्‍चर्य नहीं। मुंबई से आनेवाले दो-एक लोगों से मैंने तुम्‍हारी विडंबनापूर्ण स्‍थिति की बात सुनी थी और तब से मैं समझे बैठा था कि तुम्‍हारे जैसा स्‍वाभिमानी पुरुष ज्यादा दिन नहीं टिक सकता , खैर सवाल यह है कि अब क्‍या करोगे ? मेरा ख्‍याल है कि ममता नौकरी कर रही है। इसलिए कुछ दिनों के लिए तो ज्यादा परेशानी न होगी। लेकिन इस बीच काम तो ढूँढ़ना ही होगा। मुंबई में डौल न बैठे तो दिल्‍ली चले आना बेहतर होगा। यहाँ बेकारों की पल्‍टन काफी बड़ी है। इसलिए अपने अंदर किसी प्रकार की हीनता महसूस न होगी। फिर कौन जाने यहाँ तुम्‍हें कोई काम निकल ही आए।

..... नई कहानियाँ में तुम्‍हारी और ममता की टिप्‍पणियाँ पढ़ीं। बहरहाल आलोचना में ' युवा लेखन पर एक बहस ' शीर्षक पूरा संवाद ही देने जा रहा हूँ। इस बार ' वर्किंग पेपर ' मैं स्‍वयं लिखूँगा और आठ-दस लेखकों के पास भेज कर उनकी प्रतिक्रिया मँगवाऊँगा। जिसके जी में आए उस लेख की धज्‍जियाँ उड़ा दे - मैं सब छापूँगा। सोचता था , निबंध लिखने से पहले तुमसे भी कुछ बात हो जाती। क्‍या यह संभव हो सकेगा ? फिलहाल दिमाग पर यही भूत सवार है। ....अपने को किसी तरह निरुपाय न समझना।

स्‍नेह

नामवर सिंह

गर्दिश के उन दिनों में नामवर जी ही नहीं, अनेक मित्र मेरे भविष्‍य को ले कर चिंतित थे। हरीश भादानी, विश्‍वनाथ सचदेव, मेरा पूर्व मेजबान ओबी, उसके मित्र डेंगसन, जाड़िया, चन्‍नी, स्‍वर्ण, शुक्‍लाज, शिवेंद्र आदि का एक भरा-पूरा परिवार था। मुंबई में डेंगसन एक इलेक्ट्रॉनिक कंपनी के एरिया मैनेजर थे। वर्ली के बड़े से फ्लैट में अकेले रहते थे, पत्‍नी अमृतसर में एक मामूली-सी सरकारी नौकरी करती थी। पत्‍नी की छोटी-सी जिद थी कि जब तक डेंगसन दारू न छोड़ेंगे वह मुंबई नहीं आएगी, न नौकरी छोड़ेगी। वह डेंगसन के अंतिम संस्‍कार में भाग लेने ही मुंबई पहुँची। बीच सड़क में हृदयगति रुक जाने से डेंगसन का कार में ही आकस्‍मिक निधन हो गया था।

कांदिवली में काले हनुमान जी का एक मंदिर था, डेंगसन की उसमें गहरी आस्‍था थी। वह किसी भी मित्र को परेशानी में पाते तो अपनी कार में बैठा कर श्रद्धापूर्वक कांदिवली ले जाते। मौत से कुछ ही दिन पहले मुझे भी ले गए थे। मंदिर में एक अहिंदी भाषी महात्‍मा रहते थे। महात्‍मा जी ने मुझे देख कर एक पर्चे पर लिखा - नदी किनारे दूर का चानस। महात्‍मा केवल सूत्रों में बात करते थे, उसकी व्‍याख्‍या आप स्‍वयं कीजिए और करते जाइए। जल्‍द ही समय अपनी व्‍याख्‍या भी प्रस्‍तुत कर देता था। मेरे सामने भी सूत्र वाक्‍य के अर्थ खुलने लगे। कुछ दिनों बाद स्‍पष्‍ट हुआ कि नदी किनारे का अर्थ था संगम यानी गंगा-जमुना का तट और दूर का मतलब निकला इलाहाबाद। सन 69 के अंतिम दिनों में मेरा इलाहाबाद आ बसना भी एक चमत्‍कार की तरह हुआ। अभी हाल में मैंने कन्‍हैया लाल नंदन पर संस्‍मरण लिखते हुए उन दिनों की याद ताजा की है। ऐसा नहीं था कि मेरी मित्रता सिर्फ पीने-पिलानेवाले लोगों से रही है। मेरे मित्रों में नंदन जी जैसे सूफी भी रहे हैं, जिन्‍होंने कभी सिगरेट का कश भी न लिया होगा।

बहुत जल्‍द नंदन जी का गोरेगाँव का संसार भी मेरा संसार हो गया था। उनके तमाम मित्र मेरे मित्र हो गए। वह सुखदेव शुक्‍ल हों (अब दिवंगत) या, पंचरत्न, मित्तल। मनमोहन सरल तो खैर दफ्तर के सहयोगी ही थे। शुक्‍लाज से मेरी दोस्‍ती उनकी साहित्‍यिक रुचि के कारण ही नहीं बल्‍कि इसलिए भी हो गई कि (डॉ.) मिसेज उमा शुक्‍ला चाय बहुत अच्‍छी बनाती थीं और इतवार को अक्‍सर मैं सुबह-सुबह पराँठे खाने उनके यहाँ पहुँच जाता। मैं शिवाजी पार्क में रहता था मगर मेरा खाली समय गोरेगाँव में ही बीतता। गोरेगाँव पहुँच कर लगता था, अपने परिवार के बीच पहुँच गया हूँ। सब लोग दफ्तर को दफ्तर में भूल आते थे, मगर नंदन जी अपने ब्रीफकेस में कुछ और परेशानियाँ कुछ और उदासी, कुछ और अवसाद भर लाते। ट्रेन में वह दुष्‍यंत की पंक्‍तियाँ गुनगुनाते घर लौट आते :

कुछ भी नहीं था मेरे पास ,

मेरे हाथों में न कोई हथियार था ,

न देह पर कवच ,

बचने की कोई भी सूरत नहीं थी ,

एक मामूली आदमी की तरह ,

चक्रव्‍यूह में फँस कर ,

मैंने प्रहार नहीं किया , सिर्फ चोटें सहीं ,

अब मेरे कोमल व्‍यक्‍तित्‍व को ,

प्रहारों ने कड़ा कर दिया है।

जिन दिनों मैंने 'धर्मयुग' से त्‍यागपत्र दिया था, नंदन जी बीमार थे। वह उन दिनों 'प्‍लूरसी' के इलाज के सिलसिले में किसी हेल्‍थ रिजॉर्ट पर गए हुए थे। छुट्‌टी से लौटे तो दफ्तर का माहौल बदला-बदला-सा लगा। मेरी और चौधरी की कुर्सी पर प्रशिक्षु पत्रकार जमे थे। हम लोगों के विद्रोह से हाल में एक सनसनी फैल गई थी और कयामत की उस रात के कई संस्‍मरण प्रचारित-प्रसारित हो रहे थे। साथी लोग उसमें अनवरत संशोधन, परिवर्द्धन और परिवर्तन कर रहे थे। छुट्‌टी से लौटने पर नंदन जी ने भी यह किस्‍सा सुना। कोई विश्‍वास ही नहीं कर सकता था कि उस दफ्तर में भारती जी को कोई चुनौती दे सकता था। यह सुन कर तो वह विह्वल हो गए कि मैंने नंदन के खिलाफ किसी भी षड्‌यंत्र में शामिल होने से साफ इनकार कर दिया था। नंदन जी उसी तारीख सपत्‍नीक अंधेरी पहुँचे। वह बहुत भावुक हो रहे थे। उनकी आँखें नम हो रही थीं और वह देर तक मेरा हाथ थामे बैठे रहे। वह मेरे भविष्‍य को ले कर मुझसे ज्‍यादा चिंतित थे। उन्‍हें अफसोस इस बात का था कि यह सारा खेल उनकी अनुपस्‍थिति में हो गया। उनकी राय थी कि हम लोगों को इस्‍तीफा देने की जरूरत नहीं थी, व्‍यवस्‍था में रहते हुए उसका विरोध करना चहिए था। नंदन जी ने यही मार्ग चुना था और उसकी परिणति उनके चेहरे से झलक रही थी, वह प्‍लूरसी के शिकार हो गए थे। तब तक भारती जी ने मेरा इस्‍तीफा मंजूर नहीं किया था। मैं चूँकि 'कन्‍फर्म' हो चुका था, नियमानुसार मुझे तीन महीने तक कार्यमुक्‍त नहीं किया गया। इसी दौरान उन्‍होंने ममता को कॉलिज यह संदेश भी भिजवाया था कि मैं अपना इस्‍तीफा वापस ले लूँ। उन्‍हें लग रहा था कि यह अव्‍यवहारिक कदम मैंने शराब के नशे में उठाया था। सच तो यह था कि उस दमघोंटू माहौल से मैं किसी भी मूल्‍य पर मुक्‍ति चाहता था। अगर मैंने नशे के अतिरेक में यह कदम उठाया होता तो मैं अपने इस्‍तीफे पर पुनर्विचार कर सकता था। फिलहाल मेरे पास लेखन के अलावा कोई दूसरा विकल्‍प नहीं था। उन्‍हीं दिनों मैंने एक लंबी कहानी लिखी - 'चाल'। अपने समय में वह खूब चर्चित हुई। इस कहानी पर अश्क जी का एक लंबा पत्र भी मुझे प्राप्‍त हुआ। उन्‍होंने इस कहानी को ज्ञानरंजन की 'बहिर्गमन' से श्रेष्‍ठ कहानी सिद्ध किया था। पत्र कुछ इस प्रकार शुरू होता है :

' प्रिय कालिया ,

......बहरहाल , यह तय है कि ' चाल ' अपने ' रफ वर्शन ' में भी वैसी बुरी कहानी नहीं थी और पुस्तक में उसका जो रूप छपा है , वह काफी सुधारा हुआ है। मैं अपनी बात को यों रखना चाहूँगा कि यदि मुझे ' चाल ' और ' बहिर्गमन ' में से बेहतर कहानी चुननी हो तो मैं चाल को चुनूँगा , उसके तमाम दोषों के बावजूद! ' घंटा ' को और यदि ' घंटा ' और ' चाल ' में से , ' घंटा ' और ' काला रजिस्टर ' में से मुझे एक को चुनना पड़े तो मैं चुनाव नहीं कर पाऊँगा , क्योंकि मेरे निकट दोनों एक-सी उत्कृष्ट रचनाएँ हैं। '

अब इतने वर्षों बाद मुंबई में जिंदगी ने मुझे दुबारा सड़क पर ला पटका था। दोस्‍त लोग भी मुझे कोस रहे थे मैंने चौधरी के झाँसे में आ कर अच्‍छी-खासी नौकरी को लात मार दी। नंदन जी रात को इसलिए मिलने आए थे कि दिन के उजाले में बागियों से मिलना खतरनाक साबित हो सकता था। इतनी बड़ी मुंबई में भी उन्हें लगता था, चप्‍पे-चप्‍पे पर धर्मवीर भारती के जासूस छाए हुए है। छूटते ही नंदन जी ने पूछा, 'इलाहाबाद जाओगे?'

'इलाहाबाद में क्‍या है?'

'हिंदी भवन' का प्रेस बिकाऊ है। वह किसी विश्‍वास के आदमी को ही सौंपना चाहते हैं ताकि उनके प्रकाशन का मुद्रण कार्य चलता रहे।'

हिंदी भवन का नाम सुनते ही मेरी स्‍मृतियाँ ताजा हो गईं। अपनी करतूतें मैं भूला नहीं था।

छात्र जीवन से ही मुझे पढ़ने-लिखने की और दारू की लत लग गई थी। मेरी दोनों जरूरतें हिंदी भवन से ही पूरी होती थीं। उन दिनों समूचे पंजाब में हिंदी पुस्‍तकें केवल 'हिंदी भवन' पर उपलब्‍ध होती थीं। मोहन राकेश के संपर्क में आ कर मैंने यह बात अच्‍छी तरह समझ ली थी कि लेखकों को तीन चीजों यानी पत्‍नी, नौकरी, और प्रकाशक का चुनाव अत्यंत सावधानी और सूझबूझ से करना चाहिए जो लेखक इन तीन मसलों पर विवेक से नहीं, भावुकता से काम लेते हैं, वे फिर जीवन भर भटकते ही रहते हैं। उन्‍हें शराब या किसी दूसरे नशे की लत पड़ जाती है, उनका जीवन कभी पत्‍नी, कभी नौकरी और कभी प्रकाशक बदलने में ही नष्‍ट हो जाता है (मेरी बात का कदापि यह अर्थ न लगाया जाए कि जो लेखक पत्‍नी, नौकरी और प्रकाशक नहीं बदलते, उनका जीवन नष्‍ट नहीं होता)। लेखन एक ऐसा पेशा है कि इसमें ज्‍यादा विकल्‍प भी नहीं होते। फ़ैज़ जैसे पाए के लेखक को भी इस नतीजे पर पहुँचना पड़ा कि :

फ़ैज़ होता रहे जो होना है

शेर लिखते रहा करो बैठे

मैंने बहुत पहले फ़ैज़ की राय गाँठ बाँध ली थी और अपने को खुश्‍क पत्‍तों की तरह हवाओं के हवाले कर दिया था। एक रास्‍ता बंद होता तो दूसरा अपने आप खुल जाता, जबकि जिंदगी बार-बार यही एहसास कराती रही है कि 'रास्‍ते बंद हैं सब, कूच-ए-क़ातिल के सिवा।' मेरे जीवन में ग़ालिब का यह शेर भी बार-बार चरितार्थ होता रहा है कि 'कर्ज की पीते थे मय और समझते थे कि हाँ रंग लाएगी हमारी फ़ाकामस्‍ती एक दिन।' आप विश्वास न करेंगे, मगर मेरी बात मान लीजिए कि मुझे पहली नौकरी कर्ज की मय और फाकामस्‍ती ने ही दिलवाई थी। अगर मेरे ऊपर 'मय का कर्ज' न होता तो यकीनन मुझे एम.ए. पास करते ही यों आसानी से नौकरी न मिल जाती। मुझे नौकरी दिलवाने के लिए उन लोगों को ज्यादा दौड़-भाग करनी पड़ी, जिनकी मय के कर्ज से मैं आकंठ डूबा हुआ था।

'तुम हाँ करो तो बात आगे बढ़ाऊँ।' नंदन जी ने तफसील से बताया कि इलाहाबाद में हिंदी भवन का एक प्रेस है। प्रेस में केवल हिंदी भवन की पुस्‍तकें मुद्रित होती हैं, इसी उद्‌देश्‍य से प्रेस की स्‍थापना की गई थी ताकि मुद्रण के लिए इधर-उधर न भटकना पड़े। यह भी मालूम हुआ कि छात्र जीवन से ही नंदन जी का हिंदी भवन से घनिष्‍ठ संबंध रहा है। वे हिंदी भवन की पुस्‍तकों के डस्‍ट कवर बना कर अपनी फीस का प्रबंध किया करते थे। कितनी विरोधाभासपूर्ण स्‍थितियों में नंदन जी का और मेरा छात्र जीवन गुजरा था। हिंदी भवन इलाहाबाद उनके लिए फीस का प्रबंध करता था मेरे लिए बियर का। दोनों का अपना-अपना जुगाड़ था। अपना-अपना भाग्‍य था।

नंदन जी ने यह भी बताया कि हिंदी भवन के संचालक नारंग बंधु अब वृद्ध हो गए हैं, और धीरे-धीरे काम समेटना चाहते हैं, वे ऐसे कर्मठ नौजवान की तलाश में हैं जो जिम्‍मेदारी से प्रेस का संचालन कर सके। हिंदी भवन का मुख्‍य कार्यालय जालंधर में है जहाँ इंद्रचंद्र जी के बड़े भाई धर्मचंद्र नारंग हिंदी भवन का संचालन करते हैं। दोनों भाइयों की सहमति हो गई तो प्रेस आसान किस्‍तों पर मिल सकता था।

धर्मचंद्र नारंग का नाम सुनते ही मेरा माथा ठनका। मैंने कहा, 'धर्मचंद्र जी को मैं बहुत अच्‍छी तरह से जानता हूँ। मगर हो सकता है मेरे बारे में उनकी राय बहुत अच्‍छी न हो।'

मैंने विस्‍तार से नंदन जी को 'हिंदी भवन' से उधार पुस्‍तकें खरीदनें और उन्‍हें औने-पौने दाम में बेच कर बियर पी जाने का किस्‍सा सुनाया। मेरी कारगुजारियाँ सुन कर नंदन जी को बहुत धक्‍का लगा। उन्‍हें लगा कि बना-बनाया खेल बिगड़ गया है। अब नारंग बंधुओं से आगे की बात चलाना व्‍यर्थ होगा।

'नारंग बंधु बहुत आदर्शवादी लोग हैं। स्‍वाधीनता आंदोलन में भी इस परिवार की सक्रिय भूमिका रही थी। भगत सिंह से भी इन लोगों के आत्‍मीय संबध थे। तुमने उधार न चुकाया होगा तो वह कभी किस्‍तों पर प्रेस देने को तैयार न होंगे।'

'कर्ज तो मैंने चुका दिया था। यह दूसरी बात है कि कर्ज वसूलने के लिए नारंग जी को मुझे नौकरी दिलवानी पड़ी थी।'

उन दिनों लेक्‍चरर को कुल जमा दो सौ सत्‍तर रुपए मिलते थे। मैंने एक अकलमंदी की थी कि पहली तारीख को मैंने अपनी समूची तनख्‍वाह नारंग जी को सौंप दी थी। उन्‍होंने मुझ पर तरस खा कर मुझे पचास रूपये जेब खर्च के लिए लौटा दिए थे और शेष रकम मेरे हिसाब में जमा कर ली। अगले ही महीने मैं ऋणमुक्‍त हो गया था। यह सुन कर नंदन जी कुछ आश्‍वस्‍त हुए। उनके चेहरे का तनाव कुछ कम हुआ, 'तब तो बात आगे बढ़ाई जा सकती है।' और नंदन जी अगले रोज से बात बनाने में व्‍यस्‍त हो गए।

अंततः तय हुआ कि इलाहाबाद जा कर प्रेस देखा जाए और संभावनाएँ तलाशी जाएँ। मैं तो आजाद पंछी था, नंदन जी को छुट्‌टी लेने के लिए पिता की मिजाजपुर्सी के लिए गाँव जाने का बहाना करना पड़ा था। 'धर्मयुग' में छुट्‌टी मिलना वैसे ही कठिन होता था, नंदन जी के लिए तो और भी कठिन। भारती जी न छुट्‌टी लेते थे न देते थे। वह पूर्णरूप से 'धर्मयुग' को समर्पित थे। उसे ओढ़ते थे और उसे ही बिछाते थे। कई बार तो कोई शंका हो जाने पर आधी रात को उठ कर प्रेस चले जाते। एक बार गिंजबर्ग के संदर्भ में मैंने अपने पृष्‍ठ पर अमूर्त्त किस्‍म का एक न्‍यूड विजुअल छपने भेज दिया था, भारती जी का मन नहीं माना और उन्‍होंने आधी रात को प्रेस जा कर मशीन रुकवा दी। मशीन का एक-एक मिनट कीमती माना जाता था और भारती जी ने बहुत देर के लिए मशीन रुकवा दी थी, सिलेंडर पर से वह चित्र घिसवाना पड़ा था। उन दिनों मुद्रण कार्य आज की तरह आसान नहीं था, फोटो एंग्रेवर की बहुत जटिल प्रक्रिया होती थी। हफ्‍तों भारती जी की मैनेजमेंट से मशीन रुकवाने को ले कर चख-चख चलती रही।

बहरहाल, इलाहाबाद के लिए छद्‌म नाम से दो सीटें आरक्षित करवाई गईं। कोशिश यही थी कि नंदन जी और मुझे कोई जासूस साथ-साथ न देख ले। मैं तो बागी करार दिया जा चुका था और बागी को प्रश्रय देना और उसके साथ-साथ घूमना उतना ही बड़ा अपराध था, जितना अंग्रेजों के समय में रहा होगा या इंडियन पीनल कोड में आज भी है। उन्‍हीं दिनों किसी ने नंदन जी और मुझे किसी फिल्‍म के बाद साथ-साथ थियेटर की सीढ़ियाँ उतरते देख लिया था और नंदन जी जवाब-तलब हो गए थे और यह तो एक हजार किलोमीटर से भी लंबी यात्रा थी। कल्‍याण तक तो हम लोगों ने एक-दूसरे से बात तक न की। तमाम एहतियाती कदम उठाए गए। यात्रा तो सही-सलामत कट गई, लेकिन इलाहाबाद स्‍टेशन पर एक हादसा पेश आते-आते रह गया। हम लोग ट्रेन से उतर रहे थे कि सामने ओंकारनाथ श्रीवास्‍तव दिखाई पड़ गए। उनके साथ कीर्ति चौधरी थीं। भारती जी और 'धर्मयुग' से यह लेखक दंपति जुड़े थे। भारती जी के यहाँ उनसे परिचय हुआ था। उन्‍हें देखते ही हम लोगों की सिट्‌टी-पिट्‌टी गुम हो गई और हम लोग स्‍वाधीनता सेनानियों की तरह पुलिस को चकमा देते हुए अलग-अलग दिशा में चल दिए। मैं पटरियाँ फलाँगते हुए एक नंबर प्‍लेटफार्म पर जा पहुँचा। मुझे तो कोई फर्क न पड़ता मगर नंदन जी के साथ मुझे इलाहाबाद स्‍टेशन पर देखने की खबर भारती जी को मिलती तो नंदन जी के लिए संकट खड़ा हो जाता। इलाहाबाद से भारती जी पहले ही बहुत सशंकित रहते थे। भावनात्‍मक रूप से वह इलाहाबाद से जुड़े थे, मगर इलाहाबाद के लेखकों पर से उनका विश्‍वास उठ चुका था। केशवचंद्र वर्मा उन्‍हें इलाहाबाद का कच्‍चा-चिट्‌ठा लिखते रहते थे। यह दूसरी बात है कि पुष्‍पा जी जब भारती जी की अस्‍थियाँ ले कर इलाहाबाद आईं तो उनकी अस्‍थियों के दर्शन के लिए पूरा इलाहाबाद उमड़ आया था। भारती जी एक बार इलाहाबाद से गए तो दुबारा कभी नहीं लौटे, लौटीं तो उनकी अस्‍थियाँ। मैंने साप्ताहिक 'गंगा यमुना' में प्रथम पृष्‍ठ पर शीर्षक दिया :

मुट्‌ठी भर फूल बन कर प्रयाग लौटे धर्मवीर भारती।

मैं बहुत देर तक एक नं. प्‍लेटफार्म पर नंदन जी की प्रतीक्षा करता रहा। बहुत देर बाद जब प्‍लेटफार्म लगभग खाली हो गया तो नंदन जी कुली के पीछे खरामा-खरामा चलते नजर आए। रानी मंडी स्‍टेशन के पास ही था। स्‍टेशन से रिक्‍शा में रानी मंडी पहुँचने में पाँच मिनट भी न लगे।

हम लोग प्रेस पहुँचे तो देखा नारंग जी अत्‍यंत तल्‍लीनता से मशीन प्रूफ पढ़ रहे थे। बीच-बीच में वह मैग्‍नीफाइंग ग्‍लास की मदद भी लेते। हमें देख कर उनके चेहरे पर कोई प्रतिक्रिया न हुई। हम लोग मेज के सामने पड़ी कुर्सियों पर बैठ गए। मुझे लगा, नारंग जी को मेरी कारस्‍तानियों की भनक लग चुकी है और वह जानबूझ कर हमारी उपेक्षा कर रहे हैं। नंदन जी प्रेस के तमाम कर्मचारियों से परिचित थे, उन्‍होंने बद्री को चाय-नाश्‍ते का इंतजाम करने के लिए कहा। नारंग जी ने जब तक पूरा फार्म न पढ़ लिया, हम लोगों की तरफ आँख उठा कर न देखा। मैं नारंग जी के बड़े भाई से परिचित था, वह भी बहुत कम बोलते थे, मगर वह चुप्‍पी के भीतर से बहुत कुछ कह देते थे। मुझे दोनों भाइयों में कोई समानता नजर नहीं आ रही थी। धर्मचंद्र जी कमीज-पतलून पहनते थे और इंद्रचंद्र जी का लिबास शुद्ध गांधीवादी था यानी खादी का धोती-कुर्ता। देखने में भी वह अपने बड़े भाई से बड़े लगते थे।

इस बीच नाश्‍ता आ गया। हम लोगों ने ऊपर जा कर नाश्‍ता किया। नंदन जी मुझे धीरे से बता चुके थे कि जब तक नारंग जी प्रूफ न निपटा लेंगे किसी से बात न करेंगे। 'धर्मयुग' में मैं भी अपने पृष्‍ठों के प्रूफ पढ़ता था, मगर बिना किसी तनाव के। इतनी एकाग्रता भी दरकार न थी। प्रूफ निपटा कर नारंग जी ऊपर आए, जैसे कोई महत्‍वपूर्ण और जटिल आपरेशन करके फारिग हुए हों।

नाश्‍ते के बाद बिना एक भी क्षण नष्‍ट किए नारंग जी उठ खड़े हुए और बोले, 'आइए आपको प्रेस दिखा दूँ।' हम लोगों ने मशीनें देखीं, जबकि लेटर प्रेस की मशीनों की न मुझे कोई जानकारी थी, न नंदन जी को। नारंग जी हर काम नियामानुसार करते थे। दस श्रमिकों से फैक्‍टरी एक्‍ट लागू हो सकता था, वह नौ श्रमिकों से काम लेते थे। दो मशीनें थीं, दोनों निःशब्‍द चल रही थीं। छह कंपोजिटर थे, सब चुपचाप कंपोजिंग कर रहे थे। गजब का अनुशासन और सन्‍नाटा था। अगर बीच का दरवाजा बंद कर दिया जाए तो कोई अनुमान नहीं लगा सकता था कि भीतर नौ आदमी काम कर रहे हैं या मशीनें चल रही हैं। सब कुछ चुस्त-दुरुस्‍त और व्‍यवस्‍थित था।

'मेरी भाई साहब से बात हो गई है, वह राजी हो गए हैं।' नारंग जी ने अपनी सीट पर बैठते हुए नंदन जी से पूछा, 'आपको मालूम है, मैं सीट पर गद्‌दी क्‍यों रखता हूँ?'

हम दोनों ने अनभिज्ञता में सिर हिलाया। नारंग जी ने बताया कि वह किसी सुविधा या आराम के लिए सीट पर गद्‌दी नहीं रखते, बल्‍कि इसलिए रखते हैं कि इससे बेंत जल्‍दी नहीं टूटती।

नारंग जी ने एक ड्राअर से एक मोटी फाइल निकाली। उसमें प्रेस संबंधी सब दस्‍तावेज थे - मशीनों के मूल बिल, सामान की लंबी फेहरिस्त, रजिस्‍ट्रेशन के तमाम कागजात। फाइल पलटते हुए उन्‍होंने 'डासन पेन एंड इलियट' कंपनी का पूरा इतिहास भी बता डाला, जिनसे उन्‍होंने मशीनें आयात की थीं। बगैर किसी भूमिका के उन्‍होंने अपनी शर्तें भी रख दीं - 'दस हजार रुपए आपको अग्रिम देने होंगे, शेष रकम का भुगतान छत्‍तीस मासिक किस्‍तों में करना होगा। आप जब पैसे का इंतजाम कर लें, प्रेस सँभाल लें। इस बीच मैं वकील से कागजात तैयार करवा लूँगा।'

'मैं तो प्रेस के काम के बारे में कुछ भी नहीं जानता।' मैंने कहा।

'सब जान जाएँगे। उसका भी मैं इंतजाम कर दूँगा।' नारंग जी ने कहा, 'यहाँ हिंदी साहित्‍य सम्‍मेलन का एक बड़ा लैटर प्रेस है। विचित्र जी उसके प्रबंधक हैं। मैं लाहौर से उन्‍हें जानता हूँ। आप उनसे मिल लें, मेरा हवाला दे दें, वह आपको महीने भर में प्रेस के सब दाँव-पेंच समझा देंगे।'

ये सब बाद की बातें थीं। फिलहाल तो मुझे अपने हिस्‍से के पाँच हजार रुपयों की चिंता हो गई, जो आज से पैंतीस साल पहले काफी बड़ी रकम थी, जब सोने का दाम सवा सौ रुपए तोले था। मैंने सोचा, इसके बारे में जिन पी कर ही विचार किया जा सकता है। लौटते हुए मैंने एक जगह रिक्‍शा रुकवाया और चौक में मदन स्‍टोर से लाइम कार्डियल की एक बोतल खरीदी जिन की बोतल मेरे सूटकेस में थी। मुझे बहुत ताज्‍जुब हुआ जब मदन स्‍टोर ने रिक्‍शावाले को ग्राहक लाने के लिए मेरे सामने एक रुपया बख्‍शीश में दे दिया। ऐसा तो मैंने किसी शहर में नहीं देखा था।

पाँच हजार रुपयों के इंतजाम की उधेड़बुन में मैं मुंबई पहुँचा, मुझे आभास भी नहीं था कि मुंबई पहुँचते ही मेरी समस्‍या का कोई चमत्‍कारिक हल निकल आएगा। उन दिनों मैं हरीश भादानी की पत्रिका 'वातायन' के लिए नियमित रूप से स्‍तंभ लेखन करता था। 'वातायन' के पृष्‍ठों पर मैंने काफी आग उगली थी। ओमप्रकाश निर्मल ने प्रतिक्रिया स्‍वरूप एक लंबा पत्र भेजा था। उन्‍हें मेरा तेवर पसंद था, मगर लोहियावादियों के बारे में की गई टिप्‍पणियों पर एतराज था। हरीश भादानी और विश्‍वनाथ सचदेव से अक्‍सर भेंट होती रहती थी। मैंने इन मित्रों को अपनी समस्या बताई तो भादानी और विश्‍वनाथ ने चुटकियों में पैसे का इंतजाम कर दिया। अगले रोज वे लोग मुझे अपने एक मारवाड़ी उद्योगपति मित्र के यहाँ ले गए और उन्‍होंने इससे पहले कि हम कुछ कहते टेलीफोन पर बात करते-करते तिजोरी खोली और पाँच हजार रुपए मुझे सौंप दिए। सेठ जी एक टेलीफोन रखते तो दूसरा टनटनाने लगता। उनके पास शुक्रिया कुबूल करने का भी समय नहीं था। इशारों से ही अभिवादन करते हुए उन्‍होंने हम लोगों को विदा कर दिया। मैं आज तक नहीं जान पाया कि वह दानवीर कर्ण कौन था। गत पैंतीस वर्षों से हरीश भादानी से भी मेरी भेंट हुई, न पत्राचार। बहुत बाद में मार्कंडेय जी ने बताया था कि संसद सदस्‍या सरला माहेश्‍वरी हरीश भादानी की पुत्री हैं और अरुण माहेश्‍वरी दामाद।

रुपयों का इंतजाम होते ही मैं बोरिया-बिस्‍तर उठा कर इलाहाबाद चला आया। एक तरह से मुंबई ने मुझे दक्षिणा दे कर विदा कर दिया था। ममता की व्‍यवस्‍था चर्चगेट स्‍थित विश्‍वविद्यालय के छात्रावास में हो गई। मैंने इलाहाबाद में अश्क जी के यहाँ लंगर डाल दिए और संघर्ष के लिए कमर कस ली। ज्ञान उन दिनों इलाहाबाद में ही था। उसकी पीने में ज्यादा दिलचस्‍पी न थी, खाने में थी। गर्भवती महिलाओं की तरह उसका मन कभी खट्‌टी और कभी मीठी चीजों के लिए मचलता रहता। लोकनाथ की लस्‍सी पी कर ही वह नशे में आ जाता। कोई काम न होता तो ज्ञान, नीलाभ और मैं इलाहाबाद की सड़कें नापते। इलाहाबाद के खुले इलाके की सड़कें बहुत आकर्षित करतीं। नीम के पत्‍ते झरते तो सड़कें पीली हो जातीं, जैसे पत्‍तों की सेज बिछ गई हो।

नारंग जी अत्‍यंत कठोर अनुशासन के व्‍यक्‍ति थे। घड़ी का काँटा देख कर काम करते थे। दिन भर काम में जुटे रहते और पाँच बजते ही ताला ठोंक कर टैगोर टाउन के लिए चल देते। एक बार तो जल्‍दबाजी में एक कर्मचारी रातभर के लिए प्रेस में ही बंद रह गया था। उनकी हर चीज पूर्व निर्धारित थी, यहाँ तक कि रिक्‍शा का भाड़ा भी। एक दिन उन्‍होंने हिचकिचाते हुए बताया कि इलाचंद्र जोशी से किसी प्रकाशक ने कहा है कि उन्‍होंने मुंबई के जिस लेखक के हाथ प्रेस का सौदा किया है वह जबरदस्‍त ऐय्याश है, किस्‍तें क्‍या अदा करेगा, धीरे-धीरे प्रेस खा-पी जाएगा। बाद में उस प्रकाशक से मेरी भी मित्रता हो गई, उसने हिंदी भवन द्वारा प्रकाशित इलाचंद्र जोशी के उपन्‍यास ही नहीं, मेरी तमाम पुस्‍तकें भी प्रकाशित कीं। उन दिनों मेरे सामने अपने अस्‍तित्‍व का सवाल ही मुँह बाए खड़ा था, पीना तो दरकिनार, खाने के लाले पड़े हुए थे। मेरा हिंदी साहित्‍य सम्‍मेलन में विचित्र जी की देखरेख में प्रशिक्षण शुरू हो गया। नारंग जी की शर्तें इतनी कड़ी थीं कि मैं कोई जोखिम उठा ही नहीं सकता था। समय पर किस्‍त न चुकाने पर सूद की दर दुगुनी हो जाने का प्रावधान था। प्रेस और कर्ज का जुआ मेरे कंधों पर गिरने ही वाला था; मैं पूरा ध्‍यान लगा कर विचित्र जी से गुरुमंत्र ले रहा था।

विचित्र जी सचमुच विचित्र शख्‍सियत के मालिक थे। लंबा तगड़ा बलिष्‍ठ शरीर, मुँहफट, मलंग, फक्‍कड़, मगर गजब के स्‍वाभिमानी। नाराज हो जाते तो गाली बकने लगते और खुश हो जाते तो कर्मचारी को रम की बोतल थमा देते - जा ऐश कर। सबेरे घंटों हवन करते, शाम को गोश्‍त भूनते और जम कर मदिरापान करते। उनका पूरा व्‍यक्‍तित्‍व एक ऋषि की मानिंद था। सम्‍मेलन के पदाधिकारियों से वह पदाधिकारी की तरह पेश आते और मजदूरों के बीच मजदूरों-सा व्‍यवहार करते। जी में आता तो लोकगीत गाते हुए मशीन चलाने लगते। विचित्र जी की किसी भी बात का कोई बुरा न मानता था। वह उम्र में मुझसे काफी बड़े थे, मगर मेरी उनसे छनने लगी। उनका बड़ा बेटा इंडियन फारेन सर्विस में था। जापान में भारत के दूतावास में वरिष्‍ठ अधिकारी। अचानक एक सड़क दुर्घटना में उसकी मृत्‍यु हो गई। अखबार में यह समाचार पढ़ कर मैं अफसोस करने उनके यहाँ गया तो वह हस्‍बेमामूल दारू पीते हुए गोश्‍त भून रहे थे। उनकी पत्‍नी सलाद काट रही थीं।

'होनी को कोई भी नहीं टाल सकता।' उन्‍होंने मेरा पेग तैयार करते हुए कहा, 'बहू की अभी उमर ही क्‍या है? मैंने उससे कह दिया है कि वह दूसरी शादी के बारे में सोचे, पढ़ी-लिखी योग्‍य लड़की है, अपने लिए जरूर कोई लड़का ढूँढ़ लेगी।'

विचित्र जी बेटे के बचपन में खो गए। उन्‍हें याद आया कि कैसे उन्‍होंने एक बार उसके जन्‍मदिवस पर छुट्‌टी के रोज दुकान खुलवा कर उसे तिपहिया साइकिल दिलवाई थी। वे देर तक मेरी तरफ पीठ करके गोश्‍त भूनते रहे। उनका जाम गैस के पास जस का तस भरा रखा था। मैं भी घूँट नहीं भर पाया। सहसा उनकी पत्‍नी उठ कर दूसरे कमरे चली गईं। संभ्रांत और बहादुर लोग मातम में भी शालीन बने रहते हैं। विचित्र जी और कुछ भी हों, संभ्रांत तो नहीं थे। ऐसा बीहड़ आदमी जीवन में दुबारा नहीं मिलता। बाद में वह दिल्‍ली चले गए और किसी प्रेस के काम से बिक्री-कर कार्यालय में काम करते हुए हृदयगति रुक जाने से इस दुनिया से रुख्‍सत हो गए।

मैं इलाहाबाद क्‍या आया, इलाहाबाद का ही हो कर रह गया।

11-

'अगर जन्‍नत का रास्ता इलाहाबाद से हो कर जाएगा तो मैं जहन्‍नुम में जाना ज्‍यादा पसंद करूँगा।' मिर्ज़ा ग़ालिब ने अपने एक खत में इलाहाबाद के बारे में अपनी राय जाहिर की थी। मिर्ज़ा बरास्‍ता इलाहाबाद बनारस गए थे, मालूम नहीं कि इलाहाबाद ने उनके साथ कैसा सुलूक किया था कि वह इलाहाबाद से खौफ खाने लगे थे। उन्‍होंने एक शेर में अर्ज किया कि 'हज़र अज़ फितन ए इलाहाबाद' यानी इलाहाबाद के फितनों से खुदा मुझे पनाह दे। इलाहाबाद आने से पहले मैंने 'फितना' शब्‍द नहीं सुना था। अश्क जी इसका खुल कर इस्‍तेमाल करते थे। उनकी नजर में सन साठ के बाद की पीढ़ी के अधिसंख्‍य कथाकार फितना थे। इस शब्‍द की ध्‍वनि ही कुछ ऐसी है कि सुनने पर गाली का एहसास होता है। लुगात में इसका अर्थ देखा तो अश्क जी की ही नहीं मिर्ज़ा ग़ालिब की बात भी समझ में आ गई। फितना का अर्थ होता है, लगाई-बुझाई अथवा साजिश करनेवाला, दंगाई, नटखट, षड्यंत्री, बगावती आदि-आदि। साठोत्‍तरी पीढ़ी के बारे में अग्रज लेखकों की राय कभी अच्‍छी नहीं रही। भैरवप्रसाद गुप्‍त इसे हरामियों की पीढ़ी कहते थे, अश्क जी फितनों की, कमलेश्‍वर ऐय्‍याश प्रेतों की पीढ़ी और मार्कंडेय दो पीढ़ियों के बीच उगी खरपतवार।

इलाहाबाद का आक्रामक तेवर सभी को झेलना पड़ता है - आप जवाहरलाल नेहरू या इंदिरा गांधी ही क्‍यों न हों। अपने को सुमित्रानंदन पंत या उपेंद्रनाथ अश्क ही क्‍यों न समझते हों। ज्ञानपीठ पुरस्‍कार से सम्‍मानित नरेश मेहता इलाहाबाद की इन्‍हीं सड़कों पर अपनी आधा दर्जन अप्रकाशित पुस्‍तकें लिए दर-दर भटका करते थे। यह इलाहाबाद में ही संभव था कि कोई विजयदेव नारायण साही भरी महफिल में पंत जी की उपस्‍थिति में ताल ठोंक कर घोषणा कर दे कि उसने पंत जी का 'लोकायतन' न तो पढ़ा है और न पढ़ेगा। साही जैसे 'चेक पोस्ट' इलाहाबाद के हर प्रवेश-द्वार पर स्‍थापित हैं।

इलाहाबाद आने से पूर्व मेरे तसव्‍वुर में इलाहाबाद की एक अत्‍यंत रोमांटिक छवि थी। गजधर की मखमली घास पर बियर बार, निराला, पंत और महादेवी का प्रभामंडल, निराला का फक्‍कड़पन, घने वृक्षों से ढँकी पत्‍तों से आच्‍छादित जादुई सड़कें। मैं सोचा करता था, इलाहाबाद साहित्‍य को समर्पित कलम के मजदूरों की कोई मायानगरी है।

मगर कुछ महीनों में इलाहाबाद ने मुझे कलम का नहीं सचमुच का मजदूर बना दिया। मैं दिन भर मजदूरी करता, यानी प्रेस के पूरे प्रूफ पढ़ता और अगर कोई मशीनमैन गैरहाजिर हो जाता तो मशीन भी आपरेट करता। प्रेस में छुट्‌टी हो जाती, मैं कर्ज चुकाने के चक्‍कर में अकेला मशीन पर बैठा रहता। ऐसे में सिर्फ एक चीज ने मेरा साथ दिया था और वह था मदिरा का प्‍याला। मदिरा से मेरी गहरी दोस्‍ती अकेलेपन और परीक्षा लेनेवाले कठिन दिनों में ही हुई थी। संयोग से यह दोस्‍ती तर्कसिद्ध भी हो गई थी। इलाहाबाद आ कर तबीयत कुछ पस्‍त, कुछ नासाज और कुछ बेगानी-सी लगने लगी थी। डॉक्‍टर दरबारी ने बताया कि ब्‍लड प्रेशर लो हो गया है और सलाह दी कि शाम को ब्रांडी ले लिया करूँ। डॉक्‍टर की यह सलाह मुझे बहुत रास आई। ब्रांडी का एक पेग पी कर तबीयत कुलाँचे भरने लगती। मेरे लिए उन दिनों एक पेग ही काफी था। इससे ज्यादा पीने की न क्षमता थी और न साधन। शाम को थक-हार कर जब मैं ब्रांडी की शरण में जाता तो एक-एक घूँट अमृत की तरह स्‍फूर्ति देता। मैं दोपहर से ही सूरज डूबने का इंतजार करता, यानी सूरज अस्‍त और बंदा मस्त।

बंदे के ऊपर प्रेस की किस्‍तों की तलवार तो लटक ही रही थी, मुंबई की फुटकर देनदारियाँ भी बाकी थीं। सब से ज्‍यादा चिंता मुझे टाइम्‍स की को-आपरेटिव सोसायटी के ऋण की अंतिम दो एक किस्‍तों की थी। मुंबई में आदमी सबसे पहले आवास की समस्‍या से दो-चार होता है। शायद इसी को ध्‍यान में रखते हुए कंपनी ने कन्‍फर्म होते ही आसान किस्‍तों पर ऋण उपलब्‍ध कराने की व्‍यवस्‍था कर रखी थी। इसी सुविधा का लाभ उठा कर कर्मचारी पगड़ी दे कर किसी रैन बसेरे का इंतजाम कर लेते थे। कन्‍फर्म होते ही लगभग प्रत्‍येक कर्मचारी ऋण लेता था। यह वहाँ का दस्‍तूर था। भाई लोगों ने मुझे भी 'माधुरी' के संपादक अरविंद कुमार और कन्‍हैयालाल नंदन की जमानत पर तुरत-फुरत तीन हजार का ऋण दिलवा दिया। उस समय मुझे पैसे की कोई खास जरूरत न थी। हम कमाऊ दंपती थे। नंदन जी, चौधरी और मैंने तय किया कि क्‍यों न फ्रिज ले लिया जाए। उन दिनों गोदरेज का बड़ा से बड़ा रेफ्रीजरेटर ढाई हजार रुपए में आ जाता था। नंदन जी ने तीन फ्रिज का सौदा किया और सौ-सौ रुपए की अतिरिक्‍त छूट मिल गई। मेरे पास छह सौ रुपए बचे, उनकी मैंने बियर खरीद कर फ्रिज में भर दी। कहना गलत न होगा रेफ्रीजरेटर बियर से लबालब भर गया। उसमें जितनी बोतलें आ सकती थीं ठूँस दी। शाम को दफ्तर से लौट कर पानी की जगह बियर पीता तो अपने को धन्‍य समझता। मुंबई में कुल जमा यही हमारी पूँजी थी, यानी कर्ज का फ्रिज और कर्ज की मय। फ्रिज के बटर-शटर का उपयोग हम लोग सेफ की तरह करते थे, घर का रुपया-पैसा उसी में रखा जाता था। ऋण नामालूम आसान किस्‍तों पर वेतन से कट जाता था। दो-एक किस्‍तें बाकी थी, जब मैं नौकरी छोड़ कर इलाहाबाद चला आया। मुझे एहसास था कि वक्‍त पर पैसा न भेजा तो अरविंद कुमार और नंदन जी की तनख्‍वाह से कट जाएगा, यह दूसरी बात है कि मेरे जमानतदार समझदार, समर्थ और धैर्यवान लोग थे और उन्‍होंने सब्र से काम लिया। वे जानते रहे होंगे कि सब्र का फल मीठा होता है।

इलाहाबाद अपेक्षाकृत एक कठिन और बददिमाग शहर है। यहाँ जड़ें जमाना बहुत मुश्‍किल काम है, लेखक के लिए ही नहीं, प्रकाशक के लिए भी। पत्र-पत्रिकाओं के लिए तो और भी अधिक चुनौतीपूर्ण। जिस लेखक, प्रकाशक, वकील, राजनेता और पत्र-पत्रिका को इलाहाबाद ने स्‍वीकार कर लिया, उसे पूरे देश की स्‍वीकृति मिल जाती है। देशभर से यहाँ अनेक साहित्‍यिक, व्‍यावसायिक और लघु-पत्रिकाएँ आती हैं, कुछ पत्रिकाओं के तो बंडल ही नहीं खुलते। एक जमाने में यहाँ 'धर्मयुग' की आठ हजार प्रतियाँ प्रति सप्‍ताह बिकती थीं और ऐसा जमाना भी आया कि 'धर्मयुग' की अस्‍सी प्रतियाँ बिकना मुहाल हो गया। भारती इलाहाबाद को ले कर बहुत संशकित रहा करते थे। वह अक्‍सर कहा करते थे कि यह एक ऐसा शहर है जो दूर रहने पर हांट करता है और पास जाने पर साँप की तरह डसता है। भारती जी ने भी इलाहाबाद के घाट-घाट का पानी पिया था, उन्‍होंने शहर में अपने अनेक मुखबिर छोड़ रखे थे। यह दूसरी बात है कि ये लोग अपने को भारती का विश्‍वासपात्र और परम मित्र समझने का भ्रम पाले हुए थे। मगर भारती जानते थे कि उनसे क्‍या काम लेना है। इनके माध्‍यम से भारती जी को इलाहाबाद के साहित्‍यिक जगत की संपूर्ण जानकारी मिलती रहती थी। भारती जी के पत्रों का संकलन करते समय पुष्‍पा जी की निगाह ऐसे पत्रों पर गई कि नहीं, कह नहीं सकता।

इलाहाबाद आने से पूर्व मैं दिल्‍ली और मुंबई में भी वर्षों रहा, मगर जो अनुभव और झटके इलाहाबाद ने दिए वह इलाहाबाद ही दे सकता था। असहमति, विरोध, अस्‍वीकार और आक्रामकता इलाहाबाद का मूल तेवर है। इलाहाबाद की पीटने में ज्यादा रुचि रहती है। इसका स्‍वाद हर शख्‍स को चखना पड़ता है - वह लेखक हो, अधिकारी, वकील अथवा साधारण रिक्‍शा चालक ही क्‍यों न हो। इसे दुर्भाग्‍यपूर्ण ही कहा जाएगा कि रिक्‍शा चालक तक इलाहाबाद में ही सबसे ज्‍यादा पिटते हैं - सवारी से भी, साथियों से भी, पुलिस से भी। नेहरू खानदान का भी काले झंडों से जितना स्‍वागत इलाहाबाद में हुआ होगा, वह अन्‍यत्र संभव नहीं।

अपनी सूक्ष्‍म पिटाई का एक उदाहरण पेश करता हूँ। 'लोकभारती' से मेरी पहली किताब छप कर आई थी और मैं एक लेखकीय ठसक के साथ वहाँ पसर कर बैठा था। तभी विजयदेव नारायण साही होठों में पाइप दबाए हुए 'लोकभारती' में दाखिल हुए। मेज पर लोकभारती के नए प्रकाशन की एक-एक पुस्‍तक पड़ी थी। उन्‍होंने सरसरी तौर पर किताबें देखीं और मेरी किताब देख कर मुँह बिचकाया। किताब उठाई और उलट-पलट कर दूसरी मेज की तरफ फेंक दी, 'आजकल क्‍या छापने लगे हो भाई?' मेरी किताब के साथ साही का सुलूक देख कर मेरे प्रकाशक का तो जैसे जीवन सार्थक हो गया। उसने तुरंत चपरासी को कॉफी लाने कॉफी हाउस दौड़ा दिया और मेरी तरफ कुछ इस अंदाज से देखा जैसे पूरी रायल्‍टी का अग्रिम भुगतान कर दिया हो। मेरी हालत अत्‍यंत दयनीय हो गई, चेहरा उतर गया, पुस्तक छपने का सारा उत्‍साह मिट्‌टी में मिल गया, मगर इस घटना के बाद इलाहाबाद को झेलना आसान भी हो गया। मैंने साही की हरकत को यह सोच कर खारिज कर दिया कि यह हिंदी साहित्‍य पर समाजवाद का दुष्‍प्रभाव है। इलाहाबाद के नाम के साथ 'बाद' जरूर लगा है, मगर यहाँ 'बाद' कम 'वाद' ज्‍यादा हैं, वाद-विवाद उससे भी ज्‍यादा हैं। मैंने इसी लोकभारती और कॉफी हाउस में वाद-विवाद को हाथापाई में तब्‍दील होते भी देखा है। प्रकाशकों और लेखकों के बीच कुर्सियाँ भी चली हैं, पेपरवेट भी उछले हैं, प्‍याले भी टूटे हैं।

इलाहाबाद बरसों से दो खेमों में बँटा रहा है। एक मजबूत खेमा प्रगतिशीलों का था और उसी की प्रतिक्रिया में खड़ा हुआ था 'परिमल' आंदोलन। 'परिमल' के अधिसंख्‍य लेखक पक्‍की पेंशनवाली सरकारी अथवा अर्द्धसरकारी नौकरी में थे। कोई विश्‍वविद्यालय में था और कोई आकाशवाणी में, वह विजयदेव नारायण साही हों या डॉ. रामस्‍वरूप चतुर्वेदी, डॉ. रघुवंश, डॉ. जगदीश गुप्‍त अथवा केशवचंद्र वर्मा। प्रगतिशील खेमे के लोग प्रायः गर्दिश में रहते थे। भैरवप्रसाद गुप्त और अमरकांत ने छोटी-छोटी असुरक्षित प्राइवेट नौकरियों में जीवन बिता दिया, मार्कंडेय ने न कभी नौकरी की न चाकरी, शेखर जोशी भी मामूली नौकरी पर थे। दोनों खेमों में हमेशा वैचारिक टकराव रहता। एक खेमा कॉफी हाउस के एक कोने में अड्डा जमाता तो दूसरा दूसरे कोने में। 'परिमल' के लोग प्रायः शुचितावादी थे - श्रीलाल शुक्‍ल के अलावा किसी भी परिमलियन को मैंने मद्यपान करते नहीं देखा। यह दूसरी बात है कि श्रीलाल शुक्‍ल भी अपने को परिमलियन मानने से इंकार करते हैं। दोनों खेमों में वैचारिक टकराव के कारण सिर फुटौवल की नौबत आ जाती। दोनों खेमों के लोगों में कुछ समानताएँ भी थीं। कहना गलत न होगा अपने तेवर में भैरवप्रसाद गुप्‍त विजयदेव नारायण साही के मार्क्‍सवादी संस्‍करण थे। दोनों कट्‌टरवादी, उद्दंड और मुँहफट थे। भैरवप्रसाद गुप्‍त तो अंतिम साँस तक यह मानने को तैयार न हुए कि सोवियत संघ का विघटन हो चुका है। एक बार 'लोकभारती' में उन्‍होंने मुझे इसी बात पर बहुत फटकारा था और मुझे सीआईए का एजेंट घोषित कर दिया था। उनका दृढ़ विश्‍वास था कि अमरीकी मीडिया सोवियत संघ के बारे में दुष्‍प्रचार कर रहा है और सीआईए के एजेंट सोवियत संघ के बारे में बेसिर-पैर की अफवाहें उड़ा रहे हैं। इलाहाबाद में परिमल के ही लोगों के साथ मैंने मयनोशी नहीं की, वरना प्रगतिशील तो डट कर मदिरा का सेवन करते थे। साही को मैंने कभी नशे में नहीं देखा जबकि भैरवप्रसाद गुप्‍त पीने का कोई मौका न छोड़ते थे। वह अपने से कम उम्र या यों कहिए नवोदित लेखकों के साथ भी पी लेते थे। वैसे उन दिनों शहर में पीने-पिलाने का ज्यादा माहौल नहीं था। श्रीपत राय शौकीन आदमी थे। पीते थे और पिलाते भी थे। मैं भी महीने में एकाध शाम उनके यहाँ बिता आता। वह बहुत कम बोलते थे। मगर उनके संग खाना-पीना अच्‍छा लगता था। उन्‍होंने कभी यह आभास भी नहीं होने दिया था कि आप बिन बुलाए मेहमान हैं। मैं जब भी गया उन्‍होंने गर्मजोशी में इस्‍तकबाल किया, जबकि यह शेर मुझे अभी हाल में श्रीपत जी के निधन के बरसों बाद उर्दू शायर मुनव्‍वर राना ने सुनाया है :

फायदा तू भी उठा ले कालिया ,

गर्म है बाजार इस्‍तकबालिया

कभी-कभी अश्क जी भी मेहरबान हो जाते थे, मगर वह बहुत नाप-तौल कर पिलाते थे। अक्‍सर उनके यहाँ से तिश्‍ना लौटना पड़ता। वह अच्‍छे मूड में होते तो बड़े बेटे उमेश को आवाज देते - 'उमेश बल्‍ली, जरा लपक कर खुल्‍दाबाद से एक अद्धा ले आओ।' उस एक अद्धे में वह सबको निपटा देते, खुद भी निपट लेते। एक तिश्‍नगी बनी रह जाती। बाद में निन्‍नी मामा (कौशल्‍या अश्‍क के छोटे भाई) शराग का जुगाड़ करने लगे। उनकी किसी अवकाश प्राप्‍त फौजी से दोस्‍ती हो गई थी। वह बहुत सस्‍ते में रम की व्‍यवस्‍था कर देते।

समय-समय पर इलाहाबाद में साहित्‍यानुरागी अधिकारियों की नियुक्‍ति न होती तो बहुत से रचनाकार प्‍यासे रह जाते। बहुत-सी लघु पत्रिकाएँ बंद हो जातीं। प्रतियोगी परीक्षाओं को फलाँग कर इलाहाबाद विश्‍वविद्यालय के अनेक छात्र ऊँचे-ऊँचे पदों पर पहुँचे, बीच-बीच में उन्‍होंने इलाहाबाद को भी गुलजार किया। मार्कंडेय के दरबार से ऐसे अनेक मेधावी छात्र उठे। पता चला जो लड़का कल तक मार्कंडेय जी के लिए कटरा से सब्‍जी लाया करता था वह आयकर अधिकारी हो गया है या पुलिस अधीक्षक और मार्कंडेय उसे ठोंक-पीट कर कवि-कथाकार बनाने में जुटे रहते हैं और कुछ ही दिनों बाद वह बेचारा 'कथा' के लिए विज्ञापन बटोरता नजर आता। इन अधिकारियों के आस-पास कुकरमुत्‍ते की तरह लघु पत्रिकाएँ भी उगती रहतीं, मदिरा भी बहती। पहली फुर्सत में ये अधिकारी अपने यहाँ रचनाकारों को आमंत्रित कर कृतकृत्‍य हो जाते, शेर-ओ-शायरी होती, मदिरा का दौर चलता और उत्‍तम भोजन की व्‍यवस्‍था रहती। इलाहाबाद ने अनेक अधिकारी रचनाकारों को जन्‍म दिया

कहना गलत न होगा आयकर और बिक्रीकर अधिकारियों की हिंदी लघु-पत्रिका आंदोलन में उल्‍लेखनीय भूमिका रही है जिस संपादक की इन विभागों पर पकड़ ढीली हो गई, उसकी पत्रिका प्रेस में ही दीमक चाट गई। अधिकारियों का संरक्षण और प्रोत्‍साहन पा कर इलाहाबाद के कई लेखक संपादक हो गए, प्रकाशक बन गए, नीलकांत तो अधिकरियों के बावर्चीखाने में चिकेन भूनते हुए अच्‍छे-खासे बावर्ची बन गए। अब प्रतिभा तो प्रतिभा है, उसका प्रस्‍फुटन तो होगा ही, नीलकांत की प्रतिभा के फूल रसोईघर में खिलने लगे। जैसे कवियों को काव्‍यपाठ के निमंत्रण मिलते हैं, नीलकांत को लखनऊ, गोरखपुर, आजमगढ़ जहाँ भी इन अधिकारियों का स्‍थानांतरण होता, भोजन बनाने के निमंत्रण मिलने लगे। पार्टी से बहुत पहले उनकी बोतल खुल जाती और उनका बनाया व्‍यंजन लोग अंगुलियाँ चाट-चाट कर खाते, मगर तब तक नीलकांत टुन्‍न हो चुके होते। जीप में लाद कर उन्‍हें घर पहुँचाया जाता। नीलकांत की प्रतिभा जब साहित्‍य और रसोई की सीमाओं का अतिक्रमण कर जाती तो वह फर्नीचर बनाने में जुट जाते। बहुत कम लोग जानते होंगे कि वह जितने अच्‍छे लेखक और बावर्ची हैं, उससे कहीं अच्‍छे बढ़ई हैं। वह आपके लिए कुछ भी बना सकते हैं - कुर्सी, मेज, पलंग और यहाँ तक कि ताबूत भी। वह कथा शिल्‍पी ही नहीं चर्म शिल्‍पी भी हैं। जिस पर प्रसन्‍न हो जाते हैं, उसे अपने हाथ से बनाए जूते भेंट कर देते हैं। शायद यही वजह है कि वह साहित्‍य में भी जूतमपैजार कर बैठते हैं। तब उन्‍हें यह भी ख्‍याल नहीं रहता कि सामने रामचंद्र शुक्‍ल हैं या डॉ. नामवर सिंह।

विभूतिनारायण राय इलाहाबाद के शहर कोतवाल यानी एस.पी. हो कर इलाहाबाद आए तो लेखक लोग एकदम बेफिक्र हो गए। किसी लेखक के यहाँ चोरी या फौजदारी हो गई तो वह सदैव सहायता के लिए आगे आ गए। उचक्‍के मार्कंडेय के घर का लोहे का गेट उखाड़ कर ले गए तो विभूति ने दो दिन के भीतर ही गेट बरामद करा दिए। जानकार लोगों का विश्‍वास है कि मार्कंडेय को पहले से कहीं भारी गेट बरामद हो गए। कम ही अधिकारी उनसे बेहतर मेजबान होंगे। बाद में जब वह महाकुंभ के वरिष्‍ठ पुलिस अधीक्षक हुए तो देशभर से आए अनेक मित्र रचनाकारों ने जी भर का संगम स्‍नान किया था। अनेक रचनाकार सद्‌गति को प्राप्‍त हुए। स्‍थानीय लेखकों में कोई सिद्धावस्‍था में आधी रात को जीप पर घर पहुँचाता था, कोई स्ट्रेचर पर, कोई वहीं स्‍विस कॉटेज में ही पड़ा रह जाता था और घर पहुँचता ही नहीं था। उस महाकुंभ में कई रचनाकारों को जीते जी मोक्ष प्राप्‍त हो गया था। इक्‍कीसवीं सदी में लेखकों का पुनरुद्धार करने के लिए कोई विभूतिनारायण राय जन्‍म लेगा कि नहीं, कहा नहीं जा सकता। उस स्‍थान पर कई अमूल्‍य शिलालेख गड़े हैं, अगली शताब्‍दी में कोई पुरातत्‍ववेत्‍ता उत्‍खनन करेगा तो उसे बीसवीं शताब्‍दी के अंतिम चरण के लेखकों की जीवन शैली के बारे में अभूतपूर्व जानकारियाँ उपलब्‍ध होंगी।

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इलाहाबाद में रानी मंडी की जिस इमारत में मेरा गरीबखाना, शराबखाना, कारखाना और इबादतखाना था, स्‍वाधीनता से पूर्व राष्‍ट्रीय महत्‍व का पत्र 'अभ्‍युदय' वहीं से प्रकाशित, मुद्रित और संपादित होता था। सन 1907 में महामना मदनमोहन मालवीय ने इसका प्रकाशन शुरू किया था। पं. कृष्‍णकांत मालवीय, व्‍यंकटेश नारायण तिवारी, पं. पद्‌मकांत मालवीय ने समय-समय पर इसका संपादन किया। इसे संयोग ही कहा जाएगा कि लगभग अस्‍सी वर्ष बाद अभ्‍युदय के संस्‍थापक महामना मदनमोहन मालवीय जी के पौत्र लक्ष्‍मीधर मालवीय और प्रपौत्र-प्रपौत्री अमित तारा अपनी जापानी माँ के साथ हमारे यहाँ कुछ दिनों के लिए इसी ऐतिहासिक इमारत में ठहरे। लक्ष्‍मीधर मालवीय मुझसे भी बड़े रिंद साबित हुए। मालवीय परिवार के साथ कुछ यादगार शामें बीतीं, उनका जिक्र यहाँ अप्रासंगिक न होगा, मगर मैं उससे पूर्व रानी मंडी के चरित्र पर थोड़ी और रोशनी डालना चाहता हूँ। आजादी से पहले एक बार जब पंडित जवाहरलाल नेहरू रानी मंडी में तशरीफ लाए थे तो कुछ कट्टरपंथियों ने पूरी गली धुलवाई थी। रानी मंडी को नगर का ज्‍वलन बिंदु (इग्‍नीशन प्‍वायंट) कहा जा सकता है। यह बिंदु किसी भी समय गंगा-जमुनी संस्‍कृति का उत्‍कृष्‍टतम और निकृष्‍टतम उदाहरण पेश कर सकता है। विजयदशमी पर मुसलमान पौराणिक चौकियों की झाँकी देखने के लिए पंक्‍तिबद्ध खड़े नजर आएँगे, भगवान राम के रथ का श्रृंगार भी मुसलमान कारीगर ही करेंगे तो हिंदू परिवार भी उसी निष्‍ठा से अलम और दुलदुल पर श्रद्धा सुमन चढ़ाते देखे जा सकते हैं। मुहर्रम पर मंदिर के आकार के ताजिए उठेंगे। साल में दो बार रानी मंडी की नालियों का रंग सुर्ख हो जाता है - बकरीद पर, जब घर-घर कुर्बानी के बकरों की बलि दी जाती है या फागुन में, जब होली की बहार आती है। विजयदशमी पर उल्‍लास का वातावरण होता है और मुहर्रम पर मर्सियाख्‍वानी, सोजाख्‍वानी, नौहाख्‍वानी और मातम के बीच जूलूस उठते हैं।

शहर पर जब फितनों का भूत सवार होता है तो दंगे का पहला पत्‍थर भी इसी मुकाम से उठता है। यकायक बम और कट्‌टों का आतंक छा जाता है। शहर को फिर कर्फ्‍यू की जद में आने में देर नहीं लगती। कब अनिश्‍चितकाल के लिए बाजार बंद हो जाए, इसका भरोसा नहीं रहता। शायद यही कारण था कि हम लोग थोक में राशन की खरीद करते, राशन की ही नहीं दारू की भी। इलाहाबाद में जब-जब कर्फ्‍यू लगा है, लंबे अर्से के लिए लगा है। जब सारा शहर एकदम शांत हो जाता तब इस थाना क्षेत्र से कर्फ्‍यू हटाया जाता। रानी मंडी में तमाम असंगतियों और अंतरर्विरोधों के बीच गंगा-जमुनी संस्‍कृति विकसित और संकुचित होती रहती है। एक ओर हर-हर महादेव का सिंहनाद और दूसरी तरफ अल्‍लाह ओ अकबर का गर्जन। एक ओर स्‍लीवलेस ब्‍लाउज और दूसरी तरफ बुर्के ही बुर्के, ऐसी नकाबपोशी कि माशूक का दीदार हासिल करने में पसीने छूट जाएँ। मगर आशिक लोग भी गजब की निगाह रखते हैं, माशूक को कद-काठ और चाल-ढाल से न पहचान पाएँ तो एड़ी की सुर्खी से पहचान जाएँगे।

रानी मंडी की जिस ऐतिहासिक इमारत में हम लोगों ने तीस वर्ष बिताए, हमारा मकान इस घनी मुस्‍लिम बस्‍ती का आखिरी मकान था। हमारे अगल-बगल और आगे-पीछे मुस्‍लिम बस्‍ती थी। ठीक सामने उर्दू के साहित्‍यिक मासिक पत्र 'शबखून' का कार्यालय था, सरस्वती सम्‍मान से सम्‍मानित जनाब शमसुर्रहमान फारूक़ी इसके संपादक हैं। चूँकि यह स्‍थान शहर के बीचों-बीच था, हिंदी-उर्दू का कोई भी रचनाकार अथवा अदीब खरीददारी के लिए चौक आता तो हमारे यहाँ जरूर चला आता। हिंदी के कुछ लेखक ऐसे भी थे, जो इस संवेदनशील गली में घुसने से डरते थे। एक बार चहल्‍लुम के रोज मार्कंडेय हमारे यहाँ फँस गए। उन्‍होंने मर्सियाख्‍वानी के बीच ऐसा मातम कभी न देखा था। जुलूस में नौहाख्‍वानी हो रही थी, मर्सिये पढ़े जा रहे थे, लोग जंजीरों से अपने को पीट रहे थे। बुर्कानशीन औरतें रो रही थीं। छाती पीटते हुए नबी के नवासों की शहादत की याद में गम का इजहार किया जा रहा था। मार्कंडेय जी यह सब देख कर सहम गए। उन्‍हें लगा अगर इस समय दंगा हो गया तो हम सब लोग मार दिए जाएँगे। हम लोगों के लिए यह एक सामान्‍य अनुभव था। हम लोगों के बच्‍चे भी जुलूस की तर्ज पर घर में छाती पीटते। बच्‍चों को छाती पीटने को चस्‍का लग गया था। वे छाती पीटते, स्‍कूल जा रहे हों या स्‍कूल से लौट रहे हों। खाली समय में बच्‍चों को और कुछ न सूझता तो छाती पीटने लगते।

रानी मंडी में छापेखाने और घर के शोर-शराबे से थोड़ा हट कर मैंने नीचे अपना एक अलग 'डेन' बनवा लिया था। मेरा लिखने-पढ़ने, सुस्‍ताने और संगीत सुनने का यह एक आश्रमनुमा कमरा था। चौक में रहने के नुकसान तो कई थे मगर एक लाभ भी था। कहीं आने-जाने की ज्यादा जरूरत महसूस नहीं होती थी। सब मित्रों से घर बैठे-बैठे मुलाकात हो जाती थी, मुलाकात ही नहीं कभी-कभी मुक्‍कालात भी। शायद ही कोई शाम मैंने अकेले बिताई हो। धीरे-धीरे मेरा 'डेन' रचनाकारों का अखाड़ा बन गया, शाम घिरते-घिरते वह कॉफी हाउस और 'बार' में तब्‍दील हो जाता। कई बार लगता कि किसी डेरेदारनी (खानदानी तवायफ) की तरह मेरी दुनिया घर की दरोदीवार में महदूद होती जा रही है। मैंने आश्रम का नाम बदल कर कोठा रख दिया। वैसे भी रानी मंडी एक जमाने में तवायफों का मुहल्‍ला था। गली मुहल्‍ले के बुजुर्गों ने बताया था कि सदी के शुरू के वर्षों में इस हवेलीनुमा घर में भी शहर के सबसे बड़े रईस की रखैल रहा करती थी। मकान की वास्‍तुकला से भी इस बात की ताईद होती थी। बड़ी-बड़ी मेहराबें थीं और ऊँची-ऊँची बिना ग्रिल की खिड़कियाँ। फर्श छत से भी ज्‍यादा पुख्‍ता थे, घुँघरुओं की गूँज तक सुनाई पड़ती होगी। स्‍वाधीनता आंदोलन में हुस्‍नाबाई जैसी बहुत-सी तवायफों ने सक्रिय भूमिका निभाई थी। हो सकता है, रईस की मौत के बाद उसकी रखैल के भीतर देश प्रेम की भावना ने जोर मारा हो और उसने यह इमारत 'अभ्‍युदय' निकालने के लिए महामना को दे दी हो इसका कोई प्रमाण नहीं मिलता मगर सोचने में क्‍या हर्ज है?

मुझे उर्दू कथाकार शमोएल अहमद की एक कहानी याद आ रही है - सिंगारदान। दंगे में एक शख्‍स किसी तवायफ के यहाँ से सिंगारदान उठा लाता है। कुछ दिनों बाद उस सिंगारदान का साया पूरे घर पर पड़ने लगता है। लड़कियाँ सिंगारदान के सामने खड़ी हो जाती हैं और तवायफों की तरह श्रृंगार करतीं, सिंगारदान में देखते हुए अनचाहे बालों की सफाई करती और घर के मर्द भड़ुओं की तरह गले में रूमाल बाँध कर गली में आवारागर्दी करते अथवा सीटी बजाते हुए सीढ़ियों पर बैठे रहते। दरअसल सिंगारदान की तर्ज पर हवेली का अतीत मेरी जीवन शैली को भी प्रभावित कर रहा था। मैं दिन भर बिना नहाए-धोए किसी न किसी काम में मसरूफ रहता और तवायफों की तरह शाम को स्‍नान करता और सूरज गरूब होते ही सागरोमीना ले कर बैठ जाता। रानी मंडी में शाम को स्नान करने की ऐसी बेहूदा आदत पड़ी जो आज तक कायम है। सूरज नदी में डूब जाता, हम गिलास में।

रानी मंडी में स्‍थानीय साहित्‍यकारों का जमावड़ा तो लगा ही रहता था, बाहर से कोई लेखक आ जाता तो अच्‍छी खासी महफिल सज जाती। नामवर सिंह, भीष्‍म साहनी, कृष्‍णा सोबती, मन्‍नू भंडारी, राजेंद्र यादव, कमलेश्वर, अशोक वाजपेयी, ज्ञान, काशी ही नहीं नई से नई पीढ़ी के रचनाकार इस महफिल की शान बढ़ा चुके हैं। अखिलेश तो बी.ए. का छात्र था, जब उसका आना-जाना शुरू हो गया था। सागर पार के अनेक लेखक इस अखाड़े में धूनी रमा चुके हैं।

370 रानी मंडी में हिंदी भवन का प्रेस और गोदाम था। नीचे प्रेस और ऊपर गोदाम। दीमक से बचाव के लिए नारंग जी ने गोदाम के कमरे की दीवारों पर तारकोल पुतवा रखा था। अगर बिजली न जलाई जाए तो पूरा कमरा डार्करूम लगता था। जीने पर चमगादड़ों का आशियाना था। उनकी शांति भंग होती तो वे चीत्‍कार-सा करते। देखने पर लगता था कि यहाँ या तो चमगादड़ रह सकते हैं अथवा भूत-प्रेत। कोई आश्‍चर्य नहीं दोनों में गहरी छनती हो। मुझे सीढ़ियाँ चढ़ते डर लगता था। किताबों के ढेर के बीच एक जीरो पावर का बल्‍ब टिमटिमाता रहता था जो वातावरण को और अधिक डरावना बना देता था। किसी हॉरर फिल्‍म की शूटिंग के लिए वह एक आदर्श लोकेशन थी।

उन दिनों मैं अश्क जी के यहाँ रहता था, मगर वहाँ आखिर कब तक रहा जा सकता था? मुझे चमगादड़ों और भूत-प्रेतों के बीच ही अपने लिए स्‍थान बनाना था। नारंग जी ने गोदाम खाली कर दिया तो कमरों का सन्‍नाटा और दहशत पैदा करने लगा। मैंने कमरों की पुताई करवा दी मगर तारकोल के ऊपर चूना ठहर ही न पाता था। जगह-जगह चूने के अमूर्त धब्‍बे डाइनों की तरह वातावरण की दहशत को चार चाँद लगाने लगे। मैंने कमरों की रगड़-रगड़ कर सफाई करवाई मगर कमरों की मनहूसियत बरकरार रही। मैं मानसिक रूप से अपने को इस माहौल में रहने के लिए तैयार करने लगा। इससे पहले मुंबई में मैं एक तथाकथित भुतहे बँगले में रह आया था। उस बँगले के माहौल में कहीं प्रत्‍यक्ष मनहूसियत न थी। अगर ओबी अपने मनोबल पर समुद्र किनारे उस भुतहा बँगले में रह सकता था तो इस आबाद बस्‍ती में मैं क्‍यों नहीं रह सकता। ज्ञानरंजन मुझे प्रोत्‍साहित कर रहा था और वह कुछ दिन मेरे साथ रहने को भी तैयार था। वह कुछ दिन रहा भी। उन्‍हीं दिनों हम लोगों ने तय किया कि हाउस वार्मिंग पार्टी का आयोजन किया जाए।

ज्ञानरंजन, दूधनाथ और नीलाभ तो थे ही, एक दिन अचानक बनारस से काशीनाथ सिंह और रामधनी भी चले आए। रामधनी भी कभी 'टाइम्‍स ग्रुप' के 'दिनमान' में था और उसकी विचारोत्‍तेजक टिप्‍पणियों ने ध्‍यान आकर्षित किया था। एक दिन अचानक उसने इस्‍तीफा दे दिया था और नक्सलवाद की शरण में चला गया था। उन दिनों काशी पर भी नक्‍सलवाद का प्रभाव था। रामधनी के तेवर अत्यंत क्रांतिकारी थे और वह इस मुद्रा में काशी के साथ प्रकट हुआ था जैसे हर चौराहे पर पुलिस ने उसे पकड़ने के लिए जाल बिछा रखा हो।

शाम को उन्‍हीं काली दीवारों के साए में 'हाउस वार्मिंग पार्टी' का आयोजन किया गया। ऐन मौके पर पता चला कि तमाम बल्‍ब फ्यूज हैं या नारंग जी उतार कर ले गए हैं। किसी तरह एक चालीस वाट्‌स के बल्‍ब की व्‍यवस्‍था हुई। उसकी रोशनी में दीवारें और भी भुतहा लगने लगीं। बाहर आँगन में एक तख्‍त था, तय हुआ मुक्तांगन में कैंडल लाइट में पार्टी की जाए। बड़ी जोड़-तोड़ के बाद दो बोतल रम का इंतजाम किया गया था। भोजन के लिए लोकनाथ से पूड़ी आदि मँगवाने की योजना थी।

बाजार से चार-छह काँच के सस्‍ते गिलास मँगवाए गए और बोतल खुल गई। 'चियर्स' के साथ ही कहानी, समाज और राजनीति पर धुआँधार बहस शुरू हो गई। शेरो शायरी हुई, लतीफे हुए। दस बजे तक दूसरी बोतल खुल गई। ज्ञान लोकनाथ जाने के लिए मचलने लगा। उन दिनों ज्ञान लोकनाथ का दीवाना था - कभी बीच में समोसा खा आता और कभी कुल्‍फी। वही लपक कर पूड़ी-कचौड़ी, दम आलू जो कुछ भी मिला बँधवा लाया। उसकी पीने में कम खाने में ज्यादा रुचि रही है।

रामधनी की खाने में कोई दिलचस्‍पी न थी वह अन्‍याय, शोषण, गैरबराबरी और सशस्‍त्र क्रांति पर लगातार भाषण दे रहा था और किसी को 'बुर्जुआ' किसी को 'इजारेदार' किसी को 'एजेंट प्रोवोकेटियर' का खिताब बाँट रहा था। उसने खाली पेट चार-पाँच पेग गटक लिए थे। हम लोग भी मस्‍ती में आ गए थे और ऊधम मचा रहे थे। रामधनी बात करते-करते अचानक खामोश हो गया और तख्‍त पर लेट गया। कुछ देर बाद हम लोगों ने देखा कि जमीन गीली हो रही है। मोमबत्‍ती नजदीक ले जा कर देखा तो पाया कि उसके मुँह से नल की टोंटी की तरह पानी जैसा तरल पदार्थ लगातार लार की तरह टपक रहा था। नीलाभ ने उसकी नब्ज देखी, बहुत धीमे चल रही थी। भोजन के साथ अचार के कुछ टुकड़े भी आए थे। ज्ञानरंजन ने उसके मुँह में अचार का एक टुकड़ा खोंस दिया जो फूल की तरह अटका रहा। दूधनाथ ने कहीं से खोज कर चूने से लिपी-पुती एक छोटी-सी बाल्‍टी चिलमची की तरह तख्‍त के नीचे रख दी। रामधनी करवट के बल लेटा था और धीरे-धीरे बाल्‍टी में स्राव की पतली धार गिरने लगी। उस स्राव को उल्‍टी या कै की संज्ञा भी नहीं दी जा सकती थी, क्‍योंकि यह स्राव बगैर किसी प्रयत्‍न के स्‍वतःस्‍फूर्त था। हम लोग सशंकित हो गए कि कहीं कोई हादसा न हो जाए। रात के बारह बज चुके थे। आस-पास के किसी डॉक्टर का नाम-पता भी मालूम न था। रामधनी की आँखों पर पानी के छींटे दिए गए मगर उसकी स्‍थिति यथावत बनी रही। खतरा पैदा हो गया था कि कहीं पूरी पार्टी शोक सभा में न तब्‍दील हो जाए। काशी ने अपने खास अंदाज में खैनी फटकते हुए कहा, 'भोंड़सीवाले क्रांति करने निकले हैं।' जिसको जितने टोटके मालूम थे, सब इस्‍तेमाल कर देख लिए। काशी की गालियों का भंडार खत्‍म हो चुका था और वह अब पुनरावृत्‍ति पर उतर आया था। हम सब लोग डर गए थे, मगर सामूहिक डर उतनी घबराहट नहीं पैदा करता।

चाँदनी रात थी। रम का नशा था। लोकनाथ का भोजन था। पुरवैया बह रही थी। सब की आँखों में नींद थी, मगर रामधनी सब को जगा रहा था। कोई मुँडेर पर लेट गया, कोई कुर्सी पर ढीला हो गया। काशी को जब कुछ नहीं सूझता तो दातौन करने लगता है। पड़ोस में एक नीम का पेड़ था जिसकी शाखाएँ आँगन पर झुकी हुई थीं। काशी ने उछल कर दातौन का जुगाड़ कर लिया। नीलाभ बार-बार रामधनी की नब्ज देख कर रामधनी के हेल्‍थ बुलेटिन का प्रसारण कर रहा था। लोग बीच-बीच में झपकी ले रहे थे। छोटे बच्‍चे जैसे मुँह में अँगूठा लिए सो जाते है काशी दातौन ले कर सो गया। ज्ञानरंजन ने उसके मुँह से दातौन निकाल कर फेंक दी और टहलने लगा। उन दिनों भी उसे टहलने का रोग था। उसे बैठने के लिए कोई जगह नहीं मिल रही थी। वह भी थक-हार कर मुँडेर से पीठ सटा कर सुस्‍ताने लगा।

धूप निकल आई थी, जब हम लोगों की आँखें खुलीं। इस बीच रात में किसी समय होश आने पर रामधनी ने दातौन के 'टंग क्‍लीनर' से तालू पर दबाव बना कर जी भर कर कै कर ली थी। छोटी-सी बाल्‍टी चौथाई से ज्यादा भरी हुई थी और उसी तरल पदार्थ में छोटी सी दातौन तैर रही थी। रामधनी ने बाल्टी को अखबार के कागज से ढँक दिया था। अखबार के कागज का एक कोना उस गाढ़े द्रवीभूत पदार्थ में लिपटा रह गया था, शेष कागज बाल्‍टी के ऊपर परचम की तरह फहरा रहा था। सुबह जब मेरी नजर रामधनी पर पड़ी तो वह अपनी तिरछी आँखों में धीरे-धीरे शर्माते हुए मुस्‍करा रहा था, जैसे छोटे बच्‍चे रात को बिस्‍तर गीला करने के बाद अपनी माँ की तरफ देख कर मुस्कराते हैं। बीच-बीच में ऐसे झंझावात आते हैं कि बड़े से बड़ा शराबी शराब से तौबा कर ले। मैंने अपने लंबे शराबी जीवन में ऐसी धारावाहिक लयबद्ध कै न देखी थी।

वास्‍तव में शराब और कै का चोली-दामन का साथ है। कै के अनेक रूप होते हैं। चाहते या ना चाहते हुए भी पीनेवालों को अनायास ही उसका दीदार हासिल हो जाता है। सबसे खूबसूरत कै वह होती है जो 'स्‍पांटेनियस ओवरफ्लो' की तरह निःसृत होती है। इसे स्‍वतःस्‍फूर्त कै की संज्ञा दी जा सकती है। कई शराबी इस तरह से कै करते हैं जैसे उन्‍हें हैजा हो गया हो। यानी वे थोड़े-थोड़े अंतराल के बाद कै करते हैं। रामधनी की कै भी देखी थी जो धीरे-धीरे रिसती है, जैसे नल की टोंटी खुली रह गई हो और सबसे बुरी कै तो वह होती है जिसमें शराबी को इतना होश न रहे कि वह कै में इस प्रकार लथपथ हो रहा है जैसे सुअर गंदे नाले में। हो सकता है कै के कुछ और प्रकार भी हों, मगर मेरा अनुभव मोटे तौर पर संक्षेप में यही है। लोग तो शराब पी कर कै करते हैं मैंने तो अपने शराबी जीवन के प्रारंभिक दौर में बियर पी कर ही कै कर दी थी। सन बासठ-तिरसठ की बात है। वाकया दिल्‍ली का है। उन दिनों केंद्रीय हिंदी निदेशालय का नया-नया गठन हुआ था, गठन तो हो चुका था, अब विस्‍तार हो रहा था। जिस रफ्तार से भर्ती हो रही थी, दफ्तर में काम उतना नहीं था। हम लोग काम की प्रतीक्षा कुछ इस प्रकार करते थे, जैसे वेश्‍याएँ ग्राहक की प्रतीक्षा करती हैं। हफ्तों कोई काम ही नहीं होता था। सरकारी प्रेसों को साहित्‍यिक पत्रिका छापने की फुर्सत नहीं थी। जब मैं 'भाषा' से संबद्ध हुआ तो एक वर्ष पहले के अंक प्रेस में थे। हफ्तों कोई काम ही नहीं होता था। कहानी लिखने का सही चस्‍का मुझे उसी कार्यालय में लगा। चतुर्वेदी जीनियस था, मगर भटका हुआ। दफ्तर में बैठे-बैठे वह दिन भर में दर्जनों कविताएँ लिख लेता। उन दिनों दिल्‍ली में बेकार लेखकों की अच्‍छी-खासी फौज थी। कुछ लेखक नई सड़क जा कर गुजारे लायक प्रूफ संशोधन का काम कर आते। कोई हनुमान चालीसा लिख कर गुजारा चलाता कोई पाठ्‌य पुस्‍तकें लिख कर। ज्यादातर बेकार लेखक अपने को फ्री लांसर कहते थे। कुछ अनुवाद के काम से पेट पाल रहे थे। नामी-गिरामी लेखक दूतावासों और बड़े प्रकाशकों से अपने नाम पर अनुवाद लेते और कलम के दिहाड़ी मजदूरों से अनुवाद कार्य करवाते। कुछ संभ्रांत किस्‍म के बेरोजगार थे, उन्‍हें देख कर लगता ही नहीं था कि वे बेरोजगार हैं। मैं आज तक नहीं जान पाया कि उनका जरिया माश क्‍या था। वे स्‍कूटर पर चलते, बार में बियर पीते और किंग साइज की सिगरेट फूँकते। उनकी पीठ पीछे कोई उन्‍हें रूसी तो कोई अमरीकी एजेंट कहता, कुछ लेखकों का मत था कि वे गृह मंत्रालय के लिए लेखकों की खुफियागीरी करते हैं। भगवान जाने क्‍या सच था क्‍या झूठ। इतना जरूर है, ऐसे लेखकों की आज भी तादाद कम नहीं।

केंद्रीय हिंदी निदेशालय में सुबह से ही हमारे कार्यालय में संघर्षशील फ्रीलांसरों की आमदोरफ्त शुरू हो जाती। 'भाषा' से पारिश्रमिक अवश्‍य मिलता था, मगर रचना प्रकाशित होने से पूर्व पारिश्रमिक के भुगतान की व्‍यवस्‍था न थी। फ्रीलांसरों की दिलचस्‍पी ऐसी पत्रिका में छपने की शून्‍य के बराबर थी। फ्रीलांसर लेखकों को तुरंत भुगतान चाहिए, चाहे आधा ही क्‍यों न मिले। अगर किसी दिन लेखक लोग न आते तो मैं और चतुर्वेदी एम. एल. ओबराय के कमरे में जा बैठते। उनका कमरा स्‍टूडियोनुमा था। वह कलाकार थे। उन्‍होंने 'नदी के द्वीप' के प्रथम संस्‍करण का रैपर डिजाइन किया था। दफ्तर में उनके पास भी काम नहीं था। सरकारी कायदे कानून की उन्‍हें बहुत जानकारी थी। वे सरकारी कार्यप्रणाली की विसंगतियों के बारे में विस्‍तार से बताते। हर अधिकारी का कच्‍चा-चिट्‌ठा उनके पास था। दफ्तर में महिलाएँ भी काम करती थीं और ओबेराय साहब को पता रहता था कि कौन महिला किस अफसर की गाड़ी में देखी गई। दफ्तर में काम नहीं था, मगर हर वर्ष नियुक्‍तियाँ होती रहती थीं। कुछ दिनों बाद के. खोसा भी कला विभाग में शामिल हो गए। बाद में खोसा ने खूब यश और धन कमाया। वह खानदानी कलाकार था। उसके पिता भी कलाकार थे, परंतु वह केवल गांधी जी के चित्र बनाते थे। एक बार कमलेश्‍वर ने 'नई कहानियाँ' में कहानी के साथ छपने के लिए मेरा चित्र माँगा। मेरे पास चित्र नहीं था। मुझे चित्र खिंचवाने से कहीं बेहतर यह लगा कि उस पैसे से कॉफी हाउस में कॉफी पी जाए। के. खोसा ने दफ्तर में मेरा स्‍केच बनाया और वही मेरी कहानी के साथ छपा।

जेठ की तपती दोपहरी में एक दिन किसी पत्रिका से मेरा और जगदीश चतुर्वेदी का मनीआर्डर से एक साथ पारिश्रमिक आ गया। हम लोगों की जेबें हमेशा की तरह खाली थीं और लिखने-पढ़ने में भी मन न लग रहा था। पैसा मिलते ही दोनों की जड़ता टूटी।

'बियर पिए एक युग बीत गया है।' जगदीश चतुर्वेदी ने सहसा सुझाया, 'चलो आज दफ्तर के बाद बियर पी जाए।'

'मगर कहाँ?' मैंने पूछा। उन दिनों बियर तो बाजार में उपलब्‍ध थी, मगर सार्वजनिक स्‍थान पर पीने पर प्रतिबंध था। हम लोग शाम भी कनाट प्‍लेस में बिताना चाहते थे। घर जा कर लौटना संभव नहीं था। जगदीश ने सुझाया कि रीगल से बियर लेते हैं और टी-हाउस के पीछे हनुमान लेन के मैदान में पेड़ की छाया में पी लेंगे।

'गिलास कहाँ से आएँगे?'

'गिलास में कौन पीता है। बोतल खोलेंगे और पी जाएँगे।'

मेरा सड़क पर पीने का कोई अनुभव नहीं था। कोई सुरक्षित ठिकाना भी मालूम नहीं था। आए दिन समाचार पत्रों में इस प्रकार के समाचार भी पढ़ने को मिल जाते थे कि सार्वजनिक स्‍थान पर मदिरापान करते हुए इतने आदमी हिरासत में लिए गए।

दफ्तर के बाद हम लोगों ने इसी योजना के अधीन रीगल से बियर की दो बोतलें खरीद लीं, ओपनर उन दिनों मुफ्त मिल जाता था। हम लोग हनुमान लेन की ओर चल दिए। हनुमान लेन पर उतना सन्नाटा नहीं था, जितना जगदीश समझता था। उन दिनों बलवंत गार्गी भी कनाट प्‍लेस की किसी लेन में रहते थे। अपने पंजाबी और उर्दू के दोस्‍तों के साथ कई बार उनके घर का इस्‍तेमाल 'बार' की तरह किया था, मगर मैं अकेला कभी नहीं गया था। बहरहाल अपेक्षाकृत एक सुनसान जगह पर पेड़ की आड़ में हम लोगों ने बोतलें खोलीं। झाग का फव्‍वारा फूट निकला। गाढ़ी कमाई की एक भी बूँद नष्‍ट हो इससे पहले ही हम लोग शंख की तरह मुँह में बोतलें लगा कर गटागट पी गए। हम लोगों से ज्यादा बियर हमारे भीतर जाने को उतावली हो रही थी। हम लोग जब तक साँस रोक सकते थे, लंबे-लंबे घूँट भरते रहे। लग रहा था, अभी कोई सिपाही पीछे से कंधों पर धौल जमा देगा। डर के मारे चार-छह साँस में ही आधी-आधी बोतल गटक गए। इसके बाद चारों ओर नजर घुमा कर जायजा लिया और ज्यादा से ज्यादा बियर पेट में भर ली।

'जानते हो हम लोग सरकारी कर्मचारी हैं। पकड़े गए तो नौकरी भी जा सकती है।' जगदीश ने कहा और दुबारा यही एक्‍सरसाइज शुरू कर दी। उसकी आँखे बाहर निकल आई थीं। यही हालत मेरी थी। पेट फूल कर कुप्‍पा हो गया था। खाली बोतलें हम जितनी दूर फेंक सकते थे फेंक दीं। दूर-दूर तक किसी सिपाही का नामोनिशान नहीं था। हम लोग वहाँ से हटते कि दोनों के मुँह से पिचकारी की तरह बियर का फौव्‍वारा फूट निकला। एक तरफ मैं और दूसरी तरफ जगदीश बियर से पेड़ की सिंचाई करने लगे। हम लोगों ने जितनी जल्‍दबाजी में बियर पी थी, उससे कहीं अधिक वेग से वह बाहर निकल रही थी स्‍वतःस्‍फूर्त कविता की तरह। पेड़ नशे में झूमने लगा और हम लोग आँख, नाक, मुँह पोंछते हुए वहीं पास के एक बेंच पर बैठ कर सुस्‍ताने लगे। कुछ ही फासले पर बियर की खाली बोतलें पड़ी थीं और हमें मुँह चिढ़ा रहीं थीं।

यह कहना गलत न होगा, जहाँ कुछ लेखक इकट्‌ठे होंगे, वहाँ तकरार तो होगा ही, कै भी हो सकती है। यह समुदाय ही ऐसा है कि दोस्‍तों के मिलते ही कदम अनायास ही खुराफात की तरफ उठने लगते हैं। शायद ही कहीं कोई ऐसी गोष्‍ठी हुई हो, जहाँ गोष्‍ठी का समापन मद्यपान से न हुआ हो। यहाँ मुझे पटना का एक ऐसा ही साहित्‍यिक समारोह याद आ रहा है। सन सत्‍तर के आस-पास की बात होगी। पटना में एक विराट साहित्‍यकार सम्‍मेलन का आयोजन हुआ था। देशभर से कवि, कथाकार, समीक्षक आमंत्रित थे। लगता था सम्‍मेलन का आयोजन किसी धनपशु के सहयोग से ही हुआ होगा, क्‍योंकि सिर्फ धनपशु मवेशियों की तर्ज पर रचनाकारों का मेला आयोजित कर सकते हैं। पटना रुकनेवाली प्रत्‍येक गाड़ी से लेखकों का हुजूम उतरता। सन साठ के बाद की तो पूरी पीढ़ी आमंत्रित थी। गद्य और मद्य की अनूठी काकटेल थी। प्रत्‍येक सत्र के बाद लेखक लोग अपनी रुचि के अनुकूल मदिरापान कर रहे थे। शाम को गोष्‍ठियों के बाद तो जैसे बीसवीं शताब्‍दी के स्‍वर्णकाल का उदय हो जाता था। जगह जगह कमरों मे महफिलें सजतीं। कभी सामूहिक और कभी छोटे-छोटे ग्रुपों में। एक बड़े हाल में ज्ञानरंजन के नेतृत्‍व में कीर्तन चल रहा था :

बम भोलेनाथ! बम भोलेनाथ

हम चलेंगे साथ , ले के हाथ में हाथ

तेरी बहन के साथ

बम भोलेनाथ!

जानी आओ अंदर में

कोई नहीं है मंदिर में

साधु संत सब सोए पड़े हैं

भोलेनाथ! बम भोलेनाथ

ज्ञानरंजन की कहानियों की ही तरह उसका एक और कीर्तन पटना में झटपट लोकप्रिय (इंसटेंट हिट) हो गया था :

बेर से हते बेर से हते

मल मल के भए सवा सेर के

लग रहा था कि साठोत्‍तरी पीढ़ियाँ लुच्‍चई और लफंगई पर उतर आई हैं। कुमार विकल बीसियों कवियों, कथाकारों के बीचों-बीच बैठा था। वह नशे में धुत्‍त था और झूमते हुए समूहगान की टेक छेड़ रहा था :

सारीयाँ बीबियाँ आइयाँ

हरनाम कौर न आई।

कुमार के अनुगमन में पूरा समूह भक्‍तिभाव से दोहराता :

सारीयाँ बीबियाँ आइयाँ

हरनाम कौर न आई।

इस समारोह के बाद रचनाकारों इतना विराट सम्‍मेलन न हुआ होगा जहाँ, इतनी अधिक संख्‍या में कथाकार, कथालेखिकाएँ, कवि और कवयित्रियाँ इकट्‌ठी हुई हों। यशःप्रार्थी लेखक लेखिकाएँ अपनी नई पुस्‍तकों की प्रतियाँ साथी लेखकों को फराखदिली से भेंट कर रहे थे। एक स्‍वामधन्‍य मधुरकंठा कवयित्री यानी गायिका ने कुमार विकल को आदरपूर्वक अपनी कविताओं का नया संकलन भेंट किया। कुमार उस समय तीसरी मंजिल की सीढ़ियों के मुहाने पर खड़ा था। उसने जोर-जोर से पुस्‍तक में से एक गीत पढ़ा। गीत इतना लिजलिजा था कि वह अचानक उसकी पैरोडी करने लगा। जब पैरोडी से भी उसकी तसल्‍ली न हुई तो पुस्‍तक की चिंदी-चिंदी करके सीढ़ियों पर फेंकने लगा। सारी इमारत में कविताओं के पतंग उड़ने लगे। कवयित्री तो पैरोडी सुनते ही वहाँ से हट गई और रिक्‍शा में सवार हो तमतमाते हुए अपने डेरे लौट गई थी। वास्‍तव में कुमार का इरादा पुस्‍तक का निरादर करने का नहीं था, मगर कूड़ा लेखन के प्रति एक आक्रोश जरूर था जो शालीनता और साहित्‍यिकता की सीमाओं का अतिक्रमण कर गया था। बाद में सुनने में आया कि उस कवयित्री ने साहित्‍य का दामन हमेशा-हमेशा के लिए छोड़ दिया और विवाह कर लिया।

उस सम्‍मेलन में इलाहाबाद से भी बहुत से लेखक पधारे थे। ज्ञान, दूधनाथ, जमाली, मैं, ममता और भी बहुत से लेखक। ममता ने भी इससे पूर्व ऐसा अराजक माहौल न देखा था, वह घबरा रही थी। नतीजतन लेखिकाओं ने अपनी अलग टोली बना ली थी और वे लेखकों से दूर-दूर ही रहती थीं। एक कमरे में अलग से उनकी गोष्‍ठी चलती रहती। तमाम लेखिकाएँ एक झुंड में साथ-साथ निकलतीं।

रात को जब हम लोग भोजन कर के लौटे तो खयाल आया कि सतीश जमाली दोपहर से दिखाई नहीं दिया। अचानक उसकी चिंता हो गई और हम लोग उसकी तलाश में जुट गए। कई लोगों से पूछताछ की गई। किसी ने बताया कि रात को दिखाई दिया था, किसी ने कहा, सुबह नाश्‍ते पर देखा था, किसी ने जड़ दिया कि वह दारू की जुगाड़ में निकला है। एक कर्मचारी ने रटा-रटाया जवाब दिया कि वह पटना साहब के दर्शन करने गए हैं। प्रत्‍येक पूछताछ का उसके पास यही टकसाली जवाब था। हम लोग एक एक कमरे में झाँकने लगे। आखिर वह एक कमरे में मिल ही गया। दरवाजा खोलते ही कमरे से बू का भभका उठा। कमरे के बीचों-बीच वह बेसुध पड़ा था। उसकी आँखें बंद थी और वह निश्‍चेष्‍ट पड़ा था। कै कर-कर के उसने पूरा कमरा भर दिया था। उसके तमाम कपड़े कै से लथपथ थे। किसी की हिम्‍मत न हुई उसे छू कर देख ले। हम लोग तमाशाइयों की तरह नाक पर रूमाल रख कर खड़े थे। कोई मदर टेरेसा ही उसकी देखभाल कर सकती थी। तभी ममता भी अन्‍य लेखिकाओं के साथ आ गई और तमाम लेखिकाएँ बिना कोई परहेज के उसकी तीमारदारी में जुट गईं। सबने संकोच छोड़ कर उसे घसीट कर कै के तालाब से बाहर किया। उसका मुँह धोया और एक नवजात शिशु की तरह उसका टावल बाथ कराया जाने लगा। लग रहा था प्रत्‍येक स्‍त्री में एक जन्‍मजात नर्स छिपी रहती है। मुझे काफी शर्म महसूस हो रही थी कि हम लोग चुपचाप खड़े हैं और ये स्‍त्रियाँ आनन-फानन में काम में जुट गई हैं। मैं लपक कर इलेक्ट्रॉल और डिटॉल ले आया। उसकी नब्ज चल रही थी, मगर बहुत धीमी गति से। महिलाओं ने देखते-देखते उसके कपड़े बदल डाले। फर्श डिटॉल से धो दिया। यह गनीमत थी कि वह अपने कमरे में ही था, वरना उसके कपड़े और तौलिया वगैरह ढूँढ़ने में बहुत दिक्‍कत आती। सारी रात जमाली की सेवा में गुजर गई।

सुबह-सुबह जब मुर्गे ने बाँग दी तो सतीश जमाली ने अपनी आँखें खोलीं। उसकी चेतना लौट रही थी मगर वह बहुत कमजोरी महसूस कर रहा था। उसे कुछ याद नहीं था, उसके साथ यह हादसा कैसे हुआ। उसने बताया कि उसे यहाँ का भोजन पसंद नहीं आया था और दो दिनों से निरंतर पी रहा था। देखते-देखते सब लेखक उसकी सेवा में लग गए। शराब लेखकों के साथ जैसा भी सुलूक करे मगर जब कोई शराबी मुसीबत में होता है सब शराबी एक हो जाते हैं। जाम टकराते ही एक अनाम रिश्‍ता कायम हो जाता है। इसी को हमप्‍याला और हमनिवाला दोस्‍ताना कहते हैं।

इस हादसे के बाद मैंने सोचा था कि अब कभी जमाली शराब मुँह को नहीं लगाएगा, मगर जमाली पक्‍का रिंद निकला। स्‍वस्‍थ होते ही उसने दोस्‍तों के बीच पार्टी की मुनादी पीट दी। मुझे यकीन नहीं आ रहा था फोन पर उसकी आवाज सुन कर वह अपने पुराने अंदाज में आमंत्रित कर रहा था कि यार बहुत दिन हो गए थे कलेजा ठंडा किए आना जरूर।

कभी न कभी हर शराबी कै करता है। मैं भी अपवाद नहीं था। भाग्‍यशाली जरूर था कि बहुत कम कै की। अशोभनीय स्‍थितियों से नहीं गुजरना पड़ा। मैंने गिनती की कै की होगी, वह भी उन दिनों, जब पीने में सरासर अनाड़ी था। इसे यों भी कहा जा सकता है कि एकाध कै जालंधर में जरूर की होगी, जिस का स्‍मरण नहीं है। एकाध दिल्‍ली में और शायद अंतिम कै मुंबई में की होगी। हिसार में शराब पी ही नहीं थी, डट कर लस्‍सी पी थी। मुंबई में मेरा मेजबान ओबी था, उसका भाग्‍य भी उसके साथ 'सी-सॉ' का खेल खेलता रहता था यानी कभी वह अर्श पर होता था कभी फर्श पर। जब वह अर्श पर होता था तो स्‍कॉच पीता था और जब फर्श पर तो ठर्रा। शराब के मामले में वह अधर में ही रहता था यानी ठर्रे या स्‍कॉच की नौबत कम ही आती थी। उसे पार्टियाँ देने का चस्‍का था। जब भी उसकी जेब गर्म होती वह पार्टी 'थ्रो' कर देता। उसकी पार्टी में मुंबई की बड़ी-बड़ी हस्‍तियाँ शामिल होतीं - जैसे सुनील दत्त, नर्गिस, अंजू महेंद्र और उसकी माँ, विद्या सिन्‍हा, कुछ चुनिंदा उद्योगपति या बड़ी-बड़ी कंपनियों के प्रबंध निदेशक वगैरह। पार्टी दे कर वह लुट जाता, सुबह उस की हालत एक फकीर से भी बदतर होती। जूते पालिश कराने लायक पैसे न होते। उसकी मौत पर मैंने एक संस्‍मरण लिखा था, जिसे पढ़ कर कृष्‍णा सोबती ने फोन किया था, कि मैंने एक उपन्‍यास के स्टफ (सामग्री) को संस्मरण में ढाल कर अन्‍याय किया है। कृष्‍णा जी का सुझाव मैं भूला नहीं हूँ। यह सुन कर कोई विश्‍वास नहीं कर सकता कि एक शाम पहले जिसके फ्लैट के सामने देशी-विदेशी कारों का जमघट लगा था, आज उसके पास सिगरेट खरीदने के लिए पैसे नहीं हैं। ऐसी ही एक फाइव स्‍टार पार्टी में मैंने अत्यंत संभ्रांत किस्‍म की कै की थी।

ओबी ने पार्टी में मुझे मेहमानों के गिलासों पर निगाह रखने का काम सौंपा था कि किसी मेहमान का गिलास खाली न रहे, तुरंत दूसरा गिलास भिजवाना मेरे जिम्‍मे था। एक तरह से 'बार' मेरे अधिकार में था। उन दिनों ममता दिल्‍ली के दौलतराम कॉलिज में पढ़ाती थी और छुट्‌टी में मुंबई आई हुई थी। इतनी बड़ी मुंबई में उसके पिता को मेरे घर के पास ही छोटा सा बँगला मिला था। उसी सड़क पर, कैडिल रोड पर समुद्र किनारे। मैंने अतिरिक्‍त उत्‍साहवश या यों कहिए मूर्खतावश ममता को भी पार्टी में आमंत्रित कर लिया। मुझे इस माहौल में देख कर वह सकपका कर रह गई, मगर ग्‍लैमर से प्रभावित भी हो रही थी। वहाँ तमाम महिलाएँ भी मुक्‍तभाव से मदिरापान कर रही थीं। मुझे भी जीवन में पहली बार स्‍कॉच नसीब हुई थी। उसमें कड़ुवापन नहीं था, एक मोहक गंध थी, जिसे 'फ्‍लेवर' कहा जा सकता है। पहला पेग शर्बत की तरह पी गया, जबकि लोग धीरे-धीरे घूँट भर रहे थे। किसी का गिलास खाली ही नहीं हो रहा था।

ममता ने कभी बियर भी न चखी थी, मैंने जोर-जबरदस्‍ती से ममता के हाथ में भी एक पेग थमा दिया। उसने पहले सूँघा, फिर धीरे-धीरे सिप करने लगी। मैंने एक और गिलास उठा लिया। मुझे शायद प्‍यास लगी थी। मैंने दूसरा पेग भी दो-एक घूँट में समाप्‍त कर दिया। पार्टी अपने शबाब पर थी। मेरी प्‍यास कुछ कम हो गई थी, फिर भी जब कोई गिलास खाली होता, मैं अपना जाम भी बना लेता। मुझे कोई असर भी नहीं हो रहा था। हिंदुस्‍तानी व्हिस्‍की पी कर जो किक महसूस होती थी, वह स्‍कॉच में नदारद थी। ममता पहले पेग से ही जूझ रही थी, मैंने उसे एक ही घूँट में पी जाने की सलाह दी। कुछ देर बाद मुझे हल्‍का-सा सुरूर हुआ। यह सुरूर बियर के सुरूर से भिन्‍न था। मैं इसे थोड़ा और ऊपर ले जाना चाहता था। अगले पेग ने तो जैसे चमत्‍कार कर दिया। मेरा सर घूमने लगा। कभी एकाध पेग से ज्यादा पी नहीं थी, अब तो 'सर जो तेरा चकराए' होने लगा। यकायक लगा जैसे पेट में पेट्रोल भर गया हो और बाहर आने को मचल रहा हो। पेश्‍तर इसके कि किसी को पता चलता, मैं चुपके से बाथरूम में घुस गया। अचानक मुझे जगदीश चतुर्वेदी के साथ पी बियर याद आ गई और बियर का वह फौव्‍वारा। मैं वाश बेसिन पर झुक गया और उसका नल खोल दिया। नल से भी तेज रफ्तार से स्‍कॉच बाहर आ गई। स्‍कॉच निकल गई थी, मगर नशा कायम था। मैंने जम कर आँखों पर पानी के छींटें मारे, मुँह धोया और सँभलते ही कंघी कर बाहर आ गया। बाथरूम का नल मैं खुला छोड़ आया था, ताकि मेरी कारगुजारी का नामोनिशान मिट जाए।

हाल में खाना लग गया था। लोग अपनी-अपनी प्‍लेट लिए गुफ्तगू में मशगूल थे। ममता भी हाथ में प्‍लेट लिए एक सोफे पर ऊँघ रही थी। मैंने अपनी प्‍लेट भी तैयार की, मगर दो-एक कौर ही निगल पाया। सारे बदन पर अजीब किस्‍म का खुमार था। सोने की जबरदस्‍त इच्‍छा हो रही थी। महिलाएँ महक रही थीं, अदाएँ दिखा रहीं थीं और अंग्रेजी हाँक रही थीं, पुरूष उन पर लट्‌टू हुए जा रहे थे और कमरा घूम रहा था। मैंने सुन रखा था कि कै के बाद आदमी सामान्‍य हो जाता है, उसका नशा हिरन हो जाता है, मगर मेरा नशा बरकरार था। मैंने घड़ी देखी, साढ़े ग्‍यारह बज चुके थे। मेरे ऊपर ममता को घर पहुँचाने की भी जिम्‍मेदारी थी। यह रास्‍ता पैदल भी तय किया जा सकता था, मगर मेरी उसके साथ जाने की इच्‍छा नहीं हो रही थी। उन दिनों मुंबई की कानून व्‍यवस्‍था बहुत अच्‍छी थी। आधी रात को भी अकेली लड़की टैक्‍सी में बेहिचक बैठ सकती थी। मगर दिल्‍ली की लड़कियों को विश्‍वास नहीं होता था। दिल्‍ली की टैक्‍सियों की बात क्‍या की जाए, बसों तक में खुलेआम छेड़खानी होती थी। मुझे मालूम था, ममता टैक्‍सी में नहीं जाएगी, वैसी भी मध्‍वर्गीय लड़कियाँ टैक्‍सी में चलना अपनी शान के खिलाफ समझती थीं, जाने किसने सिखा दिया था कि रात में केवल संदिग्‍ध चरित्रवाली लड़कियाँ ही टैक्‍सी में चलती हैं। ममता को केवल साठ पैसे की दूरी तक जाना था, उसने टैक्‍सी में बैठने से साफ इंकार कर दिया। बाद में बारह बजे जब बस आई तो उसने उसमें बैठने से इंकार कर दिया 'हम नहीं जाएगा।' मैंने उसे लगभग सूटकेस की तरह उठा कर बस में रख दिया और कंडक्‍टर से कह दिया कि अगले स्‍टाप पर उतार दे। बस चलती इससे पूर्व मैं भी लपक कर चढ़ गया। कैडिल रोड पर हम लोग उतर गए। इमारतों के पीछे समुद्र ठाठें मार रहा था। ममता ने सुझाव दिया, कितना प्‍यारा मौसम है। चलो समुद्र किनारे टहलते हैं। वह नशे में थी। किसी तरह उसे घर के सामने छोड़ कर मैं पलट लिया। न चाहते हुए भी मुझे पदयात्रा करनी पड़ी।

उस दिन मैंने जीवन में दूसरी बार कै की थी, शायद अंतिम बार। कै के और भी अनेक प्रसंग हैं, मगर यह पार्ट आफ द गेम है। मैं तो इस नतीजे पर पहुँचा हूँ कि कै करना कहीं अच्‍छा है, बजाए इसके कि यह कै लेखन के रूप में की जाए।

9-

वह मेरे जीवन की पहली लंबी ट्रेन यात्रा थी। इस यात्रा से मुझे बहुत अनुभव प्राप्‍त हुए। स्‍टेशन पर सबसे पहला अनुभव तो यही हुआ कि मैं प्रथम श्रेणी का टिकट ले कर प्रथम श्रेणी के डिब्‍बे में बैठ गया और मेरे साथ यात्रा कर रहे अधिकारी ने तृतीय श्रेणी में अपना आरक्षण करवाया था। उन दिनों ट्रेन में तृतीय श्रेणी भी हुआ करती थी। उस अधिकारी ने मेरे डिब्‍बे में आ कर प्रथम श्रेणी में यात्रा करने पर मेरी बहुत लानत मलामत की कि मैं धन का अपव्‍यय कर रहा हूँ। बाद में नासिक जा कर मैंने पाया कि उस अधिकारी ने बचे हुए पैसों का अत्यंत सदोपयोग किया, रंडीबाजी और मद्यपान में। वह होटल या लॉज की बजाए धर्मशाला में ठहरा था और शाम को गोदावरी के तट पर बैठ कर अपनी हरामजदगियों का गुणगान करता। वह तीन चौथाई गंजा हो चुका था, बात करते-करते उत्‍तेजित हो जाता तो अपनी चाँद पर हाथ फेरने लगता।

दिल्‍ली से नासिक की वह रेल यात्रा कई मायनों में अविस्‍मरणीय बन गई। दिन भर तो मैं खिड़की से बाहर देखते हुए प्रकृति और जीवन का आनंद लेता रहा, रात को अचानक एक संकट खड़ा हो गया। कंडक्‍टर ने बताया कि मेरा आरक्षण नहीं है, मुझे अपनी सीट छोड़नी पड़ेगी। मुझे इससे पहले इल्‍म नहीं था कि प्रथम श्रेणी में भी आरक्षण की आवश्‍यकता होती है। मैंने बहुत से तर्क पेश किए मगर मेरी एक न चली। आखिर मुझे अपना बोरिया-बिस्‍तर उठा कर तृतीय श्रेणी के सामान्‍य डिब्‍बे में रात काटनी पड़ी। डिब्‍बे में बहुत संघर्ष के बाद घुस पाया था और दरवाजे की बगल में किसी तरह उल्‍टे-सीधे सामान के बीच पैर धरने की जगह मिल पाई थी। कंडक्‍टर ने बताया था कि सुबह आठ बजे मैं दुबारा प्रथम श्रेणी के डिब्‍बे में बैठ सकता हूँ। सुबह प्रथम श्रेणी के डिब्‍बे में जो मेरी आँख लगी तो नासिक पहुँच कर ही नींद खुली। सुबह सहयात्रियों ने बताया कि अगर मैंने कंडक्‍टर को रात ही घूस दे दी होती तो यों बेआबरू हो कर तृतीय श्रेणी के डिब्‍बे में न जाना पड़ता। सच तो यह है तब तक मुझे घूस देने की तमीज ही नहीं आती थी।

जैसे सोलहवें साल में यौवन दस्‍तक दिया करता है और बच्‍चे यकायक यौवन की जटिलताओं से खेलने लगते हैं, भारत का माहौल कुछ ऐसा था कि जीवन में प्रवेश करते ही नौकरशाही की महिमा समझ में आने लगती है। बंधन छेड़खानी के लिए प्रेरित करने लगते हैं, पथ पर इतने काँटे बिछे नजर आते हैं जैसे कह रहे हों कि चल कर दिखाओ तो जानें। आदमी को समय पर घूस का महात्‍म्‍य समझ में आ जाए तो पथ निष्कंटक हो जाता है, उस पर फूल बिखर जाते हैं। देखा गया है, जो लोग सही वक्‍त पर इस पाठ में निरक्षर रह जाते हैं, वह फिर अविवाहित लोगों की तरह सनकी हो जाते हैं या हमारे प्रतिष्‍ठित व्‍यंग्‍य लेखक रवींद्रनाथ त्‍यागी की तरह पारिश्रमिक के लिए भी स्‍मरणपत्र भेजते समय इस बात का उल्‍लेख करना नहीं भूलते कि उन्होंने जीवन भर ईमानदारी से नौकरी की और अपने कार्यकाल में घूस का तिनका भी नहीं छुआ या मेरी तरह प्रथम श्रेणी का टिकट ले कर तृतीय श्रेणी में यात्रा करते रहें। मेरे दूध के दाँत तो समय पर निकल आए थे, मगर घूस के लेन-देन में मेरा अन्‍नप्राशन जरा विलंब से हुआ। ईश्‍वर की मुझ पर कृपा रही कि समय रहते मुझे अक्‍ल आ गई वरना इंस्पेक्टर लोग मेरा जीना हराम कर देते। वे अपने इस पवित्र काम में लग भी गए थे कि मुझे वक्‍त पर सही मार्गदर्शन मिल गया। एक जमाना था मैं गाड़ी में आरक्षण न मिलने पर विचलित हो जाया करता था, बाद में पता चला कि ट्रेन में आरक्षण प्राप्‍त करना तो एक मामूली-सा काम है। मेरे मित्र दीपक दत्‍ता तो बगैर एक भी शब्‍द नष्‍ट किए टी.टी. से आँखों ही आँखों में आरक्षण हासिल कर लेते थे। जब जब उनके साथ इलाहाबाद से दिल्‍ली जाने का अवसर मिला, वह टी. टी. को चेहरा दिखा कर प्रथम श्रेणी के वातानुकूलित कूपे में खिलाते-पिलाते कानपुर तक ले गए। कानपुर से दिल्‍ली के लिए आरक्षित इस कूपे की यात्रा फकत एक-दो पेग और कबाब के एवज में उपलब्‍ध हो जाती। चलती हुई गाड़ी के ठंडे एकांत में शराब पीने का आनंद ही दूसरा है। बचपन में सुना एक मुहावरा याद आ जाता था कि हींग लगे न फिटकरी रंग चोखा आए।

इलाहाबाद में मैंने प्रेस का कारोबार शुरू किया तो रोज कोई न कोई इंस्पेक्टर यमदूत की तरह सिर पर खड़ा हो जाता। मेरी समझ में आया कि नारंग जी क्‍यों दिन भर खातों और रजिस्‍टरों में सिर खपाते रहते थे। वह हर नियम का अक्षरशः पालन करते थे, इंस्पेक्टर लोग चाह कर भी उनको न घेर पाते। बाजार में यह खबर फैलते ही कि नारंग जी प्रेस से मुक्‍त हो गए हैं, टिड्‌डी दल की तरह इंस्पेक्टरों ने मुझ पर हमला बोल दिया। मैं दफ्तरी काम में एकदम अनाड़ी था और रजिस्‍टर वगैरह भरने में मेरी जान सूखती थी। जब पहली बार लेबर इंस्पेक्टर निरीक्षण के लिए आया तो उसने बहुत-सी अनियमितताएँ पाईं, जैसे छुट्‌टी का रजिस्‍टर अपूर्ण था, साप्‍ताहिक छुट्‌टी और अन्‍य छटि्‌टयों का विवरण प्रदर्शित नहीं था, हाजिरी रजिस्‍टर में कुछ खामियाँ थीं। मेरी निगाह में यह एक मामूली चूक थी, मगर वह चालान काटने पर आमादा हो गया। जब तक वह चालान की किताब में कार्बन लगा कर अपना काम शुरू करता, मैंने देखा, उसके रजिस्‍टर पर उर्दू शेर लिखा हुआ था। मैंने तुरंत पूछा कि यह शेर किसका है?

'इसी खाकसार का है।' अचानक वह इंस्पेक्टर से शायर में तब्दील हो गया। उसने अपना पानदान निकाला और एक पान मुझे भी पेश किया। उसने जब शेर पढ़ते हुए ज़िंदगी को जिंदगी कहना शुरू किया तो मैंने किसी तरह अपनी हँसी रोकते हुए शेर की भरपूर तारीफ की। यह जान कर कि मेरी भी शेरो-शायरी में दिलचस्‍पी है, वह यके बाद दीगरे शेर पर शेर सुनाने लगा। मैंने तुरंत उसे अपनी एक पुस्‍तक भेंट की। पता चला नौकरी से पहले वह कॉलिज के दिनों में फर्रूखाबाद का नामी शायर था और इस पापी पेट के लिए उसे शायरी का दामन छोड़ना पड़ा। अब भी सरेराह चलते-चलते बारहा उसे शेर सूझ जाया करते हैं और वह उस समय जो कागज सामने पड़ता है उस पर शेर दर्ज कर लेता है। रजिस्‍टर पर दर्ज शेर उसने आज ही खोया मंडी पर एक तवायफ को आईसक्रीम खाते देख कर लिखा था। वह 'गाफ़िल' उपनाम से यों ही मन की भड़ास निकालता रहता है। गाफ़िल साहब सचमुच बहुत रहमदिल इनसान थे। जब तक वह इलाहाबाद में रहे, उन्‍होंने मेरा चालान न होने दिया और मैं रजिस्‍टरों में उलझने की बजाए अपना सारा घ्‍यान प्रूफ संशोधन के काम पर देता रहा। प्रूफ संशोधन की मेहनत-मजदूरी से मेरा दारू का खर्च निकलता था, प्रेस की आमदनी तो किस्‍तों में अदा हो जाती थी।

गाफ़िल साहब का बलिया तबादला हो गया तो मुझे बहुत तकलीफों का सामना करना पड़ा। उनके स्‍थान पर जो इंस्पेक्टर तैनात हुआ था वह बहुत घाघ किस्‍म का आदमी था। चेहरे पर माता के दाग थे। अपने को तीसमार खाँ से कम नहीं समझता था। शेरो-शायरी में भी उसकी दिलचस्‍पी न थी। पहली मुलाकात में ही उसने चालान काट कर थमा दिया। यह एक नया सिरदर्द था। मुझे लगा यह कारोबार चलाना मेरे बस का काम नहीं है। मेरी सात पुश्‍तों में किसी ने बिजनेस नहीं किया था। चालान का अर्थ था स्‍पष्‍टीकरण और पेशियों का लंबा सिलसिला, जिससे मुझे घोर वितृष्‍णा थी। मैंने अपने फाउंड्री के मालिक को फोन पर अपनी परेशानी बताई। संयोग ही था कि मैंने एक निहायत उपयुक्‍त आदमी को फोन किया था। वह शहर के तमाम इंसपेक्‍टरों से परिचित था। मैंने इंस्पेक्टर का हुलिया बताया तो बोला, जायसवाल होगा, बहुत हरामी और लालची है। वह आज ही उसे बुलवा कर बात कर लेगा। अगले ही रोज दोपहर को इंस्पेक्टर मेरे पास आया और सौ रूपया ले कर चालान का कागज फाड़ कर रद्‌दी की टोकरी में फेंक गया। उसके बाद वह हर महीने आता रहा, निरीक्षण के लिए नहीं, उगाही के लिए। वह मँहगाई से बहुत त्रस्‍त रहता था। मुझे लगता, वह चाहता है कि घूस की दर मुद्रास्‍फीति और थोक सूचकांक से जुड़ जानी चहिए, मगर बनिया लोग इस तरफ ध्‍यान ही नहीं दे रहे थे। वह हर महीने घूस के अलावा कोई न कोई चीज और उठा ले जाता। और कुछ न दिखाई देता तो कलम ही उठा कर जेब में खोंस लेता। एक इंस्पेक्टर ऐसा भी आया कि जिसकी अपने काम में रुचि थी न आपके काम में। वह दिन-भर चप्‍पल चटखाते हुए अपने साले के लिए नौकरी तलाश करता। वह घूस की राशि तो चुपचाप जेब में रख लेता और देर तक अपने साले की पैरवी करता रहता। उसने मुझ पर बहुत दबाव बनाया कि मैं उसके साले को प्रेस के मैनेजर के रूप में रख लूँ, वह सब रजिस्‍टर वगैरह दुरुस्‍त कर देगा। वह मन लगा कर काम करेगा और वक्‍त जरूरत चपरासी का काम भी कर देगा। मेरे ऊपर इतना कर्ज था कि मैं मैनेजर रखने की एय्‍याशी के बारे में सोच भी न सकता था। मैं सुबह से शाम तक प्रूफ पढ़ता, कई बार तो सुबह नींद खुलते ही प्रूफ पढ़ने में व्‍यस्‍त हो जाता ताकि मशीन का चक्‍का घूमता रहे। यही मेरी बचत थी और इसी से मेरा दाना-पानी निकलता था यानी सिगरेट और दारू का बंदोबस्‍त होता था।

घूस की महिमा का जिक्र निकला है तो एक मुँहतोड़ अनुभव का जिक्र करना जरूरी हो गया है। प्रेस का काम मैंने इतना बढ़ा लिया था कि एक मशीन से पूरा न पड़ता था। मैं एक स्‍वचालित मशीन लगाना चाहता था, जबकि अभी नारंग जी का ही बहुत-सा कर्ज बाकी था। एक दिन सुबह के अखबार में मुझे कुछ रोशनी नजर आई। पंजाब नेशनल बैंक का विज्ञापन प्रकाशित हुआ था कि लघु उद्योगों को प्रोत्‍साहित करने के लिए बैंक ने आसान किस्‍तों पर एक कल्‍याणकारी योजना का शुभारंभ किया है, इच्‍छुक व्‍यक्‍ति बैंक की निकटतम शाखा से संपर्क करें। मैं एक निहायत मूर्ख नागरिक की तरह बैंक खुलते ही कुर्ते पायजामे में सिगरेट फूँकते हुए खरामा-खरामा चौक स्‍थित पंजाब नेशनल बैंक की शाखा के प्रबंधक के कमरे में पहुँच गया। बैंक मैनेजर मोटे से लेजर में सिर गड़ाए हुए था। हाल में एक टेबुल के पास मैनेजर की बगल में मैं उनके खाली होने की प्रतीक्षा कर रहा था कि एक मोटा-सा चूहा मेरे पायजामे में घुस गया। मैं सार्वजनिक रूप से पायजामा तो ढीला न कर सकता था, मैंने अचानक कूदना शुरू किया। चूहा पायजामे के रहस्‍यमय लोक में पहुँच कर उत्‍पात मचाने लगा। मैं कूदता रहा और चूहा कभी मेरी दाहिनी टाँग पर रेंगने लगता और कभी बाईं टाँग पर। मुझे कूदते देख बैंक में हलचल मच गई। लोगों ने सोचा कि कोई ग्राहक अचानक पागल हो गया है और बेतहाशा कूद रहा है। इसी प्रक्रिया में मेरा चश्‍मा नीचे गिर गया। मैनेजर भी अपनी मूड़ी उठा कर हक्‍का-बक्‍का-सा मेरी तरफ देखने लगा। उसका चश्‍मा उसकी नाक की नोक पर सरक आया था। अचानक चूहे को सद्‌बुद्धि आई और वह मेरे दाहिने पैर पर कूद कर भीड़ में रास्‍ता बनाते हुए निकल गया। लोगों को जैसे सर्कस का आनंद आ गया। लोग उत्‍तेजना में ताली पीटने लगे। मैनेजर ने बैंक के प्रबंध तंत्र को पेस्‍ट कंट्रोल के लिए अपेक्षित धनराशि मंजूर न करने पर पंजाबी में गाली दी और आदरपूर्वक मुझे अपने कमरे में ले गया। बैंक के कर्मचारियों ने मेरे लिए चाय का गर्म-गर्म प्‍याला भिजवा दिया। मैंने मैनेजर को अपने आने का प्रयोजन बताया। मेरी बात सुन कर बैंक मैनेजर ऐसे व्‍यंग्‍य से मुस्‍कुराया जैसे कह रहा हो कि इस दुनिया में अभी भी ऐसे मूर्ख लोग विद्यमान हैं जो सरकारी विज्ञापनों पर विश्‍वास करते हैं। उसने अपना और मेरा काफी समय नष्‍ट करके मुझे सुझाव दिया कि मैं शहर की मुख्‍य शाखा से संपर्क करूँ। जिन दिनों मैं बैंक के चक्‍कर लगा रहा था, मैंने एक लंबी कहानी लिखी थी 'चाल'। उस कहानी का एक अंश यहाँ उद्धृत करना चाहूँगा :

प्रकाश बैंक पहुँचा तो , बिजली नहीं थी। तमाम कर्मचारी अपनी-अपनी कुर्सी छोड़ कर बाहर हवा में टहल रहे थे।

' आपसे मिलने के पूर्व मैं कार्यालय से कुछ जानकारी ले लेना चाहता था , मगर दुर्भाग्‍य से आज बिजली नहीं है। ' प्रकाश ने मैनेजर के सामने बैठते हुए कहा , ' मैंने इंजीनियरिंग की परीक्षा अच्‍छे अंक प्राप्‍त करके पास की है और ' आर यू प्‍लानिंग टु सेट अप ए स्‍मॉल स्‍केल इंडस्‍ट्री ' पढ़ कर आप से मिलने आया हूँ। '

' यह अच्‍छा ही हुआ कि बिजली नहीं है , वरना आप से भेंट ही न हो पाती। आप मिश्रा से मिलते और मिश्रा आपको जानकारी की बजाय गाली दे देता। वह हर आनेवाले से यही कहता है कि यह सब स्‍टंट है , आप घर बैठ कर आराम कीजिए , कुछ होना हवाना नहीं है। '

प्रकाश अपनी योजना के बारे में विस्‍तार से बात करना चाहता था , मगर उसने पाया कि बैंक का मैनेजर सहसा आध्‍यात्‍मिक विषयों में दिलचस्‍पी लेने लगा है। वह धूप में कहकहे लगा रहे बैंक के कर्मचारियों की ओर टकटकी लगा कर देख रहा था जैसे दीवारों से बात कर रहा हो , ' आप नौजवान आदमी हैं , मेरी बात समझ सकते हैं। यहाँ तो दिन भर अनपढ़ व्‍यापारी आते हैं , जिन्‍हें न स्‍वामी दयानंद में दिलचस्‍पी है , न अपनी सांस्‍कृतिक विरासत में। वेद का अर्थ है ज्ञान। ज्ञान से हमारा रिश्‍ता कितना सतही होता जा रहा है , इसका अनुमान आप स्‍वयं लगा सकते हैं। प्रकृति की बड़ी-बड़ी शक्‍तियों में आर्य लोग दैवी अभिव्‍यक्‍ति देखते थे। जब छोटा बड़े के सामने जाता था , तब अपना नाम ले कर प्रणाम करता था। आज क्‍या हो रहा है , आप अपनी आँखों से देख रहे हैं। बिजली चली गई और इनसे काम नहीं होता। कोई इनसे काम करने को कहेगा , ये नारे लगाने लगेंगे। मैं इसी से चुप रहता हूँ। किसी से कुछ नहीं कहता। आप चले आए , बहुत अच्‍छा हुआ , बहुत अच्‍छा हुआ , नहीं तो मैं गुस्‍से में भुनभुनाता रहता और ये सब मुझे देख-देख कर मजा लेते। मैं पहले ही ' एक्‍सटेंशन ' पर हूँ। नहीं चाहता कि इस बुढ़ापे में ' प्राविडेंड फंड ' और ' ग्रेच्युटी ' पर कोई आँच आए। आपकी तरह मैं भी मजा ले रहा हूँ। मैंने बिजली कंपनी को भी फोन नहीं किया। वहाँ कोई फोन ही नहीं उठाएगा। इन सब बातों पर मैं ज्यादा सोचना ही नहीं चाहता। पहले ही उच्‍च रक्‍तचाप का मरीज हूँ। दिल दगा दे गया तो , यहीं ढेर हो जाऊँगा देवों का तर्पण तो दूर की बात है यहाँ कोई पितरों का तर्पण भी नहीं करेगा। आप यह सोच कर उदास मत होइए। आप एक प्रतिभासंपन्‍न नवयुवक हैं , तकनीकी आदमी है। बैंक से ऋण ले कर अपना धंधा जमाना चाहते हैं। जरूर जमाइए। पुरुषार्थ में बड़ी शक्‍ति है। हमारा दुर्भाग्‍य यही है , हम पुरुषार्थहीन होते जा रहे हैं। आप हमारे बैंक का विज्ञापन पढ़ कर आए हैं , मेरा फर्ज है , मैं आपकी पूरी मदद करूँ। ऋण के लिए एक फार्म है , जो आपको भरना पड़ेगा। इधर कई दिनों से वह फार्म स्‍टॉक में नहीं है। मैंने मुख्‍य कार्यालय को कई स्‍मरण पत्र दिए हैं कि इस फार्म की बहुत माँग है , दो सौ फार्म तुरंत भेजे जाएँ। फार्म मेरे पास जरूर आए , मगर वे नया एकाउंट खोलने के फार्म थे। आज की डाक से यह परिपत्र आया है। आप स्‍वयं पढ़ कर देख लीजिए। मैं अपने ग्राहकों से कुछ नहीं छिपाता। मैं खुले पत्‍तों से ताश खेलने का आदी हूँ। इस परिपत्र में लिखा है कि बैंकों के राष्‍ट्रीयकरण के बाद पढ़े-लिखे तकनीकी लोगों को बैंक से अधिक से अधिक आर्थिक सहायता मिलनी चहिए। आपका समय नष्‍ट न हो , इससे मेरी राय यही है कि आप कहीं से उस फार्म की प्रतिलिपि प्राप्‍त कर लें , उसकी छह प्रतिलिपियाँ टंकित करा लें , मुझसे जहाँ तक बन पड़ेगा , मैं आपके लिए पूरी कोशिश करूँगा। वैसे निजी तौर पर आपको बता दूँ , मेरे कोशिश करने से कुछ होगा नहीं। मैं कब से कोशिश कर रहा हूँ कि इस ब्रांच के एकाउंटेंट का तबादला हो जाए , मगर वह आज भी मेरे सर पर सवार है। सारे फसाद की जड़ भी वही है। गर्मी भी उसे ही सबसे ज्‍यादा सताती है। पुराना आदमी है , अफसरों से ले कर चपरासियों तक को पटाए रखता है , यही वजह है कि उस पर कोई अनुशासनात्‍मक कार्यवाही नहीं की जा सकती। दो ही वर्षों में मैंने उसकी ' कांफीडेंशियल फाइल ' इतनी मोटी कर दी है कि एक हाथ से उठती ही नहीं। मगर आज कागजों का वह अर्थ नहीं रह गया , जो अंग्रेजों के जमाने में था। कागज का एक छोटा सा पुर्जा जिंदगी का रुख ही बदल देता था। आप ऋण की ही बात ले लीजिए। यह सब ' पेपर एनकरेजमेंट ' यानी कागजी प्रोत्‍साहन है। यही वजह है कि हिंदुस्‍तान में कागज का अकाल पड़ गया है। राधे बाबू ने गेहूँ या तेल से उतनी कमाई नहीं की , जितनी आज कागज से कर रहे हैं। '

इसी बीच बिजली आ गई। कमरे में उजाला हो गया और धीरे-धीरे पंखे गति पकड़ने लगे। प्रकाश के दम-में-दम आया। अपनी योजनाओं के प्रारूप की जो फाइल प्रकाश अपने साथ इतने उत्‍साह से लाया था , मैनेजर ने पलट कर भी न देखी थी। चपरासी ने बहीखातों का एक अंबार मैनेजर के सामने पटक दिया। एक ड्राफ्‍ट उड़ कर प्रकाश के पाँव पर गिरा। प्रकाश ने वहीं पड़ा रहने दिया। मैनेजर ने चिह्नित पृष्‍ठों पर मशीन की तरह कलम चलानी शुरू कर दी। '

मैं उस मैनेजर के संपर्क में लगातार रहा। ऋण मिलने की कोई संभावना नजर नहीं आ रही थी। मैंने यह सोच कर संतोष कर लिया न सही ऋण कहानी ही सही। उसका एकालाप सुनने के लिए मैं कई बार उसके यहाँ चला जाता।

एक दिन मैं घूमते-घूमते पंजाब नेशनल बैंक की मुख्‍य शाखा पर जा पहुँचा। चौक शाखा से यहाँ का वातावरण एकदम भिन्‍न था। मैनेजर ने मुझे संबंधित अधिकारी से मिलने को कहा। अगर मैं गलत नहीं हूँ तो उस अधिकारी का नाम मित्‍तल था, बाद में मित्‍तल ने बताया कि उसकी पत्‍नी कैंसर से पीड़ित थी और उसे घूस का घुन लग चुका था। उसने ऋण दिलवाने का वादा किया और मेरे लिए चाय मँगवाई। ड्राअर से फार्म निकाला और खुद ही मेरे कागज देख कर मेरा फार्म भरने लगा। उसने कुछ जरूरी कागजात की फोटो प्रतिलिपि करवाई और मेरा आवेदनपत्र भी स्‍वीकार कर लिया। उसने बताया कि अगले सप्‍ताह क्षेत्रीय कार्यालय से एक अधिकारी निरीक्षण के लिए आनेवाला है और उसकी रिपोर्ट मिलते ही ऋण की राशि स्‍वीकृत हो जायगी।

अगले सप्‍ताह मित्तल साहब का संदेश मिला कि क्षेत्रीय कार्यालय से संबंधित अधिकारी आ गए हैं और मैं बैंक से तुरंत संपर्क करूँ। मित्‍तल साहब से मिला तो उन्‍होंने बताया कि वह शीघ्र ही दो-एक दिन में अपने अधिकारी के साथ निरीक्षण के लिए आएँगे। मैं घर में जलपान का प्रबंध रखूँ। मुझे बड़ा अफसोस हुआ जब अधिकारी ने जलपान में कोई दिलचस्‍पी न दिखाई, उसकी दिलचस्‍पी अपने काम में ज्यादा थी। उसने प्रेस की बैलेंस शीट का अध्‍ययन किया, मेरी पृष्‍ठभूमि के बारे में बातचीत की। वह दक्षिण भारतीय था और मैंने दक्षिण की भाषाओं और साहित्य पर अपनी पूरी जानकारी उड़ेल कर रख दी। उसे जान कर बहुत आश्‍चर्य हुआ कि कोई पढ़ा-लिखा आदमी भी इस धंधे में है। अब तक उसकी मुलाकात ठेठ व्‍यवसाईयों से हुई थी। मुझे लगा, वे लोग मेरी बातचीत से संतुष्‍ट हो चले हैं। मित्‍तल साहब ने आँख के इशारे से ऐसा संकेत भी दिया। शाम को दफ्तर के बाद मित्‍तल साहब प्रेस में चले आए। उन्‍होंने बताया कि उनके अधिकारी ऋण स्‍वीकृत करने का मन बना चुके हैं और मैं शाम को उनके होटल में उनसे मिल लूँ। वह शरीफ अधिकारी हैं ज्यादा मोलभाव न करेंगे, मैं कम से कम एक हजार रुपया अवश्‍य भेंट कर दूँ। अपने हिस्‍से के बारे में वह बाद में बात कर लेंगे। एक हजार रुपया मेरे लिए बड़ी रकम थी यानी इतने पैसों से पत्‍नी के लिए दर्जनों साड़ियाँ खरीदी जा सकती थीं या दो महीने तक दारू पी जा सकती थी। मैंने असमर्थता प्रकट की तो मित्‍तल साहब नाराज हो गए - एक लाख का ऋण चाहते हो और एक हजार रुपया खर्च नहीं कर सकते। इतनी बचत तो ब्‍याज में हो जाएगी। बाजार से पैसा उठाएँगे तो बीस रुपए सैकड़ा से कम न मिलेगा। आप की समझ में आए तो पैसा पहुँचा दें। मित्‍तल साहब ने उठते हुए कहा, जहाँ तक उनके पैसे का ताल्‍लुक है, वह ऋण स्‍वीकृत होने के बाद ले लेंगे।

मित्‍तल साहब चले गए तो मैं सोच में पड़ गया। इसी ऋण की खातिर मैं अब तक बहुत चप्‍पल चटखा चुका था। कहीं से ठोस आश्‍वासन न मिला था। मैंने बिजली का बिल जमा करने के लिए ग्‍यारह सौ रुपए सँभाल कर रखे हुए थे। आखिर मैंने तय किया कि उसी पैसे से यह काम सरंजाम दे दिया जाए, बिजली के बिल का जुगाड़ बाद में कर लिया जाएगा। रेड्‌डी साहब जान्‍सटनगंज के राज होटल में ठहरे हुए थे। मैंने मन मसोस कर एक हजार रुपए एक लिफाफे में रखे और उनके पास पहुँच गया। रेड्‌डी साहब ने मेरे लिए चाय मँगवाई और मुंबई के जीवन पर बातचीत करने लगे। दो वर्ष के लिए वह भी वहाँ रहे थे। उन्‍होंने आश्‍वासन दिया कि वह सप्‍ताह भर में मेरा ऋण स्‍वीकृत करा देंगे। मैंने बहुत मासूमियत से अपनी जेब से लिफाफा निकाला और उन्‍हें भेंट करते हुए कहा, 'मेरी ओर से यह भेंट स्‍वीकार करें।'

रेड्‌डी साहब ने लिफाफा खोला और उसमें रुपए देख कर भड़क गए 'आप यह सब क्‍या कर रहे हैं? मैं तो आपको पढ़ा-लिखा समझदार शख्‍स समझ रहा था। आप अपना ही नहीं, मेरा भी अपमान कर रहे हैं।'

मेरा चेहरा एकदम फक पड़ गया और मुझे अपने कर्म पर बहुत शर्म आई, मगर मैं लाचार था, मित्‍तल साहब ने ऐसा ही निर्देश दिया था। मुझे असमंजस में देख कर रेड्‌डी साहब ने पूछा, 'आपको किसी ने पैसा देने को कहा था?'

'मैं बेहद शर्मिंदा हूँ।' मैंने कहा, 'मजबूरी में मैंने यह गुस्‍ताखी की थी।'

'किसने आप को यह रास्‍ता सुझाया?'

'अब मैं आपको क्‍या बताऊँ, आपके दफ्तर से यह संकेत मिला था।'

'किसने दिया ऐसा भद्‌दा संकेत?'

'शिकायत करना ठीक न होगा, आप खुद दरियाफ्त कर लें।' आत्‍मग्‍लानि में मैं देर तक गर्दन झुकाए उनके सामने बैठा रहा।

'आपसे मुझे इस व्‍यवहार की कतई आशा न थी।'

'आप मेरा ऋण मत स्‍वीकार करें।' मैंने उठते हुए कहा, 'मुझे क्षमा करेंगे।'

मेरा यह घूस देने का पहला अवसर था और इसमें मैं न सिर्फ असफल रहा था, घोर अपमानित भी हुआ था। इससे पहले दी गई रकमों को बख्‍शीश ही कहा जा सकता था। मेरी रेड्‌डी साहब से आँख मिलाने की हिम्‍मत न पड़ रही थी। मैं कमरे से निकला और चुपचाप सीढ़ियाँ उतर गया।

कई दिनों तक मैं पश्चात्ताप में सुलगता रहा। उस समय मित्‍तल मुझे दिखाई पड़ जाता तो उसे गिरेबान से पकड़ लेता। मैंने मित्‍तल और बैंक की उस शाखा को भूल जाने में ही अपनी खैरियत समझी। मैंने उस शाखा की तरफ जानेवाली सड़कों पर भी चलना बंद कर दिया। एक दिन अनायास दोपहर को बैंक मैनेजर मित्‍तल साहब के साथ प्रेस में आए। इन लोगों ने सूचना दी कि मेरा ऋण स्‍वीकृत हो गया है और मैं बैंक आ कर तमाम औपचारिकताएँ पूरी कर लूँ। मैंने गौर किया, उस दिन मेरी जो हालत रेड्‌डी साहब के सामने हो रही थी, उससे भी बदतर हालत में मित्‍तल साहब थे। वह मुझसे आँख नहीं मिला पा रहे थे। अगले रोज मैं दफ्तर गया तो मित्‍तल साहब ने बगैर किसी हीलागरी के तमाम औपचारिकताएँ पूरी करवा दीं। कुछ ही दिनों में उनका तबादला भी हो गया। मित्‍तल साहब के तबादले के बाद देश से भ्रष्‍टाचार समाप्‍त हो गया हो, ऐसा नहीं होता और न ऐसा हुआ। मुझे लगता है अगर रेड्‌डी साहब ऐसे ही ईमानदारी का परिचय देते रहे होंगे तो अब तक उनका अपना तबादला भी हो चुका होगा। उनकी हरकतों से ऐसा लगता था, सीधे उनका निलंबन ही हुआ होगा। हमारे यहाँ व्‍यवस्‍था ऐसी हो गई है कि ईमानदार होने का भ्रम अवश्‍य प्रदर्शित कर सकती है और अगर ईमानदारी से किसी अधिकारी की उज्‍ज्‍वल छवि बनने लगती है तो उसे मुनासिब दंड दे दिया जाता है। सरकारी कामकाज में बाधा उत्‍पन्‍न करना भी अपराध है। मालूम नहीं, रेड्‌डी साहब अपना अभियान कहाँ तक पहुँचा पाए या बीच नौकरी में ही उनकी साँस उखड़ गई।

घूस का प्रसंग जिस यात्रा में आया था, वह सन चौंसठ के आस-पास की यात्रा थी। मैं यह सोच कर नासिक यात्रा पर जाने को तैयार हो गया था कि इस बहाने मुंबई देखने का मौका मिल जाएगा। संयोग से उन दिनों राकेश जी मुंबई में थे। मुंबई एक तरह से उन का दूसरा घर था, वह कभी भी मुंबई के लिए चल देते थे। जाने उन्‍हें मुंबई का क्‍या आकर्षण था। मुंबई में ऐसे कई परिवार थे, जहाँ राकेश जी घर से भी अधिक अपनापन महसूस करते थे। वैद परिवार ऐसा ही एक परिवार था। वैद लोगों के पास चर्चगेट पर बहुत खूबसूरत फ्लैट था। समुद्र का पड़ोस था।

शनिवार तक अपना काम निपटा कर मैं मुंबई रवाना हो गया और मुंबई पहुँच कर स्‍टेशन पर ही दिल्‍ली का आरक्षण करा लिया ताकि बाद में कहीं पैसे न कम पड़ जाएँ। राकेश जी मुंबई में राजबेदी के यहाँ रुकते थे। चर्चगेट पहुँचने में जरा दिक्‍कत न हुई। इस्‍मत आपा (इस्‍मत चुगताई) भी उसी बिल्‍डिंग में रहती थीं उनसे भी भेंट हो गई। शाम को राकेश जी जुहू ले गए और भेलपूरी का आनंद लिया, नारियल का पानी पिया। राकेश जी के साथ ही कृष्‍णचंदर के यहाँ जाना हुआ। वह उन दिनों खार में रहते थे। सलमा आपा भी मिलीं। भारती जी और अली सरदार जाफरी वामन जी पेटिट रोड पर एक ही बिल्‍डिंग में रहते थे। शाम इन लोगों के साथ बिताई। मेरे लिए वे अविस्‍मरणीय क्षण थे।

मुंबई में मेरी अच्‍छी-खासी तफरीह हो गई, मगर जब मैं वापिसी के लिए ट्रेन में सवार हुआ तो पाया कि जेब में टिकट तो फर्स्‍ट क्‍लास का था, मगर जेबें खाली थीं। सब जेबें टटोल कर देख लीं, पास में पाँच रुपए भी न थे। देवलाली के कोच में मेरा आरक्षण था। जेब खाली हो तो भूख भी कुछ ज्यादा लगती है। मैंने प्‍लेटफार्म पर उतर कर एक बटाटा बड़ा खरीदा और जी भर कर पानी पी लिया। देवलाली स्‍टेशन पर सेना के कुछ अधिकारी कैबिन में नमूदार हुए। उनके साथ अर्दली वगैरह भी थे। उनका सामान करीने से रखा गया। होल्‍डाल खोले गए। जब ट्रेन देवलाली से विदा हुई तो शाम का झुटपुटा छा चुका था। सूर्य अस्‍त होते ही तीनों अधिकारी कुछ बेचैन दिखने लगे। उनके हावभाव से लग रहा था, उन्‍हें पीने की हुड़क उठ रही है, मगर मेरी उपस्‍थिति में कार सेवा शुरू करने में संकोच कर रहे थे। आखिर एक नौजवान ने मुझे सिगरेट पेश करते हुए पूछा कि अगर वह ड्रिंक करेंगे तो मुझे कोई एतराज तो न होगा। मैंने सिगरेट सुलगाई और धुआँ छोड़ते हुए कहा कि अगर वे लोग मुझे भी शामिल कर लेंगे तो मुझे कोई एतराज न होगा। मेरी स्‍वीकृति मिलते ही डिब्‍बे का माहौल उत्‍सवधर्मी और दोस्‍ताना हो गया। देखते-देखते ट्रंक के ऊपर बार सज गया। बर्फ की बकेट निकल आई, पारदर्शी गिलासों में शराब ढाली जाने लगी। देखते ही देखते उनका अर्दली गर्म-गर्म उबले हुए अंडे छीलने लगा। उसने करीने से सलाद की प्‍लेट सजा दी। मयनोशी का यह जो दौर शुरू हुआ तो दिल्‍ली पहुँच कर ही खत्‍म हुआ। दिल्‍ली तक का सफर चुटकियों में कट गया, विमान की तरह। मेरी जेब में इतने भी पैसे नहीं थे कि चार लोगों के लिए चाय का आदेश दे सकूँ, मगर ईश्‍वर जब देता है तो छप्‍पर फाड़ कर ही नहीं देता, चलती ट्रेन में भी दे देता है। एक तरफ मेरी मुफलिसी थी और दूसरी तरफ ये नौजवान थे, जिनके पास किसी चीज की कमी ही न थी। सुबह के नाश्‍ते से ले कर रात के डिनर तक की उत्‍तम व्‍यवस्‍था होती चली गई। मैं भी निःसंकोच इन लोगों का साथ दे रहा था, मगर भीतर ही भीतर संकोच भी हो रहा था कि इतने लजीज भोजन और मँहगी शराब में मेरी कोई हिस्‍सेदारी नहीं थी। मेरे पास कुछ लतीफे थे और शेर। वाजिब अवसर पर मैं उन्‍हें ही खर्च करता रहा। इश्‍क मजाजी के शेर सुन कर तो वे ताली पीटने लगते। मेरी स्‍थिति एक विदूषक की हो गई थी। यात्रा के दौरान इन लोगों से मेरी इतनी घनिष्‍टता हो गई कि मेरे बगैर दोपहर को जिन का सेशन भी शुरू न होता। वक्‍त पर नाश्‍ता, लंच और डिनर चार प्‍लेटों में आता। मैं यही सोच कर परेशान था कि जाने अब तक डाइनिंग कार का कितना बिल हो गया होगा। मैं डर रहा था कि बैरा कहीं मुझे बिल पेश न कर दे। ज्‍यों-ज्‍यों दिल्‍ली पास आ रही थी, मेरी जान साँसत में आ रही थी। मैंने धीरे-धीरे अपना सामान समेटना शुरू कर दिया था। सामान था ही क्‍या, ले दे कर एक टुटही अटैची थी। एक चादर थी, जो नासिक की लॉज में ही चोरी चली गई थी।

दिल्‍ली नजदीक आ रही थी और मेरे दिल की धड़कनें तेज हो रही थीं। तभी बैरे ने आ कर सामान समेटना शुरू किया। मुझे लग रहा था अभी वारंट की तरह बिल मेरे सामने पेश कर दिया जाएगा, जो सैकड़ों रुपयों का होगा। गाड़ी ने नई दिल्‍ली के प्‍लेटफार्म में प्रवेश किया तो मैं अपना अटैची थामे दरवाजे पर खड़ा था। ज्‍यों ही गाड़ी की गति कमजोर पड़ी, मैंने रेंगती ट्रेन से अटैची थामे हुए कुछ इस तरह छलाँग लगाई जैसे अपना नहीं चोरी का सामान ले कर कूद रहा हूँ। बड़े-बड़े गिरहकट मेरी मुस्‍तैदी देख कर चकित रह जाते। प्‍लेटफार्म पर सँभलते ही मैं ट्रेन की उलटी दिशा में चलने लगा। स्‍लोपवाले पुल पर बिल्‍ली की-सी तेजी से चढ़ गया। प्‍लेटफार्म से बाहर निकलते ही एक टैक्‍सी में बैठ गया और बोला 'करोल बाग।'

करोल बाग में पंजाबी कवि हरनाम की औरतों के पर्स की दुकान थी। मैंने रास्‍ते में तय कर लिया था कि हरनाम से पैसा ले कर टैक्‍सी का बिल अदा करूँगा। हरनाम नहीं मिलता तो पास ही वह ढाबा था, जहाँ हम लोग भोजन किया करते थे। करोल बाग में और भी कई ठिकाने थे। मेरी समस्‍या का निदान हरनाम ने ही कर दिया। उसकी दुकान पर ग्राहक कम, शायर ज्यादा दिखाई देते थे। उस समय भी कई दोस्‍त मिल गए, हमदम, सुरेंद्र प्रकाश वगैरह।

आज मुझे उन सहयोगियों के नाम भी याद नहीं, उनकी शक्‍ल भी भूल चुका हूँ, जिनके साथ मैंने मुंबई से दिल्‍ली तक की यादगार यात्रा की थी। दुनिया जहान से बेखबर शराब पीते हुए यात्रा करने का यह मेरा पहला अनुभव था। उसके बाद, बहुत बाद ऐसी स्‍थिति भी आई कि यात्रा में कभी शराब की कमी नहीं आई, पानी की कमी आ सकती थी। दिल्‍ली के उन संघर्षमय दिनों में होली, दीवाली या किसी खास मौके पर ही मयगुसारी का अवसर मिलता था। उन दिनों भी, सन 63-64 में नए वर्ष की पूर्व संध्‍या पर दारू पीने का बहुत रिवाज था। पूरा कनाट प्‍लेस दिल्‍लीवासियों की मधुशाला बन जाता।

उन दिनों नववर्ष की पूर्व संध्‍या पर भोर तक अच्‍छा-खासा उपद्रव रहता था। शराब की नदियाँ बहा करती थीं। हम लोग भी अपनी हैसियत के मुताबिक चंदा करके इस महानदी में हाथ-मुँह धो लिया करते थे। सन चौंसठ की बात है एक जगह, कनॉट प्‍लेस के बीचों-बीच पार्क में भारी हुजूम दिखाई दिया। किसी मुँडेर के ऊपर खड़े हो कर कुछ युवक गा रहे थे, भीड़ तालियाँ पीट रही थी। प्रसव पर आधारित कोई अश्‍लील लोकगीत था। अश्‍लील ही नहीं, घोर सांप्रदायिक। अचानक भीड़ में से दो युवकों ने लोकगीत के प्रति विरोध प्रकट किया। विरोध प्रकट करनेवाले चूँकि अल्‍पसंख्‍यक थे, भीड़ उन पर टूट पड़ी। लात घूँसे चलने लगे। हवा में टोपियाँ उछलने लगीं। सहसा कमलेश्‍वर न जाने कहाँ से प्रकट हो गए और हाथों को चप्‍पू की तरह चलाते हुए भीड़ में घुस गए और पिटनेवाले युवकों के बचाव में लग गए। हम लोग कमलेश्‍वर को 'बक अप' करने लगे। देखते-देखते सौ-पचास लोगों को कमलेश्‍वर ने अकेले दम पर नियंत्रण में कर लिया। यही नहीं, उन लोगों के मंच पर कब्जा करके एक संक्षिप्त-सा सांप्रदायिकता विरोधी भाषण भी दे डाला। उस वर्ष नए वर्ष का उदय कुछ इस प्रकार से हुआ था। हम लोग कमलेश्‍वर के इस शौर्य प्रदर्शन के मूक साक्षी हैं। उस दिन हमारे मन में कमलेश्‍वर की एक नई छवि उभर आई। एक परिवर्तित छवि, पल-पल परिवर्तित प्रकृति वेश की तरह। पता चला, केवल पुस्‍तकों के पन्‍नों पर या साहित्‍य के स्‍तर पर ही कमलेश्‍वर गैर-सांप्रदायिक नहीं हैं, अवसर आने पर रणक्षेत्र में भी कूद सकते हैं।

दिल्‍ली में राकेश मुझसे असंतुष्‍ट रहने लगे थे। वह मेरी संगत से क्षुब्‍ध रहते थे। राजकमल चौधरी, मुद्राराक्षस, श्रीकांत वर्मा, बलराज मेनरा, जगदीश चतुर्वेदी आदि लेखकों को वह फैशनपरस्‍त और आत्‍मकेंद्रित व्‍यक्‍तिवादी लेखक मानते थे। मेरा बहुत-सा समय ऐसे ही रचनाकारों के साथ बीतता था। एक दूसरा संकट भी था। नामवर सिंह, देवीशंकर अवस्‍थी आदि आलोचक साठोत्‍तरी पीढ़ी की रचनाओं को नई कहानी की मूल संवेदना से सर्वथा भिन्‍न पा रहे थे और इन्‍हीं रचनाकारों में भविष्‍य की कहानी की नई संभावना तलाश रहे थे। राकेश की नजर में मैं गुमराह हो रहा था। ममता और मेरी दोस्‍ती से भी वह बुजुर्गों की तरह नाखुश थे। ममता के चाचा भारत भूषण अग्रवाल इस रिश्‍ते को ले कर सशंकित रहते थे। इसे संयोग ही कहा जाएगा कि अशोक वाजपेई और मैंने एक ही खानदान में सेंध लगाई थी। नेमिचंद्र जैन और भारतभूषण अग्रवाल साढ़ू भाई थे। भारत जी शायराना और नेमि जी शाही तबीयत के मालिक थे। दोनों की रुचियाँ एक-सी थीं, मगर पारिवारिक पृष्‍ठभूमि एकदम भिन्‍न थी अशोक ने नेमि जी के यहाँ मुझसे कहीं अधिक विश्‍वसनीयता अर्जित कर ली थी। उर्दू में अफसानानिगारों की अपेक्षा शायरों को अधिक दिलफेंक समझा जाता था, हिंदी में स्‍थिति भिन्‍न थी। यहाँ कथाकारों को ज्यादा गैरजिम्‍मेदार समझा जाता था। अनेक कथाकारों का दांपत्‍य चौपट हो चुका था। हिंदी के कम ही कथाकारों ने एक शादी से संतोष किया होगा। मेरा कहानीकार होना ऋणात्‍मक सिद्ध हो रहा था।

एक दिन मुझे टी-हाउस में देख कर मोहन राकेश मुझे अलग ले गए।

'मुंबई जाओगे?' उन्‍होंने अपने मोटे चश्‍मे के भीतर से खास परिचित निगाहों से देखते हुए पूछा।

'मुंबई?' कोई गोष्‍ठी है क्‍या?'

'नहीं, 'धर्मयुग' में।'

'धर्मयुग' एक बड़ा नाम था, सहसा विश्‍वास न हुआ। मैं दिल्‍ली में रमा हुआ था, दूर-दूर तक मेरे मन में दिल्‍ली छोड़ने का कोई विचार न था। राकेश जी ने अगले रोज घर पर मिलने को कहा। अगले रोज मैं राकेश जी के यहाँ गया, उन्होंने मुझसे सादे कागज पर 'धर्मयुग' के लिए एक अर्जी लिखवाई और कुछ ही दिनों में नौकरी ही नहीं, दस इंक्रीमेंट्‌स भी दिलवा दिए। 'धर्मयुग' में जाने का उत्‍साह तो था, मगर मैं दिल्‍ली नहीं छोड़ना चाहता था। मुझे स्‍वीकृति भेजने में विलंब हुआ तो भारती जी ने सोचा मैं सरकारी नौकरी का मोह कर रहा हूँ। इस बीच धर्मवीर भारती का एक अत्यंत आत्‍मीय पत्र प्राप्‍त हुआ और पत्र पढ़ते ही मैंने तय कर लिया कि अगले ही रोज नौकरी से इस्‍तीफा दे दूँगा। भारती जी ने लिखा था :

प्रिय रवींद्र

सरकारी नौकरी के लिए एक विशेष प्रकार का मोह हमारे बड़ों में अब भी बना हुआ है। लेकिन उन्‍हें मेरी ओर से समझा देना कि यहाँ भविष्‍य की संभावना कहीं अधिक है और यह भी कि मेरे पास रह कर तुम परिवार से दूर नहीं रहोगे। 20 तारीख के पहले ही 16-17 तारीख तक ज्‍वाइन कर सको तो अच्‍छा ही रहेगा।

सस्‍नेह ,

तुम्‍हारा ,

धर्मवीर भारती

मेरे पास मुंबई जाने का किराया भी नहीं था। उन दिनों ममता से मेरी देखा-देखी चल रही थी। दिल्‍ली में ममता मुझसे दुगुना वेतन पाती थी, मगर महाकंजूस थी। मगर जल्‍द ही वह मेरे रंग में रँगने लगी। ममता से लगभग दुगुने वेतन पर 'धर्मयुग' में मेरी नियुक्‍ति हुई थी, उससे कम वेतन पाने की कुंठा समाप्‍त हो गई। एक अच्‍छी प्रेमिका की तरह ममता ने न केवल मेरी गाड़ी का आरक्षण करवाया बल्‍कि मुंबई के जेब खर्च की भी व्‍यवस्‍था कर दी। तब से आज तक मेरी वित्‍त व्‍यवस्‍था उसी के जिम्‍मे है। वह मेरी वित्‍त मंत्री है।

मुंबई में दादर स्‍टेशन पर मेरे मित्र पंजाबी कवि स्‍वर्ण को मुझे लेने आना था, मगर वह समय पर नहीं पहुँचा। मैंने सुन रखा था कि दादर स्‍टेशन में कुली यात्रियों को बहुत परेशान करते हैं। वे अनाप-शनाप पैसा माँग रहे थे। मुझे मालूम ही नहीं था कि मुझे कहाँ जाना है। जब देर तक स्‍वर्ण का नामोंनिशान दिखाई न दिया तो मैंने कालबादेवी के लिए टैक्‍सी की। टैक्‍सीवाले ने भी खूब मजा चखाया। कालबादेवी में एक गेस्‍ट हाउस में हरीश तिवारी रहता था, वह 'माधुरी' में काम करता था। किसी तरह उसकी लॉज तक पहुँचा तो मालूम हुआ वह दो दिन से लॉज में ही नहीं आया। लॉज का मालिक अच्‍छा आदमी था, उसने मेरी मजबूरी समझ कर रात काटने के लिए गोदाम में खटिया डलवा दी।

मुंबई में जितने आकस्‍मिक रुप से नौकरी मिली थी, उससे भी अधिक आकस्मिक रूप से शिवाजी पार्क सी फेस में फ्लैट मिल गया। स्‍वर्ण का ही एक दोस्‍त था एस.एस. ओबेराय। वह एक भुतहा फ्लैट में अकेला रहता था और उसे किसी साथी की तलाश थी, किसी पंजाबी साथी की, जबकि उसकी टाइपिस्‍ट और सेक्रेटरी और प्रेमिका सुनंदा महाराष्‍ट्रीयन थी।

ओबेराय, जिसे सुनंदा ओबी कहती थी, विचित्र इनसान था। वह न बस में दफ्तर जाता था न ट्रेन में। हमेशा टैक्‍सी में चलता था, उसके लिए चाहे उसे पानवाले से उधार क्‍यों न लेना पड़े। ओबी के निधन पर मैंने उस पर एक लंबा संस्‍मरण लिखा था। वह सुबह नौ बजे सूट-बूट से लैस हो कर एक बिजेनस टाइकून की तरह लेमिंग्‍टन रोड पर अपने दफ्तर के लिए निकलता था। उसकी जेब में जितना पैसा होता शाम को लौटते हुए सब खर्च कर डालता। थोक में सामान खरीद लाता, शाम को वह दो-एक पेग उत्‍तम हिव्‍स्‍की के भी पीता। उसके बाद किचन में घुस जाता और नौकर के साथ मिल कर मांसाहारी व्‍यंजन तैयार करता। वह मेरे ऊपर जितना खर्च करता, उससे मुझे लगता कि पूरी तनख्‍वाह भी उसे सौंप दूँ तो कम होगी।

जब भी उसके पास कुछ पैसे जमा होते, वह पार्टी थ्रो कर देता। उसकी पार्टियाँ भी यादगार होतीं, उसमें मुंबई के बड़े-बड़े उद्योगपति, बिल्डर, मॉडल, एयर होस्‍टेस और फिल्‍मी हस्‍तियाँ शामिल होतीं। उसके ये संपर्क कब विकसित हो जाते थे, मुझे पता ही नहीं चलता था। कल तक उसने सुनील दत्‍त का जिक्र भी नहीं किया होता और शाम को अचानक पता चलता कि सुनील दत्‍त और नर्गिस आनेवाले हैं। बाद में जब मैं एक बार इलाहाबाद से मुंबई गया तो पाया शरद जोशी का उनके यहाँ दिन-रात उठना-बैठना था। दोनों दो ध्रुव थे। इस प्रकार के झटके ओबी के साथ रहने पर अक्‍सर मिला करते थे।

वह अपने बारे में कुछ भी नहीं बोलता था। लगता था उसका कोई अतीत ही नहीं है। वह इतना ही बड़ा पैदा हुआ है। मैं लंबे अर्से तक उसका पेइंग गेस्‍ट रहा, अंत तक पता नहीं चला उसके कितने भाई थे और कितनी बहनें। उसका घर कहाँ था? उसके पिता क्‍या करते थे, उसकी माँ कहाँ हैं? इतना जरूर लगता था, वह किसी खाते-पीते परिवार से ताल्‍लुक रखता है। उसके घर में जैसे धोबी आता था वैसे ही जूते पालिश करनेवाला। उसके पास कई दर्जन जूते थे, जो रोज पालिश होते।

ओबी पियक्‍कड़ नहीं था, मगर पीता लगभग रोज था। बड़ी नफासत से। मैंने अब तक शायरों और रचनाकारों के साथ पी थी, इन लोगों में पीने की मारामारी मची रहती, मगर ओबी के लिए पीना बहुत सहज था। दो-एक पेग पी कर वह खाने पर पिल पड़ता और तुरंत सो जाता, चाहे उसका कोई अजीज मेहमान क्‍यों न बैठा हो। सुनंदा को भी मैं ही अक्‍सर उसके घर छोड़ने जाता। एक बार सुनंदा ने बताया कि उसके विलंब से लौटने पर उसके माता-पिता आपत्‍ति करते हैं तो ओबी ने कहा मत जाया करो। वह अत्यंत अव्‍यवहारिक मगर गजब आसान हल पेश करता था। कशमकश की लंबी प्रक्रिया के बाद आखिर सुनंदा को यही निर्णय लेना पड़ा और वह ओबी के साथ ही रहने लगी। उनकी शादी तो मेरी शादी के भी बाद हुई।

शाम को काम से लौटने पर दोनों नहाते। उसके बाद सुनंदा बावर्ची के साथ रसोई में घुस जाती और ओबी लुंगी पहन कर सोफे पर आलथी-पालथी मार कर बैठ जाता। सुनंदा नैपकिन से देर तक काँच के गिलास चमकाती। गिलास जब एकदम पारदर्शी हो जाते तो ओबी की बार सजती। दो-एक पेग मैं भी पीता। इससे ज्यादा पीने की क्षमता ही नहीं थी।

अगर कभी ओबी के पास मदिरा का स्‍टॉक न होता वह बहुत बेचैन हो जाता। लुंगी पहने ही नीचे उतर जाता और अपने किसी मित्र को फोन पर बुला लेता। कुछ ही देर में कोई न कोई यार बोतल लपेटे चला आता। उसके बाद महीनों उस दोस्‍त का पता न चलता कि कहाँ गया। वह कोई बिल्‍डर होता या फिल्‍म का पिटा हुआ प्रोड्‌यूसर, फौज का कोई अफसर या रेस का दीवाना। ऐसे ही दोस्‍तों में डैंगसन थे, शिवेंद्र था, जाड़िया था, बहुत से लोग थे। टेकचंद्र के पास रेस के कई घोड़े थे, वह केवल घोड़ों की बात करता था। शिवेंद्र कभी आयकर अधिकारी था, नौकरी में पैसा कमा कर वह फिल्‍म बनाने मुंबई चला आया। उसने जीवन में एक ही फिल्‍म बनाई थी, 'यह जिंदगी कितनी हसीन है' जो बुरी तरह पिट गई। उसके बाद वह रेसकोर्स की ओर उन्‍मुख हो गया और रेसकोर्स ही उसका जरिया माश था। घोड़ों की वंशावली और इतिहास की उसे अद्‌भुत जानकारी थी। वह कभी मोटी रकम जीत जाता तो चर्चगेट में अपने घर पर भव्‍य पार्टी देता। मैं पहली बार आई.एस. जौहर, सुनील दत्त, शर्मिला टैगोर, आशा पारेख, विद्या सिन्‍हा वगैरह से उसके यहाँ मिला था। कड़की के दिनों में शिवेंद्र ही ओबी की सप्‍लाई लाइन अबाधित रखता। खुद व्‍यस्‍त होता तो नौकर के हाथ भिजवा देता।

मेरे दफ्तर का माहौल इसके ठीक विपरीत था। 'धर्मयुग' बैनेट कोलमैन कंपनी का साप्‍ताहिक था। बोरी बंदर स्‍टेशन के सामने मुंबई में बैनेट कोलमैन का कार्यालय था। स्‍टेशन और टाइम्‍स ऑफ इंडिया बिल्‍डिंग के बीच सिर्फ एक सड़क थी। मुंबई में यह इमारत बोरी बंदर की बुढ़िया के नाम से विख्‍यात थी। अंग्रेज चले गए थे, मगर बोरी बंदर की बुढ़िया को मेम बना गए थे। दफ्तर की संस्‍कृति पर अंग्रेजियत तारी थी। सूट-टाई से लैस हो कर दफ्तर जाना वहाँ का अघोषित नियम था। नए रंगरूट भी टाई पहन कर दफ्तर जाते थे। पुरुष टाई पतलून में और महिलाएँ स्‍कर्ट वगैरह में नजर आती थीं। मारवाड़ीकरण की प्रक्रिया शुरू हो चुकी थी मगर मंद गति से ही। एक उदाहरण देना पर्याप्‍त होगा, 'धर्मयुग' में ऐसी कोई भी रचना प्रकाशित नहीं हो सकती थी जिसमें किसी सेठ के शोषण का चित्रण हो। संपादकीय विभाग को इस प्रकार की कई हिदायतें मिलती रहती थीं। मालूम नहीं ये नियम संपादक ने स्‍वयं बनाए थे अथवा उन्‍हें कहीं से निर्देश मिलते थे। अंग्रेजी के प्रकाशन इस कुंठा से मुक्‍त थे। 'धर्मयुग' 'इलेस्‍ट्रेटेड वीकली' से कहीं अधिक बिकता था। मगर 'इलेस्‍ट्रेटेड वीकली' के स्‍टाफ का वेतन 'धर्मयुग' के संपादकीय विभाग के कर्मचारियों से कहीं अधिक था। बाद में जब मोहन राकेश सारिका के संपादक हुए तो उन्‍होंने इस भेदभावपूर्ण नीति के विरोध में प्रतिष्‍ठान से इस्‍तीफा दे दिया था। उन्होंने नौकरी के दौरान खरीदी कार बेच दी और फकत एयर कंडीशनर उठा कर दिल्‍ली लौट आए थे।

'धर्मयुग' का माहौल अत्यंत सात्‍विक था। संपादकीय विभाग ऊपर से नीचे तक शाकाहारी था। 'धर्मयुग' का चपरासी तक बीड़ी नहीं पीता था। सिगरेट-शराब तो दूर, कोई पान तक नहीं खाता था। कई बार तो एहसास होता यह दफ्तर नहीं कोई जैन धर्मशाला है, जहाँ कायदे-कानून का बड़ी कड़ाई से पालन होता था। दफ्तर में मुफ्‍त की चाय मिलती थी, जिसे लोग बड़े चाव से पीते थे। साथियों के व्‍यवहार से लगता था जैसे सबके सब गुरुकुल से आए हैं और बाल ब्रह्मचारी हैं। मैं घाट-घाट का पानी पी कर मुंबई पहुँचा था, दिल्‍ली में एकदम स्‍वच्‍छंद, फक्‍कड़ और लगभग अराजक जीवन बिता कर। मैं बगैर किसी कुंठा के दफ्‍तर में सिगरेट फूँकता। धीरे-धीरे मैंने साथियों को दीक्षित करना शुरू किया और कुछ ही महीनों में दो-एक साथियों का दारू से 'अन्‍न प्राशन' करने में सफल हो गया। 'धर्मयुग' की अपेक्षा 'वीकली', 'फेमिना', 'माधुरी' यहाँ तक कि 'सारिका' का स्‍टाफ उन्‍मुक्‍त था। 'धर्मयुग' की शोक सभा से उठ कर मैं प्रायः उनके बीच जा बैठता। 'माधुरी' में उन दिनों जैनेंद्र जैन (बॉबी फेम), हरीश तिवारी, विनोद तिवारी थे तो सारिका में अवधनारायण मुद्‌गल। इन लोगों के साथ कभी-कभार 'चियर्स' हो जाती। इन्‍हीं मित्रों से पता चला कि 'धर्मयुग' के मेरे सहकर्मी स्‍नेहकुमार चौधरी भी गम गलत कर लिया करते हैं। चौधरी की सीट ठीक मेरे आगे थी। वह बहुत निरीह और नर्वस किस्‍म का व्‍यक्‍ति था। बच्‍चों की तरह बहुत जल्‍द खुश हो जाता और उससे भी जल्‍द नाराज। उसने मारवाड़ी होते हुए एक बहुत क्रांतिकारी कदम उठाया था यानी प्रेम विवाह किया था, एक बंगाली युवती से। कोर्टशिप के दौरान ही वह बाँग्ला सीख गया था और घर पर केवल बाँग्ला में ही बातचीत करता था। उस युवती के लिए उसने अपना सब कुछ न्‍यौछावर कर दिया था - तन, मन, यहाँ तक कि भाषा भी, बंगालिन से उसे एक ही शिकायत थी कि वह उसे घर में मद्यपान करने की इजाजत न देती थी। घर में वह बंगालिन के शिकंजे में रहता था और दफ्तर में संपादक के। भीतर ही भीतर वह कसमसाता रहता था। एक दिन मुझे पता चला कि वह बोतल खरीद कर पीने का ठौर तलाश रहा है तो मैंने चुटकियों में उसकी समस्‍या हल कर दी।

मैं मुंबई में पेइंग गेस्‍ट की हैसियत से रहता था और मेरे मेजबान को बिना दारू पिए नींद नहीं आती थी। मैंने सोचा कि उसकी भी एक दिन की समस्‍या हल हो जाएगी, यह दूसरी बात है उस दिन वह बहुत देर से लौटा था, वह भी किसी पार्टी से टुन्‍न हो कर। मेरी चौधरी से छनने लगी। वह बेरोकटोक हमारे यहाँ आने लगा। वह जब परेशान होता, बोतल ले कर हमारे यहाँ चला आता। दफ्तर में 'धर्मयुग' का माहौल ऐसा था कि यह आभास ही नहीं होता था कि यहाँ से देश का सर्वाधिक लोकप्रिय साप्‍ताहिक-पत्र संपादित हो रहा है, लगता था जैसे रोज आठ घंटे कोई शोक सभा होती हो। यहाँ दो मिनट का मौन नहीं आठ घंटे का मौन रखने की रस्‍म थी। बगल में ही 'इलस्‍ट्रेटेड वीकली' और पीछे 'सारिका' और 'माधुरी' का स्‍टॉफ था, जहाँ हमेशा चहल-पहल रहती। लोग हँसी-मजाक करते। लंच के समय बाहर चाय भी पी आते, मगर 'धर्मयुग' का संपादकीय विभाग अपनी-अपनी मेज पर टिफिन खोल कर चुपचाप लंच की औपचारिकता निभा लेता और जेब में रखे रूमाल से हाथ पोंछ कर दुबारा काम में जुट जाता। संपादकों को कंपनी की तरफ से लंच मिलता था। भारती जी अपने कैबिन से निकलते तो 'धर्मयुग' के सन्‍नाटे में उनकी पदचाप सुनाई पड़ती। सन्‍नाटे से ही भनक लग जाती कि भारती जी लंच से लौट आए हैं। उनका चपरासी रामजी दरवाजा खोलने के लिए तैनात रहता। शायद यही सब कारण थे कि 'धर्मयुग' के संपादकीय विभाग को अन्‍य पत्रिकाओं के पत्रकार 'कैंसर वार्ड' के नाम से पुकारते थे।

उन दिनों मैं भारती जी का लाड़ला पत्रकार था। भारती जी ने साहित्य, संस्‍कृति और कला के पृष्‍ठ मुझे सौंप रखे थे, जो अंत तक मेरे पास रहे। मैं दफ्तर में ही नहीं, भारती जी के सामने भी सिगरेट फूँक लेता था। उन दिनों यह 'धर्मयुग' का दस्‍तूर था कि जिस पर भारती जी की कृपा दृष्‍टि रहती थी, सब सहकर्मी उससे सट कर चलते थे, जिससे भारती जी खफा, उससे पूरा स्‍टॉफ भयभीत। मैंने जब लंच के बाद बाहर फोर्ट में किसी ईरानी रेस्तराँ में चाय पीने का सुझाव रखा तो सबने खुशी-खुशी स्‍वीकार कर लिया। अब वीकली, माधुरी, सारिका के स्‍टॉफ की तरह हम भी आधा घंटे के लिए अपने दड़बे से निकलने लगे। नंदन जी मेरा खास खयाल रखते, शायद दिल्‍ली से मोहन राकेश ने उन्‍हें मेरा खयाल रखने की हिदायत दी थी। बहरहाल मेरे आने से माहौल में कुछ परिवर्तन आया। उसका एक आभास उस पत्र से मिल सकता है, जो शरद जोशी ने भोपाल से नंदन जी को लिखा था। उस पत्र को यहाँ उद्धृत करना अप्रासंगिक न होगा। यद्यपि यह पत्र नंदन जी के पास आया था, मैंने उनसे ले लिया। वह शायद इस पत्र को अपने पास रखने का जोखिम भी नहीं उठाना चाहते थे। मैंने अपनी पुस्‍तक कामरेड मोनालिजा में भी इसे उद्धृत किया था। उस वर्ष 'धर्मयुग' के होली विशेषांक में नंदन जी, प्रेम कपूर और मेरी संयुक्‍त तस्‍वीर छपी, जिसमें हम लोग मुस्‍करा रहे थे। 'धर्मयुग' के लेखकों ने विश्‍वास न किया। शरद जोशी का पत्र परोक्ष रूप से 'धर्मयुग' के माहौल पर एक टिप्‍पणी करता है :

प्रिय नंदन ,

जो तस्‍वीर छपी है , उसमें रवींद्र कालिया मुस्‍करा रहा है। यह निहायत अफसोस की बात है। वह सीरियस रायटर है , उसे ऐसा नहीं करना चहिए। अगर मुंबई आ कर वह मुस्‍कराने लगा तो इसके लिए जिम्‍मेदार तुम लोग होगे। कुछ हद तक ममता अग्रवाल भी। यों मुझे भोपाल में गंगाप्रसाद विमल बता रहा था कि कालिया में ये तत्‍व दिल्‍ली में भी पाए जाते थे। खेद की बात है। उसे सीरियस रायटर बना रहने दो। तुम्हारा , शरद जोशी

वर्षों 'धर्मयुग' से संबद्ध रहने के बावजूद शायद पहली बार नंदन जी की तस्‍वीर छपी थी और वह भी मेरे इसरार पर। उन्‍होंने हमेशा अपने को नेपथ्‍य में ही रखा था। 'धर्मयुग' के लिए उन्‍होंने बहुत कुछ लिखा मगर अपना नाम शायद ही कभी दिया हो। ऐसे में तस्‍वीर का छपना एक चमत्‍कारिक घटना थी। हुआ यह था कि भारती पुष्‍पा जी से शादी रचाने लखनऊ गए हुए थे - जबकि वे लोग अर्से से साथ-साथ रह रहे थे। जाते हुए वह अपना फ्लैट मुझे और ममता को सौंप गए। उनका लंबा दौरा था। हनीमून के लिए वे लोग खजुराहो भी गए थे। इस बीच वह नंदन जी को होली विशेषांक की डमी सौंप गए थे।

'धर्मयुग' के एक साथ छह अंक प्रेस में रहते थे। ऐन मौके पर होली विशेषांक के दो पृष्‍ठ विज्ञापन-विभाग ने छोड़ दिए। भारती जी का इतना दबदबा था कि वह अक्‍सर अनुपात से अधिक विज्ञापन छापने से मना कर देते थे, यही कारण था कि विज्ञापन विभाग-प्रायः आवश्‍यकता से अधिक पृष्‍ठ घेरने का शेडयूल बनाता था। यकायक दो पृष्‍ठ खाली हो जाने से एक नया संकट शुरू हो गया - भारती जी की अनुपस्थिति में इन पृष्‍ठों पर क्‍या प्रकाशित किया जाय, इसका निर्णय कौन ले। नंदन जी को अधिकार था मगर यह हो ही नहीं सकता था कि नंदन जी के चुनाव पर भारती जी प्रतिकूल टिप्‍पणी न करें, जबकि यह भी संयोग था कि भारती जी जब-जब छुट्‌टी पर गए 'धर्मयुग' का सर्क्‍युलेशन बढ़ गया। प्रकाशित सामग्री पर भारती जी का इतना अंकुश रहता था कि संपादक के नाम भेजे गए पत्रों का चुनाव वह खुद करते थे। नंदन जी की उलझन देख कर मैंने उन्‍हें सुझाव दिया कि इन पृष्‍ठों पर एक फोटो फीचर प्रकाशित किया जाए। बसों में सफर करते हुए मैंने हिंदी के लेखकों के नाम कई दुकानों पर देखे थे - जैसे केशव केश कर्तनालय, भैरव तेल भंडार, श्रीलाल ज्‍वैलर्स, यादव दुग्‍धालय, डॉ. माचवे का क्लीनिक आदि। नंदन जी को सुझाव जँच गया और नंदन जी, प्रेम कपूर, मैं एक फोटोग्राफर ले कर टैक्‍सी में मुंबई की परिक्रमा करने निकल गए। होली के अनुरूप अच्‍छा-खासा फोटो फीचर तैयार हो गया। फोटोग्राफर ने हम तीनों का भी चित्र खींच लिया। खाली पृष्‍ठों पर यह फोटो-फीचर छप गया और खूब पसंद किया गया। रात को भारती जी का फोन आया, वह बहुत प्रसन्‍न थे, लखनऊ में उनकी जिन-जिन लेखकों से भेंट हुई, सबने इसी फीचर की चर्चा की। दो पृष्‍ठों के एक कोने में कला विभाग ने हम तीनों का चित्र भी पेस्‍ट कर दिया, मैंने शीर्षक दिया - कन्‍हैया, कालिया और कपूर यानी तीन किलंगे (तिलंगे की तर्ज पर)। मैंने जब फोन पर नंदन जी को भारती जी के फोन की सूचना दी तो उन्‍होंने राहत की साँस ली। फीचर से तो नंदन जी समझौता कर चुके थे, मगर तीनों के चित्र से आशंकित थे। शायद भारती जी ने उन्‍हें सदैव नेपथ्‍य में रहने का अभ्यास करा दिया था।

इसी बीच एक दुर्घटना हो गई। अचानक चौधरी के पिता के निधन की खबर आई। वह छुट्‌टी ले कर अजमेर रवाना हो गया। लौटा तो उसके पास सिगरेट का एक बट था, जिसे उसने सहेज कर चाँदी की छोटी-सी डिबिया में रखा हुआ था। यह उस सिगरेट का अवशेष था, जिसका कश लेते-लेते उसके पिता ने अंतिम साँस ली थी। अजमेर से वह लौटा तो एक बदला हुआ इनसान था। उसकी जीवन शैली में अचानक परिवर्तन आने लगा। अचानक वह आयातित सिगरेट और शराब पीने लगा। उसे देख कर कोई भी कह सकता था कि इस शख्‍स के रईस पिता की अभी हाल में मौत हुई है। पिता के निधन के बाद उसमें एक नया आत्‍मविश्‍वास पैदा हो गया। इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि एक दिन उसने घर पर बंगालिन की उपस्‍थिति में बोतल खोल ली और वीरतापूर्वक पत्‍नी का मुकाबला करता रहा। वह घर में और दफ्तर में अपने दायिमी दब्‍बूपन से मुक्‍ति पाने के लिए संघर्ष करने लगा।

दफ्तर में डॉ. धर्मवीर भारती एक कुशल प्रशासक की तरह 'डिवाइड एंड रूल' में विश्‍वास रखते थे। उपसंपादकों को एक साथ कहीं देख लेते तो उनकी भृकुटी तन जाती। बहुत जल्‍द इसके परिणाम दिखाई देने लगते। किसी को अचानक डबल इंक्रीमेंट मिल जाता। किसी एक से सपारिश्रमिक अधिक लिखवाने लगते। किसी एक का वजन अचानक बढ़ने लगता। कोई एक अचानक देवदास की तरह उदास दिखने लगता। चुगली से बाज रहनेवाला आदमी अचानक चुगली में गहरी दिलचस्‍पी लेने लगता। संपादक के कृपापात्र को सब संशय से देखने लगते। वह भरे दफ्तर में अकेला हो जाता।

एक दिन अचानक संपादक ने स्‍नेहकुमार चौधरी को आरोप-पत्र जारी कर दिया। उस पर गंभीर आरोप लगे थे कि वह 'धर्मयुग' की सामग्री और चित्र, ट्रांसपरेंसियाँ 'साप्‍ताहिक हिंदुस्‍तान' को प्रेषित करता है। चौधरी बहुत सीधा और कायर किस्‍म का शख्‍स था। पत्र पा कर उसे मर्मांतक पीड़ा पहुँची। अचानक उसे अपने दिवंगत पिता की शिद्दत से याद आने लगी। दफ्तर से घर लौटते हुए वह इतना भावुक हो गया कि दादर आते-आते रोने लगा। पता नहीं चल पा रहा था कि वह अपने पिता की याद में रो रहा है अथवा संपादक के दुर्व्‍यवहार से। इस बीच मेरी शादी हो चुकी थी और हम लोगों ने शीतलादेवी रोड पर आवास की व्‍यवस्‍था कर ली थी। माटुंगा पर हम दोनों गाड़ी से उतर गए। उसे मैं अपने साथ घर ले गया। ममता ने किस्‍सा सुना तो वह भी बहुत क्षुब्‍ध हुई। उसने कहा कि तुम दोनों भारती जी के यहाँ जाओ और पूछो कि वह किस आधार पर इतना ओछा आरोप लगा रहे हैं। वास्‍तव में किसी फोटोग्राफर ने दोनों पत्रिकाओं में चित्र छपवा कर अपने बचाव के लिए कहानी गढ़ ली थी। चौधरी की सूरत देख कर ममता इतनी उद्विग्‍न हो गई कि ऐसे दमघोंटू माहौल में काम करने पर लानत-मलामत भेजने लगी। उसने चिंता प्रकट की कि इनके भी बीवी-बच्‍चे हैं। वे लोग सुबह से इनकी राह देख रहे होंगे। इनकी सूरत देख कर उन पर क्‍या गुजरेगी। ऐसे नारकीय माहौल में काम करने से अच्‍छा है कोई दूसरा काम ढूँढ़ लें।

ममता की बात से वह कुछ उत्‍साहित हुआ। उसने वॉश बेसिन पर जा कर मुँह धोया और अचानक सीढ़ियाँ उतर गया। कुछ देर बाद वह लौटा तो उसके हाथ में व्हिस्‍की की पूरी बोतल थी। चेहरे पर आत्‍मविश्‍वास लौट आया था और आँखों में चिर-परिचित बालसुलभ वीरता का भाव था। उसने काजू आदि नमकीन का पैकेट मेज पर रखते हुए कहा, 'आज इसका फैसला हो ही जाना चहिए। तुम मेरा साथ दो तो मैं अभी भारती के यहाँ जा कर उनसे दो टूक बात कर सकता हूँ।' उत्‍तेजना में उसने विस्‍की की सील तोड़ कर दो पेग तैयार किए और 'चीयर्स' कह कर गटागट पी गया। हम लोगों ने इत्‍मीनान से जी भर कर व्‍हिस्‍की का सेवन किया। पीने के मामले में हम दोनों नए मुसलमान थे। पीते-पीते हम दोनों स्‍वाभिमान से लबालब भर गए। अन्‍याय, शोषण और लांछन के प्रति विद्रोह की भावना तारी होने लगी, जब तक हम पूरी तरह स्‍वाधीन होते बारह बज गए थे।

उन दिनों पीने का ज्यादा अनुभव तो था नहीं, अचानक मैं अपने को एक बदला हुआ इनसान महसूस करने लगा। दुनियावी रंजोगम बौने नजर आने लगे। बदसलूकी, अन्‍याय और शोषण के खिलाफ धमनियों में उमड़ रहा रक्‍त विद्रोह करने लगा।

'उठो!' मैंने चौधरी को ललकारा, 'आज फैसला हो ही जाना चहिए। अभी चलो वामनजी पैटिट रोड, भारती के यहाँ।'

मगर मेरे मित्र पर व्हिस्‍की का विपरीत असर हुआ था। उसका सारा आक्रोश शांत हो गया था, बोला, 'अब घर जाऊँगा। शराब पी कर मैं उनके यहाँ नहीं जा सकता।'

'अंदर जा कर कै कर आओ।' मैंने कहा, 'तुम्‍हारे जैसे नामर्दों ने ही उसे शेर बनाया है। आज फैसला हो कर रहेगा।'

मेरे तेवर देख कर वह सहम गया, बोला 'एक शर्त पर चल सकता हूँ। जो कुछ कहना होगा तुम्‍हीं कहोगे। मैं सिर्फ मूड़ी हिलाऊँगा।'

'गुड लक', ममता ने कहा।

नीचे जा कर हम लोगों ने टैक्‍सी की और दस-पंद्रह मिनट बाद हम लोग भारती जी के यहाँ लिफ्ट में चौथे माले की ओर उठ रहे थे, पाँचवें माले पर जीने से पहुँचना था। भारती जी के फ्लैट के सामने पहुँच कर मैंने कॉलबेल दबाई। पीछे मुड़ कर देखा चौधरी वहाँ नहीं था, वह चौथे माले पर ही खड़ा था। मैंने उसे आवाज दी, न भारती जी का दरवाजा खुला, न चौधरी दिखाई दिया। दो स्‍टेप्‍स उतर कर मैंने देखा, वह जीने की ओट में छिप कर खड़ा था और मुझे लौटने का इशारा कर रहा था। उसकी इस हरकत की मुझ पर विपरीत प्रतिक्रिया हुई। मैंने पलट कर कॉलबेल पर जो अँगूठा रखा तो दबाता ही चला गया। आधी रात के सन्‍नाटे में घंटी की कर्कश आवाज ने जैसे कुहराम मचा दिया था, तभी दरवाजे में लगी 'मैजिक आई' में से किसी ने देखा।

'कौन है?' अंदर से आवाज आई।

'नमस्‍कार', मैंने कहा, 'मैं कालिया।'

अब तक मुझे इस परिवार में बहुत स्‍नेह मिला था। पुष्‍पा जी ने तुरंत दरवाजा खोल दिया, मुझे देख कर आश्‍चर्य से उनकी आँखे फैल गईं, 'तुम? इस समय? खैरियत तो है?' 'हूँ, मैंने कहा। मैं मुँह नहीं खोलना चहता था। मैंने गर्दन घुमा कर पीछे देखते हुए कहा, 'बहुत जरूरी काम था।'

'मगर भारती जी तो सो रहे हैं।'

'उन्‍हें जगा देंगी तो बड़ी कृपा होगी।' मैंने छत की तरफ देखते हुए कहा और पुष्‍पा जी की आँख बचा कर दो-चार इलायचियाँ मुँह में और रख लीं।

मेरी आँखे सुर्ख हो रही थीं, उन में शराब का खून उतर आया था। स्‍नेहकुमार चौधरी मेरे पीछे दुबका खड़ा था। पुष्‍पा जी बेडरूम की तरफ चल दी थीं और हम दोनों ड्राइंगरूम में गुजराती सोफे पर पसर गए थे। थोड़ी देर बाद भारती जी खादी की जेबवाली बनियान (बंडी) पहने आँखें मलते हुए ड्राइंगरूम में दाखिल हुए। उन्‍हें देख कर हम दोनों आदतन खड़े हो गए।

'बैठो।' उन्‍होंने कहा। चौधरी को देख कर वह सारा किस्‍सा समझ गए होंगे, जो उस समय काँपती टाँगों के बीच हाथ फँसाए चुपचाप हनुमान चालीसा का पाठ कर रहा था।

'कैसे आए?'

'दफ्तर में बहुत घुटन है। मासूम लोगों का भी दम घुट रहा है। आज यह चौधरी इतना दुखी था कि ट्रेन में रोते हुए घर जा रहा था।'

'यह निहायत बेवकूफ है। मैं इससे बहुत प्‍यार करता हूँ। इसकी फाइल तुम्‍हें दिखाऊँगा कि कितनी गंभीर गलतियाँ करता है। मैंने हमेशा इसे बचाया है। पिछले साल तो डबल इंक्रीमेंट भी दिलवाया था। बोलो, मैं गलत कह रहा हूँ क्‍या?' भारती जी ने चौधरी को लज्जित करते हुए पूछा।

चौधरी सहमति में उत्‍साहपूर्वक सिर हिलाने लगा।

'दूसरी पत्रिकाओं का स्‍टॉफ 'धर्मयुग' को कैंसर वार्ड कहता है।' मैंने कहा।

भारती जी का चेहरा उतर गया, 'कौन कहता है?'

'सब कहते है,' मैंने कहा, 'आप सोच रहे होंगे यह नौकरी करके हम बहुत प्रसन्‍न होंगे, ऐशो आराम से जिंदगी बसर कर रहे होंगे तो यह आपका भ्रम है, दफ्तर में घुटन है और घर में सीलन। दफ्तर में आतंक का माहौल है और घर में चूहों, मच्‍छरों और खटमलों का उत्‍पात। जो शख्‍स ट्रेन में रोते हुए घर पहुँचेगा, उसके बच्‍चे क्‍या सोचेंगे? उसके परिवार का माहौल कैसा होगा? लानत है ऐसी अभिशप्‍त जिंदगी पर।'

मैं नशे में था, निर्द्वंद्व था, सातवें आसमान पर था। शराब के नशे और जुनून में मैंने जैसे जेल की पूरी आचार संहिता तहस-नहस कर दी, तमाम बेड़ियाँ उतार फेंक दीं।

चौधरी बदस्‍तूर टकटकी लगाए छत पर लटके फानूस को देख रहा था। अब वह टाँग नहीं हिला रहा था, अब उसकी टाँगें काँप रही थीं।

'तुम लोगों ने खाना खाया?' सहसा भारती जी ने पूछा।

'न।' मैंने नशे की झोंक में कहा, 'हम लोग इस्‍तीफा देना चाहते हैं।'

भारती जी ने पुष्‍पा जी को आवाज दी और कहा कि बच्‍चे भूखे हैं, इनके लिए प्‍यार से रोटी सेंक दो। नौकर सो चुका था।

मैंने सिगरेट सुलगा ली, भारती जी ने मेज के नीचे पड़ी ऐश ट्रे उठा कर मेज के ऊपर रख दी। उनकी उपस्‍थिति में मैं पहले भी सिगरेट पी लिया करता था।

भारती जी ने भड़कने के बजाए मेरी तरफ अत्‍यंत स्‍नेह से देखते हुए आत्‍मीयता से कहा, 'मैं जानता हूँ 'धर्मयुग' के लिए तुम सरकारी नौकरी को लात मार कर आए हो, मैं लगातार तुम्‍हारी पदोन्‍नति के बारे में सोच रहा हूँ। तुम एक काम करो।'

'क्‍या?'

'मेरी एक मदद करो।'

'बताइए।'

'मैनेजमेंट नंदन के कार्य से संतुष्‍ट नहीं है। मैंने सुना है, मातहतों से भी उसका व्‍यवहार ठीक नहीं है। अगर तुम एक प्रतिवेदन तैयार करोगे कि वह अयोग्‍य है, मातहतों के साथ दुर्व्‍यवहार करता है और सबको षड्यंत्र के लिए उकसाता है तो समस्‍त संपादकीय विभाग तुम्‍हारा साथ देगा।'

नंदन जी में दूसरी खामियाँ होंगी, मगर इनमें से एक भी दुर्गुण नहीं था। मैं सन्‍नाटे में आ गया, चौधरी तो जैसे तय करके आया था, जुबान नहीं खोलेगा।

मैंने फौरन प्रतिवाद किया, 'नंदन जी तो दफ्तर में मेरी मदद ही करते हैं, पहले दिन से। अभी हाल में मेरी पतलून कूल्‍हे पर फट गई थी, उन्‍होंने नई सिलवा दी।'

मेरी बात सुन कर भारती जी पहले तो हँस दिए, फिर कृत्रिम क्षोभ से बोले, 'तुम पतलून सिलवा लो या मेरी मान लो।'

इस बीच पुष्‍पा जी ने बड़ी फुर्ती से दाल-रोटी तैयार कर ली, ऐसे अवसर पर रेफ्रिजरेटर बहुत काम आता है। उनके यहाँ चटाई बिछा कर भारतीय पद्धति से ही खाना खिलाया जाता था। भारती जी भी हमारे संग चटाई पर बैठ गए। उन्‍होंने बड़े प्‍यार से खाना खिलाया।

'भारती जी, इस काम के लिए भी आपने हमेशा की तरह गलत आदमी चुना है। मैं इस काम के लिए निहायत अयोग्‍य हूँ, मैंने कहा।'

मेरी बात का उन पर कोई असर न पड़ा, उन्‍होंने कहा कि वह मेरी बात ही दोहरा रहे हैं। 'अब तुम तय कर लो तुम्‍हें चूहों, मच्‍छरों और खटमलों के बीच रहना है अथवा 'धर्मयुग' के सहायक संपादक बन कर सुविधाओं के बीच लिखते हुए एक अच्‍छा कथाकार बनना है।'

एक लिहाज से भारती जी ने गलत आदमी नहीं चुना था। एक बार तो लंच के दौरान तमाम उपसंपादकों ने सामूहिक इस्‍तीफा लिख कर मेरे पास जमा कर दिया था। मैं अच्‍छा-खासा विस्‍फोट कर सकता था, लेकिन मेरी जिम्‍मेदारी बहुत बढ़ जाती। पेट में भोजन जाते ही दारू का नशा कुछ कम हुआ, मगर अभी वीरता का भाव कायम था। यही वजह थी कि मैं अपना इस्‍तीफा देने की बात तय नहीं कर पा रहा था।

रात के दो बजे थे, जब हमने भारती जी से विदा ली। बातचीत का कोई नतीजा नहीं निकला था, मगर अंदर का गुब्‍बार शांत हो गया था। जैसे आँधी-तूफान के बाद बारिश हो जाए और मौसम अचानक सुहाना हो जाय। सच तो यह था कि इस घटना के बाद हम दोनों भीतर ही भीतर बुरी तरह सहम गए थे। यह सोच कर भी दहशत हो रही थी कि सुबह किस मुँह से दफ्तर जाएँगे। मैंने एक टैक्‍सी रोकी और यह गुनगुनाते हुए बैठ गया :

काबा किस मुँह से जाओगे ग़ालिब

शर्म तुमको मगर नहीं आती

चौधरी मुझे शीतलादेवी टेंपल रोड पर उतार कर उसी टैक्‍सी से सीधा अंधेरी निकल गया। ममता जग रही थी, वह हमारी भूमिका से बहुत असंतुष्‍ट हुई। मैं भी बिना बात किए सो गया। दूसरे दिन सुबह सो कर उठा तो नशा काफूर था, दफ्तर जाने की हिम्‍मत न हो रही थी, फिर भी हस्‍बेमामूल नौ तिरपन की गाड़ी से दफ्तर पहुँचा। लग रहा था, किसी भेड़िए के मुँह में जा रहा हूँ, रातभर में उसने अपने नाखून तेज कर लिए होंगे। मगर मुझे ज्यादा देर तक इस आतंकपूर्ण स्‍थिति में नहीं रहना पड़ा। उस रोज भारती ही दफ्तर न आए थे। उससे अगले रोज भी छुट्‌टी पर थे। हमने किसी सहयोगी को भी अपने उस दुःसाहस की भनक न लगने दी।

हम लोगों ने दफ्तर से छुट्‌टी तो नहीं ली, मगर कुछ इस अंदाज से दफ्तर जाते रहे कि एक दिन अचानक कोई भूखा शेर माँद से निकलेगा और देखते-ही-देखते दबोच लेगा। दोस्‍त लोग चुपचाप यह तमाशा देखते रहेंगे, तमाशाबीनों की तरह। मगर शेर जिस दिन जंगल में नमूदार हुआ, निहायत खामोश और संयत था। लग रहा था शिकार में उसकी कोई दिलचस्‍पी नहीं है। जैसे शेर और बकरियाँ एक घाट पर साथ-साथ पानी पी रहे हों। दफ्तर में जैसे सतयुग लौट आया था। माहौल में ही नहीं लोगों के स्‍वास्‍थ्‍य में भी सुधार आने लगा। जो रूटीन सामग्री रवींद्र कालिया के नाम आती थी, वह श्री रवींद्र कालिया के नाम से आने लगी। इसे हम दोनों के अलावा कोई नहीं समझ सकता था कि यह श्री 'श्री' नहीं, एक खलनायक है, जिसने रिश्‍तों के बीच अपरिचित का विंध्याचल खड़ा कर दिया था। चौधरी की स्‍थिति मुझसे भी नाजुक थी। उसे सहायक संपादक और मुख्‍य उपसंपादक के स्‍तर पर ही काम और निर्देश मिल रहे थे। हम लोगों को इलहाम हो रहा था कि यह बेन्‍याजी और अफसानानिगारी जल्‍द ही एक दिन जल्‍द रंग लाएगी। बहुत चाहते हुए भी हम अपने सहयोगियों को कयामत की उस रात का किस्‍सा नहीं सुना पा रहे थे। अव्‍वल तो इस पर कोई विश्‍वास ही न करता और अगर विश्‍वास कर लेता तो हमारा सामाजिक बहिष्‍कार होते देर न लगती। यह उस दफ्तर का दस्‍तूर था, वहाँ की संस्‍कृति का हिस्‍सा था। मुझे ताज्‍जुब तो इस बात का हो रहा था कि चौधरी मुझसे कहीं अधिक निश्‍चिंत था, जबकि मैं उसे अपने से कहीं अधिक भीरु और कमजोर समझता था। उसे विरासत में इतनी संपत्‍ति मिल गई थी कि वह नौकरी का मुखापेक्षी न रहा था। उन दिनों वह बड़ी बेरहमी से पैसा खर्च कर रहा था। इससे पहले वह घर में मद्यपान नहीं करता था मगर अचानक उसमें इतना परिवर्तन आया कि अक्‍सर घर लौटते हुए बंगालिन के लिए मछली और अपने लिए बोतल ले जाता। एक दिन दफ्तर के बाद वह मुझे एक पाँच सितारा होटल में ले गया और जाम टकराते हुए सुझाव रखा कि क्‍यों न हम लोग इस जेल से मुक्‍त हो कर अपना कोई कारोबार शुरू करें और आजादी से जिएँ।

'सुझाव तो अच्‍छा है, मगर कारोबार के लिए पैसा कहाँ है?' मैंने पूछा।

'पैसे की चिंता न करो, मेरे पास है, मुझे जरूरत है तुम्‍हारे जैसे कर्मठ और विश्‍वसनीय पार्टनर की।'

चौधरी का सुझाव मुझे जँच गया, लगा जैसे तमाम जंजीरें टूट कर कदमों में गिर पड़ी हैं। इस बीच एक और पेग चला आया था। हम लोगों ने एक बार फिर गिलास टकराए और 'चियर्स' कहा। मदिरापान के दौरान तय हो गया कि हम दोनों मुंबई में एक प्रेस खोलें और उस प्रेस का नाम होगा - स्‍वाधीनता। शराब की मेज पर ही हमने गुलामी को नेस्‍तानाबूद कर दिया और आजादी का बासंती चोला धारण कर लिया। खाना-वाना खा कर हम स्‍वाधीनता सेनानियों की तरह अपने-अपने घर पहुँचे।

मेरी रजामंदी मिलते ही चौधरी ने दफ्तर से छुट्‌टी ले ली और रैपिड एक्‍शन फोर्स की तरह अपने अभियान में संलग्न हो गया। देखते-ही-देखते उसने अंधेरी (पूर्व) में अपने घर के पास ही सड़क के दूसरे छोर साकी नाका रोड पर कैमल इंक की विशाल फैक्‍टरी के सामने निर्माणाधीन एक औद्योगिक परिसर में प्रेस के लिए एक बड़ा-सा 'शेड' बुक करवा दिया। चौदह हजार रुपए का भुगतान भी कर दिया। महीने भर में परिसर का हस्‍तांतरण भी 'स्‍वाधीनता' प्रेस के नाम हो गया। उसने हम लोगों को भी अपने चालनुमा फ्लैट की बगल में जगह दिलवा दी और हम लोग शीतलादेवी टेंपल रोड से अंधेरी (पूर्व) चले आए। स्‍वाधीनता प्रेस में मेरी बराबर की हिस्‍सेदारी थी जबकि ज्यादातर पूँजी चौधरी की ही लगी थी। पहले मैं चौधरी का हमप्‍याला बना। फिर हमनिवाला और अंत में पार्टनर। इस बीच उसने न केवल इस पार्टनरशिप को कानूनी जामा पहना दिया, बल्‍कि हम लोग इस्‍तीफा देते, इससे पूर्व ही वह राजस्‍थान से छपाई की बूढ़ी, मगर आयातित मशीनों और प्रेस का दीगर सामान भी खरीद लाया। चौधरी का पूँजी निवेश था, मेरी सक्रिय भागीदारी और व्‍यवस्‍था की जिम्मेदारी। उसने मेरे माध्‍यम से अपना इस्‍तीफा भी भिजवा दिया जो तत्‍काल स्वीकार कर लिया गया। अब मेरा मन इस्‍तीफा देने के लिए मचल रहा था।

एक सुहानी सुबह मैं भी भारती जी के केबिन में जा कर अपना इस्‍तीफा पेश कर आया। भारती जी चौधरी की बलि से संतुष्‍ट हो गए थे, उन्‍हें शायद मेरे इस्‍तीफे की जरूरत या उम्‍मीद न थी, किसी को भी न थी। किसी को भी कयामत की उस रात की जानकारी न थी। भारती जी ने भी किसी से इसकी चर्चा न की थी, सिवाय टी.पी. झुनझुनवाला के, जो मुंबई के इनकम टैक्‍स कमिश्‍नर थे और जिनकी पत्‍नी शीला झुनझुनवाला समय काटने के लिए 'धर्मयुग' के महिला पृष्‍ठ देखा करती थीं। शीला जी की सीट मेरी बगल में ही थी और वे लंच में मलाई के मीठे टोस्‍ट खिलाया करती थीं। उन्‍होंने एक दिन धीरे से बताया था कि पिछले दिनों आधी रात को दो शराबी भारती जी के घर में घुस गए थे और वह सोच भी नहीं सकतीं कि उन शराबियों में से एक रवींद्र कालिया भी हो सकता है। उन्‍होंने यह भी बताया था कि भारती जी मुझसे नहीं चौधरी से बहुत खफा थे। शायद यही कारण था कि मेरा इस्‍तीफा पा कर भारती जी हक्‍के-बक्‍के रह गए। उन्‍होंने इस्‍तीफा पेपरवेट से दबा दिया और पूछा कि मैंने यह भी सोचा है कि इसके बाद क्‍या करूँगा।

'फारिग हो कर यह भी सोच लूँगा।' मैंने कहा।

भारती जी ने मेरे इस्‍तीफे पर तत्‍काल कोई निर्णय नहीं लिया। मैं छुट्‌टी की अर्जी दे कर नए अभियान में जुट गया। उतनी ही व्‍यस्‍त एक नई आजाद दिनचर्या शुरू हो गई। ठीक सुबह दस बजे टाई-वाई से लैस हो कर हाथ में ब्रीफकेस लिए मैं काम की तलाश में निकल जाता। अंधेरी पूर्व में ही छपाई का इतना काम मिल गया कि बाहर निकलने की नौबत न आई। मैंने पाया बड़े-बड़े औद्योगिक संस्‍थानों की स्‍टेशनरी दो कौड़ी की थी। लेटर हेड, विजिटिंग कार्ड एकदम पारंपरिक, देहाती और कल्‍पनाशून्‍य थे। मेरे पास टाइम्‍स ऑफ इंडिया का तजुर्बा था, वहाँ के कला विभाग के कलाकारों से मित्रता थी। मैंने इन संस्‍थानों की स्‍टेशनरी का आर्ट वर्क तैयार करवाया जो उनकी प्रचलित स्‍टेशनरी से कहीं अधिक कलात्‍मक और आकर्षक था। ज्यादा दौड़-भाग करने की जरूरत नहीं पड़ी, क्‍योंकि हमारे पास काम ज्यादा था कार्यक्षमता कहीं कम। हम लोग 'चोक' बनानेवाली जिस कंपनी का गारंटी कार्ड मुद्रित करते थे, अक्‍सर पिछड़ जाते। उनकी चोक उत्‍पादन की क्षमता हमारे गारंटी कार्ड मुद्रित करने से कहीं अधिक थी। तब तक बिजली का कनेक्‍शन भी मंजूर नहीं हुआ था। हाथ पैर से मशीनों का संचालन किया जाता। आठ बाई बारह इंच की एक नन्‍हीं सी लाइपजिक नाम की जर्मन ट्रेडिल मशीन भी थी, जिस पर मैं वक्‍त जरूरत विजिटिंग कार्ड वगैरह छाप लेता था।

प्रेस चलने लगा। 'शेड' का दाम भी आश्‍चर्यजनक रूप से बढ़ने लगा। बहुत जल्‍द असमान पूँजी निवेश के अंतर्विरोध उभरने लगे। ज्‍यादा समय नहीं बीता था कि जर, जोरू और जमीन का जहर संबंधों में घुलने लगा। 'धर्मयुग' से मैं जरूर स्‍वाधीन हो गया था, मगर यह एहसास होते भी देर न लगी कि पूँजी की भी एक पराधीनता होती है। वह नित नए-नए रूपों में अपना जलवा दिखाने लगी। मेरी उम्र और मेरी फितरत इसके प्रति भी विद्रोह करने लगी। तफसील या कटुता में न जा कर एक छवि का तीन दशक पहले के 'इस्‍टाइल' में जिक्र करना चाहूँगा, जो आज भी (तीन दशक बाद) जेहन में कौंध जाती है, जिस पर मैं आज भी फिदा हूँ। इस सादगी पर मैं क्‍या आप भी कुर्बान हो जाते अगर सुबह-सुबह पूरे दिनों की हामला एक सद्यस्‍नात स्त्री अचानक आपकी पत्‍नी की उपस्‍थिति में नमूदार हो जाए और शैंपू किए अपनी स्‍याह, लंबी और घनी केश राशि को अपने कपोलों से बार-बार हटाती रहे ताकि अश्रुधारा निर्बाध गति से प्रवाहित हो सके और वह राष्‍ट्रभाषा में इतना भी व्‍यक्‍त न कर पाए कि उसका पति परमेश्वर 'प्‍लग प्‍वाइंट' में अँगुलियाँ ठूँस कर आत्‍महत्‍या की धमकी दे रहा है क्‍योंकि उसे वहम हो गया है कि वह उसे कम और कालिया जी को ज्‍यादा चाहती है। 'प्‍लग प्‍वाइंट' में अंगुलियाँ उसका पति ठूँस रहा था मगर धक्‍का मुझे लगा। बाद की जिंदगी में ऐसे धक्‍के बारहा लगे और मैं 'शॉक प्रूफ' होता चला गया। धक्‍के खाते-खाते आदमी उनका भी अभ्‍यस्‍त हो जाता है, जाने मेरे कुंडली में ऐसा कौन-सा योग है कंपास की सुइयों की तरह शक की सुइयाँ अनायास ही मेरी दिशा में स्‍थिर हो जाती हैं।

जब से मैंने शराब से तौबा की है, मेरी कई समस्‍याओं का सहज ही समाधान हो गया है। अपनी प्रत्‍येक खामी, कमजोरी और असफलता को मयगुसारी के खाते में डाल कर मुक्‍त हो जाता हूँ। वास्‍तव में दो-चार पेग के बाद मेरे भीतर का 'क्‍लाउन' काफी सक्रिय हो जाता था। मेरे बेलौस मसखरेपन से दोस्‍तों की ऊबी हुई बीवियों का बहुत मनोरंजन होता था। यह दूसरी बात है कि इसकी मेरे दोस्‍तों को ही नहीं, मुझे भी भारी कीमत चुकानी पड़ी है। अब तो खैर मेरे हमप्‍याला दोस्‍तों ने अघोषित रूप से मेरा सामाजिक बहिष्‍कार कर रखा है। भूले-भटके अगर कोई मित्र मुझे महफिल में आमंत्रित करने की भूल कर बैठता है तो जल्‍द ही उसे अपनी गलती का एहसास हो जाता है, जब उसकी पत्‍नी भरी महफिल में उसे जलील करने लगती है कि कालिया जी शराब छोड़ सकते हैं तो आप क्‍यों नहीं छोड़ सकते। यही कारण है कि मैं ऐसी पार्टियों से अक्‍सर कन्‍नी काट जाता हूँ और संस्‍मरणात्‍मक लेखन से अपना और आपका समय नष्‍ट करने को अपनी सेहत के लिए ज्यादा मुफीद समझता हूँ। वरना शराब ने मुझे क्‍या-क्‍या नजारे नहीं दिखाए।

पूस की एक ठिठुरती रात तो भुलाए नहीं भूलती, जब लखनऊ में अचानक मेरे एक परम मित्र और मेजबान ने मुझे आधी रात फौरन से पेश्‍तर अपना घर छोड़ देने का निर्मम सुझाव दे डाला था। कुछ देर पहले हम लोग अच्‍छे दोस्‍तों की तरह मस्‍ती में दारू पी रहे थे। मेरे मित्र ने नया-नया स्‍टीरियो खरीदा था और हम लोग बेगम अख्‍तर को सुन रहे थे : 'अरे मयगुसारो सबेरे-सबेरे, खराबात के गिर्द घेरे पै घेरे' कि अचानक टेलीफोन की घंटी टनटनाई। फोन सुनते ही मेरे मित्र का नशा हिरन हो गया, वह बहुत असमंजस में कभी मेरी तरफ देखता और कभी अपनी बीवी की तरफ। उसके विभाग के प्रमुख सचिव का फोन था कि उसे अभी आधे घंटे के भीतर लखनऊ से दिल्‍ली रवाना होना है। उसने अपनी बीवी से सूटकेस तैयार करने के लिए कहा और कपड़े बदलने लगा। सूट-टाई से लैस हो कर उसने अचानक अत्यंत औपचारिक रूप से एक प्रश्‍न दाग दिया, 'मैं तो दिल्‍ली जा रहा हूँ इसी वक्त, तुम कहाँ जाओगे?'

'मैं कहाँ जाऊगा, यहीं रहूँगा।'

'मेरी गैरहाजिरी में यह संभव न होगा।'

'क्‍या बकवास कर रहे हो?'

'बहस के लिए मेरे पास समय नहीं है, किसी भी सूरत में मैं तुम्‍हें अकेला नहीं छोड़ सकता। इस वक्‍त तुम नशे में हो और मेरी बीवी खूबसूरत है, जवान है, मैं यह 'रिस्क' नहीं उठा सकता।'

वह मेरा बचपन का दोस्‍त था, हम लोग साथ-साथ बड़े हुए थे, क्रिकेट, हॉकी, बालीवाल और कबड्‌डी खेलते हुए। वह आई.ए.एस. में निकल गया और मैं मसिजीवी हो कर रह गया। हम लोग मिलते तो प्रायः नास्‍टेलजिक हो जाते, घंटों बचपन का उत्‍खनन करते, तितलियों के पीछे भागते, बर्र की टाँग पर धागा बाँध कर पतंग की तरह उड़ाते।

अभी तक मैं यही सोच रहा था कि वह मजाक कर रहा है, जब ड्राइवर ने आ कर खबर दी कि गाड़ी लग गई है तो मेरा माथा ठनका। मेरा मित्र घड़ी देखते हुए बोला, 'अब बहस का समय नहीं है। मुझे जो कहना था, कह चुका। उम्‍मीद है तुम मेरी मजबूरी को समझोगे और बुरा नहीं मानोगे।'

'साले तुम मेरा नहीं अपनी बीवी का अपमान कर रहे हो।' मैंने कहा और उसे विदा करने के इरादे से दालान तक चला आया। मेरे निकलते ही उसने बड़ी फुर्ती से कमरे पर ताला ठोंक दिया और चाभी अपनी बीवी की तरफ उछाल दी। उसकी पत्‍नी ने चाभी कैच करने की कोशिश नहीं की और वह छन्‍न से फर्श पर जा गिरी। वह हो-हो कर हँसने लगा।

मैं खून का घूँट पी कर चुपचाप सीढ़ियाँ उतर गया। मेरा सारा सामान भी अंदर बंद हो गया था। बाहर सड़क पर सन्‍नाटा था, कोहरा छाया हुआ था, कुत्‍ते रो रहे थे। उसकी गाड़ी दनदनाती हुई कोहरे मे विलुप्‍त हो गई।

लखनऊ के भूगोल का भी मुझे ज्यादा ज्ञान नहीं था। मेरे जेहन में मजाज़ की पंक्‍तियाँ कौंध रही थी -

ग़ैर की बस्‍ती है , कब तक दर-ब-दर मारा फिरूँ ,

ऐ ग़मे दिल क्‍या करूँ ऐ वहशते दिल क्‍या करूँ ?

अंधाधुंध शराबनोशी में मजाज भी लखनऊ की इन्‍हीं सड़कों पर बेतहाशा भटका था। वह भी पूस की ही एक रात थी, जब मजाज ने बुरी तरह शराब पी थी, दोस्‍त लोग उसे शराबखाने में खुली छत पर लावारिस छोड़ कर अपने-अपने घर लौट गए थे और मजाज़ रात भर खुली छत पर पड़ा रहा और सुबह तक उसका शरीर अकड़ गया था।

दिन में ही फोन पर कवि नरेश सक्‍सेना ने बताया था कि उसका तबादला लखनऊ हो गया है और नजदीक ही वजीर हसन रोड पर उसने घर लिया है। मुझे उसने सुबह नाश्‍ते पर आमंत्रित किया था। मैं आधी रात को ही नाश्‍ते की तलाश में निकल पड़ा, वजीर हसन रोड ज्यादा दूर नहीं था।

भटकते-भटकते मैंने उसका घर खोज ही निकाला। मैंने दरवाजा खटखटाया तो उसने ठिठुरते हुए दरवाजा खोला, 'अरे तुम इस समय, इतनी ठंड में?'

'मेरे नाश्‍ते का वक्‍त हो गया है।' मैंने कहा। भीतर पहुँच कर मुझे समझते देर न लगी कि जौनपुर से अभी उसका पूरा सामान नहीं आया था। वे लोग किसी तरह गद्‌दे और चादरें जोड़ कर बिस्‍तर में दुबके हुए थे। उन्‍हें देख कर लग रहा था कि बहुत ठंड है, मेरे भीतर शराब की गर्मी थी। मैं भी नरेश के साथ उसी बरायनाम रजाई में जा घुसा।

10-

'स्‍वाधीनता' मेरे लिए 'स्‍टिलबार्न बेबी' साबित हुई और मैं दुबारा सड़क पर आ गया। इस बीच श्रीमती शीला झुनझुनवाला ने भी 'धर्मयुग' छोड़ कर दिल्‍ली से एक महिलोपयोगी पत्रिका 'अंगजा' निकालने की योजना बनाई। उन्‍होंने दिल्‍ली चलने का प्रस्‍ताव रखा। एक नई विज्ञापन एजेंसी में कॉपी राइटर का काम मिलने की संभावना भी उजागर हुई, मगर मुझे लग रहा था मुंबई से मेरे तंबू-कनात उखड़ चुके हैं, दिल्ली भी तब तक इतनी निर्दयी, निर्मम और भ्रष्‍ट नहीं हुई थी। लेखकों में विदेश यात्रा और मदिरापान की इतनी ललक और लोलुपता नहीं थी, उन दिनों दिल्‍ली साहित्‍य की मंडी की तरह नहीं साहित्‍य की राजधानी की तरह विकसित हो रही थी। नामवर जी उन दिनों आलोचना के संपादक थे, उन्‍होंने पत्र लिख कर दिल्‍ली लौट आने का प्रस्‍ताव रखा :

प्रिय रवींद्र ,

' धर्मयुग ' छोड़ने की खबर से दुख तो हुआ , लेकिन आश्‍चर्य नहीं। मुंबई से आनेवाले दो-एक लोगों से मैंने तुम्‍हारी विडंबनापूर्ण स्‍थिति की बात सुनी थी और तब से मैं समझे बैठा था कि तुम्‍हारे जैसा स्‍वाभिमानी पुरुष ज्यादा दिन नहीं टिक सकता , खैर सवाल यह है कि अब क्‍या करोगे ? मेरा ख्‍याल है कि ममता नौकरी कर रही है। इसलिए कुछ दिनों के लिए तो ज्यादा परेशानी न होगी। लेकिन इस बीच काम तो ढूँढ़ना ही होगा। मुंबई में डौल न बैठे तो दिल्‍ली चले आना बेहतर होगा। यहाँ बेकारों की पल्‍टन काफी बड़ी है। इसलिए अपने अंदर किसी प्रकार की हीनता महसूस न होगी। फिर कौन जाने यहाँ तुम्‍हें कोई काम निकल ही आए।

..... नई कहानियाँ में तुम्‍हारी और ममता की टिप्‍पणियाँ पढ़ीं। बहरहाल आलोचना में ' युवा लेखन पर एक बहस ' शीर्षक पूरा संवाद ही देने जा रहा हूँ। इस बार ' वर्किंग पेपर ' मैं स्‍वयं लिखूँगा और आठ-दस लेखकों के पास भेज कर उनकी प्रतिक्रिया मँगवाऊँगा। जिसके जी में आए उस लेख की धज्‍जियाँ उड़ा दे - मैं सब छापूँगा। सोचता था , निबंध लिखने से पहले तुमसे भी कुछ बात हो जाती। क्‍या यह संभव हो सकेगा ? फिलहाल दिमाग पर यही भूत सवार है। ....अपने को किसी तरह निरुपाय न समझना।

स्‍नेह

नामवर सिंह

गर्दिश के उन दिनों में नामवर जी ही नहीं, अनेक मित्र मेरे भविष्‍य को ले कर चिंतित थे। हरीश भादानी, विश्‍वनाथ सचदेव, मेरा पूर्व मेजबान ओबी, उसके मित्र डेंगसन, जाड़िया, चन्‍नी, स्‍वर्ण, शुक्‍लाज, शिवेंद्र आदि का एक भरा-पूरा परिवार था। मुंबई में डेंगसन एक इलेक्ट्रॉनिक कंपनी के एरिया मैनेजर थे। वर्ली के बड़े से फ्लैट में अकेले रहते थे, पत्‍नी अमृतसर में एक मामूली-सी सरकारी नौकरी करती थी। पत्‍नी की छोटी-सी जिद थी कि जब तक डेंगसन दारू न छोड़ेंगे वह मुंबई नहीं आएगी, न नौकरी छोड़ेगी। वह डेंगसन के अंतिम संस्‍कार में भाग लेने ही मुंबई पहुँची। बीच सड़क में हृदयगति रुक जाने से डेंगसन का कार में ही आकस्‍मिक निधन हो गया था।

कांदिवली में काले हनुमान जी का एक मंदिर था, डेंगसन की उसमें गहरी आस्‍था थी। वह किसी भी मित्र को परेशानी में पाते तो अपनी कार में बैठा कर श्रद्धापूर्वक कांदिवली ले जाते। मौत से कुछ ही दिन पहले मुझे भी ले गए थे। मंदिर में एक अहिंदी भाषी महात्‍मा रहते थे। महात्‍मा जी ने मुझे देख कर एक पर्चे पर लिखा - नदी किनारे दूर का चानस। महात्‍मा केवल सूत्रों में बात करते थे, उसकी व्‍याख्‍या आप स्‍वयं कीजिए और करते जाइए। जल्‍द ही समय अपनी व्‍याख्‍या भी प्रस्‍तुत कर देता था। मेरे सामने भी सूत्र वाक्‍य के अर्थ खुलने लगे। कुछ दिनों बाद स्‍पष्‍ट हुआ कि नदी किनारे का अर्थ था संगम यानी गंगा-जमुना का तट और दूर का मतलब निकला इलाहाबाद। सन 69 के अंतिम दिनों में मेरा इलाहाबाद आ बसना भी एक चमत्‍कार की तरह हुआ। अभी हाल में मैंने कन्‍हैया लाल नंदन पर संस्‍मरण लिखते हुए उन दिनों की याद ताजा की है। ऐसा नहीं था कि मेरी मित्रता सिर्फ पीने-पिलानेवाले लोगों से रही है। मेरे मित्रों में नंदन जी जैसे सूफी भी रहे हैं, जिन्‍होंने कभी सिगरेट का कश भी न लिया होगा।

बहुत जल्‍द नंदन जी का गोरेगाँव का संसार भी मेरा संसार हो गया था। उनके तमाम मित्र मेरे मित्र हो गए। वह सुखदेव शुक्‍ल हों (अब दिवंगत) या, पंचरत्न, मित्तल। मनमोहन सरल तो खैर दफ्तर के सहयोगी ही थे। शुक्‍लाज से मेरी दोस्‍ती उनकी साहित्‍यिक रुचि के कारण ही नहीं बल्‍कि इसलिए भी हो गई कि (डॉ.) मिसेज उमा शुक्‍ला चाय बहुत अच्‍छी बनाती थीं और इतवार को अक्‍सर मैं सुबह-सुबह पराँठे खाने उनके यहाँ पहुँच जाता। मैं शिवाजी पार्क में रहता था मगर मेरा खाली समय गोरेगाँव में ही बीतता। गोरेगाँव पहुँच कर लगता था, अपने परिवार के बीच पहुँच गया हूँ। सब लोग दफ्तर को दफ्तर में भूल आते थे, मगर नंदन जी अपने ब्रीफकेस में कुछ और परेशानियाँ कुछ और उदासी, कुछ और अवसाद भर लाते। ट्रेन में वह दुष्‍यंत की पंक्‍तियाँ गुनगुनाते घर लौट आते :

कुछ भी नहीं था मेरे पास ,

मेरे हाथों में न कोई हथियार था ,

न देह पर कवच ,

बचने की कोई भी सूरत नहीं थी ,

एक मामूली आदमी की तरह ,

चक्रव्‍यूह में फँस कर ,

मैंने प्रहार नहीं किया , सिर्फ चोटें सहीं ,

अब मेरे कोमल व्‍यक्‍तित्‍व को ,

प्रहारों ने कड़ा कर दिया है।

जिन दिनों मैंने 'धर्मयुग' से त्‍यागपत्र दिया था, नंदन जी बीमार थे। वह उन दिनों 'प्‍लूरसी' के इलाज के सिलसिले में किसी हेल्‍थ रिजॉर्ट पर गए हुए थे। छुट्‌टी से लौटे तो दफ्तर का माहौल बदला-बदला-सा लगा। मेरी और चौधरी की कुर्सी पर प्रशिक्षु पत्रकार जमे थे। हम लोगों के विद्रोह से हाल में एक सनसनी फैल गई थी और कयामत की उस रात के कई संस्‍मरण प्रचारित-प्रसारित हो रहे थे। साथी लोग उसमें अनवरत संशोधन, परिवर्द्धन और परिवर्तन कर रहे थे। छुट्‌टी से लौटने पर नंदन जी ने भी यह किस्‍सा सुना। कोई विश्‍वास ही नहीं कर सकता था कि उस दफ्तर में भारती जी को कोई चुनौती दे सकता था। यह सुन कर तो वह विह्वल हो गए कि मैंने नंदन के खिलाफ किसी भी षड्‌यंत्र में शामिल होने से साफ इनकार कर दिया था। नंदन जी उसी तारीख सपत्‍नीक अंधेरी पहुँचे। वह बहुत भावुक हो रहे थे। उनकी आँखें नम हो रही थीं और वह देर तक मेरा हाथ थामे बैठे रहे। वह मेरे भविष्‍य को ले कर मुझसे ज्‍यादा चिंतित थे। उन्‍हें अफसोस इस बात का था कि यह सारा खेल उनकी अनुपस्‍थिति में हो गया। उनकी राय थी कि हम लोगों को इस्‍तीफा देने की जरूरत नहीं थी, व्‍यवस्‍था में रहते हुए उसका विरोध करना चहिए था। नंदन जी ने यही मार्ग चुना था और उसकी परिणति उनके चेहरे से झलक रही थी, वह प्‍लूरसी के शिकार हो गए थे। तब तक भारती जी ने मेरा इस्‍तीफा मंजूर नहीं किया था। मैं चूँकि 'कन्‍फर्म' हो चुका था, नियमानुसार मुझे तीन महीने तक कार्यमुक्‍त नहीं किया गया। इसी दौरान उन्‍होंने ममता को कॉलिज यह संदेश भी भिजवाया था कि मैं अपना इस्‍तीफा वापस ले लूँ। उन्‍हें लग रहा था कि यह अव्‍यवहारिक कदम मैंने शराब के नशे में उठाया था। सच तो यह था कि उस दमघोंटू माहौल से मैं किसी भी मूल्‍य पर मुक्‍ति चाहता था। अगर मैंने नशे के अतिरेक में यह कदम उठाया होता तो मैं अपने इस्‍तीफे पर पुनर्विचार कर सकता था। फिलहाल मेरे पास लेखन के अलावा कोई दूसरा विकल्‍प नहीं था। उन्‍हीं दिनों मैंने एक लंबी कहानी लिखी - 'चाल'। अपने समय में वह खूब चर्चित हुई। इस कहानी पर अश्क जी का एक लंबा पत्र भी मुझे प्राप्‍त हुआ। उन्‍होंने इस कहानी को ज्ञानरंजन की 'बहिर्गमन' से श्रेष्‍ठ कहानी सिद्ध किया था। पत्र कुछ इस प्रकार शुरू होता है :

' प्रिय कालिया ,

......बहरहाल , यह तय है कि ' चाल ' अपने ' रफ वर्शन ' में भी वैसी बुरी कहानी नहीं थी और पुस्तक में उसका जो रूप छपा है , वह काफी सुधारा हुआ है। मैं अपनी बात को यों रखना चाहूँगा कि यदि मुझे ' चाल ' और ' बहिर्गमन ' में से बेहतर कहानी चुननी हो तो मैं चाल को चुनूँगा , उसके तमाम दोषों के बावजूद! ' घंटा ' को और यदि ' घंटा ' और ' चाल ' में से , ' घंटा ' और ' काला रजिस्टर ' में से मुझे एक को चुनना पड़े तो मैं चुनाव नहीं कर पाऊँगा , क्योंकि मेरे निकट दोनों एक-सी उत्कृष्ट रचनाएँ हैं। '

अब इतने वर्षों बाद मुंबई में जिंदगी ने मुझे दुबारा सड़क पर ला पटका था। दोस्‍त लोग भी मुझे कोस रहे थे मैंने चौधरी के झाँसे में आ कर अच्‍छी-खासी नौकरी को लात मार दी। नंदन जी रात को इसलिए मिलने आए थे कि दिन के उजाले में बागियों से मिलना खतरनाक साबित हो सकता था। इतनी बड़ी मुंबई में भी उन्हें लगता था, चप्‍पे-चप्‍पे पर धर्मवीर भारती के जासूस छाए हुए है। छूटते ही नंदन जी ने पूछा, 'इलाहाबाद जाओगे?'

'इलाहाबाद में क्‍या है?'

'हिंदी भवन' का प्रेस बिकाऊ है। वह किसी विश्‍वास के आदमी को ही सौंपना चाहते हैं ताकि उनके प्रकाशन का मुद्रण कार्य चलता रहे।'

हिंदी भवन का नाम सुनते ही मेरी स्‍मृतियाँ ताजा हो गईं। अपनी करतूतें मैं भूला नहीं था।

छात्र जीवन से ही मुझे पढ़ने-लिखने की और दारू की लत लग गई थी। मेरी दोनों जरूरतें हिंदी भवन से ही पूरी होती थीं। उन दिनों समूचे पंजाब में हिंदी पुस्‍तकें केवल 'हिंदी भवन' पर उपलब्‍ध होती थीं। मोहन राकेश के संपर्क में आ कर मैंने यह बात अच्‍छी तरह समझ ली थी कि लेखकों को तीन चीजों यानी पत्‍नी, नौकरी, और प्रकाशक का चुनाव अत्यंत सावधानी और सूझबूझ से करना चाहिए जो लेखक इन तीन मसलों पर विवेक से नहीं, भावुकता से काम लेते हैं, वे फिर जीवन भर भटकते ही रहते हैं। उन्‍हें शराब या किसी दूसरे नशे की लत पड़ जाती है, उनका जीवन कभी पत्‍नी, कभी नौकरी और कभी प्रकाशक बदलने में ही नष्‍ट हो जाता है (मेरी बात का कदापि यह अर्थ न लगाया जाए कि जो लेखक पत्‍नी, नौकरी और प्रकाशक नहीं बदलते, उनका जीवन नष्‍ट नहीं होता)। लेखन एक ऐसा पेशा है कि इसमें ज्‍यादा विकल्‍प भी नहीं होते। फ़ैज़ जैसे पाए के लेखक को भी इस नतीजे पर पहुँचना पड़ा कि :

फ़ैज़ होता रहे जो होना है

शेर लिखते रहा करो बैठे

मैंने बहुत पहले फ़ैज़ की राय गाँठ बाँध ली थी और अपने को खुश्‍क पत्‍तों की तरह हवाओं के हवाले कर दिया था। एक रास्‍ता बंद होता तो दूसरा अपने आप खुल जाता, जबकि जिंदगी बार-बार यही एहसास कराती रही है कि 'रास्‍ते बंद हैं सब, कूच-ए-क़ातिल के सिवा।' मेरे जीवन में ग़ालिब का यह शेर भी बार-बार चरितार्थ होता रहा है कि 'कर्ज की पीते थे मय और समझते थे कि हाँ रंग लाएगी हमारी फ़ाकामस्‍ती एक दिन।' आप विश्वास न करेंगे, मगर मेरी बात मान लीजिए कि मुझे पहली नौकरी कर्ज की मय और फाकामस्‍ती ने ही दिलवाई थी। अगर मेरे ऊपर 'मय का कर्ज' न होता तो यकीनन मुझे एम.ए. पास करते ही यों आसानी से नौकरी न मिल जाती। मुझे नौकरी दिलवाने के लिए उन लोगों को ज्यादा दौड़-भाग करनी पड़ी, जिनकी मय के कर्ज से मैं आकंठ डूबा हुआ था।

'तुम हाँ करो तो बात आगे बढ़ाऊँ।' नंदन जी ने तफसील से बताया कि इलाहाबाद में हिंदी भवन का एक प्रेस है। प्रेस में केवल हिंदी भवन की पुस्‍तकें मुद्रित होती हैं, इसी उद्‌देश्‍य से प्रेस की स्‍थापना की गई थी ताकि मुद्रण के लिए इधर-उधर न भटकना पड़े। यह भी मालूम हुआ कि छात्र जीवन से ही नंदन जी का हिंदी भवन से घनिष्‍ठ संबंध रहा है। वे हिंदी भवन की पुस्‍तकों के डस्‍ट कवर बना कर अपनी फीस का प्रबंध किया करते थे। कितनी विरोधाभासपूर्ण स्‍थितियों में नंदन जी का और मेरा छात्र जीवन गुजरा था। हिंदी भवन इलाहाबाद उनके लिए फीस का प्रबंध करता था मेरे लिए बियर का। दोनों का अपना-अपना जुगाड़ था। अपना-अपना भाग्‍य था।

नंदन जी ने यह भी बताया कि हिंदी भवन के संचालक नारंग बंधु अब वृद्ध हो गए हैं, और धीरे-धीरे काम समेटना चाहते हैं, वे ऐसे कर्मठ नौजवान की तलाश में हैं जो जिम्‍मेदारी से प्रेस का संचालन कर सके। हिंदी भवन का मुख्‍य कार्यालय जालंधर में है जहाँ इंद्रचंद्र जी के बड़े भाई धर्मचंद्र नारंग हिंदी भवन का संचालन करते हैं। दोनों भाइयों की सहमति हो गई तो प्रेस आसान किस्‍तों पर मिल सकता था।

धर्मचंद्र नारंग का नाम सुनते ही मेरा माथा ठनका। मैंने कहा, 'धर्मचंद्र जी को मैं बहुत अच्‍छी तरह से जानता हूँ। मगर हो सकता है मेरे बारे में उनकी राय बहुत अच्‍छी न हो।'

मैंने विस्‍तार से नंदन जी को 'हिंदी भवन' से उधार पुस्‍तकें खरीदनें और उन्‍हें औने-पौने दाम में बेच कर बियर पी जाने का किस्‍सा सुनाया। मेरी कारगुजारियाँ सुन कर नंदन जी को बहुत धक्‍का लगा। उन्‍हें लगा कि बना-बनाया खेल बिगड़ गया है। अब नारंग बंधुओं से आगे की बात चलाना व्‍यर्थ होगा।

'नारंग बंधु बहुत आदर्शवादी लोग हैं। स्‍वाधीनता आंदोलन में भी इस परिवार की सक्रिय भूमिका रही थी। भगत सिंह से भी इन लोगों के आत्‍मीय संबध थे। तुमने उधार न चुकाया होगा तो वह कभी किस्‍तों पर प्रेस देने को तैयार न होंगे।'

'कर्ज तो मैंने चुका दिया था। यह दूसरी बात है कि कर्ज वसूलने के लिए नारंग जी को मुझे नौकरी दिलवानी पड़ी थी।'

उन दिनों लेक्‍चरर को कुल जमा दो सौ सत्‍तर रुपए मिलते थे। मैंने एक अकलमंदी की थी कि पहली तारीख को मैंने अपनी समूची तनख्‍वाह नारंग जी को सौंप दी थी। उन्‍होंने मुझ पर तरस खा कर मुझे पचास रूपये जेब खर्च के लिए लौटा दिए थे और शेष रकम मेरे हिसाब में जमा कर ली। अगले ही महीने मैं ऋणमुक्‍त हो गया था। यह सुन कर नंदन जी कुछ आश्‍वस्‍त हुए। उनके चेहरे का तनाव कुछ कम हुआ, 'तब तो बात आगे बढ़ाई जा सकती है।' और नंदन जी अगले रोज से बात बनाने में व्‍यस्‍त हो गए।

अंततः तय हुआ कि इलाहाबाद जा कर प्रेस देखा जाए और संभावनाएँ तलाशी जाएँ। मैं तो आजाद पंछी था, नंदन जी को छुट्‌टी लेने के लिए पिता की मिजाजपुर्सी के लिए गाँव जाने का बहाना करना पड़ा था। 'धर्मयुग' में छुट्‌टी मिलना वैसे ही कठिन होता था, नंदन जी के लिए तो और भी कठिन। भारती जी न छुट्‌टी लेते थे न देते थे। वह पूर्णरूप से 'धर्मयुग' को समर्पित थे। उसे ओढ़ते थे और उसे ही बिछाते थे। कई बार तो कोई शंका हो जाने पर आधी रात को उठ कर प्रेस चले जाते। एक बार गिंजबर्ग के संदर्भ में मैंने अपने पृष्‍ठ पर अमूर्त्त किस्‍म का एक न्‍यूड विजुअल छपने भेज दिया था, भारती जी का मन नहीं माना और उन्‍होंने आधी रात को प्रेस जा कर मशीन रुकवा दी। मशीन का एक-एक मिनट कीमती माना जाता था और भारती जी ने बहुत देर के लिए मशीन रुकवा दी थी, सिलेंडर पर से वह चित्र घिसवाना पड़ा था। उन दिनों मुद्रण कार्य आज की तरह आसान नहीं था, फोटो एंग्रेवर की बहुत जटिल प्रक्रिया होती थी। हफ्‍तों भारती जी की मैनेजमेंट से मशीन रुकवाने को ले कर चख-चख चलती रही।

बहरहाल, इलाहाबाद के लिए छद्‌म नाम से दो सीटें आरक्षित करवाई गईं। कोशिश यही थी कि नंदन जी और मुझे कोई जासूस साथ-साथ न देख ले। मैं तो बागी करार दिया जा चुका था और बागी को प्रश्रय देना और उसके साथ-साथ घूमना उतना ही बड़ा अपराध था, जितना अंग्रेजों के समय में रहा होगा या इंडियन पीनल कोड में आज भी है। उन्‍हीं दिनों किसी ने नंदन जी और मुझे किसी फिल्‍म के बाद साथ-साथ थियेटर की सीढ़ियाँ उतरते देख लिया था और नंदन जी जवाब-तलब हो गए थे और यह तो एक हजार किलोमीटर से भी लंबी यात्रा थी। कल्‍याण तक तो हम लोगों ने एक-दूसरे से बात तक न की। तमाम एहतियाती कदम उठाए गए। यात्रा तो सही-सलामत कट गई, लेकिन इलाहाबाद स्‍टेशन पर एक हादसा पेश आते-आते रह गया। हम लोग ट्रेन से उतर रहे थे कि सामने ओंकारनाथ श्रीवास्‍तव दिखाई पड़ गए। उनके साथ कीर्ति चौधरी थीं। भारती जी और 'धर्मयुग' से यह लेखक दंपति जुड़े थे। भारती जी के यहाँ उनसे परिचय हुआ था। उन्‍हें देखते ही हम लोगों की सिट्‌टी-पिट्‌टी गुम हो गई और हम लोग स्‍वाधीनता सेनानियों की तरह पुलिस को चकमा देते हुए अलग-अलग दिशा में चल दिए। मैं पटरियाँ फलाँगते हुए एक नंबर प्‍लेटफार्म पर जा पहुँचा। मुझे तो कोई फर्क न पड़ता मगर नंदन जी के साथ मुझे इलाहाबाद स्‍टेशन पर देखने की खबर भारती जी को मिलती तो नंदन जी के लिए संकट खड़ा हो जाता। इलाहाबाद से भारती जी पहले ही बहुत सशंकित रहते थे। भावनात्‍मक रूप से वह इलाहाबाद से जुड़े थे, मगर इलाहाबाद के लेखकों पर से उनका विश्‍वास उठ चुका था। केशवचंद्र वर्मा उन्‍हें इलाहाबाद का कच्‍चा-चिट्‌ठा लिखते रहते थे। यह दूसरी बात है कि पुष्‍पा जी जब भारती जी की अस्‍थियाँ ले कर इलाहाबाद आईं तो उनकी अस्‍थियों के दर्शन के लिए पूरा इलाहाबाद उमड़ आया था। भारती जी एक बार इलाहाबाद से गए तो दुबारा कभी नहीं लौटे, लौटीं तो उनकी अस्‍थियाँ। मैंने साप्ताहिक 'गंगा यमुना' में प्रथम पृष्‍ठ पर शीर्षक दिया :

मुट्‌ठी भर फूल बन कर प्रयाग लौटे धर्मवीर भारती।

मैं बहुत देर तक एक नं. प्‍लेटफार्म पर नंदन जी की प्रतीक्षा करता रहा। बहुत देर बाद जब प्‍लेटफार्म लगभग खाली हो गया तो नंदन जी कुली के पीछे खरामा-खरामा चलते नजर आए। रानी मंडी स्‍टेशन के पास ही था। स्‍टेशन से रिक्‍शा में रानी मंडी पहुँचने में पाँच मिनट भी न लगे।

हम लोग प्रेस पहुँचे तो देखा नारंग जी अत्‍यंत तल्‍लीनता से मशीन प्रूफ पढ़ रहे थे। बीच-बीच में वह मैग्‍नीफाइंग ग्‍लास की मदद भी लेते। हमें देख कर उनके चेहरे पर कोई प्रतिक्रिया न हुई। हम लोग मेज के सामने पड़ी कुर्सियों पर बैठ गए। मुझे लगा, नारंग जी को मेरी कारस्‍तानियों की भनक लग चुकी है और वह जानबूझ कर हमारी उपेक्षा कर रहे हैं। नंदन जी प्रेस के तमाम कर्मचारियों से परिचित थे, उन्‍होंने बद्री को चाय-नाश्‍ते का इंतजाम करने के लिए कहा। नारंग जी ने जब तक पूरा फार्म न पढ़ लिया, हम लोगों की तरफ आँख उठा कर न देखा। मैं नारंग जी के बड़े भाई से परिचित था, वह भी बहुत कम बोलते थे, मगर वह चुप्‍पी के भीतर से बहुत कुछ कह देते थे। मुझे दोनों भाइयों में कोई समानता नजर नहीं आ रही थी। धर्मचंद्र जी कमीज-पतलून पहनते थे और इंद्रचंद्र जी का लिबास शुद्ध गांधीवादी था यानी खादी का धोती-कुर्ता। देखने में भी वह अपने बड़े भाई से बड़े लगते थे।

इस बीच नाश्‍ता आ गया। हम लोगों ने ऊपर जा कर नाश्‍ता किया। नंदन जी मुझे धीरे से बता चुके थे कि जब तक नारंग जी प्रूफ न निपटा लेंगे किसी से बात न करेंगे। 'धर्मयुग' में मैं भी अपने पृष्‍ठों के प्रूफ पढ़ता था, मगर बिना किसी तनाव के। इतनी एकाग्रता भी दरकार न थी। प्रूफ निपटा कर नारंग जी ऊपर आए, जैसे कोई महत्‍वपूर्ण और जटिल आपरेशन करके फारिग हुए हों।

नाश्‍ते के बाद बिना एक भी क्षण नष्‍ट किए नारंग जी उठ खड़े हुए और बोले, 'आइए आपको प्रेस दिखा दूँ।' हम लोगों ने मशीनें देखीं, जबकि लेटर प्रेस की मशीनों की न मुझे कोई जानकारी थी, न नंदन जी को। नारंग जी हर काम नियामानुसार करते थे। दस श्रमिकों से फैक्‍टरी एक्‍ट लागू हो सकता था, वह नौ श्रमिकों से काम लेते थे। दो मशीनें थीं, दोनों निःशब्‍द चल रही थीं। छह कंपोजिटर थे, सब चुपचाप कंपोजिंग कर रहे थे। गजब का अनुशासन और सन्‍नाटा था। अगर बीच का दरवाजा बंद कर दिया जाए तो कोई अनुमान नहीं लगा सकता था कि भीतर नौ आदमी काम कर रहे हैं या मशीनें चल रही हैं। सब कुछ चुस्त-दुरुस्‍त और व्‍यवस्‍थित था।

'मेरी भाई साहब से बात हो गई है, वह राजी हो गए हैं।' नारंग जी ने अपनी सीट पर बैठते हुए नंदन जी से पूछा, 'आपको मालूम है, मैं सीट पर गद्‌दी क्‍यों रखता हूँ?'

हम दोनों ने अनभिज्ञता में सिर हिलाया। नारंग जी ने बताया कि वह किसी सुविधा या आराम के लिए सीट पर गद्‌दी नहीं रखते, बल्‍कि इसलिए रखते हैं कि इससे बेंत जल्‍दी नहीं टूटती।

नारंग जी ने एक ड्राअर से एक मोटी फाइल निकाली। उसमें प्रेस संबंधी सब दस्‍तावेज थे - मशीनों के मूल बिल, सामान की लंबी फेहरिस्त, रजिस्‍ट्रेशन के तमाम कागजात। फाइल पलटते हुए उन्‍होंने 'डासन पेन एंड इलियट' कंपनी का पूरा इतिहास भी बता डाला, जिनसे उन्‍होंने मशीनें आयात की थीं। बगैर किसी भूमिका के उन्‍होंने अपनी शर्तें भी रख दीं - 'दस हजार रुपए आपको अग्रिम देने होंगे, शेष रकम का भुगतान छत्‍तीस मासिक किस्‍तों में करना होगा। आप जब पैसे का इंतजाम कर लें, प्रेस सँभाल लें। इस बीच मैं वकील से कागजात तैयार करवा लूँगा।'

'मैं तो प्रेस के काम के बारे में कुछ भी नहीं जानता।' मैंने कहा।

'सब जान जाएँगे। उसका भी मैं इंतजाम कर दूँगा।' नारंग जी ने कहा, 'यहाँ हिंदी साहित्‍य सम्‍मेलन का एक बड़ा लैटर प्रेस है। विचित्र जी उसके प्रबंधक हैं। मैं लाहौर से उन्‍हें जानता हूँ। आप उनसे मिल लें, मेरा हवाला दे दें, वह आपको महीने भर में प्रेस के सब दाँव-पेंच समझा देंगे।'

ये सब बाद की बातें थीं। फिलहाल तो मुझे अपने हिस्‍से के पाँच हजार रुपयों की चिंता हो गई, जो आज से पैंतीस साल पहले काफी बड़ी रकम थी, जब सोने का दाम सवा सौ रुपए तोले था। मैंने सोचा, इसके बारे में जिन पी कर ही विचार किया जा सकता है। लौटते हुए मैंने एक जगह रिक्‍शा रुकवाया और चौक में मदन स्‍टोर से लाइम कार्डियल की एक बोतल खरीदी जिन की बोतल मेरे सूटकेस में थी। मुझे बहुत ताज्‍जुब हुआ जब मदन स्‍टोर ने रिक्‍शावाले को ग्राहक लाने के लिए मेरे सामने एक रुपया बख्‍शीश में दे दिया। ऐसा तो मैंने किसी शहर में नहीं देखा था।

पाँच हजार रुपयों के इंतजाम की उधेड़बुन में मैं मुंबई पहुँचा, मुझे आभास भी नहीं था कि मुंबई पहुँचते ही मेरी समस्‍या का कोई चमत्‍कारिक हल निकल आएगा। उन दिनों मैं हरीश भादानी की पत्रिका 'वातायन' के लिए नियमित रूप से स्‍तंभ लेखन करता था। 'वातायन' के पृष्‍ठों पर मैंने काफी आग उगली थी। ओमप्रकाश निर्मल ने प्रतिक्रिया स्‍वरूप एक लंबा पत्र भेजा था। उन्‍हें मेरा तेवर पसंद था, मगर लोहियावादियों के बारे में की गई टिप्‍पणियों पर एतराज था। हरीश भादानी और विश्‍वनाथ सचदेव से अक्‍सर भेंट होती रहती थी। मैंने इन मित्रों को अपनी समस्या बताई तो भादानी और विश्‍वनाथ ने चुटकियों में पैसे का इंतजाम कर दिया। अगले रोज वे लोग मुझे अपने एक मारवाड़ी उद्योगपति मित्र के यहाँ ले गए और उन्‍होंने इससे पहले कि हम कुछ कहते टेलीफोन पर बात करते-करते तिजोरी खोली और पाँच हजार रुपए मुझे सौंप दिए। सेठ जी एक टेलीफोन रखते तो दूसरा टनटनाने लगता। उनके पास शुक्रिया कुबूल करने का भी समय नहीं था। इशारों से ही अभिवादन करते हुए उन्‍होंने हम लोगों को विदा कर दिया। मैं आज तक नहीं जान पाया कि वह दानवीर कर्ण कौन था। गत पैंतीस वर्षों से हरीश भादानी से भी मेरी भेंट हुई, न पत्राचार। बहुत बाद में मार्कंडेय जी ने बताया था कि संसद सदस्‍या सरला माहेश्‍वरी हरीश भादानी की पुत्री हैं और अरुण माहेश्‍वरी दामाद।

रुपयों का इंतजाम होते ही मैं बोरिया-बिस्‍तर उठा कर इलाहाबाद चला आया। एक तरह से मुंबई ने मुझे दक्षिणा दे कर विदा कर दिया था। ममता की व्‍यवस्‍था चर्चगेट स्‍थित विश्‍वविद्यालय के छात्रावास में हो गई। मैंने इलाहाबाद में अश्क जी के यहाँ लंगर डाल दिए और संघर्ष के लिए कमर कस ली। ज्ञान उन दिनों इलाहाबाद में ही था। उसकी पीने में ज्यादा दिलचस्‍पी न थी, खाने में थी। गर्भवती महिलाओं की तरह उसका मन कभी खट्‌टी और कभी मीठी चीजों के लिए मचलता रहता। लोकनाथ की लस्‍सी पी कर ही वह नशे में आ जाता। कोई काम न होता तो ज्ञान, नीलाभ और मैं इलाहाबाद की सड़कें नापते। इलाहाबाद के खुले इलाके की सड़कें बहुत आकर्षित करतीं। नीम के पत्‍ते झरते तो सड़कें पीली हो जातीं, जैसे पत्‍तों की सेज बिछ गई हो।

नारंग जी अत्‍यंत कठोर अनुशासन के व्‍यक्‍ति थे। घड़ी का काँटा देख कर काम करते थे। दिन भर काम में जुटे रहते और पाँच बजते ही ताला ठोंक कर टैगोर टाउन के लिए चल देते। एक बार तो जल्‍दबाजी में एक कर्मचारी रातभर के लिए प्रेस में ही बंद रह गया था। उनकी हर चीज पूर्व निर्धारित थी, यहाँ तक कि रिक्‍शा का भाड़ा भी। एक दिन उन्‍होंने हिचकिचाते हुए बताया कि इलाचंद्र जोशी से किसी प्रकाशक ने कहा है कि उन्‍होंने मुंबई के जिस लेखक के हाथ प्रेस का सौदा किया है वह जबरदस्‍त ऐय्याश है, किस्‍तें क्‍या अदा करेगा, धीरे-धीरे प्रेस खा-पी जाएगा। बाद में उस प्रकाशक से मेरी भी मित्रता हो गई, उसने हिंदी भवन द्वारा प्रकाशित इलाचंद्र जोशी के उपन्‍यास ही नहीं, मेरी तमाम पुस्‍तकें भी प्रकाशित कीं। उन दिनों मेरे सामने अपने अस्‍तित्‍व का सवाल ही मुँह बाए खड़ा था, पीना तो दरकिनार, खाने के लाले पड़े हुए थे। मेरा हिंदी साहित्‍य सम्‍मेलन में विचित्र जी की देखरेख में प्रशिक्षण शुरू हो गया। नारंग जी की शर्तें इतनी कड़ी थीं कि मैं कोई जोखिम उठा ही नहीं सकता था। समय पर किस्‍त न चुकाने पर सूद की दर दुगुनी हो जाने का प्रावधान था। प्रेस और कर्ज का जुआ मेरे कंधों पर गिरने ही वाला था; मैं पूरा ध्‍यान लगा कर विचित्र जी से गुरुमंत्र ले रहा था।

विचित्र जी सचमुच विचित्र शख्‍सियत के मालिक थे। लंबा तगड़ा बलिष्‍ठ शरीर, मुँहफट, मलंग, फक्‍कड़, मगर गजब के स्‍वाभिमानी। नाराज हो जाते तो गाली बकने लगते और खुश हो जाते तो कर्मचारी को रम की बोतल थमा देते - जा ऐश कर। सबेरे घंटों हवन करते, शाम को गोश्‍त भूनते और जम कर मदिरापान करते। उनका पूरा व्‍यक्‍तित्‍व एक ऋषि की मानिंद था। सम्‍मेलन के पदाधिकारियों से वह पदाधिकारी की तरह पेश आते और मजदूरों के बीच मजदूरों-सा व्‍यवहार करते। जी में आता तो लोकगीत गाते हुए मशीन चलाने लगते। विचित्र जी की किसी भी बात का कोई बुरा न मानता था। वह उम्र में मुझसे काफी बड़े थे, मगर मेरी उनसे छनने लगी। उनका बड़ा बेटा इंडियन फारेन सर्विस में था। जापान में भारत के दूतावास में वरिष्‍ठ अधिकारी। अचानक एक सड़क दुर्घटना में उसकी मृत्‍यु हो गई। अखबार में यह समाचार पढ़ कर मैं अफसोस करने उनके यहाँ गया तो वह हस्‍बेमामूल दारू पीते हुए गोश्‍त भून रहे थे। उनकी पत्‍नी सलाद काट रही थीं।

'होनी को कोई भी नहीं टाल सकता।' उन्‍होंने मेरा पेग तैयार करते हुए कहा, 'बहू की अभी उमर ही क्‍या है? मैंने उससे कह दिया है कि वह दूसरी शादी के बारे में सोचे, पढ़ी-लिखी योग्‍य लड़की है, अपने लिए जरूर कोई लड़का ढूँढ़ लेगी।'

विचित्र जी बेटे के बचपन में खो गए। उन्‍हें याद आया कि कैसे उन्‍होंने एक बार उसके जन्‍मदिवस पर छुट्‌टी के रोज दुकान खुलवा कर उसे तिपहिया साइकिल दिलवाई थी। वे देर तक मेरी तरफ पीठ करके गोश्‍त भूनते रहे। उनका जाम गैस के पास जस का तस भरा रखा था। मैं भी घूँट नहीं भर पाया। सहसा उनकी पत्‍नी उठ कर दूसरे कमरे चली गईं। संभ्रांत और बहादुर लोग मातम में भी शालीन बने रहते हैं। विचित्र जी और कुछ भी हों, संभ्रांत तो नहीं थे। ऐसा बीहड़ आदमी जीवन में दुबारा नहीं मिलता। बाद में वह दिल्‍ली चले गए और किसी प्रेस के काम से बिक्री-कर कार्यालय में काम करते हुए हृदयगति रुक जाने से इस दुनिया से रुख्‍सत हो गए।

मैं इलाहाबाद क्‍या आया, इलाहाबाद का ही हो कर रह गया।

11-

'अगर जन्‍नत का रास्ता इलाहाबाद से हो कर जाएगा तो मैं जहन्‍नुम में जाना ज्‍यादा पसंद करूँगा।' मिर्ज़ा ग़ालिब ने अपने एक खत में इलाहाबाद के बारे में अपनी राय जाहिर की थी। मिर्ज़ा बरास्‍ता इलाहाबाद बनारस गए थे, मालूम नहीं कि इलाहाबाद ने उनके साथ कैसा सुलूक किया था कि वह इलाहाबाद से खौफ खाने लगे थे। उन्‍होंने एक शेर में अर्ज किया कि 'हज़र अज़ फितन ए इलाहाबाद' यानी इलाहाबाद के फितनों से खुदा मुझे पनाह दे। इलाहाबाद आने से पहले मैंने 'फितना' शब्‍द नहीं सुना था। अश्क जी इसका खुल कर इस्‍तेमाल करते थे। उनकी नजर में सन साठ के बाद की पीढ़ी के अधिसंख्‍य कथाकार फितना थे। इस शब्‍द की ध्‍वनि ही कुछ ऐसी है कि सुनने पर गाली का एहसास होता है। लुगात में इसका अर्थ देखा तो अश्क जी की ही नहीं मिर्ज़ा ग़ालिब की बात भी समझ में आ गई। फितना का अर्थ होता है, लगाई-बुझाई अथवा साजिश करनेवाला, दंगाई, नटखट, षड्यंत्री, बगावती आदि-आदि। साठोत्‍तरी पीढ़ी के बारे में अग्रज लेखकों की राय कभी अच्‍छी नहीं रही। भैरवप्रसाद गुप्‍त इसे हरामियों की पीढ़ी कहते थे, अश्क जी फितनों की, कमलेश्‍वर ऐय्‍याश प्रेतों की पीढ़ी और मार्कंडेय दो पीढ़ियों के बीच उगी खरपतवार।

इलाहाबाद का आक्रामक तेवर सभी को झेलना पड़ता है - आप जवाहरलाल नेहरू या इंदिरा गांधी ही क्‍यों न हों। अपने को सुमित्रानंदन पंत या उपेंद्रनाथ अश्क ही क्‍यों न समझते हों। ज्ञानपीठ पुरस्‍कार से सम्‍मानित नरेश मेहता इलाहाबाद की इन्‍हीं सड़कों पर अपनी आधा दर्जन अप्रकाशित पुस्‍तकें लिए दर-दर भटका करते थे। यह इलाहाबाद में ही संभव था कि कोई विजयदेव नारायण साही भरी महफिल में पंत जी की उपस्‍थिति में ताल ठोंक कर घोषणा कर दे कि उसने पंत जी का 'लोकायतन' न तो पढ़ा है और न पढ़ेगा। साही जैसे 'चेक पोस्ट' इलाहाबाद के हर प्रवेश-द्वार पर स्‍थापित हैं।

इलाहाबाद आने से पूर्व मेरे तसव्‍वुर में इलाहाबाद की एक अत्‍यंत रोमांटिक छवि थी। गजधर की मखमली घास पर बियर बार, निराला, पंत और महादेवी का प्रभामंडल, निराला का फक्‍कड़पन, घने वृक्षों से ढँकी पत्‍तों से आच्‍छादित जादुई सड़कें। मैं सोचा करता था, इलाहाबाद साहित्‍य को समर्पित कलम के मजदूरों की कोई मायानगरी है।

मगर कुछ महीनों में इलाहाबाद ने मुझे कलम का नहीं सचमुच का मजदूर बना दिया। मैं दिन भर मजदूरी करता, यानी प्रेस के पूरे प्रूफ पढ़ता और अगर कोई मशीनमैन गैरहाजिर हो जाता तो मशीन भी आपरेट करता। प्रेस में छुट्‌टी हो जाती, मैं कर्ज चुकाने के चक्‍कर में अकेला मशीन पर बैठा रहता। ऐसे में सिर्फ एक चीज ने मेरा साथ दिया था और वह था मदिरा का प्‍याला। मदिरा से मेरी गहरी दोस्‍ती अकेलेपन और परीक्षा लेनेवाले कठिन दिनों में ही हुई थी। संयोग से यह दोस्‍ती तर्कसिद्ध भी हो गई थी। इलाहाबाद आ कर तबीयत कुछ पस्‍त, कुछ नासाज और कुछ बेगानी-सी लगने लगी थी। डॉक्‍टर दरबारी ने बताया कि ब्‍लड प्रेशर लो हो गया है और सलाह दी कि शाम को ब्रांडी ले लिया करूँ। डॉक्‍टर की यह सलाह मुझे बहुत रास आई। ब्रांडी का एक पेग पी कर तबीयत कुलाँचे भरने लगती। मेरे लिए उन दिनों एक पेग ही काफी था। इससे ज्यादा पीने की न क्षमता थी और न साधन। शाम को थक-हार कर जब मैं ब्रांडी की शरण में जाता तो एक-एक घूँट अमृत की तरह स्‍फूर्ति देता। मैं दोपहर से ही सूरज डूबने का इंतजार करता, यानी सूरज अस्‍त और बंदा मस्त।

बंदे के ऊपर प्रेस की किस्‍तों की तलवार तो लटक ही रही थी, मुंबई की फुटकर देनदारियाँ भी बाकी थीं। सब से ज्‍यादा चिंता मुझे टाइम्‍स की को-आपरेटिव सोसायटी के ऋण की अंतिम दो एक किस्‍तों की थी। मुंबई में आदमी सबसे पहले आवास की समस्‍या से दो-चार होता है। शायद इसी को ध्‍यान में रखते हुए कंपनी ने कन्‍फर्म होते ही आसान किस्‍तों पर ऋण उपलब्‍ध कराने की व्‍यवस्‍था कर रखी थी। इसी सुविधा का लाभ उठा कर कर्मचारी पगड़ी दे कर किसी रैन बसेरे का इंतजाम कर लेते थे। कन्‍फर्म होते ही लगभग प्रत्‍येक कर्मचारी ऋण लेता था। यह वहाँ का दस्‍तूर था। भाई लोगों ने मुझे भी 'माधुरी' के संपादक अरविंद कुमार और कन्‍हैयालाल नंदन की जमानत पर तुरत-फुरत तीन हजार का ऋण दिलवा दिया। उस समय मुझे पैसे की कोई खास जरूरत न थी। हम कमाऊ दंपती थे। नंदन जी, चौधरी और मैंने तय किया कि क्‍यों न फ्रिज ले लिया जाए। उन दिनों गोदरेज का बड़ा से बड़ा रेफ्रीजरेटर ढाई हजार रुपए में आ जाता था। नंदन जी ने तीन फ्रिज का सौदा किया और सौ-सौ रुपए की अतिरिक्‍त छूट मिल गई। मेरे पास छह सौ रुपए बचे, उनकी मैंने बियर खरीद कर फ्रिज में भर दी। कहना गलत न होगा रेफ्रीजरेटर बियर से लबालब भर गया। उसमें जितनी बोतलें आ सकती थीं ठूँस दी। शाम को दफ्तर से लौट कर पानी की जगह बियर पीता तो अपने को धन्‍य समझता। मुंबई में कुल जमा यही हमारी पूँजी थी, यानी कर्ज का फ्रिज और कर्ज की मय। फ्रिज के बटर-शटर का उपयोग हम लोग सेफ की तरह करते थे, घर का रुपया-पैसा उसी में रखा जाता था। ऋण नामालूम आसान किस्‍तों पर वेतन से कट जाता था। दो-एक किस्‍तें बाकी थी, जब मैं नौकरी छोड़ कर इलाहाबाद चला आया। मुझे एहसास था कि वक्‍त पर पैसा न भेजा तो अरविंद कुमार और नंदन जी की तनख्‍वाह से कट जाएगा, यह दूसरी बात है कि मेरे जमानतदार समझदार, समर्थ और धैर्यवान लोग थे और उन्‍होंने सब्र से काम लिया। वे जानते रहे होंगे कि सब्र का फल मीठा होता है।

इलाहाबाद अपेक्षाकृत एक कठिन और बददिमाग शहर है। यहाँ जड़ें जमाना बहुत मुश्‍किल काम है, लेखक के लिए ही नहीं, प्रकाशक के लिए भी। पत्र-पत्रिकाओं के लिए तो और भी अधिक चुनौतीपूर्ण। जिस लेखक, प्रकाशक, वकील, राजनेता और पत्र-पत्रिका को इलाहाबाद ने स्‍वीकार कर लिया, उसे पूरे देश की स्‍वीकृति मिल जाती है। देशभर से यहाँ अनेक साहित्‍यिक, व्‍यावसायिक और लघु-पत्रिकाएँ आती हैं, कुछ पत्रिकाओं के तो बंडल ही नहीं खुलते। एक जमाने में यहाँ 'धर्मयुग' की आठ हजार प्रतियाँ प्रति सप्‍ताह बिकती थीं और ऐसा जमाना भी आया कि 'धर्मयुग' की अस्‍सी प्रतियाँ बिकना मुहाल हो गया। भारती इलाहाबाद को ले कर बहुत संशकित रहा करते थे। वह अक्‍सर कहा करते थे कि यह एक ऐसा शहर है जो दूर रहने पर हांट करता है और पास जाने पर साँप की तरह डसता है। भारती जी ने भी इलाहाबाद के घाट-घाट का पानी पिया था, उन्‍होंने शहर में अपने अनेक मुखबिर छोड़ रखे थे। यह दूसरी बात है कि ये लोग अपने को भारती का विश्‍वासपात्र और परम मित्र समझने का भ्रम पाले हुए थे। मगर भारती जानते थे कि उनसे क्‍या काम लेना है। इनके माध्‍यम से भारती जी को इलाहाबाद के साहित्‍यिक जगत की संपूर्ण जानकारी मिलती रहती थी। भारती जी के पत्रों का संकलन करते समय पुष्‍पा जी की निगाह ऐसे पत्रों पर गई कि नहीं, कह नहीं सकता।

इलाहाबाद आने से पूर्व मैं दिल्‍ली और मुंबई में भी वर्षों रहा, मगर जो अनुभव और झटके इलाहाबाद ने दिए वह इलाहाबाद ही दे सकता था। असहमति, विरोध, अस्‍वीकार और आक्रामकता इलाहाबाद का मूल तेवर है। इलाहाबाद की पीटने में ज्यादा रुचि रहती है। इसका स्‍वाद हर शख्‍स को चखना पड़ता है - वह लेखक हो, अधिकारी, वकील अथवा साधारण रिक्‍शा चालक ही क्‍यों न हो। इसे दुर्भाग्‍यपूर्ण ही कहा जाएगा कि रिक्‍शा चालक तक इलाहाबाद में ही सबसे ज्‍यादा पिटते हैं - सवारी से भी, साथियों से भी, पुलिस से भी। नेहरू खानदान का भी काले झंडों से जितना स्‍वागत इलाहाबाद में हुआ होगा, वह अन्‍यत्र संभव नहीं।

अपनी सूक्ष्‍म पिटाई का एक उदाहरण पेश करता हूँ। 'लोकभारती' से मेरी पहली किताब छप कर आई थी और मैं एक लेखकीय ठसक के साथ वहाँ पसर कर बैठा था। तभी विजयदेव नारायण साही होठों में पाइप दबाए हुए 'लोकभारती' में दाखिल हुए। मेज पर लोकभारती के नए प्रकाशन की एक-एक पुस्‍तक पड़ी थी। उन्‍होंने सरसरी तौर पर किताबें देखीं और मेरी किताब देख कर मुँह बिचकाया। किताब उठाई और उलट-पलट कर दूसरी मेज की तरफ फेंक दी, 'आजकल क्‍या छापने लगे हो भाई?' मेरी किताब के साथ साही का सुलूक देख कर मेरे प्रकाशक का तो जैसे जीवन सार्थक हो गया। उसने तुरंत चपरासी को कॉफी लाने कॉफी हाउस दौड़ा दिया और मेरी तरफ कुछ इस अंदाज से देखा जैसे पूरी रायल्‍टी का अग्रिम भुगतान कर दिया हो। मेरी हालत अत्‍यंत दयनीय हो गई, चेहरा उतर गया, पुस्तक छपने का सारा उत्‍साह मिट्‌टी में मिल गया, मगर इस घटना के बाद इलाहाबाद को झेलना आसान भी हो गया। मैंने साही की हरकत को यह सोच कर खारिज कर दिया कि यह हिंदी साहित्‍य पर समाजवाद का दुष्‍प्रभाव है। इलाहाबाद के नाम के साथ 'बाद' जरूर लगा है, मगर यहाँ 'बाद' कम 'वाद' ज्‍यादा हैं, वाद-विवाद उससे भी ज्‍यादा हैं। मैंने इसी लोकभारती और कॉफी हाउस में वाद-विवाद को हाथापाई में तब्‍दील होते भी देखा है। प्रकाशकों और लेखकों के बीच कुर्सियाँ भी चली हैं, पेपरवेट भी उछले हैं, प्‍याले भी टूटे हैं।

इलाहाबाद बरसों से दो खेमों में बँटा रहा है। एक मजबूत खेमा प्रगतिशीलों का था और उसी की प्रतिक्रिया में खड़ा हुआ था 'परिमल' आंदोलन। 'परिमल' के अधिसंख्‍य लेखक पक्‍की पेंशनवाली सरकारी अथवा अर्द्धसरकारी नौकरी में थे। कोई विश्‍वविद्यालय में था और कोई आकाशवाणी में, वह विजयदेव नारायण साही हों या डॉ. रामस्‍वरूप चतुर्वेदी, डॉ. रघुवंश, डॉ. जगदीश गुप्‍त अथवा केशवचंद्र वर्मा। प्रगतिशील खेमे के लोग प्रायः गर्दिश में रहते थे। भैरवप्रसाद गुप्त और अमरकांत ने छोटी-छोटी असुरक्षित प्राइवेट नौकरियों में जीवन बिता दिया, मार्कंडेय ने न कभी नौकरी की न चाकरी, शेखर जोशी भी मामूली नौकरी पर थे। दोनों खेमों में हमेशा वैचारिक टकराव रहता। एक खेमा कॉफी हाउस के एक कोने में अड्डा जमाता तो दूसरा दूसरे कोने में। 'परिमल' के लोग प्रायः शुचितावादी थे - श्रीलाल शुक्‍ल के अलावा किसी भी परिमलियन को मैंने मद्यपान करते नहीं देखा। यह दूसरी बात है कि श्रीलाल शुक्‍ल भी अपने को परिमलियन मानने से इंकार करते हैं। दोनों खेमों में वैचारिक टकराव के कारण सिर फुटौवल की नौबत आ जाती। दोनों खेमों के लोगों में कुछ समानताएँ भी थीं। कहना गलत न होगा अपने तेवर में भैरवप्रसाद गुप्‍त विजयदेव नारायण साही के मार्क्‍सवादी संस्‍करण थे। दोनों कट्‌टरवादी, उद्दंड और मुँहफट थे। भैरवप्रसाद गुप्‍त तो अंतिम साँस तक यह मानने को तैयार न हुए कि सोवियत संघ का विघटन हो चुका है। एक बार 'लोकभारती' में उन्‍होंने मुझे इसी बात पर बहुत फटकारा था और मुझे सीआईए का एजेंट घोषित कर दिया था। उनका दृढ़ विश्‍वास था कि अमरीकी मीडिया सोवियत संघ के बारे में दुष्‍प्रचार कर रहा है और सीआईए के एजेंट सोवियत संघ के बारे में बेसिर-पैर की अफवाहें उड़ा रहे हैं। इलाहाबाद में परिमल के ही लोगों के साथ मैंने मयनोशी नहीं की, वरना प्रगतिशील तो डट कर मदिरा का सेवन करते थे। साही को मैंने कभी नशे में नहीं देखा जबकि भैरवप्रसाद गुप्‍त पीने का कोई मौका न छोड़ते थे। वह अपने से कम उम्र या यों कहिए नवोदित लेखकों के साथ भी पी लेते थे। वैसे उन दिनों शहर में पीने-पिलाने का ज्यादा माहौल नहीं था। श्रीपत राय शौकीन आदमी थे। पीते थे और पिलाते भी थे। मैं भी महीने में एकाध शाम उनके यहाँ बिता आता। वह बहुत कम बोलते थे। मगर उनके संग खाना-पीना अच्‍छा लगता था। उन्‍होंने कभी यह आभास भी नहीं होने दिया था कि आप बिन बुलाए मेहमान हैं। मैं जब भी गया उन्‍होंने गर्मजोशी में इस्‍तकबाल किया, जबकि यह शेर मुझे अभी हाल में श्रीपत जी के निधन के बरसों बाद उर्दू शायर मुनव्‍वर राना ने सुनाया है :

फायदा तू भी उठा ले कालिया ,

गर्म है बाजार इस्‍तकबालिया

कभी-कभी अश्क जी भी मेहरबान हो जाते थे, मगर वह बहुत नाप-तौल कर पिलाते थे। अक्‍सर उनके यहाँ से तिश्‍ना लौटना पड़ता। वह अच्‍छे मूड में होते तो बड़े बेटे उमेश को आवाज देते - 'उमेश बल्‍ली, जरा लपक कर खुल्‍दाबाद से एक अद्धा ले आओ।' उस एक अद्धे में वह सबको निपटा देते, खुद भी निपट लेते। एक तिश्‍नगी बनी रह जाती। बाद में निन्‍नी मामा (कौशल्‍या अश्‍क के छोटे भाई) शराग का जुगाड़ करने लगे। उनकी किसी अवकाश प्राप्‍त फौजी से दोस्‍ती हो गई थी। वह बहुत सस्‍ते में रम की व्‍यवस्‍था कर देते।

समय-समय पर इलाहाबाद में साहित्‍यानुरागी अधिकारियों की नियुक्‍ति न होती तो बहुत से रचनाकार प्‍यासे रह जाते। बहुत-सी लघु पत्रिकाएँ बंद हो जातीं। प्रतियोगी परीक्षाओं को फलाँग कर इलाहाबाद विश्‍वविद्यालय के अनेक छात्र ऊँचे-ऊँचे पदों पर पहुँचे, बीच-बीच में उन्‍होंने इलाहाबाद को भी गुलजार किया। मार्कंडेय के दरबार से ऐसे अनेक मेधावी छात्र उठे। पता चला जो लड़का कल तक मार्कंडेय जी के लिए कटरा से सब्‍जी लाया करता था वह आयकर अधिकारी हो गया है या पुलिस अधीक्षक और मार्कंडेय उसे ठोंक-पीट कर कवि-कथाकार बनाने में जुटे रहते हैं और कुछ ही दिनों बाद वह बेचारा 'कथा' के लिए विज्ञापन बटोरता नजर आता। इन अधिकारियों के आस-पास कुकरमुत्‍ते की तरह लघु पत्रिकाएँ भी उगती रहतीं, मदिरा भी बहती। पहली फुर्सत में ये अधिकारी अपने यहाँ रचनाकारों को आमंत्रित कर कृतकृत्‍य हो जाते, शेर-ओ-शायरी होती, मदिरा का दौर चलता और उत्‍तम भोजन की व्‍यवस्‍था रहती। इलाहाबाद ने अनेक अधिकारी रचनाकारों को जन्‍म दिया

कहना गलत न होगा आयकर और बिक्रीकर अधिकारियों की हिंदी लघु-पत्रिका आंदोलन में उल्‍लेखनीय भूमिका रही है जिस संपादक की इन विभागों पर पकड़ ढीली हो गई, उसकी पत्रिका प्रेस में ही दीमक चाट गई। अधिकारियों का संरक्षण और प्रोत्‍साहन पा कर इलाहाबाद के कई लेखक संपादक हो गए, प्रकाशक बन गए, नीलकांत तो अधिकरियों के बावर्चीखाने में चिकेन भूनते हुए अच्‍छे-खासे बावर्ची बन गए। अब प्रतिभा तो प्रतिभा है, उसका प्रस्‍फुटन तो होगा ही, नीलकांत की प्रतिभा के फूल रसोईघर में खिलने लगे। जैसे कवियों को काव्‍यपाठ के निमंत्रण मिलते हैं, नीलकांत को लखनऊ, गोरखपुर, आजमगढ़ जहाँ भी इन अधिकारियों का स्‍थानांतरण होता, भोजन बनाने के निमंत्रण मिलने लगे। पार्टी से बहुत पहले उनकी बोतल खुल जाती और उनका बनाया व्‍यंजन लोग अंगुलियाँ चाट-चाट कर खाते, मगर तब तक नीलकांत टुन्‍न हो चुके होते। जीप में लाद कर उन्‍हें घर पहुँचाया जाता। नीलकांत की प्रतिभा जब साहित्‍य और रसोई की सीमाओं का अतिक्रमण कर जाती तो वह फर्नीचर बनाने में जुट जाते। बहुत कम लोग जानते होंगे कि वह जितने अच्‍छे लेखक और बावर्ची हैं, उससे कहीं अच्‍छे बढ़ई हैं। वह आपके लिए कुछ भी बना सकते हैं - कुर्सी, मेज, पलंग और यहाँ तक कि ताबूत भी। वह कथा शिल्‍पी ही नहीं चर्म शिल्‍पी भी हैं। जिस पर प्रसन्‍न हो जाते हैं, उसे अपने हाथ से बनाए जूते भेंट कर देते हैं। शायद यही वजह है कि वह साहित्‍य में भी जूतमपैजार कर बैठते हैं। तब उन्‍हें यह भी ख्‍याल नहीं रहता कि सामने रामचंद्र शुक्‍ल हैं या डॉ. नामवर सिंह।

विभूतिनारायण राय इलाहाबाद के शहर कोतवाल यानी एस.पी. हो कर इलाहाबाद आए तो लेखक लोग एकदम बेफिक्र हो गए। किसी लेखक के यहाँ चोरी या फौजदारी हो गई तो वह सदैव सहायता के लिए आगे आ गए। उचक्‍के मार्कंडेय के घर का लोहे का गेट उखाड़ कर ले गए तो विभूति ने दो दिन के भीतर ही गेट बरामद करा दिए। जानकार लोगों का विश्‍वास है कि मार्कंडेय को पहले से कहीं भारी गेट बरामद हो गए। कम ही अधिकारी उनसे बेहतर मेजबान होंगे। बाद में जब वह महाकुंभ के वरिष्‍ठ पुलिस अधीक्षक हुए तो देशभर से आए अनेक मित्र रचनाकारों ने जी भर का संगम स्‍नान किया था। अनेक रचनाकार सद्‌गति को प्राप्‍त हुए। स्‍थानीय लेखकों में कोई सिद्धावस्‍था में आधी रात को जीप पर घर पहुँचाता था, कोई स्ट्रेचर पर, कोई वहीं स्‍विस कॉटेज में ही पड़ा रह जाता था और घर पहुँचता ही नहीं था। उस महाकुंभ में कई रचनाकारों को जीते जी मोक्ष प्राप्‍त हो गया था। इक्‍कीसवीं सदी में लेखकों का पुनरुद्धार करने के लिए कोई विभूतिनारायण राय जन्‍म लेगा कि नहीं, कहा नहीं जा सकता। उस स्‍थान पर कई अमूल्‍य शिलालेख गड़े हैं, अगली शताब्‍दी में कोई पुरातत्‍ववेत्‍ता उत्‍खनन करेगा तो उसे बीसवीं शताब्‍दी के अंतिम चरण के लेखकों की जीवन शैली के बारे में अभूतपूर्व जानकारियाँ उपलब्‍ध होंगी।

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इलाहाबाद में रानी मंडी की जिस इमारत में मेरा गरीबखाना, शराबखाना, कारखाना और इबादतखाना था, स्‍वाधीनता से पूर्व राष्‍ट्रीय महत्‍व का पत्र 'अभ्‍युदय' वहीं से प्रकाशित, मुद्रित और संपादित होता था। सन 1907 में महामना मदनमोहन मालवीय ने इसका प्रकाशन शुरू किया था। पं. कृष्‍णकांत मालवीय, व्‍यंकटेश नारायण तिवारी, पं. पद्‌मकांत मालवीय ने समय-समय पर इसका संपादन किया। इसे संयोग ही कहा जाएगा कि लगभग अस्‍सी वर्ष बाद अभ्‍युदय के संस्‍थापक महामना मदनमोहन मालवीय जी के पौत्र लक्ष्‍मीधर मालवीय और प्रपौत्र-प्रपौत्री अमित तारा अपनी जापानी माँ के साथ हमारे यहाँ कुछ दिनों के लिए इसी ऐतिहासिक इमारत में ठहरे। लक्ष्‍मीधर मालवीय मुझसे भी बड़े रिंद साबित हुए। मालवीय परिवार के साथ कुछ यादगार शामें बीतीं, उनका जिक्र यहाँ अप्रासंगिक न होगा, मगर मैं उससे पूर्व रानी मंडी के चरित्र पर थोड़ी और रोशनी डालना चाहता हूँ। आजादी से पहले एक बार जब पंडित जवाहरलाल नेहरू रानी मंडी में तशरीफ लाए थे तो कुछ कट्टरपंथियों ने पूरी गली धुलवाई थी। रानी मंडी को नगर का ज्‍वलन बिंदु (इग्‍नीशन प्‍वायंट) कहा जा सकता है। यह बिंदु किसी भी समय गंगा-जमुनी संस्‍कृति का उत्‍कृष्‍टतम और निकृष्‍टतम उदाहरण पेश कर सकता है। विजयदशमी पर मुसलमान पौराणिक चौकियों की झाँकी देखने के लिए पंक्‍तिबद्ध खड़े नजर आएँगे, भगवान राम के रथ का श्रृंगार भी मुसलमान कारीगर ही करेंगे तो हिंदू परिवार भी उसी निष्‍ठा से अलम और दुलदुल पर श्रद्धा सुमन चढ़ाते देखे जा सकते हैं। मुहर्रम पर मंदिर के आकार के ताजिए उठेंगे। साल में दो बार रानी मंडी की नालियों का रंग सुर्ख हो जाता है - बकरीद पर, जब घर-घर कुर्बानी के बकरों की बलि दी जाती है या फागुन में, जब होली की बहार आती है। विजयदशमी पर उल्‍लास का वातावरण होता है और मुहर्रम पर मर्सियाख्‍वानी, सोजाख्‍वानी, नौहाख्‍वानी और मातम के बीच जूलूस उठते हैं।

शहर पर जब फितनों का भूत सवार होता है तो दंगे का पहला पत्‍थर भी इसी मुकाम से उठता है। यकायक बम और कट्‌टों का आतंक छा जाता है। शहर को फिर कर्फ्‍यू की जद में आने में देर नहीं लगती। कब अनिश्‍चितकाल के लिए बाजार बंद हो जाए, इसका भरोसा नहीं रहता। शायद यही कारण था कि हम लोग थोक में राशन की खरीद करते, राशन की ही नहीं दारू की भी। इलाहाबाद में जब-जब कर्फ्‍यू लगा है, लंबे अर्से के लिए लगा है। जब सारा शहर एकदम शांत हो जाता तब इस थाना क्षेत्र से कर्फ्‍यू हटाया जाता। रानी मंडी में तमाम असंगतियों और अंतरर्विरोधों के बीच गंगा-जमुनी संस्‍कृति विकसित और संकुचित होती रहती है। एक ओर हर-हर महादेव का सिंहनाद और दूसरी तरफ अल्‍लाह ओ अकबर का गर्जन। एक ओर स्‍लीवलेस ब्‍लाउज और दूसरी तरफ बुर्के ही बुर्के, ऐसी नकाबपोशी कि माशूक का दीदार हासिल करने में पसीने छूट जाएँ। मगर आशिक लोग भी गजब की निगाह रखते हैं, माशूक को कद-काठ और चाल-ढाल से न पहचान पाएँ तो एड़ी की सुर्खी से पहचान जाएँगे।

रानी मंडी की जिस ऐतिहासिक इमारत में हम लोगों ने तीस वर्ष बिताए, हमारा मकान इस घनी मुस्‍लिम बस्‍ती का आखिरी मकान था। हमारे अगल-बगल और आगे-पीछे मुस्‍लिम बस्‍ती थी। ठीक सामने उर्दू के साहित्‍यिक मासिक पत्र 'शबखून' का कार्यालय था, सरस्वती सम्‍मान से सम्‍मानित जनाब शमसुर्रहमान फारूक़ी इसके संपादक हैं। चूँकि यह स्‍थान शहर के बीचों-बीच था, हिंदी-उर्दू का कोई भी रचनाकार अथवा अदीब खरीददारी के लिए चौक आता तो हमारे यहाँ जरूर चला आता। हिंदी के कुछ लेखक ऐसे भी थे, जो इस संवेदनशील गली में घुसने से डरते थे। एक बार चहल्‍लुम के रोज मार्कंडेय हमारे यहाँ फँस गए। उन्‍होंने मर्सियाख्‍वानी के बीच ऐसा मातम कभी न देखा था। जुलूस में नौहाख्‍वानी हो रही थी, मर्सिये पढ़े जा रहे थे, लोग जंजीरों से अपने को पीट रहे थे। बुर्कानशीन औरतें रो रही थीं। छाती पीटते हुए नबी के नवासों की शहादत की याद में गम का इजहार किया जा रहा था। मार्कंडेय जी यह सब देख कर सहम गए। उन्‍हें लगा अगर इस समय दंगा हो गया तो हम सब लोग मार दिए जाएँगे। हम लोगों के लिए यह एक सामान्‍य अनुभव था। हम लोगों के बच्‍चे भी जुलूस की तर्ज पर घर में छाती पीटते। बच्‍चों को छाती पीटने को चस्‍का लग गया था। वे छाती पीटते, स्‍कूल जा रहे हों या स्‍कूल से लौट रहे हों। खाली समय में बच्‍चों को और कुछ न सूझता तो छाती पीटने लगते।

रानी मंडी में छापेखाने और घर के शोर-शराबे से थोड़ा हट कर मैंने नीचे अपना एक अलग 'डेन' बनवा लिया था। मेरा लिखने-पढ़ने, सुस्‍ताने और संगीत सुनने का यह एक आश्रमनुमा कमरा था। चौक में रहने के नुकसान तो कई थे मगर एक लाभ भी था। कहीं आने-जाने की ज्यादा जरूरत महसूस नहीं होती थी। सब मित्रों से घर बैठे-बैठे मुलाकात हो जाती थी, मुलाकात ही नहीं कभी-कभी मुक्‍कालात भी। शायद ही कोई शाम मैंने अकेले बिताई हो। धीरे-धीरे मेरा 'डेन' रचनाकारों का अखाड़ा बन गया, शाम घिरते-घिरते वह कॉफी हाउस और 'बार' में तब्‍दील हो जाता। कई बार लगता कि किसी डेरेदारनी (खानदानी तवायफ) की तरह मेरी दुनिया घर की दरोदीवार में महदूद होती जा रही है। मैंने आश्रम का नाम बदल कर कोठा रख दिया। वैसे भी रानी मंडी एक जमाने में तवायफों का मुहल्‍ला था। गली मुहल्‍ले के बुजुर्गों ने बताया था कि सदी के शुरू के वर्षों में इस हवेलीनुमा घर में भी शहर के सबसे बड़े रईस की रखैल रहा करती थी। मकान की वास्‍तुकला से भी इस बात की ताईद होती थी। बड़ी-बड़ी मेहराबें थीं और ऊँची-ऊँची बिना ग्रिल की खिड़कियाँ। फर्श छत से भी ज्‍यादा पुख्‍ता थे, घुँघरुओं की गूँज तक सुनाई पड़ती होगी। स्‍वाधीनता आंदोलन में हुस्‍नाबाई जैसी बहुत-सी तवायफों ने सक्रिय भूमिका निभाई थी। हो सकता है, रईस की मौत के बाद उसकी रखैल के भीतर देश प्रेम की भावना ने जोर मारा हो और उसने यह इमारत 'अभ्‍युदय' निकालने के लिए महामना को दे दी हो इसका कोई प्रमाण नहीं मिलता मगर सोचने में क्‍या हर्ज है?

मुझे उर्दू कथाकार शमोएल अहमद की एक कहानी याद आ रही है - सिंगारदान। दंगे में एक शख्‍स किसी तवायफ के यहाँ से सिंगारदान उठा लाता है। कुछ दिनों बाद उस सिंगारदान का साया पूरे घर पर पड़ने लगता है। लड़कियाँ सिंगारदान के सामने खड़ी हो जाती हैं और तवायफों की तरह श्रृंगार करतीं, सिंगारदान में देखते हुए अनचाहे बालों की सफाई करती और घर के मर्द भड़ुओं की तरह गले में रूमाल बाँध कर गली में आवारागर्दी करते अथवा सीटी बजाते हुए सीढ़ियों पर बैठे रहते। दरअसल सिंगारदान की तर्ज पर हवेली का अतीत मेरी जीवन शैली को भी प्रभावित कर रहा था। मैं दिन भर बिना नहाए-धोए किसी न किसी काम में मसरूफ रहता और तवायफों की तरह शाम को स्‍नान करता और सूरज गरूब होते ही सागरोमीना ले कर बैठ जाता। रानी मंडी में शाम को स्नान करने की ऐसी बेहूदा आदत पड़ी जो आज तक कायम है। सूरज नदी में डूब जाता, हम गिलास में।

रानी मंडी में स्‍थानीय साहित्‍यकारों का जमावड़ा तो लगा ही रहता था, बाहर से कोई लेखक आ जाता तो अच्‍छी खासी महफिल सज जाती। नामवर सिंह, भीष्‍म साहनी, कृष्‍णा सोबती, मन्‍नू भंडारी, राजेंद्र यादव, कमलेश्वर, अशोक वाजपेयी, ज्ञान, काशी ही नहीं नई से नई पीढ़ी के रचनाकार इस महफिल की शान बढ़ा चुके हैं। अखिलेश तो बी.ए. का छात्र था, जब उसका आना-जाना शुरू हो गया था। सागर पार के अनेक लेखक इस अखाड़े में धूनी रमा चुके हैं।

370 रानी मंडी में हिंदी भवन का प्रेस और गोदाम था। नीचे प्रेस और ऊपर गोदाम। दीमक से बचाव के लिए नारंग जी ने गोदाम के कमरे की दीवारों पर तारकोल पुतवा रखा था। अगर बिजली न जलाई जाए तो पूरा कमरा डार्करूम लगता था। जीने पर चमगादड़ों का आशियाना था। उनकी शांति भंग होती तो वे चीत्‍कार-सा करते। देखने पर लगता था कि यहाँ या तो चमगादड़ रह सकते हैं अथवा भूत-प्रेत। कोई आश्‍चर्य नहीं दोनों में गहरी छनती हो। मुझे सीढ़ियाँ चढ़ते डर लगता था। किताबों के ढेर के बीच एक जीरो पावर का बल्‍ब टिमटिमाता रहता था जो वातावरण को और अधिक डरावना बना देता था। किसी हॉरर फिल्‍म की शूटिंग के लिए वह एक आदर्श लोकेशन थी।

उन दिनों मैं अश्क जी के यहाँ रहता था, मगर वहाँ आखिर कब तक रहा जा सकता था? मुझे चमगादड़ों और भूत-प्रेतों के बीच ही अपने लिए स्‍थान बनाना था। नारंग जी ने गोदाम खाली कर दिया तो कमरों का सन्‍नाटा और दहशत पैदा करने लगा। मैंने कमरों की पुताई करवा दी मगर तारकोल के ऊपर चूना ठहर ही न पाता था। जगह-जगह चूने के अमूर्त धब्‍बे डाइनों की तरह वातावरण की दहशत को चार चाँद लगाने लगे। मैंने कमरों की रगड़-रगड़ कर सफाई करवाई मगर कमरों की मनहूसियत बरकरार रही। मैं मानसिक रूप से अपने को इस माहौल में रहने के लिए तैयार करने लगा। इससे पहले मुंबई में मैं एक तथाकथित भुतहे बँगले में रह आया था। उस बँगले के माहौल में कहीं प्रत्‍यक्ष मनहूसियत न थी। अगर ओबी अपने मनोबल पर समुद्र किनारे उस भुतहा बँगले में रह सकता था तो इस आबाद बस्‍ती में मैं क्‍यों नहीं रह सकता। ज्ञानरंजन मुझे प्रोत्‍साहित कर रहा था और वह कुछ दिन मेरे साथ रहने को भी तैयार था। वह कुछ दिन रहा भी। उन्‍हीं दिनों हम लोगों ने तय किया कि हाउस वार्मिंग पार्टी का आयोजन किया जाए।

ज्ञानरंजन, दूधनाथ और नीलाभ तो थे ही, एक दिन अचानक बनारस से काशीनाथ सिंह और रामधनी भी चले आए। रामधनी भी कभी 'टाइम्‍स ग्रुप' के 'दिनमान' में था और उसकी विचारोत्‍तेजक टिप्‍पणियों ने ध्‍यान आकर्षित किया था। एक दिन अचानक उसने इस्‍तीफा दे दिया था और नक्सलवाद की शरण में चला गया था। उन दिनों काशी पर भी नक्‍सलवाद का प्रभाव था। रामधनी के तेवर अत्यंत क्रांतिकारी थे और वह इस मुद्रा में काशी के साथ प्रकट हुआ था जैसे हर चौराहे पर पुलिस ने उसे पकड़ने के लिए जाल बिछा रखा हो।

शाम को उन्‍हीं काली दीवारों के साए में 'हाउस वार्मिंग पार्टी' का आयोजन किया गया। ऐन मौके पर पता चला कि तमाम बल्‍ब फ्यूज हैं या नारंग जी उतार कर ले गए हैं। किसी तरह एक चालीस वाट्‌स के बल्‍ब की व्‍यवस्‍था हुई। उसकी रोशनी में दीवारें और भी भुतहा लगने लगीं। बाहर आँगन में एक तख्‍त था, तय हुआ मुक्तांगन में कैंडल लाइट में पार्टी की जाए। बड़ी जोड़-तोड़ के बाद दो बोतल रम का इंतजाम किया गया था। भोजन के लिए लोकनाथ से पूड़ी आदि मँगवाने की योजना थी।

बाजार से चार-छह काँच के सस्‍ते गिलास मँगवाए गए और बोतल खुल गई। 'चियर्स' के साथ ही कहानी, समाज और राजनीति पर धुआँधार बहस शुरू हो गई। शेरो शायरी हुई, लतीफे हुए। दस बजे तक दूसरी बोतल खुल गई। ज्ञान लोकनाथ जाने के लिए मचलने लगा। उन दिनों ज्ञान लोकनाथ का दीवाना था - कभी बीच में समोसा खा आता और कभी कुल्‍फी। वही लपक कर पूड़ी-कचौड़ी, दम आलू जो कुछ भी मिला बँधवा लाया। उसकी पीने में कम खाने में ज्यादा रुचि रही है।

रामधनी की खाने में कोई दिलचस्‍पी न थी वह अन्‍याय, शोषण, गैरबराबरी और सशस्‍त्र क्रांति पर लगातार भाषण दे रहा था और किसी को 'बुर्जुआ' किसी को 'इजारेदार' किसी को 'एजेंट प्रोवोकेटियर' का खिताब बाँट रहा था। उसने खाली पेट चार-पाँच पेग गटक लिए थे। हम लोग भी मस्‍ती में आ गए थे और ऊधम मचा रहे थे। रामधनी बात करते-करते अचानक खामोश हो गया और तख्‍त पर लेट गया। कुछ देर बाद हम लोगों ने देखा कि जमीन गीली हो रही है। मोमबत्‍ती नजदीक ले जा कर देखा तो पाया कि उसके मुँह से नल की टोंटी की तरह पानी जैसा तरल पदार्थ लगातार लार की तरह टपक रहा था। नीलाभ ने उसकी नब्ज देखी, बहुत धीमे चल रही थी। भोजन के साथ अचार के कुछ टुकड़े भी आए थे। ज्ञानरंजन ने उसके मुँह में अचार का एक टुकड़ा खोंस दिया जो फूल की तरह अटका रहा। दूधनाथ ने कहीं से खोज कर चूने से लिपी-पुती एक छोटी-सी बाल्‍टी चिलमची की तरह तख्‍त के नीचे रख दी। रामधनी करवट के बल लेटा था और धीरे-धीरे बाल्‍टी में स्राव की पतली धार गिरने लगी। उस स्राव को उल्‍टी या कै की संज्ञा भी नहीं दी जा सकती थी, क्‍योंकि यह स्राव बगैर किसी प्रयत्‍न के स्‍वतःस्‍फूर्त था। हम लोग सशंकित हो गए कि कहीं कोई हादसा न हो जाए। रात के बारह बज चुके थे। आस-पास के किसी डॉक्टर का नाम-पता भी मालूम न था। रामधनी की आँखों पर पानी के छींटे दिए गए मगर उसकी स्‍थिति यथावत बनी रही। खतरा पैदा हो गया था कि कहीं पूरी पार्टी शोक सभा में न तब्‍दील हो जाए। काशी ने अपने खास अंदाज में खैनी फटकते हुए कहा, 'भोंड़सीवाले क्रांति करने निकले हैं।' जिसको जितने टोटके मालूम थे, सब इस्‍तेमाल कर देख लिए। काशी की गालियों का भंडार खत्‍म हो चुका था और वह अब पुनरावृत्‍ति पर उतर आया था। हम सब लोग डर गए थे, मगर सामूहिक डर उतनी घबराहट नहीं पैदा करता।

चाँदनी रात थी। रम का नशा था। लोकनाथ का भोजन था। पुरवैया बह रही थी। सब की आँखों में नींद थी, मगर रामधनी सब को जगा रहा था। कोई मुँडेर पर लेट गया, कोई कुर्सी पर ढीला हो गया। काशी को जब कुछ नहीं सूझता तो दातौन करने लगता है। पड़ोस में एक नीम का पेड़ था जिसकी शाखाएँ आँगन पर झुकी हुई थीं। काशी ने उछल कर दातौन का जुगाड़ कर लिया। नीलाभ बार-बार रामधनी की नब्ज देख कर रामधनी के हेल्‍थ बुलेटिन का प्रसारण कर रहा था। लोग बीच-बीच में झपकी ले रहे थे। छोटे बच्‍चे जैसे मुँह में अँगूठा लिए सो जाते है काशी दातौन ले कर सो गया। ज्ञानरंजन ने उसके मुँह से दातौन निकाल कर फेंक दी और टहलने लगा। उन दिनों भी उसे टहलने का रोग था। उसे बैठने के लिए कोई जगह नहीं मिल रही थी। वह भी थक-हार कर मुँडेर से पीठ सटा कर सुस्‍ताने लगा।

धूप निकल आई थी, जब हम लोगों की आँखें खुलीं। इस बीच रात में किसी समय होश आने पर रामधनी ने दातौन के 'टंग क्‍लीनर' से तालू पर दबाव बना कर जी भर कर कै कर ली थी। छोटी-सी बाल्‍टी चौथाई से ज्यादा भरी हुई थी और उसी तरल पदार्थ में छोटी सी दातौन तैर रही थी। रामधनी ने बाल्टी को अखबार के कागज से ढँक दिया था। अखबार के कागज का एक कोना उस गाढ़े द्रवीभूत पदार्थ में लिपटा रह गया था, शेष कागज बाल्‍टी के ऊपर परचम की तरह फहरा रहा था। सुबह जब मेरी नजर रामधनी पर पड़ी तो वह अपनी तिरछी आँखों में धीरे-धीरे शर्माते हुए मुस्‍करा रहा था, जैसे छोटे बच्‍चे रात को बिस्‍तर गीला करने के बाद अपनी माँ की तरफ देख कर मुस्कराते हैं। बीच-बीच में ऐसे झंझावात आते हैं कि बड़े से बड़ा शराबी शराब से तौबा कर ले। मैंने अपने लंबे शराबी जीवन में ऐसी धारावाहिक लयबद्ध कै न देखी थी।

वास्‍तव में शराब और कै का चोली-दामन का साथ है। कै के अनेक रूप होते हैं। चाहते या ना चाहते हुए भी पीनेवालों को अनायास ही उसका दीदार हासिल हो जाता है। सबसे खूबसूरत कै वह होती है जो 'स्‍पांटेनियस ओवरफ्लो' की तरह निःसृत होती है। इसे स्‍वतःस्‍फूर्त कै की संज्ञा दी जा सकती है। कई शराबी इस तरह से कै करते हैं जैसे उन्‍हें हैजा हो गया हो। यानी वे थोड़े-थोड़े अंतराल के बाद कै करते हैं। रामधनी की कै भी देखी थी जो धीरे-धीरे रिसती है, जैसे नल की टोंटी खुली रह गई हो और सबसे बुरी कै तो वह होती है जिसमें शराबी को इतना होश न रहे कि वह कै में इस प्रकार लथपथ हो रहा है जैसे सुअर गंदे नाले में। हो सकता है कै के कुछ और प्रकार भी हों, मगर मेरा अनुभव मोटे तौर पर संक्षेप में यही है। लोग तो शराब पी कर कै करते हैं मैंने तो अपने शराबी जीवन के प्रारंभिक दौर में बियर पी कर ही कै कर दी थी। सन बासठ-तिरसठ की बात है। वाकया दिल्‍ली का है। उन दिनों केंद्रीय हिंदी निदेशालय का नया-नया गठन हुआ था, गठन तो हो चुका था, अब विस्‍तार हो रहा था। जिस रफ्तार से भर्ती हो रही थी, दफ्तर में काम उतना नहीं था। हम लोग काम की प्रतीक्षा कुछ इस प्रकार करते थे, जैसे वेश्‍याएँ ग्राहक की प्रतीक्षा करती हैं। हफ्तों कोई काम ही नहीं होता था। सरकारी प्रेसों को साहित्‍यिक पत्रिका छापने की फुर्सत नहीं थी। जब मैं 'भाषा' से संबद्ध हुआ तो एक वर्ष पहले के अंक प्रेस में थे। हफ्तों कोई काम ही नहीं होता था। कहानी लिखने का सही चस्‍का मुझे उसी कार्यालय में लगा। चतुर्वेदी जीनियस था, मगर भटका हुआ। दफ्तर में बैठे-बैठे वह दिन भर में दर्जनों कविताएँ लिख लेता। उन दिनों दिल्‍ली में बेकार लेखकों की अच्‍छी-खासी फौज थी। कुछ लेखक नई सड़क जा कर गुजारे लायक प्रूफ संशोधन का काम कर आते। कोई हनुमान चालीसा लिख कर गुजारा चलाता कोई पाठ्‌य पुस्‍तकें लिख कर। ज्यादातर बेकार लेखक अपने को फ्री लांसर कहते थे। कुछ अनुवाद के काम से पेट पाल रहे थे। नामी-गिरामी लेखक दूतावासों और बड़े प्रकाशकों से अपने नाम पर अनुवाद लेते और कलम के दिहाड़ी मजदूरों से अनुवाद कार्य करवाते। कुछ संभ्रांत किस्‍म के बेरोजगार थे, उन्‍हें देख कर लगता ही नहीं था कि वे बेरोजगार हैं। मैं आज तक नहीं जान पाया कि उनका जरिया माश क्‍या था। वे स्‍कूटर पर चलते, बार में बियर पीते और किंग साइज की सिगरेट फूँकते। उनकी पीठ पीछे कोई उन्‍हें रूसी तो कोई अमरीकी एजेंट कहता, कुछ लेखकों का मत था कि वे गृह मंत्रालय के लिए लेखकों की खुफियागीरी करते हैं। भगवान जाने क्‍या सच था क्‍या झूठ। इतना जरूर है, ऐसे लेखकों की आज भी तादाद कम नहीं।

केंद्रीय हिंदी निदेशालय में सुबह से ही हमारे कार्यालय में संघर्षशील फ्रीलांसरों की आमदोरफ्त शुरू हो जाती। 'भाषा' से पारिश्रमिक अवश्‍य मिलता था, मगर रचना प्रकाशित होने से पूर्व पारिश्रमिक के भुगतान की व्‍यवस्‍था न थी। फ्रीलांसरों की दिलचस्‍पी ऐसी पत्रिका में छपने की शून्‍य के बराबर थी। फ्रीलांसर लेखकों को तुरंत भुगतान चाहिए, चाहे आधा ही क्‍यों न मिले। अगर किसी दिन लेखक लोग न आते तो मैं और चतुर्वेदी एम. एल. ओबराय के कमरे में जा बैठते। उनका कमरा स्‍टूडियोनुमा था। वह कलाकार थे। उन्‍होंने 'नदी के द्वीप' के प्रथम संस्‍करण का रैपर डिजाइन किया था। दफ्तर में उनके पास भी काम नहीं था। सरकारी कायदे कानून की उन्‍हें बहुत जानकारी थी। वे सरकारी कार्यप्रणाली की विसंगतियों के बारे में विस्‍तार से बताते। हर अधिकारी का कच्‍चा-चिट्‌ठा उनके पास था। दफ्तर में महिलाएँ भी काम करती थीं और ओबेराय साहब को पता रहता था कि कौन महिला किस अफसर की गाड़ी में देखी गई। दफ्तर में काम नहीं था, मगर हर वर्ष नियुक्‍तियाँ होती रहती थीं। कुछ दिनों बाद के. खोसा भी कला विभाग में शामिल हो गए। बाद में खोसा ने खूब यश और धन कमाया। वह खानदानी कलाकार था। उसके पिता भी कलाकार थे, परंतु वह केवल गांधी जी के चित्र बनाते थे। एक बार कमलेश्‍वर ने 'नई कहानियाँ' में कहानी के साथ छपने के लिए मेरा चित्र माँगा। मेरे पास चित्र नहीं था। मुझे चित्र खिंचवाने से कहीं बेहतर यह लगा कि उस पैसे से कॉफी हाउस में कॉफी पी जाए। के. खोसा ने दफ्तर में मेरा स्‍केच बनाया और वही मेरी कहानी के साथ छपा।

जेठ की तपती दोपहरी में एक दिन किसी पत्रिका से मेरा और जगदीश चतुर्वेदी का मनीआर्डर से एक साथ पारिश्रमिक आ गया। हम लोगों की जेबें हमेशा की तरह खाली थीं और लिखने-पढ़ने में भी मन न लग रहा था। पैसा मिलते ही दोनों की जड़ता टूटी।

'बियर पिए एक युग बीत गया है।' जगदीश चतुर्वेदी ने सहसा सुझाया, 'चलो आज दफ्तर के बाद बियर पी जाए।'

'मगर कहाँ?' मैंने पूछा। उन दिनों बियर तो बाजार में उपलब्‍ध थी, मगर सार्वजनिक स्‍थान पर पीने पर प्रतिबंध था। हम लोग शाम भी कनाट प्‍लेस में बिताना चाहते थे। घर जा कर लौटना संभव नहीं था। जगदीश ने सुझाया कि रीगल से बियर लेते हैं और टी-हाउस के पीछे हनुमान लेन के मैदान में पेड़ की छाया में पी लेंगे।

'गिलास कहाँ से आएँगे?'

'गिलास में कौन पीता है। बोतल खोलेंगे और पी जाएँगे।'

मेरा सड़क पर पीने का कोई अनुभव नहीं था। कोई सुरक्षित ठिकाना भी मालूम नहीं था। आए दिन समाचार पत्रों में इस प्रकार के समाचार भी पढ़ने को मिल जाते थे कि सार्वजनिक स्‍थान पर मदिरापान करते हुए इतने आदमी हिरासत में लिए गए।

दफ्तर के बाद हम लोगों ने इसी योजना के अधीन रीगल से बियर की दो बोतलें खरीद लीं, ओपनर उन दिनों मुफ्त मिल जाता था। हम लोग हनुमान लेन की ओर चल दिए। हनुमान लेन पर उतना सन्नाटा नहीं था, जितना जगदीश समझता था। उन दिनों बलवंत गार्गी भी कनाट प्‍लेस की किसी लेन में रहते थे। अपने पंजाबी और उर्दू के दोस्‍तों के साथ कई बार उनके घर का इस्‍तेमाल 'बार' की तरह किया था, मगर मैं अकेला कभी नहीं गया था। बहरहाल अपेक्षाकृत एक सुनसान जगह पर पेड़ की आड़ में हम लोगों ने बोतलें खोलीं। झाग का फव्‍वारा फूट निकला। गाढ़ी कमाई की एक भी बूँद नष्‍ट हो इससे पहले ही हम लोग शंख की तरह मुँह में बोतलें लगा कर गटागट पी गए। हम लोगों से ज्यादा बियर हमारे भीतर जाने को उतावली हो रही थी। हम लोग जब तक साँस रोक सकते थे, लंबे-लंबे घूँट भरते रहे। लग रहा था, अभी कोई सिपाही पीछे से कंधों पर धौल जमा देगा। डर के मारे चार-छह साँस में ही आधी-आधी बोतल गटक गए। इसके बाद चारों ओर नजर घुमा कर जायजा लिया और ज्यादा से ज्यादा बियर पेट में भर ली।

'जानते हो हम लोग सरकारी कर्मचारी हैं। पकड़े गए तो नौकरी भी जा सकती है।' जगदीश ने कहा और दुबारा यही एक्‍सरसाइज शुरू कर दी। उसकी आँखे बाहर निकल आई थीं। यही हालत मेरी थी। पेट फूल कर कुप्‍पा हो गया था। खाली बोतलें हम जितनी दूर फेंक सकते थे फेंक दीं। दूर-दूर तक किसी सिपाही का नामोनिशान नहीं था। हम लोग वहाँ से हटते कि दोनों के मुँह से पिचकारी की तरह बियर का फौव्‍वारा फूट निकला। एक तरफ मैं और दूसरी तरफ जगदीश बियर से पेड़ की सिंचाई करने लगे। हम लोगों ने जितनी जल्‍दबाजी में बियर पी थी, उससे कहीं अधिक वेग से वह बाहर निकल रही थी स्‍वतःस्‍फूर्त कविता की तरह। पेड़ नशे में झूमने लगा और हम लोग आँख, नाक, मुँह पोंछते हुए वहीं पास के एक बेंच पर बैठ कर सुस्‍ताने लगे। कुछ ही फासले पर बियर की खाली बोतलें पड़ी थीं और हमें मुँह चिढ़ा रहीं थीं।

यह कहना गलत न होगा, जहाँ कुछ लेखक इकट्‌ठे होंगे, वहाँ तकरार तो होगा ही, कै भी हो सकती है। यह समुदाय ही ऐसा है कि दोस्‍तों के मिलते ही कदम अनायास ही खुराफात की तरफ उठने लगते हैं। शायद ही कहीं कोई ऐसी गोष्‍ठी हुई हो, जहाँ गोष्‍ठी का समापन मद्यपान से न हुआ हो। यहाँ मुझे पटना का एक ऐसा ही साहित्‍यिक समारोह याद आ रहा है। सन सत्‍तर के आस-पास की बात होगी। पटना में एक विराट साहित्‍यकार सम्‍मेलन का आयोजन हुआ था। देशभर से कवि, कथाकार, समीक्षक आमंत्रित थे। लगता था सम्‍मेलन का आयोजन किसी धनपशु के सहयोग से ही हुआ होगा, क्‍योंकि सिर्फ धनपशु मवेशियों की तर्ज पर रचनाकारों का मेला आयोजित कर सकते हैं। पटना रुकनेवाली प्रत्‍येक गाड़ी से लेखकों का हुजूम उतरता। सन साठ के बाद की तो पूरी पीढ़ी आमंत्रित थी। गद्य और मद्य की अनूठी काकटेल थी। प्रत्‍येक सत्र के बाद लेखक लोग अपनी रुचि के अनुकूल मदिरापान कर रहे थे। शाम को गोष्‍ठियों के बाद तो जैसे बीसवीं शताब्‍दी के स्‍वर्णकाल का उदय हो जाता था। जगह जगह कमरों मे महफिलें सजतीं। कभी सामूहिक और कभी छोटे-छोटे ग्रुपों में। एक बड़े हाल में ज्ञानरंजन के नेतृत्‍व में कीर्तन चल रहा था :

बम भोलेनाथ! बम भोलेनाथ

हम चलेंगे साथ , ले के हाथ में हाथ

तेरी बहन के साथ

बम भोलेनाथ!

जानी आओ अंदर में

कोई नहीं है मंदिर में

साधु संत सब सोए पड़े हैं

भोलेनाथ! बम भोलेनाथ

ज्ञानरंजन की कहानियों की ही तरह उसका एक और कीर्तन पटना में झटपट लोकप्रिय (इंसटेंट हिट) हो गया था :

बेर से हते बेर से हते

मल मल के भए सवा सेर के

लग रहा था कि साठोत्‍तरी पीढ़ियाँ लुच्‍चई और लफंगई पर उतर आई हैं। कुमार विकल बीसियों कवियों, कथाकारों के बीचों-बीच बैठा था। वह नशे में धुत्‍त था और झूमते हुए समूहगान की टेक छेड़ रहा था :

सारीयाँ बीबियाँ आइयाँ

हरनाम कौर न आई।

कुमार के अनुगमन में पूरा समूह भक्‍तिभाव से दोहराता :

सारीयाँ बीबियाँ आइयाँ

हरनाम कौर न आई।

इस समारोह के बाद रचनाकारों इतना विराट सम्‍मेलन न हुआ होगा जहाँ, इतनी अधिक संख्‍या में कथाकार, कथालेखिकाएँ, कवि और कवयित्रियाँ इकट्‌ठी हुई हों। यशःप्रार्थी लेखक लेखिकाएँ अपनी नई पुस्‍तकों की प्रतियाँ साथी लेखकों को फराखदिली से भेंट कर रहे थे। एक स्‍वामधन्‍य मधुरकंठा कवयित्री यानी गायिका ने कुमार विकल को आदरपूर्वक अपनी कविताओं का नया संकलन भेंट किया। कुमार उस समय तीसरी मंजिल की सीढ़ियों के मुहाने पर खड़ा था। उसने जोर-जोर से पुस्‍तक में से एक गीत पढ़ा। गीत इतना लिजलिजा था कि वह अचानक उसकी पैरोडी करने लगा। जब पैरोडी से भी उसकी तसल्‍ली न हुई तो पुस्‍तक की चिंदी-चिंदी करके सीढ़ियों पर फेंकने लगा। सारी इमारत में कविताओं के पतंग उड़ने लगे। कवयित्री तो पैरोडी सुनते ही वहाँ से हट गई और रिक्‍शा में सवार हो तमतमाते हुए अपने डेरे लौट गई थी। वास्‍तव में कुमार का इरादा पुस्‍तक का निरादर करने का नहीं था, मगर कूड़ा लेखन के प्रति एक आक्रोश जरूर था जो शालीनता और साहित्‍यिकता की सीमाओं का अतिक्रमण कर गया था। बाद में सुनने में आया कि उस कवयित्री ने साहित्‍य का दामन हमेशा-हमेशा के लिए छोड़ दिया और विवाह कर लिया।

उस सम्‍मेलन में इलाहाबाद से भी बहुत से लेखक पधारे थे। ज्ञान, दूधनाथ, जमाली, मैं, ममता और भी बहुत से लेखक। ममता ने भी इससे पूर्व ऐसा अराजक माहौल न देखा था, वह घबरा रही थी। नतीजतन लेखिकाओं ने अपनी अलग टोली बना ली थी और वे लेखकों से दूर-दूर ही रहती थीं। एक कमरे में अलग से उनकी गोष्‍ठी चलती रहती। तमाम लेखिकाएँ एक झुंड में साथ-साथ निकलतीं।

रात को जब हम लोग भोजन कर के लौटे तो खयाल आया कि सतीश जमाली दोपहर से दिखाई नहीं दिया। अचानक उसकी चिंता हो गई और हम लोग उसकी तलाश में जुट गए। कई लोगों से पूछताछ की गई। किसी ने बताया कि रात को दिखाई दिया था, किसी ने कहा, सुबह नाश्‍ते पर देखा था, किसी ने जड़ दिया कि वह दारू की जुगाड़ में निकला है। एक कर्मचारी ने रटा-रटाया जवाब दिया कि वह पटना साहब के दर्शन करने गए हैं। प्रत्‍येक पूछताछ का उसके पास यही टकसाली जवाब था। हम लोग एक एक कमरे में झाँकने लगे। आखिर वह एक कमरे में मिल ही गया। दरवाजा खोलते ही कमरे से बू का भभका उठा। कमरे के बीचों-बीच वह बेसुध पड़ा था। उसकी आँखें बंद थी और वह निश्‍चेष्‍ट पड़ा था। कै कर-कर के उसने पूरा कमरा भर दिया था। उसके तमाम कपड़े कै से लथपथ थे। किसी की हिम्‍मत न हुई उसे छू कर देख ले। हम लोग तमाशाइयों की तरह नाक पर रूमाल रख कर खड़े थे। कोई मदर टेरेसा ही उसकी देखभाल कर सकती थी। तभी ममता भी अन्‍य लेखिकाओं के साथ आ गई और तमाम लेखिकाएँ बिना कोई परहेज के उसकी तीमारदारी में जुट गईं। सबने संकोच छोड़ कर उसे घसीट कर कै के तालाब से बाहर किया। उसका मुँह धोया और एक नवजात शिशु की तरह उसका टावल बाथ कराया जाने लगा। लग रहा था प्रत्‍येक स्‍त्री में एक जन्‍मजात नर्स छिपी रहती है। मुझे काफी शर्म महसूस हो रही थी कि हम लोग चुपचाप खड़े हैं और ये स्‍त्रियाँ आनन-फानन में काम में जुट गई हैं। मैं लपक कर इलेक्ट्रॉल और डिटॉल ले आया। उसकी नब्ज चल रही थी, मगर बहुत धीमी गति से। महिलाओं ने देखते-देखते उसके कपड़े बदल डाले। फर्श डिटॉल से धो दिया। यह गनीमत थी कि वह अपने कमरे में ही था, वरना उसके कपड़े और तौलिया वगैरह ढूँढ़ने में बहुत दिक्‍कत आती। सारी रात जमाली की सेवा में गुजर गई।

सुबह-सुबह जब मुर्गे ने बाँग दी तो सतीश जमाली ने अपनी आँखें खोलीं। उसकी चेतना लौट रही थी मगर वह बहुत कमजोरी महसूस कर रहा था। उसे कुछ याद नहीं था, उसके साथ यह हादसा कैसे हुआ। उसने बताया कि उसे यहाँ का भोजन पसंद नहीं आया था और दो दिनों से निरंतर पी रहा था। देखते-देखते सब लेखक उसकी सेवा में लग गए। शराब लेखकों के साथ जैसा भी सुलूक करे मगर जब कोई शराबी मुसीबत में होता है सब शराबी एक हो जाते हैं। जाम टकराते ही एक अनाम रिश्‍ता कायम हो जाता है। इसी को हमप्‍याला और हमनिवाला दोस्‍ताना कहते हैं।

इस हादसे के बाद मैंने सोचा था कि अब कभी जमाली शराब मुँह को नहीं लगाएगा, मगर जमाली पक्‍का रिंद निकला। स्‍वस्‍थ होते ही उसने दोस्‍तों के बीच पार्टी की मुनादी पीट दी। मुझे यकीन नहीं आ रहा था फोन पर उसकी आवाज सुन कर वह अपने पुराने अंदाज में आमंत्रित कर रहा था कि यार बहुत दिन हो गए थे कलेजा ठंडा किए आना जरूर।

कभी न कभी हर शराबी कै करता है। मैं भी अपवाद नहीं था। भाग्‍यशाली जरूर था कि बहुत कम कै की। अशोभनीय स्‍थितियों से नहीं गुजरना पड़ा। मैंने गिनती की कै की होगी, वह भी उन दिनों, जब पीने में सरासर अनाड़ी था। इसे यों भी कहा जा सकता है कि एकाध कै जालंधर में जरूर की होगी, जिस का स्‍मरण नहीं है। एकाध दिल्‍ली में और शायद अंतिम कै मुंबई में की होगी। हिसार में शराब पी ही नहीं थी, डट कर लस्‍सी पी थी। मुंबई में मेरा मेजबान ओबी था, उसका भाग्‍य भी उसके साथ 'सी-सॉ' का खेल खेलता रहता था यानी कभी वह अर्श पर होता था कभी फर्श पर। जब वह अर्श पर होता था तो स्‍कॉच पीता था और जब फर्श पर तो ठर्रा। शराब के मामले में वह अधर में ही रहता था यानी ठर्रे या स्‍कॉच की नौबत कम ही आती थी। उसे पार्टियाँ देने का चस्‍का था। जब भी उसकी जेब गर्म होती वह पार्टी 'थ्रो' कर देता। उसकी पार्टी में मुंबई की बड़ी-बड़ी हस्‍तियाँ शामिल होतीं - जैसे सुनील दत्त, नर्गिस, अंजू महेंद्र और उसकी माँ, विद्या सिन्‍हा, कुछ चुनिंदा उद्योगपति या बड़ी-बड़ी कंपनियों के प्रबंध निदेशक वगैरह। पार्टी दे कर वह लुट जाता, सुबह उस की हालत एक फकीर से भी बदतर होती। जूते पालिश कराने लायक पैसे न होते। उसकी मौत पर मैंने एक संस्‍मरण लिखा था, जिसे पढ़ कर कृष्‍णा सोबती ने फोन किया था, कि मैंने एक उपन्‍यास के स्टफ (सामग्री) को संस्मरण में ढाल कर अन्‍याय किया है। कृष्‍णा जी का सुझाव मैं भूला नहीं हूँ। यह सुन कर कोई विश्‍वास नहीं कर सकता कि एक शाम पहले जिसके फ्लैट के सामने देशी-विदेशी कारों का जमघट लगा था, आज उसके पास सिगरेट खरीदने के लिए पैसे नहीं हैं। ऐसी ही एक फाइव स्‍टार पार्टी में मैंने अत्यंत संभ्रांत किस्‍म की कै की थी।

ओबी ने पार्टी में मुझे मेहमानों के गिलासों पर निगाह रखने का काम सौंपा था कि किसी मेहमान का गिलास खाली न रहे, तुरंत दूसरा गिलास भिजवाना मेरे जिम्‍मे था। एक तरह से 'बार' मेरे अधिकार में था। उन दिनों ममता दिल्‍ली के दौलतराम कॉलिज में पढ़ाती थी और छुट्‌टी में मुंबई आई हुई थी। इतनी बड़ी मुंबई में उसके पिता को मेरे घर के पास ही छोटा सा बँगला मिला था। उसी सड़क पर, कैडिल रोड पर समुद्र किनारे। मैंने अतिरिक्‍त उत्‍साहवश या यों कहिए मूर्खतावश ममता को भी पार्टी में आमंत्रित कर लिया। मुझे इस माहौल में देख कर वह सकपका कर रह गई, मगर ग्‍लैमर से प्रभावित भी हो रही थी। वहाँ तमाम महिलाएँ भी मुक्‍तभाव से मदिरापान कर रही थीं। मुझे भी जीवन में पहली बार स्‍कॉच नसीब हुई थी। उसमें कड़ुवापन नहीं था, एक मोहक गंध थी, जिसे 'फ्‍लेवर' कहा जा सकता है। पहला पेग शर्बत की तरह पी गया, जबकि लोग धीरे-धीरे घूँट भर रहे थे। किसी का गिलास खाली ही नहीं हो रहा था।

ममता ने कभी बियर भी न चखी थी, मैंने जोर-जबरदस्‍ती से ममता के हाथ में भी एक पेग थमा दिया। उसने पहले सूँघा, फिर धीरे-धीरे सिप करने लगी। मैंने एक और गिलास उठा लिया। मुझे शायद प्‍यास लगी थी। मैंने दूसरा पेग भी दो-एक घूँट में समाप्‍त कर दिया। पार्टी अपने शबाब पर थी। मेरी प्‍यास कुछ कम हो गई थी, फिर भी जब कोई गिलास खाली होता, मैं अपना जाम भी बना लेता। मुझे कोई असर भी नहीं हो रहा था। हिंदुस्‍तानी व्हिस्‍की पी कर जो किक महसूस होती थी, वह स्‍कॉच में नदारद थी। ममता पहले पेग से ही जूझ रही थी, मैंने उसे एक ही घूँट में पी जाने की सलाह दी। कुछ देर बाद मुझे हल्‍का-सा सुरूर हुआ। यह सुरूर बियर के सुरूर से भिन्‍न था। मैं इसे थोड़ा और ऊपर ले जाना चाहता था। अगले पेग ने तो जैसे चमत्‍कार कर दिया। मेरा सर घूमने लगा। कभी एकाध पेग से ज्यादा पी नहीं थी, अब तो 'सर जो तेरा चकराए' होने लगा। यकायक लगा जैसे पेट में पेट्रोल भर गया हो और बाहर आने को मचल रहा हो। पेश्‍तर इसके कि किसी को पता चलता, मैं चुपके से बाथरूम में घुस गया। अचानक मुझे जगदीश चतुर्वेदी के साथ पी बियर याद आ गई और बियर का वह फौव्‍वारा। मैं वाश बेसिन पर झुक गया और उसका नल खोल दिया। नल से भी तेज रफ्तार से स्‍कॉच बाहर आ गई। स्‍कॉच निकल गई थी, मगर नशा कायम था। मैंने जम कर आँखों पर पानी के छींटें मारे, मुँह धोया और सँभलते ही कंघी कर बाहर आ गया। बाथरूम का नल मैं खुला छोड़ आया था, ताकि मेरी कारगुजारी का नामोनिशान मिट जाए।

हाल में खाना लग गया था। लोग अपनी-अपनी प्‍लेट लिए गुफ्तगू में मशगूल थे। ममता भी हाथ में प्‍लेट लिए एक सोफे पर ऊँघ रही थी। मैंने अपनी प्‍लेट भी तैयार की, मगर दो-एक कौर ही निगल पाया। सारे बदन पर अजीब किस्‍म का खुमार था। सोने की जबरदस्‍त इच्‍छा हो रही थी। महिलाएँ महक रही थीं, अदाएँ दिखा रहीं थीं और अंग्रेजी हाँक रही थीं, पुरूष उन पर लट्‌टू हुए जा रहे थे और कमरा घूम रहा था। मैंने सुन रखा था कि कै के बाद आदमी सामान्‍य हो जाता है, उसका नशा हिरन हो जाता है, मगर मेरा नशा बरकरार था। मैंने घड़ी देखी, साढ़े ग्‍यारह बज चुके थे। मेरे ऊपर ममता को घर पहुँचाने की भी जिम्‍मेदारी थी। यह रास्‍ता पैदल भी तय किया जा सकता था, मगर मेरी उसके साथ जाने की इच्‍छा नहीं हो रही थी। उन दिनों मुंबई की कानून व्‍यवस्‍था बहुत अच्‍छी थी। आधी रात को भी अकेली लड़की टैक्‍सी में बेहिचक बैठ सकती थी। मगर दिल्‍ली की लड़कियों को विश्‍वास नहीं होता था। दिल्‍ली की टैक्‍सियों की बात क्‍या की जाए, बसों तक में खुलेआम छेड़खानी होती थी। मुझे मालूम था, ममता टैक्‍सी में नहीं जाएगी, वैसी भी मध्‍वर्गीय लड़कियाँ टैक्‍सी में चलना अपनी शान के खिलाफ समझती थीं, जाने किसने सिखा दिया था कि रात में केवल संदिग्‍ध चरित्रवाली लड़कियाँ ही टैक्‍सी में चलती हैं। ममता को केवल साठ पैसे की दूरी तक जाना था, उसने टैक्‍सी में बैठने से साफ इंकार कर दिया। बाद में बारह बजे जब बस आई तो उसने उसमें बैठने से इंकार कर दिया 'हम नहीं जाएगा।' मैंने उसे लगभग सूटकेस की तरह उठा कर बस में रख दिया और कंडक्‍टर से कह दिया कि अगले स्‍टाप पर उतार दे। बस चलती इससे पूर्व मैं भी लपक कर चढ़ गया। कैडिल रोड पर हम लोग उतर गए। इमारतों के पीछे समुद्र ठाठें मार रहा था। ममता ने सुझाव दिया, कितना प्‍यारा मौसम है। चलो समुद्र किनारे टहलते हैं। वह नशे में थी। किसी तरह उसे घर के सामने छोड़ कर मैं पलट लिया। न चाहते हुए भी मुझे पदयात्रा करनी पड़ी।

उस दिन मैंने जीवन में दूसरी बार कै की थी, शायद अंतिम बार। कै के और भी अनेक प्रसंग हैं, मगर यह पार्ट आफ द गेम है। मैं तो इस नतीजे पर पहुँचा हूँ कि कै करना कहीं अच्‍छा है, बजाए इसके कि यह कै लेखन के रूप में की जाए।

13-

सन अस्‍सी के आस-पास जापान से लक्ष्‍मीधर मालवीय अपने जापानी परिवार के साथ पधारे थे। रानी मंडी के पास ही लोकनाथ में उनका पैतृक आवास था, मगर वह वहाँ नहीं ठहरे थे। वहाँ उनकी पूर्व पत्‍नी अपनी दो बच्‍चियों के साथ रहती थीं। लक्ष्‍मीधर जी से मेरा गायबाना परिचय था, जो किसी भी लेखक का दूसरे लेखक के साथ होता है। उनका अन्‍नप्राशन, यज्ञोपवीत संस्‍कार और शिक्षा-दीक्षा इलाहाबाद में ही हुई थी और उनके सहपाठी मेरे भी मित्र थे, जैसे कन्‍हैयालाल नंदन, ज्ञानरंजन, दूधनाथ सिंह वगैरह। एक दिन उन्‍होंने फोन पर मिलने के लिए समय माँगा। इलाहाबाद में किसी से समय माँग कर मिलने का दस्‍तूर नहीं था, बल्‍कि हर आदमी मान कर चलता था दूसरे लेखक के पास और कुछ हो न हो समय जरूर होगा। यह भी देखने में आया कि जो लेखक समय तय करके मिलना पसंद करता है, उससे कोई मिलने ही नहीं जाता। मुझे लक्ष्‍मीधर जी का फोन बहुत अटपटा लगा। मैंने कहा, कभी भी चले आइऐ, मगर वह समय निर्धारित करने के बाद ही मिलना चाहते थे। मुझे लगा कोई बहुत कायदे कानूनवाला लेखक इलाहाबाद आया है, जबकि मैं जानता था, वह इलाहाबाद की ही पैदावार हैं और इलाहाबाद की खाँटी लोकनाथ संस्‍कृति से ताल्‍लुक रखते हैं। इलाहाबाद में यह भी बताना शान के खिलाफ समझा जाता था कि आपके बाप-दादा नामी गिरामी लोग थे। श्रीपतराय और अमृतराय प्रेमचंद के पुत्र के रूप में परिचित कराए जाने से अपमानित अनुभव करते थे। जाहिर है लक्ष्‍मीधर ने भी महामना का नाम लेना मुनासिब न समझा। बहरहाल शाम के पाँच बजे मिलने का समय तय हुआ। यह दूसरी बात है पाँच बजे का समय दे कर मुझे पाँच बजे तक प्रतीक्षा करना बहुत भारी पड़ा। उन्‍हें समझाया नहीं जा सकता था कि फकीरों से समय तय करके नहीं मिला जाता। जब तक मैं इलाहाबाद में रच-बस नहीं गया था, ममता मुंबई में नौकरी करती रही। जब तक वह इस्‍तीफा दे कर इलाहाबाद लौटती, हमारा घर फकीरों का डेरा बन चुका था। भिक्षाटन के बाद शाम तक तमाम फकीर मेरे यहाँ चले आते, फकीरों का मेला लग जाता। शराब के नशे में हम सामूहिक रूप से बेगम अख्‍तर की आवाज में ये पंक्‍तियाँ बार-बार सुनते :

किसी दिन इधर से गुजर कर तो देखो

बड़ी रौनकें है फकीरों के डेरे में

दूधनाथ सिंह ने अंधकाराय नमः करते हुए ऐसे फकीरों को जोगियों के रूप में चित्रित किया है। जोगी ओर फकीर संप्रदाय में थोड़ा-सा अंतर था। जोगी लोग इश्‍के-हकीकी में विश्‍वास रखते थे और फकीर इश्‍के-मजाजी में।

लक्ष्‍मीधर निर्धारित समय पर पधारे। वह अत्‍यंत औपचारिक रूप से बातचीत कर रहे थे, जैसे जापान और भारत के राजनयिकों के बीच बातचीत हो रही हो। मुझे औपचारिक बातचीत की न तमीज है न आदत, मेरी इच्‍छा हो रही थी कि बात करते-करते अचानक उनके कंधे पर धौल जमाते हुए कहूँ कस बे लक्ष्‍मीधरवा हमऊ से अंग्रेज बनत बा। बातचीत से उनके व्‍यक्‍तित्‍व के कई आयाम खुल रहे थे। मेरे लिए यह तय करना मुश्‍किल हो गया था कि वह एक यायावर हैं या विद्वान, अध्‍यापक हैं अथवा रचनाकार, प्रेमी हैं या पति, रिंद हैं या टी टोटलर, कथाकार हैं या फोटोग्राफर। वह थोड़ा-थोड़ा सब कुछ थे और उन दिनों उन पर फोटोग्राफी का जुनून सवार था। उन्‍होंने हम लोगों के फोटोग्राफ उतारने के लिए समय माँगा। मेरा तन-बदन फिर जलने लगा। मगर अंत में जैसे सत्‍य की जीत होती है, औपचारिकता पर अनौपचारिकता की जीत हुई और सूरज गुरूब होते-होते हम लोग हमप्‍याला दोस्‍त बन गए थे। हम लोगों में इतनी घनिष्‍टता हो गई कि वह बीवी बच्‍चों सहित कुछ दिन हमारे साथ बिताने को राजी हो गए। उनके जापानी बच्‍चे हमारे इलाहाबादी बच्‍चों से घुल-मिल गए। बच्‍चों के बीच भाषा के फासले ध्‍वस्‍त हो गए। उनकी पत्‍नी अकिको सान हिंदी समझती थीं, कम बोलती थीं, मगर जितना बोलती थीं, शुद्ध बोलती थीं। अशुद्धियों में मालवीय जी का विश्‍वास ही नहीं था।

लक्ष्‍मीधर का भारतीय परिवार भारती भवन में अपने पुश्‍तैनी मकान में रहता था। जापानी गुड़िया-सी दोनों हिंदुस्‍तानी बेटियों की जापानी परिवार से मित्रता हो गई। एक दिन लक्ष्मीधर की पहली पत्‍नी इंदु जी जापानी परिवार से मिलने चली आईं। वह एक स्‍कूल में संगीत की शिक्षिका थीं। उनके पिता महेशचंद्र व्‍यास संगीत की दुनिया का एक जाना-पहचाना नाम था। वह बेगम अख्‍तर की ठुमरी सुनाते 'कोयलिया मत कर पुकार'। बेगम अख्‍तर की आवाज जैसे उनके कंठ में उतर आती। इंदु जी को भी संगीत प्रेम विरासत में मिला था। दोनों पत्‍नियाँ आमने-सामने थीं, दोनों गर्मजोशी से बगलगीर हुईं। लक्ष्‍मीधर चुपचाप देख रहे थे कि इंदु जी की आँखे डबडबा रही हैं। इंदु जी ने एक गाना सुनाया :

कभी तो मिलोगे जीवन साथी

बिछड़ी रही जीवन की बाती

जब से गए हो , मोरी पलकें न लागी रे

सारी-सारी रतियाँ मैं तो रो के जागी रे

याद न जाती

निंदिया न आती

कभी तो मिलोगे....

इंदु जी गा रही थीं, सूरज डूब रहा था, कमरे में सन्‍नाटा था। लक्ष्‍मीधर ने रम का एक घूँट भरा और आँखे बंद कर लीं मेरी रुलाई फूटने लगी। जब लगा कि आँसू निकले बिना न मानेंगे तो बाथरूम में घुस गया और कमोड पर बैठ कर रोता रहा।

उन दिनों मुझे रोना बहुत जल्‍द आता था और पीने के बाद तो और भी जल्‍द। एक जमाना था, मैं मद्रासी फिल्‍म के किसी निहायत फूहड़ किस्‍म के कारुणिक दृश्‍य को देख कर रो पड़ता था। आज भी स्‍थिति में ज्यादा सुधार नहीं हुआ है, माधुरी दीक्षित को पोंछा लगाते देख लूँ तो आँखें सावन भादों होने लगती हैं। शराब पी कर तो मैं फफक कर रोने लगता था और मेरी हिचकी बँध जाती थी। पिक्‍चर हाउस में मैं चुपचाप रोता था ताकि मेरे बीवी-बच्‍चे मुझे इस दुर्दशा में न देख लें। मदिरापान के समय मेरे साथ कोई कुतर्क करने लगता तो मेरी इच्‍छा होती इसे पीट दूँ, पीटने में संकोच लगता तो आँसू बहने लगते। मुझे कोई बोर करता है तब भी मेरी यही हालत हो जाती है। शराब पी कर मैंने बहुत से कथाकारों को रोते देखा है। एक बार तो मोहन राकेश को देख लिया था मालूम नहीं, उस समय वह मदिरापान किए थे या नहीं।

एक जमाने में पंकज सिंह को भी बहुत रोना आता था। बीसियों वर्ष पुरानी घटना है, हम लोग दूधनाथ सिंह के यहाँ जमे थे। पीने-पिलाने का दौर चल रहा था। पंकज सिंह ने उन्‍हीं दिनों ममता का उपन्‍यास 'बेघर' पढ़ा था। वह 'बेघर' से अभिभूत था और उपन्‍यास की प्रशंसा करना चाहता था। नशे में उसे सही शब्‍द नहीं मिल रहे थे। वह जितनी बार बात शुरू करता, जुबान बीच में ही अटक जाती। आजिज आ कर उसने भाषा के हथियार फेंक दिए और रोने लगा। रोते-रोते वह सिर्फ इतना कह पा रहा था - ममता जी, बेघर हूँ.... हूँ.... हूँ। थोड़ा सँभल कर वह फिर उपन्‍यास का प्रसंग छेड़ देता और हर बार शब्‍द उसका साथ छोड़ देते। वह बेघर, बेघर कहते हुए देर तक हिचकियाँ ले कर रोता रहा। मैं पंकज से बहुत प्रभावित हुआ। उसकी बेबसी को कोई शराबी ही समझ सकता था। जो लोग शराब नहीं पीते, वे इस पेचीदा मनःस्‍थिति को नहीं समझ सकते। इस बारीकी में कोई शराबी ही जा सकता है। शराब पी कर रोना एक अलौकिक अनुभव है। यह एक प्रकार का स्‍खलन है और स्‍वतःस्‍फूर्त, सहज और तीव्र स्‍खलन से तरबतर और उन्‍मादित कर देनेवाला दूसरा रचनात्‍मक अनुभव नहीं होता। इस बात को भाषा के गुलाम नहीं समझ सकते। यह भाषातीत अनुभव है, इसकी लीला अपरंपार है। जो शराब पी कर सच्‍चे मन से रोया नहीं, उसका शराब पीना अकारथ चला गया। अनायास ही उसने शराब की तौहीन कर डाली। वह शराब से डस लिया गया ठग लिया गया।

इंदु जी का गाना समाप्‍त हुआ तो मैं बाथरूम से हाथ-मुँह धो कर बाहर निकला। लक्ष्‍मीधर चुप थे और सिगरेट के धुएँ से खेल रहे थे। हर शख्‍स खामोश था। जापान खामोश था, भारत खामोश था। जापानी बच्‍चे कौतुक से यह सब देख रहे थे और लक्ष्‍मीधर की हिंदुस्‍तानी बच्‍चियाँ कभी पिता की तरफ देख रही थीं और कभी माताओं की तरफ। अकिको सान ने आँखे मूँद ली थीं, वह माहौल के सामान्‍य होने की प्रतीक्षा कर रही थीं। समय का पहिया दांपत्‍य को रौंदता हुआ बहुत दूर निकल चुका था, इतना दूर कि उसके पास मुड़ कर देखने का भी विकल्‍प न बचा था।

लक्ष्‍मीधर अपने साथ जापान से बहुत-सी शराब और बहुत से सिगरेट लाए थे। अगर मैं गलत नहीं हूँ तो वे उन दिनों 'पीस' नाम का सिगरेट पिया करते थे। वह रम के शौकीन थे, विशेष कर भारतीय रम के। उनकी पीने की अद्‌भुत क्षमता थी। मैंने कभी उनकी जुबान लटपटाते और कदम डगमगाते नहीं देखे। वे समभाव से मदिरा सेवन करते थे।

लक्ष्‍मीधर परिवार के भारत प्रवास के दौरान उनके साथ बिताई एक 'मस्त-मस्‍त शाम' याद आ रही है। वह शाम शायद इसलिए भी याद रह गई कि लक्ष्‍मीधर ने उस शाम की अनेक छवियाँ कैमरे में कैद की थीं और ढेरों चित्र भिजवाए थे। आज भी वे चित्र हाथ लग जाते हैं तो शाम बोल-बोल उठती है। उस दिन अनेक रचनाकार इलाहाबाद आए हुए थे। याद नहीं पड़ रहा, वे लोग मालवीय जी से मिलने आए थे अथवा आकाशवाणी में कोई कवि सम्‍मेलन था। दोस्‍तों की अच्‍छी-खासी जमात इकट्ठी हो गई थी - नरेश सक्‍सेना, लीलाधर जगूड़ी, राजेश शर्मा, मंगलेश डबराल आदि। इतना जरूर याद पड़ रहा है कि वह मार्च का अंतिम दिन रहा होगा। उन दिनों मार्च का अंतिम दिन शराबियों के जश्न का दिन हुआ करता था। शराब के ठेकेदार वित्‍तीय वर्ष के अंतिम दिन शराब का बचा-खुचा स्‍टॉक कौड़ियों के दाम बेच देते थे। ज्‍यों-ज्‍यों शाम घिरती दाम गिरते जाते। पुराने ठेकेदार अगला दिन चढ़ने से पहले अपना स्‍टाक शून्‍य कर देते। उस दिन हर दोस्‍त के पास अपनी बोतल थी। जिसकी बोतल खत्‍म हो जाती, वह लपक कर चौक से नई बोतल खरीद लाता। प्रीमियम ब्रांड रेग्‍युलर व्हिस्‍की के दाम पर बिक रहे थे। लेखक बंधुओं की होली-दीवाली एक साथ हो गई थी। नरेश सक्‍सेना शराब नहीं पीते, बाँसुरी बजाते हैं। उन्‍होंने बाँसुरी पर एक लोकप्रिय धुन छेड़ दी। दोस्‍तों ने अनुरोध किया तो कुछ गीत भी सुनाए। नरेश सक्‍सेना को जीवन में दुबारा ऐसी दाद न मिली होगी। जगूड़ी-मंगलेश को भी भरपूर दाद मिली। एक-एक पंक्‍ति पर दाद दी जा रही थी। बड़े-बड़े मुशायरों में भी ऐसी दाद न मिलती होगी। काव्‍यपाठ के बीच बार-बार मालवीय जी का फ्लैश चमकता। वे कभी स्‍टैंड पर कैमरा बैठा कर चित्र खींचते, कभी उकडूँ बैठ कर, कभी लेट कर, कभी कुर्सी पर चढ़ कर। उन्‍होंने चौरासी कलाओं (आसनों) से चित्र खींच डाले। वे महफिल में होते हुए भी महफिल से गाफिल थे। उस समय उनकी दिलचस्‍पी दारू में थी न कविता में, वे फोटोग्राफी में आकंठ डूबे हुए थे। इस बीच अकिको सान ने जापानी में एक हाइकू सुनाया, अनुवाद सुनने से पहले ही लोगों ने इतनी दाद दे दी कि उन्‍होंने भावार्थ समझाने की कोई जहमत नहीं उठाई।

ममता मेहमानवाजी का फर्ज सरअंजाम दे रही थी। अनिता गोपेश उसका हाथ बँटा रही थी। मधु और गौरा (मालवीय जी की बेटियाँ) भी सेवा में लगी थीं। अनिता जितनी बार नीचे आती, मंगलेश उसे अपने पास बुलाता और कहता - अनिता तुम्‍हें मालूम नहीं, गोपेश जी मुझे कितना चाहते थे। अनिता जब ऊपर चली जाती तो मंगलेश बुदबुदाते - पागल लड़की जानती ही नहीं कि उसके पिता मुझे कितना प्‍यार करते थे। मंगलेश को लग रहा था, अनिता उसकी उपेक्षा कर रही है, जबकि उसके पिता उसे बहुत चाहते थे। वह मधु को देखते तो उसे आवाज देते - मधु ऊपर जाओ तो उस बेवकूफ लड़की को नीचे भेजना, मैं उससे गोपेश जी की बातें करूँगा। मधु हँसती और हँस कर टाल जाती मंगलेश की बात। इस बीच मधु के साथ भी एक दुर्घटना हो गई। राजेश शर्मा (अब दिवंगत) बहुत देर से खामोश बैठे थे। वह काव्‍यपाठ में भी रुचि न ले रहे थे। वह किसी दूसरे जहान में खोए हुए थे। वास्‍तव में उन पर इश्‍क का गंभीर दौरा पड़ा था। नशे में वह मधु पर फिदा ही नहीं हो गए, सार्वजनिक रूप से प्रणय निवेदन भी कर दिया। उस समय टेप भी चल रहा था, फिल्‍मांकन भी हो रहा था। उन्‍होंने मधु से कहा कि आज उनके सदियों से भटक रहे मन को ठौर मिल गया है। वह एक जोगी की तरह प्रेम की भीख माँगने लगे - 'मधु, मेरी बात गौर से सुनो। मैं अब तुम्‍हारे बगैर एक पल भी जिंदा नहीं रह सकता। अब समय आ गया है, मैं अपनी पत्‍नी से तलाक ले लूँ। तुम्‍हारे लिए मैं सब कुछ छोड़ दूँगा - अपना घर-बार, बीवी-बच्‍चे, सरकारी नौकरी। यह एक अच्‍छा संयोग है कि तुम्‍हारे पिता इस समय यहीं हैं, फिजूल के पत्राचार में समय नष्‍ट न होगा। अब देर न करो, जाओ, इसी समय जाओ और अपने पिता से शादी की इजाजत ले लो।' मेजबान की हैसियत से मैंने तुरंत हस्‍तक्षेप किया - 'राजेश मधु मेरी बेटी है। तुम नशे में हो मेरे भाई। मैं इस प्रस्‍ताव को नामंजूर करता हूँ।'

उन दिनों मैं दो-एक पेग पीने के बाद ज्यादातर लड़कियों को अपनी बेटी बना लिया करता था। अगर कोई लड़की मुझे भा जाती तो मैं तुरंत कोई-न-कोई रिश्‍ता कायम कर लेता। वक्त ने कोई और रिश्‍ता कायम करने की गुंजाइश ही न छोड़ी थी। यह एक अत्‍यंत निरापद रिश्ता था। अब तो मैं इस निष्‍कर्ष पर पहुँच चुका हूँ कि घर में एक बिटिया होती तो मैं बेझिझक घर में इस तरह मदिरापान नहीं करता, जिंदगी कुछ व्‍यवस्‍थित होती, जीवन शैली इतनी अराजक न होती। बेटियोंवाले घरों में गजब का अनुशासन देखा गया है। बेटियोंवाले बेटेवालों के घर जा कर मयनोशी करते हैं।

मालवीय जी जापान लौट गए तो बेटियों ने सचमुच मुझे अपना अभिभावक मान लिया। एक बार बहुत दिनों तक मधु-गौरा के समाचार न मिले तो मैंने उन्‍हें बुलवा भेजा। अगले रोज मधु प्रकट हुई, अत्‍यंत क्षमा याचना की मुद्रा में। वह अपने साथ स्‍टैंप पेपर पर नोटरी से विधिवत सत्‍यापित किया हुआ शपथ पत्र ले कर आई कि भविष्‍य में उससे ऐसी गुस्‍ताखी न होगी और वह सप्‍ताह में एक बार कालिया जी के थाने में अपनी उपस्‍थिति दर्ज करवाएगी। वह अपने पिता से कम कल्‍पनाशील न थी। उन दिनों उसकी अजय से देखा-देखी चल रही थी। बर्ड वाचिंग (पक्षियों पर नजर रखना) अजय की हॉबी थी। एक-एक चिड़िया को वह पहचानता था। मैं मधु को चिढ़ाया करता कि अजय ने एक बिरली चिड़िया पहचान ली है। अजय का चयन रुचि के अनुकूल इंडियन फारेस्‍ट सर्विस में हो गया और मधु का बेटा अब दस-बारह वर्ष का होगा। राजेश शर्मा अब इस जहान में नहीं हैं, दो वर्ष पहले उन्‍होंने लखनऊ की एक बहुमंजिली इमारत से कूद कर आत्‍महत्‍या कर ली थी।

उस दिन भी राजेश ने ज्यादा पी ली थी। जब तक उसे बताया जाता कि जल्‍द ही मधु के हाथ पीले होनेवाले हैं, वह लुढ़क चुका था। सुबह तक वह सब कुछ भूल चुका था और निष्‍पाप भाव से सिगरेट फूँक रहा था। उसे जब अपनी हरकतों की जानकारी हुई, वह देर तक पश्‍ताचाप करता रहा। लक्ष्‍मीधर ने जापान से उस यादगार शाम के ढेरों चित्र भिजवाए थे। कुछ चित्र तो ऐसे थे जिन्‍हें लिफाफे के भीतर एक और बंद लिफाफे में प्रश्न-पत्रों की तरह हिफाजत से भेजा गया था कि बच्‍चों के हाथ न लग जाएँ। वे आचार्य रजनीश उर्फ भगवान ओशो के आश्रम के चित्र लगते हैं, उतने ही निर्कुंठ और पारदर्शी। वे मुक्‍ति के चित्र हैं, निर्वाण के चित्र हैं।

अनिता गोपेश को उस शाम की एक-एक तफसील इतने वर्ष बाद भी याद है। जिस दिन मैं यह प्रसंग लिख रहा था (28-10-98) अचानक सुबह-सुबह अनिता चली आई। हालाँकि वह विश्‍वविद्यालय के जंतु विज्ञान विभाग में रीडर है, साहित्‍य में उसकी दिलचस्‍पी बरकरार है। मेरे अनुरोघ पर उसने उस शाम का ब्‍योरा लिख कर दिया, उसमें मेरा भी 'कैरीकेचर' खींचा गया है, इसलिए यहाँ उद्‌धृत करना जरूरी हो गया है :

'उन दिनों कालिया दंपती रानी मंडीवाले अपने पुराने मकान में रहते थे। उसमें दुर्गद्वार जैसे बड़े फाटक से प्रवेश करके बाईं ओर को अंदर सात-आठ सीढ़ियाँ चढ़ कर कालिया जी का कमरा था और सामने सीढ़ी चढ़ कर ऊपर रिहायशी कमरे... फिर लंबी सी छत और छत पार करने के बाद रसोई। रसोई के बगल में माता जी का कमरा हुआ करता था, जिस पर जाली लगी खिड़कियों से सामने छत से आता-जाता हर इनसान दिखाई पड़ता था।

शहर और बाहर के साहित्‍यकारों की बड़ी आमदोरफ्त रहती थी उनके यहाँ। बात ही बात में आए दिन गोष्‍ठियाँ हो जाती थीं... दो दोस्‍त बाहर से आए नहीं कि महफिल जम जाती। ऐसी गोष्‍ठियों के बारे में प्रायः ममता जी से सुनती रहती थी। उस बार उनके आमंत्रण पर पहुँच ही गई उनके घर। कुछ इस ख्याल से भी कि इतने लोगों का खाना-पीना... कुछ मदद हो जाएगी ममता जी की और उत्‍सुकता थी कि देखेंगे कैसी होती हैं इस प्रकार की अनौपचारिक गोष्‍ठियाँ।

जापान से डॉ. लक्ष्‍मीधर मालवीय आए हुए थे, अपनी जापानी पत्‍नी के साथ। वे कालिया जी के यहाँ ही रुके हुए थे। मालवीय जी की पहली पत्‍नी की बेटियाँ आती रहती थीं अपने पिता से मिलने। उन्‍हीं के सम्‍मान में थी गोष्‍ठी शायद। उनके अलावा बाहर से आए लोगों में मंगलेश डबराल, नरेश सक्‍सेना, लीलाधर जगूड़ी, राजेश शर्मा के नाम मुझे याद हैं। और भी दसेक लोग थे, जिनकी मुझे याद नहीं।

कमरे में जमीन पर ही गद्दों पर गोला बना कर बैठे थे सब। शाम ढलने के बाद शुरू हुई महफिल... वह भी पीने-पिलाने से। पीने के साथ ही साथ कालिया जी पिलाने के भी खूब शौकीन थे। मुझे सही-गलत बहुत से कारणों से पीने से तब भी परहेज था, आज भी है। सामने रहो तो घना आग्रह, पी कर तो देखो, बियर तो शराब नहीं होती, जिन तो औरतें भी पी लेती हैं। आदि-आदि।

ममता जी ने ऊपर आ कर बताया, 'नीचे काव्‍यपाठ चल रहा है। अब आ जाओ नीचे।' नीचे आ कर देखा, काव्‍यपाठ के बीच वाह-वाही का सिलसिला चल रहा था। दो मिनट की कविता होती तो दस मिनट 'वाह-वाह'। स्‍थिति रोचक होती चली गई। कविता को समझ पाना मुश्‍किल हो गया तो मैं खाने की कमान सँभालने ऊपर चली गई। बहुत समय उसमें निकल गया। काम निपटा कर नीचे आई तो कुछ अजीब ही समाँ बँधा था। हर कोई बोल रहा था, कोई किसी को सुन नहीं रहा था। लक्ष्‍मीधर मालवीय ममता जी से मुखातिब थे तो कालिया जी उनकी जापानी पत्‍नी को कुछ समझा रहे थे, जगूड़ी जी कविता पर बहस कर रहे थे तो राजेश शर्मा मालवीय जी की सुदर्शना लड़की से प्रणय निवेदन करने में व्‍यस्‍त थे। किसी ने मंगलेश जी से मेरा परिचय करवाया तो वह एक लंबा-सा 'आ हा हा' करते हुए गोपेश जी की याद में डूब गए। लड़खड़ाती जुबान में मुझसे कहने लगे, 'आप शायद नहीं जानती होंगी, गोपेश जी मुझे बहुत स्‍नेह करते थे, क्या खूब इनसान थे, भई वाह....' मैंने हामी भरी और सामान समेटने उनकी तरफ बढ़ी। मेरे कान के पास आ कर बोले, 'आप नहीं जानतीं, वे मुझे कितना मानते थे, कितना प्‍यार करते थे।' मैंने सौजन्‍य में कहा, 'जी वे युवा प्रतिभाओं से बहुत प्‍यार करते थे।'

'नहीं,' वह हाथ नचाते हुए बोले, 'वह मुझे जितना प्‍यार करते थे, उतना किसी से नहीं करते थे।'

मेरे पास उनकी बात मान लेने के अलावा कोई चारा नहीं था। ऐसी ही स्‍थिति में महफिल सुबह चार-पाँच बजे तक चली। एक दूसरे पर गिरते, निढाल होते लोगों को देख मैंने वहाँ से हट जाना ही बेहतर समझा और ममता जी के कमरे में जा कर सो गई।

सुबह मुँह अँधेरे नीचे आई तो ज्यादातर लोग सो रहे थे। जो जहाँ था, वहीं लुढ़क गया था। स्‍थानीय लोग विदा ले चुके थे। अनेक खाली बोतलें भी कमरे में बिखरी पड़ी थीं। मैंने ममता जी से जाने की अनुमति माँगी तो दिन की महफिल का कुछ इस प्रकार नाटकीय समापन हुआ। ममता जी ने कालिया जी से बताया कि अनिता जा रही है तो वह आँखें मलते हुए उठ गए, उन्‍हें अचानक मेरी चिंता हो गई, 'अभी तो अँधेरा है, अकेली कैसे जाएगी ?'

'रिक्‍शे से चली जाऊँगी।' मैंने कहा।

'नहीं, ऐसा नहीं हो सकता।' अधिक ही लाड़ से कहा उन्‍होंने, 'अनिता हमारे घर आई थी... हमारे घर... उसको घर तक छोड़ना हमारी जिम्‍मेदारी है।' जिम्‍मेदारी का भाव तो उनका सही लगा, उसे निभाने की स्‍थिति जरा डावाँडोल थी। मैंने तुरंत कहा, 'नहीं, नहीं, मैं तो चली जाती हूँ अक्‍सर रिक्‍शे से। अभी तो सुबह भी हो गई है।'

'नहीं, अनिता हमारे घर से अकेली नहीं जा सकती। मैं छोड़ कर आऊँगा।'

कालिया जी के प्रस्‍ताव पर मेरी तो साँस ऊपर की ऊपर और नीचे की नीचे रह गई। ममता जी ने भी उन्‍हें समझाने की बहुतेरी कोशिश की कि अनिता तो हमेशा ही चली जाती है, फिर तुम अभी जाने की स्‍थिति में भी नहीं हो।'

'कौन कहता है कि मैं नशे में हूँ, एकदम ठीक हूँ, तुम देखो, मैं यों गया और यों आया।'

ममता जी और मैंने एक-दूसरे की तरफ निरीह भाव से देखा और हथियार डाल दिए। ऐसा भी नहीं कि नशे में कालिया जी कुछ बहक जाते और कुछ बेजा हरकत कर बैठते। मैंने प्रायः पाया था कि पी लेने के बाद वह ज्यादा मुखर ही नहीं, अतिरिक्‍त सभ्‍य और सुसंस्‍कृत हो जाते थे। यह अतिरिक्‍त प्‍यार और चिंता उनके नशे का स्‍थायी भाव था। नशे के बाद उनके भीतर पिता का भाव जाग्रत हो जाता। मेरी-उनकी उम्र में इतना अंतर नहीं था कि उनके मेरे बराबर बेटी होती। पर ऐसे में वह अक्‍सर ममता जी से यह कहते सुनाई पड़ते कि अगर उन लोगों की सही समय पर शादी हो गई होती तो अनिता के बराबर बेटी होती। या मुझसे मुखातिब हो कहते - कम ऑन अनिता, यू आर जस्‍ट लाइक माई डॉटर।

उनका इस स्‍थिति में स्‍कूटर चलाना खतरे से खाली नहीं था। उनके घर से अपने घर की दूरी की कल्‍पना करके मेरा दिल बैठा जा रहा था, पर कालिया जी पर जिम्‍मेदारी का भूत सवार हो चुका था और भूत के आगे सभी हारते हैं। धड़कते दिल से बैठी पीछे की सीट पर। ममता जी असमंजस और आशंका में खड़ी देखती रहीं।

मुझे अच्‍छी तरह याद है, बोर्ड की परीक्षा प्रारंभ हो रही थी उस दिन से। परीक्षार्थियों की भयंकर भीड़ थी सड़कों पर। उसी भीड़ के बीच में एक डगमगाता स्‍कूटर आगे बढ़ रहा था। लग रहा था स्‍कूटर भी नशे में है। मुझे ऐसे लग रहा था जैसे चक्रवात में फँस गई हूँ। उनके घर से अपने घर तक अनगिनत बार मैं मर-मर गई। घर के गेट पर उतरी तो लगा - विचित्र किंतु सत्‍य। कालिया जी की जिम्‍मेदारी यहीं खत्‍म नहीं हुई, बोले, 'गेट के भीतर जा कर अपने बरामदे में पहुँच जाओ।' मैं लंबे-लंबे डग भरते बरामदे की सीढ़ी पर पहुँची और हाथ हिलाया। उनका स्‍कूटर मुड़ा। उनके सही सलामत घर वापिस पहुँचने की कामना करते हुए मैं घर में घुसी।

उस दिन अप्रिय कुछ नहीं घटा था, पर उस दिन के बाद बहुत दिनों तक मैं उनके घर नहीं गई।'

14-

फैज़ अहमद 'फैज़' दो मर्तबा इलाहाबाद आए थे। पहली बार सन 1957-58 में और आखिरी बार 1981 में। 1958 में तो मैं पंजाब में था। 1981 में फैज़ साहब से इलाहाबाद में अत्‍यंत अनौपचारिक और आत्‍मीय मुलाकात हुई। उनके साथ जाम टकराने का मौका भी मिला। मैं 1958 में भी इलाहाबाद होता मगर समय ने साथ न दिया था। मेरे दोस्‍त अमरीक सिंह कलसी और मैंने तय किया था कि इलाहाबाद विश्‍वविद्यालय से एम.ए. करेंगे, मगर मेरे लिए यह संभव न हो सका। उन्‍हीं दिनों मेरे बड़े भाई अध्‍यापन के सिलसिले में कैनेडा गए थे और उनके बिछोह में मेरी माँ रो-रो कर बेहाल हो गई थीं। मेरा घर से दूर जाने का प्रश्‍न ही न उठता था। यह दूसरी बात है कि दो साल बाद मैंने भी घर छोड़ दिया और ऐसा देशनिकाला मिला कि तब से बाहर ही बाहर हूँ। असली देशनिकाला तो मेरे दोस्‍त अमरीक सिंह कलसी को मिला, जो इलाहाबाद विश्‍वविद्यालय से एम.ए. करने के बाद ऐसा लंदन गया कि वहीं का नागरिक बन गया। शादी करने भी वह भारत नहीं आया, वहीं एक मेम से शादी कर ली और स्‍कूल ऑफ ओरिएंटल एंड अफ्रीकन स्‍टडीज में पढ़ाने लगा। 1991 में वह इलाहाबाद आया था। उसने कहीं से मेरा नंबर हासिल किया और फोन किया। इससे पहले कि वह अपनी शिनाख्‍त बताता पैंतीस साल बाद भी मैं क्षण-भर में उसकी आवाज पहचान गया। छूटते ही मैंने पूछा, 'कलसी दे पुत्‍तर कित्‍थों बोल रेयाँ?' बी.ए. में ही हम दोनों की दोस्‍ती हो गई थी। हम दोनों की रुचियाँ एक-सी थीं। क्‍लास में गैरहाजिर रह कर हम लोग बाहर ढाबे में सिगरेट फूँका करते थे। साहित्‍य का रोग उसे भी लग चुका था। इसी यात्रा में वह पाकिस्‍तान भी गया था और दिल्‍ली लौट कर उसने मुझे एक दिलचस्‍प खत लिखा था :

पाकिस्‍तान में नए उर्दू कहानीकारों से मिलने का मौका मिला। 8 को लंदन लौटूँगा , तब तक दिल्‍ली में ही रहूँगा। तुम भी चले आओ। इस समय मैं अपने भाई के घर पर हूँ - उसका नाम हरनाम सिंह कलसी है। कल मैं अपने रहने की कोई दूसरी व्‍यवस्‍था करूँगा , कनाट प्‍लेस के आस-पास। मेरा भाई , जिसकी उम्र 82 साल है , रोज रात को दो बड़े पेग पीता है। दो ही मुझे देता है। तीसरा पेग न वह पीता है , न मुझे देता है। एक तो यह परेशानी। आजादी से सिगरेट न पी सकने की परेशानी अलग। मैं लंदन पहुँच कर भी तुम्‍हें पत्र लिखता रहूँगा ताकि फिर से जुड़ा यह संपर्क फिर नहीं टूटे। '

इस नश्‍वर संसार में हर चीज टूटने के लिए ही बनती है। लगता है यह संपर्क भी टूटने के लिए ही बना था। कलसी 1991 में ही लंदन पहुँच चुका होगा, मगर फिर से जुड़ा संपर्क दुबारा टूट गया। दोष मेरा भी है, मैं पत्र लिखने में बेहद आलसी हूँ। कलसी ने भी खत लिखने की जहमत न उठाई। वह भूल गया कि कॉलिज के दिनों में हम कितने गहरे दोस्‍त थे और नए और मौलिक खेल खेला करते थे। कलसी, कपिल अग्‍निहोत्री और मैंने मिल कर एक अनूठा खेल ईजाद किया था - उऋण प्रतियोगिता यानी 'यूरिन रेस'। डी.ए.वी. कॉलिज, जालंधर के पास एक नहर बहती थी, हम लोग उसी नहर के किनारे जी भर कर लघुशंका करते। जिसकी धार सबसे दूर पड़ती वह अव्‍वल रहता और जो फिसड्‌डी रह जाता उसे बियर पिलानी पड़ती। कलसी का कद हम दोनों से छोटा था, अक्‍सर उसे ही हारने का दंड भरना पड़ता। हराम की बियर हम लोगों को हराम थी। जब भनक लगती कि कलसी के घर से मनिआर्डर आ गया है, हम लोग उसे प्रतियोगिता के लिए प्रेरित और प्रोत्‍साहित करते। खेल जारी रखने के लिए कभी-कभार उसे जिता भी देते थे। पिछले चालीस बरसों में डी.ए.वी. कॉलिज के बगलवाली नहर में न जाने कितना पानी बह गया होगा। नहर है भी या नहीं, मुझे इसका इल्‍म नहीं है। मैंने यह सोच कर संतोष कर लिया है कि कलसी की याददाश्‍त कमजोर हो गई है। प्रयाग शुक्‍ल भी कलसी का हमउम्र होगा, मगर उसकी याददाश्‍त कमजोर नहीं हुई। इसका एहसास तब हुआ जब पिछले दिनों अचानक इलाहाबाद में हम लोगों की भेंट हो गई। हम लोग देर तक यादों की राख टटोलते रहे।

साठ के दशक के शुरू के वर्षों में प्रयाग, गंगा प्रसाद विमल, हमदम और मैं दिल्‍ली के संत नगर के पचास सौ पचपन नंबर फ्लैट में एक साथ रहते थे। वे गर्दिश और फाकामस्‍ती के दिन थे। प्रयाग और हमदम (कलाकार) फ्रीलांसर थे, विमल दिल्‍ली कॉलिज में प्राध्‍यापक था और मैं केंद्रीय हिंदी निदेशालय द्वारा प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका 'भाषा' के संपादकीय विभाग से संबद्ध था। जेब में पैसा होता तो हम लोग शहंशाह होते, न होता तो लाई चना खा कर सूरतेहालात पर तब्‍सरा करते। हम लोगों का बियर पीने का अंदाज भी निराला था। उन दिनों बाजार में ठंडी बियर न मिलती थी। मुफलिसी में भी महीने में एकाध बार बियर पार्टी जरूर हो जाती। बर्तन के नाम पर घर में सिर्फ एक बहुउद्देशीय बाल्‍टी थी, वह नहाने के काम आती और वक्‍त जरूरत उसमें बियर भी ठंडी की जाती। हमदम बियर नहीं पीता था, उसके लिए कोकाकोला की व्‍यवस्‍था रहती। वह इंतजाम अली था, बर्फ वगैरह की व्‍यवस्‍था वही करता। बाद में ढाबे के चाय के छोटे-छोटे गिलासों में बियर पीते हुए एहसास होता :

वक्‍त की सीढ़ियों पर लेटे हैं

इस सदी के कबीर हैं हम लोग

दूसरी मर्तबा 25 अप्रैल, 1981 को जब फ़ैज़ अहमद 'फ़ैज़' इलाहाबाद आए, मैं इलाहाबाद का बाशिंदा बन चुका था। इलाहाबाद विश्‍वविद्यालय ने उनके सम्‍मान में एक जलसे का आयोजन किया था। विश्‍वविद्यालय के विशाल प्रांगण में इससे भव्‍य आयोजन फिर दूसरा नहीं हुआ। उन दिनों छात्र आंदोलन के कारण विश्‍वविद्यालय में पठन-पाठन का कार्य लगभग ठप था और विश्‍वविद्यालय प्रशासन आयोजन की सफलता को ले कर बहुत सशंकित था। सीनेट हाउस के लॉन पर एक बहुत बड़ा मंच बनाया गया था। शाम होते-होते बरगद के नीचे का मैदान छात्रों से खचाखच भर गया। छात्रावास सुनसान हो गए। लग रहा था शहर के तमाम रिक्‍शे, ताँगे, स्‍कूटर, मोटर साइकिल और कारें सिर्फ एक दिशा में दौड़ रही हैं। जगह-जगह जाम लग गया। पूरा शहर जैसे विश्‍वविद्यालय की तरफ उमड़ आया था। मैं और ममता भी किसी तरह सभास्‍थल पर पहुँचे। फ़ैज़ प्रकट हुए तो तालियों की गड़गड़ाहट से परिसर गूँज उठा। महादेवी वर्मा ने सभा की अध्‍यक्षता की थी। फिराक साहब उन दिनों अस्‍वस्‍थ थे, उन्‍हें गोद में उठा कर मंच पर लाया गया था। मंच पर फ़ैज़, फिराक और महादेवी के अलावा उपेंद्रनाथ अश्क, प्रोफेसर अकील रिज़वी और डॉ. मुहम्‍मद हसन मौजूद थे। फ़ैज़ ने सियासत और अदब के गहरे रिश्‍तों को रखांकित करते हुए कहा कि उनका एक ही संदेश है दुनिया के लिए कि इश्‍क करो। फिराक साहब जैसे सातवें आसमान पर बैठे थे। उन्‍होंने यह शेर सुना कर श्रोताओं को मुग्‍ध कर दिया :

आनेवाली नस्‍लें तुम पर रश्क करेंगी हम असरो !

जब उनको यह ध्‍यान आएगा तुमने फिराक को देखा है

फिराक को जैसे अपना अंत नजर आ रहा था। मुझे उनकी अली सरदार जाफ़री को अत्‍यंत कातरता से लिखी ये पंक्‍तियाँ याद आ गईं - 'भाई अली सरदार, बहुत बीमार हूँ - फिराक'। इस ऐतिहासिक सम्‍मेलन के कुछ दिनों बाद ही 3 मार्च, 1982 को फिराक इस फानी दुनिया से कूच कर गए। डॉ. मुहम्‍मद हसन का यह जुमला आज भी लोग अक्‍सर उद्‌धृत करते हैं कि :

आनेवाली नस्‍लें तुम पर रश्‍क करेंगी हम असरो !

जब उनको यह ध्‍यान आएगा

फिराक , महादेवी , फ़ैज़ को तुमने

एक साथ मंच पर देखा था।

प्रोफेसर अकील रिज़वी ने फ़ैज़ को याद करते हुए एक दिलचस्‍प किस्‍सा बयान किया है - 'जब हम फ़ैज़ साहब को छोड़ने सर्किट हाउस चलने लगे तो एक लड़की ज़िद करने लगी कि वह फ़ैज़ साहब के साथ बैठेगी। फ़ैज़ साहब की हिफाजत भी हम लोगों का फर्ज था। खयाल गुजरा मालूम नहीं यह लड़की कौन है। फ़ैज़ साहब से वह अनुमति माँग रही थी, मगर फ़ैज़ साहब खामोश थे। मैंने लड़की से सख्‍ती के साथ इंकार कर दिया। अब वह लड़की कार के आगे खड़ी हो गई कि मैं जाने न दूँगी, जब तक आप मुझे फ़ैज़ साहब के साथ बैठने न देंगे। हम लोगों का संदेह और बढ़ गया। खयाल गुजरा कि वह कोई आतंकवादी है, जो फ़ैज़ साहब का पीछा कर रही है। अभी यह कोई हथगोला या पिस्‍तौल निकालेगी। उस समय पुलिस भी न थी। फ़ैज़ साहब नीचे उतर आए और उन्‍होंने लड़की से अंदर बैठने को कहा और लोगों के रोकते-रोकते वह भी अंदर बैठ गए। कमबख्‍त लड़की जब अंदर बैठ गई तब उसने बताया कि वह एक समाचार-पत्र की संवाददाता है। दो दिन से फ़ैज़ साहब का इंटरव्‍यू लेना चाहती है, मगर कोई उसे मौका नहीं देता। अब उसने यह तरकीब इसलिए निकाली थी कि चलती हुई कार में ही वह इंटरव्‍यू ले सकती है। हम लोगों को इत्‍मीनान हुआ। वह अपने प्रश्न करती जाती और फ़ैज़ साहब उनका जवाब देते जाते।'

फ़ैज़ इलाहाबाद विश्‍वविद्यालय के निमंत्रण पर इलाहाबाद आए थे। उन दिनों प्रोफेसर उदित नारायण सिंह विश्‍वविद्यालय के उपकुलपति थे। राजनीति शास्‍त्र विभाग के जेएनयू रिटर्न नए प्रवक्‍ता देवीप्रसाद त्रिपाठी उनके संपर्क में क्‍या आए कि वह गणित से ज्यादा शायरी में दिलचस्‍पी लेने लगे। यहाँ तक कि फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की कई गजलें उन्‍हें कंठस्‍थ हो गईं। जब फ़ैज़ को इलाहाबाद बुलाने का प्रस्‍ताव आया तो वह तुरंत मेजबानी के लिए तैयार हो गए।

इलाहाबाद के जजों, वकीलों, मंत्रियों, नेताओं और रईसों में फ़ैज़ को दावत देने की होड़ लग गई। लोगों के लिए फ़ैज़ को अपने घर बुलाना प्रतिष्‍ठा का प्रश्‍न बन गया। हम लोगों को लगा कि इस मार-काट में फ़ैज़ से अनौपचारिक मुलाकात संभव न होगी। एक रोज देवीप्रसाद त्रिपाठी रानी मंडी आए तो मैंने छूटते ही हमला बोल दिया - डीपीटी, सुनो! हिंदी लेखकों से फ़ैज़ की मुलाकात न हुई तो अच्‍छा न होगा, सुना है तुम्‍हारा वाइस चांसलर पात्रता नहीं, हैसियत देख कर फ़ैज़ के कायर्क्रम तय कर रहा है।

डीपीटी को आपने कभी अकेले न देखा होगा, यह उसके लिए संभव नहीं। उसके साथ उससे दुगुनी उम्र का साथी भी हो सकता है और उससे आधी उम्र का भी। आनेवाले ने खुद अपना परिचय दे दिया तो बेहतर, वरना डीपीटी ने न मैंने कभी इसकी जरूरत महसूस की थी। महफिल में कौन किससे परिचय करवाता है। जो महफिल में शामिल हो गया, वह बिरादरी में शामिल हो गया, एकाध पेग के बाद वह परिचय का मोहताज न रहा। मेरी बात सुन कर डीपीटी अचानक सकपका गया। बेतकल्‍लुफी में मैं आगे कुछ कहता कि डीपीटी के लिए अपने साथी का परिचय देना जरूरी हो गया - 'अरे भाई मैं परिचय कराना भूल गया। आप ही तो हैं हमारे विश्‍वविद्यालय के उपकुलपति प्रोफेसर यू.एन. सिंह।' अब आप अपना सिर पीट लीजिए या डीपीटी का। डीपीटी की ऐसी ख्‍याति थी कि मेरी माँ कहती थीं - भैड़ै-भैड़े यार मेरी फत्‍तों दे।

डीपीटी आँखों से लाचार डेढ़ पसली के शख्‍स थे (हैं)। आँख से सटा कर किताब पढ़ते थे और जो पढ़ते थे, उनके मस्‍तिष्‍क के प्रिंटर में छप जाता था। टिमटिमाते दिए-सी अपनी कमजोर आँखों से उन्‍होंने जाने कितना देशी-विदेशी साहित्‍य पढ़ रखा था। उनके पास गजब की स्‍मरण शक्‍ति थी। अगर उन्‍हें चलता-फिरता कंप्यूटर या मिस्टर शकुंतला देवी कहा जाए तो गलत न होगा। मैं अक्‍सर कहा करता था, जिसका मित्र देवीप्रसाद, डॉयरेक्‍टरी का क्‍या काम है। फिराक, पंत और महादेवी का निधन हुए एक अर्सा हो चुका है, डीपीटी को आज भी उनके टेलीफोन नंबर याद होंगे। दो-चार पेग पीने के बाद उस पर लोकगीत सुनाने की धुन सवार होती। मेज नहीं तो वह माचिस की डिबिया से तबले का काम लेते हुए यके बाद दीगरे, अवधी, भोजपुरी, पंजाबी, कश्‍मीरी, सिंधी, तेलुगु, कन्‍नड़, मलयालम गर्ज यह कि किसी भी भाषा के लोकगीतों की झड़ी लगा देते। वह गीत गोविंद का पाठ कर सकते थे, संस्‍कृत के श्‍लोक सुना सकते थे, कुरान की आयतें सुना सकते थे।

डीपीटी जेएनयू छात्रसंध के अध्‍यक्ष रह चुके थे। सम्‍मोहित करने की उनमें अद्‌भुत क्षमता थी। इसका प्रयोग लड़कियों पर उन्‍होंने बहुत कम किया। लड़कियों की बात भी वह प्रायः नहीं करते थे। छोटी उम्र में जिनकी शादी हो जाती है, उनका यही हश्र होता है। ऐसे लोगों की भूख लगने से पहले ही खत्‍म हो जाती है। डीपीटी की भूख खत्‍म हो चुकी थी, प्‍यास बाकी थी, जो कभी खत्‍म ही नहीं होती थी। आज भी बरकरार है। जेएनयू की भी किसी समूची लड़की की उन्‍हें याद न थी। किसी के गेसू (काली घटा) किसी की आँखें (झील) किसी की बाहें (मर्मरीं) किसी की आवाज (प्रपात) और किसी की महज सुगंध (संदल) याद रह गई थी। मैं बालों का प्रसंग छेड़ देता तो डीपीटी के आसमान में काली घटाएँ छा जातीं, केश राशि पर लिखे श्‍लोक, गीत, शेर, रूबाइयाँ, सॉनेट, हाइकू उनकी जुबाँ से झरने लगते। यकायक शराब की खपत बढ़ जाती। मेरी तरह उन्‍हें भी दारू की लत लग चुकी थी। मद्यपान में वह बड़े-बड़े योद्धाओं को परास्‍त कर देते। कई बार तो शक होता था कि विधाता ने उन्‍हें पेट दिया है कि मटका। मेरी तरह वह भी बर्बादी के रास्‍ते पर चल निकले थे। साथ में हमेशा कोई न कोई शिष्‍य रहता या प्रवक्‍ता। प्रवक्‍ता भी कुछ दिनों बाद शिष्‍यों की श्रेणी में आ जाता। कुलपति को भी उनके साथ देख कर मैंने यही सोचा था। उसी शाम तय हो गया कि 27 अप्रैल, 1981 की शाम फ़ैज़ हिंदी लेखकों के बीच बिताएँगे। मेजबानी का मौका मिला इलाहाबाद के तत्‍कालीन शहर कोतवाल यानी पुलिस अधीक्षक विभूति नारायण राय को। वह डीपीटी के क्‍लासफेलो थे। दोनों पुराने साथी थे। फ़ैज़ के लिए उनसे बेहतर मेजबान नहीं हो सकता था।

सन 1981 के अप्रैल महीने के आखिरी हफ्ते की वह ऐतिहासिक शाम विभूति के घर पर फ़ैज़ के नाम दर्ज हो गई। हिंदी-उर्दू के लेखकों, शायरों, रंगकर्मियों और संस्‍कृत कर्मियों को फ़ैज़ के सान्‍निध्‍य का मतलब समझ में आया। लग रहा था कि कई युगों और समुद्रों के पार से अपनी बिरादरी का कोई खोया हुआ सिद्धार्थ घर लौट आया है। फ़ैज़ गजलें सुना रहे थे और श्रोताओं में उपेंद्रनाथ अश्क, डॉ. मुहम्‍मद अकील रिज़वी, मार्कंडेय, अमरकांत, दूधनाथ सिंह, ममता और मेरे अलावा विश्‍वविद्यालय के अनेक विभागों के प्रवक्‍ता, रीडर और विभागाध्‍यक्ष थे। धीरे-धीरे शाम फरमाइशी कार्यक्रम में तब्‍दील हो गई। हर कोई अपनी पसंदीदा गजल फ़ैज़ की आवाज में सुनना चाहता और रिकार्ड करना चाहता था। फ़ैज़ हर किसी की फरमाइश पूरी कर रहे थे। यहाँ इस बात का उल्‍लेख करना भी जरूरी लग रहा है कि फ़ैज़ अपनी रचनाओं का बहुत खराब पाठ करते थे, जैसे अपने किसी दुश्‍मन का कलाम सुना रहे हों। उनकी गजलों का उनसे कहीं बेहतर पाठ करनेवाले उसी महफिल में मौजूद थे। मैंने किसी शायर को इतनी बेदिली से अपनी रचनाओं का पाठ करते नहीं देखा या सुना। लग रहा था वह शायरी नहीं कोई नीरस गद्य सुना रहे हों। मैंने जब बगल में बैठे दूधनाथ सिंह से यह बात कही तो वह काकभुशुंडि की तरह बोला - 'तुम अज्ञानी हो कालिया। तुम्‍हें शायद मालूम नहीं, मिर्ज़ा ग़ालिब तो फ़ैज़ से भी खराब पढ़ते थे। हमेशा याद रखो, जितना घटिया शायर होगा, उतना ही अच्‍छा अपनी रचनाओं का पाठ करेगा।' बहरहाल, फ़ैज़ इलाहाबाद से अभिभूत थे, इस बात से और भी ज्यादा कि हिंदी के रचनाकारों के बीच भी वह उतने ही मकबूल थे। पढ़ते-पढ़ते कहीं अटक जाते तो महफिल में से कोई न कोई हिंदी अदीब उन्‍हें सही सतरों की डोर थमा देता।

जैसे घर का छोटा बच्‍चा बड़े पर अधिक ध्‍यान देने से उपेक्षित अनुभव करता है, अश्क जी वैसा ही अनुभव करने लगे। वह जल्‍दी-जल्‍दी अपना गिलास खाली कर रहे थे, जबकि फ़ैज़ साहब का जाम कभी-कभार ही लबों को छूता था। अश्क जी बहक गए और मौका मिलते ही अपनी गजलें सुनाने लगे, मगर लोग अश्‍क जी को सुनने नहीं आए थे, किसी ने उनकी तरफ तवज्‍जो न दी। निराश हो कर अश्‍क डॉ. अतिया निशात को एक तरफ ले गए और देर तक गजलसरा होते रहे।

हम लोगों के पास पाकिस्‍तान में निर्मित और बाद में एच.एम.वी. द्वारा भारत में जारी फ़ैज़ की गजलों के दो एल.पी. रिकार्ड थे। पृष्‍ठभूमि में धीमी आवाज में एक रिकार्ड चल रहा था। अचानक किसी दिलजले ने स्‍टीरियो की आवाज तेज कर दी और नूरजहाँ की तेज, तीखी और सुरीली आवाज में फ़ैज़ की पंक्‍तियाँ फ़िज़ा में तैरने लगीं :

लौट आती है इधर को भी नज़र क्‍या कीजै

अब भी दिलकश है तेरा हुस्‍न मगर क्‍या कीजै

और भी दुख हैं ज़माने में मुहब्‍बत के सिवा

मुझसे पहली सी मुहब्‍बत मेरी महबूब न माँग

महफिल का माहौल फ़ैज़ की इस नज़्‍म के ठीक विपरीत था। माहौल नज्म की चुगली खा रहा था। लग रहा था जमाने में मुहब्‍बत के सिवा और कोई दुख ही नहीं। हुस्‍न है, मुहब्‍बत है, बेवफाई है। यही सच है, जैसे :

ज़माने भर के गम

या इक तेरा गम

यह गम होगा तो कितने गम न होंगे

हर अदीब लहूलुहान था - कोई मयगुसारी से, कोई शेरो-शायरी से और कोई अफसानानिगारी से।

अश्क जी के बाद अब डीपीटी को दौरा पड़ा था। वह अपना गिलास थामे फ़ैज़ के चरणों में बैठ गया और कान पर हाथ रख कर अवधी की तान छेड़ दी। फ़ैज़ ने राहत की साँस ली, जब से वह इलाहाबाद आए थे मुतवातिर अपना कलाम सुना रहे थे। शायद यही वजह थी कि वह अपने ही शेर निहायत बेदिली से सुना रहे थे जैसे रस्‍म अदायगी कर रहे हों। उन्‍होंने ममता से अवधी के किसी शब्‍द का अर्थ पूछा और इतने प्रसन्‍न हो गए कि ममता के हाथ से दोनों एल.पी. के कवर लिए, कलम माँगा और उन पर लिखा : ममता के लिए मुहब्‍बत के साथ - फ़ैज़।

वे दोनों कवर हम लोगों की प्राइज पजेशन है। वर्षों से उन्‍हें कलाकृति की तरह फ्रेम करवाने की सोच रहा हूँ। फ़ैज़ ने बताया कि जब बेगम अख्‍तर पाकिस्‍तान आई थीं तो उन्‍होंने बेगम से एक ठुमरी अनेक बार सुनी थी :

हमरी अटरिया आओ सजनवा

देखा देखी बलम हुई जाए

मैंने जब फ़ैज़ को बताया कि यह ठुमरी मेरे दोस्‍त सुदर्शन फ़ाकिर ने लिखी थी तो उन्‍होंने फ़ाकिर के बारे में भी बहुत-सी जानकारी हासिल की और बताया कि वह इस ठुमरी को भारत-पाक संबंधों की रोशनी में सुना करते थे। जवाब में मैंने पाकिस्‍तानी गायिका फरीदा खानम की गजल स्‍टीरियो पर पेश कर दी ‒

आज जाने की ज़िद न करो ,

यूँ ही पहलू में बैठे रहो।

जान जाती है जब ,

उठके जाते हो तुम ,

ऐसी बातें किया न करो।

इसी माहौल में भोजन हुआ, सामूहिक चित्र खींचे गए, आखिरी जाम सड़क के नाम तैयार हुए और महफिल बर्खास्‍त हुई। डीपीटी लुढ़कते-पुढ़कते फ़ैज़ के साथ ही गाड़ी में सवार हो गया। फ़ैज़ ने कुछ और लोकगीत सुनने की फरमाइश की थी। डीपीटी ने तान छेड़ दी और गाड़ी स्‍टार्ट हो गई।

हम लोग डीपीटी की क्षमता से परिचित थे, वह अनंत काल तक लोक गीत सुना सकता है। इसका भरपूर परिचय उसने कुछ दिन पहले ही दिया था, जब भीष्‍म साहनी सपत्‍नीक हमारे यहाँ रुके हुए थे। शाम को अनायास ही डीपीटी प्रकट हो गए थे, भए प्रगट कृपाला। भीष्‍म जी से परिचय होते ही उसने 'चीफ की दावत' के अंशों का पाठ शुरू कर दिया। भीष्‍म जी और उनकी पत्‍नी शीला जी चमत्‍कृत रह गईं कि यह कैसा शख्‍स है, जो कविता की तरह कहानी याद रख सकता है। मुझे मालूम था, डीपीटी की स्‍मरण शक्‍ति ही नहीं घ्राण शक्‍ति भी विलक्षण है। उसने कमरे में घुसते ही सूँघ लिया था कि माहौल सुवासित है। उसने अपना कश्‍कोल (भिक्षापात्र) आगे बढ़ा दिया मय और माशूक के दरबार में कश्‍कोल ही बढ़ाया जा सकता है, यह इस कोठे का दस्‍तूर था। कोठे का ही नहीं, इलाहाबाद की संस्‍कृति का भी। यहाँ ताज भी कश्‍कोल में हासिल किया जाता है, जैसे विश्‍वनाथ प्रताप सिंह ने किया था, यह नारा बुलंद करके : 'राजा नहीं फकीर है, देश की तकदीर है।' उन दिनों फकीरी फैशन में आ चुकी थी, वरना डीपीटी जैसा इलाहाबाद विश्‍वविद्यालय के राजनीतिशास्‍त्र विभाग का प्राध्‍यापक फकीरों के अंदाज में चप्‍पल चटकाते हुए पैदल विश्‍वविद्यालय क्‍यों जाता? गुरु जी को पैदल चलते हुए देख छात्र सायकिल से उतर कर गुरु जी के पीछे हो लेते। क्‍लासरूम तक पहुँचते-पहुँचते उसके पीछे अच्‍छा-खासा जुलूस हो जाता। एक दिन ममता को डीपीटी के साथ आए एक छात्र से उसकी पदयात्रा की जानकारी मिली तो ममता ने डीपीटी की जेब में कुछ रुपए ठूँस दिए कि शायरों और छात्रनेताओं की तरह विश्‍ववविद्यालय जाना बंद करो। डीपीटी ने जेब से नोट निकाले, आँखों के नजदीक ले जा कर गिने और ममता के वहाँ से हटते ही अपने साथी को बोतल खरीद लाने के लिए रवाना कर दिया। ममता के स्‍नेह से वह इतना विभोर हो गया कि देखते ही देखते नोट बोतल में तब्‍दील हो गए। ममता नाराज होती, इससे पहले ही डीपीटी ने उसे विश्‍वास दिलाया, ममता जी, बंदा कल से रिक्‍शा में विश्‍वविद्यालय जाएगा, मगर उसके लिए आपको कुछ पैसों का और इंतजाम करना पड़ेगा।

बहरहाल एक खूबसूरत और याद रह जानेवाली शाम भीष्‍म दंपती के नाम भी दर्ज है। फकीरों के डेरे की रौनक देख कर भीष्‍म दंपती ने पंजाबी के कुछ टप्‍पे सुनाए, उसके बाद तो वह शाम लोकजीवन के आँगन, दुआर, ताल-पोखर, खेत-खलिहान, ड्‌योढ़ी, चौपाल में डूबती-उतराती चली गई। डीपीटी ने गरीबी और अभाव के, विवशता और असमर्थता के, पीड़ा और कसक के ऐसे कारुणिक बिंब प्रस्‍तुत किए कि खुद उसकी आँखें नम हो गईं :

हेरउं कासी हेरउं बनारस

हेरउं देस सस आरि

तोहईं जोग बेटी सुघर बर नाही

अब बेटी रहउ कुँआरि।

डीपीटी ने ढेर सारे लोकगीत सुना डाले और करुणा, अभाव, विरह, शोषण, श्रृंगार और राग-विराग की अनेक लोक छवियाँ पेश कर दीं। अमरकांत जी मदिरापान नहीं करते, मगर नशा सबसे पहले और सबसे अधिक उन्‍हें ही चढ़ता था। उन्‍होंने भी एक लोकगीत प्रस्‍तुत किया, जो आज तक दिमाग में दस्‍तक दिया करता है -

सबका देहलन शिवजी

अन्न , धन-सोनवा

हो हमरा के लरिका भतार

शिवजी लरिका भतार...

लरिका भतार ले के सुतली ओसरवा

जरि गइले एड़ी से कपार...

डीपीटी के अनुरोध पर अमरकांत ने वह गजल भी सुनाई, जो वह आगरा में प्रगतिशील लेखक संघ की गोष्‍ठियों में सुनाया करते थे, जिसका उल्‍लेख राजेंद्र यादव ने अमरकांत पर लिखे अपने संस्‍मरण में किया है :

मुझसे न पूछ मेरा हाल

सुन मेरा हाल कुछ नहीं

मेरे लिए जहान में

माज़ी और हाल कुछ नहीं।

उन दिनों पाकिस्‍तान की लोकगायिका रेशमा की बहुत धूम थी। अखबारों में रेशमा की खोज को ले कर तरह-तरह के किस्‍से शाया हो रहे थे। संगीत प्रेमियों के बीच रेशमा की आवाज सुनने की होड़ मची थी। इलाहाबाद के 'विख्‍यात कथाकार' बलवंत सिंह ने सबसे पहले रेशमा का कैसेट हासिल किया था। उन्‍होंने श्रीमती शीला संधू की मार्फत रूस से वह पाकिस्‍तानी कैसेट मँगवाया था। बलवंत सिंह वह कैसेट किसी को देते नहीं थे, मगर एक दिन मुझ पर इतने मेहरबान हो गए कि मुझे रिकार्ड करने की इजाजत दे दी। उस शाम हम लोगों ने रेशमा का पूरा कैसेट सुन डाला। देर रात तक सुरा और संगीत की कॉकटेल बहती रही। टेप डेक में रेशमा के साथ-साथ भीष्‍म दंपती, अमरकांत और डीपीटी के लोक गीत भी रिकार्ड हो गए। रेशमा की तरह वह कैसेट भी माँगे पर जाने लगा और लेखकों के बीच इतना लोकप्रिय हो गया कि दोस्‍तों के बीच घूमते-घूमते एक असाधारण पुस्‍तक की तरह या यों कहना चाहिए कि एक दिलफरेब माशूका की तरह लापता हो गया, जिसकी आज भी तलाश है। जाने किस खुशनसीब के पास वह खजाना गड़ा है, रह-रह कर उसकी हुड़क उठा करती है।

अगले रोज भीष्‍म जी को एक समारोह में अध्‍यक्षता करनी थी। आयोजक लोग सुबह-सुबह ही उन्‍हें लिवा ले गए। मुझे और डीपीटी को यह भी खबर नहीं थी कि ममता कब कॉलिज गई और बच्‍चे स्‍कूल। हम लोगों ने देर रात तक रेशमा का 'दमादम मस्‍तकलंदर' सुना था और कलंदर की तरह ही मस्‍ती में झूमते रहे थे। दोपहर को बच्‍चों ने स्‍कूल से लौट कर हमें जगाया, मशीनों की गड़गडा़हट सुन कर मुझे इत्‍मीनान हुआ कि प्रेस चल रहा है। प्रेस में उन दिनों पाठ्‌य पुस्‍तकों के मुद्रण का काम चल रहा था और एक-एक पुस्तक का प्रिंट आर्डर एकाध लाख से कम न होता था। जब तक बिजली रहती थी, मशीनें चलती थीं। वर्षों के जद्दोजहद के बाद प्रेस की गाड़ी पटरी पर आ गई थी। मेरी भूमिका केवल कर्मचारियों के वेतन और किश्‍तों की व्‍यवस्‍था करने तक सीमित थी। भीष्‍म जी समारोह से लौट भी आए, हम दोनों कलंदर उसी हालत में पड़े थे, जिस हालत में वे छोड़ गए थे। उन्‍हें यकीनन जीने का यह ढब अजीब लगा होगा।

मेरे माता-पिता कभी भूले-भटके पंजाब से आ जाते तो उन्‍हें भी मेरी जीवन शैली देख कर बहुत तकलीफ होती, जबकि उनकी उपस्‍थिति में मैंने न कभी सिगरेट फूँका था और न कभी मदिरा पी थी। उनके आने की सूचना मिलते ही सबसे पहले मैं घर से खाली बोतलें हटाता। प्रेस का कोई कर्मचारी बोरे में भर कर बोतलें ले जाता तो मुझे बहुत शर्म आती कि श्रमिक सोचते होंगे उनके परिश्रम के बल पर मैं गुलछर्रे उड़ा रहा हूँ। इस उम्र में मेरे माता-पिता मुझे डाँट भी न सकते थे, जबकि मेरे माता-पिता के आते ही ममता, बच्‍चों और माता-पिता का मेरे खिलाफ संयुक्‍त मोर्चा खुल जाता। दुनिया जहान का अनुशासन मुझ पर लागू हो जाता। सुई की नोक पर सोना, उठना, नहाना और खाना पड़ता। इससे बच्‍चों का बहुत मनोरंजन होता। शराबी को इससे बड़ी सजा नहीं दी जा सकती कि उसे सूरज डूबते ही खाना खिला दिया जाए। मुझे खाने के बाद पीने का अभ्‍यास ही न था। गुनाह बेल्‍लजत हो जाता।

मेरे पिता उस जमाने के अध्‍यापक थे, जब यह सोचा जाता था कि केवल सख्‍ती से, खास तौर पर पिटाई से बच्‍चों को सुधारा जा सकता है। लिहाजा बचपन में मेरी जम कर धुनाई होती थी और शायद ही कोई ऐसा दिन निकलता होगा कि मुझे टाँगों के भीतर से कान पकड़ कर दीवार की तरफ मुँह कर मुर्गा न बनना पड़ा हो। अब इस उम्र में मेरे माता-पिता मुझे पीट तो न सकते थे, वह अपने मौन से बहुत कुछ स्‍पष्ट कर देते। मेरे साथ बचपन में भी उनका यह प्रयोग असफल रहा था। घर में मेरे साथ जितनी सख्‍ती की जाती, मुझ पर जितना अनुशासन लागू किया जाता, मैं उसी अनुपात में अधिक जिद्दी, ढीठ और गुस्‍ताख होता चला गया था। अवज्ञा का प्रथम पाठ मैंने उन्‍हीं दिनों सीखा था। पिता ने तो आजिज आ कर मुझे मेरे हाल पर छोड़ दिया था, मगर मेरी माँ ने डाँट-फटकार का क्रम अंत तक जारी रखा। पिता जीवन भर डीएवी शिक्षण संस्‍थाओं से जुड़े रहे। जब तक उनका बस चला, उन्‍होंने घर में शुद्धतावादी आर्यसमाजी अनुशासन कायम रखने की भरपूर कोशिश की, मगर मुझे उस माहौल में वैसी ही घुटन महसूस होती जो हवन की गीली लकड़ी के ठीक से आग न पकड़ने पर उसके धुएँ से होती है। इस उलझन से बचने के लिए मैं बहुत कम पिता के सामने पड़ता था। वह नीचे आते तो मैं ऊपर चला जाता, वह ऊपर बैठते तो मैं नीचे। सिगरेट की लत ने भी मुझे परिवार से दूर कर दिया था।

एक दिन डीपीटी अपनी नादानी से मेरे पिता के हत्‍थे चढ़ गया, जबकि मैंने उसे आगाह कर रखा था कि जब तक माता-पिता शहर में हैं वह जरा बच कर रहे। वह मेरी बात नहीं माना। रात को मैं तो खा-पी कर ऊपर जा कर सो गया था, देवीप्रसाद को ऐसी 'कूकी' चढ़ी कि वह दोपहर तक सोता रह गया। दोपहर को किसी काम से फोरमैन कमरे में गया तो उसने लौट कर पिता को बताया कि कमरे में कोई सो रहा है। दिन के बारह बजे का समय होगा। मेरे पिता सशंकित हो गए कि मेरे किसी और दोस्‍त ने तो आत्‍महत्‍या नहीं कर ली। उन्‍होंने ऊपर जा कर देवीप्रसाद की नाक पर हाथ रख कर महसूस किया कि साँस चल रही है या नहीं। इससे पूर्व जालंधर और दिल्‍ली में मेरे करीब आधा दर्जन दोस्‍त इस प्रकार की नादानियों का शिकार हो चुके थे। कोई मजाज की तरह सर्दी में अकड़ गया था और किसी ने नींद की इतनी गोलियाँ खा लीं कि उसकी शाम की सुबह नहीं हुई। पिता गुस्‍से में तममाए हुए नीचे आ गए और फोरमैन से कहा कि देवीप्रसाद को उठा कर नीचे लाओ। फोरमैन ने देवीप्रसाद को जगाया तो उसने चाय की फरमाइश की। चाय पी कर डीपीटी दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए मुँह धोने के लिए नीचे उतरे। तौलिए की जगह तकिए का गिलाफ उनके हाथ में था। पिता ने डीपीटी को आसन ग्रहण करने को कहा और उसकी क्‍लास ले ली, 'सुनो बरखुरदार, मैंने सुना है, तुम विश्‍वविद्यालय में पढ़ाते हो।'

'जी', डीपीटी ने आँखे मलते हुए जवाब दिया, 'बंदा यूनिवर्सिटी में मुदर्रिस है।'

'आज छुट्टी है क्‍या?'

'जी नहीं, छुट्टी तो नहीं है। रात देर से सोया, सुबह नींद नहीं खुली।'

'आपने छुट्टी ले रखी है?'

'जी नहीं, छुट्टी तो नहीं ली, मगर विश्‍वविद्यालय में चलता है।'

'क्‍या चलता है?'

'छात्र मुझे बहुत चाहते हैं, वे इसके आदी हो चुके हैं।'

'आप बहुत गैरजिम्‍मेदार उस्‍ताद हैं। आप अपने छात्रों के जीवन के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं।'

डीपीटी हक्‍का-बक्‍का उनकी तरफ देखने लगा। पिता ने अपना उपदेश जारी रखा, 'जब उस्‍ताद इतना काबिल होगा तो छात्र कैसे निकलेंगे? कभी सोचा आपने, आप अपने समाज के साथ कितना बड़ा विश्‍वासघात कर रहे हैं?'

डीपीटी सुबह-सुबह इस मुठभेड़ के लिए तैयार न था। फोरमैन ऊपर आ कर मुझे तफसील से बता गया कि बाबू जी त्रिपाठी जी पर बिगड़ रहे हैं। मैं समझ रहा था, मेरी नालायकियों की सजा भी डीपीटी को मिल रही होगी। मैंने नीचे उतरना भी मुनासिब न समझा। चुपचाप नहाने चला गया। जब तक डीपीटी मुँह-हाथ धो कर तैयार होते, पिताजी ने यूनिवर्सिटी के लिए रिक्‍शा मँगवा दिया था। देवीप्रसाद चुपचाप रिक्‍शा में बैठ कर रवाना हो गया। शाम को फोन पर उसने मुझे सुबह के हादसे के बारे में बताया और कहा कि जब तक आपके पिता शहर में हैं, रानी मंडी आने की हिम्‍मत न पड़ेगी और सचमुच डीपीटी तब तक हमारे यहाँ नहीं आए जब तक उन्‍हें इसकी प्रामाणिक जानकारी न मिल गई कि मेरे माता-पिता पंजाब लौट चुके हैं।

डीपीटी का वृहस्‍पति बहुत बलवान है और वह उसकी कुंडली में जरूर केंद्र में पड़ा होगा। उसके जीवन में कोई और अभाव रहा हो तो रहा हो, मदिरा का कभी अभाव नहीं रहा। महीने के पहले सप्‍ताह तो वह किसी का मुखापेक्षी ही न रहता था, उसके साथ उसका मोबाइल बार चलता था। इस मामले में उसे मुकद्दर का सिकंदर कहा जा सकता था, मगर वह इतनी तेजी से अपने खजाने खाली कर देता कि बाकी तीन सप्‍ताह मुकद्दर के पोरस की तरह बिताता। उसका अच्‍छा-खासा वेतन एक हफ्ते में खलास हो जाता। वह शौक से पीता और फराखदिली से पिलाता। जेब इजाजत दे या न दे। वह हर शाम ग़ालिब की पंक्‍तियाँ चरितार्थ कर दिखाता कि 'हर शब पिया ही करते हैं मय जिस कदर मिले।' कई बार तो लगता था मदिरा उसकी चेरी है, गर्ल फ्रेंड है, कॉल गर्ल है, जो उसके एक ही फोन पर कच्‍चे धागे से बँधी चली आती है, आने में असमर्थ हो तो उसे बुलवा भेजती है। वह अपनी बातों की दौलत से उसकी झोली भर देता। बातों का सौदागर है वह। अक्‍सर नशे के आलम में वह बुदबुदाया करता है :

कभी तेरा दर कभी दरबदर

कभी अर्श पर कभी फर्श पर

मैंने उसे अर्श पर भी देखा है और फर्श पर भी। रानी मंडी उसका फर्श था तो दिल्‍ली अर्श। उसके साथ मैंने जी भर कर अर्श की सैर भी की है। दिल्‍ली का शायद ही ऐसा कोई पाँच सितारा होटल होगा जहाँ डीपीटी की बदौलत इस खाकसार के कदम न पड़े हों। अर्श के तमाम बैरों से भी उसकी पहचान हो चुकी थी। वे उसे सूरत से ही नहीं सीरत से भी पहचानते थे। उसके बैठते ही सागरो मीना खुद-ब-खुद चले आते। खाने-पीने का बिल अदा करने का भी उसका अपना अंदाज था। नोट गिनने में उसे आलस आता था, वह पूरी गड्‌डी की बलि दे देता, प्रसाद के रूप में अगर कुछ रकम लौटती तो वह बेनियाजी से उसे जेब के हवाले कर देता। उसके अर्श में न ट्रेन चलती थी न बस, सिर्फ विमान चलते थे। इलाहाबाद हवाई नक्‍शे से गायब हो गया तो वह लखनऊ से लौट जाता। नितीश कुमार रेल मंत्री हुए तो उन्‍होंने उसे अर्श से उतारने की कोशिश की। मुझे इसका एहसास तब हुआ जब पिछली मुलाकात में एक कार्ड उसकी जेब से फिसल कर नीचे गिर गया। यह वातानुकूलित श्रेणी का एक रेल पास था, जो रेलमंत्री ने 'गुरु जी' को दिया था। यह कोई अनहोनी घटना नहीं है, प्रत्‍येक पार्टी में उसके नितीश कुमार हैं। आपातकाल में वह मधु लिमये, चंद्रशेखर, जार्ज फर्नाडीज़ के साथ बंदी बना लिया गया था। चंद्रशेखर की भारत यात्रा में वह भी सहयात्री था। राजीव गांधी की ज्‍योति बसु से मुलाकात उसी के घर पर तय हुई थी। उसके ड्राइंग रूम में झरने फूटते थे। बेनज़ीर भुट्‌टो की शादी में वह शामिल था, मालूम नहीं बाराती की हैसियत से या बतौर घराती। सुबह वह लखनऊ में रमेश भंडारी के साथ नाश्‍ता कर सकता है, भोपाल में दिग्‍गी राजा के साथ लंच और पटना में लालू प्रसाद यादव के साथ डिनर। वह शीला दीक्षित को डॉ. रामविलास शर्मा के यहाँ ले जा सकता है और अशोक बाजपेयी की अध्‍यक्षता में फहमीदा रियाज का काव्‍यपाठ करा सकता है। उसके शब्‍दकोश में सब कुछ संभव है। ताज्‍जुब न होगा, किसी दिन खबर मिले डीपीटी संसद में पहुँच गया है, निमाड़ में विश्राम कर रहा है या तिहाड़ में। वह कभी अर्श पर है कभी फर्श पर। कई बार तो लगता है डीपीटी हमारा चंद्रास्‍वामी है, हमारा सुब्रह्मण्‍यम स्‍वामी है। वह विचारधारा से ऊपर उठ चुका है, विचारधारा की संकीर्ण दीवारें उसने तहस-नहस कर डाली हैं और अकबर इलाहाबादी के इस चलते-फिरते शेर में तब्‍दील हो चुका है :

मेरा ईमान क्‍या पूछती हो मुन्‍नी

शिया के साथ शिया सुन्‍नी के साथ सुन्‍नी

ऐसा जादूगर शाम को तश्‍नःलब नहीं रह सकता, यह दूसरी बात है कि 'कब तश्‍नःलब की प्‍यास बुझी है शराब से।' फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ इलाहाबाद आए और आ कर लौट गए, मगर डीपीटी की तश्‍नगी खत्‍म न हुई। उसकी तश्‍नगी का आलम फ़ैज़ के शब्‍दों में यों बयान किया जा सकता हैः

न गुल खिले हैं ,

न उनसे मिले ,

न मय पी है ,

अजीब रंग में अब के बहार गुज़री है

यह अकारण नहीं है कि अगले रोज जब महादेवी जी की अध्‍यक्षता में फ़ैज़ का नागरिक अभिनंदन और विदाई समारोह हो रहा था तो डीपीटी ने मंच से शुभा मुद्‌गल को फ़ैज़ की यही गजल पेश करने की दावत दी थी। उन दिनों शुभा मुद्‌गल शुभा गुप्‍ता थीं और इलाहाबाद विश्‍वविद्यालय की छात्रा थीं - अत्‍यंत दुबली-पतली और छरहरे बदन की छुईमुई-सी युवती। तब तक इलाहाबाद इस प्रतिभा से नितांत अपरिचित था। शुभा मुद्‌गल ने जब अपने सधे कंठ से फ़ैज़ की गजल पेश की तो हाल में सन्‍नाटा खिंच गया। उनकी अदायगी में शास्‍त्रीय संगीत का पुट और गजब का कसाव था। फ़ैज़ खुद दाद देने लगे। उनकी गाई हुई एक गजल आज भी स्‍मृतियों में कौंध रही है :

गुलों में रंग भरे बादा-ए-नौ बहार चले

चले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले।

बहुत कम लोग जानते होंगे, शुभा मुद्‌गल हिंदी के प्रख्‍यात प्रगतिशील समीक्षक प्रकाशचंद्र गुप्‍त की पौत्री हैं। इस बात का उल्‍लेख करना भी गैरजरूरी न होगा कि शुभा के पिता स्‍कंदगुप्‍त फ़ैज़ के जबरदस्‍त फैन थे और पिता की तरह इलाहाबाद विश्‍वविद्यालय के अंग्रेजी विभाग से संबद्ध थे। उन्‍होंने फ़ैज़ के कार्यक्रमों पर मूवी कैमरे से फिल्‍म बनाई थी। और फ़ैज़ की हर गुफ्तगू और तकरीर का टेप तैयार किया था। वह भारत के मान्‍यताप्राप्‍त क्रिकेट कमेंटटर भी थे। आज वे हमारे बीच नहीं हैं। वह फिल्‍म और वह दुर्लभ टेप कहाँ है, कहा नहीं जा सकता।

आज टीवी के प्रत्‍येक चैनल पर शुभा मुद्‌गल की धूम है। 'आली मेरे अँगना' के बाद उन्‍होंने पीछे मुड़ कर नहीं देखा। आज इंटरनेट पर शुभा मुद्‌गल का अपना वेबसाइट है और वह शास्‍त्रीय संगीत से पॉप संगीत की ओर मुड़ गई हैं। 'अब के सावन' तमाम चैनलों पर उनके पॉप संगीत ने कहर ढा रखा है :

अब के सावन ऐसे बरसे

भीगे तन मन

जिया न तरसे।

15-

वास्तव में बाहर से हमारे गोत्र का कोई रचनाकार इलाहाबाद आता तो यकायक माहौल बदल जाता। छोटा-मोटा साहित्‍यिक समारोह हो जाता। देश के अनेक नामी-गिरामी रचनाकारों ने इन महफिलों की शोभा बढ़ाई है। कुछ शामें तो दिमाग में गहरे नक्‍श छोड़ गई हैं। पंजाबी के कथाकार हरनाम दास सहराई शहर में नमूदार होते थे तो शाम का हुलिया बिगड़ जाता। वह 'बहूशों' (वहशियों) की तरह पीते थे। पंजाबी साहित्‍य में उसका क्‍या स्‍थान था, इसे हम लोगों में से सही-सही कोई नहीं जानता था, इतना जरूर मालूम था कि उनके दर्जनों उपन्‍यास छप चुके थे। कुछ उपन्‍यासों का हिंदी व अन्‍य भारतीय भाषाओं में भी अनुवाद हो चुका था। एक ऐतिहासिक उपन्‍यास 'सभराँव' का तो मैंने ही गाढ़े दिनों में अनुवाद किया था। सहराई से मेरा परिचय पंजाब में उतना नहीं था, जितना मुंबई और इलाहाबाद में हुआ। पंजाब में तो मात्र दुआ-सलाम का रिश्‍ता था। उस समय हमारी साहित्‍य में कोई भी स्‍थिति नहीं थी, मगर हम लोग उन दिनों भी सहराई को सेटते नहीं थे। वह ठर्रा चढ़ा कर कभी-कभी कॉफी हाउस में नमूदार होते थे और गाली-गलौज करने के बाद लौट जाते। उम्र में वह हम लोगों से दसेक वर्ष बड़े होंगे। सहराई के साथ मेरी पीने की कई स्‍मृतियाँ जुड़ी हुई हैं।

पीते-पीते अचानक सो जानेवाले बहुत कम लोग होंगे। उन में से एक तो उमेशनारायण शर्मा ही हैं। महफिल के दौरान वह आराम से बाकायदा एक छोटी-सी नींद ले सकते हैं। वह रात को कितनी भी देर से सोएँ सुबह साढ़े चार-पाँच तक उनकी आँख जरूर खुल जाती है और वह अपने कुत्‍तों को दौड़ाते हुए सैर पर निकल जाते हैं। उनके घर पर पार्टी हो तो उनकी कोशिश रहती है कि दस बजे तक खाना लग जाए। वह समय शराबियों के लिए बड़ा नाजुक समय होता है, चरमोत्‍कर्ष जैसा। असमय ही खाना सिर पर तलवार की तरह लटकने लगता है। मजबूरी में तमाम शराबी हाथ में जाम लिए या एक घूँट में खेल खत्‍म कर डाइनिंग टेबिल की ओर सरकने को मजबूर हो जाते हैं। जो उठने में आनाकानी करते हैं, उनके लिए खाना खुद ही प्‍लेट में सज कर चला आता है। जिन लोगों को खाना रास नहीं आता था, खाने की रस्‍म अदायगी के बाद घर लौट कर दुबारा मद्यपान में जुट जाते। साथ देनेवाला कोई न कोई जरूर मिल ही जाता। यह जोखिम कोई पत्रकार या लेखक ही उठा सकता था।

कुछ लोग ऐसे भी मिले, जो पी कर बीच में सो जाते थे। पुस्‍तक का यह अध्‍याय उन्‍हीं मित्रों को समर्पित है। यहीं मस्त-मस्‍त नींद का एक दिलचस्‍प प्रसंग याद आ रहा है। मैं नया-नया मुंबई गया था। दिल्‍ली मुंबई में गाहे-ब-गाहे विदेशी दूतावास पत्रकारों को आमंत्रित करते रहते हैं। वे कोई न कोई बहाना तलाश ही लेते हैं। कभी किसी साहित्‍यिक सांस्‍कृतिक समारोह का आयोजन तो कभी किसी फिल्‍म की स्‍क्रीनिंग का अवसर तो कभी यों ही चिटचैट यानी गपशप। 'धर्मयुग' में सब सूफी और आज्ञाकारी उपसंपादक एवं पति थे। पाँच बजे के बाद तमाम लोग छोटे बच्‍चों की तरह छुट्टी होते ही घर की ओर भागते थे। दूतावास से आए निमंत्रण पत्र अस्‍वीकृत और लावारिस रचनाओं या देशभर से आई समीक्षार्थ पुस्‍तकों की तरह दर-दर की ठोकरें खाते रहते थे। दूसरे विभागों में इन निमंत्रण पत्रों की बहुत माँग रहती थी। दूसरी पत्रिकाओं के संपादकीय कर्मी कुछ इस प्रकार 'धर्मयुग' की रद्दी टटोलते जैसे सुनारों के कार्यस्‍थलों के बाहर बहनेवाली नालियों में लोग सुबह-सुबह तसले में स्‍वर्णकणों की तलाश में कीचड़ छाना करते हैं। पत्रकार दिन भर इसी प्रकार के निमंत्रणों की टोह में रहते थे। इस मामले में सिने पत्रिकाओं के पत्रकारों की चाँदी रहती थी। उन की शामें प्रायः किसी पाँच सितारा होटल में गुजरती थीं। फिल्‍मी सितारों के जनसंपर्क अधिकारी सानुरोघ इन लोगों को आमंत्रित करते। अंधे के हाथ जैसे बटेर लगता है, एक दिन ऐसे ही मेरे हाथ चैक दूतावास का निमंत्रण लग गया दूतावास की ओर से अंतराष्ट्रीय ख्‍यातिप्राप्‍त किसी चैक फिल्‍म के प्रदर्शन का निमंत्रण था। साथ में कॉकटेल की व्‍यवस्‍था थी। मैंने फोन करके ममता को भी बुलवा लिया और दफ्तर के बाद पैडर रोड पर हम दोनों फिल्म देखने पहुँच गए। बहुत चुनिंदा लोग आमंत्रित थे। उस समूह में हिंदी का मैं अकेला पत्रकार था।

उस दिन पंजाबी के उपन्‍यासकार हरनामदास सहराई भी मुंबई आए हुए थे। जालंधर में उनका नल की टोंटियाँ वगैरह बनाने का कारखाना था। वह देशभर में घूम-घूम कर टोंटियों का आर्डर लिया करते थे और कारखाने का कारोबार परिवार के अन्‍य लोग देखते थे। वह जब भी मिलते अपनी नई किताब जरूर भेंट करते। उनके अधिसंख्‍य उपन्‍यास सिख इतिहास पर केंद्रित थे। वे जिस भी शहर में होते शाम को अपने काम से फुर्सत पा कर स्‍थानीय लेखकों से संपर्क करते। व्‍हिस्‍की की बोतल हमेशा उनके ब्रीफकेस में रहती। वह ढीला-ढाला कुर्ता पायजामा पहनते थे और पंजाबी तलफ्फुज में पंजाबी साहित्‍य में अपने मूल्‍यवान योगदान पर धाराप्रवाह बोला करते थे। उनके बोलने की टोंटी खुल जाती तो आसानी से बंद न होती। उन्‍हें कहीं से खबर लग गई थी कि उनका एक हमवतनी 'धर्मयुग' में पहुँच गया है। वह अगली बार मुंबई आए तो मुझसे मिलने दफ्तर चले आए। मिलते ही वह बगलगीर हुए और चाय की फरमाइश की। उन्‍होंने बताया कि मेरे मुंबई आने की खुशी में उन्‍होंने एरिस्‍टोक्रेट की बोतल खरीद ली है, जिसका सेवन शाम को दफ्तर के बाद किया जाएगा। फिलहाल उनका इरादा धर्मवीर भारती से मिलने का था।

'भारती को पता चला कि मैं बगैर मिले लौट गया तो नाराज होगा।' सहराई ने अपनी समस्‍या बताई।

'क्‍या आप धर्मवीर भारती से परिचित हैं?' मैंने पूछा।

'बल्‍ली, कैसी बच्‍चों जैसी बात करते हो। वह 'धर्मयुग' का संपादक है। यह हो ही नहीं सकता कि वह मेरे नाम से परिचित न हो।'

'तुम नहीं जानते सहराई, वह बहुत घमंडी किस्म का शख्स है।' मैंने धीरे से उसके कान में कहा। मैं चाहता था वह भारती जी से भेंट करने का इरादा फौरन तर्क कर दे। मैं आश्‍वस्‍त नहीं था कि भारती उससे मिलेंगे भी या नहीं। देश के कोने-कोने से आए अनेक लेखक अपने नाम की चिट भिजवा कर घंटों चातक की तरह प्रतीक्षा किया करते थे। भारती जी का मन होता या फुर्सत में होते तो बुलाते वरना चुप्‍पी साध लेते, अगर शिष्‍टाचार का तकाजा होता तो कहलवा देते आज व्‍यस्‍त हैं, मिलना संभव न होगा। कब संभव होगा, यह कोई नहीं जानता था। ऐसे यशःप्रार्थी लेखक नंदन, सरल अथवा स्‍टाफ के किसी अन्‍य सदस्‍य के साथ थोड़ा समय बिता कर लौट जाते। सहराई का भी यही हश्र होता, मैं उसको इस जिल्‍लत से बचाना चाहता था और टाल-मटोल करता रहा। मेरा रुख देख कर उसने हिंदी वालों को एक भारी भरकम गाली दी और धड़धड़ाते हुए खुशवंत सिंह के कैबिन में घुस गया, जो नए-नए इलेस्‍ट्रेटेड वीकली के संपादक हो कर आए थे।

ठीक पाँच बजे वह खुशवंत सिंह के कंधे पर हाथ रखे हुए उनके कमरे से निकला। दोनों किसी बात पर ठहाका लगा रहे थे, लग रहा था वे जैसे युगों-युगों से एक दूसरे के दोस्‍त हों। खुशवंत सिंह से विदा ले कर वह मेरे पास चला आया। खुशवंत सिंह से मिल कर मेरे सहकर्मियों की नजर में उसका कद बढ़ गया था। खुशवंत सिंह से बेतकल्‍लुफी से बतिया कर उसने अनायास ही विश्‍वसनीयता अर्जित कर ली थी। मैंने नंदन जी, मनमोहन सरल, गणेशमंत्री आदि अपने सहकर्मियों से उसका परिचय करवाया। सहराई ने सब लोगों को शराब का निमंत्रण दिया, जिसे किसी ने कुबूल नहीं किया। मैंने अत्यंत कठोर परिश्रम करके लोगों को चाय पीने का चस्‍का लगाया था, वह अभी तक इसी अपराधबोध से न उबरे थे। सहराई हिंदी पत्रकारों के इस शाकाहारी रवैए से बहुत क्षुब्‍ध हो गया, यह तो गनीमत थी कि उसने तैश में आ कर माँ बहन एक न कर दी। उसने कहा कि अब उसकी समझ में आ रहा है कि हिंदी में अब तक कोई बड़ा लेखक क्‍यों नहीं पैदा हुआ। उसने ब्रीफकेस से दारू की बोतल निकाल कर मेरी मेज पर रख दी और खुली चुनौती दे डाली है कोई माई का लाल, जो उसका साथ दे सके। सहराई की बातचीत से सबका मनोरंजन हो रहा था। उन्‍होंने सपने में भी ऐसा धाकड़ लेखक न देखा था। मनमोहन सरल कभी-कभार चख लिया करते थे, मगर एक अनजान उपन्‍यासकार की चुनौती स्‍वीकार करने में उन्‍हें संकोच हो रहा था। मनमोहन सरल ने उन से वादा किया कि आज तो पाँच बज चुके हैं, वह अगले रोज उन्‍हें भारती जी से अवश्‍य मिला देंगे। सहराई ने हामी भरी और अगले रोज चार बजे आने का वादा करके लौट गया। अगले दिन ठीक चार बजे वह मुझे नहीं मनमोहन सरल को ढूँढ़ रहा था। मुझसे वह एकदम निराश हो चुका था।

'कहाँ है सर्ल का पुत्तर?' उसने विभाग में कदम रखते ही दरियाफ्त किया, 'भूतनी का भारती से मिलवाने का वादा करके कहाँ जा छिपा?'

मनमोहन सरल भारती के कमरे में ही थे। उन्‍होंने लौट कर अपनी सीट पर सहराई को पसरे देखा तो उनका माथा ठनका। सहराई आज आक्रामक मूड में था। उसके तेवर देख कर मनमोहन सरल भी टालमटोल करने लगे।

'तुम साले सब नपुंसक हो।' सहराई ने पूछा, 'कहाँ बैठता है वह धर्मवीर का पुत्तर? प्रीत लड़ी के संपादक नवतेज सिंह का नाम सुना है तुम लोगों ने? वह जालंधर आता है और घर आ कर मुझसे मिलता है।'

हरनाम दास सहराई अचानक उठा, जैसे उसका धैर्य जवाब दे गया हो। वह देखते ही देखते भारती जी के कैबिन की तरफ बढ़ गया। रामजी ने उससे विजिटिंग कार्ड माँगा तो उसने जेब से टोंटी निकाल कर दिखा दी और उसके रोकते-रोकते भारती जी के कैबिन में घुस गया। मेरा चिंतित होना स्‍वाभाविक था। चूँकि वह मेरा मित्र था और यों बगैर किसी पूर्व सूचना भारती जी के कैबिन में घुस गया था, मैं भी उसके पीछे लपक कर कैबिन में घुस गया। सहराई ने तब तक भारती जी को खड़ा होने को मजबूर कर दिया था और मैं पहुँचा तो वह उनसे गले मिल रहा था। भारती जी का चेहरा मेरी तरफ था। उनकी खिसियाहट से साफ झलक रहा था कि वह मजबूरी में ही बगलगीर हो रहे हैं।

'वाह भारती, तूने 'गुनाहों का देवता' लिख के कलम तोड़ दी। मैंने सोचा था, तू हिंदी को और उपनियास देगा, तेरी तो एक ही उपनियास से टैं बोल गई। जरा फिर से मैदान में उतरो तो मुकाबला हो। यह भूतनींदा रविंदर मुझे तुमसे मिलाने में हिचकिचा रहा था, मैंनूँ बिचौलिए दी की लोड़, मैं खुद ही चला आया। चाय-वाय पिलवाओगे या यों ही बिज्‍जू की माफिक देखते रहोगे?'

भारती हतप्रभ थे। ऐसा अजूबा लेखक आज तक उनसे न मिला था। मैं भारती जी की उलझन समझ रहा था। मैंने सहराई से कहा कि भारती जी इस समय व्‍यस्‍त हैं, आओ बाहर जा कर चाय पीते हैं, मगर सहराई ने भारती जी के सामने ही बाहर चलने का प्रस्‍ताव रख दिया, 'आज शाम का क्‍या परोगराम है। दारू-शारू पीते हो या अभी दूध पर ही चल रहे हो? आज शाम को हो जाए कुछ जश्न, मैं गुलाबदास बरोकर को भी बुलवा लूँगा। भागता हुआ चला आएगा मेरा नाम सुन कर।'

सहराई मराठी, गुजराती, उर्दू, तमिल, तेलुगु, कन्‍नड़, गर्ज यह कि देश भर की भाषाओं के प्रमुख उपन्‍यासकारों का नाम कुछ इस अंदाज से ले रहा था जैसे सब उसके हमप्‍याला और हमनिवाला दोस्‍त हों। उसके सामान्‍य ज्ञान से मैं भी प्रभावित हो रहा था। मुझे लगा, उसकी टोंटियों का कारोबार पूरे देश में फैल चुका है। वह एस.के. पोट्टेकाटु और विमल मित्र के नाम ऐसे ले रहा था जैसे बचपन में उनके साथ पतंग उड़ा चुका हो। भारती जी ने इस बीच सिगार सुलगा लिया था और कौतूहल से उसकी तरफ देख रहे थे।

'आज का दिन अच्‍छा था, मुंबई से बहुत-सी रुकी हुई रकम वसूल हो गई, आर्डर भी खूब मिले। चलो आज की दावत मेरी तरफ से ताज में। हमसे दोस्‍ती करके तो देखो, बाशशाओ सब कुछ लुटा देयाँगे तुहाड़े उप्पर।'

'आज तो मुमकिन न होगा।' भारती जी ने खड़े हो कर हाथ जोड़ दिए, 'अच्‍छा नमस्‍कार।'

'तुम्‍हारी किस्मत।' सहराई उठा, 'कल किसने देखा है।'

मैं सहराई को किसी तरह पकड़ कर भारती जी के कैबिन से बाहर लाया। कैबिन से बाहर निकलते ही भारती जी के कैबिन के दरवाजे बंद हो गए। सहराई का मूड बिगड़ गया था, उसने मुँह बिचकाया, ऐ ताँ जनाना किस्‍म का आदमी निकलिया। मुझसे नहीं निभ सकती ऐसे लोगों की। बहुत नाम सुनते थे इसका। समरेश बसु की इससे कम हैसियत नहीं, मैं कहूँ तो मेरे साथ सोना गाछी भी चल पड़े और यह भूतनी दा गरूर नाल मरया जा रिया है।' उसने वहीं बरामदे में थूक दिया। मुझे उसके साथ चलना बहुत नागवार लग रहा था, आखिर यह दफ्तर था, कोई हार्डवेयर की दुकान नहीं।

जब तक मैं मुंबई में रहा, सहराई ने मुझे कई झटके दिए। हम लोग उन दिनों शीतलादेवी रोड पर रहते थे। छुट्टी के एक दिन सहराई अपने दोनों हाथों में बियर की दो बोतलें थामे अचानक नमूदार हुआ। उसके साथ गुजराती के सुप्रसिद्ध कथाकार गुलाबदास ब्रोकर थे। उसने यह जानने की भी जहमत न उठाई कि मैं अग्रज रचनाकार की उपस्‍थिति में बियर पीने की गुस्‍ताखी करना चाहता हूँ अथवा नहीं। अभिवादन की प्रक्रिया खत्म होती, इससे पहले ही वह रसोईघर से जैसे भी गिलास मिले उठा लाया और चियर्स बोल दिया। उसने छोटे से कमरे का मुआयना किया और बोला, 'इस दड़बे में रहते हुए तुम्‍हारा दम नहीं घुटता? चलो, पंजाब लौट चलो। वहाँ न सही 'धर्मयुग' तुम्‍हारे बाप का खुला हवादार मकान तो है। कितनी तनख्‍वाह पाते हो, उससे ज्यादा तो टोंटियाँ बेच कर पैदा कर लोगे। और कुछ नहीं तो पंजाब में बैठ कर मेरे उपन्‍यासों का अनुवाद करना। मैं लिखता रहूँगा तुम अनुवाद करते जाना। आज ही वोरा एंड कंपनी ने मेरा उपन्‍यास हिंदी में छापने का अनुबंध किया है। उसका हिंदी में अनुवाद करोगे, बोलो क्‍या लोगे? कल ही तुम्‍हें अग्रिम मुआवजा दिलवा देता हूँ।'

मैंने सोचा, उसे दारू चढ़ गई है। वोरा एंड कंपनी मुंबई का एक प्रतिष्‍ठित प्रकाशन-प्रतिष्‍ठान था। वह लोग ज्यादातर गुजराती पुस्‍तकों का ही प्रकाशन करते थे। जब से इलाहाबाद में शाखा खोली थी, हिंदी पुस्‍तकों का प्रकाशन भी प्रारंभ कर दिया था। उन्‍होंने हिंदी में कई प्रतिष्‍ठित लेखकों के उपन्‍यासों का प्रकाशन किया था।

'कल दोपहर को वोरा साहब से मिलवा दूँगा। तुम्‍हारी नई-नई शादी हुई है, कुछ रकम एडवांस दिलवा दूँगा। एक हजार चलेगा?'

उन दिनों एक हजार एक बड़ी रकम थी। टैक्‍सी का न्‍यूनतम भाड़ा मात्र साठ पैसे था। एक कमरे के फ्लैट का किराया माहिम जैसी जगह में मात्र डेढ़ सौ रुपए था। आज पाँच हजार में वैसा फ्लैट न मिलेगा। मैंने उसकी बात पर विशेष गौर नहीं किया। वह बात-बात पर ब्रोकर जी के कंधे पर धौल जमा देता, मुझे बहुत अटपटा लगता। वह भारती जी की तरह शांत थे। सहराई उनके बहू-बेटों और बच्‍चों का जिक्र जिस आत्‍मीयता और अनौपचारिकता से कर रहा था, उससे लगता था उसका उनसे गहरा आत्‍मीय रिश्‍ता है।

अगले रोज वह लंच के समय दफ्तर आया और मुझे लिवा कर वोरा साहब से मिलवा दिया। अनुबंध पत्र तैयार रखा था, मैंने हस्‍ताक्षर किए और अग्रिम पारिश्रमिक तुरंत मिल गया। मेरे पास सूट लैंग्‍थ रखी थी, मगर सिलाई के पैसे का जुगाड़ नहीं हो रहा था। मेरी कई तात्‍कालिक समस्‍याएँ क्षण भर में दूर हो गईं।

दूतावास के टैरेस पर अंतर्राष्‍ट्रीय ख्‍याति प्राप्‍त फिल्‍म के प्रदर्शन का आयोजन था। पास ही एक लंबी-सी मेज पर बार सजी थी। छोटे-छोटे गिलासों में मोमबत्‍तियों की तरह स्‍कॉच के पेग कतार में जगमगा रहे थे। आमंत्रित अतिथियों ने वहीं खड़े-खड़े एक-एक पेग लिया और दूसरा पेग थाम कर कुर्सियों पर बैठ कर स्‍कॉच की चुस्‍कियों के बीच फिल्‍म का आनंद लेने लगे। फिल्‍म अत्यंत भावप्रवण लम्‍हों से गुजर रही थी और आस-पास सन्‍नाटा खिंचा था कि लिफ्ट के पास एक आकृति प्रकट हुई और उस सन्‍नाटे में किसी आहत परिंदे की तरह गश्‍त करने लगी - 'ओ कालिया, कहाँ हो भई।... कालिया भाई, कालिया।' मेरा माथा ठनका। मुझे समझते एक पल न लगा कि यह सहराई की आवाज है। मैंने ममता को आसन्‍न संकट की जानकारी दी। शांत सरोवर में जैसे किसी ने कंकड़ फेंक दिया था। दर्शकों में मुंबई के तमाम सिने समीक्षक और सिने जगत के प्रतिष्‍ठित लोग थे। दूतावास का स्‍टाफ लिफ्ट की तरफ लपका। सहराई इस सबसे बेखबर प्‍यासे कौवे की तरह चिल्‍ला रहा था - ओ कालिए दे पुत्‍तर कहाँ बैठे हो?

मैं हड़बड़ा कर उठा और पास जा कर देखा सहराई अँधेरे में मुझे ही टटोल रहा था। मैंने उस चुप रहने को कहा और टैरेस के एक कोने में ले गया। उसने बताया कि वह मनमोहन सरल से जानकारी ले कर बड़ी मुश्‍किलों से यहाँ तक पहुँचा है। मैं उस क्षण को कोसने लगा, जब मैंने मनमोहन सरल को अपनी शाम का कार्यक्रम बता कर यह मुसीबत मोल ले ली थी। सहराई ने मेज पर करीने से लगे स्‍कॉच के गिलास देखे तो उसकी बाछें खिल गईं, वह अपनी तमाम परेशानियाँ, शिकायतें और टोंटियाँ भूल गया। मुझे वहीं छोड़ कर वह किसी स्‍वचालित खिलौने की तरह मेज की तरफ बढ़ा। उसने एक-एक घूँट में यके बाद दीगरे कई गिलास उदरस्‍थ कर लिए। वह एक गिलास खत्म करते न करते दूसरा उठा लेता। वह कुछ इस रफ्तार से पी रहा था जैसे युगों-युगों के प्‍यासे किसी राहगीर को रेगिस्‍तान में अचानक पानी का झरना मिल गया हो। जब उसने पाँच-छह गिलास गटक लिए तो मैंने उसकी बाँह थाम कर उसे कुर्सी की ओर ले जाना चाहा। उसने मेरा हाथ झटक दिया - तुम्‍हें जाना हो जाओ, मुझे डिस्‍टर्ब मत करो।

'मुझ पर रहम करो मेरे बाप।' मैंने धीरे से सहराई से कहा, 'कोई नया तमाशा न खड़ा कर देना।'

'यहाँ से हट जाओ, वरना मुझसे बुरा कोई न होगा।' सहराई ने गिलास उठाया और मुझ से पिंड छुड़ाने की गरज से अँधेरे में कहीं अप्रकट हो गया। मैं सशंकित मन से अपनी सीट पर आ बैठा। मेरी निगाहें उसी को अँधेरे में तलाश रही थीं। फिल्‍म देखने का सारा आनंद काफूर हो गया। मुझे लग रहा था, यहाँ से गायब हो जाने में ही भलाई है, मगर ममता पूरी संलग्‍नता के साथ फिल्‍म देख रही थी। मुझे इसकी भी आशंका थी कि कहीं ममता ही न भड़क जाए कि मेरे कैसे-कैसे फूहड़ दोस्‍त हैं। मैं मन ही मन 'जल तू जलाल तू आई बला को टाल तू' का अनवरत स्‍मरण करता रहा।

फिल्‍म डेढ़ घंटे में समाप्‍त हो गई। लाइट्‌स ऑन हो गईं। सब लोग फिल्‍म पर बातचीत करते हुए मेज की तरफ बढ़े। मैंने चारों ओर नजर दौड़ाई, सहराई दूर-दूर तक दिखाई न दे रहा था। जाने दर्जनों गिलास खाली करके कहाँ गायब हो गया था। अचानक एक तरफ लोगों की भीड़ दिखाई दी। हम लोग भी उधर बढ़े। छत के एक कोने में सहराई लेटा हुआ था, नंगे फर्श पर, खुली छत पर। वह गहरी नींद में था। वह दीन-दुनिया से बेखबर एक लय में खुर्राटे भर रहा था। किसी ने आगे बढ़ कर उसकी नब्ज टटोली - 'ही इज डेड ड्रंक।' मेहमान विदा होने लगे। दूतावास के वरिष्‍ठ अधिकारी भी विदा हो गए। अब मैं था, ममता थी और दूतावास के कुछ कनिष्‍ठ अधिकारी। चाँदनी रात थी, आसमान में चाँद दौड़ रहा था और दर्जन भर उपन्‍यासों का रचनाकार पैडर रोड की एक इमारत की चौदहवीं मंजिल की छत पर फकीरों की तरह बेफिक्र और निश्‍चिंत सो रहा था।

मैं इलाहाबाद चला आया तो सहराई ने मुझे इलाहाबाद में भी खोज निकाला। इलाहाबाद में उसके और भी दोस्‍त थे। उसके दो-एक उपन्‍यास 'लोकभारती' ने भी प्रकाशित किए। इलाहाबाद में अक्‍सर वह सतीश जमाली के साथ नजर आता। कभी-कभी 'लोकभारती' में उससे भेंट हो जाती। उन दिनों सुदीप उनके उपन्‍यासों का हिंदी अनुवाद कर रहे थे। भाषा के स्‍तर पर ये उपन्‍यास मूल उपन्‍यासों से कहीं अधिक प्रौढ़ और पठनीय थे। सहराई टोंटियों की ही नहीं, अपनी रचनाओं की मार्केटिंग में माहिर था। अपनी गलत-सलत हिंदी में ही वह प्रकाशक पटा लेता था। ममता सहराई के तौर-तरीकों को पसंद न करती थी। इलाहाबाद में मैं उससे कन्‍नी काटने लगा। पंजाबी स्‍पष्‍टवादिता और खुलापन ममता को अटपटा लगता था। दूसरे मैं अपनी व्‍यक्‍तिगत समस्‍याओं में इतना उलझा हुआ था कि सहराई के उपन्‍यास का अनुवाद करने के लिए समय नहीं निकाल पा रहा था, जिसका अग्रिम पारिश्रमिक मेरे लिए सिरदर्द बना हुआ था। मेरे ऊपर प्रेस की मशीनों का इतना कर्ज था कि मेरे लिए वोरा एंड कंपनी का कर्ज कोई विशेष महत्‍व न रखता था, उस पर सूद भी देय न था, मगर ममता ने मेरे पीछे पड़ कर अनुवाद करवा ही लिया। कर्ज के मामले में वह बहुत भीरु थी, जबकि मैंने जिंदगी में जो कुछ हासिल किया था, कर्ज से ही किया था। एक कर्ज की अदायगी होते न होते मैं दूसरा कर्ज उठा लेता। उन दिनों इतना भ्रष्‍टाचार नहीं था और सरकारी एजेंसियाँ और बैंक लघु उद्योगों को प्रोत्‍साहित करने के लिए कर्ज देने के लिए मारे-मारे फिरते थे। जब तक मैंने सहराई के उपन्‍यास 'सभराओं' का अनुवाद न कर लिया, मैं उसके साथ लुकाछिपी का खेल खेलता रहा। वह इलाहाबाद आता तो खबर लगते ही मैं उसके लिए अनुपलब्‍ध हो जाता। भूले-भटके मुलाकात हो भी जाती तो उसके सामने उपन्‍यास नहीं शराब प्रथम प्राथमिकता पर होती। अकेले पीना उसने सीखा ही न था। जो लोग अकेले पीते थे, सहराई को उनसे चिढ़ थी, ऐसे लोगों के लिए वह कहता - साले हस्‍तमैथुन करते हैं।

एक दिन सुबह-सुबह खबर मिली कि सहराई गंभीर रूप घायल हो गया है और अस्‍पताल में भर्ती है। इसकी जानकारी किसी को नहीं थी कि वह कैसे घायल हुआ और किस अस्‍पताल में भर्ती है। वह इलाहाबाद आता तो रेलवे स्‍टेशन के रिटायरिंग रूम में रुकता था। उसका पता ठिकाना जानने मैं उसी समय रेलवे स्‍टेशन पहुँचा। डारमेट्री में उसे खोज निकालने में ज्यादा देर न लगी। डारमेट्री का हॉल अस्‍पताल का वार्ड लग रहा था। हॉल में दसियों बिस्‍तर लगे थे, कोई दातौन कर रहा था तो कोई शेव बना रहा था। सिर्फ सहराई था जो चादर ओढ़े सो रहा था। चादर पर खून के धब्‍बे थे। मुझे समझते देर न लगी कि यही सहराई का बैड है। चादर उठा कर देखा तो सहराई ही था। उसके सिर पर पट्‌टी बँधी थी। पट्‌टी ही नहीं, उसका तकिया, कमीज भी खून से लथपथ थे। रातभर में खून की पपड़ियाँ जम गई थीं। मैंने उसके पड़ोसी यात्रियों से दरियाफ्त किया मगर किसी को खबर न थी कि वह कब आया और कैसे घायल हुआ। मैं नीचे प्‍लेटफार्म से उसके लिए गर्म-गर्म चाय का कुल्‍हड़ ले कर आया, उसे जगाया तो वह हमेशा की तरह तपाक से मिला। वह अपनी चोट से बेखबर था। वह चाय सुड़कते हुए मुझे गालियाँ देने लगा। पंजाब में गालियों से ही आत्‍मीयता प्रदर्शित की जाती है। मैने उससे पूछा कि उसकी यह हालत कैसे हो गई तो उसे कुछ याद न था। उसे यह भी याद न था कि कैसे घायल हुआ और बिस्‍तर तक पहुँचा। वह खून से रँगे कपड़ों का निरीक्षण कुछ इस तरह कर रहा था जैसे किसी दूसरे के कपड़े देख रहा हो।

'लगता है, रात को कहीं पैर फिसल गया होगा।' उसने आश्‍चर्य प्रकट किया, 'पर यह पट्‌टी किसने बाँध दी?'

इलाहाबाद अफसानानिगारों का शहर है। दोपहर को 'लोकभारती' से फोन आया कि कल रात शराब के नशे में सतीश जमाली ने सहराई को रेलवे स्‍टेशन के पुल से धक्‍का दे दिया था और वह किसी फिल्‍मी नायिका की तरह लुढ़कते हुए नीचे आ गिरा था। किसी रहमदिल यात्री ने उसे 'फर्स्टएड' दिलवाई और कमरे तक पहुँचाया। दरअसल 'लोकभारती' इलाहाबाद के लेखकों का थाना था। प्रथम दृष्‍टया रिपोर्ट इसी थाने में दर्ज होती थी। थाने में यह भी खबर थी कि रात को ही फोन पर जालंधर में उसके लड़कों को सूचना दी जा चुकी है, वे उसे लेने इलाहाबाद पहुँच रहे हैं। यह भी हवा में था कि उसके लड़के सतीश जमाली से बेहद खफा हैं और उसे सबक सिखा कर ही जालंधर लौटेंगे। मैंने 'सरस्‍वती प्रेस' फोन मिलाया तो मालूम हुआ जमाली भी छुट्‌टी पर है।

सतीश जमाली की स्‍थिति भी सहराई से भिन्‍न न थी। उसे भी कुछ याद न था। दिमाग पर दबाव दे कर वह सिर्फ इतना बता पाया कि दोनों ने एक ढाबे में गटागट पूरी बोतल खाली कर दी थी और शराब पी कर कॉफी हाउस पहुँचे थे। वहाँ उसने भगवतीचरण वर्मा से बदतमीजी की थी, जो साही, लक्ष्‍मीकांत वर्मा और विश्‍वंभर मानव के साथ कॉफी पी रहे थे। उसने भगवती बाबू को देखते ही गुस्‍ताखी कर दी, 'आप यहाँ क्‍या कर रहे हैं? आपको कॉफी हाउस में घुसने की इजाजत किसने दी?' उत्‍तेजना में भगवती बाबू का चेहरा सुर्ख हो गया था और वह खड़े हो गए थे। साही वगैरह ने आदरपूर्वक भगवती बाबू को बैठाया और कहा 'भगवती बाबू छोड़िए, शराबी है।' यह भी पता चला कि रात को नशे में वे लोग दारू की तलाश में दूधनाथ सिंह के यहाँ भी गए थे। दूधनाथ ने स्‍थिति को भाँप कर दरवाजा ही न खोला था। अंतिम बात जमाली को यह याद आई कि वह सहराई को छोड़ने स्‍टेशन जा रहा था कि पुल पर सीढ़ियाँ उतरते हुए सहराई लड़खड़ा गया और गेंद की तरह लुढ़कते हुए नीचे जा गिरा। यहीं पर जमाली का बल्‍ब फ्‍यूज हो गया था। उसे भी याद न पड़ रहा था, वह भी कैसे घर पहुँचा। यह भी हो सकता है कि वह इस डर से भाग निकला हो कि कहीं पुलिस केस न हो जाए।

सहराई पर इस घटना का कोई असर नहीं हुआ। कुछ ही महीनों बाद मैंने देखा दोनों दारू की जुगाड़ में साथ-साथ टहल रहे थे। एक शाम वह रानी मंडी में भी प्रकट हुआ था। उस शाम मेरा इरादा अरविंद कृष्‍ण मेहरोत्रा के साथ बैठने का था। याद पड़ रहा है, उस शाम हम लोगों ने न पीना ही मुनासिब समझा था। बाद में मैंने शराब छोड़ दी तो सहराई ने मुझे छोड़ दिया। इसी तर्क से जमाली से भी उसका तर्के ताल्‍लुकात हो गया। मुझे उम्‍मीद है हम लोगों की तरह अब तक सहराई का घड़ा भी भर चुका होगा।

16-

इलाहाबाद में मेरे पास अपना कुछ भी नहीं था, जो कुछ था कर्ज का था। यही गनीमत थी कि मैं कर्ज की मय नहीं पीता था। इलाहाबाद आए एक वर्ष भी न हुआ था कि मेरा पहला कथा संग्रह 'नौ साल छोटी पत्‍नी' प्रकाशित हुआ। उसमें लेखक परिचय कुछ इस प्रकार दिया हुआ था - रवींद्र कालिया, उम्र तीस साल, कर्ज पैंतीस हजार। इस परिचय के बावजूद यहाँ के लेखक बंधु मुझे धन्‍ना सेठ समझते थे, जबकि मैं बीड़ी-सिगरेट को मोहताज था। मुझमें एक खामी यही थी कि मैं अपनी गुरबत का बखान नहीं करता था, इसका नतीजा यह निकला कि वक्‍त जरूरत बिरादरी के लोग प्रायः संकट में डाल देते। मेरी स्‍थिति का अनुमान इससे लगाया जा सकता है कि शादी के बाद हम मियाँ-बीवी अलग-अलग रहने को मजबूर थे। ममता उन दिनों मुंबई के महिला विश्‍वविद्यालय एस.एन.डी.टी. में अंग्रेजी की प्राध्‍यापिका थी। वह होस्‍टल में अकेले रह रही थी, मैं अश्क जी के यहाँ तंबू गाड़े हुए था। मैं अश्क जी के भरे-पूरे परिवार के साथ रह रहा था। आवास और भोजन की कोई समस्‍या नहीं थी, जेब खर्च के लिए ममता मनीआर्डर भिजवा देती थी, मगर मेरी मुफलिसी का एहसास किसी को नहीं था। मुंबई से मैं अपने साथ रेफ्रिजरेटर और कुकिंग गैस का कनेक्‍शन लाया था। इलाहाबाद में उन दिनों इन दोनों उपकरणों का ज्यादा प्रचलन नहीं था। अश्क जी के यहाँ भी चूल्‍हे पर खाना बनता था। कौशल्‍या जी को गैस काफी सुविधाजनक लगी। रेफ्रिजरेटर सीधा रानी मंडी पहुँच गया था। घड़े का ठंडा पानी पीनेवाले रेफ्रिजरेटर का पानी पी कर मुझे कोई रईसजादा समझ लेते, जबकि मुंबई के जीवन में कामकाजी दंपती के लिए रेफ्रिजरेटर एय्‍याशी नहीं बुनियादी जरूरत थी। यह विरोधाभास ही था कि मुंबई का एक गरीब लेखक इलाहाबाद का संघर्षशील लेखक नहीं दिखाई दे रहा था। दोनों शहरों की जीवन शैली और मूल्‍यों में इतना अंतर था कि जब आकाशवाणी ने मेरे प्रसारण शुरू किए तो पाया कि मेरी फीस इलाहाबाद के वरिष्‍ठ लेखकों के बराबर थी। इलाहाबाद में लेखकों को जितनी फीस मिलती थी उससे मुंबई में तो लेखकों का टैक्‍सी भाड़ा न निकलता।

बाहर से कोई लेखक इलाहाबाद पधारता तो कई मेजबान अपने मेहमान को ले कर इस अपेक्षा से मेरे यहाँ चले आते कि शाम अच्‍छी गुजर जाएगी, मगर जल्‍द ही लोगों का मोहभंग होने लगा। मुझे तो सिगरेट के लाले पड़े हुए थे। मैंने कभी घटिया ब्रांड की सिगरेट न पी थी। एक बार तलब लगी तो सिगरेटवाले से उधार माँगने की मूर्खता कर बैठा। उसने स्‍पष्‍ट रूप से मना कर दिया। मुझे हमेशा के लिए एक सबक मिल गया। यह दूसरी बात है कि बाद के वर्षों में सिगरेटवाले को जरूरत पड़ती तो मुझसे उधार ले जाता। उसे याद भी न होगा कि शुरू के दिनों में उसी ने मुझे एक सबक सिखाया था। अपनी तंगदस्‍ती की एक घटना तो भुलाए नहीं भूलती। इलाहाबाद के लिए यह कोई अनूठा अनुभव नहीं था। प्रायः सभी लेखक संघर्षरत थे। उन दिनों शराब का भी इतना रिवाज नहीं था। शायद ही कोई लेखक नियमित रूप से मदिरापान करता हो। ज्यादातर लेखक पैदल टहलते हुए ही मिलते थे, जबकि चौक से स्‍टेशन तक का रिक्‍शा भाड़ा मात्र दस नए पैसे था। शायद यही कारण था कि आर्थिक संघर्ष में भी वे मस्‍त रहते। धनोपार्जन किसी की प्राथमिकता में ही नहीं था। एक सिगरेट चार-छह लोग पी जाते थे।

छुट्टी के एक दिन दोपहर को किसी ने दरवाजा खटखटाया। मैं शहर में नया-नया आया था किसी की प्रतीक्षा भी न थी। ऊपर से झाँक कर देखा, हिंदी के एक अत्यंत प्रतिष्‍ठित और बुजुर्ग रचनाकार दरवाजा पीट रहे थे। मैं भाग कर नीचे पहुँचा, उन्‍हें दफ्तर में बैठाया। आदर सत्‍कार क्‍या करता, घर में चाय बनाने की भी सुविधा न थी और सर्वेश्‍वर के शब्‍दों में कहूँ तो जीवन 'खाली जेबें, पागल कुत्‍ते और बासी कविताएँ' था। खाने पीने की व्‍यवस्‍था अश्‍क जी के यहाँ थी, इसलिए निश्‍चिंत था। मुझसे अश्क जी की एक ही अपेक्षा थी कि वे दिन भर जितना लिखें, मैं शाम को सुन लूँ। शुरू में तो यह बहुत सम्‍मानजनक लगता था कि एक अत्यंत वरिष्‍ठ लेखक मुझे इस लायक समझ रहा है कि मैं उनकी रचना पर कोई राय दे सकूँ। मगर कुछ दिनों बाद मैं इससे ऊबने लगा।

'आज बहुत मुसीबत में तुम्‍हारे पास आया हूँ।' उन बुजुर्ग रचनाकार ने बताया कि उनकी पत्‍नी को 'हार्ट अटैक' हो गया है और उन्‍हें किसी भी तरह सौ रुपए तुरंत चाहिए।'

सौ रुपए उन दिनों एक बड़ी रकम थी और मैंने दिन भर के लिए किसी तरह एक अठन्‍नी बचा कर रखी हुई थी। मेरे लिए अचानक एक संकट खड़ा हो गया। चाह कर भी मैं उनकी कोई मदद नहीं कर सकता था। मैंने अत्यंत सकुचाते हुए उन्‍हें बताया कि उन्‍हें यकीन तो न आएगा मगर सच्‍चाई यही है कि मेरे पास इस समय सिर्फ एक अठन्‍नी है। वह हैरत और अविश्‍वास से मेरी ओर देखने लगे। उनके चेहरे के आईने में मेरा गैरलेखकीय महाजनी चेहरा मुझे ही चिढ़ा रहा था। मुझे लगा, मेरी बात सुन कर वह संतप्‍त ही नहीं, आहत भी हुए हैं। उन्‍होंने नजर उठा कर प्रेस का जायजा लिया और लंबी साँस भरते हुए बोले, 'जो ईश्‍वर को मंजूर है। कहीं और जा कर हाथ फैलाता हूँ।' यह देख कर मुझे भी मर्मांतक पीड़ा हो रही थी कि इतने वर्ष घोर तपस्‍या करने का समाज ने उन्‍हें यह पुरस्‍कार दिया है कि वह अपनी पत्‍नी के इलाज को मुहताज हैं। वह कुछ देर तक चिंतामग्‍न बैठे रहे, पानी पिया और बोले, 'आप वह अठन्‍नी ही दे दीजिए ताकि रिक्‍शा करके दौड़ भाग कर सकूँ।' मैंने खुशी-खुशी अपनी अंतिम पूँजी उन्‍हें सौंप दी। यह दूसरी बात है कि मैं अब सिगरेट के लिए भी मोहताज हो गया था।

हिंदी के वह मूर्द्धन्‍य साहित्‍य साधक चले गए। मुझे भी कोई काम नहीं था, मैं भी उनके पीछे चल दिया, यह सोच कर कि देखते हैं इस विषम परिस्‍थिति से वह कैसे निपटते हैं। वह लोकनाथ की तंग गलियों में खरामा-खरामा बढ़ने लगे। चौराहे पर एक पान की दुकान पर उन्‍होंने एक जोड़ा पान लिया और कुछ दूर जा कर रिक्‍शा में बैठ कर कहीं रवाना हो गए। मैं पैदल ही लूकरगंज की तरफ चल दिया ज्ञान के यहाँ। ज्ञान को बताया कि अमुक लेखक की पत्‍नी को हार्ट अटैक हो गया है और वह बहुत परेशान थे। ज्ञान पर मेरी बात का कोई असर न हुआ, बोला, 'भैया यह इलाहाबाद है। इसकी लीला न्‍यारी है। तुम अपना खून मत सुखाओ। उनकी पत्‍नी स्‍वस्‍थ प्रसन्‍न हैं और संगम पर एक आश्रम में कल्‍पवास कर रही हैं। यकीन न हो तो चलो मेरे साथ अपनी आँखों से देख लो।'

ज्ञान ने लोकनाथ जा कर नाश्‍ता कराया और फिर हम लोग सचमुच संगम की तरफ चल दिए। जब तक हम सच्‍चा बाबा आश्रम पहुँचे दोपहर ढल चुकी थी। सच्‍चा बाबा के आश्रम में प्रवचन कीर्तन का माहौल था। हमने देखा लेखक दंपति तन्‍मयता से कीर्तन-भजन में संलग्‍न थे।

मेरे लिए यह संतोष का विषय है कि तीस वर्ष बाद भी वह लेखक उसी प्रकार साहित्‍य साधना में लीन हैं, सपत्‍नीक स्‍वस्‍थ प्रसन्‍न हैं। उनकी गर्दिश का दौर अभी तक जारी है और प्रयाग की तपोभूमि पर वह अपनी अलख जगाए हुए हैं। प्रयाग का यह फक्‍कड़ अंदाज आज भी रचनाकारों को आकर्षित करता है। मुफलिसी यहाँ अभिशाप नहीं, सहज स्‍वीकार्य है। सुविधाओं, पुरस्‍कारों और सम्‍मानों की अंधी दौड़ यहाँ के माहौल से एकदम नदारद है।

जि़ंदगी तमाम लोगों के साथ धूप-छाँह का खेल खेला करती है। मैं भी अपवाद नहीं था। बहुत बार ऐसा हुआ कि जी-तोड़ मेहनत करने के बावजूद स्‍थितियाँ नहीं बदलीं और ऐसा भी हुआ कि टाँग पर टाँग धरे बैठे रहे और स्‍थितियाँ अनुकूल होती चली गईं। महीने की पहली तारीख मेरे लिए सब से ज्यादा तंगदस्‍ती का पैगाम ले कर आती। श्रमिकों का वेतन, प्रेस की किस्‍तें और दूसरी देनदारियों का इंतजाम करते-करते पसीने छूट जाते। कर्ज का जरा सा बोझ कम हो जाता, मगर जेब और पेट में चूहे दौड़ते। ऐसी एक शाम भी चूहों ने इतना उत्‍पात मचा रखा था कि जेब में मूँगफली खाने तक के लिए पैसे न थे। अचानक कालबेल सुनाई दी। बेमन से दरवाजा खोला। सामने एक नई उम्र का लड़का खड़ा था, हाथ में ब्रीफकेस लिए।

'रवींद्र कालिया यहीं रहते हैं?' उसने पूछा।

'अंदर तशरीफ लाइए।' मैंने कहा, 'खाकसार को ही रवींद्र कालिया कहते हैं।'

उसने बताया कि वह मेरी कहानियों का प्रशंसक है और उसे खबर लगी थी कि मैं इलाहाबाद में प्रेस का कारोबार कर रहा हूँ। वह मध्‍य प्रदेश के किसी मेडिकल कॉलिज का साहित्‍यानुरागी छात्र था। कॉलिज की रजत जयंती के अवसर पर एक भव्‍य स्‍मारिका प्रकाशित कराने का दायित्‍व उसे सौंपा गया था। उसने ब्रीफकेस खोल कर नमूने के तौर पर अन्‍य कालिजों की कुछ स्‍मारिकाएँ एवं पत्रिकाएँ दिखाईं। वे सब दिल्‍ली-मुंबई के प्रेसों में छपी हुई थीं। ब्रीफकेस में मुझे पीटर स्‍कॉट की बोतल भी अपनी झलक दिखा गई। बोतल देखते ही मेरी चेहरे की मनहूसियत गायब हो गई। मुझे विश्‍वास हो गया कि स्‍मारिका का काम मिले न मिले, आज की शाम जरूर गुलजार हो जाएगी। उसने बताया कि स्‍मारिका की मद में कॉलिज पंद्रह हजार रूपये तक खर्च करना चाहता है। वह इसी समय मेरे प्रेस का कोटेशन चाहता है और मुझे काम दिला कर ही दम लेगा। वह बहुत भटकते और पता लगाते हुए मुझ तक पहुँचा है और चौक मीरगंज में ही कथाकार बलवंत सिंह के होटल में ठहरा है।

उन दिनों पंद्रह हजार रुपए एक बड़ी रकम थी। उन दिनों जो कागज तीस-चालीस रुपए रीम मिलता था आज तीन-चार सौ रुपए रीम में भी उपलब्‍ध न होगा।

'इलाहाबाद में छपाई की दरें मध्‍य प्रदेश से आधी हैं। इलाहाबाद के हिसाब से यह पाँच-छह हजार का काम है, मगर मैं आपको पंद्रह हजार रुपए दिलवाँऊगा। मुझे उनमें से सिर्फ चार हजार रुपए चाहिए। दो हजार रुपए नकद और दो हजार में आप एक कथा संकलन तैयार करवा दीजिए, जिसमें मेरी तथा मेरे दो एक मित्रों की कहानियाँ भी रहें।' उसने दो टूक शब्‍दों में अपनी शर्तें रखीं।

'लेकिन मेरे पास तो आपको देने के लिए फूटी कौड़ी भी नहीं है।' मैंने उसे बताया कि हमारे यहाँ हिंदी का काम होता है, अंग्रेजी का टाईप ही नहीं है प्रेस में।'

'अंग्रेजी 'टाइप' नहीं है तो खरीद लीजिए। अंग्रेजी का टाइप होगा तो और काम भी मिलेगा। प्रेस के लिए यह एक अच्‍छा निवेश है। नए टाइप से छपाई भी अच्‍छी होगी।' उसने कहा।

'मैं शहर में नया हूँ, मुझे कौन उधार देगा, पहले ही कर्ज से दबा हूँ।'

'चिंता मत कीजिए, कुछ राशि अग्रिम दिलवा दूँगा।' लगा वह मेरी कोई समस्‍या सुनना ही नहीं चाहता, उसने सुझाव दिया, 'चलिए होटल चलते हैं। खाने-पीने की भी सुविधा रहेगी। मैं मीरगंज में ठहरा हूँ। बलवंत सिंह आपको कैसे लेखक लगते हैं। मैं तो फिदा हूँ 'काले कोस' पर। सोचा था, बलवंत सिंह के होटल में रुकूँगा और रवींद्र कालिया के प्रेस में पत्रिका छपवाऊँगा।'

मैंने ताला ठोंका और उसके साथ चल दिया। हम लोग होटल पहुँचे। मामूली-सा होटल था जैसे उस रेड लाइट क्षेत्र में हो सकता था। चादर पर दाग-धब्‍बे। उसने बताया कि वह अनेक चादरें बदलवा चुका है, मगर हर चादर पर न मिटनेवाले अश्‍लील दाग-धब्‍बे हैं। उसने अपने ब्रीफकेस से एक नई चादर निकाली और बिछा दी। बगल की इमारत से सारंगी तबले के स्‍वर उठ रहे थे। 'कोई अच्‍छी नाचने-गालेवाली हो तो दारू पी कर सुना जाए।' उसने सुझाव रखा और अपना मयखाना सजाने लगा। वह उम्र में मुझसे आठ-दस वर्ष छोटा था, मगर पीने में तेज। जब तक मैं एक पेग समाप्‍त करता वह दूसरा भी हलक में उतार लेता।

'मेरे पास दो कोटेशन्‍स हैं। एक सोलह हजार का और एक अठारह हजार का। आप चौदह हजार का कोटेशन भरिए। मैं सप्‍ताह भर में पाँच हजार अग्रिम दिलवा दूँगा। मेरे दो हजार आपको उसी में से देने होंगे।'

मेरी उसके काम में दिलचस्‍पी ही न थी। प्रेस में 'हिंदी भवन' का ही इतना काम था कि बाहर के काम की जरूरत ही महसूस न होती थी। मुझे उसका प्रस्‍ताव भी हवाई लग रहा था। शराब जितनी बढ़िया थी, माहौल उतना ही मनहूस। मुझे घुटन महसूस हो रही थी। उसने बताया कि वह भोजन करके रात की गाड़ी से लौट जाएगा। मैंने उसे प्रेस का कोटेशन दिया और उसे अपने साथ 'नानकिंग' ले गया। कई दिनों से 'नानकिंग' के भोजन की तारीफ सुन रहा था, आज आकस्‍मिक रूप से वहाँ का भोजन चखने का अवसर मिल गया। भोजन करते हुए वह सहसा भावुक हो गया और अपनी प्रेमिका पर लिखी कविताएँ सुनाने लगा। उसने वादा किया कि अगली बार वह अपनी प्रेमिका को ले कर आएगा और इलाहाबाद के सब से बढ़िया होटल में ठहरेगा।

लौटते समय मैं चौक में ही उसके रिक्‍शे से उतर गया और पैदल रानी मंडी की ओर चल दिया। सुबह तक मैं इस प्रसंग को भूल चुका था। मेरी शाम अच्‍छी कट गई थी, बढ़िया दारू नसीब हो गई थी और 'नानकिंग' का भोजन।

जिंदगी हस्‍बेमामूल चलने लगी। गाड़ी पुरानी पटरी पर दौड़ने लगी। मेरी स्‍थिति कोल्‍हू के बैल जैसी थी। सुबह-सुबह काम में जुट जाता और रोजमर्रा के झंझटों में उलझ जाता। कोई कर्मचारी अग्रिम माँग लेता तो मेरा सारा गणित बिगड़ जाता। काम चलाने भर की पूँजी थी। कोई सप्‍ताह भर बाद वही नवयुवक सिगरेट का धुआँ उगलते हुए दफ्तर में प्रकट हुआ। उसने तुरंत ब्रीफकेस खोला और पाँच हजार का ड्राफ्ट मेरे हवाले कर दिया।

मैंने ड्राफ्ट भर कर तुरंत आदमी बैंक दौड़ा दिया।

'आज दारू आप पिलाएँगे, मगर मेरे हिसाब से।' उसने कहा, 'बैंक मैनेजर से बात करते हैं।'

आश्चर्यजनक रूप से बैंक के मैनेजर ने ड्राफ्ट के एवज में दो हजार रुपए नकद दे दिए। दो हजार रुपए का मतलब आप इस तरह से लगा सकते हैं कि आज उतने पैसे नकद दे कर एकाध लाख का सामान खरीदा जा सकता है।

दो हजार रुपए मैंने उस युवक को सौंप दिए। वह मुझे सीधे 'नानकिंग' ही ले गया। वहाँ हम लोगों ने जम कर बियर पी और पेट कर भर भोजन किया। अग्रिम धनराशि मिलने से मेरी कई तात्‍कालिक समस्‍याएँ हल हो गईं। काम पूरे होने पर शेष धनराशि का भी निर्विघ्‍न भुगतान हो गया। मेरे लिए आज तक यह कौतुक का विषय बना हुआ है कि उस युवक ने बहुत परिश्रम और रुचि ले कर जो कहानी संग्रह संपादित कर छपवाया था, वह आज की तारीख तक उसे लेने ही नहीं आया। इस घटना को तीस वर्ष हो चुके हैं, कई बार उस लड़के का ध्‍यान आया है। उसकी पुस्‍तक की प्रतियाँ तो बरसों पहले दफ्तरी ने रद्दी में बेच दी थीं। कई बार जानने की जिज्ञासा होती है कि क्‍या वह डॉक्‍टर बन पाया, उसके प्रेम का क्‍या हश्र हुआ? वह कहाँ चला गया? मेरे लिए तो वह देवदूत बन कर आया था। ऐसा मेरे जीवन में बार-बार हुआ है। संकट की घड़ी में अचानक किसी ने कंधे पर हाथ धर दिया है। क्‍या यह मात्र एक संयोग है, विश्‍वास ही नहीं होता।

इस बीच मेरी पहचान और व्यवसाय का दायरा अप्रत्‍याशित रूप से बढ़ने लगा। देश के दूरवर्ती इलाकों से साहित्‍यप्रेमी प्रकाशक इलाहाबाद प्रेस में काम करवाने इलाहाबाद आने लगे। उन दिनों इलाहाबाद उत्‍तर भारत में मुद्रण का सबसे बड़ा केंद्र था। इलाहाबाद में गृह उद्योग की तरह प्रेस व्यवसाय विकसित हुआ था। गली-गली में प्रेस थे या कंपोजिंग यूनिट। छपाई की दरें भी देश में सबसे कम थीं। हमारे यहाँ महाराष्‍ट्र, मध्य प्रदेश, बिहार, हिमाचल यहाँ तक कि दिल्‍ली तक से काम आने लगा। मुंबई से हिंदी ग्रंथ रत्‍नाकर के मोदी, जबलपुर से नर्मदाप्रसाद खरे, भोपाल से हिंदी ग्रंथ अकादमी अपने-अपने प्रकाशनों का मुद्रण कार्य देने लगे। मुझे 'हिंदी भवन' के काम से ही फुर्सत न थी। लिहाजा प्रेस का विस्‍तार करने की सोची, जबकि अभी नारंग जी की किस्‍तें बाकी थीं। मैंने एन.एस.एस.ई. से मशीन खरीदने के लिए ऋण के लिए प्रार्थना पत्र दिया, वहाँ से संतोषजनक उत्‍तर न मिला तो बैंक से ऋण ले कर स्‍वचालित मशीन किस्‍तों पर ले ली। अभी दो कर्जे सर पर थे कि अचानक चुनाव की घोषणा हो गई और एन.एस.एस.ई. ने भी ऋण मंजूर कर लिया। मैंने एक और मशीन ले ली। अब पाँच हजार रुपए महीने की देनदारी हो गई। उस समय सत्‍तर के दशक में यह एक बड़ी रकम थी। इस ऋण के दबाव में मैं कथा कहानी की दुनिया से भटकने लगा। श्रम, तनाव और कार्यभार से राहत पाने के लिए सूरज डूबते ही गिलास ले कर बैठ जाता। स्‍टीरियो पर अपनी पसंद का संगीत सुनता। उन दिनों बेगम अख्‍तर का मैं इतना दीवाना हो गया था कि उनका शायद ही कोई एल.पी. होगा जो मेरे पास न हो। बेगम अख्‍तर ने अपने जीवन के अंतिम दिनों में मेरे मित्र सुदर्शन फ़ाकिर की गजलें सबसे ज्यादा गाई थीं। दूसरी तरफ हमारा पुराना साथी जगजीत सिंह भी गजल की दुनिया में तेजी से उभर रहा था। इसी प्रकार सहगल के तमाम उपलब्‍ध कार्ड मैंने खरीद लिए। सहगल भी जालंधर के थे। वतन को याद करने का यह भी एक तरीका था।

मुद्रण कार्य के सिलसिले में ही जगदीश पीयूष से परिचय हुआ। वह जायसी की मजार पर एक भव्‍य आयोजन कराना चाहते थे और इस अवसर पर अवध की लोक संस्‍कृति पर एक स्‍मारिका प्रकाशित करना चाहते थे। मेरे यहाँ लोग इसलिए भी आते थे कि मुद्रण के अलावा संपादन, संयोजन, प्रोडक्शन, ले आउट, साज-सज्‍जा की मुझे अच्‍छी जानकारी थी। प्रकाशकों को जगह-जगह भटकना नहीं पड़ता था। पांडुलिपि दे कर वह निश्‍चिंत हो जाते थे। पीयूष जी की स्‍मारिका और आयोजन के लिए वित्‍तीय सहायता का आश्‍वासन अमेठी के राजकुमार संजय सिंह ने दिया था। अमेठी के राजा रणंजय सिंह भी साहित्‍यनुरागी थे मगर जायसी के प्रति उतने सहिष्‍णु नहीं थे जितने कि राजकुमार संजय सिंह। पीयूष ने संजय सिंह को किसी प्रकार इस सहयोग के लिए राजी कर लिया था। पीयूष ने आयोजन की जिम्‍मेदारी भी मुझे सौंप दी और इलाहाबाद के अनेक लेखक अमेठी चलने को राजी हो गए, मार्कंडेय, सत्‍यप्रकाश मिश्र, मटियानी आदि। मार्ग व्‍यय के नाम पर सौ-सौ रुपए भी मिल रहे थे, जबकि वाहन की व्‍यवस्‍था पीयूष जी ने कर दी थी। जायसी की मजार पर एक भव्य समारोह का आयोजन हुआ। चित्र भी खींचे गए, लेखकों का आदर-सत्‍कार भी हुआ।

इस आयोजन के दो नतीजे निकले। पहला तो यही कि संजय सिंह से मेरी मित्रता हो गई। स्‍मारिका के बिल का भुगतान भी उन्‍होंने पीयूष जी को न दे कर इलाहाबाद आ कर स्‍वयं मुझे दिया। पूरी शाम हम लोगों ने जी भर कर गजलें सुनीं। संजय सिंह के पिता ने उन्‍हें घोर अनुशासन में रखा था। कुश्‍ती, वैदिक साहित्‍य के अध्‍ययन तथा घुड़सवारी वगैरह पर ज्यादा तवज्‍जो दी थी। सामंती संस्‍कार उनमें कूट-कूट कर भरे जा रहे थे, उर्दू गजल से उनका यह प्रथम साक्षात्‍कार था। मुझे ताज्‍जुब तो इस बात पर हुआ कि यह कैसा राजकुमार है जो 'हम तो समझे थे कि बरसात में बरसेगी शराब, आई बरसात तो बरसात ने दिल तोड़ दिया' सुन कर भी बियर तक पीने को प्रेरित नहीं हुआ। इस शाम के बाद हमारी कुछ ऐसी मित्रता हो गई कि संजय सिंह जब-जब इलाहाबाद आए हमारे यहाँ जरूर आए। हमारे संबंध प्रगाढ़ होते चले गए। वह घुड़सवारी करते-करते अचानक कारों में दिलचस्‍पी लेने लगे। उन दिनों नवयुवकों में यकायक 'मेटाडोर' लोकप्रिय हो गई थी। एक बार हम लोग इलाहाबाद से मात्र ढाई घंटे में लखनऊ पहुँच गए, मैटाडोर में। दो सौ किलोमीटर की इस यात्रा के दौरान रायबरेली में चाय भी पी। बाद में संजय सिंह को पायलेट बनने का शौक चर्राया तो किसी भी समय छोटे से विमान में इलाहाबाद चले आते। इलाहाबाद में थोड़ी गप्‍पबाजी होती और सूर्यास्‍त से पूर्व उसी विमान से लखनऊ लौट जाते। एक बार तो अपने साथ अपने छोटे-से बेटे को भी साथ में ले आए थे। उनके साथ मैंने भी अनेक बार आकाश भ्रमण किया। खास तौर पर हैलीकाप्‍टर से लखनऊ, अमेठी और इलाहाबाद की कई यात्राएँ की थीं। पहली बार जब मैं लखनऊ से इलाहाबाद के लिए हैलीकाप्‍टर से उड़ा तो मेरी घिग्‍घी बँध गई। ज्‍यों-ज्‍यों हैलीकाप्‍टर आकाश में उठ रहा था, मेरा दिल बैठ रहा था। मेरी घबराहट देख कर उनके इशारे से पायलेट ने आकाश में कई करतब दिखा दिए। कुछ देर बाद मैं संयत हो गया और प्रकृति की छटा देखने लगा। नीचे धान की फसल और सड़कों का जाल बिछा था। इलाहाबाद अत्यंत सुरम्‍य नजर आया, गंगा और यमुना का मिलन स्‍पष्‍ट नजर आ रहा था। एक शहर हरियाली से ढका हुआ।

इसे विरोधाभास ही कहा जाएगा कि इलाहाबाद में नई कविता के तमाम कवि और प्रवक्‍ता शराब नहीं कॉफी पीते थे। ज्यादातर लेखक तो इस स्‍थिति में ही न थे कि मद्यपान की एय्‍याशी कर सकें। दो एक क्रांतिकारी कवि ठर्रा पीते-पीते भाँग पर उतर आए थे। तंबाकू का सेवन कोई-कोई रचनाकार कर लेता था, पाइप में, सिगरेट रोल करके या बीड़ी फूँक कर। फिराक साहब के यहाँ जरूर रम बहती थी। मैं दो-एक बार गुड्‌डे (नीलाभ) के साथ उनके यहाँ गया। हमेशा बोतल सामने थी और पायजामा ढीला। वह शायद नाड़ा बाँधने में आलस करते थे। फिराक साहब की शख्‍सीयत जितनी बुलंद थी वह उतनी ही बुलंदी से बात करते। एक बार उन्‍होंने नीलाभ से कहा, तुम्‍हारा बाप कब तक घटिया अफसाने लिखता रहेगा? फिराक साहब की किसी बात का कोई बुरा नहीं मानता था। उनकी मयनोशी उनके व्‍यक्‍तित्‍व का हिस्‍सा बन चुकी थी, वरना हिंदी में दारू पीनेवाले को आवारा, चरित्रहीन, गैर जिम्‍मेदार और भ्रष्‍ट लेखक समझा जाता था। जैसा राजकमल चौधरी के साथ हुआ था।

बुध की महादशा चलती है तो लेखक प्रकाशक बनने का हसीन सपना देखने लगता है। वह जैनेंद्र, यशपाल और अश्‍क बनना चाहता है। मगर ज्‍यादातर लेखकों को यह धंधा रास नहीं आता। वे शहर में प्रेस मालिकों, दफ्तरियों और कागजियों से आँख चुराते घूमते हैं। इसी चक्‍कर में अनेक लेखकों का लेखन चौपट हो जाता। कमलेश्‍वर जैसे चतुर लेखक समय रहते अपना पलड़ा झाड़ कर इस व्‍यवसाय से अलग हो गए। सतीश जमाली उन दिनों 'कहानी' के सहायक संपादक थे। सिविल लाइंस में 'सरस्‍वती प्रेस' का कार्यालय था, 'कहानी' का संपादकीय कार्यालय भी वहीं था। सतीश जमाली ने भी नौकरी के साथ-साथ अपने प्रकाशन की बुनियाद रख दी थी। उसकी पुस्‍तक का एकाध संस्‍करण तो नए, उदीयमान और यशःप्रार्थी कथाकारों में खप जाता था।

दोपहर को जब वीपीपी से भेजी गई पुस्‍तकों का पैसा ले कर डाकिया सरस्‍वती प्रेस में नमूदार होता तो जमाली के इर्द-गिर्द बैठे चिरपिपासु लेखकों की आँखों में अलौकिक चमक आ जाती। पुस्‍तक अथवा प्रकाशन व्‍यवसाय की यह विशेषता है कि पुस्‍तक बिक जाए तो सोना है, न बिके तो रद्दी। उन दिनों जमाली के प्रकाशन पर सोने की बूँदाबाँदी होने लगी थी और वह इसी में टुन्‍न रहने लगा। किसी दिन जम कर बरसात हो जाती तो लेखकों को दावत दे देता। जमाली की मेजबानी में पीने के दो लाभ थे। उसके यहाँ दारू के साथ-साथ मांस-मछली के लजीज व्यंजनों की भी व्‍यवस्‍था रहती। उसकी पत्‍नी के हाथ में ऐसा जादू था कि लोग अँगुलियाँ चाटते हुए खाने पर से उठते।

जमाली की शादी में मैंने जमाली के बड़े भाई की भूमिका अदा की थी। ज्ञानरंजन, दूधनाथ, नीलाभ और मैंने जम कर रम पी थी और यह सोच कर आज भी शर्मिंदगी का एहसास होता है कि खाने के समय जब मैंने जमाली की साली से पानी मँगवाया तो गिलास की जगह उसका हाथ थाम लिया था। गिलास छन्‍न से फर्श पर फूट गया। वह शरीफ लड़की थी, हाथ छुड़ा कर भीड़ में खो गई। कथाकारों के बारे में उसके मन में बहुत आवारा छवि बनी होगी और उसने सोचा होगा, उसके जीजा जी भी ऐसे ही निकेलेंगे। अब वही जाने, उसके जीजा जी कैसे निकले।

जिन दिनों जमाली का तन और प्रकाशन शबाब पर था, उसने अपने यहाँ एक बढ़िया दावत का आयोजन किया। उन दिनों भैरवप्रसाद गुप्त, मार्कंडेय और शेखर जोशी इस गिरोह के स्‍थायी सदस्‍य थे। यह उन दिनों की बात है जब अमरकांत हिंदी कहानी की प्रत्‍येक त्रयी को कहानी के कफ, पित्‍त और वात के नाम से पुकारा करते थे। अमरकांत सूफी महात्‍माओं की तरह सब व्‍यसनों से दूर थे, इसलिए अपने मित्रों की डार (पंक्‍ति) से बिछुड़ गए थे। शराब-कबाब की पार्टियों में न वह जाते थे न कोई उन्‍हें बुलाता था। जमाली की दोस्‍ती फुरसत पसंद बुजुर्गों से ज्यादा थी। बलवंत सिंह 'सरस्‍वती प्रेस' में अक्‍सर दिखाई देते, मगर सूरज ढलने के बाद परिंदों के साथ-साथ घर लौट जाते।

जमाली से मेरा बहुत पुराना परिचय था। मैं उसे उन दिनों से जानता था, जब वह प्रिंस सतीश के नाम से कविताएँ लिखा करता था। बाद में वह सोनीपत में एटलस साइकिल फैक्‍टरी में काम करने लगा और बीच-बीच में दिल्‍ली आया करता था। साइकिल बनानेवाली कंपनी से वह अचानक 'कहानी' में कैसे पहुँच गया, इसकी जानकारी मुझे आज तक नहीं है। यकायक उसने अपना चोला बदल लिया और प्रिंस सतीश से सतीश जमाली हो गया। भैरव जी की सोहबत का उस पर इतना असर हुआ कि अपनी एक कहानी में उसने छात्रों द्वारा पूरी सिविल लाइंस जलवा कर राख कर दी थी। इस दंगे-फसाद में 'सरस्‍वती प्रेस' का कार्यालय बच गया था या उसने किसी युक्‍ति से बचा लिया था। भला अपनी रोजी-रोटी पर कौन लात मारता है। जेठ की दुपहरी में वह 'सरस्‍वती प्रेस' के कार्यालय में मक्‍खी की तरह प्रूफ की गलतियाँ मारा करता था। वक्‍त जरूरत वह अनुवाद का काम भी करता था। उन दिनों उसने उर्दू के अनेक महत्‍वपूर्ण उपन्‍यासों का हिंदी में अनुवाद किया था। वह प्रकाशक की हैसियत देख कर अनुवाद का पारिश्रमिक तय करता था। पारिश्रमिक के अनुरूप अनुवाद का स्‍तर रहता। एक बार किसी प्रकाशक ने उससे आठ आने प्रति पृष्‍ठ की दर से अनुवाद कराया, जमाली ने अनुवाद भी अठन्‍नी छाप किया। उसकी एक बानगी देखिए : अहमद की आँखों से आँसू बहने लगे का उसने अनुवाद किया - अहमद के नयनों से अश्रु बहने लगे। कुत्‍ते के पिल्‍ले का उसने तर्जुमा किया, कुत्‍ते का पुत्र।

उस दिन जमाली के यहाँ अच्‍छा-खासा जमघट था। पोलित ब्‍यूरो के सभी स्‍थायी सदस्‍य तो उपस्‍थित थे ही, मुझ जैसे दो-एक कथाकार विशेष अतिथि के रूप में आमंत्रित थे। आमंत्रित सदस्‍यों को देख कर पोलित ब्‍यूरो बहुत नाखुश हुआ। ले-दे कर रम की एक ठो बोतल थी और प्‍यासों की संख्‍या बढ़ती जा रही थी। गनीमत यही थी कि मैं घर से खाली पेट नहीं निकला था। मेरी माँ ने मुझे बचपन से ही सिखाया था कि किसी के भी घर खाली पेट और खाली जेब नहीं जाना चाहिए। उनकी नसीहत में मैंने सुविधानुसार थोड़ी तरमीम कर ली थी। मैं दावत में भी खाली पेट नहीं जाता था, उसमें अन्‍न के स्‍थान पर दारू ही क्‍यों न हो। मैं पहुँचा, तो महफिल उरूज पर थी।

उन दिनों भैरव जी का बहुत दबदबा था। अभी हाल में डॉ. विश्‍वनाथ त्रिपाठी ने उन्‍हें 'सोंटा गुरू' के नाम से याद किया है। भैरव जी नई कहानी आंदोलन के प्रमुख संपादक रहे थे और नए कथाकारों की एक समर्थ पीढ़ी उन्‍होंने तैयार की थी। भैरव जी कथाकारों के बीच उठते-बैठते तो उनकी क्‍लास ले लेते। विश्‍वनाथ त्रिपाठी ने ठीक ही लिखा है कि 'सोंटा गुरू की बात का कोई बुरा नहीं मानता था, और पलट कर जवाब या तो नहीं देता था या जवाब देते समय खिसियानी मुद्रा बना लेता था - 'भैरव जी आप हैं, अब क्‍या कहूँ कोई दूसरा होता तो जवाब देता।''

सच तो यह है कि साठोत्‍तरी पीढ़ी ही एक ऐसी पीढ़ी थी, जो भैरव जी को न केवल पलट कर जवाब दे देती थी बल्‍कि वक्‍त आने पर उनका विरोध भी दर्ज कराती रहती थी। वास्‍तव में साठोत्‍तरी पीढ़ी के प्रति भैरव जी एक विमाता की तरह व्‍यवहार करते थे। भैरव जी साठोत्‍तरी पीढ़ी को उच्‍छृंखल, व्‍यक्‍तिनिष्‍ठ और आधुनिकता से त्रस्‍त कुंठित एवं अमूर्त रचनाकारों की पीढ़ी मानते थे। हम लोगों ने भी भैरव जी के सामने कभी घुटने नहीं टेके। उनका डट कर मुकाबला किया। एक बार तो हम लोगों ने रात भर उनके घर के सामने धरना दिया था। इस घटना का मैंने ज्ञानरंजन पर संस्‍मरण लिखते हुए जिक्र किया था :

मैं और ज्ञान सिविल लाइंस में टहल रहे थे कि अचानक दूधनाथ नमूदार हुआ। भैरव जी ने साठोत्‍तरी पीढ़ी के कथाकारों को हरामियों की पीढ़ी कह दिया था और वह इस बात पर उत्‍तेजित था। वह गुस्‍से में पत्‍ते की तरह काँप रहा था। उसने बताया कि अभी अमरकांत, शेखर जोशी और मार्कंडेय के साथ टहलते हुए भैरवप्रसाद गुप्‍त ने यह घोषणा की है।

'हम लोगों को फौरन से पेश्‍तर इस बात का माकूल जवाब देना चाहिए।' दूधनाथ ने कहा, 'पूरी पीढ़ी का स्‍वाभिमान और अस्‍मिता दाँव पर लग गई है। मैं अकेला पड़ गया वरना वहीं गिरेबान पकड़ लेता।'

ज्ञान हँसा, उसने कहा, 'दूधनाथ तुम संघर्ष करो हम तुम्‍हारे साथ हैं।'

दूधनाथ इस प्रतिक्रिया से संतुष्‍ट नहीं हुआ। उसने कहा, 'इसका मुँहतोड़ जवाब देना चाहिए। आप लोग इस बात की गंभीरता को नहीं समझ रहे हैं।'

'क्‍या करना चाहिए?' ज्ञान ने पूछा।

'फासिस्‍ट शक्‍तियों का डट कर मुकाबला करना चाहिए।' गुस्‍से में दूधनाथ का खून खौल रहा था।

'क्‍या करना चाहिए?' ज्ञान ने पूछा।

'माकूल जवाब देना चाहिए।'

ज्ञान ने दूधनाथ की शोचनीय स्‍थिति देखी तो तुरंत नेतृत्‍व सँभाल लिया और बोला, 'चलो, ढूँढ़ते हैं उन लोगों को। अभी निपट लेते हैं।'

हम लोगों ने सिविल लाइंस की तमाम सड़कें छान मारीं, लेकिन भैरव एंड पार्टी कहीं नजर न आई।

'मैं तो रात भर सो न पाऊँगा, अपमान की ज्‍वाला में जल कर राख हो जाऊँगा।' दूधनाथ ने कहा।

'चलो भैरव का घिराव करते हैं।' ज्ञान ने अपना फैसला सुनाया, 'उन्‍हें अपने शब्‍द वापिस लेने होंगे।'

तय पाया गया कि वहीं सिविल लाइंस में भोजन किया जाए, उसके बाद हम तीन यानी ज्ञान, दूधनाथ और मैं भैरव का घेराव करें। रात के लगभग दस बज चुके थे जब हम लोग लूकरगंज स्‍थित भैरव दादा के निवास पर पहुँचे।

'कहानी के स्‍तालिन को जगाओ। कुछ हरामी उनसे मिलने आए हैं।' ज्ञान ने ललकारा।

जवाब में घर की सारी बत्‍तियाँ गुल हो गईं। हम लोग बाहर मैदान में घास पर बैठ गए और तय किया कि रात भर न सोएँगे न भैरव दादा को सोने देंगे। बीच-बीच में हम तीनों में से कोई न कोई पुकार उठता, 'भैरव प्रसाद गुप्‍त बाहर आओ।' या 'हिम्‍मत हो तो बाहर आओ।'

लेकिन भैरव जी बाहर नहीं निकले। उनकी नींद में खलल जरूर पड़ा होगा। सुबह जब पेड़ों पर परिंदे चहचहाने लगे तो हम लोगों ने अपना विरोध दर्ज कराते हुए धरना उठा लिया। मुझे याद नहीं, उस रात हम लोगों ने धरना देने से पहले मद्यपान किया था या नहीं। नहीं किया होगा, क्‍योंकि उन दिनों एक दिन पी कर कई दिनों तक नशा रहता था। भैरव जी के लूकरगंजवाले घर की आज भी याद है। कुछ-कुछ मुंबई के वर्सोवा और जुहू की तटवर्ती झुग्‍गी झोपड़ियों जैसा जहाँ देशी शराब की भट्टियाँ पाई जाती थीं। जाने मेरे दिमाग में घर की ऐसी छवि क्‍यों बनी हुई है, जबिक लूकरगंज में न समुद्र था न नारियल के ऊँचे-ऊँचे पेड़।

जब मैं जमाली के यहाँ दावत में पहुँचा तो भैरव जी का प्रवचन चल रहा था। मेरे पहुँचने पर बातचीत में खलल पैदा हो गया। भैरव जी ने हिकारत से मेरी तरफ देखा, जैसे कट्टर मार्क्‍सवादी किसी घोर प्रतिक्रियावादी की तरफ देखता है। उन्‍होंने एक लंबा घूँट भरा और मेज पर गिलास रख कर क्षणभर के लिए आँखें मूँद लीं। मेरा परिचय तो वह अपनी निगाहों से ही दे चुके थे। उसमें जो कसर रह गई थी, उसकी भी क्षतिपूर्ति कर दी, 'देखो जी, यह हैं रवींद्र कालिया। मैं जब तक संपादक रहा, इनकी एक कहानी न छपने दी। मैं इनका नाम देखते ही कहानी लौटा देता था।'

भैरव जी की बात सही थी। मैंने पंजाब से उनके पास अपनी दो-तीन कहानियाँ भिजवाई थीं। कहानी लौटने में उतना ही समय लगता था, जितना डाक को आने-जाने में लगता है। जब तक भैरव जी संपादक रहे, मेरी कहानियाँ नॉटी बाल (रबर की गेंद जो फेंकने पर दुगुने वेग से लौटती है) की तरह वापिस आ जातीं। बाद में जब मैं अपनी उन्‍हीं दो-तीन अस्‍वीकृत कहानियों की पूँजी के साथ दिल्‍ली पहुँचा तो भैरव जी 'नई कहानियाँ' से अलविदा हो कर इलाहाबाद लौट चुके थे। भैरव जी के स्‍थान पर कमलेश्‍वर ने 'नई कहानियाँ' की बागडोर सँभाल ली थी। मैंने अपनी तमाम अस्‍वीकृत कहानियाँ कमलेश्‍वर को सौंप दीं। कमलेश्‍वर ने सबसे पहले भैरव जी द्वारा अस्‍वीकृत मेरी कहानी 'नौ साल छोटी पत्‍नी' प्रकाशित की। वह 'नई कहानियाँ' के उस अंक की प्रथम कहानी थी। उस कहानी के छपते ही मैं रातों-रात नए कथाकार के रूप में स्‍थापित हो गया। देखते-ही-देखते अनेक भाषाओं में उसका अनुवाद हो गया। मैं उन दिनों 'भाषा' के संपादकीय विभाग से संबद्ध था, दरियागंज में दफ्तर था। राजकमल प्रकाशन का कार्यालय भी वहीं दफ्तर के पास था। अक्‍सर कमलेश्‍वर बुलवा भेजते कि भोपाल से दुष्‍यंत कुमार आए हैं या इलाहाबाद से लक्ष्‍मीनारायण लाल या गाजियाबाद से से.रा. यात्री, ये लोग आपसे मिलना चाहते हैं। ये लोग मेरी कहानी की चर्चा करते तो मुझे विश्वास न होता। भैरव जी की अस्‍वीकृति के सदमे से मैं जल्‍द ही उबर गया। सबसे अधिक आश्‍चर्य तो तब हुआ जब रविवार की एक सुबह डॉ. देवीशंकर अवस्‍थी, अजित कुमार, विश्‍वनाथ त्रिपाठी, मलयज आदि 'नई कहानियाँ' में छपा मेरा मॉडल टाउन का पता देख कर मिलने चले आए। मैं कभी उनको और कभी अपने को देखता। मालूम हुआ, विश्‍वनाथ त्रिपाठी पड़ोस में ही रहते हैं, उनकी और हमारे घर की दीवार मिली हुई थी। मेरे लिए वे अविस्‍मरणीय क्षण थे। सबसे ज्‍यादा तो मार्कंडेय के पत्र ने अचंभे में डाल दिया जो उन्‍होंने 'माया' के वृहत कथा विशेषांक के लिए कहानी आमंत्रित करते हुए लिखा था। मुझे मालूम था मार्कंडेय भैरव जी के गिरोह के सिपहसालार है। आज के कथाकार उस माहौल की कल्‍पना ही नहीं कर सकते। वह तो जैसे कहानी का स्‍वर्णयुग था। ज्ञान, दूधनाथ, काशी और मैंने दो-एक कहानियों से पहचान बना ली थी।

इलाहाबाद आने से पूर्व ही साठोत्‍तरी कथाकार के रूप में मेरी पहचान बन चुकी थी। मगर भैरव जी इतने वर्षों बाद भी मुझे कथाकार के रूप में स्‍वीकार न कर रहे थे। जमाली ने जल्‍दी से उनके लिए पेग तैयार किया कि कहीं बातचीत में कोई व्‍यवधान न आ जाए। भैरव जी ने अपनी बात जारी रखी - 'यह महाशय, उन दिनों लुधियाना से कहानी भेजा करते थे।'

'लुधियाना से नहीं, जालंधर से।' मैंने उन्‍हें बीच में टोका।

'मोहन राकेश भी उन दिनों वहीं था। मैंने सोचा, यह उसी का कोई दुमछल्‍ला है।' भैरव जी ने प्रश्‍नवाचक दृष्‍टि से मेरी ओर देखते हुए पूछा, 'कहो जी, मैं गलत कह रहा हूँ?'

'आप एकदम सही फरमा रहे हैं।' मैंने जमाली से अपना पेग थामते हुए कहा, 'आप मेरी कहानियाँ लौटा देते थे, क्‍योंकि आप तब तक अप्रासंगिक हो चुके थे। मुआफ कीजिएगा, इसी वजह से आपकी नौकरी छूट गई थी।'

महफिल में सन्‍नाटा खिंच गया। भैरव जी को चुनौती देने का साहस किसी में नहीं था और न ही भैरव जी ऐसा जवाब सुनने के अभ्‍यस्‍त थे। इलाहाबाद में अपनी लेखकीय उपस्‍थिति दर्ज कराने के लिए मुझे इलाहाबादी तेवर में इस नाजुक स्‍थिति से निपटना था। मुझे आशा थी कि मेरी बात सुन कर भैरव जी के झंडाबरदार मुझे दबोच लेंगे। मगर मार्कंडेय ने मुँह पर हाथ रख लिया और बीच-बीच में कनखियों से मेरी तरफ देख लेते। बाकी लोग 'मजा तत्व' का रसपान कर रहे थे।

माहौल को अपने अनुकूल पा कर मैंने अपना हमला जारी रखा, 'आप अपने-आपको बहुत बड़े प्रगतिशील चिंतक, रचनाकार और संपादक मानते हैं, मगर आपकी कथनी और करनी में जमीन-आसमान का फर्क है। आप राशन का अमरीकी गेहूँ खाते हैं और कहानी लिखते हैं - 'मैं पी.एल.480 नहीं खाऊँगा', खुद भरपेट खाते हैं और अपने पात्रों को भूखा मार रहे हैं।'

मैंने देखा, मेरी बातों से लोगों का काफी मनोरंजन हो रहा था। भैरव जी भी इस आकस्‍मिक विस्फोट के लिए तैयार नहीं थे। वह सिगरेट का लंबा कश भरते हुए बोले, 'रुक क्‍यों गए जी, बकते जाइए।' जमाली ने फौरन भैरव जी का पेग तैयार किया और उन्‍हें थमा दिया। भाई लोगों की कोशिश थी कि संवाद जारी रहना चाहिए। मैंने भी मन-ही-मन तय कर लिया था कि आज भीतर की सारी भड़ास निकाल दूँगा। मैंने अपना लक्ष्‍य निर्धारित किया - 'न डरौ अरि सौं, जब जाए लरौं, निश्‍चय कर अपनी जीत करौं।'

भैरव जी घूँट भर रहे थे और शेर की तरह गुर्रा रहे थे। उन्‍होंने सोचा होगा, उनके सिपहसालार थोड़ी ही देर में मुझे दबोच लेंगे और मैं दुम हिलाने लगूँगा। मगर सिपहसालार खामोश थे, मेरी स्‍थिति भिन्न थी। मुझे इलाहाबाद में रहना था और इसी बिरादरी में रहना था और स्‍वाभिमानपूर्वक रहना था। मैंने मेज पर से रम की बोतल उठा ली और रैपर पढ़ते हुए बोला - 'किसी भी जिम्‍मेदार नागरिक का सिर शर्म से झुक जाएगा, जब उसे पता चलेगा कि हिंदी कहानी का स्‍वनामधन्‍य शीर्ष संपादक मिलेट्री की कैंटीन से स्‍मगल की हुई 'रम' पीता है। 'गंगा मैया' का प्रगतिशील लेखक देश की बफीर्ली सीमाओं पर तैनात जवानों के हिस्‍से की 'रम' पी जाएगा, मैं तो इसकी कल्‍पना भी नहीं कर सकता।'

मुझ पर झक सवार हो गई थी। शराब मेरे सिर पर चढ़ कर बोलने लगी थी। यह इलाहाबाद की खासियत है कि यहाँ सबको सबके बारे में सब कुछ मालूम रहता है। बतरस यहाँ का मूल रस है। विश्‍वनाथ त्रिपाठी के शब्‍दों में इस बात को यों कहा जा सकता है कि 'जैसे घर में छोटे भाई की बहुत दिनों के बाद औलाद होने पर मनोरंजक बातें, खुसुर-पुसुर होती है, वैसे ही इलाहाबादी मित्र करते थे।' इसी खुसुर-पुसुर से मुझे पता चला था कि भैरव जी जितने प्रगतिशील हैं, उससे बड़े स्‍वर्ण प्रेमी हैं। वह हर माह सोना जरूर खरीदते हैं, चाहे एक ग्राम ही क्‍यों न खरीदें। भैरव जी के स्‍वर्ण प्रेम के बारे में स्‍वर्गीय वाचस्‍पति पाठक बहुत विस्‍तार से बताया करते थे। सुनारों के यहाँ मँडराते हुए उन्‍हें मैंने भी देखा था। रानी मंडी इलाहाबाद का झावेरी बाजार है, यहाँ छोटे-बड़े ज्‍वैलर्स के दसियों शो रूम हैं और रानी मंडी में सोने के जेवर बनानेवाले कारीगरों की दसियों दुकानें हैं। वे दिन भर राख फूँकते, जेवर बनाते और शाम को राख तक बेच देते। सुबह-सुबह बहुत से जमादार रानी मंडी की नालियों में स्‍वर्णकण ढूँढ़ते हुए मिल जाएँगे। चलनी मे राख बीनने का काम दिन चढ़े तक चलता है। भैरव जी जब 'माया' के संपादक थे तो मुट्ठीगंज से सीधे साइकिल पर रानी मंडी की ओर चल देते। साइकिल पर ताला ठोंकते और किसी सुनार के स्‍टूल पर बैठ कर घंटों बतियाते।

कई बार हम दोनों की देखा-देखी हो जाती, मगर दोनों देख कर भी अनदेखा कर जाते। वे सुनारों के यहाँ इतना छिप कर जाते, जैसे किसी तवायफ के यहाँ जा रहे हों। हमारी दुआ-सलाम भी न होती। कोठे का यही दस्‍तूर होता है। मुझे लगता है कि लगातार संघर्ष करते-करते असुरक्षा की भावना ने उन्‍हें स्‍वर्ण प्रेमी बना दिया था। शायद इसी असुरक्षा की भावना के तहत वह छद्‌म नाम से 'उसकी अँगड़ाई' जैसे फुटपाथी उपन्‍यास भी लिख दिया करते थे। ये तमाम बातें मुझे भैरव जी की शिष्‍यमंडली ने ही बताई थीं, मगर भैरव जी के सामने इन बातों का खुलासा करने का साहस किसी में नहीं था। अगर कभी भैरव जी रॉयल्‍टी के प्रश्‍न पर अपने प्रकाशक से भिड़ जाते तो उनके रवाना होते ही उनका प्रकाशक अत्‍यंत रस ले कर वह किस्‍सा बयान करने लगता कि जब भारत-चीन युद्ध के दौरान भैरव जी ने अपना तमाम सोना उसके लॉकर में रखवा दिया था। इस बात की भनक पाठक जी को लगी तो उन्‍होंने प्रकाशक को सुझाव दिया कि जब शांति स्‍थापित होने पर भैरव जी अपना सोना माँगें तो मुकर जाना।

इस बात का इतना प्रचार हो गया कि यह नाटक देखने के लिए प्रकाशक के यहाँ लेखकों की भीड़ जमी रहती। भैरव जी आते और लेखकों के सामने अपनी पोटली न माँग पाते। बैंक बंद होने का समय होता तो लौट जाते। एक दिन वह घर से तय करके आए कि आज तो अमानत वापिस ले कर ही लौटेंगे। वह प्रकाशक को अलग ले गए। योजना के अनुसार प्रकाशक ने वही किया जो पाठक जी के साथ तय था - 'भैरव जी आप क्‍या कह रहे हैं, कौन सा सोना? कैसा सोना?' भैरव जी लाल पीला होते रहे और भीतर लेखक बंधु इसका आनंद लेते रहे।

शराब के नशे में मैंने यह प्रसंग भी खोलना शुरू कर दिया, मार-पिटाई शुरू हो, इससे पहले ही सतीश जमाली ने फौरन खाना परोस दिया। बोतल पहले ही दम तोड़ चुकी थी। हस्‍बेमामूल जमाली की पत्‍नी ने बहुत लजीज भोजन तैयार किया था। कमरे में देशी घी की सुगंध चुगली खा रही थी कि आज दिन में वीपीपी से काफी रकम घर में आई है। साहित्‍य चर्चा और चख-चख पर विराम लग गया। भैरव जी चुपचाप खाना खाते रहे। कमरे में खामोशी थी।

दूसरे दिन सुबह-सुबह भैरव जी ने ममता को फोन किया कि कालिया पर कुछ लगाम लगाओ, वह बहुत पीने लगा है। यह अच्‍छा लक्षण नहीं है। इसका सेहत पर बुरा असर पड़ेगा। सबसे बुरी बात तो यह है कि वह पी कर बदतमीजी पर उतर आता है और छोटे-बड़े का भी लिहाज नहीं करता।

आज सोचता हूँ, भैरव जी ने सही सलाह दी थी। पीने के बाद मैं किसी गुस्‍सैल साँड़ की तरह बेकाबू हो जाता था। किसी से कुछ भी कह देता। लोग मेरी इस कमजोरी का फायदा उठाने लगे। किसी दूसरे लेखक को सबक सिखाना होता तो मुझे मोहरा बना लेते। मैं बखूबी अपना फर्ज सरअंजाम देता।

इसी दौर में अमरकांत जी के संपर्क में आया। यह कहना गलत न होगा कि गहन संपर्क में। वह उन दिनों 'मनोरमा' के संयुक्‍त संपादक थे और मित्र प्रकाशन का कार्यालय रानी मंडी से ज्यादा दूर नहीं था। वह दफ्तर से सीधे हमारे यहाँ चले आते और उनके साथ घंटों की नशिस्त होती। ममता और मैं इंतजार करते कि अमरकांत जी आएँ और हम लोग चाय पिएँ। सूर्यास्‍त के बाद मैं चाय नहीं पीता था। अमरकांत जी टीटोटलर थे। पीते नहीं थे, मगर पीनेवालों के बीच सबसे ज्यादा में नशे में नजर आते थे। धीरे-धीरे ये संबंध प्रगाढ़ होते चले गए। मैं सार्त्र, कामू, बैकेट आदि के प्रभाव में इलाहाबाद आया था, मैं अस्‍तित्‍व के बुनियादी दार्शनिक पहलू के बारे में ज्यादा चिंतित रहता था, अमरकांत जी ने धीरे-धीरे मेरे हवाई किलों को ध्‍वस्‍त करना शुरू किया और मेरा विमान जमीन पर उतारने लगे। प्रगतिशील जीवन मूल्‍यों के प्रति उनकी गहरी आस्‍था थी, मगर मैं यह भी देख रहा था, कि उनके इन कामरेड साथियों ने संकट में कभी उनका साथ नहीं दिया था, उन लोगों ने भी नहीं, जिन्‍होंने उनकी प्रारंभिक पुस्‍तकें प्रकाशित की थीं। अमरकांत जी में संतोष और धैर्य का समुद्र ठाठें मारा करता है। वे उन लोगों के बारे में भी कोई टिप्‍पणी नहीं करते थे, जिन्‍होंने उनकी पुस्‍तकें प्रकाशित की थीं और कभी रॉयल्‍टी नहीं दी थी। यहाँ तक की पीपुल्‍स पब्‍लिशिंग हाउस ने भी, जो भारतीय कम्‍युनिस्‍ट पार्टी का मुख्‍य प्रकाशन गृह था, उनके प्रथम उपन्‍यास 'सूखा पत्‍ता' की रॉयल्‍टी न दी थी, प्रगतिशील मित्रों की बात तो दरकिनार। उन्हीं दिनों मैंने उन पर एक ग्रंथ संपादित किया - अमरकांत। वह इतना 'लो की' में रहते थे कि उनको हाशिए में डाल दिया था। अमरकांत को ले कर अक्सर मेरा अश्क जी से विवाद हो जाता। अश्क जी का मत था कि अमरकांत संकोची, संकुल, संकुचित और संशयालु व्‍यक्‍तित्‍व के स्‍वामी हैं, मगर वह उनकी कहानियों के मुरीद थे। मुझे अमरकांत हमेशा एक संत की तरह लगते - न काहू से दोस्‍ती, न काहू से बैर। रानी मंडी चौक में था, कोई लेखक चौक आता तो हमारे यहाँ जरूर चला आता। शाम को अक्‍सर महफिलें सजतीं। बाहर से कोई लेखक आता तो वह भी रानी मंडी में जरूर दिखाई देता।

इसी प्रकार एक बार राजेंद्र यादव अपनी किसी महिला मित्र के साथ इलाहाबाद पधारे। वह कुछ इस अंदाज में आए थे जैसे इस क्षेत्र में भी उन्‍होंने मोहन राकेश और कमलेश्‍वर को मात दे दी है। अमरकांत ने बातचीत के केंद्र में केवल मन्‍नू भंडारी को ही रखा और राजेंद्र को किसी दूसरे विषय पर आने ही नहीं दिया। इलाहाबाद के तौर तरीके धीरे-धीरे मेरी समझ में भी आने लगे थे। अगर शाम को कोई लेखक रानी मंडी में नमूदार हो जाता तो अमरकांत की वाग्‍विदग्‍धता का प्रमाण जरूर मिल जाता। इलाहाबाद की एक और खासियत थी। बड़े से बड़ा लेखक भी निरभिमान रूप से नए लेखकों के यहाँ आने-जाने में संकोच न करता। अश्क जी तो अक्‍सर हमारे यहाँ या दूधनाथ सिंह के यहाँ दिखाई देते। अश्क जी खुसरो बाग से पैदल ही चले आते। नरेश मेहता भी कभी-कभार आते। उन्‍होंने मार्क्‍सवादी चोला उतार फेंका था और वैष्‍णवी रंग में अपना चोला रँग लिया था। इसके बावजूद उन्‍हें मदिरापान में संकोच नहीं था। हम लोग कई बार पूरी शाम उनकी कविताएँ सुनते। प्रेम का ऐंद्रिक स्‍पर्श भी उनकी कविताओं में रहता। दो-एक पेग के बाद तो नरेश जी का व्‍यक्‍तित्‍व प्रेम में सिक्‍त हो जाता। उनकी कविताओं से प्रेम की अनुभूतियाँ चूने लगतीं - टप-टप। एक बार नंदन जी ने 'सारिका' के लिए उनका इंटरव्यू लेने को कहा। मैंने उन्‍हें आमंत्रित किया। व्हिस्की की चुस्‍कियों के बीच उनसे बातचीत टेप कर ली गई। उस शाम भी अमरकांत उपस्‍थित थे। वह भी बीच-बीच में प्रश्‍न दाग देते। 'सारिका' में वह इंटरव्यू छपा तो उसकी व्‍यापक प्रतिक्रिया हुई। उस इंटरव्यू से नरेश जी के कोमल शांत व्‍यक्‍तित्‍व की कई पर्तें अपने आप खुलती चली गईं। कई लोग आहत भी हुए, क्‍योंकि नरेश जी की वैष्‍णव छवि कहीं-कहीं खंडित होती थी।

यहाँ उस नशीले इंटरव्यू की एक बानगी पेश करना अप्रासंगिक न होगा :

: नरेश जी , यह बताइए , इस उम्र में आपने जो प्रेम कविताएँ लिखीं हैं , इसके पीछे क्‍या राज है ?

नरेश मेहता : कोई राज नहीं, (हँसते हुए) वैसे एक राज है इसमें। जैसे मरने से पहले या बुझने से पहले दिया भभकता है...

: इतनी इंटेस प्रेम कविताएँ तो आपने युवावस्‍था में भी नहीं लिखी थीं।

नरेश मेहता : युवावास्‍था में आदमी प्रेम करता है, प्रेम लिखता नहीं।

: इन कविताओं को पढ़ कर एक खूबसूरत बंगाली महिला का चेहरा उभरता है।

नरेश मेहता : मेरे संपूर्ण लेखन में एक बंगाली गंध ही तो है। और क्‍या है?

: मत्‍स्‍यगंधा ?

नरेश मेहता : हाँ, यह ठीक है। मत्‍स्‍यगंधा। मैं एक बात बताता हूँ। देयर वाज ए लेडी। शी वाज बंगाली। मेरा दुर्भाग्‍य यह है कि...

: कि बंगाल ही आकर्षित करता है।

नरेश मेहता : जरूर, नॉन-बंगाली शायद ही कोई महिला मेरे संपर्क में आई हो।

: आपकी पत्‍नी भी बंगाली है ?

नरेश मेहता : नहीं।

: यह बताइए , पहला प्रेम आपने कब किया ? उसका आपके साहित्‍य पर क्‍या प्रभाव पड़ा ?

( एक लंबी आह भरते हैं।)

: संकोच मत कीजिए। इस उम्र में आप उत्‍तर देंगे तो आपकी पत्‍नी नाराज नहीं होंगी।

नरेश मेहता : मैं इस प्रश्‍न को यों कहना चाहूँगा कि पहला दूसरा कुछ नहीं होता। बस, सम लेडीज डिड ओब्‍लाइज मी। दे रियली एन्‍रिच्‍ड मी आलसो।

: कविताएँ पढ़ कर यही लगता है कि कोई महिला है जो आज भी आपको उसी प्रकार हांट करती है।

नरेश मेहता : आप स्‍वयं ही सोचिए, यदि आपने प्रेम के संगीत को समस्‍त इंद्रियों के साथ जिया है, तो क्‍या वह हांट नहीं करेगा?

: प्रेम को सेक्‍स से आप कितना अलग मानते हैं ?

नरेश मेहता : मैं बिलकुल अलग नहीं मानता। अगर सेक्‍स नहीं है तो प्रेम नहीं है।

: लेकिन शादी के बाद तो कठिनाई आ जाती है। सेक्‍स का ऐसा इस्‍तेमाल जो आप कह रहे हैं , क्‍या संभव है ?

नरेश मेहता : शादी के बाद अगर आप सेक्‍स के लिए किसी के पास जाते हैं तो आपसे बड़ा मूर्ख कोई नहीं, क्‍योंकि सेक्‍स का सुख स्‍त्री में नहीं है, आपमें है।

: अच्‍छा ?

नरेश मेहता : प्‍यारे सेक्‍स के स्‍तर पर वुमेन इज मीनिंगलेस।

: स्‍त्री अर्थहीन है। तब तो आत्‍मरति ही कहा जाएगा।

नरेश मेहता : तुम कुछ भी कहो, मुझे कोई आपत्‍ति नहीं, लेकिन यह सच है कि आई हैव टू वीकनेसेज। वन इज म्‍यूजिक एंड द अदर इज बंगाली।...

: हाँ तो आप एक बंगाली महिला के बारे में बता रहे थे।

नरेश मेहता : शी वाज रीयली ए नाइस वुमेन। शी वाज ए फ्रेंड ऑफ माई वाइफ। बल्‍कि एक जमाना तो यह था कि मैं और मेरी पत्‍नी अक्‍सर उसके यहाँ जाते थे। मगर बाद में जब कभी मैं कलकत्‍ता गया, उसके यहाँ नहीं गया (थोड़ा रुक कर) उस फूल को देख कर जो आनंद प्राप्‍त होना था, हो गया। अब उसे क्‍यों तोड़ा जाए।

: अब तो वह फूल मुर्झा चुका होगा। तोड़ने से आपका क्‍या अभिप्राय है ?

नरेश मेहता : टु प्‍लक द वुमन इज सेक्स, टु रिसपेक्‍ट द वुमेन इज लव। स्‍त्री को आप आदर नहीं देते तो आपका सेक्‍स मैथुन होगा, संभोग नहीं।

: संभोग से भी तो प्रेम उत्‍पन्‍न हो सकता है।

नरेश मेहता : संभोग, प्रेम, कला, साहित्य, संस्‍कृति अगर आप को किसी तरीके से उदात्‍त नहीं बनाते, विराट नहीं बनाते, तो बकवास है। मेरी पत्‍नी ने एक चीज को छोड़ कर - संगीत को - मेरी समस्‍त लालसाएँ पूरी की हैं। फार मी वुमेन एज सेक्‍स हैज नो मीनिंग। मेरे बारे में मेरी पत्‍नी जानती है कि मैं कई लोगों के संपर्क में आता हूँ। बट शी नेवर डाउटिड मी। अब तो यह स्‍थिति आ गई है कि...

: कि आप सुरक्षित रूप से प्रेम कविताएँ लिख सकते हैं

नरेश मेहता : शी नोज एवरीथिंग।

: लेकिन यह बहुत खतरनाक स्‍थिति है कि आप एक ओर पत्‍नी को पूरा आदर देते रहें , दूसरी ओर किसी अन्‍य महिला के बारे में भी अत्यंत भावुकता से सोचते रहें और उसकी स्‍मृति में कविताएँ लिखते रहें।

नरेश मेहता : मेरी पत्‍नी मुझ पर पूरा विश्‍वास करती है। (अपूर्ण)

नरेश जी के बारे में यह बताना भी जरूरी है कि वह अत्‍यंत सात्‍विक जीवन जीते थे। लूकरगंज में उनका छोटा-सा आश्रमनुमा घर था। महिमा जी घर की इतनी साफ सफाई रखती थीं कि वहाँ सिगरेट तक फूँकने में संकोच होता था। कुछ-कुछ ऐसा माहौल था जैसे किसी मंदिर का होता है - उनके घर का नाम ही होना चाहिए था 'घर एक मंदिर'। उनके यहाँ जाने पर लगता जैसे अभी-अभी नरेश जी पूजा से उठे हैं। उस माहौल में मद्यपान की तो कल्‍पना भी नहीं की जा सकती थी, जबकि लूकरगंज में ही भैरव जी का भी घर था। उनका घर भी सुव्‍यवस्‍थित था, मगर वहाँ अध्‍यात्‍म की धूपबत्‍ती नहीं जलती थी।

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मुझे शराब ने ही नहीं, पत्रकारिता और साहित्‍य ने भी जंगल भ्रमण करवाया। अशोक वाजपेयी से आप सहमत हों या नहीं, मगर यह सच है कि उन्‍होंने बीच-बीच में जंगलों में भी साहित्‍य की धूमी रमाई है। सिविल सेवा के प्रारंभिक वर्षों में उनकी तैनाती मध्‍य प्रदेश के दूरदराज इलाकों में होती रही। आज से लगभग तीस वर्ष पूर्व उन्‍होंने लेखकों की प्रथम गोष्‍ठी सीधी के जंगलों में आयोजित की थी। वह उन दिनों सीधी के कलेक्‍टर थे। किसी अफसर को वनवास लेना हो तो इससे बढ़िया जगह नहीं हो सकती। मध्‍य प्रदेश के बहुत से इलाके आज भी रेलमार्ग से कटे हुए हैं। राष्‍ट्र की मुख्‍यधारा से अलग-थलग पड़े हैं। सीधी भी ऐसी ही एक वन्‍य स्‍थली थी। सीधी रीवाँ से लगा है और रीवाँ इलाहाबाद का पड़ोसी मगर मध्‍य प्रदेश का नगर है। अशोक वाजपेयी की जंगल से निकलने की इच्‍छा होती तो वह इलाहाबाद चले आते। मेरा अशोक से कौटुंबिक रिश्‍ता कभी नहीं रहा, साहित्‍यिक संबंध शुरू से था। हालाँकि हम लोगों की दिशाएँ अलग-अलग थीं। वह आलोचना और काव्‍य के वृत्‍त से ताल्‍लुक रखते थे और मैं कहानी तक सीमित था। उन दिनों साहित्‍य में वैचारिक मतभेद जरूर थे, मगर इस तरह की खेमेबाजी न थी। उन दिनों दिल्‍ली में तमाम लेखक वैचारिक मतभेद के बावजूद आपस में मेलजोल रखते थे। अशोक ज्‍यादातर श्रीकांत वर्मा, निर्मल, अशोक सेकसरिया, महेंद्र भल्‍ला, प्रयाग के साथ नजर आते। ये लोग पढ़ाकू किस्‍म के अंतर्मुखी लोग थे और मेरी आमदोरफ्त राकेश, कमलेश्‍वर के यहाँ ज्यादा थी। नामवर भी रूपवादियों के बीच ज्यादा राहत महसूस करते थे। नेमि जी, सुरेश अवस्‍थी, नामवर सिंह में मित्रता थी।

उन दिनों निर्मल वर्मा, श्रीकांत वर्मा, महेंद्र भल्‍ला, प्रयाग शुक्‍ल आदि लड़कियों के झुंड की तरह सट कर चलते और बिरादरी से अलग-थलग रहने की कोशिश करते। निर्मल वर्मा की दुनिया बहुत मायावी थी, वह राकेश, कमलेश्‍वर के गद्य से भिन्‍न एक जादुई संगीतमई भाषा और हिंदी के लिए नितांत नया सिंटेक्‍स विकसित कर रहे थे। श्रीकांत वर्मा और महेंद्र भल्‍ला भी प्रचलित रूढ़ियों से हट कर लिख रहे थे। महेंद्र भल्‍ला की कहानी 'एक पति के नोट्स' उन दिनों खूब चर्चित हुई थी। राकेश, कमलेश्‍वर को इन लेखकों की एकांतिक दुनिया से सख्‍त एतराज था, उनका मत था कि ये लेखक वृहत्‍तर सामाजिक संदर्भों की अवहेलना कर जीवन से असंपृक्‍त लेखन कर रहे हैं, जिनकी रचनाओं में सामाजिक सरोकार नहीं के बराबर है। उन दिनों अशोक अधिक लचीले थे, उतने पूर्वग्रही भी नहीं थे।

अशोक इलाहाबाद आते तो हम लोगों की भेंट होती, मिल कर मौज-मस्‍ती करते। बाद के वर्षों में अशोक वाजपेयी ने जम कर साहित्‍यिक राजनीति और खेमेबाजी की। मैं कभी उनके खेमे में नहीं रहा, कहानी अथवा कथा साहित्‍य कभी उनकी चिंता का विषय नहीं रहा था, मगर इसके बावजूद हम दोनों के बीच कुछ ऐसा अदृश्‍य रिश्‍ता रहा कि कभी संवादहीनता की स्‍थिति नहीं आई। सन साठ के बाद हमारी दिल्‍ली में भेंट हुई थी और आज लगभग चालीस वर्ष के बाद भी हम पहले की तरह ही गर्मजोशी से मिलते हैं। सीधी में जब उन्‍होंने प्रथम आयोजन किया तो मुझे उनका निमंत्रित करना अत्यंत स्‍वाभाविक लगा। ममता उन दिनों मुंबई में थी, उसे भी निमंत्रण मिला। वह उन दिनों एस.एन.डी.टी. विश्‍वविद्यालय में पढ़ाती थी। होस्‍टल में रहती थी और खूब ऊबती थी। अशोक की गोष्‍ठी का निमंत्रण मिला तो बोरिया-बिस्‍तर उठा कर हमेशा के लिए इलाहाबाद चली आई। तय हुआ था कि वह मुंबई से सतना आएगी, सतना स्‍टेशन पर मैं उसे मिलूँगा और हम दोनों को ले कर एक जीप सीधी पहुँचेगी।

अलग-अलग रमणीक स्‍थानों पर गोष्‍ठियों का आयोजन किया गया था। कहीं इंतजाम में कोई त्रुटि न थी। कहा जा सकता है कि अशोक वाजपेयी शुरू से ही इंतजामे आली थे। कहीं नाश्‍ता, कहीं बियर, कहीं लंच, कहीं मदिरापान तो कहीं डिनर। हम लोग जहाँ भी जाते, साये की तरह साहित्‍य साथ-साथ चलता। इस मंडली में नामवर सिंह, भारतभूषण अग्रवाल, नेमिचंद्र जैन, श्रीकांत वर्मा, कमलेश, धूमिल, काशीनाथ सरीखे लेखक थे। कहीं भी उबाऊ किस्‍म के लंबे-चौड़े लेख नहीं पढ़े गए। अत्यंत अनौपचारिक रूप से बातचीत चलती रही, साहित्‍य में विकसित हो रही नई संवेदनाओं को रेखांकित किया गया। इसी शिविर में नए कवियों की रचनाओं के छोटे-छोटे संकलन प्रकाशित करने की योजना बनी। इस श्रृंखला का नाम खोजने में ही कई दर्जन बियर की बोतलें खाली हो गईं। अंततः 'पहचान' नाम पर सबकी सहमति हो गई। अगर मैं गलत नहीं हूँ तो यह नाम मैंने ही सुझाया था। बाद में सीरीज ने सप्‍तक श्रृंखला की तरह ध्‍यान आकर्षित किया था, और अनेक कवि इस श्रृंखला में शामिल होने के लिए लालायित रहते थे।

इसी शिविर में कमलेश जी से परिचय हुआ। एक गायबाना परिचय पहले से था। कमलेश जी लोहिया जी के निकटतम सहयोगियों में से रहे थे। कहीं-कहीं तो हम लोगों का काफिला रोक कर लोहियावादी समाजवादी युवजन उनका अभिनंदन व माल्‍यार्पण करते थे। पूरे क्षेत्र में उनके आने की खबर फैल चुकी थी। कमलेश अत्‍यंत साधारण रूप से रहते थे, लगभग फकीराना अंदाज में चप्‍पल चटकाते हुए। एक दिन शाम को टहलते हुए मैंने उनसे पूछा, 'चिति की लीला में प्रतीक का प्रकार्य' क्‍या होता है?

'यह क्‍या है?' कमलेश जी ने पूछा।

मैंने बताया कि यह 'आलोचना' में प्रकाशित डॉ. रमेशकुंतल मेघ के लेख का शीर्षक है। यह सुन कर कमलेश ने जो हँसना शुरू किया कि हम दोनों के पेट में बल पड़ गए। हम लोगों की जब भी आँखें मिलतीं हँसी फूट निकलती। धूमिल से भी इस शिविर में पहली बार मुलाकात हुई, काशीनाथ सिंह से मैं इससे पूर्व मिल चुका था। भारत जी तो मेरे चचिया ससुर थे, मगर हम दोनों एक दूसरे के सामने निःसंकोच धूम्रपान और मद्यपान करते। इस शिविर के दौरान हम लोगों ने जंगल का चप्‍पा-चप्‍पा छान मारा। कहीं किसी भटकी हुई नदी के किनारे बैठक हुई और कहीं किसी दूर-दराज डाक बंगले में। हर तरह पहले से प्रबंधकों का अग्रिम दल मौजूद रहता।

उन दिनों अशोक वाजपेयी 'जंगल-जंगल पर्वत-पर्वत गाता जाए बनजारा' की स्‍थिति में थे। जब-जब प्रशासनिक स्‍तर पर उन्‍होंने यथास्‍थितिवाद और अनियमितताओं से लोहा लिया, स्‍थानांतरण हो गया। उन दिनों अशोक प्रशासनिक अधिकारी के अकेलेपन की बात किया करते थे। एक सीमा तक व्‍यवस्‍था साथ देती, बाद में अकेला छोड़ देती जूझ मरने के लिए। इसी क्रम में वह सीधी से टेढ़ी यानी सरगुजा भेज दिए गए। इस उठापटक में साहित्‍य से उनका अनुराग और भी गहरा हो गया था।

सरगुजा पहुँचते ही उन्‍होंने 'संतन' को सरगुजा आमंत्रित किया। लगभग वही टीम वहाँ पहुँची। सरगुजा और भी दूरवर्ती क्षेत्र था। रेल की पहुँच वहाँ तक भी नहीं थी। एक लिहाज से अच्‍छा ही था। कच्‍चा जीवन यानी प्रकृति का आत्मीय साहचर्य। यह सन सत्‍तर के आस-पास की बात है। सरगुजा अत्यंत दुर्गम स्‍थान था। किसी तरह हम लोग अंबिकापुर पहुँचे। पहुँचने के बाद कोई समस्‍या नहीं। खाने-पीने और साहित्‍यिक जुगाली की उत्‍तम व्‍यवस्‍था। सरगुजा में उन दिनों छोटा-मोटा तिब्‍बत भी बसा था। तिब्‍बती शरणर्थियों के बीच भी हम लोगों ने एक भरपूर दिन बिताया।

उस शिविर में नेमि जी भी थे। उनके मुकाबले भारत जी कहीं अधिक देशज थे। नेमि जी विशिष्‍ट अतिथि थे, साहित्‍यिक और पारिवारिक दोनों दृष्‍टियों से। यहाँ वे रचनाकार के साथ-साथ मेजबान के ससुर भी थे। उन दिनों निर्मल वर्मा का भाषा का जादू सिर चढ़ कर बोलता था। निर्मल ने हिंदी को एक नया गद्य दिया था, नया मुहावरा दिया था, रागात्‍मकता की नई परिभाषा प्रस्‍तुत की थी। भाषा और गद्य के स्‍तर पर जितना परिष्‍कार और तोड़फोड़ निर्मल और श्रीकांत वर्मा ने की थी, उससे गद्य में एक ताजगी आ गई थी। भाषा और संवेदना के स्‍तर पर एक नए संस्‍कार की सृष्‍टि हो रही थी। निर्मल वर्मा हिंदी के पहले कथाकार थे जिन की कहानियों के कई अंश मुझे लड़कपन में गजल की तरह कंठस्‍थ थे। श्रीकांत तो चलते-फिरते ज्‍वालामुखी थे, उनके भीतर से लावा की तरह कविता फूटती थी। वह देखने में जितने चुप्‍पे और अंतर्मुखी लगते थे, अभिव्‍यक्‍ति में उतने ही प्रखर, बल्‍कि कभी-कभी उद्दंड हो जाते थे।

उन दिनों श्रीकांत वर्मा 'दिनमान' के संपादकीय विभाग से संबद्ध थे और मैं भी उसी प्रतिष्‍ठान से लौटा था। एक गोष्‍ठी में श्रीकांत जी ने बगावती किस्‍म का वक्‍तव्‍य दिया। उन्‍होंने धर्मवीर भारती पर भी कुछ आक्षेप किए। जब तक मैं 'धर्मयुग' में रहा साहित्‍य और कला के पृष्‍ठ मैं ही देखा करता था। रचनाओं के साथ लेखकों के पत्र पढ़ने का अवसर भी अनायास मिल जाता था। श्रीकांत ने अत्यंत सधे ढंग से समकालीन परिदृश्‍य पर अपने विचार रखे थे, मगर मुझे उनके वक्‍तव्‍य और उनके भारती के नाम लिखे पत्रों में स्‍पष्‍ट विरोधाभास दिखाई दिया। नशे की झोंक में उनके वक्‍तव्‍य के बाद मैंने कह दिया कि श्रीकांत जी की कथनी और करनी में बड़ा अंतर है। लेखक से एक विषयगत ईमानदारी की अपेक्षा तो करनी ही चाहिए। श्रीकांत जी ने गोष्‍ठी में जो विचार व्यक्त किए हैं वह उनके उन विचारों से भिन्‍न हैं जो वह भारती जी को लिखते रहे हैं। गोष्‍ठी में सन्‍नाटा खिंच गया। भद्र समाज में जैसे मुझ जैसा कोई मूढ़ और गँवार अनाधिकृत रूप से प्रवेश पा गया हो। श्रीकांत का बहुत दबदबा था। श्रीकांत जी ने मेरी बात का कोई उत्‍तर नहीं दिया, नेमि जी उनके बचाव के लिए सामने आए और उन्‍होंने मेरी स्‍थापना पर गंभीर असहमति दर्ज कराते हुए इसे अत्यंत दुर्भाग्‍यपूर्ण कहा। श्रीकांत ऐसे श्रीहीन हो गए जैसे किसी ने छुईमुई का पौधा छू दिया हो। अचानक वह उठे और बहिर्गमन कर गए, उससे अभिजात वर्ग के लेखकों के बीच मेरी स्‍थिति और भी दयनीय हो गई। श्रीकांत जी अपने कमरे में बंद हो गए और अंदर से सिटकनी भी लगा ली। कमरे की बत्‍ती भी बुझा दी। मुझे नेमि जी का हस्‍तक्षेप नागवार गुजरा। बाद में इलाहाबाद लौट कर मैंने पत्र में अशोक से अपनी असहमति और नाराजगी भी व्‍यक्‍त की। अशोक ने लिखा था कि मेरी शिकायत उन्‍होंने नेमि जी तक पहुँचा दी है।

कमलेश और श्रीकांत एक ही कमरे में ठहरे थे। कमलेश भी श्रीकांत जी से ऐसे व्‍यवहार की अपेक्षा न कर रहे थे। मेरी तरह वह भी हतप्रभ थे। मुझे बहुत ग्‍लानि हुई कि मैंने बेवजह माहौल को बेमजा कर दिया। श्रीकांत जी से मेरा पुराना रिश्‍ता था। कई बार मैं उनके यहाँ नार्थ एवेन्यू में भी गया था। वे स्‍वयं बहुत तीखी टिप्‍पणियाँ करते थे। एक बार मैंने डॉ. मदान के हवाले से कहीं लिख दिया था कि श्रीकांत बहुत अच्‍छे रचनाकार हैं, मगर बालों में इतना तेल क्‍यों चुपड़ लेते हैं। तब उन्‍होंने बुरा नहीं माना था। उनसे हल्‍की-हल्‍की छूट न मिली होती तो मैं अनौपचारिक रूप से कुछ भी कहने में संकोच करता।

श्रीकांत जी के कमरे के बगल में ही हमारा कमरा था। कमलेश हमारे यहाँ बैठे रहे। उन दिनों कमलेश को पीने में संकोच नहीं था, बाद में तो सुना अत्यंत शुचितावादी हो गए थे, खाना तक खुद बनाने लगे थे। पहली ही मुलाकात में हमारी दोस्‍ती हो गई थी। जब खाने की मेज पर भी श्रीकांत न आए तो मुझे बहुत अपराधबोध हुआ। मैंने कमलेश से अनुरोध किया कि श्रीकांत जी को खाने पर ले आएँ, मगर उन्‍होंने कहा कि वह जोखिम नहीं उठा सकते। हाथ में गिलास थामे मैं अपने को काफी अटपटी स्थिति में पा रहा था, श्रीकांत जी ठीक बच्‍चों की तरह रूठ गए थे। रूठे हुए बीवी-बच्‍चों को मनाना मुझे आज तक नहीं आया। आखिर मैंने तय किया कि स्‍वयं जा कर उनसे भोजन करने का अनुरोध करूँगा। मैंने गिलास से ही उनका दरवाजा खटखटाया। भीतर कोई हलचल न हुई। मैंने दुबारा दरवाजा खटखटाया। इस बार अंदर की बत्‍ती जली। कुछ देर बाद श्रीकांत जी ने दरवाजा खोला। वह शायद मुँह धो कर आए थे और तौलिए से पोंछ रहे थे। बिस्‍तर के पास ही उनका गिलास पड़ा था, जस का तस। मैं बिस्‍तर के पास पड़ी कुर्सी पर बैठ गया।

'मुझे अफसोस है कि मेरी बात से आपको तकलीफ हुई।' मैंने कहा।

श्रीकांत जी ने अपनी उनींदी आँखों से मेरी ओर देखा। मैंने गिलास उठाते हुए उन्‍हें चियर अप किया - 'चियर्स।' उन्‍होंने बेमन से गिलास उठाया और दो-एक घूँट ले कर रख दिया।

'चलिए, बाहर सब लोग भोजन पर आपकी प्रतीक्षा कर रहें हैं। मैंने कहा।

'चलिए।' श्रीकांत जी ने कहा और हम लोग खाने के कमरे में पहुँचे। तमाम लोग हम दोनों को सामान्‍य और साथ-साथ देख कर हैरान रह गए। मैंने श्रीकांत जी को उनके मित्रों के हवाले किया और खुद अपनी थाली ले कर वहाँ से हट गया। मुझे श्रीकांत जी से कोई गिला नहीं था मगर नेमि जी का हस्‍तक्षेप बहुत खल गया था। दरअसल मैं दो-एक पेग के बाद प्रायः उन्‍मुक्‍त हो जाया करता था और जुबान पर कभी सेंसर नहीं लगाया था। मगर किसी प्रकार का दुर्भाव मन में नहीं रहता था, शराबी के मन में रहता भी नहीं। वह मुक्‍त हो जाता है - बेफिक्र। मैंने इस स्‍थिति का सदैव आनंद ही उठाया, अगर तीर छोड़े तो सीने पर बर्दाश्‍त भी किए। मगर इस भद्र समाज का दस्‍तूर दूसरा था। जो मेरी फकीर तबीयत को रास नहीं आ रहा था। शायद यही कारण है कि मैंने अपने जैसे फक्‍कड़ और मलंग दोस्‍तों के साथ ही अच्‍छी शामें बिताई हैं। बातचीत में कोई ऊँच-नीच हो गई तो सुबह तक स्‍लेट साफ। पिछली शाम का कोई हैंगओवर नहीं।

मैंने पाया था इन जंगल गोष्‍ठियों में मैं, काशी और धूमिल अपने को काफी कटा हुआ महसूस करते थे। अवकाश मिलते ही हम लोगों की अलग अंतरंग बैठकें होतीं थीं। धूमिल से मेरा प्रथम परिचय इन्‍हीं जंगलों में हुआ था। उसके स्‍वभाव में भी एक फक्‍कड़पन था, जो बहुत अपना लगता था। बहुत सलीके के बीच मैं रह ही नहीं सकता, बेचैन होने लगता हूँ। अक्‍सर जब भी मैं किसी पाँच सितारा होटल में गया हूँ सबसे पहले मेज पर से छुरी काँटे ही हटवाए हैं और वह भी इस अंदाज में कि आस-पास की मेजों पर डटे संभ्रांत लोग भी छुरी काँटे का उपयोग करने में संकोच करने लगें। मेरी हरकतों से कई बार तो मेरा मेजबान भी परेशान हो उठा है। यहाँ पर अपनी अरुचियों और विकषर्णों यानी नादानियों का जिक्र करना अप्रासंगिक न होगा। इसकी मेरे पास ढेरों मिसालें हैं, मगर दो-एक की झलक पेश करने में हर्ज न होगा। कायदे कानून, सलीके और शिष्‍ट किस्‍म के लोगों से मेरी अंतरंग मित्रता कम ही हो पाती है, अशोक वाजपेयी जैसे धाकड़ मित्र अपवाद हैं। उनमें राजा बेटा के ज्यादा गुण नहीं, कुछ दुर्गुण भी हैं यानी वह डाइनिंग टेबिल पर भोजन करवाएँगे तो दरी पर बैठ कर दारू भी पिला सकते हैं। रश्‍मि जी बहुत सुरुचिपूर्वक भोजन परोसती थीं। उनकी कोशिश रहती थी, खाने में कोई कमी न रह जाए। बगैर किसी चूक के स्‍वीट डिश की भी व्‍यवस्‍था रहती। जिन्‍होंने जीवन भर स्‍वीट डिश के नाम पर केवल गुड़ खाया हो उनके लिए उम्‍दा साज-सज्‍जा के साथ कस्‍टर्ड की भव्‍य उपस्‍थिति केवल कौतुक जगा सकती है। रश्‍मि जी ने एक बार कस्‍टर्ड को नन्‍हीं बच्‍ची की तरह सजाया था। उसके ऊपर सुर्ख चैरी की टोपी रिबन की तरह आकर्षित कर रही थी। मैं कस्‍टर्ड के रूप लावण्‍य पर मुग्‍ध हो गया। इसे संयोग ही कहा जाएगा कि सबसे पहले मुझे ही स्‍वीट डिश पेश की गई। मैंने कस्‍टर्ड तो लिया ही, तश्‍तरी में इठला रही चैरी का भी हरण कर लिया। कस्‍टर्ड की तश्‍तरी एकदम बेरौनक हो गई। रश्‍मि जी का चेहरा उतर गया। मुझे बहुत अफसोस हुआ। अब मैं अपनी तश्‍तरी से उठा कर उसे दुबारा ट्रे में भी नहीं रख सकता था।

श्रीकांत अपने लेखन में जितना दबंग और आक्रामक लगते थे, उनसे मिल कर विपरीत प्रभाव पड़ता था। मैंने उन्‍हें हमेशा अत्यंत संकोचशील, दब्‍बू और विनम्र ही पाया। उत्‍तेजित होते तो बच्‍चों की तरह उनके गाल सुर्ख हो जाते। शुरू में मैं दिल्‍ली गया तो नार्थ एवेन्यु में उनकी बरसाती में बहुत समय बिताया करता था। उनकी रचना में उनका जो तेवर नजर आता, वह मिलने पर दूर-दूर तक दिखाई न देता। अक्‍सर वह अपने से ही जूझते दिखाई देते। मेरा उनसे गहन संपर्क कभी नहीं रहा, मगर मैंने जब-जब संवाद किया, वह गर्मजोशी से मिले। आपातकाल में मैं ज्ञान की सलामती को ले कर चिंतित था। मध्‍य प्रदेश का एक वर्ग इस कोशिश में था कि किसी तरह ज्ञान आपातकाल की चपेट में आ जाए। उसके खिलाफ सरकार के पास आए दिन अभियोग पत्र भेजे जा रहे थे। मैं दिल्‍ली गया तो हिमांशु जोशी से श्रीकांत का फोन नंबर ले कर मिलाया। उन्‍होंने मश्‍वरा दिया कि 'पहल' का प्रकाशन स्‍थगित रखा जाए, क्‍योंकि दुश्‍मनों की निगाहें नए अंक पर टिकी हैं। 'पहल' उन दिनों मेरे प्रेस से ही मुद्रित होता था। सामग्री में ऐसा कुछ नहीं था, जो सत्‍ता की नजर में आपत्‍तिजनक हो, मगर मैंने श्रीकांत जी की राय मान कर 'पहल' का मुद्रण स्‍थगित कर दिया। ज्ञान जरूर भड़क गया, मगर मैंने इसकी चिंता न की। सुनयना जी को मैंने सारी स्‍थिति से जरूर अवगत करा दिया था।

इसके बाद मेरी श्रीकांत जी से दो मुलाकातें हुईं। तब तक वह राजनीति के शिखर पर पहुँच चुके थे। इंदिरा जी उन्‍हें पसंद करती थीं और वह उन्‍हें राज्‍य सभा ले गई थीं। वह मंत्रिपरिषद में भी शामिल हो गए होते, अगर एक गलतफहमी न पैदा हो गई होती। इस बात को मेरे अलावा बहुत कम साहित्‍यिक बंधु जानते होंगे। श्रीकांत जी को भी इसकी जानकारी न होगी कि उनसे क्‍या खता हो गई कि उनको मंत्रिपरिषद में स्‍थान न मिला। वह पर्यटन और संस्‍कृति विभाग में राज्‍यमंत्री होना चाहते थे। हो भी गए होते, मगर इस बीच किसी ने संजय गांधी को गलत सूचना दे दी कि श्रीकांत वर्मा न्‍यायमूर्ति जगमोहन सिन्‍हा के जाति भाई हैं। जब से इलाहाबाद उच्‍च न्‍यायालय के न्‍यायमूर्ति जगमोहन सिन्‍हा ने इंदिरा जी के खिलाफ फैसला सुनाया था, संजय गांधी उनके समूचे समाज के विरुद्ध हो गए थे और इसके पीछे एक गहरा षड्यंत्र देख रहे थे। मुझे इस बात की भनक जे.एन. मिश्र से लगी थी, जो उन दिनों संजय गांधी के सबसे विश्‍वस्‍त व्‍यक्‍ति थे।

ए.आई.सी.सी. में श्रीकांत के निजी सचिव ओझा मेरे अजीज थे। उन्‍हीं दिनों कमलेश जी के माध्‍यम से श्रीकांत जी ने मुझे बुलवाया था। उनसे मिलने के लिए मैंने ओझा को फोन किया तो उसने बताया कि श्रीकांत ने उसे पहले से ही आगाह कर रखा था कि मुझे इंतजार न कराया जाए कि मैं बहुत पिनकू किस्‍म का आदमी हूँ। वह मीटिंग में भी हों तो मुझे भीतर भिजवा दें। मैं पहुँचा तो ओझा ने मुझे ठीक मीटिंग में भेज दिया। उस समय वह प्रेस को ब्रीफ कर रहे थे। सीताराम केसरी उनकी बगल में बैठे थे। संयोग से ज्‍यादातर संवाददाता मेरे मित्र निकले और प्रेस क्‍लब में मेरे हमप्‍याला रहे थे। मुझे देखते ही तमाम पत्रकारों ने मेरा गर्मजोशी से स्‍वागत किया। श्रीकांत थोड़ा सकते में आ गए कि मैं इन तमाम पत्रकारों को इतने अभिन्‍न और आत्‍मीय रूप से कैसे जानता हूँ। वह मुझे अलग ले जा कर बात करना चाहते थे, उन्‍होंने दूसरे कमरे में चलने को भी कहा, मैंने उन्‍हें चिढ़ाने के लिए वहीं बैठना मुनासिब समझा। मैं जानता था, वह मुझसे क्‍या बात करना चाहते हैं। यह अंदर की बात है। इसका खुलासा फिर कभी।

बाद में एक ऐसा अवसर भी आया कि जंगल में शराब का मंगल हो गया। हुआ यह कि एक दिन लखनऊ से अचानक संजय सिंह का फोन आया कि शाम आठ बजे अमेठी से चल कर दस बजे तक इलाहाबाद पहुँचेंगे। दो पत्रकार भी साथ होंगे, भोजन, हमारे यहाँ होगा। करीब दस बजे ये लोग पहुँचे। लखनऊ के दो पत्रकार थे - ओसामा तलहा और जगत वाजपेयी। दोनों के साथ उनकी बार भी चल रही थी। उन्‍होंने बैग से बोतल निकाली और हम लोग चालू हो गए। हम लोग ठुमरी, दादरा और दारू में गर्क होते चले गए। सामंती पृष्‍ठभूमि के बावजूद संजय सिंह की तीनों में दिलचस्‍पी न थी - न दारू में, न ठुमरी में, न दादरा में। आधी रात को संजय सिंह अपने दोनों मित्रों को मेरे हवाले छोड़ कर अपनी ससुराल चले गए।

हम लोग रात भर सुरा और संगीत में धुत रहे। मालूम हुआ वे लोग संजय सिंह के साथ शिकार खेलने जा रहे हैं। बात-बात में उन पत्रकारों ने बताया कि अच्‍छा हुआ आपसे भेंट हो गई, वरना हम किसी को संजय सिंह के नजदीक नहीं होने देते। राज की ऐसी बात कोई शराबी ही दूसरे शराबी को बता सकता है। और रात भर में शराबियों की इतनी मित्रता हो गई जैसे जन्‍म जन्‍मांतरों का साथ हो। सुबह जब संजय सिंह अपने मेहमानों को लेने आए तो उन्‍होंने घोषणा कर दी, अगर कालिया जी शिकार पर नहीं जाएँगे तो वे भी नहीं जाएँगे। बाद में तीनों का ऐसा दबाव पड़ा कि मुझे अपना पूरा काम अधूरा छोड़ कर ममता को कॉलिज से छुट्‌टी दिलवा कर जिंदगी की पहली और अंतिम शिकार यात्रा पर निकलना पड़ा। चलने से पहले बियर, रम और व्हिस्की के क्रेट गाड़ियों में रखवाए गए, थोक में नमकीन खरीदा गया, येरा के गिलास और आइस बकेट से लैस हो कर हम लोग शिकार अभियान पर निकल पड़े।

रात हम लोगों ने जंगल में टेंट लगा कर बिताई। सुबह उठे तो पानी का दूर-दूर तक नामोनिशान तक नहीं था। जाड़े के दिन थे, दाँत किटकिटा रहे थे। आखिर तलहा ने ब्रश करने के लिए एक नायाब तरीका निकाला। उसने बियर की एक बोतल खोली और हम लोगों ने बियर से ब्रश किया, बियर के कुल्‍ले किए। किसी को ध्‍यान ही न आया कि गाड़ी में मिनरल वाटर का क्रेट भी रखा है। हम लोग जितने दिन शिकार पर रहे, यही क्रम चलता रहा। रात जहाँ कहीं भी पड़ाव पड़ता, पुआल के गद्दे बिछा कर सो जाते या बाहर खुले में अलाव जला कर अग्‍नि उत्‍सव मनाया जाता। रात को दो-तीन तेज हेडलाइटवाली जीपों के काफिले के साथ शिकार पर निकलते। हिरण-हिरणियों और हिरन शावकों के झुंड के झुंड दिखाई देते। तेज रोशनी में वे ठगे से चित्रलिखित से ठिठक कर खड़े हो जाते। कई जोड़ा स्‍वर्णजटित बिल्‍लौरी आँखें नन्‍हें-नन्‍हें हीरों की तरह जगमगातीं। कौन करता होगा प्रकृति के इस अनोखे चमत्‍कार का हनन, इन दिव्‍य आँखों का शिकार? हम तीनों अनाड़ी थे। जब भी किसी ने निशान साधा, चूक गया। हिरणों का समूह सरपट भाग निकलता, जीप से भी तेज रफ्तार से, कुलाँचे भरते हुए। शिकार संभव न हुआ, संभव ही नहीं था। उस रूप राशि को देखने में ज्यादा सुख था। वे हिरन हमारे दोस्‍त हो गए थे। रात को कई बार मुलाकातें हो जाती।

तय पाया गया कि हिरन का शिकार कायर लोग यानी संवेदनहीन शिकारी ही कर सकते हैं। हम लोग चीते का शिकार करेंगे। चीते के शिकार के लिए ऊपर पहाड़ी पर जाना था। अगले दिन हमारा लाव-लश्‍कर हथियारों और दारू से लैस हो कर पहाड़ी पर पहुँचा। गाँव वालों की मदद से 'हाँका' का इंतजाम किया गया। गाँव वालों ने चारों ओर से पहाड़ी को घेर रखा था और ढोल, कनस्तर, मँजीरा बजाते हुए पहाड़ी की घेराबंदी कर ली गई। हम लोगों ने शिकारियों की देखरेख में हथियारों से लैस हो कर मोर्चा सँभाल लिया था। शोर सुन कर पेड़ों पर कुहराम मच गया। परिंदे जंगल में सन्‍नाटे की जगह कोलाहल सुन कर आकाश में भटकने लगे। पहाड़ी के बीचों-बीच एक चश्‍मा था। खबर थी कि दोपहर को जंगल का राजा यहाँ पानी पीने आता है। आज जंगल के राजा का घिराव कर लिया गया था, वह न जाने कहाँ छिप कर बैठा था। मालूम नहीं पहाड़ी पर शेर था भी कि नहीं, था तो उस शांतिप्रिय राजा ने उस रोज अपनी खोह में हुक्‍का गुड़गुड़ाना ही बेहतर समझा। थक-हार कर हम लोग अपने टेंट में लौट आए और बियर पी कर शिकार की क्षतिपूर्ति की।

सूर्यास्‍त से पूर्व हम लोग जब खरामा-खरामा पहाड़ी से उतर रहे थे कि ऊपर से शेर की दहाड़ सुनाई दी, जैसे चुनौती दे रहा हो। हवा में दो-एक फायर किए गए। मगर शिकार का जोश ठंडा पड़ चुका था। शेर को प्राणदान दे कर हम लोग उतर आए। अगले रोज फिर यही क्रम शुरू हुआ। शेर और हम लोगों के बीच लुकाछिपी का खेल चलता रहा। हफ्ता-दस दिन हम जंगलों में भटकते रहे। जम कर तफरीह की। हम लोगों का स्‍कोर सिफर रहा, जबकि शिकारियों ने इस बीच कुछ हिरन और अन्‍य जंगली जानवरों का शिकार कर डाला था। हम लोगों के सूरमाओं ने मात्र एक साही का शिकार किया था। उसे तड़पता देख हम पश्‍चाताप करते रहे।

तमाम लोग फुर्सत में निकले थे, मुझे एक-एक दिन भारी पड़ रहा था। मुझे अपनी किस्तों की चिंता थी, कर्मचारियों के वेतन का जुगाड़ करना था। ये लोग थे कि मुझे छोड़ ही नहीं रहे थे। एक दिन मैंने तय कर लिया कि आज तो जरूर ही लौट जाऊँगा। शाम को सिर्फ एक बस जाती थी, जिससे जंगल से निकल कर मुख्‍यालय तक जाया जा सकता था। आठ-दस किलोमीटर की दूरी पर बस स्‍टॉप था। मेरे बहुत चिरौरी करने पर ये लोग मुझे बस स्‍टॉप पर छोड़ आए। बस स्‍टॉप भी क्‍या था, जंगल के एक छोर पर एक छोटी-सी पान-तंबाकू की दुकान थी, जिसमें मद्धिम-सी ढिबरी जल रही थी। भीतर एक बूढ़ा कंबल ओढ़े अलाव ताप रहा था। उसने भी बस की प्रतीक्षा में दुकान खोल रखी थी। दुकान क्‍या थी, पान, बीड़ी, सिगरेट, कुछ नमकीन और गुड़ के मिष्‍ठान। रात हो गई, मगर बस नहीं आई।

'लगता है आज बस नहीं आएगी।' अचानक बूढ़े ने सामान समेटना शुरू कर दिया और ताला ठोंक कर लाठी टेकते हुए अँधेरे में विलीन हो गया। अब उस निबिड़ अंधकार और साँय-साँय करते जंगल में मैं अकेला खड़ा था। वहाँ खड़ा रहना मुझे बहुत असुरक्षित लगा। मैंने अपना अटैची उठाया और बूढ़े के पीछे-पीछे चल दिया। अभी एकाध फर्लांग ही तय किया होगा कि अचानक किसी वाहन की तेज रोशनी दिखाई दी। मेरी जान में जान आई कि बस तो आई। मगर वह बस नहीं, जीप थी। अगली सीट पर तीनों यार बैठे थे - कहिए मान्यवर, कहाँ की तैयारी है? तलहा ने अपने सुपरिचित अंदाज में पूछा। मैंने जीप में अपनी अटैची फेंकी और उनके साथ हो लिया। पता चला, आज कोई सवारी ही नहीं थी, बस कैंसिल हो गई।

'हमारी इजाजत के बगैर आप जंगल नहीं छोड़ सकते। साथ आए थे और साथ ही लौटेंगे।' संजय सिंह ने कहा।

अगले रोज फिर वही क्रम शुरू हुआ। बियर से मंजन और जिन से नाश्‍ता। शेरो-शायरी, गाना-बजाना, लतीफे और छींटाकशी। राजकुमार के संपर्क में राजयोग चल रहा था। अभी तक नपी-तुली दारू पी थी, यहाँ कोई बंधन, कोई अभाव, कोई सीमा न थी। न बच्‍चों की शर्म, न बीवी का भय।

इसी यात्रा में हम लोगों को संजय सिंह के साथ उनकी ससुराल के फार्म पर जाने का इत्‍तिफाक हुआ। रीवाँ और मिर्जापुर की पहाड़ियों को छूता इलाहाबाद जिले का ही एक रम्‍य क्षेत्र। मुझे इससे पूर्व एहसास नहीं था, बहुत से लोगों को आज भी न होगा, कि इलाहाबाद में मेजा-पसना की तरफ ऐसा इलाका भी है जहाँ प्राकृतिक निर्झर बहते हैं, चश्‍मे फूटते हैं। वहाँ फार्म हाउस पर हम लोगों ने डेरा डाला था। जाड़े के दिन थे। विशाल फार्म हाउस, पुआल के आठ इंची गद्दे। वहाँ पहुँचते ही हम लोगों ने साथियों की नजर से बचा कर पुआल गद्दों के नीचे कुछ बोतलें आड़े वक्‍त के लिए छिपा दीं।

एक दिन संजय सिंह के ससुर भी आ गए। फार्म हाउस में एक बड़ा-सा तालाब था। तालाब में मछलियाँ थीं। एक खास प्रजाति की। उस दिन डिनर में वह विशिष्‍ट अतिथियों के लिए अपने तालाब की मछलियों के कुछ व्‍यंजन बनवाना चाहते थे। उनका आदेश मिलते ही दो-तीन सेवक उस कड़ाके की ठंड में तालाब में उतर गए। उन्‍हें नंगे बदन तालाब में जाल बिछाते देख हम लोगों की कँपकँपी छूट रही थी। उस दिन मछलियाँ ऐसे गायब हुईं जैसे शादी में दामाद के जूते गायब होते हैं। बहुत जुगत लगाने पर भी जाल में एक भी मछली नहीं फँसी। ठाकुर साहब को लगा, मछलियाँ उनकी अवज्ञा कर रही है, उनकी भृकुटी तनने लगी। उन्‍होंने आदेश दिया कि पंप से तालाब का सारा पानी निकाल दिया जाए। हम लोग तालाब के किनारे अलाव सेंक रहे थे। देखते- देखते तालाब खाली होने लगा। जब पानी एकदम कम रह गया तो देखा दर्जनों मछलियाँ पानी में उछल रही थीं। मनपसंद मछलियाँ पकड़ ली गईं, जो हाथों से छिटक-छिटक जा रही थीं। भोजन में उनका सालन परोसा गया। मुझसे खाया न गया। एक बेवकूफ भावुक ब्राह्मण की तरह दिमाग में तड़पती हुई मछलियाँ कूद-फाँद करती रहीं। दिन भर तो हम लोग पिकनिक में बिता देते, शाम को जब बावर्ची से पूछा जाता कि क्‍या बना है तो वह भी टके-सा जवाब देता, 'सिकार बा।' तीतर बटेर जो भी पक्षी फार्म हाउस की सरहद में घुसता, दुश्‍मन के विमान की तरह मार गिरा दिया जाता।

जब भी लखनऊ जाता, तलहा और जगत से भेंट होती। हम लोग प्रेस क्‍लब में बैठ कर इन दिनों की याद किया करते। कुछ ही वर्षों बाद खुशवंत सिंह के कालम में अचानक पढ़ा कि तलहा नहीं रहा। मेरे हाथ से गिलास छूट गया। वह पीलिया से चल बसा, उसका लिवर जवाब दे गया। मुझे भी खतरे की घंटी सुनाई दी। तलहा की तरह मेरी भूख भी मर चुकी थी। भूख न लगती तो तलहा कोई न कोई दवा तजवीज कर देता था और बेशर्मी से हँसा करता था कि आगे खतरा है। वह खतरे को जानते-बूझते भी उसकी चपेट में आ गया। यही हश्र जगत वाजपेयी का हुआ। दो वर्ष पहले 'कथाक्रम' के कार्यक्रम में गया था - लिवर बढ़ जाने की लंबी यंत्रणा झेल कर - कि खबर मिली जगत भी इस जगत से विदा हो चुका है। मेरे दो साथी शराब की नदी में बह गए थे। मैं भी बह गया होता मगर जैसे बहते को तिनके का सहारा मिल जाता है, किसी तरह बच गया। मरहूम दोस्‍तों की सूची में दो नामों का और इजाफा हो गया। शराब से मैं वैसे ही भय खाने लगा जैसे रैबीज का रोगी पानी से भय खाता है। मुझे लगता था अब मेरी बारी है। मेरे जेहन में एक शेर कौंध-कौंध जाता :

इक सवारी आएगी , इक सवारी जाएगी ,

बारी-बारी सबकी बारी आएगी

सचमुच आखिर मेरी बारी भी आ गई - और मौत दरवाजा खटखटाने लगी। उसकी आहट मैं स्पष्‍ट सुन रहा था। मेरी बूढ़ी माँ जब निरीह भाव से मेरे सूखते जा रहे बदन को देखती तो रीढ़ की हड्‌डी के नीचे सिरहन-सी दौड़ जाती।

मैंने अपनी आँखों से बहुत लोगों को शराब से तबाह होते देखा था, तिल-तिल कर मरते देखा था, मेरे तो बहुत से मित्र शराब में बह गए थे, बहुत से दोस्‍त नशे की गोलियाँ खा कर मौत की आगोश में सो चुके थे। इन मित्रों में लेखकों-पत्रकारों की संख्‍या अधिक थी। रचनाकारों को अगर शराब ने तबाह किया तो पत्रकारों को फोकट (मुफ्त) की शराब ने। फोकट की शराब ज्यादा खतरनाक होती है, बेफिक्र करती है, निःसीम बनाती है। प्रशासन, राजनीति और उद्योग जगत पत्रकारों के लिए ऐसी कारा बन जाता है कि वह इसी कैद में घुट कर रह जाते हैं। प्रशासन, राजनीतिज्ञ और उद्योगपति पत्रकारों के आगे शराब का चारा परोसते रहते हैं। एक से एक प्रखर और प्रतिभासंपन्‍न युवा पत्रकारों को मैंने इसका शिकार होते देखा है। लेखकों, पत्रकारों और बुद्धिजीवियों को धनपशुओं का आतिथ्‍य भी आसानी से उपलब्‍ध हो जाता है।

18-

अपने संपर्कों की दुहाई देने से भी आदमी कभी-कभी कीचड़ और दलदल में फँस जाता है। मैं तो कई बार फँसा हूँ, डीपीटी मुझसे भी ज्यादा। डीपीटी तो ऐसी स्‍थितियों को भुना भी लेता था। एक बार एक अत्यंत वरिष्‍ठ एवं विशिष्‍ट अधिकारी ने मुझे और डीपीटी को डिनर पर आमंत्रित किया। उसे खबर लगी थी कि उनके विभाग के मंत्री से हम लोगों की दोस्‍ती है। उन लोगों के यहाँ हमारा बहुत आदर-सत्‍कार हुआ। विश्‍व की उम्‍दा शराब पीने को मिली। वहाँ का माहौल बहुत औपचारिक और छुरी-काँटेवाला था। अफसरों की सुंदर खुशबूदार बीवियाँ अंग्रेजी हाँक रहीं थीं। इस माहौल में मुझे अपनी मौजूदगी अटपटी और सर्कस के जानवरों सरीखी लग रही थी। किसी से हँसी-मजाक भी नहीं किया जा सकता था। हम लोगों ने छक कर मद्यपान किया, मगर सरूर का दूर-दूर तक अता-पता न चल रहा था, इससे ज्यादा आनंद तो किसी ढाबे पर हिंदुस्‍तानी शराब पीने से आ जाता था। स्‍कॉच के नशे के थर्मामीटर का पारा बहुत मंद गति से ऊपर चढ़ता है और उसी गति से नीचे आता है। तमाम अफसर दो-दो तीन-तीन पेग पी कर डाइनिंग टेबिल के आस-पास मँडराने लगे। मैंने सरूर महसूस होते ही उन लोगों को अपने मित्र नरेश कुमार शाद का शेर सुनाया :

शाद वो लोग मय नहीं पीते

जो बग़र्ज़े सरूर पीते हैं

हम तो पीते हैं अपने अश्‍कों को

जामे मय तो हुज़ूर पीते हैं

कुछ अफसरानियों ने शेर में दिलचस्‍पी दिखाई तो डीपीटी ने शेरों के ढेर लगा दिए। मेजबान विचलित हो रहे थे कि भोजन के लिए विलंब हो रहा है। हम लोगों को बार-बार भोजन के लिए आमंत्रित किया जा रहा था। डीपीटी झुँझला गया। उसने कहा, 'आप लोगों को शायद मालूम नहीं, हम खाते-पीते लोग नहीं, पीते-पीते लोग हैं।'

'आप भोजन करें, हमें अभी पीने दें।' मैंने डीपीटी की हाँ में हाँ मिलाई। मेजबान हतप्रभ। रात के ग्‍यारह बज रहे थे। मेस के बंद होने का समय हो रहा था। डीपीटी गाने लगा :

ले उठ रहा हूँ बज़्‍म से मैं तिश्‍नगी के साथ

साक़ी मगर ये ज़ुल्‍म न हो अब किसी के साथ

लोगों ने घड़ी देखी और सब्र कर लिया। डीपीटी ने एक लोक धुन छेड़ दी, जिसे मैं सुन रहा था और भरपूर दाद दे रहा था। महिलाएँ बेचैन हो रही थीं, किसी की दिलचस्‍पी उस लोकगीत में न थी। किसी तरह हम लोगों को डाइनिंग टेबिल पर जाने के लिए तैयार किया गया।

'आप खाना खिलाना चाहते हैं तो पहले छुरी काँटे उठवा दीजिए।' डीपीटी ने कहा, 'कालिया जी को छुरी काँटे से नफरत है।'

सफेदपोश बैरों ने हाथों में दस्‍ताने पहन रखे थे। वे जल्‍दी-जल्‍दी छुरी काँटे उठाने लगे। तमाम लोग कौतुक से हम लोगों को देख रहे थे। डीपीटी कुर्सी पर पसर गए थे मगर हाथों से नियंत्रण छूट चुका था। उनकी हालत देख कर मेजबान के बेटे ने उनके लिए खाना परोसा और अपने हाथ से खिलाने लगा। डीपीटी को भोजन स्‍वादिष्‍ट लगा। वह सर हिलाते हुए भोजन का आनंद लेने लगा। मेज पर दसियों पकवान लगे थे। मैंने एक तश्‍तरी में थोड़ी सी सब्जी ली, सलाद उठाया और एक कुर्सी पर बैठ कर खाने लगा। हम लोगों ने जी भर स्‍कॉच पी ली थी और स्‍कॉच का नशा मुझे हमेशा सुस्‍त छोड़ जाता था। मेरी तश्‍तरी देख कर मेजबान की पत्‍नी सक्रिय हो गईं, 'आप और क्‍या लीजिएगा?'

'और कुछ नहीं लूँगा।' मैंने कहा, 'मैं एक गरीब मास्‍टर का बेटा हूँ, एक सब्जी से ही खाना खाता हूँ। हमारे घर में बचपन से एक सब्जी ही बनती थी।'

डीपीटी ने मेरी बात सुनी तो उसने भी घोषणा कर दी, 'मेरा बाप भी बहुत गरीब था। कलकत्‍ता में चाय का ढाबा चलाता था। मैंने बरसों सिर्फ अचार से ही खाना खाया है। भई मुझे अचार से ही खाना खिलाओ। यह चिकेन-विकेन हम नहीं खाएँगे।'

वहाँ उपस्‍थित तमाम अधिकारीगण हतप्रभ हो कर हमारी तरफ देखने लगे। उन्‍होंने लारेल हार्डी की ऐसी जोड़ी सिर्फ फिल्‍मों में देखी थी। महिलाएँ खी-खी कर हँसने लगीं।

'मेरा बचपन बहुत गुरबत में बीता है। हमारा और आपका क्‍या रिश्‍ता?' डीपीटी बोला।

'ये महफिलें आप को मुबारक।' मैंने कहा।

अचानक डीपीटी अपनी आँखें पोंछने लगा। उसे किसी बात पर रुलाई आ गई थी।

'क्‍या हुआ? वाट मेक्‍स यू क्राई।' एक सुंदरी द्रवित हो गई।

'मुझे अपनी बहन की याद आ रही है। मेरी बदकिस्‍मत बहन। उसकी आँखें भी मेरी तरह बुझ चुकी हैं।'

मुझे भी पहली बार पता चला था कि डीपीटी की कोई बहन है और उसकी तरह आँखों से लाचार है। जाने डीपीटी को क्‍या सूझा कि अचानक अंग्रेजी पर उतर आया और जोर-जोर से एजरा पाउंड की कविता का पाठ करने लगा :

वॉट दाउ लवेस्ट, वैल रिमेन्स,

द रेस्‍ट इज ड्रास,

वॉट दाउ लवेस्‍ट वैल

इज दाई ट्रू हेरिटेज

वॉट दाई लवेस्‍ट वैल

कैन नॉट बी बिरेफ्ट फ्राम दी।

(जो कुछ चाहा, भली भाँति

बस वही रहेगा,

शेष व्‍यर्थ है,

जो भी चाहा भली भाँति

बस वही विरासत

जो कुछ चाहा भली भाँति

वह चाव तुम्‍हारा चुरा नहीं सकता कोई।)

उस अधिकारी ने जिंदगी में दुबारा ऐसे मेहमान न देखे होंगे। हम लोग कब और कैसे घर पहुँचे इसका कोई इल्‍म नहीं। सुबह उठ कर मैंने अपने को और डीपीटी को खूब फटकारा कि हम लोग इस तरह की मेजबानी के लायक नहीं हैं और कसम खाई कि अपने संपर्कों की डुगडुगी नहीं बजानी चाहिए। न चाहते हुए भी लोग आपको अपने फंदे में फाँस लेते हैं। मगर किसी ने ठीक ही कहा है कि आदतों से छुटकारा पाना आसान नहीं होता।

मैं खुद ही अपने जाल में कई बार फँसा हूँ। जाल भी खुद ही बुन लेता था। मेरी कुव्‍वते हज्म यानी हाजमा शुरू से ही कमजोर रहा है। गरिष्‍ठ से गरिष्‍ठ भोजन तो पच भी जाता था, मगर बात नहीं पचती थी। आज भी नहीं पचती। ममता इस लिहाज से शुरू से कहीं अधिक चुप्‍पी है। मैं मूर्खता की हद तक पारदर्शी हूँ। जब-जब बात पचाने की कोशिश की तो कब्ज हो गई, जी मिचलाने लगा। जो मेरे दिल में है, उसे जुबान पर आने में देर नहीं लगती। बहुत कोशिश करने पर एकाध घंटा ही बात पचा सकता हूँ और जब कोई बात नाकाबिले बर्दाश्‍त होने लगती है तो ममता से छुप कर किसी को फोन घुमा देता हूँ। प्रायः सब को मालूम रहता है, मैं किसका मित्र हूँ और किसका अमित्र। यहीं जगजीत सिंह का प्रसंग याद आ रहा है।

इलाहाबाद में पहली बार जगजीत सिंह (सुप्रसिद्ध गजल गायक) को आमंत्रित किया गया था। सारा शहर आंदोलित था। कार्यक्रम का पास प्राप्‍त करने की होड़ मची थी। कार्यक्रम का आयोजन 'प्रयाग महोत्सव' के नाम पर प्रशासन की तरफ से हो रहा था। लगता है अफसरों की बीवियों के अनुरोध पर कार्यक्रम का आयोजन किया गया था। तमाम पास प्रशासनिक और पुलिस अधिकारियों के बीच बँट गए थे। इलाहाबाद में पुलिस मुख्‍यालय, उच्‍च न्‍यायालय, शिक्षा निदेशालय आदि अनेक महत्‍वपूर्ण कार्यालय हैं, शहर में अधिकारियों की भरमार है। ऐसे में किसी भी महत्‍वपूर्ण कार्यक्रम के लिए प्रवेश पत्र प्राप्‍त करने की मारा-मारी मची रहती। कार्यक्रम का आयोजन मेहता संगीत समिति के हाल में किया गया था। हाल की क्षमता सीमित थी, मगर जगजीत के प्रशंसकों की संख्‍या असीमित थी। कार्यक्रम घोषित होते ही जगजीत के रिकार्डों और कैसेटों की बिक्री अचानक बढ़ गई थी। वह गजल गायकी की लोकप्रियता का प्रथम दौर था। हर कोई इस जुगाड़ में था कि किसी तरह जगजीत सिंह को रूबरू सुनने का अवसर प्राप्‍त हो जाए। जिन्‍होंने कभी जिंदगी में गजल न सुनी थी वह भी जगजीत को सुनने व देखने को आतुर थे। मेरे तमाम मित्र मेरे यहाँ जगजीत की गजलें और पंजाबी गीत सुन चुके थे। और मैं भी जगजीत के प्रति लोगों का अतिरिक्‍त उत्‍साह देख कर अपनी मित्रता की दुहाई देने लगा था। इलाहाबाद में जगजीत का कार्यक्रम घोषित हुआ तो सिर्फ दोस्‍त नहीं उनकी पत्‍नियाँ, प्रेमिकाएँ और भौजाइयाँ भी समारोह में प्रवेश पाने के लिए मुझसे संपर्क करने लगीं। अब मैं किसी को क्‍या बताता कि जब से इलाहाबाद आया हूँ, मेरा जगजीत से संपर्क नहीं है। जगजीत का सबसे अधिक आग्रह साउंड सिस्‍टम पर रहता है, उसके प्रति आश्‍वस्‍त होने के बाद ही वह कार्यक्रम स्‍वीकार करता था। कुछ ऐसी ही तकनीकी विवशताओं के कारण कार्यक्रम हाल में रखा गया था, वरना श्रोताओं में इतना उत्‍साह था कि संगीत समिति का मुक्‍तांगन भर जाता, जिसमें हजारों लोग समा सकते थे। प्रवेश केवल आमंत्रित लोगों के लिए खुला था और शहर के बहुत से रईसजादे पैसे खर्च करके भी प्रवेश पत्र प्राप्‍त नहीं कर सकते थे। ज्यादातर पास प्रशासन, पुलिस और पत्रकारों और उनके चहेतों में ही बँट गए थे।

जगजीत मेरा कॉलिज के दिनों का साथी था। मुझसे एक-दो वर्ष जूनियर ही रहा होगा, मगर मैं तमाम लोगों को यही बताता था कि मेरा सहपाठी था। संगीत का शौक उसे कॉलिज के दिनों से था। मैं डी.ए.वी. कॉलिज स्‍टूडेंट्‌स कांउसिल का अध्‍यक्ष निर्वाचित हो गया तो अक्‍सर अंतर्विश्‍वविद्यालयीय संगीत प्रतियोगिताओं में भाग लेने के लिए वह मुझसे संपर्क करता। वह दूर-दूर से कॉलिज के लिए संगीत प्रतियोगिताओं से ट्रॉफी जीत कर लाता। अर्द्धशास्‍त्रीय संगीत के क्षेत्र में उसने प्रदेश के तमाम संस्‍थानों पर अपने और कॉलिज के झंडे फहरा दिए थे। कॉलिज के दिनों से ही वह संगीत को समर्पित हो गया था। शहर के पत्रकारों, और कवियों, शायरों से उसकी मित्रता होना स्‍वाभाविक था। शाम को सब लोग कॉफी हाउस में इकट्ठा होते। पंजाबी कवियों और शायरों की कोशिश रहती कि जगजीत उनका कोई गीत और गजल गा दे। सुदर्शन फ़ाकिर भी डी.ए.वी. कॉलिज का ही छात्र था। कृष्‍ण अदीब, शिवकुमार बटालवी, कुमार विकल, नरेश कुमार शाद, प्रेम बारबरटनी वगैरह जालंधर आते तो शाम को कॉफी हाउस में महफिल जमती। बाद में सुदर्शन फ़ाकिर और कृष्‍ण अदीब की कई गजलें बेगम अख्तर, रफी आदि विख्‍यात कलाकारों ने भी गाईं। प्रेम बारबरटनी ने फिल्‍मों के लिए भी गीत लिखे। बेगम अख्‍़तर ने तो अपने अंतिम दिनों में ज्यादातर फ़ाकिर की ही गजलें गाईं। ये तमाम लोग काफ़ी हाउस जालंधर की ही पैदावार थे। तब किसी ने कल्‍पना न की होगी कि ये लोग इतनी ऊँची उड़ान भरेंगे। उन दिनों तो हम सभी लोग साथ-साथ चप्‍पल चटकाते हुए आवारगी करते थे। फ़ाकिर का कमरा एक मुसाफिरखाने की तरह था, बाहर से आनेवाले शायर लोग भी उसी में पनाह लेते थे। वहाँ हर वक्त लंगर खुला रहता था, नीचे ढाबा था, कोई भी सीढ़ियाँ चढ़ने से पहले मनमुआफिक भोजन का आदेश कर आता था।

बाद में जब कई वर्ष बाद मैं मुंबई से शादी के बाद जालंधर पहुँचा तो पाया फ़ाकिर की जीवन शैली में ज्यादा परिवर्तन नहीं आया था। वह आकाशवाणी जालंधर से स्‍क्रिप्‍ट राइटर के रूप में संबद्ध हो गया था। वह राजनीति शास्‍त्र का विद्यार्थी था, मगर उसकी दिलचस्‍पी सिर्फ साहित्‍य में थी, साहित्‍य में कम सिर्फ गजल में। उन्‍हीं दिनों हिंदी के विख्‍यात कवि गिरिजाकुमार माथुर आकाशवाणी के केंद्र निदेशक हो कर जालंधर आ गए थे। जिन दिनों मैं जालंधर पहुँचा माथुर साहब और फ़ाकिर में ऐसी ठन गई थी कि दोनों एक दूसरे के खून से प्‍यासे हो गए थे। माथुर केंद्र निदेशक थे और फ़ाकिर फकत स्‍क्रिप्‍ट राइटर। दोनों ने एक दूसरे का जीना हराम कर रखा था। फ़ाकिर से ही मालूम पड़ा कि केंद्र निदेशक उसे नौकरी से निकलवाने पर आमादा हैं। गिरिजाकुमार माथुर की भारती जी से बहुत पटती थी और भारती जी ने मुझे उनसे मिल कर आने को कहा था। मैंने फोन पर उनसे समय लिया। माथुर साहब ने उसी शाम मिलने की इच्‍छा प्रकट की, डिनर पर। मैं और ममता उनके यहाँ पहुँचे। सोचा, वक्त मिलते ही फ़ाकिर की बात करूँगा और दोनों में सुलह-सफाई करवा दूँगा। हम लोग पहुँचे तो उनके बँगले की बत्‍ती गुल थी। उन्‍होंने बाहर लॉन में कुर्सियाँ डलवाईं और हम लोग बाहर आ बैठे। इस बीच उन्‍होंने कुछ कविताएँ लिखी थीं और वह एक नवोदित कवि की तरह कविताएँ सुनाने को मचलने लगे। उन्‍होनें अत्‍यंत स्‍नेहपूर्वक शकुंतला माथुर को बाहर मेज पर मोमबत्‍ती जलाने को कहा और वह टार्च की रोशनी में भीतर गईं और मोमबत्‍ती का स्‍टैंड उठा लाईं। साथ में वह अपनी कविताओं की भी कॉपी उठा लाईं। मुझे मच्‍छर बहुत काटते हैं, अभी काव्‍यपाठ शुरू नहीं हुआ था कि मुझे मच्‍छरों ने सताना शुरू कर दिया। कभी बाँह पर काट जाए और कभी पैरों पर। माथुर जी अत्यंत तन्‍मयता से काव्‍य पाठ करने लगे मगर मेरे कान में मच्‍छर भिनभिना रहे थे। मैं कभी बाँह पर हाथ मारता, कभी पैर पर, कभी कान पर से मच्‍छर उड़ाता। उस दिन मच्‍छर भी जैसे मेरे पीछे पड़ गए थे। माथुर जी को इस की परवाह नहीं थी, वह धाराप्रवाह एक के बाद दूसरी कविता सुनाते रहे। कैंडिल लाइट जब मद्धम पड़ने लगी माथुर जी ने टॉर्च जला कर कविताएँ पढ़ना जारी रखा। हम लोगों ने जी भर कर कविताएँ सुनी। माथुर साहब ने इतनी कविता सुना दीं कि शकुंतला जी ने अपनी कविताएँ सुनाने का इरादा तर्क कर दिया। अच्‍छा ही किया। मैंने मन ही मन उनके निर्णय की दाद दी। इस बीच बत्‍ती आ गई थी और वह डाइनिंग टेबिल पर भोजन परोसने लगीं। मुझे लगा, वह गृहिणी पहले हैं और कवि बाद में। हो सकता है उन्‍होंने लक्षित कर लिया हो कि मेरा ध्‍यान कविताओं पर कम मच्‍छरों पर ज्यादा था। माथुर साहब तरंग में थे। काव्‍य पाठ के बाद वह सस्‍वर गीत सुनाने लगे। इस बीच मोमबत्‍ती जम कर मोम हो चुकी थी, मगर माथुर साहब की कविताओं का क्रम भंग न हुआ।

बीच में मौका पाते ही मैंने फ़ाकिर का जिक्र किया तो वह तमाम शायरी भूल कर उसका कच्‍चा-चिट्‌ठा खोलने लगे कि वह तो शराब पी कर स्‍टूडियो में चला जाता है। उसने और उसके कुछ आवारा साथियों ने आकाशवाणी का माहौल दूषित कर रखा है, मगर वह भी उसे सबक सिखा कर ही रहेंगे। तभी उन्‍हें अपनी कुछ भूली-बिसरी पंक्‍तियाँ याद आ जातीं तो वह फ़ाकिर को भूल जाते। मैंने अनेक बार कोशिश की कि उन्‍हें फ़ाकिर के बारे में बताऊँ कि वह एक फकीर आदमी है, नौकरी भी उसके लिए महज शगल है। नौकरी उसकी न प्राथमिकता रही है न आवश्‍यकता। वह एक अत्यंत समृद्ध परिवार से ताल्‍लुक रखता था। जालंधर में ही उसकी बहन की आलीशान कोठी थी, पिक्‍चर हाउस था, फार्म था। उसके पिता फीरोजपुर के जाने-माने डॉक्टर थे और सिविल सर्जन थे। समूचा परिवार उसकी शायरी से परेशान रहता था, मगर माथुर साहब की निगाह में वह फकत एक स्‍क्रिप्‍ट राइटर था। उन्‍हें शायद यह भी मालूम नहीं था कि वह उर्दू का एक उभरता हुआ शायर था। शायर भी ऐसा जो न अपनी रचनाएँ कहीं छपने भेजता था और न किसी मुशायरे में जाता था, मगर पंजाब भर के शायरों का वह चहेता शायर था। उन्‍होंने भी उस समय कल्‍पना न की होगी कि एक दिन देश के मूर्द्धन्‍य गायक उसकी गजलों को अपनी आवाज देंगे। मैंने खाने की टेबिल पर भी दो-एक बार फ़ाकिर का जिक्र किया, मगर माथुर साहब उसका नाम सुनते ही भड़क जाते। अंत में शायद उन्‍होंने फ़ाकिर को नौकरी से निलंबित भी करा दिया था। एक लिहाज से यह फ़ाकिर के लिए अच्‍छा ही हुआ और वह आकाशवाणी की टुच्‍ची राजनीति और संकीर्ण दुनिया से बदजन हो कर मुंबई रवाना हो गया। जब तक फ़ाकिर मुंबई पहुँचता मैं वहाँ से इलाहाबाद के लिए रवाना हो चुका था। वह दिन और आज का दिन फ़ाकिर की मुझसे फिर भेंट न हुई।

मुंबई में मेरी जगजीत से अक्‍सर कहीं न कहीं भेंट हो जाती। वह उसके संघर्ष का दौर था। मुंबई में रोज देश भर से सैकड़ों कलाकार आते हैं, मगर सफलता कुछ एक को ही हासिल होती है। ज्यादातर लोग बर्बाद हो कर या टूट कर वापिस लौट जाते हैं या वहीं संघर्ष करते हुए तबाह हो जाते हैं। जगजीत सिंह के लिए वे परीक्षा के दिन थे। एक दिन लोकल में उससे भेंट हो गई। वह बहुत परेशान दिखाई दे रहा था। उसके पास आवास की संतोषजनक व्‍यवस्‍था न थी। उसने कहा कि मैं किसी लॉज में उसे जगह दिलवा दूँ। तब तक मुंबई में मेरे पैर जम चुके थे। शिवाजी पार्क में रानाडे रोड पर हमारे घर के सामने ही एक लॉज थी। मेरे दोस्‍त ओबी का उस लॉज के मालिक से दोस्‍ताना था। मैंने वादा किया कि उसके आवास की व्‍यवस्‍था कर दूँगा। ओबी ने चुटकियों में उसकी समस्‍या हल कर दी। तब तक न मुझे और न ओबी और न उस लॉज मालिक को एहसास था कि यही जगजीत एक दिन मुंबई क्‍या पूरे देश का लाडला बन जाएगा। मुंबई में ट्रेन में ही उससे कभी-कभार मुलाकात हो जाती और उसकी खैरियत मिल जाती।

इलाहाबाद में जगजीत का कोई नया रिकार्ड आता तो रेखी साहब फोन पर मुझे इसकी सूचना देते। मैं उसी समय सब कामकाज बीच में छोड़ कर जानसेनगंज 'रेखी ब्रदर्स' के शो रूम में पहुँच जाता। रेखी साहब ने मुझे अनेक दुर्लभ रिकार्ड उपलब्‍ध करवाए थे, उनमें फैज़ अहमद 'फैज़' के भी रिकार्ड थे। वह शहर के सबसे प्रतिष्‍ठित संगीत विक्रेता थे। सन चौरासी के दंगों में दंगाइयों ने उनकी दुकान को आग लगा दी और दुकान पर लूट-पाट भी हो गई। मैं उन दिनों दिल्‍ली में था, लौट कर आया तो ग्‍लानि हुई और सदमा लगा कि सांप्रदायिकता की आग में संगीत के एक पारखी को भी सांप्रदायिक जुनून का शिकार होना पड़ा। रेखी साहब का मन इस धंधे से उचट गया और उन्‍होंने इस व्‍यवसाय को ही छोड़ दिया। रेखी साहब की मदद से मैंने बेगम अख्तर, सहगल, जगजीत सिंह वगैरह के तमाम रिकार्ड हासिल कर लिए थे। उन दिनों स्‍टीरियो सिस्‍टम नया-नया बाजार में आया था। रेखी साहब ने मुझे 'गेरर्ड' का चेंजर और 'सोनोडॉइन' के स्‍पीकर दिलवाए थे। जगजीत का रिकार्ड बजता तो तमाम कमरे में धुएँ की तरह उसकी आवाज भर जाती। मैं हर मिलने-जुलनेवाले को ध्‍वनि का यह अद्‌भुत चमत्‍कार दिखाता। एक स्‍पीकर पर आवाज आती और दूसरे से वाद्ययंत्रों की धुनें उठतीं। उन दिनों स्‍टीरियो पर गजल सुनने का आनंद ही दूसरा था। अब तो खैर वह सिस्‍टम पुराना पड़ चुका है, लुप्‍तप्राय हो चुका है, उसका स्‍थान सीडी सिस्‍टम ने ले लिया है, और मेरी मेहनत से तैयार की गई संगीत की लायब्रेरी अप्रासंगिक हो चुकी है और वे रिकार्ड आलमारी में धूल चाट रहे हैं, जिन्‍हें मैं किसी को छूने भी न देता था। अब डिजिटल रिकार्डिंग का जमाना है।

शहर में जगजीत सिंह के कार्यक्रम का प्रवेश पत्र प्राप्‍त करने की होड़ मची थी, मगर मेरे मित्र आश्‍वस्‍त थे कि मेरे रहते उन्‍हें कार्यक्रम में प्रवेश पाने में कोई दिक्‍कत न होगी। अब तक मैं अपने और जगजीत के संबंधों की इतनी डुगडुगी पीट चुका था कि मेरे लिए भी हामी भरने के अलावा कोई चारा न था। एक सोए हुए सुप्‍त निश्‍चेष्‍ट संबंध को यकायक सक्रिय करना मुझे अटपटा व दुःसाध्‍य कार्य लग रहा था, मगर मेरे सामने कोई दूसरा विकल्‍प न बचा था। मैंने खुद ही अपना सर ओखली में दिया था।

मैंने अपने पत्रकार मित्रों को ताकीद कर दी कि वह जगजीत के शहर में उतरते ही सूचना दें कि वह किस होटल में रुका है। दोपहर बाद सूचना मिली कि उसके ठहरने की व्‍यवस्‍था हाईकोर्ट के सामने एक होटल में की गई है। उसके दल-बल सहित होटल में पहुँचते ही मैंने अधिकारपूर्वक होटल का फोन मिलाया। होटल के जितने नंबर थे, सब व्‍यस्‍त हो गए थे। फोन घुमाते-घुमाते अँगुलियाँ थक गईं। घंटी जाती भी तो पता चलता गलत नंबर मिल गया है। कोई आध घंटे के संघर्ष के बाद होटल का फोन मिला।

'हैलो, होटल विश्रांत।'

'जगजीत सिंह यहीं ठहरें हैं?' मैंने पूछा।

'हाँ, अभी आराम फरमा रहे हैं।'

'मैं रवींद्र कालिया बोल रहा हूँ, उनका दोस्‍त। उन्‍हें फोन दीजिए।'

'इस समय मुमकिन नहीं।' उधर से बेरुखी से किसी ने कहा।

मुझे बहुत तेज गुस्‍सा आया, 'आप समझ नहीं रहे हैं, मैं उसका बचपन का दोस्‍त हूँ। उसे फोन दीजिए।'

'सॉरी सर।' उसने कहा और फोन रख दिया।

मैं दुबारा फोन मिलाने में जुट गया। इस बार बहुत आसानी से फोन मिल गया। देर तक घंटी जाती रही, किसी ने फोन नहीं उठाया। बहुत देर बाद किसी ने जैसे अनिच्‍छापूर्वक फोन उठाया - 'होटल विश्रांत।'

'फोन पर आने के लिए शुक्रिया।' मैंने कहा, 'जरा जगजीत सिंह को फोन दीजिए।'

'आप कौन साहब बोल रहे हैं।' किसी ने तमीज से पूछा।

'रवींद्र कालिया।' मैंने संक्षिप्‍त जवाब दिया, जैसे यह किसी तोप का नाम हो, जो इसे नहीं जानता वह महामूर्ख है।

'उनसे क्‍या कहना होगा?'

'नाम बताना काफी होगा।'

'मुआफ कीजिए आप कौन हैं?'

'मैं उनका दोस्‍त हूँ।'

'अब तक उनके बीसियों दोस्‍तों, अंकलों, आंटियों के फोन आ चुके हैं। शहर में उनकी कोई रिश्‍तेदारी नहीं।'

'मैं रिश्‍तेदार नहीं, दोस्‍त हूँ, उन्‍हें फोन दीजिए, वरना...।'

'वरना क्‍या?'

'अपना नाम बताइए।'

'क्‍या कर लेंगे आप। कह दिया न कि वह किसी से बात नहीं करेंगे।' मेरा जवाब सुने बगैर उसने फोन रख दिया।

मैंने बहुत बेबसी से ममता की तरफ देखा। वह भी मेरी विडंबना समझ रही थी।

'बोतल लाओ।' मैंने कहा। हर शिकस्‍त के बाद मुझे बोतल ही सहारा देती थी। जब तक मैं पेग ढालता फोन बजता रहा। मेरे मित्र लोग मुझसे ज्यादा बेचैन हो रहे थे। हर कोई यह पूछता, 'कब चलेंगे?'

मेरी स्‍थिति अत्यंत हास्‍यास्पद होती जा रही थी। सूरज डूब चुका था। वैसे भी यह मेरी कारसेवा का समय होता है। ऐसे में मैं किसी भी बाह्य हस्‍तक्षेप से गुरेज करता था। लग रहा था, आज की शाम बर्बाद हो जाएगी। मैंने ममता से कहा, सबसे संगीत समिति के गेट पर मिलने को कहो। दूसरों की बात दरकिनार वह खुद चलने के लिए बेकरार हो रही थी। मैंने जल्‍दी से दो-एक पेग चढ़ाए और ममता से कहा, 'वहीं होटल में जा कर मिलते हैं।'

होटल पहुँचे तो बाहर लोगों का भारी हूजूम था। पुलिस लग गई थी और भीड़ को नियंत्रित कर रही थी। गेट के पास ही पुलिस की एक जीप खड़ी थी। संयोग से उपनगर अधीक्षक उसमें बैठे थे, जो मेरी पहचान के निकल आए। उन्‍होंने एक सिपाही साथ कर दिया, जिसने होटल का गेट खुलवा कर हमें भीतर कर दिया। भीतर भी लोगों की अच्‍छी-खासी भीड़ थी। भीतर पहुँच कर लगा जैसे कोई किला फतेह करके यहाँ तक पहुँचे हैं। भीतर लड़के-लड़कियों और शहर के प्रभावशाली लोगों की भीड़ थी। अफसरों की बीवियाँ, उनके चमचे और अखबारों के संवाददाता और छायाकार मुस्‍तैद नजर आ रहे थे। एक कमरे के सामने छायाकारों की भीड़ देख कर सहज की अनुमान हो गया कि वी.आई.पी. उसी कमरे में हैं। कमरे के किवाड़ बंद थे। मुझे एक प्रशंसक की तरह वहाँ लाइन में लगना बहुत अपमानजनक लग रहा था। मगर इसके अलावा और कोई चारा भी न था। मुझे यह एहसास होते देर न लगी कि वह अब पुराना जगजीत सिंह नहीं रहा, वह एक स्‍टार बन चुका है। उसके कमरे के किवाड़ ऐसे बंद थे कि वह कभी खुलेंगे ही नहीं और वह छत फाड़ कर संगीत समिति पहुँच जाएगा। दीवानों की इस भीड़ में मैं अपने को बहुत निरुपाय, अटपटा और अनुपयुक्‍त अनुभव कर रहा था कि अचानक दरवाजा खुला। कमरे से कुछ साजिंदे निकले और पोर्च में खड़ी कार मैं बैठ गए। एक बैरा ट्रे में मिनरल वाटर की बोतलें और गिलास लिए कमरे में घुस गया। उसके वापिस आते ही किवाड़ फिर बंद हो गए। दरवाजे पर एक सिपाही तैनात हो गया।

अँधेरा घिरने लगा था और मेरा हलक सूख रहा था। एक बार तो जी में आया, चुपचाप घर लौट चलूँ, यह खेल तमाशा मेरे वश का नहीं है, मगर मैंने अपने गले में खुद ही एक फंदा लगा लिया था और अब उससे मुक्‍ति संभव न थी। जाने कितने मित्र संगीत समिति के बाहर जगजीत सिंह से ज्यादा मेरी प्रतीक्षा कर रहे होंगे। तभी एक लाल बत्‍तीवाली एंबेसडर पोर्च में आ कर रुकी। ए.डी.एम. सिटी कैप्‍टन द्विवेदी उसमें से उतरे। संयोग से वह भी मेरे मित्र थे। गाड़ी से उतर कर उन्‍होंने चारों तरफ नजर दौड़ाई। मुझे देख कर हाथ हिलाया और जगजीत सिंह के कमरे में घुस गए। मैं दूर खड़ा था, वरना उनके साथ हो लेता। कमरे के किवाड़ एक बार फिर खुले। इस बार जगजीत सिंह और चित्रा नमूदार हुए। लोगों में हलचल मच गई। ऑटोग्राफ लेने वालों की भीड़ आगे बढ़ी। जगजीत और चित्रा गाड़ी की तरफ कदम बढ़ाते हुए ऑटोग्राफ देने लगे। मैंने यही वक्‍त मुनासिब समझा और वहीं खड़े-खड़े पंजाबी की एक भारी भरकम गाली के साथ चिल्‍लाते हुए आवाज दी, 'जगजीत!' जगजीत ने मेरी तरफ देखा और मुस्‍कुराते हुए हाथ हिलाया। मैं और ममता भीड़ को चीरते हुए गाड़ी तक पहुँचे। जगजीत ने हम दोनों को गाड़ी में घुसने का इशारा किया। साथ में चित्रा थीं। हम चारों पिछली सीट पर बैठ गए। अगली सीट पर गार्ड बैठा था। कैप्‍टन द्विवेदी ने उसे पीछे की गाड़ी में आने का संकेत दिया और खुद ड्राइवर की बगल में बैठ गए। गाड़ी भीड़ को चीरती हुई फुर्र से संगीत समिति की तरफ दौड़ने लगी। समय बहुत कम था, फिजूल की औपचारिकता में पड़ने के बजाए मैंने जगजीत को अपने विडंबना बताई। उसने तुरंत आश्वासन दिया कि इंतजाम हो जाएगा। जगजीत ने कन्‍सर्ट के बाद साथ चलने और साथ में भोजन करने का निमंत्रण भी दिया। मेरी जान में जान आई। किसी तरह लाज बची। संगीत समिति के गेट पर ही हम लोग उतर गए। मेरे दोस्‍तों के चेहरे पर छाई निराशा मुझे जगजीत के साथ उतरते देख आशा में तब्‍दील हो गई। मैं तमाम दोस्‍तों को भीतर ले जाने में सफल हो गया, मगर इस दौरान जिस तनाव, यंत्रणा और पीड़ा से गुजरा था, उसे देखते हुए एक बार फिर तीसरी कसम खाई कि मेरा कोई मित्र कभी गलती से प्रधानमंत्री भी हो गया तो कानों-कान किसी को इसकी भनक न लगने दूँगा। मैंने कहाँ तक इस कसम का पालन किया, कह नहीं सकता, मगर इतना जरूर हुआ कि अपने अतिरिक्‍त उत्‍साह पर अंकुश लगाना सीख गया। इस सारी दौड़धूप में मैं इतना निढाल हो गया था कि जगजीत ने क्‍या सुनाया, कुछ याद नहीं रहा।

होटल लौट कर हम लोगों ने साथ-साथ भोजन किया। जगजीत ने विधिवत चित्रा व साजिंदों से हमारा परिचय करवाया। नशे में मैंने जाने किस झोंक में चित्रा को सलाह दे डाली कि वह गजल गाना बंद कर दे और रवींद्र संगीत गाया करें। मेरी बात से चित्रा तो मुस्‍कराने लगीं, मगर साजिंदे मुझसे खफा हो गए। उन्‍हें जानते देर न लगी होगी कि यह मेरी अनधिकार चेष्‍टा थी। हम लोग खुशी-खुशी घर लौटे, खुशी की एक वजह यह भी थी कि मैं पी कर इससे भी ज्यादा गुस्‍ताख हो सकता था। ममता संतुष्‍ट थी कि मैं ज्यादा अनियंत्रित नहीं हुआ।

19-

हमारे मित्र उमेशनारायण शर्मा के शहर में बहुत सारे दोस्‍त थे। जो उनका दोस्‍त था, वह हमारा दोस्‍त हो गया और जो हमारा दोस्‍त था, वह उनका। उन्‍होंने छात्र राजनीति से जीवन शुरू किया था और राजनीति के प्रारंभिक वर्षों में शहर की दो-चार इमारतों को आग लगा दी थी और उनकी ख्‍याति दूर-दूर तक फैल चुकी थी। उनकी शिक्षा-दीक्षा इलाहाबाद में हुई थी, शहर में उनके बीसियों सहपाठी थे। कोई डॉक्टर बन चुका था तो कोई इंजीनियर। यही नहीं हर राजनीतिक दल में उनके नुमायंदे थे। वह सुबह का नाश्‍ता लोहियावादियों के साथ करते तो लंच भाजपाइयों के संग। रात का भोजन प्रायः कांग्रेसियों के साथ ही रहता। नौजवानों में वह अत्यंत लोकप्रिय थे। पेशे से वह वकील थे। और वकालत की सीढ़ियाँ चढ़ते-चढ़ते इलाहाबाद उच्‍च न्‍यायालय में भारत सरकार के वरिष्‍ठ स्‍थायी अधिवक्‍ता के पद पर आसीन हो चुके थे। यह भी एक कारण था कि उनकी जान-पहचान का दायरा बहुत वसीह था। समाज के प्रत्‍येक वर्ग में उनका दखल था। देश के चोटी के माफिया उनके मुवक्‍किल थे। वह पद देख कर मित्रता नहीं करते थे, मंत्रियों से दोस्‍ती थी तो संतरियों से भी। पुलिस अधिकारियों के साथ उनका उठना-बैठना था तो अधिकारियों के स्‍टाफ का उमेश जी के साथ। उनकी महफिल में शायर भी नजर आते और पत्रकार भी। मन में आता तो तरन्‍नुम में गजल भी सुना देते, गोरख पांडे की कविताएँ उनकी जुबान पर रहतीं। उनके यहाँ कभी-कभार काव्‍यपाठ का ऐसा वातावरण बन जाता कि दिल का डॉक्टर फ़ैज़ अहमद 'फ़ैज़' की गजल सुनाता तो दाँत का डॉक्टर फिराक गोरखपुरी की। जगजीत सिंह की गाई गजलें तो होम्‍योपैथ का डॉक्टर भी सुना देता। उच्‍च न्‍यायालय के निबंधक गिरीश वर्मा तरन्‍नुम में गजलों का पाठ शुरू करते तो महफिल देर रात तक खिंच जाती। ऐसी महफिलों में ही आभास मिलता कि साहित्‍य जनमानस से उतना दूर नहीं गया है, जितना लोग समझ बैठे हैं। उमेश जी के साथ मैं ऐसे लोगों के यहाँ दावत में शरीक हो आया, जिनसे दूर-दूर तक परिचय होने के इम्‍कानात न थे। यह कहना भी गलत न होगा कि वह हमारे शाम के गिरोह के सरगना थे।

उमेश जी को अपने यहाँ पार्टियाँ फेंकने का शौक था। उनके घर की व्‍यवस्‍था इतनी चुस्त-दुरुस्‍त रहती कि उनके यहाँ दो-तीन दर्जन लोग भी आराम से भोजन कर लेते। बाटी-चोखा का स्‍वाद मैंने पहली बार उनके यहाँ ही चखा था। उन दिनों वह खुसरोबाग रोड पर अश्क जी के पड़ोस में रहते थे। व्‍यापक परिसर के बीच में उनकी छोटी-सी कुटिया थी। परिसर में आम, बेल आदि के बीसियों पेड़ थे। जाड़े के दिनों में उन्‍हीं पेड़ों के नीचे लकड़ियाँ जलाई जातीं और कैंपफायर के माहौल में मदिरापान होता और बाटी-चोखा का डिनर। अक्‍सर वह बहुत कम नोटिस पर पार्टी की सूचना देते या पिकनिक की। रात को अचानक फोन मिलता कि मूरतगंज नौटंकी देखने चलना है या अमरीकी दूतावास की किसी वरिष्‍ठ राजनयिक के साथ शाम बिताने का कार्यक्रम है। छुट्‌टी के किसी रोज किसी पार्क का मुक्‍तांगन अचानक मधुशाला में तब्‍दील हो जाता। इलाहाबाद के तमाम क्‍लबों में भी उमेश जी के साथ ही मदिरापान का अवसर मिला। उन्‍हें जानकारी रहती कि कौन बावर्ची कबाब बनाने में पारंगत है और कौन मछली के व्‍यंजन खिला सकता है। यह उन दिनों की बात है जब हमारा जिगर दुरुस्‍त था, लक्‍कड़ हजम और पत्‍थर हजम करने में सक्षम था। दोपहर में बियर और जिन और शाम को व्हिस्की का वजन बर्दाश्‍त कर सकता था। मायावती के तथाकथित भाई हों या मुलायम सिंह के बाल सखा, नेहरु जी के चुनाव के प्रभारी या अमिताभ बच्‍चन के मामा, उमेश जी किसी से भी अचानक मिला देते।

इस गिरोह में हर तरह के लोग आते और आ कर चले जाते, मगर स्‍थायी सदस्‍य वही रहते। इसमें डॉक्टर थे, वकील थे, पत्रकार थे, प्रशासनिक अधिकारी थे, दबंग थे, ज्‍वैलर्स थे, ट्रेडर्स थे, चीनी मिल के मालिक थे तो शीरे के व्‍यापारी भी। ऐसे-ऐसे लोगों से मुलाकात हो जाती जो रात के बारह बजे मुख्‍य मंत्री से फोन पर बतिया लेते। 'वर्तमान साहित्य' के महाविशेषांक की योजना उनके यहाँ ऐसी ही पार्टी में बनी थी। विभूतिनारायण राय को साहित्‍य का कीड़ा काटा हुआ था और वह एक वृहत विशेषांक प्रकाशित करना चाहते थे, मगर वित्‍त की व्‍यवस्‍था न हो पा रही थी। उमेशनारायण शर्मा ने एक लाख के विज्ञापन की जिम्‍मेदारी ले ली और देखते ही देखते एक पखवारे में व्‍यवस्‍था भी कर दी। हम लोगों की छोटी-मोटी समस्‍या का यों ही चुटकियों में समाधान हो जाता। बच्‍चों के किसी अच्‍छे नामी स्‍कूल में दाखिले की समस्‍या उठती तो उमेश जी गंगा तट पर किसी स्‍वप्‍निल फार्म हाउस में पार्टी का आयोजन करते कि उस स्‍कूल का प्रिंसिपल ही नहीं पूरा प्रशासन चला आता। हम लोगों को बच्‍चों के दाखिले के लिए दर-दर भटकना न पड़ा, ऐसी ही पार्टियों में दाखिले की व्‍यवस्‍था हो गई और उस जहमत से बचाव हो गया, जो इन स्‍कूलों में दाखिले के लिए उठानी पड़ती है। वरना दाखिले के लिए परेशान बड़े-बड़े लोगों को लंबी-लंबी कतारों की शोभा बढ़ाते देखा जा सकता है।

हमारी मंडली में होम्‍योपैथ डॉक्टर भी थे। डॉ. एस.एम. सिंह। वह इलाहाबाद के सबसे महँगे और आधुनिक होम्‍योपैथ थे। उनके क्लिनिक में सबसे पहले कंप्यूटर लगा था। वह दोस्‍तों और अफसरों का इलाज मुफ्त करते थे। अफसरों के इलाज में उन्‍हें महारत हासिल थी, अफसरों का इलाज करते-करते उनकी आत्‍मा कृतकृत्‍य हो जाती। तमाम अधिकारियों का रक्‍तचाप उन्‍हें जुबानी याद रहता। किसी दोस्‍त के घर में 'नक्‍स वोमिका' देख कर सहज ही अनुमान लगा लेता कि आजकल वह डॉ. एस.एम. सिंह से कब्ज का इलाज करा रहा है।

डॉक्टरों, वकीलों के अलावा इन पार्टियों में पत्रकारों और शायरों की आम्दोरफ्त रहती। उनके यहाँ इंजीनियर दिखाई देते तो ठेकेदार भी। उनके यहाँ सर्वधर्म समभाव नहीं तो सर्वदिल समभाव अवश्‍य देखा जा सकता था। जिस प्रकार शाम को मटके का नंबर घोषित होता है, इसी शैली में शाम को पार्टी के स्‍थान की घोषणा होती। आठ बजे तक एक-एक कर सब कारसेवक निर्धारित स्‍थान पर पहुँच जाते। इन पार्टियों में गर्मागर्म राजनीतिक चर्चाएँ होतीं, शेरोशायरी होती, चुटकलेबाजी होती और अगली पार्टी की भूमिका तैयार हो जाती। नदी के किनारे किसी रईस की ऐशगाह में बाटी-चोखा का कार्यक्रम बन जाता अथवा छुट्टी की किसी गुनगुनी दोपहर में किसी पार्क या क्‍लब के कोने में बियर, जिन और चाट की कॉकटेल हो जाती।

मेरे तो ऐसे कई मित्र बन गए, जिनके न अतीत की जानकारी थी न वर्तमान की। डॉ. सुशील यादव से भी ऐसी ही किसी पार्टी में मुलाकात हुई थी। अब यह याद नहीं पड़ रहा कि उन्‍हें मैं गिरोह में ले गया था या विभूतिनारायण राय। वह मेरे पड़ोसी 'स्‍वतंत्र भारत' के संवाददाता, प्रदीप भटनागर के मित्र थे। शायद वह ही उन्‍हें मिलाने ले आए थे। डॉक्टर यादव पेशे से डॉक्‍टर थे, मगर ऊपर से नीचे तक राजनीति में पगे थे। झूँसी में उनका नर्सिंग होम था। उनकी महत्‍वाकांक्षाएँ अपने पेशे में कम, राजनीति में अधिक थीं। वह एक लंबे अरसे तक मुलायम सिंह यादव की राजनीति से जुड़े रहे। मुलायम सिंह झूँसी स्‍थित उनके नर्सिंग होम भी आते, मगर डॉ. यादव सपा की इलाहाबाद इकाई से तालमेल स्‍थापित न कर पाए। एक बार लखनऊ में मैंने 'गंगा यमुना' के लिए इंटरव्यू के दौरान मुलायम सिंह यादव से डॉक्टर सुशील यादव का एक से अधिक बार जिक्र किया, मगर मुलायम सिंह ने उन पर कोई भी टिप्‍पणी न की। मुझे समझते देर न लगी कि सपा में उनकी दाल न गलेगी। डॉ. यादव को भी इसका आभास हो गया होगा। शायद यही कारण था कि कुछ दिनों बाद अजीत सिंह इलाहाबाद आए तो वह डॉ. सुशील यादव की गाड़ी में घूम रहे थे। डॉ. यादव का एक ही पुत्र था, उत्‍सव। वह स्‍कूल में पढ़ता था। वह रोज झूँसी से उसे स्‍कूल छोड़ने और लेने आते। उसके जन्‍मदिन पर अपने यहाँ तमाम मित्रों को आमंत्रित करते और देर रात तक मौजमस्‍ती होती। उनकी पत्‍नी भी डॉक्टर थीं, नर्सिंगहोम उन्‍हीं के बल पर चलता था। डॉक्टर यादव झूँसी को अपने निर्वाचन क्षेत्र के रूप में विकसित करना चाहते थे और अक्‍सर साधनहीन लोगों का मुफ्त इलाज करते। चुनाव से पूर्व टिकट वितरण के समय वह लखनऊ में डेरा डाल देते मगर हर बार खाली हाथ ही लौटते।

मेरे डॉक्टर मित्रों में डॉ. नरेंद्र खोपरजी भी एक विलक्षण व्‍यक्‍ति थे। जब मैं उनसे प्रथम बार मिला तो वह पैथोलोजिस्‍ट थे। कुछ दिनों बाद उन्‍होंने अल्ट्रासाउंड में विशेषज्ञता हासिल कर ली और इलाहाबाद में पहला 'डॉप्लर' सिस्‍टम स्‍थापित किया। बीच में वह कई देशों का भ्रमण कर आए और उन्‍होंने बाँझपन और पुंसत्‍वहीनता पर कई कार्यशालाओं में भाग लिया। जब मैं 'गंगा यमुना' का संपादन कर रहा था तो वह हमारे लिए यौन रोगों पर कॉलम लिखने लगे। इधर उन्‍होंने कृत्रिम गर्भाधान पर व्‍यावहारिक प्रशिक्षण प्राप्‍त करने के बाद अपनी पत्‍नी के सहयोग से अभिलाषा बाँझपन उपचार एवं अनुसंधान केंद्र की स्‍थापना की है। ऐसे गैरमामूली आदमी का हमारे गिरोह में शामिल होना लाजिमी था। गिरोह में शामिल होने की तमाम अर्हताएँ उनके पास थीं। इस गिरोह के सदस्‍य शायद ही दिन में कभी मिले हों, मगर सूरज गुरूब होते ही टेलीफोन की घंटियाँ टनटनाने लगतीं और देखते ही देखते आठ बजे तक महफिल जम जाती।

नरेंद्र खोपर जी और मैं अलग-अलग पेशे में थे, मगर हम लोगों में कुछ समानताएँ थीं। एक समानता तो यही थी कि दोनों मद्यप्रेमी थे। पेशे से छुट्‌टी मिलते ही तमाम लोग बिल्‍कुल दूसरे इनसान हो जाते थे, फक्‍कड़, मलंग और मुँहफट। यह डॉ. नरेंद्र खोपरजी के लिए ही संभव था कि अपनी पत्‍नी की उपस्‍थिति में अपने प्रेम प्रसंगों का सजीव वर्णन कर सकते थे। दूसरा कोई होता तो उसकी घिग्‍घी बँध जाती। अभिलाषा जी हमारी तरह उतने ही कौतुक और उत्‍सुकता से उनकी बातें सुनतीं, खोपरजी कोई गलती करते तो सुधार देतीं, 'अरे यह प्रभा की नहीं विभा की बात है।' अगर खोपरजी कुछ भूल जाते तो वह कहतीं - अब 'मंजू का किस्सा भी सुना दो।' पति-पत्‍नी के बीच ऐसा खुला संवाद कम ही देखने को मिलता है।

एक बार खोपरजी के साथ एक सांसद की बिटिया की शादी में जाने का अवसर मिला। सांसद मेरे भी मित्र थे, खोपरजी की मित्रता उस लड़की से थी, जिसकी शादी थी। अच्‍छी दावत की अपेक्षा में हम घर से जी भर कर कारसेवा (मद्यपान) करके निकले। लड़की ने कभी लड़कपन में प्रेम में निराश हो कर भावुकता के आवेश में खुदकुशी का प्रयास किया था और ढेरों नींद की गोलियाँ निगल ली थीं। उस आड़े वक्‍त में डॉ. खोपरजी ने ही उसे बचाया था। उस मुस्‍लिम परिवार में वह घर के सदस्‍य की तरह घुल-मिल गए थे। हम लोग भीड़ में राह बनाते हुए सीधे दूल्‍हा-दुल्‍हिन के पास पहुँचे। खोपर जी ने पहुँचते ही दूल्‍हे पर एक धौल जमाया और बोले, 'कसबे, हमारी दुल्‍हनियाँ को ही भगाए लिए जा रहे हो।' दूल्‍हा इस हमले के लिए तैयार नहीं था, उसका चेहरा उतर गया। मैंने तुरंत खुलासा किया कि डॉक्टर बचपन से ही हर दुल्‍हन को अपनी दुल्‍हन समझने की भूल करते आ रहे हैं, आप इत्‍मीनान रखें। आज तो खैर यह नशे में हैं। डॉक्टर ने मेरी बात का तुरंत प्रतिवाद किया, 'कौन कहता है, मैं नशे में हूँ, मियाँ मैं होशो-हवास में कह रहा हूँ कि यह मेरी दुल्‍हन है।' परिवार के तमाम सदस्‍य डॉक्टर की बात पर हँस रहे थे, दूल्‍हा भी हँसने लगा। यह सब देख कर मैंने भी एक जोरदार ठहाका बुलंद किया।

एक डॉ. गौड़ थे, हड्‌डी के डॉक्टर। उनसे भी मेरा परिचय इन्‍हीं महफिलों में हुआ था। एक बार मैं नशे में सीढ़ियाँ उतरते हुए ऐसा फिसला कि पैर में चोट लग गई और एड़ी में ऐसा दर्द बैठ गया जैसे हड्‌डी टूट गई हो। कई दिनों के घरेलू इलाज से भी आराम न मिला तो एक रोज सुबह-सुबह मन्‍नू और ममता मुझे घेर कर डॉ. गौड़ के यहाँ ले गए। घेर-घार कर इसलिए कि थोड़े-बहुत दर्द के साथ जीने में मुझे कोई ज्यादा परेशानी नहीं होती। बरामदे में बहुत से मरीज बैठे थे, हम लोग भी कतार में लग गए। गौड़ साहब का कंपाउंडर एक-एक कर मरीजों को भीतर भेज रहा था। डॉ. गौड़ के क्‍लीनिक के बाहर ऊँचा-सा परदा लटका था। हम लोग अभी बैठे ही थे कि डॉ. गौड़ ने आवाज दी - 'कालिया जी बाहर क्‍यों बैठे हो, भीतर चले आइए।' हम लोग भीतर पहुँचे तो उन्‍होंने बताया, वह मेरी चप्‍पल से मुझे पहचान गए थे। उन दिनों चप्‍पल ही मेरा ट्रेडमार्क थी। मेरा क्‍या, सन साठ के बाद की पीढ़ी का चप्‍पल में अटूट विश्‍वास था। ज्ञानरंजन चप्‍पल पहने रोहताँग पास तक हो आया था तो मैं चप्‍पल पहने ही कई मुख्‍यमंत्रियों का अपने साप्‍ताहिक के लिए इंटरव्यू ले आता था। काशीनाथ सिंह आज भी आपको काशी की गलियों में चप्‍पल चटकाते मिल जाएगा। वह हमप्‍याला दोस्‍त ही क्‍या हुआ, जो आपको चप्‍पल से न पहचान ले। लक्ष्‍मण देवर से एक कदम आगे ही होते हैं हमप्‍याला दोस्त।

डॉ. सुशील यादव की देश की राजनीति में ही दिलचस्‍पी नहीं थी, वह देश के भविष्य, इंजीनियरों, डॉक्टरों की लूट-खसोट और भ्रष्‍टाचार के प्रश्‍न पर आंदोलित रहते। खोपरजी जितने ही खुले थे, डॉ. सुशील उतने ही बंद। उनके व्‍यक्‍तित्‍व की खिड़कियाँ राजनीति की तरफ खुलती थीं या ज्‍योतिष और तंत्र-मंत्र की तरफ। अपने मरीजों के इलाज के साथ-साथ वह उनके लिए थाना, कोर्ट, कचहरी भी करते। उन्‍हें विश्‍वास था कि झूँसी की यह महान जनता एक दिन उन्‍हें विधान सभा तक पहुँचा देगी। उनसे संपर्क होता तो लगता इस बार वह टिकट ले कर ही लौटेंगे, मगर हर बार उन्‍हें खाली हाथ ही लौटना पड़ता। लखनऊ से निराश लौटने के बाद वह नए सिरे से ज्‍योतिषियों से संपर्क साधते। बाहर से भी कोई ज्‍योतिषी आता तो डॉ. यादव को इसकी खबर रहती। वह किसी तांत्रिक से कोई अनुष्‍ठान करवाते और नए सिरे से राजनीति में सक्रिय हो जाते। धीरे-धीरे वह इस निष्‍कर्ष पर पहुँच गए थे कि राजनीति में बुद्धिजीवियों और ईमानदार लोगों का कोई भविष्‍य नहीं है। महफिल में राजनीति पर बात होती तो वह हिस्‍सा लेते, इश्‍क-माशूक और सेक्‍स-वेक्स में उनकी कोई दिलचस्‍पी न थी। मुझे वह हमेशा 'दिल-विल प्‍यार-व्‍यार मैं क्‍या जानू रे' किस्‍म के शख्‍स लगते थे।

एक दौर ऐसा भी आया, डॉ. यादव की दिलचस्‍पी राजनीति में कम ज्‍योतिष और तंत्र में अधिक नजर आने लगी। बैरहना का एक छोटा-सा कृशकाय ज्‍योतिषी प्रायः उनके साथ देखा जाता। वह प्रदेश और केंद्र सरकार के भविष्‍य पर अटकलें लगाता रहता - 'डॉक्टर साहब उनतीस तक सरकार जरूर गिर जाएगी, बस जरा शनी में शुक्र चलने दीजिए।' वह न सिगरेट पीता था न शराब। एक रोज हम लोग अपनी कमजोरियों पर चर्चा कर रहे थे, कोई अपनी शराब की लत से परेशान था तो कोई तंबाकू की आदत से। मैंने चुटकी ली कि हम सब में द्विवेदी जी सबसे सुखी आदमी हैं, इन्‍हें शराब की न तलब होती है न तंबाकू की। मेरी बात से द्विवेदी जी जैसे आहत हो गए, उन्‍होंने कहा, ऐसी बात नहीं है भाई साहब, मैं भी बहुत परेशान रहता हूँ।

'आपकी क्‍या परेशानी है?' डॉक्टर साहब ने पूछा। द्विवेदी जी ने झेंपते हुए कहा, 'मुझमें भी एक कमजोरी है। दरअसल, मैं बहुत कामुक हूँ।' पंडित जी की बात सुन कर सब लोगों का बहुत मनोरंजन हुआ। डेढ़ पसली के उस पंडित ने बताया कि वह भी क्‍या करे, उसका शुक्र बारहवें में पड़ा हुआ है। यह उसकी नियति है।

'ऐसी कामुकता भी किस काम की।' डॉ. यादव ने बताया, पंडित जी की शादी को तीन वर्ष हो गए मगर अभी तक संतान का सुख नहीं मिला। डॉक्टर यादव अपनी पहचान की राजनीतिक हस्‍तियों से भी ज्‍योतिषियों को मिलाते रहते थे। इससे बड़े से बड़े नेता के यहाँ उनको आसानी से प्रवेश मिल जाता था। एक बार डॉक्टर यादव ने एक मंत्री से द्विवेदी जी को मिला दिया। मंत्री जी की पत्‍नी हमेशा गहरे अवसाद में रहती थीं, बहुत इलाज करने पर भी वह ठीक न हुईं, तो डॉक्टर यादव ने द्विवेदी जी की सेवाएँ प्रस्‍तुत कीं। द्विवेदी जी ने मंत्री जी की कुंडली का देर तक अध्‍ययन किया और बोले, 'मंत्री जी, आप की पत्‍नी को कटि के नीचे के रोग हैं।' यह सुन कर मंत्री जी की पत्‍नी आगबबूला हो गईं और उसने द्विवेदी जी को ऐसी फटकार लगाई कि उसके बाद डॉक्टर यादव का भी मंत्री से संपर्क करने का दुबारा साहस न हुआ। इस प्रकरण में पंडित द्विवेदी का अधिक दोष नहीं था। हमेशा की तरह घबराहट में उन्‍हें सही समय पर सही शब्‍द नहीं मिला था। वह कहना चाहते थे कि जातक को कब्ज की शिकायत है। कब्ज का सही इलाज हो जाएगा तो अवसाद की शिकायत भी न रहेगी। कटि के नीचे का यह प्रसंग 'चिकुरजाल' की तरह लोकप्रिय हो गया था और उनके तमाम यजमानों को इसकी खबर लग चुकी थी।

डॉ. यादव कई बार ऐसे बीहड़ किस्‍म के भविष्‍यवक्‍ताओं को ले कर चले आते कि उन लोगों से डर लगने लगता। ऐसा ही एक ज्‍योतिषी पश्‍चिमी उत्‍तर प्रदेश से आया था। मैं पहली बार किसी गैरब्राह्मण ज्योतिषी से मिला था, जो जाति से गुप्‍ता था। ममता को देखते हुए उन्‍होंने बताया कि आप वृष लगन में पैदा हुई हैं। शनि और वृहस्‍पति आपके बारहवें घर में पड़े हैं। देखते ही देखते उन्‍होंने ममता की जन्‍म कुंडली बना दी, जो वर्षों पहले कंप्युटर से बनवाई गई कुंडली की हू-ब-हू प्रतिलिपि थी। किसी जमाने में यह सज्‍जन उत्‍तर प्रदेश के पूर्व मुख्‍यमंत्री चंद्रभानु गुप्‍त के पारिवारिक ज्‍योतिषी थे। चंद्रभानु गुप्‍त उनके मश्‍वरे से ही महत्‍वपूर्ण निर्णय लिया करते थे। चंद्रभानु गुप्‍त बीमार पड़े तो गुप्ता जी को बुलवा भेजा। गुप्ता जी ने उन्‍हें लेटे देखा तो बोले, 'गुप्ता जी, अपने तमाम चाहने वालों को बुलवा लीजिए, आपका आखिरी वक्‍त आ गया है।' यह घटना बता कर वह हो-हो कर हँसने लगे। मुझे उनसे बहुत भय लगा, जाने यह कब क्‍या कह दें।

बीच में एक ऐसा दौर आया था कि, मेरी भी ज्‍योतिष में गहरी दिलचस्‍पी हो गई थी। मैंने ज्‍योतिष के ग्रंथों का विपुल भंडार इकट्‌ठा कर लिया था और सोलह-सोलह घंटे उनके पारायण में व्‍यस्‍त रहने लगा था। अमरकांत जी ने मेरा जुनून देख कर मश्‍वरा दिया कि मैं अपने क्षेत्र में इतना समय दूँ तो ज्यादा सार्थक होगा। लगता है यह शौक भी मुझे विरासत में ही मिला था। मेरे नाना अपने इलाके के प्रख्‍यात ज्योतिषी थे। ननिहाल में यजमानों का ताँता लगा रहता था। मेरे सामने एक नए जगत के द्वार अनायास खुल रहे थे। मैंने अमरकांत जी की राय पर अमल किया और इस अनुशासन से समय रहते मुक्‍ति पा ली। मुझे लगा, यह एक ऐसा रहस्‍यमय एवं गोपन संसार है, इसमें वही पारंगत हो सकता है, जो पूर्णरूप से इसी विद्या को समर्पित हो जाए। मैं जितना अध्‍ययन करता, उतना ही अपनी अल्‍पज्ञता का आभास होता। इस सागर को वही पार कर सकता था जो इसी में डूब जाए।

ज्‍योतिष के प्रति मेरा लगाव अचानक नहीं विकसित हो गया था। एक बार मेरे मित्र जगदीश पीयूष ने सुलतानपुर में मुझे पं. रामचंद्र शुक्‍ल से मिलवाया। पंडित जी ने अत्यंत सहज रूप से कुछ बातें बताईं, जो इतनी सही निकलीं कि मेरी तमाम धारणाएँ ध्‍वस्‍त हो गईं। पंडित जी ने सहज ही संजय गांधी की मृत्‍यु, राजीव के सक्रिय राजनीति में आने और विश्‍वनाथ प्रताप सिंह के मुख्‍य मंत्री बनने और चंद्रशेखर के प्रधान मंत्री के पद पर आसीन होने की भविष्‍यवाणी कर दी थी। उन्‍होंने वर्षों पूर्व मुझे चंद्रशेखर के प्रधान मंत्री बनने की तिथि तक बता दी थी। उन्‍होंने शायद 12 नवंबर की तिथि बताई थी और चंद्रशेखर ने 11 नवंबर को ही शपथ ग्रहण कर ली थी। पंडित जी ने मेरी धारणाओं, विश्‍वासों और मान्‍यताओं की चूलें हिला दी थीं। वह न कुंडली देखते थे न हाथ, चेहरा देख कर ही भविष्‍यवाणी कर देते थे। इसे ज्‍योतिष तो नहीं कहा जा सकता, इलहाम ही कहा जाएगा। एक बार मेरे मित्र ने पंडित जी से पूछा कि उसकी शादी कब होगी, पंडित जी ने उसकी तरफ गौर से देखा और बोले, आज ही तय हो जाएगी। दोपहर तक उसकी शादी सचमुच तय हो गई। एक बार अमरकांत जी ने पंडित जी से कहा कि आप सबको कुछ न कुछ बताते रहते हैं, मुझे बताइए कि कुछ धन की प्राप्‍ति होगी कि नहीं। पंडित जी ने बताया कि बाईस तारीख को उनके पास कहीं से अचानक धन आएगा। इक्‍कीस तारीख तक अमरकांत जी पंडित जी की बात का उपहास उड़ाते रहे, बाईस को वह दफ्तर से एक लिफाफा लिए हुए प्रकट हुए, हिंद पाकिट बुक की तरफ से उनके पास तीन हजार रुपए का ड्राफ्ट आया था।

शराबी बीमार पड़ता है तो शराब की बहुत फजीहत होती है। मैं बीमार पड़ा तो शराब मुफ्त में बदनाम होने लगी। मुझे इस बात की बहुत पीड़ा होती, कुछ-कुछ वैसी, जो आपके प्रेम में पड़ने पर आप की माशूका की होती है, जब लोग उसे आवारा समझने लगते हो। कुछ लोग प्रेम को चरित्र का दोष मान लेते हैं। शराब तो इतनी बदनाम हो चुकी है कि शराबी को मलेरिया भी हो जाए तो लोग सारा दोष शराब के मत्‍थे मढ़ देंगे। मेरी बीमारी का यही हश्र हुआ। लोगों की समझ में सहसा अनेक बातें स्‍पष्‍ट हो गईं। एक तो यही कि मैं जीवन भर घटिया लेखन क्‍यों करता रहा हूँ या मैंने महल क्‍यों नहीं खड़े कर लिए, संसद में क्‍यों नहीं पहुँच पाया। शराबी बीमार पड़ता है तो सबसे पहले वह बिरादरी बाहर हो जाता है। दरअसल वह बिरादरी के काम का ही नहीं रहता। बिरादरी को उसके चेहरे पर बहुत जल्‍द अपना भविष्‍य नजर आने लगता है, ऐसा भविष्‍य जिसे कोई देखना नहीं चाहता। डॉक्टर मित्रों ने भी मुझे बट्टे खाते में डाल दिया। हड्डी का डॉक्टर कह सकता था, मुझे फ्रेक्‍चर नहीं हुआ, इसलिए नहीं आया। दाँत का डॉक्टर जानता था मेरे दाँत सही-सलामत हैं, दिल के डॉक्टर ने मुझे जिगर के डॉक्टर का फोन नंबर बता दिया।

बीमारी के दौरान मैं अक्‍सर कहा करता था - सारियाँ बीबियाँ आइयाँ, हरनामकौर न आई। यानी सब डॉक्टर मित्र आ कर देख गए, हरनाम कौर देखने नहीं आई थी। मेरी एक नहीं दो-दो हरनाम कौरें थीं - डॉ. एस.एम. सिंह और डॉ. सुशील यादव। डॉ. सिंह शहर के नामी होम्‍योपैथ थे, उनकी पत्‍नी पार्टी में नहीं होती थीं तो वह शराब भी चख लेते थे और पी कर बहुत भावुक हो जाते थे। मैं भी झोलाछाप होम्‍योपैथ था और वक्‍त जरूरत उनसे राय-मशविरा किया करता था। मैं चाहता था, वह आ कर मुझे देख जाएँ और इसकी तस्‍दीक कर दें कि मैं अपना सही इलाज कर रहा हूँ। डॉक्टर एस.एम. सिंह वादा करके भी नहीं आए। मैं उनकी प्रतीक्षा करते-करते स्‍वस्‍थ होने लगा। इसमें डॉक्टर सिंह को दोष नहीं दिया जा सकता, हो सकता है उन दिनों कोई उच्‍च अधिकारी बीमार पड़ा हो। जिला प्रशासन के वह सबसे चहेते डॉक्टर थे। वह व्‍यक्‍ति नहीं, पद के डॉक्टर थे। आयुक्त, पुलिस महानिरीक्षक और महापौर अ हो या ब हो या स ही क्‍यों न हो, वह डॉक्टर एस.एम. सिंह से बच नहीं सकता। अफसर को बवासीर हो या कोई गुप्‍त रोग, हमारे डॉक्टर उसे अपना मरीज बना ही लेते थे। कुछ दिनों बाद वह उनकी शरणागत हो जाता। आज डॉक्टर एस.एम. सिंह मिलते हैं तो यह जरूर पूछ लेते हैं, मैं उनसे नाराज तो नहीं हूँ।

मेरी दूसरी हरनाम कौर डॉक्टर डॉ. सुशील यादव थे। मैं बीमार पड़ा तो उन्‍होंने भी मुझसे अफसानानिगारी और बेनियाजी शुरू कर दी। वह झूँसी में रहते थे, उन दिनों झूँसी का फोन बहुत मुश्‍किल से मिलता था, अक्‍सर यही सुनने को मिलता कि इस रूट की सभी लाइनें व्‍यस्‍त हैं। खाट पर लेटे-लेटे मैं उनसे रूठ गया था। वह विभूतिनारयण राय के भी मित्र थे। विभूति उन दिनों श्रीनगर में थे, वह भी मुझे आ कर देख गए थे। विभूति अक्‍सर डॉ. सुशील की गाड़ी में ही आते थे, डॉ. सुशील उपलब्‍ध न होते तो हरिश्‍चंद्र अग्रवाल के साथ। दोनों न मिलते तो वह विनोद शुक्‍ल के स्‍कूटर के पीछे बैठ कर चले आते। स्‍कूटर पर बैठने में भी संकोच न करनेवाले वह देश के प्रथम आई.जी. या डी.आई.जी. होंगे। एक वे भी दिन थे डॉ. सुशील से हम लोगों का संपर्क न हो पाता तो, वह शाम तक सूँघते-सूँघते हम लोगों को खोज निकालते थे। वह एलोपैथी के डॉक्टर थे, खुद बीमार पड़ते तो होम्‍योपैथी की दवाएँ लेने में भी संकोच न करते।

एक बार दिल्‍ली में उनसे भेंट हो गई थी। उनकी पत्‍नी उन दिनों नर्सिंग होम के अलावा 'इफ्‍को' में भी काम करती थीं। डॉ. सुशील यादव पत्‍नी के ही किसी काम के सिलसिले में दिल्‍ली आए हुए थे। वह अशोक यात्री निवास में ठहरे थे और मैं बगल के एक पाँच या तीन सितारा होटल में अपने मित्र दीपक दत्‍ता का अतिथि था।

दीपक दत्‍ता इलाहाबाद का उभरता हुआ लघु उद्योगपति था। नैनी औद्यौगिक क्षेत्र में उसके पास एक व्‍यापक भूखंड था, जिसमें उसका साफ्‍टड्रिंक्‍स का प्‍लांट था। उन दिनों उसके पास कैंपा कोला का फ्रेंचाइज था। जब तक इस देश की धरती पर कोका कोला और पेप्‍सी के कदम नहीं पड़े थे, उसका प्‍लांट तीन-तीन शिफ्टों में चलता था और थोड़ी-थोड़ी देर के अंतराल के बाद उसके प्‍लांट से कैंपा कोला से लदे ट्रक रवाना होते रहते थे। देश के तापमान के साथ-साथ उसका टर्न ओवर बढ़ता जाता और उसे अपने व्‍यवसाय के सिलसिले में अक्‍सर दिल्‍ली जाना पड़ता। कभी क्राउन खत्‍म हो जाते और कभी कन्‍सेन्‍ट्रेट। उसके पास जितना पैसा आता उसी अनुपात में वह कर्मकांडी होता जाता। वह सुबह जम कर पूजा पाठ करता और उन दिनों उसने ललिता देवी के मंदिर के जीर्णोद्धार का बीड़ा भी उठा रखा था।

वसंत पंचमी के आस-पास प्रतिवर्ष उसके प्‍लांट की ओवर हालिंग होती और शुभ मुहूर्त में सत्रारंभ होता। दो-एक बार मैंने उसके प्‍लांट का उद्‌घाटन किया था। मेरी उससे मित्रता हो गई और साल भर कैंपा और सोडा की अबाधित आपूर्ति होती रहती। सोडा मिला कर विस्‍की पीने का आनंद ही दूसरा था, तब तो और भी ज्यादा, अगर कम से कम सोडा तो मुफ्त का मिले। कभी-कभी दीपक अनुरोध करके मुझे भी अपने साथ दिल्‍ली ले जाता। दिल्‍ली पहुँचते ही उसका कायाकल्‍प हो जाता। होटल में 'चेक इन' करते ही वह सैलून में घुस जाता और दो-चार सौ रुपए खर्च करके बाल कटवाता, शेव बनवाता। होटल का एक-एक कर्मचारी उससे परिचित था। सब लोग उसकी सेवा में जुट जाते और वह फराखदिली से बख्‍शीश बाँटता हुआ अपने 'स्‍यूट' में पहुँचता। शाम को कैंपा कोला के अधिकारियों का जमघट लग जाता। उसके सभी काम होटल में बैठे-बैठे हो जाते। इस जनसंपर्क से ही उसकी अनेक व्‍यावसायिक कठिनाइयाँ दूर हो जातीं। उसके होटल के कमरे में रात देर तक पार्टी चलती और स्‍कॉच बहती।

एक दिन शाम को दीपक, डॉ. यादव और मैं होटल में बैठे कारसेवा कर रहे थे कि एक सरदार जी दीपक से मिलने आए। वह कंपनी के वरिष्‍ठ मार्केटिंग अधिकारी थे। उनके साथ एक महिला थीं। वह महिला अलग-थलग एक ओर सोफे पर बैठ गईं। दीपक ने सरदार जी से पूछा कि यह सॉफ्ट ड्रिंक लेंगी या जिन वगैरह मँगवाई जाए। सरदार जी ने कहा कि इन्‍हीं से क्‍यों नहीं पूछ लेते। दीपक पूछता इससे पहले ही उस महिला ने बताया कि वह रम ले लेंगी। दीपक ने उनके लिए एक रम का पेग बना दिया। उसने 'चियर्स' कहा और दो-चार घूँट में ही गिलास खाली कर दिया। इससे इतना स्‍पष्‍ट हो गया कि वह महिला सरदार जी की पत्‍नी नहीं थी। आखिर मैंने सरदार जी से पूछा कि उन्‍होंने अपनी महिला मित्र का परिचय नहीं करवाया। सरदार जी खीसें निपोरने लगे। पता चला सरदार जी का भी उनसे परिचय नहीं है। बाद में पता चला सरदार जी लिफ्ट की तरफ बढ़ रहे थे कि अचानक उनकी नजर लॉबी में बैठे लोगों पर पड़ी तो इस महिला से आँखें चार होते ही वह क्षण भर को ठिठक गए थे। सरदार जी की आँखों में निमंत्रण का एक ऐसा भाव था कि वह उठ कर कच्‍चे धागे से बँधी इनके साथ कमरे तक चली आईं। उस महिला ने रम का एक और पेग लिया और इस कमरे में ज्यादा समय नष्‍ट करना मुनासिब न समझा। वह शायद यह सोच कर चली आई थी कि सरदार जी अपने कमरे में जा रहे हैं। उसे अगर यह आभास होता, वह किसी दूसरे से मिलने जा रहे हैं तो शायद उनके साथ न आतीं। उस महिला ने सरदार जी को अपना विजिटिंग कार्ड दिया और विदा ले कर खट-खट करती हुए दरवाजा खोल कर निकल गईं। दरवाजा उनके पीछे धीरे-धीरे बंद हो गया।

हम लोग देर तक सरदार जी की पारखी निगाह की दाद देते रहे। सरदार जी ने इस तरह के कई किस्‍से सुनाए। हम तीनों इलाहाबादियों की इस घटना पर अलग-अलग प्रतिक्रिया थी। दीपक के लिए यह सामान्‍य घटना थी, मैं बच्‍चों की तरह जिज्ञासु हो रहा था, डॉ. यादव इस घटना के प्रति उदासीन थे। वह एक तटस्‍थ तमाशबीन की तरह चुपचाप सिगरेट फूँकते रहे। हम सब लोगों ने महिला के विजिटिंग कार्ड का सूक्ष्‍म निरीक्षण-विश्‍लेषण किया। डॉ. यादव ने कार्ड छूने में भी कोई दिलचस्‍पी न दिखाई। वह उम्र में मुझसे बीस वर्ष छोटे होंगे, मगर अपनी उम्र से कहीं अधिक धीर-गंभीर थे, दिल्‍ली में दिन भर वह अपने परिचित सांसदों और मंत्रियों से संपर्क करते, उनकी जीवन शैली से प्रभावित हो कर लौटते। वह भी उन्हीं की तरह जनता और सुरक्षाकर्मियों से घिरे रहना चाहते। उन्‍हें लगता, वह कहीं अधिक नि:स्‍वार्थ भाव से जनता की सेवा कर सकते हैं। बाद में जब इलाहाबाद में उनके पिता डॉ. रामलाल सिंह के एक शिष्‍य सतीशचंद्र यादव वरिष्‍ठ पुलिस अधीक्षक नियुक्‍त हुए तो डॉ. यादव ने सबसे पहले अपने लिए एक सुरक्षा गार्ड की माँग की, जो उन्‍हें मिल भी गया। उन दिनों उनका आत्‍मविश्‍वास देखने लायक था।

मेरे बीमार पड़ते ही गिरोह छिन्न-भिन्‍न होने लगा। गिरोह के कुछ स्‍थायी सदस्‍यों का इलाहाबाद से स्‍थानांतरण भी हो गया। जब तक मेरी जाँच चलती रही, मैं दफ्तर भी जाता रहा। जाँच की रिपोर्ट आते ही मेरा मनोबल टूट गया और मैं खटिया से जा लगा। गिरोह के सदस्‍यों के मैं किसी काम का न रहा था। यह गिरोह का अघोषित नियम था कि, जो मतवाला महफिल से उठ गया, वह उसके लिए जैसे दुनिया से उठ गया। दोस्‍तों ने एक तरह से मेरा भी सामाजिक बहिष्‍कार कर दिया। वहाँ केवल स्‍वस्‍थ सदस्‍यों के लिए स्‍थान था। शराब के अतिचार से बीमार पड़ना गिरोह के लिए शर्म की बात थी। जो शख्‍स बीमार पड़ता, वह इसी प्रकार निर्वासन में चला जाता। गिरोह का ध्‍यान आकर्षित करने के लिए गंभीर रूप से बीमार पड़ना जरूरी था। साल में एक बार उमेशनारायण शर्मा यह काम किया करते थे। जाने उन पर किस ग्रह की छाया थी कि हर वर्ष नवरात्रि के दिनों में गंभीर रूप से बीमार पड़ते। यह क्रम कई वर्षों तक चला। जाने उनकी नाक से कितना खून बहा होगा। वह किसी नर्सिंग होम में भरती हो जाते और बाहर दोस्‍तों का ताँता लगा रहता। स्‍वास्‍थ्‍य लाभ कर वह कुछ सप्‍ताह बाद पहले की तरह जाम टकराते नजर आते।

माँ अभी जीवित थीं और मेरे स्‍वास्‍थ्‍य में लगातार सुधार हो रहा था कि एक दिन आखिर डॉ. सुशील यादव भी रात को अचानक मुझे देखने चले आए। उस रोज उन्‍होंने माँ का हालचाल भी न पूछा था, माँ का रक्‍तचाप भी नहीं लिया, सीधा ऊपर चले आए। मैं पीठ पर तकिया लगा कर लेटा था और 'आजतक' की प्रतीक्षा कर रहा था। 'आजतक' के समाचार सुन कर मैं सोने चला जाता था। वर्षों बाद ऐसा हुआ था कि डॉक्टर साहब आए और हम लोगों ने मदिरापान न किया। मेरी मेज साफ थी, उस पर बोतल के स्‍थान पर ग्‍लूकोज और दीगर दवाएँ पड़ी हुई थीं। डॉक्टर ने मेरी जाँच की विभिन्‍न रपटें देखीं। उनका चेहरा सामान्‍यतया कठोर रहता था, रिपोर्ट वगैरह देख कर वह और गंभीर हो गए। मैं ही नहीं, मेरे डॉक्टर भी मेरे स्‍वास्‍थ्‍य लाभ से संतुष्‍ट थे, मगर डॉ. यादव इस निष्‍कर्ष पर पहुँचे कि मैं अभी खतरे से बाहर नहीं हूँ। उन्‍होंने बताया कि उनके कई मित्र लिवर सिरोसिस की चपेट में आ कर प्राण गँवा चुके हैं, मेरी रिपोर्ट देख कर भी वह आश्‍वस्‍त नहीं लग रहे थे। उन्‍होंने देर तक मेरे अल्‍ट्रासाउंड का भी अध्‍ययन किया। तब तक अपने रोग के बारे में मैं भी पर्याप्‍त जानकारी हासिल कर चुका था। वह तालीमयाफ्ता डॉक्टर थे, मैं उनसे बहस में नहीं पड़ना चाहता था। मुझे लग रहा था, आज वह प्रचंड मनःस्‍थिति में हैं। मैंने देश के सूरते हाल पर चर्चा करने की कोशिश की, उन्‍होंने उसमें कोई रुचि न ली। वह उखड़े हुए लग रहे थे, किसी भी विषय पर जम कर चर्चा नहीं कर पा रहे थे। थोड़ी देर में मैं भी थकान महसूस करने लगा, मेरे सोने का समय भी हो गया था। उन्‍होंने बहुत बेमन से 'आजतक' सुना। वह फुर्सत में आए थे, मगर कुछ उद्विग्‍न लग रहे थे। उन्‍होंने बताया कि जल्‍द ही उनका भी ऑपरेशन होनेवाला है और उससे पहले वह तमाम मित्रों से मिल लेना चाहते हैं। इसी क्रम में वह मुझसे मिलने आए थे। इस प्रश्‍न को भी वह टाल गए कि उन्‍हें क्‍या तकलीफ है और उनका कैसा ऑपरेशन होना है। मैंने ग्‍लूकोज पिया और वह ममता से अंग्रेजी स्‍कूलों में व्‍याप्‍त भ्रष्‍टाचार पर बात करने लगे। देर तक वह अपने बेटे उत्‍सव की बात करते रहे कि आजकल वह अपनी गन से उड़ती चिड़िया मार गिराता है और फिर उस चिड़िया के उपचार में जुट जाता है। मैं नींद, थकान और ऊब में निष्‍क्रिय लेटा था। मेरी आँखें मुँदी जा रही थीं, मगर वह उठने का नाम नहीं ले रहे थे। वह जैसे अपना समय गुजार रहे थे। नीचे खाना लग गया था, पता चला, वह भोजन नहीं करेंगे। वह बार-बार अपनी घड़ी देखते। आखिर वह उठे। हम लोग नीचे गए। नीचे भी वह कुछ देर बैठे। माता जी तब तक नींद की गोली खा कर सो चुकी थीं। यह उनका रोज का नियम था। वह जाने लगे तो ममता ने कहा, आज बहुत देर हो गई है और आप को बहुत दूर जाना है। वह फीकी-सी हँसी हँसे। हम लोग उन्‍हें गेट तक छोड़ने गए। गेट पर भी वह कुछ देर बतियाते रहे। लग रहा था, वह जा जरूर रहे हैं, मगर जाने की जल्‍दी में नहीं हैं।

अलस्‍सुबह पहला फोन श्रीमती अलका यादव का था। उन्‍होंने बताया कि डॉक्टर साहब कल रात घर ही नहीं लौटे। उनकी कार उनके टैगोर टाउन के घर पर खड़ी मिली है। उनकी घड़ी और उनका पर्स वगैरह भी कार में मिले हैं। मैं हड़बड़ा कर उठ बैठा। अचानक बहुत कमजोरी और बेचैनी महसूस हुई। कहाँ गायब हो गए डॉक्टर? चुनाव का समय भी नहीं था कि वह अचानक टिकट के जुगाड़ में लखनऊ रवाना हो जाते। उमेशनारायण शर्मा को फोन किया तो उन्‍होंने कार, पर्स और घड़ी वगैरह मिलने पर गहरी चिंता प्रकट की। वे वकील थे और कानूनी पहलू से सोच रहे थे और मैं नितांत भावनात्‍मक स्‍तर पर सोच रहा था कि पत्‍नी से मनमुटाव हो गया होगा और वह रूठ कर कहीं चले गए होंगे। इसका हल्‍का सा आभास था कि ऐसा वह पहले भी कर चुके हैं।

दोपहर बाद खबर मिली कि डॉक्टर का बेटा उत्सव, उसके चाचा और एक पुलिस इंस्पेक्टर आए हैं। मैं नीचे पहुँचा तो देखा पुलिस को देख कर मेरी माँ बहुत डर गई थीं। वह पंजाबी में ही पुलिस इंस्पेक्टर से दरख्‍वास्‍त कर रही थीं कि उनके बेटे को परेशान न किया जाए, वह बहुत बीमार और कमजोर है। माँ बार-बार हाथ जोड़ रही थीं। यह देख कर मुझे बहुत बुरा और अटपटा लगा। माँ पर लाड़ भी बहुत आया। 'मेरी भोली माँ', मैंने माँ को अपनी बाहों में समेट लिया, 'माँ इन्‍हें अपना काम करने दो।'

उस समय मेरी तबियत ऐसी नहीं थी कि ज्यादा बोल पाता। थोड़ा उद्योग करने पर भी साँस फूलने लगती थी और अचानक बहुत कमजोरी महसूस होती। दिन में उमेश जी ने भी यही मश्‍वरा दिया था कि मुझसे जो पूछा जाए, सही-सही बता दूँ। मेरे पास बताने को कुछ ज्यादा था भी नहीं। अगले रोज अखबारों में डॉ. यादव के लापता होने की खबरें प्रमुखता से छपी थी। समाचार कुछ इस अंदाज में छपे थे :

'संदिग्‍ध हालात में डॉ. सुशील यादव लापता। अपहरण की आशंका, रवींद्र कालिया से मिलने के बाद लापता।' 'रवींद्र कालिया के यहाँ फोन करनेवाली महिला कौन है?' 'पुलिस कहती है खुद कहीं गए होंगे, वापस लौट आएँगे।'

अगले रोज डी.आई.जी. (रेंज) का फोन आया कि वह मुझसे मिलना चाहते हैं। वह दो इंसपेक्‍टरों के साथ मिलने आए तो पुलिस की गाड़ियाँ हमारे घर से दूर पिछली लेन में छोड़ आए थे। उनके लिए मेरे पास कोई नई जानकारी नहीं थी। अगले कुछ दिनों तक समाचार पत्रों में इस प्रकार के समाचार प्रकाशित होते रहे - 'सुशील का 48 घंटे बाद भी कोई अता-पता नहीं।' 'डॉ. सुशील की गुमशुदगी का रहस्‍य और गहराया।' 'डॉ. सुशील यादव को धरती लील गई या आसमान?' 'तांत्रिक का सहारा ले कर भी गुत्‍थी सुलझाने में असफल रही पुलिस।' इन तमाम समाचारों के बावजूद मुझे आशा की एक किरण दिखाई दे रही थी, शायद यह मेरी खुशफहमी थी। एक दिन शाम को 'माया' के संपादक बाबूलाल शर्मा का फोन मिला कि इलाहाबाद प्रतापगढ़ की सीमा पर डॉ. सुशील यादव की लाश मिली है। पुलिस ने लावारिस समझ कर उनकी अंतेष्‍टि भी कर दी थी। पुलिस के अनुसार उनकी हत्‍या का मामला अवैध संबंध का था। यह समाचार सुन कर मैं जैसे सुन्‍न हो गया। नींद की गोली खाने के बावजूद मेरी वह रात बहुत बुरी गुजरी। उम्‍मीद का आखिरी चिराग भी बुझ गया था। उमेश जी का अनुमान सही साबित हुआ कि कार, डायरी और घड़ी का बरामद होना अच्‍छे संकेत नहीं हैं। इस बीच अफवाहों का बाजार और गर्म हो गया, मगर मुझे पुलिस ने अनावश्‍यक रूप से पूछताछ करके परेशान नहीं किया। मेरे जेहन में डॉ. सुशील के साथ बिताई वह अंतिम शाम कौंध-कौंध जाती थी। मेरे डॉक्टर द्वारा लिखे गए नुस्‍खे पर उन्‍होंने पेंसिल से चिह्न बनाया था और एकाध दवा न लेने की राय दी थी। मुझे वह दृश्‍य भी बार-बार याद आ रहा था, जब वह अंतिम बार कार में बैठे थे और हाथ हिलाते हुए विदा हो गए थे।

20-

पीने के सफर में बहुत से साथी मिलते हैं, फिल्‍मी भाषा में कहूँ तो मिलते हैं बिछुड़ जाने को, कई तो हमेशा के लिए बिछुड़ जाते हैं। जो बीच सफर में पीना छोड़ देता है, दूसरे शराबियों की निगाह में वह उनके लिए सिधार जाता है। इस लंबे सफर में बहुत-सी खाइयाँ आती हैं, किसी का यकृत यानी जिगर जवाब दे जाता है और किसी का दिल। बहुत से मित्र तय करके आते हैं कि आउट होने के बाद ही पेवेलियन लौटेंगे। उन्‍होंने अवकाश प्राप्‍त करना सीखा ही नहीं होता। वह एक ऐसी निर्णायक पारी खेलते हैं और इस दुनिया से ही कूच कर जाते हैं। मित्रों में ज्ञानरंजन ने सबसे पहले बहिर्गमन किया। उसका मेदा कुछ ऐसा गड़बड़ाया कि उसकी दिलचस्‍पी शराब में कम अनारदाना चूर्ण में ज्यादा हो गई। वह कभी आयुर्वेद की शरण में जाता कभी होम्‍योपैथी की। अभी हाल में उसे एंजियोप्‍लास्‍टी करानी पड़ी। दूधनाथ और काशीनाथ हमेशा राजा बेटों की तरह पीते थे। दूधनाथ के स्‍वास्‍थ्‍य ने उसे कभी ज्यादा छूट नहीं दी और काशी की जिम्मेदारियों ने। दोनों हमेशा अतिचार से बचते रहे। इस समय अकेले विजयमोहन सिंह मैदान में डटा है। अभी हाल में इंदौर में उसे परमावस्‍था में देख कर जी बहुत खुश हुआ। अब हमारी पीढ़ी की सब उम्‍मीदें उसी पर टिकी हैं।

डॉ. शुकदेव सिंह के साथ बैठने के बहुत कम अवसर मिले। पहली निशस्‍त में ही मैं उनका कायल हो गया था। मौका था काशीनाथ सिंह की बिटिया के विवाह का। यह तय ही नहीं हो पाया कि हम लोग बाराती थे या घराती। वर था दूधनाथ सिंह का बेटा अनिमेश और वधू काशी की बिटिया रचना। ज्ञान, सुनयना, ममता और मैं वाराणसी पहुँचे। साँझ घिरते ही नामवर जी मुझे अलग ले गए और स्‍कॉच की एक बोतल मुझे थमा दी, जाओ मस्‍ती करो। कारसेवा की व्‍यवस्‍था डॉ. शुकदेव सिंह के यहाँ की गई थी।

अभी बोतल की सील भी न टूटी थी कि एक हादसा हो गया। शुकदेव जी का बेटा बाँसुरी बजाते हुए घर में दौड़ रहा था कि अचानक दीवार से टकरा गया। बाँसुरी तालू में धँस गई और वह मूर्छित हो गया। हम सब लोग बहुत परेशान हो उठे, मगर शुकदेव सिंह शांत और नितांत संयत थे। वह जरा भी विचलित न हुए। उन्‍होंने अपनी पत्‍नी और शिष्‍यों के साथ बेटे को अस्‍पताल रवाना कर दिया और खुद गिलास वगैरह की व्‍यवस्‍था में मशगूल हो गए। हम लोग अपराध बोध से दबे जा रहे थे। बच्‍चा बुरी तरह से घायल हो गया था और शुकदेव एक अवघूत की तरह सांसारिक संबंधों से निरपेक्ष हो कर कारसेवा में संलग्‍न थे। ममता और सुनयना अस्‍पताल जाने की जिद करने लगीं तो शुकदेव सिंह ने उन्‍हें समझाया, 'बच्‍चे गिरते-पड़ते रहते हैं, यह कोई अनहोनी घटना नहीं है। मेरी पत्‍नी होशियार है, आप लोग चिंता न करें, सब ठीक हो जाएगा।'

महिलाओं का दिल न माना। ममता और सुनयना जिद करके नर्सिंग होम चली गईं। मगर शुकदेव सिंह सांसारिक मोहमाया से सर्वथा उन्‍मुक्‍त थे। हम लोगों ने मदिरापान जरूर किया, मगर ध्‍यान बच्‍चे में ही लगा रहा। आज सोचता हूँ कि उस समय स्‍कॉच की बोतल सामने न होती तो हम लोगों की प्रतिक्रिया भिन्‍न होती। मदिरा का जुनून भी क्‍या जुनून होता है। आदमी औघड़ बन जाता है। बच्‍चे का कुशल क्षेम मिला तो जान में जान आई। सही मायने में पीने का दौर तो तभी शुरू हुआ था। यह सोच कर शर्म भी आई कि इस हादसे के बावजूद हम लोग मदिरापान करते रहे थे।

शराब से तो मैंने आखिरकार मुक्‍ति पा ही ली, मगर अब लगता है कि मुक्‍ति पराधीनता का ही दूसरा पहलू है। चार-पाँच पेग दारू पी कर जो आजादी महसूस होती थी, वर्जनाओं से मुक्ति का जो दिव्‍य अनुभव होता था, उसके लिए अब तरस जाता हूँ। भीतर ही भीतर होशोहवास का एक ऐसा सेंसर बोर्ड जन्‍म ले चुका है कि मुँह से बात निकलने से पहले ही दफ्न हो जाती है। यह शराब की झोंक में संभव था कि बगैर किसी रोकटोक के बात गोली की तरह दनदनाती हुई निकलती थी। अपनी बात पर मैंनें कई दोस्‍तियाँ न्‍योछावर कर दी थीं। वैसे शराबी की कड़वी बात को लोग नजरअंदाज कर देते या हँस कर टाल देते थे, मगर होशमंद को कोई मुआफ नहीं करता। एक जमाना था जहाँ कहीं भी सौंदर्य की छटा देखता था, तहेदिल से तारीफ करता था, निर्भय और निर्कुंठ भाव से।

एक बार किसी महफिल में मैंने अपने आगे बैठी एक जुल्‍फेदराज महिला की लंबी घनी जुल्‍फों को पीठ से रेंगते हुए किसी अजगर की तरह घास पर अपने पाँव के पास फुफकारी छोड़ते देखा तो मेरा जी मचलने लगा। इच्‍छा हुई कि अँजुरी में अर्ध्‍य की तरह भर कर यह केशराशि उसकी स्‍वामिनी को लौटा दूँ। जेहन में फिल्‍मी किस्‍म के संवाद कौंधने लगे - 'जुल्‍फों को यों जमीन पर न रखिए, मैली हो जाएँगी।' नशे में भी मैंने इस सिनेमाई संवाद को खारिज कर दिया और देर तक अपने पाँव के पास अठखेलियाँ खा रही उस नागिन का नृत्य देखता रहा। अगले ही पेग के बाद मेरे धीरज का बाँध भरभरा कर टूट गया। मैंने जमीन पर मोतियों की तरह बिखरी उस केशराशि को बटोरा और अपनी ओक में भर कर उसकी बगल में बैठे उस महिला के पति को सम्‍मानपूर्वक सौंप दिया, 'बहुत बेकद्री हो गई हुजूर। अपनी दौलत सहेज कर रखा करें।' पति के हाथ में भी गिलास था। उसने कुछ बेबसी, कुछ आभार, कुछ असमंजस से मेरी तरफ देखा। उसने वह केश राशि अपनी गोद में रख ली और मेरे गिलास से अपना गिलास टकराया - 'चियर्स।' इस बार मैंने जरा ऊँची आवाज में अपनी बात रखी ताकि उसकी पत्‍नी भी सुन ले। मैंने कहा, 'यही है इसकी सही जगह। जब ये उठें तो आप इनकी जुल्‍फें समेट कर पीछे-पीछे चला करें। इनके नाजुक कंधे कब तक ढोते रहेंगे इन जुल्‍फों का वजन।' उन लोगों ने मुझे अपने पास बैठा लिया और हम लोगों की दोस्‍ती हो गई, जो आज तक बरकरार है। इसे मेरी खुशकिस्‍मती ही कहा जा सकता है, वरना मेरी हरकत ऐसी थी कि अच्‍छा-खासा हंगामा खड़ा हो सकता था। ऐसे नाजु़क मौकों पर दो में से एक ही काम हो सकता है - दोस्‍ती या पिटाई। मेरी हरकतें ऐसी थीं कि हर रोज मैं उसी दिशा में बढ़ रहा था जिस पर मेरे बहुत से साथी बढ़ चुके थे। पीनेवाले भी उनके साथ पीने में गुरेज करने लगे थे। हर शहर में ऐसे दीवाने मिल जाएँगे जो पी कर सामान्‍य रह ही नहीं पाते, अशालीन हो जाते हैं या अतिरिक्‍त शालीन। उनकी शालीनता बर्दाश्‍त होती है न अशालीनता।

मैंने ऐसे-ऐसे मित्रों को देखा था, जो पी कर महिलाओं पर फब्‍तियाँ कसने लगते थे, मगर कुछ देर बाद उन्‍हीं महिलाओं के कदमों में लोट कर फरियाद करते नजर आते - आप तो मेरी माँ हैं। मुझे अपना बच्‍चा समझ कर मुआफ कर दें। एक बार मेरे ही यहाँ एक पार्टी में कुछ दोस्‍त सपत्‍नीक आमंत्रित थे। वे साहित्‍य के वृत्‍त के बाहर के मित्र थे। मुझसे नादानी यह हो गई कि अपने कुछ रचनाकार मित्रों को भी उस पार्टी में आमंत्रित कर लिया। एक साथी रचनाकार जो पी कर बहकने के लिए काफी विख्‍यात हो चुके थे, उस रोज भी बहक गए और उन पर गाने की धुन सवार हो गई। वह ऐसे-ऐसे फिल्‍मी गीत गुनगुनाने लगे जो महिलाओं की उपस्‍थिति में खटक रहे थे। जैसे - 'हमें तो लूट लिया मिल के हुस्‍नवालों ने।' मैंने किसी तरह स्‍थिति को नियंत्रण में रखा, वरना एकाध मित्र ने तो जूते के फीते खोलना शुरू कर दिया था। वहाँ अच्‍छा खासा दृश्‍य उपस्‍थित हो जाता अगर विभूतिनारायण राय अपनी गाड़ी में समय रहते लेखक मित्र को रवाना न कर देते। हमारे हमप्‍याला मित्र को खाली पेट ही लौट जाना पड़ा, जबकि उन्‍होंने ही पार्टी के लिए पूरी शाम रोगनजोश तैयार किया था।

अपने मित्र की क्‍या आलोचना करूँ, मेरे अपने कदम मित्र की दिशा में ही बढ़ रहे थे। तीन-चार पेग के बाद मैं भी बहक जाता। सुबह तक याद भी न रहता और अगर कुछ याद आ भी जाता तो सिवाय पछतावे के कुछ हाथ न लगता। गनीमत यही रही कि पी कर कभी नालियों में लोटने की नौबत न आई। मेरे मित्र प्रसिद्ध रंगकर्मी डॉ. बालकृष्‍ण मालवीय पीने के बाद अक्‍सर खेद प्रकट किया करते थे कि उनकी एक ही इच्‍छा अपूर्ण रह गई, वह यह कि पी कर नाली में नहीं लोटे। हर शराबी जानता है, मयनोशी का यही चरम उत्कर्ष है। कुछ बिरले ही इस तुरीय अवस्‍था को प्राप्‍त कर पाते हैं। इस अवस्‍था तक पहुँचने के लिए कितनी साधना, कितनी विस्‍मृति, कितनी निश्‍चिंतता की आवश्‍यकता है। मालवीय जी मूलतः विज्ञान के प्राध्‍यापक थे, मगर रंगमंच उनका पहला प्‍यार था। हम लोग इलाहाबाद आए तो रंगकर्म में उनकी तूती बोलती थी। उन दिनों इलाहाबाद में 'घासीराम कोतवाल' की धूम थी और मेहता प्रेक्षागृह में उसका मंचन हो रहा था। तब मालवीय जी से परिचय नहीं था, हम लोगों ने कतार में लग कर टिकट खरीदे थे और नाटक देखा था। इससे पूर्व मैं दिल्‍ली और मुंबई में भी 'घासीराम कोतवाल' की प्रस्‍तुतियाँ देख चुका था, मगर इस मंचन में जो कसाव और निर्देशन का अनुशासन था, वह अन्‍यत्र दुर्लभ था। इतने वर्षों बाद आज तक नाटक के कई दृश्‍य जस के तस साकार हो जाते हैं। इस नाट्‌य प्रस्‍तुति के दसियों वर्ष बाद मालवीय जी से मित्रता हुई, जब हम नए घर में मेंहदौरी चले आए। मालवीय जी भी इसी कालोनी में रहते थे और हमारे मित्र डॉ. नरेंद्र खोपरजी गाहे-बगाहे उनके यहाँ आया करते थे। 'घासीराम कोतवाल' में डॉ. खोपरजी ने साऊंड रिकार्डिस्‍ट के रूप में काम किया था। डॉ. खोपरजी से भी 'घासीराम कोतवाल' की एक अभिनेत्री शशि शर्मा ने परिचय करवाया था। भानुमति का पिटारा थी, इस नाटक की टीम। नाटक के निर्देशक बालकृष्‍ण मालवीय विश्‍वविद्यालय में बॉटनी के प्राध्‍यापक थे, खोपरजी पेशे से डॉक्टर, शशि शर्मा बैंककर्मी। एक पात्र एजी ऑफिस का तो, दूसरा शिक्षा विभाग का। जाने कैसे मालवीय जी ने यह टीम जुटाई थी।

अभिलाषा-नरेंद्र परिवार से हम लोगों का इतना घनिष्ट संबंध था कि वे लोग घर के सदस्‍य की तरह हो गए थे। नरेंद्र मेरी तरह मुँहफट और स्‍पष्‍टवादी थे, मेरी ही तरह बेलगाम हो जाते थे। औपचारिक संबंध वह स्‍थापित ही न कर सकते थे। कई बार तो हम लोगों को काम पर से लौटने पर मालूम पड़ता था कि आज शाम वे लोग आनेवाले हैं। डॉ. नरेंद्र हमारे घर पहुँचने से पहले ही फोन कर देते थे कि आज शाम खाना हमारे यहाँ होगा और मैनू यह होगा। हम लोग घर लौटते तो कभी घर में मछली का सालन तैयार हो रहा होता तो कभी रोगनजोश। डॉक्टर को भी बहाना मिलना चाहिए था अपने यहाँ पार्टी रखने का। बच्‍चों के जन्‍मदिवस, न्‍यू ईयर ईव, ईद, जन्‍माष्‍टमी, किसी दोस्‍त की शादी की सालगिरह, कोई भी अवसर वह तलाश लेते। उनके यहाँ से अक्‍सर मैं धुत्‍त ही लौटता।

ऐसे ही किसी अवसर पर उन्‍होंने दावत दी थी। मालवीय जी और हम लोगों ने जी भर कर कारसेवा की। जब तक डॉक्टर लोग अपने काम से फुर्सत पाते हम लोग जमीन से दो इंच ऊपर उठ चुके थे। उस दिन उन लोगों को किसी एमरजेंसी केस में उलझ जाना पड़ा। वे लोग भोजन की व्‍यवस्‍था न कर पाए। हम लोगों ने दारू से पेट भर लिया। लौटते समय सड़क के लिए भी पेग तैयार किया गया। अभी हम लोग गाड़ी में सवार हुए ही थे कि मेरे हाथ में गिलास देख कर अभिलाषा जी कुछ असमंजस में आ गईं। पता चला मेरे हाथ में उनके किसी बेशकीमती सैट का गिलास था। अभिलाषा जी के मुँह से बेसाख्‍ता निकल गया कि यह गिलास तो सैट का है। मैंने उसका मूल्‍य जानना चाहा, उन्‍होंने बता दिया कि साठ रुपए से कम का न होगा। मैंने जेबें टटोलीं। पता चला, हमेशा की तरह पर्स घर में भूल आया था। मैंने मालवीय जी से कहा कि उनके पास पैसे हों तो तुरंत जमानत राशि जमा कर दें। मालवीय जी भी घोड़े पर सवार थे, उन्‍होंने तुरंत सौ का नोट थमा दिया। अभिलाषा जी की बहन ने हँसते हुए आगे बढ़ कर ले लिया। बात आई-गई हो गई। हम लोग पीते हुए घर से आए थे और पीते हुए लौट गए।

कुछ दिनों बाद मालवीय जी के यहाँ महफिल जमी। हस्‍बेमामूल डॉक्टर लोगों को आने में देर हो गई। तब तक हम लोग अपनी क्षमता के अनुसार कारसेवा कर चुके थे। उन लोगों के आने पर दूसरा दौर शुरू हो गया। अभिलाषा जी ने मेरी आवाज को लटपटाते देखा तो बोलीं, 'कालिया जी, अब आप और न लें।' वह एक सही मश्‍वरा था।

'आप तो मुझे ऐसा मश्‍वरा न दें। आप को यह अधिकार नहीं है। एक तो आप लोग इतनी देर से आए हैं, जब हमारा कोटा पूरा हो चुका है। दूसरे आप मुझे कैसे कोई सलाह दे सकती हैं, आपको तो न मेजबानी की तमीज है न मेहमानी की। आप खाने पर बुलाती हैं और खाली पेट लौटा देती हैं।'

अभिलाषा जी बेचारगी से मेरी तरफ देखने लगीं। मैंने अपना प्रलाप जारी रखा, 'आपको अपने बेशकीमती गिलासों पर बहुत नाज है। उन्‍हें काँचवाली पारदर्शी आलमारी में बंद करके शोभा के लिए सजा दें और अगली बार हम आएँ तो बराय मेहरबानी हम लोगों के लिए कुल्‍हड़ की व्‍यवस्‍था कर दें।' मैं देख रहा था, खोपरजी का मेरी बात से बहुत मनोरंजन हो रहा था। कोई मुझे टोक भी नहीं रहा था, बीच-बीच में ममता ने जरूर कोशिश की, मैंने उसे भी डपट दिया। मालवीय दंपती आतिथ्‍य में व्‍यस्‍त थे।

'पिछली बार आपने घर बुला कर हम लोगों का जो तिरस्‍कार किया, हम उसे कभी न भूल पाएँगे। एक तो आपने खाने पर बुला कर खाना नहीं खिलाया और दूसरे लौटते समय पठान की तरह गिलास की जमानत वसूल कर ली।'

जुनून में और भी न जाने मैं क्‍या-क्‍या बक गया। इतना याद है कि अभिलाषा जी रुआँसी हो गई थीं। उसके बाद का मुझे कुछ याद नहीं है, दिमाग का जैसे ब्‍लैक आउट हो गया। कैसे घर पहुँचा, यह भी याद नहीं कर सकता। इतना जरूर याद है कि सुबह उठा तो लग रहा था, रात को मैंने कोई गुल जरूर खिलाया है। ममता भी घर में ऐंठी हुई घूम रही थी। मुझसे बात नहीं कर रही थी। सुबह की चाय भी उसने साथ नहीं पी। बिना बात किए कॉलिज चली गई। मुझे लग रहा था, मुझसे जैसे घर की कोई कीमती चीज टूट गई है। मुझे विश्‍वास था कि ममता लौटेगी तो घर में जरूर जम कर दाँताकिलकिल होगी। तूफान के पहले का सन्‍नाटा मेरे भीतर भर गया था।

बीमार पड़ने से पहले मैं शाम को अक्‍सर बहकने लगा था। यह शायद बीमारी का पहला लक्षण था। मुझे लग रहा था, लिवर ने मुझे चेतावनी देना शुरू कर दिया था। अब तो विश्‍वास हो चुका है कि दिमाग का संतुलन बनाए रखने में लिवर की अहम भूमिका रहती है। मयनोशी के अंतिम दौर में मैं कुछ ज्यादा ही बहकने लगा था। घर में भी मेरा व्‍यवहार असामान्‍य हो जाता। यह एक नई बात थी। पी कर मैं जैसे बिजली का नंगा तार हो जाता। नशे में कुछ भी हो सकता है, आप क्षुद्रताओं से मुक्‍त हो सकते हैं अथवा क्षुद्रता के शिखर पर आसीन हो सकते हैं। नशे में मैं दोनों स्‍थितियों से गुजरा हूँ।

एक बार जाड़े के मौसम में मैं पटना से लौट रहा था। शराब के नशे में मैंने पटना रेलवे स्‍टेशन पर वातानुकूलित यान में घुसने से पहले एक परिचित के कंधों पर अपना कीमती पश्मीने का शॉल डाल दिया था। ऐसी ठंड भी नहीं थी और दोस्‍त को शॉल की जरूरत भी न थी। वह ठंड में मुझे विदा करने आया था इसी बात से प्रभावित हो कर मैं अपने कीमती शॉल से वंचित हो गया। ऐसा भी नहीं है कि नशे में मैंने अपनी क्षुद्रताओं का परिचय न दिया हो। पीने के बाद मेरे ऊपर क्षुद्रताओं के भी दौरे पड़े हैं। उन्‍हें लिखने बैठूँ तो लिखता चला जाऊँ। दूधनाथ सिंह भी इसका भुक्तभोगी है। मेरे अनेक आत्‍मीय जनों ने मेरी बेलगामी का स्‍वाद चखा है, किसी ने कम किसी ने ज्यादा। इसका प्रसाद सबको मिला है, यह दूसरी बात है हर बार उसकी भारी कीमत मुझे खुद ही चुकानी पड़ी है, कभी पछतावे के रूप में और कभी अवसाद के लंबे दौर से गुजर कर। अक्‍सर मैं पी कर जितना उत्‍फुल्‍ल हो जाता था, उसके बाद उतना ही उदास, तन्‍हा और निस्‍पंद। बिन पिए भी मन की बात जुबान पर लाने में मैंने कभी कोताही न की थी और पीने के बाद तो मैं एकदम निरंकुश और स्‍वच्‍छंद हो जाता था। इससे बड़ा कोई तात्‍कालिक सुख नजर नहीं आता था। दो शराबियों के बीच ऐसा व्‍यवहार खप जाता है, मगर समस्‍या वहाँ खड़ी हो जाती थी जहाँ दूसरा पक्ष होशोहवास में है। एक बार मेरी होनेवाली बहू भी मेरी इस सनक की जद में आ गई थी। उसे देर रात बेटे ने अहमदाबाद से फोन पर खुशखबरी दी थी कि हम लोगों ने इस शादी को हरी झंडी दिखा दी है।

बेटे ने नौकरी पाने के कुछ माह बाद अत्यंत तर्कपूर्ण ढंग से अपना पक्ष रखा था कि वह अब अपने पाँव पर खड़ा हो गया है और अपनी मनपसंद लड़की से ही शादी करने का मन बना चुका है। हम लोग एक लंबे अर्से से उसके इस आशय के पत्र की प्रतीक्षा कर रहे थे। हम लोग इस बात से प्रसन्‍न थे कि बेटे ने बाप की परंपरा का बखूबी निर्वाह किया और हमें दुनियादारी की जहमतों से बचा लिया। वह अगर शादी करने के बाद भी सूचित करता तो ज्यादा हैरानी न होती। हम दोनों मानसिक रूप से इसके लिए भी तैयार बैठे थे। बेटे ने अत्यंत संकोच से पत्र लिखा था और पत्र पढ़ कर उस पर लाड़ भी बहुत आया। वह तब तक सोच रहा था कि हम लोग निहायत बुद्धू किस्‍म के माँ-बाप हैं और उसके प्रेम प्रसंग के बारे में कुछ नहीं जानते। यह उसका भ्रम था। प्‍यार की एक खुशबू होती है, जो छिपाए नहीं छिपती। वह अभी विश्‍वविद्यालय में ही था कि सारे घर में यह खुशबू फैल गई थी। जाने यह कैसा संकोच था कि बेटे को हम लोगों पर कम अपनी दादी माँ और मेरे बड़े भाई-भाभी पर ज्यादा विश्‍वास था, जबकि उनमें से किसी ने प्रेम विवाह नहीं किया था। मुझे तो बरसों पहले विश्‍वास हो गया था कि मेरा बेटा प्रेम में पड़ चुका है, जब एक बार लड़की बीमार पड़ी तो वह अपनी माँ से खिचड़ी बनवा कर या जूस निकलवा कर उसके हॉस्‍टल पहुँचाया करता था।

मेरे लिए यह संतोष का विषय था कि मेरा बेटा प्रेम के मामले में मुझसे दो कदम आगे ही रहा है। वह अभी स्‍कूल में ही था कि मुझे लगने लगा था कि बेटा बाप से आगे निकल चुका है। हाईस्‍कूल में ही वह पड़ोस की एक लड़की के प्रेम में पड़ गया। वह ही नहीं, लड़की भी उसके प्रेम की दीवानी हो गई थी। रात-रात भर दोनों की फोन पर गुफ्तगू चलती।

हम लोगों को यह सब नागवार गुजरा तो उसके कमरे से फोन का एक्‍सटेंशन हटा लिया। उसने घर में तूफान बरपा कर दिया। ऐसा तूफान तो मैंने शराब के नशे में भी न खड़ा किया होगा। वह अनशन पर बैठ गया। कई दिनों तक उसका होमवर्क ममता को करना पड़ा। छमाही परीक्षा में बैठने से पूर्व वह एक दिन अपनी दादी माँ से बोला - 'दादी माँ, मैं सोचता हूँ, अब शादी कर ही लूँ।'

उसकी बात सुन कर मेरी माँ हतप्रभ रह गईं। उस समय उसकी उम्र मुश्‍किल से पंद्रह वर्ष की होगी। उन्‍होंने उसे प्‍यार से समझाने की कोशिश की - 'पढ़-लिख कर काबिल बन जाओ और जब अपने पाँव पर खड़े हो जाओ तो शादी भी कर लेना।'

'दादी माँ, मैं तुरंत शादी करना चाहता हूँ, ताकि हम दोनों मन लगा कर पढ़ाई कर सकें। इधर हम दानों का मन पढ़ाई में नहीं लग रहा। आप मम्‍मी-पापा को राजी कर लें। प्‍लीज।'

'शादी के लिए अभी तुम दोनों बहुत छोटे हो। पहले कुछ बन कर तो दिखाओ।'

'आप जो भी कहेंगी, बन कर दिखा दूँगा, कलक्टर, एस.पी., डॉक्टर, जो भी आप कहेंगी।'

'मगर सोचो बेटा तुम्‍हारी दुल्‍हन का खर्चा कौन उठाएगा?'

'उसका ज्यादा खर्च नहीं है दादी माँ। शादी के बाद मैं पाकिट मनी लेना भी बंद कर दूँगा। इससे भी तो बचत होगी।'

'मगर कल तुम्‍हें आगे की पढ़ाई करनी है, ज्‍यों-ज्‍यों बड़ी क्‍लास में जाओगे, पढ़ाई का खर्च भी बढ़ेगा। हो सकता है तुम्‍हें हॉस्‍टल में रह कर पढ़ना पड़े।'

'दादी माँ, आप फिजूल के बहाने कर रही हैं। आप चाहेंगी तो सब राजी हो जाएँगे।'

'मगर बेटा मैं तो वही चाहूँगी, जिसमें तुम्‍हारा भला हो।' दादी माँ ने उसे समझाने की कोशिश की।

मेरा बेटा जिद ठान चुका था। दादी माँ के किसी तर्क से वह प्रभावित नहीं हो रहा था। उसका विचार था कि जहाँ इतने लोगों का खाना बनता है, उसकी 'स्‍वीटहार्ट' का भी बन जाएगा। घर में इतनी जगह है, एक कोने में वह भी पड़ी रहेगी। उसके अपने कमरे में ही उसके लिए पर्याप्‍त जगह थी।

बाद में पता चला, हमारे बेटे ने ही नहीं, लड़की ने भी अपने घर वालों का जीना हराम कर रखा था। एक दिन जब बच्‍चे स्‍कूल गए हुए थे तो लड़की की माँ हमारे यहाँ आईं। वह अपनी बेटी को ले कर बहुत चिंतित थीं। उनकी चिंता जायज भी थी। आखिर उन्‍होंने रानी मंडी का घर बेच दिया और शहर के दूसरे छोर पर जा कर बस गए। हमारा बेटा कुछ दिन गुमसुम रहा, फिर पूरे जोश से क्रिकेट खेलने लगा। मेरे बेटे की इस प्रथम प्रेम कहानी का अंत भी अत्‍यंत नाटकीय रहा।

जिस रोज बेटे की शादी थी और हम लोग विवाहोत्‍सव में जाने के लिए घर से निकल ही रहे थे कि अचानक टेलीफोन की घंटी बजी। मैंने लपक कर फोन उठाया तो वह फोन जो था, लड़के की पहली प्रेमिका का था। वह बंगलौर में एम.बी.ए. कर रही थी और उसी रोज इम्‍तिहान से फारिग हो कर लौटी थी। मैं जल्‍दी में था, मगर वह फुर्सत में थी। बरसों बाद मैंने उसकी आवाज सुनी थी। यह वही आवाज थी जिसे सुन कर मैं अक्‍सर क्षुब्‍ध हो जाया करता था। लड़की ने यह सोच कर फोन किया था कि हो सकता है अन्‍नू भी छुट्टियों में घर आया हो। वह लगातार बोले जा रही थी और मैं कान पर फोन धरे उसकी आवाज में एक नया आत्‍मविश्‍वास लक्षित कर रहा था। वर्षों से उसकी अन्‍नू से बात नहीं हुई थी और वह शायद सोच रही थी कि बीते हुए दिन पूरे वेग के साथ अब दोबारा लौट आएँगे। माता-पिता भी अब वैसी आपित्‍तयाँ दर्ज नहीं करेंगे। आगामी फरवरी में ही वह एक बहुराष्‍ट्रीय कंपनी में नियुक्‍त हो कर मुंबई जा रही थी। मुझे असमंजस में देख और अपना नाम सुन कर अन्‍नू ने मेरे हाथ से फोन ले लिया। उसी ने लड़की को समाचार दिया कि वह अभी-अभी शादी के लिए रवाना हो रहा है। लड़की ने उसकी पत्‍नी का नाम पूछा और बधाई दी और साथ ही गलत समय पर फोन करने के लिए उससे मुआफी माँगी।

अन्‍नू से हम लोगों की सहमति का फोन मिलने पर प्रज्ञा की जिम्‍मेदारियाँ बढ़ गई थीं। अब उसे अपने माता-पिता की सहमति हासिल करनी थी। घर में यह प्रस्‍ताव रखने से पूर्व प्रज्ञा हम लोगों से बात कर आश्‍वस्‍त हो जाना चाहती थी। अन्‍नू से यह समाचार मिलते ही प्रज्ञा ने यह सोच कर हमारा नंबर घुमा दिया कि हम लोग देर रात तक जगा करते हैं। उसने ठीक ही सोचा था। उसका फोन मिला तो उस समय मैं जमीन से दो इंच ऊपर था। दो क्‍या ढाई इंच ही कहना चाहिए। कुछ ही समय पूर्व बेटे से फोन पर लाड़प्‍यार से बातें हुई थीं। मैं फोन पर उसका ध्‍यान ई-मेल से प्राप्त उसके पत्र के एक वाक्‍य की तरफ दिलाना चाहता था, जो मेरे मर्म को छू गया था और कई बार ऐसा एहसास दे गया था, जो चोट पर ठोकर लगने से बार-बार होता है। बेटे ने पत्र में चलते-चलते नासूर पर नश्तर लगा दिया था और वह जख्‍म अभी हरा था। अपने पत्र में उसने मेरी मयनोशी पर टिप्‍पणी कर दी थी और लिखा था - रिमेंबर फादर, व्हाट माई मदर नेवर आब्‍जेक्‍टिड टु, माई वाइफ मे। यानी आप की जिन आदतों पर मेरी माँ ने कभी आपत्‍ति नहीं की, मेरी पत्नी कर सकती है। हर पेग के साथ यह वाक्‍य मेरे भीतर सुलग रहा था और जब प्रज्ञा का फोन मिला यह वाक्‍य लपट में तब्‍दील हो चुका था। मैंने प्रज्ञा के अभिवादन का उत्‍तर देना भी जरूरी नहीं समझा और बेटे के पत्र पर अपनी प्रतिक्रिया देने के लिए संघर्ष करने लगा। मेरी जु़बान लटपटा रही थी। मैंने किसी तरह बहुत कोशिश करके एक वाक्‍य पूरा किया - तुम कब छोड़ोगी मेरे बेटे का पीछा? मेरी बात और बात करने के अंदाज से प्रज्ञा सहम गई होगी, उसने तुरंत फोन काट दिया।

प्रज्ञा ने फोन काट कर समझदारी का परिचय दिया था। मेरी जु़बान भी साथ नहीं दे रही थी। मैं उस समय कुछ भी कह सकता था, सुबह उठ कर चाहे कितना भी पश्‍चाताप कर लेता। अपनी बात से मेरी आत्‍मा पूरी तरह तृप्‍त न हुई थी। मैं अभी और भड़ास निकालना चाहता था कि यू हैव नो राईट टु आब्‍जेक्‍ट टु माई स्‍टाइल आफ लिविंग। कैसे दिन आ गए थे, मैं लगभग रोज ही सुबह उठ कर शर्मसार होता रहता था। उस समय भी यह एहसास न हुआ कि मैंने बेवकूफी में अपने बेटे के हिस्‍से की डाँट अपनी होनेवाली बहू को पिला दी थी। थोड़ी देर बाद बेटे ने अपनी माँ से शिकायत की, पापा ने मेरी बरसों की मेहनत पर पानी फेर दिया। उसकी चिंता जायज थी कि प्रज्ञा क्‍या सोचेगी कि, वह कैसे घर में जा रही है। मैंने उसे अत्यंत विडंबनापूर्ण स्‍थिति में डाल दिया था। रोज ही मुझे इस पराजय से दो-चार होना पड़ता था। मैं एक गहरे अपराधबोध में जकड़ गया। वहाँ से हट जाना ही मैंने बेहतर समझा। ममता बेटे की हाँ में हाँ मिला रही थी। मैं दूसरे कमरे में चला गया और सिगरेट सुलगा ली। ऐसे में मैं अक्‍सर धूम्रपान की शरण में ही जाता था। धुआँधार सिगरेट फूँकता और खाँसता। इस समय मुझे सिगरेट से भी नफरत हो गई थी। सच पूछिए तो मैं सिगरेट से भी आजिज आ चुका था। सिगरेट पी-पी कर मेरे फेफड़े थक चुके थे।

एक दिन दूधनाथ सिंह ने मुझे ताबड़तोड़ सिगरेट फूँकते देखा तो एक दोस्‍ताना मश्‍वरा दिया - कालिया, अब वक्‍त आ गया है, तुम सिगरेट भी छोड़ दो।

'देखो दूधनाथ! तुम्‍हारे कहने से मैंने दारू छोड़ दी, कोठे पर जाना छोड़ दिया, स्‍मगलिंग छोड़ दी, जुआ छोड़ दिया, यहाँ तक कि तमाम प्रेमिकाओं से भी कन्‍नी काट ली। अब तुम क्‍या चाहते हो? जीने के लिए कुछ तो मेरे पास रहने दो भाई।' मैंने हँस कर उसकी बात टाल दी।

दूधनाथ की बात गलत नहीं थी। वह गैरजिम्‍मेदार दिखने की कोशिश जरूर करता रहता है, जबकि भीतर से वह बहुत ही जिम्‍मेदार शख्‍स है। पति मालूम नहीं कैसा रहा है, मगर पिता की जिम्‍मेदारियाँ उसने हम सब लोगों से कहीं बेहतर निभाई हैं। हमारी पीढ़ी के लेखकों में दूधनाथ सिंह ने सबसे ज्यादा अपने बच्‍चों की परवरिश की तरफ ध्‍यान दिया था। दूधनाथ सिंह का वश चलता तो वह अपने बच्‍चों को छाती से चिपका कर उन्‍हें दूध भी पिलाता। वह बच्‍चों की माँ भी था और बाप भी। सही मायने में माई-बाप था। यह सुन कर निर्मला आहत हो जाती हैं और नाक-भौं सिकोड़ा करती हैं। मेरा अभिप्राय उनके मातृत्‍व को चुनौती देने का कभी नहीं रहा, मगर मेरा निजी अनुभव कुछ ऐसा था कि मैं कामकाजी महिलाओं को माता कम जननी ज्यादा माना करता हूँ। कामकाजी महिलाओं का पूरा समय (फुल टाइम) नौकरी में निकल जाता है और शायद यही वजह थी कि मैं उन्‍हें पार्ट-टाइम माँ कहा करता था।

ममता कॉलिज चली जाती थी और मैं बच्‍चों को गोद में लिए प्रूफ पढ़ा करता था। बच्‍चा कितना भी रो रहा हो, मेरी गोद में आते ही चुप हो जाता था। गोद में अजीब जादू होता है, बच्‍चों की बात छोड़िए मैंने बड़े-बड़ों को गोद में चुप होते देखा है। वास्‍तव में दूधनाथ सिंह फुल-टाइम पिता था, बाकी सब कुछ पार्ट-टाइमर। पति। प्रेमी। अध्‍यापक। लेखक। मित्र। अमित्र। छिनरा। जब तक दूधनाथ सिंह के बच्‍चे छोटे थे, उसके यहाँ बहुत कम महफिल सजती, बच्‍चे सयाने हो गए तो उसने एक जगह प्रेम की नौकरी कर ली। उसने बरसों यह नौकरी बजाई, मगर कोई नहीं जानता वह अचानक प्रेम की इस नौकरी से निलंबित कर दिया गया था या उसने स्‍वैच्‍छिक अवकाश ग्रहण कर लिया था। उसकी बाद की कहानियों से यह आभास जरूर मिलता है कि दाल में कुछ काला जरूर था। उसकी कहानियों पर अँधेरा छा गया।

दूधनाथ बहुत विषम परिस्‍थितियों में ही मित्रों को घर पर आमंत्रित करता था। हम लोग इसका एक ही अर्थ निकालते थे, वह आपसे प्रसन्‍न है या आपको प्रसन्‍न करना चाहता है। अश्क जी कहा करते थे, दूधनाथ सिंह परम पटाऊ शख्‍स है। आप उससे कितना ही खफा हों, अगर दूधनाथ तय कर लेगा तो आप पटे बगैर रह ही नहीं सकते। यह मैंने भी महसूस किया है, यह दूसरी बात है कि मुझे पटाना बहुत आसान होता है। दूधनाथ सिंह तो नामी लेखक है, नए से नए लेखक मुझे आसानी से पटा लेते हैं। मगर अश्क जी कठिन आदमी थे, वह भी दूधनाथ के सामने आसानी से हथियार डाल देते थे। बाद में इस बात का खूब प्रचार करते थे। अपनी इस कमजोरी से वह अंत तक लड़ते रहे। जब अश्क जी की यह औकात थी तो मेरी क्‍या बिसात। मैं भी कई बार दूधनाथ के सामने लाचार हुआ हूँ, जाने वह क्‍या जादू डारता था।

काशी का किस्‍सा साढ़े चार यार छपा तो दूधनाथ अपनी तस्‍वीर से बेहद नाखुश हुआ। काशी की दाद देनी पड़ेगी कि वह अपनी बेटी के ससुर की भी खबर ले सकता है। मैं अब सोचता हूँ कि काशी का उद्देश्‍य किसी की छवि को धूमिल करने का नहीं रहा होगा, वह जाने कहाँ चूक गया कि उसके चारों यार आहत हो गए। कई बार अपनी सरलता की भी कीमत चुकानी पड़ती है, काशी ने वह कीमत चुकाई। काशी को देख कर मुझे हर बार यह एहसास होता है कि वह लेखक कम गाँव का एक सीधा-सादा किसान ज्यादा है, उर्दू में उसे सादःलौह इनसान कहा जा सकता है। काशी की तुलना में हम लोगों को यानी ज्ञान, दूधनाथ और मुझे शातिर कहा जा सकता है।

जिन दिनों मैं अपने साथियों पर संस्मरण लिख रहा था, अचानक दूधनाथ सिंह मेरे बहुत करीब आ गया। वह विश्‍वविद्यालय से सीधा हमारे यहाँ चला आता। वह अपने झोले से जिन की बोतल निकालता और मैं फ्रिज से गाजर और अदरख का रस। हम लोग जिन पीते और ममता का इंतजार करते। ममता कॉलिज से लौटती तो वह कहता - ममता, पेट में चूहे दौड़ रहे हैं, जल्‍दी से खाना लगाओ। ममता गदगद हो जाती कि दूधनाथ कितनी आत्‍मीयता से खाने की फरमाइश कर रहा है। मैं महसूस करता कि दुनिया में अगर कोई सच्‍चा दोस्‍त है तो वह दूधनाथ सिंह है, बाकी - सब ज्ञानरंजन और काशीनाथ सिंह हैं। दूधनाथ मुझे विस्‍तारपूर्वक अपने संघर्षों के बारे में बताता, उसकी आवाज काँपने लगती, उसकी आँखें नम हो जातीं। इसे संयोग ही कहा जाएगा कि मैंने दूधनाथ पर संस्‍मरण पूरा किया कि अचानक काशी इलाहाबाद में प्रकट हो गया। उस रोज वह और दूधनाथ दोनों रानी मंडी आए। दोपहर में जिन पी गई और दूधनाथ पर लिखे संस्‍मरण का पाठ हुआ। संस्‍मरण सुनाने का एक उद्देश्‍य यह भी था कि काशी को एहसास कराया जाए कि एक उसने अपने दोस्‍तों का खाका खींचा है और एक खाका यह है। संस्‍मरण में दूधनाथ के बारे में जितनी भी झूठी-सच्‍ची जानकारी थी, दूधनाथ की ही दी हुई थी। कुछ-कुछ दिल अपना और प्रीत पराई जैसा था।

संस्‍मरण लिखते समय एक खतरा हमेशा बना रहता है कि किसी मित्र पर लिखते समय आप अपने पर ज्यादा लिख जाते है मित्र पर कम। अश्क जी के संस्‍मरणों में प्रायः ऐसा ही हो जाता था। वह मंटो पर कम अपने पर ज्यादा लिख जाते थे निष्‍कर्ष यही निकलता था कि बेदी (राजेंद्र सिंह) मूर्ख हैं और वह बुद्धिमान। वह अपने समकालीन लेखकों की खामियाँ कुछ ज्यादा ही उजागर कर देते थे। अश्क जी से मैंने यही शिक्षा ली थी कि इन दोनों प्रवृत्‍तियों से बचना चाहिए। अपने बारे में भी मेरी राय कभी उतनी अच्‍छी न रही थी। जिंदगी में इतनी बार शिकस्‍त का सामना हुआ था कि कभी अपने को मुकद्दर का सिकंदर नहीं समझ पाया, हमेशा अपने को मुकद्दर का पोरस ही पाया। मुझे हर दूसरा शख्‍स सिकंदर नजर आता था। उन दिनों दूधनाथ मेरा सिकंदर था। मैं उत्‍साहपूर्वक अपना संस्‍मरण सुना रहा था। दूधनाथ की अधिसंख्‍य कहानियों में एक विजेता जरूर बैठा रहता है। इस संस्‍मरण में भी एक सिकंदर विराजमान था। इसके विपरीत काशी के संस्‍मरण में दूधनाथ सिंह सिकंदर तो क्‍या, पोरस का पट्‌टीदार भी नहीं लगता था। काशी के और मेरे संस्‍मरण में दूधनाथ सिंह के अलग-अलग चेहरे उभरे थे। वैसे किसी भी शख्‍स का एक चेहरा नहीं होता - चेहरे अनेक होते हैं। मगर यहाँ तो दोनों चेहरे एक दूसरे के विलोम थे। मेरा संस्‍मरण सुन कर काशी भी भावुक और विह्वल हो गया। कुछ जिन का भी चमत्‍कार था कि काशी की आँखें पहले सुर्ख हुईं और बाद में डबडबा आईं। उसने मुझे और दूधनाथ को अपनी दोनों बाँहों में भर लिया। अब हम तीनों पर 'जिन' सवार थी। उस एक क्षण में हम तीनों अपनी-अपनी क्षुद्रताओं से काफी ऊपर उठ गए। होता है, शराब पी कर ऐसा अक्‍सर होता है।

सच तो यह है, सिगरेट छोड़ने के बारे में मैं वर्षों से सोच रहा था। इस विषय पर अनेक लेख और पुस्‍तकें पढ़ चुका था कहीं यह भी पढ़ा था कि अँगुलियों को सिगरेट थामने का अभ्‍यास हो जाता है और होंठों को सिगरेट दबाने का। होंठ और अँगुलियाँ उस आत्‍मीय स्‍पर्श के लिए बेकरार रहने लगती हैं। इस विश्‍लेषण को मैंने दुरुस्‍त पाया था। आज स्‍थिति यह है कि मैं घंटों अँगुलियों या होंठों में सिगरेट थाम कर बैठ सकता हूँ, बगैर सुलगाए या धुआँ छोड़े। इसी मुद्रा में मैं बाजार का चक्‍कर भी लगा आता हूँ। ऐसा भी हुआ कि राह चलते लोगों ने माचिस पेश कर दी कि सिगरेट सुलगा लूँ। कुछ लोग यह भी सोचते होंगे कि यह कोई फिलासफर अपनी धुन में चला जा रहा है और सिगरेट सुलगाना भूल गया है। अब लोगों को कौन समझाए यह फिलासफर-विलासफर कुछ नहीं, निहायत पाजी किस्‍म का बिगड़ा हुआ लेखक है, जो अपने को सुधारना चाहता है।

मैं इंटर में पढ़ता था जब पहली बार सिगरेट का कश खींचा था। गर्मी की छुट्टियाँ मनाने अपने चाचा के यहाँ शिमला गया हुआ था। वह सुबह पहली चाय के साथ सिगरेट सुलगा लेते। एक दिन शाम को मैं मॉल पर टहल रहा था कि कुछ लड़के-लड़कियों को आजादी से सिगरेट फूँकते हुए देखा। लड़कियों की इस अदा पर मैं फिदा हो गया। मैं कुछ दूर तक उनके पीछे चलता रहा। बगल में सिगरेट की दुकान देख कर एक सिगरेट खरीद ली, दुकान के बाहर बिजली का लाइटर टँगा था, बटन दबा कर लोग सिगरेट सुलगा रहे थे, मैंने भी सुलगा ली। पहला कश बहुत नागवार गुजरा, हलक में धुआँ कहीं ऐसी जगह छू गया कि मैं आगे चलती लड़कियों को भूल गया और सड़क किनारे एक पत्‍थर पर बैठ कर देर तक खाँसता रहा। तौबा-तौबा करके किसी तरह आधी-चौथाई सिगरेट खत्‍म की और लड़कियों को कोसते हुए घर लौट आया। चाचा को लगा, मैं ठंड खा गया हूँ, उन्‍होंने कफ-सिरप पिलाया और हीटर खोल दिया। पहली सिगरेट का अनुभव बहुत खराब रहा था, उर्दू में इसी तरह के अनुभव को गुनाह बेलज्जत कहा जाता है। मगर मैं इतनी आसानी से हथियार डालनेवाला नहीं था। अगले रोज मैंने एक और सिगरेट खरीदी। कोई सप्‍ताह भर के संघर्ष के बाद मैं सिगरेट पीने में पारंगत हो गया। बाद में जालंधर लौट कर मैंने अपने अनेक सहपाठियों को सिगरेट पीना सिखाया। कुछ ही दिनों में हम लोग कॉलिज परिसर में ही खुलेआम सिगरेट फूँकने लगे। बाकी लड़के कौतुक से लड़कियों की तरह हमारी तरफ देखते। सिगरेट पीते-पीते जब कई वर्ष बीत गए तो यह बात मेरी समझ में आई की सिगरेट एक बुरी चीज है। इसे मेरा दुर्भाग्‍य की कहा जाएगा कि बहुत-सी बातें बहुत देर बाद मेरी समझ में आती हैं। किसी ने ठीक ही कहा था कि लंबे आदमी की अक्‍ल टखनों में होती है। मुझे बहुत-सी चीजों की समझ तब आई जब पानी गले तक पहुँच चुका था, जब आसानी से उन्‍हें यह कह कर खारिज किया जा सकता था कि आखिरी उम्र में क्‍या खाक मुसलमान होंगे।

वास्‍तव में सिगरेट के प्रति जो आपका रवैया होता है, वही जीवन के प्रति होता है। यह कोई सूक्‍त वाक्‍य नहीं है, मैं कई हजार सिगरेट फूँक कर इस नतीजे पर पहुँचा हूँ। एक बार मैं कॉलिज परिसर में सिगरेट फूँकते हुए चला जा रहा था कि अचानक ठीक सामने डॉ. इंद्रनाथ मदान पड़ गए। तब तक मैं उनका विद्यार्थी नहीं था, मगर उन्‍हें देखते ही मैंने सिगरेट फेंक दी। मदान साहब मेरे पास आ कर रुके और कंधा थपथपाते हुए बोले, 'नौजवान, माना सिगरेट बुरी चीज है, मगर चीजों को यों बरबाद नहीं करते। जाया मत करो, उठा लो।' मदान साहब यह कह कर आगे बढ़ गए और मैंने गिरी हुई सिगरेट उठा ली। डॉ. मदान की बात मैं लगभग भूल चुका था कि बरसों बाद अचानक एक दिन उनकी बात दिमाग में ताजा हो गई।

मोहन राकेश के राजसी ठाठ थे। वह सिगरेट सुलगाने से पहले सामने बैठे व्‍यक्‍ति को भी सिगरेट पेश करते। यह सामनेवाले व्‍यक्‍ति पर मुनहसिर था कि वह कबूल कर ले या न करे। मैं तो हमेशा कबूल कर लेता था। मुझे उनका यह शिष्‍टाचार बहुत शाही लगता था। एक बार मैं उनके साथ कॉफी हाउस जा रहा था। उन दिनों कनाट प्‍लेस में कॉफी हाउस उस स्‍थान पर था, जिसके नीचे आजकल भूमिगत वातानुकूलित मार्केट है। चलते-चलते अचानक उन्‍हें सिगरेट की तलब हुई। हस्‍बेमामूल उन्‍होंने खुद भी सिगरेट सुलगाई और मुझे भी पेश की। मैंने अभी दो-चार कश भी न लिए होंगे कि सिगरेट मेरे हाथ से छूट गई। इससे पहले कि मैं झुक कर सिगरेट उठाता, राकेश जी ने सिगरेट अपने कदमों के नीचे रौंद दी और जेब से पैकट निकाल कर नई सिगरेट पेश कर दी। वह उन दिनों 'फोर स्‍क्‍वायर' नाम की सिगरेट पिया करते थे। अपनी ऐसी ही अदाओं से राकेश मेरे लिए वही बन गए, जिसे अंग्रेजी में फ्रेंड, फिलासफर एंड गाइड कहा जाता है। मगर समय का चक्‍का कुछ ऐसे घूमा कि फ्रेंड फ्रेंड न रहा, गाइड गाइड न रहा, उनके फिलासफर ने जरूर आज तक साथ निभाया, वक्‍त जरूरत आज भी साथ देता है। मोहन राकेश जब तक जीवित रहे, शाही तरीके से रहे। जिन दिनों हिंदी के लेखक चप्‍पल चटकाते हुए चला करते थे, राकेश टैक्‍सी से नीचे कदम नहीं रखते थे, बहुत सुरुचिपूर्ण जीवन शैली थी उनकी सिगरेट या व्हिस्की के ब्रांड से पता चल जाता है कि आदमी की आर्थिक, सामाजिक और मानसिक स्‍थिति कैसी है। हैसियत की कलई न खुल जाए यह सोच कर मैंने हमेशा हैसियत से बेहतर सिगरेट फूँके और हैसियत से कहीं बेहतर दारू पी। इस मध्‍यवर्गीय कुंठा में जिंदगी में कुछ ज्यादा ही मेहनत पड़ गई। कुंभनदास के शब्‍दों में कहूँ तो जाको मुख देखे दुख लागे, ताको करन परी परनाम। सिगरेट ने और भी बहुत से सबक सिखाए। सबसे बड़ा सबक तो यही सीखा कि सिगरेट पीने का आनंद सिगरेट पीने वालों के बीच ही है, दूसरों के बीच सिगरेट फूँक कर आप सिर्फ जुल्‍म ढा सकते हैं। इस का एहसास भी अचानक हो गया था।

जब से नंदन जी मुंबई से दिल्‍ली आए, मैं दिल्‍ली में उनके यहाँ ही ठहरा करता था। नंदन जी घर में राजा बेटे की तरह रहते थे, न सिगरेट पिएँ न शराब। रात देर तक हम लोग दुनिया जहान की बातें करते। इतनी बातें करते कि उनका वातानुकूलित कमरा धुएँ से भर जाता। मुरव्‍वत में वह मना भी न कर पाते। मैं धुएँ में जीने का आदी था। अपनी मूर्खता का एहसास तब हुआ जब मियाँ-बीवी रात भर खाँसी की जुगलबंदी करते रहे। वह दिन था और आज का दिन, मेरे भीतर नंदन जी के यहाँ जाने का नैतिक साहस न हुआ। ऐसे ही कुछ ठोस कारण रहे होंगे कि मैंने बुढ़ापे की जो रोमांटिक परिकल्‍पना की थी, उसमें सिगरेट के लिए कोई स्‍थान नहीं था। मेरी कल्‍पना के बुढ़ापे में धूम्रपान निषेध था। यह जरूर सोचा था कि अवकाश ग्रहण करके घर में एक उम्‍दा बार जरूर बनवाऊँगा। मैंने जितनी देशी-विदेशी शराबों के नाम सुने थे या निर्मल वर्मा और श्रीकांत वर्मा जैसे लोगों की पुस्‍तकों में पढ़ रखे थे, बहुत पहले उनका संग्रह करने में जुट गया था। मेरे भाई-भाभी, बहन-बहनोई विदेश से आते तो मेरी फरमाइश की शराब जरूर लाते। अमरकांत जी मेरे लिए रूस से वोदका लाए थे। शराब को महक और विशिष्‍टता प्रदान करने के लिए मैंने विशेष काष्‍ठ पात्र जुटा लिए थे। मेरी तमाम योजनाएँ धरी की धरी रह गईं, जब मेरे जिगर ने मेरा साथ छोड़ दिया और टकसाली भाषा में अब सिर्फ यही कहा जा सकता है कि मैं मन मसोस कर रह गया। सिगरेट छोड़ने के लिए अपने को तैयार कर रहा था कि मद्यपान छूट गया। जीवन में यह नौबत न आती अगर इस आदर्श वाक्‍य ने प्रभावित न किया होता - इफ यू लाइक ए थिंग ओवरडू इट।

मेरी माँ की चिता जब धू-धू कर जल रही थी, तो मेरी प्रबल इच्छा हुई कि मैं जेब से सिगरेट का नया पैकेट जला कर राख कर दूँ, जो मैं श्‍मशानघाट पर जाने से जरा पहले मँगवाया था। सिगरेट मँगवाते समय भी मुझे बहुत ग्‍लानि और गहरा अपराधबोध हुआ था। अवसाद के उन मर्मांतक क्षणों में भी मैं अपनी क्षुद्र लालसाओं से ऊपर नहीं उठ पाया था। श्‍मशान घाट पर मेरा हाथ बार-बार उस पैकेट को छू रहा था मगर मेरी इच्‍छा शक्‍ति मेरा साथ नहीं दे रही थी। मुझे लग रहा था, आज मुझे इसी की सबसे ज्यादा जरूरत है। वह दिन था और आज का दिन है, मैं धूम्रपान से लगातार जूझ रहा हूँ।

21-

एक बार मेरे मित्र पंडित रामचंद्र शुक्ल ने बताया कि अगर मैंने मद्यपान न छोड़ा तो भयंकर रूप से बीमार पड़ जाउँगा। उन्होंने एक दिन कुछ इतने तामझाम के साथ मुझसे शराब छोड़ने का संकल्प कराया, जैसे संकल्प नहीं मेरा विवाह करा रहे हों। बकायदा हवन हुआ, बगल में ममता को बैठाया गया। मेरी माँ और शायद अमरकांत जी भी प्रत्यक्षदर्शी और साक्षी थे। इस संकल्प का कई दिन तक जादुई प्रभाव रहा और मैंने अपने पर जब्त रखा और सचमुच शराब से तौबा कर ली। लेकिन मेरे नाखुदा को यह गवारा न हुआ। एक दिन काशी और डॉक्टर नामवर सिंह अचानक रानी मंडी में नमूदार हुए। उन्हें मेरे इस संकल्प की कोई जानकारी न थी। इससे पहले हमारे यहाँ शराब से ही अतिथियों का सत्कार और आतिथ्य किया जाता था। अचानक मैंने अपने को बेहद बेहूदा स्थिति में पाया। बहुत संकोच के साथ मैंने नामवर जी को यह बात बताई। नामवर जी ने मेरी बात को जरा भी गंभीरता से नहीं लिया। उन्होंने सोचा होगा कि पीनेवाले शराब से तौबा करते ही रहते हैं और यह भी भावुकता में लिया हुआ कुछ ऐसा ही संकल्प होगा। उन्होंने कहा, 'ऐसे संकल्प लेने से सभा सोसाइटियों में कई बार बहुत दिक्कत का सामना करना पड़ता है। शराब को लेकर दृढ़ नहीं, लचीले किस्म के संकल्प लेने चहिए।' नामवर जी की बात मुझे जँच गई, अचानक शराब की बहुत तेज तलब महसूस हुई और बोतल खुल गई। पंडित जी माँ से मेरे बीमार पड़ने की पेशींगोई कर चुके थे, शायद यही वजह थी कि मेरी माँ पंडित जी से बहुत डरतीं थीं। उन्‍हें लगता था पंडित जी को जैसे उनकी मौत की भी तारीख मालूम है

मौत से दो रोज पहले तक मेरी माँ सही-सलामत थीं। एक लंबे अर्से से पंडित जी इलाहाबाद नहीं आए थे। वे अपनी परेशानियों में मुब्तिला थे। पेट्रोलियम मंत्री कैप्‍टन सतीश शर्मा ने पंडित जी को दक्षिणा स्‍वरूप एक पैट्रोलपंप आवंटित कर दिया था, जो उनके लिए बवालेजान बन गया था। उच्‍चतम न्‍यायालय ने अन्‍य आवंटियों के साथ-साथ पंडित जी का एलाटमेंट भी निरस्‍त कर दिया था। इस बीच वह भारी कर्ज उठा कर पंप की स्‍थापना कर चुके थे। एक-एक कर तमाम पूर्व आवंटित पंप नीलाम हो चुके थे। पंडित जी का पंप किसी तरह बच गया था और उन्‍हें उच्‍च न्‍यायालय से कुछ राहत मिल गई थी। वह कोर्ट कचहरी की सांसारिक औपचारिकताओं में ऐसा उलझे कि उनकी एकाग्रता भंग होने लगी। उच्‍च न्‍यायालय से उन्हें बरसों की दौड़-धूप के बाद कुछ राहत मिली तो वह समय निकाल कर मिलने चले आए थे। जाड़े के दिन थे। माता जी उस समय धूप में बैठी थीं। पैरों में थोड़ी सूजन थी और वह गर्म पानी से सिंकाई कर रही थीं। पंडित जी बहुत विस्‍तार से अपनी परेशानियों का खुलासा कर रहे थे कि मेरा छोटा बेटा घबराहट में ऊपर आया। उसने बताया कि दादी माँ को बहुत तेज कँपकँपी छिड़ी है और कंबल रजाइयाँ ओढ़ाने के बावजूद वह बुरी तरह काँप रही हैं। हम सब लोग नीचे आए। हीटर चलाया, मगर उनके दाँत उसी तरह किटकिटा रहे थे। डॉक्टर को फोन किया। उन्‍होंने एक इंजेक्‍शन बताया, जो मन्‍नू के ही एक दोस्‍त ने तुरंत लगा दिया। जब तक डॉक्टर आते उनकी तबीयत कुछ सँभल गई थी। सामान्‍य होते ही उन्‍होंने कहा, वह अब नहीं बचेंगी। पंडित जी देर तक उनकी खाट के पास खड़े रहे। उस नाजुक स्‍थिति में भी वह उन्‍हें भेंट देना नहीं भूलीं। मुझे लग रहा था कि वह ठीक हो जाएँगी, मगर उनके जीवन की उल्‍टी गिनती शुरू हो चुकी थी। रात भर वह बहुत परेशान रहीं, मैं रात भर उनकी देखभाल में लगा रहा। बीच-बीच में वह टॉयलट जाने की जिद करतीं, मगर उनकी साँस उखड़ रही थी। बैठतीं तो संतुलन न रख पातीं। मेरे थामने के बावजूद लुढ़क जातीं। घर में इनहेलर था, मगर मुझे वह इस्‍तेमाल करना नहीं आता था। ममता को जगाया और उससे इस्‍तेमाल करने की विधि पूछी। सुबह तक वह कुछ सामान्‍य हुईं। मुझसे बोलीं, 'तुझे बहुत तंग करती हूँ न, रात को भी सोने नहीं देती।'

'नहीं।' मैंने कहा, 'ममता आपसे कहीं ज्यादा तंग करती है।' उन्‍होंने मेरी बात की ताईद नहीं की। कुछ इस तरह मुस्‍कराईं जैसे समझ रहीं हों मैं उन्‍हें खुश करने की कोशिश कर रहा हूँ।

दोपहर बाद वह मूर्छा में चली गईं, रात होते-होते उन्‍हें नर्सिंग होम में भर्ती कराना पड़ा और अगले रोज दोपहर को मूर्छावस्‍था में ही वह चल बसीं।

जिन दिनों मैं बीमार था वह भोर में उठ कर मेरे लिए प्रार्थना किया करतीं। मेरी इतनी देखभाल तो उन्‍होंने मेरे शैशव में भी न की होगी। मैं जब स्‍वस्‍थ हो गया तो वह विदा हो गईं। उनके अंतिम संस्‍कार के समय मैं अपनी एक साध पूरी न कर सका, उनकी याद में सिगरेट का परित्‍याग करने की साध।

माँ की मृत्‍यु हुई, तब तक मैं शराब से तौबा कर चुका था। पिता की मृत्‍यु के सदमे से तो मैं शराब पी कर ही उबर पाया था। उस दिन भी ऐसी ही ग्‍लानि और अपराध-बोध हुआ था। यह एक ऐसा गम था जिसे शराब से ही गलत किया जा सकता था।

22-

ममता कॉलिज के किसी काम से लखनऊ गई हुई थी। मैंने सुबह जल्‍दी उठ कर बच्‍चों को स्‍कूल रवाना किया और खुद प्रेस के काम में जुट गया। मशीनमैन दो दिन से छुट्‌टी पर था और भरोसा नहीं था कि उस दिन भी काम पर आएगा या नहीं। एक जरूरी किताब छप रही थी, जिसे उसी दिन खरे जी को देने का वादा किया था। उन दिनों नर्मदाप्रसाद खरे जबलपुर से आ कर इलाहाबाद में अपनी कुछ पाठ्‌य पुस्‍तकों का मुद्रण करवाया करते थे। जबलपुर में उनका अपना प्रेस था मगर उनके प्रकाशन का काम इतना अधिक था कि उन्‍हें वर्ष में एक बार इलाहाबाद आ कर दूसरे प्रेसों से पुस्‍तकें छपवानी पड़ती थीं। मेरे ज्यादातर ग्राहक साहित्‍यिक अभिरुचि के प्रकाशक थे। कुछ प्रकाशक तो ऐसे थे, जो दो-चार सौ रीम कागज डलवा कर दौरे पर निकल जाते थे और मैं अपने विवेक से मित्रों की पुस्‍तकें छापता रहता था। मेरा वृहत कथा संग्रह 'गली कूचे', ज्ञानरंजन का 'सपना नहीं', दूधनाथ सिंह का 'पहला कदम', काशीनाथ सिंह का 'अपना मोर्चा' आदि पुस्‍तकें इसी क्रम में प्रकाशित हो गई थीं। खरे जी से भी मेरे अत्यंत आत्‍मीय संबंध विकसित हो गए थे। वे जबलपुर से फोन करके पुस्‍तक छपवा लेते थे, उनके हिसाब में कागज भी मिल जाता। वह अपनी बात के धनी थे और उन्‍होंने मुझे अनेक बार संकटों से उबारा था। उनसे पैसा मिल जाता था, मगर तयशुदा शर्तों पर ही। शर्तों का उल्‍लंघन करके उनसे एक पैसे की मदद नहीं मिल सकती थी। उस रोज खरे जी आनेवाले थे और उनके आने से पूर्व मुझे उनकी एक पाठ्‌य पुस्तक के मुद्रण का काम पूरा करना था। उनका काम निपटाने के लिए मैं खुद मशीन पर जुटा था। श्रमिकों को साप्‍ताहिक भुगतान करना था और घर में एक बूँद दारू न थी। दारू के इंतजाम का आश्‍वासन हो तो मैं दिन-रात बैल की तरह प्रेस के कोल्‍हू में जुत सकता था।

बच्‍चों को स्‍कूल के लिए रवाना करते ही मैं भूखे पेट काम में जुट गया। उन दिनों मालती रसोई का काम देखती थी। उसने आ कर मशीन पर चाय दी। नाश्‍ता कराया। दोपहर का काम निपटा कर ही मैं मशीन पर से हटा। अभी बाथरूम में ही था कि कई बार टेलीफोन की घंटी बजी। उन दिनों टेलीफोन उठाने में रूह काँपती थी कि जाने स्‍याहीवाले का तकाजा हो या कागजवाले का। कागजिए बहुत सख्‍ती से वसूली करते थे, वक्‍त पर भुगतान न करने पर कागज की आपूर्ति रोक देते थे। बैंक में पैसे का जुगाड़ न हो तो मैं अनिच्‍छापूर्वक ही फोन उठाता था। दूसरों को भी फोन उठाने की मनाही थी। उस दिन फोन की कर्कश घंटी इत्‍मीनान से नहाने का भी अवसर न दे रही थी। कभी ब्‍लाक मेकर का ध्‍यान आता, कभी फाउंड्री के मालिक और कभी कागजिए का। मैं चाहता था खरे जी आ जाएँ तो विश्‍वासपूर्वक बात करूँ। स्‍याही वगैरह प्रेस की सामग्री की नगर में अनेक दुकानें थीं, एक का उधार चढ़ जाता तो दूसरे के यहाँ से आपूर्ति हो जाती थी, मगर कागजिए सभी सिड़ी किस्‍म के लोग थे। वे कुछ ऐसे दिन थे, पानी के लिए रोज कुआँ खोदना पड़ता था। उस दिन का कुआँ मैं खोद चुका था, इसलिए इत्‍मीनान से खरामः-खरामः नहा रहा था। नहा-धो कर मैं खरे जी और बच्‍चों के स्‍कूल से लौटने का इंतजार कर रहा था कि फोन दुबारा सक्रिय हो गया। मैंने भी जिद ठान ली थी, जब तक खरे जी नहीं आएँगे, फोन नहीं उठाऊँगा। कुछ देर प्रतिरोध के बाद मैंने रिसीवर उठा ही लिया।

फोन जालंधर से था, हमारे पड़ोसी तारासिंह के बेटे का, जो जालंधर में टेलीफोन विभाग में काम करता था और अक्‍सर फोन पर कुशल क्षेम पूछ लिया करता था। तारा सिंह के बेटे ने एक आपरेटर की पेशेवर आवाज में बताया कि वह सुबह से यह खबर देने के लिए फोन मिला-मिला कर थक चुका है कि मास्‍टर साब यानी मेरे पिता नहीं रहे। यह शोक समाचार दे कर उसने पेशेवर तरीके से ही फोन काट दिया।

पिता की बीमारी की मुझे कोई जानकारी न थी। उस आकस्‍मिक खबर के लिए मैं जरा भी तैयार न था। सच तो यह है अपने संघर्षों में इस बात को लगभग भूल ही गया था कि मेरे कोई माता-पिता भी हैं। उनसे पत्रों के आदान-प्रदान तक रिश्‍ता सीमित रह गया था। हम लोग आपस में राजी-खुशी के समाचारों का विनिमय करते रहते थे। गर्मियों की छुटि्‌टयों में वह कुछ माह हमारे साथ बिता कर पंजाब लौट जाते। इलाहाबाद ही उनके लिए हिल स्‍टेशन था। डी.ए.वी. संस्‍थान से अवकाश ग्रहण करने के बाद उन्‍होंने पार्वती जैन स्‍कूल की स्‍थापना में सक्रिय योगदान दिया था और अपनी मृत्‍यु के समय तक वह उसके प्रिंसिपल थे। उनका आकस्‍मिक निधन स्‍कूल की कुर्सी पर बैठे-बैठे ही स्‍कूल परिसर में हुआ था। बगैर किसी पीड़ा अथवा पूर्व सूचना के। उस समय भी उनके हाथ में कलम थी। स्‍टाफ उन्‍हें इसी मुद्रा में बैठे देखता रहा और बहुत देर बाद पता चला कि उनका निधन हो चुका है।

उनके निधन का यों अचानक समाचार पा कर मैं भौंचक रह गया। मुझे अपने माता-पिता की बहुत तेज याद आई। यह सोच कर तो मेरी रुलाई फूट गई कि अब मैं अपने पिता से कभी बात न कर सकूँगा और मेरी बूढ़ी माँ संकट की इस घड़ी में नितांत अकेली होंगी। वह बहुत जल्‍द नर्वस हो जाया करती थीं। इस वक्‍त न जाने वह किस हालत में होंगी। मैं उड़ कर किसी तरह इसी समय उनके पास पहुँच जाना चाहता था। मैं उड़ कर तो पहुँचा मगर सिर्फ दिल्‍ली तक। बच्‍चों को मालती के हवाले कर मैंने किसी तरह बमरौली पहुँच कर दिल्‍ली का विमान पकड़ लिया था। दिल्‍ली से जालंधर पहुँचते-पहुँचते सुबह हो गई। बीसियों वर्ष बाद एक ऐसी शाम आई थी कि मुझे शराब का ख्याल भी न आया। मैं अजीब गनूदगी में रात भर यात्रा करते हुए जालंधर पहुँचा था, लगभग नीम बेहोशी की हालत में। माँ के अकेलेपन की मैं सहज ही कल्‍पना कर सकता था। उनका जीवन साथी बीच सफर में उन्‍हें अकेला छोड़ कर चल बसा था। उनका पचास वर्ष से भी अधिक समय का साथ था।

जालंधर स्‍टेशन से रिक्‍शा में चिरपरिचित रास्‍तों से घर की तरफ बढ़ते हुए पिता की अनेक छवियाँ मन में कौंध-कौंध जातीं। कभी इन्‍हीं रास्‍तों पर उनके सायकिल के आगे की सीट पर बैठ कर मैं बचपन में अनेक बार गुजरा था। वही सड़कें थीं और वही रास्‍ते, वैसे ही लोग, वैसी ही सुबह, सिर्फ मेरे पिता नहीं थे। एक किसान परिवार में जन्‍म ले कर उन्‍होंने अपने पाँव पर खड़े हो कर ग्रेजुएशन किया था। शादी बचपन में ही हो गई थी और वह घर से विद्रोह करके शहर चले आए थे। अनेक कठिनाइयों के बीच ट्यूशन करके और लैंपपोस्‍ट के नीचे रात-रात भर पढ़ाई करके उन्‍होंने अपने को इस काबिल बनाया था। अपने सीमित साधनों और अथक परिश्रम से उन्‍होंने हम दोनों भाइयों और बहन को पोस्‍ट ग्रेजुएशन तक शिक्षा दिलवाई थी। मुझे याद आ रहा था, बचपन में जब हम भाई-बहन जाड़े की सर्द रातों को रजाई में दुबके पड़े रहते, वह भोर पाँच बजे उठ कर ट्‌यूशन पढ़ाने निकल जाते। जब तक उनके लौटने का समय होता, हम स्‍कूल में होते। दिन भर स्‍कूल में पढ़ाने के बाद उनकी टयूशनों की दूसरी पारी शुरू हो जाती। हमारे सोने के बाद ही वह लौटते। उन्‍हें देखे कई-कई दिन हो जाते। अपनी इसी खून पसीने की कमाई से उन्‍होंने जालंधर में मकान बनवाया था। अब उसी मकान में उनका पार्थिव शरीर पड़ा होगा। मुझे रिक्‍शे में घर लौटते हुए जीवन में पहली बार उनके संघर्षों की एक-एक शाम याद आने लगी।

घर पहुँचा तो रिश्‍तेदारों, पिता के शिष्‍यों, मित्रों की अच्‍छी-खासी भीड़ थी। मैं सीधा उस कमरे में पहुँचा जहाँ उनका पार्थिव शरीर रखा था। उन्‍हें देखते ही दिल में एक हूक-सी उठी और रुलाई रोक न पाया। माँ एक कोने में चुपचाप बैठी थीं। मुझे देख कर वह उसी प्रकार जड़वत बैठी रहीं। मेरी आशा के विपरीत वह अपेक्षाकृत संयत दिखाई पड़ रही थीं। लग रहा था उन्‍होंने इस कटु सत्‍य का घूँट पी कर हालात से समझौता कर लिया था। उनकी आँखें सूजी हुई लग रही थीं। मैं उनके पास सिर झुका कर देर तक बैठा रहा।

दिन भर कुहराम मचा रहा। जब भी कोई रिश्‍तेदार परिवार आता, गली के बाहर से विलाप शुरू हो जाता। यशपाल जी के उपन्‍यासों में मातम के जैसे दृश्‍य हैं, लगभग वैसा ही वातावरण निर्मित हो जाता। इस विलाप में टीस कम चीत्‍कार ज्यादा लक्षित होता। मेरी माँ ने कुछ ही घंटों में ऐसे माहौल में सुस्‍थिर रहना सीख लिया था। यह शोकसभा का कर्मकांड था। शोक का रिश्‍ता अंतरात्‍मा से होता है, वह जितना मुखर होता है, उसी अनुपात में फूहड़ और हास्‍यास्पद हो जाता है। शोक प्रदर्शन का यह सबसे आसान और आदर्श तरीका था। शिक्षा के प्रसार के साथ मातम करने के तरीके में भी परिवर्तन आया है।

कमरे में पिता का पार्थिव शरीर रखा था और मुझे लग रहा था, उनको शांति की जरूरत है और ये लोग जैसे उनकी नींद में खलल डाल रहे थे। हम इस माहौल के लिए अभिशप्‍त थे। यह सब अपरिहार्य था। पुश्‍त दर पुश्‍त से चली आ रही इस परिपाटी का निर्वाह करना ही था।

मुझे अधिक समय तक इस यंत्रणा से न गुजरना पड़ा। इस बीच पिता के शिष्‍यों, भाइयों, मित्रों ने उनकी अंतिम यात्रा का प्रबंध कर लिया था। पिता की वह अंतिम यात्रा अपूर्व थी। उनकी शवयात्रा के साथ एक अपार भीड़ चल रही थी। मुझे इसका एहसास ही नहीं था कि मेरे पिता शहर में इतने लोकप्रिय रहे हैं। मुझे धोती पहनाई गई थी, जो मैंने जीवन में पहली और अंतिम बार पहनी थी। मैंने आत्‍मसमर्पण कर दिया था। समाज जैसा चाहता था, मेरा इस्‍तेमाल कर रहा था। मुखाग्‍नि मैंने ही दी। पिता की चिता की परिक्रमा करते हुए जाने कैसे मेरे कपड़ों ने आग पकड़ ली। मेरी धोती धू-धू जलने लगी। क्षण भर के लिए मुझे लगा, जैसे मेरे नहीं किसी दूसरे के कपड़े जल रहे हों। लोगों ने तत्‍परता से आग बुझाई। कई बाल्‍टी पानी मेरे ऊपर डाल दिया गया। मुझे ताज्‍जुब हो रहा था, मुझे उस आग से न दहशत हो रही थी और न ही मैंने आग बुझाने का कोई उपक्रम किया। पिता की चिता धू-धू कर जल रही थी और मेरे कपड़ों से पानी चू रहा था। मैं भीड़ से हट कर एक चबूतरे पर बैठ कर पिता का अंतिम संस्‍कार देखता रहा। मुझे लग रहा था, जैसे पिता की चिता के साथ-साथ मेरा बचपन, मेरी स्‍मृतियाँ, मेरा समूचा अतीत आज जल कर राख हो जाएगा। मैं जैसे मन ही मन एक-एक कर पिता की स्‍मृतियों की आहुति दे रहा था।

पिता से मेरा बहुत कम संवाद रहा था, पत्राचार तो और भी कम हुआ था। मुझे उर्दू में खत लिखने में कोफ्त होती थी और त्रुटिपूर्ण अंग्रेजी में पत्र लिखना नहीं चाहता था। पिता से इन्‍हीं दो भाषाओं में पत्राचार किया जा सकता था। मैं जब अपने पिता के न चाहते हुए भी हिसार से लेक्‍चररशिप छोड़ कर और दिल्‍ली से अचानक सरकारी नौकरी को धता बता कर मुंबई रवाना हो गया तो अपने पिता को प्रभावित करने के लिए टाइम्‍स ऑफ इंडिया के लैटर हैड पर उन्‍हें अंग्रेजी में एक लंबा पत्र लिखा। जवाब में उन्‍होंने मुझे अपने हिज्‍जे सुधारने की नेक सलाह दी और उन शब्‍दों के सही हिज्‍जे लिख कर भेजे जिन का मैंने गलत इस्‍तेमाल किया था। पत्र के साथ उन्‍होंने एक सफेद कागज पर शब्‍दों के सही स्‍पेलिंग लिखे और उन्‍हें बीस-बीस बार लिख कर अभ्‍यास करने का मश्‍वरा दिया। उन्‍होंने यह भी सलाह दी कि मैं लोकल में यात्रा करते समय हिज्‍जे रटा करूँ। अब बताइए, वह मेरी हिज्‍जे याद करने की नहीं, शादी करने की उम्र थी और उस उम्र में मैं खाक हिज्‍जे रटता।

मेरे पिता एक जन्‍मजात अध्‍यापक थे, अगले कई पत्रों में वह सिर्फ हिज्‍जे याद करने की ताकीद करते रहे। नतीजा यह निकला की मैंने उन्‍हें पत्र लिखना ही छोड़ दिया और कभी खत लिखना जरूरी हो गया तो बार-बार शब्‍दकोश की मदद लेनी पड़ती। उनके आखिरी दिनों में मैंने उन्‍हें मुसीबत में एक पत्र लिखा, जब मकान की किस्तें समय पर अदा न करने के दंड स्‍वरूप आवास विकास परिषद ने जिलाधिकारी के माध्‍यम से मेरे नाम कुर्की के आदेश जारी करवा दिए थे। कुछ गफलत और कुछ तंगदस्‍ती की वजह से मैंने मकान की किस्‍तें वक्‍त पर जमा न की थीं। उन दिनों मेरे ऊपर प्रेस और मशीनों की किस्‍तों का इतना वजन था कि उन्‍हें अदा करने में ही पसीने छूट जाते। दूसरे, मकान की किस्‍तें अदा करने से कहीं अधिक तस्‍कीन मुझे शराब से हासिल होती थी।

मकान मैंने खेल-खेल में ले लिया था। उन दिनों मैं सुबह-सुबह गंगा स्‍नान करने जाया करता था और गंगा तट पर बसी यह कालोनी मुझे बहुत आकर्षित करती थी। बगैर किसी खास तरद्‌दुद के एक भवन आवंटित हो गया था। उन्‍हीं दिनों कमलेश्‍वर ने भी इस कालोनी में एक भवन लिया था, मार्कंडेय और शैलेश मटियानी को भी मैंने भवन आवंटित कराने के लिए प्रेरित किया। उमाकांत मालवीय ने भी कालोनी में मकान बनवा लिया था। सप्‍ताहांत पर विश्राम करने के लिए यह एक आदर्श स्‍थान था। सरकार मकान दे कर जैसे भूल चुकी थी, कभी-कभार खानापूर्ति के नाम पर स्‍मरण पत्र चला आता था, जिसे मैंने कभी गंभीरता से नहीं लिया था। सरकार की भी दाद देनी पड़ेगी कि जब तक आध-पौन लाख रुपए का बकाया न हो गया, सरकार सोती रही और जब जागी तो कुर्की जारी कर दी।

इस दुष्‍चक्र से बाहर आने के लिए कोई रास्‍ता न सूझा तो मैंने पिता से मदद माँगी। उन्‍होंने पैसा तो भिजवा दिया मगर साथ में बहुत दर्दनाक पत्र भेजा। उन्‍हीं दिनों उन्‍होंने नौकरी से अवकाश ग्रहण किया था और उन्‍हें अपने संचित कोष से यह राशि भेजनी पड़ी थी। उनका पत्र पा कर मेरी तात्‍कालिक समस्‍या तो हल हो गई, मगर मुझे बहुत ग्लानि हुई। उन्‍होंने अपने पत्र में अनेक शेर लिखे थे जो मेरी नालायकियों और गैरजिम्‍मेदारियों का भरपूर खुलासा करते थे। वह पत्र आज मेरे पास नहीं है वरना यहाँ उद्‌धृत करता। उस पत्र से मुझे दहशत होती थी, मैंने उसे मूल रूप में ही अपने आयकर रिटर्न के साथ दाखिल कर दिया, ताकि आयकर अधिकारी को भी मेरा कच्‍चा-चिट्‌ठा मालूम हो जाए। जब-जब मैं वह पत्र पढ़ता था, मेरा कलेजा मुँह को आ जाता था और मैं एक-दो पेग ज्यादा पी जाता था। इसे मेरा दुर्भाग्‍य ही कहा जाएगा कि मेरे पिता का मेरे नाम वह अंतिम पत्र था। उसके बाद उनकी मौत की ही खबर आई थी।

अगले रोज घर में बहुत भीड़-भाड़ थी, मगर घर सूना हो चुका था। पिता का पार्थिव शरीर भी घर से उठ चुका था। घर में जगह-जगह उनकी चीजें बिखरी पड़ी थीं। खूँटियों पर कपड़े टँगे थे। बाथरूम में उनका शेविंग सेट पड़ा था। उनके जूते थे, मोजे थे, सिर्फ वह कहीं नहीं थे। मैं एक अजनबी की तरह घर में मौजूद था। मैं अपने चाचा लोगों और चाचियों को भी ठीक से न पहचानता था, अपने चचेरे भाइयों को पहचानना तो दूर की बात थी। मेरी दादी ने सात बेटे पैदा किए थे। एक चाचा मेरे बड़े भाई से और एक मुझसे छोटे थे। सबकी शादियाँ हम दोनों भाइयों की अनुपस्‍थिति में हो गई थीं। मेरी घर में मौजूदगी भी अनुपस्‍थिति के बराबर थी। मैं ही अपने रिश्‍तेदारों से मुँह छिपाता घूम रहा था। सबसे मेरा परिचय करवाया जा चुका था, मगर संवाद के सूत्र न जुड़ पा रहे थे। मुझे लग रहा था हम लोग दो अलग-अलग ध्रुवों के लोग हैं। इन वर्षों में मेरी भाषा बदल चुकी थी, मेरा लिबास बदल चुका था। मैं एक ऐसा पेड़ था जिसकी जड़ें गायब हो चुकी थीं। एक जड़विहीन वृक्ष की तरह मैं सिर्फ काठ का पुतला बन कर रह गया था।

शाम तक मेरे लिए सब कुछ असहाय हो गया। मैं चुपके से घर से निकला और जा कर एक जिन का अद्धा खरीद लाया। उसे मैं कमीज के भीतर खोंस कर ले आया था। अब मुझे ऐसे कोने की तलाश थी, जहाँ बैठ कर मैं अपने संसार में लौट सकूँ। एक दिन पहले श्‍मशान के जिस कोने में मैं देर तक बैठा था, उस जगह का बार-बार ख्याल आ रहा था। घर के तमाम कमरे मेहमानों से भरे थे, कहीं औरतें बैठी थीं और कहीं बच्‍चों का साम्राज्‍य था। बुजुर्ग लोग ड्राइंग रूम में पसरे हुए थे। आस-पास कोई ऐसा स्‍थान नहीं दिखाई दे रहा था जहाँ कुछ देर एकांत में अपने भीतर की ज्‍वाला शांत कर सकूँ। अपरिचय के इस माहौल में मेरी एल्‍कोहल की तलब यकायक बहुत प्रबल हो गई थी। कुछ और न सूझता तो मैं टॉयलेट में जा कर अपनी हवस मिटा आता। जेठ के प्‍यासे की तरह मैं एक बूँद जल के लिए तड़प रहा था। अचानक मैंने पाया, घर में सबसे ज्यादा एकांत रसोईघर में था। आज चूल्‍हा नहीं जला था। मैं रसोईघर में घुस गया और अंदर से चिटखनी लगा ली। एक पटरा पड़ा था जिस पर बैठ कर मेरी माँ रोटियाँ सेंका करती थीं। मैं अपना गिलास थाम कर उसी पटरे पर बैठ गया। मैंने बिजली नहीं जलाई, रोशनदान से रोशनी का एक शहतीर दीवार पर गिर रहा था, मैंने उसी से काम चला लिया। पटरे पर बैठ कर मैंने इत्‍मीनान से कारसेवा की। यहाँ किसी का दखल न था। उस मातमी माहौल में चूल्‍हा-चौका जैसे रो रहा था।

अचानक मुझे अपनी बहन की बहुत तेज याद आई। वह इंग्लैंड में थी और पिता से बेहद लगाव महसूस करती थी। माता-पिता दो-एक बार इंग्लैंड का दौरा कर आए थे। दोनों बार लौट कर झेंपते हुए पिता मुझे एक बार दिल्‍ली में और दूसरी बार मुंबई में ब्रांडी की एक बोतल दी थी। उनके सामान में सिगरेट का एक कारटन भी था, जो मैंने चुपके से निकाल लिया। मेरी बहन मेरे लिए यही दो चीजें भेजा करती थी। वह टाइयाँ भी भेजती थीं, जिन्‍हें मैं राखी की तरह इस्‍तेमाल कर लेता था या दोस्‍तों में बाँट देता था। टाई के फंदे से मैंने अपने को भरसक बचा कर ही रखा था। बहन का ख्याल आते ही मैं रोने लगा। हो सकता है, उस समय मुझे रोने के किसी बहाने की तलाश थी। मैं जिन पीता जा रहा था और रो रहा था। कुछ जिन से और कुछ रोने से मेरा मन कुछ हल्‍का हुआ। मैंने वाशबेसिन पर अपना चेहरा धोया, आँखों पर पानी के छींटे डाले और रसोई में सौंफ ढूँढ़ने लगा। मुझे एक डिबिया में बड़ी इलायची और लौंग मिल गए। मैंने दो-तीन लौंग इलायची मुँह में रख लीं और ड्राइंगरूम में बुजुर्गों से जरा हट कर एक कोने में बैठ गया। इस वक्‍त चाचा लोग नहीं थे, हो सकता हो वह भी कहीं एकांत में कारसेवा कर रहे हों। कुछ समय वहाँ बिता कर मैंने दुबारा अपने को रसोईघर में बंद कर लिया।

23-

श्‍मशान से दो ही रास्‍ते फूटते हैं, एक अध्‍यात्‍म की ओर हरिद्वार जाता है और दूसरा मयखाने की तरफ। मैं दूसरे रास्‍ते का ही पथिक रहा हूँ। हरिद्वार एक ही बार गया था अपनी माँ और बड़े भाई के साथ, गंगा जी में पिता जी की अस्‍थियाँ विसर्जित करने। वैसे श्‍मशान से अक्‍सर मयखाने में ही लौटा हूँ। ममता की माँ का निधन हुआ तो मैं घाट से सीधा मयखाने ही पहुँचा था। 1991 में ममता की माँ का निधन हुआ था। मैं और ममता उस समय गाजियाबाद में ही थे। वह कई दिनों से गाजियाबाद के नरेंद्र मोहन अस्‍पताल के आइसीयू में अचेत पड़ी थीं। अक्‍सर गंभीर रूप से अस्‍वस्‍थ हो जाया करती थीं, मगर उस वर्ष खाट पर लगीं तो दुबारा उठ नहीं पाईं। वह साल में दो चार महीने नर्सिंग होम में ही बिताती थीं। ऐसा कई बार हुआ कि ममता या मैं गाजियाबाद गए तो घर पर ताला मिला। बाद में हम पहले नर्सिंगहोम में झाँक आते, घर बाद में जाते।

ममता के माता-पिता शुरू से ही स्‍वतंत्र प्रकृति के थे। वे न किसी पर कभी आश्रित रहे और न ही उन्‍होंने कभी किसी को आश्रय दिया था। मियाँ-बीवी अपने में मस्‍त रहते। गुड्‌डे-गुड़िया की तरह हमेशा साथ रहते। कभी तीसरे के मुखपेक्षी न रहे। उनका मेल-मिलाप का दायरा भी बहुत सीमित था। ममता के पिता ने अवकाश ग्रहण किया तो अकेले हो गए। जी हुजूरियों की भीड़ छँट गई। वे लोग जी में आता तो सिनेमा देखने दिल्‍ली चले जाते, नाटक देखते, कला प्रदर्शनियाँ देखते, पुरानी दिल्‍ली की याद सताती तो पराँठेवाली गली में नाश्‍ता कर आते। पुरानी दिल्‍ली के जमाने के उनके कुछ दोस्‍त थे, आखिरी दिनों में उन्हीं से संपर्क रह गया था। सरकार ने निःशुल्‍क चिकित्‍सा की सुविधा दे रखी थी, जिसका उन्‍होंने भरपूर लाभ उठाया। बीमार पड़ते तो नर्सिंगहोम में बेहिचक भर्ती हो जाते।

उस बार मम्‍मी बहुत दिनों के लिए बीमार पड़ गईं। खबर मिलते ही हम दोनों गाजियाबाद पहुँचे थे। मम्‍मी अस्‍पताल में बेसुध पड़ी थीं। वह ऑक्‍सीजन पर थीं। ऐसी स्‍थिति में पहले भी कई बार आ चुकी थीं, कुछ दिनों बाद आश्‍चर्यजनक रूप से स्‍वस्‍थ हो जातीं और रसोई में चाय बनाती नजर आतीं या पापा के लिए शेव का पानी गर्म कर रही होतीं। ममता के पिता की कचौड़ी खाने की इच्‍छा होती तो कचौड़ी बनातीं, लड्‌डू खाना चाहते तो लड्‌डू बनातीं। पापा की फरमाइश भर करने की देर होती, वह काम में जुट जातीं। मैंने उन्‍हें हमेशा चींटी की तरह व्‍यस्‍त ही देखा था। मगर इस बार उन्‍होंने आँख खोल कर भी न देखा। उनकी चिरनिद्रा में विलीन होने की यात्रा शुरू हो चुकी थी और एक दिन डॉक्टरों ने उनके कमरे से निकल कर घोषणा कर दी कि वह नहीं रहीं।

हम लोग अभी इस सदमे से उबरे भी न थे कि डॉक्टरों ने कमरा खाली करने के लिए दबाव बनाना शुरू कर दिया। मरीज में जब तक प्राण शेष था, डॉक्टरों की उसमें दिलचस्‍पी थी, अब वह उनके लिए एक अतिरिक्‍त बोझ था। किसी मकान मालिक को घर खाली कराने की उतनी जल्‍दी न होती होगी, जितनी अस्‍पताल को मरीज की मौत के बाद बेड खाली कराने की होती है। कभी डॉक्टर, कभी नर्स, कभी वार्डब्‍वाय बार-बार कमरा खाली करने की हिदायत जारी कर जाते। कमरे के लिए अगले मरीज के रिश्‍तेदार दौड़-धूप कर रहे थे, सिफारिशें ला रहे थे।

उस समय अस्‍पताल में कोई एंबुलेंस भी उपलब्‍ध नहीं थी। मृतक के शरीर को कंधे पर लाद कर तो घर तक ले जाया नहीं जा सकता। पापा ने मुझे टैंपो की व्‍यवस्‍था करने के लिए कहा। बहुत चिरौरी और हील हुज्जत करने पर अनाप-शनाप भाड़े पर एक टैंपो तैयार हुआ। वार्ड ब्‍वाय की सहायता से मैंने मम्‍मी के पार्थिव शरीर को किसी तरह स्‍ट्रेचर पर डाला और नीचे लाया। कोई कंधा देने को तैयार नहीं था। पापा भी एक निर्देशक की तरह बगल में बैग दबाए अनुदेश जारी कर रहे थे। मम्‍मी को टैंपो में चढ़ाने में काफी दिक्‍कत आई। किसी के पास फुर्सत नहीं थी। किसी की इस काम में दिलचस्‍पी भी न थी। यह सेवा भी एक दूसरे वार्डब्‍वाय से खरीदनी पड़ी। मैंने जीवन में पहली बार किसी निष्‍प्राण शरीर का स्‍पर्श किया था। मम्‍मी को टैंपो में लिटा दिया और मैं उन्‍हें थाम कर बगल में बैठ गया। पापा उन्‍हें छूने से भी परहेज कर रहे थे। उन्‍होंने बताया कि उनका छूना वर्जित है। क्‍यों वर्जित है, मैं जानना चाहता था, मगर चुप रहा। वह तृतीय पुरुष की तरह जैसे छूत से बचते हुए टैंपो में अलग-थलग और उदास बैठे थे। टैंपो ने गति पकड़ी तो हवा से मम्‍मी की टाँगें उघड़ गईं। पापा ने उन्‍हें ढकने की हिदायत दी। मैंने मम्‍मी के पाँव के पास साड़ी का पल्‍लू दाब लिया ताकि साड़ी से उनकी टाँगें ढँकी रहें।

घर पहुँचते ही पड़ोस की दो-एक बुजुर्ग स्‍त्रियों और से.रा.यात्री ने मोर्चा सँभाल लिया। यात्री के साथ 'वर्तमान साहित्य' से संबद्ध तमाम लोग चले आए थे। सब साथियों ने अरथी वगैरह का प्रबंध किया और मम्‍मी के पार्थिव शरीर को अरथी पर रख कर बाँधने लगे। मम्‍मी बहुत शालीन और भोली-भाली महिला थीं। हर वक्‍त गुड़िया की तरह सजी रहतीं। मैंने उन्‍हें हमेशा अच्‍छे-अच्‍छे कपड़े पहने ही देखा था, जबकि उनकी उम्र में ज्‍यादातर स्‍त्रियाँ पेटीकोट ब्‍लाउज पर ही उतर आती हैं। उनके पार्थिव शरीर से भी जैसे शुआएँ फूट रही थीं। उनके पार्थिव शरीर का एक सुहागिन की तरह श्रृंगार किया गया और वह मृत्‍यु शैया पर दुल्‍हन की तरह लेटी हुई थीं। मेरी तरह यात्री ने भी जीवन में पहली बार किसी शव का स्‍पर्श किया था। उसकी आँखें भी नम हो रही थीं। यह याद करते हुए वह भी रो पड़ा था कि मम्‍मी कैसे उसकी खातिरदारी किया करती थीं। कभी खाली पेट नहीं जाने देती थीं, रास्‍ते में कुत्‍तों को खिलाने के लिए भी रोटियाँ सेंक देतीं।

मम्‍मी के अंतिम संस्‍कार के बाद हम लोगों ने हिंडेन नदी में हाथ-मुँह धोया और चुपचाप अपनी मंजिल की तरफ चल दिए। जैसे मुल्‍ला की दौड़ मस्‍जिद तक होती है, हमारी दौड़ मयखाने तक थी। बगैर आपस में बात किए हम लोग बगैर किसी सलाह मश्‍वरे के वहीं पहुँचे। पीने के बाद शरीर की थकान कुछ कम हुई और दिमाग की नसें ढीली। देर रात को मैं एक चोर की तरह चुपके से घर में घुसा। सब लोग सो चुके थे। घर में मौत का सन्‍नाटा था। ममता शायद जाग रही थी, मगर उसने पूछा नहीं कि इतनी देर में कहाँ से आ रहा हूँ। उसके पिता भी नहीं सोए होंगे, मगर बत्‍तियाँ गुल थीं। उन्‍होंने भी कुछ नहीं पूछा।

सुबह देर से नींद खुली, झाड़न की आवाज से। ममता के पिता हस्‍बेमामूल सुबह उठ कर पुस्‍तकों पर से धूल झाड़ रहे थे। मैं खटिया पर उठ कर बैठ गया। एक दिन में पूरे घर का नक्‍शा बदल गया था। पूरा घर अजनबी और वीरान हो उठा था, जैसे रात भर में सब कुछ उजड़ गया हो। घर का फर्नीचर तक उदास था, दीवारें सूनी थीं, पंखे जैसे सूली पर लटक रहे थे। भाँय-भाँय कर रहा था पूरा माहौल। जैसे छुट्टी के बाद बच्‍चों के स्‍कूल जरूरत से कहीं ज्यादा वीरान लगते हैं। उस माहौल में झाड़न की आवाज भुतहा किस्‍म की लग रही थी।

इस उजड़े दयार में कोई भी बीमार पड़ जाता। कुछ दिनों बाद ममता के पिता इस गमगीन माहौल में तन्‍हा रह गए। किताबों के निर्जीव ढेर थे और वह थे। दीवारों पर जगह-जगह लटक रहे गीता के संदेश के कैलेंडर उनके लिए जैसे अर्थहीन हो गए थे। साहित्य, संस्‍कृति, कला, धर्म, अध्‍यात्म, दर्शन और इतिहास की पुस्‍तकों का उनके पास अनमोल खजाना था। ऐसा अद्‌भुत संग्रह कम ही लोगों के पास होगा। यही उनकी जीवन भर की कमाई थी। मम्‍मी के जाने के बाद किताबों पर धूल की परतें जमने लगीं।

सन 1992 की एक सर्द रात थी। मैं सुबह ही दिल्‍ली से लौटा था। गाजियाबाद के एक नर्सिंग होम में ममता के पिता भर्ती थे। मम्‍मी की मौत के बाद वह एकदम अकेले पड़ गए थे। बुढ़ापे में विधुर होना कितना दर्दनाक होता है यह उन्‍हें देख कर ही समझा जा सकता था। उनके सीने में दर्द उठा था और मकान मालिक ने उन्‍हें नर्सिंगहोम में भर्ती कराके दोनों बेटियों को फोन पर सूचना दे दी थी। पड़ोसियों ने बताया था कि आधी रात को जब वह अकेलेपन से घबरा जाते तो बच्‍चों की तरह दहाड़ मार कर रोया करते थे। सूचना मिलते ही ममता पहली उपलब्‍ध गाड़ी से गाज़ियाबाद के लिए रवाना हो गई थी। उनकी तबीयत कुछ सँभली और दीदी भैया कलकत्‍ता से आ गए तो पापा को उनके सुपुर्द कर ममता इलाहाबाद लौट आई।

दोनों बहनें कामकाजी महिलाएँ थीं और बारी-बारी से छुट्टी ले सकती थीं। रस्म अदायगी के लिए मेरा जाना भी जरूरी था। रस्‍म अदायगी इसलिए कि मैं मरीज की तीमारदारी करने में सक्षम ही नहीं हूँ। मरीज के सीने में दर्द हो तो मेरे सीने में उससे ज्यादा शूल उठने लगता है। मैं मरीज के रोग से अद्‌भुत तादात्‍म्‍य स्‍थापित कर लेता हूँ। बचपन में घर में कोई बीमार पड़ जाता था तो मैं अपनी खटिया घर से बाहर आँगन में डाल लेता था। दूसरे की कराह मुझसे बर्दाश्‍त न होती थी। इसे संयोग ही कहा जा सकता है कि जब मैं गाजियाबाद पहुँचा, पापा चैतन्‍य थे। वह पीठ पर तकिया लगा कर कुछ पढ़ रहे थे। पढ़ने और पुस्‍तकें जुटाने का उन्‍हें व्‍यसन था। दैनिक समाचार-पत्र तक वह सहेज कर रखते थे। उनके ट्रांसफर के साथ उनकी रद्दी भी ट्रांसफर होती रहती थी। हम लोग भी पुरानी पत्रिकाएँ उनके घर में 'डंप' कर आते। मैंने देखा, शक्‍ल सूरत से वह बहुत कमजोर नजर आ रहे थे। शरीर पर पहने कपड़े मैले हो चुके थे। मम्‍मी होतीं तो अब तक कई बार कपड़े बदल चुकी होतीं। बीमारी के बावजूद उनके चेहरे पर अफसरी भंगिमा बरकरार थी। वह यद्यपि नौकरी से अवकाश ग्रहण कर चुके थे मगर आगंतुक को अब भी मातहत की नजर से देखते थे, आगंतुक चाहे उनका दामाद ही क्‍यों न हो। उनके इस रवैये से अस्‍पताल के डॉक्टर और नर्सें भी त्रस्‍त रहती होंगी। मातहती मुझे भी रास न आती थी, मैं सविनय अवज्ञा करते हुए सामने पड़ते ही सिगरेट सुलगा लेता। मुझे देखते ही उन्‍होंने पत्रिका बंद की, चश्‍मा उतारा और बहुत कमजोर स्‍वर में मेरा स्‍वागत किया। मैं मिजाजपुर्सी के दो शब्‍द कहता इससे पहले ही उन्‍होंने ममता पर लिखे मेरे संस्‍मरण पर अपनी प्रतिक्रिया व्‍यक्‍त करनी शुरू कर दी :

'ममता पर तुम्‍हारा संस्‍मरण पढ़ा। तुमने उसे कुछ ज्यादा ही सिर चढ़ा रखा है। ताज्‍जुब हुआ, तुम्‍हें उसकी कोई भी कमजोरी नजर नहीं आती, उसकी कोई भी बात नापसंद नहीं है तुम्‍हें? तुमने कहीं नहीं लिखा उसकी भाषा घाव कर सकती है, वह नासमझ है, नादान है, जिद्दी है। यही तुम्‍हारे संस्‍मरण की कमजोरी है। किसी को कभी ऐसे आसन पर मत बैठाओ कि बाद में अपदस्‍थ करना पड़े। आई एक्‍सपेक्‍टेड यू टु बी मोर आब्जेक्टिव।'

यह पापा का बिटिया से मुहब्‍बत करने का तरीका था। मैं उनके स्‍वभाव से परिचित था। वह उलटबाँसियों में ज्यादा विश्‍वास रखते थे। कांता उन्‍हें प्रिय थी तो शांता कह कर पुकारते थे ताकि कांता कोई भ्रम न पाल ले। मुझे अक्‍सर रवींद्र की जगह नरेंद्र कह जाते थे। नरेंद्र उनके बड़े दामाद का नाम था। भैया को अवश्‍य रवींद्र के नाम से पुकारते होंगे। इस वक्‍त वह मेरे और ममता के संबंधों की गहराई नाप रहे थे, मुझे इसका आभास था। लेटे-लेटे ही उन्‍होंने मुझे मेरा संस्‍मरण दिखाया जो उसी सप्‍ताह छप कर आया था। उन्‍होंने जगह-जगह नीली लाल रोशनाई से पृष्‍ठ रँगे थे। एक अध्‍यापक की तरह उन्‍होंने मेरा लेख जाँचा था।

इसकी एक वजह यह भी रही होगी कि उस परिवार में लेखकों की विश्‍वसनीयता खतरे के निशान को छू रही थी। उसके कई कारण रहें होंगे। एक कारण तो यही रहा होगा वे लोग एक समय में राजेंद्र यादव के पड़ोस में रहते थे। ममता के चाचा भारतभूषण अग्रवाल हिंदी के प्रतिष्‍ठित कवि थे, मगर वह खुद लेखकों के बारे में कोई बहुत अच्‍छी राय न रखते थे। ममता और मेरे रिश्‍तों को भी वह बहुत संशय की दृष्‍टि से देखते थे। उन्‍हें लगता था नए कथाकारों की भाँति मैं भी शादी के नाम पर रास रचाऊँगा। उन्‍होंने बहुत अनिच्‍छा से इस रिश्‍ते के लिए हामी भरी थी। मुझसे उनके संबंध प्रकट रूप से अंत तक दोस्‍ताना ही रहे। उनकी उपस्‍थिति में धूम्रपान या मद्यपान करने में मैंने कभी संकोच न किया था। एक बात मुझे बहुत अच्छी लगती थी, उन्‍होंने कभी ससुर की तरह व्‍यवहार नहीं किया। मेरा हाथ खाली देखते तो सिगरेट भी पेश कर देते। अशोक वाजपेयी की और मेरी शादी आगे पीछे ही हुई थी। मेरी तरह अशोक भी टी हाउस अथवा कॉफी हाउस में कम ही दिखाई देते। एक दिन नामवर जी से भनक लगी कि आजकल अशोक रश्‍मि के साथ टहल रहे थे।

शादी के तुरंत बाद ममता ने मेरे ऊपर बहुत-सी पाबंदियाँ आयद कर दी थीं। मैं किसी लड़की से हँस कर बात कर लेता, वह दो दिन के लिए रूठ जाती। हम लोग दसियों बरस से साथ रह रहे हैं। मगर को ममता को मेरे बारे में उल्टे-सीधे ख्वाब आते रहते हैं। ज्यादा दिन नहीं हुए कि उसने सपने में देखा कि मैं शबाना आजमी के साथ रहना शुरू कर दिया है। आब इसे भाग्य की विडंबना ही कहा जा सकता है कि जो सपने मैंने भी नहीं लिए, वे ममता को आ रहे हैं।

पापा ने मेरे संस्‍मरण की बहुत बारीकी से शल्‍य क्रिया कर डाली। उकसाने का यह उनका प्रिय शगल था। मैं उनकी मिजाजपुर्सी के लिए आया था, विमर्श के लिए नहीं। वह उठे और दीवार के सहारे से बाथरूम चले गए। मैंने सहारा देने की कोशिश की तो उन्‍होंने मना कर दिया। मुझे लगा, वह बहुत जल्‍द स्‍वस्‍थ हो जाएँगे।

इलाहाबाद लौट कर मैंने उनके स्‍वास्‍थ लाभ की कामना का बहाना बना कर दो एक पेग और चढ़ा लिए। पिता की हालत में सुधार की बात सुन कर ममता ने भी आपत्‍ति न की। उसने राहत की साँस ली होगी। मद्यपान मैं पूरे रस्‍मोरिवाज के साथ करता था और भोजन रस्‍म अदायगी की तरह। कब नींद की आगोश में चला गया, पता ही न चला। ऐसी नींद और ऐसी मौत भाग्‍य से ही मिलती है। छक कर पीने और बेसुध सोने के बाद लगता था आप किसी दूसरे जहान में चले गए हैं। उसके बाद जो वारदात होती है, वह सिर्फ सपने में होती है।

देर रात तक मुझे पीना जितना प्रिय था, उससे कम प्रिय नहीं था पीने के बाद सोना। पीने के बाद गजब की नींद आती थी। गहरी। निर्विघ्न। अविच्‍छिन्‍न। नींद के लिए रात भर करवटें बदलने की नौबत कभी नहीं आई। यह तो नहीं कहूँगा कि करवटें बदलने की नौबत ही नहीं आई। करवटें बदली हैं, मगर अन्‍य कारणों से। हर व्‍यक्‍ति की उम्र में ऐसे मराहिल आते हैं, जब करवटें बदलने से ही नहीं अँगड़ाई तक लेने से रोमाँच हो जाया करता है। शराब पीने के बाद मैं ऐसा घोड़े बेच कर सोता कि दुनिया जहान के गम उसी में गर्क हो जाते। उस नींद को भावातीत दिव्‍य नींद की ही संज्ञा दी जा सकती है। घर में नींद का ऐसा लोकतंत्र विकसित हो गया था कि कोई किसी की नींद के साथ छेड़छाड़ न करता था। बचपन से ही बच्‍चों को ऐसी आदत पड़ चुकी थी कि जब तक उन्‍हें इत्‍मीनान न हो जाए कि माँ-बाप सो चुके हों, सोने का नाम नहीं लेते थे। अक्‍सर देखा गया है कि माँ-बाप बच्‍चों को सुला कर सोते हैं, हमारे यहाँ यह क्रम उल्‍टा था। हमारे बच्‍चे माँ-बाप को सुलाने के बाद सोते थे। कई बार तो सोने का नाटक करना पड़ता, ताकि बच्‍चे वक्‍त पर सो जाएँ। रात को माँ-बाप जगे रहें तो बच्‍चों में अजब-सी असुरक्षा की भावना पैदा हो जाती है। बचपन में मेरे भीतर भी यह असुरक्षा की भावना बनी रहती थी। ममता ने इस तवालत से इस तरह मुक्ति पा ली कि रात (की शिफ्ट) में लिखना शुरू कर दिया। रात के सन्‍नाटे में पढ़ना-लिखना और हॉरर फिल्‍में देखना उसका प्रिय शगल है।

सपने में टेलीफोन की घंटी बजने लगी तो बजती ही चली गई। आप किसी दूसरे काम में लगे हों और अचानक टेलीफोन टनटनाने लगे तो एहसास होता है कि टेलीफोन आप को चिढ़ा रहा है। आज भी टेलीफोन ने जैसे तय कर लिया था कि मुझे चैन से सोने नहीं देगा। कई बार अलार्म घड़ी भी इसी तरह से परेशान करती है, अलार्म चाहे आप ने ही भोर में गाड़ी पकड़ने के लिए लगाया हो। शराब छोड़ने के बाद मैं सूर्य से पहले उठने लगा हूँ, वरना उससे पहले तो मुझे कमरे में घड़ी की टिक-टिक भी बर्दाश्‍त न होती थी। लगता था यह टिक-टिक नहीं दिमाग पर हथौड़े चल रहे हैं।

फोन की कर्कश घंटी की आवाज बर्दाश्‍त न हुई तो मैंने सोते-सोते अँधेरे में ही अंदाज से रिसीवर उठा लिया। फोन गाजियाबाद से था, भैया की आवाज थी - 'रवींद्र बहुत बुरी खबर है, पापा नहीं रहे।'

'क्‍या?'

'अभी थोड़ी देर पहले नर्सिंग होम से फोन आया था कि आ कर बॉडी ले जाएँ। अब इस समय आधी रात को बाडी ला कर क्‍या होगा।' भैया की आवाज में चिंता, खिन्‍नता, घबराहट और किंकर्तव्‍यविमूढ़ता थी।

'पापा को आज ही जाना था, आज हमारी शादी की सालगिरह थी।' भैया ने बताया कि बाडी मार्च्‍युरी में रखवा दी है। उनकी आवाज से लग रहा था, वह मुझसे बेहतर स्‍थिति में नहीं हैं। मुझे अचानक नशे में भी लगा जैसे 'कफन' के घीसू और मधुआ आपस में बातचीत कर रह हों। हम दोनों की जुबान लटपटा रही थी। घीसू ने फोन रख दिया और मधुआ ने रजाई ओढ़ ली।

दीदी और भैया हर वर्ष बहुत तामझाम के साथ अपनी शादी की सालगिरह मनाया करते थे। कुछ ही वर्ष पूर्व दीदी को सालगिरह के दिन दफ्तर के काम से दिल्‍ली जाना पड़ा था। इलाहाबाद स्‍टेशन पर हम लोग गाड़ी पर दीदी से मिलने गए तो देखा 'कूपे' को उन्‍होंने मंडप की तरह सजा रखा था। कंपार्टमेंट फूलों से महक रहा था और रंग-बिरंगी झंडियों से सजा था, जैसे कोई सुहाग शैया हो। मेजनुमा टिकटी पर भैया और दीदी की शादी की तस्‍वीरें प्रदर्शित थीं। मुझे पहली बार पता चला कि शादी की सालगिरह एक स्‍पेशल अवसर होता है। इसके बरअक्‍स हमारी शादी की सालगिरह भी आती थी और आ कर चुपचाप चली जाती थी। अक्‍सर तो शादी की सालगिरह सिर के ऊपर से गुजर जाती और अगर खुशकिस्‍मती से वह मुबारक दिन पकड़ में आ जाता तो इसी खुशी में एक पेग दारू ज्यादा हो जाती और उसके बाद सस्‍ती और टिकाऊ मध्‍यवर्गीय शैली में जश्‍न हो जाता। शुरू-शुरू में ममता भी शादी की सालगिरह को ले कर बहुत उत्‍तेजित रहा करती थी।

जिस वर्ष मैं मुंबई से उखड़ कर इलाहाबाद आया था, सालगिरह के रोज ममता को मुंबई फोन करना भूल गया, ममता ने तूफान बरपा कर दिया। उसने मुझे बहुत सख्‍त पत्र लिखा। उसे लगा कि मैं उसके प्रति निरपेक्ष हो गया हूँ और इलाहाबाद में अपनी नई प्रेमिका के साथ गुलछर्रे उड़ा रहा हूँ। उसने दो-एक बार फोन भी किया होगा, मगर मैं घर पर नहीं था। मैंने उन दिनों अश्क जी के यहाँ डेरा जमाया हुआ था और प्रेस संबंधी औपचारिकताओं में व्‍यस्‍त था। ज्ञानरंजन और नीलाभ इसमें मेरी मदद कर रहे थे। ममता का पत्र पढ़ कर मैं बहुत उदास हो गया। मेरी किस्‍मत खराब थी कि वह पत्र जाने कैसे अश्क जी के हाथ लग गया। अश्क जी जिन दिनों लेखन नहीं करते थे, दिन भर पत्र लिखा करते थे। उन दिनों वह मोहन राकेश को रोज एक पत्र लिखा करते थे। पहली फुर्सत में उन्‍होंने ममता को भी एक लंबा पत्र लिख डाला। पत्र क्‍या, हिदायतनामा बीवी का एक पूरा अध्‍याय था। अश्क जी की पुस्‍तक में वह पत्र संकलित है। उन्‍होंने लिखा था :

इलाहाबाद

दिसंबर 1969


प्रिय ममता,

गुड्‌डे (नीलाभ) की शादी है - 27, 28, 29 को - कालिया यहाँ है, तुम भी आ जाती तो हमारी खुशी द्विगुणित हो जाती। फिर तुम आ कर उसे तसल्‍ली भी दे जाती और उत्‍साह भी बढ़ा जातीं। जब से वह आया है उसने और नीलाभ ने दसियों मकान देख डाले हैं और कई बार एक-एक जगह दिन में तीन-तीन बार जाते हैं। कालिया तो कभी-कभी उखड़ जाता है और जैसा कि मैं उसके स्‍वभाव से परिचित हो गया हूँ। जैसे वह बिना कोई नोटिस दिए बोरिया-बँधना उठा कर आया है, वैसे ही परेशान हो कर वापस चल देता, लेकिन मैं इसे नापसंद नहीं करता, इसलिए देर-सबेर जगह उसे मिल जाएगी, और प्रेस लगा लेगा तो सफल भी हो जाएगा, अगर तुम्‍हारे प्रोत्‍साहन ने उसका साथ दिया। मैं दिल्‍ली गया हुआ था, जब वह यहाँ पहुँचा। दिल्‍ली में हम दोनों मियाँ-बीवी बहुत बीमार हो गए। आए तो थके और परेशान, लेकिन पिछले चार-पाँच दिन में बिना एक बार भी कॉफी हाउस गए, उसने जिस तरह हमें सहारा दिया है, उससे बड़ी राहत मिली है।

रात कौशल्‍या ने तुम्‍हें पत्र लिखा है, मैं लिखने ही जा रहा था कि तुम्‍हारा आक्रोश-भरा पत्र मिला है। तुमने लिखा है कि 'शायद तुम्‍हें दो-चार आवारा दोस्‍त मिल गए हैं...' पिछले एक हफ्ते से लगभग दिन-रात जिन आवारा दोस्‍तों के साथ वह रहा है वे मैं, मेरी पत्‍नी और नीलाभ तथा उमेश ही हैं... पत्‍नियों की यह आम आदत होती है कि वे कभी भला नहीं सोचतीं। मैं कभी घर से बाहर नहीं जाता, पर यदि कभी चला जाऊँ और मुझे कहीं देर हो जाए तो मेरी पत्‍नी सदा यही सोचेगी, कि मैं किसी ट्रक या मोटर के नीचे आ गया हूँ। वह कभी कोई अच्छी बात नहीं सोचेगी, इस मामले में तुम भिन्‍न नहीं हो, हालाँकि तुम बहुत पढ़ी-लिखी हो और कहानीकार हो और तुम्‍हें केवल अपनी तकलीफ की बात सोचने के बदले अपने पति की तकलीफ की बात भी सोचनी चाहिए। जो आदमी दिन-रात खट रहा हो, उसकी पत्‍नी यदि कोई ऐसी वाहियात बात लिख दे तो उसे कितनी तकलीफ पहुँचेगी, यह भी सोचना चाहिए।

मैं स्‍वयं जालंधर का रहनेवाला हूँ और वहाँ के लोग प्रायः व्‍यर्थ का औपचारिक पत्र-व्‍यवहार नहीं करते। पत्र न आए तो समझो सब ठीक है। औपचारिक पत्र आने लगे तो संदेह करना चाहिए कि कुछ गड़बड़ है।

दूसरी बात यह है कि शादी के दिन की याद पत्‍नियाँ रखती हैं, पति नहीं रखा करते। उन्‍हें उस दिन की याद दिलाते रहना चाहिए, पर बदले में वे भी याद दिलाएँ ऐसी आशा नहीं रखनी चाहिए। यदि वे भी याद दिलाने लगें तो समझना चाहिए कि कहीं घपला है। नार्मल स्‍थिति नहीं है।

जरा-जरा-सी बात पर अपने अहं को स्‍टेक पर नहीं लगाना चाहिए। हम दो-तीन दिन में तुम्‍हें फोन करने की सोच रहे थे। फोन नंबर होता तो अब तक तुम्‍हें यहाँ की सारी गतिविधि का पता मिल चुका होता।

बहरहाल कालिया ठीक है। मेरे ही पास है। जब तक उसकी ठीक व्‍यवस्‍था नहीं हो जाती, मैं उसे यहीं रखूँगा, सो तुम चिंता न करो। हिम्‍मत कर सकती हो तो दो-तीन दिन के लिए आ जाओ, उसका हौसला बढ़ा जाओ और हमारी खुशी भी। मेरी किसी बात का बुरा न मानना। अपनी बच्‍ची समझ कर मैंने ये चंद पंक्‍तियाँ लिख दी हैं।

सस्‍नेह

उपेंद्रनाथ अश्क

अश्क जी के पत्र ने आग में घी का काम किया। उन दिनों अश्क जी ने राकेश वगैरह अनेक लेखकों के तलाक में महत्‍वपूर्ण भूमिका निभाई थी, उनका बस चलता तो राजेंद्र ओर मन्‍नू का भी तलाक करवा देते। ममता को अश्क जी की इस सलाहियत की भारती जी ने भरपूर जानकारी दे रखी थी। उसे विश्‍वास हो गया कि अश्क जी के अगले निशाने पर अब हमारा ही दांपत्‍य है। ममता नादानी में जाने क्‍या-क्‍या सोच गई थी।

दीदी भैया की शादी की यह कैसी सालगिरह थी कि मैं फोन पर भी बधाई न दे पाया। अचानक मैंने पाया कि मैं दिल्‍ली की गाड़ी में लेटा हूँ और गाड़ी अँधेरे को चीरती हुई दिल्‍ली की तरफ बढ़ रही है। हमेशा की तरह दिल्‍ली स्‍टेशन पर नींद खुली। भागमभाग किसी तरह गाजियाबाद पहुँचा तो घर पर ताला मिला। श्‍मशान मेरा जाना पहचाना था। अभी छह महीने पहले ही ममता की मम्‍मी के अंतिम संस्‍कार में मैं शामिल हुआ था। घाट पर पहुँचा तो चिता अभी जल रही थी। मातमी जा चुके थे। केवल भैया रह गए थे। वह धूप के एक चौखटे पर बैठे मूँगफली खा रहे थे। उन्‍होंने मुझे देख कर थोड़ी मूँगफली मेरी हथेली पर रख दी।

'मूँगफली नहीं सिगरेट।' मैंने कहा। भैया ने जेब से पैकेट निकाल कर एक सिगरेट पेश की। मैं जेब में माचिस टटोलने लगा। माचिस भैया के पास भी नहीं थीं। उन्‍होंने आगे बढ़ कर चिता से जलती हुई लकड़ी उठाई और मेरी सिगरेट सुलगा दी। लकड़ी के ताप से मेरा चेहरा जैसे झुलस गया। मैं हड़बड़ा कर उठ बैठा। धूप की पहली किरणें रजाई पर पड़ रही थीं।

कैसा भयानक सपना था। सपना था या सच था। मुझे सही-सही कुछ भी याद नहीं पड़ रहा था। जैसे चेतन अवचेतन के बीच की रेखा मिट गई थी। शराब पी कर मुझे हैंगओवर नहीं होता था, कभी नहीं हुआ, मगर 'जाने क्‍या याद था, भूल गया' होता रहता था। सपने में डरावने दृश्‍य देखने का मुझे अच्‍छा खासा अनुभव था। एक दौर ऐसा भी था कि सिर्फ डरावने सपने आया करते थे, मगर नींद खुलते ही एकदम यकायक राहत मिल जाती थी। आज सपने में ऐसा कहर टूटा था कि नींद खुलने पर भी राहत महसूस न हो रही थी। आँगन में चिरपरिचित सुबह पसरी हुई थी। पड़ोस की नीम हमारे आँगन पर झुक आई थी, सुबह-सुबह उस पर चिड़ियों के झुंड चहचहाते थे। सिर में हल्‍का-सा सुरूर था। ऐसे आलम में सुबह-सुबह रिंद लोग एक पेग और पीते थे। उस पेग का बहुत प्‍यारा-सा नाम है - सुबूही। मेरे जैसे मेहनतकश लोगों के लिए सुबूही के बारे में सोचना भी एय्‍याशी थी। उहापोह की स्‍थिति में घिरा रहा। अपने ऊपर बहुत गुस्‍सा आ रहा था, ग्‍लानि भी हो रही थी, अपराध बोध भी। क्‍या मैं 'अल्‍कोहलिक' होता जा रहा हूँ या स्‍मृति लोप की तरफ बढ़ रहा हूँ। यह जानने के लिए मैंने दिमाग पर बहुत दबाव डाला कि रात को भैया का फोन आया था कि नहीं। दिमाग में सब-कुछ गड्‌डमड्‌ड हो गया था।

अचानक मुझे दीदी की शादी की सालगिरह की बात याद आई। अगर आज उन लोगों की शादी की सालगिरह है तो इसकी सूचना भैया ने ही दी होगी, मुझे तो अपनी सालगिरह की तारीख याद नहीं रहती, साली की कैसे याद रह जाएगी। इस मामले में ममता की याददाश्‍त बहुत अच्‍छी है। उसे इस तरह की फिजूल बातें बहुत याद रहतीं हैं। अगर ममता सालगिरह की तारीख की तारीख की ताईद करती है तो उसे विश्‍वासपूर्वक उसके पिता के निधन की खबर दी जा सकती है।

ममता बच्‍चों के कमरे में सोई हुई थी। वे लोग गहरी नींद थे। मैंने ममता को झकझोरते हुए पूछा, 'क्या आज दीदी लोगों की शादी की सालगिरह है?'

'कितने बजे हैं?' ममता ने पूछा।

'छह बजनेवाले हैं। यह बताओ कि क्‍या आज दीदी लोगों की सालगिरह है?' मैंने पूछा।

'सुबह-सुबह तुम्‍हारा दिमाग चल निकला है, सोने दो।' ममता ने करवट बदल कर मुँह फेर लिया।

मैंने उसे फिर झकझोरा, 'पहले मेरी बात का जवाब दो।'

'किस बात का?'

'क्या आज दीदी भैया की शादी की सालगिरह है?'

'आज क्‍या तारीख है?' उसने जैसे पीछा छुड़ाने की गर्ज से पूछा।

मैंने तारीख बताई और उसने सोते-सोते ही हामी भर दी कि आज उन लोगों की सालगिरह है।

'सुनो, भैया का फोन आया है। पापा की डेथ हो गई है, उठो।' मैंने कहा।

वह हड़बड़ा कर उठ बैठी, 'अभी फोन आया है?'

'रात गए आया था।' मैंने सावधानी से शब्‍दों का चुनाव करते हुए कहा।

'तुमने मुझे उसी समय क्‍यों नहीं जगाया?'

'रात को कोई गाड़ी नहीं थी।' मैंने झूठ का सहारा लिया। भोर में तूफान जाती थी, वह निकल चुकी थी।

ममता घुटनों में सिर दबा कर सिसकियाँ भरने लगी। कालका मेल जाने में अभी समय था। वह आँसू पोंछते हुए अपनी अटैची तैयार करने लगी। मैं चाय बनाने रसोई में घुस गया।

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