शताब्दी के ढलते वर्षों में
धर्म, धर्मतंत्र और राजनीति
सिंगरौली - जहाँ कोई वापसी नहीं
ढलान से उतरते हुए
क्यों भारतीय संस्कृति को जीवित रखना जरूरी है
अवस्थाएँ
शताब्दी के ढलते वर्षों में
क्या समय का बीतना कोई भ्रम है? क्या वह कोई लीला रचता है और जब हमारे पास से गुजरता है तो क्रीड़ा भाव से मुस्कराता है, धीरे से हमारे कानों में फुसफुसाता
है - 'देखो यह वही रास्ता है जिस पर से मैं सौ साल पहले गुजरा था, यहाँ मैं झिझका था, वहाँ मैं थोड़ी देर के लिए ठिठका था, उधार मैं मुड़ा था, लेकिन आज किसी
को याद नहीं है कि मैं वही हूँ और रास्ता भी वही है। इतिहास सिर्फ प्रगति के ठोस और सीधे मील के पत्थरों को अंकित करता है, लेकिन उसमें मेरी हिचकिचाहट, मेरा
संशय, मेरा रुकना और ठिठकना दर्ज नहीं होता।' समय की यह फुसफुसाहट हम अक्सर अनसुनी कर देते हैं, लेकिन ऐसे क्षण भी आते हैं कि अचानक हम थोड़े अचंभे में पड़
जाते हैं। आसपास के परिदृश्य को देख कर सहसा याद आता है कि आज हम जो देख रहे हैं वह पहले भी कभी हुआ है, कि हम पहले का देखा हुआ नाटक दुबारा से देख रहे हैं।
क्या यह महज स्मृति का खिलवाड़ है या इतिहास सचमुच सीधा न चल कर दायरों में घूमता है?
जब मैं बीसवीं शताब्दी के ढलते वर्षों में अपनी दुनिया को देखता हूँ तो मुझे उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम दशक याद आ जाते हैं। दोनों के बीच एक विस्मयकारी
समानता-सी दिखाई पड़ती है। यूरोप में उस समय एक तरफ विराट समृद्धि का वैभव था, दुनिया सतत प्रगति के मार्ग पर चलती रहेगी, इसमें सबको गहरा विश्वास था, लेकिन
दूसरी तरफ आशावादिता के इस उज्ज्वल वातावरण के पीछे एक काला अपशगुन भी टिमक रहा था। कुछ वैसा ही जैसा गर्मी की घुटन-भरी दोपहर में दूर से बिजली की कड़क सुनाई
देती है। चिलचिलाती धूप में एक पागल-सा आदमी दिखाई देता है जो तपते सूरज के नीचे जलती लालटेन लिए घूम रहा है। हवा में एक अजीब-सी चेतावनी और आनेवाली आँधी की
भनक सुनाई देती है। शायद ही कभी ऐसा हुआ हो जब यूरोप की सभ्यता आत्मगौरव की इतनी ऊँची चोटी पर पहुँची हो, अपनी अभूतपूर्व सफलता पर इतनी मुग्ध हो और इससे
बिलकुल बेखबर हो कि इस यशस्वी शिखर के पीछे एक अथाह गर्त का अँधेरा फैला है जिसमें वह कभी भी डूब सकती है। बहुत कम लोग ऐसे थे जिनकी पैनी और पारदर्शी दृष्टि
इस अँधेरे को भेद पाती थी - केवल कुछ इने-गिने लेखक और मनीषी अपवाद थे - रूस के विशाल जारवादी यातना के मरुस्थल में एक टॉल्सटॉय, अपने निपट अलगाव में अकेले
एक फ्लोबे, अपनी पागल पैगंबरी के उन्मत्त आलोक में एक नीत्शे। सिर्फ ये कुछ लोग उस सभ्यता की नियति के बारे में भयानक रूप से चिंतित थे जो अपनी समूची
समृद्धि और सफलता के बावजूद घोर संकट के छोर पर खड़ी थी।
उस समय भारत में भी स्थिति बहुत भिन्न नहीं थी। हजारों साल पुरानी भारतीय संस्कृति को एक ऐसी संहारी ध्वंसात्मक लोलुप सभ्यता का सामना करना पड़ रहा था जो
प्रगति और पश्चिमीकरण के नाम पर भारत की परंपरागत दृष्टि को नष्ट कर रही थी और इस संकट को भी कितने लोग समझते थे? धर्म और समाज के छद्म आधुनिकीकरण और ईसाई
धर्म के प्रति एक बचकाने सम्मोहन के आगे सिर्फ एक रामकृष्ण परमहंस, बंकिम चटर्जी, विवेकानंद, हिंदी भाषीय क्षेत्रों में, भारतेंदु युग में कुछ साहित्यकार और
उत्तरी भारत में दयानंद सरस्वती। लेकिन इन इने-गिने अपवादों को छोड़ कर हिंदू-मुसलमानों का समूचा एलिट वर्ग पश्चिम की आधुनिकता और ईसाई धर्म की तथाकथित
उन्मुक्तता के आगे घुटने टेके बैठा था। 19वीं शताब्दी के अंतिम दशक में भारतीय संस्कृति जिस चुनौती का सामना कर रही थी, वह किसी भी अर्थ में यूरोपीय सभ्यता
के संकट से कम भयानक और विनाशकारी नहीं थी।
तब से लगभग सौ साल बीत चुके हैं, इस बीच दो विश्वयुद्ध और अनेक क्रांतियाँ हुई हैं। भारत को भी आखिर जैसे-तैसे स्वतंत्रता मिल चुकी है। उन्नीसवीं शताब्दी के
अंत में दूर क्षितिज पर जो बादलों की कड़क सुनाई देती थी वह धुँआधार आँधी बन कर हमारे बीच से गुजर चुकी है और अपने पीछे एक सर्वव्यापी विषाद और तबाही छोड़ गई
है। लेकिन इतिहास एक क्षण के लिए भी नहीं रुका। वह अपने दैत्याकार कदमों से निरंतर आगे बढ़ता रहा है। जब हम थोड़ा-सा रुक कर चारों तरफ देखते हैं तो यह
आश्चर्यजनक बोध होता है कि पिछले सौ सालों के भीतर जितने भी विराट और अभूतपूर्व परिवर्तन हुए हैं उनके बावजूद मनुष्य में वही बदहवास किस्म की हताशा है। कहीं
दूर हवा में वही काले अपशगुन की चेतावनी है जो हमें याद दिलाती है कि हम आज वैसे ही घुटन में जी रहे हैं जिसे सौ साल पहले हमारे पुरखे भुगत रहे थे। क्या
हमारी सभ्यता एक बार फिर विध्वंस की अँधेरी खाई के आगे खड़ी है?
बीसवीं सदी के अंतिम दशकों में एक मुझ-जैसे भारतीय को कभी-कभी यह लगता है कि मैं एक ऐसे ऐतिहासिक नाटक का गूँगा दर्शक हूँ - या उससे भी बदतर उसका दयनीय
शिकार हूँ जिसकी स्क्रिप्ट किसी दूसरे ने लिखी है और उस पर मेरा कोई अधिकार नहीं है। मैं एक ऐसी आधुनिकता से आक्रांत हूँ जिसकी संकट की भाषा और प्रगति का
कर्मकांड दोनों ही मेरे लिए अजनबी हैं, लेकिन एक विचित्र और रहस्यमय ढंग से मैं इसी आधुनिक सभ्यता की नियति से कहीं गहरे में अपने को संलग्न और संबंधित पाता
हूँ। मेरे भीतर कहीं धुँधला-सा आभास है कि बीसवीं सदी के आनेवाले वर्षों में मेरी संस्कृति का भाग्य कहीं-न-कहीं पश्चिमी सभ्यता की भावी भूमिका के साथ जुड़ा
है। यही नहीं मुझे यह भी लगता है कि पश्चिमी सभ्यता के चरित्र और दिशा को स्वयं मेरी संस्कृति बुनियादी तौर से परिवर्तित और प्रभावित कर सकती है। यह शायद एक
विडंबना ही है कि मैं एक विदेशी सभ्यता के लिए जिम्मेदारी महसूस करूँ जिसने स्वयं पिछले दो सौ वर्षों से मेरी संस्कृति की लय और रौ को इतनी बुरी तरह विकृत
किया है। मैं इस विडंबना को तब तक नहीं सुलझा सकता जब तक मैं पश्चिमी सभ्यता में संकट के संदर्भ में स्वयं भारतीय संस्कृति से जो मेरा संबंध रहा है उसे
पुनर्परिभाषित करने का प्रयास और साहस नहीं करूँ।
पिछले कुछ वर्षों के दौरान ऐसा कम हुआ है कि भारत के बारे में सोचते हुए मैं उसकी नियति के साथ निरंतर एक गहरा व्यक्तिगत लगाव महसूस न करता रहा हूँ। यह लगाव
इसलिए नहीं है कि मैं भारतीय हूँ। न इसलिए है कि मैं भारतीय लेखक हूँ, बल्कि सिर्फ इसलिए कि मैं एक ऐसे पृथ्वी के खंड का निवासी हूँ जहाँ संयोग से मेरा जन्म
हुआ है। मुझे लगता है कि कमोबेश हर भारतीय के भीतर आवास के साथ जुड़ा हुआ समूचा कर्मकांड और मिथक संसार बहुत प्रमुख भूमिका अदा करता है। जहाँ हमारे आवास की
जड़ें हैं वहीं समय की निरंतरता का भी बोध होता है। यह बोध एक अंग्रेज या जर्मन की परंपरा बोध से बहुत अलग है जो उसे इतिहास से प्राप्त होता है। हमारी मनीषा
में यदि इतिहास के बोध का अभाव है तो इसलिए नहीं कि हम अतीत और वर्तमान में होनेवाले परिवर्तनों के प्रति कम सजग या संवेदनशील थे, बल्कि इसलिए कि हम एक ऐसी
सभ्यता में जीवित रहते हैं जहाँ अतीत और वर्तमान अलग-अलग स्वायत्त खंडों में विभाजित नहीं है, जैसा कि एक यूरोपीय निवासी अपने भीतर महसूस करता है। एक भारतीय
होने के नाते मुझे इसकी चिंता नहीं है कि मैं कौन था - जिसे आज अस्मिता की चिंता कहा जाता है, क्योंकि मैं एक ऐसे वर्तमान मैं जीता हूँ जो हमेशा से ही मेरे
भीतर मौजूद रहा है - शाश्वत वर्तमान का बोध। मैं सोचता हूँ कि दुनिया में भारतीय संस्कृति ही ऐसी है जिसने अपना समय बोध प्रागैतिहासिक कबीलों के समय बोध से
ग्रहण किया है। एक दृष्टि से हम यह कह सकते हैं कि आज की दुनिया में भारतीय जाति अंतिम कबीला है जिसकी संस्कृति, समय बोध और दर्शन आज के करोड़ों लोगों की
जीवन-मर्यादा को अनुशासित करता है। इसीलिए जब मैं आज अपने को भारतीय संस्कृति से संलग्न पाता हूँ तो यह संलग्नता न तो मुझे इतिहास से प्राप्त हुई है और न ही
इस बात से मिली है कि मैं किसी चर्च या धार्मिक प्रतिष्ठान के साथ जुड़ा हूँ। आधुनिक दुनिया में जहाँ लोग अपनी अस्मिता किसी राज्य संगठन या धार्मिक
प्रतिष्ठान के साथ जुड़ने में प्राप्त करते हैं वहाँ मैं जब अपने को भारतीय महसूस करता हूँ तो उस समय यह दोनों स्रोत ही कोई भूमिका अदा नहीं करते। मेरे
भारतीय होने का स्रोत एक तरफ बहुत ही व्यक्तिगत संस्कारों में जुड़ा है, इतना निजी और व्यक्तिगत कि वह मेरे अहम से कहीं ज्यादा आत्मीय और निकट है। दूसरी ओर
वह इतना व्यापक है जिसे किसी भी स्तर पर ऐतिहासिक शर्तों पर नहीं आँका जा सकता। यही कारण है कि एक भारतीय का अपनी संस्कृति से संबंध सीधी और सपाट ऐतिहासिक
परिभाषाओं में नहीं समाता, वह एक अस्पष्ट भावना है - अस्पष्ट लेकिन अपनी संलग्नता और प्रतिबद्धता में बहुत ठोस और अखंडित।
इस बीच अंग्रेजी राज्य के रूप में इतिहास ने हमारी जीवन-धारा में हस्तक्षेप किया और तब हमें यह सिखाया गया कि हम सचमुच एक संस्कृति का अंग हैं और यह
संस्कृति बहुत पुरानी मान्यताओं और मर्यादाओं पर आधारित है। पश्चिम के विद्वानों और इंडोलॉजिस्ट्स ने बहुत सुघड़ता और परिश्रम से हमारे शास्त्रों, पुराणों और
दर्शन शास्त्र को विवेचित किया। हम एक ऐसी परंपरा के प्रति सजग हुए, जिसे आज तक हम बिना परिभाषित किए सहज भाव से अपने जीवन में अपनाते रहे थे। लेकिन कभी-कभी
मैं सोचता हूँ कि इतिहास के हस्तक्षेप होने से पहले हमारा अपनी संस्कृति के साथ जो सहज और स्पष्ट लगाव था वह अपरिभाषित भले ही रहा हो, लेकिन वह निष्क्रिय या
आकारहीन न था। इस लगाव के अपने संकेत, अपने बिंब, अपने रूप थे जिनकी एक झलक में कभी-कभी अपनी मूर्तिकला में या धार्मिक अनुष्ठानों में या कला और जीवन के सहज
प्रतीकों में पा लेता था। मैं भारतीय हूँ इसकी परिभाषा मुझे पश्चिम की ऐतिहासिक कसौटी पर नहीं, बल्कि अपने रहन-सहन, आचार-व्यवहार और आस्था-विश्वास के अनेक
चिह्नों और संकेतों से मिलती रहती थी। सच पूछा जाए तो हमने अपनी परंपरा का बोध अतीत से खोज कर नहीं बल्कि सहज जीवनधारा के इन बिंबों और प्रतीकों से ही
प्राप्त किया था। पश्चिम की तरह हमने कभी सजग रूप से परंपरा में रहने के लिए अतीत का आह्वान नहीं किया। इसके विपरीत परंपरा हमारे भीतर मूक और अपरिभाषित रूप
से जीवित रहती थी। यह शायद विरोधाभास जान पड़े लेकिन सच है कि केवल पश्चिम का आधुनिक समाज ही अतीत के प्रतीकों पर जीवित रहता है जिसे वह इतिहास का नाम देता
है, किंतु जो समाज सहज रूप से परंपरागत होता है उसे अतीत की कोई आवश्यकता नहीं है। मेरी यह भावना कि मैं भारतीय संस्कृति का अंग हूँ, केवल इसलिए नहीं है कि
मैं जमीन के एक अंश से जुड़ा हूँ जिसे हम भारत कहते हैं बल्कि इसलिए भी है कि मैं एक ऐसे समय में जीता हूँ जो चिरंतन रूप से मेरा समकालीन है। मैंने जो परंपरा
से पाया वही मेरा जीवनस्थल भी है। एक भारतीय जिन बिंबों में प्रतीकों के सहारे जीवन का अर्थ ढूँढ़ता है वही उसका आवास-स्थल और परिवेश भी रहा है। इसीलिए
आधुनिक युग की राष्ट्रीयता या देशभक्ति की भावनाएँ उसके लिए बड़ी अजीब और अनावश्यक हो सकती हैं, क्योंकि उसके विश्वासों को उसकी धरती से अलग नहीं किया जा
सकता।
एक भारतीय का अपनी संस्कृति के साथ यह सहज संबंध उस क्षण विघटित होने लगा जिस क्षण पश्चिम ने अंग्रेजी राज्य के रूप में हमारी जीवन-पद्धति में हस्तक्षेप
करना आरंभ किया। भारतीय इतिहास में यह एक अभूतपूर्व घटना थी जब जीवन के सहज प्रभाव को इतिहास के चौखटों में परिभाषित किया जाने लगा। भारत में अंग्रेजी राज्य
का सबसे अधिक दुखदायी प्रभाव यह नहीं था कि हम आर्थिक और राजनैतिक रूप से गुलाम हुए, बल्कि यह कि इतिहास ने हमारी चेतना को पहली बार अतीत, वर्तमान और भविष्य
जैसे कटघरों में परिभाषित किया। पश्चिम ने जब मेरे लिए एक अतीत की खोज की उसी क्षण मैंने उसे अपने वर्तमान में उन्मूलित किया, क्योंकि मेरी सहज चेतना में
पश्चिम के हस्तक्षेप से पहले इस तरह का कोई विभाजन मौजूद नहीं था। एक बार अपने अतीत से विलगित हो जाने पर मैं धीरे-धीरे अपनी उस समूची थाती से अलग हो गया
जिसके बीच मैं जीता था, मरता था, साँस लेता था और अपने जीवन का अर्थ ढूँढ़ता था। मैं खुद अपनी संस्कृति के बीच अपने को एक अजनबी-सा पाने लगा। यह कुछ वैसा ही
था जैसे इतिहास की कुल्हाड़ी ने मुझे अपनी जमीन से उखाड़ कर अलग फेंक दिया हो और कहा हो यह तुम्हारा वर्तमान है और यह तुम्हारा अतीत था। हमारी संस्कृति में
पश्चिम का हस्तक्षेप इतिहास का हस्तक्षेप था जिसके परिणामस्वरूप एक भारतीय के भीतर एक अजीब उन्मूलन बोध और वीरानी की व्यथा उत्पन्न हुई, किंतु वीरानी का यह
भाव एलियट की उस वेस्टलेंड भावना से बहुत अलग है जो उन्होंने अपनी सभ्यता के खंडहरों (ruins of civilization) के सामने महसूस किया था, क्योंकि इतिहास ने
मेरी सभ्यता को उतना जर्जरित नहीं किया जितना स्वयं मुझे अपने भीतर से नष्ट किया। एक भारतवासी होने के नाते मैं अपनी संस्कृति को बाहर से नहीं देख सकता,
इसलिए विदेशी सभ्यता के आक्रमण से जो विनाश हुआ वह कहीं बाहर नहीं, मेरे भीतर था। अपने भीतर ही मैंने अपनी उस संलग्नता के सर्वव्यापी बोध को खो दिया है जो
आज तक मुझे अपने समय, अपने परिवेश और अपनी संस्कृति से जोड़े था।
संलग्नता की इस अवधारणा से मेरा क्या मतलब है जिसके नष्ट हो जाने से हम पिछले दो सौ वर्षों से स्वयं अपनी संस्कृति के बीच अपाहिज और अनाथ महसूस करने लगे?
पहले तो मुझे यह स्पष्ट कर देना चाहिए कि हमारे भीतर संस्कृति की वैसी धारणा कभी नहीं रही जैसे वह यूरोप में पिछले पाँच सौ वर्षों से विकसित हुई है। हमारे
लिए संस्कृति का अभिप्राय यह नहीं कि हम किस हद तक अपने विश्वासों, अनुष्ठानों और प्रतीकों के प्रति सजग रूप से सचेत हैं। संस्कृति हमारे लिए न तो
म्यूजिश्यम में संग्रह करने की चीज रही और न ही हमने उसका एक खिड़की की तरह इस्तेमाल किया, जिसके जरिए हम बाहरी दुनिया से अपना रिश्ता जोड़ते हैं। भारतीय
दृष्टि में खिड़की से दुनिया दिखाई नहीं जाती, स्वयं खिड़की ही दुनिया है। उसी प्रकार जैसे - ईश्वर का सत्य कहीं ऊपर और बाहर न हो कर हमारी देह और आत्मा के
भीतर ही सन्निहित है। दोनों पवित्र हैं इसलिए दोनों के भीतर ही परम सत्य विद्यमान है। यह विचार एक ऐसी ईसाई-यहूदी अवधारणा से कितना अलग और दूर है, जिसमें
दुनिया को केवल आँसुओं का पर्दा माना गया है, जिसके पीछे कहीं असली सत्य छिपा है। देह को तो एक कंटक माना ही गया है जो आत्मा से साक्षात्कार करने के लिए
हमेशा बीच में बाधा बन कर खड़ी रहती है।
भारतीय परंपरा में आत्मा और शरीर का यह अंतर उतना ही कृतिम है, जितना बाहर और भीतर का अंतर्विरोध। हमारे पुरखों ने शताब्दियों पहले खिड़की से जो कुछ भी बाहर
देखा था - पेड़ों, नदियों, पशुओं और मनुष्यों का एक विराट शाश्वत लैंडस्केप, वही लैंडस्केप मैं भी देखता हूँ और पाता हूँ कि मैं इस परिदृश्य का महज दर्शक
नहीं हूँ बल्कि उनके बीच हूँ, उनका ही एक अभिन्न अंग हूँ। दो शब्दों में कहें तो यह वह संलग्नता का भाव था जो मुझे सहज रूप से काल और विश्व के साथ जोड़े था।
यह महत्वपूर्ण बात है कि बाहरी परिदृश्य के विभिन्न तत्वों के बीच यह अंदरूनी संबंध इतना ही महत्वपूर्ण है जितना द्रष्टा और दृश्य के बीच एकात्म होने की
भावना। वह व्यक्ति जो देखता है और वह चीज जो दिखाई जाती है उनका आपसी संबंध उस यूरोपीय संस्कृति की धारणा से कहीं अधिक सहज स्फूर्तिदायक और आत्मीय होता है
जिसमें द्रष्टा और दृश्य, मनुष्य और लैंडस्केप, पुरुष और प्रकृति को अलग-अलग खंडों में विभाजित करके देखा जाता है। शायद यही कारण है कि एक भारतीय को रिल्के
की वह पीड़ा नहीं सताती जहाँ उनका कवि अपने को दुनिया से बाहर पाता है और उसे बाहरी जगत को 'इंटरप्रेट' करने की कोशिश करनी पड़ती है, क्योंकि भारतीय संस्कृति
में चीजों से वही मतलब है जैसी वे दिखाई देती हैं। उनके बीच अहम या ईगो की छाया नहीं पड़ती - एक ऐसा अहम जो एक तरफ मनुष्य को उसकी संपूर्णता से स्खलित करता
है, दूसरी तरफ उसे प्रकृति से अलग करता है। यही कारण है कि भारत में दृष्टि की समग्रता को तर्कबुद्धि द्वारा हासिल करने का दुस्साहस कभी नहीं किया गया बल्कि
चीजों के अंतर्संबंधों के बीच ही उसे खोया गया। दृष्टि मुक्ति का साधन ही नहीं, उसका स्रोत भी थी।
पिछले दो सौ वर्षों में जीवन के प्रति सहजता और समग्रता का यह भाव धीरे-धीरे नष्ट होता गया है उस पर इतिहास ने अपने नियम-कानून - जिन्हें डी.एच. लॉरेंस ने
स्थायी नियमों की अराजकता (anarchy of fixed laws) माना था, आरोपित होते गए हैं। हर संस्कृति की अपनी लय होती है जो प्रकृति के अनुकूल चलती है, किंतु जब कोई
औपनिवेशिक शक्ति प्रगति और इतिहास के नाम पर इस लय को भंग करती है तो उस संस्कृति से जुड़े हुए लोगों का जीवन क्षेत्र अचानक विश्रृंखलित हो जाता है। एक तरफ
हमारे पास अपने सांस्कृतिक अतीत के टुकड़ों की पोटली जमा हो जाती है, दूसरी तरफ हमारे भीतर जीवन के प्रति समग्रता का एक आध्यात्मिक भाव बाकी रह जाता है लेकिन
इन दोनों को जोड़नेवाली कड़ी टूट गई है, जिसके कारण हम बीच अधार में झूलते रहते हैं। हमारी आत्मा में एक गहरी दरार खिंच जाती है जिसने आज भारतीय यथार्थ को दो
पहलुओं में खंडित कर दिया है। जीवन का व्यवहार जिसका समग्रता से कोई संबंध नहीं और आध्यात्मिक समग्रता का भाव जिसका हमारे दैनिक कार्यकलाप से कोई लेना-देना
नहीं। आज एक आधुनिक भारतीय की चेतना न केवल भारतीय जीवन के बीच खिंची इस दरार को प्रतिबिंबित करती है, बल्कि स्वतंत्रता के बाद जो सबसे अधिक भयानक बात हुई
है वह यह कि हमारी शासन सत्ता ने विभाजन के इन टुकड़ों को ऐतिहासिक रूप से अनिवार्य मान लिया है। उसे एक तरह की ऐतिहासिक वैधता (historical legitimacy)
प्राप्त हो गई है, जो हमारे समूचे सार्वजनिक जीवन के विभिन्न पहलुओं को कलुषित और विकृत करती है।
ठीक इस बिंदु पर वह पीड़ा और विडंबना उत्पन्न होती है जो एक भारतीय होने के नाते मैं अपने देश और संस्कृति के प्रति महसूस करता हूँ। क्या है यह विडंबना और
कैसी है यह पीड़ा? मेरे व्यक्तित्व का जो सबसे मूल्यवान और महत्वपूर्ण अंश है, उसी से मैं अपने को विच्छिन्न पाता हूँ। जबकि दूसरी तरफ मुझे एक ऐसी राष्ट्रीय
और भौगोलिक अस्मिता के साथ प्रतिबद्ध होना पड़ता है जिससे मेरा कोई आध्यात्मिक और सांस्कृतिक लगाव नहीं है। आखिर राज्य व्यवस्था के ढाँचे, संसद, राष्ट्रीय
धवज के प्रति मेरा लगाव सिर्फ बहुत सतही और ऊपरी ही हो सकता है, क्योंकि व्यवस्था के इन प्रतीकों ने न मुझे सुरक्षा प्रदान की है और न ही मुझे यह अवसर दिया
है कि मैं अपने मानस को उनके ऐतिहासिक महत्व से जोड़ सकूँ। जिस खाई और दरार की चर्चा मैंने ऊपर की है वह न केवल हमारे दर्शन और व्यवहार के बीच खिंची है,
बल्कि हमारे राजनीतिक कर्म और सांस्कृतिक प्रभाव के बीच भी दिखाई देती है। मुझे राज्य के जिन प्रतीकों के प्रति प्रतिबद्ध होने के लिए बाध्य किया जाता है
उनके लिए मेरे दिल में कोई श्रद्धा नहीं। जिन प्रतीकों के लिए मेरे हृदय में सचमुच आस्था और निष्ठा है उनका हमारे व्यावहारिक और राजनैतिक जीवन में कोई स्थान
नहीं है। समय के बीतने के साथ-साथ यह खाई और भी चौड़ी होती जाती है और मेरी यह आशंका दृढ़ होती जाती है कि यदि प्रगति की रौ यथावत चलती रही तो एक दिन हमारी
परंपरा की विशिष्ट अंतर्दृष्टि एक ऐसी वैज्ञानिक सभ्यता के नीचे कुचल दी जाएगी जिसे आज हम आधुनिक युग की वास्तविकता मानते हैं।
मैं अपनी मानसिक बिखराव की इस स्थिति को निर्वासीपन (एलियेनेशन) जैसे फैशनेबिल शब्दों द्वारा भी विश्लेषित नहीं कर सकता, क्योंकि सच्चाई यह है कि मेरा
आत्मनिर्वासीपन वैसा नहीं है जैसा आज पश्चिम के आधुनिक समाज में रहनेवाला व्यक्ति महसूस करता है। समूचे बिखराव और अंतर्विरोधों के बावजूद मैं कभी अपने को
निपट आत्मशून्य नहीं पाता। मैं अभी उस विकट स्थिति में नहीं पहुँचा हूँ जहाँ मनुष्य अपने आत्मन अपने सेल्फ को ही खो देता है जिसकी चर्चा हमें पश्चिम के अनेक
आधुनिक उपन्यासों में मिलती है। एक भारतीय होने के नाते मेरी चेतना इतनी अहम्ग्रस्त और वैयक्तिक नहीं है, जिसने आज यूरोपीय-व्यक्ति को इतना अकेला छोड़ दिया
है। हेगल का कहना था कि एक यूरोपवासी की अस्मिता उसकी आत्मचेतना में वास करती है और यह आत्मचेतना हमेशा दूसरों के विरुद्ध हो कर ही अपने को प्रतिष्ठित कर
सकती है। किंतु जिस आत्मचेतना के द्वारा एक भारतीय बाहरी दुनिया से अपना रिश्ता जोड़ता है उसकी अभिव्यक्ति कभी ऐसे अहम में नहीं होती जो दूसरे व्यक्तियों के
अहम के विरुद्ध संघर्ष करने में ही अपना अर्थ पाता हो। इसके बिलकुल विपरीत भारतीय चेतना दूसरों के विरुद्ध नहीं, दूसरों के साथ ऐसे अनुष्ठानों, मिथकों,
प्रतीकों और विश्वासों के माध्यम से जुड़ी है जिसे वह समाज के अन्य लोगों के साथ एक स्मृति के द्वारा साझा करता है। समाज के लोगों की यह सामान्य स्मृति हर
व्यक्ति के आत्मन और (सेल्फ) की सीमाओं को बढ़ा देती है। इसलिए एक यूरोपियन का अहम एक भारतीय के सेल्फ से बहुत अलग है, उसमें दूसरे के प्रति विरोध नहीं बल्कि
दूसरे ही उसके अस्तित्व उसके 'मैं' में शामिल हैं।
किंतु यदि यह सत्य है तो मुझे अपनी संस्कृति के प्रति पूरा लगाव क्यों नहीं हो पाता? इस लगाव के रास्ते में वह पीड़ा और विडंबना क्यों पैदा होती है जिसका
जिक्र मैंने ऊपर किया है? क्यों आज मैं अपने भीतर एक अपराध भावना महसूस करता हूँ? क्यों मुझे ऐसा लगता है कि मैं अपनी संस्कृति से जुड़ा भी हूँ और उससे बहुत
दूर छिटक भी गया हूँ? शायद इस प्रश्न का उत्तर एक आधुनिक भारतीय की मनीषा में होनेवाले संकट को ठीक-ठीक रेखांकित कर सकेगा। जब मैं इस प्रश्न का उत्तर ढूँढ़ता
हूँ तो एक बात मुझे बहुत उल्लेखनीय जान पड़ती है और वह यह कि आज की दुनिया में भारतीय समाज ही एक अकेला समाज है जिसकी परंपरा के समस्त तत्व आज भी मौजूद हैं,
लोगों को उपलब्ध हैं और न केवल उपलब्ध हैं, बल्कि जीवन से ले कर मृत्यु तक किसी-न-किसी रूप में हर भारतीय अपने दैनिक व्यवहार में इन तत्वों द्वारा
अनुप्राणित होता है। वे सब धागे जिनसे परंपरागत तत्वों का जाला बनता है और जो मुझे भारतीय यथार्थ से जोड़ते हैं आज भी विद्यमान हैं, किंतु इन धागों से मेरे
अपने जीवन का कोई समूचा अर्थ नहीं जुड़ पाता। वे अपने स्वायत्त अलगाव में जीते हैं और मैं अपने अकेलेपन में। यह अवश्य है कि कभी-कभी ऐसे दुर्लभ क्षण आते हैं
कि मैं अपने को परंपरा में चरितार्थ कर लेता हूँ और परंपरा मेरे भीतर जीवित हो उठती है, किंतु इस पारस्परिक अंतर्गुंफन के क्षण आज के आधुनिक जीवन में केवल
यदाकदा ही मिल पाते हैं और जब मिलते भी हैं तो भी वे मुझे सच्चे और वास्तविक नहीं जान पड़ते। मुझे यह केवल एक संयोग ही जान पड़ता है। इस लगाव और अलगाव के पीछे
कोई तर्कव्यवस्था नहीं है। मैं परंपरा के इस तंतुजाल में जाता हूँ और फिर बाहर आ जाता हूँ, किंतु उससे कोई स्थायी और शाश्वत रिश्ता नहीं जोड़ पाता। मुझे एक
यूरोपीय का यह सौभाग्य भी प्राप्त नहीं जो अपने अतीत, अपने इतिहास, अपने चर्च के साथ नाता जोड़ने का सजग प्रयत्न करता है। सजगता तभी उत्पन्न होती है जब
मनुष्य का अपने अतीत और परंपरा से संपूर्ण रूप से अलगाव हो गया हो। एक भारतीय की परंपरा कहीं बाहर नहीं, उसके भीतर रहती है, इसलिए सजग रूप से उससे अपने को
जोड़ने का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता। किंतु दूसरी तरफ अपने परिवेश से सहज लगाव जो एक भारतीय स्वाभाविक रूप से महसूस करता था - अपनी प्रकृति से लगाव, अपने
परिवेश से सहज, पारंपरिक संबंध - आज वह बहुत कुछ विश्रृंखलित हो चुका है।
पिछले वर्षों में हमारे देश में अंधाधुंध औद्योगिक प्रगति के नाम पर जो तहस-नहस हुई है उसने एक भारतीय के भीतर इस विश्रृंखलित भावना को और भी अधिक भयानक बना
दिया है। आज जिस औद्योगिक वर्ग के हाथ में राज्य सत्ता है उसे इस बात में कोई दिलचस्पी नहीं कि प्रगति की दौड़ में परंपरागत जीवन के मूल्य कितने नष्ट हो जाते
हैं, कितने बचे रहते हैं। आधुनिक भारतीय की मानसिक पीड़ा का यह मूल कारण है कि, जबकि परंपरागत जीवन के सब रीति-रिवाज, अनुष्ठान और मिथक मौजूद हैं फिर भी आज
के औद्योगिक परिवेश में हम उनके साथ एक जीवंत और जीवनदायी संबंध स्थापित नहीं कर पाते और जितना कुछ संबंध बचा भी रह गया है वह उत्तरोत्तर अत्यधिक धुँधला,
विकृत और नष्ट होता जा रहा है। शायद हम एक अंग्रेज या अमेरिकी या रूसी की अपेक्षा ज्यादा कुछ देख सकते हैं, लेकिन यह ज्यादा देख पाना हमें उतना अर्थ नहीं
देता, जितना अर्थ कम देखने के बावजूद एक पश्चिमी सभ्यता के नागरिक को मिलता है, जो अपनी सीमित दृष्टि के बावजूद जो कुछ भी देखता है उससे भी कहीं ज्यादा अर्थ
खोज लाने में समर्थ है। हम जब कभी अधिक अर्थ पाने में समर्थ भी हो पाते हैं तो वह भी हमें एक महँगे दाम पर ही मिलता है, क्योंकि हमें उसे प्राप्त करने के
लिए यथार्थ के अनेक पहलुओं को अनदेखा कर देना पड़ता है, जिनके साथ हम अपना कोई संबंध नहीं बैठा सकते। यह एक सारी प्रक्रिया एक स्वप्न-सरीखी अवस्था में चलती
है, जहाँ न पूरा अँधेरा है न पूरी रोशनी, बल्कि इतिहास की एक ऐसी धुँधली कुहेलिका है, जिसमें न पूरा सत्य दिखाई देता है, न पूरा झूठ। लगता है जैसे हम परंपरा
और आधुनिकता के हाशिए पर जी रहे हैं। न एक में हमारा घर है, न दूसरे में हमारी सुरक्षा।
भारतीय संस्कृति का धर्म हमेशा से मनुष्य और सृष्टि के अखंडित संबंध - सार्वभौमिक संपूर्णता के आदर्श पर आधारित रहा है। पिछले दो सौ वर्षों में एक भारतीय
जिस अनुपात में आधुनिक होता गया है, उसी अनुपात में संपूर्णता का यह संस्कार हमारे जीवन में धुँधला और मलिन पड़ता गया है। हम एक अजीब आत्मकुंठा और अपराधभाव
से ग्रस्त हो गए हैं क्योंकि एक तरफ हम ऐसी संस्कृति के प्रतिनिधि होने का दावा करते हैं, जो जीवन में संपूर्णता का स्वप्न पालती है, दूसरी तरफ हम आधुनिक
युग की मान्यताओं से भी एकीकृत होना चाहते हैं, जो संपूर्णता के इस आदर्श को दिन-पर-दिन अधिक खोखला बनाती जाती है। हम जिस आदर्श में विश्वास करते हैं, उसे
अपने जीवन और कर्म में क्रियान्वित करने का साहस नहीं जोड़ पाते और जिन आधुनिक मर्यादाओं को सैद्धांतिक रूप से अस्वीकार करते हैं, उसे अपने व्यवहार और कर्म
में ढालते जाते हैं। कथनी और करनी के इस भेद के कारण ही यह अपराध भावना, यह पाप-बोध उत्पन्न होता है, जिसने न केवल हमारे राष्ट्रीय जीवन के जीवनदायी स्रोतों
को सुखा दिया है, बल्कि हमारी चेतना की गहनतम परतों में अपना घर बना दिया है।
अपनी बात को स्पष्ट करने के लिए मैं आपको एक उदाहरण देना चाहूँगा; मैं पिछले दो वर्षों से भोपाल में रहा हूँ जहाँ भारत भवन जैसी प्रतिष्ठित इमारत का निर्माण
हुआ है। भारत भवन के कला-संग्रहालय के दो कक्ष है, एक में मध्यप्रदेश के आदिवासियों के चित्रों, मूर्तियों और कला-वस्तुओं को प्रदर्शित किया गया है, दूसरे
कक्ष में आधुनिक भारतीय कलाकारों की कृतियों को देखा जा सकता है। एक कक्ष से दूसरे कक्ष में जाते हुए हमें एक अद्भुत और अभूतपूर्व अनुभव से गुजरना पड़ता है।
आदिवासी कलाकृतियों में अखंडित संपूर्णता का भाव अंकित है - पेड़, आकाश, पशु और आदमी एक-दूसरे से सहज, शांत और संतुलित भाव में अंतर्गुंफित हैं; यह भाव उस
संपूर्णता का स्वप्न है, जिसे मैं अपने भीतर ले कर जीता हूँ किंतु जिसका मेरी समकालीन, तथाकथित आधुनिक चेतना से दूर का रिश्ता नहीं बैठता। किंतु कुछ कदम दूर
गलियारा पार करते ही जब मैं आधुनिक कला की वीथिका में जाता हूँ तो एक नितांत भिन्न प्रकाश का अनुभव होता है; आधुनिक कलाकारों की कृतियों के समक्ष मुझे खंडित
अनुभवों की एक ज्वलंत और ज्वरग्रस्त आभा मिलती है - अपने में एक अनूठा सत्य वहन करती हुई - जो मेरे विश्रृंखलित और उन्मूलित यथार्थ के बहुत निकट है, किंतु
जिनका मेरे उस संपूर्णता के स्वप्न से कोई संबंध नहीं, जो मैंने आदिवासी कलाकृतियों के सम्मुख महसूस किया था। क्या कारण है कि मैं न पहली अनुभव-धारा से
एकीकृत हो पाता हूँ, न दूसरी से? मुझे लगता है जैसे मेरी चेतना के बीचों-बीच एक फाँक खिंच गई है, एक तरफ आधुनिक अनुभव है, जो मेरे वास्तविक यथार्थ को
प्रतिध्वनित करता है - दूसरी तरफ अखंडित संपूर्णता का अनुभव है, जिसमें मेर संस्कृति का स्वप्न छिपा है - और बीच में कोई ऐसा धागा नहीं है जो मेरे
वस्तु-अनुभव को मेरे स्वप्न-अनुभव से जोड़ सके - हालाँकि दोनों ही मेरी समकालीन चेतना के सच्चे और प्रामाणिक पहलू हैं।
यह खाई जो मेरी व्यक्तिगत चेतना में है, वही मेरे सामाजिक जीवन को भी बीचों-बीच विभाजित करती है। एक तरफ आधुनिक समाज व्यवस्था है, विज्ञान और राजनीति के
सिद्धांतों द्वारा अनुशासित; और दूसरी तरफ है, मेरी संस्कृति की संपदा, जिसमें पीढ़ी-दर-पीढ़ी चली आई लोगों की स्मृति, संस्कार, धर्म मर्यादा छिपी है - किंतु
दोनों को जोड़नेवाला एक संपूर्ण अनुभव का यथार्थ अनुपस्थित है। यही कारण है कि मेरे व्यक्तित्व के खंडित हिस्से यथार्थ के खंडित अनुभवों में जीते हैं, एक
संपूर्ण और सार्थक जीवन -मर्यादा से एकीकृत नहीं हो पाते। आदिवासी जगत की दृष्टि और आधुनिक जीवन का यथार्थ - दोनों का ही मेरे अनुभव-जगत में सह-अस्तित्व है,
किंतु वे मेरी चेतना के दो सीमांत छोरों पर रहते हैं और कोई ऐसा सेतु नहीं, जो यथार्थ के अंश को संपूर्णता के यथार्थ से जोड़ सके, जो एक स्वप्न की तरह मेरे
भीतर जीवित है। इस सेतु के अभाव के कारण ही वह अपराध-भावना उत्पन्न होती है जिसका जिक्र मैंने ऊपर किया था। हड़बड़ी और बदहवासी में हम आधुनिक से इतना अधिक
आधुनिक हो जाना चाहते हैं, जहाँ हम संपूर्णता के अपने सांस्कृतिक अनुभव को भुला सकें या आधुनिकता से संत्रस्त हो कर हम भयभीत बच्चों की तरह अपनी परंपरा के
ऑंचल में मुँह छिपा लेना चाहते हैं जहाँ हम आधुनिक अनुभव के पीड़ादायक तनावों और अंतर्द्वंद्वों से छुटकारा पा सकें। दोनों ही रास्ते हमारी आत्मछलना और
अपराध-भावना को और अधिक गहरा बनाते हैं, उनसे मुक्ति नहीं दिलवाते।
यह एक समस्या है, जिसका सामना हमें बीसवीं शताब्दी के अंतिम दशकों में करना होगा। मैं इस समस्या को सीधे-सादे शब्दों में प्रस्तुत करना चाहूँगा; वर्तमान की
सांस्कृतिक उलझनों और विडंबनाओं से बचने की खातिर क्या भारत आधुनिक वस्तुस्थिति (जिसे मैं रियलिटी प्रिंसिपल (Reality Principle) मानता हूँ) के आगे घुटने
टेक देगा, जिसके एवज में उसे आधुनिक राज्यतंत्र और औद्योगिक सभ्यता के वे सब उपादान प्राप्त हो जाएँगे जो आज किसी भी छोटे-से-छोटे यूरोपीय देश को प्राप्त
हैं - एक केंद्रीकृत नौकरशाही शासन व्यवस्था, औद्योगिक विकास, जंत्र-यंत्र, सैनिक मशीन की राक्षसी काया, जिसे मांस-मज्जित करने के लिए लाखों का खर्च होता
है? वस्तुस्थिति का यह सिद्धांत हमें पश्चिमी पैटर्न में रंगे-पुते एक अत्याधुनिक सभ्य राज्य की स्थापना की ओर ले जाता है, जिसके बीज स्वतंत्रता के बाद बोए
गए थे और जिसके विष वृक्ष आज चारों तरफ खड़े दिखाई देते हैं।
वास्तविक यथार्थ का भी अपना स्वप्न होता है - अंतहीन प्रगति का स्वप्न - जिसमें आज देश के लगभग सभी बुद्धिजीवी और तकनीकी विशेषज्ञ, उदारवादी राजनेता और
मार्क्सवादी क्रांतिकारी चरितार्थ करने में जुटे हैं, क्योंकि इन्हीं लोगों की शिक्षा-दीक्षा ने आधुनिक भारतीय चेतना को परिभाषित किया है। मुझे डर है कि
विकासवाद की यह अंधी पूजा हमेशा के लिए उस बची-खुची संभावना को नष्ट कर देगी, जिसके द्वारा आज हम अपनी जर्जर संस्कृति के धागों को समेट कर एक मानवीय और
मौलिक विकल्प प्रस्तुत कर सकते हैं, जो हमारी संस्कृति की आदिम और मूल मर्यादाओं में पहले से ही मौजूद है। एक परंपरागत संस्कृति की अंतर्दृष्टि सबसे अधिक
मूल्यवान निधि होती है। एक बार नष्ट हो जाने पर उसे कभी पुनर्जीवित नहीं किया जा सकता। यह हमारा सौभाग्य है कि इतिहास की अनेक विपदाओं और विसंगतियों के
बावजूद भारतीय संस्कृति के वे उपादान और प्रतीक मूल्य और मर्यादाएँ कायम हैं, जिनकी ओट में एक विशिष्ट जीवन-पद्धति की लौ जलती रहती है। हमारे अपने पापों और
अपराधों ने इस लौ को बहुत मलिन और मद्धिम कर दिया है, किंतु वह दूसरे देशों की तरह कभी इतनी मद्धिम नहीं हुई, जहाँ सभ्यता के नाम पर हीरोशिमा को विध्वंस
किया गया हो और समाजवाद के नाम पर लेबरकैंपों में लाखों आदमियों की आहुति चढ़ाई गई हो। भारतीय संस्कृति में आज भी-समस्त विकृतियों के बावजूद वे तत्व मौजूद
हैं, जिनके रहते मनुष्य को कभी इतनी स्पर्धा और अहंकेंद्रित अभिमान नहीं हुआ कि प्रगति की लालसा में वह उस सृष्टि का ही संहार कर दे, जिसमें मनुष्य ने न
केवल दूसरे प्राणियों से, बल्कि अपने भौगोलिक परिवेश से नाता जोड़ा है। दरअसल इस नाते में ही मनुष्य ने अपने को पहचाना है; संस्कृति का जन्म ही 'मैं और अन्य'
की इस रहस्यमय पवित्र और उत्सुक पहचान के बीच हुआ है। जब मनुष्य अपने अहम की खातिर अन्य को नष्ट कर देता है, तो उसका 'मैं' भी सर्वथा अर्थहीन, मूल्यहीन,
गौरवहीन हो जाता है।
किंतु इससे बड़ी आत्मछलना कोई नहीं होगी यदि हम भारतीय संस्कृति के इन तत्वों को शाश्वत मान कर हाथ पर हाथ धरे बैठे रहें; यदि यह हमारा सौभाग्य है, कि ये
तत्व आज भी विद्यमान हैं, तो यह हमारा सबसे बड़ा दुर्भाग्य होगा यदि हम प्रगति और इतिहास की आँधी में इन्हें हाथ से छूट जाने दें, बिखर जाने दें। संस्कृति के
जीवंत तत्व उस नाजुक कड़ी में बसे होते हैं जो मनुष्य की आत्मा को उसके बाहरी परिवेश से जोड़ती है; यह वह संबंध है, जो हमें अपने अलग-अलग अनाथ अहमों से उठा कर
समग्रता की पवित्र और सार्वभौमिक भावना से साक्षात कराता है। इस एक कड़ी में न जाने कितनी छोटी-छोटी श्रृंखलाएँ बँधी हैं - हमारे कार्यक्रम, हमारे अनुष्ठानों
मिथकों और विश्वासों की श्रृंखलाएँ - जो जन्म से मृत्यु तक हमें धरती पर अपने होने का अहसास दिलाती हैं। जहाँ कहीं भी कोई श्रृंखला टूटती है हम वहीं थोड़ा-सा
अर्थहीन, थोड़ा-सा अकेला हो जाते हैं। हिमालय के वनवासियों के विश्वास और मिथक पेड़ के साथ जुड़े होते हैं, क्या ये विश्वास और मिथक जीवित रह जाएँगे, यदि हम
जंगल-के-जंगल नष्ट कर दें? क्या हम एक किसान का समूचा मिथक-संसार, उसकी अंतरात्मा में बसा धार्मिक प्रतीकों का पवित्र लोक और आलोक - जो उसने शताब्दियों से
अपनी धरती के लगाव से अर्जित किया है -नष्ट नहीं कर देते जब उसे उसकी भूमि से उन्मूलित करके उसे महज एक खेतिहर मजदूर में बदल देते हैं? यदि औद्योगिकीकरण की
ऐतिहासिक प्रक्रिया इस किसान को बंबई के मिल-कारखाने में रोटी जुटाने के लिए मजबूर करती है, तो वह महानगर की अँधेरी, दुर्गंधमयी चालों में अपना पैतृक,
परंपरागत जीवनलोक सुरक्षित रख सकेगा? जब एक नदी सूख जाती है, एक गाँव उजड़ जाता है, एक जंगल नष्ट हो जाता है, तो ये महज आर्थिक और पर्यावरण की (Ecological)
दुर्घटनाएँ नहीं हैं; वे मनुष्य की संस्कृति पर घातक और मर्मभेदी घाव छोड़ जाती हैं क्योंकि उनसे पवित्रता का परिवेश नष्ट हो जाता है जिसके भीतर ही एक
संस्कृति अपने अर्थों को संयोजित करती है, अपनी अंतर्दृष्टियों को एक पैटर्न, एक दर्शन में बाँधती है जिनके आधार पर ही मनुष्य अपनी आत्मा का संबंध बाहर की
सृष्टि से जोड़ पाता है। जिस क्षण इस संबंध को ठोस पहुँचती है, उसी क्षण एक दुनिया, एक दृष्टि नष्ट हो जाती है। सुविख्यात नृतत्वशास्त्री लेवीस्ट्रॉस ने एक
बार अपने इंटरव्यू में कहा था कि यदि संयोग से रेंब्राँ का कोई चित्र नष्ट हो जाता है, तो वह चाहे कितना बड़ा दुर्भाग्य क्यों न हो, हम आशा कर सकते हैं कि
हजारों वर्ष बाद कभी कोई रेंब्राँ की तरह चित्र बना सकेगा, किंतु जब हम किसी कबीले, किसी ट्राइब या किसी पौधो की नस्ल को नष्ट कर देते हैं, तो वे दुनिया से
हमेशा के लिए लोप हो जाएँगे और हम उन्हें फिर कभी अपने अनूठे, विशिष्ट स्वरूप में नहीं प्राप्त कर सकेंगे।
यह वह बिंदु है जहाँ भारतीय संस्कृति के जीवित रहने की संभावनाएँ पश्चिमी सभ्यता की भावी नियति से जुड़ जाती हैं। यदि भारतीय समाज की मुख्य समस्या यह है कि
आनेवाले समय में भारतीय संस्कृति में सन्निहित जीवन की समग्रता का मेटाफिजिकल दृष्टिकोण कहाँ तक हमारे व्यक्तिगत आचार-व्यवहार और हमारी सामाजिक व्यवस्था में
अनूदित हो पाता है, पश्चिमी सभ्यता की समस्या इससे बिलकुल उल्टी है; क्या पश्चिमी समाज में एक ऐसी जीवन-पद्धति का विकास हो सकेगा, जिसमें समकालीन जीवन के
खंडित और परस्पर-विरोधी अनुभव जीवन के प्रति संपूर्ण और समग्र दर्शन में समन्वित हो सकेंगे ताकि समूचे यथार्थ को एक विराट और अखंडित अस्मिता में देखा और
परखा जा सके। आज तक पश्चिम में हर समस्या का हल समूची मानवीय स्थिति से अलग करके ढूँढ़ा जाता है, यदि एक बीमारी का उपचार मिल जाता है, तो उससे जुड़ी सैकड़ों
दूसरी बीमारियाँ अपना सिर उठा लेती हैं। उदाहरण के तौर पर पिछले वर्षों में पश्चिमी जर्मनी में एक स्वस्थ आंदोलन शुरू हुआ जिसे हरित-आंदोलन (Green Movement)
कहा जाता है; इस आंदोलन का मुख्य उद्देश्य यह है कि औद्योगीकरण की बढ़ती हुई आग से प्रकृति को बचाया जा सके किंतु जिस समाज में सशस्त्रीकरण इतनी तेजी से हो
रहा है कि लाखों-करोड़ों डॉलर अणुबमों और आणविक शस्त्रों के निर्माण पर खर्च किया जाता है, वहाँ प्रकृति को प्रदूषण से बचाने का प्रयत्न क्या महज एक मीठा और
अवास्तविक स्वप्न नहीं है? उसी तरह इंग्लैंड या सोवियत संघ में अणु बम-विरोधी आंदोलन क्या कभी सफल हो सकेंगे, जब तक पश्चिमी मनुष्य की मनीषा में प्रकृति के
विरुद्ध हिंसा और आक्रामकता की भावना कायम रहती है? दूसरे शब्दों में जब तक पश्चिमी संस्कृति के केंद्र में अहिंसा और समूची सृष्टि की पवित्रता जैसे मूल्य
प्रतिष्ठित नहीं होते तब तक कोई भी आंदोलन - चाहे वह प्रकृति को प्रदूषण से या मनुष्य को अणु बम से बचाने के लिए हो - यूरोप के जनमानस को एक नैतिक चुनौती
नहीं दे सकेगा, जो उन्हें अपनी सभ्यता के मानवीय-मूल्यों को जीवंत रखने के लिए उत्प्रेरित कर सके। इससे बड़ी विडंबना क्या होगी कि एक तरफ हम प्रकृति के
विरुद्ध हिंसा बरतते जाएँ, दूसरी तरफ यह आशा रखें कि मानवता को अपने विरुद्ध हिंसा करने से रोका जा सकता है?
यह प्रश्न मुझे उस केंद्रीय समस्या की ओर ले जाता है जिसका सामना भारतीय-संस्कृति और पश्चिमी सभ्यता दोनों को देर-सबेर नहीं, बल्कि एक अपरिहार्य तात्कालिकता
से करना होगा, केवल अपने मूल्यों को सुरक्षित रखने के लिए नहीं, बल्कि इस धरती पर अपना अस्तित्व बचाए रखने के लिए भी। हम में से बहुतों को याद होगा कि 1960
के आसपास यूरोप और अमेरिका के युवा-वर्ग ने भारी संख्या में पश्चिमी राज्य-व्यवस्था की अनैतिक मर्यादाओं और पूर्वी यूरोप के तानाशाही राज्य-तंत्रों के
विरुद्ध गहरा असंतोष और विरोध प्रगट किया था। किंतु बीस वर्ष बाद आज स्थिति इतनी विकट हो गई है कि प्रश्न सिर्फ एक या दूसरे किस्म की सामाजिक व्यवस्था की
आलोचना करने का नहीं रहा, किंतु उससे भी अधिक बुनियादी प्रश्न यह है कि क्या दोनों ही मॉडल-पश्चिम का लोकतंत्र और सोवियत अधिनायकवाद - एक ऐसी आधुनिक सभ्यता
के दो पहलू नहीं हैं - जो इस धरती पर मानव-जाति के मात्र अस्तित्व के लिए खतरा बन गए हैं? जब कोई सभ्यता जीवन का समग्रबोध खो देती है, जिसे मैंने संपूर्णत्व
की भारतीय अवधारणा माना है, तो कोई ऐसी गारंटी, ऐसा नैतिक अवरोध नहीं रहता जो मानवजाति को सामूहिक आत्महत्या करने से रोक सके। यह वह महत्वपूर्ण बिंदु है
जहाँ भारतीय संस्कृति का स्वप्न पश्चिमी सभ्यता के अस्तित्व से जुड़ जाता है। किंतु मुझे गलत न समझा जाए। मैं कोई पश्चिमी और पूर्व के बीच समन्वय का स्वप्न
नहीं देख रहा - क्योंकि समन्वय के ऐसे सब प्रयास निष्फल होते हैं, उन्नीसवीं शती के बंगाल रेनेसैंस के बुद्धिजीवियों ने समन्वय के जो प्रयास किए थे, उसके
घातक परिणाम हमारे सामने हैं। आज का सत्ताधारी एलीट वर्ग उसी घोल का परिणाम है, जिसने आज हमारी संस्कृति को एक तरफ इतना आत्मसम्मोहित दूसरी तरफ इतना
अपराधग्रस्त बना कर छोड़ दिया है।
इस बीच एक परिवर्तन जरूर हुआ है; पश्चिम के प्रति जो सम्मोहन उन्नीसवीं शती के अंतिम दशकों में आरंभ हुआ था, अब वही सम्मोहन पश्चिम की युवा पीढ़ी में भारत के
प्रति दिखाई देता है। पिछले वर्षों में पश्चिमी सभ्यता की मान्यताओं से जो व्यापक मोहभंग हुआ, उसके कारण युवा पीढ़ी के लेखक और विचारक ही नहीं बल्कि सामान्य
लोग भारत के प्रति आकर्षित हुए। अपनी सभ्यता की भौतिकवादी मान्यताओं से विक्षुब्ध हो कर उन्होंने भारतीय दर्शन और अध्यात्मवाद में शरण खोजनी चाही। किंतु यह
मरीचिका के पीछे भागना था। अपनी सभ्यता से घबरा कर वे एक ऐसी संस्कृति में अपने जीवन का सत्य पाने का प्रयत्न कर रहे थे जो स्वयं अपने अतीत और अपने परिवेश
से उन्मूलित हो रही है जैसे आज भारतीय संस्कृति की हालत है। मैं यहाँ उन महर्षियों, भगवानों, साईंबाबाओं, बालयोगियों की चर्चा नहीं कर रहा जो पश्चिम की पीड़ा
को अपने धार्मिक नुस्खों में भुनाते हैं। वास्तव में पश्चिमी सभ्यता की विक्षुब्ध पीढ़ी और तथाकथित भारतीय अध्यात्म के मसीहाओं के बीच आज जो समन्वय दिखाई
देता है, वह दरअसल आत्मछलना का उत्कृष्ट उदाहरण है; वह न तो पश्चिमी सभ्यता के संकट को सही-सही प्रतिबिंबित करता है, न ही भारतीय समाज की उस आध्यात्मिक
शून्यता को अभिव्यक्त करता है, जिसके प्रति गांधी जी ने इतनी बार अपना विक्षोभ प्रगट किया था।
अत: दो विपरीत दिशाओं से बढ़ते हुए आज हम संकट के उस एक बिंदु पर पहुँच गए हैं, जिसने पश्चिमी सभ्यता और भारतीय संस्कृति-दोनों को-अपनी लपेट में ले लिया है।
आधुनिक युग के जिस यथार्थ नियम (Reality principle) ने पश्चिमी मनुष्य को अपने अभिन्नतम आत्म, अपने आत्यंतिक सेल्फ से विलगित कर दिया है, उसी नियम की लौहवत
अनिवार्यता ने भारतीय समाज को उसके सामाजिक और आर्थिक परिवेश से उन्मूलित कर दिया है जो एक समय में उसकी सांस्कृतिक जड़ों को सींचता था। ये दोनों ही
प्रक्रियाएँ ऐतिहासिक विकास की ऐसी निर्मम अनिवार्यता के साथ जुड़ी हैं, जिसने भारतीय स्वप्न को कहीं मिथकीय अतीत में और पश्चिमी मनुष्य की मुक्ति को कहीं
सुदूर भविष्य में निर्धारित कर दिया है, किंतु दोनों का वर्तमान की विभीषिका से कहीं कोई अर्थपूर्ण रिश्ता नहीं जुड़ पाता, जिसकी आज तात्कालिक जरूरत है।
अमेरिकी उपन्यासकार सॉल बैलो ने अपने नए उपन्यास डीन्स दिसंबर (Dean's December) में यह कल्पना की है कि निकट भविष्य में अमेरिकी महानगर आबादी के ऐसे समूहों
(urban ghettoes) में परिणत हो जाएँगे, जिनमें उन लाखों लोगों को निष्कासित कर दिया जाएगा, जो आधुनिक सभ्यता के जंगल-कानून से जूझ पाने में असमर्थ हैं; जिस
तरह नात्सी शासकों ने यहूदियों के लिए कॉन्सनट्रेशन कैंप बनाए थे उसी तरह आधुनिक सभ्यता के हाशिए पर ऐसे लोगों को छोड़ दिया जाएगा जो अयोग्य और अवांछनीय हैं
और जिनसे आसानी से छुटकारा पाया जा सकता है। क्या भारत भी तेजी से ऐसे ही भविष्य की ओर अग्रसर नहीं हो रहा? अमेरिकी नगरों की जो दुर्दशा जंगल के कानून तले
हो रही है क्या भारतीय समाज की वही हालत सभ्यता के कानून तले नहीं होगी, जहाँ हमें स्वयं अपनी संस्कृति के भीतर शरणार्थी बन कर रहना होगा?
यह कोई कपोल-कल्पित भविष्य नहीं है; इसकी अभिशप्त छाया धीरे-धीरे हमारे समकालीन जीवन के हर क्षेत्र को ग्रसती जा रही है। हम चेखव के नाटक के उन पात्रों की
तरह निष्क्रिय और असहाय खड़े हैं; जो ड्राइंगरूम में प्रेम और कविता की बात करते हैं जबकि बाहर उनके बगीचे के पेड़ों को कुल्हाड़ी से एक-एक करके गिराया जा रहा
है। वे अपने बगीचे को बचा नहीं सकते क्योंकि वह दूसरों के हाथ बिक चुका है और वे स्वयं अपने घर में शरणार्थियों की तरह बैठे हैं - कुछ घंटों के मेहमान।
कविता बगीचे को नष्ट होने से नहीं बचा सकती, किंतु फिर भी वह एक अज्ञात और रहस्यमय ढंग से बाग के पेड़ों, झाड़ियों और पक्षियों से जुड़ी है - जीवन का दुर्लभ और
नाजुक स्वप्न - जो बगीचे के नष्ट हो जाने पर हमेशा के लिए लुप्त हो जाएगा। मेरे लिए दोनों ही वास्तविक हैं, दोनों को ही बचाना जरूरी है। मैं अपने पुरखों के
इस तर्क से सहमत नहीं हूँ कि बाहर का बगीचा सिर्फ माया और भ्रम है, असली कविता मेरे भीतर वास करती है, न मैं उन आधुनिक प्रगतिवादियों के ऐतिहासिक यथार्थ में
विश्वास कर पाता हूँ जहाँ कविता सिर्फ एक रोमांटिक पूर्वग्रह है, असली सत्य उस कुल्हाड़ी में है जो बगीचे को नष्ट करके प्रगति के रास्ते को प्रशस्त करती है।
दरअसल तर्क की यह समूची आधुनिक प्रणाली - जहाँ एक को सिर्फ दूसरे की कीमत पर बचाया जा सकता है - मुझे अनुचित और दुर्भाग्यपूर्ण जान पड़ती है। मेरा यह विश्वास
है कि भारत के पास आज भी यह विकल्प है कि वह एक को दूसरे के साथ, भीतर की कविता और बाहर के पेड़ दोनों को सुरक्षित रख सके। किंतु यह तभी संभव हो सकेगा जब हम
अपने खोए हुए घर और लुटे हुए परिवेश को फिर से अपना बना सकें; एक पवित्र परिवेश जिसमें भारतीय अनुभव विभिन्न और बहुस्तरीय यथार्थों द्वारा अभिव्यक्त हो सके
जहाँ कोई एक यथार्थ दूसरे यथार्थ का निषेध नहीं करता। सॉल बैलो ने अपने उपन्यास में विनाश और वीरानी के जिस भयावह परिवेश का उल्लेख किया है, उस संभाव्य खतरे
के विरोध में आज सिर्फ यही विकल्प बचा रहता है, दूसरा कोई नहीं।
किंतु पवित्र परिवेश से मेरा क्या अभिप्राय है? मैं अपनी बात को दो व्यक्तिगत अनुभवों से स्पष्ट करना चाहूँगा, जो बहुत निजी होने के बावजूद ऐसे हैं, जिनमें
शायद आप भी थोड़ा बहुत साँझा कर सकें। पहला अनुभव मुझे मध्यप्रदेश के कान्हा-किसली जंगल में हुआ था, जो संरक्षित वन्यस्थल है। दूसरा अनुभव कुछ वर्ष पहले
इलाहाबाद में कुंभ मेले के अवसर पर हुआ। दोनों एक समान अनुभव के दो भिन्न पहलू थे। पहले में आधुनिक युग के अनिवार्यता नियम (Necessity principle) से मुक्त
हो कर समग्रता के पवित्र स्वप्न से साक्षात्कार था। दूसरे में समग्रता का भारतीय आदर्श (Dream principle) एक भौतिक, सांसारिक और सेक्युलर परिवेश में
चरितार्थ हुआ था। कान्हा-किसली में एक सुबह मुझे पता चला कि वन्यस्थल के छोर पर एक शेर देखा गया है। मैं भी दूसरे दर्शनार्थियों के साथ हाथी पर बैठ कर जंगल
के एक सूने, सुनसान कोने में ले जाया गया, जहाँ सिर्फ लंबी घास और झाड़ियों के झुरमुट थे, हवा की हल्की आहट थी, ऊपर कभी-कभार कोई परिंदा उड़ता हुआ दीख जाता
था। हमारे हाथी का महावत एक गोंड आदिवासी युवक था, जो बहुत ही शांत और सधे भाव से हाथी को धीरे-धीरे हाँकता हुआ ले जा रहा था। कुछ दूर चलने के बाद बाँसों के
एक सघन झुरमुट के आगे अचानक हमारा हाथी ठिठक गया और छह-सात फीट के फासले पर मेरी निगाहें धूप में झिलमिलातीं एक लंबी, पीली, पसरी जानवर पर अटक गईं। शेर से
यह मेरा पहला वास्ता था - जू से बाहर - अपने प्राकृतिक परिवेश में। वह लंबी घास के बीच बैठा चुपचाप अपने नाश्ते में निमग्न था। शायद सुबह की घड़ियों में उसने
एक जंगली सूअर का शिकार किया था, जिसका कंकाल उसके पंजों के बीच दिखाई दे रहा था। चारों तरफ एक अद्भुत सन्नाटा था; कभी-कभी पेड़ों से लंगूरों की चीखें या
झाड़ियों से उड़ने की हल्की-सी फड़फड़ाहट सुनाई दे जाती थी। सहसा शेर ने सिर उठाया और हमारी ओर देखा - एक लंबी और निस्तब्ध निगाह - जिसमें हाथी, गोंड युवक और
मैं सब समा गए थे। वह निगाह शायद एक क्षण से ज्यादा नहीं थी, किंतु मेरे लिए वह एक शाश्वत क्षण था। फिर उसने अपना सिर झुका लिया और हमारी ओर से निपट उदासीन
हो कर अपने आहार में जुट गया। उस क्षण मुझे जो अनुभव हुआ, उसे व्यक्त कर पाना बहुत कठिन है; मैं सिर्फ इतना कह सकता हूँ कि मेरे लिए वह एक संपूर्ण निर्भयता
का अनुभव था -महज भय का अभाव नहीं - बल्कि संपूर्णता का अलौकिक बोध, जिसमें मैं उस पशु से संबंधित था, जो मेरे सामने था और सबसे बड़ी बात यह है कि पहली बार
मैं उस पशु से भी संबंधित हो पाया, जो हमेशा से मेरे भीतर था और जिसे मैं आज तक अपने से छिपाता आ रहा था। पहली बार मुझे मनुष्य होने का चामत्कारिक अनुभव
हुआ, और यह अनुभव इन मानववादियों के अहंकार से बहुत अलग था, जो मनुष्य को सृष्टि के केंद्र में रखते हैं, और उसे सब चीजों का मापदंड मानते हैं। इसके विपरीत
उस क्षण मुझे लगा जैसे मैं जंगल के अन्य वन्य प्राणियों के बीच मनुष्य हूँ, किसी से बड़ा-छोटा नहीं, बल्कि सबके साथ उस परिवेश में साँझा करता हुआ जिसमें शेर
अपने खाने में मस्त है, हाथी शांत-भाव से खड़ा है, गोंड युवक बीड़ी पी रहा है और सारा जंगल सुबह की धूप में झिलमिला रहा है। यह परिवेश पवित्र था क्योंकि इसमें
सब समवेत रूप से साँझा कर रहे थे और वे ऐसा कर सकते थे क्योंकि इनमें से हर कोई सहज रूप से अपनी जड़ों से जुड़ा था। किसी में आत्म-उन्मूलित होने का अनाथ-भाव
नहीं था। एक शांत, पवित्र और अहिंसात्मक परिवेश जिसमें जंगली सूअर की मृत्यु उस लैंडस्केप का उतना ही अभिन्न अंग जान पड़ती थी जितनी वह प्राणवत्ता, जो शेर की
धामनियों में स्पंदित हो रही थी।
कान्हा के जंगल में मुझे तब एक दूसरा अनुभव याद हो आया, जो अपनी गहराई और उत्कटता में कुछ नहीं था किंतु मेरा उससे साक्षात्कार एक भिन्न संदर्भ में हुआ था।
इलाहाबाद के कुंभ मेले में, जहाँ शांति का नितांत अभाव था। वहाँ सिर्फ भीड़ थी, असीम कोलाहल, लोगों की अंतहीन कतार, ब्राह्मण और भिखारी, सिर मुँड़ाई विधावाएँ,
सर्दी में ठिठुरते हुए अस्थि-पिंजर, एक लंबे जुलूस में संगम से उस पवित्र और मायावी स्थल की ओर बढ़ते हुए, जहाँ मैल और गंदगी में घुली-मिली दो नदियाँ दिखाई
देती थीं और तीसरी का कहीं पता नहीं था। आदमी और नदी और उड़ती हुई धूल - शायद नॉयपाल कुंभ मेले में यही नोट कर पाते - और वह ज्यादा गलत नहीं होते क्योंकि
उनकी आँख जो कुछ देखती उसे ही वह दर्ज कर देते किंतु देखती हुई आँख और दर्ज किए हुए तथ्य के बीच एक समूची संस्कृति का अदृश्य अनुभव है जो आदमी और नदी की
नहीं, बल्कि आदमी और नदी के बीच अंतर्निहित संबंध में जीता है, जिसे नॉयपाल जैसे लोग कभी नहीं देख पाते। भारतीय संस्कृति का मर्म, अदृश्य सरस्वती
की तरह, इसी संबंध की पवित्रता में छिपा है। 'अगर तू ईश्वर पाना चाहता है, तो इस प्रवाह के साथ हो जा', एक बूढ़े संन्यासी ने कुछ हँसी में, कुछ व्यंग्य में
कुंभ की अथाह भीड़ की ओर इशारा करते हुए कहा था। मैं उनके धुँधले संकेत को देख कर ठीक से समझ नहीं पाया कि 'प्रवाह' से उनका आशय तीर्थयात्रिायों के अंतहीन
प्रवाह से है या नदियों के उस प्रवाह से, जो शताब्दियों से उनके भीतर बह रहा है। क्या इसी अस्पष्ट धुँधलके में ही मेरे संबंध की पीड़ा भी नहीं दबी है - नदी,
लोग, विश्वास और मिथक - एक संस्कृति के असंख्य बिखरे कण, जो अपने अलगाव में इतने विपन्न और जर्जरित जान पड़ते हैं किंतु एक-दूसरे से जुड़ते ही एक समूची
जीवन-प्रणाली को आलोकित कर जाते हैं? एक पुरातन संस्कृति बहुत महीन और नाजुक धागों में गुँथी होती है, जिसमें यदि हम मिथक को यथार्थ से, पुराणकथाओं को दैनिक
चर्याओं से, आत्मा को उसके दैहिक परिवेश से जरा भी अलग करते हैं, तो समूचा ताना-बाना टूटने लगता है।
क्या हम भारतीय संस्कृति को इस टूटन और बिखराव से बचा सकते हैं? मुझे लगता है कि आधुनिक औद्योगिकीकरण के थपेड़ों के बावजूद, चारों तरफ फैली गरीबी और दरिद्रता
और आत्म-उन्मूलन के बावजूद - आज भी यह संभव है कि हम इतिहास की घातक प्रक्रिया को बदल सकते हैं, उसे एक नितांत नई दिशा में मोड़ सकते हैं। जीवन में कुछ
अनिवार्य नहीं होता - सिवाय मृत्यु के। कोई भी इतना शक्तिशाली नहीं होता - न इतिहास, न समय की धारा, न आधुनिकता के नियम-कर्म जो हमें मृत्यु चुनने के लिए
बाध्य करें, जब तक हम स्वयं आत्महत्या करने के लिए तैयार न हो जाएँ, सच पूछा जाए तो जिसे मैंने भारतीय संस्कृति का स्वप्न माना है, हमारे समय में गांधी जी
ने बड़े साहस के साथ यथार्थ को ठोस जमीन पर उसकी समस्त व्यावहारिक संभावनाओं को उजागर किया था। वह एकमात्र ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने भारतीय स्वप्न के दोनों
पहलुओं को समझा और परखा था - उसका बाहरी और प्रत्यक्ष पहलू, जो हमे दिखाई देता है किंतु उन्होंने उसके दूसरे अदृश्य पहलू को भी पहचाना था, जो शताब्दियों से
भारतीय जनमानस की परतों तले दबा है और जो सिर्फ इसलिए कम महत्वपूर्ण नहीं हो जाता, क्योंकि वह देखा नहीं जा सकता।
मैंने जो कुछ कान्हा और कुंभ मेले में देखा था - वह केवल एक बाहरी और प्रत्यक्ष दृश्य था; उसे देख कर सहसा मुझे उस पवित्रता और समग्रता को बोध हुआ जो उस
संस्कृति का अदृश्य और अंतर्निहित मर्म है। गांधी जी ने दोनों को - प्रत्यक्ष को अप्रत्यक्ष से, दृश्य को अदृश्य से, बाह्य को अंतर से जोड़ कर भारतीय अनुभव
को पूरी समग्रता से जीने का प्रयास किया था। उन्होंने बाह्य को सिर्फ इसलिए नहीं नकारा, कि वह हमारे जीवन का सांसारिक पहलू है, न ही वह अदृश्य से सिर्फ
इसलिए सम्मोहित हुए कि उसमें सब कुछ शाश्वत और पवित्र है, बल्कि उन्होंने समूचे भारतीय यथार्थ को एक अखंडित सत्य की तरह स्वीकार किया। वह हमारे परोक्ष को
प्रत्यक्ष में, हमारे विश्वास को व्यवहार में बदलना चाहते थे ताकि हम इतिहास में अपने गौरव और अपनी शर्तों पर जी सकें। वह अपने प्रयास में असफल नहीं हुए, हम
ही उसकी संभावनाओं तक पहुँचने में असफल रहे, किंतु जो विकल्प उन्होंने सुझाया था, वह आज भी उतना ही जीवित और गौरवपूर्ण है, जितना पहले था। वह भारतीय
संस्कृति का स्वप्न है जिससे आज समूची मानव-जाति की नियति जुड़ी है। क्या समय रहते हम उसे चुनने का साहस जुटा पाएँगे?
धर्म, धर्मतंत्र और राजनीति
एक लंबी मुद्दत से मेरे लिए कुछ अनुभव बहुत अस्पष्ट और अशरीरी रहे हैं; कभी-कभी संशय भी होता है, कि उनमें मेरा विश्वास कितना वास्तविक और आत्मीय है - कितना
सिर्फ दूसरों से ग्रहण किया हुआ, और कितना सिर्फ विश्वास करने की आकांक्षा से उत्प्रेरित हुआ है। मैं कोशिश भी करता हूँ, तो उनके पीछे कोई युक्ति, कोई तर्क,
कोई ठोस कार्य-कारण प्रणाली नहीं ढूँढ़ पाता। बुरे और अँधेरे क्षणों में यह भी संदेह होता है, कि ये अनुभव असल में मेरे भीतर के माया-संसार की धुँध मात्र
हैं, जो यथार्थ का जरा-सा धक्का खाते ही धुल जाएँगे - मुझे उतना ही अकेला छोड़ कर, जितना अकेलापन एक आदमी को अपनी जिंदगी में भोगना पड़ता है।
मुझे शुरू में ही कह देना चाहिए कि इन अनुभवों में मेरे लिए सबसे अधिक जीवंत और प्रमुख दो तरह के अनुभव रहे हैं - एक वह, जो किसी विराट कलाकृति के समक्ष
महसूस होता है - अचानक किसी संगीत-अंश को सुनते हुए, किसी चित्र को देख कर या मेरे लिए विशेषकर सबसे अधिक उद्वेलित करनेवाला अनुभव - जो किसी कविता या महान
उपन्यास को पढ़ते समय होता है। हम ऐसे अनुभवों को संकीर्ण ढंग से सौंदर्यमूलक अनुभव कह कर संतुष्ट हो लेते हैं, किंतु यह अनुभव महज सौंदर्य भोगने से कहीं
ज्यादा संश्लिष्ट और पेचीदा है।
किंतु यहाँ मैं एक दूसरी तरह के अनुभव का उल्लेख करना चाहूँगा - जो अपनी गहनता, व्यापकता और इंटेन्सिटी में कलात्मक अनुभव के बहुत समीप है, किंतु उससे बहुत
अलग भी; यह एक ऐसा विचित्र अनुभव है, जो अपनी उपस्थिति में हमें संपन्न नहीं बनाता, उलटे वह एक विराट अनुपस्थिति से साक्षात करवाता है। एक गहरे अभाव का
अनुभव - जिसे इस धरती पर अपने अकेलेपन में ठिठुरता सिर्फ एक मनुष्य महसूस कर सकता है। हम सिर्फ उस 'चीज' का अभाव महसूस करते हैं, जो पहले कभी उपस्थित थी,
हमारे होने के साथ जुड़ी थी - और अब वह नहीं है। यह विचित्र विरोधाभास है कि पशु, पक्षी, पेड़ जिस आत्म-सहजता के साथ अपने को समय और सृष्टि के साथ जुड़ा पाते
हैं - मनुष्य उतना नहीं - जिस आत्मचेतना के रहते मनुष्य को अपने होने का अहसास होता है, उसी के कारण उसे अपने अधूरेपन की विवशता भी महसूस होती है। यह नहीं
कि वह अपने मनुष्यत्व को छोड़ कर कुछ और होना चाहता है, बल्कि उसे स्वयं अपने मनुष्य होने की परिभाषा में कोई चीज छूटी हुई जान पड़ती है। एक अपूर्ण परिभाषा
नहीं, बल्कि एक ऐसी परिभाषा जिसका एक हिस्सा हम इतिहास की रोशनी में पढ़ पाते हैं, किंतु उसे पूरा करनेवाला शेष अंश लिखित होता हुआ भी कहीं अँधेरे में छिपा
है। हमे अनिवार्यत: इस प्रश्न का सामना करना पड़ता है कि अब तक जो मनुष्य की परिभाषा दी गई है, क्या वे संपूर्ण परिभाषाएँ हैं? क्या वे अपने में उन समस्त
अनुभवों को समाहित करती हैं, जो धरती पर एक ऐसे प्राणी को होते हैं जिसे हम 'मनुष्य' कहते हैं? और तब हमें सहसा पता चलता है कि मनुष्य की समस्त परिभाषाएँ
उसके और सृष्टि के बीच संबंधों को उद्घाटित करती हैं - मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, वह एक प्राणी है, जो औजार बनाता है, वह जो आनेवाले कल और बीते हुए समय
का बोध रखता है, वह प्रकृति पर विजय प्राप्त करता है - वह भाषा ईजाद करता है, ताकि अपने आशय और अर्थों को दूसरे तक संप्रेषित कर सके - एक सामाजिक, ऐतिहासिक,
तार्किक, संप्रेषणशील प्राणी - जिसे हम मनुष्य कहते हैं। मनुष्य कहाँ दूसरों से भिन्न है, इस जिज्ञासा का उत्तर हमें इन परिभाषाओं में मिलता है किंतु स्वयं
इस जिज्ञासा का जीवट अनुभव कि मनुष्य अपने में क्या है - हमें नहीं मिलता। इसलिए ये परिभाषाएँ अधूरी हैं - और तब तक अधूरी रहेंगी जब तक पूछनेवाला मनुष्य यह
न पूछे, कि मैं कौन हूँ, जो मनुष्य का अर्थ जानना चाहता हूँ?
मुझे लगता है कि हम जिसे धर्म या धार्मिक अनुभव कहते हैं, उसका मूल स्रोत इस प्रश्न में छिपा है। यह प्रश्न केवल मनुष्य के बारे में नहीं है, उन सब
परिभाषाओं के अधूरे और अँधेरे पक्ष के साथ भी जुड़ा है, जो अब तक मनुष्य के संबंध में दी गई हैं। कितनी अजीब बात है कि सब धर्मतंत्र मनुष्य को प्रकाश देने का
दावा करते हैं, किंतु जिस अँधेरी आकुलता और अकेलेपन के बीच धर्म का बीज गड़ा है, उसे कोई परिभाषित नहीं करना चाहता। यह वही आतप्त, बदहवास और मर्मांतक आकुलता
है जिसे किसी ने आत्मा की अँधेरी रात (डार्क नाईट ऑफ द सोल) कहा है - जिसकी झलक हमें पास्कल के चिंतन में, दोस्तोएव्स्की और तॉलस्तॉय के उपन्यासों में,
सिमोन वायन की असह्य आत्म-यातना, रामकृष्ण परमहंस के आरंभिक जीवन की आर्त-विह्वलता में दिखाई दे जाती है; आज हमारे बीच सैकड़ों धर्मतंत्र हैं किंतु मनुष्य की
आदिम जिज्ञासा की वेदना ज्यों-की-त्यों है।
यह वेदना कहीं बाहर से नहीं उपजती - मनुष्य की इसी जिज्ञासा के भीतर सन्निहित है; ये प्रश्न पूछते ही कि मैं क्या हूँ, कौन हूँ, किसलिए इस धरती पर आया हूँ,
मेरे होने का क्या अर्थ है - मनुष्य को समूची सृष्टि से अलग कर देते हैं, किंतु यह भी संभव है कि वह सृष्टि से अलग है, इसलिए ये प्रश्न पूछता है? कुछ भी हो,
किंतु इस अलगाव के कारण मनुष्य अपनी आँखों में एक संदिग्ध प्राणी बन जाता है! समूची सृष्टि का साक्षी मनुष्य हो सकता है, किंतु मनुष्य का साक्षी कौन है?
मनुष्य सब वस्तुओं, प्राणियों, प्राकृतिक शक्तियों को नाम देता है, किंतु जब मनुष्य को नाम देने का प्रश्न आता है, तो समूची सृष्टि चुप रहती है। हिंदू धर्म
के बारे में कहा जाता है कि यह नाम उसका अपना नहीं है, दूसरों ने दिया है; किंतु क्या यह सत्य मनुष्य मात्र पर लागू नहीं होता - दो पैरों पर चलनेवाले इस
जीवन को मनुष्य का नाम किसने दिया है? यदि समूची सृष्टि चुप है और मनुष्य को नाम देनेवाला कोई नहीं - सिवाय स्वयं मनुष्य के -तो हम एक असाधारण सत्य की ओर
पहुँचते हैं कि मनुष्य में एक ऐसी शक्ति है - जो किसी अन्य पशु या प्राणी में नहीं - जो उसे अपने से बाहर स्वयं अपने को देखने के लिए सक्षम बनाती है। वह
द्रष्टा ही नहीं, आत्मद्रष्टा है; और ज्यों ही हम 'आत्मद्रष्टा' का नाम लेते हैं, पहली बार एक धुँधला-सा बोध होता है, कि मनुष्य का यह आत्म-सिर्फ उसका मैं,
अहम या ईगो नहीं - उससे कुछ बड़ा है, बृहत्तर है, अधिक है... क्या यही बोध मनुष्य को पहली बार उस अजीब, रहस्यमय अनुभव से साक्षात नहीं कराता, जिसे 'ईश्वर'
कहा जाता है?
मनुष्य यदि अपने को बाहर से देख सकता है, तो यह 'बाहर' असीम और विराट है और थोड़ा-सा भयानक भी। किंतु जब वह बाहर से अपने को देखता है तो वह अपने को समूची
सृष्टि से जुड़ा हुआ भी पाता है; अकेलेपन के भय के साथ एक दूसरी भावना का जन्म होता है - लगाव। यह एक असाधारण अनुभूति है; ईश्वर अदृश्य है - किंतु सृष्टि
प्रत्यक्ष है, मांसल है, सामने है... वह एक ऐसी किताब है, जिसमें लगाव से उपजा प्रेम और आत्म का अदृश्य बोध, दोनों ही पहली बार अपनी भाषा ग्रहण करते हैं।
इसलिए कुछ धर्मों के टेक्स्ट 'मंत्र' कहलाते हैं; हम जो दोहराते हैं, स्वयं उसमें ध्वनित होते हैं, दुनिया ही एक ऐसी निराली किताब है, जिसे पढ़ते हुए लगता है
कि यह मैं हूँ, जिसे पढ़ा जा रहा है।
सब धर्म-संप्रदायों के अपने धर्मग्रंथ हैं, किंतु मनुष्य का धर्मग्रंथ सिर्फ यह सृष्टि है, जिसके बिना ईश्वर की अवधारणा असंभव होती। क्या यह कारण नहीं है कि
विभिन्न धर्मों के सिद्धांत एक-दूसरे से भिन्न हो सकते हैं किंतु एक भाव शाश्वत रूप से सबमें समान रूप से रहता है - पवित्रता का भाव? चीजों की अपनी जन्मजात
मर्यादा है, वे अपने अस्तित्व में स्थिर प्रतिज्ञ हैं - पवित्रता का भाव इस विश्वास में निहित है। यह उस पश्चिमी धारणा से बिलकुल मेल नहीं खाता, जिसके
अनुसार मनुष्य सृष्टि के केंद्र में है, सब चीजों का मापदंड; जब हम मनुष्य को सर्वोपरि मान लेते हैं, तो उस वृहत्तर शक्ति का कुछ क्षय तो होता ही है, जो
मनुष्य को समूची सृष्टि के साथ जोड़ती है - बल्कि प्रकृति की मर्यादा भी नष्ट होती है जिसमे हर पशु-पक्षी, प्राणी अपनी स्वायत्त गरिमा में जीता है। यूरोप में
रेनेसां के बाद जिस मनुष्य - केंद्रित संस्कृति का सूत्रपात हुआ, उसमें मनुष्य नहीं, उसमें अहम का प्रभुत्व था। पहली बार मनुष्य के अहम और आत्मन में एक फाँक
दिखाई दी, जिसका भीषण परिणाम हम आज भुगत रहे हैं। अपने को मानववादी कहनेवाला दर्शन किस तरह स्वयं मानव को सिर्फ उसके अहम में सिकोड़ कर उसकी समग्र और अखंडित
गरिमा को विपन्न बनाता है - यह इतिहास का एक सबसे त्रासदायी विरोधाभास रहा है।
किंतु मैं एक बार फिर पवित्रता बोध की ओर लौटना चाहूँगा, क्योंकि उसे समझे बिना हम उस विशिष्ट 'दृष्टि' का मूल्य नहीं समझ पाएँगे, जो धर्मबोध से उत्पन्न
होती है। हमने ऊपर देखा है कि मनुष्य में पहली बार ईश्वर की अवधारणा उसके आत्म की विस्तृत चेतना के भीतर ही जाग्रत हुई थी - एक ऐसी अतिरिक्त शक्ति जो मनुष्य
को -मनुष्य से इतर सृष्टि से जोड़ती है। अब मनुष्य एक नामहीन, अनाथ और अकेला प्राणी नहीं रहता, समूची सृष्टि के कार्यकलाप का महज दर्शक मात्र नहीं, बल्कि
उसमें सक्रिय रूप से हिस्सा बँटाता है; यह उसके जीवन-निर्वाह के लिए ही नहीं, जीवन-अर्थ के लिए भी अनिवार्य है। पहले उसके कर्म का कोई साक्षी नहीं था; इसलिए
उसे अपना समूचा अस्तित्व एक प्रयोजन-रिक्त, चारी कृति जान पड़ती थी, किंतु इस आंतरिक चेतना के भीतर (हम उसे ईश्वर कहें या कुछ और, इससे अंतर नहीं पड़ता), अब
उसे न केवल जन्म से मृत्यु तक फैला अपना जीवन, बल्कि अपने चारों ओर फैली विराट प्रकृति और समूची सृष्टि अर्थों से भरे जान पड़ते हैं। मनुष्य और सृष्टि के बीच
फैला अथाह मौन अचानक टूट जाता है और जहाँ शून्य था, वहीं अब समूचा परिदृश्य संकेतों, अर्थों, गोपनीय रहस्यों से भरा दिखाई देने लगता है। पहली बार सृष्टि एक
'कृति' में बदल पाती है - मनुष्य को वैसे ही अभिभूत, आलोड़ित और रोमांचित करती हुई - जैसे हम किसी विराट कलाकृति के समक्ष महसूस करते हैं। दुनिया अब एक खाली
पन्ना नहीं, विचित्र संकेतों से लिखी एक पूरी किताब जान पड़ती है - एक खुली किताब-जिसका लेखक अदृश्य है, किंतु ज्यों-ज्यों हम इन संकेतों का अनुवाद करते जाते
हैं, उतना ही उसका लेखक एक विशिष्ट किस्म की दृश्यता ग्रहण करने लगता है। हर धर्म इसी किताब की टीका है, अनुवाद है, व्याख्या है। अनुवाद की भाषा एक-दूसरे से
कितनी ही भिन्न हो, किंतु पुस्तक आज भी वही है, जो हजारों वर्ष पहले थी।
यहीं पर हर धर्म के कर्मकांड, अनुष्ठानों-व्रतों, बिंबों और प्रतीकों का महत्व उद्घाटित होता है। हम आधुनिक बुद्धिजीवी प्राय: किसी धर्म के कर्मकांड को महज
'बाहरी आडंबर', उसका केवल ऊपरी और उथला पक्ष मान कर उपेक्षा करते हैं और उसे धर्म के किसी अंदरूनी सत्य से अलग कर देना चाहते हैं; यह कुछ वेसा ही है जैसे हम
किसी कविता के अर्थ को उसकी भाषा से अलग करके देखने की चेष्टा करें। धर्म ही नहीं, किसी भी अनुभव का सत्य केवल उसके बाहरी रूपों में उद्घाटित होता है -
स्वयं 'शब्द' ही अपने में उस सत्य का उद्घाटन है, जो उसके भीतर छिपा है। कितना अजीब है, हम छिपे हुए सत्य को ढूँढ़ना चाहते हैं, किंतु उस रूप की उपेक्षा करते
हैं, जिससे वह उद्घाटित हुआ है। इसीलिए कभी-कभी मुझे ईसाइयों और इस्लाम द्वारा 'मूर्ति खंडन' अजीब जान पड़ता है - किसी देवता की मूर्ति अपनी प्रतीकात्मकता
में उतनी ही अर्थवान है, जितना कुरान और बाइबिल में लिखा हुआ शब्द; दोनों ही अपने रूप में उसी सत्ता को आलोकित करते हैं जो अदृश्य है। इसीलिए धर्म के बाहरी
रूप किसी भी आस्थावान व्यक्ति के लिए इतने पवित्र और महत्वपूर्ण होते हैं। ऑस्कर वाइल्ड ने एक बार कहा था, 'खोखले लोग ही प्रकट के आधार पर निर्णय नहीं लेते।
संसार का रहस्य उसमें है, जो प्रकट है, अप्रकट में नहीं।' इस संसार को 'माया' जरूर माना जाता रहा है किंतु माया के संकेत समझे बिना संसार का सत्य समझ में आ
सकता है, मुझे इसमें गहरा संदेह है।
ऑस्कर वाइल्ड ने जिसे 'प्रकट' (एपीयरेंस) कहा है, हमारे यहाँ वही 'लीला' में अवतरित होता है : हम एक पुराने सत्य को अपने समय में दोहराते हैं, ताकि हम उसकी
पवित्रता में पुन: पैठ सकें। रामलीला का 'राम' कलियुग का प्राणी है जो हमें त्रेता के राम से साक्षात करवाता है। किंतु यदि वही व्यक्ति जो राम की भूमिका
निभाता है, 'रामलीला' के बाहर अपने को राम कहने का दावा करे, तो उसे कोई स्वीकार नहीं करेगा, क्योंकि लीला का पवित्र समय, दुर्भाग्यवश धीरे-धीरे जीवन के
सेक्युलर समय से अलग होता गया है। धर्मों के बीच वैषम्य का यह एक बड़ा कारण रहा है कि हर धर्म-प्रतिष्ठान अपने पवित्र समय में अर्जित किए हुए सत्य को बाकी
दुनिया के सांसारिक समय पर आरोपित करना चाहता है, जबकि सच्चे धार्मिक बोध का तकाजा यह है कि वह दुनिया के सांसारिक समय को लीला के शाश्वत सत्य में परिणत कर
सके। धर्म की यह आधुनिक विडंबना है कि लोग ईसाई, मुसलमान, हिंदुओं की हैसियत से गिरजों, मस्जिदों, मंदिरों में जाते हैं - किंतु भीतर जा कर वे जिस धर्म की
आदिम स्मृति को अपनी प्रार्थना में जाग्रत करते हैं, वह देहरी के बाहर आते ही सांसारिक समय के उजाले (या अँधेरे में) धूमिल पड़ जाती है। हम एक तरफ स्मृतिहीन
अनुभव और दूसरी तरफ अनुभवहीन स्मृति में जीते हैं। एक धर्मविश्वासी की संकीर्णता या कट्टरता इससे साबित नहीं होती, कि वह अपने धर्म के कर्मकांड या
अनुष्ठानों से चिपका है - वे तो उसके धर्म की भाषा हैं, जिसमें उसके धर्म का सत्य छिपा है; एक धर्मावलंबी व्यक्ति की दयनीयता उसकी कट्टरता में नहीं,
विस्मृति में है; वह अपने धर्म की भाषा तो पढ़ता है, किंतु उसके प्रतीकों और संकेतों के अर्थ को भूल गया है।
एक धर्मतंत्र और कुछ नहीं, इन्हीं संकेतों और प्रतीकों को एक स्थान में संयोजित करने का प्रयास है। मैंने जान-बूझ कर 'स्थान' शब्द का प्रयोग किया है, एक
मंदिर या गुरुद्वारा सिर्फ पूजा के स्थान नहीं हैं, वे चार सीमाओं के बीच पवित्र समय को रूपायित करते हैं, तंत्र का मतलब ही सीमावृत्त होना है। जब कोई
'स्थान' किसी विश्वास या मर्यादा को अपने भीतर प्रतिष्ठित करता है, तभी वह 'संस्थान' बन पाता है। ईसा ने कहा था, जहाँ तीन-चार लोग जमा हों, मैं वहाँ उपस्थित
हूँ। वह स्थान अपने में पवित्र हो जाता है। दिल्ली के गांधी-प्रतिष्ठान में - गांधी जी का चित्र है, बाहर हॉल में उनकी पुस्तकें हैं; चौबीस घंटों में हम
कितनी बार गांधी को याद करते हैं? किंतु यहाँ, इस स्थान में आते ही, हमेशा मेरी सब स्मृतियाँ, अनुभव, अपने से की गई प्रतिज्ञाएँ, इस एक व्यक्ति पर केंद्रित
हो जाती हैं। एक ऐसा स्थान - जहाँ पहुँचते ही हमारा बिखरा हुआ, विश्रृंखलित, औसत जीवन एक असाधारण सत्य पर बिंध जाता है। मैं किसी ईश्वर या धर्म-प्रतिष्ठान
का अनुकरण नहीं करता - किंतु यही अलौकिक बोध मुझे कैथोलिक गिरजों या रामकृष्ण मिशन की इमारत में महसूस होता है। ठीक यहीं एक तंत्र और संस्थान का अंतर्विरोध
भी प्रकट होता है। ईसा-गांधी या नानक भटकते हुए लोग थे, वे किसी गिरजे, गुरुद्वारे या संस्थान में स्थिर हो नहीं सकते, विरोधाभास यह है, कि मेरी भटकती हुई
आत्मा इसी गिरजे, गुरुद्वारे, राजघाट के भीतर ही स्थिरता ग्रहण कर पाती है। क्या हम दो जीवन जीते हैं - जिनका एक-दूसरे से कोई संबंध नहीं? हम अपनी प्रार्थना
और आकांक्षाओं में एक अखंडित, अविभाजित जीवन जीने का स्वप्न देखते हैं, जबकि हमारा व्यावसायिक और सांसारिक जीवन हर कदम पर इसी स्वप्न को विकृत, खंडित और
दूषित करता रहता है! हमारे धर्मतंत्र और लौकिक संसार के बीच जो इतनी गहरी खाई फैल गई है, क्या इसे कभी नहीं पाटा जा सकता?
इस प्रश्न का उत्तर खोजते समय हमारा साक्षात उस 'शक्ति' से होता है, जिसे इस निबंध के शीर्षक में 'राजनीति' कहा गया है। राजनीति का तंत्र एक विशिष्ट समाज
में मनुष्यों के पारस्परिक संबंधों को निर्धारित करता है। इस प्रक्रिया में उन नियमों विधियों और कानूनों का विधान बनता है, जो उन आदर्शों को रेखांकित करते
हैं, जिनसे कोई राज्य सत्ता अपनी वैधता (लेजिटिमेसी) प्राप्त करती है। राज्य सत्ता के ये दो पहलू महत्वपूर्ण हैं - आदर्श और बल-प्रयोग-बल-प्रयोग, जो वर्तमान
में किया जाता है; आदर्श, जो अमूर्त है और जो कहीं भविष्य में निहित है। फ्रांसीसी क्रांति के बाद शायद ही कोई ऐसी राज्य सत्ता हो, जिसने कुछ आदर्शों के नाम
पर अपनी वैधता न साबित की हो। राजनीति को मनुष्य के जीवन में हस्तक्षेप करने का औचित्य भी इन्हीं आदर्शों से प्राप्त होता है।
किंतु यहाँ एक अजीब समस्या उत्पन्न हो जाती है। जिन आदर्शों से एक राज्य सत्ता मनुष्य का जीवन निर्धारित करती है - उनकी अपनी वैधता का स्रोत कहाँ है? हमें
मालूम है, एक समय में राज्य सम्राट अपनी सत्ता का स्रोत दैवी मानते थे लेकिन बेचारी प्रजा के लिए अक्सर राजा की अपनी स्वार्थपरक इच्छा और उसेक ईश्वरीय स्रोत
के बीच भेद करना असंभव हो जाता था; इसलिए बाद में ईश्वर की जगह 'जन' ने ले ली; क्रांति का स्रोत जन-इच्छा - (रूसो की जनरल विल) में, निहित था। यही
'जन-इच्छा' कैसे एक दल और फिर एक व्यक्ति की निरंकुश इच्छा में सिकुड़ती गई, मैं यहाँ इसकी तफसील में जाना नहीं चाहता। इस तथाकथित जन-इच्छा को कैसे एक आततायी
सर्वसत्तावादी व्यवस्था में विकृत किया जा सकता है, हमारे समय में सोवियत क्रांति इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है। इसलिए पिछले दो सौ वर्षों के कटु अनुभव के बाद
आज यह प्रश्न फिर उठ खड़ा हुआ है कि यदि राज्य शक्ति का स्रोत न किसी दैवी सत्ता में है, न जन जैसी अमूर्त भीड़ में, तो वह किस नैतिक आधार पर मनुष्य के जीवन
में हस्तक्षेप कर सकती है? वह कौन-सा स्रोत बचा रहता है, जहाँ से राज्य या शासन-सत्ता अपनी प्रामाणिक वैधता प्राप्त कर सकती है?
इसका एक उत्तर उन्नीसवीं शताब्दी के उन मनीषियों ने दिया था, जिन्हें हम - काफी गलत नाम से - एनार्किस्ट या अराकतावादी मानते आए हैं। ये लोग राज्य को एक
हिंसात्मक और अमानवीय सत्ता मानते थे - और उसके उन्मूलन में ही मनुष्य की मुक्ति खोजते थे। आज जिस भीषण रूप से राज्य की राक्षसी सत्ता फैली है, उसे देखते
हुए मनीषियों का राज्य के प्रति संदेह मार्क्स की उस सरल आशावादिता से कहीं अधिक सही जान पड़ता है, जो सोचते थे कि क्रांति के बाद राज्य सत्ता अपने आप लुप्त
हो जाएगी। राज्य सत्ता अपने में पाप है, चाहे उसके उद्देश्य और आदर्श अपने में कितने उदात्त क्यों न हों। उसका पाप सिर्फ इसमें निहित नहीं है कि वह
बल-प्रयोग और हिंसा पर आधारित है, बल्कि इसमें भी है कि वह मनुष्य की स्वतंत्रता पर आघात करती है - जो अपने में एक स्वयंसिद्ध सत्य है।
अराजकतावादी चिंतकों का मनुष्य की स्वतंत्रता को महत्व देना अपने में एक मूल्यवान सत्य था - किंतु एक धर्म-निरपेक्ष समाज, जहाँ मनुष्य के आत्म और उसके अहम
के बीच कोई सार्थक संबंध न हो, सिर्फ ऐसे अकेले व्यक्ति को जन्म दे सकता है, जिसके लिए स्वयं अपनी स्वतंत्रता एक बोझ बन जाती है। वह अपने बोझ से मुक्ति पाने
के लिए कभी भी सत्ता, दल, नायक, डिक्टेटर या संप्रदाय के प्रति अपनी स्वतंत्रता को समर्पित कर देता है - ताकि वह अपने से बड़ी किसी वृहत्तर शक्ति में जुड़ कर
सुरक्षित महसूस कर सके। इतिहास का यह एक ऐसा दुष्चक्र है जहाँ व्यक्ति अपनी स्वतंत्रता को पाते ही उसे खोने का उपाय ढूँढ़ने लगता है। राज्य की सत्ता और
तानाशाही के बीज कहीं बाहर से नहीं आरोपित किए जाते, स्वयं मनुष्य के भीतर से उगते हैं। व्यक्ति की स्वतंत्रता उस परिवेश में बहुत कमजोर पड़ जाती है, जहाँ
मनुष्य अपने आत्म से विलगित हो गया है; एक आत्महीन व्यक्ति की स्वतंत्रता उस आहत पक्षी की तरह है जिसके पंख तो हैं, किंतु उड़ नहीं सकता; इसीलिए कोई भी
सर्वसत्तावादी शक्ति एक बाज की तरह उसे अपने पंजे में दबोच सकती है। मनुष्य की स्वतंत्रता का स्रोत केवल व्यक्ति का आत्म हो सकता है, किंतु कोई ऐसा राजनीतिक
दर्शन नहीं, जो इस आत्म की समुचित परिभाषा देता हो।
व्यक्ति की संदिग्ध स्वतंत्रता और राज्यतंत्र की संदिग्ध वैधता - इन दो चरमों के बीच झूलते हुए मनुष्य निरंतर झूठे मसीहाओं और आततायी व्यवस्थाओं का शिकार
होता रहा है। इसीलिए लोकतांत्रिक व्यवस्था अन्य शासन तंत्रों की अपेक्षा अधिक मानवीय, दायित्वपूर्ण और संवेदनशील जान पड़ती है - वह किसी अमूर्त सिद्धांत या
आदर्श की मरीचिका के पीछे न भाग कर मनुष्य जैसा है, उसे वैसा स्वीकार करती है, इसलिए किसी भविष्य के यूटोपिया की वेदी पर उसके वर्तमान को बलिदान नहीं करती।
लेकिन अपनी मानवीयता के बावजूद वह 'वर्तमान' कितना विपन्न, जर्जरित और सूखा है, इसका अनुमान लगाना भी कठिन नहीं है। मनुष्य के कितने मर्मशील, मूल्यवान और
महत्वपूर्ण अनुभव आज की लोकतांत्रिक व्यवस्था के भीतर अतृप्त, दमित और बाँझ पड़े रहते हैं। वह जो जीवन जीता है, उसकी संपूर्णता और सच्चाई में उसे विश्वास
नहीं; वह जिन मूल्यों पर विश्वास करना चाहता है, वे उस व्यवस्था में उपलब्ध नहीं। एक तरफ सोवियत व्यवस्था है, जिसमें मनुष्य की स्वतंत्रता का कोई मूल्य
नहीं; दूसरी तरफ लोकतांत्रिक व्यवस्था है, जिसमें मनुष्य स्वतंत्र है, किंतु स्वयं स्वतंत्रता के मूल्य के प्रति वह बहुत आश्वस्त नहीं जान पड़ता। एक व्यवस्था
अपनी वैधता भविष्य में ढूँढ़ती है, दूसरी व्यवस्था एक ऐसे वर्तमान में रहती है, जहाँ व्यक्ति के सब आयाम और आदर्श उसके निजी-निजी मामले हैं, जिनका समाज से
कोई संबंध नहीं है। किंतु इस बुनियादी अंतर के बावजूद दोनों व्यवस्थाओं में एक चीज आश्चर्यजनक रूप से समान है-दोनों ही के लिए मनुष्य एक साधन है - अंतिम रूप
से साध्य नहीं। लोकतंत्र के लिए 'औसत व्यक्ति' (एवरेज मैन) और तथाकथित कम्युनिस्ट समाज के लिए 'आदर्श कम्युनिस्ट' - वही है, जो अपने समूचे मनुष्यत्व को एक
उपयोगी साधन के रूप में घटा सके। आधुनिक राज्य-व्यवस्थाओं की यह तार्किक परिणति है कि समूची सृष्टि पर विजय प्राप्त कर लेने के बाद जिस 'मनुष्य' के लिए विजय
पाई है, वहाँ स्वयं मनुष्य के लिए कोई स्थान नहीं है। एक धार्मिक तंत्र में ईश्वर अदृश्य होने पर भी हर जगह मौजूद था, आधुनिक मानववादी सभ्यता में मनुष्य हर
जगह दिखाई देता है, किंतु वह मौजूद कहीं भी नहीं है... मौजूद, एक निरीह पराश्रित व्यक्ति की तरह नहीं, बल्कि एक संपूर्ण मनुष्य की गरिमा से संपन्न।
इस दुनिया में मनुष्य एक संपूर्ण मनुष्य की तरह मौजूद रहे - हर राजनीतिक तंत्र के लिए सबसे बड़ी चुनौती है। यह चुनौती केवल वही राजनीतिक दर्शन स्वीकार कर
सकता है, जो मनुष्य को संपूर्ण और अंतिम रूप से स्वीकार करे - महज एक साधन या माध्यम के रूप में नहीं। ठीक इसी बिंदु पर यह राजनीतिक दर्शन उस धार्मिक बोध की
अभिव्यक्ति बन जाता है, जो मनुष्य को चिरंतन काल से सृष्टि से जोड़ता आया है। धार्मिक बोध से - मेरा अभिप्राय किसी एक खास धर्म या संस्थान से नहीं है, बल्कि
उस धीमी आवाज से है जिसने पहली बार मनुष्य और सृष्टि के बीच फैले अँधेरे मौन को तोड़ा था। यह उस शक्ति की आवाज थी, जिसे हम ईश्वर कहते हैं या उस मनुष्य की,
जो पहली बार अपनी शक्ति से परिचित हुआ था - कहना असंभव है। वह किसी की भी आवाज हो - किंतु इस धरती पर मनुष्य की उपस्थिति की ओर संकेत करती थी - मानो सृष्टि
के उस अथाह मौन में मनुष्य ने कहा हो कि मैं हूँ और दूर से उसकी प्रतिध्वनि सुनाई दी हो - हाँ, तुम हो! मनुष्य और सृष्टि-आवाज और प्रतिध्वनि-का संबंध एक ओर
सृष्टि को पवित्र बनाता है, दूसरी तरफ मनुष्य को संपूर्णता देता है। कोई भी राज्य सत्ता, जो इस शाश्वत संबंध को धुँधलाती या झुठलाती हो, चाहे वह किसी भी
आदर्श सिद्धांत या वाद के नाम पर हो - न केवल मनुष्य के जीवन को निर्धारित करने का अधिकार खो देती है, बल्कि मनुष्य के परिवेश में उसका हस्तक्षेप एक तरह का
हिंसात्मक आघात (वॉयलेशन) हो जाता है।
शायद हम अब उस प्रश्न के उत्तर के पास पहुँच गए हैं - जो कुछ देर पहले हमने राजनीतिक सत्ता की वैधता के बारे में पूछा था। वह वैधता निर्धारण में नहीं,
स्वीकृति से उत्पन्न होती है। वह कानूनों, नियमों और आदेशों द्वारा मनुष्य के संबंधों का निर्धारित नहीं करती, बल्कि उन संबंधों को स्वीकार करके चलती है, जो
मनुष्य ने अपने भीतर नियमों द्वारा नहीं, निष्ठाओं द्वारा प्रतिष्ठित किया है। निष्ठाओं के परिवेश में मनुष्य और समाज, मनुष्य और उसकी दुनिया एक-दूसरे से
अलग नहीं हैं; वहाँ मनुष्य का जीवन सेक्युलर और धार्मिक खंडों में विभाजित नहीं है, जो सप्ताह में रविवार की सुबह कुछ घंटों के लिए समन्वित है और बाकी दिनों
में एक-दूसरे को छूता भी नहीं।
अत: आज प्रश्न यह नहीं है कि राजनीति को धर्मावलंबी होना चाहिए, या धर्मनिरपेक्ष - क्योंकि दोनों ही संज्ञाएँ आधुनिक मनुष्य की खंडित मानसिकता का बोध कराती
हैं जबकि जिस धार्मिक बोध का उल्लेख हमने किया है, वहाँ इस तरह का विभाजन ही कृतिम और अर्थहीन है। इस विभाजन के कारण ही मनुष्य का संपूर्णता बोध और प्रकृति
की पवित्रता दोनों ही अवमूल्यित होते हैं। यह एक विडंबना ही है कि पश्चिम में जिसे एक तरफ मनुष्य का आध्यात्मिक संकट और दूसरी तरफ पर्यावरण के संकट माना
जाता है - उन्हें अलग-अलग उपायों से नहीं सुलझाया जा सकता - क्योंकि दोनों की जड़ें एक ही विभाजित मन:स्थिति में मौजूद हैं; यह वह स्थिति है, जब मनुष्य का
'आत्म' महज उसका 'अहम' रह गया और प्रकृति अपनी स्वायत्तता खो कर केवल एक उपयोग्य, शोषित वस्तु। मनुष्य ने जिस प्रगति की लालसा में प्रकृति को अपना दास बनाया
था, वही प्रगति आज प्रकृति के विनाश और समूची मानव सभ्यता को आत्मसंहार की ओर ले जा रही है।
यही कारण है कि धर्म और राजनीति का संबंध आज केवल मात्र एक समाजशास्त्रीय बहस न रह कर स्वयं मनुष्य जाति और उसकी सृष्टि के जीवनमरण का प्रश्न बन गया है। यह
एक ऐसा प्रश्न है जिसके सामने अब तक हुईं इतिहास की समस्त क्रांतियाँ अप्रासंगिक बन गई हैं - क्योंकि हर क्रांति मनुष्य के अंतहीन विकास और सृष्टि की शाश्वत
निरंतरता को स्वसंसिद्ध सत्य मान कर चलती थी। आज इन दोनों सत्यों के आगे प्रश्नचिह्न लग गया है। आधुनिक व्यक्ति धर्म के अंधविश्वासों पर हँसता आया था, आज के
अणु युग में जहाँ समूची धरती और मानवीय सभ्यता एक-दो मिनट में नष्ट हो सकती है - इन क्रांतियों के प्रगतिवादी अंधविश्वास कहीं ज्यादा हास्यास्पद साबित होते,
यदि वे इतने दारुण परिणामों से न भरे होते।
क्या आत्मघात की इस अंधी प्रक्रिया को नहीं रोका जा सकता? यह महज संयोग नहीं है कि इस प्रश्न को बीसवीं सदी के आरंभ में एक ऐसे आदमी ने पूछा था, जो एक पिछड़े
हुए गरीब देश का निवासी था; पश्चिम के आधुनिक समाज का नहीं, बल्कि एक ऐसे समाज का सदस्य था जिसे समाजशास्त्री हलकी हिकारत में 'परंपराग्रस्त, धर्मग्रस्त'
समाज कहते हैं। गांधी जी ने 'हिंद स्वराज' में आधुनिक सभ्यता के विकल्प में एक ऐसे समाज की परिकल्पना की थी, जहाँ स्वराज और स्वधर्म के बीच कोई अंतर्विरोध
नहीं रहता। वहाँ मनुष्य के 'स्व' में उसकी समस्त निष्ठाएँ और विश्वास और कर्मकांड शामिल हैं - अत: स्वराज वह तंत्र है, जिसमें मनुष्य सिर्फ राजनीतिक या
आर्थिक प्राणी न रह कर एक समग्र मनुष्य की हैसियत से भाग लेता है। स्वतंत्रता के बाद हमने जिस धर्मनिरपेक्ष समाज का निर्माण किया, उसमें इस समग्र मनुष्य के
लिए कोई स्थान नहीं। एक भारतीय का सबसे मूल्यवान, स्मृति संपन्न और समृद्ध अंश अँधेरे में चला गया। ऊपरी जिंदगी में हम भारतीय हैं, भीतर के अंडरग्राउंड
अँधेरे में हम हिंदू, मुसलमान और सिख हैं; अँधेरे में कोई विश्वास पनपता नहीं, सड़ता है, इसीलिए जब कभी वह बाहर आता है, तो अपने सहज आत्मीय रूप में नहीं,
बल्कि एक विकृत और दमित भावना के रूप में। समय-समय पर होनेवाले सांप्रदायिक दंगे हमें उस अँधेरे की झलक दिखाते हैं, जहाँ एक सेक्युलर समाज ने धर्म को फेंक
दिया है। क्या आज का भारतीय - जिसमें केवल हिंदू, मुसलमान, सिख ही नहीं, वे लाखों आदिवासी शामिल हैं, जिनके अपने निजी धार्मिक विश्वास हैं - एक पीड़ायुक्त
विभाजित मन:स्थिति में नहीं जीता - जहाँ पश्चिम की आधुनिकता में ढली शासन-सत्ता कदम-कदम पर उन्हें एक ऐसे परिवेश में जीने के लिए विवश करती है, जिसका उनके
धार्मिक भावबोध की मर्यादाओं से कोई संबंध नहीं?
जीसस ने ईश्वर और सीजर के बीच जो भेद किया था, वैसा विभाजन भारतीय मानस में कभी मौजूद नहीं रहा। इसीलिए राजनीति तो दूर, हमारे देश का भूगोल भी पौराणिक
स्मृतियों में स्पंदित होता है; गंगा महज एक नदी नहीं, जैसे हिमालय सिर्फ एक पहाड़ नहीं, वाराणसी और वृंदावन महज शहर नहीं हैं; मनुष्य का अतीत संग्रहालयों
में बंद नहीं है, न ही उसके देवता यूनानी देवताओं की तरह किसी पौराणिक काल के स्मृति-चिह्न हैं; मिथक और यथार्थ, पौराणिक स्मृति और वर्तमान जीवन, देवता और
मनुष्य आज भी एक साथ रहते हैं; सैकड़ों विश्वासों, आस्थाओं, स्मृतियों और संस्कारों का यह संगम केवल एक ऐसी संस्कृति में संभव हो सकता था - जिसमें संपूर्ण
मनुष्य की परिकल्पना निहित रहती है।
किंतु हर परिकल्पना एक कलाकृति की तरह आधा स्वप्न है, आधा यथार्थ; स्वप्न में संपूर्ण मनुष्य है, प्रकृति का पवित्र परिवेश, सृष्टि और मनुष्य को जोड़नेवाले
धार्मिक संस्कार - जो अहिंसा और आस्था से जन्म लेते हैं, यथार्थ में हजारों आदिवासी हैं, अपने परिवेश से उन्मूलित, उजड़ते हुए जंगल हैं, नष्ट होती हुई
प्रकृति है, हरिजनों की जलती झोंपड़ियाँ हैं, जो अपने को अपने ही समाज में अनाथ पाते हैं। हमारे देश में ऐसे लाखों धर्मावलंबी हैं, जिन्हें एक समय अपने जीवन
की अर्थवत्ता नानक और कबीर, विवेकानंद, अरविंद, गांधी और परमहंस में मिलती थी, आज वही लोग साईं बाबा, भगवान रजनीश और संत भिंडराँवले के पीछे जाते हैं, जिसका
संबंध न आस्था से है, न धार्मिक बोध से। धर्म का पवित्र स्रोत सूखने के कारण लोग अपनी आध्यात्मिक प्यास बुझाने के लिए सिर्फ गंदले नाले के पास ही जा सकते
हैं, जो सेक्युलर समाज के रेगिस्तान के बीचों-बीच बहता है। हम यथार्थ में नहीं, एक ऐसी स्वप्न की छाया में रहते हैं, जो हमारे भीतर है, किंतु जिसका बाहरी
तंत्र - चाहे वह राजनीतिक तंत्र हो, धार्मिक प्रतिष्ठान हों, आर्थिक व्यवस्था हो - उसमें कोई अभिव्यक्ति नहीं मिलती। यह अकारण नहीं है - कि जिस संपूर्ण
मनुष्य की कल्पना इस शताब्दी के शुरू में गांधी जी ने की थी, उसे वही क्रांति यथार्थ में अनूदित कर सकती है, जो अपने में संपूर्ण हो। किंतु संपूर्ण क्रांति
की आवाज भी उसी संस्कृति से उठ सकती थी, जिसकी स्मृति में कभी मनुष्य की समग्रता का बोध रहा हो। क्या हम एक ऐसे राज्य तंत्र का निर्माण कर सकेंगे, जहाँ एक
भारतीय की पुरातन पद्धति और आदि-स्वप्न-जिसे व्यापक अर्थों में हमने धार्मिक बोध माना है - अपनी मांस-मज्जा में साकार हो सके? यदि आज भी हम अपने से यह
प्रश्न पूछ सकते हैं तो संभव है कि कहीं-न-कहीं इसके उत्तर देने की आशा और सामर्थ्य हममें बची है।
सिंगरौली - जहाँ कोई वापसी नहीं
वह धान रोपाई का महीना था - जुलाई का अंत - जब बारिश के बाद खेतों में पानी जमा हो जाता है। हम उस दोपहर सिंगरौली के एक क्षेत्र - नवागाँव गए थे। इस क्षेत्र
की आबादी पचास हजार से ऊपर है, जहाँ लगभग अठारह छोटे-बड़े गाँव बसे हैं। इन्हीं गाँवों में एक का नाम है - अमझर - आम के पेड़ों से घिरा गाँव - जहाँ आम झरते
हैं। किंतु पिछले दो-तीन वर्षों से पेड़ों पर सूनापन है, न कोई फल पकता है, न कुछ नीचे झरता है। कारण पूछने पर पता चला कि जब से सरकारी घोषणा हुई है कि
अमरौली प्रोजेक्ट के अंतर्गत नवागाँव के अनेक गाँव उजाड़ दिए जाएँगे, तब से न जाने कैसे आम के पेड़ सूखने लगे। आदमी उजड़ेगा, तो पेड़ जीवित रह कर क्या करेंगे?
टेहरी-गढ़वाल में पेड़ों को बचाने के लिए आदमी के संघर्ष की कहानियाँ सुनी थीं, किंतु मनुष्य के विस्थापन के विरोध में पेड़ भी एक साथ मिल कर मूक सत्याग्रह कर
सकते हैं, इसका विचित्र अनुभव सिर्फ सिंगरौली में हुआ।
मेरे लिए एक दूसरी दृष्टि से भी यह अनूठा अनुभव था। लोग अपने गाँवों से विस्थापित हो कर कैसे अनाथ, उन्मूलित जिंदगी बिताते हैं, यह मैंने हिंदुस्तानी शहरों
के बीच बसी मजदूरों की गंदी, दम घुटती, भयावह बस्तियों और स्लम्स में कई बार देखा था, किंतु विस्थापन से पूर्व वे कैसे परिवेश में रहते होंगे, किस तरह की
जिंदगी बिताते होंगे, इसका दृश्य अपने स्वच्छ, पवित्र खुलेपन में पहली बार अमझर गाँव में देखने को मिला। पेड़ों के घने झुरमुट, साफ-सुथरे खप्पर लगे मिट्टी के
झोंपड़े और पानी। चारों तरफ पानी। अगर मोटर रोड की भागती बस की खिड़की से देखो, तो लगेगा, जैसे समूची जमीन एक झील है, एक अंतहीन सरोवर, जिसमें पेड़, झोंपड़े,
आदमी, ढोर-डंगर आधे पानी में, आधे ऊपर तिरते दिखाई देते हैं, मानों किसी बाढ़ में सब कुछ डूब गया हो, पानी में धँस गया हो।
किंतु यह भ्रम है... यह बाढ़ नहीं, पानी में डूबे धान के खेत हैं। अगर हम थोड़ी-सी हिम्मत बटोर कर गाँव के भीतर चलें, तब वे औरतें दिखाई देंगी, जो एक पाँत में
झुकी हुई धान के पौधे छप-छप पानी में रोप रही हैं; सुंदर, सुडौल, धूप में चमचमाती काली टाँगें और सिरों पर चटाई के किश्तीनुमा हैट, जो फोटो या फिल्मों में
देखे हुए वियतनामी या चीनी औरतों की याद दिलाते हैं। जरा-सी आहट पाते ही वे एक साथ सिर उठा कर चौंकी हुई निगाहों से हमें देखती हैं - बिलकुल उन युवा
हिरणियों की तरह, जिन्हें मैंने एक बार कान्हा के वन्य स्थल में देखा था। किंतु वे डरती नहीं, भागती नहीं, सिर्फ विस्मय से मुस्कराती हैं और फिर सिर झुका कर
अपने काम में डूब जाती हैं... यह समूचा दृश्य इतना साफ और सजीव है - अपनी स्वच्छ मांसलता में इतना संपूर्ण और शाश्वत - कि एक क्षण के लिए विश्वास नहीं होता
कि आनेवाले वर्षों में सब कुछ मटियामेट हो जाएगा - झोंपड़े, खेत, ढोर, आम के पेड़ - सब एक गंदी, 'आधुनिक' औद्योगिक कॉलोनी की ईंटों के नीचे दब जाएगा - और ये
हँसती-मुस्कराती औरतें, भोपाल, जबलपुर या बैढ़न की सड़कों पर पत्थर कूटती दिखाई देंगी। शायद कुछ वर्षों तक उनकी स्मृति में अपनी गाँव की तस्वीर एक स्वप्न की
तरह धुँधलाती रहेगी, किंतु धूल में लोटते उनके बच्चों को तो कभी मालूम भी नहीं होगा कि बहुत पहले उनके पुरखों का गाँव था - जहाँ आम झरा करते थे।
ये लोग आधुनिक भारत के नए 'शरणार्थी' हैं, जिन्हें औद्योगीकरण के झंझावात ने अपनी घर-जमीन से उखाड़ कर हमेशा के लिए निर्वासित कर दिया है। प्रकृति और इतिहास
के बीच यह गहरा अंतर है। बाढ़ या भूकंप के कारण लोग अपना घर-बार छोड़ कर कुछ अरसे के लिए जरूर बाहर चले जाते हैं, किंतु आफत टलते ही वे दोबारा अपने
जाने-पहचाने परिवेश में लौट भी आते हैं। किंतु विकास और प्रगति के नाम पर जब इतिहास लोगों को उन्मूलित करता है, तो वे फिर कभी अपने घर वापस नहीं लौट सकते।
आधुनिक औद्योगीकरण की आँधी में सिर्फ मनुष्य ही नहीं उखड़ता, बल्कि उसका परिवेश और आवासस्थल भी हमेशा के लिए नष्ट हो जाते हैं।
एक भरे-पूरे ग्रामीण-अंचल को कितनी नासमझी और निर्ममता से उजाड़ा जा सकता है, सिंगरौली इसका ज्वलंत उदाहरण है। अगर यह इलाका उजाड़ रेगिस्तान होता, तो शायद
इतना क्षोभ नहीं होता; किंतु सिंगरौली की भूमि इतनी उर्वरा और जंगल इतने समृद्ध हैं कि उनके सहारे शताब्दियों से हजारों वनवासी और किसान अपना भरण-पोषण करते
आए हैं। 1926 से पूर्व यहाँ खैरवार जाति के आदिवासी राजा शासन किया करते थे, किंतु बाद में सिंगरौली का आधा हिस्सा, जिसमें उत्तरप्रदेश तथा मध्यप्रदेश के
खंड शामिल थे, रीवाँ राज्य के भीतर शामिल कर लिया गया। बीस वर्ष पहले तक समूचा क्षेत्र विंध्याचल और कैमूर के पहाड़ों और जंगलों से घिरा हुआ था, जहाँ
अधिकांशत: कत्था, महुआ, बाँस और शीशम के पेड़ उगते थे। एक पुरानी दँतकथा के अनुसार सिंगरौली का नाम ही 'सृंगावली' पर्वतमाला से निकला है, जो पूर्व-पश्चिम में
फैली है। चारों ओर फैले घने जंगलों के कारण यातायात के साधन इतने सीमित थे कि एक जमाने में सिंगरौली अपने अतुल प्राकृतिक सौंदर्य के बावजूद - 'काला पानी'
माना जाता था, आसपास के समूचे प्रदेश से कटा हुआ, जहाँ न लोग भीतर आते थे, न बाहर जाने का जोखिम उठाते थे।
किंतु कोई भी प्रदेश आज के लोलुप युग में अपने अलगाव में सुरक्षित नहीं रह सकता। कभी-कभी किसी इलाके की संपदा ही उसका अभिशाप बन जाती है। दिल्ली के
सत्ताधारियों और उद्योगपतियों की आँखों से सिंगरौली की अपार खनिज संपदा छिपी नहीं रही। विस्थापन की एक लहर रिहंद बाँध बनने से आई थी, जिसके कारण हजारों गाँव
उजाड़ दिए गए थे। उस समय शायद अकेले डॉ. लोहिया थे, जिहोंने इसके विरुद्ध आवाज उठाई थी, किंतु वह नेहरू-युग का स्वर्णिम क्षण था, जब 'विकास योजनाओं' के
नक्कारखाने में गांधी और लोहिया दोनों ही अप्रासंगिक जान पड़ते थे। इन्हीं नई योजनाओं के अंतर्गत सेंट्रल कोल फील्ड और नेशनल सुपर थर्मल पॉवर कॉरपोरेशन का
निर्माण हुआ। चारों तरफ पक्की सड़कें और पुल बनाए गए। सिंगरौली, जो अब तक अपने सौंदर्य के कारण 'बैकुंठ' और अपने अकेलेपन के कारण 'काला पानी' माना जाता था,
अब प्रगति के मानचित्र पर राष्ट्रीय गौरव के साथ प्रतिष्ठित हुआ। कोयले की खदानों और उन पर आधारित ताप विद्युतगृहों की एक पूरी श्रृंखला ने पूरे प्रदेश को
अपने में घेर लिया। जहाँ बाहर का आदमी फटकता न था, वहाँ केंद्रीय और राज्य सरकारों के अफसरों, इंजीनियरों और विशेषज्ञों की कतार लग गई; जिस तरह जमीन पर पड़े
शिकार को देख कर आकाश में गिद्धों और चीलों का झुंड लग जाता है, वैसे ही सिंगरौली की घाटी और जंगलों पर ठेकेदारों, वन-अधिकारियों और सरकारी कारिंदों का
आक्रमण शुरू हुआ।
विकास का यह 'उजला' पहलू अपने पीछे कितने व्यापक पैमाने पर विनाश का अँधेरा ले कर आया था, हम उसका छोटा-सा जायजा लेने दिल्ली में स्थित 'लोकायन' संस्था की
ओर से सिंगरौली गए थे। सिंगरौली जाने से पहले मेरे मन में इस तरह का कोई सुखद भ्रम नहीं था कि औद्योगीकरण का चक्का, जो स्वतंत्रता के बाद चलाया गया, उसे
रोका जा सकता है। शायद पैंतीस वर्ष पहले हम कोई दूसरा विकल्प चुन सकते थे, जिसमें 'मानव सुख' की कसौटी भौतिक लिप्सा न हो कर जीवन की जरूरतों द्वारा
निर्धारित होती। पश्चिम जिस विकल्प को खो चुका था भारत में उसकी संभावनाएँ खुली थीं, क्योंकि अपनी समस्त कोशिशों के बावजूद अंग्रेजी राज हिंदुस्तान को
संपूर्ण रूप से अपनी 'सांस्कृतिक कॉलोनी' बनाने में असफल रहा था। भारत की सांस्कृतिक विरासत यूरोप की तरह म्यूजियम्स और संग्रहालयों में जमा नहीं थी - वह उन
रिश्तों से जीवित थी, जो आदमी को उसकी धरती, उसके जंगलों, नदियों - एक शब्द में कहें - उसके समूचे 'परिवेश' के साथ जोड़ती थीं। अतीत का समूचा 'मिथक संसार'
पोथियों में नहीं, इन रिश्तों की अदृश्य लिपि में मौजूद रहता था। यूरोप में पर्यावरण का प्रश्न मनुष्य और भूगोल के बीच संतुलन बनाए रखने का है - भारत में
यही प्रश्न मनुष्य और उसकी संस्कृति के बीच पारंपरिक संबंध बनाए रखने को हो जाता है। स्वातंत्रयोत्तार भारत की सबसे बड़ी ट्रेजेडी यह नहीं है कि शासक वर्ग ने
औद्योगीकरण का मार्ग चुना, ट्रेजेडी यह रही है कि पश्चिम की देखादेखी और नकल में योजनाएँ बनाते समय प्रकृति-मनुष्य और संस्कृति के बीच का नाजुक संतुलन किस
तरह नष्ट होने से बचाया जा सकता है, इस ओर हमारे पश्चिम-शिक्षित सत्ताधारियों का ध्यान कभी नहीं गया। हम बिना पश्चिम को माडल बनाए - अपनी शर्तों और
मर्यादाओं के आधार पर - औद्योगिक विकास का भारतीय स्वरूप निर्धारित कर सकते हैं, कभी इसका खयाल भी हमारे शासकों को आया हो, ऐसा नहीं जान पड़ता।
भारतीय संदर्भ में यह संतुलन कितना मूल्यवान है और इस पर जरा-सी ठेस पहुँचते ही एक भारतवासी की जीवन-प्रणाली किस तरह से उन्मूलित और विकृत हो जाती है,
सिंगरौली में होनेवाले 'औद्योगिक परिवर्तन' इसका विकट उदाहरण है। एक समय में जहाँ कृषि और सिंचाई के अपने संपन्न साधन थे, वहाँ आज जंगल कटने से लोगों को
खेती की बात तो दूर, पानी पीने के लिए रिहंद बाँध पर निर्भर करना पड़ता है। हम आधुनिक 'प्रगतिशील' बुद्धिजीवी अक्सर गाँवों में जाति-व्यवस्था की निंदा करते
हैं, किंतु यह भूल जाते हैं कि इसी व्यवस्था के भीतर 'अधिकार और दायित्व' की एक परंपरागत मर्यादा थी, जिसमें लोग बहुत सुखी न भी हों, अपने को सहज और
सुरक्षित महसूस करते थे। 'लोकायन' के कार्यकर्ताओं ने अपनी रिपोर्ट में किसान और परजा (धोबी, चमार, नाई इत्यादि) के परस्पर-संबंधों के बारे में एक बहुत ही
महत्वपूर्ण बात कही है : 'गाँव का किसान अपनी परजा के लिए कितनी जमीन देगा, इसका निर्धारण...' किसान की जमीन की हैसियत के आधार पर निश्चित होता था। इस
प्रकार गाँव की 1/5 हिस्से की जमीन पर परजा लोगों का अधिकार रहता था। पर यह सब व्यवस्था औद्योगीकरण के कारण समाप्त हो गई है। तेलंगावा के 75 वर्षीय आदिवासी
कोल का कहना था : 'बाबू अबका रहिगइल, पहिले खेती पाती मिलत रहिल मालकिन से और न खान पियन की चिंता नाहिन रहिल, पर बाबू आज एकऊ दिन बीमार रहई तो खाना दूसरे
दिन नाहिन मिली।'
गाँव की परंपरागत व्यवस्था में एक आदिवासी क्या महसूस करता था और आज की औद्योगिक व्यवस्था में उसकी हालत क्या हो गई है... क्या हमारे शहरी मार्क्सवादी कभी
इस अंतर को देख पाएँगे?
सिंगरौली के घने जंगलों में बसे हजारों आदिवासी (कोल, पनिका, अगरिया) खानाबदोश नहीं थे। उनके अनेक 'घरेलू' कारोबार थे। पहाड़ से लोहा निकाल कर वे अनेक प्रकार
के औजार बनाते थे, खादी के कपड़े बुना करते थे। रस्सी, सुतली, बान-जैसी घरेलू वस्तुओं को बना कर रॉबर्टगंज के बाजार में बेचते थे। आज नई औद्योगिक परियोजनाओं
के चलते वे अपने ही अंचलों में अपराधियों की तरह घूमते हैं। जिन पेड़ों में उनके देवता-ईश्वर बसते थे, अब उनकी जगह वन अधिकारियों और ठेकेदारों ने ले ली है।
चूँकि जंगल में रहने का अधिकार उन्हें शताब्दियों से प्रकृति ने दिया है, सरकार के कागज-पट्टों ने नहीं, इसलिए जंगलों से विस्थापित हो जाने के बाद उनके पास
यह कानूनी हक भी नहीं कि वे किसी तरह के मुआवजे या जमीन की माँग कर सकें। सिवाय इसके कि वे खेतिहर मजदूर बन कर गुजारा करें या कोयला खदानों में केजुअल मजूरी
करके दिन में आठ-दस रुपए कमा लें, उनके पास आज जीवन-निर्वाह का कोई साधन नहीं बचा रह गया है।
सिंगरौली की यात्रा के दौरान हमें अनेक ऐसे परिवार मिले, जो पिछले पंद्रह-बीस वर्षों में तीन-चार बार विस्थापित हो चुके हैं। कुछ लोग जो रिहंद बाँध के कारण
अपने घर-बार से उजाड़े गए, वही कुछ वर्षों बाद एन.टी.पी.सी. (नेशनल थर्मल पावर कॉरपोरेशन) की योजना द्वारा दोबारा विस्थापित हुए और जब तीसरी बार उन्होंने
जैसे-तैसे धरती के किसी कोने में अपने को बसाने की कोशिश की, तो आज 1984 में विंध्याचल सुपर थर्मल पावर के दुर्निवार पंजे उन्हें पुन: दबोचने के लिए आगे बढ़
आए हैं। कभी-कभी सिंगरौली के विस्थापित आदिवासियों और किसानों की बदहवासी देख कर युद्ध में भागे उन शरणार्थियों की दशा याद हो आती थी, जो बढ़ती हुई सेनाओं से
बचने के लिए आगे-आगे भागते जाते हैं, एक गाँव से दूसरे गाँव, एक जंगल से दूसरे जंगल। अब प्रश्न यह नहीं रहा कि वे अपने जीवन-काल में कभी अपने पुरखों के
आवास-स्थल में लौट सकेंगे। वहाँ अब खेत और जंगल नहीं, धुआँ उगलती फैक्टरियाँ और औद्योगिक कॉलोनियाँ बस गई हैं। प्रश्न यह रह गया है कि उन्हें बाकी जिंदगी
गुजारने के लिए डेढ़ गज जमीन मिल पाएगी, जिसे वे 'अपना' कह सकें?
शक्तिनगर के विराट विद्युत-उत्पादन स्टेशन के पास ही मटवई नाम का छोटा-सा गाँव है - या कभी था - क्योंकि जब हम वहाँ गए, तो वहाँ सिर्फ उड़ती हुई धूल और खाली
मैदान दिखाई दिए। कुछ महीने पहले वहाँ कोई जीती-जागती बस्ती या बाजार रहा होगा, इसकी कल्पना भी असंभव थी। सिंगरौली के प्रसिद्ध समाजवादी नेता और डॉ. लोहिया
के शिष्य पंडित कार्तिक रामजी भी हमारे साथ थे। उन्हीं के मुँह से हमें मटवई गाँव के उजड़ने का इतिहास मालूम पड़ा।
इस इलाके में यह गाँव अपेक्षाकृत बड़े गाँवों की श्रेणी में आता था। कुल मिला कर वहाँ ढाई सौ परिवार बसते थे। आबादी एक हजार लोगों से कुछ ज्यादा थी। गाँव की
बगल में ही बाजार था, जिसमें अधिकांश उन्हीं लोगों की दुकानें थीं, जो गाँव में रहते थे। सरकार ने गाँव और बाजार दोनों को ही - अपनी परियोजनाओं के अंतर्गत -
उखाड़ने का निर्णय ले लिया था और इस आशय का एक आदेश भी जारी कर दिया था। आदेश के विरुद्ध गाँव के चार पढ़े-लिखे युवक जबलपुर के हाईकोर्ट में 'स्टे ऑर्डर' लेने
गए थे किंतु शक्तिनगर के अधिकारियों को शायद इसकी भनक पहले से ही मिल गई थी। जब 23 जून, 1984 को ये चार लोग गाँव के उजाड़ने के विरुद्ध हाईकोर्ट का आदेश ले
कर पहुँचे, तो उन्होंने पाया कि समूचे गाँव और बाजार पर एक दिन पहले ही बुलडोजर चल चुका है। सरकारी अधिकारियों की आँखों में हमारे न्यायालयों के कानूनी
आदेशों के लिए कितनी इज्जत है, यह इससे पता चलता है कि हाईकोर्ट का ऑर्डर पाने के बावजूद गाँव के घरों और बाजार की दुकानों को ढहाने का काम उस समय तक
पूर्ववत चलता रहा, जब तक सारी जमीन साफ और समतल नहीं हो गई। गाँव के निवासी मुजम्मिल हुसैन ने हमें बताया, 'जब मैं 23 जून को जबलपुर से 'स्टे ऑर्डर' ले कर
लौटा, तो पता चला कि मेरी दुकान ढहाई जा चुकी है; मेरा सामान ट्रक में भर कर गाँव से दूर नवजीवन कॉलोनी में फेंक दिया गया था और चूँकि मैं उस समय मौजूद नहीं
था, मेरी बहुत-सी चीजें चोरी चली गईं, जिनका आज तक पता नहीं चला।' जब कुछ दिनों बाद गाँव के कुछ प्रतिनिधियों ने समूचे मामले को मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री
के सामने रखा, तो उन्हें आश्वासन दिया गया कि जिले के कलक्टर को इस संबंध में 'उचित कार्रवाई' करने का आदेश दिया गया है। किंतु महीने गुजरते गए और कलक्टर की
ओर से इस संबंध में कहीं, कोई कार्रवाई नहीं की गई।
यहाँ यह एक स्वाभाविक प्रश्न उठता है कि यदि आज देश का नागरिक न्यायालय के संरक्षण और मुख्यमंत्री के आश्वासन के बावजूद अपने अधिकारों की रक्षा नहीं कर
पाता, तो लोकतंत्र की उन कागजी मर्यादाओं का क्या मूल्य रह जाएगा, जिसे कोई भी किसी भी समय स्वेच्छा से उसी तरह 'बुलडोज' कर सकता है, जैसे घरों और दुकानों
को? सिंगरौली में अनेक बार हमें यह सुनने को मिला कि जब-जब किसी गैर-कानूनी, अन्यायपूर्ण घटना के विरुद्ध शिकायत की जाती है, मुख्यमंत्री हमेशा कलक्टर को
'उचित कार्रवाई' करने का आदेश दे कर अपने दायित्व से छुट्टी पा लेते हैं। वह आदेश दिया भी जाता है या नहीं, इसे पता चलाने का कोई रास्ता नहीं। और जब 'उचित
कार्रवाई' नहीं होती, जैसा अधिकांश मामलों में नहीं होती, तो इसकी जिम्मेदारी किस पर है - मुख्यमंत्री पर या कलक्टर पर? आज की रुक्ष और क्रूर राजनीति के खेल
में अर्जुनसिंह अपेक्षाकृत अधिक समझदार सहानुभूतिपूर्ण मुख्यमंत्री' माने जाते हैं, इसलिए विश्वास नहीं होता कि अधिकांश मामलों को 'उचित कार्रवाई' के बहाने
रफा-दफा कर दिया जाता होगा। क्या हम यह मान लें कि मुख्यमंत्री तो लोगों की जायज शिकायतों को दूर करने का 'आदेश' देते हैं, किंतु उन्हीं के आदेशों का पालन
स्थानीय अधिकारी नहीं करते? यदि ऐसा है, तो इन अधिकारियों के विरुद्ध ही क्यों नहीं कोई 'उचित कार्रवाई' की जाती?
मटवई गाँव के विस्थापित निवासियों के लिए एक नई कॉलोनी बनाई गई है -नवजीवन विहार। किंतु जमीन के जो प्लॉट उन्हें दिए गए हैं, उनका कोई सरकारी पट्टा अभी तक
उन्हें नहीं मिला है। एक दिन मिलेगा - ऐसा सरकार कहती है। कब मिलेगा, इसका कोई भरोसा या आश्वासन नहीं। यही शिकायत दूसरे क्षेत्रों में भी सुनने को मिली।
सिंगरौली के विस्थापितों में यही एक डर बैठा है कि सब कुछ 'फिलहाल' के भरोसे टिका है, अभी बला टली, फिर कब आ दबोचेगी, इसका कुछ भी पता नहीं।
सरकार जमीन देती है, लेकिन जमीन का स्वामित्व नहीं, इसका रहस्य मैं बहुत खोजने पर भी नहीं जान पाया। मुझे कुछ ऐसा लगता है कि स्वयं केंद्रीय और राज्य शासन
अधिकारी इस बारे में स्पष्ट नहीं हैं कि विभिन्न विद्युत परियोजनाओं के लिए उन्हें कितनी जमीन की जरूरत पड़ेगी। कभी-कभी ऐसा भी देखा गया है कि गाँवों को उजाड़
दिया जाता है, जमीन खाली पड़ी रहती है और महीनों उस पर कोई काम शुरू नहीं होता। इसी अस्पष्टता और अनिश्चय के कारण सरकार एक तरह की अंधाधुंध नीति अपनाती है।
जब जरूरत पड़े, तब कोई गाँव, जंगल या जमीन का हिस्सा खाली करवा दो, विस्थापित लोगों को कुछ और पीछे धकेल दो, किंतु उन्हें कोई ऐसा पट्टा या कागज न दो, जिससे
यदि बरस, दो बरस बाद उन्हें दोबारा विस्थापित करना पड़े, तो वे सरकार के रास्ते में कोई कानूनी अड़चन पैदा न कर सकें। विस्थापन और पुनर्वास की यह अद्भुत,
तर्कहीन, अराजक प्रणाली हजारों लोगों के लिए एक दु:स्वप्न बन गई है। किसी को कुछ पता नहीं कि वह किस अनजान घड़ी में उखाड़ दिया जाएगा, किस अज्ञात जगह क्या
दिया जाएगा?
सिंगरौली के विस्थापित परिवारों को सरकार की ओर से मुआवजा जरूर दिया जाता है, किंतु जिस आधार पर दिया जाता है, वह काफी अद्भुत है। जिन किसानों को अपनी जमीन
से उजाड़ा जाता है, उन्हें लगान का तीस गुना पैसा मुआवजे के रूप में देना स्वीकृत हुआ है, किंतु लगान की दर पहले ही इतनी कम थी कि छीनी हुई जमीन और दिए
जानेवाले पैसे के बीच कोई संतुलन नहीं बैठ पाता। किंतु इससे कहीं अधिक शोचनीय बात - जिसकी ओर सरकार का ध्यान नहीं जाता - वह किसानों और आदिवासियों के
'सांस्कृतिक विस्थापन' की है। बरसों से जो लोग एक साथ गाँव में रहे हैं, वे देश के अलग-अलग कोनों में, नितांत अजनबी परिवेश में, किस तरह अपने को अनाथ, अकेले
और निराश्रित पाते हैं, क्या इस उन्मूलन-भाव को मुआवजे के पैसों से दूर किया जा सकता है?
जब आदिवासियों को जंगलों से निकाला जाता है, तो उन्हें यह मुआवजा भी नहीं मिलता। चूँकि शताब्दियों से वे जंगलों पर आश्रित रहते आए हैं और लगान नहीं देते थे,
इसलिए मुआवजा पाने का उन्हें कोई 'कानूनी अधिकार' नहीं है। यही नहीं, जबकि दूसरी जातियों को यह अधिकार प्राप्त है कि इनके विस्थापित परिवार के एक सदस्य को
किसी सरकारी कारखाने में नौकरी दी जाएगी, अधिकांश आदिवासी इस सुविधा से वंचित रह जाते हैं। जब 'लोकायन' के एक कार्यकर्ता ने इसका कारण पूछा, तो शक्तिनगर
विद्युत स्टेशन के एक अफसर ने कहा, 'इन लोगों को क्या नौकरी दें! रात-भर शराब पीते हैं, दिन-भर आवारागर्दी... ये लोग हमारे किसी काम के नहीं।' शायद वे ठीक
कहते हों, किंतु क्या एक क्षण के लिए भी उन्होंने यह नहीं सोचा कि उजड़ने से पहले इन आदिवासियों को सरकारी नौकरी की जरा भी जरूरत नहीं थी। जिस शासन-व्यवस्था
ने हजारों आदिवासियों को उनके वन्यस्थल से उन्मूलित करके सड़कों पर फेंक दिया है, उसी शासन का अधिकारी - जो शहर की सब सुविधाओं को भोगता है - उनके आलस्य और
शराबखोरी की भर्त्सना करे, इससे बड़ी हास्यास्पद और क्रूर विडंबना क्या हो सकती है?
ऐसे भी गाँव हैं, जिन्हें कानून की लकीर ने नहीं उजाड़ा, बल्कि जो विद्युतगृहों के अधिकारियों की घोर उदासीनता और स्वार्थपरकता के कारण खुद-ब-खुद उजड़ गए।
तेलंगावा ऐसा ही एक गाँव है, जो शक्तिनगर विद्युत स्टेशन के नीचे ढलान पर बसा है। जब वहाँ गए, तो सारा गाँव भुतहा-सा वीरान पड़ा था। झोंपड़े खाली पड़े थे।
झोंपड़ों के फर्श, दीवारें, खपरैल तक पानी में भीगे थे। लगता था, रातों-रात बाढ़ आई हो और जल्दी में लोग जितना सामान बटोर कर ले जा सकते थे, ले गए, बाकी पीछे
छोड़ गए। किंतु यह कोई ऐसी 'बाढ़' नहीं थी, जिसे रोका न जा सकता हो। यदि शक्तिनगर पावर स्टेशन के अधिकारी चाहते, तो गाँव इस विपदा से बच सकता था। बरसों पहले
जब पावर स्टेशन बना था, तो वहाँ से दूषित गरम पानी के डिस्चार्ज करने के लिए डेढ़ किलोमीटर लंबी पाइप बनाई गई थी, ताकि बीच रास्ते में गुजरते हुए पानी कुछ
ठंडा हो जाए और जब रिहंद नदी के रिजर्वायर में जा कर गिरे, तो मछलियों को कोई नुकसान न पहुँचे। किंतु पाइप बनाते समय इस बात का ध्यान नहीं रखा गया कि बारिश
में जब खेतों में पानी जमा हो जाएगा, तो पाइप के व्यवधान के कारण वह पूरी तरह से बह नहीं पाएगा और एक नकली बाढ़ की स्थिति उत्पन्न हो जाएगी। पानी के निकास के
लिए पाइप में जो सूराख बनाया गया था, वह इतना छोटा है कि समूचा पानी उसमें से नहीं निकल पाता। तेलंगावा के निवासियों के साथ यही हुआ। पिछली बरसात में एक रात
तेज बारिश और जमा होता हुआ पानी निकास की कोई राह न पाकर गाँव पर ही चढ़ आया। सौभाग्य की बात थी कि समय रहते अधिकांश लोग अपना घर-बार छोड़ कर भाग निकले।
इसी उजाड़ गाँव के आगे हम खड़े थे। ऊपर शक्तिनगर का विराट पावर स्टेशन था, आधुनिक प्रगति का गर्वोन्नत प्रतीक। नीचे तेलंगावा के सूने, सुनसान खंडहर, जहाँ कुछ
दिन पहले जीती-जागती बस्ती थी, वहाँ अब कुत्ते लोट रहे थे। हमें बताया गया कि जब गाँव के कुछ प्रतिनिधि अपनी विपदा की कहानी ले कर शक्तिनगर के अधिकारियों के
पास पहुँचे, तो उनका सीधा-सा जवाब यह था : 'इस गाँव को तो उखड़ना ही था। यह अच्छा ही हुआ कि लोग अपने-आप चले गए।'
यदि औद्योगीकरण के नशे में शासन-सत्ता अपने देश के जीवंत, हाड़-मांस के लोगों के प्रति इतनी सनकी और 'सिनिकल' हो सकती है, तो इस देश के प्राकृतिक जीवन-पानी,
हवा, जंगलों के प्रति - वह कोई समझ, सूझ-बूझ और सहानुभूति बरतेगी, इसकी आशा करना ही व्यर्थ है। थर्मल पावर स्टेशनों का निर्माण तो खूब जोर-शोर के प्रचार के
साथ हुआ है, किंतु उनसे हमारे देश की नदियों और वायुमंडल में जो भयंकर प्रदूषण फैलता है, उसे रोकने के लिए हमारी शासन-सत्ता और अधिकारी कितने सचेत और
क्रियाशील हैं, इसकी जानकारी किसी को नहीं मालूम। यदि हम कुछ देर के लिए 'औद्योगीकरण की अनिवार्यता' का तर्क मान भी लें, तो भी प्रश्न रह जाता है कि क्या
हमें अपने देश की भूमि, जन-संस्कृति और पर्यावरण की नितांत उपेक्षा करके उसी ढंग और पैमाने पर पश्चिम के औद्योगिक ढाँचे की नकल करनी होगी, जिसका विकास एक
खास ऐतिहासिक संदर्भ में हुआ था और जिसकी हमारे देश के जातीय चरित्र से दूर की समानता नहीं? दुनिया की अन्य सभ्यताओं की तुलना में भारतीय संस्कृति का यह एक
विशेष संस्कार रहा है कि उसने कभी मनुष्य को प्रकृति से ऊपर नहीं माना, बल्कि प्रकृति और मनुष्य के बीच एक ऐसे पवित्र और संतुलित संबंध की परिकल्पना की है,
जहाँ दोनों एक-दूसरे के प्रतिद्वंद्वी नहीं, एक-दूसरे के पोषक हैं। यही कारण है कि जहाँ अन्य देशों में 'औद्योगिक क्रांति' के दौरान पुरानी जातियों और
कबीलों का बड़े पैमाने पर संहार हुआ, वहाँ भारत में हजारों वर्षों से आर्य जातियाँ और आदिवासी एक-दूसरे के साथ शांतिपूर्वक रह सके हैं क्योंकि दोनों में चाहे
कितनी सांस्कृतिक भिन्नता क्यों न रही हो -एक बात समान रही है - प्रकृति और परिवेश के प्रति गहरा आत्मीय लगाव।
पश्चिम में इसी लगाव के अभाव में पर्यावरण का भीषण संकट उत्पन्न हुआ है। कितना क्रूर व्यंग्य है कि भारत, जो अन्य देशों के लिए कम-से-कम पर्यावरण के मामले
में एक उज्ज्वल आदर्श प्रस्तुत कर सकता था, आज पश्चिम से कहीं ज्यादा निर्मम और नृशंस ढंग से अपनी प्राकृतिक संपदा की नोच-खसोट करने में लगा है। पश्चिम में
कम-से-कम जंगलों के काटने अथवा जल या वायु को प्रदूषित करने के खिलाफ कुछ नियमों का तो पालन होता है। हमारे देश में तो राज्यमंत्री से ले कर जंगल के
छोटे-से-छोटे अधिकारी को रिश्वत दे कर समूचे जंगलों को ट्रकों पर लाद कर कारखानों में झोंका जा सकता है। प्रदूषण के खिलाफ नियम अनेक हैं, किंतु कोई भी नियम
ऐसा नहीं जिसे बड़े-से-बड़े उद्योगपति से ले कर छोटे-से-छोटा ठेकेदार आसानी से न तोड़ सके। आज स्थिति यह है कि पश्चिम से विशेषज्ञ भारत आते हैं, ताकि पर्यावरण
के महत्व के बारे में हमें शिक्षित कर सकें!
सिंगरौली के पास बीना एक छोटा-सा औद्योगिक नगर है। वहाँ हमारी मुलाकात एक युवा कर्मठ ट्रेड यूनियन नेता ओमप्रकाश मालवीय से हुई, जिन्होंने बीना के
कोयला-खदानों के मजदूरों को संगठित किया है। उनसे मिल कर हमें सुखद आश्चर्य हुआ। न केवल मजदूरों की अवस्था की बारे में, बल्कि अपने प्रदेश की खनिज संपदा और
पर्यावरण के संबंध में उनकी गहरी जानकारी थी। उन्होंने हमें बताया कि बीना में बिड़ला के रेणुसागर पावर स्टेशन से निकलनेवाले धुएँ से इतना अधिक प्रदूषण होता
है कि पचास प्रतिशत फसल पर सफेद पर्त जमा हो जाती है, जिसके कारण फसल तो नष्ट होती ही है, लोगों के स्वास्थ्य पर भी बुरा प्रभाव पड़ता है। सार्वजनिक विरोध के
बावजूद रेणुसागर की चिमनियों में अभी तक फिल्टर नहीं लगाया गया, जिससे हवा में फैलती विषैली गैस को रोका जा सके। रेणुसागर के उद्योगपति बिड़ला परिवार को हर
साल बारह करोड़ रुपए का लाभ होता है, जबकि फिल्टर लगाने की लागत सिर्फ एक करोड़ है।
वायुमंडल की गंदगी को दूर करना उद्योगपति का कर्तव्य भले ही न हो; आत्मा को स्वच्छ रखने का उत्तरदायित्व वह अच्छी तरह निभाता है। रेणुकूट में हमें एक
विचित्र दृश्य दिखाई दिया; विंध्य पर्वतों से घिरे इस सुंदर शहर के एक छोर पर बिड़ला जी ने अल्यूमिनियम का एक विशाल कारखाना खड़ा किया है। शहर के दूसरे छोर पर
एक छोटी-सी पहाड़ी पर एक भव्य मंदिर भी दिखाई देता है, जो किसी देवी-देवता के नाम से नहीं, हमेशा की तरह 'बिड़ला मंदिर' के नाम से ही जाना-पहचाना जाता है।
किंतु इस बार इस तथ्य को रेखांकित करने के लिए कि 'मंदिर मैंने ही बनवाया है?' मंदिर के विशाल प्रांगण में एक तरफ घनश्यामदास बिड़ला और दूसरी तरफ उनकी
धर्मपत्नी की विशाल मूर्तियाँ भी आमने-सामने खड़ी हैं, हाथ जोड़े एक-दूसरे का अभिवादन करती हुईं। मंदिर में खड़े हुए मेरी आँखें अनायास सामने की पहाड़ी पर जा
टिकीं, जहाँ अल्यूमिनियम कारखाने की विशाल चिमनी समूचे शहर पर अपना काला, विषैला, धुआँ उगल रही थीं। अचानक खयाल आया कि चिमनी में फिल्टर न लगा कर बिड़ला जी
ने पैसा बचाया होगा, उसी से शायद यह मंदिर भी बनवाया होगा, किंतु क्या उन्हें यह खयाल नहीं आया होगा कि बरसों बाद धुएँ की जहरीली परतें मंदिर के उस विशाल
प्रांगण को भी ढक लेंगी, जहाँ उनकी और उनकी पत्नी की भव्य मूर्तियाँ खड़ी हैं? और तब मुझे उस क्षण वह मंदिर बहुत ही अधिक लज्जास्पद जान पड़ा। जब हम किसी धर्म
के प्राकृतिक परिवेश की पवित्रता दूषित कर देते हैं, तो उसके बाहरी प्रतीक - चाहे वे मंदिर हों या मूर्तियाँ - मरी हुई देह पर सोने के आभूषणों-से अश्लील जान
पड़ते हैं।
मरी हुई देह? मुझे अचानक सुबह की घटना याद हो आई। और तब लगा, मृत्यु के भी अनेक चेहरे होते हैं। कुछ पत्थर में मढ़े हुए साफ और चिकने, कुछ सड़क के किनारे धूल
में लिथड़े हुए... बदहवास चीखों के बीच सुन्न और हैरान। हम सुबह बीना से मोटरसाइकिल पर रेणुसागर देखने जा रहे थे। अचानक देखा, रास्ते पर एक ट्रक उलटी पड़ी है
और नीचे मैदान में बारह-तेरह घायल मजदूर औरतें अलग-अलग मुद्राओं में लेटी हैं, बैठी हैं, कराह रही हैं, रो रही हैं। आसपास कुछ दर्शक घेरा बना कर खड़े थे,
जिसमें पुलिस का एक सिपाही भी था किंतु सब निश्चल और चुप थे। मोटरसाइकिल से उतर कर हम ट्रक के पास आए। पूछने पर पता चला कि ट्रक इन औरतों को कोयला-खदानों और
कारखानों में काम के लिए ले जा रहा था। ड्राइवर अक्सर बहुत तेजी से ट्रक चलाते हैं, ताकि कम-से-कम फेरियों में ज्यादा-से-ज्यादा मजदूरों को ले जाया जा सके।
आश्चर्य था कि इस दुर्घटना में ड्राइवर को कोई चोट नहीं पहुँची थी, वरना वह इतनी जल्दी लापता कैसे हो जाता?
औरतों की हालत दयनीय थी। पता नहीं, किसको कितनी चोट पहुँची थी! ट्रक उलटते ही पीछे बैठी औरतें एक साथ नीचे आ गिरी थीं। हाथ, पैरों पर खून के थब्बड़ धूप में
चमक रहे थे, किंतु जैसा हमारे देश में होता है - न पुलिस के सिपाही, न किसी दर्शक के दिमाग में यह खयाल आया था कि इन्हें तुरंत अस्पताल भिजवाने की व्यवस्था
की जाए। सौभाग्य से मालवीयजी हमारे साथ थे। उन्होंने एक ट्रक को जबरदस्ती रुकवाया, फिर हमने उन अधलेटी, अधबैठी कराहती औरतों को उठा कर किसी तरह ट्रक में
डाला। मैंने देखा कि दर्शक, जो अब तक तटस्थ मुद्रा में खड़े थे, हमारा हाथ बँटा रहे थे और तब मैंने सोचा कि हिंदुस्तान में कोई भी व्यक्ति खुद अगुआई करने से
कतराता है, किंतु जब कोई आदमी हिम्मत बटोर कर पहल करता है, तो बाकी लोग अपनी उदासीनता छोड़ कर उसकी मदद करने में आगा-पीछा नहीं देखते...
ट्रक को अस्पताल पहुँचाया गया, किंतु इस बीच पीछे रोने की आवाज और तेज हो गई थी। ट्रक के पिछवाड़े का दरवाजा गिराया गया, गुडमुड पोटलियों की तरह आपस में
सिमटी, सिसकती औरतों को गोद में ले कर नीचे उतारा गया - सिवाय एक औरत के, जो एक कोने में शांत पड़ी थी। मैंने प्रश्न-भरी निगाह से युवक को देखा, जो ट्रक पर
खड़ा था।
'इसे नहीं उतारोगे?'
उसने चुपचाप सिर हिलाया, 'कोई जरूरत नहीं - यह तो बीच में ही खत्म हो गई।'
बहुत देर बाद जब हम बस में रेणुकूट जा रहे थे, इसी युवक ने मुझसे पूछा, 'आपको कैसा महसूस हुआ होगा?' मैं कुछ समझा नहीं। उसने धीरे से कहा, 'आपने जिस बुढ़िया
को ट्रक में चढ़ाया था, वही नहीं रही, शायद आप आखिरी आदमी थे, जिसने उसे छुआ था!'
सिंगरौली में वह हमारी अंतिम शाम थी। उस रात रेणुकूट के स्टेशन पर हमने दिल्ली की ट्रेन पकड़ी थी। ट्रेन की खिड़की से मैं देर तक अँधेरे में विंध्याचल की
धुँधली पहाड़ियों को सरकता हुआ देखता रहा। और तब उस रात अपनी बर्थ पर ऊँघते हुए अचानक मुझे कुप्रीन की कहानी 'मोलोक' याद हो आई, जिसका अनुवाद मैंने मुद्दत
पहले किया था। मुझे याद आया, 'मोलोक' शब्द का हिंदी पर्याय मिलने में मुझे कितनी परेशानी हुई थी? दैत्य? दानव? बलि देवता? कोई ऐसी अति मानवीय शक्ति, जो
धीरे-धीरे अपने शिकंजों में समूची चराचर सृष्टि को दबोच लेती है, हर व्यक्ति की नियति को ग्रसती हुई काली, लंबी छाया, जिससे कोई छुटकारा नहीं...
मुझे लगा जिस शब्द का अर्थ मुझे बरसों पहले शब्दकोश में नहीं मिला था, उसका 'चेहरा' मैंने सिंगरौली में देख लिया था।
किंतु इस चेहरे के पीछे एक फोटोग्राफ भी है, जो मैं अपने साथ लाया हूँ, अमझर की एक दोपहर पानी से भरे धान के खेत के बीचोंबीच अपने मित्र के कंधों पर बैठा
हूँ, सिर पर चटाई का हैट पहन रखा है और मेरे साथ काली, साफ सुंदर आदिवासी लड़कियाँ भी खड़ी हैं - पानी में घुटनों तक डूबी हुईं। उन्होंने भी हैट पहन रखा है -
और वे मुझे देख कर खिलखिलाते हुए हँस रही हैं!
ढलान से उतरते हुए
मैं किसी शाम उनकी आँख बचा कर अकेला निकल जाता। चौड़े पत्थरों की ठंडी और बर्फ में लिथड़ी सड़क मेरे नीचे खट-खट बजती। मुझे भ्रम होता, कोई मेरा पीछा कर रहा है।
मैं रुक जाता, पीछे मुड़ कर देखता। कोई नहीं, न कोई सिपाही, न जासूस, न सिक्योरिटी पुलिस का गुप्तचर। क्रेमलिन के पीछे टेढ़ी-मेढ़ी गलियाँ, किसी नुक्कड़ पर
फूलों की दुकान और सिर पर स्कार्फ बाँधे कोई भोली बूढ़ी औरत, बीच रास्ते में अथाह लोगों की भीड़। पता नहीं, वे कहाँ जा रहे थे, कहाँ से आ रहे थे? एक अजनबी,
विदेशी शहर में वैसे भी हर व्यक्ति रहस्य का पुतला जान पड़ता है - और यदि वह रूस का कोई शहर हो - तो यह रहस्य एक रोमांच, एक चमकीली आशा, एक खोए हुए संसार में
पुनर्जीवित होने लगती है, हम एक साथ दो दुनियाओं के अलग-अलग काल-खंडों में जीने लगते हैं -एक वह जो सामने है, मकान, गलियाँ, चलते-फिरते लोग, दूसरी वह जो
हमारी स्मृतियों में जीती है, कभी किसी बूढ़े के साथ हो जाती है, जिसे कभी चेखव की कहानी में देखा था या उस लंबे बालोंवाली लड़की के साथ हो लेती है, जो
तुर्गनेव की लिजा की याद दिलाती है - बिलकुल वैसी ही स्वप्निल, संगमरमर-सी सफेद और थोड़ी-सी आकुल, आहत आँखें।
ऐसी ही एक दुपहर हम लेनिनग्राड में दॉस्तोएव्स्की का घर देखने गए थे। नेवा की कैनाल बर्फ में जमी थी। हमने हजारों पुलों में से एक पुल पार किया, लंबे, बीहड़
मकानों के बीच एक सूनी गली में आए, जहाँ उन्नीसवीं शताब्दी का समय भी बर्फ की तरह जम गया था। हमारी गाइड इशारे से एक दुमंजिला मकान दिखाती है, जिसकी अँधेरी
सीढ़ियों पर एक बिल्ली हमें निहार रही थी। 'क्या यहाँ दॉस्तोएव्स्की रहते थे?' मैंने पूछा। उसने सिर हिलाया, 'नहीं, यह वह मकान है, जिसमें रोसकोलनिकोव
(दॉस्तोएव्स्की के उपन्यास 'अपराध और सजा' का मुख्य पात्र) रहता था। यह जीना देखते हो, वहीं से उतर कर वह उस दुकान में गया था, जहाँ उसने उन दो बूढ़ियाँ की
हत्या की थी।' हम कुछ क्षणों तक उस मकान को देखते रहे और तब मुझे लगा, बरसों बाद उपन्यास के लेखक और काल्पनिक पात्रों के बीच अंतर करना कितना निरर्थक काम हो
जाता है और यह बात कितनी अप्रासंगिक हो जाती है कि हम दॉस्तोएव्स्की का जन्मस्थान देख रहे हैं या उसके नायक की कालकोठरी, जिसमें उपन्यास का जन्म हुआ था।
क्या इसी कारण से नाबाकोव ने महान उपन्यास को दुनिया की 'महान परीकथाएँ' माना था? नहीं, हम अपनी गाइड और मित्र एवा से कोई भी प्रश्न नहीं पूछते, न नाबाकोब
के बारे में, जो अपना देश छोड़ कर चले गए थे, न बावेल के बारे में, जिनकी मृत्यु सायबेरिया के किसी अज्ञात कोने में हुई थी... लेकिन शहर और मकान वही है, जहाँ
एक जमाने में वे रहते थे, प्रेम करते थे, कहानियाँ लिखते थे। एक दिन मास्को में चलते हुए एवा ने वह घर दिखाया था, जिसके अकेले कमरे में मॉयकोवस्की ने
आत्महत्या की थी। चुप, शांत, शाम की धूप में झिलमिलाता दुमंजिला मकान
परी-कथा? सिर्फ उपन्यास ही परी-कथाएँ नहीं होते, कुछ शहर भी अपनी ईंटों, गलियों, मकानों में पूरा एक मायावी संसार लिए जीते हैं, हमारे लिए जो किताबी स्मृति
है, एवा जैसी औरतों के लिए वह जीता-जागता इतिहास है, जहाँ से वह हर रोज गुजरती है। 'यह वह इमारत है, जिसमें स्टालिन के समय में राजनीतिक बंदियों को
इंटेरोगेशन के लिए रखा जाता था, सोल्जेनित्सिन ने कारागृह की पहली रात यहाँ गुजारी थी...' हम ऊपर देखते हैं, एक लंबी, भयानक, किलानुमा इमारत, जिसके नीचे
लोहे की छड़ें लगी हैं। मेरे मराठी लेखक मित्र, न जाने क्या सोच कर, उस काली, ठंडी, जंग लगी छड़ी को छूते हैं। सब कुछ वैसा ही है, बसें और ट्रामें चलती हैं,
लोग फूलों की दुकानों से फूल खरीदते हैं, पार्क में पेड़ों के नीचे प्रेमियों के जोड़े दिखाई देते हैं। कोई सोच भी नहीं सकता कि कौन-सी इमारतों के पीछे किसने
कितना कष्ट भोगा था। 'भयानक बात यह नहीं है कि इतनी यातना है', एक बार मैंडलश्टाम ने अपनी पत्नी से कहा था, 'भयानक बात यह है कि इतना सब कुछ होने के बावजूद
जिंदगी नार्मल गति में चलती रहती है।'
हमारे सिर टोपों से ढके हैं, हाथों में दस्ताने हैं, गले में मफलर... और यद्यपि इन सबके रंग अलग-अलग हैं - ये सब सफेद दिखाई देते हैं, बर्फ की सफेदी में
चिट्टे और साफ! हम एक-दूसरे का चेहरा भी नहीं देख सकते, जरा-सा बोलते हैं तो शब्दों की भाप मुँह से निकल कर चेहरों को ढक लेती है।
लेकिन इस जगह बोलने की जरूरत नहीं, यह एक पुराना गिरजा है जहाँ ठठ-के-ठठ लोग बूढ़े पेड़ों की तरह हिल रहे हैं, बाहर रात है और बर्फ मोस्क्वा नदी का सफेद पाट।
भीतर प्रार्थनारत लोगों की भीड़ है, गिरजे में तिल रखने की जगह नहीं, इसलिए हम दरवाजे की देहरी पर खड़े हैं, मोमबत्तियों और अगरबत्तियों के धुँधलाए आलोक में
प्रार्थना के शब्द उन पर उठते हैं-एक अंतहीन विलाप की तरह और गिरजे की दीवारों से टकराते हुए लहरों की तरह वापस लौट आते हैं। आधी रात की घड़ी में कोई गिरजा
ठिठुरते हुए लोगों से इतना भरा होगा, एक ऐसे देश में, जहाँ पिछले साठ वर्षों से ईश्वर का कोई अस्तित्व नहीं, एक ऐसा रहस्य है, जिसकी कुंजी मार्क्स, लेनिन,
किसी के पास नहीं। एवा ने बताया कि ये सब अपने मृतकों की आत्मा के लिए प्रार्थना कर रहे हैं। हर पीढ़ी के अपने मृतक हैं, लड़ाई के अलग, लेबर कैंपों के अलग...
उनकी प्रार्थना उतनी ही अनंत है, जितने गुजरे हुए सगे-संबंधियों की याद, जिनका नाम किसी कब्र, रजिस्टर या स्मारक पर अंकित नहीं। हर स्त्री के हाथ में
मोमबत्ती और फूलों का गुच्छा है। ऊपर पेडेस्टल से पादरी की घनी, गहरी आवाज सुनाई देती है - और फिर गाने का समवेत स्वर,... ऊपर उठता हुआ... नीचे गिरता हुआ...
मुझे एक दूसरा दिन स्मरण हो आया, जब हम मास्को की एक पुरानी सिमिट्री देखने गए थे। वहाँ चेखव की कब्र थी और दूसरे कोने में दूसरी कब्र दिखाई दी, काले
पोलिथिन की चादर से ढकी हुई, पास जाने पर पता चला कि वह स्टालिन की पत्नी की कब्र थी, पोलिथिन का बचाव इसलिए कि कहीं गिरती हुई बर्फ उसे खराब न करे।
चेखव की कब्र पर न कोई कपड़ा था, न फूल, वह एक छोटे-से काले चेपल में काफ्का की कब्र की तरह, लेकिन वहाँ माँ-बाप एक ही कब्र की सतहों में दबे थे, अपने बेटे
के साथ, जो पहले चला गया था।
लेकिन ऐसे भी स्थान हैं, जहाँ मृत्यु को वैसे ही 'पकड़' लिया गया, जैसे वह आई थी, वह अब भी उन भिक्षुओं की देह को पकड़े है, जो पिछले चार सौ वर्षों से
अपने-अपने तहखानों में सुरक्षित हैं। उनका हर अंग-प्रत्यंग जीवित जान पड़ता है, चेहरा, आँखें, हाथ, पास रखी हुई बाइबल, बर्तन; मानो वे अभी सो गए हों और अभी
उठ जाएँगे। वे मध्यकालीन भिक्षुक हैं, जो एक जमाने मे कीव की मानेस्ट्री के नीचे तहखाने में रहते थे। उन दिनों रूस में कीव उतना ही बड़ा तीर्थ स्थान था,
जितना हमारे यहाँ काशी है। यात्रियों और भिक्षुओं का पुण्यस्थल। मेरी शुरू से ही प्रबल और पुरानी इच्छा थी कि मैं वह शहर देख सकूँ जहाँ एक समय ईसाई और यहूदी
इतनी बड़ी संख्या में जमा होते थे और दिन-रात हवा में गिरजों की घंटियाँ गूँजती थीं।
लेकिन तब किसने कल्पना की थी कि आज के रूस में धर्म भिक्षुओं को सचमुच, शाब्दिक-अर्थों में 'अंडर-ग्राउंड' जा कर देखने का मौका मिलेगा? एक पुरानी मानेस्ट्री
के नीचे बर्फ की असंख्य परतों को पार करते हुए हम उतरते गए, सबसे नीचे एक गेट दिखाई दिया, पुराने मठ का भूमिगत द्वार, जिसकी सीढ़ियाँ भिक्षुओं की कोठरियों की
तरफ उभरती थीं। लगता था; हम एक गढ़हे के तले पर हैं और चारों तरफ एक भूल-भुलइयाँ फैली है, जमीन के नीचे धँसी हुई, दोनों तरफ छोटे-छोटे बक्सों-से तहखाने थे,
जिनके भीतर भिक्षुक लेटे थे, साबूत, जीते-जागते, संपूर्ण मानव-शरीर, जिन्हें देख कर एक क्षण के लिए यह सोचना असंभव लगता है कि वे महज कंकाल हैं, शताब्दियों
से मृत और निष्प्राण; लेकिन समय ने एक भी खरोंच उनके शरीर पर नहीं छोड़ी है। नीचे का तापमान इतना कम है कि गुजरी हुई शताब्दियों ने उनकी देह को
ज्यों-का-त्यों अछूता छोड़ दिया है। हमारे पीछे दर्शनार्थियों की इतनी लंबी भीड़ थी कि हम हर 'सैल' के आगे लमहा-दो लमहा ही ठहर पाते थे, फिर आगे घसीट लिए जाते
थे। मेरे लिए यह असाधारण अनुभव था... जिन आस्थावान भिक्षुओं की देहों को प्रकृति ने सुरक्षित छोड़ दिया था, वहीं मास्को में विज्ञान की मदद से एक ऐसे राजनेता
के मृत शरीर को सुरक्षित रखा गया था, जिसने हर धर्म को अंधविश्वास माना था... विडंबना सिर्फ यह थी कि उस मॉसोलियम और इस मानेस्ट्री, दोनों के आगे आस्थावान
दर्शनार्थियों की लंबी, अंतहीन कतार लगी थी... सिर्फ बरसों बाद भिक्षुओं की जमी देह और केमिकल्स से लिपटे लेनिन के मृतशरीर में कोई अंतर नहीं था, दोनों ही
अपने बक्सों में - आस्था और अनास्था के परे - रूस की बर्फ की तरह नश्वर और शाश्वत दिखाई देते थे।
रूस की सर्दियों की कितनी स्मृतियाँ हैं, बचपन में भूगोल की क्लास में हम टुंड्रा के जानवरों, स्टेपी के मैदानों, सायवेरिया की बर्फ के बारे में पढ़ते थे,
फिर जब कुछ बड़े हुए तो भूगोल का स्थान पुश्किन ने ले लिया, मुझे अभी तक याद है, जब पहली बार मैंने उनकी वह लंबी, मर्मांतक प्रेम-कविता 'यूजिन ओनेजिन' पढ़ी
थी... किताब में एक वुडकट तस्वीर थी, लैंप के नीचे तान्या पत्र लिख रही है और खिड़की के बाहर बर्फ गिर रही है... फिर धीरे-धीरे पुश्किन को छोड़ कर हम
पीटर्सबर्ग की 'सफेद रातों' में चले आए, जहाँ दॉस्तोएव्स्की के अभिशप्त पात्र पुलों के पास नीचे झाँकते हुए दिखाई दे जाते थे। तब मुझे सीजर पावेस का यह
वाक्य याद हो आता था, जो उन्होंने अपनी डायरी में लिखा था, 'हम हर चीज को दूसरी बार देखते हैं', और इसमें बड़ा सच है क्योंकि जिसे हम असली मानो में 'देखना'
कहते हैं, उसे पहली बार हम बचपन की किताबों और दिवास्वप्नों में पहले से ही स्मृति में सँभाल रखते हैं... यही कभी-कभी एक अजीब जादुई चमत्कार जान पड़ता है...
लेनिनग्राड में जब एक रात मैं नेवा के पुल के पास खड़ा था और नीचे उतनी ही सफेद बर्फ थी, जितनी गर्मियों की सफेद रातें होती हैं तो मुझे लगा, एक लड़की पुल के
दूसरे छोर पर खड़ी है और जब वह जरा नीचे झुकती है, कूदने के एक क्षण पहले हिचकिचाती हुई तो अचानक मुझे पुल के आर-पार एक अजीब हँसी सुनाई देती है और तब मैं एक
क्षण के लिए निर्णय नहीं कर पाता; यह 'हँसी' पहली बार मैंने काम्यू के अंतिम उपन्यास में सुनी थी, जो अमस्टरडम के बारे में था या पुल पर झुकी वह लड़की
पीटर्सबर्ग की 'सफेद रातों' से बाहर आई थी, जिसे दॉस्तोएव्स्की ने ऐन आत्महत्या की घड़ी में देखा था?
रूस ही शायद ऐसा देश है जहाँ हमारी अपनी जिंदगी, पुराने पढ़े उपन्यास और इतिहास की मौजूदा घड़ी आपस में ऐसा उलझ जाते हैं, जिन्हें एक-दूसरे से अलग करना असंभव
है।
मौजूदा घड़ी का अनुभव उसी दिन होगा, जिस दिन हम भिक्षुओं के 'मृत आवास' से लौटेंगे, इसकी कल्पना किसी ने नहीं की थी। वह कीव का उतना ही भव्य और भयावह होटल
था, जैसे हमारे यहाँ 'पंच नक्षत्रीय' होटल होते हैं। वह शहर की ऊँची हथेली पर टिका था, जहाँ से शहर की छतें और गिरजों की बुर्जियाँ दिखाई देती थीं। खिड़की के
बाहर एक अवसन्न पीली दुपहर थी, न रोशनी, न अँधेरा, अप्रैल के महीने का अंत था, किंतु वसंत के आसार कहीं दिखाई नहीं देते थे।
मॉनेस्ट्री से लौटने के बाद सिर्फ अपने होटल के कमरे में सोने की इच्छा थी, किंतु न ठीक से नींद आई, न बाहर बर्फ गिरना बंद हुई। मैं शायद ऊँघ रहा हूँगा, जब
बाहर दरवाजे पर दस्तक सुनाई दी। मैं हड़बड़ा कर उठा तो देहरी पर एवा दिखाई दी। उसके पीछे मराठी कवि दिलीप चित्रे और कन्नड़ कथाकार अन्नतमूर्ति भी थे। हम सब एक
साथ ही आए थे।
'खाने के लिए नहीं आएँगे?' एवा ने कहा और भीतर चली आई। उसे मालूम था, हम इतनी जल्दी नीचे नहीं उतरनेवाले, जब कभी बाहर जाने का प्रोग्राम नहीं होता था तो हम
होटल के कमरे में बैठकर ही शाम गुजारना पसंद करते थे। हमने अपनी कोन्याक बाहर निकाली जो हम मास्को से साथ लाए थे, ऐसे मौकों पर एवा भी हमारा साथ देती थी।
उसका लड़का मास्को में अपने सौतेले पिता, एवा के दूसरे पति के साथ रहता था। कभी-कभी बातचीत के दौरान वह पुराने दिनों के संस्मरण सुनाया करती थी, दूसरी लड़ाई
का जमाना था, जब वह स्वयं छोटी बच्ची थी।
'जहाँ अब आप बैठे हैं, वह सब खंडहर थे... कीव से मास्को तक शरणार्थियों की कतार बराबर चलती रहती थी।'
'तुम उन दिनों कहाँ थीं?'
'अपनी दादी के गाँव में... उन दिनों खाने की इतनी कमी थी कि हमारी दादी आधी रोटी हमें देती थी, बाकी रोटी छिपा कर अपने एप्रन में रखे रहती थीं... अजीब बात
यह थी कि हमें अपनी हालत इतनी बुरी नहीं लगती थी... उलटे हमें इंग्लैंड और अमेरिका के बच्चों पर दया आती थी।'
'उन पर कैसी दया?' मैंने कुछ आश्चर्य से पूछा।
एवा मुस्कराने लगी, 'आपको यह परीक्षा जान पड़ेगी, लेकिन भूखे लोगों पर भी प्रोपेगेंडा का कितना असर होता है, इसकी कल्पना आप नहीं कर सकते। हमारे यहाँ खाने की
कमी क्यों न हो, प्रचार की कमी नहीं थी। उन दिनों सोवियत सरकार छोटी-छोटी पुस्तिकाएँ निकाला करती थीं। उनमें यह दिखाया जाता था कि कैसे पूँजीवादी देशों के
बच्चे भूख से मर रहे हैं। मुझे अब भी एक तस्वीर याद है, एक सोवियत जहाज इंग्लैंड की किसी बंदरगाह पर खड़ा है और कुछ सोवियत सेलर नंगे-भूखे बच्चों को अपने
जहाज से फल और चाकलेट निकाल कर बाँट रहे हैं।'
'तुम लोग इन बातों पर विश्वास कर लेते थे?'
'क्यों नहीं! क्या आज भी हमें नहीं बताया जाता कि सोवियत सेनाएँ अफगानिस्तान को बचाने भेजी गई हैं?'
उन दिनों अफगानिस्तान को ले कर एक अदृश्य-सी तनातनी फैली थी, सच्ची खबरें पता नहीं चलती थीं, इसलिए हवा में अफवाहें उड़ती रहती थी। दुकानों में पहले भी चीजों
का तोड़ा रहता था, अब स्थिति और खराब हो गई थी। एवा ने हाल की ही एक घटना बताई, जब स्कूल जाते हुए उसके लड़के ने देखा कि एक दुकान में साबुन मिल रहा है। उसके
पास इतने पैसे नहीं थे कि क्यू में खड़ा हो सके। उसने माँ को फोन किया। किंतु जब तक एवा पैसे ले कर आई, सारा साबुन खत्म हो चुका था। सिर्फ दुकान के फर्श पर
चूरा पड़ा था, जिसे लोग अपने थैलों में बटोर रहे थे... 'कभी-कभी यहाँ टायलेट पेपर या टूथपेस्ट-जैसी चीजों के लिए भी क्यू लग जाती है... सच बात यह है कि हम
लोग हर रोज इस तरह चीजें खरीदने निकलते हैं जैसे आदिम युग में लोग शिकार के लिए निकलते थे। कभी शिकार हाथ लग जाता है, कभी खाली हाथ लौटना पड़ता है। मैं तो
जिस दुकान के आगे क्यू देखती हूँ, वहीं खड़ी हो जाती हूँ; कुछ-न-कुछ तो हाथ लगेगा ही... हजारों लोग इसी तरह अपने दफ्तर या फैक्ट्री से छुट्टी ले कर दुकानों
की क्यू में खड़े रहते हैं, यदि कोई दुर्लभ चीज हाथ लग जाती है तो वह आदमी एक हीरो की तरह घर लौटता है!'
हम बैठे रहते हैं, सुनते रहते हैं, बातचीत और कोन्याक की गरमाई में समय का पता नहीं चलता। अचानक एवा उठ खड़ी हुई, खाने का आदेश दिया और हम स्कूल के बच्चों की
तरह उसके पीछे लाइन बना कर नीचे रेस्तराँ में चले आए।
रेस्तराँ में काफी भीड़ थी, बड़ी मुश्किल से एक मेज खाली मिली। चारों तरफ जगमगाती रोशनियों, भोजन की सुगंध और शराब की बोतलों के बीच हम यह भूल गए कि उसी दिन
सुबह हम बर्फ में ठिठुरते हुए मॉनेस्ट्री के नीचे मृत भिक्षुओं को देखने गए थे। सबको भूख लगी थी और पास के मेजों पर वेटर जो एक के बाद दूसरी प्लेटें ला रहे
थे, उसे देख कर यातना कुछ और बढ़ जाती थी।
हमारी मेज सबसे ज्यादा उपेक्षित थी। बहुत देर तक हम अपने इशारों के बावजूद किसी वेटर की आँख नहीं पकड़ पाए। आखिर एवा किसी तरह एक वेटरेस को पास बुलाने में
सफल हुई। वह एक लंबी लड़की थी और काफी तुनुक मिजाज-सी दिखाई देती थी। लगता था, हमारे पास आने में उसे जरा भी खुशी नहीं हुई है। 'क्या चाहिए?' उसने हमसे पूछा
और एवा ने उसे मीनू पर वे सब चीजें बता दीं, जो हमने चुनी थीं कुछ देर बाद वह वापस लौटी और मीनू मेज पर रख कर एवा से कुछ कहा, एवा ने उत्तर में कुछ कहा,
लेकिन लड़की निरासक्त-सी हो कर सिर हिलाती रही। आखिर एवा ने कुछ निराश हो कर हमें देखा, 'यह कहती है, आपने जो कुछ मँगवाया है, वह सब खत्म हो गया, सिर्फ एक-दो
चीजें बची हैं, जो हम मँगवा सकते हैं।' मैं इतनी लंबी प्रतीक्षा से तंग आ गया था, कि वह जो कुछ भी ले आती, लंगर का प्रसाद समझ कर खा लेता, किंतु मेरे मित्र
दिलीप चित्रे कवि ही नहीं, पत्रकार भी हैं, उनकी आँखों से कुछ भी नहीं बच सकता था। उन्होंने एवा को बताया कि जो खाना हमने मँगवाया था, बिलकुल वही दूसरी मेज
के मेहमानों को परोसा जा रहा है। फिर खत्म कैसे हो गया? जब एवा ने यही बात अनुवाद करके वेटरेस से कही तो वह भभक पड़ी, उसने कुछ खीज कर एवा से कहा और एवा ने
उत्तर में कुछ उससे कहा... हमें यह तेज वार्तालाप कुछ समझ में नहीं आया, सिर्फ यह देखने में आया कि एवा की आवाज बुरी तरह काँप रही है और वेटरेस मीनू पटक कर
भुनभुनाती हुई चली गई है।
'आपने जो खाना है खाइए... मैं अपने कमरे में जाती हूँ।' एवा ने कहा।
'लेकिन बात क्या हुई?' दिलीप ने पूछा।
एवा सुन्न बैठी थी और उसकी आँखों में आँसू झर-झर बह रहे थे।
'बात क्या हुई?' हमने दुबारा पूछा। लोग हमारी मेज की ओर देख रहे थे।
'दूसरे होटलों में ऐसा होता है, लेकिन आपके साथ?'
हम सचमुच अपराधी-से दीख रहे थे, 'क्या कह रही थी?' दिलीप ने पूछा। एवा को शांत होने में कुछ देर लगी, रूमाल से आँख पोंछी, फिर अपने स्वर को साधने की कोशिश
की।
'वही बात जो आपने कही थी, मैंने वेटरेस से कही... अगर दूसरों को वही खाना मिल रहा है तो इन्हें क्यों नहीं मिल सकता? कहने लगी तुम तो इस देश की रहनेवाली हो,
तुम्हें नहीं मालूम, यह खाना सिर्फ सफेद लोगों के लिए है...'
इस बार हमारे सुन्न होने की बारी थी।
'क्या यहाँ भी सफेद और काले में भेद बरता जाता है?'
इस बार एवा हमारे भोलेपन पर मुस्कराने लगी, 'नहीं, नहीं, यहाँ यह सिर्फ व्यंग्य में कहा जाता है - सफेद लोग वे माने जाते हैं, जो पार्टी या सरकार के ऊँचे
अधिकारी हैं, बाकी लोग 'कालों' की श्रेणी में गिने जाते हैं।'
'हम तो वैसे भी काले और ऐसे भी...' मैंने कहा। लेकिन दिलीप को यह हँसने की बात नहीं लगी, उन्होंने इसे हम सबका अपमान समझा (जो ठीक भी था)। वह उठ खड़े हुए और
एवा से कहा कि हमें मैनेजर के पास जा कर सारी बात कहनी चाहिए।
पूरा रेस्तराँ पार करके हम काउंटर पर पहुँचे, जहाँ एक स्थूलकाय, किसाननुमा, यूक्रेनियन महला बैठी थी, वह मैनेजर थी। एवा ने उत्तेजित स्वर में हमारी व्यथा
सुनाई, शायद यह भी बताया कि हम कितने 'पहुँचे' हुए लोग हैं। बेचारी महिला कुछ सहम-सी गई। अपनी टूटी अंग्रेजी में उन्होंने कहा, 'माफ कीजिए, वेटरेस ने कुछ और
समझा होगा!'
'क्या समझा होगा?'
'उसे नहीं मालूम था कि आप विदेशी हैं।'
'क्या हम यूक्रेनियन दिखाई देते हैं?' दिलीप ने कहा।
वह हँसने लगी और साथ में हम भी... 'आप जा कर बैठिए, आपने जो आर्डर दिया था, वही आपको मिल जाएगा।' उसने कहा।
हम वापस अपनी मेज पर लौट आए, कुछ देर बाद हमें सब वही मिल गया, जो हमने मँगवाया था। हम 'गोरों' की गिनती में आ गए थे।
लेकिन ड्रामे का अंतिम सीन अभी बाकी था।
भोजन के बाद हम आराम से कॉफी पीने लगे। इस बीच एवा को याद आया कि उसके कुछ संबंधी कीव में हैं, जिनसे वह फोन पर बात करना चाहती थी। वह होटल के रिसेप्शन-हॉल
में चली गई, जहाँ टेलीफोन-बूथ था। हम कुछ देर तक उसकी प्रतीक्षा करते रहे, जब वह नहीं लौटी तो हमें किसी नई आशंका ने पकड़ लिया - कहीं इस बीच कोई और घटना तो
नहीं हो गई? हम रेस्तराँ के बाहर आए और कुछ बेचैनी से एवा को ढूँढ़ने लगे। अचानक हमने देखा, टेलीफोन के पीछे एवा उसी वेटरेस के पास खड़ी है, जिसके साथ अभी कुछ
देर पहले उसका झगड़ा हुआ था। लेकिन आश्चर्य यह था कि अब एवा नहीं, वह लड़की फोन बूथ पर सिर टिका कर रो रही थी।
हमें देख कर एवा भागती हुई हमारे पास आई। क्या कोई नया झगड़ा हुआ? लेकिन उसकी आँखें खामोश थीं, जैसी कि हर विपत्ति में हमने रूसी आँखों को खामोश पाया था।
'इस लड़की का भाई जाता रहा।' एवा ने धीरे-से कहा।
'लेकिन कुछ देर पहले तक...'
'अभी-अभी मास्को से फोन आया है... वह अफगानिस्तान में था।' हम खड़े रहे, लड़की चुपचाप रो रही थी, सत्य से ज्यादा विचित्र अफवाह और क्या हो सकती है?
कभी-कभी भ्रम होता कि हम मार्क्सवादी देश में नहीं, माया के लीला-जगत में विचर रहे हैं, कौन-सी सीमा पर कल्पना-लोक शुरू होता है, यथार्थ की बाउंडरी खत्म
होती है, कहना असंभव था। यह माया-संसार अनेक स्तरों पर संचारित होता है। एक तरफ पूँजीवादी देशों की घोर-घोर निंदा, दूसरी तरफ इन्हीं देशों की चीजों के लिए
पागल-सी होड़। लेनिनग्राड की सड़कों पर चलते हुए हमेशा कुछ युवक पीछे लग जाते थे, 'क्या आप डॉलर एक्सचेंज करवाएँगे?' साधारण दुकान में चीजें मुश्किल से मिलती
थीं, लेकिन ऐसी दुकानें भी थीं, जिनमें वोदका, चॉकलेट, तरह-तरह की 'शराबें' और फल आसानी से उपलब्ध हो जाते थे - यदि उन्हें खरीदने के लिए डालर हों। समाजवादी
देश में हर जगह रूबल का यथार्थ डालर की माया के आगे नतमस्तक दिखाई देता था... कुछ ऐसा लगता था कि 'समाजवादी यथार्थवाद' का सिक्का सिर्फ साहित्य में ही चलता
है, बाहर की दुनिया में उसका कोई मूल्य नहीं।
लेकिन साहित्य कहीं-न-कहीं मायालोक को उखाड़ देता है - समस्त बंधनों और दबावों के बावजूद - क्या इसीलिए किताबों की दुकानों में इतनी भीड़ दिखाई देती है? लगता
है, हम पुस्तकों की दुकान में नहीं, किसी चलते-फिरते मेले से गुजर रहे हों। इतने पाठक, ज्ञान के जिज्ञासु शायद ही किसी देश में दिखाई दें। यह शायद रूसी
संस्कार हैं, जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी चला आता है, इसीलिए पुराने जमाने में जार जिस तरह लेखकों से भयभीत रहते थे, उसी तरह आज की सोवियत सत्ता कलम के जादू से
संत्रस्त दिखाई देती है। क्या है यह जादू जिसके रहते बावेल और मेंडलश्टॉम को सायबेरिया में मरना पड़ा, बोरिस पास्तरनाक को बरसों चुप्पी में जीना पड़ा,
सोल्जेनित्सिन को जोर-जबरदस्ती देश-निकाला देना पड़ा? क्या किसी रूसी लेखक से मिल कर हम इस रहस्य की थाह पा सकेंगे - कोई भी लेखक नहीं, लेखक संघ के कर्मचारी
या अकादमी के सुविधाजीवी साहित्यकार नहीं - कोई ऐसा लेखक जो सत्ता और सुविधा के घेरे से बाहर - अपने अकेले, निजी यथार्थ में जीता हो? दिलीप ने अपनी डायरी
में एक ऐसे लेनिनग्राड-निवासी कवि का पता नोट कर रखा था, जिनकी कुछ कविताएँ उन्होंने अंग्रेजी अनुवाद में पढ़ी थीं। हमारे सौभाग्य और एवा की मदद से उनका
सुराग पता चलाते देर नहीं लगी और एक शाम वह हमारे होटल में आने के लिए राजी भी हो गए।
उस शाम हमने अपने होटल के कमरे में जो भी चीजें बाजार से हासिल की जा सकती थीं - चीज, सलामी, वाइन - उन सबको मेज पर लगा दिया। प्रकाशनगृहों और लेखक संघ के
औपचारिक वातावरण में अनेक लेखकों से मिलने का मौका मिला था, किंतु अपने 'घर' में चाहे वह होटल क्यों न हो, एक जीते-जागते युवा सोवियत कवि से मिलने का यह
पहला अवसर था। हम सब थोड़ा-बहुत आशंकित और उत्तेजित थे।
वह आए लेकिन अकेले नहीं, एक महिला-मित्र उनके साथ थीं। बातचीत कुछ मुश्किल से शुरू हुई, दिलीप ने उन्हें बताया कि पहली बार उनकी कविताएँ उन्होंने पेंगुइन के
संकलन में पढ़ी थीं। वह यह जानकार काफी खुश हुए कि हिंदुस्तानी लेखक येवतेशेंको और वॉजनेसेंस्की के अलावा भी ऐसे सोवियत कवियों से परिचित हैं, जिन्हें पश्चिम
में ज्यादा लोग नहीं जानते। उन्होंने कुछ अमेरिकी, अंग्रेजी अनुवादकों का नाम बताया, जिनसे मैं और दिलीप ओयोवा में मिले थे। साहित्य का असर रहा हो या शराब
का, कुछ ही देर में बातचीत चल निकली। ज्यादा बातचीत दिलीप कर रहे थे इसलिए मैं ध्यान से रूदिन और उनकी मित्र को देखने लगा।
नहीं, उनका असली नाम रूदिन नहीं था, किंतु वह तुर्गनेव के उपन्यास के एक जीवित पात्र दिखाई देते थे - मृदु, शालीन और शांत। उम्र पैंतालीस-चालीस से ज्यादा
नहीं थी, लेकिन आँखों के नीचे झुर्रियों का जाल था और आँखें, चेहरे की मृदुता को झुठलाती हुई कुछ अजीब ढंग से इंटेंस और ज्वरग्रस्त दिखाई देती थीं। जब वह
बोलते थे या किसी प्रश्न का उत्तर देते थे, तो बार-बार अपने साथ बैठी महिला को देखने लगते थे और वह उन्हें सिर हिला कर प्रोत्साहित करती रहती थी... कुछ देर
में हम यह भी भूल गए थे कि किस भाषा में बातचीत हो रही है, उन्हें शायद थोड़ी-बहुत अंग्रेजी आती थी किंतु कभी-कभी भ्रम होता था कि हम बातें कर रहे हैं और एवा
अनुवाद का काम भूल कर सिर्फ हमें सुन रही है।
बातों में ही पता चला कि उनके तीन कविता-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं, किंतु किसी संग्रह की एक भी प्रति दुकान में उपलब्ध नहीं है।
'क्या कविता-संग्रह इतनी जल्दी बिक जाते हैं?'
'कुछ कवियों के... जिन्हें लोग पढ़ना चाहते हैं, उनकी किताबें आसानी से मिलती नहीं...'
'फिर नया संस्करण नहीं छपता?'
'जल्दी नहीं... वैसे भी छपने में काफी झंझटें पड़ती हैं।'
'कैसी झंझटें?'
वह कुछ सोचने लगे, फिर थोड़ा-सा मुस्कराए, 'बीच में कई मंजिलें पार करनी पड़ती हैं, अगर आप कहीं दुर्भाग्यवश बीच में अटक गए, तो कई वर्ष लग सकते हैं...
सोल्जेनित्सिन और पास्तरनाक ऐसे ही बीच में फँस गए थे और कभी बाहर नहीं निकल सके।'
'लेकिन अगर एडिटर को कविताएँ पसंद हैं, तो क्या बाधा है?'
'सिर्फ एक एडिटर की पसंद-नापसंद काफी नहीं है... हमारे यहाँ पूरी मशीन है, नीचे से ऊपर तक, अगर कविता के एडिटर ने आपकी पुस्तक एप्रूव कर दी तो वह फिर जनरल
एडिटर के पास जाएगी, उसके बाद लेखक संघ के अधिकारी... सबसे अंत में यदि सब कुछ ठीक हो भी जाए तो कोई गारंटी नहीं कि आपकी पुस्तक छप जाएगी... हो सकता है,
सिक्योरिटी पुलिस के अधिकारी उसे पसंद न करें...'
'सिक्योरिटी पुलिस? लेकिन उन्हें कविता के बारे में क्या मालूम?'
रूदिन ने झूठे आश्चर्य से हमें देखा, 'नहीं... नहीं... उन्हें सब कुछ मालूम रहता है।'
'और यदि वह भी पसंद कर लें...'
'तो फिर वह पांडुलिपि मास्को जाएगी, और फिर उसे वही मंजिलें पार करनी होंगी जो उसने यहाँ की हैं।' उनके स्वर में कोई शिकायत नहीं थी, वह जैसे हमें एक ठंडा,
कोरा तथ्य बता रहे हों, जिसके वह मुद्दत से आदी हो चुके थे, किंतु फिर उनके चेहरे की उदास, असामायिक झुर्रियों को देख कर लगा कि कुछ तकलीफें अपना इतिहास
शिकवों में नहीं, आँखों के आसपास अंकित कर जाती हैं!
'हमें बताया गया कि काम्यू और काफ्का की पुस्तकें भी आपके यहाँ प्रकाशित हुई हैं... क्या यह सच है?'
'हाँ, सच है!' पहली बार वह महिला बोलीं और हम कुछ चौंक-से गए। उनकी आवाज ऊँची थी, लेकिन वह मुस्करा रही थीं, 'छपी जरूर हैं, लेकिन मिलती नहीं।'
'कैसे?' मैंने पूछा।
इस बार वह काफी देर तक बोलती रहीं, शुद्ध रूसी में... हमने एवा को देखा, 'वह कह रही है कि कुछ लेखकों को सिर्फ नाम के तौर पर प्रकाशित किया जाता है, किंतु
उनका प्रिंट-आर्डर माँग को देखते हुए बहुत कम होता है। दुकानदार अक्सर ऐसी किताबों को 'दुर्लभ' मान कर अपने सगे-संबंधियों के लिए रख लेते हैं... बाकी
प्रतियाँ छोटे कस्बाती शहरों में भेज दी जाती हैं जहाँ लोगों को ऐसी किताबों में दिलचस्पी नहीं... इसलिए कभी-कभी ऐसी हालत हो जातीं है कि वे किताबें जो
मास्को या लेनिनग्राड की दुकानों में ढूँढ़े नहीं मिलती, वही दूर-दराज के गाँवों में बेकार पड़ी रहती हैं... ऐसा सिर्फ काफ्का या काम्यू की किताबों के साथ
नहीं, अनेक रूसी लेखकों की पुस्तकों के साथ भी होता है... मारिना स्वेतायोवा और मेंडलश्टाम के संकलन प्रकाशित हुए हैं, किंतु उन्हें प्राप्त करना लगभग असंभव
है।
'और वे लेखक जो बाहर चले गए हैं... सोल्जेनित्सिन, बूनिन, रेमीजशेव?'
रूदिन ने हताशा से सिर हिलाया, एक लंबी, थकी-सी साँस ली, 'बाहर जाने से कोई समस्या हल नहीं होती।'
'लेकिन यदि कोई लेखक कुछ भी प्रकाशित न कर सके?'
'तो भी क्या? सोल्जेनित्सिन यहाँ रहते तो ज्यादा असर पड़ सकता था।'
'लेकिन वह अपनी इच्छा से कहाँ गए?'
'उन्हें कोशिश करनी चाहिए थी...'
शायद वह ठीक कहते थे। कौन रूसी लेखक अपने देश को छोड़ कर जाना चाहता है? बोरिस पास्तरनाक ने तो नोबल-पुरस्कार लेना भी अस्वीकार कर दिया था, क्योंकि उन्हें डर
था कि ऐसा करने से उन्हें अपने देश में नहीं रहने दिया जाएगा... कोशिश! लेकिन किस सीमा के बाद हर कोशिश दीवार से सिर फोड़ना नहीं होगा, इसका निर्णय कौन
करेगा?
कुछ देर हम चुपचाप पीते रहे। मुझे लगा, हम कोई सौ साल पहले के रूस में बैठे प्राणी हों, सरदी की ठिठुरती रात में जिंदगी का अर्थ टोहते हुए...
'आप कभी देश के बाहर नहीं गए?' मैंने पूछा।
'नहीं, कभी नहीं।' उन्होंने सिर हिलाया।
'अगर आपको बाहर जाने का मौका मिले तो?'
'नहीं, नहीं...' उनके स्वर में एक गहरा संकल्प था, 'मैं अपने को इस नगर से अलग नहीं देख सकता!'
उनकी सूनी आँखें होटल की खिड़की पर ठहर गईं, परदों के पीछे लेनिनग्राड पर बर्फ गिर रही थी, रात की चिरंतन शांति में चुपचाप। 'एक लेखक की जिंदगी...' उन्होंने
कहा, 'वह और लोगों की तरह है। फर्क सिर्फ इतना है, लोग कुछ और सुनते हैं, वह कुछ और सुनता है...'
वह उठ खड़े हुए, हाथ मिलाया और फिर अचानक कुछ सोच कर हमें बारी-बारी से बाँहों में लपेट लिया।
वे दोनों रात की बर्फ में ओझल हो गए, लेकिन मैं कुछ देर होटल के पोर्च में खड़ा रहा। मुझे वह रात याद हो आई, जब हम मोस्कवा नदी के पीछे गिरजे में गए थे।
लौटते हुए हमें लेनिन हिल दिखाई दी जहाँ बर्फ से ढली ढलान नीचे चली गई थी। एवा ने हमें बताया कि इसी हिल को देख कर चेखव ने वह स्मरणीय कहानी लिखी थी... एक
लड़की अपने मित्र के साथ उस ढलान पर स्की करने आती थी, लड़का हमेशा चुप रहता था, लेकिन जब वे दोनों तेजी से स्कीस पर नीचे उतरते थे तो लड़की को सरसराती हवा में
एक आवाज सुनाई देती थी, 'मैं तुमसे प्रेम करता हूँ' - लेकिन नीचे उतर कर उसे पता नहीं चलता था कि ये शब्द नीचे उतरते हुए लड़के ने उससे कहे हैं या यह महज
उसके दिल का भ्रम है, जो सरसराती हवा में गूँजता है...
क्या एक क्रांति की ट्रेजडी भी यह नहीं है, लोग कुछ और चाहते हैं इतिहास कुछ और कहता है, हम कुछ और सुनते हैं?
क्यों भारतीय संस्कृति को जीवित रखना जरूरी है
देश-विभाजन के समय जो हिंदू-मुस्लिम दंगे हुए थे, उनकी जड़ में पाकिस्तान की स्थापना थी, वह सिर्फ भूगोल का बँटवारा नहीं था, बल्कि एक ऐसी परंपरागत जीवन-शैली
का कृतिम और अस्वाभाविक बँटवारा था, जिसके घातक परिणामों की परिकल्पना सिवाय गांधी जी को छोड़ कर न कांग्रेस, न मुस्लिम लीग के नेता, न शायद अंग्रेजी सरकार
कर सकती थी। वे दंगे एक अस्वाभाविक और अनैतिक प्रक्रिया के स्वाभाविक और अनिवार्य परिणाम थे। इतिहास में जब कोई प्रक्रिया अस्वाभाविक होती है, तो स्पष्ट ही
उसके पीछे ऐसी शक्तियों का निहित स्वार्थ रहता है, जो मनुष्य को उसके सहज स्वभाव से हटा कर, स्खलित कर एक बाहरी छद्म लक्ष्य की ओर आकृष्ट करे - इस लक्ष्य को
एक जाति का 'आदर्श' बना कर प्रस्तुत कर सके। हिटलर के लिए यह 'लक्ष्य' जर्मनी से यहूदियों का सफाया करना था; मुहम्मद अली जिन्ना के लिए यही लक्ष्य पाकिस्तान
के 'आदर्श' में निहित था। इस कृतिम आदर्श को सच बनाने का सिर्फ एक ही उपाय है - मनुष्य में जो स्वाभाविक रूप से सच है - प्रेम, आत्मीयता, वफादारी का भाव -
उसे किसी भी तरीके से कृत्रिम और झूठा बनाया जा सके। इसके लिए सबसे सक्षम -और सबसे आदिम, प्रिमिटिव-शस्त्र है, मनुष्य के सहज, स्वभावगत लगावों और निष्ठाओं
को शोषित और भ्रष्ट करना। फासीवाद जिस तरह एक व्यक्ति की सहज राष्ट्रीय भावना का भ्रष्ट रूप है, वैसे ही सांप्रदायिकता मनुष्य की सहज धार्मिक भावना का विकृत
और विद्रूप संस्करण। जिस तरह हर झूठ को विश्वसनीय बनाने के लिए उसमें सत्य का एक अंश मिलना जरूरी होता है, उसी तरह फासीवाद को सच बनाने के लिए राष्ट्रीयता
का तत्व, कम्युनिज्म की बर्बरता को विश्वसनीय बनाने के लिए मानवीय समता का स्वप्न और हमारे देश में सांप्रदायिकता को कारगर बनाने के लिए धर्म की परंपरागत
भावना का बराबर दुरुपयोग और शोषण होता रहा है। यह इसलिए जरूरी है, क्योंकि इसके बिना मनुष्य को अपने स्वभाव के विरुद्ध यहूदियों, हिंदुओं, सिखों और
मुसलमानों को मारने, लूटने, उन्मूलित करने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता। इसीलिए भिंडराँवाले के लिए यह जरूरी था कि वह अपनी सांप्रदायिक घृणा को
स्वर्णमंदिर की पवित्र आड़ में प्रतिपादित कर सके - स्वर्णमंदिर, जो हमारी उच्चतम धार्मिक भावनाओं का प्रतीक है। सत्य को प्रचारित करने के लिए कभी झूठ का
सहारा नहीं लेना पड़ता, किंतु झूठ अपने को विश्वसनीय बनाने के लिए हमेशा सत्य का आश्रय ढूँढ़ता है।
जब तक हम आधुनिक युग की 'झूठे सच' की अद्भुत जादुई तर्कप्रणाली को नहीं समझेंगे, तब तक पिछले दो वर्षों में पंजाब में जो हत्याकांड हुए और हाल में दिल्ली
में जो वीभत्स शर्मनाक घटनाएँ हुईं, उनका रहस्य नहीं जान पाएँगे।
हिंदुस्तान में धर्मावलंबन है, जो सहज रूप से लोगों की जीवन-मर्यादा में रसा - बसा है। हमें उसे छद्म, सांप्रदायिकता से अलग करना होगा, जो असहज है और बाहर
से आरोपित की जाती है। इस दृष्टि से भारतीय चरित्र के लिए 'धर्मनिरपेक्षता' या 'सेक्युलरिज्म' भी असहज और आरोपित है। यह बात विरोधाभास जान पड़े - किंतु सच है
- कि एक धर्मावलंबी भारतीय के लिए धर्म को संप्रदाय में संकुचित करना उतना ही अस्वाभाविक है, जितना धर्म के प्रति निरपेक्ष रहना; सांप्रदायिकता और
सेक्युलरिज्म दोनों ही सहज धार्मिक मर्यादा के अपदस्थ और अवमूल्यित रूप हैं, जिनका भारतीय संस्कृति की धार्मिक मनीषा से कोई संबंध नहीं। यदि हमारे देश के
हिंदू इस मनीषा के अधिक निकट रहे हैं, तो इसलिए कि उन पर कभी ईसाइयों, सिखों और मुसलमानों की तरह किसी विशिष्ट धर्म-प्रतिष्ठान का प्रभुत्व नहीं रहा। किंतु
दूसरा बड़ा कारण यह भी रहा है कि पिछले सौ-डेढ़ सौ वर्षों के दौरान रामकृष्ण परमहंस, विवेकानंद और गांधी जी ने हिंदू धर्म को आत्मतुष्ट संकीर्णता से उबार कर
एक वृहत्तर भारतीय संस्कृति से जुड़ने के लिए उत्प्रेरित किया।
आज सिख और मुसलमान - हिंदुओं की अपेक्षा - अपने धर्म के प्रति कहीं ज्यादा सचेत और संवेदनशील हैं, किंतु दूसरी तरफ भारतीय संस्कृति की एकता को भारत देश की
भौगोलिक अखंडता से जोड़ने के लिए एक हिंदू उनसे कहीं अधिक सतर्क और चिंतित दिखाई देता है। जब एक सिख या मुसलमान अपने उदात्त धार्मिक-भाईचारे के आदर्श से
स्खलित होता है, तो उसका सहज रुझान प्रतिष्ठानगत संकीर्णता की ओर होता है, जब एक हिंदू अपनी समग्र धार्मिक सांस्कृतिक चेतना से नीचे गिरता है, तो
संप्रदायवादी होने के बजाय वह केवल 'आत्मरिक्त' हो पाता है, क्योंकि उसका धर्म उसके 'आत्मन' में ही निहित है - बाहर किसी धर्म-प्रतिष्ठान में नहीं। जो चीज
हिंदुओं को संस्कृति के क्षेत्र में उदार बनाती है, वही चीज उन्हें कभी-कभी दूसरे धर्मों के प्रति उदासीन भी, जो चीज सिखों को प्रतिष्ठान-केंद्रित होने के
नाते सहज रूप से धर्मावलंबी बनाती है, वही उन्हें दर्प और अभिमान के क्षणों में कभी-कभी भारतीय संस्कृति की समग्रता के प्रति पराया बनाती है, जिसके बीच उनका
जन्म हुआ है। स्वर्णमंदिर में भारतीय सेना के प्रवेश के औचित्य या अनौचित्य पर यहाँ बहस करता अप्रासंगिक है, किंतु एक साधारण सिख के हृदय में उसके कारण जो
क्लेश हुआ, मुझे नहीं लगता, किसी हिंदू को उतना क्लेश होता, यदि उसके मंदिर में इस तरह की कोई सैनिक कार्रवाई की जाती। किंतु यह भी सच है कि शायद ही कोई
हिंदू अपने धार्मिक स्थान का चुपचाप राजनीतिक रूप से दुरुपयोग होते देखता, जैसा कि अधिकांश सिखों ने अपने गुरुद्वारों का होने दिया।
पंजाब में भिंडराँवाले और उसके गुट की सबसे बड़ी असफलता यही थी कि वे अपनी आतंकवादी कार्रवाइयों के बावजूद सिखों को अपने धर्म के उदात्त आदर्शों से स्खलित
नहीं कर पाए। यही कारण है कि समस्त धमकियों और प्रलोभन के बावजूद पंजाब में हिंदू-सिख दंगे नहीं हो सके। दंगों के पीछे हमेशा दो भावनाएँ एक साथ रहती हैं,
दूसरों से भय और भय से उपजी घृणा। पंजाब में घृणा का पूरा अभाव था और यदि भय था तो सिखों और हिंदुओं के बीच पारस्परिक भय नहीं, बल्कि दोनों का भिंडराँवाले
और उनके मुट्ठी-भर आतंकवादियों से भय। अंत में यह भय ही विनाशकारी सिद्ध हुआ। यदि हिंदू और सिख दोनों ही अपने भय पर विजय प्राप्त कर एक निडर, निर्भीक नीति
अपना पाते, तो न आतंकवादी धर्म की किलेबंदी के भीतर अपने को अपराजेय मानते, न ही अकाली दल और दिल्ली की शासन सत्ता इस भय को आधार बना कर अपनी सत्ता की शतरंज
खेल पाते।
हम अक्सर अल्पसंख्यक या बहुसंख्यक सांप्रदायिकता की बात करते हैं। मुझे यह बात ही सारहीन लगती है। प्रश्न संप्रदायों की छोटी-बड़ी संख्या का नहीं, बल्कि
छोटे-बड़े संप्रदायों से मिली एक ऐसी धर्मसंपन्न संस्कृति का है, जिसमें सिख, हिंदू, मुसलमान ही नहीं, हजारों-लाखों आदिवासी भी रहते हैं। ये सब संप्रदाय और
जातियाँ हजारों वर्षों से एक विशिष्ट भौगोलिक परिवेश में रहते आए हैं; सिर्फ रहते नहीं आए - बल्कि इन्होंने एक-दूसरे के जातीय, धार्मिक और सामाजिक चरित्र को
लेन-देन के सहिष्णु व्यवहार से अद्भुत रूप से समृद्ध बनाया है। यदि भारत की भौगोलिक अखंडता के प्रति मेरा इतना गहरा लगाव है, जो वह महज देशभक्ति या
राष्ट्रीय भावना के कारण नहीं, बल्कि इसलिए कि बिना इस भौगोलिक परिवेश के यह बहुजातीय विविधधर्मा संस्कृति असंभव होती, जिसे हम 'भारत' का नाम देते हैं। आज
जब दूसरे देशों में धर्म के 'फंडामेंटलिज्म' के जोश में एक इस्लामी देश ईरान में मुसलमानों का ही संहार होता है, कम्युनिस्ट देशों में केंद्रीय सत्ता
छोटे-छोटे राष्ट्रों की संस्कृति और भाषा को नष्ट करती है, पश्चिमी देशों ने जहाँ उन्नीसवीं शताब्दी में अफ्रीकी, एशियाई संस्कृतियों को भ्रष्ट किया है -
वहाँ आज भी एक 'पिछड़ा हुआ देश' है, जिसके भौगोलिक परिवेश में अनेक धर्मावलंबी, आदिवासी, संप्रदाय और भाषाएँ एक साथ जीवित रह सकती हैं - मेरे लिए यह एक अनमोल
और मूल्यवान सत्य है। चूँकि इस परिवेश में हिंदू बहुसंख्यक हैं, तो क्या इस सत्य की रक्षा करना केवल हिंदुओं का कर्तव्य है? यह प्रश्न हर अल्पसंख्यक जाति को
अपने से पूछना होगा। किंतु एक-दूसरा प्रश्न भी है - इन अल्पसंख्यक जातियों को यदि इस देश में तनिक मात्र भी भय या अवमानना या अपमान या अपनी जातीय अस्मिता के
नष्ट होने का खतरा उत्पन्न हो जाता है, तो क्या इस भौगोलिक परिवेश की सांस्कृतिक पवित्रता बची रहेगी? और इस प्रश्न का उत्तर हर हिंदू को देना होगा।
ऊपर मैंने हिंदुओं की आत्मरिक्ति की बात कही है। यह स्थिति है, जब मनुष्य धार्मिक आस्था की बात तो दूर, किसी भी मर्मशील, जीवनदायी प्राणदान मूल्य से खाली हो
जाता है। एक सांप्रदायिक व्यक्ति में धार्मिक आस्था फिर भी मौजूद रहती है, चाहे अपने भ्रष्ट, संकीर्ण, विकृत रूप से ही सही, किंतु एक आस्थाहीन व्यक्ति के
लिए 'असांप्रदायिक' बनना बहुत आसान है, क्योंकि उसमें धार्मिकता का यह भरा-पूरा मानसिक परिवेश ही गायब है, जो बुरे क्षणों में सांप्रदायिकता को जन्म देता
है। इसलिए जब उत्तरी भारत का कोई मध्यवर्गीय हिंदू अपने को सिखों या मुसलमानों की अपेक्षा अधिक धर्मनिरपेक्ष कहता है, तो इसलिए कि उसने जीवन में धर्म के
मूल्य और गरिमा को जाना ही नहीं - वह असल में धर्मनिरपेक्ष नहीं, उन सब मानवीय, आस्थावान, जीवनदायी मूल्यों के प्रति निरपेक्ष है, जिनसे धार्मिक आस्था बनती
है। जिस तरह धर्म का निकृष्ट रूप संकीर्ण सांप्रदायिकता है, उसी तरह धर्मनिरपेक्षता का विकृत रूप है - सनकी, स्वार्थपरक मूल्यहीनता। पिछले तीस वर्षों में
भारत में जिस भौतिक, परजीवी, आधुनिक जीवनशैली का विकास हुआ है, उसी के भीतर सांप्रदायिक असहिष्णुता और धर्मनिरपेक्षी भौतिकता के विषैले तत्व जन्मे और पनपे
हैं।
क्या दोनों के सचित्र प्रमाण हमें पंजाब की हत्याओं और दिल्ली के दंगों में नहीं दिखाई देते? विभाजन के समय जो हिंदू-मुस्लिम मारकाट हुई थी, उनके पीछे एक
ठोस ऐतिहासिक पीठिका थी। वे एक भयानक राष्ट्रीय ट्रेजडी के परिणाम थे। हिंसा तब भी थी, तब भी वह अक्षम्य थी, किंतु उस हिंसा के पीछे गहरी, घायल, आहत,
प्रतिहिंसात्मक भावनाएँ थीं - मानवीय भावनाएँ अमानवीय कृत्यों को जन्म देती हुई - घृणा, प्रतिहिंसा, आक्रोश, अंधी पीड़ा, बदला लेने की संहारात्मक इच्छा - ये
भावनाएँ गलत, अनुचित, अनैतिक होते हुए भी 'मानवीय' थीं, क्योंकि उनके पीछे लाखों लोगों की व्यक्तिगत जातीय ट्रेजडी दबी थी। वह सांप्रदायिकता गलत होते हुए भी
खून और दिल और दुख से उत्पन्न हुई थी।
पंजाब में निहत्थे निर्दोष हिंदुओं और निरंकारियों की हत्याओं के पीछे कौन-सी पीड़ा, कौन-सा नर-संहार, ट्रेजडी छिपी थी? ये हत्याएँ सांप्रदायिक भी नहीं कहीं
जा सकतीं, क्योंकि इनमें धर्म की विकृत भावना नहीं, लोलुप सत्ता की सेक्युलर महत्वाकांक्षा थी। खालिस्तान की माँग और आतंकवादी हत्याएँ धर्म की भावना से
बिलकुल शून्य थीं, धर्म के नाम पर वे स्वार्थपरक सत्ता की गुलामी करती थीं। सत्ता की सहायक आधुनिक टेक्नोलॉजी होती है, मोटरसाइकिलों पर बैठकर बंदूकों से
गोली चलाना, आतंकवादियों ने यह विधि सिख धर्म ग्रंथों से नहीं, आधुनिक यूरोप की विकसित और आक्रामक टेक्नोलॉजी से प्राप्त की थी... न निहत्थों पर गोली चलाना
वीरता की निशानी थी, न हत्या करके गुरुद्वारों में छिप जाना किसी साहस का सबूत; इन जघन्य और कायर कार्रवाइयों की अंतिम परिणति इंदिरा गांधी की नृशंस हत्या
में हुई; यह हत्या प्रधानमंत्री के सिख अंगरक्षकों द्वारा हुई, जिन पर वह विश्वास करती थीं। इतिहास की विडंबना देखिए, दो शताब्दियों पहले गुरु गोविंदसिंह की
क्रूर हत्या एक ऐसे मुसलमान ने की थी, जिन पर वह भी विश्वास करते थे। मैं बरसों से इंदिरा गांधी की नीतियों से असहमत रहा हूँ, किंतु जिस स्थिति में उनकी
हत्या हुई, उसके भीषण परिणामों की कल्पना करना असंभव है।
एक भीषण परिणाम हमने हाल में देखा - दिल्ली के दंगों में। दिल्ली के दंगे हिंदुओं के आक्रोश की ही अभिव्यक्ति होते, तो भी उन्हें समझा जा सकता था। किंतु
इंदिरा गांधी की दुखद हत्या का फायदा उठा कर जिस पैमाने पर सिखों की दुकानों, मकानों को जलाया गया, उनके कारखानों को लूटा गया, वह उस भौतिक लिप्सा, मानसिक
छिछोरेपन और हिंदुओं की गहरी आत्मरिक्ति का जीता-जागता प्रमाण है, जिसका जिक्र मैंने ऊपर किया था। यदि पंजाब में हिंदुओं की हत्याओं के पीछे धार्मिक शून्यता
और कायरता थी, तो दिल्ली के दंगे हिंदुओं की उस 'धर्मनिरपेक्ष' और आक्रामक मानसिकता की निशानी थे, जो न इंदिरा गांधी के प्रति प्रेम, न अपने देश की संस्कृति
की अखंडता को बचाने की चिंता से उत्पन्न हुए थे। निहत्थे सिख भाइयों को मारना, गुरुद्वारों को जलाना, दुकानों का माल लूट कर अपने घर ले जाना - ये आज के
दंगों के नए, लिप्सा-लोलुप बर्बरता के भौतिक आयाम हैं, जिनका धर्म, देश और संस्कृति से कुछ लेना-देना नहीं।
किंतु हिंसा और कायरता के पाँव नहीं होते, इन दंगों को भी आसानी से रोका जा सकता था, यदि पुलिस और प्रशासन के अधिकारी अपनी अक्षम्य निष्क्रियता का परिचय न
देते।
आज हमारे चारों और शून्य है। कुछ ऐसा लगता है कि जो शून्य हम अपने भीतर बरसों से छिपाते आए थे, वह आज हमसे बाहर छिटक कर चारों तरफ हवा में, सड़कों पर,
एक-दूसरे के रिश्तों में आ कर बस गया है। पंजाब में अलगाव और असहिष्णुता की भावनाएँ, इंदिरा गांधी की हत्या, दिल्ली के दंगे - ये भी शून्य को भरने के रास्ते
हैं, ऐसे रास्ते, जो एक दिन भारतीय समाज और संस्कृति, उसके समूचे भौगोलिक परिवेश को खंडित और विश्रृंखलित कर देंगे। पिछले हजारों वर्षों के दौरान अनेक धर्म,
जातियाँ और संस्कृतियाँ नष्ट हुई हैं - यदि भारतीय संस्कृति को अपनी वर्तमान आत्मशून्यता के कारण मरना ही है, तो क्या उसे बचाना जरूरी है? इस प्रश्न का
उत्तर इस देश के हर नागरिक, धर्मावलंबी और निवासी को देना होगा। यदि उत्तर देते समय उन्हें एक क्षण के लिए भी यह लगता हो कि कृष्ण, बुद्ध, नानक, कबीर,
परमहंस और गांधी की इस संस्कृति में सचमुच कुछ ऐसा है, जो अनमोल है, दुनिया में अन्यत्र कहीं दुर्लभ है, जो हजारों वर्ष पुरानी - किंतु हमेशा
शाश्वत-अंतर्दृष्टियों की वाहक है, तो उसे अक्षुण्ण और अखंडित रखने का कर्तव्य हर उस भारतीय का हो जाता है, जो अपने व्यक्तित्व और धर्म की नियति इस देश के
साथ जुड़ा देता है। आत्मशून्य को भरने का यह भी एक रास्ता है। क्या आज संकट की इस घड़ी में हम इसे वरण करने का साहस जुटा पाएँगे? क्या हम अपने शासक,
सत्ताधारियों और विपक्षी दलों को यह सोचने पर मजबूर करेंगे कि इस रास्ते के अलावा आज बाकी सब रास्ते आत्मघात की ओर जाते हैं?
एक पुरानी कहानी याद आती है - एक शिशु और दो झगड़ती माँओं की कहानी, दोनों को यह दावा है कि वह ही शिशु की असली माँ हैं। सम्राट सोलोमन का फैसला यह है कि
शिशु को दो हिस्सों में काट कर दोनों को ही बाँट दिया जाए। आज देखना है कि फैसले के विरोध में असली माँ की पीड़ा किसकी आत्मा से बाहर निकलती है - सिख, हिंदू
या मुसलमान की आत्मा से या वह प्रेम और पीड़ा में घुली-मिली सचमुच एक सामूहिक चीख होगी, जिसमें असली या नकली का भेद करना असंभव होगा?
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