हिंदी का रचना संसार

मुखपृष्ठ | उपन्यास | कहानी | कविता | नाटक | आलोचना | विविध | भक्ति काल | हिंदुस्तानी की परंपरा | विभाजन की कहानियाँ | समग्र-संचयन | अनुवाद | ई-पुस्तकें | ऑडियो/वीडियो | छवि संग्रह | हमारे रचनाकार | संग्रहालय | खोज | संपर्क

निबंध


कुब्जा सुंदरी
कुबेरनाथ राय

Kubernath Rai  कुबेरनाथ राय
कुबेरनाथ राय
हिंदीसमयडॉटकॉम पर उपलब्ध

निबंध

कुब्जा सुंदरी
सनातन नदी : अनाम धीवर


जन्म

:

26 मार्च 1933, गाजीपुर, उत्तर प्रदेश

भाषा : हिंदी
विधाएँ : निबंध, कविता
प्रमुख कृतियाँ : निबंध संग्रह : प्रिया नीलकंठी, गंधमादन, रस आखेटक, विषाद योग, निषाद बाँसुरी, पर्ण मुकुट, महाकवि की तर्जनी, कामधेनु, मराल, अगम की नाव, रामायण महातीर्थम, चिन्मय भारत : आर्ष चिंतन के बुनियादी सूत्र, किरात नदी में चंद्रमधु, दृष्टि अभिसार, वाणी का क्षीरसागर, उत्तरकुरु
कविता संग्रह : कंठमणि
 
सम्मान   मूर्तिदेवी पुरस्कार
निधन   5 जून 1996

भगवान् बुद्ध जब तरुण थे, जब उनकी तरुण प्रज्ञा काम, क्रोध, मोह के प्रति निरन्तर खड्गहस्त थी, तो उन्होंने उरुवेला में शिष्यों को पावक-दीप्त उपदेश दिया था, 'भिक्षुओ, आँखें जल रही हैं, यह सारा दृश्यमान जगत जल रहा है, देवलोक जल रहा है, यह जन्मान्तर प्रवाह जल रहा है। भिक्षुओ, यह कौन-सी सर्वभक्षी आग है ? यह कौन-सी स्वाहामयी लपट है ? यह आग रूप की है। भिक्षुओं, सावधान, यह रूप की लपटे हैं।' परन्तु जैसे-जैसे समय बीतता गया, बुद्ध की प्रज्ञा प्रखर और अनुभव-समृद्ध होती गयी और अन्तिम काल में उन्होंने अनुभव किया कि यह दृश्यमान जगत्, यह रूपमय जगत्, यह भवसरिता एकदम तिरस्कार की वस्तु नहीं । यह जगत सुन्दर है, क्योंकि हमें अवसर देता है महाकरुणा की अभिव्यक्ति के लिए । यदि यह दृश्यमान, रूपमय जगत न रहे तो हमारी महाकरुणा किसके उद्धार के लिए सक्रिय होगी ? स्वयं-केन्द्रित अपना निजी निर्वाण पाकर हमारा धर्म शान्त हो जाएगा, उसकी उदारभूमि महाकरुणा एक सम्भावना मात्र रहेगी, वास्तविकता नहीं । महाकरुणा को सम्भावना से वास्तविकता के स्तर तक लाने का माध्यम है यह दुःखपीडित दृश्यमान जीव-जगत । अतः यह रूपमय, रसमय, गन्धमय, शब्दमय जगत की जन्म-मरण-सरिता कम सुन्दर नहीं । लगता है यह बोध पाकर ही बुद्ध के मन के जम्बूद्वीप के प्रति एक विशेष मोह पैदा हुआ था। उन्होंने अन्तिम बार वैशाली से प्रयाण करते हुए नगर से बाहर आकर वैशाली के भवन, शिखरों और श्याम हरित उद्यानों पर पीछे घूमकर एक स्नेह दृष्टि डाली थी और कहा था, 'आनन्द, अब हम फिर वैशाली को नहीं देख पाएँगे !' यही नहीं, कुछ देर मौन के बाद उन्होंने कहा था, 'चित्र...यम् जम्बूद्वीपम् । मनोरम जीवितं मनुष्याणाम् ।' -यह जम्बूद्वीप क्या ही चित्र-विचित्र,रंग-बिरंग है ! और, मनुष्य का जीवन कितना मनोरम है । प्रयाणवेला से कुछ दिन पूर्व बुद्ध की पकी हुई प्रज्ञा बोल रही है, 'मनोरम जीवितं मनुष्याणाम् !'

बौद्ध ग्रन्थों में बुद्ध को जिन उपाधियों से अभिषिक्त किया है उनमें दो विशेष रूप से आकर्षित करती हैं । वे हैं महाधीवर और महाभिषज । विश्व दुखी है, सृष्टि बीमार है, सभी कामना के ज्वर से पीड़ित हैं, अतः भगवान् का अवतरण भिषज या वैद्यरूप में हुआ है। 'दुःख का करके सत्यनिदान, प्राणियों का करने उद्धार'! यही तथागत के आरण्यक-संवाद का उद्देश्य है । बुद्ध सहजता और आरोग्य के महास्रोत हैं। स्मरण रहे कि भिषज की भूमिका ही वैष्णव भूमिका होती है, इसी से मुक्तिदाता विष्णु की भी एक उपाधि हैभिषज् । पर बीज रूप में यह उपाधि बौद्धभूमि में पहले-पहल बोयी गयी । इसी उद्धारक शक्ति को महाकरुणा कहा गया ।

दूसरी ओर बुद्ध महाधीवर हैं और आवागमन भवसरिता में, जन्म-मरण की नदी में कामना के मीनों को प्रज्ञा के जाल में फँसाते हैं और मत्स्य-आखेट करते हैं । ये कामना के जलचर इस नदी के जल को अपावन, मलिन और अशुद्ध कर रहे हैं । अतः बुद्ध एक धीवर हैं, जो निरन्तर अखण्ड सत्स्य-आखेट कर रहे हैं । अन्यथा ये मीन प्रज्ञावारि को गन्दा जल बना डालेंगे; बोधि विकारग्रस्त रहा, बुद्धत्व क्षीण-दुर्बल रहा, तो बुद्ध औरों के उद्धार के लिए महाभिषज बनकर कौन-सी करुणा बाँटने में समर्थ हो सकेंगे ? अतः उनके महाभिषज्तव की सार्थकता के लिए यह धीवर रूप एक अनिवार्य आवश्यकता है । बुद्ध नदी के शत्रु नहीं; नदी ही तो उनकी महाकरुणा का कर्मक्षेत्र होगी। नदी जल तो मूलतः पावन है। उसे अपावन किये हुए हैं भिन्न-भिन्न जलचर, मीन-मकर, नक्र-झख, शम्बूक-शैवाल आदि । ये सभी काम या मार के विविध चेहरे हैं, जिन्हें काम, क्रोध, लोभ आदि नामों से पुकारते हैं । बुद्ध मार के इन्हीं प्रतिरूपों का, इच्छाओं की मछलियों का शिकार करने में संलग्न हैं, जिससे नदी-जल निर्मल-प्रसन्न एवं विशुद्ध बना रहे । अन्यथा महाकरुणा का वृन्दावन स्थाणुओं का कंकाल-वन बन जाएगा। इस प्रकार देखते हैं कि महाधीवर और महाभिषज परस्पर-पूरक हैं । 'बुद्ध-हृदय' एक अद्भुत भाव-प्रत्यय है। बुद्ध हृदय में निहित है बोधिचक्र और बोधतक्र की नाभि है महाकरुणा । कालान्तर में 'बोधि' का वरण शंकराचार्य ने किया और 'महाकरुणा' का वैष्णवों ने । निर्मल-प्रसन्न भवसरिता का वरण, मनुष्य जीवन का वरण, 'चित्रमय', रूपमय सृष्टि का वरण ही बोधिसत्त्व के जन्मान्तर-लीला की नाभि है। महायान इसी अनुभव की सन्तान है।

तो, बुद्ध महाभिषज और महाधीवर दोनों थे। मैं भी तो एक धीवर हूँ, कामरूपी मायावी धीवर ! इस चित्रमय जम्बूद्वीप की अति सज्जित चित्र-विचित्र चित्रशाला कामरूप के हृदय में प्रविष्ट हो गया हूँ और रात-दिन जाल लगाये मछलियों की घात में बैठा रहता हूँ । अतः बुद्ध जैसे विराट प्रतीक को अपना सहधर्मी एवं सहपांक्तेय पाकर मुझे गर्व हो आता है। कहाँ वे प्रतापी शाक्यों के राजकुमार और कहाँ मैं कामरूपी कैवर्त ! पर यह मत्स्य-आखेट की गुणमयी बंसी हम दोनों को एक बादरायण सम्बन्ध में जोड़ देती है। हमारे और बुद्ध के आखेट स्वभाव में परस्पर-विरोधी है। बुद्ध का आखेट कामना का आखेट है और मेरा आखेट रस-आखेट है। बुद्ध कामना की मछलियों का शिकार करते हैं प्रज्ञावारि के शोधन के लिए, और मैं रूप-रस की मछलियों का शिकार करता हूँ आस्वादन के लिए । मेरे पास बुद्ध का अष्टांग मार्ग, आर्यसत्य चतुष्टय और द्वादशांग प्रतीत्य समुत्पाद से बना चौबीस तन्तुओं का जाल कहाँ से आये ? अपने हाथ में तो बस गुणमयी बंसी है, बाँस की एक छड़ी में एक गुण अर्थात डोरी, जिसमें एक काँटा लगा है और गाँटे में चारा फँसा है। इसी कँटीली गुणमयी चटुल के द्वारा कभी सवेरे, कभी शाम, कभी दोपहर, कभी पहर रात गये नदी की चंचलधार में तटभूमि पर बैठा-बैठा, मागुर-रोहित, बामी-बराली, रूपसी-पियासी आदि मछलियों का आखेट करता हूँ । जो संन्यासी के लिए कर्दम है, वह मेर लिए स्वादिष्ट है। मेरी निर्दय धूर्त बंसी निर्मम ममता से रूपमयी मछलियों को खींच लाती है । वैराग्य और ममता दोनों में निर्मल हुए बिना सिद्धि नहीं मिलती ।

मुझे याद आती है माघ की ठिठुरती सुबह, जब मैं अपनी स्थानीय नदी 'पगला दै' अर्थात 'पगला दह' के धूम्र-धुन्ध कगार पर खड़ा कहता हूँ, ठण्ड से फूटती उँगलियों से काँटे में चारा लगाता हूँ और सतह को चीरता गाँटा पाली के भीतर प्रवेश कर जाता है। साथ ही, सतह पर चक्राकार गुदगुदी फूटती दिखाई पड़ती है, गोया कुहासे की मोटी रजाई में दुबककर सोयी नदी की पतली अचंचल धार को इस भिनुसारे मैं अपनी शय्या त्याग, उसका केश सहलाकर नहीं, जगह-बेजगह चिकोटी काटकर जगा रहा हूँ । तब लगता है, नदी कुनमुनाती है और निद्रा से भीरी फूली हुई सुन्दर पलकें खोलकर मेरी ओर मुग्धा-रोष से देखती है। उधर मेरी लोभी लालची बंसी इसकी देह में बिहार करती है और लुब्धक की तरह मछलियों को फँसाने में तत्पर है। आज मेरी बारी है। आज मैं कुहासे की रूईदार रजाई ओढ़े पतली सुप्तधार नदी को चिकोटी काटकर जगा रहा हूँ । पर कभी वह दिन भी आता है जब मैं इसके रुद्र रूप को देख-देख भयकम्पित गात से थर-थर काँपता हूँ । माघ की सुबह, फाल्गुन की शाम और चैत्र की राका रात्रि में इस नदी का चेहरा बड़ा नरम, बड़ा मोहक लगता है। यह सब कैशिकी वृत्ति में रहती है। पर मुझे याद आती है इस कामरूपिणी की आरभटी मुखाकृति, जब बरसात में यह उमड़ती है और अपने यौवन-ज्वार में चार घण्टे-छह घण्टे के भीतर तालुका-तहसील, गाँव-घर, ताल-तलैया एक करती प्रलय मचा देती है। कितनी हरीतिमा का भक्षण कर डालती है, कितने जीवों की जान ले बैठती है ! इसी से इसका नाम है 'पगला दै' अर्थात उन्मादिनी नदी । यौनवकाल ही ऐसा है। इसमें देह और मन किनारा तोड़कर रोधहीन बहने लगते हैं । विधि-निषेध से शीलवृत देह के भीतर भी रेखाएँ संकेतमय हो उठती हैं । जब धीरा नायिका गंगा में यौवनज्वार आकर उसे वन्या बना जाता है, तो यह तो मनु-स्मृति के साम्राज्य से बाहर किरातसंस्कृति के देश कामरूप की नदी है । मुझे इस नदी के किस्म-किस्म के चेहरे याद आते हैं। पान, घोड़ा और मन तीनों को समय-समय पर फेरना चाहिए, अन्यथा वे एकरस होकर सड़ने लगते हैं । मेरे पास मन फेरने यानी मन का स्वाद बदलने का सर्वाधिक सुलभ साधन है यह कामरूपिणी नदी । इसी से मैं इसके तट पर बार-बार आता हूँ सुबह-शाम या 'पूर्णिमा-निशीथे दशदिशा परिपूर्ण हासि' के क्षणों में कभी बंसी के साथ, तो कभी रिक्तहस्त । अकसर अकेले-अकेले आता हूँ । रोज-रोज नहीं, समय-समय पर । रोज-रोज आने पर तो यह 'कार्य' हो जाएगा, 'अभिसार' नहीं रहेगा । यहाँ दुलकेले आने का सवाल नहीं उठता । उस दूसरे को कैसे कहूँगा कि यह नदी नहीं, मेरी द्वितीया है, मेरी मध्यमा है। यह भी क्या विज्ञापित करने की चीज है !

और वह दूसरा बन्धु मेरे अभिसार की बात जानते हुए परिवेश को अपनी अखबारी चर्चा द्वारा शरविद्ध करता रहेगा और मैं 'बोर' होकर अपनी गुणमयी बंसी या सुरमयी बंसी को एक ओर रख दूँगा और मैत्री की यन्त्रणा का भोग करूँगा । मेरा मित्र समझता है कि संविधान ने उसे मुझे अखबारी चर्चा द्वारा 'बोर' करने का जन्मसिद्ध अधिकार दिया है । बात भी कुछ ऐसी ही है। संविधान बनानेवालों ने 'जीभ' की स्वतन्त्रता का बड़ा ध्यान रखा है । पर मनुष्य के दूसरे मौलिक अधिकार 'कान' की स्वतन्त्रता के बारे में चुप हैं । शोरगुल और जयजयकार की राजनीति में दीक्षित उन महापुरुषों को यह खयाल भी नहीं आया कि किसी नागरिक को 'बोर' करने का अधिकार अन्य नागरिक को नहीं । अतः मेरे मित्र संविधान-प्रदत्त बल द्वारा मेरे शीश के उपर ज्ञान का श्रीफल फोड़-फोड़कर खाएँगे और मैं खोपड़ी सहलाता रहूँगा

 

मुखपृष्ठ | उपन्यास | कहानी | कविता | नाटक | आलोचना | विविध | भक्ति काल | हिंदुस्तानी की परंपरा | विभाजन की कहानियाँ | समग्र-संचयन | अनुवाद | ई-पुस्तकें | ऑडियो/वीडियो | छवि संग्रह | हमारे रचनाकार | संग्रहालय | खोज | संपर्क

Copyright 2009 Mahatma Gandhi Antarrashtriya Hindi Vishwavidyalaya, Wardha. All Rights Reserved.