उमरावनगर में कुछ दिन
बकरी, मुर्गी, और फटी कमीजें
बस में जहाँ मैं बैठा था, वहाँ बकरी न थी; मेरे पास बैठे आदमी की गोद में सिर्फ
मुर्गी थी। बकरियाँ पीछे थी। उस भीड़-भक्कड़ में अगर कहीं कोई बकरी का बच्चा
आदमी की गोद में था या कोई बकरी आदमी के गोद में घुटने पर थी तो कुछ ऐसे आदमी
थे जिनके पाँव बकरी के पेट के नीचे या पीठ के ऊपर थे और पीठ बस की पिछ्ली दीवार
से चिपकी थी। उनके सिर कहाँ थे, कहना मुश्किल है क्योंकि उनसे हाथ-दो-हाथ ऊपर
भी कई सिर दिख रहे थे।
बस के रुकने पर समझने में देर नहीं लगी कि यहाँ उतरने में, चढ़ने के मुकाबले
ज्यादा जीवट की जरूरत होगी। पर मेरा मुर्गीवाला साथी मुझसे ज्यादा उतावला था।
अभिमन्यु की तरह भीड़ का चक्रव्यूह तोड़ता हुआ जब वह आगे बढ़ा तो मैं भी उसके
कुर्ते से झूलता हुआ वहाँ तक पहुँच गया जहाँ दरवाजा होना चाहिए और उसके नीचे
कूदते ही मैं भी उसी के साथ जमीन पर चू पड़ा। मेरे हाथ से झूलती अटैची किसी की
टाँगो में फँसी होगी क्योंकि मेरे पीछे जो मुसाफिर कंधे के बल जमीन पर आया,
उसकी टाँग आसमान में थी और दूसरी की धोती मेरी अटैची के कुंडे से उलझी थी। मेरे
मुर्गी वाले साथी का कुर्ता पीछे से चीथड़ा बन चुका था पर वह इससे बिलकुल बेखबर
था। उसे देख कर मुझे खबर हुई कि मैं भी अपनी कमीज के मामले में बेखबर हूँ, उसका
कंधा अपनी सीलन छोड़ कर पीठ पर झूल गया था।
सड़क पर जहाँ बस रुकी थी उसके किनारे एक दवाखाना था जिस पर किन्हीं डा. अंसारी
का नाम लिखा था। विज्ञापन-पट्टी पर ए.ए.यू.पी., पी.यम.पी., यम.डी. जैसी
डिग्रियाँ लिखी थीं। यम.डी. से मेरा मन मुदित हो गया क्योंकि यह डॉक्टरों के
खिलाफ इस इलजाम का जवाब था कि ऊँची डिग्री लेने के बाद वे शहर छोड़ कर देहात
नहीं जाना चाहते। पर पट्टी पर दुबारा निगाह पड़ते ही मैंने देखा, यम.डी. के नीचे
कोष्ठकों के भीतर उर्दू, यानी फारसी लिपि में लिखा है, 'मैनेजिंग डायरेक्टर,
अंसारी क्लिनीक'। यह तो हुआ यम.डी.। अब मैंने ए.ए.यू.पी. और पी.यम.पी. के
तिलिस्म को तोड़ना चाहा। पी.यम.पी. का गुर आसान था : प्राइवेट मेडिकल
प्रैक्टिशनर। ए.ए.यू.पी. का गुर दूसरे दिन पकड़ में आया।
दवाखाने में एक ऊँघता हुआ बुड्ढा, हजारों मक्खियाँ। उसके सामने, सड़क के किनारे
दो तख्तों पर छ:-सात लोग भिन्न-भिन्न आसनों में बैठे बात करते हुए; पर एक भी
आसन ऐसा नहीं जिससे जल्दी उठने का आभास हो रहा हो। जहाँ तक बात की बात है, बात
सिर्फ एक आदमी कर रहा था, बाकी सिर्फ उसकी बात सुन रहे थे।
इकबाल मियाँ
मुझे पता नहीं था कि मेरे अध्यापक मित्र कहाँ रहते हैं। उनका पता पूछ्ने के लिए
मुझे यहाँ रुकना पड़ा। पर यहाँ देश की दुर्दशा पर बहस चल रही थी। जैसा कि होना
चाहिए, देश के सामने व्यक्ति और खास तौर से मुझ-जैसे व्यक्ति पर किसी ने ध्यान
नहीं दिया।
'...तुम कहते हो कि देश को नेताओं ने चौपट किया है। सरासर गलत! सारा देश तो
बाबुओं के हाथ में है। पूरा बाबू-राज है। बाबू जैसा चाहता है, वैसा ही होता
है।'
बात में कोई मौलिकता नहीं थी, फिर भी शायद मेरा सिर अनजाने ही इसके अनुमोदन में
हिल गया। जवाब में उन्होंने अपनी बड़ी-बड़ी आँखों से मुझे देखा, गोया मुझे सनद दी
कि मैं भुनगा नहीं, उन जैसा नहीं तो कम-से-कम दूसरों ही जैसा इनसान हूँ।
फरमाया, 'देखिए न, इसी छब्बीस जनवरी की बात है। दिल्ली के किसी बाबू की करामात
देखिए। छब्बीस जनवरी को छुट्टी होती है। मगर उस कंबख्त ने छब्बीस जनवरी को उठा
कर ऐन इतवार के दिन गिरा दिया। गरीबों की एक दिन की छुट्टी मारी गई।'
बात कुछ महीन किस्म की थी। लोग समझने की कोशिश करने लगे। उन्होंने फिर फरमाया
'मिनिस्टर को पता भी न चला होगा।'
एक आदमी ने ओंठ हिला कर पहले कुछ कहने की कोशिश की, फिर कहा, 'मगर इकबाल साहब,
कौन-सी तारीख किस दिन पड़ेगी, यह बाबू या मिनिस्टर थोड़े ही तय करता है?'
'फिर कौन तय करता है?'
कह कर शायद अनुमोदन के लिए, उन्होंने फिर मेरी ओर अपनी नजर उठाई। उनका
श्रोता-समुदाय निरुत्तर हो चुका था। तब मैंने अपने मित्र के घर का पता पूछा।
वे लगभग साठ साल के होंगे। मोटे बदन पर लंबा कुर्ता और तहमद। सिर पर चौकोर
टोपी। नाक के कोने पर एक बड़ा-सा काला मस्सा, जो बड़ी-बड़ी आँखों के नीचे बस कर
पूरे चेहरे को समुद्री डाकुओं जैसा खूँखार बनाता था। यही, जब वे आँखे मूँद लेते
होंगे, उनके चेहरे की ध्यान-मुद्रा को और भी गहनता देता होगा; धार्मिक भाषणों
को मार्मिक बनाने में सहायता करता होगा।
मित्र ने कहा :
'अच्छा हुआ यहाँ आते ही तुम्हारी इकबाल साहब से मुलाकात हो गई। यहाँ के सबसे
रईस आदमी हैं। काफी समझदार भी। पिछ्ले चुनाव में सत्ताधारी पार्टी का टिकट भी
मिल गया था। जीतते-जीतते बचे!'
'समझदारी का सबूत तो पहली मुलाकात में ही उन्होंने दे दिया। कहते हैं कि कौन
तारीख किस दिन पड़ेगी यह बात दिल्ली के किसी दफ्तर का बाबू तय करता है।'
मित्र ने भौहें सिकोड़ कर कुछ सोचा, बोले 'तो तुम्हीं बताओ यह कौन तय करता है?'
झटका लगा, पर जल्दी ही सँभल गया। मैंने समझाया, 'यह सब तो मिस्टर गणेशन तय करते
हैं।'
'कौन मिस्टर गणेशन?'
'तुमने अखबार में नहीं पढ़ा? वही जिन्होंने हाल ही में अपनी बेवा की बहन से शादी
की है।'
वह हमेशा से ऐसे ही हैं। दोनों जोर से हँसे, वैसे जोड़ बराबर पर नहीं छूटा था,
प्वाइंट्स पर मैं ही जीत रहा था।
'दरअसल, इकबाल मियाँ की हालत विशेषज्ञों-जैसी है। अपने विषय को छोड़ कर उन्हें
कई विषयों का क ख ग तक नहीं आता...'
मित्र का ठिकाना सड़क से लगे हुए इस मकान की दूसरी मंजिल पर था। दो छोटे कमरे
थे, छत के दूसरे किनारे एक छोटी कोठरी, जिसमें रसोईघर था। दूसरी तरफ खुले में
दीवारें घेर कर नहाने का प्रबंध; उसी के दूसरे हिस्से में एक अचंभा था -
साफ-सुथरा शौचालय, फ्लश के लिए भले ही बाल्टी का प्रयोग होता हो। नहाने वाले
हिस्से में हैंडपंप लगा था। हैंडिल सँभाल कर चलाना पड़ता था क्योंकि वह खुरदरी
दीवार से रगड़ खाता था।
हैंडपंप चलाते वक्त मैं अपनी उँगलियों को दीवार से रगड़ कर जख्मी बना चुका था।
उन पर डिटॉल लगा कर, रसोईघर के दरवाजे पर खड़े-खड़े जहाँ खाल छिल गई थी वहाँ की
जलन का आनंद ले रहा था। मित्र चाय के लिए स्टोव जला रहे थे, इकबाल मियाँ की
गौरव-गाथा सुना रहे थे :
'विशेषज्ञों के साथ अक्सर ऐसा होता है। अपने ही को लो। तुम ग्रामीण अर्थशास्त्र
के माहिर हो। अब अगर तुमसे कोई भौतिक विज्ञान की किसी गुत्थी पर बात करने लगे
तो तुम भी इकबाल मियाँ-जैसी चूक कर सकते हो। है कि नहीं?'
'है। पर इकबाल मियाँ विशेषज्ञ काहे के हैं?'
'उन्हें भी, क्या कहा जाए - एक तरह से ग्रामीण अर्थशास्त्र का ही विशेषज्ञ कह
लो। खास तौर से जंगलों की कटान और जंगली लकड़ी के उपयोग के बारे में उन-जैसा
माहिर इधर कोई नहीं है।'
'तुम्हारा मतलब पर्यावरण-सुरक्षा और वानिकी से है?'
'मुझे पता नहीं ये क्या है,' मित्र बोले, 'पर इनका मतलब चोरी और उठाईगिरी हो तो
तुम्हारी बात सही होनी चाहिए।'
यहाँ ऊपर की मंजिल तक पहुँचने के लिए सड़क से ढाई फुट चौड़ी गली पार करके इमारत
के पिछवाड़े से एक जीना चढ़ना होता है। यह लंबाकार सँकरा जीना सरग की नसेनी-जैसा
है, जिस पर दीवार से बँधी हुई एक चीकट रस्सी के सहारे झूल-झूल कर चढ़ा जाता है।
चढ़ते वक्त अगर किसी सीढ़ी पर पाँव चूक जाए तो यह सचमुच ही सरग की नसेनी बन सकता
है।
मित्र की बात सुन कर मुझे लगा, किसी ने मेरी गरदन पर धक्का दे कर मुझे जीने से
नीचे ढकेल दिया है।
खैनी तंबाकू और कंप्यूटर ट्रेनिंग
गाँव की विकास-गाथा बहुत कुछ एक दिन ही में समझ गया था। समझाया खंड विकास
अधिकारी ने, जनभाषा में कहा जाए तो बी.डी.ओ. साहब ने। उन्होंने ही डॉ. अंसारी
की उपाधि ए.ए.यू.पी. का तिलिस्म भी तोड़ा - ऐलोपैथिक, आयुर्वेदिक ऐंड यूनानी
फिजिशियन।
बी.डी.ओ. साहब मित्र के मित्र थे। शाम को मिलने आए। थके हुए थे पर चेहरे पर कोई
बड़ा काम कर गुजरने का संतोष था। चाय, कॉफी, शराब - किसी भी पेय पदार्थ को लेने
से उन्होंने इंकार किया, भोज्य पदार्थों से भी। आराम से खटिया पर लेट कर
उन्होंने अपनी जेब से चोष्य पदार्थ, यानी तंबाकू निकाली। उसमें एक डिबिया से
चूना निकाल कर मिलाया, बाएँ हाथ की हथेली पर दाएँ हाथ के अँगूठे से उसे मला,
थपथपाया, साफ किया, फिर दाँतों और निचले मसूढ़े के बीच उसे दबा लिया। कहा,
'कंप्यूटर की ट्रेनिंग से आज तीसरे पहर फुरसत मिली है। किसी तरह यह प्रोग्राम
भी खत्म हुआ। इज्जत बच गई।'
तंबाकू का ऐसा आदिम प्रयोग करते हुए किसी को बहुत दिन बाद देखा था। उसके साथ
कंप्यूटर का पुट तो और भी दुर्लभ था। मैंने पूछा, 'इस कस्बे में...?'
उठ कर उन्होंने तंबाकू की पीक थूकी, अपनी ही कहते रहे, 'कल प्रशिक्षण में आए
अफसरों को आस-पास का विकास-कार्य दिखाना है, जंगल में भी घुमाना है। पर अब तो
जंगल के मुहकमेवाले देखेंगे। उनके आदमी डेढ़ सौ किलोमीटर दूर पेस्ट्री और तले
काजू खरीदने गए हैं। कल आप भी चलिए न!'
'पर कंप्यूटर-ट्रेनिंग? इस कस्बे में?'
'यह कस्बा नहीं, गाँव है जनाब। वैसे आबादी चार हजार के करीब हो गई है। एक बार
टाउन एरिया बनाने की बात भी चली थी, पर गाँव वालों ने उसका विरोध किया।...'
'क्यों?'
'तब लोगों पर कई तरह के टैक्स न लग जाते!'
'पर गाँव का विकास भी तो हो जाता।'
फिर बी.डी.ओ. साहब की बात तांत्रिकों, ज्योतिषियों, पुरातत्ववेत्ताओं,
मौसम-विज्ञानियों, समाजशास्त्रियों, कथाकारों और कवियों की अर्धस्फुट वाणी में
होने लगी। उन्होंने इस जंगली क्षेत्र के तीस-पैंतीस परिवारों वाले पुरवे के
विकास की कथा 'सेल्फ जनरेटिंग', 'इंफ्रास्ट्रक्चर', 'आर्केस्टेशन', 'टेक ऑफ
स्टेज' जैसी योजना आयोग की भाषा में उद्घाटित करनी शुरु कर दी।
श्रोता और शिष्य था मैं, जाना-माना सनकी पत्रकार, और मित्र की मित्रतापूर्ण
भाषा में, ग्रामीण अर्थशास्त्र का विशेषज्ञ।
सब आवाजों के ऊपर की आवाज
पिछले बीस-पच्चीस साल में उमरावनगर नामक इस छोटे-से जंगली गाँव का विकास
अपने-आप हो चुका है। इसलिए अब इसे क्षेत्रीय स्तर पर सघन विकास के लिए चुना गया
है। चुनने वाले यहाँ के क्षेत्रीय विधायक हैं।
आज से दो साल पहले वे राज्य मंत्री बनाए गए थे। जैसा कि इस कथा में कहीं आगे
आएगा, कोशिश उन्हें परिवहन मंत्री बनाने की थी। यहाँ चलने वाली बसों में से एक
के मुनाफे में उनका आठ आने का हिस्सा था। उनके विधायक बन जाने पर हिस्से की जगह
उन्हें पूरा मुनाफा दिया जाने लगा। स्थानीय ट्रांसपोर्ट यूनियन के कर्ता-धर्ता
वर्मा साहब, ठेकेदार साहब, ठाकुर साहब जैसे कार्यकर्ताओं ने शोर मचा दिया कि वे
परिवहन के राज्यमंत्री बन रहे हैं। अखबार तक में छ्प गया। इसलिए, मुख्यमंत्री
के मन की बात कोई भी नहीं पकड़ सकता, यह प्रमाणित करते हुए उन्हें चीनी उद्योग
का राज्यमंत्री बना दिया गया। जो भी हो, उमरावनगर में ट्रांसपोर्ट यूनियन की ओर
से उनका जोरदार स्वागत-समारोह हुआ जिसके लिए अखबारों में 'भव्य' और जिसके
व्याख्यानों के लिए 'भाव-भीने' जैसे ठेठ विशेषणों का प्रयोग हुआ। समारोह में
उन्होंने घोषणा कर दी कि उमरावनगर में वे एक सहकारी चीनी मिल की स्थापना
कराएँगे।
दो हजार मीट्रिक टन की क्षमतावाली चीनी मिल और आटाचक्की में कुछ फर्क है -
मंत्री जी के प्रतिक्रियावादी अफसरों ने उन्हें यह समझाने की कोशिश की। जहाँ
कही भी बिजली का तार गया हो वहाँ आटाचक्की चल सकती है। पर चीनी मिल के लिए कुछ
और भी चाहिए। गन्ना तो चाहिए ही। उमरावनगर के चारों ओर सरकारी जंगल हैं। मिल
चलाने के लिए दूर-दूर से गन्ना लाया जाए, तब भी पूरा न पड़ेगा - आदि-आदि उन्हें
समझाया गया। पर मंत्री जी अकड़ गए। हर मंत्री की तरह उन्हें पहले से ही नौकरशाही
के बारे में सबकुछ मालूम था, जिस कारण वे हमेशा सही सलाह को गलत और गलत सलाह को
सही मान बैठते थे। अत: उन्होंने अपनी घोषणा को कई बार दोहराया। दोहरा ही रहे थे
कि, जैसा कि आजकल किसी भी लम्हें में हो सकता है, प्रदेश के मुख्यमंत्री ने,
अपनी अंतरात्मा की आवाज सुन कर - जो पार्टी हाईकमांड के आदेश की पर्यायवाची है
- अचानक इस्तीफा दे दिया। हमारे क्षेत्रीय विधायक जी दूसरे मंत्रिमंडल में,
बिरादरी के अनूठे प्रतिनिधि होने के नाते, फिर से राज्यमंत्री तो बना दिए गए पर
उनके मुहकमे का नाम आज तक ट्रांसपोर्ट यूनियन वालों की समझ में नहीं आया। वे
प्रशासनिक सुधार और कार्मिक विभाग के राज्यमंत्री बनाए गए।
दूसरा समारोह भी 'भव्य' और 'भावनीना' तो बताया गया, पर रंग कुछ फीका रहा।
दुकानदार दुकान सजाए बैठा हो, पर यह पता न चले कि यहाँ कौन-सा माल बिकता है,
मंत्री जी की हालत कुछ वैसी ही थी। 'प्रशासनिक सुधार' और 'कार्मिक' लोगों के
पल्ले नहीं पड़ रहे थे। पर मंत्री जी का जीवट कुछ कम नहीं था। उन्होंने इस बार
एक नई घोषणा की, 'आदरणीय प्रधानमंत्री के नेतृत्व में हमें नई-नई तकनीकों और
पद्धतियों की जानकारी करनी होगी। खासतौर से कंप्यूटर की जानकारी तो बच्चे-बच्चे
को होनी चाहिए। इसकी शुरुआत हमने अपने आला अफसरों से की है। हम अपने वरिष्ठ
अधिकारियों को कंप्यूटर का प्रशिक्षण देने के लिए दो सप्ताह का एक सत्र आयोजित
कर रहे हैं। यह प्रशिक्षण उमरावनगर में होगा।'
अब गले में टाई और हाथ में ब्रीफकेस लटकाए हुए जो अफसर दिल्ली के किसी
वातानुकूलित कमरे की हवा में अपनी हवा जोड़ते, वे उमरावनगर में कंप्यूटर
प्रशिक्षण के लिए कंप्यूटर-समेत आ गए हैं।
बी.डी.ओ. साहब यह ब्यौरा मुझे सुना रहे थे, तब उनकी आवाज के पीछे, जैसा कि
फिल्म डिविजन के वृत्तचित्रों में होता है, कई तरह की आवाजें पृष्ठसंगीत का काम
कर रही थी। नीचे सड़क पर विचरते और चरते हुए गधों की 'सीपों-सीपों', ट्रकों के
प्राणबेधी हार्न, आटा चक्की की 'किट्-किट्' एक साथ कई दुकानों पर बजते हुए
ट्रांजिस्टर और एक दुकान पर ऐंप्लीफायर के सहारे गरजता हुआ एक लगभग अश्लील
लोकगीत, आदि-आदि। इन आवाजों को कुछ देर पहले लाउडस्पीकर पर गूँजती हुई अजान ने
पस्त किया था, पर अजान तो चंद मिनटों का करिश्मा है। उसके खत्म होते ही स्वामी
रघुवरदास के आश्रम का कीर्तन बाकी सब आवाजों पर हावी हो गया था।
कीर्तन में जनाना-मर्दाना, दोनों ही आवाजें थी पर सबसे प्रबल आवाज एक नारी कंठ
की थी। बी.डी.ओ. साहब की बात खत्म होते होते वह नारी कंठ तारसप्तक के मध्यम पर
जा कर टिक गया और वहीं टिका रहा। फिर उससे भी एक स्वर ऊपर जा कर उसने आलाप लिया
: की...ई...ई...ई...की...ई...ई...ई। लगा, कोई फेफड़ा फाड़ कर चीख रहा है!
मेरे मत्थे पर उलझन की रेखाएँ उभर आई होंगी। बी. डी. ओ. साहब बोले, 'लगता है
सियादुलारी जी को फिर से दौरा पड़ा है!'
पर सियादुलारी जी की बात बाद में, पहले ये पाँच कोठियाँ। पर उसके भी पहले एक
नजर उस फिजा पर जो विकास से पहले की है।
इलाज के पहले
कुछ दूरी पर आम के ठूँठ की एक सूखी, पर मोटी डाल आसमान की ओर हाथ उठा कर
पनाह-जैसा माँग रही है। उसी के पास यह कोठी बनी है। उमरावनगर का यह पहला पक्का
मकान है। आम के ठूँठ से आप सोच सकते है - और सही सोचेगें - कि यहाँ पहले एक
अमराई थी। उसके वे पेड़ जो सड़क के किनारे नहीं थे, पहले ही शहरवालों के
चूल्हे-भाड़ में जा चुके हैं। सड़क के किनारेवाले पेड़ सरकारी है। इसलिए वे
'काटे-बिना ही काट-देने की पद्धति' से सिर्फ ठूँठ बना कर छोड़ दिए गए हैं।
यह पद्धति कैसी है? वैसी ही, जैसे टैक्स-लगाए-बिना-टैक्स-लगने की पद्धति। जैसे,
कुछ महीने हुए, पेट्रोलियम पदार्थों के दाम हचक कर बढ़ा दिए गए। लोगों ने
चिल्लपों मचाई तो सरकारी अर्थशास्त्रियों ने समझाया : तुम लोग मान लो कि दाम
नहीं बढ़ाए गए हैं, हमने तो इन पदार्थो पर सिर्फ एक टैक्स-जैसा लगाया है। टैक्स
देनेवालों ने एक-दूसरे मौके पर चिल्लपों मचाई तो उन्होंने वहाँ समझाया : हम
टैक्स की दर बढ़ाना नहीं चाहते न नए टैक्स लगाना चाहते हैं। इसीलिए देखो, हमने
पैट्रोल आदि की कीमत बढ़ा दी है!
तो, जनता ने भी सरकार के साथ वैसा ही किया है। ईंधन की कमी हुई तो बीवी को
बताया, 'सड़क वाला पेड़ काट कर ला रहा हूँ।' पेड़ की उन्होंने इधर-उधर की शाखें
छाँट दी, बस फुनगी छोड़ दी। फिर सारा काम तने पर किया। उसकी पहले छाल छील दी,
फिर कुछ गहरे पैठ कर गूदे से कई दिन छोटी−छोटी चिप्पियाँ निकालीं। निकालते रहे।
बाद में एक कटा-पिटा गावदुम तना और आसमान की ओर बाँह पसारे एक एक शाखा-भर रह
गई। समय आने पर यानी असमय में यह अस्थिपंजर सूख गया, पत्तियाँ गायब हो गईं। पेड़
की सूरत कूड़े पर पड़ी हुई बिना इंजिन और पहिए की मोटर-जैसी, और कुल मिला कर उसकी
शक्ल हिंदुस्तान के लंबोतरे नक्शे-जैसी निकल आई। इस तरह कट जाने पर भी पेड़ कटा
नहीं। सड़क के हाकिमों ने पेड़ के तने पर तारकेल से जो नंबर डाला था वह बाकायदा
कायम रहा!
ये अस्थिपंजर सड़क के किनारे दूर-दूर तक खड़े हुए हैं। इनके पीछे जो अमराई थी,
उसके पेड़ों को ले कर इस नुक्तए-नफासत की जरूरत न थी। इसलिए उनकी जगह पहले
वीराना हुआ। फिर वहाँ यह कोठी बन गई, जिसमें अब सरकारी दवाखाना है।
जब यह न बनी थी तब यह उमरावनगर एक छोटा-सा निहायत गँवार गाँव था, वैसे कहने को
राजा उमरावसिंह की ताल्लुकेदारी का एक जिला था। अर्थात, वहाँ एक जिलेदार रहता
था। उसके लिए और उसके अमला और कुछ वफादार लठैतों के लिए राजा साहब ने सड़क के
दोनों ओर कुछ इमारतें बनवा दी थी। ये खपरैल के कच्चे घर थे। सिर्फ जिलेदार के
घर की दीवारें पक्की थी। हर इमारत में आगे का बरामदा और अंदर दो कोठरियाँ थीं
जिनको, अगर कोई रोशनदान हो तो, कमरा कहा जाता था। इनके भीतरी धुँधलके में मकड़ी,
मच्छर, छिपकली, कनखजूरे या बिच्छू भले ही पनप लें और साँप भी - सूरज की चौंध,
पूस-माघ की हवा, लू, धूल-धक्क्ड़ आदि हरगिज नहीं आ सकते थे। अंदर सँकर-सा
बरामदा, आँगन। हर इमारत के बीच ढाई फुट चौड़ा रास्ता छूटा था, यानी इस सभ्यता
में वास्तुकला की कमी न थी। यह जरूर है कि मोहनजोदड़ो की सभ्यता में नालियों को
जो स्थान मिला था, वह यहाँ नहीं था। किसी भी इमारत में नाली न थी। राजा साहब
जानते थे कि जो बात अपने देश के चरित्र के लिए सच है, वही पानी के लिए भी है।
पानी हर हालत में अपना धरातल ढूँढ़ लेता है।
इससे इतना जरूर हुआ कि जमींदारी टूट जाने पर, और इन इमारतों के रखरखाव में कमी
हो जाने से बहुतों को पानी ने ही मटियामेट कर दिया। उन्हीं पर नई कोठियाँ बनी।
कुछ का पानी अपनी राह अब भी निकाल लेता है। वे बच गई हैं। पर उनको ले कर
दर्जनों लोगों में दीवानी के मुकदमे चल रहे हैं। हर एक का दावा है कि उसने यह
इमारत पक्के कागज पर जिलेदार साहब से खरीदी है।
पहली कोठी
जिलेदार आला अफसर था। बीस रुपया महीना पाता था। वह यहीं जिले पर रहता था। रहता
भी क्या था, एक मल्लाह लड़की की सोहबत में कुछ दिन बिताने के लिए यहीं चला आता
था।
खपरैल के ये घर, जिनमें दूकानें भी लग सकती थीं, सड़क के दोनों किनारों पर लगभग
सौ गज तक चले गए थे। इनके पीछे आम और शीशम की बड़ी-बड़ी बागें थीं। उनके पीछे
खेत, नदी, जंगल। फिर जंगल ही जंगल।
वातावरण रमणीक था, सिर्फ रमण करने वालों की कमी थी। खपरैल के घर दुकानें
ज्यादातर खाली रहतीं। लोगों को यहाँ लुट जाने का डर था। खपरैल के कुछ घर
जिलेदार के पास थे जिनमें वह खुद रहता था, एक में धीवर-कन्या और उसके माँ-बाप
रहते थे, एक में उसके बहनोई-ननदोई। एक में उसके सास-ससुर रह सकते थे, पर रहते
नहीं थे। उनका बेटा जवान होने के पहले चल बसा था। बहू, उनकी राय में, कुलच्छनी
थी पर अपने माँ-बाप की राय में वह सोने की मछली थी। जिलेदार के बारे में भी
उनकी राय बड़ी उदारतापूर्ण थी। वे उसे बड़ा नेक और रईस मानते थे। आम लोगों की राय
भी यही थी।
बाकी इमारतों में से कुछ में रियासत के दो-चार कारिंदे रहते थे। सुखमय जीवन
बिता रहे थे। उन्हें लुटने का डर न था; लूटने वाले उन्हीं के आदमी थे।
जमींदारी टूटने के कुछ साल पहले और बाद जमींदारों ने अपनी जायदादें बेचनी शुरु
की। कुछ तो अपने ऊसर-बंजर और उनका एक-एक तिनका बेच कर शहरों की ओर भागे और वहाँ
एम.एल.ए., जिला परिषद के अध्यक्ष या, कुछ न हुआ तो किसी भी आँय−बाँय−शाँय
पार्टी के नेता बन कर अपनी नई हैसियत बनाने लगे। राजा उमराव सिंह के वारिस किसी
छोटे-मोटे देश में इस देश के राजदूत बन गए और इमारतें बेचने के लिए माथापच्ची
करने लगे। बिक्री का अभिमान चला। पर खरीदने वाले न थे। तब उनकी मदद राजा साहब
के एक फटीचर, पर नेतानुमा रिश्तेदार ने की।
वे जिला सहकारी संघ के अध्यक्ष थे। उन्होंने उमरावनगर बाजार के पाँच मकान, छ:
रूपया महीना प्रति मकान की दर से, किराए पर ले लिए। उनमें सस्ते गल्ले, चीनी,
कपड़े, मिट्टी के तेल और सीमेंट की दुकानें खुली। फलस्वरुप वहाँ के सहकारी
सुपरवाइजर ने छ: महीने में ही तीन मकान अपने लिए खरीद लिए। पर उनकी बात छोड़िए।
अभी हमें पहली कोठी में ही रहना है।
सहकारी दुकानों पर बिक्री अच्छी होती थी। सिर्फ सीमेंट की खपत नहीं थी। शायद
उसी को बढ़ावा देने के लिए दो साल के भीतर ही पहली कोठी बनने लगी। कोठी संघ के
अध्यक्ष की थी। जब वह बन चुकी तब उनके विरोधियों ने भ्रष्टाचार का नाम ले कर
चिल्ल्पों मचाई। उन दिनों भ्रष्टाचार को थोड़ा बुरी चीज माना जाता था। इसलिए
अध्यक्ष ने सार्वजनिक जीवन में स्वस्थ परंपराओं की रक्षा के लिए अपने पद से
इस्तीफा दे दिया। जिला सहकारी संघ एक दूसरे अध्यक्ष के पास चला गया। कोठी
भूतपूर्व अध्यक्ष के पास रही।
राम−राम है, लूट है
भगवान रजनीश, सत्य साईं बाबा, महर्षि योगी, स्वामी सदाचारी आदि विज्ञान और
तकनीकी के युग की पौध है। स्वामी रघुबरदास जी भी इसी श्रृंखला की एक कड़ी हैं।
अंतरराष्ट्रीय जगत में अभी उनके जेट की गड़गड़ाहट नहीं गूँजी है, पर जिस तेजी से
उमरावनगर के आकाश में उन्होंने छलाँग लगाई है, उससे लगता है कि वे मनुष्य से
भगवान बन चुके हैं और अब भगवान से ऊँचे उड़नेवाले जेट विमान बननेवाले हैं।
ऐसा सुना जाता है कि भगवान बनने से पहले वे किसी बालिका-विद्यालय में हेड
क्लर्क थे। अपने स्टॉक की सारी सुंदरता परमात्मा ने उनके मन को सौंप दी थी, पर
उनके तन और मन की कशमकश में उन्हें वहाँ, यानी बालिका-विद्यालय में, बड़े-बड़े
संकट झेलने पड़े; औसतन साल में एक बार पिटने से ले कर हर दूसरे-तीसरे साल
मुअत्तल होने तक का अनुभव उन्हें दोहराना पड़ता था। अंत में उन्हें ज्ञान
प्राप्त हो गया, वह शायद उस देसी तमंचे की नली का असर हो जो एक बालिका के भाई
के मजबूत हाथ के जुड़ी हुई सपनों तक में उनका पीछा करने लगी थी, या तुलसीदास या
विल्वमंगल या ऐसे ही किसी अर्जी-फर्जी महात्मा की वैराग्य कथा का दोहराव हुआ हो
जिसमें सुंदरता की सारी पर्तें फाड़ कर उन्हें सब जगह 'हाड़-चाम', 'हाड़-चाम' ही
दीख पड़ने लगा। बहरहाल, इस बार कालेज प्रबंधक को उन्हें मुअत्तल करने की जरूरत
नहीं पड़ी, उन्होंने खुद इस्तीफा दे दिया। दो साल वे किसी हिमालय की किसी गुफा
में किसी गुरु से दीक्षा लिए हुए कोई तपस्या करते रहे, फिर जब वे उमरावनगर में
पीतांबर धारे दुख-मोचन तिलक भाल पर लगाए प्रकट हुए तो वे भगवान बन चुके थे।
उनका एक संप्रदाय बन चुका था। उसका अपना झंडा था, अपनी (पीतांबर का कुर्ता,
वैसी ही लुंगी, चेलियों की पीतांबरी साड़ी और कत्थई ब्लाउज - किसी-किसी पर वह
सचमुच ही फबता था।), अपनी पूजा-विधि, अपनी साधना-पद्धति, अपने भजन, कीर्तन -
सभी कुछ अपने थे। अपना आश्रम, अपने दानदाता, अपना भंडारा भी।
खास बात यह कि स्वामी रघुबरदास भगवान रामचंद्र के अवतार थे। उनके साथ सिंहासन
पर बैठने के लिए एक सियादुलारी भर्ती की गई। उनका असली नाम फूलमती था। जिलेदार
साहब और मल्लाह बेवा के पुष्पित प्रेम से वे उत्पन्न हुई थीं। जिलेदार साहब ने
उसे हाई स्कूल तक पढ़ा भी दिया था। अब वे अचानक सियादुलारी बना ली गई थीं।
इधर कुछ दिनों से कीर्तन करते-करते वे चीखने लगी थीं। रामायण-कथा में ऐसी
सियादुलारी की गुंजायश न होने पर भी रघुबरदास ने अभी तक उन्हें वनवास नहीं दिया
था।
उमरावनगर की सभ्यता का यह कीर्तिमान था। शाम की अजान के तुरंत बाद आश्रम में
भजन-कीर्तन होने लगता था। इसे सांप्रदायिक सद्भाव और विभिन्नता में एकता कह कर
नेता लोग गाँव की छवि उभार रहे थे। सांप्रदायिक दंगे किसी भी वक्त हो सकते थे।
पर अभी हुए नहीं थे क्योंकि सभी पक्ष अभी रुपया बटोरने में लगे थे, वे उसे
सहर्ष गँवाने की हैसियत तक अभी नहीं पहुँचे थे।
दूसरी, तीसरी, चौथी और पाँचवी कोठी
सभी जानते हैं कि अपना देश परंपराओं का देश है। किसी विदेशी ने कहा है कि
महापुरुष समय के बालू पर अपने पदचिह्न छोड़ जाते हैं। बालू पर ये चिह्न कितनी
देर टिक सकते हैं? पर अपने देश का महापुरुष जिधर निकल जाता है वहीं चिरंतन
मार्ग बन जाता है। इसलिए यहाँ स्थायी परंपरा बनाने के लिए किसी महापुरुष को कुल
इतना करना है कि जिधर चाहे उधर ऊँट की तरह गर्दन उठा कर निकल जाए।
जिला सहकारी संघ के भूतपूर्व अध्यक्ष ने यही किया, संघ से इस्तीफा दे कर उसे
उन्होंने दूसरे अध्यक्ष के हाथ सौंप दिया, कोठी अपने पास रख ली। यह परंपरा बन
गई। सिलसिला कायम हो गया। फिर हर दो साल बाद संघ का अध्यक्ष बदलता और हर
अध्यक्ष दो साल में यहाँ एक कोठी बनवा कर अपने पद से अलग हो जाता। दस साल में
पाँच कोठियाँ बन गईं। गनीमत है कि पाँचवें अध्यक्ष को हटा कर सरकार ने संघ का
निदेशक-मंडल तोड़ दिया और एक नौजवान अफसर को उसका प्रशासक बना दिया। नहीं तो अब
तक उमरावनगर में तिमंजला कोठियाँ बाँसकोठियों की तरह उग रही होतीं। फिर भी, आशा
है, नौजवान होते हुए भी अफसर ने परंपरा को एकदम नहीं तोड़ा है। सुनते हैं कि
उसने कुछ शहरों में छोटे-छोटे बँगले बनवाए हैं। व्यक्ति और समय के अनुसार
परंपरा में कुछ तबदीली आ जाए तो बुरा नहीं मानना चाहिए। यह सामाजिक गतिशीलता का
लक्षण है। फिर, यदि उठाईगिरी के पैसे से गाँवों का सही विकास होता रहे और शहर
अछूते रह जाएँ तो विकास की प्रक्रिया में असंतुलन आ जाएगा। इसलिए संघ के
प्रशासक को हमें आधुनिकता और परंपरा का एक बेजोड़ समन्वय मानना चाहिए जो
उठाईगिरी की परंपरा को निभाते हुए आधुनिक नगरों के निर्माण में अपनी हैसियत-भर
योगदान दे रहा है।
बहरहाल, सहकारी संघ के भूतपूर्व अध्यक्षों ने जो कोठियाँ बनावाईं उनसे उमरावनगर
गाँव होते हुए भी एकदम से नगर हो गया। कोठियाँ होगी तो कारोबार भी होगा। पहले
अध्यक्ष ने कोठी की निचली मंजिल अपने स्वर्गीय पिता के नाम पर दवाखाना खुलवाने
के लिए सरकार को पट्टे पर, बिना किराए के, दे दी। इससे जनता और सरकार - दोनों
पर उनकी धाक जमी और एक दवाखाना खुल गया। इस दवाखाने की दवाइयाँ चुरा कर बिकवाने
के लिए सड़क के दूसरी ओर एक दवा की दुकान खुली। दुकान कंपाउंडर के भांजे के नाम
से है। भांजे का नाम डा. यम.जेड. अंसारी, ए.ए.यू.पी., पी.पी. यम.पी. आदि है।
उनका डाक्टरी पेशा दुकान के सहारे और दुकान सरकारी दवाखाने के सहारे चलती है।
डा. अंसारी और सहकारी डाक्टर में कोई खटपट नहीं है। दरअसल, सरकारी डाक्टर
अंसारी साहब के सहारे इत्मीनान से शहर में रहते हुए अपना क्लीनिक चलाते हैं। हर
महीने की पहली तारीख को नियमित रुप से आ कर वे अपनी तनख्वाह, कंपाउंडर की निजी
प्रैक्टिस की आमदनी की चौथा और डा. अंसारी की दूकान से बिकी हुई सरकारी दवाओं
की कीमत का आधा हिस्सा एक साथ उगाह कर फिर शहर वापस चले जाते हैं।
दूसरे अध्यक्ष ने जो कोठी बनवाई, उस पर भ्रष्टाचार का कोई सवाल नहीं उठा। इसलिए
उसे या किसी मंजिल को सार्वजनिक हित के लिए मुफ्त देने का सवाल भी नहीं उठा।
वास्तव में, उसका ज्यादा-से-ज्यादा किराया वसूल कर उन्होंने प्रमाणित करना चाहा
कि यह कोठी उनके खून-पसीने से बनी है, भले ही उसके लिए अपने मुँह से उन्हें पान
की पीक तक न खर्च करनी पड़ी हो। उनका एक भतीजा वन-विभाग में रेंजर था। न जाने
उसका क्यों और कैसे और कितना प्रभाव था कि कुछ दिनों बाद ही इस कोठी में राज्य
वन-निगम का एक प्रखंड खुल गया। यही नहीं, उसके पिछवाड़े की रियासत वाली बाग भी
किराए पर उठ गई और उसमें इस प्रखंड की जंगली लकड़ी का देखते-देखते एक विशाल डिपो
कायम हो गया। इसकी तफसील अभी कुछ रुक कर।
तीसरे अध्यक्ष ने प्रतिज्ञा की कि उनकी कोठी में वन-प्रखंड से भी बड़ा दफ्तर
खुलेगा। शहर में भी उनके दो-तीन मकान थे जिन्हें डाकघरों के लिए किराए पर उठाने
में उन्होंने विशेज्ञता प्राप्त की थी। डाक-तार विभाग के साथ उनके दिल्ली तक
बड़े गाढ़े संबंध थे। पर देहात की इस कोठी में अगर एक छोटा-मोटा डाकखाना जनता की
जरूरत के नाम पर खुल भी जाता तब भी उसका किराया काजू और विह्स्की पर होने वाले
उनके मासिक खर्चे के लिए काफी न होता, जबकि इन दोनों पदार्थों से उनका बड़ा
पुराना और गहरा लगाव था। इसलिए डाक-तार विभाग की जानीबूझी राह छोड़ कर उन्हें न
जाने कितने उल्टे-सीधे मुहकमों की भूलभूलैया में भटकना पड़ा। अंत में, जोरदार
सिफारिश और भारी घूस ने रंग दिखाया। इस कोठी में ग्रामसेवकों और पंचायत के
ग्राम-विकास अधिकारियों का एक प्रशिक्षण केंद्र खुल गया। अच्छे शौचालयों और
स्नानागारों के बावजूद, कोठी के बाहर बनियाइन-लुंगी पहने, हाथ में लोटा लटकाए
नौजवानों के जो जत्थे आप शाम-सुबह सड़क पर देखते हैं, वे इन्हीं
प्रशिक्षणार्थियों के हैं। इसी में ऊँचे अफसरों को आजकल कंप्यूटर की ट्रेनिंग
दी जा रही है।
चौथी कोठी का मालिक कुछ लटे-पटे किस्म का था। उसमें मछली-पालन का एक छोटा-सा
दफ्तर खुल कर रह गया। उसके अदना-से-हाकिम जो लोग, दूरदर्शन के अधिकांश
समाचार-वाचकों के वीभत्स उच्चारण की नकल में, 'मतस्स' विकास अधिकारी कहते हैं।
एक ओर गाँववाले जब पोखरों और तालाबों को पाट कर वहाँ धान के खेत निकाल रहे हैं,
'मतस्स' अधिकारी खेतों को खुदवा कर मछली-पालन के लिए तालाब बनवा रहा है।
पाँचवीं कोठी किराए पर नहीं उठी। तब उसके मालिक एक खटारा ट्रक पर शहर से सामान
लाद कर आए और यहीं बस गए। उन्होंने कहा, 'अब मैं यहीं रहूँगा और गाँव में
रचनात्मक काम करूँगा।' आज तक वे यही कर रहे हैं।
बुरी नजर वाले तेरा मुहँ काला
वह ट्रक पिछले साल बिका है और उसकी जगह तीन नए ट्रक आ गए हैं। इनके अलावा दो
बसें और एक जीप भी कोठी के आगे खड़ी दिखती है। ट्रकों के पीछे भाँति-भाँति के
सिद्धांत वाक्य, शेरो-शायरी, 'जय जवान-जय किसान' जैसे नारे लिखे हैं। इन
इबारतों के हिसाब से हर ट्रक का व्यक्तित्व या संप्रदाय अलग-अलग दिखता है।
इनमें 'बुरी नजर वाले तेरा मुँह काला' - सिर्फ यही सिद्धांत-वाक्य ऐसा है जो
तीनों में एक अक्षरों में लिखा है। हर ट्रक में इस इबारत के नीचे जूते की एक-सी
तस्वीर बनी है। इसी से प्रमाणित होता है कि इन तीनों ट्रकों का मालिक एक ही है।
वही पाँचवी कोठी के मालिक हैं। उनकी बढ़ती हुई हैसियत के साथ लोग उनका पुराना
नाम और कुल गोत्र भूल गए हैं। उनका नाम अब सिर्फ ठाकुर साहब रह गया है। बसों
आदि के भी वही मालिक हैं।
पुराना ट्रक देखने में भले ही खटारा रहा हो पर वह शीशम के बेशुमार कुंदे लाद
सकता था। इसलिए ठाकुर साहब ने, जो तब रमेसर भाई कहलाते थे, उस पर शीशम के कुंदे
लदवाने का काम शुरु किया। शहर को जाने वाली, और दूसरे छोर पर जंगल में गुम हो
जाने वाली यह जो सड़क है, बड़ी पुरानी है। कहा जाता है, त्रेता युग में राम
लक्ष्मण जानकी उसी से किसी तरफ गए थे। तब सोचिए, इसके किनारे लगे हुए शीशम के
पेड़ कितने पुराने होंगे। उनकी लकड़ी, एक तरह से, अष्टधातु की-सी हो गई है। ठाकुर
साहब ने इन्हीं पेड़ों का अपनी खटारा ट्रक से सवार और सवारी का रिश्ता बना लिया।
हर रात कोई-न-कोई पेड़ मशीन की तेजी से कटता, उसके कुंदे ट्रक पर शहर पहुँच जाते
और उसके बाल, अंतड़ियाँ और बचे-खुचे हिस्से पास-पड़ोस के गाँवों में पहुँच जाते।
यह काम कई महीने बड़े सुभीते से चला क्योंकि उन दिनों सड़क का जूनियर इंजीनियर
उनके साले का सहपाठी निकल आया। पर ठाकुर साहब इस कारोबार में ज्यादा दिन नहीं
टिके। शहर में इस बेशकीमती लकड़ी की बिक्री से उन्हें जो 'बीज पूँजी मिली' उसको
राष्ट्रीयकृत बैंको की विकासपरक नीति से जोड़-मिला कर उन्होंने ट्रकों और बसों
का एक बेड़ा धीरे-धीरे तैयार कर लिया। एक ट्रक का आधा मुनाफा शुरु में जूनियर
इंजीनियर साहब को और एक बस का विधायक जी को दिया जाने लगा। बाद में, विधायक जी
के राज्यमंत्री बन जाने पर ठाकुर साहब ने यह बस पूरी तौर से विधायक जी की
मार्फत राष्ट्र को अर्पित कर दी।
विकास एक चिरंतन प्रक्रिया है। ऐसा योजना आयोग ने कहा है। ट्रक से भेजी जाने
वाली शीशम की लकड़ी से शहर में कितना निर्माण-कार्य हुआ, कितने नए मुहल्लों और
घरों का विकास हुआ, इस पर भी लिखा जा सकता है; पर, क्षमा करें, अभी मुझे
उमरावनगर पर ही बहुत कुछ लिखना है।
ठाकुर साहब अब बड़े आदमी हैं। मधुमेह, रक्तचाप आदि से लैस। नपुंसकता भी आ जानी
चाहिए। पर उनकी मूँछें, दिन पर दिन उनके चेहरे की मोहक उग्रता बढ़ाती चली जाती
हैं। वे रईसी के इस दर्जे तक पहुँचने में अपनी आरंभिक दिनों का जिक्र नहीं करते
हैं, पर उनकी ट्रांसपोर्ट यूनियन इस इलाके में इतनी ताकतवर कैसे बनी है, इसका
जिक्र वे बिना लाग-लपेट करते रहते हैं।
'"बुरी नजर वाले तेरा मुँह काला" यूँ ही नहीं लिखा है। ऐसा है मास्टर साहब, कि
हमारी ओर जो भी बुरी नजर फेंकेगा, उसके लिए वह फोटो पहले ही बना दी गई है।'
ठाकुर साहब यह मेरे अध्यापक मित्र को, मेरी जानकारी के लिए सुना रहे थे।
'मैंने तो कुछ किया नहीं, मास्टर साहब। आप जानते ही हैं, मेरी मूँछें देख कर
बाहरी लोग मेरे बारे में कुछ भी सोचें, मैं झगड़ा फसाद से हमेशा दूर रहता हूँ।
किसी के लिए कभी कोई बात नहीं कही, खरा खेल फरुख्खाबादी! पर आप खुद सोचिए, जब
हमारी बसें और इक्के, और इक्के भी क्या, यहाँ से पच्चीस किलोमीटर तक जाते थे।
वहाँ कस्बे से उमरिया की ओर आनेवाली बसों पर लोग भेड़ियाधसान में बैठते थे। तब
कहीं शहर पहुँचते थे। हमने लाखों रुपए फूँक कर ये बसें चलाईं, फिर इकबाल मियाँ
की बसें भी बढ़ीं, फिर वर्मा की बसें आईं। अब मुसाफिर यहाँ से खटाखट ढाई घंटे
में शहर पहुँचता है।'
'तब उमिरियावालों ने चलाए टेंपो। कब? जब हमारी यूनियन ने लाखों रुपए बसों पर
फूँक दिए। तो तुम्हीं बताओ मास्टर साहब, टेंपो कैसे चलेंगे? चले? नहीं चले?
हमने कुछ नहीं किया। यही इकबाल मियाँ ने घुड़क दिया। टेंपो वाले दुम दबा कर
अपने-अपने बिलों में घुस गए।'
अब मैंने पूछा, 'सरकारी बसें भी तो चली थीं।'
'तो चलें। उन्हें कौन रोकता है? हुआ क्या कि स्कूली लड़कों ने एक बार दो बसें
फूँक दी। सुनते हैं कि कोई बदकलाम ड्राइवर था। कहीं पिट गया। तो वे बसें बंद हो
गईं। सरकार बस चलाए तो हम कैसे मना करेंगे? सरकारी ड्राइवर, खुद इस रूट पर नहीं
चलना चाहते। झूठ-मूठ हमारी यूनियन को बदनाम करते हैं?'
'सोचता हूँ, ये मूँछे मुँड़ा लूँ। बेमतलब लोग बदनाम करते हैं।' मैंने उन्हें मना
किया, छतनार मूँछों का महत्व समझाया। वे आश्वस्त हुए।
अध्यापक मित्र शरारत और खुशामद की मिली जुली-बोली में बोले, 'ठाकुर साहब,
दिनवाली रेल तो आप लोगों ने बंद कराई है।'
इस पर वे हँसे, 'यह तो हमें भी मालूम है। इकबाल मियाँ का करिश्मा है। सवेरे शहर
से आने वाली गाड़ी यहाँ रुकती थी, वही गाड़ी शाम को शहर जाते वक्त रुकती थी।
अचानक वह गाड़ी कैंसल हो गई है। कुछ लोग उड़ाते हैं कि इकबाल मियाँ रेलवे टाइम
टेबल बनाने वालों को कुछ ले-दे आए हैं। शुबहा मुझे भी है। पर राम-कसम, हमारी
यूनियन ने एक कौड़ी नहीं दी है। रेलवे को घाटा हो रहा था।'
सवेरे मैं घूमता हुआ स्टेशन तक गया था। रमणीक स्थान था। चारों ओर घनी बागें।
चिड़ियाँ इफरात में थीं। आदमजात दिखाई नहीं देता था। अब रात को शहर जाने वाली एक
गाड़ी आती है, दो बजे रात को रुकती है। जो गाड़ी शहर से आती है वह तीन बजे रात को
रुकती है। बसों पर बकरी, मुर्गी और इनसानों की मैत्री के लिए कोई खतरा रहा हो
तो वह दूर हो चुका है।
धर्म से धर्म बढ़ता है।
चार-पाँच घंटे में शीशम का बड़े-से-बड़ा पेड़ कटा कर मुँह अँधेरे उसकी जगह पर ऊसर
निकाल देना मामूली मेहनत का काम न था। इसके लिए एक अच्छे संगठन की जरूरत थी जो
सरकस के कार्यकर्ताओं की तरह शेरों की उछल-कूद खत्म होते ही तोप की नली से
जिंदा आदमी निकालने के लिए पलक झपकते स्टेज तैयार कर दे। ऐसा संगठन ठाकुर साहब
ने तैयार कर लिया था। वह बसों और ट्रकों के विस्तार के साथ और भी सुदृढ़ हो गया
था। इस संगठन ने भी उमरावनगर के विकास में 'कैटालिटिक एजेंट' का काम किया।
इस संगठन के आठ प्रमुख सदस्य थे। उनमें से एक किसी दिन ज्यादा दारू पी कर अपने
ही ट्रक के नीचे कुचल गया। दूसरा बिहार में कोयले की खदानों में काम करनेवाले
एक यूनियन लीडर का अंगरक्षक बन गया। बाकी छ: के लिए जीविका का कोई दृश्य-श्रव्य
साधन जरुरी था। उनके लिए सड़क के दूसरी ओर कुछ शानदार दुकानें बनवा दी गईं।
खपरैल की पुरानी इमारतें तोड़ कर शीशम से अर्जित थोड़ी सी पूँजी का निवेश कर के
इन दुकानों पर मदनानंद मोदक से ले कर डीजल के पंपिंग सेट तक बेचने की व्यवस्था
हुई। उधर बाग में राम-जानकी का जो मंदिर बना, वह भी इसी पूँजी का फल है। उसके
आगे बैंक की जो इमारत है, यह भी। घास चरते हुए खच्चर की पीठ तक पर जब आजकल बैंक
की शाखा खुल जाती है तो उमरावनगर में बैंको को तो आना ही था। ठाकुर साहब ने
वैसे इस बैंक की इमारत के लिए बैंक से ही कर्ज लिया था। पर सुनते हैं कि उस
कर्ज को उन्होंने दूसरों के बीच कर्ज पर उठा दिया। उनके ब्याज की दर बैंक से
तीन गुनी थी, पर वह कर्ज नहीं देते। इस तरह, जहाँ न जाय रवि, वहाँ गया कवि।
धर्म से धर्म बढ़ा। दरअसल, इकबाल साहब ने जब बाग में मस्जिद बनवानी शुरु की तभी
सामने की दूसरी बाग में मंदिर की नींव पड़ी। मस्जिद अभी पूरी हुई है, मीनारों की
धुसलनी लाल ईंटो पर जो कीमती टाइल लगने हैं, वे अभी हैदराबाद से नहीं आए हैं।
पर उनके ऊपर डमरु-जैसा लाउडस्पीकर का एंप्लीफायर पहले से लग गया है। उधर दूसरी
ओर मंदिर से लगी हुई दो बीघा जमीन में स्वामी रघुबरदास का आश्रम फैला है। इसमें
थोड़ी जमीन इकबाल मियाँ की भी थी। सांप्रदायिक सद्भाव कहिए, या अनेकता में एकता,
या ठाकुर साहब के साथ की गिरोहबंदी, इकबाल मियाँ ने यह जमीन आश्रम को सौंप दी
है।
इस समय राम भगवान उर्फ स्वामी रघुबरदास, सिंहासन पर विराजमान हैं। आजानुबाहु,
वृषस्कंध, व्यूढोरस्क, कोटि-मनोज-लजावन-हारेवाले राम से उनका हुलिया बिलकुल
नहीं मिलता। देखने में वे गिरिस्ती की चट्टान के नीचे दबे, अधखाए, अधभूखे,
थके-थकाए किसी देहाती कालेज के बड़े-बाबू जैसे लगते हैं जो कि वे कभी थे भी।
लाल मखमली चँदोवे के नीचे, जिसमें चाँदी के चमकदार तारों से बेलबूटे सजा कर
रघुवंशियों के दरबारे-आम की रौनक पैदा की गई है, एक दूसरे सिंहासन पर
सियादुलारी बिराजी हुई हैं। राम भगवान ने उन्हें कालिज ही में पहचान लिया था,
जब वे जिलेदार साहब की मदद से वहाँ हाई स्कूल में पढ़ने जाती थीं। सियादुलारी
मूर्ति की तरह निश्चल बैठी है, सिर्फ साँवले-सलोने चेहरे पर बड़ी-बड़ी मदभरी आँखे
स्थिर नहीं हो पा रही हैं।
राम भगवान एक श्लोक बोलते हैं, फिर एक स्वरचित भजन गाने लगते हैं। सामने बैठा
भक्त-समुदाय, जिसमें पीतांबरा बालिकाओं का बहुमत है, उस भजन की कड़ी को उठा लेता
है।
उधर लाउडस्पीकर पर अजान शुरु होती है।
बी.डी.ओ. साहब ने बताया:
'अभी तक सब ठीक है। ठाकुर साहब और इकबाल मियाँ के रहते झगड़े का डर नहीं। पर
इनके बाहर चले जाने पर दो-तीन बार झमेला होते-होते बचा है। अब सुनते हैं, इन
दोनों ने खुद पुलिस कप्तान से कहा है कि यहाँ सशस्त्र पुलिस की एक कंपनी तैनात
कर दी जाए। ठाकुर साहब की कोठी के ऊपरी तल्ले खाली पड़े हैं। वे किसी छोटे घर
में जा कर रहना चाहते हैं। कंपनी के लिए वे कोठी किराए पर उठाने को तैयार हो गए
हैं। कंपनी कमांडर के रहने का इंतजाम इकबाल मियाँ कर देंगे।'
मजहर मियाँ की भरत−भक्ति
ठाकुर साहब और इकबाल साहब के सद्भाव का मुख्य आधार पंचशील का वह शील रहा है
जिसके अंतर्गत पड़ोसी राज्यों को एक-दूसरे की सीमा का सम्मान करना चाहिए।
उमरावनगर के आसपास फैले जंगलों में चोरी और सीनाजोरी के सहारे चलनेवाली पेड़ों
की कटाई की परंपरा बहुत पुरानी है। जंगलों की नाजायज कटाई पर वहाँ इकबाल मियाँ
का एकाधिकार रहा है। पहले वे गाँव के पास एक उससे भी छोटे गाँव में भी रहते थे।
बाद में, बिजली आ जाने पर, उन्होंने सड़क के किनारे लकड़ी चीरने के लिए मशीनें
लगवा लीं। उसे फैक्टरी कहा जाने लगा और उसी से सटा कर उन्होंने अपना मकान भी
बनवा लिया। सरकारी जंगल के एक छोर पर एक छोटा सा निजी जंगल था। वहाँ कुटिया डाल
कर उनके छोटे भाई मजहर मियाँ भाई की सेवा करने लगे।
ठाकुर साहब ने सरकारी जंगल की लकड़ी पर कभी कुदृष्टि नहीं डाली। वह इकबाल मियाँ
का काम था। खुद वे सड़क के किनारे वाले शीशमों पर तत्पर रहे। इस तरह लकड़ी का
कारोबार करते हुए भी दोनों में कभी खटपट नहीं हुई। बाद में ट्रांसपोर्ट यूनियन
में उनकी दोस्ती और भी पक्की हो गई।
पहले भी मजहर मियाँ सरकारी जंगल से श्रद्धापूर्वक पेड़ कटवा कर बड़े भाई की
फैक्टरी में भिजवाया करते थे। पर दूसरी कोठी में वन विभाग का प्रभाग खुलने के
बाद इस कारोबार को सही दिशा मिल गई। पहले ही साल डिपो की लकड़ी की नीलामी राज्य
में सबसे ऊँची कीमत पर टूटी। आखिरी बोली इकबाल मियाँ की थी। देखते-देखते सारे
प्रदेश में वन-निगम का यह प्रभाग इतनी आमदनी देने लगा कि उसे देख कर बड़े-बड़े वन
अधिकारी वन्य-प्राणियों की तरह चिंघाड़ने लगे। वहाँ के मैनेजर का टिकना मुश्किल
हो गया। जैसे ही कोई मैनेजर वहाँ तैनात होता, पहली नीलामी के बाद ही उसका दफ्तर
ऊँचे हाकिमों के बधाई-पत्रों से पट जाता, वनमंत्री 'योग्य अफसरों को प्रोत्साहन
और निकम्मे अफसरों का सत्यानाश' की नई नीति के अंतर्गत उसे पुरस्कार देने की
घोषणा करते और कुछ ही दिनों में तरक्की के साथ उसका तबादला कर दिया जाता।
उमरावनगर के मैनेजर का पद इस प्रकार एक से एक घिनौने और नाकरा अफसरों की तरक्की
की गारंटी बन गया। पर यह सब इकबाल मियाँ उर्फ ठेकेदार साहब की दरियादिली का फल
था - यह और बात है कि दरिया में फल नहीं लगता।
सड़क के किनारे जहाँ ठाकुर साहब के बहादुरों की आधुनिक दुकानें खत्म होती थीं,
लकड़ी की चिराई के लिए आरा मशीनें और दरवाजा, खिड़की, चौखट आदि के निर्माण के
तीन-चार नए कारखाने खुल गए थे। यह ठेकेदार साहब के आदमियों के थे। इनका प्रमुख
व्यवसाय कायाकल्प का था। जी नहीं, ये ब्यूटी पार्लर-जैसी चीज नहीं थे। ये सिर्फ
जंगल में चोरी से काटी हुई लकड़ी का कायाकल्प करके उसे नीलाम में खरीदी लकड़ी की
हैसियत दे देते थे। कैसे? लकड़ी के बड़े-बड़े कुंदों को यह कारखाने पटरों, चौखटों
दरवाजों, खिड़कियों आदि में बदल देते थे। फिर ट्रक पर जब यह सारा माल लद जाता
तो, जैसे बाजार में बिकने वाले मसाले के पैकेट में पिसी धनिया के बीच घोड़े की
सूखी लीद की पहचान नहीं हो सकती, यह जानना असंभव होता कि कौन लकड़ी चोरी की है
और कौन सरकारी नीलामी की। ट्रक पर जाने वाली लकड़ी के कुंदों की तो रोक-टोक हो
सकती थी, पर इन पैकेटों पर कोई पाबंदी मुमकिन न थी।
इसीलिए ठेकेदार साहब वन-प्रभाग की नीलामी में सरकारी लकड़ी पर ऊँची-से-ऊँची बोली
लगाते। वह लकड़ी उन्हें हर हालत में लेनी थी। उनके कारखाने में पहुँच कर उसकी
हैसियत वही हो जाती जो उद्योगों के लिए कर्ज लेने में 'मार्जिन मनी' की होती
है। इस लकड़ी के सहारे वे उससे नौ गुना वजन और आयतन तक की लकड़ी को जंगल के
चोर-बाजार से दो मुश्त खाक-नुमा दरों पर खींच कर 'मेसर्स इकबाल हुसेन एंड
ब्रोज, गवर्नमेंट क्रान्ट्रैक्टर ऐंड टिंबर मर्चेंट' की फर्म चमका रहे थे। जब
तक उनकी आखिरी बोली के राकेट पर चढ़े हुए वन अधिकारी आपस में बधाइयाँ बाँटते तब
तक जंगल का दूसरा टुकड़ा कट कर सीधे इन कारखानों में पहुँच जाता। वन-प्रभाग की
समृद्धि का ग्राफ ऊपर उठते हुए जितना ही चमकता, उसी अनुपात से प्रभाग के पेंदे
का सुराख चौड़ा होता जाता। पर अच्छाई यह है कि गतिशील अर्थ-व्यवस्था में सिर्फ
ग्राफ देखा जाता है, पलट कर पेंदा नहीं देखा जाता।
राष्ट्र निर्माण में ऊठाईगीरी की भूमिका
मित्र के मकान तक पहुँचने वाली गली इतनी संकरी थी कि अगर कोई औरत मर्द
आमने-सामने से निकल जाते तो इतने पर ही एक का बलात्कार, या दोनों का व्यभिचार
के जुर्म में चालान हो सकता था। इस वक्त तो वहाँ कचरे और कीचड़ के पैबंद भी
छितरे हुए थे। जैसे वे बिजली के नंगे तार हों, इस तरह उनको बचाते हुए मेरे
मित्र दीवार के सहारे फुदक-फुदक कर सड़क तक आए, पीछे-पीछे मैं। हम लोग इकबाल
मियाँ उर्फ ठेकेदार साहब उर्फ सत्ता पार्टी के स्थानीय अध्यक्ष की दावत खाने जा
रहे थे। हम लोग आमंत्रण की पहली सूची में न थे, प्रदेश के वित्तमंत्री की
सिफारिश पर बाद में शामिल किए गए थे।
कंप्यूटर प्रशिक्षण आज खत्म हो गया था। वित्तमंत्री समापन भाषण देने आए थे।
जलसे के मुख्य अतिथि थे राज्य मंत्री, प्रशासनिक सुधार और कोई ऐसा ही वैसा
विभाग। कर्ता-धर्ता : बी.डी.ओ. साहब, दावत का मैदान : कोठी नंबर तीन का अहाता।
दावत के प्रमुख आकर्षण : बकरा, मुर्गा, मछली। फिर मनोरंजन कार्यक्रम में
ग्राम-गीत, बिरहा का प्रमुख विषय : बीस-सूत्री कार्यक्रम की गौरव-गाथा,
रा-जी-ई-ई-वा-आ भइया का दीन-दुखियों से तीन पीढ़ी का लगाव।
इधर जंगल के किनारे कुछ आदिवासी बसे हैं। बकरियों और मुर्गियों की आपूर्ति उनकी
झोंपड़ियों से होती है। उस तरफ, जहाँ बहुत दूर पेड़ों के झुरमुट के पास एक छुद्र
नदी बहती है, धीवरों के घर हैं। वहाँ से मछली आती है। ये चीजें इस इलाके में
इफरात से मिलती है। नदी के किनारे चुवाई हुई कच्ची दारु भी। मछली या मुर्गा
खरीदने पर दारु किफायती दर से मिल जाती है। कुल मिला कर खाने-पीने की सुविधा
है, बशर्ते कि दाम देने का बूता हो। वह ठेकेदार साहब में है ही।
वित्तमंत्री भारतीय पत्रकारिता को गैरजिम्मेदार और ओछी मानने के लिए मशहूर हैं।
पर 'पाप को घृणा करो, पापी को नहीं' का सिद्धांत मान कर पत्रकारों को वे प्यार
करते हैं। पत्रकारों में भी पत्रों के मुख्य संपादक और रिर्पोटर उनके प्यार और
सत्कार के घड़े से छक कर पी सकते हैं। उप-संपादकों और दूसरे डेस्क अफसरों के लिए
सिर्फ तलछट बचती है।
वैसे तो मैं इसी तलछट सूँघनेवाली श्रेणी का था, पर वित्तमंत्री मुझे जानते थे।
इसीलिए आमंत्रितों की पुनर्विचारित सूची में मुझे और मेरे मित्र को जगह मिल गई।
पर दावत में मैंने पाया, पूरे मजमे में अकेला गैरसरकारी पत्रकार होने के नाते
मैं हाशिएवाला अतिथि नहीं हूँ, मंत्री जी की मुस्कान की स्पॉटलाइट बार-बार मुझी
पर पड़ रही है।
दावत और ग्राम-वाम गीत-वीत के बाद और मंत्री जी के वापस जाने के पहले थोड़ी देर
हम लोग इधर-उधर की हाँकने के लिए रुके। पर इधर-उधर की हाँकने में भी मंत्री तो
राष्ट्र-निर्माण, गरीबी की रेखा, ग्राम-विकास आदि की बात करेगा ही। उसी के
दौरान वित्तमंत्री ने उमरावनगर के चमत्कारी विकास का जिक्र किया, उस पर मेरा
अनुमोदन माँगा, यह भी बताया कि जमीन न मिल पाने के कारण जो सिंचाई परियोजना
यहाँ इतने साल से अधूरी पड़ी थी वह अब शीघ्र पूरी हो जाएगी।
'तब तो उधरवाला वह बाजार जल्दी ही बन जाएगा' मैंने कहा।
'वह तो बनेगा ही। यहाँ इतना स्टाफ आ कर रहेगा कि एक बड़े आधुनिक बाजार के बिना
काम नहीं चलेगा।'
'उधरवाला' बाजार मैं दो-तीन दिन पहले देख चुका था। अधूरी इमारतें पड़ी थीं, ईंट
की दीवारों पर काई जमी थी। पता ही नहीं चलता था कि किसी पुरानी इमारत का खंडहर
है, या नई की शुरुआत है, क्योंकि सिंचाई परियोजना चार साल पहले ठप हो गई थी।
उसकी सीमेंट, लोहे और दूसरी सामग्री से गुप्ताजी नामक भट्टेवाले जितना बनवा
सकते थे, बाजार का उतना भाग बनवा चुके थे। परियोजना के साथ बाजार का काम भी ठप
हो गया था।
'आप तो यहाँ कई दिन से हैं, यहाँ की जोरदार प्रगति और विकास को आपने खुद देखा
है। देखिए, अखबारों में हत्या, बलात्कार और रहजनी आदि पर खूब छपता है, क्या इस
पर कुछ नहीं लिखा जाना चाहिए? ग्रामीण अर्थशात्र में मैं आपकी रुचि जानता हूँ।
लिखेंगे न?'
वे और उनके लग्गू-भग्गू मुझे उत्साह से ताक रहे थे। मुझे कुछ सोचना नहीं था, पर
सोचने का अभिनय करना जरुरी था। कुछ रुक कर, यह देखते कि मेरे श्रोताओं में
इकबाल मियाँ और ठाकुर साहब आदि भी मौजूद है, मैंने मंत्री जी से अंग्रेजी में
कहा, 'लिखना तो मैं जरूर चाहूँगा पर एक सैद्धांतिक गुथ्थी का हल मैं नहीं निकाल
पाया हूँ। केंद्र में आपका वित्त मंत्रालय बार-बार दोहरी अर्थव्यवस्था, काला
धन, कर चोरी, गबन, धोखेधड़ी आदि के खिलाफ जिहाद बोलने की घोषणा करता है; पर छोटे
पैमाने पर यहाँ का अध्ययन करके मुझे लगता है कि राष्ट्र-विकास के सरकारी
प्रयासों के साथ अगर इन प्रवृत्तियों का खुले तौर से जोड़ मिल जाए तो विकास की
प्रक्रिया बहुत तेज हो जाएगी। अगर सार्वजनिक कार्यक्रम में चोरी और उठाईगिरी न
चलती होती तो मुझे पूरा यकीन है कि उमरावनगर में अब तक चार-छ: सरकारी इदारे खुल
जाने के बावजूद वह आज भी उन्हीं खपरैल की झोपड़ियों वाला गाँव बना होता और जो आज
यहाँ मध्यवर्ग के अभिजात परिवार हैं, वे गरीबी की रेखा के नीचे घिसट रहे होते।
ये कोठियाँ, ये कारखाने, ये समृद्ध दुकानें..।'
अचानक ठाकुर साहब कुछ बोले और मैं सन्न रह गया। उन्होंने अंग्रेजी में कहा, 'आप
हम सबको चोर और उठाईगीर बता रहे हैं?'
जितनी भी रही हो, मैंने अपनी सारी शिष्टता उन पर उड़ेल दी, उन्हें ठंडा करने कि
लिए अर्थशास्त्र के कुछ बड़े फिकरों का प्रयोग किया, ताकि उन्हें यकीन हो जाए कि
बात गाली-गलौज की नहीं, ऊँचे सैद्धांतिक विश्लेषण की है। गलतफहमी के लिए उनसे
माफी माँगी, कहा, 'जी नहीं, मैं दूसरी ही बात कर रहा हूँ। देश की राजधानी का
उदाहरण लें। पिछले एशियाड में सैंकड़ों करोड़ रुपए लगा कर राजधानी का आधुनिकीकरण
किया गया। उसी प्रकिया में हजारों छुटभैये, गरीबी की रेखा और निम्नवित्तीय वर्ग
का बाड़ा तोड़ कर ऊपर उभर आए। उठाईगिरी से ही सही, अपनी कोठियों और बैंक लाकरों
और नई मोटरों के बूते वे मध्यवर्ग में घुस चुके हैं। मैंने माना कि अगर चोरी और
उठाईगिरी के तत्व सक्रिय न होते तो एक बड़ी सार्वजनिक धनराशि आपके हाथों उन्हीं
के नियोजित कल्याण के काम आ सकती थी, पर उसमें वक्त लगता। यह भी तय न हो पाता
कि सरकार की निगाह में उनका जो नियोजित कल्याण है, वह खुद उनकी निगाह में
कल्याणकारी है या नहीं।'
वित्तमंत्री बोले, 'मजाक आप अच्छा करते हैं, पर मजाक में भी यह न भूलिए कि आज
भी देश के सैंतीस फीसदी लोग गरीबी की रेखा के नीचे हैं। और उनका चोरी और
उठाईगिरी में विश्वास नहीं है।'
मैंने कहा, 'नहीं है तो हो जाएगा। उमरावनगर से नई दिल्ली तक राष्ट्र-निर्माण के
बाई-प्रोडक्ट के रूप में, मध्यवर्ग का जो एक पूरा समुदाय शुद्ध चोट्टेपन के
आधार पर उभर रहा है। क्या यहाँ नदी किनारे बसने वाले मल्लाह नहीं जानते कि उनके
लिए मछली−पालन के कर्ज की दलाली करके कोई भी ग्राम-विकास अधिकारी साल भर में
लखपती बन सकता है।'
मैंने मंत्री जी को लगभग पुचकारते हुए कहा, 'अब मान भी जाइए। घूसखोरी, फरेब,
काले धंधे आदि के खिलाफ शोर न मचा कर अब इन धंधेवालों से समन्वय कर के कुछ
दिनों के लिए एक सचमुच की समन्वित ग्राम-विकास परियोजना लागू हो जाने दीजिए।
फिर देखिए, विकास कैसी तेजी से होता है।'
मंत्री जी जोर से हँसे, बोले, 'आपका मस्खरापन कभी जाएगा नहीं। आप भ्रष्टाचार और
चोरी के सिद्धांत पर राष्ट्र का निर्माण करना चाहते हैं?'
इस बार मेरे मित्र ने पहली और अंतिम बात कही, 'जी नहीं, ऐसा नहीं है। आप लोगों
की कृपा से राष्ट्र का निर्माण वास्तव में जिस तरह हो रहा है, हमारे दोस्त उसी
प्रक्रिया को एक सैद्धांतिक आधार देने की कोशिश कर रहे हैं।'
कुंभीपाक से असिपत्र की जोर
लौटते में बकरियों और मुर्गों की सोहबत से बचना चाहता था। इसलिए मुँह-अँधेरे हम
दोनों किसी इक्के के इंतजार में सड़क पर आ कर खड़े हो गए। ट्रान्सपोर्ट यूनियन ने
रेल, सरकारी बस, टेंपो, टैक्सी आदि का जहाँ चक्का जाम किया था, वहीं इक्के वाले
को टिक्-टिक् करते रहने की छूट दे रखी थी। पुरानी चीज है, अपने-आप कभी-न-कभी सड़
कर गिर जाएगी, ऐसी ही किसी धारणा के अनुसार जैसे लोग अपने पुराने छप्पर में आग
नहीं लगाते, वैसे ही उन्होंने इक्के वालों के चौपट व्यवसाय में भी हस्तक्षेप
नहीं किया था।
ज्यादा देर रुकना नहीं पड़ा। धुँधलके में दूर से दिखा तो नहीं, पर इक्के का आना
सुनाई जरूर पड़ा। पास आने पर मित्र ने उसे रुकने को कहा। जवाब में इक्केवाले ने
घोड़े को कोड़ा लगाया, ललकारा और इक्का तेजी से सड़क पर भागा। मित्र ने 'रुको,
रुको' की आवाज लगाई, हम दोनों पीछे दौड़े भी, पर वह तब भी नहीं रुका।
तब मित्र ने दहाड़ कर इक्केवाले को एक बड़ी फूहड़ गाली दी। 'रुक साले, नहीं तो…।'
'नहीं तो' जा तत्काल असर हुआ। इक्का रुक गया।
मित्र ने जवाबतलब करना शुरु किया। इक्केवाले ने बताया कि इन लल्ली ने पूरा
इक्का किराए पर ले रखा है, दूसरी सवारी नहीं बैठानी है। तब बात इक्के पर बैठी
लल्ली पर आ गई, जिसे संक्षिप्त करते हुए लल्ली ने इक्केवाले से कहा, 'इन्हें
बैठा लो और इक्का आगे बढ़ाओ।'
इस तरह के इक्के को इधर खड़खड़ा कहते हैं। अगर इसके पहिए ठोस लकड़ी के हों और एक
घोड़े की जगह दो बैल जुते हों तो इसे बैलगाड़ी भी कहा जा सकता है। मतलब यह कि
उसमें दो आदमियों के फैल कर बैठने की गुंजाइश थी, यह और बात है कि लल्ली नामक
सवारी, जब तक हम परिचित नहीं हो गए, बराबर सिकुड़ कर बैठी रही।
परिचित तब हुए जब कई किलोमीटर निकल जाने पर उन्होंने बुर्के का नकाब उलटा, 'इधर
आसमान उलटा, उधर आफताब उलटा' वाली बात तो नहीं हुई, पर मैं वह चेहरा देखते ही
अचकचा उठा। पर्दानशीन लल्ली कोई मुस्लिम महिला न थी, छँटते धुँधलके में मैंने
पहचाना, वे सियादुलारी थीं।
'सियादुलारी? आप?'
सार्वजनिक सभाओं में संभाषण के अभ्यास से उन्होंने संक्षिप्त, सधे ढंग से कहा,
'मेरा नाम फूलमती है।'
धीरे-धीरे, अंग-संचालन का कम-से-कम इस्तेमाल करते हुए, उन्होंने बुर्का उतारा।
उसे कायदे से तह करके एक झोले में रख लिया। उनके जिस्म पर इस समय पीली साड़ी न
थी, न कत्थई ब्लाउज था। वे नाइलॉन की छापेदार साड़ी पहने थीं। साँवले रंग पर
एकदम तो नहीं जम रही थी, पर उनकी उम्र में बुरी भी नहीं लग रही थी।
मेरे दिमाग में कई सवाल थे, पर पूछने को एक भी न था। जवाब उन्होंने ही शुरु
किया, 'बड़ा घिनौना आदमी है।'
यह दिखाने को कि मैं समझ रहा हूँ, मैंने सिर हिलाया। वे बोली, 'आप बाहरी आदमी
हैं, इसलिए आपसे कहने में कोई हर्ज नहीं। तीन किलोमीटर आगे चौराहा आएगा, वहाँ
उमिरिया से शहर जानेवाली बसें मिलती हैं। हमें पहली बस मिल जाएगी।'
'मैं भी उसी से शहर जा रहा हूँ।'
'आप उससे मत जाइएगा। वहीं रुके रहिए। बाद वाली बस से जाइए।'
इक्केवाले ने कहा, 'तुम चौराहे के पहले ही उतर जाना बाबूजी। कोई तुम्हें इनके
साथ देखे, उससे फायदा क्या है?'
'नुकसान ही क्या है।'
फूलमती ने कहा, 'तब ठाकुर साहब और स्वामी जी महाराज के चेले मास्टर साहब को तंग
करेंगे। समझेंगे, मैं आप दोनों के कहने पर वहाँ से भागी हूँ।'
'आप भाग रही हैं?'
इसका उन्होंने तुरंत कोई जवाब नहीं दिया। इक्केवाला बोला, 'इनके बापू शहर में
बीमार पड़े हैं। उनका और कोई नहीं है। स्वामी जी महाराज इन्हें वहाँ जाने नहीं
देना चाहते।'
'जिलेदार साहब अभी जिंदा हैं?'
यह बेवकूफी भरा सवाल था। पर मेरे लिए एक बड़ा स्वाभाविक था। उनकी पुरानी कथाएँ,
एक मल्लाह बेवा से उनके नाते-रिश्ते सुनते-सुनते मैं उन्हें इतिहास पुरुष मान
बैठा था।
फूलमती ने तमक कर कहा, 'जिंदा नहीं तो क्या मर गए?' आप यही चाहते हैं?
क्षमायाचना में मैंने सिर नीचा कर लिया। उन्होंने सहज बन कर कहा, 'बापू शहर में
रहने लगे थे। मैं भी वहीं पढ़ती थी। अम्मा उमरावनगर में ही रही। साल-भर बहुत
बीमार रहीं। पेट में शूल उठा करता था, संग्रहणी, बुखार - न जाने क्या-क्या? अब
बाबू को भी यही रोग लगा है।'
कुछ कहना था, इसलिए पूछा, 'तो बापू की देखरेख के लिए जा रही हैं?'
इस बार इक्केवाला भड़का, बोला, 'इन्हें जाना तो था ही। स्वामी जी महाराज इनकी
जगह एक दूसरी सियादुलारी ला रहे हैं। तुमने वहाँ देखा होगा बाबूजी, एक
गोरी-गोरी चमकुल सी जनाना आगे बैठी रहती हैं। स्वामी जी अब कहने लगे हैं कि
'सियादुलारी साँवले रंग की नहीं हो सकती।'
'तब स्वामी जी इन्हें जाने क्यों नहीं देना चाहते?'
'स्वामी जी हैं। अपनी लीला आप जानें।'
चौराहे के कुछ पहले ही मैं उतर गया। उतरते-उतरते पूछा, 'यहाँ कोई स्वामी जी का
चेला मिला गया तो?'
'यहाँ मुझे डर नहीं है। राकेश भाई यहाँ पहले ही आ गए हैं।'
'राकेश भाई?'
'हमारी युवा पार्टी के अध्यक्ष है न जो, वही। आप नहीं जानते? बहुत बड़े युवा
नेता हैं।'
चिड़ियाँ चहकने लगी थीं, पर किसी की भी चहक अब फूलमती-जैसी न थी। मैंने इक्के पर
हाथ रख कर उसे रोके रक्खा, मेरी सुन्न जिज्ञासाएँ जाग उठी थीं।
'तो बापू के साथ रहते हुए आप राकेश भाई के साथ काम करेंगी?'
'पढ़ूँगी और काम करूँगी। राकेश जी भाई कहते हैं, मैं बोल बहुत अच्छा लेती हूँ।
पहाड़ों पर एक युवा-कैंप लगने वाला है। राकेश भाई कहते हैं, वहाँ मुझे कैंप में
अधातम पर लेक्चर देने होंगे।'
'काहे पर?'
'अधातम पर। भौतिक जगत निस्सार है न?'
उन्हें नमस्कार करके इक्के को आगे बढ़ जाने दिया। इच्छा हुई थी, एक बार आगाह
करूँ, उस निस्सार भौतिक जगत व्यवस्था के बारे में समझाऊँ जिसमें एक मल्लाह बेवा
एक भद्रपुरुष का आसरा पा कर भी यतीम की तरह शायद नासूर से बिना इलाज मरी है,
जिसमें उसकी लड़की उससे भी ज्यादा भयानक एक सामाजिक नासूर का शिकार हो रही है।
पर उसका न समय था, न मेरी उस बात का कोई श्रोता ही था। फिर भी, अब कल रात की
मेरी बातचीत का एक जवाब सवाल की शक्ल में ऊपर उभरने लगा : चोरी और उठाईगीरी की
व्यवस्था कुछ दिनों के उस विकास की झलक भले ही दिखा दे जो मध्यमवर्गियों का
स्वर्ग है, पर उसमें फूलमती की जगह कहाँ पर होगी?
पुराणों में कुंभीपाक मवाद और मज्जा से भरा हुआ एक नरक है, एक दूसरा नरक
असिपत्र है जहाँ राह में खड़े पेड़ों पर तलवारों की पत्तियाँ होती हैं और वे
पग−पग पर देह में घाव करती हैं। शरत्काल की इस सुनहरी सुबह में मेरा मन तब उसके
लिए भारीपन महसूस करने लगा जिसकी राकेश भाई चौराहे पर राह देख रहे हैं, जो
कुंभीपाक से छूटते ही असिपत्र की ओर बढ़ने लगी हैं। उमरावनगर का विकास चाहे
वित्तमंत्री के सिद्धांतों से हो, चाहे इकबाल मियाँ की व्यवहार बुद्धि से, इन
नरकों की सत्ता पर उसका कोई असर नहीं पड़ेगा। फूलमती को याद करके मुझे लगा, ये
दोनों विकास-तंत्र यहीं एक साथ मुँह के बल गिरते नजर आते हैं।
संस्कृत-पाठशाला में प्रसाद
पंडितपुर की संस्कृत-पाठशाला का प्रसंग है। पंडित प्रेमनाथ शास्त्री भाषा और
संस्कृत के विद्वान हैं। वे दकियानूस नहीं हैं। इसलिए भारवि और माघ के
साथ-ही-साथ कभी-कभी प्रसाद और निराला का भी नाम ले लेते हैं। उन्हें सब
छायावादी कवियों के नाम याद हैं। वे यह भी जानते हैं कि महादेवीजी संस्कृत
की एम.ए. हैं, निराला ने बचपन में श्लोक लिखे थे और प्रसाद ने संस्कृत का
अध्ययन घर पर किया था। पंत के बारे में उनकी राय अच्छी नहीं है क्योंकि पंत ने
प्रभात का प्रयोग स्त्रीलिंग में किया है और 'दृग सुमन फाड़' में समास का विग्रह
पैदा कर दिया है।
प्रभात बेला है। छायाएँ लंबी हो कर फैली हैं। अतः वातावरण छायावादी है।
संस्कृत-पाठशाला का चबूतरा टूट कर धरती के उर पर चिंता-भार-सा टिका है। उस पर
पड़ा हुआ छ्प्पर देख कर लगता है कि यहाँ प्रलय की लहरें आ चुकी हैं और उस पर
पालना बन कर निकल चुकी हैं। उस छ्प्पर में बर्र के छत्ते शीतल ज्वाला-सी जला
रहे हैं। यत्र-तत्र फैली मक्खियों का समुदाय हृदय में बसी हुई सुधियों की
बस्ती-सा जान पड़ता है। पाठशाला के सामने जामुन का पेड़ टपक रहा है जिससे कण-कण
में स्पंदन है। वहीं घने प्रेमतरु-तले एक सरोवर है जहाँ 'ले चल मुझे भुलावा दे
कर' वाला हाल-चाल दिखाई देता है। जामुन टपकते हैं, विद्यार्थी खाकर गला
खराब करते हैं और वायु मर्मर-स्वर में तरु−पल्लवों द्वारा कहती है, 'अब भी चेत
ले तू नीच'; मेंढक बोलते हैं, 'करु. का. ब.,' 'करु. का. ब.,' जैसे इशारा कर रहे
हों, 'करुणा कादंबिनी बरसे!'
इसलिए इसमें आश्चर्य ही क्या कि पंडित प्रेमनाथ शास्त्री बालकों को प्रसाद का
काव्य पढ़ाने लगें! प्रसंग 'गायंति देवा: किल गीतकानि धन्यास्तु ये
भारतभूमिभागे' ने खोला। वे बोले :
'अहा! धन्य हैं भारत-भूमि-भाग के रहनेवाले! देवता तक यह गीत गाते हैं...'
शास्त्रीजी का शीश छायावादी काव्य के अर्थ-सा जटिल है। मस्तक पर रक्तचंदन की
बिंदी-ही-बिंदी दिखाई देती है, मानो कवि के मन में किसी अपरिचित प्रीतिमयी
नायिका की स्मृति हो। छायावादी शब्दावली-सी कोमल और मधुर मुख-मुद्रा है।
हृत्तंत्री-जैसा टूटा हुआ चश्मे का फ्रेम है। उसे स्नेह की डोर के समान धागे
से जोड़ कर कान तक पहुँचाया गया है। वाणी में ऐसी विवशता है मानो बिदाई में
वेदना मिली है। वे अब कह रहे हैं :
'बालको, यहीं प्रसाद जी ने भारत-वंदना में जो गीत लिखा है उसे भी सुन-समझ लो।'
'कवि कह्ता है :
अरुण यह मधुमय देश हमारा।
जहाँ पहुँच 'सुनसान' क्षितिज को
मिलता एक सहारा।
[पंडित जी ने 'अनजान' का पाठांतर 'सुनसान' बना कर कहा : ]
'इसका गौण अर्थ यह है कि हमारा देश लाल-लाल है। यहाँ पहुँच कर सुनसान क्षितिज
को एक सहारा मिल जाता है।'
अब इसका विशेष अर्थ देखो।
'अरुण का अर्थ है लाल। कवि-समय के अनुसार जैसे मलिनता आकाश और पाप का लक्षण है,
धवलता यश, हास और कीर्ति का, वैसे ही लाल रंग क्रोध और अनुराग का लक्षण है।
"मालिन्यं व्योम्नि पापे यशसि धवलता वर्ण्यते हासकीतर्यौ रक्तं चं
क्रोधरागौ….।" इससे यह सिद्ध हुआ कि अपने देश में क्रोध और राग की प्रधानता है।
अर्थात क्रमश: रौद्र और श्रृंगार रस का यहाँ प्राचुर्य्य है। अब 'मधु' का अर्थ
लो। मधु माने मीठा। मधु का अर्थ मदिरा भी होता है। साथ ही उपनिषद वाक्य है,
"चरन् वै मधु विंदति।" यहाँ मधु का अर्थ अमृतत्व है। यदि मधु का अर्थ मधुर लें
तो प्रमाणित होगा कि अपने देश में मिष्ठान्न का आधिक्य है। मिष्ठान्न का आधिक्य
होने का ही परिणाम यह हुआ कि इस देश में ब्राह्मण-संस्कृति बहुत काल तक उन्नत
स्थिति में रही। अथवा, मधु माने शहद; सो शहद सात्विक वृत्ति का द्योतक है,
अर्थात यह देश सात्विक गुणप्रधान है। मदिरा का अर्थ लिया जाय तो मदिरा यक्षों
का पेय है। कालिदास ने "यस्यां यक्षा: सितमणिमयान्येत्य हर्म्यस्थलानि" वाले
प्रकरण में कहा है कि यक्ष मधुसेवन करते हैं। अमरकोष में कहा है :
विद्याधराप्सरो यक्ष: ...
भूतोऽमि देवयोनय:।
'अत: मधुलाभार्थ इस देश में यक्षादि देवयोनियाँ आ कर बसीं। मधुमय बता कर कवि यह
कहना चाह्ता है कि यह देश देवयोनियों का प्रिय है। पुन: देखो, मधु अर्थात
अमृतत्व। कहा जा सकता है कि अपने देश में अमृतत्व भरा है। अर्थात, यहाँ मनुष्य
अमर है। या यूँ कहिए कि यहाँ अमर अर्थात देवगण मनुष्य हो कर आते हैं। ''अमरा
निर्जरा देवा: इत्यमर:'' - इसे ''गायंति देवा:'' के ''भवंति भूय: पुरुषा:
सुरुत्वात्'' से सिद्ध किया जाय तो संगति बैठेगी। कुल मिला कर अर्थ यह हुआ कि
इस देश में सात्विक पुरुष रहते हैं, यक्ष रहते हैं तथा देवता वास करते हैं। कुछ
विद्वानों का अर्थ के विषय में यह मत है कि अरुण अर्थात सूर्य मधु-भरा अर्थात
अमृत्वपूर्ण है और वही हमारा देश है, ऐसा गीत का अर्थ है। इससे यही प्रमाणित
होता है कि इस देश में सभी सूर्यवंशी हैं और चंद्रवंशी किसी दूसरे देश से आए
थे। सुकवि प्रसाद जी इतिहास के प्रकांड पंडित थे। इस पंक्ति में उन्होनें
भारतीयों के सूर्यवंशी होने का सिद्धांत प्रतिपादित किया है।
'अब दूसरी पंक्ति कि व्याख्या करते हैं :
'जहाँ पहुँच सुनसान क्षितिज को मिलता एक सहारा।'
क्षितिज में ही छायावाद है। क्षितिज का प्रथम अर्थ तो यह है कि जो क्षिति
अर्थात पृथ्वी से उत्पन्न हुआ हो। पृथ्वी से उत्पन्न हुआ हो खनिज तत्व, लोहा,
कोयला, मिट्टी का तेल। यह पदार्थ अन्य देशों में सुनसान पड़े रहते हैं किंतु
भारत देश में आ कर इन्हें सहारा मिलता है। अत: जिस प्रकार कवि ने प्रथम पंक्ति
में इस देश का इतिहास वर्णित किया है वैसे ही इस दूसरी पंक्ति में भूगोल का
वृत्तांत सुनाया है। साथ ही, क्षितिज अर्थात पृथ्वी और आकाश के मिलने का जहाँ
भ्रम हो वह रोदसी-वृत्त। तुम जब ध्यान से देखोगे तो जानोगे कि सुनसान क्षितिज
को इसी देश में सहारा मिला है क्योंकि जिधर देखो उधर क्षितिज-ही-क्षितिज है। यह
हमारे देश की एक भारी भौगोलिक विशेषता है। ऐसी विशेषता इतर देशों में नहीं है।'
'अब आगे के चरण में अद्भुत रस का वर्णन है :
'सरस तामरस गर्भ-विभा पर
नाच रही तरु-शिखा मनोहर
छिटका जीवन हरियाली पर
मंगल कुंकुम तारा।'
'बालको! इस चरण का अवलोकन करो जिसका अर्थ साधना उतना ही कठिन है जितना 'माघ' के
एकाक्षरी श्लोकों का। कहते हैं कि सरस अर्थात रसपूर्ण तामरस अर्थात कमल के गर्भ
की जो विभा है उस पर मन हरने वाली तरुशिखा अब नाच रही है। हरियली पर जीवन
अर्थात जल फैला है और उसमें कुंकुमवर्ण मंगलतारा शोभायमान है।
'इन पंक्तियों का अर्थ समझने हेतु भाषा का साहित्य समझना चाहिए। ये पंक्तियाँ
छायावाद की हैं। वाद अर्थात सिद्धांत। अर्थात इन पंक्तियों के अंतर्गत
प्रतिकृति का सिद्धांत निहित है। पहले हरिऔध जी ने 'प्रियप्रवास' में लिखा था :
'तरु-शिखा पर थी अब राजती
कमलिनी-कुल-वल्लभ की प्रभा।'
'अब छाया का सिद्धांत लगा कर प्रसाद जी ने इस भाव को उलट दिया है। अत: पहले यदि
कमलिनी-कुल के वल्लभ की प्रभा तरु-शिखा पर विराजती थी तो छाया-रुप में कमल-कुल
की प्रभा अब तरु-शिखा पर विराजती है और छाया का प्रयोग होने के कारण तथा जलमयी
हरियाली के संपर्क से वह नाचती-सी दीख पड़ती है। और उसकी रक्ताभा मंगल-तारा-सी
जान पड़ती है। इन पंक्तियों में पुरातन साहित्य को उलट कर जल में छायावत करके
दिखाया गया है। साथ-ही-साथ अद्भुतरस का भी समावेश किया गया है। आगे कहते हैं :
'लघु सुरधनु-से पंख पसारे
शीतल मलय समीर सहारे
उड़ते खग जिस ओर क्षितिज को
समझ नीड़ निज प्यारा।'
'अपने देश की वंदना का मुख्य भाग इन्हीं पंक्तियों में है। कवि कहता है कि इस
देश में ऐसे भी पक्षी हैं जो कि उड़ते हैं। जब वे उड़ते हैं तो उनके पंख
इंद्र-धनुष-सा बनाते हुए फैलते हैं। इस देश के पक्षी पंखों से नहीं उड़ते। पंख
तो केवल पसारते-भर हैं। उड़ते वे मलय-समीर के सहारे हैं। अब यह शंका उठती है कि
जब मलय-समीर नहीं होता तब वे किसके सहारे उड़ते हैं? इसका समाधान प्रथम तो यही
है कि जो मलय-समीर न होने पर भी उड़ते हैं वे इस देश के पक्षी न होंगे। अथवा
द्वितीय समाधान यह है कि मलय-समीर न होने पर जब वे उड़ते हैं तब पंख केवल पसारते
नहीं उनका सहारा भी लेते हैं। प्रसाद जी को पक्षियों का और विशेष कर इसी देश के
पक्षियों का विशद ज्ञान था। अत: तुम देखो कि कहते हैं कि इस देश के पक्षी
क्षितिज को ही अपना नीड़ अर्थात घोंसला समझ कर उड़ते हैं। इस प्रसंग में
मृग-तृष्णा की छाया आ गई है। जैसे पृथ्वी पर हिरन मरुभूमि में बालू को देख उसे
सरिता का जल मान उसी दिशा में धावता है वैसे ही आकाश में पक्षी क्षितिज को अपना
नीड़ जान उड़ते हैं और अंत में शोक को प्राप्त होते हैं।
'इस प्रकार अब तक इस गीत में तुम्हें इस देश के इतिहास, भूगोल, जड़, चेतन सबकी
दशा का ज्ञान कराया गया। जैसे वे सब यहाँ हैं, वैसे कहीं नहीं हैं। यही
भारत-महिमा है। इसी से भारत लोकवंद्य है। इसी से देवता यहाँ अवतार लेते हैं। अब
आगे कहते हैं :
'हेम कुंभ, ले उषा सबेरे...।'
पंडितजी ने न केवल मूल के अर्थ को, बल्कि मूल पाठ को भी अपने ढंग से तोड़-मरोड़
कर प्रसाद की इतना बखान किया था। संस्कृतज्ञ होने के नाते अशुद्ध अर्थ को
'विकल्प' बताना और अशुद्ध पाठ को 'पाठांतर' कहना उनका अपना अधिकार है। अत: उस
अधिकार का पूर्ण प्रयोग करके वे प्रसाद के साहित्य की गरिमा और इस देश की महिमा
'गायंति देवा:' की भूमिका में समझाते रहे। पर प्रसाद की काव्यात्मा वहाँ अधिक न
ठहरी। वह पंडितजी द्वारा की गई काव्य-मीमांसा का रस ले कर पछताती हुई यह कह कर
अंतर्हित हो गई :
मैंने भ्रमवश जीवनसंचित
मधुकारियों की भीख लुटाई।
सकल बन ढूँढ़ूँ : एक सांगीतक
बाबा अंबिकानंदनशरण ने अपनी दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए गदगद कंठ से कहा, 'धन्य
है! धन्य है प्रभु, आपने ऐसा संगीत सुनाया है कि धन्य है! धन्य है!'
इसके पहले नगर की प्रसिद्ध गायिका सुरमादेवी ने लगभग घंटे-भर तक खयाल का गायन
किया था। खयाल के बोल थे, 'सकल बन ढूँढ़ूँ।' सुरमादेवी के गाने की विशेषता यह थी
कि जो उसे सुन कर नहीं समझ पाते थे वे उनको देख कर समझ जाते थे। इसी नीति से
उन्होंने ऐसी-ऐसी मुद्राएँ दिखाईं कि साफ जाहिर हो गया कि वे विरहिणी हैं और
किसी को ढूँढ़ने के लिए जंगल-जंगल मारी-मारी फिर रही हैं। वे बार-बार आसमान कि
ओर देख कर कहती थीं, 'सकल बन ढूँढ़ूँ।' इससे जान पड़ता था कि संसार के सब जंगल
आसमान में ही उगे हैं और उनका प्रेमी वहीं कहीं छिपा है। जब कभी वे उपेक्षा के
साथ तबले और तानपूरे वाले की ओर देखतीं तो लगता मानो वे जंगल के किनारे-किनारे
घूमने-फिरने वाले सियार हैं। कभी-कभी वे श्रोताओं की ओर बड़ी ही भयपूर्ण मुद्रा
बना कर देखतीं जिससे जान पड़ता कि वे जंगल में घूमने वाले भालू या शेर हैं। फर्श
पर बिछे हुए कालीन पर वे इस प्रकार से हाथ-पैर पटकतीं कि लगता यह कालीन नहीं है
बल्कि उसी जंगल की कँटीली घास है। इस प्रकार वन की भंयकरता दिखा कर सुरमादेवी
बार-बार करुण आवाज में चीखतीं, 'सकल बन ढूँढ़ूँ', 'सकल बन ढूँढ़ूँ।'
सुननेवालों में बाबू राधाकांत की परिहास-भावना बहुत ही विकसित थी। इसी कारण
सभ्य समाज में वे मूर्ख समझे जाते थे और विकप्राय: उनकी ओछी तबीयत की निंदा हुआ
करती थी। उन्होंने बाबा अंबिकानंदनशरण से हँस कर कहा, 'धन्य है। बाबाजी, धन्य
है। इस पद में सुरमादेवी ने जो ब्रह्म-चर्चा की है, उसे योगी ही समझ सकते हैं।'
बाबा जी ने राधाकांत को एक बार तिरस्कार के साथ देख कर फिर गंभीरता के साथ कहा,
'सत्य वचन है प्रभु, यह ब्रह्म-चर्चा ही है। सकल बन है क्या, अखिल ब्रह्मांड
में व्याप्त चौरासी कोटि योनियों का प्रपंच है जो, सोई सकल बन है। परमात्मा से
मिलने को परम व्याकुल है चित्त जिसका उन योनियों में भ्रमण करती हुई आत्मा ही
प्रेमी-रुप है। जिससे मिलने को चित्त चलायमान है वह परमात्मा ही प्रेमिका-रुप
है। उसी भाव में ओत-प्रोत है जो, सोई यह पद है। उस पदावली के गायन में आकंठ
मग्न हैं जो वे सुरमा देवी ही इस ब्रह्म-चर्चा की प्रवर्तिका हैं। इस कारण से
वे धन्य हैं।'
इस बार प्रोफेसर देवानंद ने कहा, 'आप अपनी जगह सत्य कहते हैं, पर सच बात यह है
कि ब्रह्म-चर्चा इस प्रकार नहीं होती। यह ब्रह्म-चर्चा नहीं है। इस पंक्ति में
विप्रलंभ श्रृंगार का वर्णन है। इसी पंक्ति के गवाक्ष से भारत की प्राचीन
संस्कृति झाँक रही है। हमारी सनातन संस्कृति और तपस्या का इतिहास इसी, 'सकल बन
ढूँढ़ूँ' में निहित है।'
इस बार सुरमादेवी ने आश्चर्य से प्रोफेसर देवानंद की ओर देखा, बोलीं, 'सो कैसे
प्रोफेसर साहब?'
प्रोफेसर साहब भारतीय इतिहास एवं संस्कृति के प्रकांड पंडित हैं। प्रकांड इसलिए
कि जहाँ पंडित होता है वहाँ प्रकांड आ ही जाता है। अत: वे बोले, 'आपने सुना कि
विरहिणी नायिका नायक को समस्त वनों में ढूँढ़ती हुई घूम रही है। अब प्रश्न यह
है कि वह नायक को ढूँढ़ने के लिए वनों में ही क्यों गई, नगर में क्यों नहीं आई?
इसका उत्तर हमारी प्राचीन आरण्यक संस्कृति में मिलता है। नायिका को यदि अपने
नायक को ढूँढ़ने के लिए जाना पड़े तो वह कहाँ जाएगी? कॉफी हाऊस में,
रेस्ट्राँ में, क्लब में, बार में। परंतु यह हमारी संस्कृति नहीं है। हमारी
संस्कृति में तो नायक पहले पचीस वर्ष तक ब्रह्मचर्यपूर्वक वनों में ही निवास
करता है। फिर गृहस्थाश्रम में प्रवेश करता है। फिर वाणप्रस्थी हो जाता है
अर्थात वन की ओर पुन: प्रस्थान करता है। "सकल बन ढूँढ़ूँ", यह पद हमारा ध्यान
इसी आरण्यक संकृति की ओर खींचता है। और धन्य है वह बाला वियोगिनी नायिका जो
अपने प्रिय से मिलने के लिए वनों में भटकती है!'
कहते-कहते प्रोफेसर साहब भाव-विभोर हो उठे। तालाब में मुँह डाल कर पानी पीते
हुए बैल की तरह कुछ रुक कर और फिर एक विकट उच्छ्वास निकाल कर वे फिर पहले की
भाँति भावलीन हो गए।
प्रोफेसर साहब की बात से कॉमरेड शंकर का घोर अपमान हुआ। अपने जमाने के वे घोर
क्रांतिकारी रह चुके थे। अब चूँकि उनका जमाना खत्म हो चुका था इसलिए वे साँस
लेते थे और जीते थे और इसी आजादी को गनीमत मानते थे। पर जहाँ इस प्रकार की बहस
हो रही हो वहाँ चुप रहने में उनका अपमान था। इसलिए उन्होंने चीखकर कहा, 'यह सब
निरी बकवास है प्रोफेसर साहब! ये गीत जन-जागरण के गीत हैं, इन्हें गद्दार नहीं
समझ सकते। इन्हें वही समझ सकते हैं जो "सिर पर कफन को बाँधे कातिल को ढूँढ़ते
हैं''। इसमें हीरोइन, जाहिर है, गाँव की भोली-भाली लड़की है। हीरो रेवल्यूशनरी
है। वह अडंरग्राउंड हो कर जंगल में जा छिपा है। हीरोइन अपने हीरो से, अपने
फ्रेंड, फिलास्फर और गाइड से मिलने के लिए जंगल में जाती है। किसलिए? जानते हैं
आप? उस तहरीक में, उस मूवमेंट में, जान डालने के लिए। ''सकल बन ढूँढ़ूँ!'' आपने
''पथेर दावी'' नहीं पढ़ा? पढ़ लीजिएगा!'
कॉमरेड की बात सुन कर महाकवि मयूर जी अगाध आत्मविश्वास के साथ मंद-मंद हँसने
लगे और बिना कहे ही कह ले गए कि ऐसी बात के कहने व सुननेवाले दोनों ही निर्बोध
हैं। सुरमादेवी ने पूछा, 'क्या हुआ मयूर जी'
मयूर जी की आँखों में एक चमक टिमटिमाने लगी जो कि कभी-कभी पुरानी बैटरी वाली
टॉर्च में बटन दबाने पर अचानक उभर आती है।
मयूर जी बोले, 'देवी, यह सब व्याकरण की ही माया है। इसीलिए सब पर ऐसा भ्रम छाया
है। इस गीत में तो नायिका है यही कहती कि मैं प्रिय सकल बन कर तुम्हें ढूँढ़ती।
जिस रुप में तुम मिलो वही बनाऊँगी। सबकुछ बनूँगी तभी तो तुम्हें पाऊँगी।'
मयूर जी कहते गए, 'कैसा है उदात्त भाव! इसे भी तो देखिए। पहले के किसी कवि का
कहा परखिए। बोली नायिका ''तुम्हें सभी विधि रिझाऊँगी, सैंया, तोरी गोदी
फुलगेंदा बनि जाऊँगी''। आगे कहता है कवि, "सैंया, तुम्हें भूख जो लगेगी तो
लड्डू बालूसाही बन जाऊँगी।'' अथवा, ''हे सैंया, तुम्हें प्यास जो लगेगी तो
गंगा-जमुना औ सरसुती बनि जाऊँगी।'' ऐसा ही किसी ने सिनेमा में कहा था कि ''फूल
हो सजन तुम, मेरो मन भँवरा।'' इस गीत में भी देवी, नायिका तैयार है नायक के
अनुरुप रुप को बनाने को। प्रेम की, समर्पण की यही पराकाष्ठा है। यही है आदर्श,
यही भारतीय काव्य है। सकल अर्थात सभी बन कर ढूँढ़ूँगी।'
इस पर श्रेष्ठ समालोचक, महाकवि मयूर के पुराने दुश्मन, डॉ. दीपधर ने कहा, 'अरे
मयूर साहब, आप सीधी-सी बात क्यों नहीं समझते? सब आपके हुक्म का करिश्मा है।
जैसे गीदड़ की शामत आने पर वह शहर की ओर जाता है वैसे ही रीतिकाल की नायिका अपनी
शामत आने पर जंगल की ओर जाती है। तभी आपने सुना होगा कि आभिसारिका काँटों को
कुचलती है, साँपों को रौंदती है। वैसे, पहले आप-जैसे मयूर कभी-कभी उसकी चोटी को
साँप समझ कर खींचते थे, चकोर मुँह पर चंद्रमा के धोखे में चोंच मारते थे। तोते
ओठों का बिंबाफल उड़ा ले जाना चाहते थे। पर वह जंगल में जाती ही थी। आप जैसे
कवियों का हुक्म जो था! बाद में आपके हुक्म से कुछ नायिकाएँ क्षितिज के आस-पास
आ गईं। कुछ को मजदूरों की बस्तियों में जाने का हुक्म मिल गया। ये तो सब आपके
हुक्म की बाँदियाँ हैं। जहाँ चाहिए, वहा चली जाएँगी। क्यों सुरमादेवी?"
सब सुरमादेवी के मुँह की ओर देखने लगे, तब उन्होंने धीरे-से मुस्करा कर कहा,
'हुकुम की क्या बात है, यह तो देश-देश के रिवाज पर चलता है। अपने देश में जंगल
का ही चलन है, तो मयूर जी क्या करें? अपने यहाँ तो घर है, या जंगल है और है ही
क्या? यह तो देश-देश पर है।'
इस पर बाबा अंबिकानंदनशरण ने अपनी दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए गदगद कंठ से कहा,
'धन्य है! धन्य है! अब इसी बात पर देस का आलाप हो जाय प्रभू। धन्य है! धन्य
है!'
पुराना पेंटर और नई कलम
प्रोफेसर पन्नालाल निशात थिएट्रिकल कंपनी के प्रसिद्ध चित्रकार रह चुके हैं।
उनके रंगे हुए पर्दों की रंगीनी देखने के लिए किसी जमाने में लोग बंबई से
कलकत्ता जाते थे और यदि कंपनी बंबई में हुई तो कलकत्ता से बंबई आते थे। पर्दों
पर बनी हुई तस्वीरों के क्या कहने! कहीं काले पहाड़ बने हुए हैं, लाल सूरज निकल
रहा है, हरे जंगल के ऊपर सफेद भूरे बादल हैं और वहीं पहाड़ की तलहटी में नदी बह
रही है, सफेद घाट बना है, रंग-बिरंगी औरतें नहा रही हैं, पानी नीला है (क्या
मजाल कि उसमें भी बादलों की रंगीनी का अक्स पड़ जाए)। वहीं मटमैली सड़क बनी हुई
है जिस पर दो जेंटिलमैन, यानी कोट, पतलून, लंबी मूँछ, छड़ीधारी दो जवान आदमी टहल
रहे हैं, क्योंकि जैसा बताया गया है, सवेरे का सुहावना समय है, या जैसा आप समझ
ही सकते हैं, पास ही औरतें नहा रहीं हैं।
पर अब उन पर्दों का जमाना गया। उन नाटकों की जगह सिनेमा ने ले ली और उन
नाटक-कंपनियों के स्थान पर स्कूल कॉलेजों की टीमें आ गईं जो गरीबी के मारे
पर्दों का काम अभिनय के सहारे चलाती हैं। इसलिए प्रोफेसर साहब अब रिटायर हो कर
अपने घर बैठ कर तस्वीरें बनाने लगे हैं जिनसे दरिया का किनारा, ताड़ के पेड़,
लकड़ी के पुल, पूनों का चाँद या उगता हुआ सूरज - ये चीजें बहुतायत से पाई जाती
हैं। ये तस्वीरें आठ आने से आठ रुपए तक बिकती हैं और चूँकि प्रोफेसर साहब के
हाथों में हुनर है इसीलिए उन्हें पेट पालने के लिए किसी का मोहताज नहीं होना
पड़ता है। हमारे नगर में ये चित्र बहुत जनप्रिय हो चले हैं और तंबोलियों की
दूकानों तक पर लंबे-लंबे ढाँचों में मढ़े हुए पाए जा सकते हैं।
अत: स्वाभाविक है कि इतने सीनियर और जनप्रिय कलाकार होने के कारण प्रोफेसर
पन्नालाल कला के समीक्षक भी हो जाएँ। इसीलिए जब कभी वे मेरे पास आ जाते हैं तो
आधुनिक चित्रकारों की थोड़ी-बहुत आलोचना भी सुना जाते हैं और अपनी अवस्था की ओर
संकेत करके कह जाते हैं कि गुन ना हिरान्यो बल्कि गुन गाहक ही हिरान्यो है।
कल आते ही उन्होंने मुझसे पूछा, 'अजी, यह जामिनीराय कौन है? इंपीरियल कंपनी में
एक राय राय करके आर्टिस्ट रहा करता था, वही तो नहीं है?'
मैंने आदर से कहा, 'नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। जामिनीराय तो बंगाली हैं।'
वे बोले, 'तो बंगाली तो वह भी था। हो सकता है कि उसी राय के यह भी कोई हों।'
मुझे जामिनीराय का इंपीरियल कंपनी के आर्टिस्ट से कोई संबंध रखना अच्छा न लगा।
अत: मैंने बिलकुल निषेधात्मक मुद्रा में सिर हिला कर कहा, 'नहीं, जामिनीराय
उसके कोई नहीं हैं।'
प्रोफेसर पन्नालाल मेरे निकट आ कर बैठे गए और बोले, 'अरे भाई, दिल्ली गया था।
तस्वीरों की नुमाइश जब देखी तो चारों तरफ जामिनीराय ही जामिनीराय नजर आए। पर
तस्वीरें ऐसी थीं कि हम तो नजर नीची करके भाग निकले। हम तो, साहब, ठहरे
आर्टिस्ट आदमी, भद्दी तस्वीरें एक बार निगाह में चढ़ गईं तो हाथ से वही उतर कर
कागज पर आएँगी।"
मैंनें आश्चर्य से पूछा, 'इतनी भद्दी थीं।' मेरी आवाज कुछ और चढ़ी, 'भद्दी?'
'भाई साहब, भद्दी या भली तो तब कहें जब वे असल तस्वीरें हों।'
मैंने उनकी बात काट कर शास्त्रार्थ वाले लहजे में कहा, 'प्रोफेसर साहब,
इंपीरियलवाले की बात छोड़िए। मुझसे तो इन जामिनीराय की बात कीजिए। आपको इनकी
चित्रकला में कौन-सी कमी मालूम पड़ी?'
वे बोले, 'लो भाई, मैं कमी क्यों बताने लगा? सब अपने हाथ के हुनर पर जीते हैं।
पर जामिनीराय जब तस्वीर बनाएँ तब तो कमी का जिक्र हो। वे तस्वीरें हैं कहाँ?
गाँव की औरतें जैसे दरवाजे पर हाथी, घोड़े या सिपाही बना देती हैं, वैसे बेढंगे
नक्शे-से बने थे। अब उन्हीं को तस्वीरें कहिए तो मेरी तस्वीरों को क्या
कहिएगा?'
मैंने समझाते हुए कहा, 'प्रोफेसर साहब, जामिनीराय ने सचमुच लोकजीवन से प्रेरणा
पाई है और...।'
पर अब तक वे आगे निकल चुके थे। कहते रहे, 'अरे साहब, यह लोकजीवन भी कोई
आर्टिस्ट है। वही महाबली कंपनी वाले हरजीवन का भाई होगा। हरजीवन को ही क्या आता
था?'
ऐसी बात सुनकर स्वाभाविक था कि मैं चुप हो जाता। अत: विजय के संतोष में पराजित
को अपनी सदाशयता से प्रभावित करने वाली, नर्म आवाज में वे बोले, 'देखिए, बहस
हरजीवन या लोकजीवन पर नहीं, जामिनीराय पर है। उनकी एक तस्वीर याद है ''काला
घोड़ा''। अब क्या बताऊँ उसके एक ही आँख थी और वह भी आँवले-सी गोल-गोल,
मुगदर-नुमा गावदुम पाँव थे, जोधपुरी साफे की कलंगी-सी दुम थी और गधे के से कान
थे। जीन की जगहा पीठ पर दरी बिछी हुई थी और रकाब की जगह एक तरफ घंटी-सी लटक रही
थी। अब लीजिए साहब, न रकाब, न जीन, न लगाम और काला घोड़ा सवारी के लिए हाजिर
है।'
मैंने अपना दिमागी पैंतरा बदलते हुए कहा, 'और साहब, आपने ये सब याद भी खूब कर
रक्खा है, नहीं तो खयाल रहता है काले घोड़े की घंटी का?।'
वे प्रोत्साहित हो गए और सरपट बोलने लगे, 'यहीं नहीं, मैंने तो जामिनीराय की और
भी तस्वीरें देख लीं। कहीं चंद लड़कियों के चेहरे बने थे और कह दिया गया कि पाँच
बहनें हैं; सबके एक-से चेहरे, न जाने किस कमबख्त की लड़कियाँ थीं। अब अपने मुँह
से क्या कहा जाए! हमने भी तीन औरतों की आमदकद तस्वीरें बनाई थीं। एक पर्दे की
बात कर रहा हूँ। पर्दा सामने आते ही एक-तिहाई हाजरीन बेहोश हो जाते थे,
एक-तिहाई सिर धुनते और आहें भरते थे, एक-तिहाई गजलें पढ़ने लगते थे। यहाँ इन
बहनों का यह हाल था कि देख लीजिए तो सारी दुनिया में बस बहनें-ही-बहनें नजर आने
लगेंगी। भई, मैं तो बाज आया ऐसे जामिनीराय से!'
मैंने विरोध न करते हुए, पर जामिनीराय को बचाते हुए कहा, 'और तस्वीरों के क्या
हाल थे? कलकत्ते से तो और भी चित्र आए होंगे।'
'अब और की न पूछिए,' प्रोफेसर पन्नालाल नाक सिकोड़ कर बोले, 'वक्त की बात है।
चलती का नाम गाड़ी है। जब मढ़ते बनती है तो बजती भी ठनाके से है।' कुछ देर शांत
रह कर वे फिर अकस्मात कहने लगे, 'कोई अवनींद्रनाथ ठाकुर थे। उनके साथ नंदलाल,
शारदा वकील, हाल्दार, मजूमदार न जाने कितने लोगों की तस्वीरें एक तरफ दीवाल
घेरे थीं। वहाँ भी वही हालत! हमने तस्वीरें देखी और नजर नीची कर ली।'
मैंने पूछा, 'उनमें भी कोई खराबी थी?'
कहने लगे, 'जब सारा जहान उन तस्वीरों को लासानी मानता है तो मैं कैसे खराब बता
सकता हूँ? पर बालिश्त-भर के चेहरे में डेढ़ बालिश्त लंबी ऊँगलियाँ, माफ कीजिएगा
भाईजान, ऐसे इनसान इधर के इलाके में तो होते नहीं है' आधे मिनट तक उन्होंने
सारगर्भित शांति-सी दिखाई और फिर बगटुट छूट चले, 'और तस्वीरों के नाम में वह
फरेब है कि किसे क्या कहें? नंदनलाल साहब की एक तस्वीर है 'वसंत'। अब पूछिए
मुझसे कि वसंत किसे कहते हैं। वंसत उसे कहते हैं जिसमें पेड़-पौधे फूलों से लद
जाएँ, हवा अठखेलियाँ करती हुई बहे, कोयल बोले, भौंरे गुनगुनाएँ और बिजहिनें
बागों में घूम-घूम कर कामदेव को कोसें। तो, यह तो हुआ वंसत, और पूछिए नंदनलाल
साहब से कि उन्हें भी कुछ खबर है वसंत की। इसी तस्वीर में कुल तीन अदद पेड़ नजर
आते हैं। वीराना-सा है। पेड़ों पर पत्तियाँ लगी हैं या फूल, कहना आसान नहीं और
दो आदमी आगे-आगे भाग से रहे हैं और दो आदमी हाथ में चिकारा लिए पीछा कर रहे
हैं। इन पीछा करने वालों में गालिबन एक औरत भी है और वह बच्चा लिए है। यानी
वसंत में बच्चा भी शामिल हो गया। अब लीजिए साहब हो गया वसंत। इसी में हवा की
अठखेलियाँ भी हैं, इसी में कोयल भी है और बिरहन का कोई जिक्र नहीं!'
प्रोफेसर पन्नालाल हँसने लगे। उनकी ऐसी निश्छल और द्वेषहीन हँसी सुन कर मैंने
पूछा, 'तो कलकत्ता स्कूल आपको पसंद नहीं आया। बंबई वालों की भी तस्वीरें आपने
देखी होंगी।'
सुनते ही वे तड़प उठे। बोले, 'उनका नाम न लीजिए साहब, मैं भी बंबई में रहा हूँ
और जहाँ अपनी तस्वीरों का वह दौर रहा वहीं के लोग आज यह दिन दिखाएँ। बस कुछ
नहीं कह सकता। कहीं तीन काली-कलूटी औरतें बैठे हैं। कोई चावड़ा साहब हैं, उनकी
तस्वीर है। एक औरत ओखली में कुछ कूट-सी रही है। बस जनाब हो गई तस्वीर। चंद
मछलियाँ पड़ी हैं और एक पानी का बर्तन रक्खा है, सबकुछ धुँधला है। भाई साहब, यह
भी एक तस्वीर है। अब यही सब रह गया है।'
मैंने कहा, 'एक ''प्रोग्रेसिव ग्रुप'' भी है।'
वे कुछ देर भौहों पर बल डाले सोचते रहे। फिर बोले, 'कह तो दिया जनाब कि कहीं
सिर्फ तिकोने बनाइए, कहीं चौकोर नक्शे खींचिए, कहीं खर-पतवार उगा कर बीच में एक
आँख बना दीजिए, कहीं सिर बनाइए तो पैर न बनाइए या पैर बनाइए तो सिर्फ
पैर-ही-पैर बनाइए, इसी सबसे आपका मतलब है न? तो इसी भोलेपन की बदौलत आपके
आर्टिस्ट विलायत का मुकाबला करने चले हैं?'
विलायत की बात सुन कर मैंने कहा, 'तो आप कहते क्या हैं? अमृत शेरगिल ने तो
फ्रांस में अपनी तस्वीरों से वहाँ वालों का मुकाबला किया ही था।'
प्रोफेसर पन्नालाल ने कहा, 'मगर कहाँ साहब? मैंने उनकी भी तस्वीरें देखी हैं।
जामिनीराय के मुकाबले में उनकी तीन बहनें देखिए तो मालूम होता है कि ये बहनें
सचमुच ही कुछ हैं। पर बारीकी से देखिए तो पता चलना मुश्किल है कि कौन बड़ी है और
कौन छोटी, कौन शादीशुदा है, कौन शादी करेगी। अब बताइए यह सब कोई कहने के लिए
विलायत से तो आवेगा नहीं।' वे कहते गए, 'तस्वीर तो बोलती हुई होनी चाहिए। पर
आजकल तो लफ्फाजी पर तस्वीरें चलती हैं। मैंने देखा की एक कमरे में मेज पर चाय
के चंद प्याले टेढ़े-मेढ़े पड़े हैं। अब जनाब, एक साहब मुझे पढ़ाने लगे कि इसमें
इनसान नहीं दिखाया गया, पर लगता है कि कमरे से अभी-अभी चाय पी कर लोग बाहर गए
हैं। मैंने कहा, भाई जान, इसका क्या सबूत? मुझे लगता है कि नौकर बेसलीके से
प्याले रख गया है और लोग उन्हीं में चाय पीने को आ रहे हैं। यह तो अपना-अपना
खयाल है।'
मैंने कहा, 'तो सबूत होता भी तो क्या होता?'
वे बोले, 'क्यों फर्श पर जाते हुए पैरों के निशान क्यों नहीं दिए। भई, अक्ल की
जरूरत तो सभी जगह पड़ती है!'
इतनी देर बाद मुझे लगा कि मेरे धैर्य की आखिरी बूँद सूख रही है। अत: मैंने कहा,
'प्रोफेसर साहब! असल बात यह है कि आजकल की चित्रकला के बारे में आप कुछ नहीं
जानते। इसकी सुंदरता समझने के लिए आँख ही नहीं दिमाग भी चाहिए।'
पर वे शायद इसके लिए भी तैयार थे। इसलिए वे फिर मुस्करा दिए और बिना कहे ही कह
गए कि मेरी पीढ़ी के लड़कों से वे इसी तमीज की उम्मीद करते हैं। कहने लगे, 'बस,
बस, यही बात हम लोगों ने कभी नहीं कही। हम यहीं कच्चे पड़ते हैं। तुम लोगों का
तो यह हल है कि गाना बहुत घुमा कर गाओगे। न पसंद आया, तो कह दोगे कि गाने वाला
पक्का गवैया है और सुनने वाला गावदी है। बाद में अगर तुम अंग्रेजी ट्यून पर कोई
सड़ियल तराना छेड़ बैठे और हमने नाक सिकोड़ी तो कह दोगे, पुराना जाहिल है, कुछ
नहीं जानता। वही हाल आर्टिस्टी का है। तस्वीर सरासर आँख के सामने है, देखता हूँ
तो देखने में अच्छी नहीं लगती, न कोई देवी है, न देवता है, न आदमी है, न औरत
है, न नेचर का करिश्मा है, न इंसान की हिकमत है। टेढ़ी-मेढ़ी बेढंगी बातें हैं।
मैं देख कर कहता हूँ कि यह तस्वीर दो कौड़ी की है और आप कह देते हैं कि मैं
नासमझ हूँ। यानी सरासर तस्वीर देख रहा हूँ और आप कहते हैं कि मैं देखता नहीं
हूँ।'
प्रोफेसर पन्नालाल शायद दूसरे की गवाही मान जाएँ इस आशा से मैंने कहा, 'और इन
तस्वीरों पर जो इतना इनाम दिया जाता है ....?'
वे बोले, 'इनाम क्या? इनाम तो सरकार पक्के गाने पर भी देती है और फिल्मी गानों
पर भी। पुराने ढंग की किताबों पर देती है और नए किस्म की पापुलर किताबों पर भी
देती है। हर आर्ट की यही हालत है। सिर्फ तस्वीरों के मामले में घपला है। मैं तो
यह कहने जा रहा हूँ कि जहाँ आप पाँच टेढ़ी-मेढ़ी आँखों के गोल दायरों पर इनाम
देते हैं, वहीं मेरे राम-पंचायतन पर भी रहम खा लें। वे गोल दायरे तो आपके गोल
कमरे में ही हैं, पर राम-पंचायतन तो जनता के घर-घर में है। जरा यह भी तो
देखिए।'
वे कुछ देर उत्तेजित से बैठे रहे। फिर सहसा हँस कर जैसे कोई भूला हुआ
फारमूला-सा याद करते हुए बोले, 'भाईजान, अब तो जनता-राज है और हम जनता के
आर्टिस्ट हैं। आप हमारी समझ पर हँस कर खुद कौन-सी समझ दिखा रहे हैं।?'
इस बार जिस अंदाज से उन्होंने झुक कर छाती पर हाथ रखा और अकड़ कर मूँछों से हँसी
की फुलझड़ी बिखेरी, उससे मुझे इत्मीनान हो गया कि प्रोफेसर पन्नालाल की
आर्टिस्टी निशात थियेटर कंपनी के पर्दों के ऊपर तक ही नहीं, कभी-कभी पर्दे के
आगे स्टेज पर भी खिसक आती रही होगी। मैंने अपनी नासमझी मान ली और उनसे माफी
माँगी। उन्होंने मुझे माफ कर दिया और मेरी वंश-परंपरागत विनम्रता की प्रशंसा
की।
प्रभात-समीरण उर्फ सुबह की हवाएँ
(एक ऐसी प्रेम-कथा, जो कई फिल्मों के आधार पर बनी है और जिसके आधार पर कई
फिल्में बनी हैं। उसमें दो फिल्मों का परिचय इस प्रकार दिया जा सकता है:)
'एक महान देश के अतीत की महान सांस्कृतिक विभूतियों को चित्रित करता हुआ एक
महान चित्र।'
अथवा
'दो दिलों की कहानी, जिन्हें बेदर्द दुनिया मिलने नहीं देती, पर मुहब्बत भी वह
शै है जो आग पानी में लगाती है - इसके बाद रुपहले पर्दे पर देखिए।'
अहा! इस लोक में प्रणय की भी कैसी महिमा है! न तात, न मात, न भ्राता, न भ्रातृज
- कोई सत्य नहीं है। प्रणय-तत्व ही चरम सत्य है। इसी के आधार पर मानव रोदसी-रमण
करता है, आकाश-आस्फालन करता है, महीधरों का मर्दन करता है। विच्छुरितवसन बनता
है। भवन-भस्मीकर की उपाधि पाता है। प्रणय परम पवित्र है।
(दुनिया में मुहब्बत भी क्या चीज है? न बाप, न माँ, न भाई, न भतीजा - कोई सच्चा
नहीं है। सच्ची अगर कुछ है, तो मुहब्बत है। इसी के सहारे इनसान हवा से लड़ता है,
आसमान से भिड़ता है, पहाड़ों से टकराता है। अपना गरेबाँ फाड़ सकता है, अपना घर
उजाड़ सकता है। मुहब्बत बहुत ही नेकपाक है।)
अत: इसमें विस्मय ही क्या कि कुमार उदयन का प्रेम कुमारी पुष्पिता से हो गया।
उदयन एक महासामंत के कुमार थे। वे गंधर्वलोक से प्रशिक्षित होकर विमान द्वारा
आकाश-मार्ग से जंबूद्वीप स्थित भरतखंड में आए। पुन: भूमियान द्वारा अपने पुर के
निकट पहुँचे। अनुपलब्ध प्रवृति के कारण वहाँ उनका गैहिक स्वर्णशकट नहीं पहुँच
सका। अत: कुमारी पुष्पिता द्वारा परिचालित रथ पर बैठे वे अपने प्रासाद पहुँचे।
पुष्पिता महासामंत के एक ऐसे सामंत की कन्या थीं जिन्हें कूट-प्रपंच के दोषों
पर निष्कासन मिला था। तथापि, समागतवय की प्रेरणा: नयनाभिमुख होते ही उनमें
रागोदय हुआ। दोनों कुछ काल व्रीडावनत रहे। फिर स्मितमुख हो कर रथोद्भूत
स्वर-लहरी के आश्रय पर साथ-साथ सांगीतक की अवतारणा करने लगे।
(इसीलिए इसमें अचंभा ही क्या कि उठल्लू बाबू फूला से मुहब्बत कर बैठे। उठल्लू
बाबू बड़े जमीदार के लड़के थे। विलायत में तालीम पा कर, हवाई जहाज से एशिया के
अंदर वे हिंदुस्तान आए, फिर रेल पर चढ़ कर अपने गाँव के स्टेशन पहुँचे। खबर
मिलने में गड़बड़ी हो जाने के कारण उन्हें घर की सवारी न मिल सकी। तब वे एक ऐसी
बैलगाड़ी पर बैठ कर घर गए जिसे फूला हाँक रही थी। वह जमींदार के एक ऐसे पुराने
नौकर की लड़की थी जिसे फरेब के जुर्म में निकाल दिया गया था। पर उमर का तकाजा;
निगाह मिलते ही उनमें मुहब्बत हो गई। दोनों कुछ देर शर्माए, फिर मुस्कराए, फिर
बैलों के खुरों की आवाज में दोनों एक साथ एक गाना छेड़ बैठे।)
तदनंतर उनके पारस्परिक प्रणय के प्रकाश से समस्त जगत चमत्कृत हो गया। उस जनपद
के निकट बहने वाली धाराओं पर दारुनिष्क्रामक बने थे। वहाँ दोनों ने वर्षा की
कादंबिनी को देख 'संतप्तानां त्वमसि शरणम्', का मधुर गान किया। सरिताकूल पर
लतांतराल में विद्यमान एक तरणी थी। उस पर दोनों ने नौकाविहार किया। परस्पर ही
जलप्लावित हुए। एक भग्न अट्टालिका थी। उसकी प्राचीरछाया में वे बैठे। उसके धूसर
अलिंद में अश्रुपात-रत हुए। उसके एक निभृत प्रकोष्ठ में जाकर हँसे। उनका प्रणय
जगदविख्यात हुआ।
(इसके बाद दोनों की मुहब्बत ने वह रंग पकड़ा कि जमाना दंग रह गया। गाँव के पास
नालों पर लकड़ी के पुल बने थे। वहाँ खड़े-खड़े उन्होंने बरसात के बादलों को देखा
और 'ओ बादल, तुही दिलजलों का सहारा' गाया। नदी के किनारे झाड़ियों में एक नाव
बँधी रहती थी, उस पर चढ़ कर दोनों नदी में घूमे। वे साथ-साथ पानी में कूदे और
साथ-साथ भीगे। एक टूटी-फूटी गढ़ी थी, वे उसकी शहतीर की छाँव में जा कर बैठे।
उसके मटियाले बरामदों में जाकर रोए। उसके एक कोने में हँसे। उनकी मुहब्बत
जग-उजागर हो गई।)
अत: उनके माता-पिता को यह प्रणय-दशा पूर्णत: विदित हो गई। वे घोर असंतुष्ट हुए।
उभय-पक्ष में अंत:पुरीय कलह का सूत्रपात हुआ। पुष्पिता का एक पुरुष से
पाणिग्रहण संयोजित था। उसका नाम क्षेत्रपति संवर्धन था। यहाँ तक कि इस
प्रणय-कथा का ज्ञान उसे भी हो गया।
(उनकी यह हालत उनके माँ-बाप से छिपी न रही। वे बहुत नाराज हुए। दोनों ओर घरों
में अंदरुनी झगड़े-फसाद फैलने लगे। फूला की मँगनी एक किसान से हो गई थी। उनका
नाम बाढ़ू था। यहाँ तक कि उसे भी यह किस्सा मालूम हो गया।)
एक दिन कुमारी पुष्पिता का मार्ग-रोध कर के क्षेत्रपति संवर्धन ने कुछ अभद्र
शब्द कहे तथा कुमार उदयन की हत्या का भय दिखाया। वे आकृति और प्रकृति, दोनों से
विकर्षक थे, उनका शिरोभाग खल्वाट था, शरीर पृथुल था। ईषत्तुंदिल थे। उनके
परिचरों में जनपद के क्रूरतम दस्युओं एवं लंपटों का प्राचुर्य था। क्षेत्रपति
संवर्धन ने उन्हें उदयन के वधार्थ प्रेरित किया।
(एक बाढ़ू किसान ने फूला को रास्ते में रोक उससे कुछ बदतमीजी की बातें की और
उठल्लू बाबू का खून करा देने की धमकी दी। बाढ़ू की शकल और आदत, दोनों से नफरत
होती थी। उसका सिर गंजा था, जिस्म थुलथुल था। पेट कुछ निकला था। उसके हमराहियों
में वहाँ के सभी खूँख्वार डकैत व गुंडे भरे थे। उन्हीं को बाढ़ू ने उठल्लू बाबू
को मारने के लिए भेजा।)
एक दिन दस्युओं ने विजन-वन में कुमार के रथ की वल्गा पकड़ ली और उन पर आक्रमण
किया। तुरंत साधु, कुमार, साधु! किसी को उन्होंने पाद-प्रहार से पीड़ित किया,
किसी को कर-प्रहार से कर्तित किया, किसी को मुष्टि-प्रहार से मर्दित किया। इस
प्रकार समस्त दस्युओं का दमन करके, स्वंय म्रियमाण अवस्था में उन्होंने प्रासाद
के अंत:पुर में प्रवेश किया। उनकी रक्त-रंजित सज्जा देख कंचुकी काँपे, विदूषक
विषण्ण हुए, परिचारिकाएँ पर्याकुल हुईं, उपचारक अवसन्न हुए।
(नतीजा यह हुआ कि एक दिन सुनसान बियाबान में उठल्लू बाबू की गाड़ी रोक कर डकैतों
ने उन पर हमला किया, पर शाबास, मेरे पट्ठे! किसी को उसने पैर से पटका, किसी को
हाथ से काटा, किसी को मुक्के से मारा। यों डकैतों को दबा कर, वे अपने मकान पर
आए और अंदर घुसे। वे खुद चोट खा चुके थे और मरने की हालत में थे। यह देख
कार-परदाज काँपे, भँड़ैत भड़भड़ाए, नौकरानियाँ घबराईं, डाक्टरों के दिल बैठ गए।)
महार्हरत्नजटित पर्यंक पर तिरस्करिणी द्वारा अदृश्यमान कुमार श्वेतपटाच्छादित
सज्जा में म्रियमाण पड़े थे। कुमारी पुष्पिता लोकाचार का निराकारण करके उनके
दर्शनार्थ आईं। देखते ही उन्होंने चीत्कार किया, और चीत्कार करती हुई, बाणविद्ध
मृगी-सी पलायित हुईं वे शिवालय में पहुँचीं और वाष्पावरुद्ध कंठ से उच्च स्वर
में गायन करने लगीं, 'चंद्रशेखर, चंद्रशेखर, पाहि माम्।'
(उठल्लू बाबू कीमती पलँग पर लेटे थे। चारों ओर पड़े पर्दों ने उन्हें ढँक दिया
था। जिस्म पर सफेद पट्टियाँ बँधी थी। फूला दुनिया का लिहाज छोड़ उन्हें देखने
पहुँची। देखते ही उसके मुँह से चीख निकली। चीखती हुई, वह गोली खाई हिरनी जैसी
वहाँ से भागी और शिवाले में आ कर रुँधे गले से चिल्ला-चिल्ला कर गाने लगी,
'मेरी नैया प्रभू जी बचाना।')
गायन के उपरत होते ही, प्रवर्धमान दीपशिखा के इंगित से कुमारी पुष्पिता को उदयन
के चेतना-लाभ का ज्ञान हुआ। अब वे मत्त-मयूरी-सी लास-लालित पद-क्षेपण करती,
संगीत-निरत भाव में प्रत्यावर्तित हुईं, किंतु हंत दैव! संवर्धन ने पुन:
मार्ग-रोध करके उन्हें अपने सैंधव अश्व पर बैठा लिया एवं निमेष मात्र में सघन
कानन के अंधकार में विलीन हो गया।
(गाना खत्म होते ही शिवाले के चिराग की लौ ऊँची ऊठी। बस फिर क्या था! फूला ने
समझ लिया कि उठल्लू बाबू को होश आ गया है। अब वह मस्त मोरनी-सी फुदकती, नाचती,
गाती वापस लौटी, पर हाय री किस्मत! बाढ़ू रास्ता रोके था। उसने फूला को अपने
सिंधी घोड़े पर बिठाया और पलक मारते जंगल के अँधेरे में गायब हो गया।)
दिग्दिगंत में इसकी प्रचारणा हुई। कुमार उदयन चेतना पा कर प्रहृष्ट मुद्रा में
लेटे थे। सूचना पाते ही वे खंग:पाणि हो कर अपने यावनीय अश्व पर आरुढ़ हुए और उसी
ओर गमनोद्यत हुए जिधर संवर्धन गया था। इस दशा में पुत्र को जाता देख, पूर्व
अमर्ष का त्याग कर, उदयन के पिता महासामंत निष्कर्मण्य भी शास्त्रसज्जित हो
उन्हीं की ओर प्रवाधित हुए।
(चारों ओर इसकी खबर फैली। होश में आ कर उठल्लू बाबू खुशी से लेटे थे, खबर पाते
ही हाथ में तलवार ले कर वे अपने अरबी घोड़े पर सवार हुए और तेजी से उसी ओर बढ़े
जिधर बाढ़ू गया था। यों बरखुरदार को जाता देख, उठल्लू बाबू के बाप जमींदार
निठल्लू बाबू ने गुस्से को थूक दिया। वे भी हथियार से लैस हो कर उन्हीं के पीछे
रवाना हुए।)
चार योजन तक वे अश्वों को अपरिकल्यत्वरा से धावित करते रहे। तदनंतर
पर्वत-श्रेणी पर एक विराट गह्वर के आ जाने से मार्ग में व्यतिकर समुपस्थित हो
गया। क्षेत्रपति संवर्धन को रुकना पड़ा। द्रुतगति से पृथ्वी पर उतर कर कुमार
संवर्धन से वह खड्गयुद्ध करने लगा। कुमारी पुष्पिता संत्रस्त नेत्रों से इस
घटना को देखती रहीं।
(सोलह कोस तक तीनों होश गुम कर देने वाली रफ्तार से घोड़े भगाते रहे। इसके बाद
पहाड़ी पर एक भारी खुड्ड आ गया और बाढ़ू का रास्ता रुक गया। वह घोड़े से कूद कर
जमीन पर आ गया उठल्लू बाबू के साथ तलवार चलाने लगा। फूला सहमी निगाहों से यह सब
देखती रही।)
प्रथमत: कुमार उदयन संवर्धन को प्रताड़ित करते-करते गह्वर तक ले गए, पुन:संवर्धन
ने उदयन को वही स्थान दिखाया। गह्वर पर एक रज्जु प्रलंबित थी। उससे निलंबित हो
कर दोनों ने युद्ध किया। पुन: गह्वर की कोटि पर आ कर उन्होंने वैसा ही युद्ध
किया। तत्पश्यात उदयन ने संवर्धन के शरीर पर आरोहण करके करवाल कला दिखाई, पुन:
संवर्धन ने उदयन पर आरोहण करके अपनी कला दिखाई। कुमार उदयन क्रमश: संज्ञा-शून्य
हो ही चले थे कि महासामंत निष्कर्मण्य ने पीछे से आ कर संवर्धन को रणाह्वान
दिया। संवर्धन ने बिना उत्तर दिए एक परिघास्त्र निष्कर्मण्य प्रक्षिप्त किया।
(पहले उठल्लू बाबू ने बाढ़ू को मारते-ढकेलते खुड्ड तक पहुँचाया, फिर बाढ़ू ने
उनको वहाँ तक ढकेला। एक रस्सी भी खुड्ड पर टँगी थी, दोनों उससे लटक कर तलवार
चलाते रहे। फिर दोनों खुड्ड के किनारे आ कर लड़ते रहे। फिर उठल्लू बाबू ने बाढ़ू
पर तलवार चलाई। उठल्लू बाबू बेहोश होने लगे कि पीछे से जमींदार निठल्लू बाबू ने
आ कर बाढ़ू को ललकारा। बाढ़ू ने बिना कुछ कहे एक कटार फेंक कर निठल्लू बाबू पर
मारी।)
किंतु दैवी विधान, 'कि एक श्वेत जटाधारी मानव ने महासामंत के सम्मुख आ कर वह
परिघात्र अपने वक्ष पर झेला और वहीं संज्ञाशून्य हो कर भू-लुंठित हो गया।'
महासामंत विलाप करते हुए बोले, 'अहह, सामंत विचक्षण, तुम्हारा यह अंत!' विचक्षण
बोले, स्वामिन, स्वामिन, स्वामी के प्राण-रक्षण में मेरा प्राण-भक्षण हो यह परम
सौभाग्य है।' विचक्षण का प्राणांत हो गया। महासामंत और भी रोने लगे; कुमारी
पुष्पिता भी कुररी-सदृश्य आक्रोश करने लगीं। सामंत विचक्षण ही कुमारी पुष्पिता
के पिता थे।
(पर किस्मत की क्या कहिए, एक सफेद बालोंवाले इंसान ने जमींदार निठ्ठलू के आगे आ
कर उस कटार को अपनी छाती पर रोक लिया और बेहोश हो कर वहीं जमीन पर लोट गया।
निठ्ठलू बाबू रोते हुए बोले, 'हाय, बुझावन भाई, तुम यों गए!' बुझावन भाई बोले,
'मालिक, मालिक की जान बचाने में अपनी जान जाए, इससे बढ़ कर और क्या हो सकता है।'
बुझावन मर गय। निठ्ठलू बाबू और भी रोने लगे। फूला भी चील की तरह चीख कर रोने
लगी। बुझावन ही फूला के बाप थे।)
इस स्थिति में संवर्धन ने एक और परिघास्त्र प्रक्षिप्त किया जिसके आघात से
महासामंत निष्कर्मण्य प्रणवोच्चार करते हुए परम गति को प्राप्त हुए। संवर्धन की
इस अनवधानता से लाभ उठा कर कुमार उदयन ने भी खड्ग का एक ऐसा प्रहार किया कि
संवर्धन का एक घोर चीत्कार के साथ प्राणांत हो गया और वह गह्वर की गहनता में
विलीन हो गया।)
(इस दुख की घड़ी में बाढ़ू ने एक और कटार फेकी जो निठ्ठलू बाबू की छाती में जा
लगी और जिससे उनके मुख से निकला, 'राम, हे राम' और वे वहीं ढेर हो गए। बाढ़ू का
ध्यान अपनी ओर न होने से मौका पा कर उठ्ठलू बाबू ने उस पर तलवार का वह वार किया
कि वह भी चीख मार कर मर गया और खुड्ड की गहराइयों में गुम हो गया।)
अब सर्वत्र आनंद व्याप्त हो गया। पाटल राग रवि अंबरतल से अवलंबित हो रहा था।
तरु शिखरों पर रक्तांगराग छाया था। कमल मुकुलित था तो कोककुल प्रफुल्लित होने
वाला था। खगकुल कुलकुलायमान। तारकुल तमतमायमान था। ऐसे काल में दो प्रेमी
पितृहीन हो कर, शत्रुहीन हो कर, अर्थात निष्कंटक अवस्था में अश्वों पर चढ़े वही
गान गाते हुए लौट रहे थे जो उन्होंने कुछ काल पूर्व अपनी रथ-यात्रा में गाया
था। ओम शांति:।
(अब चारों ओर बहार छा गई। लाल-लाल सूरज आसमान में लटक आया। पेड़ों की फुनगियों
पर रंगीनियाँ बिखर गईं। कमल मुरझाने लगा तो कोकाबेली फूलने लगी। चिड़ियाँ चहकीं,
तारे चमके और अपने बापों को गँवा कर, दुश्मनों को मिटा कर, यानी सब मुसीबतें
सुलझा कर मस्ती के साथ, घोड़ों पर चढ़े हुए, दो इश्कपरस्त वही गाना गाते हुए वापस
लौटे जो कुछ दिन हुए उन्होंने बैलगाड़ी पर बैठ कर गाया था। दि एंड।)
टिप्पणी... आज के चलन के अनुसार इस कहानी के फिल्मों का शीर्षक 'प्रभात समीरण'
उर्फ 'सुबह की हवाएँ' इसीलिए रक्खा गया है कि इसमें सुबह की हवाओं का कोई जिक्र
नहीं है।
दो आदमी पुराने
कुछ दिन हुए, रामानंदजी और राकेशजी अपने-अपने पेशे से रिटायर हो कर सिविल
लाइन्स में बस गए थे। अपने यहाँ का चलन है कि रिटायर होने के बाद और इस लोक से
ट्रांसफर होने के पहले बहुत से लोग सिविल लांइस में बँगले बनवा लेते हैं।
इन्होंने भी वहाँ अपने-अपने बँगले बनवा लिए।
रामानंदजी किसी समय में चोरी किया करते थे। वे पुराने स्कूल के चोर थे। इस कारण
उनका विश्वास तांत्रिक क्रियाओं में भी था। बाद में चोरी सिखलाने के लिए
उन्होंने एक नाइट स्कूल भी खोला। कुछ समय बीतने पर चोरी के माल के क्रय-विक्रय
की उन्होंने एक दुकान कर ली। इस सबसे अब वे रिटायर हो चुके थे और अपने को
रिटायर कहा करते थे।
राकेशजी रिटायर तो हो चुके थे, पर चूँकि वे कवि थे इस कारण वे अपने को रिटायर
मानने को तैयार न थे। कभी उन्होंने एम.ए. पास किया था; और फिर वे एक कॉलेज में
प्रोफेसर हो गए थे। उस पेशे में तो वे ज्यादा नहीं चल पाए पर कवि की हैसियत से
उन्हें ऊँचा स्थान मिल गया था। अर्थात अब तक उनके पास उनकी अपनी कविताएँ थी,
अपने प्रकाशक थे, अपने ही आलोचक थे, अपने ही प्रशंसक और पुरस्कारदाता थे। इधर
कुछ आलोचक उन्हें कविता के क्षेत्र में भी रिटायर कहने लगे थे।
दोनों पड़ोसी थे। दोनों को एक-दूसरे के पुराने व्यवसाय का ज्ञान था। उनमें
मित्रता हो गई। दोनों प्राय: हर बात में एकमत रहते थे। दोनों यही समझते थे कि
इस युग में योग्यता और कला का ह्रास हो रहा है और आज की पीढ़ी बिल्कुल जाहिल,
निरर्थक और अयोग्य है।
इसीलिए एक दिन लॉन में टहलते-टहलते राकेशजी ने कहा, 'आज की पढ़ाई में रक्खा ही
क्या है? मैं आठवें दर्जे में हिंदी कविता का अर्थ अंग्रेजी में लिखता था। अब
बी.ए. में अंग्रेजी कविता का अर्थ हिंदी में लिखाया जाता है।'
रामानंदजी बोले, 'आप ठीक कहते हैं। हमारे जमाने में कुछ लोग फर्श पर डंडा ठोंक
कर जमीन में गड़े हुए धन का हाल जान लेते थे। आज के दिन सामने कपड़े से ढँकी
तिजोरी रक्खी रहती है और लोग उसे मेज समझ कर बिना छुए ही निकल जाते हैं।'
राकेशजी ने कहा, 'और जम कर साधना करने का तो समय ही चला गया है। आजकल...।'
बात काट कर रामानंदजी बोले, 'साधना अब कौन कर सकता है? हम लोगों ने अमावस की
रात में मसान जगाया था। मुर्दे की खोपड़ी में चावल पका कर उसे जिस घर में डाल
देते वहाँ का माल...।'
राकेशजी ने जल्दी में कहा, 'नहीं नहीं, वैसी साधना से मेरा मतलब नहीं है। मैं
साहित्य-साधना की बात कर रहा हूँ। आजकल लोग व्याकरण, पिंगल, काव्यशास्त्र का
नाम तक नहीं जानते और नई-नई बातों के आविष्कारक बन जाते हैं। कोई दो-दो
पंक्तियों को लिए मुक्तक लिख रहा है, अतुकांत चला रहा है, कोई क्रियाओं के
नए-नए प्रयोग भिड़ा रहा है : और पूछ बैठिए कि अकर्मक क्रिया और सकर्मक क्रिया
में क्या भेद है तो अंग्रेजी बोलने लगेंगे।'
एक गहरी साँस खींच कर रामानंदजी बोले, 'आप सच कहते हैं, अपने यहाँ भी यही दशा
है। दीवाल की कौन कहे, कागज पर कायदे की सेंध नहीं लगा सकते और बात करेंगे
सिटकनी खोलने की, रोशनदान तोड़ने की, जेब काटने की। नई-नई तरकीबों की डींग
हाँकेंगे। और पुरानी...।'
राकेशजी अपनी धुन में कहते गए, 'और विनम्रता तो रही ही नहीं। कुछ सिखाओ तो
सीखेंगे नहीं। कुछ बताओं तो बिना समझे-बूझे अकड़ने लगेंगे। आज के साहित्यिक,
साहित्यिक नहीं - लठैत हैं, लठैत।'
रामानंदजी समर्थन करते हुए बोले, 'साहित्यिकों के क्या पूछने राकेशजी। यहाँ तो
अबके चोर नहीं रहे। वे तो डकैत हैं, डकैत। अपना पुराना तरीका तो यह था कि घर
में घुसे और बच्चे ने खाँस दिया तो विनम्रतापूर्वक बाहर निकल आए। पर आजकल के ये
लोग किसी को जागता हुआ पा जाएँ तो...' सहम कर उन्होंने वाक्य पूरा किया, 'बाप
रे बाप...'
अब राकेशजी उत्साहित हो गए और बोले, 'ये सब जाहिल हैं, निरर्थक हैं। पहले तो
लिखते-लिखते हाथ ऐसा मँज जाता था कि पाठक बिना पढ़े ही दूर से समझ जाते थे कि
अमुक कवि की कविता है। उस पर उनका व्यक्तित्व झलकता था...।'
रामानंदजी ने धीरे से कहा, 'यही तो। सेंध की शकल देख कर लोग कह देते थे कि यह
फँला ने लगाई है। अब तो सिटकनी खुली पड़ी है...।'
उपमा राकेशजी को पसंद आ गई। 'बोले, 'आजकल यही तो है ही। साहित्य के दरवाजे की
सिटकनी अंदर से खोल-खोल कर न जाने कितने लोग घुस आए हैं।'
बिन समझे हुए, रामानंद जी ने कहा, 'जी हाँ, पहले तो सेंध का ही चलन था।'
राकेशजी ने जल्दी से कहा, 'जी, आप मेरा मतलब नहीं समझे। मैं कहा रहा था कि...।'
अकस्मात उन्होंने चौंक कर कुरते की जेब पकड़ ली। रामानंदजी का हाथ उनकी मुट्ठी
में आ गया। नाराजगी से राकेशजी बोले, 'यह क्या? आप मेरी जेब काट रहे थे।'
रामानंदजी ने विनम्रता से हाथ छुड़ा कर कहा, 'यही समझ लीजिए। बात यह है कि...बात
यह है कि ये नौसिखिए कुछ काम तो बड़ी सफाई से कर दिखाते हैं। मैं आपस में वही
देख रखा था कि यह जेब वाला काम मुझसे भी चल पाता या नहीं।'
रामनंदजी नर्म पड़े। बोले, 'देख लिया आपने।'
बिना उत्साह के, रामानंदजी साँस खींच कर बोले, 'देख लिया राकेशजी यह सब के बूते
की बात नहीं। जो हमने कर लिया वह आज वाले नहीं कर पाते हैं। पर इनके भी कुछ ऐसे
खेल हैं जो हम नहीं खेल पाते। अपना-अपना जमाना है।'
सहसा राकेशजी बिगड़ कर बोले, 'यह सब आप ही के यहाँ चलता होगा। अपने यहाँ तो अब
भी जो कहिए, करके दिखा दूँ। रामानंदजी, यह तो करने की विद्या है। चाहे कवित्व
हो, चाहे कविता हो, या हो नई कविता। लिखूँगा तो अब भी आजकल वालों से अच्छा ही
लिखूँगा।'
रामानंदजी राकेशजी की ओर देखते रहे। उनमें कभी मतभेद नहीं हुआ था। पहली बार
उन्हें लगा कि कुछ ऐसी भी बातें हैं जहाँ उनकी राय हमेशा एक नहीं होगी।
साहब का बाबा
चपरासी ने अदब से परदा उठा कर गोल कमरे में मेरा प्रवेश करा दिया। मैं सोफे
पर बैठ गया तो उस कमरे में पहुँचाने के एहसान का बदला पाने की गरज से बड़ी
मित्रता-सी दिखाते हुए उसने पूछा, 'बिजली के छोटे इंजीनियर हो कर आए हैं न आप?'
मैंने स्वीकृति में सिर हिलाया और गंभीर बनने की कोशिश की। पर उसकी निराधार
मित्रता को जैसे आधार मिलने वाला हो। उसने फिर पूछा, 'बर्टी साहब की जगह आए हैं
न?'
मैंने गंभीरता से कहा, 'हाँ।'
उसने फिर प्रेम से पूछा, 'आप तो बाँभन है न?'
डरते हुए, कि कहीं वह पैर न छू ले... मैंने स्वीकार में सिर हिलाया और नाक
सिकोड़ कर प्रश्न के अनौचित्य पर प्रकाश डाला।
पर चपरासी पर इसका कोई प्रभाव न पड़ा। अदम्य आत्मीयता से उसने कहा, 'बर्टी की
जगह आप आ गए, अच्छा हुआ। बड़ा बदमाश था। सब परेशान थे।'
विषय बड़ा आकर्षक था, फिर भी चीफ के अर्दली से इस पर बात चलाई जाए या नहीं, इसी
संदेह में कोई उत्तर न दे सका। धीरे से मुसकरा कर फिर गंभीर हो गया।
चपरासी को जैसे मेरी थाह मिल गई। धीरे से, जैसे कोई घर का आदमी हो, उसने कहा,
'आप बैठें, मैं साहब को इत्तिला दे आऊँ।'
वह चला गया। फिर नहीं लौटा। मैं चुपचाप गोल कमरे में बैठा रहा।
गोल कमरा चौकोर था और सुरुचिपूर्वक सजाया गया था। किसी सौ-सवा-सौ रुपया महीना
पाने वाली सुरुचि ने, यानी किसी विभागीय डिजाइनर ने समझदारी से बड़े-बड़े किताबी
करिश्मे दिखाए थे। मैं एक संगमरमरी क्यूपिड - कामदेव से ले कर मिट्टी के बुद्ध
तक अपनी निगाह नचाता रहा। एक साथ श्रृंगार और शांत रस में निमज्जित होता रहा।
इसी बीच दरवाजे पर आहट हुई। मैंने उठना चाहा, पर उठते-उठते बैठ गया।
लगभग सात-आठ साल का एक लड़का मेरे सामने खड़ा था। गोरा, स्वस्थ, बनियान और हाफ
पैंट पहने हुए। बाल मत्थे तक फैले हुए। 'घुँघराली लटैं लटकैं मुख ऊपर...'
आदि-आदि वाला मजमून। मन में वात्सल्य भाव उमड़ा मैंने मुस्कराकर कहा, 'हलो।'
वह हँस कर मेरे घुटने के पास आ कर खड़ा हो गया। बोला, 'हलो।' मैंने प्यार से
उसका सिर सहलाया। पूछा 'बेटा, तुम्हारा नाम क्या है?'
उसने कहा, 'नहीं बताते।'
वह मेरी गोद पर चढ़ आया। जैसे वह कोई कुर्सी हो। उसका मुलायम शरीर कुछ देर तक
बड़ा भला लगा। वह मेरी जाँघों पर खड़ा हो गया, हाथ से मेरे बाल पकड़ कर अपनी ओर
खींचते हुए बोला, 'क्यों नहीं बताते? अपना नाम बताओ?'
अब इस हालत में नाम बताते हुए मुझे सचमुच झेंप लगी। मैंने उसके हाथ से अपने बाल
छुड़ाए। बाल बिगड़ जाने पर मन-ही-मन उसे कोसते हुए, नीचे खड़ा कर दिया। फिर, अपने
बड़े होने का अनुभव होते ही, यह सर्वकालीन नसीहत दी, 'अच्छे बच्चे ऐसा नहीं
करते।'
अब वह बड़ी तीव्रता से दाँत पीसता हुआ मेरी गोद में चढ़ने को दौड़ा और चीखने लगा,
'अच्छे बच्चे? अच्छे बच्चे? नाम बताओ अपना नाम बताओ।'
मुझे डर लगा कि लोग यह न समझे कि मैं उसकी हत्या कर रहा हूँ। अत: चाकर सुलभ
सरलता से मैंने कहा, 'मेरा नाम गोपाल है।'
उसने मेरी टाई अपनी ओर खींच कर आनंद से कहा, 'अरे वाह रे गुपल्लू! गुपल्लू!
गुपल्लू!'
यह कहने में उसने जैसा मुँह बनाया उसी से मैंने निश्चय किया कि बच्चों को ठीक
रखने के लिए छड़ी का महत्व अभी भली-भाँति समझा नहीं गया है।
पर मेरी टाई बिगाड़ कर वह कुछ शांत हो गया। प्रेम से बोला, 'मेरा नाम लीलू है।'
मैंने कहा, 'वेरी गुड।'
वह फिर बोला, 'दीदी का नाम जानते हो?'
मैंने 'नहीं' के लिए सिर हिलाया।
'क्वीनी, उसका यार बोलता है।'
मैंने आश्चर्य से आँखे फैलाई। उसने कहा, 'डैडी का नाम जानते हो?'
मैंने फिर वैसे ही सिर हिलाया। वह बोला, 'भेड़िया; शोफर बोलता है। ...मम्मी का
नाम जानते हो?'
मैंने फिर सिर हिलाया तो उसने कहा, 'डार्लिंग। डैडी डार्लिंग बोलते हैं।'
मैं उदास होकर बैठ गया तो उसने कहा, 'वह क्या है।'
मैंने जवाब दिया, 'बुद्धा।'
वह तालियाँ बजाता हुआ उछ्ल पड़ा, बोला, 'बुद्धा नहीं, बुद्धू! बुद्धू! तुम
बुद्धू! तुम बुद्धू!'
मेरी हास्यप्रियता का दिवाला बहुत पहले निकल चुका था। मैंने जरा कड़ाई से कहा,
'चुप रहो।'
इस पर वह चीखा, 'चुप रहो नहीं; शटअप, शटअप, शटअप ब्लडीफूल!'
मैंने परेशान हो कर इधर-उधर देखा। तभी यह भी देखा कि बाल और टाई ही नहीं, मेरे
कोट और पतलून पर भी उसका असर आ चुका है। वहाँ उसके जूतों के निशान बने हुए हैं।
यह मेरी गोद में चढ़ने-उतरने का नतीजा था।
मैं रोया नहीं। धीरे से कहा, 'लीलू, क्या बकते हो?'
वह मुँह मटकाता रहा, 'क्या बकता हूँ? अच्छा।' कुछ देर वह चुप रहा, फिर बोला,
'उस तस्वीर में क्या है?'
'जंगल है।'
'और वह लड़का और लड़की।'
मैंने क्यूपिड की मूर्ति को मन में नमस्कार करके कहा, 'हाँ, वे भी हैं।'
'क्या करते हैं?'
मैं चुप रहा।
'क्या करते हैं?' वह चीखा।
मैंने कहा, 'तुम्हीं बताओ।'
'बताऊँ?' वह कुछ देर चुप रहा। फिर चिल्ला कर बोला, 'किसिंग! किसिंग! बताऊँ?'
मैं कुर्सी से उठ खड़ा हुआ। मुँह से निकला, 'हे भगवान!'
तब उसने आखिरी दाँव लगाया, 'कुत्ते का मुँह काला है, तू हमारा साला है।'
तभी दरवाजे पर एक भूतनी आ कर खड़ी हो गई। यानी, जो आ कर खड़ी हुई तो उसे भूतनी कह
कर समझना आसान पड़ेगा। काले शरीर पर सफेद साड़ी फब रही थी। लगता था, पीपल के पेड़
से उतर कर छत पर होती हुई किसी भाँति नीचे आ गई है…।
पर मैं अन्याय कर रहा हूँ। वह मेरी रक्षा करने को आई थी। मैं उसका आदर करता
हूँ। आते ही उसने कहा, 'बाबा, बाऽऽ बाऽऽ, अंदर चलो।'
बाबा आनंद से हँसता हुआ अंदर जाने लगा, तभी चीफ ने कमरे में प्रवेश किया। आते
ही पूछा, 'बाबा से खेल रहे थे? बड़ा शरारती है... हाँ हँ, हँ।'
वे न जाने क्या-क्या बकते रहे। मैं हारा-सा, पिटा-सा सुनता रहा; सोचता रहा,
संसार असार है। कोई किसी का नहीं। कामिनी कंचन का मोह वृथा है। स्वामी रामकृष्ण
परमहंस का वचन है कि अनासक्त हो कर रहो, जैसे तुम अपने दफ्तर की संपत्ति को
अपनी कह कर भी अपनी नहीं मानते, जैसे तुम्हारी आया तुम्हारे बच्चों को अपना
मुन्ना बताते हुए भी उन्हें अपना नहीं जानती...
तभी सहसा विचार आया, जिस बाबा के वचनमात्र ने संसार को असारता समझा दी, और जिस
आया के दर्शन मात्र से कामिनी कंचन का मोह छूट गया, उनके साथ निरंतर रहने वाला
यह साहब कितना बड़ा परमहंस होगा! साक्षात् बुद्ध!
अस्कमात आदर से फूल कर मैं सोफे पर और भी सिमट आया और साहब के उपदेश को दत्तचित
हो कर भंते की भाँति सुनने लगा।
कलिदास का संक्षिप्त इतिहास
[लोक-कथाओं के आधार पर]
कालिदास का जन्म एक गड़रिए के घर में हुआ था। उनके पिता मूर्ख थे। उपन्यासकार
नागार्जुन ने जिस वीरता से अपने पिता के विषय में ऐसा ही तथ्य स्वीकार किया है,
वह वीरता कालिदास में न थी। अत: उन्होंने इस विषय में कुछ नहीं बताया। फिर भी
सभी जानते है कि कालिदास के पिता मूर्ख थे। वे भेड़ चराते थे। फलत: कालिदास भी
मूर्ख हुए और भेड़ चराने लगे। कभी-कभी गायें भी चराते थे। पर वे बाँसुरी नहीं
बजाते थे। उनमें ईश्वरदत्त मौलिकता की कमी न थी। उसका उपयोग उन्होंने अपनी
उपमाओं में किया है। यह सभी जानते हैं। जब वे मूर्ख थे, तब वे मौलिकता के सहारे
एक पेड़ की डाल पर बैठ गए और उसे उल्टी ओर से काटने लगे। इस प्रतिभा के चमत्कार
को वररुचि पंडित ने देखा। वे प्रभावित हुए। उनके राजा विक्रम की लड़की विद्या
परम विदुषी थी। विद्या का संपर्क इस मौलिक प्रतिभा से करा के वररुचि ने
लोकोपकार करना चाहा। कालिदास की मूर्खता का थोड़ा प्रयोग उन्होंने राजा विक्रम
और विद्या पर बारी-बारी से किया। परिणाम यह हुआ कि कालिदास का विद्या से विवाह
हो गया। विद्वता से मौलिकता मिल गई।
कुछ इतिहासकार कहते हैं कि वररुचि ने विद्या पर क्रोध कर के उसका विवाह एक
मूर्ख से कराया, यह गलत है। यदि वररुचि विद्या से नाराज होते और उन्होंने उसका
अहित करना चाहा होता तो वे उसका विवाह किसी भी मूर्ख राजा से करा देते। किसी भी
युग में ऐसे राजाओं की कमी नहीं रही है। सच यह है कि वररुचि ने जो किया,
लोक-कल्याण के लिए किया।
कालिदास की मूर्खता प्रकट होने पर विद्या ने उनका तिरस्कार किया। वे देवी के एक
मंदिर में जा गिरे। उनकी जबान कट गई और देवी पर जा चढ़ी। देवी ने भ्रमवश उन्हें
परम भक्त जाना। उनसे वर माँगने को कहा। मूर्ख होने के नाते कालिदास ने अपनी
पत्नी के विरुद्ध कुछ कहना चाहा। किंतु जैसे ही उन्होंने कहा, 'विद्या' भ्रमवश
देवी ने समझ लिया, विद्या माँग रहा है। फिर क्या था, 'तथास्तु'। बस कालिदास
विद्वान हो गए।
आगे का इतिहास मतभेदपूर्ण है। पहले कालिदास किस शताब्दी में पैदा हुए, इसी को
लीजिए। सभी जानते हैं वे विक्रमादित्य के समय में उत्पन्न हुए थे। विक्रमादित्य
चौथी-पाँचवी शताब्दी के राजा थे। चूँकि कालिदास का विवाह विक्रम की ही कन्या से
हुआ था, अत: वे चौथी शताब्दी के पहले पैदा नहीं हो सकते थे। यह भी सब जानते हैं
कि महाराज भोज से भी इनकी मेल मुलाकात थी। 'भोजप्रबंध' नामक ग्रंथ में इसके
अनेक प्रकरण मिलते हैं। भोज दसवीं शताब्दी के राजा हैं। इसी से सिद्ध होता है
कि कालिदास का जन्म चौथी शताब्दी में और अंत दसवीं शताब्दी में हुआ। वे लगभग छ:
सौ वर्ष जीवित रहे। मेरा अनुमान है जिस तरकीब से उन्हें विद्या मिली थी उसी से
उन्हें दीर्घायु भी मिली।
वे तीन शताब्दियों तक 'मेघदूत', 'कुमारसंभव' और 'रघुवंश' जैसे काव्यग्रंथ लिखते
रहे। (ऋतुसंहार अप्रामाणिक है।) बाद में उन्होंने नाटक लिखे क्योंकि जो कविता
लिखता है वह सदैव कविता नहीं लिख सकता। कभी-न-कभी अकस्मात आलोचना पर आने के
पहले वह नाटक पर अवश्य ही उतरता है। उदयशंकर भट्ट, रामकुमार वर्मा आदि इसके
उदाहारण हैं। तीन शताब्दियों में कालिदास के तीन नाटक, 'अभिज्ञान-शाकुंतलम',
'विक्रमोवर्शीय' और 'मालविकाग्मित्न' प्रकट हुए।
अभी कुछ दिन हुए हिंदी पन्नों में 'साधना' शब्द को ले कर काफी विवाद चला था। नए
लेखक साधना-विरोधी हैं। पर कालिदास से उन्हें शिक्षा लेनी चाहिए। जन्म से
मूर्खता मिलने पर भी भाग्य से उन्हें राज-सम्मान मिला, फिर भी उन्होंने
पुस्तकें लिखने में जल्दी न की। छ: सौ वर्षों में उन्होंने छ: ग्रंथ ही
प्रकाशित कराए। इसी कारण कालिदास का नाम अब तक चला आ रहा है।
खैर, यह तो विषयांतर हुआ। विवाह के बाद कालिदास कविता लिखने लगे। यहाँ उन
कवियों को कालिदास से शिक्षा लेनी चाहिए जो बिना विवाह किए ही कविता लिखने लगते
हैं। इसी का फल है कि वे 'तेरे फीरोजी ओठों पर' जैसी पंक्तियों लिख कर ओठों के
स्वाभाविक रंग से अपनी अज्ञता का प्रचार करते हैं। 'उभरे थे अंबियों से उरोज'
जैसी बात लिख कर और कुरुचि तक दिखा कर, यह नहीं जान पाते कि अंबियाँ गिरती हैं,
उभरती नहीं। जो विवाह कर के लिखेगा वह एक तो ऐसी गलतियाँ नहीं करेगा और करेगा
भी तो उसको सही प्रमाणित करने का साहस रक्खेगा। इसलिए कालिदास ने यह काम शादी
के बाद आरंभ किया। यह बात दूसरी है कि उनको अपने ससुर, विक्रमादित्य से इस विषय
में प्रोत्साहन मिला। आज के कवि इतने भाग्यशाली कहाँ? कभी-कभी किसी सभा की
सदस्यता पा लेने में, बची-खुची उपाधि हथिया लेने में और साक्षात अपने ससुर से
श्लोक-श्लोक पर लाख-लाख मुद्राएँ फटकारने में बड़ा अंतर है। आजकल एक तो समझदार
लोग अपनी कन्या का विवाह कवि से न करके ओवरसियर से करना चाहते हैं और कवि से
विवाह कर भी दिया तो उमरभर उसके भाग्य पर अकारण रोते हैं। पर कालिदास को ये
असुविधाएँ न थीं। इसलिए उनका व्यवसाय अच्छा चला। 'भोजप्रबंध' आदि से विदित होता
है कि कुछ दिन बाद वे पक्के व्यवसायी और चतुर व्यक्ति बन गए। जैसे आजकल बहुत से
साहित्यकार अपनी रचना को पुरस्कृत कराने के लिए पहले एक पुरस्कार का विधान करा
के बाद में अपनी रचना को ही सर्वश्रेष्ठ मनवा लेते हैं, वैसे ही कालिदास स्वयं
राजा को समस्या सुझा कर, दूसरे कवियों की रचनाओं में राजा की इच्छा का संशोधन
दे कर यह प्रकट करा देते कि श्लोक उन्हीं का है और इस प्रकार सहज प्रशंसा के
भागी हो जाते थे।
आज की भाँति पुराने युग में भी लोग ज्ञानवर्धन के लिए यात्रा का महत्व समझते
थे। इसीलिए कालिदास ने भी उत्तर-भारत से दक्षिण तक की यात्रा की। आज भी
उत्तर-भारत के बहुत से कवि दक्षिण तक जाते हैं। पर उनकी गति कालिदास जैसी नहीं
है। सर्वश्री भगवतीचरण वर्मा, नरेंद्र शर्मा, नेपाली, प्रदीप आदि तो बंबई तक ही
पहुँचे। श्रीमती विद्यावती, 'कोकिल' और सुमित्रानंदन पंत पांडिचेरी तक जा चुके
हैं। फलत: इनके साहित्य में उन स्थानों की हवा का असर है। सबकुछ होने पर भी
महर्षि रमण के आश्रम से भी दक्खिन जाने वाले हिंदी कवि बहुत कम हैं। इस हिसाब
से कालिदास की सिंहलयात्रा का ऐतिहासिक महत्व बढ़ जाता है। वे सिंहल अर्थात
सीलोन तक गए थे। इस बीच में शायद कोई भी महत्वपूर्ण हिंदी कवि सीलोन नहीं गया।
आगे भी हमारे यशस्वी कवि सीलोन जाएँगे, यह नहीं कहा जा सकता, क्योंकि रेडियो
सीलोन की नीति अभी भली-भाँति निश्चित नहीं हो सकी है। फिर भी यदि वे किसी
सांस्कृतिक आदान-प्रदान में सीलोन पहुँच भी जाएँ तब भी कालिदास की यात्रा का
महत्व इससे कम नहीं होता, क्योंकि उस युग में उज्जयिनी के राजभवन से सीलोन तक
जाना आज के युग में दिल्ली के संसद भवन से पोलैंड तक जाने की अपेक्षा कहीं अधिक
कठिन था।
कालिदास को वेश्याओं से प्रेम था। विद्वान जानते ही हैं कि कालिदास ने जिस
'रमणी, सचिव: सखी मिथ: प्रियशिष्या ललिते कलाविधौ' की उदात्त कल्पना की है, वह
वेश्याओं में बहुत अधिक मिल सकती है। वे रमणी होती ही हैं। आपके चाहने पर वे
सचिव भी हो जाती हैं, और सखी भी। 'अज-विलाप' की नायिका और अपनी वेश्याओं में
अंतर केवल 'प्रिय-शिष्या' वाली बातों को ले कर है। वैसे सनातन काल से अपने देश
का बड़े-से-बड़ा मूर्ख भी अपनी स्त्री को अपने से अक्ल में छोटा मान कर उसे
शिष्या से ऊँचा नहीं उठने देता, वेश्या के साथ ऐसी बात नहीं। आप समझदार हों तो
स्वयं उसके शिष्य बन सकते हैं। कई कवियों ने तो इसी शिष्यता के सहारे
कवित्त-सवैये की लकीर छोड़ कर गजल की झटकेदार कमंद हथिया ली है। तात्पर्य यह है
कि वेश्या का कवि-जीवन में जो महत्व है उसे हमारे जानने के पहले ही कालिदास जान
चुके थे।
उनके मन में वेश्या-प्रेम कैसे जागा, इसको ले कर इतिहासकारों ने कई धारणाएँ
व्यक्त की हैं। कुछ का कहना है कि वे पत्नीशाप से वेश्या-गामी बने। कुछ कहते
हैं कि 'कुमारसंभव' के नवम सर्ग में शिव-पार्वती का संयोग वर्णन इतना
यथार्थवादी हो गया कि साक्षात पार्वती को शाप देना पड़ा कि 'ओ कवि, तू
स्त्री-व्यसन में मरेगा।' उसी के वशीभूत हो कर कालिदास वेश्यागामी हो गए। वैसे
यह कथा विश्वास-योग्य नहीं है। देवी-देवता यदि अपने नाम पर संयोग-वियोग की
लीलाएँ सुन कर कवियों को शाप देने लगते तो आज तक कवि-वंश का नाश हो गया होता;
नहीं तो बहुत से कवि संस्कारवश मंदिरों के दरवाजों पर बैठ कर बताशे बेचते होते।
या कविता करते भी होते तो 'दफ्तर की इमारत', 'चाय से लाभ', 'खेती के लिए उपजाऊ
खादें' जैसे दोषहीन विषयों पर कविताएँ लिखते। यदि श्रृंगार-सुख के वर्णन से
बुरा मान कर पार्वती कालिदास को शाप दे सकती हैं तो कल कोई रिसर्च का
विद्यार्थी यही कहने लगेगा कि तुलसीदास का रत्नावली से वियोग इसीलिए हुआ कि
उन्होंने भगवान राम को सीता के वियोग में दु;खी दिखाया था और उनके मन में
जड़-चेतन का विवेक मिटा दिया था।
मेरे विचार से कालिदास को वेश्या प्रेमी इसलिए होना पड़ा कि उनके सिर पर उनकी
पत्नी का शाप - या प्रताप बोल रहा था। देखने की बात है कि कालिदास की पत्नी
उनके प्रति शुरु से ही कठोर रही। पुरुष की विद्या और आचरण ही उसके शास्त्रोक्त
गुण हैं। पहले कालिदास के पास विद्या न थी, पर आचरण था। तब वह कालिदास का अपमान
विद्याहीनता के कारण करती रही। जब वे विद्वान हो गए और उसे कालिदास को गिराने
की कोई तरकीब न सूझी तो उसने शाप दे कर उनके आचरण को नष्ट दिया। और जब किसी
सहृदय की पत्नी ही उसे, शाप दे कि 'दुराचारी हो जाओ' तो फिर ऐसा कौन पति है जो
इस शाप को स्वीकार न करेगा।
ये सब शोध की बातें हैं। सीधा-सादा इतिहास यह है कि कालिदास सीलोन गए। वहाँ
वेश्या के घर रुके। वहाँ उन्होंने पुरस्कार पाने के लालच में एक समस्यापूर्ति
की। तब उस वेश्या ने उन्हें मार डाला और उनकी समस्यापूर्ति के श्लोक को ले कर
राजा से काफी धन प्राप्त किया। बाद में उसने राजा से कालिदास को मार डालने की
बात भी मान ली। इस पर राजा ने वेश्या को माफ कर दिया। स्वयं वे कालिदास के साथ
चिता पर जल मरे।
इस घटना से सिंहल देश की तत्कालीन न्याय-पद्धति पर भी प्रकाश पड़ता है। वहाँ यदि
अपराधी अपराध स्वीकार कर लेता तो वह छोड़ दिया जाता था। जिसके सामने अपराध
स्वीकार किया जाता वह दंड का भागी होता था। शायद इसीलिए अपराधी तब सही-सही बात
बता भी देते थे। इस पद्धति का प्रभाव भर्तृहरि-काल में अपने देश में भी था।
इसीलिए उन्होंने अपनी रानी को दूसरे पुरुष में आसक्त पा कर उसे कोई दंड नहीं
दिया। खुद अपने को देश-निकाला दे दिया।
ये सब विषयांतर की बातें हैं, जो केवल वैधानिक इतिहास में आनी चाहिए। हमारे
जानने योग्य तो यही बात है कि कालिदास वेश्या के घर में मारे गए। यदि उनके घर
की तलाशी ली गई होती तो शायद बहुत-सा कालिदास-रचित भारतीय साहित्य, जो अब सिंहल
देश की राष्ट्रीय-निधि है, हमारे साथ लग जाता। पर उस समय अपने देश का कोई हाई
कमिश्नर वहाँ नहीं रहता था। इसी से यह नहीं हो पाया। वास्तव में, जिस प्रकार
हमारे बहुत से वेद जर्मनी में पड़े हैं, इतिहास-ग्रंथ इंग्लैंड में है, वैसे ही
बहुत-सा काव्य-साहित्य सिंहल देश में है।
कालिदास का इतिहास मैंने जिस सफाई से बखाना है उससे आप यह न समझें कि उसमें
मतभेद नहीं है। इतिहास का संबंध सच्ची घटनाओं से है। इसलिए एक-एक घटना पर सौ-सौ
मतभेद होते ही हैं। कालिदास के विषयों में भी मतभेद है। पर मैंने लोकप्रचलित
कथाओं के आधार पर इसे रचा है। इसे लगभग नब्बे प्रतिशत जनता मानती है। इसलिए
विद्वानों को इसे सच्चा इतिहास मानना ही पड़ेगा। यही प्रजातंत्र का मूल सिद्धांत
है। इसे सच्चा इतिहास मान कर कालिदास के जीवन से कई शिक्षाएँ लेनी चाहिए। कुछ
निम्नलिखित हैं:-
1- यदि कोई जन्म से मूर्ख है तो उसे घबराने की जरूरत नहीं; अच्छा विवाह संबंध
हो जाने पर, राज-सम्मान मिल जाने पर या देव के प्रसाद से मूर्ख होने पर भी आदमी
अच्छा कवि माना जा सकता है, और यशस्वी हो सकता है। ऐसे यशस्वियों की कभी कमी
नहीं रही।
2- समस्या-पूर्ति कर के काफी पैसा पैदा किया जा सकता है, पर पुरस्कार के लिए ही
कविता लिखना या समस्या-पूर्ति करना कभी-कभी कुठावँ में मरवाता है।
3- वेश्याओं के यहाँ कभी न जाएँ। जाना ही हो तो उनके यहाँ जा कर कविता न लिखें।
लिखें भी तो उसे कभी सुनाएँ ही नहीं। सुना भी दें तो उस पर मिलने वाले पुरस्कार
की चर्चा न करें।
4- बिना विवाह किए कविता न लिखें; लिखें भी तो उपयोगितावादी काव्य की साधना
करें, 'नव विहान आया', 'कट गई रात जड़ता की, घर-घर हुआ साक्षरता प्रचार' जैसे
विषयों पर।
हो सकता है कि कुछ विद्वान कालिदास के इतिहास से सहमत न हों। शायद वे यह सिद्ध
करना चाहें कि कालिदास एक उत्तम, धनी कुल में उत्पन्न हुए थे, उनके पिता भी कवि
थे, उनकी प्रतिभा से प्रभावित हो कर राजा विक्रमादित्य ने उन्हें अपना जामाता
बना लिया था, वे सदाचारी थे, अपनी सदाशया पत्नी को छोड़ कर किसी और स्त्री के,
नूपुर के अलावा, कोई और आभूषण तक न पहचानते थे, उनका स्वास्थ्य बड़ा अच्छा था,
नब्बे वर्ष की अवस्था में उन्होंने 'हरि: ओम् तत्सत्' कह कर शरीर छोड़ा,
आदि-आदि। जो यह सिद्ध कर ले जाएँगे कि कालिदास के विषय में मेरी धारणाएँ असत्य
हैं। पर इससे मुझे कोई दु:ख नहीं होगा, क्योंकि उस दशा में भी कालिदास एक आदर्श
कवि बने रहेंगे। साथ ही मेरा बड़ा भारी लाभ होगा। अपनी स्थापनाओं के खंडित हो
जाने और उनके मिथ्या प्रमाणित होने पर भी मैं अमर हो जाऊँगा, क्योंकि बहुत-से
इतिहासकार आज भी इन्हीं कारणों से अमर माने जाते हैं।
अंगद का पाँव
वैसे तो मुझे स्टेशन जा कर लोगों को विदा देने का चलन नापसंद है, पर इस बार
मुझे स्टेशन जाना पड़ा और मित्रों को विदा देनी पड़ी। इसके कई कारण थे। पहला तो
यही कि वे मित्र थे। और, मित्रों के सामने सिद्धांत का प्रश्न उठाना ही बेकार
होता है। दूसरे, वे आज निश्चय ही पहले दर्जे में सफर करने वाले थे, जिसके सामने
खड़े हो कर रूमाल हिलाना मुझे निहायत दिलचस्प हरकत जान पड़ती है।
इसलिए मै स्टेशन पहुँचा। मित्र के और भी बहुत-से मित्र स्टेशन पर पहुँचे हुए
थे। उनके विभाग के सब कर्मचारी भी वहीं मौजूद थे। प्लेटफार्म पर अच्छी-खासी
रौनक थी। चारों ओर उत्साह फूटा-सा पड़ रहा था। अपने दफ्तर में मित्र जैसे ठीक
समय से पहुँचते थे, वैसे ही गाड़ी भी ठीक समय पर आ गई थी। अब उन्होंने
स्वामिभक्त मातहतों के हाथों गले में मालाएँ पहनी, सबसे हाथ मिलाया, सबसे
दो-चार रस्मी बातें कहीं और फर्स्ट क्लास के डिब्बे के इतने नजदीक खड़े हो गए कि
गाड़ी छूटने का खतरा न रहे।
गाड़ी छूटने वाली थी। लोगों ने सिगनल की ओर देखा। वह गिर चुका था।
अब चूँकि कुछ और करना बाकी न था इसलिए उन्होंने उन लोगों में से एक आदमी से
बातें करनी शुरु की जो ऊपरी मन से हर काम के आदमी को दावत के लिए बुलाते हैं और
जिनकी दावतों को हर आदमी ऊपरी मन से हँस कर टाल दिया करता है। हमारे मित्र भी
उनकी दावत टाल चुके थे। इसलिए वे कहने लगे 'इस बार आऊँगा तो आपके यहाँ
रुकूँगा।'
वे हँसने लगे। कहने लगे, 'आप ही का घर है। आने की सूचना भेज दीजिएगा। मोटर ले
कर स्टेशन आ जाएँगे।' तब मित्र ने कहा, इसमें तकल्लुफ की क्या जरूरत है। तब
मित्र बोले कि तकल्लुफ घर वालों से तो किया नहीं जाता। तब वे बोले, 'जाइए साहब,
ऐसा ही घर वाला मानते तो आप बिना एक शाम हमारे गरीबखाने पर रूखा-सूखा खाए यों
ही न निकल जाते। तब मित्र ने कहा कि ऐसी क्या बात है; आप ही का खाता हूँ। तब वे
हें-हें करने लगे। तभी गाड़ी ने सीटी दे दी और लोग आशापूर्वक सिगनल की ओर झाँकने
लगे।"
मैंने इस बातचीत में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई क्योंकि मित्र को हमेशा मेरे ही
यहाँ आ कर रुकना था और हम दोनों इस बात को जानते थे।
ठीक वैसे ही जैसे मित्र दफ्तर में आते तो समय से थे पर जाने में हमेशा कुछ देर
कर देते थे वैसे ही समय हो जाने पर भी गाड़ी ने सीटी तो दे दी पर चली नहीं।
इसलिए फिर रुक-रुक कर इन विषयों पर बातें होने लगी कि मित्र को पहुँचते ही सबको
चिठ्ठी लिखनी चाहिए और उस शहर में अमरूद अच्छे मिलते हैं और साहब, आइएगा तो
अमरुद जरूर लाइएगा। तब पुराने नौकर ने बताया कि नाश्तेदान को बिस्तर के पीछे रख
दिया है। तभी पुराने हेड क्लर्क बोले कि बिस्तर का सिरहाना उधर के बजाय इधर
होता तो अच्छा होता क्योंकि उधर कोयला उड़ कर आएगा। तब हेड क्लर्क बोले कि नहीं,
कोयला उधर नहीं आएगा बल्कि उधर से सीनरी अच्छी दिखेगी। तभी कैशियर बाबू आ गए;
उन्होंने मित्र को दस रुपए की रेजगारी दे दी। तब मित्र ने खुलेआम उनके कंधे को
थपथपाया और खुले गले से उन्हें धन्यवाद दिया।
पर इस सबसे न तो कुछ होना था, न हुआ। लोग महीना-भर से जानते थे कि मित्र को
जाना है। इसलिए मतलब की सभी बातें पहले ही अकेले में खत्म हो चुकी थीं और सबके
सामने वे सभी बातें की जा चुकी थी जो सबके सामने कही जाती हैं। सामान रखा जा
चुका था, टिकट खरीदा ही जा चुका था। मालाएँ डाली ही जा चुकी थीं। हाथ या गले या
दोनों मिल ही चुके थे और गाड़ी चलने का नाम तक न लेती थी। थियेटर में जब हीरो पर
वार करने के लिए विलेन खंजर तान कर तिरछा खड़ा हो जाता है, उस वक्त परदे की
डोरी अटक जाए तो सोचिए क्या होगा? कुछ वैसी ही हालत थी। परदा नहीं गिर रहा था।
चूँकि मेरे पास करने को कोई बात नहीं रह गई थी इसलिए मैं मित्र से कुछ दूर जा
कर खड़ा हो गया और किसी ऐसे आदमी की तलाश करने लगा जो बराबर बात कर सकता हो। जो
ऐसा आदमी नजर में आया उसे मित्र की ओर ठेल भी दिया। उसने अपनी हमेशा वाली
मुस्कान दिखाते हुए कहा, 'आपके जाने से यहाँ का क्लब सूना हो जाएगा।' मित्र ने
हँस कर इस तारीफ से इनकार किया। उसने कहा, 'पहले ब्राउन साहब के जमाने में
टेनिस इसी तरह चली थी, पर अब देखिए क्या होता है।' मित्र बोले, 'होता क्या है?
आप चलाइए।' तभी वे एकदम नाराज हो गए। तुनक कर बोले, 'मैं क्या चला सकता हूँ
जनाब, मुझे तो ये लड़के क्लब का सेक्रेटरी ही नहीं होने देना चाहते। अब कोई
टिकियाचोर सेक्रेटरी हो तभी टेनिस चलेगी। मुझे तो ये निकालने पर आमादा हैं।"
बोलते-बोलते वे अकड़ कर खड़े हो गए। मित्र ने हँस कर इस विषय को टाला। उसके बाद
इनकी बातों का भी दिवाला पिट गया और बात आई-गई हो गई।
पर गाड़ी नहीं चली।
मित्र कुछ देर तक बेचैनी से सिगनल की ओर देखते रहे। कुछ लोग प्लेटफार्म पर
इधर-उधर टहल कर पान सिगरेट के इंतजाम में लग गए। कुछ को अंतरराष्ट्रीय समस्याओं
ने इस कदर बेजार किया कि वे पास के बुकस्टॉल पर अखबार उलटने लगे। कुछ के मन में
कला, कौशल और ग्रामोद्योगों के प्रति एकदम से प्रेम उत्पन्न हो गया। वे पास की
एक दूकान पर जा कर हैंडिक्रैफ्ट के कुछ नमूने देखने लगे। तब एक पुराना स्थानीय
नौकर मित्र के हाथ लग गया। उसे देखते ही अचानक मित्र के मन में समाज की
समाजवादी व्यवस्था के प्रति विश्वास पैदा हो गया। वे हँस कर उसकी प्रशंसा करने
लगे। तब वह रो कर अपनी पारिवारिक विपत्तियाँ सुनाने लगा। अब मित्र बड़े करुणाजनक
भाव से उसकी बातें सुनने लगे। तब कुछ टिकट-चेकर तेजी से आए और सामने से निकल
गए। मित्र ने उनकी ओर देखा, पर जब तक वे कुछ बात करने की बात तय करें कि वे आगे
निकल गए। तब तक एक लंबा-सा गार्ड सीटी बजाता हुआ निकला। हेड क्लर्क ने कहा,
'सुनिए साहब,' पर यह उसने अनसुना कर दिया और सीटी बजाता हुआ आगे बढ़ गया।
पर गाड़ी फिर भी नहीं चली।
कुछ को पारिस्थिति पर दया आई और वे मित्र के पास सिमट आए। पर घूम-घूम कर कई
लोगों ने कई छोटे-छोटे गुट बना लिए और कला के लिए जैसे कला - वैसे बात के लिए
बातें चल निकलीं। एक साहब, की निगाह मित्र की फूल-मालाओं पर गई। उनको उसी से
प्रेरणा मिली। बोले, 'गेंदे के फूल भी क्या कमाल पैदा करते हैं असली फूल-मालाएँ
तो गेंदे के फूलों की ही बनती है।'
बातचीत की सड़ियल मोटर एक बार जब धक्का खा कर स्टार्ट हो गई तो उसके फटफटाहट फिर
क्या पूछ्ना! दूसरे महाशय, ने कहा, 'इंडिया में अभी तो जैसे हम बैलगाड़ी के लेवल
से ऊपर नहीं उठे, वैसे ही फूलों के मामले में गेंदे से ऊपर नहीं उभर पाए।
गाड़ियों में बैलगाड़ी, मिठाइयों में पेड़ा, फूलों में गेंदा, लीजिए जनाब, यही है
आपका इंडियन कल्चर!'
इसके जवाब में एक-दूसरे साहब ने भीड़ के दूसरे कोने से चीख कर कहा, 'अंग्रेज चला
गया पर अपनी औलाद छोड़ गया।'
इधर से उन्होंने कहा, 'जी हाँ, आप जैसा हिंदुस्तानी रह गया पर दिमाग बह गया।'
इतना कह कर, जवाब में आनेवाली बात का वार बचाने के लिए वे फिर मित्र की ओर
मुखातिब हुए और कहने लगे, 'बताइए साहब, गुलाब की वो-वो वैरायटी निकाली है कि…।'
तभी गार्ड ने फिर सीटी दी और वे चौंक कर इंजिन की ओर देखने लगे। इंजिन एक नए
ढंग से सी-सी करने लगा था। कुछ सेकंड तक यह आवाज चलती रही, पर उसके बाद फिर
पहले वाली हालत पर आ गई, ठीक वैसे ही, जैसे दफ्तर छोड़ने के पहले मित्र कभी-कभी
कुर्सी से उठ कर भी कोई नया कागज देखते ही फिर से बैठ जाते थे। तब उस पुष्प
प्रेमी ने अपना व्याख्यान फिर से शुरु किया, 'हाँ साहब, तो अंग्रेजों ने गुलाब
की वो-वो वैरायटी निकाली है कि कमाल हासिल है! सन बर्स्ट, पिंक पर्ल, लेडी
हैलिंग्टन, ब्लैक प्रिंस, वाह, कमाल हासिल है! और अपने यहाँ? यहाँ तो जनाब वही
पुराना टुइयाँ गुलाब लीजिए और खुशबू का नगाड़ा बजाइए।'
बात यहीं पर थी कि इस बार गार्ड ने सीटी दी। बहस थम गई। पर कुछ देर गाड़ी में
कोई हरकत नहीं हुई। इसलिए वे दूसरे महाशय भी भीड़ को फाड़ कर सामने आ गए। अकड़ कर
बोले, 'हाँ साहब, जरा फिर से तो चालू कीजिए वही पहले का दिमाग वाला मजमून। मेरा
तो भई, दिमाग हिंदुस्तानी ही है, पर आइए, आपके दिमाग को भी देख लें।'
तब मित्र महोदय बड़े जोर से हँसे और बोले, 'हातिम भाई और सक्सेना साहब में यह
हमेशा ही चला करता है। याद रहेंगे, 'साहब, ये झगड़े भी याद रहेंगे।'
इस तरह यह बात भी खत्म हुई, झगड़े को मजबूरन मैदान छोड़ना पड़ा। उधर सिग्नल गिरा
हुआ था। इंजिन फिर से 'सी-सी' करने लगा था। पर गाड़ी अंगद के पाँव-सी अपनी जगह
टिकी थी।
भीड़ के पिछले हिस्से में दर्शन-शास्त्र के एक प्रोफेसर धीरे-धीरे किसी मित्र को
समझा रहे थे, 'जनाब, जिंदगी में तीन बटे चार तो दबाव है, कोएर्शन को बोलबाला
है, बाकी एक बटे चार अपनी तबीयत की जिंदगी है। देखिए न, मेरा काम तो एक तख्त से
चल जाता है, फिर भी दूसरों के लिए ड्राइंग-रूम में सोफे डालने पड़ते हैं। तन
ढाँकने को एक धोती बहुत काफी है, पर देखिए, बाहर जाने के लिए यह सूट पहनना पड़ता
है। यही कोएर्शन है। यही जिंदगी है। स्वाद खराब होने पर भी दूध छोड़ कर कॉफी
पीता हूँ, जासूसी उपन्यास पढ़ने का मन करता है पर कांट और हीगेल पढ़ता हूँ, और
जनाब गठिया का मरीज हूँ, पर मित्रों के लिए स्टेशन आ कर घंटों खड़ा रहता हूँ।'
वे और उनके श्रोता - दोनों रहस्यपूर्ण ढंग से हँसने लगे और फिर मुझे अपने नजदीक
खड़ा पा कर जोर से खुल कर हँसने लगे ताकि मुझे उनकी निश्छलता पर संदेह न हो सके।
गाड़ी फिर भी नहीं चली।
अब भीड़ तितर-बितर होने लगी थी और मित्र के मुँह पर एक ऐसी दयनीय मुस्कान आ गई
थी जो अपने लड़कों से झूठ बोलते समय, अपनी बीवी से चुरा कर सिनेमा देखते समय या
वोट माँगने में भविष्य के वादे करते समय हमारे मुँह पर आ जाती होगी। लगता था कि
वे मुस्कुराना तो चाहते हैं पर किसी से आँख नहीं मिलाना चाहते।
तभी अचानक गार्ड ने सीटी दी। झंडी हिलाई। इंजिन का भोंपू बजा और गाड़ी चलने को
हुई। लोगों ने मित्र से उत्साहपूर्वक हाथ मिलाए। फिर मित्र ही डिब्बे में पहुँच
कर लोगों से हाथ मिलाने लगे। कुछ लोग रूमाल हिलाने लगे। मैं इसी दृश्य के लिए
बैचैन हो रहा था। मैंने भी रूमाल निकालना चाहा, पर रूमाल सदा की भाँति घर पर ही
छूट गया था। मैं हाथ हिलाने लगा।
एक साहब वजन लेनेवाली मशीन पर बड़ी देर से अपना वजन ले रहे थे और दूसरों का वजन
लेना देख रहे थे। गार्ड की सीटी सुनते ही वे दौड़ कर आए और भीड़ को चीरते हुए
मित्र तक पहुँचे। गाड़ी के चलते-चलते उन्होंने उत्साह से हाथ मिलाया। फिर गाड़ी
को निश्चित रूप से चलती हुई पा कर हसरत से साथ बोले, 'काश, कि यह गाड़ी यहीं रह
जाती।'
कुंती देवी का झोला
वसंत का प्रभात था। कहने की जरूरत नहीं कि सुहावना था। कविता की परंपरा में
वह इसके अलावा और क्या-क्या था, यह कहने की तो बिल्कुल जरूरत नहीं। जो कहना है
वह यह कि ऐसे ही प्रभात में कुंती देवी के साथ के पाँच आदमी, जिन्हें आप
बढ़ई-लुहार की तरह उनके व्यावसायिक नाम से पुकारना चाहें तो डकैत कह सकते है -
हिम्मतपुरा गाँव में आए और नीम की छाँव में उसी कुएँ की जगत पर बैठ गए यहाँ वे
कल दोपहर को भी आ कर बैठे थे। फर्क इतना था कि कल पाँच की जगह वे ग्यारह थे और
उनके साथ कुंती देवी भी थीं।
जिस तरह बढ़ई-लुहार और दूसरे कामगार अपने काम से फुरसत पाकर चना-चबेना करने के
लिए अपने औजारों के साथ किसी भी कुएँ की जगत पर बेखटक बैठ सकते है, लगभग उसी
इत्मीनान से, अपनी-अपनी बंदूके और राइफलें लिए, वे पाँचों भी वहाँ बैठे रहे और
जिंदगी के बारे में छोठी-मोटी बातें करते रहे। पर जिस लड़के को भेज कर उन्होंने
पूरे गाँव के आदमियों को कुएँ पर आने के लिए बुलाया था उसके गाँव के दूसरे छोर
तक पहुँचते-पहुँचते चारों ओर सन्नाटा छा गया। धीरे-धीरे गाँववाले वहाँ सिमट कर
आते गए और जमीन पर बैठते गए। प्राचीनकाल होता तो वे मुँह में तिनके दबा कर और
अपने आगे-आगे कोई गाय लेकर आते, पर बिना इन अलामतों के भी उनके चेहरे बता रहे
थे कि वे सभी अपने प्राणों की भीख चाहते हैं।
जो पहले ही खेतों पर चले गए थे, डकैतों ने उन सबके लौटने का इंतजार नहीं किया।
उनके काम-भर का श्रोता-वर्ग आ चुका था। एक से दूसरे सिरे तक उस पर पैनी निगाह
डाल कर एक डकैत ने कहा, 'कुंती देवी का झोला कहाँ है?'
कुंती देवी इस गिरोह की नेता थीं और सिर्फ इस कारण कि वे महिला और दस्यु
साथ-साथ थीं, पुलिस और प्रेस के बीच दस्यु सुंदरी कही जाती थी। गाँववालों को
उनकी सुंदरता का पता न था, उनके पल्ले कुंती देवी की दस्युता-भर पडी थी। यह
अकेला जुमला सुन कर गाँववालों की तुरंत समझ में आ गया कि कोई एक झोला है जो
कुंती देवी का है और जो खो गया है। यह भी समझ में आ गया कि वे गहरे संकट में
हैं।
डकैतों ने डाट-डपट नहीं की। ताकत के एहसास से उपजी जिस शिष्टता का परिचय
नादिरशाह ने शहंशाह मुहम्मद शाह से कोहेनूर हीरा हासिल करने के लिए दिया होगा,
उसी के साथ वे गाँववालों को अपनी बात समझाते रहे। कल उनका गिरोह इसी गाँव से
निकला था। इसी कुएँ पर रुक कर उन्होंने रोटी खाई थी। चलते वक्त कुंती देवी अपना
झोला यहीं कहीं भूल गई थी। अभी उसका पता नहीं चला है। गाँववालों को चाहिए कि वह
जहाँ कहीं भी छिपा कर रखा गया हो, उसे निकाल कर वापस कर दें।
'दो-एक दिन में हम लोग फिर आएगें, दूसरे डकैत ने कहा, 'अगर तब तक तुम लोगों ने
झोला वापस नहीं किया तो बरबाद हो जाओगे।'
यह धमकी थी पर आशीर्वाद की तरह दी गई थी। इसके झटके से गाँववाले उबर भी न पाये
थे ऐसी कड़क के साथ जो फिल्मों और नाटकों में डकैतों के लिए खासतौर से सुरक्षित
की गई है, तीसरे डकैत ने कहा, 'और खबरदार, अगर इस सबके बारे में पुलिस को बताया
तो किसी की खैर नहीं। तुममें से एक-एक को गोलियों से भून दिया जाएगा।'
आवाज ही नहीं, संवाद भी फिल्मी था। पर उससे गाँववालों का संकट घटा नहीं उन्हें,
जकड़ कर वहीं जम गया। कोई कुछ नहीं बोला। सिर्फ जब वे पाँचों चलने को तैयार हुए
तब एक बुड्ढे ने बैठे-ही-बैठे, हाथ जोड़ कर पूछा, 'मालिक यह झोला कैसा है? मतलब,
कपड़े का है कि कुछ और? रंग-वंग?'
एक डकैत ने कहा, 'गाँधी आश्रम का है।'
बुड्ढे के चेहरे ने बता दिया कि वह कुछ समझ नहीं पाया है। तब डकैत ने उसे धीरज
से समझाया, 'खादी का है। हरे और सफेद रंग का कंधे से लटकाया जानेवाला।'
उसी दिन सरे शाम गाँव में पुलिस ने धावा बोला। आते ही उन्होंने एक-एक घर की
तलाशी ली और जब उन्हें कुंती देवी का झोला नहीं मिला तो दो घरों में उन्हें
देसी कारतूसी तमंचा मिल गया। उसके बाद जिन पर तमंचे का इल्जाम था, उनकी रस्मी
पिटाई करके पुलिस ने भी गाँववालों को उसी तरह एक जगह इकठ्ठा किया और कहा, 'हमें
पता चल गया है कि कुंती का गिरोह आज यहाँ आया था। तुमने हमें इसकी इत्तिला
क्यों नहीं दी? क्यों बे प्रधान के बच्चे?'
प्रधान का बच्चा यानी हेकड़ी के साथ गाँव सभा चुनाव जीत कर जो प्रधान बना था वह
पीछे दुबका खड़ा था। उसने कहा, 'हमारी जानकारी में यहाँ कोई नहीं आया सरकार!'
इसके जवाब में पुलिस ने गालियों की बौछार शुरू की और जब तक वह बदल कर मूसलधार
बारिश बनी तब तक प्रधान के इस वाक्य से गाँववालों ने आपस में कोई बात किए बिना
एक बात तय कर ली। सभी गुहार मचाने लगे कि उनके गाँव में कुंती देवी या उनके
गिरोह का कोई आदमी कभी नहीं आया। यह बात हाथ हिला कर, रो कर, बहक कर, घिघिया
कर, कसमें खा कर, अकड़ कर और वे सारी मुद्राएँ दिखा कर कही गईं जो झूठ का इल्जाम
लगने पर हर सच्चे आदमी को दिखानी पड़ती हैं। जवाब में पुलिस ने कुछ और गालियाँ
दीं, ज्यादा उत्साह से बोलनेवालों को एकाध बेंत भी लगाए।
तब दरोगाजी ने कहा, 'तुम सभी जानते हो कि हरगाँव में परसों भारी डाका पड़ा है।
यह कुंती देवी के गिरोह का काम है। डाके में दो किलो वजन के सोने के जेवर लूटे
गए है। उनकी कीमत जानते हो? पाँच लाख रुपए। हमें पता है कि कुंती ने जेवर इसी
झोले में रखे थे। तुम लोग यह पाँच लाख का माल चुपचाप हजम करना चाहते हो? ट्रक
के पहियों में जिस पंप से हवा भरी जाती है, उसी से मेंढक के पेट में हवा भर दी
जाए तो क्या होगा? पेट भड़ाम से फूट जाएगा। तुम्हारा भी यही हाल होनेवाला है।
पाँच लाख रुपया हजम करना तुम्हारे बूते का नहीं है। पूरे गाँव पर दफा चार सौ
बारह चलेगी।' फिर कड़ककर, 'निकालो झोला!'
पर जिसका झोला था, जब वही गाँव में नहीं आई तो झोला कहाँ से आता? फिर भी पुलिस
ने गाँववालों को झोला बरामद करने के लिए चौबीस घंटे का समय दिया, दूसरे दिन फिर
शाम को दुबारा आने की धमकी दी और दो देसी तमचों और उतने ही अभियुक्तों के साथ
थाने की ओर वापस चले गए।
गाँव बहुत छोटा था, यही चालीस-पचास घर, यानी बीहड़ के एक सिरे पर झोपड़ियाँ, जैसे
किसी चुचके, मटमैले चेहरे पर मुँहासे फैले हों। सभी धरती के छोटे-छोटे,
रूखे-सूखे टुकड़े जोत कर ज्वार, चना या अरहर पैदा करते जो कभी होती और कभी न
होती। इतना अच्छा था कि एक ओर बस्ती के पास ही जहाँ धरती इतनी ऊबड़-खाबड़ न थी,
कँटीली झाडियों का एक छोटा-सा जंगल था और कुछ महुए के बाग थे। चना और अरहर का
उतना नहीं, जितना गाँववालों को महुए का सहारा था। वे सफेद तिल मिला कर उन्हें
कूटते और उसे खाते। फल के छिलके की गर्मियों में सब्जी पकाते, फल का तेल
निकालते और साल में एकाध बार जब तीज-त्यौहार में पूड़ी खाने की धार्मिक मजबूरी
होती तो इसी तेल में पूड़ियाँ तलते। महुए के पत्तों का पत्तल में उपयोग करते।
महुए की लकड़ी कमजोर होती है। दरवाजे और चौखट उतने अच्छे नहीं बनते। पर वे
दरवाजे और चौखट भी बनाते। मर जाने पर महुए की लकड़ी अपनी चिता में जलाते, जिसके
लिए वह घरेलू फर्नीचर के मुकाबले सचमुच ही ज्यादा कारगर सिद्ध होती।
ऐसे लोगों को सामने पाँच लाख रुपए की गिनती मोटर पंप की मदद के बिना ही उनके
पेट को गुब्बारे-जैसा फुला कर फोड़ने के लिए काफी था। बचत इसी में थी कि झोला
खोज निकाला जाए और इसके पहले कि उनके पेट भक्क-से फूटें उसे सही हाथों में सौंप
दिया जाए। पर सही हाथ सवेरे के मेहमानों के होंगे कि शामवालों के, यह तय नहीं
हो पाया। फिर भी वे रात-भर अपने-अपने घरों के पास झोले की तलाश करते रहे,
लालटेन लटका कर कुएँ में कई बार काँटा भी डाला गया। सवेरा होते ही उन्होंने
आसपास का जंगल, बारों और बीहड़ भी छाना। पर झोला नहीं मिला। उनकी जगह उन्हें
गाँव के दूसरी ओर के बीहड़ की राह से आते हुए वे पाँच आदमी मिले जो द्वापर होता
तो कुंती के पाँचों पति होते, कलजुग में केवल उसके कारकून थे।
तीन दिन तक यही होता रहा। कभी डाकू आते, कभी पुलिसवाले। गाँववालों की छाती पर
बिछे हुए किसी अनदेखे तख्ते के एक ओर छोर पर डाकू और दूसरे छोर पर बैठे पुलिस
के लोग 'सी-सा' का खेल खेलते रहे। हर बार गाँव का कोई-न-कोई आदमी पिटता, उसकी
छाती की ओर राइफलें तनती, गाँव को जला देने की धमकी मिलती और उनके दिलों में
इतनी ठोस दहशत पैठ जाती कि रात को घंटो धोने पर भी महुए का ठर्रा उसे धो नहीं
पाता।
तब चौथे दिन प्रधान ने बुंदेलखंडी चमरौधा जूतों पर मैली धोती, उजला कुर्ता,
टोपी और अँगोछा पहना, दो जवानों को साथ लिया और और सबकी आँख बचा कर कई कोस दूर
उस कस्बे का रास्ता पकड़ा जहाँ उनके एम.एल.ए. रहते थे। पर यह विदेश यात्रा और
एम.एल.ए. के साथ हुई शिखर-वार्ता भी असफल रही।
हुआ यह कि एम.एल.ए. सिद्धांतवादी निकले। उन्होंने कहा कि मामला पाँच लाख रुपए
के जेवरों का है। पुलिस अगर उसकी तलाश कर रही है तो ठीक ही कर रही है। अगर वे
जेवर तुममें से किसी के पास है तो उन्हें तुरंत थाने पर जमा कर देना चाहिए।
इससे मै तुम्हारी क्या मदद कर सकता हूँ? चाहो तो बस इतना कि वह झोला तुम मेरे
हवाले कर दो और तुम्हारी तरफ से मैं उसे थाने पर जमा कर दूँगा। तुम्हें खुद
थाने पर नहीं जाना पड़ेगा। पता नहीं वहाँ पर क्या बीते। यह और देख लूँगा कि
पुलिस तुम्हारा चालान न करे, मुकदमे में तुम्हे सरकारी गवाह बना ले।
उस दिन, अपनी भावी योजना की बानगी के तौर पर डाकुओं ने तीन झोपड़ियाँ जला दी और
पुलिस ने उतने ही आदमियों का नाजायज शराब बनाने के जुर्म में चालान कर दिया।
पाँचवें दिन दोहपर को दो लड़के, अपने एक निजी काम से कँटीले जंगल की ओर गए।
उनमें उनमें बड़ा बारह और छोटा दस साल का था। कहा जा चुका है कि वसंत की सुहानी
ऋतु थी और हर सुहानी ऋतु में उन्हें जंगल में भटकना अच्छा लगता था। निजी काम यह
था कि उन्हें घुँघची इकठ्ठी करनी थी। भगवान ने घुँघुची के लाल दानों के ऊपर जो
काली बुंदी लगा दी है, वह इन लड़कों को खासतौर से अच्छी लगती थी और आज उन्होंने
सोचा था कि वे चुपके से जंगल में निकल जाएँगे और ढेर सारी घुँघची इकठ्ठा कर
लेगें।
उन्होंने किया भी उसी धुन में उस झुरमुट के पास पहुँच गए। जहाँ महुए के दो-चार
पेड़ों के इर्द-गिर्द झाड़ियाँ बड़ी गझिन हो गई थी। उनके अंदर घुसना आसान न था।
पर भीतरी अँधेरे को बेध कर आती हुई धूप के चकत्तों में उन्हें घुँघची की
दुबली-पतली लताएँ न दीखते हुए भी दीख पड़ीं। उन्होंने इस माहौल में उनसे लटकी
हुई कुछ फलियाँ भी देखीं जो आधा सूख कर बीच से फट गई थीं और जिन पर चिपके हुए
घुँघची के दाने उन्हें अपनी लाल-काली चिकनी चमक के साथ अपनी और खींच रहे थे।
झाडियाँ के नीचे से घुटनों के बल खिसक कर वे धीरे-से झुरमुट के बीच जा पहुँचे
और अपनी पीठ एक महुए के तने से टिका कर धूपछाँही धुँधलके में चारों ओर निहारने
लगे। वहाँ उन्होंने तने के दूसरी ओर पड़े हुए हरे-सफेद झोले को देखा।
दोनों के चेहरे ठस हो गए। उनकी आँखे फैल गईं और कुछ देर वे एक-दूसरे को बिना
पलक माँजे देखते रहे। धीरे-धीरे उनके चेहरों में हरकत आई और बड़े के ओठों पर एक
हल्की मुस्कान उतरी। बाद में उसके ओंठ फैल गए। वह जोर से हँसने ही वाला था कि
छोटे ने उसके मुँह पर अपना छोटा-सा पंजा उठाकर ढक्कन-जैसा लगा दिया। तब बड़े ने
उसकी सूझ की तारीफ में सिर हिलाया, एक हाथ से उसका हाथ अपने मुँह से हटाया और
दूसरा हाथ ले जाकर झोले को अपनी ओर खींच लिया।
छोटि ने फुसफुसकर कहा, 'देख क्या है?'
झोला खींच तो लिया था पर बड़े की उँगलियाँ ठीक से चल नहीं रही थीं। मुश्किल से
उसे खोल पाया।
ऊपर एक मैला तौलिया था। उसे धीरे-से झटक कर उसने जमीन पर डाल दिया। उसके नीचे
एक कपड़े की छोटी-सी पोटली थी। उसे खोलने पर चार सूखी रोटियाँ मिली, एक बड़ा-सा
प्याज भी। कपड़े के खूँट में एक गाँठ बँधी थी। खोलने पर नमक निकला।
'फेंक दे। रोटी कई दिन की बासी है।' छोटा वैसे ही फुसफुसाया। पर बड़ा बोला,
'रहने दे। गरम कर लेंगे तो बुरी नहीं लगेंगी।'
सूखे चमड़े के टुकड़ों-जैसी इन रोटियों को दोनों गंभीरता से देखते रहे। तब छोटे
ने कहा, 'यह तो हमसे भी ज्यादा गरीब है।'
बड़ा बड़ी देर सोचता रहा, बोला, 'पता नहीं क्या दुख है उसे जो चार रोटी बाँधे
बीहड़ों में भटक रही है।"
आगे के सामान की तलाशी उसने ज्यादा कारगर उँगलियों से ली। एक काँसे का गिलास
निकला, फिर एक तीन इंची शीशा और एक कंघा। बड़े ने शीशे में मुँह देखा, रोब से
आँखे मत्थे पर चढ़ा लीं।
अब छोटे के हँसने की बारी थी, पर बड़े ने हँसने नहीं दिया।
नीचे कागज में लिपटी हुई कोई चीज थी। छोटे ने बड़ी दिलचस्पी से कहा, 'इसमें गुड़
होगा।'
"तमंचा।" बड़ा बोला और इस बार अपनी ही आवाज से सकपका गया।
वे अंग्रेजी जानते होते तो समझ जाते कि वह बत्तीस बोर का एक छोटा-सा स्मिथ एंड
बेसन रिवाल्वर है। इस्पात का नीला-सा खूबसूरत खिलौना। उन्होंने गाँव में एकाध
बार देसी कारतूसी तमंचे देखे थे। पर वे बहुत बड़े और बदरंग होते है। यह सचमुच ही
खिलौना-जैसा प्यारा और चिकना था। उनके मन में आतंक था, पर उसका चिकनापन उन्हें
मजबूर कर रहा था।
बड़े ने उसे कई बार बारी-बारी से दोनों हथेलियों में उलट-पुलट कर देखा। तमंचा
चलाने की मुद्रा में उसका हत्था भी एक बार हथेली में पकड़ा। तब तक छोटे का धीरज
जवाब देने लगा। उसने भी हाथ बढ़ा कर बड़े की हथेलियों में बँधे हुए इस खिलौने को
सहलाना शुरु किया। तभी तमंचे से एक गोली छूटी और पता नहीं किधर गई। झुरमुट का
सन्नाटा छिन्न-भिन्न हो गया। अचानक ऊपर के पेड़ों और झाड़ियों से सैकड़ों चिडियाँ
चीखती हुई निकली और चारों ओर उड़ चलीं। वे उन चिड़ियों को देख नहीं सकते थे पर
उनकी विकृत आवाजें, घबराहट और जड़ता के बावजूद, उन्हें सुनाई पड़ रही थीं।
ज्यादातर कौवे थे, उनसे भी ज्यादा तोते थे।
रिवाल्वर उनके हाथ से नीचे गिर गया, उन्होंने एक-दूसरे के कंधे भींच लिए। अचानक
बड़े ने कहा, 'उठ।'
सबकुछ वहीं, जैसे का तैसा, छोड़ कर वे भागे। पर उसके पहले उन्हें कुछ देर पेट के
बल घिसटना पड़ा। कोई दबाव था, जिससे कारण वे गाँव की ओर नहीं, बीहड़ की ओर भागे।
झुरमुट पार करते-करते उन्हें दूर से अपने पीछे गोली चलने की आवाजें सुनाई दीं।
वे झुके-झुके कुछ और तेजी से भागे और एक कम गहरे भरके में कुद गए। वहाँ
उन्होंने रुक-रुक कर दागी जानेवाली गोलियों को कई आवाजें सुनीं।
वे टेढ़े-मेढ़े भरकों में भागते हुए काफी देर भटकते रहे। उन्हें हर तीसरे कदम पर
गोलियों की आवाज सुन पड़ती और बार-बार उन्हें लगता कि अगली गोली उनकी पीठ में
लगेगी। बिना कुछ सोचे-विचारे, टोटका जैसा करते हुए, वे अपनी हाफ पैंट की जेबों
में भरी हुई घुँघची बीहड़ रास्ते में फेंकते गए। जब उनकी जेबें खाली हो गईं तब
उन्होंने चैन की साँस ली। पर गोलियों की आवाजें भरकों में अब भी गूँज रही थीं।
बड़ी देर तक लंबा चक्कर काट कर वे एक भरके से गाँव के दूसरे छोर पर निकले और
सबसे पासवाली झोपड़ी में घुस गए। वहाँ उन्हें सुनने को गोलियाँ नहीं, गालियाँ
मिलीं। जो बुड्ढा चारपाई पर सिकुड़ा पड़ा था गालियाँ खत्म करके अंत में बोला,
'भाग जाओ। चुपचाप घर में बैठो जा कर।'
बदहवास चेहरे लिए, छिपे-छिपे एक से दूसरी दीवार का सहारा लेकर वे अपने घर
पहुँचे। बाहर गलियारों में कोई न था। अंदर सब लोग दुबके बैठे थे। रुक-रुक कर
चलनेवाली गोलियों की आवाज यहाँ ज्यादा साफ सुनाई देती थी। सन्नाटा था, चिड़ियों
ने चीखना बंद कर दिया था। थोड़ी देर में उन्हें दूर किसी मोटर की घरघराहट सुनने
को मिली। एक बुजुर्ग ने कहा, 'पुलिस की दूसरी मोटर आई होगी।'
बुजुर्गों की बातों से पता चला कि आज भी दोपहर में पुलिस गाँव में आई थी। पर
लौटते-लौटते उनका दस्ता जंगल के पास अचानक रुक गया। उन्होंने जंगल की तीन तरफ
से घेराबंदी कर ली है। पुलिस का एक जत्था अब बीहड़ की तरफ बढ़ रहा है। शुरू में
एक गोली चला कर डाकू जंगल में चुपचाप घात लगाए बैठे हैं। लगता है कि मुठभेड़
घंटों चलेगी। जब डाकू भी जवाबी गोलियाँ चलाएँगे तो घमासान लड़ाई होगी। पर पुलिस
को उन्हें अँधेरा होते-होते मार लेना चाहिए नहीं तो मुश्किल होगी। अँधेरा हो
गया तो डाकू बीहड़ में कूद जाएँगे।
छोटे ने यह सब बड़े ध्यान से सुना। वह कुछ कहना चाहता था पर बड़े ने हाथ दबा कर
उसे रोक दिया। कुछ देर में एक-दूसरे को चोर निगाहों से देखते हुए वे दहलीज पार
करके अंदर आँगन में चले आए।
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