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उर्दू
कहानी
धुआँ
गुलज़ार
बात सुलगी तो बहुत धीरे से थी, लेकिन देखते ही देखते पूरे कस्बे में 'धुआँ' भर गया। चौधरी की मौत सुबह चार बजे हुई थी। सात बजे तक चौधराइन ने रो-धो कर होश सम्भाले और सबसे पहले मुल्ला खैरूद्दीन को बुलाया और नौकर को सख़्त ताकीद की कि कोई ज़िक्र न करे। नौकर जब मुल्ला को आँगन में छोड़ कर चला गया तो चौधराइन मुल्ला को ऊपर ख़्वाबगाह में ले गई, जहाँ चौधरी की लाश बिस्तर से उतार कर ज़मीन पर बिछा दी गई थी। दो सफेद चादरों के बीच लेटा एक ज़रदी माइल सफ़ेद चेहरा, सफेद भौंवें, दाढ़ी और लम्बे सफेद बाल। चौधरी का चेहरा बड़ा नूरानी लग रहा था। मुल्ला ने देखते ही 'एन्नल्लाहे व इना अलेहे राजेउन' पढ़ा, कुछ रसमी से जुमले कहे। अभी ठीक से बैठा भी ना था कि चौधराइन अलमारी से वसीयतनामा निकाल लाई, मुल्ला को दिखाया और पढ़ाया भी। चौधरी की आख़िरी खुवाहिश थी कि उन्हें दफ़न के बजाय चिता पर रख के जलाया जाए और उनकी राख को गाँव की नदी में बहा दिया जाए, जो उनकी ज़मीन सींचती है। मुल्ला पढ़ के चुप रहा। चौधरी ने दीन मज़हब के लिए बड़े काम किए थे गाँव में। हिन्दु-मुसलमान को एकसा दान देते थे। गाँव में कच्ची मस्जिद पक्की करवा दी थी। और तो और हिन्दुओं के शमशान की इमारत भी पक्की करवाई थी। अब कई वर्षों से बीमार पड़े थे, लेकिन इस बीमारी के दौरान भी हर रमज़ान में गरीब गुरबा की अफ़गरी (अफ़तारी) का इन्तज़ाम मस्जिद में उन्हीं की तरफ़ से हुआ करता था। इलाके के मुसलमान बड़े भक्त थे उनके, बड़ा अकीदा था उन पर और अब वसीयत पढ़ के बड़ी हैरत हुई मुल्ला को कहीं झमेला ना खड़ा हो जाए। आज कल वैसे ही मुल्क की फिज़ा खराब हो रही थी, हिन्दू कुछ ज़्यादा ही हिन्दू हो गए थे, मुसलमान कुछ ज़्यादा मुसलमान!! चौधराइन ने कहा, 'मैं कोई पाठ पूजा नहीं करवाना चाहती। बस इतना चाहती हूँ कि शमशान में उन्हें जलाने का इन्तज़ाम कर दीजिए। मैं रामचन्द्र पंडित को भी बता सकती थी, लेकिन इस लिए नहीं बुलाया कि बात कहीं बिगड़ न जाए।'
बात बताने
ही से बिगड़ गई जब मुल्ला खैरूद्दीन ने मसलेहतन पंडित रामचंन्द्र को बुला
कर समझाया कि -- बात जो सुलग गई थी धीरे-धीरे आग पकड़ने लगी। सवाल चौधरी और चौधराइन का नहीं हैं, सवाल अकीदों का है। सारी कौम, सारी कम्युनिटि और मज़हब का है। चौधराइन की हिम्मत कैसे हुई कि वह अपने शौहर को दफ़न करने की बजाय जलाने पर तैयार हो गई। वह क्या इसलाम के आईन नहीं जानती?'
कुछ लोगों
ने चौधराइन से मिलने की भी ज़िद की। चौधराइन ने बड़े धीरज से कहा,
दिन
चढ़ते-चढ़ते चौधराइन की बेचैनी बढ़ने लगी। जिस बात को वह सुलह सफाई से
निपटना चाहती थी वह तूल पकड़ने लगी। चौधरी साहब की इस ख़्वाहिश के पीछे कोई
पेचीदा प्लाट,
कहानी या राज़ की बात नहीं थी। ना ही कोई ऐसा फलसफ़ा था जो
किसी दीन मज़हब या अकीदे से ज़ुड़ता हो। एक सीधी-सादी इन्सानी ख्व़ाहिश थी
कि मरने के बाद मेरा कोई नाम व निशान ना रहे। बरसों पहले यह बात बीवी से हुई थी, पर जीते जी कहाँ कोई ऐसी तफ़सील में झाँक कर देखता है। और यह बात उस ख़्वाहिश को पूरा करना चौधराइन की मुहब्बत और भरोसे का सुबूत था। यह क्या कि आदमी आँख से ओझल हुआ और आप तमाम ओहदो पैमान भूल गए।
चौधराइन
ने एक बार बीरू को भेजकर रामचंद्र पंडित को बुलाने की कोशिश भी की थी लेकिन
पंडित मिला ही नहीं। उसके चौकीदार ने कहा -- आग जो घुट-घुट कर ठंडी होने लगी थी, फिर से भड़क उठी। चार-पाँच मुअतबिर मुसलमानों ने तो अपना कतई फैसला भी सुना दिया। उन पर चौधरी के बहुत एहसान थे वह उनकी रूह को भटकने नहीं देंगे। मस्जिद के पिछवाड़े वाले कब्रिस्तान में, कब्र खोदने का हुक्म भी दे दिया। शाम होते-होते कुछ लोग फिर हवेली पर आ धमके। उन्होंने फ़ैसला कर लिया था कि चौधराइन को डरा धमका कर, चौधरी का वसीयतनामा उससे हासिल कर लिया जाए और जला दिया जाए फिर वसीयतनामा ही नहीं रहेगा तो बुढ़िया क्या कर लेगी।
चौधराइन
ने शायद यह बात सूँध ली थी। वसीयतनामा तो उसने कहीं छुपा दिया था और जब
लोगों ने डराने धमकाने की कोशिश की तो उसने कह दिया, बात कचहरी तक जा सकती है, यह भी वाज़े हो गया। हो सकता है चौधराइन शहर से अपने वकील को और पुलिस को बुला ले। पुलिस को बुला कर उनकी हाज़री में अपने इरादे पर अमल कर ले। और क्या पता वह अब तक उन्हें बुला भी चुकीं हों। वरना शौहर की लाश बर्फ़ की सिलों पर रखकर कोई कैसे इतनी खुद एतमादी से बात कर सकता है।
रात के
वक्त ख़बरे अफ़वाहों की रफ्तार से उड़ती है।
चार पाँच
साथियों को लेकर कल्लू पिछली दीवार से हवेली पर चढ़ गया। बुढ़िया अकेली
बैठी थी,
लाश के पास। चौंकने से पहले ही कल्लू की कुल्हाड़ी सर से
गुज़र गई।
कल्लू
निकल गया,
कब्रिस्तान की तरफ़।
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