हिंदी का रचना संसार |
मुखपृष्ठ | उपन्यास | कहानी | कविता | नाटक | आलोचना | विविध | भक्ति काल | हिंदुस्तानी की परंपरा | विभाजन की कहानियाँ | अनुवाद | ई-पुस्तकें | छवि संग्रह | हमारे रचनाकार | हिंदी अभिलेख | खोज | संपर्क |
|
||||||||||||||||||||||||||
अनूदित हंगेरियन कहानी
मूलकथा - जिग़मोन्द
मोरित्स हम लोग निर्धन थे। एक छोटे से गांव में जाकर समेट लिया था अपने आपको, जहां एक टुकडा भी जमीन का हमारा न था और भीनी सुगंध देने वाले पेड भी दु:ख का ही आभास दिलाते थे। सिर्फ हमारी यादों में बसे थे, हमारे पेड-पौधे, मवेशी, अस्तबल, और बडे-बडे ख़ंभों वाला महल जैसा घर, तीसा नदी के किनारे। जगत के दूसरे कोने में जाकर बस गये थे अपनी गरीबी को छुपाने के ख्याल से। फिर भी ऐसी जगह आ पहुँचे, जहां रिश्तेदार निकल आये। पिताजी ने सोचा, रिश्तेदार होना तो अच्छा ही है, जरूरत पडने पर कभी काम आ सकते है। लोग भी अच्छे है। परन्तु श्राप था रिश्तेदारों का होना। यह संबंधी गांव की सीमा पर रहते थे सबसे बडे मकान में, जो काफी फ़ैला हुआ था और अपनी संकीर्ण खिडक़ियों से बाहर की दुनिया को देखता था। हमारे विशालकाय पुराने महल के मुकाबले में कहां था यह मकान! पर कैसी कडवी, दिल को दुखाने वालीर् ईष्या जगाता था हमारे मन में। विन्सै चाचा, दोहरी ठोडी, सख्त हाथों और बडी घनी भौंहो वाले हमारे रिश्तेदार थे और हमें नौकरों की तरह रखने की व्यर्थ कोशिश कर चुके थे। नाराज थे कि पिताजी ने उनके साथ किसी तरह के गैरकानूनी काम करने से इंकार कर दिया था। जलते भी थे, क्योंकि उनके दादा के समय से ही उनका संबंध हमारे पुराने नवाबी खानदान से अलग हो गया था, जबकि हमारे खानदानी हिस्से में नवाबियत देर तक चलती रही थी। यह बात और है कि अब हम एक पकी नाशपाती की तरह जमीन पर गिर पडे थे और धूल में मिल गए थे। और अब औरतों के बारे में बताता हूं। मेरी मां का नाम यूडित था शिमोनकौय यूडित । उनकी नानी बडी ज़मींदार घराने की लडक़ी थी, जिनका संबंध संसार के मशहूर खानदानों तक जाकर जुडता था। और विन्सै चाचा (जो एक तरह से माली ही थे) की पत्नी चितकै ऐस्तैर थी, जिनके पिता औलफल्द (हंगरी का वह भाग जहां के घोडे मशहूर है) में किसी सईस के यहां मुनीम का काम करते थे और ऐसा भी कहा जाता था कि वह काम कम, दोनों हाथों से लूटते ज्यादा थे। दोनों औरतें ऐसी थी, मानो तेज छुरियां। मेरी मां कभी शिकायत नहीं करती थी। एकदम जड सी हो गई थी और बिना आह भरे अपनी जिंदगी का बोझ ढो रही थै। लेिकन गांव में इसकी चर्चा थी कि मां के लकीरों वाले मखमली बक्से के अंदर पुराने छोटे-छोटे फूलों की कढाई वाले स्कर्ट, कीमती सिल्क और इसी तरह की पुरानी बेशकीमती चीजें अब भी उनके बीते हुए दिनों की याद बनाए रखने के लिए रखी गई है। शायद इसमें कुछ सच भी होगा, पर थोडा सा। मेरे पिता घर आते थे, कभी गालियां बकते हुए, कभी हंसते हुए, कभी उम्मीद लगाए हुए। हर व्यक्ति पर भरोसा कर लेते थे और हए एक से धोखा खाते थे। कई बार मां और पिताजी में काफी झगडा होता था। मां ने अपने आप को अपने मे ही समेट लिया था, इसलिए शायद मैं एक शर्मीला डरपोक बालक बन गया था, जिसे मां और संसार के बीच बिचौलिया बनन पडता था। लोगों से डरता था, किसी के सामने आते ही यूं बाहर निकलता था जैसे कोई घोंघा, जो ज़रा सी हरकत होते ही वापस अपने खोल में सिमट आने को तैयार हो। फिर भी मुझे बाहर जाना ही पडता था लोगो के बीच। मैं अपने परिवार का प्रतिनिधि जो था गांव के सामने। मेरे पिता तो अधिकतर घर पर होते नहीं थे और मां! वो तो घर के आंगन तक पैर नहीं रखती थी, जब तक बिल्कुल ही जरूरी नहीं हो जाता था। केवल मैं घर से बाहर निकलता था - स्कूल के लिए, दुकान की ओर और दूध के लिए। दूध, हमारी छोटी सी जिंदगी की सबसे बडी क़मी। और कई मुसीबतों के बीच जिन पर हमें उलझन होती थी, यह मेरे लिए सबसे अधिक दु:ख का कारण था। मुझे दूध बहुत पसंद था और हमारे पास गाय नहीं थी। गांव में दूध मिलता नहीं था, कभी-कभी पैसे से भी नहीं, क्योंकि दूध तो बडे बाजारों में शहरों में बेचने वाली चीज थी। और पूरे गांव वालों के बीच लाइन में खडा होकर दूध खरीदने का विचार यूं भी दिल दहलाने के लिए काफी था। हां अगर मां अधिक बोलने वाली होती और पडोस की औरतों की चटपटी, बेबुनियाद बातों को सुन सकती थी तो दूध के लिए मुझे नहीं जाना पडता। दूधवालियां घर पर ही पहुंचा जाती। पर ऐसा संभव नहीं था। और इसके लिए मुझे अहंकार भी था मां पर, क्योंकि वे चाहे गरीब थीं ; पर सुंदर और अभिमानी थी। क्रि्रसमस की एक शाम इस दूध के कारण हमारे साथ एक बडा हादसा हुआ। मैं पूरे गांव का चक्कर लगा आया था, अपने हाथों में सफेद भूरे पैसे पकडे ड़रते हुए। हे भगवान् कहीं से एक गिलास दूध मिल जाये। पर हर तरफ लोग त्योहार के कारण खुले दिल से खर्च कर रहे थे। मेरे सामने बडे-बडे पतीलों में, तीन पैरों वाले मिट्टी के बर्तनों में दूध की खरीद-फरोख्त हो रही थी, पर मेरे मांगने पर तेज आंखो वाली पैसे की लालची गांव की औरतें अपना हाथ झाड देती और अपनी कमर पर कोहनियां जमाकर खडी हो जाती थी और दुखडा रोने लगती थी, '' बेटा है नहीं। दे नहीं सकते। दूध जमा करना है। त्योहार आने वाला है। पकवान बनाने है, बडे बाजार में बेचने जाना है, वहां दूध के अच्छे पैसे मिल जायेंगे। थका हुआ बुडबुडाता हुआ घर पहुंचा, ''नहीं मिला, कोई नहीं देता।'' मां की बर्डीबडी क़ाली आंखे और बडी हो गई, बस यूं चमकी। वे न बोली, न उन्होने आह भरी, न उनके आंसू निकले। मगर मैं दुबक कर ऐसे बैठ गया, मानो एक छोटा चूहा, ऐसा महसूस कर रहा हो, मानो अभी बिजली गिरेगी। मां भी पकवान बनाना चाहती थी, मैदा दूध से गूंधना था, पर बोली कुछ नहीं। पानी का बर्तन लाई और पानी से ही गूंधने लगी। मैं पलक झपकाये बगैर देखता रहा। बाहर अंधेरा तेजी से बढ रहा था। जैसे ही मां ने मैदा सानना शुरू किया, मेरे दिमाग में एक बहुत साहसी विचार पनपा, '' मां!'' मां ने मेरी तरफ आंख उठाई, मैने अपना विचार उनके सामने रखा,'' मैं ऐस्तैर चाची के यहां जाऊं।'' मां ने पलक भी न झपकाई,
हालांकि मैने बहुत बडी बात कह दी थी।
अगर इस वक्त
अलमारी पर चमकती हुई पीतल से मढी बाइबल अपने-आप अचानक उडक़र मेरे सर से
टकरा जाती तो भी मैं इतना हैरान नहीं होताऐस्तैर
चाची से हमने कभी
कुछ नहीं मांगा था,
चाहे भूख से हम मर ही क्यूं न रहे हो।
उनके पास छ:
गायें थी और हमारे घर में तीन-तीन दिन तक एक चम्मच दूध भी नहीं होता था।
रोज आलू का सूप
बनाकर पी लेते थे।
अब तक मेरा दिल
थोडे से दूध के लिए टूट ही चुका था।
खिडक़ियों पर बर्फ
चमकने लगी थी,
सूर्य की किरणें भूरे रंग की हो चुकी थी।
मां गूंधती रही,
गूंधती रही, फिर अचानक
बोली, ''जा।''
मैने सोचा शायद मैने ठीक से नहीं सुना हैं।
एक क्षण को रुका,
फिर मेज पर से पैसे उठाये और पकड क़र तेजी से भागा।
फिर एक बार
दरवाजे पर ठिठका,
रुका, मां की ओर फिर से
मुडक़र देखा,'' जाऊं?'' पूरे रास्ते मेरा दिल धडक़ता रहा, कहीं कुत्ते न पकड लें। कितना घबराता था मैं उनसे। मगर रास्ते-भर इतने खूंखार कुत्तों से सामना नहीं हुआ, जितना रिश्तेदारों के अहाते में। एक नौकरानी सामने से आई और उसने मुझे कुत्तों से बचाया। '' ऐस्तैर चाची कहां है?'' भडक़ीले कपडे पहने वो नौकरानी शायद कुछ उदास सी थी और कुछ गुस्सा भी, ''उधर हैं पशुओं के बाडे क़ी ओर,'' गुर्राकर बोली, मानो अपने कुत्तों की तरह अपने पैने दांत मुझमें गडाना चाहती हो। मैं सहमा सा, धीरे-धीरे, आधा ध्यान कुत्तों की ओर लगाए बाडे क़ी तरफ बढा। पैरों को यूं दबाकर रखता हुआ कि पत्ते तक के खडक़ने की आवाज न सुनाई दे पैरों तले। बाडे क़े दरवाजे पर गहरा कोहरा छाया हुआ था। अचानक मैं रुक गया, मानो बर्फ क़ा छोटा का पुतला बनकर रह गया हूं। बाडे में से अजीब सी आवाजें आ रही थी। ''
छोडो मुझे।''
ऐस्तैर चाची की आवाज
सुनाई दी,पर
ऐसे जैसे चिल्लाना चाह रही हों।कुछ झगडा सा सुनाई दिया। फिर कोई तख्त या
कोई चारा रखने के लकडी क़े बक्से की चिरमिराने की आवाज सुनाई दी। कोई मर्दानी हंसी सुनाई दी, हलके से हिनहिनाते हुए। मैं पहचानता था यह आवाज। उनके ड्राइवर की थी, फैरी पाल की, जिनके बारे में मैंने सुना था कि वो चाची की नौकरानी की वजह से यहां काम करने लगा था। ''
क्या चाहते हो?''
फुर्सफुसाकर चाची
बोली। मैं ऐसे खडा रहा, मानो एक प्रतिमा। एक जडी हुई, अजीब सी, एक छोटी सी बाल प्रतिमा, पर मुझे इस बातचीत का एक शब्द भी समझ में न आया। ''
जाने दो।''
फुसफुसाकर फिर से
चाची बोली। बाडे में हलचल हुई और चाची तेजी से बाहर दौडी। ज़ब उन्होने डरते हुए, फटी-फटी आंखे लिए दरवाजे पर कदम रखा तो फौरन उनकी निगाह मुझ पर पडी। समझीं कि मैने सब कुछ देख, सुन और समझ लिया। इससे वे बेहद डर गई। ''
क्या चाहिए?''
मेरी ओर कातिलाना
नजर डालती हुई बोली। लगा जैसे मैं लडख़डा गिर
जाऊंगा।
इसके साथ ही वो घर की
तरफ बढ ग़ई।
मेरे दिमाग में एक अक्ल
की बात कौंधी,
''पैसे से
ले लेना चाहता हूं।''
मै चिल्लाया, जिससे मैं
खुद भी अचंभित हो गया। मुझे अपनी पीठ के पास किसी के जोर से ठट्ठा लगाने की आवाज सुनाई दी। फैरी पाल मेरे पीछे खडा था और मुझे अब ऐस्तैर चाची पर इतना क्रोध नहीं आ रहा था जितना उस जानवर पर। मैं उबलता हुआ घर लौटा। दरवाजे पर देर तक खडा रहा, जब तक दरवाजा खोलने की हिम्मत मुझमें नहीं आ गई। मां ने तेल की लालटेन जला ली थी। इस गांव में शीशे की लालटेन इस्तेमाल करते थे घरों में भी, जैसी अस्तबलों में की जाती है। मै अच्छी तरह जानता था कि लालटेन में तेल नहीं है और न अब शीशी में बचा है। मैने पैसे मेज पर रख दिए और बडबडाया,'' वे नहीं दे सकती, उनके पास है नहीं।'' मां सीधी खडी हो गई, सख्त बन गई। मैं प्रतीक्षा में था कि अब चिल्लायेगी, फटकारेंगी, पर कुछ न बोली, कुछ भी न बोली। माथे पर पसीना अच्छे से पोछा और बस कहा,'' ठीक है।'' उदास बोझिल शाम थी। हम दोनो में से कोई कुछ नहीं बोला। मैं एकटक लालटेन की बत्ती को ताकता जा रहा था, लंबे धुएं की लकीर को, बुझती हुए लौ को और सोच रहा था कितना तेल खाती है यह लालटेन, कि फिर से एक बूंद भी तेल नहीं बचा है बोतल में। यह भी सोच रहा था कि क्रिसमस पर तो कम-से-कम पिताजी घर आ जाते, त्योहार के लिए। पर उनके लिए अच्छा ही है कि न आयें, क्योंकि उनको हमारी यह भारी गरीबी देखनी अच्छी नहीं लगेगी। वे तो जब जाते है तो बडे आदमियों के साथ ही बैठते है, क्योंकि व्यापार का जुगाड ऐसे ही लोगो के साथ बन सकता है, पर ऐसा दिखता है कि उनके साथ भी अब नहीं होगे। बिना पैसे खर्च किये पैदल घर के लिए चल दिए होंगे। जल्दी ही मैं लेट गया। उस वक्त भी कुछ दिमाग में नहीं आया, सिवाय इस तरह के गंभीर बडे लोगो वाले विचारों के। रात गहरी हो चुकी थी, जब किसी ने खिडक़ी जोर से खटखटायी। ''
यूडित,
यूडित!''
हमें सुनाई दिया। मां ने उसको अंदर आने दिया। मैं पलंग पर सहमा सा लेटा रहा। ठंड खाता रहा। एक माचिस के जलने की आवाज सी आई पर वो जली नहीं। चाची डरी हुई आवाज में फुसफुसाने लगी,'' अरे मत जलाओ, अगर मेरी मौत नहीं चाहती। मेरे लिए पलंग ले आओ। मेरा वक्त आ गया है।'' मां ने पिताजी का पलंग बिछा दिया, चाची उसपर लेट गई। उन्ही कपडों में। केवल एक दफा अचानक चिल्ला पडी, ''हाय मुझे छुओ मत, दर्द होता है। मैं बुरी तरह से घायल हूं।'' रोते-रोते उछलकर बैठ गई,'' मुझे पीटा, बुरी तरह से पीटा। तुम्हारे अलावा और किसी के पास जाती तो इस बात का पूरे गांव में ढिंढ़ोरा पिट जाता।'' मैने आंख फाडक़र देखना चाहा,
पर कुछ भी नहीं दिखा।
लगा मां वहां है
ही नहीं।
कोई आवाज नहीं हो रही
रही थी। मै शायद चक्कर खाकर पलंग से गिर ही जाता। मां बोली, उस रौबीली शांत आवाज में, जिससे मैं भी कांपता था और पिताजी भी घबरा जाते थे, '' मेरा बच्चा ऐसी बातें नहीं करता।'' ऐस्तैर चाची एकदम शांत हो गई। उसके आगे एक शब्द नहीं बोली, न रोयी न सिसकी। मां लेट गई और मैं जो उसके पैरों पर लेटा था ऐसा महसूस कर रहा था, मानो वह बर्फ सी ठंडी थी। सुबह जब मैं सोकर उठा सब
कुछ तरतीब से लगा था।
तंदूर गर्म हो
चुका था।
मां काम में लगी थी।
मैने कपडे पहने
और नाश्ते का इंतजार करने लगा।
इसी समय
ऐस्तैर
चाची की नौकरानी अंदर आई।
बडी चहक रही थी।
वैसी गुस्सैल और
खूंखार नहीं थी जैसे पिछली शाम को।
मुस्कराते हुए
बोली,''
मेरी मालकिन ने एक मटका दूध भेजा है।
शाम को जितना दूध
दुआ गया सब यही है।
केवल ऊपर की
क्रीम निकाली है जो पेस्ट्री बनाने में इस्तेमाल करनी है हमें।'' मां ने मखमली बक्सा खोला और उसमें से सबसे खूबसूरत बुंदे निकालकर दे दिये। मैं दूध को शायद सबसे कीमती समझता था। क्योंकि जिस प्रकार सूजन बुंदो को देखकर विभोर हो रही थी, उसी दिलीखुशी के साथ मैं उस शक्तिशाली मटके को देख रहा था। इंतजार में था कि फिर से एक बार नाश्ते में दूध पीऊंगा। पर मां ने वो मटका उठाया और शांति से, आराम से, उसे बर्तन धोने वाली जगह पर उडेलना शुरू कर दिया। हमारे पास जो इकलौता भालू था शायद उसके लिए। मेरा रंग फीका पड ग़या और भयानक डर से मेरा खून सुखा दिया मानो। मां ने मेरी तरफ देखा। चौंक गई और हाथ एक क्षण को ढीला पड ग़या। दूध को उंडेलने की गति मध्दम पड ग़ई। अंत में लम्बी सी आह भरी। जैसे उनके हृदय को चोट सी लगी। दु:ख भरे खूबसूरत चेहरे पर एक आंसू ढुलक आया। बोली, ''ला बेटे अपना कप मुझे दे दे।''
|
मुखपृष्ठ | उपन्यास | कहानी | कविता | नाटक | आलोचना | विविध | भक्ति काल | हिंदुस्तानी की परंपरा | विभाजन की कहानियाँ | अनुवाद | ई-पुस्तकें | छवि संग्रह | हमारे रचनाकार | हिंदी अभिलेख | खोज | संपर्क |
Copyright 2009 Mahatma Gandhi Antarrashtriya Hindi Vishwavidyalaya, Wardha. All Rights Reserved. |