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डोगरी कहानी कल कहाँ जाओगी पद्मा सचदेव
सुबह की पहली किरण की तरह वो मेरे आँगन में छन्न से उतरी थी। उतरते ही टूटकर बिखर गई थी। और उसके बिखरते ही सारे आँगन में पीली-सी चमकदार रोशनी कोने-कोने तक फैल गई थी। खिलखिलाकर जब वो सिमटती तो रोशनी का एक घना बिंदु आँगन के बीचोबीच लरजने लगता और उसकी बेबाक हँसी से आँगन के जूही के फूल खुलकर अपनी खुशबू बिखेरने लगते। उसका नाम था प्रीत। मैं उसे प्रीतो कहती थी। हुआ यों कि मेरी एक बड़ी पुरानी सहेली अपने घर जा रही थी। मेरे पति विदेश गए थे। घर वैसे भी काटने को दौड़ रहा था। सो जब मेरी सहेली ने ये प्रस्ताव रखा कि प्रीतो को कुछ दिन मैं घर में रख लूँ तो मैंने फौरन हाँ कर दी। मेरी सहेली का दायाँ हाथ थी प्रीतो, ये मैं जानती थी। उसके किंडर गार्डन स्कूल के बच्चे उसे तीतो कहकर स्कूल में घुसते और फिर वो उनकी प्रीत आँटी हो जाती। प्रीतो को प्रीत कहलवाने का शौक था। स्कूल से लेकर तकिये के गिलाफ तक का काम प्रीतो के सुपुर्द था। पर जब छुटि्टयों में मैडम घर जाने लगी तो प्रीतो को साथ ले जाना उसकी बनिया बुद्धि को ठीक न लगा। मेरी ये सहेली बचपन से ही दबंग थी। एक बार गोलगप्पे वाले से उसका झगड़ा हुआ और मैडम की चप्पल की मार से वो भाग गया था। तब हम सब गोलगप्पों के खोमचे पर टूट पड़ने को ही थे कि मैडम खोमचे वाले की जगह बैठकर प्लेटें सजा-सजा कर सबको देने लगी।
आनन-फानन
में गोलगप्पे हवा हो गए। तब उसने इमली के पानी की तुर्शी से सी-सी करते हुए
बताया, 'मुआ
मुझ अकेली को देखकर आँख मार रहा था। मैंने देसी जूती से वो पिटाई की कि भाग
गया।' तब से हम उसे मैडम ही कहते थे। उसका असली नाम
भूल ही गए। पर मैडम को कोई न भूला सका। उसके प्रस्ताव पर मैं थोड़ी नाखुश
भी थी पर सोचा प्रीतो की रौनक रहेगी। दो दिन पहले ही मैडम प्रीतो को लेकर
मेर घर आ गई थी। उसको कई किस्म के भाषण पिलाने के बाद जब मैडम ट्रेन पर
बैठी तो प्रीतो जो उसका राई-रत्ती सँभालकर देती रही थी,
थककर चूर हो चुकी थी।
वो मुझसे
कब आकर लिपट गई मैं ये जान ही न पाई। दीदी,
दीदी कहकर उसने सारा घर गुँजा दिया। और अपनी इस उदारता से
मैं घमण्ड से फूल उठी। फिर उसके अतीत की चंद पोटलियाँ पलभर में ही मेरे
सामने बिखरी पड़ी थीं। भगवान की करनी। सुहागरात के दिन ही सप्तपदी में अग्नि का धुआँ पी-पी कर दूल्हे महाशय को दमे का ऐसा दौरा पड़ा कि उसे हस्पताल ले जाना पड़ा। सुहाग शैया पर बैठी-बैठी प्रीतो सोयी रही। किसी ने उधर झाँका भी नहीं। सुबह लोगों ने कहा, ''कुलच्छनी ने आते ही पति पर वार कर दिया। पता नहीं नम्बरदार के इस नाम का क्या होगा। इसका पाँव तो जानलेवा है।'' तभी हमारी मैडम वहाँ पहुँच गई और शौहर के मरने से पहले ही उसे घर ले आई। सारे गाँव के मुकाबले में वो अकेली ही थी। पर दबंग ऐसी कि उसे देखते ही नम्बरदार हुक्का छोड़ उठ खड़ा हो। इसी दबंगता की वजह से आज तक उसकी शादी न हो पाई थी। ऐसी ख्याति थी कि पुरोहित भी उसकी जन्मपत्री लेकर कहीं जाने को राजी न होता। सो कुँआरी ही रह गई। प्रीतो की आँखों में तैरते सपने मैडम ने बड़ी आसानी से पोंछ डाले और शहर में आकर बच्चों का किंडर गार्डन खोल लिया। प्रीतो को जो सहारा मिला तो उसने अपना सारा मन बच्चों में ही लगा लिया। मैडम उसे प्यार भी करती है पर मजाल है जो कभी पता चलने दे।
प्रीतो,
जिसने शादी से सुहाग सनी भाँवरों में शरमा-शरमाकर पाँव रखे,
अग्नि के आगे कस्मे-वादे करते समय पिघलाती रही,
वो प्रीतो कब तक अनुशासन में रहेगी इसका भय मुझे बराबर लग
रहा था। मेरे घर में आते ही ज़रा-सी सहानुभूति उसकी आँखों में फिर से सपनों
के सन्देशे बुनने लगी। सारा काम हँसते-हँसते निपटा लेती। और सारा दिन कोई
छ: बार कंघी करके महाउबाऊ हेयर स्टाइल बनाती रहती। बिन्दी लगाने का उसे
बड़ा ही चाव था। मैंने एक दिन कहा, 'प्रीतो,
तू बिन्दी लगाकर मिटा क्यों देती है?'
नाक
सुकड़कर वो अपने आँसुओं को पोंछते-पोंछते कहने लगी,
'दीदी, अगर वो ज़िन्दा रहता तो मैं
गाँव कभी न छोड़ती। शादी से पहले एक बार उसने रास्ते में मेरा हाथ पकड़कर
कहा था, 'कसम खा प्रीतो,
मुझे कभी छोड़कर न जाओगी।'
मैंने कहा,
'प्रीतो, तू तो अभी २० की भी नहीं
हुई, ऐसी बातें क्यों करती है?
तेरी किसी भी बात से नहीं लगता तेरी शादी हो चुकी है। ये
जोग तो तुमने मैडम की संगति में लिया है जानबूझकर। इसे छोड़ना ही होगा।'
'नहीं,
पर जी चाहता है मैं किसी को अच्छी लगूँ। हाथ-पाँव में
मेहंदी, माँग में सिंदूर,
लाल जोड़ा और सुरमई आँखें। इनके साथ अगर सुहाग होता है तो मेरा भी हुआ था।
पर सुहाग तो पति के साथ होता है। और वो तो मैंने देखा नहीं।' दो महीने कब निकल गए पता ही न चला। बस एक दिन मैडम आई और प्रीतो को लेकर चली गई। जाती बार प्रीतो ने चोरी से मुझसे कहा था, 'दीदी, मुझे भूल न जाना। मैं तो न आ पाऊँगी पर आप आना। मुझे बुलाओगी न दीदी।' मैंने उसके हाथ अपने हाथों में लिए और अपने आँसू किसी तरह उससे छुपाकर उसे हौसला दिया। फिर गृहस्थी के ताने-बाने को सुलझाती मैं प्रीतो की उलझनों को भूल-सी गई।
एक दिन
भरी दोपहरी में मैं सोने जा रही थी तो मैडम आ धमकी। पहली ही साँस में उसने
पूछा, 'यहाँ
प्रीतो आई है?'
मैंने
उसकी बातों का परनाला रोकते हुए कहा,
'मैडम, तुम रूखी-सूखी लकड़ी हो।
अगर वो नागरबेल कहीं सहारा ढूँढ़ती है तो जाने दो उसे। उसे खुशी ढूँढ़ लेने
दो। मैडम को गए कई दिन हो गए। उससे प्रीतो के बारे में पूछने का हौसला मैं न जुटा पाई। फिर सब भूल-भुला गई। एक दिन शाम के वक्त मैंने दरवाज़ा खोला तो प्रीतो सामने खड़ी थी। पीछे एक लम्बा-तगड़ा खूबसूरत-सा लड़का।
शराब से
वीर-बहूटी उसकी आँखें जैसे मेरे भीतर कुछ कंपा-सा गईं। बिखरे बाल और दम्भ
से भरे चेहरे पर मस्तक उसने मेरी अभ्यर्थना में जरा-सा झुका भर दिया।
प्रीतो ने कहा,
'यही दीदी है।' मैं स्नेह से दोनों
को अंदर ले आई। कमरे में दोनों को बिठाकर थोड़ा-सा मुस्कुरायी भी। चाय का
पानी चढ़ाने जैसे ही रसोईघर में गई, प्रीतो
पीछे-पीछे आ गई। मैंने उसे धोतियों के साथ शगुन के रुपए भी दिए और प्यार से कहा, 'प्रीतो, मैं हूँ, कभी उन्नीस-बीस हो तो याद रखना।' प्रीतो मेरे सीने से लगकर रो पड़ी। मुझे मालूम था वो गलती कर चुकी है। ये आदमी पति जैसा तो नहीं लग रहा। मैंने उसे भी जाते समय शगुन दिया। पता नहीं क्या हुआ उसने मेरे पाँव छुए। मुझे लगा बेटियाँ ऐसी ही विदा होती हैं।
फिर कुछ
दिन बाद मैडम का फोन आया। बगैर भूमिका बाँधे उसने कहा,
'क्या दोस्ती निबाह रही हो मिसेज आदित्य वर्मा। कल
तुम्हारी वही साड़ी पहने प्रीतो मिली थी जो हमने साथ-साथ कॉलेज के मेले से
खरीदी थी। कमाल किया तुमने, साड़ी दी तो धुँआ तक न
निकाला कि वो आई थी। देखना कहीं साड़ी से कभी आदित्य को भुलावा न हो।'
ये कहकर उसने ठक्क से फोन बंद कर दिया। पैसे लेकर प्रीतो चली गई। तीन-चार बरस उसका कोई पता न चला। एक दिन मैडम ही कहीं से ख़बर लाई थी कि उसका पति उसे बहुत मारता है। एक दिन देवर ने छुड़ाने की कोशिश की थी सो उसे भी मारा और प्रीतो को घर से निकाल दिया। वो तो पड़ोसियों ने बीच-बचाव करके फिर मेल करा दिया। मैं थोड़ी दु:खी हुई, फिर सोचा बच्चे हैं, बच्चों के सहारे औरतें रावण के साथ भी रह लेती हैं। कल बड़े हो जाएँगे। उनके साथ प्रीतो भी बड़ी हो जाएगी। वक्त बढ़ता रहा। रोज़ सुबह भी होती, शाम भी। बच्चे स्कूल जाते, घर आते। आदित्य भी और मैं भी ज़िन्दगी के ऐसे अभिन्न अंग बन चुके थे कि उसी रोज़ के ढर्रे में ज़रा भी व्यवधान आता तो बुरा लगता। अपनी छोटी-सी दुनिया में पूरी दुनिया दिखाई देती। न वहाँ कहीं प्रीतो होती न उसका वह मरघट पति।
इसी तरह
एक शाम आई। साथ लाई कुछ मेहमान। आदित्य बाज़ार से कुछ सामान लाने गए थे।
तभी दरवाज़े की घंटी बजी। दरवाज़ा खोला तो एक अजनबी औरत अपने फूल-से दो
बच्चों को थामे खड़ी थी। मैंने सोचा किसी का पता पूछना चाहती है। मैंने उसे
सवालिया निगाहों से देखा। वो मुस्कुराई। होंठ मुरझाए से थे तो भी
मुस्कुराहट पहचान लेने में मुझे ज़्यादा देर न लगी। मैंने कहा,
'प्रीतो' - वो बच्चों की उँगलियाँ
छुड़ाकर यों लिपटी जैसे इस भरी दुनिया में उसे पहिचानने वाली सिर्फ़ मैं
अकेली थी। मेरी आँखों के आगे आदित्य का चेहरा घूम गया। मैडम की कही हुई बात भी याद आई। जो उन्होंने कहा था वो भी मुझे याद था। एक रात उनकी मर्ज़ी के बगैर भी रख सकती थी पर प्रीतो को ये पूछने का साहस उसमें न था कि कल कहाँ जाओगी? ये मैं जानती थी सिवाय मैडम के उसे कोई आश्रम जाने को राजी न कर सकेगा। यही एक लम्हा था, अगर मैं कमज़ोर पड़ जाती तो उसके जाने का कल ना जाने कब आता। मैंने अपने अंदर के इन्सान का गला दबाया और कहा, 'नहीं प्रीतो, यहाँ रहना मुमकिन नहीं हैं। ये लोग हमारे जेठ की लड़की देखने आए हैं। लड़की कल दिल्ली से आएगी। ऐसे नाजुक रिश्तों के दौरान मैं घर में कोई अनहोनी नहीं कर सकूँगी। तुम पैसे लो। अगर कल सवेरे यहाँ किसी को मिलना है तो टैक्सी में आ जाना। अब तुम जाओ।' मैंने उसके दोनों बच्चों को ऊँगली से लगाया। दरवाज़े के बाहर जाकर चौकीदार से टैक्सी मँगवाई और बच्चों के साथ प्रीतो को बैठते देखा। उसकी पसीने से तर हथेली में कुछ नोट खोंस दिए। टैक्सी को जाने का इंतज़ार किए बगैर घर आकर दरवाज़ा बन्द कर लिया। ये दरवाज़ा मैंने प्रीतो के लिए बंद किया था या अपने लिए ये न जान पाई। रात-भर मुझे चौराहों के ख्वाब आते रहे। फिर कई दिन मैं दीवारों से पूछती रही, 'कल कहाँ जाओगी?'
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