हिंदी का रचना संसार | ||||||||||||||||||||||||||
मुखपृष्ठ | उपन्यास | कहानी | कविता | नाटक | आलोचना | विविध | भक्ति काल | हिंदुस्तानी की परंपरा | विभाजन की कहानियाँ | अनुवाद | ई-पुस्तकें | छवि संग्रह | हमारे रचनाकार | हिंदी अभिलेख | खोज | संपर्क |
|
||||||||||||||||||||||||||
बांग्ला कहानी
सहपाठी
रूपांतरकार -डॉ रंजीत साहा
अभी सुबह
के सवा नौ बजे हैं।
लेकिन आज
इतने सालों के बाद अपनी दोस्ती के बावजूद और कभी अपने सहपाठी रहे इस आदमी
के बारे में कोई ख़ास लगाव महसूस नही कर रहा था।
'हैलो...' अभी हाल ही में ख़रीदी गई आसमानी रंग की कार में दफ़्तर जाते हुए मोहित सरकार ने स्कूल में घटी कुछ घटनाओं को याद करने की कोशिश की। हेड-मास्टर गिरींद्र सुर की पैनी नज़र और बेहद गंभीर स्वभाव के बावजूद स्कूली दिन भी सचमुच कैसी-कैसी खुशियों से भरे दिन थे। मोहित खुद भी एक अच्छा विद्यार्थी था। शंकर, मोहित और जयदेव- इन तीनों में ही प्रतिद्वंद्विता चलती रहती थी। पहले, दूसरे और तीसरे नंबर पर इन्हीं तीनों का बारी-बारी कब्ज़ा रहता। छठी से ले कर मोहित सरकार और जयदेव बोस एक साथ ही पढ़ते रहते थे। कई बार एक ही बेंच पर बैठ कर पढ़ाई की थी। फुटबॉल में भी दोनों का बराबरी का स्थान था। मोहित राइट इन खिलाड़ी था तो जयदेव राइट आउट। तब मोहित को जान पड़ता कि यह दोस्ती आज की नहीं, युगों की हैं। लेकिन स्कूल छोड़ने के बाद दोनों के रास्ते अलग-अलग हो गए। मोहित के पिता एक रईस आदमी थे, कलकत्ता के नामी वकील। स्कूल की पढ़ाई ख़त्म करने के बाद, मोहित का दाखिला एक अच्छे से कॉलेज में हो गया और यहाँ की पढ़ाई समाप्त हो जाने के दो साल बाद ही उस की नियुक्ति एक बड़ी कारोबारी कंपनी के अफ़सर के रूप में हो गई। जयदेव किसी दूसरे शहर में किसी कॉलेज में भर्ती हो गया था। दर असल उसके पिताजी की नौकरी बदली वाली थी। सबसे हैरानी की बात यह थी कि कॉलेज में जाने के बाद मोहित ने जयदेव की कमी को कभी महसूस नहीं किया। उस की जगह कॉलेज के एक दूसरे दोस्त ने ले ली। बाद में यह दोस्त भी बदल गया, जब कॉलेज जीवन भी पूरा हो जाने के बाद मोहित की नौकरी वाली ज़िन्दगी शुरू हो गई। मोहित अपनी दफ़्तरी दुनिया में चार बड़े अफ़सरों में से एक है और उसके सबसे अच्छे दोस्तों में उसका ही एक सहकर्मी है। स्कूल के साथियों में एक प्रज्ञान सेनगुप्त है। लेकिन स्कूल की यादों में प्रज्ञान की कोई जगह नहीं हैं। लेकिन जयदेव- जिस के साथ पिछले तीस सालों से मुलाक़ात तक नहीं हुई हैं... उसकी यादों ने अपनी काफी जगह बना रखी है। मोहित ने उन पुरानी बातों को याद करते हुए इस बात की सच्चाई को बड़ी गहराई से महसूस किया। मोहित का दफ़्तर सेंट्रल एवेन्यू में हैं। चौरंगी और सुरेन्द्र बॅनर्जी रोड के मोड़ पर पहुँचते ही गाड़ियों की भीड़, बसों के हॉर्न और धुएँ से मोहित सरकार की यादों की दुनिया ढह गई और वह सामने खड़ी दुनिया के सामने था। अपनी कलाई घड़ी पर नज़र दौड़ाते हुए ही वह समझ गया कि वह आज तीन मिनट देर से दफ़्तर पहुँच रहा है।
दफ़्तर का
काम निपटा कर,
मोहित जब ली रोड स्थित अपने घर पहुँचा तो बाली गंज
गवर्नमेंट स्कूल के बारे में उसके मन में रत्ती भर याद नहीं बची थी। यहाँ
तक कि वह सुबह टेलीफोन पर हुई बातों के बारे में भी भूल चुका था। उसे इस
बात की याद तब आई, जब उसका नौकर विपिन ड्राइंग रूम
में आया और उसने उस के हाथों में एक पुर्जा थमाया। यह किसी लेखन-पुस्तिका
में से फाड़ा गया पन्ना था... मोड़ा हुआ। इस पर अँग्रेज़ी में लिखा था -
'जयदेव बोस एज़ पर अपाइंटमेंट।'
लेकिन
उसने दूसरे ही पल यह महसूस किया कि जय इतने दिनों बाद मुझ से मिलने आ रहा
है,
उस के नाश्ते के लिए कुछ मँगा लेना चाहिए था। दफ़्तर से
लौटते हुए पार्क स्ट्रीट से वह बड़े आराम से केक या पेस्ट्री वगैरह कुछ भी
ला ही सकता था, लेकिन उसे जय के आने की बात याद ही
नहीं रही। पता नहीं, उसकी घरवाली ने इस बारे में
कोई इंतज़ाम कर रखा है या नहीं। कमरे की चौखट पार करने के बाद, जो सज्जन अंदर दाखिल हुए थे, उन्होंने एक ढीली-ढाली सूती पतलून पहन रखी थी। इस के ऊपर एक घटिया छापे वाली सूती क़मीज़। दोनों पर कभी इस्तरी की गई हो, ऐसा नहीं जान पड़ा। कमीज़ की कॉलर से जो सूरत झाँक रही थी, उसे देख कर मोहित अपनी याद में बसे जयदेव से उसका कोई तालमेल नहीं बिठा सका। आने वाले का चेहरा सूखा, गाल पिचके, आँखे धँसी, देह का रंग धूप में तप-तप कर काला पड़ गया था। इस चेहरे पर तीन-चार दिनों की कच्ची-पक्की मूँछें उगी थी। माथे के उपर एक मस्सा और कनपटियों पर बेतरतीब ढंग से फैले ढेर सारे पके हुए बाल।
उस आदमी
ने यह सवाल झूठी हँसी के साथ पूछा था- उसकी दाँतों की कतार भी मोहित को दिख
पड़ी। पान खा-खा कर सड़ गए ऐसे दाँतों के साथ हँसने वाले को सबसे पहले अपना
मुँह हथेली से ढाँप लेना चाहिए।
अपने
होठों के कोने पर एक मीठी मुस्कान चिपका कर मोहित ने यह जता दिया कि उसे
अच्छी तरह याद है। आश्चर्य,
ये सब तो सच्ची बातें हैं और अब भी अगर यह जयदेव न हो तो
इतनी बातों के बारे में इसे पता कैसे चला?
विपिन चाय
ले आया था। चाय के साथ संदेश और समोसा भी। गनीमत है,
पत्नी ने इस बात का ख़याल रखा था। लेकिन अपने सहपाठी की इस
टूटी-फूटी तस्वीर देख कर वह क्या सोच रही होगी...इसका अंदाज़ उसे नहीं हो
पाया। अब आगे कुछ कहने की ज़रूरत नहीं थी। मोहित समझ गया। इसके आने के पहले ही उसे समझ लेना चाहिए था कि क्या माजरा है? आर्थिक सहायता और इसके लिए प्रार्थना। आख़िर यह कितनी रकम की मदद माँगेगा? अगर बीस-पच्चीस रुपए दे देने पर भी पिंड छूट सके तो वह खुशकिस्मती ही होगी और अगर यह मदद नहीं दी गई तो यह बला टल पाएगी ऐसा नहीं कहा जा सकता।
''पता
है, मेरा बेटा बड़ा होशियार है! अगर उसे अभी यह मदद
नहीं मिली तो उस की पढ़ाई बीच में ही रुक जाएगी।
आगंतुक
थोड़ी देर तक चुप रहा। मोहित ने भी मन-ही-मन में कुछ ठान लिया था। यह वही
जयदेव है,
इस का कोई प्रमाण नहीं है। कलकत्ता के लोग एक -दूसरे को
ठगने के ही हज़ार तरीके जान गए हैं। किसी के पास से तीस साल पहले के बाली
गंज स्कूल की कुछ घटनाओं के बारे में जान लेना कोई मुश्किल काम नहीं था।
वही सही। शुक्रवार को ईद की छुट्टी है। मोहित ने पहले से ही तय कर रखा है कि यह अपनी पत्नी के साथ बारूईपुर के एक मित्र के यहाँ उन के बागान बाड़ी में जा कर सप्ताहांत मनाएगा। वहाँ दो-तीन दिन तक रुक कर रविवार की रात को ही घर लौट पाएगा। इसलिए वह भला आदमी जब रविवार की सुबह घर पर आएगा तो मुझ से मिल नहीं पाएगा। इस बहाने की ज़रूरत नहीं पड़ती, अगर मोहित ने दो टूक शब्द में उससे 'ना' कह दिया होता। लेकिन ऐसे भी लोग होते हैं जो एकदम ऐसा नहीं कह सकते। मोहित ऐसे ही स्वभाव का आदमी है। रविवार को उससे मुलाक़ात न हाने के बावजूद वह कोई दूसरा तरीका ढूँढ़ निकाले तो मोहित उससे भी बचने की कोशिश करेगा। शायद इस के बाद किसी दूसरी परेशानी का सामना करने की नौबत नहीं आएगी।
आगंतुक ने
आखिरी बार चाय की चुस्की ली और कप को नीचे रखा था कि कमरे में एक और सज्जन
आ गए। ये मोहित के अंतरंग मित्र थे - वाणीकांत सेन। दो अन्य सज्जनों के भी
आने की बात है,
इसके बाद यहीं ताश का अड्डा जमेगा। उसने भले आगंतुक की
तरफ़ शक की नज़रों से देखा। मोहित इसे भाँप गया। आगंतुक के साथ अपने दोस्त
का परिचय कराने की बात मोहित बुरी तरह टाल गया।
'इतनी
देर तक तो तुम ही कहता रहा था। बाद में तुम्हें सुनाने के लिए ही अचानक तू
कह गया।'
एलबम को
अपनी आँखों के थोड़ा नज़दीक ले जाते ही बड़ी आसानी से वाणीकांत ने अपने
मित्र को पहचान लिया।
अपने
बारूइपुर वाले मित्र के यहाँ पोखर की मच्छी,
पॉल्टरी के ताज़े अंडे और पेड़ों में लगे आम,
अमरूद, जामुन डाब और सीने से तकिया
लगा ताश खेल कर, तन-मन की सारी थकान और जकड़न दूर
कर मोहित सरकार रविवार की रात ग्यारह बजे जब अपने घर लौटा तो अपने नौकर
विपिन से उसे खबर मिली कि उस दिन शाम को जो सज्जन आए थे - वे आज सुबह भी घर
आए थे।
लेकिन
नहीं। आफत रात भर के लिए ही टली थी। दूसरे दिन सुबह यही कोई आठ बजे,
मोहित जब अपनी बैठक में अख़बार पढ़ रहा था तो विपिन ने उस
के सामने एक और तहाया हुआ पुर्जा ला कर रख दिया। मोहित ने उसे खोल कर देखा।
वह तीन लाइनों वाली चिट्ठी थी -- 'भाई मोहित,
मेरे दाएँ पैर में मोच आ गई है,
इसलिए बेटे को भेज रहा हूँ। सहायता के तौर पर जो थोड़ा-बहुत बन सके,
इस के हाथ में दे देना, बड़ी कृपा
होगी। निराश नहीं करोगे, इस आशा के साथ,
इति।' - तुम्हारा जय
थोड़ी देर
बाद ही,
एक तेरह-चौदह साल का लड़का दरवाजे से अंदर दाखिल हुआ।
मोहित के पास आ कर उसने उसे प्रणाम किया और फिर कुछ कदम पीछे हट कर चुपचाप
खड़ा हो गया।
मोहित ने
विपिन को बुलाया और इस लड़के संजय बोस के लिए चाय वगैरह लाने का आदेश दिया।
फिर दफ़्तर के लिए तैयार होने ऊपर अपने कमरे में चला आया।
|
मुखपृष्ठ | उपन्यास | कहानी | कविता | नाटक | आलोचना | विविध | भक्ति काल | हिंदुस्तानी की परंपरा | विभाजन की कहानियाँ | अनुवाद | ई-पुस्तकें | छवि संग्रह | हमारे रचनाकार | हिंदी अभिलेख | खोज | संपर्क |
Copyright 2009 Mahatma Gandhi Antarrashtriya Hindi Vishwavidyalaya, Wardha. All Rights Reserved. |