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कविता

अविगत गति कछु कहत न आवै

सूरदास


अविगत गति कछु कहति न आवै।
ज्यौं गूँगै मीठे फल कौ रस अंतरगत ही भावै।
परम स्वाद सबहीं सु निरंतर अमित तोष उपजावै।
मन बानी कौं अगम अगोचर सो जानै जो पावै।
रूप रेख गुन जाति जुगति बिनु निरालंब कित धावै।
सब बिधि अगम बिचारहिं, तातैं सूर सगुन पद गावै।।


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