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संस्मरण

ल्यूबोमीर और रोशनी की राख

आनंद वर्धन


बल्गारिया में रहते सात महीने बीत चुके थे। इन सात महीनों में हर दिन मेरे लिए एक नए अनुभव सा था। नया देश, नया परिवेश सब कुछ नया नया। जब किसी चिड़िया ने नया नया उड़ना सीखा हो, जब किसी हरिण शावक ने नया नया कुलाँचे भरना सीखा हो तब चिड़ियाँ सोचती है कि अपने नन्हें पंखों से आकाश की सारी चौड़ाई नाप ली जाय और सोचता है हरिण शावक कि धरती के चप्पे चप्पे को कूद फाँदकर बता दे कि मैंने अब तुम्हारा कोई कोना नहीं छोड़ा। पर न तो चिड़ियाँ नाप पाती है आकाश का विस्तार, न ही हरिण शावक धरती का ओर छोर, पर इस दरम्यान वे सीखते हैं बहुत कुछ, देखते हैं बहुत कुछ, जानते हैं बहुत कुछ।

कुछ कुछ वैसी ही हालत हमारी थी। हर दिन मैं मेरी पत्नी उषा और मेरा बेटा अनु मौका मिलते ही किसी नई जगह जाने को सोचते, किसी नए व्यक्ति से मिलने को सोचते। हमें सप्ताहांत का इंतजार रहता था। हमारा हर सप्ताहांत नएपन से भरा हुआ था। एक और खास बात थी यहाँ। जब भी कोई भारतीय भारत से आता हम उससे मिलने को उत्सुक रहते। भारत की ताजातरीन खबरें पाने के लिए। ऐसा लगता था कि वह कोई निकट का संबंधी है।

उसी जून 2004 में सोफिया में विश्व लेखक संगठन द्वारा आयोजित समारोह में भारत के कुछ लेखक साहित्यकार भी आमंत्रित थे। आयोजक संस्था ने कुछ नाम चुने। नाम चयन की प्रक्रिया में मुख्य बात जो मैंने महसूस की वह थी ऐसे लेखकों को आमंत्रित करना जिनकी रचनाओं का अनुवाद बल्गारियाई भाषा में हुआ है या जिन्होंने बल्गारियाई साहित्य का अनुवाद किया है।

जो नाम चुने गए थे उनके पते संस्था के पास नहीं थे सो सबके आमंत्रण भेजे गए भारतीय दूतावास को। उनमें गंगा प्रसाद विमल, अमृता प्रीतम, सतेंदर विज और दो एक दूसरे नाम भी थे। मैं और श्री आर.के. सिंह (चांसरी प्रमुख) इंटरनेट पर पते और फोन नं. खंगालने लगे। बहरहाल सबसे संपर्क स्थापित हो सका पर कार्यक्रम में आने की स्वीकृति दी डॉ. गंगाप्रसाद विमल और डॉ सतेंदर विज़ ने। अमृता प्रीतम तब अस्वस्थ थीं।

कार्यक्रम की तिथि आ पहुँची और आ पहुँचे ये लोग भी। मैं तब तक सोफिया में नया ही था। एक दिन कार्यक्रम में समापन के बाद जब मैं डॉ. विमल को लेने पहुँचा तो उन्होंने एक बुजुर्ग सज्जन से मेरा परिचय कराया। सफेद दाढ़ी, सफेद, बिखरे से बाल। ये थे ल्यूबोमीर लेवचेव, प्रसिद्ध बल्गारियाई कवि और पूर्व संस्कृति मंत्री।

ल्यूबोमीर ने बड़ी गर्मजोशी से हाथ मिलाया। डॉ. विमल ने मेरा परिचय कराते हुए बताया कि ये भी कविताएँ लिखते हैं। ल्यूबोमीर के हाथों की पकड़ और मजबूत हो गईं। मैं ल्यूबोमीर की कविताओं के अनुवाद पढ़ चुका था और नाम से परिचित था। उन्हें सामने पाकर अतिरिक्त आनंद सा हुआ। ल्यूबोमीर ने बल्गारियाई भाषा में कहा- ''फिर मिलना''

संयोग कुछ ऐसा रहा कि कई महीनों तक मुलाकात नहीं हो पाई। उनके घर का पता भी मालूम नहीं था। इसी बीच 26 जनवरी आ गई। 26 जनवरी को हर साल भारतीय राजदूत के घर पर एक बड़ा आयोजन हुआ करता था। बल्गारिया स्थित सभी देशों के राजनयिक अधिकारी बल्गारिया के प्रमुख राजनेता, अधिकारी, साहित्यकार प्रोफेसर और विभिन्न क्षेत्रों के स्वनामधन्य लोग आमंत्रित किये जाते आयोजन में।

वहीं किसी महिला से परिचय हुआ। उसने बताया कि मेरे पति भी कवि हैं और उनका नाम ल्यूबोमीर है।

मैंने उत्साहित होकर कहा कि मैं उनसे मिल चुका हूँ। उनकी कविताएँ पढ़ चुका हूँ। थोड़ी देर बाद वह महिला एक अधेड़ व्यक्ति का हाथ पकड़े़ मेरे पास आई और कहने लगी ये है मेरे पति ल्यूबोमीर।

मैं पशोपेश में था। जिन ल्यूबोमीर को मैं जानता हूँ वो ये तो नहीं हैं। कहीं कुछ गड़बड़ है। मैंने उन सज्जन से कोई खास बात नहीं की। उनकी ओर से भी कुछ बेरुखी सी ही दिखी मुझे। खैर दूसरे ही दिन मेरी मुलाकात दूतावास में हुई फ्रेंड्स ऑफ इंडिया क्लब की कर्ताधर्ता श्रीमती एवगीनिया कामोवा से। श्रीमती कामोवा भारत में लबें समय तक रही हैं। वे यहाँ संस्कृति केंद्र की निदेशक थीं। उन्होंने बताया कि उन्हें ल्यूबोमीर लेवचेव से मिलने जाना है। मैंने उनसे एक दिन पहले की घटना का जिक्र किया और पूछा कि कल के कार्यक्रम में क्या ल्यूबोमीर लेवचेव भी आए थे। श्रीमती कामोवा ने बताया कि नहीं ल्यूबोमीर लेवचेव वहाँ नहीं आ सके थे।

तो ''फिर कल जो ल्यूबोमीर मिले वे कौन थे?''

एवगीनिया जी सोचती रही फिर मुस्कुरा दीं।

''अरे वे तो दूसरे ल्यूबोमीर हैं लेकिन कुछ खास चर्चित नहीं हैं।''

बहरहाल मेरी उलझन खत्म हो गई थी। ल्यूबोमीर जी से मुझे भी मिलना हैं। मैंने श्रीमती कामोवा से कहा।

श्रीमती कामोवा ने उनका फोन नं. निकाला और मुझे दिया। मेरी समस्या हल हो चुकी थी।

'ज़द्रास्ती' (नमस्कार) मैंने बल्गारियाई भाषा में अभिवादन किया।

'आलो'' दूसरी ओर से किसी महिला ने फोन उठाया ''में आई टॉक टू मि. ल्यूबोमीर लेवचेव''

मैंने अंग्रेजी में पूछा

''सॉरी ही इज़ नाट हियर टुडे।''

फोन पर श्रीमती लेवचेव थीं। मुझे यह जानकर थोड़ी राहत मिली कि मैं कम से कम सही पते पर पहुँच गया। श्रीमती लेवचेव ने बताया कि ल्यूबोमीर जी दो दिन बाद आएँगे।

''हैलो'' मैंने दो दिन बाद फिर फोन खटखटाया।

''आलो'' फोन पर फिर वही मधुर आवाज।

'दोब्रो उतरो, आ सम इंदिस्की प्रोफेसर, आनंद शर्मा' (गुड मार्निंग मैं भारतीय प्रोफेसर हूँ, आनंद शर्मा)

''दा दा, काकस्ते'' (हाँ, हाँ, आप कैसे हैं?)

''आ सम दुबरे। बिये'' (मैं ठीक हूँ और आप)

इसके बाद फिर मैंने अंग्रेजी में बात करनी शुरू की। मैं ल्यूबोमीर से मिलने के लिए समय लेना चाहता था और उन्होंने ल्यूबोमीर से पूछ कर हमें समय दिया रविवार का। मैं बहुत खुश था।

शनिवार की रात से ही बर्फ पड़नी शुरू हो गई थी। बल्गारिया में बर्फ देखने का आनंद ही कुछ और है। जब बर्फ पड़ती तो सारा शहर जैसे एक बड़ी सफेद चादर ओढ़ लेता था। पेड़ों की फुनगी तक सफेद हो जाती। मुझे आश्चर्य होता था कि ऐसे में सारी चिड़ियाँ कहाँ जाती होंगी। सुबह उठा तो देखा हर तरफ चाँदी का साम्राज्य बिछा है।

रजत राशि का अनंत विस्तार। बच्चे उसमें भी खेल रहे थे। लोग रोज़ की तरह आ जा रहे थे। नीचे से लेकर ऊपर तक ढँके हुए। सिर्फ आँखें ही आँखे दिखती थीं चेहरे में। लेकिन ऐसे में भी कुछ नौजवान टी-शर्ट में नजर आ जाते थे। हाथ में राकिया की बोतल (शाकिया एक स्थानीय बल्गारियाई शराब है जो घर घर में लोकप्रिय है।) या बीयर लिए।

ल्यूबोमीर से मिलने का समय था शाम चार बजे। श्रीमती लेवचेव ने जो पता बताया वेलिको तोरनोवो स्ट्रीट। उसे मैंने ठीक से लिख लिया था और अब उस गली को सोफिया के नक्शे में ढूँढ़ रहा था।

योरोप में यदि आप रहे रहे हैं तो आपको नक्शा देखना ठीक से आना चाहिये। अगर आप नक्शा देखना सीख गए तो पूरा योरोप परिचित लगेगा। कुछ भी अजाना नहीं रहेगा तब। हर शहर के नक्शे गली दर गली और मकान दर मकान की सारी जानकारी समेटे रहते हैं।

मैंने भी ल्यूबोमीर के घर की गली खोज ली। बिल्कुल शिपका बुलेवार्ड के पास।

मैं अक्सर इस गली से गुजरता था। वह भी दो कारणों से। एक तो यह सोफिया विश्वविद्यालय के बिल्कुल पास थी, दूसरे ब्रिटिश काउंसिल लायब्रेरी भी मैं यहीं से होकर जाता था।

हम घर से सवा तीन बजे निकले। मेरे घर से सोफिया विश्वविद्यालय 8-9 कि.मी. था। रविवार को इतनी दूरी पार करने में कुल 10 मिनिट लगते थे।पर आम दिनों में 20 मिनिट से लेकर 40 मिनिट तक क्योंकि तब ट्रैफिक ज्यादा होता था और सिग्नल भी ज्यादा समय ले लेते थे।

हम सवा तीन बजे इसलिए निकले कि बर्फ के मौसम में कार चलाते समय में थोड़ी अतिरिक्त सावधानी बरतता था। भारत में तो कभी बर्फ में गाड़ी चलाई नहीं थी। पर यहाँ अब अभ्यास बन चुका था।

घर से निकलते समय मेरे यहाँ घरेलू काम करने वाली महिला श्रीमती वेलित्सा निकोलाएवा जिसे हम सब स्नेह से विली बुलाते थे, ने पूछा 'कदे हौदी'' (कहाँ जा रहे हो) और जब मैंने उसे बताया कि हम लोग ल्यूबोमीर लेवचेव से मिलने जा रहे हैं तो उसने अत्यंत विस्मय मिश्रित आनंद से हमें देखते हुए कहा- ''सच''।

उसे विश्वास ही नहीं हो रहा था।

''हाँ सचमुच''।

विली ने बताया कि उसने ल्यूबोमीर की बहुत सारी कविताएँ पढ़ी हैं और वे एक बार उनसे मिली भी है। जब वह एक कारखाने में काम करती थी तब ल्यूबोमीर वहाँ कविता सुनाने आए थे और तब उन्होंने सफेद कमीज़ पहन रखी थी, तब ल्यूबोमीर जवान थे।

विली ने हमसे कहा कि ल्यूबोमीर को मेरा नमस्कार कहना। वे इस बात से बहुत खुश थी कि मेरा परिचय ल्यूबोमीर से है।

वेलिको तोरनोवो स्ट्रीट में एक किनारे कार पार्क कर मैंने ल्यूबोमीर लेवचेव के घर का पता लिखा कागज निकाला। जगह तो यही होनी चाहिए। सामने डॉक्टर्स पार्क था। गली में दूर दूर तक सन्नाटा और बर्फ पसरी थी। एक सात आठ मंजिली इमारत के नीचे खड़े हुए हम (मैं और मेरी पत्नी उषा) बाहर कालबैलों के बगल में बल्गारियाई भाषा में लिखे नामों को पढ़ने की कोशिश कर रहे थे। सारे नाम दो तीन बार पढ़ लेने के बाद भी उनमें ल्यूबोमीर का नाम नहीं मिला। मैंने सोचा शायद उनका फ्लैट पीछे वाली इमारत में हो। हम पीछे की ओए गए पर वहाँ उस नंबर की इमारत से मिलता जुलता कोई नंबर नहीं था।

मुझे पैदल जाते कोई व्यक्ति दिख ही नहीं रहा था। इतनी बर्फ में सिर्फ कारें ही आते जाते दिख रही थीं। हाँलाकि चार बजने में अभी वक्त था पाँच मिनट। हम शिपका स्ट्रीट और वेलिको तोरनोवो स्ट्रीट के मुहाने पर खड़े ही थे कि एक प्रौढ़ सज्जन आते दिखे। मैंने उन्हें रोका 'इज़विन्यावइ'' (क्षमा करें) वे सज्जन ठिठक गए।

''दा''

मैंने उनसे ल्यूबोमीर लेवचेव का पता पूछा।

उसने पूछ कवि ल्यूबोमीर? और बिल्कुल सामने की इमारत की ओर इशारा किया।

मुझे इस बात से बेहद खुशी थी कि इस देश में कवियों और लेखकों को आम आदमी भी जानता है। मेरे घर काम करने वाली विली से लेकर यह अनजान राहगीर तक। मैंने उस अजनबी को धन्यवाद दिया।

''ब्लागोदार्या''

उसने खुश होकर हाथ उठाया जैसे भारत में आशीर्वाद की मुद्रा में उठाते हैं।

अब हम उस बहुमंजिला इमारत के ग्राउंड फ्लोर पर थे जहाँ ल्यूबोमीर लेवचेव का फ्लैट था। इस बार पहली कालबेल के सामने ही नाम लिखा मिल गया 'ल्यूबोमीर लेवचेव' हमने बैल दबाई आवाज आई "कौन।"

मैं भारतीय प्रोफेसर आनंद।

दोब्रेदोशली (स्वागत)

और हम ल्यूबोमीर के दरवाजे के सामने थे। कवि ल्यूबोमीर ने दरवाजा खाला और बेहद गर्मजोशी से हाथ मिलाया। पीछे श्रीमती लेवचेव खड़ी थी। वे भी उतनी ही गर्मजोशी से मिलीं। घर में घुसते ही सबसे पहले ल्यूबोमीर ने क्षमा माँगते हुए कहा, जगह थोड़ी कम है क्योंकि अभी इन किताबों को कहीं भेजना है। दरवाजे से लगी हुई लॉबी में किताबों के अनेक पैकेट्स रखे थे।

ल्यूबोमीर मेरा हाथ पकड़े पकड़े ड्राइंग रूम तक आए। सब कुछ बेहद तरतबी से सजा। ड्राइंग रूम के बाईं ओर जुड़ा हुआ किचन। योरोप में घर के अंदर भारत की तुलना में दीवारें कम होती हैं। व्यवहार में भी खुलापन और स्थापत्य में भी।

सामने बड़ी सी खिड़की। खिड़की के शीशे से छनकर आती धूप ने घर भर को पीताभ कर रखा था। ड्राइंग रूम की दीवारों पर सुंदर चित्र टंगे थे। ल्यूबोमीर की आलमारियाँ किताबों से भरी थीं पर उन सबको देखने की चाह कहाँ थी।

हमारी आँखें तो ल्यूबोमीर पर टिकी थीं। मुझे विश्वास नहीं हो रहा था कि मैं ल्यूबोमीर लेवचेव के साथ हूँ, उनका हाथ पकड़े हुए। बड़े ही स्नेह से उन्होंने हमसे बैठने का आग्रह किया।

हमारे बैठते ही ल्यूबोमीर फिर उठे और चार ग्लास लाए और वाइन की एक बोतल। फिर मुझसे पूछा उन्होंने 'वाइन लेंगे या और कुछ जैसे चाय या कॉफी।' वे भारतीय चाय से खूब परिचित थे।

हमने चाय के लिये अपनी स्वीकृति दे दी और श्रीमती लेवचेव चाय बनाने लगीं। ल्यूबोमीर की कविताओं के अनुवाद हिन्दी में हुए हैं और संग्रह रूप में छपे भी हैं। ल्यूबोमीर छोटे बच्चे जैसे चहकते हुए मुझे अपने संग्रह दिखा रहे थे।

मैंने उनसे पूछा- ''आपको भारत कैसा लगा है।"

''म्नोगो खूबबू'' (बहुत सुंदर)

खूब शब्द तो अब हमारी हिन्दी में शामिल ही है। वे दिल्ली की, बंबई की याद करते रहे।

उन्होंने हमें बताया कि राजकपूर उनके अच्छे दोस्त रहे हैं। श्रीमती लेवचेव ने कहा कि उनकी पत्नी कृष्णा जी ने उन्हें खुद एक शर्ट भेंट की थी। देविका रानी से भी श्री लेवचेव का प्रगाढ़ परिचय था। उन्हें राजकपूर के गीतों ''आवारा हूँ'' और ''मेरा जूता है जापानी'' की धुनें याद थीं।

मैंने अपने योरोप प्रवास में पाया कि पूरे पूर्वी योरोप में राजकपूर के लाखों प्रशंसक हैं और बूढ़ी होती पीढ़ी की जुबान पर राजकपूर धुनें पूरी तरह जवान हैं। योरोप में लोग भारत को या तो राजकपूर के नाम से जानते हैं या इंदिरा गाँधी के नाम से।

ल्यूबोमीर ने मुझसे पूछा- तुम्हें बलगारिया कैसे लगा?

हमने अपनी टूटी फूटी बलगारियाई जुबान और अंग्रेजी की सहायता लेने की कोशिश करते हुए जब उन्हें बताया कि हमने बलगारिया का काफी बड़ा हिस्सा घूम लिया है तो वे बेहद खुश हुए। हमने बताया कि हम प्लैवदिव, वारना, बुर्गास, नेसेबर, कलियाकरा, दोसपेट, बाँसको, बतक, स्तारा, जागोरा, कज़नालक, शिपका, रिला, रुसे, वैलिको तोरनोवो आदि जगहें देख चुके हैं तो वे बोल उठे- इतने कम समय में तो खुद बलगारियाई लोग इतनी जगहें नहीं देख पाते।

दरअसल हमारे पास तो कुल दो ढाई साल का समय था इसलिये हम अधिक से अधिक घूमने की कोशिश करते थे।

ल्यूबोमीर लेवचेव ने कहा कि वे गर्मियों में गाँव में चले जाते हैं। गाँव जो सोफिया से दूर है। उस गाँव में उनका एक घर है। आज यह गाँव विशिष्ट बन गया है वह भी ल्यूबोमीर के कारण। उन्होंने बताया कि यह गाँव घने जंगलों के बीच था जहाँ अधिकांश लोग अपने घरों को छोड़कर दूसरी जगहों पर बस गए थे। एक बार घूमते घूमते ल्यूबोमीर वहाँ पहुँच गए। उन्हें वह जगह बहुत पसंद आई और वहाँ उन्होंने एक घर खरीद कर उसे ठीक करवाया। इसके बाद अन्य साहित्यकारों और कलाकारों को उस गाँव, उस जगह के बारे में बताया और उन्हें वहाँ घर खरीदने के लिये प्रेरित किया। बाद में तमाम कलाकारों साहित्यकारों ने वहाँ घर बना लिया। उसी गाँव में ल्यूबोमीर गर्मियों में चले जाते हैं। उन्होंने मुझे भी वहाँ साथ चलने का न्यौता दिया।

ल्यूबोमीर ने मुझसे कहा- अपनी कोई कविता सुनाओ। मैं अपनी कुछ कविताएँ साथ लेकर गया था पर बड़े संकोच के साथ। उन्हें अपनी कविताएँ और उनके बल्गारियाई अनुवाद सुनाए। लेवचेव दंपत्ति बहुत खुश हुए। मैंने बल्गारियाई परिवेश पर कुछ कविताएँ लिखीं थीं वे उन्हें बहुत पसंद आईं।

सामने खिड़की से सूरज धीरे धीरे ढलता हुआ दिख रहा था। पीताभा अरुणाभा में बदलती जा रही थी। ल्यूबोमीर ने अपनी कविताओं के हिन्दी में अनूदित संग्रह मुझे भेंट किये।

मैंने उनसे अगा्रह किया कि वे कुछ कविताए सुनाएँ। ल्यूबोमीर ने अपने नए कविता संग्रह पेपेल ओत स्वेतलिना की आरंभिक कविताएँ हमें सुनाईं। पेपल ओत स्वेतलिना का अर्थ है रोशनी की राख।

मैंने उनसे कहा कि मैं आपकी कविताओं का अनुवाद करना चाहता हूँ।

ल्यूबोमीर फिर से चहक उठे। 'सचमुच' और उन्होंने अपना नवीनतम काव्य संग्रह पेपेल ओत स्वेतलिना हमें भेंट किया और उस पर बल्गारियाई में लिखा मेरे बहुत प्यारे दोस्तों आनंद और उषा को सस्नेह भेंट।

हम दो घंटे वहाँ बैठे बतियाते रहे। उठने का मन नहीं हो रहा था। सूरज एक बड़े भवन के पीछे जा चुका था। पर उसकी किरणें चारों ओर से निकल रही थीं। सामने डॉक्टर्स पार्क में बिछी बर्फ ऐसे चमक रही थी जैसे किसी ने पूरे पार्क पर सोना मढ़ दिया हो।

हमारी चाय के दो दौर हो चुके थे। ल्यूबोमीर ने तीसरी चाय पीने का आग्रह किया पर हमें मालूम था कि साढ़े छः बजे उन्हें कहीं और जाना है। छः बज चुके थे। उठने का मन नहीं था पर मन की चली कब है। सामने ल्यूबोमीर थे, और उनके पीछे खिड़की से झाँकती बर्फ। बर्फ के बिल्कुल कोने पर बल्गारियाई राष्ट्रीय पुस्तकालय की खिड़कियाँ।

हम न चाहते हुए भी उठे। हाथों में ल्यूबोमीर की किताबें थीं। ल्यूबोमीर और श्रीमती लेवचेव हमें छोड़ने नीचे तक आए। उन्होंने दरवाजे पर आकर मेरे कंधे पर हाथ रखा और कहा- और कविताएँ लिखो और फिर जल्दी आना।

हाँ, हम बर्फ गलने से पहले जरुर आएँगे आपके पास। हमारे हाथों को ल्यूबोमीर की रोशनी की राख गर्माहट दे रही थी। डॉक्टर्स पार्क के बगल से मैंने कार को निकाला।

मेरे घर पहुँचते तक डॉक्टर्स पार्क की बर्फ पर धीरे धीरे चाँदनी छिड़काव कर चुकी होगी और अपनी खिड़की के पास बैठ ल्यूबोमीर लिख रहे होंगे एक और कविता। मैंने महसूस किया कि अभी भी मेरे कंधों पर ल्यूबोमीर का हाथ रखा है।


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हिंदी समय में आनंद वर्धन की रचनाएँ