hindisamay head


अ+ अ-

कविता

विनयपत्रिका

तुलसीदास


गोस्वामी तुलसीदास कृत विनयपत्रिका

 

॥ राम ॥

विषयानुक्रमणिका

श्री गणेश-स्तुति

सूर्य-स्तुति

शिव-स्तुति

देवी-स्तुति

गङ्गा-स्तुति

यमुना-स्तुति

काशी-स्तुति

चित्रकूट-स्तुति

हनुमत्-स्तुति

लक्ष्मण-स्तुति

भरत-स्तुति

शत्रुघ्न-स्तुति

श्रीसीता-स्तुति

श्री राम स्तुति

श्रीराम-नाम-वन्दना

श्रीराम-आरती

हरिशङ्करी-पद

श्रीराम-स्तुति

श्रीरंग-स्तुति

श्रीनर-नारायण-स्तुति

श्रीविन्दुमाधव-स्तुति

श्रीरामवन्दना

श्रीराम-नाम-जप

विनयावली

राग- सूची

आसावरी- ६२, १८३-१८८

कल्याण- २०८-२११, २१४-२७९

कान्हरा- २४, २०४-२०७

केदारा- ४१-४४, २१२-२१३

गौरी- ३१, ३६, ४५, १८९-१९७

जैतश्री- ६३, ८३-८४

टोड़ी- ७८-८२

दण्डक- ३७

धनाश्री- ४-५, १०-१२, २५-२९, ३८-४०, ८५-१०५

नट- १५८-१६०

बसन्त- १३-१४, २३, ६४

बिलावल- १-३, २१, ३२-३५, १०७, १३४, १३७-१५४, १७९-१८२

बिहाग- १०७-१३४

भैरव- २२, ६५-७३

भैरवी- १९८-२०३

मलार- १६१

मारु- १५

रामकली- ६-९, १६-२०, ४६-६१, १०६

ललित- ७५-७७

विभास- ७४

सारंग- ३०, १५५-१५७

सूहो बिलावल- १३५-१३६

सोरठ- १६२-१७८

~~०~~

॥ श्री सीतारामाभ्यां नमः ॥

 

विनय-पत्रिका

राग बिलावल

श्रीगणेश-स्तुति

 

गाइये गनपति जगबंदन। संकर-सुवन भवानी नंदन ॥ १ ॥

सिद्धि-सदन, गज बदन, बिनायक। कृपा-सिंधु, सुंदर सब-लायक ॥ २ ॥

मोदक-प्रिय, मुद-मंगल-दाता। बिद्या-बारिधि, बुद्धि बिधाता ॥ ३ ॥

माँगत तुलसिदास कर जोरे। बसहिं रामसिय मानस मोरे ॥ ४ ॥

सूर्य-स्तुति

दीन-दयालु दिवाकर देवा। कर मुनि, मनुज, सुरासुर सेवा ॥ १ ॥

हिम-तम-करि केहरि करमाली। दहन दोष-दुख-दुरित-रुजाली ॥ २ ॥

कोक-कोकनद-लोक-प्रकासी। तेज-प्रताप-रूप-रस-रासी ॥ ३ ॥

सारथि-पंगु, दिब्य रथ-गामी। हरि-संकर-बिधि-मूरति स्वामी ॥ ४ ॥

बेद पुरान प्रगट जस जागै। तुलसी राम-भगति बर माँगै ॥ ५ ॥

शिव स्तुति

को जाँचिये संभु तजि आन।

दीनदयालु भगत-आरति-हर, सब प्रकार समरथ भगवान ॥ १ ॥

कालकूट-जुर जरत सुरासुर, निज पन लागि किये बिष पान।

दारुन दनुज, जगत-दुखदायक, मारेउ त्रिपुर एक ही बान ॥ २ ॥

जो गति अगम महामुनि दुर्लभ, कहत संत, श्रुति, सकल पुरान।

सो गति मरन-काल अपने पुर, देत सदासिव सबहिं समान ॥ ३ ॥

सेवत सुलभ, उदार कलपतरु, पारबती-पति परम सुजान।

देहु काम-रिपु राम-चरन-रति, तुलसिदास कहँ कृपानिधान ॥ ४ ॥

राग धनाश्री

दानी कहुँ संकर-सम नाहीं।

दीन-दयालु दिबोई भावै, जाचक सदा सोहाहीं ॥ १ ॥

मारिकै मार थप्यौ जगमें, जाकी प्रथम रेख भट माहीं।

ता ठाकुरकौ रीझि निवाजिबौ, कह्यौ क्यों परत मो पाहीं ॥ २ ॥

जोग कोटि करि जो गति हरिसों, मुनि माँगत सकुचाहीं।

बेद-बिदित तेहि पद पुरारि-पुर, कीट पंतग समाहीं ॥ ३ ॥

ईस उदार उमापति परिहरि, अनत जे जाचन जाहीं।

तुलसिदास ते मूढ़ माँगने, कबहुँ न पेट अघाहीं ॥ ४ ॥

बावरो रावरो नाह भवानी।

दानि बड़ो दिन देत दये बिनु, बेद-बडाई भानी ॥ १ ॥

निज घरकी बरबात बिलोकहु, हौ तुम परम सयानी।

सिवकी दई संपदा देखत, श्री-सारदा सिहानी ॥ २ ॥

जिनके भाल लिखी लिपि मेरी, सुखकी नहीं निसानी।

तिन रंकनकौ नाक सँवारत, हौं आयो नकबानी ॥ ३ ॥

दुख-दीनता दुखी इनके दुख, जाचकता अकुलानी।

यह अधिकार सौपिये औरहिं, भीख भली मैं जानी ॥ ४ ॥

प्रेम-प्रसंसा-बिनय-ब्यंगजुत, सुनि बिधिकी बर बानी।

तुलसी मुदित महेस मनहिं मन, जगत-मातु मुसुकानी ॥ ५ ॥

 

राग रामकली

जाँचिये गिरिजापति कासी। जासु भवन अनिमादिक दासी ॥ १ ॥

औढर-दानि द्रवत पुनि थोरें। सकत न देखि दीन करजोरे ॥ २ ॥

सुख-संपति, मति-सुगति सुहाई। सकल सुलभ संकर-सेवकाई ॥ ३ ॥

गये सरन आरतिकै लीन्हे। निरखि निहाल निमिषमहँ कीन्हे ॥ ४ ॥

तुलसिदास जाचक जस गावै। बिमल भगति रघुपतिकी पावै ॥ ५ ॥

कस न दीनपर द्रवहु उमाबर। दारुन बिपति हरन करुनाकर ॥ १ ॥

बेद-पुरान कहत उदार हर। हमरि बेर कस भयेहु कृपिनतर ॥ २ ॥

कवनि भगति कीन्ही गुननिधि द्विज। होइ प्रसन्न दीन्हेहु सिव पद निज ॥ ३ ॥

जो गति अगम महामुनि गावहिं। तव पुर कीट पतंगहु पावहिं ॥ ४ ॥

देहु काम-रिपु ! राम -चरन-रति। तुलसिदास प्रभु ! हरहु भेद-मति ॥ ५ ॥

देव बड़े, दाता बड़े, संकर बड़े भोरे।

किये दूर दुख सबनिके, जिन्ह-जिन्ह कर जोरे ॥ १ ॥

सेवा, सुमिरन, पूजिबौ, पात आखत थोरे।

दिये जगत जहँ लगि सबै, सुख, गज, रथ, घोरे ॥ २ ॥

गावँ बसत बामदेव, मैं कबहूँ न निहोरे।

अधिभौतिक बाधा भई, ते किंकर तोरे ॥ ३ ॥

बेगि बोलि बलि बरजिये, करतूति कठोरे।

तुलसी दलि, रूँध्यो चहैं सठ साखि सिहोरे ॥ ४ ॥

सिव! सिव! होइ प्रसन्न करु दाया।

करुनामय उदार कीरति, बलि जाउँ हरहु निज माया ॥ १ ॥

जलज-नयन, गुन-अयन, मयन-रिपु, महिमा जान न कोई।

बिनु तव कृपा राम-पद-पंकज, सपनेहुँ भगति न होई ॥ २ ॥

रिषय, सिद्ध, मुनि, मनुज, दनुज, सुर, अपर जीव जग माहीं।

तव पद बिमुख न पार पाव कोउ, कलप कोटि चलि जाहीं ॥ ३ ॥

अहिभूषन, दूषन-रिपु-सेवक, देव-देव, त्रिपुरारी।

मोह-निहार-दिवाकर संकर, सरन सोक-भयहारी ॥ ४ ॥

गिरिजा-मन-मानस-मराल, कासीस, मसान-निवासी।

तुलसिदास हरि-चरन-कमल-बर, देहु भगति अबिनासी ॥ ५ ॥

राग धनाश्री

१०

देव,

मोह-तम-तरणि, हर, रुद्र, संकर, शरण, हरण, मम शोक लोकाभिरामं।

बाल-शशि-भाल, सुविशाल लोचन-कमल, काम-सतकोटि-लावण्य-धामं ॥ १ ॥

कंबु-कुंदेंदु-कर्पूर-विग्रह रुचिर, तरुण-रवि-कोटि तनु तेज भ्राजै।

भस्म सर्वांग अर्धांग शैलात्मजा, व्याल-नृकपाल-माला विराजै ॥ २ ॥

मौलिसंकुल जटा-मुकुट विद्युच्छटा, तटिनि-वर-वारि हरि-चरण-पूतं।

श्रवण कुंडल, गरल कंठ, करुणाकंद, सच्चिदानंद वंदेऽवधूतं ॥ ३ ॥

शूल-शायक पिनाकासि-कर, शत्रु-वन-दहन इव धूमध्वज, वृषभ-यानं।

व्याघ्र-गज-चर्म-परिधान, विज्ञान-घन, सिद्ध-सुर-मुनि-मनुज-सेव्यमानं ॥ ४ ॥

तांडवित-नृत्यपर, डमरु डिंडिम प्रवर, अशुभ इव भाति कल्याणाराशी।

महाकल्पांत ब्रह्मांड-मंडल-दवन, भवन कैलास, आसीन काशी ॥ ५ ॥

तज्ञ, सर्वज्ञ, यज्ञेश, अच्युत, विभो, विश्व भवदंशसंभव पुरारी।

ब्रह्मेंद्र, चंद्रार्क, वरुणाग्नि, वसु, मरुत, यम, अर्चि भवदंघ्नि सर्वाधिकारी ॥

अकल, निरुपाधि, निर्गुण, निरंजन, ब्रह्म, कर्म-पथमेकमज निर्विकारं।

अखिलविग्रह, उग्ररूप, शिव, भूपसुर, सर्वगत, शर्व सर्वोपकारं ॥ ७ ॥

ज्ञान-वैराग्य, धन-धर्म, कैवल्य-सुख, सुभग सौभाग्य शिव!सानुकूलं।

तदपि नर मूढ आरूढ संसार-पथ, भ्रमत भव, विमुख तव पादमूलं ॥ ८ ॥

नष्टमति, दुष्ट अति, कष्ट-रत, खेद-गत, दास तुलसी शंभु-शरण आया।

देहि कामारि! श्रीराम-पद-पंकज भक्ति अनवरत गत-भेद-माया ॥ ९ ॥

भैरवरूप शिव-स्तुति

११

देव,

भीषणाकार, भैरव, भयंकर, भूत-प्रेत-प्रमथाधिपति, विपति-हर्ता।

मोह-मूषक-मार्जार, संसार-भय-हरण, तारण-तरण, अभय कर्ता ॥ १ ॥

अतुल बल, विपुलविस्तार, विग्रहगौर, अमल अति धवल धरणीधराभं।

शिरसि संकुलित-कल-जूट पिंगलजटा, पटल शत-कोटि-विद्युच्छटाभं ॥ २ ॥

भ्राज विबुधापगा आप पावन परम, मौलि-मालेव शोभा विचित्रं।

ललित लल्लाटपर राज रजनीशकल, कलाधर, नौमि हर धनद-मित्रं ॥ ३ ॥

इंदु-पावक-भानु-नयन, मर्दन-मयन, गुण-अयन, ज्ञान-विज्ञान-रूपं।

रमण-गिरिजा, भवन भूधराधिप सदा, श्रवण कुंडल, वदनछवि अनूपं ॥ ४ ॥

चर्म-असि-शूल-धर, डमरु-शर-चाप-कर, यान वृषभेश, करुणा-निधानं।

जरत सुर-असुर, नरलोक शोकाकुलं, मृदुलचित, अजित, कृत गरलपानं ॥ ५ ॥

भस्म तनु-भूषणं, व्याघ्र-चर्माम्बरं, उरग-नर-मौलि उर मालधारी।

डाकिनी, शाकिनी, खेचरं, भूचरं, यंत्र-मंत्र-भंजन, प्रबल कल्मषारी ॥ ६ ॥

काल-अतिकाल, कलिकाल, व्यालादि-खग, त्रिपुर-मर्दन, भीम-कर्म भारी।

सकल लोकान्त-कल्पान्त शूलाग्र कृत दिग्गजाव्यक्त-गुण नृत्यकारी ॥ ७ ॥

पाप-संताप-घनघोर संसृति दीन, भ्रमत जग योनि नहिं कोपि त्राता।

पाहि भैरव-रूप राम-रूपी रुद्र, बंधु, गुरु, जनक, जननी, विधाता ॥ ८ ॥

यस्य गुण-गण गणति विमल मति शारधा, निगम नारद-प्रमुख ब्रह्मचारी।

शेष, सर्वेश, आसीन आनंदवन, दास टुलसी प्रणत-त्रासहारी ॥ ९ ॥

१२

सदा-

शंकरं, शंप्रदं, सज्जनानंददं, शैल-कन्या-वरं, परमरम्यं।

काम-मदमोचनं, तामरस-लोचनं, वामदेवं भजे भावगम्यं ॥ १ ॥

कंबु-कुंदेंदु-कर्पूर-गौरं शिवं, सुंदरं, सच्चिदानंदकंदं।

सिद्ध-सनकादि-योगींद्र-वृंदारका, विष्णु-विधि-वन्द्य चरणारविंदं ॥ २ ॥

ब्रह्म-कुल-वल्लभं, सुलभ मति दुर्लभं, विकट-वेषं, विभुं, वेदपारं।

नौमि करुणाकरं, गरल-गंगाधरं, निर्मलं, निर्गुणं, निर्विकारं ॥ ३ ॥

लोकनाथं, शोक-शूल-निर्मूलिनं, शूलिनं मोह-तम-भूरि-भानुं।

कालकालं, कलातीतमजरं हरं, कठिन-कलिकाल-कानन-कृशानुं ॥ ४ ॥

तज्ञमज्ञान-पाथोधि-घटसंभवं, सर्वगं, सर्वसौभाग्यमूलं।

प्रचुर-भव-भंजनं, प्रणत-जन-रंजनं, दास तुलसी शरण सानुकूलं ॥ ५ ॥

राग वसन्त

१३

सेवहु सिव-चरन-सरोज-रेनु। कल्यान-अखिल-प्रद कामधेनू ॥ १ ॥

कर्पूर-गौर, करुना-उदार। संसार-सार, भुजगेन्द्र-हार ॥ २ ॥

सुख-जन्मभूमि, महिमा अपार। निर्गुन, गुननायक, निराकार ॥ ३ ॥

त्रयनयन, मयन-मर्दन महेस। अहँकार निहार-उदित दिनेस ॥ ४ ॥

बर बाल निसाकर मौलि भ्राज। त्रैलोक-सोकहर प्रमथराज ॥ ५ ॥

जिन्ह कहँ बिधि सुगति न लिखी भाल। तिन्ह की गति कासीपति कृपाल ॥ ६ ॥

उपकारी कोऽपर हर-समान। सुर-असुर जरत कृत गरल पान ॥ ७ ॥

बहु कल्प उपायन करि अनेक। बिनु संभु-कृपा नहिं भव-बिबेक ॥ ८ ॥

बिग्यान-भवन, गिरिसुता-रमन। कह तुलसिदास मम त्राससमन ॥ ९ ॥

१४

देखो देखो, बन बन्यो आजु उमाकंत। मानों देखन तुमहिं आई रितु बसंत ॥ १ ॥

जनु तनुदुति चंपक-कुसुम-माल। बर बसन नील नूतन तमाल ॥ २ ॥

कलकदलि जंघ, पद कमल लाल। सूचत कटि केहरि, गति मराल ॥ ३ ॥

भूषन प्रसून बहु बिबिध रंग। नूपूर किंकिनि कलरव बिहंग ॥ ४ ॥

कर नवल बकुल-पल्लव रसाल। श्रीफल कुच, कंचुकिलता-जाल ॥ ५ ॥

आनन सरोज, कच मधुप गुंज। लोचन बिसाल नव नील कंज ॥ ६ ॥

पिक बचन चरित बर बर्हि कीर। सित सुमन हास, लीला समीर ॥ ७ ॥

कह तुलसिदास सुनु सिव सुजान। उर बसि प्रपंच रचे पंचबान ॥ ८ ॥

करि कृपा हरिय भ्रम-फंद काम। जेहि हृदय बसहिं सुखरासि राम ॥ ९ ॥

देवी-स्तुति

राग मारू

१५

दुसह दोष-दुख, दलनि, करु देवि दाया।

विश्व-मूलाऽसि, जन-सानुकूलाऽसि, कर शूलधारिणि महामूलमाया ॥ १ ॥

तडित गर्भाङ्ग सर्वाङ्ग सुन्दर लसत, दिव्य पट भव्य भूषण विराजैं।

बालमृग-मंजु खंजन-विलोचनि, चन्द्रवदनि लखि कोटि रतिमार लाजैं ॥ २ ॥

रूप-सुख-शील-सीमाऽसि, भीमाऽसि, रामाऽसि, वामाऽसि वर बुद्धि बानी।

छमुख हेरंब-अंबासि, जगदंबिके, शंभु-जायासि जय जय भवानी ॥ ३ ॥

चंड-भुजदंड-खंडनि, बिहंडनि महिष मुंड-मद-भंग कर अंग तोरे।

शुंभ-निःशुंभ कुम्भीश रण-केशरिणि, क्रोध-वारीश अरि-वृन्द बोरे ॥ ४ ॥

निगम-आगम-अगम गुर्वि!तव गुन-कथन, उर्विधर करत जेहि सहसजीहा।

देहि मा, मोहि पन प्रेम यह नेम निज, राम घनश्याम तुलसी पपीहा ॥ ५ ॥

राग रामकली

१६

जय जय जगजननि देवि सुर-नर-मुनि-असुर-सेवि,

भुक्ति-मुक्ति-दायनी, भय-हरणि कालिका।

मंगल-मुद-सिद्धि-सदनि, पर्वशर्वरीश-वदनि,

ताप-तिमिर-तरुण-तरणि-किरणमालिका ॥ १ ॥

वर्म, चर्म कर कृपाण, शूल-शेल-धनुषबाण,

धरणि, दलनि दानव-दल, रण-करालिका।

पूतना-पिंशाच-प्रेत-डाकिनी-शाकिनी-समेत,

भूत-ग्रह-बेताल-खग-मृगालि-जालिका ॥ २ ॥

जय महेश-भामिनी, अनेक-रूप-नामिनी,

समस्त-लोक-स्वामिनी, हिमशैल-बालिका।

रघुपति-पद परम प्रेम, तुलसी यह अचल नेम,

देहु ह्वै प्रसन्न पाहि प्रणत-पालिका ॥ ३ ॥

गंगा-स्तुति

राग रामकली

१७

जय जय भगीरथनन्दिनि, मुनि-चय चकोर-चन्दिनि,

नर-नाग-बिबुध-बन्दिनि जय जह्नु बालिका।

बिस्नु-पद-सरोजजासि, ईस-सीसपर बिभासि,

त्रिपथगासि, पुन्यरासि, पाप-छालिका ॥ १ ॥

बिमल बिपुल बहसि बारि, सीतल त्रयताप-हारि,

भँवर बर बिभंगतर तरंग-मालिका।

पुरजन पूजोपहार, सोभित ससि धवलधार,

भंजन भव-भार, भक्ति-कल्पथालिका ॥ २ ॥

निज तटबासी बिहंग, जल-थल-चर पसु-पतंग,

कीट, जटिल तापस सब सरिस पालिका।

तुलसी तव तीर तीर सुमिरत रघुबंस-बीर,

बिचरत मति देहि मोह-महिष-कालिका ॥ ३ ॥

१८

जयति जय सुरसरी जगदखिल-पावनी।

विष्णु-पदकंज-मकरंद इव अम्बुवर वहसि, दुख दहसि, अघवृन्द-विद्राविनी ॥ १ ॥

मिलितजलपात्र-अजयुक्त-हरिचरणरज, विरज-वर-वारि त्रिपुरारि शिर-धामिनी।

जह्नु-कन्या धन्य, पुण्यकृत सगर-सुत, भूधरद्रोणि-विद्दरणि, बहुनामिनी ॥ २ ॥

यक्ष, गंधर्व, मुनि, किन्नरोरग, दनुज, मनुज मज्जहिं सुकृत-पुंज युत-कामिनी।

स्वर्ग-सोपान, विज्ञान-ज्ञानप्रदे, मोह-मद-मदन-पाथोज-हिमयामिनी ॥ ३ ॥

हरित गंभीर वानीर दुहुँ तीरवर, मध्य धारा विशद, विश्व अभिरामिनी।

नील-पर्यक-कृत-शयन सर्पेश जनु, सहस सीसावली स्त्रोत सुर-स्वामिनी ॥ ४ ॥

अमित-महिमा, अमितरूप, भूपावली-मुकुट-मनिवंद्य त्रेलोक पथगामिनी।

देहि रघुबीर-पद-प्रीति निर्भर मातु, दासतुलसी त्रासहरणि भवभामिनी ॥ ५ ॥

१९

हरनि पाप त्रिबिध ताप सुमिरत सुरसरित।

बिलसति महि कल्प-बेलि मुद-मनोरथ-फरित ॥ १ ॥

सोहत ससि धवल धार सुधा-सलिल-भरित।

बिमलतर तरंग लसत रघुबरके-से चरित ॥ २ ॥

तो बिनु जगदंब गंग कलिजुग का करित ?

घोर भव अपारसिंधु तुलसी किमि तरित ॥ ३ ॥

२०

ईस-सीस बससि, त्रिपथ लससि, नभ-पताल-धरनि।

सुर-नर-मुनि-नाग-सिद्ध-सुजन मंगल-करनि ॥ १ ॥

देखत दुख-दोष-दुरित-दाह-दारिद-दरनि।

सगर-सुवन साँसति-समनि, जलनिधि जल भरनि ॥ २ ॥

महिमाकी अवधि करसि बहु बिधि हरि-हरनि।

तुलसी करु बानि बिमल, बिमल बारि बरनि ॥ ३ ॥

यमुना-स्तुति

राग बिलावल

२१

जमुना यों ज्यों ज्यों लागी बाढ़न।

त्यों त्यों सुकृत-सुभट कलि भूपहिं, निदरि लगे बहु काढ़न ॥ १ ॥

ज्यों ज्यों जल मलीन त्यों त्यों जमगन मुख मलीन लहै आढ़ न।

तुलसिदास जगदघ जवास ज्यों अनघमेघ लगे डाढ़न ॥ २ ॥

काशी-स्तुति

राग भैरव

२२

सेइअ सहित सनेह देह भरि, कामधेनु कलि कासी।

समनि सोक-संताप-पाप-रुज, सकल-सुमंगल-रासी ॥ १ ॥

मरजादा चहुँओर चरनबर, सेवत सुरपुर-बासी।

तीरथ सब सुभ अंग रोम सिवलिंग अमित अबिनासी ॥ २ ॥

अंतराइन ऐन भल, थन फल, बच्छ बेद-बिस्वासी।

गलकंबल बरुना बिभाति जनु, लूम लसति, सरिताऽसी ॥ ३ ॥

दंडपानि भैरव बिषान, मलरुचि-खलगन-भयदा-सी।

लोलदिनेस त्रिलोचन लोचन, करनघंट घंटा-सी ॥ ४ ॥

मनिकर्निका बदन-ससि सुंदर, सुरसरि-सुख सुखमा-सी।

स्वारथ परमारथ परिपूरन, पंचकोसि महिमा-सी ॥ ५ ॥

बिस्वनाथ पालक कृपालुचित, लालति नित गिरिजा-सी।

सिद्धि सची, सारद पूजहिं मन जोगवति रहति रमा-सी ॥ ६ ॥

पंचाच्छरी प्रान, मुद माधव, गब्य सुपंचनदा-सी।

ब्रह्म-जीव-सम रामनाम जुग, आखर बिस्व बिकासी ॥ ७ ॥

चारितु चरति करम कुकरम करि, मरत जीवगन घासी।

लहत परमपद पय पावन , जेहि चहत प्रपंच-उदासी ॥ ८ ॥

कहत पुरान रची केसव निज कर-करतूति कला-सी।

तुलसी बसि हरपुरी राम जपु, जो भयो चहै सुपासी ॥ ९ ॥

चित्रकूट-स्तुति

राग बसन्त

२३

सब सोच-बिमोचन चित्रकूट। कलिहरन, करन कल्यान बूट ॥ १ ॥

सुचि अवनि सुहावनि आलबाल। कानन बिचित्र, बारी बिसाल ॥ २ ॥

मंदाकिनि-मालिनि सदा सींच। बर बारि, बिषम नर-नारि नीच ॥ ३ ॥

साखा सुसृंग, भूरुह-सुपात। निरझर मधुबर, मृदु मलय बात ॥ ४ ॥

सुक, पिक, मधुकर, मुनिबर बिहारु। साधन प्रसून फल चारि चारु ॥ ५ ॥

भव-घोरघाम-हर सुखद छाँह। थप्यो थिर प्रभाव जानकी-नाह ॥ ६ ॥

साधक-सुपथिक बडे भाग पाइ। पावत अनेक अभिमत अघाइ ॥ ७ ॥

रस एक, रहित-गुन-करम-काल। सिय राम लखन पालक कृपाल ॥ ८ ॥

तुलसी जो राम पद चहिय प्रेम। सेइय गिरि करि निरुपाधि नेम ॥ ९ ॥

राग कान्हरा

२४

अब चित चेति चित्रकूटहि चलु।

कोपित कलि, लोपित मंगल मगु, बिलसत बढ़त मोह-माया-मलु ॥ १ ॥

भूमि बिलोकु राम-पद-अंकित, बन बिलोकु रघुबर-बिहारथलु।

सैल-सृंग भवभंग-हेतु लखु, दलन कपट-पाखंड-दंभ-डलु ॥ २ ॥

जहँ जनमे जग-जनक जगपति, बिधि-हरि परिहरि प्रपंच छलु।

सकृत प्रबेस करत जेहि आस्रम, बिगत-बिषाद भये पारथ नलु ॥ ३ ॥

न करु बिलंब बिचारु चारुमति, बरष पाछिले सम अगिले पलु।

मंत्र सो जाइ जपहि, जो जपि भे, अजर अमर हर अचइ हलाहलु ॥ ४ ॥

रामनाम-जप जाग करत नित, मज्जत पय पावन पीवत जलु।

करिहैं राम भावतौ मनकौ, सुख-साधन, अनयास महाफलु ॥ ५ ॥

कामदमनि कामता, कलपतरु सो जुग-जुग जागत जगतीतलु।

तुलसी तोहि बिसेषि बूझिये, एक प्रतीति प्रीति एकै बलु ॥ ६ ॥

हनुमत-स्तुति

राग धनाश्री

२५

जयत्यंजनी-गर्भ-अंभोधि-संभूत विधु विबुध-कुल-कैरवानंदकारी।

केसरी-चारु-लोचन चकोरक-सुखद, लोकगन-शोक-संतापहारी ॥ १ ॥

जयति जय बालकपि केलि-कौतुक उदित-चंडकर-मंडल-ग्रासकर्त्ता।

राहु-रवि-शक्र-पवि-गर्व-खर्वीकरण शरण-भयहरण जय भुवन-भर्ता ॥ २ ॥

जयति रणधीर, रघुवीरहित, देवमणि, रुद्र-अवतार, संसार-पाता।

विप्र-सुर-सिद्ध-मुनि-आशिषाकारवपुष, विमलगुण, बुद्धि-वारिधि-विधाता ॥ ३ ॥

जयति सुग्रीव-ऋक्षादि-रक्षण-निपुण, बालि-बलशालि-बध-मुख्यहेतू।

जलधि-लंघन सिंह सिंहिंका-मद-मथन, रजनिचर-नगर-उत्पात-केतू ॥ ४ ॥

जयति भूनन्दिनी-शोच-मोचन विपिन-दलन घननादवश विगतशंका।

लूमलीलाऽनल-ज्वालमालाकुलित होलिकाकरण लंकेश-लंका ॥ ५ ॥

जयति सौमित्र रघुनंदनानंदकर, ऋक्ष-कपि-कटक-संघट-विधायी।

बद्ध-वारिधि-सेतु अमर-मंगल-हेतु, भानुकुलकेतु-रण-विजयदायी ॥ ६ ॥

जयति जय वज्रतनु दशन नख मुख विकट, चंड-भुजदंड तरु-शैल-पानी।

समर-तैलिक-यंत्र तिल-तमीचर-निकर, पेरि डारे सुभट घालि घानी ॥ ७ ॥

जयति दशकंठ-घटकर्ण-वारिद-नाद-कदन-कारन, कालनेमि-हंता।

अघटघटना-सुघट सुघट-विघटन विकट, भूमि-पाताल-जल-गगन-गंता ॥ ८ ॥

जयति विश्व-विख्यात बानैत-विरुदावली, विदुष बरनत वेद विमल बानी।

दास तुलसी त्रास शमन सीतारमण संग शोभित राम-राजधानी ॥ ९ ॥

२६

जयति मर्कटाधीश , मृगराज-विक्रम, महादेव, मुद-मंगलालय, कपाली।

मोह-मद-क्रोध-कामादि-खल-संकुला, घोर संसार-निशि किरणमाली ॥ १ ॥

जयति लसदंजनाऽदितिज, कपि-केसरी-कश्यप-प्रभव, जगदार्त्तिहर्त्ता।

लोक-लोकप-कोक-कोकनद-शोकहर, हंस हनुमान कल्यानकर्ता ॥ २ ॥

जयति सुविशाल-विकराल-विग्रह, वज्रसार सर्वांग भुजदण्ड भारी।

कुलिशनख, दशनवर लसत, बालधि बृहद, वैरि-शस्त्रास्त्रधर कुधरधारी ॥ ३ ॥

जयति जानकी-शोच-संताप-मोचन, रामलक्ष्मणानंद-वारिज-विकासी।

कीस-कौतुक-केलि-लूम-लंका-दहन, दलन कानन तरुण तेजरासी ॥ ४ ॥

जयति पाथोधि-पाषाण-जलयानकर, यातुधान-प्रचुर-हर्ष-हाता।

दुष्टरावण-कुंभकर्ण-पाकारिजित-मर्मभित्, कर्म-परिपाक-दाता ॥ ५ ॥

जयति भुवननैकभूषण, विभीषणवरद, विहित कृत राम-संग्राम साका।

जयति पर-यत्रंमंत्राभिचार-ग्रसन, कारमन-कूट-कृत्यादि-हंता।

शाकिनी-डाकिनी-पूतना-प्रेत-वेताल-भूत-प्रमथ-यूथ-यंता ॥ ७ ॥

पुष्पकारूढ़ सौमित्रि-सीता-सहित, भानु-कुलभानु-कीरति-पताका ॥

जयति वेदान्तविद विविध-विद्या-विशद, वेद-वेदांगविद ब्रह्मवादी।

ज्ञान- विज्ञान-वैराग्य-भाजन विभो, विमल गुण गनति शुकनारदादी ॥ ८ ॥

जयति काल-गुण-कर्म-माया-मथन, निश्चलज्ञान, व्रत-सत्यरत, धर्मचारी।

सिद्ध-सुरवृंद-योगींद्र-सेवति सदा, दास तुलसी प्रणत भय-तमारी ॥ ९ ॥

२७

जयति मंगलागार, संसारभारापहर, वानराकारविग्रह पुरारी।

राम-रोषानल-ज्वालमाला-मिष ध्वांतर-सलभ-संहारकारी ॥ १ ॥

जयति मरुदंजनामोद-मंदिर, नतग्रीव सुग्रीव-दुखःखैकबंधो।

यातुधानोद्धत-क्रुद्ध-कालाग्निहर, सिद्ध-सुर-सज्जनानंद-सिंधो ॥ २ ॥

जयति रुद्राग्रणी, विश्व-वंद्याग्रणी, विश्वविख्यात-भट-चक्रवर्ती।

सामगाताग्रणी, कामजेताग्रणी, रामहित, रामभक्तानुवर्ती ॥ ३ ॥

जयतिसंग्रामजय, रामसंदेसहर, कौशला-कुशल-कल्याणभाषी।

राम-विरहार्क-संतप्त-भरतादि-नरनारि-शीतलकरण कल्पशाषी ॥ ४ ॥

जयति सिंहासनासीन सीतारमण, निरखि निर्भरहरण नृत्यकारी।

राम संभ्राज शोभा-सहित सर्वदा तुलसिमानस-रामपुर-विहारी ॥ ५ ॥

२८

जयति वात-संजात, विख्यात विक्रम, बृहद्बाहु, बलबिपुल, बालधिबिसाला।

जातरूपाचलाकारविग्रह, लसल्लोम विद्युल्लता ज्वालमाला ॥ १ ॥

जयति बालार्क वर-वदन, पिंगल-नयन, कपिश-कर्कश-जटाजूटधारी।

विकट भृकुटी, वज् दशन नख, वैरि-मदमत्त-कुंजर-पुंज-कुंजरारी ॥ २ ॥

जयति भीमार्जुन-व्यालसूदन-गर्वहर, धनंजय-रथ-त्राण-केतू।

भीष्म-द्रोण-कर्णादि-पालित, कालदृक सुयोधन-चमू-निधन-हेतू ॥ ३ ॥

जयति गतराजदातार, हंतार संसार-संकट, दनुज-दर्पहारी।

ईति-अति-भीति-ग्रह-प्रेत-चौरानल-व्याधिबाधा-शमन घोर मारी ॥ ४ ॥

जयति निगमागम व्याकरण करणलिपि, काव्यकौतुक-कला-कोटि-सिंधो।

सामगायक, भक्त-कामदायक, वामदेव, श्रीराम-प्रिय-प्रेम बंधो ॥ ५ ॥

जयति घर्माशु-संदग्ध-संपाति-नवपक्ष-लोचन-दिव्य-देहदाता।

कालकलि-पापसंताप-संकुल सदा, प्रणत तुलसीदास तात-माता ॥ ६ ॥

२९

जयति निर्भरानंद-संदोह कपिकेसरी, केसरी-सुवन भुवनैकभर्ता।

दिव्यभूम्यंजना-मंजुलाकर-मणे, भक्त-संताप-चिंतापहर्ता ॥ १ ॥

जयति धमार्थ-कामापवर्गद, विभो ब्रह्मलोकादि-वैभव-विरागी।

वचन-मानस-कर्म सत्य-धर्मव्रती, जानकीनाथ-चरणानुरागी ॥ २ ॥

जयति बिहगेश-बलबुद्धि-बेगाति-मद-मथन, मनमथ-मथन, ऊर्ध्वरेता।

महानाटक-निपुन, कोटि-कविकुल-तिलक, गानगुण-गर्व-गंधर्व-जेता ॥ ३ ॥

जयति मंदोदरी-केश-कर्षण, विद्यमान दशकंठ भट-मुकुट मानी।

भूमिजा-दुःख-संजात रोषांतकृत-जातनाजंतु कृत जातुधानी ॥ ४ ॥

जयति रामायण-श्रवण-संजात-रोमांच, लोचन सजल, शिथिल वाणी।

रामपदपद्म-मकरंद-मधुकर पाहि, दास तुलसी शरण, शूलपाणी ॥ ५ ॥

राग सारंग

३०

जाके गति है हनुमानकी।

ताकी पैज पूजि आई, यह रेखा कुलिस पषानकी ॥ १ ॥

अघटित-घटन, सुघट-बिघटन, ऐसी बिरुदावलि नहिं आनकी।

सुमिरत संकट-सोच-बिमोचन, मूरति मोद-निधानकी ॥ २ ॥

तापर सानुकूल गिरिजा, हर, लषन, राम अरु जानकी।

तुलसी कपिकी कृपा-बिलोकनि, खानि सकल कल्यानकी ॥ ३ ॥

राग गौरी

३१

ताकिहै तमकि ताकी ओर को।

जाको है सब भाँति भरोसो कपि केसरी-किसोरको ॥ १ ॥

जन-रंजन अरिगिन-गंजन मुख-भंजन खल बरजोरको।

बेद-पुरान-प्रगट पुरुषारथ सकल-सुभट-सिरमोर को ॥ २ ॥

उथपे-थपन, थपे उथपन पन, बिबुधबृंद बँदिछोर को।

जलधि लाँघि दहि लंक प्रबल बल दलन निसाचर घोर को ॥ ३ ॥

जाको बालबिनोद समुझि जिय डरत दिवाकर भोरको।

जाकी चिबुक-चोट चूरन किय रद-मद कुलिस कठोरको ॥ ४ ॥

लोकपाल अनुकूल बिलोकिवो चहत बिलोचन-कोरको।

सदा अभय, जय, मुद-मंगलमय जो सेवक रनरोरको ॥ ५ ॥

भगत-कामतरु नाम राम परिपूरन चंद चकोरको।

तुलसी फल चारो करतल जस गावत गईबहोर को ॥ ६ ॥

राग बिलावल

३२

ऐसी तोही न बूझिये हनुमान हठीले।

साहेब कहूँ न रामसे , तोसे न उसीले ॥ १ ॥

तेरे देखत सिंहके सिसु मेंढक लीले।

जानत हौं कलि तेरेऊ मन गुनगन कीले ॥ २ ॥

हाँक सुनत दसकंधके भये बंधन ढीले।

सो बल गयो किधौं भये अब गरबगहीले ॥ ३ ॥

सेवकको परदा फटे तू समरथ सीले।

अधिक आपुते आपुनो सुनि मान सही ले ॥ ४ ॥

साँसति तुलसीदासकी सुनि सुजस तुही ले।

तिहुँकाल तिनको भलौं जे राम-रँगीले ॥ ५ ॥

३३

समरथ सुअन समीरके, रघुबीर-पियारे।

मोपर कीबी तोहि जो करि लेहि भिया रे ॥ १ ॥

तेरी महिमा ते चलै चिंचिनी-चिया रे।

अँधियारो मेरी बार क्यो, त्रिभुवन-उजियारे ॥ २ ॥

केहि करनी जन जानिकै सनमान किया रे।

केहि अघ औगुन आपने कर डारि दिया रे ॥ ३ ॥

खाई खोंची माँगि मैं तेरो नाम लिया रे।

तेरे बल, बलि, आजु लौं जग जागि जिया रे ॥ ४ ॥

जो तोसों होतौ फिरौं मेरो हेतु हिया रे।

तौ कयों बदन देखावतो कहि बचन इयारे ॥ ५ ॥

तोसो ग्यान-निधान को सरबग्य बिया रे।

हौं समुझत साई-द्रोहकी गति छार छिया रे ॥ ६ ॥

तेरे स्वामी राम से, स्वामिनी सिया रे।

तहँ तुलसीके कौनको काको तकिया रे ॥ ७ ॥

३४

अति आरत, अति स्वारथी, अति दीन-दुखारी।

इनको बिलगु न मानिये, बोलहिं न बिचारी ॥ १ ॥

लोक-रीति देखी सुनी, व्याकुल नर-नारी।

अति बरषे अनबरषेहूँ, देहिं दैवहिं गारी ॥ २ ॥

नाकहि आये नाथसों, साँसति भय भारी।

कहि आयो, कीबी छमा, निज ओर निहारी ॥ ३ ॥

समै साँकरे सुमिरिये, समरथ हितकारी।

सो सब बिधि ऊबर करै, अपराध बिसारी ॥ ४ ॥

बिगरी सेवककी सदा, साहेबहिं सुधारी।

तुलसीपर तेरी कृपा, निरुपाधि निरारी ॥ ५ ॥

३५

कटु कहिये गाढे परे, सुनि समुझि सुसाईं।

करहिं अनभलेउ को भलो, आपनी भलाई ॥ १ ॥

समरथ सुभ जो पाइये, बीर पीर पराई।

ताहि तकैं सब ज्यों नदी बारिधि न बुलाई ॥ २ ॥

अपने अपनेको भलो, चहैं लोग लुगाई।

भावै जो जेहि तेहि भजै, सुभ असुभ सगाई ॥ ३ ॥

बाँह बोलि दै थापिये, जो निज बरिआई।

बिन सेवा सों पालिये, सेवककी नाईं ॥ ४ ॥

चूक-चपलता मेरियै, तू बड़ो बड़ाई।

होत आदरे ढीठ है, अति नीच निचाई ॥ ५ ॥

बंदिछोर बिरुदावली, निगमागम गाई।

नीको तुलसीदासको, तेरियै निकाई ॥ ६ ॥

रा गौरी

३६

मंगल-मूरति मारुत-नंदन। सकल-अमंगल-मूल-निकंदन ॥ १ ॥

पवनतनय संतन हितकारी। ह्रदय बिराजत अवध-बिहारी ॥ २ ॥

मातु-पिता, गुरु, गनपति, सारद। सिवा समेत संभु, सुक, नारद ॥ ३ ॥

चरन बंदि बिनवौं सब काहू। देहु रामपद-नेह-निबाहू ॥ ४ ॥

बंदौं राम-लखन-बैदेही। जे तुलसीके परम सनेही ॥ ५ ॥

 

लक्ष्मण-स्तुति

दण्डक

३७

लाल लाडिले लखन, हित हौ जनके।

सुमिरे संकटहारी, सकल सुमंगलकारी,

पालक कृपालु अपने पनके ॥ १ ॥

धरनी-धरनहार भंजन-भुवनभार,

अवतार साहसी सहसफनके ॥

सत्यसंध, सत्यब्रत, परम धरमरत,

निरमल करम बचन अरु मन के ॥ २ ॥

रूपके निधान, धनु-बान पानि,

तून कटि, महाबीर बिदित, जितैया बड़े रनके ॥

सेवक-सुख-दायक, सबल, सब लायक,

गायक जानकीनाथ गुनगनके ॥ ३ ॥

भावते भरत के, सुमित्रा-सीताके दुलारे,

चातक चतुर राम स्याम घनके ॥

बल्लभ उरमिलाके, सुलभ सनेहबस,

धनी धन तुलसीसे निरधनके ॥ ४ ॥

राग धनाश्री

३८

जयति

लक्ष्मणानंत भगवंत भूधर, भुजग-

राज, भुवनेश, भूभारहारी।

प्रलय-पावक-महाज्वालमाला-वमन,

शमन-संताप लीलावतारी ॥ १ ॥

जयति दाशरथि, समर-समरथ, सुमित्रा-

सुवन, शत्रुसूदन, राम-भरत-बंधो।

चारु-चंपक-वरन, वसन-भूषन-धरन,

दिव्यतर, भव्य, लावण्य-सिधों ॥ २ ॥

जयति गाधेय-गौतम-जनक-सुख-जनक,

विश्व-कंटक-कुटिल-कोटि-हंता।

वचन-चय-चातुरी-परशुधर-गरबहर,

सर्वदा रामभद्रानुगंता ॥ ३ ॥

जयति सीतेश-सेवासरस, बिषयरस-

निरस, निरुपाधि धुरधर्मधारी।

विपुलबलमूल शार्दूलविक्रम जलद-

नाद-मर्दन, महावीर भारी ॥ ४ ॥

जयति संग्राम-सागर-भयंकर-तरन,

रामहित-करण वरबाहु-सेतु।

उर्मिला-रवन, कल्याण-मंगल-भवन,

दासतुलसी-दोष-दवन-हेतू ॥ ५ ॥

भरत-स्तुति

३९

जयति

भूमिजा-रमण-पदकंज-मकरंद-रस-

रसिक-मधुकर भरत भूरिभागी।

भुवन-भूषण, भानुवंश-भूषण, भूमिपाल-

मनि रामचंद्रानुरागी ॥ १ ॥

जयति विबुधेश-धनदादि-दुर्लभ-महा-

राज-संम्राज-सुख-पद-विरागी।

खड्ग-धाराव्रती-प्रथमरेखा प्रकट

शुद्धमति-युवति पति-प्रेमपागी ॥ २ ॥

जयति निरुपाधि-भक्तिभाव-यंत्रित-ह्रदय ,

बंधु-हित चित्रकुटाद्रि-चारी।

पादुका-नृप-सचिव, पुहुमि-पालक परम

धरम-धुर-धीर, वरवीर भारी ॥ ३ ॥

जयति संजीवनी-समय-संकट हनूमान

धनुबान-महिमा बखानी।

बाहुबल बिपुल परमिति पराक्रम अतुल,

गूढ गति जानकी-जानि जानी ॥ ४ ॥

जयति रण-अजिर गन्धर्व-गण-गर्वहर,

फिर किये रामगुणगाथ-गाता।

माण्डवी-चित्त-चातक-नवांबुद-बरन,

सरन तुलसीदास अभय दाता ॥ ५ ॥

शत्रुघ्न-स्तुति

राग धनाश्री

४०

जयति जय शत्रु-करि-केसरी शत्रुहन,

शत्रुतम-तुहिनहर किरणकेतू।

देव-महिदेव-महि-धेनु-सेवक सुजन-

सिद्धि-मुनि-सकल-कल्याण-हेतू ॥ १ ॥

जयति सर्वांगसुदंर सुमित्रा-सुवन,

भुवन-विख्यात-भरतानुगामी।

वर्मचर्मासी-धनु-बाण-तूणीर-धर

शत्रु-संकट-समय यत्प्रणामी ॥ २ ॥

जयति लवणाम्बुनिधि-कुंभसंभव महा-

दनुज-दुर्जनदवन, दुरितहारि।

लक्ष्मणानुज, भरत-राम-सीता-चरण-

रेणु-भूषित-भाल-तिलकधारी ॥ ३ ॥

जयति श्रुतिकीर्ति-वल्लभ सुदुर्लभ सुलभ

नमत नर्मद भुक्तिमुक्तिदाता।

दासतुलसी चरण-शरण सीदत विभो,

पाहि दीनार्त्त-संताप-हाता ॥ ४ ॥

श्रीसीता-स्तुति*

राग केदारा

४१

कबहुँक अंब, अवसर पाइ।

मेरिऔ सुधि द्याइबी, कछु करुन-कथा चलाइ ॥ १ ॥

दीन, सब अँगहीन, छीन, मलीन, अघी अघाइ।

नाम लै भरै उदर एक प्रभु-दासी-दास कहाइ ॥ २ ॥

बूझिहैं 'सो है कोन', कहिबी नाम दसा जनाइ।

सुनत राम कृपालुके मेरी बिगरीऔ बनि जाइ ॥ ३ ॥

जानकी जगजननि जनकी किये बचन सहाइ।

तरै तुलसीदास भव तव नाथ-गुन-गन गाइ ॥ ४ ॥

४२

कबहुँ समय सुधि द्ययाबी, मेरी मातु जानकी।

जन कहाइ नाम लेत हौं, किये पन चातक ज्यों, प्यास-प्रेम-पानकी ॥ १ ॥

सरल कहाई प्रकृति आपु जानिए करुना-निधानकी।

निजगुन, अरिकृत अनहितौ, दास-दोष सुरति चित रहत न दिये दानकी ॥

बानि बिसारनसील है मानद अमानकी।

तुलसीदास न बिसारिये, मन करम बचन जाके, सपनेहुँ गति न आनकी ॥

श्रीराम-स्तुति

४३

जयति

सच्चिदव्यापकानंद परब्रह्म-पद विग्रह-व्यक्त लीलावतारी।

विकल ब्रह्मादि, सुर, सिद्ध, संकोचवश, विमल गुण-गेह नर-देह-धारी। १।

जयति

कोशलाधीश कल्याण कोशलसुता, कुशल कैवल्य-फल चारु चारी।

वेद-बोधित करम-धरम-धरनीधेनु, विप्र-सेवक साधु-मोदकारी ॥ २ ॥

जयति ऋषि-मखपाल, शमन-सज्जन-साल, शापवश मुनिवधू-पापहारी।

भंजि भवचाप, दलि दाप भूपावली, सहित भृगुनाथ नतमाथ भारी ॥ ३ ॥

जयति धारमिक-धुर, धीर रघुवीर गुर-मातु-पितु-बंधु-वचनानुसारी।

चित्रकूटाद्रि विन्ध्याद्रि दंडकविपिन, धन्यकृत पुन्यकानन-विहारी ॥ ४ ॥

जयति पाकारिसुत-काक-करतूति-फलदानि खनि गर्त गोपित विराधा।

दिव्य देवी वेश देखि लखि निशिचरी जनु विडंबित करी विश्वबाधा ॥ ५ ॥

जयति खर-त्रिशिर-दूषण चतुर्दश-सहस-सुभट-मारीच-संहारकर्ता।

गृध्र-शबरी-भक्ति-विवश करुणासिंधु, चरित निरुपाधि, त्रिविधार्तिहर्ता ॥ ६ ॥

जयति मद-अंध कुकबंध बधि, बालि बलशालि बधि, करन सुग्रीव राजा।

सुभट मर्कट-भालु-कटक-संघट सजत, नमत पद रावणानुज निवाजा ॥ ७ ॥

जयति पाथोधि-कृत-सेतु कौतुक हेतु, काल-मन अगम लई ललकि लंका।

सकुल, सानुज, सदल दलित दशकंठ रण, लोक-लोकप किये रहित-शंका ॥ ८ ॥

जयति सौमित्रि-सीता-सचिव-सहित चले पुष्पकारुढ निज राजधानी।

दासतुलसी मुदित अवधवासी सकल, राम भे भूप वैदेहि रानी ॥ ९ ॥

४४

जयति

राज-राजेंद्र राजीवलोचन, राम

नाम कलि-कामतरु, साम-शाली।

अनय-अंभोधि-कुंभज, निशाचर-निकर-

तिमिर-घनघोर-खरकिरणमाली ॥ १ ॥

जयति मुनि-देव-नरदेव दसरत्थके ,

देव-मुनि-वंद्य किय अवध-वासी।

लोक नायक-कोक-शोक-संकट-शमन,

भानुकुल-कमल कानन-विकासी ॥ २ ॥

जयति शृंगार-सर तामरस-दामदुति-

देह, गुणगेह, विश्वोपकारी ॥ ।३ ॥

सकल सौभाग्य-सौंदर्य-सुषमारुप,

मनोभव कोटि गर्वापहारी ॥ ३ ॥

(जयति) सुभग सारंग सुनिखंग सायक शक्ति,

चारु चर्मासि वर वर्मधारी।

धर्मधुरधीर, रघुवीर, भुजबल अतुल, ।

हेलया दलित भूभार भारी ॥ ४ ॥

जयति कलधौत मणि-मुकुट, कुंडल, तिलक-

झलक भलि भाल, विधु-वदन-शोभा।

दिव्य भूषन, बसन पीत, उपवीत,

किय ध्यान कल्यान-भाजन न को भा ॥ ५ ॥

(जयति) भरत-सौमित्रि-शत्रुघ्न-सेवित, सुमुख,

सचिव-सेवक-सुखद, सर्वदाता ॥

अधम, आरत, दीन, पतित, पातक-पीन

सकृत नतमात्र कहि 'पाहि' पाता ॥ ६ ॥

जयति जय भुवन दसचारि जस जगमगत,

पुन्यमय, धन्य जय रामराजा।

चरित-सुरसरित कवि-मुख्य गिरि निःसरित,

पिबत, मज्जत मुदित सँत-समाजा ॥ ७ ॥

जयति वर्णाश्रमाचारपर नारि-नर,

सत्य-शम-दम-दया-दानशीला।

विगत दुख-दोष, संतोस सुख सर्वदा,

सुनत, गावत राम राजलीला ॥ ८ ॥

जयति वैराग्य-विज्ञान-वारांनिधे

नमत नर्मद, पाप-ताप-हर्ता।

दास तुलसी चरण शरण संशय-हरण,

देहि अवलंब वैदेहि-भर्ता ॥ ९ ॥

राग गौरी

४५

श्री रामचंद्र कृपालु भजु मन हरण भवभय दारुणं।

नवकंज-लोचन, कंज-मुख, कर-कंज, पद कंजारुणं ॥ १ ॥

कंदर्प अगणित अमित छवि, नवनिल नीरद सुंदरं।

पट पीत मानहु तड़ित रुचि शुचि नौमि जनक सुतावरं ॥ २ ॥

भजु दीनबंधु दिनेश दानव-दैत्य-वंश निकंदनं।

रघुनंद आनँदकंद कोशलचंद दशरथ-नंदनं ॥ ३ ॥

सिर मुकुट कुंडल तिलक चारु उदारु अंग विभूषणं।

आजानुभुज शर-चाप-धर, संग्राम-जित-खरदूषणं ॥ ४ ॥

इति वदति तुलसीदास शंकर-शेष-मुनि-मन-रंजनं।

मम ह्रदय कंज निवास करु कामादि खल-दल-गंजनं ॥ ५ ॥

राग रामकली

४६

सदा

राम जपु, राम जपु, राम जपु, राम जपु, राम जपु, मूढंअन बार बारं।

सकल सौभाग्य-सुख-खानि जिय जानि शठ, मानि विश्वास वद वेदसारं ॥

कोशलेन्द्र नव-नीलकंजाभतनु, मदन-रिपु-कंजह्रदि-चंचरीकं।

जानकीरवन सुखभवन भुवनैकप्रभु, समर-भंजन, परम कारुनीकं ॥ २ ॥

दनुज-वन धूमधुज, पीन आजानुभुज, दंड-कोदंडवर चंड बानं।

अरुनकर चरण मुख नयन राजीव, गुन-अयन, बहु मयन-शोभा-निधानं ॥ ३ ॥

वासनावृंद-कैरव-दिवाकर, काम-क्रोध-मद कंज-कानन-तुषारं।

लोभ अति मत्त नागेंद्र पंचानन भक्तहित हरण संसार-भारं ॥ ४ ॥

केशवं, क्लेशहं, केश-वंदित पद-द्वंद्व मंदाकिनी-मूलभूतं।

सर्वदानंद-संदोह, मोहापहं, घोर-संसार-पाथोधि-पोतं ॥ ५ ॥

शोक-संदेह-पाथोदपटलानिलं, पाप-पर्वत-कठिन-कुलिशरूपं।

संतजन-कामधुक-धेनु, विश्रामप्रद, नाम कलि-कलुष-भंजन अनूपं ॥ ६ ॥

धर्म-कल्पद्रुमाराम, हरिधाम-पथि संबलं, मूलमिदमेव एकं।

भक्ति-वैराग्यं विज्ञान-शम-दान-दम, नाम आधीन साधन अनेकं ॥ ७ ॥

तेन तप्तं, हुतं, दत्तमेवाखिलं, तेन सर्व कृतं कर्मजालं।

येन श्रीरामनामामृतं पानकृतमनिशमनवद्यमवलोक्य कालं ॥ ८ ॥

श्वपच, खल, भिल्ल, यवनादि हरिलोकगत, नामबल विपुल मति मल न परसी।

त्यागि सब आस, संत्रास, भवपास असि निसित हरिनाम जपु दासतुलसी ॥

४७

ऐसी आरती राम रघुबीरकी करहि मन।

हरन दुखदुंद गोबिंद आनन्दघन ॥ १ ॥

अचरचर रूप हरि, सरबगत, सरबदा बसत, इति बासना धूप दीजै।

दीप निजबोधगत-कोह-मद-मोह-तम, प्रौढऽभिमान चितबृति छीजै। २।

भाव अतिशय विशद प्रवर नैवेद्य शुभ श्रीरमण परम संतोषकारी।

प्रेम-तांबूल गत शूल संशय सकल, विपुल भव-बासना-बीजहारी। ३।

अशुभ-शुभकर्म-घृतपूर्ण दश वर्तिका, त्याग पावक, सतोगुण प्रकासं।

भक्ति-वैराग्य-विज्ञान दीपावली, अर्पि नीराजनं जगनिवासं ॥ ४ ॥

बिमल ह्रदि-भवन कृत शांति-पर्यक शुभ, शयन विश्राम श्रीरामराया।

क्षमा-करुणा प्रमुख तत्र परिचारिका, यत्र हरि तत्र नहिं भेद-माया। ५।

एहि

आरती-निरत सनकादि, श्रुति, शेष, शिव, देवरिषि, अखिलमुनि तत्व-दरसी

करै सोइ तरै, परिहरै कामादि मल, वदति इति अमलमति-दास तुलसी ॥ ६ ॥

४८

हरति सब आरती आरती रामकी।

दहन दुख-दोष, निरमूलिनी कामकी ॥ १ ॥

सुरभ सौरभ धूप दीपबर मालिका।

उड़त अघ-बिहँग सुनि ताल करतालिका ॥ २ ॥

भक्त-ह्रदि-भवन, अज्ञान-तम-हारिनी।

बिमल बिग्यानमय तेज-बिस्तारिनी ॥ ३ ॥

मोह-मद-कोह-कलि-कंज-हिमजामिनी।

मुक्तिकी दूतिका, देह-दुति दामिनी ॥ ४ ॥

प्रनत-जन-कुमुद-बन-इंदु-कर-जालिका।

तुलसि अभिमान-महिषेस बहु कालिका ॥ ५ ॥

हरिशंकरी पद

४९

देव-

दनुज-बन-दहन, गुन-गहन, गोविंद नंदादि-आनंद-दाताऽविनाशी।

शंभु, शिव, रुद्र, शंकर, भयंकर, भीम, घोर, तेजायतन, क्रोध-राशी ॥ १ ॥

अनँत, भगवंत-जगदंत-अंतक-त्रास-शमन, श्रीरमन, भुवनाभिरामं।

भूधराधीश जगदीश ईशान, विज्ञानघन, ज्ञान-कल्यान-धामं ॥ २ ॥

वामनाव्यक्त, पावन, परावर, विभो, प्रकट परमातमा, प्रकृति-स्वामी।

चंद्रशेखर, शूलपाणि, हर, अनघ, अज, अमित, अविछिन्न, वृशभेश-गामी ॥ ३ ॥

नीलजलदाभ तनु श्याम, बहु काम छवि राम राजीवलोचन कृपाला।

कबुं-कर्पूर-वपु धवल, निर्मल मौलि जटा, सुर-तटिनि, सित सुमन माला ॥ ४ ॥

वसन किंजल्कधर, चक्र-सारंग-दर-कंज-कौमोदकी अति विशाला।

मार-करि-मत्त-मृगराज, त्रैनैन, हर, नौमि अपहरण संसार-जाला ॥ ५ ॥

कृष्ण, करुणाभवन, दवन कालीय खल, विपुल कंसादि निर्वशकारी।

त्रिपुर-मद-भंगकर, मत्तगज-चर्मधर, अन्धकोरग-ग्रसन पन्नगारी ॥ ६ ॥

ब्रह्म, व्यापक, अकल, सकल, पर, परमहित, ग्यान, गोतीत, गुण-वृत्ति-हर्त्ता।

सिंधुसुत-गर्व-गिरि-वज्र, गौरीश, भव दक्ष-मख अखिल विध्वंसकर्त्ता ॥ ७ ॥

भक्तिप्रिय, भक्तजन-कामधुक धेनु, हरि हरण दुर्घट विकट विपति भारी।

सुखद, नर्मद, वरद, विरज, अनवघ्यऽखिल, विपिन-आनंद-वीथिन-विहारी

रुचिर हरिशंकरी नाम-मंत्रावली द्वंद्वदुख हरनि, आनंदखानी।

विष्णु-शिव-लोक-सोपान-सम सर्वदा वदति तुलसीदास विशद बानी ॥ ८ ॥

५०

देव-

भानुकुल-कमल-रवि, कोटि कंर्दप-छवि, काल-कलि-व्यालमिव वैनतेयं।

प्रबल भुजदंड परचंड-कोदंड-धर तूणवर विशिख बलमप्रमेयं ॥ १ ॥

अरुण राजीवदल-नयन, सुषमा-अयन, श्याम तन-कांति वर वारिदाभं।

तत्प कांचन-वस्त्र, शस्त्र-विद्या-निपुण, सिद्ध-सुर-सेव्य, पाथोजनाभं ॥

अखिल लावण्य-गृह, विश्व-विग्रह, परम प्रौढ, गुणगूढ़, महिमा उदारं।

दुर्धर्ष, दुस्तर, दुर्ग, स्वर्ग-अपवर्ग-पति, भग्न संसार-पादप कुठारं ॥ ३ ॥

शापवश मुनिवधू-मुक्तकृत, विप्रहित, यज्ञ-रक्षण-दक्ष, पक्षकर्ता।

जनक-नृप-सदसि शिवचाप-भंजन, उग्र भार्गवागर्व-गरिमापहर्ता ॥ ४ ॥

गुरु-गिरा-गौरवामर-सुदुस्त्यज राज्य त्यक्त, श्रीसहित सौमित्रि-भ्राता।

संग जनकात्मजा, मनुजमनुसृत्य अज, दुष्ट-वध-निरत, त्रैलोक्यत्राता ॥ ५ ॥

दंडकारण्य कृतपुण्य पावन चरण, हरण मारीच-मायाकुरंगं।

बालि बलमत्त गजराज इव केसरी, सुह्रद-सुग्रीव-दुख-राशि-भंगं ॥ ६ ॥

ऋक्ष, मर्कट विकट सुभट उभ्दट समर, शैल-संकाश रिपु त्रासकारी।

बद्धपाथोधि, सुर-निकर-मोचन, सकुल दलन दससीस-भुजबीस भारी ॥ ७ ॥

दुष्ट विबुधारि-संघात, अपहरण महि-भार, अवतार कारण अनूपं।

अमल, अनवद्य, अद्वैत, निर्गुण, सर्गुण, ब्रह्म सुमिरामि नरभूप-रूपं ॥ ८ ॥

शेष-श्रुति-शारदा-शंभु-नारद-सनक गनत गुन अंत नहीं तव चरित्रं।

सोइ राम कामारि-प्रिय अवधपति सर्वदा दासतुलसी-त्रास-निधि वहित्रं ॥ ९ ॥

५१

देव

जानकीनाथ, रघुनाथ, रागादि-तम-तरणि, तारुण्यतनु, तेजधामं।

सच्चिदानंद, आनंदकंदाकरं, विश्व-विश्राम, रामाभिरामं ॥ १ ॥

नीलनव-वारिधर-सुभग-शुभकांति, कटि पीत कौशेय वर वसनधारी।

रत्न-हाटक-जटित-मुकुट-मंडित-मौलि, भानु-शत-सदृश उद्योतकारी ॥ २ ॥

श्रवण कुंडल, भाल तिलक, भूरुचिर अति, अरुण अंभोज लोचन विशालं।

वक्र-अवलोक, त्रैलोक-शोकापहं, मार-रिपु-ह्रदय-मानस-मरालं ॥ ३ ॥

नासिका चारु सुकपोल, द्विज वज्रदुति, अधर बिंबोपमा, मधुरहासं।

कंठ दर, चिबुक वर, वचन गंभीरतर, सत्य-संकल्प, सुरत्रास-नासं ॥ ४ ॥

सुमन सुविचित्र नव तुलसिकादल-युतं मृदृल वनमाल उर भ्राजमानं।

भ्रमत आमोदवश मत्त मधुकर-निकर, मधुरतर मुखर कुर्वन्ति गानं ॥ ५ ॥

सुभग श्रीवत्स, केयूर, कंकण, हार, किंकणी-रटनि कटि-तट रसालं।

वाम दिसि जनकजासीन-सिंहासनं कनक-मृदुवल्लित तरु तमालं ॥ ६ ॥

आजानु भुजदंड कोदंड-मंडित वाम बाहु, दक्षिण पाणि बाणमेकं।

अखिल मुनि-निकर, सुर, सिद्ध, गंधर्व वर नमत नर नाग अवनिप अनेकं ॥

अनघ अविछिन्न, सर्वज्ञ, सर्वेश, खलु सर्वतोभद्र-दाताऽसमाकं।

प्रणतजन-खेद-विच्छेद-विद्या-निपुण नौमि श्रीराम सौमित्रिसाकं ॥ ८ ॥

युगल पदपद्म, सुखसद्म पद्मालयं, चिन्ह कुलिशादि शोभाति भारी।

हनुमंत-ह्रदि विमल कृत परममंदिर, सदातुलसी-शरण शोकहारी ॥

५२

देव-

कोशलाधीश, जगदीश, जगदेकहित, अमितगुण, विपुल विस्तार लीला।

गायंति तव चरित सुपवित्र श्रुति-शेष-शुक-शंभु-सनकादि मुनि मननशीला ॥ १ ॥

वारिचर-वपुष धरि भक्त-निस्तारपर, धरणिकृत नाव महिमातिगुर्वी।

सकल यज्ञांशमय उग्र विग्रह क्रोड़, मर्दि दनुजेश उद्धरण उर्वी ॥ २ ॥

कमठ अति विकट तनु कठिन पृष्ठोपरी, भ्रमत मंदर कंडु-सुख मुरारी।

प्रकटकृत अमृत, गो, इंदिरा, इंदु, वृंदारकावृंद-आनंदकारी ॥ ३ ॥

मनुज-मुनि-सिद्ध-सुर-नाग-त्रासक, दुष्ट दनुज द्विज-धर्म-मरजाद-हर्त्ता।

अतुल मृगराज-वपुधरित, विद्दरित अरि, भक्त प्रहलाद-अहलाद-कर्त्ता ॥ ४ ॥

छलन बलि कपट-वटुरूप वामन ब्रह्म, भुवन पर्यंत पद तीन करणं।

चरण-नख-नीर-त्रेलोक-पावन परम, विबुध-जननी-दुसह-शोक-हरणं ॥ ५ ॥

क्षत्रियाधीश-करिनिकर-नव-केसरी, परशुधर विप्र-सस-जलदरूपं।

बीस भुजदंड दससीस खंडन चंड वेग सायक नौमि राम भूपं ॥ ६ ॥

भूमिभर-भार-हर, प्रकट परमातमा, ब्रह्म नररूपधर भक्तहेतू।

वृष्णि-कुल-कुमुद-राकेश राधारमण, कंस-बंसाटवी-धूमकेतू ॥ ७ ॥

प्रबल पाखंड महि-मंडलाकुल देखि, निंद्यकृत अखिल मख कर्म-जालं।

शुद्ध बोधैकघन, ज्ञान-गुणधाम, अज बौद्ध-अवतार वंदे कृपालं ॥ ८ ॥

कालकलिजनित-मल-मलिनमन सर्व नर मोह निशि-निबिड़यवनांधकारं।

विष्णुयश पुत्र कलकी दिवाकर उदित दासतुलसी हरण विपतिभारं ॥ ९ ॥

५३

देव-

सकल सौभाग्यप्रद सर्वतोभद्र-निधि, सर्व, सर्वेश, सर्वाभिरामं।

शर्व-ह्रदि-कंज-मकरंद-मधुकर रुचिर-रूप, भूपालमणि नौमि रामं ॥ १ ॥

सर्वसुख-धाम गुणग्राम, विश्रामपद, नाम सर्वसंपदमति पुनीतं।

निर्मलं शांत, सुविशुद्ध, बोधायतन, क्रोध-मद-हरण, करुणा-निकेतं ॥ २ ॥

अजित, निरुपाधि, गोतीतमव्यक्त, विभुमेकमनवद्यमजमद्वितीयं।

प्राकृतं, प्रकट परमातमा, परमहित, प्रेरकानंत वंदे तुरीयं ॥ ३ ॥

भूधरं सुन्दरं, श्रीवरं, मदन-मद-मथन सौन्दर्य-सीमातिरम्यं।

दुष्प्राप्य, दुष्पेक्ष्य, दुस्तर्क्य, दुष्पार, संसारहर, सुलभ, मृदुभाव-गम्यं ॥

सत्यकृत, सत्यरत, सत्यव्रत, सर्वदा, पुष्ट, संतुष्ट, संकष्टहारी।

धर्मवर्मनि ब्रह्मकर्मबोधैक, विप्रपूज्य, ब्रह्मण्यजनप्रिय, मुरारी ॥ ५ ॥

नित्य, निर्मम, नित्यमुक्त, निर्मान, हरि, ज्ञानघन, सच्चिदानंद मूलं।

सर्वरक्षक सर्वभक्षकाध्यक्ष, कूटस्थ, गूढार्चि, भक्तानुकूलं ॥ ६ ॥

सिद्ध-साधक-साध्य, वाच्य-वाचकरूप, मंत्र-जापक-जाप्य, सृष्टि-स्त्रष्टा।

परम कारण, कञ्ञनाभ, जलदाभतनु, सगुण, निर्गुण, सकल दृश्य-द्रष्टा ॥ ७ ॥

व्योम-व्यापक, विरज, ब्रह्म, वरदेश, वैकुंठ, वामन विमल ब्रह्मचारी।

सिद्ध-वृंदारकावृंदवंदित सदा, खंडि पाखंड-निर्मूलकारी ॥ ८ ॥

पूरनानंदसंदोह, अपहरन संमोह-अज्ञान, गुण-सन्निपातं।

बचन-मन-कर्म-गत शरण तुलसीदास त्रास-पाथोधि इव कुंभजातं ॥ ९ ॥

५४

देव-

विश्व-विख्यात, विश्वेश, विश्वायतन, विश्वमरजाद, व्यालारिगामी।

ब्रह्म, वरदेश, वागीश, व्यापक, विमल विपुल, बलवान, निर्वानस्वामी ॥ १ ॥

प्रकृति, महतत्व, शब्दादि गुण, देवता व्योम, मरुदग्नि, अमलांबु, उर्वी।

बुद्धि, मन, इंद्रिय, प्राण, चित्तातमा, काल, परमाणु, चिच्छक्ति गुर्वी ॥ २ ॥

सर्वमेवात्र त्वद्रूप भूपालमणि! व्यक्तमव्यक्त, गतभेद, विष्णो।

भुवन भवदंग, कामारि-वंदित, पदद्वंद्व मंदाकिनी-जनक, जिष्णो ॥ ३ ॥

आदिमध्यांत, भगवंत! त्वं सर्वगतमीश, पश्यन्ति ये ब्रह्मवादी।

यथा पट-तंतु, घट-मृतिका, सर्प-स्त्रग, दारुकरि, कनक-कटकांगदादी ॥ ४ ॥

गूढ़, गंभीर, गर्वघ्न, गूढार्थवित, गुप्त, गोतीत, गुरु, ग्यान-ग्याता।

ग्येय, ग्यानप्रिय, प्रचुर गरिमागार, घोर-संसार-पर, पार दाता ॥ ५ ॥

सत्यसंकल्प, अतिकल्प, कल्पांतकृत, कल्पनातीत, अहि-तल्पवासी।

वनज-लोचन, वनज-नाभ, वनदाभ-वपु, वनचरध्वज-कोटि-लावण्यरासी ॥ ६ ॥

सुकर, दुःकर, दुराराध्य, दुर्व्यसनहर, दुर्ग, दुर्द्धर्ष, दुर्गार्त्तिहर्त्ता।

वेदगर्भार्भकादर्भ-गुनगर्व, अर्वांगपर-गर्व-निर्वाप-कर्त्ता ॥ ७ ॥

भक्त-अनुकूल, भवशूल-निर्मूलकर, तूल-अघ-नाम पावक-समानं।

तरलतृष्णा-तमी-तरणि, धरणीधरण, शरण-भयहरण, करुणानिधानं ॥ ८ ॥

बहुल वृंदारकावृंद-वंदारु-पद-द्वंद्व मंदार-मालोर-धारी।

पाहि मामीश संताप-संकुल सदा दास तुलसी प्रणत रावणारी ॥ ९ ॥

५५

देव-

संत-संतापहर, विश्व-विश्रामकर, रामकामारि, अभिरामकारी।

शुद्ध बोधायतन, सच्चिदानंदघन, सज्जनानंद-वर्धन, खरारी ॥ १ ॥

शील-समता-भवन, विषमता-मति-शमन, राम, रमारमन, रावनारी।

खड्ग, कर चर्मवर, वर्मधर, रुचिरल कटि तूण, शर-शक्ति-सारंगधारी ॥ २ ॥

सत्यसंधान, निर्वानप्रद, सर्वहित, सर्वगुण-ज्ञान-विज्ञानशाली।

सघन-तम-घोर-संसार-भर-शर्वरी नाम दिवसेष खर-किरणमाली ॥ ३ ॥

तपन तीच्छन तरुन तीव्र तापघ्न, तपरूप, तनभूप, तमपर, तपस्वी।

मान-मद-मदन-मत्सर-मनोरथ-मथन, मोह-अंभोधि-मंदर, मनस्वी ॥ ४ ॥

वेद विख्यात, वरदेश, वामन, विरज, विमल, वागीश, वैकुंठस्वामी।

काम-क्रोधादिमर्दन, विवर्धन, छमा-शांति-विग्रह, विहगराज-गामी ॥ ५ ॥

परम पावन, पाप-पुंज-मुंजावटी-अनल इव निमिष निर्मूलकर्त्ता।

भुवन-भूषण, दूषणारि-भुवनेश, भूनाथ, श्रुतिमाथ जय भुवनभर्ता ॥ ६ ॥

अमल, अविचल, अकल, सकल, संतप्त-कलि-विकलता-भंजनानंदरासी।

उरगनायक-शयन, तरुणपंकज-नयन, छीरसागर-अयन, सर्ववासी ॥ ७ ॥

सिद्ध-कवि-कोविकानंद-दायक पदद्वंद्व मंदात्ममनुजैर्दुरापं।

यत्र संभूत अतिपूत जल सुरसरी दर्शनादेव अपहरति पापं ॥ ८ ॥

नित्य निर्मुक्त, संयुक्तगुण, निर्गुणानंद, भगवंत, न्यामक, नियंता।

विश्व-पोषण-भरण, विश्व-कारण-करण, शरण तुलसीदास त्रास-हंता ॥ ९ ॥

५६

देव-

दनुजसूदन दयासिंधु, दंभापहन दहन दुर्दोष, दर्पापहर्त्ता।

दुष्टतादमन, दमभवन, दुःखौघहर दुर्ग दुर्वासना नाश कर्त्ता ॥ १ ॥

भूरिभूषण, भानुमंत, भगवंत, भवभंजनाभयद, भुवनेश भारी।

भावनातीत, भववंद्य, भवभक्तहित, भूमिउद्धरण, भूधरण-धारी ॥ २ ॥

वरद, वनदाभ, वागीश, विश्वात्मा, विरज, वैकुण्ठ-मन्दिर-विहारी।

व्यापक व्योम, वंदारु, वामन, विभो, ब्रह्मविद, ब्रह्म, चिंतापहारी ॥ ३ ॥

सहज सुन्दर, सुमुख, सुमन, शुभ सर्वदा, शुद्धसर्वज्ञ, स्वछन्दचारी।

सर्वकृत, सर्वभृत, सर्वजित, सर्वहित, सत्य-संकल्प, कल्पांतकारी ॥ ४ ॥

नित्य, निर्मोह, निर्गुण, निरंजन, निजानंद, निर्वाण, निर्वाणदाता।

निर्भरानंद, निःकंप, निःसीम, निर्मुक्त, निरुपाधि, निर्मम, विधाता ॥ ५ ॥

महामंगलमूल, मोद-महिमायतन, मुग्ध-मधु-मथन, मानद, अमानी।

मदनमर्दन, मदातीत, मायारहित, मंजु मानाथ, पाथोजपानी ॥ ६ ॥

कमल-लोचन, कलाकोश, कोदंडधर, कोशलाधीश, कल्याणराशी।

यातुधान प्रचुर मत्तकरि-केसरी, भक्तमन-पुण्य-आरण्यवासी ॥ ७ ॥

अनघ, अद्वैत, अनवद्य, अव्यक्त, अज, अमित अविकार, आनंदसिंधो।

अचल, अनिकेत, अविरल, अनामय, अनारंभ, अंभोदनादहन-बंधो ॥ ८ ॥

दासतुलसी खेदखिन्न, आपन्न इह, शोकसंपन्न अतिशय सभीतं।

प्रणतपालक राम, परम करुणाधाम, पाहि मामुर्विपति, दुर्विनीतं ॥ ९ ॥

५७

देव-

देहि सतसंग निज-अंग श्रीरंग! भवभंग-कारण शरण-शोकहारी।

ये तु भवदघ्रिपल्लव-समाश्रित सदा, भक्तिरत, विगतसंशय, मुरारी ॥ १ ॥

असुर, सुर, नाग, नर, यक्ष, गंधर्व, खग, रजनिचर, सिद्ध, ये चापि अन्ने।

संत-संसर्ग त्रेवर्गपर, परमपद, प्राप्य निप्राप्यगति त्वयि प्रसन्ने ॥ २ ॥

वृत्र, बलि, बाण, प्रहलाद, मय, व्याध, गज, गृध्र, द्विजबन्धु निजधर्मत्यागी।

साधुपद-सलिल-निर्धूत-कल्मष सकल, श्वपच-यवनादि कैवल्य-भागी ॥ ३ ॥

शांत, निरपेक्ष, निर्मम, निरामय, अगुण, शब्दब्रह्मैकपर, ब्रह्मज्ञानी।

दक्ष, समदृक, स्वदृक, विगत अति स्वपरमति, परमरतिविरति तव चक्रपानी ॥ ४ ॥

विश्व-उपकारहित व्यग्रचित सर्वदा, त्यक्तमदमन्यु, कृत पुण्यरासी।

यत्र तिष्ठन्ति, तत्रेव अज शर्व हरि सहित गच्छन्ति क्षीराब्धिवासी ॥ ५ ॥

वेद-पयसिंधु, सुविचार मंदरमहा, अखिल-मुनिवृंद निमर्थनकर्ता।

सार सतसंगमुद् धृत्य इति निश्चिंतं वदति श्रीकृष्ण वैदर्भिभर्ता ॥ ६ ॥

शोक-संदेह, भय-हर्ष, तम-तर्षगण, साधु-सद्युक्ति विच्छेदकारी।

यथा रघुनाथ-सायक निशाचर-चमू-निचय-निर्दलन-पटु-वेग-भारी ॥ ७ ॥

यत्र कुत्रापि मम जन्म निजकर्मवश भ्रमत जगजोनि संकट अनेकं।

तत्र त्वद्भक्ति, सज्जन-समागम, सदा भवतु मे राम विश्राममेकं ॥ ८ ॥

प्रबल भव-जनित त्रैव्याधि-भैषज भगति, भक्त भैषज्यमद्वैतदरसी।

संत-भगवंत अंतर निरंतर नहीं, किमपि मति मलिन कह दासतुलसी ॥ ९ ॥

५८

देव-

देहि अवलंब कर कमल, कमलारमन, दमन-दुख, शमन-संताप भारी।

अज्ञान-राकेश-ग्रासन विंधुतुद, गर्व-काम-करिमत्त-हरि, दूषणारी ॥ १ ॥

वपुष ब्रह्माण्ड सुप्रवृत्ति लंका-दुर्ग, रचित मन दनुज मय-रूपधारी।

विविध कोशौघ, अति रुचिर-मंदिर-निकर, सत्वगुण प्रमुख त्रेकटककारी ॥ २ ॥

कुणप-अभिमान सागर भंयकर घोर, विपुल अवगाह, दुस्तर अपारं।

नक्र रागादि-संकुल मनोरथ सकल, संग-संकल्प वीची-विकारं ॥ ३ ॥

मोह दशमौलि, तद्भ्रात अहँकार, पाकारिजित काम विश्रामहारी।

लोभ अतिकाय, मत्सर महोदर दुष्ट, क्रोध पापिष्ठ-विबुधांतकारी ॥ ४ ॥

द्वेष दुर्मुख, दंभ खर अकंपन कपट, दर्प मनुजाद मद शूलपानी।

अमितबल परम दुर्जय निशाचर-निकर सहित षडवर्ग गो-यातुधानी ॥ ५ ॥

जीव भवदंघ्रि-सेवक विभीषण बसत मध्य दुष्टाटवी ग्रसितचिंता।

नियम-यम-सकल सुरलोक-लोकेश लंकेश-वश नाथ! अत्यंत भीता ॥ ६ ॥

ज्ञान-अवधेश-गृह गेहिनी भक्ति शुभ, तत्र अवतार भूभार-हर्ता।

भक्त-संकष्ट अवलोकि पितु-वाक्य कृत गमन किय गहन वैदेहि-भर्ता ॥ ७ ॥

कैवल्य-साधन अखिल भालु मर्कट विपुल ज्ञान-सुग्रीवकृत जलधिसेतू।

प्रबल वैराग्य दारुण प्रभंजन-तनय, विषय वन भवनमिव धूमकेतू ॥ ८ ॥

दुष्ट दनुजेश निर्वशकृत दासहित, विश्वदुख-हरण बोधैकरासी।

अनुज निज जानकी सहित हरि सर्वदा दासतुलसी ह्रदय कमलवासी ॥ ९ ॥

५९

देव-

दीन-उद्धरण रघुवर्य करुणाभवन शमन-संताप पापौघहारी।

विमल विज्ञान-विग्रह, अनुग्रहरूप, भूपवर, विबुध, नर्मद, खरारी ॥ १ ॥

संसार-कांतार अति घोर, गंभीर, घन, गहन तरुकर्मसंकुल, मुरारी।

वासना वल्लि खर-कंटकाकुल विपुल, निबिड़ विटपाटवी कठिन भारी ॥ २ ॥

विविध चितवृति-खग निकर श्येनोलूक, काक वक गृध्र आमिष-अहारी।

अखिल खल, निपुण छल, छिद्र निरखत सदा, जीवजनपथिकमन-खेदकारी ॥ ३ ॥

क्रोध करिमत्त, मृगराज, कंदर्प, मद-दर्प वृक-भालु अति उग्रकर्मा।

महिष मत्सर क्रूर, लोभ शूकररूप, फेरु छल, दंभ मार्जारधर्मा ॥ ४ ॥

कपट मर्कट विकट, व्याघ्र पाखण्डमुख, दुखद मृगव्रात, उत्पातकर्ता।

ह्रदय अवलोकि यह शोक शरणागतं, पाहि मां पाहि भो विश्वभर्ता ॥ ५ ॥

प्रबल अहँकार दुरघट महीधर, महामोह गिरि-गुहा निबिड़ांधकारं।

चित्त वेताल, मनुजाद मन, प्रेतगनरोग, भोगौघ वृश्चिक-विकारं ॥ ६ ॥

विषय-सुख-लालसा दंश-मशकादि, खल झिल्लि रूपादि सब सर्प, स्वामी।

तत्र आक्षिप्त तव विषम माया नाथ, अंध मैं मंद, व्यालादगामी ॥ ७ ॥

घोर अवगाह भव आपगा पापजलपूर, दुष्प्रेक्ष्य, दुस्तर, अपारा।

मकर षड्वर्ग, गो नक्र चक्राकुला, कूल शुभ-अशुभ, दुख तीव्र धारा ॥ ८ ॥

सकल संघट पोच शोचवश सर्वदा दासतुलसी विषम गहनग्रस्तं।

त्राहि रघुवंशभूषण कृपा कर, कठिन काल विकराल-कलित्रास-त्रस्तं ॥ ९ ॥

६०

देव-

नौमि नारायणं नरं करुणायनं, ध्यान-पारायणं, ज्ञान-मूलं।

अखिल संसार-उपकार-कारण, सदयह्रदय, तपनिरत, प्रणतानुकूलं ॥ १ ॥

श्याम नव तामरस-दामद्युति वपुष, छवि कोटि मदनार्क अगणित प्रकाशं।

तरुण रमणीय राजीव-लोचन ललित, वदन राकेश, कर-निकस-हासं ॥ २ ॥

सकल सौंदर्य-निधि, विपुल गुणधाम, विधि-वेद-बुध-शंभु-सेवित, अमानं।

अरुण पदकंज-मकरंद मंदाकिनी मधुप-मुनिवृंद कुर्वन्ति पानं ॥ ३ ॥

शक्र-प्रेरित घोर मदन मद-भृगंकृत, क्रोधगत, बोधरत, ब्रह्मचारी।

मार्केण्डय मुनिवर्यहित कौतुकी बिनहि कल्पांत प्रभु प्रलयकारी ॥ ४ ॥

पुण्य वन शैलसरि बद्रिकाश्रम सदासीन पद्मासनं, एक रूपं।

सिद्ध-योगीन्द्र-वृंदारकानंदप्रद, भद्रदायक दरस अति अनूपं ॥ ५ ॥

मान मनभंग, चितभंग, मद, क्रोधा लोभादि पर्वतदुर्ग, भुवन-भर्त्ता।

द्वेष-मत्सर-राग प्रबल प्रत्यूह प्रति, भूरि निर्दय, क्रूर कर्म कर्त्ता ॥ ६ ॥

विकटतर वक्र क्षुरधार प्रमदा, तीव्र दर्प कंदर्प खर खड्गधारा।

धीर-गंभीर-मन-पीर-कारक, तत्र के वराका वयं विगतसारा ॥ ७ ॥

परम दुर्घट पथं खल-असंगत साथ, नाथ! नहिं हाथ वर विरति-यष्टी।

दर्शनारत दास, त्रसित माया-पाश, त्राहि हरि, त्राहि हरि, दास कष्टी ॥ ८ ॥

दासतुलसी दीन धर्म-संबलहीन, श्रमित अति, खेद, मति मोह नाशी।

देहि अवलंब न विलंब अंभोज-कर, चक्रधर-तेजबल शर्मराशी ॥ ९ ॥

६१

देव-

सकल सुखकंद, आनंदवन-पुण्यकृत, बिंदुमाधव द्वंद्व-विपतिहारी।

यस्यांघ्रिपाथोज अज-शंभु-सनकादि-शुक-शेष-मुनिवृंद-अलि-निलयकारी ॥ १ ॥

अमल मरकत श्याम, काम शतकोटि छवि, पीतपट तड़ित इव जलदनीलं।

अरुण शतपत्र लोचन, विलोकनि चारू, प्रणतजन-सुखद, करुणार्द्रशीलं ॥ २ ॥

काल-गजराज-मृगराज, दनुजेश-वन-दहन पावक, मोह-निशि-दिनेशं।

चारिभुज चक्र-कौमोदकी-जलज-दर, सरसिजोपरि यथा राजहंस ॥ ३ ॥

मुकुट, कुंडल, तिलक, अलक अलिव्रातइव, भृकुटि, द्विज, अधरवर, चारुनासा।

रुचिर सुकपोल, दर ग्रीव सुखसीव, हरि, इंदुकर-कुंदमिव मधुरहासा ॥ ४ ॥

उरसि वनमाल सुविशाल नवमंजरी, भ्राज श्रीवत्स-लांछन उदारं।

परम ब्रह्मन्य, अतिधन्य, गतमन्यु, अज, अमितबल, विपुल महिमा अपारं ॥ ५ ॥

हार-केयूर, कर कनक कंकन रतन-जटित मणि-मेखला कटिप्रदेशं।

युगल पद नूपुरामुखर कलहंसवत, सुभग सर्वांग सौन्दर्य वेशं ॥ ६ ॥

सकल सौभाग्य-संयुक्त त्रेलोक्य-श्री दक्षि दिशि रुचिर वारीश-कन्या।

बसत विबुधापगा निकट तट सदनवर, नयन निरखंति नर तेऽति धन्या ॥ ७ ॥

अखिल मंगल-भवन, निबिड़ संशय-शमन दमन-वृजिनाटवी, कष्टहर्त्ता।

विश्वधृत, विश्वहित, अजित, गोतीत, शिव, विश्वपालन, हरण, विश्वकर्त्ता ॥ ८ ॥

ज्ञान-विज्ञान-वैराग्य-ऐश्वर्य-निधि, सिद्धि अणिमादि दे भूरिदानं।

ग्रसित-भव-व्याल अतित्रास तुलसीदास, त्राहि श्रीराम उरगारि-यानं ॥ ९ ॥

६२

इहै परम फलु, परम बड़ाई।

नखसिख रुचिर बिंदुमाधव छबि निरखहिं नयन अघाई ॥ १ ॥

बिसद किसोर पीन सुंदर बपु, श्याम सुरुचि अधिकाई।

नीलकंज, बारिद, तमाल, मनि, इन्ह तनुते दुति पाई ॥ २ ॥

मृदुल चरन शुभ चिन्ह, पदज, नख अति अभूत उपमाई।

अरुन नील पाथोज प्रसव जनु, मनिजुत दल-समुदाई ॥ ३ ॥

जातरूप मनि-जटित-मनोहर, नूपुर जन-सुखदाई।

जनु हर-उर हरि बिबिध रूप धरि, रहे बर भवन बनाई ॥ ४ ॥

कटितट रटति चारु किंकिनि-रव, अनुपम, बरनि न जाई।

हेम जलज कल कलित मध्य जनु, मधुकर मुखर सुहाई ॥ ५ ॥

उर बिसाल भृगुचरन चारु अति, सूचत कोमलताई।

कंकन चारु बिबिध भूषन बिधि, रचि निज कर मन लाई ॥ ६ ॥

गज-मनिमाल बीच भ्राजत कहि जाति न पदक निकाई।

जनु उडुगन-मंडल बारिदपर, नवग्रह रची अथाई ॥ ७ ॥

भुजगभोग-भुजदंड कंज दर चक्र गदा बनि आई।

सोभासीव ग्रीव, चिबुकाधर, बदन अमित छबि छाई ॥ ८ ॥

कुलिस, कुंद-कुडमल, दामिनि-दुति, दसनन देखि लजाई।

नासा-नयन-कपोल, ललित श्रुति कुंडल भ्रू मोहि भाई ॥ ९ ॥

कुंचित कच सिर मुकुट, भाल पर, तिलक कहौं समुझाई।

अलप तड़ित जुग रेख इंदु महँ, रहि तजि चंचलताई ॥ १० ॥

निरमल पीत दुकुल अनूपम, उपमा हिय न समाई।

बहु मनिजुत गिरि नील सिखरपर कनक-बसन रुचिराई ॥ ११ ॥

दच्छ भाग अनुराग-सहित इंदिरा अधिक ललिताई।

हेमलता जनु तरु तमाल ढिग, नील निचोल ओढ़ाई ॥ १२ ॥

सत सारदा सेष श्रुति मिलिकै, सोभा कहि न सिराई।

तुलसिदास मतिमंद द्वंदरत कहै कौन बिधि गाई ॥ १३ ॥

राग जैतश्री

६३

मन इतनोई या तनुको परम फलु।

सब अँग सुभग बिंदुमाधव-छबि, तजि सुभाव, अवलोकु एक पलु ॥ १ ॥

तरुन अरुन अंभोज चरन मृदु, नख-दुति ह्रदय-तिमिर-हारी।

कुलिस-केतु-जव-जलज रेख बर, अंकुस मन-गज-बसकारी ॥ २ ॥

कनक-जटित मनि नूपुर, मेखल, कटि-तट रटति मधुर बानी।

त्रिबली उदर, गँभीर नाभि सर, जहँ उपजे बिरंचि ग्यानी ॥ ३ ॥

उर बनमाल, पदिक अति सोभित, बिप्र-चरन चित कहँ करषै।

स्याम तामरस-दाम-बरन बपु पीत बसन सोभा बरषै ॥ ४ ॥

कर कंकन केयूर मनोहर, देति मोद मुद्रिक न्यारी।

गदा कंज दर चारु चक्रधर, नाग-सुंड-सम भुज चारी ॥ ५ ॥

कंबुग्रीव, छबिसीव चिबुक द्विज, अधर अरुन, उन्नत नासा।

नव राजीव नयन, ससि आनन, सेवक-सुखद बिसद हासा ॥ ६ ॥

रुचिर कपोल, श्रवन कुंडल, सिर मुकुट, सुतिलक भाल भ्राजै।

ललित भृकुटि, सुंदर चितवनि, कच निरखि मधुप-अवली लाजे ॥ ७ ॥

रूप-सील-गुन-खानि दच्छ दिसि, सिंधु-सुता रत-पद-सेवा।

जाकी कृपा-कटाच्छ चहत सिव, बिधि, मुनि, मनुज, दनुज, देवा ॥ ८ ॥

तुलसिदास भव-त्रास मिटै तब, जब मति येहि सरूप अटकै।

नाहिंत दीन मलीन हीनसुख, कोटि जनम भ्रमि भ्रमि भटकै ॥ ९ ॥

राग बसन्त

६४

बंदौ रघुपति करुना-निधान। जाते छूटै भव-भेद-ग्यान ॥ १ ॥

रघुबंस-कुमुद-सुखप्रद निसेस। सेवत पद-पंकज अज महेस ॥ २ ॥

निज भक्त-ह्रदय-पाथोज-भृंग। लावन्य बपुष अगनित अनंग ॥ ३ ॥

अति प्रबल मोह-तम-मारतंड। अग्यान-गहन-पावक प्रचंड ॥ ४ ॥

अभिमान-सिंधु-कुंभज उदार। सुररंजन, भंजन भूमिभार ॥ ५ ॥

रागादि-सर्पगन-पन्नगारि। कंदर्प-नाग-मृगपति, मुरारि ॥ ६ ॥

भव-जलधि-पोत चरनारबिंद। जानकी-रवन आनंद-कंद ॥ ७ ॥

हनुमंत-प्रेम-बापी-मराल। निष्काम कामधुक गो दयाल ॥ ८ ॥

त्रेलोक-तिलक, गुनगहन राम। कह तुलसिदास बिश्राम-धाम ॥ ९ ॥

राग भैरव

६५

राम राम रमु, राम राम रटु, राम राम जपु जीहा।

रामनाम-नवनेह-मेहको, मन! हठि होहि पपीहा ॥ १ ॥

सब साधन-फल कूप-सरित-सर, सागर-सलिल-निरासा।

रामनाम-रति-स्वाति-सुधा-सुभ-सीकर प्रेमपियासा ॥ २ ॥

गरजि, तरजि, पाषान बरषि पवि, प्रीति परखि जिय जानै।

अधिक अधिक अनुराग उमँग उर, पर परमिति पहिचानै ॥ ३ ॥

रामनाम-गति, रामनाम-मति, राम-नाम-अनुरागी।

ल्है गये, है, जे होहिंगे, तेइ त्रिभुवन गनियत बड़भागी ॥ ४ ॥

एक अंग मग अगमु गवन कर, बिलमु न छिन छिन छाहैं।

तुलसी हित अपनो अपनी दिसि, निरुपधि नेम निबाहैं ॥ ५ ॥

६६

राम जपु, राम जपु, राम जपु बावरे।

घोर भव-नीर-निधि नाम निज नाव रे ॥ १ ॥

एक ही साधन सब रिद्धि-सिद्धि साधि रे।

ग्रसे कलि-रोग जोग-संजम-समाधि रे ॥ २ ॥

भलो जो है, पोच जो है, दाहिनो जो, बाम रे।

राम-नाम ही सों अंत सब ही को काम रे ॥ ३ ॥

जग नभ-बाटिका रही है फलि फूलि रे।

धुवाँ कैसे धौरहर देखि तू न भूलि रे ॥ ४ ॥

राम-नाम छाड़ि जो भरोसो करै और रे।

तुलसी परोसो त्यागि माँगै कूर कौर रे ॥ ५ ॥

६७

राम राम जपु जिय सदा सानुराग रे।

कलि न बिराग, जोग, जाग, तप, त्याग रे ॥ १ ॥

राम सुमिरत सब बिधि ही को राज रे।

रामको बिसारिबो निषेध-सिरताज रे ॥ २ ॥

राम-नाम महामनि, फनि जगजाल रे।

मनि लिये, फनि जियै, ब्याकुल बिहाल रे ॥ ३ ॥

राम-नाम कामतरु देत फल चारि रे।

कहत पुरान, बेद, पंडित, पुरारि रे ॥ ४ ॥

राम-नाम प्रेम-परमारथको सार रे।

राम-नाम तुलसीको जीवन-अधार रे ॥ ५ ॥

 

६८

राम राम राम जीह जौलौं तू न जपिहै।

तौलौं, तू कहूँ जाय, तिहूँ ताप तपिहै ॥ १ ॥

सुरसरि-तीर बिनु नीर दुख पाइहै।

सुरतरु तरे तोहि दारिद सताइहै ॥ २ ॥

जागत, बागत सपने न सुख सोइहै।

जनम जनम, जुग जुग जग रोइहै ॥ ३ ॥

छूटिबेके जतन बिसेष बाँधो जायगो।

ह्वेहै बिष भोजन जो सुधा-सानि खायगो ॥ ४ ॥

तुलसी तिलोक, तिहूँ काल तोसे दीनको।

रामनाम ही की गति जैसे जल मीनको ॥ ५ ॥

६९

सुमिरु सनेहसों तू नाम रामरायको।

संबल निसंबलको, सखा असहायको ॥ १ ॥

भाग है अभागेहूको, गुन गुनहीनको।

गाहक गरीबको, दयालु दानि दीनको ॥ २ ॥

कुल अकुलीनको, सुन्यो है बेद साखि है।

पाँगुरेको हाथ-पाँय, आँधरेको आँखि है ॥ ३ ॥

माय-बाप भूखेको, अधार निराधारको।

सेतु भव-सागरको, हेतु सुखसारको ॥ ४ ॥

पतितपावन राम-नाम सो न दूसरो।

सुमिरि सुभूमि भयो तुलसी सो ऊसरो ॥ ५ ॥

७०

भलो भली भाँति है जो मेरे कहे लागिहै।

मन राम-नामसों सुभाय अनुरागिहै ॥ १ ॥

राम-नामको प्रभाउ जानि जूड़ी आगिहै।

सहित सहाय कलिकाल भीरु भागिहै ॥ २ ॥

राम-नामसों बिराग, जोग, जप जागिहै।

बाम बिधि भाल हू न करम दाग दागिहै ॥ ३ ॥

राम-नाम मोदक सनेह सुधा पागिहै।

पाइ परितोष तू न द्वार द्वार बागिहै ॥ ४ ॥

राम-नाम काम-तरु जोइ जोइ माँगिहै।

तुलसिदास स्वारथ परमारथ न खाँगिहै ॥ ५ ॥

७१

ऐसेहू साहबकी सेवा सों होत चोरु रे।

आपनी न बुझ, न कहै को राँडरोरु रे ॥ १ ॥

मुनि-मन-अगम, सुगम माइ-बापु सों।

कृपासिंधु, सहज सखा, सनेही आपु सों ॥ २ ॥

लोक-बेद-बिदित बड़ो न रघुनाथ सों।

सब दिन दब देस, सबहिके साथ सों ॥ ३ ॥

स्वामी सरबग्य सों चलै न चोरी चारकी।

प्रीति पहिचानि यह रीति दरबारकी ॥ ४ ॥

काय न कलेस-लेस, लेत मान मनकी।

सुमिरे सकुचि रुचि जोगवत जनकी ॥ ५ ॥

रीझे बस होत, खीझे देत निज धाम रे।

फलत सकल फल कामतरु नाम रे ॥ ६ ॥

बेंचे खोटो दाम न मिलै, न राखे काम रे।

सोऊ तुलसी निवाज्यो ऐसो राजाराम रे ॥ ७ ॥

७२

मेरो भलो कियो राम आपनी भलाई।

हौं तो साई-द्रोही पै सेवक-हित साई ॥ १ ॥

रामसों बड़ो है कौन, मोसों कौन छोटो।

राम सो खरो है कौन, मोसों कौन खोटो ॥ २ ॥

लोक कहै रामको गुलाम हौं कहावौं।

एतो बड़ो अपराध भौ न मन बावौं ॥ ३ ॥

पाथ माथे चढ़े तृन तुलसी ज्यों नीचो।

बोरत न बारि ताहि जानि आपु सीचो ॥ ४ ॥

७३

जागु, जागु, जीव जड़! जोहै जग-जामिनी।

देह-गेह-नेह जानि जैसे घन-दामिनी ॥ १ ॥

सोवत सपनेहूँ सहै संसृति-संताप रे।

बूड्यो मृग-बारि खायो जेवरीको साँप रे ॥ २ ॥

कहैं बेद-बुध, तू तो बूझि मनमाहिं रे।

दोष-दुख सपनेके जागे ही पै जाहिं रे ॥ ३ ॥

तुलसी जागेते जाय ताप तिहुँ ताय रे।

राम-नाम सुचि रुचि सहज सुभाय रे ॥ ४ ॥

 

राग विभास

७४

जानकीसकी कृपा जगावती सुजान जीव,

जागी त्यागि मूढ़ताऽनुरागु श्रीहरे।

करि बिचार, तजि बिकार, भजु उदार रामचंद्र,

भद्रसिंधु दीनबंधु, बेद बदत रे ॥ १ ॥

मोहमय कुहू-निसा बिसाल काल बिपुल सोयो,

खोयो सो अनूप रूप सुपन जू परे।

अब प्रभात प्रगट ग्यान-भानुके प्रकाश,

बासना, सराग मोह-द्वेष निबिड़ तम टरे ॥ २ ॥

भागे मद-मान चोर भोर जानि जातुधान,

काम-कोह-लोभ-छोभ-निकर अपडरे।

देखत रघुबर-प्रताप, बीते संताप-पाप,

ताप त्रिबिध प्रेम-आप दूर ही करे ॥ ३ ॥

श्रवन सुनि गिरा गँभीर, जागे अति धीर बीर,

बर बिराग-तोष सकल संत आदरे।

तुलसिदास प्रभुकृपालु, निरखि जीव जन बिहालु,

भंज्यो भव-जाल परम मंगलाचरे ॥ ४ ॥

राग ललित

७५

खोटो खरो रावरो हौं, रावरी सौं, रावरेसों झूठ क्यों कहौंगो,

जानो सब ही के मनकी।

करम-बचन-हिये, कहौं न कपट किये, ऐसी हठ जैसी गाँठि

पानी परे सनकी ॥ १ ॥

दूसरो, भरोसो नाहिं बासना उपासनाकी, बासव, बिरंचि

सुर-नर-मुनिगनकी।

स्वारथ के साथी मेरे, हाथी स्वान लेवा देई, काहू तो न पीर

रघुबीर! दीन जनकी ॥ २ ॥

साँप-सभा साबर लबार भये देव दिब्य, दुसह साँसति कीजै

आगे ही या तनकी।

साँचे परौं, पाँऊ पान, पंचमें पन प्रमान, तुलसी चातक आस

राम स्यामघनकी ॥ ३ ॥

७६

रामको गुलाम, नाम रामबोला राख्यौ राम,

काम यहै, नाम द्वै हौ कबहूँ कहत हौं।

रोटी-लूगा नीके राखै, आगेहूकी बेद भाखै,

भलो ह्वेहै तेरो, ताते आनँद लहत हौं ॥ १ ॥

बाँध्यौ हौं करम जड़ गरब गूढ़ निगड़,

सुनत दुसह हौं तौ साँसति सहत हौं।

आरत-अनाथ-नाथ, कौसलपाल कृपाल,

लीन्हौ छीन दीन देख्यो दुरित दहत हौं ॥ २ ॥

बूझ्यौ ज्यौं ही, कह्यो, मैं हूँ चेरो ह्वेहौ रावरो जू

मेरो कोऊ कहूँ नाहिं, चरन गहत हौं।

मींजो गुरु पीठ, अपनाइ गहि बाँह, बोलि

सेवक-सुखद, सदा बिरद बहत हौं ॥ ३ ॥

लोग कहै पोच, सो न सोच न सँकोच मेरे

ब्याह न बरेखी, जाति-पाँति न चहत हौं।

तुलसी अकाज-काज राम ही के रीझे-खीझे,

प्रीतिकी प्रतीति मन मुदित रहत हौं ॥ ४ ॥

७७

जानकी-जीवन, जग-जीवन, जगत-हित,

जगदीस, रघुनाथ, राजीवलोचन राम।

सरद-बिधु-बदन, सुखसील, श्रीसदन,

सहज सुंदर तनु, सोभा अगनित काम ॥ १ ॥

जग-सुपिता, सुमातु, सुगुरु, सुहित, सुमीत,

सबको दाहिनो, दीनबन्धु, काहुको न बाम।

आरतिहरन, सरनद, अतुलित दानि,

प्रनतपालु, कृपालु, पतित-पावन नाम ॥ २ ॥

सकल बिस्व-बंदित, सकल सुर-सेवित,

आगम-निगम कहैं रावरेई गुनग्राम।

इहै जानि तुलसी तिहारो जन भयो,

न्यारो कै गनिबो जहाँ गने गरीब गुलाम ॥ ३ ॥

राग टोडी

७८

देव

दीनको दयालु दानि दूसरो न कोऊ।

जाहि दीनता कहौं हौं देखौं दीन सोऊ ॥ १ ॥

सुर, नर, मुनि, असुर, नाग, साहिब तौ घनेरे।

(पै) तौ लौं जौं लौं रावरे न नेकु नयन फेरे ॥ २ ॥

त्रिभुवन, तिहुँ काल बिदित, बेद बदति चारी।

आदि-अंत-मध्य राम! साहबी तिहारी ॥ ३ ॥

तोहि माँगि माँगनो न माँगनो कहायो।

सुनि सुभाव-सील-सुजसु जाचन जन आयो ॥ ४ ॥

पाहन-पसु, बिटप-बिहँग अपने करि लीन्हे।

महाराज दसरथके ! रंक राय कीन्हे ॥ ५ ॥

तू गरीबको निवाज, हौं गरीब तेरो।

बारक कहिये कृपालु! तुलसिदास मेरो ॥ ६ ॥

७९

देव-

तू दयालु , दीन हौं तू दानि, हौं भिखारी।

हौं प्रसिद्ध पातकी, तू पाप-पुंज-हारी ॥ १ ॥

नाथ तू अनाथको, अनाथ कौन मोसो

मो समान आरत नहिं, आरतिहर तोसो ॥ २ ॥

ब्रह्म तू, हौं जीव, तू है ठाकुर, हौं चेरो।

तात-मात, गुरु-सखा, तू सब बिधि हितु मेरो ॥ ३ ॥

तोहिं मोहिं नाते अनेक, मानियै जो भावै।

ज्यों त्यों, तुलसी कृपालु ! चरन-सरन पावै ॥ ४ ॥

८०

देव--

और काहि माँगिये, को माँगिबो निवारै।

अभिमतदातार कौन, दुख-दरिद्र दारै ॥ १ ॥

धरमधाम राम काम-कोटि-रूप रूरो।

साहब सब बिधि सुजान, दान-खडग-सूरो ॥ २ ॥

सुसमय दिन द्वै निसान सबके द्रार बाजै।

कुसमय दसरथके ! दानि तैं गरीब निवाजै ॥ ३ ॥

सेवा बिनु गुनबिहीन दीनता सुनाये।

जे जे तैं निहाल किये फूले फिरत पाये ॥ ४ ॥

तुलसीदास जाचक-रुचि जानि दान दीजै।

रामचंद्र चंद्र तू, चकोर मोहिं कीजै ॥ ५ ॥

 

८१

दीनबंधु, सुखसिंधु, कृपाकर, कारुनीक रघुराई।

सुनहु नाथ ! मन जरत त्रिबिध जुर, करत फिरत बौराई ॥ १ ॥

कबहुँ जोगरत, भोग-निरत सठ हठ बियोग-बस होई।

कबहुँ मोहबस द्रोह करत बहु, कबहुँ दया अति सोई ॥ २ ॥

कबहुँ दीन, मतिहीन, रंकतर, कबहुँ भूप अभिमानी।

कबहुँ मूढ, पंडित बिडंबरत, कबहुँ धर्मरत ग्यानी ॥ ३ ॥

कबहुँ देव! जग धनमय रिपुमय कबहुँ नारिमय भासै।

संसृति-संनिपात दारुन दुख बिनु हरि-कृपा न नासै ॥ ४ ॥

संजम, जप, तप, नेम, धरम, ब्रत, बहु भेषज-समुदाई।

तुलसिदास भव-रोग रामपद-प्रेम-हीन नहिं जाई ॥ ५ ॥

८२

मोहजनित मल लाग बिबिध बिधि कोटिहु जतन न जाई।

जनम जनम अभ्यास-निरत चित, अधिक अधिक लपटाई ॥ १ ॥

नयन मलिन परनारि निरखि, मन मलिन बिषय सँग लागे।

हृदय मलिन बासना-मान मद, जीव सहज सुख त्यागे ॥ २ ॥

परनिंदा सुनि श्रवन मलिन भे, बचन दोष पर गाये।

सब प्रकार मलभार लाग निज नाथ-चरन बिसराये ॥ ३ ॥

तुलसिदास ब्रत-दान, ग्यान-तप, सुद्धिहेतु श्रुति गावै।

राम-चरन-अनुराग-नीर बिनु मल अति नास न पावै ॥ ४ ॥

राग जैतश्री

८३

कछु ह्वे न आई गयो जनम जाय।

अति दुरलभ तनु पाइ कपट तजि भजे न राम मन बचन- काय ॥ १ ॥

लरिकाई बीती अचेत चित, चंचलता चौगुने चाय।

जोबन-जुर जुबती कुपथ्य करि, भयो त्रिदोष भरि मदन बाय ॥ २ ॥

मध्य बयस धन हेतु गँवाई, कृषी बनिज नाना उपाय।

राम-बिमुख सुख लह्यो न सपनेहुँ, निसिबासर तयौ तिहूँ ताय ॥ ३ ॥

सेये नहिं सीतापति-सेवक, साधु सुमति भलि भगति भाय।

सुने न पुलकि तनु, कहे न मुदित मन किये जे चरित रघुबंसराय ॥ ४ ॥

अब सोचत मनि बिनु भुअंग ज्यो, बिकल अंग दले जरा धाय।

सिर धुनि-धुनि पछिताय मींजि कर कोउ न मीत हित दुसह दाय ॥ ५ ॥

जिन्ह लगि निज परलोक बिगार् यौ, ते लजात होत ठाढ़े ठाँय।

तुलसी अजहुँ सुमिरि रघुनाथहिं, तर् यौ गयँद जाके एक नाँय ॥ ६ ॥

 

८४

तौ तू पछितैहै मन मींजि हाथ।

भयो है सुगम तोको अमर-अगम तन, समुझिधौं कत खोवत अकाथ ॥ १ ॥

सुख-साधन हरिबिमुख बृथा जैसे श्रम फल घृतहित मथे पाथ।

यह बिचारि, तजि कुपथ-कुसंगति चलि सुपंथ मिलि भले साथ ॥ २ ॥

देखु-राम-सेवक, सुनि कीरति, रटहि नाम करि गान गाथ।

हृदय आनु धनुबान-पानि प्रभु, लसे मुनिपट, कटि कसे भाथ ॥ ३ ॥

तुलसिदास परिहरि प्रपंच सब, नाउ रामपद-कमल माथ।

जनि डरपहि तोसे अनेक खल, अपनाये जानकीनाथ ॥ ४ ॥

 

राग धनाश्री

८५

मन! माधवको नेकु निहारहि।

सुनु सठ, सदा रंकके धन ज्यो, छिन-छिन प्रभुहिं सँभारहि ॥ १ ॥

सोभा-सील-ग्यान-गुन-मंदिर, सुंदर परम उदारहि।

रंजन संत, अखिल अघ-गंजन, भंजन बिषय-बिकारहि ॥ २ ॥

जो बिनु जोग-जग्य-ब्रत-संयम गयो चहै भव-पारहि।

तौ जनि तुलसिदास निसि- बासर हरि-पद कमल बिसारहि ॥ ३ ॥

८६

इहै कह्यो सुत! बेद चहूँ।

श्रीरघुबीर-चरन-चिंतन तजि नाहिन ठौर कहूँ ॥ १ ॥

जाके चरन बिरंचि सेइ सिधि पाई संकरहूँ।

सुक-सनकादि मुकुत बिचरत तेउ भजन करत अजहूँ ॥ २ ॥

जद्यपि परम चपल श्री संतत, थिर न रहति कतहूँ।

हरि-पद-पंकज पाइ अचल भइ, करम-बचन-मनहूँ ॥ ३ ॥

करुनासिंधु, भगत-चिंतामनि, सोभा सेवतहूँ।

और सकल सुर, असुर-ईस सब खाये उरग छहूँ ॥ ४ ॥

सुरुचि कह्यो सोइ सत्य तात अति परुष बचन जबहूँ।

तुलसिदास रघुनाथ-बिमुख नहिं मिटइ बिपति कबहूँ ॥ ५ ॥

८७

सुनु मन मूढ सिखावन मेरो।

हरि-पद-बिमुख लह्यो न काहु सुख सठ ! यह समुझ सबेरो ॥ १ ॥

बिछुरे ससि-रबि मन-नैननितें, पावत दुख बहुतेरो।

भ्रमत श्रमित निसि-दिवस गगन महँ, तहँ रिपु राहु बडेरो ॥ २ ॥

जद्यपि अति पुनित सुरसरिता, तिहुँ पुर सुजस घनेरो।

तजे चरन अजहूँ न मिटत नित, बहिबो ताहू केरो ॥ ३ ॥

छुटै न बिपति भजे बिनु रघुपति, श्रुति संदेहु निबेरो।

तुलसिदास सब आस छाँडि करि, होहु रामको चेरो ॥ ४ ॥

८८

कबहूँ मन बिश्राम न मान्यो।

निसिदिन भ्रमत बिसारि सहज सुख, जहँ तहँ इंद्रिन तान्यो ॥ १ ॥

जदपि बिषय-सँग सह्यो दुसह दुख, बिषम जाल अरुझान्यो।

तदपि न तजत मूढ़ ममताबस, जानतहूँ नहिं जान्यो ॥ २ ॥

जनम अनेक किये नाना बिधि करम-कीच चित सान्यो।

होइ न बिमल बिबेक-नीर बिनु, बेद पुरान बखान्यो ॥ ३ ॥

निज हित नाथ पिता गुरु हरिसों हरषि हदै नहि आन्यो।

तुलसिदास कब तृषा जाय सर खनतहि जनम सिरान्यो ॥ ४ ॥

८९

मेरो मन हरिजू! हठ न तजै।

निसिदिन नाथ देउँ सिख बहु बिधि, करत सुभाउ निजै ॥ १ ॥

ज्यो जुवती अनुभवति प्रसव अति दारुन दुख उपजै।

ह्वे अनुकूल बिसारि सूल सठ पुनि खल पतिहिं भजै ॥ २ ॥

लोलुप भ्रम गृहपसु ज्यौं जहँ तहँ सिर पदत्रान बजै।

तदपि अधम बिचरत तेहि मारग कबहुँ न मूढ़ लजै ॥ ३ ॥

हौं हार् यौ करि जतन बिबिध बिधि अतिसै प्रबल अजै।

तुलसिदास बस होइ तबहिं जब प्रेरक प्रभु बरजै ॥ ४ ॥

९०

ऐसी मूढ़ता या मनकी।

परिहरि राम-भगति-सुरसरिता, आस करत ओसकनकी ॥ १ ॥

धूम-समूह निरखि चातक ज्यो, तृषित जानि मति घनकी।

नहिं तहँ सीतलता न बारि, पुनि हानि होति लोचनकी ॥ २ ॥

ज्यो गच-काँच बिलोकि सेन जड छाँह आपने तनकी।

टूटत अति आतुर अहार बस, छति बिसारि आननकी ॥ ३ ॥

कहँ लौं कहौं कुचाल कृपानिधि! जानत हौ गति जनकी।

तुलसिदास प्रभु हरहु दुसह दुख, करहु लाज निज पनकी ॥ ४ ॥

 

९१

नाचत ही निसि-दिवस मर् यो।

तब ही ते न भयो हरि थिर जबतें जिव नाम धर् यो ॥ १ ॥

बहु बासना बिबिध कंचुकि भूषन लोभादि भर् यो।

चर अरु अचर गगन जल थलमें, कौन न स्वाँग कर् यो ॥ २ ॥

देव-दनुज, मुनि, नाग, मनुज नहिं जाँचत कोउ उबर् यो।

मेरो दुसह दरिद्र, दोष, दुख काहू तौ न हर् यो ॥ ३ ॥

थके नयन, पद, पानि, सुमति, बल, संग सकल बिछुर् यो।

अब रघुनाथ सरन आयो जन, भव, भय बिकल डर् यो ॥ ४ ॥

जेहि गुनतें बस होहु रीझि करि, सो मोहि सब बिसर् यो।

तुलसिदास निज भवन-द्वार प्रभु दीजै रहन पर् यो ॥ ५ ॥

९२

माधवजू, मोसम मंद न कोऊ।

जद्यपि मीन-पतंग हीनमति, मोहि नहिं पूजैं ओऊ ॥ १ ॥

रुचिर रुप-आहार-बस्य उन्ह, पावक लोह न जान्यो।

देखत बिपति बिषय न तजत हौं, ताते अधिक अयान्यो ॥ २ ॥

महामोह-सरिता अपार महँ, संतत फिरत बह्यो।

श्रीहरि- चरन-कमल-नौका तजि, फिरि फिरि फेन गह्यो ॥ ३ ॥

अस्थि पुरातन छुधित स्वान अति ज्यौं भरि मुख पकरै।

निज तालूगत रुधिर पान करि, मन संतोष धरै ॥ ४ ॥

परम कठिन भव-ब्याल-ग्रसित भयो अति भारी।

चाहत अभय भेक सरनागत, खगपति-नाथ बिसारी ॥ ५ ॥

जलचर-बृंद जाल-अंतरगत होत सिमिटि इक पासा।

एकहि एक खात लालच-बस, नहिं देखत निज नासा ॥ ६ ॥

मेरे अघ सारद अनेक जुग, गनत पार नहिं पावै।

तुलसिदास पतित-पावन प्रभु यह भरोस जिय आवै ॥ ७ ॥

९३

कृपा सो धौं कहाँ बिसारी राम।

जेहि करुना सुनि श्रवन दीन-दुख, धावत हौ तजि धाम ॥ १ ॥

नागराज निज बल बिचारि हिय, हारि चरन चित दीन्हों।

आरत गिरा सुनत खगपति तजि, चलत बिलंब न कीन्हों ॥ २ ॥

दितिसुत-त्रास-त्रसित निसिदिन प्रहलाद-प्रतिग्या राखी।

अतुलित बल मृगराज-मनुज-तनु दनुज हत्यो श्रुति साखी ॥ ३ ॥

भूप-सदसि सब नृप बिलोकि प्रभु-राखु कह्यो नर- नारी।

बसन पूरि, अरि-दरप दूरि करि, भूरि कृपा दनुजारी ॥ ४ ॥

एक एक रिपुते त्रासित जन, तुम राखे रघुबीर।

अब मोहिं देत दुसह दुख बहु रिपु कस न हरहु भव-पीर ॥ ५ ॥

लोभ-ग्राह, दनुजेस-क्रोध, कुरुराज-बंधु खल मार।

तुलसिदास प्रभु यह दारुन दुख भंजहु राम उदार ॥ ६ ॥

९४

काहे ते हरि मोहिं बिसारो।

जानत निज महिमा मेरे अघ, तदपि न नाथ सँभारो ॥ १ ॥

पतित-पुनीत, दीनहित, असरन-सरन कहत श्रुति चारो।

हौं नहिं अधम, सभीत, दीन ? किधौं बेदन मृषा पुकारो ? ॥ २ ॥

खग-गनिका-गज-ब्याध-पाँति जहँ तहँ हौहूँ बैठारो।

अब केहि लाज कृपानिधान ! परसत पनवारो फारो ॥ ३ ॥

जो कलिकाल प्रबल अति होतो, तुव निदेसतें न्यारो।

तौ हरि रोष भरोस दोष गुन तेहि भजते तजि गारो ॥ ४ ॥

मसक बिरंचि, बिरंचि मसक सम, करहु प्रभाउ तुम्हारो।

यह सामरथ अछत मोहिं त्यागहु, नाथ तहाँ कछु चारो ॥ ५ ॥

नाहिन नरक परत मोकहँ डर, जद्यपि हौं अति हारो।

यह बडि त्रास दासतुलसी प्रभु, नामहु पाप न जारो ॥ ६ ॥

९५

तरु न मेरे अघ-अवगुन गनिहैं ।

जौ जमराज काज सब परिहरि, इहै ख्याल उर अनिहैं ॥ १ ॥

चलिहैं छूटि पुंज पापिनके, असमंजस जिय जनिहैं ।

देखि खलल अधिकार प्रभूसों (मेरी) भूरि भलाई भनिहैं ॥ २ ॥

हँसि करिहैं परतीति भगतकी भगत-सिरोमनि मनिहैं ।

ज्यों त्यों तुलसिदास कोसलपति अपनायेहि पर बनिहैं ॥ ३ ॥

९६

जौ पै जिय धरिहौ अवगुन जनके ।

तौ क्यों कटत सुकृत-नखते मो पै, बिपुल बृंद अघ-बनके ॥ १ ॥

कहिहै कौन कलुष मेरे कृत, करम बचन अरु मनके ।

हारहिं अमित सेष सारद श्रुति, गिनत एक-एक छनके ॥ २ ॥

जो चित चढ़ै नाम-महिमा निज, गुनगन पावन पनके ।

तो तुलसिहिं तारिहौ बिप्र ज्यों दसन तोरि जमगनके ॥ ३ ॥

९७

जौ पै हरि जनके औगुन गहते ।

तौ सुरपति कुरुराज बालिसों, कत हठि बैर बिसहते ॥ १ ॥

जौ जप जाग जोग ब्रत बरजित, केवल प्रेम न चहते ।

तौ कत सुर मुनिबर बिहाय ब्रज, गोप-गेह बसि रहते ॥ २ ॥

जौ जहँ-तहँ प्रन राखि भगतको, भजन-प्रभाउ न कहते ।

तौ कलि कठिन करम-मारग जड़ हम केहि भाँति निबहते ॥ ३ ॥

जौ सुतहित लिये नाम अजामिलके अघ अमित न दहते ।

तौ जमभट साँसति-हर हमसे बृषभ खोजि खोजि नहते ॥ ४ ॥

जौ जगबिदित पतितपावन, अति बाँकुर बिरद न बहते ।

तौ बहुकलप कुटिल तुलसीसे, सपनेहुँ सुगति न लहते ॥ ५ ॥

९८

ऐसी हरि करत दासपर प्रीति ।

निज प्रभुता बिसारि जनके बस, होत सदा यह रीति ॥ १ ॥

जिन बाँधे सुर-असुर, नाग-नर, प्रबल करमकी डोरी ।

सोइ अबिछिन्न ब्रह्म जसुमति हठि बाँध्यो सकत न छोरी ॥ २ ॥

जाकी मायाबस बिरंचि सिव, नाचत पार न पायो ।

करतल ताल बजाय ग्वाल-जुवतिन्ह सोइ नाच नचायो ॥ ३ ॥

बिस्वंभर, श्रीपति, त्रिभुवनपति, बेद-बिदित यह लीख ।

बलिसों कछु न चली प्रभुता बरु है द्विज माँगी भीख ॥ ४ ॥

जाको नाम लिये छूटत भव-जनम-मरन दुख-भार ।

अंबरीष-हित लागि कृपानिधि सोइ जनमे दस बार ॥ ५ ॥

जोग-बिराग, ध्यान-जप-तप करि, जेहि खोजत मुनि ग्यानी ।

बानर-भालु चपल पसु पामर, नाथ तहाँ रति मानी ॥ ६ ॥

लोकपाल, जम, काल, पवन, रबि, ससि सब आग्याकारी ।

तुलसिदास प्रभु उग्रसेनके द्वार बेंत कर धारी ॥ ७ ॥

९९

बिरद गरीबनिवाज रामको ।

गावत बेद-पुरान, संभु-सुक, प्रगट प्रभाउ नामको ॥ १ ॥

ध्रुव, प्रहलाद, बिभीषन, कपिपति, जड, पतंग, पाडंव, सुदामको ।

लोक सुजस परलोक सुगति, इन्हमें को है राम कामको ॥ २ ॥

गनिका, कोल, किरात, आदिकबि इन्हते अधिक बाम को।

बाजिमेध कब कियो अजामिल, गज गायो कब सामको ॥ ३।

छली, मलीन, हीन सब ही अँग, तुलसी सो छीन छामको।

नाम-नरेस-प्रताप प्रबल जग, जुग-जुग चालत चामको ॥ ४ ॥

१००

सुनि सीतापति-सील-सुभाउ।

मोद न मन, तन पुलक, नयन जल, सो नर खेहर खाउ ॥ १ ॥

सिसुपनतें पितु, मातु, बंधु, गुरु, सेवक, सचिव, सखाउ।

कहत राम-बिधु-बदन रिसोहैं सपनेहुँ लख्यो न काउ ॥ २ ॥

खेलत संग अनुज बालक नित, जोगवत अनट अपाउ।

जीति हारि चुचुकारि दुलारत, देत दिवावत दाउ ॥ ३ ॥

सिला साप-संताप-बिगत भइ परसत पावन पाउ।

दई सुगति सो न हेरि हरष हिय, चरन छुएको पछिताउ ॥ ४ ॥

भव-धनु भंजि निदरि भूपति भृगुनाथ खाइ गये ताउ।

छमि अपराध, छमाइ पाँय परि, इतौ न अनत समाउ ॥ ५ ॥

कह्यो राज, बन दियो नारिबस, गरि गलानि गयो राउ।

ता कुमातुको मन जोगवत ज्यों निज तन मरम कुघाउ ॥ ६ ॥

कपि-सेवा-बस भये कनौड़े, कह्यौ पवनसुत आउ।

देबेको न कछु रिनियाँ हौं धनिक तूँ पत्र लिखाउ ॥ ७ ॥

अपनाये सुग्रीव बिभीषन, तिन न तज्यो छल-छाउ।

भरत सभा सनमानि, सराहत, होत न हृदय अघाउ ॥ ८ ॥

निज करुना करतूति भगत पर चपत चलत चरचाउ।

सकृत प्रनाम प्रनत जल बरनत, सुनत कहत फिरि गाउ ॥ ९ ॥

समुझि समुझि गुनग्राम रामके, उर अनुराग बढ़ाउ।

तुलसिदास अनयास रामपद पाइहै प्रेम-पसाउ ॥ १० ॥

 

१०१

जाउँ कहाँ तजि चरन तुम्हारे।

काको नाम पतित-पावन जग, केहि अति दीन पियारे ॥ १ ॥

कौने देव बराइ बिरद-हित, हठि हठि अधम उधारे।

खग, मृग, ब्याध, पषान, बिटप जड़, जवन कवन सुर तारे ॥ २ ॥

देव, दनुज, मुनि, नाग, मनुज सब, माया-बिबस बिचारे।

तिनके हाथ दासतुलसी प्रभु, कहा अपनपौ हारे ॥ ३ ॥

१०२

हरि! तुम बहुत अनुग्रह कीन्हो।

साधन-धाम बिबुध दुरलभ तनु, मोहि कृपा करि दीन्हों ॥ १ ॥

कोटिहुँ मुख कहि जात न प्रभुके, एक एक उपकार।

तदपि नाथ कछु और माँगिहौं, दीजै परम उदार ॥ २ ॥

बिषय-बारि मन-मीन भिन्न नहिं होत कबहुँ पल एक।

ताते सहौं बिपति अति दारुन, जनमत जोनि अनेक ॥ ३ ॥

कृपा-डोरि बनसी पद अंकुस, परम प्रेम-मृदु-चारो।

एहि बिधि बेधि हरहु मेरो दुख, कौतुक राम तिहारो ॥ ४ ॥

हैं श्रुति-बिदित उपाय सकल सुर, केहि केहि दीन निहोरै।

तुलसिदास येहि जीव मोह-रजु, जेहि बाँध्यो सोइ छोरै ॥ ५ ॥

१०३

यह बिनती रघुबीर गुसाई।

और आस-बिस्वास-भरोसो, हरो जीव-जड़ताई ॥ १ ॥

चहौं न सुगति, सुमति, संपति कछु, रिधि-सिधि बिपुल बड़ाई।

हेतु-रहित अनुराग राम-पद बढ़ै अनुदिन अधिकाई ॥ २ ॥

कुटिल करम लै जाहिं मोहि जहँ जहँ अपनी बरिआई।

तहँ तहँ जनि छिन छोह छाँड़ियो, कमठ-अंडकी नाई ॥ ३ ॥

या जगमें जहँ लगि या तनुकी प्रीति प्रतीति सगाई।

ते सब तुलसिदास प्रभु ही सों होहिं सिमिटि इक ठाई ॥ ४ ॥

१०४

जानकी-जीवनकी बलि जैहौं।

चित कहै रामसीय-पद परिहरि अब न कहूँ चलि जैहौं ॥ १ ॥

उपजी उर प्रतीति सपनेहुँ सुख, प्रभु-पद-बिमुख न पैहौं।

मन समेत या तनके बासिन्ह, इहै सिखावन दैहौं ॥ २ ॥

श्रवननि और कथा नहिं सुनिहौं, रसना और न गैहौं।

रोकिहौं नयन बिलोकत औरहिं, सीस ईस ही नैहौं ॥ ३ ॥

नातो-नेह नाथसों करि सब नातो-नेह बहैहौं।

यह छर भार ताहि तुलसी जग जाको दास कहैहौं ॥ ४ ॥

१०५

अबलौ नसानी, अब न नसैहौं।

राम-कृपा भव-निसा सिरानी, जागे फिरि न डसैहौं ॥ १ ॥

पायेउँ नाम चारु चिंतामनि, उर कर तें न खसैहौं।

स्यामरूप सुचि रुचिर कसौटी, चित कंचनहिं कसैहौं ॥ २ ॥

परबस जानि हँस्यो इन इंद्रिन, निज बस ह्वे न हँसेहौं।

मन मधुकर पनकै तुलसी रघुपति-पद-कमल बसैहौं ॥ ३ ॥

 

राग रामकली

१०६

महाराज रामादर् यो धन्य सोई।

गरुअ, गुनरासि, सरबग्य, सुकृती, सूर, सील-निधि, साधु तेहि सम न कोई ॥ १ ॥

उपल, केवट, कीस, भालु, निसिचर, सबरि, गीध सम-दम-दया-दान-हीने।

नाम लिये राम किये परम पावन सकल, नर तरत तिनके गुनगान कीने ॥ २ ॥

ब्याध अपराधकी साध राखी कहा, पिंगलै कौन मति भगति भेई।

कौन धौं सोमजाजी अजामिल अधम, कौन गजराज धौं बाजपेयी ॥ ३ ॥

पांडु-सुत, गोपिका, बिदुर, कुबरी, सबरि, सुद्ध किये सुद्धता लेस कैसो।

प्रेम लखि कृस्न किये आपने तिनहुको, सुजस संसार हरिहरको जैसो ॥ ४ ॥

कोल, खस, भील, जवनादि खल राम कहि, नीच ह्वे ऊँच पद को न पायो।

दीन-दुख-दवन श्रीरवन करुना-भवन, पतित-पावन विरद बेद गायो ॥ ५ ॥

मंदमति, कुटिल, खल-तिलक तुलसी सरिस, भो न तिहुँ लोक तिहुँ काल कोऊ।

नामकी कानि पहिचानि पन आपनो, ग्रसित कलि-ब्याल राख्यो सरन सोऊ ॥ ६ ॥

बिहाग

राग

बिलावल

१०७

है नीको मेरो देवता कोसलपति राम।

सुभग सरोरुह लोचन, सुठि सुंदर स्याम ॥ १ ॥

सिय-समेत सोहत सदा छबि अमित अनंग।

भुज बिसाल सर धनु धरे, कटि चारु निषंग ॥ २ ॥

बलिलपूजा चाहत नहीं, चाहत एक प्रीति।

सुमिरत ही मानै भलो, पावन सब रीति ॥ ३ ॥

देहि सकल सुख, दुख दहै, आरत-जन-बंधु।

गुन गहि, अघ-औगुन हरै, अस करुनासिंधु ॥ ४ ॥

देस-काल-पूरन सदा बद बेद पुरान।

सबको प्रभु, सबमें बसै, सबकी गति जान ॥ ५ ॥

को करि कोटिक कामना, पूजै बहु देव।

तुलसिदास तेहि सेइये, संकर जेहि सेव ॥ ६ ॥

१०८

बीर महा अवराधिये, साधे सिधि होय।

सकल काम पूरन करै, जाने सब कोय ॥ १ ॥

बेगि, बिलंब न कीजिये लीजै उपदेस।

बीज महा मंत्र जपिये सोई, जो जपत महेस ॥ २ ॥

प्रेम-बारि-तरपन भलो, घृत सहज सनेहु।

संसय-समिध, अगिनि छमा, ममता-बलि देहु ॥ ३ ॥

अघ-उचाटि, मन बस करै, मारै मद मार।

आकरषै सुख-संपदा-संतोष-बिचार ॥ ४ ॥

जिन्ह यहि भाँति भजन कियो, मिले रघुपति ताहि।

तुलसिदास प्रभुपथ चढ् यौ, जौ लेहु निबाहि ॥ ५ ॥

१०९

कस न करहु करुना हरे! दुखहरन मुरारि!

त्रिबिधताप-संदेह-सोक-संसय-भय-हारि ॥ १ ॥

इक कलिकाल-जनित मल, मतिमंद, मलिन-मन।

तेहिपर प्रभु नहिं कर सँभार, केहि भाँति जियै जन ॥ २ ॥

सब प्रकार समरथ प्रभो, मैं सब बिधि दीन।

यह जिय जानि द्रवौ नहीं, मै करम बिहीन ॥ ३ ॥

भ्रमत अनेक जोनि, रघुपति, पति आन न मोरे।

दुख-सुख सहौं, रहौं सदा सरनागत तोरे ॥ ४ ॥

तो सम देव न कोउ कृपालु, समुझौं मनमाहीं।

तुलसिदास हरि तोषिये, सो साधन नाहीं ॥ ५ ॥

११०

कहु केहि कहिय कृपानिधे! भव-जनित बिपति अति।

इंद्रिय सकल बिकल सदा, निज निज सुभाउ रति ॥ १ ॥

जे सुख-संपति, सरग-नरक संतत सँग लागी।

हरि! परिहरि सोइ जतन करत मन मोर अभागी ॥ २ ॥

मै अति दीन, दयालु देव सुनि मन अनुरागे।

जो न द्रवहु रघुबीर धीर, दुख काहे न लागे ॥ ३ ॥

जद्यपि मैं अपराध-भवन, दुख-समन मुरारे।

तुलसिदास कहँ आस यहै बहु पतित उधारे ॥ ४ ॥

१११

केसव! कहि न जाइ का कहिये।

देखत तव रचना बिचित्र हरि! समुझि मनहिं मन रहिये ॥ १ ॥

सून्य भीति पर चित्र, रंग नहिं, तनु बिनु लिखा चितेरे।

धोये मिटइ न मरइ भीति, दुख पाइय एहि तनु हेरे ॥ २ ॥

रबिकर-नीर बसै अति दारुन मकर रूप तेहि माहीं।

बदन-हीन सो ग्रसै चराचर, पान करन जे जाहीं ॥ ३ ॥

कोउ कह सत्य, झूठ कह कोऊ, जुगल प्रबल कोउ मानै।

तुलसिदास परिहरै तीन भ्रम, सो आपन पहिचानै ॥ ४ ॥

११२

केसव! कारन कौन गुसाई।

जेहि अपराध असाध जानि मोहिं तजेउ अग्यकी नाई ॥ १ ॥

परम पुनीत संत कोमल-चित, तिनहिं तुमहिं बनि आई।

तौ कत बिप्र, ब्याध, गनिकहि तारेहु, कछु रही सगाई ? ॥ २ ॥

काल, करम, गति अगति जीवकी, सब हरि! हाथ तुम्हारे।

सोइ कछु करहु, हरहु ममता प्रभु! फिरउँ न तुमहिं बिसारे ॥ ३ ॥

जौ तुम तजहु, भजौं न आन प्रभु, यह प्रमान पन मोरे।

मन-बच-करम नरक-सुरपुर जहँ तहँ रघुबीर निहोरे ॥ ४ ॥

जद्यपि नाथ उचित न होत अस, प्रभु सों करौं ढिठाई।

तुलसिदास सीदत निसिदिन देखत तुम्हारि निठुराई ॥ ५ ॥

 

११३

माधव! अब न द्रवहु केहि लेखे।

प्रनतपाल पन तोर, मोर पन जिअहुँ कमलपद देखे ॥ १ ॥

जब लगि मै न दीन, दयालु तैं, मैं न दास, तैं स्वामी।

तब लगि जो दुख सहेउँ कहेउँ नहिं, जद्यपि अंतरजामी ॥ २ ॥

तैं उदार, मैं कृपन, पतित मैं, तैं पुनीत, श्रुति गावै।

बहुत नात रघुनाथ! तोहि मोहि, अब न तजे बनि आवै ॥ ३ ॥

जनक-जननि, गुरुबंधु, सुहृदकल-पति, सब प्रकार हितकारी।

द्वैतरूप तम-कूप परौं नहिं, अस कछु जतन बिचारी ॥ ४ ॥ ø

सुनु अदभ्र करुना बारिजलोचन मोचन भय भारी।

तुलसिदास प्रभु! तव प्रकास बिनु, संसय टरै न टारी ॥ ५ ॥

११४

माधव! मो समान जग माहीं।

सब बिधि हीन, मलीन, दीन अति, लीन-बिषय कोउ नाहीं ॥ १ ॥

तुम सम हेतुरहित कृपालु आरत-हित ईस न त्यागी।

मैं दुख-सोक-बिकल कृपालु! केहि कारन दया न लागी ॥ २ ॥

नाहिंन कछु औगुन तुम्हार, अपराध मोर मैं माना।

ग्यान-भवन तनु दियेहु नाथ, सोउ पाय न मैं प्रभु जाना ॥ ३ ॥

बेनु करील, श्रीखंड बसंतहि दूषन मृषा लगावै।

सार-रहित हत-भाग्य सुरभि, पल्लव सो कहु किमि पावै ॥ ४ ॥

सब प्रकार मैं कठिन, मृदुल हरि, दृढ़ बिचार जिय मोरे।

तुलसिदास प्रभु मोह-सृंखला, छुटिहि तुम्हारे छोरे ॥ ५ ॥

११५

माधव! मोह-फाँस क्यों टूटै।

बाहिर कोटि उपाय करिय, अभ्यंतर ग्रन्थि न छूटै ॥ १ ॥

घृतपूरन कराह अंतरगत ससि-प्रतिबिंब दिखावै।

ईंधन अनल लगाय कलपसत, औटत नास न पावै ॥ २ ॥

तरु-कोटर महँ बस बिहंग तरु काटे मरै न जैसे।

साधन करिय बिचार-हीन मन सुद्ध होइ नहिं तैसे ॥ ३ ॥

अंतर मलिन बिषय मन अति, तन पावन करिय पखारे।

मरइ न उरग अनेक जतन बलमीकि बिबिध बिधि मारे ॥ ४ ॥

तुलसिदास हरि-गुरु-करुना बिनु बिमल बिबेक न होई।

बिनु बिबेक संसार-घोर-निधि पार न पावै कोई ॥ ५ ॥

११६

माधव! असि तुम्हारि यह माया ।

करि उपाय पचि मरिय, तरिय नहिं जब लगि करहु न दाया ॥ १ ॥

सुनिय, गुनिय, समुझिय, समुझाइय, दसा हृदय नहिं आवै ।

जेहि अनुभव बिनु मोहजनित भव दारुन बिपति सतावै ॥ २ ॥

ब्रह्म-पियूष मधुर सीतल जो पै मन सो रस पावै ।

तौ कत मृगजल-रूप बिषय कारन निसि-बासर धावै ॥ ३ ॥

जेहिके भवन बिमल चिंतामनि, सो कत काँच बटोरै ।

सपने परबस परै, जागि देखत केहि जाइ निहोरै ॥ ४ ॥

ग्यान-भगति साधन अनेक, सब सत्य, झूँठ कछु नाही ।

तुलसिदास हरि-कृपा मिटै भ्रम, यह भरोस मनमाहीं ॥ ५ ॥

११७

हे हरि! कवन दोष तोहिं दीजै ।

जेहि उपाय सपनेहुँ दुरलभ गति, सोइ निसि-बासर कीजै ॥ १ ॥

जानत अर्थ अनर्थ-रूप, तमकूप परब यहि लागे ।

तदपि न तजत स्वान अज खर ज्यो, फिरत बिषय अनुरागे ॥ २ ॥

भूत-द्रोह कृत मोह-बस्य हित आपन मै न बिचारो ।

मद-मत्सर-अभिमान ग्यान-रिपु, इन महँ रहनि अपारो ॥ ३ ॥

बेद-पुरान सुनत समुझत रघुनाथ सकल जगब्यापी ।

बेधत नहिं श्रीखंड बेनु इव, सारहीन मन पापी ॥ ४ ॥

मैं अपराध-सिंधु करुनाकर ! जानत अंतरजामी ।

तुलसिदास भव-ब्याल-ग्रसित तव सरन उरग-रिपु-गामी ॥ ५ ॥

११८

हे हरि ! कवन जतन सुख मानहु ।

ज्यों गज-दसन तथा मम करनी, सब प्रकार तुम जानहु ॥ १ ॥

जो कछु कहिय करिय भवसागर तरिय बच्छपद जैसे ।

रहनि आन बिधि, कहिय आन, हरिपद-सुख पाइय कैसे ॥ २ ॥

देखत चारु मयूर बयन सुभ बोलि सुधा इव सानी ।

सबिष उरग-आहार, निठुर अस, यह करनी वह बानी ॥ ३ ॥

अखिल-जीव-वत्सल, निरमत्सर, दरन-कमल-अनुरागी ।

ते तव प्रिय रघुबीर धीरमति, अतिसय निज-पर-त्यागी ॥ ४ ॥

जद्यपि मम औगुन अपार संसार-जोग्य रघुराया ।

तुलसिदास निज गुन बिचारि करुनानिधान करु दाया ॥ ५ ॥

 

११९

हे हरि ! कवन जतन भ्रम भागै ।

देखत, सुनत, बिचारत यह मन, निज सुभाउ नहिं त्यागै ॥ १ ॥

भगति-ग्यान-बैराग्य सकल साधन यहि लागि उपाई ।

कोउ भल कहउ, देउ कछु, असि बासना न उरते जाई ॥ २ ॥

जेहि निसि सकल जीव सूतहिं तव कृपापात्र जन जागै ।

निज करनी बिपरीत देखि मोहिं समुझि महा भय लागै ॥ ३ ॥

जद्यपि भग्न-मनोरथ बिधिबस, सुख इच्छत, दुख पावै ।

चित्रकार करहीन जथा स्वारथ बिनु चित्र बनावै ॥ ४ ॥

हृषीकेश सुनि नाउँ जाउँ बलि, अति भरोस जिय मोरे ।

तुलसिदास इंद्रिय-संभव दुख, हरे बनिहिं प्रभु तोरे ॥ ५ ॥

१२०

हे हरि ! कस न हरहु भ्रम भारी ।

जद्यपि मृषा सत्य भासै जबलगि नहिं कृपा तुम्हारी ॥ १ ॥

अर्थ अबिद्यमान जानिय संसृति नहिं जाइ गोसाई ।

बिन बाँधे निज हठ सठ परबस पर् यो कीरकी नाई ॥ २ ॥

सपने ब्याधि बिबिध बाधा जनु मृत्यु उपस्थित आई ।

बैद अनेक उपाय करै जागे बिनु पीर न जाई ॥ ३ ॥

श्रुति-गुरु-साधु-समृति-संमत यह दृश्य असत दुखकारी ।

तेहि बिनु तजे, भजे बिनु रघुपति, बिपति सकै को टारी ॥ ४ ॥

बहु उपाय संसार-तरन कहँ, बिमल गिरा श्रुति गावै ।

तुलसिदास मैं-मोर गये बिनु जिउ सुख कबहुँ न पावै ॥ ५ ॥

१२१

हे हरि ! यह भ्रमकी अधिकाई ।

देखत, सुनत, कहत, समुझत संसय-संदेह न जाई ॥ १ ॥

जो जग मृषा ताप-त्रय-अनुभव होइ कहहु केहि लेखे ।

कहि न जाय मृगबारि सत्य, भ्रम ते दुख होइ बिसेखे ॥ २ ॥

सुभग सेज सोवत सपने, बारिधि बूड़त भय लागै ।

कोटिहुँ नाव न पार पाव सो, जब लगि आपु न जागै ॥ ३ ॥

अनबिचार रमनीय सदा, संसार भयंकर भारी ।

सम-संतोष-दया-बिबेक तें, व्यवहारी सुखकारी ॥ ४ ॥

तुलसिदास सब बिधि प्रपञ्च जग, जदपि झूठ श्रुति गावै ।

रघुपति-भगति, संत-संगति बिनु, को भव-त्रास नसावै ॥ ५ ॥

 

१२२

मै हरि, साधन करइ न जानी ।

जस आमय भेषज न कीन्ह तस, दोष कहा दिरमानी ॥ १ ॥

सपने नृप कहँ घटै बिप्र-बध, बिकल फिरै अघ लागे ।

बाजिमेध सत कोटि करै नहिं सुद्ध होइ बिनु जागे ॥ २ ॥

स्त्रग महँ सर्प बिपुल भयदायक, प्रगट होइ अबिचारे ।

बहु आयुध धरि, बल अनेक करि हारहिं, मरइ न मारे ॥ ३ ॥

निज भ्रम ते रबिकर-सम्भव सागर अति भय उपजावै ।

अवगाहत बोहोत नौका चढ़ि कबहुँ पार न पावै ॥ ४ ॥

तुलसिदास जग आपु सहित जब लगि निरमूल न जाई ।

तब लगि कोटि कलप उपाय करि मरिय, तरिय नहिं भाई ॥ ५ ॥

१२३

अस कछु समुझि परत रघुराया !

बिनु तव कृपा दयालु ! दास-हित ! मोह न छूटै माया ॥ १ ॥

बाक्य-ग्यान अत्यंत निपुन भव-पार न पावै कोई ।

निसि गृहमध्य दीपकी बातन्ह, तम निबृत नहिं होई ॥ २ ॥

जैसे कोइ इक दीन दुखित अति असन-हीन दुख पावै ।

चित्र कलपतरु कामधेनु गृह लिखे न बिपति नसावै ॥ ३ ॥

षटरस बहुप्रकार भोजन कोउ, दिन अरु रैनि बखानै ।

बिनु बोले संतोष-जनित सुख खाइ सोइ पै जानै ॥ ४ ॥

जबलगि नहिं निज हृदि प्रकास, अरु बिषय-आस मनमाहीं ।

तुलसिदास तबलगि जग-जोनि भ्रमत सपनेहुँ सुख नाहीं ॥ ५ ॥

१२४

जौ निज मन परिहरै बिकारा।

तौ कत द्वैत-जनित संसृति-दुख, संसय, सोक अपारा ॥ १ ॥

सत्रु, मित्र, मध्यस्थ, तीनि ये, मन कीन्हे बरिआई।

त्यागन, गहन, उपेच्छनीय, अहि हाटक तृनकी नाई ॥ २ ॥

असन, बसन, पसु बस्तु बिबिध बिधिसब मनि महँ रह जैसे।

सरग, नरक, चर-अचर लोक बहु, बसत मध्य मन तैसे ॥ ३ ॥

बिटप-मध्य पुतरिका, सूत महँ कंचुकि बिनहिं बनाये।

मन महँ तथा लीन नाना तनु, प्रगटत अवसर पाये ॥ ४ ॥

रघुपति-भगति-बारि-छालित-चित, बिनु प्रयास ही सूझै।

तुलसिदास कह चिद-बिलास जग बूझत बूझत बूझै ॥ ५ ॥

१२५

मै केहि कहौं बिपति अति भारी। श्रीरघुबीर धीर हितकारी ॥ १ ॥

मम हृदय भवन प्रभु तोरा। तहँ बसे आइ बहु चोरा ॥ २ ॥

अति कठिन करहिं बरजोरा। मानहिं नहिं बिनय निहोरा ॥ ३ ॥

तम, मोह, लोभ, अहँकारा। मद, क्रोध, बोध-रिपु मारा ॥ ४ ॥

अति करहिं उपद्रव नाथा। मरदहिं मोहि जानि अनाथा ॥ ५ ॥

मैं एक, अमित बटपारा। कोउ सुनै न मोर पुकारा ॥ ६ ॥

भागेहु नहिं नाथ! उबारा। रघुनायक, करहुँ सँभारा ॥ ७ ॥

कह तुलसिदास सुनु रामा। लूटहिं तसकर तव धामा ॥ ८ ॥

चिंता यह मोहिं अपारा। अपजस नहिं होइ तुम्हारा ॥ ९ ॥

१२६

मन मेरे, मानहि सिख मेरी। जो निजु भगति चहै हरि केरी ॥ १ ॥

उर आनहि प्रभु-कृत हित जेते। सेवहि ते जे अपनपौ चेते ॥ २ ॥

दुख-सुख अरु अपमान-बड़ाई। सब सम लेखहि बिपति बिहाई ॥ ३ ॥

सुनु सठ काल-ग्रसित यह देही। जनि तेहि लागि बिदूषहि केही ॥ ४ ॥

तुलसिदास बिनु असि मति आयै। मिलहिं न राम कपट-लौ लाये ॥ ५ ॥

 

१२७

मै जानी, हरिपद-रति नाहीं। सपनेहुँ नहिं बिराग मन माहीं ॥ १ ॥

जे रघुबीर चरन अनुरागे। तिन्ह सब भोग रोगसम त्यागे ॥ २ ॥

काम-भुजंग डसत जब जाहीं। बिषय-नींब कटु लगत न ताही ॥ ३ ॥

असमंजस अस हृदय बिचारी। बढ़त सोच नित नूतन भारी ॥ ४ ॥

जब कब राम-कृपा दुख जाई। तुलसिदास नहिं आन उपाई ॥ ५ ॥

१२८

सुमिरु सनेह-सहित सीतापति। रामचरन तजि नहिंन आनि गति ॥ १ ॥

जप, तप, तीरथ, जोग समाधी। कलिमत बिकल, न कछु निरुपाधी ॥ २ ॥

करतहुँ सुकृत न पाप सिराहीं। रकतबीज जिमि बाढ़त जाहीं ॥ ३ ॥

हरति एक अघ-असुर-जालिका। तुलसिदास प्रभु-कृपा-कालिका ॥ ४ ॥

१२९

रुचिर रसना तू राम राम राम क्यों न रटत।

सुमिरत सुख-सुकृत बढ़त, अघ-अमंगल घटत ॥ १ ॥

बिनु श्रम कलि-कलुषजाल कटु कराल कटत।

दिनकरके उदय जैसे तिमिर-तोम फटत ॥ २ ॥

जोग, जाग, जप, बिराग, तप सुतीरथ-अटत।

बाँधिबेको भव-गयंद रेनुकी रजु बटत ॥ ३ ॥

परिहरि सुर-मनि सुनाम, गुंजा लखि लटत।

लालच लघु तेरो लखि, तुलसि तोहि हटत ॥ ४ ॥

१३०

राम राम, राम राम, राम राम, जपत।

मंगल-मुद उदित होत, कलि-मल-छल छपत ॥ १ ॥

कहु के लहे फल रसाल, बबुर बीज बपत।

हाहरि जनि जनम जाय गाल गूल गपत ॥ २ ॥

काल, करम, गुन, सुभाउ सबके सीस तपत।

राम-नाम-महिमाकी चरचा चले चपत ॥ ३ ॥

साधन बिनु सिद्धि सकल बिकल लोग लपत।

कलिजुग बर बनिज बिपुल, नाम-नगर खपत ॥ ४ ॥

नाम सों प्रतीति-प्रीति हृदय सुथिर थपत।

पावन किये रावन-रिपु तुलसिहु-से अपत ॥ ५ ॥

१३१

पावन प्रेम राम-चरन-कमल जनम लाहु परम।

रामनाम लेत होत, सुलभ सकल धरम ॥ १ ॥

जोग, मख, बिबेक, बिरत, बेद-बिदित करम।

करिबे कहँ कटु कठोर, सुनत मधुर, नरम ॥ २ ॥

तुलसी सुनि, जानि-बूझि, भूलहि जनि भरम।

तेहि प्रभुको होहि, जाहि सब ही की सरम ॥ ३ ॥

१३२

राम-से प्रीतमकी प्रीति-रहित जीव जाय जियत।

जेहि सुख सुख मानि लेत, सुख सो समुझ कियत ॥ १ ॥

जहँ जहँ जेहि जोनि जनम महि, पताल, बियत।

तहँ-तहँ तू बिषय-सुखहिं, चहत लहत नियत ॥ २ ॥

कत बिमोह लट्यो, फट्यो गगन मगन सियत।

तुलसी प्रभु-सुजस गाइ, क्यों न सुधा पियत ॥ ३ ॥

१३३

तोसो हौं फिरि फिरि हित, प्रिय, पुनीत सत्य बचन कहत।

सुनि मन, गुनि, समुझि, क्यों न सुगम सुमग गहत ॥ १ ॥

छोटो बड़ो, खोटो खरो, जग जो जहँ रहत।

अपनो अपनेको भलो कहहु, को न चहत ॥ २ ॥

बिधि लगि लघु कीट अवधि सुख सुखी, दुख दहत।

पसु लौं पसुपाल ईस बाँधत छोरत नहत ॥ ३ ॥

बिषय मुद निहार भार सिर काँधे ज्यों बहत।

योहीं जिय जानि, मानि सठ! तू साँसति सहत ॥ ४ ॥

पायो केहि घृत बिचारु, हरिन-बारि महत।

तुलसी तकु ताहि सरन, जाते सब लहत ॥ ५ ॥

१३४

ताते हौं बार बार देव! द्वार परि पुकार करत।

आरति, नति, दीनता कहें प्रभु संकट हरत ॥ १ ॥

लोकपाल सोक-बिकल रावन-डर डरत।

का सुनि सकुचे कृपालु नर-सरीर धरत ॥ २ ॥

कौसिक, मुनि-तीय, जनक सोच-अनल जरत।

साधन केहि सीतल भये, सो न समुझि परत ॥ ३ ॥

केवट, खग, सबरि सहज चरनकमल न रत।

सनमुख तोहिं होत नाथ! कुतरुíसुफरु फरत ॥ ४ ॥

बंधु-बैर कपि-बिभीषन गुरु गलानि गरत।

सेवा केहि रीझि राम, किये सरिस भरत ॥ ५ ॥

सेवक भयो पवनपूत साहिब अनुहरत।

ताको लिये नाम राम सबको सुढर ढरत ॥ ६ ॥

जाने बिनु राम-रीति पचि पचि जग मरत।

परिहरि छल सरन गये तुलसिहु-से तरत ॥ ७ ॥

राग सू हो बिलावल

१३५

राम सनेही सों तैं न सनेह कियो।

अगम जो अमरनि हूँ सो तनु तोहिं दियो ॥

दियो सुकुल जनम, सरीर सुंदर, हेतु जो फल चारिको।

जो पाइ पंडित परमपद, पावत पुरारि-मुरारिको ॥

यह भरतखंड, समीप सुरसरि, थल भलो, संगति भली।

तेरी कुमति कायर! कलप-बल्ली चहति है बिष फल फली ॥ १ ॥

***

अजहूँ समुझि चित दै सुनु परमारथ।

है हित सो जगहूँ जाहिते स्वारथ ॥

स्वारथहि प्रिय, स्वारथ सो का ते कौन बेद बखानई।

देखु खल, अहि-खेल परिहरि, सो प्रभुहि पहिचानाई ॥

पितु-मातु, गुरु, स्वामी, अपनपौ, तिय, तनय, सेवक, सखा।

प्रिय लगत जाके प्रेमसों, बिनु हेतु हित तैं नहि लखा ॥ २ ॥

***

दूरि न सो हितू हेरि हिये ही है।

छलहि छाँड़ि सुमिरे छोहु किये ही है।

किये छोहु छाया कमल करकी भगतपर भजतहि भजै।

जगदीश, जीवन जीवको, जो साज सब सबको सजै ॥

हरिहि हरिता, बिधिहि बिधिता, सिवहि सिवता जो दई।

सोइ जानकी-पति मधुर मूरति, मोदमय मंगल मई ॥ ३ ॥

***

ठाकुर अतिहि बड़ो, सील, सरल, सुठि।

ध्यान अगम सिवहूँ, भेट्यो केवट उठि ॥

भरि अंक भेट्यो सजल नयन, सनेह सिथिल सरीर सो।

सुर, सिद्ध, मुनि, कबि कहत कोउ न प्रेमप्रिय रघुबीर सो।

खग, सबरि, निसिचर, भालु, कपि किये आपु ते बंदित बड़े।

तापर तिन्ह कि सेवा सुमिरि जिय जात जनु सकुचनि गड़े ॥ ४ ॥

***

स्वामीको सुभाव कह्यो सो जब उर आनिहै।

सोच सकल मिटिहै, राम भलो मन मानिहैं ॥

भलो मानिहै रघुनाथ जोरि जो हाथ माथो नाइहै।

ततकाल तुलसीदास जीवन-जनमको फल पाइहै ॥

जपि नाम करहि प्रनाम, कहि गुन-ग्राम, रामहिं धरि हिये।

बिचरहि अवनि अवनीस-चरनसरोज मन-मधुकर किये ॥ ५ ॥

१३६

( १)

जिव जबते हरितें बिलगान्यो। तबतें देह गेह निज जान्यो ॥

मायाबस स्वरुप बिसरायो। तेहि भ्रमतें दारुन दुख पायो ॥

पायो जो दारुन दुसह दुख, सुख-लेस सपनेहुँ नहिं मिल्यो।

भव-सूल, सोक अनेक जेहि, तेहि पंथ तू हठि हठि चल्यो ॥

बहु जोनि जनम, जरा, बिपति, मतिमंद! हरि जान्यो नहीं।

श्रीराम बिनु बिश्राम मूढ़! बिचारु, लखि पायो कहीं ॥

( २)

आनँद-सिंधु-मध्य तव बासा। बिनु जाने कस मरसि पियासा ॥

मृग-भ्रम-बारि सत्य जिय जानी। तहँ तू मगन भयो सुख मानी ॥

तहँ मगन मज्जसि, पान करि, त्रयकाल जल नाहीं जहाँ।

निज सहज अनुभव रूप तव खल! भूलि अब आयो तहाँ ॥

निरमल, निरंजन, निरबिकार, उदार, सुख तैं परिहर् यो।

निःकाज राज बिहाय नृप इव सपन कारागृह पर् यो ॥

( ३)

तैं निज करम-डोरि दृढ़ कीन्हीं। अपने करनि गाँठि गहि दीन्हीं ॥

ताते परबस पर् यो अभागे। ता फल गरभ-बास-दुख आगे ॥

आगे अनेक समूह संसृत उदरगत जान्यो सोऊ।

सिर हेठ, ऊपर चरन, संकट बात नहिं पूछै कोऊ ॥

सोनित-पुरीष जो मूत्र-मल कृमि-कर्दमावृत सोवई।

कोमल सरीर, गँभीर बेदन, सीस धुनि-धुनि रोवई ॥

( ४)

तू निज करम-जालल जहँ घेरो। श्रीहरि संग तज्यो नहिं तेरो ॥

बहुबिधि प्रतिपालन प्रभु कीन्हों। परम कृपालु ग्यान तोहि दीन्हों ॥

तोहि दियो ग्यान-बिबेक, जनम अनेककी तब सुधि भई।

तेहि ईसकी हौं सरन, जाकी बिषम माया गुनमई ॥

जेहि किये जीव-निकाय बस, रसहीन, दिन-दिन अति नई।

सो करौ बेगि सँभारि श्रीपति, बिपति, महँ जेहि मति दई ॥

( ५)

पुनि बहुबिधि गलानि जिय मानी। अब जग जाइ भजौं चक्रपानी ॥

ऐसेहि करि बिचार चुप साधी। प्रसव-पवन प्रेरेउ अपराधी ॥

प्रेर् यो जो परम प्रचंड मारुत, कष्ट नाना तैं सह्यो।

सो ग्यान, ध्यान, बिराग, अनुभव जातना-पावक दह्यो ॥

अति खेद ब्याकुल, अलप बल, छिन एक बोलि न आवई।

तव तीव्र कष्ट न जान कोउ, सब लोग हरषित गावई ॥

( ६)

बाल दसा जेते दुख पाये। अति असीम, नहिं जाहिं गनाये ॥

छुधा-ब्याधि-बाधा भइ भारी। बेदन नहिं जानै महतारी ॥

जननी न जानै पीर सो, केहि हेतु सिसु रोदन करै।

सोइ करै बिबिध उपाय, जातें अधिक तुव छाती जरै ॥

कौमार, सैसव अरु किसोर अपार अघ को कहि सकै।

ब्यतिरेक तोहि निरदय! महाखल! आन कहु को सहि सकै ॥

( ७)

जोबन जुवती सँग रँग रात्यो। तब तू महा मोह-मद मात्यो ॥

ताते तजी धरम-मरजादा। बिसरे तब सब प्रथम बिषादा ॥

बिसरे बिषाद, निकाय-संकट समुझि नहिं फाटत हियो।

फिरि गर्भगत-आवर्त सृंसतिचक्र जेहि होइ सोइ कियो ॥

कृमि-भस्म-बिट-परिनाम तनु, तेहि लागि जग बैरी भयो।

परदार, परधन, द्रोहपर, संसार बाढ़ै नित नयो ॥

( ८)

देखत ही आई बिरुधाई। जो तैं सपनेहुँ नाहिं बुलाई ॥

ताके गुन कछु कहे न जाहीं। सो अब प्रगट देखु तनु माहीं ॥

सो प्रगट तनु जरजर जराबस, ब्याधि, सूल सतावई।

सिर-कंप, इन्द्रिय-सक्ति प्रतिहत, बचन काहु न भावई ॥

गृहपालहूतें अति निरादर, खान-पान न पावई।

ऐसिहु दसा न बिराग तहँ, तृष्णा-तरंग बढ़ावई ॥

( ९)

कहि को सकै महाभव तेरे। जनम एकके कछुक गनेरे ॥

चारि खानि संतत अवगाहीं। अजहुँ न करु बिचार मन माहीं ॥

अजहुँ बिचारु, बिकार तजि, भजु राम जन-सुखदायकं।

भवसिंधु दुस्तर जलरथं, भजु चक्रधर सुरनायकं ॥

बिनु हेतु करुनाकर, उदारे, अपार-माया-तारनं।

कैवल्य-पति, जगपति, रमापति, प्रानपति, गतिकारनं ॥

( १०)

रघुपति-भगति सुलभ, सुखकारी। सो त्रयताप-सोक-भय-हारी ॥

बिनु सतसंग भगति नहिं होई। ते तब मिलै द्रवै जब सोई ॥

जब द्रवै दीनदलयालु राघव, साधु-संगति पाइये।

जेहि दरस-परस-समागमादिक पापरासि नसाइये ॥

जिनके मिले दुख-सुख समान, अमानतादिक गुन भये।

मद-मोह लोभ-बिषाद-क्रोध सुबोधतें सहजहिं गये ॥

( ११)

सेवत साधु द्वैत-भय भागै। श्रीरघुबीर-चरन लय लागै ॥

देह-जनित विकार सब त्यागै। तब फिरि निज स्वरूप अनुरागै ॥

अनुराग सो निज रूप जो जगतें बिलच्छन देखिये।

सन्तोष, सम, सीतल, सदा दम, देहवंत न लेखिये ॥

निरमल, निरामय, एकरस, तेहि हरष-सोक न ब्यापई।

त्रैलोक-पावन सो सदा जाकी दसा ऐसी भई ॥

( १२)

जो तेहि पंथ चलै मन लाई। तौ हरि काहे न होहिं सहाई।

जो मारग श्रुति-साधु दिखावै। तेहि पथ चलत सबै सुख पावै ॥

पावै सदा सुख हरि-कृपा, संसार-आसा तजि रहै।

सपनेहुँ नहीं सुख द्वैत-दरसन, बात कोटिक को कहै ॥

द्विज, देव, गुरु, हरि, संत बिनु संसार-पार न पाइये।

यह जानि तुलसीदास त्रासहरन रमापति गाइये ॥

 

राग बिलावल

१३७

जो पै कृपा रघुपति कृपालुकी, बैर औरके कहा सरै।

होइ न बाँको बार भगतको, जो कोउ कोटि उपाय करै ॥ १ ॥

तकै नीचु जो मीचु साधुकी, सो पामर तेहि मीचू मरै ॥

बेद-बिदित प्रहलाद-कथा सुनि, को न भगति-पथ पाउँ धरै ? ॥ २ ॥

गज उधारि हरि थप्यो बिभीषन, ध्रुव अबिचल कबहूँ न टरै।

अंबरीष की साप सुरति करि, अजहुँ महामुनि ग्लानि गरै ॥ ३ ॥

सों धौं कहा जु न कियो सुजोधन, अबुध आपने मान जरै।

प्रभु-प्रसाद सौभाग्य बिजय-जस, पांडवनै बरिआइ बरै ॥ ४ ॥

जोइ जोइ कूप खनैगो परकहँ, सो सठ फिरि तेहि कूप परै।

सपनेहुँ सुख न संतद्रोहीकहँ, सुरतरु सोउ बिष-फरनि फरै ॥ ५ ॥

है काके द्वै सीस ईसके जौ हठि जनकी सीवँ चरै।

तुलसिदास रघुबीर-बाहुबल सदा अभय काहु न डरै ॥ ६ ॥

१३८

कबहुँ सो कर-सरोज रघुनायक! धरिहौ नाथ सीस मेरे।

जेहि कर अभय किये जन आरे, बारकल बिबस नाम टेरे ॥ १ ॥

जेहि कर-कमल कठोर संभुधन भंजि जनक-संसय मेट्यो।

जेहि कर-कमल उठाइ बंधु ज्यों, परम प्रीती केवट भेंट्यो ॥ २ ॥

जेहि कर-कमल कृपालु गीधकहँ, पिंड देइ निजधाम दियो।

जेहि कर बालि बिदारि दास-हित, कपिकुल-पति सुग्रीव कियो ॥ ३ ॥

आयो सरन सभीत बिभीषन जेहि कर-कमल तिलक कीन्हों।

जेहि कर गहि सर चाप असुर हति, अभयदान देवन्ह दीन्हों ॥ ४ ॥

सीतल सुखद छाँह जेहि करकी, मेटति पापो, ताप, माया।

निसि-बासर तेहि कर सरोजकी, चाहत तुलसिदास छाया ॥ ५ ॥

१३९

दीनदयालु, दुरित दारिद दुख दुनी दुसह तिहुँ ताप तई है।

देव दुवार पुकारत आरत, सबकी सब सुख हानि भई है ॥ १ ॥

प्रभुके बचन, बेद-बुध-सम्मत, 'मम मूरति महिदेवमई है'।

तिनकी मति रिस-राग-मोह-मद, लोभ लालची लीलि लई है ॥ २ ॥

राज-समाज कुसाज कोटि कटु कलपित कलुष कुचाल नई है।

नीति, प्रतीति, प्रीति परमित पति हेतुबाद हठि हेरि हई है ॥ ३ ॥

आश्रम-बरन-धरम-बिरहित जग, लोक-बेद-मरजाद गई है।

प्रजा पतित, पाखंड-पापरत, अपने अपने रंग रई है ॥ ४ ॥

सांति, सत्य, सुभ, रीति गई घटि, बढ़ी कुरीति, कपट-कलई है।

सीदत साधु, साधुता सोचति, खल बिलसत, हुलसति खलई है ॥ ५ ॥

परमारथ स्वारथ, साधन भये अफल, सफल नहिं सिद्धि सई है।

कामधेनु-धरनी कलि-गोमर-बिबस बिकल जामति न बई है ॥ ६ ॥

कलि-करनी बरनिय कहाँ लौं, करत फिरत बिनु टहल टई है।

तापर दाँत पीसि कर मींजत, को जानै चित कहा ठई है ॥ ७ ॥

त्यों त्यों नीच चढ़त सिर ऊपर, ज्यों ज्यों सीलबस ढील दई है।

सरुष बरजि तरजिये तरजनी, कुम्हिलैहै कुम्हड़ेकी जई है ॥ ८ ॥

दीजै दादि देखि ना तौ बलि, महि मोद-मंगल रितई है।

भरे भाग अनुराग लोग कहैं, राम कृपा-चितवनि चितई है ॥ ९ ॥

बिनती सुनि सानंद हेरि हँसि, करुना-बारि भूमि भिजई है।

राम-राज भयो काज, सगुन सुभ, राजा राम जगत-बिजई है ॥ १० ॥

समरथ बड़ो, सुजान सुसाहब, सुकृत-सैन हारत जितई है।

सुजन सुभाव सराहत सादर, अनायास साँसति बितई है ॥ ११ ॥

उथपे थपन, उजारि बसावन, गई बहोरि बिरद सदई है।

तुलसी प्रभु आरत-आरतिहर, अभयबाँह केहि केहि न दई है ॥ १२ ॥


१४०

ते नर नरकरूप जीवत जग भव-भंजन-पद-बिमुख अभागी।

निसिबासर रुचिपाप असुचिमन, खलमति-मलिन, निगमापथ-त्यागी ॥ १ ॥

नहिं सतसंग भजन नहिं हरिको, स्त्रवन न राम-कथा-अनुरागी।

सुत-बित-दार-भवन-ममता-निसि सोवत अति, न कबहुँ मति जागी ॥ २ ॥

तुलसिदास हरिनाम-सुधा तजि, सठ हठि पियत बिषय-बिष माँगी।

सूकर-स्वान-सृगाल, सरिस जन, जनमत जगत जननि-दुख लागी ॥ ३ ॥

१४१

रामचंद्र! रघुनायक तुमसों हौं बिनती केहि भाँति करौं।

अघ अनेक अवलोकि आपने, अनघ नाम अनुमानि डरौं ॥ १ ॥

पर-दुख दुखी सुखी पर-सुख ते, संत-सील नहिं हृदय धरौं।

देखि आनकी बिपति परम सुख, सुनि संपति बिनु आगि जरौं ॥ २ ॥

भगति-बिराग-ग्यान साधन कहि बहु बिधि डहकत लोग फिरों।

सिव-सरबस सुखधाम नाम तव, बेचि नरकप्रद उदर भरौं ॥ ३ ॥

जानत हौं निज पाप जलधि जिय, जल-सीकर सम सुनत लरौं।

रज-सम-पर अवगुन सुमेरु करि, गुन गिरि-सम रजतें निदरौं ॥ ४ ॥

नाना बेष बनाय दिवस-निसि, पर-बित जेहि तेहि जुगुति हरौं।

एकौ पल न कबहुँ अलोल चित हित दै पद-सरोज सुमिरौं ॥ ५ ॥

जो आचरन बिचारहु मेरो, कलप कोटि लगि औटि मरौं।

तुलसिदास प्रभु कृपा-बिलोकनि, गोपद-ज्यों भवसिंधु तरौं ॥ ६ ॥

१४२

सकुचत हौं अति राम कृपानिधि! क्यों करि बिनय सुनावौं।

सकल धरम बिपरीत करत, केहि भाँति नाथ! मन भावौ ॥ १ ॥

जानत हौं हरि रूप चराचर, मैं हठि नयन न लावौं।

अंजन-केस-सिखा जुवती, तहँ लोचन-सलभ पठावौं ॥ २ ॥

स्त्रवननिको फल कथा तुम्हारी, यह समुझौं, समुझावौं।

तिन्ह स्त्रवननि परदोष निरंतर सुनि सुनि भरि भरि तावौं ॥ ३ ॥

जेहि रसना गुन गाइ तिहारे, बिनु प्रयास सुख पावौं।

तेहि मुख पर-अपवाद भेक ज्यों रटि-रटि जनम नसावौं ॥ ४ ॥

'करहु हृदय अति बिमल बसहिं हरि', कहि कहि सबहिं सिखावौं।

हौं निज उर अभिमान-मोह-मद खल-मंडली बसावौं ॥ ५ ॥

जो तनु धरि हरिपद साधहिं जन, सो बिनु काज गँवावौं।

हाटक-घट भरि धर् यो सुधा गृह, तजि नभ कूप खनावौं ॥ ६ ॥

मन-क्रम-बचन लाइ कीन्हे अघ, ते करि जतन दुरावौं।

पर-प्रेरित इरषा बस कबहुँक किय कछु सुभ, सो जनावौं ॥ ७ ॥

बिप्र-द्रोह जनु बाँट पर् यो, हठि सबसों बैर बढ़ावौ।

ताहूपर निज मति-बिलास सब संतन माँझ गनावौं ॥ ८ ॥

निगम सेस सारद निहोरि जो अपने दोष कहावौं।

तौ न सिराहिं कलप सत लगि प्रभु, कहा एक मुख गावौं ॥ ९ ॥

जो करनी आपनी बिचारौं, तौं कि सरन हौं आवौं।

मृदुल सुभाउ सील रघुपतिको, सो बल मनहिं दिखावौं ॥ १० ॥

तुलसिदास प्रभु सो गुन नहिं, जेहि सपनेहुँ तुमहिं रिझावौं।

नाथ-कृपा भवसिंधु धेनुपद सम जो जानि सिरावौं ॥ ११ ॥

१४३

सुनहु राम रघुबीर गुसाई, मन अनीति-रत मेरो।

चरन-सरोज बिसारि तिहारे, निसिदिन फिरत अनेरो ॥ १ ॥

मानत नाहिं निगम-अनुसासन, त्रास न काहू केरो।

भूल्यो सूल करम-कोलुन्ह तिल ज्यों बहु बारनि पेरो ॥ २ ॥

जहँ सतसंग कथा माधवकी, सपनेहुँ करत न फेरो।

लोभ-मोह-मद-काम-कोह-रत, तिन्हसों प्रेम घनेरो ॥ ३ ॥

पर-गुन सुनत दाह, पर-दूषन सुनत हरख बहुतेरो।

आप पापको नगर बसावत, सहि न सकत पर खेरो ॥ ४ ॥

साधन-फल, श्रुति-सार नाम तव, भव-सरिता कहँ बेरो।

सो पर-कर काँकिनी लागि सठ, बेंचि होत हठि चेरो ॥ ५ ॥

कबहुँक हौं संगति-प्रभावतें, जाँउ सुमारग नेरो।

तब करि क्रोध संग कुमनोरथ देत कठिन भटभेरो ॥ ६ ॥

इक हौं दीन, मलीन, हीनमति, बिपतिजाल अति घेरो।

तापर सहि न जाय करुनानिधि, मनको दुसह दरेरो ॥ ७ ॥

हारि पर् यो करि जतन बहुत बिधि, तातें कहत सबेरो।

तुलसिदास यह त्रास मिटै जब हृदय करहु तुम डेरो ॥ ८ ॥

१४४

सो धौ को जो नाम-लाज ते, नहिं राख्यो रघुबीर।

कारुनीक बिनु कारन ही हरि हरी सकल भव-भीर ॥ १ ॥

बेद-बिदित, जग-बिदित अजामिल बिप्रबंधु अघ-धाम।

घोर जमालय जात निवार् यो सुत-हित सुमिरत नाम ॥ २ ॥

पसु पामर अभिमान-सिंधु गज ग्रस्यो आइ जब ग्राह।

सुमिरत सकृत सपदि आये प्रभु, हर् यो दुसह उर दाह ॥ ३ ॥

ब्याध, निषाद, गीध, गनिकादिक, अगनित औगुन-मूल।

नाम-औटतें राम सबनिकी दूरि करी सब सूल ॥ ४ ॥

केहि आचरन घाटि हौं तिनतें, रघुकुल-भूषन भूप।

सीदत तुलसिदास निसिबासर पर् यो भीम तम-कूप ॥ ५ ॥

१४५

कृपासिंधु! जन दीन दुवारे दादि न पावत काहे।

जब जहँ तुमहिं पुकारत आरत, तहँ तिन्हके दुख दाहे ॥ १ ॥

गज, प्रहलाद, पांडुसुत, कपि सबको रिपु-संकट मेट्यो।

प्रनत, बंधु-भय-बिकल, बिभीषन, उठि सो भरत ज्यों भेट्यो ॥ २ ॥

मैं तुम्हरो लेइ नाम ग्राम इक उर आपने बसावों।

भजन, बिबेक, बिराग, लोग भले, मैं क्रम-क्रम करि ल्यावों ॥ ३ ॥

सुनि रिस भरे कुटिल कामादिक, करहिं जोर बरिआई।

तिन्हहिं उजारि नारि-अरि-धन पुर राखहिं राम गुसाईं ॥ ४ ॥

सम-सेवा-छल-दान-दंड हौं, रचि उपाय पचि हार् यो।

बिनु कारनको कलह बड़ो दुख, प्रभुसों प्रगटि पुकार् यो ॥ ५ ॥

सुर स्वारथी, अनीस, अलायक, निठुर, दया चित नाहीं।

जाउँ कहाँ, को बिपति-निवारक, भवतारक जग माही ॥ ६ ॥

तुलसी जदपि पोच, तउ तुम्हरो, और न काहु केरो।

दीजै भगति-बाँह बारक, ज्यों सुबस बसै अब खेरो ॥ ७ ॥

१४६

हौं सब बिधि राम, रावरो चाहत भयो चेरो।

ठौर ठौर साहबी होत है, ख्याल काल कलि केरो ॥ १ ॥

काल-करम-इंद्रिय, बिषय गाहकगन घेरो।

हौं न कबूलत, बाँधि कै मोल करत करेरो ॥ २ ॥

बंदि-छोर तेरो नाम है, बिरुदैत बड़ेरो।

मैं कह्यो, तब छल-प्रीति कै माँगे उर डेरो ॥ ३ ॥

नाम-ओट अब लगि बच्यो मलजुग जग जेरो।

अब गरीब जन पोषिये पाइबो न हेरो ॥ ४ ॥

जेहि कौतुक बक/खग स्वानको प्रभु न्याव निबेरो।

तेहि कौतुक कहिये कृपालु! 'तुलसी है मेरो' ॥ ५ ॥

१४७

कृपासिंधु ताते रहौं निसिदिन मन मारे।

महाराज! लाज आपुही निज जाँघ उघारे ॥ १ ॥

मिले रहैं, मार् यौ चहै कामादि संघाती।

मो बिनु रहै न, मेरियै जारैं छल छाती ॥ २ ॥

बसत हिये हित जानि मैं सबकी रुचि पाली।

कियो कथकको दंड हौं जड़ करम कुचाली ॥ ३ ॥

देखी सुनी न आजु लौं अपनायति ऐसी।

करहिं सबै सिर मेरे ही फिरि परै अनैसी ॥ ४ ॥

बड़े अलेखी लखि परै, परिहरै न जाहीं।

असमंजसमें मगन हौं, लीजै गहि बाहीं ॥ ५ ॥

बारक बलि अवलोकिये, कौतुक जन जी को।

अनायास मिटि जाइगो संकट तुलसीको ॥ ६ ॥

१४८

कहौ कौन मुहँ लाइ कै रघुबीर गुसाई।

सकुचत समुझत आपनी सब साइँ दुहाई ॥ १ ॥

सेवत बस, सुमिरत सखा, सरनागत सो हौं।

गुनगन सीतानाथके चित करत न हौं हौं ॥ २ ॥

कृपासिंधु बंधु दीनके आरत-हितकारी।

प्रनत-पाल बिरुदावली सुनि जानि बिसारी ॥ ३ ॥

सेइ न धेइ न सुमिरि कै पद-प्रीति सुधारी।

पाइ सुसाहिब राम सों, भरि पेट बिगारी ॥ ४ ॥

नाथ गरीबनिवाज हैं, मैं गही न गरीबी।

तुलसी प्रभु निज ओर तें बनि परै सो कीबी ॥ ५ ॥

१४९

कहाँ जाउँ, कासों कहौं, और ठौर न मेरे।

जनम गँवायो तेरे ही द्वार किंकर तेरे ॥ १ ॥

मै तौ बिगारी नाथ सों आरतिके लीन्हें।

तोहि कृपानिधि क्यों बनै मेरी-सी कीन्हें ॥ २ ॥

दिन-दुरदिन दिन-दुरदसा, दिन-दुख दिन-दूषन।

जब लौं तू न बिलोकिहै रघुबंस-बिभूषन ॥ ३ ॥

दई पीठ बिनु डीठ मैं तुम बिस्व बिलोचन।

तो सों तुही न दूसरो नत-सोच-बिमोचन ॥ ४ ॥

पराधीन देव दीन हौं, स्वाधीन गुसाईं।

बोलनिहारे सों करै बलि बिनयकी झाई ॥ ५ ॥

आपु देखि मोहि देखिये जन मानिय साँचो।

बड़ी ओट रामनामकी जेहि लई सो बाँचो ॥ ६ ॥

रहनि रीति राम रावरी नित हिय हुलसी है।

ज्यों भावै त्यों करु कृपा तेरो तुलसी है ॥ ७ ॥

१५०

रामभद्र! मोहिं आपनो सोच है अरु नाहीं।

जीव सकल संतापके भाजन जग माहीं ॥ १ ॥

नातो बड़े समर्थ सों इक ओर किधौं हूँ।

तोको मोसे अति घने मोको एकै तूँ ॥ २ ॥

बड़ी गलानि हिय हानि है सरबग्य गुसाईं।

कूर कुसेवक कहत हौं सेवककी नाई ॥ ३ ॥

भलो पोच रामको कहैं मोहि सब नरनारी।

बिगरे सेवक स्वान ज्यों साहिब-सिर गारी ॥ ४ ॥

असमंजस मनको मिटै सो उपाय न सूझै।

दीनबंधु! कीजै सोई बनि परै जो बूझै ॥ ५ ॥

बिरुदावली बिलोकिये तिन्हमें कोउ हौं हौं।

तुलसी प्रभुको परिहर् यो सरनागत सो हौं ॥ ६ ॥

१५१

जो पै चेराई रामकी करतो न लजातो।

तौ तू दाम कुदाम ज्यों कर-कर न बिकातो ॥ १ ॥

जपत जीह रघुनाथको नाम नहिं अलसातो।

बाजीगरके सूम ज्यों खल खेह न खातो ॥ २ ॥

जौ तू मन! मेरे कहे राम-नाम कमातो।

सीतापति सनमुख सुखी सब ठाँव समातो ॥ ३ ॥

राम सोहाते तोहिं जौ तू सबहिं सोहातो।

काल करम कुल कारनी कोऊ न कोहातो ॥ ४ ॥

राम-नाम अनुरागही जिय जो रतिआतो।

स्वारथ-परमारथ-पथी तोहिं सब पतिआतो ॥ ५ ॥

सेइ साधु सुनि समुझि कै पर-पीर पिरातो।

जनम कोटिको काँदले हृद-हृदय थिरातो ॥ ६ ॥

भव-मग अगम अनंत है, बिनु श्रमहि सिरातो।

महिमा उलटे नामकी मुनि कियो किरातो ॥ ७ ॥

अमर-अगम तनु पाइ सो जड़ जाय न जातो।

होतो मंगल-मूल तू, अनुकूल बिधातो ॥ ८ ॥

जो मन-प्रीति-प्रतीतिसों राम-नामहिं रातो।

नसातो

तुलसी रामप्रसादसों तिहुँताप ------- ॥ ९ ॥

नसातो

१५२

राम भलाई आपनी भल कियो न काको।

जुग जुग जानकीनाथको जग जागत साको ॥ १ ॥

ब्रह्मादिक बिनती करी कहि दुख बसुधाको।

रबिकुल-कैरव-चंद भो आनंद-सुधाको ॥ २ ॥

कौसिक गरत तुषार ज्यों तकि तेज तियाको।

प्रभु अनहित हित को दियो फल कोप कृपाको ॥ ३ ॥

हर् यो पाप आप जाइकै संताप सिलाको।

सोच-मगन काढ्यो सही साहिब मिथिलाको ॥ ४ ॥

रोष-रासि भृगुपति धनी अहमिति ममताको।

चितवत भाजन करि लियो उपसम समताको ॥ ५ ॥

मुदित मानि आयसु चले बन मातु-पिताको।

धरम-धुरंधर धीरधुर गुन-सील-जिता को ? ॥ ६ ॥

गुह गरीब गतग्याति हू जेहि जिउ न भखा को ?

पायो पावन प्रेम ते सनमान सखाको ॥ ७ ॥

सदगति सबरी गीधकी सादर करता को ?

सोच-सींव सुग्रीवके संकट-हरता को ? ॥ ८ ॥

अस काल-गहा

राखि बिभीषनको सकै ----------- को ?

तेहि काल कहाँ

आज बिराजत राज है दसकंठ जहाँको ॥ ९ ॥

बालिस बासी अवधको बूझिये न खाको।

सो पाँवर पहुँचो तहाँ जहँ मुनि-मन थाको ॥ १० ॥

गति न लहै राम-नामसों बिधि सो सिरिजा को ?

सुमिरत कहत प्रचारि कै बल्लभ गिरिजाको ॥ ११ ॥

अकनि अजामिलकी कथा सानंद न भा को ?

नाम लेत कलिकालहू हरिपुरहिं न गा को ? ॥ १२ ॥

राम-नाम-महिमा करै काम-भुरुह आको।

साखी बेद पुरान है तुलसी-तन ताको ॥ १३ ॥

१५३

मेरे रावरियै गति है रघुपति बलि जाउँ ।

निलज नीच निरधन निरगुन कहँ, जग दूसरो न ठाकुर ठाउँ ॥ १ ॥

है घर-घर बहु भरे सुसाहिब, सूझत सबनि आपनो दाउँ ।

बानर-बंधु बिभीषन-हितु बिनु, कोसलपाल कहूँ न समाउँ ॥ २ ॥

प्रनतारति- भंजन जन-रंजन, सरनागत पबि-पंजर नाउँ ।

कीजै दास दासतुलसी अब, कृपासिंधु बिनु मोल बिकाउँ ॥ ३ ॥

१५४

देव ! दूसरो कौन दीनको दयालु ।

सीलनिधान सुजान-सिरोमनि, सरनागत-प्रिय प्रनत-पालु ॥ १ ॥

को समरथ सरबग्य सकल प्रभु, सिव-सनेह-मानस मरालु ।

को साहिब किये मीत प्रीतिबस खग निसिचर कपि भील भालु ॥ २ ॥

नाथ हाथ माया-प्रपंच सब, जीव-दोष-गुन-करम-कालु ।

तुलसिदास भलो पोच रावरो, नेकु निरखि कीजिये निहालु ॥ ३ ॥

 

१५५

बिस्वास एक राम-नामको ।

मानत नहि परतीति अनत ऐसोइ सुभाव मन बामको ॥ १ ॥

पढिबो पर् यो न छठी छ मत रिगु जजुर अथर्वन सामको ।

ब्रत तीरथ तप सुनि सहमत पचि मरै करै तन छाम को ? ॥ २ ॥

करम-जाल कलिकाल कठिन आधीन सुसाधित दामको ।

ग्यान बिराग जोग जप तप, भय लोभ मोह कोह कामको ॥ ३ ॥

सब दिन सब लायक भव गायक रघुनायक गुन-ग्रामको ।

बैठे नाम-कामतरु-तर डर कौन घोर घन घामको ॥ ४ ॥

को जानै को जैहै जमपुर को सुरपुर पर धामको ।

तुलसिहिं बहुत भलो लागत जग जीवन रामगुलामको ॥ ५ ॥

१५६

कलि नाम कामतरु रामको ।

दलनिहार दारिद दुकाल दुख, दोष घोर घन घामको ॥ १ ॥

नाम लेत दाहिनो होत मन, बाम बिधाता बामको ।

कहत मुनीस महेस महातम, उलटे सूधे नामको ॥ २ ॥

भलो लोक-परलोक तासु जाके बल ललित-ललामको ।

तुलसी जग जानियत नामते सोच न कूच मुकामको ॥ ३ ॥

१५७

सेइये सुसाहिब राम सो ।

सुखद सुसील सुजान सूर सुचि, सुंदर कोटिक काम सो ॥ १ ॥

सारद सेस साधु महिमा कहैं, गुनगन-गायक साम सो ।

सुमिरि सप्रेम नाम जासों रति चाहत चंद्र-ललाम सो ॥ २ ॥

गमन बिदेस न लेस कलेसको, सकुचत सकृत प्रनाम सो ।

साखी ताको बिदित बिभीषन, बैठो है अबिचल धाम सो ॥ ३ ॥

टहल सहल जन महल-महल, जागत चारो जुग जाम सो ।

देखत दोष न रीझत , रीझत सुनि सेवक गुन-ग्राम सो ॥ ४ ॥

जाके भजे तिलोक-तिलक भये, त्रिजग जोनि तनु तामसो ।

तुलसी ऐसे प्रभुहिं भजै जो न ताहि बिधाता बाम सो ॥ ५ ॥

राग नट

१५८

कैसे देउँ नाथहिं खोरि ।

काम-लोलुप भ्रमत मन हरि भगति परिहरि तोरि ॥ १ ॥

बहुत प्रीति पुजाइबे पर, पूजिबे पर थोरि।

देत सिख सिखयो न मानत, मूढ़ता असि मोरि ॥ २ ॥

किये सहित सनेह जे अघ हृदय राखे चोरि ।

संग-बस किये सुभ सुनाये सकल लोक निहोरि ॥ ३ ॥

करौं जो कछु धरौं सचि-पचि सुकृत-सिला बटोरि ।

पैठि उर बरबस दयानिधि दंभ लेत अँजोरि ॥ ४ ॥

लोभ मनहिं नचाव कपि ज्यों, गरे आसा-डोरि ।

बात कहौं बनाइ बुध ज्यों, बर बिराग निचोरि ॥ ५ ॥

एतेहुँ पर तुम्हरो कहावत, लाज अँचई घोरि ।

निलजता पर रीझि रघुबर, देहु तुलसिहिं छोरि ॥ ६ ॥

१५९

है प्रभु ! मेरोई सब दोसु ।

सीलसींधु कृपालु नाथ अनाथ आरत-पोसु ॥ १ ॥

बेष बचन बिराग मन अघ अवगुननिको कोसु ।

राम प्रीती प्रतीति पोली, कपट-करतब ठोसु ॥ २ ॥

राग-रंग कुसंग ही सों, साधु-संगति रोसु ।

चहत केहरि-जसहिं सेइ सृगाल ज्यों खरगोसु ॥ ३ ॥

संभु-सिखवन रसन हूँ नित राम-नामहिं घोसु ।

दंभहू कलि नाम कुंभज सोच-सागर-सोसु ॥ ४ ॥

मोद-मंगल-मूल अति अनुकूल निज निरजोसु ।

रामनाम प्रभाव सुनि तुलसिहुँ परम परितोसु ॥ ५ ॥

१६०

मैं हरि पतित-पावन सुने ।

मैं पतित तुम पतित-पावन दोउ बानक बने ॥ १ ॥

ब्याध गनिका गज अजामिल साखि निगमनि भने ।

और अधम अनेक तारे जात कापै गने ॥ २ ॥

जानि नाम अजानि लीन्हें नरक सुरपुर मने ।

दासतुलसी सरन आयो, राखिये आपने ॥ ३ ॥

राग मलार

१६१

तों सों प्रभु जो पै कहुँ कोउ होतो ।

तो सहि निपट निरादर निसिदिन, रटि लटि ऐसो घटि को तो ॥ १ ॥

कृपा-सुधा-जलदान माँगिबो कहाँ सो साँच निसोतो ।

स्वाति-सनेह-सलिल-सुख चाहत चित-चातक सो पोतो ॥ २ ॥

काल-करम-बस मन कुमनोरथ कबहुँ कबहुँ कुछ भो तो ।

ज्यों मुदमय बसि मीन बारि तजि उछरि भभरि लेत गोतो ॥ ३ ॥

जितो दुराव दासतुलसी उर क्यों कहि आवत ओतो ।

तेरे राज राय दसरथके, लयो बयो बिनु जोतो ॥ ४ ॥

रागसोरठ

१६२

ऐसो को उदार जग माहीं ।

बिनु सेवा जो द्रवै दीनपर राम सरिस कोउ नाहीं ॥ १ ॥

जो गति जोग बिराग जतन करि नहिं पावत मुनि ग्यानी ।

सो गति देत गीध सबरी कहँ प्रभु न बहुत जिय जानी ॥ २ ॥

जो संपति दस सीस अरप करि रावन सिव पहँ लीन्हीं ।

सो संपदा बिभीषन कहँ अति सकुच-सहित हरि दीन्ही ॥ ३ ॥

तुलसिदास सब भाँति सकल सुख जो चाहसि मन मेरो ।

तौ भजु राम, काम सब पूरन करै कृपानिधि तेरो ॥ ४ ॥

१६३

एकै दानि-सिरोमनि साँचो।

जोइ जाच्यो सोइ जाचकताबस, फिरि बहु नाच न नाचो ॥ १ ॥

सब स्वारथी असुर सुर नर मुनि कोउ न देत बिनु पाये।

कोसलपालु कृपालु कलपतरु, द्रवत सकृत सिर नाये ॥ २ ॥

हरिहु और अवतार आपने, राखी बेद-बड़ाई।

लै चिउरा निधि दई सुदामहिं जद्यपि बाल मिताई ॥ ३ ॥

कपि सबरी सुग्रीव बिभीषन, को नहिं कियो अजाची।

अब तुलसिहि दुख देति दयानिधि दारून आस-पिसाची ॥ ४ ॥

१६४

जानत प्रीति-रीति रघुराई।

नाते सब हाते करी राखत राम सनेह-सगाई ॥ १ ॥

नेह निबाहि देह तजि दसरथ, कीरति अचल चलाई।

ऐसेहु पितु तें अधिक गीधपर ममता गुन गरुआई ॥ २ ॥

तिय-बिरही सुग्रीव सखा लखि प्रानप्रिया बिसराई।

रन पर् यो बंधु बिभीषन ही को, सोच हृदय अधिकाई ॥ ३ ॥

घर गुरुगृह प्रिय सदन सासुरे, भइ जब जहँ पहुनाई।

तब तहँ कहि सबरीके फलनिकी रुचि माधुरी न पाई ॥ ४ ॥

सहज सरूप कथा मुनि बरनत रहत सकुचि सिर नाई।

केवट मीत कहे सुख मानत बानर बंधु बड़ाई ॥ ५ ॥

प्रेम-कनौड़ो रामसो प्रभु त्रिभुवन तिहुँकाल न भाई।

तेरो रिनी हौं कह्यो कपि सों ऐसी मानही को सेवकाई ॥ ६ ॥

तुलसी राम-सनेह-सील लखि, जो न भगति उर आई।

तौ तोहिं जनमि जाय जननी जड़ तनु-तरुनता गवाँई ॥ ७ ॥

१६५

रघुबर! रावरि यहै बड़ाई।

निदरि गनी आदर गरीबपर , करत कृपा अधिकाई ॥ १ ॥

थके देव साधन करि सब, सपनेहु नहिं देत दिखाई।

केवट कुटिल भालु कपि कौनप, कियो सकल संग भाई ॥ २ ॥

मिलि मुनिबृंद फिरत दंडक बन, सो चरचौ न चलाई।

बारहि बार गीध सबरीकी बरनत प्रीति सुहाई ॥ ३ ॥

स्वान कहे तें कियो पुर बाहिर, जती गयंद चढ़ाई।

तिय-निंदक मतिमंद प्रजा रज निज नय नगर बसाई ॥ ४ ॥

यहि दरबार दीनको आदर, रीति सदा चलि आई।

दीनदयालु दीन तुलसीकी काहु न सुरति कराई ॥ ५ ॥

१६६

ऐसे राम दीन-हितकारी।

अतिकोमल करुनानिधान बिनु कारन पर-उपकारी ॥ १ ॥

साधन-हीन दीन निज अघ-बस, सिला भई मुनि-नारी।

गृहतें गवनि परसि पद पावन घोर सापतें तारीं।२ ॥

हिंसारत निषाद तामस बपु, पसु-समान बनचारी।

भेंट्यो हृदय लगाइ प्रेमबस, नहिं कुल जाति बिचारी ॥ ३ ॥

जद्यपि द्रोह कियो सुरपति-सुत, कह न जाय अति भारी।

सकल लोक अवलोकि सोकहत, सरन गये भय टारी ॥ ४ ॥

बिहँग जोनि आमिष अहार पर, गीध कौन ब्रतधारी।

जनक-समान क्रिया ताकी निज कर सब भाँति सँवारी ॥ ५ ॥

अधम जाति सबरी जोषित जड़, लोक-बेद तें न्यारी।

जानि प्रीति, दै दरस कृपानिधि, सोउ रघुनात उधारी ॥ ६ ॥

कपि सुग्रीव बंधु-भय-ब्याकुल आयो सरन पुकारी।

सहि न सके दारुन दुख जनके, हत्यो बालि, सहि गारी ॥ ७ ॥

रिपुको अनुज बिभीषन निशिचर, कौन भजन अधिकारी।

सरन गये आगे ह्वे लीन्हौं भेट्यो भुजा पसारी ॥ ८ ॥

असुभ होइ जिनके सुमिरे ते बानर रीछ बिकारी।

बेद-बिदित पावन किये ते सब, महिमा नाथ! तुम्हारी ॥ ९ ॥

कहँ लगि कहौं दीन अगनित जिन्हकी तुम बिपति निवारी।

कलिमल-ग्रसित दासतुलसीपर, काहे कृपा बिसारी ? ॥ १० ॥

१६७

रघुपति-भगति करत कठिनाई।

कहत सुगम करनी अपार जानै सोइ जेहि बनि आई ॥ १ ॥

जो जेहि कला कुसल ताकहँ सोइ सुलभ सदा सुखकारी।

सफरी सनमुख जल-प्रवाह सुरसरी बहै गज भारी ॥ २ ॥

ज्यों सर्करा मिलै सिकता महँ, बलतें न कोउ बिलगावै।

अति रसस्य सूच्छम पिपीलिका, बिनु प्रयास ही पावै ॥ ३ ॥

सकल दृश्य निज उदर मेलि, सोवे निद्रा तजि जोगी।

सोइ हरिपद अनुभवै परम सुख, अतिसय द्वैत-बियोगी ॥ ४ ॥

सोक मोह भय हरष दिवस-निसि देस-काल तहँ नाहीं।

तुलसिदास यहि दसाहीन संसय निरमूल न जाहीं ॥ ५ ॥

१६८

जो पै राम-चरन-रति होती।

तौ कत त्रिबिध सूल निसिबासर सहते बिपति निसोती ॥ १ ॥

जो संतोष-सुधा निसिबासर सपनेहुँ कबहुकँ पावै।

तौ कत बिषय बिलोकि झूँठ जल मन-कुरंग ज्यों धावै ॥ २ ॥

जो श्रीपति-महिमा बिचारि उर भजते भाव बढ़ाए।

तौ कत द्वार-द्वार कूकर ज्यों फिरते पेट खलाए ॥ ३ ॥

जे लोलुप भये दास आसके ते सबहीके चेरे।

प्रभु-बिस्वास आस जीती जिन्ह, ते सेवक हरि केरे ॥ ४ ॥

नहिं एकौ आचरन भजनको, बिनय करत हौं ताते।

कीजै कृपा दासतुलसी पर, नाथ नामके नाते ॥ ५ ॥

 

१६९

जो मोही राम लागते मीठे।

तौ नवरस षटरस-रस अनरस ह्वे जाते सब सीठे ॥ १ ॥

बंचक बिषय बिबिध तनु धरि अनुभवे सुने अरु डीठे।

यह जानत हौं हृदय आपने सपने न अघाइ उबीठे ॥ २ ॥

तुलसिदास प्रभु सों एहि बल बचन कहत अति ढीठे।

नामकी लाज राम करुनाकर केहि न दिये कर चीठे ॥ ३ ॥

१७०

यों मन कबहूँ तुमहिं न लाग्यो।

ज्यों छल छाँड़ि सुभाव निरंतर रहत बिषय अनुराग्यो ॥ १ ॥

ज्यों चितई परनारि, सुने पातक-प्रपंच घर-घरके।

त्यों न साधु, सुरसरि-तरंग-निरमल गुनगन रघुबरके ॥ २ ॥

ज्यों नासा सुगंधरस-बस, रसना षटरस-रति मानी।

राम-प्रसाद-माल जूठन लगि त्यों न ललकि ललचानी ॥ ३ ॥

चंदन-चंदबदनि-भूषन-पट ज्यों चह पाँवर परस्यो।

त्यों रघुपति-पद-पदुम-परस को तनु पातकी न तरस्यो ॥ ४ ॥

ज्यों सब भाँती कुदेव कुठाकुर सेये बपु बचन हिये हूँ।

त्यों न राम सुकृतग्य जे सकुचत सकृत प्रनाम किये हूँ ॥ ५ ॥

चंचल चरन लोभ लगि लोलुप द्वार-द्वार जग बागे।

राम-सीय-आस्रमनि चलत त्यों भये न स्रमित अभागे ॥ ६ ॥

सकल अंग पद-बिमुख नाथ मुख नामकी ओट लई है।

है तुलसिहिं परतीति एक प्रभु-मूरति कृपामई है ॥ ७ ॥

१७१

कीजै मोको जमजातनामई।

राम! तुमसे सुचि सुहृद साहिबहिं, मैं सठ पीठि दई ॥ १ ॥

गरभबास दस मास पालि पितु-मातु-रूप हित कीन्हों।

जड़हि बिबेक, सुसील खलहिं, अपराधहिं आदर दीन्हों ॥ २ ॥

कपट करौं अंतरजामिहुँ सों, अघ ब्यापकहिं दुरावौं।

ऐसेहु कुमति कुसेवक पर रघुपति न कियो मन बावौं ॥ ३ ॥

उदर भरौं कोंकर कहाइ बेंच्यौं बिषयनि हाथ हियो है।

मोसे बंचकको कृपालु छल छाँड़ि कै छोह कियो है ॥ ४ ॥

पल-पलके उपकार रावरे जानि बूझी सुनि नीके।

भिद्यो न कुलिसहुँ ते कठोर चित कबहुँ प्रेम सिय-पीके ॥ ५ ॥

स्वामीकी सेवक-हितता सब, कछु निज साँई-द्रोहाई।

मैं मति-तुला तौलि देखी भइ मेरेहि दिसि गरूआई ॥ ६ ॥

एतेहु पर हित करत नाथ मेरो, करि आये, अरु करिहैं।

तुलसी अपनी ओर जानियत प्रभुहि कनौड़ो भरिहैं ॥ ७ ॥

१७२

कबहुँक हौं यहि रहनि रहौंगो।

श्रीरघुनाथ-कृपालु-कृपातें संत-सुभाव गहौंगो ॥ १ ॥

जथालाभसंतोष सदा, काहू सों कछु न चहौंगो।

पर-हित-निरत निरंतर, मन क्रम बचन नेम निबहौंगो ॥ २ ॥

परुष बचन अति दुसह श्रवन सुनि तेहि पावक न दहौंगो।

बिगत मान, सम शीतल मन, परगुन नहिं दोष कहौंगो ॥ ३ ॥

परहरि देह-जनित चिंता, दुख-सुख समबुद्धि सहौंगो।

तुलसिदास प्रभु यहि पथ रहि अबिचल हरि-भगति लहौंगो ॥ ४ ॥

१७३

नाहिंन आवत आन भरोसो।

यहि कलिकाल सकल साधनतरु है स्रम-फलनि फरो सो ॥ १ ॥

तप, तीरथ, उपवास, दान, मख जेहि जो रुचै करो सो।

पायेहि पै जानिबो करम-फल भरि-भरि बेद परोसो ॥ २ ॥

आगम-बिधि जप-जग करत नर सरत न काज खरो सो।

सुख सपनेहु न जोग-सिधि-साधन, रोग बियोग धरो सो ॥ ३ ॥

काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह मिलि ग्यान बिराग हरो सो।

बिगरत मन संन्यास लेत जल नावत आम घरो सो ॥ ४ ॥

बहु मत मुनि बहु पंथ पुराननि जहाँ-तहाँ झगरो सो।

गुरु कह्यो राम-भजन नीको मोंहि लगत राज-डगरो सो ॥ ५ ॥

तुलसी बिनु परतीती प्रीति फिरि-फिरि पचि मरै मरो सो।

रामनाम-बोहित भव-सागर चाहै तरन तरो सो ॥ ६ ॥

१७४

जाके प्रिय न राम-बैदेही।

तजिये ताहि

-------- कोटि बैरी सम, जद्यपि परम सनेही ॥ १ ॥

सो छाँड़िये

तज्यो पिता प्रहलाद, बिभीषन बंधु, भरत महतारी।

बलि गुरु तज्यो कंत ब्रज-बनितन्हि, भये मुद-मंगलकारी ॥ २ ॥

नाते नेह रामके मनियत सुहृद सुसेब्य जहाँ लों।

अंजन कहा आँखि जेहि फूटै, बहुतक कहौं कहाँ लौं ॥ ३ ॥

तुलसि सो सब भाँति परम हित पूज्य प्रानते प्यारो।

जासों होय सनेह राम-पद, एतो मतो हमारो ॥ ४ ॥

१७५

रहनि

जो पै ----- रामसों नाहीं।

लगन

तौ नर खर कूकर सूकर सम बृथा जियत जग माहीं ॥ १ ॥

काम, क्रोध, मद, लोभ, नींद, भय, भूख, प्यास सबहीके।

मनुज देह सुर-साधु सराहत, सो सनेह सिय-पीके ॥ २ ॥

सूर, सुजान, सुपूत सुलच्छन गनियत गुन गरुआई।

बिनु हरिभजन इँदारुनके फल तजत नहीं करुआई ॥ ३ ॥

कीरति, कुल करतूति, भूति भलि, सील, सरूप सलोने।

तुलसी प्रभु-अनुराग-रहित जस सालन साग अलोने ॥ ४ ॥

१७६

राख्यो राम सुस्वामी सों नीच नेह न नातो। एते अनादर हूँ तोहि ते न हातो ॥ १ ॥

जोरे नये नाते नेह फोकट फीके। देहके दाहक, गाहक जीके ॥ २ ॥

अपने अपनेको सब चाहत नीको। मूल दुहुँको दयालु दूलह सीको ॥ ३ ॥

जीवको जीवन प्रानको प्यारो। सुखहूको सूख रामसो बिसारो ॥ ४ ॥

कियो करैगो तोसे खलको भलो। ऐसे सुसाहब सों तू कुचाल क्यौं चलो ॥ ५ ॥

तुलसी तेरी भलाई अजहूँ बूझै। राढ़उ राउत होत फिरिकै जूझै ॥ ६ ॥

१७७

जो तुम त्यागों राम हौं तौं नहीं त्यागो। परिहरि पाँय काहि अनुरागों ॥ १ ॥

सुखद सुप्रभु तुम सो जगमाहीं। श्रवन-नयन मन गोचर नाहीं ॥ २ ॥

हौं जड़ जीव, ईस रघुराया। तुम मायापति, हौं बस माया ॥ ३ ॥

हौं तो कुजाचक, स्वामी सुदाता। हौं कुपूत, तुम हितु पितु-माता ॥ ४ ॥

जो पै कहुँ कोउ बूझत बातो। तौ तुलसी बिनु मोल बिकातो ॥ ५ ॥

१७८

भयेहूँ उदास राम, मेरे आस रावरी।

आरत स्वारथी सब कहैं बात बावरी ॥ १ ॥

जीवनको दानी घन कहा ताहि चाहिये।

प्रेम नेमके निबाहे चातक सराहिये ॥ २ ॥

मीनतें न लाभ-लेस पानी पुन्य पीनको।

जल बिनु थल कहा मीचु बिनु मीनको ॥ ३ ॥

बड़े ही की ओट बलि बाँचि आये छोटे हैं।

चलत खरेके संग जहाँ-तहाँ खोटे हैं ॥ ४ ॥

यहि दरबार भलो दाहिनेहु-बामको।

मोको सुभदायक भरोसो राम-नामको ॥ ५ ॥

कहत नसानी ह्वे ह्वे हिये नाथ नीकी है।

जानत कृपानिधान तुलसीके जीकी है ॥ ६ ॥

राग बिलावल

१७९

कहाँ जाउँ, कासों कहौ, कौन सुनै दीनकी।

त्रिभुवन तुही गति सब अंगहीनकी ॥ १ ॥

जग जगदीस घर घरनि घनेरे हैं।

निराधारके अधार गुनगन तेरे हैं ॥ २ ॥

गजराज-काज खगराज तजि धायो को।

मोसे दोस-कोस पोसे, तोसे माय जायो को ॥ ३ ॥

मोसे कूर कायर कुपूत कौड़ी आधके।

किये बहुमोल तैं करैया गीध-श्राधके ॥ ४ ॥

तुलसीकी तेरे ही बनाये, बलि, बनैगी।

प्रभुकी बिलंब-अंब दोष-दुख जनैगी ॥ ५ ॥

१८०

बारक बिलोकि बलि कीजै मोहिं आपनो।

राय दशरथके तू उथपन-थापनो ॥ १ ॥

साहिब सरनपाल सबल न दूसरो।

तेरो नाम लेत ही सुखेत होत ऊसरो ॥ २ ॥

बचन करम तेरे मेरे मन गड़े हैं।

देखे सुने जाने मैं जहान जेते बड़े हैं ॥ ३ ॥

कौन कियो समाधान सनमान सीलाको।

भृगुनाथ सो रिषी जितैया कौन लीलाको ॥ ४ ॥

मातु-पितु-बन्धु-हितु, लोक-बेदपाल को।

बोलको अचल, नत करत निहाल को ॥ ५ ॥

संग्रही सनेहबस अधम असाधुको।

गीध सबरीको कहौ करिहै सराधु को ॥ ६ ॥

निराधारको अधार, दीनको दयालु को।

मीत कपि-केवट-रजनिचर-भालु को ॥ ७ ॥

रंक, निरगुनी, नीच जितने निवाजे हैं।

महाराज! सुजन -समाज ते बिराजे हैं ॥ ८ ॥

साँची बिरुदावली न बढ़ि कहि गई है।

सीलसिंधु! ढील तुलसीकी बेर भई है ॥ ९ ॥

१८१

केहू भाँति कृपासिंधु मेरी ओर हेरिये।

मोको और ठौर न, सुटेक एक तेरिये ॥ १ ॥

सहस सिलातें अति जड़ मति भई है।

कासों कहौं कौन गति पाहनिहिं दई है ॥ २ ॥

पद-राग-जाग चहौं कौसिक ज्यों कियो हौं।

कलि-मल खल देखि भारी भीति भियो हौं ॥ ३ ॥

करम-कपीस बालि-बली, त्रास-त्रस्यो हौं।

चाहत अनाथ-नाथ! तेरी बाँह बस्यो हौं ॥ ४ ॥

महा मोह-रावन बिभीषन ज्यों हयो हौं।

त्राहि, तुलसीस! त्राहि तिहूँ ताप तयो हौं ॥ ५ ॥

१८२

नाथ ! गुननाथ सुनि होत चित चाउ सो।

राम रीझिबेको जानौं भगति न भाउ सो ॥ १ ॥

करम, सुभाउ, काल, ठाकुर न ठाउँ सो।

सुधन न, सुतन न, सुमन, सुआउ सो ॥ २ ॥

जाँचौं जल जाहि कहै अमिय पियाउ सो।

कासों कहौं काहू सों न बढ़त हियाउ सो ॥ ३ ॥

बाप! बलि जाऊँ, आप करिये उपाउ सो।

तेरे ही निहारे परै हारेहू सुदाउ सो ॥ ४ ॥

तेरे ही सुझाये सूझै असुझ सुझाउ सो।

तेरे ही बुझाये बूझै अबुझ बुझाउ सो ॥ ५ ॥

नाम अवलंबु-अंबु दीन मीन-राउ सो।

प्रभुसों बनाइ कहौं जीह जरि जाउ सो ॥ ६ ॥

सब भाँति बिगरी है एक सुबनाउ-सो।

तुलसी सुसाहिबहिं दियो है जनाउ सो ॥ ७ ॥

राग आसावरी

१८३

राम! प्रीतिकी रीति आप नीके जनियत है।

बड़े की बड़ाई, छोटे की छोटाई दूरि करै,

ऐसी बिरुदावली, बलि, बेद मनियत है ॥ १ ॥

गीधको कियो सराध, भीलनीको खायो फल,

सोऊ साधु-सभा भलीभाँति भनियत है।

रावरे आदरे लोक बेद हूँ आदरियत,

जोग ग्यान हूँ तें गरू गनियत है ॥ २ ॥

प्रभुकी कृपा कृपालु! कठिन कलि हूँ काल,

महिमा समुझि उर अनियत है।

तुलसी पराये बस भये रस अनरस,

दीनबंधु! द्वारे हठ ठनियत है ॥ ३ ॥

१८४

राम-नामके जपे जाइ जियकी जरनि।

कलिकाल अपर उपाय ते अपाय भये,

जैसे तम नासिबेको चित्रके तरनि ॥ १ ॥

करम-कलाप परिताप पाप-साने सब,

ज्यों सुफूल फूले तरु फोकट फरनि।

दंभ, लोभ, लालच, उपासना बिनासि नीके,

सुगति साधन भई उदर भरनि ॥ २ ॥

जोग न समाधि निरुपाधि न बिराग-ग्यान,

बचन बिशेष बेष, कहूँ न करनि।

कपट कुपथ कोटि, कहनि-रहनि खोटि,

सकल सराहैं निज निज आचरनि ॥ ३ ॥

मरत महेस उपदेस हैं कहा करत,

सुरसरि-तीर कासी धरम-धरनि।

राम-नामको प्रताप हर कहैं, जपैं आप,

जुग जुग जानैं जग, बेदहूँ बरनि ॥ ४ ॥

मति राम-नाम ही सों, रति राम-नाम ही सों,

गति राम नाम ही की बिपति-हरनि।

राम-नामसों प्रतीति प्रीति राखे कबहुँक,

तुलसी ढरैंगे राम आपनी ढरनि ॥ ५ ॥

१८५

लाज न लागत दास कहावत।

सो आचरन बिसारि सोच तजि, जो हरि तुम कहँ भावत ॥ १ ॥

सकल संग तजि भजत जाहि मुनि, जप तप जाग बनावत।

मो-सम मंद महाखल पाँवर, कौन जतन तेहि पावत ॥ २ ॥

हरि निरमल, मलग्रसित हृदय, असमंजस मोहि जनावत।

जेहि सर काक कंक बक सूकर, क्यों मराल तहँ आवत ॥ ३ ॥

जाकी सरन जाइ कोबिद दारुन त्रयताप बुझावत।

तहूँ गये मद मोह लोभ अति, सरगहुँ मिटत न सावत ॥ ४ ॥

भव-सरिता कहँ नाउ संत, यह कहि औरनि समुझावत।

हौं तिनसों हरि! परम बैर करि , तुम सों भलो मनावत ॥ ५ ॥

नाहिंन और ठौर मो कहँ, ताते हठि नातो लावत।

राखु सरन उदार-चूड़ामनि! तुलसिदास गुन गावत ॥ ६ ॥

१८६

कौन जतन बिनती करिये।

निज आचरन बिचारि हारि हिय मानि जानि डरिये ॥ १ ॥

जेहि साधन हरि! द्रवहु जानि जन सो हठि परिहरिये।

जाते बिपति-जाल निसिदिन दुख, तेहि पथ अनसरिये ॥ २ ॥

जानत हूँ मन बचन करम पर-हित कीन्हें तरिये।

सो बिपरीत देखि पर-सुख, बिनु कारन ही जरिये ॥ ३ ॥

श्रुति पुरान सबको मत यह सतसंग सुदृढ़ धरिये।

निज अभिमान मोह इरिषा बस तिनहिं न आदरिये ॥ ४ ॥

संतत सोइ प्रिय मोहिं सदा जातें भवनिधि परिये।

कहौं अब नाथ, कौन बलतें संसार-सोग हरिये ॥ ५ ॥

जब कब निज करुना-सुभावतें, द्रवहु तौ निस्तरिये।

तुलसिदास बिस्वास आनि नहिं, कत पचि-पचि मरिये ॥ ६ ॥

१८७

ताहि तें आयो सरन सबेरें।

ग्यान बिराग भगति साधन कछु सपनेहुँ नाथ! न मेरें ॥ १ ॥

लोभ-मोह-मद-काम-क्रोध रिपु फिरत रैनि-दिन घेरें।

तिनहिं मिले मन भयो कुपथ-रत, फिरै तिहारेहि फेरें ॥ २ ॥

दोष-निलय यह बिषय सोक-प्रद कहत संत श्रुति टेरें।

जानत हूँ अनुराग तहाँ अति सो, हरि तुम्हरेहि प्रेरें ? ॥ ३ ॥

बिष पियूष सम करहु अगिनि हिम, तारि सकहु बिनु बेरें।

तुम सम ईस कृपालु परम हित पुनि न पाइहौं हेरें ॥ ४ ॥

यह जिय जानि रहौं सब तजि रघुबीर भरोसे तेरें।

तुलसिदास यह बिपति बागुरौ तुम्हहिं सों बनै निबेरें ॥ ५ ॥

१८८

मैं तोहिं अब जान्यो संसार।

बाँधि न सकहिं मोहि हरिके बल, प्रगट कपट-आगार ॥ १ ॥

देखत ही कमनीय, कछू नाहिंन पुनि किये बिचार।

ज्यों कदलीतरु-मध्य निहारत, कबहुँ न निकसत सार ॥ २।

तेरे लिये जनम अनेक मैं फिरत न पायों पार।

महामोह-मृगजल-सरिता महँ बोर् यो हौं बारहिं बार ॥ ३ ॥

सुनु खल! छल बल कोटि किये बस होहिं न भगत उदार।

सहित सहाय तहाँ बसि अब, जेहि हृदय न नंदकुमार ॥ ४ ॥

तासों करहु चातुरी जो नहिं जानै मरम तुम्हार।

सो परि डरै मरै रजु-अहि तें, बूझै नहिं ब्यवहार ॥ ५ ॥

निज हित सुनु सठ!हठ न करहि, जो चहहि कुसल परिवार।

तुलसिदास प्रभुके दासनि तजि भजहि जहाँ मद मार ॥ ६ ॥

 

राग गौरी

१८९

राम कहत चलु, राम कहत चलु, राम कहत चलु भाई रे।

नाहिं तौ भव-बेगारि महँ परिहै, छूटत अति कठिनाई रे ॥ १ ॥

बाँस पुरान साज-सब अठकठ, सरल तिकोन खटोला रे।

हमहिं दिहल करि कुटिल करमचँद मंद मोल बिनु डोला रे ॥ २ ॥

बिषम कहार मार-मद-माते चलहिं न पाउँ बटोरा रे।

मंद बिलंद अभेरा दलकन पाइय दुख झकझौरा रे ॥ ३ ॥

काँट कुराय लपेटन लोटन ठावहिं ठाउँ बझाऊ रे।

जस जस चलिय दूरि तस तस निज बास न भेंट लगाऊ रे ॥ ४ ॥

मारग अगम, संग नहिं संबल, नाउँ गाउँकर भूला रे।

तुलसिदास भव त्रास हरहु अब , होहु राम अनुकूला रे ॥ ५ ॥

१९०

सहज सनेही रामसों तैं कियो न सहज सनेह।

तातें भव-भाजन भयो, सुनु अजहुँ सिखावन एह ॥ १ ॥

ज्यों मुख मुकुर बिलोकिये अरु चित न रहै अनुहारि।

त्यों सेवतहुँ न आपने, ये मातु-पिता, सुत-नारि ॥ २ ॥

दै दै सुमन तिल बासिकै, अरु खरि परिहरि रस लेत।

स्वारथ हित भूतल भरे, मन मेचक, तन सेत ॥ ३ ॥

करि बीत्यो, अब करतु है करिबे हित मीत अपार।

कबहुँ न कोउ रघुबीर सो नेह निबाहनिहार ॥ ४ ॥

जासों सब नातों फुरै, तासों न करी पहिचानि।

तातें कछू समझ् यो नहीं, कहा लाभ कह हानि ॥ ५ ॥

साँचो जान्यो झूठको, झूठे कहँ साँचो जानि।

को न गयो, को जात है, को न जैहै करि हितहानि ॥ ६ ॥

बेद कह्यो, बुध कहत हैं, अरु हौहुँ कहत हौं टेरि।

तुलसी प्रभु साँचो हितू, तू हियकी आँखिन हेरि ॥ ७ ॥

१९१

एक सनेही साचिलो केवल कोसलपालु।

प्रेम-कनोड़ो रामसो नहिं दूसरो दयालु ॥ १ ॥

तन-साथी सब स्वारथी, सुर ब्यवहार-सुजान।

आरत-अधम-अनाथ हित को रघुबीर समान ॥ २ ॥

नाद निठूर, समचर सिखी, सलिल सनेह न सूर।

ससि सरोग, दिनकरुबड़े, पयद प्रेम-पथ कूर ॥ ३ ॥

जाको मन जासों बँध्यो, ताको सुखदायक सोइ।

सरल सील साहिब सदा सीतापति सरिस न कोइ ॥ ४ ॥

सुनि सेवा सही को करै, परिहरै को दूषन देखि।

केहि दिवान दिन दीन को आदर-अनुराग बिसेखि ॥ ५ ॥

खग-सबरी पितु-मातु ज्यों माने, कपि को किये मीत।

केवट भेंट्यों भरत ज्यो, ऐसो को कहु पतित-पुनीत ॥ ६ ॥

देह अभागहिं भागु को, को राखै सरन सभीत।

बेद-बिदित विरुदावली, कबि-कोबिद गावत गीत ॥ ७ ॥

कैसेउ पाँवर पातकी, जेहि लई नामकी ओट।

गाँठी बाँध्यो दाम तो, परख्यो न फेरि खर-खोट ॥ ८ ॥

मन मलीन, कलि किलबिषी होत सुनत जासु कृत-काज।

सो तुलसी कियो आपुनो रघुबीर गरीब-निवाज ॥ ९ ॥

१९२

जो पै जानकिनाथ सों नातो नेहु न नीच।

स्वारथ-परमारथ कहा, कलि कुटिल बिगोयो बीच ॥ १ ॥

धरम बरन आश्रमनिके पैयत पोथिही पुरान।

करतब बिनु बेष देखिये, ज्यों सरीर बिनु प्रान ॥ २ ॥

बिहित

बेद ----- साधन सबै, सुनियत दायक फल चारि।

बिदित

राम प्रेम बिनु जानिबो जैसे सर-सरिता बिनु बारि ॥ ३ ॥

नाना पथ निरबानके, नाना बिधान बहु भाँति।

तुलसी तू मेरे कहे जपु राम-नाम दिन-राति ॥ ४ ॥

१९३

अजहुँ आपने रामके करतब समुझत हित होइ।

कहँ तू, कहँ कोसलधनी, तोको कहा कहत सब कोइ ॥ १ ॥

रीझि निवाज्यो कबहिं तू, कब खीझि दई तोहिं गारि।

दरपन बदन निहारिकै, सुबिचारि मान हिय हारि ॥ २ ॥

बिगरी जनम अनेककी सुधरत पल लगै न आधु।

'पाहि कृपानिधि' प्रेमसों कहे को न राम कियो साधु ॥ ३ ॥

बालमीकि-केवट-कथा, कपि-भील-भालु-सनमान।

सुनि सनमुख जो न रामसों, तिहि को उपदेसहि ग्यान ॥ ४ ॥

का सेवा सुग्रीवकी, का प्रीति-रीति-निरबाहु।

जासु बंधु बध्यो ब्याध ज्यों, सो सुनत सोहात न काहु ॥ ५ ॥

भजन बिभीषनको कहा, फल कहा दियो रघुराज।

राम गरीब-निवाजके बड़ी बाँह-बोलकी लाज ॥ ६ ॥

जपहि नाम रघुनाथको, चरचा दूसरी न चालु।

सुमुख, सुखद, साहिब, सुधी, समरथ, कृपालु, नतपालु ॥ ७ ॥

सजल नयन, गदगदगिरा, गहबर मन, पुलक सरीर।

गावत गुनगन रामके केहिकी न मिटी भव-भीर ॥ ८ ॥

प्रभु कृतग्य सरबस्य हैं, परिहरु पाछिली गलानि।

तुलसी तोसों रामसों कछु नई न जान-पहिचानि ॥ ९ ॥

१९४

जो अनुराग न राम सनेही सों।

तौ लह्यो लाहु कहा नर-देही सों ॥ १ ॥

जो तनु धरि, परिहरि सब सुख, भये सुमति राम-अनुरागी।

सो तनु पाइ अघाइ किये अघ, अवगुन-उदधि अभागी ॥ २ ॥

ग्यान-बिराग, जोग-जप, तप-मख, जग मुद-मग नहिं थोरे।

राम-प्रेम बिनु नेम जाय जैसे मृग-जल-जलधि-हिलोरे ॥ ३ ॥

लोक-बिलोकि, पुरान-बेदि सुनि, समुझि-बूझि गुरु-ग्यानी।

प्रीति-प्रतीति राम-पद-पंकज सकल-सुमंगल-खानी ॥ ४ ॥

अजहुँ जानि जिय, मानि हारि हिय, होइ पलक महँ नीको।

सुमिरु सनेहसहित हित रामहिं, मानु मतो तुलसीको ॥ ५ ॥

 

१९५

बलि जाउँ हौं राम गुसाईं।कीजे कृपा आपनी नाईं ॥ १ ॥

परमारथ सुरपुर-साधन सब स्वारथ सुखद भलाई।

कलि सकोप लोपी सुचाल, निज कठिन कुचाल चलाई ॥ २ ॥

जहँ जहँ चित चितवत हित, तहँ नित नव बिषाद अधिकाई।

रुचि-भावती भभरि भागहि, समुहाहिं अमित अनभाई ॥ ३ ॥

आधि-मगन मन, ब्याधि-बिकल तन, बचन मलीन झुठाई।

एतेहुँ पर तुमसों तुलसीकी प्रभु सकल सनेह सगाई ॥ ४ ॥

१९६

काहेको फिरत मन, करत बहु जतन,

मिटै न दुख बिमुख रघुकुल-बीर।

कीजै जो कोटि उपाइ, त्रिबिध ताप न जाइ,

कह्यो जो भुज उठाय मुनिबर कीर ॥ १ ॥

सहज टेव बिसारि तुही धौं देखु बिचारि,

मिलै न मथत बारि घृत बिनु छीर।

समुझि तजहि भ्रम, भजहि पद-जुगम,

सेवत सुगम, गुन गहन गंभीर ॥ २ ॥

आगम निगम ग्रंथ, रिषि-मुनि, सुर-संत,

सब ही को एक मत सुनु, मतिधीर।

तुलसिदास प्रभु बिनु पियास मरै पसु,

जद्यपि है निकट सुरसरि-तीर ॥ ३ ॥

 

१९७

नाहिन चरन-रति ताहि तें सहौं बिपति,

कहत श्रुति सकल मुनि मतिधीर।

बसै जो ससि-उछंग सुधा-स्वादित कुरंग,

ताहि क्यों भ्रम निरखि रबिकर-नीर ॥ १ ॥

सुनिय नाना पुरान, मिटत नाहिं अग्यान,

पढ़िय न समुझिय जिमि खग कीर।

बँधत बिनहिं पास सेमर-सुमन-आस,

करत चरत तेइ फल बिनु हीर ॥ २ ॥

कछु न साधन-सिधि, जानौं न निगम-बिधि,

नहिं जप-तप, बस मन, न समीर।

तुलसिदास भरोस परम करुना-कोस,

प्रभु हरिहैं बिषम भवभीर ॥ ३ ॥

राग भैरवी

१९८

मन पछितैहै अवसर बीते।

दुरलभ देह पाइ हरिपद भजु, करम, बचन अरु ही ते ॥ १ ॥

सहसबाहु दसबदन आदि नृप बचे न काल बलीते।

हम-हम करि धन-धाम सँवारे, अंत चले उठि रीते ॥ २ ॥

सुत बनितादि जानि स्वारथरत, न करु नेह सबही ते।

अंतहु तोहिं तजैंगे पामर! तू न तजै अबही ते ॥ ३ ॥

अब नाथहिं अनुरागु, जागु जड़, त्यागु दुरासा जी ते।

बुझे ---- काम अगिनि तुलसी कहुँ, बिषय-भोग बहु घी ते ॥ ४ ॥

कि

१९९

काहे को फिरत मूढ़ मन धायो।

तजि हरि-चरन-सरोज सुधारस, रबिकर-जल लय लायो ॥ १ ॥

त्रिजग देव नर असुर अपर जग जोनि सकल भ्रमि आयो।

गृह बनिता, सुत, बंधु भये बहु, मातु-पिता जिन्ह जायो ॥ २ ॥

जाते निरय-निकाय निरंतर, सोइ इन्ह तोहि सिखायो।

तुव हित होइ, कटै भव-बंधन, सो मगु तोहि न बतायो ॥ ३ ॥

अजहुँ बिषय कहँ जतन करत, जद्यपि बहुबिधि डहँकायो।

पावक-काम भोग-घृत तें सठ, कैसे परत बुझायौ ॥ ४ ॥

बिषयहीन दुख, मिले बिपति अति, सुख सपनेहुँ नहिं पायो।

उभय प्रकार प्रेत-पावक ज्यों धन दुखप्रद श्रुति गायो ॥ ५ ॥

छिन-छिन छीन होत जीवन, दुरलभ तनु बृथा गँवायो।

तुलसिदास हरि भजहि आस तजि, काल -उरग जग खायो ॥ ६ ॥

२००

ताँबे सो पीठि मनहुँ तन पायो।

नीच, मीच जानत न सीस पर, ईस निपट बिसरायो ॥ १ ॥

अवनि रवनि, धन-धाम, सुहृद-सुत, को न इन्हहिं अपनायो ?

काके भये, गये सँग काके, सब सनेह छल-छायो ॥ २ ॥

जिन्ह भूपनि जग-जीति, बाँधि जम, अपनी बाँह बसायो।

तेऊ काल कलेऊ कीन्हे, तू गिनती कब आयो ॥ ३ ॥

देखु बिचारि, सार का साँचो, कहा निगम निजु गायो।

भजिहिं न अजहुँ समुझि तुलसी तेहि, जेहि महेस मन लायो ॥ ४ ॥

२०१

लाभ कहा मानुष-तनु पाये।

काय-बचन-मन सपनेहुँ कबहुँक घटत न काज पराये ॥ १ ॥

जो सुख सुरपुर-नरक, गेह-बन आवत बिनहिं बुलाये।

तेहि सुख कहँ बहु जतन करत मन, समुझत नहिं समुझाये ॥ २ ॥

पर-दारा, परद्रोह, मोहबस किये मूढ़ मन भाये।

गरभबास दुखरासि जातना तीब्र बिपति बिसराये ॥ ३ ॥

भय-निद्रा, मैथुन-अहार, सबके समान जग जाये।

सुर-दुरलभ तनु धरि न भजे हरि मद अभिमान गवाँये ॥ ४ ॥

गई न निज-पर-बुद्धि सुद्ध ह्वे रहे न राम-लय लाये।

तुलसिदास यह अवसर बीते का पुनि के पछिताये ॥ ५ ॥

२०२

काजु कहा नरतनु धरि सार् यो।

पर-उपकार सार श्रुतिको जो, सो धोखेहु न बिचार् यो ॥ १ ॥

द्वैत मूल, भय-सूल, सोक-फल, भवतरु टरै न टार् यौ।

रामभजन-तीछन कुठार लै सो नहिं काटि निवार् यो ॥ २ ॥

संसय-सिंधु नाम बोहित भजि निज आतमा न तार् यो।

जनम अनेक विवेकहीन बहु जोनि भ्रमत नहिं हार् यो ॥ ३ ॥

देखि आनकि सहज संपदा द्वेष-अनल मन-जार् यो।

सम, दम, दया, दीन-पालन, सीतल हिय हरि न सँभार् यो ॥ ४ ॥

प्रभु गुरु पिता सखा रघुपति तैं मन क्रम बचन बिसार् यो।

तुलसिदास यहि आस, सरन राखिहि जेहि गीध उधार् यो ॥ ५ ॥

२०३

श्रीहरि-गुरु-पद-कमल भजहु मन तजि अभिमान।

जेहि सेवत पाइय हरि सुख-निधान भगवान ॥ १ ॥

परिवा प्रथम प्रेम बिनु राम-मिलन अति दूरि।

जद्यपि निकट हृदय निज रहे सकल भरिपूरि ॥ २ ॥

दुइज द्वेत-मति छाड़ि चरहि महि-मंडल धीर।

बिगत मोह-माया-मद हृदय बसत रघुबीर ॥ ३ ॥

तीज त्रिगुन-पर परम पुरुष श्रीरमन मुकुंद।

गुन सुभाव त्यागे बिनु दुरलभ परमानंद ॥ ४ ॥

चौथि चारि परिहरहु बुद्धि-मन-चित-अहंकार।

बिमल बिचार परमपद निज सुख सहज उदार ॥ ५ ॥

पाँचइ पाँच परस, रस, सब्द, गंध अरु रूप।

इन्ह कर कहा न कीजिये, बहुरि परब भव-कूप ॥ ६ ॥

छठ षटबरग करिय जय जनकसुता-पति लागि।

रघुपति-कृपा-बारि बिनु नहीं बुताइ लोभागि ॥ ७ ॥

सातैं सप्तधातु-निरमित तनु करिय बिचार।

तेहि तनु केर एक फल, कीजै पर-उपकार ॥ ८ ॥

आठइँ आठ प्रकृति-पर निरबिकार श्रीराम।

केहि प्रकार पाइय हरि, हृदय बसहिं बहु काम ॥ ९ ॥

नवमी नवद्वार-पुर बसि जेहि न आपु भल कीन्ह।

ते नर जोनि अनेक भ्रमत दारून दुख लीन्ह ॥ १० ॥

दसइँ दसहु कर संजम जो न करिय जिय जानि।

साधन बृथा होइ सब मिलहिं न सारंगपानि।११ ॥

एकादसी एक मन बस कै सेवहु जाइ।

सोइ ब्रत कर फल पावै आवागमन नसाइ ॥ १२ ॥

द्वादसि दान देहु अस, अभय होइ त्रेलोक।

परहित-निरत सो पारन बहुरि न ब्यापत सोक ॥ १३ ॥

तेरसि तीन अवस्था तजहु, भजहु भगवंत।

मन-क्रम-बचन-अगोचर, ब्यापक, ब्याप्य, अनंत ॥ १४ ॥

चौदसि चौदह भुवन अचर-चर-रूप गोपाल।

भेद गये बिनु रघुपति अति न हरहिं जग-जाल ॥ १५ ॥

पूनों प्रेम-भगति-रस हरि-रस जानहिं दास।

सम, सीतल, गत-मान, ग्यानरत, बिषय-उदास ॥ १६ ॥

त्रिबिध सूल होलिय जरे, खेलिय अब फागु।

जो जिय चहसि परमसुख, तौ यहि मारग लागु ॥ १७ ॥

श्रुति-पुरान-बुध-संमत चाँचरि चरित मुरारि।

करि बिचार भव तरिय, परिय न कबहुँ जमधारि ॥ १८ ॥

संसय-समन, दमन दुख, सुखनिधान हरि एक।

साधु-कृपा बिनु मिलहिं न, करिय उपाय अनेक ॥ १९ ॥

भव सागर कहँ नाव सुद्ध संतनके चरन।

तुलसिदास प्रयास बिनु मिलहिं राम दुखहरन ॥ २० ॥

राग कान्हरा

२०४

जो मन लागै रामचरन अस।

देह-गेह-सुत-बित-कलत्र महँ मगन होत बिनु जतन किये जस ॥ १ ॥

द्वंद्वरहित, गतमान, ग्यानरत, बिषय-बिरत खटाइ नाना कस।

सुखनिधान सुजान कोसलपति ह्वे प्रसन्न, कहु, क्यों न होंहि बस ॥ २ ॥

सर्वभूत-हित, निर्ब्यलीक चित, भगति-प्रेम दृढ़ नेम, एकरस।

तुलसिदास यह होइ तबहिं जब द्रवै ईस, जेहि हतो सीसदस ॥ ३ ॥

२०५

जो मन भज्यो चहै हरि-सुरतरु।

तौ तज बिषय-बिकार, सार भज, अजहूँ जो मैं कहौं सोइ करु ॥ १ ॥

सम, संतोष, बिचार बिमल अति, सतसंगति, यर चारि दृढ़ करि धरु।

काम- क्रोध अरु लोभ-मोह-मद, राग-द्वेष निसेष करि परिहरु ॥ २ ॥

श्रवन कथा, मुख नाम, हृदय हरि, सिर प्रनाम, सेवा कर अनुसरु।

नयननि निरखि कृपा-समुद्र हरि अग-जग-रूप भूप सीताबरु ॥ ३ ॥

इहै भगति, बैराग्य-ग्यान यह, हरि-तोषन यह सुभ ब्रत आचरु।

तुलसिदास सिव-मत मारग यहि चलत सदा सपनेहुँ नाहिंन डरु ॥ ४ ॥

२०६

नाहिन और कोउ सरन लायक दूजो श्रीरघुपति-सम बिपति-निवारन।

काको सहज सुभाउ सेवकबस, काहि प्रनत परप्रीति अकारन ॥ १ ॥

जन-गुन अलप गनत सुमेरु करि, अवगुन कोटि बिलोकि बिसारन।

परम कृपालु, भगत-चिंतामनि, बिरद पुनीत, पतितजन-तारन ॥ २ ॥

सुमिरत सुलभ, दास-दुख हरि चलत तुरत, पटपीत सँभार न।

साखि पुरान-निगम-अगम सब, जानत द्रुपद-सुता अरु बारन ॥ ३ ॥

जाको जस गावत कबि-कोबिद, जिन्हके लोभ-मोह, मद-मार न।

तुलसिदास तजि आस सकल भजु, कोसलपति मुनिबधू-उधारन ॥ ४ ॥

२०७

भजिबे लायक, सुखदायक रघुनायक सरिस सरनप्रद दूजो नाहिन।

आनँदभवन, दुखदवन, सोकसमन रमारमन गुन गनत सिराहिं न ॥ १ ॥

आरत, अधम, कुजाति, कुटिल, खल, पतित, सभीत कहुँ जे समाहिं न।

सुमिरत नाम बिबसहूँ बारक पावत सो पद, जहाँ सुर जाहिं न ॥ २ ॥

जाके पद-कमल लुब्ध मुनि-मधुकर, बिरत जे परम सुगतिहु लुभाहिं न।

तुलसिदास सठ तेहि न भजसि कस, कारुनिक जो अनाथहिं दाहिन ॥ ३ ॥

राग कल्याण

२०८

नाथ सों कौन बिनती कहि सुनावौं।

त्रिबिध बिधि अमित अवलोकि अघ आपने,

सरन सनमुख होत सकुचि सिर नावौं ॥ १ ॥

बिरचि हरिभगतिको बेष बर टाटिका,

कपट-दल हरित पल्लवनि छावौं।

नामलगि लाइ लासा ललित-बचन कहि,

ब्याध ज्यों बिषय-बिहँगनि बझावौं ॥ २ ॥

कुटिल सतकोटि मेरे रोमपर वारियहि,

साधु गनतीमें पहलेहि गनावौं।

परम बर्बर खर्ब गर्ब-पर्बत चढ्यो,

अग्य सर्बग्य, जन-मनि जनावौं ॥ ३।

साँच किधौं झूठ मोको कहत कोउ-

कोउ राम! रावरो, हौं तुम्हरो कहावौं।

बिरदकी लाज करि दास तुलसिहिं देव!

लेहु अपनाइ अब देहु जनि बावौ ॥ ४ ॥

२०९

नाहिनै नाथ! अवलंब मोहि आनकी।

करम-मन-बचन पन सत्य करुनानिधे!

एक। गति राम! भवदीय पदत्रानकी ॥ १ ॥

कोह-मद-मोह-ममतायतन जानि मन,

बात नहि जाति कहि ग्यान-बिग्यानकी।

काम-संकलप उर निरखि बहु बासनहिं,

आस नहिं एकहू आँक निरबानकी ॥ २ ॥

बेद-बोधित करम धरम बिनु अगम अति,

जदपि जिय लालसा अमरपुर जानकी।

सिद्ध-सुर-मनुज दनुजादिसेवत कठिन,

द्रवहिं हठजोग दिये भोग बलि प्रानकी ॥ ३ ॥

भगति दुरलभ परम, संभु-सुक-मुनि-मधुप,

प्यास पदकंज-मकरंद-मधुपानकी।

पतित-पावन सुनत नाम बिस्रामकृत,

भ्रमित पुनि समझि चित ग्रंथि अभिमानकी ॥ ४ ॥

नरक-अधिकार मम घोर संसार-तम-

कूपकहीं, भूप! मोहि सक्ति आपानकी।

दासतुलसी सोउ त्रास नहि गनत मन,

सुमिरि गुह गीध गज ग्याति हनुमानकी ॥ ५ ॥

२१०

औरु कहँ ठौरु रघुबंस-मनि! मेरे।

पतित-पावन प्रनत-पाल असरन-सरन,

बाँकुरे बिरुद बिरुदैत केहि केरे ॥ १ ॥

समुझि जिय दोस अति रोस करि राम जो,

करत नहिं कान बिनती बदन फेरे।

तदपि ह्वे निडर हौं कहौं करुना-सिंधु,

क्योंऽब रहि जात सुनि बात बिनु हेरे ॥ २ ॥

मुख्य रुचि बसिबेकी पुर रावरे,

राम! तेहि रुचिहि कामादि गन घेरे।

अगम अपबरग, अरु सरग सुकृतैकफल,

नाम-बल क्यों बसौं जम-नगर नेरे ॥ ३ ॥

कतहुँ नहिं ठाउँ, कहँ जाउँ कोसलनाथ!

दीन बितहीन हौं, बिकल बिनु डेरे।

दास तुलसिहि बास देहु अब करि कृपा,

बसत गज गीध ब्याधादि जेहि खेरे ॥ ४ ॥

२११

कबहुँ रघुबंसमनि ! सो कृपा करहुगे।

जेहि कृपा ब्याध, गज, बिप्र, खल नर तरे,

तिन्हहि सम मानि मोहि नाथ उद्धरहुगे ॥ १ ॥

जोनि बहु जनमि किये करम खल बिबिध बिधि,

अधम आचरन कछु हृदय नहि धरहुगे।

दीनहित! अजित सरबग्य समरथ प्रनतपालि,

चित मृदुल निज गुननि अनुसरहुगे ॥ २ ॥

मोह-मद-मान-कामादि खलमंडली,

सकुल निरमूल करि दुसह दुख हरहुगे।

जोग-जप-जग्य-बिग्यान ते अधिक अति,

अमल दृढ़ भगति दै परम सुख भरहुगे ॥ ३ ॥

मंदजन-मौलिमनि सकल, साधनहीन,

कुटिल मन, मलिन जिय जानि जो डरहुगे।

दासतुलसी बेद-बिदित बिरुदावली,

बिमल जस नाथ! केहि भाँति बिस्तरहुगे ॥ ४ ॥

राग केदारा

२१२

रघुपति बिपति-दवन।

परम कृपालु, प्रनत-प्रतिपालक, पतित-पावन ॥ १ ॥

कूर, कुटिल, कुलहीन, दीन, अति मलिन जवन।

सुमिरत नाम राम पठये सब अपने भवन ॥ २ ॥

गज-पिंगला-अजामिल-से खल गनै धौं कवन।

तुलसिदास प्रभु केहि न दीन्हि गति जानकी-रवन ॥ ३ ॥

२१३

हरि-सम आपदा-हरन।

नहि कोउ सहज कृपालु दुसह दुख-सागर-तरन ॥ १ ॥

गज निज बल अवलोकि कमल गहि गयो सरन।

दीन बचन सुनि चले गरुड़ तजि सुनाभ-धरन ॥ २ ॥

द्रुपदसुताको लग्यो दुसासन नगन करन।

'हा हरि पाहि' कहत पूरे पट बिबिध बरन ॥ ३ ॥

इहे जानि सुर-नर-मुनि-कोबिद सेवत चरन।

तुलसिदास प्रभु को न अभय कियो नृग-उद्धरन ॥ ४ ॥

राग कल्यान

२१४

ऐसी कौन प्रभुकी रीति ?

बिरद हेतु पुनीत परिहरि पाँवरनि पर प्रीति ॥ १ ॥

गई मारन पूतना कुच कालकूट लगाई।

मातुकी गति दई ताहि कृपालु जादवराइ ॥ २ ॥

काममोहित गोपिकनिपर कृपा अतुलित कीन्ह।

जगत-पिता बिरंचि जिन्हके चरनकी रज लीन्ह ॥ ३ ॥

नेमतें सिसुपाल दिन प्रति देत गनि गनि गारि।

कियो लीन सु आपमें हरि राज-सभा मँझारि ॥ ४ ॥

ब्याध चित दै चरन मार् यो मूढ़मति मृग जानि।

सो सदेह स्वलोक पठयो प्रगट करि निज बानि ॥ ५ ॥

कौन तिन्हकी कहै जिन्हके सुकृत अरु अघ दोउ।

प्रगट पातकरूप तुलसी सरन राख्यो सोउ ॥ ६ ॥

२१५

श्रीरघुबीरकी यह बानि।

नीचहू सों करत नेह सुप्रीति मन अनुमानि ॥ १ ॥

परम अधम निषाद पाँवर, कौन ताकी कानि ?

लियो सो उर लाइ सुत ज्यौं प्रेमको पहिचानि ॥ २ ॥

गीध कौन दयालु, जो बिधि रच्यो हिंसा सानि ?

जनक ज्यों रघुनाथ ताकहँ दियो जल निज पानि ॥ ३ ॥

प्रकृति-मलिन कुजाति सबरी सकल अवगुन-खानि।

खात ताके दिये फल अति रुचि बखानि बखानि ॥ ४ ॥

रजनिचर अरु रिपु बिभीषन सरन आयो जानि।

भरत ज्यों उठि ताहि भैंटत देह-दसा भुलानि ॥ ५ ॥

कौन सुभग सुसील बानर, जिनहिं सुमिरत हानि।

किये ते सब सखा, पूजे भवन अपने आनि ॥ ६ ॥

राम सहज कृपालु कोमल दीनहित दिनदानि।

भजहि ऐसे प्षभुहि तुलसी कुटिल कपट न ठानि ॥ ७ ॥

 

२१६

हरि तज और भजिये काहि ?

नाहिनै कोउ राम सो ममता प्रनतपर जाहि ॥ १ ॥

कनककसिपु बिरंचिको जन करम मन अरु बात।

सुतहिं दुखवत बिधि न बरज्यो कालके घर जात ॥ २ ॥

संभु-सेवक जान जग, बहु बार दिये दस सीस।

करत राम-बिरोध सो सपनेहु न हटक्यो ईस ॥ ३ ॥

और देवनकी कहा कहौं, स्वारथहिके मीत।

कबहु काहु न राख लियो कोउ सरन गयउ सभीत ॥ ४ ॥

को न सेवत देत संपति लोकहू यह रीति।

दासतुलसी दीनपर एक राम ही की प्रीति ॥ ५ ॥

२१७

जो पै दूसरो कोउ होइ।

तौ हौं बारहि बार प्रभु कत दुख सुनावौं रोइ ॥ १ ॥

काहि ममता दीनपर, काको पतितपावन नाम।

पापमूल अजामिलहि केहि दियो अपनो धाम ॥ २ ॥

रहे संभु बिरंचि सुरपति लोकपाल अनेक।

सोक-सरि बूड़त करीसहि दई काहु न टेक ॥ ३ ॥

बिपुल-भूपति-सदहि महँ नर-नारि कह्यो 'प्रभु पाहि'।

सकल समरथ रहे, काहु न बसन दीन्हों ताहि ॥ ४ ॥

एक मुख क्यों कहौं करुनासिंधुके गुन-गाथ ?

भक्तहित धरि देह काह न कियो कोसलनाथ! ॥ ५ ॥

आपसे कहुँ सौंपिये मोहि जो पै अतिहि घिनात।

दासतुलसी और बिधि क्यों चरन परिहरि जात ॥ ६ ॥

 

२१८

कबहि देखाइहौ हरि चरन।

समन सकल कलेस कलि-मल, सकल मंगल-करन ॥ १ ॥

सरद-भव सुंदर तरुनतर अरुन-बारिज-बरन।

लच्छि-लालित-ललित करतल छबि अनूपम धरन ॥ २ ॥

गंग-जनक अनंग-अरि-प्रिय कपट-बटु बलि-छरन।

बिप्रतिय नृग बधिकके दुख-दोस दारुन दरन ॥ ३।

सिद्ध-सुर-मुनि-बृंद-बंदित सुखद सब कहँ सरन।

सकृत उर आनत जिनहिं जन होत तारन-तरन ॥ ४ ॥

कृपासिंधु सुजान रघुबर प्रनत-आरति-हरन।

दरस-आस-पियास तुलसीदास चाहत मरन ॥ ५ ॥

२१९

द्वार हौं भोर ही को आजु।

रटत रिरिहा आरि और न, कौर ही तें काजु ॥ १ ॥

कलि कराल दुकाल दारुन, सब कुभाँति कुसाजु।

नीच जन, मन ऊँच जैसी कोढँमेंकी खाजु ॥ २ ॥

हहरि हियमें सदय बूझ्यो जाइ साधु-समाजु।

मोहुसे कहुँ कतहुँ कोउ, तिन्ह कह्यो कोसलराजु ॥ ३ ॥

दीनता-दारिद दलै को कृपाबारिधि बाजु।

दानि दसरथरायके, तू बानइत सिरताजु ॥ ४ ॥

जनमको भूखो भिखारी हौं गरीबनिवाजु।

पेट भरि तुलसिहि जेंवाइय भगति-सुधा सुनाजु ॥ ५ ॥

 

२२०

करिय सँभार, कोसलराय!

और ठौर न और गति, अवलंब नाम बिहाय ॥ १ ॥

बूझि अपनी आपनो हितु आप बाप न माय।

राम! राउर नाम गुर, सुर, स्वामि, सखा, सहाय ॥ २ ॥

रामराज न चले मानस-मलिनके छल छाय।

कोप तेहि कलिकाल कायर मुएहि घालत घाय ॥ ३ ॥

लेत केहरिको बयर ज्यों भैक हनि गोमाय।

त्योंहि राम-गुलाम जानि निकाम देत कुदाय ॥ ४ ॥

अकनि याके कपट-करतब, अमित अनय-अपाय।

सुखि हरिपुर बसत होत परीछितहि पछिताय ॥ ५ ॥

कृपासिंधु! बिलोकिये, जन-मनकी साँसति साय।

सरन आयो, देव! दीनदयालु! देखन पाय ॥ ६ ॥

निकट बोलि न बरजिये, बलि जाउँ, हनिय न हाय।

देखिहैं हनुमान गोमुख नाहरनिके न्याय ॥ ७ ॥

अरुन मुख, भ्रू बिकट, पिंगल नयन रोष-कषाय।

बीर सुमिरि समीरको घटिहै चपल चित चाय ॥ ८ ॥

बिनय सुनि बिहँसे अनुजसों बचनके कहि भाय।

'भली कही' कह्यो लषन हूँ हँसि, बने सकल बनाय ॥ ९ ॥

दई दीनहिं दादि, सो सुनि सुजन-सदन बधाय।

मिटे संकट-सोच, पोच-प्रपंच, पाप-निकाय ॥ १० ॥

पेखि प्रीति-प्रतीति जनपर अगुन अनघ अमाय।

दासतुलसी कहत मुनिगन, 'जयति जय उरुगाय' ॥ ११ ॥

 

२२१

नाथ! कृपाहीको पंथ चितवत दीन हौं दिनराति।

होइ धौं केहि काल दीनदयालु! जानि न जाति ॥ १ ॥

सुगुन, ग्यान-बिराग-भगति, सु-साधननिकी पाँति।

भजे बिकल बिलोकि कलि अघ-अवगुननिकी थाति ॥ २ ॥

अति अनीति-कुरीति भइ भुइँ तरनि हू ते ताति।

जाउँ कहँ ? बलि जाउँ, कहूँ न ठाउँ, मति अकुलाति ॥ ३ ॥

आप सहित न आपनो कोउ, बाप! कठिन कुभाँति।

स्यामघन! सींचिये तुलसी, सालि सफल सुखाति ॥ ४ ॥

२२२

बलि जाउँ, और कासों कहौं ?

सदगुनसिंधु स्वामि सेवक-हित कहुँ न कृपानिधि-सो लहौं ॥ १ ॥

जहँ जहँ लोभ लोल लालचबस निजहित चित चाहनि चहौं।

तहँ तहँ तरनि तकत उलूक ज्यों भटकि कुतरु-कोटर गहौं ॥ २ ॥

काल-सुभाउ-करम बिचित्र फलदायक सुनि सिर धुनि रहौं।

मोको तौ सकल सदा एकहि रस दुसह दाह दारुन दहौं ॥ ३ ॥

उचित अनाथ होइ दुखभाजन भयो नाथ! किंकर न हौं।

अब रावरो कहाइ न बूझिये, सरनपाल! साँसति सहौं ॥ ४ ॥

महाराज! राजीवबिलोचन! मगन-पाप-संताप हौं।

तुलसी प्रभु!जब तब जेहि तेहि बिधि राम निरबहौं ॥ ५ ॥

२२३

आपनो कबहुँ करि जानिहौ।

राम गरीबनिवाज राजमनि, बिरद-लाज उर आनिहौ ॥ १ ॥

सील-सिंधु, सुंदर, सब लायक, समरथ, सदगुन-खानि हौ।

पाल्यो है, पालत, पालहुगे प्रभु, प्रनत-प्रेम पहिचानिहौ ॥ २ ॥

बेद-पुरान कहत, जग जानत, दीनदयालु दिन-दानि हौ।

कहि आवत, बलि जाऊँ, मनहुँ मेरी बार बिसारे बानि हौ ॥ ३ ॥

आरत-दीन-अनाथनिके हित मानत लौकिक कानि हौ।

है परिनाम भलो तुलसीको सरनागत-भय-भानि हौ ॥ ४ ॥

२२४

रघुबरहि कबहुँ मन लागिहै ?

कुपथ, कुचाल, कुमति, कुमनोरथ, कुटिल कपट कब त्यागिहै ॥ १ ॥

जानत गरल अमिय बिमोहबस, अमिय गनत करि आगिहै।

उलटी रीति-प्रीति अपनेकी तजि प्रभुपद अनुरागिहै ॥ २ ॥

आखर अरथ मंजु मृदु मोदक राम-प्रेम-पगि पागिहै।

ऐसे गुन गाइ रिझाइ स्वामिसों पाइहै जो मुँह माँगिहै ॥ ३ ॥

तू यहि बिधि सुख-सयन सोइहै, जियकी जरनि भूरि भागिहै।

राम-प्रसाद दासतुलसी उर राम-भगति-जोग जागिहै ॥ ४ ॥

२२५

भरोसो और आइहै उर ताके।

कै कहुँ लहै जो रामहि-सो साहिब, कै अपनो बल जाके ॥ १ ॥

के कलिकाल कराल न सूझत, मोह-मार-मद छाके।

कै सुनि स्वामि-सुभाउ न रह्यो चित, जो हित सब अँग थाके ॥ २ ॥

हौं जानत भलिभाँति अपनपौ, प्रभु-सो सुन्यो न साके।

उपल, भील, खग, मृग रजनीचर, भले भये करतब काके ॥ ३ ॥

मोको भलो राम-नाम सुरतरु-सो, रामप्रसाद कृपालु कृपाके।

तुलसी सुखी निसोच राज ज्यों बालक माय-बबाके ॥ ४ ॥

२२६

भरोसो जाहि दूसरो सो करो।

मोको तो रामको नाम कलपतरु कलि कल्यान फरो ॥ १ ॥

करम उपासन, ग्यान, बेदमत, सो सब भाँति खरो।

मोहि तो 'सावनके अंधहि' ज्यों सूझत रंग हरों ॥ २ ॥

चाटत रह्यो स्वान पातरि ज्यों कबहुँ न पेट भरो।

सो हौं सुमिरत नाम-सुधारस पेखत परुसि धरो ॥ ३ ॥

स्वारथ औ परमारथ हू को नहि कुंजरो-नरो।

सुनियत सेतु पयोध पषाननि करि कपि कटक-तरो ॥ ४ ॥

प्रीति-प्रतीति जहाँ जाकी, तहँ ताको काज सरो।

मेरे तो माय-बाप दोउ आखर हौं सिसु-अरनि अरो ॥ ५ ॥

संकर साखि जो राखि कहौं कछु तौ जरि जीह गरो।

अपनो भलो राम-नामहि ते तुलसिहि समुझि परो ॥ ६ ॥

 

२२७

नाम राम रावरोई हित मेरे।

स्वारथ-परमारथ साथिन्ह सों भुज उठाइ कहौं टेरे ॥ १ ॥

जननि-जनक तज्यो जनमि, करम बिनु बिधिहु सृज्यो अवडेरे।

मोहुँसो कोउ-कोउ कहत रामहि को, सो प्रसंग केहि केरे ॥ ३२ ॥

फिर् यौ ललात बिनु नाम उदर लगि, दुखउ दुखित मोहि हेरे।

नाम-प्रसाद लहत रसाल फल अब हौं बबुर बहेरे ॥ ३ ॥

साधत साधु लोक-परलोकहि, सुनि गुनि जतन घनेरे।

तुलसीके अवलंब नामको, एक गाँठि कइ फेरे ॥ ४ ॥

२२८

प्रिय रामनामतें जाहि न रामो।

ताको भलो कठिन कलिकालहुँ आदि-मध्य-परिनामो ॥ १ ॥

सकुचत समुझि नाम-महिमा मद-लोभ-मोह-कोह-कामो।

राम-नाम-जप-निरत सुजन पर करत छाँह घोर घामो ॥ २ ॥

नाम-प्रभाउ सही जो कहै कोउ सिला सरोरुह जामो।

जो सुनि सुमिरि भाग-भाजन भइ सुकृतसील भील-भामो ॥ ३ ॥

बालमीकि-अजामिलके कछु हुतो न साधन सामो।

उलटे पलटे नाम-महातम गुंजनि जितो ललामो ॥ ४ ॥

रामतें अधिक नाम-करतब, जेहि किये नगर-गत गामो।

भये बजाइ दाहिने जो जपि तुलसिदाससे बामो ॥ ५ ॥

२२९

गरैगी जीह जो कहौं औरको हौं।

जानकी-जीवन! जनम-जनम जग ज्यायो तिहारेहि कौरको हौं ॥ १ ॥

तीनि लोक, तिहुँ काल न देखत सुहृद रावरे जोरको हौं।

तुमसों कपट करि कलप-कलप कृमि ह्वेहौं नरक घोरको हौं ॥ २ ॥

कहा भयो जो मन मिलि कलिकालहिं कियो भौंतुवा भौंरको हौं।

तुलसिदास सीतल नित यहि बल, बड़े ठेकाने ठौरको हौं ॥ ३ ॥

२३०

अकारन को हितू और को है।

बिरद 'गरीब-निवाज' कौनको, भौंह जासु जन जोहै ॥ १ ॥

छोटो-बड़ो चहत सब स्वारथ, जो बिरंचि बिरचो है।

कोल कुटिल, कपि-भालु पालिबो कौन कृपालुहि सोहै ॥ २ ॥

काको नाम अनख आलस कहें अघ अवगुननि बिछोहै।

को तुलसीसे कुसेवक संग्रह्यो, सठ सब दिन साईं द्रोहै ॥ ३ ॥

२३१

और मोहि को है, काहि कहिहौं ?

रंक-राज ज्यों मनको मनोरथ, केहि सुनाइ सुख लहिहौं ॥ १ ॥

जम-जातना, जोनि-संकट सब सहे दुसह अरु सहिहौं।

मोको अगम, सुगम तुमको प्रभु, तउ फल चारि न चहिहौं ॥ २ ॥

खेलिबेको खग-मृग, तरु-कंकर है रावरो राम हौं रहिहौं।

यहि नाते नरकहुँ सचु या बिनु परमपदहुँ दुख दहिहौं ॥ ३ ॥

इतनी जिय लालसा दासके, कहत पानही गहिहौं।

दीजै बचन कि हृदय आनिये 'तुलसिको पन निर्बहिहौ' ॥ ४ ॥

 

२३२

दीनबंधु दूसरो कहँ पावो ?

को तुम बिनु पर-पीर पाइ है ? केहि दीनता सुनावों ॥ १ ॥

प्रभु अकृपालु, कृपालु अलायक, जहँ-जहँ चितहिं डोलावों।

इहै समुझि सुनि रहौं मौन ही, कहि भ्रम कहा गवावों ॥ २ ॥

गोपद बुड़िबे जोग करम करौं, बातनि जलधि थहावों।

अति लालची, काम-किंकर मन, मुख रावरो कहावों ॥ ३ ॥

तुलसी प्रभु जियकी जानत सब, अपनो कछुक जनावों।

सो कीजै, जेहि भाँति छाँडि छल द्वार परो गुन गावों ॥ ४ ॥

२३३

मनोरथ मनको एकै भाँति।

चाहत मुनि-मन-अगम सुकृत-फल, मनसा अघ न अघाति ॥ १ ॥

करमभूमि कलि जनम, कुसंगति, मति बिमोह-मद-माति।

करत कुजोग कोटि, कयों पैयत परमारथ-पद सांति ॥ २ ॥

सेइ साधु-गुरु, सुनि पुरान-श्रुति बूझ्यो राग बाजी ताँति।

तुलसी प्रभु सुभाउ सुरतरु-सो, ज्यों दरपन मुख-कांति ॥ ३ ॥

२३४

जनम गयो बादिहिं बर बीति।

परमारथ पाले न पर् यो कछु, अनुदिन अधिक अनीति ॥ १ ॥

खेलत खात लरिकपन गो चलि, जौबन जुवतिन लियो जीति।

रोग-बियोग-सोग-श्रम-संकुल बड़ि बय बृथहि अतीति ॥ २ ॥

राग-रोष-इरिषा-बिमोह-बस रुची न साधु-समीति।

कहे न सुने गुनगन रघुबरके, भइ न रामपद-प्रीति ॥ ३ ॥

हृदय दहत पछिताय-अनल अब, सुनत दुसह भवभीति।

तुलसी प्रभु तें होइ सो कीजिय समुझि बिरदकी रीति ॥ ४ ॥

२३५

ऐसेहि जनम-समूह सिराने।

प्राननाथ रघुनाथ-से प्रभु तजि सेवत चरन बिराने ॥ १ ॥

जे जड जीव कुटिल, कायर, खल, केवल कलिमल-साने।

सूखत बदन प्रसंसत तिन्ह कहँ, हरितें अधिक करि माने ॥ २ ॥

सुख हित कोटि उपाय निरंतर करत न पायँ पिराने।

सदा मलीन पंथके जल ज्यो, कबहुँ न हृदय थिराने ॥ ३ ॥

यह दीनता दूर करिबेको अमित जतन उर आने।

तुलसी चित-चिंता न मिटै बिनु चिंतामनि पहिचाने ॥ ४ ॥

२३६

जो पै जिय जानकी-नाथ न जाने।

तौ सब करम-धरम श्रमदायक ऐसेइ कहत सयाने ॥ १ ॥

जे सुर, सिद्ध, मुनीस, जोगबिद बेद-पुरान बखाने।

पूजा लेत, देत पलटे सुख हानि-लाभ अनुमाने ॥ २ ॥

काको नाम धोखेहू सुमिरत पातकपुंज पराने।

बिप्र-बधिक, गज-गीध कोटि खल कौनके पेट समाने ॥ ३ ॥

मेरु-से दोष दूरि करि जनके, रेनु-से गुन उर आने।

तुलसिदास तेहि सकल आस तजि भजहि न अजहुँ अयाने ॥ ४ ॥

२३७

काहे न रसना, रामहि गावहि ?

निसदिन पर-अपवाद बृथा कत रटि-रटि राग बढ़ावहि ॥ १ ॥

नरमुख सुंदर मंदिर पावन बसि जनि ताहि लजावहि।

ससि समीप रहि त्यागि सुधा कत रबिकर-जल कहँ धावहि ॥ २ ॥

काम-कथा कलि-कैरव-चंदनि, सुनत श्रवन दै भावहि।

तिनहिं हटकि कहि हरि-कल-कीरति, करन कलंक नसावहि ॥ ३ ॥

जातरूप मति, जुगति रुचिर मनि रचि-रचि हार बनावहि।

सरन-सुखद रबिकुल-सरोज-रबि राम-नृपहि पहिरावहि ॥ ४ ॥

बाद-बिबाद, स्वाद तजि भजि हरि, सरस चरित चित लावहि।

तुलसिदास भव तरहि, तिहुँ पुर तू पुनीत जस पावहि ॥ ५ ॥

 

२३८

आपनो हित रावरेसों जो पै सूझै।

तौ जनु तनुपर अछत सीस सुधि क्यों कबंध ज्यों जूझै ॥ १ ॥

निज अवगुन, गुनराम! रावरे लखि-सुनि-मति-मन-रूझै।

रहनि-कहनि-समुझनि तुलसीकी को कृपालु बिनु बूझै ॥ २ ॥

२३९

जाको हरि दृढ़ करि अंग कर् यो।

सोइ सुसील, पुनीत, बेदबिद, बिद्या-गुननि भर् यो ॥ १ ॥

उतपति पांडु-सुतनकी करनी सुनि सतपंथ डर् यो।

ते त्रैलोक्य-पूज्य, पावन जस सुनि-सुनि लोक तर् यो ॥ २ ॥

जो निज धरम बेदबोधित सो करत न कछु बिसर् यो।

बिनु अवगुन कृकलास कूप मज्जित कर गहि उधर् यो ॥ ३ ॥

ब्रह्म बिसिख ब्रह्मांड दहन छम गर्भ न नृपति जर् यो।

अजर-अमर, कुलिसहुँ नाहिंन बध, सो पुनि फेन मर् यो ॥ ४ ॥

बिप्र अजामिल अरु सुरपति तें कहा जो नहिं बिगर् यो।

उनको कियो सहाय बहुत, उरको संताप हर् यो ॥ ५ ॥

गनिका अरु कंदरपतें जगमहँ अघ न करत उबर् यो।

तिनको चरित पवित्र जानि हरि निज हृदि-भवन धर् यो ॥ ६ ॥

केहि आचरन भलो मानैं प्रभु सो तौ न जानि पर् यो।

तुलसिदास रघुनाथ-कृपाको जोवत पंथ खर् यो ॥ ७ ॥

२४०

सोइ सुकृती, सुचि साँचो जाहि राम! तुम रीझे।

गनिका, गीध, बधिक हरिपुर गये, लै कासी प्रयाग कब सीझे ॥ १ ॥

कबहुँ न डग्यो निगम-मगतें पग, नृग जग जानि जिते दुख पाये।

गजधौं कौन दिछित, जाके सुमिरत लै सनाभ बाहन तजि धाये ॥ २ ॥

सुर-मुनि-बिप्र बिहाय बड़े कुल, गोकुल जनम गोपगृह लीन्हो।

बायों दियो बिभव कुरुपतिको, भोजन जाइ बिदुर-घर कीन्हो ॥ ३ ॥

मानत भलहि भलो भगतनितें, कछुक रीति पारथहि जनाई।

तुलसी सहज सनेह राम बस, और सबै जलकी चिकनाई ॥ ४ ॥

२४१

तब तुम मोहूसे सठनिको हठि गति न देते।

कैसेहु नाम लेइ कोउ पामर, सुनि सादर आगे ह्वे लेते ॥ १ ॥

पाप-खानि जिय जानि अजामिल जमगन तमकि तये ताको भे ते।

लियो छुड़ाइ, चले कर मींजत, पीसत दाँत गये रिस-रेते ॥ २ ॥

गौतम-तिय, गज, गीध, बिटप, कपि, हैं नाथहिं नीके मालुम जेते।

तिन्ह तिन्ह काजनि

साधु-समाजु तजि कृपासिंधु तब तब उठिगे ते ॥ ३ ॥

तिन्ह के काज

अजहुँ अधिक आदर येहि द्वारे, पतित पुनीत होत नहिं केते।

मेरे पासंगहु न पूहिहैं, ह्वे गये, है, होने खल जेते ॥ ४ ॥

हौं अबलौं करतूति तिहारिय चितवत हुतो न रावरे चेते।

अब तुलसी पूतरो बाँधिहै, सहि न जात मोपै परिहास एते ॥ ५ ॥

२४२

तुम सम दींनबंधु, न दीन कोउ मो सम, सुनहु नृपति रघुराई।

मोसम कुटिल-मौलिमन नहिं जग, तुमसम हरि, !न हरन कुटिलाई ॥ १ ॥

हौं मन-बचन-कर्म पातक-रत, तुम कृपालु पतितन-गतिदाई।

हौं अनाथ, प्रभु! तुम अनाथ-हित, चित यहि सुरति कबहुँ नहिं जाई ॥ २ ॥

हौं आरत, आरति-नासक तुम, कीरति निगम पुराननि गाई।

हौं सभीत तुम हरन सकल भय, कारन कवन कृपा बिसराई ॥ ३ ॥

तुम सुखधाम राम श्रम-भंजन, हौं अति दुखित त्रिबिध श्रम पाई।

यह जिय जानि दास तुलसी कहँ राखहु सरन समुझि प्रभुताई ॥ ४ ॥

२४३

यहै जानि चरनन्हि चित लायो।

नाहिन नाथ! अकारनको हितु तुम समान पुरान-श्रुति गायो ॥ १ ॥

जननि जनक, सुत-दार, बंधुजन भये बहुत जहँ जहँ हौं जायो।

सब स्वारथहित प्रीति, कपट चित, काहू नहिं हरिभजन सिखायो ॥ २ ॥

सुर-मुनि, मनुज-दनुज, अहि-किन्नर, मैं तनु धरि सिर काहि न नायो।

जरत फिरत त्रयताप पापबस, काहु न हरि! करि कृपा जुड़ायो ॥ ३ ॥

जतन अनेक किये सुख-कारन, हरिपद-बिमुख सदा दुख पायो।

अब थाक्यो जलहीन नाव ज्यों देखत बिपति-जाल जग छायो ॥ ४ ॥

मो कहँ नाथ! बूझिये, यह गति सुख-निधान निज पति बिसरायो।

अब तजि रौष करहु करुना हरि! तुलसिदास सरनागत आयो ॥ ५ ॥

२४४

याहि ते मैं हरि ग्यान गँवायो।

परिहरि हृदय-कमल रघुनाथहि, बाहर फिरत बिकल भयो धायो ॥ १ ॥

ज्यों कुरंग निज अंग रुचिर मद अति मतिहीन मरम नहिं पायो।

खोजत गिरि, तरु, लता, भूमि, बिल परम सुगंध कहाँ तें आयो ॥ २ ॥

ज्यों सर बिमल बारि परिपूरन, ऊपर कछु सिवार तृन छायो।

जारत हियो ताहि तजि हौं सठ, चाहत यहि बिधि तृषा बुझायो ॥ ३ ॥

ब्यापत त्रिबिध ताप तनु दारुन, तापर दुसह दरिद्र सतायो।

अपनेहि धाम नाम-सुरतरु तजि बिषय-बबूर-बाग मन लायो ॥ ४ ॥

तुम-सम ग्यान-निधान, मोहि सम मूढ़ न आन पुराननि गायो।

तुलसिदास प्रभु! यह बिचारि जिय कीजै नाथ उचित मन भायो ॥ ५ ॥

२४५

मोहि मूढ़ मन बहुत बिगोयो।

याके लिये सुनहु करुनामय, मैं जग जनमि-जनमि दुख रोयो ॥ १ ॥

सीतल मधुर पियूष सहज सुख निकटहि रहत दूरि जन खोयो।

बहु भाँतिन स्रम करत मोहबस, बृथहि मंदमति बारि बिलोयो ॥ २ ॥

करम-कीच जिय जानि, सानि चित, चाहत कुटिल मलहि मल धोयो।

तृषावंत सुरसरि बिहाय सठ फिरि-फिरि बिकल अकास निचोयो ॥ ३ ॥

तुलसिदास प्रभु! कृपा करहु अब, मैं निज दोष कछू नहिं गोयो।

डासत ही गइ बीति निसा सब, कबहुँ न नाथ! नींद भरि सोयो ॥ ४ ॥

 

२४६

लोक-बेद हूँ बिदित बात सुनि-समुझि।

मोह-मोहित बिकल मति थिति न लहति।

छोटे-बड़े, खोटे-खरे, मोटेऊ दूबरे,

राम! रावरे निबाहे सबहीकी निबहति ॥ १ ॥

होती जो आपने बस, रहती एक ही रस,

दूनी न हरष-सोक-सांसति सहति।

चहतो जो जोई जोई, लहतो सो सोई सोई,

केहू भाँति काहूकी न लालसा रहति। ॥ २ ॥

करम, काल, सुभाउ गुन-दोष जीव जग मायाते,

सो सभै भौंह चकित चहति।

ईसन-दिगीसनि, जोगीसनि, मुनीसनि हू,

छोड़ति छोड़ाये तें, गहाये तें गहति ॥ ३ ॥

सतरंजको सो राज, काठको सबै समाज,

महाराज बाजी रची, प्रथम न हति।

तुलसी प्रभुके हाथ हारिबो-जीतिबो नाथ!

बहु बेष, बहु मुख सारदा कहति ॥ ४ ॥

२४७

राम जपु जीह! जानि, प्रीति सों प्रतीत मानि,

रामनाम जपे जैहै जियकी जरनि।

रामनामसों रहनि, रामनामकी कहनि,

कुटिल कलि-मल-सोक-संकट-हरनि ॥ १ ॥

रामनामको प्रभाउ पूजियत गनराउ,

कियो न दुराउ, कही आपनी करनि।

भव-सागरको सेतु, कासीहू सुगति हेतु,

जपत सादर संभु सहित घरनि ॥ २ ॥

बालमीकि ब्याध हे अगाध-अपराध-निधि,

'मरा' 'मरा' जपे पूजे मुनि अमरनि।

रोक्यो बिंध्य, सोख्यो सिंधु घटजहुँ नाम-बल,

हार् यो हिय, खारो भयो भूसुर-डरनि ॥ ३ ॥

नाम-महिमा अपार, सेष-सुक बार बार,

मति-अनुसार बुध बेदहू बरनि।

नामरति-कामधेनु तुलसीको कामतरु,

रामनाम है बिमोह-तिमिर-तरनि ॥ ४ ॥

२४८

पाहि, पाहि राम! पाहि रामभद्र, रामचंद्र!

सुजस स्रवन सुनि आयो हौं सरन।

दीनबंधु! दीनता-दरिद्र-दाह-दोष-दुख,

दारुन दुसह दर-दुरित-हरन ॥ १ ॥

जब जब जग-जाल ब्याकुल करम काल,

सब खल भूप भये भूतल-भरन।

तब तब तनु धरि, भूमि-भार दूरि करि,

थापे मुनि, सुर, साधु, आस्रम, बरन ॥ २ ॥

बेद, लोक, सब साखी, काहूकी रती न राखी,

रावनकी बंदि लागे अमर मरन।

ओक दै बिसोक किये लोकपति लोकनाथ,

रामराज भयो धरम चारिहु चरन ॥ ३ ॥

सिला, गुह, गीध, कपि, भील, भालु, रातिचर,

ख्याल ही कृपालु कीन्हे तारन-तरन।

पील-उद्धरन! सीलसिंधु! ढील देखियतु,

तुलसी पै चाहत गलानि ही गरन ॥ ४ ॥

२४९

भली भाँति पहिचाने-जाने साहिब जहाँ लौं जग,

जूड़े होत थोरे, थोरे ही गरम।

प्रीति न प्रवीन, नीतिहीन, रीतिके मलीन,

मायाधीन सब किये कालहू करम ॥ १ ॥

दानव-दनुज बड़े महामूढ़ मूँड़ चढ़े,

जीते लोकनाथ नाथ! बलनि भरम।

रीझि-रीझि दिये बर, खीझी-खीझि घाले घर,

आपने निवाजेकी न काहूको सरम ॥ २ ॥

सेवा-सावधान तू सुजान समरथ साँचो,

सदगुन-धाम राम! पावन परम।

सुरुख, सुमुख, एकरस, एकरूप, तोहि,

बिदित बिसेषि घटघटके मरम ॥ ३ ॥

तोसो नतपाल न कृपाल, न कँगाल मो-सो,

दयामें बसत देव सकल धरम।

राम कामतरु-छाँह चाहै रुचि मन माँह,

तुलसी बिकल, बलि, कलि-कुधरम ॥ ४ ॥

२५०

तौं हौं बार बार प्रभुहि पुकारिकै खिझावतो न,

जो पै मोको होतो कहूँ ठाकुर-ठहरु।

आलसी-अभागे मोसे तैं कृपालु पाले-पोसे,

राजा मेरे राजाराम, अवध सहरु ॥ १ ॥

सेये न दिगीस, न दिनेस, न गनेस, गौरी,

हित कै न माने बिधि हरिउ न हरु।

रामनाम ही सों जोग-छेम, नेम, प्रेम-पन,

सुधा सो भरोसो एहु, दूसरो जहरु ॥ २ ॥

समाचार साथके अनाथ-नाथ! कासों कहौं,

नाथ ही के हाथ सब चोरऊ पहरु।

निज काज, सुरकाज, आरतके काज, राज!

बूझिये बिलंब कहा कहूँ न गहरु ॥ ३ ॥

रीति सुनि रावरी प्रतीति-प्रीति रावरे सों,

डरत हौं देखि कलिकालको कहरु।

कहेही बनैगी कै कहाये, बलि जाउँ, राम,

'तुलसी! तू मेरो, हारि हिये न हहरु' ॥ ४ ॥

२५१

राम! रावरो सुभाउ, गुन सील महिमा प्रभाउ,

जान्यो हर, हनुमान, लखन, भरत।

जिन्हके हिये-सुथरु राम-प्रेम-सुरतरु,

लसत सरस सुख फूलत फरत ॥ १ ॥

आप माने स्वामी कै सखा सुभाइ भाइ, पति,

ते सनेह-सावधान रहत डरत।

साहिब-सेवक-रीति, प्रीति-परिमिति, नीति,

नेमको निबाह एक टेक न टरत ॥ २ ॥

सुक-सनकादिक, प्रहलाद-नारदादि कहैं,

रामकी भगति बड़ी बिरति-निरत।

जाने बिनु भगति न, जानिबो तिहारे हाथ,

समुझी सयाने नाथ! पगनि परत ॥ ३ ॥

छ-मत बिमत, न पुरान मत, एक मत,

नेति-नेति-नेति नित निगम करत।

औरनिकी कहा चली ? एकै बात भलै भली,

राम-नाम लिये तुलसी हू से तरत ॥ ४ ॥

२५२

बाप! आपने करत मेरी घनी घटि गई।

लालची लबारकी सुधारिये बारक, बलि,

रावरी भलाई सबहीकी भली भई ॥ १ ॥

रोगबस तनु, कुमनोरथ मलिन मनु,

पर-अपबाद मिथ्या-बाद बानी हई।

साधनकी ऐसी बिधि, साधन बिना न सिधि,

बिगरी बनावै कृपानिधिकी कृपा नई ॥ २ ॥

पतित-पावन, हित आरत-अनाथनिको,

निराधारको अधार, दीनबंधु, दई।

इन्हमें न एकौ भयो, बूझि न जूझ्यो न जयो,

ताहिते त्रिताप-तयो, लुनियत बई ॥ ३ ॥

स्वाँग सूधो साधुको, कुचालि कलितें अधिक,

परलोक फीकी मति, लोक-रंग-रई।

बड़े कुसमाज राज! आजुलौं जो पाये दिन,

महाराज! केहू भाँति नाम-ओट लईः ॥ ४ ॥

राम! नामको प्रताप जानियत नीके आप,

मोको गति दूसरी न बिधि निरमई।

खीझिबे लायक करतब कोटि कोटि कटु,

रीझिबे लायक तुलसीकी निलजई ॥ ५ ॥

 

२५३

राम राखिये सरन, राखि आये सब दिन।

बिदित त्रिलोक तिहुँ काल न दयाल दूजो,

आरत-प्रनत-पाल को है प्रभु बिन ॥ १ ॥

लाले पाले, पोषे तोषे आलसी-अभागी-अघी,

नाथ! पै अनाथनिसों भये न उरिन।

स्वामी समरथ ऐसो, हौं तिहारो जै सो. तैसो,

काल-चाल हेरि होति हिये घनी घिन ॥ २ ॥

खीझि-रीझि, बिहँसि-अनख, क्यों हूँ एक बार,

'तुलसी तू मेरो' बलि, कहियत किन?

जाहिं सूल निरमूल, होहिं सुख अनुकूल,

महाराज राम! रावरी सौं, तेहि छिन ॥ ३ ॥

२५४

राम! रावरो नाम मेरो मातु-पितु है।

सुजन-सनेही, गुरु-साहिब, सखा-सुहृद्,

राम-नाम प्रेम-पन अबिचल बितु है ॥ १ ॥

सतकोटि चरित अपार दधिनिधि मथि,

लियो काढ़ि वामदेव नाम-घृतु है।

नामको भरो सो. बल चारिहू फलको फल,

सुमिरिये छाड़ि छल, भलो कृतु है ॥ २ ॥

स्वारथ-साधक, परमारथ-दायक नाम,

राम-नाम सारिखो न और हितु है।

तुलसी सुभाव कही, साँचिये परैगी सही,

सीतानाथ-नाम नित चितहूको चितु है ॥ ३ ॥

२५५

राम!रावरो नाम साधु-सुरतरु है।

सुमिरे त्रिबिध घाम हरत, पूरत काम,

सकल सुकृत सरसिजको सरु है ॥ १ ॥

लाभहुको लाभ, सुखहूको सुख, सरबस,

पतित-पावन, डरहूको डरु है।

नीचेहूको ऊँचेहूको, रंकहूको रावहूको,

सुलभ, सुखद आपनो-सो घरु है ॥ २ ॥

बेद हू, पुरान हू पुरारि हू पुकारि कह्यो,

नाम-प्रेम चारिफलहूको फरु है।

ऐसे राम-नाम सों न प्रीति, न प्रतीति मन,

मेरे जान, जानिबो सोई नर खरु है ॥ ३ ॥

नाम-सो न मातु-पितु, मीत-हित, बंधु-गुरु,

साहिब सुधी सुसील सुधाकरु है।

नामसों निबाह नेहु, दीनको दयालु! देहु,

दासतुलसीको, बलि, बड़ो बरु है ॥ ४ ॥

२५६

कहे बिनु रह्यो न परत, कहे राम! रस न रहत।

तुमसे सुसाहिबकी ओट जन खौटो-खरो,

कालकी, करमकी कुसाँसति सहत ॥ १ ॥

करत बिचार सार पैयत न कहूँ कछु,

सकल बड़ाई सब कहाँ ते लहत ?

नाथकी महिमा सुनि, समुझि आपनि ओर,

हेरि हारि कै हहरि हृदय दहत ॥ २ ॥

सखा न, सुसेवक न, सुतिय न, प्रभु आप,

माय-बाप तुही साँचो तुलसी कहत।

मेरी तौ थोरी है, सुधरैगी बिगरियौ, बलि,

राम! रावरी सों, रही रावरी चहत ॥ ३ ॥

 

२५७

दीनबंधु! दूरि किये दीनको न दूसरी सरन।

आपको भले हैं सब, आपनेको कोऊ कहूँ,

सबको भलो है राम! रावरो चरन ॥ १ ॥

पाहन, पसु, पतंग, कोल, भील, निसिचर,

काँच ते कृपानिधान किये सुबरन।

दंडक-पुहुमि पाय परसि पुनीत भई,

उकठे बिटप लागे फूलन-फरन ॥ २ ॥

पतित-पावन नाम बाम हू दाहिनो, देव!

दुनी न दुसह-दुख-दूषन-दरन।

सीलसिंधु! तोसों ऊँची-नीचियौ कहत सोभा,

तोसो तुही तुलसीको आरति-हरन ॥ ३ ॥

२५८

जानि पहिचानि मैं बिसारे हौं कृपानिधान!

एतो मान ढीठ हौं उलटि देत खौरि हौं।

करत जतन जासों जोरिबे को जोगीजन,

तासों क्योंहू जुरी, सो अभागो बैठो तोरि हौं ॥ १ ॥

मोसो दोस-कोसको भुवन-कोस दूसरो न,

आपनी समुझि सूझि आयो टकटोरि हौं।

गाड़ीके स्वानकी नाईं, माया मोहकी बड़ाई,

छिनहिं तजत, छिन भजत बहोरि हौं ॥ २ ॥

बड़ो साईं-द्रोही न बराबरी मेरीको कोऊ,

नाथकी सपथ किये कहत करोरि हौं।

दूरि कीजै द्वारतें लबार लालची प्रपंची,

सुधा-सो सलिल सूकरी ज्यों गहडोरिहौं ॥ ३ ॥

राखिये नीके सुधारि, नीचको डारिये मारि,

दुहूँ ओरकी बिचारि, अब न निहोरिहौं।

तुलसी कही है साँची रेख बार बार खाँची,

ढील किये नाम-महिमाकी नाव बोरिहौं ॥ ४ ॥

२५९

रावरी सुधारी जो बिगारी बिगरैगी मेरी, ।

कहौं, बलि, बेदकी न लोक कहा कहैगो ?

प्रभुको उदास-भाउ, जनको पाप-प्रभाउ,

दुहूँ भाँति दीनबन्धु ! दीन दुख दहैगो ॥ १ ॥

मैं तो दियो छाती पबि, लयो कलिकाल दबि,

साँसति सहत, परबस को न सहैगो ?

बाँकी बिरुदावली बनैगी पाले ही कृपालु !

अंत मेरो हाल हेरि यौं न मन रहैगो ॥ २ ॥

करमी-धरमी, साधु-सेवक, बिरत-रत,

आपनी भलाई थल कहाँ कौन लहैगो ?

तेरे मुँह फेरे मोसे कायर-कपूत-कूर,

लटे लटपटेनि को कौन परिगहैगो ? ॥ ३ ॥

काल पाय फिरत दसा दयालु ! सबहीकी,

तोहि बिनु मोहि कबहूँ न कोऊ चहैगो।

बचन-करम-हिये कहौं राम ! सौंह किये,

तुलसी पै नाथके निबाहेई निबहैगो ॥ ४ ॥

२६०

साहिब उदास भये दास खास खीस होत,

मेरी कहा चली ? हौं बजाय जाय रह्यो हौं।

लोकमें न ठाउँ, परलोकको भरोसो कौन ?

हौं तो, बलि जाउँ, रामनाम ही ते लह्यो हौं ॥ १ ॥

करम, सुभाउ, काम, कोह, लोभ, मोह, -

ग्राह अति गहनि गरीबी गाढ़े गह्यो हौं।

छोरिबेको महाराज, बाँधिबेको कोटि भट,

पाहि प्रभु !पाहि, तिहुँ ताप-पाप दह्यो हौं ॥ २ ॥

रीझि-बूझि सबकी प्रतीति-प्रीति एही द्वार,

दूधको जर् यो पियत फूँकि फूँकि मह्यो हौं।

रटत-रटत लट्यो, जाति-पाँति-भाँति घट्यो,

जूठनिको लालची चहौं न दूध-नह्यो हौं ॥ ३ ॥

अनत चह्यो न भलो, सुपथ सुचाल चल्यो,

नीके जिय जानि इहाँ भलो अनचह्यो हौं।

तुलसी समुझि समुझायो मन बार बार,

अपनो सो नाथ हू सों कहि निरबह्यो हौं ॥ ४ ॥

२६१

मेरी न बनै बनाये मेरे कोटि कलप लौं,

राम !रावरे बनाये बनै पल पाउ मैं।

निपट सयाने हौ कृपानिधान ! कहा कहौं ?

लिये बेर बदलि अमोल मनि आउ मैं ॥ १ ॥

मानस मलीन, करतब कलिमल पीन,

जीह हू न जप्यो नाम, बक्यो आउ-बाउ मैं।

कुपथ कुचाल चल्यो, भयो न भूलिहू भलो,

बाल-दसा हू न खेल्यो खेलत सुदाउ मैं ॥ २ ॥

देखा-देखी दंभ तें कि संग तें भई भलाई,

प्रकटि जनाई, कियो दुरित-दुराउ मैं।

दोष

राग रोष---- पोषे, गोगन समेत मन,

द्वेष

इनकी भगति कीन्ही इनही को भाउ मैं ॥ ३ ॥

आगिली-पाछिली, अबहूँकी अनुमान ही तें,

बूझियत गति, कछु कीन्हों तो न काउ मैं।

जग कहै रामकी प्रतीति-प्रीति तुलसी हू,

झूठे-साँचे आसरो साहब रघुराउ मैं ॥ ४ ॥

२६२

कह्यो न परत, बिनु कहे न रह्यो परत,

बड़ो सुख कहत बड़े सों, बलि, दीनता।

प्रभुकी बड़ाई बड़ी, आपनी छोटाई छोटी,

प्रभुकी पुनीतता, आपनी पाप-पीनता ॥ १ ॥

दुहू ओर समुझि सकुचि सहमत मन,

सनमुख होत सुनि स्वामी-समीचीनता।

नाथ-गुनगाथ गाये, हाथ जोरि माथ नाये,

नीचऊ निवाजे प्रीति-रीतिकी प्रबीनता ॥ २ ॥

एही दरबार है गरब तें सरब-हानि,

लाभ जोग-छेमको गरीबी-मिसकीनता।

मोटो दसकंध सो न दूबरो बिभीषण सो,

बूझि परी रावरेकी प्रेम-पराधीनता ॥ ३ ॥

यहाँकी सयानप, अयानप सहस सम,

सूधौ सतभाय कहे मिटति मलीनता।

गीध-सिला-सबरीकी सुधि सब दिन किये,

होइगी न साई सों सनेह-हित-हीनता ॥ ४ ॥

सकल कामना देत नाम तेरो कामतरु,

सुमिरत होत कलिमल-छल-छीनता।

करुनानिधान ! बरदान तुलसी चहत,

सीतापति-भक्ति-सुरसरि-नीर-मीनता ॥ ५ ॥

२६३

नाथ नीके कै जानिबी ठीक जन-जीयकी।

रावरो भरोसो नाह कै सु-प्रेम-नेम लियो,

रुचिर रहनि रुचि मति गति तीयकी ॥ १ ॥

कुकृत-सुकृत बस सब ही सों संग पर् यो,

परखी पराई गति, आपने हूँ कीयकी।

मेरे भलेको गोसाई ! पोचको, न सोच-संक,

हौंहुँ किये कहौं सौंह साँची सीय-पीयकी ॥ २ ॥

ग्यानहू-गिराके स्वामी, बाहर-अंतरजामी,

यहाँ क्यों दुरैगी बात मुखकी औ हीयकी ?

तुलसी तिहारो, तुमहीं पै तुलसीके हित,

राखि कहौं हौं तो जो पै व्हहौ माखी घीयकी ॥ ३ ॥

२६४

मेरो कह्यो सुनि पुनि भावै तोहि करि सो।

चारिहू बिलोचन बिलोकु तू तिलोक महँ,

तेरो तिहु काल कहु को है हितू हरि-सो ॥ १ ॥

नये-नये नेह अनुभये देह-गेह बसि,

परखे प्रंपंची प्रेम, परत उघरि सो।

सुहृद-समाज दगाबाजिहीको सौदा-सूत,

जब जाको काज तब मिलै पाँय परि सो ॥ २ ॥

बिबुध सयाने, पहिचाने कैधौं नाहीं नीके,

देत एक गुन, लेत कोटि गुन भरि सो।

करम-धरम श्रम-फल रघुबर बिनु,

राखको सो होम है, ऊसर कैसो बरिसो ॥ ३ ॥

आदि-अंत-बीच भलो भलो करै सबहीको,

जाको जस लोक-बेद रह्यो है बगरि-सो।

सीतापति सारिखो न साहिब सील-निधान,

कैसे कल परै सठ! बैठो सो बिसरि-सो ॥ ४ ॥

जीवको जीवन-प्रान, प्रानको परम हित,

प्रीतम, पुनीतकृत नीचन निदरि सो।

तुलसी! तोको कृपालु जो कियो कोसलपालु,

चित्रकूटको चरित्र चेतु चित करि सो ॥ ५ ॥

२६५

तन सुचि, मनरुचि, मुख कहौं 'जन हौं सिय-पीको'।

केहि अभाग जान्यो नहिं, जो न होइ नाथ सों नातो-नेह न नीको ॥ १ ॥

जल चाहत पावक लहौं, बिष होत अमीको।

कलि-कुचाल संतनि कही सोइ सही, मोहि कछु फहम न तरनि तमीको ॥ २ ॥

जानि अंध अंजन कहै बन-बाघिनी-घीको।

सुनि उपचार बिकारको सुबिचार करौं जब, तब बुधि बल हरै हीको ॥ ३ ॥

प्रभु सों कहत सकुचात हौं, परौं जनि फिरि फीको।

निकट बोलि, बलि, बरजिये, परिहरै ख्याल अब तुलसिदास जड़ जीको ॥ ४ ॥

२६६

ज्यों ज्यों निकट भयो चहौं कृपालु! त्यों त्यों दूरि पर् यो हौं।

तुम चहुँ जुग रस एक राम! हौं हूँ रावरो, जदपि अघ अवगुननि भर् यो हौं ॥

बीच पाइ एहि नीच बीच ही छरनि छर् यो हौं।

हौं सुबरन कुबरन कियो, नृपतें भिखारि करि, सुमतितें कुमति कर् यो हौं ॥ २ ॥

अगनित गिरि-कानन फिरयो, बिनु आगि जर् यो हौं।

चित्रकूट गये हौं लखि कलिकी कुचालि सब, अब अपडरनि डर् यो हौं ॥ ३ ॥

माथ नाइ नाथ सों कहौं, हात जोरि खर् यो हौं।

चीन्हों चोर जिय मारिहै तुलसी सो कथा सुनि प्रभुसों गुदरि निबर् यो हौं ॥ ४ ॥

२६७

पन करि हौं हठि आजुतें रामद्वार पर् यो हौं।

'तू मेरो'यह बिन कहे उठिहौ न जनमभरि, प्रभुकी सौकरि निर् यो हौं ॥ १ ॥

दै दै धक्का जमभट थके, टारे न टर् यो हौं।

उदर दुसह साँसति सही बहुबार जनमि जग, नरकनिदरि निकर् यो हौं ॥ २ ॥

हौं मचला लै छाड़िहौं, जेहि लागि अर् यो हौं।

तुम दयालु, बनिहै दिये, बलि, बिलँब न कीजिये, जात गलानि गर् यौ हौं ॥ ३ ॥

प्रगट कहत जो सकुचिये, अपराध-भर् यो हौं।

तौ मनमें अपनाइये, तुलसीहि कृपा करि, कलि बिलोकि हहर् यो हौं ॥ ४ ॥

२६८

तुम अपनायो तब जानिहौं, जब मन फिरि परिहै।

जेहि सुभाव बिषयनि लग्यो, तेहि सहज नाथ सौं नेह छाड़ि छल करिहै ॥ १ ॥

सुतकी प्रीति, प्रतीति मीतकी, नृप ज्यों डर डरिहै।

अपनो सो स्वारथ स्वामिसों, चहुँ बिधि चातक ज्यों एक टेकते नहिं टरिहै ॥ २ ॥

हरषिहै न अति आदरे, निदरे न जरि मरिहै।

हानि-लाभ दुख-सुख सबै समचित हित-अनहित, कलि-कुचालि परिहरिहै ॥ ३ ॥

प्रभु-गुन सुनि मन हरषिहै, नीर नयननि ढरिहै।

तुलसिदास भयो रामको बिस्वास, प्रेम लखि आनँद उमगि उर भरिहै ॥ ४ ॥

२६९

राम कबहुँ प्रिय लागिहौ जैसे नीर मीनको?

सुख जीवन ज्यों जीवको, मनि ज्यों फनिको हित, ज्यों धन लोभ-लीनको ॥ १ ॥

ज्यों सुभाय प्रिय लगति नागरी नागर नवीनको।

त्यों मेरे मन लालसा करिये करुनाकर! पावन प्रेम पीनको ॥ २ ॥

मनसाको दाता कहैं श्रुति प्रभु प्रबीनको।

तुलसिदासको भावतो, बलि जाउँ दयानिधि! दीजे दान दीनको ॥ ३ ॥

२७०

कबहुँ कृपा करि रघुबीर! मोहू चितैहो।

भलो-बुरो जन आपनो, जिय जानि दयानिधि! अवगुन अमित बितैहो ॥ १ ॥

जनम जनम हौं मन जित्यो, अब मोहि जितैहो।

हौं सनाथ ह्वेहौ सही, तुमहू अनाथपति, जो लघुतहि न भितैहो ॥ २ ॥

बिनय करौं अपभयहु तें, तुम्ह परम हितै हो।

तुलसिदास कासों कहै, तुमही सब मेरे, प्रभु-गुरु, मातु-पितै हो ॥ ३ ॥

२७१

जैसो हौं तैसो राम रावरो जन, जनि परिहरिये।

कृपासिंधु, कोसलधनी! सरनागत-पालक, ढरनि आपनी ढरिये ॥ १ ॥

हौं तौ बिगरायल और को, बिगरो न बिगरिये।

तुम सुधारि आये सदा सबकी सबही बिधि, अब मेरियो सुधरिये ॥ २ ॥

जग हँसिहै मेरे संग्रहे, कत इहि डर डरिये।

कपि-केवट कीन्हे सखा जेहि सील, सरल चित, तेहि सुभाउ अनुसरिये ॥ ३ ॥

अपराधी तउ आपनो, तुलसी न बिसरिये।

टूटियो बाँह गरे परै, फूटेहु बिलोचन पीर होत हित करिये ॥ ४ ॥

२७२

तुम जनि मन मैलो करो, लोचन जनि फेरो।

सुनहु राम! बिनु रावरे लोकहु परलोकहु कोउ न कहूँ हितु मेरो ॥ १ ॥

अधम

अगुन-अलायक-आलसी जानि-------अनेरो।

अधनु

स्वारथके साथिन्ह तज्यो तिजराको- सो टोटक, औचट उलटि न हेरो ॥ २ ॥

भगतिहीन, बेद-बाहिरो लखि कलिमल घेरो।

देवनिहू देव! परिहरयो, अन्याव नतिनको हौं अपराधीसब केरो ॥ ३ ॥

नामकी ओट पेट भरत हौं, पै कहावत चेरो।

जगत-बिदित बात ह्वे परी, समुझिये धौं अपने, लोक कि बेद बड़ेरो ॥ ४ ॥

ह्वेहै जब-जब तुमहिं तें तुलसीको भलेरो।

देव

दिन-हू-दिन-----बिगरि है, बलि जाउँ, बिलंब किये, अपनाइये सबेरो ॥ ५ ॥

दीन

२७३

तुम तजि हौं कासों कहौं, और को हितु मेरे ?

दीनबंधु!सेवक, सखा, आरत, अनाथपर सहज छोह केहि केरे ॥ १ ॥

बहुत पतित भवनिधि तरे बिनु तरि बिनु बेरे।

कृपा-कोप-सतिभायहू, धोखेहु-तिरछेहू, राम! तिहारेहि हेरे ॥ २ ॥

जो चितवनि सौंधी लगै, चितइये सबेरे।

तुलसिदास अपनाइये, कीजै न ढील, अब जिवन-अवधि अति नेरे ॥ ३ ॥

२७४

जाउँ कहाँ, ठौर है कहाँ देव! दुखित-दीनको ?

को कृपालु स्वामी-सारिखो, राखे सरनागत सब अँग बल-बिहीनको ॥ १ ॥

गनिहि, गुनिहि साहिब लहै, सेवा समीचीनको।

अधम

----- अगुन आलसिनको पालिबो फबि आयो रघुनायक नवीनको ॥ २ ॥

अधन

मुखकै कहा कहौं, बिदित है जीकी प्रभु प्रबीनको।

तिहू काल, तिहु लोकमें एक टेक रावरी तुलसीसे मन मलीनको ॥ ३ ॥

२७५

द्वार द्वार दीनता कही, काढ़ि रद, परि पाहूँ।

हैं दयालु दुनी दस दिसा, दुख-दोष-दलन-छम, कियो न सँभाषन काहूँ ॥ १ ॥

जन्यो तनु कुटिल कीट ज्यों, तज्यों मातु-पिताहूँ।

जनतेऊ काहेको रोष, दोष काहि धौं, मेरे ही अभाग मोसों सकुचत छुइ सब छाहूँ ॥ २ ॥

दुखित देखि संतन कह्यो, सोचै जनि मन माँहू।

तोसे पसु-पाँवर-पातकी परिहरे न सरन गये, रघुबर ओर बिनाहूँ ॥ ३ ॥

तुलसी तिहारो भये भयो सुखी प्रीती-प्रतीति बिनाहू।

नामकी महिमा, सील नाथको, मेरो भलो बिलोकि अब तें सकुचाहुँ, सिहाहूँ ॥ ४ ॥

२७६

कहा न कियो, कहाँ न गयो, सीस काहि न नायो ?

राम रावरे बिन भये जन जनमि-जनमि जग दुख दसहू दिसि पायो ॥ १ ॥

आस-बिबस खास दास ह्वे नीच प्रभुनि जनायो।

हा हा करि दीनता कही द्वार-द्वार बार-बार, परी न छार, मुह बायो ॥ २ ॥

असन-बसन बिनु बावरो जहँ-तहँ उठि धायो।

मान महिमा प्रिय प्रानते तजि खोलि खलनि आगे, खिनु-खिनु पेट खलायो ॥ ३ ॥

असु नाथ! हाथ कछु नाहि लग्यो, लालच ललचायो।

साँच कहौं, नाच कौन सो जो, न मोहि लोभ लघु हौं निरलज्ज नचायो ॥ ४ ॥

मन श्रवन-नयन-मग लगे, सब थल पतियायो।

अग मूड़ मारि, हिय हारिकै, हित हेरि हहरि अब चरन-सरन तकि आयो ॥ ५ ॥

दसरथके! समरथ तुहीं, त्रिभुवन जसु गायो।

तुलसि नमत अवलोकिये, बाँह-बोल बलि दै बिरुदावली बुलायो ॥ ६ ॥

२७७

राम राय! बिनु रावरे मेरे को हितु साँचो ?

स्वामी-सहित सबसों कहौं, सुनि-गुनि बिसेषि कोउ रेख दूसरी खाँचो ॥ १ ॥

देह-जीव-जोगके सखा मृषा टाँचन टाँचो।

किये बिचार सार कदलि ज्यों, मनि कनकसंग लघु लसत बीच बिच काँचो।२।

'बिनय-पत्रिका' दीनकी, बापु! आपु ही बाँचो।

हिये हेरि तुलसी लिखी, सो सुभाय सही करि बहुरि पूँछिये पाँचो ॥ ३ ॥

२७८

पवन-सुवन! रिपु-दवन! भरतलाल! लखन! दीनकी।

निज निज अवसर सुधि किये, बलि जाउँ, दास-आस पूजि है खासखीनकी ॥ १ ॥

राज-द्वार भली सब कहैं साधु-समीचीनकी।

सुकृत-सुजस, साहिब-कृपा, स्वारथ-परमारथ, गति भये गति-बिहीनकी ॥ २ ॥

समय सँभारि सुधारिबी तुलसी मलीनकी।

प्रीति-रीति समुझाइबी नतपाल कृपालुहि परमिति पराधीनकी।३ ॥

 

२७९

मारुति-मन, रुचि भरतकी लखि लषन कही है।

कलिकालहु नाथ!नाम सों परतीति-प्रीति एक किंकरकी निबही है ॥ १ ॥

सकल सभा सुनि लै उठी, जानी रीति रही है।

कृपा गरीब निवाजकी, देखत गरीबको साहब बाँह गही है ॥ २ ॥

बिहँसि राम कह्यो 'सत्यहै, सुधि मैं हूँ लही है'।

रघुनाथ

मुदित माथ नावत, बनी तुलसी अनाथकी, परी---------सही है ॥ ३ ॥

रघुनाथ हाथ

॥ श्रीसीतारामार्पणमस्तु ॥

~~०~~


End Text   End Text    End Text