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					जब तक खिलती रहीं तुम्हारी आँखें 
					मैं उलझा रहा पुस्तक के पन्नों में, 
					हिम-पक्षी के विशाल परों ने 
					ढक दिया मेरा दिमाग अंधड़ों से। 
					 
					बहुत अजीब हैं ये मुखौटों के बोल 
					तुम उन्हें समझ पाए या नहीं ? 
					विश्वास है तुम्हें - पुस्तकों में हैं दंतकथाएँ 
					और मात्र गद्य है जीवन में। 
					 
					तुम्हारे होते अविच्छिन्न रहेंगे मेरे लिए 
					यह रात और अंधकार नदी का, 
					उल्लास-भरी कविताओं की रोशनियाँ 
					और ठहरा हुआ यह धुआँ। 
					 
					इतनी निर्मम न रहो मेरे प्रति, 
					न ही चिढ़ाओ मुझे अपने मुखौटे से, 
					मेरी अँधेरी यादों में 
					सुलगाओ न कोई डरावनी याद ! 
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