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					घटित हो चुका है सब कुछ, सब कुछ 
					पूरा हो चुका है कालचक्र। 
					कौन-सी ताकत, कौन-सा झूठ 
					लौटाएगा तुम्हें, ओ मेरे अतीत ? 
					 
					सुबह के स्वच्छ स्फटकीय क्षणों में 
					मास्को क्रेमलिन की दीवारों के पास 
					हृदय के आदि आह्लाद को 
					लौटा सकेगा क्या मुझे यह देश ? 
					 
					या ईस्टर की रात में नेवा नदी के ऊपर 
					हवा, कुहरे और बर्फ में 
					अपनी बैसाखियों से कोई कंगाल बुढ़िया 
					हिलाने लगेगी मेरी लाश ? 
					 
					या मेरे किसी बुग्याल में 
					बूढ़े पतझर की फड़फड़ाहट के नीचे 
					बरसात की धुंध में एक दिन 
					मेरा शरीर कोंचने लगेगी कोई युवा चील? 
					 
					या यों ही चार दीवारों के बीच 
					दुख के आलोकहीन क्षणों में 
					किसी लोह अपरिहार्यता में 
					सो जाऊँगा मैं सफेद चादर पर ? 
					 
					या उस नए अपरिचित जीवन में 
					भूल जाऊँगा अपने पहले के सपने 
					मुझे याद रहेगी यह बरसात 
					जिस तरह हमें याद है कालीता*। 
					 
					निर्धन जीवन की यह थरथराहट 
					सारी की सारी यह अबूझ उमंग 
					और जो कुछ मुझे प्रिय रहा 
					छोड़ जाएगा अपनी छाप अमिट। 
				
					(कालीता : मास्को सम्राट इवानदानिलेविच  - 1328-1341 -  का उपनाम) 
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