कभी-कभी वह भी
	मुझे खोजते-खोजते आता,
	कहाँ से आता वह ?
	पत्तों की सिराओं से, पेड़ के कोटर से
	मरु कांतार से
	पता नहीं कहाँ से आता ?
	
	मैं उसे कितना नहीं खोजती
	ठीक जब स्वयं को नहीं पाती
	हाँफती हवा छटपटाहट के समय
	जलते चूल्हे पर काँच-सा पिघलने पर
	वर्षा बूँद सूखी माटी पर छन्न करते समय
	आँसू बन नीरव झरते समय
	मान का मेघ खंड आकाश में तैरते समय
	सूखा पत्ता बन हवा में उड़ते समय
	जंगल में आग-सी जला देते समय
	कागजी नाव बन
	कुछ दूर बह भँवर में डूबते समय
	उसे खोजा जगह-जगह, गया-आ गया, सर्वत्र
	उसे खोजना ही बना मेरा प्रियतम अभ्यास
	
	जब गरमी की झड़ में
	चिट्ठी की तरह खो चुकी होती स्वयं को
	शीतार्त नदी की छाती पर विसर्जित
	तिनके-सी पड़ी होती मैं
	तब वह आता शब्दहीन स्वर हीन
	नीरव प्रेम का फूलहार दे कर मुझे स्वागत करे
	मेरी आँसू भरी रातें जादुई छुअन में
	अर्थमय होती
	और मेरा हाथ थाम ले जाता
	मैं छोड़ आये दुख, शोक, क्षोभ, संताप, हाहाकार,
	अपमान, आनंद उल्लास में बने संसार में
	
	मैं न सकी जो अनुभव, उन्हें देख
	आँख लौटाते समय वह न होता
	केवल उसका स्वर सुनाई देता
	मैं यहीं कहीं छुपा हूँ
	मुझे खोजो, मुझे खोजो