मुझे तब पता नहीं था
	जो मैं अब जानती हूँ
	
	छत पर धम की भारी आवाज
	रोज-रोज की नींद की
	चट्टानी चुप्पी को तोड़ती हुई
	उड़ने वाली लोमड़ी थी वह
	जिसके पंख नहीं ले जाते
	आकाश में अपना वजन
	न ही करते हैं मुकाबला पहाड़ी कोहरे से
	
	सपनों से बाहर भीड़ मचाते हुए
	मैं निपट अकेली रात की
	काली सुरंग में गिर पड़ूँगी
	चाँदनी से भरी बर्फ
	की महिमा में नहीं
	बल्कि अनिद्र रातों के
	सुस्त कोलाहल की वेदना में
	
	ऊपर जाने की जोखिम भरी यात्रा
	ऊपर चढ़ना मुश्किल
	नीचे उतरना उससे भी कठिन