कमरा कोई बड़ा नहीं था, लेकिन चटख रंग के गिलाफ चढ़े सोफासेटों से भरा हुआ था। कमरे में दो खिड़कियाँ थीं और दो दरवाजे। इन पर भी चटख रंग के पर्दे लटक रहे थे। समृद्धि अभी इस घर के निवासियों के जीवन में नयी-नयी आयी थी इसलिए दरवाजों और खिड़कियों के दोनों तरफ एक-एक कील गाड़कर और उनमें स्प्रिंग बाँधकर पर्दे लटका दिये गये थे। एक को छोड़कर बाकी सारे स्प्रिंग ढीले पड़ गये थे इसलिए पर्दे लटककर जमीन में लथड़ रहे थे। फर्श पर सुर्ख लाल रंग का एक कालीन था जिसने सोफों से घिरी जमीन को छोड़कर सारे फर्श को ढँक रखा था। जैसा कि राजधानी के ऐसे किसी कमरे में होना चाहिए था यहाँ भी पूरा कमरा ठसाठस भरा था और इस ठसाठस-भरे कमरे में बटुकचन्द भी तीन के लिए बने एक सोफे पर पाँचवें सवार के रूप में बैठे थे और वही सब कर रहे थे जो दूसरे और लोग कर रहे थे।
ये लोग जोर-जोर से एक दूसरे से बातें कर रहे थे। ऐसे स्थलों और मौकों पर बातें कम की जाती हैं, खुद ब खुद ज्यादा होती रहती हैं। यहाँ बातें जुबान से ज्यादा फेफड़ों से की जाती हैं। जरूरी नहीं कि लोग अपने बगलवाले से ही बात करें। कमरे में ठुँसे हुए लोग अगल-बगल, दाहिने-बाएँ, सामने-पीछे, गरज यह कि किसी भी दिशा को मुखातिब हो सकते थे। बात करने के लिए जरूरी नहीं है कि आप जिसे सम्बोधित कर रहे हों, उसे जानते भी हों। यह भी जरूरी नहीं है कि एक समय में एक ही व्यक्ति को सम्बोधित किया जाय। आवाजें किसी गेंद की तरह आड़ी-तिरछी एक दूसरे को काटती हुई एक कोने से दूसरे कोने में उछल रही थीं। अक्सर गेंद उछाली किसी के लिए जाती थी उसे लपक कोई और लेता था और फिर वह अपने तरीके से उसे किसी तीसरे के लिए उछाल देता था।
अफसर के लिए यह शर्मनाक माना जाता है कि वह धोती-कुर्ता, पाजामा पहने लोगों के साथ सार्वजनिक रूप से हँसे या बोले-बतियाए। अपने कमरे में या नेता के घर में वह उसके सामने पसर सकता है, उसके रोने लायक चुटकुलों पर छतफाड़ ठहाके लगा सकता है, सामनेवाले के वाक्य खत्म होने के पहले ही यस सर...जी सर की मुद्रा में सर हिला सकता है, पर सार्वजनिक जगहों पर गम्भीरता उसका सबसे बड़ा हथियार होता है। आज भी इस कमरे में कुछ लोग सारी गहमागहमी में निर्लिप्त तटस्थ भाव से बैठे थे। उनकी आँखें दीवालों पर, पंखों पर या पर्दों पर टिकी हुई थीं। सिर्फ गौर से किसी के चेहरे पर आँखें टिकाने से ही पता चल पाता था कि कमरे में चल रही गतिविधियों को न देखने का प्रदर्शन करनेवाली उनकी आँखें कमरे में घटनेवाली अपने मतलब की हर घटना को देख रही थीं, कुछ न सुनने का भ्रम पैदा करनेवाले उनके कान अपनी दिलचस्पी का हर शब्द पकड़ रहे थे। ठहाकों पर निर्लिप्त दिखनेवाले उनके होंठ ध्यान से देखने पर फड़फड़ाते नजर आते थे। ये अफसर लोग थे। निःसंग भाव से कमरे में बैठे लोगों में बटुकचन्द भी थे, जो लगातार यह प्रदर्शित कर रहे थे कि वे इस कमरे में अपनी खुशी से नहीं, बल्कि ढकेलकर लाये गये हैं। यहाँ तक कि वे अपने बगल में बैठे कुर्ता-पाजामाधारी प्राणी से भी ऐसे व्यवहार कर रहे थे जैसे वे उसे जानते ही नहीं। जबकि घोड़े जैसे लम्बे मुँह, खिचड़ी बालों और फरफराती मूँछोंवाला तथा उजली खादी का कुर्ता-पाजामा पहने हुए यह व्यक्ति अगर न होता तो वे इस कमरे में प्रवेश नहीं कर पाते।
यह व्यक्ति उन्हें कुछ ही घंटों पहले मिला था और राजधानी के इतिहास, भूगोल के बारे में उनके ज्ञान में उसने ऐसी-ऐसी जानकारियाँ जोड़ी थीं कि वे चमत्कृत थे। अगर वे अफसर न होते और उस कमरे में गम्भीर बने रहने की मजबूरी उनके समक्ष न होती तो अब तक दो-तीन बार उसके पैर छू चुके होते या हाथ जोड़कर अपने पान भरे मुँह को चुभलाते हुए यह जरूर कहते कि 'धन्य हो गुरु'। ये सारी क्रियाएँ होटल से इस घर तक आने के दौरान वे सम्पादित करते आये थे।यहाँ गम्भीर रहना मजबूरी थी अत: इन्हें वापसी के लिये मुल्तवी करते हुए वे गम्भीर बने रहे।
इस विलक्षण शख्सियत से उनकी मुलाकात उस पाँचतारा होटल में हुई थी जहाँ सचिवालय से वे बाबू को लेकर पहुँचे थे।
होटल जाते समय रास्ते में बाबू ने जो बताया वह अगर क्रमवार लिखा जाय तो कुछ-कुछ इस तरह के वाक्य बनेंगे-बाबू उन्हें शर्माजी से मिलवाएगा। शर्माजी अपने ही आदमी हैं और बाबू तब से उन्हें जानता है जब वे राजधानी में नये-नये आये थे और बाबू के घर के पास सब्जी का ठेला लगाते थे।
उन्हीं दिनों शर्माजी की आँख एक ऐसी महिला से लड़ गयी जो उस समय कुछ नहीं थी, पर आज पूरे देश में उसे इस प्रदेश की मिनी मुख्यमन्त्री कहा जाता है।
उन दिनों वह महिला भी गर्दिश में थी। उसका पति बेरोजगार था। महिला खूबसूरत थी और महत्त्वाकांक्षी भी।
शर्माजी ने उसे उधार सब्जियाँ दीं। उसकी सुन्दरता की तारीफ की और उसकी महत्त्वाकांक्षा को भड़काया।
राजधानी में कोई सुन्दर महिला अगर महत्त्वाकांक्षी भी हो तो सीधे राजनीति की तरफ भागती है।
आज की मिनी मुख्यमन्त्री, जिसका नाम सुमन है और जिसे लोग भाभीजी के नाम से पुकारते हैं और जो उस समय सुन्दर और महत्त्वाकांक्षी दोनों थीं, भी राजनीति की तरफ भागीं और बकौल बाबू के शर्माजी हालाँकि बेचते तो सब्जी थे लेकिन जमीनी यथार्थ पर उनकी इतनी मजबूत पकड़ थी कि उनके बताये गुरों से सुमन सिर्फ राजनीति की तरफ भागी ही नहीं, बल्कि राजनीति के अन्दर इतनी तेज दौड़ी कि मुहावरे की भाषा में देखनेवाले दाँतों तले उँगली दबाये देखते रह गये।
ये सूचनाएँ बाबू ने बटुकचन्द को होटल पहुँचते-पहुँचते रास्ते में दी थीं। रास्ते में ही एक पी.सी.ओ. के पास कार रुकवाकर वह अन्दर गया और थोड़ी देर बाद बाहर आकर कार में बैठते-बैठते उसने बताया, ''शर्माजी से बात हो गयी। साइत अच्छी थी जो घर में मिल गये। व्यस्त थे, पर मैंने इसरार किया तो मान गये। आधे घंटे में होटल पहुँच जाएँगे।''
आधे घंटे में तो नहीं, एक घंटे में शर्माजी इन लोगों के पास पहुँच गये। वे लोग जिस स्थान पर बैठे थे, वहाँ से प्रवेश द्वार बाबू के सामने पड़ता था। बटुकचन्द की पीठ उधर थी। चाय पीते-पीते उन्होंने देखा कि बाबू का चेहरा खिल उठा। मतलब साफ था कि प्रवेश द्वार पर शर्माजी प्रकट हो गये थे। बटुकचन्द ने घूमकर देखा। राजधानी की विशिष्ट पहचान अर्थात खादी के कुर्ते-पाजामे, बेतरतीब घुँघराले बालों और हाथ में सेलुलर फोन लिये चालीसेक साल का एक व्यक्ति रेस्तराँ में घुस रहा था। होटल के कर्मचारी उसे सलाम कर रहे थे और वह उद्धत भाव से उपेक्षा का प्रदर्शन करते हुए अपने हाथों से उनके अभिवादनों का कुछ-कुछ ऐसे उत्तर दे रहा था कि अगर कोई चाहे तो यह भी समझ सकता था कि उसकी दिलचस्पी उन मक्खियों को उड़ाने में थी जो उस वातानुकूलित हाल में थीं ही नहीं।
शर्मा के व्यक्तित्व में कुछ ऐसा था जो किसी को भी चुम्बक की तरह खींचता है। उसने बैठते ही बेतकल्लुफी से पूछा, ''और उपाध्यायजी क्या हाल-चाल है...ससुर लाला ने कायस्थपना दिखा ही दिया...आप ठहरे गऊ आदमी, उसकी मार में आ गये।''
उपाध्यायजी उर्फ बटुकचन्द ने आँखें सिकोड़ते हुए उसकी तरफ देखा। नौकरशाही का उसूल है कि अगर नेतानुमा व्यक्ति उपयोगी न हो तो उसके साथ बेतकल्लुफ नहीं हुआ जा सकता और अगर वह काम का हो तो उसके आगे पूरी तरह पसर जाना चाहिए।
अभी इस बात का फैसला होना बाकी था कि घोड़े जैसे मुँहवाला, लक-दक करता सफेद खादी कुर्ता-पाजामा पहने हुए और खाये-अघाये शरीर की चुगली करने वाली हल्की तोंद का मालिक शर्मा नामक यह व्यक्ति किस हद तक उपयोगी है।
बैठते-बैठते शर्मा ने जिन सूचनाओं के बारे में अपनी जानकारी का प्रदर्शन किया था वे तो उसे बाबू से भी मिल सकती थीं जब वह पी.सी.ओ. में उसे फोन करने गया था। इसलिए अभी शर्मा से बेतकल्लुफी नहीं की जा सकती थी। बटुकचन्द सिर्फ हल्के से मुस्कुराए और शर्मा को तौलते रहे।
''अरे ये साला कायस्थ बड़ी ऊँची खोपड़ी का है। आप सीधे-सादे आदमी हैं। कमबख्त ने सबसे पहले कौशिक को पकड़ा । उसने तो इस पी.डब्ल्यू.डी. मन्त्री के बेडरूम में घुसपैठ कर रखी है। अरे आप नहीं जानते उस कौशिक के बच्चे को -- वही कौशिकवा जो आपके मन्त्री का पी.ए. है। साला मन्त्री के किचन से लेकर बेडरूम तक का इन्तजाम करता है। उसी ने सारी गड़बड़ की। आप तो अपना आर्डर लेकर चले गये इलाहाबाद और उधर लाला भाई आकर बैठ गये राजधानी में। अपने मन्त्री को तो जानते ही हैं। हर तरह की कमजोरी है वहाँ...अब आपसे क्या छुपा है! कौशिक करता है सारे इन्तजाम। कितना पेमेंट हुआ है हमें सब पता है।''
शर्मा पानी पीने के लिए रुका। बटुकचन्द ने एक बार उसे तौलने की कोशिश की, लेकिन अब तक उनकी आँखों में कमजोरी आने लगी थी। इतनी जानकारी बाबू पी.सी.ओ. से नहीं दे सकता था। इस नेता के सामने बिछा जा सकता था। उन्होंने होंठ फैलाये और पान से रँगे कत्थई दाँतों का प्रदर्शन किया, ''अब यहाँ आपसे क्या छिपा रह सकता है शर्मा जी?"
बाबू को लगा कि यहाँ तो दोनों पक्षों में सीधे संवाद की गुंजाइश बन रही है। 'अब तेरा क्या होगा कालिया' वाले अन्दाज से वह भी मंच पर कूद पड़ा।
''राजधानी में दिन-भर क्या होता है, सबकी रिपोर्ट शाम तक शर्माजी के पास पहुँच जाती है। इसीलिए तो मैंने साहब से कहा कि एक बार शर्माजी के दरबार में बात पहुँच जाय फिर निश्चिन्त होकर हम लोग घर बैठें। शर्माजी सब देख लेंगे।''
शर्मा ने हाथ से हवा में कुछ मारने की कोशिश की। बटुकचन्द ने चारों तरफ मक्खी तलाशने के लिए नजर दौड़ायी। सामने एक बैरा आकर खड़ा हो गया तब उनकी समझ में आया कि शर्मा की यह खास अदा है जिसे इस होटल के बैरे भी पहचानते थे।
बैरा सिर्फ आया नहीं। शर्मा ने अपनी जुबान, आँख और ठोढ़ी के इशारों से जितना कुछ समझाया उससे ज्यादा वह अपनी पेंसिल से कागज के टुकड़ों पर लिखता रहा। बटुकचन्द की समझ में सिर्फ इतना आया कि उन्हें पूरी कार्यवाही के बाद काफी कुछ भुगतान करना पड़ेगा। पर अब उन्हें खल नहीं रहा था। जिस तरह की सूचनाएँ शर्मा के पास थीं और जितने विश्वास के साथ वह राजधानी के बड़े लोगों के नाम ले रहा था उससे बटुकचन्द को लगा कि खाद्य और पेय पदार्थों की जो लम्बी सूची बैरे ने नोट की थी, वह उतनी लम्बी नहीं थी जितनी उसकी पेंसिल चलते समय लग रही थी।
''दिसम्बर में कमलाकान्त का तबादला कराने का क्या मतलब अरे आपको तो मार्च-अप्रैल में ही कोशिश कर लेनी चाहिए। दिसम्बर तक तो फसल पककर तैयार हो गयी, अब कटने का वक्त आया तो आप डिगरी लाकर किसान को दिखा रहे हैं कि भाई खेत तुम्हारा नहीं है। ऐसे में तो किसान लड़ेगा ही। क्यों भाई, मैं कुछ झूठ बोल रहा हूँ?" उसने बाबू की तरफ देखा।
बाबू का ध्यान मेज पर लगनेवाली प्लेटों की तरफ था जिन्हें बैरा धीरे-धीरे मेज पर सजा रहा था। शर्मा को अपनी तरफ मुखातिब होते देखकर यह सकपकाया, फिर मुँह में थूक घोंटते हुए उसने कहा, ''अरे शर्माजी हम भी तो किसान आदमी हैं। कौन साला फसल पकने के बाद हमारे खेत की तरफ आँख उठाकर देखेगा। साले की आँख निकालकर...उसमें डाल देंगे।'' बाबू पाँच सितारा होटल से आक्रान्त था। सचिवालय होता तो अंग विशेष का नाम भी ले लेता।
बटुकचन्द ने गला खँखारकर कुर्सी पर अपनी जगह बदली। बाबू को लगा उसने शर्मा के मतलब की बात कह दी थी, वह फिर से प्लेटों को घूरने लगा।
''यही तो हम भी कह रहे हैं। लड़ाई में हमें दुश्मन की ताकत और कमजोरी का बराबर खयाल रखना चाहिए,'' किसी अनुभवी सैन्य विशेषज्ञ की तरह शर्मा ने सलाह दी, ''अब आप देखिए कि पूरे प्रदेश को मालूम था कि इस बार बारहसाला कुम्भ लगने वाला है। छोटे-मोटे चपरासी मेट भी लाख-दो लाख घर ले आएँगे। एक दर्जन से ज्यादा अधिशासी अभियन्ता लाइन में थे। यहाँ राजधानी में खुली बोली हो रही थी। पता नहीं आप उस बोली में थे या नहीं?" उसने बटुकचन्द की आँखों में आखें डालीं।
बटुकचन्द ने आँखें झुका लीं। यह कमबख्त जितना जानता है उसमें अपनी तरफ से कुछ जोड़ने की जरूरत नहीं है। उन्होंने प्लेट में से एक पनीर पकौड़ा उठाया और मुँह में डाल लिया। बाबू के लिए यह इशारा था। उसने अपनी प्लेट भरनी शुरू कर दी।
''आप सीधे आदमी हैं। आप नहीं रहे होंगे या रहे भी होंगे तो किसी सही आदमी के पास नहीं पहुँचे होंगे। हमारे पास तो आये नहीं। एक चिड़ीमार आया था भाभीजी के पास। लगा सौदेबाजी करने। हमने डाँटकर भगा दिया। अरे हम, कोई बनिया-बक्काल तो है नहीं कि दुकान खोल कर बैठे हों। हम तो सम्बन्ध बनाते हैं और फिर जीवन भर उसका निर्वाह करते हैं।''
बटुकचन्द ने अपनी प्लेट भर ली। अब तक के वार्तालाप से उन्होंने दो सन्देश पकड़े थे। शर्मा जब 'हम' शब्द का इस्तेमाल करता था तो उसका मतलब खुद से और भाभीजी से था। भाभीजी वही महिला थीं जिनको लोग प्रदेश की मिनी मुख्यमन्त्री कहते थे और जिनके बारे में बाबू उन्हें बताता आया था। दूसरा सन्देश यह था कि शर्मा को सिर्फ एक बार पेमेन्ट नहीं करना होगा। वह जीवन भर का सम्बन्ध बनाता था अर्थात् नौकरी के बाकी साल भी उसे कुछ न कुछ देना ही पड़ेगा।
शर्मा ने अपनी प्लेट में कुछ नहीं लिया। सीधे हाथ डालकर डोंगे में से दो रसगुल्ले निकाले और गपागप मुँह में डाल लिये। खूबसूरती यह थी कि चाशनी उसके हाथों और होंठों से चारों तरफ टपकी, पर उसके स्वच्छ धवल कुर्ते-पाजामे पर एक बूँद नहीं गिरी। बटुकचन्द के सामने दो विकल्प थे। वे शर्मा के बड़े-बड़े मैले नाखूनोंवाले हाथ को चाशनी में डूबते और फिर जूठी चाशनी को चारों तरफ गिरते देखकर घिना आये अपने चित्त के भाव मुँह पर आ जाने देते या फिर शर्मा की इस कलाबाजी पर कि चाशनी की एक भी बूँद उसके सफेद कपड़ों पर नहीं पड़ी, स्निग्ध प्रशंसात्मक भाव से मुस्कुराते। उन्होंने दूसरे विकल्प को चुना। मन्द-मन्द मुस्कुराते हुए वे प्रतीक्षा करते रहे कि शर्मा अब किस खाद्य पदार्थ पर हमला करेगा। पर उसने अपनी हथेली उलटी करके अपने मुँह पर लगी हुई चाशनी मिली लार पोंछी और फिर दोनों हाथों को मेजपोश से पोंछ डाला।
''मैंने कहा न, बड़े साहब आप सीधे आदमी हैं। आप हम लोगों के पास आये नहीं उस सीतापुरवाले फ्राड के साथ घूमते रहे...''
बटुकचन्द खामोशी से शर्मा को पानी पीते देखते रहे। साला पूरा घाघ है। जानता सब है, पर मेरे मुँह से सुनना चाहता है।
''कमलाकान्त ने सही ताले की सही चाबी पकड़ ली...''
फिर शर्मा ने विस्तार से अपने सूत्र वाक्य की व्याख्या की। राजधानी में अलग-अलग ताले थे और उनको खोलने के लिए अलग-अलग चाबियाँ थीं। सही चाबी लग जाने पर ताला खुल जाता था। पी.डब्ल्यू.डी. मन्त्री नामक ताले की चाबी कौशिक नामक पी.ए. था।
''पर गुरुजी आप भी कम नहीं निकले। साले ललवा को उसी के दाँव से पटखनी दे दी। दिसम्बर में कौशिक से ही उसका तबादला करवा दिया..''
इस बार शर्मा ने उन्हें सीधा आदमी नहीं कहा था और उन्हें कमलाकान्त के बराबर रखा था इसलिए बटुकचन्द ने कुर्सी पर जगह जरूर बदली, पर चेहरे पर वही मुस्कान रहने दी जिसका मतलब यह होता है कि सामनेवाला कहता रहे, सुननेवाला सुन भी रहा है, नहीं भी सुन रहा है, सहमत भी है असहमत भी।
''हमें सब पता है सरकार बहादुर, क्या-क्या हुआ? पहले वर्मा आया, ऑर्डर ले गया। फिर आप आये आपका आर्डर हो गया। फिर वर्मा आया और वापस अपना ऑर्डर कराकर ले गया। हमें तो साहब ये खेल पसन्द नहीं है। अपना तो एक उसूल है, एक बार सम्बन्ध बनाएँ तो फिर पूरी जिन्दगी उसे निभाते हैं। अगर हमने बीस लेकर वर्मा को ऑर्डर दिलवा दिया तो फिर आप पच्चीस-पचास कुछ भी दें - हम तो नहीं बदल सकते। क्यों साहब ठीक कह रहे हैं न...''
बटुकचन्द ने कुछ उत्तर नहीं दिया। सिर्फ मुस्कुराते रहे और उसे तौलते रहे। जो संख्या उसके मुँह से निकली थी, वह सही नहीं थी, पर सच के काफी करीब थी। अपने मुँह से वे लेन-देन में खर्च हुई रकम का आभास नहीं देना चाहते थे। उनकी जगह उत्तर दिया बाबू ने जो अब तक सामने रखी खाने-पीने की सारी सामग्री निपटा चुका था और मेज पर रखे सारे नैपकिनों से बारी-बारी अपना मुँह-हाथ पोंछकर मुँह में उँगली डाल-डालकर दाँतों में फँसे रेशे निकाल रहा था। शर्मा की बात का जवाब उसने दिया, पर सम्बोधित किया बटुकचन्द को ही-''मर्द की बात तो यही होती है पंडितजी। ये क्या कि ज्यादा पैसा देखकर जुबान बदल दें।''
फिर काफी देर तक दोनों ने मर्दानगी और रिश्वत के सम्बन्धों पर विचार-विनिमय किया। उसके अनुसार जिस तरह मर्द की जुबान एक होती है उसी तरह अगर आपने किसी से पैसा ले लिया है तो फिर आप बदल नहीं सकते। अगर आपने विरोधी से ज्यादा पैसा लेकर पहलेवाले का काम बिगाड़ दिया तो आप मर्द नहीं हैं। शर्मा चूँकि मर्द था इसलिए वह जीवन-भर के लिए सम्बन्ध बनाता था।
बटुकचन्द मुस्कुराते रहे और सुनते रहे। उनकी दिलचस्पी जीवन-भर के सम्बन्धों में नहीं थी। कुम्भ खत्म होने के बाद वे सम्बन्धों का नवीनीकरण कर सकते थे। अब समय आ गया था जब उन्हें हस्तक्षेप करना था।
''इसीलिए तो आपकी शरण में आया हूँ शर्माजी। मैं तो खुद एक बार किसी से रिश्ता कायम हो जाय, तो जीवन-भर निभाता हूँ। आप आजमाएँगे तो पीछे नहीं पाएँगे।''
''सो तो है। आपको देखते ही मुझे लग गया था कि आप सीधे आदमी हैं। आपसे खूब पटेगी। आश्चर्य है कि अभी तक आपसे मुलाकात क्यों नहीं हुई थी?"
''सब समय-समय की बात होती है। जब तक लिखा न हो कुछ नहीं होता,'' बटुकचन्द ने छत की तरफ निगाहें उठा दीं।
''हाँ, यह तो है साहब। जब तक भाग्य में न लिखा हो इन्सान कुछ नहीं कर सकता। आज बदा था इसलिए साहब मेरे कमरे में आ गये। मैंने सुनते ही कहा कि बस शर्माजी ही कष्ट-निवारण कर सकते हैं। जब तक लिखा न हो...'' बाबू ने भी छत की तरफ देखने की कोशिश की, पर ऊपर जाती-जाती उसकी निगाहें उस सुन्दर औरत के चेहरे पर अटक गयीं जो इस बीच उनके सामनेवाली कुर्सी पर आकर बैठ गयी थी और वह वहीं भाग्यविधाता को तलाशने लगा।
''चलिए साहब किस्मत को आज ही मंजूर था तो आज ही सही। अब मिल गये हैं तो कुछ-न-कुछ अच्छा ही होगा। अब बताइए कि क्या करना है...कैसे करना है।''
बटुकचन्द खुश हुए कि इतनी लम्बी-चौड़ी भूमिका के बाद वे उस बिन्दु तक आ गये हैं जहाँ से काम की बातें शुरू हो सकती हैं। इसके बाद उन्होंने वही किया जो उन्हें ऐसे मौके पर करना चाहिए था और जिसकी उम्मीद शर्मा कर रहा था। उन्होंने अर्थपूर्ण नजरों से बाबू की तरफ देखा। बाबू जो अभी तक कनखियों से सुन्दर महिला की तरफ देख रहा था अब पूरी तरह उसी को घूरने लगा। साफ था कि वह कोई इशारा समझने के लिए तैयार नहीं था। उसने सारी जमीन जोती-बोई थी और अब जब बीज छींटने का मौका आया तो उससे अपेक्षा की जा रही थी कि वह वहाँ से चला जाय। उसने इशारा समझने से इनकार कर दिया।
''पंडितजी आप जरा हजरतगंज से बढ़िया पान लगवा लाओ। साहब की गाड़ी ले लो...नहीं तो मेरी गाड़ी लेते जाओ,'' अब शर्मा ने हस्तक्षेप किया।
''अभी यहाँ से निकलेंगे तो बाहर कहीं खा लेंगे,'' बाबू ने हल्के स्वर में प्रतिवाद किया।
''नहीं...नहीं...ले आओ। ससुर घंटा भर हो गया बिना पान खाये। हम तो साहब बनारस के हैं। लाख लखनऊ में रह लें, पर पान के बिना मन नहीं मानता,'' शर्मा हँसा। बाबू भी हँसा, पर बेमन से और उठकर बाहर चला गया। उसके बाहर जाते ही बटुकचन्द ने अपनी जेब से पनडब्बा निकाला और शर्मा के आगे बढ़ा दिया। शर्मा ने दो बीड़े निकाले और मुँह में ठूँस लिये।
''पान बढ़िया है पंडितजी।''
''यही तो एक चीज है साहब जिसका हमें नशा है। शराब हम छूते नहीं...सिगरेट हमने पी नहीं...एक चीज के सहारे जिन्दगी काट रहे हैं।''
दोनों ठठाकर हँसे। बटुकचन्द ने भी दो बीड़ा पान मुँह में ठूँसे। अब मैदान बराबर हो गया था और बात की जा सकती थी।
''हाँ, तो बताइए साहब क्या करना है...कैसे करना..?"
क्या करना है इसे बताने की जरूरत नहीं थी। कैसे करना है, इसी पर बहस होनी थी। सामनेवाले को कितना पता है, इस पर कैसे करना है, तय होना था। अब तक की बातचीत से यह तो साफ हो गया था कि शर्मा जानता है कि कैसे कमलाकान्त ने मार्च में अपना तबादला कुम्भ मेला डिवीजन में कराया, फिर बटुकचन्द ने दिसम्बर में उसे हटाकर खुद को वहाँ तैनात करा लिया और फौरन बाद कमलाकान्त ने फिर अपना तबादला रुकवा लिया।
पर यह तो पूरी राजधानी को पता था। इसमें पेंच यह था कि लेन-देन कितने का हुआ, यह उसे पता है या नहीं-- बीच-बीच में उसने जो रकमें बोली थीं वे सच के करीब थीं, पर सच नहीं थीं। इसका मतलब इस पर सौदेबाजी हो सकती है।
सौदेबाजी इसी पर शुरू हुई। शर्मा ने जो रकम कमलाकान्त द्वारा खर्च की गयी बतायी वह यथार्थ में दोगुनी से ज्यादा थी। जवाब में बटुकचन्द ने जो अपना खर्चा बताया, वह उनके द्वारा खर्च किए गये धन का तिहाई था। यह काम का उसूल था। इसमें दोनों पक्ष एक दूसरे को तौलते हैं, आगे-पीछे होते हैं। फिर किसी एक रकम पर सौदा तय कर लेते हैं।
''पच्चीस। देखिए भाभीजी तो अब छोटे कामों में हाथ डालती नहीं। इससे कम कहूँगा तो मेरा घर में घुसना भी बन्द हो जाएगा।''
''मेरे लिए तो आप सब कुछ हैं शर्माजी। पाँच ठीक रहेगा।''
''पच्चीस।''
''पाँच।''
''क्या बनियोंवाली बातें करते हैं पंडितजी आप। पाँच-दस के लिए भाभीजी किसी काम में हाथ नहीं डालतीं।''
''मेरे लिए तो आप ही भाई साहब हैं आप ही भाभीजी। मैं जितना कर सकता हूँ आपसे निवेदन कर दिया। इसके बाद गर्दन पकड़ेंगे तो एक-दो और कर दूँगा, पर इसके आगे तो हाथ जोड़ दूँगा।''
''ऐसे तो बात नहीं बनेगी बड़े साहब। इससे ज्यादा तो कमलाकान्त वर्मा को खबर कर दी जाये तो वही पहुँचा जाएगा जबकि उसके लिए करना कुछ नहीं है। मैं तो समझा था कि आप सीधे आदमी हैं आपके साथ एक सम्बन्ध बन रहा है, जीवन-भर चलेगा। पर आप व्यापार करनेवाली बात कर रहे हैं...''
अन्तर्राष्ट्रीय कूटनीति की तरह इस तरह की सौदेबाजी में भी धैर्य सबसे बड़ा निर्णायक तत्त्व होता है। दोनों पक्ष इसे जानते थे, इसलिए दोनों पक्षों ने बीच-बीच में बात खत्म होने की घोषणा की, दोनों ने उठने का इरादा जताया, लेकिन न तो बात खत्म हुई और न ही कोई उठा।
बात तभी खत्म हुई जब बाबू पान लेकर हाल में वापस घुसा। बटुकचन्द ने अपना पनडब्बा उठाकर जेब में रख लिया।
''बड़ी देर लगा दिये,'' बाबू के लाये पान के बीड़ों में से दो उठाकर मुँह में ठूँसते हुए शर्मा ने कहा, ''तम्बाखू नहीं लाये क्या?"
''लाये हैं। हमें पता नहीं क्या कि आप एक सौ बत्तीस नम्बर लेते हैं।''
बाबू ने पलाश के पत्ते में लिपटा तम्बाखू सामने बढ़ाया। ''अरे हम जानते हैं, आपका कोई काम हल्का नहीं होता। ई तो साला आपका मन्त्री चूतिया है, आपको काम नहीं देता, सारा काम कौशिकवा से कराता है...'' शर्मा ने बाबू की दुखती रग पर हाथ रखा।
''अब आपको हमारा भी कुछ उद्धार कराना है शर्माजी। पहले साहब का काम हो जाये फिर हमारा भी कुछ खयाल कीजिएगा। भाभीजी से या तो हमारे मन्त्री को डँटवा दीजिए या फिर सी.एम. के यहाँ लगवा दीजिए हमें। आपका एक आदमी होना चाहिए वहाँ भी।''
''करेंगे...करेंगे। इस बार भाभीजी से कहेंगे ताकि आपको सी.एम. के यहाँ ही लगवा दें,'' शर्मा ने फिर हाथ से कुछ मक्खी जैसा मारने का प्रयास किया। एक बैरा बिल लेकर हाजिर हो गया। बिल शर्मा ने उठाने का प्रयास किया। बाबू ने भी ऐसा प्रदर्शन किया कि अगर बिल उसने नहीं चुकता किया तो उसके साथ बहुत बड़ा अन्याय हो जाएगा। बटुकचन्द को मालूम था कि बिल चुकाना तो उन्हें ही है, इसलिए उन दोनों की मजबूत पकड़ में से उन्होंने आसानी से बिल अपनी तरफ खींच लिया और जेब से पर्स निकालकर रुपये गिनने लगे।
''फिर?"
बाबू के इस प्रश्न का किसी ने उत्तर नहीं दिया। उसकी भूमिका खत्म हो गयी थी और नाटक के दूसरे पात्र मंच से उसके प्रस्थान की प्रतीक्षा कर रहे थे।
''फिर?"
इस बार भी किसी ने उत्तर नहीं दिया। शर्मा उठा और हाल के बाहर की तरफ चल दिया। बटुकचन्द ने बैरे द्वारा वापस लाये गये नोट गिने, उसमें से दस का एक नोट तश्तरी में रखकर बैरे को जाने का इशारा किया। बैरे के जाने के बाद अपनी जेब से कुछ और नोट निकाले और पहलेवाले नोटों में मिलाकर बाबू की तरफ बढ़ा दिया। बाबू को उसके प्रश्न का उत्तर मिल गया। उसने खींसे निपोरीं और नोट जेब में रख लिये।
जब वे लोग बाहर निकले, बाहर पूरी तरह अँधेरा छा गया था।
''आपको कहाँ छोड़ें?" बटुकचन्द ने बाबू से पूछा। बाबू ने जिस जगह का नाम लिया वह उनके गन्तव्य के विपरीत पड़ती थी।
''टैक्सी का पैसा दे दीजिए, चले जाएँगे।'' शर्मा ने अपनी आवाज की झुँझलाहट छिपाते हुए कहा।
बटुकचन्द ने जेब से एक नोट निकाला और बाबू के हाथ में थमा दिया। बाबू ने फिर अपने दाँत चियार दिये।
''देखिएगा शर्माजी। मेरा भी देखिएगा। और नहीं तो सी.एम. के यहाँ ही रखवा दीजिए। एक बार भाभीजी चाह लें तो...'' बाबू रिरियाया।
''देखेंगे...देखेंगे। कुछ न कुछ करेंगे।'' शर्मा ने हाथ से काल्पनिक मक्खी उड़ायी। ''अपनी गाड़ी को कहिए हमारे पीछे आये।'' शर्मा अपनी कार की तरफ बढ़ा। बटुकचन्द ने अपने ड्राइवर को पीछे आने का इशारा किया और खुद शर्मा की कार का दरवाजा खोलकर उसमें बैठ गया।
भारतीय होने का एक फायदा है। आप कभी भी दार्शनिक हो सकते हैं। इसके लिए अवसर, समय या साथी की बाध्यता नहीं होती।
कार चली तो शर्मा भी दार्शनिक हो गया। उसके लिए दार्शनिक होने के पीछे दो कारण थे। एक तो उनकी आज की मुलाकात जिसके लिए वह बार-बार भाग्यवादी हुआ जा रहा था।
''अब देखिए न पंडितजी जब लिखा था तभी मुलाकात हुई। पिछले साल आप उस साले सीतापुरवाले फ्राड के साथ घूम रहे थे तो हमें पता चल गया था। हमने सोचा भी कि आप भले आदमी हैं, आपको बुला लें, पर भाभीजी ने कहा कि शर्मा सब भाग्य-भाग्य की बात होती है। जिस दिन लिखा होगा, उस दिन हो जाएगी मुलाकात। तो आज हो गयी साहब।''
दार्शनिक होने का दूसरा कारण कुछ ऐसा था कि बटुकचन्द अचकचा गये। उनकी समझ में नहीं आया कि वे इस पर हँसें या उदास हो जाएँ।
''आज मैं आपको भाभीजी के पास ले जा रहा हूँ। एक जमाना था यही भाभीजी मेरे पास लोगों को लाती थीं। सब समय-समय की बात है साहब।''
शर्मा ने उसाँस ली तो बटुकचन्द कार के शीशे से बाहर झाँकने लगे। कहावत है कि दीवारों के भी कान होते हैं। यहाँ दीवार तो नहीं थी, पर दो कानोंवाला ड्राइवर कार चला रहा था। कुछ भी कहना खतरे से खाली नहीं था, इसलिए सबसे आसान रास्ता था कि वे बाहर झाँकने लगते, और वे यही करने लगे।
दार्शनिकता का हमला अक्सर लोगों को खामोश कर देता है। यहाँ तो उसने शर्मा को सुला दिया। शर्मा की नींद तभी खुली जब कार उस मकान के बाहर रुकी जिसके कमरे में बटुकचन्द इस समय बैठे हुए थे और उनके बगल में शर्मा बैठा था।
कमरे में बैठे लोगों के बीच में बातचीत जिन विषयों पर हो रही थी वे राजधानी के सबसे प्रिय विषय थे। तबादले और लाइसेंस राजधानी के साहित्य और संस्कृति थे। राजनेताओं के घरों, दलालों के ठिकानों, पार्टी दफ्तरों और सचिवालय के कक्षों में चौबीस घंटे इन्हीं पर गोष्ठियाँ होती रहती थीं। राजनीतिक दलों के घोषणा पत्रों में बड़ी-बड़ी बातें लिखी जाती थीं, पर उनके कार्यकर्ता जानते थे कि लिखी बातें प्रमाण नहीं होतीं। चुनाव खत्म होते ही चौराहों पर गायें घोषणा-पत्रों को खाती दिखाई पड़ने लगती थीं। नेता लोग वापस तबादला और लाइसेंस उद्योग में लग जाते। और जो नेता तबादले करा सकता या लाइसेंस दिला सकता उसी के यहाँ सबसे अधिक भीड़ लगती। भाभीजी उर्फ मिनी मुख्यमन्त्री के यहाँ आजकल सबसे अधिक भीड़ लग रही थी क्योंकि आजकल सबसे अधिक तबादले वही करा रही थीं।
बटुकचन्द अफसर थे इसलिए भीड़ में बैठे दूसरे अफसरों की तरह मुँह गिराये बैठे थे। ये सभी किसी न किसी दलाल के साथ यहाँ पहुँचे थे। सबका कोई न कोई काम था। पर चूँकि ये अफसर थे इसलिए मातमी सूरत बनाये रखने के लिए अभिशप्त थे। दलाल चहक रहे थे, अफसर मुँह लटकाये हुए थे।
भाभीजी मुख्यमन्त्री की कोठी पर किसी मीटिंग में गयी हुई थीं। मीटिंग ख्त्म होते ही यहाँ पहुँचेंगी, इसकी सूचना लेकर बीच-बीच में लोग आ रहे थे और अन्दर चले जा रहे थे।
सूचना देनेवाले नौजवान लड़के थे जो अन्दर से प्रकट होते और कमरे में बैठे एक दो लोगों से हाथ मिलाते, एक दो लोगों के पैर छूते, एक-दो लोगों को जेब से निकाल कर पान देते और इन सारी व्यस्त कार्यवाहियों के बीच यह भी घोषित करते रहते कि भाभीजी बस आ ही रही हैं...वो तो मुख्यमन्त्रीजी ने इतनी इम्पोर्टेन्ट मीटिंग रख ली है, नहीं तो आज तो कहीं निकलनेवाली नहीं थी।
इन लड़कों में कुछ चीजें अद्भुत रूप से समान थीं। पच्चीस-तीस के बीच की उम्र वाले ये लड़के खद्दर का कड़क कलफदार कुर्ता-पाजामा पहने, हाथों में सेल फोन लिये, हल्की दाढ़ी बढ़ाये, मुँह में पान ठूँसे एक ही जैसी व्यस्तता में डूबे लगते थे।ये वे दिन थे जब अभी सेल फोन राजधानी में भी बहुत कम लोगों के पास थे इस लिये मुग्ध भाव से लोग उन्हे इसका इस्तेमाल करते देखते । वे तेजी के साथ कमरे में घुसते। अक्सर उस समय सेल फोन पर बतियाते रहते और फिर उसी तेजी के साथ कमरे का एक चक्कर लगाते हुए अन्दर चले जाते।
ये लड़के भाभीजी के कार्यकर्ता थे। पार्टी के पुराने नेता जब उनके और मुख्यमन्त्री के बीच किसी रिश्ते की तरफ अश्लील ढंग से इशारा करते तो यही लड़के उनकी ठुकाई करने के काम आते थे। कोई अफसर अगर सिर्फ फोन से बात नहीं समझ पाता तो ये जाकर उसे उसके कमरे में समझा आते। पार्टी का केन्द्रीय नेतृत्व प्रदेश के झगड़े सुलझाने के लिए कोई पर्यवेक्षक भेजता तो ये लड़के उसे बताते कि किस तरह पुराने नेतृत्व ने आज तक कार्यकर्ताओं की उपेक्षा की है और किस तरह भाभीजी ने पहली बार जमीनी कार्यकर्ताओं को पहचाना है और उन्हें महत्त्व देना शुरू किया है। अक्सर यह फैसला भी यही लड़के करते कि केन्द्रीय नेताओं से प्रदेश का कौन सा नेता मिलेगा और किसे मिलने से रोकना है।
सत्ता पार्टी की मुख्य शक्ति उसके भीतर का अनुशासन था और वे लड़के उसी अनुशासन को कायम करते थे।
बटुकचन्द थोड़ा असहज हो उठे। काफी देर से उन्हें लग रहा था कि कमरे में आनेवाले लड़कों का व्यवहार शर्मा के प्रति ऐसा है कि जिसे परिभाषित करना कुछ-कुछ मुश्किल-सा है। लगभग हर अन्दर आनेवाला लड़का शर्मा को अभिवादन जरूर करता है और कुछ एक तो उसका पैर भी छूते हैं, पर इससे अधिक कुछ नहीं। शर्मा कुछ कहने की कोशिश करता है तो उसका वाक्य अनसुना रह जाता है और 'हाँ...हूँ...' से अधिक उत्तर नहीं मिलता। एक बार शर्मा ने एक लड़के को हाथ पकड़कर बगल में बिठा लिया। उसने उसके कान में कुछ कहना शुरू किया ही था कि लड़के ने जेब से पान निकाला, शर्मा की तरफ बढ़ाया और जैसे ही शर्मा ने पान मुँह में डाला, लड़का उठकर आगे बढ़ गया।
सहसा शर्मा उठा और अन्दर की तरफ बढ़ चला। बटुकचन्द का दिल धड़कने लगा। इस दरबार में शर्मा की हैसियत का पता इसी से चलेगा कि घर के अन्दर उसका प्रवेश होता है या नहीं ?जिस आत्मविश्वास के साथ शर्मा अन्दर जा रहा था उससे यह तो स्पष्ट था कि वह इस घर के अन्दर जाता रहा है। बटुकचन्द को लगा कि उनके अभियान की सफलता शर्मा की इस हरकत में निहित है। शर्मा अन्दर चला गया तो उन्होंने लम्बी साँस ली।
दो ही मिनट बाद शर्मा बाहर आ गया। एक मजबूत लड़का उसे अपनी बाँहों में भरकर ला रहा था। शर्मा बटुकचन्द को देखकर मुस्कुराया। उनकी जान में जान आयी। लड़का दोस्ताना अन्दाज में गलबहियाँ डाले शर्मा को ला रहा था। पता नहीं क्यों उन्हें लगा कि शर्मा को वहाँ लाया जाना घसीटने जैसा था और उसकी मुस्कुराहट खिसियाहट का आभास दे रही थी। बटुकचन्द अचकचाये। लड़का जबर्दस्ती ढकेलता हुआ शर्मा को उनकी बगल में पटक गया।
''यहीं बैठिए शर्माजी...भाभी आने ही वाली हैं...क्या है कि उनकी सी.एम. के यहाँ मीटिंग पड़ गयी न...नहीं तो आज कहीं जानेवाली नहीं थी।''
बटुकचन्द का दिल डूबने लगा। वे समझ नहीं पा रहे थे कि कौन सी स्थिति ठीक थी। लड़का दोस्ताना अन्दाज में शर्मा को वहाँ तक लाया या फिर अवांछित अनाहूत सामग्री की तरह पटक गया था। पाँच सितारा होटल का बिल कितने का था उन्होंने याद करने की कोशिश की। फिर उस साले बाबू को इनाम-इकराम और टैक्सी का किराया अलग से दिया। सब बेकार गया। खैर यहाँ तक आ तो गये ही हैं। अब बाकी ऊपरवाले के हाथ। उन्होंने छत की तरफ देखा जहाँ पंखा चल रहा था, उस पर अगर कोई ईश्वर बैठा था तो वह इतनी तेज घूम रहा था कि उन्हें दिखाई नहीं पड़ा। वे कमरे की आवाजों से दूर होकर उसी को खोजने लगे।
कमरे की आवाजें एक क्षण की खामोशी में डूबीं और फिर ज्यादा तेजी से भनभनाने लगीं।
भाई साहब अर्थात् भाभाजी के पतिदेव का कमरे में प्रवेश हो गया था। उनके इर्द-गिर्द वही लड़के थे जो बार-बार कमरे में आ-जा रहे थे। खचाखच भरे कमरे में बीच वाले सोफे पर कुछ हलचल हुई और उसके बीचोंबीच इतनी जगह बन गयी जिस पर भाई साहब बैठ गये। यह चमत्कार सिर्फ राजधानी के इन्हीं कमरों में होता था जहाँ तीन की जगहवाले सोफे पर सात लोग बैठे हों और बिना किसी के अपदस्थ हुए एक और व्यक्ति के लिए जगह बन जाय।
''आ गयी हैं...बस अन्दर हाथ-मुँह धोकर आ रही हैं,'' भाई साहब ने बिना किसी की तरफ मुखातिब हुए कहा। मतलब सूचना सभी के लिए थी। सबने सिर हिला दिया।
''आज गर्मी कुछ ज्यादा है भाईजी।''
''गर्मी नहीं उमस है।''
थोड़ी देर इस पर बहस हुई कि गर्मी ज्यादा है या उमस।
''इसीलिए तो आज कहीं निकलने का मन नहीं था। इन्होंने तो मना कर दिया था कि कहीं आएँ-जाएँगी नहीं। वो तो सी.एम. लौटे दोपहर बाद दिल्ली से और शाम को उनकी कार हाजिर। पहले तो मना कर रही थीं, फिर मैंने कहा तो मान गयीं। मैंने कहा बेचारे दो दिन बाद दिल्ली से लौटे हैं, कुछ न कुछ सलाह-मशविरा करना होगा। तब गयीं। बस अभी वापस लेकर आया हूँ। अन्दर हाथ-मुँह धोकर आ रही हैं।''
''गर्मी भी खूब है।''
''उमस है साहब...हर समय नहाने का मन करता है।''
भाई साहब भाभीजी के बारे में और सूचना देने लगे। बोलते समय उनकी आँखें किसी चालाक बिल्ली की तरह अपने कोटर में में घूम रही थीं; लगभग एक बार उन्होंने पूरे कमरे का मुआयना कर लिया था और अब दूसरी बार फिर कमरे में बैठे लोगों के चेहरे पर फिसल रही थीं। इस बार कुछ रुक-रुक कर। उनकी आँखों की चमक या तटस्थता से ही कमरे में बैठे व्यक्ति की हैसियत का आकलन हो रहा था।
बटुकचन्द का दिल फिर डूबने लगा। पहली बार तो लगा था कि शर्मा के चेहरे पर से फिसलती भाई साहब की आँखों ने कुछ अभिवादन-सा किया था। शर्मा ने भी खींसे निपोरीं थीं। लेकिन दूसरी बार जब स्लोमोशन में आँखें घूमीं तो मामला काफी कुछ ठंडा और तटस्थ लगा। हो सकता है उनका भ्रम रहा हो। उन्होंने फिर एक बार पंखे की तरफ देखा और तेजी से घूम रही किसी अदृश्य शक्ति से कामना की कि यह उनका भ्रम हो और शर्मा नामक इस प्राणी का भाभीजी के ऊपर वैसा ही असर हो जैसा बाबू ने बयान किया था। या कम-से-कम तब तक तो बना ही रहे जब तक उनका काम न हो जाय।
बटुकचन्द की प्रार्थना सुनी गयी या नहीं, इसको जाँचने का क्षण भी आ गया।
भाभीजी कमरे में आयीं तो सभी लोग अचकचाकर खड़े हो गये। भाई साहब ने भी अपना पृष्ठ भाग थोड़ा सा उठाया, पर कुछ याद आ गया और उन्होंने फौरन उसे फिर सोफे पर टिका दिया।
भाभीजी जब तक खड़ी रहीं, कमरे में एक व्यक्ति को छोड़कर सभी खड़े रहे। इस बीच उनके जमीनी कार्यकर्ता अन्दर से एक कुर्सी ले आये और जो कमरा पूरी तरह से भरा नजर आ रहा था उसके बीचोबीच में इतनी जगह बना दी गयी जहाँ कुर्सी रखी जा सके। उसके बगल में एक स्टूल भी आ गया जिस पर एक टेलीफोन स्थापित हो गया। भाभीजी ने खड़े-खड़े कमरे में मौजूद सभी लोगों का नजरी मुआयना किया। कुछ लोगों के अभिवादन का हाथ जोड़कर जवाब दिया, कुछ के लिए मुस्कुराईं, कुछ के जवाब में सर हिला और कुछ को ठंडी नजरों से देखा गया और फिर कुर्सी पर बैठ गयीं। बाकी सभी लोग भी बैठ गये।
बटुकचन्द का हौसला कुछ बढ़ा। शर्मा की तरफ देखकर भाभीजी मुस्कुराई थीं।
इसके बाद कमरे में वही सब शुरू हुआ जिसके लिए बटुकचन्द तैयार होकर आये थे।
प्रदेश में तबादला सबसे बड़ा उद्योग था। लाखों की तादाद में सरकारी कर्मचारी थे। सरकार जनता से जितना धन लूटती थी उसका बड़ा हिस्सा ये कर्मचारी सरकार से लूट लेते थे। सरकारी खजाने की लूट-पाट से इनका पेट नहीं भरता था इसलिए बाकी समय में ये जनता को सीधे लूटते थे। ज्यादातर विभागों में तो सरकार को लूटने के लिए सिर्फ पहली तारीख को ही मौका मिलता था इसलिए महीने के बाकी दिन ये जनता की फिराक में रहते थे। लूटने के लिए अपने घर से दूर नहीं जाना चाहते थे, इसलिए जब कभी इनका तबादला किसी ऐसी जगह हो जाता जहाँ से इनका घर बारह घंटे से ज्यादा दूरी पर होता ये बिलबिला जाते। उन्हें ऐसी जगहें चाहिए थीं जहाँ जनता को लूटने में ज्यादा श्रम न करना पड़े और जो उनके घर के भी करीब हो। ऐसी जगहें कम थीं और उम्मीदवार ज्यादा, इसलिए इन जगहों पर पहुँचने के लिए मदद करने को भाभीजी और उनके जैसे सैकड़ों लोग राजधानी में मौजूद थे।
आज भी ऐसे दुखियारों की भीड़ कमरे में भरी थी और भाभीजी उनका शोक निवारण करने में लगी थीं।
भाभीजी अभी तक मन्त्री या किसी ऐसे ओहदे पर नहीं रही थीं जहाँ उन्हें कागजों के निस्तारण का अनुभव हुआ हो, पर जिस तेजी और फुर्ती के साथ वे कागजों को निपटा रही थीं उसे देखकर बटुकचन्द का मन हो रहा था कि वह उठें और उनके चरण पकड़ लें। यहाँ चरण पकड़ना खतरनाक हो सकता था इसलिए वे चुपचाप बैठे रहे।
मुलाकातियों को निपटाने का उनका तरीका बड़ा जटिल था और ज्यादातर मौजूद लोगों की पकड़ के बाहर था। बटुकचन्द जैसे कुछ और लोग जो कमरे में मौजूद थे और जिनका इस तरह की परिस्थितियों से निपटने का पुराना अनुभव था, वही उनके निपटान की बारीकी समझ रहे थे।
ज्यादातर लोग जो काम लेकर आये थे, अपने साथ कोई न कोई पैरोकार भी लाये थे। पैरोकार और सवाली भाभीजी की तरफ मुखातिब होते। पैरोकार इस अन्दाज में भाभीजी के सामने फुसफुसाता कि उन्हें छोड़कर पूरा कमरा उसे सुनता। कमरे में बैठे दूसरे लोग यह मानकर चलते कि उन्होंने कुछ नहीं सुना और भाभीजी यह दर्शातीं कि उन्होंने सब कुछ सुन लिया है। दरअसल यह एक ऐसी स्थिति होती जिसके लिए किसी हिन्दी कवि ने कहा है कि वह नहीं बोलेगा, शब्द बोलेंगे। ये सारे शब्द अगर समवेत कोई मतलब की बात बोलते तो भाभीजी पैरोकार को निकट आने का इशारा करतीं। पैरोकार उनके अगल-बगल बैठे किसी को धकेलकर वहाँ बैठ जाता, धकेले जानेवाला अगर अपना शरीर हटाने से इनकार कर देता तो भाभीजी के सामने उकड़ूँ जमीन पर बैठ जाता या फिर अगल-बगल बैठे किसी की गोद में इस तरह बैठ जाता कि देखने वाले उसे सोफे नामक बैठने की जगह पर बैठा मान लें।
इसके बाद संवाद शुरू होता। पैरोकार अपने मुँह से कुछ कहता, भाभीजी आँखों से कुछ जवाब देतीं। पैरोकार उँगलियाँ घुमाने लगता, भाभीजी वाणी का सहारा लेतीं। बीच में भाई साहब कूद पड़ते। पैरोकार अपनी मुद्रा बदल देता। एक साथ दोनों को सम्बोधित करने लगता। भाभीजी फोन सुनने लगतीं। भाई साहब किसी मुलाकाती से क्षेत्र का हालचाल पूछने लगते। पैरोकार बोलता रहता। फरियादी भकुआया-सा कभी अपने पैरोकार को देखता, कभी भाभीजी को देखता, कभी भाई साहब को देखता। कमरे की जिन्दगी चलती रहती।
जिन पैरोकारों से संवाद कुछ सार्थक स्तर पर होता उन्हें लेकर भाई साहब अन्दर चले जाते। कुछ को किसी जमीनी कार्यकर्ता के हवाले कर दिया जाता। उन्हें लेकर वह अन्दर किसी और कमरे में चला जाता। अन्दर कमरे भर जाते तो कार्यकर्ता लोग पैरोकारों और फरियादियों को लेकर बाहर लॉन, गैराज, पेशाब-घर, सड़क-जहाँ जगह मिलती चले जाते। पूरा माहौल हिन्दी कवि की सदिच्छा का वह स्वर्ग हो जाता जहाँ संवादहीनता की कोई गुंजाइश नहीं रहती और जहाँ लोग आपसी मतभेद मिल-बैठकर सुलझा लेते थे।
बटुकचन्द शर्मा की पहलकदमी की प्रतीक्षा कर रहे थे, पर शर्मा आराम से सोफे पर पीठ टिकाये बैठा था। बीच-बीच में वह राजनीति से लेकर मौसम तक किसी भी मुद्दे पर कोई जुमला उछाल देता। अक्सर कमरे के किसी कोने में कोई उसे लपक लेता और जवाब में कुछ कहता जिसके उत्तर में कोई तीसरा कुछ ऐसा कहता जिसका पहले वाक्य से कोई सम्बन्ध हो, यह जरूरी नहीं होता।
शर्मा की निष्क्रियता सायास लग रही थी, इसलिए बटुकचन्द ने चुपचाप सोफे की सीट पर सिर टिकाया और ऊँघने लगे।
कमरे में जिन्दगी रोज की तरह आराम से चलती रहती अगर खसखसी दाढ़ी और उभरी हड्डियोंवाले चेहरेवाले अपनी आँखें नीचे किये अपनी डायरी में कुछ लिख रहे नौजवान पर भाई साहब की नजर न पड़ जाती।
''आपका परिचय?"
भाई साहब ने जिस लहजे में यह प्रश्न पूछा उसमें वह चाशनी गायब थी जिसे अभी तक वे अपनी आवाज में घोलकर कमरे में बैठे लोगों से बातें कर रहे थे।
प्रश्न जिससे पूछा गया था उसने अपनी नोटबुक बन्द कर, चश्मा उतारकर पोंछा, फिर भाभीजी की आँखों में आँखें डालकर बोला-
''आप लोग इनको निपटा लें...फिर बात करेंगे।''
''क्या बात करेंगे?"
''आप फुर्सत में हो जाइए...''
''नहीं, पहले आप अपना काम बताइए।''
कुछ देर तक पहले आप...पहले आप का कोरस चला।
''आप हैं कौन? कहाँ से आये हैं?" इस बार भाभीजी ने कुछ सख्ती के साथ पूछा।
''इंटरव्यू...''
वाक्य पूरा होने के पहले ही एक जमीनी कार्यकर्ता झपट पड़ा।
''कहाँ है इंटरव्यू यही तो भाभीजी पूछ रही हैं। कौन अफसर लेगा किसी नौकरी का है नाम, रोल नम्बर लिखवाइए न। इस दरबार में आये हैं तो हो न जाएगा।''
दढ़ियल, जिसे सम्बोधित किया जा रहा था, थोड़ा अचकचाया। उसने घबराकर चारों तरफ देखा। वह जिस दुनिया से आया था वहाँ इस तरह की स्थिति से उसका साबका अभी तक नहीं पड़ा था।
''इंटरव्यू...इंटरव्यू तो मैं लूँगा। सुमनजी खाली हो जाएँ तो मैं इनका इंटरव्यू लूँगा।''
थोड़ी देर तक माहौल गमगीन रहा। मतलब दढ़ियल किसी अखबार से आया था। आजकल देश और प्रदेश की राजधानी से छपनेवाले अखबार और पत्रिकाएँ भाभीजी की तस्वीरों वाली खबरें बीच-बीच में छाप रही थीं। कुछ में उनके इंटरव्यू भी छपे थे। शुरू-शुरू में तो भाभीजी को आनन्द आता था। अपनी फोटो छपी अखबार या पत्रिका लेकर बाथरूम में चली जातीं और देर तक निहारती रहती थीं। फिर पता नहीं क्या हुआ कि अखबारवालों का नाम सुनते ही भड़कने लगीं। वे तो मिनी मुख्यमन्त्री थीं जो असली मुख्यमन्त्री थे, वे भी भड़कने लगे। अक्सर प्रेस कान्फ्रेंसों में यह होता कि कोई पत्रकार सवाल पूछता किसी कमरे में, पर उत्तर मिलते-मिलते पता चलता वह बाहर बरामदे में फर्श पर पड़ा इस बात का अनुमान लगा रहा है कि उसकी कितनी पसलियाँ अपनी जगह पर सुरक्षित हैं।
मिनी मुख्यमन्त्री यानी श्रीमती सुमन को यह सुविधा थी कि वे इसी कार्यवाही को अपने जमीनी कार्यकर्ताओं के द्वारा सवाल पूछे जाने के पहले ही सम्पादित करा देतीं।
आज भी यही हुआ कि भाभीजी के जमीनी कार्यकर्ता दढ़ियल पत्रकार के इर्द-गिर्द खड़े हो गये थे। उनकी कार्यवाही तय थी, इसलिए उन्हें किसी इशारे की जरूरत नहीं थी। पर कोई दूसरा इशारा उन्हें मिल रहा था जिसके कारण कार्यवाही शुरू होने में देर हो रही थी।
भाभीजी ने भाई साहब की तरफ देखा। शहर के सारे पत्रकारों को वे लोग पहचानते थे। वैसे भी इस शहर में अब कोई माई का लाल नहीं बचा था जो किसी अखबार के लिए काम करता हो और जिसने उनका लिफाफा या जूता न स्वीकार किया हो।
लिफाफा और जूता भाभीजी के दरबार का मुहावरा था। यहाँ बहुत कम लोगों को मालूम था कि यह मुहावरा मुख्यमन्त्री के दरबार से निकला है। यहाँ के ज्यादातर जमीनी कार्यकर्ताओं को मुख्यमन्त्री के दरबार तक पहुँचने की इजाजत नहीं थी इसलिए वे इसे भाभीजी की मौलिक खोज मानते थे।
मुख्यमन्त्री की राय में वह राजा दो कौड़ी का होता है जो खुश होने पर किसी को कुछ दे न सके और नाराज होने पर किसी का नुकसान न कर सके। इसलिए उन्होंने लिफाफे और जूते का प्रचलन किया था। पत्रकार भी उनकी प्रजा थे। इसलिए उन्हें भी लिफाफे और जूते मिलते रहते थे। लिफाफे अक्सर रात में लिये जाते थे जबकि जूते किसी भी प्रेस कान्फ्रेंस में मिल सकते थे बशर्ते पत्रकार मुख्यमन्त्री से मिनी मुख्यमन्त्री के बारे में पूछ लें।
आज भी मौका था जब लिफाफे और जूते में से किसी का इस्तेमाल किया जाता। जमीनी कार्यकर्ताओं की दिलचस्पी आमतौर से जूते में अधिक होती थी, इसलिए वे उसी तैयारी से पत्रकार के इर्द-गिर्द खड़े थे, पर आँखों की कोई भाषा थी जो उन्हें रोके हुए थी।
''किस अखबार से आये हैं आप?" अखबार का नाम जो लिया गया उसका उच्चारण करना भाई साहब, भाभीजी या उनके जमीनी कार्यकर्ताओं के लिए थोड़ा मुश्किल था, इसलिए उन्होंने सिर्फ यह अनुमान लगाने की कोशिश की कि अखबार फ्रांसीसी भाषा का है या जर्मन का। पर उस मुश्किल और आसानी से उच्चारित न हो सकनेवाले शब्द से यह फर्क जरूर पड़ा कि कमरा कुछ भय मिश्रित आदर से भर गया और जूता लगानेवालों को थोड़ी देर के लिए अपना इरादा बदलना पड़ा।
''अरे तो आप हमारा क्या इंटरव्यू लेंगे? इंटरव्यू लीजिए बड़े नेताओं का, हम तो छोटे-मोटे कार्यकर्ता हैं,'' भाभीजी की आवाज में फिर से चाशनी घुल गयी।
''आपकी पार्टी तो कार्यकर्ताओं की पार्टी है। आपके नेता कहते हैं कि कार्यकर्ता उनकी ताकत हैं। आप से ज्यादा सक्रिय कौन कार्यकर्ता मिलेगा। इसलिए हमारे अखबार ने...''
''पर मैं तो बहुत छोटी कार्यकर्ता हूँ...''
''हम तो छोटे कार्यकर्ताओं से ही बात करना चाहते हैं।''
''पर मैं किस लायक हूँ?"
''यहाँ तो लोग कह रहे हैं कि आप ही सरकार चला रही हैं।''
''आप भी मजाक कर रहे हैं। मैं तो बहुत छोटी...''
जैसा कि इस मौके पर उम्मीद की जा सकती थी, दोनों पक्षों में कोई झुका नहीं। एक पक्ष यह घोषित कर रहा था कि श्रीमती सुमन नामक जिस महिला का इंटरव्यू यह पत्रकार लेना चाह रहा था वे तो पार्टी की एक अदना-सी कार्यकर्ता थीं और पार्टी जो काम उन्हें सौंपती है उसे पूरा करने के अलावा उनकी किसी चीज में दिलचस्पी नहीं है और चूँकि पार्टी ने उन्हें इंटरव्यू देने से मना कर रखा है इसलिए बेहतर होगा पत्रकारजी अपना समय न खराब करें और पार्टी के किसी बड़े नेता का जाकर इंटरव्यू लें।
दूसरा पक्ष, जिसमें अकेला पत्रकार शामिल था, यह मानता था कि चूँकि सत्ता पार्टी कार्यकर्ताओं की पार्टी है और श्रीमती सुमन स्वयं मान रही हैं कि वे इस पार्टी की एक अदना कार्यकर्ता हैं और पूरा प्रदेश जानता है कि वे कितनी महत्त्वपूर्ण कार्यकर्ता हैं, इसलिए पूरे विश्व को उनके बारे में जानने की उत्सुकता है और इसलिए उसके लिए उनका इंटरव्यू लेना निहायत जरूरी है।
और जैसा कि ऐसे मौके पर होता आया है, दोनों पक्षों में से न तो कोई झुका और न ही यह तय हो पाया कि होना क्या है।
''आप कब से राजनीति में हैं?" पत्रकार ने बहस समाप्त करते हुए अपनी डायरी और पेन सँभाले।
''देखिए मैं कह चुकी हूँ मैं इंटरव्यू नहीं दूँगी।''
''आपके पिताजी भी राजनीति में थे?"
''मुझे कोई बात नहीं करनी।''
जमीनी कार्यकर्ता सतर्क हुए। मामला कुछ नाजुक था। किसी ऐसे अखबार के संवाददाता के साथ कैसे सुलूक किया जाय जिसके नाम का उच्चारण करना मुश्किल हो, यह उनकी समझ में नहीं आ रहा था।
''आपके पास कोई पद नहीं है फिर आपके पास इतनी भीड़ कैसे रहती है?"
''मुझे कुछ नहीं मालूम। मैं तो साधारण कार्यकर्ता हूँ।''
''फिर आपके पास इतनी भीड़...''
''मैं जा रही हूँ। आप नहीं चाहते कि मैं यहाँ बैठूँ। मैं जा रही हूँ...''
''आपका घर है...आप क्यों जाएँगी...आपकी पार्टी में और कितने कार्यकर्ताओं के यहाँ इतनी भीड़ होती है?"
भाभीजी उठ खड़ी हुईं। कमरे में हड़कम्प मच गया। दूर-दूर से लोग बड़ी आस-उम्मीद लगाकर आये थे। इन साले पत्रकारों का क्या...लीपने में न पोतने में......बाहर-भीतर गये दूसरे मुलाकाती और पैरोकार भी खिड़की दरवाजों से झाँकने लगे... ''मारो साले को चार-छह चप्पल...ठीक हो जाएगा...बड़े आये हैं इंटरव्यू लेनेवाले।'' दढ़ियल पत्रकार भौंचक्का सा चारों तरफ देख रहा था। उसने दुनिया की बड़ी-बड़ी हस्तियों का इंटरव्यू लिया था। इस इंटरव्यू से कैसे निपटा जाय, इसके बारे में न तो पत्रकारिता प्रशिक्षण महाविद्यालय में पढ़ाया गया था और न ही अपने पेशे के दौरान अब तक उसने सीखा था। उसकी समझ में एक बात आयी कि उसे अभी पीटा नहीं जाएगा। इसी का उसने फायदा उठाया।
''आपकी पार्टी नहीं चाहती कि कार्यकर्ताओं का इंटरव्यू लिया जाय?"
''मैं कुछ नहीं जानती...मैं जा रही हूँ...''
मामला कुछ नाजुक था। भाभीजी का पक्ष जानता था कि भाभीजी अपने ही घर में बायकाट करके अन्दर नहीं जा सकतीं और किसी विदेशी अखबार के प्रतिनिधि को घर में पीटा भी नहीं जा सकता।
तभी ऐसा कुछ हुआ जिससे बटुकचन्द की बाँछें खिल गयीं। अचानक शर्मा तमतमाता हुआ पत्रकार के सामने खड़ा हो गया और इस सिद्धान्त के अनुसार कि अगर आपके पास तर्क न हो तो आपके फेफड़े आपके सबसे बड़े तर्क होते हैं, चीखा, ''लीजिए कार्यकर्ता का इंटरव्यू। हम भी तो पार्टी के कार्यकर्ता हैं। लीजिए हमारा इंटरव्यू। बेचारी लेडीज को परेशान कर रहे हैं। पूछिए क्या पूछना है?"
शर्मा महिलाओं के लिए हमेशा लेडीज शब्द इस्तेमाल करता था। महिला एक हो या कई उसके लिए हमेशा लेडीज ही होती थी।
पत्रकार थोड़ा सकपकाया पर उसने खुद ही कार्यकर्ता के इंटरव्यू की बात कही थी और जो व्यक्ति सामने खड़ा होकर अपने फेफड़ों का भरपूर प्रयोग कर रहा था, वह अपने कथानानुसार कार्यकर्ता था। उसने दाएँ-बाएँ देखने की कोशिश की तो शर्मा ने मुस्कुराकर भाभीजी की तरफ देखा। भाभीजी ने कमरे में उपस्थित दूसरे लोगों की तरफ देखा। सबने एक दूसरे की तरफ देखा और अब पत्रकार के अलावा सभी मुस्कुरा रहे थे।
सबको पता था कि शर्मा से इंटरव्यू लेकर कोई जीत नहीं सकता। पत्रकार ने एक और प्रश्न भाभीजी की तरफ दागा।
''आप इतनी विवादास्पद क्यों हैं?"
''इसलिए कि हम लेडीज हैं,'' शर्मा सफाई के वकील जैसा अपने मुअक्किल की तरफ से बोलते समय उत्तम पुरुष की तरह बोल रहा था, ''हमारा तो गुनाह है कि हम लेडीज हैं और राजनीति में आ गये हैं। और साहब पालिटिक्स में अपने बलबूते पर आगे बढ़ रहे हैं तो कैसे आप बर्दास्त करिएगा! बताइए न...बोलिए...बोलिए।''
पत्रकार फिर लड़खड़ाया-''इंटरव्यू किसका हो रहा है?"
''पर महिलाएँ तो बहुत हैं राजनीति में और कोई क्यों नहीं इस तरह विवादास्पद होता?"
''कौन नहीं होता किस पर आप लोगों ने उँगली नहीं उठायी...अरे आपने सीता मैया को नहीं छोड़ा...भाभीजी की क्या बिसात है...'' शर्मा की आवाज रूँध गयी। वहाँ बैठे लोग जानते हैं कि अब वह रोएगा। सिर्फ दो लोग नहीं जानते थे। एक तो बटुकचन्द जो शर्मा के संवाद कम सुन रहे थे उनका प्रभाव भाभीजी के चेहरे पर ज्यादा ढूँढ़ रहे थे और इस बात पर प्रसन्न थे कि उसके हर शब्द से भाभीजी के चेहरे पर पुराने परिचय, विस्मय, हर्ष और लालसा के भाव तैरने लगते थे। दूसरा अनभिज्ञ व्यक्ति वह पत्रकार था जो यह नहीं समझ पा रहा था कि इंटरव्यू किसका हो रहा था।
''आप लोग लेडीज को बढ़ते हुए नहीं देखना चाहते। अरे साहब, हम तो जानते हैं आप लोगों को। बड़े प्रगतिशील बनते हैं। अरे हमारी पार्टी तो भारतीय संस्कृति की पुजारी है। हमारे यहाँ तो कालिदास लिख गये हैं कि यत्र नार्यस्तु...इसके बाद शर्मा ने संस्कृत, उर्दू, भोजपुरी, अवधी न जाने किन-किन भाषाओं-बोलियों में क्या-क्या सुनाया। उसके लिए संस्कृत में जो कुछ लिखा गया है सभी कालिदास ने लिखा था और उर्दू में गालिब के अलावा और कोई शायर नहीं था। इसलिए हर श्लोक के पहले वह कालिदास का नाम लेता था और हर शेर के आखिर में चचा गालिब को याद करता था। वह इतना तेज बोल रहा था कि पत्रकार को समझ नहीं आ रहा था कि वह अगला प्रश्न कहाँ दागे।
बोलते-बोलते शर्मा के मुँह से फेन निकलने लगा। उसने उन प्रश्नों के उत्तर देने शुरू कर दिये जो अभी तक पूछे नहीं गये थे।
''अब आप पूछिएगा कि इस दरबार में इतने लोग क्यों इकट्ठा हैं? अरे साहब जहाँ कार्यकर्ता की पूछ होगी वहीं तो जाएगा। और कोई है राजधानी में जो कार्यकर्ता को इतना सम्मान देता है। जाइए न मन्त्रियों की कोठी पर। कोई एक गिलास पानी को नहीं पूछेगा। यहाँ हमको सम्मान मिलता है इसलिए हम आते हैं साहब। आपकी क्यों फटती है?"
शर्मा पूरे मूड में आ गया था और अब उन शब्दों को धड़ल्ले से इस्तेमाल कर रहा था जिनकी अपने इंटरव्यू में दढ़ियल पत्रकार को सबसे कम उम्मीद थी। उसका सिद्धान्त था कि दुश्मन पर जब हमला करो तो उसे सँभलने का मौका मत दो। उसने अपने फेफड़ों को कोयले के इंजन में तब्दील किया और मुँह से फेन छोड़ते हुए भाषण की पटरी पर सरपट दौड़ा, फिर पटरी बदलते हुए डीजल के इंजन के पीछे लटक गया और जब तक उस प्रसंग पर पहुँचा जहाँ उसे रुकना था वह बिजली के इंजन पर कूदकर चढ़ गया था।
भारतीय संस्कृति की परिभाषा करना थोड़ा मुश्किल है, लेकिन अगर उसकी उपयोगितावादी व्याख्या करनी हो तो कहा जा सकता है कि अलग-अलग अवसरों पर इसका अलग-अलग इस्तेमाल किया जा सकता है। आप औरतों को घर के अन्दर बन्द रखना चाहें तो इससे मुफीद कोई नुस्खा नहीं है। आप उनकी बराबरी की हैसियत के पक्षधर हों तब भी इससे धारदार कोई दलील नहीं हो सकती। शर्मा और सुमन की पार्टी भारतीय संस्कृति की सबसे बड़ी ध्वजवाहक थी और किसी विदेशी अखबार का संवाददाता इसका सबसे बड़ा दुश्मन हो सकता था इसलिए शर्मा ने रोने के लिए यही मुद्दा चुना।
''अरे हमारी भारतीय संस्कृति से बढ़कर लेडीज को महत्त्व कौन देगा! पश्चिमवाले आप लोगों ने तो लेडीज को उपभोग की वस्तु बना दिया है। आप लोग तो हर चीज को बाजार के नजरिए से देखते हैं। अर्थशास्त्र का एक नियम है...''
बटुकचन्द पानी पी रहे थे। उन्हें लगा कि गिलास उनके हाथ से छूटते-छूटते बचा। पट्ठा इतने मुश्किल शब्दों का इस्तेमाल कर रहा है!
''लेकिन मैं तो विदेशी नहीं हूँ,'' पत्रकार मिमियाया।
''पर काम तो विदेशी अखबारों के लिए करते हैं।''
''इससे क्या?"
''इससे बहुत कुछ है। आप लोग विदेशी पैसे पर पलते हैं। आप क्या जानें भारतीय संस्कृति में क्या लिखा है हमारे यहाँ कहा गया है कि...''
शर्मा ने धाराप्रवाह संस्कृत के श्लोकों की भरमार कर दी। वेदों, पुराणों, उपनिषदों से कालिदास झाँक रहे थे। पंडित बटुकचन्द उपाध्याय के पिता संस्कृत के पंडित थे और अध्यापकी भी करते थे। उनके जीवन का एक ही लक्ष्य था-बच्चों को अष्टाध्यायी घोटाना। बटुकचन्द इंजीनियरिंग कॉलेज पहुँच गये तब भी घर आने पर कोई भरोसा नहीं था कि कब किसी सन्धि का विच्छेद पूछ लें। इतनी छूट उन्होंने जरूर दी थी कि अब बेंत हाथ में लेकर अष्टाध्यायी की परीक्षा नहीं लेते थे। पर इतने बेंत पीठ पर पड़े थे कि बटुकचन्द को उनके खाली हाथ में भी बेंत नजर आता।
इसलिए आज शर्मा के मुँह में संस्कृत के श्लोक सुनकर बटुकचन्द अचकचा गये। वे घबराकर बीच-बीच में चारों तरफ देख लेते। कहीं उनके स्वर्गवासी पिता तो नहीं सुन रहे। इतनी भ्रष्ट और अशुद्ध संस्कृत बोलनेवाले व्यक्ति के साथ वे यहाँ तक आये हैं, यह जानकर तो उनके पिताश्री उनकी पीठ ही छलनी कर डालेंगे। उन्होंने चेहरा थोड़ा ऐसा घुमा लिया कि अगर पकड़े जाएँ तो पिताजी से कह सकें कि वे तो इस उजड्ड, मूर्ख, संस्कृत के हत्यारे को जानते तक नहीं, उसके साथ यहाँ तक आने की बात कहाँ उठती हैं!
शर्मा को जाननेवाले लोग दम साधे उस क्षण की प्रतीक्षा कर रहे थे जब उसे रोना था। और, वह क्षण आ गया।
शर्मा ने संस्कृत की ऐसी-तैसी की। फिर वह उर्दू के मैदान में कूद पड़ा। संस्कृत अगर उसके लिए कालिदास थी तो उर्दू चचा गालिब। फर्क सिर्फ इतना पड़ा कि दढ़ियल पत्रकार उर्दू थोड़ा-बहुत जानता था। उसने एकाध बार टोकने की कोशिश की। शर्मा को मालूम था कि उर्दू में ज को ज्ज: कहा जाता है। जैसे ही उसने ज...कहा पत्रकार टपक पड़ा...
''भाई साहब जो...नहीं...जो।''
''अब आप मुझे उर्दू सिखाएँगे। मुझे! कल को आप मुझे भारतीय संस्कृति भी सिखाने लगिएगा। अरे साहब आप जैसे लोगों ने हमारी संस्कृति का बंटाढार किया है। आप लोग लेडीज को राजनीति में बढ़ते नहीं देख सकते। गोस्वामीजी ने लिखा है कि विदेशी अखबार का प्रतिनिधि अयोध्या में आकर सीता जी के बारे में भगवान राम से ऊटपटाँग सवाल पूछने लगा...''
शर्मा ने विजेता भाव से चारों तरफ देखा। बटुकचन्द का मन हुआ कि दौड़कर उसके चरण पकड़ लें। कमरे में मौजूद सारे श्रोता पत्रकार की तरफ देख रहे थे कि बोलो बेटा, अब जवाब दो।
''विदेशी अखबार का प्रतिनिधि अयोध्या में...''
''और क्या वो साला धोबिया कौन था बताइए...बताइए...बड़े आये हैं इंटरव्यू लेने। उस जमाने में आप लोगों ने सीता मैया को नहीं छोड़ा और अब भाभीजी जैसी सती-साध्वी नारी पर कीचड़ उछाल रहे हैं। अरे आप भाभीजी पर नहीं भारतीय संस्कृति पर...।''
शर्मा की आवाज रुँध गयी। उसने दो-तीन बार भाभीजी...सीता मैया...भारतीय संस्कृति जैसे शब्दों का उच्चारण किया और फिर बुक्का फाड़-फाड़कर रोने लगा।
कमरे में एक साथ कई चीजें हुईं। श्रोता थोड़ी देर के लिए चुप हुए...पत्रकार को लगा कि दुनिया का सबसे बड़ा उल्लू वही है...गाँव से अपने लगान की किश्त माफ कराने आये एक किसान को लगा कि कथा का वह अंश आ गया है जब जय-जयकार की जा सकती है। वह एकदम से चैतन्य हुआ और उसने जयकारा लगाया...''बोल सीता मैया की...''
''मार साले को...!'' एक जमीनी कार्यकर्ता ने ललकारा।
''जय...जय...बोल सियापत राम चन्द की...''
''मार साले को। बहन चो...इंटरव्यू लेने आया है।''
इसके बाद जो कुछ घटा उसे संक्षिप्त में सिर्फ इतना कहा जा सकता है कि पत्रकार नामक जीव को पहले कमरे से निकालकर बाहर लॉन में फेंका गया और फिर फेंकने की जरूरत नहीं पड़ी। वह लुढ़कता-पुढ़कता सड़क पर पहुँच गया। लॉन तक उसकी नोटबुक, पेन और कैमरा उसके साथ-साथ थे, पर जब वह सड़क तक पहुँचा तो बकौल एक शायर के, उसकी दशा कुछ-कुछ दुनिया छोड़ रहे सिकन्दर जैसी थी जो इस नश्वर संसार से विदा लेते हुए खाली हाथ ही गया था। इतना जरूर हुआ कि उसकी नोटबुक कुछ नुचे-चुथे स्वरूप में उसके पास पहुँच गयी। पेन दो टुकड़ों में बँट गया था। उसका ढक्कन भी उसके नजदीक आकर गिरा। जाहिर था कि पेन का निचला हिस्सा किसी पढ़ने-लिखनेवाले कार्यकर्ता के हाथ लगा था और इस विश्वास के साथ कि उसका सही इस्तेमाल उसी के पास है और अगर उसे उसके असली मालिक को दे दिया गया तो वह फिर कहीं खुराफात करेगा, उसने इस हिस्से को अपनी जेब में डाल लिया था।
कैमरे के बारे में तो अगर पत्रकार से भी इस समय पूछा जाता तो वह पूरे विश्वास के साथ नहीं कह सकता था कि वह उसे लेकर आया भी था या नहीं। वहाँ मौजूद कोई नहीं बता सकता था कि कैमरा कहाँ गया।
कमरे में माहौल फिर पुरानी व्यस्तता से भर गया। फर्क सिर्फ इतना आया था कि अपने राष्ट्रीय चरित्र के मुताबिक अभी-अभी घटे पूरे घटनाक्रम पर लोग अपनी एक्सपर्ट ओपीनियन दे रहे थे।
''इन सालों से बात नहीं करनी चाहिए। इनको तो शुरू में ही जूता...''
''हाँ भाई जी, इनको सौ जूते मारने चाहिए, पर सत्तर के बाद गिनती भूलकर फिर एक से शुरू करना चाहिए।''
कुछ देर इस पर तबादला-खयालात हुआ कि गिनती कहाँ भूलनी चाहिए। राष्ट्रीय चरित्र के ही मुताबिक कोई आम सहमति नहीं बनी। इस मुद्दे पर भी सहमति नहीं बन सकी कि जूता किस नस्ल का हो।
''भाई जी अपने गाँव का चमरौंधा सबसे अच्छा है। थोड़ा-सा तेल पिला दो और फिर देखो।''
''अजीब लड़बहेंग हो यार। अब चमरौंधा कौन पहनता है जी, अरे मल्टीनेशनल वाले इतने बढ़िया जूते बना रहे हैं...''
''पर हम तो स्वदेशीवाले हैं,'' बहरहाल इस पर भी कोई सहमति नहीं बन पायी। स्वदेशी नारा अच्छा था लेकिन कोई यह मानने के लिए तैयार नहीं था कि इस तरह के पत्रकारों के लिए जूता मारने का कार्यक्रम सफल बनाने को एक अदद चमरौंधा रखा जाय।
एक मुद्दे पर सहमति हो गयी।
''शर्मा भैया ने कमाल कर दिया। साला जिन्दगी भर याद करेगा,'' कई लोगों ने यह वाक्य दोहराया कि 'शर्मा ने कमाल कर दिया।'
भाभीजी ने भी स्वीकार किया।
''अरे इन्हीं के चरणों में बैठकर तो हमने राजनीति सीखी है। इनका कमाल तो हम खूब जानते हैं।''
शर्मा ने पत्रकार को खदेड़ने के अलावा जो कमाल किया था उसे देखकर बटुकचन्द को अपने संस्कृताध्यापक स्वर्गीय पिता की याद आयी। वे किसी को भी सही उच्चारण के साथ कोई श्लोक पढ़ते देखकर धन्य...धन्य कहने लगते। उनके मन में भी आ रहा था कि वे धन्य...धन्य कहने लगें।
पत्रकार को कमरे में से बाहर फेंकने की क्रिया जब सम्पादित हो रही थी उसी समय दूसरा चमत्कार हो रहा था।
शर्मा की रुँधी आवाज चहकने लगी और उसके आँसू हिन्दी फिल्मों की उस विरहिणी नायिका के आँसुओं की तरह न जाने कहाँ बिला गये जिसका प्रीतम अचानक पेड़ों के झुरमुटों से निकलकर उसके सामने खड़ा हो जाता है और वह रोना भूलकर कमर मटकाते हुए नाचने गाने लगती है।
जिस समय आधे लोग पत्रकार को कमरे के बाहर फेंकने में और आधे उनका हौसला बढ़ाने में तल्लीन थे, शर्मा अचानक अपनी जगह से उछला और उस कुर्सी के बगल में पड़े सोफे पर बैठ गया जहाँ भाभीजी बैठी थीं और शालीनता की मूर्ति बनी निरपेक्ष भाव से सारी कार्यवाही को देख रही थीं।
बटुकचन्द ने शर्मा को उठकर जाते और बैठते तो देखा, पर दोनों के बीच क्या संवाद हो रहा था यह देखने और सुनने में कमरे के अन्दर चल रही गतिविधियाँ बाधा बन रही थीं। सब कुछ कस्बे के सिनेमा हॉल में चल रहे थ्रिलर की तरह था। नायक खलनायक की नाक पर एक घूँसा जमाता कि आपके सामने 'वाह पट्ठे...' की ललकार मारता हुआ एक दर्शक खड़ा हो जाता। घूँसे को आप नाक के करीब पहुँचते हुए देखकर अगली स्थिति की कल्पना कर लेते हैं। पटेबाजी के बीच में नायक नायिका की तरफ तेजी से झुकता तो दो सीट आगे दर्शक 'जियो राजा'...जैसी कोई किलकारी भरता और आप मान लेते हैं कि दोनों के बीच प्रणय निवेदन से सम्बन्धित कोई संवाद हुआ होगा।
कुछ-कुछ ऐसे ही बटुकचन्द को आभास हसे गया कि शर्मा और भाभीजी के बीच उनको लेकर ही कुछ बातचीत हो रही थी।
शर्मा ने कुछ कहा और बटुकचन्द की तरफ देखा। भाभीजी ने भी उनकी दिशा में नजरें घुमायीं और मुस्कुरायीं।
''अरे इधर आइए न पंडिज्जी। उतनी दूर काहे बैठे हैं?"
शर्मा चहका तो बटुकचन्द उठकर भाभीजी के सामने खड़े हो गये। उन्होंने विनीत भाव से दोनों हाथ जोड़ दिये। भाभीजी मुस्कुरायीं।
''इधर बैठिए बड़े साहब। वहाँ क्यों बैठे हैं?शर्माजी ने यहाँ किसी को बताया नहीं। आपको तो अन्दर बैठाना चाहिए था। आप लोग तो सरकार चलाते हैं। हम तो मानते हैं कि शासन को प्रशासन का पूरा सम्मान करना चाहिए। तभी न शासन ठीक से चलेगा। इधर बैठिए।''
कमरे की अस्त-व्यस्तता ने बैठने की जगह भी बना दी थी और काम की बात करने का अवसर भी।
''शर्माजी ने सब बता दिया। आपका मन्त्री बड़ा बदमाश है। यही लोग तो हमारी सरकार की बदनामी करा रहे हैं। बेचारे मुख्यमन्त्री सबको साथ लेकर चलना चाहते हैं, पर इन बदमाशों के साथ कितने दिन सरकार चलाएँगे। मैंने तो सी.एम. से भी कह दिया है कि अगर स्वच्छ सरकार चलानी हो तो ऐसे लोगों को निकालना पड़ेगा। देखिए कब तक ये रावण रहते हैं सरकार में।''
बटुकचन्द बैठे थे, थोड़ा उचके। समय कम था। पार्टी हाइकमांड और सी.एम. में उनकी दिलचस्पी नहीं बन पा रही थी। पत्रकार को लॉन से सड़क की तरफ ले जाया जा रहा था। कब यह क्रिया सम्पादित हो जाय और कब लोग कमरे में वापस आ जाएँ, कुछ कहा नहीं जा सकता।
''जी मैडम, आप सही कह रही हैं। हमारा तो विभाग मन्त्री ने चौपाट कर दिया है। कोई काम नहीं हो रहा है। कुम्भ सर पर है और मेरा एक हफ्ते में दो बार तबादला...''
''अरे वो तो बात हो गयी है न भाभीजी से। आप निशाखातिर रहें। कल्ले आडरवा मिल जाएगा न। कल बुलाया है सुबह कोठी पर। इतनी भीड़-भाड़ में आप जैसे बड़े अफसर से क्या बतियाएँगी?"
''हाँ, बड़े साहब कल आइए। सुबह-सुबह भीड़ नहीं रहती। आप जैसे अफसरों को भीड़ में खड़ा होना पड़े, मुझे तो नहीं अच्छा लगता। मैं तो मानती हूँ कि शासन को प्रशासन की...''
बटुकचन्द गदगदा गये। इतनी बड़ी हस्ती और ऐसी विनम्र। हें...हें...करते हुए उन्होंने भाभीजी के चरणों की तरफ हाथ बढ़ाया।
''क्या करते हैं...क्यों नरक में डालते हैं साहब...आप तो उम्र में भी बड़े
हैं।...मैं तो कहती हूँ कि अगर शासन प्रशासन की कद्र...''
जब भाभीजी के जमीनी कार्यकर्ता पत्रकार को जुतियाकर कमरे के अन्दर प्रवेश कर रहे थे, बटुकचन्द का हाथ पकड़े शर्मा उन्हें कमरे के बाहर ले जा रहा था।