'
तुम पृथ्वी के नमक हो
;
परंतु यदि नमक अपना स्वाद खो दे, फिर उसे किस वस्तु से नमकीन किया जाएगा? फिर वह किसी काम का नहीं
,
केवल इसके कि बाहर फेंका जाए और मनुष्यों के पैरों तले रौंदा जाए।
'
- ईसा मसीह (नया नियम
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)
नमक नहीं, जातक जीतेंद्र गुप्ता को मिठाई पसंद थी, वह भी तब जब वे बहुत खुश होते थे! चूँकि बहुत खुश होने के अवसर इस तुच्छ और साधारण जिंदगी में बहुत कम थे
इसलिए मिठाई भी वे यदाकदा ही खाते थे, सिर्फ खाते ही नहीं थे बल्कि अपने यार-दोस्तों को अपनी खुशी में शामिल करते हुए खिलाते भी थे, चाहे वह मिठाई रसगुल्ले,
गुलाब जामुन की जगह जलेबी या गुड़ ही क्यों न हो! अंतिम बार उन्होंने इस तरह का बृहत् आयोजन तब किया था जब उनकी लगभग बूढ़ी और शार्तिया बीमार माँ ने अपने हालात
और पारिवारिक झंझटों का हवाला देते हुए उन्हें तीन-सौ रुपये मनीऑर्डर किये थे, ओर इससे अपना खर्च चलाने की गुजारिश की थी! ये झंझटें, ये हालात और यह गुजारिश उसी
मनीऑर्डर फार्म की पावती पर अंकित थी जिसे एक ही साँस में पढ़ते हुए उनका दम और साँस फूलने लगे थे, लेकिन अंतिम पंक्ति पढ़ते ही यह फूलना अचानक पिचक गया, जैसे
किसी ने तनाव के गुब्बारे में खुशी की पिन चुभो दी हो। वह आखिरी पंक्ति उनके सबसे छोटे भाई आशुतोष, जिसे वे और उनके परिवार वाले प्यार और अभ्यास से 'आसू' कहते
थे, के बारे में थी कि लगभग तीन साल से राज रोग टी.बी. से लड़ते हुए अंततः उसने करीब-करीब उस पर विजय प्राप्त कर ली थी और अपने मामा के यहाँ से वापस आ गया था।
यह पहला मौका था जब उन्होंने अपने परिवार से जुड़े किसी मसले पर खुशी महसूस और जाहिर की थी और उन्हीं तीन सौ रुपये में से पचास रुपये मिठाई जैसे गैर महत्वपूर्ण
मद में खर्च किये थे। साधारण कोई मसला होता तो ये पचास रुपये वे अपने एक रंगीन मिजाज मित्र सोमेश शुक्ला से गठजोड़ में खर्च करते ताकि साझे में किसी पव्वे या
अद्धे का इंतजाम हो जाए। शराब वे किसी लत या ऐयाशी के लिए नहीं पीते थे, बल्कि एक-एक घूँट पर उन्हें महसूस होता था जैसे समय और संदर्भ की मार से कुंद होते हुए
दिमाग के न्यूरॉन को वे फिर से रि-चार्ज कर रहे हैं। उस बैठकी में जब उनके भी चालीस-पचास रुपये लगे हों और सोमेश दो-चार पेग के बाद विश्वविद्यालय की किसी लड़की
सिनेमा के किसी दृश्य या अपने परिवार की कोई बात यदि छेड़ दे तो उन्हें अपना पैसा डूबता नजर आने लगता। उस सक्रिय न्यूरॉन का उपयोग वे इतिहास की
गुत्थियों-प्रवृत्तियों के विश्लेषण, वर्गीय चरित्र या साहित्य के समाजशास्त्र को सुलझाने में करना चाहते थे। ऐसा नहीं हो पाने पर उनका मूड बिगड़ जाता था और
चूँकि वे हाथापाई में सोमेश से तो क्या, किसी से नहीं जीत सकते थे, इसलिए जोर-जोर से चिल्लानेनुमा बोलने लगते थे। उस चिल्लाहटभरी बोली और उनके मुँह से निकलते
झागों का आशय था कि उनकी समूची पीढ़ी इन्हीं तुच्छ और घटिया चीजों में बर्बाद हो गयी है। उनके सामने ही समूची पीढ़ी लघु-मानवों की पीढ़ी में तब्दील हो गयी है,
यही पीढ़ी थोड़े दिनों में उस महान, घटिया मध्यवर्ग में शामिल हो जाएगी, अपने बॉस की चापलूसी करने वाला, बीवियों के दहेज न लेकर आने पर मारने-पीटने वाला, अपने
बच्चों को दुनियाभर की चालाकियाँ और घटियापन सिखाने वाला, भगत सिंह के पड़ोसियों के घर पैदा होने का स्वप्न देखने वाला, गंजा, तुंदियल, मक्कार, चापलूस, ठग,
अश्लील महान मध्यवर्ग। सोमेश शुक्ला उस वक्त उन्हें इस लंपट और ऐयाश मध्यवर्ग का सबसे शातिर प्रतिनिधि लगता, और वे दुबारा उसके साथ न बैठने की कसम खाते हुए उठ
जाते। लेकिन यह कसम अगले दो-चार दिनों में ही टूट जाती, जब सोमेश उन्हें अपने पैसों से पीने का ऑफर देते। उस दिन जब उनका पैसा न लगा हो, वे थोड़े ही देर में
दो-चार पेग के बाद सोमेश की बातों में तल्लीनता से शामिल हो जाते, तालियाँ बजाते और लगभग किलकारियाँ मारते हुए क्लास या हॉस्टल के आस-पास की लड़कियों के बारे
में हो रही बातचीत में शामिल हो जाते। सोमेश अकसर ऐसे ही किसी प्वाइंट की तलाश में रहता और उनकी इन हरकतों की, उनके दोहरे चरित्र या दोहरे मानदंडों की चर्चा
करता तो बजाय खीझने या शरमाने के जीतेंद्र गुप्ता दाँत निपोर देते, 'अरे मैं भी इनसान ही हूँ भाई। अब क्या मेरी जान ही लोगे।'
ऐसे अवसर पर सोमेश उनकी जान ले ही लेता अगर अपनी बातचीत के उसी दायरे और तरीके में जीतेंद्र के ही क्लास में पढ़ने वाली रीतू का नाम शामिल कर लेता। इस नाम के
आते ही जीतेंद्र गुप्ता गमगीन हो जाते, परेशान हो जाते, उनके चेहरे पर मुर्दनी छा जाती और एक ठंडी आह भरी जोरदार साँस छोड़ते हुए उठ खड़े होते। अकसर ऐसे अवसरों
पर उनका नशा हिरण हो जाता, और वह रात वे वाकई जानलेवा आहों ओर बेचैन करवटों से काटते थे।
यह आह और बेचैनी उनके लिए काफी मायने रखती थी और इसका इस्तेमाल वे बहुत सेाच-समझ कर करते थे। उनका मानना था कि हरेक छोटी और तुच्छ चीज में इस आह और बेचैनी को
शामिल कर लेने से इसका प्रभाव कम और इसकी धार कुंद हो जाती है। खासकर, घर-परिवार जैसे मसलों में तो इस पर वे सौ प्रतिशत तक सहमत थे। घर-परिवार उनके लिए हमेशा
अवांतर प्रसंग होता जिसकी चर्चा चलने पर असहज हो उठते थे। परिवार में उनकी यह असहजता बिल्कुल शुरू से ही शुरू हो जाती थी, मतलब अपने दादाजी से। आमतौर पर
दादा-पोते के बीच के सहज और दोस्ताना रिश्ते के विपरीत अपने दादा से उनका पैदाइशी विरोध था। वे इस बात पर तय थे कि उनके पिता ओर चचाओं को उन्होंने भेड़-बकरी-गधे
की तरह हाँका, पाला और दुत्कारा। वे कुछ और बन-बिगड़ सकते थे, कुछ और सोच-समझ सकते थे लेकिन वे सिर्फ पिताजी, जी हाँ पिताजी होकर रह गये। बचपन से ही उन्होंने
अपने पिताजी को अपने दादाजी के सामने कमजोर पाया था। इसलिए पिताजी से उन्हें अजीब किस्म की वितृष्णा थी। चाचाओं को तौ खैर वे गिनते ही नहीं थे सिवा अपने छोटे
चाचा के जिन्होंने बी.ए. के बाद बोरा, रस्सी, काँटी-कबाड़ के अपने पुश्तैनी व्यवसाय से पीछा छुड़ाया और एक सुबह बजाय रस्सी की दुकान पर बैठने के अपने गले में
माड़ लगी टाइनुमा फंदा बाँधे शान से कचहरी चल दिये। उनके इस कदम से बाकी के भाई ठगा-सा महसूस करते थे, क्योंकि उन्होंने यह काम पिताजी से पूछे बगैर और सबसे
छुपकर किया था। लेकिन पिताजी ने बगैर इस पर हंगामा-हल्ला मचाये, इसे इस तरह स्वीकार कर लिया जैसे यह सब उनकी जानकारी में और उनकी मर्जी से हुआ है। लेकिन इसके
बाद उन्होंने अपनी तीनों दुकानों का अघोषित बँटवारा-सा कर दिया। बड़े भाई को बोरे की दुकान, मँझले यानी जीतेंद्र गुप्ता के पिताजी को कील-काँटी और वकील चाचा को
रस्सी की दुकान दे दी। कचहरी की व्यस्तता के कारण वे हालाँकि उस पर रोज नहीं बैठ सकते थे, इसलिए दादाजी स्वयं उस भार को वहन करने को तत्पर हो गये।
जीतेंद्र गुप्ता को लगता था कि रस्सी का व्यवसाय करने के कारण ही उनके दादाजी ऐसी मायावी अदृश्य रस्सी तैयार कर सके थे कि उनके पिताजी और चाचाजी चाह कर भी उससे
निकल नहीं सके। चूँकि उनके पिताजी कील-काँटी की दुकान सँभालते थे, इसलिए उनको अपने, अपनी माताजी और भाई के शरीर में हमेशा कील-काँटा-सा चुभता महसूस होता था।
उनकी माताजी तो खैर इस दर्द को सहते-सहते इसकी आदी और अभ्यस्त हो चली थीं। इसलिए उनका तो कुछ नहीं किया जा सकता था, लेकिन अपनी कीलों को निकालने में उन्होंने
पहला और मजबूत कदम यह उठाया था कि परंपरा के अनुसार अपने नाम के बाद पिताजी के नाम लिखने की आवश्यकता को निकाल फेंका। मतलब जहाँ उनके पिताजी श्री निकुंज गुप्त
अपने पूरे नाम से निकुंज सोहनलाल गुप्त थे और इस तर्ज पर जबकि उन्हें जीतेंद्र निकुंज गुप्त होना था, वे सिर्फ जीतेंद्र गुप्त हो गये। और उसी दिन से वे इस पर ही
तय हो गये कि एक दिन वाकई वे निकुंज मतलब 'घर-हीन' हो जाएँगे। अपने अंदर के घर को निकालने के लिए मैट्रिक तक आते-आते वे देर तक घर से बाहर रहने लगे। इसी दौरान
उन्होंने परंपरा को तोड़ने के प्रबल आग्रह से वशीभूत होकर सिगरेट पहली बार सुलगायी। फड़फड़ाते होंठों के बीच फँसी सिगरेट और काँपते हाथों में जलती तीली का जिस
वक्त मिलन उनकी क्रांतिकारी चेतना ने करवाया और एक जोरदार कश के बाद मुँह से ढेर सारा धुआँ निकला, उनके अंदर जैसे किसी मुक्ति की आकांक्षा ने अपना आकार ग्रहण कर
लिया। हालाँकि आदत न होने पर और कश जोर से खींचने पर उन्हें जोरों से खाँसी उठ गयी ओर उनका चेहरा लाल हो गया, लेकिन मुँह से निकलते धुएँ का अनंत वायुमंडल में
फैल जाने का बिंब और दृश्य उन्हें इतना भाया कि उन्होंने किसी कीमत पर सिगरेट को खुद से अलग न करने का अघोषित संकल्प-सा ले लिया। सिगरेट उन्हें वाकई जादुई और
करामाती लगती। वे इसे सभ्यता के सबसे बड़े आविष्कारों में से मानते थे। कहाँ तंबाकू लैटिन अमेरिका की पैदाइश, कहाँ कागज चीन की खोज, कहाँ इसमें प्रयुक्त फिल्टर
भारत की कपास का उत्पादन। कौन होगा आखिर वह पहला जीनियस जिसने उस तंबाकू के पौधे, कागज और कपास के अंतःसंबंधों पर पहली बार इतनी गहराई से विचार करके सिगरेट जैसी
जादुई चीज का आविष्कार कर लिया। रात के अँधेरे में सिगरेट की सुलगती काया उन्हें एकदम से कविता के मायालोक में पहुँचा देती। वे खुद को भी सिगरेट ही मानते थे,
जिसका कलेजा अनंतकाल से सुलग रहा था। हालाँकि यदि वे ऐसा मानते थे तो उन्हें इसका हक था, क्योंकि उनकी दुबली-पतली काया को आसानी से कोई हास्य कवि सिगरेट की उपमा
दे सकता था लेकिन जीतेंद्र गुप्ता हास्य-व्यंग्य से कोसों दूर थे, इतने दिनों बाद जो भाव या रस उनके अंदर बच गया था वह था क्रोध, गुस्सा या हताशा। उन्हें अपने
आस-पास घट रही तमाम चीजों पर क्रोध था। उन्हें अपने आस-पास के तमाम लोगों पर बेतरह गुस्सा आता था और चूँकि वे इन चीजों और इन लोगों का कुछ कर नहीं सकते थे इसलिए
इनमें घोर हताशा थी। वैसे वे अपने अंदर प्रेम या श्रृंगार को भी उपस्थित मानते थे, जिसका प्रमाण रीतू के साथ उनके प्रसंग को लेकर मिलता था। दरअसल इस प्रसंग का
संबंध उनके एक पुराने स्वप्न से था। इसे स्वप्न-दोष न मानकर स्वप्न-विचार माना जाए। उनके अनुसार जब वे किशोरावस्था में थे तो एक रात उन्होंने स्वप्न देखा कि वे
एक अनजाने-अचीन्हे प्रदेश में पहुँच गये हैं। वहाँ पहाड़ी पर कोई लड़की जिसका चेहरा एकदम अस्पष्ट और धुँधला-सा है, उन्हें आवाज देकर बुला रही है। उस लड़की ने
हाथ में एक किताब पकड़ रखी है और उसी किताब वाले हाथ को हिलाकर उन्हें बुला रही है। जब तक वे उस लड़की को पहचान पाते, या उस तक पहुँच पाते सपना टूट चुका था।
चूँकि वे उस लड़की तक पहुँच नहीं पाये थे, इसलिए यह स्वप्न-दोष न होकर स्वप्न-विचार के दायरे में आया। जीतेंद्र गुप्ता के अनुसार वे इस सपने को बार-बार देखने
लगे, और अब तक देखते थे। उनके इस बार-बार वाले मामले पर हर किसी को संदेह था, लेकिन उन्होंने इतनी बार इसे लोगों को बताया था कि विश्वविद्यालय में हर कोई उनके
स्वप्न-विचार पर एक बार विचार कर चुका था। इसी विचार प्रक्रिया में सोमेश शुक्ला समेत कुछ छात्रों की राय बनी और उन लोगों ने जीतेंद्र की क्लास में ही पढ़ने
वाली एक अत्यंत सीधी-सादी और साधारण दिखने वाली लड़की 'रीतू' के हाथ में एक किताब थमा, उसे विश्वविद्यालय की एक पहाड़ी पर खड़ा कर दिया और उससे जीतेंद्र को आवाज
लगाने को कहा।
पहाड़ी के नीचे सिगरेट फूँक रहे जीतेंद्र के सीने में उस आवाज और दृश्य ने गजब का आघात किया और लोगों के लाख मनाने-समझाने के बावजूद वे इस बात पर तय हो गए कि
उन्होंने स्वप्न में बिल्कुल ऐसी ही आवाज सुनी थी, और उस लड़की का आकार-प्रकार बिल्कुल ऐसा ही था। लोगों के मनाने पर उल्टे वे उन लोगों को ही मनवा दिए कि वह
अनजाना-अनचाहा प्रदेश यही विश्वविद्यालय का परिसर है, जहाँ उनके आने की कोई गुंजाइश नहीं थी, क्योंकि बी.ए. तक आते-आते वे अपने परिवार से और परिवार उनसे बुरी
तरह ऊब चुका था और यह जानकर कि उनके चाचा का वकालत पढ़ने जैसा क्रांतिकारी कदम भी 'उस महान पितृसत्तात्मक चरित्र' उनके दादा द्वारा अपने में समाहित कर लिया गया
है, उन्होंने आगे लॉ पढ़ने से भी इनकार कर दिया। वे ऐसा कोई काम नहीं करना चाहते थे, जिससे उनके दादा को संतुष्टि या चैन मिले। पहले तो उन्होंने चाचा के प्रभाव
में लॉ पढ़ने की हामी दे दी थी, लेकिन फिर एक साल बाद पत्रकारिता पढ़ने पर अड़ गए। पत्रकारिता भी कोई पढ़ने की चीज है, यह मानने को उनके दादा और तमाम हितैषी कतई
तैयार नहीं थे, लिहाजा उनकी पढ़ाई वहीं खत्म और वे अपने दम पर पत्रकार बनने घर से भाग निकले। यह भाग निकलना उनकी दृष्टि में 'महाभिनिष्क्रमण' था। मतलब बुद्ध का
गृह-त्याग। ज्ञान और अपने होने की तलाश में वे एक शहर से दूसरे शहर एक अखबार से दूसरे अखबार भटकते रहे, जब जाकर उन्हें ज्ञान हुआ कि इस तरह की छोटी-मोटी
नौकरियाँ और संघर्ष वह नहीं बना सकता, जो वह बनना चाहते थे। उन्हें इल्म हुआ कि जिस तरह के अखबारों में उन्होंने काम किया वे लोकतंत्र के चौथे खंभे तो क्या अपने
घरों तक के मजबूत खंभे नहीं थे। ये सबकुछ सरकारी विज्ञापन कमाने, कुछ ठेका-परमिट हासिल करने, कुछ सरकारी जान-पहचान हासिल कर थाना-कचहरी मैनेज करने के कुछ बनिया
किस्म के लोगों के महान साहित्यिक-सामाजिक और सांस्कृतिक उपक्रम थे जिसमें उन्हें ईंट-गारे की तरह लगना था। लेकिन इस तमाम भागदौड़ और भटकन में उन्हें एक
महत्वपूर्ण चीज हाथ लग गयी थी। वह थी उनकी हाड़तोड़ परिश्रम करने की आदत। वे बेकार से बेकार काम में सुबह से शाम तक खट सकते थे। वे शहर के एक छोर से दूसरे छोर
तक पैदल आ-जा सकते थे, समूची किताब को कागज पर उतार लेने जैसा भगीरथ प्रयास कर सकते थे, मतलब फायदे-नुकसान की बुनियादी परिभाषाओं से इतर उनके पास करने के लिए
इतना कुछ था कि वे हमेशा व्यस्त नजर आते थे। उनका स्पष्ट मानना था कि बेकार या आराम करता दिखता आदमी समाज में हल्का माना जाने लगता है और शरीर से अपने हल्केपन
की कुंठा को वे व्यक्तित्व के भारीपन से भरने को भरकस प्रयत्नशील थे।
व्यक्तित्व में भारीपन लाने का दूसरा मौलिक तरीका था तमाम बड़े लोगों के बारे में बातचीत करते हुए उनको ऐसे संबोधित या संदर्भित करना जैसे वे आस-पास के मुहल्ले
में रहते हों, अथवा उनसे उनका जरूरी कोई पुराना संबंध रहा हो। जैसे यदि कभी साहित्य को आलोचना संबंधी कोई बातचीत चल रही हो तो वे अचानक बोल पड़ते, 'लेकिन डॉक्टर
साहब की मान्यता में एक बुनियादी पेंच ये है कि...' लोगबाग चौंककर सोचते कि ये किस डॉक्टर साहब की मान्यताओं, उनके किस बुनियादी पेंच पर वाक्शील हैं तो वे बड़े
इत्मीनान से होठों को थोड़ा तिर्यक खींचते हुए कहते, 'अरे वही डॉक्टर साहब, डॉ. शर्मा, हिंदी जाति और नवजागरण वाले।'
'कौन... डॉ. रामविलास शर्मा?'
'हाँ हाँ वही, उनकी ही मान्यताओं के बारे में...'
किसी दिन शाम को धरती और अपने पैरों के बीच की होड़ को विराम देते जब वे हॉस्टल आते और यूँ ही किसी के कंधे पर हाथ रखकर एक गहरी साँस छोड़ते कह उठते, 'अरे यार,
ये अपने भट्ट साहब भी कमाल करते हैं। उनको थोड़ा तो ध्यान रखना चाहिए था कि उनके बोलने को लोग किन अर्थों में लेंगे।'
सामनेवाला अचकचाकर पूछेगा, 'कौन भट्ट साब! क्या कह दिया उन्होंने आपको?'
'अरे यार अपने महेश भट्ट भाई साहब। मुझसे क्या कहेंगे आज अखबार में उनका वक्तव्य नहीं पढ़ा तुमने, कैसे अश्लील फिल्मों के समर्थन में बयान दे रहे थे।' सामनेवाला
इस अश्लील बर्ताव से तिलमिला कर रह जाता। खासकर सोमेश शुक्ला तो हत्थे से उखड़ जाता, 'चूतिया कहीं के! बोल तो ऐसे रहे हो, जैसे डॉक्टर साहब तुम्हारे चाचा हों,
और महेश भट्ट तुम्हारे भाई के ससुर।'
ऐसी प्रतिक्रियाओं से जीतेंद्र गुप्त कतई नहीं घबराते थे और न ही उसका बुरा मानते थे। बल्कि इत्मीनान और आराम से शब्दों को चुभलाते हुए प्रवचनित हो जाते, 'अरे
यार! ठीक है कि आज ये बड़े लोग हो गए हैं, या माने जाते हैं लेकिन इन तमाम लोगों में एक ही किस्म की निष्ठा है, समाज को बेहतर बनाने की निष्ठा। वही निष्ठा हममें
भी है, तो संबंध तो बिरादराना ही हुआ।'
उन तमाम लोगों से बिरादराना संबंध महसूस करते-करते जीतेंद्र अपने आस-पास के लोगों के लिए लगातार गैर-बिरादर की तरह होते जा रहे थे। अपनी इस स्थिति और परिस्थिति
को वे अपनी विशिष्टता मानते और विशिष्ट बनाने का कोई अवसर वे चूकना नहीं चाहते थे। अपनी ही दृष्टि में अपनी छवि को वे इतना महत्वपूर्ण मानते थे कि अपने मित्रों,
सहपाठियों और शिक्षकों को अन्य पुरुष में संबोधित करते थे, मसलन, 'हमारे आस-पास के लोगों को हो क्या गया है विश्व में इतनी बड़ी-बड़ी घटनाएँ घट रही हैं और किसी
के चेहरे पर चिंता की कोई लकीर नहीं दिखाई देती। हमारे देखते-देखते महान सोवियत संघ बिखर गया, अमेरिका समूची दुनिया का एकमात्र दादा बन गया, समूची दुनिया में
'लोकतंत्र' का एकमात्र पैरोकार बनने का दावा करते हुए उसने हमारी आँखों के सामने ही इराक जैसे संप्रभु राष्ट्र-राज्य को मटियामेट कर दिया और हम निश्चिंत बैठे
रहे।' चूँकि ये तमाम बातें वे किसी से सीधे नहीं कह सकते थे, इसलिए प्रत्येक महान आदमी की तरह उन्होंने भी डायरी लिखने का मार्ग चुना था। उन्हें अपने साँस लेने
से ज्यादा इस बात पर यकीन था कि वे महान बनने के लिए ही अवतरित हुए हैं, और हरेक महान आदमी की तरह उनकी यह डायरी भी एक दिन छपकर अँधेरे में भटकते लोगों के लिए
टार्च का काम करेगी। चूँकि यह डायरी भविष्य की छपी हुई किताब थी, इसलिए डायरी लिखते समय किसी भी साथी का नाम उसमें भूले से भी न आने पाए, इस पर वे पूरी तरह चौकस
रहते थे। अकसर वे उनके बारे में टिप्पणी करते समय उनकी साधारण बातों का उल्लेख करते जैसे, 'आज मैंने देखा मेरे तमाम परिचित किस तरह अपनी क्लास की लड़कियों के
बारे में ऊल-जलूल टिप्पणियाँ कर रहे थे, जबकि गोधरा में इतना बड़ा नरसंहार हुआ है और लोगों के चेहरों पर कोई शिकन तक नहीं। कितना हृदयहीन होता जा रहा है हमारा
समाज।' अपनी इस तरह की टिप्पणियों में वे अपने अध्यापकों को भी शामिल करने से नहीं चूकते थे, 'आज मैं अपने एक अध्यापक से बातचीत कर रहा था। समूची बातचीत में वे
कितने दयनीय और बेचारे लग रहे थे। शिक्षक की जिम्मेवारी समाज और राष्ट्र को ठीक राह पर ले चलने की होती है, उनसे बातचीत करके तो लगा, जैसे यही ठीक राह पर आ जाएँ
तो बहुत है। डॉक्टर साहब लिखते-लिखते मर गए हिंदी प्रदेश के वैचारिक संकट पर। जिन लोगों के कारण यह संकट है उनके कानों पर जूँ तक नहीं रेंगती।'
डायरी लिखते-लिखते उनके चेहरे पर अजीब-सा तेज छा जाता, रात्रि के अंतिम प्रहर में अकसर उनका यह साहसपूर्ण कारनामा अंजाम होता, और उसके बाद अगले दिन सुबह तमाम
लोगों को ऐसे बेचारगी और तुच्छ भाव से देखते - मानो कह रहे हों - अरे, ओ कीड़े-मकोड़ों की तरह रेंगनेवालो, तुम्हें शायद एहसास नहीं कि तुम्हारे ही साथ, तुम जैसा
ही दिखनेवाला, तुमसे हँस-बोल लेनेवाला यह शख्स क्या चीज है, आने वाले वर्षों में तुम-तमाम लोग इस बात का हवाला देते हुए फिरोगे कि जीतेंद्र गुप्ता तो हमारे साथ
पढ़ते थे, हमारे सहपाठी थे और जो हालत है तुम लोगों की, शायद ही तुम्हारी बात पर कोई यकीन करेगा। उन्हें कहीं भी अपने आपको छात्र बताने की ग्लानि होती, इसलिए
अपने परिचय तथा पते को ये अपने विभाग से संबद्ध बताते थे। इसका खुलासा तो एक दिन तब हुआ जब एक प्रकाशक ने अपना सूची-पत्रक इनके नाम से भेजते हुए इनके पते में
डॉ. जीतेंद्र गुप्ता, अध्यक्ष, साहित्य विभाग लिख दिया था। साधारण डाक से आयी यह पुस्तिका सोमेश शुक्ला के हाथों में पड़ गयी। सोमेश ने एकाध बार उनकी डायरी भी
पढ़ ली थी, 'क्यों बे, तुम विभागाध्यक्ष हो साले और तुम डॉ. कब हो गए थे?' उस पता लिखे लिफाफे को लहराते हुए सोमेश ने जब भरी कैंटीन में उनसे यह सवाल पूछा तो
जैसे उनके चेहरे का रंग उड़ गया, जैसे रँगे सियार पर बारिश की धार पड़ गयी हो, और सामने जंगल का राजा खड़ा हो। रिरियाते, गिड़गिड़ाते, बड़बड़ाते, हकलाते वे
मात्र इतना ही बता पाए कि यह तो उस प्रकाशक की गलती है, जिसने ऐसा लिखकर भेजा है। 'तो साले किसी प्रकाशक ने मुझे या किसी और लड़के को क्यों नहीं भेजा, डॉ. सोमेश
शुक्ला, विभागाध्यक्ष लिख करके?'
समूची कैंटीन में हँसी-ठहाकों का जबर्दस्त शोर था, सोमेश शुक्ला, गामा पहलवान की तरह उस लिफाफे को अपनी मुठ्ठियों में भींचे था जैसे वह जीतेंद्र गुप्ता की गर्दन
हो और वाकई जैसे उनकी गर्दन दबी हो, जीतेंद्र गुप्ता बोलते हुए कराह रहे थे। सारे लोग ठहाका मारकर हँस रहे थे। जीतेंद्र गुप्ता के कानों में सिर्फ साँय-साँय का
शोर सुनाई दे रहा था। कैंटीन की फर्श पक्की थी, और मार्क्सवादी होने के कारण वे यह प्रार्थना भी नहीं कर पा रहे थे कि यह फट जाए और वे उसमें समा जाएँ। सबसे बुरा
उन्हें यह देखकर लग रहा था कि उन हँसनेवाले लड़के-लड़कियों में सबसे तेज ठहाका 'रीतू' का था, उसी रीतू का जो उनके स्वप्न-विचार के दायरे की धुरी थी, उनकी बोझिल
साँसों का बायस थी, अपने कमजोर कंधों को लगातार मजबूत मानने की उनकी सुखद कल्पना थी जिस पर वह अपना सिर रख सकें, जिसके लिए न जाने उन्होंने कितनी रातें बेचैन
करवटों में गुजारी थीं और डायरी के न जाने कितने पन्ने जाया किए थे कि प्यार आखिर होता क्या है। वही लड़की बिना उनकी संवेदनाओं और भावनाओं की परवाह किए सरेआम
उनका मजाक उड़ाते हुए रकीबों के सुर में सुर मिलाते हुए बेहताशा हँस रही थी - डॉ. जीतेंद्र गुप्ता, विभागाध्यक्ष - हा, हा, हा।
उस रात सोते हुए उन्होंने अपना फिर वही पुराना सपना देखा। लड़की एक पहाड़ी पर खड़ी अपने किताब वाले हाथों को हिलाकर उनका नाम पुराकते हुए उन्हें आवाज लगा रही
थी। वे बेतहाशा दौड़ते हुए पहाड़ी पर चढ़ने की कोशिश कर रहे हैं, तभी लड़की के हाथ में किताब की जगह पत्थर आ जाता है, और वह निशाना साधकर जीतेंद्र के सिर पर दे
मारती है। सिर से खून बहने लगता है, फिर बड़े-बड़े पत्थर पहाड़ी से लुढ़कने लगते हैं! वे चीखते हुए वापस भागते हैं। उनकी नींद खुल जाती है, वे पसीने से तर-ब-तर
हो रहे थे। उनका रूम पार्टनर अमित उन्हें आश्चर्य से देखता हुआ कह रहा था, 'क्या हो गया था तुम्हें? नींद में चीख क्यों रहे थे? किसी डॉक्टर को दिखाओ।'
जीतेंद्र गुप्ता ने निहायत लाचारगी और बेचारगी के साथ उसे देखा - किस डॉक्टर को? वे जो बेचते थे दवा-ए-दिल/ वे दुकान अपनी बढ़ा गए।
उन्हीं दिनों जीतेंद्र गुप्ता ने अपनी डायरी में लिखा - 'मेरे आस-पास की तमाम लड़कियाँ मूर्ख हैं। दरअसल यह हमारे समय की सबसे बड़ी विडंबना है कि वध के लिए ले
जायी जाती रही हिरणियों को वधिकों से प्रेम हो गया है। वह उनको बताकर उनकी जान लेगा और वे हँसते-हँसते दे देंगी। बिल्कुल उस उपन्यास के नायक की तरह जिसकी नायिका
उसे उपेक्षित करती है, और वह बेचैन हो जाता है, वह उस राज्य का देव-पुरुष था, और रानी समेत सारी खूबसूरत स्त्रियाँ उस पर मरती थीं। उपेक्षा करने वाली न तो कुलीन
थी और न ही खूबसूरत। इस पर उसकी शर्तें भी अजीब। पादरी की पत्नी के सिर के जूड़े में बँधा कंघा, जो सिर काटकर ही हासिल किया जा सकता है। उपेक्षा के दंश और वासना
की आग में जलता हुआ नायक उस पादरी की पत्नी के पास जाता है। उस राज्य की हजारों स्त्रियों की तरह वह भी उस पर मरती थी, वह उसे छू ले, इसी में उसकी जिंदगी की
सार्थकता थी। नायक बेहिचक उसे कहता है कि वह उसकी जिंदगी लेने आया है, पादरी की पत्नी निहायत मुग्धता और समर्पण से अपनी आँखें मूँद लेती है - मेरी जान है ही
तुम्हारी, जब चाहे ले लो। नायक बिना झिझके उसकी गर्दन उतार लेता है...
'हमारे समय की तमाम लड़कियाँ उसी राज्य में रहने वाली उन मूर्ख युवतियों की तरह हैं, जो किसी की अतृप्त वासनाओं, कुंठाओं के लिए अपनी जान दे दें और उन्हें मरते
वक्त भी इसी बात का गुमान हो कि उन्होंने जान तो प्रेम जैसे मूल्य के लिए दी थी।'
डायरी लिखते हुए एक पल के लिए उन्हें लगा कि भविष्य में कहीं वे स्त्री विरोधी न मान लिए जाएँ, लेकिन वे चाहकर भी फिलहाल स्त्रियों, लड़कियों के बारे में कोई
हौसला अफजाई करता वाक्य नहीं लिख सकते थे, सोच भी नहीं सकते थे।
इस घटना के बाद जीतेंद्र गुप्ता ने डाकिये को सख्त ताकीद कर दी कि उनकी डाक सीधे उन्हीं को दी जाए, और यदि वह चाहे तो इसके एवज में दो-चार रुपया ले लिया करे।
कुल मिलाकर जीतेंद्र गुप्ता परेशान थे, बहुत सोचने पर भी उन्हें अपना कसूर नहीं दिखाई पड़ता था। क्या चाहा था उन्होंने दुनिया से? क्या वाकई उनके समय में एक
आदमी अपनी पूरी शिद्दत से स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व के मूल्य को जी नहीं सकता? यदि उन्हें अपने आसपास के लोग घटिया और क्षुद्र दिखाई देते हैं, तो वे क्यों
मजबूर हों किसी से दोस्ती करने के लिए? क्या दुनिया में जिनके दोस्त नहीं होते, उन्हें जीने का अधिकार नहीं है? क्या उन्हें आस-पास की चीजों, अपने संदर्भों पर
टिप्पणी का कोई अधिकार नहीं?
उन्हें किसी से शिकायत नहीं थी, शिकायत थी तो सिर्फ 'रीतू' से। कहाँ तो वह खुद को 'सार्त्र' और उसे 'सीमोन' के रूप में देखना चाहते थे, और कहाँ यह लड़की मूर्खों
की तरह मूर्खों की जमात में शामिल होकर उन्हें ही मूर्ख समझ रही थी। चलो, कोई बात नहीं, न हो वह सीमोन उन्हें इससे क्या? नियति ने उसे इस बात का मौका दिया था कि
वह इतिहास में शामिल हो सके, अब यदि वह तय ही है कि उसका काम इतिहास में शामिल होना नहीं, बल्कि इतिहास के सफे फाड़ना है तो इसमें जीतेंद्र गुप्ता क्या कर सकते
हैं?
लेकिन क्या कर सकते हैं? इस बात पर जिसके दिल से गहरी उच्छ्वास निकले, वह सीना जीतेंद्र गुप्ता का नहीं हो सकता। जीतेंद्र गुप्ता का मतलब क्या नहीं हो सकता था।
पृथ्वी और आकाश के बीच जितनी भी भूमि थी, वह उनकी संभावनाओं की थी। लेकिन यह कैसी लड़की है जो उनकी संभावनाओं-संवेदनाओं पर उत्का की तरह गिरी जा रही थी। अब गिरी
जा रही है तो गिरे। जीतेंद्र गुप्ता का काम सिर्फ गिरते हुए को उठाना नहीं रह गया है, उन्हें खुद भी ऊपर उठना है। इतना ऊपर कि समकालीन विमर्श का कोई भी अध्याय
बिना उनकी चर्चा के पूरा न हो सके। लेकिन लाख कोशिशों के बावजूद वे अपनी चर्चा से रीतू को खारिज नहीं कर पा रहे थे। उनका तमाम ज्ञान, उनकी तमाम मेधा, उनका सारा
उच्छ्वास, उनकी सारी चिंताएँ, उनका सारा संघर्ष इस साधारण और निहायत अनाकर्षक उपस्थिति पर तुला जा रहा था। उन्होंने अपनी तमाम स्थिति को अपनी ही नजरों में हल्का
बनने की कोशिश की, उस दिन सोमेश के साथ बैठते हुए यूँ ही अपने आप से बड़बड़ाने लगे, 'आखिर कोई क्यों प्यार करेगा मुझसे? क्या भविष्य है मेरा? इस कठिन और खतरनाक
समय में कोई भी लड़की अपना भविष्य चाहेगी, अपना कैरियर चाहेगी...?'
'ठीक कहते हो यार, कोई मूर्ख ही होगी जो तुमसे प्यार करेगी।' सोमेश चुस्कियाँ लेते हुए बोल उठा। 'नहीं यार, वह बात नहीं है,' जीतेंद्र गुप्ता जैसे अचानक होश में
आए, जैसे साँप की पूँछ पर किसी ने पैर रख दिया हो। 'अब तुम्हीं बताओ हमारे देखते-देखते अमेरिका ने किस तरह इराक को नेस्तनाबूद कर दिया। एक स्वतंत्र-स्वायत्त
राष्ट्रराज्य का मुखिया सद्दाम हुसैन किस तरह चूहों की तरह गुफाओं में छुपा था। अमेरीकी सैनिक एक राष्ट्र-राज्य के राष्ट्रपति के दाँत गिन रहे थे। ऐसे कठोर समय
में...'
'चुप साले।' सोमेश शुक्ला अचानक बिफर उठा! एक साधारण-सी दो कौड़ी की लड़की के लिए तुम अमेरिका-इराक का हवाला दे रहे हो? हिप्पोक्रेट कहीं के... साफ-साफ मानते
क्यों नहीं कि यह सब तुम्हारे बस का नहीं...'
जीतेंद्र गुप्ता के हाथों में न जाने कहाँ से इतनी ताकत आ गयी थी। उन्होंने हटकर सोमेश का गिरेबान पकड़ लिया, 'खबरदार! उस लड़की के बारे में एक शब्द भी बोला तो।
वो ऐसी-वैसी लड़की नहीं है... तुम सब अमेरिका हो सकते हो साले... खतरनाक पूँजीवादी, हिंसक, फासिस्ट।' जीतेंद्र गुप्ता गला फाड़कर चिल्ला रहे थे। उनके मुँह से
फेन निकल रहा था। उनकी साँसें उखड़ने लगी थीं। उन्होंने जोर से सोमेश का गिरेबान पकड़ रखा था। उनकी चिल्लाहट और गलाफाड़ चीख से हॉस्टल के कई सारे लड़के जमा हो
गए थे। सबने देखा जीतेंद्र गुप्ता के हाथों में सोमेश का गिरेबान थ। सोमेश जैसे जड़ हो गया था। वह इस हॉस्टल का दादानुमा लड़का था। कोई भी इस तरह सरेआम उसका
कॉलर पकड़ने की हिम्मत नहीं कर सकता था। फिर यह तो जीतेंद्र गुप्ता थे। उसके मुकाबले भुनगे के बराबर। लेकिकन इतने सारे लोगों के बीच अपने पकड़े हुए गिरेबान ने
उसे जैसे काठ का कर दिया था। उसने चुपचाप अपना कॉलर छुड़ाया और उठकर चला गया। उसके जाते हुए भी जीतेंद्र गुप्ता की आवाज और चिल्लाहट बदस्तूर जारी थी, 'साले,
समझते क्या हो अपने आपको? शरीर में ताकत होने का यह मतलब नहीं कि तुम हर किसी को अपना उपनिवेश समझो।'
सोमेश शुक्ला खामोशी से अपने कमरे में चला गया। उसका इस तरह खामोश रहना और बिना किसी प्रतिक्रिया के चले जाना सबको खटक रहा था। लोग भी चुपचाप एक-एक कर वहाँ से
खिसक गए।
दूसरे दिन कैंपस में सब जीतेंद्र गुप्ता को विचित्र नजरों से देख रहे थे। ऐसी ही नजरें सोमेश की भी पीछा कर रही थीं। कैंटीन में लोग एक-दूसरे से यही चर्चा कर
रहे थे। कुछ लोग जीतेंद्र गुप्ता की दिलेरी की दाद दे रहे थे, 'कुछ भी कहो भाई, आदमी है जिगरवाला। लड़की पर कही गयी बात बर्दाश्त नहीं हो पायी।'
बातें उड़ते-उड़ते रीतू के कानों में भी पड़ रही थीं। उसे भी यह सब बड़ा अजीब लग रहा था। जीतेंद्र से तो कुछ पूछने का सवाल ही नहीं था, लिहाजा उसने सोमेश से ही
पूछा, 'क्या हुआ था सोमेश कल रात को। तुम्हारा झगड़ा हुआ था क्या किसी से?'
सोमेश ने कोई जवाब नहीं दिया, लेकिन उसकी खामोशी देखकर आने वाले बवंडर का अंदाजा लगाया जा सकता था।
जीतेंद्र गुप्ता आज उससे कटे-कटे चल रहे थे। उन्हें भी लग रहा था कहीं-न-कहीं कुछ गड़बड़ है जरूर। वे विश्वविद्यालय के प्रशासनिक अधिकारियों से मिलकर अपनी
स्थिति स्पष्ट करना चाहते थे ताकि किसी अयाचित-अप्रिय स्थिति में उनकी स्थिति मजबूत रहे। वे एक एप्लीकेशन लेकर रजिस्ट्रार के पास गए जिसमें लिखा था कि वे सभ्य,
होनहार प्रतिभाशाली छात्र हैं। विश्वविद्यालय में ऐसे छात्रों को विशेष सुविधा और सुरक्षा मुहैया करानी चाहिए और सोमेश शुक्ला जैसे छात्रों पर कड़ी कार्रवाई
करनी चाहिए। रजिस्ट्रार बड़ी देर तक उस प्रार्थना-पत्र को घूरते रहे, फिर अचानक ठठाकर हँस पड़े, 'हाँ भई! जरूर आपका ध्यान रखा जाएगा लेकिन पहले कुछ हो तब तो अभी
तक तो आपने ही कुछ किया है। जहाँ तक मुझे पता है, आपने ही सोमेश का कॉलर पकड़ लिया था।'
जीतेंद्र गुप्ता भय से सिहर उठे। इस प्रचंड पूँजीवादी समय में वे इस तरह के तंत्र और उसके पुर्जों को अच्छी तरह जानते थे। इन पुर्जों में धर्म, जाति, वर्ग इन
तमाम चीजों को लेकर जबर्दस्त एकता होती है, यह भी उनसे छुपा नहीं था। यह रजिस्ट्रार भी उसी ब्राह्मणवादी लंपट मध्यवर्ग का एक बड़ा कारकून था जिसके छोटे गुर्गे
सोमेश शुक्ला से आज उनकी जान पर बन आयी थी। वे कभी अपना कोई काम लेकर कभी ऐसे अधिकारियों के पास नहीं गए थे। उन तमाम लोगों के चेहरे देखकर ही उन्हें पसीना आने
लगता था। लेकिन आज। आज उन्हें जैसे रघुवीर सहाय की कविता याद आ रही थी, 'रामदास को पता था कि आज उसकी हत्या होगी।' कैसा लगा होगा रामदास को? और कैसे लिखी गयी
होगी वो कविता? लेकिन अभी कविता-कर्म पर बात करने का समय नहीं था। वे रजिस्ट्रार का पैर पकड़ने-पकड़ने को हो आए, 'सर! प्लीज। आप बात को समझने की कोशिश कीजिए।
आखिर इस विश्वविद्यालय में किसी को उसके सम्मान और गरिमा से रहने का अधिकार...'
'अधिकार की बात हमें न सिखाइए गुप्ता जी। हमें खूब अच्छी तरह पता है कि किसके क्या अधिकार हैं।' रजिस्ट्रार का चेहरा तपतपाने लगा, 'एक तो गुंडई करते हैं और ऊपर
से दलील झाड़ते हैं।'
जीतेंद्र गुप्ता कातर हो उठे, 'सर, मैं कहाँ? मैं तो आपकी शरण...'
अब रजिस्ट्रार थोड़े नरम पड़े। लेकिन एक मुस्कान उनके चेहरे पर फैल गयी। अपनी बायीं आँख को थोड़ा दबाते हुए बोले, 'वैसे वो लड़की कौन थी गुप्ता जी, जिसके लिए आप
इतना बमक रहे थे?'
कोई और समय होता तो अब तक जीतेंद्र गुप्ता बमक चुके होते। लेकिन यहाँ तो अभी उनके जीने-मरने का सवाल था। लेकिन अब और देर तक बैठे रहना उन्हें असंभव लग रहा था।
'ठीक है सर! आप थोड़ा ख्याल रखिएगा।' वे जल्दी से रजिस्ट्रार ऑफिस से बाहर आ गए। अब वे कहाँ जाएँ, यह तय नहीं कर पा रहे थे। कैंटीन जाने से अच्छा था कि क्लास
रूम की ही तरफ चला जाए। लेकिन हा हंत! क्लास के दरवाजे पर ही सोमेश खड़ा था। लेकिन अब वे रास्ता बदल भी नहीं सकते थे। भारी कदमों से चलते हुए वे क्लास रूम के
पास तक आए। वहाँ सोमेश तिरछी नजरों से उन्हें देखता हुआ नोटिस बोर्ड की तरफ देख रहा था। वहाँ कल घोषित हुए सेमिनार पेपर्स के रिजल्ट टँगे हुए थे। 'साला, यह
पर्चा यहाँ किसने लगाया है विश्वविद्यालय में किसी को तमीज नहीं है। सोमेश शुक्ला का नाम आदर से लिखने की?'
वहाँ और चार-पाँच लड़के खड़े थे। रीतू भी वहीं खड़ी थी। दो-चार लड़के नोटिस बोर्ड के पास सरक आए, 'क्या हुआ सोमेश भाई?' जीतेंद्र गुप्ता जानते थे कि यह सब
उन्हें ही सुनाकर कहा जा रहा था।
'यह कोई तरीका है, हर चोर-चिल्लर का नाम सोमेश शुक्ला से ऊपर लिखा जाए।' जीतेंद्र गुप्ता को यह भी पता था कि उन्हीं का नाम उससे ऊपर लिखा गया था। 'चोर-चिल्लर'
यह यह शब्द उनके कानों में पिघले शीशे की तरह पड़ा। तब तक सोमेश ने लपककर वह पर्चा नोटिस बोर्ड से उतार लिया और उसके टुकड़े-टुकड़े कर उसे जीतेंद्र गुप्ता के
चेहरे पर फेंक मारा। 'साला कमीना चिल्लर।'
इतने लड़कों के बीच, जिसमें रीतू भी थी, के सामने जीतेंद्र गुप्ता के लिए यह घोर शर्मनाक घटना थी। वे लगभग चीखते हुए बोले, 'यह क्या मजाक है?' लेकिन उनको महसूस
हुआ कि समूची ताकत लगाकर चिल्लाने के बावजूद उनके गले से घरघराने जैसी ही आवाज निकल पायी।
'मजाक है साले। मजाक है यह? यह मजाक लग रहा है तुमको।' सबके देखते-देखते सोमेश जीतेंद्र गुप्ता पर बुरी तरह टूट पड़ा। लात-हाथ, घूँसा, थप्पड़। जीतेंद्र गुप्ता
जमीन पर गिर पड़े। उनके चेहरे से खून निकलने लग गया था। फ्रांस की राज्य क्रांति से लेकर सोवियत क्रांति तक के समय तक में ऐसी जघन्य घटना और दादागिरी उनके जेहन
में नहीं आ रही थी। उन लड़कों से थोड़ी दूर खड़ी यह सारा तमाशा देख रहे थे कि अचानक धमाका हुआ। उन लड़कों से थोड़ी दूर खड़ी यह सारा तमाशा देख रही रीतू के शरीर
में न जाने कहाँ से इतनी फुर्ती इतनी तेजी आ गयी। वह अपनी पूरी ताकत से सोमेश का कुर्ता पकड़कर झूल गयी, 'क्यों मार रहे हो इसको? क्या बिगाड़ा है इसने तुम्हारा!
गुंडे हो तुम, दादागीरी चलती है तुम्हारी...' दनादन चलते हुए सोमेश के हाथ-पाँव जैसे ठिठक गए। वह कुछ बोल नहीं पाया। जीतेंद्र गुप्ता नीचे जमीन पर पड़े हुए थे।
रीतू बिना किसी की परवाह किए उसके चेहरे से खून पोंछ रही थी, वह रोती भी जा रही थी, 'क्या जरूरत थी, तुम्हें उन गुंडों के मुँह लगने की? क्यों झगड़ा किया था
तुमने उससे, कितनी बुरी तरह से मारा है उन्होंने तुम्हें।' चोट और दर्द से जीतेंद्र गुप्ता की आँखों के आगे अँधेरा छा गया था। वे लगभग बेहोश होने की स्थिति में
थे। उस लंबी बेहोशी में जाने से ठीक पहले उन्हें जैसे एहसास हुआ कि हरमन हेस की उस विश्व प्रसिद्ध कहानी के नायक की तरह वे एक तारे को मुग्धता से प्रेम कर रहे
हैं। और उन्हें यह विश्वास हो गया है कि अगर वे पहाड़ की चोट से उस तारे को पाने के लिए छलाँग लगा देंगे तो वे उस तक पहुँच ही जाएँगे। अचेत होने से ठीक पहले
उन्होंने अपनी बाँहों में एक चमकते-खूबसूरत तारे को महसूस किया। यह बात और है कि हरमन हेस की उस कहानी में लड़का तारे तक पहुँचने से पहले ही गिर गया था। क्योंकि
अंतिम समय में उसका भरोसा हिल गया था कि ऐसे भी क्या कहीं तारे तक पहुँचा जा सकता है?