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डर

लात्सलो ताबी


" श्रीमान जी , अगर मैं आपसे पूछूँ कि दो दूनी कितना होता है , तो आप क्या जवाब देंगे ?"

" मैं कहूँगा चार होता है, दो दूनी चार। "

" आपको इस पर पूरा विश्वास है न ?"

" एकदम। मैं इसके लिए जान की बाजी लगाने के लिए तैयार हूँ। "

" ठीक है। तब मेरा अनुरोध है कि इस बात को लिखकर मुझे दे दीजिए । "

" क्या लिखकर दे दूँ ?"

" यही कि दो दूनी चार होता है। कागज के एक टुकड़े पर लिख दीजिए कि ' मेरा खयाल है कि दो-दूनी चार होता है। ' फिर उस पर दस्तखत करके तारीख डाल दीजिए। यह लीजिए मेरी नोटबुक का पन्ना हाजिर है …"

" लेकिन तुम्हें इसकी जरूरत क्यों है ?"

" मुझे इस तरह की दिलचस्प चीजें इकट्ठा करने का शौक है। "

" तो ऐसा करना छोड़ दो। "

" आखिर क्यों ? मुझे यकीन है कि आप मेरे अनुरोध को नहीं ठुकराएँगे । "

" माफ करना , तुम्हारा अनुरोध मूर्खतापूर्ण है। लोग इस तरह की चीजें इकट्ठा नहीं करते। खैर , जो भी हो , मेरे पास यहाँ कोई चीज नहीं , जिससे मैं लिख सकूँ। "

" यह लीजिए , यह रही मेरी कलम। "

" मैं दूसरों की कलम नहीं छूता। क्या पता कोई बीमारी लग जाए। "

" तो यह पुर्जा लेने के लिए मैं शाम को आपके घर आ जाऊँगा। "

" शाम को मैं नाटक देखने जा रहा हूँ । "

" तो कल सुबह आ जाऊँ ?"

" अगर तुम सुबह के वक्त आए तो मैं धक्के मार कर निकाल दूँगा। "

" लेकिन आपको दिक्कत क्या है जब आप जान की बाजी लगाने को तैयार हैं कि दो दूनी चार होता है। यही कहा था न आपने ?"

" तब उसी से काम चलाओ। मैं लिखकर नहीं दूँगा। समझे ? क्या भरोसा एक रोज तुम इसे किसी को दिखा न दोगे। "

" दिखा भी दूँगा तो क्या हो जाएगा ? क्या आपको यकीन नहीं कि दो दूनी हमेशा चार ही होगा ?"

" इसमें मुझे जरा भी शक नहीं। "

" तब ?"

" तब क्या। देखो भाई , मैं बाल-बच्चेदार आदमी हूँ और मैंने कभी राजनीति में हिस्सा नहीं लिया। "

" अरे, इसका राजनीति से क्या लेना-देना ?"

" यह मुझे नहीं पता। मगर बच कर चलना ही बेहतर है। मैं नहीं चाहता कि कल मुझे कोई इसलिए बुरा-भला कहे कि मैंने यह बात लिखकर तुम्हें दे दी है। "

" किसी को कानों-कान खबर नहीं होगी। मैं आज रात को ही इस पुर्जे को ताले-चाभी में बंद कर दूँगा। "

" और अगर किसी ने तुम्हारे घर में सेंध लगा दी , तब ? तब तो मैं अच्छी-खासी मुसीबत में फँस जाऊँगा। "

" अगर किसी ने मेरे घर में सेंध लगा भी दी तो क्या दो दूनी चार होना बंद हो जाएगा ? "

" मेरी जान मत खाओ। मैं यह बात लिख कर तुम्हें कतई नहीं दूँगा और इससे आगे कोई बात नहीं हो सकती। "

" सुनिए , मेरे मन में एक विचार आया है । मैं भी आपको एक पुर्जे पर लिखकर दे दूँगा कि दो दूनी चार होता है। तब आप पर कोई खतरा नहीं होगा। "

" इसकी जरूरत नहीं है। हाँ , अगर तुम चाहो तो मैं यह लिख कर देने को तैयार हूँ कि इन दिनों आम तौर पर , सामान्य विश्वास के अनुसार ज्यादातर यही माना जाता है कि दो दूनी लगभग चार होता है। इससे काम चलेगा ?"

" नहीं। "

" तब चलो भागो यहाँ से। "

" ठीक है। लेकिन इतना जान लीजिए कि मैं हर जगह यही कहता फिरूँगा कि आपके अनुसार दो दूनी चार होता है। "

" कहते फिरो। मैं साफ मुकर जाऊँगा। "

 

(लात्सलो ताबी हंगरी के प्रसिद्ध व्यंग्यकार हैं। इन्होंने नाटक भी लिखे हैं।)


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