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निबंध

वैज्ञानिक सत्ता, मिथकीय सत्ता और कवि

अज्ञेय

संपादन - कन्हैयालाल नंदन


[वत्सल निधि द्वारा आयोजित लेखक शिविर (वाल्मीकि नगर) में दिये गये भाषण का संशोधित रूप]

इस बात को वैज्ञानिक भी मानता है कि किसी प्रश्न का उत्तर देने के उपक्रम से पहले प्रश्न को भी ठीक-ठीक समझने के लिए उसका इतिहास जानना उपयोगी होता है। वैज्ञानिक के ऐतिहासिकतावाद के साथ तो इस दृष्टि को जोड़ा ही जा सकता है। लेकिन बात केवल प्रश्न को ऐतिहासिक सन्दर्भ में रख देने की नहीं है। जो सवाल हम पूछ रहे हैं उस तक हम पहुँचे कैसे, इसके ऐतिहासिक परिदृश्य के सहारे ही हम ठीक-ठीक समझ सकते हैं कि हम वास्तव में पूछ क्या रहे हैं। मानव जिज्ञासा-मात्र में क्या-क्या उत्तर पहले प्रस्तावित किए जा चुके हैं और परीक्षण, प्रयोग तथा व्यवहार के बाद अधूरे या भ्रान्त पाये जा चुके हैं-अतीत में संचित अनुभवों से मिले हुए संस्कार के चौखटे में ही हमारा प्रश्न रूप लेता है। जिन भी शब्दों में वह प्रश्न प्रस्तुत किया जाता है, सभी के साथ नए अपरीक्षित अनुमान और तिरस्कृत पुरानी अवधारणाएँ जुड़ी रहती हैं। प्रश्न के तीखे आलोकित रूप के आसपास झुटपुटे का भी एक बहुत बड़ा वृत्त रहता है जिसकी उपेक्षा से हमारी जिज्ञासा के पूरे आयाम स्वयं हमारे वश में नहीं आते।

विज्ञान, पुराण और रचनाकर्म के अन्त:सम्बन्धों और अन्त:क्रियाओं के बारे में किसी भी प्रश्न पर यह बात लागू होती है। जो प्रश्न हम पूछ रहे हैं, उस प्रश्न तक हम पहुँचे कैसे? इसे समझने के प्रयत्न में ही हम अपनी जिज्ञासा के आयाम भी पहचानते चलते हैं और प्रश्न से अथवा उसके उत्तर से जुड़े हुए पारिभाषित शब्दों के पूरे आशय को ग्रहण कर सकते हैं। विज्ञान हम किसे कहते हैं (अथवा किसे अब नहीं कहते), पुराण से क्या आशय है, मिथक शब्द कहाँ से कब और क्यों आया और पुराण की चर्चा से अलग क्या मिथक की चर्चा प्रयोजनीय है? रचना अथवा सर्जना हम किसे कहते हैं और सहित्य के सन्दर्भ में रचना का क्या अर्थ है-और क्या रीति का कवि भी उसी अर्थ में रचनाकार होता है जिस अर्थ में आज के कवि अपने को रचनाकार मानते हैं? उस अर्थ में नहीं होता तो किस अर्थ में होता है?

नि:सन्देह यों परत-दर-परत ऐतिहासिक अर्थ-विश्लेषण करते चलने से हम किसी भी प्रश्न का व्यावहारिक उत्तर अपने लिए असम्भव बना ले सकते हैं। इसलिए एक सीमा बाँध लेनी होती थी, अथवा किसी विचारधारा या सम्प्रदाय का उल्लेख कर दिया जाता है : उसके अनुभव के इतिहास को ‘दिया हुआ’ अथवा ‘माना हुआ’ मानकर हम आगे बढ़ते हैं।

विज्ञान के बारे में हम यह मानकर चलते हैं कि वह शोध, अनुसन्धान और प्रयोग से जुड़ा हुआ है। लेकिन मिथक अथवा पुराण भी शोध और अनुसन्धान से, अनुमान और प्रयोग से जुड़ा हुआ हो सकता है, ऐसा मानकर हम नहीं चलते। और कोई ऐसा प्रस्ताव करता है तो चौंकते हैं। फिर उदार भाव से उसे एक प्रतिज्ञा मानकर उसका परीक्षण करने को तैयार हो सकते हैं-यद्यपि प्राय: वैसा नहीं होता।

और साहित्य-रचना? क्या उसके सन्दर्भ में भी शोध और अनुसन्धान का कोई दावा हो सकता है? उस क्षेत्र में केवल एक विशेष सन्दर्भ में यह दावा कभी-कभी किया जाता है)-कि काव्य भी ‘जानने’ का एक तरीका है; काव्य की भी एक अपनी ज्ञान-मीमांसा होती है।

हम मिथक अथवा पुराण को केन्द्र में या कि आरम्भ में रखकर आगे बढ़ें। पुराण अथवा मिथक विज्ञान से पहले है। वह इतिहास से भी पहले है। इस ‘पहले’ की अवधारणा को भी समझ लें। आज हम विज्ञान की बात करते हैं तो उसे ज़रूरी तौर पर अनुसन्धान और शोध-और शंका भाव से-जोड़ते हैं। इतिहास हिस्टरी के अर्थ में काल की और अनुक्रम की, आरम्भ और अन्त की एक स्पष्ट अवधारणा माँगता है। इसके विपरीत पुराण अथवा मिथक एक निभ्र्रान्त प्रत्यय की माँग करते हैं, शंका का निरसन करते हैं। घटनाओं को कालिक परिप्रेक्ष्य में रखना उनका प्रयोजन नहीं है। उनकी जो जिज्ञासा है और उसके जो उत्तर वे प्रस्तावित करते हैं, उनका सम्बन्ध इससे है कि काल ही कैसे बनाया शुरू हुआ।

वैज्ञानिक चिन्तन और पौराणिक अथवा मिथकीय दृष्टि दोनों को जिस प्रश्न में लाकर हम जोड़ सकते हैं वह प्रश्न यही है-कि ‘सृष्टि कैसे हुई?’ ‘क्यों’ की बात अभी छोड़ दें, ‘कैसे’ के प्रश्न को ही सामने रखें : सृष्टि कैसे हुई? हमारे आस-पास जो सब-कुछ है, हमारा परिवेश या पर्यावरण और उससे आगे का आकाश या शून्य, यह कैसे बना? दूसरे मानव, मानवेतर प्राणी और समाज, कैसे बना? (समाज से आशय क्या केवल मानव समाज है या कि मानवेतर जीवों को भी उसमें शािमल करके प्राणी-मात्र के एक समाज की अवधारणा करनी चाहिए?) समाज कैसे बना? और उसमें ‘मैं’ अर्थात् यह जिज्ञासु कौन है और कहाँ है-या कि संक्षेप में यों पूछें कि ‘मैं’ कौन हूँ?

सृष्टि कैसे हुई?
पर्यावरण कैसे बना?
समाज कैसे बना?
मैं इसमें कहाँ हूँ-मैं कौन हूँ?

ये चार बुनियादी प्रश्न हैं। सामान्य रूप से कहा जा सकता है कि मिथक अथवा पुराण इन चार प्रश्नों के उत्तर का किसी-न किसी तरह का प्रस्ताव करते हैं। और विज्ञान भी, यह नहीं कहा जा सकता कि इन चार प्रश्नों से नहीं उलझता या कि इनके उत्तर नहीं खोजना चाहता। इस समान प्रश्न-भूमि से दोनों आरम्भ करते हैं यह पहचानना ज़रूरी है। लेकिन यह पहचानना भी ज़रूरी है कि कहाँ दोनों के रास्ते अलग हो जाते हैं-रास्ते ही अलग नहीं हो जाते बल्कि जिज्ञासा भी रूपान्तरित हो जाती है और इसलिए मंजिलें भी अलग-अलग हो जाती हैं। बल्कि यह भी कह सकते हैं कि पुराण की यात्रा में एक यात्रान्त भी है क्योंकि वह एक निश्चयात्मक प्रतीति चाहता है, एक ध्रुव विश्वास जिसमें जिज्ञासा का शमन हो जाता है; दूसरी ओर विज्ञान का कोई यात्रान्त नहीं है, कोई मंजिल नहीं है बल्कि क्षितिजों का एक क्रम है। विज्ञान मूल प्रश्न की ओर लौटता नहीं क्योंकि यात्रा के दौरान प्रश्न रूपान्तरित हो चुके होते हैं। इतना ही कह सकते हैं कि इन मूल प्रश्नों की चिन्ता विज्ञान भी कभी छोड़ता नहीं है।

जिज्ञासा के इतिहास को ध्यान में रखते हुए हम लक्ष्य करें कि पश्चिम के विज्ञान की जैसी प्रगति और प्रवृत्ति 18वीं, 19वीं शती में हुई उसके कारण एक चीज़ विज्ञान से छूट गयी जो 17वीं शती के पहले तक उसके साथ भी वैसे ही जुड़ी हुई थी जैसे पुराण और मिथक के साथ, और जो मिथक से कभी अलग नहीं हुई। यह विच्छेदन बड़े महत्त्व का है और इसे तथा इसके प्रभावों को समझ लेना बहुत ज़रूरी है। इस सम्बन्धच्छेद से उल्लिखित चार प्रश्नों में से अन्तिम प्रश्न का उत्तर भी बिलकुल बदल गया-इतना बदल गया कि हम कह सकते हैं कि सृष्टि का ही रूप बदल गया क्योंकि उसकी धुरी अपनी जगह से हट गयी।

जिन चार मूल प्रश्नों का उल्लेख हुआ, वे प्रश्न पूछनेवाला तो मनुष्य ही था। मैं कौन हूँ, मैं कहाँ हूँ, मनुष्य ही यह प्रश्न पूछता है। इन प्रश्नों के उत्तर वह अपने को ही देता है। जो भी उत्तर वह पाता है-अपने को देता है-उन्हीं से यह निर्धारित होता है कि उस सृष्टि से, उस पर्यावरण से, उस समाज से और स्वयं अपने से उसका क्या नाता होगा। आचरण के, नैतिकता के सारे आधार इसी उत्तर पर निर्भर करते हैं जो वह अपने को देता है या अपने लिए पाता है। अर्थात इन प्रश्नों के उत्तर से ही आचार-शास्त्र अथवा नैतिकता जन्म लेती है।

मनुष्य का सामाजिक आचरण-समाज में मानव प्राणी कैसे रहता है और दूसरे मानवों के साथ उसके सम्बन्ध और उसकी अन्त:क्रियाएँ किन नियमों से निर्धारित होती हैं अथवा होनी चाहिए-यह हमेशा से साहित्यकार का एक प्रमुख सरोकार रहता आया है। इसका यह आशय नहीं है कि साहित्यिक कृतियाँ ज़रूरी तौर पर नैतिक स्थापनाएँ करती हैं, उपदेश देती हैं अथवा केवल दृष्टान्त प्रस्तुत करती हैं। प्राचीन साहित्य में दृष्टान्त साहित्य की प्रचुरता रही और उपदेश को भी महत्त्व दिया गया तो वह रचनाकार की कल्पना की सीमा नहीं थी : विशेष प्रयोजन से जुड़े हुए विशेष तन्त्र अथवा तकनीक का विकास था। आज हम यह युक्ति नहीं अपनाते, इस तकनीक का इस्तेमाल प्राय: नहीं करते, उसे पुराना पड़ गया मानते हैं; लेकिन इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि मानवीय सम्बन्धों की नैतिक आधार-भूमि से साहित्यकार का सरोकार नहीं रहा है। यथार्थवादी साहित्य भी मूल नैतिक प्रतिज्ञाओं से मुक्त नहीं होता। नैतिकताओं को विविध और सापेक्ष और वर्गगत मानकर भी उससे छुटकारा नहीं मिलता, क्योंकि वर्ग-युद्ध पर बल देनेवाली विचारधारा भी उस आदर्श अर्थात् सम्पूर्णतया वांछनीय स्थिति की और बढऩे का दावा करती है जिसमें वर्ग नहीं होंगे और इसलिए टकरानेवाली वर्गीय नैतिकताओं के बदले एक व्यापक सर्वमान्य नैतिकता होगी।

नैतिकता हर हालत में लोक-मंगल से जुड़ी रहती है और इसलिए हमेशा इस बात का महत्त्व रहता है कि लोक की हमारी अवधारणा क्या है-अर्थात् उन्हीं चार बुनियादी प्रश्नों के हमारे उत्तर क्या हैं।

विज्ञान, पुराण और कवि-कर्म को सामान भूमि पर लानेवाली चीज़ केवल नैतिकता की समस्या नहीं है। नैतिकता का विचार ये सभी करते हैं और इसीलिए सभी उन्हीं चार बुनियादी प्रश्नों की ओर लौटते हैं। लेकिन नैतिकता का विचार उन प्रश्नों की ओर लौटता है तो इसका अर्थ यह नहीं है कि वे चारों बुनियादी प्रश्न भी केवल नैतिकता की समस्या का हल खोजते हैं। नैतिकता के आधार तो उन प्रश्नों का उत्तर खोजने की प्रक्रिया का एक पहलू है, भले ही एक अनिवार्य पहलू। हमारी बुनियादी जिज्ञासाएँ शोध और अनुसन्धान के और भी अनेक रास्ते खोलती हैं। प्रश्नों की एक परम्परा हमारे चैतन्य से ही जुड़ जाती है। यह जो प्रश्न पूछनेवाला है, जो जाननेवाला है, यह कौन है? और क्या जो जाननेवाला है और जो जाना जाने को है उन्हें-ज्ञाता और ज्ञेय को-आत्यन्तिक रूप से अलग मानकर कभी कोई जानना हो सकता है? लेकिन अगर अन्ततोगत्वा दोनों एक हैं और जानने की प्रक्रिया केवल बीच का एक पर्दा हटाने की बात है, तो क्या सब जानना फिर केवल अपने को ही जानना है? और यदि यह परिणाम स्वीकार्य नहीं है तो सोचने में कहाँ गलती हुई है या कहाँ से रास्ते अलग हुए हैं?

यहाँ प्रश्नों के उत्तर नहीं दिये जा रहे हैं, केवल यहाँ स्पष्ट किया जा रहा है कि हम जो प्रश्न पूछते हैं उनका वास्तविक आशय क्या है, यह जानने के लिए प्रश्नों का इतिहास ज़रूरी होता है। और स्पष्ट है कि यदि ऐसा होता है तो जो उत्तर अथवा समाधान हमें मिलते हैं या किसी समय पर्याप्त जान पड़ते हैं उनके भी ऐसे सन्दर्भ होते हैं।

सुन्दर के, ललित के, नान्दतिक के, एस्थेटिक के प्रश्न भी अन्तत: उन चार सवालों के साथ जुड़ जाते हैं, चाहे हम वैज्ञानिक शोध की प्रक्रिया अपनाएँ, चाहे पौराणिक दृष्टि की, चाहे साहित्यिक कल्पना की। क्योंकि रूप-सौष्ठव के विचार में ये सब प्रश्न जुड़ जाते हैं कि आकाश, शून्य, दिक् अथवा स्पेस क्या है? दिक्काल क्या है? दिक्चक्र क्या है? उसकी धुरी कहाँ है? सृष्टि की धुरी और उसे पहचाननेवाली चेतना की धुरी में क्या सम्बन्ध है? अनुप्रस्थ या क्षैतिज क्या है? अनुलम्ब या ऊध्र्वाधर क्या है? प्रकाश और अन्धकार के साथ इनका क्या सम्बन्ध है-और क्या वह सम्बन्ध आत्यन्तिक है? आकाश भी क्या ‘भीतरी’ और ‘बाहरी’- चिदाकाश और भूताकाश-होता है? आलोक के साथ ‘ऊपर’ और अन्धकार के साथ ‘नीचे’ क्यों जुड़ा है? और यह ऊपर, नीचे, भीतर और बाहर क्या होता है? क्या प्रश्न पूछनेवाले चैतन्य की अवस्थिति ही-और केवल तात्कालिक और तदर्थ सुविधा के लिए-इन भेदों की अवधारणा नहीं कर लेती? सत्ता में क्या भीतर और बाहर की परिकल्पना निरर्थक नहीं है?

विज्ञान, पुराण (मिथक) और कवि-कल्पना, सभी इन प्रश्नों से जूझते हैं। अलग-अलग ढंग से जूझते हैं-उनके अनुशासन अलग-अलग हैं।

विज्ञान लगातार अनुमान और प्रतिज्ञा के सहारे चलता है : अपने सिद्धान्तों को वह कभी इतना सिद्ध नहीं मानता कि उनमें परिवर्तन की सम्भावना न रहे। ‘ज्ञान की अद्यावधि पहुँच के आधार पर यह सिद्धान्त प्रामाणिक है’, ऐसा ही दावा विज्ञान करता है। जो अद्यावधि है उसे कल बदलना पड़ सकता है, विज्ञान तो ऐसा मानता ही है। इस बात को कुछ लोग यों भी कहते हैं कि विज्ञान ‘ऐतिहासिक’ है, भविष्य के प्रति ‘खुला’ है, ‘प्रगतिशील’ है।

इसके विपरीत पुराण सनातन तत्त्व की खोज में रहता है। बदलाव उसमें भी आता है, वह भी स्वीकार करता है, लेकिन इस आग्र्रह के साथ कि वह परिवर्तन केवल सनातन तत्त्व के साथ अपने नए सम्बन्ध के कारण है, उस तत्त्व में किसी परिवर्तन के कारण नहीं। पुराण पुराने को झूठा नहीं करता, उसे नया करता है (पुरा नवं करोति)। इसीलिए पौराणिक अनुष्ठान में जो आवृत्ति होती है वह विज्ञान की भाँति प्रयोग-मूलक नहीं होती बल्कि उसी मूल घटना को पुनरुज्जीवित करती है जो उसका आधार है। अनुष्ठान में पौराणिक घटना का अनुकरण नहीं होता, अभिनय नहीं होता, उसका पुनर्घटन होता है। वही घटना दुबारा होती है। इस पुनर्जन्म-रूपी नवीकरण में ही उसे नई अर्थवत्ता मिलती है या दी जा सकती है। पौराणिक घटना वह सनातन घटना होती है जिसे हम मानव नियति के साथ हर नए युग में नए रूप में जोड़ सकते हैं। पुराण इसीलिए ऊर्जा के स्रोत होते हैं, पौराणिक अभिप्राय इसीलिए अर्थ-पिटक होते हैं कि भिन्न-भिन्न युगों में मानव अपनी नियति के साथ उन्हें जोड़ सकता है। और उसके सहारे अपनी अवस्थिति को एक समग्रतर रूप में पहचान सकता है। सनातन रूप-संघटनों की, सम्बन्ध-संरचनाओं की, वह प्रत्यभिज्ञा नई होती है।

जिस अर्थ में विज्ञान भविष्योन्मुख होता है और प्रगतिशील होता है, उसी पारिभाषिक सीमा के भीतर रहते हुए कह सकते हैं कि पुराण अतीतोन्मुख होता है। वह प्रयोग के द्वारा समझ पर बल न देकर आनुष्ठानिक आवृत्ति द्वारा पहचान पर बल देता है। दृष्टियों के इस अन्तर को पहचानना ज़रूरी है। लेकिन साहित्यकार के लिए यह समझना भी ज़रूरी है कि इस पहचान में एक का तिरस्कार और दूसरे का वरण ज़रूरी नहीं है। ‘हमें किसी भी वक्त यह स्थान छोडक़र आगे बढऩा पड़ सकता है’, यह कह सकने के लिए ज़रूरी नहीं है कि हम यह कहने का अधिकार छोड़ दें कि ‘हम निश्चयपूर्वक यहाँ खड़े हैं’। इतना तो है कि पौराणिक अवस्थिति की चर्चा में हम अपने को एक ऐसे अतीत के साथ जोड़ रहे होंगे जो हमारी सांस्कृतिक अस्मिता का आधार है; दूसरी तरफ़ वैज्ञानिक अभियान की बात करते समय हम अपने को ऐसे भविष्य के साथ जोड़ रहे होंगे जिसे भरसक सांस्कृतिक पूर्वाग्रहों से मुक्त रखना चाह रहे होंगे। लेकिन दिक्काल की चर्चा किसी भी प्रकार के सांस्कृतिक पूर्वाग्रह से सर्वथा मुक्त तभी हो सकती है जब हम स्वयं संस्कृति की परिधि से बाहर जाकर विचार-विनिमय कर सकें।

अवश्य ही एक सीमित क्षेत्र ऐसा है, या रहा हैै, जिसके भीतर यह सम्भव है। गणित और भौतिकी में उसका महत्त्व भी रहा है। लेकिन भौतिक विज्ञान भी जब नए तत्त्वों के सामने आने पर सिद्धान्तों में संशोधन के लिए नए अनुमान करता है, नई प्रतिज्ञाएँ करता है, अपनी कल्पना का उपयेाग करता है, तब क्या वह सांस्कृतिक पूर्वाग्रहों से एकान्त रूप से मुक्त रह सकता है? विज्ञान की आज की अवस्था में यह प्रश्न और भी महत्त्वपूर्ण हो गया है। वैज्ञानिक लोग सदैव ‘वैज्ञानिक कल्पना’ की बात करत रहे हैं और उसे कवि-कल्पना से अलग करने का प्रयत्न करते रहे हैं जिससे यह स्पष्ट हो जाए कि वैज्ञानिक कल्पना कल्पना होकर भी कुछ नियमों की परिधि के भीतर काम करती है और तर्क-पद्धतियों को अपनाए रहती है। लेकिन-और आज की परिस्थिति में वैज्ञानिक न केवल इस बात को मानता है बल्कि वही कदाचित् अधिक बल देकर इस बात को कह सकता है-विज्ञान की भी प्रतिज्ञाएँ और कल्पनाएँ क्योंकि भाषा में की जाती हैं और भाषा और संस्कृति की श्रेष्ठ अभिव्यक्ति और उपलब्धि है, इसलिए वैज्ञानिक का चिन्तन सांस्कृतिक प्रभावों से अछूता नहीं रह सकता।

आज हम यह तो कह सकते हैं कि पुराण की सृष्टि-कथा दूसरी है और विज्ञान की दूसरी। लेकिन वैज्ञानिक भी आज जब सृष्टि की बात करता है-सृष्िट कब और कैसे हुई केवल इसी की बात नहीं, सृष्टि का आज विस्तार कैसा और कहाँ तक है, पदार्थ, ऊर्जा, दिक् और काल के आपसी सम्बन्ध क्या है-तो वह स्वयं इस बात से चकित रह जाता है कि इसके लिए जिस शब्दावली का व्यवहार वह कर रहा है वह उस शब्दावली से बहुत भिन्न नहीं है जिसका उपयेाग पौराणिक सृष्टिविद् या कथाकार करता था। इस स्थिति में कुछ वैज्ञानिक यह कहते हैं कि ‘हम अपनी बात इस ढंग से कहने को लाचार हैं क्योंकि अभी हमारे पास उपयुक्त शब्दावली नहीं है’; कुछ इसे यों भी कहते हैं कि वे स्वयं नहीं जानते कि जो वे कह रहे हैं उसका सम्पूर्ण आशय क्या है।

भाषा में अभिव्यक्ति से जुड़ी हुई कठिनाई का उल्लेख वैज्ञानिकों ने आज से पहले भी किया है। लेकिन कुछ वर्षों पहले तक विज्ञान जिस तरह की निश्चयात्मकता को लेकर चलता था उसमें इस पक्ष की भरसक उपेक्षा की जाती थी। आज स्थिति यह है कि वैसी निश्चयात्मकता विज्ञान के निचले स्तरों पर अथवा यन्त्रोद्योग के क्षेत्रों में ही लक्षित होती है और शोध के उच्चतम स्तरों पर भाषा का स्वभाव कुछ दूसरा ही देखने में आता है। भौतिकी और जैविकी दोनों क्षेत्रों में यह देखा जा सकता है।

भाषा पूरे मानव समाज की चीज़ है, उसके किसी एक वर्ग की नहीं। शब्दों की रचना और शब्दार्थ की वृद्धि में भी पूरे समाज का योग होता है। सामान्य प्रयोजनवती भाषा अपने ढंग से बढ़ती है, विज्ञान का मुहावरा और पारिभाषिक शब्दावलियाँ अपने ढंग से विकसित होती हैं। अन्य अनेक शास्त्र अपने ढंग से भाषा को रचते और समृद्ध करते चलते हैं। संचार-साधन अपने ढंग से भाषा का प्रचार और विस्तार भी करते हैं-और साथ-साथ उसका अवमूल्यन भी करते चलते हैं। इस सारी परिवर्तनशील प्रक्रिया के बीच साहित्यकार रचना और सम्प्रेषण का काम करता है। एक ‘दी हुई’ भाषा उसके आस-पास है और रहेगी; उसे नया कुछ कहना है तो इस दी हुई भाषा की सम्पूर्ण अवज्ञा करके नहीं बल्कि निरन्तर उसका अधिकतम विस्तार करते हुए ही कहना है। साहित्यकार को यह सुविधा जरूर है कि उसका चिन्तन केवल वैज्ञानिक तर्क-पद्धति के अनुशासन से बँधा नहीं है, जैसे कि वह केवल दैनन्दिन व्यवहार की भाषा से बँधा नहीं है। हम यहाँ यह भी जोड़ सकते हैं कि यद्यपि साहित्यकार उनसे बँधा नहीं है-उन ऐतिहासिक संस्कारों और अनुगूँजों का वह उपयोग कर सकता है औ उसमें अपने चयन-विवेक से भी काम ले सकता है। ऐसाकरने में वह न केवल पौराणिक अभिप्रायों को अपने काम में लगा लेता है वरन उनमें नए अर्थ भी भर सकता है। पुराण वह है जो पुराने को नया करता है; साहित्यकार की कल्पना स्वयं पुराण को भी इस प्रकार नया करती चलती है। उसके लिए इस नवीकरण की प्रक्रिया में कोई विधि त्याज्य नहीं है-विज्ञान की चिन्तन-प्रक्रिया भी उसके उसी प्रकार काम आ सकती है जिस प्रकार सामान्य भाषा-व्यवहार। और सामान्य भाषा-व्यवहार में जिस तरह की मिथ्या व्युत्पत्तियाँ काम आती हैं वे भी उपयोज्य हो जाती हैं। रूपकों की गलत समझ नए रूपकार्थों को जन्म देती है; और तब इस आग्रह का कोई महत्त्व नहीं रहता कि नए रूपकार्थ एक भूल से पैदा हुए। उस भूल की अगर कोई रचनात्मक सम्भावनाएँ थीं और उनके आधार पर रचनाकर्म हो भी गया, तो भूल को भूल कहते जाने का प्रयोजन इतना ही रह जाता है कि हम देख सकें भूल से भी रचनात्मक सम्भावनाएँ होती हैं।

हमारे चार बुनियादी प्रश्नों में पहला प्रश्न सृष्टि को लेकर है। सृष्टि कैसे हुई? हर संस्कृति की अपनी एक सृष्टि-कथा होती है। वही सांस्कृतिक दृष्टि है जिससे संस्कृति स्वयं अपने को देखती-पहचानती है। विज्ञान की भी एक सृष्टि कथा होती है-या होती है न कहकर यों कहें कि विज्ञान भी निरन्तर एक सृष्टि-कथा रचता रहता है। सृष्टि-कथा दिक् और काल की अवधारणा के बिना हो ही नहीं सकती और इन अवधारणाओं के साथ हमारी सारी समस्याएँ आरम्भ हो जाती हैं। क्या काल अनादि और अनन्त है? क्या दिक् एक छोरहीन असीम विस्तार है?

पश्चिम के धर्म-विश्वासों में एक काल ऐसा था-या है-जो अनादि और अनन्त है : यह ईश्वर का काल है। ईश्वर कब हुआ, यह प्रश्न अर्थहीन प्रश्न है क्योंकि ईश्वर तो हमेशा से है। इसी प्रकार यह प्रश्न भी निरर्थक है कि वह कब समाप्त होगा अथवा नहीं रहेगा। लेकिन पश्चिम के धर्मों की सृष्टि-कथा में ईश्वर अगर फरिश्तों की सृष्टि करता है जो अमर हैं, तो फरिश्तों का एक काल है जिसका आदि तो है लेकिन अन्त नहीं। हमारी सृष्टि-कथा में भी आकाश अथवा द्युलोक के देवता हैं, अन्तरिक्ष के देवता हैं और पृथ्वी के देवता हैं-ये सब एक कोटि के नहीं हैं। काल की एक दूसरी कोटि है जो मत्र्यों अथवा मानवों का काल है, जिसका आरम्भ भी है और अन्त भी।

विज्ञान की अद्यतन सृष्टि-कथा में सृष्टि के एक आरम्भ-बिन्दु की अवधारणा है। इसे हम यों कह सकते हैं कि दिक्-काल का एक आरम्भ-बिन्दु आज विज्ञान मानता है। काल की अद्यतन धारणा में काल की शान्त परिकल्पना की गयी है। कवि के लिए तो इसमें विशेष कठिनाई नहीं है, लेकिन इतिहासकार और स्वयं वैज्ञानिक के लिए इससे समस्या पैदा होती है। ऐतिहासिक, एकरेखीय और एक दिगुन्मुख काल, शान्त कैसे हो सकता है? विज्ञान दिग्विस्तार की सीमा मानता है और वही काल की सीमा भी है : उससे परे कुछ नहीं हो सकता और उस सीमा पर पहुँचकर दिक् भी मुडक़र लौट आता है और इसीलिए वहीं काल को भी मुडक़र लौट आना चाहिए। लेकिन यह कहने का ठीक-ठीक अर्थ क्या हुआ। यह वैज्ञानिक स्वयं नहीं जानता। उसका चिन्तन और उसकी अवधारणा जिस आपत्ति को जन्म देती है उसे वह स्वीकार करता है और उसका उत्तर प्रस्तुत करता है-लेकिन उत्तर देते हुए भी यह स्वीकार कर लेता है कि उसका पूरा आशय वह अभी नहीं समझ पाया है। यह कठिनाई समझ की है या भाषा की, इसका विचार इससे आगे निष्फल हो जाता है क्योंकि इससे आगे के विचार के लिए भाषा नहीं है। कालान्तर में तर्क का दबाव आवश्यकतानुसार भाषा गढ़ेगा और फिर भाषा नए विचार और नई युक्तियों को प्रस्तुत करना सम्भव बनाएगी-ये दोनों समान्तर और परस्पर-निर्भर प्रक्रियाएँ हैं जिनमें कार्य-कारण का विचार लाभकर नहीं है। ब्रह्मांड सीमित है, तदनुसार दिक्-काल की भी एक सीमा है; प्रकाश की किरणें भी उस सीमा से लौट आती हैं और काल की पहुँच वहीं तक है जहाँ तक प्रकाश की-काल प्रकाश-सापेक्ष है। ये सब अवधारणाएँ विज्ञान को स्वीकार हैं लेकिन इन सबसे परिणाम क्या निकला यह वह नहीं बता सकता। यह स्थिति लगभग वही है जो मिथकीय चिन्तन की स्थिति थी, यह स्वीकार करने में वैज्ञानिक को असमंजस तो होता है, लेकिन इसका कोई उत्तर उसके पास नहीं है। इतना अवश्य है कि मिथकीय अवधारणाओं के प्रति एक नया खुलापन वैज्ञानिक चिन्तन में आया है। मन, चेतना और कल्पना के बारे में भी एक नए परिदृश्य के लिए क्षेत्र खुला है और पिछली शती की निश्चात्मकता ने जिस असहिष्णुता का रूप ले लिया था वह अब लक्षित नहीं होती।

क्या पौराणिक चिन्तन का रास्ता सचमुच चिन्ता का एक दूसरा रास्ता है? क्या रूपकाश्रयी चिन्तन अथवा एनालॉजिकल चिन्तन वैज्ञानिक चिन्तन (लॉजिकल चिन्तन) का समान्तर और पूरक हो सकता है? आज ऐसी सम्भवना की जा सकती है कि इन दोनों समान्तर रास्तों पर यात्रा करते हुए हम कुछ नया प्रकाश पा सकते हैं, कि दोनों यात्राओं से मिलनेवाली जानकारियाँ परस्पर पूरक हो सकती हैं। और इसमें तो सन्देह नहीं कि आचरण के आधार निर्धारित करने में ये दोनों दृष्टियाँ महत्त्व का काम करती हैं-अकेली कोई भी काफ़ी नहीं है। ऐसा नहीं है कि जहाँ विज्ञान आरम्भ होता है वहाँ मिथक समाप्त हो जाता है; कि वैज्ञानिक चिन्तन मिथकीय पद्धति का अन्त कर देता है। ऐसा होता तो मनुष्य का ऐसा रूपान्तर हुआ होता कि हम प्राचीन काल के मानव और आधुनिक मानव में कोई सम्बन्ध या समानता ही न पहचान सकते!

वैज्ञानिक चिन्तन-प्रक्रिया का नकार निगति का कारण बनता है क्योंकि वह परिवर्तनशीलता और विकास गति को नकारता है। दूसरी ओर मिथकीय पद्धति का नकार भी निगति का कारण बनता है क्योंकि उसकी परिणति कल्पना की और संवेदना की मृत्यु में होती है-मनुष्य एक यन्त्र में परिणत हो जाता है।

कवि को कभी-कभी एक अनौपचारिक विधायक के रूप में देखा गया है। विधायक के रूप में उसकी नियुक्ति या चुनाव कभी नहीं होता, और वह उसे स्वीकार भी नहीं होता। लेकिन वह एक वैकल्पिक विधायक बना ही रहता है: इसलिए नहीं कि वह कभी कोई विधान प्रस्तुत करता है वरन इसलिए कि वह निरन्तर उन आधारभूत सत्यों और संकल्पनाओं को सामने लाता रहता है जिनसे विधान उद्भूत होते हैं। कवि का प्रयोजन न तो केवल विज्ञान द्वारा प्रतिष्ठापित तथ्यों से होता है, न केवल पुराण में सम्पुंजित कथाओं, विश्वासों अथवा अभिप्रायों से। कवि के लिए वे पद्धतियाँ ही प्रयोजनीय हैं जिनसे विज्ञान और पुराण सृष्टि को समझने की ओर अग्रसर होते हैं। एक का आग्रह प्रत्यक्ष सृष्टि पर है, दूसरे का परोक्ष सत्ता पर; कवि वह दृष्टि चाहता है जो इन दोनों को एक इकाई में जोड़ दे सके।


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