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बाल साहित्य

कविताएँ

विनोद कुमार शुक्ल


एक

कौन गाँव का रहने वाला

कहाँ का आदमी कहाँ गया

किसी एक दिन वह आया था

कोई एक दिन रहता था

फिर आएगा किसी एक दिन

किसी गाँव में कुछ दिन

कोई भूल गया था उसको

किसी ने याद किया था।

 

दो

सौ की गिनती सबको आई

जंगल में था एक शेर

जब अम्मा ने कथा सुनाई

बाकी शेर कितने थे?

बिटिया ने यह बात उठाई

उड़ती चिड़िया को गिनना

तब भी था आसान

जंगल में छुपे घूमते शेरों को

गिनना था कठिन काम

एक शेर सब शेरों जैसा

केवल एक शेर को

यहाँ-वहाँ हर बार

गिना गया था सौ-सौ बार

एक शेर की अम्मा ने भी कथा सुनाई सौ-सौ बार

 

तीन

घर के बाहर उसका खेल

घर के अंदर उसका खेल

घर के बाहर करके खेल

घर के बाहर करती खेल

घर के अंदर करती खेल

 

चार

टेढ़ा-मेढ़ा नक्शा

टेढ़े-मेढ़े द्वीप

टेढ़ा-मेढ़ा समुद्र

टेढ़ी-मेढ़ी नदियाँ

इधर-उधर तक फैला

ओर-छोर आकाश

टेढ़े-मेढ़े होंगे

उसके कोर किनार

टेढ़ा-मेढ़ा है सब

चार दिशा दस कोनों के

कहीं कम नहीं अनंत छोटी बच्ची का गढ़ा हुआ सब

कहता था एक बूढ़ा संत

 

पाँ

तितर-बितर हो गया

घर का सारा सामान

लगी खेलने जैसे ही

बना खेल का घर मैदान

खेल-खेल में घर खुद

खेलने चला गया मैदान

घर के अंदर था मैदान

घर के बाहर था मैदान

 

छह

सबको प्यारी लगती है

उतनी प्यारी लगती है

जितनी प्यारी लगती है

इतनी प्यारी लगती है

कितनी प्यारी लगती है।

 

सात

इतनी सारी मुर्रा भैंसें

सारी की सारी जुड़वाँ भैंसें

एक जैसी मुर्रा भैंसें

किसकी-किसकी खोकर

हुई इकट्ठी इनती भैसें

कैसे पहिचानेगा कोई

अपनी-अपनी खोई भैंसें

ले आएगा हर कोई

किसी-किसी की

अपनी जैसी भैंसें।

 

आठ

मैं वहाँ जाऊँगी बिटिया बोली

कहाँ जाओगी - अम्मा पूछी

'वहाँ'।

कोई नहीं बता पाता

आखिर वहाँ कहाँ है

सबने पूछा - 'बिटिया तुम बतला दो'

बिटिया को लगी हुई बस

वहाँ जाने की केवल रट

चलो कहीं भी चलते हैं

आखिर सोचा सबने

कहीं वहाँ था सच में

घूम-घाम कर बहुत खुशी से

लौटी बेटी घर में।

 

नौ

छोटी-सी एक छुक-छुक सिया नींद की गाड़ी

पूरा घर सोया

जब नींद सिया को आई

भारी नींद से भरा हुआ

घर-भर का अकेला डब्बा

तभी सिया जागी

छुक-छुक गाड़ी के सामने

सपने में आया एक हाथी खिंची अचानक चेन

रुकी नींद सबकी

क्या हुआ सिया को

जागे सब बेचैन।

 

दस

सौ की गिनती उसको आई

सबसे पहले अनगित तारे

गिनने की थी बारी आई

आसमान में भरे हुए पर

कुल उनहत्तर निकले सब

पूरे सौ भी नहीं हुए

वे अनगिन बेचारे।

 

ग्यारह

मैं नहीं जाऊँगी कहीं खेलने

चले गए सब वहीं खेलने

वहीं-वहीं का खेल

यहीं रहूँगी मैं अकेले

यहीं खेलकर सारी देर

तब तक यहीं रहूँगी

जब तक लौट नहीं आते

चलो कहाँ गए सब

कहीं खेलते सारे खेल

मैं खेलूँगी अपना

यहीं-यहीं का खेल।

 

बारह

किधर गई है बिटिया

उधर गई है बिटिया

इधर नहीं है बिटिया

जिधर गई है बिटिया

उधर नहीं है बिटिया

इधर-उधर से

उधर-जिधर से

किधर गई है बिटिया।

 

तेरह

छूट गया घर उसका बाहर

छूट गया बाहर उसके घर

जब होती वह घर के अंदर

जब होती वह घर के बाहर

जब-तब होती घर के अंदर

जब-तब होती घर के बाहर।

 

चौदह

कितनी छोटी

एक महीने सोलह दिन की बस

जोर-जोर से पैर हिलाकर

पड़े-पड़े ही उसने

जैसे दौड़ लगाई

अम्मा, मामा की गोद में आई

एक-एक गोद से दूसरी गोद उसकी भागम-भाग।


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हिंदी समय में विनोद कुमार शुक्ल की रचनाएँ