शरीर में भाँति-भाँति के रोग-दोष का होना, धन रहित हो एक-एक पैसे के लिए तरसना; बंधु-बांधव, प्रेमी जनों की जुदाई का दु:सह दु:ख आदि अनेक कष्ट मनुष्य-जीवन में आ पड़ते हैं किंतु हाय पेट की आग का बुझना इससे बढ़ कर कोई क्लेश नहीं है। और-और दु:ख लोग बहुत कुछ रोने-गाने और संताप के उपरांत किसी-न-किसी तरह बरदाश्त कर अंत को चुप हो बैठ रहते हैं पर भूख का क्लेश नहीं बरदाश्त होता। जठराग्नि के लिए ईंधन संपादन का ऐसा भारी बंधन है जिसमें जीव मात्र बँधे हुए भोर को खाट से उठते ही साँझ लौ इसी की चिंता में व्यग्र इतस्तत: धावमान् किसी-न-किसी तरह अपना पेट पालते ही तो हैं। अस्तु और-और समय तुरंत पूरा इस उदर दरी का पाटना इतना कर्रा चाहे न भी रहा हो जैसा अब हो रहा है, किंतु अनेक बार की गाई हुई गीत का फिर-फिर गाना व्यर्थ और नितांत अरोचक होगा। योगी जन यत्न और अभ्यास से उन-उन इंद्रियों को जिन्हें काबू में लाना अतीत दुर्घट है अंत को अपने अधीन करी तो लेते हैं पर इस जठराग्नि के ऊपर उनका कुछ वश नहीं चलता। बे-वश उन्हें भी इसके लिए चिंता करनी ही पड़ती है। श्रृंगारोत्तरसत्प्रेमेयरचना चातरी के एकमात्र परमाचार्य कविवर गोवर्द्धन अपनी 'गोवर्द्धन सप्तशती' में ऐसा लिख भी गए हैं-
''एक: स एव जीवति हृदय विहीनोपि राहु:।
य:सर्वलघिमकारणमुदरं न विभर्ति दुष्पूरम्।।''
जीवन एक राहु का सफल है, जो केवल शिरोभाग होने से हृदय शून्य होकर भी सहृदय चतुर या सरस हृदय वाला है इसलिए कि यावत् हलकाई का एकमात्र कारण उदर अपने में नहीं रखता। भागवत में व्यासदेव महाराज ने धनियों पर आक्षेप करते हुए लिखा है-
''कस्माद्भजंति कवयो धनदुर्मदांधान्''
कवि और बुध जन, धन के मद में अंधे धनियों की सेवा क्यों करते हैं और अपना अपमान उनसे क्यों कराते हैं? अपने इस दग्धोदर के भर लेने को साग-पात और वन के फल-फूल क्या उच्छिन्न् हो गए हैं। पर वह समय अब कहाँ रहा जब कि संतोष की शांति-मूर्ति का प्रकाश एक-एक आदमी पर झलक रहा था, गांभीर्य और उदार भाव का सब ओर विस्तार था, हवस और तृष्णा-पिशाची का सर्वथा लोप था, किसी को किसी तरह की संकीर्णता और किसी वस्तु का अभाव न था, वैसे समय में भी क्षुधा का क्लेश इतना असह्य था कि लिखने वाले ने इसे ''काष्टत्कष्टतरं'' कहा-न कि अब इस समय जब कि कौड़ी और मुहर का फर्क आ लगा है। उस समय लोग स्वभाव ही से संतुष्ट, सहनशील सब भाँति आसूदा, चंचल मन और इंद्रियों को अपने वश में किए हुए थे। देश ऐसा रँजा-पुँजा था कि चारों ओर आनंद-बधाई बज रही थी। नई-नई ईजादों से हवस इस कदर नहीं बढ़ी थी, किसी चीज की हाजत न थी तब नई ईजाद क्यों की जाती? वही अब इस समय देखा जाता है कि लोगों में तृष्णा का क्षय किसी तरह होता ही नहीं, संतोष को किसी कोने में भी कहीं स्थान नहीं मिलता, 'मन नहिं सिंधु समाय' इस वाक्य की चरितार्थता इन्हीं दिनों देखी जाती है। चंचल इंद्रियों को दबा कर विषय-वासना से परहेज करने वाले या तो दंभ की मूर्ति होंगे नहीं तो वे ही होंगे जिनमें शाइस्तगी या सभ्यता ने अपना प्रकाश नहीं किया। परस्पर की स्पर्द्धा या डाह ने यहाँ तक पाँव फैला रखा है कि लोगों को हवस की कटीली झाड़ी में झोंके देती है। उदारभाव संकुचित हो न जानिए किस गुफा में जा छिपा, दूसरे के मुकाबले जरा भी अपनी हानि या अपनी हेठी सहना किसी को गँवारा नहीं होता। दुर्भिक्ष-पीड़ित प्रजा में अनेक आधि-व्याधि, प्लेग और मरी से सब ओर उदासी और नहूसत का पूरा रंग जम रहा है। चहूँ ओर दरिद्रता का जहाँ साम्राज्य फैला हुआ है वहाँ विलायत की नई-नई नफासत और भाँति-भाँति की चटकीली, मन को लुभाने वाली कारीगरी जो कुछ बच रहा, उसे भी ढोए लिए जाती है। क्षुधा को काष्टत्कष्टतर लिखने वाले इस समय होते तो न जानिए कितना पछंताते, क्या तअज्जुब सिर धुनने लगते। किंतु दैवी रचना बड़ी ही अद्भुत है, कुदरत के खेल का कौन पार पा सकता है इतने पर भी मोह का जाल ऐसा फैला हुआ है कि पढ़, अपढ़, ज्ञानी, मानी सभी उसमें फँसे हुए हैं। क्षुधा के इस अपरिहार्य कष्ट से बचने की कौन कहे जान बूझ हम सब लोग उसमें अपने को छोड़ते जाते हैं। कितने हैं जिन्हें पेट भर अंत खाने की नहीं मिलता। सूखपूर्वक रहने का स्थान भी नहीं है तब जिंदगी की और लज्जतें और आराम की कौन कहे पर नरक से परित्राण पाने को पुत्र को पैदा होना जरूरी बात मान रहे हैं-
''पुत्राम्नोनरकात् त्रायते इति पुत्र:''
क्या कुआँ की भाग है हम नहीं जानते। इन गीदड़ों की सृष्टि से, क्या नरक से उद्धार होता है। नरक से उद्धार इस उदृष्टवाद को कौन जानता है, किसी की चिट्ठी तो आई नहीं पर इन गीदड़ों की सृष्टि यहाँ घोर नरक में हमें अलबत्ता गिराती है। जिसमें औलाद बढ़े इसलिए पुत्र का अर्थ नरक से उद्धार करने वाला तब के लिए था जब देश-का-देश एक कोने से दूसरे तक सूना और खाली पड़ा था और उसे आबाद करना पुराने आर्यों को मंजूर था। अब तो मनु का यह श्लोक हमारे वास्ते उपयुक्त है-
'चतुर्णामपि भ्रातृणामेकश्चेत्पुत्रवान्भवेत्।
तेन पुत्रेण सर्वे ते पुत्रिणो मनुरब्रवीत्।।''
चार भाइयों में एक भी सिंह शावक-सा पुत्र जन्मे तो उसी से वे चारों पुत्रवान् हैं। सच तो है मुर्दा दिल, सब भाँति गए बीते, निरे निकम्मे, गीदड़ की-सी प्रकृति वाले, अब इस समय हम लोगों की औलाद बढ़ के क्या होगी? सियार के कभी सिंह पैदा हो सर्वथा असंभव है। इनका अधिक बढ़ना केवल ऊपर का वाक्य कष्टात्कष्टतरंक्षुधा को पुष्ट करने के लिए है। देश में क्षुधा का क्लेश जो दिन-दिन बढ़ रहा है उसमें सामयिक शासन प्रणाली की भाँति-भाँति की कड़ाई के अतिरिक्त एक यह भी है कि बाल्य विवाह आदि अनेक कुरीतियों की बदौलत हम लोगों की निकम्मी सृष्टि अत्यंत बढ़ती जाती है जिनमें सिंह के छौनों का-सा पुरुषार्थ कहीं छू नहीं गया। पूर्व संचित सब शत-छिद्र घट में पानी के समान निकला जाता है देश में पुरुषार्थ के अभाव से नया धन आता नहीं, परिणाम जिसका भूख का क्लेश बढ़ाने के सिवाय और क्या हो सकता है? धन इस तरह क्षीण होता जाता है धरती की शक्ति अल्प हो जाने से पैदावरी औसत से उतनी नहीं होती जितनी आबादी मुल्क की बढ़ रही है। एक साल किसी एक प्रांत में भी अवर्षण हुआ तो उसका असर देश भर में छा जाता है। माना पहले की अपेक्षा धरती अब बहुत अधिक जोती बोई जाती है। किंतु उत्पादिका-शक्ति कम होने से खेती की अधिकाई का कोई विशेष लाभ न रहा। अस्तु, सो भी सही यहाँ की पैदावार यहीं रहती बाहर के दूर देशों में न जाती तब भी सस्ती रहती अन्न का कष्ट न उठाना पड़ता। सो भी नहीं है देश में धना आने का कोई दूसरा द्वार न रहा सिवाय पृथ्वी की उपज के वह उपज बाहर न जाय तो बड़े-बड़े फर्म और महाजनों की कोठियों में भी जहाँ लाख और करोड़ की गिनती है एक पैसा न दिखलाई दे। कलकत्ता और बंबई ऐसे दो एक शहरों को छोड़ देश भर में बड़े-बड़े रोजगारी जिनके घर रुपयों की झनझनाहट रहती थी उदासी छाई हुई है, जिनके चलते काम में किसी को पानी पीने की फुरसत नहीं मिलती थी वहाँ लोग मौन साधे बसना बिछाए हाथ पर हाथ धरे बैठे रहते हैं, केवल ब्याज की या गाँव की आमदनी में अमीरी ठाठ बाँधे हुए हैं। तात्पर्य यह कि कोई दूसरा उद्यम न रहा सिवाय खेती की उपज के जो हमारी निज की भोग्य वस्तु है उसे दूसरे को दे जब हम उसका मूल्य लेंगे तो हमारे निज के भोजन में तो कसर पड़ती ही रहेगी। इसका विचार यहाँ पर छोड़े ही देते हैं कि वही उपज जिसे हम कच्चा बाना (रॉ मैटेरियल) कहेंगे हमसे खरीद विलायत वाले अपनी बुद्धि कौशल से बदले में हम से चौगुना कभी को अठगुना वसूल करते हैं और हम उन-उन पदार्थों की चमक-दमक तथा स्वच्छता पर रीझ खुशी से दिए देते हैं देश को निर्धन और दरिद्र किए डालते हैं। जैसा हमारे यहाँ हजारपति और लाखपति रईसों में अग्रगण्य और माननीय होते हैं वैसा ही अमेरिका, जर्मनी, इंग्लैंड आदि देशों में करोड़पति हैं, लाख दो लाख का धनी तो वहाँ किसी गिनती में नहीं हैं। उन लोगों ने अलबत्ता कभी कान से भी न सुना होगा कि मूर्ख का कष्ट भी कोई कष्ट है। यहाँ पुत्र नरक से उद्धार का द्वार हो श्वान समूह को इतना बेहद बढ़ा दिया कि पेट पालन भी दुर्घट हो गया। हमारे पढ़ने वाले हमें चाहे जो समझें हमें चाहे जैसी हिकारत की नजर से ख्याल करें हम कहेंगे यही कि देश की इस वर्तमान दशा में हम लोगों की सृष्टि का बढ़ना जीते ही नारकीय यातनाओं का स्वाद चखना है। हम नहीं जानते कहाँ तक इनका पौरुषेय विही श्वान दल बढ़ता जाएगा जिसमें गर्मी कहीं नाम को नहीं बच रही। सच माघ कवि ने कहा है-
''पादहतं यदुस्थायि मूर्द्धानमधिरोहति।
स्वस्था एवापमानेपि देहिनस्तद्वरं रज:।।''
रास्ते की धूलि भी पाँव से ताड़ित हो सिर पर चढ़ती है, जिससे प्रकट है कि अपना अपमान ऐसा बुरा है कि ऐसी तुच्छ वस्तु धूलि भी नहीं उसे सह सकती और सिर पर चढ़ अपमान का बदला चुकाना चाहती है। कवि कहता है धूलि 'खाक' को भी जब इतना ज्ञान है तो उस मनुष्य से धूलि ही भली जो अपमान सहकर भी निर्विकार जैसे का तैसा बना रहता है। इतना ही होता तो इनकी यह दशा क्यों होती कि इस समय भूमंडल पर कोई जाति नहीं है जो इतने दिनों तक अपमान कैसा वरन् गुलामी की हालत में धौल खाते-खाते जन्म का जन्म बीत गया और चेत न आई सिर नीचा किए सबर को अपना दीक्षा गुरु मान सब सहते चले जाते हैं। जिन्हें गुलामी झेलते न जानिए कितनी शताब्दी बीत गई जो इनकी नस-नस में व्याप्त हो गई इसी से सेवकाई का काम ये बहुत अच्छा जानते हैं और अपनी स्वामिभक्ति के बड़े अभिमानी भी हैं। मालिक बनना न इन्हें आता है न स्वामित्व की जितनी बात और जितने गुण हैं व इनके मन में धँसते हैं न आ-कल्पांत इनके सुधरने की कोई आशा पाई जाती है। केवल दास्य-भाव होता तो कदाचित् मिट जाता और फिर से इनमें नव जीवन आ जाता। पुराने ब्रिटंस चार सौ वर्ष लों रोमंस लोगों की गुलामी के बाद फिर जो क्रम-क्रम से स्वच्छंद होने लगे तो कहाँ तक उन्नति के शिखर पर चढ़े कि अब इस भूमंडल पर उसके समान कोई जाति नहीं है और इंग्लैंड इस समय सब का शिरोमणि हो रहा है। पर यहाँ तो दूसरा कोढ़ इनके साथ परिवर्तन-विमुखता का लग रहा है। मनु के समय जो दो पहिए का छकड़ा निकला उसमें फिर अब तक कुछ अदल-बदल न हुई। शायद इसके बराबर का ऐसा ही कोई दूसरा पाप होगा कि बाप-दादा के समय की प्रचलित रिवाज में परिवर्तन किया जाय। जो कुछ दोष उसमें आ गया है उसे मिटाय संशोधन करना मानो अपने लिए नरक का रास्ता साफ करना है, उसका यह लोक-परलोक दोनों गया दाखिल समझो इत्यादि बातों का खयाल कर क्षुधा को कष्टात्कष्टतर कहना हिंदुस्तान के लिए सब भाँति सत्य और उचित मालूम होता है।
मई, 1903 ई.