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कहानी

बाकी धुआँ रहने दिया

राकेश मिश्र


बात उम्मीद के बाहर थी लेकिन लोग-बाग अगर अब भी दुनिया के टिके होने की सबसे भरोसेमंद टेक उम्मीद को ही मानते हैं तो अविनाश को मात्र इसीलिए दोषी नहीं ठहराया जा सकता कि अब वह किसी उम्मीद से बनारस आया था वैसे उसे कोई खास उम्मीद थी भी नहीं कि जिस लड़की से उसका पिछले साल ही 'तीया-पाँचा हो चुका हो, अब दुबारा उससे कोई नई बात शुरू हो जाएगी या वह बीती बातों को भुला देगी या उनमें से कोई ऐसी बात मुमकिन हो जाएगी जो वह पिछले दिनों दिल्ली के अपने एकाकी दिनों में सोचता रहा था। सोचता क्या रहा था कहे कि लिखता रहा था। दरअसल सिकी ने उसे सुझाव दिया था कि डायरी लिखना अकेलेपन और ऊब से लड़ने का सबसे कारगर हथियार होता है लेकिन अपने एक साल के अनुभव से वह बता सकता है कि इससे ज्यादा घातक काम और दूसरा कुछ है ही नहीं। घातक से ज्यादा आत्मघातक।

लिहाजा उसकी डायरी में हरेक दो-चार वाक्यों के बाद 'हत्या' या 'आत्महत्या' जैसे प्रसंग आ जाते थे। डायरी का आखिरी पन्ना लिखते समय उसने अपने मर जाने के बाद अपने आस-पास के लोगों, दोस्तों, माँ-बाप और उस लड़की की प्रतिक्रिया के बारे में सोचा था। सोचते हुए उसे खासा गुस्सा आ गया था, 'क्या महसूस होगा उसे यह जानकर कि अब मैं इस दुनिया में नहीं रह गया हूँ। एक आश्चर्यमिश्रित अफसोस के अलावा शायद ही उसकी कोई अलग प्रतिक्रिया हो। क्या इसी संबंध को लेकर मैं इतना ऊर्जस्वित था कि है कोई दुनिया में एक जिसकी नजर में मैं निकृष्टतम अवस्था में भी सर्वश्रेष्ठ हूँ!'

कमरे में पर्याप्त सन्नाटा था। उसने अपने मन को एकदम एकाग्र किया। उसे लगा कोई चीखकर कह रहा है, 'तुम मर जाओ। मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता।' यह आवाज एकदम उसके पास से आई थी या यूँ कहें कि एकदम उसके दिल से। उसने एकदम से डायरी को बंद कर दिया और बड़ी देर तक बिस्तर पर चित लेटे ऊपर चलते पंखे को घूरता रहा। अचानक उसे लगा कि पंखे से एक फंदा लटकता हुआ आकर सीधे उसकी गर्दन पर कस गया है और वह धीरे-धीरे ऊपर उठता जा रहा है। वह लाख छटपटा रहा है लेकिन उस फंदे की पकड़ ढीली ही नहीं हो रही है। वह अपने बचाव के लिए चीखना चाहता था लेकिन उसके कंठ से एक घुटी-सी कराह ही निकली। अपनी पूरी ताकत से उसने अपने हाथों से उस फंदे को अपनी गर्दन से अलग किया और झटके से उठ बैठा, 'उफ कितना भयानक सपना था!' उसी रात उसने तय किया कि वापस बनारस चला जाए।

हालाँकि चलते हुए भी वह इस आत्महत्या के प्रसंग से मुक्त नहीं हो पा रहा था। ट्रेन में सफर करते हुए भी वह इस संभावना पर लगातार विचार कर रहा था कि यदि इस ट्रेन की जबर्दस्त दुर्घटना हो जाए और उसकी बोगी के अधिकांश लेाग उसमें मारे जाएँ और वह किसी तरह बच जाए, तो भागकर वह कहीं असम या मेघालय या अरुणाचल प्रदेश चला जाएगा और नाम बदलकर रहने लग जाएगा। तब वह लोगों की प्रतिक्रिया जान पाएगा कि लोग उसके मरने को कैसे लेते हैं

यह सोचते हुए उसके होठों पर एक तिरछी मुस्कुराहट फैल गई, लेकिन फिर वह तुरंत ही सँभल गया। उसे याद आया कि उसके ऐसे मुस्कुराने की अदा को वह लड़की जालिम कहती थी और अक्सर कहा करती थी कि जो लोग ऐसे मुस्कुराते हैं वे किसी के नहीं होते। एकदम पत्थर-दिल होते हैं वे लोग। सुनकर पता नहीं क्यों उसे थोड़ी खुशी ही होती थी और जब कभी भी उसे मौका मिलता वह इस अदा में उसके सामने मुस्कुरा जरूर देता। लड़की तुनककर कहती, 'इस तरह मत मुस्कुराइए प्लीज। मुझे डर लगता है।'

तुम होते हो, मैं होता हूँ, बाकी सब धोखा होता है!

अविनाश को कभी इस बात पर यकीन नहीं हुआ कि वह लड़की उससे डर भी सकती है। वह थी भी पाँच साल बड़ी। एशिया के उस सबसे बड़े आवासीय विश्वविद्यालय में जब अविनाश बी.ए. प्रथम वर्ष का छात्र हुआ तब तक वह एम.ए. क अंतिम वर्ष के अंतिम दिनों में पहुँच चुकी थी। कुछ पुरानी वाकफियत और जान-पहचान के सिलसिले में अविनाश अक्सर उसके छात्रावास 'ज्योतिकुंज' आने-जाने लगा था। वैसे भी वह बनारस में उन दिनों नया था और समय कैसे बिताया जाए जैसी बुनियादी समस्याओं से अक्सर परेशान रहता था। पहले तो लड़की ने उसके यूँ रोज-रोज चले आने पर नाराजगी महसूस की, परंतु जब एक बार अविनाश तीन-चार रोज के लिए कहीं बाहर चला गया तो उसे महसूस हुआ कि दरअसल वह अविनाश की उपस्थिति की आदी हो चली थी। चौथे दिन जब अविनाश उससे मिलने पहुँचा तो वह यकायक बिफर पड़ी, 'कहाँ चले गए थे आप यदि कहीं जाना ही था तो बताकर जाना चाहिए था न यहाँ कितनी परेशानी..'

आगे कहते-कहते लड़की रुक गई थी। अविनाश ने भी कुछ नहीं कहा लेकिन उसी दिन से शायद दोनों के बीच एक-दूसरे को लेकर अधिकारबोध-सा स्थापित हो गया था। अब अविनाश को यदि कहीं बाहर जाना होता तो लड़की को बताकर चला जाता और यदि लड़की को भी किसी शाम को कहीं जाना होता तो वह पहले ही बता देती। एक शाम जब वह उससे मिलने पहुँचा तो वह काफी घबराई और डरी-सी थी। पूछने पर उसने बताया कि कल वह अपनी कविताओं की रिकार्डिंग के बाद जब रेडियो स्टेशन से लौट रही थी तब वह एक अजीब मुसीबत में फँस गई थी। दरअसल बनारस में रेडियो स्टेशन खासे बदनाम मुहल्ले 'मड़वाडीह' में स्थित था। रिकार्डिंग कराकर जब वह निकली तो अँधेरा हो चुका था। अँधेरे की वजह से उसे कुछ दिशाभ्रम-सा हो गया और वह हॉस्टल लौटने से उल्टे रास्ते पर बढ़ गई। वहाँ कुछ ऑटोवालों ने उसे ऐसी-वैसी समझ लिया ओर उसे घेरकर 'कहाँ जाना है चलो हम ले चलते हैं' टाइप फिकरे कसने लगे। तभी संयोग से उधर से चार-पाँच शरीफ लड़के निकले जो एम.बी.ए. के ताजा रंगरूट थे और उस इलाके में अपनी कंपनियों के माल की खपत के सर्वेक्षण के सिलसिले में आए थे। उन्होंने उसे वहाँ से निकाला और सुरक्षित हॉस्टल पहुँचाया। बताते हुए वह अब तक काँप रही थी। पहली बार अविनाश की इच्छा हुई कि वह उसे छू ले, उसकी बाँहों को सहला दे या उसकी पीठ पर हाथ रखकर दिलासा दे दे। चलते समय उसने निहायत बुजुर्गाना अंदाज में कहा, 'आइंदा जहाँ कहीं भी जाना, मुझे बता दिया करना। मैं तुम्हारे साथ चलूँगा!' लड़की ने स्वीकृति में सिर हिला दिया। अविनाश ने उस दिन पहली बार उसे 'तुम' से संबोधित किया था।

संबोधन के इस बदलाव को अविनाश सहज ही लेता लेकिन एक दिन जब उसने देखा कि लड़की का एक सहपाठी उसे 'तुम-तुम' कहकर बात कर रहा था तो उसने तत्काल टोक दिया था, 'राम विनय जी। यह आपने 'तुम-तुम' क्या लगा रखा है मैं तो आपको 'आप' ही कहती हूँ।' राम विनय जी खासे लड़खड़ा गए, 'नहीं मैं तो तुम्हें, नहीं आपको... मित्रवत...'

अविनाश ने अपने आपको खासा चौड़ा महसूस किया। 'देखो, इसके सहपाठी तक इसे 'तुम' नहीं बुला सकते और वह जो कि उससे चार-छह साल पीछे है, उसे सरेआम 'तुम' कह सकता है।' उसने राम विनय के सामने ही उससे कहा - 'अच्छा सरू! तुम बातें करो मैं चलता हूँ...'

'नहीं! नहीं! आप रुकिए न, बातें तो बस हो ही चुकीं। मैं चलती हूँ आपके साथ।'

राम विनय खासे आहत हुए। वे चुपचाप 'हाँ-हाँ ठीक है' कहते हुए निकल गए। लड़की इत्मीनान से अविनाश के साथ रिक्शे में बैठ गई। उस दिन अविनाश ज्यादा आत्मविश्वास और भरोसे से रिक्शे में बैठा। पहले भी वह रिक्शे में उसके साथ बैठता रहा था परंतु थोड़ा सिकुड़कर। कहीं कुछ छू न जाए कि भाव से। आज अविनाश ने महसूस किया कि उसके कंधे जो लड़की के कंधों से छू रहे थे वहाँ लड़की ने अपने कंधे का दबाव बढ़ा दिया था। उसे हटाने या बचाने की कोई कोशिश नहीं थी।

अविनाश ने महसूस कर लिया था कि लड़की जरूर कुछ बुन रही है और उस बुने जा रहे ताने-बाने में जरूर उसका एक अहम स्थान है। इसका अहसास अविनाश को उसकी बातचीत से भी हो रहा था। एक दिन लड़की ने कहा कि लोग अब उसके यूँ लगातार आने और हमेशा साथ घूमने-फिरने पर ताने कसने लगे हैं।

'तो तुम क्या सोचती हो' अविनाश ने धकड़ते दिल से पूछा।

'कुछ नहीं। कहते रहें लोग। मुझे फर्क नहीं पड़ता। जब हम ठीक हैं तो किसी के कहने से क्या होता है।' लड़की कहीं शून्य में देखती हुई कह रही थी।

'सही बात है। हमें लोगों से ज्यादा अपने-आप पर यकीन होना चाहिए।'

'वही तो। और मुझे अपने आप पर बहुत यकीन है।' लड़की ने शून्य से नजरें हटाईं नहीं।

'तुम मुझसे निश्चिंत रहो। मुझे इस तरह के किसी संबंध में यकीन नहीं है। प्यार-व्यार तो बिल्कुल नहीं।'

'मैं तो शर्त लगा सकती हूँ कि कि मुझे किसी से प्यार नहीं हो सकता।' लड़की पूर्ववत खोई हुई थी।

अविनाश को थोड़ी चुहल सूझी। उसने लड़की का हाथ जबरदस्ती अपने हाथों में ले लिया, 'तो लगी शर्त सौ-सौ रुपये की मुझे लगता है तुम्हें किसी न किसी से तो प्यार हो ही जाएगा।'

'हूँह!' लड़की ने थोड़ा अजीब-सा मुँह बनाया और कहा, 'ठीक है। लेकिन यदि आप कहीं फिसल गए किसी पर तो सौ रुपये मेरे।' वह एक मुस्कुराहट थी जो अक्सर शून्य से लौटने पर आ जाती है।

और एक दिन जब अविनाश उसके साथ अस्सी घाट की सीढ़ियों पर बैठा था और लड़की अपनी परीक्षाओं, अपने कैरियर और अपने भविष्य पर लगातार बोले जा रही थी और अविनाश सिर्फ हाँ-हूँ में जबाव दे पा रहा था कि अचानक लड़की बोलते-बोलते सुबकने लगी। अविनाश चुपचाप उसे देखता रहा। दरअसल वह दो-तीन दिनों से महसूस कर रहा था कि लड़की किसी भी बात पर कभी भी रो सकती है। थोड़ी देर में लड़की संयत हो गई और दोनों चुपचाप हॉस्टल की ओर लौटने लगे। रिक्शा जब महिला छात्रावास के पास रुका तो उससे दोनों उतर आए। लड़की काफी देर तक हॉस्टल के बाहर के चबूतरे पर बैठी रही। वह थोड़ी-थोड़ी देर में हिचकी लेने जैसा सुबक उठती थी। अविनाश चुपचाप उसकी बगल में बैठा था।

तभी लड़की ने अपना चेहरा उठाया और कहा, 'कल मुझसे सौ रुपये ले लीजिएगा। मैं शर्त हार गई।'

'नहीं! इसकी कोई जरूरत नहीं। मैं भी हार गया।' अविनाश ने धीरे से कहा।

लड़की ने अपना चेहरा पोंछा और चुपचाप उठकर हॉस्टल चली गई। अविनाश कुछ देर यूँ ही अकेले चबूतरे पर बैठा रहा। हॉस्टल की ओर जाती हुई लड़की के पैर उसे अपनी जिंदगी की ओर आते महसूस हो रहे थे। थोड़ी देर में वह भी उठकर अपने हॉस्टल की तरफ चला। उसे महसूस हुआ कि हॉस्टल की ओर जाते हुए उसके पैर लड़की की जिंदगी की ओर जार रहे हैं। देखने से विपरीत दिशाओं में जाते हुए भी दोनों एक ही दिशा में आ रहे थे। यह वह दिशा थी जहाँ से सभी दिशाएँ खो जाती हैं।

वह मार्च की गुनगुनी हवा जैसी कोई चीज थी जिसमें अविनाश पागल हुआ जा रहा था, लेकिन उसने देखा कि लड़की जैसे अपने इस निर्णय से किसी सदमे में आ गई थी। वह अविनाश को देखती और उसकी आँखें डबडबा जातीं। कभी-कभी उसके चेहरे पर ऐसी लाचारगी और बेबसी आ जाती कि जैसे वह हर्गिज-हर्गिज नहीं आना चाहती थी इस रास्ते पर। यह उसका रास्ता नहीं था। उसे याद था कि उसके भाई ने अपनी जिद और भरोसे से उसका एडमिशन इस विश्वविद्यालय में करवाया था। नहीं तो एक परंपरागत दक्षिण भारतीय परिवार की तरह उसका परिवार संस्कृत में उसके बी.ए. आनर्स की डिग्री से पर्याप्त खुश था। अब जबकि उसे एक सुयोग्य सुदर्शन वर मिलना ही मिलना था तब भाई ने उसकी प्रतिभा, उसकी काबिलियत पर अपना भरोसा जताया था और बजाय वह किसी के घर, बच्चे, स्टेटस सँभालने के अपना कैरियर अपना भविष्य सँभालने यहाँ थी। यहाँ उसे सँभल-सँभल चलना था, और वह चली भी लेकिन यह अनजाने में यह किस डगर पर बढ़ गई अपनी उस मुस्कुराहट और विवशता में वह इतनी निश्छल और पवित्र लगती कि अविनाश की इच्छा उसके माथे से अपने होंठ सटा देने की होती। और एक दिन उसने ऐसा किया भी। अविनाश के कमरे में जब एक दिन वह अविनाश की डायरी पर मनोयोग से झुकी थी उसने हठात उसका चेहरा अपने हाथों में भर लिया। लड़की के पूरे वजूद में कंपन हो आया। हल्के काँपते चेहरे पर उसकी मुँदी हुई पलकें। अविनाश की हथेलियों में जैसे उसका चेहरा नहीं किसी खरगोश का बच्चा या कोई सहमा-सा कबूतर था। हथेलियों के सहारे ऊपर उठता उसका माथा जब अविनाश के होठों से छुआ तो जैसे उसके कानों पर बाहर बरस रही किसी बारिश का शोर था, उसका समूचा चेहरा जैसे किसी धीमी आँच में तप रहा था, उसकी साँस तेज चलने लगी थी। अविनाश ने उसके चेहरे को छोड़ दिया। लेकिन वह अपनी तेज साँसों और बंद पलकों के साथ वैसी ही मूर्तिवत बैठी रही। अविनाश भी सिर झुकाए बैठा रहा। उसके मुँह में अभी तक उसके माथे के स्पर्श का स्वाद था। अविनाश चुपचाप कमरे से बाहर निकल आया। बाहर की धूप उसे थोड़ी साँवली-सी लगी और हवा में ठंडक भी। थोड़ी देर में वह फिर कमरे में वापस आया। लड़की वैसी ही डायरी पर झुकी थी। अविनाश को यह ठीक-ठीक पता नहीं चल पा रहा था कि लड़की ने उसके इस कदर चूम लेने को कैसे और किन अर्थों में लिया है। थोड़ी देर चुप रहने के बाद उसने कहा, 'वापस चला जाए।'

लड़की ने चुपचाप डायरी रखी और अपना पर्स उठा लिया, 'हाँ, चला जाए।' वापसी के रास्ते दोनों चुप थे। अविनाश की आँखों में जैसे किसी अदृश्य के देखे जाने का खुमार था तो लड़की किसी खूबसूरत गुनाह के रोमांच में आँखें नीचे किए रही। धीमे से लगभग फुसफुसाती हुई अविनाश की आवाज आई, 'तुमने बुरा तो नहीं माना!'

'किस बात का?' लड़की के होठों पर एक शरारती मुस्कान खेल गई।

'...वो सब ...वो मैंने जानबूझ कर नहीं किया। वो यूँ ही पता नहीं कैसे।'

वह एकदम से खिलखिलाकर हँस पड़ी। लड़की का हॉस्टल आ गया था। उतरते-उतरते बोली, 'अपनी डायरी जरूर पढ़ लीजिएगा।'

लगभग दौड़ते हाँफते हुए अविनाश अपने कमरे में पहुँचा। उसने उसे खूब उलट पुलटकर देखा, डायरी में कहीं कुछ नहीं लिखा था। सिर्फ एक जगह पान के पत्ते का तीर बिंधा हुआ एक चित्र था जिस पर एक बिंदी चिपकी हुई थी, लड़की के माथे की बिंदी। साधारण, चालू और तीसरे दर्जे के उस प्रेम के प्रतीक में न जाने क्या था कि अविनाश की आँखें छलछला आईं। उसने प्यार और अनुराग से उस पान के पत्ते की-सी चित्रकारी को सहलाया। भीगे मन से अविनाश ने डायरी बंद की।

लेकिन अविनाश की दुनिया में अब ढेर सारे शब्द थे। जब वह लड़की से मिलता तो उसके पास बताने के लिए इतना कुछ होता कि वह खुद चकरा जाता कि वह इतना कुछ जानता है। वह लगातार सुर में बोलता जाता। बोलता वह पहले भी था, भाषणों, वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में परंतु पहले उसे स्वयं के बोलने में वजन नहीं महसूस होता था। अब तो एक-एक शब्द जैसे वजनदार अभिव्यक्ति का साकार स्वरूप था जिसके भार तले लड़की की पलकें मुँदी जाती थीं। यह एक अजीब फलसफाना मंजर था जिसमें अविनाश के कंधों को हमेशा उस लड़की के सिर का इंतजार था।

जहाँ पेड़ में चार दाने लगे, वहीं दुनिया भर के निशाने लगे...

अविनाश अब उस लड़की के साथ इतना सहज था कि उसकी इच्छा हमेशा उसका हाथ पकड़कर घूमने की होती। अपनी इस इच्छा में वह पैदल ही समूचे बनारस का चक्कर काट आता। वह अस्सी घाट से पैदल चलता हुआ दशाश्वमेध पहुँच जाता। और वहाँ यूँ ही बैठा-बैठा लड़की के बारे में सोचता रहता। लड़की उसके साथ घूमती थी जरूर, लेकिन शाम को। बाकी समय उसकी अन्य व्यस्तताएँ थी। उन परीक्षाओं के बाद उसकी अपनी परीक्षा, जो कि असली परीक्षा थी, शुरू होनी थी। यहीं से उसके आगे की जिंदगी के रास्ते निकलने थे कि वह खूबसूरत रंगोली बने हुए दरवाजे पर किसी रजनीकांतनुमा अपने पति के साथ खड़ी होकर अपनी क्लोपअप मुस्मकान से 'वडक्कम' कहती हुई लोगों का स्वागत करेगी या जिंदगी के ऊबड़-खाबड़ रास्तों को अपने आत्मविश्वास भरे हुए कदमों से समतल बनाते हुए चलेगी। पहले रास्ते के बारे में सोचते हुए उसे उबकाई आने लगती। उसे दूसरे रास्ते पर अविनाश के साथ चलना था, इसलिए अविनाश को अभी अकेले घूमना था।

लाख निजता बरतने के बावजूद उसके समूचे डिपार्टमेंट में शोर था कि सरिता यानी लड़की का स्क्रू ढीला हो गया। राम विनय जी, जो उससे 'तुम' का यानी मित्रवत रिश्ता रखना चाहते थे, इस समूचे प्रकरण को लेकर खासे उत्साहित थे - 'जानते हो मित्र! यह अनाचार तो विभाग को ले डूबेगा। प्रारंभ में तो मुझे यही भान था कि बालक अनुजवत है। लघुभ्राता समान स्नेह का आकांक्षी है, परंतु यह तो परिणयात्मक व्यभिचार है!'

लड़की की सहेलियाँ भी इस समूचे प्रसंग से खासा बौखलाई थीं। पहले तो उन्होंने उसे समझाया। यह सिर्फ आकर्षण है। इतना छोटा है वह तुमसे। देखो लोग क्या कहेंगे वगैरह-वगैरह। अक्सर बजाय खीजने या कुढ़ने के उसके चेहरे पर एक अजीब-सी आश्वस्तिभरी मुस्कान खेल जाती। कभी-कभी वह अविनाश से इन लोगों की शिकायत भी करती। लेकिन इस शिकायत में कोई पीड़ा नहीं होती।

एक दिन तो हद हो गई। दोनों एक पूरा दिन साथ बिताने की गरज से सारनाथ चले आए। मौर्य साम्राज्य के आखिरी और सबसे मजबूत प्रतीकों के खंडहर से गुजरते हुए बुद्ध के आधुनिक पैगोडे वाले परिसर में पहुँच गए। वह शायद उस मंदिर के प्रधान पुजारी का रिहाइशी इलाका था, जो जरा हटकर बना था। खूबसूरत लॉन और फूलों की क्यारियाँ थीं। लोगों की आवाजाही भी इस इलाके में कम थी। लॉन में बैठते ही लड़की का चेहरा खुद ब खुद उसके सीने पर टिक गया। एक सुनहरी धूप-छाँव के बीच लड़की के अस्पष्ट, अस्फुट-से शब्द स्वाति की बूँदों की तरह अविनाश के कानों में मोतियों की शक्ल ले रहे थे, 'लव यू अवि आई लव यू।' अविनाश का हाथ अपने आप उठता हुआ उसकी पीठ पर आ गया। दोनों जैसे समुद्र के बीचोंबीच किसी गुब्बारे में कैद हो गए। तभी गुब्बारे को फोड़ती एक आवाज आई, 'ये क्या हो रहा है यहाँ पर?' दोनों ने चौंककर देखा। चादरधारी एक भिक्षु सीधे उत्तर वैदिक काल से निकलता हुआ साक्षात उनके सामने खड़ा था। अविनाश सकपका गया, लेकिन लड़की ने अपना चेहरा उसके सीने से हटाया तक नहीं।

'देखिए। यह जगह पवित्र है। यह ऐसे कामों के लिए नहीं है।' उत्तर वैदिक होंठ पुनः फड़फड़ाए।

लड़की पूर्ववत बैठी रही। भिक्षु अपनी इस हेठी से तिलमिला गया। वह लगभग काँपता हुआ दोनों के ठीक सामने आ गया। अविनाश की स्थिति एकदम विचित्र लग रही थी। लेकिन भिक्षु को यूँ सामने खड़ा देख लड़की के मुँह से फुसफुसाने जैसी आवाज निकली, 'किस तरह का काम करने की मनाही है यहाँ सारे संसार को प्रेम और करुणा का उपदेश देते फिरते हो और स्वयं इतने अभद्र और लंपट हो।'

'चलिए। चलिए... निकलिए यहाँ से... जाइए...!' वह लगभग चिल्लाने पर उतारू हो गया।

'जा रहे हैं। वैसे भी हम यहाँ घर बनाने नहीं आए हैं।' इत्मीनान से उठते हुए लड़की अविनाश का हाथ थामे छोटे कदमों से लान से बाहर आ गई।

बाहर आकर दोनों वैसे ही निःशब्द हाथ पकड़े चलते रहे... 'काफी बोल्ड हो तुम! भंते की तो घिग्गी बँधा दी तुमने।' अविनाश ने धीरे से कहा, तिरछा मुस्कुराते हुए...

'आपने बोल्ड बना दिया है।' कहते हुए लड़की खिलखिला पड़ी।

शोर यह भी था...

लड़की अपनी स्वतंत्रता और उसकी चमक में हमेशा नहाई हुई-सी लगती। उसकी आवाज उसकी चाल और व्यवहार में एक अनोखी रूमानी अल्हड़ता आ गई थी। उसकी सहेलियाँ जो उसके साथ पढ़ती थीं, वह तो उससे खफा थीं लेकिन उसने इसकी रत्ती भर परवाह किए बिना जूनियर लड़कियों से बेतकल्लुफी होकर दोस्ती कर ली। ज्योतिकुंज छात्रवास में इस तरह की बेतकल्लुफी एक दिलचस्प घटना थी। कहाँ तो तमाम सीनियर दीदियाँ हमेशा हिदायतों की चाबुक लिए खड़ी रहती हैं और कहाँ ये सरू दी तो जैसे उनकी सहेली ही हो गई थीं। जब भी मौका मिलता वे उनके कमरे में चली आतीं और शुरू हो जाता धमाचौकड़ियों का सिलसिला। इतनी प्यारी दीदी। वह उन तमाम लड़कियों से तमाम विषयों पर बातचीत करती। उनके विचार और उनकी जिज्ञासाएँ जानती, उनके फैशन और हेयरस्टाइल पर कमेंट करती और कभी-कभी यूँ ही मुस्कुरा देती।

इन बच्ची सहेलियों में एक लड़की रमोला उसे सबसे ज्यादा अजीत थी। गोरी-चिट्टी, खूबसूरत और बॉर्बीडॉल जैसी लगने वाली इस लड़की की सबसे बड़ी खासियत थी कि वह शिवाजी सिंह की छोटी बहन थी। शिवाजी सिंह विश्वविद्यालय की ठाकुर राजनीति के सरगना थे। कहने को वे अभी तक रिसर्च स्कॉलर थे। लेकिन किस विभाग में, यह शायद ही किसी को पता था। विश्वविद्यालय में हरेक विभाग में उनकी पैठ थी।

सरिता की पहचान रमोला से बड़ी अजीबोगरीब स्थिति में हुई थी। रमोला के विभाग में फ्रेशर पार्टी थी। बी.ए. प्रथम वर्ष की छात्रा रमोला को उस पार्टी में 'बार्बीडॉल' का खिताब दिया गया था। पार्टी के शोर और घबराहट में बेचारी रमोला को लगा कि लोग उसे बॉबी जैसा कुछ कह रहे हैं। ठेठ ठाकुरों के खानदान में पली रमोला को बॉबी नाम सुनते ही कँपकँपी छूट गई। 80 के दशक में राजकपूर की बॉबी यानी डिंपल कापड़िया की बिंदास और सेक्सी छवि उसके जेहन में घूम गई। देर-सवेर तो भैया को भी पता चल जाएगा कि लोग उसे बॉबी मतलब सेक्सी कहते हैं। अब किसका नाम ले, किसका मुँह पकड़े भैया तो उसी को दोष देंगे और शायद पढ़ना भी बंद करवा दें। तालियों के शोर से किसी तरह पीछा छुड़ाते वह लगभग भागती हुई अपने कमरे में आई और दरवाजा बंद कर हिचकियाँ लेने लगी। लोग परेशान! कहाँ तो इसे मिस फ्रेशर बनने पर खुश होना चाहिए, ट्रीट देनी चाहिए और यह लड़की जार-जार रो रही है। तब वह किसी से चुप नहीं हो रही थी। जब सरिता में कुछ अपनेपन का भाव जानकर सिसकते हुए बोली, 'सरू दी। मैं तो पूरे कपड़े पहनकर वहाँ थी फिर उन लोगों ने मुझे बॉबी क्यों कहा भैया जानेंगे तो...'

सरिता के उसके विभाग के अन्य लड़कियों से जब जानकारी हासिल की तो वह ठठाकर हँस पड़ी। 'पगली! उन लोगों ने तुम्हें बॉबी नहीं बार्बी कहा है। बार्बी डॉल। वह गुड़िया जो दुकानों पर मिलती है बिल्कुल तुम्हारी तरह ही तो होती है।'

रमोला ने एक दिन यह जानकर कि सरू दी को उनके विभाग के कुछ लड़के संस्कृत में चिढ़ाते हैं, चुपके से अपने भैया से कह दिया। और एक दिन जब शिवाजी सिंह की मोटर साइकिल विभाग के सामने रुकी और राम विनय जी को बुलाकर जब भ्रातृवत उन्होंने कुछ समझाया तो वे और उसके मित्रगण पुरुषस्य भाग्यम की जगह अपने भाग्य की खैर मनाने लगे।

अविनाश से यह पूरा वाकया बताते हुए सरिता चहक रही थी। आप देखते अवि, क्या हालत थी राम विनय जी की। अब तो मित्रवत से सीधे भगिनीवत पर उतारू दिखते हैं। शिवाजी भैया को आपने देखा नहीं होगा - क्या खूँखार पर्सनालिटी है। किसी दिन मिलवाऊँगी मैं आपको...।' अविनाश चुपचाप सिर झुकाकर सुनता रहा। शिवाजी भैया के 'खूँखार पर्सनालिटी' के बयान के बीच उसे अपना अस्तित्व गुम-सा लग रहा था। राम विनय का यूँ खिसियाकर सरिता को छेड़ना, अविनाश को असहज लगने के बावजूद एक विजय का अहसास देता था। लेकिन जब आज शिवाजी सिंह ने अपने खूँखार व्यक्तित्व से राम विनय को हड़काया था, अविनाश को जैसे अपनी गर्दन उसके पंजे में महसूस हो रही थी। वह लगभग रुआँसा हो आया।

सरिता ने जब अविनाश को यूँ गुमसुम देखा तो उसे जैसे होश आया। उसने धीरे से उसका हाथ अपने हाथों में लेते हुए पूछा, 'क्या हुआ आपको क्या कुछ गलत हुआ!' अविनाश को लड़की पर तरस आ गया। उसने धीरे से लगभग समझाते हुए अंदाज में कहा, 'देखो सरू, शिवाजी सिंह के बारे में मैं भी जानता हूँ। ऐसे लोग बिना अपने फायदे या मतलब के कुछ भी नहीं करते। आज तुम यदि इनसे कोई मदद लोगी तो कल को ये भी तुमसे कोई फायदा चाहेंगे। इसलिए हमें जहाँ तक हो सके, ऐसे लोगों से दूर ही रहना चाहिए।'

'अच्छा बाबा। मान गई आपकी बात! रहेंगे दूर उनसे।'

लड़की को ज्यादा इंतजार नहीं करना पड़ा। एक दिन जब वह अपने विभाग जाने के लिए निकल ही रही थी कि एक साथ दस मोटर साइकिलें उसके सामने रुकीं। वह घबराकर, चौंककर जब तक सँभलती, शिवाजी सिंह उसके सामने थे।

'सरिता। कैसी हो अब तो वे लोग तुम्हें परेशान नहीं करते?'

'नहीं भैया। अब सब ठीक है...' एक कृतज्ञता भरी आवाज निकली।

'देखो, मैं यहाँ एक खास काम से तुमसे मिलने आया हूँ।' शिवाजी सिंह की आँखें जैसे उसे तौल रही थीं। सारे मोटर साइकिल सवार टकटकी बांधे उसकी ओर देख रहे थे।

'जी... मुझसे...' सरिता की आवाज फँस रही थी।

'हाँ, सुना तो होगा ही कि कोई विदेशी महिला हमारे बनारस में आकर एक फिल्म बनाना चाह रही है।'

'जी वो दीपा मेहता... वाटर...'

'हाँ-हाँ, वही वाटर पानी। साली जिसे भारतीय सभ्यता और संस्कृति की कोई तमीज नहीं है वह हमारे समाज की नंगी तस्वीरें खींचकर विदेशों में हमारे देश का नाम खराब करना चाह रही है।'

'लेकिन वो तो विधवाओं पर...'

'विधवा सधवा कुछ नहीं। पूरा नंगई फैलाने का इरादा है उसका। आखिर हम लोग इस शहर, इस देश में रहते हैं। इसके प्रति कोई फर्ज बनता है कि नहीं अपना...।'

'जी... बनता तो है... लेकिन...'

'लेकिन-वेकिन छोड़ो अब हम लोगों ने तय किया है कि महिलाओं का एक जुलूस इस फिल्म के खिलाफ निकालेंगे। वैसे महिलाओं का तो इंतजाम हम लोगों ने कर लिया है। लेकिन वे लोग सिर्फ जुलूस में शामिल हो सकती हैं। आखिर कोई जुलूस में भाषण देने वाला भी तो होना चाहिए। हम लोग चाहते हैं कि तुम अपनी दो-चार सहेलियों के साथ कल जुलूस में आओ। एक दस मिनट का स्पीच दे देना।'

'लेकिन भैया... मैं कैसे फिर एक्जाम्स...'

'वो सब छोड़ो। एक्जाम में कितने मार्क्स चाहिए तुम्हें मुझे बता देना।' कहते हुए शिवाजी सिंह ने एक जोरदार ठहाका लगाया। बाकी मोटर साइकिलों पर सवाल हेलमेट के अंदर से वैसे ही ठहारके उस मजबूत ठहाके में शामिल होते गए। ठहाकों की आवाज के साथ ही मोटर साइकिलों के स्टार्ट होने की आवाज भी आई। और उन सब आवाजों के बीच एक महीन किंतु बहुत ठोस लगभग ठनकती सी आवाज सरिता के कानों में पड़ी, 'आना जरूर सरिता। ये मेरी इज्जत का सवाल है।'

शाम को जब अविनाश आया तो वह काफी भरा हुआ था, 'जानती हो सरू। हम कितने पिछड़े और बर्बर शहर में रह रहे हैं। कहने को हम लोकतंत्र में है और अभिव्यक्ति का अधिकार हमारा सबसे बड़ा अधिकार है। लेकिन कहाँ है अभिव्यक्ति का अधिकार एक फिल्मकार इतिहास के किसी कालखंड पर फिल्म बनाना चाह रही है और ये कुछ भाड़े के गुंडे और स्वयंभू मठीधीश इसे भारतीय संस्कृति की रक्षा के नाम पर कलंक साबित कर रोकना चाहते हैं।'

सरिता के कानों पर हथौड़े बज रहे थे। दोनों घाट की सीढ़ियों पर बैठे थे। वह किसी तरह बातचीत का रुख मोड़ना चाह रही थी। वह सुबह की अपनी घटना के बारे में बताना चाह रहती थी। लेकिन अविनाश का रुख देखकर कुछ बोलने का साहस नहीं हो रहा था। सामने गंगा अपनी सहज गति से बहती जा रही थी। उसकी इच्छा हो रही थी कि अभी कोई तेज लहर उठे और दोनों को बहाकर ले जाए। लेकिन अभी मृत्यु की रोमांटिक चाहना से जीवन के यथार्थ का सामना ज्यादा बड़ा सवाल था। और इस यथार्थ में शिवाजी सिंह था, उसकी इज्जत थी। इसी यथार्थ में अविनाश और उसके सोचने का तरीका। सरिता अविनाश के सोचने के तरीके में शामिल हो सकती थी लेकिन...

'लेकिन ये भी तो देखिए कि इतने प्रबुद्ध लोग इसका विरोध कर रहे हैं... आखिर कोई तो बात होगी...' सरिता ने नजरें नीची रखकर ही कहा।

'प्रबुद्ध लोग... कौन हैं ये प्रबुद्ध लोग नाम पढ़ा है तुमने अखबारों में एक तो वही अपने अध्यापक हैं राजनीति शास्त्र वाले, पिछले ही दिनों अपनी छात्रा से छेड़छाड़ के आरोप में गिरफ्तार हुए थे। और... और कुछ हैं गुमनाम से मठों के मठाधीश, किसी पौराणिक ग्रंथों के स्वयंभू भाष्यकार।'

'लेकिन हमें इनका मत भी जानना चाहिए। ये भी लोकतंत्र का जकाजा है।'

'लोकतंत्र का तकाजा हैं कि इनका मत जानना चाहिए। इन्हें विरोध करने का हक है। लेकिन ये विरोध कहाँ कर रहे हैं ये तो अपनी बात मनवा रहे हैं। मुख्यमंत्री से लेकर यहाँ का डी.एम. तक कह रहा है हम इन लोगों से सलाह करके ही कोई अनुमति दे सकते हैं।'

'तो...'

'तो क्या यह सरासर गोरखधंधा है। इन लोगों की क्या कोई संवैधानिक इकाई है कुछ नहीं। एक कोई स्वयंसेवक है, वह निर्माता से इस फिल्म के वितरण का अधिकार माँगने गया था। नहीं मिलने पर ही उसने यह सब बखेड़ा किया है। और जब तमाम लोग उसमें अपनी रोटियाँ सेंक रहे हैं।'

'लेकिन आप यह इतने दावे से कैसे कह रहे हैं?'

'सिर्फ मैं ही नहीं कह रहा हूँ। इस शहर के वाकई जो प्रबुद्ध लोग हैं वो तमाम लोग इस बात को उठा रहे हैं। कल इसी गंगा के तट पर तमाम बुद्धिजीवी काशीनाथ सिंह, बच्चन सिंह, ज्ञानेंद्रपति आदि इकट्ठा हो रहे हैं, इसका विरोध करने के लिए हम लोग भी आएँगे।'

सरिता अचानक झल्ला गई, 'कोई नहीं आ रहा है यहाँ। मेरी परीक्षाएँ नजदीक हैं। और आप भी अपनी पढ़ाई पर ध्यान दीजिए।'

'कैसी बात बर रही हो सरू, यह कोई राजनीति नहीं है। यह सच के पक्ष में खड़ा होना है। और आज यदि हम बोलने से बचेंगे तो भविष्य में हम सदा के लिए गूँगे कर दिए जाएँगे।'

सरिता निरुत्तर थी। एक आवेग में थी। आखिर अविनाश की इन्हीं अदाओं की तो वह दीवानी थी। लेकिन आज वह खुलकर उसकी तारीफ तक नहीं कर पा रही थी। उसके अपने मन का चोर उसे आज ठीक से नजरें नहीं मिलाने दे रहा था। लौटते समय उसने गौर से गंगा के पानी को देखा। इतनी गंदी होती जा रही है यह। उसे 'मिलिंद प्रश्न' का वह प्रसंग याद आ गया। जब भिक्षु नागसेन राजा मिलेंडर से जीवन की निरंतरता को व्याख्यायित करते हुए पूछता है, राजन क्या यह वही जल है जो एक क्षण पहले था?

'नहीं भंते। वह तो बह गया।'

'क्या यह वही जीवन है जो कल था सरिता ने सोचा...

बहुत देर के बाद भी उसे कोई उत्तर नहीं मिला।

पैरों के पास की हरी घास को दरोगा का भैंसा चर गया।

रात भर सरिता सो नहीं सकी। भयानक और बुरे सपनों की आवाजाही में करवटें बदलती रही। कभी वह देखती कि शिवाजी सिंह उस बौद्ध भिक्षु का चीवर पहने हुए संस्कृत या पालि में कोई भयानक-सा मंत्र उचार रहे हैं। अचानक से उनकी नजर सरिता पर पड़ती है। इस पवित्र चैत्य भूमि में तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई घिघियाती हुई-सी उसकी आवाज निकली है... जी मैं तो आपके कहने से, नहीं मेरे कहने से नहीं। परंपरा की रक्षा के नाम पर... फिर उनका चेहरा तेजी से बदलता हुआ एकदम भयावह हो जाता है। परंपरा की रक्षा के नाम पर तुम्हें मरना होगा। सरिता भागकर नदी में कूद पड़ती है। पीछे-पीछे भैंसे पर सवार चीवर पहने शिवाजी सिंह, उसके मुँह से अजगर की तरह आग की लपटें निकल रही थीं। उस आग से नदी के पानी में भी आग लग गई। सरिता पूरी ताकत से बचाओ-बचाओ चिल्लाना चाह रही थी लेकिन उसने महसूस किया कोई उसकी गरदन को कसकर अपने पंजे में दबाए हुए है। घबराकर उसने अपनी आँखें खोलीं। वहाँ कोई नहीं था। वहाँ सिर्फ आने वाली अनहोनी की आशंका थी। सुबह-सुबह ही शिवाजी सिंह आ धमके थे। अपने लाख बचना चाहा, 'भैया। कोई जाने को तैयार नहीं हो रही है।' शिवाजी सिंह ने आश्वस्त किया कि चिंता की कोई बात नहीं, सिर्फ आधे घंटे में वापस हो आना। उन्होंने यह भी बताया कि भाषण देने के लिए तो आधा दर्जन नेत्रियाँ तैयार हैं, लेकिन इससे वो तमाम लोग अपनी राजनीति साधने के फिराक मे लग जाएँगे। चूँकि यह भारतीय संस्कृति की रक्षा का मामला है, इसलिए वे नहीं चाहते कि कोई नेताबाजी इसमें हो। इसमें एक आम भारतीय नारी की आवाज होनी चाहिए। इसलिए वे सरिता का इतना जोर दे रहे हैं। झिझकते और सहमते हुए सरिता उनके साथ जाने को तैयार हो गई। चलते समय वह सोच रही थी, इस आधे घंटे को मैं समूची जिंदगी से नोंच डालूँगी। जब शिवाजी सिंह की मोटर साइकिल स्टार्ट हुई और वह थोड़ी सँभलकर पीछे बैठी तो उसके सीने में एक हूक-सी उठ रही थी। अविनाश प्लीज मुझे माफ कर देना। मैं तुरंत वापस आ जाऊँगी...।

कचहरी पर धरना था। चालीस-पचास महिलाएँ वहाँ इकट्ठा थीं। उनका रूप-रंग देखकर लग रहा था जैसे उन्हें दिहाड़ी पर बुलाया गया हो। सरिता को इन्हीं महिलाओं को लेकर भारतीय संस्कृति की रक्षा करनी थी। शिवाजी सिंह उसे उन भारतीय संस्कृति रक्षा दल के सामने खड़ा कर खुद ज्ञापन टाइप कराने चले गए। सरिता को कुछ समझ नहीं पड़ रहा था कि वह क्या करे। सामने स्लेट की तरह भावहीन चेहरा लिए, हाथ में बैनर थामे वे महिलाएँ खड़ी थीं जिनके सामने उसे भाषण देना था। वह चाहती थी कि शिवाजी सिंह के लौटने से पहले वह अपना दायित्व खत्म कर ले। गला खखारकर उसने कहना शुरू किया, 'बहनो, आज हमारी संस्कृति पर...'

तभी उधर से एक लंबा चौड़ा छह फुट का दरोगा आकर उसके सामने खड़ा हो गया। सरिता ने देखा कि सड़क के उस पार आठ-दस पुलिस वाले खड़े हैं और कौतुक से उसकी ओर ताक रहे हैं।

'क्या चल रह है यहाँ धरना जुलूस। आपको पता नहीं शहर में 144 लागू है और यह सब करना गैरकानूनी है।'

'जी मैं तो...'

'क्या मैं तो आप भाषण दे रही थीं। इन महिलाओं को लेकर प्रदर्शन कर रही हैं। अभी महिला पुलिस आती ही होगी। आप तमाम लोगों को शांति भंग करने के प्रयास में गिरफ्तार किया जाता है।'

सारे पुलिस वाले उस मजमे के इर्द-गिर्द खड़े हो गए थे। सरिता को कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या जवाब दे। वहाँ जमा महिलाएँ आपस में खुसुर-फुसुर कर रही थीं। लेकिन उनमें कोई हड़बड़ाहट नहीं थी। शायद उन्हें पहले से ऐसी स्थिति के बारे में पता था।

'देखिए सर। मैं तो यहाँ यूनीवर्सिटी में पढ़ती हूँ। वो तो शिवाजी भैया...' वह लगभग रुआँसी हो उठी। उस छह फुटे दरोगा ने एक बाज नजर से सहमी सरिता को देखा।

'आपको जो भी कहना हो थाने चलकर कहिएगा।'

'थाना' सरिता के हाथ-पैरों में कँपकँपी हो आई। उसके खानदान में आज तक किसी ने थाने का मुँह नहीं देखा था। भैया की कल्पना करके ही वह सिहर उठी। क्या बीतेगी उन पर। वह सिसक पड़ी। दरोगा और पैनी नजरों से उसे घूरता रहा। तब तक उसे सामने से शिवाजी सिंह आते दिखे। वह लपककर उनके पास पहुँची।

'भैया ये लोग क्या कह रहे हैं?' शिवाजी सिंह उसे लेकर थोड़ा किनारे आ गए।

'देखो सरिता यहाँ प्रेस वाले भी हैं। तुम यदि इस तरह करोगी तो लगेगा जैसे सारा मामला अरेंज्ड है। यह तो रूटीन मामला है। 107 का केस भी कुछ होता है क्या? यहाँ से थाना और फिर छुट्टी।'

'नहीं भैया! मैं थाने नहीं जाऊँगी। प्लीज मुझे बचा लीजिए। मैं आपके पाँव पड़ती हूँ।' सरिता लगभग गिड़गिड़ाने लगी। उसकी ऐसी हालत देखकर शिवाजी सिंह भी घबरा गए, 'तुम तो बेइज्जत करा दोगी। खैर, रुको मैं देखता हूँ।'

थोड़ी देर तक वे उस दरोगा से एकांत में बतियाते रहे। फिर दरोगा उसके पास आया और अपनी भारी और डरावनी आवाज को भरसक मुलायम करता हुआ बोला, 'आप घबराइए नहीं। अभी महिला पुलिस नहीं आई है। मैं आपको छोड़ दूँगा! लेकिन आप पढ़ी-लिखी होकर...'

सरिता को अपने समूचे शरीर में उस दरोगा की आँखें चुभती-सी महसूस हो रही थीं।

'जी, मुझसे गलती हो गई। अब आइंदा...'

दरोगा अपनी डायरी निकालता हुआ बोला, 'अच्छा चलिए, अपना नाम-पता बताइए।'

सरिता ने घबराकर शिवाजी सिंह की तरफ देखा।

'घबराइए मत। यह सिर्फ मेरी पर्सनल इन्फार्मेशन के लिए है। आखिर मैं भी कानून के अंदर ही काम करता हूँ। कल को कोई दिक्कत हो जाए...।'

'बात दो सरिता। कोई बात नहीं, दरोगा साब अपने ही आदमी हैं।' शिवाजी सिंह ने उसे हौसला दिलाया।

सरिता की इच्छा हुई कि वह शिवाजी सिंह का मुँह नोंच ले। आप तो हैं ही। आप ही के कारण तो आज मैं...

अपना नाम-पता उस दरोगा को बताकर जब वह शिवाजी सिंह की मोटर साइकिल पर बैठी तो उसे महसूस हुआ कि सीट पर उसकी बेजान लाश रखी है। आत्मा तो उसकी उस डायरी में बंद हो गई जिसे दरोगा अपनी मूँछों में हँसते हुए पढ़ रहा था।

विश्वविद्यालय के सिंह द्वार पर ही उसे अविनाश दिख गया। वह वहीं उतर गई। अविनाश उसे देखकर उसके पास आ गया। उसने सवालिया नजरों से सरिता की तरफ देखा।

'अविनाश, ये शिवाजी हैं।' सरिता की एक थकी-सी आवाज निकली, 'और ये अनिवाश हैं। मेरे ही शहर के हैं।' थोड़ा अटकते हुए उसने कहा।

'अच्छा!! अच्छा! किस विभाग में हो कोई दिक्कत हो तो बताना।' बिना जवाब सुने धुआँ उगलती उनकी बाइक स्टार्ट हो गई। सरिता ने महसूस किया कि वह छूटा हुआ धुआँ उन दोनों के बीच बहुत ठोस शक्ल में उपस्थित था।

'कहाँ गई थी उनके साथ?' उसकी आवाज काँप रही थी।

'ओफ्फोह! आप भी। रमोला की तबीयत खराब थी। हॉस्पिटल में है बिचारी। उसी को देखने गई थी।' सेकेंड के सौवें हिस्से में सरिता ने सोच लिया था। अविनाश का सिर भन्ना गया। वह अभी उसे ढूँढ़ने जब उसके छात्रावास गया था तो रमोला ने ही उसे बताया था कि दीदी नहीं है अभी। सुबह ही निकली है। फिर वह अस्पताल में कैसे सरिता साफ झूठ बोल रही थी लेकिन वह उस पर यह जाहिर करके उसे अपराधबोध में नहीं डालना चाह रहा था। उसने यूँ ही पूछ लिया, 'कैसी तबीयत है?'

लड़की को लगा वह रमोला के बारे में पूछ रहा है, बोली, 'ठीक है। जल्दी छुट्टी मिल जाएगी।

अविनाश ने भी उसे जल्दी छुट्टी दे दी। कहा, तुम चलो मैं शाम को मिलता हूँ।

अगले दो-तीन दिनों तक वह लड़की से नहीं मिल पाया। कुछ तो उसकी व्यस्तताएँ ओर कुछ वह सवाल कि आखिर उसने उससे झूठ क्यों बोला। शहर के हालात भी ठीक नहीं थे। चारों ओर संस्कृति की रक्षा का बोलबाला था। एक छात्र संगठन ने 'वेलेंटाइन डे' मनाने पर प्रेमियों को गधे पर बिठाने का ऐलान कर रखा था। ऐसे में सरिता के साथ घाट पर बैठना भी मुनासिब नहीं था। चौथे दिन जब वह अपनी इन्हीं उधेड़बुनों में था, तो सरिता लगभग परेशान-सी उसे ढूँढ़ते हुए लाइब्रेरी में आई... 'कहाँ हैं आप मुझे पता था आप यहीं मिलेंगे।'

अविनाश ने उसे लाचारगी से देखा। मैं कहाँ हो सकता हूँ मैं तो तुम्हारे साथ ही हूँ हमेशा।

दोनों आमने-सामने की टेबल पर बैठे। तभी अचानक सरिता हड़बड़ाकर उठ खड़ी हुई! '...आप बैठिए। मैं अभी आई।'

बाहर वही दरोगा खड़ा था। उसने बताया कि वह उसे ढूँढ़ते हुए हॉस्टल आया था और वहीं से पता चला कि वे लाइब्रेरी गई हैं तो यहाँ तक आ गया कि चलो मिलते ही चलते हैं।

लड़की की इच्छा हुई कि वह पूछ ले कि क्यों मिलना चाहते हैं परंतु झिझक और आतंकवश चुप हो गई।

वह दरोगा आराम से एक कुर्सी खींचकर बैठ गया। वह इतना बदतमीज था कि उसने लड़की से बैठने तक के लिए नहीं कहा। थोड़ी देर बाद जब अविनाश सरिता को ढूँढ़ते हुए मुख्य कक्ष में आया तो उसे इस किस्म की बेहूदगी बड़ी विचित्र लगी। एक छह फुटा आदमी आराम से टाँग पर टाँग चढ़ाकर बैठा था और सरिता यूँ ही खड़ी-खड़ी उसे एंटरटेन कर रही थी। अविनाश काफी देर तक किताब ढूँढ़ने के बहाने कनखियों से अदृश्य-सा दृश्य देखता रहा। उसे पता था कि सरिता भी उसके देखने और खीझने को नोटिस कर रही है, लेकिन उसकी तरफ से कोई संकेत नहीं मिल पा रहा था।

दरोगा ने लड़की को बताया कि महिला दरोगा के सामने वो सारी गिरफ्तार महिलाएँ यह बयान दे रही थीं कि उनकी नेता कोई विश्वविद्यालय में पढ़ने वाली छात्रा है। वह तो तफ्तीश पर उतारू हो गई थीं, लेकिन उसके कहने से बात सँभल गई नहीं तो आज उसे काफी परेशानी उठानी पड़ती। दरोगा ने यह भी कहा कि उसे हम जैसे दोस्तों के होते हुए किसी किस्म की चिंता नहीं करनी चाहिए। लड़की खिसियानी हँसी हँसते-हँसते थक चुकी थी। वह इतनी बार थैंक्यू कह चुकी थी कि अब उसे यह शब्द बहुत अर्थहीन और खोखला-सा लग रहा था।

दरोगा ने फिर उसमें जोड़ा कि केवल थैंक्यू कहने से काम नहीं चलेगा। उसे इस एवज में कम-से-कम कॉफी तो ऑफर करनी ही चाहिए। लड़की अजीब मुसीबत में थी। हाँ कह कर वह अविनाश को रुसवा नहीं करना चाहती थी और न कहने दरोगा नाराज हो जाता।

'ठीक है। मैं किताबें जमा करवा के आती हूँ। आप बैठिए।'

'हाँ-हाँ, ठीक है। आप आराम से आइए।'

किताबें समेटते हुए वह थोड़ी देर के लिए अविनाश के पास रुकी। उससे कहा कि वह शाम को हॉस्टल आ जाए। अविनाश पूछना चाहता था कि क्या हुआ कहाँ जा रही हो कौन है वह आदमी, लेकिन सरिता जल्दी-जल्दी किताबें समेटकर निकल गई।

'कोई खास परिचित है क्या वह लड़का?' लाइब्रेरी से बाहर निकलते हुए दारोगा ने कुछ ऐसी आवाज में पूछा कि यदि वह हाँ कह देगी तो आज कुछ अनर्थ हो जाएगा।

'नहीं। ऐसे ही मेरे ही शहर का है।' सरिता ने जब यह कहा तो उसे महसूस हुआ कि उसके शरीर की आखिरी बूँद तक निचुड़ चुकी हो।

अविनाश अजीब उलझन में था। कुछ अघट-सा घट रहा था उसके साथ। कोई अनहोनी थी तो उसके साथ हो रही थी। कोई अदृश्य शक्ति जबर्दस्ती उसे किसी खेल में शामिल किए जा रही थी, जिस खेल के नियम उसे पता नहीं थे और कोई जबर्दस्ती उससे ऊँचे दाँव लगवा रहा था जिसमें उसका हारा जाना तय था।

सरिता अब उससे मिलते समय अधिकांश समय नजरें नीची किए रहती। उस छह फुटे के बारे में उसने बताया कि वह एक दरोगा है, जिसने उसे एक विपरीत परिस्थिति से बचाया था। उस विपरीत परिस्थिति की बाबत उसने बताया कि एक बार रमोला और वो गोदौलिया गए थे। वहाँ कुछ लड़के रमोला को छेड़ने लगे तो इस दरोगा ने वहाँ पहुँचकर उन लोगों को बचाया था। रमोला डर गई थी कि शिवाजी भैया को पता चल गया तो वो उसकी पढ़ाई छुड़वा देंगे। दारोगा रिपोर्ट लिखने पर अड़ा हुआ था। लेकिनी उसकी रिक्वेट मानकर उसने मामले को रफा-दफा कर दिया। अविनाश जानता था कि यह सब झूठ है। उसने कहा भी कि इसमें शिवाजी सिंह रमोला की पढ़ाई क्यों छुड़वा देंगे। आखिरी इसमें रमोला की क्या गलती है उसे शिवाजी सिंह से साफ-साफ बात करनी चाहिए।

जवाब में सरिता ने इतना ही कहा, 'आप शिवाजी सिंह को नहीं जानते।'

अविनाश वाकई शिवाजी सिंह को नहीं जानता था। वह सरिता को भी ठीक से कहाँ जानता था वह सरिता के उस, इंजन ड्राइवर भाई को भी नहीं जानता था, जो आगे सरिता की पढ़ाई के डिब्बे को खींचने में असमर्थ था। वह यह भी नहीं जान पाया कि एक असुविधाजनक स्थिति से निकालने वाला वह दरोगा कब सरिता के लिए सुविधाओं का बायस हो गया। रेलवे रिजर्वेशन को या सिनेमा की टिकट, दुकानों में खरीद पर डिस्काउंट का मामला हो या किसी कार्यक्रम का पास उपलब्ध कराना हो, वह दारोगा एक कप कॉफी पीने के नाम पर चुटकियों में कर सकता था। अविनाश उसे समझाना चाहता था। वह उसके सामने बैठे हुए कॉफी के कप में उसका खून पीता है, यह ठीक नहीं है। जवाब में सरिता ने कहा कि वह बेकार ही ऊल-जलूल सोचा करता है। वह दारोगा तो शादी-शुदा है।

सरिता कई-बार अविनाश से भी साथ कॉफी पीने चलने को कहती। वह दृढ़ता से मना करता। सरिता और खीझ जाती।

अविनाश उससे बातें करता तो उसे खुद महसूस होता जैसे वह मीलों दूर से बात कर रहा हो। वह दारोगाओं के धूर्तता व क्रूरताओं के किस्से सुनाना चाहता लेकिन उसे महसूस होता, ऐसा करके स्वयं की कमजोरी और बुजदिली ही जाहिर करेगा। वह किसी से गुहार करना चाहता था कि उसे बचाया जाए। लेकिन किससे वह समझ नहीं पाता था। उसे अपने हाथों में ताकत महसूस होती थी और वह आवाज जिसे उसे सबसे ज्यादा यकीन था, इतनी खोखली व बेजान लगती कि अपने आप तक को आश्वासन नहीं दे पाता। इस समूचे समय सिर्फ उसके पास पैर थे जिसको घसीटता हुआ अपने हॉस्टल से सरिता के हॉस्टल तक आता था। और उसे हमेशा महसूस होता था कि एक दिन वह दारोगा की बाइक से कुचला जाएगा।

सरिता उससे अब सिर्फ अपनी तकलीफों के बारे में बात करती। वह कोई रूहानी या रूमानी तकलीफें नहीं थीं। उसकी परीक्षाएँ खत्म हो चुकी थीं। अब वह जल्दी से अपने पैरों पर खड़ा होना चाहती थी। उसे अपने पैरों से बहुत काम लेना था, उन पर खड़ा होना था और बहुत दूर तक जाना था, इसलिए वह अविनाश के साथ घिसट नहीं सकती थी। रिक्शा एक सुस्त सवारी थी, जिस पर चढ़कर वहाँ तक नहीं पहुँचा जा सकता था जहाँ उसे जाना था।

उसने एक दिन बताया कि उसे जखनियाँ या जखनी - ऐसे ही किसी जगह जाना है। वहाँ शिवाजी सिंह के किसी रिश्तेदार का कोई कॉलेज है। वहाँ उसकी अस्थायी नियुक्ति हो गई है। अविनाश को समझ में आ रहा था कि उसकी स्थायी छुट्टी हो रही थी। उसने उससे कुछ कहा नहीं। एक दिन शाम को जब उससे मिलने गया तो 'गुनाहों का देवता' लेता गया। कभी सरिता ने कहीं कहा कि उसे यह उपन्यास बेहद अजीज है। और उसे पढ़कर घंटों रोई थी। सरिता ने वह उपन्यास देखा और वापस करती हुई बोली, 'जिंदगी उपन्यास नहीं होती।' अविनाश ने सुना - अच्छा प्रयास है लेकिन अब मुझ पर असर नहीं होगा।

सरिता के जाने के बाद वह यूँ ही कुछ दिनों तक शहर में भटकता रहा। वह उन सारी जगहों पर यूँ ही निरुद्देश्य बैठा रहा, जहाँ कभी सरिता के साथ आया था। एक दिन सारनाथ भी हो आया, और उसी लॉन पर देर तक बैठा रहा, जहाँ से भिक्षु ने उन्हें भगाया था। काफी देर तक बैठे रहने के बावजूद उसे वहाँ से भगाने कोई नहीं आया। उसे कहीं से कोई नहीं भगा रहा था, लेकिन उसे लग रहा था कि बचना है तो भागना है। और ऐसे ही एक दिन जब उसकी बी.ए. की परीक्षा खत्म हुई तो वह बचने के ख्याल से भागा और भागकर दिल्ली में आ गया। लेकिन शहर बदलने से स्मृतियाँ नहीं बदल जातीं।

इक जख्म भर गया था... इधर ले के आ गया

बनारस लौटने पर अविनाश की इच्छा केवल उसे एक बार देख भर लेने की थी। उसके एक पुराने दोस्ते सतीश राय ने उसे बताया कि पिछले दिनों वह लंका में दिखी थी। किसी के साथ मोटरसाइकिल पर जाती हुई। वह शाम को यूँ ही निरुद्देश्य लंका पर टहलता रहा। हरेक दुकान के सामने ठहरकर घूरता रहा कि वह अचानक यूँ ही दिख जाए तो कैसा रहे। लेकिन वैसा कुछ हुआ नहीं। आखिर थककर पहलवान की चाय-दुकान पर बैठ गया। बनारस के दिनों में यही उसका अड्डा था जहाँ वह अपने दोस्तों-परिचितों से मिलता था। आज भी उसे अपने कुछ परिचित इधर-उधर दिखाई दे रहे थे। लेकिन किसी से भी हुलसकर मिलने की उसकी इच्छा नहीं हो रही थी। पहलवान ने उस पर एक उचटती-सी दृष्टि डाली, 'का गुरू! बहुत दिन बाद, कहीं बाहर रहत हउव?' उसने सिर्फ स्वीकृति में सिर हिला दिया।

'देखो! एक तोहार पुरान संगी आवत हवन।'

उसने चौंककर देखा। पॉलिटिकल साइंस वाले तिवारी जी थे। तिवारी जी वाकई उससे ऐसे मिले जैसे जन्मों के बिछुड़े हों। यहाँ रहते हुए तिवारी जी से उसकी कोई वैसी घनिष्ठता नहीं थी, लेकिन दूरियों ने शायद दोनों को नजदीक ला दिया था। तिवारी जी ने कहा, 'अरे गुरू। वो लड़की जिसके साथ आप घूमते थे आजकल यहीं है। त्रिवेणी हॉस्टल में। परसों मिली थी हमसे। थीसिस जमा करवाना है उसको।'

अविनाश का दिल धड़कने लगा। तिवारी जी लगातार बोले जा रहे थे। 'हमने पूछा भी कि आजकल अविनाश कहाँ है तो कुछ जवाब नहीं दिया उसने। कउनो झगड़ा-उगड़ा'

तिवारी जी रौ में बोले जा रहे थे। उनके साथ एक और लड़का था जिसे अविनाश पहचानता न था। वह उत्सुकता से अविनाश को देख रहा था। उसने एक बार पूछा भी कौन लड़की तिवारी जी?

'अरे एक हैं संस्कृत में। रिसर्च स्कालर थीं। अभी कहीं पढ़ाती हैं।'

'कौन सरिता दी'

अविनाश का चेहरा फक पड़ गया। यह कौन लड़का है और उसको कैसे जानता है

'हाँ-हाँ, वही।'

'अरे मैं तो उनको जानता हूँ। वो शिवाजी भैया से परिचित हैं न रमेंद्र भैया। वही तो आजकल उनका थीसिस टाइप करावा रहे हैं अभी ही तो गई हैं हॉस्टल।'

अविनाश जल्दी से जल्दी वहाँ से उठ जाना चाह रहा था। लेकिन तिवारी जी न जाने आज किस जन्म का बदला लेने पर उतारू थे।

'तो यह तो अच्छी बात है। इनसे भी मिल लीजिए आप ये अविनाश हैं। आपकी सरिता दी के भूतपूर्व प्रेमी।'

अविनाश अब झटके से उठ खड़ा हुआ, 'अच्छा तिवारीजी, अब चलूँगा मैं। कल फिर मिलते हैं।'

वह तेजी से वहाँ से बाहर निकल आया। उसे लगा कि वह लड़का भौंचक होकर उसे घूरता रहा था।

उसका दिल धड़क रहा था। त्रिवेणी हॉस्टल! वह यहीं है। चंद कदमों के फासले पर। उसे त्रिवेणी हॉस्टल का फोन नंबर याद था। कुछ देर यूँ ही उधेड़बुन के बाद आखिरकार उससे रहा नहीं गया। धड़कते दिन से उसने नंबर मिलाया।

'हैला! सरिता सारस्वत से बात करनी है! जी रूम नं तो पता नहीं। संस्कृत की रिसर्च स्कालर हैं।'

थोड़ी देर में सरिता फोन पर थी।

'अच्छा। आप कब आए... कैसे हैं?'

'ठीक हूँ। मुलाकात हो सकती है क्या?' उधर थोड़ी देर तक चुप्पी छाई रही, 'अच्छा ठीक है। कल चार बजे हॉस्टल गेट पर जा जाइए। कॉल लगाने की जरूरत नहीं है। मैं खुद ही आ जाऊँगी। देर मत कीजिएगा। ठीक चार बजे।'

सारी रात अविनाश को नींद नहीं आई। सुबह से लेकर चार बजे तक का समय उसे चार दशक जितना लंबा लगा। वह पौने चार बजे ही त्रिवेणी हॉस्टल के बाहर था।

ठीक चार बजे सरिता गेट से निकलती दिखाई दी। वह मुस्कुराया वही तिरछी मुस्कान। जबाव में सरिता और चौड़ा मुस्कुराई। लेकिन यह क्या वह उसकी तरफ न आकर सड़क पार कर किसी तरफ जा रही है

वहाँ मोटर बाइक पर एक दुबला-पतला लड़का बैठा था। वहाँ जाकर सरिता और ज्यादा मुस्कुराई।

'यहाँ आइए। आइए न।' वह अविनाश को ही बुला रही थी।

वह धड़कते दिल और बुझे कदमों से वहाँ तक पहुँचा। सरिता लगभग खिलखिलाने की हद तक मुस्कुरा रही थी।

'इनसे मिलिए। ये हैं रमेंद्र। जैसे आप मेरे भूतपूर्व हैं, वैसे ही ये अभूतपूर्व मित्र हैं। समूची थीसिस चार दिनों में ही इन्होंने टाइप करवा दी है। ...और ये ही अविनाश हैं।'

अविनाश के कान जल रहे थे। रात में तिवारी जी के साथ जो लड़का था वहीं यह भूतपूर्व-अभूतपूर्व वाली बात उठी थी। वह सफाई देना चाहता था लेकिन उसकी जुबान सूख चुकी थी।

रमेंद्र नाम के उस लड़के ने अपना हाथ बढ़ाया। 'अरे अविनाश जी, सरिता जी अकसर आपकी बातें करती हैं। काफी दिनों से आपसे मिलने की इच्छा थी।' हाथ मिलाते हुए अविनाश के हाथ से पसीना निकल रहा था। वह लाचारगी और बेचारगी में दोनों को देख रहा था। थोड़ी देर तक रमेंद्र नाम का वह शख्स अनिवाश से उसके पढ़ाई-लिखाई कैरियर के बारे में पूछता रहा। वह सिर्फ हाँ-हूँ कर पा रहा था। उसका चेहरा इतना बेचारा और दयनीय लग रहा था कि सरिता को कहीं न कहीं अपराधबोध-सा होने लगा।

थोड़ी देर में रमेंद्र ने कहा, 'ठीक है सरिता जी। चलिए मैं आपको कंप्यूटर सेंटर तक छोड़ देता हूँ। अंतिम अध्याय का प्रूफ देख लीजिए।' अविनाश का कलेजा मुँह को आ गया। उसको एकदम यकीन था कि लड़की अभी मोटर साइकिल पर बैठेगी और उसके मुँह पर धुआँ छोड़ती हुई अपने सैंडल से उसके कलेजे को मसलते हुए निकल जाएगी। लेकिन तभी लड़की ने कहा, 'नहीं रमेंद्र जी। मैं खुद चली जाऊँगी वहा। मैं थोड़ी देर तक इनके साथ हूँ। मैंने बुलाया है इन्हें।'

अविनाश को जैसे अपने कानों पर यकीन नहीं हुआ। उसकी इच्छा हुई कि वह लड़की से कहे कि वह नहीं जानती कि आज उसने उसके ऊपर कितना बड़ा उपकार किया है। इस एक वाक्य के लिए जो अभी उसने इसके समर्थन में कहा है वह जिंदगी भर उसको अपने हसीन सहारे के रूप में याद करता रहेगा।

अविनाश ने गौर किया इस एक वाक्य से रमेंद्र नाम के उस अभूतपूर्व मित्र के चेहरे पर धुआँ फैल गया। उसकी आवाज अजीब रूप से कसैली हो गई।

'ठीक है सरिता जी। तो मैं चलता हूँ। आप भी अब अपने पुराने दोस्त को ताजा कीजिए।'

बिना हाथ मिलाए ही वह मोटरसाइकिल स्टार्ट करता हुआ चला गया। उसका जला हुआ चेहरा अविनाश को हर्षा गया। वह वैसे ही तिरछा मुस्कुराता हुआ सरिता से मुखातिब हुआ। 'कैसी हैं आप?'

सरिता ने संबोधन के बदलाव पर कोई गौर नहीं किया और न ही उस मुस्कान के तिरछेपन की कोई नोटिस ली।

'चलिए चला जाए'

'कहाँ'

'यूँ ही बाजार तक। मुझे कुछ काम है।'

दोनों साथ चल रहे थे, परंतु सिर्फ कदमों में। साथ चलने जैसी कोई बात उनमें नहीं थी। साथ चलने जैसी क्यूँ कोई बात करने जैसी कोई बात भी नहीं थी। अविनाश यूँ ही कोई गाना गुनगुनाने लगा। लड़की ने बरज दिया - सड़क पर चलते हुए गाना नहीं गाना चाहिए। अविनाश को याद था यह गाना अकसर लड़की गुनगुनाया करती थी। 'रहे न रहे हम महका करेंगे बन के कली बन के सबा...'

वह एक हैंडबैग या थैले की तरह बाजार में लड़की के साथ डोलता रहा। लड़की बार-बार उसके रोजगार के बारे में पूछ रही थी। वह बार-बार बता रहा था कि वह यूँ ही समय काट रहा है। लड़की अपने कॉलेज के अनुभव बता रही थी। वह बेमन से उसे सुन रहा था।

लौटते हुए अविनाश को शरारत सूझी। वह लपककर एक रिक्शे में चढ़ गया। लड़की एकदम से अकबका गई।

'रिक्शे की क्या जरूरत है, पैदल चल सकते हैं।'

'नहीं, मैं थक गया हूँ। वैसे भी दिल्ली में पैदल चलने की आदत छूट जाती है।'

लड़की खीझती हुई रिक्शे में बैठ गई। अविनाश वैसे ही फैलकर बैठा था। उसके कंधे लड़की के कंधे से छू रहे थे।

'उफ आप इस तरह क्यों बैठे हैं... नवाबों की तरह।'

'मैं पहले भी भिखारियों की तरह नहीं बैठता था।' अनिवाश मुस्कुराया, 'लेकिन तुम इस तरह क्यों सिकुड़कर बैठी हो'

'नहीं, ठीक है।' लड़की ने अपने कंधे छोड़ दिए।

शाम लगभग गहरा चुकी थी। रिक्शा जब वी.सी. आवास से आगे बढ़ा तो यूँ ही अविनाश ने अपने हाथों को फैलाकर रिक्शे की पुश्त को पीछे कर लिया। सड़क सुनसान थी। लड़की को लगा जैसे अविनाश उसके कंधे पर हाथ रखने वाला है। उसने अपनी आँखें मूँद लीं। लेकिन अविनाश ने अपने हाथ पुश्त पर से हटाए नहीं। लड़की यूँ ही इंतजार में आँखें बंद किए रही। दोनों के शरीर इतने पास थे कि कभी भी सिमटकर समा सकते थे। अविनाश ने गौर किया। लड़की की साँसें भी तेज चल रही थीं।

त्रिवेणी होस्टल आ गया था। रिक्शे के थमने पर लड़की जैसे नींद से जागी। थोड़ी देर तक वह यूँ ही निस्पंद बैठी रही। जैसे मीलों दूर से लौटने की थकान हो। फिर धीरे से रिक्शे से उतर गई।

'अच्छा, गुड नाइट।' उसने एकदम धीरे से कहा।

अविनाश रिक्शे पर ही बैठा रहा। उसने पूछा, 'कल मिलोगी'

'नहीं, मुझे कल जाना है।' और वह तेजी से हॉस्टल के भीतर चली गई।

'अब कहाँ भैया' रिक्शेवाले ने पूछा।

'कहीं नहीं भाई।' कहते हुए वह भी रिक्शे से उतर पड़ा। 'कितना पैसा हुआ?'

'अरे चलिए न, आपौ के हॉस्टल छोड़ देई।'

अविनाश फिर से रिक्शे में बैठ गया। लेकिन फिर थोड़ी देर बाद वह उतर गया, 'छोड़ो, इतने बड़े रिक्शे में अकेले जाना ठीक नहीं लगता।'

'का भैया का कहिन' रिक्शावाला अचकचा गया। लेकिन अविनाश ने उसे समझाने की कोई कोशिश नहीं की।


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