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वैचारिकी

मेरे सपनों का भारत

मोहनदास करमचंद गांधी

अनुक्रम 16 संरक्षकता का सिद्धांत पीछे     आगे

फर्ज कीजिए कि विरासत के या उद्योग-व्‍यवसाय के द्वारा मुझे प्रचुर संपत्ति मिल गई। तब मुझे जानना चाहिए कि वह सब संपत्ति मेरी नहीं है, बल्कि मेरा तो उस पर इतना ही अधिकार है कि जिस तरह दूसरे लाखों आदमी गुजर करते हैं उसी तरह मैं भी इज्‍जत के साथ अपना गुजर भर करूँ। मेरी शेष संपत्ति पर राष्‍ट्र का हक है और उसी के हितार्थ उसका उपयोग होना आवश्‍यक है। इस सिद्धांत का प्रतिपादन मैंने तब किया था, जब कि जमींदारों और राजाओं की संपत्ति के संबंध में समाजवादी सिद्धांत देश के सामने आया था। समाजवादी इन सुविधा-प्राप्‍त वर्गों को खतम कर देना चाहते हैं, जब कि मैं यह चाहता हूँ कि वे (जमींदार और राजा-महाराजा) अपने लोभ और संपत्ति के बावजूद उन लोगों के समकक्ष बन जाएँ जो मेहनत करके रोटी कमाते हैं। मजदूरों को भी यह महसूस करना होगा कि मजदूर का काम करने की शक्ति पर जितना अधिकार है, मालदार आदमी का अपनी संपत्ति पर उससे भी कम है।

यह दूसरी बात है कि इस तरह के सच्‍चे ट्रस्‍टी कितने हो सकते है? अगर सिद्धांत ठीक हैं, तो यह बात गौण है कि उनका पालन अनेक लोग कर सकते हैं यह केवल एक ही आदमी कर सकता है। यह प्रश्‍न आत्‍म विश्‍वास का है। अगर आप अहिंसा के सिद्धांत को स्‍वीकार करें, तो आपको उसके अनुसार आचरण करने की कोशिश करनी चाहिए, चाहे उसमें आपको सफलता मिले या असफलता। आप यह तो कह सकते हैं कि इस पर अमल करना मुश्किल है, लेकिन इस सिद्धांत में ऐसे कोई बात नहीं है जिसके लिए यह कहा जा सके कि वह बुद्धिग्राह्य नहीं है।

आप कह सकते हैं कि ट्रस्‍टीशिप तो कानून-शास्‍त्र की एक कल्‍पना मात्र है; व्‍यवहार में उसका कहीं कोई अस्तित्‍व दिखाई नहीं पड़ता। लेकिन यदि लोग उस पर सतत विचार करें और उस आचरण में उतारने की कोशिश भी करते रहें, तो मनुष्‍य-जाति के जीवन की नियामक शक्ति के रूप में प्रेम आज जितना प्रभावशाली दिखाई देता है, उससे कहीं अधिक दिखाई पड़ेगा। बेशक, पूर्ण ट्रस्‍टीशिप तो युक्लिड की बिंदु की व्‍याख्‍या की तरह एक कल्‍पना ही है और उतनी ही अप्राप्‍य भी है। लेकिन यदि उसके लिए कोशिश की जाए, तो दुनिया में समानता की स्‍थापना की दिशा में हम दूसरे किसी उपाय से जितनी दूर तक जा सकते हैं, उसके बजाय इस उपाय से ज्‍यादा दूर तक जा सकेंगे। ...मेरा दृढ़ निश्‍चय है कि यदि राज्‍य ने पूँजीवाद को हिंसा के द्वारा दबाने की कोशिश की, तो वह खुद ही हिंसा के जाल में फँस जाएगा और फिर कभी भी अहिंसा का विकास नहीं कर सकेगा। राज्‍य हिंसा का एक केंद्रित और संघटित रूप हीं है। व्‍यक्ति में आत्‍मा होती है, परंतु चूँकि राज्‍य एक जड़ यंत्र मात्र है इसलिए उसे हिंसा से कभी नहीं छुड़ाया जो सकता। क्‍योंकि हिंसा से ही तो उसका जन्‍म होता है इसीलिए मैं ट्रस्‍टीशिप के सिद्धांत को तरजीह देता हूँ। यह डर हमेशा बना रहता है कि कहीं राज्‍य उन लागों के खिलाफ, जो उससे मतभेद रखते हैं, बहुत ज्‍यादा हिंसा का उपयोग न करे। लोग यदि स्‍वेच्‍छा से ट्रस्टियों की तरह व्‍यवहार करने लगें, तो मुझे सचमुच बड़ी खुशी होगी। लेकिन यदि वे ऐसा न करें तो मेरा खयाल है कि हमें राज्‍य के द्वारा भरसक कम हिंसा का आश्रय लेकर उनसे उनकी संपत्ति ले लेनी पड़ेगी। ...(यही कारण है कि मैंने गोलमेज परिषद में यह कहा था कि सभी निहित हित वालों की संपत्ति की जाँच होनी चाहिए और जहाँ आवश्‍यक मालूम हो वहीं उनकी संपत्ति राज्‍य को ...मुआवजा देकर या मुआवजा दिए बिना ही, जहाँ जैसा उचित हो, अपने हाथ में कर लेनी चाहिए। व्‍यक्तिगत तौर पर तो मैं यह चाहूँगा कि राज्‍य के हाथों में शक्ति का ज्‍यादा केंद्रीकरण न हो, उसके बजाय ट्रस्‍टीशिप की भावना का विस्‍तार हो। क्‍योंकि मेरी राय में राज्‍य की हिंसा की तुलना में वैयक्तिक मालिकी की हिंसा कम हानिकार है। लेकिन यदि राज्‍य की मालिकी अनिवार्य ही हो, तो मैं भरसक कम-से-कम राज्‍य की मालिकी की सिफारिश करूँगा।

आजकल यह कहना एक फैशन हो गया है कि‍ समाज को अहिंसा के आधार पर न तो संघटित किया जा सकता है और न चलाया जा सकता है। मैं इस कथन का विरोध करता हूँ। परिवार में जब पिता पुत्र को अपराध करने पर थप्‍पड़ मार देता है, तो पुत्र उसका बदला लेने की बात नहीं सोचता। वह अपने पिता की आज्ञा इसलिए स्‍वीकार कर लेता है कि इस थप्‍पड़ के पीछे वह अपने पिता के प्‍यार को आहत हुआ देखता है, इसलिए नहीं कि थप्‍पड़ उसे वैसा अपराध दुबारा करने से रोकता है। मेरी राय में समाज की व्‍यवस्‍था इस तरह होनी चाहिए; यह उसका एक छोटा रूप है। जो बात परिवार के लिए सही है, वही समाज के लिए भी सही; क्‍योंकि समाज एक बड़ा परिवार ही है।

मेरा धारण है कि अहिंसा केवल वैयक्तिक गुण नहीं है। वह एक सामाजिक गुण भी है और अन्‍य गुणों की तरह उसका भी विकास किया जाना चाहिए। यह तो मानना ही होगा कि समाज के पारस्‍परिक व्‍यवहारों का नियमन बहुत हद तक अहिंसा के द्वारा होता है। मैं इतना ही चाहता हूँ कि इस सिद्धांत का बड़े पैमाने पर, राष्‍ट्रीय और अंतरराष्‍ट्रीय पैमाने पर विस्‍तार किया जाए।

मेरा ट्रस्‍टीशिप का सिद्धांत कोई ऐसी चीज नहीं है, जो काम निकालने के लिए आज गढ़ लिया गया हो। अपनी मंश छिपाने के लिए खड़ा किया गया आवरण तो वह हरगिज नहीं है। मेरा विश्‍वास है कि दूसरे सिद्धांत जब नहीं रहेंगे तब भी वह रहेगा। उसके पीछे तत्‍त्‍वज्ञान और धर्म के समर्थन का बल है। धन के मालिकों ने इस सिद्धांत के अनुसार आचरण नहीं किया है, इस बात से यह सिद्ध नहीं होता कि वह सिद्धांत झूठ है; इससे धन के मालिकों की कमजोरी मात्र सिद्ध होती है। अहिंसा के साथ किसी दूसरे सिद्धांत का मेल ही नहीं बैठता।

अहिंसक मार्ग की खुबी यह है कि अन्‍यायी यदि अपना अन्‍याय दूर नहीं करता, तो वह अपना नाश खुद ही कर डालता है। क्‍योंकि अहिंसक असहयोग के कारण या तो वह अपनी गलती देखने और सुधारने के लिए मजबूर हो जाता है या वह बिलकुल अकेला पड़ जाता है।

मैं इस राय के साथ नि:संकोच अपनी सम्‍मति जाहिर करता हूँ कि आमतौर पर धनवान-केवल धनवान ही क्‍यों, बल्कि ज्‍यादातर लोग-इस बात का विशेष विचार नहीं करते कि वे पैसा किस तर कमाते हैं। अहिंसक उपाय का प्रयोग करते हुए यह विश्‍वास तो होना ही चाहिए कि कोई आदमी कितना ही पतित क्‍यों न हो, यदि उसका इलाज कुशलतापूर्वक और सहानुभूति के साथ किया जाए तो उसे सुधारा जा सकता है। हमें मनुष्‍यों में रहने वाले दैवी अंश को प्रभावित करना चाहिए और अपेक्षा करनी चाहिए कि उसका अनुकूल परिणाम निकलेगा। यदि समाज का हर एक सदस्‍य अपनी शक्तियों का उपयोग वैयक्तिक स्‍वार्थ साधने के लिए नहीं, बल्कि सबके कल्‍याण के लिए करे, तो क्‍या इससे समाज की सुख-समृद्धि में वृद्धि नहीं होगी? हम ऐसी जड़ समानता का निर्माण नहीं करना चाहते, जिसमें कोई आदमी योग्‍यताओं का पूरा-पूरा उपयोग कर ही न सके। ऐसा समाज अंत में नष्‍ट हुए बिना नहीं रह सकता। इसलिए मेरी यह सलाह बिलकुल ठीक है कि धनवान लोग चाहे करोड़ों रुपए कमाएँ (बेशक, ईमानदारी से), लेकिन उनका उद्देश्‍य वह सारा पैसा सबके कल्‍याण में समर्पित कर देने का होना चाहिए। 'तेन त्‍यक्‍तेन भुंजीथा:' मंत्र में असाधारण ज्ञान भरा पड़ा है। मौजूदा जीवन-पद्धति की जगह जिसमें हर एक आदमी पड़ोसी की परवाह किए बिना केवल अपने ही लिए जीता है, सर्व-कल्‍याणकारी नई जीवन-पद्धति का विकास करना हो, तो उसका निश्चित मार्ग यही है।


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