मैं कहना चाहता हूँ कि हम सब एक तरह से चोर हैं। अगर मैं कोई ऐसी चीज लेता और रखता हूँ, जिसकी मुझे अपने किसी तात्कालिक उपयोग के लिए जरूरत नहीं है, तो मैं उसकी किसी दूसरे से चोरी ही करता हूँ। यह प्रकृति का एक निरपवाद बुनियादी नियम है कि वह रोज केवल उतना ही पैदा करती है जितना हमें चाहिए। और यदि हर एक आदमी जिनता उसे चाहिए उतना ही ले, ज्यादा न ले, तो दुनिया में गरीबी न रहे और कोई आदमी भूखा न मरे। मैं समाजवादी नहीं हूँ और जिनके पास संपत्ति का संचय है उनसे मैं उसे छीनना नहीं चाहता। लेकिन मैं यह जरूर कहता हूँ कि हममें से जो लोग प्रकाश की खोज में प्रयत्नशील हें, उन्हें वयक्तिगत तौर पर इस नियम का पालन करना चाहिए। मैं किसी से उसकी संपत्ति छीनना नहीं चाहता, क्योंकि वैसा करूँ तो मैं अहिंसा के नियम से च्युत हो जाऊँगा। यदि किसी के पास मेरी अपेक्षा ज्यादा संपत्ति हैं तो भले रहे। लेकिन यदि मुझे अपना जीवन नियम के अनुसार गढ़ना है, तो मैं ऐसी कोई चीज अपने पास नहीं रख सकता जिसकी मुझे जरूरत नहीं है। भारत में लाखो लोग ऐसे हैं जिन्हें दिन में केवल एक ही बार खाकर संतोष कर लेना पड़ता है और उनके उस भोजन में भी सूखी रोटी और चुटकी भर नमक के सिवा और कुछ नहीं होता। हमारे पास जो कुछ भी है उस पर हमें और आपकों तब तक कोई अधिकार नहीं है, जब तक इन लोगों के पास पहनने के लिए कपड़ा और खाने के लिए अन्न नहीं हो जाता। हम में और आप में ज्यादा समझ होने की आशा की जाती है। अत: हमें अपनी जरूरतों का नियमन करना चाहिए और स्वेच्छापूर्वक अमुक अभाव भी सहना चाहिए, जिससे कि उन गरीबों का पालन-पोषण हो सके, उन्हें कपड़ा और अन्न मिल सके।
मुझे स्वीकार करना चाहिए कि मैं अर्थविद्या और नीतिविद्या में न सिर्फ कोई स्पष्ट भेद नहीं करता, बल्कि भेद ही नहीं करता। जिस अर्थविद्या से व्यक्ति या राष्ट्र के नैतिक कल्याण को हानि पहुँचती हो, उसे मैं अनीतिमय और इसलिए पापपूर्ण कहूँगा। उदाहरण के लिए, जो अर्थविद्या किसी देश को किसी दूसरे देश का शोषण करने की अनुमति देती है वह अनैतिक है। जो मजदूरों को योग्य मेहन्ताना नहीं देते और उनके परिश्रम का शोषण करते हैं, उनसे वस्तुएँ खरीदनाया उन वस्तुओं का उपयोग करना पापपूर्ण है।
मेरी राय में भारत की-न सिर्फ भारत की बल्कि सारी दुनिया की-अर्थ रचना ऐसी होनी चाहिए कि किसी भी अन्न और वस्त्र के अभाव की तकलीफ न सहनी पड़े। दूसरे शब्दों में, हर एक को इतना काम अवश्य मिल जाना चाहिए कि वह अपने खाने-पहनने की जरूरतें पूरी कर सके। और यह आदर्श निरपवाद रूप से तभी कार्यांवित किया जा सकता है जब जीवन की प्राथमिक आवश्यकताओं के उत्पादन के साधन जनता के नियंत्रण में रहें। वे हर एक को बिना किसी बाधा के उसी तरह उपलब्ध होने चाहिए जिस तरह कि भगवान की दी हुई हवा और पानी हमें उपलब्ध है; किसी भी हालत में वे दूसरों के शोषण के लिए चलाए जाने वाले व्यापार का वाहन न बनें। किसी भी देश, राष्ट्र या समुदाय का उन पर एकाधिकार अन्यायपूर्ण होगा। हम आज न केवल अपने इस दुखी देश में बल्कि दुनिया के दूसरे हिस्सों में भी जो गरीबी देखते हैं, उसका कारण इस सरल सिद्धांत की उपेक्षा ही है।
जिस तरह सच्चे नीति धर्म में और अच्छे अर्थशास्त्र में कोई विरोध नहीं होता उसी तरह सच्चा अर्थशास्त्र कभी भी नीतिधर्म के ऊँचे-से-ऊँचे आदर्श का विरोधी नहीं होता। जो अर्थशास्त्र धन की पूजा करना सिखता है और बलवानों को निर्बलों का शोषण करके धन का संग्रह करने की सुविधा देता हे, उसे शास्त्र का नाम नहीं दिया जा सकता। वह तो एक झूठी चीज है, जिससे हमें कोई लाभ नहीं हो सकता। उसे अपनाकर हम मृत्यु की न्यौता देंगे। सच्चा अर्थशास्त्र तो सामाजिक न्याय की हिमायत करता है; वह समान भाव से सबकी भलाई का-जिनमें कमजोर भी शामिल हैं-प्रयत्न करता है और सभ्यजनोचित सुंदर जीवन के लिए अनिवार्य है।
मैं ऐसी स्थिति लाना चाहता हूँ, जिसमें सबका सामाजिक दरजा समान माना जाए। मजदूरी करने वाले वर्गों को सैकड़ो वर्षों से सभ्य समाज से अलग रखा गया है और उन्हें नीचा दरजा दिया गया है। उन्हें शूद्र कहा गया है और इस शब्द का यह अर्थ किया गया है कि वे दूसरे वर्गों से नीचे हैं। मैं बुनकर, किसान और शिक्षक के लड़कों में कोई भेद नहीं होने दे सकता।
रचनात्मक काम का यह अंग अहिंसापूर्ण स्वराज्य की मुख्य चाबी है। आर्थिक समानता के लिए काम करने का मतलब है, पूँजी और मजदूरी के बीच के झगड़ों को हमेशा के लिए मिटाह देना। इसका अर्थ यह होता है कि एक ओर से जिन मुट्ठीभर पैसे वाले लोगों के हाथ में राष्ट्र की संपत्ति का बड़ा भाग इकट्ठा हो गया उनकी संपत्ति को कम करना और दूसरी ओर से जो करोड़ों लोग अधपेट खाते ओर नंगे रहते हैं, उनकी संपत्ति में वृद्धि करना। जब तक मुट्ठीभर धनवानों और करोड़ों भूखे रहने वालों के बीच बेइंतहा अंतर बना रहेगा, तब तक अहिंसा की बुनियाद पर चनले वाली राज्य-व्यवस्था कायम नहीं हो सकती है। आजाद हिंदुस्तान में देश के बड़े-से-बड़े धनवानों के हाथ में हुकूमत का जितना हिस्सा रहेगा, उतना ही गरीबों के हाथ में भी होगा; और तब नई दिल्ली में महलों और उनकी बगल में बसी हुई गरीब मजदूर-बस्तियों के टूट-फूटे झोंपड़ों के बीच जो दर्दनाक फर्क आज नजर आजा है वह एक दिन को भी नहीं टिकेगा। अगर धनवान लोग अपने धन को और उसके कारण मिलने वाली सत्ता को खुद राजी-खुशी से छोड़कर और सबके कल्याण के लिए सबके साथ मिलकर बरतने को तैयार न होंगे, तो यह तय समझिए कि हमारे देश में हिंसक और खूंख्वार क्रांति हुए बिना न रहेगी। ट्रस्टीशिप या सरपरस्ती के मेरे सिद्धांत का बहुत मजाक उड़ाया गया है, फिर भी मैं उस पर कायम हूँ। यह सच है कि उस तक पहुँचने यानी उसका पूरा-पूरा अमल करने का काम कठिन है। क्या अहिंसा की भी यही हालत नहीं है? फिर भी 1920 में हमने यह सीधी चढ़ाई चढ़ने का निश्चय किया था।
मेरी सूचना है कि यदि भारत को अपना विकास अहिंसा की दिशा में करना है, तो उसे बहुत-सी चीजों का विकेंद्रीकरण करना पड़ेगा। केंद्रीकरण किया जाए तो फिर उसे कायम रखने के लिए और उसकी रक्षा के लिए हिंसाबल अनिवार्य है। जिनमें चोरी करने या लूटने के लिए कुछ है ही नहीं ऐसे सादे घरों की रक्षा के लिए पुलिस की जरूरत नहीं होती। लेकिन धनवानों के महलों के लिए अवश्य बलवान पहरेदार चाहिए, जो डाकुओं से उनकी रक्षा करें। यही बात बड़े-बड़े कारखानों की है। गाँवों को मुख्य मानकर जिस भारत का निर्माण होगा उसे शहर-प्रधान भारत की अपेक्षा-शहर-प्रधान भारत जल, स्थल और वासुसेनाओं से सुसज्जित होगा, तो भी-विदेशी आक्रमण का कम खतरा रहेगा।
आज तो बहुत ज्यादा और इसलिए बहुत भद्दी आर्थिक असमानता है। समाजवाद का आधार आर्थिक समानता है। अन्यायपूर्ण असमानताओं की इस हालत में, जहाँ चंद लोग मालामाल हैं और सामान्य प्रजा को भरपेट खाना भी नसीब नहीं होता, रामराज्य कैसे हो सकता है?