मैं भारत के समक्ष आत्म त्याग का पुराना आदर्श रखने का साहस किया है। सत्याग्रह और उसकी शाखाएँ, असहयोग और सविनय कानून-भंग, तपस्या के ही दूसरे नाम है। इस हिंसामय जगत में जिन्होंने अहिंसा का नियम ढूँढ निकाला, वे ऋषि न्यूटन से कहीं ज्यादा बड़े आविष्कारक थे। वे वेलिग्टन से ज्यादा बड़े योद्धा थे। वे शास्त्रास्त्रों का उपयोग जानते थे और उन्हें उनकी व्यर्थता का निश्चय हो गया था। और तब उन्होंने हिंसा से ऊबी हुई दुनिया को सिखाया कि उसे अपनी मुक्ति का रास्ता हिंसा में नहीं बल्कि अहिंसा में मिलेगा। अपने सक्रिय रूप में अहिंसा का अर्थ है ज्ञानपूर्वक कष्ट सहना। उसका अर्थ अन्यायी की इच्छा के आगे दबकर घुटने टेकना नहीं है; उसका अर्थ यह है कि अत्याचारी की इच्छा के खिलाफ अपनी आत्मा की सारी शक्ति लगा दी जाए। जीवन के इस नियम के अनुसार चलकर तो कोई अकेला आदमी भी अपने सम्मान, धर्म और आत्मा की रक्षा के लिए किसी अन्यायी साम्राज्य के संपूर्ण बल को चुनौती दे सकता है और इस तरह उस साम्राज्य के नाश या सुधार की नींव रख सकता है। और इसलिए मैं भारत से अहिंसा को अपनाने के लिए कह रहा हूँ तो उसका कारण यह नहीं है कि भारत कमजोर है। बल्कि मुझे उसके बल और उसकी वीरता का भान है, इसलिए मैं यह चाहता हूँ कि वह अहिंसा के रास्ते पर चले। उसे अपनी शक्ति को पहिचानने के लिए शस्त्रास्त्रों की तालीम की जरूरत नहीं है। हमें उसकी जरूरत इसलिए मालूम होती है कि हम समझते हैं कि हम शरीर-मात्र हैं। मैं चाहता हूँ कि भारत इस बात को पहचान ले कि वह शरीर नहीं बल्कि अमर आत्मा है, जो हर एक शारीरिक कमजोर के ऊपर उठ सकती है और सारी दुनिया के सम्मिलित शारीरिक बल को चुनौती दे सकती है।
भारत की हिंदू, मुसलमान, सिक्ख या गुरखा आदि सैनिक जातियों की वैयक्तिक वीरता और साहस से यह सिद्ध है कि भारतीय प्रजा कायर नहीं है। मेरा मतलब इतना ही है कि युद्ध और रक्तपात भारत को प्रिय नहीं है और संभवत: दुनिया के भावी विकास में उसे कोई, ऊँचा हिस्सा अदा करना है। यह तो समय ही बताएगा कि उसका भविष्य क्या होने वाला है।
भूतकाल में युगों तक भारत को, यानी भारत की आम जनता को जो तालीम मिलती रही है वह हिंसा के खिलाफ है। भारत में मनुष्य-स्वभाव का विकास इस हद तक हो चुका है कि आम लोगों के लिए हिंसा के बजाय अहिंसा का सिद्धांत ज्यादा स्वाभाविक हो गया है।
भारत ने कभी किसी राष्ट्र के खिलाफ युद्ध नहीं चलाया। हाँ, शुद्ध आत्म रक्षा के लिए उसने आक्रमणकारियों के खिलाफ कभी-कभी विरोध का असफल या अधूरा संघटन अवश्य किया है। इसलिए उसे शांति की आकांक्षा पैदा करने की जरूरत नहीं है। शांति की आकांक्षा तो उसमें विपुल मात्रा में मौजूद ही है, भले वह इस बात को जाने या न जाने। शांति की वृद्धि के लिए उसे शांतिमय साधनों के द्वारा अपनी स्वतंत्रता हासिल करनी चाहिए। अगर वह सफलतापूर्वक ऐसा कर सके तो यह विश्वशांति की दिशा में उसकी किसी एक देश के द्वारा दी जा सकने वाली ज्यादा-से-ज्यादा मदद होगी।