हिंदू धर्म की मुख्य वस्तु है गोरक्षा। गोरक्षा मुझे मनुष्य के सारे विकास-क्रम में सबसे अलौकिक वस्तु मालूम हुई है। गाय का अर्थ मैं मनुष्य से नीचे की सारी गूंगी दुनिया करता हूँ। इसमें गाय के बहाने इस तत्त्व के द्वारा मनुष्य को संपूर्ण चेतन-सृष्टि के साथ आत्मीयता का अनुभव कराने का प्रयत्न है। मझे तो यह भी स्पष्ट दीखता है कि गाय को ही यह देवभाव क्यों प्रदान किया गया होगा। हिंदुस्तान में गाय ही मनुष्य का सबसे सच्चा साथी, सबसे बड़ा आधार था। यही हिंदुस्तान की एक कामधेनु थी। वह सिर्फ दूध ही नहीं देती थी, बल्कि सारी खेती का आधार-स्तंभ थी। गाय दयाधर्म की मूर्तिमंत कविता है। इस गरीब और शरीफ जानवर में हम केवल दया ही उमड़ती देखते हैं। यह लाखों-करोड़ों हिंदुस्तानियों को पालने वाली माता है। इस गाय की रक्षा करना ईश्वर की सारी मूक सृष्टि की रक्षा करना है। जिस अज्ञात ऋषि या द्रष्टा ने गोपूजा चलाई उसने गाय से शुरूआत की। इसके सिवा और कोई ध्येय हो ही नहीं सकता। इस पशुसृष्टि की फरियाद मूक होने से और भी प्रभावशाली है। गोरक्षा हिंदू धर्म की दुनिया को दी हुई एक कीमतों भेंट है। और हिंदू धर्म भी तभी तक रहेगा, जब तक गाय की रक्षा करने वाले हिंदू हैं।
हिंदुओं की परीक्षा तिलक करने स्वरशुद्ध मंत्र पढ़ने, तीर्थ यात्राएँ करने या जाता-बिरादरी के छोटे-छोटे नियमों को कट्टरता से पालने से नहीं होगी, बल्कि गाय को बचाने की उनकी शक्ति से ही होगी।
गोमाता जन्म देने वाली माँ से कहीं बढ़कर है। माँ तो साल दो साल दूध पिलाकर हमसे फिर जीवनभर सेवा की आशा रखती है। पर गोमाता को तो सिवा दाने और घास के कोई सेवा की आवश्यकता ही नहीं। माँ की तो हमें उसकी बीमारी में सेवा करनी पड़ती है। परंतु गोमाता केवल जीवन-पर्यंत ही हमारी अटूट सेवा नहीं करती, बल्कि उसके मरने के बाद भी हम उसके माँस, चर्म हड्डी, सींग आदि से अनेक लाभ उठाते हैं। यह सब मैं जन्मदात्री माता का दरजा कम करने को नहीं कहता, बल्कि यह दिखाने के लिए कहता हूँ कि गोमाता हमारे लिए कितनी पूज्य है।
हमारे ढोरों की दुर्दशा के लिए अपनी गरीबी का राग भी हम नहीं अलाप सकते। यह हमारी निर्दय लापरवाही के सिवा और किसी भी बात की सूचक नहीं है। हालांकि हमारे पिंजरापोल हमारी दयावृत्ति पर खड़ी हुई संस्थाएँ हैं, तो भी वे उस वृत्ति का अत्यंत भद्द अमन करने वाली संस्थाएँ ही हैं। व आदर्श गोशालाओं या डेरियों और समृद्ध राष्ट्रीय संस्थाओं के रूप में चलने के बजाय केवल लूले-लंगड़े ढोर रखने के धर्मादा खाते बन गए है। गोरक्षा के धर्म का दावा करते हुए भी हमने गाय और उसकी संतान को गुलाम बनाया है और हम खुद भी गुलाम बन गए है।
लेकिन मैं फिर से इस बात पर जोर देता हूँ कि कानून बनाकर गोवध बंद करने से गोरक्षा नहीं हो जाती। वह तो गोरक्षा के काम का छोटे-से-छोटा भाग है। ... लोग ऐसा मानते दीखते हैं। कि किसी भी बुराई के विरुद्ध कोई कानून बना कि तुरंत वह किसी झंझट के बिना मिट जाएगी। ऐसी भयंकर आत्म -वंचन और कोई नहीं हो सकती। किसी दुष्ट बुद्धि वाले अज्ञानी या छोटे से समाज के खिलाफ कानून बनाया जाता है और उसका असर भी होता है। लेकिन जिस कानून के विरुद्ध समझदार और संगठित लोकमत हो, या धर्म के बहाने छोटे-से-छोटे मंडल का भी विरोध हो, वह कानून सफल नहीं होता। गोरक्षा के प्रश्न का जैसे-जैसे मैं अधिक अध्ययन करता जाता हूँ, वैसे-वैसे मेरा यह मत दृढ़ होता जाता है कि गाँवों और उनकी जनता की रक्षा तभी हो सकता है, जब कि मेरी ऊपर बताई हुई दिशा में निरंतर प्रयत्न किया जाए।
अब सवाल यह हैं कि जब गाय अपने पालन-पोषण के खर्च से भी कम दूध देने लगती हें या दूसरी तरह से नुकसान पहुँचाने वाला बोझ बन जाती है, तब बिना मारे उसे कैसे बचाया जा सकता है? इस सवाल का जवाब थोड़े में इस तरह दिया जा सकता है:
1. हिंदू गाय औार उसकी संतान की तरफ अपना फर्ज पूरा करके उसे बचा सकते हैं। अगर वे ऐसा करें तो हमारे जानवर हिंदुस्तान और दुनिया के गौरव बन सकते हैं। आज इससे बिलकुल उलटा ही हो रहा है।
2. जानवरों के पालन-पोषण का शास्त्र सीखकर गाय की रक्षा की जा सकती है। आज तो इस काम में पूरी अंधाधुंधी चलती है।
3. हिंदुस्तान में आज जिस बेरहम तरीकें से बैलों को बधिया बनाया जाता है, उसकी जगह पश्चिम के हमदर्दी भरे और नरम तरीके काम में लाकर उसे कष्ट से बचाया जा सकता है।
4. हिंदुस्तान के सारे पिंजरापोलों का पूरा-पूरा सुधार किया जाना चाहिए। आज तो हर जगह पिंजरापोल का इंतजाम ऐसे लोग करते हैं, जिनके पास न तो कोई योजना होती हैं और न वे अपने काम की जानकारी ही न रखते हैं।
5. जब ये महत्त्व के काम कर लिए जाएँगे, तो मुसलमान खुद दूसरे किसी कारण से नहीं तो अपने हिंदू भाइयों के खातिर ही माँस या दूसरे मतलब के लिए गाय को न मारने की जरूरत को समझ लेंगे।
पाठक यह देखेंगे कि ऊपर बताई हुई जरूरतों के पीछे एक खास चीज है। वह है अहिंसा जिसे दूसरे शब्दों में प्राणिमात्र पर दया कहा जाता है। अगर इस सबसे बड़े महत्तव की बात को समझ लिया जाए, तो दूसरी सब बातें आसान बन जाती हैं। जहाँ अहिंसा है वहाँ अपार धीरज, भीतर शांति, भले-बुरे का ज्ञान, आत्म त्याग और सच्ची जानकारी भी है। गोरक्षा कोई आसान काम नहीं है। उसके नाम पर देश में बहुत पैसा बरबाद किया जाजाता है। फिर भी अहिंसा के न होने से हिंदू गाय के रक्षक बनने के बजाय उसके नाश करने वाले बन गए हैं। गोरक्षा का काम हिंदुस्तान से विदेशी हुकूमत को हटाने के काम से भी ज्यादा कठिन है।
[नोट: कहा जाता है कि हिंदुस्तान की गाय रोजाना लगभग 2 पौंड दूध देती है, जब कि न्यूजीलैंड की 14 पौंड की 15 पौंड और हालैंड की गाय रोजाना 20 पौंड दूध देती है। जैसे-जैसे दूध की पैदावर बढ़ती है वैसे-वैसे तंदुरुस्ती के आँकड़े भी बढ़ते हैं।]
मुझे यह देखकर आश्चर्य होता है कि हम लोग भैंस के दूध-घी का कितना पक्षपात करते हैं। असल में हम निकट का स्वार्थ देखते हैं, दूर के लाभ का विचार नहीं करते। नहीं तो यह साफ है कि अंत में गाय ही ज्यादा उपयोगी है। गाय के घी और मक्खन में एक खास तरह का पीला रंग होता है, जिसमें भैंस के मक्खन से कहीं अधिक केरोटीन यानी विटामिन 'ए' रहता है। उसमें एक खास तरह का स्वाद भी है। मझसे मिलने आने वाले विदेशी यात्री सेवाग्राम में गाय का शुद्ध दूध पीकर खुश हो जाते है। और यूरोप में तो भैंस के घी और मक्खन के बारे में कोई जानता ही नहीं। हिंदुस्तान ही एक ऐसा देश है, जहाँ भैंस का घी-दूध इतना पसंद किया जाता है। इससे गाय की बरबादी हुई है। इसीलिए मैं कहता हूँ कि हम सिर्फ गाय पर ही जोर न देंगे तो गाय नहीं बच सकेगी।