गाँवों में जाकर काम करने से हम चौंकते हैं। हम शहरी लोगों को देहाती जीवन अपनाना बहुत मुश्किल मालूम होता है। बहुतों के शरीर ही गाँव की कठिन चर्या को सहने से इनकार कर देते हैं। परंतु यदि हम स्वराज्य की स्थापना जनता की भलाई के लिए करना चाहते हैं, तथा सिर्फ शासकों के मौजूदा दल की जगह उनके जैसा ही कोई दूसरा दल-जो शायद उनसे भी बुरा सिद्ध हो-नहीं बिठाना चाहते, तो इस कठिनाई का मुकाबला हमें साहस के साथ ही नहीं बल्कि वीरता के साथ, अपने प्राणों की बाजी लगाकर करना होगा। आज तक देहाती लोग, हजारों और लाखों की संख्या में, हमारे जीवन का पोषण करने के लिए मरते आए है; अब उनके जीवन का पोषण करने के लिए हमें करना होगा। बेशक, उनके मरने में और हमारे मरने में बुनियादी फर्क होगा। वे बिन-जाने और अनिच्छापूर्वक मरे हैं। उनके इस विवश बलिदान ने हमें गिराया है। अब यदि हम ज्ञानपूर्वक और इच्छापूर्वक मरेंगे, तो हमार बलिदान हमें और हमारे साथ समूचे राष्ट्र को ऊपर उठाएगा। यदि हम एक आजाद और स्वावलंबी देश की तरह जीना चाहते हैं, तो इस आवश्य बलिदान से हमें अपना कदम पीछे नहीं हटाना चाहिए।
सुसंस्कृत घर जैसी कोई पाठशाला नहीं और ईमानदार तथा सदाचारी माता-पिता जैसे कोई शिक्षक नहीं। स्कूलों में मिलने वाली प्रचलित शिक्षा गाँव वालों पर एक व्यर्थ का बोझ है, जिसका उनके लिए कोई उपयोग नहीं है। उनके बच्चे उसे पाने की आशा नहीं कर सकते। और भगवान को धन्यवाद है कि यदि उन्हें सुसंस्कृत घर की तालीम मिल सके, तो उन्हें कभी भी उसकी कमी खटकेगी नहीं। अगर ग्रामसेवक संस्कारवान नहीं है, अगर वह अपने घर में सुसंस्कृत वातावरण पैदा करने को क्षमता नहीं रखता, तो उसे ग्रामसेवक बनने की, ग्रामसेवक होने का सम्मान और अधिकार पाने की, आकांक्षा छोड़ देना चाहिए। ...उन्हें लिखने-पढ़ने के ज्ञान की नहीं, अपनी आर्थिक स्थिति के और उसे सुधारने के उपायों के ज्ञान की जरूरत है। आज तो वह यंत्रों की तरह जड़वत काम करते है, न तो उनमें अपने आस-पास की परिस्थितियों के प्रति अपनी जिम्मेदारी का भान है और न उन्हें अपने काम में कोई आनंद ही आता है।
गाँवों की ऐसी बुरी हालत का कारण यह है कि जिन्हें शिक्षा का सौभाग्य प्राप्त हुआ है, उन्होंने गाँवों की बहुत उपेक्षा की है। उन्होंने अपने लिए शहरी जीवन चुना ग्राम-आंदोलन तो इसी बात का एक प्रयत्न है कि जो लोग सेवा की भावना रखते हैं, उन्हें गाँवों में बसकर ग्रामवासियों की सेवा में लग जाने के लिए प्रेरित करके गाँवों के साथ स्वास्थ्यप्रद संपर्क स्थापित किया जाए। जो लोग सेवाभाव से ग्रामों में बसे हैं, वे अपने सामने कठिनाइयाँ देखकर हतोत्साह नहीं होते। वे तो इस बात को जानकर ही वहाँ जाते हैं कि अनेक कठिनाइयों में, यहाँ तक कि गाँव वालों की उदासीनता के होते हुए भी, उन्हें वहाँ काम करना है। जिन्हें अपने मिशन में और खुद अपने-आप में विश्वास है, वे ही गाँव वालों की सेवा करके उनके जीवन पर कुछ असर डाल सकेंगे। सच्चा जीवन बिताना खुद ऐसा सबक है, जिसका आस-पास के लोगों पर जरूर असर पड़ता है। लेकिन इस नवयुवक के साथ शायद कठिनाई यह है कि वह किसी सेवाभाव से नहीं, बल्कि सिर्फ अपने जीवन-निर्वाह के लिए रोजी कमाने को गाँव में गया है, और जो सिर्फ कमाई के लिए ही वहाँ जाते हैं, उनके लिए ग्राम-जीवन में कोई आकर्षणन ही है, यह मै स्वीकार करता हूँ। सेवाभाव के बगैर जो लोग गाँवों में जाते हैं, उनके लिए तो उसकी नवीनता नष्ट होते ही ग्राम-जीवन नीरस हो जाएगा।
अत: गाँवों में जानेवाले किसी नवयुवक को कठिनाइयों से घबराकर तो कभी अपना रास्ता नहीं छोड़ना चाहिए। सब्र के साथ प्रयत्न जारी रखा जाए, तो मालूम पड़ेगा कि गाँव वाले शहरवालों से बहुत भिन्न नहीं हैं। और उन पर दया करने और ध्यान देने से वे भी साथ देंगे। यह निस्संदेह सच है कि गाँवों में देश के बड़े आदमियों के संपर्क का अवसर नहीं मिलता है। हाँ, ग्राम-मनोवृत्ति की वृद्धि होने पर नेताओं के लिए यह जरूरी हो जाएगा कि वे गाँवों में दौरा करके उनके साथ जीवित संपर्क स्थापित करें। मगर चैतन्य, रामकृष्ण, तुलसीदास, कबीर, नानक, दादू, तुकाराम, तिरुवल्लुवर जैसे संतों के ग्रंथों के रूप में महान और श्रेष्ठ जनों का सत्संग तो सबको आज भी प्राप्त है। कठिनाई यही है कि मन को इन स्थायी महत्त्व की बातों को ग्रहण करने लायक कैसे बनाया जाए। अगर आधुनिक विचारों का राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और वैज्ञानिक साहित्य प्राप्त करने से यहाँ आशय हो, तो कुतूहल शांत करने के लिए ऐसा साहित्य मिल सकता है। लेकिन मैं यह मंजूर करता हूँ कि जिस आसानी से धार्मिक साहित्य मिल सकता है। लेकिन मैं यह मंजूर करता हूँ कि जिस आसानी से धार्मिक साहित्य मिल जाता है वैसे यह साहित्य नहीं मिलता। संतों ने तो सर्व-साधारण के ही लिए लिखा और कहा है। पर आधुनिक विचारों को सर्व-धारण के ग्रहण करने योग्य रूप में अनूदित करने का शौक अभी पूरे रूप में सामने नहीं आया है। यह जरूर है कि समय रहते ऐसा होना चाहिए। अतएव नवयुवकों को मेरी सलाह है कि …वे अपना प्रयत्न छोड़ न दें, बल्कि उसमें लगे रहें और अपनी उपस्थिति से गाँवों को अधिक प्रिय और रहने योग्य बना दें। लेकिन यह वे करेंगे ऐसी सेवा के ही द्वारा, जो गाँव वालो के अनुकूल हो। अपने ही परिश्रम से गाँवों को अधिक साफ-सुथरा बनाकर और अपनी योग्यतानुसार गाँवों की निरक्षरता दूर करके हर एक व्यक्ति इसकी शुरुआत कर सकता है। और अगर उनके जीवन साफ, सुघड़ और परिश्रम हों, तो इसमें कोई शक नहीं कि जिन गाँवों में वे काम कर रहे होंगे, उनमें भी उसकी छूत फैलेगी और गाँव वाले भी साफ, सुघड़ और परिश्रम बनेंगे।
ग्राम सेवा के आवश्यक अंग
ग्राम-उद्धार में अगर सफाई न आवे, तो हमारे गाँव कचरे के घूरे जेसे ही रहेंगे। ग्राम-सफाई का सवाल प्रजा की जीवन का अविभाज्य अंग है। यह प्रश्न जितना आवश्यक है उतना ही कठिन भी है। दीर्घ काल से जिस अस्वच्छता की आदत हमें पड़ गई है, उसे दूर करने के लिए महान पराक्रम की आवश्यकता है। जो सेवक ग्राम-सफाई का शास्त्र नहीं जानता, खुद भंगी का काम नहीं करता, वह ग्राम सेवा के लायक नहीं बन सकता।
नई तालीम के बिना हिंदुस्तान के करोड़ों बालकों को शिक्षण देना लगभग असंभव है, यह चीज सर्वमान्य हो गई कही जा सकती है। इसलिए ग्रामसेवक को उसका ज्ञान होना ही चाहिए। उसे नई तालीम का शिक्षक होना चाहिए। इस तालीम के पीछे प्रौढ़-शिक्षण तो अपने-आप चला आएगा। जहाँ नई तालीम ने घर कर लिया होगा, वहाँ बच्चे ही माता-पिता के शिक्षक बन जाने वाले हैं। कुद भी हो, ग्रामसेवक के मन में प्रौढ़-शिक्षा देने की लगन होनी चाहिए।
स्त्री को अर्धांगिनी माना गया है। जब तक कानून से स्त्री और पुरुष के हक समान नहीं माने जाते, जब तक समझना चाहिए कि हिंदुस्तान जितना ही स्वागत नहीं किया जाता, तब तक समझना चाहिए कि हिंदुस्तान लकवे के रोग से ग्रस्त है। स्त्री की अवगणना अहिंसा की विरोधी है। इसलिए ग्रामसेवक को चाहिए कि वह हर स्त्री को माँ, बहन या बेटी के समान समझे और उसके प्रति आदर-भाव रखे। ऐसा ग्रामसेवक ही ग्रामवासियों का विश्वास प्राप्त कर सकेगा।
रोगी प्रजा के लिए स्वराज्य प्राप्त करना मैं असंभव मनता हूँ। इसलिए हम लोग आरोग्य-शास्त्र की जो अवगणना करते हैं वह दूर होनी चाहिए। अत: ग्रामसेवक को आरोग्य-शास्त्र का सामान्य ज्ञान होना चाहिए।
राष्ट्रभाषा के बिना राष्ट्र नहीं बन सकता। 'हिंदू-हिंदुस्तानी-उर्दू' के झगड़े में न पड़कर ग्रामसेवक, अगर वह राष्ट्रभाषा नहीं जानता, उसका ज्ञान हासिल करे। उसकी बोली ऐसी होनी चाहिए, जिसे हिंदू-मुसलमान सब समझ सकें।
हमने अँग्रेजी के मोह में फंसकर मातृभाषा का द्रोह किया है। इस द्रोह के प्रायश्चित के तौर पर भी ग्रामसेवक मातृभाषा के प्रति लोगों केमन में प्रेम उत्पन्न करेगा। उसके मन में हिंदुस्तान की सब भाषाओं के लिए आदर होगा। उसकी अपनी मातृभाषा जो भी हो, जिस प्रदेश में वह बसेगा वहाँ की मातृभाषा वह स्वयं सीखकर अपनी मातृभाषा के प्रति वहाँ के लोगों की भावना बढ़ाएगा।
अगर इस सबके साथ-साथ आर्थिक समानता का प्रचार न किया गया, तो यह सब निकम्मा समझना चाहिए। आर्थिक समानता का यह अर्थ हरगिज नहीं कि हर एक के पास धन की समान राशि होगी। मगर यह अर्थ जरूर है कि हर एक के पास ऐसा घर-बार, वस्त्र और खाने-पीने का समान होगा कि जिससे वह सुख से रह सके। और जो घातक असमानता आज मौजूद है, वह केवल अहिंसक उपायों से ही नष्ट होगी।
आवश्यक योग्यताएँ
(नीचे दी गई कुछ आवश्यक योग्यताएँ गांधीजी ने सत्याग्रहियों के लिए आवश्यक बतलाई थीं। लेकिन चूँकि उनके मतानुसार एक ग्रामसेवक को भी सच्चा सत्याग्रही होना चाहिए, इसलिए ये योग्यताएँ ग्रामसेवक पर भी लागू होने वाली मानी जा सकती हैं।)
1. ईश्वर में उसकी सजीव श्रद्धा होनी चाहिए, क्योंकि वही उसका आधार है।
2. वह सत्य और अहिंसा को धर्म मानता हो और इसलिए उसे मनुष्य-स्वभाव की सुप्त सात्त्विकता में विश्वास होना चाहिए। अपनी तपश्चर्या के रूप में प्रदर्शित सत्य और प्रेम के द्वारा वह उस सात्त्विकता को जाग्रत करना चाहता है।
3. वह चारित्रयवान हो और अपने लक्ष्य के लिए जान और माल को कुरबान करने के लिए तैयार हो।
4. वह आदतन खादीधारी हो और कातता हो। हिंदुस्तान के लिए यह लाजिमी है।
5. वह निर्व्यसनी हो, जिससे कि उसकी बुद्धि हमेशा स्वच्छ और स्थिर रहे।
6. अनुशासन के नियमों का पालन करने में हमेशा तत्पर रहता हो:
यह न समझना चाहिए कि इन शर्तों में ही सत्याग्रही की योग्यताओं की परिसमाप्ति हो जाती है। ये तो केवल दिशा-दर्शक हैं।