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वैचारिकी

मेरे सपनों का भारत

मोहनदास करमचंद गांधी

अनुक्रम 38 समग्र ग्राम सेवा पीछे     आगे

गाँव में जितने लोग रहते हैं उन्‍हें पहचानना, उन्‍हें जो सेवा चाहिए वह देना, अर्थात उसके लिए साधन जुटा देना और उनको वह काम करना सिखा देना, दूसरे कार्यकर्ता पैदा करना आदि काम ग्रामसेवक करेगा। ग्रामसेवक ग्रामवासियों पर इतना प्रभाव डालेगा कि वे खुद आकर उससे सेवा माँगेंगे, और उसके लिए जो साधन या दूसरे कार्यकर्ता चाहिए, उन्‍हें जुटाने के लिए उसकी पूरी मदद करेंगे। मानों कि मैं देहात में घानी लगाकर बैठा हूँ, तो मैं घानी से संबंध रखने वाले सब काम तो कर ही लूँगा। मगर मैं सामान्‍य 15-20 रुपए कमाने वाला घांची (तेल) नहीं बनूँगा। मैं तो महात्‍मा घांची बनूँगा। 'महात्‍मा' शब्‍द मैंने विनोद में इस्‍तेमाल किया। इसका अर्थ केवल यह हैं कि अपने घांचीपनों में मैं इतनी सिद्धि डाल दूँगा कि गाँव वाले आश्‍चर्यचकित हो जाएँगे। मैं गीता पढ़ने वाला, कुरानशरीफ पढ़ने वाला, उनके लड़कों को शिक्षा दे सकने की शक्ति रखने वाला घांची होऊँगा। समय के अभाव से मैं लड़कों को सिखा न सकूँ, यह दूसरी बात है। लोग आकर कहेंगे: 'तेली महाशय, हमारे लड़कों के लिए एक शिक्षक तो ला दीजिएगा।' मैं कहूँगा, 'शिक्षक मैं ला दूँगा, मगर उसका खर्च आपको बरदाश्‍त करना होगा।' वे खुशी से उसका स्‍वीकार करेंगे। मैं उन्‍हें कातना सिखा दूँगा। जब वे बुनकर की मदद की माँग करेंगे, तो शिक्षक की तरह उन्‍हें बुनकर ला दूँगा, ताकि जो चाहे सो बुनना भी सीख ले। उन्‍हें मैं ग्राम-सफाई का महत्‍त्‍व बताऊँगा जब वे सफाई के लिए भंगी माँगेंगे तो मैं कहूँगा, मैं खुद भंगी हूँ, आइए आपको यह काम भी सिखा दूँ। यह है मेरी समग्र ग्राम सेवा की कल्‍पना। आप कह सकते हैं कि इस युग में तो ऐसा घांची पैदा नहीं होने वाला है, तो मैं आप से कहूँगा, तब इस युग में ग्राम भी ऐसा-के-ऐसा रहने वाले हैं।

राशिया के घांची को लीजिए। तेल की मिलें चलाने वाले भी तो घांची ही है न? उनके पास पैसे रहते हैं। मगर पैसे को क्‍या महत्‍त्‍व देना था? पैसा तो मनुष्‍य के हाथ का मैल है। सच्‍ची शक्ति ज्ञान में रही है। ज्ञानी के पास नैतिक प्रतिष्‍ठा और नैतिक बल रहता है, इसलिए सब लोग ऐसे आदमी की सलाह पूछने जाते है।

गाँवों में दलबंदी और मतभेद

यह हिंदुस्‍तान की बदकिस्‍मती है कि जैसी दलबंदी और मतभेद शहरों में हैं, वैसा ही देहातों में भी देखे जाते हैं। और जब गाँवों की भलाई का खयाल न रखते हुए अपनी पार्टी की ताकत बढ़ाने के लिए गाँवों का उपयोग करने के खयाल से राजनीतिक सत्‍ता की बू हमारे देहातों में पहुँचती है, तो उससे देहातियों को मदद मिलने के बजाय उनकी तरक्‍की में रुकावट ही होती है। मैं तो कहूँगा कि चाहे जो नतीजा हो, हमें ज्‍यादा-से-ज्‍यादा मात्रा में स्‍थानीय मदद लेनी चाहिए। और अगर हम राजनीतिक सत्‍ता हड़पने की बुराई से दूर रहें, तो हमारे हाथों कोई बुराई होने की संभावना नहीं रहती। हमें याद रखना चाहिए कि शहरों के अँग्रेजी पढ़े-लिखें स्‍त्री-पुरुषों ने हिंदुस्‍तान के आधार बने हुए गाँवों को भुला देने का गुनाह किया है। इसलिए आज तक की हमारी इस लापरवाही को याद करने से हममें धीरज पैदा होगा। अभी तक मैं जिस-जिस गाँव में गया हूँ, वहाँ मुझे एक-न-एक सच्‍चा कार्यकर्ता मिला ही है। लेकिन गाँवों में भी लेने लायक कोई अच्‍छी चीज होती है, ऐसा मानने की नम्रता हममे नहीं है। और यही कारण है कि हमें वहाँ कोई नहीं मिलता। बेशक, हमें स्‍थानीय राजनीतिक मामलें से परे रहना चाहिए। लेकिन यह हम तभी कर सकते हैं, जब हम सारी पार्टियों की और किसी भी पार्टी में शामिल न होने वाले लोगों की सच्‍ची मदद लेना सीख जाएँगे।


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