मेरी आशा देश के युवकों पर है। उनमें से जो आदतों के शिकार हैं, वे स्वभाव से बुरे नहीं है। वे उनमें लाचारी से और बिना सोचे-समझे फँस जाते है। उन्हें समझना चाहिए कि इससे उनका और देश के युवकों का कितना नुकसान हुआ है। उन्हे यह भी समझना चाहिए कि कठोर अनुशासन द्वार नियमित जीवन ही उन्हें और राष्ट्र को संपूर्ण विनाश से बचा सकता है; कोई दूसरी चीज नहीं।
सबसे बड़ी बात तो यह है कि उन्हें ईश्वर की खोज करनी चाहिए और प्रलोभनों से बचने के लिए उसकी मदद माँगनी चाहिए। उसके बिना यंत्र की तरह केवल अनुशासन का पालन करने से विशेष लाभ नहीं होगा। ईश्वर की खोज का, उसके ध्यान और दर्शन का अर्थ यह है कि जिस तरह बालक बिना किसी प्रदर्शन की आवश्यकता के अपनी माँ के प्रेम को महसूस करता है, उसी तरह हम भी यह महसूस करें कि ईश्वर हमारे हृदयों में विराजमान है।
युवकों को, जो भविष्य के विधाता होने का दावा करते है, राष्ट्र का नामक-रक्षक तत्त्व-होना चाहिए। यदि यह नाम ही अपना खारापन छोड़ दे, तो उसे खारा कैसे बनाया जाए?
युवक तो सर्वत्र भावन के प्रवाह में बह जाने वाले होते हैं। इसलिए अध्ययन-काल में, यानी कम-से-कम 25 वर्ष की आयु तक प्रतिज्ञापूर्वक ब्रह्मचर्य का पालन करने की आवयकता है।
युवावस्था की निर्दोष पवित्रता एक अमूल्य निधि है। इंद्रियों की क्षणिक तृप्ति के लिए, जिसे भूल से सुख का नाम दिया जाता है, उसे खोना नहीं चाहिए।
अपना सारा ज्ञान और पांडित्य तराजू के एक पलड़े पर और सत्य तथा पवित्रता को दूसरे पलड़े पर रखकर देखो। सत्य और पवित्रता वाला पलड़ा पहले पलड़े से कहीं भारी पड़ेगा। नैतिक अपवित्रता की विषैली हवा आज हमारे विद्यार्थियों में भी जा पहुँची है और किसी छिपी हुई महामारी की तरह उनकी भयंकर बरबादी कर रही है। इसलिए मैं तुम लोगों से, लड़कों से और लड़कियों से, अनुरोध करता हूँ कि तुम अपने मन और शरीर को पवित्र रखो। तुम्हारा सारा पांडित्य और शास्त्रों का तुम्हारा सारा अध्ययन बिलकुल बेकार होगा, यदि तुम उनकी शिक्षाओं को अपने दैनिक जीवन में न उतार सको। मैं जानता हूँ कि कुछ शिक्षक भी ऐसे हैं, जो पवित्र और स्वच्छ जीवन नहीं बिताते। उनसे मैं कहूँगा कि वे अपने छात्रों को दुनिया का सारा ज्ञान सिखा दें, परंतु यदि वे उनमें सत्य और पवित्रता की लगन पैदा न करें, तो यही कहना होगा कि उन्होंने अपने छात्रों का द्रोह किया है और उन्हें ऊपर उठाने के बजाय आत्म नाश के मार्ग की ओर प्रवृत्त किया है। चरित्र के अभाव में ज्ञान बुराई को ही बढ़ाने वाली शक्ति है, जैसा कि हम ऊपर से भले दिखाई देने वाले किंतु भीतर से चोरी और बेईमानी का धंधा करने वाले अनेक लोगों के मामले में देखते हैं।
मैं चाहता हूँ कि तुम (नवयुवक) गाँवों में जाओं और वहाँ जमकर बैठ जाओं-उनके मालिकों या उपकारकर्ताओं की तरह नहीं, बल्कि उनके विनम्र सेवकों की तरह। तुम्हारी दैनिक चर्या से और तुम्हारे रहन-सहन से उन्हें समझने दो कि उन्हें खुद क्या करना है और अपना रहने का ढँग किस तरह बदलना है महज भावना का कोई उपयोग नहीं है, ठीक तरह जैसे कि भाप का अपने-आप में कोई उपयोग नहीं। भाप को उचित नियंत्रण में रखा जाए तभी उसमें प्रचंड शक्ति पैदा होती है। यही बात भावना की है। मैं चाहता हूँ कि तुम भारत की आहत आत्मा के लिए शांतिदायी लेप लेकर जाने वाले भगवान के दूतों की तरह उनके बीच में जा पहुँचों।
अनेक लड़कों और लड़कियो के या तुम चाहो तो कह सकते हो कि हजारों लड़कों ओर लड़कियों के पिता के नाते मैं तुमसे कहना चाहता हूँ कि आखिर तुम्हारा भाग्य तुम्हारे ही हाथों में है। यदि तुम केवल दो शर्तों का पालन करो तो तुम पाठशाला में क्या सीखते हो या क्या नहीं सीखते, इसकी मैं बिलकुल परवाह नहीं करूँगा। एक शर्त तो यह कि परिस्थिति कुछ भी क्यों न हो, तुम्हें भारी-से-भारी कठिनाइयों में भी पूरी निर्भयता के साथ सत्य का ही पालन करना चाहिए। सत्यनिष्ठ लड़का-सच्चा वीर अपने मन में कभी किसी चींटी को भी चोट पहुँचाने का खयाल नहीं आने देगा। वह अपनी पाठशाला के सारे कमजोर लड़कों का रक्षक बनकर रहेगा और पाठशाला के भीतर या बाहर उन सब लोगों की मदद करेगा जिन्हें उसकी मदद की आवश्यकता है। जो लड़का मन, शरीर ओर कार्य की पवित्रता की रखा नहीं करता, उसका पाठशाला में कोई काम नहीं, उसे पाठशाला से निकाल देना चाहिए। शूरवीर लड़का हमेशा अपना मन पवित्र रखेगा, अपनी आँखें पवित्र रखेगा और अपने हाथ पवित्र रखेगा। जीवन के इन बुनियादी उसूलों को सीखने के लिए तुम्हें किसी स्कूल में जाने की आवश्यकता नहीं है। और यदि तुमसे इस त्रिविध पवित्रता को प्राप्त कर लिया, तो तुम यह मान लो कि तुम्हारे जीवन का निर्माण सुदृढ़ नींव पर होगा।
हम एक ऊँचा ग्राम-सभ्यता के उत्तराधिकारी हैं। हमारे देश की विशालता, आबादी की विशालता और हमारी भूमि की स्थिति तथा आबोहवा ने, मेरी राय में, मानों यह तय कर दिया है कि उसकी सभ्यता ग्राम-सभ्यता ही होगी। उसके दोष तो मशहूर है, लेकिन उनमें कोई ऐसा नहीं है जिसका इलाज न हो सकता हो। इस सभ्यता को मिटाकर उसकी जगह दूसरी सभ्यता को जमाना मुझे तो अशक्य मालूम होता है। हाँ, हम लोग किन्हीं कठोर उपायों के द्वार अपनी आबादी 30 करोड़ से घटाकर 3 करोड़ या 30 लाख तक करने को तैयार हो जाएँ तो दूसरी बात है और उसक माने हुए दोषों को दूर करने का प्रयत्न करना है, मैं उन दोषों के इलाज सुझा सकता हूँ। लेकिन इन इलाजों का उपयोग तभी हो सकता है जब कि देश का युवक-वर्ग ग्राम-जीवन को अपना ले। और अगर वे ऐसा करना चाहते हों, तो उन्हें अपने जीवन का तौर-तरीका बदलना चाहिए और अपनी छुटिटयों का हर एक दिन अपने कालेज या हाईस्कूल के आस-पास वाले गाँवों में बिताना चाहिए; और जो लोग अपनी शिक्षा पूरी कर चुके हों या जो शिक्षा ले ही न रहे हों, उन्हें गाँवों में बसने का इरादा कर लेना चाहिए।
शारीरिक श्रम के साथ अकारण ही जो शर्म की भावना जुड़ गई है वह अगर दूर की जा सके,तो सामान्य बुद्धि वाले हर एक युवक और युवती के लिए उन्हें जितना चाहिए उससे कहीं अधिक काम पड़ा हुआ है।
जो आदमी अपनी जीविका ईमानदारी से कमाना चाहता है, वह किसी भी श्रम को छोटा यानी अपनी प्रतिष्ठा को घटाने वाला नहीं मानेगा। महत्त्व की बात यह है कि भगवान ने हमें जो हाथ-पाँव दिए हैं, उनका उपयोग करने के लिए हम तैयार रहें।