सर्वोच्च कोटि की स्वतंत्रता के साथ सर्वोच्च कोटि का अनुशासन और विनय होता है। अनुशासन और विनय से मिलने वाली स्वतंत्रता को कोई छीन नहीं सकता। संयमहीन स्वच्छंदता संस्कारहीनता की द्योतक है; उससे व्यक्ति की अपनी और पड़ोसियों की भी हानि होती है।
कोई भी मनुष्य की बनाई हुई संस्था ऐसी नहीं है जिसमें खतरा न हो। संस्था जितनी बड़ी होगी, उसके दुरुपयोग की संभावनाएँ भी उतनी ही बड़ी होंगी। लोकतंत्र एक बड़ी संस्था है, इसलिए दसका दुरुपयोग भी बहुत हो सकता है। लेकिन उसका इलाज लोकतंत्र से बचना नहीं, बल्कि दुरुपयोग की संभावना को कम-से-कम करना है।
जनता की राय के अनुसार चलने वाला राज्य जनमत से आगे बढ़कर कोई काम नहीं कर सकता। यदि वह जनमत के खिलाफ जाए तो नष्ट हो जाए। अनुशासन और विवेकयुक्त जनतंत्र दुनिया की सबसे सुंदर वस्तु है। लेकिन राग-द्वेष, अज्ञान और अंध-विश्वास आदि दुर्गुणों से ग्रस्त जनतंत्र अराजकता के गड्ढे में गिरता है और अपना नाश खुद कर डालता है।
मैंने अक्सर यह कहा है कि अमुक विचार रखने वाला कोई भी पक्ष यह दावा नहीं कर सकता है। हम सबसे भूलें होती हैं और हमें अक्सर अपने निर्णयों परिवर्तन करने पड़ते हैं। हमारे जैसा विशाल देश में ईमानदारी से विचार करने वाले सभी पक्षों को स्थान होना चाहिए। इसलिए हमारा अपने प्रति और दूसरों के प्रति कम-से-कम यह कर्त्तव्य तो है ही कि हम प्रतिपक्षी का दृष्टिकोण समझने की कोशिक करें। और यदि हम उसे स्वीकार न कर सकें तो भी जिस तरह हम यह चाहेंगे कि वह हमारे मत का आदर करे, उसी तरह हम भी उसके मत का आदर करें। यह चीज स्वस्थ सार्वजनिक जीवन की और स्वराज्य की योग्यता की अनिवार्य कसौटियों में से एक है। यदि हममें उदारता और सहिष्णुता नहीं है, तो हम अपने भेद कभी मित्रतापूर्वक नहीं सुलझा सकेंगे और फल यह होगा कि हमें तीसरे पक्ष को अपना पंच मानना पड़ेगा, यानी विदेशी अधीनता स्वीकार करनी पड़ेगी।
जब राज्यसत्ता जनता के हाथ में आ जाती है, तब प्रजा की आजादी में होने वाले हस्तक्षेप की मात्रा कम-से-कम हो जाती है। दूसरी शब्दों में, जो राष्ट्र अपना काम राज्य के हस्तक्षेप के बिना ही शांतिपूर्वक और प्रभावपूर्ण ढँग से कर दिखाता है, उसे ही सच्चे अर्थों में लोकतंत्रात्मक कहा जा सकता है। जहाँ ऐसी स्थिति न हो वहाँ सरकार का बाहरी रूप लोकतंत्रात्मक भले हो, परंतु वह नाम के लिए ही लोकतंत्रात्मक है।
लोकतंत्र और हिंसा का मेल नहीं बैठ सकता। जो राज्य आज नाम मात्र के लिए लोकतंत्रात्मक हैं उन्हें तो स्पष्ट रूप से तानाशाही का हामी हो जाना चाहिए, या अगर उन्हें सचमुच लोकतंत्रात्मक बनना है तो उन्हें साहस के साथ अहिंसक बन जाना चाहिए। यह कहना बिलकुल अविचारपूर्ण है कि अहिंसा का पालन केवल व्यक्ति ही कर सकते हैं, और राष्ट्र - जो व्यक्तियों से बनते हैं - हरगिज नहीं।
प्रजातंत्र का सार ही यह है कि उसमें हर एक व्यक्ति उन विविध स्वार्थों का प्रतिनिधित्व करता है जिनसे राष्ट्र बनता है। यह सच है कि इसका यह मतलब नहीं कि विशेष स्वार्थों के विशेष प्रतितिधित्व करने से रोक दिया जाए, लेकिन ऐसा प्रतिनिधित्व उसकी कसौटी नहीं है। यह उसकी अपूर्णता की एक निशानी है।
सच्ची लोकसत्ता या जनता का स्वराज्य कभी भी असत्यमय या हिंसक साधनों से नहीं आ सकता। कारण स्पष्ट और सीधा है। यदि असत्यमय और हिंसक उपायों का प्रयोग किया गया, तो उसका स्वाभाविक परिणाम यह होगा कि सारा विरोध या तो विरोधियों को दबाकर या उनका नाश करके खतम कर दिया जाएगा। ऐसी स्थिति में वैयक्तिक स्वतंत्रता की रक्षा नहीं हो सकती। वैयक्तिक स्वतंत्रता को प्रगट होने का पूरा अवकाश केवल विशुद्ध अहिंसा पर आधरित शासन में ही मिल सकता है।
आजाद प्रजातंत्रिक भारत आग्रमण के खिलाफ पारस्परिक रक्षण और आर्थिक सहकार के लिए दूसरे आजाद देशों के साथ खुशी से सहयोग करेगा। वह आजादी और जनतंत्र पर आधारित ऐसी विश्व-व्यवस्था की स्थापना के लिए काम करेगा, जो मानव-जाति की प्रगति और विकास के लिए दुनिया के समूचे ज्ञान और उसकी समूची साधन-संपति का उपयोग करेगी।
प्रजातंत्र का अर्थ मैं यह समझा हूँ कि इस तंत्र में नीचे-से-नीचे और ऊँचे-से-ऊँचे आदमी को आगे बढ़ने का समान अवसर मिलना चाहिए। लेकिन सिवा अहिंसा के ऐसा कभी हो ही नहीं सकता। संसार में आज कोई भी देश ऐसा नहीं है जहाँ कमजोर के हक की रक्षा बतौर फर्ज के होता हो। अगर गरीबों के लिए कुछ दिया भी जाता है, तो वह मेहरबानी के तौर पर किया जाता है।
पश्चिम का आज प्रजातंत्र जरा हलके रंग का नाजी और फासिस्ट तंत्र ही है। ज्यादा-से-ज्यादा प्रजातंत्र साम्राज्यवाद की नाजी और फासिस्ट चाल को ढँकने के लिए एक आडंबर है। ...हिंदुस्तान सच्च प्रजातंत्र गढ़ने का प्रयत्न कर रहा है, अर्थात ऐसा प्रजातंत्र जिसमें हिंसा के लिए कोई स्थान न होगा। हमारा हथियार सत्याग्रह है। उसका व्यक्त स्वरूप है चरखा, ग्रामोद्योग, उद्योग के जरिए प्राथमिक शिक्षा-प्राणाली, अस्पृश्यता-निवारण, मद्य-निषेध, अहिंसक तरीक से मजदूरों का संगठन, जैसा कि अहमदाबाद में हो रहा है, और सांप्रदायिक ऐक्य। इस कार्यक्रम के लिए जनता को सामुदायिक रूप में प्रयत्न करना पड़ता है, और सामुदायिक रूप से जनता को शिक्षण भी मिल जाता है। इन प्रवृत्तियों को चलाने के लिए हमारे पास बड़े-बड़े संघ हैं, पर कार्यकर्त्ता पूरी तरह स्वेच्छा से इन कामों में आए हैं। उनके पीछे अगर कोई शक्ति है, तो वह उनकी अत्यंत दीन-दुर्बलों की सेवा-भावना ही है।
जन्मजात लोकतंत्रवादी वह होता है, जो जन्म से ही अनुशासन का पालन करने वाला हो। लोकतंत्र स्वाभाविक रूप में उसी को प्राप्त होता है, जो साधारण रूप में अपने को मानवी तथा दैवी सभी नियमों का स्वच्छापूर्वक पालन करने का अभ्यस्त बना ले। ...जो लोग लोकतंत्र के इच्छुक हैं उन्हें चाहिए कि पहले वे लोकतंत्र की इस कसौटी पर अपने को परख लें। इसके अलावा, लोकतंत्रवादी को नि:स्वार्थ भी होना चाहिए। उसे अपनी या अपने दल की दृष्टि से नहीं बल्कि एकमात्र लोकतंत्र की ही दृष्टि से सब-कुछ सोचना चाहिए। तभी मैं वह सविनय अवज्ञा का अधिकारी हो सकता है। ...व्यक्तिगत स्वतंत्रता की मैं कदर करता हूँ, लेकिन आपको यह हरगिज नहीं भूलना चाहिए कि मनुष्य मूलत: एक सामाजिक प्राणी ही है। सामाजिक प्रगति की आवश्यकताओं के अनुसार अपने व्यक्तित्व को ढालना सीखकर ही वह वर्तमन स्थिति तक पहुँचा है। अबाध व्यक्तिवाद वन्य पशुओं का नियम है। हमें व्यक्तिगत स्वतंत्रता और सामाजिक संयम के बीच समन्वय करना सीखना है। समस्त समाज के हित के खातिर सामाजिक संयम के आगे स्वच्छापूर्वक सिर झुकाने से व्यक्ति और समाज, जिसका कि वह एक सदस्य है, दोनों का ही कल्याण होता है।
जो व्यक्ति अपने कर्तव्य का उचित पालन करता है, उसे अधिकार अपने-आप मिल जाते हैं। सच तो यह है कि एकमात्र अपने कर्तव्य के पालन का अधिकार ही ऐसा अधिकार है, जिसके लिए ही मनुष्य को जीना चाहिए और मरना चाहिए। उसमें सब उचित अधिकारों का समावेश हो जाता है। बाकी सब तो अनधिकार अपहरण जैसा और उसमें हिंसा के बीज छिपे रहते है।
लोकशाही में हर आदमी को समाज की इच्छा यानी राज्य की इच्छा के मुताबिक चलना होता है और उसी मुताबिक अपनी इच्छाओं की हद बाँधनी होती है। स्टेट लोकशाही के द्वारा और लोकशाही के लिए राज्य चलाती है। अगर हर आदमी कानून को अपने हाथ में ले तो स्टेट नहीं रह जाएगी; अराजकता हो जाएगी, यानी सामाजिक नियम या स्टेट की हस्ती मिट जाएगी। यह आजादी को मिटा देने वाला रास्ता है। इसलिए आपकी अपने गुस्से पर काबू पाना चाहिए और राज्य को न्याय पाने का मौका देना चाहिए।
प्रजातंत्र में लोगों को चाहिए कि वह सरकार की कोई गलती देखें, तो उसकी तरफ उसका ध्यान खींचे और संतुष्ट हो जाएँ। अगर वे चाहें तो अपनी सरकार को हटा सकते हैं, मगर उसके खिलाफ आंदोलन करके उसके कामों में बाधा न डालें। हमारी सरकार जबरदस्त जल सेना और थल सेना रखने वाली कोई विदेशी सरकार तो है नहीं। उसका बल तो जनता ही है।
सच्ची लोकशाही केंद्र में बैठे हुए बीस आदमी नहीं चला सकते। वह तो नीचे से हर एक गाँव के लोगों द्वारा चलाई जानी चाहिए।
भीड़ का राज्य
मैं खुद तो सरकार की नाराजी की उतनी परवाह नहीं करता जितनी भीड़ की नाराजी की। भीड़ की मनमानी राष्ट्रीय बीमारी का लक्ष्ण है और इसलिए सरकार की नाराजी की - जो कि अल्पकाय संघ तक ही सीमित होती है - तुलना में उससे निपटना ज्यादा मुश्किल है। ऐसी किसी सरकार को, जिसने अपने को शासन के लिए अयोग्य सिद्ध कर दिया हो, अपदस्थ करना आसान है, लेकिन किसी भीड़ में शामिल अनजाने आदमियों का पागलपन दूर करना ज्यादा कठिन है।
भीड़ को अनुशासन सिखाने से ज्यादा आसान और कुछ नहीं है। कारण सीधा है। भीड़ कोई काम बुद्धिपूर्वक नहीं करती, उसकी कोई पहले से सोची हुई योजना नहीं होती। भीड़ के लोग जो कुछ करते हैं सो आवेश में करते हैं। अपनी गलती के लिए पश्चात्ताप भी वे जल्दी करते हैं। मैं असहयोग का उपयोग लोकशाही का विकास करने के लिए कर रहा हूँ।
हमें इन हजारों-लाखों लोगों को, जिनका हृदय सोने का हैं, जिन्हें देश से प्रेम है, जो सीखना चाहते हैं और यह इच्छा रखते हैं कि कोई उनका नेतृत्व करें, सही तालीम देनी चाहिए। केवल थोड़े से बुद्धिमान और निष्ठावान कार्यकर्त्ताओं की जरूरत है। वे मिल जाएँ तो सारे राष्ट्र को बुद्धिपूर्वक काम करने के लिए संघटित किया जा सकता है तथा भीड़ की अराजकता की जगह सही प्रजातंत्र का विकास किया जा सकता है।
सरकार की ओर से या प्रजा की ओर से आतंकवाद चलाया जा रहा हो, तब लोकशाही की भावना की स्थापना करना असंभव है। और कुछ अंशों में सरकारी आतंकवाद की तुलना में प्रजाकीय आतंकवाद लोकशाही की भावना के प्रसार का ज्यादा बड़ा शत्रु है। कारण, सरकारी आतंकवाद से लोकशाही की भावना को बल मिलता है, जब कि प्रजाकीय आतंकवाद तो उसका हनन करता है।
बहुसंख्यक दल और अल्पसंख्य दल
अगर हम लोकशाही की सच्ची भावना का विकास करना चाहते हैं, तो हम असहिष्णु नहीं हो सकते। असहिष्णुता यह बताती है कि अपने ध्येय की सचाई में हमारा पूरा विश्वास नहीं है।
हम अपने लिए यदि स्वतंत्रतापूर्वक अपना मत प्रकट करने और कार्य करने के अधिकार का दावा करते हैं, तो यही अधिकार हमें दूसरों को भी देना चाहिए। बहुसंख्यक दल का शासन, जब वह लोगों के साथ जबरदस्ती करने लगता है तब, उतना ही असह्य हो उठता है जितना किसी अल्पसंख्यक नौकरशाही का। हमें अल्पसंख्यकों को अपने पक्ष में धीरज के साथ, समझा-बुझाकर और दलील करने ही लाने की कोशिश करनी चाहिए।
बहुसंख्यक दल का शासन अमुक हद तक जरूर माना जाना चाहिए। यानी, ब्यौरे की बातों में हमें बहुसंख्यक दल का निर्णय स्वीकार कर लेना चाहिए। लेकिन उसके निर्णय कुछ भी क्यों न हों, उन्हें हमेशा स्वीकार कर लेना गुलामी का चिह्न है। लोकशाही किसी ऐसी स्थिति का नाम नहीं है जिसमें लोग भेड़ों की तरह व्यवहार करें। लोकशाही में व्यक्ति के मत-स्वातंत्र्य और कार्य-स्वतंत्र्य की रक्षा अत्यंत सावधानी से की जाती है, और की जानी चाहिए। इसलिए मैं यह विश्वास करता हूँ कि अल्पसंख्यकों को बहुसंख्यकों से अलग ढँग से चलने का पूरा अधिकार है।
अगर व्यक्ति का महत्त्व न रहे, तो समाज में भी क्या सत्त्व रह जाएगा? वैयक्तिक स्वतंत्रता ही मनुष्य को समाज की सेवा के लिए स्वेच्छापूर्वक अपना सब-कुछ अर्पण करने की प्रेरणा दे सकती है। यदि उससे यह स्वतंत्रता छीन ली जाए, तो वह एक जड़ यंत्र जैसा हो जाता है और समाज की बरबादी होती है। वैयक्तिक स्वतंत्रता को अस्वीकार करके कोई सभ्य समाज नहीं बनाया जा सकता।