मेरा यह कहना नहीं है कि हम शेष दुनिया से बचकर रहें या अपने आस-पास दीवालें खड़ी कर लें। यह तो मेंरे विचारों से बड़ी दूर भटक जाना है। लेकिन मैं यह जरूर कहता हूँ कि पहले हम अपनी संस्कृति का सम्मान करना सीखें और उसे आत्म सात् करें। दूसरी संस्कृतियों के सम्मान की, उनकी विशेषताओं को समझने और स्वीकार करने की बात उसके बाद ही आ सकती है, उसके पहले कभी नहीं। मेरी यह दृढ़ मान्यता है कि हमारी संस्कृति में जैसी मूल्यवान निधियाँ हैं वैसी किसी दूसरी संस्कृति में नहीं हैं। हमने उसे पहिचाना नहीं है; हमें उसके अध्ययन का तिरस्कार करना, उसके गुणों की कम कीमत करना सिखाया गया है। अपने आचरण में उसका व्यवहार करना तो हमने लगभग छोड़ ही दिया है। आचार के बिना कोरा बौद्धिक ज्ञान उस निर्जीव देह की तरह है, जिस मसाला भरकर सुरक्षित रखा जाता है। वह शायद देखने में अच्छा लग सकता है, किंतु उसमें प्ररेणा देने की शक्ति नहीं होती। मेरा धर्म मझे आदेश देता है कि मैं अपनी संस्कृति को सीखूँ, ग्रहण करूँ और उसके अनुसार चलू; आत्म हत्या कर लेंगे। किंतु साथ ही वह मुझे दूसरो की संस्कृतियों का अनादर करने या उन्हें तुच्छ समझने से भी रोकता है।
वह उन विविध संस्कृतियों के समन्वय की पोषक है, जो इस देश में सुस्थिर हो गई हैं, जिन्होंने भारतीय जीवन को प्रभावित किया है और जो खुद भी इस भूमि के वातावरण से प्रभावित हुई हैं। जैसा कि स्वाभाविक है, वह समन्वय स्वदेशी ढँग का होगा, अर्थात उसमें प्रत्येक संस्कृति को अपना उचित स्थान प्राप्त होगा। वह अमरीकी ढँग का नहीं होगा, जिसमें कोई एक प्रमुख संस्कृति बाकी सबको पचा डालती है और जिसका उद्देश्य सुमेल साधना नहीं बल्कि कृत्रिम और जबरदस्ती लादी जाने वाली एकता निर्माणकरना है।
हमारे समय की भारतीय संस्कृति अभी निर्माण की अवस्था में है। हम लोगों में कोई उन सारी संस्कृतियों का एक सुंदर सम्मिश्रण रचने का प्रयत्न कर रहे है, जो आज आपस में लड़ती दिखाई देती हैं। ऐसी कोई भी संस्कृति, जो सबसे बचकर रहना चाहती हो, जीवित नहीं रह सकती। भारत में आज शुद्ध आर्य संस्कृति जैसी कोई चीज नहीं है। आर्य लोग भारत के ही रहने वाले थे या यहाँ बाहर से आए थे और यहाँ के मूल निवासियों ने उनका विरोध किया था, इस सवाल में मुझे ज्यादा दिलचस्पी नहीं है। जिस बात में मेरी दिलचस्पी है वह यह है कि मेरे अतिप्राचीन पूर्वज एक-दूसरे के साथ पूरी आजादी से घूल-मिल गए थे, और हम उनकी वर्तमान संतान उस मेल का ही परिणाम हैं। अपनी जन्मभूमि का और इस पृथ्वी माता का, जो हमारा पोषण करती है, हम कोई हित कर रहे हैं या उस पर बोझ रूप हैं, यह तो भविष्य ही बताएगा।