मैं कॉलेज की शिक्षा में कायापलट करके उसे राष्ट्रीय आवश्यकताओं के अनुकूल बनाऊँगा। यंत्र विद्या के तथा अन्य इंजीनियरों के लिए डिग्रियाँ होंगी। वे भिन्न-भिन्न उद्योगों के साथ जोड़ दिए जाएँगे और उद्योगों को जिन स्नातकों की जरूरत होगी उनके प्रशिक्षण का खर्च वे उद्योग ही देंगे। इस प्रकार टाटा वालों से आशा की जाएगी कि वे राज्य की देखरेख में इंजीनियरों को तालीम देने के लिए एक कॉलेज चलाएँ। इसी तरह मिलों के संघ अपनी जरूरतों के स्नातकों को तालीम देने के लिए अपना कॉलेज चलाएँगे।
इसी तरह और उद्योगों के नाम लिए जा सकते हैं। वाणिज्य-व्यवसाय वालों का अपना कॅलेज होगा। अब रह जाते हैं कला, औषधि और खेती। कई खानगी कला-कॉलेज आज भी स्वावलंबी है। इसलिए राज्य ऐसे कॉलेज चलाना बंद कर देगा। डॉक्टरी के कॉलेज प्रामाणिक अस्पतालों के साथ जोड़ दिए जाएँगे। चूँकि ये धनवानों में लोकप्रिय हैं, इसलिए उनसे आशा रखी जाती है कि वे स्वेच्छा से दान देकर डॉक्टरी के कॉलेजो को चलाएँगे। और कृषि-कॉलेज तो अपने नाम को सार्थक करने के लिए स्वावलंबी होने ही चाहिए। मुझे कुछ कृषि-स्नातकों का दु:खद अनुभव है। उनका ज्ञान ऊपरी होती है। उसमें व्यावहारिक अनुभव की कमी होती है। परंतु यदि वे देश की जरूरतें पूरी करने वाले और स्वावलंबी खेतों पर तालीम लें, तो उन्हें अपनी डिग्रियाँ लेने के बाद और अपने मालिकों के खर्च पर तजुरबा हासिल नहीं करना पड़ेगा।
राज्य के विश्वविद्यालय खालिस परीक्षा लेने वाली संस्थाएँ रहे और वे अपना खर्च परीक्षा-शुल्क से ही लिया करें।
विश्वविद्यालयों शिक्षा के सारे क्षेत्र की देखरेख रखेंगे और शिक्षा के विभिन्न विभागों के पाठयक्रम तैयार करके उन्हें मंजूरी देंगे। कोई खानगी स्कूल अपने-अपने विश्वविद्यालयों से पूर्व-स्वीकृति लिए बिना नहीं चलाए जाने चाहिए। विश्वविद्यालय के स्वीकृति-पत्र प्रमाणित योग्यता वाले और प्रामाणिक व्यक्तियों की किसी भी संस्था को उदारतापूर्वक दिए जाने चाहिए। और हमेशा यह समझकर चला जाएगा कि विश्वविद्यालयों का राज्य पर कोई खर्च नहीं पड़ेगा।
उसे सिर्फ ऐ केंद्रीय शिक्षा-विभाग का खर्च ही उठाना होगा।
नए विश्वविद्यालय
प्रांतों में नए विश्विविद्यालय कामय करने की लोगों पर सनक-सी सवार हो गई मालूम होती है। गुजरात गुजराती के लिए, महाराष्ट्र मराठी के लिए, कर्नाटक कन्नड़ के लिए, उड़ीसा उड़िया के लिए और आसाम आसामी के विश्वविद्यालय चाहता है। मैं अवश्य मानता हूँ कि अगर इन संपन्न प्रांतीय भाषाओं और उन्हें बोलने वालें लोगों की पूरी उन्नति करनी हो, तो ये विश्वविद्यालय होने चाहिए।
साथ ही मुझे डर है कि इस लक्ष्य को पूरा करने में हम अनुचित जल्दीबाजी कर रहे हैं। इसके लिए पहला कदम प्रांतों का भाषावार राजनीतिक बँटवारा होना चाहिए। उनका शासन अलग हो जाएगा तो स्वाभाविक तौर पर जहाँ विश्वविद्यालय नहीं हैं वहाँ वे कायम हो जाएँगे।
नए विश्वविद्यालय के लिए उचित पृष्ठभूमि होनी चाहिए। विश्वविद्यालय हों उसके पहले उनका पोषण करने वाले स्कूल और कॉलेज होने चाहिए, जहाँ अपनी-अपनी भाषाओं के माध्यम से शिक्षा दी जाए। तभी विश्वविद्यालयों का आवश्यक वातावरण खड़ा हुआ माना जा सकता है। विश्वविद्यालय चोटी पर होता है। शानदार चोटी तभी कायम रह सकती है जब बुनियाद अच्छी हो।
हम राजनीतिक दृष्टि से तो स्वतंत्र हो गए, परंतु पश्चिम के सूक्ष्म प्रभाव से मुक्त नहीं हुए हैं। मुझे उस विचारधारा के राजनीतिज्ञों से कुछ नहीं कहना है, जो यह मानते हैं कि ज्ञान पश्चिम से ही आ सकता है। मैं इस विश्वास से भी सहमत नहीं हूँ कि पश्चिम से कोई अच्छी बात नहीं मिल सकती। मगर मझे यह डर जरूर है कि अभी तक इस मामले में हम किसी निर्णय पर नहीं पहुँच सके हैं। आशा है कोई यह दावा नहीं करेगा कि चूँकि हमें विदेशी प्रभुता से राजनीतिक मुक्ति मिल गई मालूम होती है, सिर्फ इसीलिए हम विदेशी भाषा और विदेशी विचारों के प्रभाव से भी मुक्त हो गए हैं। क्या यह बुद्धिमानी नहीं है, क्या देश के प्रति हमारे कर्त्तव्य की यह माँग नहीं है कि नए विश्वविद्यालय खड़े करनेसे पहले हम जरा सुस्ता कर अपनी नव प्राप्त स्वतंत्रता के प्राणवायु से अपने फेफड़ों को भर लें? विश्वविद्यालय को बहुत-सी शानदार इमारते और सोने-चाँदी के खजाने की कभी आवश्यकता नहीं होती। उसे सबसे ज्यादा जरूरत लोकमत द्वारा समझ कर दिए गए सहारे की रहती है। उसके पास शिक्षकों का एक बड़ा भंडार होना चाहिए। उसके संस्थापक दूरदर्शीं होने चाहिए।
मेरी राय में विश्वविद्यालयों की स्थापना के लिए रुपया जुटाना लोकतंत्रिक राज्य का काम नहीं है। लोगों को उनकी जरूरत होगी तो वे आवश्यक पैसा खुद जुटा लेंगे। इस प्रकार स्थापित विश्वविद्यालय देश के भूषण होंगे। जहाँ शासन विदेशियों के हाथों में होता हैं, वहाँ लोगों को जो कुछ मिलता है वह सब ऊपर से आता है और इस प्रकार वे अधिकाधिक पराधीन हो जाते हैं। जहाँ उसका आधार जनता की इच्छा पर होता है और इसलिए व्यापक होता है, वहाँ हर चीज नीचे से उठती है और इसलिए टिकती है। वह दीखने में भी अच्छी होती है और लोगों को शक्ति देती है। ऐसी लोकतांत्रिक योजना में विद्या-प्रचार में लगाया हुआ रुपया लोगों को दस गुना लाभ पहुँचाता है, जैसे अच्छी जमीन में बोया हुआ बीज बढ़िया फसल देता है। विदेशी प्रभुता के अधीन कायम किए गए विश्वविद्यालय उलटी दिशा में चले हैं। शायद दूसरा कोई परिणाम हो भी नहीं सकता था। इसलिए जब तक भारतवर्ष अपनी नवप्राप्त स्वतंत्रता को पचा न ले, विश्वविद्यालय कायम करने के बारे में हर दृष्टि से सावधान रहना चाहिए।
प्रौढ़शिक्षा
अगर बड़ी उमर के स्त्री-पुरुषों को तालीम देने या पढ़ाने का काम मेरे जिम्मे हो, तो मैं अपने विद्यार्थियों को अपने देश के विस्तान और उसकी महत्ता का बोध कराकर उनकी पढ़ाई शुरू करूँ। हमारे देहातियों के खयाल में उनका गाँव ही उनका समूचा देश होता है। जब वे किसी दूसरे गाँव को जाते हैं तो इस तरह बता करते हैं, मानों उनका अपन गाँव ही उनका समूचा देश या वतन हो। 'हिंदुस्तान' तो उनके खयाल से भूगोल की किताबों में बरता जाने वाला एक शब्दमात्र है। हमारे गाँवों में कितना घोर अज्ञान घुसा हुआ है, इसका हमें अंदाज भी नहीं है। हमारे देहाती भाई और बहन नहीं जानते कि इस देश में जो विदेशी हुकूमत चल रही है, उसका देश पर कितना बुरा असर हुआ है। ...वे नहीं जानते कि इस हुकूमत के पंजे से, इसकी बला से, कैसे छूटा जाए। फिर, उन्हें इस बात का भी तो खयाल नहीं है कि विदेशियों की जो हुकूमत यहाँ कायम है, उसका एक कारण उनकी अपनी कमजोरियाँ और खामियाँ भी है; और दूसरे, वे यह भी नहीं जानते कि इस परदेशी हुकूमत की बला को दूर करने की ताकत खुद उनमें है। इसलिए बड़ी उमर के अपने देशवासियों की शिक्षा का सबसे पहला अर्थ मैं यह करता हूँ कि उन्हें जबानी तौर पर यानी सीधी बातचीत के जरियें सच्ची राजनीतिक तालीम दी जाए। ... इस जबानी तालीम के साथ लिखने-पढ़ने की तालीम भी चलेगी। इसके लिए खास लियाकत की जरूरत है। इस सिलसिले में पढ़ाई के वक्त को भरसक कम करने के खयाल से कई तरीके आजमाएँ जा रहे है।
जन-साधारण में फैली हुई व्यापक निरक्षरता भारत का कलंक है। वह मिटना ही चाहिए। बेशक, साक्षरता की मुहिम का आरंभ और अंत वर्णमाला के ज्ञान के साथ ही नहीं हो जाना चाहिए। वह उपयोग ज्ञान के प्रचार के साथ-साथ चलनी चाहिए। जिखने-पढ़ने और अंकगणित का शुष्क ज्ञान देहातियों के जीवन का स्थायी अंग न आज है और न कभी हो सकता है। उन्हें ऐसा ज्ञान देना चाहिए जिसका उन्हें रोज उपयोग करना पड़े। वह उन पर थोपा नहीं जाना चाहिए। उसकी उन्हें भूख होनी चाहिए। आजकल उन्हें जो कुछ मिलता है वह ऐसा है, जिसकी न तो उन्हें आवश्यकता है और न कदर है। ग्रामवासियों को गाँव का गणित, गाँव का भूगोल, गाँव का इतिहास और साहित्य का वह ज्ञान सिखाइये जिसे उन्हें रोज काम में लेना पड़े, अर्थात चिटठी-पत्री लिखना और पढ़ना बताइएँ। वे इस ज्ञान को जुटाकर रखेंगे और आगे की मंजिलों की तरफ बढ़ेंगे। जिन पुस्तकों से उन्हें दैनिक उपयोग की कोई सामग्री नहीं मिलती, वे उनके लिए किसी काम की नहीं।
धार्मिक शिक्षा
...इसमें कोई शक नहीं कि सरकारी स्कूल-कॉलेजों से निकले हुए अधिकतर लड़के धार्मिक शिक्षण से कोरे ही होते है। ...मैं जानता हूँ कि इस विचार वाले लोग भी हैं कि सार्वजनिक स्कूलों में सिर्फ अपने-अपने विषयों की ही शिक्षा देना चाहिए। मैं यह भी जानता हूँ कि हिंदुस्तान जैसे देश में, जहाँ पर संसार के अधिकतर धर्मों के अनुयायी मिलेते हैं और जहाँ एक ही धर्म के इतने भेद और उपभेद हैं, धार्मिक शिक्षण का प्रबंध करना कठिन होगा। लेकिन अगर हिंदुस्तान को आध्यात्मिकता का दिवाला नहीं निकालना है, तो उसे धर्मिक शिक्षा को भी विषयों के शिक्षण के बराबरन ही महत्त्व देना पड़ेगा। यह सच है कि धार्मिक पुस्तकों के ज्ञान की तुलना धर्म से नहीं की जा सकती। मगर जब हमें धर्म नहीं मिल सकता तो हमें अपने लड़कों और लड़कियों को उससे दूसरे नम्बर की वस्तु देने में ही संतोष मानना पड़ेगा। और फिर स्कूलों में ऐसी शिक्षा दी जाए या नहीं, मगर सयाने लड़कों को तो जैसे और विषयों में वेसे धार्मिक विषय में भी स्वालंबन की आदत डालनी ही पड़ेगी। जैसे आज उनकी वाद-विवाद या चरखा-समितियाँ है, वैसे ही वे धार्मिक वर्ग भी खोलें।
मैं नहीं मानता कि सरकार मजहबी तालीम से संबंध रख सकती है या उस तालीम को निभा सकती है। मेरा विश्वास है कि मजहबी तालीम पूरी तरह से सिर्फ मजहबी अंजुमनों का ही विषय होनी चाहिए। धर्म और नीति को मिलाना नहीं चाहिए। मेरे विश्वास के मुताबिक बुनियादी नीति सब धर्मों में एक ही है। बुनियादी नीति की तालीम देना बेशक सरकार का नाम है। धर्म से मेरा मतलब बुनियादी नीति नहीं बल्कि वह है, जिसका सिक्का लगाकर अलग-अलग जमातें बलाई जाती हैं। हमने सरकारी मदद पाने वाले मजहब और सरकारी मजहब के बहुत नतीजे सहे हैं। जो समाज या समूह अपने धर्म की हिफाजत के लिए किसी हद तक या पूरी तौर पर सरकारी मदद पर निर्भर रहता है, वह धर्म जैसी कोई चीज रखने का अधिकारी नहीं है, या कह कहना ज्यादा ठीक होगा कि उसका कोई धर्म नहीं होता।
धार्मिक शिक्षा के पाठ्यक्रम में अपने सिवा दूसरे धर्मों के सिद्धांतों का अध्ययन भी शामिल होना चाहिए। इसके लिए विद्यार्थियों को ऐसी तालीम दी जानी चाहिए, जिससे वे संसार के विभिन्न महान धर्मों के सिद्धांतों को आदर और उदारतापूर्ण सहनशीलता की भावना रखकर समझने और उनकी कदर करने की आदत डालें। यह काम ठीक ढँग से किया जाए तो इससे उनकी आध्यात्मिक निष्ठा दृढ़ होगी और स्वयं अपने धर्म की अधिक अच्छी समझ प्राप्त करने में मदद मिलेगी। परंतु एक नियम ऐसा है जिसे सब महान धर्मों का अध्ययन करते समय हमेशा ध्यान में रखना चाहिए; और वह यह है कि अलग-अलग धर्मों का अध्ययन उनके माने हुए भक्तों की रचनाओं के द्वारा ही करना चाहिए।
पाठ्य-पुस्तकें
इसमें कोई संदेह नहीं है कि आम स्कूलों में जो पुस्तकें खास तौर पर बच्चों के लिए इस्तेमाल की जाती हैं, वे जब हानिकारक नहीं होती हैं तो अधिकांश में निकम्मी अवश्य होती हैं। इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि उनमें से बहुत-सी होशियारी के साथ लिखी जाती हैं। जिन लोगों और जिन परिस्थितियों के लिए वे लिखी जाती हैं, उनके लिए वे सबसे अच्छी भी हो सकती हैं। परंतु वे भारतीय लड़कों और लड़कियों के लिए और भारतीय परिस्थितियों के लिए नहीं लिखी जाती। जब वे इस तरह लिखी जाती हैं तो वे आम तौर पर अधकचरी नकल होती हैं और उनसे विद्यार्थियों की आवश्यकताएँ पूरी नहीं होतीं।
इसलिए मैं इस नतीजे पर पहुँचा हूँ कि आवश्यकता विद्यार्थियों की अपेक्षा शिक्षकों के लिए अधिक है। और प्रत्येक शिक्षक को, यदि अपने विद्यार्थियों के प्रति वह पूरा न्याय करना चाहता है, उपलब्ध सामग्री से अपना दैनिक पाठ खुद तैयार करना होगा। इसे भी उसे अपनी कक्षा की विशेष आवश्यकताओं के अनुकूल अनाना होगा। सच्ची शिक्षा का काम शिक्षा पाने वाले लड़कों और लड़कियों के उत्तम गुणों को बाहर लाना है। यह काम विद्यार्थियों के दिमाग में अनाप-शनाप और अनचा ही जानकारी ठूंस देने से कभी नहीं हो सकता। इस तरह की जानकारी एक जड़ बोझ बन जाती है, जो उनकी सारी मौलिकता को कुचल डालती है और उन्हें निरी मशीनें बना देती है।
अध्यापक
अध्यापक कैसे हों इस संबंध में मैं इस पुराने विचार को मानने वाला हूँ कि उन्हें अध्यापन, अध्यापन-कार्य के लिए अपने अनिवार्य प्रेम के कारण ही करना चाहिए और इस कार्य से अपने जीवन-निर्वाह के लिए जितना आवश्यक हो उतना ही लेकर संतुष्ट रहना चाहिए। रोमन कैथलिकों में यह विचार अभी तक बचा रहा है और वे दुनिया की कुछ सर्वोत्तम संस्थाएँ चला रहे हैं। प्राचीन भारतीय ऋषियों ने तो और ऊँचा आदर्श स्वीकार किया था। वे विद्यार्थियों को अपने परिवार में ही शामिल कर लेते थे। लेकिन जो शिक्षा वे उन दिनों दिया करते थे, वह सामान्य जनता के लिए नहीं थी। उन्होंने तो मनुष्य-जाति के सच्चे शिक्षकों की एक पूरी जाति का ही निर्माण कर दिया। सामान्य जनता को उसकी तालीम घरों में और अपने राम्परागत उद्योग-धंधों में मिलती थी उन दिनों के लिए वह काफी अच्छी व्यवस्था थी। अब परिस्थितियाँ बदल गई हैं। साहित्यिक तालामी के लिए आम माँग है और यह माँग जोरदार भी है। विशिष्ट वर्गों की शिक्षा पर जैसा ध्यान दिया जाता है, सामान्य लोग भी अब अपनी शिक्षा पर वैसा ही ध्यान चाहते हैं। यह बात कहाँ तक संभव है और मनुष्य-जाति के लिए कहाँ तक कल्याणकारी है, इस प्रशन की चर्चा यहाँ नहीं हो सकती। लोगों में ज्ञान की इच्छा पैदा हो और वे उसकी माँग करें, इसमें कोई बुराई नहीं है। इगर इस इच्छा को उचित दिशा में मोड़ा गया तो उससे लाभ ही होगा। इसलिए अब हमें जो अनिर्वाय है उसे टालने के उपाय ढूँढ़ना छोड़कर इस स्थिति का अच्छे-से-अच्छा उपयोग करना चाहिए। इस काम के लिए हजारों शिक्षकों को आवश्यकता होगी और वे महज कहने से नहीं मिल जाएँगे। और न वे अपना जीवन-निर्वाह भीख माँग कर करेंगे। हमें उन्हें एक निश्चित वेतन देन की पूरी व्यवस्था करनी होगी। हमें शिक्षकों की मानो एक पूरी से ना ही लगेगी। उनके कार्य के महत्त्व और मूल्य के अनुसार उन्हें पैसा दिया जाए यह तो अशक्य है। राष्ट्र अपनी आर्थिक क्षमता के अनुसारही उन्हें यथाशक्ति देगा। अलबत्ता, यह आशा रखी जा सकती है कि ज्यों-त्यों लोग दूसरे धंधों के मुकाबलें में इस कार्य के महत्त्व को समझेंगें, त्यों-त्यों वे उन्हें ज्यादा पैसा देने को भी तैयार होंगे। लेकिन ऐसे अनेक पुरुषों और स्त्रियों को आगे आना चाहिए, जो आर्थिक लाभ की परवाह न करके शुद्ध देश-सेवा के भास से अध्यापन का धंधा अपनाएँ। यदि ऐसा हो तो राष्ट्र शिक्षक के धंधे को छोटा नहीं समझेगा, बल्कि इनत्यागी स्त्रियों और पुरुषों को अपना प्रेम और आदर प्रदान करेगा। और इस तरह विचार करने पर हम इस नतीजे पर पहुँचते हैं कि जिस तरह स्वराज्य हमें मुख्यत: उनके ही प्रयत्नों से संभव होगी। उन्हें सफलता तक पहुँचाने के लिए मार्ग की कठिनाइयों से वीरतापूर्वक जूझना चाहिए और धीरजर खकर आगे बढ़ते जाना चाहिए।
स्वावलंबी शिक्षा
यह सुझाव अक्सर दिया गया है... कि यदि शिक्षा अनिवार्य करनी हो या शिक्षा-प्राप्ति की इच्छा रखने वाले सब लड़के-लड़कियों के लिए उसे सलभ बनाना हो, तो हमारे स्कूल और कॉलेज पूरे नहीं तो करीब-करीब स्वावलंबी हो जाने चाहिए। दान, राजकीय सहायता अथवा विद्यार्थियों से ली जाने वाली फीस के द्वार भी उन्हें स्वावलंबी बनाया जा सकता है, लेकिन यहाँ वैसा स्वावलंबन इष्ट नहीं है। विद्यार्थियों को खुद कुछ ऐसा काम करते रहना चाहिए, जिससे आर्थिक प्राप्ति हो और इस तरह स्कूल तथा कॉलेज स्वावलंबी बनें। औद्योगिक तालीम को अनिवार्य बनाकर ही ऐसा किया जा सकता है। विद्यार्थियों को साहित्यिक तालीम के साथ-साथ औद्योगिक तालीम भी मिलना चाहियें, इस आवश्यकता के सिवा और आजकल इस बात का महत्त्व अधिकाधिक स्वीकार किया जा रहा है-हमारे देश में तो औद्योगिक तालीम की आवश्यकता शिक्षा को स्वावलंबी बनाने के लिए भी है। लेकिन यह तभी हो सकता है जब हमारे विद्यार्थी श्रम का गौरव अनुभव करना सीखें और हाथ-उद्योग के अज्ञान को समाज में अप्रतिष्ठा का चिह्र समझने का रिवाज पड़े। अमेरिका में, जो कि दुनिया का सबसे धनी देश है और इसलिए जहाँ शिक्षा को स्वावलंबी बनाने की आवश्यकता कम-से-कम है, विद्यार्थि प्रया: अपनी पढ़ाई का पूरा अथवा आंशिक खर्च खुद कोई उद्योग करके लिकालते हैं। ... अगर अमेरिका अपने स्कूल और कॉलेज इस तरह चलाता है कि विद्यार्थि अपनी पढ़ाई का खर्च खुद निकाल लिया करें, ताह हमारे स्कूलों और कॉलेजों में तो इस बात की आवश्यकता और अधिक मानी जानी चाहिए। हम गरीब विद्यार्थियों को फीस की माफी आदि की सुविधा दें, उससे क्या यह ज्यादा अच्छा नहीं होगा कि हम उनके लिए ऐसा कोई काम दें, जिसे करके वे अपना खर्च खुद निकाल लें? भारतीय युवकों के मन में यह व हम भरकर कि अपनी जीविका कमाने अथवा पढ़ाई का खर्च निकालने के लिए हाथ-पाँव की मेहनत काना भद्रोचित नहीं है, हम उनका अपार अहित करते हैं। यह अहित नैतिक भी; तथा भौतिक की अपेक्षा नैतिक ज्यादा है। फीस आदि की माफी धर्मबुद्धि रखने वाले विद्यार्थी के मन पर आजीवन बोझ की तरह पड़ी रहती है, और ऐसा होना भी चाहिए। अपने उत्तर-जीवन में कोई इस बात का स्मरण कराना पसंद नहीं करता कि उसे अपनी शिक्षा के लिए दान का आधार लेना पड़ा था। लेकिन यदि उसने अपनी शिक्षा के लिए परिश्रम पूर्वक उद्योग किया हो और इस तरह अपनी पढ़ाईका खर्च निकालने के साथ-साथ अपनी बुद्धि, शरीर और आत्मा का विकास भी सिद्ध किया हो, तो ऐसा कौर है जो अपने उन दिनों को गर्व से याद न करेगाᣛ?