अगर हमें एक राष्ट्र होने का अपना दावा सिद्ध करना है, तो हमारी अनेक बातें एक-सी होनी चाहिए। भिन्न-भिन्न धर्म और संप्रदायों को एक सूत्र में बाँधने वाली हमारी एक सामान्य संस्कृति है। हमारी त्रुटियाँ और बाधाएँ भी एक-सी हैं। मैं यह बताने की कोशिश कर रहा हूँ कि हमारी पोशक के लिए एक ही तरह का कपड़ा न केवल वांछनीय है, बल्कि आवश्यक भी है। हमें एक सामान्य भाषा की भी जरूरत है-देशी भाषाओं की जगह पर नहीं परंतु उनके सिवा। इस बात में साधारण सहमति है कि यह माध्यम हिंदुस्तानी ही होना चाहिए, जो हिंदी और उर्दू के मल से बने और जिसमें न तो संस्कृत की और न फारसी या अरबी की ही भरमार हो। हमारे रास्ते की सबसे बड़ी रुकावट हमारी देशी भाषाओं की कई लिपियाँ है। अगर एक सामान्य लिपि अपनाना संभव हो, तो एक सामान्य भाषा का हमारा जो स्वप्न है-अभी तो वह स्वप्न ही हे-उसे पूरा करने के मार्ग की एक बड़ी बाधा दूर हो जाएगी।
भिन्न-भिन्न लिपियों का होना कई तरह से बाधक है। वह ज्ञान की प्राप्ति में एक कारगर रुकावट है। आर्य भाषाओं में इतनी समानता है कि अगर भिन्न-भिन्न लिपियाँ सीखने में बहुत-सा समय बरबाद न करना पड़े, तो हम सब किसी बड़ी कठिनाई के बिना कई भाषाएँ जान लें। उदाहरण के लिए, जो लोग संस्कृत का थोड़ा भी ज्ञान रखते हैं, उनमें से अधिकांश को रवीद्रनाथ टागोर की अद्वितीय कृतियों को समझने में कोई कठिनाई न हो, अगर वे सब देवनागरी लिपि में छपें। परंतु बंगाल लिपि मानों गैर-बंगालियों के लिए 'दूर रहो' की सूचना है। इसी तरह यदि बंगाली लोग देवनागरी लिपि जानते हों, तो वे तुलसीदास की रचनाओं की अद्भुत सुंदरता और आध्यात्मिकता का तथा अन्य अनेक हिंदुस्तानी लेखकों का आनान्द अनायास लूट सकते हैं। ... समस्त भारत के लिए एक सामान्य लिपि एक दूर का आदर्श है। परंतु जो भारतीय संस्कृत से उत्पन्न भाषाएँ और दक्षिण की भाषाएँ बोलते हैं, उन सबके लिए एक सामान्य लिपि एक व्यावहारिक आदर्श है, अगर हम सिर्फ अपनी-अपनी प्रांतीयता को छोड़ दें। उदाहरण के लिए, किसी गुजराती का गुजराती लिपि से चिपटे रहना अच्छी बात नहीं है। प्रांत-प्रेम वहाँ अच्छा है जहाँ वह अखिल भारतीय देश-प्रेम की बड़ी धारा को पुष्ट करता है। इसी प्रकार अखिल भारतीय प्रेम भी उसी हद तक अच्छा है, जहाँ तक वह विश्वप्रेम के और भी बड़े लक्ष्य की पूर्ति करता है। परंतु जो प्रांत प्रेम यह कहता है कि 'भारत कुछ नहीं, गुजरात ही सर्वस्व है', वह बुरी चीज है। ... मैं मानता हूँ कि इस बात का कोई प्रत्यक्ष प्रमाण देने की जरूरत नहीं कि देवनागरी ही सर्व-सामान्य लिपि होनी चाहिए, क्योंकि उसके पक्ष में निर्णायक बात यह है कि उसे भारत के अधिकांश भाग के लोग जानते हैं। ...जो वृत्ति इतनी वर्जनशील और संकीर्ण हो कि हर बोली कोचिरस्थायी बनाना और विकसित करना चाहती हो, वह राष्ट्र-विरोधी और विश्व-विरोधी है। मेरी विनम्र सम्मति में तमाम अविकसित और अलिखित बोलियों का बलिदान करके उन्हें हिंदुस्तानी की बड़ी धारा में मिला देना चाहिए। वह आत्मोत्कर्ष के लिए की गई कुरबानी होगी, आत्म हत्या नहीं। अगर हमें सुसंस्कृत भारत के लिए एक सामान्य भाषा बनानी हो, तो हमें भाषाओं और लिपियों की संख्या बढ़ाने वाली या देश की शक्तियों को छिन्न-भिन्न करने वाली किसी भी क्रिया का बढ़ना रोकना होगा। हमें एक सामान्य भाषा की वृद्धि करनी होगी। ... अगर मेरी चले तो जमी हुई प्रांतीय लिपि के साथ-साथ मैं सब प्रांतों में देवनागरी लिपि और उर्दू लिपि का सीखना अनिवार्य कर दूँ और विभिन्न देशी भाषाओं की मुख्य-मुख्य पुस्तकों को उनके शब्दश: हिंदुस्तानी अनुवाद के साथ देवनगरी में छपवा दूँ।
हमें राष्ट्रभाषा का भी विचार करना चाहिए। यदि अँग्रेजी राष्ट्रभाषा बनने वाली हो, तो उसे हमारे स्कूलों में अनिवार्य मिलना चाहिए। तो अब हम पहले यह सोचें कि क्या अँग्रेजी हमारी राष्ट्रभाषा हो सकती है?
कुछ स्वदेशाभिमानी विद्वान ऐसा कहते हैं कि अँग्रेजी राष्ट्रभाषा हो सकती है या नहीं, यह प्रश्न ही अज्ञान का द्योतक है। उनकी राय में अँग्रेजी तो राष्ट्रभाषा बन ही चुकी है।
हमारे पढ़े-लिखें लोगों की दशा को देखते हुए ऐसा लगता है कि अँग्रेजी के बिना हमारा कारोबार बंद हो जाएगा। ऐसा होने पर भी जरा गहरे जाकर देखेंगे, ता पला चलेगा कि अँग्रेजी राष्ट्रभाषा न तो हो सकती है, और न होनी चाहिए।
तब फिर हम यह देखें कि राष्ट्रभाषा के क्या लक्षण होने चाहिए :
1. वह भाषा सरकारी नौकरों के लिए आसान होनी चाहिए।
2. उस भाषा के द्वारा भारत का आपसी धार्मिक, आर्थिक और राजनीतिक कामकाज हो सकना चाहिए।
3. उस भाषा को भारत के ज्यादातर लोग बोलते हों।
4. वह भाषा राष्ट्र के लिए आसान हो।
5. उस भाषा का विचार करते समय क्षणिक या कुछ समय तक रहने वाली स्थिति पर जोर न दिया जाए।
अँग्रेजी भाषा में इनमें से एक भी लक्षण नहीं है।
पहला लक्षण मुझे अंत में रखना चाहिए था। परंतु मैंने उसे पहले इसलिए रखा है कि वह लक्षण अँग्रेजी भाषा में दिखाई पड़ सकता है। ज्यादा सोचने पर हमें देखेंगे कि आज भी राज्य के नौकरों के लिए वह भाषा आसान नहीं है। यहाँ के शासन का ढाँचा इस तरह सोचा गया है कि उसमें अँग्रेज कम होंगे, यहाँ तक कि अंत में वाइसरॉय और दूसरे अँगुलियों पर गिनने लायक अँग्रेज ही उसमें रहेंगे। अधिकतर कर्मचारी आज भी भारतीय हैं और वे दिन-दिन बढ़ते ही जाएँगे। यह तो सभी मानेंगे कि इस वर्ग के लिए भारत की किसी भी भाषा से अँग्रेजी ज्यादा कठिन है।
दूसरा लक्षण विचारते समय हमें देखते हैं कि जब तक आम लोग अँग्रेजी बोलने वाले न हो जाए, तब तक हमार धार्मिक व्यवहार अँग्रेजी में नहीं हो सकता। इस हद तक अँग्रेजी भाषा का समाज में फैल जाना असंभव मालुम होता है।
तीसरी लक्षण अँग्रेजी में नही हो सकता, क्योंकि वह भारत के अधिकतर लोगों की भाषा नहीं है।
चौथा लक्षण भी अँग्रेजी में नहीं है, क्योंकि सारे राष्ट्र के लिए वह इतनी आसान नहीं है।
पाँच वें लक्षण पर विचार करते समय हम देखते हैं कि अँग्रेजी भाषा की आज की सत्ता क्षणिक है। सदा बनी रहने वाली स्थिति तो यह है कि भारत में जनता के राष्ट्रीय काम में अँग्रेजी भाषा की जरूरत थोड़ी ही रहेगी। अँग्रेजी साम्राज्य के कामकाज में उसकी जरूरत रहेंगी। यह दूसरी बात है कि वह साम्राज्य के राजनीतिक कामकाज (डिप्लोमेसी) की भाषा होगी। उस काम के लिए अँग्रेजी का जरूरत रहेगी। हमें अँग्रेजी भाषा से कुछ भी वैर नहीं है। हमारा आग्रह तो इतना ही है कि उसे हद से बाहर न जाने दिया जाए। साम्राज्य की भाषा तो अँग्रेजी ही होगी और इसलिए हम अपने मालवीयजी, शास्त्रीजी, बेनर्जी आदि को यह भाषा सीखने के लिए मजबूर करेंगे और यह विश्वास रखें कि वे लोग भारत की कीर्ति विदेशों में फैलाएँगे। परंतु राष्ट्र की भाषा अँग्रेजी नहीं हो सकती। अँग्रेजी को राष्ट्रभाषा बनाना 'एस्पेरेंटो' दाखिल करने जैसी बात है। यह कल्पना ही हमारी कमजोरी को प्रकट करती है कि अँग्रेजी राष्ट्रभाषा हो सकती है। 'एस्पेरेंटो' के लिए प्रयत्न करना हमारी अज्ञानता का और निर्बलता का सूचक होगा।
तो फिर कौन-सी भाषा इन पाँच लक्षणों वाली है? यह माने बिना काम नहीं चल सकता कि हिंदी भाषा में ये सारे लक्षण मौजूद हैं।
ये पाँच लक्षण रखने में हिंदी की होड़ करने वाली और कोई भाषा नहीं है। हिंदी के बाद दूसरा दर्जा बंगाल का है। फिर भी बंगाली लोग बंगाल के बाहर हिंदी का ही उपयोग करते हैं। हिंदी बोलने वाले जहाँ जाते हैं वहाँ हिंदी का ही उपयोग करते हैं और इससे किसी को अचंभा नहीं होता। हिंदी के धर्मोपदेशक और उर्दू के मौलवी सारे भारत में अपने भाषण हिंदी में ही देते हैं और अपढ़ जनता उन्हें समझ लेती है। जहाँ अपढ़ गुजराती भी उत्तर में जाकर थोड़ी-बहुत हिंदी का उपयोग कर लेता है, वहाँ उत्तर का 'भैया' बंबई के सेठ की नौकरी करते हुए भी गुजराती बोलने से इनकार करता है और सेठ 'भैया' के साथ टूटी-फूटी हिंदी बोल लेता है। मैंने देखा है कि ठेठ द्राविड़ प्रांत में भी हिंदी की आवाज सुनाई देती है। यह कहना ठीक नहीं कि मद्रास में तो अँग्रेजी से ही काम चलता है। वहाँ भी मैंने अपना सारा काम हिंदी से चलाया है। सैकड़ों मद्रासी मुसाफिरों को मैंने दूसरे लोगों के साथ हिंदी में बोतले सुना है। इसके सिवा, मद्रास के मुसलमान भाई तो अच्छी तरह हिंदी बोलते हैं और उनकी संख्या सारे प्रांतों में कुछ कम नहीं है।
इस तरह हिंदी भाषा पहले से ही राष्ट्रभाषा बन चुकी है। हमने वर्षों पहले उसका राष्ट्रभाषा के रूप में उपयोग किया है। उर्दू भी हिंदी की इस शक्ति से ही पैदा हूई है।
मुसलमान बादशाह भारत में फारसी-अरबी को राष्ट्रभाषा नहीं बना सके। उन्होंने हिंदी के व्याकरण को मानकर उर्दू लिपि काम में ली और फारसी शब्दों का ज्यादा उपयोग किया। परंतु आम लोगों के साथ अपना व्यवहार वे विदेशी भाषा के द्वारा नहीं चला सके। यह हालत अँग्रेज अधिकारियों से छिपी हुई नहीं है। जिन्हें लड़ाकू वर्गों का अनुभव है, वे जानते हैं कि सैनिकों के लिए चीजों के नाम हिंदी या उर्दू में रखने पड़ते हैं।
इस तरह हम देखते हैं कि हिंदी ही राष्ट्रभाषा हो सकती हैं। फिर भी मद्रास के पढ़े-लिखों के लिए यह सवाल कठिन है। लेकिन दक्षिणी, बंगाली, सिंधी और गुजराती लोगों के लिए तो वह बड़ा आसान है। कुछ महीनों मे वे हिंदी पर अच्छा काबू करके राष्ट्रीय कामकाज उसमें चला सकते हैं। तामिल भाइयों के बारे में यह उतना आसान हीं। तामिल आदि द्राविड़ी हिस्सों की अपनी भाषाएँ हैं और उनकी बनावट और उनका व्याकरण संस्कृत से अलग है। शब्दों की एकता के सिवा और कोई एकता संस्कृत भाषाओं और द्राविड़ भाषाओं में नहीं पाई जाती।
परंतु यह कठिनाई सिर्फ आज के पढ़े-लिखें लोगों के लिए ही है। उनके स्वदेशाभिमान पर भरोसा करने और विशेष प्रयत्न करके हिंदी सीख लेने की आशा रखने का हमें अधिकार है। भविष्य में यदि हिंदी को उसका राष्ट्रभाषा का पद मिले, तो हर मद्रासी स्कूल में हिंदी पढ़ाई जाएगी और मद्रास तथा दूसरे प्रांतों के बीच विशेष परिचय होने की संभावना बढ़ जाएगी। अँग्रेजी भाषा द्राविड़ जनता में नहीं घुस सकी। पर हिंदी को घुसने में देर नहीं लगेगी। तेलगू जाति तो आज भी यह प्रयत्न कर रही है।
(20 अक्तूबर, 1917 को भड़ौच में हुई दूसरी गुजरात शिक्षा-परिषद के अध्यक्ष-पद से दिए गए भाषण से।)
जितने साल हम अँग्रेजी सीखने में बरबाद करते हैं, उतने महीने भी अगर हम हिंदुस्तानी सीखने की तकलीफ न उठाएँ, तो सचमुच कहना होगा कि जन-साधारण के प्रति अपने प्रेम की जो डींगें हम हाँका करते हैं वे निरी डींगें ही हैं।