मेरी हिंदू धर्मवृत्ति मुझे सखाती है कि थोड़ी या बहुत अंशों में सभ धर्म सच्चे हैं। सबकी उत्पत्ति एक ही ईश्वर से हुई है, परंतु सब धर्म अपूर्ण हैं; क्योंकि वे अपूर्ण मानव-माध्यम के द्वारा हम तक पहुँचे हैं। सच्चा शुद्धि का आंदोलन यह होना चाहिए कि हम सब अपने अपने धर्म में रहकर पूर्णता प्राप्त करने का प्रयत्न करें। इस प्रकार की योजना में एकमात्र चरित्र ही मनुष्य की कसौटी होगा। अगर एक बड़ें से निकलकर दूसरे मे चले जाने से कोई नैतिक उत्थान न होता हो तो जाने से क्या लाभ? शुद्धि या तबलीग का फलितार्थ ईश्वर की सेवा ही होना चाहिए। इसलिए मैं ईश्वर की सेवा के खातिर यदि किसी का धर्म बदलने की कोशिश करूँ तो उसका क्या अर्थ होगा, जब मेरे ही धर्म को मानने वाले रोज अपने कर्मों से ईश्वर का इनकार करते हैं? दुनियावी बातों के बनिस्बत धर्म के मामलों में यह कहावत अधिक लागू होती है कि 'वैद्यजी, पहले अपना इलाज कीजिए।'
मैं धर्म-परिवर्तन की आधुनिक पद्धति के खिलाफ हूँ। दक्षिण अफ्रीका में और भारत में लोगों का धर्म-परिवर्तन जिस तरह किया जाता है, उसके अनेक वर्षों के अनुभव से मुझे इस बात का निश्चय हो गया है कि उससे नए ईसाइयों की नैतिक भावना में कोई सुधार नहीं होता; वे यूरोपीय सभ्यता की ऊपरी बातों की नकल करने लगते हैं, किंतु ईसा की मूल शिक्षा से अछूते ही रहते हैं। मैं समान्यत: जो परिणाम आता है उसी की बात कर रहा हूँ, इस नियम के कुछ उत्तम अपवाद तो होते ही हैं। दूसरी ओर ईसाई मिशनरियों के प्रयत्न से भारत को अप्रत्यक्ष प्रकार का लाभ बहुत हुआ है। उसने हिंदुओं और मुसलमानों को अपने-अपने धर्म की शोध करने के लिए उत्साहित किया है। उसने हमें अपने घर को साफ सुथरा और व्यवस्थित बनाने के लिए मजबूर कियाहै। ईसाई मिशनरियों द्वारा चलाई जाने वाली शिक्षा-संस्थाओं तथा अस्पतालों आदि को भी मैं अप्रत्यक्ष लाभों में गिनता हूँ, क्योंकि उनकी स्थापना शिक्षा-प्रचार या स्वास्थ्य-संवर्धन के लिए नहीं, बल्कि धर्म-परिवर्तन की उनकी मुख्य प्रवृत्ति के सहायक साधन के रूप में ही हुई है।
मेरी राय में मानव-दया के कार्यों की आड़ में धर्म-परिवर्तन करना कम-से-कम अहितकार तो है ही। अवश्य ही यहाँ के लोग इसे नाराजी की दृष्टि से देखते हैं। आखिर तो धर्म एक गहरा व्यक्तिगत मामला है, उसका संबंध हृदय से है। कोई ईसाई डॉक्टर मुझे किसी बीमारी से अच्छा कर दे तो में अपना धर्म क्यों बदल लूँ, या जिस समय मैं उसक असर में रहूँ तब वह डॉक्टर मुझसे इस तरह के परिवर्तन की आशा क्यों रखें या ऐसा सुझाव क्यों दें? क्या डॉक्टरी सेवा अपने-आप में ही एक पारितोषिक और संतोष नहीं है? या जब मैं किसी ईसाई शिक्षा-संस्थान में शिक्षा लेता होऊँ तब मुझ पर ईसाई शिक्षा क्यों थोपी जाए? मेरी राय में ये बातें ऊपर उठाने वाली नहीं हैं, और अगर भीतर-ही-भीतर शत्रुता पैदा नहीं करतीं तो भी संदेह अवश्य उत्पन्न करती हैं। धर्म-परिवर्तन के तरीके ऐसे होने चाहिए, जिन पर सीजर की पत्नी की तरह किसी को कोई शक नहो सके। धर्म की शिक्षा लौकिक विषयों की तरह नहीं दी जाती। वह हृदय की भाषा में दी जाती है। अगर किसी आदमी में जीता-जागता धर्म है तो वह उसकी सुगंध गुलाब के फूल की तरह अपने-आप फैलती है। सुगंध दिखाई नहीं देती, इसलिए फूल की पंखुड़ियों के रंग की प्रत्यक्ष सुंदरता से उसकी सुगंध का प्रभाव अधिक व्यापक होता है।
मैं धर्म-परिवर्तन के विरुद्ध नहीं हूँ, परंतु मैं उसके आधुनिक उपायों के विरुद्ध हूँ। आजकल और बातों की तरह धर्म-परिवर्तन ने भी एक व्यापार का रूप ले लिया है। मुझे ईसाई धर्म-प्रचार कों की एक रिपोर्ट पढ़ी हुई याद है, जिसमें बताया गया था कि प्रत्येक व्यक्ति का धर्म बदलने में कितना खर्च हुआ, और फिर 'अगली फसल' के लिए बजट पेश किया गया था।
हाँ, मेरी यह राय जरूर है कि भारत के महान धर्म उसके लिए सब तरह से काफी हैं। ईसाई और यहूदी धर्म के अलावा हिंदू धर्म और उसकी शाखाएँ, इस्लाम और पारसी धर्म सब सजीव धर्म हैं। दुनिया में कोई भी एक धर्म पूर्ण नहीं है। सभी धर्म उनके मानने वालों के लिए समान रूप से प्रिय हैं। इसलिए जरूरत संसार के महान मर्धों के अनुयायियों में सजीव और मित्रतापूर्ण संपर्क स्थापित करने की है, न कि हर संप्रदाय द्वार दूसरे धर्मों की अपेक्षा अपने धर्म की श्रेष्ठता जताने की व्यर्थ कोशिश करके आपस में संघर्ष पैदा करने की। ऐसी मित्रतापूर्ण संबंध के द्वार हमारे लिए अपने-अपने धर्मों की कमियाँ और बुराइयाँ दूर करना संभव होगा।
मैंने ऊपर जो कुछ कहा है उससे यह निष्कर्ष निकलता हे कि जिस पह्रकार का धर्म-परिवर्तन मेरी दृष्टि में है उसी हिंदुस्तान में जरूरत नहीं है। आज की सबसे बड़ी आवश्यकता यह है कि आत्म शुद्धि, आत्म-साक्षात्कार के अर्थ में धर्म-परिवर्तन किया जाए। परंतु धर्म-परिवर्तन करने वालों का यह हेतु कभी नहीं होता। जो भारत का धर्म-परिवर्तन करना चाहते हैं, उनसे क्या यह नहीं कहा जा सकता कि 'वैद्यजी, आप अपना ही इलाज कीजिए?
कोई ईसाई किसी हिंदू को ईसाई धर्म में लाने की या कोई हिंदू किसी ईसाई को हिंदू धर्म में लाने की इच्छा क्यों रखे? वह हिंदू यदि सज्जन है या भगवद्-भक्त है, तो उक्त ईसाई को इसी बात से संतोष क्यों नहीं हो जाना चाहिए। यदि मनुष्य का नैतिक आचार कैसा है इस बात की परवाह न की जाए, तो फिर पूजा की पद्धति-विशेष-वह पूजा गिरजाघर, मसजिद या मंदिर में कहीं भी क्यों नकी जाए-एक निरर्थक कर्मकांड ही होगी। इतना ही नहीं, वह व्यक्ति या समाज की उन्नति में बाधरूप भी हो सकती है और पूजा की अमुक पद्धति के पालन का अथवा अमुक धार्मिक सिद्धांत के उच्चारण का आग्रह हिंसापूर्ण लड़ाई-झगड़ों का एक बड़ा कारण बन सकता है। ये लड़ाई-झगड़े आपसी रक्तपात की ओर ले जाते हैं और इस तरह उनकी परिसमाप्ति मूल धर्म में यानी ईश्वर में हो घोर अश्रद्धा के रूप में होती है।