कुछ समय पहले मैंने ऐसे स्वयंसेवकों की एक सेना बनाने की तजवीज रखी थी, जो दंगो-खासकर सांप्रदायिक दंगों को शांत करने में अपने प्राणों तक की बाजी लगा दें। विचार यह था कि वह सेना पुलिस का ही नहीं बल्कि फौज तक का स्थान ले लगी। यह बात बड़ी महत्त्वाकांक्षा वाली मालूम पड़ती है। शायद यह असंभव भी साबित हो। फिर भी, अगर कांग्रेस को अपनी अहिंसात्मक लड़ाई में कामयाबी हासिल करनी हो, तो उस परिस्थितियों का शांतिपूर्वक मुकाबला करने की अपनी शक्ति बढ़ानी ही चाहिए।
इसलिए हमें देखना चाहिए कि जिस शांतिसेना की हमने कल्पना की है, उसके सदस्यों की क्या योग्यताएँ होनी चाहिए :
1. शांतिसेना का सदस्य पुरुष हो या स्त्री, अहिंसा में उसका जीवित विश्वास होना चाहिए। यह तभी संभव है जब कि ईश्वर में उसका जीवित विश्वास हो। अहिंसक व्यक्ति तो ईश्वर की कृपा और शक्ति के बगैर कुछ कर ही नहीं सकता। इसके बिना उसमें क्रोध, भय और बदले की भावना न रखते हुए मरने का साहस नहीं आएगा। ऐसा साहस तो इस श्रद्धा से आता है कि सबके हृदयों में ईश्वर का निवास है, और ईश्वर की उपस्थिति में किसी भी भय की जरूरत नहीं। ईश्वर की सर्व-व्यापकता के ज्ञान का यह भी अर्थ है कि जिन्हें विरोधी या गुंडे कहा जा सकता हो उनके प्राणों तक का हम खयाल रखें। यह इरादत दस्तन्दाजी उस समय मनुष्य के क्रोध को शांत करने का एक तरीका है, जब कि उसके अंदर का पशुभाव उस पर हावी हो जाए।
2. शांति के इस दूत में दुनिया के सभी खास-खास धर्मों के प्रति समान श्रद्धा होना जरूरी है। इस प्रकार अगर वह हिंदू हो तो वह हिंदूस्तान में प्रचलित अन्य धर्मों का आदर करेगा। इसलिए देश में माने जाने वाली विभिन्न धर्मों के सामान्य सिद्धांतों का उसे ज्ञान होना चाहिए।
3. आम तौर पर शांति का यह काम केवल स्थानीय लोगों द्वारा अपनी बस्तियों में हो सकता है।
4. यह काम अकेले या समूहों में हो सकता है। इसलिए किसी को संगी-साथियों के लिए इंतजार करने की जरूरत नहीं है। फिर भी वह स्वभावत: अपनी बस्ती में से कुछ साथियों को ढूँढ़कर स्थानीय सेना का निर्माण करेगा।
5. शांति का यह दूत व्यक्तिगत सेवा द्वारा अपनी बस्ती या किसी चुने हुए क्षेत्र में लोगों के साथ ऐसा संबंध स्थापित करेगा, जिससे जब उसे भद्दी स्थितियों में काम करना पड़े तो उपद्रवियों के लिए वह बिलकुल ऐसा अजनबी न हो, जिस पर वे शक करें या जो उन्हें नागवार मालूम पड़े।
6. यह कहने की तो जरूरत ही नहीं कि शांति के लिए काम करने वाले का चरित्र ऐसा होना चाहिए, जिस पर कोई अँगुली न उठा सके और वह अपनी निष्पक्षता के लिए मशहूर हो।
7. आम तौर पर दंगों से पहले तूफान आने की चेतावनी मिल जाया करती है। अगर ऐसे आसार दिखाई दें तो शांतिसेना आग भड़क उठाने तक इंतजार न करके तभी से परिस्थिति को संभालने का काम शुरू कर देगी जब से कि उसकी संभावना दिखाई दे।
8. अगर यह आंदोलन बढ़े तो कुछ पूरे समय काम करने वाले कार्यकर्ताओं का इसके लिए रहना अच्छा होगा। लेकिन यह बिलकुल जरूरी नहीं कि ऐसा हो ही। खयाल यह है कि जितने भी अच्छे स्त्री-पुरुष मिल सकें उतने रखे जाएँ। लेकिन वे तभी मिल सकते हैं जब कि स्वयंसेवक ऐसे लोगों में से प्राप्त हों, जो जीवन के विविध कार्यों में लगे हुए हो, पर उनके पास इतना अवकाश हो कि अपने इलाकों में रहने वालें लोगों के साथ वे मित्रता के संबंध पैदा कर सकें। तथा उन सब योग्यताओं को रखते हों, जो कि शांतिसेना के सदस्य में होनी चाहिए।
9. इस सेना के सदस्यों की एक खास पोशाक होनी चाहिए, जिससे कालांतर में उन्हें बिना किसी कठिनाई के पहचाना जा सके।
ये सिर्फ आम सूचनाएँ हैं। उनके आधार पर हर एक केंद्र अपना विधान बना सकता है।
बड़े-बड़े दलों को चलाने के लिए सजा नहीं, तो सजा का डर होना चाहिए और जरूरत मालूम होने पर सजा दी भी जानी चाहिए। ऐसे हिंसक दल में आदमी के चाल-चलन को नहीं देखा जाता। उसके कद और डीलडौल को ही देखा जाता है। अहिंसक दल में इससे ठीक उलटा होता है। उसमें शरीर की जगह गौण होती है, शरीर ही सब कुछ होता है, यानी चरित्र सब-कुछ होता है। ऐसा चरित्रवान व्यक्ति को पहचानना कुश्किल है। इसलिए बड़े-बड़े शांतिदल स्थापित नहीं किए जा सकते। वे छोटे ही होंगे। जगह-जगह होंगे, हर गाँव या हर मुहल्ले में होंगे। मतलब यह कि जो जाने-पहचाने लोग हैं, उन्हीं की टुकड़ियाँ बनेगी। वे मिलकर अपना एक मुखिया चुन लेंगे। सबका दरजा बराबर होगा। जहाँ एक से ज्यादा आदमी एक ही तरह का काम करते हैं वहाँ उनमें एकाध ऐसा होना चाहिए, जिसकी आज्ञा के अनुसार सब कोई चल सके। ऐसा न हो तो मेलजोल के साथ, सहयोग से काम, नहीं हो सकता। दो या दो से ज्यादा लोग अपनी-अपनी मरजी से काम करें, तो मुमकिन है कि उनके काम की दिशा एक-दूसरे से उलटी हो। इसलिए जहाँ दो या दो से ज्यादा दल हों, वहाँ वे हिलमिल कर काम करें तभी काम चल सकता है और उसमें कामयाबी हो सकती है। इस तरह के शांतिदल जगह-जगह हों, तो वे अराम से और आसानी से दंगा-फसाद को रोक सकते हैं। ऐसे दलों को अखाड़ों में दी जाने वाली सभी तरह की तालीम देना जरूरी नहीं। उनमें दी जाने वाली कुछ तालीम लेना जरूरी हो सकता है।
सब शांतिदलों के लिए एक चीज आम यानी सामान्य होनी चाहिए। शांतिदल के हर एक सदस्य का ईश्वर में अटल विश्वास होना चाहिए। उसमें यह श्रद्धा होनी चाहिए कि ईश्वर ही सच्चा साथी है और वही सबका सरजनहार है, कर्ता है। इसके बिना जो शांति सेनाएँ बनेंगी वे मेरे खचाल में बेजान होंगी। ईश्वर को आप किसी भी नाम से पुकारें, मगर उसकी शक्ति का उपयोग तो आपको करना ही है। ऐसा आदमी किसी को मारेगा नहीं, बल्कि खुद मरकर मृत्यु पर विजय पाएगा और जी जाएगा।
जिस आदमी के लिए यह कानून एक जीती-जागती चीज बन जाएगा, उसको समय के अनुसार बुद्धि भी अपने-आप सूझती रहेगी। फिर भी अपने तजरबे से मैं यहाँ कुछ नियम देता हूँ :
1. सेवक अपने साथ कोई ऐसी हथियार न रखे।
2. वह अपने बदन पर कोई ऐसी निशानी रखे, जिससे फौरन पता चले कि वह शांतिदल का सदस्य है।
3. सेवक के पास घायलों वगैरा की सार-संभाल के लिए तुरंत काम देने वाली चीजें रहनी चाहिए। जैसे, पट्टी, कैची, छोटा चाकू, सूई वगैरा।
4. सेवक को ऐसी तालीम मिलनी चाहिए, जिससे वह घायलों को आसानी से उठाकर ले जा सके।
5. जलती आग को बुझाने की, बिना जले या बिना झुलसे आग वाली जगहों में जाने की, ऊपर चढ़ने की और उतरने की कला सेवक में होनी चाहिए।
6. अपने मुहल्ले के सब लोगों से उसकी अच्छी जान-पहचान होनी चाहिए। यह खुद ही अपने-आप में एक सेवा है।
7. उसे मन-ही-मन रामनाम का बराबर जप करते रहना चाहिए और इसमें मानने वाले दूसरों को भी ऐसा करने के लिए समझाना चाहिए।
कुछ लोग आलस्य की वजह से या झूठी आदत की वजह से यह मान बैठते हैं कि ईश्वर तो है ही और वह बिना माँगे मदद करता है, फिर उसका नाम रटने से क्या फायदा? हम ईश्वर की हस्ती को कबूल करें या न करें, उससे उसकी हस्ती में कोई कमी-बेशी नहीं होती यह सच है। फिर भी उस हस्ती का उपयोग तो अभ्यासी ही कर पाता है। जब हर भौतिक शास्त्र के लिए यह बात सौ फीसदी सच है, तो फिर अध्यात्मक के लिए तो यह उससे भी ज्यादा सच होनी चाहिए। फिर भी हम देखते हैं कि इस मामले में हम तोते की तरह राम-नाम रटते हैं और फल की आशा रखते हैं। सेवक में इस सच्चाई को अपने जीवन में सिद्ध करने की ताकत होनी चाहिए।
गुंडों की समस्या
गुंडों को दोष देना गलत है। वे तब तक कोई शरारत नहीं कर सकता, जब तक कि हम उनके लिए अनुकूल वातावरण नहीं पैदा कर दें। सन् 1921 में बंबई में ब्रिटिश युवराज के आगमन-दिन पर जो कुछ हुआ, वह सब मैंने खुद देखा था। उसका बीज हमने जो बोया था, गुंडों ने तो उसकी फसल काटी। उनके पीछे बल हमारा ही था। ... हमें प्रतिष्ठित वर्ग को दोषारोपण से बचाने की आदत छोड़ देना चाहिए। ... बनियों और ब्राह्मणों को, यदि अहिंसा से नहीं तो हिंसा से सही, अपने रक्षा करना सीख लेना चाहिए। अगर ऐसा नहीं करेंगे तो उन्हें अपनी स्त्रियों और अपनी धन-संपत्ति को गुंडों के हवाले करना पड़ेगा। गुंडों की असल में-उन्हें हिंदू कहा जाता हो या मुसलमान-एक अलग जाति है।
कायरता का इलाज शारीरिक तालीम में नहीं, बल्कि जो भी खतरे आएँ उनकी मुकाबला बहादुरी के साथ करने में है। जब तक मध्यम वर्ग के हिंदू, जो खुद डरपोक होते हैं, ज्यादा लाड़-प्यार के द्वारा अपने जवान लड़कों-बच्चों को नाजुक बनाना और इस तरह अपना डरपोकपन उनमे भरना जारी रखते हैं, तब तक उनमें खतरे को टालने और किसी भी तरह के खतरे से बचने की जो वृत्ति पाई जाती है वह भी जारी रहेगी। इसलिए उन्हें अपने लड़को को अकेला छोड़ने का साहस करना चाहिए; उन्हें खतरे में पड़ने देना चाहिए और ऐसा करते हुए यदि वे मर जाते हैं तो मर जाने देना चाहिए। शरीर से कमजोर किसी बौन आदमी में भी शेर का दिल हो सकता है। और बहुत हटटे-कटटे जुलू भी अँग्रेज लड़कों सामने कांपने लग जाते हैं। हर एक गाँव को अपनी बस्ती में से शेर दिल व्यक्ति ढूँढ निकालना चाहिए।
जिन लोगों को गुंडा माना जाता है उनसे हमें जान-पहचान करनी चाहिए। शांति का साधक अपने आस-पास समाज के किसी अंग को ऐसे रहने नहीं देगा। सबके साथ मीठा संबंध बांधेगा, सबकी सेवा करेगा। गुंडे लोग आकाश से तो नहीं उतरते। भूत की तरह जमीन के पेट में से भी नहीं निकलते। उनकी उत्पत्ति समाज की कुव्यवस्था से ही होती है। इसलिए समाज उसके लिए जिम्मेदार है। गुंडों को समाज का बीमार या एक प्रकार का दूषित अंग समझना चाहिए। ऐसा मानकर उस बीमारी के कारण ढूँढ़ने चाहिए। कारण हाथ लगने पर बाद में इलाज किया जा सकता है। अब तक तो इस दिशा में प्रयत्न तक नहीं किया गया। 'जागे तभी सबेरा' इस सुभाषित के अनुसार यह प्रयत्न अब शुरू कर देना चाहिए। इस बारे में अब कोशिश हो गई है। सब अपनी-अपनी जगह कोशिश करें। ऐसी कोशिश की सफलता में ही इस सवाल का जवाब समाया हुआ है।