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बात-चीत

हमारी जड़ों में पर्याप्त संभावनाएँ हैं : आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी

अमित कुमार विश्वास


भारतीय काव्यशास्त्र व आलोचना के प्रकांड पंडित आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी का जन्‍म 4 जनवरी, 1929 को वाराणसी के नवाँकला गाँव में हुआ। हिंदी और संस्‍कृत भाषा में समान पकड़ रखनेवाले आचार्य त्रिपाठी आधुनिकता को पंरपरा से जोड़कर देखते हैं। उनका मानना था कि युग धर्म के रूप में मानवता ही ईश्‍वर है और लोकमंगल पर्यवसायी समाज सेवा ही उनका धर्म। उनकी दृष्टि में रागसमाधृत परदुख कातरता ही मानवता है जिसे इसी शरीर और धरा पर चरितार्थ होना है। काव्‍य भी इसी चरितार्थता में सहायक साधन है। 30 मार्च, 2009 को उनके अवसान से हिंदी साहित्य की एक ऐसी पंरपरा की क्षति हुई है जिसके वे न केवल संवाहक थे बल्कि उनकी सर्जना और उपस्थिति से अध्‍ययन विश्‍लेषण और परिमार्जन की यह परंपरा समृद्ध भी प्रतीत होती थी। उन पर ' विश्वेश्वर से महाकालेश्वर' शीर्षक से एक अभिनंदन ग्रंथ भी निकला है, जिसका संपादन डॉ. विद्यानिवास मिश्र ने किया है। आचार्य त्रिपाठी की तकरीबन 50-60 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। महात्‍मा गांधी अंतरराष्‍ट्रीय हिंदी विश्‍वविद्यालय, वर्धा में वे अतिथि अध्‍यापक के रूप में यहाँ के विद्यार्थियों का मार्गदर्शन करते रहे। आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी के निधन से कुछ दिनों पूर्व ही विश्‍वविद्यालय के डॉ. अमित विश्वास ने उनसे लंबी बातचीत की थी। यहाँ बातचीत के प्रमुख अंश प्रस्तुत हैं :

आधुनिक परिप्रेक्ष्य में भारतीय काव्यशास्त्र की प्रांसगिकता पर अपना मंतव्य प्रस्तुत कीजिए?

भारतीय काव्यशास्त्र के मुख्यतया तीन आधार हैं - शंसन अर्थात् सिद्ध अर्थ के कथन के कारण, शासन अर्थात् प्रवर्तक या निवर्तक के विधान के कारण तथा अनुशासन अर्थात् लक्ष्यानुरूप लक्षण निर्धारण के कारण। काव्यशास्त्र एक अनुशासन है। नए रचना संदर्भ में इसकी जरूरत को प्रगतिवादी धारा के मार्क्सवादी समकालीन समीक्षक डॉ. नामवर सिंह और गैर मार्क्सवादी समकालीन साहित्य के समीक्षक डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी - दोनों ही नकारते हैं। डॉ. नामवर सिंह का मानना है कि भारतीय काव्यशास्त्र का सर्वसमावेशी सिद्धान्त है - ध्वनि सिद्धान्त और उसका सर्वोच्च मानदंड है - 'ध्वनि रस' के पीछे एक तत्व दर्शन है जो अब अप्रासंगिक हो चुका है। इसी तरह मनोहर काले ने भी रस सिद्धांत के काव्य के आस्वाद की एक प्रक्रिया मात्र का मूल्यांकन करते हुए इसकी प्रासंगिकता का निषेध कर दिया है। ठीक इसी तरह डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी भी 'रचना और भाषिक सर्जना' नाम की अपनी कृति में पारंपरिक काव्यशास्त्र प्रसिद्ध रचनाओं की व्याख्या न करके लक्षणों के अनुरूप उदाहरण गढ़ते हैं। उनके अनुसार ध्वनि तथा व्यंजना की व्याख्या में आचार्यों ने जो प्रसिद्ध आर्याएँ प्रस्तुत की हैं वे उनके सूक्ष्म चिंतन के प्रति न्याय नहीं करती हैं। काव्यशास्त्र जिस देश-काल के परिवेश में रचित रचना के आधार पर निर्मित हुआ है। वह ऐसा परिवेश है, जिसमें उदात्‍त घटनाएँ और चरित आदि ही काल के विषय बनते थे। आज स्थिति भिन्न है। आज के जनतांत्रिक परिवेश में 'अभिजन' और 'जन' का भेद मिट गया है और सामान्य का ग्रहण होता है, आज ऐसा कुछ भी नहीं है जो काव्य का विषय न बन सके। परिवेश का परिवर्तन और लंबे व्यवधान के कारण काव्य की प्रकृति में भी अंतर आ गया है। ऐसे में, आज जो रचना हमारे सामने आ रही है। उस पर 20 वीं शताब्दी में एक हजार वर्ष की प्रतिमान आरूढ़ है। उस समय जो रचनाएँ होती थी, उसके निर्माण पक्ष, प्रक्रिया पक्ष और प्रगति पक्ष ये तीनों प्राचीन काल अर्थात् 11वीं शताब्दी तक के काव्य नवीन काव्य से सर्वथा भिन्न है। वर्तमान रचना संसार में काव्यशास्त्र के उपजीव्य प्राचीन रचना संसार और उसके उपजीव्य की तरह प्रवाह, तन्मयता और लय के लक्षण नहीं मिलते इसीलिए आज की रचना में तन्मयीभाव या विरेचन का प्रभाव नहीं उपजता-विपरीत इसके घुमड़ाव और विलगाव की स्थितियाँ ज्यादे आती है। नया रचना रस के विरोध में है। निर्माण का बिंदु भी भिन्न है, प्रक्रिया और परिणति भी भिन्न है।

आज की रचना संसार डुबोती नहीं, बल्कि घुमरन पैदा करती है। इसलिए 11वीं शताब्दी तक की रचनाओं को आधार बनाकर प्रतिमान बनाए गए हैं; वर्तमान में काव्यशास्त्र की प्रांसगिकता बखूबी है, इससे इन्कार नहीं किया जा सकता है।

नई पीढ़ियाँ काव्यशास्त्र को बखूबी ढंग से नहीं अपना पा रही है, ऐसा क्यों?

कोई भी शास्त्र ऐसे ही हँसी मजाक में चेतना का अंग नहीं बनता है। आज की पीढ़ी में उस तरह का श्रम का भाव नहीं दिखता है जैसा कि पुरानी पीढ़ी में था। साथ ही, इसमें आस्था व निष्ठा का भाव नहीं है; पश्चिमी हवा में साँस लेने के आदी हो रहे हैं; इनका मानना है कि पुराने तरीके से जीएँगे तो पोंगापंथी कहे जाएँगे। नई पीढ़ियाँ सुविधापरस्त हो गई है, साथ ही अकर्मण्य भी। चार सूत्र याद करने को कहेंगे तो याद नहीं करेगा। कंठस्थ करने की प्रथा नहीं रही। नई पीढ़ियों की अकर्मण्यता का कारण है नेता वर्ग, जो सारे देश को मूर्ख बनाकर रखना चाहते हैं। सारी सरकार नई शिक्षा व्यवस्था लाती हैं। अच्छे पढ़े-लिखे लोगों की नियुक्तियों की बजाय तयबद्ध हो रही हैं। अच्छी फसल कहाँ से आएगी, बीज अच्छा है तो खेत ही तैयार नहीं है।

विमर्शों के दबाब में हिंदी साहित्य को दलित, स्त्री, लेस्बियन विमर्शों में विभाजित किया जा रहा है, क्या आप इसे उचित मानते हैं?

सारे विमर्श की हवा पश्चिम से आयातित हो रही है। नारी विमर्श के संदर्भ में यह समझता हूँ कि हमारे यहाँ भी इन्हें काफी दबाया गया है, लेकिन दबाए जाने की प्रक्रिया का अर्थ यह नहीं है कि अब तुम उसे दबाओ। नारी विमर्श में प्रतिस्पर्धा की ज्वाला जल रही है। इनके पीछे दो शक्तियाँ-भावना व बुद्धि के बल पर समाज को तोड़ने की कोशिश की जा रही है। बुद्धि भेद पैदा करती है, अलगाना बुद्धि की प्रखरता है, जिससे तरह-तरह के खेमे पैदा होते हैं। खेमेबाजी जीवन के मंजिल तक पहुँचाने में कहाँ तक सहायक हो सकती है? नारी परिवार का आदर्श है कोई उसे चौपट कर दे तो हमारी धारणा ही नष्ट हो जाएगी। गांधीजी कहा करते थे मैं कस्तूरबा को प्यार करता हूँ लेकिन मैं उतना ही निष्ठ पति भी हूँ। पति-पत्नी, एक-दूसरे से संयम आचार नहीं करेंगे तो इसका असर परिवार पर पड़ेगा। राहुल सांस्कृत्यायन भी संयम को जीवन का अनिवार्य तत्व बताते हैं।

जहाँ तक रही बात दलितों के संबंध में तो व्यक्तिगत लाभ के लिए सामूहिकता का इस्तेमाल योजनाबद्ध तरीके से किया जाना कहाँ तक न्यायोचित है? अंग्रेजों ने भी सताया है, उन पर आक्रोश क्यों नहीं करते हैं। आप मरे हुए पशु को खाएँगे, साफ-सुथरा क्यों नहीं रहते हैं? किसी जमाने से बदला लेने से क्या फायदा? रचना अच्छी मनोवृत्ति से निकलती है और ऊँचा बनाने के लिए होती है। इसे प्रतिक्रिया में करने का पक्षधर नहीं हूँ। किसी जमाने में वर्णाश्रम व्यवस्था थी आज कर्म पर आधारित व्यवस्थाएँ समाज में व्याप्त हैं। अपने को सुधारने की कोशिश करो। कोई भी समाज बिना व्यवस्था के चलेगा क्या? जितना हम विरोध जाति का करते हैं उतना ही जातिवाद फैलता है। इसलिए विवेकसम्मत बनने की परिचय देने की जरूरत है। लेस्बियन हमारे संस्कृति की परम्परा रही ही नहीं है पश्चिमी आँधी ने हमारे यहाँ भी इसे लागू करवाने पर उतारू हो गए हैं। लेस्बियन, जीवन अस्तित्व पर ही सवालिया निशान खड़ा करता है, इससे हमारी सांस्कृतिक विरासत में विद्रूपता ही आएगी।

ऐसा माना जाता है कि दृश्य-श्रव्य माध्यमों का बोलबाला होने से पाठकों की संख्या में गिरावट आ रही हैं और साहित्य को सराहने वाली पीढ़ी भी, ऐसा क्यों?

टीवी के प्रादुर्भाव से समाज पर जहाँ सकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है वहीं उससे भी ज्यादा नकारात्मक। इससे सबसे ज्यादा प्रभावित हो रहे हैं - नई पीढ़ी के मासूम बच्चे। आपने भी सुना होगा कि टीवी देखकर बच्चे ने अपने पिता को ही पिस्तौल से उड़ा दी। टीवी पर सम्पन्न लोगों को ही दिखाया जाता है, निर्धनों की कराह को नहीं के बराबर। बच्चे ही नहीं हम भी जिंदगी की आपाधापी में पढ़ नहीं पा रहे हैं। जैसा बीज बोया जाएगा वैसे ही फसल की आशा की जा सकती है। बच्चे पढ़ाई से विमुख हो रहे हैं। इधर टीवी से हमारे घरों में मनोरंजन का साम्राज्य फैल चुका है। बच्चे साहित्य संवेदना से कटते नजर आ रहे हैं। ऐसे में, देश-दुनिया का भविष्य कहाँ जा रहा है? इस पर हमें सोचने की जरूरत है।

साहित्य और पाठक के बीच की दूरी को कैसे पाटा जा सकता है?

साहित्य खेमेबाजी का शिकार होता जा रहा है। साहित्य में संवेदनाओं की जगह बाजार घर कर गया है। आज जरूरत आ पड़ी है समाज में मूल्य चेतना को सहेजने की। पाठकों का मन उपभोक्तावादी दौर में अर्थकेंद्रित होता नजर आ रहा है। बच्चों का ध्यान संपत्ति पर है। इसे पाने के लिए ये कुकर्म कर रहे हैं। कुकर्म की झलक ही उनकी रचना में आती जा रही है। जहाँ तक बात रही है साहित्य और पाठक के बीच की दूरी पाटने की तो केवल कबीर का आत्मबल है जो इसे रचनात्मक मोड़ दे सकता है और अपमूल्यों को उच्छेद कर सकता है। लेकिन विज्ञान तो काल का हस्तावलंब है, अध्यात्म औंधा पड़ा है, इस प्रवाह को रोकने के लिए क्या उम्मीद की जाए?

क्या कारण है कि भारतीय साहित्य में भी उत्‍तर आधुनिकता का फैशन जोरों से चल पड़ा है?

संरचनावाद के विपक्ष में उत्‍तर संरचनावाद आया। यहाँ यह कहना समीचीन होगा कि उद्देश्य पहले तय करो कि किस प्रकार के चिंतन से तुम क्या करना चाहते हो? उत्‍तर आधुनिकता बुद्धि का विरोध करती है। यह कैसी विडंबना है कि यहाँ का कच्चा माल विदेशों में परिष्कार करके हमारे यहाँ ही बिकने आए। हमें पीछे लगने की प्रवृति है। बाहर वालों ने पाणिनी की अष्टाध्यायी को महत्‍ता दी, हम उसके पीछे हो चले। हम उनकी आँख से देखते हैं, उनके दिमाग से सोचते हैं, हमने अपने चिंतन को खो दिया है, कहा जा रहा है कि अपनी परंपरा में अच्छे सिद्धांत नहीं आ सकते हैं जो कि मुझे अनुचित लगता है। मेरा कहना है कि ज्योतिष, आयुर्वेद की कौन सी प्रयोगशाला थी फिर भी सिद्धांत आया। सिर्फ दर्शन से ही संसार नहीं चलता है। शंकर ने भी कहा है कि संसार व्यवहार बुद्धि से चलता है, विसंवाद से विलगाव उत्पन्न होता है। अरविंद ने कहा है कि जब तक बुद्धि है, संवाद करके चलना चाहिए न कि विसंवाद पर। हमारे साहित्य में ऐसे रत्न हैं जिसे सामने लाने की जरूरत है। लेकिन आज बाजारवाद का बोलबाला बढ़ता जा रहा है। जिसके कारण भारतीय साहित्य में भी उत्‍तर आधुनिकता का फैशन चल पड़ा है।

समकालीन परिदृश्य में हिंदी साहित्य की रचना प्रक्रिया के संबंध में बताएँ कि क्या अब हिंदी में मौलिक सृजन हो रहा है?

समकालीन चेतना आधुनिक संसार का होता है और वह अपने लेखन में इसे प्रतिबिम्बित करता है, साथ ही वह इसके भीतर से गुजरती हुई ऐतिहासिक शक्ति को भी स्वीकार करता है। समकालीन लेखन की कालावधि को भिन्न-भिन्न ढंग से देखा जा रहा है। साठोत्‍तरवादी रचनाकार छायावादी और नई कविता में समकालीनता का अंश नहीं पाते हैं क्योंकि इसमें समय का साक्षात् प्रत्यक्षीकरण कम और अप्रत्यक्षीकरण ज्यादा है। समकालीन साहित्य के परिप्रेक्ष्य में पक्षकारों का मानना है कि साठ से पूर्व की प्रगतिवादी कविता पर तो समकालीनता का मानदंड ठीक बैठता है, परंतु गैर प्रगतिवादी कविता पर नहीं बैठता। साठोत्‍तरी कविता चाहे प्रगतिवादी खेमे की हो या गैर-प्रगतिवादी खेमे की, अपने समय की पहचान 'असन्तोष या विद्रोह' का अंकन सर्वत्र समान है। साठोत्‍तर साहित्य का संकेन्द्रण अपने समय के मूल स्तर पर है - युवा पीढ़ी का आक्रोश, जो कि धूमिल में ज्यादा मुखर है। मुक्तिबोध आधुनिक है, धूमिल समकालीन। समकालीन दौर में नया साहित्यकार आत्माभिव्यक्ति से संतुष्ट नहीं होता वह अपनी संवेदना के भीतर किसी बड़ी संवेदना की तलाश करता है जिसकी परिणति 'विजन' में होती है। अलेक्सान्द्र सेंकेविच ने समकालीन हिंदी साहित्य में लिखा है - ''आज के भारतीय लेखक के सामने तीन रास्ते हैं। पहला रास्ता-सत्‍ता के समर्थन का है, दूसरा-सत्‍ता से अलग होकर जनता के हितों के लिए लड़ने का है और तीसरा-अराजकता और विद्रोह का है जो साहित्य की भूमिका को कम करता है। जहाँ तक रही बात हिंदी रचना प्रक्रिया की है तो इसे अनुवाद की भाषा कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी, हम पश्चिम से प्रभावित न होकर विचार की भाषा हिंदी में सोचें तो हम ज्ञान के क्षेत्र में और भी अव्वल होंगे। हिंदी में लेखन तो हो रहा है पर स्तरीयता नहीं आ रही है, जो कि चिंतनीय विषय है।

क्या कारण है कि आलोचना व्यवहारिक अर्थों में एक सृजनेतर पावर टूल हो चुकी है। आज की आलोचना वर्गगत संरचनाओं से निर्धारित होने लगी है, इसमें विज्ञापन, राजनीति व वर्चस्व के तत्‍व मौजूद नजर आते हैं?

सही कहा आपने, आज की आलोचना व्यवहारिक अर्थों में एक सृजनेतर पावरटूल हो चुकी है, इसमें भी खेमेबाजी, गुटबंदी की बू आने लगी है। आलोचना की वर्गगत संरचना स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ने लगी है। इस पर भी बाजारवाद का आवरण चढ़ा दिखता है। बाजारवाद ने इंसान को इनसानियत से विलगाव किया है। पैसों ने आदमी को हैवान से भी बदतर बना दिया है। आज हम अपनी पहचान अस्मिता को भूलाकर पश्चिमी आँधी में अपनी पैठ जमीन में टिका नहीं पा रहे हैं, बल्कि आँधी में शव की तरह बह रहे हैं। राजनीति से संबद्ध लोग प्रगतिवादी सोच न रखते हुए यथास्थितिवाद को बनाए रखना चाहते हैं। सत्‍ता तंत्र गिद्धों का बाजार बन गया है। सब पार्टियाँ डकैत-चोर हो गई हैं। ऐसे में लोकतंत्र से क्या आशा की जा सकती है? यह भी सही है कि आज साहित्य गुटबाजी से अछूता नहीं है तो फिर आलोचक से सर्जक की रचनाशीलता पर केंद्रित न होते हुए विरोधी बयानबाजी करने लगे हैं। अतएव आलोचना करते समय सर्जक को सर्जना के धरातल पर व्यक्तिगत स्तर पर न तो परकाय अर्थ ग्रहण करना चाहिए और न ही सचेत स्तर पर निजी व्यापार द्वारा दखलंदाजी करनी चाहिए, अर्थात उसे सर्जनात्मक शक्ति के प्रति विसर्जित हो जाना चाहिए, जो असाधारण मनोदशा में सक्रिय हैं। सर्जन के कोण से इस चिंतन में स्पष्ट ही व्यक्तिगत भूमिका का निषेध है। मैं कहता हूँ कि किसी कार्य की खिंचाई करना कौन सी विचारधारा है।

आपने पूरी जिंदगी लेखन कार्य में समर्पित कर दिया, क्या आप अपने लेखन से संतुष्ट हैं?

असंतोष के वातावरण में ही लेखन कार्य होता है। मानवता के मूल में परदुखकातरता होती है उसे सर्जन में आनंद आता है, आनंद उसका स्वभाव है - अतः सर्जन-विसर्जन या संकोच-प्रसार होता रहता है। किसी चीज से जब कोई संतुष्ट होता है तो उसकी प्रगति बंद हो जाती है।

रचनाकार के लिए पुरस्कार का कितना महत्व हैं?

रचनाकार के लिए पुरस्कार का कोई स्थान नहीं मानता हूँ। सर्जनात्मक प्रतिभा न तो किसी तारीफ का मोहताज होती है और न ही किसी निंदा की चिंता करती है। सर्जक, सर्जनात्मक शक्ति से मनःभावना को सत्यता के प्रति न्याय करता है, इसलिए वह किसी लोक-लुभावन से परे होकर रचना करता है।

आप हिंदी की पुरानी व नई आलोचना की सेतु (कड़ी) माने जाते हैं। आलोचना का कौन सा रूप आपको अधिक पसंद है?

हमारी जो जड़ें हैं, उनमें पर्याप्त संभावनाएँ हैं। जड़ कहते ही उसे लोग मूर्ख अर्थ में लेते हैं। पश्चिम का मध्यकाल अंधकार युग था, जबकि हमारे यहाँ का मध्ययुग पुर्नजागरण का रहा हैं। साजिश के बल पर हमारी बौद्धिकता को कितने दिनों तक दबाओगे, हमारा बुद्धिवाद जरूर उभरेगा। यह निरंतर बढ़ रहा है। यह बढ़ते-बढ़ते विज्ञान-प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भी अपनी स्थिति को मजबूत बना रहा है लेकिन प्रौद्योगिकी हैवानों के हाथ में पहुँच गई है।

यह तो सत्य है कि आलोचना के प्रतिरूप बदलते रहते हैं लेकिन हम लोगों की स्थिति भारतीय प्रतिमानों को मान्यता देनेवालों के बीच है। प्रकृति से जुड़ने वाली कोई नई चीज हमारे स्वागत की चीज बनती है। हमलोग मानते हैं कि परंपरागत प्रतिमानों का परिष्कार भी युगोचित ढंग से चलते रहना चाहिए।

भूमंडलीकरण के दौर में क्या साहित्यिक कला प्रभावित हो रही है?

 

निजीकरण का मार्क्स भी विरोध कर रहे थे। कोई भी कला मूल्य चेतना से कटकर कला या संस्कृति का अस्तित्व को बचा पाएगी क्या? कला वह नहीं है जिसकी विश्रांति पार्थिव संभोग में होती है जिससे यह आत्मा परानन्द में लीन हो जाती है। आत्मा की आनंद की ओर ले जानेवाला माध्यम 'सुन्दर' और उसका माध्यम 'कला' है। पूँजीवाद के नए रूप भूमंडलीकरण में हैवानियत स्पष्ट झलकती हैं आज हमारी मूल्य चेतना पर ही विपत्ति आ गई है। संवेदनशीलता साहित्य की आत्मा है, यह आत्मा बाजारवाद के शिकंजे में है। नए रचनाकार चौबीस घंटे की व्यस्तता में मौलिक सोच नहीं पाता अपितु झल्लाहट में खोता जा रहा है।

एक अच्छे आलोचक में कौन से गुण होने चाहिए?

वस्तुनिष्ठता, न्यायप्रियता, तटस्थता, बौद्धि क प्रखरता और समकालीन रचनाओं से संपृक्तता एक अच्छे आलोचक की विशेषता है। साथ ही उसे पूर्वाग्रह व दलबंदी से मुक्त रहना चाहिए। आचार्य रामचंद्र शुक्ल थे, वे बुराई देखते थे, तब गाली देते थे अच्छाइयों को देखकर गुणगान भी करते थे। इसलिए आलोचक को राग-द्वेष भुलाकर पाठकों के समक्ष सत्यता को उद्घाटित करें।

क्या आलोचक को संवेदनात्मक सौन्दर्य के करीब होने की जरूरत है?

आलोचक कृति के माध्यम से साक्षात्कृत मूल संवेदना का सर्जनात्मक पुराख्यान प्रस्तुत करता है क्योंकि यह आख्यान विश्लेषणात्मक होता है और विश्लेषण में मूल संवेदना तथा उसके प्रकाशन में प्रवण भाषा की समस्त क्षमता का परीक्षण निहित होता है। आलोचना में सर्जनात्मक अनुभूति या मूल संवेदना के सौन्दर्य का प्रकाशन भाषा अपनी समस्त क्षमता के साथ सभी घटकों को समाहित करता है इसलिए आलोचक संवेदनागत सौन्दर्य के जितना नजदीक होगा, आलोचना के मूलमर्म के साथ न्याय कर पाएगा।

नई पीढ़ी की रचनाओं से आपकी अपेक्षाएँ?

नई पीढ़ी खराब नहीं है, वह जो देखता है, वह करता है, हाँ इतना है कि वह सुनता नहीं चाहता है। यहाँ यह महत्वपूर्ण हो जाता है कि यह आज देख क्या रहा है? आज के परिवेश में जो अवरोध बना है वह है - नव पूँजीवाद का मुखौटा उपभोक्तावाद। नई पीढ़ियों में प्रतिभा है, ऐसा नहीं है कि सारा क्षेत्र ऊसर हो जाए। इनके संदर्भ में कहा जा सकता है कि 'जहँ-तहँ करत प्रकाश' लेकिन दृष्टि विशेष से निर्धारित गंतव्य के अभाव में वे चूक जाते हैं।


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हिंदी समय में अमित कुमार विश्वास की रचनाएँ