(संदर्भ : हिंदी उपन्यास : सन् 75 से अब तक)
सन् 1969। वाराणसी का तुलसी पुस्तकालय। आ. हजारी प्रसाद द्विवेदी की अध्यक्षता में 'ग्राम बोध और नगरबोध' पर 'अनामिका' की गोष्ठी हो रही थी। द्विवेदी जी का अध्यक्षीय भाषण चल रहा था - 'आज आस्थाविहीन साहित्य लिखा जा रहा है। इसका कारण यह है कि हम आस्थाविहीन जीवन जी रहे हैं। शहर की जीते हुए गाँव का चिंतन करने वाला लेखक गाँव के उस आदमी को देख सकता जो निरक्षर होते हुए भी अपनी परंपरा के कारण साक्षर है और उसी के कारण वह अपनी कठिन जिंदगी की समय बना कर जीता है। लोक की हजार-हजार गूँजों में गूँजने वाली निरक्षरता उस साक्षरता से अच्छी है, जो अपने स्रोतों से कटी हुई है...'
'रुकिए मास्टर साहब' दरवाजे के पास एक तीखी आवाज गूँजी। यह धूमिल था जो दरवाजे पर खड़ा होकर बोल रहा था - 'कालीन पर खड़े होकर समकालीन साहित्य की चर्चा करने वाले आचार्य द्विवेदी, आप रहते 'होल्कर हाऊस' में हैं और बातें गाँव की कर रहे हैं। मैं दस किलोमीटर साइकिल चला कर गाँव से आ रहा हूँ लेकिन गाँव की बात नहीं करता क्योंकि मैं गाँव को जीता हूँ। आप विधा का उपयोग अपनी सुविधा के लिए कर रहे हैं।'
द्विवेदी जी ने भाषण बंद किया। उठे और सभा छोड़ कर चलने लगे। दरवाजे पर खड़े धूमिल के पास रुके, उसके कंधे पर हाथ रखा और कहा, 'धूमिल जी, आपकी पीढ़ी के भीतर जो 'अगिन-तत्व' है उसे बुझने मत दीजिएगा। आज जो साहित्य लिखा जा रहा है उसका प्राण तत्व है यह।'
उस समय द्विवेदी जी ने जो कहा था और जिन 'अग्नि-तत्व' की चर्चा की थी, वह आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना तब था। पहले जीवन का एक नैतिक धरातल था, संस्कृति थी, मनुष्य का मनुष्य पर विश्वास था। वहीं आज अविश्वास, मूल्यहीनता, ईर्ष्या द्वेष और विभाजित मानसिकता ने सारा परिदृश्य ही बदल दिया है। चुपचाप अन्याय सहने वाले अब जागरूक होते जा रहे हैं। और कोई अन्याय सहने के लिए तैयार नहीं हैं। एक व्यापक संक्रांति की स्थिति की स्थिति है। परंपरा और आधुनिकता की दो सीमाओं के बीच आज भारत का गाँव सहमा हुआ खड़ा है। यह अनिश्चय की स्थिति है। एक ओर लोक परंपरा है दूसरी ओर उत्तर आधुनिक जीवन है।
सन् पचहत्तर के बाद कई ऐसे उपन्यास आए हैं जिनमें संक्रमण की यह प्रक्रिया दिखाई देती है। संक्रमण तो स्वाधीनता के बाद ही शुरू हो गया था। रेणु, शिव प्रसाद सिंह, राही, भटियानी, रामदरश मिश्र आदि ने जिस गाँव में प्रवेश किया वह प्रेमचंद का गाँव नहीं था। प्रेमचंद और रेणु के बीच के उपन्यास की जमीन ग्राम संवेदना की दृष्टि से परती और बंजर है। प्रेमचंद के बाद उपन्यासों की गति प्रमुख रूप से आत्म केंद्रित या व्यक्ति केंद्रित हो गई। सामाजिक संचेतना के प्रति प्रतिबद्धता यहाँ भी है लेकिन उसका मूल्यांकन सामाजिक नहीं, व्यक्ति के संदर्भ में किया गया। इनमें 'आत्म' है, जन भी है, लेकिन लोक नहीं है। लोक अपने में विशाल अर्थ समेटता है। जो भी दृष्टिगत संसार है, अथवा जो भी इंद्रियगोचर संसार है, वह लोक है। इस लोक का अर्थ है, जो यहाँ है जो प्रस्तुत है। लोक का विस्तृत अर्थ है, लोक में रहने वाले मनुष्य, अन्य प्राणी और स्थावर संसार के पदार्थ, क्योंकि ये सब भी प्रत्यक्ष अनुभव के विषय है।
नगर के कुंठाग्रस्त जीवन की एकांगी दिशा में बढ़ते हुए उपन्यास को 'रेणु' और उनके समकालीन उपन्यासकारों ने लोक से जोड़ा। यह अनिवार्य ही था कि शहरी जीवन की विसंगतियों और घुटन से उकताने के बाद कथाकार गाँवों के अपेक्षाकृत सहज और अकृत्रिम जीवन की ओर झुकते, उसमें रस और सुंदरता की खोज करते। खुलेपन और सहज रस स्रोत की खोज में कथाकार गाँव की ओर मुड़े। स्वाधीनता के बाद गाँवों में जो परिवर्तन हुए, आर्थिक संगठन और सामाजिक रूप विधान में जो हलचलें आईं, उन्हें इन कथाकारों के संवेदनशील हृदय ने न केवल समझा बल्कि उपन्यास की विधा को परिचय की घनिष्ठता का गद्य-प्रबंध भी बना दिया। इसीलिए इन उपन्यासों में मनोविज्ञान और घटना-कुतहल भले ही न हो लेकिन गाँव का अद्भुत और विचित्र कार्निवाल इनमें जरूर दिखाई देता है। विविध रंगों, सुरों, ध्वनियों की हरहराती धारा हमारे बीच बहती हुई आगे बढ़ती है और अनेक व्यक्तियों के सुख-दुख, पीढ़ा उल्लास, गति-अगति प्रगति, हास विलास से हम अपने को संपृक्त करते है। लेकिन ये चेहरे, रंग गंध और सुर अपने में महत्वपूर्ण नहीं है, महत्वपूर्ण है - दूसरी गतिमयता, अविरल प्रवाह की कल-कल, हवा में उड़ते रंगों की आभा, एक मायावी लय जो समस्त व्यक्तियों और घटनाओं के बीच गुजरती हुई हमारे मन मस्तिष्क को आलोड़ित कर देती है।
समाज के सुख-दुख, झूठ-सच को उधारना तो इतिहासकार और समाजशास्त्री का कार्य होता है, साहित्यकार इन सबके भीतर की जो कसमसाहट मनुष्य की उद्विग्न करती है उसको अभिव्यक्त करता है। उसका इन सबसे सरोकार गहरा है - क्योंकि यह सरोकार सीख देने वाले या नीति के विनायक का सरोकार नहीं, यह डूब कर, तिर कर, भीग कर संवेदना की धार से निकले आदमी का सरोकार है, जो लोकचित्त की न्यायप्रियता पर आस्था रखता है। रेणु, शिवप्रसाद सिंह, शानी, रामदरश मिश्र, भटियानी, श्रीलाल शुक्ल आदि के उपन्यासों में गोचर जगत की निसर्ग रमणीयता के स्वर में जब स्वर मिलता है तब सामंजस्य और समरसता का एक नया लोक उद्घाटित होता है। इस नए कथा-लोक में मनुष्यों का समूह ही नहीं, सृष्टि के चर-अचर सभी सम्मिलित है, पशु-पक्षी, वृक्ष-नदी, धरती पर्वत सब लोक हैं और सबके साथ साझेदारी की भावना की लोक दृष्टि है। प्रेमचंद के होरी के पास गाय की पूँछ थी जिसके सहारे वह वैतरणी पार करना चाहता था लेकिन बाद के कथाकारों के पास संस्कारों की वह गऊ नहीं है। वैतरणी ही वैतरणी है जिसमें सब डूब रहे हैं। लेकिन इनमें एक विलक्षण बात यह है कि क्षेत्र विशेष की धरती के वैशिष्ट्य का चित्रण करते हुए भी ये उपन्यास मूलतः अपनी आंतरिक मानवीयता के कारण समस्त जीवन के मूल्यों से जुड़ जाते हैं। अनुभव, शिल्प और संवेदना के संयोग से, सन् 66 के पूर्व के उपन्यासों में, भारतीय जीवन का एक नया यथार्थ अपनी संपूर्णता और गहनता में उद्घाटित होता है।
आपत्काल के बाद का समय कई कारणों से एक स्पष्ट और सुपरिभाषित विभाजन की सुविधा देता है। संपूर्ण क्रांति, आतंकवाद और मूल्यविहीन भ्रष्टाचार पोषित राजनीति के अभूतपूर्व विकास का दौर यही है, जिसमें राजनीति में अपराधी तत्वों के व्यापक संरक्षण की शुरुआत होती है। इसी के साथ यह सांप्रदायकि उन्माद और विद्वेष का दौर भी है जिसमें मंडल कमंडल और अगड़ों पिछड़ों की राजनीति ने समूचे राजनीतिक परिदृश्य को एक झटके में बदल दिया और देखते-देखते वर्ग चेतना और वर्ग संघर्ष को जातियों और गुटों के संघर्ष में परिवर्तित कर रख दिया। इस बदलाव को, इसके यथार्थ को न केवल सुना गया बल्कि उसकी ठनक को भी सुना गया। स्त्री विमर्श दलित विमर्श के बहाने समकालीन यथार्थ का शायद ही ऐसा कोई पक्ष हो, जिसे उपन्यास ने अपनी संवेदनशील पकड़ से छोड़ा हो।
विवेकी राय ग्रामीण परिवेश से, सर्जनात्मक और आलोचनात्मक, दोनों स्तरों पर गंभीरतापूर्वक जुड़े रहने वाले लेखक हैं। उ.प्र. और बिहार का सीमावर्ती क्षेत्र और गाजीपुर जिला उनका कथांचल है। अपने उपन्यासों में उन्होंने इस क्षेत्र के किसानों और दलितों के जीवन को गहरी संवेदना के साथ अंकित किया है। बबूल (67), पुरुष पुराण (75), लोक ऋण (77) श्वेत पत्र (79), सोनाभाटी (83), समर शेष है (88) और मंगल भवन (94) उनके प्रमुख उपन्यास हैं। इनमें लोक ऋण का प्रकाशन आपत्काल के तुरंत बाद सन 1977 में हुआ। इसके लेखक को गाँव की गहरी समझ तो है ही, गाँव के प्रति उसके मन में अटूट लगाव भी है। इसलिए एक ओर तो वह पूरी निर्भमता से समकालीन गाँव की कुछ विसंगत और कुरूप वास्तविकता का उद्घाटन करता है, दूसरी ओर उसके बीच अनुपस्थित पढ़े लिखे लोगों को उपस्थित करना चाहता है और गाँव के कुरूप यथार्थ की व्याख्या करते हुए यह लिष्कर्ष निकालता है कि पढ़े लिखे लोगों ने गाँव के प्रति अपने कर्तव्य का निर्वहन नहीं किया। गाँव के प्रबुद्ध वर्ग का प्रतिनिधि गिरीश है, जो शहर में रहता है। अनेक आत्मसंघर्षों से गुजार कर लेखक अंत में गिरीश को गाँव में बसने के लिए बाध्य कर देता है इस प्रकार गाँव की प्रबुद्ध चेतना को गाँव से निष्कासित न करके वह उसे गाँव में भी बसा देता है और एक आदर्श गाँव के विकास की संभावना उभारता है। वह पढ़े लिखे लोगों को यह बोध कराता है कि तुम्हारे ऊपर लोक का ऋण है, जिसे उतारना तुम्हारा कर्तव्य है। अपने इसी मंतव्य की पूर्ति के लिए लेखक अनेक पात्रों, घटनाओं, संदर्भों और कथा-खंडों की सृष्टि करता है। केंद्र में है त्रिभुवन गाँव के सभापति हैं आधुनिक प्रधान, सबको लड़ाने वाले और निरंतर समृद्ध होते जाने वाले चालाक और क्रूर प्रधान। उसका बड़ा भाई गांधीवादी धरमू है और छोटा भाई है गिरीश इलाहाबाद के एक कॉलेज में हिंदी का अध्यक्ष, सेवानिवृत्ति के कगार पर खड़ा जिसकी समस्या है वह कहाँ बसे - इलाहाबाद या गाँव में? गाँव में पनपती व्यावसायिक वृत्ति और उसकी चपेट में आने वाली शिक्षा, संबंधों और मूल्यों के ह्रास की कथा चलती रहती है और इस क्रम में पुस्तकालय प्रसंग, पुस्तकों की चोरी का प्रसंग, इससे जुड़ा थाना कचहरी का प्रसंग आदि आते है और गाँव के परिवेश में तेजी के साथ, क्रूर काटते हुए उसकी गंदगी की परतें उभारते चलते हैं। लगता है कि गाँव में बार-बार भूकंप आ रहा है। जाने अनजाने गिरीश इस भूकंप के थमने में कुछ सहायक हो जाता है और इससे उसके भीतर एक आत्मविश्वास जाग जाता है। यही आत्मविश्वास गाँव की निरंतर बढ़ती हुई पीड़ा के साथ जुड़ कर अंत में उसे गाँव के बीच लाकर हमेशा के लिए पटक देता है। सन् 82 में प्रकाशित उनके उपन्यास 'सोनाभाटी' नाम है उस क्षेत्र की जिंदगी का, जहाँ अनेक मूल्यवान सांस्कृतिक परंपराएँ हैं लेकिन आज का समाज परस्पर विघटित होकर उसकी परंपराओं और मूल्यों को विघटित करके उसे मूल्यहीन बना दे रहा है तथा अपनी समृद्ध सांस्कृतिक परंपरा की तहस नहस करके टुच्ची राजनीति का ध्वज गाड़ रहा है। सोनाभाटी नाम है उस टूटन विघटन और सामाजिक त्रासदी का, जो आज के गाँव में घटित हो रही है।
'सोनाभाटी' का कथांचल गाजीपुर और बलिया के मध्य बसा करइल नामक गाँव है। इसके केंद्रीय पात्र हैं रामरूप और हनुमान प्रसाद जी रिश्ते में श्वसुर दामाद हैं। विवेकी राय ने संबंधों के क्षरण मूल्य विघटन और अमानवीय विभीषका की सघन अभिव्यक्ति के लिए श्वसुर दामाद के मध्य टकराव उपस्थित किया है। यानी, स्वार्थप्रेरित राजनीति और तज्जन्य मूल्य विघटन की स्थिति इतनी भयावह हो गई है कि दुष्ट श्वसुर के लिए अपना दामाद भी राजनीतिक आखेट है। राय ने इस तनाव को मात्र व्यक्तिगत संबंधों के तनाव के रूप में नहीं देखा है। व्यक्तिगत संबंधों का तनाव एक तीव्रता और उत्तेजना भरने के लिए आता है, वह लक्ष्य नहीं है। लक्ष्य तो सामाजिक तनाव और टकराहट ही है जो रामरूप और हनुमान प्रसाद में नहीं, बल्कि मानवीय मूल्यवत्ता क्रूरता, सांस्कृतिक उदारता और राजनीतिक क्षुद्रता के बीच है।
हनुमान प्रसाद प्रतीक है आज के गाँव की उस अप संस्कृति का, जो स्वार्थ की सिद्धि और अहंकार की तृप्ति के लिए कोई भी कुकृत्य कर सकती है। जो अकेली नहीं होती, वरन जिसका एक चक्र होता है। उस चक्र में राजनीति, प्रशासन समाज की अनेक अमानवीय ताकतें शामिल होती हैं। इन चक्रों के समानान्तर कई दूसरे अपशक्ति के चक्र होते हैं। ये चक्र कभी आपस में टकराते हैं, कहीं सामान्य जन के विरुद्ध साथ हो लेते हैं। इस सत्य की बड़ी गहरी पहचान उभरती है सोनाभाटी में। हनुमान प्रसाद स्वयं में एक बड़ी अपशक्ति है जिसके साथ दुष्ट नौकर, गाँव के लोक बी.डी.ओ. पुलिस तथा स्कूल के हेटमास्टर मिल कर अपशक्ति के विशाल चक्र की रचना करते हैं। बाद में पुत्र अरविंद विधायक हो जाता है तो इसमें नेता भी शामिल हो जाता है। दामाद रामरूप स्कूल मास्टर है। श्वसुर द्वारा दहेज में दिए गए थोड़े से खेत पर भी वह काबिज नहीं हो पाता क्योंकि श्वसुर उसे नालायक मानता है। सामान्य वित्त का एक आदर्शवादी शिक्षक, जो आर्थिक अभावों, श्वसुर के अत्याचारों और अपने आदर्शों के बीच पिसता रहता है। यह पीड़ा, एक ओर अभावी और अपने ऊपर होने वाले अत्याचारों की है, दूसरी ओर मानवीय मूल्यों से जुड़े रहने की है। विवेकी राय ने अपने इस मूल्यवादी पात्र की रचना गाँव की मिट्टी से ही की है। वह ठोकर रखाकर भी उस मिट्टी से जुड़ा रहता है भागता नहीं - लहू लुहान होकर भी सहज ढंग से मूल्यवादी बना रहता है। वह अपनी धरती के प्रति गहरे दर्द के साथ जुड़ा है और जुड़ा रह कर विपक्ष की भूमिका निभाता है। 'सोनाभाटी' का फलक ही बड़ा नहीं है, इसके रचनात्मक सरोकार भी व्यापक और गंभीर हैं।
इनके एक और उपन्यास 'समर शेष है' की भी चर्चा होनी चाहिए। वस्तुतः यह दोनों सम्मिलित रूप में भारत के गाँवों की सही तस्वीर प्रस्तुत करते हैं। अपसंस्कृति और मूल्यहीनता की बाढ़ में बहते हुए गाँव की खुलती हुई सलवटों को इसमें भी खोला गया है। 'सुराज' और 'रामराज्य' की मिथकीय कल्पना से जनता के छले जाने की प्रक्रिया इसमें विस्तारपूर्वक अंकित की गई है। जनता के लिए खोले गए आश्रमों और संस्थानों में जनता कहीं नहीं है। ठीक वैसे ही, जैसे देश की राजनीति में 'जनता' ईश्वर की तरह एक अभूर्त संकल्पना है। संतोषी पंडित के माध्यम से गाँव के समाज और शिक्षा के कथित केंद्रों में घट रहे परिवर्तनों को लेखक ने विश्वसनीय रूप से अंकित किया है। इन मोर्चों के अलावा और कई छोटे बड़े मोर्चे उनके आगे खुलते चलते हैं। स्वयं पर हँस सकने का कौशल विकसित करके ही संतोषी पंडित इस लंबी और अंतहीन लड़ाई के मोर्चे पर डटे रहते हैं। उत्पीड़न के अपने केंद्र को विवेकी राय 'मंगल भवन' में और विस्तार देते हैं। किसान, मजदूर, अध्यापक के साथ भूतपूर्व सैनिक भी गाँव में आ जाता है।
विवेकी राय अपनी कथाभूमि से आत्मीयता और संवेदना के स्तर पर पर जुड़ते हैं इसीलिए घने अंधकार में भी रामरूप और संतोषी पंडित जैसे प्रकाश स्तंभों की खोज करते हैं। पर्वों प्रयोजनों के पुनराविष्कार को लेकर उनमें गहरा उत्साह है। अपने समय के मूल्यों, जनसेवा के स्वीकृत पदों, शब्दों, अवधारणाओं का वे गूढ़, व्यंजनागर्मी और व्यंग्यात्मक उपयोग करके उन्हें एक नई अर्थवत्ता देते है। उनका रचना संसार लोकभाषा और लोक तत्व के अप्रचलित रूपों के प्रति उत्साह जगा कर, एक संघर्षशील लेकिन आस्थावान मनुष्य की खोज करता है।
कभी कभी लगता है कि प्राकृतिक परिवेश का एक स्वतंत्र चेतन सत्ता, एक जीवित चरित्र के रूप में अनुभव और मानवीय चेतना और जीवन के साथ उसके संवेदनात्मक रिश्ते की सही पहचान इधर के उपन्यासों में ज्यादा संभव हुई है। गाँव का पूरा लोक ही इनमें नहीं इतरा है बल्कि प्राकृतिक परिवेश और मनुष्य के संबंध में निहित सत्य की संवेदनात्मक स्तर पर उजागर भी किया गया है। एक और बदलाव पर ध्यान केंद्रित करना जरूरी है। गाँव से निकल भागने वाले लोगों की संख्या कम हुई है। उसके दो कारण हैं - एक, सूचनाक्रांति, ने गाँव और शहर के अंतर को कम किया है। दूसरी, रोजगार के कंद्रों बंगाल आसाम महाराष्ट्र और गुजरात आदि ने अपने दरवाजे बंद करने शुरू कर दिए हैं। सातवें दशक के बहुत से ग्रामीण परिवेश वाले उपन्यासों में यह निष्कर्ष आया था कि गाँव मर गया है, नरक हो गया है, रहने लायक नहीं रह गया है और वहाँ से पलायन हर समझदार ग्रामीण की नियति है। 'राग दरबारी,' 'अलग-अलग वैतरणी' और 'आधा गाँव' का अंत इसी निराशामदी गूँज के साथ हुआ हुआ है। आज वह भागता नहीं, गाँव में रहते हुए व्याप्त असंगतियों से जूझता है।
मिथिलेश्वर ने अपने उपन्यासों में भोजपुरी अंचल के जातीय संघर्ष, अराजकता, हिंसा, अपहरण, बलात्कार आदि का प्रामाणित अंकन किया है। उनमें इस अंचल की गरीबी और पिछड़ेपन के साथ-साथ वहाँ चल रहे किसान मजदूर और कुलीन भूमिधरों के बीच संघर्ष का चित्रण भी देखने को मिलता है। जगदीश चंद्र के उपन्यासों 'धरती धन न अपना,' 'कभी न छोड़े खेत,' 'मुट्ठी मर कॉकर,' 'घास गोदाम' में पंजाब की पृष्ठभूमि में वहाँ के दलितों और जाटों के संघर्ष और उनके जीवन की झलक मिलती है। कृष्णा सोबती के जिंदगीनामा' तथा द्रोणवीर कोहली के 'आँगन कोठा' और 'तकसीम' में सन 20 से स्वाधीनता प्राप्ति तक ब्रिटिश शासन के अंतर्गत जीवन यापन करने वाले पंजाब के किसानों की दशा दिशा पर विचार किया गया है। इनमें पंजाब के ग्राम जीवन की सही तस्वीर सामने आ जाती है।
इसी तरह हिमांशु जोशी, गोपाल उपाध्याय, मनोहरश्याम जोशी, मृणाल पांडेय पंकज विष्ट तथा वल्लभ डोभाल ने पर्वतीय क्षेत्र के गाँवों की कठिन जिंदगी, गरीबी, अशिक्षा, जनप्रतिनिधियों द्वारा किए जा रहा जनता के शोषण, नैतिक मूल्यों का हृास, स्त्री की पीड़ा आदि को चित्रित किया है। मृणाल पांडेय और विद्यासागर नौटियाल ने कुमायूँ गढ़वाल की संस्कृति तथा वहाँ के जीवन में आए परिवर्तन में आए परिवर्तनों को गर्व और पीड़ा के मिश्रित बोध के साथ प्रस्तुत किया है। रमेशचंद्र शाह के उपन्यास 'गोबर गणेश' की पृष्ठभूमि में भी कुमायूँ है। लेकिन इसके 'झीलों लंबे गद्य' में केवल भावनात्मक विस्तार मिलता है, सामाजिक चेतना के स्तर पर शाह अंतः या बाह्य संघर्ष से नहीं गुजर पाते। केवल पहले खंड 'अन्नजल' में एक ऐसी पकड़ मिलती है जो बाकी हिस्सों को बड़े संयम और सहजता से प्रस्तुत करती है। गाँव और उसके लोगों का मनोविज्ञान और उनकी कश्मकश, एक मोहक अतीत से जुड़े हुए हैं। शाह अपनी व्यंग्य वृत्ति से एक-एक घटता को खुली हवा में ओसाते चले गए हैं। इसीलिए इस उपन्यास का ग्राम बोध बुना हुआ नहीं, उगा हुआ लगता है, ओस में डूबी हरी दूब की तरह। इसीलिए इस काल का इतिहास अपना इतिहास नहीं लगता, यह किसी और का इतिहास लगता है। दरअसल यह इतिहास नहीं, घटित होता हुआ वर्तमान है जो हर जगह बज रहा है। अपने पंख फड़फड़ाता और डैनों से घायल करता अतीत और बुझा हुआ वर्तमान धुंध में खोया भविष्य। भावना और बुद्धि का द्वंद्व। विनायक गाँव छोड़कर भागता है क्योंकि भावना को अरक्षित और खुला नहीं छोड़ा जा सकता। उसे एक कवच चाहिए। लेकिन बुद्धि का कवच तो अपनी रगड़ से मार डालता है। विनायक बाबू भी लहूलुहान हो जाते हैं। सरोज के संदर्भ में विनायक का यह सोचना खुद उसके लागू होता है - 'कुछ लोग दुनिया में सिर्फ असफल होने के लिए ही पैदा होते हैं, हर मोर्चे पर पिटने और मान खाने के लिए और उन्हें इस पर कभी अचरज नहीं होता, क्योंकि वे आखिर-आखिर तक तय नहीं कर पाते कि उन्हें भेजा किस लिए गया है।' विनायक की व्यथा पूरे परिवेश की व्यथा है लेकिन विनायक का हल पूरे परिवेश का हल नहीं है।
वीरेंद्र जैन के 'डूब' और 'पार' उपन्यासों में म.प्र. के उन गाँवों का चित्रण है जो स्वाधीन भारत की बिजली परियोजनाओं के कारण डूब के क्षेत्र में आते हैं। मैत्रेयी पुष्पा, इस समय की महत्वपूर्ण कथाकार हैं। नब्बे के दशक में उभरी और 'बेतवा बहती रही' 'इदन्नमम' और 'चाक' के नाते प्रतिष्ठित हुई मैत्रेयी ने उस बुंदेली लोक जीवन की अनेक परतें खोली हैं, जिससे हमारी रचनात्मक धारा काफी पहले विमुख हो चुकी थी। मैत्रेयी में मानवीय भावों की सघन अंतरंगता और संबंधी की जटिलता को चित्रित करने की अनोखी क्षमता है। उनकी मामूली लेकिन जबर्दस्त स्त्रियाँ औरत होने और वंचितों के अधिकार की लड़ाई लड़ती हैं। 'बेतवा बहती रही' में मैत्रेयी ने विपन्न मानसिकता के दोमुँहे समाज में आज भी, नारी मात्र वस्तु मात्र संपत्ति विनिमय की वस्तु कहते हुए उर्वशी के बहाने विंध्य के पिछड़े अंचल की स्त्री की त्रासद जिंदगी के विस्तार का चित्रण किया था। 'इदन्नमम' भी उसी अंचल में रहने, सहने, झेलने और जूझने के लिए अभिशप्त नारी की व्यथा-कथा का बयान करता है। दोनों उपन्यासों के केंद्रीय चरित्रों में कई समानताएँ हैं। दोनों की नायिकाएँ कामांध पुरुषों की वासना का शिकार होती हैं, लेकिन दोनों बहुत मजबूत चरित्र की हैं इसलिए पूरी शक्ति से अन्यास का प्रतिकार करती है। मंदा और उर्वशी औरत होने की लड़ाई लड़ती हैं। उर्वशी उदय का विवाह करा कर वंचिता के अधिकार की रक्षा करती है। लेकिन उर्वशी की कथा अबला का भाव जगा कर समाप्त होती है वहीं मंदा 'शक्ति रुपेण' है। कोई बरजोर सिंह उसे विष देकर या कोई अभिलाष उसे उत्पीड़ित करके भी झुका नहीं पाता। उसकी शक्ति वंचितों को संघर्ष चेतना से पोषित है। इसी प्रकार 'चाक' की सारंग है जो 'इदन्नमम' की मंदाकिनी से आगे बढ़ स्त्री संहिता की समस्त धाराओं की चुनौती देती हुई न केवल अपने प्रेमी से देह संबंध स्थापित करती है बल्कि सत्ता को चुनौती देती हुई। पंचायत के प्रधान पद के लिए खड़ी भी हो जाती है। बुंदेलखंड की कबूतरा जनजाति के अपमान विवशता और नरकवाली वाली जिंदगी तथा अभिजन समाज के टकराव, संघर्ष एवम पराजय की मैत्रेयी 'अल्मा' के माध्यम से 'अल्मा कबूतरी' में प्रस्तुत करती हैं। अल्मा एक दलित स्त्री के साहस, संघर्ष और स्वरूप का प्रतिनिधित्व करती है और नारी शक्ति का माध्यम बनती है।
गाँव पर लिखने के लिए जाति व्यवस्था को, उसके अच्छे बुरे को जानना जरूरी है, यह भी कि गाँव किन बातों पर भड़कता है, किनमें रस लेता है, किन पर रोता और इससे भी ज्यादा कि किन पर हँसता है। इन बातों की समझ गाँव को कथाभूमि बनाने वाले कथाकारों में रेणु को सबसे ज्यादा है। यही समझ रामदेव शुक्ल के 'ग्राम देवता' में भी है। मैत्रेयी में गाँव के रोने, उदास होने और लड़ने वाली बातों की समझ ज्यादा है लेकिन हँसी गायब है। 'चाक' में सारंग को पात्र के रूप में ढालते समय उसको निष्कासित करने में मैत्रेयी इतना जोर लगाती है कि गाँव पीछे छूट जाता है। रामदेव शुक्ल हमारे समय के महत्वपूर्ण कथाकार हैं। दलित और एक तरह से स्त्री विमर्श को भी लेकर उनका उपन्यास ग्राम देवता भी चलता है। लेकिन उन्हें वह भार नहीं बनने देते। हरख नारायण गाँव के दुखों को काटने और ठाटने का जो तरीका अपनाता है, उस पर भी रामदेव जी की नजर है। गाँव का संघर्ष, उसका नरक, परंपराओं में आस्था, उसकी जिंदादिली, बोली ठिठोली सब इस उपन्यास में मौजूद है। पूर्वांचल के राजापुर और डोमापुरवा इन दो गाँवों की कथा 'विकल्प' में है जो जीवन के यथार्थ से निर्मित की गई है। इसमें अनेक वर्गों, जातियों, प्रवृत्तियों के सद-असद संघर्ष की कथा है। एक तरफ सुरती चौबे हैं जिन्होंने अकाल प्रधान, रूदल चौबे, भीषम सिंह आदि का स्वार्थ सिद्धि के लिए एक गिरोह बना लिया है और लालच देकर दलित जातियों के कुछ भोले युवकों को भी शामिल कर लिया है। दूसरी ओर सत्ता के तमाम स्तम्भ विधायक, डी.एम. इंजीनियर, ओवरसियर आदि हैं, जो उन सुविधाओं को लूटते हैं जो आम जनता के लिए हैं। रामदेव जी ने गाँवों की उभरती हुई सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक विसंगतियों को कुशलता से उजागर किया है। लेकिन इस यथास्थिति से उनकी मूल्यवादी दृष्टि पराभूत नहीं होती। वह किसुनदेव जैसे मूल्यवादी और विवेकशील पात्र की सृष्टि करते हैं जो अपनी तमाम असफलताओं और तकलीफों से लड़ता हुआ गाँव में नई उज्जवल चेतना का प्रसार करने में सक्रिय रहा है। वह आम आदमी में सद असद की पहचान पैदा कर उसे अपने अधिकारों के प्रतिजागृत करता है। उनके अन्य उपन्यासों 'मन-दर्पन', 'संकल्प' और 'अगला कदम' भी ग्रामीण विमर्श के महत्वपूर्ण उपन्यास हैं।
अंत में भगवान दास मोरवाल के महत्वपूर्ण उपन्यास 'काला पहाड़' की चर्चा करना चाहूँगा जिसमें मेवात क्षेत्र के ग्रामीण मुसलमानों की जिंदगी का चित्रण किया गया है। गहरी समझ और संवेदनशीलता से लिखे गए इस उपन्यास में हिंदू और मुसलमान स्वधर्म का पालन करते हुए भी विलक्षण सद्भाव के साथ अपना जीवन यापन कर रहे हैं। उनकी अभावग्रस्त जिंदगी की समस्याएँ एक जैसी हैं। बहुत से रीति रिवाज और विश्वास समान हैं। पर सत्ता की राजनीति में धर्म के हस्तक्षेप और बढ़ते धार्मिक उन्माद के कारण दोनों समुदायों में अविश्वास, भय और विरोध का भाव बढ़ने लगता है और बाबरी मस्जिद प्रसंग के समय उसकी परिणति हिंदुओं पर हमले और लूटपाट से होती है। संबंधों की इस त्रासदी को मोरवाल ने गहरी संवेदना के साथ उभारा है। सत्ता और जनता के बीच बढ़ती दूरी और जनता के केवल वोट बैंक बन जाने की स्थिति के व्यंग्यपूर्ण वर्णन ने 'काला पहाड़' को एक महत्वपूर्ण उपन्यास बना दिया है।
स्वाधीनता के बाद हिंदी उपन्यास में भारत के गाँवों का चित्रण उनकी पूरी समग्रता में हुआ है। इसमें जो महत्वपूर्ण बात यह है कि गाँव का दलित और स्त्री वर्ग अपने अधिकारों की लड़ाई में आगे बढ़ा है। विवेकी राय, रामदेव शुक्ल मैत्रेयी पुष्पा, मिथिलेश्वर, संजीव आदि के उपन्यास इसके दस्तावेज हैं।