सूरज की किरणों और भीगी फुहारों में
खिलती रही एक कली बीते तीन बरसों में
आतुर प्रकृति ने कहा - प्रेम के आवेग में
नहीं खिला कोई फूल मेरी सूनी गोद में
निसर्ग के नियम और सदा संवेगों के संग
उस मासूम में खिलेंगे प्रेम के अगणित रंग
चंचल चितवन चहकेगी मेरे संग-संग
पर्वतों, पहाड़ियों और पसरे मैदानों पर
निकुंज और वनों की सर्पिल पगडंडियों पर
धरती और स्वर्ग पर... धरती और स्वर्ग पर
महसूस करेगी वह एक आत्मस्फूर्ति
और अंतर्चेतना - प्रज्ज्वलन पर शमन
कुलाँचें भरेगी वह मृग शावक बनकर
आनंदित होती है जो हरीतिमा देखकर
या, पगडंडियों से रिसते झरनों से
और बन जाएगी वृक्ष सुगंधित सा
मन होगा उसका शांत और गंभीर
मौन, स्पंदित सजीवों की तरह
कपसीले गुच्छों जैसे सारे मेघ समूह
लेकर आएँगे उसके लिए धुनकनी
आँधी, बवंडर और तूफान में भी
देखना वह नहीं होगी विफल
वह लावण्य जो उसे बनाकर देगा
यौवना... प्रकृति की ईश्वरीय अनुकंपा से
मध्य रात्रि के सितारे होंगे उसके प्रिय
कान लगाकर सुनेगी वह अनेकों बार
जहाँ नदियाँ करती होंगी उन्मुक्त नर्तन
प्रतिबिंब होंगे... अनचीन्हे, अबूझ
संगीत के सुर जो सजेंगे लहरों से!
तब एकाकार होंगी उसके कांतिवान चेहरे पर
उमंग और उल्लास की जीवंत संवेदनाएँ।