भारत भूमि बड़ी महिमामयि माथे भले नगराज विराजै
पाँव पखारत सिंधु अघात न कोटिन कोटिन साजन साजै
जंगल पर्वत भूषण भूषित देखि छिपै छविया भरि लाजै
गंगा की माला सुहावनि पावनि द्वार निरंतर बाजन बाजै
पर्व लगै त नहान निमित चलैं लोगवा पथ धावत आवैं
नेह में घोरल भक्ति में बोरल राग में राग मिलावत आवैं
बोलत राह करैं गुनगान कि गावत अउर बजावत आवैं
चारिउ ओर से हे मइया तोहरी जयकार मनावत आवैं
तोहइँ पाके निहाल भई खुसहाल भई एहि देस कै माटी
पुत्र फलै तोहरे अँचरा सुख पावइ नेह भरी परिपाटी
पाइ अघाइ गई तोंहके अँकवारिन में भरिके हर घाटी
पाटी के पापन कै गड़हा तोहरे बिन के भव-बंधन काटी
पानी परान औ पानी प्रतिष्ठा इहै मरजाद इहै जिनगानी
प्रीति इहै परतीति इहै अरु नीति की रीति कहाँले बखानी
ई न सधारन धार, न तै एहि धार कै बाटै सधारन पानी
ई गरिमामयि, ई महिमामयि मंगल-कारिनि गंगा भवानी
पावन नीर पड़ै जहवाँ तहवाँ हर साँस पवित्तर लागै
एही से आइ के तीर बसैं लोगवा जेहि कै हियरा अनुरागै
सोवइ सारी धरा भल ही पर गंग की धार निरंतर जागै
जीव जुड़ाय मिलै मन सोलख पाप कै ताप अन्हेरइ भागै
धार बहै जेकरे जिनिगी कै सबै रस , ऊहइ पावनि गंगा
टारत आवत कोटिन कै अघ बाटइ पाप नसावनि गंगा
जीवन बाँटत मुक्ति बिछावत धावत प्रीति बढ़ावनि गंगा
ऊ धरती बड़भागी जहाँ पर डोलति गाँवनि-गाँवनि गंगा
साप के ताप से राख भये पुरखा सुनतै भरि गइलीं गलानी
कइसे बनी गति सोचैं भगीरथ कउनी विधा इहौं तीरथ आनी
एकै उपाय हिये उपजी जवने के निमित्त लिहे प्रन ठानी
कउनिउँ जोगिम से लेइ आइब तारै बदे गंगा महरानी
जाइ भये तप में लवनीन भये तन खीन न सूझै उपाई
बइठि गये न हिलैं न डुलैं तनिको न डिगैं मन पोढ़ बनाई
बीतल सालन तउनो पै नाही हवा तनिको अनुकूल बुझाई
का होई देह अकारथ ई जउ बाप के बाप के काम न आई
भूइँ में धुइयाँ रमाई के हार गये तबहूँ मन आस न छूटै
आँखिन जोति हँसे प्रन पूरन होई , भरे विसवास न छटै
एक मिसाल बनी जगमें असरा असकै इतिहास न छूटै
देह गलै भलही पर गंग मिले तक देह की साँसन छटै
ठाढ़ भये मन में भरि भक्ति कै भाव कुभाव कै साँस न डोलै
पाथर मूरति भइलैं भगीरथ कउनिउँ दिसा से बतास न डोलै
छाइ सियापा रहै चहुँ ओर कि पास पड़ोस कै घास न डोलै
आसन इंद्र कै डोलै भले बिसवास भरी मन आस न डोलै
एकहि पाँव पै ठाढ़ भये तनिको न हिलै, पिघलैं न विधाता
डोलि उठै ब्रह्मांड तबो तनिको न दया दिखलावइँ दाता
बात रही मन में, कइसे तरिहैं पुरखा, रहै खून कै नाता
धन्य भगीरथ,छन्नि हौ कोख कि धन्नि हौ आपन भारत माता
घेरि के बादर आवइँ औ बरसै तनिको निबुसै नाहीं जानै
घोर अन्हार घिरै चहुँ ओर देखाय न हाथ , भले कर तानै
एकइ पाँव पै ठाढ़ भये प्रन ठानि भगीरथ तेजि परानै
आनि झुके बदरा परि पाँवन, जोगी भगीरथ के सनमानै
सूखि के काँट भई देहियाँ गलि के ठठरी कइ हाड़ खड़ा बा
आसन डोलल देवन कै तपसी तन देत दहाड़ खड़ा बा
देखि हिमालय के ऋषि के लगै झाड़ के सामने ताड़ खड़ा बा
बूच हिमालय के समुहे जनु ओहू से ऊँच पहाड़ खड़ा बा
पावस में बरसैं बदरा घिरि के जब बुन्नी कै तार न टूटै
काँपि पहाड़ हिलैं ढहि जायँ लगै तरु डार उघार न टूटैं
साधन हीन ऊ दीन मलीन लगै, बिसवास अपार न टूटै
देव लखैं लखतै रहि जायँ भगीरथ भक्ति विचार न टूटै
लागी रही लव ठाढ़ी रहे धरती घुमरै नभ मंडल नाचै
नाचै समीरन नाचैं दिसा कुलि देखै सने जल औ थल नाचै
आँखिन के जल में पुतली, पुतरीन में ई बह्मांडल नाचै
साँचै रहे कि भगीरथ आँखिन में बिधना कै कमंडल नाचै
देह रही गलि के ठठरी जस ठाढ़ी रही कंकाल सी काया
तउनो पै नाही हिलै तनिको न बयार छुवै तपसी तन छाया
लागी रही बस एकही टेक, रही मन में नाही आउर माया
बाउर भक्ति से सक्ति मिली मन में बस गंगा का नाम समाया
देखि दसा करुना से भरी सबही के हिये करुना भरि आई
देवन घेरि गोहार करैं अरदास करैं जयकार मनाई
राखहु लाज विधाता जू देहु धरा पर पावनि गंग बहाई
नाहीं त नाहीं रही तप कै मरजाद , हमेशा के नाँव मेटाई
देखत दीन दसा तपसी की बिधाता की आँखिन नीर न आँटै
लोर कपोलन से ढुरि के चले चारिउ आनन पीर न आँटै
आठहु नैनन फारि लखैं, तन खीन तपी तसवीर न आँटै
कीरति गाथा बढ़ी अस तीनिऊँ लोक में एक फकीर न आँटै
देवन की धुन कान परी पर ध्यान परी रही आरत भासा
बोले बिना बहुतै कहिके तपसी के मने बनि पइठलि आसा
केहू भगीरथ के रचिको न देखात दियावइ वाला दिलासा
हाल रहै मने आस कै वइसइँ जइसे कि पानी के बीच बतासा
होत निरास कबों हियरा त कबों बनि ढाढ़स धीर बँधावै
सोच उठैं छन में बिनु गंग के वापस ना मुँह जाब देखावै
बात तुरन्तै मेटाइ रहै मनवाँ तन की सुधिया बिसरावै
एकइ बात मने में समाइल, आयल बाटी मैं गंग लियावै
बाँचि लिहे बिधना मनकी गति भीतर काँपने लागे
भक्त कै लाज गई तब भक्ति कै हालत सोचि के हाँफन लागे
साप के ताप कै बात परी सुधिया बिधना तन तापन लागे
गंगा की धार धरा पहुँचै न बिलम्ब लगै छन नापन लागे
बाट निहारत देवन की अँखियाँ बहि आँसु की धार चली रे
माया मायायि रही छन में जब मोह की मारी बयार चली रे
हाथ हिलाइ झुकाइ दिहे तब नैनन ओरी निहार चली रे
एकहि बार कमंडल टोटी से छूटि के गंग की धार चली रे
धार निहारत ही तन में भरी सक्ति मने सुख आस समाई
गूँज उठी जयकारन से दिसि , भूइँ-हिया में हुलास समाई
तृप्ति हिलोरत आवत जानि के टूटत देह की साँस समाई
आवत देखिके गंग की धार के राखिन बीच पियास समाई
धार चली तब धीमी रही गति दूरी बढै गति बाढ़ति आवै
दूनी भई फिर दूनी भई फिर दूनी की दूनी ही बाढ़ति आवै
स्वर्ग से भूइँ की ओर बढ़ै विकराल बनै तन बाढ़ति आवै
नागनि सी बल खाति, लगै फुफकारति औ फनि काढ़ति आवै
चाल निहारि भये भयभीत भगीरथ जइसे ओन्हैं डँसि जाई
कउनिउ भइ अनहोनी त ई दुनिया हमरे उपराँ हँसि जाई
तारन वाली मोरे पुरुखान कै गाथा जवालन में फँसि जाई
ई गति नाहीं रुकी त इहाँ तक गंग के आये धरा धँसि जाई
सोचैं मनै मन पुन्न बिछावै कै आस रही इहाँ गंग लियाके
काजनिका बिधना के मने मोके छोडि़ दिहैं अपराधी बनाके
ठाँव कतौं न मिली जहवाँ रहि पाइब आपन लाज बचाके
जीयब कइसे बुझात न बा एहि माथे कलंक कै टीका लगा के
धारन की गति देखि के काँपन लागे न सूझइ एक उपाई
धाये भगीरथ आरत लागि, गलानि भरी पहुँचे तहँ जाई
लेइ समाधि रहे लवलीन जहाँ शिव शंकर ध्यान लगाई
बोले बिना ही बताई दिहे सगरी दुखवा ओनसे समुझाई
आसन के पजरे परि जाइ धरे भुइँ सीस न संकर जागे
साँसत में पड़ी जान न होय अकारथ कोटिक पुन्न न भागे
गंग निमित्त ही साधना लीन भये ओहिके अनुराग में पागे
छूइ लिहे पद पावन संभु के दूनउ हाथ बढाइ के आगे
पावन पाँवन के परसे तन में बिजुरी अस डोलि गई रे
टूटलि तन्द्रा हिलावत अइसन नै कपाटन खेलि गई रे
बोले नहीं मुँह खोले नहीं पै विथा अनियासइ बोलि गई रे
देही के रक्त प्रवाह में पीर भगीरथ की जनु घोलि गई रे
ठाढ़े भये पग रोपि के बाँह खुली रही अउर जटा छितरानी
जंगल की घनी झाड़न सी अलकैं जेमें आइ के गंग समानी
देखि दसा , दुख दारुन भइलैं, समाइ गई हिये आइ गलानी
मानी गुमानी सरीखी रही सोइ गंग जटान में आइ हेरानी
सीतल धार जटान पड़ी छन में सब आगि बुताइलि लागै
आँच रही विष कै एतनी सब गंग के पाइ जुड़ाइलि लागै
गंगा गई घबराइ जटान में नीर कै धार सुखइलि लागै
अउर भगीरथ की तप साधना सोच पड़ी मुरुझाइलि लागै
दाह से ताप के मुक्ति मिली तब नैनन की पुतरीन जुड़ाई
सीतलता सुख देवै लगी जनु सालन साल की आगि बुताई
ओढि़ कपाट लिहीं अँखियाँ पलकैं भईं बंद कि नीद समाई
सामने ठाढ़ भगीरथ के हियरे केहू गइलन आगि लगाई
गंग की धार जटान के जंगल आन परी परतै भरमानी
आँच रही एतनी न सहाय जरै जरिके उडि़ जात है पानी
आकुल व्याकुल सी कलटै पलटै केतनी उबियाँय न जानी
आगी में नागिन की नइयाँ कल्हराइ रहीं ओहि में छपटानी
संभु जटान में गंग हेराई भगीरथ के मने सोच समाई
धीरज छोड़इ लागलसंग उदासी भरी अँखियाँ भरि आईं
दूनहु नैन से आँसू की धार बही, बहि के मन-पीर जनाई
सालन कै तप भइलै अकारथ, काकरीं सूझत नाहिं उपाई
सोचत सोचत काँपि उठे तन की मन की सुधिया बिसरा के
आरत होइ निहारत हारत का कइली कुलि देह गला के
नाथ अनाथन के शिव शंकर भार हरैं सगरी वसुधा के
तउनो पै पीर न बूझैं त का करबै अब आगे परान बचाके
पीर के मारे अधीर भये, बिनु गंग के आगे न पाँव बढ़इबै
का कहिहैं लोगवा हमके कइसे तप कै परिणाम बतइबै
ठानि लिहे कित आज इहाँ अगबै अनहोनी के होनी बनइबै
नाहीं त एही परान तियागब आगे कतौं मुँह नाहीं देखइबै
सोच में डूबल भक्त भगीरथ के मन की गति जानै न कोई
का करीं का न करीं एही बात की पीर पलै पहिचानै न कोई
धीरज छूटत, साहस टूटत जात, विथा अनुमानै न कोई
गंग के संग परान टँगाइल बाटै निरंतर मानै न कोई
भीतर - भीतर अइसन सालत प्रान मसोसि पिराइल लागै
चैन परै नहीं, बैन न फूटइ, नैनन नींद पराइल लागै
घोर तपस्या कै ध्यान परै तब आस लता मुरझाइल लागै
बाउर आस मने कइ, बालू की भीतन सी भहराइल लागै
झंखै मनै मन सामने ठाढ़ ई गाढ़ कटी कस आवत झाईं
बोझ लगै अपनै जिनिगी अउ बैरी लगै अपनै परछाईं
सूझत नाही उपाय बेचारू के, बूझि परै नाहीं केहर जाईं
जइसे कि ऊँच पहाड़ के लाँघत सामने आवै भयावह खाईं
बोझ विथा कै लगै अस बाढ़त कइसे कहीं ई कहात न बाटै
जात छनै छन ऊ अस कै गहिरात कि कइसों थहात न बाटै
हूक उठै हियरे कई टूकइ टूक ई पीर सहात न बाटै
नैनन के दुअरे अँसुअन कै टूटत बान्ह बन्हात न बाटै
साहस छूटत, टूटत आस समीरन साँस संजोवत जालैं
भीतर भीतर ही भयभीत, समाइल पीर के ढोवत जालैं
फूटइ नाहीं बकार बेचारू के बोले बिना किछु बोवत जालैं
पातरि आस के डोरन में अँसुआन की माला पिरोवत जालैं
बोलि न पावैं केहू से भगीरथ, भीतर ही कुछ टोवन लागे
नाहीं सहाइल पीर हिये कइ आँसु अन्हेरइ बोवन लागे
केसे कहैं कुछ कइसे बुझात न, कोई करेज करोवन लागे
माथ धरे सिव के पद पंकज, आँसुन से बस धोवन लागे
आग बरै तपसी मन भीतर, कइसन, काँपत जात बिचारा
कोसत आपन भाग न सूझत कउनिउ जोगिम एक सहारा
सीस-जटान के जंगल आइ समाइल सीतल गंग की धारा
ऊहो हेराइल आँसुन आगे कि पाँवन पै परि गइलैं अँगारा
सीस की सीतलता समुझात बिलाइल, पाँवन पावक आगे
काँपि गये छन के छपटाइ के कइसे बताईं कि कइसन लागे
टूटलि तन्द्रा छनै भर में अँखियाँ उघरी शिव शंकर जागे
पाँवन के परसे तपसी दृग के अँसुवान की आगी के आगे
नाहीं उठैं अपने से भगीरथ ऊ परलैं प्रन ठानि के आगे
घीरज छूटल जात इहाँ तब का हम जाइब आन के आगे
गंगा बिना मुँह कौन देखइब लोगन बीच जहान के आगे
प्रान सरीर से छूटल चाहत छूटइ ऊ भगवान के आगे
दीन दसा लखि भक्त भगीरथ की जनु अंतर डोलन लागे
आँखिन में अँसुआ भरि अइलन शंकर मर्म टटोलन लागे
गाँठ पै गाँठ पै गाँठ परी अझुराइलि गाँठ के खोलन लागे
भक्त गढू भगवान से लागल भक्ति के भावन तोलन लागे
चाहैं उठावल भूइँ न छोड़इँ भक्त से भक्त कै भक्ति बड़ी बा
साधना आछत साध ना पूजइ भावन की अभिव्यक्ति बड़ी बा
बारहि बार प्रयास किये न उठाइ सके जनु सक्ति बड़ी बा
व्यक्ति बड़ा कि आसक्ति बड़ी अनुरक्ति बड़ी की विरक्ति बड़ी बा
कोटि उठावल चाहैं उठै नाहीं भूइँ से गोड़ सटावल बाटै
नाहीं हिलै न डुलै तनिको पद पाथर नीचे दबावत बाटै
माथ हटावत नाहीं भगीरथ पाँवन से चिपकावल बाटै
नीचे निहारत नाहीं बनै जहाँ भक्त की देह बिछावल बाटै
ताप सहात न बा तप कै तपसी जानी का करै पै तुलि गइलै
काँपि उठी सगरी देहियाँ तुरतै पट नैनन कै खुलि गइलैं
भुइयाँ निरीह की नइयाँ पड़े अस देखि दसा जिय आकुल भइलैं
बाँचि न पावैं भगीरथ के मन की गतिया, अस व्याकुल भइलैं
देखि दसा तपसी कै हिली धरती असमान भी झाँवर भइलैं
धन्नि भई जननी, सुत कीरतिवन्त जे कोख उजागर कइलैं
भक्त भगीरथ के जउने छन संभु उदार उठावइ भइलैं
भक्त की राखइ के मरजाद जहाँ भगवान खुदै झुकि गइलैं
बाँह में भक्त भगीरथ संभु के आँसुन आँसुन से नहवावैं
देव करैं जयकार अकासे से फूलन कै बरसात करावैं
देखि सबै पुरुखान की आँखिन आँसु भरै सब धन्य मनावैं
चारों दिसा से बयार उदार प्रभू शिव शंकर कै गुन गावैं
हाथ भगीरथ माथ धरे दुसरे कर सीस-जटान सवारैं
आगे किहे झटकारि लटैं फिर बान्हि के मूठी के बीच सम्हारैं
फेरत भक्त पै हाथ सदासिव नेह के भाव से खूब दुलारैं
आस बनै बिसवास एही बदे मूठी में बान्हि जटान के गारैं
फूटलि धार जटा से त ऊपर वाली उड़ी बहि जाइ अकासे
नीचे का धार धँसी धरती ऊ पताले गई जानी कइसे कहाँ से
बीच की धार बड़ी मन भावनि आइ चुई प्रभु पावन पासे
जौन कथा कयलासे रही ऊ सुधा बनि आ लिपटी बसुधा से
गोमुख से चली गंग की धार लगै जस जोति बिछावल बाटै
दूध की नइयाँ बड़ी उजरी जनु चानी कै पानी चढ़ावल बाटै
की घमवाँ के निचोरि के घोरि के घाटिन बीच बहावल बाटै
भागत धारन की गइया कबसे बछवा न पियावल बाटै
कीरति गाथा भगीरथ की बनि के जल धार कहानी कहैले
आस पुराइल तापसि कै बहि घाटिन में मनमानी कहैले
पुन्न पुरातन मुक्ति कै साधन धन्य धरा कै निसानी कहैले
तापलि औ अगियाइल भक्त कै गाथा बहाइ के पानी कहैले
गंगा भई गतिमान दिसान में गूँजल नाद जगावत आवैं
पाथर खण्ड पड़ै पथ ओहू के धारन बीच बहावत आयैं
घाटिन में उमड़ैं-घुमड़ैं कुल रोड़न के ढँगिलावत आवैं
दाबि दरेरत ठेलत ठालत पीसत रेत बनावत आवैं
राह में नार नदी झारना सअ के अपनै में मिलावत आवैं
भागीरथी छन एक रुकैं नाही पंथ में प्रीति बिछावत आवैं
जइसन राह पड़ैं ओहि के अनुकूलइ राग सुनावत आवैं
जीवन मुक्ति दियावइ खातिर गावत अउर बजावत आवैं
गंगकी धार निहारत हारत पंथ कै पाप -पहाड़ डेरालैं
संतन के मन में अनुराग कै राग उठै जिया नाहिं अघालैं
तृप्ति बहै धरती पर अइसन कोटिक कल्मष दूर परालैं
धीरजवन्तन के हियरे बस, पावन भक्ति कै भाव समालैं
धार पहाड़न से उतरी धरती पर प्रीति बिछावन लागी
पीडि़त मानवता के हिये कइ पीर अथाह मिटावन लागी
तारन की अघ टारन की अलखै भरि राह जगावन लागी
भारत भूमि के आँचर कै महिमा मरजाद बढ़ावन लागी
गंगा चलीं हिलकोरत सोर मचावत नींद हेराइल लागै
पंथ में जहु रहे तपलीन अन्हेरइ तन्द्रा बिलाइल लागै
देखैं उघारि के नैन, बहै नदिया ई गुमान भराइल लागै
पी गइलैं अँजुरी से, भगीरथ कै मनवाँ मुरुझाइल लागै
होके विनीत पड़े चरनै बिन बोले गये कुल गाथा सुनाई
पाँव बिवाई फटी जेकरे नहिं ऊ कस जाइन पीर पराई
तापलि देह पड़ी तप में, ऋषिराज हिये करुणा भरि आई
चीरि के जांघि बहा दिहलैं ओहि ठाँव से जाह्नवी नाँव धराई
नाथ अनाथन के, छवि जेकर , अइसन भागीरथी के निहारा
जे बड़भागी बड़ा जग में ओकरे दुअरे बहै गंग की धारा
पूरब जन्म कै पुन्न फरै तब जाके मिलै कहीं गंगा किनारा
का दरकार कि हेरइ जाय अन्हेरइ आउर कउनो सहारा
नासत कोटिन पापन के जहाँ देव नदी वरदानी बहैले
संस्कृति के उपकारन कै करनी बनि के जहाँ पानी बहैले
लेत न एक , अनेकन के सुख बाँटति ई बड़ी दानी बहैले
अमरित वाहिनि पावनि गंग की धार सदा जिनगानी बहैले
सीत की रात में भी केतने जन गंगा किनारे करै तप जालैं
ठार परै कि तुषार परै केतनो मन में तनिको न डेरालैं
माई की गोदि पड़े सुख बादउ जइसे कि बालक नाहिं अघालैं
ऊहै दसा अनुरागिन कै जे कि गंगामें बारह मास नहालैं
भक्ति कै धारा बहै न रुहै, बनै भक्तन के अनुराग के रेखा
तृप्ति मिलै मन, मुक्ति मिलै ई त अइसन राग विराग कै रेखा
कोखि जुड़ावन वाली बनै ममतामयी माया सुहाग कै रेखा
एके नदी समुझै न केहू ई त भारत माता के भाग कै रेखा
धन्य धरा जहवाँ सुख दायिनि गंग की धार पुनीत बहै रे
घोरल जीवन कै रसवा अति पावन पुन्न पिरीत बहै रे
रीति, सभे मिलि पूजा करै , ममता मिलि के परतीति बहै रे
आँ उघारि लखै से लगै, एहि धार में जीवन गीत बहै रे
गंग की धारन के छुइके अपनै के महान महान करैलैं
भुइयाँ से लेके अकासे ले लोग सदा जेहि के गुन गान करैलैं
लीन रहै लोगवा निसि बासर नित्य सुधा रस पान करैलैं
गाथा ओराये कै नाँव न लेत है वेद पुरान बखान करैलैं
मोहमयी ममतामयी माँ कइ कीरति मुक्ति दियावइ वाली
जे समुझै ओकरे हित कै सगरी सुख साज लियावइ वाली
हेरत प्रान पियासल प्रीति कै पावन नीर पियावइ वाली
ठोकर खात पिरात निरासा भरी जिनिगी के जियावइ वाली
जोगी जती तपसी जेकरे तट बइठे समाधि लिहे ब्रत ठानी
तीरथ आनि बसे तट पै केहि कारन , कारन का कोई जानी
कौने अमी रस की यह खानि अहै एहिके न सबै पहचानी
कोटिन कोटिन जोगिम से बड़ी गंग की धार कहाँ ले बखानी
श्रीहरि के पद कंज पखारि कमंडल मध्य धराइनि गंगा
डोलि चलीं अति वेग भरे फिर संभु जटान समाइनि गंगा
गोमुख से चलीं लाँघत पाहन सागर ले छितिराइनि गंगा
बाँटत पुन्न, बहारत पाप, सँवारत जीवन दायिनि गंगा
छोडि़के देवन लोक चलीं भल गंग इहाँ केहि कारन आईं
धन्न भगीरथ कै पुरुसारथ टारत पाप-पहारन आईं
घोर अघोरन भूइँ दबी अवनी कइ भार उतारन आईं
कोटिन कोटिन के दुख टारन, कोटिन कोटिन तारन आईं
गंग की धार गई जहवाँ तहवाँ तट के सँग तीरथ लागै
जोगी जती तपसी सबके सँगवाँ रतिया रतिया भर जागै
पाप नसात परात फिरै तन जे अनुराग के राग में पागै
भाग सराहत भूइँ अघात न, नीर छुए सगरी अघ भागै
पावनता छुइ के भइ पावन अइसन नीर कहाँ कोई पावै
एकइ बून पड़ै घट छूटत टूटत आस के फाँस लगावै
पूजा पवित्तर होइ, मिलै जल , एक निमित्त जिया जुड़वावै
जाह्नवी धन्नि तोरी महिमा मन होई निहाल सदा गुन गावै
मंगल कारिनि कष्ट निवारिनि पावनि भागीरथी महरानी
जीवन दायिनी पाप नसावनि मोहमयी मइया गुनखानी
धन्य भई धरती तोहैं पाइके हे ममतामयि देवि भवानी
मुक्ति दियावइ पापन से तोरी पावन धार कै बूँदन पानी
पुन्न मिलै जेतना जग में एहि बार हजारन तीथ जाके
नेम किहे बरती रहले अवरु अगबै धन दान कराके
भोरहिं पूजि के पावन मूरति पै फल फूल नवेद चढ़ाके
ए सबसे जेतना फल होइ, मिलै सब केवल गंग नहाके
गंगा के बीच में नाव तिरै कहीं नाव रुकी रहै लंगर डाले
गीतन के धुन में लवलीन रहै लोगवा होइ आन हवाले
ऊ सुघराई हिये में धँसी जेतनी , रचिको कहले न कहाले
पूरनमासी के गंगा की गोदी में चाँदनी में जब रात नहाले
ग्रीष्म तेज तपै तब रेतिन बीच में धार हेराइल लागै
बालू के तापन खउलत नीर कै पीर बढ़ै घबराइल लागै
ऊबत डूबत सोचन में कबहूँ बहुतै उबियाइल लागै
पानी उठावल जाय जगों गंगा बड़ी दुबराइल लागै
देखि दसा करुना से भरी नहकै नभ की अँखियाँ भरि आवैं
घेरि के मेघ करैं बरखा नदी नारन कै तरखा बढि़ आवैं
धाइ के आइके गंग गरे मिलैं भेंटि करार बड़ा सुख पावैं
भागीरथी बढि़ के छइलायँ बढ़ै गति अइसन बाढ़ मचावैं
गंगा के तीर खड़े निरखैं, लहरैं लहरात करार छुवैलीं
एक मिटै दुसरी उपटै एहि भाँति हजारन बार छुवैलीं
लाँघत नापत पानी के ऊपर धारन कै मझधार छुवैलीं
एक किनारेबयार के संग उठैं बढि़ के ओहिपार छुवैलीं
तीरन अउर कछारन कै कुल पातक धोवत टारत आवैं
पुन्न पसारत भागीरथी पथ-पापन पोंछि पछारत आवैं
भक्ति के भावन में भरले हर कोई के माई दुलारत आवैं
राह में कउनो अघी अधमौ मिलि जायँ त ओन्हैं उधारत आवैं
गंगा जहाँ से बहैं ओही ठाँव कै अइसन रुप सँवारत आवैं
पंथ में कोई गोहार करै, सुनतै छन ओके उआरत आवैं
कंटक कोटि कुचालिन कै कुलि कूँचत आवैं कचारत आवैं
बाट कै विघ्न विदारत बाढ़ में बोरत अउरू बहारत आवैं
संतन संतति खातिर माई हमेसइ जीवन घोंटी बनैले
दानिन में महादानिन से बड़ीबा जउनो पर छोटी बनैले
बात उठै मरजाद कै देस के गंगा उहाँ पर चोटी बनैले
रोजी बनै केतने जन कै केतने परिवार कै रोटी बनैले
वइसे त रोजै सवेरे सवेरे नहान करै हर नेमी चलैला
कउनो नहान परै तब गंगा के तीरे लगै जस मेला लगैला
गावत अउरू बजावत लोगन कै त अटूटइ ताँता रहैला
मान मनौती निमित्त निरंतर गंगा दुआरे बधावा बजैला
कोख जुड़ाइल आवत गंगा पुजइया बदे कुल साज सजावैं
नाचत गावत आवत गंगा पुजइया बदे कुल साज सजावैं
माँगैं पसारिके आँचर माई से , माई सबै कै जिया जुड़वावैं
अइसनं मोहक रीति इहाँ पर आरहि पार की माला चाढ़ावैं
गंगा के आवत जानि के सागर कै हियरा हुलसाइल लागै
बारहि बार हिलोर उठै भितराँ केतना अगुताइल लागै
ऊँची उठैं लहरैं हलराइ करारन से लिपटाइल लागै
ऍंड़ी उठाइ उठाइ लखै, गँगिया कतहूँ बिलमाइल लागै
गंगा की बाट निहारत सागर आस भरे पथ आँख बिछा के
भेजत बा अगवानी में कोसन ले पनियाँ लहरा लहरा के
भाग की बात बड़ी बा कि जे उपकार करै सगरी वसुधा के
धन्य करै हमैं आवत बा ऊ हमेसा बदे हियरे में समा के
सागर कै जल खार जहाँ मिलि गंग की धार न धीरज खोवै
भेंटि भरै अँकवारिन में लहरै हलराइ के प्रीति पिरोवै
गंग थकान हरै बदे सागर धारन से पद पंकज धोवै
गंगा मयायि भई अँसुआ , अँसुआन से गंगा भी सागर होवै
गंगा के आवत देखि के सागर बइठल साप कै ताप डेरालैं
पावनि धार मिलै एकरे पहिलैं कहवाँ कुल पाप परालैं
मुक्तिमयी पहुँची तबले सगरी संतापइ आप ओरालैं
गंगा कै नीर मिलै तब सिंधु में मुक्ति के मंत्र कै जाप घोरालैं
तृप्ति बिछावत मुक्ति दियावत गंगा बहैं बहतै चलि जालीं
जीवन बाँटत कल्मष छाँटत जालीं निरंतर नाहिं अघालीं
पाटत पापन कै गड़हा सुख शांति पसारि पसारि जुड़ालीं
टारन साप कै ताप कि तारन खातिर सागर जाइ समालीं
मुक्ति मिली पुरुखान के जानि भगीरथ के मन शांति समाई
जन्म सुवारथ भइलन एसे बड़ी जग में भला कौन कमाई
अइसन पुन्न बहै धरती पर पीढि़न पीढि़न कीर्ति गवाई
गंग की धार धरा पर आइ गई सरगे तक सीढ़ी लगाई
जे एतनी सुखदयिनि ओके कहीं से न पीर कोई पहुँचावै
मान बढ़ावइ वाली के पावनि धार के मान पै आँच न आवै
जीवन दायिनि धार में केहू कतौं नाहीं नार पनार मिलावै
गंगा हईं मरजाद सभे मिलि गंगा कै भी मरजाद बढ़ावै
अइसन पावनि गंगा जहाँ उहवाँ कउनो दुख काहै बसै रे
कारन जानि जिया डरिजाय अकारन ही सब लोग हँसै रे
घोरैं अमी बिच माहुर नाहक पीर उठै अनियासै डँसै रे
गंग की धार प्रदूषित होतइ पुन्न धरा कइ धाइ धँसे रे
नारन अउर पनारन से बहि अवजल गंगा में आवै न पावै
ध्यान रहै सबके ई हौ संस्कृति आपन , केहू न मइल बनावै
माई के आँचर दागी लगै नहिं ख्याल करै सब केहू बचावै
पूजत जेके इहाँ जन मानस ओमें गलीज न केहू मिलावै
पावन निर्मल पूजा की नइयाँ जहाँ मनवाँ अनुरागी लगावै
बाढ़इ राग हिये जेकरे धरती पर ऊबड़ भागी लगावै
ई, धरती महतारी कै आँचर एमें नाहीं केहू दागी लगावै
गंगा बिछावइँ सोलख , गंगा के पानी में ना केहू आगी लगावै
हे जननी जगतारिनि भागीरथी महिमामयि मातु भवानी
तोरी कृपा कइ कोर पड़ी जहवाँ उहवाँ अघ रासि ओरानी
लीन भये न मलीन रहै मन, जे लवलीन उहै रसजानी
साँच इहै बा कि तोहँइ पाइके भारत भूमि की कोख जुड़ानी
नार नदी जलधार मिलै कउनो सबके अपनावत जालू
कइसों रहै अपनाइ के ओके सदा अपनै में मिलावत जालू
पीर सबै ओरवाइ के ओकर धीर हिया में बन्हावत जालू
बाबा कै देन इहै बा तोहैं विष पीयत जालू पचावत जालू
दीन दुखी जन कै जग में तोहईं सुनली कि बनैलू सहारा
तोरे दुआरे मिलै सुख चैन कतौं नाहीं जेकर होय गुजारा
ओहू के पार लगाइउ जेकर बूड़त नाव रहै मझधारा
कोटिन कोटिन पापिन के तरलू जननी हमके न बिसारा
एकउ पूजा कै रीति न जानी मोरे पजरे कुछ साधन नाहीं
श्रद्धा के भक्ति के भावन से भरि गावत गावत तोहैं सराहीं
बा विनती एतेनै न फिरै मन , माई हो पूत कै धर्म निबाहीं
तोरे दुआरे भिखारिन सेवा सिवाय नाहीं कुछ आउर चाहीं
मोह बसाइउ हिये एतना तब आउर केकर आस लगाईं
धीरज साथ न छोड़इ, लागै पियास त धाइ पियास बुताईं
दीन मलीन औ साधन हीन भले रहीं , अउर के पास न जाईं
बा अरदास इहै मन में तोरे दास के दास कै दास कहाईं
एकइ साध रही मन में तोहरे तट एक कुटी बनवाईं
तोहैं निरंतर देखिके पूजा करीं तोहरै , तोहरै गुन गाईं
साँझ बिहान सबै दिन तोरइ पावनिधार के बीच नहाईं
तोरइ गोदी में आँचर की छँहियाँ सगरी जिनगानी बिताईं
बाँटत आवत बाटू सबै सुख हे जननी हम का तोंसे माँगीं
तोरइ पावनि प्रीति के रीति में लीन सदा तन आपन पागीं
राग बढै मन में कबहूँ तब केवल तोरइ में अनुरागीं
चाह इहै तोहरै गुन गावत तोरइ तीर परान तियागीं