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आलोचना

‘अपने-अपने अजनबी’ : पुनःपाठ

राजेंद्र प्रसाद पांडेय


आधुनिक हिंदी साहित्य में ही नहीं, भारतीय साहित्य में भी अपनी अमिट छाप छोड़ने वाले रचनाकारों में अन्यतम हैं अज्ञेय। प्रचलित कथात्मकता-प्रधान पंरपरा के विपरीत छोटी छोटी घटनाओं, परिस्थितियों और वैयक्तिक संघटनाओं के बीच एक अवकाश निकालकर बृहदाकार वैचारिकता को ला खड़ी करना अज्ञेय की कोई बड़ी उपलब्धि नहीं है, उपलब्धि तो है इस बृहदाकार वैचारिकता की छाया से पाठक को दुष्प्रभावित न होने देना। 'शेखर : एक जीवनी', 'नदी के द्वीप' और 'अपने अपने अजनबी' के अतिरिक्त लगभग अपूर्ण से 'छायामेखल', 'हेम और केतकी' जैसे उपन्यासों के सर्जन में अज्ञेय ने अपने ही ढंग से वैचारिकता की इस प्रवृ्त्ति को स्थापित करने के साथ उसे आगे बढ़ाने का कार्य किया है। दुर्भाग्यवश कथा साहित्य के कुछ कोमल मति पाठकों के लिए अज्ञेय की यह वैचारिक गरिष्ठता एक कठिनाई बन जाती है। बहुत बार तो केवल कथा-रस ढूँढ़ने वाले पाठकों को यह विचार रस बिल्कुल नहीं भाता और वे अज्ञेय के उपन्यासों से दूर भाग खड़े होते हैं। ऐसा नहीं कि अज्ञेय ने इस कठिनाई को नहीं समझा था। वह चाह कर भी अपने विचार रस से सिक्त लगभग घटना निरपेक्ष किंतु पारिस्थितिक बुद्धि प्रवाह से अपने को अलग नहीं कर पाते। वहाँ वेदना में पुनः पुनः जन्मता है लेखक। 'अपने अपने अजनबी' इसी प्रकार का एक उपन्यास है।

'अपने अपने अजनबी' कुछ आलोचकों, विचारकों की दृष्टि में हिंदी के साथ पूरे भारतीय साहित्य में अपने ढंग का अद्वितीय उपन्यास है। उपन्यास में मृत्यु को सामने पाकर कैसे प्रियजन भी अजनबी हो जाते है और अजनबी एक एक पहिचाने हुए, कैसे चरम स्थिति में मानव का सच्चा चरित्र उभर कर आता है - उसका प्रत्यय, उसका अदम्य साहस और उसका विमल अलौकिक प्रेम भी वैसे ही और उतने ही अप्रत्याशित ढंग से क्रियाशील हो उठते हैं, जैसे उसकी निम्नतर प्रवृत्तियाँ...।

'अपने अपने अजनबी' के पात्र विदेशी हैं और कहानी भी विदेश में घटित होती है, पर अपनी गहराई में उपन्यास पूर्व और पश्चिम का भी एक साक्षात्कार है। मृत्यु के प्रति जिन दो विरोधी भावों की टकराहट इसमें हैं, वास्तव में उनके पीछे पूर्व और पश्चिम की जीवन दृष्टियाँ है : वे दो दृष्टियाँ ही यहाँ मिलती हैं और मानव जीवन के एक नए आयाम का उन्मेष करती हैं।' पुस्तक के प्रारंभ में दी गई इस परिचयात्मक टिपपणी से अवगत होने के बाद इस उपन्यास को पढ़ना और उसके भीतर यात्रा करना और भी आसान हो जाता है। किंतु कदाचित् पूर्व और पश्चिम में मृत्यु के प्रति दो विरोधी भावों के टकराहट की खोज और उनकी पीछे की जीवन-दृष्टियाँ उद्घाटित करना इस उपन्यास के नए आयाम का उन्मेष नहीं कराती है, क्योंकि मृत्यु एक है और उसे पूरब और पश्चिम की भिन्न दृष्टियों से देखकर भी निष्कर्ष तो देशकाल-निरपेक्ष ही निकलेंगे। ऐसा करने से ही रचनाकार और पाठक के साथ रचना का भी भला होगा, क्योंकि आखिर रचना का काम कुछ अभिनव रचना ही है, न कि प्राच्य और पाश्चात्य विचार-सरणि के द्वंद्वों से टकराकर छिन्न-भिन्न हो जाना।

अज्ञेय की यह रचना पाठक को एक साथ परिचित और अजनबी लगती है। स्वयं लेखक ने अपने भीतर परिचय और अपरिचय की टकराहट से उठने वाले अंतर्द्वंद्वों को एक अत्यंत अजनबी और अटपटी छटपटाहट के साथ ही व्यक्त किया है। कुछ आलोचकों की दृष्टि में 'अपने अपने अजनबी' मृत्यु से साक्षात्कार का आख्यान है किंतु इसे नहीं भूला जा सकता कि मृत्यु का यह आख्यान जीवन के भीतर से ही उठा लिया गया है और रचनाकार, जो स्वयं में एक कवि भी है, बुद्धि के पैरों में जीवन के बेड़ियाँ डालकर ही मृत्यु के वैचारिक क्षेत्र की ओर अग्रसर होता है। रचनाकार की दृष्टि में मृत्यु जीवन का सबसे महत्वपूर्ण तत्व है, क्योंकि जीवन को रससमयता और अर्थवत्ता वही देती है...। किंतु जब लेखक यह कहता है - 'इस प्रकार डर ही समय की चरम माप है - प्राणों का डर...।' तो निःसंदेह रचनाकार पूर्व का होकर भी विचार-सरिण की दृष्टि से पश्चिमी अस्तित्ववाद से आक्रांत हो जाता। क्योंकि मृत्यु के प्रति ऐसा भय पूर्व का न होकर पाश्चात्य क्षेत्र का है जहाँ जीवन की अनंतता की अवधारणा नहीं है और फलतः हिंसा और आत्मघात में संक्रामकता है। फोटोग्राफर सेल्फ या बोके की मृत्यु इसी का परिणाम है।

एशिया महाद्वीप में भी लगभग विश्वस्तरीय युद्ध महाभारत के रूप में पूरी मनुष्यता को झकझोर गया था। लेकिन इस सारे संहार के उपक्रम बने लोग किस तरह टूटे थे और युद्ध के पहले से लेकर युद्ध के बाद तक कितने संवेदनशील थे, यह पूरे महाभारत में देखते ही बनता है। 'शांतिपर्व' में उसका चरम है। 'महाभारत' के युद्ध में विजेता पक्ष के प्रमुख युधिष्ठिर अपनी विजय के बाद भयानक शोक में डूब जाते हैं। किंतु दुनिया पर दो विश्वयुद्ध थोपने वाला हिटलर स्वार्थ में सिमटा रहता है और आत्महत्या कर लेता है। इस प्रकार भारतीय महायुद्ध की परिणति हिंसा की विफलता को आँकने में है, दूसरों पर मृत्यु थोपने में नहीं। पाश्चात्य विश्व-युद्धों के महानायक केवल अहम् और स्वार्थों के लिए युद्ध करते है। होमर के 'इलियड' और 'ओडिसी' में भी यही है। वहाँ मानवता का अबोध शिशु खूँरेजी के हाथों में पड़कर लगातार सिसकता है और अंततः मृत्यु भय से आक्रांत अस्तित्ववादी दर्शन को जन्म देता है। चीजें यहीं से पाश्चात्य और पौर्वात्य चिंतनसरणियों के दो विरोधी भावों को स्पष्ट कर देती हैं।

प्रो. रामस्वरूप चतुर्वेदी का कहना है कि - 'यूरोप में अस्तित्ववादी विचारधारा दो कारणों से विकसित हुई, दो महायुद्धों की विभिषिका से और बिखरती हुई परिवार व्यवस्था से। इस विचार से असहमत होने का कोई कारण नहीं दिखाई देता। महाभारत के बाद भी भारत में पारिवारिकता नहीं टूटती। गंभीर शोक में डूबे हुए युधिष्ठिर युद्ध में मारे गए समस्त लोगों का अंतिम संस्कार कराते हैं और इसमें उनके दुश्मनों के पिता धृतराष्ट्र और माता गांधारी भी युधिष्ठिर से सहयोग माँगते हैं। इस प्रकार भारतीय चिंतन-सरणी है कि मानवीयता से बढ़कर और कुछ नहीं। ('न मानुषात् श्रेष्ठतरं हि किंचित्।' -महाभारत) दूसरी ओर पाश्चात्य देशों के अस्तित्ववादी चिंतक मृत्यु के सामने बुरी तरह निढाल हो गए हैं, क्योंकि वहाँ कंधे से कंधे मिलाकर चलने वाले लोग नहीं हैं।

'अपने अपने अजनबी' में बर्फ में दबे समस्त पात्रों के पास जीवन-संसाधन तो हैं, किंतु सामने आ गई मौत के पंजों की विभीषिका लगातार बनी हुई है। मृत्यु उतनी भयानक नहीं, जितना भयानक 'मृत्यु भय' है। इस बात को समझने वाले लोग बहुत थोड़े हैं, किंतु मृत्यु भय को नजरअंदाज करने वाले लोग भारत में भारी संख्या में भरे पड़े हैं। पाश्चात्य चिंतन में जीवन की निरर्थकता और विसंगति बुरी तरह व्याप्त हो गई है। इसके विपरीत भारत में मृत्यु को एक मंगलोत्सव के रूप में माना गया है। अक्सर मरने वाले को मुक्ति मिल जाने की बात भारतवर्ष में कही जाती है। तानाशाही फासिष्टों और सर्वसत्तावादी पद्धतियों के साथ दो महायुद्धों के बीच घिरे यूरोप की मानवता ने मृत्यु के समय की अनिश्चितता को भय से काँप काँप कर झेला और किसी पेड़ पर बैठे उस बंदर की स्थिति में पहुँच गई, जो नीचे आए शेर की दहाड़ के भय से शेर के सामने आ गिरता है। इसके ठीक विपरीत वाराणसी में मणिकर्णिका श्मशान घाट पर लिखा है - 'मरणं मंगलं यत्र।' ...अर्थात् जहाँ मरना खुशी की बात है।

अपनी सारी तीव्रता और उत्कटता के साथ अस्तित्ववाद ने आधुनिक भारतीय लेखक अज्ञेय से टकराकर उन्हें एक उलझाव में ही डाल दिया है। बर्फ में घिरने की घटनाएँ भारत में भी होती हैं। लंबे समय तक बर्फ झेलने वाले क्षेत्रों में ऐसी परिस्थितियाँ बनती है, जहाँ परिवार या कबीले, दूसरे परिवार या कबीले से कट कर रह जाते हैं। किंतु पारिवारिकता की गर्मी इस ठंडक में इन लोगों के बीच जीवन की आग को प्रज्वलित रखती है। इसके विपरीत अपने तक सिमट कर असामान्य बन गए यूरोपीय लोगों में बहुत हिंसा और आत्महत्या की प्रवृत्तियाँ प्रबल बन जाती है। इस उपन्यास की पहले खंड की बुढ़िया सेल्मा खुद कहती है कि - 'बल्कि शायद मन से ईश्वर को तब तक पहचान ही नहीं सकते, जब तक मृत्यु में ही उसे न पहचान लें... इसलिए मौत ही तो ईश्वर का एकमात्र पहचाना जा सकने वाला रूप है। इस प्रकार मृत्यु में ईश्वर का रूप खोजना भी अस्तित्ववादी दार्शनिकता का दुष्परिणाम है। बुढ़िया यह भी अनुभव करती है कि - भगवान् के सिवा मेरे पास कुछ भी नहीं है ओढ़ने को।' यहाँ पर अज्ञेय से भी पाश्चात्य विचारों में बहकर एक और भूल हो सकती थी कि मृत्यु ही जीवन को निरर्थक और विसंगत बनाती है। जबकि अज्ञेय ने स्पष्ट किया है कि नश्वरता ही जीवन को रसमय और सार्थक बनाती है।

यह पूरा का पूरा उपन्यास पाश्चात्य परिवेश में गढ़ा है। पूरे उपन्यास में सेल्मा की देह से छूटने वाली मृत्यु-गंध व्याप्त है तो दूसरी ओर योके द्वारा मौत और ईश्वर से प्रतिशोध में की गई आत्महत्या एक सत्रास की अनुगूँज से आक्रांत करती है। मृत्यु की संभाव्यता हमारी संवेदनाओं को कितनी गहराई देती है और संवेदनाओं से लैस होकर ही हम इस मृत्यु को कितनी नजदीकी से छू सकते है, सहला सकते है, यह इस उपन्यास के द्वारा निर्मित पारिस्थितिक साक्ष्यों का साध्य है।

योके ने सोचा था कि सेल्मा ही मृत्यु के ठंडे हिमपंजों में अंतिम साँसें लेती हुई सबको मौत की ओर लिए जा रही है, किंतु होता इसके उल्टा है। योके स्वयं भी बाद में आत्महत्या कर लेती है और बर्फ को भी कँपा देने वाले इस ठंडे परिवेश में जगन्नाथ(न्) के गर्म हाथ ही सहारा देने को आते हैं। जबकि मरणासन्न सेल्मा के लिए वह डायरी में लिखती है - उसे देखते देखते मेरा मन होता है कि जोर से चीखूँ कि जलती हुई लकड़ी उठाकर उसकी कलाइयों पर दे मारूँ, जिससे आग को असीसने का दुस्साहस करनेवाला हाथ नीचे गिर जाए - एकाएक जिसके सदमे से उसकी हृदयगति बंद हो जाए।' वह आगे लिखती है - 'उसके स्वर में ये चिड़चिड़ापन था, उफ्। उससे मुझे कितनी तृप्ति मिली। तो बुढ़िया का कवच भी नीरंध्र नहीं है, कहीं उसमें भी टूट है - कहीं न कहीं वह भी मृत्यु से डरेगी और रिरियाकर कहेगी कि नहीं, मैं मरना नहीं चाहती। एक प्रबल दुर्दमनीय उल्लास, एक विजय का गर्व मेरे भीतर उमड़ आया।' इस प्रकार का व्यक्तिवाद और उसके प्रभाव से उपजी हिंसात्मकता भी पाश्चात्य अस्तित्ववादी चिंतन-सरणि की देन है, जिसमें अज्ञेय की आस्था और आस्तिकता उलझकर नहीं रह गई है बल्कि अज्ञेय ने बड़ी खूबसूरती से यहाँ भारतीय चिंतन के हाथों का सहारा देकर सब कुछ को गढ़ा है इसीलिए तो छोटे से उपन्यास में भी वह एक भारतीय (जगन्नाथन्) को उपस्थित करते हैं और उसकी न कुछ सी लगती भूमिका भारतीय विचारों को भूमिगत और छापेमार ढंग से उपस्थित करती है।

परिस्थितियों में उलझी योके ने सेल्मा की मृत्यु होने पर सोचा था - ईश्वर भी शायद स्वेच्छाचारी नहीं है - उसे भी सृष्टि करनी ही है, क्योंकि उन्माद से बचने के लिए सृजन अनिवार्य है। वह सृष्टि नहीं करेगा तो पागल हो जाएगा ...क्या यही रहस्य था, जिसका कुछ आभास सेल्मा को मिला था - कि वरण की स्वतंत्रता नहीं है, लेकिन रचना फिर भी संभव है और उसमें ही मुक्ति है? पुनः सृष्टि के लिए सेल्मा की मृत्यु का औचित्य सिद्ध करने वाली योक की तर्कशक्ति तब छिन्न-भिन्न होकर रह जाती है, जब वह स्वयं अपने शहर के युद्धग्रस्त होने पर आत्महत्या कर लेती है। इस प्रकार अज्ञेय कई बार पाश्चात्य जीवन दृष्टि के यथार्थ को हमारे सामने सरका कर उसमें अंतर्निहित खोखलों को निर्ममता के साथ उजागर करते गए हैं।

अज्ञेय चिंतन के क्रम में अज्ञेय 'अपने अपने अजनबी' में एक आस्था का नन्हा विरवा रोपते हैं उसे अपने परिस्थितिजन्य तर्कों से गोंड़ सींच कर बड़ा भी बनाते हैं। रामस्वरूप चर्तुवेदी कहते हैं कि - 'अपने अपने अजनबी' में लेखक की आस्था का रूप निखरता और थिरता दिखाई देता है। ...ईश्वर का प्रमाण उसकी रचना की विराटता है, जो आगे के मानवीय सर्जनात्मक संचरण को संभव बनाती है। लेखक की आस्था के इस नवीन आयाम के पीछे उसकी यूरोप यात्रा विशेषतः 'पिएर-क्वि-वीर' मठ में निवास और जापान की जेन पद्धति का भी सूक्ष्म प्रभाव देखा जा सकता है। 'अपने अपने अजनबी' में ईसाई आस्था और सहिष्णुता का अस्तित्व रूप वर्णन के स्तर पर तो है ही, सर्जन के स्तर पर भी झलकता जान पड़ता है - एक प्रेरक शक्ति के रूप में लेखक की निजी आस्था को और गहरा करता हुआ।' इस प्रकार मृत्यु के सामीप्य के द्वारा जीवन को और बेहतर ढंग से समझने का उपक्रम है 'अपने अपने अजनबी' और इसमें भारतीय जीवन दृष्टि के (हिंदू, बौद्ध) के साथ क्रिश्चयनिटी के धार्मिक हविष्यों की सुगंध गलकर मृत्यु-गंध को उदात्त बनाया गया है। अपने विचार मंथन में इस विकट ऊहापोह में रचनाकार ने कुछ अद्भुत विचार पुष्प खिलाए हैं जिनमें से कुछ को हम उद्धृत करते हैं -

'क्यों उसे तकलीफ होती देखकर मुझे संतोष होता है? लेकिन तकलीफ तो शायद उसे बराबर रहती है - क्योंकि उसे तकलीफ से टूटते हुए देखकर मुझे तसल्ली होती है? कितना कमीना है यह संतोष, जो दूसरों को हारते और टूटते हुए देख कर संतुष्ट होता है - क्या यह एक अत्यंत विकृत ढंग की जिजीविषा नहीं है?' (पृ. 47) यहाँ पर भी अज्ञेय की सारी छटपटाहट दूसरों के लिए स्वयं के समर्पण की भारतीय दृष्टि में प्रतिफलित है। 'बर्फ के नीचे दब कर मर जाना भी मर जाना है। लेकिन वह दबकर मरना तो है। उस में कार्य कारण की संगति तो है। लेकिन यह बिना दबे, बिना बर्फ को छुए भी है। तुक मर जाना - मानो हमारे जीवन के अनुभव का अपमान करना है और हम मरने पर भी अनुभव का खंडन सहने को तैयार नहीं हैं।' (पृ. 63) यह उद्धरण भी अहं को मारने की भारतीय अवधारणा को ही स्थापित करने वाला ही है।

'समय नापने के कई तरीके हैं। एक घड़ी का है, जो शायद सबसे घटिया तरीका है, क्योंकि उसका अनुभव से कम से कम संबंध है। दूसरा तरीका दिन और रात का है, सूर्योदय और सूर्यास्त का, प्रकाश और अँधेरे का और इन से बँधी हुई अपनी भूख प्यास, निद्रास्फूर्ति का है। यह यंत्र के समय को नहीं, अनुभ्श्राव के समय को नापने का तरीका, इसलिए कुछ अधिक सच्चा और यथार्थ है। फिर एक तरीका है, घरघराते पानी में बहते हुए भँवरों को गिन कर और उनके ताल पर बहती हुई साँसों को गिन कर समय को नापने का तरीका। यह और भी गहरे अनुभव का तरीका है, क्योंकि यह समय के अनुभव को जीवन के अनुभव के निकटतर लाता है।' (पृ. 80) यहाँ पर अज्ञेय का रचनाकार अनुभव की प्रामाणिकता के प्रति अपनी अडिग आस्था ही प्रकट करता है। यह भी उसकी व्यक्तिगत नहीं, भारतीय पारंपरिक उपलब्धि है। लेकिन 'दृश्य उसकी आँखों के आगे थोड़े ही था, जो परदा खींचने से हट जाता। वह जिधर मुड़ा उधर भी वही दृश्य था, क्योंकि वह उस की आँखों के सामने नहीं, आँखों के भीतर था।' (पृ. 89) भारत में एक प्रचलित दार्शनिक अवधारणा है कि बुद्धि के गुण का आरोप हो वस्तु पर कर लेते है। (बुद्धिगुणं वस्तुनि कल्पमंति) इसे ही उसे काव्यात्मकता के साथ उपस्थित करते हैं।

'काले, गोरे, और भूरे चेहरे, काले, लाल, पीले, भूरे, गेहुएँ, सुनहले और धुले बाल, रंग पुते और रूखे खुड्ढे चेहरे। चुन्नटदार, इस्तरी किए हुए और सलवट पड़े हुए कपड़े : चमकीले और कीच सने चरमराते या फटफटाते या घिसराते हुए जूते। और चेहरों में, आँखों में, कपड़ों में, सिर से पैर तक हर अंग की क्रिया में निर्मम जीवेषणा का भाव मानो वह दुकान सौदे सुलुफ या रसद की दुकान नहीं है बल्कि मानो जीवन की ही दुकान है।' (पृ.118) इस उद्धरण में जीवन का दुकान के रूप में अवमूल्यन करके केवल इस जीवन को अपमानित किया गया है, जो केवल जीवन संसाधनों की खोज में रिरियाता रहता है। अज्ञेय की वह शैली विशुद्ध भारतीय है और यह जीवन दृष्टि भी विशुद्ध भारतीय है किंतु है यह अमुखर, प्रच्छन्न और ठंड से जकड़ देने वाले हिमनद जैसी।

मुझे लगता है कि अपने अपने अजनबी में अज्ञेय में बार बार भारतीय पारंपरिक विचारों के समक्ष पाश्चात्य चिंतन की धुनाई की है, किंतु अपनी भाषा को संतों की तरह साफ कर और अस्पष्टता के माध्यम से इसे संध्या भाषा की तरह अमारक बनाए रख कर। उपन्यास के इन पक्षों पर लोगों का ध्यान न जाना चिंतनीय है।

अज्ञेय ने 'अपने अपने अजनबी' की भाषा को तत्सम बहुल शब्दों की अपेक्षा तद्भव बहुल और देशज शब्दों वाली बना कर अपनी पूर्व परिचित भाषा को अपने आभिजात्य के क्षितिज से उतार कर जन सामान्य के बीच पहुँचाया है। इसीलिए यह भाषा सपाटबयानी और खुलेपन का अनुसरण करती है। बोलचाल के सहज और ठेठ देशज शब्द भी इसमें उपस्थित है। एक ढंग से यह रचना लेखक को एक अभिनव सृजनात्मकता से समृद्ध बना देती है, क्योंकि वह सहजता से असहज की अभिव्यक्ति का रास्ता इस रचना के क्षेत्र में पा लेता है। विचार जितने अपरिचित और चौंकाने वाले हैं, भाषा उतनी ही परिचित और आश्वस्तिकर है। एक उद्धरण देखिए - 'जीवन सदा ही वह अंतिम क्लेश है, जो और जिसका साझा करना ही होगा' जीवन जलाकर पकाया गया है, जीवन देकर खरीदा गया है, अपने को बहुत कुछ तोड़ा फोड़ा और अपने में बहुत कुछ जोड़ा है। उन्होंने यहाँ उपन्यास में कहानी का रंग भरा है और उपन्यास के भीतर कविता भी घटित की है। उन्होंने अपनी इस रचना मे उपन्यास को पूरी तरह घटित न करके संभावनाओं के अनंत द्वार खोले हैं, अपने लिए और रचना का पाठ करने वालों के लिए। रचना में शुरू से अंत तक सन्नाटे के बीच का तनाव, उसके भीतर एक करुण संगीत की तरह बजता है, जो लगभग घटनाहीन किंतु पारिस्थितिक दबाव से भरे परिवेश में पाठक को तंद्रिल सांवेदनिक आस्वाद में डूबता है और बारी बार उठने वाले विचारों की लहरों से झकझोर खुलता है। इसलिए अपने लघु कलेवर में यह उपन्यास बृहदाकार वैचारिक कैनवास की सृष्टि करता है।

संदर्भ-सूची

1. अज्ञेय की आधुनिक रचना की समस्या - डॉ. राम स्वरूप चतुर्वेदी, पृ. 90

2. वही

3. वही पृ. 95


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