अज्ञेय को कुशीनगर बहुत प्रिय था। लोग उस कुशीनगर को जानते हैं, जहाँ बुद्ध का महापरिनिर्वाण हुआ था, जहाँ सुभद (सुभद्र) को अंतिम दीक्षा मिली थी, जहाँ उनके शव को पाने के लिए आठ राज्यों की सेनाएँ आपस में युद्ध के लिए सन्नद्ध हो गई थीं, जहाँ उनका चक्रवर्ती सम्राट की तरह दाह-संस्कार हुआ था और आठ भागों में उनकी अस्थियों के फूल बाँटे गए थे। लेकिन वह मृण्मय कुशीनगर हैं, जो इतिहास में है। एक चिन्मय कुशीनगर भी है, जो इतिहास में नहीं है। मृण्मय में द्रष्टा होता है, दृष्टि होती है, दृश्य होते हैं। उसमें द्रष्टा के अनुभव को कहा जा सकता है। लेकिन चिन्मय को कैसे कहा जाए? कौन कहेगा? कैसे कहेगा? किससे कहेगा? वहाँ तो कुछ है ही नहीं। उसमें तो तन्मय ही हुआ जा सकता है, डूबा और विसर्जित हुआ जा सकता है।
मृण्मय कुशीनगर के पुरातत्व शिविर में वे पैदा हुए, लेकिन जीवन भर चिन्मय की खोज चलती रही। इसीलिए वे बार-बार यहाँ आते रहे मौन का रहस्य जानने, शून्य को धारण करने, आत्म की स्रोतस्वनी के उत्स को खोजने। नदी का द्वीप बनकर, नदी, उन्हें वृहद् भूखंड से मिलाती थी, वृहद् भूखंड, जो उनका पितर था। आत्म की यही स्रोतस्वनी उनकी सत्ता के अगाध रस-भंडार से निःसृत होकर, शून्य में सन्नाटे को बुनती हुई, उसी चिन्मय, अनुभूति-नियंत्रित समाधिमय महासत्ता के समुद्र में विलीन हो जाती है। 'नदी' और 'सागर' अज्ञेय के प्रिय प्रतीक हैं। मूल स्रोत से सागर तक और सागर से मूल स्रोत तक - एक ही सत्ता है जो अनादि है, अनंत है। मूल स्रोत भी वही सागर है, जो नदियों के शून्य जल-भंडार को भरने के लिए अपने जल को वाष्प बनाकर आकाश में पहुँचाता है और वे मेघ बनकर नदी को भर देते हैं। नदी के सृजन और विसर्जन का कारण सागर है। एकता, प्राणमय एकता ही सबका सार है। इसी एकता के वे अन्वेषी थे। नदी से सागर तक का प्रवाह जीवन का प्रवाह था।
इसीलिए वे किसी एक केंद्र से बँधे नहीं थे। कुशीनगर से जो जीवन-यात्रा शुरू हुई थी वह दिल्ली के जन-समुद्र में विलीन हुई। कुशीनगर, मेरठ, आगरा, कलकत्ता, पूर्वोत्तर-भारत, इलाहाबाद, फिर दिल्ली-बीच-बीच में लंबे विदेश-प्रवास लेकिन उनका घर होते हुए भी कहीं नहीं था। उनके भीतर भी घर की खोज चल रही थी। इसी खोज-यात्रा में वे बार-बार कुशीनगर आते रहे। सन् 1973 मैंने उन्हें दीक्षांत भाषण देने के लिए बुद्ध महाविद्यालय में आमंत्रित किया। एक वर्ष पूर्व महादेवी वर्मा दीक्षांत समारोह की मुख्य अतिथि थीं और उन्होंने अपने भाषण से श्रोता समूह को सम्मोहित कर लिया था। इस वर्ष सब अज्ञेय को सुनना चाहते थे।
मैं वहीं हिंदी विभाग में प्राध्यापक था। मेरे प्राचार्य ने अज्ञेय को बुलाने और कुशीनगर में उनके स्वागत का दायित्व मुझे सौंप दिया। अज्ञेय को गोरखपुर एयरपोर्ट पर रिसीव कर मैं कुशीनगर ला रहा था तो उन्होंने मुझसे पूछा कि 'दीक्षांत समारोह में क्या गोरखपुर विश्वविद्यालय के कुलपति बालकृष्ण राव भी आएँगे'? मैंने जवाब दिया कि 'वे ही दीक्षांत समारोह की अध्यक्षता करेंगे'।
दूसरे दिन सब राव साहब पथिक निवास आए, जहाँ अज्ञेय ठहरे हुए थे। दोनों इलाहाबाद की चर्चा में डूब गए। राव साहब ही ज्यादा बोल रहे थे, अज्ञेय कभी-कभी कोई टीप लगा देते थे। इलाहाबादी संस्कृति पर चर्चा होते-होते बात संस्कृति पर आई। राव साहब ने कहा कि हिंदुस्तान साक्षर हो रहा है, अपनी संस्कृति को समझने लगा है। अज्ञेय ने रोका और कहा कि हमारा देश सदियों से श्रुति परंपरा में पला है, काला अक्षर भले ही उसके लिए भैंस बराबर हो, पर वाणी की जो उज्जवल मूर्ति उसके स्मृति-पटल पर जगमगाती रही है वह उसे अंधकार भरे जीवन में भी राह दिखाती रही है, सार्थकता और अंतःसमृद्धि देती रही है। साक्षरता नए प्रकार के निरक्षर पैदा कर रही है। निरक्षरा के लिए संस्कृति स्वभाव है, साक्षर के लिए अध्ययन का एक विषय।
अज्ञेय ने दीक्षांत समारोह में अद्भुत भाषण दिया। निस्तब्ध होकर लोग सुनते रहे। उन्होंने व्याख्यान का समापन करते हुए कहा, 'आप देश के लोक समाज को साक्षर बनाने के काम में लगें या न लगें, लेकिन यह दायित्व तो आप पर आ ही गया है कि लोक -समाज की समृद्धि के उस आधार को विघटित न होने दें, उस संस्कारिता की लौ को न बुझने दें। यह धारा है, स्रोत है - वह जीवनदायी अमृत का स्रोत ही नहीं, उस आलोक का भी स्रोत है जिसके बिना अमृत की भी पहचान नहीं होती।'
लोक समाज के प्रति उनकी आस्था का प्रमाण दूसरे ही दिन मिल गया। कुलपति राव साहब अगले दिन पुनः अज्ञेय से मिलने आए। आते ही कहा, 'वात्स्यायन जी, मेरी इच्छा है कि कल विश्वविद्यालय में आप का काव्य-पाठ या व्याख्यान हो। कब समय दे रहे हैं?
वात्स्यायन जी चुप। राव साहब ने प्रश्न दुहराया, 'मेरी इच्छा है...'। फिर चुप। तीसरी बार प्रश्न दुहराया गया, 'मेरी इच्छा है...'।
अज्ञेय की चुप्पी टूटी, 'आपकी इच्छा हो सकती है! मैं तीन दिन के बाद दिल्ली जा रहा हूँ। वहाँ संपर्क करिए। देखेंगे! अच्छा, नमस्कार!' बात समाप्त। अज्ञेय के हाथ जुड़ गए। अवाक् राव साहब चले गए।
उसी दिन शाम को हम शिक्षाशास्त्र के एक प्राध्यापक के घर भोजन करने गए। अज्ञेय ने मुझसे किसी के घर भोजन की व्यवस्था करने को कहा था, क्योंकि तीन-सितारा पथिक निवास का भोजन उन्हें पसंद नहीं आया था।
उस प्राध्यापक के यहाँ पहले से ही दस-पंद्रह ग्रामीण लोग इकट्ठे होकर बतरस का आनंद ने रहे थे। अज्ञेय चौकी पर पालथी मारकर बैठ गए।
'अज्ञेय जी, कोई कविता सुनाइए।' एक ग्रामीण ने माँग की।
मैं तो स्तब्ध रह गया। कहीं अज्ञेय नाराज होकर उठ न जाएँ। राव साहब को सवेरे दिया गया उत्तर मुझे बार-बार याद आ रहा था।
'देखिए, मेरे पास अपना कोई कविता-संकलन नहीं है और कविताएँ नहीं हैं।' अज्ञेय ने मुस्कराते हुए कहा।
इस बीच एक सज्जन चुपके से निकले और अपने आवास से 'सुनहले शैवाल' की प्रति लाकर रख दी।
अज्ञेय ने पुस्तक हाथ में ली और डेढ़ घंटें तक काव्यपाठ करते रहे। कुशीनगर की उस शांत संध्या में गूँजते हुए अज्ञेय के स्वर में जो आत्मीयता थी, जो पीड़ा थी, उसके जादू में हम न जाने किस लोक में पहुँच गए थे। संध्या के उस धुँधलके में जैसे प्रकाश का एक वलय स्वरों के पंखों पर उतर आया हो और हर श्रोता की आँख गीली हो गई थी। कवि के स्वर, शाम का सन्नाटा और झरती ओस ने सबको जैसे सम्मोहित कर दिया था।
लौटते वक्त मैंने पूछा, 'अज्ञेय जी, वह आपका श्रोतावर्ग नहीं था। मैं माफी माँगता हूँ।'
'इसकी आवश्यकता नहीं है। वही श्रोतावर्ग मेरी कविताओं का आधार है और उन्हीं की चेतना मेरी रचना-भूमि है। मैं तो कृतज्ञ हूँ आपका कि आप मुझे वहाँ ले गए।' अज्ञेय बोले।
मेरे गुरू पं. विद्यानिवास मिश्र का आदेश मिला कि 'अज्ञेय जी का पैंसठवाँ जन्मदिन हम लोग कुशीनगर में मनाएँगे, वहीं, जहाँ उनका जन्म हुआ था। तैयारी शुरू कर दो।
इस बार कॉलेज का दीक्षांत समारोह तो था नहीं कि सारी व्यवस्था कॉलेज करता। सूचना मिली कि समारोह की अध्यक्षता पं. श्रीनारायण चतुर्वेदी करेंगे और अज्ञेय की बड़ी बहन तो आ रही हैं। भवानीप्रसाद मिश्र, लोठार लुस्से, डॉ. रघुवंश, जगदीश गुप्त, रामस्वरूप चतुर्वेदी, रामकमल राय, केदारनाथ सिंह आदि भी साथ रहेंगे।
हम लोग सहकारी व्यवस्था में जुट गए। कहीं से ईंट कहीं से रोड़ा लेकर कार्यक्रम का कुनबा तैयार किया गया। आकाशवाणी ने कार की व्यवस्था कर दी, मित्रों ने आवास की, कॉलेज ने निःशुल्क अपना हॉल दे दिया। कुछ लोगों ने भोजन का जिम्मा लिया। मार्ग-व्यय की व्यवस्था करनी नहीं थी, क्योंकि सभी लोग अपने संसाधनों से आ रहे थे।
सहयोग माँगने हम लोग प्रदेश के एक वरिष्ठ नेता के घर गए और अनुरोध किया कि कार्यक्रम के बाद वे सबको जलपान कराने की व्यवस्था कर दें। वे सहर्ष तैयार हो गए, लेकिन उन्होंने इच्छा व्यक्त की कि वह आयोजन कुशीनगर के समारोह-स्थल पर नहीं, उनकी कोठी के लॉन पर होगा। उन्होंने यह भी कहा कि प्रस्तावित अज्ञेय संस्थान के लिए वे दस हजार रूपए की सहयोग राशि भी देंगे।
7 मोर्च को सभी लोग जुटे। बड़ी बहन सत्यवती जी ने वह स्थान दिखाया जहाँ वह शिविर लगा था और जिसमें 7 मार्च सन् 1911 को अज्ञेय का जन्म हुआ था। सभी ने वहाँ शाल के एक-एक पौधे को रोपा, फिर मुख्य कार्यक्रम के लिए हॉल में पहुँचे। अज्ञेय ने चतुर्वेदी जी और बड़ी बहन के चरण-स्पर्श किए और कार्यक्रम आरंभ हुआ। अज्ञेय की बगल में बैठे विद्यानिवास जी ने घोषणा की कि भाषण केवल उन्हीं का होगा, जो कवि नहीं हैं, जो कवि है वे काव्य-पाठ के द्वारा आदरांजलि देंगे। केदार जी, परमानंद श्रीवास्तव, भवानी भाई, विश्वनाथ प्रसाद तिवारी, राहगीर, अनंत मिश्र ने अपनी कविताएँ सुनाई, बाकी ने अज्ञेय के कवि-कर्म और व्यक्तित्व पर व्याख्यान दिए, चतुर्वेदी जी ने आशीर्वाद दिया और अज्ञेय के भाव विभोर होकर दिए गए आभार के बाद कार्यक्रम समाप्त हो गया।
इसके बाद उस नेता के घर आना था जलपान के लिए। हम लोग बाहर निकले तो आकाशवाणी की कार नहीं थी। उसी से दो कि.मी. दूर नेताजी की कोठी में पहुँचना था। विवश होकर मैंने सर मजीठिया से अनुरोध किया कि वे अपनी मर्सिडीज से तीन-चार खेप में सबको वहाँ पहुँचा दें। चौरासी वर्षीय मजीठिया साहब से यह अनुरोध करते हुए संकोच हो रहा था, लेकिन कोई दूसरा विकल्प भी नहीं था।
मजीठिया साहब ने प्रसन्नता से प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया और पहली खेप में अज्ञेय, भवानी भाई, विद्यानिवास मिश्र को स्वयं लेकर कसया पहुँचे, नेताजी की कोठी पर। चार-पाँच चक्कर में सब पहुँच गए।
लॉन में बड़े करीने से जलपान की व्यवस्था की गई थी। जब सब लोग बैठ गए, नाश्ता लग गया तो नेताजी ने अज्ञेय से अनुरोध किया कि 'वात्स्यायन जी, शुरू करें।'
अज्ञेय बहुत गंभीर थे। न उन्होंने नेताजी की ओर देखा, न नाश्ता शुरू किया।
अनुरोध बार-बार दुहराया गया। अज्ञेय चुप्प तो चुप्प।
अचानक वे खड़े हो गए और धीरे से कहा, 'चलिए, बाहर चलें।
सब उठ खड़े हुए - बिना एक कण छुए। नेताजी स्तब्ध। हम सब स्तब्ध।
बाहर आकर उन्होंने कहा, 'चलिए, किसी दुकान में जलपान किया जाए।'
मेरे मित्र, कवि-कथाकार और उस समय वहाँ के एस.डी.एम. राजेंद्र प्रसाद पांडेय साथ में ही थे। उन्होंने कहा, 'बगल में उनका घर है, वहीं जलपान हो।' हम सब अज्ञेय की मौन सहमति पाकर उनके आवास में चले गए। राजेंद्र का परिवार उस समय नहीं था। अज्ञेय के प्रस्ताव पर सबने मिलकर नाश्ता बनाया। इलाजी, ओमवतीजी रसोई में गई, अज्ञेय के नेतृत्व में लोगों ने आलू काटा, मटर के दाने निकाले, धनिया की पत्ती तैयार की और समूह-भोज का आनंद लिया।
दूसरे दिन अज्ञेय ने मुझे बुलाया और कहा, 'मेरे नाम पर बननेवाले संस्थान के लिए उस नेता के द्वारा दी जानेवाली जिस सहयोग राशि की आप चर्चा कर रहे थे, वह आप नहीं लेंगे। इसकी सूचना आप उन्हें दे दें।'
'आप नहीं चाहते हैं तो वह सहयोग राशि हम नहीं लेंगे। लेकिन कल आप जलपान की टेबल से उठ क्यों गए? बहुत बुरा माना होगा उन्होंने।'
'मानने दें। जो आदमी अपने घर आए बुजुर्ग का सम्मान नहीं कर सकता, उसके यहाँ जलपान कैसे किया जा सकता है?' इतना कहकर वे मौन हो गए।
मैं भवानी भाई के पास गया, यह पूछने कि, 'जब पहली खेप में वे अज्ञेय के साथ पहुँचे तो हुआ क्या था? क्या उनका या अज्ञेय जी का अपमान किसी ने कर दिया?
'अरे, नहीं भैया! वह हम लोगों का अपमान क्या करेगा? तुमने जिस कार में हम लोगों को भेजा था, वहाँ उतरते ही वह आदमी वयोवृद्ध मजीठिया साहब से कहा-सुनी करता रहा। उसने यह भी कह दिया कि आप अज्ञेयजी के बहाने हमारे परिसर में कैसे आ गए? मजीठिया साहब तो सज्जन आदमी है, सुनकर मुस्कराते रहे, लेकिन भाई गंभीर हो गए। तभी मुझे लग गया कि कुछ-न-कुछ होकर रहेगा। वही हुआ भी।'
अज्ञेय की शालीन सामाजिकता और गहरी संवेदना ने नेताजी के अशालीन व्यवहार को अपने मौन से जो उत्तर दिया, उससे हम अवाक थे। अपने प्रति व्यक्त किए जा रहे सम्मान का उनके लिए कोई अर्थ नहीं था। उनकी भावभूमि कठोर यथार्थ और उतने ही कठोर आदर्श के बीच झूला झूलनेवाली भावभूमि थी।
सन् 1978 के जाड़ों में अज्ञेय फिर कुशीनगर आए। इस बार अकेले आए। उस क्षेत्र के एक प्रसिद्ध उद्योगपति ने बंबई वि.वि. से अज्ञेय के उपन्यासों पर शोध किया था। वे मिलने आए और दूसरे दिन दोपहर के भोजन के लिए उन्हें अपने आवास पर आमंत्रित किया।
अज्ञेय जी ने उत्तर दिया, 'अरुणेश जी से पूछिए'। फिर एक लंबी चुप्पी के बाद, 'जैसा वे चाहें।'
दूसरे दिन उनके घर जाते हुए कार में मैंने पूछा, 'वात्स्यायन जी, आपातकाल में हम इतने कायर क्यों हो गए थे? खास कर लेखक और पत्रकार? आप भी देश छोड़कर चले गए। लौटे तो इमरजेंसी उठ जाने के बाद।'
'चलिए, अच्छा ही हुआ। सबकी पोल खुल गई।' अज्ञेय बोले।
'आप भी तो चुप रहे।'
'चुप की भी एक दहाड़ होती है और अधिनायक अगर उसे सुन सकता है तो उसी से उसकी नींद हराम हो जाती है।' उसी के अगले माह 'नए प्रतीक' का संपादकीय देखकर मैं चौंक गया। शीर्षक था - 'चुप की दहाड़'।
उद्योगपति के यहाँ शानदार भोजन की व्यवस्था थी। अज्ञेय के सम्मान में क्षेत्र के दस-पंद्रह अतिविशिष्ट जनों को भी आमंत्रित किया गया था। डाइनिंग टेबल पर अज्ञेय के लिए चाँदी का डिनर-सेट रखा हुआ था और फूलों से कमरा महक रहा था।
जब भोजन के लिए आमंत्रित किया गया तो अज्ञेय उठे और कोने की टेबल पर रखी स्टील की प्लेट ली, उसमें खाना रखा और एक कुर्सी का कुशन खींचकर जमीन पर बैठकर खाने लगे। उपस्थित जनों ने भी उनका अनुसरण किया और सब जमीन पर बैठ गए। सारा आभिजात्य छिन्न-भिन्न हो गया। चाँदी का डिनर-सेट पड़ा रह गया।
यह अज्ञेय का अहं नहीं, वास्तव में उनका कवच था - उन मूल्यों को बचाने का साधन भी, जो नष्ट हो रहे हैं, जिन्हें जान-बूझकर आधुनिकता, प्रगति और युग-धर्म के नाम पर नष्ट किया जा रहा है।
अंतिम बार अज्ञेय अपनी मृत्यु के दो माह पहले कुशीनगर आए। उनके साथ भगवतीशरण सिंह, विद्यानिवास मिश्र और दुर्गावती सिंह थे। दुर्गावती सिंह द्वारा अज्ञेय पर बनाए जा रहे वृत्तचित्र की शूटिंग के सिलसिले में आए थे।
महापरिनिर्वाण मंदिर के सामने अज्ञेय खड़े हैं, मौन में कुछ बोलते हुए। सूर्य उगता है और उसकी पहली किरण मंदिर पर पड़ती है, फिर उतरकर अज्ञेय को आलोकित कर देती है। दुर्गावती जी बोलती हैं - 'कट'। रह जाते हैं हाथ हिलाते पत्ते, शरमीली सुबह, सन्नाटा बुनती हवा और अकेलेपन का वैभव। आँखे बुद्ध की मूर्ति निहार रही हैं, जैसे वे विगतागत के, वर्तमान के पदमकोश महाबुद्ध को जीवन का नैवेद्य समर्पित कर रहे हों। उन फूलों के द्वारा, जो अँजुरी में नहीं हैं, भिन्न-भिन्न बनों-उपवनों में अपनी डाली पर खिले हैं। जिस कली को जहाँ पर खिलना है, वह वहीं खिली हुई है। हे महाबुद्ध! जो भी सुख जिस डाली पर पल्लवित और पुलकित हुआ है, मैं उसे वहीं पर अक्षत, अनाघ्रात (बिना सूँघे हुए), अछूते और निर्मल रूप से तुम्हें अर्पित करता हूँ।